गति और तकनीकी विकास में सूचनाओं का महत्व

कल्पना मनोरमा

सावधान! सूचनाओं में शांति, धर्म, अहिंसा, सन्मार्ग, आनंद और ऐश्वर्य तलाशती दुनिया को मालूम होना चाहिए कि सूचना मात्र जानकारी, इत्तिला, नोटिस, विज्ञापन, प्रतिवेदन भर है। स्थाई समाधान नहीं। स्थायित्व की चाहना रखने वालों को सूचनाओं के इतर सोचना, देखना और समझना होगा।
‘रोटी कपड़ा और मकान’ आदमी की मूलभूत ज़रूरतें हैं। इन्हीं तीन के फेर में चकरघिन्नी बने आदमी को हमेशा दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती रही हैं। इस में कोई दो राय नहीं। कम से कम भारतीय नागरिकों के सामने रोटी के जुटान में पेंचीदगी का आलम हमेशा बना ही रहा है। आज भी आय के न्यूनतम साधनों में जीवन यापन करने वालों की भारत में कोई कमी नहीं। जिन्हें अपने और अपनों का जीवन उगने और फलने-फूलने लायक बनाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। बावजूद इसके आधुनिक विकसित काल में इन तीन ज़रूरी तथ्यात्मक साधनों को जुटाने में जटिलता कम नहीं हुई बल्कि अब कठिनाइयों का ग्राफ इंसान के कद से ऊँचा उठ गया है।
आज इंसान के सामने सूचनाओं के अंबार में से अपने लायक उपयुक्त सूचना तलाश लेने की बड़ी चुनौती है। ऐसे में अगर कोई व्यक्ति गलत सूचनाओं के फेर में पड़ जाए तो वह अपने जीवन की यात्रा वैसे ही बना लेता है, जैसे- फ्लाई ऑवर पर एक गलत टर्न लेने से मिनटों की यात्रा घंटों में परिवर्तित कर मुसाफ़िर सही मुकाम पर पहुँचने से चूककर चुक जाता है।
‘सूचना’ शब्द तब भी शायद इतना महत्वपूर्ण न बन पड़ा होगा जब इसे खोजा गया होगा। कहा जाता है कि यह आकस्मिक व सामान्य ‘सूचना’ शब्द 20वीं सदी की शुरुआत में लैटिन मूल इन्फोर्मेम “रूपरेखा या विचार” से गढ़ा गया था और आज मायाजाल की तरह नहीं, अमरबेल की तरह इंसानों के ऊपर पसर चुका है।
समाजशास्त्री कहते हैं कि सामाजीकरण (Socialization) के लिए सूचना का महत्व उतना ही जरूरी है जितना अन्य क्रियान्वयन…। क्योंकि सुन्दर समाज बनाने की प्रक्रिया जटिल है। इसके गठन में किसी एक प्रकार की भूमिका या विधि से काम नहीं चल सकता। सामाजीकरण की प्रक्रिया में मनुष्य के व्यवहार व्यवस्था में स्थिरता और पूर्वानुमेयता पैदा करने के लिए सामाजिक नियंत्रण शामिल है, और इन प्रक्रियाओं में सूचनाओं का महत्व अपनी तरह काम करता है। समाज अपनी सुगंध और संस्कृति को बनाये और बचाए रखने के लिए सूचनाओं को तरजीह देता है। सामाजिक प्रविधियों के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी विशेष भूमिका निभाने वाले व्यक्तियों के अपेक्षित व्यवहार, मूल्यों, मानदंडों और सामाजिक कौशल को सीखने की चल रही प्रक्रिया को सीखा जा सकता है। सूचनाओं के माध्यम से मनुष्य समाज के विभिन्न व्यवहार, रीति-रिवाज़, गतिविधियाँ इत्यादि को एक से दूसरे तक पहुँचाता रहा है। जैविक अस्तित्व से सामाजिक अस्तित्व में मनुष्य का रूपांतरण भी सामाजीकरण के माध्यम से ही होता है। और सूचना सामाजीकरण में सहयोगी साबित होती आ रही है।
धर्म के चार स्तंभ सत्य, तप, पवित्रता एवं दान बताए गए हैं। इन्हीं पर इंसानी जीवन की छत टिकी होती है लेकिन आज सूचना का महत्व जीवन से ज्यादा दिख रहा है। दिन-रात इंसान के कान से लग कर कोई न कोई बोलता जा रहा है। पहले भी लोग हाथों में अखबार और कान से रेडियो लगाए फिरते रहते थे लेकिन तब सूचनाओं में सत्य की प्रामाणिकता कौतुहल से ज्यादा होती थी। दाल में नमक भर कौतुहल मिलाकर उसे रोचक बनाया जाता था।ताकि पाठक को आनंद आये और वह मुद्दे की बात तक पहुँच सके। लेकिन अब सूचनाओं में सब उलट चुका है। अब दाल में नमक भर सत्यता मिल जाए तो बहुत बड़ी बात होगी। जबकि सूचना ज्ञान, संचार और मूल्य व गुणवत्ता निर्धारण का महत्वपूर्ण स्रोत है। इस माध्यम से व्यक्तियों और समाज के प्रति अवगत कराकर निर्णय लेने में मदद करता है। वर्तमान समय में सूचनाओं में सत्य की कसौटी बिना जाँचे अगर फेर में पड़ गए तो हालत क्या होती है….सब जानते और समझते हैं। बताने की आवश्यकता नहीं।  
सूचना के समानधर्मी शब्द डेटा, तथ्य, बुद्धिमत्ता, सलाह को माना जाता है। क्या आज की सूचनाओं में इन सभी का समावेश दिखता है? कभी-कभी लगता है कि इंसान को सूचना की जरूरत पड़ी ही क्यों? लेकिन फिर लगता है कि सूचना जनता का अधिकार है और यह इंसान को सूचित कर आगाह करने, जानकारी देने की एक कामयाब विधि है। कहा जाता है कि सूचना के मद्देनज़र भ्रष्टाचार के खिलाफ 2005 में एक अधिनियम लागू किया गया, जिसे सूचना का अधिकार यानी आरटीआई कहा गया। इसके अंतर्गत कोई भी नागरिक किसी भी सरकारी विभाग से कभी भी और कोई भी जानकारी ले सकता है। शर्त बस इतनी कि आरटीआई के तहत पूछी जाने वाली जानकारी तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए। क्या इस बात को माना जा रहा है?
आज धरती से लेकर आसमान तक बस खबरें ही ख़बरें सुनाई-दिखाई पड़ रही हैं। प्रचारित खबरों में न गुणवत्ता की परवाह है, न तथ्यों की कसौटियाँ, न गोपनीयता और न अखंडता के प्रति प्रतिबद्धताएँ । न ही जनमानस के आगे परोसी जा रही सूचनाओं में किसी भी प्रकार के सिद्धान्ताकी की कोई गुंजाइश समझ आती। जबकि सूचना सुरक्षा के मूल सिद्धांत गोपनीयता, अखंडता और उपलब्धता है। गोपनीयता के सिद्धांत का उद्देश्य व्यक्तिगत जानकारी को उजागर न करते हुए किसी की निजता को निजी रखना होता है। यह सिद्धांत ये सुनिश्चित करना है कि दी जा रही सूचना केवल उन व्यक्तियों के लिए दृश्यमान होगी  जिन्हें संगठनात्मक कार्यों को करने के लिए इसकी आवश्यकता होगी।
वर्तमान समय में सूचना सुरक्षा खतरों की सैकड़ों श्रेणियाँ और लाखों ज्ञात खतरे हैं। आज सिर्फ राजनीति ही नहीं, उद्यम, सुरक्षा, स्वास्थ्य, धर्म, मनोरंजन, शादी-ब्याह आदि के प्रति आधी-अधूरी सूचनाएँ खतरे के निशान के ऊपर उपलब्ध हैं। गति और तकनीकी विकास के महान दौर में सुरक्षा उपायों में हर व्यक्ति यानी शहरी, ग्रामीण, व्यवसायी, नौकरीपेशा, किसान, मेहनतकश यहाँ तक भिक्षा के माध्यम से जीवन-यापन करने वालों को भी कम-ज्यादा समझौते करने पड़ रहे हैं। कौन कब ठगी के जाल में फँस जाए,किसी को नहीं पता।
तुलसीदास ने मन की तुलना पीपल के पत्तों से की है। मन को इसी तरह से होना भी चाहिए। मन का स्थूल होना जीवन को कीचड़ के समान बना देता है। जिस तरह पुरवा, पछुआ, दक्खिनी, उत्तरायणी माने तनिक सी भी हवा के सिहरन से पीपल के पत्ते डोल उठते हैं, हमारे मन को भी इसी तरह संवेदनशील होना चाहिए। लेकिन पीपल के सादगी भरे लेन-देन उच्छृंखल नहीं, सुगठित होते हैं। सूचनाओं के इस महान समय में क्या हम इस बात को ठीक से समझ पा रहे हैं?
क्या हम अपने आस-पास दुष्प्रचार फैलाने से कम से कम अपने को रोक पा रहे हैं? या दुष्प्रचार के इस अमानवीय समय में अपनों को समझा पा रहे हैं कि हर एक सूचना को सत्य, तप, पवित्रता एवं दान की कसौटी पर देखने के बाद, सबसे बड़ा धर्म मानवता पर कस कर देखने के वे पक्षधर बने रहें ? आख़िर हम चाहते क्या हैं? क्या कभी इस प्रश्न को सोचते हैं?
अंत में बस इतना ही कि सूचनाओं का यह महान दौर जो भड़भूजे की तरह हमें भून देने पर आमादा है, हमारी तैयारी क्या होनी चाहिए? और कितनी होनी चाहिए? क्योंकि सही सूचनाओं से ही कुछ उपयोगी विमश हो सकता है, अन्यथा समय की बर्बादी पर लगाम लगानी होगी। इंसान को समझना होगा कि वर्तमान में परोसी जा रहीं सूचनाएँ, उसके लिए कितनी उपयोगी और कितनी अनुपयोगी हैं। किन-किन सूचनाओं का स्वागत करना चाहिए और किन का बहिष्कार। विकास के मोह में फँसा जीवन अब हंस-विवेक की माँग कर रहा है।

(लेखिका साहित्यकार, विचारक एवं सेवानिवृत्त अध्यापिका हैं।)