माया के मारे

जीटी रोड पर सफर करते हुए गाजियाबाद से करीब सात किलोमीटर आगे अचानक आपको एक विशाल पार्क और हेलीपैड नजर आते हैं. हाईवे से कटती एक खूब चौड़ी सड़क भी दिखती है. काम जिस भव्य स्तर पर चल रहा है उससे एकबारगी भ्रम होता है कि यहां शायद कोई बड़ा शहर बसाया जा रहा है. मगर यह सूबे की मुख्यमंत्री मायावती का अपना गांव बादलपुर है.

इलाके में थोड़ी देर घूमने के बाद यहां चल रहे निर्माण की भव्यता का ठीक-ठीक अंदाजा होता है. बड़े-बड़े पार्क, चौड़ी सड़क, हेलीपैड, ग्रीन बेल्ट और इस सबके बीच कई एकड़ जमीन पर बन रही एक भव्य कोठी. यह कोठी सूबे की मुख्यमंत्री मायावती की है. पूछा जा सकता है कि इसमें क्या खास बात है? क्या सूबे की मुख्यमंत्री अपने लिए कोठी नहीं बनवा सकतीं? और पार्क, ग्रीनबेल्ट या चौड़ी सड़कों पर भला किसी को क्या एतराज हो सकता है?

‘जमीन खरीदना गुनाह नहीं लेकिन यह कहां का न्याय है कि कोठी के लिए कई परिवार सड़क पर खड़े कर दिए जाएं?’लेकिन एतराज है और सबसे ज्यादा बादलपुर गांव के लोगों को है. इसलिए क्योंकि सूबे की मुखिया के इस आशियाने के लिए गांव के कई परिवार सड़क पर आ गए हैं. दरअसल इस कोठी के बनने की कहानी ही कई तरह के गंभीर सवालों से भरी पड़ी है. इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि जनता के पैसे से बनाए गए जिन विशाल पार्कों, हेलीपैड और ग्रीन बेल्ट का जिक्र ऊपर हुआ है उनके निर्माण का उद्देश्य सिर्फ यही लगता है कि इस कोठी की खूबसूरती में चार चांद लग सकें. विडंबना देखिए कि इस काम के लिए भूअधिग्रहण कानून की आड़ ली गई. अर्जेंसी क्लॉज के अंतर्गत औद्योगिक विकास के नाम पर जमीनें अधिगृहीत करके लोगों को यह आभास दिया गया कि उनकी जमीन पर उद्योग लगेंगे और उन्हें रोजगार मिलेगा. लेकिन उद्योगों की जगह पार्क, हेलीपैड आदि बनने लगे. इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री की कोठी के लिए उस नहर को भी खत्म कर दिया गया जिससे बादलपुर सहित कई गांवों के किसान अपने खेत सींचते थे.

बादलपुर गांव की सूरत देखकर पहली नजर में लगता है कि प्रदेश में सबसे अधिक विकास यहीं हुआ है और यहां के बाशिंदे बेहद खुशहाल होंगे. लेकिन किसानों से बातचीत के बाद यह भ्रम दूर हो जाता है. जो किसान 2007 के पहले तक अपनी गांव की बेटी के खिलाफ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं होते थे वही आज मदद मांग रहे हैं. नाम न छापने की शर्त पर एक किसान बताते हैं, ’10-12 साल पहले तक गांव में बहन जी या उनके परिवार के नाम एक इंच जमीन भी नहीं थी. आज उनके पास गांव में कई बीघे जमीन है जो यहीं के किसानों से खरीदी गई. जमीन खरीदना कोई गुनाह नहीं लेकिन यह कहां का न्याय है कि सिर्फ उन्हीं की कोठी के लिए पूरे गांव के परिवार सड़क पर खड़े कर दिए जाएं?’

मुख्यमंत्री की कोठी के लिए किसानों से खरीदी गई जमीन हो या पार्क, हेलीपैड आदि के लिए सरकार द्वारा अधिगृहीत जमीन, सब में जमकर पहुंच व ताकत का प्रयोग करते हुए नियमों को दरकिनार किया गया. पहले बात करते हैं कोठी के लिए खरीदी गई जमीन की. बादलपुर गांव के बाहर तीन मार्च, 2005 को भगवत प्रसाद से करीब डेढ़ बीघा जमीन मायावती के नाम खरीदी गई. उसी दिन रतीराम से भी करीब पांच बीघा जमीन मायावती के नाम से कागजों में दर्ज हुई. इसके  बाद अगस्त, 2005 में करीब दो बीघा जमीन और मायावती के नाम दर्ज हुई. अगस्त में खरीदी गई जमीन गांव के ही अजीत पुत्र किशन लाल से ली गई. सभी में खरीददार मायावती का पता सी-57 इंद्रपुरी, नई दिल्ली दिखाया गया था. पूरी जमीन कृषि योग्य भूमि थी. इन जमीनों के लिए स्टांप शुल्क मिलाकर करीब 47 लाख रुपये अदा किए गए.

इन जमीनों की खरीद में खरीददार तो मायावती को दिखाया गया है लेकिन मुख्त्यारेआम उनके भाई आनंद कुमार पुत्र प्रभुदयाल निवासी बी-182, सेक्टर 44 नोएडा को बनाया गया है. सभी जमीनों के बैनामों में भी मायावती के स्थान पर आनंद का ही फोटो लगाया गया है. यहां तक तो जो कुछ भी हुआ वह नियम-कानूनों के दायरे में किया गया. लेकिन इसके बाद इस जमीन को लेकर जो खेल शुरू हुआ उसका खामियाजा पूरे गांव के किसानों को अभी तक उठाना पड़ रहा है. कैसे? आइए जानते हैं.

सवाल यह उठता है कि 2005 में मायावती व उनके पिता की ओर से जो शपथपत्र दिया गया था क्या वह झूठा था

लाखों रुपये मूल्य की कृषि योग्य कई बीघा जमीन खरीदने के बाद 2005 के अंत में मायावती की ओर से जमीन का भूउपयोग परिवर्तित करने के लिए जमींदारी उन्मूलन अधिनियम की धारा 143 के तहत दादरी तहसील में एक वाद दायर किया गया. वाद दायर करते समय शपथ पत्र (जिसकी एक प्रति तहलका के पास भी है) देकर बताया गया कि उपर्युक्त खेत संख्या 400, 395 व 396 के आसपास आबादी क्षेत्र है. यह भी कहा गया कि जो जमीन खरीदी गई है उस पर काफी समय से कृषि, पशुपालन या मत्स्य पालन का कार्य नहीं हुआ है. भूमि पर बाउंड्री हो रही है तथा निर्माण कार्य चल रहा है. जिस समय जमीन खरीदी गई और उसके भूपरिवर्तन के लिए वाद दायर किया गया उस समय प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. इसके बावजूद राजनीतिक रसूख का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि न्यायालय उपजिलाधिकारी दादरी की ओर से मई, 2006 में उक्त जमीनों को गैरकृषि उपयोग के लिए अनुमति प्रदान कर दी गई जिस पर भव्य कोठी का निर्माण अब लगभग पूरा हो चुका है.

कोठी के लिए जमीन खरीद कर भूउपयोग के परिवर्तन का खेल सिर्फ मायावती ने ही नहीं खेला. जिस स्थान पर कोठी बनी है वहां की कई बीघा जमीन उनके पिता प्रभुदयाल के नाम पर भी है. भूउपयोग के परिवर्तन के लिए मायावती के साथ ही प्रभुदयाल की ओर से भी वाद दायर किया गया. बादलपुर के किसान बताते हैं कि जिस जगह को आबादी की जमीन बताते हुए शपथ पत्र दिया गया वहां लोग आसपास अपनी खेती करते थे. इसके प्रमाण आज भी कोठी के आसपास मौजूद हैं कि वहां आबादी दर्ज नहीं थी. जिस स्थान पर ग्रीन बेल्ट बनाई गई है वहां एक-दो लोग खेतों में ही मकान बना कर रहने लगे थे जो आज भी मौजूद हैं. उन लोगों ने कभी अपना भूउपयोग बदलवाया ही नहीं था.

राजनीतिक रसूख के आगे शपथपत्र का झूठ और अधिकारियों की कारगुजारी शायद ही कभी उजागर हो पाती. लेकिन मई, 2007 में मायावती के चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के एक माह छह दिन बाद 20 जून को सरकार की ओर से बादलपुर की 232 हेक्टेयर जमीन के अधिग्रहण के लिए धारा 4 का नोटिस जारी किया गया. इसके बाद ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण ने अधिग्रहण का काम शुरू किया. जिस स्थान पर कृषि योग्य भूमि का भूपरिवर्तन करा कर कोठी बनाई जा रही है उसे छोड़ कर आसपास का पूरा क्षेत्र अधिगृहीत कर लिया गया. नियमों के अनुसार आबादी क्षेत्र का अधिग्रहण विषम परिस्थितियों में ही किया जा सकता है, लिहाजा कोठी जिस स्थान पर बनी है उसे पूरा छोड़ दिया गया और आसपास की कृषि योग्य उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया. 
अब सवाल उठता है कि मायावती ने जब 2005 में ही अपने शपथपत्र में यह बता कर अपना भूउपयोग परिवर्तित कराया था कि आसपास आबादी है तो मुख्यमंत्री बनने के बाद अचानक प्राधिकरण ने औद्योगिक विकास के नाम पर आबादी की जमीनों का अधिग्रहण करके पार्क बनाना कैसे शुरू कर दिया. किसानों की लड़ाई लड़ रहे वकील एसी नागर कहते हैं, ‘जमीनों का अधिग्रहण आपात प्रावधान यानी अरजेंसी क्लॉज लगाकर किया गया था. तो क्या पार्क, ग्रीन बेल्ट, सड़क, हेलीपैड सहित कोठी की खूबसूरती बढ़ाने वाली इमारतें बनाने के लिए अरजेंसी क्लॉज लगाया गया? दूसरा सवाल यह है कि यदि प्राधिकरण ने कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण किया है तो मायावती व उनके पिता की ओर से जो शपथपत्र दिया गया था क्या वह झूठा था.’  नागर का आरोप है कि कोठी की सुंदरता बढ़ाने के लिए ही औद्योगिक विकास के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीन लेकर उसमें पार्क आदि बनाए जा रहे हैं जबकि तीन साल में ली गई जमीन पर एक भी उद्योग स्थापित नहीं हुआ है. इस बारे में बात करने पर ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण के सीईओ रमा रमण कहते हैं कि मास्टर प्लान में बादलपुर की अधिग्रहीत जमीनों पर किसी तरह का उद्योग स्थापित करने की योजना नहीं है. उनके मुताबिक जिस जगह पर पार्क आदि बनाया जा रहा है वह कृषि योग्य भूमि थी. सीईओ का यह बयान मायावती के उस शपथ पत्र को कटघरे में खड़ा करता है जिसके मुताबिक कोठी के आसपास आबादी थी.

बादलपुर में जब कोई उद्योग आदि स्थापित नहीं होना है तो सरकार को अर्जेन्सी क्लास में जमीनों का अधिग्रहण करने की आवश्यकता क्यों पड़ गई. इस सवाल के जवाब में बादलपुर के राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त करतार सिंह कहते हैं, ‘पूरे हिन्दुस्तान में जमीनों का अधिग्रहण अर्जेन्सी क्लास में ही हो रहा है, ऐसे में बादलपुर में भी हो गया तो इसमें हर्ज ही क्या है.’ जिस जगह कोठी बनी है उसके आसपास की औद्योगिक विकास के नाम पर ली गई जमीन पर एक पार्क करीब 91 हजार वर्ग मीटर तथा दूसरा 35 हजार वर्ग मीटर में बन रहा है. कोठी से लगे करीब 50 हजार वर्ग मीटर के प्लाॅट पर प्राधिकरण की ओर से अभी सिर्फ दीवार ही खींची जा रही है. इस प्लॉट में कोठी की ओर से एक लोहे का गेट खोला गया है. गांव के एक किसान कहते हैं, ‘सरकारी जमीन पर अपनी कोठी से गेट लगाना इस बात का संकेत है कि आज नहीं तो कल ये जमीन भी मुख्यमंत्री व उनके परिवार के कब्जे में चली जाएगी.’

पार्कों की खूबसूरती में चार चांद लगाने के लिए 60 मीटर चौड़ी रोड भी बना दी गई है. पार्कों से सटी हुई कोठी से कुछ दूरी पर किसानों की जमीन पर ही हेलीपैड भी तैयार किया जा रहा है. कोठी की सुंदरता बढ़ाने के लिए सरकार ने जमीन लेकर सिर्फ दो पार्क ही नहीं बनाए बल्कि कोठी के सामने कई बीघे जमीन पर ग्रीन बेल्ट भी तैयार कर दी जिसमें हजारों की संख्या में पेड़ लगाए गए हैं. जिन खेतों का सरकार ने ग्रीन बेल्ट के लिए अधिग्रहण किया है उनमें, जैसा कि ऊपर बताया गया है,  एक-दो मकान भी बने हुए हैं लिहाजा कागजों में उनका अधिग्रहण भी हो गया है. लेकिन खेत में मकान बना कर रह रहे किसान वहां से हटने को तैयार नहीं. उन्हीं में से एक परिवार है लेह में तैनात सेना के सूबेदार विजेंद्र सिंह का. विजेंद्र के भाई भगत सिंह कहते हैं, ‘सरकार सेना में कार्यरत जवानों को सुविधाएं देती है लेकिन यहां तो जबरन इसलिए उजाड़ा जा रहा है कि मुख्यमंत्री की कोठी की शोभा न खराब हो.’ भगत आगे बताते हैं, ‘पौने तीन बीघे में बने मकान व हाते का सरकार ने अधिग्रहण भले कर लिया है लेकिन हमने मुआवजा अभी तक नहीं उठाया है. मुआवजा उठाने के लिए कई बार प्रशासनिक अधिकारियों व पुलिस ने दबाव बनाया लेकिन जब सफल नहीं हुए तो घर के आसपास डेढ़ महीने तक पीएसी लगा दी गई. जिसके कारण घर की महिलाओं व बच्चों तक का निकलना मुश्किल हो गया था.’ सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए भगत कहते हैं कि जब औद्योगिक विकास के नाम पर सरकार पूरे गांव के किसानों के खेत व आबादी का अधिग्रहण कर रही है तो बीच में मुख्यमंत्री की कोठी कैसे बच रही है.

प्रदेश के दूसरे गांवों में होने वाले विकास कार्यों में अधिकारी कितनी रुचि लेते हैं यह जगजाहिर है, लेकिन बादलपुर में बन रहे पार्क के लिए अधिकारियों की तत्परता देखते बनती है. कई अधिकारी दिन भर कैंप करके काम को पूरा कराने में लगे हैं. राज्य स्तर के अधिकारी भी समय-समय पर गांव पहुंच कर कार्य की प्रगति का जायजा लेते रहते हैं. पुलिस की तीन-चार जीपें और जिप्सी भी चारों ओर गश्त करती दिखती हैं. गांववाले बताते हैं कि सड़क से निकलते समय कोठी के सामने रुककर बात करना या उसकी ओर देखना भी पुलिसवालों की नजर में किसी अपराध से कम नहीं होता.

मुख्यमंत्री की कोठी के चक्कर में बादलपुर ही नहीं, आसपास के गांवों के किसान भी पिस रहे हैं. बादलपुर के बाहर से निकलने वाली नहर से एक छोटी नहर सिंचाई के लिए निकली थी. इससे बादलपुर सहित अछेजा, सादुल्लापुर व सचिन पायलट के गांव वैदपुरा के किसान अपनी सैकड़ों बीघे जमीन की सिंचाई करते थे. छोटी नहर बादलपुर में जिन खेतों के बीच से निकलती थी वहां निर्माण कार्य हो जाने के कारण पूरी तरह बंद हो गई है. जिस जगह से नहर निकली थी वहां सड़क बनाने का काम चल रहा है. मुख्यमंत्री की कोठी के पीछे से होते हुए नहर आगे के गांवों को जाती थी. लेकिन वहां बड़ा फव्वारा बनाने का काम चल रहा है लिहाजा उसके आसपास भी नहर को बंद कर दिया गया. आगे चल कर इसी नहर के ऊपर से 60 मीटर चौड़ी सड़क बना दी गई जो पार्क के सामने से होकर गुजरती है. बादलपुर में इस नहर के अवशेष कहीं-कहीं दिख जाते हैं. सादुल्लापुर के किसान करतार सिंह कहते हैं, ‘हमारी जमीन साल में तीन फसलें देती थी. लेकिन सिंचाई का साधन बंद हो जाने के कारण कई बीघे खेतों में पिछले डेढ़ साल से किसी फसल की पैदावार नहीं हो पा रही है.’ अछेजा के किसान चरनजीत बताते हैं, ‘गांव की करीब 500 बीघे जमीन की सिंचाई बादलपुर से आने वाली छोटी नहर से होती थी. नहर बंद होने के कारण बड़े किसानों ने तो ट्यूबवेल की बोरिंग करा कर काम शुरू किया है लेकिन छोटे किसानों की जमीन या तो खाली पड़ी रहती है या दूसरे के ट्यूबवेल से पानी खरीदकर वे सिंचाई करने को मजबूर हैं. डीजल भी महंगा है. ऐसे में 150 रुपये प्रतिघंटे के हिसाब से दूसरे के पंप सेट से पानी लेकर सिंचाई करना किसानों को काफी महंगा पड़ता है.’ चरनजीत बताते हैं कि प्रशासनिक अधिकारियों को कई बार पत्र लिखकर व मिलकर इस समस्या से अवगत कराया गया लेकिन जैसे ही उन्हें पता चलता है कि मामला बादलपुर से जुड़ा है वे ग्रामीणों को भगा देते हैं. वे कहते हैं, ‘जब पड़ोसी गांव की मुख्यमंत्री ही ऐसा करवा रही हो तो किसान अपनी समस्या लेकर कहां जाए.’

ग्रामीणों में बगावत की यह चिंगारी मायावती के चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद तब शुरू हुई जब अधिग्रहण के लिए नोटिस जारी हुआ. लेकिन अधिकारियों ने इस बगावत को भरसक प्रयास करके दबाए रखा. गांव के एक संपन्न किसान जगदीश नंबरदार कहते हैं, ‘गांव में हास्पिटल, गर्ल्स डिग्री कालेज, पोलिटेक्निक, गेस्ट हाउस आदि के लिए इससे पहले भी सभी ने स्वेच्छा से जमीन  दी थी. तब कोई अधिग्रहण की कार्रवाई कराने की जरूरत ही सरकार को नहीं हुई. हमें भी पता है कि गांव की बेटी मुख्यमंत्री है तो उसकी प्रतिष्ठा में इतना सब कुछ करने को किसान सक्षम है. लेकिन इस बार जब महज इसलिए पूरे गांव की जमीन जाने लगी कि कोठी के आसपास पार्क आदि बनाए जाएंगे तो विरोध शुरू हुआ.’ जमीन बचाने के लिए किसानों ने अगस्त, 2007 में सर्वदलीय बैठक करके विरोध जताया. नंबरदार बताते हैं कि बैठक के बाद गांव के करीब 20 किसान मुख्यमंत्री से मिलने के लिए लखनऊ भी गए लेकिन अधिकारियों ने मिलने नहीं दिया. वे कहते हैं, ‘किसान मुख्यमंत्री से बस इतना जानने के लिए गए थे कि जमीन विकास के किस काम के लिए उपयोग की जाएगी ये पता चलते ही हम स्वेच्छा से जमीन दे देंगे. लेकिन सरकार के पास विकास का कोई प्लान ही नहीं था जो वह किसानों को बता सकती, लिहाजा हमें मुख्यमंत्री से दूर ही रखा गया.’

किसानों के विरोध की जानकारी जब लखनऊ पहुंची तो अधिग्रहण रुक गया. नंबरदार कहते हैं, ‘किसानों को लगा कि शायद बहन जी को हमारी समस्या समझ में आ गई लेकिन 2008 में अचानक अधिकारियों ने अधिग्रहण शुरू कर दिया. फिर विरोध शुरू किया तो डराने-धमकाने के लिए घर पर पीएसी का पहरा बैठा दिया गया. रात-रात भर अधिकारी आकर जमीन देने के लिए दबाव बनाने लगे. कई दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा.’ इसी बीच कुछ प्रशासनिक अधिकारियों ने आकर बताया कि किसानों से कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह मिलना चाहते हैं. अधिकारियों ने शताब्दी से छह किसानों के प्रतिनििधमंडल को लखनऊ भेजा. नंबरदार के साथ किसानों के संघर्ष की अगुवाई कर रहे वीर सिंह कहते हैं, ‘कैबिनेट सेक्रेटरी ने बैठक में इस मांग पर सहमति जताई कि 25 प्रतिशत जमीन छोड़ दी जाएगी साथ ही जहां आबादी है उस जमीन को भी सरकार नहीं लेगी. किसानों को लगा चलो कुछ तो हासिल हुआ. लेकिन यहां भी सरकार खेल करने से नहीं चूकी. अधिग्रहण की मार गांव के करीब 1,014 किसानों पर पड़ी थी लेकिन 25 प्रतिशत जमीन छोड़े जाने का लाभ महज 168 किसानों को दिया गया. शेष 846 किसानों को 850 रुपये प्रति वर्ग मीटर मुआवजा देकर शांत करा दिया गया.’ 

846 किसानों को जब मालूम हुआ कि कुछ लोगों को 25 प्रतिशत जमीन का लाभ दिया गया है तो उन्होंने नए सिरे से आंदोलन शुरू किया. सरकारी उपेक्षा का शिकार हुए किसान ज्ञानी सिंह कहते हैं, ‘जिन लोगों को यह लाभ मिला उनके साथ हम भी आंदोलनरत थे लेकिन उसी बीच हम जैसे छोटे किसानों को बसपा सरकार से जुड़े सांसद, विधायक व अधिकारियों ने इतना डरा-धमका दिया कि वे मुआवजा उठाने को मजबूर हो गए.’ ज्ञानी का आरोप है कि राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त गांव के ही एक बसपा नेता व कुछ और लोगों ने यहां तक धमकाया कि अगर मुआवजा नहीं उठाओगे तो सरकार मुफ्त में जमीन ले लेगी. उनके मुताबिक पुलिस अधिकारी घर आकर धमकाते थे कि जमीन दे दो नहीं तो जेल में सड़ा दिए जाओगे. ज्ञानी कहते हैं, ‘ परिजनों की सुरक्षा को लेकर चिंता होती थी क्योंकि जिन लोगों के खिलाफ हम आंदोलन कर रहे थे वे धन-बल दोनों में ही हमसे काफी ताकतवर थे.’
जिन किसानों के साथ सरकार ने दोहरी नीति अपनाई वे आज पूरी तरह आंदोलनरत हैं. अपने ही गांव की मुख्यमंत्री होने के बावजूद सरकार से न्याय की उम्मीद खो चुके किसानों ने अब हाई कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया है. किसान ऋषिपाल बताते हैं, ‘अब हमारी मांग 25 प्रतिशत जमीन छोड़े जाने के साथ मुआवजा बढ़ाए जाने की भी है क्योंकि सरकार ने 850 रुपये वर्ग मीटर के हिसाब से मुआवजा दिया है जबकि सर्किल रेट ही 1,000 रुपये वर्ग मीटर का है. सरकार ने सर्किल रेट से भी कम का भुगतान देकर गरीब किसानों के पेट पर लात मारी है.’

बादलपुर में शासन-सत्ता के आगे छोटे-बड़े किसी भी किसान की एक नहीं सुनी गई, यह दर्द गांव के पूर्व प्रधान चैतराम की बातों से साफ झलकता है. वे कहते हैं, ‘एक समय था जब खुद को बादलपुर का प्रधान बताने में गर्व महसूस होता था, लेकिन आज शर्म आती है. काफी भागदौड़ के बावजूद परिवार के पास जो 20 बीघे जमीन थी उसे पूरा का पूरा सरकार ने औद्योगिक विकास के नाम पर पार्क, सड़क आदि बनाने के लिए ले लिया है. इतनी भी जमीन नहीं छोड़ी गई कि बच्चे बड़े होकर अपना एक मकान तक बना सकें.’ चेतराम कहते हैं, ‘पूरे प्रदेश की मुखिया गांव की ही रहने वाली है, कम से कम उसे तो सोचना चाहिए था कि किसानों की पूरी जमीन चली जाएगी तो उनके बच्चों को सिर छुपाने के लिए जगह कहां मिलेगी.’ इससे भी बड़ा दर्द उन्हें इस बात का है कि जिस जगह उनके पिता परमान सिंह की समाधि बनी थी सरकार ने उसका भी अधिग्रहण कर लिया. 

बादलपुर के किसानों की लड़ाई लड़ रहे डॉ रूपेश कहते हैं, ‘बादलपुर के साथ ही पतवारी गांव का भी अधिग्रहण सरकार ने अर्जेंसी क्लास में किया था. न्यायालय की ओर से पतवारी का अधिग्रहण रद्द किए जाने के बाद अब बादलपुर के किसानों को भी न्यायालय से ही उम्मीद है क्योंकि यहां भी अर्जेंसी क्लास में ही सरकार ने अधिग्रहण कर पार्क आदि बना डाला.’ बादलपुर के साथ ही सरकार ने डॉ रूपेश के गांव सादोपुर के किसानों की भी 146 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण अर्जेंसी क्लास में कर लिया है. लेकिन तीन साल बाद भी सादोपुर की जमीन पर न तो कोई उद्योग स्थापित हुआ है और न ही किसी योजना के अंतर्गत काम ही शुरू हुआ. रूपेश कहते हैं, ‘अपने ही घर की मुख्यमंत्री व सरकार से धोखा खाए किसानों को अब आस है तो बस न्यायालय की.’