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तमाशा, रेस और प्वाइंट्स

बीती जुलाई की एक शाम बिहार की राजधानी पटना में केबल टेलीविजन पर दिखने वाले सारे खबरिया चैनल गायब हो गए. केवल एक को छोड़कर. यह चैनल था मौर्य टीवी जोकि बिहार और झारखंड में चलने वाला एक क्षेत्रीय समाचार चैनल है. बाकी चैनलों का प्रसारण बंद होने के बाद स्वाभाविक ही था कि संबंधित चैनलों के लोग पटना में केबल नेटवर्क चलाने वालों से संपर्क साधते. ऐसा करने पर जवाब मिला कि कुछ तकनीकी बदलाव किए जा रहे हैं इसलिए एक-दो घंटे में चैनल दिखने लगेंगे, लेकिन रात के ग्यारह बजे तक दूसरे चैनल नहीं दिखे. स्वाभाविक है ऐसे में दर्शकों के सामने खबर देखने के लिए सिर्फ एक ही विकल्प था. नतीजा यह हुआ कि उस हफ्ते बिहार में मौर्य टीवी रेटिंग के लिहाज से सबसे ज्यादा देखा जाने वाला चैनल बन गया. वहीं दूसरे चैनलों की रेटिंग में कमी आई.

‘तहलका’ को यह कहानी बिहार के लिए क्षेत्रीय समाचार चैनल चलाने वाले चैनल प्रमुखों ने सुनाई. उनका यह भी आरोप है कि केबल नेटवर्क चलाने वालों के साथ मिलकर मौर्य टीवी को नंबर एक बनाने का यह खेल हुआ और इसमें उनके चैनलों को नुकसान उठाना पड़ा. उनके मुताबिक एक तरह से देखा जाए तो सुनियोजित ढंग से टीवी से चैनलों का विकल्प गायब कर दिया गया और विकल्पहीनता का फायदा उठाकर एक खास चैनल को रेटिंग के मामले में शीर्ष स्थान पर काबिज होने की पटकथा तैयार कर दी गई.

टीआरपी की पूरी व्यवस्था ही दोषपूर्ण है. इसमें न तो हर तबके की भागीदारी है और न ही हर क्षेत्र की – आशुतोष, प्रबंध संपादक, आईबीएन-7

इस घटना ने एक बार फिर टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट तय करने की पूरी प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगा दिया है. यह उदाहरण 2011 का है, लेकिन इस तरह के सवाल एक दशक पहले 2001 में ही उठने लगे थे. दरअसल तब मुंबई के 625 घरों के बारे में यह बात सामने आई थी कि उन्हें टीआरपी तय करने की प्रक्रिया में शामिल किया गया है. रेटिंग तैयार करने वाली एजेंसी इन घरों की गोपनीयता बनाए रखने का दावा करती थी. उस वक्त खबरें आई थीं कि एक खास चैनल के लोगों ने इन घरों के दर्शकों को प्रभावित करने का काम किया और इसमें कामयाब भी हुए. इन घरों के लोगों को खास कार्यक्रम देखने के बदले कुछ उपहार देने की बात सामने आई थी. खबर आने के बाद हर तरफ हो-हल्ला मचा. विज्ञापनदाताओं ने भी सवाल उठाए और चैनल के लोगों ने भी. विज्ञापन के रूप में 2500 करोड़ रु (यह 2001 का आंकड़ा है जो आज 10 हजार करोड़ से भी ज्यादा हो गया है) की रकम जिस आधार  पर खर्च हो रही हो उसी में मिलावट की खबर मिले तो ऐसा होना स्वाभाविक ही था. रेटिंग तय करने वाली एजेंसी ने फिर गोपनीयता का भरोसा दिलाया. कहा कि जो गलतियां हुई हैं उन्हें सुधार लिया जाएगा. बात आई-गई हो गई. लेकिन 10 साल बाद पटना की घटना ने एक बार फिर टीआरपी नाम की इस व्यवस्था की खामियों का संकेत दे दिया है.

वैसे इन 10 वर्षों के दौरान भी कई मर्तबा टीआरपी पर सवाल उठते रहे हैं. 2001 के बाद से देश में समाचार चैनलों की संख्या तेजी से बढ़ी और समय के साथ खबरों की परिभाषा भी बदलती चली गई. आरोप लगे कि खबरों की जगह भूत-प्रेत और नाग-नागिन ने ले ली है. यह भी कि खबरिया चैनल मनोरंजन चैनलों की राह पर चल पड़े हैं. आलोचक मानते हैं कि इस दौरान खबरों से सरोकार गायब होते गए और इनकी जगह सनसनी और मनोरंजन ने ले ली. और यह पूरा खेल हुआ उस टीआरपी के नाम पर जिसकी व्यवस्था में खुद ही कई खामियां हैं.

हालांकि यह भी दिलचस्प है कि कुछ समय पहले तक समाचार चैनलों को चलाने वाले लोग अक्सर यह तर्क दिया करते थे कि समय के साथ खबरों की परिभाषा बदल गई है. लेकिन अब जब टीआरपी की पूरी प्रक्रिया की पोल धीरे-धीरे खुल रही है और उसी टीआरपी ने चैनल प्रमुखों की नौकरियों को चुनौती देना शुरू कर दिया है तो कई टीआरपी की व्यवस्था पर सवाल उठाने लगे हैं.
आगे बढ़ने से पहले टीआरपी से संबंधित कुछ बुनियादी बातों को समझना जरूरी है. अभी देश में टीआरपी तय करने का काम टैम मीडिया रिसर्च नामक कंपनी करती है. यहां टैम का मतलब है टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट. रेटिंग तय करने के लिए एक दूसरी कंपनी भी है जिसका नाम है एमैप. हालांकि, कुछ दिनों पहले ही यह खबर आई कि एमैप बंद हो रही है. इस बारे में कंपनी के प्रबंध निदेशक रविरतन अरोड़ा का कहना था कि वे अपना कारोबार समेट नहीं रहे बल्कि तकनीकी बदलावों के चलते इसे चार महीने तक रोक रहे हैं. 2004 में शुरू होने वाली कंपनी एमैप अभी तक 7,200 मीटरों के जरिए रेटिंग तैयार करने का काम कर रही थी. उधर, 1998 में शुरू हुई टैम के कुल मीटरों की संख्या 8,150 है. इनमें से 1,007 मीटर डीटीएच, कैस और आईपीटीवी वाले घरों में हैं. जबकि 5,532 मीटर एनालॉग केबल और 1,611 मीटर गैर केबल यानी दूरदर्शन वाले घरों में हैं. एक मीटर की लागत 75,000 रुपये से एक लाख रुपये के बीच बैठती है.

इन्हीं मीटरों के सहारे टीआरपी तय की जाती है. ये मीटर संबंधित घरों के टेलीविजन सेट से जोड़ दिए जाते हैं. इनमें यह दर्ज होता है कि किस घर में कितनी देर तक कौन-सा चैनल देखा गया. अलग-अलग मीटरों से मिलने वाले आंकड़ों के आधार पर रेटिंग तैयार की जाती है और बताया जाता है कि किस चैनल को कितने लोगों ने देखा. टैम सप्ताह में एक बार अपनी रेटिंग जारी करती है और इसमें पूरे हफ्ते के अलग-अलग कार्यक्रमों की रेटिंग दी जाती है. टैम यह रेटिंग अलग-अलग आयु और आय वर्ग के आधार पर देती है. इस रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल पर उन्हें कितना विज्ञापन देना है. रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाताओं को यह पता चल पाता है कि वे जिस वर्ग तक अपना उत्पाद पहुंचाना चाहते हैं वह वर्ग कौन-सा चैनल देखता है. चैनलों की आमदनी का सबसे अहम जरिया विज्ञापन ही हैं. इस वजह से चैनलों के लिए रेटिंग की काफी अहमियत है. जिस चैनल की रेटिंग ज्यादा होगी विज्ञापनदाता उसी चैनल को अधिक विज्ञापन देंगे. इस आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि रेटिंग सीधे तौर पर चैनलों की कमाई से जुड़ी हुई है. जितनी अधिक रेटिंग उतनी अधिक कमाई. रेटिंग से ही चैनलों को यह पता चल पाता है कि किस तरह के कार्यक्रम को लोग पसंद कर रहे हैं और इसी के आधार पर उस सामग्री का स्वरूप तय होता है जो दर्शकों को टीवी के परदे पर दिखती है.

हमने चैनलों से कभी नहीं कहा कि हमारी रेटिंग की वजह से आप अपनी सामग्री में बदलाव करें – सिद्धार्थ मुखर्जी, वरिष्ठ उपाध्यक्ष, टैम

यानी खबरिया चैनलों की सामग्री के बदलाव में टीआरपी प्रमुख भूमिका निभा रही है. अब अगर टीआरपी तय करने की पूरी व्यवस्था में ही कई खामियां हों तो जाहिर है कि सामग्री के स्तर पर होने वाला बदलाव सकारात्मक नहीं होगा. यही बात खबरिया चैनलों के मामले में दिखती है. टैम की शुरुआत से संबंधित तथ्यों से यह बात स्थापित होती है कि यह विज्ञापनदाताओं के लिए काम करने वाली एजेंसी है. यह भले ही दर्शकों की पसंद-नापसंद की रिपोर्ट देने का दावा करती हो लेकिन इसका मकसद सीधे तौर पर विज्ञापनदाताओं की उनके हित साधने में मदद करना है. ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव और साधना न्यूज समूह के संपादक एनके सिंह के मुताबिक टीआरपी जिस तकनीकी बदलाव की नुमाइंदगी करती है उसका मकसद खपत के पैटर्न में बदलाव करना है. वे कहते हैं, ‘टीआरपी की शुरुआत विज्ञापन एजेंसियों ने की, इसलिए यह व्यवस्था उनके हितों की रक्षा करेगी. विज्ञापनदाताओं के लिए यह जरूरी है कि उनके उत्पाद की खपत बढ़े. इसके लिए वे टीआरपी का इस्तेमाल करते हैं. दरअसल, यह एक ऐसा औजार है जिसके जरिए बाजार में खपत के लिए माहौल तैयार किया जाता है. लोगों के लिए इसकी और कोई प्रासंगिकता नहीं है.’

टैम के वरिष्ठ उपाध्यक्ष (कम्यूनिकेशंस) सिद्धार्थ मुखर्जी ‘तहलका’ से बातचीत में स्वीकार करते हैं कि टैम की शुरुआत विज्ञापनदाताओं को ध्यान में रखकर की गई थी. ‘हमें कहा गया था कि हम ये बताएं किस कार्यक्रम को कितना देखा जाता है ताकि इसके आधार पर विज्ञापनदाता अपनी रणनीति तय कर सकें. इसलिए हम यह दावा नहीं करते कि हम दर्शकों के लिए काम करते हैं. हमारा आम आदमी से कोई लेना-देना नहीं है.’ सिद्धार्थ कहते हैं, ‘टैम के आंकड़ों में तो टेलीविजन और विज्ञापन उद्योग से जुड़े लोगों और शोध करने वालों को ही दिलचस्पी रखनी चाहिए. दूसरों की दिलचस्पी का कारण मुझे समझ में नहीं आता. हमारा काम मीटर वाले घरों में देखे जाने वाले चैनलों की जानकारी एकत्रित करना और उसके आधार पर रेटिंग तैयार करना है. इसके बाद हम ये आंकड़े विज्ञापन एजेंसियों और टेलीविजन चैनलों को दे देते हैं. यहीं हमारा काम खत्म हो जाता है. हमने समाचार चैनलों से कभी नहीं कहा कि हमारी रेटिंग की वजह से आप अपनी सामग्री में बदलाव कर दीजिए.’

लेकिन सवाल यह है कि क्या उनके यह कह देने भर से मुद्दा खत्म हो जाता है कि वे दर्शकों के लिए काम नहीं करते. टैम की टीआरपी के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल को कितना विज्ञापन देना है. आंकड़ों में देखा जाए तो हर साल करीब 10,000 करोड़ रु की रकम कैसे खर्च होगी इसका आधार एक बड़ी हद तक टीआरपी ही तय करती है. बाजार में हर चैनल मुनाफा कमाने के लिए ही चल रहा है. विज्ञापन या यों कहें कि चैनलों की कमाई जब टीआरपी के आधार पर ही तय हो रही हो तो जाहिर है कि चैनल टीआरपी के हिसाब से अपनी सामग्री में बदलाव करेंगे.

खबरिया चैनलों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों की सामग्री के मामले में भारत में यही हुआ. 2000 के बाद देश में तेजी से खबरिया चैनलों की संख्या बढ़ी और इस बढ़ोतरी के साथ खबरों की प्रकृति भी बदलती चली गई. कुछ चैनलों ने भूत-प्रेत-चुड़ैल और सनसनी वाली खबरों से टीआरपी क्या बटोरी बाकी ज्यादातर चैनल भी इसी राह पर चल पड़े. चलते भी क्यों नहीं. सवाल टीआरपी बटोरने का था. जिसकी जितनी अधिक टीआरपी उसकी उतनी अधिक कमाई. जो इस नई डगर पर चलने के लिए तैयार नहीं थे उनके लिए चैनल चलाने का खर्चा निकालना भी मुश्किल हो गया. खबरिया चैनलों की दुनिया में काम करने वाले लोग ही बताते हैं कि टीआरपी नाम के दैत्य ने कई पत्रकारों की नौकरी ली और कई संपादकों की फजीहत कराई. उनके मुताबिक टीआरपी को ही सब कुछ मान लेने का नतीजा यह हुआ कि गंभीर खबरें लाने वाले पत्रकारों की हैसियत कम होती गई और उन्हें अपमान का भी सामना करना पड़ा. दूसरी तरफ अनाप-शनाप खबरें लाकर टीआरपी बटोरने वाले पत्रकारों का सम्मान और तनख्वाह बढ़ती रही. जब-जब खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने पर सवाल उठा तब-तब इन चैनलों के संपादक यह कहकर अपना बचाव करते दिखे कि आलोचना करने वाले पुराने जमाने के पत्रकार हैं और वे नए जमाने को समझ नहीं पाए हैं. ये संपादक दावा करते रहे कि समाज बदला है इसलिए खबरों का मिजाज भी बदलेगा.

लेकिन आज वही संपादक खुद ही टीआरपी पर सवाल उठा रहे हैं. आईबीएन-7 के संपादक आशुतोष ने कुछ समय पहले एक अखबार में छपे अपने लेख में टीआरपी की व्यवस्था को फौरन बंद करने की मांग की है. ‘तहलका’ से बातचीत में वे कहते हैं, ‘टीआरपी की पूरी व्यवस्था दोषपूर्ण और अवैज्ञानिक है. इसमें न तो हर तबके की भागीदारी है और न ही हर क्षेत्र की. लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं और ऐसे में विकास की दौड़ में अब तक पीछे रहे लोगों और क्षेत्रों की उपेक्षा हो रही है. खबरों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों में खबरों के भटकाव के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार टीआरपी है. अच्छी खबरों की टीआरपी नहीं है. कोई चैनल किसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय खबर को दिखा रहा हो या फिर राष्ट्रीय महत्व की किसी खबर को उठा रहा हो, उसकी टीआरपी नहीं आती. भूत-प्रेत दिखाने वाले चैनल की अच्छी टीआरपी आ जाती है.’ बकौल आशुतोष, ‘एक अदना-सा लड़का भी जानता है कि टीवी में तीन सी, यानी क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा बिकता है और प्रस्तुतीकरण जितना सनसनीखेज होगा उतनी ही टीआरपी टूटेगी. और टीआरपी माने विज्ञापन, विज्ञापन माने पैसा, पैसा माने प्रॉफिट, प्रॉफिट माने बाजार में जलवा. जिस हफ्ते टीआरपी गिर जाती है उस हफ्ते एडिटर को नींद नहीं आती, उसको अपनी नौकरी जाती हुई नजर आती है, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है, वह न्यूज रूम में ज्यादा चिल्लाने लगता है. और फिर टीआरपी बढ़ाने के नए-नए तरीके ईजाद करता है.’

टीआरपी की शुरुआत विज्ञापन एजेंसियों ने की है इसलिए यह व्यवस्था उनके हितों की रक्षा करेगी – एनके सिंह, महासचिव, ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन

सवाल सरकारी स्तर पर भी उठ रहे हैं. 2008 में एक स्थायी संसदीय समिति ने भी टीआरपी की व्यवस्था को दोषपूर्ण बताते हुए एक रपट संसद में दी थी. इस समिति को दी गई जानकारी में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने भी माना था कि एजेंसियों द्वारा तैयार की जा रही टीआरपी में कई तरह की कमियां हैं. प्रसार भारती के मुताबिक टैम के आंकड़ों की विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं. इसमें साप्ताहिक आधार पर आंकडे़ जारी करना, घरों की चयन पद्धति में पारदर्शिता की कमी और मीटर वाले घरों के नामों की गोपनीयता शामिल हैं. इसके अलावा स्वयं टैम द्वारा आंकड़ों से छेड़खानी की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इन आंकड़ों का किसी बाहरी संस्था द्वारा ऑडिट नहीं कराया जाता. एक चैनल के प्रमुख बताते हैं कि कुछ महीने पहले उनके चैनल की जो पहली रेटिंग आई उस पर प्रबंधन को संदेह हुआ. इसके बाद जब दोबारा रेटिंग मंगवाई गई तो पहले और बाद के आंकड़ों में काफी फर्क था. उधर, भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने भी इस व्यवस्था को गलत बताया है. अभी हाल ही में फिक्की के पूर्व महासचिव और पश्चिम बंगाल के मौजूदा वित्त मंत्री अमित मित्रा की अध्यक्षता में भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा गठित टीआरपी समिति की रिपोर्ट आई है. इसमें भी बताया गया है कि टीआरपी की पूरी व्यवस्था में कई खामियां हैं. इसके बावजूद टीवी और मनोरंजन उद्योग इन्हीं की रेटिंग के आधार पर अपने व्यावसायिक फैसले लेता है.

जानकार मानते हैं कि इस उद्योग की बुनियाद ही ऐसी व्यवस्था पर टिकी हुई है जिसमें जबर्दस्त खामियां हैं. अब इन खामियों को एक-एक करके समझने की कोशिश करते हैं. पहली और सबसे बड़ी खामी तो यही है कि 121 करोड़ की आबादी वाले इस देश में टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद तय करने का काम टैम 165 शहरों में लगे महज 8,150 मीटरों के जरिए कर रही है. सहारा समय बिहार-झारखंड के प्रमुख प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यही है. आखिर सैंपल के इतने छोटे आकार के बूते कैसे सभी टेलीविजन दर्शकों की पसंद-नापसंद को तय किया जा सकता है.’

प्रबुद्ध राज जो सवाल उठा रहे हैं वह सवाल अक्सर उठता रहता है. कुछ समय पहले केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी एक अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा था, ‘टेलीविजन कार्यक्रमों की रेटिंग तय करने के लिए न्यूनतम जरूरी मीटर तो लगने ही चाहिए. 8,000 मीटर टीआरपी तय करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.’ यह बात सोनी ने तब कही थी जब अमित मित्रा समिति की टीआरपी रिपोर्ट नहीं आई थी. इस रिपोर्ट को आए अब सात महीने होने को हैं, लेकिन अब तक समिति की सिफारिशों पर कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है.

हालांकि सिद्धार्थ दावा करते हैं कि वे 8,150 मीटरों के जरिए तकरीबन 36,000 लोगों की पसंद-नापसंद को इकट्ठा करते हैं. वे कहते हैं, ‘दुनिया में इतना बड़ा सैंपल किसी देश में टीआरपी के लिए इस्तेमाल नहीं होता. जिस तरह से शरीर के किसी भी हिस्से से एक बूंद खून लेने से यह पता चल जाता है कि ब्लड ग्रुप क्या है, उसी तरह इतने मीटरों के सहारे टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद का अंदाजा भी लगाया जा सकता है.’

लेकिन आलोचकों के इस पर अपने तर्क हैं. पहला तो यह कि टीआरपी की ब्लड ग्रुप से तुलना करना ही गलत है. क्योंकि इस आधार पर तो सिर्फ कुछ हजार लोगों की राय लेकर सरकार भी बनाई जा सकती है, फिर चुनाव का क्या काम है? जाहिर है कि सिद्धार्थ इस तरह के तर्कों का सहारा अपनी एजेंसी की खामियों पर पर्दा डालने के लिए कर रहे हैं. सिद्धार्थ तो यह भी कहते हैं कि अगर अमित मित्रा समिति की सिफारिशों के मुताबिक मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 कर दी जाए तो भी क्या गारंटी है कि टीआरपी की पूरी प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठेंगे. आलोचक इस पर तर्क देते हैं कि सवाल तो तब भी उठेंगे लेकिन टीआरपी की विश्वसनीयता बढ़ेगी.
सवाल केवल मीटरों की कम संख्या का ही नहीं है बल्कि इनका बंटवारा भी भेदभावपूर्ण है. अब भी पूर्वोत्तर के राज्यों और जम्मू-कश्मीर में टीआरपी मीटर नहीं पहुंचे हैं. ज्यादा मीटर वहीं लगे हैं जहां के लोगों की क्रय क्षमता अधिक है. आशुतोष कहते हैं, ‘लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं. यह सही नहीं है. सबसे ज्यादा मीटर दिल्ली और मुंबई में हैं. जबकि बिहार की आबादी काफी अधिक होने के बावजूद वहां सिर्फ 165 मीटर ही हैं. पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर तक तो मीटर पहुंचे ही नहीं हैं. इससे पता चलता है कि टीआरपी की व्यवस्था कितनी खोखली है.’

एनके सिंह इस बात को कुछ इस तरह रखते हैं, ‘35 लाख की आबादी वाले शहर अहमदाबाद में टीआरपी के 180 मीटर लगे हुए हैं. जबकि 10.5 करोड़ की आबादी वाले राज्य बिहार में सिर्फ 165 टीआरपी मीटर ही हैं. देश के आठ बड़े शहरों में तकरीबन चार करोड़ लोग रहते हैं और इन लोगों के लिए टीआरपी के 2,690 मीटर लगे हैं. जबकि देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले 118 करोड़ लोगों के लिए 5,310 टीआरपी मीटर हैं.’ सिंह ने यह हिसाब टीआरपी के 8,000 मीटरों के आधार पर लगाया है. अब टैम ने इसमें 150 मीटर और जोड़ दिए हैं.

कोई ऐसी व्यवस्था भी बने जहां टीआरपी से संबंधित शिकायत दर्ज करने की सुविधा उपलब्ध हो – परंजॉय गुहा ठाकुरता, वरिष्ठ पत्रकार

मीटरों के इस भेदभावपूर्ण बंटवारे के नतीजे की ओर इशारा करते हुए सिंह कहते हैं, ‘आप देखते होंगे कि दिल्ली या मुंबई की कोई छोटी-सी खबर भी राष्ट्रीय खबर बन जाती है लेकिन आजमगढ़ या गोपालगंज की बड़ी घटना को भी खबरिया चैनलों पर जगह पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. इसलिए कि टीआरपी के मीटर वहां नहीं हैं जबकि मुंबई में 501 और दिल्ली में 530 टीआरपी मीटर हैं. टीआरपी बड़े शहरों के आधार पर तय होती है, इसलिए खबरों के मामले में भी इन शहरों का प्रभुत्व दिखता है. इसके आधार पर कहा जा सकता है कि खबर और टीआरपी के लिए चलाई जा रही खबर में फर्क होता है.’

एनके सिंह ने जो तथ्य रखे हैं वे इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि टीआरपी कुछ ही शहरों के लोगों की पसंद-नापसंद के आधार पर तय की जा रही है. जबकि डीटीएच के प्रसार के बाद टीवी देखने वाले लोगों की संख्या छोटे शहरों और गांवों में भी तेजी से बढ़ी है. इसके बावजूद वहां तक टैम के वे मीटर नहीं पहुंचे हैं जिनके आधार पर टीआरपी तय की जा रही है. मीटर उन्हीं जगहों पर लगे हैं जहां की आबादी एक लाख से अधिक है. इसलिए बड़े शहरों के दर्शकों की पसंद-नापसंद को ही छोटे शहरों और गांव के लोगों की पसंद-नापसंद मान लिया जा रहा है. स्थायी संसदीय समिति के सामने सूचना और प्रसारण मंत्रालय, ट्राई, प्रसार भारती, प्रसारण निगम और इंडियन ब्राॅडकास्टिंग फाउंडेशन ने भी माना है कि ग्रामीण भारत को दर्शाए बगैर कोई भी रेटिंग पूरी तरह सही नहीं हो सकती.

2003-04 में प्रसार भारती ने टैम से मीटरों की संख्या बढ़ाने का अनुरोध किया था, ताकि ग्रामीण दर्शकों को भी कवर किया जा सके. टैम ने एक ही घर में एक से ज्यादा मीटर भी लगा रखे हैं. इस बाबत प्रसार भारती ने कहा था कि जिन घरों में दूसरा मीटर है उन्हें हटाकर वैसे घरों में लगाया जाना चाहिए जहां एक भी मीटर नहीं है. उस वक्त टैम ने ग्रामीण क्षेत्रों में मीटर लगाने के लिए दूरदर्शन से पौने आठ करोड़ रुपये की मांग की थी. प्रसार भारती ने उस वक्त यह कहकर इस प्रस्ताव को टाल दिया था कि यह खर्चा पूरा टेलीविजन उद्योग वहन करे न कि सिर्फ दूरदर्शन. लेकिन निजी चैनलों ने इस विस्तार के प्रति उत्साह नहीं दिखाया. इस वजह से सबसे ज्यादा नुकसान दूरदर्शन का हुआ. दूरदर्शन के कार्यक्रमों की रेटिंग कम हो गई, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अपेक्षाकृत ज्यादा लोग दूरदर्शन देखते हैं.

गांवों में टीआरपी मीटर लगाने के सवाल पर सिद्धार्थ कहते हैं, ‘अब विज्ञापन एजेंसियां और टेलीविजन उद्योग गांवों के आंकड़े भी मांग रहे हैं, इसलिए हमने शुरुआत महाराष्ट्र के कुछ गांवों से की है. अभी यह योजना प्रायोगिक स्तर पर है. 60-70 गांवों में अभी हम अध्ययन कर रहे हैं. इसके व्यापक विस्तार में काफी वक्त लगेगा, क्योंकि गांवों में कई तरह की समस्याएं हैं. कहीं बिजली नहीं है तो कहीं वोल्टेज में काफी उतार-चढ़ाव है. इन समस्याओं के अध्ययन और समाधान के बाद ही गांवों में विस्तार के बारे में ठोस तौर पर टैम कुछ बता सकती है.’

टीआरपी मीटर लगाने में न सिर्फ शहरी और ग्रामीण खाई है बल्कि वर्ग विभेद भी साफ दिखता है. अभी ज्यादातर मीटर उन घरों में लगे हैं जो सामाजिक और आर्थिक लिहाज से संपन्न कहे जाते हैं. ये मीटर आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़े हुए लोगों के घरों में नहीं लगे हैं. हालांकि, आज टेलीविजन ऐसे घरों में भी हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि संपन्न तबके की पसंद-नापसंद को हर वर्ग पर थोप दिया जा रहा है. इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि अगर बक्से उच्च वर्ग के घरों में लगाए जाएं तो जाहिर है कि टीवी कार्यक्रमों को लेकर उस वर्ग की पसंद देश के आम तबके से थोड़ी अलग होगी ही, लेकिन इसके बावजूद टीआरपी की मौजूदा व्यवस्था में उसे ही सबकी पसंद बता दिया जाता है और इसी के आधार पर उस तरह के कार्यक्रमों की बाढ़ टीवी पर आ जाती है.

वरिष्ठ पत्रकार और हाल तक भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य रहे परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ‘भारत के संविधान में 22 भाषाओं की बात की गई है. देश में जो नोट चलते हैं उनमें 17 भाषाएं होती हैं. ऐसे में आखिर कुछ संभ्रांत वर्ग के लोगों के यहां टीआरपी मीटर लगाकर उनकी पसंद-नापसंद को पूरे देश के टीवी दर्शकों पर थोपना कहां का न्याय है.’ वे कहते हैं, ‘टीआरपी की आड़ लेकर चैनल भी अनाप-शनाप दिखाना शुरू कर देते हैं. सवाल उठाने पर कहते हैं कि जो दर्शक पसंद कर रहे हैं वही हम दिखा रहे हैं. अब अगर किसी सर्वेक्षण में यह बात सामने आ जाए कि दर्शक पोर्नोग्राफी देखना पसंद करते हैं तो क्या चैनलवाले ऐसी सामग्री भी दिखाना शुरू कर देंगे?’

टीआरपी तय करने की पूरी प्रक्रिया में कहीं कोई पारदर्शिता नहीं है. यही वजह है कि समय-समय पर टीआरपी के आंकड़ों में हेर-फेर के आरोप भी लगते रहे हैं. अगर ऐसी किसी गड़बड़ी की वजह से किसी खराब कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ जाती है तो खतरा इस बात का भी है कि दूसरे चैनल भी ऐसे ही कार्यक्रमों का प्रसारण करने लगेंगे. ऐसे में एक गलत चलन की शुरुआत होगी. हिंदी खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने को इससे जोड़कर देखा और समझा जा सकता है.

इतने छोटे सैंपल से कैसे सभी दर्शकों की पसंद-नापसंद तय हो सकती है? प्रबुद्ध राज प्रमुख, सहारा समय (बिहार-झारखंड)

नौ चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को बिल्कुल पाक-साफ नहीं कहा जा सकता है. यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं. राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाता है कि चैनलों की रैंकिंग में कोई खास फर्क नहीं होता है. चोटी के तीन चैनल हर हफ्ते अपना स्थान बदल लेते हैं लेकिन शीर्ष पर यही तीन चैनल रहते हैं. ऐसा नहीं होता कि पहले नंबर का चैनल अगले सप्ताह छठे या सातवें स्थान पर चला जाए. जबकि बिहार में ऐसा खूब हो रहा है. इस सप्ताह जो चैनल पहले पायदान पर है वह अगले सप्ताह छठे स्थान पर पहुंच जाता है और छठे-सातवें वाला पहले पायदान पर. ऐसा नहीं है कि बिहार के दर्शकों की पसंद इतनी तेजी से बदल रही है बल्कि कहीं न कहीं यह टीआरपी की प्रक्रिया में मौजूद खामियों की ओर इशारा करता है.’

प्रबुद्ध राज अचानक होने वाले इस तरह के बदलाव को लेकर जिन खामियों की ओर इशारा कर रहे हैं, वे दो स्तर पर संभव हैं. पहली बात तो यह है कि बिहार के जिन घरों में मीटर लगे हुए हैं उन घरों से मिलने वाले आंकड़ों के साथ टैम में छेड़छाड़ होती हो. ऑफ दि रिकॉर्ड बातचीत में कई खबरिया चैनलों के संपादक ऐसे आरोप लगाते हैं, लेकिन खुलकर कोई इसलिए नहीं बोलता कि इसी टीआरपी के जरिए उनके चैनल के दर्शकों की संख्या भी तय होनी है.

दूसरी  संभावना यह है कि जिन घरों में टैम के मीटर लगे हुए हैं वे रेटिंग को प्रभावित करने वाले तत्वों के प्रभाव में हों. 2001 में जब मीटर वाले घरों की बात खुली थी तो उस वक्त यह बात सामने आई थी कि इन घरों को खास चैनल देखने के लिए उपहार दिए जा रहे थे. एक चैनल के संपादक बताते हैं कि आज भी यह प्रवृत्ति जारी है. अमित मित्रा समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि उसके सामने कुछ ऐसे मामले लाए गए जिनमें यह कहा गया कि उपहार देकर मीटर वाले घरों को प्रभावित करने की कोशिश की गई. कुछ ऐसी शिकायतें भी आई हैं जिनमें यह कहा गया है कि चैनलों के एजेंट मीटर वाले घरों के मालिकों को देखने के लिए अपनी ओर से एक टीवी दे देते हैं और जिस टीवी में मीटर लगा होता है उस पर अपने हिसाब से चैनल चलवाकर रेटिंग को प्रभावित करते हैं.

तीसरी बात थोड़ी तकनीकी है. टैम के मीटर में देखे जाने वाले चैनल का नाम नहीं दर्ज होता बल्कि यह दर्ज होता है कि किस फ्रीक्वेंसी वाले चैनल को देखा जा रहा है. बाद में इसका मिलान उस फ्रीक्वेंसी पर प्रसारित होने वाले चैनलों की सूची से कर लिया जाता है. इसमें खेल यह है कि जिस चैनल की टीआरपी गिरानी हो तो केबल ऑपरेटर उस चैनल की फ्रीक्वेंसी बार-बार बदलते रहेंगे. आसान शब्दों में समझें तो आपके टेलीविजन में जो चैनल पांच नंबर पर दिखता है उसे उठाकर 165 नंबर पर दिखने वाले चैनल की जगह पर रख देंगे. जाहिर है कि ऐसे में जब आपको पांच पर आपका चैनल नहीं मिलेगा तो आप उसे खोजते-खोजते 165 तक नहीं जाएंगे और पांच नंबर पर दिखाए जाने वाले चैनल को भी नहीं देखेंगे. ऐसी स्थिति में पांच नंबर वाले चैनल की रेटिंग गिर जाएगी. चैनल के वितरण से जुड़े लोगों के प्रभाव में आकर यह खेल अक्सर स्थानीय स्तर पर केबल ऑपरेटर करते हैं. हालांकि, टैम का कहना है कि वह फ्रीक्वेंसी में होने वाले इस तरह के बदलावों पर नजर रखती है और उसके हिसाब से रेटिंग तय करती है. पर इस क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि व्यावहारिक तौर पर यह संभव नहीं है कि ऑपरेटर द्वारा हर बार फ्रीक्वेंसी में किए जाने वाले बदलाव को टैम के लोग पकड़ सकें.

सवाल यह भी है कि जो मीटर किसी घर में लगाए जाते हैं वे कितने समय तक वहां रहते हैं और मीटर लगने वाले घरों में बदलाव की क्या स्थिति है. इस बाबत टैम ने कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी. वैसे टैम यह दावा करती है कि हर साल वह 20 फीसदी मीटर घरों में बदलाव करती है. टैम ने गोपनीयता का वास्ता देते हुए यह बताने से भी इनकार कर दिया कि किन घरों में उसने मीटर लगाए हुए हैं. टैम के अधिकारी उन घरों का पता बताने के लिए भी तैयार नहीं हुए जहां पहले मीटर लगे हुए थे लेकिन अब हटा लिए गए हैं. हालांकि, अमित मित्रा समिति ने इस बात की सिफारिश जरूर की है कि टीआरपी की प्रक्रिया में पारदर्शिता और विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए जरूरी उपाय किए जाएं.

एक और अहम बात यह है कि टैम के आंकड़ों का कोई स्वतंत्र ऑडिट नहीं होता. यह सवाल समय-समय पर उठता रहा है. इसके जवाब में एजेंसी कहती रही है कि वह अपनी प्रक्रियाओं में अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन करती है और रहा सवाल ऑडिट का तो कंपनी खुद तो ऑडिट करती ही है जिसमें काफी सख्ती और पारदर्शिता बरती जाती है. जहां तक विदेशों का सवाल है तो अमेरिका में टेलीविजन रेटिंग जारी करने का काम मीडिया रिसर्च काउंसिल (एमआरसी) करती है. यह एजेंसी जो आंकड़े एकत्रित करती है उसकी ऑडिटिंग प्रमाणित लोक लेखा एजेंसियां करती हैं. इसके बाद काफी विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाती है.

मुद्दा यह भी है कि अगर किसी व्यक्ति या संस्था को रेटिंग एजेंसियों के काम-काज पर संदेह है तो वह इन एजेंसियों के खिलाफ अपनी शिकायत तक नहीं दर्ज करा सकता. अभी तक भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई है कि इन एजेंसियों के खिलाफ कहीं शिकायत दर्ज करवाई जा सके. इस बदहाली के लिए स्थायी संसदीय समिति ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को आड़े हाथों लेते हुए कहा है, ‘डेढ़ दशक से सरकार अत्यधिक हिंसा और अश्लीलता के प्रसार और भारतीय संस्कृति के क्षरण को इस निरर्थक दलील के सहारे मूकदर्शक बनकर देखती रही कि अभी तक रेटिंग प्रणाली विनियमित नहीं है और कोई नीति/दिशानिर्देश इसलिए नहीं बनाए गए हैं क्योंकि रेटिंग एक व्यापारिक गतिविधि है और जब तक आम आदमी के हित का कोई बड़ा सवाल न हो तब तक सरकार किसी व्यापारिक गतिविधि में हस्तक्षेप नहीं करती. मंत्रालय यह सोच कर आराम से बैठा रहा कि इसे अधिक व्यापक आधार वाला और प्रातिनिधिक बनाने का काम खुद उद्योग करेगा. भारत में टीवी प्रसार को देखते हुए स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि प्रचलित रेटिंग केवल और केवल एक व्यापारिक गतिविधि नहीं है.’

मीडिया के कुछ लोग टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को दोषपूर्ण मानते हुए इसमें सरकारी दखल की मांग करते रहे हैं. हालांकि, कुछ समय पहले तक सरकार यह कहती थी कि सर्वेक्षण के काम में वह दखल नहीं दे सकती क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ मामला है. इस सरकारी तर्क को खारिज करते हुए एनके सिंह कहते हैं, ‘यह बात सही है कि संविधान के अनुच्छेद-19(1)(जी) के तहत हर किसी को अपनी इच्छानुसार व्यवसाय करने का अधिकार है लेकिन अनुच्छेद-19(6) में यह साफ लिखा हुआ है कि अगर कोई व्यवसाय जनता के हितों को प्रभावित करता है तो सरकार उसमें दखल दे सकती है. टीआरपी से देश की जनता प्रभावित हो रही है क्योंकि इसके हिसाब से खबरें प्रसारित हो रही हैं और जनता के मुद्दे बदले जा रहे हैं.’ अमित मित्रा समिति ने भी इस ओर यह कहते हुए इशारा किया है कि रेटिंग एजेंसियों के स्वामित्व में प्रसारकों, विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों की हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिए ताकि हितों का टकराव नहीं हो. केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी एक हालिया साक्षात्कार में संकेत दिया था कि सरकार दखल के विकल्प पर विचार कर रही है. उनका कहना था, ‘यह सरकार की जिम्मेदारी है कि लोगों को सही चीजें देखने को मिलें. दूसरी बात यह है कि विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) देश का सबसे बड़ा विज्ञापनदाता है तो ऐसे में आखिर लोग यह कैसे कह सकते हैं कि सरकार इस मामले में पक्षकार नहीं है. देश का सबसे बड़ा चैनल दूरदर्शन भी सरकारी है.’ अंबिका सोनी की बात उम्मीद बंधाने वाली लगती तो है लेकिन टीआरपी समिति की सिफारिशों जो हश्र हुआ है उसे देखकर निराशा ही होती है.

एक बात तो साफ है कि टीआरपी मापने की मौजूदा प्रक्रिया टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरी तरह व्यक्त करने में सक्षम नहीं है. इसलिए हर तरफ यह बात उठती है कि टीआरपी मीटरों की संख्या में बढ़ोतरी की जाए, पर सैंपल विस्तार में बढ़ोतरी नहीं होने के लिए मीटर की लागत को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. अमित मित्रा समिति ने टीआरपी की प्रक्रिया में सुधार के लिए मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 करने की सिफारिश की है. गांवों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए समिति ने इनमें से 15,000 मीटर गांवों में लगाने की बात कही है. समिति के मुताबिक इस क्षमता विस्तार में तकरीबन 660 करोड़ रुपये खर्च होंगे.
इस बारे में सिद्धार्थ कहते हैं, ‘हम इसके लिए तैयार हैं कि मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस काम को करने के लिए पैसा कौन देगा. अगर विज्ञापन और टेलीविजन उद्योग इसके लिए पैसा देने या फिर सब्सक्रिप्शन शुल्क बढ़ाने को तैयार हो जाते हैं तो हम मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए तैयार हैं.’ गौरतलब है कि विज्ञापन एजेंसियां और खबरिया चैनल टैम से मिलने वाले टीआरपी आंकड़ों के लिए सब्सक्रिप्शन शुल्क के तौर पर चार लाख रुपये से लेकर एक करोड़ रुपये तक खर्च करती हैं. जो जितना अधिक पैसा देता है उसे उतने ही विस्तृत आंकड़े मिलते हैं.

एक तबका मानता है कि टीवी उद्योग को हर साल 10,300 करोड़ रुपये के विज्ञापन मिलते हैं इसलिए सही और विश्वसनीय आंकड़े हासिल करने के लिए 660 करोड़ रुपये खर्च करने में इस उद्योग को बहुत परेशानी नहीं होनी चाहिए. ठाकुरता कहते हैं, ‘टेलीविजन उद्योग के पास पैसे की कमी नहीं है. मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए होने वाला खर्च वह आसानी से जुटा सकता है. पर यहां मामला नीयत का है. अगर टैम की नीयत ठीक होती तो मीटरों की संख्या बढ़ाने या इसमें हर वर्ग को प्रतिनिधित्व देने की बात चलती लेकिन अब तक ऐसा होता नहीं दिखा. जब भी मीटरों की संख्या बढ़ी है तब यह देखा गया है कि ऐसा विज्ञापनदाताओं के हितों को ध्यान में रखकर किया गया. इससे साबित होता है कि टैम जो टीआरपी देती है उसका दर्शकों के हितों से कोई लेना-देना नहीं है.’

भारत में टीआरपी के क्षेत्र में मची अंधेरगर्दी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां रेटिंग करने वाली कंपनियों के पंजीकरण के लिए कोई निर्धारित प्रणाली नहीं बनाई गई. यह बात खुद सूचना और प्रसारण मंत्रालय और प्रसार भारती ने संसदीय समिति के समक्ष स्वीकार की है. संसदीय समिति ने इस बात की सिफारिश की है कि रेटिंग प्रणाली में पारदर्शिता लाने के लिए स्वतंत्र, योग्य और विशेषज्ञ ऑडिट फर्मों द्वारा रेटिंग एजेंसियों की ऑडिटिंग करवाई जाए. अमित मित्रा समिति ने भी यह सिफारिश की है. ऐसा करने से यह सुनिश्चित हो सकेगा कि आंकड़ों के साथ हेरा-फेरी नहीं हो रही है. हालांकि, टैम यह दावा करती है कि वह अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से आंतरिक ऑडिटिंग करवाती है.
ठाकुरता कहते हैं, ‘अगर टैम चाहती है कि टीआरपी पर लोगों का भरोसा बना रहे तो उसे कई कदम उठाने होंगे. सबसे पहले तो यह जरूरी है कि वह अपने मीटरों की संख्या बढ़ाए. मीटर हर वर्ग के घरों में लगें. गांवों तक इनका विस्तार हो और पूरे मामले में जितना संभव हो सके उतनी पारदर्शिता बरती जाए. कोई ऐसी व्यवस्था भी बने जहां टीआरपी से संबंधित शिकायत दर्ज करने की सुविधा उपलब्ध हो.’ सुधार की बाबत एनके सिंह कहते हैं, ‘पिछले दिनों ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के बैनर तले कई खबरिया चैनलों के संपादकों की बैठक हुई. इसमें यह तय किया गया कि हम टीआरपी की चिंता किए बगैर खबर दिखाएंगे.’

लेकिन विज्ञापन और आमदनी के दबाव के बीच क्या संपादक ऐसा कर पाएंगे? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘यह काफी कठिन काम है क्योंकि बाजार का दबाव हर तरफ है, लेकिन अब ज्यादातर समाचार चैनलों के संपादक इस बात पर सहमत हैं कि टीआरपी की चिंता किए बगैर अपना चैनल चलाना होगा. क्योंकि टीआरपी संभ्रांत वर्ग की पसंद-नापसंद को दिखाता है न कि हमारे सभी दर्शकों की रुचि को.’ आशुतोष कहते हैं, ‘ऐसा बिल्कुल संभव है कि खबरिया चैनल टीआरपी पर ध्यान न देते हुए खबरों का चयन करें. इसके लिए संपादक और प्रबंधन दोनों को अपने-अपने स्तर पर मजबूती दिखानी होगी. यह समझना होगा कि टीआरपी किसी भी खबरिया चैनलों का मापदंड नहीं हो सकता.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘अगर आप पिछले डेढ़ साल में समाचार चैनलों में सामग्री के स्तर पर आए बदलाव को देखेंगे तो पता चलेगा कि सुधार हो रहा है. यह सुधार रातोंरात नहीं हुआ है. बल्कि टीवी चैनलों पर सिविल सोसायटी, सरकार और सबसे अधिक दर्शकों का दबाव पड़ा है. दर्शक चैनलों को गाली देने लगे और समाचार चैनलों के सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया. इसके बाद बीईए बना और आपस में समाचार चैनलों के संपादक बातचीत करने लगे और सुधार की कोशिश की गई. इस बीच न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने भी आत्मनियमन की दिशा में काम किया. इसका असर अब दिख रहा है और समाचार चैनलों में खबर एक बार फिर से लौट रही है. कुछ चैनल अब भी टीआरपी के लिए खबरों को फैंटेसी की दुनिया में ले जाकर दिखा रहे हैं. इसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है. लेकिन समय के साथ वे भी सुधरेंगे.’

अमित मित्रा समिति ने यह भी कहा है कि हर रोज और हर हफ्ते रेटिंग जारी करने से चैनलों पर अतिरिक्त दबाव बनता है इसलिए इसे 15 दिन में एक बार जारी करने के विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है. कुछ ऐसी ही बात आशुतोष भी कहते हैं, ‘या तो टीआरपी की व्यवस्था को पूरी तरह से बंद किया जाए. अगर ऐसा संभव नहीं हो तो हर हफ्ते टीआरपी के आंकड़े जारी करने की व्यवस्था बंद हो. हर छह महीने पर आंकड़े जारी हों. इससे दबाव घटेगा और खबरों की वापसी का रास्ता खुलेगा. टीआरपी के मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए और इसका बंटवारा आबादी के आधार पर हो. साथ ही हर क्षेत्र के मीटर को बराबर महत्व (वेटेज) दिया जाए.’

इस बीच एनबीए ने टैम मीडिया रिसर्च से आंकड़े जारी करने की समय-सीमा में बदलाव की मांग की है. एनबीए का कहना है कि टीआरपी आंकड़े जारी करने की अवधि को साप्ताहिक से मासिक कर दिए जाने से यह मीडिया के लिए ज्यादा लाभप्रद रहेगा. एनबीए द्वारा टैम से यह बातचीत पिछले कुछ दिनों से हो रही थी, लेकिन अब एनबीए ने टैम को पत्र देकर टीआरपी जारी करने की अवधि में बदलाव करने की गुजारिश की है.

कुल मिलाकर मौजूदा व्यवस्था टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरी तरह व्यक्त करने में सक्षम नहीं है. इसमें सुधार की जरूरत है. बात सिर्फ हजारों करोड़ का विज्ञापन देने वालों के हित की नहीं है. करोड़ों दर्शकों के भले की भी है. 

तमाशा, रेस और प्वाइंट्स

 

बीती जुलाई की एक शाम बिहार की राजधानी पटना में केबल टेलीविजन पर दिखने वाले सारे खबरिया चैनल गायब हो गए. केवल एक को छोड़कर. यह चैनल था मौर्य टीवी जोकि बिहार और झारखंड में चलने वाला एक क्षेत्रीय समाचार चैनल है. बाकी चैनलों का प्रसारण बंद होने के बाद स्वाभाविक ही था कि संबंधित चैनलों के लोग पटना में केबल नेटवर्क चलाने वालों से संपर्क साधते. ऐसा करने पर जवाब मिला कि कुछ तकनीकी बदलाव किए जा रहे हैं इसलिए एक-दो घंटे में चैनल दिखने लगेंगे, लेकिन रात के ग्यारह बजे तक दूसरे चैनल नहीं दिखे. स्वाभाविक है ऐसे में दर्शकों के सामने खबर देखने के लिए सिर्फ एक ही विकल्प था. नतीजा यह हुआ कि उस हफ्ते बिहार में मौर्य टीवी रेटिंग के लिहाज से सबसे ज्यादा देखा जाने वाला चैनल बन गया. वहीं दूसरे चैनलों की रेटिंग में कमी आई.

‘तहलका’ को यह कहानी बिहार के लिए क्षेत्रीय समाचार चैनल चलाने वाले चैनल प्रमुखों ने सुनाई. उनका यह भी आरोप है कि केबल नेटवर्क चलाने वालों के साथ मिलकर मौर्य टीवी को नंबर एक बनाने का यह खेल हुआ और इसमें उनके चैनलों को नुकसान उठाना पड़ा. उनके मुताबिक एक तरह से देखा जाए तो सुनियोजित ढंग से टीवी से चैनलों का विकल्प गायब कर दिया गया और विकल्पहीनता का फायदा उठाकर एक खास चैनल को रेटिंग के मामले में शीर्ष स्थान पर काबिज होने की पटकथा तैयार कर दी गई.

इस घटना ने एक बार फिर टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट तय करने की पूरी प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगा दिया है. यह उदाहरण 2011 का है, लेकिन इस तरह के सवाल एक दशक पहले 2001 में ही उठने लगे थे. दरअसल तब मुंबई के 625 घरों के बारे में यह बात सामने आई थी कि उन्हें टीआरपी तय करने की प्रक्रिया में शामिल किया गया है. रेटिंग तैयार करने वाली एजेंसी इन घरों की गोपनीयता बनाए रखने का दावा करती थी. उस वक्त खबरें आई थीं कि एक खास चैनल के लोगों ने इन घरों के दर्शकों को प्रभावित करने का काम किया और इसमें कामयाब भी हुए. इन घरों के लोगों को खास कार्यक्रम देखने के बदले कुछ उपहार देने की बात सामने आई थी. खबर आने के बाद हर तरफ हो-हल्ला मचा. विज्ञापनदाताओं ने भी सवाल उठाए और चैनल के लोगों ने भी. विज्ञापन के रूप में 2500 करोड़ रु (यह 2001 का आंकड़ा है जो आज 10 हजार करोड़ से भी ज्यादा हो गया है) की रकम जिस आधार  पर खर्च हो रही हो उसी में मिलावट की खबर मिले तो ऐसा होना स्वाभाविक ही था. रेटिंग तय करने वाली एजेंसी ने फिर गोपनीयता का भरोसा दिलाया. कहा कि जो गलतियां हुई हैं उन्हें सुधार लिया जाएगा. बात आई-गई हो गई. लेकिन 10 साल बाद पटना की घटना ने एक बार फिर टीआरपी नाम की इस व्यवस्था की खामियों का संकेत दे दिया है.
वैसे इन 10 वर्षों के दौरान भी कई मर्तबा टीआरपी पर सवाल उठते रहे हैं. 2001 के बाद से देश में समाचार चैनलों की संख्या तेजी से बढ़ी और समय के साथ खबरों की परिभाषा भी बदलती चली गई. आरोप लगे कि खबरों की जगह भूत-प्रेत और नाग-नागिन ने ले ली है. यह भी कि खबरिया चैनल मनोरंजन चैनलों की राह पर चल पड़े हैं. आलोचक मानते हैं कि इस दौरान खबरों से सरोकार गायब होते गए और इनकी जगह सनसनी और मनोरंजन ने ले ली. और यह पूरा खेल हुआ उस टीआरपी के नाम पर जिसकी व्यवस्था में खुद ही कई खामियां हैं.

हालांकि यह भी दिलचस्प है कि कुछ समय पहले तक समाचार चैनलों को चलाने वाले लोग अक्सर यह तर्क दिया करते थे कि समय के साथ खबरों की परिभाषा बदल गई है. लेकिन अब जब टीआरपी की पूरी प्रक्रिया की पोल धीरे-धीरे खुल रही है और उसी टीआरपी ने चैनल प्रमुखों की नौकरियों को चुनौती देना शुरू कर दिया है तो कई टीआरपी की व्यवस्था पर सवाल उठाने लगे हैं.
आगे बढ़ने से पहले टीआरपी से संबंधित कुछ बुनियादी बातों को समझना जरूरी है. अभी देश में टीआरपी तय करने का काम टैम मीडिया रिसर्च नामक कंपनी करती है. यहां टैम का मतलब है टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट. रेटिंग तय करने के लिए एक दूसरी कंपनी भी है जिसका नाम है एमैप. हालांकि, कुछ दिनों पहले ही यह खबर आई कि एमैप बंद हो रही है. इस बारे में कंपनी के प्रबंध निदेशक रविरतन अरोड़ा का कहना था कि वे अपना कारोबार समेट नहीं रहे बल्कि तकनीकी बदलावों के चलते इसे चार महीने तक रोक रहे हैं. 2004 में शुरू होने वाली कंपनी एमैप अभी तक 7,200 मीटरों के जरिए रेटिंग तैयार करने का काम कर रही थी. उधर, 1998 में शुरू हुई टैम के कुल मीटरों की संख्या 8,150 है. इनमें से 1,007 मीटर डीटीएच, कैस और आईपीटीवी वाले घरों में हैं. जबकि 5,532 मीटर एनालॉग केबल और 1,611 मीटर गैर केबल यानी दूरदर्शन वाले घरों में हैं. एक मीटर की लागत 75,000 रुपये से एक लाख रुपये के बीच बैठती है.

इन्हीं मीटरों के सहारे टीआरपी तय की जाती है. ये मीटर संबंधित घरों के टेलीविजन सेट से जोड़ दिए जाते हैं. इनमें यह दर्ज होता है कि किस घर में कितनी देर तक कौन-सा चैनल देखा गया. अलग-अलग मीटरों से मिलने वाले आंकड़ों के आधार पर रेटिंग तैयार की जाती है और बताया जाता है कि किस चैनल को कितने लोगों ने देखा. टैम सप्ताह में एक बार अपनी रेटिंग जारी करती है और इसमें पूरे हफ्ते के अलग-अलग कार्यक्रमों की रेटिंग दी जाती है. टैम यह रेटिंग अलग-अलग आयु और आय वर्ग के आधार पर देती है. इस रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल पर उन्हें कितना विज्ञापन देना है. रेटिंग के आधार पर ही विज्ञापनदाताओं को यह पता चल पाता है कि वे जिस वर्ग तक अपना उत्पाद पहुंचाना चाहते हैं वह वर्ग कौन-सा चैनल देखता है. चैनलों की आमदनी का सबसे अहम जरिया विज्ञापन ही हैं. इस वजह से चैनलों के लिए रेटिंग की काफी अहमियत है. जिस चैनल की रेटिंग ज्यादा होगी विज्ञापनदाता उसी चैनल को अधिक विज्ञापन देंगे. इस आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि रेटिंग सीधे तौर पर चैनलों की कमाई से जुड़ी हुई है. जितनी अधिक रेटिंग उतनी अधिक कमाई. रेटिंग से ही चैनलों को यह पता चल पाता है कि किस तरह के कार्यक्रम को लोग पसंद कर रहे हैं और इसी के आधार पर उस सामग्री का स्वरूप तय होता है जो दर्शकों को टीवी के परदे पर दिखती है.

यानी खबरिया चैनलों की सामग्री के बदलाव में टीआरपी प्रमुख भूमिका निभा रही है. अब अगर टीआरपी तय करने की पूरी व्यवस्था में ही कई खामियां हों तो जाहिर है कि सामग्री के स्तर पर होने वाला बदलाव सकारात्मक नहीं होगा. यही बात खबरिया चैनलों के मामले में दिखती है. टैम की शुरुआत से संबंधित तथ्यों से यह बात स्थापित होती है कि यह विज्ञापनदाताओं के लिए काम करने वाली एजेंसी है. यह भले ही दर्शकों की पसंद-नापसंद की रिपोर्ट देने का दावा करती हो लेकिन इसका मकसद सीधे तौर पर विज्ञापनदाताओं की उनके हित साधने में मदद करना है. ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव और साधना न्यूज समूह के संपादक एनके सिंह के मुताबिक टीआरपी जिस तकनीकी बदलाव की नुमाइंदगी करती है उसका मकसद खपत के पैटर्न में बदलाव करना है. वे कहते हैं, ‘टीआरपी की शुरुआत विज्ञापन एजेंसियों ने की, इसलिए यह व्यवस्था उनके हितों की रक्षा करेगी. विज्ञापनदाताओं के लिए यह जरूरी है कि उनके उत्पाद की खपत बढ़े. इसके लिए वे टीआरपी का इस्तेमाल करते हैं. दरअसल, यह एक ऐसा औजार है जिसके जरिए बाजार में खपत के लिए माहौल तैयार किया जाता है. लोगों के लिए इसकी और कोई प्रासंगिकता नहीं है.’

टैम के वरिष्ठ उपाध्यक्ष (कम्यूनिकेशंस) सिद्धार्थ मुखर्जी ‘तहलका’ से बातचीत में स्वीकार करते हैं कि टैम की शुरुआत विज्ञापनदाताओं को ध्यान में रखकर की गई थी. ‘हमें कहा गया था कि हम ये बताएं किस कार्यक्रम को कितना देखा जाता है ताकि इसके आधार पर विज्ञापनदाता अपनी रणनीति तय कर सकें. इसलिए हम यह दावा नहीं करते कि हम दर्शकों के लिए काम करते हैं. हमारा आम आदमी से कोई लेना-देना नहीं है.’ सिद्धार्थ कहते हैं, ‘टैम के आंकड़ों में तो टेलीविजन और विज्ञापन उद्योग से जुड़े लोगों और शोध करने वालों को ही दिलचस्पी रखनी चाहिए. दूसरों की दिलचस्पी का कारण मुझे समझ में नहीं आता. हमारा काम मीटर वाले घरों में देखे जाने वाले चैनलों की जानकारी एकत्रित करना और उसके आधार पर रेटिंग तैयार करना है. इसके बाद हम ये आंकड़े विज्ञापन एजेंसियों और टेलीविजन चैनलों को दे देते हैं. यहीं हमारा काम खत्म हो जाता है. हमने समाचार चैनलों से कभी नहीं कहा कि हमारी रेटिंग की वजह से आप अपनी सामग्री में बदलाव कर दीजिए.’

लेकिन सवाल यह है कि क्या उनके यह कह देने भर से मुद्दा खत्म हो जाता है कि वे दर्शकों के लिए काम नहीं करते. टैम की टीआरपी के आधार पर ही विज्ञापनदाता तय करते हैं कि किस चैनल को कितना विज्ञापन देना है. आंकड़ों में देखा जाए तो हर साल करीब 10,000 करोड़ रु की रकम कैसे खर्च होगी इसका आधार एक बड़ी हद तक टीआरपी ही तय करती है. बाजार में हर चैनल मुनाफा कमाने के लिए ही चल रहा है. विज्ञापन या यों कहें कि चैनलों की कमाई जब टीआरपी के आधार पर ही तय हो रही हो तो जाहिर है कि चैनल टीआरपी के हिसाब से अपनी सामग्री में बदलाव करेंगे.

खबरिया चैनलों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों की सामग्री के मामले में भारत में यही हुआ. 2000 के बाद देश में तेजी से खबरिया चैनलों की संख्या बढ़ी और इस बढ़ोतरी के साथ खबरों की प्रकृति भी बदलती चली गई. कुछ चैनलों ने भूत-प्रेत-चुड़ैल और सनसनी वाली खबरों से टीआरपी क्या बटोरी बाकी ज्यादातर चैनल भी इसी राह पर चल पड़े. चलते भी क्यों नहीं. सवाल टीआरपी बटोरने का था. जिसकी जितनी अधिक टीआरपी उसकी उतनी अधिक कमाई. जो इस नई डगर पर चलने के लिए तैयार नहीं थे उनके लिए चैनल चलाने का खर्चा निकालना भी मुश्किल हो गया. खबरिया चैनलों की दुनिया में काम करने वाले लोग ही बताते हैं कि टीआरपी नाम के दैत्य ने कई पत्रकारों की नौकरी ली और कई संपादकों की फजीहत कराई. उनके मुताबिक टीआरपी को ही सब कुछ मान लेने का नतीजा यह हुआ कि गंभीर खबरें लाने वाले पत्रकारों की हैसियत कम होती गई और उन्हें अपमान का भी सामना करना पड़ा. दूसरी तरफ अनाप-शनाप खबरें लाकर टीआरपी बटोरने वाले पत्रकारों का सम्मान और तनख्वाह बढ़ती रही. जब-जब खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने पर सवाल उठा तब-तब इन चैनलों के संपादक यह कहकर अपना बचाव करते दिखे कि आलोचना करने वाले पुराने जमाने के पत्रकार हैं और वे नए जमाने को समझ नहीं पाए हैं. ये संपादक दावा करते रहे कि समाज बदला है इसलिए खबरों का मिजाज भी बदलेगा.

लेकिन आज वही संपादक खुद ही टीआरपी पर सवाल उठा रहे हैं. आईबीएन-7 के संपादक आशुतोष ने कुछ समय पहले एक अखबार में छपे अपने लेख में टीआरपी की व्यवस्था को फौरन बंद करने की मांग की है. ‘तहलका’ से बातचीत में वे कहते हैं, ‘टीआरपी की पूरी व्यवस्था दोषपूर्ण और अवैज्ञानिक है. इसमें न तो हर तबके की भागीदारी है और न ही हर क्षेत्र की. लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं और ऐसे में विकास की दौड़ में अब तक पीछे रहे लोगों और क्षेत्रों की उपेक्षा हो रही है. खबरों और खास तौर पर हिंदी समाचार चैनलों में खबरों के भटकाव के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार टीआरपी है. अच्छी खबरों की टीआरपी नहीं है. कोई चैनल किसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय खबर को दिखा रहा हो या फिर राष्ट्रीय महत्व की किसी खबर को उठा रहा हो, उसकी टीआरपी नहीं आती. भूत-प्रेत दिखाने वाले चैनल की अच्छी टीआरपी आ जाती है.’ बकौल आशुतोष, ‘एक अदना-सा लड़का भी जानता है कि टीवी में तीन सी, यानी क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा बिकता है और प्रस्तुतीकरण जितना सनसनीखेज होगा उतनी ही टीआरपी टूटेगी. और टीआरपी माने विज्ञापन, विज्ञापन माने पैसा, पैसा माने प्रॉफिट, प्रॉफिट माने बाजार में जलवा. जिस हफ्ते टीआरपी गिर जाती है उस हफ्ते एडिटर को नींद नहीं आती, उसको अपनी नौकरी जाती हुई नजर आती है, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है, वह न्यूज रूम में ज्यादा चिल्लाने लगता है. और फिर टीआरपी बढ़ाने के नए-नए तरीके ईजाद करता है.’

सवाल सरकारी स्तर पर भी उठ रहे हैं. 2008 में एक स्थायी संसदीय समिति ने भी टीआरपी की व्यवस्था को दोषपूर्ण बताते हुए एक रपट संसद में दी थी. इस समिति को दी गई जानकारी में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने भी माना था कि एजेंसियों द्वारा तैयार की जा रही टीआरपी में कई तरह की कमियां हैं. प्रसार भारती के मुताबिक टैम के आंकड़ों की विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं. इसमें साप्ताहिक आधार पर आंकडे़ जारी करना, घरों की चयन पद्धति में पारदर्शिता की कमी और मीटर वाले घरों के नामों की गोपनीयता शामिल हैं. इसके अलावा स्वयं टैम द्वारा आंकड़ों से छेड़खानी की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इन आंकड़ों का किसी बाहरी संस्था द्वारा ऑडिट नहीं कराया जाता. एक चैनल के प्रमुख बताते हैं कि कुछ महीने पहले उनके चैनल की जो पहली रेटिंग आई उस पर प्रबंधन को संदेह हुआ. इसके बाद जब दोबारा रेटिंग मंगवाई गई तो पहले और बाद के आंकड़ों में काफी फर्क था. उधर, भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने भी इस व्यवस्था को गलत बताया है. अभी हाल ही में फिक्की के पूर्व महासचिव और पश्चिम बंगाल के मौजूदा वित्त मंत्री अमित मित्रा की अध्यक्षता में भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा गठित टीआरपी समिति की रिपोर्ट आई है. इसमें भी बताया गया है कि टीआरपी की पूरी व्यवस्था में कई खामियां हैं. इसके बावजूद टीवी और मनोरंजन उद्योग इन्हीं की रेटिंग के आधार पर अपने व्यावसायिक फैसले लेता है.

जानकार मानते हैं कि इस उद्योग की बुनियाद ही ऐसी व्यवस्था पर टिकी हुई है जिसमें जबर्दस्त खामियां हैं. अब इन खामियों को एक-एक करके समझने की कोशिश करते हैं. पहली और सबसे बड़ी खामी तो यही है कि 121 करोड़ की आबादी वाले इस देश में टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद तय करने का काम टैम 165 शहरों में लगे महज 8,150 मीटरों के जरिए कर रही है. सहारा समय बिहार-झारखंड के प्रमुख प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यही है. आखिर सैंपल के इतने छोटे आकार के बूते कैसे सभी टेलीविजन दर्शकों की पसंद-नापसंद को तय किया जा सकता है.’

प्रबुद्ध राज जो सवाल उठा रहे हैं वह सवाल अक्सर उठता रहता है. कुछ समय पहले केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी एक अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा था, ‘टेलीविजन कार्यक्रमों की रेटिंग तय करने के लिए न्यूनतम जरूरी मीटर तो लगने ही चाहिए. 8,000 मीटर टीआरपी तय करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.’ यह बात सोनी ने तब कही थी जब अमित मित्रा समिति की टीआरपी रिपोर्ट नहीं आई थी. इस रिपोर्ट को आए अब सात महीने होने को हैं, लेकिन अब तक समिति की सिफारिशों पर कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है.

हालांकि सिद्धार्थ दावा करते हैं कि वे 8,150 मीटरों के जरिए तकरीबन 36,000 लोगों की पसंद-नापसंद को इकट्ठा करते हैं. वे कहते हैं, ‘दुनिया में इतना बड़ा सैंपल किसी देश में टीआरपी के लिए इस्तेमाल नहीं होता. जिस तरह से शरीर के किसी भी हिस्से से एक बूंद खून लेने से यह पता चल जाता है कि ब्लड ग्रुप क्या है, उसी तरह इतने मीटरों के सहारे टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद का अंदाजा भी लगाया जा सकता है.’

लेकिन आलोचकों के इस पर अपने तर्क हैं. पहला तो यह कि टीआरपी की ब्लड ग्रुप से तुलना करना ही गलत है. क्योंकि इस आधार पर तो सिर्फ कुछ हजार लोगों की राय लेकर सरकार भी बनाई जा सकती है, फिर चुनाव का क्या काम है? जाहिर है कि सिद्धार्थ इस तरह के तर्कों का सहारा अपनी एजेंसी की खामियों पर पर्दा डालने के लिए कर रहे हैं. सिद्धार्थ तो यह भी कहते हैं कि अगर अमित मित्रा समिति की सिफारिशों के मुताबिक मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 कर दी जाए तो भी क्या गारंटी है कि टीआरपी की पूरी प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठेंगे. आलोचक इस पर तर्क देते हैं कि सवाल तो तब भी उठेंगे लेकिन टीआरपी की विश्वसनीयता बढ़ेगी.
सवाल केवल मीटरों की कम संख्या का ही नहीं है बल्कि इनका बंटवारा भी भेदभावपूर्ण है. अब भी पूर्वोत्तर के राज्यों और जम्मू-कश्मीर में टीआरपी मीटर नहीं पहुंचे हैं. ज्यादा मीटर वहीं लगे हैं जहां के लोगों की क्रय क्षमता अधिक है. आशुतोष कहते हैं, ‘लोगों की क्रय क्षमता को ध्यान में रखकर टीआरपी के मीटर लगाए गए हैं. यह सही नहीं है. सबसे ज्यादा मीटर दिल्ली और मुंबई में हैं. जबकि बिहार की आबादी काफी अधिक होने के बावजूद वहां सिर्फ 165 मीटर ही हैं. पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर तक तो मीटर पहुंचे ही नहीं हैं. इससे पता चलता है कि टीआरपी की व्यवस्था कितनी खोखली है.’

एनके सिंह इस बात को कुछ इस तरह रखते हैं, ‘35 लाख की आबादी वाले शहर अहमदाबाद में टीआरपी के 180 मीटर लगे हुए हैं. जबकि 10.5 करोड़ की आबादी वाले राज्य बिहार में सिर्फ 165 टीआरपी मीटर ही हैं. देश के आठ बड़े शहरों में तकरीबन चार करोड़ लोग रहते हैं और इन लोगों के लिए टीआरपी के 2,690 मीटर लगे हैं. जबकि देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले 118 करोड़ लोगों के लिए 5,310 टीआरपी मीटर हैं.’ सिंह ने यह हिसाब टीआरपी के 8,000 मीटरों के आधार पर लगाया है. अब टैम ने इसमें 150 मीटर और जोड़ दिए हैं.

मीटरों के इस भेदभावपूर्ण बंटवारे के नतीजे की ओर इशारा करते हुए सिंह कहते हैं, ‘आप देखते होंगे कि दिल्ली या मुंबई की कोई छोटी-सी खबर भी राष्ट्रीय खबर बन जाती है लेकिन आजमगढ़ या गोपालगंज की बड़ी घटना को भी खबरिया चैनलों पर जगह पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. इसलिए कि टीआरपी के मीटर वहां नहीं हैं जबकि मुंबई में 501 और दिल्ली में 530 टीआरपी मीटर हैं. टीआरपी बड़े शहरों के आधार पर तय होती है, इसलिए खबरों के मामले में भी इन शहरों का प्रभुत्व दिखता है. इसके आधार पर कहा जा सकता है कि खबर और टीआरपी के लिए चलाई जा रही खबर में फर्क होता है.’

एनके सिंह ने जो तथ्य रखे हैं वे इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि टीआरपी कुछ ही शहरों के लोगों की पसंद-नापसंद के आधार पर तय की जा रही है. जबकि डीटीएच के प्रसार के बाद टीवी देखने वाले लोगों की संख्या छोटे शहरों और गांवों में भी तेजी से बढ़ी है. इसके बावजूद वहां तक टैम के वे मीटर नहीं पहुंचे हैं जिनके आधार पर टीआरपी तय की जा रही है. मीटर उन्हीं जगहों पर लगे हैं जहां की आबादी एक लाख से अधिक है. इसलिए बड़े शहरों के दर्शकों की पसंद-नापसंद को ही छोटे शहरों और गांव के लोगों की पसंद-नापसंद मान लिया जा रहा है. स्थायी संसदीय समिति के सामने सूचना और प्रसारण मंत्रालय, ट्राई, प्रसार भारती, प्रसारण निगम और इंडियन ब्राॅडकास्टिंग फाउंडेशन ने भी माना है कि ग्रामीण भारत को दर्शाए बगैर कोई भी रेटिंग पूरी तरह सही नहीं हो सकती.

2003-04 में प्रसार भारती ने टैम से मीटरों की संख्या बढ़ाने का अनुरोध किया था, ताकि ग्रामीण दर्शकों को भी कवर किया जा सके. टैम ने एक ही घर में एक से ज्यादा मीटर भी लगा रखे हैं. इस बाबत प्रसार भारती ने कहा था कि जिन घरों में दूसरा मीटर है उन्हें हटाकर वैसे घरों में लगाया जाना चाहिए जहां एक भी मीटर नहीं है. उस वक्त टैम ने ग्रामीण क्षेत्रों में मीटर लगाने के लिए दूरदर्शन से पौने आठ करोड़ रुपये की मांग की थी. प्रसार भारती ने उस वक्त यह कहकर इस प्रस्ताव को टाल दिया था कि यह खर्चा पूरा टेलीविजन उद्योग वहन करे न कि सिर्फ दूरदर्शन. लेकिन निजी चैनलों ने इस विस्तार के प्रति उत्साह नहीं दिखाया. इस वजह से सबसे ज्यादा नुकसान दूरदर्शन का हुआ. दूरदर्शन के कार्यक्रमों की रेटिंग कम हो गई, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में अपेक्षाकृत ज्यादा लोग दूरदर्शन देखते हैं.

गांवों में टीआरपी मीटर लगाने के सवाल पर सिद्धार्थ कहते हैं, ‘अब विज्ञापन एजेंसियां और टेलीविजन उद्योग गांवों के आंकड़े भी मांग रहे हैं, इसलिए हमने शुरुआत महाराष्ट्र के कुछ गांवों से की है. अभी यह योजना प्रायोगिक स्तर पर है. 60-70 गांवों में अभी हम अध्ययन कर रहे हैं. इसके व्यापक विस्तार में काफी वक्त लगेगा, क्योंकि गांवों में कई तरह की समस्याएं हैं. कहीं बिजली नहीं है तो कहीं वोल्टेज में काफी उतार-चढ़ाव है. इन समस्याओं के अध्ययन और समाधान के बाद ही गांवों में विस्तार के बारे में ठोस तौर पर टैम कुछ बता सकती है.’

टीआरपी मीटर लगाने में न सिर्फ शहरी और ग्रामीण खाई है बल्कि वर्ग विभेद भी साफ दिखता है. अभी ज्यादातर मीटर उन घरों में लगे हैं जो सामाजिक और आर्थिक लिहाज से संपन्न कहे जाते हैं. ये मीटर आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़े हुए लोगों के घरों में नहीं लगे हैं. हालांकि, आज टेलीविजन ऐसे घरों में भी हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि संपन्न तबके की पसंद-नापसंद को हर वर्ग पर थोप दिया जा रहा है. इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि अगर बक्से उच्च वर्ग के घरों में लगाए जाएं तो जाहिर है कि टीवी कार्यक्रमों को लेकर उस वर्ग की पसंद देश के आम तबके से थोड़ी अलग होगी ही, लेकिन इसके बावजूद टीआरपी की मौजूदा व्यवस्था में उसे ही सबकी पसंद बता दिया जाता है और इसी के आधार पर उस तरह के कार्यक्रमों की बाढ़ टीवी पर आ जाती है.

वरिष्ठ पत्रकार और हाल तक भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य रहे परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, ‘भारत के संविधान में 22 भाषाओं की बात की गई है. देश में जो नोट चलते हैं उनमें 17 भाषाएं होती हैं. ऐसे में आखिर कुछ संभ्रांत वर्ग के लोगों के यहां टीआरपी मीटर लगाकर उनकी पसंद-नापसंद को पूरे देश के टीवी दर्शकों पर थोपना कहां का न्याय है.’ वे कहते हैं, ‘टीआरपी की आड़ लेकर चैनल भी अनाप-शनाप दिखाना शुरू कर देते हैं. सवाल उठाने पर कहते हैं कि जो दर्शक पसंद कर रहे हैं वही हम दिखा रहे हैं. अब अगर किसी सर्वेक्षण में यह बात सामने आ जाए कि दर्शक पोर्नोग्राफी देखना पसंद करते हैं तो क्या चैनलवाले ऐसी सामग्री भी दिखाना शुरू कर देंगे?’

टीआरपी तय करने की पूरी प्रक्रिया में कहीं कोई पारदर्शिता नहीं है. यही वजह है कि समय-समय पर टीआरपी के आंकड़ों में हेर-फेर के आरोप भी लगते रहे हैं. अगर ऐसी किसी गड़बड़ी की वजह से किसी खराब कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ जाती है तो खतरा इस बात का भी है कि दूसरे चैनल भी ऐसे ही कार्यक्रमों का प्रसारण करने लगेंगे. ऐसे में एक गलत चलन की शुरुआत होगी. हिंदी खबरिया चैनलों के पथभ्रष्ट होने को इससे जोड़कर देखा और समझा जा सकता है.

नौ चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके प्रबुद्ध राज कहते हैं, ‘टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को बिल्कुल पाक-साफ नहीं कहा जा सकता है. यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं. राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाता है कि चैनलों की रैंकिंग में कोई खास फर्क नहीं होता है. चोटी के तीन चैनल हर हफ्ते अपना स्थान बदल लेते हैं लेकिन शीर्ष पर यही तीन चैनल रहते हैं. ऐसा नहीं होता कि पहले नंबर का चैनल अगले सप्ताह छठे या सातवें स्थान पर चला जाए. जबकि बिहार में ऐसा खूब हो रहा है. इस सप्ताह जो चैनल पहले पायदान पर है वह अगले सप्ताह छठे स्थान पर पहुंच जाता है और छठे-सातवें वाला पहले पायदान पर. ऐसा नहीं है कि बिहार के दर्शकों की पसंद इतनी तेजी से बदल रही है बल्कि कहीं न कहीं यह टीआरपी की प्रक्रिया में मौजूद खामियों की ओर इशारा करता है.’

प्रबुद्ध राज अचानक होने वाले इस तरह के बदलाव को लेकर जिन खामियों की ओर इशारा कर रहे हैं, वे दो स्तर पर संभव हैं. पहली बात तो यह है कि बिहार के जिन घरों में मीटर लगे हुए हैं उन घरों से मिलने वाले आंकड़ों के साथ टैम में छेड़छाड़ होती हो. ऑफ दि रिकॉर्ड बातचीत में कई खबरिया चैनलों के संपादक ऐसे आरोप लगाते हैं, लेकिन खुलकर कोई इसलिए नहीं बोलता कि इसी टीआरपी के जरिए उनके चैनल के दर्शकों की संख्या भी तय होनी है.

दूसरी  संभावना यह है कि जिन घरों में टैम के मीटर लगे हुए हैं वे रेटिंग को प्रभावित करने वाले तत्वों के प्रभाव में हों. 2001 में जब मीटर वाले घरों की बात खुली थी तो उस वक्त यह बात सामने आई थी कि इन घरों को खास चैनल देखने के लिए उपहार दिए जा रहे थे. एक चैनल के संपादक बताते हैं कि आज भी यह प्रवृत्ति जारी है. अमित मित्रा समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि उसके सामने कुछ ऐसे मामले लाए गए जिनमें यह कहा गया कि उपहार देकर मीटर वाले घरों को प्रभावित करने की कोशिश की गई. कुछ ऐसी शिकायतें भी आई हैं जिनमें यह कहा गया है कि चैनलों के एजेंट मीटर वाले घरों के मालिकों को देखने के लिए अपनी ओर से एक टीवी दे देते हैं और जिस टीवी में मीटर लगा होता है उस पर अपने हिसाब से चैनल चलवाकर रेटिंग को प्रभावित करते हैं.

तीसरी बात थोड़ी तकनीकी है. टैम के मीटर में देखे जाने वाले चैनल का नाम नहीं दर्ज होता बल्कि यह दर्ज होता है कि किस फ्रीक्वेंसी वाले चैनल को देखा जा रहा है. बाद में इसका मिलान उस फ्रीक्वेंसी पर प्रसारित होने वाले चैनलों की सूची से कर लिया जाता है. इसमें खेल यह है कि जिस चैनल की टीआरपी गिरानी हो तो केबल ऑपरेटर उस चैनल की फ्रीक्वेंसी बार-बार बदलते रहेंगे. आसान शब्दों में समझें तो आपके टेलीविजन में जो चैनल पांच नंबर पर दिखता है उसे उठाकर 165 नंबर पर दिखने वाले चैनल की जगह पर रख देंगे. जाहिर है कि ऐसे में जब आपको पांच पर आपका चैनल नहीं मिलेगा तो आप उसे खोजते-खोजते 165 तक नहीं जाएंगे और पांच नंबर पर दिखाए जाने वाले चैनल को भी नहीं देखेंगे. ऐसी स्थिति में पांच नंबर वाले चैनल की रेटिंग गिर जाएगी. चैनल के वितरण से जुड़े लोगों के प्रभाव में आकर यह खेल अक्सर स्थानीय स्तर पर केबल ऑपरेटर करते हैं. हालांकि, टैम का कहना है कि वह फ्रीक्वेंसी में होने वाले इस तरह के बदलावों पर नजर रखती है और उसके हिसाब से रेटिंग तय करती है. पर इस क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि व्यावहारिक तौर पर यह संभव नहीं है कि ऑपरेटर द्वारा हर बार फ्रीक्वेंसी में किए जाने वाले बदलाव को टैम के लोग पकड़ सकें.

सवाल यह भी है कि जो मीटर किसी घर में लगाए जाते हैं वे कितने समय तक वहां रहते हैं और मीटर लगने वाले घरों में बदलाव की क्या स्थिति है. इस बाबत टैम ने कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी. वैसे टैम यह दावा करती है कि हर साल वह 20 फीसदी मीटर घरों में बदलाव करती है. टैम ने गोपनीयता का वास्ता देते हुए यह बताने से भी इनकार कर दिया कि किन घरों में उसने मीटर लगाए हुए हैं. टैम के अधिकारी उन घरों का पता बताने के लिए भी तैयार नहीं हुए जहां पहले मीटर लगे हुए थे लेकिन अब हटा लिए गए हैं. हालांकि, अमित मित्रा समिति ने इस बात की सिफारिश जरूर की है कि टीआरपी की प्रक्रिया में पारदर्शिता और विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए जरूरी उपाय किए जाएं.

एक और अहम बात यह है कि टैम के आंकड़ों का कोई स्वतंत्र ऑडिट नहीं होता. यह सवाल समय-समय पर उठता रहा है. इसके जवाब में एजेंसी कहती रही है कि वह अपनी प्रक्रियाओं में अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन करती है और रहा सवाल ऑडिट का तो कंपनी खुद तो ऑडिट करती ही है जिसमें काफी सख्ती और पारदर्शिता बरती जाती है. जहां तक विदेशों का सवाल है तो अमेरिका में टेलीविजन रेटिंग जारी करने का काम मीडिया रिसर्च काउंसिल (एमआरसी) करती है. यह एजेंसी जो आंकड़े एकत्रित करती है उसकी ऑडिटिंग प्रमाणित लोक लेखा एजेंसियां करती हैं. इसके बाद काफी विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाती है.

मुद्दा यह भी है कि अगर किसी व्यक्ति या संस्था को रेटिंग एजेंसियों के काम-काज पर संदेह है तो वह इन एजेंसियों के खिलाफ अपनी शिकायत तक नहीं दर्ज करा सकता. अभी तक भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई है कि इन एजेंसियों के खिलाफ कहीं शिकायत दर्ज करवाई जा सके. इस बदहाली के लिए स्थायी संसदीय समिति ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को आड़े हाथों लेते हुए कहा है, ‘डेढ़ दशक से सरकार अत्यधिक हिंसा और अश्लीलता के प्रसार और भारतीय संस्कृति के क्षरण को इस निरर्थक दलील के सहारे मूकदर्शक बनकर देखती रही कि अभी तक रेटिंग प्रणाली विनियमित नहीं है और कोई नीति/दिशानिर्देश इसलिए नहीं बनाए गए हैं क्योंकि रेटिंग एक व्यापारिक गतिविधि है और जब तक आम आदमी के हित का कोई बड़ा सवाल न हो तब तक सरकार किसी व्यापारिक गतिविधि में हस्तक्षेप नहीं करती. मंत्रालय यह सोच कर आराम से बैठा रहा कि इसे अधिक व्यापक आधार वाला और प्रातिनिधिक बनाने का काम खुद उद्योग करेगा. भारत में टीवी प्रसार को देखते हुए स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि प्रचलित रेटिंग केवल और केवल एक व्यापारिक गतिविधि नहीं है.’

मीडिया के कुछ लोग टीआरपी की पूरी प्रक्रिया को दोषपूर्ण मानते हुए इसमें सरकारी दखल की मांग करते रहे हैं. हालांकि, कुछ समय पहले तक सरकार यह कहती थी कि सर्वेक्षण के काम में वह दखल नहीं दे सकती क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ मामला है. इस सरकारी तर्क को खारिज करते हुए एनके सिंह कहते हैं, ‘यह बात सही है कि संविधान के अनुच्छेद-19(1)(जी) के तहत हर किसी को अपनी इच्छानुसार व्यवसाय करने का अधिकार है लेकिन अनुच्छेद-19(6) में यह साफ लिखा हुआ है कि अगर कोई व्यवसाय जनता के हितों को प्रभावित करता है तो सरकार उसमें दखल दे सकती है. टीआरपी से देश की जनता प्रभावित हो रही है क्योंकि इसके हिसाब से खबरें प्रसारित हो रही हैं और जनता के मुद्दे बदले जा रहे हैं.’ अमित मित्रा समिति ने भी इस ओर यह कहते हुए इशारा किया है कि रेटिंग एजेंसियों के स्वामित्व में प्रसारकों, विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों की हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिए ताकि हितों का टकराव नहीं हो. केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी एक हालिया साक्षात्कार में संकेत दिया था कि सरकार दखल के विकल्प पर विचार कर रही है. उनका कहना था, ‘यह सरकार की जिम्मेदारी है कि लोगों को सही चीजें देखने को मिलें. दूसरी बात यह है कि विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) देश का सबसे बड़ा विज्ञापनदाता है तो ऐसे में आखिर लोग यह कैसे कह सकते हैं कि सरकार इस मामले में पक्षकार नहीं है. देश का सबसे बड़ा चैनल दूरदर्शन भी सरकारी है.’ अंबिका सोनी की बात उम्मीद बंधाने वाली लगती तो है लेकिन टीआरपी समिति की सिफारिशों जो हश्र हुआ है उसे देखकर निराशा ही होती है.

एक बात तो साफ है कि टीआरपी मापने की मौजूदा प्रक्रिया टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरी तरह व्यक्त करने में सक्षम नहीं है. इसलिए हर तरफ यह बात उठती है कि टीआरपी मीटरों की संख्या में बढ़ोतरी की जाए, पर सैंपल विस्तार में बढ़ोतरी नहीं होने के लिए मीटर की लागत को भी जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. अमित मित्रा समिति ने टीआरपी की प्रक्रिया में सुधार के लिए मीटरों की संख्या बढ़ाकर 30,000 करने की सिफारिश की है. गांवों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए समिति ने इनमें से 15,000 मीटर गांवों में लगाने की बात कही है. समिति के मुताबिक इस क्षमता विस्तार में तकरीबन 660 करोड़ रुपये खर्च होंगे.
इस बारे में सिद्धार्थ कहते हैं, ‘हम इसके लिए तैयार हैं कि मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस काम को करने के लिए पैसा कौन देगा. अगर विज्ञापन और टेलीविजन उद्योग इसके लिए पैसा देने या फिर सब्सक्रिप्शन शुल्क बढ़ाने को तैयार हो जाते हैं तो हम मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए तैयार हैं.’ गौरतलब है कि विज्ञापन एजेंसियां और खबरिया चैनल टैम से मिलने वाले टीआरपी आंकड़ों के लिए सब्सक्रिप्शन शुल्क के तौर पर चार लाख रुपये से लेकर एक करोड़ रुपये तक खर्च करती हैं. जो जितना अधिक पैसा देता है उसे उतने ही विस्तृत आंकड़े मिलते हैं.

एक तबका मानता है कि टीवी उद्योग को हर साल 10,300 करोड़ रुपये के विज्ञापन मिलते हैं इसलिए सही और विश्वसनीय आंकड़े हासिल करने के लिए 660 करोड़ रुपये खर्च करने में इस उद्योग को बहुत परेशानी नहीं होनी चाहिए. ठाकुरता कहते हैं, ‘टेलीविजन उद्योग के पास पैसे की कमी नहीं है. मीटरों की संख्या बढ़ाने के लिए होने वाला खर्च वह आसानी से जुटा सकता है. पर यहां मामला नीयत का है. अगर टैम की नीयत ठीक होती तो मीटरों की संख्या बढ़ाने या इसमें हर वर्ग को प्रतिनिधित्व देने की बात चलती लेकिन अब तक ऐसा होता नहीं दिखा. जब भी मीटरों की संख्या बढ़ी है तब यह देखा गया है कि ऐसा विज्ञापनदाताओं के हितों को ध्यान में रखकर किया गया. इससे साबित होता है कि टैम जो टीआरपी देती है उसका दर्शकों के हितों से कोई लेना-देना नहीं है.’

भारत में टीआरपी के क्षेत्र में मची अंधेरगर्दी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां रेटिंग करने वाली कंपनियों के पंजीकरण के लिए कोई निर्धारित प्रणाली नहीं बनाई गई. यह बात खुद सूचना और प्रसारण मंत्रालय और प्रसार भारती ने संसदीय समिति के समक्ष स्वीकार की है. संसदीय समिति ने इस बात की सिफारिश की है कि रेटिंग प्रणाली में पारदर्शिता लाने के लिए स्वतंत्र, योग्य और विशेषज्ञ ऑडिट फर्मों द्वारा रेटिंग एजेंसियों की ऑडिटिंग करवाई जाए. अमित मित्रा समिति ने भी यह सिफारिश की है. ऐसा करने से यह सुनिश्चित हो सकेगा कि आंकड़ों के साथ हेरा-फेरी नहीं हो रही है. हालांकि, टैम यह दावा करती है कि वह अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से आंतरिक ऑडिटिंग करवाती है.
ठाकुरता कहते हैं, ‘अगर टैम चाहती है कि टीआरपी पर लोगों का भरोसा बना रहे तो उसे कई कदम उठाने होंगे. सबसे पहले तो यह जरूरी है कि वह अपने मीटरों की संख्या बढ़ाए. मीटर हर वर्ग के घरों में लगें. गांवों तक इनका विस्तार हो और पूरे मामले में जितना संभव हो सके उतनी पारदर्शिता बरती जाए. कोई ऐसी व्यवस्था भी बने जहां टीआरपी से संबंधित शिकायत दर्ज करने की सुविधा उपलब्ध हो.’ सुधार की बाबत एनके सिंह कहते हैं, ‘पिछले दिनों ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के बैनर तले कई खबरिया चैनलों के संपादकों की बैठक हुई. इसमें यह तय किया गया कि हम टीआरपी की चिंता किए बगैर खबर दिखाएंगे.’
लेकिन विज्ञापन और आमदनी के दबाव के बीच क्या संपादक ऐसा कर पाएंगे? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘यह काफी कठिन काम है क्योंकि बाजार का दबाव हर तरफ है, लेकिन अब ज्यादातर समाचार चैनलों के संपादक इस बात पर सहमत हैं कि टीआरपी की चिंता किए बगैर अपना चैनल चलाना होगा. क्योंकि टीआरपी संभ्रांत वर्ग की पसंद-नापसंद को दिखाता है न कि हमारे सभी दर्शकों की रुचि को.’ आशुतोष कहते हैं, ‘ऐसा बिल्कुल संभव है कि खबरिया चैनल टीआरपी पर ध्यान न देते हुए खबरों का चयन करें. इसके लिए संपादक और प्रबंधन दोनों को अपने-अपने स्तर पर मजबूती दिखानी होगी. यह समझना होगा कि टीआरपी किसी भी खबरिया चैनलों का मापदंड नहीं हो सकता.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘अगर आप पिछले डेढ़ साल में समाचार चैनलों में सामग्री के स्तर पर आए बदलाव को देखेंगे तो पता चलेगा कि सुधार हो रहा है. यह सुधार रातोंरात नहीं हुआ है. बल्कि टीवी चैनलों पर सिविल सोसायटी, सरकार और सबसे अधिक दर्शकों का दबाव पड़ा है. दर्शक चैनलों को गाली देने लगे और समाचार चैनलों के सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया. इसके बाद बीईए बना और आपस में समाचार चैनलों के संपादक बातचीत करने लगे और सुधार की कोशिश की गई. इस बीच न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने भी आत्मनियमन की दिशा में काम किया. इसका असर अब दिख रहा है और समाचार चैनलों में खबर एक बार फिर से लौट रही है. कुछ चैनल अब भी टीआरपी के लिए खबरों को फैंटेसी की दुनिया में ले जाकर दिखा रहे हैं. इसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है. लेकिन समय के साथ वे भी सुधरेंगे.’

अमित मित्रा समिति ने यह भी कहा है कि हर रोज और हर हफ्ते रेटिंग जारी करने से चैनलों पर अतिरिक्त दबाव बनता है इसलिए इसे 15 दिन में एक बार जारी करने के विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है. कुछ ऐसी ही बात आशुतोष भी कहते हैं, ‘या तो टीआरपी की व्यवस्था को पूरी तरह से बंद किया जाए. अगर ऐसा संभव नहीं हो तो हर हफ्ते टीआरपी के आंकड़े जारी करने की व्यवस्था बंद हो. हर छह महीने पर आंकड़े जारी हों. इससे दबाव घटेगा और खबरों की वापसी का रास्ता खुलेगा. टीआरपी के मीटरों की संख्या बढ़ाई जाए और इसका बंटवारा आबादी के आधार पर हो. साथ ही हर क्षेत्र के मीटर को बराबर महत्व (वेटेज) दिया जाए.’
इस बीच एनबीए ने टैम मीडिया रिसर्च से आंकड़े जारी करने की समय-सीमा में बदलाव की मांग की है. एनबीए का कहना है कि टीआरपी आंकड़े जारी करने की अवधि को साप्ताहिक से मासिक कर दिए जाने से यह मीडिया के लिए ज्यादा लाभप्रद रहेगा. एनबीए द्वारा टैम से यह बातचीत पिछले कुछ दिनों से हो रही थी, लेकिन अब एनबीए ने टैम को पत्र देकर टीआरपी जारी करने की अवधि में बदलाव करने की गुजारिश की है.

कुल मिलाकर मौजूदा व्यवस्था टीवी दर्शकों की पसंद-नापसंद को पूरी तरह व्यक्त करने में सक्षम नहीं है. इसमें सुधार की जरूरत है. बात सिर्फ हजारों करोड़ का विज्ञापन देने वालों के हित की नहीं है. करोड़ों दर्शकों के भले की भी है. l

मुलायम ‌सिंह

समाजवादी पार्टी

भाषा के क्रियोलीकरण के खतरे

बीते दिनों भारत भवन ने भोपाल में भूमंडलीकरण और भाषा के क्रियोलीकरण की समस्या पर दो दिन का एक परिसंवाद आयोजित किया. हालांकि परिसंवाद जितना महत्वपूर्ण था, लोगों की उपस्थिति या भागीदारी उस लिहाज से काफी कम थी. हो सकता है, इसकी एक वजह आयोजन की परिकल्पना या आयोजकों की सीमा में निहित हो, लेकिन यह भी स्पष्ट तौर पर समझ में आता रहा कि लोगों के लिए भाषा वह मुद्दा नहीं रह गई है जिस पर वे संजीदगी से विचार करने की फुरसत निकालें. क्या इसलिए कि वाकई भाषा की भूमिका हमारे जीवन में सीमित होती जा रही है? तकनीक हमारे जीवन में इस बुरी तरह छा गई है कि उसने कई दूसरी चीज़ों को बेदखल कर डाला है. दोस्ती, रिश्तेदारी, आपसदारी- ये सब या तो तकनीक के माध्यम से संभव हो पा रही हैं या बिल्कुल हमारी स्मृति से गायब होती जा रही हैं. उनके लिए हमारे पास तकनीक के अलावा कहीं और कोई अवकाश नहीं है. इन सामाजिक उपादानों के संदर्भ में जो बात स्थूल स्तर पर बहुत प्रत्यक्ष है वही सूक्ष्म स्तर पर भाषा को लेकर भी अनुभव की जा सकती है- अगर हमारे पास अनुभव करने की इतनी क्षमता बची भर हो.

जब दुनिया इतनी आसान और आरामदेह हो जाए, जब ज़माना वाकई मुट्ठियों या चुटकियों में सिमटा दिखाई दे तो फिर भाषा की ज़रूरत क्यों रह जाती है? 

दरअसल तकनीक ने किया क्या है? वह हर चीज को न्यूनीकृत कर रही है. वह सब कुछ पहले से इतना व्यवस्थित, इतना पूर्वनियोजित कर दे रही है कि दिल और दिमाग को किसी तरह का कष्ट न हो. ऐल्विन टॉफ़लर 1964 के नितांत सुस्त समय में- कम से कम आज की रफ्तार के मुकाबले- जिस ‘फ्यूचर शॉक’ से आक्रांत था, उसे भी जैसे यह तकनीक एक तरह से नियोजित कर ले रही है. उसके पास अब अतीत की सारी तस्वीरें हैं- बिल्कुल हमारी पैदाइश से लेकर हमारे डिग्री और नौकरी हासिल करने और पिछली शाम पहाड़ घूमने तक की-  और भविष्य की सारी परिकल्पनाएं हैं- आने वाले दिनों में हमें कहां बसना है, कहां नौकरी करनी है, बच्चों को किन स्कूलों में पढ़ाना है, उन्हें आगे चल कर क्या बनाना है- इन सब के ब्योरों सहित- और अतीत और भविष्य के बीच उस सारे वर्तमान पर भी उसका कब्ज़ा है जिसमें हमारे मित्र, सहयोगी, अपने-पराये, घर-दफ्तर सब शामिल हैं.

जब दुनिया इतनी आसान और आरामदेह हो जाए, जब जमाना वाकई मुट्ठियों या चुटकियों में सिमटा दिखाई दे तो फिर भाषा की जरूरत क्यों रह जाती है, या उसकी जगह क्या रह जाती है? एक तरह से यह तर्क उन माध्यमों में भी चल पड़ा है जिनका वास्ता शब्दों या भाषा से है. अखबार अब बड़े लेख नहीं छापते, छापते हैं तो वे पढ़े नहीं जाते. वे बहुत जानी-पहचानी शब्दावली से बाहर नहीं जाते- इस डर से कि उनका पाठक शब्दों के अर्थ और आशय खोजने की जगह कोई नया अखबार खोज लेगा जिसकी भाषा कहीं ज्यादा ‘आरामदेह’ हो- यानी दिलो-दिमाग पर सोचने का अतिरिक्त बोझ न डाले. टीवी चैनलों का नजरिया भी बेहद साफ है- खबर वैसी हो जो पाठक को कुछ बहलाए, कुछ सहलाए और कुछ यह तसल्ली दे कि यह खबर उसके काम की है, उसी की है. दिन भर के थके-मांदे दिमाग को विचार और सरोकार का बोझ नहीं चाहिए.

सवाल है कि इसमें बुराई क्या है. वाकई जब जीवन इतना आसान है तो उसे हम बोझिल क्यों बनाएं- नकली भाषा की तरह नकली चिंताओं की दुकान क्यों सजाएं? दरअसल दुकान का यह रूपक जान-बूझ कर इस्तेमाल किया गया है- बस यह याद दिलाने के लिए कि जो तकनीक इतना आराम दे रही है वह मुफ्त में नहीं दे रही, उसकी वह पूरी कीमत भी वसूल रही है और हमें-आपको बस ऐसे ग्राहकों की तरह देख रही है जो मोल चुकाएंगे तभी कुछ हासिल कर पाएंगे. और हम मोल चुका भी रहे हैं. जीवन में जो थकान है, किसी नए या दूर खड़े तनाव से बचने की जो घबराहट है, लगातार भागते रहने की जो मजबूरी है, और इस सारे तनाव के बीच मनोरंजन के नाम पर बहुत हल्का और विचारशून्य खोजने की जो चाहत है, वह इस नए जीवन की देन है. अगर ठीक से समझने की कोशिश करें तो हम पाएंगे कि दरअसल यह तकनीक का नहीं, उस पूंजी का खेल है जो इस तकनीक को संभव करती है और हमारा जीवन हमारे ऊपर थोपी हुई इच्छाओं के मुताबिक बदलता चलता है.

तकनीक के कंधों पर सवार यह पूंजी हमें एक नया मनुष्य बना रही है और इसी क्रम में चुपचाप हमसे हमारी भाषा भी छीन ले रही है. साफ तौर पर यहां भाषा से आशय हिंदी या मराठी या तमिल या तेलुगु या फिर अंग्रेजी से नहीं है- मनुष्य की उस बुनियादी जरूरत से है जो उसकी निजी गढ़न का आधार भी बनती है और उसके सामाजिक सरोकार का माध्यम भी. यह भाषा जितनी गहरी होती है, उसमें जितना फैलाव होता है, एक व्यक्ति और समाज के रूप में हमारे भीतर भी उतनी ही गहराई, उतना ही फैलाव आते-जाते हैं. ये फैलाव तकनीक और पूंजी को रास नहीं आते, उसे एक सपाट-समतल मैदान चाहिए जहां उसके अश्व दौड़ सकें, जहां उसका वैश्विक अश्वमेध संभव हो सके.

हमारी पूरी शब्दावली में तर्क-पद्धति और प्रक्रिया की पूरी तरह उपेक्षा करके सिर्फ कारोबार करने की नीयत दिखाई पड़ती है

भाषा का क्रियोलीकरण दरअसल इसी प्रक्रिया का हिस्सा है जिसकी मार हमारे समाज के संदर्भ में इन दिनों सबसे ज्यादा भारतीय भाषाओं और हिंदी को झेलनी पड़ रही है. हमारे अखबारों में धीरे-धीरे बिल्कुल आमफहम हिंदी शब्दों की जगह उनके अंग्रेजी अनुवादों के इस्तेमाल का फैशन चल पड़ा है, हमारे टीवी चैनलों में देवनागरी के बीच बहुत धड़ल्ले से रोमन लिपि की घुसपैठ बढ़ रही है, हमारी पूरी शब्दावली में सरोकार और विचार को बेदखल  करके, किसी तर्क-पद्धति और प्रक्रिया की पूरी तरह उपेक्षा करके सिर्फ सनसनी बेचने और कारोबार करने की नीयत सक्रिय दिखाई पड़ती है.

लेकिन यह सिर्फ एक भाषा को खत्म करने की नहीं, यह एक पूरे समाज से उसकी अभिव्यक्ति, उसके अनुभव और अंततः उसका आत्मसम्मान छीनने की प्रक्रिया है जो उसे पहले एक आत्महीन और असुरक्षित समाज में बदलती है और फिर एक ऐसे ग्राहक में जिसके हलक के भीतर कुछ आसान शब्द डाले जा सकें और उसकी जेब में पड़ा माल निकाला जा सके. निश्चय ही इस प्रक्रिया से एक भाषा के रूप में अंग्रेजी का भी नुकसान हुआ है. इन दिनों- कम से कम भारत में- जो अंग्रेजी लिखी जा रही है वह कहीं ज्यादा सतही, इकहरी और स्मृतिविहीन है. उसमें एक पेशेवर तराश जरूर है जिसकी वजह से वह एक चमकदार, विज्ञापनबाज भाषा के रूप में अपनी जगह बना लेती है. लेकिन फिर भी अंग्रेजी इस तकनीक और पूंजी की भी भाषा है, वह भारत के संदर्भ में एक विशेषाधिकार संपन्न भाषा है जो इसी विशेषाधिकार की वजह से अपना एक सांस्कृतिक दावा भी आरोपित करती चलती है, इसलिए यह समूचा क्रियोलीकरण उसके दबदबे को कुछ और अभेद्य बनाता है. फिर अंततः शिक्षा के माध्यम के तौर पर वह अपना एक अलग और विशेष समाज बनाती है जिसके अपने लेखक और बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें यह बाजार झुक कर प्रणाम करता है, अपनी बचत का एक हिस्सा दक्षिणा की तरह उन्हें देता भी है और साबित करता है कि वह उतना संस्कृतिविहीन नहीं, जितना उसे बताया जाता है.

अंततः संस्कृतिविहीनता का आरोप उस विराट भारतीय समाज पर आकर टिकता है जिससे उसकी भाषा, उसकी अभिव्यक्ति और उसके अभ्यास छीने जा रहे हैं. इस भारतीय समाज को बाजार के बौद्धिक समाज में तभी स्वीकृति मिलती है जब वह अंग्रेजी लिखना-बोलना सीखता है, उसकी पूजा करता है. भारत में दलित चेतना का जो नया उभार है उसकी कई सार्थक अभिव्यक्तियां मराठी, हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में हैं, उसको बौद्धिक नेतृत्व दे रहे लोगों की कतार बहुत बड़ी है, लेकिन अंग्रेजी के माध्यम एक ही दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद को जानते हैं जो निहायत सतही ढंग से कुछ अतिरेकी स्थापनाओं के पक्ष में खड़े होकर किसी बहस का एक उपयोगी पुर्जा बनने को तैयार रहते हैं. बाकी समाज में साहित्य और संस्कृति का ठेका बॉलीवुड के तथाकथित गिने-चुने बुद्धिजीवियों के हाथ में है. इनमें गुलजार जैसे संवेदनशील गीतकार, एक जमाने के फाॅर्मूला फिल्मों के संवाद लेखक और इन दिनों गीतकार हो गए जावेद अख्तर और विज्ञापन की दुनिया से आए प्रसून जोशी जैसे लोग हैं, लेकिन उनकी यूएसपी भी सिर्फ उनका रचनाकर्म नहीं, एक माध्यम के रूप में अंग्रेजी से उनकी निकटता और अंग्रेजी के तथाकथित बौद्धिकों से संवाद कर सकने की उनकी क्षमता है. वरना जावेद अख्तर और प्रसून जोशी जैसे रचनाकार हिंदी में निहायत औसत प्रतिभा के लोग ठहरते हैं; उनसे बेहतर कवि, गद्यकार और विचारक दस-बीस नहीं, सैकड़ों में निकलेंगे.

लेकिन इस नए बनते समाज की निगाहों में हिंदी या भारतीय भाषाओं की अपनी बौद्धिकता एक पिछड़े जमाने की चीज है. क्योंकि वह कुछ बाजार-विरोधी और प्रगतिविरोधी जान पड़ती है. क्योंकि वह विकास द्वारा बनाई जा रही मीनारों को नहीं, उसके द्वारा बेदखल किए जा रहे मैदानों को देखती है. क्योंकि वह तकनीक की नहीं, भाषा की बात करती है.

भाषा का क्रियोलीकरण दरअसल इसलिए भी खतरनाक है कि वह भाषा को उसके मूल अर्थों में भाषा नहीं रहने देता, वह उसे बस एक तकनीक में बदल डालता है जिसके जरिए आप अपनी इच्छा या राय- अगर कोई अपनी इच्छा या राय हो तो- दूसरों तक पहुंचा सकें. इसीलिए न उसमें व्याकरण का अनुशासन चाहिए और न लिपि की अपरिहार्यता. ऐसी भाषा बोलने और बरतने वाले लोग धीरे-धीरे अपनी बौद्धिक स्वतंत्रता से भी वंचित होते जाते हैं, और उन्हें पता भी नहीं चलता. वे बस एक दिया हुआ काम दिए हुए वेतन पर करते हैं और दी हुई खुशी पर निसार होकर जीवन जीते रहते हैं. क्रियोलीकरण इस बौद्धिक गुलामी का पहला क़दम है जिसका प्रतिरोध जरूरी है ताकि हम सोचने-समझने वाली जमात के तौर पर बचे रह सकें.  

मोदी पर मोहित चैनल

न्यूज चैनलों की कई कमजोरियों में से एक बड़ी कमजोरी यह है कि उन्हें पूर्वनियोजित घटनाएं यानी इवेंट बहुत आकर्षित करते हैं. खासकर अगर उस इवेंट से कोई बड़ी शख्सियत जुड़ी हो, उसमें ड्रामा और रंग हो, कुछ विवाद और टकराव हो और उसमें चैनलों के लिए ‘खेलने और तानने’ की गुंजाइश हो तो चैनल उसे हाथों-हाथ लेते हैं. चैनलों की इस कमजोरी की कई वजहें हैं. पहली बात तो यह है कि दृश्य-श्रव्य माध्यम होने के नाते विजुअल उनकी सबसे बड़ी कमजोरी हैं. वे हमेशा विजुअल की खोज में रहते हैं. इवेंट में उन्हें बहुत आसानी से विजुअल मिल जाते हैं. उन्हें इसके लिए अपने दिमाग पर बहुत जोर नहीं लगाना पड़ता है क्योंकि इवेंट में उन्हें सब कुछ बना-बनाया मिल जाता है. दूसरे, इवेंट को कवर करने के लिए उन्हें कोई खास खर्च नहीं करना पड़ता. यही नहीं, ऐसे इवेंट कई बार प्रायोजित भी होते हैं जिन्हें कवर करने के बदले चैनलों को मोटी रकम मिलती है. तीसरे, इवेंट के लाइव कवरेज और उस पर स्टूडियो चर्चाओं में चैनलों को अपनी ओर से भी ड्रामा, विवाद और सस्पेंस रचने का मौका मिल जाता है. इससे उन्हें अधिक से अधिक दर्शक खींचने में भी मदद मिलती है.

यह मोदी ब्रांड की नई मार्केटिंग रणनीति है जिसमें दागों को ‘विकास की चमक’ में छिपाने की कोशिश की जा रही हैचैनलों की इस कमजोरी से राजनेता से लेकर कारपोरेट जगत तक और अभिनेता-खिलाड़ी से लेकर धर्म गुरुओं तक सभी वाकिफ हैं. वे इसका खूब इस्तेमाल भी करते हैं. वे मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में प्रचार पाने और सुर्खियों में बने रहने के लिए जमकर मीडिया इवेंट आयोजित करते हैं. आखिर उनका धंधा भी काफी हद तक सुर्खियों में बने रहने से टिका है. आश्चर्य नहीं कि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की इस कमजोरी को भुनाने और अपने क्लाइंटों को अधिक से अधिक प्रचार देने और सुर्खियों में बनाए रखने के लिए इवेंट मैनेजमेंट का एक विशाल उद्योग खड़ा हो गया है. इवेंट या पीआर मैनेजरों का एक बड़ा काम यह है कि वे अपने क्लाइंटों के लिए ऐसे इवेंट आयोजित करें जो न सिर्फ मीडिया को ललचाएं बल्कि उनके क्लाइंट को सकारात्मक कवरेज दिलवाने में मदद करें.

कई ‘मीडिया सुजान’ नेताओं की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी मीडिया खासकर चैनलों की इस कमजोरी को अच्छी तरह जानते हैं. इसलिए जब उन्हें लगा कि मौजूदा राजनीतिक उथल-पुथल के बीच 2014 के आम चुनावों के मद्देनजर अब राष्ट्रीय राजनीति और खासकर भाजपा के अंदर प्रधानमंत्री पद के लिए दावा ठोकने का समय आ गया है तो उन्होंने एक मीडिया इवेंट आयोजित करने में देर नहीं लगाई. मोदी और उनकी टीम को इस राजनीतिक मीडिया इवेंट का स्वरूप तय करने में ज्यादा दिमाग नहीं खर्च करना पड़ा. अन्ना हजारे और उनके अनशन इवेंट की शानदार सफलता उनके सामने थी. आश्चर्य नहीं कि बगैर देर किए मोदी ने गुजरात में सद्भावना के लिए तीन दिन के अनशन करने की घोषणा कर दी. करोड़ों रु खर्च करके देश भर के अखबारों में विज्ञापन दिया गया. न्यूज चैनलों के लाइव कवरेज के लिए विशेष इंतजाम किए गए, रिपोर्टरों और खासकर दिल्ली से बुलाए स्टार रिपोर्टरों/एंकरों की पूरी आवभगत की गई. उसके बाद क्या हुआ, वह इतिहास है. कल तक अन्ना की सेवा में लगा ‘डिब्बा’ मोदी सेवा में भी पीछे नहीं रहा. तीन दिन तक मोदी चैनलों के परदे पर छाए रहे और हर दिन उनकी छवि और बड़ी होती गई. चैनलों ने थोक के भाव मोदी के ‘एक्सक्लूसिव’ इंटरव्यू दिखाए. प्राइम टाइम चर्चाओं में मोदी बनाम राहुल गांधी से लेकर मोदी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता पर घंटों चर्चा हुई. मोदी को बिना किसी गहरी जांच-पड़ताल के विकास पुरुष और सुशासन के प्रतीक के रूप में पेश किया गया.
हालांकि इन रिपोर्टों, साक्षात्कारों और चर्चाओं में गुजरात के 2002 के दंगों और उसमें मोदी की भूमिका की भी खूब चर्चा हुई और सवाल भी पूछे गए, लेकिन कुल मिलाकर उसे एक ‘विचलन’ (एबेरेशन) की तरह पेश करने की कोशिश की गई. 2002 को 1984 के सिख नरसंहार और अन्य दंगों के बराबर ठहराने के प्रयास हुए. 2002 को भूलने और आगे देखने की सलाहें दी गईं. इसके लिए गुजरात के कथित विकास का मिथ गढ़ा जा रहा है. कहा जा रहा है कि मोदी ने गुजरात में विकास की गंगा बहा दी है. राज्य बहुत तेजी से तरक्की कर रहा है. राज्य में सुशासन है.

साफ है कि यह मोदी ब्रांड की नई मार्केटिंग रणनीति है जिसमें दागों को ‘विकास की चमक’ में छिपाने की कोशिश की जा रही है. चैनलों में मोदी भक्तों की कभी कमी नहीं रही लेकिन अब वे खुलकर सामने आने लगे हैं. ‘आपको आगे रखने वाले’ चैनल के एक ऐसे ही स्टार एंकर/रिपोर्टर तो मोदी से इतने प्रभावित दिखे कि इंटरव्यू में अपनी पक्षधरता छिपाए बिना नहीं रह सके. सवाल पूछते हुए कहा कि ‘मैं निजी तौर पर मानता हूं कि देश की जनता आपको प्रधानमंत्री के रुप में देखना चाहती है.’ क्या बात है! इस महान रिपोर्टर को यह इलहाम कहां से हुआ? क्या आजकल उनका जनता जनार्दन से कोई दैवी संवाद हो रहा है? सचमुच, चैनलों की महिमा अपरंपार है! मानना पड़ेगा कि मोदी मोह में उन्होंने सच की ओर से आंखें बंद कर ली हैं.

गठबंधन में दरार !

क्या ये सिर्फ छोटी-मोटी झड़पें हैं या फिर यूपीए गठबंधन की दो सबसे बड़ी पार्टियों के बीच भविष्य में लंबी चलने वाली लड़ाई की शुरुआत. हालिया दिनों में ऐसा लग रहा है कि जैसे तृणमूल कांग्रेस एक धौंस जमाने वाले दबंग में तब्दील होती जा रही है.
सबसे पहले तीस्ता नदी समझौते को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने खारिज कर दिया. उसके बाद गुजरे हफ्ते तृणमूल के महासचिव और जहाजरानी राज्यमंत्री मुकुल राय ने वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को फोन करके पेट्रोल मूल्य वृद्धि पर अपना विरोध जताया. खबरों के अनुसार राय का कहना था, ’मूल्य बढ़ोतरी करने से पहले हम लोगों से पूछा जाना चाहिए था. हमारी पार्टी सरकार में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है.’ नई दिल्ली में मुकुल राय ने और कोलकाता में ममता बनर्जी ने यह भी स्पष्ट किया कि रसोई गैस के दामों में बढ़ोतरी स्वीकार नहीं की जा सकती.

पंचायत, नगर पालिका, विधानसभा और आम चुनावों के लगातार आते रहने से ममता यूपीए के ऐसे फैसलों से बिलकुल सहज नहीं होंगी

तीस्ता संधि का विरोध, रसोई गैस की मूल्य वृद्धि और भूमि अधिग्रहण विधेयक पर ममता बनर्जी का अड़ियल रुख (ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश न सिर्फ इस पर विचार-विमर्श के लिए कोलकाता गए बल्कि विधेयक का ड्राफ्ट तैयार होने का श्रेय भी उन्होंने राहुल गांधी के अलावा सिर्फ ममता बनर्जी को दिया), इन सभी के पीछे एक ही वजह नजर आती हैः आने वाले तीन साल में तृणमूल को दो बड़े चुनावों का सामना करना है. पश्चिम बंगाल में 2012 के पंचायत चुनाव वामपंथी राज के खत्म होने के बाद के पहले चुनाव होंगे. इनसे ममता को अपना ग्रामीण आधार मजबूत करने और सीपीएम को और भी कमजोर करने में मदद मिलेगी. साथ ही 2014 के लोकसभा चुनाव का भी तृणमूल अनुकूल फायदा उठाना चाहेगी. तृणमूल के एक सांसद के मुताबिक, ’2009 में प्रदेश में 42 सीटों का बंटवारा 2:1 के आधार पर हुआ था. अगली बार ममता दीदी कांग्रेस के लिए आठ से ज्यादा सीटें नहीं छोड़ना चाहेंगी.’

गणित के अनुसार, वाम मोर्चा कम से कम दस सीटें तो जीतेगा ही. तृणमूल कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ’इससे कम सीटें तो नहीं हो सकती हैं.’ वहीं तृणमूल का इरादा 25 का आंकड़ा छूना है (अभी इसके पास 19 लोकसभा सासंद हैं). इस समीकरण के हिसाब से प्रदेश में पहले से ही उपेक्षित महसूस कर रही कांग्रेस के लिए काफी कम संभावनाएं बचती हैं. ममता को लगता है कि भारत एक और त्रिशंकु लोकसभा की राह पर है. इसलिए वे अपना प्रभाव इतना बढ़ाना चाहती हैं कि बाद में उन्हें मोल-भाव करने में आसानी हो. साथ ही वाममोर्चे के कमजोर रहते वे जितना हो सके अपने को मजबूत बना लेना चाहती हैं.

क्या इसका मतलब यह है कि ममता जल्दी चुनाव चाहती हैं? उनके विश्वासपात्रों के अनुसार यह जरूरी नहीं है. पेट्रोल की कीमतों की बढ़ोतरी के एक दिन बाद ममता ने अपनी कोर ग्रुप की मीटिंग बुलाई थी. इसमें उन्होंने पॉलिसी से जुड़े मुद्दों पर उनसे मशविरा नहीं करने पर कांग्रेस की खिंचाई की थी. साथ ही उन्होंने कहा, ’हम लोगों को चुनावों के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए.’ उनका ऐसा बयान कुछ लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर गया कि कहीं ममता जल्दी चुनाव कराने के पक्ष में तो नहीं हैं? मगर जल्द ही ममता के सहयोगियों ने इसे नकार दिया. मामले को तूल देने की बजाय उन्होंने कहा कि ममता तो जल्दी चुनाव होने की संभावना से ही चिंतित हैं. रेल मंत्री रहते हुए ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में 19 परियोजनाओं का उद्घाटन किया था जिसमें से 50 फीसदी परियोजनाएं कोलकाता और उत्तर और दक्षिण 24 परगना जैसे तीन जिलों में हैं जो तृणमूल के गढ़ हैं. एक पार्टी कार्यकर्ता के अनुसार, ’सारी परियोजनाएं 2012 या 2013 तक पूरी हो जाएंगी और दीदी उस मोर्चे पर कोई भी गड़बड़ी नहीं चाहती हैं.’
ममता मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी के आर्थिक फैसलों का भी विरोध कर रही हैं. रसोई गैस की मूल्य वृद्धि का विरोध करने के अलावा ममता ने विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाले मल्टी-ब्रांड रिटेल के खुलने का भी विरोध किया था. कुछ हफ्तों पहले जिस रिटेल में उदारीकरण संभव दिख रहा था अब उसे चुपचाप दफना दिया गया है. इसके अलावा, प्रणब मुखर्जी और ममता द्वारा चुने गए रेल मंत्री दिनेश तिवारी यात्री भाड़ा बढ़ाने को तैयार नहीं हैं. वित्त मंत्री की कोशिश है कि ट्रेन भाड़े को तर्कसंगत बनाया जाए. लेकिन ममता अपने कार्यकाल की तरह अभी भी ऐसा करने को तैयार नहीं हैं. उनकी चिंता है कि कहीं महंगाई का एक कारण उन्हें भी न बता दिया जाए जिससे वामपंथियों को बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल जाएगा.

वित्त मंत्री और पश्चिम बंगाल सरकार एवं कांग्रेस के मध्यस्थ दोनों ही  रूपों में प्रणब मुखर्जी को तृणमूल की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है. तीस्ता प्रकरण और पेट्रोल की कीमतों के मुद्दे पर प्रणब को तृणमूल के मंत्रियों के तीखे बयान झेलने पड़े हैं. मगर वे अकेले कांग्रेसी मंत्री नहीं हैं जिनसे ममता की पार्टी ने दो-दो हाथ किए हैं. ममता बनर्जी मानती हैं कि कांग्रेस नहीं चाहती है कि वे सफल हों. उन्हें शक है कि कांग्रेस प्रदेश की परियोजनाओं को अनुमति देने में देरी करने जैसे अलग-अलग तरीके अपना कर पंचायत और आम चुनावों में अपना प्रभाव कायम करना चाहती है.

पश्चिम बंगाल को जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन से निधि मिलनी है. मगर इस तरह की आर्थिक मदद हमेशा कुछ शर्तों के साथ आती है. ऐसी ही एक शर्त है कि पीने के पानी के लिए बुनियादी ढांचे को मजबूत करने से पहले पानी पर टैक्स बढ़ाया जाए. मगर ममता इसके खिलाफ हैं और अपने इस रुख से वे शहरी विकास मंत्रालय – जिसके मंत्री कमलनाथ हैं – को भी अवगत करा चुकी हैं. इस सबके बीच तृणमूल के सांसद सोगता राय फंसे हुए हैं जो शहरी विकास मंत्रालय में राज्यमंत्री हैं. सोगता से तृणमूल को उम्मीद है कि वे पश्चिम बंगाल को एक बार अपवाद मान कर उसे इस मामले में छूट दे दें. ममता का कहना है कि इस तरह के प्रावधान और राज्यों पर लागू किए जा सकते हैं पर पश्चिम बंगाल पर नहीं. एक कांग्रेस सांसद सवाल करते हैं, ‘मगर यह कैसे मुमकिन है?’

ममता के लिए एक और महत्वपूर्ण परियोजना है कोलकाता में स्थित हुगली नदी के किनारे को नये सिरे से विकसित करने की. इसका जिक्र तृणमूल के चुनाव घोषणापत्र में भी था. इसको तीन विभाग मिल कर पूरा करेंगे: कोलकाता नगर निगम, जो तृणमूल कांग्रेस के पास हैं, कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट, जो जहाजरानी मंत्रालय के अधीन आता है और जिसके राज्यमंत्री तृणमूल के मुकुल राय हैं, और रेलवे मंत्रालय, जिसके मंत्री तृणमूल के दिनेश त्रिवेदी हैं. मगर इस परियोजना पर सेना को आपत्ति है क्योंकि वह इलाका पूर्वीय कमान में आता है. इस मसले पर पश्चिम बंगाल सरकार चाहती है कि रक्षा मंत्री एके एंटनी हस्तक्षेप करें मगर उन्होंने अभी तक इस मसले को टाला हुआ है. उधर, तृणमूल को लगता है कि यह जान-बूझकर किया जा रहा है और कांग्रेस इस मामले में अड़ियल रुख अपना रही है.

पंचायत, नगर पालिका, विधानसभा और आम चुनावों के नियमित अंतराल में आते रहने से साफ है कि ममता बनर्जी यूपीए के ऐसे फैसलों से बिलकुल भी सहज नहीं होगी जिसका विपरीत असर उनकी पार्टी पर पड़े. वहीं कांग्रेस को डर है कि तृणमूल वर्चस्व की इस लड़ाई में कहीं उसे पश्चिम बंगाल से बाहर ही न कर दे. इसी का परिणाम है दोनों के बीच विश्वास की यह कमी जिसकी वजह से यूपीए की पहले से बढ़ी परेशानियां और ज्यादा बढ़ रही हैं.   

‘उनके पास हमेशा बहाना तैयार रहता था’

चार साल पहले 28 वर्षीय रोहित शेखर ने उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और आंध्र प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ देश का पहला पितृत्व निर्धारण का मुकदमा दायर किया था. इस मुकदमे ने कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े किए-मसलन क्या कोई ताकतवर राजनेता किसी संबंध के चलते हुई संतान को अपना मानने से इनकार कर सकता है और इस मामले में साफ-साफ बच निकल सकता है? यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि क्या किसी व्यक्ति को अपना डीएनए टेस्ट कराने के लिए बाध्य किया जा सकता है? क्या तिवारी का यह दावा सही है कि उन्हें एक ऐसे आदमी द्वारा ब्लैकमेल किया जा रहा है जो उनकी संतान नहीं है? और इस मुकदमे का उन बच्चों के लिए क्या निहितार्थ होगा, जो इसी तरह के संबंधों के चलते जन्म लेते हैं और ताजिंदगी सामाजिक तिरस्कार झेलते हैं?

शेखर का दावा है कि वे तिवारी के जैविक पुत्र हैं. उनकी मांग है कि तिवारी को यह बात स्वीकार करनी चाहिए. दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय ने 84 वर्षीय तिवारी को उनकी उम्र के मद्देनजर अपना डीएनए का नमूना देने का आदेश दिया था मगर तिवारी इससे बार-बार इनकार करते रहे हैं. पिछले पखवाड़े उनके फिर से इनकार के बाद अदालत ने कहा कि मामले के साक्ष्यों का आकलन करते हुए इस तथ्य को पूरक साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. यहां पेश है शेखर का पक्ष-

अक्सर पूछा जाता है कि मुझे नारायण दत्त तिवारी के खिलाफ पितृत्व निर्धारण का मुकदमा दायर करने में इतना समय क्यों लगा. 18 साल के लड़के से इतने ताकतवर आदमी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की शुरुआत करने की उम्मीद करना लगभग असंभव है. 2001 में जब हमने दिल्ली के तिलक लेन स्थित उनके घर में उनसे मिलने की कोशिश की थी तो उनके आदमियों ने हमारे साथ मारपीट की थी. 2002 से 2005 के बीच मैं उनसे कभी-कभी मिलता रहा. वे कहते थे, ‘अरे! तुम्हारी नाक तो एकदम मेरी तरह है, तुम मेरी तरह दिखते हो, तुम लगभग मेरी तरह बोलते हो’, लेकिन जब मेरी मां उनसे पूछतीं कि फिर वे मुझे बेटे के रूप में क्यों नहीं स्वीकार करते तो उनके पास हर समय बहाना तैयार रहता था.

मुख्यमंत्री आवास के अपने कमरे में उन्होंने खूब प्यार जताया, लेकिन दूसरे लोगों की मौजूदगी में उनके लिए मेरा वजूद ही नहीं था

मैं भी उनसे यही सवाल पूछता ताकि अगर कुछ नहीं तो इस मामले को किसी तरह के अंजाम तक पहुंचाया जा सके. वे हमेशा कंधा उचका कर कहते कि वे स्वीकार कर सकते थे, लेकिन कुछ मजबूरियां थीं. मैं पूछता कि कौन सी मजबूरियां? आपने 53 साल की उम्र में 35 साल की मेरी मां के साथ आठ साल तक संबंध रखा. उनके पीछे पड़े रहे कि  वे आपसे एक संतान पैदा करें और उसके बाद आप उनसे शादी कर लेंगे. आपने मेरी मां के साथ बहुत अन्याय किया है और मेरी जिंदगी के 23-24 (उस समय) साल बर्बाद कर दिए हैं. वे चुप रहीं क्योंकि वे मेरी पढ़ाई के दिन थे. लेकिन अब मैं चुप नहीं रहूंगा.’ मैं 24 साल का था और हर समय सोचता रहता था कि इस आदमी ने मेरी क्या गत बना दी है. मैं आईएएस की परीक्षा देना चाहता था, लेकिन अनिद्रा की बीमारी के कारण ऐसा नहीं कर सका.

2005 में बहुत-सी घटनाएं हुईं. हमें जलील करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी. उन्होंने साफ कह दिया था कि वे हमें स्वीकार नहीं करेंगे. उन्होंने मुझे लटकाए रखा. मैं कभी-कभी उन्हें अपने पिता के रूप में देखता था, जिसके लिए मन में इज्जत उभरती थी. लेकिन बाकी समय वे ऐसे प्रेत की तरह हमारे जीवन पर मंडराते रहे जो मेरी मां की शांति और मेरे पूरे परिवार को खा जाना चाहता हो. अपनी पहचान को लेकर मेरे मन में बहुत उथल-पुथल चल रही थी. यह तब की बात है जब यह व्यक्ति उत्तराखंड का मुख्यमंत्री था और बहुत ताकतवर था. बहुत से लोग उन्हें प्रेरणा के तौर पर देखते थे. वे बहुत ताकतवर थे और इसी ताकतवर व्यक्ति ने मेरे साथ अन्याय किया था जिसकी इबारत मेरे चेहरे पर साफ लिखी नजर आती थी.

मुझे गोद लेने वाले मेरे पिता बीपी शर्मा ने अपनी जिम्मेदारी अच्छी तरह से निभाई. मुझे अपने जैविक पिता के बारे में 11 साल की उम्र में बताया गया. मेरे दिमाग में हमेशा उस आदमी की छवि तैरती रहती थी जिसके बारे में मेरा मानना था कि मेरी शक्ल और आवाज उससे मिलती है. लोग कहते हैं कि मैं उनकी तरह ही दिखता हूं. सामान्य बच्चों के लिए यह आम बात होती है, लेकिन मेरे लिए नहीं थी. इसने मुझे चीर कर रख दिया. कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है यह मेरे लिए यह बड़ी विचित्र स्थिति थी.
कुछ घटनाओं के चलते मैं इस व्यक्ति के खिलाफ पितृत्व निर्धारण का मुकदमा करने को बाध्य हुआ. 2005 में मैंने बहुत भोलेपन से उनसे कहा था, ‘आप अपनी सेहत का ध्यान क्यों नहीं रखते!  आपको योग करना चाहिए. मैं 24 साल का हो गया हूं. मैं जल्दी ही परिवार बसाना चाहता हूं. आपके पोते-पोतियां होंगे. हम सब एक परिवार की तरह रहेंगे.’ जब यह बात मैंने अपनी नानी को बताई तो उन्होंने कहा, ‘तुम पागल हो. इस आदमी में भावनाएं हैं ही नहीं.’  ठीक यही हुआ भी. मुख्यमंत्री आवास के अपने कमरे में उन्होंने खूब प्यार जताया, लेकिन दूसरे लोगों की मौजूदगी में उनके लिए मेरा वजूद ही नहीं था. एक बार मैं उनसे मिलने के बाद उनके कमरे के बाहर इंतजार कर रहा था. वहां पहले से मौजूद विधायकों ने मुझे मुख्यमंत्री के कमरे से बाहर आता देखकर पूछा कि मैं कौन हूं. मैंने बहुत दबी आवाज में कहा कि एक शोध के सिलसिले में दिल्ली से आया हूं. जब तिवारी बाहर आए तो उन्होंने ऐसा व्यवहार किया जैसे वे मुझे जानते ही नहीं. ऐसा नहीं कि मेरी मां ने इस बारे में मुझे सचेत नहीं किया था, लेकिन सिर्फ मैं ही जानता हूं कि यह कितना तकलीफदेह होता है.

उनके 80 वें जन्मदिन पर तो मैं पूरी तरह टूट गया. मुख्यमंत्री के घर के सामने बधाई देने के लिए हजारों लोग इकट्ठा हुए थे. मैं भी वहां गया था. उन्होंने बहुत प्यार से मुझसे माला ली और मुझे एक गुलदस्ता भी दिया. मुझे लगा कि शायद अब से वे मुझे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने लगेंगे. मैं केक भी लेकर गया था. तभी कुछ लोग आए और बोले कि मेरा वहां होना तिवारी के लिए ठीक नहीं होगा. सौभाग्य से मेरे पास उस दिन के फोटोग्राफ मौजूद हैं.

अगले दिन जब उनसे मिला तो मैंने विरोध किया, ‘अब यह बात इस कमरे तक ही सीमित नहीं रहेगी. आप मुझे अकेले में गले लगाते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से मुझे जवाब देना पड़ता है कि मैं कौन हूं. मुझे नहीं पता कि मैं क्या करने जा रहा हूं, लेकिन इतना तय है कि यह बुरा होगा.’ उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन उनका चेहरा लाल पड़ गया. शायद तभी मैं उनसे आखिरी बार मिला था.

मैंने उत्तराखंड में तमाम लोगों के पास चिट्ठियां भेजीं. 2006 में पूरे साल मैंने उनके खिलाफ अभियान चलाया और वे लगातार इसके विरोध में कहते रहे कि ‘ये मेरा लड़का नहीं है. सिर्फ मुझे ब्लैकमेल कर रहा है.’ तब मैंने कानूनी विकल्पों पर विचार करना शुरू किया. लोगों ने कहा कि मैं पागल हो गया हूं. मुकदमा बनता ही नहीं है. लेकिन मैं हार मानने को तैयार नहीं था. हम एक साल तक उनके खिलाफ अभियान चलाते रहे. 2007 में वे आंध्र प्रदेश के गवर्नर बनाए गए. मैं उनके खिलाफ कुछ भी करने से डर रहा था क्योंकि मेरे पास कोई सबूत नहीं था. मैं अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर भी चिंतित था. फिर भी सितंबर 2007 में मैंने मुकदमा करने का निश्चय किया. लेकिन तब तक मेरा स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था. पांच जुलाई, 2007 को मुझे बड़ा हार्ट अटैक हुआ लेकिन इसका पता ही नहीं चल सका. दो महीने बाद सितंबर 2007 में धमनियों में रुकावट के चलते ब्रेन हैमरेज हुआ. डॉक्टरों ने कहा कि यह अटैक लंबे तनाव का नतीजा है.

कानूनी प्रक्रिया लंबी, खर्चीली और पीड़ादायक है. कई बार मैं इस मुकदमेबाजी से थक चुका हूं और फिलहाल बहुत तनावग्रस्त हूं. इस मामले में कई अभूतपूर्व निर्णय भी हुए हैं. मेरी जानकारी के अनुसार इससे पहले किसी अदालत ने पितृत्व और वैधता को अलग-अलग नहीं देखा था. सम्मानित उच्च न्यायालय ने पिछले साल इनके बीच फर्क किया. फिलहाल मैं उस कानून के चलते थोड़ा निराश हूं जिसके चलते मामले के उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन रहते कोई भी पक्ष दूसरे के खिलाफ अभियान नहीं चला सकता.
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के निर्णय को सही ठहराया कि तत्काल डीएनए टेस्ट कराया जाना चाहिए नहीं तो मेरे न्याय पाने की संभावना हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी. इसी साल सात फरवरी को अदालत ने कहा कि यदि तत्काल डीएनए टेस्ट नहीं कराया जाता है तो वादी को अपूरणीय क्षति होगी.

मेरी हताशा और निराशा का मूल कारण यह है कि इन आदेशों के बावजूद तिवारी ने डीएनए जांच के लिए अपने खून का नमूना नहीं दिया है. एक जून को उनके खून का नमूना लेने के लिए अदालत ने एक डॉक्टर नियुक्त किया था. लेकिन इसके दो दिन पहले ही तिवारी ने उन्हीं बातों को दोहराते हुए फिर से आवेदन दे दिया कि यह मुकदमा अत्यंत ओछा है और उन्हें डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. तब से नौ या दस सुनवाइयां हो चुकी हैं. मेरे लिए यह सब बहुत महंगा और कष्टकारी है.
वे मामले को अदालत में लंबा खींचने में सफल हो रहे हैं. अदालत द्वारा फरवरी और जुलाई में तत्काल डीएनए टेस्ट कराने पर जितना बल दिया गया था वह तकनीकी चीजों में उलझकर रह गया है. सबसे ज्यादा दुख की बात तो यह है कि मुझे न्याय तो मिल गया है, लेकिन उसे लागू नहीं किया जा रहा है. हर गुजरते दिन के साथ मेरे मामले के सबसे प्रबल सबूत के हमेशा के लिए मिट जाने की संभावना बढ़ती जा रही है. इसका मतलब होगा कि यह मुकदमा मेरे तईं असमाप्त ही रह जायेगा. अब यह सार्वजनिक हो चुका है. लोग मुझसे जीवन भर सवाल कर सकते हैं कि तुमने ऐसा क्यों किया? तुम कौन हो? मेरी मां और मेरे लिए यह बहुत जरूरी है कि यह मामला अपने अंजाम तक पहुंचे.

(रेवती लाल से बातचीत पर आधारित)

माया के मारे

जीटी रोड पर सफर करते हुए गाजियाबाद से करीब सात किलोमीटर आगे अचानक आपको एक विशाल पार्क और हेलीपैड नजर आते हैं. हाईवे से कटती एक खूब चौड़ी सड़क भी दिखती है. काम जिस भव्य स्तर पर चल रहा है उससे एकबारगी भ्रम होता है कि यहां शायद कोई बड़ा शहर बसाया जा रहा है. मगर यह सूबे की मुख्यमंत्री मायावती का अपना गांव बादलपुर है.

इलाके में थोड़ी देर घूमने के बाद यहां चल रहे निर्माण की भव्यता का ठीक-ठीक अंदाजा होता है. बड़े-बड़े पार्क, चौड़ी सड़क, हेलीपैड, ग्रीन बेल्ट और इस सबके बीच कई एकड़ जमीन पर बन रही एक भव्य कोठी. यह कोठी सूबे की मुख्यमंत्री मायावती की है. पूछा जा सकता है कि इसमें क्या खास बात है? क्या सूबे की मुख्यमंत्री अपने लिए कोठी नहीं बनवा सकतीं? और पार्क, ग्रीनबेल्ट या चौड़ी सड़कों पर भला किसी को क्या एतराज हो सकता है?

‘जमीन खरीदना गुनाह नहीं लेकिन यह कहां का न्याय है कि कोठी के लिए कई परिवार सड़क पर खड़े कर दिए जाएं?’लेकिन एतराज है और सबसे ज्यादा बादलपुर गांव के लोगों को है. इसलिए क्योंकि सूबे की मुखिया के इस आशियाने के लिए गांव के कई परिवार सड़क पर आ गए हैं. दरअसल इस कोठी के बनने की कहानी ही कई तरह के गंभीर सवालों से भरी पड़ी है. इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि जनता के पैसे से बनाए गए जिन विशाल पार्कों, हेलीपैड और ग्रीन बेल्ट का जिक्र ऊपर हुआ है उनके निर्माण का उद्देश्य सिर्फ यही लगता है कि इस कोठी की खूबसूरती में चार चांद लग सकें. विडंबना देखिए कि इस काम के लिए भूअधिग्रहण कानून की आड़ ली गई. अर्जेंसी क्लॉज के अंतर्गत औद्योगिक विकास के नाम पर जमीनें अधिगृहीत करके लोगों को यह आभास दिया गया कि उनकी जमीन पर उद्योग लगेंगे और उन्हें रोजगार मिलेगा. लेकिन उद्योगों की जगह पार्क, हेलीपैड आदि बनने लगे. इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री की कोठी के लिए उस नहर को भी खत्म कर दिया गया जिससे बादलपुर सहित कई गांवों के किसान अपने खेत सींचते थे.

बादलपुर गांव की सूरत देखकर पहली नजर में लगता है कि प्रदेश में सबसे अधिक विकास यहीं हुआ है और यहां के बाशिंदे बेहद खुशहाल होंगे. लेकिन किसानों से बातचीत के बाद यह भ्रम दूर हो जाता है. जो किसान 2007 के पहले तक अपनी गांव की बेटी के खिलाफ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं होते थे वही आज मदद मांग रहे हैं. नाम न छापने की शर्त पर एक किसान बताते हैं, ’10-12 साल पहले तक गांव में बहन जी या उनके परिवार के नाम एक इंच जमीन भी नहीं थी. आज उनके पास गांव में कई बीघे जमीन है जो यहीं के किसानों से खरीदी गई. जमीन खरीदना कोई गुनाह नहीं लेकिन यह कहां का न्याय है कि सिर्फ उन्हीं की कोठी के लिए पूरे गांव के परिवार सड़क पर खड़े कर दिए जाएं?’

मुख्यमंत्री की कोठी के लिए किसानों से खरीदी गई जमीन हो या पार्क, हेलीपैड आदि के लिए सरकार द्वारा अधिगृहीत जमीन, सब में जमकर पहुंच व ताकत का प्रयोग करते हुए नियमों को दरकिनार किया गया. पहले बात करते हैं कोठी के लिए खरीदी गई जमीन की. बादलपुर गांव के बाहर तीन मार्च, 2005 को भगवत प्रसाद से करीब डेढ़ बीघा जमीन मायावती के नाम खरीदी गई. उसी दिन रतीराम से भी करीब पांच बीघा जमीन मायावती के नाम से कागजों में दर्ज हुई. इसके  बाद अगस्त, 2005 में करीब दो बीघा जमीन और मायावती के नाम दर्ज हुई. अगस्त में खरीदी गई जमीन गांव के ही अजीत पुत्र किशन लाल से ली गई. सभी में खरीददार मायावती का पता सी-57 इंद्रपुरी, नई दिल्ली दिखाया गया था. पूरी जमीन कृषि योग्य भूमि थी. इन जमीनों के लिए स्टांप शुल्क मिलाकर करीब 47 लाख रुपये अदा किए गए.

इन जमीनों की खरीद में खरीददार तो मायावती को दिखाया गया है लेकिन मुख्त्यारेआम उनके भाई आनंद कुमार पुत्र प्रभुदयाल निवासी बी-182, सेक्टर 44 नोएडा को बनाया गया है. सभी जमीनों के बैनामों में भी मायावती के स्थान पर आनंद का ही फोटो लगाया गया है. यहां तक तो जो कुछ भी हुआ वह नियम-कानूनों के दायरे में किया गया. लेकिन इसके बाद इस जमीन को लेकर जो खेल शुरू हुआ उसका खामियाजा पूरे गांव के किसानों को अभी तक उठाना पड़ रहा है. कैसे? आइए जानते हैं.

सवाल यह उठता है कि 2005 में मायावती व उनके पिता की ओर से जो शपथपत्र दिया गया था क्या वह झूठा था

लाखों रुपये मूल्य की कृषि योग्य कई बीघा जमीन खरीदने के बाद 2005 के अंत में मायावती की ओर से जमीन का भूउपयोग परिवर्तित करने के लिए जमींदारी उन्मूलन अधिनियम की धारा 143 के तहत दादरी तहसील में एक वाद दायर किया गया. वाद दायर करते समय शपथ पत्र (जिसकी एक प्रति तहलका के पास भी है) देकर बताया गया कि उपर्युक्त खेत संख्या 400, 395 व 396 के आसपास आबादी क्षेत्र है. यह भी कहा गया कि जो जमीन खरीदी गई है उस पर काफी समय से कृषि, पशुपालन या मत्स्य पालन का कार्य नहीं हुआ है. भूमि पर बाउंड्री हो रही है तथा निर्माण कार्य चल रहा है. जिस समय जमीन खरीदी गई और उसके भूपरिवर्तन के लिए वाद दायर किया गया उस समय प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. इसके बावजूद राजनीतिक रसूख का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि न्यायालय उपजिलाधिकारी दादरी की ओर से मई, 2006 में उक्त जमीनों को गैरकृषि उपयोग के लिए अनुमति प्रदान कर दी गई जिस पर भव्य कोठी का निर्माण अब लगभग पूरा हो चुका है.

कोठी के लिए जमीन खरीद कर भूउपयोग के परिवर्तन का खेल सिर्फ मायावती ने ही नहीं खेला. जिस स्थान पर कोठी बनी है वहां की कई बीघा जमीन उनके पिता प्रभुदयाल के नाम पर भी है. भूउपयोग के परिवर्तन के लिए मायावती के साथ ही प्रभुदयाल की ओर से भी वाद दायर किया गया. बादलपुर के किसान बताते हैं कि जिस जगह को आबादी की जमीन बताते हुए शपथ पत्र दिया गया वहां लोग आसपास अपनी खेती करते थे. इसके प्रमाण आज भी कोठी के आसपास मौजूद हैं कि वहां आबादी दर्ज नहीं थी. जिस स्थान पर ग्रीन बेल्ट बनाई गई है वहां एक-दो लोग खेतों में ही मकान बना कर रहने लगे थे जो आज भी मौजूद हैं. उन लोगों ने कभी अपना भूउपयोग बदलवाया ही नहीं था.

राजनीतिक रसूख के आगे शपथपत्र का झूठ और अधिकारियों की कारगुजारी शायद ही कभी उजागर हो पाती. लेकिन मई, 2007 में मायावती के चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के एक माह छह दिन बाद 20 जून को सरकार की ओर से बादलपुर की 232 हेक्टेयर जमीन के अधिग्रहण के लिए धारा 4 का नोटिस जारी किया गया. इसके बाद ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण ने अधिग्रहण का काम शुरू किया. जिस स्थान पर कृषि योग्य भूमि का भूपरिवर्तन करा कर कोठी बनाई जा रही है उसे छोड़ कर आसपास का पूरा क्षेत्र अधिगृहीत कर लिया गया. नियमों के अनुसार आबादी क्षेत्र का अधिग्रहण विषम परिस्थितियों में ही किया जा सकता है, लिहाजा कोठी जिस स्थान पर बनी है उसे पूरा छोड़ दिया गया और आसपास की कृषि योग्य उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया. 
अब सवाल उठता है कि मायावती ने जब 2005 में ही अपने शपथपत्र में यह बता कर अपना भूउपयोग परिवर्तित कराया था कि आसपास आबादी है तो मुख्यमंत्री बनने के बाद अचानक प्राधिकरण ने औद्योगिक विकास के नाम पर आबादी की जमीनों का अधिग्रहण करके पार्क बनाना कैसे शुरू कर दिया. किसानों की लड़ाई लड़ रहे वकील एसी नागर कहते हैं, ‘जमीनों का अधिग्रहण आपात प्रावधान यानी अरजेंसी क्लॉज लगाकर किया गया था. तो क्या पार्क, ग्रीन बेल्ट, सड़क, हेलीपैड सहित कोठी की खूबसूरती बढ़ाने वाली इमारतें बनाने के लिए अरजेंसी क्लॉज लगाया गया? दूसरा सवाल यह है कि यदि प्राधिकरण ने कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण किया है तो मायावती व उनके पिता की ओर से जो शपथपत्र दिया गया था क्या वह झूठा था.’  नागर का आरोप है कि कोठी की सुंदरता बढ़ाने के लिए ही औद्योगिक विकास के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीन लेकर उसमें पार्क आदि बनाए जा रहे हैं जबकि तीन साल में ली गई जमीन पर एक भी उद्योग स्थापित नहीं हुआ है. इस बारे में बात करने पर ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण के सीईओ रमा रमण कहते हैं कि मास्टर प्लान में बादलपुर की अधिग्रहीत जमीनों पर किसी तरह का उद्योग स्थापित करने की योजना नहीं है. उनके मुताबिक जिस जगह पर पार्क आदि बनाया जा रहा है वह कृषि योग्य भूमि थी. सीईओ का यह बयान मायावती के उस शपथ पत्र को कटघरे में खड़ा करता है जिसके मुताबिक कोठी के आसपास आबादी थी.

बादलपुर में जब कोई उद्योग आदि स्थापित नहीं होना है तो सरकार को अर्जेन्सी क्लास में जमीनों का अधिग्रहण करने की आवश्यकता क्यों पड़ गई. इस सवाल के जवाब में बादलपुर के राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त करतार सिंह कहते हैं, ‘पूरे हिन्दुस्तान में जमीनों का अधिग्रहण अर्जेन्सी क्लास में ही हो रहा है, ऐसे में बादलपुर में भी हो गया तो इसमें हर्ज ही क्या है.’ जिस जगह कोठी बनी है उसके आसपास की औद्योगिक विकास के नाम पर ली गई जमीन पर एक पार्क करीब 91 हजार वर्ग मीटर तथा दूसरा 35 हजार वर्ग मीटर में बन रहा है. कोठी से लगे करीब 50 हजार वर्ग मीटर के प्लाॅट पर प्राधिकरण की ओर से अभी सिर्फ दीवार ही खींची जा रही है. इस प्लॉट में कोठी की ओर से एक लोहे का गेट खोला गया है. गांव के एक किसान कहते हैं, ‘सरकारी जमीन पर अपनी कोठी से गेट लगाना इस बात का संकेत है कि आज नहीं तो कल ये जमीन भी मुख्यमंत्री व उनके परिवार के कब्जे में चली जाएगी.’

पार्कों की खूबसूरती में चार चांद लगाने के लिए 60 मीटर चौड़ी रोड भी बना दी गई है. पार्कों से सटी हुई कोठी से कुछ दूरी पर किसानों की जमीन पर ही हेलीपैड भी तैयार किया जा रहा है. कोठी की सुंदरता बढ़ाने के लिए सरकार ने जमीन लेकर सिर्फ दो पार्क ही नहीं बनाए बल्कि कोठी के सामने कई बीघे जमीन पर ग्रीन बेल्ट भी तैयार कर दी जिसमें हजारों की संख्या में पेड़ लगाए गए हैं. जिन खेतों का सरकार ने ग्रीन बेल्ट के लिए अधिग्रहण किया है उनमें, जैसा कि ऊपर बताया गया है,  एक-दो मकान भी बने हुए हैं लिहाजा कागजों में उनका अधिग्रहण भी हो गया है. लेकिन खेत में मकान बना कर रह रहे किसान वहां से हटने को तैयार नहीं. उन्हीं में से एक परिवार है लेह में तैनात सेना के सूबेदार विजेंद्र सिंह का. विजेंद्र के भाई भगत सिंह कहते हैं, ‘सरकार सेना में कार्यरत जवानों को सुविधाएं देती है लेकिन यहां तो जबरन इसलिए उजाड़ा जा रहा है कि मुख्यमंत्री की कोठी की शोभा न खराब हो.’ भगत आगे बताते हैं, ‘पौने तीन बीघे में बने मकान व हाते का सरकार ने अधिग्रहण भले कर लिया है लेकिन हमने मुआवजा अभी तक नहीं उठाया है. मुआवजा उठाने के लिए कई बार प्रशासनिक अधिकारियों व पुलिस ने दबाव बनाया लेकिन जब सफल नहीं हुए तो घर के आसपास डेढ़ महीने तक पीएसी लगा दी गई. जिसके कारण घर की महिलाओं व बच्चों तक का निकलना मुश्किल हो गया था.’ सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए भगत कहते हैं कि जब औद्योगिक विकास के नाम पर सरकार पूरे गांव के किसानों के खेत व आबादी का अधिग्रहण कर रही है तो बीच में मुख्यमंत्री की कोठी कैसे बच रही है.

प्रदेश के दूसरे गांवों में होने वाले विकास कार्यों में अधिकारी कितनी रुचि लेते हैं यह जगजाहिर है, लेकिन बादलपुर में बन रहे पार्क के लिए अधिकारियों की तत्परता देखते बनती है. कई अधिकारी दिन भर कैंप करके काम को पूरा कराने में लगे हैं. राज्य स्तर के अधिकारी भी समय-समय पर गांव पहुंच कर कार्य की प्रगति का जायजा लेते रहते हैं. पुलिस की तीन-चार जीपें और जिप्सी भी चारों ओर गश्त करती दिखती हैं. गांववाले बताते हैं कि सड़क से निकलते समय कोठी के सामने रुककर बात करना या उसकी ओर देखना भी पुलिसवालों की नजर में किसी अपराध से कम नहीं होता.

मुख्यमंत्री की कोठी के चक्कर में बादलपुर ही नहीं, आसपास के गांवों के किसान भी पिस रहे हैं. बादलपुर के बाहर से निकलने वाली नहर से एक छोटी नहर सिंचाई के लिए निकली थी. इससे बादलपुर सहित अछेजा, सादुल्लापुर व सचिन पायलट के गांव वैदपुरा के किसान अपनी सैकड़ों बीघे जमीन की सिंचाई करते थे. छोटी नहर बादलपुर में जिन खेतों के बीच से निकलती थी वहां निर्माण कार्य हो जाने के कारण पूरी तरह बंद हो गई है. जिस जगह से नहर निकली थी वहां सड़क बनाने का काम चल रहा है. मुख्यमंत्री की कोठी के पीछे से होते हुए नहर आगे के गांवों को जाती थी. लेकिन वहां बड़ा फव्वारा बनाने का काम चल रहा है लिहाजा उसके आसपास भी नहर को बंद कर दिया गया. आगे चल कर इसी नहर के ऊपर से 60 मीटर चौड़ी सड़क बना दी गई जो पार्क के सामने से होकर गुजरती है. बादलपुर में इस नहर के अवशेष कहीं-कहीं दिख जाते हैं. सादुल्लापुर के किसान करतार सिंह कहते हैं, ‘हमारी जमीन साल में तीन फसलें देती थी. लेकिन सिंचाई का साधन बंद हो जाने के कारण कई बीघे खेतों में पिछले डेढ़ साल से किसी फसल की पैदावार नहीं हो पा रही है.’ अछेजा के किसान चरनजीत बताते हैं, ‘गांव की करीब 500 बीघे जमीन की सिंचाई बादलपुर से आने वाली छोटी नहर से होती थी. नहर बंद होने के कारण बड़े किसानों ने तो ट्यूबवेल की बोरिंग करा कर काम शुरू किया है लेकिन छोटे किसानों की जमीन या तो खाली पड़ी रहती है या दूसरे के ट्यूबवेल से पानी खरीदकर वे सिंचाई करने को मजबूर हैं. डीजल भी महंगा है. ऐसे में 150 रुपये प्रतिघंटे के हिसाब से दूसरे के पंप सेट से पानी लेकर सिंचाई करना किसानों को काफी महंगा पड़ता है.’ चरनजीत बताते हैं कि प्रशासनिक अधिकारियों को कई बार पत्र लिखकर व मिलकर इस समस्या से अवगत कराया गया लेकिन जैसे ही उन्हें पता चलता है कि मामला बादलपुर से जुड़ा है वे ग्रामीणों को भगा देते हैं. वे कहते हैं, ‘जब पड़ोसी गांव की मुख्यमंत्री ही ऐसा करवा रही हो तो किसान अपनी समस्या लेकर कहां जाए.’

ग्रामीणों में बगावत की यह चिंगारी मायावती के चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद तब शुरू हुई जब अधिग्रहण के लिए नोटिस जारी हुआ. लेकिन अधिकारियों ने इस बगावत को भरसक प्रयास करके दबाए रखा. गांव के एक संपन्न किसान जगदीश नंबरदार कहते हैं, ‘गांव में हास्पिटल, गर्ल्स डिग्री कालेज, पोलिटेक्निक, गेस्ट हाउस आदि के लिए इससे पहले भी सभी ने स्वेच्छा से जमीन  दी थी. तब कोई अधिग्रहण की कार्रवाई कराने की जरूरत ही सरकार को नहीं हुई. हमें भी पता है कि गांव की बेटी मुख्यमंत्री है तो उसकी प्रतिष्ठा में इतना सब कुछ करने को किसान सक्षम है. लेकिन इस बार जब महज इसलिए पूरे गांव की जमीन जाने लगी कि कोठी के आसपास पार्क आदि बनाए जाएंगे तो विरोध शुरू हुआ.’ जमीन बचाने के लिए किसानों ने अगस्त, 2007 में सर्वदलीय बैठक करके विरोध जताया. नंबरदार बताते हैं कि बैठक के बाद गांव के करीब 20 किसान मुख्यमंत्री से मिलने के लिए लखनऊ भी गए लेकिन अधिकारियों ने मिलने नहीं दिया. वे कहते हैं, ‘किसान मुख्यमंत्री से बस इतना जानने के लिए गए थे कि जमीन विकास के किस काम के लिए उपयोग की जाएगी ये पता चलते ही हम स्वेच्छा से जमीन दे देंगे. लेकिन सरकार के पास विकास का कोई प्लान ही नहीं था जो वह किसानों को बता सकती, लिहाजा हमें मुख्यमंत्री से दूर ही रखा गया.’

किसानों के विरोध की जानकारी जब लखनऊ पहुंची तो अधिग्रहण रुक गया. नंबरदार कहते हैं, ‘किसानों को लगा कि शायद बहन जी को हमारी समस्या समझ में आ गई लेकिन 2008 में अचानक अधिकारियों ने अधिग्रहण शुरू कर दिया. फिर विरोध शुरू किया तो डराने-धमकाने के लिए घर पर पीएसी का पहरा बैठा दिया गया. रात-रात भर अधिकारी आकर जमीन देने के लिए दबाव बनाने लगे. कई दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा.’ इसी बीच कुछ प्रशासनिक अधिकारियों ने आकर बताया कि किसानों से कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह मिलना चाहते हैं. अधिकारियों ने शताब्दी से छह किसानों के प्रतिनििधमंडल को लखनऊ भेजा. नंबरदार के साथ किसानों के संघर्ष की अगुवाई कर रहे वीर सिंह कहते हैं, ‘कैबिनेट सेक्रेटरी ने बैठक में इस मांग पर सहमति जताई कि 25 प्रतिशत जमीन छोड़ दी जाएगी साथ ही जहां आबादी है उस जमीन को भी सरकार नहीं लेगी. किसानों को लगा चलो कुछ तो हासिल हुआ. लेकिन यहां भी सरकार खेल करने से नहीं चूकी. अधिग्रहण की मार गांव के करीब 1,014 किसानों पर पड़ी थी लेकिन 25 प्रतिशत जमीन छोड़े जाने का लाभ महज 168 किसानों को दिया गया. शेष 846 किसानों को 850 रुपये प्रति वर्ग मीटर मुआवजा देकर शांत करा दिया गया.’ 

846 किसानों को जब मालूम हुआ कि कुछ लोगों को 25 प्रतिशत जमीन का लाभ दिया गया है तो उन्होंने नए सिरे से आंदोलन शुरू किया. सरकारी उपेक्षा का शिकार हुए किसान ज्ञानी सिंह कहते हैं, ‘जिन लोगों को यह लाभ मिला उनके साथ हम भी आंदोलनरत थे लेकिन उसी बीच हम जैसे छोटे किसानों को बसपा सरकार से जुड़े सांसद, विधायक व अधिकारियों ने इतना डरा-धमका दिया कि वे मुआवजा उठाने को मजबूर हो गए.’ ज्ञानी का आरोप है कि राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त गांव के ही एक बसपा नेता व कुछ और लोगों ने यहां तक धमकाया कि अगर मुआवजा नहीं उठाओगे तो सरकार मुफ्त में जमीन ले लेगी. उनके मुताबिक पुलिस अधिकारी घर आकर धमकाते थे कि जमीन दे दो नहीं तो जेल में सड़ा दिए जाओगे. ज्ञानी कहते हैं, ‘ परिजनों की सुरक्षा को लेकर चिंता होती थी क्योंकि जिन लोगों के खिलाफ हम आंदोलन कर रहे थे वे धन-बल दोनों में ही हमसे काफी ताकतवर थे.’
जिन किसानों के साथ सरकार ने दोहरी नीति अपनाई वे आज पूरी तरह आंदोलनरत हैं. अपने ही गांव की मुख्यमंत्री होने के बावजूद सरकार से न्याय की उम्मीद खो चुके किसानों ने अब हाई कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया है. किसान ऋषिपाल बताते हैं, ‘अब हमारी मांग 25 प्रतिशत जमीन छोड़े जाने के साथ मुआवजा बढ़ाए जाने की भी है क्योंकि सरकार ने 850 रुपये वर्ग मीटर के हिसाब से मुआवजा दिया है जबकि सर्किल रेट ही 1,000 रुपये वर्ग मीटर का है. सरकार ने सर्किल रेट से भी कम का भुगतान देकर गरीब किसानों के पेट पर लात मारी है.’

बादलपुर में शासन-सत्ता के आगे छोटे-बड़े किसी भी किसान की एक नहीं सुनी गई, यह दर्द गांव के पूर्व प्रधान चैतराम की बातों से साफ झलकता है. वे कहते हैं, ‘एक समय था जब खुद को बादलपुर का प्रधान बताने में गर्व महसूस होता था, लेकिन आज शर्म आती है. काफी भागदौड़ के बावजूद परिवार के पास जो 20 बीघे जमीन थी उसे पूरा का पूरा सरकार ने औद्योगिक विकास के नाम पर पार्क, सड़क आदि बनाने के लिए ले लिया है. इतनी भी जमीन नहीं छोड़ी गई कि बच्चे बड़े होकर अपना एक मकान तक बना सकें.’ चेतराम कहते हैं, ‘पूरे प्रदेश की मुखिया गांव की ही रहने वाली है, कम से कम उसे तो सोचना चाहिए था कि किसानों की पूरी जमीन चली जाएगी तो उनके बच्चों को सिर छुपाने के लिए जगह कहां मिलेगी.’ इससे भी बड़ा दर्द उन्हें इस बात का है कि जिस जगह उनके पिता परमान सिंह की समाधि बनी थी सरकार ने उसका भी अधिग्रहण कर लिया. 

बादलपुर के किसानों की लड़ाई लड़ रहे डॉ रूपेश कहते हैं, ‘बादलपुर के साथ ही पतवारी गांव का भी अधिग्रहण सरकार ने अर्जेंसी क्लास में किया था. न्यायालय की ओर से पतवारी का अधिग्रहण रद्द किए जाने के बाद अब बादलपुर के किसानों को भी न्यायालय से ही उम्मीद है क्योंकि यहां भी अर्जेंसी क्लास में ही सरकार ने अधिग्रहण कर पार्क आदि बना डाला.’ बादलपुर के साथ ही सरकार ने डॉ रूपेश के गांव सादोपुर के किसानों की भी 146 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण अर्जेंसी क्लास में कर लिया है. लेकिन तीन साल बाद भी सादोपुर की जमीन पर न तो कोई उद्योग स्थापित हुआ है और न ही किसी योजना के अंतर्गत काम ही शुरू हुआ. रूपेश कहते हैं, ‘अपने ही घर की मुख्यमंत्री व सरकार से धोखा खाए किसानों को अब आस है तो बस न्यायालय की.’  

‘सुर-मारग को दिशा दिखाता संगीत’

यूं तो आदरणीय लता जी के गाए न जाने कितने गीत मेरे बरसों के साथी रहे हैं, लेकिन इनमें सबसे प्रिय गीत को चुनकर बताना कि आखिर ये ही सबसे प्रिय क्यों हैं, बड़ा मुश्किल काम है. इस लिहाज से बहुत सोचा, बड़ी माथापच्ची की, मगर मात्र एक गीत नहीं चुन पाई और इसीलिए उन गीतों की फेहरिस्त भेज रही हूं, जो जीवन की अड़-बड़ गलियों में न जाने कितनी बार मुझे सहारा दे चुके हैं, मेरा हाथ थाम मुझे सुर-मारग की दिशा दिखा चुके हैं.

‘पहली बार इन दोनों गजलों को सुना तो ये इस प्रकार दिल-दिमाग पर चढ़ गईं कि फिर-फिर सुनने को जी मचल जाता’

बरसों पहले विविध भारती पर दोपहर में गैरफिल्मी गीतों के कार्यक्रम में लता जी की गाई दो गजलें आए दिन प्रसारित होती थीं. एक, ‘आंख से आंख मिलाता है कोई…’ (गीतकार : शकील बदायूंनी) और दूसरी, ‘अहद-ए-गम में भी मुस्कुराते हैं…’ (गीतकार : खलिश देहलवी). यह उन दिनों की बात है जब मैं कॉलेज में पढ़ रही थी और इलाहाबाद में गाने की तालीम ले रही थी. पहली बार इन दोनों गजलों को सुना तो इस प्रकार दिल-दिमाग पर चढ़ गईं कि फिर-फिर सुनने को जी मचल जाता. कभी-कभी तो इन्हें सुनने की ताक में रेडियो के पास कान लगाए बैठे-बैठे क्लास भी जाना भूल जाती. दोनों ही गजलों को महावीर जी ने अत्यंत कठिन और जटिल धुनों से सजाया है. यानी किसी गायक-गायिका की परीक्षा लेनी हो, तो ये दोनों रचनाएं रख दें उनके सामने, और फिर देखिए अच्छे-अच्छों के छक्के छूटते. लेकिन लता जी ने इन्हें ऐसे सहज अंदाज में गाया है कि यदि कोई नादान ये समझ बैठे कि अरे, ये तो हम भी गा लेंगें, तो कोई आश्चर्य नहीं. तो साहब हम भी ये नादानी कर बैठे. वो दिन और आज का दिन, इस बीच कई दशक सरकते हुए निकल गए, पर अब भी बात नहीं बनी.

इसी के साथ उतना ही सुंदर पंडित नरेंद्र शर्मा जी का लिखा हुआ वह गीत भी कभी भूलता नहीं जिसे जयदेव जी ने संगीतबद्ध किया था. लता जी ने इस गीत ‘जो समर में हो गए अमर, मैं उनकी याद में, गा रही हूं आज श्रद्धा गीत धन्यवाद में’ को गाकर देशप्रेम के जज्बे का एक अलग ही संसार रच दिया है. देश पर मरने वाले बहादुर जवानों के प्रति श्रद्धा-निवेदन का यह गीत निश्चय ही पूरी गरिमा के साथ लता जी की आवाज में एक सच्ची श्रद्धांजलि बन सका है. यह गीत भी मेरे हिसाब से उनके गाए हुए अमर गीतों में एक क्लासिक का दरजा रखता है, जिसकी गूंज आज भी मेरे कानों में उसी तरह समाई हुई है, जैसी दशकों पहले सुनने के वक्त महसूस हुई थी.

इसके अलावा श्रीनिवास खाले जी के संगीत निर्देशन में तुकाराम जी का एक अभंग पद ‘अगा करुणाकरा’ की चर्चा के सम्मोहन से भी खुद को रोक नहीं पा रही हूं. इस अद्भुत ढंग के भजन को लता जी ने इतनी भक्ति और आत्मीयता से गाया है कि उसके बारे में तारीफ करते हुए शब्द कम पड़ जाते हैं. अगर किसी को भक्ति का नमूना उतने ही श्रद्धा-भाव से गीत-संगीत के माध्यम से सुनना है, तो उसे इस गीत को जरूर सुनना चाहिए. लता जी ने जैसे इसमें आत्मा का संगीत उड़ेल दिया है.

आज के तकनीकी युग में, इंटरनेट की मैं आभारी हूं कि उनके कुछ ऐसे अमर गैरफिल्मी भजन, अभंग पद, गजल और देशभक्ति के गीत हमें सुनने के लिए उपलब्ध हो सके हैं, जिनके पुराने रिकॉर्ड और कैसेट अब सामान्यता म्यूजिक स्टोर पर उपलब्ध नहीं हो पाते. आज भी संगीत की यह अमूल्य थाती भले कैसेट में उपलब्ध हो, या सीडी में या फिर आई पॉड पर, लता जी की आवाज में ये कुछ रचनाएं मेरे सुख-दुख में हमेशा साथ रही हैं.

‘आधुनिक दक्षिण एशियाई नारी की आवाज’

1940 के दशक के उत्तरार्द्ध के भारतीय समाज, महाराष्ट्रीय संस्कृति तथा हिंदी फिल्म (संगीत) उद्योग को थोड़ा-बहुत जाने बिना लता मंगेशकर के कठिन संघर्ष, अद्वितीय प्रतिभा और महान उपलब्धि को पूरी तरह समझा ही नहीं जा सकता. गांधी और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद देश सर्वतोन्मुखी मुक्तिकामी आधुनिकता के द्वार पर खड़ा हुआ था. सिनेमा भी आमूल बदलने वाला था. ऐसे में पितृहीन, दोशीजा लता की नम्य आवाज स्वाधीनता की ओर बढ़ती हुई नयी, कुछ आधुनिक, कुछ पारंपरीण, किशोरी-युवती की गैर-पेशेवर, निर्दोष आवाज थी.

‘लता के आविर्भाव के बाद संगीत-निर्देशकों को एक ही आवाज में भोलापन, कौमार्य, स्त्रीत्व तथा सही उच्चारण सहित सातों स्वर और सारे नवरस मिल गए’

लोक कलाकार पिता दीनानाथ तथा महाराष्ट्र, विशेषतः भेंडीबाजार घराने, की मिली-जुली मंचीय तथा शास्त्रीय परंपराओं में पली-बढ़ी, अविवाहित रहकर अपनी विधवा मां और बेसहारा भाई-बहनों का आसरा बनने का संकल्प करने वाली लता को प्रकृति ने अप्रतिम कंठ दिया ही था. ऐसी नारी भीष्म-प्रतिज्ञा शायद मराठी समाज और संस्कृति में ही संभव थी. हिंदी पार्श्वगायन में लता के प्रारंभिक तीन वर्ष संघर्ष के थे किंतु ठीक इन्हीं वर्षों में उन्होंने नूरजहां और शमशाद बेगम जैसी बड़ी गायिकाओं सहित सभी पूर्ववर्ती स्त्री-कंठों को अनचाहे ही कारुणिक रूप से सीमित या पुराना सिद्ध कर डाला. शायद अपने जमानों में सिर्फ एला फिट्जेरल्ड ने अमेरिका में, उम कुलसुम ने मिस्र में, एदीत प्याफ़ ने फ्रांस में और नाना मूस्हूरी ने यूनान में ऐसा कारनामा अंजाम दिया था. लेकिन जिस लता की आवाज सारी दक्षिण एशियाई नारी के जीवन की सभी भावनाओं और पड़ावों की आवाज बन गई, वैसा अब तक संसार में कहीं और नहीं हो पाया है. उन्हें यदि कभी चुनौती मिली भी तो अपनी छोटी बहन आशा से ही. यह भी एक पारिवारिक विश्व कीर्तिमान है.
लता के आविर्भाव के पहले जैसे हिंदी फिल्म संगीत-निर्देशकों का एक हाथ बंधा हुआ था. लता के कंठ ने उनकी प्रतिभा को नित-नयी उड़ान और चुनौती दी. उन्हें एक ही आवाज में भोलापन, कौमार्य, स्त्रीत्व तथा सही उच्चारण सहित सातों स्वर और सारे नवरस मिल गये. अनिल विश्वास (तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है, याद रखना चांद-तारों), खेमचंद प्रकाश (आएगा आने वाला), सी रामचंद्र (ये जिंदगी उसी की है, धीरे से आ जा री अंखियन में, कटते हैं दुख में ये दिन), नौशाद (बचपन की मुहब्बत को, जाने वाले से मुलाकात न होने पाई, मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार, फिर तेरी कहानी याद आई), रोशन (हे री मैं तो प्रेम दीवानी, देखो जी मेरा जिया चुराए, सखी री मेरा मन उलझे), शंकर जयकिशन (मेरी आंखों में बस गया, मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए, मेरे सपने में आना रे, मुरली बैरन भई), मदन मोहन (प्रीतम मेरी दुनिया में, सपने में सजन से दो बातें, माई री मैं कासे कहूं, मेरी वीणा तुम बिन रोए), सचिनदेव बर्मन (तुम न जाने किस जहां में, ठंडी हवाएं, आंख खुलते ही), वसंत देसाई (दिल का खिलौना हाय टूट गया, तेरे सुर और मेरे गीत), गुलाम मोहम्मद (शिकायत क्या करूं, रात है तारों भरी, चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था, ठाढ़े रहियो ओ बांके यार), खय्याम (बहारों मेरा जीवन भी संवारो, आप यूं फासलों से गुजरते रहे, दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया), राहुलदेव बर्मन (पार लगा दे, रैना बीती जाए, शर्म आती है मगर), लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल (जीवन डोर तुम्हीं संग बांधी, कान्हा-कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार, आया आया अटरिया पे कोई चोर, बड़ा दुख दीना तेरे लखन ने), हेमंत कुमार (मन डोले मेरा तन डोले, छिप गया कोई रे, कहीं दीप जले कहीं दिल) तथा जयदेव, चित्रगुप्त, रवि, कल्याणजी-आनंदजी, दत्ताराम, एसएन त्रिपाठी आदि अन्य संगीतकारों की कुछ बेहतरीन धुनें लता के स्वर से ही चरितार्थ हो सकीं. उन्होंने आज के युवतर संगीतकारों के लिए भी अपना सर्वश्रेष्ठ गाने की कोशिश की है. आज के डिजिटल और सिंथेसाइजर युग में तो मुर्गे-मुर्गियां भी कोयल और बुलबुल बना दिए जा रहे हैं, जबकि लता ने सिर्फ अपनी मेहनत, लगन, आवाज़ और प्रतिभा के बल पर जीते-जी अमरत्व प्राप्त किया है.

उनके गीत आज भी लाखों की तादाद में बिकते हैं. अस्सी से लेकर आठ साल तक के करोड़ों श्रोता उन्हें रोज सुनते हैं. इंटरनेट ने उनके हजारों गानों को, जिनमें से कई नायाब थे, भूमंडलीय बना दिया है. वे सार्क-भावना का स्वर्णिम अवतार हैं. लता के सर्वश्रेष्ठ गीत कितने-कौन से हैं, इस पर कभी सर्वसम्मति नहीं हो सकती. यह कुछ-कुछ ‘हर ख्वाहिश पे दम निकले’ वाला गालिबाना मामला है. हर लता-प्रेमी के पास अपनी एक फेहरिस्त है, जिसे लेकर वह मरने-मारने पर आमादा हो जाता है. हम इसी में धन्य हैं कि जिस वक्त और फिजा में वे आलाप लेती हैं, उनमें हम भी सांस लेते हैं और इस खुशफहमी में जीते हैं कि लता को कोई और हमसे ज्यादा सराह और समझ ही नहीं सकता.