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जनहित की राजनीति के लिए एक नए दल की जरूरत है : प्रो. आनंद कुमार

Photo : Tehelka Archive
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फोटो: तहलका आर्काइव

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में स्वयं को कहां फिट पाते हैं और अपनी जगह कहां बनाना चाहते हैं?

आज की राजनीतिक परिस्थितियों में किसी भी देशभक्त नागरिक के लिए लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण के अधूरेपन को दूर करना सबसे बड़ा प्रश्न है. बिना जनतांत्रिक सुधारों के हमारी आजादी काले धन की गिरफ्त में फंसती चली जाएगी क्योंकि हमारी चुनाव प्रणाली के बढ़ते खर्च और दलों की घटती जनतांत्रिक व्यवस्था का दोहरा बोझ अब जनतंत्र के विस्तार को रोक चुका है. इसीलिए चुनाववाद या संसदवाद के खतरों को देश को बताना और सहभागी लोकतंत्र के लिए बेहतर चुनाव व्यवस्था और दल व्यवस्था के लिए काम करना हमारे जैसे लोगों की प्राथमिकता हो गई है.

आपको नई राजनीतिक पार्टी बनाने की जरूरत क्यों पड़ी?

हमें इस तथ्य को याद रखना चाहिए कि वोट देने का अधिकार, दल बनाने का अधिकार और चुनाव में हिस्सेदारी का मौका भारत के जनसाधारण के लिए स्वतंत्रता आंदोलन का एक बड़ा उपहार है लेकिन आज दल व्यवस्था जनसाधारण के लिए एक अबूझ पहेली बन गई है जिसमें व्यक्तिवाद और पैसावाद ही मूल तत्व हो गया है. जबकि दलों को प्रथम कर्तव्य हमारी जनता के बीच नागरिकता निर्माण, नेतृत्व निर्माण और राष्ट्र निर्माण के लिए क्षमता पैदा करना होना चाहिए था. आज ज्यादातर दल येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की बीमारी से पीड़ित हैं. पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा की भूलभुलैया में फंस गए हैं. इसलिए जनहित के सवालों पर जनहित की पहल पर जनहित की राजनीति के लिए एक नए दल की जरूरत है जो स्वराज की पूर्णता के लिए सहभागी लोकतंत्र के जरिए मुट्ठी भर नेता नहीं बल्कि लाखों सरोकारी जन पैदा कर सके.

यह पार्टी अरविंद केजरीवाल की पार्टी से कितनी अलग होगी और इसके एजेंडा क्या होगा?

अगर अरविंद केजरीवाल की पार्टी से आपका आशय आम आदमी पार्टी से है तो उसे कई लाख लोगों की शुभकामना और कई हजार वालंटियरों के निस्वार्थ समर्पण से बनाए गए एक संगठन के रूप में पहचानना चाहिए. इस संगठन में बेशुमार अच्छे लोगों के जुड़ने की संभावना भी थी लेकिन चुनावी विजय-पराजय को अत्यधिक महत्व देने की नासमझी ने इसे एक व्यक्ति मात्र की खूबी और खराबियों में समेट दिया है. आज आम आदमी पार्टी का पूरा ध्यान दिल्ली की सरकार के जरिए छवि बनाना और एक गिरोह को पूरी पार्टी का स्वामी बनाना हो गया है.

स्वराज अभियान भारतीय समाज में राजनीतिक, अार्थिक और व्यक्तिगत स्वराज को बढ़ाने के लिए समर्पित आदर्शवादी देशभक्तों का मंच है. इसने पिछले पंद्रह महीने में 26 स्वराज संवादों के जरिए 25 हजार लोगों की सदस्यता के आधार पर 18 प्रदेशों तक अपना दायरा बना लिया है. इसमें जय किसान आंदोलन, एंटी करप्शन टीम, शिक्षा स्वराज आंदोलन और अमन कमेटी का बड़ा योगदान रहा है. इस वैकल्पिक राजनीति के आधार पर हमने दो अक्टूबर तक अन्य आदर्शवादी और सक्रिय नागरिकों और संगठनों काे एकजुट करके एक चुनावी हस्तक्षेप के लिए सक्षम संगठन बनाने का निर्णय लिया है. हम चुनाव के महत्व को न तो बढ़ाकर और न ही घटाकर देखते हैं लेकिन चुनावों में हमारी हिस्सेदारी सहभागी लोकतंत्र की दिशा में परिवर्तन के लिए जरूरी जनमत निर्माण के लक्ष्य से होगी. अन्यथा येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की राजनीति के लिए एक और दल बनाना गैर-जरूरी है.

राष्ट्रवाद के बजाय देशप्रेम हमारा मार्गदर्शक होगा. हम भारत की सांस्कृतिक विशिष्टता व विरासत के प्रति गर्व का भाव महसूस करते हैं क्योंकि यह वसुधैव कुटुंबकम की आधारशिला पर कई हजार सालों से प्रवाहमान है

उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात, गोवा समेत कुछ राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं. क्या आपकी पार्टी इन राज्यों में चुनाव लड़ेगी?

स्वराज अभियान के काम करने के तरीके में विकेंद्रीकरण और सदस्यों की राय का बुनियादी महत्व है. नए दल में भी आतंरिक लोकतंत्र, जवाबदेही और पारदर्शिता की बुनियादी भूमिका रहेगी. इसलिए चुनावों में हिस्सा लेना या न लेना मूलत: जिला और राज्य की समितियों के निर्णय और राष्ट्रीय संगठन के मूल्यांकन के आधार पर होगा. हम हर एक चुनाव को लोकशक्ति का उत्सव मानते हैं, लेकिन बिना जनशक्ति और जनसंगठन के चुनाव लड़ना जाति, संप्रदाय, मीडिया और पैसे का खेल बन जाता है. यह हमें पता है.

स्वराज अभियान से आप क्या नहीं पूरा कर पा रहे थे जिसके लिए आपको राजनीतिक दल बनाने की जरूरत पड़ी?

स्वराज अभियान मूलत: वैकल्पिक राजनीति के प्रति समर्पित पार्टियों का मंच है. इसमें राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए हमारे स्थापना सम्मेलन में ही कम से कम एक चौथाई सदस्यों ने खुला आग्रह किया था लेकिन हम वैकल्पिक राजनीति के मुद्दों को देश में प्रस्तुत किए बिना और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जुड़ी जनशक्ति से स्थानीय और प्रादेशिक स्तर पर संवाद किए बिना इन दिशा में कोई फैसला नहीं करना चाहते थे. पंद्रह महीने की सक्रियता और संवाद के बाद यह एक उचित कदम बन चुका है. आज भी साधारण नागरिकों के बीच राजनीति का अर्थ दलों से रिश्ता और चुनाव में सक्रियता है. यह हमारे जनतांत्रीकरण की मौजूदा दशा का प्रतिबिंब है. इसकी हम अनदेखी करके राजनीतिक सुधार के जरिए राष्ट्र निर्माण के अपने सपने को कैसे पूरा कर सकते हैं?

क्या समाजसेवी अन्ना हजारे भी इस नई राजनीतिक पार्टी को समर्थन दे रहे हैं?

अन्ना हजारे देश की लोकशक्ति के प्रबल प्रेरणास्रोत हैं. उन्होंने महर्षि दधीिच की तरह अपनी देह देश के लिए गला दी है. जनलोकपाल बिल से जुड़े आंदोलन का अपनी पूरी क्षमता से नेतृत्व करने के बाद अब उनका शरीर किसी नए राष्ट्रव्यापी अभियान के लिए असमर्थ है. उनका आशीर्वाद पर्याप्त मानना चाहिए. इससे ज्यादा उनको सक्रिय बनाना उनकी आयु और शरीर को देखते हुए ज्यादती ही होगी लेकिन हमारी एंटी-करप्शन टीम को अन्ना आंदोलन से जुड़े अनेक राष्ट्र नायकों का मार्गदर्शन प्राप्त है. इसी तरह से जय किसान आंदोलन, स्वराज शिक्षा अभियान और अमन कमेटी के अनेक नायकों और वालंटियरों का भरपूर सहयोग मिला है.

क्या गैर-राजनीतिक या गैर-चुनावी संगठनों का दौर खत्म हो गया है?

नहीं, भारतीय राजनीति में अभी जनतंत्रीकरण आधा-अधूरा है. राजनीति की व्यापक परिभाषा में चुनाव से जुड़े दलों की भूमिका सीमित होती है. राजनीति को अगर हम युगधर्म मानें या नागरिक धर्म मानें तो वह चुनावों और दलों के दायरे के बाहर सक्रिय नागरिकता के लिए अनेक भूमिकाओं का लगातार निर्माण करता रहता है. भारत में भी जल, जंगल, जमीन, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार से लेकर संस्कृति और सभ्यता के सैकड़ों मोर्चों पर हजारों हस्तक्षेपों के लिए लाखों संगठनों की जरूरत है. फिर भी चुनाव और दलों की एक अरसे तक अनिवार्यता और केंद्रीयता का सच भी है. हमें याद रखना चाहिए कि गांधी और जेपी ने अपने सार्वजनिक जीवन का बड़ा हिस्सा दलों के दायरे से ऊपर लगाया. चुनाव तो कभी लड़े ही नहीं. फिर भी बदलती परिस्थितियों के संदर्भ में दलों और चुनावों का सदुपयोग करने से नहीं चूके. यही रास्ता अरविंद, टैगोर, नायकर, आंबेडकर, एमएन रॉय से लेकर राम मनोहर लोहिया तक ने भी अपनाया. अभी हाल ही में विश्व में सबसे लंबा अनशन करने वाली सत्याग्रही इरोम शर्मिला ने भी अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए, सेना और पुलिस को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाने वाले कानूनी बदलाव के लिए चुनाव में हिस्सा लेने और बहुमत के आधार पर मणिपुर का मुख्यमंत्री बनने में दिलचस्पी दिखाई है. 

उग्र राष्ट्रवाद, कश्मीर, नक्सल, दलित जैसे मसलों पर पार्टी का स्टैंड क्या होगा?

स्वराज अभियान की तरफ से बनने वाली राजनीतिक पार्टी से यह आशा करना अस्वाभाविक नहीं होगा कि वह अन्य सहयोगियों के विचारों और सुझावों का स्वागत करने के साथ ही भारतीय संविधान के आधार दर्शन के प्रति पूर्ण निष्ठा रखने वालों का दल होगा. हमारे संविधान में राष्ट्रीय एकता और प्रत्येक नागरिक के अधिकारों की रक्षा का दोहरा संकल्प है. हम इसी संकल्प के आधार पर विभिन्न कारणों से देश के अलग-अलग हिस्सों में राजसत्ता से टकरा रही राजनीतिक जमातों को और उसके सवालों को संबोधित करना चाहेंगे. राष्ट्रवाद के बजाय देशप्रेम हमारा मार्गदर्शक होगा. हम भारत की सांस्कृतिक विशिष्टता और विरासत के प्रति गर्व का भाव महसूस करते हैं क्योंकि यह वसुधैव कुटुंबकम् की आधारशिला पर पिछले कई हजार सालों से प्रवाहमान है और स्वतंत्रता आंदोलन की सफलता के बाद हमारे ऊपर पूर्ण स्वराज के प्रकाश को हर घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी है. इसमें विराट वंचित भारत की अनदेखी करना और उनके प्रश्नों का पुलिस और फौज के बल पर मुट्ठी भर लंगोटिया पूंजीपतियों की रक्षा के लिए दमन करना राष्ट्र के विघटन का आत्मघाती रास्ता है.

अधिकांश दलों ने परिवारवाद और पैसावाद की ताकतों के आगे घुटने टेक दिए हैं. बड़े सपनों को तिलांजलि दे दी गई है. इसके सामानांतर नई पीढ़ी के भारतीयों में समाज के प्रति सरोकार बढ़ा है

क्या आपको लगता है कि देश की जनता एक नए राजनीतिक दल के लिए तैयार है?

असल में दल निर्माण दोहरी जरूरतों के प्रत्युत्तर में होता है. दल निर्माण और दल विघटन लोकतंत्र व समाज के बदलते रुझानों से तय होता है. इधर पिछले दो दशकों में स्थापित दलों और नागरिकों के बीच की परस्पर दूरी बढ़ी है. अधिकांश दलों ने परिवारवाद और पैसावाद की ताकतों के आगे घुटने टेक दिए हैं. बड़े सपनों को तिलांजलि दे दी गई है. इसके समानांतर नागरिकों में विशेष तौर पर नई पीढ़ी के भारतीयों में समाज के प्रति सरोकार बढ़ा है. स्थानीय आंदोलनों से लेकर आरटीआई और सोशल मीडिया ने चारों तरफ छोटे-छोटे प्रकाश केंद्र बनाए हैं लेकिन व्यक्ति, जाति और संप्रदाय की राजनीति से बने वोट बैंक के भरोसे गठबंधन की राजनीति में विषयों का चुनाव जारी है. फिर वैकल्पिक राजनीति के लिए खुद को सुधारने की क्या जरूरत है. इस हठधर्मिता का जनांदोलनों के बढ़ते दायरों से समाधान करने की कोशिश हो रही है. इस प्रक्रिया में चुनाव के मोर्चे को खाली नहीं छोड़ा जा सकता. इसलिए चुनाव की भूमिका को स्वीकारते हुए, नागरिकों की सतत सक्रियता को प्राथमिकता देने वाला दल इस दौर की जरूरत है. अब इसके आगे बढ़ने और प्रभावशाली बनने में चार तत्वों का उचित मात्रा में संयोग बड़ी शर्त है. कार्यक्रम, कार्यकर्ता, कोष और कार्यालय. स्वराज अभियान अभी नई पहल में इसके बारे में पूरी तरह से सचेत है.

दिल्ली में राज्य और केंद्र में दो पार्टियों की सरकार है. इन दोनों पार्टियों को बड़ा जनसमर्थन मिला है. इनके कामकाज को आप किस तरह से देखते हैं?

दिल्ली की जनता ने लोकसभा और विधानसभा दोनों में दो अलग-अलग दलों के पक्ष में एकतरफा निर्णय दिया था. क्योंकि देश में डाॅ. मनमोहन सिंह व सोनिया गांधी की दस साल की सरकार और राज्य में शीला दीक्षित की सरकार ने व्यापक मोहभंग पैदा किया था. लेकिन यह ताज्जुब की बात है कि उसी मतदाता ने दिल्ली प्रदेश की समस्याओं के समाधान के लिए नरेंद्र मोदी के अथक प्रयासों के बावजूद साल भर के भीतर ही भाजपा को अपनी आशाओं का केंद्र बनाने से इनकार किया क्योंकि स्थानीय प्रशासन में महापालिकाओं के जरिए और प्रदेश के विकास में उपराज्यपाल के जरिए भाजपा की तरफ से कोई आकर्षक पहल नहीं थी. अब दोनों ही सरकारें कसौटी पर हैं. यह अफसोस की बात है कि सहयोगी संघवाद की दुहाई देने के बावजूद नरेंद्र मोदी की सरकार दिल्ली की प्रादेशिक सरकार के साथ समन्वय और संवाद में असफल रही है.

दूसरी तरफ, दिल्ली की प्रादेशिक सरकार के चाल-चलन में आशा से ज्यादा निराशा दिखाई पड़ती है. एक तिहाई मंत्रियों और एक चौथाई विधायकों पर गैर-जिम्मेदाराना हरकतों के आरोप लग चुके हैं. शिक्षालय के बजाय मदिरालय की प्राथमिकता जगजाहिर हो चुकी है. पानी और बिजली के घोटालों के आरोपों के बारे में दोषियों की सजा के लिए दिल्ली इंतजार कर रही है. इसी बीच सत्ता की वासना का आवेग इतना बढ़ गया है कि बगैर दिल्ली में स्वराज का वादा पूरा किए पंजाब से लेकर गुजरात और गोवा तक चुनावों में कूद गए हैं. इससे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दोनों के ही प्रति जनसाधारण में अविश्वास बढ़ रहा है. साख का संकट आ गया है. इसलिए धीरज घट रहा है. दोनों ही सरकारों को लोगों के बिगड़ते मूड को सम्मान देते हुए अपने वादों को पूरा करने की तरफ लौटना चाहिए.

मुअनजोदड़ो की जगह अगर मोहेंजो दारो हो गया तो भाई किसके घाव दुख गए : नरेंद्र झा

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आप छोटे परदे पर लंबे समय तक काम करने के बाद फिल्मों में आए. दोनों माध्यमों में क्या अंतर पाते हैं?

टेलीविजन के लिए काम करते हुए आपको सोचने का मौका नहीं मिलता है. फिल्मों में आपको इसका मौका मिलता है. टेलीविजन का अपना एक गणित होता है जिसके तहत एक दिन के लिए आपका तय काम निर्धारित होता है जो आपको करना ही पड़ता है. फिल्म की बात दूसरी होती है. ये आर्काइवल मटेरियल होती हैं. यहां पर सोचने का वक्त भरपूर होता है. बाकी जब एक्टिंग कर रहे होते हो तो भले ही सोचने का कम वक्त मिला हो लेकिन ऐसा नहीं है कि फिल्मों के लिए 100 फीसदी देते हो और टीवी के लिए 75 फीसदी. दोनों ही माध्यमों में आपको अपना 100 फीसदी देना पड़ता है.

क्या शुरू से तय था कि अभिनय की दुनिया में जाना है?

नहीं, शुरू से ये तय नहीं था कि अभिनय के क्षेत्र में जाना है. बचपन में जरूर मैं नाटकों में भाग लिया करता था. यह मेरे गांव कोइलख की देन थी. कोइलख मधुबनी क्षेत्र का बहुत ही प्रसिद्ध इलाका है. यहां 1922-23 में नाट्य परिषद की नींव पड़ गई थी. इसके तहत गांव में काफी सारे सांस्कृतिक आयोजन हुआ करते थे. संगीत में मेरी रुचि रही है, लेकिन अभिनय के लिए ऐसा कुछ नहीं था. हालांकि नाटक वगैरह किया करता था. गांव में झांसी की रानी पर आधारित एक नाटक में मैं अंग्रेज अधिकारी का किरदार निभाया करता था. इसके बाद पोस्ट ग्रैजुएशन के लिए जब जेएनयू आया तो लगा कि अब अभिनय मुझे पुकार रहा है. आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि जो हुआ अच्छे के लिए हुआ.

गांव की बात आई है तो अपने गांव से मुंबई तक के सफर के बारे में बताइए. ये सफर कैसा और कितना संघर्षों भरा रहा?

मैं बिहार के मधुबनी जिले का रहने वाला हूं. पढ़ाई-लिखाई बिहार और दिल्ली में हुई है. पोस्ट ग्रैजुएशन जेएनयू से किया. फिर तकरीबन साल भर तक सिविल सेवा की तैयारी की. उसके बाद दिल्ली में ही अभिनय में डिप्लोमा किया. इसके बाद निकल पड़ा मुंबई के लिए. ये 1993-94 की बात है. यहां आने के बाद मुझे मॉडलिंग असाइनमेंट्स और ऐड फिल्में मिलने लगीं. लंबा-चौड़ा था और दिखने में भी ठीक-ठाक था इसलिए संघर्ष के नाम पर मुझे ऐसा कुछ करना नहीं पड़ा. इस मामले में मैं भाग्यशाली रहा. उसी दौरान मुझे ‘शांति’ सीरियल में काम करने का मौका मिल गया. वहां से टेलीविजन सीरियलों में काम करने का सिलसिला चला तो वो सफर रुका ही नहीं. 2002-03 में जब आम्रपाली सीरियल कर रहा था तो फिल्म ‘फंटूश’ का ऑफर मिल गया. इसके बाद श्याम बेनेगल की फिल्म ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस : द फॉरगटन हीरो’ मिल गई. इस फिल्म में मैंने हबीब-उर-रहमान का किरदार निभाया था. 2005 में ‘बाहुबली’ फेम निर्देशक एसएस राजमौली की फिल्म ‘छत्रपति’ की, जिसमें मैंने विलेन का किरदार निभाया था. इसके बाद दक्षिण की कई सारी फिल्में कीं. इस बीच टेलीविजन पर अभिनय का सिलसिला भी जारी रहा. टेलीविजन से फिल्म और फिल्म से टेलीविजन चल रहा था. फिर ‘हैदर’ के लिए विशाल भारद्वाज जी का कॉल आया कि आप बहुत अच्छी एक्टिंग करते हैं आपको मुख्यधारा के सिनेमा में आना चाहिए. तब मैंने कहा कि अब निश्चित रूप से आ जाऊंगा. ‘हैदर’ में मैंने शाहिद के पिता का किरदार निभाया, जिसकी काफी तारीफ हुई. फिर सनी देओल की ‘घायल वंस अगेन’ में मुख्य विलेन का किरदार निभाया.

मैं पूरी तरह से अनसेंसरशिप के पक्ष में नहीं हूं. बहुत सारी ऐसी फिल्में हैं जिनमें दिखाए गए कुछ पक्षों और मुद्दों को वैसे ही छोड़ दिया जाए तो हो सकता है देश में अराजकता या दंगे फैल जाएं

जब अभिनय के क्षेत्र से जुड़ने की बात घरवालों को बताई तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी? क्या वे इस बात के लिए तैयार थे?

इस मामले में मेरा अनुभव अच्छा रहा. मेरे पिता हायर सेकंडरी स्कूल के हेडमास्टर हुआ करते थे. उनको जब मैंने अभिनय करने की बात बताई तो उन्होंने कहा कि बड़ी ही अच्छी बात है. आपको अगर लग रहा है तो आप अभिनेता बनिए. लेकिन उसके लिए कोई कोर्स कर लें ताकि जब मुंबई जाएं तो बता सकें कि आप प्रशिक्षित कलाकार हैं क्योंकि किसी भी विधा में प्रशिक्षित लोगों को ज्यादा तवज्जो मिलती है.

दक्षिण की तमाम फिल्में करने के बाद अब आप बॉलीवुड में सक्रिय हैं. बॉलीवुड और टॉलीवुड में क्या अंतर पाते हैं?

मैंने देखा है टॉलीवुड में शेड्यूल का बहुत ख्याल रखा जाता है. सुबह सात बजे का समय रखा गया है तो ठीक समय पर काम शुरू हो जाता है. बॉलीवुड में थोड़ी-सी छूट ले ली जाती है. बाकी दोनों जगहों पर प्रोफेशनलिज्म है. दोनों जगहों के कलाकार बहुत मेहनती और प्रबुद्ध लोग हैं. तकनीक के लिहाज से भी देखा जाए तो मैं नहीं मानता कि बॉलीवुड पीछे है. हमारे यहां भी एक से बढ़कर एक फिल्में बन रही हैं.

आपकी फिल्म ‘मोहेंजो दारो’ रिलीज हो चुकी है. दर्शकों की प्रतिक्रिया भी ठीक है, हालांकि सोशल मीडिया पर फिल्म के कॉस्टयूम, नाम और कालखंड को लेकर कुछ लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं.

आशुतोष गोवारिकर बहुत ही कमाल के निर्देशक हैं. आप ये देखिए कि इस तरह के प्रोजेक्ट को कितने लोग शुरू कर पाते हैं. मैं जेएनयू से प्राचीन भारतीय इतिहास में पोस्ट ग्रैजुएट हूं. मैं आपको क्या बताऊं जब मैं पहली बार सेट पर पहुंचा तो मुझे वाकई में लगा कि मैं मोहेंजो दारो में खड़ा हूं. सेट इतना सटीक बनाया गया था. इसके बावजूद ये सब (सिनेमा) है तो मनोरंजन ही. अगर थोड़ी-सी छूट लेकर ऐसी फिल्म बनाई गई है तो मुझे लगता है कि लोगों को उसे देखना चाहिए. ये कोई ऐतिहासिक डॉक्यूमेंट्री फिल्म नहीं है. इसे ऐसे नहीं देखा जाना चाहिए कि जी, यहां पर वो चीज रख दी और उसे हटा दिया. ये गलत है. ऐसा करने वाले वे लोग होते हैं जिनका काम ही होता है विवाद पैदा करना. कुछ आलोचना करने वाले होते हैं तो कुछ तारीफ करने वाले. ये सब तो चलता रहता है. ऐसी चीजें एक तरह से फिल्म की मदद ही करती हैं.

जहां तक नाम की बात है तो ‘मोहेंजो दारो’ और ‘मुअनजोदड़ो’ दोनों सही हैं. उदाहरण के तौर पर देखें तो मेरे गांव का नाम है कोइलख. इसका नाम कोकिलाक्षी देवी के नाम पर किसी जमाने में कोकिलाक्षी था, जो बाद में होते-होते कोइलख हो गया. जिन्होंने मुअनजोदड़ो कहा है, उन्होंने बिल्कुल सही कहा है. लेकिन ‘मुअनजोदड़ो’ की जगह अगर ‘मोहेंजो दारो’ हो गया तो भाई किसके घाव दुख गए? क्या हो गया? अगर बॉम्बे से मुंबई हो गया तो ऐसा थोड़े न हुआ कि बांद्रा कांदिवली में चला गया और कांदिवली बांद्रा हो गया.

‘मोहेंजो दारो’ में नरेंद्र ने जखीरो का किरदार निभाया है, जिसके बाप-दादा ने मोहेंजो दारो की नींव रखी हुई है. जखीरो का दिमागी संतुलन ठीक नहीं होता है. वे इस फिल्म के अलावा शाहरुख खान के साथ ‘रईस’, हृतिक रोशन के साथ ‘काबिल’ और ‘माई फादर इकबाल’ नाम की फिल्मों में नजर आएंगे
‘मोहेंजो दारो’ में नरेंद्र ने जखीरो का किरदार निभाया है, जिसके बाप-दादा ने मोहेंजो दारो की नींव रखी हुई है. जखीरो का दिमागी संतुलन ठीक नहीं होता है. वे इस फिल्म के अलावा शाहरुख खान के साथ ‘रईस’, हृतिक रोशन के साथ ‘काबिल’ और ‘माई फादर इकबाल’ नाम की फिल्मों में नजर आएंगे

आप सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सेंसर बोर्ड) की पूर्व सीईओ पंकजा ठाकुर के पति हैं. क्या कभी ऐसा हुआ कि आपकी कोई फिल्म फंस गई हो? पिछले कुछ समय से सेंसर बोर्ड काफी विवादों में रहा है, इसे किस नजर से देखते हैं?

नहीं-नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ कि मेरी कोई फिल्म सेंसर बोर्ड की वजह से फंसी हो. दूसरी बात मैं पूरी तरह से अनसेंसरशिप के पक्ष में भी नहीं हूं. क्या है कि बहुत सारी ऐसी फिल्में हैं जिनमें दिखाए गए कुछ पक्षों और मुद्दों को वैसे ही छोड़ दिया जाए तो हो सकता है देश में अराजकता फैल जाए, दंगे भड़क जाएं. अगर एक संस्था इन सब चीजों को देख रही है तो उसे देखने दीजिए न.

कोई भी कैंपस हो- जेएनयू, डीयू या कोई और, अगर भारत के खिलाफ कहीं पर नारा लगता है तो वो सख्त कार्रवाई के लायक है. वहां वही कार्रवाई होनी चाहिए जो सीमा पर दुश्मनों के साथ की जाती है

आपका निकनेम ‘कन्हैया’ है और आपने जेएनयू से पढ़ाई भी की है. जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार से जुड़े विवाद और सरकार के रुख पर क्या सोचते हैं?

ये मसला अभी जांच के दायरे में है और इसकी अभी जांच हो रही तो मुझे लगता है कि मुझे कुछ बोलना नहीं चाहिए. वैसे एक बात आप जान लीजिए कोई भी कैंपस हो- जेएनयू, डीयू या कोई और, अगर भारत के खिलाफ कहीं पर नारा लगता है तो वो सख्त कार्रवाई के लायक है. वहां वही कार्रवाई होनी चाहिए जो सीमा पर दुश्मनों के साथ की जाती है. बाकी का जो मसला है उसे किस तरह से हैंडल किया गया है ये अभी जांच के दायरे में है इसलिए मैं इस पर कुछ नहीं बोलना चाहूंगा. बाकी देशद्रोह का जो मामला है उसे कहीं से भी बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.

सनी देओल की फिल्म ‘घायल वंस अगेन’ में आपने मुख्य खलनायक का किरदार निभाया है. इससे पहले फिल्म ‘घायल’ में ये किरदार अमरीश पुरी ने निभाया था. अमरीश पुरी की तुलना में इस फिल्म में अपनी भूमिका के साथ कितना न्याय कर पाए हैं?

सच पूछिए तो दोनों भूमिकाओं की कोई तुलना नहीं थी, वो समय दूसरा था. वो 1990 की बात थी ये 2016 की बात है. समय, मुद्दा और बहुत सारी बातें अब बिल्कुल अलग-अलग हो चुकी हैं. जहां तक रोल के निर्वाह की बात है तो मेरे दिमाग में तुलना नाम की कोई चीज ही नहीं थी.

फिल्म में जो रोल मुझे दिया गया उसका निर्वाह मैंने उसी तरह से किया जैसा निर्देशक सनी देओल ने मुझसे उम्मीद की थी और मुझे इस बात की खुशी है कि उस रोल को सराहा गया. जब फिल्म का सीक्वल बनता है तो जाहिर-सी बात है कि कहीं न कहीं एक जिम्मेदारी तो रहती ही है, एक नैतिक दबाव बना रहता है कि उस रोल को फलाने ने किया था और अब वो रोल तुम कर रहे हो. समय और मुद्दे बदल गए हैं लेकिन अपेक्षाएं तो जुड़ी ही रहती हैं. मुझे लगता है कि इन सब चीजों से प्रभावित हुए बिना आपको जो काम दिया गया है उसका निर्वहन करें यकीनन आपको सफलता मिलेगी.

गाद, गंगा और फरक्का बांध

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नदी के बीच टापू विशेषज्ञों का मानना है कि फरक्का बांध की वजह से गंगा के प्रवाह में बाधा आ रही है और इसमें जमा गाद से टापुओं का निर्माण हो रहा है
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बीते 16 जुलाई की बात है. नई दिल्ली में अंतरराज्यीय परिषद की बैठक थी. सभी राज्यों के मुख्यमंत्री इसमें शामिल हुए थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में तमाम मुद्दों को उठाते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फरक्का बैराज परियोजना पर भी सवाल उठा दिया. उन्होंने कहा, ‘अब गंगा नदी पर बने फरक्का बैराज को हटा देना चाहिए. इससे राज्य को कई तरह का नुकसान हो रहा है. इस बांध के बनने की सजा हम भुगत रहे हैं. यह बांध बिहार के लिए हितकर साबित नहीं हुआ. इसे तोड़ देना चाहिए. इसके अलावा केंद्र सरकार नदियों से गाद निकालने के लिए कोई नई नीति बनाए. इसके बिना काम चलने वाला नहीं है.’

 नीतीश ने कहा, ‘गंगा जितने बड़े इलाके में बहती है, उसके कैचमेंट एरिया का 16 प्रतिशत हिस्सा ही बिहार में है, लेकिन सूखे के दिनों में भी गंगा में जो तीन चौथाई जल होता है, वह बिहार की नदियों से ही मिलता है. गंगा जहां से बिहार में प्रवेश करती है, वहां 400 क्यूसेक पानी मिलता है लेकिन फरक्का बैराज पर पानी की जो जरूरत है, वह 1500 क्यूसेक है. जाहिर-सी बात है कि बिहार की नदियों से ही इसकी पूर्ति होती है.’ केंद्र सरकार से अपील करते हुए नीतीश ने कहा, ‘अब हस्तक्षेप कीजिए, क्योंकि उत्तर प्रदेश की ओर से गंगा के सीमावर्ती इलाके में, जहां से गंगा बिहार में प्रवेश करती है, वहां 400 क्यूसेक पानी भी नहीं मिलता.’

नीतीश कुमार ने बिहार में बहने वाली गंगा के बहाने बात की शुरुआत की और गंगा के नाम पर होने वाले पूरे खेल को ही परत-दर-परत खोलना शुरू कर दिया. और आखिर में प्रधानमंत्री से कहा, ‘गंगा के पानी पर सबसे ज्यादा हक बिहार का बनता है लेकिन बिहार उदार मन से गंगा को बचाने-बढ़ाने में अपनी भूमिका निभा रहा है. दूसरे जो खेल कर रहे हैं, उनको देखिए, नियंत्रित कीजिए.’ उस दिन नीतीश ने और भी ढेरों बातें कहीं. नीतीश इसके पहले भी गंगा पर बोलते रहे हैं और फरक्का को लेकर चिंता जताते रहे हैं लेकिन इस बार उन्होंने अंतरराज्यीय परिषद में पूरी तैयारी से गंगा के बहाने फरक्का को केंद्रीय विषय बनाते हुए बोला, तर्क आैैर तथ्य सामने रखे.  हालांकि नीतीश जिस फरक्का बैराज को खत्म करने की बात कर रहे हैं, उसे अचानक और एकबारगी से खत्म करना तो संभव नहीं लेकिन यह सच है कि आने वाले दिनों में फरक्का गंगा के लिए और गंगा के जरिए देश के दूसरे हिस्से के लिए परेशानियों का पहाड़ खड़ा करने वाला है.

परेशानियों के इन पहाड़ों के नमूने अभी से ही दिखने लगे हैं. नदी विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, ‘पटना से मोकामा तक फरक्का इफेक्ट साफ दिखने लगा है.’ नदी विज्ञानी और आईटी बीएचयू के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के पूर्व अध्यक्ष डाॅ. यूके चौधरी कहते हैं, ‘मोकामा तक ही नहीं, उत्तर प्रदेश में बनारस से आगे इलाहाबाद तक फरक्का फैक्टर असर दिखाने लगा है और वह दिन दूर नहीं जब गंगा रेत और मिट्टी का पहाड़ बनाने वाली नदी हो जाएगी.’

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…तो कब का फरक्का को हटा दिया गया होता

अव्वल तो यह बात कि फरक्का का निर्माण ही क्यों हुआ था, यह तब भी वैज्ञानिकों को समझ नहीं आया था. यह तो सामान्य समझ की बात है कि गंगा एक ऐसी नदी है जिसमें दर्जनों बड़ी नदियां मिलती हैं. सभी नदियां अपने साथ मिट्टी और गाद वगैरह लेकर आती हैं. वह मिट्टी-गाद फरक्का जाते-जाते रुक जाता है, क्योंकि नदी का स्वाभाविक प्रवाह वहां रुक जाता है. गाद और मिट्टी कचरा फरक्का में रुकता है. फिर वह बैराज के पास जमा होता है. नदी पानी पीछे की ओर धकेलती है. गाद जहां का तहां जमा होता है. इसके बाद नदी किनारे के इलाकों का तेजी से कटाव होता है. इसका असर गंगा में मिलने वाली नदियाें पर भी पड़ता है, क्योंकि गंगा नीचे होकर बहती है और उसमें मिलने वाली नदियां थोड़ा ऊपर से आती हैं. जब गंगा फरक्का के पास से पानी पीछे की ओर ठेलती है तो दूसरी नदियों में भी रिवर्स डायरेक्शन होता है. भीमगोड़ा और नरोरा बैराज में जब गंगा के प्रवाह को रोका जाता है तो वह भी गंगा के लिए खतरनाक है. दिक्कत यह है कि हमारे देश में रिवर इंजीनियरिंग का अलग से कोई ठोस रूप विकसित नहीं हो सका है. जो नदियां हैं और उन पर जो निर्माण हैं, उनका असेसमेंट होता नहीं. अगर फरक्का बैैराज का असेसमेंट हुआ होता तो कब का इसे हटा दिए जाने की अनुशंसा की गई होती.

यूके चौधरी, नदी विज्ञानी[/symple_box]

‘फरक्का फैक्टर’ या ‘इफेक्ट’ क्या है, उसकी जमीनी हकीकत को आसानी से देखा और समझा जा सकता है. दरअसल गंगा में गाद की समस्या दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है. बिहार के जिन इलाकों से होकर गंगा गुजरती है उनमें गाद की वजह से जगह-जगह टीले या टापू बन गए हैं. इसकी वजह से गंगा की धारा में रुकावट पैदा होने के साथ ही उसका स्वाभाविक बहाव प्रभावित होने लगा है. इसकी वजह से नदी का जल दोनों किनारों पर कटाव पैदा करने लगता है और नदी के किनारों पर बसे गांव खतरे में आ जाते हैं.

गाद और कटाव की समस्या हर नदी के साथ होती है, लेकिन जब यह मामला गंगा के साथ जुड़ता है तो समस्या भयावह हो जाती है. भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदी होने की वजह से इसके तट पर एक बड़ी आबादी निवास करती है. पिछले दिनों जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनर्जीवीकरण मंत्रालय की ओर से विभिन्न नदियों में गाद और कटाव की समस्या के अध्ययन के लिए विशेषज्ञों की एक समिति बनाई गई. यह समिति गाद जमा होने और कटाव के कारणों का अध्ययन करने के साथ ही इनसे जुड़ी समस्याओं के निदान के सुझाव देगी. समिति गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी का विशेष रूप से अध्ययन करेगी. 

‘नदी का जीवन उसका प्रवाह ही होता है. अगर इसका प्रवाह रुक गया तो वह नदी मृतप्राय हो जाती है. गाद जमा होने के कारण इसकी आशंका हमेशा प्रबल बनी रहती है. गंगा को देखा जाए तो चौसा, पटना या फरक्का या कहीं भी इसे जहां सबसे गहरी होना चाहिए, वहीं यह उथली हो चुकी है’

गंगा की पूरी राजनीति की कहानी गंगोत्री से ही शुरू हो जाती है. हरिद्वार में भीमगोड़ा बैराज, बुलंदशहर के पास बने नरोरा बैराज, कानपुर के चमड़ा उद्योग, इलाहाबाद के कुंभ से होते हुए बनारस में आकर गंगा रुक-सी जाती है. उसके बाद गंगा बहती भी है और बहती है तो क्यों बहती है, किस हाल में बहती है, इस पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस नहीं होती. गंगा महासभा के प्रमुख स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती कहते हैं, ‘गंगा के नाम पर खेल करने वालों के लिए फरक्का का मामला हमेशा आखिरी छोर का मामला रहा है लेकिन अब फरक्का का मामला आखिरी छोर का नहीं रह गया. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फरक्का पर मजबूती से बात उठाकर इसे केंद्रीय विषय बना दिया है जो बहुत पहले से होना चाहिए था.’

Farakka2WEB

एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र में हाल में लिखे अपने लेख में बिहार विधानसभा के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ‘गाद की समस्या लगातार गंभीर होती जा रही है. वैसे तो यह समस्या पूरे विश्व की है, पर भारत में और विशेषकर बिहार में यह समस्या अब सुरसा रूप लेती जा रही है. बिहार का लगभग 73 प्रतिशत भूभाग बाढ़ के खतरे वाला इलाका है. पूरे उत्तर बिहार में हर साल बाढ़ के प्रकोप की आशंका बनी रहती है. उत्तर बिहार में बहने वाली लगभग सभी नदियां, जैसे- घाघरा, गंडक, बागमती, कमला, कोसी, महानंदा आदि नेपाल के विभिन्न भागों से आती हैं और खड़ी ढाल होने के कारण अपने बहाव के साथ वे अत्यधिक मात्रा में गाद लाती हैं. बहाव की गति में परिवर्तन के कारण विभिन्न स्थानों पर गाद जमा होती जा रही है. कभी-कभी अत्यधिक गाद के एक स्थान पर जमा होने पर वहां गाद का टीला बन जाता है. नदी के बहाव के बीच में टीले बन जाने से उसकी धारा विचलित होती है, जो तिरछे रूप में अधिक वेग से पहुंचने के कारण बांध और किनारों पर कटाव का दबाव बनाती है. अगर गाद प्रबंधन की व्यवस्था सही हो जाए, तो यह नहीं होगा.’ लेख में गंगा में गाद की समस्या की बात करते हुए विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ‘नदी का जीवन उसका प्रवाह ही होता है और अगर इसका प्रवाह रुक गया या टूट गया, तो वह नदी मृतप्राय हो जाती है. नदी तल में अनियंत्रित गाद जमा होने के कारण इस स्थिति की आशंका हमेशा प्रबल बनी रहती है. अगर गंगा को देखा जाए तो चौसा, पटना या फरक्का या कहीं भी इसे जहां सबसे गहरी होना चाहिए, वहीं यह उथली हो चुकी है. धीरे-धीरे अगर उस उथलेपन का विस्तार नदी की चौड़ाई में फैलता है, तो नदी का स्वाभाविक प्रवाह ही अवरुद्ध हो जाता है. तब नदी टुकड़े-टुकड़े में पोखर या तालाब जैसी दिखने लगती है. गंगा नदी के मामले में तो स्वाभाविक गाद जमा होने की क्रिया पुराने समय से चल ही रही थी. फरक्का बैराज के निर्माण के बाद से इसमें गाद जमा होने की दर कई गुना बढ़ गई. धीरे-धीरे नदी का पाट समतल दिखने लगा है, इससे नदी में जल भंडारण की क्षमता का ह्रास होता है और यह प्रक्रिया निरंतर जारी रही, तो नदी का रूप सपाट हो जाएगा और इसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा.’

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इलाके के मछुआरों पर भी संकट बढ़ा

गंगा नदी में गाद से टीले बनने के साथ-साथ फरक्का बैराज के कारण मछुआरों के सामने संकट बढ़ता जा रहा है. मछुआरा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले फुच्चीलाल सहनी कहते हैं, ‘मछुआरों के सपने में भी अब हिलसा-झींगा जैसी मछलियां नहीं आतीं. टीलों का निर्माण होने से नदी में अब उतनी मछलियां नहीं रह गई है जितनी पहले होती थीं.’ गंगा मुक्ति आंदोलन से जुड़े रहे अनिल प्रकाश के अनुसार, ‘बिहार के मछुआरे 47 किस्म की मछलियां गंगा से पकड़कर पूरे देश में कारोबार करते थे, लेकिन अब लगभग 75 प्रतिशत मछलियां खत्म हो चुकी हैं.’ मछलियों की इस समस्या के पीछे प्रदूषण तो वजह है ही लेकिन फरक्का बैराज ने इस पर आखिरी कील ठोक दी है. फरक्का ने हिलसा और झींगा जैसी मछलियों की संभावना को तेजी से खत्म किया है. झींगा मीठे पानी में रहती है और ब्रीडिंग के लिए खारे पानी में जाती हैं. हिलसा खारे में रहती है लेकिन ब्रीडिंग के लिए मीठे पानी की ओर आती है. फरक्का मीठे और खारे पानी के बीच खड़ा है. मछलियों की आवाजाही के लिए रास्ते छोड़े गए थे लेकिन वे सब अब बेकार पड़ गए. स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती कहते हैं, ‘गंगा पर पहले चार लाख मछुआरे निर्भर रहते थे. उनका पूरा परिवार इसी पर चलता था, लेकिन अब इन परिवारों की संख्या घटकर 40 हजार तक सिमट गई है.’[/symple_box]

हैैरानी की बात यह है कि आज तक अपने देश में गाद प्रबंधन की कोई स्पष्ट नीति नहीं बन सकी है, जबकि कई देशों में गाद प्रबंधन, नदी प्रबंधन का हिस्सा होता है. वर्ष 2011-12 से ही बिहार सरकार लगातार इस मुद्दे को केंद्र सरकार के सामने उठाती रही है कि अगर गाद प्रबंधन की कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई गई तो स्थिति अत्यंत भयंकर हो सकती है, लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया गया है.

नीतीश कुमार ने फरक्का के बहाने क्यों एक ऐसे विषय को उठाया है जिसे राष्ट्रीय विषय होना चाहिए या जो गंगा से जुड़ा हुआ एक अहम सवाल है और कैसे फरक्का के कारण ऊपरी हिस्से में गंगा के इलाके में कहानी बदलने वाली है, उसे बिहार के बाद फरक्का तक की गंगा यात्रा करके समझा और जाना जा सकता है. झारखंड के राजमहल, साहेबगंज से लेकर बिहार के और भी कई हिस्सों में, जहां गंगा की वजह से दूसरी नदियों में गाद के ढेर की वजह से टापुओं का निर्माण शुरू हो चुका है. इसे देखा जाए तो सब साफ-साफ समझ में आ जाएगा. जलजमाव के इलाके बढ़ रहे हैं. फरक्का बैराज जहां है वहां गंगा अबूझ पहेली जैसी बनती है. कई धाराओं में बंटी हुई नजर आती है. गंगा के कई धाराओं में बंटने के पहले वहां बड़े-बड़े टापू दिखते हैं, जो पिछले कुछ वर्षों में बने हैं. इन टापुओं की वजह से गंगा बाढ़ के दिनों में आसपास के इलाके का कटाव करती है और गांव के गांव साफ हो जाते हैं.

मालदा का पंचाननपुर जैसा विशाल गांव तो इसका एक उदाहरण रहा है, जिसका अस्तित्व ही खत्म हो गया. फरक्का बैराज से लगभग छह किलोमीटर दूरी पर बसा गांव सिमलतल्ला भी गंगा में समा गया. कभी यह हजार घरों वाला आबाद गांव हुआ करता था. बांग्लादेश सीमा के नजदीक पश्चिम बंगाल में 1975 में जब फरक्का बैराज बना था तो मार्च के महीने में भी वहां 72 फुट तक पानी रहता था. अब बालू-मिट्टी से नदी के भरते जाने की वजह से नदी की गहराई 12-13 फुट तक रह गई है. बैराज के कारण पांच लाख से अधिक लोग अब तक अपनी जमीन से उखड़ चुके हैं और बंगाल के मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों की 600 वर्ग किलोमीटर से अधिक उपजाऊ जमीन गंगा में विलीन हो चुकी है. फरक्का के पास गंगा 27 किलोमीटर तक रेतीले मैदान बना चुकी है. फरक्का बैराज की वजह से बालू और मिट्टी रुक जाते हैं. गंगा में टीले बनने का सिलसिला झारखंड के राजमहल तक पहुंच चुका है. गांव के गांव, शहर के शहर खत्म होने की ओर बढ़ रहे हैं लेकिन टिहरी, नरोरा, भीमगोड़ा बांध और कुंभ जैसे आयोजनों के बीच गंगा के आखिरी छोर पर बसे लोगों की पीड़ा अनसुनी रह जाती है. मछुआरे मछली बिना मर रहे हैं और नदी में आ रहे कचरे से आखिरी छोर पर रहने वाले  लोग बीमारियों की चपेट में आ रहे है. उम्मीद है कि अब गंगा पर नीचे से भी बात होगी, फरक्का के इलाके से भी. 

मोदी जी के पीएम बनने के बाद संघ के लोगों को चर्बी चढ़ गई है : जिग्नेश मेवाणी

ColdBlood-JigneshWEB

हमारे समाज में गाय को आधार बनाकर छुआछूत की परंपरा पुरानी है. पर अब इसके बहाने दलितों को पीटा जा रहा है.

देखिए, और कोई पशु माता नहीं है तो गाय ही माता क्यों है? यह सबसे अहम सवाल है. गाय को पवित्र बनाकर लंबे अरसे से एक राजनीति चल रही है जिसको संघ परिवार कई दशकों से भुनाता आ रहा है. अब उसी का परिणाम गुजरात में देखा जा रहा है. दलितों का उत्पीड़न कांग्रेस के समय भी होता रहा है, लेकिन मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संघ परिवार के लोगों को इस तरह चर्बी चढ़ी है कि वे बेखौफ महसूस कर रहे हैं. इन लोगों को दिनदहाड़े अपराध करते हुए कोई डर नहीं है, बल्कि वे खुद वीडियो बनाकर प्रसारित करते हैं क्योंकि इसकी गारंटी है कि पुलिस और प्रशासन उनको बचा लेगा. वे जानते हैं कि वे जो कर रहे हैं उसको प्रश्रय देने वाली राजनीति मौजूद है.

हमें ये मंजूर नहीं है. हम पदयात्रा लेकर निकले और 15 अगस्त को ऊना में सभा की. हमने नारा दिया है कि गाय की दुम आप रखो, हमें हमारी जमीन दो. आप मरी गाय की चमड़ी उतारने पर हमारी चमड़ी उतार लेंगे? तो आप अपनी गाय से खेलते रहो. हमें न जिंदा गाय से मतलब है, न ही मरी गाय से. हमें जमीनों का आवंटन करो. हम रोजगार की ओर जाएंगे. जिस पेशे के लिए हमें अछूत घोषित किया गया, अब उसी के लिए हमारी चमड़ी उधेड़ रहे हो, यह कैसे चलेगा? जब तक हमारी सारी मांगें मानी नहीं जातीं, हम यह आंदोलन बंद नहीं करेंगे. हमें भारत के अन्य राज्यों और विदेशों से भी समर्थन मिल रहा है.

गोरक्षकों को लेकर प्रधानमंत्री ने बयान दिया, इसके बावजूद घटनाएं रुक नहीं रही हैं. आंध्र की घटना बयान के बाद की है.

ये जो गुंडे लोग हैं, गोरक्षा के नाम पर संगठन चलाते हैं, इन सबको बैन करना चाहिए. लेकिन इससे भी ज्यादा गाय के नाम पर राजनीति खत्म करने का मसला है.  वरना ये सब होता रहेगा. मोदी साहेब का जो बयान आया है उस पर मैं कहूंगा कि भाजपा और संघ परिवार के लोग बहुत गाय माता की दुम हिला रहे थे. अब जिस तरह हजारों की संख्या में दलित शक्ति सड़कों पर उतर आई, जिस तरह से यह आंदोलन फैल रहा है, कहीं न कहीं मोदी साहेब और भाजपा को लग रहा है कि गाय की दुम अब उनके गले का फंदा न बन जाए, तब उन्होंने मुंह खोला है.

क्या मांगें हैं आपकी?

हमारी मांग है कि जिस तरह से कुछ लोगों ने दलित समाज को आतंकित किया है, जब भी उनको बेल मिले तो उन्हें तड़ीपार किया जाए. वीडियो में जो लोग पहचाने गए हैं, उन्हें गिरफ्तार किया जाए. जो पुलिसकर्मी दोषी हैं उनके खिलाफ कार्रवाई हो.  सुरेंद्र नगर में सितंबर 2012 में दो बेगुनाह दलित लड़कों को एके-47 से भूनकर मारा गया था. उसमें तीन एफआईआर हुईं. दो मामलों में चार साल बाद भी चार्जशीट दाखिल नहीं हुई. आरोपी कांस्टेबल गिरफ्तार नहीं हुआ. उस मामले में कार्रवाई हो. गुजरात के सारे जिलों में कानूनी प्रावधान के मुताबिक स्पेशल कोर्ट गठित की जाएं. जो दलित मरे जानवरों का काम नहीं करना चाहते वे और जो भी भूमिहीन दलित हैं, उनको पांच-पांच एकड़ जमीन का आवंटन हो. पहले जो जमीनें बांटी गईं उन पर अभी तक दलितों को कब्जा नहीं मिला है. वह सुनिश्चित किया जाए. गुजरात में रिजर्वेशन एक्ट ही नहीं है. रिजर्वेशन पॉलिसी बने और लागू की जाए. शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब्स सबप्लान है, उसके पैसे जनरल कामों में खर्च होते हैं. सरकार एंबुलेंस खरीदती है और कहती है कि एंबुलेंस से तो सब जाएंगे चाहे सवर्ण हों या पिछड़े-दलित हों. हमारी मांग है कि ऐसा कानून बनाया जाए कि उनके लिए आवंटित पैसा उन्हीं पर खर्च हो. इसके अलावा फॉरेस्ट ऐक्ट के तहत आदिवासी समुदाय की जो एक लाख 20 हजार एप्लीकेशन पेंडिंग हैं, उन सभी को क्लियर करें. 

15 अगस्त की रैली से लौट रहे दलितों पर हमले की खबर सही है?

बिल्कुल सही है. 13 घंटे तक लगातार हमले हुए हैं. दिन के 12 बजे से लेकर रात 1 बजे तक फायरिंग होती रही. यह सोची-समझी साजिश के तहत हुआ. गोरक्षक गुंडे झाड़ियों में छिपकर हमले कर रहे थे. पहले जो लोग रैली में शामिल होने आ रहे थे, उनकी गाड़ियों के कांच तोड़े गए, मारा-पीटा गया, मोबाइल छीने गए. फिर जब लोग वापस जा रहे थे तब हर नाके पर लोगों को पीटा गया. गुंडों ने बस में घुसने की कोशिश की. कई अस्पतालों में लोग भर्ती हैं. हम पुलिस को लगातार सूचना दे रहे थे, पेट्रोलिंग करवाने की कह रहे थे. बार-बार कहा गया कि सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए जाएं. पुलिस को एहतियातन यह सब पहले ही करना था, लेकिन पुलिस ने हमले होने के बाद भी कुछ नहीं किया. एक तरफ मोदी जी कहते हैं कि गोरक्षा के नाम पर फर्जी लोग दुकान खोलकर बैठे हैं. दूसरी तरफ गोरक्षकों को पुलिस ने खुली छूट दे रखी है. कि वे जब चाहें तब दलितों को मारें.

क्या रैली के पहले से अंदाजा था कि दलितों पर हमले हो सकते हैं?

हां बिल्कुल, रैली से पहले भी हमले हुए. रैली में न आने के लिए लोगों को धमकाया गया. रास्ते में लोगों की गाड़ियों पर हमले हुए, मारपीट की गई. इस बारे में हमने पुलिस के सभी बड़े अधिकारियों को बताया, लेकिन पुलिस ने कोई एक्शन नहीं लिया. उसके एक दिन पहले छोटी-सी बाइक रैली निकली थी. वहां भी गोरक्षक गुंडों ने हमला किया. दलित युवकों की पिटाई करने वाले 20 आरोपी एक ही गांव के हैं. वे भी हमले में शामिल रहे. इस पर भी एक्शन नहीं लिया गया. जिन युवकों को मरी गाय उठाने के लिए पीटा गया था, उनके परिजनों पर भी हमला होते-होते बचा. उन्हें करीब 7 घंटे थाने में बैठाए रखा गया. हमने पुलिस से पीड़ित परिवारों को सुरक्षा दिए जाने मांग की थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. यह सब हमारी रैली और आंदोलन को कमजोर करने के लिए किया जा रहा है.

क्या इसे वैसी स्थिति माना जाए जैसी 2002 में थी ?

बिल्कुल, बिल्कुल. एकदम यही हो रहा है,  उससे भी ज्यादा. एक गांव है सामखेड़, वहां के लोगों ने दलितों को 13 तारीख को पीटा, 14 को पीटा, 15 को भी हमला किया. आज 16 तारीख है, वे लोग हमले कर रहे हैं, लेकिन गांव से एक भी गोरक्षक को पकड़ा नहीं गया है. हम असहाय महसूस कर रहे हैं.

आपने जो मसले उठाए थे, वे दलित समाज के बड़े मसले हैं जिन पर अभी तो कोई बातचीत शुरू ही नहीं हुई. उस पर ये हमले भी हो रहे हैं. जाहिर है कि चुनौती और बढ़ रही है. मुश्किलों को देखते हुए आगे की क्या रणनीति होगी?

हमने कॉल दी है कि हमारी जो दससूत्रीय मांगें हैं, उनमें से एक है जमीन का आवंटन. उस पर विचार करके जमीन आवंटन की प्रक्रिया शुरू करो. यदि नहीं करोगे तो हम 15 सितंबर को रेल रोको आंदोलन करेंगे. इसकी घोषणा हम एक तारीख को करेंगे.

 Duniya-KeDAlitWEB

आपके आंदोलन की लीडरशिप पर सवाल उठ रहे हैं कि इसका कोई संगठित नेतृत्व नहीं है. पार्टियों ने ये आंदोलन हाईजैक कर लिया है. लीडरशिप को लेकर कशमकश की बात कही जा रही है.

ऐसा हुआ कि हम लोगों की मर्जी के खिलाफ कुछ पॉलिटिकल एलिमेंट स्टेज पर गए. हमने उन्हें बार-बार कहा भी कि हमारी आयोजन टीम है तय करेगी कि स्टेज पर कौन बैठेगा. लेकिन इसके बावजूद जब वे लोग नहीं माने तो हमने अपना कार्यक्रम कर लिया. रोहित वेमुला की मां और कन्हैया ने अपना भाषण दिया. आनंद पटवर्धन ने उन गुजराती साहित्यकारों को 25 हजार का चेक दिया, जिन्होंने गुजरात सरकार का 25 हजार का अवॉर्ड वापस किया था. इसके बाद हम लोगों ने स्टेज छोड़ दिया कि जिसे जो करना है, करे. जहां तक लीडरशिप की बात है तो कोई भी आंदोलन खड़ा होता है तो दो-चार लोग तो ऐसे रहेंगे जो विरोध करेंगे. जिनको नहीं पसंद आएगा, वे विरोध में खड़े हो जाएंगे. पर हजारों की तादाद में लोग हमारे साथ हैं.

कन्हैया कुमार आपकी मर्जी से आए थे या वे भी जबरन पहुंचे?

यह ओपन कार्यक्रम था. कन्हैया कुमार भी आए. बाकी लोग भी आए. कन्हैया तो हमारे संघर्ष का साथी है, इसलिए हमने उसको बुलाया था और हमें उसके आने की खुशी भी है.

25 गांवों के दलितों के बहिष्कार की खबरें आ रही हैं. क्या ये सही हैं?

बिल्कुल हो सकता है. अभी मुझे पक्की सूचना नहीं है. खबरें मिली हैं. मैं इसे अभी कंफर्म कर रहा हूं. अगर ये हो रहा है तो ये बहुत आश्चर्यजनक है. मुझे याद आता है कि बिल्कुल इसी तरह की घटना महाड़ सत्याग्रह के वक्त हुई थी. जब बाबा साहब दलितों के साथ निकले थे, तब उन पर सवर्णों ने हमला किया था. हम पर भी हमला किया गया. वह भी एक ऐतिहासिक घटना थी, यह भी एक ऐतिहासिक घटना है कि दलितों ने शपथ ली कि हम मरे हुए जानवर नहीं उठाएंगे. उस समय भी दलितों का बहिष्कार हुआ था, यहां भी वही हो रहा है.

आपका आंदोलन काफी बड़ा हो गया है. कहीं ये हाईजैक न हो जाए, सरकार या किसी पार्टी के लोग इसे दबा न दें, इसके लिए आपने क्या रणनीति बनाई है?

आने वाले दिनों में हम रेल रोको कॉल दे रहे हैं. इसमें देश भर से लोग आएंगे. अब गुजरात सरकार एक्सपोज होने वाली है. अगर वह दलितों को जमीन का आवंटन नहीं करती तो उसका असली चेहरा सामने आ जाएगा कि वे चाहते हैं कि हम मैला उठाएं या मरे हुए पशु उठाते रहें. आगे की रणनीति वही है, जो हमने कल मंच से कहा था कि आदिवासी समुदाय की जंगल समस्याओं से जुड़ी एक लाख 20 हजार एप्लीकेशन पेंडिंग हैं. गुजरात सरकार उसका भी निदान करे. हम आदिवासी समुदाय को अपने साथ जोड़ेंगे. हमने कहा था ‘गुजरात मॉडल मुर्दाबाद, दलित-मुस्लिम एकता जिंदाबाद’ तो मुस्लिम समुदाय के संगठन भी हमारे साथ आए हैं. हम अपने संघर्ष में किसानों और मजदूरों को जोड़ेंगे. जितने पीड़ित समुदाय हैं, हम सबको साथ लेंगे और जमकर मुकाबला होगा. जब तक मैं लीडरशिप में हूं, यह आंदोलन सिर्फ दलितों का नहीं रहेगा, बल्कि सभी वंचित समुदायों का होगा, दलित जिसका नेतृत्व करेंगे.

गुजरात में अलग-अलग पार्टियों में जो दलित नेता हैं उनका क्या स्टैंड है? क्या वे आपके समर्थन में आए हैं?

नहीं, वे चुपचाप बैठे हुए हैं. जैसे प्राइमरी के बच्चे होते हैं, टीचर उंगली उठाकर इशारा कर दे तो चुपचाप शांत हो जाते हैं, उनकी वही हालत है.

यह स्पष्ट कीजिए कि यह राजनीतिक आंदोलन है या सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन?

एक सौ प्रतिशत यह राजनीतिक होगा. हमारी जो मांग है वह राजनीतिक है. मैं यह पूछता हूं कि ग्लोबलाइजेशन की पॉलिटिकल इकोनॉमी में लोगों के पास रोटी क्यों नहीं है? यह राजनीति है. आजादी के इतने दशकों के बाद दलितों के पास जमीन का टुकड़ा क्यों नहीं है? ये राजनीति है. ये लोकसंघर्ष और आंदोलन की राजनीति है. वो राजनीति हम करेंगे. पार्टी पॉलिटिक्स हम नहीं करेंगे. हमारी समिति अराजनीतिक संघर्ष समिति है, ये बनी रहेगी.

दिल्ली में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन हुआ था. बाद में यह कहकर उन्होंने पार्टी बनाई कि अब इसके बगैर काम नहीं चल सकता. क्या आप भी इस आंदोलन के जरिए कोई पार्टी बनाएंगे?

ऐसी कोई संभावना नहीं है. हम इसे सामाजिक आंदोलन की तरह चलाएंगे. हजारों की तादाद में दलित उठ खड़े हुए हैं कि हम मरे हुए जानवर नहीं उठाएंगे. हमने बहुत बड़े परिवर्तन की नींव रखी है. डॉ. आंबेडकर के बाद इस तरह मृत पशु उठाने से इनकार करने की कोशिश नहीं हुई. हम इसे पूरे देश में ले जाएंगे.  हमने नारा दिया है कि ‘गाय की दुम आप रखो, हमें हमारी जमीन दो’.

क्या इस आंदोलन के पहले भी आपकी सामाजिक या राजनीतिक सक्रियता रही है?

इसके पहले मैंने डॉ. मुकुल सिन्हा के जनसंघर्ष मंच के साथ स्वयंसेवक के रूप में आठ साल तक काम किया है. वहां मैंने ट्रेड यूनियन के लिए भी काम किया. उसमें सफाई कर्मियों के सवाल उठाए. मजदूर अधिकार संगठनों के साथ जुड़ा रहा. कंस्ट्रक्शन वर्कर्स और ईंट भट्ठे के मजदूरों के साथ काम किया. निजी तौर पर मैंने दलितों की जमीनों के मुद्दे पर छह-सात साल काम किया है. जमीन सुधार मेरा प्रमुख एजेंडा है. चार साल तक पत्रकारिता भी की है. इसके अलावा मैं गुजरात में आम आदमी पार्टी का सदस्य भी हूं.

कसाई की दुकान पर बकरा नहीं पाला जा सकता : मुनव्वर राना

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भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश- तीनों मुल्कों के एकीकरण की बात बार-बार उठती है. एकीकरण पर आपका क्या नजरिया है?

देखिए, मुल्क भी घर की तरह होते हैं. जब घर में एक बार दीवारें उठ जाती हैं तो टूटती नहीं हैं. इसलिए ये नामुमकिन है कि तीनों मुल्क एक हो जाएंगे. यह बिल्कुल वैसा है कि तीनों भाई फिर से आकर एक घर में रहने लगें. अगर तीनों भाइयों में मोहब्बत बरकरार रहती है तो यह भी वैसे ही है जैसे तीनों एक जगह रहते हैं. तो ये ख्वाब देखने से कोई फायदा ही नहीं है क्योंकि रास्ते में इतनी अड़चनें हैं कि ये मुमकिन ही नहीं है. ये तो बिल्कुल वैसा ही है कि सूरज पूरब की जगह पश्चिम से निकल आए. लेकिन जरूरत इस बात की है कि जब ये तमाम यहूदी और ईसाई एक होकर दुनिया के तमाम फैसले करते हैं, बमबारी करके तमाम मुल्कों को बर्बाद करते हैं, दुनिया में पहले एड्स फैलाते हैं फिर उसकी दवाएं बेचते हैं, तो हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक होकर दुनिया का मुकाबला करने के लिए क्यों नहीं खड़े हो सकते?

मेरा विचार यह है कि 25 साल तक तीनों देशों में इस बात पर मुआयदा हो कि हममें जंग नहीं होगी, हममें छेड़छाड़ नहीं होगी. 25 साल में जो हम जंगी सामान खरीदते हैं, उनमें कटौती करके एजुकेशन और मेडिकल हब बनाएंगे. तो ये एक ऐसी शुरुआत हो सकती है कि तीनों मुल्कों में लोगों के दिल एक हो जाएं. क्योंकि अगर आप बर्लिन की मिसाल देते हैं तो दोनों के दिल एक थे. यहां दिल एक नहीं हैं. यहां सियासत ने इतनी नफरतें फैला रखी हैं, इतनी कहानियां बुन रखी हैं कि वहां खबर फैला दी गई कि हिंदू बहुत जालिम होता है, काट देगा. यहां वालों को ये बता दिया गया कि मुसलमान बहुत जालिम होता है, जाओगे तो छुरी लेकर बैठा रहता है, अल्ला हो अकबर कर देगा. जहां इतने फासले हों, इतनी कहानियां हों, जब तीनों मुल्क कहानियों पर चल रहे हों, तीनों मुल्क आज तक जब ये फैसला नहीं कर सके कि बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि दोनों एक ही मुल्क की चीजें हैं, उसके लिए लड़ रहे हैं. जितना कागज बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि पर खर्च कर दिया गया, उतने में हमारी एक पूरी पीढ़ी शिक्षित हो गई होती. बजाय यह करने के उस पर पैसा बर्बाद किया गया. ऐसे एशियाई मुल्कों को आप एक नहीं कर सकते. सिर्फ यही है कि चूंकि इनके पहनावे, इनकी बोली, इनका खान-पान, रहन-सहन, मिजाज सब एक है. ये सब एग्रेसिव हैं, जरा-से में गुस्सा हो जाएं, जरा-से में आपकी जूतियां उठा लें. जरा-से में लड़ने को तैयार हो जाएं, जरा से में गुलाब का फूल लेकर खड़े हो जाएं. ये तीनों के मिजाजों में शामिल हैं. इस लिहाज से तीनों आपस में रिश्तेदार हैं. तो रिश्तेदार अगर आपस में मिल जाएं तो यही बहुत है. ये जरूरी नहीं कि सब रिश्तेदार एक घर में आकर रहने लगें.

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आजादी की लड़ाई के दौरान एक तरफ संघ और हिंदू महासभा थी और दूसरी तरफ मुस्लिम लीग थी. हिंदू संगठनों का वृहद भारत का अभियान तब से चल रहा है. दूसरी तरफ मुसलमानों के खिलाफ समय-समय पर द्वेषपूर्ण अभियान भी चलता रहता है. इस अंतर्विरोध के साथ एकीकरण कैसे संभव है?

देखिए, जब इतिहास में झूठ लिखा जाने लगे, इतिहास में लिखे झूठ पर फैसला किया जाने लगे, इतिहास में लिखे सच पर पर्दा डाला जाने लगे और अगर सड़कों के नाम मिटाए जाने लगे तो ऐसे में एकीकरण के बारे में कैसे सोचा जाए? इतिहास में लिखी इस बात को नहीं तलाश किया जा रहा है कि औरंगजेब के जमाने में ही हिंदुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा मुल्क था. उसके बाद हिंदुस्तान घटता ही गया. ये जितने म्यांमार, नेपाल, अफगानिस्तान और काबुल ये सब हमारे ही मुल्क में थे. हिंदुस्तान सबसे बड़ा मुल्क औरंगजेब के जमाने में था. उसने पूरी जिंदगी हिंदुस्तान को बड़ा और एक करने में गुजारी. तो उसकी इस बात से पर्दा डालने में लगे हैं. अब ये बताने में लगे हैं कि उसने अपने भाई को मार दिया. अगर उसने अपने भाई को मार दिया तो अशोक ने क्या किया था? कहने का मतलब कि जब इतिहास से खराब चीजें निकालकर आप फैसला करेंगे तो कैसे होगा?

जितना कागज बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि पर खर्च कर दिया गया, उतने में हमारी एक पूरी पीढ़ी शिक्षित हो गई होती. बजाय यह करने के उस पर पैसा बर्बाद किया गया. ऐसे एशियाई मुल्कों को आप एक नहीं कर सकते 

असल में, ये सब मसले जब तक सियासत से निकालकर बाहर नहीं लाएंगे, बात नहीं बनेगी. मैं कहता रहा हूं कि जब तक साहित्यकार, लेखक, कवि, कलाकार, पत्रकार- ये 25 से 30 प्रतिशत तक संसद में नहीं आते, तब तक देश के हालात सुधर नहीं सकते, चाहे ये देश हो या वो देश हो. क्योंकि यहां से जो जाते हैं, वे केवल छुट्टी में जाते हैं पाकिस्तान और चले आते हैं. हमारी तरह वो खुले में नहीं घूमते. तो ये कैसे मेल कर सकते हैं.

जब तक यह सोचने वाले लोग न हों, जिनका मिजाज एकता का हो, तब तक ऐसा नहीं हो सकता. आप देखिए कि कसाई की दुकान पर बकरा नहीं पाला जा सकता है. इनके मिजाज जो हैं, वो नफरत करने वाले हैं, चाहे इधर के हों या उधर के हों, चाहे मुसलमान हों, या हिंदू हों, इनके यहां मुहब्बत का तसव्वुर किया ही नहीं जा सकता. इनसे हमें जंग करनी पड़ेगी, लेकिन जैसी जंग हमारे महात्मा गांधी करते थे, अहिंसा के साथ.

जिस दौरान नरेंद्र मोदी पाकिस्तान गए, उसी दौरान राम माधव ने अल जजीरा चैनल को साक्षात्कार दिया कि तीनों मुल्क कानूनी रास्ते से भाईचारे के साथ एक हो जाएंगे. क्या ये एक राजनीतिक अभियान भर है या फिर इसका कोई और निहितार्थ है? क्या ऐसा हो सकता है?

अगर राम माधव के घर के चार लोग अलग-अलग रहने लगे हों तो उनसे कहिए पहले उनको एक कर लें, हम हिंदुस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश को एक कर लेंगे. जो बात लॉजिक में नहीं आती है, उसको कैसे कर लेंगे आप? ये है कि चार घर हो जाएं, लेकिन चार दिल न हों. दिल न बंटें. हम तो कहते हैं कि हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में ये मुआयदा होना चाहिए, दिलों में ये मुहब्बत होनी चाहिए कि एक भाई पर हमला हो तो तीनों भाई मिलकर लड़ेंगे. ये फैसला सुना दें दुनिया को कि कोई जंग होगी तो तीनों मिलकर लड़ेंगे. आप देखेंगे कि पूरी दुनिया की रूह कांप जाएगी.

तीनों देशों की एकता की जो बातें आप कह रहे हैं, ये कैसे संभव है? क्या यूरोपीय संघ के तौर पर कोई संघ बन सकता है?

क्यों नहीं बन सकता? ये फर्जी मुठभेड़, फर्जी आतंकवादी, फर्जी बमबारी, ये खत्म हो जाए तो सब ठीक हो जाएगा. सब मिल जाएंगे आपस में. आप बॉर्डर पर जाकर देखें तो मिलिट्री चीखती है कि इतना सख्त पहरा है कि परिंदे पर नहीं मार सकते, लेकिन पाकिस्तान की चिड़ियां हजारों की तादाद में आकर हिंदुस्तान के दरख्तों पर बैठ जाती हैं. तो वहां सब एक हैं. कोई नफरत नहीं है. एक-दूसरे से मांग कर बीड़ी पीते हैं. एक-दूसरे से मांग कर सिगरेट पीते हैं. एक-दूसरे से मांग कर दवा खाते हैं. वहां सब मुहब्बत से एक साथ हैं. अचानक एक शोशा-सा उठता है और बात बिगड़ जाती है. लेकिन सरहदी जिंदगी बड़ी खतरनाक है. कब किसको कहां पकड़कर कहां इस्तेमाल कर लिया जाए. मुजरिम बना दिया जाए, जासूस बना दिया जाए, स्मगलर बना दिया जाए, पाकिस्तानी-हिंदुस्तानी बना दिया जाए. दोनों तरफ ये है. लेकिन ये सब करना बहुत आसान है. मेरा कहना है कि अगर 25 बरस तक ये मुआयदा हो जाए कि जंग नहीं होगी तो सब ठीक हो जाएगा.

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ये एक शायर का ख्वाब है जो बहुत सुंदर लगता है. क्या अस​ल में ये संभव है?

मोदी साहब ने पिछले साल एक पहल की जो पाकिस्तान में उतर गए जहाज से, ये बड़ा काम था. इसे दुनिया किसी नजर से देखे, हम एक शायर की नजर से देखते हैं. एक इंसान की नजर से देखते हैं, एक बहादुर इंसान की नजर से देखते हैं कि अगर मोदी साहब उतरे तो इसे हिंदुस्तान की कमजोरी न समझा जाए. जिस तरह मोदी उतर सकते हैं, वैसे ही हमारी फौजें भी लाहौर में उतर सकती हैं. इसे हमारी कमजोरी न समझा जाए. लेकिन हम अगर हिंदुस्तानी हैं तो हम बड़े भाई की तरह हैं. बड़े भाई का नसीब ही ऐसा होता है कि उसे झुकना पड़ता है छोटे भाई को मनाने के लिए. मोदी इसलिए नहीं गए थे कि उनको कोई समझौता करना है वहां, झुकना है, वो तो सिर्फ उनकी मां के पैर छूने गए थे. हमने वहां सारी जिंदगी शायरी की है. हम इस रिश्ते के बारे में जानते हैं कि यह बहुत ही अजीबोगरीब रिश्ता है. हमने ये बात पहले भी कई बार कही है कि ‘कोई सरहद नहीं होती, कोई गलियारा नहीं होता, अगर मां बीच में होती तो बंटवारा नहीं होता’.
तो मैं ये कहता हूं कि अगर नेहरू और जिन्ना की मांएं भी बैठी होतीं 1947 में तो शायद हिंदुस्तान बंटता नहीं. तो अब भी अगर कोई बातचीत हो तो दोनों की मांओं को वहां मौजूद रहना चाहिए. आप देखिएगा कि इस मसले का हल निकलेगा और नफरतें बीच में पनप नहीं पाएंगी.

जब मुल्क बंटवारा हुआ, आप कितने बरस के थे. उस वक्त की कुछ बातें याद हैं?

तब हम दो बरस के थे. बंटवारे की कोई याद नहीं है. हां, मुहाजिरनामा हमारी किताब है. दरअसल, बंटवारा ऐसी कहानी है जिसको आज तक आपके माता-पिता आपको सुनाते हैं. उनके माता-पिता उनको सुनाते रहे. ये ऐसा गम है जो कभी पुराना हुआ ही नहीं. ये ऐसा गम है जो कभी मैला हुआ ही नहीं, ये हमेशा ताजा होता रहा.

दिलों में ये मुहब्बत होनी चाहिए कि एक भाई पर हमला हो तो तीनों भाई मिलकर लड़ें. ये फैसला सुना दें दुनिया को कि कोई जंग होगी तो तीनों मिलकर लड़ेंगे. आप देखेंगे कि पूरी दुनिया की रूह कांप जाएगी

बंटवारा होने के बाद आपके परिवार पर क्या असर हुआ? क्या पूरा परिवार यहीं रहा या परिवार भी बंट गया?

पाकिस्तान बना तो सबको तमाम ख्वाब दिखाए जाने लगे कि ये होगा, वो होगा. इस ख्वाब के साथ हमारी बुआएं सब चली गईं, क्योंकि उन सबके पति जाने को तैयार थे. हमारे दो चाचा चले गए. हमारी दादी चली गईं. वो दादा को भी ले गईं. पहली बार मैंने ये मुहावरा गलत होते देखा कि असल से ज्यादा सूद प्यारा होता है. क्योंकि दादी हमको बहुत चाहती थीं लेकिन हमें छोड़कर चली गईं. मेरे पिता जी नहीं गए. वो जिद्दी आदमी थे. उनसे पूछा गया कि क्या करोगे यहां हिंदुस्तान में तो बोले कि कोई काम नहीं मिलेगा तो हम अपने पूर्वजों की कब्रों की देखभाल करेंगे. लेकिन हम जाएंगे नहीं और मेरे पिता जी नहीं गए.

लेकिन पूरी जिंदगी के लिए ये जो जख्म था, जो उदासी थी, वो आज तक घरों में मौजूद है. बुआ उधर हैं, मौसी इधर हैं. खालू इधर हैं तो फूफा इधर हैं. दादी उधर हैं. मुझे तो सबसे बड़ा गम यही है कि रायबरेली के कब्रिस्तान में 600 बरस से हमारे बुजुर्गों की कब्रें बिछी हुई हैं. दो कब्रें उनमें कम पड़ती हैं, हमारी दादी की और हमारे दादा की. अगर हम कभी दुनिया के ताकतवर आदमी बन जाएं तो पाकिस्तान से उन कब्रों को नोचकर ले आएं और उनको रायबरेली की मिट्टी में बो दें. ताकि ये तरतीब जो बिगड़ गई है, वह पूरी हो जाए. जब हम लोग जाते हैं ईद-बकरीद पर कब्रों के पास, तो ये फौरन अंदाजा हो जाता है कि ये दो जगहें खाली रह गई हैं. यहां हमारे दादा और दादी को होना चाहिए था.

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पाकिस्तान में रह रहे आपके परिजन, जिनको लेकर आप इतने भावुक हो जाते हैं, उनसे मिलने कभी पाकिस्तान गए आप?

हां, कई बार गया हूं. मुशायरों के हवाले से गया हूं. पहली बार 1990 में गया था. फिर 2006 से 08 तक लगातार गया. इसके बाद मैं बीमार हो गया. घुटनों का आॅपरेशन हुआ था. 2009 से 2013 तक इसी से परेशान रहा तो जाना नहीं हुआ. अबकी मैंने जाने का इरादा किया था, मुशायरा था, उन लोगों ने बुलाया था, लेकिन यहां सहिष्णुता और असहिष्णुता का मामला चल रहा था. हमने सोचा कि कुर्सियों पर जो नालायक लोग बैठे हैं, जब ये कह रहे हैं कि ये पता लगाना चाहिए कि अखलाक पाकिस्तान क्यों गया था, बजाय इसके कि अपने जुर्म पर निगाह डालें, अपने जुर्म पर शर्मिंदा हों, अपने गुनाह पर परेशान हों, ये कह रहे हैं कि अखलाक पाकिस्तान क्यों गया था. तो अगर मैं चला जाऊंगा तो ये फौरन बोल देंगे कि ये पाकिस्तान गया था, वहां से ये लेकर आया है वो लेकर आया है. मैंने कहा था टीवी पर बहस के दौरान कि 67 बरस में बिजली के तार तो जोड़ नहीं सके, लेकिन हमारे तार दाऊद इब्राहिम से जोड़ देते हैं.

असहिष्णुता की बहस में आप भागीदार रहे. उस पूरे प्रकरण पर क्या राय बनी आपकी?

दिक्कत ये है कि जब चिंतन को आप अपनी आलोचना समझने लगें तो इसका मतलब है कि आप पागल हो चुके हैं. आपका मेडिकल ​ट्रीटमेंट होना चाहिए. हमारी चिंता को आप आलोचना कह रहे हैं. हम ये कह रहे हैं कि इस देश में अगर सौ आदमी अचानक उठते हैं और एक आदमी को मार डालते हैं तो इसका मतलब है कि अगर इस एक्शन का रिएक्शन, रिएक्शन का फिर एक्शन होने लगा तो पूरा मुल्क गोधरा और गुजरात बनकर रह जाएगा. अगर ये बात मैंने कही तो मैंने बुरी बात कहां कही? ये मेरे चिंतन का विषय था, इसको आपने आलोचना कहा और फौरन कह दिया कि यहां-वहां से पैसा आ गया होगा, बिहार से ये मिल गया होगा, कांग्रेस से वो मिल गया होगा. ये कितने बेवकूफ लोग हैं कि ये सरस्वती पुत्रों को रिश्वतखोर अफसर समझते हैं. भगवान इनको सद्बुद्धि दे और क्या कहा जा सकता है?

एकीकरण यूटोपिया है, जो संभव नहीं

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हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश को एक कर देने का विचार एक यूटोपिया है जो कि संभव नहीं है. यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अपना एजेंडा है जो आजादी के बहुत पहले से चल रहा है. वे मिथ और इतिहास को मिला देते हैं. इसकी वजह से ही वे इतिहास को नए सिरे से लिखने की बात करते हैं क्योंकि आप अंतर ही खत्म कर दीजिए कि इतिहास और मिथ क्या है, इसके बाद इतिहास को जैसे आप चाहेंगे, वैसे लिखेंगे. यह एक पुराना एजेंडा है जिसे संघ के लोग समय-समय पर आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं. राम माधव ने तीनों देशों के एकीकरण पर जो कहा वह पोलिटिकली करेक्ट नहीं था, ठीक वैसे ही जैसे आरक्षण वाला मुद्दा जो बिहार के चुनाव के समय संघ प्रमुख ने उठाया था. राम माधव ने भी वही किया. जब मोदी पाकिस्तान पहुंचे, राम माधव का इंटरव्यू प्रसारित हुआ. अब या तो यह पूर्व निर्धारित समय है या इत्तेफाक, ये तो राजनीतिज्ञ जानें. लेकिन ये बयान खास मौके पर आए और पुराने मुद्दों को उठाने की कोशिश की गई.

1925 से अब तक आप देखिए, संघ ने हमेशा यह बताने की कोशिश की है कि देश में एक बहुसंख्यकवादी सोच है. एक राष्ट्रवाद ऐसा होता है जो समावेशी होता है, जिसमें आप सबको जोड़कर रखते हैं, दूसरा राष्ट्रवाद वह होता है जिसमें आप पहले दुश्मन की पहचान करके यह बताने की कोशिश करते हैं कि ये लोग राष्ट्रवादी नहीं हैं. एक सांप्रदायिकता वह है जो राष्ट्रवाद हो जाती है, एक सांप्रदायिकता अलगाववाद हो जाती है यानी एंटी-नेशनल. हैं दोनों ही सांप्रदायिकता. आजकल जो एजेंडा आगे बढ़ाया जा रहा है, खास तौर से जिसे सरकार का खास सहयोग है, ऐसी बातों से उसमें दक्षिणपंथी खेमे को मदद मिलेगी. उस विचारधारा का जो पूरा एजेंडा है, एक खास तरह की सोच है, उसे आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी.

बात यह है कि नेशनल और एंटी-नेशनल की स्थिति को लेकर जैसा इतिहास आप पढ़ाना चाहते हैं, वह तर्कसंगत नहीं है. मध्यकालीन और प्राचीन भारत में हीरो ढूंढ़ने की कोशिश एक बहुत ही असंगत सोच है. क्योंकि उस वक्त के हीरो एक बोझ के साथ आते हैं, उस कालखंड का बोझ, उस कालखंड की सोच. चाहे वह प्राचीन भारत हो, चाहे वह मध्यकालीन भारत हो. आज आधुनिक जमाने में आप प्राचीन और मध्य भारत से हीरो ढूंढकर लाते हैं तो दिक्कत होती है. ऐसे मुद्दों पर फिल्में बन रही हैं. अभी बाजीराव मस्तानी फिल्म आई तो उस पर लेख भी आए कि बाजीराव ने क्या-क्या जुल्म किए, लोगों को मारा और जाने क्या-क्या… लेकिन यह उनकी कोई गलती नहीं है. वे एक कालखंड के लोग थे. वे अच्छे काम भी करते थे, बुरे काम भी करते थे. आज अगर आप मध्यकालीन लोगों को हीरो बनाते हैं तो उनकी अच्छाई-बुराई और उस युग को ध्यान में रखना चाहिए.

संघ का राष्ट्रवाद धर्म पर आधारित है जिसमें पुण्यभूमि और पितृभूमि का मुद्दा उठाया जाता है. पाकिस्तान धर्म के नाम पर बना था. उनका राष्ट्रवाद भी धर्म के नाम पर था. लेकिन मुस्लिम राष्ट्रवाद को भाषा और संस्कृति ने तोड़ दिया

कोशिश यह होनी चाहिए कि इतिहास से हीरो लाने के बजाय उससे कुछ सबक सीखने की कोशिश करें. उनकी बुराइयों से बचें. एक नायक आप ढूंढ़ते हैं तो उसमें बुराई तो दिखाई नहीं देती. वह तो हीरो हो गया. उसमें बुराई तो हो ही नहीं सकती. यह इतिहास का सही सबक नहीं है. इतिहास के बारे में कहा जाता है कि उससे सबक लेना चाहिए. जो इतिहास में अच्छा नहीं था, उससे बचिए, तभी तो सबक हुआ. आपने आंख बंद करके सब कुछ अपना लिया तो फिर सबक कहां हुआ? आपने तो कुछ सीखा ही नहीं.

आज जो हो रहा है, इतिहास की बात बार-बार होती है, वह यही है कि आप उस इतिहास को आंख बंद करके अपनाएं जो आज आपको सूट करता है. वह इतिहास आप इस्तेमाल करना चाहते हैं. अखंड भारत ऐसा ही मुद्दा है क्योंकि यह आपके आज को सूट करता है. क्योंकि आप चाहते हैं कि कुछ लोगों को गुमराह करके इस तरह के मुद्दों के सहारे उनको एकजुट रखें. मुझे नहीं लगता है कि इसमें कोई कामयाबी मिल सकती है. लेकिन उनकी कोशिश यही रहती है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को मिलाकर एक देश बना दो. यह नहीं सोचते कि राष्ट्रवाद के नाम पर, धर्म के नाम पर राष्ट्र नहीं बन सकते. संघ का राष्ट्रवाद भी धर्म पर आधारित है जिसमें पुण्यभूमि और पितृभूमि का मुद्दा उठाया जाता है. पाकिस्तान धर्म के नाम पर बना था. उनका राष्ट्रवाद भी धर्म के नाम पर था. लेकिन 1971 में क्या हुआ? जो मुस्लिम राष्ट्रवाद था, जिसके नाम पर द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर पाकिस्तान बना, उसको भाषा और संस्कृति ने तोड़ दिया. धर्म तो दोनों का एक था, जिसके आधार पर वे अलग हुए थे. लेकिन वह नहीं चल पाया. इसका मतलब है कि बहुत सारे मुद्दे ऐसे होते हैं जो धर्म से परे होते हैं. सिर्फ धर्म के नाम पर आप एक राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते. अगर एक धर्म पर राष्ट्र का निर्माण होता तो दुनिया में 50 से ज्यादा मुस्लिम देश नहीं होते. एक इस्लामिक देश हो जाए फिर इतने देशों की क्या जरूरत है? चाहे वो परशियन देश हों, या दूसरे मुल्क, आज कितनी लड़ाइयां चल रही हैं. मुसलमान वे सभी हैं. सीरिया और तुर्की में भी मुसलमान ही तो लड़ रहे हैं. जो दूसरे अल्पसंख्यक हैं ईसाई या यजीदी वगैरह, वे तो बेचारे पिट रहे हैं. मुख्यत: जो लड़ रहे हैं वे सारे मुसलमान ही हैं. वे एक-दूसरे को मार रहे हैं. इसलिए राष्ट्रवाद धर्म के आधार पर नहीं चलने वाला. दुनिया में कहीं नहीं चल पाया है. यह भी इन लोगों को ध्यान में रखना चाहिए कि अखंड भारत का निर्माण सिर्फ धर्म के नाम पर या एक बहुसंख्यक संस्कृति के नाम पर नहीं हो सकता. एक बहुसंख्यक संस्कृति या विचार आप सब पर थोप दें, ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि तब सबकल्चर, सबनेशनलिज्म सिर उठाते हैं. हम लोगों को इन तीनों देशों के एकीकरण की बात सोचनी ही नहीं चाहिए क्योंकि ये तीनों संप्रभु राष्ट्र हैं जिनको आप पहले जैसी स्थिति में नहीं ले जा सकते. जर्मनी का उदाहरण बार-बार दिया जाता है, लेकिन जर्मनी एक अलग प्रकार का विभाजन था. वह हमारे जैसा विभाजन नहीं था. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश का मुद्दा दूसरा था. वहां मुद्दे सिर्फ राजनीतिक थे, धार्मिक या सांस्कृतिक नहीं. दोनों ईसाई मुल्क थे, एक संस्कृति थी, एक वैचारिक स्थिति थी. अमेरिका और रूस की लड़ाई थी, उसमें उन्होंने जर्मनी को बांटा, जब तक वह चल पाया, चला. लेकिन कोई ऐसा मुद्दा नहीं था जिसकी जड़ें बहुत गहरी हों, जिसका इलाज न किया जा सके. 1989 में जैसे ही वक्त आया, उन्होंने दीवार हटा दी. ये सब अपने यहां नहीं कर सकते. चूंकि बार-बार इसी की मिसाल दी जाती है कि जर्मनी कर सकता है तो हम क्यों नहीं. लोकप्रिय विचार के लिए वह बहुत अच्छा है लेकिन आप सोचकर देखें कि दोनों कितने अलग हैं.

लोहिया एक संघीय ढांचे की बात करते थे. लोहिया ही नहीं, अल्लामा इकबाल ने भी दो देश बनाने की बात नहीं की थी. उन्होंने भी कहा था कि एक संघीय ढांचा हो. लेकिन वह बात व्यावहारिक नहीं थी इसलिए फेल हो गई. वह यूटोपियन (काल्पनिक) आइडिया था, जिसके लिए वे कोशिश करते रहे. लेकिन अब हम बहुत आगे बढ़ गए हैं. हमारा सियासी ढांचा बहुत जटिल है. दूसरी बात यह है कि पाकिस्तान के लिए अपनी ही राजनीति और अपने ही द्वारा पैदा की गई मुश्किलों से निपटना आसान नहीं है.

भारत-बांग्लादेश सीमा, अगरतला
भारत-बांग्लादेश सीमा, अगरतला

इसलिए इन तीनों देशों के एकीकरण की कोई संभावना नहीं है, न इस बारे में कोई बात करनी चाहिए. इतिहास कोई कैसेट नहीं है जिसे आप दोबारा चला दें. जिस तरह के इतिहास से हम गुजर चुके हैं, वह बड़ा ही रक्तरंजित रहा है, उसे तो हमें याद भी नहीं करना चाहिए. उससे दूर रहने की कोशिश करनी चाहिए. यह देश जिस तरह से टूटा है उसे आप जोड़ेंगे तो इसका खतरा तो बना ही रहेगा कि जोड़ने में भी वैसा ही खूनखराबा हो क्योंकि कहीं कोई ऐसा विचार तो है ही नहीं कि सब लोग इकट्ठा खुशी से मिलकर रहना चाहते हैं. ऐसे कोई हालात पैदा नहीं हुए. और फिर, यह सोच हमारे ही देश में क्यों हो? जिनको आप जोड़ना चाहते हैं, वहां भी तो ऐसी सोच होनी चाहिए! तभी तो आप इकट्ठे होंगे! अब तक तो ऐसे कोई आसार नजर नहीं आए कि बांग्लादेश या पाकिस्तान में ऐसी आवाज उठी हो कि वक्त आ गया है, अब सब लोग एक हो जाएंगे.

हमारे मुल्क में सिर्फ कुछ लोग हैं ऐसी सोच वाले जो अपनी राजनीति के लिए ऐसी बातें बोलते हैं. जानते वे भी हैं कि यह संभव नहीं है. इतिहास में ऐसा नहीं होता. जहां हुआ है तो वहां अलग तरीके के हालात में हुआ है 

हमारे मुल्क में सिर्फ कुछ लोग हैं ऐसी सोच वाले जो अपनी राजनीति के लिए ऐसी बातें बोलते हैं. जानते वे भी हैं कि यह संभव नहीं है. इतिहास में ऐसा नहीं होता. जहां हुआ है तो वहां अलग तरीके के हालात में हुआ है. जिन हालात से हमारा उपमहाद्वीप गुजरा है, उनमें कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता. ये चीजें सिर्फ राजनीति के लिए की जाती हैं. मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई गंभीरता है और जो बोल रहा है वह भी इसको गंभीरता से नहीं लेता है.

दूसरी बात- इतिहास से सबक लेना है तो आप इतिहास से वर्तमान सुधारने के लिए और भविष्य बनाने के लिए सबक लीजिए. अगर आप इतिहास में रहना चाहते हैं तो यह अलग बात है. इतिहास से सबक लेना और इतिहास में रहना दो अलग बातें हैं. आजकल लोग कोशिश कर रहे हैं कि इतिहास में ही रहें. और उसी में सब कुछ देखने की कोशिश करते हैं. इतिहास का कोई फायदा नहीं है अगर आप इतिहास में रहने की कोशिश करते हैं. इतिहास से बाहर निकलकर उससे सबक सीखकर आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. लेकिन दुख की बात है कि ऐसा हम नहीं करते. कुछ लोगों को लगता है इतिहास एक राजनीतिक हथियार है, जिसका इस्तेमाल आज की राजनीति के लिए हो सकता है. उसकी मिसालें तो रोज देखने को मिलती हैं. आजकल तो सनक है जिसके तहत भविष्य की अपेक्षा इतिहास से ज्यादा लगाव है. हमारे राजनीतिक दल और कई विचारक इतिहास की ही बात करते हैं. कई लोग तरह-तरह के अटपटे सवाल उठाते हैं तो मैं कहता हूं कि आप उस घटना को उस संदर्भ में देखें कि यह मसला इतिहास में किस संदर्भ में था. इसे आज के संदर्भ में आरोपित नहीं किया जा सकता. आपको यह सोचना चाहिए कि इतिहास में जो हुआ वह किस संदर्भ में था. लेकिन लोग यह कोशिश ही नहीं करते कि इतिहास को इतिहास में ही देखें.

400 साल पुरानी चीज को 400 साल पुराने संदर्भ में ही देखिए. वह अलग समाज था, वह अलग सोच थी. आज कोई बात बहुत सेक्युलर दिखती है, लेकिन उस जमाने में सेक्युलर शब्द के बारे में लोग जानते नहीं थे. आज जो बात कम्युनल दिखती है वह चार सौ साल पहले स्वीकृत थी. उसे आज के संदर्भ में देखना तर्कसंगत नहीं है.

नई सरकार आने के बाद इतिहास और शिक्षा को लेकर जिस तरह का अभियान चलाया जा रहा है, उसका आने वाली पीढ़ियों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा. यह सबसे ज्यादा खतरनाक चीज है. आपको कम से कम अपने पड़ोसी से सबक लेना चाहिए. जिसको आप बुरा कह रहे हैं, उसी तरह का काम खुद नहीं करना चाहिए. उन्हें देखिए कि वे किस तरह का इतिहास पढ़ा रहे हैं. उदाहरण के लिए, उन्होंने इतिहास के साथ क्या किया? उनका इतिहास शुरू होता है मोहम्मद बिन कासिम से, जबकि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो उन्हीं के यहां है, लेकिन उनके इतिहास में उस पर बात नहीं होती. वह उनकी संस्कृति और इतिहास का हिस्सा नहीं है. पूरे इतिहास में जितने चरित्र हैं उनको निकालकर इतिहास का इस्लामीकरण कर दिया, उसे अपने हिसाब से पवित्र कर दिया. अब उनके इतिहास में सारे चरित्र मुसलमान हैं, सारे मुद्दे इस्लामी मुद्दे हैं. इस तरह का समाज उन्होंने अपने यहां अपनी किताबों में पैदा किया. वही अपने बच्चों के सामने पेश किया. अब पिछले 30-40 सालों में बड़ी हुई जो नई पीढ़ी है वह इन किताबों को ही पढ़कर आगे बढ़ी है. उन किताबों में यही सब है कि हिंदू कितना खतरनाक होता है. इस्लाम के कौन-कौन दुश्मन हैं आदि-आदि. जब बच्चों को इस तरह का इतिहास पढ़ाया जाएगा तो किस तरह की पीढ़ी तैयार होगी? किस तरह का समाज तैयार होगा? उसकी वही सोच बनेगी जिस तरह का इतिहास वह पढ़ेगी.

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हमारे यहां आज जो हो रहा है वह वही कोशिश है कि हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार करें जो बिल्कुल ही नफरत पर आधारित हो. पहले आप इतिहास में एक दुश्मन पैदा करें फिर उससे लड़ें कि इतिहास में इन्होंने हमारे साथ क्या-क्या किया. इसके लिए मुसलमान और ईसाई दोनों को दुश्मन बनाया जा सकता है. इस तरह के इतिहास का आने वाले समय में कितना बुरा असर होगा, यह हम पाकिस्तान को देखकर समझ सकते हैं. अगर हम नहीं समझते तो यह हमारा दुर्भाग्य है. लेकिन हमारे यहां जो हो रहा है, यह पूरी तरह उन्हीं का ढर्रा है.

अखंड भारत का निर्माण एक बहुसंख्यक संस्कृति के नाम पर नहीं हो सकता. एक बहुसंख्यक संस्कृति या विचार आप सब पर थोप दें, ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि तब सबकल्चर, सबनेशनलिज्म सिर उठाते हैं

हालांकि, हमारी समझ यह है कि दीनानाथ बत्रा जैसे लोगों की कोशिश का व्यापक हिंदुस्तान पर असर नहीं होगा. लेकिन जितने पर होगा, वहां पर खतरा बना रहेगा. गुजरात में पिछले 25-30 सालों का उदाहरण लीजिए. नरेंद्र मोदी के आने के पहले यानी कांग्रेस के समय से ही आरएसएस ने वहां हिंदुत्व की प्रयोगशाला तैयार की. आदिवासी इलाकों में उनकी जड़ें खूब मजबूत हैं. अपने स्कूलों में पढ़ाकर उन्होंने एक नई पीढ़ी पैदा की जो उस सोच को आगे बढ़ा रही है जिसका परिणाम हमने 2002 में देखा. वह सोच वहां अब तक है. कहा जाता है कि वहां फिर दोबारा दंगे नहीं हुए. हमेशा खून-खराबा हो, यह जरूरी नहीं होता. एक तरह के वैचारिक दंगे भी होते हैं. उस समाज में एक सोच पैदा हुई और इसने लोगों के दिमाग में स्थायी रूप से घर कर लिया. इसके तहत समाज के बारे में एक धारणा बनी हुई है जिस पर आप सवाल ही नहीं उठा सकते. कुछ स्टीरियोटाइप हैं जो लोगों के दिमाग में बैठा दिए गए और उसी पर एक समाज चल रहा है. एक खास तरह का इतिहास और समाजशास्त्र पढ़कर जो लोग सामने आए उनको राजनीतिक रूप में इस्तेमाल करना बहुत आसान है. लोग जिसे गुजरात प्रयोग कहते हैं वह राष्ट्रीय स्तर पर करने का प्रयास आप देख सकते हैं जिसे दीनानाथ बत्रा या अन्य लोगों के जरिए आगे बढ़ाने की कोशिश हो रही है. बाकी अगर तीनों देशों के एकीकरण की बात है तो यह संभव नहीं दिखता. 

बंटवारे से पहले कैबिनेट मिशन निराशा से भरा अंतिम कदम था. हमारी राजनीति 1946 तक आते-आते इतनी ज्यादा ध्रुवीकृत हो चुकी थी कि ऐसी कोई राय बना पाना संभव नहीं रहा. यह कोशिश और पहले होनी चाहिए थी. 1946 तक इतनी नफरत पैदा हो गई थी कि बातचीत तक की गुंजाइश नहीं थी. भारत के बंटवारे की जगह संघ बनाने के कई प्रस्ताव थे लेकिन कुछ कम्युनिस्ट, कुछ कांग्रेस और मुस्लिम लीग के लोग अलग-अलग मुद्दों पर अड़े हुए थे. अलग-अलग राजनीतिक प्रतिबद्धता और पदलोलुपता अहम फैक्टर था. जिन्ना को राष्ट्रपिता बनना था, फिर वह राष्ट्र कैसा भी हो. ऐसे जो भी अवसर थे वे खोते गए. उस प्रक्रिया में एकीकरण की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं होने वाली थी.

जिन्ना जैसे लोग, जो कभी धार्मिक नहीं रहे, जिन्होंने कभी नमाज नहीं पढ़ी, उन्होंने धर्म के नाम पर मुल्क बनाया. बंटवारे के पांच-छह साल पहले से ही ऐसी कोई गुंजाइश नहीं बची थी कि मिल-जुल कर रहने पर आपसी सहमति बन पाती. मौलाना आजाद ने आखिर तक बंटवारे को स्वीकार नहीं किया और अलग-थलग पड़ गए. आज एकीकरण की बात व्यावहारिक नहीं है. अगर यह व्यावहारिक कदम हो सके तो निश्चित ही बेहतर होगा, लेकिन दोनों तरफ के अपने राजनीतिक हित हैं. वे इन मुद्दों को खत्म नहीं होने देंगे. भारत-पाकिस्तान दो कट्टर दुश्मनों की मिसालें हैं जिनके एक होने की कोई गुंजाइश नहीं है. दुनिया में इस तरह का कोई दूसरा उदाहरण नहीं है, न ही एशियाई मुल्कों के बीच ऐसी कोई संभावना है.

(लेखक इतिहासकार हैं)

(कृष्णकांत व अमित सिंह से बातचीत पर आधारित)

दोनों मुल्क शुरुआत करें, निभ जाए तो अच्छा…

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किसी भी तरह हिंदुस्तान और पाकिस्तान के जोड़ने का सिलसिला शुरू करना होगा. मैं यह मानकर नहीं चलता कि जब हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा एक बार हो चुका है तो वह हमेशा के लिए हुआ है. किसी भी भले आदमी को यह बात माननी नहीं चाहिए. हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सरकारों का आज यह धंधा हो गया कि एक-दूसरे की सरकारों को खराब कहें और दोनों ही सरकारें अपने-अपने मुल्क में दूसरे मुल्क के प्रति घृणा का प्रचार करती रहें. दोनों सरकारों के हाथ में इस वक्त बहुत खतरनाक हथियार हैं, लेकिन जनता अगर चाहे तो मामला बदल सकता है.

हिंदुस्तान-पाकिस्तान का मामला, अगर सरकारों की तरफ देखें तो सचमुच बहुत बिगड़ा हुआ है, इसमें कोई शक नहीं. लेकिन ऐसी सूरत में भी मैं हिंदुस्तान-पाकिस्तान के महासंघ की बात कहना चाहता हूं. एक देश तो नहीं, लेकिन दोनों कम से कम कुछ मामलों में शुरुआत करें, एक होने की. वह निभ जाए तो अच्छा और नहीं निभे तो और कोई रास्ता देखा जाएगा. सब बातों में न सही, लेकिन नागरिकता के मामले में और अगर हो सके तो थोड़ा-बहुत विदेश-नीति के मामले में, थोड़ा-बहुत पलटन के मामले में एक महासंघ की बातचीत शुरू हो.

यह विचार सरकारों के पैमाने पर आज शायद अहमियत नहीं रखता, मतलब हिंदुस्तान की सरकार और पाकिस्तान की सरकार से कोई मतलब नहीं, क्योंकि वे सरकारें तो गंदी हैं. इसलिए हिंदुस्तान और पाकिस्तान की जनता को चाहिए कि अब इस ढंग से वह सोचना शुरू करे.

अगर हिंदुस्तान-पाकिस्तान का महासंघ बनता है तो जब तक मुसलमानों को या पाकिस्तानियों को तसल्ली नहीं हो जाती, तब तक के लिए संविधान में कलम रख दी जाए कि इस महासंघ का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, दो में से एक पाकिस्तानी रहेगा. इस पर लोग कह सकते हैं कि तुम अंदर-अंदर रगड़ क्यों पैदा करना चाहते हो? जिस चीज को पुराने जमाने में कांग्रेस और मुस्लिम लीग वाले नहीं कर पाए, कभी-कभी कोशिश करते थे, रगड़ पैदा होती थी. अब तुम फिर से रगड़ पैदा करना चाहते हो. इसका मैं सीधा-सा जवाब दूंगा कि 15 बरस हमने यह बाहर वाली रगड़ करके देख लिया, अब फिर अंदर की रगड़ कैसी भी हो, इससे कम से कम ज्यादा अच्छी ही होगी. यह बाहर वाली हिंदुस्तान-पाकिस्तान की रगड़ है, उसको हम निभा नहीं सकते.

हो सकता है कि लोग कश्मीर वाला सवाल उठाएं कि अब तक तो तुमने आसान-आसान बातें कर लीं, लेकिन जो मामला झगड़े का है, इस पर तो कुछ कहो. तो कश्मीर का सवाल अलग से हल करने की जब बात चलती है तो मैं कुछ भी लेने-देने को तैयार नहीं हूं. मेरा बस चले तो मैं कश्मीर का मामला बिना इस महासंघ के हल नहीं करूंगा. मैं साफ कहना चाहता हूं कि अगर हिंदुस्तान-पाकिस्तान का महासंघ बनता है तो चाहे कश्मीर हिंदुस्तान के साथ रहे, चाहे कश्मीर पाकिस्तान के साथ रहे, चाहे कश्मीर एक अलग इकाई बनकर इस हिंदुस्तान-पाकिस्तान महासंघ में आए. पर महासंघ बने कि जिससे हम सब लोग फिर एक ही खानदान के अंदर बने रहें. इस महासंघ के तरीके पर बुनियादी तौर पर हिंदुस्तान-पाकिस्तान की जनता सोचना शुरू करे.

हिंदुस्तान और पाकिस्तान तो एक ही धरती के अभी-अभी दो टुकड़े हुए हैं. अगर दोनों देशों के लोग थोड़ी भी विद्या-बुद्धि से काम करते चले गए तो दस-पांच बरस में फिर से एक होकर रहेंगे. मैं इस सपने को देखता हूं कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान फिर से किसी न किसी इकाई में बंधे.

(लेखक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व समाजवादी नेता थे)

अखंड भारत का नहीं, महासंघ का सपना देखें

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बीते साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान की आकस्मिक यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच जो सद्भावना का वातावरण बना, उस पर संभवतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रवक्ता एवं वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव द्वारा दिए वक्तव्य से प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. राम माधव ने यह आशा प्रकट की है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक हो जाएंगे. उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि उनका यह विचार पार्टीलाइन पर नहीं बल्कि आरएसएस के सदस्य के तौर पर है. उन्होंने यह भी कहा कि अखंड भारत का सपना युद्ध से नहीं बल्कि आम सहमति से ही संभव हो सकता है.

यद्यपि उन्होंने यह आश्वासन दिया कि अखंड भारत के निर्माण में युद्ध का उपयोग नहीं किया जाएगा परंतु यदि गहराई से देखा जाए तो अखंड भारत के सपने में बांग्लादेश और पाकिस्तान के अस्तित्व की समाप्ति की संभावना निहित है. अखंड भारत का अर्थ होगा पाकिस्तान और बांग्लादेश का भारत में शामिल हो जाना. इस तरह यह कहा जा सकता है कि राम माधव के वक्तव्य से तीनों देशों के बीच जो पहले से दूरी थी वह और बढ़ी.

इस संबंध में मैं अपना एक अनुभव पाठकों के साथ बांटना चाहूंगा. वर्ष 2013 में मैं पाकिस्तान की यात्रा पर गया था. यात्रा का उद्देश्य कराची में एक समारोह में शामिल होना था. समारोह में मुझे एक अमेरिकी संगठन द्वारा शांति और समरसता के लिए दिए गए पुरस्कार को स्वीकार करना था. कार्यक्रम के बाद मुझे अनेक शहरों और संस्थाओं में जाने का मौका मिला. मुझे कराची विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करने के लिए निमंत्रित किया गया था. विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए मैंने एक सुझाव दिया और उसके बारे में उनकी राय मांगी. मैंने उन्हें बताया कि प्रसिद्ध अमेरिकी समाजसुधारक डॉ. मार्टिन लूथर किंग ‘जूनियर’ अपने भाषण के बीच में यह कहते थे, ‘आई हैव अ ड्रीम’ (अर्थात मेरा एक सपना है). इसी तरह पाकिस्तान की यात्रा के दौरान मैंने एक सपना देखा है. मेरा सपना है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक कनफेडरेशन (महासंघ) में शामिल हो जाए. इस महासंघ का स्वरूप यूरोपियन यूनियन के समान होगा अर्थात तीनों देश पूर्ण रूप से स्वतंत्र होंगे, उनके अपने संविधान होंगे, अपनी शासन व्यवस्था होगी, अपनी सेना, न्यायपालिका आदि होगी, उनकी अपनी संसद होगी. परंतु तीनों देशों में आने-जाने के लिए पासपोर्ट और वीजा की आवश्यकता नहीं होगी. यूरोप की तर्ज पर तीनों देशों की मिली-जुली एक संसद होगी, यूरो-डॉलर के समान कॉमन करंसी भी होगी. तीनों के बीच में शांति एवं युद्ध विरोधी संधि होगी.

अखंड भारत उस समय तक संभव नहीं हो सकता जब तक अल्पसंख्यकों की देश के प्रति वफादारी पर शंका करते रहेंगे. जब तक इस तरह की बातें कही जाती रहेंगी कि यदि भाजपा हारती है तो पाकिस्तान में जश्न मनेगा

महासंघ का यह स्वरूप बताने के बाद मैंने छात्र-छात्राओं की राय पूछी. मैंने कहा कि यदि वे मेरी योजना से सहमत हैं तो एक नहीं दोनों हाथों को उठाकर समर्थन करें. यदि नहीं तो एक हाथ उठाकर अपनी असहमति प्रकट करें. कार्यक्रम में करीब 500 छात्र-छात्राएं मौजूद थे. सभी ने एक स्वर से ताली बजाई और प्रस्ताव का स्वागत किया. कुछ उत्साही छात्र-छात्राओं ने यहां तक कह डाला कि तब तो हम ताजमहल को देख सकेंगे.

मैं इस घटना का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि अखंड भारत के स्थान पर हमें तीनों देशों के महासंघ का सपना देखना चाहिए. आज जो परिस्थितियां हैं उनके चलते न तो पाकिस्तान और न ही बांग्लादेश अखंड भारत के निर्माण के लिए तैयार होंगे. यदि हम तीनों देशों के विलय के बाद बने देश का नाम अखंड भारत रखेंगे तो यह पाकिस्तान और बांग्लादेश को कतई पसंद नहीं आएगा. अखंड भारत से ऐसी बू आएगी कि पाकिस्तान और बांग्लादेश ने अपना अस्तित्व खो दिया है और वे अखंड भारत का हिस्सा बन गए हैं. इसलिए अखंड भारत की बात करने से काम नहीं चलेगा.

अखंड भारत एक ऐसा प्रस्ताव है जो पाकिस्तान और बांग्लादेश के आम आदमी को कतई पसंद नहीं आएगा. हमारे देश के कुछ चिंतकों ने वर्षों पहले स्वीकार कर लिया है कि भारत के भीतर दो राष्ट्र हैं. ऐसे चिंतकों में वीर सावरकर शामिल हैं. इसमें डॉ. मुंजे भी शामिल हैं. इन दोनों चिंतकों ने यह दावा किया था कि भारत में एक नहीं दो राष्ट्र हैं. एक राष्ट्र उनका है जिनकी मातृभूमि और पुण्यभूमि यहीं है अर्थात भारत में उन्हीं को रहने का अधिकार है जिनका जन्म यहां हुआ है और जो उस धर्म को मानते हैं जो यहीं विकसित हुए हैं. इस परिभाषा के अनुसार सिर्फ हिंदू, बुद्ध, जैन और सिख यहां रह सकते हैं, बाकी नहीं. जब तक राष्ट्र की इस परिभाषा को रद्द नहीं किया जाता, तब तक अखंड भारत की कल्पना साकार नहीं हो सकती.

अखंड भारत उस समय तक संभव नहीं हो सकता जब तक हमारे देश के अनेक संगठन अल्पसंख्यकों की देश के प्रति वफादारी पर शंका करते रहेंगे. जब तक इस तरह की बातें कही जाती हैं कि यदि चुनाव में भाजपा हारती है तो पाकिस्तान में जश्न मनेगा. जब तक किसी सीधी-सादी बात करने पर यह कह दिया जाए कि यदि आप ऐसा सोचते हैं तो आप पाकिस्तान चले जाएं, जैसा कि अभी शाहरुख खान और आमिर खान के बारे में कहा गया.

महासंघ के निर्माण के लिए पहली आवश्यकता यह है कि तीनों देशों का आधार धर्म नहीं धर्मनिरपेक्षता हो. इस समय भारत के अलावा बांग्लादेश भी एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जबकि पाकिस्तान एक इस्लामिक प्रजातंत्र है

अखंड भारत उस समय तक कैसे संभव होगा जब तक शिवसेना जैसे संगठन गुलाम अली जैसे महान गायक का कार्यक्रम भारत में नहीं होने देंगे? जब तक हमारे देश में पाकिस्तान के खिलाड़ियों को क्रिकेट नहीं खेलने दिया जाएगा. अखंड भारत की कल्पना कैसे साकार हो सकती है जब तक भारत आने वाले प्रत्येक पाकिस्तानी को हम शंका की नजर से देखते हैं? इसी तरह पाकिस्तान जाने वाले प्रत्येक भारतीय को शंका की नजर से देखा जाता है.

अखंड भारत का सपना देखने के पहले सांस्कृतिक स्तर पर अनेक कदम उठाने चाहिए. जैसे आज भी पाकिस्तान के अखबार हमें पढ़ने को नहीं मिलते, न ही हमारे अखबार पाकिस्तानियों को पढ़ने को मिलते हैं. जब तक इस बात की शिकायतें आती रहेंगी कि पाकिस्तान भारत विरोधी आतंकवादियों की शरणस्थली है, जब तक पाकिस्तान यह आरोप लगाता रहेगा कि उनके देश में होने वाली प्रत्येक हिंसक घटना के पीछे हमारी गुप्तचर एजेंसी ‘रॉ’ का हाथ होता है.

बांग्लादेश नेशनल मेमोरियल 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में मारे गए शहीदों की याद में ढाका में मेमोरियल बना है
बांग्लादेश नेशनल मेमोरियल 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में मारे गए शहीदों की याद में ढाका में मेमोरियल बना है

महासंघ के निर्माण के लिए सबसे पहली आवश्यकता यह है कि तीनों देशों का आधार धर्म नहीं धर्मनिरपेक्षता हो. इस समय भारत के अलावा बांग्लादेश भी एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जबकि पाकिस्तान के संविधान के अनुसार वह एक इस्लामिक प्रजातंत्र है. महासंघ के निर्माण में धर्मनिरपेक्षता सबसे अधिक सहायक होगी. राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ यह नहीं है कि वहां के निवासी अपने धर्मों को त्याग दें. धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का अर्थ है राज्य सत्ता का कोई धर्म नहीं होना और सभी धर्मों को राज्य सत्ता द्वारा संरक्षण मिलना.

पाकिस्तान भ्रमण के दौरान मैंने यह महसूस किया कि वहां के लोग विशेषकर युवक पाकिस्तान को धर्मनिरपेक्ष देश बनाने के लिए लगभग तैयार हैं. वहां के समाचारपत्रों में आए दिन ‘पाकिस्तान क्यों नहीं बने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र’ शीर्षक से लेख छपते हैं. वहां के युवक यह महसूस करते हैं कि धर्म आधारित पाकिस्तान ने विकास के रास्तों में बड़े रोड़े अटकाए हैं. यहां यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े अन्य संगठन धर्मनिरपेक्षता में आस्था नहीं रखते हैं. वे धर्मनिरपेक्षता को एक ढोंग मानते हैं. उनकी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है. इस विचार के चलते मैं श्री राम माधव जी से पूछना चाहूंगा कि क्या धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को नहीं मानते हुए अखंड भारत का निर्माण संभव है? अखंड भारत तो क्या महासंघ बनने की भी पहली शर्त धर्मनिरपेक्षता ही होगी.

अखंड भारत के औचित्य को सही ठहराते हुए यह कहा गया है कि जब जर्मनी एक हो सकता है, जब वियतनाम एक हो सकता है तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक क्यों नहीं हो सकते? 

इसलिए यह स्पष्ट है कि आज व्याप्त परिस्थितियों के चलते अखंड भारत का सपना नहीं देखा जा सकता. अखंड भारत के औचित्य को सही ठहराते हुए यह कहा गया है कि जब जर्मनी एक हो सकता है, जब वियतनाम एक हो सकता है तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक क्यों नहीं हो सकते? जर्मनी और वियतनाम के उदाहरण से अखंड भारत की वकालत नहीं की जा सकती. जिन परिस्थितियों में वियतनाम और जर्मनी बांटे गए थे, वे पूरी तरह भिन्न थीं. इसके अतिरिक्त जब अखंड भारत की बात की जाती है तो बांग्लादेश और पाकिस्तान के आम नागरिकों के मन में यह शंका होती है कि वास्तव में यह योजना पाकिस्तान और बांग्लादेश को समाप्त करने की योजना तो नहीं है. इसलिए प्रयास महासंघ बनाने के लिए किए जाएं. इसके लिए वातावरण बनाने का प्रयास धीरे-धीरे किया जाना चाहिए. महासंघ बनने से दोनों देशों में रक्षा पर होने वाले व्यय में भारी कटौती होगी. कटौती से बचे आर्थिक साधनों का उपयोग गरीबी, भुखमरी, चिकित्सा और शिक्षा पर किया जा सकेगा. ऐसा करने से तीनों देशों में भारी -भरकम प्रगति होगी.

यहां यह उल्लेख प्रासंगिक होगा कि पूर्व में भी भारत-पाकिस्तान (जब पाकिस्तान एक था) और कश्मीर को मिलाकर एक महासंघ बनाने की बात की गई थी, उस समय जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे और फील्ड मार्शल अयूब पाकिस्तान के तानाशाह थे. परंतु बात आगे नहीं बढ़ी. हमारे देश के भी अनेक नेताओं ने महासंघ का सपना देखा है, इनमें विशेषकर महान चिंतक और समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया शामिल हैं. उस समय जो बात अधूरी रह गई थी उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हम सब पर है. तीनों देशों में इस तरह के समूह संगठित किए जाएं जो महासंघ के विचार को साकार करने में मददगार हो सकें.

(लेखक पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

पाक की संप्रभुता स्वीकार नहीं कर पाए हैं दक्षिणपंथी

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पहली बात तो जिस एकीकरण के विचार की बात की जा रही है मैं उस पर ज्यादा जानकारी नहीं रखती. पहली बार मार्च 2006 में वर्ल्ड सोशल फोरम के आयोजन के दौरान कुछ भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी मित्रों ने बांग्लादेश-भारत-पाकिस्तान पीपुल फोरम (बीबीपीपीएफ) के विचार पर चर्चा की. फोरम में लोगों का लोगों से आपसी विमर्श होता है. इसके सदस्य साल में एक बार किसी भी संबंधित देश में मिलते हैं. फिर भारत यात्रा के दौरान अखंड भारत के लिए अभियान चला रहे दक्षिणपंथी भारतीयों के एक समूह से वाघा बॉर्डर पर बातचीत हुई.

ये वे लोग थे जो पाकिस्तान का भारत में विलय करना चाहते हैं क्योंकि वे कभी यह स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि पाकिस्तान एक स्वतंत्र राष्ट्र है. लेकिन हम वीजा मुक्त और परमाणु मुक्त दक्षिण एशिया और एक दक्षिण एशियाई संघ के लिए अभियान चला रहे हैं. संघ बनाने और एकीकरण करने में बहुत बड़ा अंतर है. मुझे लगता है भारत और पाकिस्तान के लोगों को अपनी सरकारों पर आपसी रिश्ते सुधारने और अच्छे पड़ोसी की तरह व्यवहार करने का दबाव बनाना चाहिए. बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र हैं और हर व्यक्ति और देश को उनकी संप्रभुता का सम्मान करना चाहिए. जिस क्षण हम यह अहसास कर लेंगे कि तीनों देश स्वतंत्र और संप्रभु हैं, हम संयुक्त भारतीय संघ या एकीकरण की बात नहीं करेंगे. वहीं हमारे भू-भाग में लोग अशिक्षित हैं और उनका दैनिक जीवन धर्म के इर्द-गिर्द घूमता है. इसी धार्मिक लगाव के चलते वे दूसरों के साथ समान व्यवहार करने का बात सोच भी नहीं पाते. धार्मिक श्रेष्ठता की यही भावना हमें दोस्त नहीं बनने देगी. जर्मनी और फ्रांस दोस्त बन सकते हैं क्योंकि वहां के लोग सभ्य और शिक्षित हैं.

(लेखिका इंस्टीट्यूट फॉर पीस ऐंड सेक्युलर स्टडीज, पाकिस्तान की संस्थापक निदेशक हैं)

जनसंघ के प्रति मुस्लिम इसलिए पूर्वाग्रहग्रस्त हैं क्योंकि वह अखंड भारत की बात करता है

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रविवार 23 मार्च, 2014 को मैं संसद के सेंट्रल हॉल में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और समाजवादी आंदोलन के प्रमुख सेनानी डॉ. राम मनोहर लोहिया को पुष्पांजलि अर्पित करने गया था. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वे कम से कम 25 बार जेल गए थे.
1970 में राज्यसभा सदस्य के रूप में मैंने संसद में प्रवेश किया. डॉ. लोहिया का तीन वर्ष पूर्व यानी 1967 में 57 वर्ष की आयु में निधन हो गया था. डॉ. लोहिया से मेरी निकटता और मुलाकात तब से शुरू हुई थी जब मैंने ऑर्गनाइजर में पत्रकार के रूप में काम करना शुरू किया था. उन्होंने ही मुझे बताया था कि मुस्लिम आम तौर पर जनसंघ के प्रति इसलिए पूर्वाग्रहग्रस्त हैं कि आप अखंड भारत की बात करते हो. मेरा उत्तर था, ‘मेरी इच्छा है कि आप दीनदयाल उपाध्याय से मिले होते और उनसे अखंड भारत संबंधी जनसंघ की अवधारणा जानते.’
बाद में इन दोनों नेताओं की मुलाकात हुई, यह मुलाकात हमारी पार्टी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना बन गई और दोनों महान नेताओं ने एक ऐतिहासिक वक्तव्य जारी किया कि जनसंघ अखंड भारत के बारे में क्या सोचता है. यह संयुक्त वक्तव्य दोनों नेताओं ने 12 अप्रैल, 1964 को जारी किया, जिसमें दोनों नेताओं ने यह संभावना व्यक्त की कि पाकिस्तान को एक न एक दिन यह एहसास होगा कि विभाजन भारत और पाकिस्तान के न तो हिंदुओं और न ही मुस्लिमों के लिए अच्छा रहा और परिणाम के तौर पर दोनों देश एक भारत-पाक महासंघ के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो रहे हैं.
यदि मैं दिल्ली में हूं तो संसद के सेंट्रल हॉल में होने वाले पुष्पांजलि कार्यक्रमों में सदैव जाता रहा हूं. कभी-कभी ऐसा मौका आया कि एकमात्र सांसद मैं ही मौजूद था. एक बार नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर ऐसा ही हुआ.
मुझे स्मरण आता है कि तीन वर्ष पूर्व डॉ. लोहिया के जयंती कार्यक्रम पर डॉ. मनमोहन सिंह भी उपस्थित थे. प्रधानमंत्री ने सरसरी तौर पर मुझसे पूछा, ‘आप डॉ. लोहिया को कितना जानते हो?’ मैंने जवाब दिया, ‘अच्छी तरह से लेकिन तब मैं पत्रकार था.’ तब मैंने उन्हें दीनदयाल जी के साथ उनकी मुलाकात के बारे में बताया और कैसे दोनों ने भारत-पाक महासंघ की संभावना के बारे में संयुक्त वक्तव्य जारी किया.
उन्होंने इस मुलाकात के बारे में मेरे वर्णन को ध्यान से सुना और पूछा, ‘क्या आपको लगता है कि यह अभी भी संभव है?’ मेरा दृढ़ उत्तर था, ‘बिल्कुल नहीं, यदि हम पाकिस्तान की आतंकवादी तिकड़मों के प्रति नरम बने रहे तो.’

(आडवाणी के ब्लॉग से साभार, 25 मार्च 2014 को प्रकाशित)