मोदी जी के पीएम बनने के बाद संघ के लोगों को चर्बी चढ़ गई है : जिग्नेश मेवाणी

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हमारे समाज में गाय को आधार बनाकर छुआछूत की परंपरा पुरानी है. पर अब इसके बहाने दलितों को पीटा जा रहा है.

देखिए, और कोई पशु माता नहीं है तो गाय ही माता क्यों है? यह सबसे अहम सवाल है. गाय को पवित्र बनाकर लंबे अरसे से एक राजनीति चल रही है जिसको संघ परिवार कई दशकों से भुनाता आ रहा है. अब उसी का परिणाम गुजरात में देखा जा रहा है. दलितों का उत्पीड़न कांग्रेस के समय भी होता रहा है, लेकिन मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संघ परिवार के लोगों को इस तरह चर्बी चढ़ी है कि वे बेखौफ महसूस कर रहे हैं. इन लोगों को दिनदहाड़े अपराध करते हुए कोई डर नहीं है, बल्कि वे खुद वीडियो बनाकर प्रसारित करते हैं क्योंकि इसकी गारंटी है कि पुलिस और प्रशासन उनको बचा लेगा. वे जानते हैं कि वे जो कर रहे हैं उसको प्रश्रय देने वाली राजनीति मौजूद है.

हमें ये मंजूर नहीं है. हम पदयात्रा लेकर निकले और 15 अगस्त को ऊना में सभा की. हमने नारा दिया है कि गाय की दुम आप रखो, हमें हमारी जमीन दो. आप मरी गाय की चमड़ी उतारने पर हमारी चमड़ी उतार लेंगे? तो आप अपनी गाय से खेलते रहो. हमें न जिंदा गाय से मतलब है, न ही मरी गाय से. हमें जमीनों का आवंटन करो. हम रोजगार की ओर जाएंगे. जिस पेशे के लिए हमें अछूत घोषित किया गया, अब उसी के लिए हमारी चमड़ी उधेड़ रहे हो, यह कैसे चलेगा? जब तक हमारी सारी मांगें मानी नहीं जातीं, हम यह आंदोलन बंद नहीं करेंगे. हमें भारत के अन्य राज्यों और विदेशों से भी समर्थन मिल रहा है.

गोरक्षकों को लेकर प्रधानमंत्री ने बयान दिया, इसके बावजूद घटनाएं रुक नहीं रही हैं. आंध्र की घटना बयान के बाद की है.

ये जो गुंडे लोग हैं, गोरक्षा के नाम पर संगठन चलाते हैं, इन सबको बैन करना चाहिए. लेकिन इससे भी ज्यादा गाय के नाम पर राजनीति खत्म करने का मसला है.  वरना ये सब होता रहेगा. मोदी साहेब का जो बयान आया है उस पर मैं कहूंगा कि भाजपा और संघ परिवार के लोग बहुत गाय माता की दुम हिला रहे थे. अब जिस तरह हजारों की संख्या में दलित शक्ति सड़कों पर उतर आई, जिस तरह से यह आंदोलन फैल रहा है, कहीं न कहीं मोदी साहेब और भाजपा को लग रहा है कि गाय की दुम अब उनके गले का फंदा न बन जाए, तब उन्होंने मुंह खोला है.

क्या मांगें हैं आपकी?

हमारी मांग है कि जिस तरह से कुछ लोगों ने दलित समाज को आतंकित किया है, जब भी उनको बेल मिले तो उन्हें तड़ीपार किया जाए. वीडियो में जो लोग पहचाने गए हैं, उन्हें गिरफ्तार किया जाए. जो पुलिसकर्मी दोषी हैं उनके खिलाफ कार्रवाई हो.  सुरेंद्र नगर में सितंबर 2012 में दो बेगुनाह दलित लड़कों को एके-47 से भूनकर मारा गया था. उसमें तीन एफआईआर हुईं. दो मामलों में चार साल बाद भी चार्जशीट दाखिल नहीं हुई. आरोपी कांस्टेबल गिरफ्तार नहीं हुआ. उस मामले में कार्रवाई हो. गुजरात के सारे जिलों में कानूनी प्रावधान के मुताबिक स्पेशल कोर्ट गठित की जाएं. जो दलित मरे जानवरों का काम नहीं करना चाहते वे और जो भी भूमिहीन दलित हैं, उनको पांच-पांच एकड़ जमीन का आवंटन हो. पहले जो जमीनें बांटी गईं उन पर अभी तक दलितों को कब्जा नहीं मिला है. वह सुनिश्चित किया जाए. गुजरात में रिजर्वेशन एक्ट ही नहीं है. रिजर्वेशन पॉलिसी बने और लागू की जाए. शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब्स सबप्लान है, उसके पैसे जनरल कामों में खर्च होते हैं. सरकार एंबुलेंस खरीदती है और कहती है कि एंबुलेंस से तो सब जाएंगे चाहे सवर्ण हों या पिछड़े-दलित हों. हमारी मांग है कि ऐसा कानून बनाया जाए कि उनके लिए आवंटित पैसा उन्हीं पर खर्च हो. इसके अलावा फॉरेस्ट ऐक्ट के तहत आदिवासी समुदाय की जो एक लाख 20 हजार एप्लीकेशन पेंडिंग हैं, उन सभी को क्लियर करें. 

15 अगस्त की रैली से लौट रहे दलितों पर हमले की खबर सही है?

बिल्कुल सही है. 13 घंटे तक लगातार हमले हुए हैं. दिन के 12 बजे से लेकर रात 1 बजे तक फायरिंग होती रही. यह सोची-समझी साजिश के तहत हुआ. गोरक्षक गुंडे झाड़ियों में छिपकर हमले कर रहे थे. पहले जो लोग रैली में शामिल होने आ रहे थे, उनकी गाड़ियों के कांच तोड़े गए, मारा-पीटा गया, मोबाइल छीने गए. फिर जब लोग वापस जा रहे थे तब हर नाके पर लोगों को पीटा गया. गुंडों ने बस में घुसने की कोशिश की. कई अस्पतालों में लोग भर्ती हैं. हम पुलिस को लगातार सूचना दे रहे थे, पेट्रोलिंग करवाने की कह रहे थे. बार-बार कहा गया कि सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए जाएं. पुलिस को एहतियातन यह सब पहले ही करना था, लेकिन पुलिस ने हमले होने के बाद भी कुछ नहीं किया. एक तरफ मोदी जी कहते हैं कि गोरक्षा के नाम पर फर्जी लोग दुकान खोलकर बैठे हैं. दूसरी तरफ गोरक्षकों को पुलिस ने खुली छूट दे रखी है. कि वे जब चाहें तब दलितों को मारें.

क्या रैली के पहले से अंदाजा था कि दलितों पर हमले हो सकते हैं?

हां बिल्कुल, रैली से पहले भी हमले हुए. रैली में न आने के लिए लोगों को धमकाया गया. रास्ते में लोगों की गाड़ियों पर हमले हुए, मारपीट की गई. इस बारे में हमने पुलिस के सभी बड़े अधिकारियों को बताया, लेकिन पुलिस ने कोई एक्शन नहीं लिया. उसके एक दिन पहले छोटी-सी बाइक रैली निकली थी. वहां भी गोरक्षक गुंडों ने हमला किया. दलित युवकों की पिटाई करने वाले 20 आरोपी एक ही गांव के हैं. वे भी हमले में शामिल रहे. इस पर भी एक्शन नहीं लिया गया. जिन युवकों को मरी गाय उठाने के लिए पीटा गया था, उनके परिजनों पर भी हमला होते-होते बचा. उन्हें करीब 7 घंटे थाने में बैठाए रखा गया. हमने पुलिस से पीड़ित परिवारों को सुरक्षा दिए जाने मांग की थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. यह सब हमारी रैली और आंदोलन को कमजोर करने के लिए किया जा रहा है.

क्या इसे वैसी स्थिति माना जाए जैसी 2002 में थी ?

बिल्कुल, बिल्कुल. एकदम यही हो रहा है,  उससे भी ज्यादा. एक गांव है सामखेड़, वहां के लोगों ने दलितों को 13 तारीख को पीटा, 14 को पीटा, 15 को भी हमला किया. आज 16 तारीख है, वे लोग हमले कर रहे हैं, लेकिन गांव से एक भी गोरक्षक को पकड़ा नहीं गया है. हम असहाय महसूस कर रहे हैं.

आपने जो मसले उठाए थे, वे दलित समाज के बड़े मसले हैं जिन पर अभी तो कोई बातचीत शुरू ही नहीं हुई. उस पर ये हमले भी हो रहे हैं. जाहिर है कि चुनौती और बढ़ रही है. मुश्किलों को देखते हुए आगे की क्या रणनीति होगी?

हमने कॉल दी है कि हमारी जो दससूत्रीय मांगें हैं, उनमें से एक है जमीन का आवंटन. उस पर विचार करके जमीन आवंटन की प्रक्रिया शुरू करो. यदि नहीं करोगे तो हम 15 सितंबर को रेल रोको आंदोलन करेंगे. इसकी घोषणा हम एक तारीख को करेंगे.

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आपके आंदोलन की लीडरशिप पर सवाल उठ रहे हैं कि इसका कोई संगठित नेतृत्व नहीं है. पार्टियों ने ये आंदोलन हाईजैक कर लिया है. लीडरशिप को लेकर कशमकश की बात कही जा रही है.

ऐसा हुआ कि हम लोगों की मर्जी के खिलाफ कुछ पॉलिटिकल एलिमेंट स्टेज पर गए. हमने उन्हें बार-बार कहा भी कि हमारी आयोजन टीम है तय करेगी कि स्टेज पर कौन बैठेगा. लेकिन इसके बावजूद जब वे लोग नहीं माने तो हमने अपना कार्यक्रम कर लिया. रोहित वेमुला की मां और कन्हैया ने अपना भाषण दिया. आनंद पटवर्धन ने उन गुजराती साहित्यकारों को 25 हजार का चेक दिया, जिन्होंने गुजरात सरकार का 25 हजार का अवॉर्ड वापस किया था. इसके बाद हम लोगों ने स्टेज छोड़ दिया कि जिसे जो करना है, करे. जहां तक लीडरशिप की बात है तो कोई भी आंदोलन खड़ा होता है तो दो-चार लोग तो ऐसे रहेंगे जो विरोध करेंगे. जिनको नहीं पसंद आएगा, वे विरोध में खड़े हो जाएंगे. पर हजारों की तादाद में लोग हमारे साथ हैं.

कन्हैया कुमार आपकी मर्जी से आए थे या वे भी जबरन पहुंचे?

यह ओपन कार्यक्रम था. कन्हैया कुमार भी आए. बाकी लोग भी आए. कन्हैया तो हमारे संघर्ष का साथी है, इसलिए हमने उसको बुलाया था और हमें उसके आने की खुशी भी है.

25 गांवों के दलितों के बहिष्कार की खबरें आ रही हैं. क्या ये सही हैं?

बिल्कुल हो सकता है. अभी मुझे पक्की सूचना नहीं है. खबरें मिली हैं. मैं इसे अभी कंफर्म कर रहा हूं. अगर ये हो रहा है तो ये बहुत आश्चर्यजनक है. मुझे याद आता है कि बिल्कुल इसी तरह की घटना महाड़ सत्याग्रह के वक्त हुई थी. जब बाबा साहब दलितों के साथ निकले थे, तब उन पर सवर्णों ने हमला किया था. हम पर भी हमला किया गया. वह भी एक ऐतिहासिक घटना थी, यह भी एक ऐतिहासिक घटना है कि दलितों ने शपथ ली कि हम मरे हुए जानवर नहीं उठाएंगे. उस समय भी दलितों का बहिष्कार हुआ था, यहां भी वही हो रहा है.

आपका आंदोलन काफी बड़ा हो गया है. कहीं ये हाईजैक न हो जाए, सरकार या किसी पार्टी के लोग इसे दबा न दें, इसके लिए आपने क्या रणनीति बनाई है?

आने वाले दिनों में हम रेल रोको कॉल दे रहे हैं. इसमें देश भर से लोग आएंगे. अब गुजरात सरकार एक्सपोज होने वाली है. अगर वह दलितों को जमीन का आवंटन नहीं करती तो उसका असली चेहरा सामने आ जाएगा कि वे चाहते हैं कि हम मैला उठाएं या मरे हुए पशु उठाते रहें. आगे की रणनीति वही है, जो हमने कल मंच से कहा था कि आदिवासी समुदाय की जंगल समस्याओं से जुड़ी एक लाख 20 हजार एप्लीकेशन पेंडिंग हैं. गुजरात सरकार उसका भी निदान करे. हम आदिवासी समुदाय को अपने साथ जोड़ेंगे. हमने कहा था ‘गुजरात मॉडल मुर्दाबाद, दलित-मुस्लिम एकता जिंदाबाद’ तो मुस्लिम समुदाय के संगठन भी हमारे साथ आए हैं. हम अपने संघर्ष में किसानों और मजदूरों को जोड़ेंगे. जितने पीड़ित समुदाय हैं, हम सबको साथ लेंगे और जमकर मुकाबला होगा. जब तक मैं लीडरशिप में हूं, यह आंदोलन सिर्फ दलितों का नहीं रहेगा, बल्कि सभी वंचित समुदायों का होगा, दलित जिसका नेतृत्व करेंगे.

गुजरात में अलग-अलग पार्टियों में जो दलित नेता हैं उनका क्या स्टैंड है? क्या वे आपके समर्थन में आए हैं?

नहीं, वे चुपचाप बैठे हुए हैं. जैसे प्राइमरी के बच्चे होते हैं, टीचर उंगली उठाकर इशारा कर दे तो चुपचाप शांत हो जाते हैं, उनकी वही हालत है.

यह स्पष्ट कीजिए कि यह राजनीतिक आंदोलन है या सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन?

एक सौ प्रतिशत यह राजनीतिक होगा. हमारी जो मांग है वह राजनीतिक है. मैं यह पूछता हूं कि ग्लोबलाइजेशन की पॉलिटिकल इकोनॉमी में लोगों के पास रोटी क्यों नहीं है? यह राजनीति है. आजादी के इतने दशकों के बाद दलितों के पास जमीन का टुकड़ा क्यों नहीं है? ये राजनीति है. ये लोकसंघर्ष और आंदोलन की राजनीति है. वो राजनीति हम करेंगे. पार्टी पॉलिटिक्स हम नहीं करेंगे. हमारी समिति अराजनीतिक संघर्ष समिति है, ये बनी रहेगी.

दिल्ली में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन हुआ था. बाद में यह कहकर उन्होंने पार्टी बनाई कि अब इसके बगैर काम नहीं चल सकता. क्या आप भी इस आंदोलन के जरिए कोई पार्टी बनाएंगे?

ऐसी कोई संभावना नहीं है. हम इसे सामाजिक आंदोलन की तरह चलाएंगे. हजारों की तादाद में दलित उठ खड़े हुए हैं कि हम मरे हुए जानवर नहीं उठाएंगे. हमने बहुत बड़े परिवर्तन की नींव रखी है. डॉ. आंबेडकर के बाद इस तरह मृत पशु उठाने से इनकार करने की कोशिश नहीं हुई. हम इसे पूरे देश में ले जाएंगे.  हमने नारा दिया है कि ‘गाय की दुम आप रखो, हमें हमारी जमीन दो’.

क्या इस आंदोलन के पहले भी आपकी सामाजिक या राजनीतिक सक्रियता रही है?

इसके पहले मैंने डॉ. मुकुल सिन्हा के जनसंघर्ष मंच के साथ स्वयंसेवक के रूप में आठ साल तक काम किया है. वहां मैंने ट्रेड यूनियन के लिए भी काम किया. उसमें सफाई कर्मियों के सवाल उठाए. मजदूर अधिकार संगठनों के साथ जुड़ा रहा. कंस्ट्रक्शन वर्कर्स और ईंट भट्ठे के मजदूरों के साथ काम किया. निजी तौर पर मैंने दलितों की जमीनों के मुद्दे पर छह-सात साल काम किया है. जमीन सुधार मेरा प्रमुख एजेंडा है. चार साल तक पत्रकारिता भी की है. इसके अलावा मैं गुजरात में आम आदमी पार्टी का सदस्य भी हूं.