क्या आपको लगता है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश का मिलकर एक देश बन जाना संभव है?
बहुत समय पहले जब यूरोप में सभ्यता तक नहीं पहुंची थी, वे एक-दूसरे के खिलाफ लड़ा करते थे पर आज वो एक हैं और बहुत अच्छे हाल में हैं. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश का एकीकरण हो सकता है पर इसके लिए नेताओं को धर्म के आधार पर लोगों को बांटने की राजनीति बंद करनी होगी.
आपके अनुसार इन देशों के जुड़ने की प्रेरणा क्या हो सकती है?
भाषा और संस्कृति के जरिए दक्षिणी उपमहाद्वीप के इन तीन देशों को जोड़ा जा सकता है. यहां धर्म को महत्व देना बंद करना होगा क्योंकि यह पूरी तरह से निजी मसला है. सरकारों को धर्म से अलग रखना ही होगा.
अक्सर भारत में पाकिस्तानी और बांग्लादेशी कलाकारों को विरोध का सामना करना पड़ता है. भारत-पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय वार्ता का भी कोई सार्थक परिणाम नहीं दिखता, ऐसी स्थितियों में इनका एकीकरण कैसे हो सकता है?
सोचा तो यह भी नहीं गया था कि कभी बर्लिन की दीवार गिरेगी! पर वह गिरी. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी अब एक हैं. वो दीवार जो दो अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं की नींव पर खड़ी की गई थी, अब नहीं है. अलग धर्मों के आधार पर खींचे गए दायरों को मिटना ही होगा क्योंकि वक्त के साथ लोग और धर्म दोनों ही विकसित होते हैं. ये कोई स्थिर, गतिहीन वस्तु नहीं है जो समय के साथ बदलेगी नहीं.
अगर इन देशों का संघ बनाया जाए तो क्या वह यूरोपियन यूनियन या संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की तरह काम कर पाएगा? क्या आपको लगता है कि संघ बनने के बाद इन देशों के नागरिकों की क्षेत्रीय पहचान बनी रह पाएगी?
हां, बिल्कुल. भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के पास जुड़ाव की वजहें यूरोपीय देशों से ज्यादा हैं. हमारा इतिहास, संस्कृति एक जैसी है. हमारी भाषा, वेशभूषा, खाना, संगीत सब एक जैसा ही तो है. यहां के हिंदू, बौद्ध, मुस्लिम, ईसाई सभी की जड़ें भारतीय ही तो हैं.
आप मानती हैं कि अगर पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी एक हो सकते हैं, तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश भी?
बिल्कुल, मैं तो इस एकीकरण के पक्ष में हूं. मैं तो 80 के दशक से इस बात को कहती आई हूं. हम सब एक हैं. हमें सरहदों में बंटकर एक-दूसरे का दुश्मन बनने की कोई जरूरत नहीं है. अपने ही भाई-बहनों को दुश्मन मानकर परमाणु हथियारों से मारने की सोचना ही बेहद डरावनी बात है. और वैसे ये परमाणु हथियार भी हमेशा हमारी रक्षा नहीं कर पाएंगे.
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के एकीकरण की मांग में कोई गंभीरता नहीं है. आपने कहा कि लोहिया भी इस तरह की मांग करते थे लेकिन उनको मरे हुए भी 50 साल हो गए हैं. मैं भी राजनीतिक वातावरण देखता हूं. मुझे नहीं लगता कि यहां या पाकिस्तान में ऐसी कोई मांग है. कुछ लोग चाहते हैं कि ऐसा हो जाए, लेकिन इसमें कोई खास वजन नहीं है. यहां भी यह मांग किसी ने उठाई तो भाजपा ने या आरएसएस के आदमी ने, लेकिन कोई ऐसी बात नहीं है कि यह मांग आम जनता की है.
हम लोग भी सियालकोट (पाकिस्तान) से आए थे तो सोचा था कि आना-जाना रहेगा लेकिन नहीं हुआ. बड़े-बड़े गेट बन गए. लेकिन मैंने यह शुरू किया कि हर 14-15 अगस्त को मोमबत्ती जलाता हूं. यह इसलिए कि रोशनी तो शांति का संदेश है. यह इच्छा है कि वे लोग इधर आएं, हम उधर जाएं. अब दोनों दो मुल्क हैं. मैं नहीं चाहता था कि ये बंटवारा हो और धर्म के नाम पर यह जो लकीर पड़ी, यह बहुत बुरा हुआ. धर्म की वजह से यहां सरकार में मुस्लिम की कोई महत्ता नहीं रही. हालांकि वे 20 करोड़ के करीब हैं. यह सब शायद पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने नहीं सोचा था. हालांकि जब पाकिस्तान बन गया तो उसने यह जरूर कहा था कि अब तुम हिंदू-मुस्लिम नहीं रहे. लेकिन हिंदू-मुसलमान में काफी जहर फैल गया था कि हम अलग कौमें हैं. मजहब के बिना पर कौमियत का सवाल खड़ा हो गया था. लेकिन जब भी हम पाकिस्तान जाते हैं तो बहुत खातिर करते हैं. और हिंदुस्तानी उपमहाद्वीप के बाहर पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी सबसे बड़े दोस्त हैं. क्योंकि एक ही जबान है, एक ही लिबास है, एक ही खाना-पीना है, लेकिन यह मांग कि सब लोग फिर से इकट्ठा हो जाएं तो यह मांग नहीं है कुछ लोगों की ख्वाहिश है. ये भाजपा वाले अखंड भारत की बात करते हैं जो कि हो नहीं सकता.
इस तरह की कोशिश सफल होने के लिए पहले लोगों को बदलना पड़ेगा. आज हिंदुस्तान में देख लीजिए कोई पाकिस्तान से आया हो तो उस पर शक की निगाह है. जो यहां आए, उनको कहा जाता है कि यह पाकिस्तानी है. यहां भी जरा-सी टेंशन होने पर मुसलमानों को कह दिया जाता है कि यह पाकिस्तानी है.
पाकिस्तानियों से हम नफरत-सी करते हैं. हिंदू-मुसलमान के बीच जो नफरत पनपी थी उसके बारे में यह धारणा थी कि पाकिस्तान बनने के बाद वह खत्म हो जाएगी, लेकिन वह खत्म नहीं हुई. यह सही है कि अब उतने फसाद नहीं होते, लेकिन फिर भी होते हैं. यूरोपियन यूनियन जैसा कोई संघ बना लेना संभव है, लेकिन जब लोग चाहेंगे. मेरा ख्याल है कि अंतत: वही होगा, जब तिजारत वगैरह सही तरीके से चलने लगे. लेकिन अभी तो हिंदुस्तान में ही किसी मसले पर एक राय नहीं हो पाती. एक-एक बिल पास होने में कितनी मुश्किल आती है. जीएसटी पर हम कितने समय से कोशिश कर रहे हैं. तो अगर हिंदुस्तान में ही एक प्रांत दूसरे प्रांत से एकमत नहीं है तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान का एक हो जाना तो बहुत बड़ी बात है.
मैं बहुत चाहता था कि बॉर्डर पर बहुत नरमी हो. लोग आए-जाएं. यह 1965 युद्ध तक रहा भी. लेकिन उस युद्ध के बाद तारबंदी और हदबंदी हो गई. दूसरे, हमारे यहां के लोगों में भी देखिए तो बहुत कम लोग हैं जो बराबरी पर विश्वास करते हैं. ज्यादातर तो यही सोचते हैं कि मैं बड़ा और वह छोटा. कश्मीर को लेकर भी सहमति नहीं बन पाई. अब कश्मीर का मसला लीजिए तो सहमति या शांति की स्थिति कहां से बनेगी. बात करनी है तो करते रहिए. कश्मीर में समस्या है कि जम्मू हिंदू बहुल है जो भारत के साथ आ जाएगा लेकिन कश्मीर के लोग अलग मुल्क चाहते हैं. वे पाकिस्तान के साथ भी नहीं जाना चाहते. अब हिंदुस्तान इस बात की इजाजत तो नहीं देगा कि उनकी सीमा पर एक और मुस्लिम देश बन जाए. हां, यह हो सकता है कि आज से 50 बरस बाद लोग सोचें और दोनों देशों के बीच आसानी से आना-जाना शुरू हो जाए. अभी तो आप आसानी से वीजा भी नहीं ले सकते. अब दोनों तरफ पढ़ाई, घरों का माहौल सब बदल गया है. अब हमारे यहां अतिवाद और कट्टरपंथ की वजह से मुसलमान को पाकिस्तान से जोड़ दिया जाता है. यहां कोई अस्थिरता की स्थिति हो तो मुसलमान आरोप झेलता है. अब यहां का मुसलमान अपने स्लम इलाके में ही खुश है. उसे डर लगता है. अब वह हिस्सा मांगने की जगह अपनी जान-माल की सुरक्षा भर चाहता है. जब तक कि हिंदू, जो इस देश में 80 फीसदी हैं, वे उसको विश्वास में लेकर मेनस्ट्रीम में लाएं, बाहर निकालें तो यह हो सकता है, लेकिन हिंदू इसके लिए तैयार नहीं है. कोई इक्का-दुक्का हो सकता है. हो सकता है कि समय बदले, यूरोप और पश्चिम के देशों की मिसाल देखकर लोगों को मन बदले, तो यह हो सकता है. लेकिन वे इकट्ठा नहीं होंगे. यह हो सकता है कि कोई कॉमन यूनियन बन जाए.
अभी नरेंद्र मोदी ने एक पहल की, वह अच्छी थी. पाकिस्तान में इसकी बहुत सराहना हुई. अब यह होना चाहिए कि बॉर्डर खुल जाएं, राशन कार्ड वगैरह दिखाकर लोग इधर आएं, उधर जाएं, यह हो सकता है, जैसा 65 के युद्ध तक था. लेकिन आज एकीकरण मुमकिन नहीं है क्योंकि आज भी यहां टायर फटता है तो कहते हैं पाकिस्तानियों ने बम चलाया. यही हाल उधर भी है. दूसरे, वहां किताबों में जो पढ़ाया जाता है वह नफरत से भरा है. हाल में तो हमने नहीं देखा लेकिन जब देखा था तब उनके यहां की किताबों में नफरत भरी थी. हमारे यहां शुरुआत में कुछ-कुछ ऐसा था, लेकिन बाद के वर्षों में बदल दिया गया. तो मेरे ख्याल है कि दोनों देश फिर से इकट्ठा हो जाएं, यह तो संभव नहीं है, लेकिन यह संभव जरूर है कि आपस में रिश्ते अच्छे हो जाएं, दोनों के कॉमन मार्केट हो जाएं. हालांकि इसमें भी बहुत देर लगेगी. पढ़ाई करनी पड़ेगी. आप बाहर जाएं तो देखेंगे कि दोनों आपस में बहुत अच्छे दोस्त हैं. मैं लंदन या अमेरिका गया तो जो सबसे बेहतर दोस्त हैं, हिंदू-मुसलमान दोनों ने मिलकर पार्टी दी. बाहर यहां के हिंदू-मुसलमान एक हैं.
मैं भी राजनीतिक वातावरण देखता हूं. मुझे नहीं लगता कि यहां या पाकिस्तान में ऐसी कोई मांग है. कुछ लोग चाहते हैं कि ऐसा हो, लेकिन इसमें कोई खास वजन नहीं है. हो सकता है समय बदले और कोई कॉमन यूनियन बन जाए
विभाजन के बारे में बात करें तो ज्यादा कसूर मुस्लिम लीग का ही था. लेकिन कांग्रेस में गड़बड़ियां थीं. जैसे मौलाना अबुल कलाम आजाद कांग्रेस में थे लेकिन उनको वह इज्जत नहीं मिली जो नेहरू या गांधी को मिलती थी. जब आजादी मिल गई तब तो मौलाना अबुल कलाम आजाद की बात तो कोई सुनता ही नहीं था. मैंने खुद देखा, मुसलमान जाते थे उनसे अपनी बात कहने. जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर उन्होंने एक तकरीर भी दी थी. बहुत अच्छी तकरीर थी. उन्होंने कहा, ‘जब मैंने बोलना चाहा तुम लोगों ने मेरी जबान काट दी. जब मैंने लिखना चाहा, तुम लोगों ने मेरे हाथ काट दिए. मैं तुमसे कहता रहा लेकिन नहीं सुना. अब तुम कहते हो कि हमें हिंदुओं के गलबे (प्रभाव) से डर है और हम अलग मुल्क चाहते हैं. अगर एक छोटा सा मुल्क ले लोगे तो बाकी हिंदुस्तान में हिंदू और बहुमत में हो जाएगा.’ और यही हुआ. जब तक्सीम हुई तो मुसलमान इसी तरफ ज्यादा थे, उस तरफ कम थे. मौलाना आजाद ने कहा था कि तक्सीम के बाद हिंदू कहेगा कि तुमने अपना हिस्सा ले लिया, अब जाओ उधर. और मुझे याद है, तक्सीम के बाद यही शुरू हो गया था. ये तो गांधी जी ने और नेहरू ने इसको बचा लिया. सरदार पटेल तो इससे तटस्थ थे. उस वक्त अगर गांधी, नेहरू न बचाते तो माहौल तो ऐसा बन गया था कि उनका तो अलग देश बन गया, अब उनको उधर जाना चाहिए. उन्होंने बचाया इसलिए क्योंकि जो स्वतंत्रता संघर्ष था कांग्रेस था, वह यह था कि हम ऐसा देश बनाएंगे जिसमें हिंदू और मुसलमान का फर्क नहीं रहेगा. तभी तो आज हमारा प्रशासन संविधान से चलता है. हम हिंदू राष्ट्र बन सकते थे, लेकिन नहीं. हमने हिंदू-मुसलमान को बराबर की नागरिकता दी. हमारा भी एक वोट और तुम्हारा भी एक वोट.
इस बराबरी के बावजूद मुसलमानों की स्थिति खराब रह गई क्योंकि अंतत: तो मसला अर्थव्यवस्था का है. अब मान लो कि एक इंजीनियर है. सरकारी नौकरियों में तो बहुत कंप्टीशन है, दूसरे नौकरियां कम हैं, उसे छोड़ दो. जाहिर है वह प्राइवेट सेक्टर की तरफ जाएगा. वहां ज्यादा हिंदू हैं. वह नौकरी मांगने जाता है तो नौकरी देने वाला नाम-पता पूछने के बाद कोई बहाना बना देता है. मुझे याद है कि मैं स्टेट्समैन का संपादक था. एक पत्रकार थे सईद नकवी साहब, वहां रिपोर्टर होते थे. वे एक स्कॉलरशिप के तहत बाहर गए हुए थे. वापस आए तो अचानक एक दिन आकर कहने लगे, ‘जी, मुझे कोई घर नहीं देता.’ मैंने कहा, ‘ये कैसे हो सकता है?’ मैंने पता किया तो पता चला कि सीधा तो नहीं पूछते कि मुसलमान हो कि हिंदू, लेकिन बाद में नाम वगैरह पता चलने पर कहते थे कि देखिए भाई आप लोग तो मांस-मछली वगैरह खाते हैं, हम लोग तो नहीं खाते. इस तरह का बहाना करके घर देने से मना कर देते थे. हमने स्टेट्समैन में ही उनको रेंट पर घर दिया. आप हमारी कॉलोनी देखिए, यह वसंत विहार है. इसमें एक भी मुसलमान का घर नहीं होगा. एक आदमी था मिनिस्ट्री में तो उसे घर मिला था. इधर एक-दो लोग किराये पर आए हैं.
समस्या यह हो गई है कि हमारे वक्त हिंदू-मुसलमान में सामाजिक संपर्क थे. घरों में आना-जाना, ईद-होली या त्योहारों पर. आज देखो तो यह बिल्कुल नहीं है. गांव में अभी भी यह दिखता है कि लोगों में आपसी संपर्क हैं. लेकिन शहरों में यह खत्म कर दिया गया है. भाजपा की इसमें प्रमुख भूमिका रही है क्योंकि उसकी जो विचारधारा है वह आरएसएस की विचारधारा है. वह विचारधारा ही हिंदू राष्ट्र की है.
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जो सांप्रदायिक अभियान चल रहा था, वह धीरे-धीरे जड़ों तक पहुंचा क्योंकि मोहम्मद अली जिन्ना ने अभियान शुरू कर दिया कि हिंदू और मुसलमान दो कौमें हैं. वे द्विराष्ट्र सिद्धांत लेकर आए. यह ठीक है कि वे जीत गए, लेकिन वह भावना लोगों के खून में रह गई. जब पाकिस्तान बन गया तब कहने लगे कि अब तुम हिंदू या मुसलमान नहीं हो, अब तुम या तो हिंदुस्तानी हो या पाकिस्तानी. लेकिन इसका अंजाम यह हुआ कि अंग्रेज गए तो हम एक-दूसरे पर झपटे. दस लाख लोग उस वक्त मारे गए थे.
तीनों देशों को मिलाकर अखंड भारत कहने की जगह हम इसको सांस्कृतिक भारत और बृहत्तर भारत कहेंगे. सांस्कृतिक भारत की जब हम बात करते हैं तो तीनों देशों में जो भी सांस्कृतिक प्रतीक हैं, जो कि तीनों देशों में हमें प्राप्त हैं, जैसे- नदियों के नाम हैं, प्रमुख नगरों के नाम हैं, प्रमुख चिह्न और स्थल हैं, वे सब तीनों देशों को आपस में जोड़ते हैं. जब अखंड भारत था तो जो भी इस प्रकार के सांस्कृतिक स्थल थे, जहां हम जाते थे वे सब तीनों देशों में मौजूद हैं. इसलिए भाषा की दृष्टि से, साहित्यिक दृष्टि से, संस्कृति की दृष्टि से और भौगोलिक दृष्टि से भी, ये सब जो समानताएं हैं वे सब समानताएं वास्तव में इसको एक बृहत्तर भारत बनाती हैं. तीनों देशों में सबके अपने उत्सव हैं जो अपने-अपने ढंग से अपने-अपने यहां मनाए जाते हैं. संस्कृति का अर्थ यह है कि सम्यक करोति इति संस्कार: अर्थात जो संस्कार देती है, यानी जो बताती है कि जीने का ढंग ऐसा होना चाहिए जो सबके लिए लाभकारी हो. इस तरीके की सोच हमारे भारत की है. इस तरह की पहल भारत ही कर सकता है. कोई पाकिस्तान या बांग्लादेश यह सोच आगे नहीं बढ़ा सकता. यह सोच अगर शुरू करनी है तो भारत ही करेगा. भारत का हिस्सा रहे तीनों देश और जहां-जहां भी हमारे चिह्न हैं, उन्हें हम भारत का एक सांस्कृतिक स्वरूप कहते हैं. इन तीनों देशों की भौगोलिक सीमाएं एक हैं, इसलिए हम अखंड भारत कह सकते हैं. भारत को इस दृष्टि से प्रयास करना चाहिए. उसके लिए सांस्कृतिक आदान-प्रदान, साहित्यकारों का आना-जाना, तीनों देशों के तीर्थ यात्रियों का स्वागत करना, उनका सम्मान करना, साहित्य का सृजन करना, उसके बारे में बच्चों को बताना, इन सब बातों को शिक्षा में लाना- ये सब वे साधन हैं जिनको अपनाने से एक बृहत्तर भारत की संकल्पना साकार हो सकती है, यदि भारत आगे बढ़कर प्रयास करे तो.
जहां तक भौगोलिक सीमाओं का सवाल है तो भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश तीन राज्य हैं. वे तो राज्य ही रहेंगे. शासन तीनों का रहेगा ही. हम सांस्कृतिक दृष्टि से एक हो सकते हैं, जो हमारी परंपराएं हैं, संस्कृतियां हैं उनको याद कर सकते हैं. उस दृष्टि से भारत एक पहल करे कि हमारा एक सांस्कृतिक मंडल पाकिस्तान जाए, या बांग्लादेश जाए, वहां एक प्रकार की सोच का प्रसार करे कि सीमाएं होते हुए भी कोई शत्रुता नहीं रहे. तीनों में एकता का भाव विकसित हो. जब अखंड भारत की बात तीनों प्रदेश करेंगे तो शत्रुता अपने आप खत्म हो जाएगी. हम एक-दूसरे के सुख-दुख में सहायक हो सकते हैं. प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो तीनों मिलकर उन आपदाओं को दूर करने का प्रयास करेंगे. अब यह स्थिति तो नहीं हो सकती कि तीनों राज्य एक हो जाएं. शुरुआत सांस्कृतिक भारत से होगी, बृहत्तर भारत से होगी और आगे चलकर अगर स्थिति बनेगी तो तीनों एक भी हो सकते हैं.
एकीकरण के मामले में जर्मनी का उदाहरण है लेकिन उनमें और हममें फर्क है. जर्मनी अलग हुआ था तो उसके दोनों हिस्से बिल्कुल समान थे. जर्मनी का बंटवारा इतनी कटुता से नहीं हुआ था. हमारे यहां पाकिस्तान और बांग्लादेश कटुता से बने हैं. तमाम लड़ाई-झगड़े हुए, मार-काट हुई. इसलिए वहां फर्ज था लेकिन यहां पर हृदय परिवर्तन की बात है. मैंने तो बताया है कि तीनों प्रदेशों की भौगोलिक सीमाएं रहेंगी. तीनों देशों का राज्य भी रहेगा. सांस्कृतिक दृष्टि से हम एक रहेंगे. उत्सव मनाएंगे साथ. अनेक प्रकार के कार्यक्रम हो सकते हैं एक साथ जो कि हम तीनों समान रीति से मना सकते हैं. एक-दूसरे के देश में जा सकते हैं, आ सकते हैं. धार्मिक स्थल हैं, उनको बनाए रख सकते हैं, उनको आदर दे सकते हैं. जैसे पाकिस्तान में मुल्तान प्रह्लाद की जन्मभूमि है. अब अगर प्रह्लाद को याद करना है तो मुल्तान को याद करना होगा. लव-कुश है तो लाहौर को याद करना पड़ेगा. ऐसे जो हमारे प्राचीन नाम हैं और जो इस प्रकार के लोग रहे हैं उनको हमें स्मरण करना होगा. ऐसी सांस्कृतिक स्मृति होनी चाहिए और कटुता खत्म होनी चाहिए.
इसे बृहत्तर भारत तब बोलेंगे जब हम एक होंगे. एकता का आधार संस्कृति है. इसलिए अगर सांस्कृतिक दृष्टि से हमने आपस में मिलना-जुलना शुरू किया, एक-दूसरे के सुख-दुख में सहायक होना शुरू किया तो निश्चित ही यह जो भौगोलिक सीमा है, यह भी हो सकता है आगे चलकर यह न रहे. हम पासपोर्ट और वीजा के बिना ही एक-दूसरे के यहां आ-जा सकें. आना-जाना सब सरल हो जाए जैसा कि कई देशों में है. आप अगर बृहत्तर भारत कहते हैं तो उसकी व्याख्या सांस्कृतिक भारत हो जाएगी. जहां तक सांस्कृतिक भारत जैसी संज्ञा को पाकिस्तान या दूसरे देशों द्वारा स्वीकार करने का सवाल है तो ग्रेटर इंडिया तो हम उच्च शिक्षा में पढ़ाते ही हैं. जब हम ग्रेटर इंडिया पढ़ाते हैं तो उसके कुछ बिंदु हैं कि क्यों इसे ग्रेटर इंडिया कहा जाता है. ग्रेटर इंडिया जैसा शब्द तो तीनों देशों की शिक्षा स्वीकार कर रही है. जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो उस पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो जाता है. लेकिन धीरे-धीरे पहले उसको स्वीकार किया जाए और उसे फैलाया जाए. मेरा मानना है कि जब हम तीनों सोचना-विचारना, उठना-बैठना, मिलना-जुलना, आना-जाना शुरू करेंगे, तो फिर आर्थिक दृष्टि से भी एकता हो सकती है. आर्थिक निवेश और व्यापार भी हो सकता है. एकता होने पर यूरोपीय संघ जैसा भी प्रयोग हो सकता है. पहले जरूरी है कि यह सोच शुरू करनी चाहिए. जो भी इतिहासकार, साहित्यकार हैं, जो भी देश के बारे में सोचने वाले हैं, भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश के, उनमें जो अच्छी सोच रखने वाले लोग हैं, उनका स्मरण किया जाए तो अपने आप बात आगे बढ़ जाएगी.
(लेखक शिक्षा बचाओ आंदोलन के संयोजक एवं संघ विचारक हैं)
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के एकीकरण की तो चर्चा ही नहीं की जानी चाहिए. मेरे ख्याल से ऐसा कुछ बोलने के लिए अपना मुंह ही नहीं खोलना चाहिए. इन देशों का अब तक दो मर्तबा विभाजन हो चुका है. एक 1947 में जब पाकिस्तान बना और एक बार 1971 में जब बांग्लादेश बना. न तो पाकिस्तान और न ही बांग्लादेश चाहता है कि दोबारा हम एक मुल्क बनें. अब एकीकरण के अनेक मतलब निकाले जा सकते हैं. लेकिन सबसे बड़ी आशंका यही है कि इसका मतलब बनता है कि दोनों विभाजन रद्द करने पड़ेंगे. पर अगर आप ऐसा करते हैं तो जो हमारे पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश हैं वे कहेंगे कि भारत हम पर हावी होना चाहता है.
यह अलग बात है कि हमारे बीच आपसी सहयोग होना चाहिए. वैसे अगर हम एकीकरण की बात करें तो सबसे पहला सवाल यह उठता है कि कौन कर रहा है और क्यों कर रहा है. भारत में यह बात अभी आरएसएस के लोग कर रहे हैं. इन लोगों ने शुरू से यह कहा है कि इस पूरे इलाके पर हिंदुओं का शासन रहा है. उनके लिए यह एक सांस्कृतिक मांग है जिसके जरिए वे एक हिंदू भारत बनाना चाहते हैं इसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश हिस्सा होंगे. इसके लिए पाकिस्तान और बांग्लादेश में कोई तैयार नहीं होगा. अगर मुझसे पूछा जाएगा तो मैं भी इसके लिए तैयार नहीं हूं.
अगर हम एकीकरण के बारे में बात करें तो हमें यह जानना चाहिए कि हम दुनिया की इकलौती ऐसी सभ्यता हैं जिसमें हर धर्म को समेट लिया गया है. इस दुनिया का ऐसा कोई धर्म नहीं है जिसने अपना योगदान हमारे देश के निर्माण में न दिया हो. यह योगदान इन सारे लोगों ने यह सोचकर नहीं दिया कि वे हिंदू हैं या मुसलमान. इसके पीछे की सोच सिर्फ यही रही कि वे भारतीय हैं. और यदि आपने भारतीय की बात की तब सवाल उठता है कि पाकिस्तानी भारतीय कैसे बन सकता है और बांग्लादेशी भारतीय कैसे बन सकता है. यह तो मूर्खता है और यह तो तथ्य है कि आरएसएस वाले मूर्खता की ही बात करते हैं.
अब अगर यूरोपियन यूनियन जैसी अवधारणा की बात करें तो वह तो एक अलग बात है. अब देखिए यूरोपियन यूनियन में शामिल हर मुल्क अपनी पहचान रखता है. हर मुल्क की अपनी जुबान है. अपनी संस्कृति है. अपनी संसद है. जर्मनी के चुनावों में कोई फ्रांसीसी भाग नहीं ले सकता और फ्रांस के चुनाव में कोई जर्मन वोट नहीं डाल सकता है. बहुत-से अलग-अलग कानून हैं जो मुल्क अपने हिसाब से बनाते हैं. कुछ नीतियां हैं जो यूनियन के हिसाब से तय करते हैं. तो इस यूनियन में आपसी सहमति से कुछ ऐसी प्रणाली बन सकती है जिसके अंतर्गत 10-20 देश काम करें.
पाकिस्तान का कहना है कि विभाजन धर्म के आधार पर हुआ लेकिन मुझे बताइए कि अगर धर्म के आधार पर हुआ तो फिर इतने मुसलमान हिंदुस्तान में कैसे रुक गए. आप इस्लाम की कल्पना भारत के बिना नहीं कर सकते हो
अगर आपके पास शेनगेन वीजा है. यह यूरोपियन यूनियन के चंद देशों में चलता है. आपको ब्रिटेन जाना हो तो शेनगेन वीजा लेकर नहीं जा सकते हो. ऐसे ही यूरोपियन मॉनेटरी यूनियन है. इसमें भी चंद मुल्क बाहर हैं. सभी तो शामिल नहीं हैं. तो आप यह कह सकते हैं कि चुनिंदा विषयों के लिए एक संघ बनाया जा सकता है जिसमें दो या अधिक मुल्क शामिल हो सकते हैं लेकिन आप सबको उसमें शामिल होने के लिए मजबूर नहीं कर सकते.
मिसाल के तौर पर, हमारा साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रीजनल कॉरपोरेशन (सार्क) है. यहां हम कई देशों के साथ विभिन्न मुद्दों पर बात करते हैं. आर्थिक सहयोग को लेकर चर्चा होती है. लेकिन आप किसी को मजबूर नहीं कर सकते हैं. यदि किसी को मजबूर करने की कोशिश की और उन्होंने कहा कि हमें नहीं जाना और हम उसमें नहीं जाना चाहते हैं तो सार्क का कोई भविष्य नहीं रहेगा.
वैसे भी आर्थिक सहयोग या दूसरे प्रकार के सहयोग की बात अलग है लेकिन अखंड भारत बिल्कुल अलग चीज है. यह संघ का आइडियोलॉजिकल मकसद है. वर्ष 1923 में जब सावरकर ने हिंदुत्व की बात की तब किसी ने नहीं सोचा था कि 25 साल के अंदर कोई पाकिस्तान बनेगा या पचास साल के अंदर बांग्लादेश में बंट जाएगा. तो उस समय जिस हिंदुस्तान की सोच थी उसमें शायद अफगानिस्तान को भी शामिल किया होगा क्योंकि अभी भी उनका कहना है कि गांधारी अफगानिस्तान से आई थीं. अभी तो उनका मकसद है कि अफगानिस्तान को भी इसमें समेट लो तिब्बत को भी इसमें समेट लो. क्या पता म्यांमार को भी समेट लें. श्रीलंका और मालदीव को भी जोड़ लो इसमें. क्योंकि लक्षद्वीप हिंदुस्तान में हो सकता है तो मालदीव क्यों नहीं? अब ऐसी बात तो मूर्खता है. लेकिन उससे ज्यादा इसमें बहुत बड़ा खतरा है. लोग पूछने लगेंगे हमारे देश में ही नहीं पर हमारे पड़ोसी देश में भी कि आखिर ये लोग चाहते क्या हैं, हमें खत्म करना चाहते हैं क्या. तो पड़ोस में ऐसे सवाल उठने ही नहीं चाहिए. ऐसे बोलने से जो सहयोग की संभावना है वह न केवल कम हो सकती है बल्कि मिट भी सकती है. बांग्लादेश और पाकिस्तान में तो कभी ऐसी चर्चा सुनने में नहीं आई जिसमें कहा जाता हो कि सबको एक हो जाना चाहिए. शायद कुछ लोग हों जो ऐसा कहते हों लेकिन उसको कुछ खास अहमियत आप नहीं दे सकते हैं.
जब तक आप भूटान, नेपाल, मालदीव, पाकिस्तान, श्रीलंका की अलग-अलग हैसियत को मान्यता नहीं देंगे तब तक किसी प्रकार का सहयोग नहीं हो सकता है. अब देखिए तमिलनाडु में लोग कहते हैं कि श्रीलंका के जो तमिल हैं वे उनके ही लोग हैं. आप यह कहो तो वहीं के वहीं बातचीत श्रीलंका के साथ बंद हो जाती है. हमें यह कहना है जैसा कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी कहते आए हैं कि हम यह नहीं चाहते हैं कि श्रीलंका की एकता या अखंडता पर खतरा हो. हम बस इतना चाहते हैं कि उस एकता और अखंडता को कायम रखने के लिए वही हक और अधिकार दिए जाएं तमिल लोगों को जो कि श्रीलंका के लोगों को मिलता है. ऐसे ही आप आगे बढ़ सकते हैं लेकिन अगर उन लोगों को कहा जाए कि आप आ जाइए और नागपुर को हम राजधानी बनाएंगे, तो ऐसा कहने वाले लोग पागल ही कहलाएंगे.
पाकिस्तान का कहना है कि विभाजन धर्म के आधार पर हुआ लेकिन मुझे बताइए कि अगर धर्म के आधार पर हुआ तो फिर इतने मुसलमान हिंदुस्तान में कैसे रुक गए. आज के दिन आप आंकड़े देखिएगा विश्व की दूसरी सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला देश हिंदुस्तान है. आप इस्लाम की कल्पना भारत के बिना नहीं कर सकते हो. यह है इक्कीसवीं सदी की असलियत और वैसे ही आप देखिए कि ईसाईयों में जब जीसस क्राइस्ट शहीद हो गए तो सेंट पीटर्स गए रोम की तरफ और सेंट थॉमस आए हिंदुस्तान की तरफ. सेंट थॉमस के हिंदुस्तान पहुंचने के चंद ही सालों के अंदर सीरियन चर्च स्थापित हुआ जो विश्व का सबसे पुराना चर्च है. इतना पुराना है कि एक सीरियन क्रिश्चियन कह सकता है कि पोप प्रोटेस्टेंट हैं. यह है हमारा इतिहास और हमारी सभ्यता. जब ये पारसी लोग ईरान से भगाए गए तो किसने यहां शरण दी? हमारे मुसलमान राजाओं ने. वे मुसलमान राजाओं से बचकर भागकर यहां आए और शरण भी उन्हें मिली मुसलमान राजाओं और बादशाहों की तरफ से.
बौद्ध धर्म और जैन धर्म कहां से शुरू हुए. जो हिंदू धर्म के अंतर्गत एक किस्म की बगावत हुई, एक फलसफे के लिहाज से और दूसरी सामाजिक लिहाज से. इसके बाद ये दोनों अलग धर्म पैदा हुए. फिर इन दोनों धर्मों का योगदान हमारे देश के निर्माण में रहा. इतना ही नहीं, अशोक के जमाने से लेकर कन्नौज के हर्षवर्धन के जमाने तक तकरीबन हजार साल यह एक हिंदू देश ही नहीं था. यह तो बौद्धों का देश था और दक्षिण भारत में जैनों का. बीच में वह गुप्त साम्राज्य आया जिसने हिंदू धर्म को कुछ प्रोत्साहन दिया. फिर अंत मंे जाकर आदि शंकराचार्य के आने पर बौद्ध धर्म को छोड़कर सब लोग हिंदू धर्म में वापस आए.
बांग्लादेश और पाकिस्तान में तो कभी ऐसी चर्चा सुनने में नहीं आई कि कहा गया हो कि सबको एक हो जाना चाहिए. शायद कुछ लोग हों जो ऐसा कहते हों लेकिन उनको कुछ खास अहमियत आप नहीं दे सकते हैं
नतीजा यह हुआ कि बौद्ध धर्म का तकरीबन नाम और निशान ही मिट गया है. इसके बाद भारत में इस्लाम आया. मोहम्मद बिन कासिम आया. वह 17 साल का लड़का था. वह छह महीने हिंदुस्तान में रहा फिर जब वापस गया तो उसका गला काटा गया. तो अठारह साल के अंदर वह खत्म हो गया, इस इतिहास को छिपाकर कहते हैं कि कासिम आया अपनी तलवार ले आया और सबको मुसलमान बना गया. यह बकवास है. वह यहां 711 आया में और 712 तक चला गया. और जाने के पहले उसने उत्तर भारत की सबसे पहली मस्जिद अलोर में बनाई. यह सिंधु दरिया के बाएं हिस्से में है. मैं वहां गया था. उस मस्जिद में अरबी में कुछ लिखा है जिसका अनुवाद पाकिस्तान के एक एसडीएम ने करवाया है और उसमें जो दो-चार चीजें लिखी हैं उनमें मूल बात यह है कि वे कहते हैं कि आप ब्राह्मणों को तंग मत करो. सब हिंदुओं को वे ब्राह्मण कहते थे. ब्राह्मणों को तंग मत करें, उनको अपना कर सुल्तान को देना है, यहां तक उनको मजबूर करो लेकिन धर्म छोड़ने के लिए मजबूर मत करो. और जैसे कि हम यहूदियों और पारसियों की देखभाल दमिश्क में करते हैं, वैसा ही ब्राह्मणों की देखभाल यहां की जानी चाहिए.
यह कहकर फिर वो गए. और अब आप आंकड़े देखिए, वे वापस गए 712 में और अगला जो बाहर से मुसलमान आया भारत में तलवार के साथ वह 997 ईस्वी में आया. मतलब 285 साल के बाद. और उन 285 सालों के अंदर वो हिस्सा जो आज पाकिस्तान कहलाता है वहां मुसलमानों की बहुलता हो गई है. कैसे? क्योंकि वे पैगंबर का पैगाम लेकर आए थे जिसमें समानता की बात कही गई थी. तो वे सारे जो हमारे शेड्यूल कास्ट वगैरह थे उन्होंने कहा कि ये हमारे हिंदू लोग कहते हैं कि हम नीच जाति के हैं क्योंकि हमने कुछ पाप किया है पिछले जन्म में, हमें याद भी नहीं है कि हमने क्या गलती की है लेकिन इस पूरी जिंदगी को बर्बाद किया गया है. किसी पूर्व जन्म में जिसका हमें कोई स्मरण भी नहीं है, भूत में होता तो भी, लेकिन पूर्व जन्म में. और ये आते हैं और कहते हैं कि बादशाह और सबसे गरीब भिखारी को भी मस्जिद में जाने से पहले वजू करने की जरूरत होती है. वजू किससे होता है, पानी से. और हिंदू लोग पानी को ही कहते हैं कि उन्होंने छू लिया तो हम नहीं छुएंगे. वहां मुंह-हाथ धोकर वे अपने धर्मस्थल मस्जिद में जाते हैं. वहां कोई पुजारी नहीं है, वहां एक मुतवल्ली है जो प्रार्थना को आगे बढ़ाता है लेकिन प्रार्थना के पश्चात तब वे दुआ मांगते हैं. और ब्राह्मण कहता है कि भगवान को संस्कृत ही पता है. और हम आपको संस्कृत सिखाएंगे ही नहीं. आपको तो प्राकृत में बोलना चाहिए और हमसे कहिए कि आप क्या चाहते हैं और साथ-साथ पांच रुपये भी दे दीजिए, हम आपका संदेश भगवान तक पहुंचाएंगे. जहां कि इस्लाम में कहा जाता है कि दुआ आप अपनी ही भाषा में मांगें और भगवान को जिसे वे खुदा कहते हैं, उसकी समझ में आ जाएगी और फिर वे तय करेंगे कि आप जो मांग रहे हैं वह आपको मिलेगा या नहीं. तो जो यह एक तरफ असमानता के आधार पर हमारा हिंदू समाज बना है तब यह पैगाम आया कि हम सब समान हैं. तो जब आप ऊपर होते तो कहते कि मैं भला क्यों इसेे मानूं पर जब नीचे होते तो कहते हैं कि आप क्यों नहीं मानते? फिर 999 में पहली बार सुबुक्तगीन के बेटे गजनवी महमूद आए और फिर 1026 तक 27 साल में 17 बार भारत पर आक्रमण किया और बहुत कुछ ले गए. 1026 में जब वो लौटे तो उसके बाद बाहर से कौन-सा मुसलमान भारत आया?
1192 में वीपी सिंह के पूर्वज के पूर्वज राजा जयसिंह उन्होंने अपने दामाद को सबक सिखाने के लिए गोरी को निमंत्रण दिया कि मेरे दामाद ने मुझे एक बार हरा दिया अब आप आकर इनको हराइए. निमंत्रण लेकर गोरी यहां आए. यह भी नहीं कहा जा सकता कि आक्रमण था. दावत पर बुलाया गया. दावत पर आए और फिर उन्होंने देखा कि यहां तो बिल्कुल वैक्यूम है, खाली है तो इसलिए उन्होंने यहां अपनी सल्तनत बनाई. तो 712 और 1192 और इनका फासला तकरीबन 500 साल का था. जबकि उन 27 सालों को छोड़िए तो कोई मुसलमान तलवार के साथ यहां नहीं आया लेकिन जो इस्लाम और उसकी जो सभ्यता है वह हमारी संस्कृति में समेट गई और फिर दो और चीजें आप नोट कीजिएगा कि इस्लाम के आने के पश्चात एक और धर्म भारतवर्ष में पैदा हुआ. वो सिख धर्म है.
इस धर्म का मूल कारण यह था कि जो इस्लाम धर्म था और जो हिंदू धर्म था उसका समीकरण करके सिख धर्म बन गया. आखिर गुरुनानक गए. हज पर नहीं गए लेकिन हज देखने के लिए गए मक्का और मक्का से लौटने पर वे बगदाद होते हुए आए और आज तक आप बगदाद जाइए. मेरी पोस्टिंग हुई है वहां. एक स्थान है जहां वे कहते हैं कि गुरुनानक आए, यहां बैठे, मक्का की तरफ रुख बदलकर उन्होंने देखा उसको यहां से और देखते ही उनके अंदर वह सोच आई जिससे कि सिख धर्म शुरू होता है. और इसलिए जो स्वर्ण मंदिर है उसकी नींव रखने के लिए उन्होंने एक पीर को बुलाया. तो यह हिंदू-मुसलमान सोच का समीकरण है जिसे सिख धर्म हम कहते हैं. एक आखिरी फैक्ट और उसके बाद मेरा भाषण बंद कि मुसलमानों का राज शुरू हुआ यहां दिल्ली में 1192 में और खत्म हुआ बहादुर शाह जफर के साथ 1858 में. बीच में आते हैं 666 साल. 666 साल तक एक मुसलमान सुल्तान बादशाह दिल्ली के सिंहासन पर बैठा रहा और जबकि अंग्रेजों ने 1872 में पहली बार यहां सेंसस लिया. तब मुसलमानों का हिस्सा हमारी आबादी में मात्र 24 प्रतिशत का था. तो यदि वे सबको जान से मार रहे थे मुसलमान बनाने के लिए तो कैसे हुआ कि 80 प्रतिशत तक हिंदू रहे और 24 प्रतिशत ही मुसलमान थे और क्योंकि तभी जाकर मुसलमानों को पता लगा कि हम एक अखलियत हैं. उसके पहले तो सवाल ही नहीं उठा था. उससे पहले भी वे अखलियत थे. लेकिन आप समझते हैं कि औरंगजेब कह रहा था कि मैं माइनॉरिटी हूं.
यह तब से शुरू हुआ जब उसे बताया गया कि आप राज भी नहीं कर सकते हैं और आप विदेशी हैं तो तब जाकर उनकी एक सोच बनी जिससे पाकिस्तान बना. बहुत से मुसलमान हिंदुस्तान में रह गए. तो अपनी हैसियत बनाने के लिए पाकिस्तान या बांग्लादेश जो करना चाहता है वो करे लेकिन यहां हिंदुस्तान में हमें समझना चाहिए कि विविधता ही हिंदुस्तान की पहचान है. जहां विविधता है वहां हिंदुस्तान है. और जहां विविधता नहीं रहेगी, तब कोई भारतवर्ष नहीं रहेगा.
पाकिस्तान में पिछले 67 साल से उन्होंने बहुत प्रयास किया है इनको एंटी-हिंदू बनाओ, कामयाब रहे हैं क्या? इसलिए अगर लोगों को यह बोला भी जा रहा है तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता
जब सदी के बीसवें दशक में सांप्रदायिकता बढ़ रही थी तब हमने बहुत बड़ी गलती की. जिन्ना साहब ने इंतजाम किया था कि मुस्लिम लीग उसी जगह पर अपनी सालाना मीटिंग करेगी जहां कांग्रेस करती थी. वह जगह थी लखनऊ. चूंकि दोनों सम्मेलन एक समय चल रहे थे तो उन्होंने कहा कि हम आपके साथ जुड़ जाएंगे यदि आप मान लेंगे कि मुसलमानों का अलग इलेक्ट्रेट होगा और हिंदुओं का भी अलग. और इस प्रस्ताव को हमने मान लिया. इसको हम लखनऊ पैक्ट कहते हैं. और उसी समय सरोजिनी नायडू ने इनको यह नाम दिया, हिंदू-मुस्लिम एंबेसडर. सेपरेट इलेक्ट्रेट के लिहाज पर हमारे यहां चुनाव होने लगे और हिंदू हिंदू का ही वोट मांग सकता था और मुसलमान मुसलमान का ही वोट मांग सकता था. वहीं से भारत में राजनीतिक सांप्रदायिकता शुरू हुई. जो बीस का दशक है वह हमारे इतिहास का सबसे दुखद दशक है. इस प्रकार के दंगे-फसाद हुए तब जाकर दशक तीस में हमारी सरकार बनी तो तब कोशिश की जाती थी कि दंगे-फसाद करवाओ. सरकार उसको संभाल नहीं पाई. नतीजा यह हुआ कि तीन साल के अंदर लाहौर रिजोलूशन आया, उसके बाद मुझे आपको इतिहास कहने की क्या जरूरत है.
दोनों मुल्कों के वे लोग जो चाहते हैं कि हमारी यादों का मुल्क बने दोनों मुल्क साथ आएं लेकिन कौन तय करेगा कि मिलाएंगे. यदि आप कहें कि आप मिलाना चाहते हैं तो हिम्मत रखो. जाकर लाहौर में कहो. आप वापस नहीं आएंगे. आपको गरीबी हटानी है तो आप पाकिस्तान की गरीबी पाकिस्तान में हटाओ, हिंदुस्तान की हिंदुस्तान में. यह कौन कह रहा है कि हम दोनों जब मिलेंगे तभी गरीबी से लड़ेंगे.
रहन-सहन समान होने की बात तो ठीक है लेकिन मद्रासी का रहन-सहन तो वह नहीं है जो आपका है. मैं आपको वहां खींचूं और एक धोती पहनाऊं जो तमिलनाडु की वेशभूषा है वह पांच मिनट मेंे आपकी कमर से गिर जाएगी. मैं हर दिन आपको सांभर डोसा खिलाऊं तो जिस चपाती का आप ख्वाब देखेंगे वह वहां नहीं मिलेगी. यह आप मत भूलिए और यह हमारी आखिरी बात है कि आप सवाल कीजिए और मैं सवाल करूं कि भारतीय कौन है और उसका जवाब मैं खुद दूं कि भारतीय वह है जो कि जब अपना मुंह खोलता है ज्यादातर भारतीय उसकी बात नहीं समझते और जो दूसरे भारतीय बोलते हैं उसके बोल हिंदुस्तानी नहीं समझता. हिंदुस्तानी या भारतीय वह है जिसका रंग दूसरे भारतीयों से अलग है. जिसका रेस अलग है, जिसकी भाषा अलग है. जिसके नाच-गाने, लिबास, धर्म, संस्कृति सब अलग हैं तो भारतीय कौन हैं? भारतीय वह है जो कि कहता है कि जो भी कहे कि मैं भारतीय हूं, मैं स्वीकार करता हूं कि वह भारतीय है और यही विविधता भारत की पहचान है. और इसी को आप कायम रखिएगा और यह भूल जाइएगा कि बांग्लादेश को भी समेटेंगे और श्रीलंका को भी ले आएंगे. अब तक अखंड भारत सरकारी कार्यक्रम में नहीं आया है लेकिन इनके करीब के समर्थक मुंह खोलने लगे हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि मोदी ने कभी इस अखंड भारत का सोचा होगा. आरएसएस के प्रचारक हैं वे कर रहे हैं.
और गुजरात में जो दीनानाथ बत्रा की किताब का जिक्र किया जा रहा है जिसमें कहा गया है कि अफगान-पाक आदि देशों को मिलाकर अखंड भारत बने तो यह तो सावरकर के समय से चलता आ रहा है. हेडगेवार और गोलवलकर के जमाने से चलता आ रहा है.
पाकिस्तान में पिछले 67 साल से उन्होंने बहुत प्रयास किया है इनको एंटी-हिंदू बनाओ, कामयाब रहे हैं क्या? इसलिए अगर लोगों को यह बोला भी जा रहा है तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता. आप गल्फ में चले जाइए वहां तो कोई मतभेद नहीं है भारतीयों और पाकिस्तानियों का. ये कामयाब नहीं रहे लेकिन उसकी कोशिश जारी है.
एकः शब्दः सम्यक् ज्ञात सुप्रयुक्त, र्स्वगलोके कामधुग्भवति यानी सही समय और सही जगह पर प्रयोग किया गया एक शब्द भी जीवनपर्यंत और उसके बाद भी उपयोगी होता है. पतंजलि का यह सूत्र अखंड भारत पर मेरे दिए गए बयान पर हुए विवाद के लिए पूरी तरह से उपयुक्त है. एक ऐसी बात जो इससे पहले कई बार संघ परिवार के कई लोगों द्वारा कही गई थी, इस बार एक विवादित मुद्दा बन गई क्योंकि यह उस वक्त सामने आई जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भारत-पाकिस्तान संबंध सुधारने के लिए लीक से हटकर कोशिश की जा रही थी.
मैंने 7 दिसंबर, 2015 को अल-जजीरा टीवी चैनल को एक इंटरव्यू दिया था. वहां मुझसे संघ के नागपुर मुख्यालय में लगे अखंड भारत के नक्शे के बारे में सवाल पूछा गया. पहले भी कई बार मुझसे यह सवाल किया गया था तो मैंने वही जवाब दिया जो इससे पहले कई बार दिया था कि संघ यह मानता है कि एक दिन ये तीनों हिस्से अपनी सहमति से एक होंगे. मैंने भी इस बात को दो बार स्पष्ट भी किया कि यह सेना या किसी युद्ध के जरिए नहीं बल्कि मित्रवत तरीके से होगा. यानी इन तीनों देशों के लोगों के एकीकरण का आधार सांस्कृतिक और सामाजिक होगा.
संयोगवश, यह इंटरव्यू उसी दिन प्रसारित हुआ जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलने लाहौर पहुंचे थे. प्रधानमंत्री जी की उस यात्रा पर मैंने ट्वीट भी किया था, ‘दोनों देशों की प्रोटोकॉल पर चल रही राजनीतिक पॉलिसियों के बीच प्रधानमंत्री मोदी जी का यूं अचानक पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से मिलने लाहौर जाना एक जरूरी कदम था. यूरोपियन संघ, आसियान और कई पड़ोसी देशों के नेताओं की तरह भारत-पाक के नेताओं को भी अपने रिश्तों में थोड़ी अनौपचारिकता लाने की जरूरत है. बदलाव के इस पहले कदम के लिए अटल जी के जन्मदिन से बेहतर कोई दिन नहीं हो सकता था.’
मुझे दुख होता है कि मेरे इस इंटरव्यू को प्रधानमंत्री के इस कदम के महत्व को कम करने के लिए प्रयोग किया गया. हम लोग जो राजनीति में हैं वे कुछ कहते समय आने वाले कुछ चार-पांच सालों के बारे में सोचकर बोलते हैं वहीं हममें से कुछ जो संघ के पीढ़ियों से चले आ रहे विचार, उनकी दृष्टि को आत्मसात कर चुके हैं, वे कई बार अपनी कही बात की पॉलिटिकल इनकरेक्टनेस के जाल में फंस जाते हैं.
मैं यहां फिर कहना चाहूंगा कि अखंड भारत का यह सिद्धांत पूरी तरह से सांस्कृतिक और जनता पर केंद्रित विचार है. मेरे कहने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं था कि हमें अपने देशों की सरहदों को फिर से बदलने की सोचना चाहिए. पर मैं यह कह सकता हूं कि मैंने इन तीनों देशों के लोगों में आपसी सौहार्द और आत्मीयता बढ़ाने के प्रति खासा उत्साह देखा है. असल में, मुझसे ज्यादा तो इस एकीकरण के लिए देश का सेक्युलर और ‘मोमबत्तीवाला’ तबका उत्साहित दिखता है. वे लोग खुली सीमाओं की बात करते हैं, वाघा बॉर्डर पर मोमबत्तियां लेकर प्रदर्शन करने की बात कहते हैं.
1947 के बंटवारे ने एक राजनीतिक मतभेद भी पैदा किया है. अब उसके लिए कौन जिम्मेदार है, यह एक ऐतिहासिक बहस है. राम मनोहर लोहिया अपनी किताब ‘गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टीशन’ में इसके लिए तीन पक्षों, ब्रिटिशों, कांग्रेस और मुस्लिम लीग को उत्तरदायी मानते हैं. बाद में इतिहासकारों ने कई दूसरों को भी जिम्मेदार बताया.
मेरे कहने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं था कि हमें अपने देशों की सरहदों को फिर से बदलने की सोचना चाहिए. पर मैं यह कह सकता हूं कि मैंने इन तीनों देशों के लोगों में आपसी सौहार्द बढ़ाने के प्रति खासा उत्साह देखा है
कांग्रेस द्वारा बंटवारे पर राजी होने के बारे में नेहरू ने 1960 में ब्रिटिश पत्रकार और इतिहासकार लियोनार्ड मोस्ले से बात करते हुए कहा था. ‘सच तो यह है कि हम लोग थक चुके थे और बूढ़े हो रहे थे. हममें से कुछ ही दोबारा जेल जाने लायक थे और अगर हम यूनाइटेड इंडिया (एकीकृत भारत) के लिए खड़े होते तो जेल जाना निश्चित था. हम पंजाब को जलते देख रहे थे, रोज लोगों के मारे जाने की खबरें आ रही थीं. हमें बंटवारे का विचार इन सब का समाधान लगा और हमने इसे स्वीकार कर लिया.’
मगर क्या बंटवारे ने लोगों को भी बांट दिया? उस समय भावावेश में आकर दोनों ओर के बहुत-से लोगों ने अपनी नई राजनीतिक पहचान को अपनाया. यह राजनीतिक पहचान बनी रहेगी. पर इसके अलावा भी इस समाज, जो एक सदी से भी ज्यादा समय तक एक ही हुआ करता था, की एक और बड़ी पहचान है. ख्यात इतिहासकार आयशा जलाल ने मंटो और बंटवारे पर लिखी अपनी किताब में एक सांस्कृतिक देश के विचार से उपजी इस दुविधा को बहुत अच्छे से रखा है. वे लिखती हैं, ‘…किसी सांस्कृतिक राष्ट्र की रूपरेखा जितनी रचनात्मक और व्यापक होती है, उतनी किसी हद में बंधे राजनीतिक राष्ट्र की नहीं होती.’
वास्तव में बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकारों में से एक सआदत हसन मंटो पाकिस्तान की ओर के उन चंद लोगों में से थे जो बंटवारे के इस विचार को कभी स्वीकार नहीं कर पाए. बंटवारे पर लिखी उनकी कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ लाहौर के पागलखाने में रह रहे गैर-मुस्लिम मरीजों के बारे में है जो अलग धार्मिक मान्यताओं के कारण भारत स्थानांतरित होने का पूरे उत्साह से इंतजार कर रहे हैं. इस कहानी का जिक्र जलाल भी करती हैं. जलाल लिखती हैं, ‘मंटो ने इस कहानी में बहुत कुशलता से इन मरीजों को बाहर निकालने का फैसला करने वालों से ज्यादा स्थिर दिमाग वाला पागलखाने के मरीजों को दिखाया है. उनका यह दिखाना बंटवारे का फैसला करने वालों की समझदारी और जो पागलपन इससे शुरू हुआ, उस पर सवाल करता है.’
अगर ऐसा है तो क्या हम लोगों का साथ आना मुमकिन है? जिस ऐतिहासिक, सभ्यतामूलक वास्तविकता को हमने ‘एक’ समाज होकर सदियों तक साझा किया है क्या हम उसे संजो पाएंगे? तो जब मैंने कहा कि ये देश ‘मित्रवत और सहमति’ से एक होंगे तब मेरा यही अर्थ था.
जब जीसस क्राइस्ट को सूली पर चढ़ाने से पहले पोंटियस पेलेट (रोमन अधिकारी जिसके सामने ईसा मसीह की पेशी हुई हुई थी) के सामने लाया गया तब उन्होंने आरोप लगाने वाले लोगों को अपने शब्दों को स्पष्ट करने को कहा जिससे बहस में कोई भ्रम न रहे. अखंड भारत को लेकर छिड़ी बहस के साथ भी यही मसला है.
मुझसे ज्यादा तो इस एकीकरण के लिए देश का सेक्युलर और ‘मोमबत्तीवाला’ तबका उत्साहित दिखता है. वे लोग खुली सीमाओं की बात करते हैं, वाघा बॉर्डर पर मोमबत्तियां लेकर प्रदर्शन करने की बात कहते हैं
60 के दशक के पूर्वार्ध में जनसंघ नेता और सामाजिक कार्यकर्ता राम मनोहर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय में घनिष्ठता हुई थी. एक दिन डॉ. लोहिया ने दीनदयाल जी से कहा कि जनसंघ और आरएसएस के ‘अखंड भारत’ के विचार पर भरोसे के कारण पाकिस्तान के मुसलमान चिंतित हो जाते हैं और उससे भारत-पाक के रिश्तों में बाधा उत्पन्न होती है. लोहिया जी ने कहा, ‘बहुत-से पाकिस्तानियों का मानना है कि अगर जनसंघ नई दिल्ली में सत्ता में आया तो वे जर्बदस्ती पाकिस्तान और भारत का एकीकरण कर देंगे.’ इस पर दीनदयाल जी ने जवाब दिया, ‘हमारा ऐसा कोई उद्देश्य नहीं है. और हम चाहते हैं कि अब इस मामले में पाकिस्तानी ऐसा सोचना छोड़ दें.’ दोनों के बीच हुई इसी बातचीत से भारत-पाकिस्तान संघ का विचार जन्मा. भाजपा प्रवक्ताओं के अनुसार 1999 में अटल जी द्वारा निकाली गई ऐतिहासिक बस रैली में उन्होंने साफ किया था कि भारत और पाकिस्तान दो संप्रभु देश हैं.
मैं और मेरे जैसे कई यह मानते हैं कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोगों का आपसी सहमति और समान इतिहास के आधार पर साथ आना हमारे तनावपूर्ण संबंधों को सुधारने की दिशा में एक जरूरी कदम होगा. मैं व्यथित हूं कि मेरी इतनी जरूरी वैचारिक स्थिति को मेरी पार्टी और केंद्र सरकार का राजनीतिक एजेंडा समझकर गलत अर्थ निकाला गया.
कोलकाता के दो रहस्य कभी नहीं खुलेंगे. एक बाॅटनिकल गार्डन के वट वृक्ष का और दूसरा महाश्वेता देवी का. वट वृक्ष का हर एक तना मूल होने का अहसास देता है. लेकिन कहा जाता है कि उसका मूल (जड़) तो बहुत पहले आंधी-तूफान में गिर गया पर खासियत यह है कि उसकी दर्जनों शाखाएं मूल होने का अहसास देती हैं. उसी तरह महाश्वेता देवी का कद भी इतना बड़ा लगता था कि उनकी किस रचना और किस संघर्ष को उनके व्यक्तित्व का मूल माना जाए कह पाना कठिन है.
महाश्वेता देवी की देह भले ही 28 जुलाई, 2016 को निष्क्रिय हो गई हो लेकिन उनकी रचना और संघर्ष की शाखाएं हर जगह उनके होने और मूल की तरह होने का अहसास कराती हैं. जिस तरह बॉटनिकल गार्डन के उस वृक्ष की उम्र तय कर पाना कठिन है उसी तरह 91 वर्ष की आयु सीमा में महाश्वेता देवी के रचना कर्म को बांधा नहीं जा सकता. इस संसार में जब से मानवता का संघर्ष चल रहा है तब से महाश्वेती देवी हैं और जब तक चलेगा तब तक वे रहेंगी. वे वेद व्यास की तरह ही आदिम सभ्यता और आधुनिक सभ्यता के संघर्ष की गाथाकार हैं और इस संघर्ष में जब तक न्याय की विजय नहीं होगी तब तक उनकी प्रशाखाएं प्रस्फुटित होती रहेंगी और उनकी प्रेरणा से उनके जैसे रचनाकार, कार्यकर्ता, आंदोलन और रचनाएं जन्म लेती रहेंगी.
हिंदुस्तान अखबार ने जब महाश्वेता देवी से हर रविवार को कॉलम लिखवाने का निर्णय किया तब हिंदी की पहली महिला संपादक मृणाल पांडे चाहती थीं कि कोई बड़ा लेखक काॅलम लिखे क्योंकि पहले के स्तंभकार (संभवतः कमलेश्वर जी) के काॅलम बंद होने के बाद वह स्थान कमजोर पड़ रहा था. मृणाल जी के मन में ऐसी ही कोई बात थी और संयोग से मैंने महाश्वेता जी का नाम लेकर उनके मुंह की बात छीन ली. मेरे सुझाव को उन्होंने तत्काल मान लिया. मृणाल जी की मां और हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका गौरा पंत शिवानी शांतिनिकेतन में महाश्वेता जी की सीनियर थीं और उस नाते उनका एक घनिष्ठ रिश्ता था.
इस संसार में जब से मानवता का संघर्ष चल रहा है तब से महाश्वेता देवी हैं और जब तक चलेगा तब तक वे रहेंगी. वे आदिम सभ्यता और आधुनिक सभ्यता के संघर्ष की गाथाकार हैं
पुराने साथी कृपाशंकर चौबे कोलकाता में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. उनका भी महाश्वेता जी से प्रगाढ़ रिश्ता था. उन्होंने ‘महाअरण्य की मां’ शीर्षक से उनकी जीवनी लिखी है. कुल मिलाकर संयोग ऐसा बना कि महाश्वेता जी तैयार हो गईं और कृपाशंकर जी के अनुवाद के साथ मूलतः बांग्ला में लिखा जाने वाला उनका स्तंभ ‘परख’ हिंदी जगत में हिट हो गया. उससे हिंदुस्तान अखबार की साख बढ़ी. साथ ही हिंदी के कई लेखकों-पत्रकारों को उन्होंने अपने उस काॅलम में आशीर्वाद भी दिया, जिनमें केदार नाथ सिंह, नवीन जोशी और अरविंद कुमार सिंह जैसे नाम उल्लेखनीय हैं. इस कॉलम के माध्यम से उन्होंने कई ऐसे मुद्दे उठा दिए जिन पर उदारीकरण के लोभ में फंसा हमारा देश बात करने से घबराने लगा था. सिंगूर में टाटा की नैनो कार की फैक्टरी लगाए जाने के विरुद्ध विस्थापित होने वाले किसान भड़क उठे. वह दौर उदारीकरण का स्वर्ण युग था और भारतीय उद्योग जगत और उसका सहोदर कॉरपोरेट मीडिया वैश्वीकरण की उपलब्धियों का बखान करने से थकते नहीं थे. जो लोग प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह की कड़ी आलोचना करते हैं, वे ही उनकी बल्ले-बल्ले कर रहे थे. उदारीकरण का प्रताप इतना तेज था कि राष्ट्रीय स्तर पर उसकी आलोचना करने वाली माकपा ने भी पश्चिम बंगाल की अपनी सरकार को उसी रास्ते पर डाल दिया था. बाजार को ध्यान में रखकर काम करने वाले मीडिया प्रबंधन और उसके इशारे पर चलने वाले पत्रकारों के कारण दिल्ली के मुख्यधारा के मीडिया में सिंगूर के किसानों के आंदोलन और उदारीकरण के बुरे प्रभावों पर टिप्पणी करना दुष्कर होता जा रहा था. महाश्वेता जी ने अपने कॉलम में वह बैरियर तोड़ दिया. उन्होंने पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार की कड़ी आलोचना की और किसानों के पक्ष में खड़ी हो गईं. विडंबना देखिए कि अखबार प्रथम पृष्ठ पर ‘नैनों में बस गई नैनो’ शीर्षक से टाटा की परियोजना के पक्ष में खबरें छाप रहा था और भीतर महाश्वेता जी के कॉलम में उसी की आलोचना हो रही थी. यह किसी अखबार की लोकतांत्रिक खूबसूरती होती है और काॅरपोरेट सीमाओं में भी वह प्रतिबद्धता मृणाल पांडे के संपादकीय व्यक्तित्व में दिखती थी.
महाश्वेता जी के कॉलम में सिंगूर जैसे बहुफसली क्षेत्र में टाटा की औद्योगिक परियोजना की आलोचना से मेरा साहस भी बढ़ा और मैंने संपादकीय पेज पर एक कड़ी किंतु विश्लेषणात्मक टिप्पणी लिख डाली. उन्हें वह टिप्पणी जंची और उसका बांग्ला अनुवाद भी करवाया और कोलकाता के बांग्ला पत्रों में प्रकाशित करवाया. फिर तो उन्होंने अपनी बांग्ला पत्रिका ‘वर्तिका’ के हिंदी संस्करण के संपादन का दायित्व भी मुझे दिया और उसका पहला अंक ‘सिंगूर-नंदीग्राम से निकले सवाल’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. उसके बाद खाद्य संकट की चुनौती, परमाणु करार के खतरे, माओवादी या आदिवासी, भ्रष्टाचार और अन्ना आंदोलन जैसे कई विषयों पर वर्तिका के अंक उनके साथ संपादित करने का सुअवसर मिला और उन सभी अंकों में वैश्वीकरण और उदारीकरण की कमियों और उसके खतरों की पड़ताल करके उसे हिंदी के पाठकों तक पहुंचाने का काम हुआ.
सिंगूर और नंदीग्राम के मुद्दे पर जब उन्होंने किसानों के आंदोलन में भागीदारी की उसी दौरान उनसे दिल्ली और कोलकाता में मिलना हुआ. उनसे मिलना उनकी ममता की बारिश में नहा लेने जैसा था. दोनों बार मैं परिवार और रिश्तेदारों के साथ मिला. उसी दौरान वे दिल्ली के सीआर पार्क की महिलाओं को मंच से सीख दे रही थीं कि तुम लोग साड़ी, गहना और सौंदर्य प्रसाधन पर बहुत खर्च करती हो, इससे कुछ हासिल नहीं होगा. बेहतर हो किताबें खरीदो और पढ़ो. गरीबों की मदद करो और समाज के अधिकार विहीन लोगों के लिए लड़ो. उनकी बातों से लगा कि वे उदारीकरण से उपजे भारतीय मध्य वर्ग को उसी तरह संबोधित कर रही हैं जैसे ‘1084वें की मां’ में सुजाता करती और भोगती है.
कोलकाता में उनके घर में जाकर देखा तो सब कुछ वैसा ही मिला जो वे मंच से कह रही थीं. एक आदिवासी परिवार सदस्य की तरह उनके घर में रह रहा था. उनके बेटे नवारुढ़ भट्टाचार्य और बेटे जैसा ही स्नेह पाने वाले कृपाशंकर चौबे के साथ चारपाई पर बैठकर मूढ़ी खा रहा था तभी एक बच्चा दादी मां कहते हुए अपनी काॅपी जंचवाने आ गया. उस बच्चे की काॅपी उन्होंने पूरे धैर्य के साथ जांची और आगे भी कुछ लिखने को दिया. बातचीत के दौरान उन्होंने खिड़की से बाहर बिजली के खंभों की ओर इशारा करके बताया कि नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान इन्हीं के पास नौजवान खड़े रहते थे और उनसे छिप-छिपकर मिलते थे. उन युवकों ने अनुरोध किया कि हमारे लिए भी कुछ लिखिए. हमारा बहुत दमन हो रहा है. हमें फर्जी मुठभेड़ों में मारा जा रहा है. पुलिस हमारे पीछे पड़ी है. तब ‘1084वें की मां’ का सृजन हुआ. उनके वर्णन के साथ 1084वें की मां के अंतिम वाक्य सामने साक्षात उपस्थित हो गए- ‘कहां-कहां फिर से भागेगा व्रती? कहां भागेगा? कहां नहीं हैं हत्यारे, कहां नहीं है गोली, पुलिस-वैन और जेल? यह महानगरी, गंगापुत्र बंगाल में, उत्तर बंगाल में, जंगल, पहाड़, बर्फ ढंके प्रांत, राढ़ देश के कंकरीले बांध, सुंदर वन के खारे पोखर, वन, शस्य, खेत, कल-कारखाने, कोयला-खान, चाय-बागान, कहां-कहां भागेगा व्रती? कहां खो जाएगा फिर से? भाग मत व्रती, मेरे पास लौट आ, लौट आ व्रती, मत भाग अब.’
नक्सल आंदोलन से जुड़े युवकों ने अनुरोध किया कि हमारे लिए भी कुछ लिखिए. हमारा बहुत दमन हो रहा है. हमें फर्जी मुठभेड़ों में मारा जा रहा है. तब ‘1084वें की मां’ का सृजन हुआ
महाश्वेता देवी को देखकर मन में दो भाव जगते थे. एक तो यह कि एक लेखिका के तौर पर कितनी चमकदार उपलब्धियां हैं. क्या करिअर है इस लेखिका का, जिसकी लोकप्रियता अपार है और जिसकी झोली में पुरस्कार भरे हुए हैं. साहित्य अकादेमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार और मैग्सेसे सम्मान. बस नोबेल बाकी है. संभवतः 2009 में उसकी भी चर्चा जोर-शोर से चली थी. ऊपर से कई बड़े नेता और उद्योगपति पैर छूते हैं. लेकिन दूसरी तरफ लगता था कि ये तो अग्निशिखा की तरह जलने वाली झांसी की रानी हैं जिन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं है कि उन्हें कौन-से पुरस्कार मिले और कौनसे न मिले. उन्हें तो अपने उन आदिवासियों की चिंता है जिसके लिए वे लिखती थीं और जिनके लिए जीती थीं. उन्हें अपने उन किसानों की चिंता थी जिनके संघर्ष में अस्सी पार करने के बाद भी उतर पड़तीं और इंसुलिन का इंजेक्शन लेकर सिंगूर और नंदीग्राम पहुंच जाती थीं, चाहे लौटकर अस्पताल में ही भर्ती होना पड़े. पुरस्कार तो अपने आप मिल जाता है. अगर उन्हें पुरस्कार चाहिए तो अपने आदिवासियों को देने के लिए. अगर प्रसिद्धि चाहिए तो अन्याय के विरुद्ध इस व्यवस्था पर दबाव बनाने के लिए. अगर संपर्क हैं तो किसी लाचार की मदद करने के लिए, आॅपरेशन ग्रीन हंट रुकवाने के लिए.
दरअसल महाश्वेता देवी का मन एक प्रकार से झांसी की रानी का मन था, जिसमें देशप्रेम, बहादुरी कूट-कूट कर भरी थी. उसमें ‘जिन्हें मैं झांसी नहीं दूंगी’ जैसा स्वार्थ देखना हो देखें लेकिन वे तो भारत के सतत विद्रोह की रणस्थली थीं, जिसमें बिरसा मुंडा के विद्रोह से लेकर सिंगूर और नंदीग्राम के विद्रोह तक की आग धधकती रही. वे साम्राज्यवाद के विरुद्ध विद्रोही मन हैं. वे सामंतवाद के विरुद्ध विद्रोही मन हैं. वे पूंजीवाद के विरुद्ध विद्रोह करने वाली चेतना हैं और वे उसके नए रूप उदारीकरण और वैश्वीकरण के विरुद्ध एक ललकार हैं.
1956 में ‘झांसी की रानी’ लिखने के बाद जब महाश्वेता देवी ने ‘जली थी अग्निशिखा’ लिखी तो उसमें अंग्रेज अधिकारी ह्यूरोज के मन के उस द्वंद्व को व्यक्त किया जो भारतीय नारी के लिए चल रहा होता है. ‘नहीं, समझा नहीं सका. रानी ने एक मनुष्य के रूप में मेरे मन को लंबे समय तक आस्थावान बनाए रखा है. कितनी परिस्थितियों में ही तो देखा है. बीच-बीच में लगता था कि मनुष्य उसकी बातों को समझेगा नहीं इसलिए घोड़ी के साथ बातें करती थीं. घोड़ी से तो इतना प्यार करती है, उसे रक्तपिशाच क्यों मानते हैं सभी लोग? ये लोग क्या समझेंगे? अंग्रेज स्त्रियों और बच्चों की हत्या रानी के नाम पर एक घृणास्पद अपराध है. लड़ाई होती है, हो किंतु उसके नाम के साथ किसी घृणित अपराध का कलंक लगा रहे, वही उसे सहन नहीं हो रहा है. उसी कारण बार-बार लिखा है. मृत्यु दंड से वह दंडित होगी यह जानकर भी लिखा है. किसी दिन क्या कोई सत्य बात लिखेगा नहीं?’
उन्हें उन किसानों की चिंता थी जिनके संघर्ष में 80 पार करने के बाद भी उतर पड़तीं और इंसुलिन लेकर सिंगूर और नंदीग्राम पहुंच जाती थीं, लौटकर भले अस्पताल में ही भर्ती होना पड़े
संभव है ह्यूरोज जैसा प्रश्न इस व्यवस्था का कोई हिमायती महाश्वेता देवी के बारे में करे. वैसा करने वालों में बुद्धदेब भट्टाचार्य भी हो सकते हैं. प्रकाश करात भी हो सकते हैं, सीताराम येचुरी भी हो सकते हैं. उनके अलावा ममता बनर्जी भी हो सकती हैं. यह प्रश्न करने वाले वे नक्सलवादी भी हो सकते हैं जिन्हें उनका स्नेह और आशीर्वाद मिला है. माकपा के लोग पूछ सकते हैं कि आखिर क्यों वामपंथी होते हुए महाश्वेता देवी ने पश्चिम बंगाल से वामपंथ का विनाश करने वाली ममता बनर्जी की राजनीति का समर्थन किया. ममता बनर्जी जिन्होंने महाश्वेता देवी का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करवाया वे पूछ सकती थीं कि क्यों उन्होंने माओवादी किशन जी के मारे जाने पर पत्र लिखे और मनमुटाव कायम किया या उनके कई फैसलों का विरोध किया. इसी तरह माओवादी पूछ सकते हैं कि आखिर क्यों पश्चिम बंगाल में माओवाद पर ममता के दमनचक्र का डटकर विरोध नहीं किया या आदिवासियों और माओवादियों की हितैषी होते हुए भी उन्होंने राजकीय सम्मान के साथ अपना अंतिम संस्कार करने की मनाही क्यों नहीं की थी? माओवादी मैग्सेसे पुरस्कार पर भी आपत्ति कर सकते हैं और महाश्वेता जी के इंदिरा गांधी से लेकर तमाम राजनेताओं से संबंधों पर भी.
ये वे प्रश्न हैं जो किसी लेखक को पूरी तरह क्रांतिकारी या किसी क्रांतिकारी को पूरी तरह लेखक बनने से रोकते हैं. संभवतः किसी एक्टिविस्ट और लेखक का जीवन ऐसा ही होता है और इसी दायरे में वह समाज को संवेदनशील बनाने और व्यवस्था के भीतर आदिवासी, दलित, स्त्री और वंचित के हितों के लिए जगह बनाता है.
यह सवाल आदिवासियों के एक और हितैषी और उनके विकास के सिद्धांतकार डाॅ. ब्रह्मदेव शर्मा के बारे में भी लोग उठाते हैं. लोग कहते हैं कि डाॅ. ब्रह्मदेव शर्मा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच अफसर बन जाते थे और अफसरों के बीच राजनीतिक कार्यकर्ता. वे इमरजेंसी में इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र अधिकारी थे. इसके बावजूद इस बात से कौन इनकार करेगा कि अनुसूचित जाति/जनजाति के आयुक्त के रूप में अपनी 28वीं और 29वीं रपट में दलितों और आदिवासियों की स्थिति रखते हुए उन्होंने नर्मदा आंदोलन खड़ा करने में, मोर्स बर्गर कमेटी की रपट तैयार करवाने में, भूरिया कमेटी की रपट बनवाने में और पेसा कानून का मसविदा तैयार करवाने में अपना अमूल्य योगदान दिया.
लेकिन चाहे ब्रह्मदेव शर्मा हों या महाश्वेता देवी वे बिरसा तो नहीं हैं. वे जंगल के दावेदार के वकील जैकब हो सकते हैं या अमलेश बाबू? या इससे ज्यादा कहें तो बेरियर एल्विन? शायद आदिवासियों की तरफ से देखें तो वे और ज्यादा लगें लेकिन दूसरी तरफ से देखें तो वे अमलेश बाबू की तरह कहीं से निराश लगते हैं. क्योंकि बाद में ब्रह्मदेव शर्मा कहते थे कि ताकत नहीं है, नहीं तो बंदूक उठा लेता. उसी तरह महाश्वेता देवी के अंतिम दिनों की क्या पीड़ा थी यह तो वे ही जानें या अंतिम दिनों में लिखी गई उनकी रचनाएं. क्योंकि ममता बनर्जी मां, माटी, मानुष के जिस सपने के साथ आई थीं और जिस नारे को गढ़ने में महाश्वेता जी का योगदान था वह पूरा नहीं हुआ. बल्कि छला गया.
तभी ‘जंगल के दावेदार’ के अमलेश बाबू बिरसा के मरने पर और आदिवासियों का मुकदमा खत्म होने के बाद कहते हैं, ‘उसके बाद मैंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया.’ जैकब पूछता है, ‘क्यों?’
वे जवाब देते हैं, ‘क्यों, यह क्या मुझे भी खुद खाक-धूल पता है? मैं इसी शिक्षा व्यवस्था, समाज-व्यवस्था का आदमी हूं. यह व्यवस्था न तो देती है मौलिक अधिकार, न सिखाती है विवेक-बोध. मुंडा विद्रोह के मामले में बंगाली किरस्तान अमूल्य अब्राहम को क्यों तकलीफ होती है? क्यों मुकदमे के खत्म होने पर मैंने नौकरी छोड़ दी.’
‘मुझे अब और कुछ छोड़ने को नहीं रहा. मैं अब और कुछ कर नहीं सकता. मेरी उंगलियां कितनी पतली हैं. चमड़ा कितना मुलायम है. मैं न तो तीर छोड़ सकता हूं और न ही जानता हूं बलोया चलाना. मैं इतना ही कर सकता था. बाकी जीवन तुम्हें समझने की कोशिश करूंगा. तुम कौन हो? तुम समय से पहले पैदा हुए थे या समय ने तुम्हें पैदा किया था? तुम्हारा आंदोलन क्या था? मुंडा लोग क्या जंगल पर कभी अधिकार पा सकेंगे? उनके जीवन से महाजन, बनिया, जमींदार, जोतदार, हाकिम, अमले-थाना, बेगारी के पत्थरों का-सा भार तभी उतर पाएगा?’
उन्हें उन किसानों की चिंता थी जिनके संघर्ष में 80 पार करने के बाद भी उतर पड़तीं और इंसुलिन लेकर सिंगूर और नंदीग्राम पहुंच जाती थीं, लौटकर भले अस्पताल में ही भर्ती होना पड़े
ये गंभीर सवाल हैं जिनका जवाब महाश्वेता देवी अपने अगले उपन्यास ‘चोट्टि मुंडा और उसका तीर’ में देने की कोशिश करती हैं. इमरजेंसी में बेगार प्रथा समाप्त कर दी जाती है. लेकिन उसके लागू होने में पहले की तरह अड़चनें हैं. जो कांग्रेसी थे वही बाद में जनता दली बन जाते हैं और दमनकारी सामंतों और हाकिमों का गठजोड़ जस का तस रहता है. आखिर चोट्टि मुंडा जो स्वयं बेगार नहीं है लेकिन बिरसा के साथ लड़ने और घातक धनुर्धर होने के कारण पाबंदी झेल रहा है उसे तीर चलाना पड़ता है.
महाश्वेता देवी एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर आदिवासियों को वे सारे अधिकार दिलाने के लिए सक्रिय रहीं जो उन्हें मिलना चाहिए और जिसके लिए वे डेढ़ सौ साल से संघर्ष कर रहे हैं. उसके लिए वे कलम भी उठाती थीं और सड़क पर उतरती थीं. उनकी ताकत बड़ी थी तो उनकी पीड़ा भी छोटी नहीं थी. सारा जीवन किराये के मकान में रहना. पति विजन भट्टाचार्य का उन्हें त्याग कर अपर्णा सेन के साथ रहने चले जाना, असीत गुप्ता के साथ डेढ़ साल के लिए रहना, बेटे नवारुढ़ भट्टाचार्य से पहले मनमुटाव हो जाना और फिर उनके जीते जी नवारुढ़ का कैंसर से देहांत. यह सब अग्निपरीक्षा ही है किसी स्त्री के जीवन की. फिर भी अपने समय से खिड़की के पास रखे कुर्सी-मेज पर नियमित लिखने के लिए बैठ जाना. न कोई एसी और न ही कंप्यूटर. 14 जनवरी को जन्मदिन की बधाई देने के लिए फोन करो तो कहती थीं, ‘अरुण अब और कितने दिन हमें जिंदा रखना चाहते हो.’ भरपूर जीवन जीने का संतोष भी था तो गरीबों और मजलूमों को पूरा हक न मिलने का अधूरापन भी. वे एक महासमर में थीं, जिसमें उन्होंने लेखकों और कलमजीवियों को समाज के पक्ष में खड़े होने की प्रतिबद्धता दी और कौशल सिखाया. उन्होंने आदिवासियों और किसानों को लड़ाई लड़ना और जीतना भी सिखाया. उन्होंने युद्ध जीते और विजय दिवस भी मनाए. लेकिन उन्हें मालूम था कि वे महासमर में हैं इसलिए लड़ाई अभी जारी है. वे अपने पीछे लंबी लड़ाई छोड़ गई हैं जिसे इस सभ्य समाज को अपनों से लड़ना ही होगा.
आपने बीकॉम की पढ़ाई की है, पारिवारिक पृष्ठभूमि खेती-किसानी की है. फिर कैमरे से लगाव कैसे हो गया?
जब मैं रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ रहा था तभी से राजनीति और सामाजिक सरोकारों में मन रम गया था. रांची आया तो हमारे कुछ साथियों ने मिलकर पलामू छात्रसंघ का गठन किया. तब बिहार और झारखंड अलग-अलग नहीं थे. जब कॉलेज के हॉस्टल में रहता था तो मेघनाथ, महादेव टोप्पो, हेराल्ड टोपनो जैसे झारखंड के सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता अक्सर आते रहते थे. इनकी बातें अच्छी लगती थीं. पढ़ाई के दौरान ही मैंने 200 रुपये में एक कैमरा भी खरीद लिया था. यह हॉट शॉट कैमरा था. उसी वक्त झारखंड के फिल्मकार श्रीप्रकाश ‘किसकी रक्षा’ नाम से एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बना रहे थे. मैं उनके साथ डेढ़ माह तक रहा. अपने कैमरे से ब्लैक ऐंड व्हाइट तस्वीरें भी लेता रहा. बाद में लोगों ने देखा तो कहा कि शॉट अच्छा लेते हो, तस्वीरों की समझ है. पढ़ाई खत्म हुई तो सीधा मेघनाथ के पास चला गया और तब से हम साथ ही काम करते हैं. तब मुझे ज्यादा पता नहीं था लेकिन इतना समझ गया था कि कैमरा एक बहुत सशक्त माध्यम है और इसके जरिए बहुत कुछ किया जा सकता है.
फिर पहली डॉक्यूमेंट्री कब बनाई और यह किस विषय पर थी?
1996 में पहली डॉक्यूमेंट्री ‘शहीद जो अनजान रहे’ बनाई. साहेबगंज जिले में बांझी गांव है, वहां पूर्व सांसद फादर एंथोनी मुर्मू रहते थे. वे अपने इलाके में साहूकारों से लड़ रहे थे. उन्हें मार दिया गया. फादर जब शाम तक लौटकर नहीं आए तो लोग उन्हें ढूंढ़ने निकले. जो लोग उन्हें ढूंढ़ने गए, उन्हें भी एक-एक कर शासन के लोगों ने मार दिया. कुल 13 लोग मारे गए थे. तब यह बिहार का इलाका था. इतने लोग मारे गए लेकिन कहीं कोई चर्चा तक नहीं हुई. उसी पर हम दोनों ने पहली फिल्म बनाई.
फिर तो आप लगातार फिल्में बनाते ही गए. आपने करिअर के रूप में डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण को चुना. इनके निर्माण के लिए सरकारी फंड भी नहीं लेते. एक साधारण किसान परिवार से होने के नाते आर्थिक स्तर पर रोजमर्रा की मुश्किलों का कैसे सामना करते हैं?
मुश्किलों पर बात नहीं करनी चाहिए. जीवन में मुश्किलें न हों, संघर्ष न हो तो फिर जिंदगी कैसी. और फिर हम तो आदिवासी हैं. आदिवासी अपनी मुश्किलों का रोना कभी नहीं रोता. हां, किसान का बेटा हूं और मैं खुद किसान हूं. किसान के जीवन में जो परेशानी होती है, वह मेरे जीवन में भी रही है लेकिन कभी खेती करना नहीं छोड़ा. वह तो मेरा मूल पेशा है. एक बार अगर बरसात में खेती करने घर न जाऊं, खेतों में काम न करूं तो पिता जी का बुलावा आने लगता है. मेरे पिता हमेशा एक ही बात समझाते हैं कि सिनेमा बनाओ या कोई और काम करो. अपने समाज और समूह की बात करना और अपना मूल कर्म यानी खेती कभी नहीं छोड़ना. रही बात डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण को करिअर के तौर पर चुनने की तो इसे करिअर जैसा सोचकर नहीं चुना. बस मुझे कैमरा एक सशक्त माध्यम लगा तो उसका साथी हो गया.
गांव की बात चली है तो अपनी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताएं.
मैं मूल रूप से पलामू का रहने वाला हूं. पलामू प्रखंड के लातेहार जिले के एक गांव लुरगुमी का रहने वाला हूं. पिता जी किसान हैं. गांव में ही रहकर पढ़ाई की. सातवीं कक्षा में था तो एक स्कॉलरशिप के लिए चयन हो गया. फिर पास के ही बाजार महुआडांड़ में एक स्कूल में पढ़ने आ गया. वहां से मैट्रिक फिर सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची से बीकॉम और बीकॉम के आखिरी पेपर की जिस दिन परीक्षा हुई उस दिन से कैमरे के साथ हूं.
पिछले 20 साल के अपने फिल्म मेकिंग के करिअर में आपने आदिवासियों से संबंधित कई जरूरी सवाल उठाए लेकिन इस समाज के तमाम मसले आज भी दुनिया के सामने उस तरह से नहीं आ पा रहे हैं जैसा कि आने चाहिए.
करने वाले कर ही रहे हैं. ऐसा नहीं कि काम नहीं हो रहा है लेकिन इसके लिए आदिवासी समाज को भी जागरूक होना होगा. आदिवासी समाज के नव मध्य वर्ग के साथ दूसरी परेशानी है. वे भी दूसरे समुदाय के लोगों की तरह इंजीनियर, डॉक्टर जैसे अधिक पैसा कमाने वाले पेशों को चुन रहे हैं. यह अच्छी बात है लेकिन जो ठीक-ठाक घर से हैं, उनको अपने बच्चों को साहित्य, संस्कृति, मीडिया आदि में भी भेजना चाहिए या फिर भेजने को प्रेरित करना चाहिए. यही माध्यम है जो आदिवासी समाज को मजबूत बनाएगा. और ज्यादा नहीं, आठ-दस लोग भी हो जाएं तो देखिएगा कैसे स्थितियां बदल जाती हैं.
तो इसका मतलब आप मानते हैं कि आदिवासी समाज की बात दूसरे लोग नहीं कर रहे या जब आदिवासी ही करेगा तो ठीक से करेगा. आपकी क्या राय है?
नहीं, ऐसा नहीं है. दूसरे समाज के कई लोग भी हैं जो बहुत ईमानदारी से आदिवासियों की बात करते हैं और कर रहे हैं. मैं ऐसा नहीं मानता कि आदिवासी ही आदिवासी की बात करेगा. दलित ही दलित की बात करेगा लेकिन अगर इसी समाज के लोग आएंगे तो वे भोगे हुए यथार्थ के छोटे हिस्से को भी एक बड़े फलक के तौर पर लोगों के सामने ला सकते हैं. जैसे निर्देशक नागराज मंजुले का उदाहरण ले सकते हैं. उनकी फिल्म ‘सैराट’ कितनी चर्चा में है. मंजुले ने तीन ही फिल्में बनाई हैं. पहली ‘इस्तुलिया’, दूसरी ‘फंड्री’ और तीसरी ‘सैराट’. फंड्री का मतलब सुअर होता है. मंजुले को किसी ने फंड्री कहकर गाली दी तो उन्होंने फिल्म बनाकर जवाब दिया. अगर आदिवासी समाज से ऐसे लोग उभरेंगे तो सही तरीके से जवाब दिया जाएगा.
आपने कई फिल्में बनाई हैं. इनमें से कौन-सी आपके दिल के करीब है?
कैसे बताएं. सभी फिल्में तो अंतर्मन से ही बनाते हैं और सभी दिल और मन के करीब ही हैं, लेकिन ‘कोड़ा राजी’ डॉक्यूमेंट्री से हमेशा से एक अलग तरह का लगाव रहा है. 2001 की बात है. मैं अपनी पत्नी और दो साल के बेटे के साथ उत्तर-पूर्व की यात्रा पर गया था. उन राज्यों में अपने कुछ परिजन रहते हैं तो उनसे मिलने की भी योजना थी. साथ में कैमरा रख लिया था. मुझे उत्तर-पूर्व की कोई जानकारी नहीं थी. पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार स्टेशन पर उतरा तो एक साथी जो साथ गए थे, वे भी वहीं पर कुछ समय के लिए रुक गए. आगे असम के सुदूर इलाकों की यात्रा शुरू हुई. पत्नी के साथ बच्चा और पीठ पर कैमरा टांगे खाक छानते रहे. जिन परिजन के पास एक महीने पहले चिट्ठी भेजी थे, वहां चिट्ठी मेरे जाने के बाद पहुंची. यहां किसी तरह भूलते-भटकते असम के एक चाय बागान में काम करने वाले अपने परिजनों के पास पहुंच गए. यहां तकरीबन 22 चाय बागान बंद थे. मजदूरों की हालत दिल को दहला देने वाली थी. अधिकांश आदिवासी मजदूर थे. उनकी हालत कैमरे से शूट की. असम के डिगबोई में था तो वहां मालूम चला कि उसका नाम डिगबोई क्यों पड़ा. वहां मिट्टी खोदने के लिए जो आदिवासी बच्चे गए थे उन्हें अंग्रेज ‘डिग बॉय’ कहते थे. उसी से उसका नाम डिगबोई पड़ा. वहां चाय बागान में जब लोगों के गीत सुने तो लगा कि सारे गीत अपने गांव के हैं. कई गीतों में पलायन की पीड़ा है. फिर वहीं से उत्तर बंगाल के चाय बागानों का भी दौरा किया. असम से अपने इलाके में लौटा तो ऐसे मजदूरों को खोजने लगा जो दूसरे राज्यों से लाए जाते थे. लोहरदगा और हजारीबाग में ऐसे मजदूर मिल गए. इसके बाद पहली बार अपनी कुरुख भाषा में फिल्म बनाई, ‘कोड़ा राजी’. इस फिल्म को दुनिया भर में पसंद किया गया. अमेरिका के इमेज नेटिव में यह फिल्म गई. वहां कहा गया कि भारत से पहली बार किसी आदिवासी की बनाई हुई फिल्म आई है. नेशनल जियोग्राफिक चैनल ने इस फिल्म को लिया लेकिन वीएचएस फॉर्मेट में होने के कारण वह चल नहीं सकी. इस फिल्म को बहुत सारे सम्मान मिले.
आपने तो कुरुख भाषा में डॉक्यूमेंट्री ‘सोना गही पिंजरा’ भी बनाई है. उसके बारे में बताइए.
वह तो बस एक प्रयोग है. इस बात की तैयारी कि भविष्य में कोई फीचर फिल्म बना सकता हूं या नहीं. ‘सोना गही पिंजरा’ को अपने ही गांव में बनाया है. अपने गांव में देखता हूं कि नौकरी के चक्कर में लोगों को गांव छोड़ना पड़ा. पर्व-त्योहारों में उन्हें अपने घर आने की छटपटाहट रहती है लेकिन छुट्टी न मिल पाने के कारण वे नहीं आ पाते. तब मोबाइल एक सहारा बनता है. यह फिल्म इसी मुद्दे पर आधारित है.
डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की स्क्रीनिंग की भी कम बड़ी समस्या नहीं है. आपके गांववाले आपकी फिल्में देखते हैं कभी?
हां, स्क्रीनिंग की समस्या है लेकिन पहले जैसी बात नहीं रही अब. अब तो ढेरों विकल्प और माध्यम खुल गए हैं. आज के 20 साल पहले तक लगता था कि हम किसलिए, किसके लिए फिल्में बना रहे हैं. अब तो शो भी होते हैं. यू-ट्यूब जैसे बेहतर विकल्प हैं. अब अलग बात है कि अमेरिका की तरह यहां डॉक्यूमेंट्री फिल्में सिनेमा हॉल में नहीं लगतीं लेकिन धीरे-धीरे दायरे का विस्तार हो रहा है. मैं अभी केरल के त्रिशूर शहर में गया था. वहां मेरी हालिया फिल्म ‘द हंट’ को सम्मानित करने के लिए मुझे बुलाया गया था. केरल में कुछ लोग मिलकर दो दिन का डॉक्यूमेंट्री फिल्मोत्सव करवाते हैं. इसमें स्कूल-कॉलेज के छात्र भाग लेते हैं और उन पर चर्चा करते हैं. यह माहौल अपने यहां अभी नहीं है लेकिन प्रतिरोध का सिनेमा के तहत होने वाले गोरखपुर फिल्मोत्सव, बनारस फिल्मोत्सव, पटना फिल्मोत्सव के जरिए धीरे-धीरे माहौल बन रहा है. रही बात मेरे गांव में अपनी फिल्में दिखाने की तो मैं गांववालों को हमेशा अपनी फिल्में दिखाता हूं. अपना प्रोजेक्टर लेकर चला जाता हूं. गांव के लोग चंदा करते हैं. जेनरेटर और साउंड सिस्टम मंगवाते हैं और मेरी फिल्म देखते हैं. जब अपने गांव के ही लोग नहीं समझ पाएंगे कि मैं कुछ कर रहा हूं और जो कर रहा हूं वह अपने समूह के लिए सार्थक है तो फिर पूरी दुनिया में फिल्म दिखाते रहने का क्या मतलब.
राष्ट्रीय पुरस्कार बीजू और मेघनाथ की जोड़ी को उनकी दो फिल्मों के लिए साल 2010 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला
आपकी हालिया फिल्म ‘द हंट’ को कई सम्मान मिले हैं. इसके बारे में कुछ बताएं.
यह फिल्म माओवादियों को मारने के नाम पर सरकार द्वारा कुछ वर्ष पहले शुरू किए गए ऑपरेशन ग्रीन हंट पर आधारित है. इस ऑपरेशन का मकसद क्या था, यह बताने की कोशिश हमने इस फिल्म के माध्यम से की है. दरअसल इसका मकसद माओवादियों को खदेड़ना नहीं बल्कि उन इलाकों को खाली कराना था जहां लोग रह रहे हैं और जमीन के अंदर खनिज संपदा है. संपदाओं पर कब्जे के लिए माओवादियों का बहाना बनाया गया. सबसे बड़ी बात यह है कि माओवादियों के नाम पर आम आदमी किस तरह प्रताड़ित हुए यह देखेंगे तो आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे. झारखंड के सारंडा से लेकर छत्तीसगढ़ के बस्तर तक हजारों लोग अपने गांव नहीं लौट पा रहे. वे माओवादी नहीं हैं लेकिन अपनी जमीन से उखाड़े जा चुके हैं.
माओवादियों के बारे में क्या सोचते हैं?
मैं माओवादियों पर कई तरह की सोच रखता हूं. उनके बारे में अधिकांशतः यही कहा जाता है कि वे रास्ता भटक गए हैं. लेवी (एक तरह की रंगदारी) ही उनका मूल उद्देश्य है. आज तो कोई भी आठ-दस लोग मिलकर एक माओवादी संगठन बना ले रहे हैं. यह सही है, इससे इनकार नहीं लेकिन मैं पलामू इलाके का रहने वाला हूं. वह इलाका माओवादियों का गढ़ बाद में बना, पहले सामंतों का गढ़ था. मैंने देखा है बचपन में सामंतों का जुल्म. एक साधारण बस से यात्रा कीजिए तो सामंत के छोटे बच्चे पूरे रास्ते आम लोगों को भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए जाते थे, कोई कुछ नहीं बोलता था. और भी न जाने कितने तरीके के जुल्म करते थे. आज तो यह कह सकता हूं कि सबसे बड़े सामंती इलाके में आज अगर वे बैकफुट पर आए हुए दिखते हैं तो उसमें माओवादियों की ही भूमिका रही है. रही बात लेवी की तो चलिए मैंने मान लिया कि माओवादी लेवी लेते हैं लेकिन आप बताइए तो आपके गांव में एक तालाब तक बनता है तो क्या सौ प्रतिशत पैसा तालाब में लगता है? ऊपर से शुरू होता है और चपरासी तक का कमीशन बंधा हुआ है. सब कमीशन लेते हैं. वह भी तो सरकारी लेवी ही है. उस सरकारी आतंक का विरोध उसी तरह क्यों नहीं होता. क्यों नहीं उसी तरह से बात करते लोग उस लेवी पर? मैं और विभाग की बात क्या करूं? सिनेमा में हूं. मैंने कभी सरकारी फंड से सिनेमा तो नहीं बनाया लेकिन कई साथी आते हैं, तो बताते हैं कि सिनेमा के लिए जो पैसा मिलता है, उसमें 30 प्रतिशत कट मनी पहले ही रख लिया जाता है.
मराठी फिल्मों के निर्देशक नागराज मंजुले को किसी ने फंड्री कहकर गाली दी तो उन्होंने फिल्म बनाकर जवाब दिया. फंड्री का मतलब सुअर होता है
आप माओवादियों के पक्ष में बात कर रहे हैं. आपको भी लोग माओवादी कहते हैं.
सुनने में आया है कि फेसबुक पर कुछ लोग लिख रहे हैं कि बीजू तो माओवादी है. अरबपति है. मैं यह सब तनाव लेता ही नहीं. सोशल मीडिया की दुनिया से दूर रहता हूं. साल भर में एक से दो बार फेसबुक खोलकर देख लेता हूं. रही बात मुझे माओवादी कहने की तो आदिवासी हूं तो खुद को माओवादी कहे जाने को लेकर हमेशा ही तैयार रहता हूं कि यह आरोप लगेगा. आदिवासियों को तो कभी भी माओवादी कह दिया जाता है. एक घटना बताता हूं. मध्य प्रदेश में गुजरात की सीमा से सटा एक कस्बा है अलीराजपुर. वहां हर साल आदिवासियों का एक सम्मेलन होता है. वह सम्मेलन देखने की इच्छा थी. वर्षों पहले हम अपने एक साथी के साथ सम्मेलन देखने गए. सम्मेलन में भारी भीड़ थी. हम बस स्टैंड की ही एक दुकान पर अपना सामान रख गए थे. सम्मेलन में हंगामा हो गया. इसके बाद अलीराजपुर में बात फैलाई गई कि माओवादियों की सभा है. सम्मेलन के बाद बस स्टैंड की दुकान पर अपना सामान लेने लौटे तो हमें घेर लिया गया कि हम माओवादी हैं. हम अपनी बात कहते रहे लेकिन लोग माओवादी कहकर घेरते रहे. किसी तरह मामला शांत हुआ. तो कहने का मतलब यह कि आदिवासी हैं तो हम पर तो कभी भी माओवादी होने का ठप्पा लग सकता है. इसे लेकर मैं परेशान नहीं रहता.
मेघनाथ के साथ मिलकर आपने ‘गांव छोड़ब नाही’ जैसी म्यूजिकल सीरीज भी बनाई. आप दोनों के बीच कभी किसी बात को लेकर विवाद हुआ है?
विवाद तो कभी नहीं हुआ, क्योंकि विषय को लेकर जितना तर्क-वितर्क करना होता है वह कैमरा लेकर मैदान में उतरने से पहले ही हो जाता है. बाद में एडिटिंग टेबल पर दोनों के बीच रस्साकशी होती है. वह जरूरी भी है तभी बेहतरीन काम हो भी पा रहा है. रही बात ‘गांव छोड़ब नाही’ सीरीज की तो इसे केपी शशि ने निर्देशित किया है. मेघनाथ दा ने गीत लिखे हैं और कुछ लोगों से लिखवाए भी हैं. हम सबने उसमें अपनी भूमिका निभाई है. यह तो दुनिया भर के आंदोलनकारियों के लिए, विशेषकर अपनी जमीन से उखाड़े जा रहे लोगों के लिए सूत्रगीत बन चुका है.
फीचर फिल्म बनाने का इरादा है?
हां है न! क्यों नहीं है. बनाएंगे लेकिन वह अपनी बात होगी. अपने लोग उसमें नायक होंगे. सब कुछ अपना होगा.
समान नागरिक संहिता लागू किए जाने के बारे में आपकी क्या राय है?
हमारा संविधान अपने अनुच्छेद 44 के द्वारा राज्य के ऊपर यह जिम्मेदारी डालता है कि वह भारत के समस्त नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा. हम सब संविधान को मानते हैं और जो लोग लोकतंत्र में हिस्सा लेते हैं वे तो केवल चुनाव जीतने के बाद ही नहीं बल्कि चुनाव लड़ते समय भी संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने की शपथ लेते हैं. असल में सवाल यह होना चाहिए कि संविधान लागू होने से लेकर आज तक हमारी सरकारों ने इस दिशा में क्या कदम उठाए हैं.
वास्तविकता यह है कि समान नागरिक संहिता तो छोड़िए हमने तो क्रिमिनल संहिता को भी समान नहीं रहने दिया. शाह बानो केस में क्रिमिनल संहिता के सेक्शन 125 के तहत निर्णय हुआ था. हमने उसको भी संसद के एक कानून द्वारा निरस्त किया और इस तरह भारतीय महिलाओं के एक वर्ग को उस अधिकार से वंचित कर दिया जो उन्हें क्रिमिनल संहिता के द्वारा मिला हुआ था.
समान नागरिक संहिता का सबसे तीखा विरोध मुस्लिम समाज की ओर से होता है. क्या यह कानून वजूद में आने पर शरीयत या इस्लामी कानून से प्रभावित होंगे?
इसका जवाब तो तभी दिया जा सकता है जब विधेयक का प्रारूप हमारे सामने हो. आज दुनिया में मुस्लिम मुल्कों में यह कानून बदला जा चुका है. मिसाल के तौर पर, अप्रतिबंधित तीन तलाक का अधिकार भारत को छोड़कर कहीं भी मुस्लिम पुरुष को हासिल नहीं है. फिर मुसलमानों की एक बड़ी संख्या आज अमरीका और दूसरे पश्चिमी देशों में रहती है जहां पर्सनल लॉ जैसा कोई कानून नहीं है. इन सब तथ्यों को सामने रखकर राज्य इस मामले में पहल कर सकता है.
ज्यादातर जानकार मानते हैं कि सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून होना चाहिए और समान नागरिक संहिता धार्मिक स्वतंत्रता में बाधक नहीं है. फिर भी इस कानून को लेकर तमाम बहसें और पेचीदगियां हैं. अब तक की राजनीति ने इस विषय को किस तरह से हैंडल किया है?
पहली बात तो यह साफ होनी चाहिए कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार व्यक्तिगत अधिकार है सामुदायिक नहीं. और दूसरी बात यह है कि यह अधिकार लोक व्यवस्था, सदाचार, स्वास्थ्य तथा संविधान के अन्य उपबंधों से बाधित है. इसी प्रावधान के तहत तीसरी बात यह है कि धर्म की स्वतंत्रता राज्य को ऐसे कानून बनाने से नहीं रोकती जिसका उद्देश्य धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य लौकिक कार्यकलाप का विनियमन या निर्बंधन हो.
हां, एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि भारत की संस्कृति बहुलवाद की संस्कृति है. हम अनेकतावाद के मानने वाले हैं. अनेकता में एकता हमारा राजनीतिक नारा नहीं है बल्कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का शाश्वत सिद्धांत है.
समान नागरिक संहिता का उद्देश्य विविधता या अनेकता को समाप्त करना नहीं बल्कि सभी भारतीय महिलाओं को समान अधिकार और सम्मान दिलाना होना चाहिए. समान नागरिक संहिता यह तय नहीं करेगी कि कौन किस तरह विवाह संपन्न करता है, बल्कि यह कानून केवल एक बात सुनिश्चित करेगा कि विवाह से पैदा होने वाले अधिकार और कर्तव्य सभी भारतीयों के लिए समान होंगे.
समान नागरिक संहिता लागू करने में कोई तकनीकी मुश्किल नहीं है, बल्कि राजनीतिक मुश्किल है. इस मुद्दे का राजनीतिकरण हुआ है. संविधान सभा में इस पर बहुत बहस हुई थी. डॉ. आंबेडकर ने इसके बारे में बहुत विस्तार से इसके पक्ष में संविधान सभा में बोला था. बहुत बहस-मुबाहिसे के बाद इसे संविधान के नीति निदेशक तत्वों में रखा गया. यह पहले से ही संविधान के नीति निदेशक तत्वों में दिया हुआ है. संविधान राज्य को निर्देश देता है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए. लेकिन क्यों नहीं लाया जा सका है, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक-दो सवाल किए. यह अभी तक नहीं लाया जा सका है, इसके कारण राजनीतिक हैं, वोट बैंक पॉलिटिक्स है. जिन समुदायों के पर्सनल कानून हैं, वे समुदाय नाराज न हो जाएं, इसलिए इसे नहीं लाया जा रहा है.
विचार तो पिछले 70 साल से चल रहा है. विचार करने में कोई कठिनाई नहीं है. विचार, वाद-विवाद हो सकता है. देश भर में चर्चा भी शुरू की जा सकती है. लेकिन मेरा निजी विचार ये है कि कानून लागू करने के लिए राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए, वैधानिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए तो होना यह चाहिए कि इसकी मांग उस समुदाय के अंदर से उठनी चाहिए और इसको जेंडर जस्टिस के रूप में लिया जाना चाहिए. हिंदू-मुसलमान का सवाल नहीं है. और समान नागरिक संहिता का मतलब ये नहीं है कि किसी के ऊपर हिंदू कोड बिल लागू किया जा रहा है. समान नागरिक संहिता में यह भी हो सकता है कि मुस्लिम लॉ की जो भी अच्छी बातें हों, वे सब उसमें शामिल हों. क्रिश्चियन लॉ की अच्छी बातें हैं, वे भी शामिल हों. यूनीफॉर्म सिविल कोड क्या है, अभी तो कुछ पता ही नहीं है. अभी उसका कोई प्रारूप नहीं है. जब प्रारूप बनेगा तो हो सकता है कि उसमें किसी पर्सनल लॉ की बातें ज्यादा आएं, यह चांस की बात है.
सैद्धांतिक तौर पर यह है कि संविधान के समक्ष सब लोग समान होने चाहिए. जो संविधान की धारा 14 है, उसके मुताबिक कानून के समक्ष समता होनी चाहिए. पुरुष और महिला के अधिकार समान होने चाहिए. यूनीफॉर्म सिविल कोड ज्यादातर मामलों में तो पहले से है. सिविल कोड कॉमन है. पीनल कोड कॉमन है. तो यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू है, सिर्फ विवाह, तलाक, उत्तराधिकार-इनका झगड़ा है और ये तीनों मामले महिला अधिकारों से संबंधित हैं. इसलिए इस मामले को लैंगिक न्याय के मामले के रूप में उठाया जाना चाहिए और उसके लिए लड़ाई लड़ी जानी चाहिए. खासकर यह लड़ाई महिलाओं को लड़नी चाहिए. जिस समुदाय की महिलाओं को अधिकार प्राप्त नहीं हैं, उस समुदाय से यह मांग उठनी चाहिए.
वाद-विवाद से बचते हुए सही मसले पर बात होनी चाहिए. बिना किसी झगड़े के जिस बिंदु पर सहमति बने, वैसा किया जाना चाहिए.
(लेखक लोकसभा के पूर्व महासचिव एवं संविधान विशेषज्ञ हैं)
उत्तर प्रदेश में भाजपा के पराभव के क्या कारण रहे और इस बार अलग क्या है?
एक बार सरकार बनने के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा के पराभव का कारण कल्याण सिंह का पार्टी छोड़कर जाना था. इस कारण प्रदेश की पिछड़ी खासकर लोध जातियों ने पार्टी का साथ छोड़ दिया. वहीं अगड़ी जातियों पर इसका बुरा असर पड़ा क्योंकि कल्याण सिंह प्रदेश के सर्वमान्य नेता थे. उनके जाने के बाद भाजपा में ऐसा कोई चेहरा बचा नहीं. रामप्रकाश और राजनाथ सिंह ने अच्छा काम किया लेकिन वे पार्टी के लोगों को एकजुट नहीं कर पाए. कल्याण सिंह अलग पार्टी बनाकर कुछ खास तो नहीं कर पाए लेकिन उन्होंने भाजपा की हार को संभव बना दिया. इस बार यही बात नहीं है. पूरी पार्टी एकजुट है. सपा, बसपा का राज भी प्रदेश की जनता ने देख लिया है. अब लोगों को भाजपा का शासन याद आ रहा है. उस दौरान कानून-व्यवस्था के साथ-साथ प्रदेश का विकास भी हुआ था और कोई दंगा-फसाद भी नहीं हुआ. मायावती का जब शासन आया तो लूटखसोट बढ़ गई. जातियों के बीच वैमनस्य पैदा हुआ. प्रदेश का विकास रुक गया. इसके चलते सपा की सरकार आई लेकिन यहां भी वहीं हाल है. प्रदेश की कानून-व्यवस्था बदहाल है. गुंडागर्दी बढ़ गई है. विकास का हाल यह है कि केंद्र सरकार की योजनाओं को भी वे ढंग से लागू नहीं कर पा रहे हैं, जबकि केंद्र सरकार ने विद्युतीकरण से लेकर फसल बीमा तक की तमाम योजनाएं लागू की हैं.
केंद्र सरकार के दो सालों के कामकाज को आप कैसे देख रहे हैं?
इतने बड़े देश के लिए किसी भी सरकार के लिए दो साल का वक्त बहुत कम होता है. फिर भी केंद्र सरकार ने बहुत सारी योजनाएं शुरू की हैं. यह सूची बहुत लंबी है. सरकार बहुत ही बेहतर ढंग से काम कर रही है.
कांग्रेस के शासनकाल के दौरान भाजपा महंगाई को मुद्दा बनाती थी. अब भाजपा केंद्र की सत्ता में हैं पर दो साल बाद भी इसमें कमी नहीं आई है.
महंगाई में अगर कमी नहीं आई है तो यह बढ़ी भी नहीं है. समय-समय पर भले ही दाल की कीमतें बढ़ी हैं, इसके अलावा देश में इस तरह की कोई समस्या नहीं है. अब दाल विदेश से मंगाई जाती है तो इसकी कीमतें हमेशा से ही बढ़ती-घटती रही हैं. वैसे भी अगर गेहूं, सब्जियों या चीनी का दाम नहीं बढ़ेगा तो किसान भूखा नहीं मरने लगेगा? थोड़ी-सी महंगाई बढ़ने पर हम यहां शहरों में बैठकर हल्ला मचाने लगते हैं, लेकिन किसान मरने लगता है तो हमें कोई परेशानी नहीं होती है. खाद महंगी है तो गन्ना महंगा होना चाहिए. अगर किसानों को उनकी उपज का फायदा नहीं मिलेगा तो काम कैसे चलेगा? हमारी सरकार किसानों के हितों को लेकर काम कर रही है तो ऐसे में अगर महंगाई बढ़ रही है तो शहरों में बैठे लोग हल्ला मचाने लगते हैं. वैसे भी महंगाई बढ़ने के लिए राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं. दालों का भंडार केंद्र के पास भरा पड़ा है. अब राज्य सरकारें उठा नहीं रही हैं. दाल सस्ती करना राज्य सरकारों का काम है. अब इसमें केंद्र सरकार क्या करे.
भाजपा के लिए कश्मीर हमेशा से बड़ा मुद्दा रहा है. अब केंद्र और राज्य दोनों जगहों पर भाजपा की सरकार है. क्या इस मुद्दे पर पार्टी के रुख में बदलाव आया है?
नहीं, इस मसले पर भाजपा के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है. कश्मीर में जो हमारा सहयोगी दल है वह अच्छा काम कर रहा है. महबूबा मुफ्ती बेहतर काम कर रही हैं. उनके पिता जी ने भी अच्छा काम किया था. प्रदेश में पहली बार भाजपा सरकार में शामिल हुई है. मैं समझता हूं वहां कुल मिलाकर बढ़िया काम हो रहा है. सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ा है. विकास को नई दिशा मिली है. आतंकियों को पकड़कर जेल के अंदर डाला गया है. उनके साथ नरमी नहीं बरती गई है. अब जहां भाजपा के स्टैंड की बात है तो सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से पूछा है कि समान नागरिक कानून बनाने के लिए आप क्या कर रहे हो तो पूर्व कानून मंत्री सदानंद गौड़ा ने एक टीम बनाने का काम शुरू कर दिया है. लोगों को चिट्ठी-पत्री भी लिखी जा रही है और देश के अंदर इस तरह का एक कानून बनना भी चाहिए. देश में एक संविधान, एक राष्ट्र, एक प्रतीक और एक कानून होना चाहिए. अब ये न हो कि किसी को तीन-तीन शादियां करने की अनुमति हो. किसी के पांच-पांच बच्चे हों. एक विशेष बात, अगर इस पर रोक नहीं लगाई गई तो आने वाले समय में देश का विभाजन हो जाएगा. हमारे भारत की पहचान खत्म हो जाएगी. एकता-अखंडता की पहचान खत्म हो जाएगी. आज लोग भले ही इसको मजाक समझें लेकिन ऐसा जरूर होगा. ईरान हमारे देश से चला गया, अफगानिस्तान हमारे देश से चला गया. पाकिस्तान, बांग्लादेश हमसे अलग हो गए. ये देश हमसे शरीयत कानून के चलते अलग हुए और इसीलिए लोग सुधारों का विरोध करते हैं. तीन तलाक और तीन बीवियों की पैरवी करते हैं. अब ये लोग चाहे जितना निकाह और तलाक करें कोई फर्क नहीं पड़ता है. तीन, चार, पांच निकाह करते हैं. छह, सात, आठ बच्चे पैदा करते हैं. इसके चलते देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ती है. इस पर रोक के लिए कानून बनना चाहिए. शरीयत कानून या हिंदू कानून नहीं होना चाहिए. बल्कि देश के अंदर एक व्यावहारिक कानून बनाने की जरूरत है. इसके लिए समान नागरिक कानून बनना चाहिए ताकि देश की एकता-अखंडता सुरक्षित रहे. देश की जनसंख्या सीमित रहे. इसके लिए चीन की तरह कानून बनाने की जरूरत है. वहां शरीयत का नहीं, राष्ट्र का कानून चलता है.
क्या आपका यह कहना है कि अगर मुसलमानों की आबादी बढ़ जाएगी तो देश के विभाजित होने का खतरा है?
नहीं, हम ऐसा बिल्कुल भी नहीं कह रहे हैं. हम तो इतिहास बता रहे हैं. आखिर ईरान क्यों बाहर चला गया? वह तो शिया बहुल था. अफगानिस्तान क्यों अलग हो गया? बाबर को तो वहीं दफनाया गया था. पाकिस्तान तो देश के स्वतंत्र होने के एक दिन पहले ही हमसे चला गया. ये आबादी के कारण हमसे दूर गए. आबादी के चलते ही बंटवारा हुआ. आज एक हिंदू परिवार में एक-दो या ज्यादा से ज्यादा तीन बच्चे होते हैं, लेकिन मुसलमानों में तो तीन बेगम ही रखते हैं. कम से कम पंद्रह से बीस बच्चे होते हैं. ऐसे में कहां तीन बच्चे और कहां पंद्रह बच्चे. वो तो कहेंगे ही कि आबादी के हिसाब से देश का बंटवारा करो. ये किसी भी प्रकार से मान्य नहीं है. परिवार नियोजन देश में लागू होना चाहिए. सभी के ऊपर लागू होना चाहिए. शरीयत कानून देश के ऊपर नहीं है. देश के संविधान के ऊपर नहीं है.
केंद्र में सरकार बनने के बाद पाकिस्तान को लेकर भाजपा का रुख क्या है?
पाकिस्तान को लेकर भाजपा के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है, लेकिन पड़ोसी देश से हमारा संबंध बेहतर होना चाहिए. दुर्भाग्य से पाकिस्तान का जितना कड़ा रुख आतंकवादियों के खिलाफ होना चाहिए वो वहां दिखाई नहीं दे रहा है. इसी का दुष्परिणाम यह है कि आतंकी आए दिन सीमापार से घुसपैठ करते रहते हैं. पाकिस्तान को चाहिए अपनी सीमा का बंदोबस्त बेहतर करे लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. वहा मिलिट्री का शासन रहता है. पाकिस्तान का प्रधानमंत्री भी बाध्य हो जाता है. लेकिन इससे काम नहीं चलेगा. हमने तो खुली छूट दे दी है जो भी आतंकी आए उसे मारो. हमारे सैनिक बहुत ही अच्छा काम कर रहे हैं. ये काम चलता रहेगा.
विपक्ष में होने के दौरान पार्टी का कहना था कि जब तक आतंकी गतिविधि जारी रहेगी तब तक पाकिस्तान से कोई बातचीत नहीं होगी.
नहीं, हम बातचीत भी करेंगे और आतंकवादियों को भी मारेंगे. उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा.
आंबेडकर इन दिनों भाजपा और संघ के प्रिय हो गए हैं. क्या ऐसा चुनावी राजनीति के चलते हो रहा है?
आंबेडकर कट्टर हिंदूवादी रहे हैं. यह हम नहीं कह रहे हैं यह आंबेडकर ने स्वयं लिखा है. संपूर्ण वाङ्मय के 16वें खंड में उन्होंने इसके बारे में विस्तार से लिखा है. हिंदू समाज में उनका अपमान हो रहा था. इसे लेकर उन्होंने उस पर चोट की. वे हिंदू धर्म को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे. वे चाहते तो इस्लाम या ईसाई धर्म स्वीकार कर लेते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इस कारण से उनके विचार भाजपा की विचारधारा से मेल खाते हैं. आंबेडकर ने देश निर्माण में बहुत योगदान दिया है.
मोदी सरकार के दो सालों के दरमियान पार्टी से जुड़े नेताओं ने जमकर भड़काऊ बयान दिए हैं.
नहीं, इस दौरान ऐसा कुछ खास नहीं रहा है. साक्षी महाराज या योगी आदित्यनाथ ने सिर्फ सच बात बोली है, भड़काऊ बयान नहीं दिया है. विनय कटियार आजकल चुप बैठे हैं बोल नहीं रहे हैं. नहीं तो वह भी वही कहते जो इन लोगों ने कहा है.
लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि इन बयानों से देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है. डर का एक माहौल बना है.
कहीं भी सांप्रदायिक तनाव नहीं बढ़ा है. अब योगी आदित्यनाथ के बयान से कौन-सा सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया? अब हम जिस मां की पूजा करते हैं उसी को ये बूचड़खाने में ले जाकर काट देते हैं. उसका सेवन करते हैं तो स्वाभाविक है तनाव तो पैदा होगा ही.
हाल ही में आपने बयान दिया कि पाक उच्चायुक्त भारत विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हैं. क्या आधार है इसका?
देखिए, पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित जब से आए हैं वे भारत विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हैं. वे आतंकवादियों के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं. पाकिस्तान का एजेंट होना बुरा नहीं है, लेकिन अलगाववादियों और आतंकियों का एजेंट बन जाना बुरी बात है. अलगाववादियों को हर मौके पर दिल्ली बुलाना, उन्हें फंडिंग कराना गलत है. बासित को यहां रहने का हक नहीं है. इसके लिए मैं विदेश मंत्रालय को पत्र लिख रहा हूं. इसे लेकर कार्रवाई होनी चाहिए.
Photo : Tehelka Archives
राम मंदिर भाजपा के लिए मुद्दा रहा है. केंद्र में सरकार के दो साल होने पर भी इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है.
राम मंदिर भाजपा के लिए कभी चुनावी मुद्दा नहीं रहा है. राम मंदिर भाजपा के लिए आस्था का मुद्दा रहा है. देश में हमेशा कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं तो कम्युनिस्ट विचारधारा के कुछ लोग इसे चुनाव से जोड़ देते हैं. जब तक राम मंदिर नहीं बन जाएगा, हमारा संघर्ष जारी रहेगा. इसमें चुनाव कोई मुद्दा नहीं है.
अभी भाजपा सरकार में हैं तो वह कुछ प्रयास क्यों नहीं कर रही है?
देखिए, इसमें सरकार में होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है. अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है. हाई कोर्ट में हमारी जीत हो चुकी है. उसने यह मानते हुए कि अयोध्या में राम मंदिर था जमीन के तीन टुकड़े कर दिए हैं. दो हिंदू समाज को दिए और एक मुस्लिम समाज को दे दिया है. अब सुप्रीम कोर्ट में हमारी लड़ाई यही है कि यदि वह राम की जन्मभूमि है तो वहां विदेशी हमलावर बाबर क्या करेगा? विदेशी हमलावर का राम जन्मभूमि में स्मारक बने यह हमें कतई स्वीकार नहीं है. इसके लिए हमें जो भी लड़ाई लड़नी पड़ेगी हम लड़ेंगे.
मामले से जुड़े पक्षकारों का आरोप है कि संघ और विनय कटियार राजनीतिक फायदे के लिए इस मामले का हल नहीं निकलने दे रहे हैं?
हम इस मामले को कभी जिंदा नहीं रखना चाहते हैं. राम हमारे आराध्य हैं. वह चुनावी मुद्दा नहीं है.
हिंदूवादी नेताओं पर आरोप लगता है कि वे विकास के बजाय धर्म के नाम पर लोगों को बरगलाते हैं.
राम मंदिर आस्था का मामला है वह चलता रहेगा. लेकिन हमने कब कहा कि विकास को बंद कर दें. हम तो सबके विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं. उत्तर प्रदेश में सरकार थी तो विकास कार्य किया. केंद्र में सरकार है तो हम विकास कर रहे हैं.