आपकी किताब ‘हाशिमपुरा 22 मई’ को लेकर कई तरह के विवाद उठ खड़े हुए. पहली बार हाशिमपुरा हत्याकांड के संदर्भ में भारतीय सेना के आचरण पर भी उंगलियां उठाई गई हैं. आपने इस घटना को भारतीय राज्य की विफलता के रूप में देखा है. क्या इस निंदनीय घटना पर कुछ और प्रकाश डालेंगे?
मेरे मतानुसार, हाशिमपुरा भारतीय राज्य के सभी स्टेक होल्डरों की असफलता की गाथा है. तफ्तीश करने वाली एजेंसी सीआईडी ने सेना की भूमिका की पड़ताल ही गंभीरता से नहीं की. राजनीतिक नेतृत्व पूरी तरह से हाशिमपुरा हत्याकांड के निहितार्थ को समझने में असफल रहा. प्रेस ने भी शुरुआत में ही इस जघन्य घटना को दबाने का प्रयास किया. अदालतों में घिसट-घिसट कर चले इस मुकदमे का फैसला होने में पंद्रह वर्षों से अधिक का समय लग गया. इस तरह से आप देखें तो हाशिमपुरा को भारतीय राज्य ने कभी भी चुनौती के रूप में नहीं लिया. कभी भी यह महसूस नहीं किया गया कि राज्य की एक एजेंसी के द्वारा देश की राजधानी के बगल में 42 मुसलमानों को पकड़कर मार देने और दोषियों को दंड न मिलने से धर्म निरपेक्षता जैसे संवैधानिक मूल्यों के सामने बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा हो जाएगा. मेरा मानना है कि भारतीय राज्य ने कभी भी हाशिमपुरा के निहितार्थ को समझने का गंभीर प्रयास किया ही नहीं.
काफी समय से इस किताब का इंतजार किया जा रहा था. इसे लिखने और फिर प्रकाशित करवाने में किन दिक्कतों का सामना करना पड़ा?
इस किताब को लिखने और प्रकाशित करवाने में मुझे 20 वर्ष से अधिक लग गए. इसके पीछे कई कारण थे. व्यस्तता, आलस्य और लापरवाही से अधिक इस हत्याकांड से जुड़े सैकड़ों लोगों से मिलना, उनके इंटरव्यू लेना, हजारों की तादाद में फैले सरकारी दस्तावेजों तक पहुंचना, उनका अध्ययन कर उसमें से काम की चीजें छांटना और ऐसे ही बहुत-से काम थे जिन्हें करने में उम्मीद से अधिक समय लगा. फिर इसके प्रकाशक पेंगुइन ने अपना समय लिया. वे मूलतः अंग्रेजी के प्रकाशक हैं, इसलिए उनकी प्राथमिकता के अनुसार अंग्रेजी में अनुवाद तो आ गया पर मूल हिंदी किताब अभी तक प्रकाशित नहीं हो सकी है. आशा है कि इसका हिंदी संस्करण अगले महीने तक आ जाएगा.
किसी लेखक के निर्माण में उसका परिवेश कितना जिम्मेदार होता है?
साहित्य समाज सापेक्ष होता है. मेरा यह मानना है कि वह किसी शून्य से नहीं उपजता और न ही उसकी कोई समाज निरपेक्ष भूमिका होती है. लेखक अपने समय, परिवेश और परंपरा से जो कुछ ग्रहण करता है उसका लेखन उसी का रचनात्मक परिणाम होता है.
यह महसूस नहीं किया गया कि 42 मुस्लिमों को मार देने और दोषियों को दंड न मिलने से धर्म निरपेक्षता जैसे संवैधानिक मूल्यों पर सवाल खड़ा हो जाएगा
साहित्य के प्रति किस उम्र में लगाव पैदा हुआ?
बचपन से ही मेरी रुचि लिखने-पढ़ने की रही है. सौभाग्य से जिन छोटे शहरों में मेरा बचपन बीता उनमें दुर्लभ पुस्तकालय थे. मैंने विश्व का बहुत-सा क्लासिक साहित्य इन्हीं पुस्तकालयों की वजह से अपने बचपन में पढ़ा. मेरे छात्र जीवन के दौरान धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान और सारिका जैसी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाएं निकला करती थीं और बड़े प्रतिष्ठानों की होने के बावजूद ये काफी हद तक व्यावसायिक दबावों से मुक्त थीं. इनमें मुझे समकालीन प्रतिष्ठित हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठित रचनाओं के अतिरिक्त विश्व भर की महत्वपूर्ण कृतियों को पढ़ने का मौका मिला.
लेखन की शुरुआत किस तरह हुई?
पढ़ने के साथ लिखने की शुरुआत भी छात्र जीवन में ही हुई. स्वाभाविक था कि शुरू में मैंने कविताएं लिखीं और पहली कविता बनारस से छपने वाले अखबार आज में प्रकाशित हुई. धीरे-धीरे यह समझ में आया कि कविता को साधना मेरे वश का नहीं है और फिर मैंने गद्य की विधाओं में काम करना शुरू किया. शुरू में कहानियां और व्यंग्य लिखे जो उन दिनों की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं- शंकर्स वीकली, धर्मयुग, कादम्बिनी, दिनमान और कल्पना में प्रकाशित भी हुए.
आप किन लेखकों को पढ़ते हुए बड़े हुए या दूसरे शब्दों में कहें तो आपके व्यक्तित्व के निर्माण में किन लेखकों और किताबों की भूमिका है?
धीरे-धीरे मेरी दिलचस्पी कथा साहित्य में बढ़ती गई और मुख्य रूप से प्रेमचंद, रेणु, राही मासूम रजा, अमृतलाल नागर जैसे हिंदी के लेखक मेरे प्रिय रहे हैं. विदेशी लेखकों में मैंने टॉलस्टॉय, गोर्की, चेखव, तुर्गनेव, मोपासां, हेमिंग्वे और मार्खेज को खूब पढ़ा. इन सभी को पढ़ते हुए साहित्य की मेरी समझ विकसित हुई और मैंने संस्कार ग्रहण किए.
भारतीय राज्य को ले लें, न तो इसे आप क्लासिक अर्थों में फासिस्ट राज्य कह सकते हैं और न ही यह पूरी तरह से लोकतंत्र बन पाया है
आपकी उच्च शिक्षा इलाहाबाद से हुई है. उस समय का इलाहाबाद साहित्यिक दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध था. उस दौर की कौन-सी स्मृतियां अब भी जीवंत हैं?
1969 में एमए करने के लिए मैं इलाहाबाद आया. उस समय का इलाहाबाद हिंदी साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण गढ़ था. हिंदी कथा साहित्य के बड़े नाम भैरव प्रसाद गुप्त, उपेंद्रनाथ अश्क, इला चंद जोशी, नरेश मेहता, मार्कंडेय, दूधनाथ, अमरकांत, शेखर जोशी, रवींद्र कालिया, ममता कालिया, शैलेश मटियानी और सतीश जमाली सक्रियता के चरम पर थे. कविता के दो बड़े नाम महादेवी वर्मा और सुमित्रा नंदन पंत अभी भी शहर में थे. इन सबके अलावा सत्य प्रकाश मिश्र, विजय देवनारायण साही, विपिन अग्रवाल, लक्ष्मीकांत वर्मा, विश्वंभर मानव जैसे रचनाकार भी थे. हिंदी के अलावा उर्दू के भी बड़े नाम जैसे फिराक गोरखपुरी, प्रोफेसर एहतेशाम हुसैन, अकील रिजवी और शम्सुर्रहमान फारुकी भी थे. उन दिनों का इलाहाबाद एक बहुत ही जीवंत और धड़कता हुआ शहर था. हम लोग छात्रावास में रहते थे और परिवेश नाम से एक साहित्यिक संस्था चलाते थे. हमारी गोष्ठियां छात्रावासों में होती थीं और ऊपर बताए गए लेखकों में से शायद ही कोई होगा जो हमारे कार्यक्रमों में शरीक न हुआ हो. उन दिनों पूरा शहर जैसे साहित्य जीता था. दिन-रात कॉफी हाउस, चाय खानों तथा हॉस्टलों में साहित्यिक बहसें हुआ करतीं थीं. किसी पत्रिका का नया अंक आता या कहीं कोई महत्वपूर्ण कहानी या कविता पढ़ी जाती, शहर भर में उसी की चर्चा होती.
अाप छात्र जीवन में भी काफी सक्रिय रहे हैं. उसके बारे में कुछ बताइए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय को राजनीति की पाठशाला कहा जाता है. क्या यहीं से आपकी राजनीतिक चेतना का निर्माण हुआ?
मैं छात्र जीवन में कई तरह की गतिविधियों में लिप्त रहा. पिता ऐसी सरकारी नौकरी में थे जिसमें हर दूसरे-तीसरे वर्ष उनका स्थानांतरण होता रहता था. हाई स्कूल पास करने के बाद मुख्य रूप से बनारस और इलाहाबाद में पढ़ाई-लिखाई हुई. इंटरमीडिएट मैंने बनारस के यूपी कॉलेज से किया, जहां दो वर्षों में कम से कम दो सौ फिल्में देखीं. हर दूसरे दिन एक फिल्म का औसत. वहां से बीएचयू गया बीए करने. यह मेरे जीवन में समाज और राजनीति समझने का दौर बना. उस समय पूरे उत्तरी भारत में अंग्रेजी विरोधी आंदोलन चल रहे थे. समाजवादी युवजन सभा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और स्टूडेंट फेडरेशन का जमाना था. पहले मैं डॉ. लोहिया की तरफ आकर्षित हुआ. उनकी पुस्तक जाति प्रथा पढ़कर मैंने अपना जनेऊ जला दिया था. बीए में पढ़ते हुए ही मैं गोरख पांडेय के संपर्क में आया और उन्होंने मुझे समाज को वैज्ञानिक दृष्टि से समझने में मदद की. यद्यपि गोरख के साथ मैंने बहुत समय नहीं बिताया किंतु उनका असर जीवन भर मेरे ऊपर रहा. यह वह दौर था जब देश में एक तरफ तो गैर-कांग्रेसवाद की चुनावी बयार बह रही थी जिसमें एक के बाद एक राज्यों से कांग्रेस का सफाया होता जा रहा था और दूसरी तरफ नक्सलबाड़ी में सशस्त्र प्रतिरोध की शुरुआत हो चुकी थी जिसमें कम्युनिस्टों का एक धड़ा यह घोष कर रहा था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है. मेरे व्यक्तित्व और लेखन पर जो कुछ समय और समाज में घट रहा था सबका असर पड़ रहा था. एमए करने मैं इलाहाबाद चला आया. यह शहर बनारस के मुकाबले राजनीति से ज्यादा साहित्य में सक्रिय था और मैं जल्दी ही यहां रच-बस गया.
आज के समय में अभिव्यक्ति के खतरे लगातार बढ़ते जा रहे हैं. आपकी पीढ़ी ने तो आपातकाल को भी करीब से देखा है. इस दौर को हमारे इतिहास का काला अध्याय कहा जाता है. क्या आज का समय भी उसी तरह के किंतु अघोषित आपातकाल की ओर बढ़ रहा है?
हमारा समय बहुत दिलचस्प है. इसे परिभाषित करते समय मुझे डिकेंस के उपन्यास ‘अ टेल आफ टू सिटीज’ की शुरुआत याद आती है. डिकेंस अपने समय के लिए लिखता है- यह सबसे बेहतरीन और सबसे बदतरीन समय था, यह विवेक का युग था, यह मूर्खताओं का युग था, यह आस्था का दौर था, यह अविश्वास का दौर था. विरोधाभासों से भरे इस युग में डिकेंस के अनुसार लोगों के पास सब कुछ होते हुए भी कुछ भी नहीं था. हमारा समय भी इसी तरह के भयानक अंतर्विरोधों से भरा हुआ है. खास तौर से भारतीय राज्य को लें. न तो इसे आप क्लासिक अर्थों में फासिस्ट राज्य कह सकते हैं और न ही यह पूरी तरह से लोकतंत्र बन पाया है, लोकतंत्र बनाने की प्रक्रिया जरूर चल रही है. आजादी के फौरन बाद इस बात पर एक लंबी जद्दोजहद हुई थी कि नया स्वतंत्र हुआ देश धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बनेगा या पाकिस्तान की तर्ज पर हिंदू राज्य. प्रगतिशील तथा मध्यमार्गीय नेतृत्व के कारण यह तय हो गया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बनेगा. 26 जनवरी, 1950 को लागू हुए संविधान पर 1950 के पहले आम चुनावों ने अपनी मुहर भी लगा दी. पर जो शक्तियां देश को हिंदू राज्य बनाना चाहती थीं उन्होंने आसानी से हार नहीं मानी और वे लगातार इस प्रयास में लगे रहे कि धर्मनिरपेक्षता समाप्त कर भारत को हिंदू राज्य बनाया जाए. सौभाग्य से पिछले 50-60 वर्षों में भारत में ऐसी संस्थाएं मजबूत हुई हैं जिनके चलते अब किसी धर्म आधारित राज्य की कल्पना करना असंभव हो गया है. उदाहरण के लिए, इन दशकों में न्यायपालिका, मीडिया और गैर-सरकारी संस्थाओं के रूप में ऐसी शक्तियों के सामने जबरदस्त बाधा उत्पन्न हुई है जो धर्म पर आधारित राजनीति करने की कोशिश कर रहे हैं.
लोहिया की पुस्तक जाति प्रथा पढ़कर मैंने जनेऊ जला दिया. बाद में गोरख पांडेय के संपर्क में आया जिससे समाज को वैज्ञानिक दृष्टि से समझने में मदद मिली
अपने दौर के अधिकांश प्रतिष्ठित लेखकों से आपकी घनिष्ठता रही है. आप जहां भी रहे हैं वहां आपने लेखकों और संस्कृतिकर्मियों से लगातार निकटता रखी. फैज अहमद फैज जैसे नामचीन शायर की मेजबानी भी की है आपने. यह सिलसिला कब से शुरू हुआ?
मैं इस अर्थ में बहुत सामाजिक प्राणी हूं कि मुझे लोगों से मिलना-जुलना अच्छा लगता है. इस मामले में सिर्फ मैंने एक अघोषित पाबंदी अपने ऊपर लागू कर रखी थी कि मैं हमेशा शाम में अपने हमपेशा लोगों के साथ बिताने से बचता रहा हूं. मेरा यह मानना है कि नौकरशाही खास तौर से पुलिस तंत्र में आपके मनुष्य से पशु बनने की प्रक्रिया धीमे-धीमे चलती रहती है. आपको पता भी नहीं चलता कि कब आप मनुष्य से पशु में तब्दील हो गए हैं. इस प्रक्रिया को रोकने का एक ही उपाय है कि नौकरी के अलावा आप दूसरे क्षेत्रों में भी दिलचस्पी रखें. दिलचस्पी का यह क्षेत्र साहित्य, फोटोग्राफी, पर्यटन कुछ भी हो सकता है. मैंने साहित्य को चुना और मुझे खुशी है कि साहित्य ने मुझे कुछ हद तक ही सही मनुष्य बने रहने में मदद की.
अपने प्रिय लेखकों के बारे में बताएं.
हिंदी के लेखकों में मुझे सबसे अधिक प्रिय फणीश्वर नाथ रेणु और राही मासूम रजा हैं. विदेशी लेखकों में मोपासां, मैक्सिम गोर्की, चेखव, हेमिंग्वे और मार्खेज रहे हैं.
पुलिस सेवा में रहते हुए आपने उसकी भूमिका को प्रश्नांकित करने वाली ‘शहर में कर्फ्यू’ तथा ‘सांप्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस’ जैसी किताबें लिखीं. प्रशासनिक मशीनरी का हिस्सा होते हुए भी ऐसे लेखन का साहस कैसे कर पाए?
दरअसल मैं लगातार दोहरी जिंदगी जीता रहा. मैंने अक्सर यह देखा था कि हमारे बहुत सारे लेखक अफसर लेखकों के बीच में अफसर और अफसरों के बीच लेखक बन जाते थे. मैंने इससे बचने की कोशिश की. मेरे ज्यादातर पेशेवर सहकर्मी आम तौर पर यह नहीं जानते थे कि मेरा लिखने-पढ़ने से कोई संबंध है और न ही जब मैं लेखकों के बीच रहता था, मैंने उन्हें यह एहसास कराने की कोशिश की कि मैं एक पुलिस अफसर हूं. मुझे पता नहीं मैं कितना सफल रहा पर मैंने पूरी जिंदगी यही कोशिश की. मुझे हमेशा लगता था कि किसी डॉक्टर ने मुझे लिखने के लिए नहीं कहा है इसलिए अगर लिखूंगा तो जो कुछ देख या अनुभव कर रहा हूं वही लिखूंगा, नहीं तो नहीं लिखूंगा. मेरी एक दिलचस्पी भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्तों को समझने में भी थी और तंत्र का सदस्य बन जाने के कारण मुझे इसमें मदद ही मिली.
आप जहां भी सेवारत रहे वहां आपने हमेशा एक साहित्यिक-सांस्कृतिक माहौल बनाने की कोशिश की. पुलिस अधिकारी की व्यस्त दिनचर्या के बीच यह कैसे संभव हो पाया?
इसका जवाब मैं ऊपर दे चुका हूं. मैं जिन शहरों में भी तैनात रहा मैंने वहां के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों से भिन्न संबंध रखने का प्रयास किया. मैंने हमेशा यह कोशिश की कि किसी नए शहर में पहुंचने पर मैं वहां के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों से स्वयं जाकर उनके घरों पर पहले मिलूं. जैसा कि मैंने बताया मैं लगातार दोहरी जिंदगी जीता रहा. एक बार दफ्तर से घर आ जाने के बाद मैं भूल जाता था कि मैं पुलिस अधिकारी हूं, इसी तरह अपनी नौकरी में मैंने साहित्यकार होने का ग्रेसमार्क लेने का कभी प्रयास नहीं किया. यह अलग बात है कि पुलिस और साहित्य दोनों ने मुझे किसी न किसी रूप में मदद ही की.
मेरे ज्यादातर सहकर्मी यह नहीं जानते थे कि मेरा लिखने-पढ़ने से कोई संबंध है. ऐसे ही ज्यादातर लेखक नहीं जानते थे कि मैं पुलिस अफसर हूं
प्रशासनिक क्षेत्र से एक कुलपति के रूप में आप अकादमिक दुनिया में आए. पुलिस सेवा से बिल्कुल अलग विश्वविद्यालयी दुनिया में किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में मेरी नियुक्ति मेरे लिए भी अप्रत्याशित थी. दरअसल जब सुदीप बनर्जी ने यह प्रस्ताव मेरे सामने रखा मैं खुद हक्का-बक्का रह गया था. उस समय मंत्रालय एक ऐसा कुलपति तलाश रहा था जिसका हिंदी भाषा और साहित्य से तो संबंध हो ही उसे प्रशासनिक अनुभव भी हो. वे इस कसौटी पर मुझे खरा पा रहे थे. कुछ अन्य लोगों के साथ मेरा नाम भी प्रस्तावित किया गया और अंतत: राष्ट्रपति ने मेरे नाम पर मुहर लगा दी. मेरे लिए यह एक नई दुनिया थी और यद्यपि आईपीएस से रिटायर होने में अभी कई वर्ष बाकी थे मैंने इसे एक चुनौती की तरह स्वीकार किया. हिंदी संसार यह जानता था कि विश्वविद्यालय के पहले कुलपति पांच वर्षों तक दिल्ली में ही पड़े रहे और विश्वविद्यालय कागजों पर ही बना रहा. मेरे पूर्वाधिकारी जरूर विश्वविद्यालय वर्धा लेकर आए और उनके जमाने में विश्वविद्यालय के निर्माण की प्रक्रिया शुरू भी हुई पर जब मैं वर्धा पहुंचा सब कुछ आरंभिक अवस्था में ही था. मुझे 200 एकड़ भूमि मिली जो काफी हद तक उजाड़ थी. न सड़कें थीं, न स्ट्रीट लाइट, न सीवर, न प्रशासनिक भवन. कक्षाएं शहर भर में फैले किराये के असुविधाजनक भवनों में अतिथि शिक्षक लेते थे. मैंने इसे चुनौती के रूप में लिया और मुझे संतोष है कि जब मैं वहां से विदा हुआ यह एक हरे-भरे परिसर में तब्दील हो चुका था जिसमें पर्याप्त आवासीय, शैक्षणिक और प्रशासनिक भवन बन चुके थे और जिसमें बड़ी संख्या में देशी और विदेशी छात्र पठन-पाठन और शोध कार्य कर रहे थे. स्वाभाविक है कि यह सब कुछ बिना विघ्न-बाधाओं के नहीं हुआ. पिछले पेशे से भिन्न चुनौतियां आईं और मैं यही कह सकता हूं कि कुछ में मैं सफल हुआ और कुछ में अंत तक उलझा रहा. उन्हें लेकर मेरे मन में अब कोई कटुता नहीं है. जीवन उनसे बहुत आगे निकल गया है.
हाशिमपुरा नरसंहार 1987 में पीएसी के सामने समर्पण कर रहे हाशिमपुरा के निवासी.
हिंदी विश्वविद्यालय आपके सेवाकाल का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. एक तरह से आपके आने के बाद ही हिंदी समाज में इस विश्वविद्यालय को गंभीरता से लिया जाना शुरू हुआ. आप जिस विजन के साथ आए थे, उसमें खुद को कितना सफल मानते हैं?
यद्यपि अकादमिक दुनिया मेरे लिए सर्वथा ग्रीक और लैटिन की तरह थी किंतु हिंदी भाषा और साहित्य से अनुराग होने के कारण इसे लेकर कहीं न कहीं मेरे मन में कुछ सपने भी थे. मैं इसे सिर्फ एक प्रकाशन गृह या कहानी-कविता का विश्वविद्यालय नहीं बनने देना चाहता था. मेरे मन में एक सपना था कि उच्चतर ज्ञान के सभी अनुशासनों की शिक्षा हिंदी माध्यम से दी जाए और हिंदी विश्वविद्यालय इसके लिए आवश्यक पाठ्य सामग्री तैयार कराए.मेरा मानना है कि विश्वविद्यालयों का काम सिर्फ डिग्रियां बांटना नहीं है बल्कि उससे भी महत्वपूर्ण उनकी भूमिका ज्ञान का उत्पादन करने और उसे सर्व साधारण तक पहुंचाने की होनी चाहिए. न सिर्फ सामाजिक विज्ञान के क्षेत्रों में बल्कि मेडिसिन और इंजीनियरिंग जैसे विषयों की पढ़ाई हिंदी माध्यम से हो सके इसके लिए आवश्यक है कि विश्वविद्यालय इन अनुशासनों में मौलिक लेखन के साथ-साथ विदेशी भाषाओं में उपलब्ध बेहतरीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद भी कराए. मैंने इस विषय में कई योजनाएं बनाई थीं और उनमें से कुछ जैसे हिंदी में विश्वकोश, वर्धा शब्दकोश और डायस्पोरा अध्ययन पर पाठ्य सामग्री जैसी पुस्तकें प्रकाशित भी हुईं. मैंने www.hindisamay.com के नाम से विश्वविद्यालय की एक वेबसाइट बनवाई जिस पर एक लाख से अधिक पृष्ठों की सामग्री देशी-विदेशी पाठकों को पढ़ने के लिए उपलब्ध कराई गई थी. योजना थी कि हिंदी में जो कुछ महत्वपूर्ण छपा है, सब कुछ इस पर उपलब्ध हो सके. मैं बहुत-सा काम बीच में छोड़कर आया था जिसे मेरे उत्तराधिकारियों को आगे बढ़ाना चाहिए.
कुलपति के रूप में आपके कार्यकाल को लगातार विवादित करने के प्रयास हुए, जबकि विश्वविद्यालय से जुड़े हुए लोग इस बात को आज भी स्वीकार करते हैं कि आपने एक मृतप्राय टीले को ऊर्जावान विश्वविद्यालय में बदलने की भरपूर कोशिश की और उसमें काफी हद तक सफल भी रहे. क्या इन विवादों ने आपके रास्ते को अवरुद्ध किया या आप इनसे विचलित हुए?
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अपने जन्म से ही विवादों से घिरा रहा है. दुर्भाग्य से मेरा कार्यकाल भी उससे नहीं बच पाया. इनमें से कुछ मेरी अपरिपक्वता की उपज थे तो कुछ न्यस्त स्वार्थों ने उत्पन्न किए थे. बहरहाल अब जब मैं विश्वविद्यालय से चला आया हूं तो उन पर टिप्पणी कर मैं बदमजगी नहीं पैदा करना चाहता.
कश्मीर घाटी की मुख्यधारा के नेता, जिन्हें कई बार अलगाववादियों से अलग करने के लिए प्रो-इंडिया यानी भारत समर्थक नेताओं के नाम से जाना जाता है, उनके बीच मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अपनी एक अलग छवि बनाई है. उन्हें एक ऐसी नेता के तौर पर जाना जाता रहा है जो चुनावी प्रक्रिया में शामिल हाेकर भारत समर्थक भी हैं और आक्रामक रहकर अलगाववादियाें के करीब भी. लेकिन बीते 8 जुलाई को एक एनकाउंटर में हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद उठ खड़े हुए जनाक्रोश पर उनकी प्रतिक्रिया से उनकी यह छवि धूमिल हो रही है.
एक महीने से ज्यादा समय से जारी इस उपद्रव में अब तक 60 लोगों की जान जा चुकी है और 5000 से ज्यादा लोग घायल हो चुके हैं, जिनमें से कुछ की हालत गंभीर हैं. पेलेट गन की चपेट में आकर तकरीबन सौ लोगों की आंख की रोशनी या तो पूरी तरह जा चुकी है या एक आंख खराब हो गई है. वहीं लगभग 50 लोग गोली या पेलेट लगने से अपंग हो चुके हैं. इसके परिणामस्वरूप जनता में उपजी नफरत और गुस्से ने महबूबा मुफ्ती की मेहनत से बनाई गई अलगाववादियों के प्रति उस उदार, कश्मीर समर्थक राजनेता की छवि को तोड़ा है, जिसने कभी आतंकियों के मरने पर उनके घर जाकर शोक मनाया था.
गृहमंत्री राजनाथ सिंह के साथ उनकी हालिया प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक पत्रकार ने सवाल किया, ‘2010 में भी ऐसा ही सूरते-हाल था. तब आपका स्टैंड एकदम अलग था. लेकिन 2016 में जब आप सरकार में आईं, आपका स्टैंड पूरी तरह अलग है. ऐसा लग रहा है कि पहले जो उमर अब्दुल्ला बोल रहे थे, वही अब आप बोल रही हैं.’ इस पर महबूबा ने कहा, ‘यह आपका गलत विश्लेषण है. 2010 में जो हुआ उसका कारण था. माछिल में फर्जी एनकाउंटर हुआ था जिसमें तीन आम नागरिक मारे गए थे. उसके बाद शोपियां में बलात्कार और हत्या का आरोप लगा था. तब लोगों के गुस्से का कारण था. आज तीन आतंकवादी मारे गए, इसमें सरकार का क्या कसूर था? लोग सड़कों पर आए तो सरकार ने कर्फ्यू लगाया. बच्चा क्या आर्मी कैंप टॉफी लेने गया? 15 साल का लड़का जिसने पुलिस स्टेशन पर हमला किया, क्या वह दूध लेने गया? आप दो चीजों को एक में मत मिलाइए…95 प्रतिशत लोग शांति से कश्मीर मसले का हल चाहते हैं. कुछ लोग ऐसा नहीं चाहते. उनके साथ कानून निपटेगा.’ महबूबा पिछली सरकार की ऐसी अपीलों और बयानों का मजाक उड़ाती थीं. उनका यह बयान सुनकर महबूबा को सराहने वाले और उनके आलोचक दोनों अवाक रह गए. जब तक वे विपक्ष में थीं, उनका रुख इसके ठीक उलट होता था.
जनता में उपजी नफरत और गुस्से ने महबूबा की मेहनत से बनाई गई उस छवि को तोड़ा जिसमें वे अलगाववादियों के प्रति उदार और ऐसी कश्मीर समर्थक नेता नजर आती थीं, जिसने कभी आतंकियों के मरने पर उनके घर जाकर शोक मनाया था
अब तक महबूबा की छवि अलगाववादियों से हमदर्दी रखने की रही है. बुरहान वानी के एनकाउंटर के बाद जारी हिंसा के 48वें दिन की प्रेस कॉन्फ्रेंस में उनका तेवर उनके समर्थकों की उम्मीद से ज्यादा सख्त था. उन्होंने हिंसा फैलाने वालों पर कार्रवाई को जायज ठहराते हुए कहा कि ‘इस तरह पथराव और सेना के कैंप पर हमला करने से मसला हल नहीं होगा.’ पत्रकारों के सवालों पर वे बार-बार भड़कती रहीं, गृहमंत्री राजनाथ सिंह उन्हें बार-बार शांत कराने की कोशिश करते रहे. अब कश्मीरी मीडिया उनसे सवाल कर रहा है कि कश्मीर घाटी में बल प्रयोग को लेकर उनका जो स्टैंड रहता आया है उसे उन्होंने अचानक क्यों बदल लिया. महबूबा का कहना था, ‘पांच प्रतिशत लोग हमारे बच्चों को ढाल बनाते हैं. उन्हें अंधा बनाना चाहते हैं, मारना चाहते हैं. ये बात आपको समझ नहीं आती… ये जो बच्चे हैं मैंने इनको चाकू की नोंक के नीचे से निकाला है. तब ये टास्क फोर्स की जिप्सी देखकर भागते थे. इनको वहां बेगार के लिए ले जाते थे. घास काटने के लिए ले जाते थे साउथ कश्मीर के बच्चों को. आज इन्हें कुछ लोगों ने हिंसा में डाल दिया है अपने नाजायज मकसद के लिए.’
लगातार अपने चौथे संबोधन में महबूबा ने अपना वही स्टैंड दोहराया, ‘छात्रों को कॉलेज, यूनिवर्सिटी और आईआईटी में होना चाहिए. तालीम से ही राज्य के युवाओं का भला होगा. बच्चों को पत्थर फेंककर नहीं, बल्कि स्कूल और कॉलेज में रहकर अपना करियर शुरू करना चाहिए.’
अपने करियर में कभी भी कोई मंत्री पद भी न संभालने वाली महबूबा कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं तो उनके सामने तमाम चुनौतियां आ खड़ी हुईं. एक संवेदनशील राज्य में मौजूद तमाम समस्याओं के साथ कुछ तो महबूबा ने खुद ही खड़ी कर ली हैं. बीजेपी-पीडीपी गठबंधन पर भी उन्हें बार-बार सफाई देनी पड़ रही है. विधानसभा सत्र के दौरान गठबंधन पर सवाल उठाने वालों के लिए उन्होंने कहा, ‘जनता के हित के लिए मैं एक बार नहीं, बल्कि 100 बार बीजेपी से गठबंधन करूंगी. मैंने ये फैसला अपने घर के लिए नहीं लिया. और न ही मुझे इस पर सफाई देने की कुछ जरूरत है.’ कभी अलगाववादियों से खुले तौर पर सहानुभूति रखने वाली महबूबा को अब यह भी कहना पड़ रहा है, ‘कुछ लोग कह रहे हैं कि मैंने अलगाववादियों को जेल में बंद करा दिया. उन सब लोगों से मैं कहना चाहती हूं कि हम अपना टूरिज्म सीजन बर्बाद नहीं करना चाहते हैं.’
उनके हालिया भाषणों और अपीलों से साफ है कि कश्मीर मसले पर उनके पास भी वही समाधान है जो केंद्र सरकार या फिर उनके पहले की राज्य सरकार कहती आई है. हिंसा छोड़कर सभी पक्षों का मिलकर बातचीत करना ही उन्हें भी अंतिम रास्ता सूझ रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि विपक्ष में रहते हुए मारे गए आतंकवादियों और अलगाववादी नेताओं के पक्ष में खड़े होकर महबूबा क्या हासिल करना चाहती थीं? अब उन पर सत्ता के लिए अपना स्टैंड बदलने के आरोप लग रहे हैं. जानकार मानते हैं कि उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद की मौत के बाद उनकी पार्टी पीडीपी कमजोर पड़ी है. उनके नए रुख से उनकी सरकार के दो बड़े मंत्री नईम अख्तर और हसीब द्राबू के असहमत होने की भी खबरें हैं. बताते हैं कि भाजपा के साथ गठबंधन करने पर भी उनके समर्थक उनसे नाराज हुए हैं क्योंकि अब तक की उनकी राजनीति भाजपा के वैचारिक विरोधी के रूप में रही है.
उपद्रव में अब तक 60 लोगों की जान जा चुकी है, 5000 से ज्यादा लोग घायल हो चुके हैं, जिनमें से कुछ की हालत गंभीर है, तकरीबन सौ लोगों की दृष्टि आधी या पूरी तरह से जा चुकी है, वहीं लगभग 50 लोग गोली या पेलेट लगने से अपंग हो चुके हैं
हालांकि अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उमर अब्दुल्ला की तरह महबूबा भी एक समृद्ध राजनीतिक पृष्ठभूमि से आती हैं- वे कांग्रेस के निष्ठावान समर्थक, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी हैं पर उनका सत्ता तक आने का यह सफर आसान नहीं रहा. उन्होंने अपनी राह खुद बनाई है. उन्होंने अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत 1996 में की थी और कांग्रेस के टिकट पर अनंतनाग के बिजबिहाड़ा से विधानसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. फिर 1999 में घाटी में भ्रष्टाचार और मानवाधिकार हनन के आरोपों से जूझ रही नेशनल कॉन्फ्रेंस के दशकों पुराने वर्चस्व को तोड़ने के लिए उन्होंने अपने पिता के साथ मिलकर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) बनाई.
यह वही समय था जब अलगाववादियों की घाटी में व्यापक पकड़ हो चुकी थी. उस समय अविभाजित हुर्रियत ही घाटी की खबरें तय करती थी, वही वहां का राजनीतिक एजेंडा तय करती थी. दिल्ली से लेकर दुनिया भर के राजनयिक घाटी की समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने के लिए हुर्रियत नेताओं के पास ही पहुंचते थे. तब फारुख अब्दुल्ला की सरकार ने अपना राजनीतिक रुख इसके बिल्कुल उलट रखा था. हालांकि जून 2000 में उनकी सरकार ने विधानसभा में जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता को लेकर एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया था. अब्दुल्ला अक्सर भारतीयता का आह्वान करते थे आैैर कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा बताते हुए पाकिस्तान के आतंकियों को समर्थन देने के बदले सख्त कार्रवाई का दबाव बनाते थे. इस बात ने उन्हें और उनकी पार्टी को जमीनी तौर पर घाटी की जन-भावनाओं से अलग खड़ा किया और जनता व सत्ता के बीच की खाई को गहरा कर दिया. यहीं से महबूबा और उनके पिता ने अपनी पार्टी के लिए समर्थन जुटाकर घाटी में अपने लिए एक जगह बनाई. जहां मुफ्ती घर से ही रणनीति तय करते थे, वहीं महबूबा घाटी की खतरे से भरी राहों पर निकलती थीं.
पीडीपी ने अपने भारत के प्रति समर्थन को जाहिर रखा लेकिन अलगाववादियों से बातचीत और कश्मीर को लेकर पाकिस्तानी रवैये के प्रति भी उदारता बरती. कुछ ही समय में पार्टी ने कश्मीर पर एक विस्तृत सेटलमेंट प्रस्ताव बनाया और पूरे गर्व के साथ इसे ‘सेल्फ रूल’ का नाम दिया. नेशनल कॉन्फ्रेंस के स्वायत्तता प्रस्ताव के विपरीत इसमें कश्मीर रेजोल्यूशन के आंतरिक और बाहरी पहलुओं को मिलाते हुए पाकिस्तान की भागीदारी की वकालत की गई है. इसके साथ ही इस प्रस्ताव में जम्मू कश्मीर और केंद्र के रिश्तों के पुनर्गठन, दोहरी मुद्रा, राज्य में लगे केंद्रीय नियमों को हटाने और एक राज्यपाल होने की बात भी कही गई थी. साथ ही यह भी कहा गया कि राज्यपाल और मुख्यमंत्री पद को बदलकर क्रमशःसदर-ए-रियासत और वजीर-ए-आजम किया जाए.
महबूबा के सत्ता में आने के बाद घाटी की राजनीति के कई स्थापित नियम बदल गए. 1989 में अलगाववादियों के विद्रोह के बाद मुख्यधारा के राजनीतिज्ञ जनता से एक उचित दूरी बनाए रखने के सिद्धांत को मानते आए थे पर महबूबा ने उसे मानने से मना कर दिया. वे जमीन पर उतरीं, उन्होंने रैलियां निकालीं, विरोध प्रदर्शन किए. उन्होंने आतंकियों की मौत पर शोक भी मनाया, जिसके लिए वे कई बार उन आतंकियों के परिवारों से मिलने खतरनाक इलाकों में भी गईं. इसी क्रम में वे एक बार हिजबुल मुजाहिदीन के ऑपरेशन प्रमुख आमिर खान के परिवार से भी मिली थीं, जब आमिर के किशोर बेटे अब्दुल हमीद को सुरक्षाबलों की कस्टडी में कथित तौर पर मार दिया गया था.
‘किसी भी कश्मीरी नेता के लिए उपद्रव का समय सबसे बड़ा इम्तिहान होता है. जैसे 2010 में 120 से ज्यादा मौतें होने के बावजूद उमर एक दर्शक से ज्यादा कोई भूमिका नहीं निभा पाए थे, वैसा ही महबूबा भी कर रही हैं’
महबूबा इन शोक सभाओं में ऐसे रोती थीं कि उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उन्हें ‘रुदाली’ की उपाधि से नवाजने लगे थे. वे भावपूर्ण प्रदर्शन आयोजित करतीं, जहां अपने जोशीले भाषणों में वे कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन और दुरुपयोग पर सरकार और केंद्र पर जमकर बरसतीं. कुछ दिनों पहले वर्तमान परिस्थितियों में उनके बदले हुए रवैये को चिह्नित करने के उद्देश्य से, 2013 में अफजल गुरु की फांसी के समय दिए गए उनके ऐसे ही भाषण के वीडियो का एक अंश फेसबुक पर अपलोड किया गया था. यह खूब शेयर किया गया. वीडियो में अफजल गुरु के अवशेष उनके परिवार को न देने की बात पर महबूबा भावुक होकर कहती हैं, ‘आज गांधी का हिंदुस्तान कश्मीरियों को उनके घुटनों पर ले आया है. आपको किस बात का इतना घमंड है? बताइए, किस बात पर आपको इतना गुरूर है?’ तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की ओर इशारा करते हुए वे गरजती हुई कहती हैं, ‘और कश्मीरियों को इस हाल में ले आने के लिए आप भी जिम्मेदार हैं. पर आप कहते हैं कि आपके हाथ में कुछ नहीं है, आप बेबस हैं.’
महबूबा के रास्ते में खलल तब पड़ने लगा जब 2002-05 तक के दौर में उनके पिता कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार बनाकर रोटेशनल व्यवस्था में मुख्यमंत्री बने. तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के सहयोग से मुफ्ती मोहम्मद सईद ने न केवल सुरक्षा के मसले पर ढील देते हुए स्थानीय स्तर पर बड़े प्रशासनिक बदलाव किए बल्कि उस समय भारत-पाकिस्तान के बीच शांति प्रकिया बहाल करने के लिए पहले अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ, फिर मनमोहन सिंह और परवेज मुशर्रफ के बीच कश्मीर मसले का समाधान निकालने की कोशिश भी की.
भारत-पाकिस्तान के बीच पनपी इस गर्माहट ने महबूबा की अगुआई में पीडीपी के अलगाववादियों के प्रति उदार रवैये को साफ कर दिया. अप्रैल 2006 में श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस सेवा की पहली सालगिरह पर महबूबा ने हरा रुमाल दिखाकर जनता का अभिवादन किया था, जो जल्द ही एक विवाद में बदल गया. कश्मीर में स्थानीय तौर पर हरे रंग को पाकिस्तान से जोड़कर देखा जाता है. फिर भी किसी तरह महबूबा अपनी इस नाटकीयता और अतिरेकपूर्ण बयानबाजियों के बाद भी विश्वसनीय लगती रहीं. उनकी राजनीति भावनाओं और घाटी के लोगों की अलगाववादियों के प्रति उदारता बरतने की अपील का मिश्रण है. वे ऐसा इसलिए भी कर पाईं कि इस साल अप्रैल से पहले वे कभी भी प्रशासन के लिए जिम्मेदार नहीं थीं. यहां तक कि जब उनकी पार्टी सत्ता में थी, वे अपने मुख्यमंत्री पिता से दूरी बनाकर रखती थीं, साथ ही पार्टी अध्यक्ष के बतौर अगर कुछ गलत होता, तब अपनी पार्टी की विचारधारा की रखवाली करते हुए सरकार के कामकाज की आलोचना भी करती थीं.
पिछली जनवरी में अपने पिता के असमय निधन के तीन महीने बाद अपने वैचारिक विरोधी भाजपा के साथ गठबंधन के लिए राजी होने तक उनकी यह छवि बनी हुई थी. जब से वे अपनी मांगें न मानने पर भी भाजपा के साथ गठबंधन के लिए सहमत हुईं, उनसे जुड़े मिथक टूटने लगे. और वर्तमान संकट से उनकी सरकार का न निपट पाना शायद उसी का नतीजा है. इस समय घाटी के हालात को नियंत्रित न कर पाना दिखाता है कि वे अपने समकक्ष नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला से अलग नहीं हैं, अलबत्ता यह भी कह सकते हैं कि कई जगह महबूबा उनसे कम प्रभावी भी हैं.
पिता के जनाजे पर महबूबा (फोटो साभार : कश्मीर होराइजन)
महबूबा की यह छवि इस साल जनवरी में अपने वैचारिक विरोधी भाजपा के साथ गठबंधन के लिए राजी होने तक बनी रही. जब से वे उनकी मांगें न मानने पर भी भाजपा के साथ गठबंधन के लिए सहमत हुईं, उनसे जुड़े मिथक टूटने लगे
बुरहान वानी के एनकाउंटर के अगले तीन दिन जब स्थानीय जनता में सबसे ज्यादा आक्रोश था, सबसे ज्यादा मौतें हुईं, पेलेट गन से सबसे ज्यादा लोग घायल हुए, तब महबूबा गायब थीं. उनके प्रवक्ता वही पुराना राग अलाप रहे थे कि प्रदर्शनकारियों की हिंसा के सामने सुरक्षा बलों के पास फायरिंग के अलावा कोई रास्ता ही नहीं था. इसके कुछ दिन बाद जब महबूबा ने अपना पक्ष रखते हुए एक वीडियो जारी किया, उसमें भी यही कहा गया था. लोगों की मौतों पर दुख जताते हुए महबूबा ने कहा, ‘मैं अभिभावकों से उनके बच्चों को रोकने की अपील करती हूं.’ ‘बाहर से आने वाले तत्वों’ को घाटी में सुरक्षा बलों पर हुए हमलों का जिम्मेदार बताते हुए वे बोलीं, ‘ये लोग यह अच्छी तरह जानते हैं कि अगर वे ऐसा (हमला) करेंगे तो दूसरी तरफ से जो प्रतिक्रिया आएगी उससे आम जनता को नुकसान पहुंचेगा.’
लेकिन जो नेता खुद ऐसी बातों पर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों का मजाक उड़ा चुका हो उसकी यह प्रतिक्रिया लोगों को कायराना और बेईमानी भरी लगी. 2010 में लगातार हो रही मौतों के बावजूद सत्ता के लिए अपनी कुर्सी न छोड़ने पर महबूबा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को आड़े हाथों लेते हुए उनके इस्तीफे की मांग की थी. और आज वे खुद भी वही कर रही हैं, जबकि उमर के कार्यकाल में दो महीने में हुई मौतों से ज्यादा जानें अभी महबूबा के कार्यकाल में महज एक हफ्ते में जा चुकी हैं. साथ ही सैकड़ों लोगों ने आंखों की रोशनी भी खोई है.
एक स्थानीय अखबार के संपादकीय के अनुसार यह कश्मीर में फिर एक मुख्यधारा के होनहार, उम्मीद बंधाने वाले नेता के सत्ता में आने पर बाकियों जैसा निकलना है. एक स्थानीय स्तंभकार नसीर अहमद कहते हैं, ‘किसी भी कश्मीरी नेता के लिए उपद्रव का समय सबसे बड़ा इम्तिहान होता है. और उमर अब्दुल्ला की तरह महबूबा भी इसमें नाकामयाब होंगी. जैसे 2010 में 120 से ज्यादा मौतें होने के बावजूद उमर एक दर्शक से ज्यादा कोई भूमिका नहीं निभा पाए थे, वैसा ही महबूबा भी कर रही हैं. जब तक महबूबा इन मौतों पर कोई हमदर्दी नही दिखातीं, इनका सही कारण स्पष्ट नहीं करतीं, ये मौतें और जनता के मन में बैठी इनकी यादें महबूबा को हमेशा परेशान करेंगी, बिल्कुल वैसे ही जैसे उमर अब्दुल्ला के साथ हुआ है.’
22 मई, 1959 को जन्मी महबूबा को राजनीति पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद से विरासत में मिली.
कश्मीर विश्वविद्यालय से वकालत की पढ़ाई की है.
1980 में पिता के कहने पर राजनीति में सक्रिय हुईं.
1996 में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर बिजबिहाड़ा से पहली बार चुनाव जीतीं.
1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार बने अपने पिता की जीत में एक अहम भूमिका निभाई.
1999 में कांग्रेस से असहमतियों के चलते अलग होकर नई पार्टी का गठन किया और खुद पार्टी की उपाध्यक्ष बनीं.
1999 में श्रीनगर सीट पर नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला से चुनाव हारीं.
2002 में पहलगाम विधानसभा सीट से जीत हासिल की.
2004 में पहली बार सांसद बनीं.
2014 में अनंतनाग सीट से लोकसभा चुनाव जीता.
पिता की मौत के बाद अप्रैल 2016 में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री का पद संभाला.
वे देश की दूसरी मुस्लिम महिला मुख्यमंत्री हैं. इसके पहले सईदा अनवरा तैमूर असम की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं.
मुख्यमंत्री पद के साथ पीडीपी के अध्यक्ष पद की भी जिम्मेदारी संभाली.
महबूबा की छवि अलगाववादियों की समर्थक और एक जुझारू नेता की रही है.[/symple_box]
ऐसा कहा जा रहा है कि उमर से ज्यादा खामियाजा महबूबा को उठाना होगा क्योंकि 2008 में जब उमर मुख्यमंत्री बने थे तब उनकी पहचान फारुख अब्दुल्ला के बेटे के रूप में ही थी, उनका मुद्दों को नए नजरिये से देखना, नए विचारों को कार्यरूप में लाने की बात करना भी उनके व्यक्तित्व का हिस्सा माना जाता था पर उनके कार्यकाल में हुए लगातार दो उपद्रवों के बाद वह पहचान जाती रही. वहीं महबूबा ने घाटी की सड़कों पर घूम-घूमकर, एक-एक ईंट चुनकर अपना रास्ता बनाया है. उनकी पहचान एक ऐसे नेता की रही जो मुख्यधारा की राजनीति में अपेक्षाकृत ज्यादा भरोसेमंद है और जो भारतीय संविधान के दायरे में रहते हुए कश्मीरी राष्ट्रवाद पर समझौते कर सकता है. पर सत्ता में आने पर महबूबा ने उमर की तुलना में खुद को बहुत पहले ही मुश्किल में डाल लिया. कार्यकाल के पहले ही तीन महीनों में उन्होंने खुद को वैचारिक और राजनीतिक रूप से केंद्र सरकार के ज्यादा करीब कर लिया, जिसकी कश्मीर की राजनीति में सख्त मनाही रहती है. और फिर, अब कश्मीर में विरोध प्रदर्शन के इतिहास में विरोध प्रदर्शनों से सुरक्षा बल के सबसे सख्त ढंग से निपटने के दौरान वे सत्ता की प्रमुख हैं और इस मामले को चालाकी से टाल रही हैं. नसीर कहते हैं, ‘इस बात ने यहां की जनता को इस दर्द भरे सच से रूबरू करवाया है कि एक और नेता और उसकी पार्टी ने वैसी ही लापरवाही दिखाई है जिसके कारण उनमें और पिछली सरकार में फर्क करना मुश्किल हो गया है.’
अपने पिछले कार्यकाल में पीडीपी केवल नाम भर की सरकार होने के तमगे से बचती थी. उनकी राजनीति बेखौफ, अप्रत्याशित और समझदारी भरी थी, जिसने घाटी की डरपोक, गैर-जुझारू राजनीति के बीच अपनी जगह बनाई थी. कुछ लोगों का मानना है कि घाटी की राजनीति के केंद्र में उन्हें प्रभावी बनाने के पीछे भी उनका यह बेखौफ रवैया था. अब जैसे-जैसे उपद्रव में मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, सैकड़ों परिवार उजड़ गए हैं, पूरी घाटी में आक्रोश सुलग रहा है, लोगों में यह धारणा बन रही है कि पीडीपी के पास अपनी साख बचाने का यही तरीका है कि वह सत्ता से हट जाए. इस बात की जबरदस्त पैरवी करने वालों में एक नाम राज्य के वित्त मंत्री हसीब द्राबू की पत्नी रूही नाज़की का है.
रूही ने सरकार को संबोधित करते हुए अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा है, ‘सरकार को चाहिए या तो जो गलत हो रहा है वह उसे रोके या इस्तीफा दे दे. मुझे लगता है उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए… इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरत आने वाली पीढ़ियों के मन में अपने लिए यकीन बने रहने देने की है. उन्हें इसलिए भी सत्ता से हट जाना चाहिए जिससे कि हम ये यकीन कर सकें कि जनता द्वारा चुनी गई हर सरकार सत्ता में आते ही एक गैर-जवाबदेह पत्थर सरीखी नहीं हो जाती. इसलिए भी कि आने वाले समय में पिछली सरकार और वर्तमान सरकार के बीच का अंतर बचा रहे. इसलिए भी कि हमें यकीन रहे कि शासन करने के लिए हमारे नेताओं को डरावने, बिना चेहरों वाली मौन संस्थाओं में बदलने की जरूरत नहीं है.’
भोलेपन के पर्याय के रूप में मशहूर बेचारी गाय को पता भी नहीं होगा कि देश की सड़कों पर उसकी सुरक्षा के बहाने उपद्रव हो रहे हैं, तो भारतीय संसद में बहस में भी हुई. गाय को यह भी नहीं पता होगा कि उसका नाम अब सियासी गलियारे में मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा जा चुका है. सियासत दो खेमों में बंट चुकी है. शहर-दर-शहर कचरा चबाती और गोशालाओं में हजारों की संख्या में मर चुकी गायों को यह भी नहीं मालूम होगा कि उनके नाम पर तमाम बेरोजगार राजनीतिक कार्यकर्ताओं की चांदी हो गई है. पार्टियों और संगठनों के थिंक टैंक गाय को अपने-अपने हिसाब से दुहने में लगे हैं तो ऐसे भी वैज्ञानिक अवतरित हो गए हैं जो गाय के मूत्र में सोना और गोबर में परमाणुरोधी तत्व खोज रहे हैं.
तमाम गुट, जिनको लगता है कि गाय की रक्षा करके वे हिंदू धर्म की रक्षा कर रहे हैं, उन्होंने चंदे और फंड जुटाकर गोशालाएं खोल ली हैं. कुछ तो गोरक्षा के लिए इतने बेचैन हैं कि रात भर जागकर सड़कों पर वाहनों की तलाशी लेते हैं और उनमें कोई मवेशी मिल जाएं तो ड्राइवर को पीटने से लेकर मार डालने तक की कार्रवाई को अंजाम दे सकते हैं. गोरक्षक स्वयंभू न्यायालय हैं. गोरक्षक आपको गोबर और गोमूत्र का पंचगव्य बनाकर खिला सकते हैं, जैसा उन्होंने फरीदाबाद में किया. वे आपको पीटकर मार सकते हैं, बांधकर कोड़े बरसा सकते हैं या पुलिस को सौंप सकते हैं.
गाय किसी खूंटे से हटने के बाद बूचड़खाने पहुंचेगी या शहरों-कस्बों की गलियों में पन्नियां चबाती फिरेगी, या रास्ते में उसके नाम पर दंगा हो जाएगा, यह समाज की आस्था पर निर्भर है. लेकिन भटकती गाय के नाम पर समाज को क्या दिशा मिलेगी, यह राजनीति तय करती है. अगर गाय कोई इंसानी प्रजाति होती, इंसान की तरह बोल सकती या सोच सकती तो नई सदी में सबसे प्रभावी आंदोलन गाय प्रजाति के लोग चलाते. बुद्धिजीवियों ने अब तक गाय-विमर्श पर लंबे-लंबे पर्चे लिखे होते. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है. शायद ही दुनिया में कोई ऐसा देश है जहां किसी जानवर के नाम पर हत्याएं होती हों. भारत वह अनोखा देश तो है ही, जानवरों में गाय को वह मुकाम हासिल है जो पूरे समाज में उथल-पुथल मचा सकता है. उसके साथ पहले धार्मिक आस्था जुड़ी थी, जिसे अब सियासत का साथ मिल गया है. जिन्हें सुरक्षा चाहिए उनकी हालत यह है कि रोजगार की तलाश में गांव के तमाम निम्न-मध्यमवर्गीय युवक शहर आकर यहां की झुग्गियों में भर जाते हैं तो गाएं शहर आकर दालान में चारा खाने की जगह सड़कों पर पॉलीथिन खाती हुई पाई जाती हैं.
आॅनर किलिंग के लिए कुख्यात हरियाणा में तो सरकार ने बाकायदा 24 घंटे की गोरक्षा हेल्पलाइन भी लॉन्च कर दी है. हरियाणा सरकार गोरक्षा के लिए पुलिस की स्पेशल टीम भेजने, सड़कों पर गोरक्षा के लिए चेक पोस्ट लगाने जैसे उपायों की घोषणा कर चुकी है. जिस देश में बीस सालों में कर्ज, भूख और गरीबी के चलते तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं और उन पर कोई सरकार चिंतित नहीं है, उसी देश में सत्ताधारी पार्टी के आनुषंागिक संगठन गाय की रक्षा के लिए अलग से मंत्रालय गठित करने की मांग कर रहे हैं. विश्व हिंदू परिषद की मांग है कि केंद्र सरकार गाय मंत्रालय का गठन करे. बताया जाता है कि इस मांग को संघ परिवार का समर्थन प्राप्त है.
‘गोरक्षा के नाम पर जो हो रहा है वह बिल्कुल ठीक नहीं है. गाय के नाम पर दंगा-फसाद पहले भी होता रहा है. हमारे यहां दलित जातियों के लोग पहले भी मरे हुए पशुओं की खाल उतारते थे. अब वही काम बड़े लोग कर रहे हैं. गरीबों को मारा जा रहा है लेकिन बड़ों को कोई कुछ बोल नहीं रहा है. मरी हुई गाय से दलितों की रोजी-रोटी चलती थी पर अब उसी के लिए उन पर अत्याचार हो रहा है’
अपने भाषणों में गांधी और बुद्ध के संदेशों के साथ ‘21वीं सदी में भारत को विश्वगुरु बनाने’ का सपना देखने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कैसा महसूस करते होंगे जब गोरक्षा के बहाने देश भर में दलितों की पिटाई की खबरें सुनते होंगे? क्या हमारी तरह वे भी सोचते होंगे कि विश्व की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बन चुके देश में अचानक ऐसा क्या हो गया कि समाज मध्ययुग में लौटकर मरे हुए पशुओं के लिए लड़ने लगा? मरी हुई गाय की खाल उतारकर बेचने के एवज में जिंदा आदमी की खाल उतारी जाने लगी है. जिनका यह पुश्तैनी पेशा रहा है, उस दलित समाज को अगर अपने इस पेशे के लिए भी पीटकर मारा जाने लगे तो भारतीय संविधान के आदर्शों का क्या होगा? एक ऐसा पेशा, जिसके लिए एक समुदाय को अछूत माना जाता रहा है, अब उसे वह अछूत काम करने पर भी जान का खतरा आ खड़ा हुआ है.
जब तक किसान गाय पालता था तब तक वह बस दूध देने वाला जानवर भर थी, जो हिंदू आस्था से भी जुड़ी है. लेकिन जबसे सरकारों ने गोशाला खोल ली है तबसे तमाम राजनीतिक बेरोजगारों की नई-नई दुकानें भी खुल गई हैं. अब गाय को लेकर नई तरह की उथल-पुथल देखने को मिल रही है. हाल ही में राजस्थान की हिंगोनिया गोशाला में पंद्रह दिन के भीतर एक हजार गायों के मरने की खबर आई. इसके बाद मचे सियासी हड़कंप के चलते मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने दो मंत्रियों को गोशाला निरीक्षण के लिए रवाना किया. एसीबी की टीम को गोशाला पहुंचाया गया, तो पता चला कि गोशाला में चार से पांच फुट का दलदल बन चुका है क्योंकि लंबे समय से वहां से गोबर नहीं उठाया गया है. अनुमान है कि इस दलदल में कम से कम 200 गायें दफन हो चुकी हैं. 20 बछड़े ऐसे पाए गए जिनकी मांओं का अता-पता नहीं था. सरकार इस गोशाला को 20 करोड़ रुपये सालाना देती है, लेकिन मजदूरों को कई महीने से तनख्वाह नहीं मिली थी, इसलिए वे हड़ताल पर चले गए.
दिल्ली के नजफगढ़ में ‘द पिंजरापोल सोसायटी गोशाला’ है. यह 119 साल पुरानी है जिसमें छह हजार गायें, बछड़े व सांड़ मौजूद हैं. इसके अध्यक्ष बलजीत सिंह डागर कहते हैं, ‘गोरक्षा के नाम पर जो हो रहा है वह बिल्कुल ठीक नहीं है. गाय के नाम पर दंगा-फसाद पहले भी होता रहा है. हमारे यहां दलित जातियों के लोग पहले भी मरे हुए पशुओं की खाल उतारते थे. अब वही काम बड़े लोग कर रहे हैं. गरीबों को मारा जा रहा है लेकिन बड़ों को कोई कुछ बोल नहीं रहा है. इतने बड़े-बड़े कारखाने लगा दिए गए हैं, आजकल उन्हें बड़े लोग चलाते हैं. ये तो बेकार का झंझट कर रहे हैं. मरी हुई गाय से दलितों की रोजी-रोटी चलती थी. अब उसी के लिए उन पर अत्याचार हो रहा है. ये लोग सदियों से ये करते आए हैं.’
बलजीत सिंह बताते हैं, ‘हमारी गोशाला में जो गायें मर जाती हैं उन्हें एमसीडी वाले ले जाते हैं. गाजीपुर मंडी में बूचड़खाना है वहां ले जाकर उसकी खाल वगैरह उतारी जाती है. मसला ये है कि अब गोरक्षा के नाम पर यह होने लगा है कि कोई आदमी गाय लेकर जा रहा है तो उसे भी पीटा जा रहा है. हाल में कई हत्याएं हो गईं. उस पर भी मारपीट करते हैं. इसमें राजनीतिक पार्टियां और समाज के आवारा लोग भी शामिल हैं जो बेकार के झगड़े-फसाद करते रहते हैं. सरकार को पशु का चमड़ा उतारने का लाइसेंस देना चाहिए. दूसरे, जो आदमी गाय लेकर जा रहा है अगर उस पर शक भी है तो ढंग से जांच हो. कोई दूध पीने के लिए गाय लेकर जा रहा है तो उसकी पिटाई कर देना गलत है. कुछ लोग राजनीति करते हैं, वे चाहते हैं कि लोग आपस में लड़ें. इससे समाज में समस्या पैदा हो रही है.’
‘70-80 फीसदी गोरक्षक फर्जी हैं. मैं हर किसी से कहना चाहता हूं कि इन फर्जी गोरक्षकों से सावधान रहें. इनका गो संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि वे समाज में तनाव और टकराव पैदा करना चाहते हैं. गोरक्षा के नाम पर ये फर्जी गोभक्त देश की शांति को बिगाड़ने का प्रयास कर रहे हैं. मैं चाहता हूं कि असली गोरक्षक इन फर्जी गोरक्षकों का भंडाफोड़ करें. राज्य सरकारों को उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए’
गुजरात के ऊना में 11 जुलाई को मरी हुई गाय की खाल उतारने पर सात दलित युवकों की बेरहमी से पिटाई गई. ऊना के मोटा समाधियाला गांव में इन युवकों पर गोहत्या का आरोप लगाकर करीब 35 गोरक्षकों ने पहले उन्हें लोहे की रॉड से बुरी तरह पीटा, फिर ऊना शहर लाकर उनके हाथ बांधकर उन पर कोड़े बरसाए गए. सभी को गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया. गोरक्षकों ने इस घटना का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर वायरल कराया. इस घटना से दलित समुदाय में जबरदस्त गुस्सा देखा गया. हजारों की तादाद में दलित सड़कों पर उतरे. राज्य में बंद आयोजित करके दोषियों को कड़ी सजा देने की मांग की गई. घटना के एक सप्ताह के भीतर विरोधस्वरूप करीब 30 युवकों ने आत्महत्या का प्रयास किया.
एक महीने बाद भी यह आंदोलन जारी है. दलित समुदाय में उपजे गुस्से ने गाय और गोरक्षा की राजनीति को मात देने के लिए कमर कस ली है. ऊना में 20 हजार दलितों ने एकत्र होकर कसम खाई कि वे भले ही भूख से मर जाएं लेकिन अब मरी गायों को उठाना और चमड़ी उतारना बंद कर देंगे. गुस्साए दलित समुदाय के लोगों ने मरी हुई गायों को जिला कलेक्ट्रेट पहुंचा दिया और कहा कि गाय जिसकी मां है वे स्वयं उसका अंतिम संस्कार करें. इस कार्रवाई से सियासी हलके में हड़कंप मच गया.
संसद से लेकर सात समंदर पार तक गोरक्षकों ने इतनी कुख्याति बटोरी कि प्रधानमंत्री को इस पर बयान देना पड़ा. प्रधानमंत्री ने कहा, ‘अगर आप गोली मारना चाहते हैं तो मुझे मार दीजिए, लेकिन मेरे दलित भाइयों पर हमला बंद करो.’ उन्होंने कहा, ‘70-80 फीसदी गोरक्षक फर्जी हैं. मैं हर किसी से कहना चाहता हूं कि इन फर्जी गोरक्षकों से सावधान रहें. इन मुट्ठी भर गोरक्षकों का गाय संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि वे समाज में तनाव और टकराव पैदा करना चाहते हैं. गोरक्षा के नाम पर ये फर्जी गोभक्त देश की शांति और सौहार्द को बिगाड़ने का प्रयास कर रहे हैं. मैं चाहता हूं कि असली गोरक्षक फर्जी गोरक्षकों का भंडाफोड़ करें. राज्य सरकारों को उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए… मुझे ऐसे असामाजिक तत्वों पर बड़ा क्रोध आता है जो रात में अपराध करते हैं और दिन में गोरक्षक होने का नाटक करते हैं.’ प्रधानमंत्री का यह भी कहना है कि दलितों की रक्षा करना और उनका सम्मान करना हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए. तब सवाल उठा कि सिर्फ दलितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी क्यों? गायों के बहाने पिटते मुसलमानों की जिम्मेदारी कौन लेगा? कोई नागरिक, चाहे वह किसी जाति या धर्म से ताल्लुक रखता हो, अगर सरेआम उसे पीटा जाता है तो क्या भारतीय गणतंत्र की नागरिकता आहत नहीं होती? विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री के बयान को ‘राजनीतिक पाखंड’ बताया. उनका कहना है कि गोरक्षा के बहाने उपद्रव करने वाले लोग भाजपा के ‘वैचारिक हमसफर’ हैं.
गुजरात में दलित आंदोलन का नेतृत्व करने वालों में से एक जिग्नेश मेवाणी कहते हैं, ‘हम पदयात्रा लेकर निकले और 15 अगस्त को ऊना में सभा की. हमने नारा दिया है कि गाय की दुम आप रखो, हमें हमारी जमीन दो. आप मरी गाय की चमड़ी उतारने पर हमारी चमड़ी उतार लेंगे? तो आप अपनी गाय से खेलते रहो. हमें न जिंदा गाय से मतलब है, न ही मरी गाय से. हमें जमीनों का आवंटन करो. हम रोजगार की ओर जाएंगे. जिस पेशे के लिए हमें अछूत घोषित किया गया, अब उसी के लिए हमारी चमड़ी उधेड़ रहे हो, यह कैसे चलेगा? हमारी यात्रा ऊना पहुंचेगी. हम वहां पर प्रदर्शन करेंगे और जब तक हमारी सारी मांगें मानी नहीं जातीं, हम यह आंदोलन बंद नहीं करेंगे. हमें भारत के अन्य राज्यों और विदेशों से भी समर्थन मिल रहा है. आने वाले दिनों में यह आंदोलन और फैलेगा.’
‘प्रधानमंत्री को हमेशा भावुक बयान देने की आदत है. वे बेवकूफी भरे होते हैं जैसे कि मुझे गोली मार दो. आप इतनी सुरक्षा में चलते हैं, आपको कोई गोली कैसे मार सकता है? इसे रोकने के लिए आरएसएस से कहना चाहिए कि आज के बाद ऐसी घटना नहीं होनी चाहिए. उन्हें हिंदूवादी संगठनों को रोकना चाहिए. अगर उन्हें दलितों से मोहब्बत है तो आरएसएस से कहें कि दंगों की राजनीति बंद करो’
जिस तरह गोरक्षा का उपद्रव पूरे देश में फैला था, उसी तरह यह प्रतिरोध भी देश के अन्य हिस्सों में देखने को मिला. सबसे दिलचस्प यह कि यह प्रतिरोध उस गुजरात से उठा जिसे ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ कहा जाता रहा है. विशेषज्ञ मानते हैं कि इस ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ ने ही नरेंद्रभाई मोदी को पंद्रह साल लगातार गुजरात की गद्दी पर बैठाए रखा और उन्होंने ‘हिंदू हृदय सम्राट’ का तमगा हासिल किया.
प्रधानमंत्री मोदी के गोरक्षकों के खिलाफ बयान पर जिग्नेश मेवाणी प्रतिक्रिया देते हैं, ‘भाजपा और संघ परिवार के लोग गाय माता की दुम बहुत हिला रहे थे. लेकिन जिस तरह हजारों की संख्या में दलित शक्ति सड़कों पर उतर आई, जिस तरह से यह आंदोलन फैल रहा है, कहीं न कहीं मोदी साहेब और भाजपा को लग रहा है कि गाय की दुम अब उनके गले का फंदा न बन जाए, तब जाकर उन्होंने मुंह खोला है.’
वरिष्ठ साहित्यकार कंवल भारती कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री को हमेशा भावुक बयान देने की आदत है. वे बेवकूफी भरे होते हैं. जैसे कि मुझे गोली मार दो. आप इतनी सुरक्षा में चलते हैं, आपको कोई गोली कैसे मार सकता है? इसे रोकने के लिए आरएसएस से कहना चाहिए कि आज के बाद ऐसी घटना नहीं होनी चाहिए. यह काम जनता नहीं कर रही है. इसके लिए हिंदूवादी संगठनों को रोकना चाहिए. अगर उनको देश को बदलना है, दलितों से मोहब्बत है तो आरएसएस से कहें कि दंगों की राजनीति बंद करो. लेकिन वे ऐसा कभी नहीं कहेंगे.’
प्रधानमंत्री के बयान और संसद में गोरक्षकों के असामाजिक कृत्य की निंदा के बाद भी आंध्र प्रदेश के गोदावरी जिले में मरी गाय की खाल उतार रहे दो दलितों की पिटाई की गई. गाय की करंट लगने से मौत हुई थी जिसके बाद गाय के मालिक ने खुद ही उसे दलितों को सौंप दिया था. वे गाय की खाल उतार रहे थे तभी वहां स्वयंभू गोरक्षक पहुंचे और दोनों की बुरी तरह पिटाई की. उनमें से एक को काफी गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया.
‘जब जब आरएसएस-भाजपा सत्ता में आते हैं, वे यही करते हैं. वाजपेयी की सरकार थी तब ओडिशा में हिंदूवादियों ने ईसाई धर्मगुरु ग्राहम को जिंदा जला दिया था. इनका काम यही है. कभी लव जिहाद, कभी मंदिर-मस्जिद, कभी गोरक्षा के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाते रहो. यह गोरक्षा खाए, पिए अघाए लोगों के दिमाग का फितूर है. इन्हें रोजी-रोटी की समस्या होती तो यही लोग ऐसे मुद्दे कभी उठाते ही नहीं’
केंद्र में भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद से गोरक्षा का मुद्दा काफी गरमाया हुआ है. 17 अक्टूबर, 2015 को आईबीएन-7 चैनल ने एक रिपोर्ट की थी, जिसमें दिखाया गया कि कैसे स्वयंभू गोरक्षा दल के लोग गो-तस्करी में लोगों को पकड़ते हैं और खुद ही उन्हें सजा देते हैं. वे पकड़े हुए लोगों को मारकर अधमरा कर देते हैं. रिपोर्ट में दिखाया गया कि कैसे गोरक्षक कानून अपने हाथ में लेकर हथियार लहराते हैं. लाठी, डंडा, बंदूक, तलवारें और बुलेट प्रूफ जैकेट से लैस गोरक्षक बाकायदा अपने काम को सही ठहराते हैं. ऐसे गोरक्षा समूहों पर प्रशासनिक नियंत्रण नहीं होने की स्थिति कानून व्यवस्था की स्थिति और राजनीतिक मंशा पर गंभीर सवाल खड़े करती है.
यह भी दिलचस्प है कि 80 प्रतिशत गोरक्षकों को ‘फर्जी’ और ‘समरसता बिगाड़ने’ वाला तत्व बताने वाले नरेंद्र मोदी ही वह व्यक्ति हैं जो अपने चुनाव प्रचार के दौरान गोरक्षा पर जोर दे रहे थे. अप्रैल 2014 में बिहार और मध्य प्रदेश में अपनी रैलियों के दौरान उन्होंने कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की नीति पर सवाल उठाए थे कि केंद्र सरकार ‘पिंक रिवोल्यूशन’ लाना चाहती है जिसके तहत देश भर में गायों को काटा जा रहा है और गायों की तस्करी की जा रही है. भारत से निर्यात होने वाले मांस में ज्यादातर भैंस, बकरी, बैल और बछड़े का मांस होता है. लेकिन नरेंद्र मोदी उस समय सिर्फ गायों का जिक्र कर रहे थे कि बूचड़खानों में गोहत्या को बढ़ावा दिया जा रहा है. यह अलग बात है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मांस निर्यात पर प्रतिबंध तो नहीं लगा, उल्टा भारत विश्व का अग्रणी बीफ निर्यातक बन गया.
इसी बीच एनिमल वेलफेयर बोर्ड आॅफ इंडिया के बोर्ड मेंबर एनजी जयसिम्हा ने मोदी सरकार पर गोरक्षा के मामले में दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगाया है. उनका कहना है कि सरकार गाय की रक्षा करने और तस्करी रोकने के लिए पहले से दी जाने वाली ग्रांट लगातार कम करती जा रही है. यूपीए सरकार ने 2011-12 में 2177.58 करोड़ रुपये की ग्रांट दी थी. 2012-13 में यह राशि घटकर 1606.43 करोड़ रुपये कर दी गई. अगले साल 1299.8 करोड़ रुपये और 2014-15 में 1200.74 करोड़ रुपये बोर्ड को दिए गए. 2015-16 में यह ग्रांट घटाकर 784.85 करोड़ रुपये कर दी गई.
गोरक्षा के नाम पर बढ़ रही गुंडागर्दी और उपद्रव को लेकर चौतरफा आलोचना झेलने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने तल्खी दिखाई तो गोरक्षक उनके ही खिलाफ आग उगलने लगे. सोशल मीडिया पर मौजूद कुछ गोरक्षकों ने भले ही गाय सिर्फ सोशल मीडिया पर देखी हो, लेकिन प्रधानमंत्री के बयान के बाद उन्होंने अपना गुस्सा जाहिर किया और प्रधानमंत्री पर सेकुलर होने का आरोप लगाया. राजस्थान गो सेवा समिति के प्रदेश अध्यक्ष दिनेश गिरी ने बयान दिया, ‘पीएम के इस बयान से गोरक्षकों का मनोबल टूट गया है और उनकी भावनाएं आहत हुई हैं. मोदी जी के बयान और हिंगोनिया गोशाला में गाय की मौत के बाद गोसेवा करने में भारी दिक्कतें हो रही हैं.’ उनके मुताबिक, यह समिति 22 अगस्त को बैठक करके आगे की रणनीति तय करेगी. अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी भी दे डाली.
‘लोगों को मारा जाना किसी भी हालत में जायज नहीं है. इसे तो स्वीकार नहीं किया जा सकता कि कोई भी विवाद ऐसा हो कि किसी इंसान की जान ले ली जाए. बाकी गोरक्षा का बहुत लंबा-चौड़ा इतिहास है. गोहत्या रोकने की बात तो इतिहास में पुरानी है, लेकिन गोरक्षा आंदोलन बाकायदा 19वीं सदी में शुरू हुआ. अब जिसकी राजनीतिक विचारधारा में यह आइडिया इस्तेमाल हो सकता है, वे इस्तेमाल करेंगेे’
दूसरी ओर, गोरक्षा को प्रमुख एजेंडे में रखने वाले आरएसएस को भी गोरक्षकों के खिलाफ बयान जारी करना पड़ा. विशेषज्ञ इसे भाजपा और उसके मातृ संगठन आरएसएस की मजबूरी मान रहे हैं क्योंकि कुछ महीने पहले पार्टी और संगठन के कार्यकर्ताओं से लेकर नेता तक गोरक्षा के पक्ष में लामबंद थे. असहिष्णुता की बहस आगे बढ़कर ‘राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रद्रोह’ में परिवर्तित हुई तो केंद्रीय मंत्रीगण और वरिष्ठ नेता न्याय के लिए अदालत का मुंह देखने की जगह खुद ही मुंसिफ बन बैठे और भीड़ की कार्रवाई के पक्ष में भी स्पष्टीकरण देने लगे थे. लेकिन गुजरात में दलितों के सड़क पर उतरने और आंदोलन छेड़ देने का परिणाम यह हुआ कि सत्ताधारी दल और सरकार दोनों को आत्मरक्षात्मक मुद्रा अख्तियार करनी पड़ी. गोरक्षकों पर गुस्सा तब तक नहीं दिखाया गया जब तक वे गोहंता के रूप में मुसलमानों को चिह्नित करके उन पर हमला करते रहे. आरएसएस और भाजपा की प्रमुख चिंता दलितों या मुसलमानों पर हमले को लेकर है कि नहीं, यह रहस्य है, लेकिन उनकी यह चिंता जरूर होगी कि संघ परिवार जिस ‘विशाल हिंदू परिवार’ का सपना देखता है, दलितों पर हमलों के बाद वह बिखराव की ओर बढ़ने लगा है.
वरिष्ठ साहित्यकार व दलित मामलों के विशेषज्ञ कंवल भारती कहते हैं, ‘समस्या यह है कि निचली जातियों में जागरूकता के स्तर पर वह काम नहीं हो पा रहा है. इसलिए दलित-पिछड़ी जातियों और मुसलमानों को आपस में लड़ाना आसान है. वे सब गरीब लोग हैं, दिहाड़ी मजदूर हैं. वहीं दंगे के वक्त हिंदू-मुसलमान बन जाते हैं और दंगा करते हैं. एक तरफ दलित आबादी होती है, दूसरी तरफ मुसलमान होते हैं. लड़ाने वाले सुरक्षित दुर्ग में रहते हैं. वे कभी नहीं मारे जाते. दंगों का अपना अर्थशास्त्र है. आप देखिए कि जहां मुसलमान या दलित आर्थिक रूप से थोड़े संपन्न हुए वहां दंगा करवा दिया जाता है. उनकी कमर तोड़ दी जाती है. जैसे भागलपुर में हुआ, बनारस में हुआ. बुनकरों के घर सत्यानाश कर दिए. यही गुजरात में किया गया.’ इसी बात को आगे बढ़ाते हुए पत्रकार अरविंद शेष कहते हैं, ‘गाय कोई धार्मिकता का मामला है ही नहीं. यह देखना चाहिए कि मोदी सरकार के आने के बाद हिंदूवादी, यहां तक कि सरकार के स्तर पर, लोग गाय के चलते किसी को मारने को क्यों तैयार हो जा रहे हैं? ऊना में, हरियाणा में या दूसरी जगहों पर जो लोग हमले कर रहे हैं, वे सब के सब संघ से जुड़े नहीं हैं. एक आबोहवा बना दी गई है कि गाय हमारी माता है. अब वो किसी को भी मारेंगे. मुसलमान या हिंदू कोई भी हो. यह भस्मासुर पैदा करने जैसी स्थिति है.’
जिग्नेश मेवाणी कहते हैं, ‘आपको गुजरात की हालत बताता हूं कि साढ़े चार साल भाजपा वहां पर विकास के दावे करती है. लेकिन जब चुनाव आता है तो आरएसएस और उसके कैडर गाय का नारा लगाने लगते हैं और गाय से जुड़े वीडियो प्रसारित करने लगते हैं. मांस का लोथड़ा कहीं मिल जाए तो उसको सीधे गोमांस बता दिया जाता है और मुसलमानों पर आरोप लगा दिया जाता है. अब सवाल उठता है कि मांस का टुकड़ा बिना प्रयोगशाला में टेस्ट के कैसे पता चल जाता है कि किसका मांस है? गाय को पवित्र बनाने और उसके नाम पर उपद्रव करने की यह राजनीति लंबे समय से चल रही है, इसीलिए गोरक्षक इतना बेखौफ हैं. मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के पहले जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब भी गुजरात में यही होता रहा है. मुसलमानों को गौ माता के नाम पर बहुत प्रताड़ित किया गया है. वीडियो प्रसारित करके, पोस्टर लगाकर अभियान चलाए गए.’
अरविंद शेष कहते हैं, ‘यह बात ध्यान रखना चाहिए कि कोई दलित मरी हुई खाल उतारेगा, उसकी यह ड्यूटी भी ब्राह्मणवाद ने ही तय की. आज वह खाल उतारते हुए पाया जाता है तो उसकी हत्या भी आप ही करते हैं. अब जब उन्होंने खाल उतारने का काम करने से इनकार कर दिया है तब आपको चाहिए कि आप अपना इंतजाम करें.’
‘बाबा साहेब ने बाकायदा लिखा है कि गाय को पवित्र बनाने और अछूत समस्या का आपस में संबंध है. पूरे वैदिक काल में ब्राह्मण मांस खाते थे. गाय और घोड़े का मांस खाया जाता था. लेकिन आगे जाकर बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच संघर्ष हुआ तब ब्राह्मणों ने अपने को श्रेष्ठ दिखाने के लिए गोमांस खाना बंद कर दिया. तब से लेकर आज तक गाय और गोमांस को लेकर हो रही यह राजनीति चली आ रही है’
कंवल भारती भाजपा और संघ की राजनीति पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘जब जब आरएसएस-भाजपा सत्ता में आते हैं, वे यही करते हैं. वाजपेयी की सरकार थी तब ओडिशा में हिंदूवादियों ने ईसाई धर्मगुरु ग्राहम को जिंदा जला दिया था. इनका काम यही है. कभी लव जिहाद, कभी मंदिर-मस्जिद, कभी गोरक्षा के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाते रहो. यह गोरक्षा खाए, पिए अघाए लोगों के दिमाग का फितूर है. इन्हें रोजी-रोटी की समस्या होती तो यही लोग ऐसे मुद्दे कभी उठाते ही नहीं. कोई काम नहीं है तो चलो गाय बचा लो. गरीब आदमी की हालत यह है कि वह मरी हुई गाय की खाल उतारकर अपनी जीविका चलाता है. अमीर अपनी राजनीति के लिए उसे पीटता है. यह सत्ता समर्थित अभियान है जिसके तहत कभी मुसलमान निशाना बनते हैं तो कभी दलित. इसके लिए उन्हें पैसे भी मिलते हैं और राजनीतिक समर्थन भी. चाहे ऊना की घटना हो, झज्जर की घटना हो या फिर देश के दूसरे हिस्सों में, पुलिस-प्रशासन सबको धता बताकर यह काम किया जा रहा है. क्योंकि जो राजनीति इसे समर्थन दे रही है वह यही चाहती है कि लोग आपस में लड़ते रहें तो दूसरे मसले पर बात न हो.’
अरविंद शेष कहते हैं, ‘मेरा स्पष्ट मानना है कि गाय का पूरा मसला संघ-भाजपा के लिए सिर्फ एक पर्दा है. पिछले दो सालों में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार योजनाओं के स्तर पर स्थितियां खराब होती जा रही हैं. लोग अपना रोजगार कर सकें, जीवन चला सकें, इसके लिए हालात को लगातार मुश्किल बनाया जा रहा है. अंबानी-अडाणी के लिए कैसे रास्ते खोले जा रहे हैं, उस पर कहीं बहस नहीं है. वे सब बड़े मसले गाय की बहस में छिप जा रहे हैं. सारे महत्वपूर्ण मुद्दे जो नीतिगत फैसलों से जुड़े हैं, विदेशों से क्या समझौते हो रहे हैं, अमेरिका, इजराइल, ऑस्ट्रेलिया यहां लाकर क्या कचरा फेंक रहा है, जनता को इसकी कोई जानकारी नहीं है. जनता को यह जानकारी मिल रही है कि कहां गाय के लिए दंगा हुआ, किसने किसको मार दिया, गाय हमारी माता है, यही सब देश भर में चल रहा है.’
कांग्रेस नेता पीएल पुनिया आरोप लगाते हैं कि भाजपा और आरएसएस दलितों, पिछड़ों और आम जनता के सवालों से ध्यान हटाने के लिए यह सब दंगा-फसाद करते हैं. इसी बात को दूसरे शब्दों में अरविंद शेष बयान करते हैं, ‘गाय दरअसल एक पर्दा है जो सरकार को सवालों से बचाती है. शिक्षा बजट में कटौती, बालश्रम का नया कानून, दलित आदिवासी छात्रवृत्तियों को बंद करना, एक से डेढ़ लाख स्कूलों का बंद होना, आरक्षण खत्म करने की कोशिश करने जैसे जो बड़े सवाल हैं, वे सब गाय के नाम पर उठ ही नहीं रहे हैं. अकेले छत्तीसगढ़ में 25 हजार से ज्यादा स्कूल बंद हो गए. राजस्थान में 20 हजार स्कूल बंद हो गए. कुल मिलाकर डेढ़ लाख से ज्यादा स्कूल बंद हो गए हैं. कहीं मर्जर के नाम पर तो कहीं पीपीपी के नाम पर. सरकारी स्कूल में कौन बच्चे जाते हैं. वे गरीबों, दलितों और पिछड़े समुदाय के बच्चे हैं. वे सब के सब शिक्षा व्यवस्था से अपने आप बाहर हो जाएंगे. सरकार में बैठे लोग अलग-अलग फ्रंट पर अपने लोगों के जरिए सामाजिक मनोविज्ञान की दिशा तय करने में लगे हुए हैं.’
पुनिया कहते हैं, ‘आरएसएस, भाजपा जानबूझ कर देश को ऐसे मसलों में फंसाए रहना चाहती हैं. फालतू के मसलों में फंसी हुई जनता उनसे सवाल नहीं पूछ सकेगी कि वे सत्ता में आने के बाद क्या कर पाए हैं. जितने वादे किए थे चुनाव में, वे सब अधूरे हैं. भाजपा जनता का विकास करने की जगह लोगों को आपस में लड़ा रही है. उन्होंने खुद गोरक्षा का मुद्दा उठाया था. ऐसे तत्वों को बढ़ावा दिया गया. अब जब जनता आपस में लड़ रही है तब वे डैमेज कंट्रोल करने के लिए ऐसा बयान दे रहे हैं. ऐसे बयान का कोई फायदा नहीं है क्योंकि हमले तो प्रधानमंत्री के बयान के बाद भी हो रहे हैं. दरअसल, भाजपा की नीति यही है कि जनता को आपस में लड़ाया जाए ताकि वह उसी में उलझी रहे. भाजपा शासित राज्यों में ही दलितों और पिछड़ों का आरक्षण खत्म किया जा रहा है. दूसरी तरफ उन पर अत्याचार किया जा रहा है.’
मंदिर में प्रवेश न देने, मरी गाय उठाने के लिए दलितों को अछूत घोषित कर देने या उसी काम के लिए उन्हें ‘सजा’ देने का क्रम अपनी ऐतिहासिकता में बेहद भयानक रहा है. प्रसिद्ध साहित्यकार और चिंतक प्रो. तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में दलित जीवन का यथार्थ जिस तरह लिखते हैं, उसे पढ़कर समझा जा सकता है कि भारतीय समाज में दलितों की क्या हालत रही है
इतिहासकार रोमिला थापर कहती हैं, ‘लोगों को मारा जाना किसी भी हालत में जायज नहीं है. इसे तो स्वीकार नहीं किया जा सकता कि कोई भी विवाद ऐसा हो कि किसी इंसान की जान ले ली जाए. बाकी गोरक्षा का बहुत लंबा-चौड़ा इतिहास है. गोहत्या रोकने की बात तो इतिहास में पुरानी है, लेकिन गोरक्षा आंदोलन बाकायदा 19वीं सदी में शुरू हुआ. अब जिसकी राजनीतिक विचारधारा में यह आइडिया इस्तेमाल हो सकता है, वे इस्तेमाल करेंगे. हम लोग सिर्फ कह सकते हैं कि ऐसा मत कीजिए क्योंकि यह इंसानियत की बात है कि गोरक्षा का नाम लेकर आप किसी को जान से मार दें, यह ठीक नहीं है. लेकिन जिन्हें इस्तेमाल करना है वे करेंगे. इसका अंजाम क्या हो रहा है, यह आप देख ही रहे हैं. एक तरफ मिथ बढ़ाया जा रहा है कि गाय ये थी, गाय वो थी, दूसरी तरफ लोगों को मारने के लिए गाय का बहाना बनाया जा रहा है.’
अरविंद कहते हैं, ‘दलितों के इस आंदोलन का बहुत दूरगामी परिणाम होगा. यह बहुत अच्छा हुआ है. सामाजिक चेतना का विकास होगा. एक पूरा समुदाय जो मरे हुए जानवरों के निपटान के जरिए ही बहुत ही निम्न दर्जे की जिंदगी जीता था, अब उसी को उसने छोड़ दिया है. यह ऐसा काम है जिसे अब तक नहीं करने वाला समुदाय कभी नहीं करेगा. उस पेशे को उस समुदाय की सामाजिक हैसियत से जोड़ दिया गया था. गुजरात के दलितों द्वारा इस काम से इनकार करने का परिणाम एक सामाजिक बदलाव के रूप में सामने आएगा.’
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोधछात्र सुनील यादव कहते हैं, ‘वंदे मातरम, भारत माता की जय, गीता से होते हुए खतरनाक प्रतीकों की यह राजनीति गाय तक पहुंची है. गाय सबसे खतरनाक राजनीतिक प्रतीक थी जिससे मुस्लिम समाज के खिलाफ हिंदुओं की गोलबंदी हो सकती थी. इस दौर में दादरी का अखलाक इसी प्रतीकों की राजनीति का शिकार हुआ. ये हिंदुत्व और गाय के ठेकेदार कभी नहीं चाहते थे कि इन प्रतीकों की राजनीति में दलित शामिल हो जाएं. उन्हें तो हिंदुत्व के किसी भी प्रतीक के आधार पर मुस्लिमों का विरोध करना था जिससे नाराज और बिखरते हुए हिंदू समाज को एक साथ लाया जाए और अपना वर्चस्व कायम रहे. इसीलिए आप देखिए तत्काल रूप से हिंदुत्व के ठेकेदार ऊना के मुद्दे पर चुप्पी साधे रहे और जब लगा कि पासा पलट गया है तो दलितों का हितैषी बनने की होड़-सी लग गई है. पर इस प्रसंग में मुस्लिमों को लेकर किसी का बयान नहीं आया. तो मामला साफ है इन तथाकथित हिंदुत्व के ठेकेदारों के लिए गाय एक राजनीतिक प्रतीक है न कि मां. इधर तमाम गोशालाओं में और गुजरात की सड़कों पर गायों की दुर्दशा देखकर इसे पुष्ट कर सकते हैं. सवाल सिर्फ एक है कि अपने वर्चस्व को बनाए रखने के इस खेल में उनके लिए सब हथियार हैं और सब शिकार भी.’
भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान भी गोरक्षा और गाय के नाम पर सामाजिक व्यवहार और छुआछूत तय करने के रवैये से तंग आकर बाबा साहब आंबेडकर ने अपने कई लेखों में धर्मग्रंथों के आधार पर यह साबित किया था कि प्राचीन काल में ब्राह्मण भी मांस, यहां तक कि गोमांस खाते थे. जब बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ, जिसकी सबसे बड़ी ताकत अहिंसा और जीव हत्या के निषेध में थी, तो उसके प्रतिकार में हिंदू धर्मगुरुओं और धर्मावलंबियों ने गोमांस का निषेध करके गाय को पवित्र जानवर घोषित किया.
कंवल भारती भी इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘प्राचीन काल में गाय का मांस खाना आम बात थी. तमाम ग्रंथों में गाय का मांस खाने की बात लिखी है. जब महात्मा बुद्ध ने यज्ञों और पशु बलियों का विरोध शुरू किया तो ब्राह्मणों ने पलटी मारी और खुद को अहिंसक बना लिया. यह बाबा साहेब ने बाकायदा अपनी किताब में लिखा है.’
फोटो : विजय पांडेय
‘राजनीति की बिसात पर गोमांस’ शीर्षक से अपने लेख में प्रो. राम पुनियानी लिखते हैं, ‘भाजपा और उसके संगी-साथियों के दावों के विपरीत स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में एक बड़ी सभा में भाषण देते हुए कहा था, ‘आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्राचीनकाल में विशेष समारोहों में जो गोमांस नहीं खाता था उसे अच्छा हिंदू नहीं माना जाता था. कई मौकों पर उसके लिए यह आवश्यक था कि वह बैल की बलि चढ़ाए और उसे खाए’(शेक्सपियर क्लब, पेसेडीना, कैलीर्फोनिया में 2 फरवरी, 1900 को ‘बौद्ध भारत’ विषय पर बोलते हुए) ‘ब्राह्मणों सहित सभी वैदिक आर्य, मछली, मांस और यहां तक कि गोमांस भी खाते थे. विशिष्ट अतिथियों को सम्मान देने के लिए भोजन में गोमांस परोसा जाता था. यद्यपि वैदिक आर्य गोमांस खाते थे तथापि दूध देने वाली गायों का वध नहीं किया जाता था. गाय को ‘अघन्य’ (जिसे मारा नहीं जाएगा) कहा जाता था परंतु अतिथि के लिए जो शब्द प्रयुक्त होता था वह था ‘गोघ्न’ (जिसके लिए गाय को मारा जाता है). केवल बैलों, दूध न देने वाली गायों और बछड़ों को मारा जाता था. (द कल्चरल हेरिटेज ऑफ इंडिया खंड-1, प्रकाशक रामकृष्ण मिशन, कलकत्ता, कुन्हन राजा का आलेख वैदिक कल्चर, पृष्ठ 217)
जिग्नेश मेवाणी कहते हैं, ‘बाबा साहेब ने बाकायदा लिखा है कि गाय को पवित्र बनाने और अछूत समस्या का आपस में संबंध है. पूरे वैदिक काल में ब्राह्मण मांस खाते थे. गाय और घोड़े का मांस खाया जाता था. लेकिन आगे जाकर बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच संघर्ष हुआ तो ब्राह्मणों ने अपने को श्रेष्ठ दिखाने के लिए गोमांस खाना बंद कर दिया. तब से लेकर यह गाय की राजनीति चली आ रही है.’
शोधछात्र सुनील कहते हैं, ‘हिंदू धर्म का मूल चरित्र ही दलित विरोधी है जैसा कि धर्मशास्त्र का इतिहास लिखते हुए तोकारेव ने कहा था कि ऊपर के तीन ही वर्णों के देवता थे और पूजा करने का अधिकार सिर्फ ऊपर के तीन वर्णों को ही था. शूद्रों को इससे बाहर रखा जाता था. हिंदू धर्म का पहला मुकाबला बौद्ध धर्म से हुआ. दमित और प्रताड़ित शूद्र बहुत तेजी से बुद्ध के पीछे होने लगे, तब ब्राह्मण धर्म अर्थात हिंदू धर्म ने अवतारों की कल्पना करते हुए धर्मशास्त्र के नियमों में ढील देते हुए अछूत जातियों को कुछ धार्मिक अधिकार दिए. लेकिन आज तक मंदिर प्रवेश या सामाजिक भेदभाव के तमाम मामलों में दलितों का भयानक अत्याचार जारी है. दलित का जीवन पशुओं से बदतर तब भी था और आज भी है.’
सुनील पूरे टकराव को वर्चस्व की राजनीति का नतीजा मानते हुए कहते हैं, ‘गाय का मामला पूरी तरह राजनीतिक है. वर्ण व्यवस्था के प्रकर्म में भयानक रूप से बंटे हिंदू समाज में दलित बहुत साजिश के साथ शामिल किए गए तो भी उन्हें हाशिये पर रख दिया गया. जब बार-बार हिंदू समुदाय के शोषित जातियों को लगता है कि हिंदू समाज में हमारा कोई अस्तित्व नहीं है तो वे अन्य धर्मों की तरफ ताक-झांक करने लगते हैं. तो सभी को हिंदू समाज में बनाए रखने के लिए सवर्ण हिंदुओं ने एक साजिश रची कि किसी तरह इस्लाम के प्रभुत्व का डर पैदा कर इन असंतुष्ट शोषित जातियों को अपने साथ बनाए रखा जाए. इसके बाद शुरू हुआ मुसलमानों के खिलाफ नफरत और जहर का दौर जिसमें उन प्रतीकों को चुना गया जिसके प्रयोग को लेकर मुस्लिम समाज में कुछ नाराजगी हो, विरोध हो.’
‘गाय को पवित्र बनाकर लंबे अरसे से एक राजनीति चल रही है जिसे संघ परिवार दशकों से भुनाता आ रहा है. दलितों का उत्पीड़न कांग्रेस के समय भी होता रहा है, लेकिन मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संघ परिवार के लोगों को किस तरह चर्बी चढ़ी है कि वे बेखौफ महसूस कर रहे हैं. इन्हें दिनदहाड़े अपराध करते हुए कोई डर नहीं है, बल्कि वे खुद वीडियो बनाकर प्रसारित करते हैं क्योंकि यह गारंटी है कि पुलिस उन्हें बचा लेगी’
इतिहासकार प्रो. डीएन झा कहते हैं, ‘गोरक्षा अभियान 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ. दयानंद सरस्वती ने गोरक्षा समिति की स्थापना की थी. तबसे गाय को राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. धीरे-धीरे यह बढ़ता गया है. गाय को लेकर बीच-बीच में समस्या होती रही है. 1966 में विनोबा भावे के नेतृत्व में संसद का घेराव हुआ था, जिसपर बहुत बवाल हुआ था. बाद में यह अभियान कम हो गया. इधर कुछ दिनों से इसने फिर जोर पकड़ा है. सवाल ये है कि गाय को बचाइएगा तो दूसरे मवेशियों को क्याें छोड़ दीजिएगा? दूसरे, गाय के मरने के बाद उसे उठाने का काम या उसके निपटान का काम कौन करेगा? क्या तोगड़िया जी हटाएंगे? उसके लिए अब इन्हाेंने लोगों को मारना शुरू किया है. चलिए आप गाय को बचा लीजिए. लेकिन उसके मरने के बाद उसका क्या होगा?’
मंदिर में प्रवेश न देने, मरी गाय उठाने के लिए दलितों को अछूत घोषित कर देने या उसी काम के लिए उन्हें ‘सजा’ देने का क्रम अपनी ऐतिहासिकता में बेहद भयानक रहा है. प्रसिद्ध साहित्यकार और चिंतक प्रो. तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में दलित जीवन का यथार्थ जिस तरह लिखते हैं, उसे पढ़कर समझा जा सकता है कि भारतीय समाज में दलितों की क्या हालत रही है. वे लिखते हैं, ‘उस समय एक परंपरा के अनुसार गांव का कोई भी हरवाहा अपने मालिक जमींदार के मरे पशु की खाल निकालकर उसे बेचने से बचे धन को अपने पास रख लेता था. ऐसे चमड़ों की कीमत प्रायः बीस रुपये होती थी… जब हमारे घर की कलोरी गाय मरी तो छह आदमी काड़ी पर ढोते हुए मुर्दहिया पर ले गए थे. मुन्नर चाचा कहने लगे थे कि उस छुट्टी में मैं चमड़ा छुड़ाना धीरे-धीरे सीख जाऊं ताकि भविष्य में इस चर्मकला में पारंगत हो सकूं… मैंने वैसा ही किया. इसके बाद मैं अनेकों बार इस तरह की चामछुड़ाई के अवसाद से पीड़ित रहा…’
बिहार विधानसभा चुनावों के समय आखिरी दौर के मतदान से ठीक एक दिन पहले भाजपा द्वारा यह विज्ञापन दिया गया था.
दलित बस्ती की कारुणिक कथाओं के क्रम में वे आगे लिखते हैं, ‘इन्हीं गिद्ध प्रकरणों के दौरान गांव के जोखू पांडे का एक बैल मर गया. मुर्दहिया पर सारे कर्मकांड संपन्न हुए. जोखू के हरवाहे द्वारा चमड़ा छुड़ाए जाने के बाद उसी के घर की एक रमौती नामक महिला जो मुर्दहिया पर घास छील रही थी, उससे नहीं रहा गया.
वह डांगर के लालचवश खुर्पा लेकर गिद्धों से भिड़ गई और मरे हुए बैल का कलेजा काटकर घास से भरी टोकरी में छिपाकर ले आई. मेरे साथ अनेक दलित बच्चे यह नजारा देख रहे थे. सभी चिल्लाने लगे: ‘रमौती घरे डांगर ले जाति हौ.’ यह खबर चाचा चौधरी तक पहुंच गई. दो दिन बाद पंचायत बुलाई गई. रमौती के परिवार को कुजाति घोषित कर दिया गया और उसका सामाजिक बहिष्कार हो गया. यह बड़ा प्रचंड बहिष्कार था. बिरादरी में शामिल होने के लिए उन्हें सूअर-भात की दावत देनी पड़ी जिससे रमौती का परिवार भारी कर्ज में डूब गया.’
प्राचीन भारतीय समाज में पशुधन लोगों की प्रमुख संपत्ति रहा है. भूमिहीन और मजदूर तबके के लिए यह जीविका और पोषण का एकमात्र साधन रहा है. मरे हुए जानवरों जैसे गाय, भैंसें और अन्य पालतू जानवरों से भी लोग आपना पेट पालते थे. भारतीय समाज की आर्थिकी में भी गाय और गोवंश की अहम भूमिका रही है. गाय के पवित्र घोषित हो जाने का फायदा जिसे भी हुआ हो, लेकिन इससे उन लोगों के पोषण और जीविका पर प्रहार हुआ जिनके लिए पेट भरने का एकमात्र साधन जानवर था. मरे हुए मवेशियों को उठाकर अपनी जीविका चलाने वाला दलित समाज अपने उसी पेशे के लिए अछूत घोषित हुआ और अब उसी के लिए उसे प्रताड़ित किया जाना न सिर्फ मानवाधिकार का मसला है, बल्कि एक बड़े समुदाय की पहचान और गरिमापूर्ण जीवन पर प्रहार है. अब सवाल है कि क्या दलितों का आंदोलन उनके लिए भारतीय समाज में नए कपाट खोलेगा?
बीते जून महीने में रामपुर अपने घर जाने का प्रोग्राम बना था. मैंने पुरानी दिल्ली से रामपुर के लिए रानीखेत एक्सप्रेस में रिजर्वेशन करवाया था. ट्रेन के आने का समय रात में तकरीबन 9:30 बजे था और डिपार्चर 10:30 बजे. जब मैं स्टेशन पहुंचा तो 10 बज रहे थे. स्टेशन पर ट्रेन पहले से खड़ी थी. मैं अपनी बोगी में घुसा. बोगी लगभग खाली थी लेकिन जहां मेरा रिजर्वेशन था वो थोड़ी भरी हुई थी. उसमें कुछ महिलाओं और बच्चों की सीटें थीं. असहजता और शोर-शराबे से बचने के लिए मैंने सोचा कि कहीं और बैठते हैं. कोई आएगा और अगर उसे कोई ऐतराज नहीं होगा तो अपनी सीट पर भेज दूंगा. इसके बाद मैंने एक खाली साइड लोअर की सीट अपने लिए चुन ली. अपना सामान सीट के नीचे जमा लेने के बाद मैं सीट पर लेट गया था.
कुछ समय बाद ट्रेन चल दी. सफर का पूरा एक घंटा बीतने के बाद भी उस सीट पर कोई नहीं आया था. रात का सफर वैसे भी रोमांचक होता है. कानों में संगीत की धुन (ईयरफोन से), घना अंधेरा और खामोशी की एक चादर जैसे ट्रेन के दोनों ओर बिछा दी गई हो. खिड़की से आती ठंडी हवा और मिट्टी की खुशबू माहौल को और प्यारा बना रही थी. दिमाग में विचारों के घोड़े बेलगाम दौड़ रहे थे. एक बार मन हुआ कि अपनी नोटबुक निकालकर कुछ लिखना शुरू करता हूं. लेकिन ऐसे समय में कुछ लिखना अच्छा विकल्प नहीं लगा. पूरे माहौल को मैं सिर्फ जीना चाहता था.
बाहर के साथ-साथ अब ट्रेन के अंदर का वातावरण भी शांत हो चुका था रात के दो बजे थे. ट्रेन की लाइटें बंद थीं और लगभग सभी लोग लगभग सो चुके थे. नींद तो दूर-दूर तक नहीं थी. इसका एक कारण यह था कि यह स्वाभाविक रूप से मेरे सोने का समय भी नहीं था. फिर सोचा क्यों न कोई फिल्म ही देख ली जाए. अभी मुश्किल से कोई एक घंटे की फिल्म देखी होगी कि लगा जैसे कोई मेरे सिर के ऊपर कोई खड़ा है. मैंने जब ऊपर देखा तो वह एक पुलिसवाला था. शायद वह मुझसे कुछ पूछ रहा था. कानों में ईयरफोन लगा होने के कारण मुझे उसकी आवाज नहीं आ रही थी. पहले मुझे लगा कि उसे सीट की जरूरत है. इसलिए ईयरफोन हटाने के साथ ही मैंने उनसे कहा कि अगर आपको सीट की जरूरत है तो मेरी ओर से आरक्षित कराई सीट का इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन यहां मामला दूसरा था. दरअसल वो पुलिसवाला मुझसे यह जानना चाह रहा था कि कहीं मेरे पास साधारण टिकट तो नहीं.
‘मैं तलाश रहा हूं, अगर उस पुलिसवाले ने किसी को पैसे लेकर सीट दिलाई होगी तो साहब से मैं भी उसकी शिकायत करूंगा’
मैंने उस सीट पर बैठने का कारण बताकर अपना टिकट दिखा दिया. इसके बाद अपनी ‘व्यथा-कथा’ सुनाने की बारी उनकी थी. वे बोले, ‘मेरी इस ट्रेन में ड्यूटी लगी है. कल मैंने पैसे लेकर एक पैसेंजर को सीट दिला दी थी जिसकी खबर मेरे साथी पुलिसवाले को लग गई थी. मैंने उसे पैसे नहीं दिए इस वजह से उसने मेरी शिकायत बड़े साहब से कर दी थी.’ अपनी व्यथा-कथा सुनाने के बाद उन्होंने अपने उस साथी पुलिसवाले को दो-चार गालियों से नवाजा. मुझे उनकी बातें अजीब लग रही थीं और हास्यास्पद भी कि ये सब बातें मुझे क्यों बताई जा रही हैं.
वे अपना दुखड़ा सुनाने में लगे हुए थे. मैंने इसके बावजूद उनसे बैठने को नहीं कहा. इसकी वजह यह थी कि उन्होंने शराब पी रखी थी. इसके अलावा मैंने यह भी सुन रखा था कि पुलिसवालों की न दोस्ती अच्छी होती है न दुश्मनी. मैंने पूछा, ‘आप मुझसे टिकट के बारे में क्यों पूछ रहे थे?’ तो वे बोले, ‘आज मैं तलाश कर रहा हूं, अगर उस पुलिसवाले ने किसी को पैसे लेकर सीट दिलाई होगी तो साहब से मैं भी शिकायत करूंगा. जो जैसा करे उसके साथ वैसे ही करना चाहिए.’
अब मुझे फिल्म से ज्यादा मजा उनकी बातों में आने लगा था. मैंने कहा, ‘ठीक है, आप आगे देख लो किस्मत अच्छी हुई तो शायद कोई मिल जाए.’ फिर वे आगे बढ़ गए और बहुत-से सवाल पीछे छोड़ गए. मैं बहुत देर तक यही सोचता रहा कि जिस कानून व्यवस्था से हम खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं वह खुद कितनी असुरक्षित है. शायद वह पुलिसवाला पैसे के लालच और शराब के नशे में भूल चुका था कि आखिर समाज में उसकी भूमिका और जिम्मेदारी क्या है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
आजादी के बाद से ही ऐसी आवाजें उठती रहीं कि भारत और पाकिस्तान का बंटवारा सही नहीं था और दोनों देशों का एकीकरण होना चाहिए. भारत-पाकिस्तान का एकीकरण तो नहीं हुआ, पाकिस्तान का विभाजन जरूर हो गया, जिसके बाद बांग्लादेश बना. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से समय-समय पर इन तीनों देशों का एकीकरण करके अखंड भारत अथवा बृहत्तर भारत बनाने की बात उठाई जाती रही है. संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 2010 में एक इंटरव्यू में कहा, ‘हमने अखंड भारत का सपना छोड़ा नहीं है. वृहद भारत दोबारा बनेगा, दूसरा इलाज नहीं है. यह काम सरकार नहीं कर सकती. इसके लिए समाज का निर्माण करना पड़ता है और यह हम कर रहे हैं.’ बीते दिसंबर में भाजपा महासचिव राम माधव ने अल-जजीरा चैनल को दिए एक इंटरव्यू में कहा, ‘आने वाले समय में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश फिर से एक होकर अखंड भारत का निर्माण करने वाले हैं.’ इस बयान की आलोचना शुरू हुई तो भाजपा ने इससे पल्ला झाड़ लिया तो राम माधव ने भी खेद जताते हुए कहा कि उनका बयान दक्षिण एशिया की सांस्कृतिक एकता पर आधारित था. सवाल उठता है कि जिन देशों के राजनयिक संबंध भी बेहद तनावपूर्ण हालत में हैं, उनके एकीकरण के विचार में कितना दम है?
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पिछले महीने की 17 जुलाई को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हल्की बौछार पड़ रही थी. कांग्रेस पार्टी ने इस दिन राजधानी में एक रोड शो का आयोजन किया था. अगले विधानसभा चुनावों में शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाने के बाद एक तरह से यह पार्टी का शक्ति प्रदर्शन था. उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष बने राज बब्बर भी इसमें शामिल होने वाले थे. इस दौरान अमौसी हवाई अड्डे के बाहर जहां एक ओर चुटकी लेने वाले कह रहे थे कि प्रकृति भी नहीं चाहती कि प्रदेश में कांग्रेसी आएं तो वहीं दूसरी ओर कार्यकर्ताओं का जोश देखने लायक था. उनका कहना था कि 27 साल के वनवास के खत्म होने की खुशी में बारिश तो बनती है.
राज बब्बर और शीला दीक्षित जब अमौसी हवाई अड्डे से बाहर निकले तो कार्यकर्ताओं का हुजूम उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ा. अभी तक दिल्ली में सुनाई पड़ने वाला नारा ‘अबकी बार शीला सरकार’ वहां गूंज रहा था. हवाई अड्डे से लेकर मॉल एवेन्यू स्थित प्रदेश कांग्रेस कार्यालय तक पार्टी कार्यकर्ताओं की भीड़ नजर आई.
जानकार बता रहे थे कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर जा चुकी कांग्रेस में कई दशक बाद गांधी परिवार के इतर इतना जोश-खरोश नजर आया है. कांग्रेसी सिर्फ जिंदाबाद-जिदांबाद के नारे लगा रहे हैं. हालांकि कार्यक्रम के लिए बना हुआ मंच अधिक भीड़ जुटने की वजह से गिर गया और शीला दीक्षित को आंशिक चोट भी आई, लेकिन रोड शो जारी रहा.
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव अभियान की शुरुआत वाराणसी से करके कांग्रेस ब्राह्मण-मुसलमान गठजोड़ को अपनी ओर खींचना चाह रही है
इसके बाद इसी महीने की तीन तारीख को कांग्रेस ने 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मोदी के गढ़ वाराणसी से पार्टी के चुनाव प्रचार की शुरुआत की. इस दौरान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का काफिला जब एयरपोर्ट से शहर के लिए निकला तो इकट्ठी हुई भीड़ देखने लायक थी. इस दौरान सैकड़ों कार्यकर्ताओं के हाथों में ‘27 साल, यूपी बेहाल’ नारा लिखी हुई तख्तियां थीं. कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सोनिया गांधी ने प्रदेश की सपा सरकार और केंद्र की मोदी सरकार पर जमकर निशाना साधा. रोड शो के दौरान पार्टी की मुख्यमंत्री पद की दावेदार शीला दीक्षित, कांग्रेस महासचिव गुलाम नबी आजाद, प्रदेश प्रमुख राज बब्बर, वरिष्ठ कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी और संजय सिंह भी सोनिया गांधी के साथ थे.
जानकारों का कहना था कि सावन के महीने में बाबा विश्वनाथ की नगरी से उत्तर प्रदेश चुनाव का श्रीगणेश करके कांग्रेस ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं. जहां एक ओर सोनिया गांधी प्रधानमंत्री मोदी को उनके ही लोकसभा क्षेत्र में घेरने में सफल रहीं तो वहीं बनारस से कांग्रेस के उसी पुराने वोट बैंक की तलाश भी शुरू कर दी है जिसके बूते कांग्रेस 27 साल पहले तक राज करती रही थी.
वाराणसी में लगभग 15 लाख मतदाता हैं. इसमें से सबसे ज्यादा तीन लाख के करीब मुस्लिम मतदाता और ढाई लाख के करीब ब्राह्मण मतदाता हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव की शुरुआत वाराणसी से करके कांग्रेस इसी ब्राह्मण-मुसलमान गठजोड़ को अपनी ओर खींचना चाह रही है.
विश्लेषक आंकड़ों को साधने की कोशिश को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रबंधक नियुक्त किए गए प्रशांत किशोर (पीके) की स्क्रिप्ट का हिस्सा बताते हैं. वे कहते हैं कि पहले कांग्रेस की दिल्ली से कानपुर की बस यात्रा, फिर लखनऊ में राहुल का कार्यकर्ताओं के साथ रैंप संवाद और सोनिया गांधी का बनारस में रोड शो, ये सब पीके की रणनीति के तहत किया जा रहा है जिसमें एक साथ पूरे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की मौजूदगी का एहसास कराने की योजना है.
इसके अलावा कांग्रेस लंबे समय से मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा करने के खिलाफ रही है. कांग्रेस कहती रही है कि भारत एक संसदीय लोकतंत्र है और जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के नाम का फैसला करते हैं. ऐसे मेें मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में शीला दीक्षित के नाम की घोषणा करना ही सिर्फ एक अचंभे वाली बात नहीं है बल्कि चुनाव से छह महीने पहले यह करना और भी अंचभित करने वाली बात है. विश्लेषक इसे भी प्रशांत किशोर की रणनीति बता रहे हैं.
कांग्रेस का सबसे बेहतर प्रदर्शन 1989 में रहा है जब वह 94 सीटें जीतने में सफल रही थी. इसके बाद से इसकी सीटों में निरंतर गिरावट आती गई
वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘पीके की रणनीति बहुत कारगर है. उसने राहुल गांधी से जो ड्रामा करवाया वह बहुत कारगर रहा है. राजनीति में अगर ड्रामा कारगर रहे तो वह बहुत फर्क डालता है. राहुल गांधी लोगों से संवाद कर रहे हैं. इसका प्रभाव पड़ेगा. हालांकि यह ड्रामा लगातार होते रहना चाहिए. कांग्रेस को हमेशा चर्चा में बने रहना होगा तभी वह एक विकल्प के रूप में उभर पाएगी. शीला को लाने का फैसला भी अभी सही है.’
इसके अलावा उत्तर प्रदेश में जो भी नए नामों की घोषणा हुई हैं वे उत्तर प्रदेश में किसी भी धड़े से जुड़े नहीं हैं. प्रशांत किशोर ने गुटबाजी को पार्टी की सबसे बड़ी समस्या के रूप में पहचानने के बाद इसके समाधान के तौर पर नेताओं को जिम्मेदारियां दी हैं. जो लोग टिकट और नेतृत्वकारी भूमिका पाना चाहते थे, उन्हें खास तौर पर कुछ-न-कुछ जिम्मेदारियां दी गई हैं और प्रशांत किशोर की टीम उनके काम पर नजर रखे हुए है.
राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘चुनावों के लिए एक प्रबंधक की जरूरत होती है. भाजपा में अमित शाह एक चुनाव प्रबंधक की भूमिका ही निभाते हैं. किसी जमाने में पार्टियां अपने ही अंदर से चुनाव प्रबंधक तलाशती थीं. लेकिन अब इसके लिए बाहर की एजेंसियों को लाने का चलन शुरू हो गया है. प्रशांत किशोर इसी तरह का कामकाज करेंगे. चुनाव प्रबंधक की भूमिका के तौर पर वह सही नारे देने, सही से प्रचार करने, सही रणनीति बनाने का काम करेंगे.’
प्रशांत किशोर को कांग्रेस को अच्छा करते हुए दिखाना है ताकि गांधी ब्रांड एक बार फिर से अपने रंग में आ सकें. उत्तर प्रदेश के गांवों में अक्सर कांग्रेस के लिए कार्यकर्ता ढूंढ़ना मुश्किल होता है. इससे बचने के लिए किशोर ने टिकट की चाहत रखने वालों से बूथ स्तर पर उनकी ताकत और उनके समर्थकों की तादाद के बारे में पूछना शुरू किया है. वे हर प्रत्याशी से हर बूथ पर पांच समर्थकों की लिस्ट मांग रहे हैं.
तीन बार मुख्यमंत्री रह चुकीं 78 वर्षीय शीला दीक्षित के लिए उत्तर प्रदेश में धुआंधार चुनाव प्रचार कर पाना शारीरिक रूप से भी आसान नहीं होगा
कांग्रेस उपाध्यक्ष राजेश मिश्रा कहते हैं, ‘किशोर एक कुशल चुनाव प्रबंधक है. वह चुनाव के लिए प्रोफेशनल तरीके से पार्टी की ब्राडिंग करेंगे. अब चुनाव में इसकी बहुत जरूरत होती है. उनकी भूमिका पार्टी के लिए बहुत सकारात्मक है.’
पिछले 27 सालों में कांग्रेस का सबसे बेहतर प्रदर्शन 1989 में रहा है जब वह 94 सीटें जीतने में सफल रही थी. इसके बाद से इसकी सीटों में निरंतर गिरावट आती गई. पिछले छह विधानसभा चुनावों से पार्टी 50 का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई है. विश्लेषक कहते हैं कि अगर हम राजनीति पर नजर डालें तो साठ के दशक से ही पिछड़े लोगों का कांग्रेस से मोहभंग होने लगा था. कुछ जातियां लोहिया के साथ चली जाने लगीं और कुछ दीन दयाल उपाध्याय के साथ चली गईं. इसके बावजूद कांग्रेस के पास दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम के रूप में बड़ा वोट बैंक था. लेकिन धीरे-धीरे पूरे देश में जातियों को लगने लगा कि उन्हें सीधी सत्ता चाहिए. इसलिए तमाम जातियों ने अपनी पार्टियां बनानी शुरू कर दी है. जिन्होंने पार्टी नहीं बनाई उन्होंने दावेदारी शुरू कर दी. इस तरह से यादवों, लोधियों, राजभरों और दलितों की बहुत सारी पार्टियां बनीं. इसका प्रभाव यह हुआ कि कांग्रेस की इंद्रधनुषी पार्टी की छवि टूट गई. इससे पूरे देश की राजनीति में परिवर्तन हुआ. कांग्रेस का क्षय इसी वजह से हुआ. कांग्रेस सिर्फ चुनाव की गलतियों से सत्ता से बाहर नहीं हुई है.
वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लगातार कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण गैर-भाजपाई दलों से गठबंधन करना रहा है. प्रदेश में कांग्रेस ने सबसे पहले समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया और बाद में वह बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ी. यह गठबंधन भी बहुत लंबे समय तक नहीं चल पाया. इससे पार्टी कार्यकर्ताओं पर बुरा असर पड़ा. अब जिन सीटों पर पार्टी ने गठजोड़ कर लिया वहां के कार्यकर्ता तो बेकार हो गए. ये कार्यकर्ता दूसरी पार्टियों में चले गए. इसके अलावा कांग्रेस में जो भी बड़े नेता रहे उन्होंने दिल्ली की राह पकड़ ली. इससे पार्टी को बहुत नुकसान हुआ. अब जो सड़क पर उतरकर प्रदर्शन करने वाली फौज थी वह धीरे-धीरे खत्म होती गई. इसके बाद प्रदेश स्तर में पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं बचा जो कांग्रेस की पहचान को जिंदा रख सके.’
वहीं राम बहादुर राय के अनुसार, ‘कांग्रेस एक जमाने में सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों का प्रतिनिधित्व करती थी. सबसे पहले इस तरह के आंदोलनों से दूरी ने उसे खत्म करने का काम किया. इससे हटकर वह सिर्फ चुनाव जीतने और सरकार बनाने तक सीमित हो गई. इसके बाद जब मंडल आंदोलन चला और अयोध्या में विवादित ढांचा गिराया गया तो राजनीति में बड़ा बदलाव आया लेकिन कांग्रेस इस दौर में कोई ठिकाना नहीं ढूंढ़ पाई. और अभी इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है. सबसे बड़ी बात यह है कि कांग्रेस में इस बारे में कोई सोचने वाला भी नहीं है. वह बस जब चुनाव आता है तो जोर-आजमाइश करने में लग जाती है.’
हालांकि हार की इस कड़वी सच्चाई को पार्टी के नेता भी स्वीकार करते हैं. कांग्रेस उपाध्यक्ष राजेश मिश्रा कहते हैं, ‘किसी पार्टी के चुनाव जीतने और हारने के बहुत सारे कारण होते हैं. कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है. उसने देश में सबसे ज्यादा समय तक शासन भी किया है. इस दौरान बहुत काम भी हुआ है, इस पर भी कोई बहस नहीं है. आज उत्तर प्रदेश में जो भी विकास दिखाई दे रहा है यह कांग्रेस की देन है. लेकिन लगातार सत्ता में रहने के चलते कांग्रेस के नेताओं की जनता से दूरी बढ़ गई. राजनीति में एक दौर यह भी आता है कि आप कितना भी काम कर लें लेकिन लोगों को यह जरूर लगना चाहिए कि आप उनके बीच में हैं. आप सुपरमैन नहीं हैं और आप उनके बीच हैं. मुझे लगता है कांग्रेस के लोगों से ये गलतियां हुईं. लोगों ने गांवों में जाना छोड़ दिया. लोगों से मिलना छोड़ दिया. जनता के सुख-दुख में वे उनके साथ नहीं रहे. इस वजह से ये सारे चीजें हुईं. इसके बाद सपा और बसपा का दौर आया जब जमकर जाति की राजनीति हुई फिर भाजपा ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया. कांग्रेस इससे दूर तो रही लेकिन इसे रोकने में पूरी तरह से नाकाम रही. यही हमारे हार का कारण रहा.’
राज बब्बर जब अपनी प्रसिद्धि के चरम पर थे तो मुलायम सिंह यादव ने उनकी भीड़-बटोरू छवि का बखूबी इस्तेमाल किया था
फिलहाल उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को उबारने के लिए सबसे पहले राहुल गांधी ने जिम्मेदारी संभाली थी. पिछले विधानसभा चुनाव में खूब सभाएं करने और गुस्सा दिखाने का उनका अभिनय भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का उद्धार नहीं कर पाया था. चुनाव में हार के बाद उन्होंने इसकी जिम्मेदारी भी ली और कहा कांग्रेस को मजबूत करने के लिए उसे थोड़ा समय देंगे. लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं. लोकसभा चुनावों में सिर्फ मां-बेटों के अलावा सभी प्रत्याशियों को मुंह की खानी पड़ी.
राहुल से नाउम्मीद उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी जब प्रियंका के नाम की गुहार लगा रहे थे तब उन्हें राहुल से इस बात की भी शिकायत थी कि उन्होंने विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश को उतने दिन भी नहीं दिए जितने अपनी विदेश यात्राओं और छुट्टियों को दिए थे. ऐसे में जब कांग्रेस नेतृत्व ने प्रशांत किशोर को उत्तर प्रदेश में जीत दिलाने का ठेका दिया तो कार्यकर्ताओं में फिर थोड़ी उम्मीद जगी थी कि अब जरूर चमत्कार होगा.
ऐसे में पहले कांग्रेस के उत्तर प्रदेश प्रभारी को बदला गया और प्रथम परिवार के चहेते गुलाम नबी आजाद को उत्तर प्रदेश प्रभार दे दिया गया. इसके बाद लंबे चिंतन-मंथन का दौर चला और प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री की छुट्टी कर दी गई. कई दिनों के इंतजार के बाद पार्टी ने राज बब्बर के रूप में प्रदेश कांग्रेस को उसका नया अध्यक्ष दिया और अब शीला दीक्षित के रूप में प्रदेश कांग्रेस को एक मुख्यमंत्री का चेहरा भी दे दिया गया है.
इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश में जितने भी कांग्रेसी नेता बचे हैं सभी को कुछ न कुछ जिम्मेदारी देकर खुश करने की कोशिश की जा रही है. डॉ. संजय सिंह को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया गया है तो प्रमोद तिवारी चुनाव संयोजन समिति के अध्यक्ष बने हैं. इस समिति में मोहसिना किदवई से लेकर प्रदीप माथुर तक कई बड़े नाम शामिल हैं.
अब हम इन नामों की चर्चा कर लेते हैं. सबसे पहले शीला दीक्षित. पंजाब के कपूरथला में जन्मीं और दिल्ली के जीसस एेंड मैरी स्कूल से शुरुआती व मिरांडा हाउस से विश्वविद्यालयी शिक्षा हासिल करने वाली शीला कपूर दीक्षित को कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है. 1984 में वे कन्नौज से सांसद बनी थीं. वे उन्नाव के कांग्रेसी नेता उमाशंकर दीक्षित की बहू भी हैं लेकिन इतने पुराने इतिहास की बात से उनके राजनीतिक प्रभामंडल में ऐसा कुछ नहीं जुड़ता कि उन्हें उत्तर प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री के रूप में जनता हाथों हाथ लेने लगे.
‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अभी प्रदेश में उसे पूछने वाला कोई नहीं है. उसे जमीनी स्तर से काम करना है’
दिल्ली की मुख्यमंत्री के तौर पर लगे भ्रष्टाचार के दागों से भी वे पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकी हैं. दिल्ली में तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बाद हालात यह पैदा हुए हैं कि आज विधानसभा में कांग्रेस का नाम लेने वाला कोई नहीं बचा है. शीला दीक्षित खुद बुरी तरह से विधानसभा चुनाव हार गई थीं. ऐसे में कई लोगों को तो यह भी शक है कि अगर वे कहीं से चुनाव लड़ीं तो खुद भी जीत पाएंगी या नहीं. इसके अलावा कुछ लोग उनके बाहरी होने का भी आरोप लगा रहे हैं. जानकार कहते हैं कि कुछ समय पहले तक वे खुद इस जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं थीं. फिर 78 वर्षीय शीला दीक्षित के लिए उत्तर प्रदेश में धुआंधार प्रचार कर पाना शारीरिक रूप से भी आसान नहीं होगा.
शरत प्रधान कहते हैं, ‘शीला दीक्षित को लाना कांग्रेस के लिए इसलिए जरूरी था कि पार्टी में बड़ी संख्या में ऐसे नेता हैं जो अपने विधानसभा क्षेत्र में तो खूब रसूख वाले हैं लेकिन उससे बाहर उनकी कोई खास पहचान नहीं है. इसके चलते पार्टी में गुटबाजी खूब थी. अब शीला की वरिष्ठता के चलते उनके बीच का आपसी विवाद दूर हो सकता है. जहां तक दिल्ली में उनके प्रदर्शन का सवाल है तो राजनीति में हार-जीत चलती रहती है. उत्तर प्रदेश में पार्टी के पास कोई भी नेता ऐसा नहीं था जिससे सारे लोग सहमत होते. इसलिए शीला को लाना एक बेहतर फैसला रहा.’
वहीं अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘शीला दीक्षित का दिल्ली में क्या प्रदर्शन रहा है इससे उत्तर प्रदेश की जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता है. फर्क इस बात से पड़ता है कि पार्टी शीला दीक्षित को चुनाव मैदान में उतारकर क्या संदेश देना चाहती है. वह इससे दो संदेश देना चाहती है. पहला संदेश ब्राह्मण समाज के लिए है. वह यह कि यदि हम चुनाव जीते तो ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनेगा. आजकल ब्राह्मणों को भारतीय राजनीति में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने का चलन खत्म हो चला है. यह संदेश बहुत दूरगामी होगा. दूसरा संदेश, शीला दीक्षित एक खास तरह के विकास के एजेंडे की भी नुमाइंदगी करती हैं. शीला दीक्षित ने दिल्ली में 15 साल सरकार चलाई है. इस दौरान उनके मॉडल की प्रशंसा खूब की गई. भले ही वे चुनाव हार गईं. कांग्रेस इसी मॉडल को उत्तर प्रदेश में पेश करना चाह रही है. अभी उत्तर प्रदेश की जनता ने पिछले 15 साल में या तो सपा का मॉडल देखा है या फिर बसपा का. यह एक तीसरा मॉडल जनता के सामने आया है.’
हालांकि राम बहादुर राय इससे इतर राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘शीला दीक्षित के नाम का सीधा मतलब सिर्फ इतना है कि आपके पास कोई ऐसा नाम नहीं है जिसे चलाकर आप वोट हासिल कर सकें. प्रशांत किशोर की सलाह पर ऐसा किया गया है. अब प्रशांत किशोर शीला के अलावा किसी और को ढूंढ़ नहीं पाए. मेरा यह कहना नहीं है कि 2014 में शीला दीक्षित ने खराब प्रदर्शन किया तो उन्हें आगे मौका नहीं मिलना चाहिए लेकिन शीला दीक्षित का उत्तर प्रदेश की राजनीति से नाता कई दशक पहले खत्म हो चुका है. वह चुनाव सिर्फ इसलिए जीतने में सफल रहीं कि वे उत्तर प्रदेश की बहू रही हैं. अब ऐसे में प्रदेश से उनका नाता सिर्फ एक दो जिलों में ही रह गया है. इसके अलावा जब चुनाव प्रचार के दौरान कड़े परिश्रम की जरूरत होगी तो वे अपने स्वास्थ्य को कितना बेहतर बनाए रख पाएंगी. उनका चुनाव करके कांग्रेस ने जड़ों को मजबूत करने के बजाय कांग्रेस को बर्बाद करने की दिशा में काम करने की शुरुआत की है.’
इसके बाद बात आती है राज बब्बर की. राज बब्बर जब अपनी प्रसिद्धि के चरम पर थे तो मुलायम सिंह यादव ने उनकी भीड़-बटोरू छवि का बखूबी इस्तेमाल किया था. लेकिन कुछ जानकारों का मानना है कि गाजियाबाद में हार के बाद राज बब्बर का जादू अब उतर चुका है. समाजवादी पार्टी के नेता शिवपाल सिंह यादव ने शायद इसीलिए उन्हें दगा हुआ कारतूस कहा है.
‘आपने बनारस को देखा है तो वहां की सड़कों पर सोनिया या राहुल नहीं आम आदमी भी अगर जुलूस लेकर निकल जाए तो भारी भीड़ जमा हो जाती है’
राम बहादुर राय कहते हैं, ‘कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश के सपनों को हवा देने वाला कोई नेता अभी नहीं है. उनके पास नेतृत्व का इस कदर टोटा है कि वे राज बब्बर को ले आए हैं. राज बब्बर सिर्फ कुछ पंजाबी वोट बैंक को अपनी तरफ खींच पाएंगे. अब जब बड़ा आधार वोट आपसे खिसक रहा हो तो सिर्फ पंजाबी वोट बैंक को खींचकर आप क्या कर पाएंगे. दूसरी बात, राज बब्बर पुराने कांग्रेसी नहीं हैं, वे समाजवादी पार्टी से नाराज होकर कांग्रेस में आए थे. उनके जन्म स्थान आगरा में ही जाकर आप किसी से पूछें तो कोई उन्हें कांग्रेसी नहीं बताएगा वह उन्हें समाजवादी बता देगा. इनका चुनाव बताता है कि कांग्रेस को गैर-कांग्रेसियों के जरिए पुनर्जीवन देने की तैयारी की जा रही है.’
सोनिया गांधी ने राज बब्बर को जीत का जो मंत्र दिया है वह है, ‘टीम बनाओ, जीत दिलाओ.’ यह मंत्र सुनने में तो अच्छा ही लगता है लेकिन राज बब्बर के लिए सबसे बड़ी समस्या ही ‘टीम’ बनाने की है. उत्तर प्रदेश कांग्रेस में अब जितने भी लोग हैं उनकी स्वाभाविक इच्छा रहती है कि टीम चाहे जिसकी भी बने, उन्हें इसका हिस्सा रहना ही चाहिए. राज बब्बर की दूसरी बड़ी समस्या जमीनी स्तर के अनुभव की कमी की है. प्रदेश अध्यक्ष के रूप में चुनाव के लिए पार्टी को तैयार करना उनके लिए आसान नहीं होगा. सबका साथ लेना आसान नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस के भीतर से ही उन पर बाहरी होने का लेबल लगाने की कोशिश शुरू हो गई है.
हालांकि शरत प्रधान इस फैसले को सही ठहराते हैं. वे कहते हैं, ‘राज बब्बर के रूप में कांग्रेस के पास ऐसा चेहरा है जिसकी पूरी उत्तर प्रदेश में पहचान है. कांग्रेस को जनता के बीच में जाकर उनकी पहचान बताने की जरूरत नहीं है. वे ड्रामा भी क्रिएट कर सकते हैं, अच्छा भाषण भी दे सकते हैं. यह कांग्रेस के लिए बहुत फायदेमंद रहेगा.’
अब बात प्रियंका गांधी की भूमिका की, जो एक प्रचारक के रूप में अब तक अमेठी-रायबरेली से बाहर नहीं निकली हैं. दूसरे, विधानसभा चुनावों में उनकी सभाओं में भीड़ जुटाना कांग्रेस के लिए इसलिए आसान नहीं होगा क्योंकि उसका निचले स्तर का सांगठनिक ढांचा बुरी तरह से चरमराया हुआ है. जानकारों का कहना है कि प्रियंका को लाने में कांग्रेस ने दस साल की देरी कर दी है. अब उनसे चमत्कार करने की उम्मीद बेमानी है.
शरत प्रधान कहते हैं, ‘प्रियंका गांधी इस चुनाव में सक्रिय भूमिका निभाएंगी. उनके नाम को सार्वजनिक न किए जाने का फायदा यह है कि अगर कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करती है तो उसका श्रेय उनके पास आएगा और अगर पार्टी बुरा प्रदर्शन करती है तो शीला दीक्षित जिम्मेदारी ले लेंगी.’
अगर हम कांग्रेस के चुनावी प्रदर्शन की बात करें तो इसमें केवल सुधार ही हो सकता है. जानकार कहते हैं कि उन्होंने इस बार जो रणनीति बनाई है उससे हमें देखना है कि कितना सुधार होगा. कांग्रेस अभी सरकार बनाने के लिए चुनाव नहीं लड़ रही है. अभी उसकी रणनीति सिर्फ अपनी 28 सीटों को 50 या 100 करने की है. वह मत विभाजन करने की कोशिश कर रही है. शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर यही करना चाह रही है. अब ब्राह्मण समाज इससे कितना प्रभावित होता है यह देखने वाली बात होगी. इसके अलावा इस रणनीति के हिसाब से उसे टिकटों का बंटवारा भी करना होगा. तभी आपका संदेश उस जनता के पास पहुंच पाएगा जिसे आपने टारगेट किया है. अभी तक उन्होंने जो भी किया है वह अच्छा किया है.
शरत प्रधान कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अभी प्रदेश में उसे पूछने वाला कोई नहीं है. उसे जमीनी स्तर से काम करना है, लेकिन उसके सामने संभावनाएं अपार हैं. प्रदेश में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो सपा, बसपा और भाजपा के शासनकाल से ऊब चुके हैं. ऐसे लोग एक नए विकल्प की तलाश कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि कांग्रेस इस स्थिति में आए कि वे उसे वोट दे सकें. खासकर मुस्लिम समुदाय मुलायम सिंह यादव से अब दूर जाना चाह रहा है. वह चाहता है कि कांग्रेस एक मजबूत विकल्प के रूप में सामने आए. अभी शीला दीक्षित और राज बब्बर के आने के बाद कांग्रेस एक विकल्प बन रही है. लेकिन उसे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.’
हालांकि राम बहादुर राय कहते हैं, ‘कांग्रेस के सामने 2006 में जो चुनौती थी वही 2016 में भी है. 2006 में राहुल गांधी पहली बार उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार में उतरे थे. उस दौरान चुनाव से करीब एक साल पहले उन्होंने गाजियाबाद से रोड शो की शुरुआत की थी. अब दस साल बाद फिर कांग्रेस बनारस से रोड शो की शुरुआत करके चुनाव प्रचार शुरू कर रही है. इस दौरान भीड़ की चर्चा हो रही है. लेकिन अगर आपने बनारस को देखा है तो वहां की सड़कों पर सोनिया या राहुल नहीं आम आदमी भी अगर जुलूस लेकर निकल जाए तो भारी भीड़ जमा हो जाती है. इस भीड़ को देखकर यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि वह कांग्रेस के लिए आतुर है. उत्तर प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को 1989 में ही नकार दिया है. अभी कोई ऐसा लक्षण नहीं दिख रहा है जिससे लगे कि उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिए बांहें फैलाए खड़ा है. अभी जो चुनाव हो रहे हैं उसमें सामाजिक समीकरण बहुत मायने रख रहा है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस किसी भी सामाजिक समीकरण में फिट नहीं बैठ रही है. अभी का हाल तो इतना बुरा है कि उसके बचे-खुचे विधायक भी पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं. मुझे लगता है कि कांग्रेस की सीटों की संख्या 2012 के मुकाबले घट ही जाएगी.’
वहीं कांग्रेस के नेता अपनी चुनौतियों को दूसरी तरह से गिनाते हैं. राजेश मिश्रा कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सामने एक तरफ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को रोकने तो दूसरी तरफ जातिवादी ताकतों को खत्म करने की चुनौती है. पिछले 27 सालों में उत्तर प्रदेश जातीय राजनीति की प्रयोगशाला बन चुका है. इस दौरान प्रदेश की जनता सरकारों से बहुत नाराज हुई है. सपा, बसपा और भाजपा के शासनकाल में प्रदेश का विकास रुक गया है. कांग्रेस के सामने चुनौती विकास के मामले में राज्य के पुराने गौरव को वापस दिलाने की है. इस बार जिस मजबूती के साथ नई टीम का गठन हुआ है और जिस मजबूती से पार्टी आगे बढ़ रही है, वह एक बेहतर विकल्प बनकर जनता के सामने आएगी. लोग कांग्रेस को एक उम्मीद के रूप में देख रहे हैं.’
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता किशोर वार्ष्णेय का कहना है, ‘उत्तर प्रदेश में हमारा मुख्य लक्ष्य हिंदू और मुसलमान के नाम पर लोगों को बांटने वाली भाजपा को सत्ता में आने से रोकना है. इसके लिए हमारी पार्टी पूरा प्रयास कर रही है. हम इस बार तीन अंकों में पहुंच जाएंगे. इस बार हमारा पूरा प्रयास यह है कि हम किंग मेकर की भूमिका में रहें. कांग्रेसी जिला स्तर पर रैलियां करेंगे. रोड शो होगा और हमारे कार्यकर्ता प्रदेश की जनता से संवाद कायम करेंगे. हमें सत्ता में वापस आना है और इसके लिए हमने तैयारी शुरू कर दी है. अभी लखनऊ और बनारस के कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में लोग जुटे जो अच्छा संकेत है.’
[symple_box color=”green” text_align=”left” width=”100%” float=”none”] ‘जाति और धर्म के नाम पर बरगलाई गई जनता के सामने हमने शीला मॉडल पेश किया है’
पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रदीप जैन आदित्य की गिनती कांग्रेस के उन नेताओं में होती है जिन्हें केंद्र और प्रदेश दोनों जगहों पर राजनीति करने का अनुभव है. प्रदेश के अपेक्षाकृत पिछड़े इलाके बुंदेलखंड से आने वाले प्रदीप पिछली मनमोहन सरकार में ग्रामीण विकास राज्य मंत्री के रूप में काम कर चुके हैं. अभी उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव के लिए बनी कांग्रेस की समन्वय समिति का सदस्य बनाया गया है. 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर उनसे बातचीत.
आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर कांग्रेस के सामने क्या चुनौतियां हैं?
कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि प्रदेश को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए जातिवादी ताकतों को परास्त कैसे किया जाए. हम समझते हैं कि आज की जो स्थिति है इसमें चुनौतियां दूसरे दलों के सामने ज्यादा हो गई हैं. हमने तो शीला दीक्षित को लाकर विकास का एक मॉडल जाति और धर्म के नाम पर बरगलाई गई जनता के सामने पेश कर दिया है. हमारे सामने एक स्पष्ट चेहरा है. अब उसके सामने कोई चेहरा प्रदेश में दिखाई नहीं देता है. भाजपा अभी असमंजस में है. बसपा की मायावती का जो चेहरा है उस पर कितने धब्बे हैं यह लोगों को पता है और सपा के अखिलेश यादव तो पूरी तरह से फेल हो गए हैं. प्रदेश में कानून व्यवस्था नहीं है.
प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने की कितनी संभावना है?
कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सरकार बनाएगी. अभी हमारा लखनऊ में रोड शो हुआ था. उसमें लाखों लोग बरसते पानी में इकट्ठा हुए. बनारस के कार्यक्रम में लाखों लोग उमड़े. सबसे बड़ी बात यह रही कि लोग अपना पैसा खर्च करके आए. यह एक संदेश है. जहां सपा पूरी सत्ता का प्रयोग करके लोगों को बुलाती है, बसपा लोगों को इकट्ठा करती है वहां कांग्रेस के समर्थन में जनता स्वत: स्फूर्त पहुंची.
विधानसभा चुनावों को लेकर कांग्रेस की रणनीति क्या है? इसमें प्रशांत किशोर की क्या भूमिका है?
प्रशांत किशोर कांग्रेस का सहयोग कर रहे हैं. उनकी जो रणनीति है वह यही है कि विकास के सहारे चुनाव लड़ा जाए, क्योंकि जनता विकास तलाश रही है. कांग्रेस इस बार पूरी तरह से उठकर खड़ी हो गई है.
प्रदेश में कांग्रेस 27 साल से सत्ता से बाहर है. इसका क्या कारण रहा?
सबसे बड़ी बात यह रही है कि बीते दिनों में लोगों ने जाति के नाम पर जनता को छला और विकास को नजरअंदाज किया गया. सपा, बसपा और भाजपा ने प्रदेश में विकास की एक ईंट नहीं लगाई. इस दौरान सिर्फ प्रदेश को बर्बाद करने का काम किया गया. यह सिर्फ एक शासन में नहीं हुआ. तीनों पार्टियों ने मिलकर प्रदेश को लूटा है. इस दौरान कोई भी औद्योगिक नीति नहीं बनी. अब लोगों को इसका एहसास हुआ है, लोग उमड़कर कांग्रेस के पास आ रहे हैं. अब जो लोग कांग्रेस से टिकट मांग रहे हैं वे हर बूथ पर पांच लोगों का नाम दे रहे हैं.
हाल में कुछ विधायकों ने पार्टी का दामन छोड़कर विरोधी दलों की शरण ली है?
विधायकों ने पार्टी नहीं छोड़ा है. उन्हें अनुशासन के चलते पार्टी से निकाला गया है. इन विधायकों ने पार्टी की ह्विप के खिलाफ वोट किया था. अब राहुल के नेतृत्व में पार्टी ने कड़ा निर्णय लेते हुए इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया. अनुशासन सबसे पहले है. कोई भी पार्टी के साथ गद्दारी करेगा तो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. अब जिन दलों ने उन्हें शरण दिया है उनके लिए बस इतना कहना है कि हमने जिन्हें रिजेक्ट किया वह उन्हें इस्तेमाल करने जा रहे हैं.
कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की राजनीति से लंबे समय से दूर रही शीला दीक्षित पर दांव लगाया है. यह कितना सही फैसला है?
उत्तर प्रदेश के जितने नेता थे उन्होंने मिलकर हाईकमान से कहा कि शीला दीक्षित को प्रदेश में भेजा जाए. वे उत्तर प्रदेश की ही रहने वाली हैं और उनके अंदर एक अच्छी प्रशासनिक क्षमता है. उन्होंने दिल्ली को बेहतर स्थिति में पहुंचा दिया है. उन्हें उत्तर प्रदेश के नेताओं के अनुरोध और आग्रह पर भेजा गया है. उन्हें ऊपर से थोपा नहीं गया है.[/symple_box]
आपकी पहली किताब भारत की राजधानी पर थी. अब ये किताब पाकिस्तान पर है. क्या ये किताबें एक-दूसरे से संबंधित हैं?
नहीं, डेल्ही माय हार्ट एक पर्यटक की दृष्टि से लिखा गया यात्रा संस्मरण था, जिसमें उस शहर के सदियों के इतिहास को तलाशा गया था. वहीं द फ्रैक्शस पाथ पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ के शासन के बाद कैसे डेमोक्रेसी आई, विकसित हुई उस पर केंद्रित है. आसिफ अली जरदारी के शासन के पांच साल (2008-2013) काफी महत्वपूर्ण थे क्योंकि पाकिस्तान में पहली बार यह किसी नागरिक सरकार का शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण था. पाकिस्तान के हालिया इतिहास के इसी बदलाव पर यह किताब बात करती है.
यह किताब पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य से कैसे जुड़ती है?
यह किताब पाकिस्तान की सरकार और विदेश नीति से जुड़े हुए कुछ जरूरी मुद्दों पर की गई राजनीतिक टिप्पणियों और लेखों का संकलन है. इसमें पाकिस्तान ने 2008 से 2013 तक राजनीति, सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और संविधान से जुड़ी जिन समस्याओं का सामना किया उन्हें भी दर्ज किया गया है. मैं नहीं जानता कि यह वर्तमान में हो रही बहस से जुड़ता है कि नहीं पर मैं यह तो निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि पाकिस्तान केवल काला या सफेद नहीं है, यानी सिर्फ अच्छा या बुरा नहीं है. यह एक जटिल देश है जो धीरे-धीरे बदलाव की ओर बढ़ रहा है और मेरा विश्लेषण इसी बात पर रोशनी डालता है. यह विश्लेषण तब शुरू हुआ जब मैं मेनस्ट्रीम मीडिया से जुड़ा और मुझे विभिन्न मुद्दों पर विभिन्न नजरियों को जानने का मौका मिला. मैं यही कहना चाहूंगा कि भले ही आप मेरे लिखे हुए से असहमत हों पर मेरे लेख आपको पाकिस्तान को देखने का एक ‘देसी’ नजरिया देंगे जो उन लेखों से बिल्कुल अलग है जिन्हें कई बाहरी लेखकों द्वारा, खासकर आतंक के खिलाफ छिड़ी लड़ाई के बाद लिखा गया.
जनरल मुशर्रफ के बाद पाकिस्तान की डेमोक्रेसी के इन आठ सालों को कैसे देखते हैं?
यह धीरे-धीरे मजबूत हो रही है. बीते आठ सालों में हमने एक नागरिक सरकार से दूसरी नागरिक सरकार को सत्ता का हस्तांतरण पहली बार 2013 के आम चुनावों के बाद देखा. 2013 से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और मिलिट्री चीफ चारों लोकतांत्रिक तरीके से काम कर रहे हैं. ये दिखाता है कि व्यवस्थाओं में बदलाव आ रहा है और संवैधानिक प्रक्रियाअों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. जनरल मुशर्रफ के बंद पड़े केस की सुनवाई शुरू होना इसका एक उदाहरण है. राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्थाओं पर अभी लोकतांत्रिक नियंत्रण आना बाकी है. 2014 के बाद से सेना ने देश के राष्ट्रीय मुद्दों पर नाटकीय रूप से अपना रुख बदला है. सेना अब पहले की तरह न आसानी से तख्तापलट कर सकती है और न ही वो यह सोचती है कि सत्ता में सीधे हस्तक्षेप करना उसके हित में है. और वैसे भी लोकतंत्र एक लंबी प्रक्रिया है और अगर जैसे चल रहा है वो चलता रहा तो आगे भी डेमोक्रेसी बनी रहेगी.
पर भारत में आम धारणा यही है कि पाकिस्तान में सत्ता सेना और नागरिक सरकार के बीच बंटी हुई है.
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि पाकिस्तान में मिलिट्री जनरलों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन किया है. आम चुनावों और लोकतांत्रिक सरकार बनने से भी सेना और सरकार के बीच सत्ता के संतुलन में बदलाव नहीं आया है. सेना को नियंत्रण में लाने के लिए अभी कई आम चुनाव लगेंगे. इस वक्त पाकिस्तान कई तरह की बगावतों और नागरिक संघर्षों से जूझ रहा है जिससे सेना को घरेलू मसलों और राष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करने का मौका मिल रहा है. वैसे पाकिस्तानी नेताओं को अभी तक संसद पर पूरा विश्वास नहीं है इसलिए वे पिछले दरवाजे से सेना के साथ किसी भी सौदे के लिए तैयार रहते हैं.
नए सेना प्रमुख राहील शरीफ को उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान और कराची में आतंकवादियों के खिलाफ सफलता मिली है. ऐसा माना जा रहा है कि इसने उनके प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से रिश्ते को मजबूत किया है.
वैसे यह तो है कि जनरल राहील शरीफ प्रधानमंत्री शरीफ से ज्यादा प्रभावी लगते हैं और शायद मशहूर भी. और ऐसा शायद इसलिए है कि उनका पाकिस्तानी तालिबान पर रुख साफ है, वे उसी हिसाब से काम करते हैं इसलिए समाज के बड़े तबके की सराहना भी उन्हें मिली है. वहीं नवाज़ शरीफ तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान से बातचीत को तरजीह देते हैं. दूसरे, 2014 में देश के अंदर ही शुरू हुए राजनीतिक संकट ने भी प्रधानमंत्री शरीफ को कमजोर किया है. हालिया महीनों में नवाज़ शरीफ ने अपनी राजनीतिक साख फिर पानी शुरू की थी, बड़े शहरों में स्थानीय चुनावों में भी उनकी पार्टी को ही ज्यादा सीटें मिली थीं पर ‘पनामा पेपर्स’ में नाम आने के बाद नवाज़ कमजोर पड़ गए और सेना का पलड़ा फिर भारी हो गया.
अगर भारत के साथ द्विपक्षीय वार्ता की बात करें तो उधमपुर हमले के बाद इस प्रक्रिया में एक कभी न खत्म होने वाली पेचीदगी आ गई है. भारत में तो यही सोच है कि अगर पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों द्वारा इसे खराब करने की कोशिश ही की जानी है तो ऐसी वार्ता का क्या फायदा.
भारत-पाक शांति वार्ता हमेशा से ही जटिल रही है. दोनों ही तरफ इसका विरोध करने वाले बहुत-से लोग हैं. पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियां यहां के व्यावसायिक हितों की रक्षा करना चाहती हैं. इसके अलावा, पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, जो सेना में कमांडर भी रहे हैं, भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से बातचीत में लगे हैं. इसी बातचीत के चलते ही पाकिस्तानी खुफिया टीम ने पिछले दिनों भारत का दौरा किया था. तो इस तरह यह कह सकते हैं कि ये द्विपक्षीय वार्ता प्रक्रिया अभी पूरी तरह से खत्म तो नहीं हुई है भले ही यह कछुए की चाल में आगे बढ़ रही है.
पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान को लेकर एक दुविधा है. प्रशासन इसे एक आतंकी समूह मानता है और यह बात भी प्रचलित है कि इसे भारत द्वारा मदद दी जाती है. जो बात यहां अस्पष्ट है वो ये है कि इसका अफगान तालिबान से क्या संबंध है.
तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने पूरे पाकिस्तान के सरकारी संस्थानों, सैन्य संस्थानों और निजी जगहों पर प्रत्यक्ष रूप से हमले किए हैं. (कराची के नौसेना बेस पर पीसी-3 ओरियन एयरक्राफ्ट को नष्ट कर दिया गया) पाकिस्तान की इंटेलीजेंस को पूरा यकीन है कि इसे भारत द्वारा पाकिस्तान में अस्थिरता लाने के लिए मदद दी जा रही है. इसलिए तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान राष्ट्र का दुश्मन है और इसे किसी भी कीमत पर खत्म किया जाना ही चाहिए. एक बात और कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान कहीं बाहर से नहीं आया है, इसमें कई ऐसे आतंकवादी हैं जिनकी पाकिस्तान की सरकार ने पहले मदद की थी पर कई वजहों से ये आतंकी उनके खिलाफ हो गए. मेरे अनुसार मुख्य वजह चरमपंथियों का पाकिस्तानी सेना को पश्चिमी देशों खासकर अमेरिका के हाथ की कठपुतली मानना है. हां, अफगान और पाकिस्तान तालिबान में संबंध तो है पर फिलहाल उनके उद्देश्य अलग-अलग हैं. अफगान तालिबान पाकिस्तान के अंदर हमले नहीं करता क्योंकि उसे पाकिस्तानी सरकार की मदद चाहिए. वहीं तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान देश को नुकसान पहुंचाना चाहता है, इसलिए वह सेना को तो नुकसान पहुंचाता ही है साथ ही आम जनता को भी डराता है.
यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि पाकिस्तानी सेना के अनुसार अफगान तालिबान अफगानिस्तान की एक कानूनी राष्ट्रीय और राजनीतिक इकाई है. इसलिए सरकारी नीति के अनुसार अफगानिस्तान में नियंत्रण और प्रभाव कायम करने के लिए पाकिस्तान को अफगान तालिबान से किसी स्तर पर बातचीत का माहौल रखना ही होगा. और ये तो जाहिर बात है कि पाकिस्तान की अफगानिस्तान से जुड़ी नीतियां भारत की घेराबंदी के डर से बनती हैं. वहीं भारत को अफगानिस्तान के आतंकियों के हाथ में वापस जाने पर आतंकवाद के बढ़ने का डर है. यही कारण है कि भारत-पाकिस्तान को आपस में अपने उद्देश्यों के बारे में स्पष्ट तौर पर बात करने की जरूरत है वरना इन क्षेत्रों में स्थिरता कभी नहीं आ पाएगी.
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के एकीकरण से पहले हमें आज के हालात को देखना होगा. हमने दक्षिण एशियाई देशों का एक संगठन दक्षेस बनाया है. पहले हमें उसे ठीक ढंग से काम करने देना होगा. आज की तारीख में तो यही संगठन ठीक ढंग से काम नहीं कर पा रहा है. हम इस तरह की बात शुरू करने के लिए अक्सर यूरोपीय संघ का उदाहरण देते हैं, लेकिन अगर हम यूरोपीय संघ के गठन की प्रक्रिया को देखंे तो इस संगठन में शामिल देशों ने पहले आर्थिक सहयोग शुरू किया. फिर अपने दूसरे मसलों को हल किया. यह प्रक्रिया सतत रूप से चलती रही फिर एक ऐसा संघ बनकर तैयार हुआ.
अब यूरोपीय संघ जैसा कोई यूनियन बनाने के लिए हमें पहले हमारे यहां के हालात देखने होगे. हम दोनों-तीनों देश एक दूसरे के निवासियों को वीजा नहीं देते हैं. एक-दूसरे के साथ ठीक तरीके से व्यापार नहीं करते हैं. अब लोग एक-दूसरे देश के लोगों को जानेंगे-समझेंगे नहीं तो मुझे नहीं लगता है कि आगे की बात करने का कोई फायदा है. हमें तो सबसे पहले यही करना होगा कि लड़ना-झगड़ना बंद करके जितने भी दक्षेस के देश हैं उनके साथ व्यापार शुरू करें. एक-दूसरे देश में आवाजाही को सुगम बनाएं. दक्षेस का जो डेवलपमेंट फंड है उसे बढ़ाएं और सही तरीके से खर्च करें. एक दक्षेस विश्वविद्यालय बनाया गया है. वहां इन देशों के छात्रों की गतिविधियों में सक्रियता लाएं.
अब एकीकरण की पैरवी भारत का दक्षिणपंथी धड़ा करता है लेकिन उसकी विश्वसनीयता बात करने लायक भी नहीं है. यही वह धड़ा है जो भारत-पाकिस्तान की दोस्ती की मुखालफत करता रहता है. वह हमेशा ऐसी बात करता है जिससे दोनों देशों के मध्य कटुता बढ़े. जब से यह नई सरकार आई है तब से पाकिस्तान के लोगों को वीजा नहीं मिलने समेत तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. अब अगर यह धड़ा एकीकरण जैसी बात कर रहा है तो यह कैसे संभव होगा और किस आधार पर होगा यह मेरी समझ से परे है. आखिर ये लोग हमारे संवाद के जो माध्यम हैं या जो व्यवस्था पहले से चली आ रही है उसे नहीं चलने दे रहे हैं तो एकीकरण की बात क्या करेंगे.
एकीकरण की बात करने के बजाय हमें पहले यूरोपीय संघ की तरह का संघ बनाना होगा. दक्षेस के रूप में हमारे पास एक ऐसा मजबूत संगठन भी है. यह संगठन पूरे दक्षिण एशिया को एक ताकत के रूप में स्थापित करेगा
ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान में इस तरह की चर्चाएं नहीं चलती हैं. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के एक होने के बाद ऐसी चर्चाएं हर जगह होती हैं. पर मेरा और पाकिस्तान के एक बड़े तबके का मानना है कि दक्षेस जैसे संघ के ठीक से काम न करने के लिए भी भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्क जिम्मेदार हैं. क्योंकि यही लोग अपने आपसी झगड़ों का निपटारा नहीं कर पाते हैं जिसकी छाप अक्सर दक्षेस संघ पर पड़ती है. इस संघ में यही दो बड़ी शक्तियां हैं. बाकी देश छोटे-छोटे हैं. वे इन दोनों देशों को देखते रह जाते हैं. मेरा मानना है कि जब तक ये दोनों देश अपने झगड़े नहीं सुलझाएंगे, दोनों देशों के लोग एक-दूसरे के यहां आएंगे-जाएंगे नहीं तब तक इस मसले का हल निकल पाना मुश्किल है. हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम संबंधों को सुधारने की दिशा में दो कदम आगे बढ़ते हैं तो चार कदम पीछे आ जाते हैं. अब 2012 में हमने तय किया था कि 65 साल से अधिक उम्र के लोगों को हम ऑन अराइवल वीजा की सुविधा देंगे, लेकिन चार साल बीत जाने के बावजूद हम इस तरह की सुविधा नहीं शुरू कर पा रहे हैं. ऐसा वीजा देने से भारत ने ही इनकार कर दिया. यह तो सिर्फ एक बात है. ऐसी तमाम और चीजें हैं. हमने तमाम व्यापारिक समझौते किए थे लेकिन इसके बाद हमारे बीच कितना व्यापार बढ़ा? ऐसा भी नहीं हो पा रहा है कि दोनों देशों के मध्य लोगों के आवागमन में बढ़ोतरी हो गई है.
एकीकरण की बात करने के बजाय हमें पहले यूरोपीय संघ की तरह का संघ बनाना होगा. दक्षेस के रूप में हमारे पास एक ऐसा मजबूत संगठन भी है. यह संगठन पूरे दक्षिण एशिया को एक ताकत के रूप में स्थापित करेगा. पूरे दक्षिण एशिया में तमाम परिवार बिछड़े पड़े हैं. भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में एक-दूसरे के रिश्तेदार रहते हैं. अब अगर सब साथ में आएंगे तो इसमें सबका भला होगा. हमें इस दिशा में गंभीरता से सोचने की जरूरत भी है.
(लेखक पाकिस्तान इंडिया पीपुल्स फोरम फॉर पीस ऐंड डेमोक्रेेसी के संस्थापक सदस्य हैं)
अच्छे सपने देखना अच्छी बात है. मानव समाज सपनों से खाली नहीं हो सकता. सपने हमें जीने का हौसला देते हैं. लेकिन रात और दिन में देखे गए सपनों में बड़ा अंतर होता है. रात के सपने सिर्फ कल्पनालोक को आलोकित करते रहते हैं जबकि दिन में देखे गए सपने साकार किए जा सकते हैं. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को एक महादेश बनाने का सपना दिन में देखा गया सपना है. इस महादेश में यदि तीन बड़े देश आएंगे तो नेपाल, श्रीलंका और भूटान अपने को अलग नहीं रख पाएंगे.
टूटे हुए दिलों और देशों को जोड़ने के लिए सबसे पहले यह समझने की जरूरत पड़ती है कि वे टूटे क्यों थे. जब तक टूटने के कारणों का पता नहीं, तब तक जोड़ने की प्रक्रिया को शुरू नहीं किया जा सकता. भारत विभाजन का वैचारिक आधार ‘द्वि-राष्ट्र’ सिद्धांत था, जिसके अंतर्गत यह माना गया था कि हिंदू और मुसलमान दो-दो राष्ट्रीयताएं हैं और दोनों को अलग हो जाने की आवश्यकता है. यह समझ केवल मुस्लिम लीग की नहीं थी. इसके प्रमाण मिलते हैं कि कट्टरवादी हिंदू विचारक भी इस पर विश्वास करते थे. केवल कांग्रेस इस सिद्धांत से असहमत थी. उसका मानना था कि राष्ट्रीयता का आधार धर्म नहीं है. हिंदू-मुस्लिम अलगाव के बीज 19वीं शताब्दी में पड़ने शुरू हो गए थे. अंग्रेजी, साम्राज्यवाद, पश्चिमी शिक्षा और राष्ट्रीय आंदोलन ने कुछ नई अवधारणाओं को जन्म दिया था. इसमें सबसे बड़ी अवधारणा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति पाकर देश को लोकतांत्रिक स्वरूप देने की थी. लोकतंत्र में चूंकि बहुमत द्वारा ही सत्ता स्थापित होती है इसलिए यह माना जा रहा था कि हिंदुस्तान में हिंदू सत्ता स्थापित होगी. सर सैयद के आजादी और लोकतंत्र विरोध का यही कारण था. पश्चिम से अत्यंत प्रभावित होने के बाद भी सर सैयद ने लोकतंत्र के केवल बाह्य रूप को ही पहचाना था. उन्हें इसकी जानकारी कम थी कि लोकतंत्र में योग्यता और दक्षता का भी बड़ा महत्व होता है जो किसी भी मायने में संख्या से कम नहीं होता.
19वीं शताब्दी में 1857 के बाद पूरे देश में स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य के पास कुछ ऐसे सामाजिक मूल्य थे जो यूरोप में अर्जित किए गए थे जिन पर अंग्रेजों का पूरा विश्वास था. वे भारतीय उपनिवेश को उनके आधार पर चलाना चाहते थे. इन मूल्यों में मनुष्य और मनुष्य को बराबर मानने और समझने पर विशेष जोर था. यह अवधारणा हिंदुस्तान के लिए बिल्कुल नई थी. इस अवधारणा के अंतर्गत धर्म, जाति और पारिवारिक श्रेष्ठता का कोई महत्व न था, जबकि तत्कालीन सामंती भारतीय समाज में इनका बहुत महत्व था. ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने विचारों और सिद्धातों के अनुसार हिंदू-मुसलमानों और सभी धर्मों को मानने वालों को बराबर समझकर ऐसे-ऐसे कानून बनाए थे जिसने सामंती मुस्लिम समाज को विचलित कर दिया था और उन्हें अपनी श्रेष्ठता खतरे में लगने लगी थी.
‘20वीं शताब्दी में बहुत-से छोटे-छोटे देश बनते देखे गए. पर किसी देश के दो टुकड़ों को साथ मिलते कम ही देखा गया. एकीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण जर्मनी है. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी मिलकर एक देश बन गए थे’
इसी शताब्दी में मुसलमान अपने पारंपरिक अंग्रेज विरोध के कारण शिक्षा और नौकरी के क्षेत्रों में हिंदुओं से पीछे हो गए थे. सर सैयद के आंदोलन ने एक नया मुस्लिम मध्यम वर्ग जरूर पैदा किया था पर उसकी संख्या और प्रभाव कम था. पढ़ा-लिखा मुस्लिम मध्यम वर्ग खुद को हर नए क्षेत्र में हिंदुओं से पीछे ही पाता था. इसलिए उसने पाकिस्तान के रूप में एक ‘सुरक्षित स्वर्ग’ की कल्पना की थी जो जल्द ही ‘असुरक्षित नरक’ मे बदल गया था. पाकिस्तान बनने के पीछे और चाहे जितने कारण रहे हों पर मुख्य कारण मुस्लिम मध्यम वर्ग की महत्वाकांक्षा थी. पाकिस्तान के निर्माण को भारतीय मुसलमानों की एक भयंकर भूल माना जाएगा जिसके कारण न केवल वे स्वयं बर्बाद हुए बल्कि लाखों बेघर हुए और हजारों की हत्याएं हुईं. पाकिस्तान बन जाने के परिणामस्वरूप भारत में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों को एक बड़ा आधार मिला जो लगातार बड़ा होता चला गया और आज देश में उनका शासन है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी सांप्रदायिक शक्तियां बहुत शक्तिशाली हैं. इन परिस्थितियों में आरएसएस और भाजपा द्वारा अखंड भारत की बात करना कुछ विचित्र-सा लगता है. इससे पहले ‘अखंड भारत’ की चर्चा दो प्रकार से होती रही है. हिंदू सांप्रदायिक शक्तियां कांग्रेस को ‘टारगेट’ बनाने के लिए यह मुद्दा उठाती रही हैं. दूसरी तरफ हिंदू-मुस्लिम सद्भावना और भारत-पाक मैत्री वाले समूह इसे दोस्ती और मित्रता के संदर्भ में उठाते रहे हैं. लेकिन इन दोनों समूहों को यह पता था कि इस कल्पना के वास्तविक उद्देश्य कुछ और हैं. भारत को आजाद हुए आधी शताब्दी से अधिक समय बीत चुका है. उपमहाद्वीप की जनसंख्या में बहुत तीव्र गति से वृद्धि हुई है. आज भारत में तकरीबन 20 करोड़ मुसलमान हैं. पाकिस्तान में तकरीबन 18 करोड़ हैं. बांग्लादेश में तकरीबन 15 करोड़ हैं. इस तरह उपमहाद्वीप में मुसलमानों की जनसंख्या तकरीबन 50 करोड़ है. अखंड भारत का अर्थ यह होगा कि उसमें 50 करोड़ मुसलमान होंगे और 82 करोड़ के करीब हिंदू होंगे. क्या आरएसएस को ऐसा अखंड भारत स्वीकार होगा जिसमें 50 करोड़ मुसलमान हों? भारत में अब तक हिंदू मतों के ध्रुवीकरण में असफल रही भाजपा क्या 50 करोड़ मुसलमान मतदाताओं को स्वीकार करेगी?
ऊपर दिए गए तथ्यों के बाद भी राम माधव ने यदि अखंड भारत की बात की है तो उनका आशय निश्चित रूप से कुछ और ही होगा. महत्वपूर्ण यह है कि वे ‘अखंड भारत’ के निर्माण के लिए तीनों देशों की सहमति और रजामंदी को पहली शर्त मानते हैं. मतलब अखंड भारत तीनों देशों की मर्जी से बनेगा. यह अवधारणा सराहनीय है.
20वीं शताब्दी में बहुत-से बड़े देशों से छोटे-छोटे देश तो बहुत बनते देखे गए. पर किसी देश के दो टुकड़ों को साथ मिलते कम ही देखा गया. एकीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण जर्मनी है. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी मिलकर एक देश बन गए थे.
यह एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है कि पूर्वी जर्मनी की संसद में जब पश्चिमी जर्मनी के साथ विलय के प्रस्ताव पर मतदान हुआ तो प्रस्ताव के विरोध में एक मत भी नहीं था. पूर्वी जर्मनी की संसद सौ प्रतिशत विलय के पक्ष में थी क्योंकि उस समय पूर्वी जर्मनी की तुलना में पश्चिमी जर्मनी अधिक संपन्न लोकतंत्र था. पूर्वी जर्मनी आर्थिक संकट से गुजर रहा था. सोवियत यूनियन के पतन के बाद उसकी स्थिति बहुत चिंताजनक हो गई थी.
यह एक सीधी-साधी और साधारण बात है कि कठिनाई के दिनों में लोग संपन्न रिश्तेदारों के घर ही जाते हैं. संपन्न रिश्तेदार यदि उदार भी है तो क्या कहना. विभाजित देशों के विलय के लिए भी यह सिद्धांत लागू होता है. बड़े देश यदि संपन्न और उदार हैं तो वे अपने से अलग हुए छोटे देशों को आकर्षित कर सकते हैं. इस संदर्भ में उपमहाद्वीप को देखने की आवश्यकता है.
‘भारत ने यह स्थापित किया है कि वह एक बड़ा लोकतंत्र है. भारत के प्रति पाकिस्तान में सम्मान का भाव है. आम पाकिस्तानी मानता है कि उनका देश उन्हें जो नहीं दे पाया है वह भारत ने अपने नागरिकों को दिया है’
इसमें संदेह नहीं कि भारत ने यह स्थापित कर दिया है कि वह एक बड़ा लोकतंत्र है. भारत के लोकतंत्र के प्रति पाकिस्तान में सम्मान और प्रशंसा का भाव है. आम पाकिस्तानी मानता है कि उनका देश उन्हें जो नहीं दे पाया है वह भारत ने अपने नागरिकों को दिया है. यही नहीं, वे मानते हैं कि भारत के लोकतंत्र का प्रभाव पाकिस्तानी राजनीति पर भी पड़ता है. ऐसी स्थिति में भारत के प्रति पाकिस्तान की साधारण जनता का आकर्षण समझ में आता है.
भारत निश्चित रूप से उपमहाद्वीप का एक ‘धनवान रिश्तेदार’ है. भारत की अर्थव्यवस्था बहुत मजबूत है, जबकि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था अमेरिका की बंधुआ मजदूर बन गई है. भारत की प्रगति और विकास से भी पाकिस्तानी अभिभूत हैं. आज भारत का एक रुपया पाकिस्तान के दो रुपये के बराबर है. आज से 30-35 साल पहले पाकिस्तानी मिलते थे तो यह सामान्य बातचीत का विषय बनता था कि भारत ज्यादा ‘अच्छा’ है या पाकिस्तान. लेकिन आज कोई पाकिस्तानी इस विषय पर बात नहीं करना चाहता क्योंकि यह स्थापित हो गया है कि भारत ज्यादा ‘अच्छा’ है. भारत की प्रगति देखकर पाकिस्तानी भौंचक्के रह जाते हैं. प्रत्येक क्षेत्र में भारत पाकिस्तान से आगे है. छोटी और कमजोर अर्थव्यवस्था होने के कारण पाकिस्तान का मीडिया बहुत ‘छोटा’ और ‘कमजोर’ है. पाकिस्तान के कलाकार भारत आकर काम करने के लिए व्याकुल रहते हैं क्योंकि कलाकारों को यहां जो पैसा मिलता है उसकी कल्पना भी पाकिस्तान में नहीं की जा सकती.
लोकतंत्र और अच्छी अर्थव्यवस्था वे दो बड़े कारण हैं जो भारतीय मूल के लोगों को भारत की ओर आकर्षित करते हैं. लेकिन महत्वपूर्ण उन बिंदुओं पर विचार करना है जो भारतीय मूल के लोगों को भारत से विमुख करते हैं. कराची निवासी भारतीय मूल की उर्दू कवयित्री फहमीदा रियाज़ ने भारत में पहली बार भाजपा की सरकार बनने पर एक कविता लिखी थी जिसका शीर्षक है- ‘तुम भी हम जैसे निकले’. कविता का मूल भाव यह है कि पाकिस्तान में तो उसके निर्माणकाल के समय से ही एक धर्मिक कट्टरता, अंधविश्वास, अनुदारता, जड़ता और हिंसा थी, वह आधी शताब्दी के बाद भारत में भी खुलकर सामने आ गई है. कविता में प्रतिगामी शक्तियों से पूछा जाता है- ‘अब तक कहां छिपे थे भाई’. फहमीदा की इस कविता का भारत के एक बड़े वर्ग ने बड़ा विरोध किया था. लेकिन कविता की सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता.
‘अखंड भारत’ में शामिल होने से पहले पाकिस्तान और बांग्लादेश इस मुद्दे पर विचार जरूर करेंगे कि भारत से जुड़कर क्या उन्हें आंतरिक सुरक्षा मिलेगी. दुख की बात है कि भारत के शासक गुटों ने, जिसमें मुख्य रूप से कांग्रेस शामिल है, सांप्रदायिकता की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया है बल्कि उससे लाभ उठाने के लिए उसे हवा-पानी दिया है. कांग्रेस के अनाड़ी नेतृत्व विशेष रूप से राजीव गांधी को यह पता न था कि जिस सांप्रदायिकता से वे लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं वही सांप्रदायिकता एक दिन उनके विनाश का कारण बन जाएगी.
सांप्रदायिकता के प्रति भारतीय गणतंत्र की ‘समझ’ का एक प्रमाण यह भी दिया जाता है कि देश ने आतंकवाद से निपटने के लिए नए कानून तो बना दिए हैं लेकिन सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक दंगों में लोगों को न्याय या सजा देने के लिए नए कानून नहीं बनाए गए हैं. नतीजा यह निकलता है कि सांप्रदायिक दंगों में हत्या या जनसंहार करने वाले साफ बच जाते हैं. यह बताने की जरूरत नहीं है कि इसका अल्पसंख्यकों पर क्या प्रभाव पड़ता होगा. ‘अखंड भारत’ में शामिल होने वाले पाकिस्तान या बांग्लादेश के मुसलमान क्या इस मुद्दे पर विचार नहीं करेंगे?
अखंड भारत या भारतीय महासंघ के लिए एक और महत्वपूर्ण विचारणीय मुद्दा है, क्या भारतीय राजसत्ता ने अपने प्रदेशों- विशेष रूप से कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों के साथ सम्मानजनक बराबरी का व्यवहार किया है? मेरे विचार से ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति पाने के बाद भी भारतीय शासकवर्ग की ‘सोच’ साम्राज्यवादी बनी रही और संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र को साम्राज्य की तरह चलाने की इच्छा हमारे नेताओं पर छाई रही. इंदिरा गांधी ने अपने राज्यकाल में साम्राज्यवादी नीतियों को चरम पर पहुंचा दिया था जिसके बड़े भयानक परिणाम निकले थे. यदि कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों के संबंध में विचार किया जाए तो कटु तथ्य सामने आते हैं. पूर्वोत्तर राज्यों में जनभावनाओं को समझने और उनसे संवाद स्थापित करके समाधान खोजने के बजाय सेना के माध्यम से उसे कुचला गया. अपने ही देश के एक हिस्से पर हवाई हमला किया गया. उत्तर भारत तथा शासन वर्ग के बारे मे पूर्वोत्तर राज्यों में अब तक कटुता बनी हुई है. इसी तरह का काम पाकिस्तान बलूचिस्तान में कर रहा है. अब सवाल पैदा होता है कि कौन-सा देश किसी ऐसे ‘लोकतंत्र’ के साथ मिलने का प्रयास करेगा जो अपने ही देश के एक भाग पर बम वर्षा कर चुका हो. जहां तक कश्मीर का सवाल है तो वह भी भारत या कहना चाहिए कांग्रेस के नेताओं मुख्य रूप से इंदिरा गांधी की साम्राज्यवादी समझ से उत्पन्न एक गंभीर समस्या है. साम्राज्यवाद पूरे साम्राज्य को अपने अधीन मानता है. कश्मीर को भारत का एक प्रदेश बना देने की इच्छा संविधान के खिलाफ है. यह भी सामने आता है कि देश अपने संविधान तक का सम्मान नहीं करता है. ऐसी साम्राज्यवादी सोच तो देश की एकता और अखंडता के लिए ही हानिकारक है. दूसरे देश इससे कैसे आकर्षित हो सकते हैं?
भाजपा या आरएसएस स्वेच्छा से अखंड भारत की जो बात करते हैं, वह एक महासंघ के रूप में ही संभव है पर महासंघ के लिए परस्पर विश्वास का रिश्ता बनना भी जरूरी है. उपमहाद्वीप में स्थिति यह है कि भारत और पाकिस्तान के कुछ शक्तिशाली समूह दोनों देशों को एक-दूसरे का पक्का शत्रु बनाने का लगातार प्रयास करते रहते हैं. इन समूहों में पाकिस्तान की सेना प्रमुख है क्योंकि भारत की शत्रुता के कारण ही उसका महत्व है. भारत से पाकिस्तान की दोस्ती पाकिस्तान की सेना को ‘शून्य’ कर देगी. निकट भविष्य में यह नजर नहीं आता कि पाकिस्तान सेना की गिरफ्त से बाहर निकल पाएगा. इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश युद्ध के बाद पाकिस्तान को यह अवसर दिया था. वहां के राजनेता इसमें सफल नहीं हो सके.
‘भारतीय महासंघ का सपना तो देखा ही जा सकता है. पर यह ध्यान रहना चाहिए कि यह केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं है. जिस पीढ़ी ने ‘अखंड भारत’ देखा था या उसमें रही थी, वह करीब-करीब समाप्त हो चुकी है’
आतंकवाद भी एक बड़ा मसला है जो उपमहाद्वीप के देशों के निकट आने में एक बड़ी बाधा है. पाकिस्तान के पास आतंकवाद से लड़ने या उसे रोक पाने की शक्ति और इच्छा नहीं है, जबकि पाकिस्तान स्वयं भी उससे आहत है. भारत की ही यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने साधनों और प्रयासों से भारत में आतंकी घुसपैठ को रोके और भारत के अंदर पनपने वाले आतंकवाद के लिए सही नीतियां बनाए. आतंकवाद केवल कानून व्यवस्था की समस्या तक सीमित नहीं होता. उसके राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कारण भी होते हैं. उपमहाद्वीप के संघ बनने और एक अर्थ में अखंड भारत बनने का लाभ सभी देशों को होगा. यूरोपियन यूनियन जैसा गठबंधन बनाया जा सकता है. यह स्थिति फिलहाल तो दिखाई नहीं पड़ती लेकिन भारत के पास यह क्षमता है कि वह एक सशक्त लोकतंत्र बनने के बाद इस दिशा में पहल कर सकता है. लेकिन प्रश्न तो यही है कि भारत को अच्छा लोकतंत्र बनाने वाली शक्तियां अभी नजर नहीं आ रही हैं. भारतीय राजनीति पूरी तरह सत्तोन्मुखी हो गई है. प्राय: सभी दल किसी न किसी तरह सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं. पर ‘अखंड भारत’ अर्थात भारतीय महासंघ या ‘इंडियन यूनियन’ का सपना तो देखा ही जा सकता है. पर यह ध्यान रहना चाहिए कि यह केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं है. जिस पीढ़ी ने ‘अखंड भारत’ देखा था या उसमें रही थी, वह करीब-करीब समाप्त हो चुकी है. उस पीढ़ी के लिए यह अवश्य ही बड़ा भावनात्मक मुद्दा था. विभाजन पर लिखा गया साहित्य भी भावना के स्तर पर ही उसे संबोधित करता था. पर आज यह स्थिति नहीं है. पाकिस्तान और भारत की युवा पीढ़ी की भावना इस मुद्दे से नहीं जुड़ी है. भाजपा और आरएसएस यदि इसे केवल भावनात्मक मुद्दा बनाएंगे तो यह शायद साकार नहीं हो सकता. आज यह बहुत व्यावहारिक मुद्दा है. नई पीढ़ी की रुचि इस मुद्दे में इसी प्रकार से हो सकती है.
पाकिस्तान भारत के लिए एक बहुत बड़ा बाजार है. दोनों देशों के बीच आज जो व्यापार होता है वह सौ गुना बढ़ सकता है जिसका लाभ दोनों देशों को होगा. दोनों देश लंबी-चौड़ी सीमा की देख-रेख पर जो करोड़ों रुपये खर्च करते हैं वह कम हो सकता है. यह प्रस्तावित संघ चीन जैसा शक्तिशाली हो सकता है. इस कारण इसकी सुरक्षा की गारंटी हो सकती है. पूंजीवाद देश जिस प्रकार इन देशों पर अपनी ‘इच्छा’ थोपते और लाभ उठाते हैं, उस पर भी लगाम लग सकती है. यह संघ अपनी शर्तों पर विश्व के बड़े देशों के साथ संबंध बना सकता है. अखंड भारत या भारतीय महासंघ एक बड़ी चुनौती है जिस पर भावनात्मक नहीं, व्यावहारिक ढंग से बात करने की आवश्यकता है.
आम आदमी पार्टी से हटाए जाने के बाद योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और प्रो. आनंद कुमार समेत अन्य लोगों ने पिछले साल 14 अप्रैल, 2015 को स्वराज अभियान नाम का संगठन बनाया था. हाल ही में संगठन के पहले राष्ट्रीय अधिवेशन में राजनीतिक दल बनाए जाने की घोषण की गई. प्रो. आनंद कुमार स्वराज अभियान के नवनिर्वाचित राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए हैं. संगठन ने दो अक्टूबर तक राजनीतिक दल बनाने की प्रक्रिया पूरी करने के लिए अजीत झा की अगुआई में एक छह सदस्यीय समिति भी बनाई है. पार्टी के नाम की घोषणा गांधी जयंती के मौके पर की जाएगी.
स्वराज अभियान के गठन के समय तीन मुख्य मापदंड तय किए गए थे. पहला- लोकतांत्रिक ढंग से संगठन का निर्माण. दूसरा- देश के गंभीर मुद्दों पर जन आंदोलन चलाना और तीसरा- पारदर्शिता व जवाबदेही को सुनिश्चित करना. इस मौके पर प्रो. कुमार ने कहा, ‘स्वराज अभियान शुरू से आंतरिक लोकतंत्र, पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर प्रतिबद्ध रहा है. आंतरिक लोकतंत्र सुनिश्चित करने के लिए 100 से ज्यादा जिलों व कम से कम छह राज्यों में संगठनात्मक चुनाव की प्रक्रिया पूरी करनी थी. अब तक 114 जिलों व सात राज्यों में आंतरिक चुनाव के जरिए संगठन निर्माण की प्रक्रिया पूरी कर ली गई है.’
दिल्ली में हुए राष्ट्रीय प्रतिनिधियों के सम्मेलन में ‘राजनीतिक दल निर्माण के प्रस्ताव’ पर गहन विचार-विमर्श हुआ. प्रतिनिधियों के बीच सामूहिक चर्चा हुई, जिसके बाद प्रस्ताव पर सदस्यों की ओर से विधिवत वोटिंग भी हुई. प्रतिनिधि सम्मेलन में मीडिया की मौजूदगी में नतीजों की घोषणा हुई, जिसमें 92.5 फीसद के बहुमत ने राजनीतिक दल के प्रस्ताव पर मुहर लगाई. राष्ट्रीय प्रतिनिधियों की ओर से कुल 433 वोट पड़े, जिसमें 405 लोग प्रस्ताव से सहमत, 26 असहमत और दो वोट अमान्य पाए गए. राष्ट्रीय प्रतिनिधियों की सहमति के बाद स्वराज अभियान ने राजनीति की राह पर आगे बढ़ने का फैसला किया. इस अधिवेशन में राजनीतिक दल निर्माण की घोषणा के साथ देश में वैकल्पिक राजनीति की स्थापना के लिए आवाज बुलंद की गई. कहा गया कि पार्टी बनने के बाद भी स्वराज अभियान कायम रहेगा और इसके बैनर तले जन आंदोलन चलते रहेंगे. संगठन ने दावा किया कि पार्टी में लोकतंत्र, पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित की जाएगी.
स्वराज अभियान नाम से आंदोलन चला रहे इन नेताओं का पार्टी बनाकर चुनाव में उतरना आम आदमी पार्टी के लिए बड़ा झटका है
पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए स्वराज अभियान ने स्वेच्छा से खुद को सूचना के अधिकार के तहत रखा है और जन सूचना अधिकारी भी नियुक्त किया है. संगठन में जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए तीन सदस्यीय लोकपाल नियुक्त किया गया है. प्रतिनिधि सम्मेलन में प्रशांत भूषण ने स्वराज अभियान के लोकपाल के तौर पर कामिनी जायसवाल, सुमित चक्रवर्ती और नूर मोहम्मद का परिचय कराया. संगठन में शिकायत निवारण समितियां भी बनाई गई हैं. अधिवेशन को संबोधित करते हुए योगेंद्र यादव ने कहा, ‘हमारे लिए पार्टी बनाने का मतलब है कि देश में सच्चाई और ईमानदारी की ऊर्जा जहां कहीं भी है, उसे जोड़ना. हम सच्चाई और ईमानदारी की ऊर्जा को संगठित करके वैकल्पिक राजनीति की एक मिसाल पेश करेंगे. स्वराज अभियान ने देश का पहला ऐसा राजनीतिक-सामाजिक संगठन होने का दावा किया है जिसने इतने बड़े पैमाने पर आतंरिक संगठनात्मक चुनाव संपन्न कराए हैं.’
ये दावे स्वराज अभियान की तरफ से किए जा रहे हैं, लेकिन हम आपको 2016 से कुछ साल पीछे ले जा रहे हैं जब अन्ना हजारे के नेतृत्व में लोकपाल आंदोलन के माध्यम से पूरे देश में एक बड़ी क्रांति आई. उसके दो परिणाम हुए. पहला- केंद्र में शासन करने वाली भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस रसातल में जा पहुंची. दूसरा- सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन से जुड़े बहुत-से सहयोगियों ने आम आदमी पार्टी नाम से एक नए राजनीतिक दल का गठन किया. इस पार्टी ने अब दिल्ली में सरकार बनाई है. हालांकि अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी जनलोकपाल आंदोलन को राजनीति से अलग रखना चाहते थे, जबकि अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण समेत उनके दूसरे सहयोगियों की यह राय थी कि पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा जाए. इसके गठन की आधिकारिक घोषणा 26 नवंबर, 2012 को भारतीय संविधान अधिनियम की 63वीं वर्षगांठ के अवसर पर दिल्ली के जंतर मंतर पर की गई थी. उस दौरान भी आज के स्वराज अभियान से जुड़े नेताओं ने आम आदमी पार्टी को सबसे अलग बताया था. हालांकि पार्टी के गठन के तीन साल के भीतर ही इन तमाम नेताओं का आम आदमी पार्टी से मोहभंग हो गया. इस दौरान एक बात गौर करने वाली है कि योगेंद्र यादव को आम आदमी पार्टी का ‘चाणक्य’ माना गया था.
इसके बाद केजरीवाल से नाराज योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मिलकर 14 अप्रैल, 2015 को स्वराज अभियान नामक संगठन बनाया और धीरे-धीरे उसे देश के सैकड़ों जिलों तक फैलाया. आम आदमी पार्टी से निकाले जाने के बाद ‘स्वराज अभियान संगठन’ के लिए इन नेताओं ने जमीनी स्तर पर काम किया. हालांकि इन नेताओं की व्यक्तिगत काबिलियत अपनी जगह है, लेकिन राजनीति के जानकार कुछ सवाल उठाते हैं. स्वराज अभियान राजनीति में आखिर ‘नया’ क्या करेगा? अभी जो धरातल पर काम करने की बात हो रही है उसकी चर्चा राजनीति के रंग में रंगने के बाद कौन करेगा? क्या दो अक्टूबर को गठित होने वाली नई पार्टी में प्रशांत भूषण या योगेंद्र यादव तानाशाही की स्थिति में नहीं होंगे? फिलहाल जो शुरुआती बातें सामने आई हैं, उसके अनुसार इस पार्टी का उद्देश्य भी आम आदमी पार्टी की तरह सच्चाई और ईमानदारी के साथ ‘आम आदमी’ की सेवा करना और किसान-मजदूर का हितों का ख्याल रखना है.
अभी स्वराज अभियान से जुड़े नेताओं का कहना है कि राजनीतिक पार्टी बनने के बाद वे बड़बोलापन नहीं करेंगे और झूठ व नौटंकी से दूर रहेंगे. उनका इशारा शायद दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की चल रही ‘नौटंकी’ ओर रहा होगा. हालांकि अरविंद की नौटंकी में भला उनका हिस्सा क्यों न माना जाए? जब अरविंद आंदोलन के दौर से ही अन्ना हजारे, किरण बेदी समेत दूसरी हस्तियों को अपनी महत्वाकांक्षा के लिए किनारे लगा रहे थे तब इन नेताओं ने विरोध क्यों नहीं किया?
इसके साथ ही एक सवाल पार्टी के चेहरे को भी लेकर है. इस पार्टी में योगेंद्र यादव एक लोकप्रिय व्यक्ति जरूर हैं, मगर उनकी पहचान भी सीमित प्रभाव वाली ही है. आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़कर वे हार का भी सामना कर चुके हैं. इसके अलावा ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने राजनीतिक पार्टी बनाने में थोड़ी जल्दबाजी कर दी है. अभी तक स्वराज अभियान संगठन की वेबसाइट ठीक ढंग से काम नहीं कर रही है. इस संगठन के फेसबुक पेज पर 24 हजार से भी कम लाइक हैं और ट्विटर पर मात्र 13 हजार फाॅलोवर हैं. ऐसा नहीं है कि वेबसाइट, फेसबुक या ट्विटर से ही राजनीति होती है लेकिन इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि ये इसमें अहम भूमिका निभाते हैं.
हालांकि विश्लेषकों का मानना है कि आम आदमी पार्टी से अलग होकर स्वराज अभियान नाम से आंदोलन चला रहे इन नेताओं का पार्टी बनाकर चुनाव में उतरना आप के लिए बड़ा झटका है. आप नेता अगले साल होने वाले पंजाब चुनाव की तैयारी में जुटे हैं. इस नई पार्टी की भी पंजाब में चुनाव लड़ने की पूरी संभावना है. प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव दोनों पंजाब में खूब मेहनत कर रहे हैं. इसके अलावा आप से निकाले गए दोनों सांसद स्वराज अभियान के संपर्क में हैं. जिस कार्यक्रम में नई पार्टी बनाने का एेलान किया गया, उसमें भी आप से निकाले गए सांसद धर्मवीर गांधी मौजूद थे. बताया जा रहा है कि दूसरे सांसद हरिंदर खालसा भी योगेंद्र और प्रशांत भूषण के संपर्क में हैं. सूत्रों का कहना है पार्टी इन दोनों का चेहरा आगे कर सकती है.
हालांकि वोट के लिहाज से पार्टी की क्या स्थिति रहेगी, इस बारे में स्वराज अभियान के नेता कुछ नहीं कह रहे हैं. लेकिन उनका कहना है कि अवधारणा के स्तर पर वे आप को बहुत नुकसान पहुंचाएंगे. आप के बारे में ईमानदार होने की जो धारणा बनी है, उसे खत्म करने का अभियान चलेगा.वहीं जानकारों का कहना है कि स्वराज पार्टी का गठन शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी गठबंधन के लिए अच्छी खबर है. पार्टी के गठन के बाद सत्ता विरोधी मतों में विभाजन होगा. हालांकि स्वराज पार्टी के गठन से जमीन पर किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं जताई जा रही है.
फिलहाल स्वराज अभियान के बारे में उसकी वेबसाइट पर कहा गया है, ‘स्वराज अभियान शुभ को सच में बदलने की एक साझी कोशिश है. यह एक सुंदर देश और दुनिया के सपने को हमारी और आने वाली पीढ़ियों के लिए साकार करने का आंदोलन है. यह एक सिलसिला है जो बाहर की दुनिया को बदलने के साथ-साथ खुद अपने भीतर बदलाव के लिए भी तैयार है. यह राजनीति को युगधर्म मानकर स्वराज की ओर चला एक काफिला है.’ उम्मीद है कि नए राजनीतिक दल के गठन के बाद भी स्वराज अभियान से जुड़े नेता इन बातों को याद रखेंगे.