मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद जम्मू-कश्मीर सरकार के फिर से गठन को लेकर लग रही तमाम अटकलों के बीच भाजपा ने कहा है कि पिछले 8-9 महीने से जिस व्यवस्था के तहत सरकार चल रही थी, भाजपा उसी के साथ आगे बढ़ना चाहेगी. यानी अगर पीडीपी महबूबा मुफ्ती को विधायक दल का नेता चुनती है तो भाजपा उनका समर्थन करेगी.
भाजपा ने राज्य में किसी भी नए या पुराने गठबंधन की सरकार बनाने की कोशिशों को सिरे से खारिज करते हुए कहा है कि मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद उनका परिवार शोक में था, इसलिए कोई भी राजनीतिक चर्चा हुई ही नहीं है. आगे जो भी होना है, उसकी शुरुआत पीडीपी को करनी है. भाजपा पीडीपी की पहलकदमी का इंतजार कर रही है.
भाजपा महासचिव राम माधव ने सोमवार सुबह ‘तहलका’ को बताया बताया, ‘मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद भाजपा समेत सभी दलों के नेता पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती से मिलने जरूर गए, लेकिन ये मुलाकातें संभवत: शोक संवेदना व्यक्त करने के क्रम में थीं.’ कांग्रेस के साथ मिलकर पीडीपी के सरकार बनाने की अटकलों को खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि अब तक किसी तरह की राजनीतिक चर्चा की शुरुआत नहीं हुई है. फिलहाल राज्य में राज्यपाल शासन है. राम माधव ने बताया, ‘सरकार के गठन को लेकर प्रक्रिया आज से शुरू होगी, जिसके अंजाम तक पहुंचने में एक दिन भी लग सकता है या एक सप्ताह, इस बारे में अभी ठीक-ठीक कुछ कहा नहीं जा सकता.’
रविवार को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और भाजपा नेता नितिन गडकरी ने महबूबा मुफ्ती से मुलाकात की थी. इस मुलाकात को राजनीतिक रूप से अहम माना जा रहा है, क्योंकि अब तक न तो पीडीपी की तरफ से विधायक दल का नेता चुना गया है, न ही भाजपा ने महबूबा को औपचारिक रूप से समर्थन दिया है. खबरें हैं कि भाजपा और पीडीपी में सरकार बनाने को लेकर जबरदस्त सौदेबाजी चल रही है.
सोनिया गांधी की महबूबा से मुलाकात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि 1999 में पीडीपी के गठन के पहले तक मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती कांग्रेस में ही थे. इसके अलावा 2002 से लेकर 2008 तक पीडीपी और कांग्रेस मिलकर सत्ता में रह चुकी हैं. हालांकि, भाजपा और कांग्रेस दोनों की ओर से इन मुलाकातों को शोक संवेदना के क्रम में हुई मुलाकात बता जा रहा है.
पीडीपी के साथ गठबंधन में अहम भूमिका निभाने वाले भाजपा महासचिव राम माधव ने कहा, ‘पीडीपी के साथ हमने एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सरकार बनाई थी. अगर पीडीपी उसी व्यवस्था पर आगे बढ़ना चाहती है तो हम भी उसी पर आगे बढ़ना चाहेंगे. राज्य के हित में यही होगा कि वह व्यवस्था जारी रहे. हालांकि, अब तक किसी भी तरह की बातचीत शुरू नहीं हुई है. मीडिया में जो खबरें छप रही हैं, वे सिर्फ अफवाह हैं. सोनिया गांधी के साथ महबूबा की क्या बात हुई, इस बारे में हम कुछ कह नहीं सकते. मेरे ख्याल से अन्य नेताओं की तरह सोनिया गांधी भी शोक संवेदना व्यक्त करने गई थीं, जो कि स्वाभाविक है.’
किसी जमाने में घरों में ‘हाईस्कूल में फर्स्ट डिवीजन लाओगे तो घड़ी दिलाएंगे’ जैसे जुमले सुनना आम था. घड़ी यानी एचएमटी ‘जनता’. और फिर जब घड़ी आती तो शुरू होते किस्से. पता चलता कि वो घड़ी जिसे पिताजी हाथ तक नहीं लगाने देते, वो उनकी पहली कमाई से खरीदी थी. मां की पहली ‘एचएमटी’ उनके पिताजी ने बीए पास होने पर दिलाई थी. ‘देश की धड़कन’ के नाम से मशहूर हुई इन घड़ियों से हिंदुस्तानी लोगों का भावनात्मक जुड़ाव रहा है.
कभी स्टेटस सिंबल रही एचएमटी (हिंदुस्तान मशीन टूल्स) की घड़ियां जल्द ही बाजार से नदारद हो जाएंगीं. केंद्र सरकार ने इन्हें बनाने वाली कंपनियों एचएमटी वॉचेज और एचएमटी चिनार वॉचेज को बंद करने का निर्णय लिया है. इस समूह की एक और कंपनी एचएमटी बियरिंग्स पर भी ताला लगेगा. ये तीनों कंपनियां लंबे वक्त से घाटे में चल रही थीं और सरकार का मानना है कि इनका पुनरुद्धार नहीं किया जा सकता.
एचएमटी समूह को पिछली तीन तिमाही के दौरान हर तिमाही में करीब 25 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है. पिछले वित्त वर्ष में भी इसे करीब 96 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था. पिछले पांच सालों में से चार साल के दौरान कंपनी ने घाटा ही उठाया है. इसी के चलते इसके पुनरुद्धार की उम्मीदें धूमिल हो गईं थीं. सरकार के इस फैसले से 1985 में उत्तराखंड के रानीबाग में एचएमटी की वॉच फैक्ट्री की नींव रखने वाले वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी खुश नहीं हैं. उन्होंने कहा, ‘मेरे सामने एचएमटी फैक्ट्री बंद न होती तो अच्छा होता.’
केंद्र सरकार के इस निर्णय के चलते कंपनियों में काम कर रहे करीब हजार लोगों की रोजी-रोटी पर तलवार लटक गई है. सरकार का कहना है कि प्रभावित कर्मचारियों को आकर्षक वीआरएस पैकेज दिया जाएगा. यह पैकेज 2007 के वेतनमान के आधार पर दिया जाएगा. तीनों कंपनियों को बंद करने और प्रभावित कर्मचारियों के वीआरएस के लिए 427.48 करोड़ रुपये फिलहाल मंजूर कर लिए गए हैं. फैसले के मुताबिक कंपनियों की चल-अचल संपत्तियों को सरकारी नीति के तहत बेचा जाएगा.
फिलहाल भारी उद्योग विभाग के अधीन मैन्यूफैक्चरिंग, कंसल्टेंस और कॉन्ट्रैक्टिंग करने वाले 31 केंद्रीय उपक्रम हैं, जिनमें 12 उपक्रम लाभ में और बाकी 19 घाटे में चल रहे हैं. इस चिंताजनक स्थिति को देखते हुए केंद्र सरकार ने ये फैसला किया है. केंद्र सरकार द्वारा चरणबद्ध तरीके से एचएमटी कंपनी को बंद करने का फैसला सितंबर 2014 में लिया गया था.
दृष्टिहीनों के लिए भी बनाई थी घड़ी
एचएमटी कंपनी की स्थापना वर्ष 1953 में की गई थी जबकि कंपनी की घड़ी बनाने की पहली इकाई वर्ष 1961 में बंगलुरू में जापान की सिटीजन वाच कंपनी के सहयोग से स्थापित की गई थी. साल 1972 और फिर 1975 में इस इकाई का विस्तार भी किया गया था.
बंगलुरू स्थित इस इकाई में बनी पहली घड़ी को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जारी किया था.
‘जनता’ घड़ी एचएमटी की सबसे लोकप्रिय घड़ियों में एक मानी जाती है. दूसरी घड़ियों में पायलट, झलक, सोना सबकी प्रिय थीं. दृष्टिहीनों के लिए भी कंपनी ने ‘एचएमटी ब्रेल’ घड़ी बनाई थी.
घड़ियों के पुर्जे बनाने के लिए 1978 में टुमकुर (कर्नाटक) और 1985 में रानीबाग (उत्तराखंड) में नई इकाईयां लगाई गईं थीं.
‘शीला दीक्षित बोलीं कि मेरे पास रोज 500 बलात्कार के मामले आते हैं. मैं किस-किस को देखूंगी’
गुड़िया के लिए यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी सहित तमाम नेता बड़े-बड़े वादे कर गए थे, लेकिन हुआ कुछ नहीं. पांच साल की गुड़िया अब अपने हाल पर है
दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम में बसा इलाका द्वारका. यहां की एक बस्ती में कुछ देर के इंतजार के बाद ही हमें गुड़िया के पिता मिल जाते हैं. वे बस्ती में बने एक मंदिर के पास से हमें लेने आए हैं. बस्ती में मौजूद अनगिनत गलियों में से एक से होकर गुजरते हुए हम गुड़िया के घर पहुंचते हैं. सिर पर दो छोटी-छोटी चोटियों और हाथों में स्लेट पकड़े हुए गुड़िया अपने छोटे भाई और मां के साथ खेल रही है. लगभग चार महीने अस्पताल में रहने के दौरान उसके छह बड़े ऑपरेशन हुए. अब वह स्वस्थ है. उसके पिता गोद में खेल रहे दोनों बच्चों को संभालते हुए कहते हैं, ‘डाक्टरों ने कहा है कि अब यह स्कूल जा सकती है. बिल्कुल ठीक है. अब हमारी सबसे बड़ी चिंता अपने बच्चों को स्कूल में दाखिल करवाने की है. जब मामला मीडिया में जोर-शोर से उठा था तब सभी ने बहुत लंबे-लंबे वादे किए थे. सोनिया गांधी खुद गुड़िया से मिलने आई थीं, उन्होंने हम दोनों से कहा था कि लड़की के स्वास्थ्य, शिक्षा और देखभाल का पूरा ध्यान रखा जाएगा. फिर गांधीनगर के हमारे नेता अरविंदर सिंह ने भी कहा था कि बच्चों के रहने और पढ़ने का पूरा इंतजाम किया जाएगा. लेकिन गुड़िया के इलाज और ऑपरेशन के सिवा अभी तक हमें सरकार से कोई मदद नहीं मिली है.’
दिल्ली गैंगरेप पर देश में मचा बवाल अभी शांत भी नहीं हुआ था कि 15 अप्रैल, 2013 को दिल्ली के गांधीनगर इलाके में दो लोगों ने पांच साल की गुड़िया का सामूहिक बलात्कार किया और फिर उसे एक बंद कमरे में मरने के लिए छोड़ दिया. डॉक्टरी जांच के दौरान यह पता चला कि अपराधियों ने बच्ची के शरीर में प्लास्टिक की बोतलें और मोमबत्तियां डाल दी थीं. अपने बच्चों के चेहरे को अपने पल्लू से साफ करते हुए गुड़िया की मां कहती हैं, ‘15 तारीख को जब गुड़िया खो गई तो हम लोगों ने पुलिस में शिकायत की, लेकिन पुलिस ने हमारी एक नहीं सुनी. अगर सिर्फ हमारी बिल्डिंग में ही खोजा होता तो शायद उसकी हालत इतनी खराब नहीं होती. उल्टा हम लोगों से ही पैसे मांगने लगे.’
एक ओर जहां गुड़िया के बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार हुए मनोज शाह और प्रदीप कुमार के खिलाफ अदालती कार्यवाही शुरू हो चुकी है वहीं दूसरी ओर गुड़िया के स्वस्थ होने के बाद से उसका परिवार कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रहा है. अपनी बच्ची के बलात्कार के पांच महीने बाद मीडिया और अनगिनत सामाजिक कार्यकर्ताओं की भीड़ से दूर, अपने एक कमरे के छोटे से घर में बैठे गुड़िया के पिता कहते हैं, ‘सोनिया गांधी तो गुड़िया से मिलकर चली गईं. उन्होंने पूरा आश्वासन भी दिया, लेकिन कुछ हुआ नहीं. फिर हम लोग शीला दीक्षित से मिलने पहुंचे. उन्होंने हमें यह कहकर भगा दिया कि मेरेे पास तो रोज 500 बलात्कार के मामले आते हैं. मैं किस-किस को देखूंगी? उन्होंने कहा कि हम अपने बच्चों को और उनके साथ हुए दुष्कर्म के मामलों को खुद संभालें. इस पूरे समय में हमें सिर्फ आम आदमी पार्टी और मीडिया का ही सहारा रहा है. मीडिया भी लगा रहा. इंडिया टुडे वाले पिछले पांच महीनों से हमारे कमरे का किराया दे रहे हैं, एक पत्रकार मैडम हमारी लड़की को पढ़ाने के लिए भी तैयार हो गई हैं. लेकिन मैं हैरान हूं कि सरकार हमारी मदद क्यों नहीं कर रही. हम गांव भी नहीं जा सकते क्योंकि वहां भी लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं. दिल्ली में भी अभी तक हमने चार मकान बदल लिए हैं.’
थोड़ा रुककर वे आगे कहते हैं, ‘अब जो हमारी लड़की के साथ यह सब हो चुका है तो हमारे लिए उसे पढ़ाना बहुत जरूरी है. अगर नहीं पढ़ेगी तो आगे कौन उसे सहारा देगा? उसे अपने पैरों पर खड़ा होना होगा वर्ना यह समाज रेप की शिकार लड़कियों के साथ कैसा सलूक करता है, यह तो आप जानती ही हैं. इसलिए मैं अपना सबकुछ लगाकर अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता हूं.’
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गोहाना, हरियाणा | सितंबर 2012
‘मन तो मर जाने का करता है, दीदी…’
गैंग रेप के बाद बिरादरी के दबाव में रागिनी को अदालत में अपने बयान से मुकरना पड़ा जिसके बाद उल्टे उसे ही सजा हो गई और आरोपित रिहा हो गए
‘दरवज्जा खुलवा दो री, जनानी आई है.’
10-12 साल का एक लड़का घर का दरवाजा खटखटाते हुए यह कहता है. हम हरियाणा के सोनीपत जिले की गोहाना तहसील के अटैल-इदाना गांव में हैं. इससे पहले हमने गांव के बीचों-बीच बने एक मैदान में क्रिकेट खेलते बच्चों से ‘धानुकों’ की गली में रहने वाले सुनील का पता पूछा था. पहले तो सब एक-दूसरे की ओर देखते हुए मुस्कराने लगे और फिर उन्होंने मैदान के सामने बने एक पक्के घर की ओर इशारा किया. हम चले ही थे कि एक लड़के ने अपना बल्ला जमीन पर फेंकते हुए कहा, ‘सुनील और उसके मां-बाप घर पर नहीं हैं. इसलिए दरवाजा तभी खुलेगा जब हममें से कोई बाहर से आवाज लगाएगा.’ सुनील की ही रिश्तेदारी में आने वाला यह लड़का अब हमारे साथ है और घर का दरवाजा खटखटा रहा है.
कुछ ही देर में दस-बारह साल की दो छोटी-छोटी लड़कियां आकर दरवाजा खोलती हैं. दरवाजे के ठीक सामने आंगन में भैस का तबेला है. तबेले के पीछे हैंडपंप पर घूंघट में ढकी एक लड़की कपड़े धो रही है. यह सुनील की पत्नी रागिनी है. दरवाजा जिन छोटी-छोटी लड़कियों ने खोला था वे रागिनी की ‘वर्तमान पारिवारिक पहरेदार’ हैं. 28 सितंबर, 2012 के बाद रागिनी चौबीसों घंटे अपने ही घरवालों और रिश्तेदारों की सख्त पहरेदारी में रहती है. वह अपने घर का दरवाजा खुद नहीं खोल सकती, किसी से बात नहीं कर सकती, घंटी बजने पर मोबाइल फोन नहीं उठा सकती, गर्मी से बेहाल होने पर भी अपने ही घर के आंगन तक में नहीं बैठ सकती. यहां तक कि शौचालय भी अकेले नहीं जा सकती. उसकी ससुराल में अब किसी को उस पर भरोसा नहीं है और कोई उसका चेहरा तक देखना पसंद नहीं करता.
लेकिन रागिनी की जिंदगी हमेशा से ऐसी नहीं थी. पिछले साल की गर्मियों में ही उसका ब्याह धूमधाम से पास ही के गांव में रहने वाले सुनील के साथ हुआ था. सब ठीक चल रहा था. वह अपने पति से बहुत प्यार करती थी और उसकी आंखों में वे हजारों सपने झिलमिला रहे थे जो कोई भी 19 साल की लड़की अपनी नई जिंदगी और नई-नई शादी को लेकर अपने मन में संजोती है. तभी अचानक एक अप्रत्याशित हादसे ने रागिनी की जिंदगी को हमेशा के लिए बदल दिया. अगर इस हादसे में उसके हाथ-पैर टूट जाते, उसका सामान चोरी हो जाता या कुछ बदमाश सड़क पर उसे लूटकर चाकू से जख्मी करके छोड़ देते, तब भी शायद वह इन सभी हादसों से उबर कर एक नई जिंदगी शुरू कर सकती थी. लेकिन 28 सितंबर, 2012 को रागिनी सामूहिक बलात्कार का शिकार हो गई. पांच दिन और चार रातों तक चार दरिंदों के कब्जे में रहने के बाद जब रागिनी दुर्दांत हिंसा की उस अंधेरी सुरंग से बाहर निकली तो उसकी जिंदगी भी जैसे खत्म हो चुकी थी. एक सामान्य नवविवाहिता से वह एक वेश्या, चोर और दोयम दर्जे की चरित्रहीन महिला में तब्दील हो चुकी थी. स्वयं पीड़ित होने के बावजूद लगातार पारिवारिक, और न्यायिक उपेक्षा से जूझती रागिनी की यह कहानी बलात्कार की शिकार महिलाओं के अंधेरे भविष्य की डरावनी तस्वीर हमारे सामने रखती है.
रागिनी का पति सुनील साइकिल पर बर्तन बेचने का काम करता है और उसके ससुर भी गांव में ही रेहड़ी लगाकर घरेलू सामान बेचते हैं. आज वे घर पर नहीं हैं. अपने एक कमरे के घर में हमें बिठाते हुए रागिनी घर में मौजूद ‘पहरेदार लड़कियों’ को बाहर भेजने की कोशिश करती है और धीरे से कहती है, ‘इनको कुछ लाने के बहाने से बाहर भेज दूं वर्ना मेरी सास को सब बता देंगी और फिर बहुत बुरा होगा. मेरे सासरे वाले जब भी बाहर जाते हैं, इन लड़कियों को मुझ पर नजर रखने के लिए छोड़ कर जाते हैं.’ लड़कियों को तबेले के कामों में उलझाने के बाद बात शुरू करते ही रागिनी सिसकने लगती है. मैं कहती हूं कि मन में जो भी है कह दो. वह कहती है, ‘मेरा मन? मन तो अब सिर्फ मर जाने का करता है, दीदी. कब से मरने की कोशिश कर रही हूं लेकिन ये लोग मरने के लिए भी अकेला नहीं छोड़ते वर्ना कब की मर जाती. अब मेरे बस की कुछ ना रही है’.
सितंबर, 2012 में रागिनी शादी के बाद पहली बार मायके वापस आई थी. बनवास गांव के अंतिम छोर पर बना एक कमरे का छोटा-सा घर रागिनी का मायका है जहां वह अपनी तीन बहनों और दो भाइयों के साथ रहती थी. रागिनी का परिवार ‘धानुक’ जाति में आता है और इसलिए उसका घर गांव के दलितों और पिछड़ी जातियों के टोले की सबसे अंतिम कतार में है. हरियाणा की पारंपरिक पिछड़ी जातियों में आने वाले ‘धानुक’ मूलतः सवर्णों के घरों की मिट्टी साफ करने और घास काटने का काम करते रहे हैं. लेकिन रागिनी के माता-पिता बंधुआ मजदूरी के साथ साथ पट्टे पर गांव के सवर्णों की भैंसें भी पालते हैं. रागिनी की मां संतोष कहती हैं, ‘हमने अपनी सालों की बचत मिलाकर लड़की का ब्याह किया था. तब वो ब्याह के बाद पहली बार घर आई थी. लेकिन यहीं गांव के सामने बने फाटक से उसे चार लड़के उठा के ले गए. फिर पांच दिन बाद वापस आई और उसकी हालत बहुत खराब थी. हम तो चाहते थे कि सभी अपराधियों को सजा हो. पुलिस में रिपोर्ट भी लिखवाई थी. लेकिन फिर धीरे-धीरे गांववालों और बिरादरी का दबाव बढ़ने लगा. हमारे सामने रिपोर्ट वापस लेने के सिवा कोई चारा नहीं बचा था.’
रागिनी के साथ यह हादसा सितंबर, 2012 के उस चर्चित समय में हुआ था जब अचानक एक महीने में हुई बलात्कार की 20 घटनाओं की वजह से हरियाणा राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गया था. वह बताती है, ‘मायके में मैं अपने पड़ोस में रहने वाली माफी के घर जाया करती थी. वह गांव में ब्यूटी पार्लर चलाती थी और मुझे सिलाई भी सिखा देती थी. 28 सितंबर को उसी ने मुझसे कहा कि तेरे पति का फोन आ रहा है बार-बार. वो तुझे फाटक पर बुला रहा है. लेकिन फाटक पर मेरे पति नहीं थे.’
गोहाना फाटक नाम की उस जगह से सुनील और संजय नामक दो लोगों ने रागिनी का अपहरण कर लिया. ये दोनों पास ही के खिंदारी गांव के रहने वाले थे. वहां से एक सफेद कार में उसे गोहाना-खकरोही रोड पर मौजूद चावल के खेतों में बने एक सुनसान कमरे में ले जाया गया. वहां दो लोग और थे. अहमदपुर माजरा गांव का अनिल और हताडी गांव का श्रवण. रागिनी आगे बताती है, ‘उन्होंने मुझे कुछ सुंघाकर बेहोश कर दिया था. फिर जब होश आया तो मैं खेतों के बीच बने एक पानी के पंप वाले कमरे में थी. वो चारों मुझे नोच रहे थे. अपने मोबाइल पर गंदी फिल्में देखते, हंसते और फिर मुझे नोचते. चार दिनों तक मैं बिना कपड़ों के रही. फिर वे मुझे कुरुक्षेत्र और फिर पानीपत ले गए. मैंने अपनी शादी में मिले कुछ गहने पहने थे. एक जोड़ी बालियां, पाजेब और एक अंगूठी थी. सब बेच दिया और आखिर में मुझे एक फटा-पुराना सलवार कुर्ता पहनने के लिए दिया. में इतनी जख्मी थी कि बेहोश हो चुकी थी. मैंने उनसे मुझे छोड़ने की मिन्नतें कीं लेकिन वे हंसते और फिर मुझे नोचने लगते. तभी मुझे मौका मिला और मैंने चुपके से अपने पापा को फोन कर दिया. फिर पुलिस मुझे लेने आई. लेकिन तब तक पांच दिन गुजर चुके थे.’
‘जरा सी कंघी कर लूं या गर्मी लगे और खाट आंगन में निकाल कर लेट जाऊं तो मेरा देवर और जरा-सी ननद पूछते हैं कि अब किसको बुलाएगी, दिल नहीं भरा?’
रागिनी और उसके परिवार का कहना है कि माफी इस साजिश में शामिल थी लेकिन उन्हें उसे पुलिस हिरासत से बाहर निकलवाना पड़ा. संतोष बताती हैं, ‘मामला पुलिस में जाने के बाद हमें पता चला कि चारों लड़के हमारी ही बिरादरी के हैं. पहले तीन महीने तो गांववालों ने साथ देते हुए कहा कि माफी को बाहर निकाल लो, बाकी लड़कों को अंदर ही रहने दो. सब कह रहे थे कि अब रागिनी इदान गांव की बहू है और माफी बनवास गांव की इज्जत. बहुत दबाव की वजह से हमें माफी के खिलाफ सारे आरोप वापस लेने पड़े. फिर यही चक्कर चारों लड़कों के लिए भी शुरू हो गया. बिरादरी के लोग दस दिन तक हमारे दरवाजे पर बैठे रहे. उन लड़कों के गांवों के बड़े-बूढ़े भी आ गए. रागिनी के सासरे वालों का भी दबाव था. वे कह रहे थे कि उनके लड़के की जान को खतरा है. लड़की की दूसरी शादी तो होती नहीं और ये लोग भी उसे ससुराल नहीं ले जाते. फिर हमें बयान बदलना ही पड़ा.’
रागिनी कहती है, ‘मेरे बस में कुछ नहीं था. ससुरालवालों को लगता था कि केस चला तो उनकी बदनामी होगी. फिर इनकी जान को भी खतरा था. सबने कहा कि अगर ससुराल में रहना है तो अदालत में बयान बदल दूं. अदालत को बता दूं कि मेरे साथ कोई बलात्कार नहीं हुआ था, कि उन पांच दिनों में मैं अपने ससुराल में थी और अस्पताल की रिपोर्ट इसलिए ऐसी आई क्योंकि मैंने अपने पति के साथ संबंध बनाए थे. मैंने वही कह दिया. वहां बिरादरी के सारे लोग थे. मैं सच नहीं बोल सकती थी.’ 24 अप्रैल, 2013 को अत्तिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश मनीषा बत्रा ने झूठा बयान देने के आरोप में रागिनी को 10 दिन की कैद और 500 रु के जुर्माने की सजा सुना दी. रागिनी के मामले को बलात्कार पीड़ित महिलाओं पर पड़ने वाले सामाजिक दबाव और पुनर्वास नीतियों की नामौजूदगी का उदाहरण बताते हुए राष्ट्रीय जनवादी महिला समिति की उपाध्यक्ष जगमति सांगवान कहती हैं, ‘यह बलात्कार के सबसे वीभत्सतम मामलों में से है. न्यायपालिका भी लड़की पर पड़ रहे दबाव को महसूस नहीं कर पाई और उसी को सजा दी गई. और यह सब जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों के लागू होने के बाद हो रहा है. साफ है कि नए कानून भी महिलाओं को न्याय दिलाने में असफल हो रहे हैं.’
इस बीच रागिनी की जिंदगी का नरक जारी है. पुलिस में शिकायत करने की बात करते ही वह कहती है, ‘सवाल ही पैदा नहीं होता. यहां सबको यही लगता है कि मैं ही दोषी हूं. सब कहते हैं कि मैं उन लड़कों को जानती थी और खुद उनके साथ मजे उड़ाने के लिए भाग गई थी. जरा सी कंघी कर लूं या गर्मी लगे और खाट आंगन में निकाल कर लेट जाऊं तो मेरा छोटा-सा देवर और जरा-सी ननद पूछते हैं कि अब किसको बुलाएगी, अभी तक दिल नहीं भरा. सब बदचलन और घटिया लड़की कहते हैं. मेरी सास कहती है कि मैं खराब हो गई हूं इसलिए मुझे अभी तक बच्चा नहीं हुआ. मेरा पति भी नहीं समझता. कहता है कि मैं अपनी मर्जी से ही भागी थी. मैं सांस नहीं ले पाती और आप पुलिस में शिकायत की बात कर रही हैं? इसमें मेरी क्या गलती थी? मेरी तो बहुत इच्छा है कि उन चारों को कड़ी से कड़ी सजा मिले. लेकिन मेरे चाहने से क्या होता है? मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है. सिर्फ चुप रहना है. इसलिए मैं चुप रहती हूं.’
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बांदा, उत्तर प्रदेश | दिसंबर 2010
‘बिरादरी नाराज है क्योंकि हमने अन्याय के खिलाफ कुछ ज्यादा ही जोर से आवाज उठा दी’
पहले तो सारी दुनिया ने पूछा, लेकिन अब परिवार तक साथ नहीं. फिर भी पिछले ढाई साल से नीलू एक स्थानीय विधायक के खिलाफ अकेले लड़ रही है
अपने काले ट्रैक सूट और बालों के कसे हुए जूड़े के साथ खेतों में घूमती नीलू निषाद के अपने व्यक्तित्व में भी उतना ही तीखा विरोधाभास है जितना खांटी बुंदेलखंडी इलाके में बनी उसकी एक कमरे की झोपड़ी और उसके पहनावे में. हम उत्तर प्रदेश में बांदा जिले के शाहबाजपुर गांव में हैं. नीलू से हमारा परिचय बुंदेलखंड के एक पिछड़े इलाके में रहने वाली निचली जाति की एक ऐसी लड़की के तौर पर होता है जो पिछले ढाई साल से राजनीतिक रूप से मजबूत, एक स्थानीय सवर्ण विधायक के खिलाफ एक खतरनाक कानूनी लड़ाई अकेले लड़ रही है. नीलू के मुताबिक बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के स्थानीय विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी ने उसके साथ दो बार बलात्कार किया, उसे भयानक शारीरिक प्रताड़ना दी गई और फिर द्विवेदी ने अपने गुर्गों की मदद से उसी पर चोरी का आरोप लगाकर उसे जेल भिजवा दिया. तब वह सिर्फ 17 साल की थी.
शारीरिक हिंसा के मामलों में पीड़ित की पहचान गोपनीय रखे जाने से संबंधित कई लिखित और अलिखित कानून मौजूद हैं. इसके बावजूद बांदा का नीलू कांड भारत में बलात्कार का एक ऐसा दुर्लभ मामला है जिसे पहचाना ही पीड़िता के नाम से जाता है. भारत के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार बुंदेलखंड जैसे क्षेत्र में रहकर सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय विधायक के खिलाफ इंसाफ की लड़ाई लड़ने की पूरी प्रक्रिया ने नीलू को भावनात्मक तौर पर एक मजबूत इंसान में तब्दील किया है. लेकिन थोड़ी-सी बातचीत के बाद जब उसकी हिचक खुलती है तो पता चलता है कि वह अपना यही नाम बदल कर कहीं दूर चले जाना चाहती है. एक सामान्य जीवन जीना चाहती है. नीलू कहती है, ‘मोहे कुछ नहीं करना इन पार्टी और राजनीति से. एक बार फैसला आ जाए फिर मैं कहीं दूर चली जाऊंगी. जहां कोई मेरा नाम ‘नीलू’ नहीं जानता हो. इतने सारे लोग मिट्टी-मजूरी करके जी रहे हैं शहरन में, मैं भी गारा-मिट्टी करके दो रोटी कमा लूंगी.’
यह कहते-कहते वह खामोश हो जाती है. और यहीं साफ दिखता है कि पत्थर की सी इच्छाशक्ति रखने वाली यह लड़की भावनात्मक रूप से कितना टूट चुकी है. नीलू से आगे बात करते हुए उसके विरोधाभासी व्यक्तित्व की परतें भी सामने आने लगती हैं जो एक लंबी सामाजिक और कानूनी लड़ाई से उपजी हैं.
बांदा की नरैनी तहसील में पड़ने वाले शाहबाजपुर गांव में पहुंचने पर नीलू का पता पूछिए तो स्थानीय लोग लगभग एक ही बात कहते हैं-जिस झोपड़ी के सामने पुलिस के पांच सिपाहियों और एक दरोगा का काफिला बैठा दिखाई दे जाए वही घर है. नीलू अपने एक कमरे के झोपड़े में अकेले रहती है. हमारे पहुंचने पर अपने फोन में बजते पुराने फिल्मी गाने बंद करते हुए वह कहती है, ‘मेरा सर बहुत दुखता रहता है. इसलिए केस से थोड़ी देर के लिए दिमाग हटाने के लिए गाने सुनती रहती हूं.’ बातचीत की शुरुआत में ही सबसे पहले अपनी उम्र स्पष्ट करते हुए वह कहती है, ‘आज मैं 18 साल और सात महीने की हूं. घटना के समय मेरी उम्र 17 साल और दो महीना थी. असल में, जब मैं बहुत छोटी थी, तभी मेरी मां गुजर गईं. पिताजी बसपा में पिछले 17 सालों से सक्रिय थे…वो स्थानीय पंचायत स्तर पर काम संभालते थे. द्विवेदी भी यहीं नरैनी से सांसद थे. एक बार दौरे पर आए थे और घर भी आए. मुझे देखते ही मेरे पिता से बोले कि अपनी लड़की से कहो जरा पानी तो पिलाए. मैं पानी लेकर गई तो पूछने लगा कौन क्लास में पढ़ती हो. मैंने कह दिया हमें नहीं पता है, पानी पी लो. तो हमारे पिता से जा के बोला कि तुम्हारी बेटी तो कितनी सुंदर है और कुछ बोलती नहीं है. इसे हमारे यहां भेज दो. वहीं पढ़ाएंगे, काम सिखाएंगे और ब्याह करवा देंगे. मेरे पिता मुझे उसके घर ले भी गए लेकिन मैंने जिद करके मना कर दिया कि मुझे नहीं रहना विधायक के घर. बस तभी से पीछे पड़ गया था ये मेरे.’
दरअसल गरीब पृष्ठभूमि की वजह से अपनी मां की मौत के बाद नीलू मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा पर बसे हमीरपुर कस्बे में अपनी नानी के गांव चली गई थी. लेकिन वहां भी गरीबी के कारण उसे कुछ ही दिनों में लच्छीपुर में रहने वाली अपनी मौसी के घर भेज दिया गया. सबसे पहले 2010 की सर्दियों में लच्छीपुर से उसका अपहरण किया गया. वह कहती है, ‘सोते हुए मेरे हाथ-पैर-मुंह बांधकर उठवा लिया था. रज्जू पटेल, रावण…सब विधायक के आदमी थे. वो लोग मुझे महुयी के जंगल में ले गए और वहां तीन दिन रखा. वो मुझे भूखा रखते और रात को नदी के ठंडे पानी में डुबो-डुबो कर पूछते कि मैंने विधायक को मना क्यों किया. पीछे मेरे पिता जी ने परेशान होकर पहले नरैनी कोतवाली में शिकायत की और बाद में अतर्रा थाने में. लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई. इधर विधायक ने अपनी चाल के अनुसार उन्हें भड़काया कि तुम्हारी लड़की को गुंडे उठा ले गए हैं, हम छुड़वा तो दें पर उसके बाद वो हमारी कोठी पर ही रहेगी. उसका ब्याह भी हम ही करवा देंगे, तुम चिंता मत करो. इस पर मेरे पिता तो विधायक के पैरों में गिर गए और कहा कि बस कैसे भी मेरी बेटी को बचा लो. फिर विधायक के आदमी मुझे उसके यहां ले आए. तब तक मैं बहुत बीमार हो चुकी थी. मेरे पिता के सामने ही विधायक बोला, अब रोना गाना नहीं. यहीं खाना बनाओ, काम करो. हम तुम्हारे लिए लड़का ढूंढ़ कर तुम्हारी शादी करवा देंगे यहीं. तुम उसका भी काम करना और हमारा भी. तब हम लोग समझ ही नहीं पाए कि वो किस काम की बात कर रहा है.’
‘मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा कि साहेब मैं तुम्हारी मार खा लूंगी, कूड़ा खा लूंगी, मुझे माफ करो, मैं तुम्हारी लड़की हूं. लेकिन वो जानवरों की तरह मुझ पर टूट पड़ा’
आठ दिसंबर, 2010 को नीलू अतर्रा थाना क्षेत्र में आने वाले पथरा गांव से बरामद हुई और बसपा विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी के निवास पर एक घरेलू सहायक की तरह काम करने लगी. पिता अच्छेलाल निषाद के बसपा कार्यकर्ता होने की वजह से परिवार को पुरुषोत्तम पर पूरा विश्वास था. लेकिन नौ और 10 दिसंबर के बीच की रात नीलू के लिए एक और बुरा सपना बनकर आई. अपने साथ हुई हिंसा को याद करते हुए वह बताती है, ‘हम रात को काम करके सोए थे. वह अचानक आया और हमारी चद्दर हटाते हुए बोला कि हमने जो कहा था, कुछ समझी तुम? कहते हुए हमें कपड़े उतारने के लिए कहने लगा. मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा कि साहेब मैं तुम्हारी मार खा लूंगी, तुम्हारा कूड़ा खा लूंगी, मुझे माफ करो, मैं तुम्हारी लड़की हूं. मैं रोती रही और उसने ब्लेड से मेरे सारे कपड़े फाड़ दिए. फिर वो मुझे जानवरों की तरह चबाने और नोचने लगा. पूरे नाक-कान कट-छिल गए थे. शरीर सूज गया था. पूरे पैरों से खून बह रहा था. फिर मुझे मां की गाली देते हुए बोला कि चुप रहना, अगर किसी को बताया तो गोली मार दूंगा. मैं पूरा दिन चुप-चाप रोती रही और खून बहता रहा. फिर शाम को आया और वही किया. एक रात निकल गई. तीसरी शाम मैंने अपने पिता को फोन किया तो उन्होंने कहा वो सुबह मुझे लेने पहुंचगे. लेकिन रात को वह मुझ पर फिर टूट पड़ा और मैं किसी तरह पीछे के दरवाजे से भाग आई. सर्दी की रात में रास्ता भी दिखाई नहीं देता था. वहीं तुर्रा पुलिया के नीचे नीचे बने नाले में छिपी पड़ी रही रात भर. फिर सुबह विधायक अपने आदमी और पुलिस के साथ आया और मुझे ढूंढ लिया. मेरे मिलते ही उन्होंने पुलिस को वापस भेज दिया और उसके आदमी मुझे जानवरों की तरह पीटने लगे. लात-घूंसों के साथ-साथ रावण ने मेरे कपड़े फाड़ कर पेशाब के रास्ते में बंदूक की नाल डाल दी. मेरा पूरा शरीर खून से लथपथ हो गया और मैं बेहोश हो गई. फिर दोपहर 12 बजे विधायक मुझे पुलिस थाने ले गया. वहां पता चला मुझ पर चोरी का झूठा मुकदमा दर्ज किया है. शाम आठ बजे तक ये लोग मुझे जेल ले गए. विधायक ने मुझसे कहा कि मैं अदालत में कह दूं कि मैंने चोरी की है वर्ना वो मुझे गोली मार देगा. मैं चुप रही, लेकिन अदालत में मैंने जज को सब कुछ बताया. और फिर मीडिया को भी मालूम चल गया.’
नीलू बलात्कार कांड के सुर्खियां बटोरने के साथ ही मामले ने सियासी रंग लेना शुरू कर दिया. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के राज्य स्तरीय नेताओं के वक्तव्यों के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने पहले तो पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी को पार्टी से निष्कासित किया और फिर लगभग एक महीने बाद नीलू की रिहाई के आदेश भी जारी कर दिए. साथ ही पड़ताल के लिए मामला राज्य की क्राइम ब्रांच को सौंप दिया गया. जांच के बाद पुरुषोत्तम नरेश, रावण, वीरेंदर गर्ग, सुरेश मेहता उर्फ रघुवंशी द्विवेदी और राजेंद्र शुक्ला सहित पांचों आरोपितों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किये गए. इसी बीच सन 2012 में हरीश साल्वे की जनहित याचिका के आधार पर जांच के लिए यह मामला केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई को सौंप दिया गया. सीबीआई ने अपने नए आरोप-पत्र में पुरानी धाराओं के साथ-साथ द्विवेदी पर धारा 376 के तहत बलात्कार का आरोप भी तय किया. तीन बार सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत की अर्जी खारिज किए जाने के बाद द्विवेदी और रावण अब लखनऊ जेल में बंद हैं. मामले की सुनवाई लखनऊ स्थित सीबीआई की विशेष अदालत में चल रही है.
इस बीच नीलू से मिलने राहुल गांधी से लेकर जया प्रदा, स्मृति ईरानी, रीता जोशी बहुगुणा और विवेक सिंह जैसे भाजपा, सपा और कांग्रेस के कई बड़े नेता पहुंचे. कई पार्टियों ने उसे आर्थिक मदद भी दी. लेकिन इस पूरी लड़ाई के दौरान नीलू ने बहुत कुछ खोया भी. हादसे की शुरुआत में उसके साथ खड़े उसके परिवार के लोग अब उससे बात तक नहीं करना चाहते. अपने साथ हुए न्याय के बारे में पूछने पर वह रोआंसी होकर कहती है, ‘बस फैसले का इंतजार है दीदी. फिर हम चले जाएंगे यहां से कहीं. हमारे पिता, भाई, रिश्तेदार, गांव-वाले…कोई हमसे नहीं बोलता. सबने हमारा साथ छोड़ दिया है. सबको बुरा लगता है कि हमारी झोपड़ी के सामने पुलिस वाले रहते हैं, हमसे मिलने नेता और पत्रकार आते हैं. सबको लगता है कि हमने अपने अन्याय के खिलाफ कुछ ज्यादा ही जोर से आवाज उठा दी. लेकिन जो हमारे साथ हुआ, उसके बाद धीरे से कैसे आवाज उठाई जाती है, हमें नहीं पता. हमारा बस चलता तो ऐसा करने वालों को पटक के मारते. और हमने न्याय के लिए कितना कुछ सहा है. पचास बार बयान मांगा, पचासों बार दिया. अब गांववाले और हमारी बिरादरी के लोग इस बात से नाराज हैं कि हमने अपने लिए इतनी लड़ाई ही क्यों लड़ी. लेकिन हम अपने साथ हुए को कैसे माफ कर दें? अभी भी हमारा पूरा शरीर दर्द करता है. जेल में 20 दिन खून बहता रहा था और 15 दिन भूखी रही थी. इलाज भी नहीं करवाया था. पेशाब के रास्ते में आज भी टांकों के निशान हैं. पूरा शरीर फाड़ दिया था हमारा. कैसे भूल जाएं हम? अब हम अकेले हैं तो अकेले ही सही, लेकिन आखिर तक लड़ेंगे.’
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सिवनी, मध्य प्रदेश | जुलाई 2004
‘ये चपरासिन की नौकरी रोज मुझे याद दिलाती है कि मेरा बलात्कार हुआ था’
गांव का प्रभावशाली समुदाय उनके परिवार को सबक सिखाना चाहता था. यह मकसद परिवार की महिलाओं के साथ बलात्कार करके पूरा किया गया. भोमाटोला कांड के नाम से मशहूर इस कांड की तीन पीड़ित एक दशक बाद आज भी जिंदा लाश की तरह दिन काट रही हैं
दिल्ली से लगभग 900 किलोमीटर दूर, हम मध्य प्रदेश में सिवनी जिले के निरझर गांव में हैं. गांव के पिछले हिस्से में बसी दलित बस्ती में रहने वाले गोवर्धन कोसरे बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहे हैं. कोसरे के पांच कमरों के पक्के मकान में पहुंचते ही हमें घर के सबसे आखिर में बने एक छोटे से कमरे में भेज दिया जाता है. हम यहां 50 वर्षीया राधा बाई कोसरे, 50 वर्षीया कौशल्या बाई कोसरे और 30 वर्षीया माया बाई कोसरे से मिलने आए हैं.
लेकिन कोसरे परिवार हमेशा से निरझर गांव में नहीं रहता था. उनका मूल निवास भोम नामक स्थानीय कस्बे के पास बसे भोमाटोला गांव में था. लेकिन करीब नौ साल पहले भोमटोला के गोवली परिवारों के लगभग 150 पुरुषों ने अचानक एक रात मिलकर कोसरे परिवार पर हमला बोल दिया. आठ जुलाई, 2004 की उस रात घर में सिर्फ कोसरे परिवार की स्त्रियां मौजूद थीं. 40 वर्षीया राधा बाई कोसरे, उनकी जेठानी कौशल्या बाई कोसरे और तब सिर्फ 20 साल की माया बाई कोसरे. 150 लोगों ने पहले कोसरे परिवार के घर का दरवाजा तोड़ा, उसके बाद इन महिलाओं को घसीटकर बाहर निकाला गया और फिर कुल 16 लोगों ने इन तीन महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया.
गोवली मूलतः दूध, दही और जमीन का काम करने वाली यादव जाति में आते हैं. उस समय भोमाटोला गांव में 125 परिवार गोवलियों के थे तो 12 दलितों के. इस भयावह कांड की पृष्ठभूमि में एक घटना थी. दरअसल चार जुलाई, 2004 को संतोषी चंद्रवंशी नामक एक नाबालिग लड़की गुमशुदा हो गई. वह गोवली समुदाय की थी. कुछ ही देर में गोवलियों को यह मालूम चला कि गोवर्धन कोसरे का भतीजा नितेश कोसरे भी गायब है. संतोषी और नितेश एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे और संतोषी कई बार कोसरे परिवार के घर भी आ जाया करती थी. देखते ही देखते पूरे गांव में यह बात फैल गई कि दलितों का लड़का नितेश कोसरे गोवलियों की लड़की संतोषी चंद्रवंशी को लेकर भाग गया. गोवली समुदाय ने इसे अपनी इज्जत के खिलाफ मानकर कोसरे परिवार को सबक सिखाने की ठानी. गोवर्धन कोसरे कहते हैं कि इसके बाद उन्होंने एक योजना के तहत कोसरे परिवार की तीन महिलाओं का सामूहिक बलात्कार करके अपना तथाकथित बदला पूरा किया. इस घटना के बाद भोमाटोला गांव में लगातार बढ़ रही जातीय रंजिश के मद्देनजर कोसरे परिवार की सुरक्षा की दृष्टि से उसे नरझर गांव में पुनर्वासित किया गया.
घर के पिछवाड़े बने इस कमरे में राधा बाई, कौशल्या बाई और उनकी बहू माया बाई खामोश बैठी हैं. बातचीत के शुरुआती एक घंटे के दौरान ये महिलाएं लगभग खामोश रहती हैं और सिर्फ इतना कहती हैं कि अब वे इस हादसे को भूल जाना चाहती हैं और इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहतीं. लेकिन यह समझाने पर कि उनकी कहानी भारत में जातीय हिंसा के लिए स्त्रियों के इस्तेमाल के खिलाफ एक मजबूत उदाहरण पेश करती है, वे धीरे-धीरे हमसे बातचीत करना शुरू करती हैं. अपने गांव को याद करते हुए राधा बाई कहती हैं, ‘हमारा परिवार आम दलित परिवारों की तरह नहीं था. हमारी अपनी खेती-बाड़ी थी. हमारे खेतों में सीधे नहर का पानी आता था और हमारे घर में ताजे पानी के कुएं भी थे. हमारे घर की औरतें या आदमी गोवलियों की जमीनों पर खेती और मजदूरी करने नहीं जाते थे. मेरे पति ग्राम पंचायत में कोटवार (सचिव) के पद पर काम करते थे. हम अपने घर के बच्चों को कंप्यूटर पढ़ने भेजना चाहते थे. मुझे लगता है यही बातें गांव के गोवलियों को खटकती थीं. वे कभी नहीं चाहते थे कि हमारे पास अपने कुएं हों, हम अपनी जमीनों पर खेती करें और उनकी गुलामी करना छोड़ दें. गोवली कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि उनके टुकड़ों पर पलने वाले हम दलित अपने बच्चों को पढ़ाने के बारे में सोचें या यह कि हमारे परिवार से कोई पंचायत में सचिव बन जाए. उनकी लड़की तो हमेशा हमारे यहां आती-जाती थी. दोनों बच्चों के गायब होने के बाद हमारे आदमियों ने कितना कहा था कि वे लोग बच्चों को ढूंढ़ने में जुटे हैं. हमारे पारिवार के सभी मर्द उस रात भी इनकी लड़की को ही ढूंढ़ने नागपुर तरफ गए हुए थे. लेकिन ये लोग सुनने को तैयार ही नहीं थे. असल में बात लड़की की तो थी ही नहीं .गांव के सभी गोवली हमेशा से ही हमसे चिढ़ते थे. हमें साफ-साफ महसूस होता था यह.’
‘हम आज तक इस ख्याल से उबर नहीं पाए हैं कि हमारा सामूहिक बलात्कार हुआ था. और यह भी कि पूरे गांव ने हमें फटे कपड़ों में धूल-मिट्टी में घिसटते हुए देखा था’
वे आगे कहती हैं, ‘फिर जैसे ही उनकी लड़की और हमारा लड़का लापता हुए, उन्हें वह मौका मिल गया जिसकी तलाश में वे थे. यह लड़की-लड़के के भाग जाने से ज्यादा गोवलियों के गांव में रह रहे एक सबल और खुशहाल दलित परिवार को सबक सिखा कर अपनी ‘सही’ जगह दिखाने का मामला था.’
बातचीत के दौरान तीनों महिलाएं धीरे-धीरे सिसकने लगती हैं. अपनी मटमैली साड़ी से अपनी आंखों के कोर पोंछते हुए कोसरे परिवार की बहू माया जोड़ती हैं, ‘मेरी शादी को तब सिर्फ दो महीने ही हुए थे. आठ जुलाई की रात हम तीनों घर में बेचैनी से आदमियों के आने का इंतजार कर रहे थे. गोवलियों ने हमारे परिवार को धमकी दी थी कि अगर हमने आठ तारीख तक उन्हें उनकी लड़की वापस नहीं की तो वे हमें बर्बाद कर देंगे. उस दिन, शाम से ही गांव में यह बात फैली हुई थी कि कुछ होने वाला है. लेकिन जो हुआ, उसका हमें बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था.’ माया गोवलियों के हाथों सामूहिक बलात्कार का शिकार होने वाली कोसरे परिवार की सबसे कम उम्र की महिला थीं. राधा के साथ पांच लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया तो कौशल्या के साथ दो ने. माया के साथ नौ लोगों ने बलात्कार किया था. उस रात का घटनाक्रम याद करते हुए माया जोड़ती हैं, ‘रात के करीब 11 बजे के आस-पास अचानक दरवाजे पर भड़-भड़ की आवाज हुई. लगातार दरवाजा पीटा जा रहा था. हम घबरा गए. थोड़ी ही देर में दरवाजा अपने आप टूट गया. उन लोगों ने पहले इन्हें (राधा बाई की ओर इशारा करते हुए) उठाया और घसीटते हुए बाहर ले गए. फिर मुझे और कौशल्या ताई को भी घसीटते हुए खींच लिया गया. उसके बाद बहुत सारे आदमी सबके सामने हम तीनों को गांव की सड़कों पर घसीटने लगे. हम लोग रोते, चिल्लाते और चीखते रहे लेकिन हमारी किसी ने नहीं सुनी. पूरे कपड़े फाड़ दिए गए थे. हमें गांव के रास्तों पर सबके सामने घसीट रहे थे और हमें पीटते हुए गंदी-गंदी गालियां दे रहे थे. फिर मेरी सासों को अलग-अलग कोनों में ले गए और मुझे गांव के दूसरे छोर पर बने एक अलग कोने में. और फिर सबने बारी-बारी से मिलकर हमारे साथ गलत काम किया.’
आज भोमाटोला सामूहिक जातीय बलात्कार कांड को लगभग नौ साल हो चुके हैं लेकिन इन तीनों के मन के जख्म अब भी बिल्कुल ताजा हैं. अपना छूटा हुआ गांव याद करते हुए कौशल्या बाई कहती हैं, ‘अब तो हम सब जैसे-तैसेे जिंदा हैं. भले ही उस बात को इतने साल हो गए हों, लेकिन हम आज तक इस ख्याल से उबर नहीं पाए हैं कि हमारा सामूहिक बलात्कार हुआ था. और यह भी कि पूरे गांव ने हमें फटे कपड़ों में धूल-मिट्टी में घिसटते हुए देखा था. हम कभी भूल नहीं पाते उस रात को. बस जिंदा लाशों की तरह जिए जा रहे हैं.’
भोमाटोला बलात्कार कांड में 12 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई जा चुकी है. लेकिन दोषियों को सजा होने से भी कोसरे परिवार की तकलीफें ख़त्म नहीं हुई हैं. जाति आधारित सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई तीनों महिलाओं की वर्तमान स्थिति का हवाला देते हुए गोवर्धन कोसरे राज्य और केंद्रीय सरकारों के उदासीन रवैये का जिक्र करते हैं. अधूरे वादों की लंबी फेहरिस्त के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘हमें हमारे घर से उजाड़ कर यहां नरझर गांव के बिल्कुल बाहर जमीन दी गई थी. गांव के बाहर हम कैसे रहते? इसलिए हमें अपना पैसा लगाकर यहां दलित बस्ती में घर बनाना पड़ा. हमारी खेती-बाड़ी, नहर और कुएं सब चले गए. और बदले में हमें जो जमीन दी गई है वह बंजर है . मुआवजे के जिन पैसों का सरकार ने वादा किया था, वे भी नहीं मिले. हमने कहा था कि हमें सुरक्षा के लिए बंदूकें दी जाएं लेकिन मिले सिर्फ लाइसेंस. हमारी तीनों महिलाओं को नौकरी का वादा किया था, लेकिन सिर्फ बहू माया को पास के स्कूल में चपरासी बनाया गया.’ वे आगे कहते हैं, ‘अब मुझे लगता है कि मीडिया की वजह से कांड के समय तो सभी ने बड़े बड़े वादे कर दिए थे लेकिन असल में हमारी सरकार और प्रशासन बलात्कार पीड़ित महिलाओं को लेकर बिल्कुल संवेदनशील नहीं है. और खासकर अगर मामला दलित पीड़ितों का हो तो पुलिस और प्रशासन का बहरापन और भी ज्यादा बढ़ जाता है.’
बातचीत के दौरान ही माया स्कूल में जारी अपनी नौकरी पर जाने के लिए तैयार होने लगती हैं. निकलते-निकलते सिर्फ वे कहती हैं, ‘स्कूल में सबको पता है कि मुझे चपरासिन की यह नौकरी क्यों मिली है. यहां कोई आदमी मेरे जैसी औरत को स्वीकार नहीं करता लेकिन शुक्र है कि मेरे पति ने मुझे अपने घर में रहने दिया. और यह नौकरी? इस नौकरी पर जाना अपने आप में एक युद्ध है, लेकिन परिवार का पेट पालने के लिए जाना ही पड़ता है. लेकिन इससे बदला कुछ नहीं है, उल्टा नौकरी पर जाने से हमेशा मुझे यह बात याद आती रहती है कि मुझे यह नौकरी इसलिए मिली है क्योंकि मेरा बलात्कार हुआ था.’
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लखनऊ, उत्तर प्रदेश | मई 2005
‘हम पढ़ाई करके जज बनना चाहते हैं. फिर हम ऐसी लड़कियों का फैसला जल्दी किया करेंगे’
न्याय की अंतहीन प्रतीक्षा के बावजूद जाहिरा ने खुद को सामान्य बनाए रखने की भरसक कोशिश की है. उसके मामले का मुख्य आरोपी आज भी आजाद है
हरे रंग का सलवार कुर्ता पहने, सलीके से गूंथी गई चोटी और पुरानी पॉलिथीन में लिपटी किताबें संभालती जाहिरा हमें लखनऊ विधानसभा के सामने एक व्यस्त चौराहे पर हमसे मिलती है. उसके चेहरे पर उत्साह से लबरेज मुस्कान है. उसमें आठ साल पहले की उस भयानक शाम का कोई निशान नहीं दिखता जब अचानक कार में सवार चार लड़के शहर की एक पॉश कॉलोनी की सुनसान राह से उसे उठाकर ले गए थे. जब उसे कार में घसीट कर धकेला जा रहा था तब किसी को भी अंदाजा नहीं था कि यह स्वतंत्र भारत में सामूहिक बलात्कार की सबसे भीषण घटनाओं में से एक की पृष्ठभूमि है. जाहिरा उस वक्त महज 13 साल की थी जब उसके बदन को दरिंदों ने न केवल सिगरेट से दागा था बल्कि बंदूक की नाल से भी भयानक जख्म दिए थे.
खैर, हम वर्तमान में लौटते हैं. यह देखकर सुकून मिलता है कि जाहिरा के समूचे बाहरी व्यक्तित्व में आठ साल पुराने उस हादसे का कोई निशान बाकी नहीं है. उसमें न्याय की उम्मीद दिखती है. हालांकि न्याय उसकी कड़ी परीक्षा ले रहा है.
लखनऊ की इस उमस भरी दोपहर में हमें अपने घर ले जाने के लिए जब वह खुरदुरी आवाज और ठेठ यूपी वाले लहजे में चौराहे पर मौजूद रिक्शा चालकों से मोल-भाव करती है तब इस बात का रत्ती भर भी आभास नहीं होता कि वह रोजगार के लिए दशकों पहले असम से पलायन करके आए एक ऐसे गरीब परिवार से आती है जिसके ज्यादातर सदस्य आज भी ठीक से हिंदी नहीं बोल पाते. विधानसभा चौराहे से जाहिरा का घर लगभग 30 मिनट की दूरी पर है. इस बीच वह ज्यादातर खामोश रहती है. और फिर शून्य में ताकते हुए सिर्फ यही कहती है, ‘हम आगे पढ़ाई करके जज बनना चाहते हैं. फिर हम ऐसी लड़कियों का फैसला जल्दी किया करेंगे. क्योंकि हम अक्सर सोचते हैं कि इतने साल हो गए, हमें अभी तक न्याय क्यों नहीं मिला?’ भर्राई आवाज को संभालते हुए जाहिरा आंखों के कोर से बहते आंसू पोंछती है और फिर खामोश बैठी रहती है. किसी पीड़ित की तरह वह न चीखती है और न सुबकियों के बीच तुरंत हमें अपनी आपबीती बताना शुरू करती है. हालांकि सामूहिक बलात्कार के बाद शुरू हुई पुलिसिया, अदालती, आर्थिक, सामाजिक और आत्मिक लड़ाई की क्रूरता ने उसे हमेशा के लिए स्तब्ध कर दिया है. 13 साल की उम्र में छह दरिंदों की वहशत के बाद राजनीतिक रूप से सबल अपराधियों के खिलाफ जारी इस लंबी कानूनी लड़ाई ने उसे काफी मजबूत बना दिया है.
लगभग दो घंटे की कोशिशों और सामान्य बातचीत के बाद जाहिरा कुछ-कुछ सहज होने लगती है. हम उसके माता-पिता के साथ उसके घर की बैठक में हैं और मुख्य दरवाजे के सामने लगे तंबू में तीन सुरक्षा पुलिसकर्मी सुस्ता रहे हैं.
जाहिरा के पिता पेशे से कबाड़ी हैं. परिवार का हाथ बंटाने के लिए जाहिरा भी शहर की आशियाना कालोनी के कुछ घरों में घरेलू सहायक की तरह काम करती थी. दो मई, 2005 की शाम भी वह रोज की तरह अपना काम खत्म करके घर जा रही थी. उसके साथ पांच साल का उसका छोटा भाई भी था. भाई-बहन कालोनी की मुख्य सड़क पर पहुंचे ही कि एक सेंट्रो कार में सवार चार लड़के आए और जाहिरा को जबरन गाड़ी में खींच लिया.
उस शाम को याद करते हुए जाहिरा बताती है, ‘इससे पहले कि हम कुछ समझ पाते शीशे बंद करके चढ़ा दिए गए थे और गाड़ी रफ्तार पकड़ चुकी थी. शुरू में वो सिर्फ चार थे. फिर निशातगंज से दो लड़के और आ गए. अब वो कुल छह थे. उन्होंने मेरे सारे कपड़े फाड़ दिए थे. जोर-जोर से चिल्लाते हुए मुझे मां-बहन की गालियां दे रहे थे और हंस रहे थे. फिर उन्होंने मोबाइल फोन पर गंदी फिल्में देखना शुरू किया. मुझे भी दिखाते, फिर गालियां देते, मुझे मारते और सिगरेट से दागते. गाड़ी में मुझे पीछे की सीट के नीचे मौजूद फर्श जैसी जगह पर पटक दिया गया था. सब तेज आवाज में चिल्ला रहे थे. वे एक-एक करके मुझे नोचते. मैं जितना रोती, जितना गिड़गिड़ाती, जितनी विनती करती… वो मुझे उतना ही मारते. थप्पड़, घूंसे, लातों से. फिर सिगरेट से जलाते. बाल नोचते. फिर उन्होंने मेरे नाखून उखाड़े और मुझे पीटते हुए मेरा बलात्कार करने लगे. उनके पास बंदूक भी थी. गौरव शुक्ला और उसके साथी बंदूक की नाल से मुझे मारने लगे. फिर उन्होंने बंदूक की नाल पेशाब के रास्ते में धकेल दी और उसी हिस्से को सिगरेट से जलाने लगे. मेरे जिस्म से लगातार खून बह रहा था और मैं लगभग बेहोश जैसी हो गई थी. फिर मुझे याद है, एक फार्म हाउस जैसी जगह पर गाड़ी रुकी और वो मुझे बिना कपड़ों के ही गाड़ी से घसीटते हुए एक कमरे में लाए. वहां एक तख्त था और एक पीला बल्ब जल रहा था. मुझे उस तख्त पर पटक दिया गया और फिर सबने मुझे नोचा. शरीर के हर हिस्से को खोद-खोद कर चबा रहे थे. मारना-पीटना, गालियां, सिगरेटें… सब जारी था. फिर गौरव शुक्ला ने किसी से फोन पर बात की. मैंने सुना वो कह रहा था कि लड़की ले आए हो तो काम के बाद मार के फेंक दो. मुझे लगा अब मुझे मार डाला जाएगा. लेकिन फिर उन्होंने मुझे सड़क किनारे मरने के लिए छोड़ दिया.’
‘मुझे उस तख्त पर पटक दिया गया और फिर सबने मुझे नोचा. शरीर के हर हिस्से को खोद-खोद कर चबा रहे थे. मारना-पीटना, गालियां, सिगरेटें… सब जारी था’
आशियाना गैंग रेप कांड के नाम से पहचाने जाने वाले इस मामले में गौरव शुक्ला, फैजान, आसिफ सिद्दीकी, भारतेंदु मिश्रा, सौरभ जैन और अमन बख्शी नामक कुल छह लोगों की गिरफ्तारी हुई. एक तरफ जहां अदालत ने फैजान को उम्र कैद की सजा सुनाई वहीं भारतेंदु मिश्रा और अमन बख्शी को निचली अदालतों से दस-दस साल की कैद हुई है. आसिफ सिद्दीकी और सौरभ जैन की आयु 18 वर्ष से कम होने की वजह से अदालत ने उन्हें किशोर घोषित कर दिया. लेकिन इस मामले में अपराधी घोषित होने के तुरंत बाद दोनों की ही अलग-अलग सड़क हादसों में मौत हो गई. फैजान, भारतेंदु और अमन बख्शी फिलहाल जेल में हैं और निचली अदालत के फैसले के खिलाफ ऊंची अदालतों में अपील दायर कर चुके हैं. लेकिन आशियाना बलात्कार कांड का मुख्य आरोपित गौरव शुक्ला आज भी आजाद घूम रहा है. गौरव समाजवादी पार्टी (सपा) के नेता और 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए उन्नाव सीट से पार्टी के उम्मीदवार अरुण शंकर शुक्ला का रिश्तेदार है. आपराधिक छवि वाले बाहुबली से नेता बने अरुण शंकर शुक्ला सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के खास लोगों में शामिल हैं.
पिछले आठ साल से जाहिरा और उसके परिवार के साथ इस कानूनी लड़ाई में चट्टान की तरह खड़ी राष्ट्रीय जनवादी महिला संगठन की उत्तर प्रदेश प्रमुख मधु गर्ग कहती हैं, ‘यह सीधे-सीधे एक आम गरीब लड़की की उत्तर प्रदेश के राजनीतिक माफियाओं के खिलाफ जारी एक लड़ाई है. वे लोग पैसे और ताकत के बल पर पिछले आठ सालों से मामले को खींच रहे हैं. पहले इन्होंने मुख्य आरोपी गौरव शुक्ला को किशोर साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. स्कूलों में रिकॉर्ड बदलवाए, छाया पब्लिक स्कूल का फर्जी सर्टिफिकेट बनवाया और यहां तक कि लखनऊ नगर निगम से जन्म प्रमाण पत्र तक गायब करवाने का प्रयास किया. फिर इनके वकीलों ने गौरव को एक झूठे मुकदमे में किशोर घोषित करवाकर उसी निर्णय के तहत इस केस में भी उसे रिहा कराने की कोशिश की.’
वे आगे जोड़ती हैं, ‘जाहिरा के परिवार पर लाखों-करोड़ों रुपयों से लेकर धमकियों तक हर तरह से दबाव बनाने की कोशिशें तो कब से चल रही हैं. हर बार ये लोग अदालत के हर निर्णय के खिलाफ हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट चले जाते हैं. पिछले आठ साल से गौरव के किशोर होने न होने पर ही लड़ाई चल रही है. उनका वकील 30-30 साल तक मामले लटकाने के लिए बदनाम है. वह अदालत में जाहिरा के पिता से खुले आम कहता है कि कब तक लड़ोगे. जाहिरा 26 बार आमने-सामने की पूछताछ के लिए गई है और पूछताछ हुई सिर्फ पांच बार. इस मामले से साफ होता है कि यहां आम बलात्कार पीड़ित के लिए न्याय पाना कितना कठिन है. वह तो जाहिरा और उसके पिता को सलाम करना चाहिए कि हजार तूफानों के बाद भी वे पिछले आठ सालों से डटे हैं. इस मामले में मीडिया और सिविल सोसाइटी का लगातार इतना दबाव रहा है, फिर भी न्याय मिलने में इतना वक्त लग रहा है. तो फिर उन सैकड़ों अनजान लड़कियों का क्या होता होगा जिनके साथ हुई हिंसा कभी सामने नहीं आ पाती है?’
हम गुलाबी रंग के कवर पेपर में लिपटी उसकी कापियों में पर्यावरण और गांधी से संबंधित लेख पढ़ते हैं. अपराधियों की सजा के बारे में पूछने पर जाहिरा खामोश रहती है. इसी बीच उसके पिता सबरूद्दीन अपनी टूटी हिंदी में कहते हैं, ‘देखिए, औरत के शरीर में पेशाब और मल के दो अलग रास्ते होते हैं. अगर कोई आपकी 13 साल की बेटी के शरीर में बंदूक की नोक घुसाकर उसे ऐसे फाड़ डाले कि वे रास्ते एक हो जाएं, उस पूरे हिस्से को सिगरेट से दाग दिया जाए तो आप क्या न्याय चाहेंगी? बताइए? अगर एक रात आपकी बेटी घर लौटे और उसका पूरा शरीर सिगरेट से जला हुआ हो, ब्लेड से कटा हुआ हो, नाखून उखड़े हुए हों और पूरे शरीर से खून बह रहा हो, तब आप क्या न्याय चाहेंगी? कोई भी न्याय कभी हमारे दुख को कम नहीं कर सकता. हम लोग हर रोज मरते हैं और गौरव शुक्ला आजाद है, शादीशुदा है. वो लोग चाहे मेरा घर सोने-चांदी से भर दें या मुझे गोली मार दें, मैं पीछे नहीं हटूंगा. अपना सब कुछ बेच दूंगा लेकिन आखिर तक लड़ूंगा.’
राजधानी दिल्ली में जहांगीरपुरी की एक झुग्गी बस्ती में रहने वाला 14 साल का महेंद्र सिंह सात अगस्त, 2008 की सुबह रोज की तरह घर से शौच के लिए निकला था. इसके बाद उसका कुछ पता नहीं चला. घरवालों ने उसे तलाशने की न जाने कितनी और कैसी-कैसी कोशिशें कीं, लेकिन सब बेकार गईं. धीरे-धीरे साढ़े तीन साल गुजर गए.
एक दिन अचानक महेंद्र अपने घर वापस आ गया. 16 मई, 2012 की उस दोपहर श्याम कली ने जब अपने बेटे को दरवाजे पर देखा तो पहले-पहल तो उन्हें अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ. इसकी एक वजह तो इतने लंबे वक्त की गुमशुदगी से उपजी नाउम्मीदी थी और दूसरी महेंद्र की हालत. जहांगीरपुरी की संकरी गलियों में बनी अपनी एक कमरे की खोली के फर्श पर बैठी श्यामकली धीरे से कहती हैं, ‘एकदम कचरा बीनने वाले बच्चों की तरह काला हो गया था. शरीर से जैसे मांस पूरा गायब हो गया था, हड्डी का ढांचा भर बचा था. भिखारियों जैसे फटे-पुराने कपड़े पहने था. दरवाजे पर आया तो पड़ोसियों को लगा जैसे कोई बंधुआ मजदूर हो.’
लेकिन महेंद्र की घर-वापसी के उन खुशनुमा लम्हों के दौरान उसके परिवार को जरा भी आभास नहीं था कि उनका बेटा वास्तव में बंधुआ मजदूरी के एक दुश्चक्र में फंसा हुआ था. एक ऐसा दुश्चक्र जिसने साढ़े तीन साल तक उसकी जिंदगी नरक बनाए रखी.
केंद्रीय गृह मंत्रालय की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि 2009 से 2011 के बीच भारत से कुल 1,77,660 बच्चे गायब हो गए. यानी औसतन रोजाना 162 बच्चे. केवल दिल्ली की बात करें तो यहां के लिए यह आंकड़ा 14 बच्चे प्रतिदिन है. गृह मंत्रालय द्वारा संसद में पेश किए गए ये आंकड़े गरीब भारतीय बच्चों के जिस बदसूरत बचपन की तस्वीर दिखाते हैं उसका सबसे कड़वा पहलू यह है कि लगभग 32 फीसदी बच्चे कभी अपने घर वापस नहीं पहुंच पाते. आंकड़े यह भी बताते हैं कि गुमशुदा बच्चों का पता लगाने के लिए बनवाई गई जिपनेट जैसी वेबसाइटों और जागरूकता फैलाने के नाम पर करोड़ों रुपये के खर्च के बावजूद दिल्ली की हालत इस मामले में सबसे ज्यादा चिंताजनक है. आलम यह है कि इस साल 15 अप्रैल, 2012 तक ही लगभग 1,146 बच्चों की गुमशुदगी दर्ज करने वाली दिल्ली पुलिस इनमें से 529 बच्चों का कोई सुराग अब तक नहीं ढूंढ पाई है. ‘लापता बच्चों की राजधानी’ के तौर पर पहचानी जाने वाली दिल्ली से 2011 में कुल 5,111 बच्चे लापता हुए थे. इनमें से 1,359 बच्चों का आज तक कोई सुराग नहीं मिल पाया है. ज्यादातर मामलों में ये बच्चे अंग व्यापार या भिखारियों के किसी रैकेट का शिकार हो जाते हैं या फिर मासूम उम्र में ही वेश्यावृत्ति में धकेल दिए जाते हैं.
आसान शिकारः सहारनपुर (उप्र) के एक गांव में खेतों में काम करते बच्चे. यहां जून महीने में भी गन्ने के खेतों में काम करते हुए बच्चे देखे जा सकते हैं
लेकिन तहलका की यह तहकीकात इस दुश्चक्र की एक अलग और चौंकाने वाली कड़ी सामने लाती है. हमारी पड़ताल बताती है कि किस तरह दिल्ली से बच्चों का अपहरण किया जाता है और सिर्फ तीन-चार हजार रुपये में उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसानों को बेच दिया जाता है जो अपने खेतों और घरों में इनसे जबरन काम करवाते हैं. मजदूरी की बात तो छोड़ दीजिए उन्हें भरपेट खाना तक नहीं मिलता. ऊपर से तरह-तरह की प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ता है सो अलग. हर साल गुमशुदा बच्चों की बढ़ती संख्या से परेशान केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दिल्ली पुलिस सहित सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों को इस बाबत तमाम दिशानिर्देश जारी किए थे. मगर तहलका की पड़ताल बताती है कि इन दिशानिर्देशों के बावजूद स्थिति अब भी एक बड़ी हद तक दिशाहीनता की ही है. गरीब तबके से ताल्लुक रखने वाले लापता बच्चों को ढूंढने की कवायद अक्सर एफआईआर दर्ज करने से आगे नहीं बढ़ पाती. कई मामलों में तो वह भी नहीं होता.
एक तरह से देखा जाए तो यह गंभीर स्थिति है. एक तो बच्चों का अपहरण हो रहा है, दूसरे उनका शोषण हो रहा है और तीसरे, ऐसा कोई गंभीर प्रयास नहीं हो रहा जिससे यह दुश्चक्र टूटे. चौंकाने वाला सच यह है कि यह शोषण उस किसान द्वारा किया जा रहा है जिसकी खुद की छवि ही एक शोषित वर्ग की है. सबसे खतरनाक बात तो यह है कि उसे इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता. यानी इतने गंभीर अपराध को लेकर एक तरह से सहज स्वीकार्यता की स्थिति दिखती है.
2009 से 2011 के बीच भारत से कुल 1,77,660 बच्चे गायब हो गए. यानी औसतन रोजाना 162 बच्चे. इनमें से हर दिन औसतन 14 सिर्फ दिल्ली से लापता हुए हैं
वापस महेंद्र की कहानी पर लौटते हैं. कैसे लापता हुए थे, यह पूछने पर महेंद्र थोड़ा असहज हो जाता है. हम उसे विश्वास में लेने की कोशिश करते हैं. धीरे-धीरे उसके चेहरे और व्यवहार से भय हटने लगता है. वह थोड़ा सहज हो जाता है. अपने सिर और हथेलियों के जख्मों को दिखाते हुए वह अपनी गुमशुदगी की स्याह कहानी सुनाना शुरू करता है. इसके साथ ही दिल्ली की गरीब बस्तियों से आए दिन खो जाने वाले बच्चों की तस्करी करने वाले एक अकल्पनीय रैकेट की तस्वीर साफ होने लगती है.
सात अगस्त, 2008 की सुबह पांच अज्ञात लोगों ने महेंद्र का अपहरण करके उसे करनाल के एक किसान को बेच दिया था. थोड़ी हिम्मत बांधते हुए वह कहता है, ‘हमारी झुग्गी में टॉयलेट नहीं है न, इसलिए हम लोग रोज सुबह बाहर मैदान में जाते हैं. उस दिन भी मैं टॉयलेट जाने के लिए निकला था. सुबह के लगभग सात बजे थे. थोड़ी दूर जाते ही मैंने चार लड़कों को सामने से आते हुए देखा. वे सब लड़के सफेद दवा (व्हाइटनर) सूंघ रहे थे जो कापी-किताब की दुकानों पर मिलती है. उन चारों ने आकर मेरा मुंह दबाया और मुझे न जाने क्या सुंघा दिया कि मैं बेहोश-सा हो गया. पर मुझे अच्छे से याद है कि उन्होंने मुझे बोरी में भरा था और बांध कर कहीं ले जा रहे थे.’
महेंद्र को जब होश आया तो वह पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास था. वहां एक सरदार भी था. वह आगे बताता है, ‘उस सरदार के साथ मेरे ही जैसा एक और लड़का खड़ा था. सरदार ने मुझे समोसा खिलाया और कहा कि अब तू मेरे साथ करनाल चलेगा. मैं रोने लगा तो उसने मुझे जोर से डांट कर चुप करवा दिया. फिर वह मुझे और उस दूसरे लड़के को जबरदस्ती अपने साथ करनाल ले गया. करनाल से हमें संडगांव ले गया. वहीं उसका घर है.’
यही वह कैद थी जहां महेंद्र को अगले साढ़े तीन साल बिताने थे. वह बताता है, ‘सबसे पहले हमें खेत, घोड़ी और भैसों का तबेला और कटाई-छिलाई का बरामदा दिखाया गया. फिर उसने हमें बताया कि अब हमें रोज सुबह 4 बजे उठकर भैसों का गोबर उठाना होगा. फिर चारा काटकर उनकी सानी-गोती तैयार करनी होगी. और फिर दिन भर गन्ने के खेतों में काम करना होगा.’ हरियाणा के उस दूर-दराज के गांव की एक किलेनुमा कोठी और कड़े पहरे से घिरे खेतों के बीच अचानक फंस चुका महेंद्र अगले साढ़े तीन साल तक वहां से नहीं निकल पाया.
दीपक कुमार साहू, बदरपुर, दिल्लीः मार्च 2011 में दीपक को अगवा किया गया था. वह फरवरी 2012 में वापस आया. दीपक इस दौरान यूपी के मुजफ्फरनगर में बंधुआ मजदूर था
वक्त बीतने के साथ-साथ महेंद्र को संडगांव का माहौल समझ में आने लगा था. आस-पास के कुछ साथी मजदूरों से बात करने पर उसे समझ में आया कि आखिर उसके साथ हुआ क्या था. एक बंधुआ मजदूर के तौर पर अपनी गुलामी के उन त्रासद महीनों के दौरान अचानक एक दिन महेंद्र को मालूम चला कि अगस्त की उस सुबह उन लड़कों ने उसे सरदार के हाथों 4,000 रुपए में बेच दिया था. अपनी निर्मम दिनचर्या का ब्योरा देते हुए महेंद्र बताता है, ‘मुझे रोज सुबह 4 बजे उठकर सबसे पहले गोबर साफ करना होता था. गोबर की टोकरियां उठा-उठा कर तबेला साफ करता और फिर भैसों के लिए चारा बनाता, तभी चाय मिलती थी. दो रोटी खाकर मैं और शाहनवाज गन्ने के खेतों में काम करने निकल जाते. हमें थोड़ा ही खाना मिलता था. मालिक कहता था कि ज्यादा खाएगा तो मोटा हो जाएगा.’ शाहनवाज वही लड़का है जिससे महेंद्र होश में आने के बाद पहली बार रेलवे स्टेशन के पास मिला था.
महेंद्र बताता है कि संडगांव में उसके जैसे कई बच्चे थे, जिन्हें शहरों से उठवा कर लाया जाता था और फिर उनसे गन्ने के खेतों में मजदूरी करवाई जाती थी. अपने मालिकों के बारे में पूछने पर वह फिर से सहम जाता है. फिर दबी आवाज में कहता है, ‘सरदार का नाम गिज्जा सिंह है. उसके बेटे का नाम दिलबाग सिंह है और बहन का प्रीती सिंह. वे लोग संडगांव के बहुत अमीर किसान हैं. उनकी कोठी के चारों ओर बड़ी-सी बाउंड्री बनी थी, इसलिए मैं भाग नहीं पाता था. उनके पास टाटा सूमो, जीप, मोटरसाइकिल सब कुछ था और उनके बच्चे स्कूल में पढ़ते थे. पर सरदार मुझसे सुबह से लेकर शाम तक फावड़ा चलवाता और मां-बहन की गालियां भी देता. घर का नाम लेने भर से पिटाई करने लगता. हमें मोटर-पंप वाली झुग्गी में सुलाता. पैसों की बात तो दूर, भरपेट खाना भी नहीं देता था.’
फिर मई, 2012 की एक दोपहर सरदार ने महेंद्र और शाहनवाज को बीज खरीद कर लाने के लिए 15,00 रुपये देकर भेजा. मौका पाते ही दोनों लड़के वहां से भाग निकले. महेंद्र को लगता है कि साढ़े तीन साल की कैद के बाद शायद सरदार को विश्वास हो गया होगा कि वे लोग भाग नहीं सकते. वह आगे बताता है, ‘जिस दिन हम भाग कर आए उसी दिन सरदार का बेटा एक नए लड़के को उठवा कर लाया था. वह मुझसे भी छोटा था, शायद 13-14 साल का. मुझे याद है सरदार का बेटा कह रहा था कि वो ‘नया भैया’ लेकर आया है. वहां ऐसे ही चलता है. वहां के पैसे वाले किसान शहरों से बच्चों को उठवाकर ले जाते हैं और उनसे गन्ने के खेतों और तबेलों में काम करवाते है.’
इधर दिल्ली के जहांगीरपुरी में महेंद्र के माता-पिता उसे तीन साल से लगातार ढूंढ रहे थे. वे स्थानीय थाने के चक्कर लगाते रहे, पर उनके बेटे की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज होने में भी साल भर का समय लग गया. एक जर्दा कंपनी में मजदूरी करने वाले महेंद्र के पिता राम रतन सिंह तहलका को बताते हैं, ‘जिस दिन गुम हुआ था उसी दिन दौड़े-दौड़े जहांगीरपुरी थाना गए थे. वहां जो लेडी बैठी थी उन्होंने मेरे पास मौजूद कुल जमा 200 रु मुझसे लेते हुए कहा कि बर्फी खिलाओगे तभी रिपोर्ट लिखेंगे. बड़ी मुश्किल से उन्होंने डायरी में एंट्री की और कहा कि खुद ही ढूंढ लो बच्चा. कहते-कहते साल गुजर गया तब जाकर 2009 में मेरे बच्चे के गुमशुदा होने की एफआईआर दर्ज हो पाई.’
महेंद्र के घर वापस आने के बाद भी उसके पिता थाने गए और अपने बच्चे के अपहरण, तस्करी और उससे करवाई गई बंधुआ मजदूरी के खिलाफ लिखित में शिकायत भी दर्ज करवाई पर पुलिस ने अब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है. राम रतन आगे बताते हैं, ‘मैं इसे ढूंढने हरिद्वार तक गया. सभी चौराहों पर पोस्टर चिपकाए और हर आदमी से पूछा कि मेरे बच्चे को देखा है क्या. पर पुलिस ने उसे ढूंढने में हमारी कभी कोई मदद नहीं की. उसके लौट आने के बाद जब मैंने जहांगीरपुरी थाने में अधिकारियों से मामले की तफ्तीश करने के लिए कहा तो उनका कहना था कि पहले गाड़ी का इंतजाम करवाओ.’
लेकिन यह बरसात की एक सुबह अपने घर से निकले सिर्फ एक बच्चे के बंधुआ मजदूर बनाए जाने की कहानी नहीं है. तहलका की पड़ताल बताती है कि दिल्ली से रोज गायब होने वाले 14 बच्चों में से कई ऐसे होते हैं जिन्हें राजधानी की झुग्गियों से उठाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के गन्ना किसानों को बेच दिया जाता है.
महेंद्र सिंह, जहांगीरपुरी, दिल्लीः अगस्त 2008 में महेंद्र को अगवा कर लिया गया था. वह साढ़े 3 साल के बाद मई 2012 में घर वापस आया. वह हरियाणा के करनाल में बंधुआ मजदूर था
दिल्ली से बड़ी संख्या में लापता हो रहे इन बच्चों के बारे में एक सामान्य जांच-पड़ताल के दौरान तहलका को झुग्गी बस्तियों से गुमशुदा हुए ऐसे कई बच्चों की कहानियां मिलीं जिनका अपहरण करके उन्हें गन्ना पट्टी के मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ, बागपत और करनाल जैसे जिलों के गन्ना किसानों को बेच दिया गया था. इन सभी बच्चों की तस्करी गन्ने के खेतों में बंधुआ मजदूरी करवाने के लिए की जा रही थी. यह जमीनी पड़ताल इन शहरी एजेंटों और ग्रामीण बिचौलियों के एक कमोबेश बिखरे लेकिन आपस में जुड़े हुए नेटवर्क की तीन अलग-अलग परतों को उजागर करती है. राजधानी से लेकर मुजफ्फरनगर और सहारनपुर के दूरस्थ गांवों तक फैले इस नेटवर्क की पहली परत में मौजूद अपहर्ता दिल्ली की गरीब बसाहटों से बच्चों का अपहरण करके उन्हें गन्ना पट्टी के कस्बों तक ले जाते हैं. फिर दूसरी परत के ग्रामीण बिचौलिये इन बच्चों को इनके अंतिम ग्राहक तक पहुंचाते हैं और इन्हें गन्ना किसानों के पास बंधुआ मजदूरों के तौर पर बेच दिया जाता है. इन बच्चों का अंतिम ‘ग्राहक’ किसान इस पूरे नेटवर्क को उसके हिस्से का कमीशन देता है जो आम तौर पर 4,000 -5,000 रुपए के आस-पास होता है.
हम दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के अंतिम छोर पर बसे बदरपुर की धूल भरी बस्तियों में हैं. बदबू से भभकती कई आवासीय बस्तियों, गंदले नालों और कबाड़ से भरे खुले मैदानों को पार करके हम एक छोटे-से कस्बाई बाजार जैसी एक जगह पहुंचते हैं. वहां एक छोटी-सी कपड़े की दुकान में बैठकर हम दीपक साहू का इंतजार करने लगते हैं. दुकान के सामने बनी कच्ची सड़क से लगातार भैंसागाड़ियां गुजर रही हैं. कबाड़ से भरे खुले मैदानों की धूल सीधे दुकान में दाखिल हो रही है. लगभग एक घंटे बाद, अपने दोनों हाथों में कपड़ों के बंडल लिए दीपक दुकान पर पहुंचता है. सांवले रंग, दुबली-पतली कद-काठी और बड़ी-बड़ी आंखों वाला दीपक 16 साल की अपनी उम्र के किसी भी सामान्य लड़के की तरह दिखता है. मगर जैसे ही वह अपनी नजरें उठाता है, उसकी आंखों में पसरा एक अजीब-सा खालीपन साफ महसूस किया जा सकता है.
मार्च, 2011 की एक सुबह दीपक हमेशा की तरह अपने दोस्तों के साथ खेलने निकला था. घूमने का मन हुआ तो सभी दोस्त आपस में टहलते हुए पास ही के तुगलकाबाद स्टेशन तक पहुंच गए. शाम ढलने लगी तो दीपक घर जाने लगा. लेकिन दुर्भाग्य से वह अगले एक साल तक अपने घर नहीं पहुंच पाया. आज वह कपड़ों का एक नया धंधा शुरू करने में अपने पिता का हाथ बंटा रहा है. उसकी शिक्षा सिर्फ सातवीं कक्षा तक हुई है. पहले वह आगे पढ़ना चाहता था. पर एक बार अपनी जिंदगी की धुरी खो देने के बाद से उसके अंदर पढ़ने, खेलने जैसी सामान्य इच्छाएं अपने आप समाप्त सी हो गई हैं. अब वह बस अपने पिता की किराये की दुकान संभालना और खामोश रहना चाहता है.
दीपक का अपहरण करके उसे मुजफ्फरनगर के एक गांव में बेच दिया गया था. दिल्ली से 120 किलोमीटर की दूरी पर बसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस जिले को ‘चीनी का कटोरा’ भी कहा जाता है. यह पूरा क्षेत्र साल भर गन्ने की अलग-अलग फसलों से लहलहाता रहता है. दीपक को अगवा करने और फिर उसकी तस्करी करके उसे बंधुआ मजदूर के तौर पर बेचने का पूरा तरीका महेंद्र की तस्करी की कहानी से कहीं ज्यादा क्रूर और दुस्साहसिक था.
दुकान में पिता के साथ बैठा हुआ दीपक धीरे-धीरे अपनी कहानी सुनाना शुरू करता है, ‘जब अंधेरा होने लगा और ठंड बढ़ने लगी तब मुझे एहसास हुआ कि कितना टाइम निकल गया है. मैं घर जाने के लिए निकल ही रहा था कि मुझे चार आदमी अपनी तरफ बढ़ते हुए नजर आए. उन्होंने मुझे दबोचा और घसीट कर एक मोटरसाइकिल पर बैठा लिया. इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, उन्होंने मुझे दो आदमियों के बीच में बैठाकर गाड़ी भगानी शुरू कर दी. जब मैं चिल्लाया तो उन्होंने मेरे मुंह पर एक मोटा-सा कपड़ा बांध दिया. उसके बाद न जाने क्या हुआ कि मैं बेहोश-सा होने लगा. जब पूरी तरह आंख खुली तो हम मुजफ्फरनगर के एक गांव में थे. बाद में पता चला कि वो मुझे बाइक से ही मुजफ्फरनगर के खिंदड़िया गांव में ले गए थे.’
मुजफ्फरनगर में पहले ही दिन दीपक को सबसे पहले उसका काम समझाया गया. उसके काम में भैसों के तबेले का ध्यान रखना, गोबर साफ करना और गन्ने की कटाई-छिलाई शामिल था. बंधुआ मजदूरी के उस पहले दिन को याद करते हुए वह आज भी सिहर जाता है. अपनी उम्र के विपरीत, उसके चेहरे पर अवसाद की एक गहरी छाया झूलती रहती है. लगभग बुदबुदाते हुए वह आगे जोड़ता है, ‘मुजफ्फरनगर जिले में एक छपार गांव है. खिंदड़िया उस गांव से लगभग 8-10 किलोमीटर अंदर जाने पर पड़ता है. वह गांव इतना दूर है और ऊंचे-ऊंचे गन्ने के खेतों से घिरा हुआ है कि कोई लाख कोशिश करने पर भी वहां से नहीं भाग सकता. गाड़ी वाले लड़के सीधे मुझे पंडित राम कुमार के घर ले गए और बोले कि अब से यही तेरा मालिक हैै. मेरे जैसे कई और बच्चे भी उस गांव में गन्ने के खेतों में काम करते हैं.’
खिंदड़िया में दीपक के साथ एक रंजीत नाम का आदमी भी काम करता था. वह शादीशुदा था और उम्र में दीपक से लगभग 10 साल बड़ा भी. रंजीत ने ही दीपक को पहली बार यह बताया था कि उसे खरीद कर बंधुआ मजदूर बनाया गया है. दीपक कहता है, ‘पंडित राम कुमार खिंदड़िया का बहुत अमीर और बड़ा किसान था. रंजीत ने ही मुझे बताया कि दिल्ली और बिहार से मेरे जैसे कई लड़कों को 3,000 से 4,000 रुपयों में खरीदकर लाया जाता है ताकि उनसे गन्ने के खेतों में काम करवाया जा सके. ऐसे कई बच्चे पास के सिमराती, तेजलहेड़ा और छपार गांव में भी मौजूद हैं. रंजीत कह रहा था कि इनमें से कई तो 7-7 साल तक यहां से बाहर नहीं निकल पाते.’
पर दीपक खुशकिस्मत था. 26 फरवरी, 2012 की सुबह किसी तरह वह वहां से भागने में सफल रहा. पर बंधुआ मजदूरी के इस एक साल ने उससे उसके बाएं हाथ की एक उंगली छीन ली. अपनी कटी हुई उंगली दिखाने के लिए वह जैसे ही अपना हाथ बढ़ाता है, उसके पिता रोने लगते हैं. दीपक बताता है कि मालिक उससे जरूरत से ज्यादा चारा कटवाता था. एक दिन जल्दबाजी की वजह से उसकी उंगली मशीन के ब्लेड से कट गई. राम कुमार के घर के माहौल के बारे में बताते हुए वह आगे जोड़ता है, ‘वे सब बहुत खतरनाक लोग हैं. घर जाने का जिक्र भी करो तो मारने लगते थे. उनके पास एक बंदूक थी जिसे बात-बात पर दिखाते रहते थे. मैं सुबह 4 बजे से काम में लग जाता था.’
बातों ही बातों में अचानक दीपक एक चौंकाने वाला तथ्य उजागर करते हुए कहता है, ‘दिल्ली और बिहार से आए हुए कई बच्चे इन गांवों में रहते हैं. लेकिन ये लोग अपने घरों में रहने वाले कई बंधुआ मजदूरों के पैरों में सांकल डाल कर रखते हैं ताकि वे भाग न पाएं. पंडित राम कुमार के पड़ोस वाले घर में भी दो बच्चे रहते थे हमने कई बार एक-दूसरे से बात करने की कोशिश की पर हमारे मालिक हमें कभी बात नहीं करने देते थे. साथ में खड़े हुए देख लिया तो भी पिटाई होती थी. वहां की पुलिस भी उनसे मिली हुई थी. कोई बच्चा भागने की कोशिश करता तो पुलिसवाले उसे पकड़ कर वापस किसानों के पास भेज देते थे.’
दूसरी तरफ दिल्ली में दीपक के माता-पिता उसे बदहवास होकर ढूंढ रहे थे. उसके पिता भजन साहू तहलका को बताते हैं, ‘इसके खोते ही हम दौड़े-दौड़े पास के सराय ख्वाजा पुलिस स्टेशन (चौकी-पल्ला) गए. पुलिसवालों ने कहा कि तुम्हारा लड़का नशा करता होगा और ऐसे ही कहीं भाग गया होगा. काफी चक्कर लगाने के बाद आखिर उन्होंने मामला तो दर्ज कर लिया पर मेरे लड़के को ढूंढने के लिए कुछ नहीं किया. मेरे पास जितना भी पैसा था वह सब कुछ मैंने उसे ढूंढने में लगा दिया. फिर अचानक एक दिन बच्चे का फोन आया. उसने बताया कि वह मुजफ्फरनगर में है. हम लोगों को ठीक से समझ में नहीं आया और हम उसे ढूंढने मुजफ्फरपुर पहुंच गए. वह वहां मिला नहीं. फिर कुछ दिनों बाद उसका वापस फोन आया तो हमें पता चला कि वह मुजफ्फरनगर में है.’
दीपक ने अपने माता-पिता से रंजीत के मोबाइल फोन से बात की थी. साहू ने उसके फोन आने की सूचना स्थानीय पुलिस को भी दी पर उन्होंने यह कहकर उन्हें टाल दिया कि अगर अगली बार फिर से फोन आए तब बताना. कुछ दिन बाद दीपक के मालिक ने उसे रंजीत को साइकिल से स्टेशन छोड़कर वापस आने के लिए कहा. मौका पाते ही उसने साइकिल स्टेशन पर छोड़ी और दिल्ली की बस पकड़ कर भाग निकला. भजन साहू बताते हैं, ‘उसने हमें मुजफ्फरनगर से फोन करके बताया कि वह वापस आ रहा है. उसके वापस आने के बाद मैंने पुलिस स्टेशन जाकर अधिकारियों से मामले की तहकीकात करने को कहा पर आज तक पुलिस ने मामले में कोई कार्रवाई नहीं की है.’
महेंद्र और दीपक के गायब होने की रिपोर्ट पुलिस ने बर्फी खाने, थाने के दसियों चक्कर लगवाने और बहुत सारा बहुमूल्य समय बेकार करने के बाद लिखी. जब वे किसी तरह घर लौट आए तो पुलिसवाले उनकी जानकारी के आधार पर न केवल अपराधियों को गिरफ्तार कर सकते थे बल्कि शायद इसके बाद कई बच्चों का अपहरण होने से भी रोक सकते थे. मगर पुलिस ने आपराधिक उदासीनता दिखाते हुए कोई कार्रवाई ही नहीं की. बावजूद इसके कि गृह मंत्रालय से लेकर दिल्ली हाई कोर्ट तक ने बच्चों के लापता होने की बाबत कड़े दिशानिर्देश जारी कर रखे हैं. सितंबर, 2009 के अपने एक निर्णय में दिल्ली हाई कोर्ट ने पुलिस महकमे को निर्देश देते हुए कहा थाः
किसी बच्चे के गुमशुदा होने की स्थिति में स्थानीय पुलिस के लिए एफआईआर दर्ज करना जरूरी है.
पीड़ित परिवार को दिल्ली लीगल सर्विसेस अथॉरिटी की तरफ से कानूनी मदद दी जाएगी.
यदि किसी भी बच्चे को रेस्क्यू ऑपरेशन के तहत बचाया जाता है या वह खुद वापस आ जाता है तो जांच अधिकारियों को पूरे मामले की पड़ताल करनी चाहिए.
पड़ताल में संगठित गिरोहों की भूमिका के साथ-साथ बंधुआ मजदूरी और वेश्यावृत्ति जैसी बातों की जांच करना भी जरूरी है.
पर पुलिसिया तहकीकात का ढर्रा नहीं बदला. सितंबर, 2010 में दिल्ली लीगल सर्विसेज अथॉरिटी ने दिल्ली पुलिस की खिंचाई करते हुए एक रिपोर्ट दिल्ली हाई कोर्ट में पेश की. इसके तुरंत बाद 20 सितंबर, 2010 को जस्टिस मनमोहन की एकल बेंच ने दिल्ली पुलिस को जबरदस्त फटकार लगाई थी. कोर्ट का कहना था, ‘पुलिस इस अदालत द्वारा 16.09.09 को दिए आदेश के मुताबिक निर्धारित कर्तव्यों को पूरा नहीं कर रही है. उसकी तफ्तीश में गंभीरता की भारी कमी है.’
इन मामलों में कई बार ऐसा होता है कि मां-बाप के लिए एफआईआर दर्ज करवाना तक टेढ़ी खीर हो जाता है. रिपोर्ट दर्ज हो भी जाए तो फिर कार्रवाई नहीं होती
दिल्ली के बदरपुर और जहांगीरपुरी जैसे क्षेत्रों से हमेशा ही बच्चों के लापता होने की सबसे ज्यादा खबरें आती रही हैं. लेकिन पिछले पांच साल में राजधानी में ऐसी गतिविधियों के केंद्र लगातार बदलते रहे हैं. 2008-09 के दौरान बच्चों की गुमशुदगी के सबसे ज्यादा मामले बाहरी दिल्ली में दर्ज हुए थे तो 2010 के आस-पास यह केंद्र उत्तर-पूर्वी दिल्ली हो गया. 2011 में सबसे ज्यादा मामले दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के बदरपुर, मीठापुर, खड्डा कालोनी और संगम विहार जैसे क्षेत्रों में दर्ज हुए. इधर अप्रैल, 2012 तक के आंकड़े इस साल जहांगीरपुरी, आदर्शनगर और आजादपुर जैसे क्षेत्रों को लापता होने वाले बच्चों के नए गढ़ के तौर पर स्थापित कर रहे हैं.
साल दर साल उठाईगीर गिरोहों और तस्करों के जाल में फंसकर अपना बचपन गंवाने वाले बच्चों की संख्या में इजाफा होता गया है और आज दिल्ली गुमशुदा बच्चों की नई राजधानी में तब्दील हो गई है. लेकिन सामान्य गुमशुदगियों से इतर, दिल्ली के मुकुंदपुर के रहने वाले पवन कुमार की कहानी बच्चों को अगवा करके उन्हें चीनी पट्टी में बेचने वाले इस नए चलन का सबसे भयावह उदाहरण है.
17 वर्षीय पवन कुमार से मिलने के लिए हमें काफी कोशिशें करनी पड़ती हैं. दिल्ली के मुकुंदपुर इलाके में रहने वाले पवन के माता-पिता को अब हर अजनबी से डर लगता है. वे लगभग डेढ़ साल तक बंधुआ मजदूरी करने के बाद घर लौटे अपने बेटे से हम जैसे किसी बाहरी को मिलने नहीं देना चाहते.
मासूम मजदूरः दिल्ली-सहारनपुर राजमार्ग पर एक खेत में काम करता लड़का
एक हफ्ते बाद की गई हमारी दूसरी कोशिश कामयाब होती है. पवन के माता-पिता अपने बच्चे से हमारी बात करवाने के लिए राजी हो जाते हैं. पवन के पिता हनुमान रिक्शा चलाते हैं और उनका परिवार एक कमरे के किराये के घर में रहता है. उस अंधेरे-से कमरे में दाखिल होते ही पवन हमें देखकर नमस्ते करता है. उसके व्यवहार में सहजता है पर सामने खड़े हुए उसके माता-पिता बहुत घबरा रहे हैं. उनको आश्वस्त करके जैसे ही हम बात शुरू करते हैं, पवन शुरुआत में ही एक चौंकाने वाली बात बताता है. वह कहता है कि उसे दो बार बेचा गया था. दो फरवरी, 2011 की सुबह पवन अपने घर से बुराड़ी नाम के इलाके की तरफ निकल गया था. यहां से उसे छह लड़कों ने अगवा कर लिया. वह बताता है, ‘एक दिन बस यूं ही घर से गुस्से में निकल गया था. जैसे ही बुराड़ी पहुंचा छह लड़कों ने मुझे जबरदस्ती एक बाइक पर बैठा लिया. जब मैंने चिल्लाना शुरू किया तो उन्होंने मेरा मुंह एक गमछे से दबा दिया और कहने लगे कि काम दिलवाने ले जा रहे हैं. वहां से मुझे सीधे मेरठ के पास गोविंदपुरी गांव ले गए. पहली रात को उन्होंने मुझे किसी ऑफिस में बंद करके रखा और अगले दिन प्रीतम सिंह शर्मा और संजय सिंह शर्मा के यहां छोड़ दिया. ये लोग वहीं गोविंदपुरी में गन्ना किसानी करते हैं. मुझे बताया गया कि अब यही मेरा घर है और प्रीतम सिंह शर्मा मेरा मालिक. फिर वो बाइक वाले लड़के मुझे छोड़ कर चले गए. मेरठ के खेतों में मैं सुबह और शाम 6-7 घंटे गन्ना छीला करता था. वो लोग सुबह-शाम मुझे रोटी देते थे. मुझे सख्त पहरे में रखा था जिससे कि मैं भाग न जाऊं.’
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समृद्ध खेती की आपराधिक खाद!
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत, सहारनपुर और मुजफ्फरनगर इलाकों की एक जमीनी तहकीकात के दौरान तहलका की टीम क्षेत्र के कुल सात गांवों में घूमी. इस दौरान हमने कई बच्चों को देखा जो खेतों या घरों में काम कर रहे थे, स्थानीय नहीं थे और जिनसे बात करना बेहद चुनौती भरा था.
हम बागपत के इब्राहिमपुर माजरा गांव के प्रधान शाकिंदर सिंह के घर पर हैं. कोठीनुमा घर में दाखिल होते ही हमारी नजरें भैसों का चारा मशीन से काटते हुए एक 15-16 साल के बच्चे पर टिक जाती हैं. वह भी हमारी तरफ देखता है पर सहमकर नजरें झुका लेता है. इसी बीच एक 14-15 साल का बच्चा हमारे लिए पानी के ग्लास लेकर बरामदे में दाखिल होता है. हम एक लड़के से पूछते हैं कि वह कौन-सी क्लास में पढ़ता है. वह धीरे से जवाब देते हुए कहता है कि वह अब नहीं पढ़ता. बस इसके बाद उन्हें अंदर जाने का इशारा कर दिया जाता है. ग्राम प्रधान कहते हैं कि मजदूरों की इतनी कमी है कि बुआई-कटाई के वक्त ये लड़के भी खेत पर काम के लिए जाते हैं. इन दोनों लड़कों का शारीरिक ढांचा और चेहरा-मोहरा स्थानीय लोगों के ठीक उलट दिखाई देता है.
गांव के अलग-अलग घरों में हमें काम करते, चारा काटते हुए 3-4 और बच्चे दिख जाते हैं. हालांकि इनसे हमारी तो बात नहीं होती, लेकिन उनके घरवालों से बात करने के तरीके से यह जरूर मालूम पड़ जाता है कि वे घर के सदस्य नहीं बल्कि नौकर हैं. यह भी कि वे स्थानीय नहीं हैं. इब्राहिमपुर माजरा के बाद फतेहपुर चक गांव के प्रधान मास्टर राजपाल सिंह हमें बताते हैं कि गांव में खेतिहर मजदूरों की भारी कमी है. मजदूरों की कमी को गन्ने की खेती के ठप होने की प्रमुख वजह बताते हुए वे कहते हैं, ‘पहले तो आस-पास से ही मजदूर मिल जाया करते थे, पर अब कई लोग बिहार, बंगाल से काम करने आते हैं.’
आगे जोधी नाम के गांव से गुजरते हुए हम प्रधान इमामुद्दीन खान से मिलते हैं. बच्चों के मजदूरी करने की बात को वे कुछ इस तरह स्वीकारते हैं, ‘कुछ दिनों पहले तक किसान यहां बच्चों को रखा करते थे पर जब से कुछ बच्चे अपने मालिकों के यहां से चोरी करके भागे हैं तब से लोग बाहरी मजदूरों को रखने में हिचकिचाने लगे हैं.’
गन्ना किसानी में आ रही समस्याएं पूछते-पूछते हम अब तक कई गांवों का माहौल टटोल चुके हैं. हर गांव में हो रही बातचीत महेंद्र, दीपक और पवन की कहानियों को पुष्ट कर रही है. अब हम मुजफ्फरनगर के सिमरती और खिंदड़िया गांव की तरफ बढ़ते हैं. रास्ते में पड़ने वाले छपार गांव में हमें कुछ बच्चे खेतों में काम करते नजर आते हैं. आगे बढ़ने पर सिमरती और खिंदड़िया के बीच के रास्ते में हमें कुल सात बच्चे मिलते हैं. लगभग 13 से 16 वर्ष की उम्र के ये बच्चे गांव के पास की अधपक्की सड़क के पास खड़े हैं. दुबली-पतली काया और मटमैले सांवले रंग वाले ये बच्चे दूर से ही अलग पहचाने जा सकते हैं. हम गाड़ी रोककर उनसे बात करना चाहते हैं मगर वे भाग जाते हैं. काफी कोशिशों के बाद उनमें से एक हमारे पास आता है. हम उससे देवबंद का रास्ता पूछते हैं तो जवाब आता हैै, ‘इहां से जाओ.’ ठेठ पुरबिया लहजे में बात करने वाले इन बच्चों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों में काम करते देखकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है.
हमारा अगला पड़ाव सहारनपुर जिले के देवबंद क्षेत्र में आने वाला बंधेडा-खास गांव है. गांव में घूमते हुए कुछ किसान हमसे बात करने को तैयार होते हैं. राऊ शेखावत, राऊ रिजवान और राऊ नौशाद जैसे कई किसान तहलका से बातचीत के दौरान यह स्वीकार करके हैं कि इस क्षेत्र में मौजूद गन्ने के खेतों में कटाई-छिलाई के लिए बिचौलियों की मदद से बिहारी मजदूर मंगवाए जाते हैं. रिकॉर्ड की गई बातचीत के कुछ अंश:
तहलका : बड़े किसान तो रेगुलर मजदूर रखते हैं. पर छोटे किसान तो यह नहीं कर सकते न.
किसान : नहीं, वो टाइमली ही रखते हैं.
तहलका : इसका मतलब कि जो सेंटर बने हुए हैं बिहारियों के लिए, वहीं से लाते होंगे?
किसान : सुनिए, हमारा सहारनपुर इस मामले में सबसे पीछे है. इसकी वजह है. बागपत, मुजफ्फरनगर, मेरठ और गाजियाबाद की तरफ जो लोग हैं, वो इतने हार्ड होते हैं कि आदमी की जान लेने पर आमादा हो जाते हैं. हमारे यहां आदमी किसी के साथ जुल्म नहीं करता. अगर मजदूर कुछ नुकसान भी कर दे तो उसे भेज देते हैं कि जा यार, तू निकल जा बस.
तहलका : आपके यहां जो सेंटर्स हैं, वो सीजनल होते हैं या रेगुलर?
किसान : परमानेंट होते हैं. जिस हिसाब से जिसको जरूरत हो. एक मजदूर को लाने का कमीशन 4,000 रुपये होता है और अगर वह बीच में भाग जाए तो जिम्मेदारी एजेंट की. वहां से हटने पर एक ग्रामीण किसी से कुछ न बताने की शर्त पर बताता है कि इन मजदूरों में कई बच्चे भी शामिल होते हैं और किसानों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि वे यहां लाए कैसे गए हैं.
यहां से निकलते ही हम मुजफ्फरनगर के तेजलहेडा गांव की तरफ बढ़ते हैं. चंद किलोमीटर की दूरी तय करते ही हमारी नजर गन्ने के घने खेतों में काम करते छोटे-छोटे बच्चों पर पड़ जाती है. हम उन्हें बुलाकर बात करने की कोशिश करते हैं और जब कुछ तस्वीरें लेते हैं तो उनमें से एक कहता है, ‘हमार फोटू काहे लेतरअ जी.’ अभी हम उससे कुछ बात और करना ही चाहते हैं कि एक स्थानीय व्यक्ति वहां आ जाता है और हमें लगभग धमकाते हुए कहता है कि हम बच्चों से क्यों बात कर रहे हैं. हमारे ‘बस यूं ही’ कहते ही वह चिल्लाने लगता है. स्थिति बिगड़ती देख हम वहां से निकल जाते हैं और सीधा तेजलहेडा पहुंचते हैं.
गांव के प्रधान बालिन्दू चौधरी के घर ही दो बाल मजदूर दिखाई देते हैं. अपने रंग-रूप और बोली में स्थानीय बच्चों से बिल्कुल अलग ये बच्चे हमें पानी पिलाते हैं और इस बीच धीरे से हम उनकी तस्वीर लेते हैं. गांव में घूमते हुए कुछ और बच्चे काम करते या चारा काटते नजर आते हैं. रास्ते में हम एक स्थानीय किसान से पूछते हैं कि यहां बच्चे बात-बात में डरकर क्यों भाग जाते हैं. वह कहता है कि जाटों, गुर्जरों और त्यागियों के बच्चे कभी किसी से नहीं डरते. पर जोर देकर दूसरी बार पूछने पर वह बताता है, ‘अरे आप बाहर से आए बिहारी बच्चों से मिले होंगे. वे तो हमेशा ही हर किसी से डर के भागते रहते हैं.’ [/box]
लेकिन पवन लगभग आठ महीने बाद वहां से भाग निकला. वह दिल्ली जाने के लिए सीधा मेरठ रेलवे स्टेशन गया. मगर वहां उसे फिर से 10 आदमियों ने दबोच लिया. पवन बताता है कि उनके पास पहले से उसके जैसे दो और लड़के थे. इसके बाद पवन के साथ जो हुआ वह दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना क्षेत्र के किसानों के बीच मौजूद गठजोड़ का पुष्ट प्रमाण है. पवन की कहानी बिचौलियों और एजेंटों के बहुपरतीय नेटवर्क को भी बारीकी से सामने रखती है. पवन को बाइक पर बैठाकर बागपत ले जाया गया. वह बताता है, ‘बागपत में जहां उसने गाड़ी रोकी वहां एक राशन की दुकान थी और सामने बहुत सारे ऑटो खड़े हुए थे. दुकानवाला बार-बार किसी को फोन कर रहा था. दो घंटे बाद एक आदमी आया और वह हम तीनों लड़कों को बड़ौत ले गया. उसने गाड़ी बड़ौत ट्रैक्टर एजेंसी पर रोकी. वहां पर पहले से दो और बच्चे मौजूद थे. हमें उन्हीं के साथ एक कमरे में बंद कर दिया गया. अंदर बैठे हुए एक लड़के ने मुझे कहा कि इन लोगों के साथ मत जाना वरना ये बहुत मारेंगे और कभी वापस नहीं आने देंगे. मैं उससे कुछ और पूछता इससे पहले ही मुझे वहां से घसीटकर बाहर निकाला गया और फिर से बाइक पर बैठाकर किशनपुर बिराल ले जाया गया. बाकी बच्चे वहीं छूट गए, उनका क्या हुआ यह मुझे भी नहीं पता. किशनपुर बिराल से मुझे फतेहपुर चक गांव ले जाया गया. वे लोग मुझे विक्रम सिंह दरोगा के घर छोड़ चले गए. उसका घर पानी की टंकी के पास है.’
कोर्ट ने साफ कहा है कि यदि कोई बच्चा बचा लिया जाता है या वह खुद वापस आ जाता है तो भी जांच अधिकारियों को पूरे मामले की पड़ताल करनी चाहिए
मेरठ में आठ महीने काम करने के बाद पवन ने फतेहपुर चक में भी करीब पांच महीने काम किया. पवन बताता है कि फतेहपुर चक के आस-पास मौजूद सभी गांवों में उसके जैसे बच्चे बंधुआ मजदूरी करते थे. वह बताता है कि पड़ोस के इब्राहिमपुर माजरा और बूढ़पुर गांवों में उसके जैसे बहुत-से बच्चे बंदियों जैसा जीवन गुजार रहे हैं. महेंद्र और दीपक की ही तरह, पवन के साथ भी सुरजीत और राजू नाम के दो लड़के काम करते थे. सुरजीत ने उसे बताया था कि उसे 2,500 रु में खरीदा गया है. वहां काम कर रहे बच्चों की हालत बताते हुए वह कहता है, ‘वह सारे गांव बहुत हरामी हैं, दीदी. अगर बच्चे भागने की कोशिश करें तो उसके पीछे कुत्ते छोड़ देते थे. और भाग कर जाते भी तो कहां? वहां सारे ही गांव में लोग बच्चे पकड़ते हैं और 3,000-3,000 रुपये में लड़के ढूंढ़ते रहते हैं. एक गांव से भागो तो दूसरे में पकड़ लेंगे.’
पवन के साथ त्रासदी यह हुई कि इस बंधुआ मजदूरी और गन्ने के खेतों में जारी छिलाई-कटाई के दौरान वह अपना घर का फोन नंबर भूल गया था. पांच महीने बाद अचानक उसे अपना नंबर याद आया तो किसी तरह सेे उसने अपने माता-पिता को फोन कर दिया. दीपक के पिता हनुमान कहते हैं, ‘उसने हमें पास के इब्राहिमपुर माजरा गांव में बुलाया ताकि किसी को शक न हो. पहले तो हमें लगा कि उस दरोगा के घर जाकर पूछें कि उसने हमारे बेटे को बंधुआ मजदूर क्यों बनाया पर पवन ने ही मना कर दिया. कह रहा था कि वे सब बहुत खतरनाक लोग हैं. हम वहां पहुंच गए और वह हमें गांव के स्कूल के पास मिल गया. हम लोग उसे लेकर तुरंत दिल्ली भागे. हमें लगा था कि पुलिस मेरे बेटे के अपराधियों को सजा देगी पर आज तक मामले में कोई छानबीन ही नहीं हुई है. आज तक डरते हैं कि कहीं कोई फिर से हमारे बेटे को हमसे छीन कर न ले जाए.’
खतरे से अनजानः जहांगीरपुरी (दिल्ली) की कबाड़ी बस्ती जैसे इलाकों से कई बच्चों को अगवा किया गया है
महेंद्र, दीपक और पवन की ये झकझोर देने वाली कहानियां हमें इस मसले से जुड़े एक बड़े सवाल की ओर ले जाती हैं. आखिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के गन्ना किसान, दिल्ली की गरीब झुग्गी बस्तियों के बच्चों को खरीद कर, उनसे बंधुआ मजदूरी करवाने के इस नए तस्करी रैकेट का हिस्सा क्यों और कैसे बन रहे हैं? इन सभी बच्चों द्वारा बताए गए घटनाक्रमों से यह भी स्पष्ट होता है कि इस समस्या की जड़ें पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की गन्ना पट्टी में बहुत गहरे तक फैली हैं. गन्ना पट्टी में बंधुआ मजदूरी कर रहे बच्चों की जमीनी हकीकत और समस्या के फैलाव का पता लगाने के लिए तहलका की टीम ने मुजफ्फरनगर, सहारनपुर और बागपत के कुछ गांवों का दौरा करने का फैसला किया. इस दौरे के लिए गन्ना पट्टी के गांवों का चयन मोटे तौर पर दीपक, पवन और महेंद्र के बयानों के आधार पर किया गया. यहां गैरकानूनी रूप से काम कर रहे बंधुआ मजदूर बच्चों का पता लगाने के लिए हम गन्ना किसानी पर शोध करने वाले एक गैरसरकारी संगठन के प्रतिनिधि बनकर गए. दौरे के लिए एक ओर जहां बागपत से फतेहपुर चक, इब्राहिमपुर मांजरा और जोधी गांव को चुना गया वहीं मुजफ्फरनगर में खिंदड़िया, तेजलहेड़ा और सिमराती गांवों को चुना गया. साथ ही सहारनपुर के बंधेड़ा-खास गांव का भी हमने दौरा किया.
इन इलाकों में जाने के लिए जून के आखिरी हफ्ते का समय निश्चित किया गया ताकि ‘ऑफ सीजन’ में भी खेतों में मौजूद बच्चों का पता लगाया जा सके. गौरतलब है कि गन्ने की कटाई और पेराई से जुड़े सभी काम अक्टूबर-नवंबर में शुरू होते हैं और फरवरी-मार्च तक खत्म हो जाते हैं. सूत्रों के अनुसार इस दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की गन्ना पट्टी के अंतर्गत आने वाले गांवों में भारी संख्या में बाल मजदूर लाए जाते हैं. इनमें से ज्यादातर को गन्ना कटाई के दौरान बढ़ने वाले काम के लिए ही लाया जाता है. जो बाहरी बच्चे जून के महीनों में भी खेतों में काम करते हुए दिख गए वे गन्ना कटाई और पशुपालन में लंबे समय से फंसे हुए स्थायी बंधुआ मजदूर होते हैं.
जून के आखिरी हफ्ते में इस तहकीकात के दौरान तहलका की टीम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सात गांवों में घूमी. इस दौरान हमने मजदूरी करते हुए करीब तीस बच्चों को देखा (बॉक्स देखें). इनमें से कुछ बच्चों से बातचीत के साथ-साथ उनकी तस्वीरें भी जुटाई गईं. ज्यादातर बच्चों को उनकी भाषा, उच्चारण, हुलिये और हाव-भाव के आधार पर चिह्नित किया गया. जाहिर है, यह मापदंड उन्हीं बच्चों पर लागू हुए जो गन्ने के खेतों में काम कर रहे थे या फिर बड़े किसानों के घरों में चारा काट रहे थे. गौरतलब है कि बंधुआ मजदूरी के लिए 14 से 16 साल तक के बच्चे गन्ना किसानों की पहली पसंद हैं. स्थानीय सूत्र बताते हैं कि यह एक ऐसी उम्र होती है जब बच्चा गन्ने की कटाई-छिलाई करने लायक बड़ा तो हो जाता है पर उसे डरा-धमकाकर, आसानी से काबू में भी रखा जा सकता है. वह बंधुआ मजदूरी करने में तो सक्षम हो जाता है पर विरोध करने लायक ताकतवर नहीं होता.
बाल मजदूरी के खिलाफ काम करने वाली गैरसरकारी संस्था ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के संस्थापक कैलाश सत्यार्थी की मानें तो शहरी बच्चों को अगवा करके उनसे गन्ने के खेतों में बंधुआ मजदूरी करवाने का यह खतरनाक ट्रेंड पुलिसिया लापरवाही और अधपकी विकास योजनाओं का मिला-जुला नतीजा है. वे कहते हैं, ‘ये घटनाएं मनरेगा और ‘सड़क बनाओ’ जैसी जनहित योजनाओं की अदूरदर्शिता को हमारे सामने रखती हैं. मनरेगा जैसी योजनाओं के आने के बाद खेतिहर मजदूर बड़ी संख्या में इनसे जुड़ गए और खेतों में मजदूरी करने वाले लोगों का टोटा हो गया. स्थानीय बच्चों को बंधन में रखने पर उनके भाग जाने या उनके माता-पिता द्वारा शोर मचाए जाने की ज्यादा संभावना होती है. इसलिए गन्ना किसान दिल्ली से बच्चे मंगवाते थे. कुछ साल पहले तक इन खेतों में बिहार और बंगाल के खेतिहर मजदूर काम किया करते थे. अब जब दिल्ली से सटे किसानों को वही बिहारी बच्चे दिल्ली की झुग्गी बस्तियों से मिल रहे हों तो फिर दूर जाने की क्या जरूरत? इसी वजह से आज दिल्ली के गरीब बच्चों की पानीपत, सोनीपत और करनाल से लेकर बागपत, मुजफ्फरनगर और सहारनपुर तक तस्करी होती है.’ पिछले कई दशकों से बाल मजदूरी को रोकने के अभियान से जुड़े सत्यार्थी तस्करी के इस पूरे मकड़जाल के लिए पुलिस प्रशासन को जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘बीट ऑफिसर और स्थानीय सर्कल अधिकारी सबसे ज्यादा दोषी हैं. सबसे ज्यादा शर्म की बात है यह सब अगर राजधानी दिल्ली के बच्चों के साथ हो सकता है तो आप बाकी देश के हालात का खुद ही अंदाजा लगा लीजिए.’
तहलका ने इब्राहिमपुर माजरा, फतेहपुर चक, सिमराती और खिंदड़िया के बीच बने कच्चे मार्ग पर कई बाहरी मजदूर बच्चों को चिह्नित किया. साथ ही तेजलहेड़ा और बंधेड़ा-खास गांवों में भी हमें कई बाहरी बच्चे मजदूरी करते हुए मिले. इन सभी मजदूर बच्चों का चेहरा-मोहरा, कद-काठी और भाषा स्थानीय लोगों से बिल्कुल अलग थी. अपनी बोली में पुरबिया और अपने वर्ण में आदिवासियों का सा पुट लिए हुए ये बच्चे बात-बात में डर कर भाग जाते थे (इनमें से कुल आठ बच्चों की तस्वीरें और वीडियो फुटेज तहलका के पास मौजूद हैं).
बातचीत के दौरान ज्यादातर किसानों ने खेतिहर मजदूरों की भारी कमी की शिकायत करते हुए स्वीकार किया कि उन्हें अपना काम चलाने के लिए बाहर से मजदूर मंगवाने पड़ते हैं. बंधेड़ा-खास गांव के कुछ किसानों ने तहलका से बातचीत में स्वीकार किया कि उनके क्षेत्र में मजदूर मंगवाने के लिए बिचौलिये और दलाल मौजूद हैं. किसानों ने यह भी बताया कि एजेंट एक मजदूर का 4,000 रुपये कमीशन लेता है. यह बातचीत (बॉक्स देखें) महेंद्र, दीपक और पवन की कहानियों को और पुष्ट कर देती है.
‘वे सब बहुत खतरनाक लोग थे. उनसे घर जाने का जिक्र करो तो मारने लगते. बात-बात में बंदूक दिखाकर जान से मारने की धमकी भी देते थे’
बचपन बचाओ आंदोलन के साथ मिलकर दिल्ली के गुमशुदा बच्चों पर काम करने वाले दीनानाथ चौहान बताते हैं कि दिल्ली के बच्चों को गन्ना पट्टी में बेचने के बारे में उन्हें भी लगभग डेढ़ साल पहले पता लगा था. सोनू नाम के एक ऐसे ही 16 वर्षीय बच्चे का किस्सा बताते हुए वे कहते हैं, ‘मूलतः गोरखपुर का रहने वाला सोनू दिल्ली के प्रेमनगर-नांगलोई क्षेत्र में रहता था. उसे अपनी कालोनी की सड़क से ही अगवा कर लिया गया था. जब उसे होश आया तो वह मेरठ के बड़ला-12 नाम के गांव में था. भागने से पहले उसे वहां रहने वाले मास्टर आनंद के घर 16 महीने तक मजदूरी करनी पड़ी. वह भी गन्ने के खेतों में ही काम करता था. जब वह घर वापस आया तो उसने स्थानीय पुलिस को बताया कि उस गांव में उसके जैसे सैकड़ों बच्चे हैं जिन्हें बंधुआ बना लिया जाता है. पर मामले में कोई पुलिसिया तहकीकात नहीं हुई.’
इस पूरे मामले में जब तहलका ने दिल्ली पुलिस आयुक्त (अपराध और एंटी-ट्रैफिकिंग यूनिट) अशोक चांद से बात की तो उन्होंने मामले को ये कहकर टालना चाहा कि कानून के हिसाब से सारी तहकीकात शुरू हो जाएगी. पर जब हमने उन्हें तहलका की इस तहकीकात के बारे में बताते हुए महेंद्र, दीपक और पवन के बयानों की जानकारी दी तो उनका बस इतना ही कहना था, ‘आपकी तहकीकात बहुत जरूरी है. ऐसे काम होते रहने चाहिए. मुझे पूरा विश्वास है कि संबंधित क्षेत्र के मुख्य पुलिस अधिकारियों ने इन मामलों में तहकीकात की होगी और अगर ऐसा नहीं है तो उन्हें इस बात के आदेश दिए जाएंगे.’
दिल्ली के लापता बच्चों को बचाने के लिए दिए गए हाई कोर्ट के तमाम आदेशों और बंधुआ मजदूरी करवाने वाले बिचौलियों की धरपकड़ के लिए जारी गृह मंत्रालय के तथाकथित ‘कड़े’ दिशानिर्देशों के बावजूद दिल्ली पुलिस बेपरवाह है. यही वजह है कि सिर्फ दो-तीन हजार रुपये के लिए अपहरण करके बच्चों को गन्ने के खेतों में बंधुआ मजदूर बनवाने वाले बिचौलियों और गन्ना किसानों का बदसूरत गठजोड़ खूब फल-फूल रहा है. और न जाने कितने ही मासूमों की जिंदगियां नरक बनकर रह गई है.
खबरों के मुताबिक, उन्होंने निर्भया कांड पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘इंडियाज डॉटर’ के विश्वविद्यालय में प्रदर्शन को लेकर मुहिम चलाई थी. वे लगातार धरना-प्रदर्शनों और सामाजिक गतिविधियों में शामिल रहते थे. इसे लेकर कुछ छात्रों ने प्रबंधन से उनकी शिकायत की थी और उन पर नक्सली गतिविधियों को बढ़ावा देने व परिसर में राजनीति गतिविधियां चलाने का भी आरोप लगाया गया है.
संदीप पांडेय ने ‘तहलका’ से कहा, ‘मैं आपसे पूछता हूं कि अगर मैं नक्सली या देशविरोधी हूं, तो केस दर्ज कर मुझे जेल में डालना चाहिए या फिर मेरा निष्कासन होना चाहिए? विश्वविद्यालय में पिछले कई महीने से मुझे लेकर गुटबाजी चल रही थी, लेकिन इसे लेकर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के डायरेक्टर को कोई आपत्ति नहीं थी. दरअसल, यह एक वैचारिक लड़ाई है. हम संघ की विचारधारा के विरुद्ध हैं, इसीलिए ये लोग हम से परेशान हैं.’
उन्होंने बताया, ‘वाइस चांसलर गिरीश त्रिपाठी, डीन धनंजय पांडेय और एक सज्जन, ये तीनों ही आरएसएस से संबंध रखते हैं. इन्होंने बोर्ड ऑफ गवर्नर्स की मीटिंग में मुझे निष्काषित करने के लिए दबाव बनाया. जब मेरा कॉट्रैक्ट रिन्यू हो रहा था, तब डीन धनंजय पांडेय ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के डायरेक्टर राजीव संगल से कहा था कि जिसे जेल में होना चाहिए, वे यहां विश्वविद्यालय में हैं. जब धनंजय पांडेय ने मेरी नियुक्ति नहीं की, तो डायरेक्टर ने हायर अथॉरिटी के रूप में खुद मेरी नियुक्ति की. अभी कुछ समय पहले मुझे एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में हिस्सा लेने के लिए ऑस्ट्रिया बुलाया गया तब मेरी वीजा फीस रोक दी गई और इसे रोकने का तर्क ये दिया गया कि मेरी नियुक्ति अवैध है. दरअसल, यह सब आरएसएस का काम है.’
इस बारे में वाइस चांसलर गिरीश त्रिपाठी का कहना है, ‘इस मामले में आरएसएस की कोई भूमिका नहीं है, न इससे आरएसएस का कोई लेना-देना है. संदीप पर जो कथित आरोप थे, उसके मद्देनजर बोर्ड ऑफ गवर्नर्स ने यह फैसला लिया है. मैं इसका चेयरमैन जरूर हूं, लेकिन ये मेरा नहीं बोर्ड का फैसला है.’
आजकल किसी का नक्सली कह देना आम बात है : अरुंधति
संदीप पांडेय की पत्नी और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधति ने बताया, ‘संदीप पर नक्सली होने और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया है. उन्होंने निर्भया पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म दिखाने के लिए अभियान चलाया था, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन के मना करने पर फिल्म दिखाई नहीं गई, अगर दिखाते भी तो उसमें कुछ गलत नहीं है. पर आजकल किसी को भी नक्सली कह देना आम बात हो गई है. जबसे संदीप की नियुक्ति हुई है तभी से आरएसएस के लोग उनके पीछे पड़े थे. उनकी नियुक्ति का भी विरोध किया गया था. उनके कॉन्ट्रैक्ट रिन्यूअल के समय भी मंत्रालय की तरफ से इसे रोकने की कोशिश हुई थी जबकि उनके अकादमिक रिकॉर्ड में कोई गड़बड़ नहीं थी. डायरेक्टर ने भी यह माना है. दरअसल वाइस चांसलर आरएसएस के हैं. आरएसएस के लोगों ने ही आपत्ति उठाई थी. उन्हें हम जैसे लोग पसंद नहीं हैं. जिन मुद्दों पर हम लड़ते हैं, उन पर उन्हें आपत्ति है.’
परेशान, कुछ-कुछ डरे-से मरीज, बेखौफ अपराधी-से कई डॉक्टर और चिरंतन काल से गहरी नींद में सरकार… बात किसी असफल अफ्रीकी देश की नहीं बल्कि अपने देश के मध्य प्रदेश के अस्पतालों की हो रही है. यहां के कुछ डॉक्टर अपने दिन की शुरुआत ही महान यूनानी चिकित्सक हिप्पोक्रेट्स की उस शपथ की अवहेलना से करते हैं, जो कभी डॉक्टर बनने पर उन्होंने ली थी. यह शपथ बाकी और बातों के अलावा कहती है कि एक चिकित्सक मरीजों को कभी कोई ऐसी दवा नहीं देगा जो उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो और उसकी जिंदगी को खतरे में डाल दे. प्रदेश के कई डॉक्टर शायद पैसों की तुलना में मरीजों की जिंदगी को ज्यादा तरजीह देते हैं. दवा कंपनियों द्वारा दिए जा रहे अकूत धन के लालच में इन डॉक्टरों ने सभी नियम-कानूनों को दरकिनार करके क्लिनिकल या ड्रग ट्रायल (कच्ची दवाओं या उपकरणों का इंसानों पर परीक्षण) को एक व्यवसाय में तब्दील कर दिया है.
पिछले दिनों जब प्रदेश में मरीजों की अनुमति और उनकी जानकारी के बिना गैर कानूनी तरीके से किए जा रहे दवा परीक्षणों के कई गंभीर मामले सामने आए तो इसकी गूंज अखबारों के माध्यम से प्रदेश भर में घूमती हुई राज्य की विधानसभा तक भी पहुंच गई. मानसून सत्र में विभिन्न दलों के विधायकों द्वारा लाए गए एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का जवाब देते हुए राज्य सरकार ने स्वीकार किया कि पिछले पांच वर्षों में राज्य के अलग-अलग अस्पतालों में 2,365 लोग क्लिनिकल ट्रायल से गुजर चुके हैं. इनमें से 1,644 बच्चे थे और कुल 51 लोग ‘गंभीर प्रतिकूल प्रभावों’ के शिकार हुए. ध्यान रहे कि मेडिकल शब्दावली के अनुसार मृत्यु भी ‘गंभीर प्रतिकूल प्रभावों’ के अंतर्गत आती है.
यह आंकड़ा सरकारी है और कुछ अस्पतालों से मिले आंकड़े ही इसे सीधे-सीधे झुठला देते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता रोली शिवहरे को आरटीआई के तहत मिली जानकारी बताती है कि 2003 से 2009 के बीच अकेले ग्वालियर मेडिकल कॉलेज में ही 3,000 से ऊपर मरीजों पर मेडीकल परीक्षण किए गए हैं. सूचना के अधिकार के तहत मिली एक दूसरी जानकारी से यह भी पता चलता है कि 2005 से प्रदेश के अस्पतालों में मुख्यतः ब्रोंकिअल अस्थमा, टीबी, गंभीर स्नायविक विकार, हृदय रोग, स्ट्रोक, पल्मोनरी हाइपर टेंशन आदि बीमारियों से संबंधित दवाओं के परीक्षण मरीजों पर किए जा रहे हैं. ज्यादातर ऐसे मामलों से जुड़ी सूचनाएं प्राप्त करने की राह में एक सबसे बड़ी बाधा यह है कि इनमें भाग लेने वाले मरीजों की जानकारी आरटीआई के सेक्शन 8(1)(जे) और 8(1)(डी) के अंतर्गत नहीं आती. हालांकि इंडियन मेडिकल काउंसिल (प्रोफेशनल कंडक्ट, एटिकेट ऐंड एथिक्स) रेगुलेशन, 2002 के अनुसार जनहित में यह जानकारी आसानी से दी जा सकती है. सूत्र बताते हैं कि दुनिया की कुछ मशहूर दवा कंपनियां जैसे मर्क ऐंड कॉरपोरेशन (यूएस), हॉफमैन ला रॉश (स्विट्जरलैंड) और डाइची सांक्यो फार्मा डेवलपमेंट (यूएस) आदि मध्य प्रदेश में जारी इन ड्रग ट्रायल में सक्रिय रूप से शामिल हैं.
क्लिनिकल ट्रायल्स को मोटे तौर पर ड्रग ट्रायल के नाम से भी जाना जाता है और ये किसी भी नयी दवा के आविष्कार के बाद उसके असर को परखने के लिए किए जाते हैं. चार चरणों की इस प्रक्रिया में पहले चरण में देखा जाता है कि दवा का सेवन सुरक्षित है या नहीं, दूसरे में उसकी प्रभावशीलता का अध्ययन होता है और तीसरे चरण के प्रयोग यह देखने के लिए होते हैं कि दवा पहले से मौजूद दवाओं से कितनी असरकारक है. आखिरी चरण में दवा के दीर्घकालीन प्रभावों का आकलन किया जाता है. सफल परीक्षण के बाद ही दवा के उत्पादन का लाइसेंस मिलता है. वैक्सीन (टीका) ट्रायल में भी इसी प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जाता है जबकि मेडिकल उपकरणों के ट्रायल में पहला चरण नहीं होता. मध्य प्रदेश में ये तीनों के तरह के ट्रायल धड़ल्ले से चल रहे हैं. इनसे जुड़ी सबसे गंभीर बात यह है कि ज्यादातर परीक्षण कमजोर और निचले तबके से जुड़े लोगों पर हुए हैं. इनमें बड़ी संख्या में बच्चे भी शामिल हैं. पिछले साल इस मामले ने तब तूल पकड़ना शुरू किया जब पता चला कि भोपाल गैस पीड़ितों पर भी ड्रग ट्रायल किए गए हैं. पिछले साल जून में पांच गैस पीड़ितों ने दावा किया था कि गैस पीिड़तों के लिए बनाए गए अस्पताल भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल ऐंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में उन पर बिना उनकी जानकारी के दवाओं का परीक्षण किया जा रहा है. ड्रग ट्रायल के दुष्प्रभावों को झेल रहे एक गैस पीड़ित रामाधार श्रीवास्तव हमें बताते हैं, ‘अब डॉक्टरों के प्रति हमारे मन में एक डर बैठ गया है.’ परीक्षण के चलते रामाधार के जबड़े गलने लगे हैं और उनके पास आगे का इलाज कराने का न तो साहस है न ही पैसे. (देखें व्यथा कथा-1)
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व्यथा कथा 1
‘जेहन में एक डर बैठ गया है, डॉक्टरों पर भरोसा नहीं रहा’
ड्रग ट्रायल की वजह से रामाधार श्रीवास्तव के जबड़े गलने लगे हैं
पुराने भोपाल में सालों पहले बंद हो चुकी पुट्ठा मिल की वीरान सी कर्मचारी क्वार्टर्स कॉलोनी के एक छोटे-से बदरंग मकान में रहने वाले रामाधार श्रीवास्तव उनपर किए क्लिनिकल ट्रायल्स के भयानक परिणामों को आज भी भुगत रहे हैं. बातचीत के दौरान उनके बड़े बेटे अजय श्रीवास्तव बताते हैं कि उनके पिता गैस पीड़ित हैं और उन्हें 2007 में सीने में तेज दर्द की शिकायत हुई थी, ‘मैं उन्हें भोपाल मेमोरिअल हॉस्पिटल एवं रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी.) ले गया जहां डॉक्टरों ने उन्हें भर्ती कर लिया. 20 नवंबर को उन्हें दवाइयां लिखकर डिस्चार्ज कर दिया गया. तब से हर 15 दिन में डॉक्टर उन्हें बुलाते और एक कागज पर दस्तखत लेकर वही दवाइयां फिर से वापस दे देते. कुछ दिन बाद उनकी हालत बिगड़ने लगी और सांस लेने में तकलीफ की शिकायत भी शुरू हो गई. धीरे-धीरे उनके मुंह में छाले हो गए और अब उनके जबड़े गलने लगे हैं. हमें लग रहा था कि उनका अच्छा इलाज करने के लिए डॉक्टर उन्हें हर 15 दिन में बुलाते हैं.
पर बाद में हमें पता चला कि जो दवाई उन्हें दी जा रही थी उसका कोई नाम ही नहीं है.’ जांच करने पर पता चला कि उन्हें जो दवाइयां दी गई थीं उनके नाम पर्चों पर नहीं लिखे थे. वे एजेडटी 3443565 जैसी कोड में लिखी गयीं थी. बीएमएचआरसी द्वारा रामाधार जी को लिखी गई दवाइयों के पर्चे की एक प्रति तहलका के पास मौजूद है. रामाधार कहते हैं , ‘हमें तो पता ही नहीं था कि मुझ पर किसी दवा का ट्रायल हो रहा हैं. हमें किसी जांच कमेटी की तरफ से कोई सूचना नहीं मिली है. जब हमने अस्पताल में पूछताछ की तो किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. हमारे जेहन में एक डर बैठ गया है और डॉक्टरों से विश्वास उठ गया है. हम कोई जानवर नहीं कि हमारे ऊपर बिना हमारी जानकारी के किसी भी दवा का टेस्ट कर दिया जाए.’ [/box]
भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार तहलका से कहते हैं, ‘बीएमएचआरसी में लंबे समय से ड्रग ट्रायल चल रहे हैं. मेरे पास ऐसे कई लोगों की शिकायतें मौजूद हैं जिन पर कच्ची दवाइयों के परीक्षण बिना उनकी सहमति के किए गए. सूचना के अधिकार से भी जानकारियां नहीं मिल रहीं और अस्पताल का प्रशासन कोई जवाब नहीं देता.’ इस मामले की संवेदनशीलता देखते हुए राज्य सरकार ने तुरत-फुरत में स्वास्थ्य विभाग के संयुक्त संचालक डॉ. केएल साहू की अध्यक्षता में बीएमएचआरसी में हुए ड्रग ट्रायल्स की जांच समिति बना दी. लेकिन इस समिति पर काफी समय से तेजी से जांच न करने के आरोप लगते रहे हैं और अभी तक इसने अपनी रिपोर्ट नहीं दी है.
प्रदेश में अलग-अलग जगह से निकाली जा रही हर जानकारी क्लिनिकल ट्रायल्स की इस पहेली की तसवीर को और साफ करती जा रही है. विधानसभा के मानसून सत्र में विधायक प्रताप ग्रेवाल द्वारा पूछे गए प्रश्न क्रमांक-540 के जवाब में मिली जानकारी से वैक्सीन ट्रायल से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण खुलासे हुए हैं. जानकारी बताती है कि चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय (सीएनबीसी) में 30 वैक्सीनों के ट्रायल हुए हैं. और इसके लिए विभाग के दो प्रमुख डॉक्टरों- डॉ हेमंत जैन और शरद थोरा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने लगभग सवा दो करोड़ रुपये दिए हैं. इस अस्पताल में हुए वैक्सीन ट्रायल के शिकार बच्चे यथार्थ के पिता अजय नाईक हमें बताते हैं, ‘मुझसे अंग्रेजी के एक फार्म पर बिना यह बताए कि उसमें क्या लिखा है, दस्तखत कराए गए थे. उसके बाद मेरे बच्चे को कई टीके लगाए गए.’ इन टीकों के लगने के कुछ ही दिन बाद यथार्थ की त्वचा में तरह-तरह की समस्याएं होना शुरू हो गईं. अस्पताल के रवैये से हताश अजय हमें बताते हैं, ‘कोई डॉक्टर मेरी बात सुनने को तैयार नहीं है. अब मुझे आए दिन बच्चे को लेकर अस्पताल जाना पड़ता है.’ गौरतलब है कि जिन टीकों का यहां ट्रायल किया जाता था, आरटीआई से मिली जानकारी बताती है कि उनमें थिओमेरोसल, एल्यूमीनियम फॉस्फेट जेल, फिनोल रेड, ट्विन 80, फेनोजायएथेनोल, स्कुआलेने और फॉर्मलडिहायड जैसे हानिकारक एडजुविंट्स (वे एजेंट जो दवाओं के असर को बढ़ा देते हैं) भी पाए गए. इनमें से कई एडजुविंट्स अमेरिका में प्रतिबंधित हैं.
‘दवा कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए सस्ते और घातक एडजुविंट्स इस्तेमाल करती हैं और इस पूरी प्रक्रिया में सैकड़ों बच्चों की जान को दांव पर लगाया जाता है’
क्लिनिकल ट्रायल से जुड़े मामलों में अपनी ही बिरादरी के खिलाफ सबसे पहले जोरशोर से आवाज उठाने वाले महात्मा गांधी मेमोरिअल मेडिकल कॉलेज इंदौर (एमजीएमएमसी) से जुड़े वरिष्ठ नेत्र चिकित्सक डॉ आनंद राय बताते हैं कि दवा कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए बेहतर एडजुविंट्स को छोड़कर इन सस्ते और घातक एडजुविंट्स इस्तेमाल करती हैं और इस पूरी प्रक्रिया में सैकड़ों बच्चों की जान को दांव पर लगाया जाता है. डॉ. आनंद को पिछले साल अस्पताल में जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल से जुड़े होने के आरोप में एमजीएमसी काउंसिल से निलंबित कर दिया गया था. उनका कहना है कि ड्रग ट्रायल मामले को उजागर करने के एवज में उन्हें यह सजा दी गई थी.
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व्यथा कथा 2
‘डॉक्टर कहते हैं साबुन का असर है’
एक वर्षीय यथार्थ अपनी मां की गोद में
साइकिल का पैडल हर बार आगे बढ़ाने के साथ ही इंदौर शहर में टाटा टेली सर्विसेस के बिल घर-घर जाकर बांटने वाले अजय नाईक अपने 10 महीने के बीमार बच्चे की गंभीर स्थिति के बारे में सोचते रहते हैं. 8 मार्च, 2010 को उनके बेटे यथार्थ का जन्म इंदौर के महाराजा यशवंत राव (एमवाय) अस्पताल में हुआ था. डॉक्टरों के कहने पर 10 मार्च को वे उसे टीके लगवाने के लिए चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय (सीएनबीसी) ले गए. यहां डॉक्टर हेमंत जैन और अभिषेक दुबे ने उनके बेटे को टीके लगाए और कहा कि अब परेशानी की कोई बात नहीं. अजय की असली परेशानी इसके बाद ही शुरू हुई क्योंकि टीके लगने के कुछ ही दिन बाद उनके बेटे के शरीर पर मवाद भरी फुंसियां हो गईं और बुखार आ गया. ये फुंसियां कुछ दिनों बाद सफेद दाग में बदल गईं और अजय की जिंदगी भी बदल गईं. अब वे सारा दिन बिल बांटने के बाद अपने बेटे को लेकर अस्पतालों के चक्कर लगाते रहते हैं. शिशु के शरीर से दाग नहीं जा पा रहे हैं. इस नयी बीमारी पर शिशु विभाग के प्रमुख, अजय से बच्चों जैसी मासूमियत के साथ कहते हैं कि गलत साबुन की वजह से दाग हो गए हैं. एक बात अजय को लगातार कचोटती है कि आखिर यह जानते हुए भी कि उसे अंग्रेजी ठीक से नहीं आती, उसने 10 मार्च को डॉक्टरों द्वारा दिए गए एक फार्म पर दस्तखत क्यों किए? अजय का कहना है कि उनकी जानकारी और अनुमति के बिना डॉ हेमंत जैन और और डॉ अभिषेक दुबे ने उनके नवजात शिशु पर एक कच्चे टीके का परीक्षण किया. अजय ने पुलिस में शिकायत भी की, सरकार को कई पत्र भी लिखे पर अभी तक मामले का कोई नतीजा नहीं निकला, उल्टा पुलिस ने मामले को अस्पताल के ही मेडिको-लीगल के सुपुर्द कर दिया है. [/box]
क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्टरी-इंडिया (सीटीआरआई, इस संस्था में क्लिनिकल ट्रायल्स को पंजीकृत करवाना अनिवार्य होता है ) के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में सबसे अधिक ट्रायल्स इंदौर में किए गए. इंदौर के ही कई निजी अस्पतालों में डायबिटीज से लेकर दिल के ऑपरेशन और एंजियोप्लास्टी के वक्त इस्तेमाल होने वाले ‘कोरोनरी स्टेंट’ (एक पतली ट्यूब जिसे हृदय के बाहर स्थित रक्त वािहनियों में लगाया जाता है) के भी ट्रायल्स हो रहे हैं. सीटीआरआई में दर्ज जानकारी के अनुसार इंदौर के टोटल अस्पताल के डॉक्टर सुनील एम. जैन डायबिटिक मरीजों में ग्लायकेमिक की जांच कर रहे हैं तो सीएचएल अपोलो के डॉ. गिरीश कवठेकर गुजरात की एक कंपनी द्वारा बनवाए जा रहे एक खास प्रकार के स्टेंट के परीक्षण कर रहे हैं. लेकिन इन क्लिनिकल ट्रायल्स से जुड़ी गोपनीयता और सतर्कता का आलम यह है कि ज्यादातर डॉक्टर इस तरह के परीक्षणों से अपने जुड़ाव तक को स्वीकार नहीं करते. तहलका ने डॉ. सुनील एम जैन से प्रतिक्रिया के लिए कई बार संपर्क साधने की कोशिश की लेकिन वे इसके लिए उपलब्ध नहीं थे. डॉ. गिरीश कवठेकर ने किसी भी तरह के मेडिकल उपकरण के परीक्षण की जानकारी तक होने से मना कर दिया. सीटीआरआई में कोरोनरी स्टेंट के ट्रायल से जुडे सीएचएल अपोलो के तीन दूसरे डॉक्टरों के नाम भी दर्ज हैं. लेकिन पूछताछ करने पर अस्पताल के कार्यकारी निदेशक राजेश जैन तहलका को बताते हैं कि उनके अस्पताल में कोई मेडिकल डिवाइस ट्रायल नहीं हुआ. जबकि सीटीआरआई में दर्ज जानकारी के अनुसार अस्पताल में ‘इन्फिनियम’ ब्रांड के एक खास कोरोनरी स्टेंट का चौथे चरण का ट्रायल चल रहा है. डॉ राय कहते हैं कि सीटीआरआई में दर्ज होने का ही सीधा-सीधा मतलब है क्लिनिकल ट्रायल्स का मौजूद होना. वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘सरकार का ध्यान अभी तक निजी अस्पतालों की तरफ तो गया ही नहीं है. जबकि सरकारी अस्पतालों के जैसे ही प्रदेश के कई निजी अस्पतालों में मरीजों को गुमराह करके उनकी जानकारी के बिना उन पर कई तरह के परीक्षण किए जा रहे हैं.’
जहां अलग-अलग प्रकार के क्लिनिकल ट्रायल्स के ये मामले पूरे प्रदेश में मकड़जाल की तरह फैलते जा रहे हैं वहीं प्रशासन की जांच अपनी सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ रही है. बीएमएचआरसी से जुड़े मामलों की जांच कर रहे डॉ केएल साहू अपनी जांच की धीमी गति की वजह बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने समिति में दो और लोगों को शामिल करने का प्रस्ताव सरकार के पास भेजा था लेकिन सरकार ने इसे नामंजूर कर दिया इसलिए उन्हें अकेले ही सारे काम करने पड़े हैं. वहीं प्रमुख सचिव स्वास्थ्य शिक्षा आईएस दाणी की अध्यक्षता में बनी सबसे महत्वपूर्ण छह सदस्यीय समिति भी सुस्ती से काम कर रही है. छह महीने पहले बनी समिति को अपनी रिपोर्ट देने में अभी कुछ समय और लग सकता है. तहलका से बातचीत में दाणी कहते हैं कि उनकी कमेटी अपने पॉलिसी ड्राफ्ट की तरफ बढ़ रही है. उनका कहना है, ‘स्वास्थ्य शिक्षा विभाग के तहत गठित ये कमेटी इस बात की पड़ताल कर रही है कि ड्रग ट्रायल को नियमानुसार संचालित करने के लिए एक राज्य केंद्रित नियम बनाने की जरूरत है भी या नहीं. हम कुछ बुनियादी सवालों के जरिए नियम के संदर्भ में आधार तैयार कर रहे हैं. जनसुनवाई भी कर रहे हैं पर रिपोर्ट आने से पहले मैं और कुछ नहीं बता सकता.’
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व्यथा कथा 3
‘सारा काम सरकार के नाम की आड़ में हो रहा था’
लवीन अपनी छह माह की बेटी काव्या के साथ
250 रुपये अगर आज आपके हाथों में थमा दिए जाएं तो आज आप बाजार में क्या-क्या खरीद सकते हैं ? पर इंदौर के चाचा नेहरु बाल चिकित्सालय के कुछ डॉक्टर सिर्फ 250 रुपये में जिंदगी खरीदने के प्रयास कर रहे हैं. पिछले अक्टूबर जब इंदौर के एक हिंदी अखबार में काम करने वाले पत्रकार लवीन ओव्हाल अपने एक माह के बेटे को टीका लगवाने सीएनबीसी ले गए तो डॉ हेमंत जैन के दिशा-निर्देशन में काम कर रहे कुछ डॉक्टरों ने दिल्ली की एक दवा कंपनी के पोलियो वैक्सीन परीक्षण के लिए उन्हें 250 रुपए देकर एक सूचित-सहमति फार्म (मरीज से ड्रग ट्रायल का अनुमति पत्र) पर दस्तखत करने के लिए कहा. ‘जब उन्होंने मुझे 250 रुपए, देकर कहा कि सरकार टीका लगवाने के लिए ये पैसा दे रही है तो मुझे शक हुआ. फॉर्म पढ़ने पर पता चला कि वह सूचित सहमति फार्म हैं. मैंने कागज फोटोकॉपी कराए और अपनी बेटी को लेकर वहां से भाग आया. वे झूठ बोल रहे थे और बिना मुझे बताए मेरे बेटे पर परीक्षण करना चाहते थे’, लवीन ने तहलका को बताया. वह एक नयी प्रकार की ‘बाईवेलेंट ओरल वैक्सीन’ थी और उसके परीक्षण के लिए दो बार बच्चों के रक्त के नमूने भी लिए जाते थे. लवलीन का कहना है कि खतरनाक बात यह है कि यह सारा काम सरकार के नाम की आड़ में हो रहा था. वे बताते हैं, ‘वहां और भी बहुत से गरीब अशिक्षित लोग थे जो उन कागजों का मतलब नहीं जानते थे और सोचते रहे थे कि सरकार ने उन्हें टीका लगवाने के लिए 250 रुपये दिए हैं. उन्हें धोखा देकर बच्चों को लैब रैट्स की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था.’ [/box]
इन मामलों से जुड़ी आर्थिक अनियमितताओं की जांच कर रहे आर्थिक अपराध शाखा के पुलिस महानिरीक्षक अजय शर्मा का कुछ समय पहले तहलका से बातचीत में कहना था कि उनके द्वारा की जाने वाली जांच लगभग 70 फीसदी पूरी हो चुकी है. मामले से जुड़े करीबी सूत्रों के मुताबिक आर्थिक अपराध शाखा इस बहुचर्चित मुद्दे को लेकर कई तरह के दबाव में है. मामले को विधानसभा के मानसून सत्र में जोर-शोर से उठाने वाले विधायक पारस सकलेचा कहते हैं कि जांच के लिए बनाई गई समितियां जनता को गुमराह करने के लिए छोड़ा गया सिर्फ एक शगूफा हैं. वे कहते हैं, ‘प्रशासनिक स्तर पर इस प्रकरण को दबाने के और जिम्मेदारियों से बचने के गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं. मुझे आश्वासन दिया गया था कि परीक्षण में शामिल मरीजों की सूची उपलब्ध कराई जाएगी, पर अभी तक कोई सूची शासन की तरफ से नहीं दी गई हैं. जांच कमेटी के पास कोई प्रारूप नहीं है. डॉक्टरों का एक वर्ग सरकार और जांच को प्रभावित करने का लगातार प्रयास कर रहा है.’
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होने के बाद की त्रासदी : बीएमएचआरसी
भोपाल का जिक्र आते ही 3 दिसंबर, 1984 की तसवीर एक टीस की तरह सभी के जेहन में उतर आती है. दिसंबर की ठंड में डूबी रात और कोहरे में घुली मिथाइल आइसो-साइनाइड नामक जहरीली गैस. शहर की सड़कों, गलियों, चौराहों और घरों में फैली लाशें जो सुबह के सूरज को खुली आखों और खुले मुंह से ताक रही थीं. बाद में गैस पीड़ितों के इलाज के लिए भोपाल में भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल ऐंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) बनाया गया. सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से मिली जानकारी के मुताबिक 2004 से 2008 के बीच इस अस्पताल में सात बड़े क्लिनिकल ट्रायल हुए. आश्चर्य की बात यह है कि इन सातों ट्रायल में से सिर्फ एक का निरीक्षण ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीसीआई) द्वारा किया गया. सूत्रों के अनुसार डीजीसीआई ने बंगलुरु की एक बड़ी फार्मा कंपनी को नोटिस जारी कर इन क्लिनिकल ट्रायल की जांच भी शुरू कर दी है. संभावना ट्रस्ट से जुडे़ सामाजिक कार्यकर्ता सतीनाथ सारंगी तहलका से बातचीत में बताते हैं कि बीएमएचआरसी में हुए परीक्षणों में अब तक दस लोगों की मौत हो चुकी हैं.
वे बताते हैं, ‘मीडिया की छपी खबरों में भी आया है कि 3 गैस पीड़ितों की जान टेलेवानसिन नामक ड्रग के ट्रायल की वजह से गई, पांच लोगों की मौत ‘फोंडापारिनक्स’ नामक दवा के परीक्षण से और दो लोगों की मौत टिगीसाइक्लीन नामक दवा के ट्रायल की वजह से हुई. हमने कानूनों को ताक पर रख कर किए गए इन ड्रग ट्रायल में लिप्त 3 प्रमुख डाक्टरों के निलंबन की मांग की है.’ आरटीआई से प्राप्त जानकारी के अनुसार बीएमएचआरसी को 10 दवाओं के परीक्षण के लिए फाईजर, अस्ट्रा जेनेका और कुइनटाइल्स जैसी बड़ी फार्मा कंपनियों से 1 करोड़ 85 हजार रुपये मिले हैं. इन सभी परीक्षणों को बीएमएचआरसी द्वारा गठित ‘संस्थागत समीक्षा बोर्ड’ द्वारा पारित किया जाता था. शहर में काम कर रहे सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों का कहना है कि इन सभी परीक्षणों की स्वीकृति डॉ प्रभा देसिकन ने दी थी जो ‘संस्थागत समीक्षा बोर्ड’ की सचिव हैं. सूत्रों के मुताबिक डॉ देसिकन के पति डॉ एसके त्रिवेदी भी कई ट्रायलों में शामिल थे.
यूनियन कार्बाइड की भारत में जब्त संपत्ति से प्राप्त धन से स्थापित बीएमएचआरसी के दो प्रमुख उद्देश्य थे. पहला मिथाइल आइसो-साइनाइड (मिक) गैस की वजह से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित मरीजों का इलाज और दूसरा मिक गैस के मानव शरीर पर प्रभावों पर शोध. दुनिया के किसी भी दूसरे अस्पताल में मिक गैस से प्रभावित मरीजों का विशेष इलाज संभव नहीं है. साथ ही यह दुनिया का एकमात्र अस्पताल है जहां मिक गैस के प्रभावों पर शोध के लिए हर प्रकार के संसाधनों का निवेश किया गया है. इस लिहाज से गैस पीड़ितों के हितों को लेकर इस अस्पताल की जिम्मेदारी सबसे अधिक है और उन पर किसी भी दवा का परीक्षण नहीं किया जा सकता. प्रसिद्ध चिकित्सीय शोध पत्रिका ‘मंथली इंडेक्स आफ मेडिकल स्पेशियालिटीज’ के संपादक सीएम गुलाटी ने बीएमएचआरसी में चल रहे दवा परीक्षणों के मुद्दे को हाल ही में अपने संपादकीय में उठाया है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1991 में दिए गए एक फैसले के अनुसार इस संस्थान में गैस पीड़ितों के अलावा अन्य लोगों के इलाज का प्रावधान नहीं है. लेकिन सूत्र बताते हैं कि बीएमएचआरसी में कई ‘प्राइवेट पेइंग पेशेंट’ अपना इलाज करवा रहे हैं. [/box]
क्लिनिकल ट्रायल्स की इस आपराधिक गोपनीयता के पीछे कई कारण मौजूद हैं. इसमें प्रमुख है अंतर्राष्ट्रीय फार्मा कंपनियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता. इन कंपनियों में ज्यादा से ज्यादा दवाइयां बनाकर उसे सबसे पहले पेटेंट करवाने और बाजार में उतारने की होड़ लगी रहती है. कम से कम लागत में ट्रायल की प्रक्रिया पूरी करने और उसकी गोपनीयता बरकरार रखने को दवा कंपनियां बहुत महत्व देती हैं. इस होड़ में फार्मा कंपनियां, उनके कुछ विशेष डॉक्टर और प्रशासन के कुछ लोग आपस में मिलकर नियमों को ताक पर रख देते हैं. नतीजा यह होता है कि जिंदगी बचाने के लिए बनाई जाने वाली दवाइयों, मेडिकल उपकरणों और टीकों की शुरुआत ही लोगों को अपंग बनाने और जिंदगियों को खत्म करने से होती है.
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परीक्षण बनाम ग्लोबल धोखा
डॉक्टर ज्ञान चुतर्वेदी
ड्रग ट्रायल को एक बड़े घपले के तौर पर पेश किया जा रहा है पर असल में इसके कई दूसरे पक्ष भी हैं. ड्रग ट्रायल आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा का एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक हिस्सा है. आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक जैसी पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में ड्रग ट्रायल की कोई खास परंपरा नहीं है. इसलिए सालों से इन पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में लोगों का पुराने तरीकों से इलाज किया जा रहा है. वहीं दूसरी ओर एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में नयी दवाओं को खोजने और उन्हें लगातार बेहतर बनाने पर ज़ोर दिया जाता है. यहां हम ‘एविडेंस बेस्ड मेडिसिन’ या ‘साक्ष्य आधारित’ नयी दवाइयों को बनाने का लगातार प्रयास करते हैं. इस प्रक्रिया में हम पहले दवा की कार्य क्षमता की जांच करते हैं और फिर साक्ष्यों के आधार पर ही उस दवा को आम लोगों के लिए जारी किया जाता है. ड्रग ट्रायल इस वैज्ञानिक प्रक्रिया का एक हिस्सा है. ‘एविडेंस बेस्ड मेडिसिन’ की लगातार खोज आज के चिकित्सा विज्ञान की रीढ़ है. बशर्ते , इसे सही तरीके से किया जाए.
भारत सहित दुनिया के ज़्यादातर देशों में ड्रग ट्रायल के बहुत कड़े नियम कानून हैं. ड्रग ट्रायल से जुड़े सभी कानूनों में मानव अधिकारों का खास तौर पर ध्यान रखा गया है. किसी भी ट्रायल के वक़्त सभी कानूनों और प्रक्रियाओं का ठीक-ठीक पालन बहुत ज़रूरी है. मसलन मरीज को अपने ऊपर किये जा रहे परीक्षण की पूरी और सही जानकारी देना डॉक्टर का काम है. उसे उस दवा के सभी संभावित फायदे और नुकसान पता होने चाहिए. मरीज को ट्रायल से जुडे खतरे भी पता होने चाहिए और मरीज की सही जानकारी पर आधारित सहमति के बिना उस पर कोई ट्रायल नहीं किया जा सकता. ट्रायल के दौरान सारी कानूनी प्रक्रिया सही तरह से पूरी की जानी चाहिए. गौरतलब है कि किसी भी दवा का ट्रायल सीधे इंसानों पर नहीं किया जाता. किसी भी नयी दवा का परीक्षण पहले चूहों और जानवरों पर होता है. इन जीवों पर दवा के सूक्ष्म प्रभावों की जांच करने के बाद दवा की जांच ‘पेड वोलनटियर्स’ के एक छोटे समूह पर की जाती है. इसके बाद ही बड़े स्तर पर दवा के प्रभावों को जांचने के लिए उसे एक बड़े समूह पर टेस्ट किया जाता है. इस वजह से जान का खतरा लगभग न के बराबर हो जाता है. पर हां , इन सभी ट्रायल्स में एक निहित जोखिम तो होता ही है. इस खतरे के बारे में मरीज को बताया जाना चाहिए.
इस मामले का दूसरा पहलू यह है कि आजकल बड़ी-बड़ी फार्मा कंपनियां अपनी दवाइयों पर चल रहे ट्रायल्स के नतीजों को प्रभावित करने के लिए हर स्तर तक जाने को तैयार हैं. प्रसिद्ध डाक्टर और साहित्यकार डॉ राबिन कुक ने अपनी किताब ‘माइंड बेन्ड’ में इस खतरे को बहुत पहले महसूस कर लिया था. डाक्टरों को ट्रायल्स के लिए जरुरत से अधिक भुगतान करके, प्रायोजित सपरिवार विदेश यात्राएं करवा के और तमाम दूसरी तरह की सुविधाएं देकर फार्मा कंपनियां परीक्षणों के नतीजों को प्रभावित करने का प्रयास करती हैं. पिछले 10-15 वर्षों में ऐसे मामले बढ़े हैं. कई डॉक्टर जाने -अनजाने और अपनी नासमझी या लापरवाही के चलते फार्मा कंपनियों के प्रभाव में फंस जाते हैं. एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि हमारे यहां शोध का माहौल बहुत खराब है. लोग डाटा कलेक्शन और नियम कायदों को लेकर लापरवाह रहते हैं और फिर इस तरह के मामले सामने आते हैं .
इसलिए ड्रग ट्रायल के दौरान सतर्कता और सुपरविजन को बढ़ाना बहुत जरूरी है. सारे नियमों का पालन होना चाहिए. कानूनों का पूरा पालन, सही तरह से कई गयी रिसर्च, ठीक डाटा कलेक्शन और निष्पक्ष डाटा विश्लेषण एक ईमानदार ड्रग ट्रायल की आत्मा है. अगर ये सभी मापदंड पूरे नहीं किये जाते तो ड्रग ट्रायल सिर्फ फार्मा कंपनियों का एक ग्लोबल धोखा है.
डॉ चतुर्वेदी भोपाल के कस्तूरबा अस्पताल में मुख्य चिकित्सा अधिकारी हैं, यह लेख उनसे बातचीत पर आधारित है[/box]
नियमों के अनुसार उस हर अस्पताल में जहां ड्रग ट्रायल संचालित होते हैं, एक एथिकल और साइंटिफिक समिति का गठन आवश्यक है. यह समिति परीक्षण की निगरानी के लिए बनाई जाती है. नियम कहते हैं कि मरीज पर दवा का परीक्षण करने से पहले उसकी लिखित अनुमति आवश्यक है. अनुमति पत्र मरीज की अपनी भाषा में होना चाहिए और उसकी सहमति के बिना उस पर किसी दवा का परीक्षण नहीं किया जा सकता. इसके अलावा मरीज को एक निश्चित बीमा रकम तथा किसी भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक हानि पहुंचने की स्थिति में निश्चित मुआवजा मिलना भी तय होता है. दवा के सफल परीक्षण की स्थिति में मुनाफे का एक हिस्सा मरीज को जाता है और डॉक्टर जनहित में परीक्षण के परिणाम प्रकाशित करवा सकते हैं.
इस लिहाज से क्लिनिकल ट्रायल के दौरान एथिकल कमेटी के गठन का नियम किसी भी ट्रायल प्रक्रिया का आधार है. लेकिन प्रदेश में चल रहे ट्रायल्स में इसी एक नियम का सबसे ज्यादा मखौल उड़ाया गया है. प्रदेश में जनस्वास्थ्य से जुड़ी विडंबना यह है कि क्लिनिकल ट्रायल्स की निगरानी के लिए बनने वाली एथिकल कमेटी के गठन, पंजीकरण एवं नियंत्रण के लिए कोई दिशानिर्देश मौजूद नहीं है. डॉ राय इस बारे में कहते हैं, ‘जो कमेटियां इस वक्त मध्य प्रदेश के अस्पतालों में गठित की गईं है उनमें भी मरीजों का पक्ष रखने वाला कोई नहीं है. जो डॉक्टर मरीजों के हितों की रक्षा के लिए बनी कमेटी के सदस्य हैं वही खुद अस्पतालों में ड्रग ट्रायल कर रहे हैं.’ दरअसल प्रदेश के जिन अस्पतालों में गैरकानूनी क्लिनिकल ट्रायल के मामले सामने आए हैं और जिनमें एथिकल कमेटियां हैं वहां ड्रग ट्रायल में शामिल डॉक्टर भी उसके सदस्य होते हैं. अब ऐसे में कमेटियों की निष्पक्षता पर उंगली उठना जायज ही है. हालांकि इसके विरोध में कुछ डॉक्टर हास्यास्पद तर्क भी देते हैं. इंदौर के मशहूर महाराजा यशवंत राव (एमवाय) अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर नाम न बताने की शर्त पर बताते हैं, ‘आरटीआई के तहत हम गोपनीय जानकारी नहीं दे सकते. हमने सारे नियमों का पालन किया है और एथिक्स कमेटी में भी हितों के संघर्ष जैसी कोई बात नहीं है. जो भी डॉक्टर ट्रायल में शामिल होता है वह मीटिंग के वक्त कमरे से उठकर बाहर चला जाता है.’
डॉ राय बताते हैं कि सूचना के अधिकार के तहत अस्पतालों और फार्मा कंपनियों के बीच अनुबंध और ऐसी ही कई दूसरी जानकारियां मांगने पर बौद्धिक संपदा अधिकार (इंटलैक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स) का हवाला देकर जानकारियों को छिपाया जा रहा है. जबकि मेडिकल काउंसिल के नियमों के अनुसार ये सभी जानकारियां जनहित में सार्वजनिक की जा सकती हैं.
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व्यथा कथा 4
‘डॉक्टरों ने कहा कि दवा खाने के बाद खाली पत्ते वापस कर देना’
लक्ष्मीबाई अपने पति की फोटो के साथ
भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के पास बसी एक उजड़ी-सी बस्ती है जेपी नगर. इस बस्ती की एक संकरी अंधेरी गली के आखिरी छोर पर एक छोटे-से मकान में 48 वर्षीया लक्ष्मी बाई अपने 3 बच्चों और 2 बकरियों के साथ रहती हैं. 20 अगस्त, 2010 को लक्ष्मी के पति शंकरलाल का लंबी बीमारी के बाद देहांत हो गया. वे गैस पीड़ित थे और बीएमएचआरसी में उनका इलाज चल रहा था. आखिरी वक्त में डॉक्टरों ने लक्ष्मी को बताया था कि शंकर को हड्डी का कैंसर है जबकि मेडिकल कागजों में उसकी बीमारी ‘कोरोनरी आर्टरी डिसीज’ के नाम से दर्ज है.
इन दोनों बीमारियों का अंतर लक्ष्मी की समझ से काफी परे है. और शायद यही वजह है कि ऐसे लोग ड्रग ट्रायल के लिए डॉक्टरों की पहली पसंद होते हैं. 19 सितंबर, 2007 को बीएचएमआरसी से मिली डिस्चार्ज शीट के मुताबिक शंकरलाल को पांच दवाइयां दी गई थीं. इनमें से एक दवा का नाम ‘ स्टडी ड्रग ‘ था. लक्ष्मी बताती हैं, ‘डाक्टरों ने इन्हें दवा के तीन बड़े-बड़े पत्ते दिए और कहा कि दवा खाने के बाद खाली पत्ते अस्पताल में वापस जमा कर जाना. क्योंकि दवा कंपनी वालों ने खाली पैकेट वापस मांगे हैं.’ दवाइयां खाने के बाद शंकर की तबीयत बिगड़ती गई. लक्ष्मी कहती हैं, ‘उसके बाद वे लगातार सूखते गए. बहुत कमज़ोर हो गए थे.’ लक्ष्मी आजतक नहीं समझ पाई हैं, कि उस दवा में ऐसा क्या था जो उनके पति के लिए जानलेवा साबित हुआ. [/box]
इस मसले से जुड़ा एक और स्याह पहलू यह है कि ड्रग ट्रायल के आरोपित डॉक्टर आज भी अपने पदों पर काम कर रहे हैं और ट्रायल से प्रभावित लोगों को प्रदेश सरकार की तरफ से कोई वित्तीय सहायता नहीं दी गई है. एशियाई मानवाधिकार आयोग (एएचआरसी) के तीन प्रतिनिधियों ने भी पिछले साल अक्टूबर में प्रदेश का दौरा किया था. आयोग के प्रतिनिधि बीजो फ्रांसिस ने क्लिनिकल ट्रायल पर हुई अपनी तफ्तीश के बारे तहलका को एक ईमेल के जरिए बताया कि प्रदेश में जारी क्लिनिकल ट्रायल्स बिलकुल भी पारदर्शी नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘हमने अपनी जांच के दौरान पाया कि प्रदेश में ट्रायल्स करवाने वाली सरकारी एजेंसियां लोगों की अज्ञानता का फायदा उठा रही हैं. उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं था कि उन पर किसी दवा का प्रयोग हो रहा है. दुख की बात है कि ये ट्रायल ज्यादातर उन गरीब लोगों पर हुए जो अपने इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों पर निर्भर रहते हैं. हमें ऐसे मामले भी सुनने को मिले हैं जहां मरीजों को ट्रायल्स के लिए पैसों का लालच दिया गया.’
इस पूरे मामले में एक सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि इतना वक्त गुजर जाने के बाद भी कैसे वही डॉक्टर जिन्होंने करोड़ों रुपयों के लालच में हजारों लोगों की जिंदगी को खतरे में डाल दिया आज भी प्रतिदिन सैकड़ों मरीजों का इलाज कर रहे हैं ? वह पिता जिसका नवजात बच्चा अजीब-सी बीमारी की वजह से जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है, वह पति जिसने अपनी पत्नी को खो दिया और ऐसे ही न जाने कितने लोग यह सोचने पर विवश हैं कि डॉक्टरों के सफेद कोट के पीछे कितना स्याह कालापन छिपा हुआ है.
दृश्य एक– मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में मुलताई तहसील का चौथिया गांव. अभी दिन की शुरुआत ही हुई है और इस कस्बे में सूरज की नर्म रोशनी धीरे-धीरे खेतों में फैल रही है. तभी अचानक लगभग 2,000 लोगों की एक हिंसक भीड़ ट्रैक्टरों और जेसीबी मशीन के साथ खेतों के बीच बने रास्ते से एक बस्ती की तरफ नारे लगाते हुए बढ़ती है.
दृश्य दो– भीड़ उस बस्ती में खड़े चंद पक्के मकानों को हथौड़ों से ठोक-ठोक कर गिरा रही है. जिन घरों को हथौड़ों से नहीं तोड़ा जा सकता उन्हें जेसीबी मशीन से गिराया जा रहा है. यहां सारी कच्ची झोपड़ियों में आग लगा दी गई है. लोगों के घरों का सामान लूटा जा रहा है. जिसे लूटा जाना संभव नहीं है उसमें आग लगा दी गई है.
दृश्य तीन– भीड़ के इस कारनामे के बीच पुलिस, निर्वाचित राजनीतिक प्रतिनिधि और लंबे-चौड़े प्रशासनिक महकमे के कई अधिकारी मौजूद हैं. इनमें से राजनीतिक प्रतिनिधि लोगों को लगातार उकसा रहे हैं. लेकिन पुलिस और प्रशासन के अधिकारी इस अंदाज में पूरी कार्रवाई देख रहे हैं जैसे उन्हें इसकी देखरेख के लिए ही नियुक्त किया गया है.
तमाशबीनः पारधीढाना में 11 सितंबर 2011 को आगजनी के दौरान फायर ब्रिगेड वाहन होने के बावजूद पुलिस मूकदर्शक बनी रही
मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में घटी इस घटना को दिखाने वाले इन नाटकीय दृश्यों पर बड़ी आसानी से सवाल उठाया जा सकता था यदि इनकी वीडियो रिकॉर्डिंग न की गई होती. सितंबर, 2007 के दौरान मुलताई में बसी 350 पारधी आदिवासियों की एक बस्ती इस दौरान तीन दिन तक सामूहिक और सुनियोजित हिंसा का शिकार बनी रही. पूरी बस्ती को नेस्तनाबूत करने के अलावा यहां 10 पारधी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. एक पारधी दंपति की हत्या की गई. और यह सब बाकायदा पुलिस, प्रशासन और क्षेत्र के निर्वाचित प्रतिनिधियों के सामने हुआ.
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‘हमें तो अब अपने आप से चिढ़ होती है’
कड़कती धूप के बावजूद एक ही आवाज देने पर बैतूल के उत्कृष्ट स्कूल मैदान में वहां रहने वाले सभी पारधी इकट्ठा होकर तुरंत जमीन पर बैठ जाते हैं. सितंबर, 2007 के चौथिया कांड के बारे में बताते हुए इनमें से कई लोग अपना शरीर खुजलाते हैं, कई घटना का नाट्य रूपांतरण करके बताते हैं, तो कई चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगते हैं. लेकिन जब इनसे 10 सितंबर की रात 10 पारधी महिलाओं के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बारे में पूछा जाता है तो अचानक ही धूल भरी जमीन पर बैठी इस भीड़ में सन्नाटा छा जाता है. फिर धीरे से भीड़ में बैठी महिलाओं में से छह औरतें अपने हाथ ऊपर उठाती हैं. हमें बताया जाता है कि हम छह ही से मिल सकते हैं, क्योंकि बाकी चार भीख मांगने गई हैं. जैसे ही चटक रंगों के मैले-कुचैले और फटे कपड़े पहने ये महिलाएं खड़ी होती हैं, उनके बुझे चेहरों और खामोश निगाहों को देखकर यह विश्वास कर पाना मुश्किल हो जाता है कि कभी तीखे नैन-नक्श वाली ये सभी महिलाएं स्वाभाविक आदिवासी सौंदर्य और उल्लास का प्रतीक हुआ करती थीं. उनमें से एक धीरे से आकर कहती है कि वे सब अकेले में बात करेंगी. एक टूटी झोपड़ी के सामने बैठकर जब उन्होंने अपने साथ हुए इस ‘पुरातन पौरुष अपराध’ के बारे में बताना शुरू किया तब बीच में न जाने कितनी ही बार उन्होंने कुछ ही दूरी पर बैठे अपने रिश्तेदारों, पतियों और बच्चों की तरफ देखा और फिर अपनी निगाहें झुका लीं.
पीड़ित महिलाओं ने तहलका को बताया कि 10 सितंबर, 2007 की रात पुलिसवालों, राजनेताओं और आम लोगों ने उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया था. संगीता पारधी, सुप्रि बाई, बसंती बाई, अंगूरा पारधी, कल्पना पारधी, सुनीता बाई, कमली बाई, बबली पारधी, बाया बाई और गुड्डी बाई नामक 10 पारधी महिलाओं ने अपने साथ हुए इस सामूहिक बलात्कार के बारे में पुलिस, नेशनल कमीशन फॉर डिनोटिफाइड एंड नोमाडिक ट्राइब्स (एनसीडीएनटी) और फिर सीबीआई के अधिकारियों को भी बताया था, पर किसी ने भी उनकी शिकायत आज तक दर्ज नहीं की है. बसंती बाई अपने सिर पर लगा जख्म दिखाते हुए कहती हैं, ‘मेरा मरद मुझे आज भी पीटता है. अक्सर रात को दारू पीने के बाद उसे याद आ जाता है कि चार साल पहले मेरा बलात्कार हुआ था.’ फिर कुछ देर चुप रहने के बाद अचानक अपने चेहरे पर एक पथरीली-सी भावशून्यता को लिए वे कहती हैं, ‘वह और मैं, हम लोग आज तक इस बात को मान नहीं पाए हैं कि मेरा बलात्कार हुआ है. मेरा मरद उन अपराधियों का तो कुछ नहीं कर सकता, इसीलिए मुझे मार कर ही अपना गुस्सा निकालता है.’ उस वीभत्स रात के घटनाक्रम को याद करते हुए संगीता आगे कहती हैं, ‘हमें एसडीओपी साकल्ले ने रोका था. उसने कहा कि वह हमें अपनी खाली गाड़ी से स्टेशन छुड़वा देगा पर जब अंधेरा हो गया और आठ बजने लगे तो हम लोगों ने इनसे कहा हमें भी हमारे आदमी और बच्चों के पास छोड़ दो, तब ये लोग हंसने लगे. साकल्ले ने कहा कि अब हमारे साथ भी वही होगा जो अनुसूइया के साथ हुआ. फिर हमें पकड़-पकड़ के कमरों में ले जाने लगे’ कहते-कहते उसकी आवाज भर्राने लगी और फिर रोते हुए उसने कहा, ‘दो-तीन आदमी एक-एक कमरे में थे मैडम जी. हमारी साड़ी-ब्लाउज सब फाड़ दिया और फिर हमारे साथ सबने बलात्कार किया.’ गौरतलब है कि संगीता पारधी का घर पूरे पारधीढाने में सबसे बड़ा था और पीड़ित महिलाओं का आरोप है कि उनका बलात्कार इसी घर के अलग-अलग कमरों में किया गया. अपने दो साल के बच्चे को संभालते हुए बबली कहती हैं, ‘पूरे साड़ी-लुग्गा फाड़ दिए थे हमारे. फिर संगीता बाई के घर में पड़े पुराने कपड़ों में से, जिसको जो मिला, वह वैसे ही गुड़-मुड़ करके पहन के निकला आया क्योंकि फिर हमें गाड़ियों में भरकर स्टेशन छोड़ा जाना था. वहां साकल्ले के साथ-साथ जगदीश, विजयधर, संजय यादव, राजा पवार, अशोक कड़वे जैसे कई लोग थे.’
इस घटना के बाद जहां बाया बाई के पति ने उन्हें छोड़ दिया वहीं गुड्डी बाई की पसलियां आज भी दर्द से टूटती हैं. गुड्डी अपनी कमर पकड़े हुए कहती हैं, ‘भीख मांगते-मांगते पेट दुख जाता है दीदी पर लोग खाना नहीं देते. उस दिन के बाद से आज तक मेरी पसलियां रोज दुखती हैं. पता नहीं क्यों, खुद से ही चिढ़ होती है.’
अपने साथ चार साल पहले हुए उस भयानक हादसे के तिरस्कार को ये सभी औरतें हर रोज, उतने ही दर्द के साथ जीती हैं. यह तिरस्कार तब और बढ़ जाता है जब सामंतवाद, जातिवाद और पक्षपात के अंधेरों में झूलता पुलिस-प्रशासन उनकी बातों को झूठा मानकर, उनके आरोपों के आधार पर एक एफआईआर तक दर्ज करने से इनकार कर देता है. [/box]
घटना की वीडियो रिकॉर्डिंग से साफ पता चलता है कि किस तरह पुलिस और प्रशासन की खुली सहमति से बस्ती को उजाड़ा गया
इस घटना का सबसे अन्यायपूर्ण पहलू यह है कि दिन दहाड़े आगजनी और लगभग 85 पारधी परिवारों के घरों के लुटने और जलने के चार साल पूरे होने के बाद भी न तो इस कांड के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा हो पाई है और न ही इस ‘विमुक्त जनजाति’ के लोगों को दोबारा अपने उजड़े घरों तक जाने का मौका मिल पाया है.
पुलिस और प्रशासन से निराश होने के बाद दो साल लंबी जद्दोजहद के परिणामस्वरूप जब मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने सीबीआई को इस मामले की जांच सौंपी तो पीड़ितों को न्याय की उम्मीद बंधी लेकिन जांच एजेंसी के रवैये से अब वह रही-सही उम्मीद भी धूमिल होती दिख रही है. सीबीआई जांच का आलम यह है कि घटना के चार साल बाद भी इस मामले में अदालती सुनवाई शुरू नहीं हो पाई है. अपनी दो साल लंबी जांच के दौरान तीन जांच अधिकारी बदल चुकी सीबीआई आज तक एक भी व्यक्ति की गिरफ्तारी नहीं कर पाई है. उधर, घोर सामाजिक अपमान, उपेक्षा और बहिष्कार झेल रहे पारधी आदिवासी हर मौसम में खुले आसमान के नीचे भीख मांगकर और पन्नी बीन कर जीवन गुजारने को मजबूर हैं.
देश के दूसरे हिस्सों की तरह ही मध्य प्रदेश में भी पारधी आदिवासियों पर हो रही हिंसा की कोई एक त्वरित वजह नहीं है. हिंसा की वजह एक निचले और बेहद कमजोर अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध सदियों से जारी जातिगत हिंसा और ऊंची जातियों द्वारा उन पर अपने ऐतिहासिक राजनीतिक प्रभुत्व मानने के पुराने तंत्र में छिपी है. बैतूल में भी पारधियों के खिलाफ हिंसा को ऐतिहासिक-सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है. उनकी हत्या या उनकी महिलाओं के बलात्कार को भुनाकर यहां के स्थानीय नेता अपनी जातिगत श्रेष्ठता के साथ-साथ भारी चुनावी जीत की ट्रॉफियां भी लंबे समय से घर ले जाते रहे हैं. बैतूल में हुए चौथिया कांड को जानने से पहले इस घटना की पृष्ठभूमि पर एक नजर डालने से मालूम होता है कि पहले भी यहां पारधियों की हत्याएं और आगजनी की कई घटनाएं हुई थीं. इन सबमें प्रमुख था अगस्त, 2003 का घाट-अमरावती कांड. 30 अगस्त, 2003 को लगभग 100 लोगों की एक भीड़ ने घाट-अमरावती गांव में, गोथन नाम से बसे एक पारधी टोले के 10 घरों में आग लगा दी थी और तीन पारधियों की हत्या कर दी थी. इस मामले में गवाहों के पलट जाने से सभी अभियुक्त छूट तो गए पर अपना निर्णय सुनाते हुए अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट अनिल पोहरे का कहना था कि अभियोजन पक्ष की कमजोर पैरवी के चलते उन्हें आरोपियों को छोड़ना पड़ा. इस घटना के बाद घाट-अमरावती के ज्यादातर पारधी परिवारों ने वह गांव छोड़ दिया. अब वे चौथिया के पारधीढाने में ही आकर रहने लगे. लगभग 2,000 की जनसंख्या वाले चौथिया गांव में पारधी पिछले 20 साल से रह रहे थे. सन 1996 में चौथिया ग्राम पंचायत ने इंदिरा ग्राम आवास योजना के तहत 11 पारधी परिवारों को स्थायी निवास के लिए पट्टे दिए और पक्के मकान बनवाने के लिए सहायता राशि भी दी. कोई दूसरा आश्रय न होने की वजह से आसपास के सभी पारधी पारधीढाने में आकर रहने लगे. सितंबर, 2007 में उजड़ने से ठीक पहले यहां 350 पारधी आदिवासियों के 85 परिवार रहा करते थे.
अदालत ने कहा था कि प्रशासन और राजनेताओं के घटना में शामिल होने की वजह से पुलिस दबाव में काम कर रही थी
चौथिया कांड में हुई हिंसा की शुरुआत नौ सितंबर, 2007 को चौथिया के पास ही बसे सांडिया गांव की एक महिला के बलात्कार और हत्या से उपजे भारी जनाक्रोश से हुई. नौ सितंबर की सुबह सांडिया गांव में रहने वाली अनुसूइया बाई की अपने खेत में बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी. कुनबी जाति की अनुसूइया की निर्मम हत्या से चौथिया और सांडिया के साथ-साथ आसपास के लगभग दस गांवों में त्वरित आक्रोश फैल गया. गांववालों को विश्वास था कि पारधीढाने के पारधियों ने ही अनुसूइया की हत्या की है. इसलिए आक्रोशित भीड़ ने इस बस्ती को जलाने का और तथाकथित अापराधिक प्रवृत्ति वाले पारधियों को क्षेत्र से खदेड़ने का निर्णय लिया. मामले की भनक पड़ते ही स्थानीय पुलिस और राजनेता अपने-अपने निहित उद्देश्यों के लिए हरकत में आ गए. सुखदेव पांसे और राजा पवार जैसे स्थानीय नेताओं ने गांववालों को पारधियों के खिलाफ भड़काया और प्रशासन के उनके साथ होने का विश्वास दिलाया. वहीं स्थानीय पुलिस अनुसूइया बाई के हत्यारों की खोज में पूरे पारधीढाने को ही खाली करवाकर मुलताई पुलिस स्टेशन ले गई. गौरतलब है कि चौथिया और सांडिया के साथ-साथ क्षेत्र के ज्यादातर गांवों में कुनबी जाति के मराठा क्षत्रिय ही रहते हैं और पारधी अल्पसंख्यक हैं. अनुसूइया की हत्या महाराष्ट्र के अमरावती जिले में रहने वाले दो पारधियों ने की थी, जिन्हें घटना के एक दिन बाद ही पकड़ लिया गया. स्थानीय पुलिस के अनुसार भूरा और धर्मराज नामक अनुसूइया बाई की हत्या के दो संदिग्ध आरोपितों को पकड़ने में चौथिया गांव के पारधियों ने ही उनकी सहायता की थी. अनुसूइया बाई की हत्या के आरोप में गिरफ्तार भूरा और धर्मराज पिछले चार साल से जेल में हैं और मामले की सुनवाई चल रही है.
अनुसूइया बाई की हत्या की खबर फैलते ही मुलताई पुलिस ने चौथिया गांव के पारधीढाना टोले पर छापा मारा. रविवार की उस सुबह के घटनाक्रम को याद करते हुए गजरी पारधी बताती हैं, ‘सुबह लगभग पौने नौ बजे तक पुलिस ने हमारे पूरे पारधीढाने की घेराबंदी कर दी थी. टोले में मौजूद सारे आदमियों, औरतों और बच्चों को लाइन बनवाकर खड़ा करवा दिया गया. फिर पुलिस सबको पुलिस-गाड़ी में ठूंस कर मुलताई पुलिस स्टेशन ले गई. अगले दिन दस सितंबर की दोपहर तक पुलिसवाले अमरावती से भूरा और धर्मराज को पकड़ लाए. उनके बारे में पुलिस को सारी जानकारी हम लोगों ने ही दी थी. फिर शाम तक पुलिसवालों ने हमें दुबारा गाड़ियों में भरकर वापस चौथिया छोड़ना शुरू कर दिया. वहीं पर कुछ लोगों को एक पन्ना पकड़ाने लगे. बाद में पता चला कि यह कागज किसी नोटिस का था. उन्होंने हमसे कहा कि अभी इसी वक्त अपना घर छोड़ दो, तुम्हें मुलताई स्टेशन पहुंचाया जाएगा.’ अब तक दस सितंबर की शाम हो चुकी थी. अनुसूइया बाई की हत्या के संदिग्ध आरोपित पकड़े जा चुके थे और मुलताई पुलिस ने पारधीढाना खाली करवाकर पारधियों को मुलताई से बाहर भगाना शुरू कर दिया था. अपने तत्कालीन बयान में एसडीओपी (प्रमुख पुलिस अनुभागीय अधिकारी) डीके साकल्ले ने यह बात स्वीकार की है कि पुलिस सुरक्षा की दृष्टि से इलाके को खाली करवा रही थी. 25 वर्षीया कपूरी पारधी आगे बताती हैं, ‘हमें बिलकुल मोहलत नहीं दी गई. कोई सामान, पैसे या जरूरत की चीजें साथ नहीं ले जाने दी गईं. हमें समझ में ही नहीं आ रहा था कि हमें घरों से निकालकर कहां भेजा जा रहा है.’ पारधियों का कहना है कि पुलिस ने झूठ बोल कर उन्हें उनके घरों से निकाला. पूरे मामले पर पारधियों का नेतृत्व कर रहे अलसिया पारधी ने तहलका को बताया, ‘उस रात पुलिसवालों ने हमसे कहा कि गांव में हमारी जान को खतरा है. खुद एसडीओपी साकल्ले साहब ने मुझसे कहा था कि पुलिस हमारे घरों की रक्षा करेगी. अगर गांववाले हमारे घर तोड़ने आएंगे तो उन्हें आंसू गैस से रोकेगी. पर हमें क्या मालूम था कि पुलिस खड़े होकर हमारे घरों को उजड़वा देगी.’ दस सितंबर की रात चौथिया गांव के सभी पारधियों को पुलिस की गाड़ियों में भरकर मुलताई स्टेशन छोड़ दिया गया, जहां से धीरे-धीरे ट्रेन बदल-बदल कर सभी अगली सुबह तक भोपाल पहुंचे.
बहुसंख्यक समुदाय की एक महिला की हत्या के संदिग्धों की गिरफ्तारी पारधियों की निशानदेही पर ही की गई थी
पारधियों का कहना है कि दस सितंबर की रात उनके समुदाय की दस महिलाओं को रोककर स्थानीय पुलिस और प्रशासन के लोगों के उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया. (देखें व्यथा कथा-1) नेशनल कमीशन फॉर डिनोटिफाइड एंड नोमाडिक ट्राइब्स (विमुक्त, घुमंतू और खानाबदोश जनजातियों के लिए बनाया गया राष्ट्रीय आयोग) ने मामले पर जारी अपनी रिपोर्ट में भी इन सामूहिक बलात्कारों का उल्लेख किया है. संगीता पारधी घटनाक्रम की जानकारी देते हुए कहती हैं, ‘साकल्ले ने सबको गाड़ी में बिठा के भेज दिया पर मुझसे बोला कि तुम लोग रुक जाओ. मेरी गाड़ी में तुम लोगों को छुड़वा दूंगा. यह कहकर उसने मेरे साथ सुप्रि, बसंती, गुड्डी, कल्पना, बबली, सुनीता, अंगूरा, कमली बाई और बाया बाई को भी रोक लिया.’ संगीता की बात से सहमति जताते हुए बसंती आगे बताती हैं, ‘पर कई घंटे बाद भी वह हम लोगों को स्टेशन छोड़ने नहीं ले गया तो हम लोगों ने कहा कि हमें भी हमारे आदमियों के साथ जाने दिया जाए. फिर उन लोगों ने कहा कि जैसा सांडिया वाली बाई के साथ हुआ, वैसा अब तुम्हारे साथ भी होगा. वहां साकल्ले के साथ-साथ जगदीश, विजयधर, संजय यादव, अशोक कड़वे जैसे कई लोग थे. उन सबने हमारे कपड़े फाड़े और हमारा बलात्कार किया. फिर हमें मुलताई स्टेशन छुड़वा दिया गया. हम 11 सितंबर की शाम तक भोपाल पहुंचे जबकि हमारे परिवारवाले सुबह से ही भोपाल स्टेशन के सामने सड़क पर बैठे थे. हमने सबको बताया कि हमारा बलात्कार हुआ है, आयोग को, सीबीआई को, पुलिस को, पर किसी ने हमारी रिपोर्ट नहीं लिखी….दवा भी नहीं दी.’
महिलाओं के साथ बलात्कार की यह घटना हिंसा के तांडव की आखिरी कड़ी नहीं थी. 11 सितंबर को सुबह से ही आसपास के लगभग 10 गांव के लोग पारधीढाने के आसपास इकठ्ठा होने लगे. सुबह आठ बजे तक ट्रैक्टरों में बैठकर आए लगभग 400 लोग यहां जमा हो गए. सुबह के 10 बजते-बजते यह भीड़ दो हजार का आंकड़ा पार कर गई. लोगों की आक्रोशित भीड़ ने पारधियों की बस्ती को लूटना, तोड़ना और जलाना शुरू कर दिया. बस्ती में मौजूद कुल 85 घरों में से 16 पक्के मकान थे और लगभग 69 झुग्गियां. पक्के मकानों को तोड़ने के लिए जहां जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल किया गया वहीं झोपड़ियों को लोहे की सब्बलों और हथौड़ों से मार-मार कर तोड़ दिया गया. पारधियों के घरों में मौजूद इस्तेमाल लायक सारा सामान लूट लिया गया. पुराने बर्तन-भांडों को जला दिया गया. इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एसडीओपी डीके साकल्ले, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक डीएस ब्राजोरिया, एसडीएम वीआर इंगले और मुलताई के तहसीलदार एसके हनोथिया मौके पर मौजूद थे. बड़ी संख्या में तैनात किया गया पुलिस बल और फायर ब्रिगेड की गाड़ियां भी मौके पर खामोश खड़ी रहीं. दोपहर दो बजे के आसपास पुलिस अधीक्षक जेएस संसवाल और जिला कलेक्टर अरुण भट्ट भी मौका-ए-वारदात पर पहुंच गए. घटना की वीडियो रिकॉर्डिंग से साफ पता चलता है कि किस तरह पुलिस और प्रशासन की खुली सहमति से पारधियों की बस्ती को उजाड़ा गया. भीड़ को उकसाने का काम स्थानीय निर्वाचित नेताओं ने किया. मुलताई जिला पंचायत से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सदस्य राजा पवार ने आगे बढ़कर पारधियों के घर तुड़वाए वहीं उस समय मसूद से कांग्रेस के विधायक सुखदेव पांसे ने हंसते हुए कहा कि उनकी पार्टी के संजय यादव ने ही ‘पारधी बस्ती को उजाड़ने के इस बढ़िया काम’ की शुरुआत की. मौके पर मौजूद भाजपा और कांग्रेस के सभी नेताओं ने पारधियों को खुले आम ‘पैदाइशी अपराधी’ कहकर कोसा और उन्हें अपशब्द कहे. मीडिया को मौका-ए-वारदात से दिए अपने बयानों में क्षेत्र के सभी प्रमुख निर्वाचित प्रतिनिधियों ने पारधियों को ‘अपराधी जाति’ कहकर आगजनी का खुला समर्थन किया. 16 सितंबर को क्षेत्र से पारधियों के ‘सफाए’ की खुशी में स्थानीय नेताओं ने मुलताई में एक सभा आयोजित करवाई जिसके अध्यक्ष तत्कालीन राजस्व मंत्री कमल पटेल थे. सभा की वीडियो रिकॉर्डिंग और प्रत्यक्षदर्शीयों से पता चलता है कि सभा में सभी नेताओं ने पारधियों की तुलना राक्षस-अपराधियों से करते हुए उनके खिलाफ जनता को भड़काया. इसी बीच बस्ती के जलने के बाद 12 सितंबर को एक पारधी दंपति का शव गांव से बरामद किया गया. चौथिया अग्निकांड के दौरान डोडा बाई के सामूहिक बलात्कार के बाद बोंदरू और डोडा बाई की पत्थर मार-मार कर हत्या कर दी गई थी (देखें व्यथा कथा-2).
चौथिया कांड के बाद सामूहिक बलात्कार, नृशंस हत्याएं और अपनी बस्ती के उजाड़ कर जला दिए जाने जैसे कई कभी न भरने वाले जख्म अपने जेहन में लेकर पारधी लगभग एक महीने तक भोपाल में रहे. सुरमा बाई बताती हैं, ‘शुरू के एक हफ्ते तो हम स्टेशन के पास भीख मांगते रहे. फिर हमें शास्त्री नगर के एक हॉल में रखा गया. फिर छह अक्टूबर, 2007 की सुबह पुलिस हमें भोपाल से बैतूल की सरहद पर बसी बटेरा बस्ती में छोड़ गई. बाद में पता चला कि बटेरा जंगल में बसा कोई वन-ग्राम है. सरकार हमें आटा भिजवाती थी इसलिए हम वहां पन्नी की झुग्गियां बनाकर रहने लगे. फिर अचानक उन्होंने आटा देना बंद कर दिया. वहां जंगल में हम पन्नी भी नहीं बीन सकते थे और हमें कोई भीख भी नहीं देता, इसीलिए 2010 में हम बैतूल आ गए.’
आज बैतूल के उत्कर्ष मैदान में पारधी-धने के लगभग 300 पारधी पन्नी की झुग्गियों में रहते हैं. 35 वर्षीय कमलया पारधी कहते हैं, ‘अब हम भीख मांग कर खाते हैं. हमें कोई काम नहीं देता, इसलिए भीख में मिली सूखी रोटियों को पानी में भिगोकर बच्चों को खिलाते हैं. पर सर्दियों में गिरते पाले के नीचे सोना पड़ता है.’
‘सीबीआई ने बलात्कार पीड़ित महिलाओं के बयान तो लिए हैं लेकिन जांच पुलिस एफआईआर के आधार पर ही कर रही है’
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‘यदि वे हमें देख लेते तो हमें भी मार डालते’
भोंदरू और डोडेल बाई (उर्फ डोडा बाई) अपने बच्चों लंगडू और राम प्यारी के साथ चौथिया गांव के पारधीढाने में रहते थे. अनुसूइया बाई की हत्या के दिन यह पारधी दंपति अपने बच्चों और दूसरे पारधियों के साथ लगभग 13 लोगों के समूह में बकरियां चराने जंगल की तरफ निकला था. दस सितंबर की रात ये लोग अपने घर की तरफ लौट रहे थे तब पारधीढाने में हलचल और धुएं के उठते गुबार से आशंकित इन लोगों ने बस्ती से कुछ दूरी पर ही ठहरने का फैसला किया. हालांकि गुस्से और नफरत की आग में जल रहे स्थानीय लोगों ने उन्हें एक रात से ज्यादा वक्त नहीं दिया. वहशियों की तरह क्षेत्र के चप्पे-चप्पे में पारधियों के निशान ढूंढ़ रहे गांववालों ने आखिर भोंदरू और डोडल बाई को देख ही लिया. उन्होंने डोडल बाई के सामूहिक बलात्कार के बाद उसे कुएं में फेंक दिया और पत्थर मार-मार कर भोंदरू की हत्या कर दी. 11 सितंबर, 2007 की सुबह हुई इस घटना के लगभग 11 चश्मदीद गवाह हैं, लेकिन मामले में आज तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है. मामले के चश्मदीद गवाह सौदागीर पारधी बताते हैं, ‘हमने देखा कि टोले में बहुत हल्ला हो रहा था, अजीब-सा धुआं उठ रहा था और लोग चिल्ला रहे थे. खतरा महसूस हुआ तो हम टोले से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर रुक गए. उस रात बहुत बारिश हो रही थी, इसलिए हम लोग खेत में बने एक आम के पेड़ के नीचे बैठ गए. सुबह आंख खुली तो देखा कि टोले में आग लगी है और बड़ी-बड़ी गाड़ियों में भरकर लोग आ रहे हैं. हम लोग बहुत डर गए और भागने लगे मगर बीच में ही एक ट्रैक्टर पर आ रहे लोगों ने भोंदरू और डोडल बाई को देख लिया.’
अपने मां और पिता की हत्या के बारे में पूछने पर लगभग 17 साल की रामप्यारी जमीन को खामोशी से देखने लगती है. फिर अपने भाई लंगडू की तरफ देखते हुए धीरे से कहती है, ‘उस दिन नीले रंग की साड़ी पहनी थी मेरी माई ने. उन लोगों ने उसे धक्का मार कर जमीन पर गिरा दिया और उसकी नीली साड़ी फाड़ डाली.’ इतने में रामप्यारी की खामोश सिसकियों को सुन कर लंगडू बातचीत आगे बढ़ाते हुए कहता है, ‘ मैंने देखा कि ट्रैक्टर से संजय डॉक्टर (कांग्रेस के मुलताई ब्लॉक अध्यक्ष) लोगों की भीड़ को लेकर उतरे और बाबा को देखते ही चिल्लाए कि आज इन पारधियों को जिंदा नहीं छोड़ना है. फिर उन्होंने बाबा को फत्तर (पत्थर) मार कर गिरा दिया और उन्हें बार-बार फत्तर मारने लगे. फिर चिल्ला कर बोले कि जैसा सांडिया वाली बाई के साथ हुआ, वैसा ही इस बाई के साथ होगा. फिर माई को फत्तर मार कर गिरा दिया और एक-एक करके लगभग 10 लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया. पहले वह चिल्लाती रही और फिर धीरे-धीरे खामोश हो गई. वहां बहुत सारे लोग थे और अगर हम विरोध करते तो सब मार दिए जाते. इसीलिए हम छिप कर सब कुछ देखते रहे, कुछ नहीं कर सके.’ सौदागीर आगे बताते हैं, ‘फिर उन लोगों ने डोडा को उठाकर पास के कुएं में फेंक दिया. जब उसे उठाया तो उसकी मुंडी लुज-लुज करके नीचे लटक रही थी. मुझे लगता है कि तब तक वह मर चुकी थी. भोंदरू के शरीर से भी बहुत खून बह रहा था. भीड़ के जाने के कुछ देर बाद हम लोगों ने जाकर भोंदरू को देखा तो वह मर चुका था.’
सीबीआई की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, बोंदरू पारधी का शव 12 सितंबर को अजाइब राव देशमुख के खेतों से और उसकी पत्नी डोडल बाई का शव 14 सितंबर को उसी खेत के एक कुएं से बरामद किया गया था. मामले को दबा कर रफा-दफा करने की फिराक में लगी मुलताई पुलिस ने कहा कि दोनों मामलों में पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट कहती है कि यह डूबने से हुई स्वाभाविक मृत्यु है.
इस घटना से जुड़ी कागजी कार्रवाई के पूरी करने के लिए जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट को भोपाल में बैठने वाले प्रदेश के मुख्य फोरेंसिक एक्सपर्ट डॉ डीके सतपथी के पास भेजा गया तो उन्होंने मृतकों की तस्वीरें देखते ही साफ कह दिया कि यह हत्या है. लगभग चार साल गुजर जाने के बाद 4 जुलाई, 2011 को फाइल की गई अपनी रिपोर्ट में सीबीआई ने लिखा है कि सतपथी ने पोस्टमार्टम में कई गलतियां बताई हैं. उन्होंने कहा है, ‘मृतकों की पीठ पर लाठी के मारे जाने के कई निशान हैं और उनकी खोपड़ी फूटी हुई है. इसलिए मृत्यु डूबने से नहीं बल्कि चोटों के कारण बहे खून और नसें फट जाने की वजह से हुई है.’ सीबीआई ने हत्या का मामला दर्ज करके मामले को गहन तफ्तीश के लिए दिल्ली के एम्स अस्पताल की एक विशेष फोरेंसिक टीम के पास भेज दिया है. सीबीआई ने भोंदरू और रामप्यारी के साथ-साथ पांच और लोगों के बयान भी लिए हैं, पर अभी तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका है. [/box]
चौथिया कांड की तफ्तीश में पूरे मामले की वीडियो रिकॉर्डिंग अदालत और सीबीआई को सौंपने वाले स्थानीय टीवी पत्रकार अकील एहमद और रेशू नायडू को भी स्थानीय राजनीतिक हलकों से कई बार अपने बयान वापस लेने के लिए धमकियां मिल चुकी हैं. गौरतलब है कि अकील और रेशू आगजनी के पूरे मामले में चश्मदीद गवाह हैं और उन्होंने मामले की लाइव रिकॉर्डिंग को अदालत में प्रमाणित भी किया है. मौका-ए-वारदात पर सबसे पहले पहुंचने वाले रेशू बताते हैं, ‘11 सितंबर को जब मैं पारधियों की बस्ती में पहुंचा तो मेरे सामने तीन भरे हुए ट्रैक्टरों से लोग नीचे उतरे और नारे लगाते हुए पारधियों की झोपड़ियां तोड़ना शुरू कर दिया.
जंगलराजः पारधीढाने में बने पक्के मकानों को जेसीबी मशीन से ढहाया गया
धीरे-धीरे भीड़ बढ़ने लगी. राजा पवार खुद जेसीबी मशीन पर चढ़कर अलसिया पारधी का मकान तुड़वा रहा था जबकि सुखदेव पांसे और संजय यादव लोगों को भड़का रहे थे और कह रहे थे कि इन अपराधियों के घर जला दो.’ रेशू से सहमति जताते हुए अकील आगे कहते हैं, ‘पूरा प्रशासन और पुलिस महकमा वहां चुपचाप खड़ा था. उनके पास फायर ब्रिगेड की गाड़ियां थीं और आंसू गैस भी थी, लेकिन उन्होंने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कुछ नहीं किया. दोपहर के बाद कलेक्टर और एसपी भी मौके पर पहुंचे और आगजनी को सही ठहराते हुए कहने लगे कि अनुसूइया बाई की मौत की वजह से लोगों में जनाक्रोश है.’
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कौन हैं पारधी?
पारधी शब्द का उद्भव मराठी के ‘पारध’ शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ बहेलिया या शिकारी होता है. यह महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश राज्यों में पाए जाने वाली आदिवासियों की एक विमुक्त जनजाति है. पारधियों के बारे में एक प्रचिलित ऐतिहासिक किंवदंती है कि मुगलों के खिलाफ हुए हल्दीघाटी के युद्ध में पारधियों ने महाराणा प्रताप की सहायता करने के लिए उनकी तरफ से युद्ध लड़ा और हारने के बाद यह प्रण लिया कि जब तक उनका राजा दर-दर भटक रहा है, वे भी एक जगह नहीं रहेंगे. इस घटना को उनके बंजारा स्वभाव के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण माना जाता है. अपने स्वभाव से पारधी बहुत फुर्तिले, बुद्धिमान और अपनी शारीरिक बनावट में बलिष्ट होते हैं. इन्हें जंगल के पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों, पक्षियों और जानवरों के बारे में गहन जानकारी रहती है. पुरातन काल से पारधी वन और वन्य-उत्पादों के जरिए ही अपना आजीविका चलाते रहे हैं. स्वभाव से ही विद्रोही होने के कारण पारधियों ने अंग्रेजों का भी खुला विरोध किया. इसलिए अंग्रेजों ने सन 1871 में क्रिमिनल ट्राइब्स एेक्ट पास करके पारधियों के साथ-साथ 50 अन्य बंजारी जनजातियों को भी प्रतिबंधित कर दिया. तब से ही पारधियों को एक आपराधिक जाति के तौर पर देखा जाने लगा. पुलिस इन्हें जब-तब पकड़ लेती और आम जनता भी इन्हें हिकारत भरी निगाहों से देखती है. धीरे-धीरे ये बंजारी जातियां एक ख़ामोश सामाजिक बहिष्कार का शिकार हुईं. डॉ अंबेडकर के प्रयासों से सन 1952 में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट को निरस्त कर दिया गया. अब क्रिमिनल शब्द की जगह डिनोटिफाइड शब्द का उपयोग किया जाने लगा और ‘आदतन अपराधी अधिनियम’ नाम का एक नया कानून लागू किया गया.’ क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट ‘ तो खत्म हो गया, पर पारधियों के प्रति लोगों का नजरिया आज तक नहीं बदला. चौथिया कांड से विस्थापित हुए लगभग 350 पारधी फिलहाल बैतूल जिले में बने दो अलग-अलग कैंपों में जीवन गुजार रहे हैं. इनके स्थायी पुनर्वास की बात आज भी केंद्र और राज्य के बीच चक्कर लगाती कागजी फाइलों में कैद है. चौथिया कांड के तुरंत बाद तत्कालीन बैतूल कलेक्टर अरुण भट्ट ने पारधियों के पुनर्वास के लिए एक योजना बनाई. चारों तरफ से ऊंचे कटीले तारों से घिरी एक बड़ी इमारत में पारधियों को कैद करने जैसे हल सुझाने वाली इस नाजी योजना की कड़ी आलोचना हुई. अगस्त, 2010 में मध्य प्रदेश मानव अधिकार आयोग ने पारधियों के पुनर्वास की मांग करते हुए हाई कोर्ट में एक अपील दायर की. अक्टूबर, 2010 में इस अपील का जवाब देते हुए राज्य सरकार ने जानकारी दी कि पारधियों के पुनर्वास के लिए राज्य सरकार ने एक लिखित प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा है. इस विस्तृत प्रस्ताव में राज्य सरकार ने पारधियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आवास और दक्षतावृद्धि प्रशिक्षण का प्रावधान बनाया था. चार करोड़ 42 लाख रुपये के बजट आवंटन की आस में यह प्रस्ताव सन 2009 से केंद्र के सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण विभाग में लंबित पड़ा है. [/box]
पारधियों की हत्या या उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार को भुनाकर स्थानीय नेता सालों से यहां चुनाव जीतते रहे हैं
बैतूल में पारधियों के साथ हुए अत्याचारों की अदालती लड़ाई सितंबर, 2007 से ही जारी है और यह देश के उन चुनिंदा मामलों में से है जिसमें किसी विमुक्त जनजाति पर हुए अत्याचार की गंभीर जांच के लिए अदालत ने मामला सीबीआई को सौंपा हो. चौथिया कांड में पारधियों की तरफ से अदालती लड़ाई लड़ रहे सामाजिक कार्यकर्ता और समाजवादी जन परिषद के सदस्य अनुराग मोदी कहते हैं, ‘जिस अपराध में पुलिस खुद ही शुरू से सहभागी रही हो, उस मामले में पुलिस से निष्पक्ष जांच की उम्मीद करने का तो सवाल ही नहीं उठता. प्रमाणित वीडियो रिकॉर्डिंग, दो चश्मदीद गवाहों और नेशनल कमीशन फॉर डिनोटिफाइड एंड नोमाडिक ट्राइब्स (एनसीडीएनटी) की फटकार लगाती हुई रिपोर्ट के बाद भी पुलिसवालों ने दो साल तक कोई कार्रवाई नहीं की. यहां तक कि पारधी औरतों के लगातार कहने के बाद भी उन्होंने सामूहिक बलात्कार को एफआईआर में दर्ज तक नहीं किया. वह तो जस्टिस पटनायक थे जिन्होंने हिंसा के इस तांडव की दोनों सीडी अदालत में देखीं वर्ना जिन लोगों को पूरा समाज जन्म से ही अपराधी मानता हो उनकी सुनने वाला कौन होता है? दो साल की कड़ी लड़ाई के बाद आखिर अगस्त, 2009 को हाई कोर्ट ने मामला सीबीआई को सौंप दिया.’ लेकिन अनुराग और उनके वकील राघवेंद्र झा को कुछ ही दिनों में महसूस हो गया कि सीबीआई भी जांच में कोताही बरत रही है. अनुराग बताते हैं, ‘हमने तुरंत दूसरी याचिका दाखिल करते हुए अदालत से कहा कि सीबीआई जांच की प्रोग्रेस रिपोर्ट फाइल करे.’ जांच शुरू होने के लगभग छह महीने बाद जांच अधिकारी एमएस खान ने मात्र तीन पन्ने की अपनी रिपोर्ट में लिखा कि उन्होंने तीन ट्रैक्टर और एक जेसीबी मशीन जब्त कर ली है और पूछताछ जारी है. खान की रिपोर्ट को हास्यास्पद बताते हुए अनुराग आगे जोड़ते हैं, ‘यह बहुत आश्चर्य की बात है कि वीडियो रिकॉर्डिंग और चश्मदीदों की गवाही के बावजूद छह महीने में सीबीआई कुछ ट्रैक्टर ही जब्त कर पाई, उस पर भी उन्होंने गाड़ी के मालिकों को दोषी नहीं बनाया. हाई कोर्ट ने सीबीआई को मामला सौंपते हुए अपने निर्णय में लिखा था कि पुलिस चौथिया कांड और भोंदरू-डोडा बाई की हत्या के मामलों की शुरू से ढीली जांच कर रही है. कोर्ट ने यह भी लिखा था कि स्थानीय राजनेताओं और प्रशासन के मामले में शामिल होने की वजह से पुलिस राजनीतिक दबाव में आ गई है इसीलिए सीबीआई को मामला सौंपा जा रहा है. पर अफसोस की बात है कि मामले की जांच को लेकर सीबीआई का रवैया भी संदेहास्पद है.
इतने खुले मामले में सीबीआई जांच के दो साल गुजर जाने के बाद भी आज तक एक भी अपराधी गिरफ्तार नहीं किया गया.’ पूरे मामले की छानबीन में सीबीआई की स्थिति हाल ही में जांच एजेंसी द्वारा चार जुलाई, 2011 को जबलपुर स्थित हाई कोर्ट में प्रस्तुत की गई ताजा प्रोग्रेस रिपोर्ट से जाहिर होती है (सभी अदालती दस्तावेजों और वीडियो रिकॉर्डिंग की एक प्रति तहलका के पास मौजूद है). रिपोर्ट में लिखा गया है कि भोंदरू-डोडा बाई के कत्ल के शव-परीक्षण पर विरोधाभासी मत होने की वजह से मामले को दिल्ली के एम्स अस्पताल की एक विशेष कमेटी के पास भेजा जा रहा है. रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि ग्राम पंचायत ने कलेक्टर की अनुमति के बिना, पारधी परिवारों को नोटिस पीरियड दिए बिना और उनकी बात सुने बिना ही गैरकानूनी तरीके से अतिक्रमण हटाया है. उस पर जिन 11 मकानों को कानूनी पट्टे मिले थे उन्हें भी नियमों को ताक पर रख कर हटाया गया. बिंदु क्रमांक 5.7 में रिपोर्ट यह बताती है कि केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट के अनुसार सभी पारधियों को घर खाली करने के नोटिस नहीं दिए गए थे. वीडियो रिकॉर्डिंग के बारे में केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की जांच का हवाला देते हुए जांच एजेंसी ने कहा है कि पड़ताल में वीडियो फुटेज सही पाए गए. इस मामले में अब तक 250 लोगों के बयान ले चुकी सीबीआई अभी तक दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पाई है. पारधी महिलाओं के सामूहिक बलात्कार को एफआईआर में शामिल न करने के लिए जांच एजेंसी को आड़े हाथों लेते हुए राघवेंद्र कहते हैं, ‘ मेरे क्लाइंट ने मुझे बताया है कि इस मामले में उनसे गहन पूछताछ की गई है. जिन दस पारधी महिलाओं का बलात्कार हुआ था, उन सभी से सीबीआई ने न सिर्फ पूछताछ की बल्कि उनके बयानों की वीडियो रिकॉर्डिंग भी हुई. मगर जांच एजेंसी आज भी मुलताई पुलिस द्वारा दायर एफआईआर पर ही काम कर रही है. जांच और सुनवाई की बात तो दूर, उन्होंने आज तक बलात्कार के मामले दायर ही नहीं किए.’
बेआसराः पारधीढाना के पारधी फिलहाल बैतूल के दो शिविरों में रह रहे हैं
इस मामले में सीबीआई की ढिलाई का सिर्फ यही उदाहरण नहीं है. जांच अधिकारी खान के स्थानांतरण के बाद इस मामले की जांच के लिए एक दूसरे अधिकारी एसएल गुप्ता को नियुक्त किया गया, लेकिन इस नियुक्ति पर सवाल उठने के बाद सीबीआई की तहकीकात कानूनी पेंचों में उलझती नजर आ रही है. दरअसल जनवरी, 2011 में इस मामले की जांच अपने हाथ में लेने वाले एसएल गुप्ता को तकरीबन सात महीने बाद अचानक यह कहकर हटा दिया गया कि उनकी नियुक्ति मात्र एक परामर्श अधिकारी के तौर पर हुई थी. इस फेरबदल से केस पर पड़ने वाले असर के बारे में बताते हुए अनुराग कहते हैं, ‘गुप्ता ने मामले पर काफी काम किया है और बयान भी लिए हैं. अगर वे तहकीकात के लिए अधिकृत नहीं थे तो उन्हें जांच क्यों करने दी गई? यह बात केस को बहुत कमजोर बना देगी क्योंकि अदालत में इन सात महीनों की तहकीकात के अवैध घोषित होने का भी डर है.’ इस बारे में जब गुप्ता ने तहलका से बात की तो उनका कहना था, ‘मुझे भी नहीं पता कि मुझे जांच अधिकारी से परामर्श अधिकारी क्यों और कैसे बना दिया गया. मेरी नियुक्ति जांच अधिकारी के तौर पर हुई थी और इससे पहले भी सीबीआई के लिए कई मामलों में बतौर जांच अधिकारी छान-बीन कर चुका हूं.’ हालांकि सीबीआई का कहना है कि अपने सात महीने के कार्यकाल के दौरान गुप्ता ने कोई तफ्तीश नहीं की. सीबीआई की प्रवक्ता धारिणी मिश्रा तहलका को अपने लिखित जवाब में बताती हैं, ‘श्री एमएस खान के बाद जांच श्री एसएल गुप्ता को सौंपी गई और सहायता के लिए दो इंस्पेक्टर भी दिए गए. पर उनके काम का स्वभाव मुख्यतः पत्राचार और सुपरविजन से जुड़ा था. 21 जुलाई, 2011 को परामर्श अधिकारी के तौर पर उनकी पुनः नियुक्ति के बाद मामला अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक श्री एनके शर्मा को दे दिया गया. इस फेरबदल की वजह से अगर केस की सुनवाई पर कोई प्रभाव पड़ता है तो सीबीआई जरूरी कदम उठाएगी.’ इस मसले पर कोर्ट में बहस तो अभी बाकी है पर घटनाक्रम में आए इस ताजा परिवर्तन ने इतने संवेदनशील मामलों में भी जांच से लेकर जांच अधिकारियों की नियुक्ति तक जारी सीबीआई के लापरवाह रवैये पर सवालिया निशान तो खड़े किए हैं.
सीबीआई की तरफ से इस मामले की जांच सात महीने तक उस अधिकारी के हाथ में रही जो इसके लिए अधिकृत ही नहीं था
अपने गांव से पारधियों को भगाकर चौथिया का तथाकथित ‘नस्लीय शुद्धिकरण’ करने वाले गांववाले पारधियों का चेहरा दुबारा नहीं देखना चाहते. चौथिया कांड का दूसरा पहलू जानने के लिए जब तहलका की टीम बैतूल से 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चौथिया गांव पहुंची तो मालूम हुआ कि चौथिया आज भी पारधियों के खिलाफ नफरत में जल रहा है. पारधियों की किसी भी तरह की वापसी को नामुमकिन बनाने के लिए गांववालों ने पारधीढाने में आम के पेड़ लगा दिए हैं. आज एक सपाट मैदान पर किसी पनपते हुए आम के बगीचे की तरह नजर आने वाले पारधीढाने को देखकर यह विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि इस जमीन पर कभी 350 लोगों की एक बस्ती हुआ करती थी. हालांकि इतने पौधारोपण और सफाई के बाद भी गांववाले सितंबर की हिंसा के निशान मिटा नहीं पाए हैं. मैदान में पड़े अलसिया पारधी के घर के मलबे के कुछ टुकड़े रोंगटें खड़े कर देने वाले उन हिंसक अपराधों की गवाही आज भी देते हैं. चौथिया गांव के तत्कालीन सरपंच कचरू बरंगी बताते है, ‘अगर पारधी वापस आए तो हम सब आत्महत्या कर लेंगे. उन्होंने हमारा जीना मुश्किल कर दिया था. हम आसपास के सभी गांववालों में उनके लिए भयंकर गुस्सा था. वे तो जन्म से ही अपराधी थे, कभी हमारी फसल चुरा लेते थे, कभी महिलाओं को तंग करते थे. इसलिए हम लोगों ने उन्हें भगाया. इस मामले में अगर हमें जेल भी हो जाए तो जेल जाएंगे लेकिन पारधियों को यहां वापस नहीं आने देंगे.’ गांववालों का मानना है कि अनुसूइया बाई की ‘शहादत’ से पूरे क्षेत्र में शांति फैल गई है. गांव के एक स्कूल में खाना पकाने वाली शकुन बाछले कहती हैं, ‘अनुसूइया बाई तो मर गई, लेकिन उसकी मौत से जो गुस्सा लोगों में भड़का, तो सारे पारधियों को भगा दिया गया. अनुसूइया की वजह से ही पूरे क्षेत्र में शांति है.’ ज्यादातर गांववालों की तरह एक ही बात को एक ही लहजे में दोहराते हुए नेपाल बिसंदरे कहते हैं, ‘हम अपनी मां-बहन के साथ कोई गलत बात बर्दाश्त नहीं करेंगे. पारधी तो जन्मजात चोर-लुटेरे हैं. उनके बच्चे स्कूल में पढ़ने की बजाय चोरी करते हैं क्योंकि पढ़ना-लिखना या बैठ कर कोई काम करना उनकी फितरत में ही नहीं है. हम कभी उनकी शक्ल भी नहीं देखना चाहते. उनके जाने के बाद से हम सब सुखी हैं.’
तहलका ने पारधियों पर लग रहे तथाकथित चोरी और लूटपाट की शिकायत की सच्चाई जानने के लिए जब बैतूल पुलिस अधीक्षक बीएस चौहान से बात की तो चोरी के आरोपों के नीचे दबी सामाजिक बहिष्कार की परतें खुलने लगीं. पारधियों पर लुटेरे होने के तमाम आरोपों को ‘क्रिमिनल ब्रांडिंग’ बताते हुए उन्होंने कहा, ‘पिछले कुछ सालों में पारधियों के खिलाफ कोई प्रमुख अपराध दर्ज नहीं किया गया है.’ गांववालों में पारधियों के खिलाफ जिंदा इस नफरत के लिए स्थानीय राजनीतिक समीकरण को जिम्मेदार बताते हुए मुलताई के स्थानीय पत्रकार असलम खान कहते हैं, ‘पारधियों के कबीले तो दादा-परदादा के जमाने से यहां बसे हैं. हालांकि लोग उनसे हमेशा से ही कतराते थे, पर गांववालों में उनके खिलाफ इतना जहर कभी नहीं था. लेकिन 2003 के घाट-अमरावती कांड के बाद से पूरे क्षेत्र में अचानक तनाव बढ़ गया. स्थानीय नेताओं ने लोगों को भड़काया और उनके हितैषी बनने का ढोंग रचकर, चुनाव-दर-चुनाव जीतते चले गए. अमरावती-घाट हत्याकांड को परोक्ष रूप से संचालित करने वाले सुखदेव पांसे 2004 में मसूद से चुनाव जीते और 2007 में चौथिया कांड करवाने के बाद मुलताई से 2008 के चुनावों में उन्होंने फिर से जीत दर्ज की. पारधियों के अल्पसंख्यक होने की वजह से उनके वोटों का कभी कोई महत्व ही नहीं रहा. यही वजह है कि हर राजनीतिक पार्टी, क्षेत्र से उनके सफाये की जमीन पर अपनी राजनीतिक विजय की कहानी लिखने को बेताब रहती है.’
राजनीतिक, प्रशासनिक, पुलिसिया और जांच एजेंसियों के लापरवाह, पक्षपाती और भ्रष्ट रवैये के साथ-साथ पारधियों की इस सतत उपेक्षा और दुर्भाग्य के लिए सामाजिक सोच सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. अनुराग कहते हैं, ‘जब आप एक समुदाय को चारों तरफ से घेर कर खड़े हो जाएंगे और उन्हें चोर-चोर कहकर कोसते रहेंगे तो पूरा समुदाय अपने-आप मुरझा जाएगा. जरूरत इस बात की है कि उन्हें भी शिक्षा, रोजगार, घर और सम्मान से जीने का एक मौका दिया जाए. हम समाज के इस हिस्से को अपराधी कहकर मरने के लिए कैसे छोड़ सकते हैं?’
गर्मियों की एक दोपहर. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन. नई-दिल्ली-गुवाहाटी राजधानी एक्सप्रेस अपनी यात्रा पूरी कर चुकी है. यात्रियों को प्लेटफॉर्म पर उतारने के बाद खाली हो चुकी ट्रेन धुलाई-सफाई के लिए रेलवे स्टेशन के पीछे बने यार्ड की तरफ बढ़ रही है. अचानक एक कोच के दरवाजे पर 14-15 साल का एक लड़का लटकता नजर आता है. हमें देखते ही वह जोर से हाथ हिलाता है और लहराते हुए चलती ट्रेन से उतर जाता है. उसके हाथ में फटी पन्नियों और प्लास्टिक की बोतलों से भरा एक मटमैला बोरा है. बुरी तरह घिस चुकी हाफ पैंट और लगभग चीथड़ों में तब्दील एक बदरंग टी-शर्ट पहने इस लड़के के शरीर के लगभग हर हिस्से पर चोटों के निशान दिखते हैं. खास चमड़ी के कटने से बनने वाले ये निशान उसके शरीर पर जमी मिट्टी, धूल और गंदगी की परतों को चीरते हुए बाहर झांक रहे हैं. अपने कान पर जमे खून के ताजा थक्कों से बेखबर वह लड़का मुस्कुराते हुए हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है. थोड़ी कोशिशों के बाद वह थोड़ा और सहज होता है और सबसे पहले अपना मौजूदा नाम रोहन बताता है.
रोहन से यह हमारी दूसरी मुलाकात है. पहली मुलाकात बस नाम के लिए हुई थी. हमें देखते ही वह भागने लगा था. फिर जब हमने उसे आश्वस्त करते हुए बुलाया तो वह आया तो जरूर, लेकिन काफी कोशिशों के बाद भी हमसे बात करने के लिए तैयार नहीं हुआ. इस बार लगता है कि उसका हम पर कुछ भरोसा जमा है.
साथ-साथ लोहे की पटरियां पार करते हुए हम स्टेशन के आखिरी छोर पर बने प्लेटफॉर्म पर बैठ जाते हैं. अपने बारे में बताते हुए रोहन कहता है, ‘मुझे नहीं पता मेरा घर कहां है. मुझे नहीं मालूम मैं कहां से आया हूं. पहले तो मेरा कोई नाम भी नहीं था. स्टेशन पर लोग मुझे लूला, पगला या गंजा कहते थे. ये नाम तो स्टेशन पर काम करने आने वाले भैया ने दिया है. मुझे आज तक घर से कभी कोई लेने नहीं आया. जब से याद पड़ता है, तब से मैं स्टेशन पर ही रहता हूं.’
अनिश्चितताः अपराध के दुष्चक्र में फंसे इन किशोरो को अपने भविष्य का कुछ पता नहीं
रोहन बताता है कि वह नशा करता है, उसने कई चोरियां भी की हैं और गाहे-बगाहे लोगों को ब्लेड या चाकू भी मार चुका है. अपराध की दुनिया में अपने सफर के बारे में वह कहता है, ‘सब सीख जाते हैं, दीदी. जब मैं छोटा था तो बड़े लड़कों ने सिखाया. चलती ट्रेन में चढ़ना, पॉकेट मारना, पर्स उड़ाना, चाकू मारना सब. यहां के गैंगों में बड़े लड़के छोटे बच्चों को सब सिखाते हैं. मैं तो फिर भी ठीक हूं. स्टेशन के दूसरे लड़कों और कबाड़ी वालों ने तो काम के टाइम कइयों को निपटाया है. फिर यही नए बच्चे भी सीख जाते हैं.’
नशा और चोरी-चकारी करते-करते कई बच्चे खुद भी मासूम बच्चों को नशे का आदी और अपराधी बनाने वाले कारोबार का हिस्सा बन जाते हैं
आती गर्मियों के आसमान में धूप ढलान की ओर बढ़ती है. शाम होने तक रोहन हमें अपनी रहस्यमयी दुनिया के कई किस्से सुनाता है. बातचीत के दौरान साफ होता है कि अनजाने में यह मासूम बच्चा लगभग संगठित तरीके से चलने वाले बच्चों के एक ऐसे आपराधिक गिरोह का हिस्सा बन चुका है जिसकी कमान वयस्क अपराधियों के हाथों में है. इस कहानी का सबसे स्याह पहलू यह है कि वह अकेला नहीं है. अपराध के जाल में फंस कर अपना बचपन गंवा रहे रोहन जैसे सैकड़ों अन्य बच्चों की कहानियां दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में बिखरी पड़ी हैं.
अपनी दो महीने लंबी तहकीकात के दौरान तहलका ने इस मसले से जुड़ी कई छोटी-बड़ी जानकारियों और उलझे हुए बिंदुओं को जोड़ा. इससे अलग-अलग जगह, परिस्थितियों आदि में काम करने वाले बच्चों के करीब पांच प्रमुख आपराधिक गैंगों की एक चौंकाने वाली तस्वीर उभरी. दिल्ली में एक तरफ जहां तमाम बच्चे रेलवे स्टेशनों पर होने वाली लूटपाट और चाकूबाजी में शामिल, आपस में होड़ करते समूहों के तौर पर मौजूद हैं, वहीं शहर की लाल बत्तियों पर कार पंक्चर करके सामान चुराने वाले गिरोहों के रूप में भी इनकी सक्रियता देखी जा सकती है. एक तरफ राजधानी के सभी प्रमुख कबाड़ बाजारों में कबाड़ व्यापारियों की शह और मुश्किल परिस्थितियों का गठजोड़ कबाड़ बीनने वाले ज्यादातर बच्चों को अपराध के अंध-कूप में धकेल रहा है, तो बीड़ी और सिगरेट से शुरू होने वाले नशे को स्मैक और कोकीन तक पहुंचा कर बच्चों से चोरियां, डकैतियां और हत्याएं तक करवाने वाले अपराधियों का भी एक पूरा नेटवर्क शहर में सक्रिय है. नशा और चोरी-चकारी करते-करते कई बच्चे खुद भी मासूम बच्चों को नशे का आदी और अपराधी बनाने वाले कारोबार का हिस्सा बन जाते हैं.
मासूम बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेलने वाले अपराधी घर से भाग कर आने वाले और गुमशुदा बच्चों के साथ-साथ तस्करी के शिकार बच्चों को अपना पहला शिकार बनाते हैं. साथ ही, काम की तलाश में छोटे शहरों और कस्बों से पलायन करके दिल्ली का रुख करने वाले मजदूरों के बच्चे भी जाने-अनजाने इन गिरोहों के जाल में फंस रहे हैं.
बच्चों के नियोजित अपराधीकरण को लेकर अगस्त, 2012 में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करने वाले युवा अधिवक्ता अनंत अस्थाना कहते हैं, ‘बात चाहे किसी भी तरह के अपराध में शामिल बच्चों की हो, वयस्क अपराधी अपने फायदे के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं. धीरे-धीरे ये बच्चे भी अपराध की अंधेरी दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं. हालांकि इन बच्चों को अपराध में झोंकने वाले वयस्क अपराधियों के साथ-साथ तेजी से पनप रहे बच्चों के इन आपराधिक गिरोहों के बारे में जानकारी अभी भी सीमित ही है.’
आगे के पन्ने दिल्ली में सक्रिय संगठित अपराधियों के जाल में फंसे उन बच्चों की कहानियां कहते हैं जिन्हें इन अपराधियों के लालच और सभ्य समाज व व्यवस्था की आपराधिक उदासीनता ने अपराध की अंधेरी गलियों में धकेल कर उनके वापस आने वाले रास्ते बंद कर दिए हैं. बिना एक बार भी यह सोचे कि इस प्रक्रिया में हम भविष्य में उनके बड़े खूंखार अपराधियों में तब्दील होने की पूरी पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं. और उसके बाद शायद उनसे पीड़ित होने की भी.
कबाड़ी गैंग
दिल्ली के ओल्ड-सीमापुरी इलाके में बसी एफ ब्लाक झुग्गी बस्ती से लगभग 100 मीटर पहले ही रिक्शावाला हमें उतार देता है. पूछने पर बताया जाता है कि आगे दिल्ली की सबसे बड़ी और आपराधिक गतिविधियों के लिए बदनाम कबाड़ी बस्ती है. ज्यादातर रिक्शेवाले वहां तक सीधे जाना पसंद नहीं करते. मोहल्ले की ओर जाती सड़क पर आगे बढ़ते ही धूप और धूल भरी जमीन पर मुर्गों के कटे हुए लहूलुहान पंख, जहां-तहां पड़े बालों के गुच्छे और कतार में रखी कबाड़े से भरी बड़ी-बड़ी बदरंग बोरियां नजर आती हैं. जिंदा तत्वों के धीरे-धीरे नष्ट होने से पैदा होने वाली एक तीखी सड़ांध हमें झकझोरते हुए बताती है कि हम दिल्ली की सबसे पुरानी कबाड़ी बस्ती में दाखिल होने वाले हैं. अंदर छोटी-छोटी गलियों के किनारे बनी दड़बेनुमा खोलियों में बच्चे कभी कबाड़ साफ करते हुए तो कभी नशे के इंजेक्शन लेते नजर आते हैं. सिर्फ छह-सात फुट लंबे-चौड़े कमरे में छज्जा-सा डालकर उसमें 6-7 लोगों का परिवार गुजारा करता है. आगे बढ़कर जब हम पहला दरवाजा खटखटाते हैं तो पीली रोशनी में डूबे हुए कमरे में दो लड़के ड्रग्स का इंजेक्शन लगाते हुए दिखते हैं. उनके पीछे बैठी दो लड़कियां अपना नाम रजिया और फरहा बताती हैं. अपने हाथों में खाने की जूठी थालियां उठाए वे यह भी बताती हैं कि आज का कबाड़ साफ करने के बाद उन्होंने अभी-अभी अपना खाना खत्म किया है. रजिया और फरहा एक कमरे के अपने इसी घर में खाना खाती हैं, नशे में डूबे अपने भाइयों की लाल आंखों को बर्दाश्त करती हैं और सारी दिल्ली से आए कबाड़ को इसी के एक कोने में बैठकर साफ भी करती हैं.
जिंदगी का कचराः कबाड़ व्यापारी बच्चों को इसलिए भर्ती करते हैं क्योंकि उन्हें पूरा पैसा नहीं देना पड़ता
कुछ दूर और आगे बढ़ने पर गली में हमें कबाड़ बीनने वाले बच्चों का एक झुंड ताश खेलता हुआ नज़र आता है. झुंड में लगभग 15 साल का एक लड़का सफेदी (स्याही मिटाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला व्हाइटनर) में भीगा रूमाल सूंघ रहा है, जबकि बाकी पत्ते बांटने में व्यस्त हैं. हमें देखते ही सब पहले कुछ फुसफुसाते हैं, फिर हंसने लगते हैं. कुछ देर की कोशिशों के बाद वे बातचीत के लिए राजी हो जाते हैं. ताश खेल रहे ये सभी बच्चे 12-16 वर्ष के हैं और इन सभी ने छोटी उम्र से ही कबाड़ बीनने का काम शुरू कर दिया था. नशे और मारपीट की आदतों के बारे में बताते हुए 16 साल का रफीक कहता है, ‘हम सभी नशा करते हैं, इंजेक्शन, दारू, फ्लूइड, गांजा, पाउडर…सब कुछ. सबसे पहले तो नशा कबाड़ी वाले ही देना शुरू करते हैं.’ तभी अचानक 14 साल का रवि बीच में ही चिल्लाते हुए कहता हैं, “अरे मैं बताऊं, जब हम कबाड़ बीनने जाते हैं तो थकान होती है. फिर वहां गुटका खाना तो अपने आप सीख जाते हैं. फिर सिगरेट की हुड़क लगती है. सिगरेट से दारू, दारू से गांजा और गांजे से फ्लूइड. जब कबाड़ बेचने जाते हैं तो वहां सेठ फ्लूइड देता है. फिर पाउडर…सुई. यही है एक कबाड़ी बच्चे की सच्चाई! जान ली, अब जाओ यहां से.’
‘सबसे पहले तो कबाड़ीवाले खुद ही हम लोगों को फ्लूइड दे देते हैं. वे हम लोगों से चोरियां करवाते हैं और फिर हमें पुलिस से भी बचाते हैं’
अपनी बात खत्म करते हुए रवि लगभग हमें गली के बाहर धक्का देने लगता है. हमें बताया जाता है कि फिलहाल ये बच्चे नशे में हैं और कुछ भी कर सकते हैं. वहां से निकलते ही बस्ती के दूसरे छोर पर हमारी मुलाकात 12-13 साल के अफजल और सुरेश से होती है. दोनों सुबह-शाम कबाड़ बीनने जाते हैं. अपने काम में नशे और अपराध की मिलावट के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘सबसे पहले तो कबाड़ीवाले खुद ही हम लोगों को फ्लूइड दे देते हैं. वे हम लोगों से चोरियां करवाते हैं और फिर हमें पुलिस से भी बचाते हैं. कबाड़ीवाले हमारे लिए सब कुछ करते हैं इसलिए मेरे साथ के सारे बच्चे उनकी बात मानते हैं. फिर छिनैती, लड़ाई, चाकूबाजी और चोरी-चकारी…यहां कुछ सब चलता है.’
सीमापुरी की कबाड़ी बस्ती से निकलते-निकलते यह साफ हो जाता है कि कबाड़ बीनने वाले बच्चे अपने आस-पास के माहौल और अपने कबाड़ी सेठों के संरक्षण में अपराध और नशे की कभी न खत्म होने वाली अंधी गलियों में विचर रहे हैं. इस बस्ती के बच्चों की शिक्षा और पुनर्वास के लिए काम कर रही गैरसरकारी संस्था आशादीप फाउंडेशन से जुड़े एचके चेट्टी बताते हैं, ‘यहां कबाड़ा बीनने वाले लगभग 2,500 परिवार रहते हैं. ज्यादातर लोग बांग्लादेश से आए हैं, लेकिन इन्हें शरणार्थी होने तक का दर्जा हासिल नहीं है. पहचान नहीं होने की वजह से इन्हें कोई काम नहीं देता. इसलिए सबने कबाड़ा चुनना शुरू कर दिया. लेकिन ये लोग अपने बच्चों को कबाड़ मालिकों के यहां पनपने वाले नशे और अपराध की संस्कृति से बचा नहीं पाए.’
सीमापुरी की ही तरह दिल्ली के जहांगीरपुरी और सराय काले खां इलाकों में ऐसी ही कहानियों से पटी हुईं राजधानी की सबसे बड़ी कबाड़ी बस्तियां मौजूद हैं. इस स्टोरी के दौरान तहलका ने शहर के अगल-अलग हिस्सों में मौजूद इन कबाड़ा बस्तियों के बच्चों और कबाड़ा व्यापारियों से बात की तो अपने मुनाफे के लिए बच्चों को अपराध की दुनियां में धकेल रहे अपराधियों की तस्वीर और पुख्ता होने लगी. निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पीछे बसी सराय काले खां झुग्गी बस्ती में मौजूद कबाड़ा व्यापारियों के यहां काम कर चुका 17 वर्षीय विवेक बताता है, ‘सराय काले खां की झुग्गी बस्तियों में तकरीबन सात कबाड़ा व्यापारी हैं, लेकिन फारूख, खाला और शाहिद ही बड़े कबाड़ी वाले हैं. कभी कबाड़ के बदले पैसा मिलता है तो कभी नशा. फिर धीरे-धीरे हम खुद ही खरीदने लगते हैं. निजामुद्दीन दरगाह के पीछे और भोगल में सड़कों पर ही मिल जाता ह.ै’ विवेक आगे कहता है, ‘यहां बच्चों को सबसे ज्यादा फ्लूइड की लत है. कुछ महीने पहले तक मैं खुद लगभग 20 डबल रोज पी जाता था. एक सेट में फ्लूइड की दो बोतल होती हैं इसलिए उसे डबल कहते हैं. कबाड़ीवाले हमें नशे के लिए चोरियां करने को भी कहते हैं. मेरे कई दोस्तों ने तो इनके कहने पर स्टेशन से बाइक चुराई और दरगाह से कितनों के पर्स उड़ाये. अगर पुलिस का मामला होता है तो कबाड़ी-वाले ही हमें बचाते हैं.’
‘वयस्क अपराधियों का एक समूह इनको बहका कर इन्हें अपराध की दुनिया में धकेल रहा है. ये बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं और इन्हें बचाना राज्य की जिम्मेदारी है’
बच्चों की इन बातों को अपने मामले में खारिज और दूसरों के मामले में स्वीकार करती, सराय काले खां की प्रमुख कबाड़ा व्यापारी रीना उर्फ खाला कहती हैं, ‘यह सब मेरे यहां नहीं होता. बाजू में वे दूसरे कबाड़ीवाले हैं न, वे सब बच्चों से चोरियां करवाते हैं और उन्हें ब्लेडबाजी, चाकूबाजी सब सिखाते हैं. उनके बच्चे सब नशा करते हैं. वे खुद उन्हें नशा देते हैं और फिर उन्हीं से बाकी बच्चे भी सीख जाते हैं.’ कबाड़ा बीनने वाले बच्चों और कबाड़ा व्यापारियों के साथ लंबे समय से काम रही गैर सरकारी संस्था चेतना से जुड़े डॉ संजय गुप्ता बताते हैं कि पहले कबाड़ा व्यापारी बच्चों को एक सुरक्षा घेरा देते हैं और फिर उनका शोषण करते हैं. वे कहते हैं, ‘पहले ये लोग सड़क पर रहने वाले बच्चों को काम देते हैं, रहने की जगह और नशा भी देते हैं. इससे बच्चों को इन पर विश्वास हो जाता है. बच्चे इनके लिए सबसे अच्छे होते हैं. वे अपनी मेहनत का पूरा पैसा नहीं मांगते, वफादार होते हैं और नशे की लत की वजह से इनके कहने पर धीरे-धीरे चोरियां भी करने लगते हैं.’
ऐसा नहीं है कि इन बच्चों के लिए कुछ कर सकने वाले लोगों को इनके साथ और इनके द्वारा जो कुछ हो रहा है उसके बारे में पता नहीं. 20 अगस्त, 2010 को किंग्सवे कैंप स्थित जूवेनाइल जस्टिस बोर्ड (बाल न्यायालय) के एक आदेश में प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट अनुराधा शुक्ल भारद्वाज का कहना था कि राजधानी के कबाड़ा व्यापारी अपने मुनाफे के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों का शोषण कर रहे हैं. किशोर मामलों के अधिवक्ता अनंत अस्थाना की एक विस्तृत रिपोर्ट के आधार पर दिए गए इस फैसले में ऐसे बच्चों के लिए एक नई बाल कल्याण समिति बनाने का आदेश देते हुए उनका कहना था, ‘…यह देखा जा रहा है कि इन कबाड़ा व्यापारियों की वजह से सड़कों पर रहने वाले बच्चों, झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले बच्चों या फिर गरीबी, असाक्षरता या किसी प्राकृतिक प्रकोप की वजह से पोषण और देखभाल से दूर रहे बच्चों में नशे और अपराध की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है. ये कबाड़ीवाले बहुत सुनियोजित तरीके से छोटे बच्चों को कबाड़ा बीनने का काम देते हैं, फिर उनसे चोरियां और डकैतियां करवाई जाती हैं. यह सब बच्चों को ड्रग्स, शराब और फ्लूइड के नशे का आदी बनवाकर करवाया जाता है जो उन्हें सबसे पहले इन्हीं कबाड़ा व्यापारियों के पास से मिलता है. यह पूरा माहौल भविष्य में बच्चों के एक खूंखार अपराधी बनने का रास्ता साफ कर देता है…’
अपने फैसले में बोर्ड ने पुलिस और संबंधित संस्थाओं को बच्चों के इस सुनियोजित अपराधीकरण पर तुरंत कार्रवाई करने और इस चुनौती से निपटने के लिए सख्त निर्देश तो जारी कर दिए लेकिन जमीन स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकी. आज भी सैकड़ों असहाय बच्चे कबाड़ा व्यापारियों में अपने जिंदा रहने की आस देखकर कबाड़ बीनने का काम करते हुए नशे और अपराध के बीच झूल रहे हैं.
ठक-ठक और टायर ‘पंचर’ गैंग
15 फरवरी, 2013 को दिल्ली पुलिस ने राजधानी के पुष्प विहार इलाके में बने दिल्ली विकास प्राधिकरण के एक पार्क में छापा मारकर तीन लोगों को गिरफ्तार किया था. प्राथमिक पड़ताल के बाद ही यह पता चल गया कि ये तीनों आरोपित नाबालिग हैं और शहर के अलग-अलग इलाकों में सक्रिय ‘टायर पंचर गैंग’ के सदस्य हैं. मुखबिरों से मिली सूचना के आधार पर दिल्ली पुलिस के सहायक पुलिस आयुक्त (ऑपरेशंस) कुलवंत सिंह के नेतृत्व में एक विशेष टीम ने इन किशोरों को अपने संरक्षण में लेकर उनसे लगभग एक करोड़ रुपये के गहने बरामद किए. तहलका से बातचीत के दौरान नाबालिग बच्चों के इस आपराधिक गैंग के बारे में जानकारी देते हुए कुलवंत सिंह कहते हैं, ‘किशोर बच्चों का यह गिरोह रेड लाइट पर खड़ी कारों के टायरों में सुआ (लोहे की बड़ी सुई) घुसाकर उनके टायर पंक्चर कर देता है. कुछ दूर जाने पर जब टायर में से हवा निकलने लगती है तो वे गाड़ी चालक को उसकी गाड़ी के टायर के बारे में बताते हैं. जब गाड़ी चालक अपने पंक्चर हो चुके टायर को देखने या बदलने में व्यस्त हो जाता है तब ये बच्चे गाड़ी से सामान चुराकर भाग जाते हैं. इन चोरियों को अंजाम देने के लिए ये बच्चे स्कूटरों और मोटर-बाइकों का भी इस्तेमाल करते हैं. यह गिरोह लैपटॉप और मोबाइल के साथ-साथ नगदी, सोने के बिस्कुट और गहनों की बड़ी चोरियां भी करता है. अक्टूबर, 2012 में भी हमने चांदनी चौक के एक व्यापारी से साढ़े तीन किलो सोना चुराने वाले इसी गिरोह के बच्चों को पकड़ा था.’
किशोरों के संगठित गिरोहों द्वारा लाल बत्तियों पर गाड़ियां लूटने के मामले 2009 से ही सामने आने लगे थे. शुरुआत में बच्चे लाल बत्तियों पर खड़ी गाडि़यों के शीशों पर हाथ मारकर ठक-ठक की आवाज करते और गाड़ी चालक के शीशा नीचे करते ही उसका ध्यान बंटाकर गाड़ी में रखा सामान लेकर चंपत हो जाते. दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में हो रही ऐसी तमाम घटनाओं में मौजूद समानता की वजह से इन सभी बच्चों को सामूहिक तौर पर ‘ठक-ठक गिरोह’ के तौर पर पहचाना जाने लगा. इसके बाद इन बच्चों ने गाड़ी के टायर पंक्चर करके गाड़ी चालकों को लूटना शुरू किया और एक नया टायर पंक्चर गैंग सामने आया.
चोरी करने वाले बच्चे के पकड़े जाते ही उसका वकील जांच अधिकारी से संपर्क करता है और इसके बाद उसकी जमानत की अर्जी तुरंत आगे बढ़ा दी जाती है
बच्चों के संगठित अपराधीकरण के इन लगातार बढ़ रहे मामलों को देखते हुए किशोर मामलों के सरकारी वकील भूपेश समद द्वारा अदालत के आदेश पर एक रिपोर्ट तैयार की गई. 20 नवंबर, 2010 को सेवा कुटीर किंग्सवे कैंप स्थित बाल न्यायालय को सौंपी गई इस रिपोर्ट में भूपेश लिखते हैं, ‘…ये बच्चे सीधे-सीधे अपराध में शामिल नहीं हैं बल्कि वयस्क अपराधियों का एक समूह इनको बहला-फुसला कर इन्हें अपराध की दुनिया में धकेल रहा है. ये बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं और इन्हें बचाना राज्य की जिम्मेदारी है. ये बच्चे गिरोहों में शामिल अपराधी नहीं बल्कि स्वयं मुश्किल परिस्थितियों के शिकार हैं. तहकीकात करने पर यह साफ़ हो जाता है कि अपराध का स्वभाव संगठित है और इन अपराधों के पीछे छिपे मुख्य वयस्क अपराधी अपने फायदे के लिए बच्चों का दुरुपयोग कर रहे है.’
अदालती दस्तावेजों, थानों में दर्ज विवरणों और कानूनी आवेदनों को खंगालने पर तहलका को ठक-ठक गिरोह में शामिल रहे कुछ बच्चों की महत्वपूर्ण कहानियां मिलती हैं. बच्चों की पारिवारिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उनके इस आपराधिक दुश्चक्र में फंसने का विस्तृत विवरण देती ये कहानियां ऊपर की पंक्तियों में दर्ज भूपेश समद के आकलन को और पुख्ता करती हैं.
उदाहरण के लिए, नौ सितंबर 2010 को सेवा कुटीर किंग्सवे कैंप स्थित जुविनाइल जस्टिस बोर्ड के सामने पेश होने वाले रोहन और सुमित भी कुछ वयस्क अपराधियों की वजह से ठक-ठक गिरोह का हिस्सा बन गए थे. वे लाल बत्ती पर खड़े कार चालकों से कहते कि उनकी गाड़ी से पेट्रोल निकल रहा है और गाड़ी चालक का ध्यान बंटते ही उनकी गाड़ी में रखा सामान लेकर चंपत हो जाते. पुलिस द्वारा पकड़े जाने और उन्हें अपने संरक्षण में लेने के बाद भी बच्चे अपना पता और पहचान बताने से लगातार इनकार करते रहे. ठीक इसी तरह 11 नवंबर, 2010 को विजय का मामला बाल न्यायालय के सामने आया. विजय को लाल बत्ती पर खड़ी एक कार के शीशे तोड़कर उसमें रखा एक बैग चुराने की वजह से पकड़ा गया था. लेकिन जांच अधिकारी विजय से कोई बैग बरामद नहीं कर पाए. इस मामले में भी बच्चे ने अपना पता और परिवार की सही जानकारी नहीं बताई.
अपनी विस्तृत जांच रिपोर्ट में किशोर पुलिस अधिकारी बताते हैं कि कैसे बैग चुराते ही बच्चे का एक पहले से छिपा हुआ साथी बड़ी फुर्ती से उससे चोरी का सामान लेकर भाग जाता है. बच्चे के पकड़े जाते ही उसका वकील जांच अधिकारी से संपर्क करता है और उसकी ज़मानत की अर्जी तुरंत आगे बढ़ा दी जाती है. बच्चे की मां यह नहीं बता पाती कि उसकी अपने वकील से मुलाकात कैसे हुई थी. रोहन और सुमित की मां की तरह विजय की मां भी बार-बार यही कहती रही कि उसे कुछ नहीं पता. और मजे की बात तो यह है कि रोहन और सुमित की जमानती अर्जी देने वाले वकील ही विजय के बचाव के लिए भी आगे आते हैं. इन दोनों ही मामलों में महिलाओं ने अपने असली पते छिपाते हुए बोर्ड के सामने एक ही तरह के बयान दिए और इन बच्चों के परिवार का कोई पुरुष सदस्य कभी सामने नहीं आया.
ठीक इसी तरह तीन जनवरी, 2011 को बोर्ड के सामने हाजिर हुए नौ साल के कमल और 10 साल के वसीम के मामलों में भी उनके पकड़े जाते ही उनके वकीलों ने उनकी जमानत के लिए जांच अधिकारियों को फोन करना शुरू कर दिया था. बच्चों के अभिभावक के नाम पर आए व्यक्ति ने फर्जी कागज़ात दिखाकर अपनी और बच्चों की पहचान छिपाने का भरसक प्रयास किया. जांच अधिकारियों द्वारा पूछने पर दोनों बच्चे और उनका तथाकथित अभिभावक अपने पते-ठिकाने और वकील के बारे में पूछे गए आसान सवालों के जवाब तक नहीं दे सके.
ठक-ठक गैंग के मामले में वयस्कों के एक पूरे नेटवर्क की मौजूदगी पर अब तक की एकमात्र रिपोर्ट तैयार करने वाले भूपेश समद तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘एक 9-10 साल का बच्चा, जिसे पढ़ना-लिखना तक नहीं आता, लैपटॉप या गहने चुराकर क्या करेगा? अगर कोई तुरंत उससे उसका चोरी किया माल ले जाता है, कोई उसे बचाने के लिए मां-बाप बनकर आ जाता है और सभी मामलों में एक ही वकील बेल करवाने आ रहा है तो इससे साफ जाहिर है कि इस लूटपाट में बच्चों का कोई दोष नहीं है. वयस्क अपराधियों का एक बड़ा नेटवर्क है जो जल्दी और आसानी से पैसा कमाने के लिए बच्चों का इस्तेमाल कर रहा है.’
भूपेश समद की इस रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए किंग्सवे कैंप स्थित बाल न्यायालय की प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट अनुराधा शुक्ला ने 25 जनवरी, 2011 को एक आदेश जारी करते हुए कहा, ‘…बोर्ड ने सभी मामलों में बहुत-सी समानताएं देखी हैं. जैसे बोर्ड के सामने लाया गया हर बच्चा कहता है कि उसकी मां ने उसकी पिटाई की इसलिए उसने घर छोड़ दिया, जबकि किसी भी मां ने अपने बच्चे के गुमशुदा होने की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करवाई. अपने सही नाम और पते के साथ-साथ बच्चे यह भी नहीं बता पा रहे थे कि पेट्रोल की टंकी खोलने का, ड्राइवर को पेट्रोल लीक होने की सूचना देने और फिर चोरी करने का विचार उनके दिमाग में कैसे आया. ये सभी समानताएं स्पष्ट तौर पर यह बताती हैं कि कुछ संगठित आपराधिक गिरोह इन बच्चों का कितने सुनियोजित तरीके से दुरूपयोग और शोषण कर रहे हैं. इस बात की भी पूरी संभावना है कि यह सब बच्चों के माता-पिता की सहमति से हो रहा है.’
ठक-ठक गैंग के सभी मामलों में दिल्ली पुलिस को विशेष पड़ताल शुरू करने के निर्देश देते हुए बोर्ड ने आगे कहा, ‘इन गिरोहों में शामिल सभी वयस्कों के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र के मामले दर्ज होने चाहिए क्योंकि ये लोग अपने आर्थिक फायदे के लिए बच्चों को उन आपराधिक गतिविधियों में शामिल कर रहे हैं जिनके दूरगामी परिणाम समझ पाने की भी उनमें क्षमता नहीं. बच्चों से अपराध करवाकर ये लोग उनके भागने और पकड़े जाने पर उनकी कानूनी सहायता की भी व्यवस्था कर रहे हैं. इससे भी बड़ा षड्यंत्र अपने फायदे के लिए बच्चों को लगातार इस्तेमाल करते रहने की मानसिकता है. यह बच्चों के बचपन के खिलाफ एक षड्यंत्र है. इसलिए इन मामलों में वयस्कों के साथ-साथ बच्चों के माता-पिता पर भी मामले दर्ज होने चाहिए…’
दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रोजाना उतरने वाले दर्जनों मासूम कब और कैसे यहां रोज पनपने और टूटने वाले गिरोहों का हिस्सा बन जाते हैं, उन्हें भी पता नहीं चल पाता
लेकिन इन तमाम कड़े अदालती निर्देशों के बावजूद ठक-ठक गिरोह आज भी टायर पंक्चर गिरोह जैसे अपने नए रूपों में दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में सक्रिय है. दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग के सहायक निदेशक पी खाखा इस मामले में पुलिसिया लापरवाही की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘जब तक पुलिस इन बच्चों का शोषण करने वाले असली अपराधियों को नहीं पकड़ेगी, तब तक इन गिरोहों का खत्म होना मुश्किल है.’
रेलवे स्टेशन गैंग
सिर्फ कबाड़ के व्यापार में लगे अपराधी और शहर के लाल-बत्ती चौराहों पर चोरियां कराने वाला आपराधिक नेटवर्क ही राजधानी के बच्चों को अपराध के दुश्चक्र में धकेलने के लिए जिम्मेदार है. दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रोजाना उतरने वाले दर्जनों मासूम बच्चे कब और कैसे यहां रोज पनपने और टूटने वाले आपराधिक गिरोहों का हिस्सा बन जाते हैं, उन्हें भी पता नहीं चल पाता. राजधानी के प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर रहने वाले बच्चों की जिंदगियों में फैले अपराध की जड़ें टटोलने के लिए जब तहलका ने ऐसे तमाम बच्चों से बात की तो अंदर तक झकझोर देने वाली एक बेहद स्याह तस्वीर उभर कर सामने आई.
नशे का दलदलः एक बार नशे की लत लग जाने पर बच्चे नशे के लिए कोई भी अपराध करने से नहीं हिचकते
एक उमस भरी दोपहर को हमारी मुलाकात शादाब से होती है. 14 साल का शादाब राजधानी के निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पीछे मौजूद निजामुद्दीन दरगाह के सामने बने फुटपाथ पर बैठा है. वह अपने कान, नाक और होठों पर मौजूद मवाद भरे घावों को खुजाकर खुद को थोड़ा आराम देने की कोशिश कर रहा है. कुछ देर कोशिश करने के बाद वह हमसे बात करने को राजी हो जाता है. शादाब सात साल की उम्र में पश्चिम बंगाल के 24 परगना क्षेत्र से दिल्ली आया था. अपने घर से दिल्ली आने और नशाखोरी, ब्लेडबाजी और चोरियों में शामिल एक आपराधिक गिरोह का हिस्सा बनने तक की यात्रा के बारे में वह कहता है ,”हम अपने मामा के संग गांव से पढ़ने दिल्ली आए थे. लेकिन मामा ने पंचर बनाने की दुकान पर लगवा दिया. कुछ दिन वहां काम किया फिर दिल नहीं लगा तो भाग के स्टेशन आ गया. फिर यहां दूसरे लड़के मिल गए और मैं यहीं रहने लगा. हम फेरी मारकर और चोरी करके अपना काम निकालते और पैसा मिलते ही नशा खरीदते. फिर यहां से मैं बटरफ्लाई (स्टेशन पर रहने वाले बच्चों पर काम करने वाली एक सामाजिक संस्था) गया. वहां कुछ दिन रहा लेकिन अच्छा नहीं लगा तो वापस भाग कर स्टेशन आ गया.’
अपने आपराधिक गिरोहों के बारे में बताते हुए वह आगे जोड़ता हैं, ‘दीदी, स्टेशन पर हम किसी का पर्स मार लेते हैं, सामान छीन कर भाग जाते हैं और कभी-कभी मोबाइल, गहने या छोटी गाडि़यां भी चुराते हैं. बाकी लड़के इस पैसे से नशा करते हैं. मैं तो सिर्फ फ्लूइड पीता हूं, बाकी सब मैंने छोड़ दिया.’
‘छोटे-छोटे बच्चे दिल्ली के संभ्रांत इलाकों में होने वाली शादियों में तैयार होकर पहुंच जाते हैं और मौका मिलते ही लाखों के जेवर लेकर फरार हो जाते हैं’
शादाब आगे बताता है कि स्टेशन पर मौजूद आपराधिक गिरोह बच्चों का यौन शोषण भी करते हैं. ‘यहां पर बड़े लड़के, जो पहले से स्टेशन पर रहते हैं वो छोटी लड़कियों और लड़कों के साथ भी गलत काम करते हैं. कई बार पीछे आखिर में खड़ी ट्रेनों के खाली डब्बों में बने टॉयलेट्स में ले जाकर ये लड़के छोटे बच्चों के साथ गलत काम करते हैं. कई बार तो गुम होकर स्टेशन पर भटक जाने वाले छोटे-छोटे लड़कों के साथ पहले ही दिन बड़े लड़के गलत काम करते हैं. फिर वे छोटे बच्चे उन्ही लड़कों की गैंग में शामिल हो जाते हैं. स्टेशन पर लड़कों के गैंग बंटे होते हैं न. हर गैंग का चोरी करने और बोतल बीनने का एरिया अलग होता है और नए बच्चों को किसी न किसी गैंग का हिस्सा तो बनना ही पड़ता है वर्ना वो यहां नहीं रह सकता.’ फिर अपने दोस्तों के साथ स्टेशन वापस जाने की जल्दी में हमसे विदा लेते हुए शादाब सिर्फ इतना कहता है, ‘मेरे घरवालों ने इतने सालों मेरे कोई पूछ-परख नहीं ली. तो अब स्टेशन पर ही अच्छा लगने लगा है. यहीं रहता हूं और सोचता हूं शायद यहीं रह जाऊंगा.’
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर छह और सात के आखिरी छोर से लगभग 50 मीटर की दूरी पर लोहे की एक जालीनुमा दीवार के दूसरी तरफ स्टेशन पर रहने वाले लगभग 10 बच्चों से हमारी मुलाकात होती है. फरीदाबाद, लखनऊ, पश्चिम बंगाल, मुजफ्फरनगर से लेकर बिहार के मोतिहारी और दरभंगा जिले से दिल्ली आए ये बच्चे 12 से 17 साल की उम्र के हैं. इनमें से ज्यादातर गरीबी, भुखमरी और परिवारवालों की पिटाई के चलते अपने-अपने घरों से भाग कर दिल्ली आए थे. कुछ को उनके रिश्तेदार बहला-फुसला कर मजदूरी करवाने दिल्ली लाए थे तो कुछ अपने ही परिचितों के हाथों बेचे गए थे. मजदूरी करवाने वाले दुकानदारों और अपनी गिरफ्त में रखने वाले तस्करों के चंगुल से भागकर जब बच्चे स्टेशन पहुंचते तो यहां पहले से मौजूद आपराधिक गिरोह उन्हें अपने अपराध के दलदल में धकेल देते.
तहलका से विस्तृत बातचीत के दौरान 14 वर्षीय किशन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मौजूद आपराधिक गिरोहों के बारे में जानकारी देते हुए कहता है, ‘दीदी, छुटुआ के जाने के बाद यहां रंजीत और सोनू बिहारी के गिरोह काम करते हैं. यही लोग नए और छोटे बच्चों को चोरी-चकारी सिखाते हैं. चलती ट्रेन पर चढ़ना, सामान उड़ाना और फिर बड़ी चोरियां करना भी. सोनू बिहारी वाले बड़े बच्चों का गिरोह शीलापुल के नीचे रहता है और उसके पीछे वाले एरिया में ही चोरी करता है. जबकि दूसरा ग्रुप 13-14 और 6-7 नंबर पर रहकर काम करता है.’ लगभग दो घंटे की बातचीत के बाद बच्चे धीरे से शादाब की तरह ही हमें यह भी बताते हैं कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रहने वाले बड़े उम्र के बच्चे छोटे बच्चों का शारीरिक शोषण भी करते हैं. 11 साल का धीरज और 16 वर्षीय जतिन बताते हैं, ‘यहां बच्चों के साथ बहुत गलत काम भी होता है. बड़े बच्चे छोटे बच्चों के साथ करते हैं. लड़के और लड़कियों दोनों के साथ. वहीं उन्हें अपने साथ रखते हैं. उन्हें बोतल बीनना और चोरी करना सिखाते हैं, उनसे भीख भी मंगवाते हैं और उनकी कमाई भी रख लेते हैं. अभी भी स्टेशन पर जो मेंटल नाम का आदमी रहता है, वह अपने साथ रहने वाले दो छोटे लड़कों के साथ रोज गलत काम करता है.’
बेपटरी जिंदगीः रेलवे स्टेेशनों पर बच्चों के अलग-अलग गैंग होते हैं
अगर निजामुद्दीन स्टेशन की बात करें तो स्टेशन पर लंबे समय तक रहने के बाद अभी एक सामाजिक संस्था से जुड़े अंकित के शब्दों में, ‘यहां एक गैंग सूर्या और उसके लड़कों का है जो स्टेशन के पीछे बनी पानी की टंकी के पास रहता है. उसके गिरोह में लगभग 20 लड़के हैं. वो बच्चों को बोतल बीनने के साथ-साथ लोहा, कबाड़ी और यात्रियों के सामान चोरी करना भी सिखाता है. जो नए बच्चे जरा भी समझदार या तेज होते हैं, उन्हें वह अपने साथ ही रखता है. दूसरा गिरोह गोलू और अनिल का है. ये लोग सराय काले खां से सटे प्लेटफार्मों के आखिरी छोर पर रहते हैं. अनिल और गोलू के लड़के 7, 8 और 5 नंबर प्लेटफार्म के साथ-साथ सराय काले खां की बस्ती में सक्रिय रहते हैं जबकि 4, 3, 2 और 1 नंबर सूर्या का इलाका है. इसके साथ ही सूर्या का गैंग दरगाह और टैक्सी स्टैंड के पूरे क्षेत्र में भी सक्रिय रहता है. साथ ही इन बच्चों के लिए यहां सराय काले खां के पीछे बने बाजार में छोटी-छोटी चाय की दुकानें हैं. रेलवे पुलिस को भी सब पता है लेकिन कोई कुछ नहीं करता.’
‘मुफ्त में नशा बांटकर बच्चों को अपने गिरोह में शामिल करने वाले अपराधियों के लिए सड़कों पर रहने वाले बेघर बच्चों को निशाना बनाना बेहद आसान होता है’
दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रहने वाले बच्चों के साथ लंबे समय से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संजय गुप्ता राजधानी के स्टेशनों पर सक्रिय बच्चों के गिरोहों को स्टेशन के जीवन का अभिन्न हिस्सा बताते हुए कहते हैं, ‘बच्चे अक्सर रेलवे स्टेशनों पर इसलिए रुक जाते हैं क्योंकि यह शहर का सबसे जीवंत स्थान होता है जहां बच्चों को पीने का पानी, सोने की जगह और बचा-खुचा खाना मिल जाता है. लेकिन जाहिर है, यहां भी जो सबसे शक्तिशाली है वही जीवित रह सकता है. ऐसे में छोटे और नए बच्चे यहां पहले से सक्रिय गिरोहों को अपने सुरक्षा तंत्र के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. आप इन स्टेशनों पर वहां पहले से स्थापित और सक्रिय गिरोहों को नकार कर रह ही नहीं सकते. इसलिए छोटे बच्चे वयस्कों के इन आपराधिक गिरोहों में शामिल हो जाते हैं. फिर यहीं उन्हें चोरी करना, बोतल बीनना, ब्लेडबाजी करना और नशा करना सिखाया जाता है. इन गिरोहों में छोटे लड़कों का बहुत व्यापक स्तर पर शारीरिक शोषण होता है. बड़े लड़के छोटे लड़के-लड़कियों का लगातार शारीरिक शोषण करते हैं, उन्हें खाना और नशा भी देते हैं, अपने साथ रखते हैं और पुलिस से भी बचाते हैं. जब वो बड़े हो जाते हैं तो वो भी नए बच्चों के साथ वही सब कुछ दोहराते हैं जो उनके साथ हुआ था.’
स्टेशन पर रहने वाले सैकड़ों मासूम बच्चों का बचपन इन आपराधिक गिरोहों के कभी न खत्म होने वाले दुश्चक्र में तो खत्म होता ही है कभी-कभी तेज रफ्तार ट्रेनों से कटकर भी खत्म हो जाता है. 11 अप्रैल, 2011 को 10 वर्षीय पेटू पटरियों पर बोतलें बीनते-बीनते अचानक एक ट्रेन के नीचे आ गया था. स्टेशन पर रहने वाले बच्चों के योजनाबद्ध पुनर्वास के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करने वाली समाजशास्त्री खुशबू जैन बच्चों के साथ जारी सख्त पुलिसिया रवैये को खारिज करते हुए कहती हैं, ‘इस मामले को जब भी उठाया जाता है पुलिस तुरंत अपनी ताकत का इस्तेमाल करके बच्चों को स्टेशनों से मारकर भगा देती है. यह तरीका बिल्कुल गलत है क्योंकि पहले तो बच्चों के साथ किसी भी तरह की हिंसक जोर-जबरदस्ती कानून के खिलाफ है. दूसरी बात बच्चों को स्टेशनों से भगाना कोई समाधान नहीं है क्योंकि वे कुछ दिनों बाद यहां वापस आ जाते हैं. उनको धीरे-धीरे स्टेशनों के आस-पास ही पुनर्वासित करना होगा. उन्हें आसपास ही रोज़गार और शिक्षा के विकल्प देकर धीरे-धीरे मुख्यधारा में लाना होगा.’
कड़िया सांसी गैंग
मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले से दिल्ली, मथुरा और आगरा जैसे उत्तर भारतीय शहरों में छोटे बच्चों को चोरियां करने के लिए भेजने वाला एक अंतरराज्जीय आपराधिक गिरोह सक्रिय है. राजगढ़ के नरसिंहगढ़ ब्लाक की कड़िया चौरसिया ग्राम पंचायत का एक गांव है कड़िया सांसी. इस गांव के कई बच्चे दिल्ली के संभ्रांत इलाकों में होने वाली शादियों और अन्य पारिवारिक समारोहों में चोरियां करते पाए गए हैं. नवंबर, 2012 में यहीं के दो बच्चे अशोक और वरुण दिल्ली में एक निजी समारोह में चोरी करने के बाद पकड़े गए थे. फरवरी, 2013 में कड़िया सांसी के नजदीकी गांव जतखेरी के दो बच्चों-सावन और फूलन–को भी पुलिस ने पकड़ा था. ये बच्चे राजधानी के केशवपुरम इलाके में चल रहे एक विवाह समारोह से लगभग 50 लाख रुपये के गहने और नकदी चुराते पकड़े गए थे. इन बच्चों से संबंधित दस्तावेज तहलका के पास मौजूद हैं.
सात जुलाई, 2012 को परमजीत सिंह दिल्ली के लारेंस रोड स्थित सेवन बैंक्वेट हाल में अपनी बेटी का जन्मदिन मना रहे थे. रात के लगभग 12 बजे केक कटने के बाद सोने के जेवरों और तोहफों से भरा एक बैग वहां से गायब हो गया. पार्टी के दौरान खींची गई तस्वीरों की मदद से शुरुआती तहकीकात के बाद केशवपुरम पुलिस ने वरुण और अशोक को उनकी मां के साथ पकड़ लिया. कड़िया सांसी गांव के मकान नंबर 81 में रहने वाले इन बच्चों ने पूछताछ के दौरान बताया कि समारोह के दौरान उन्होंने तोहफों के बैग के पास बैठी एक महिला की साड़ी पर चटनी गिरा दी. जैसे ही वह महिला अपनी साड़ी साफ करने में व्यस्त हुई, बच्चे बैग लेकर वहां से चंपत हो गए. बच्चों को सुधार गृह भेजने के निर्देश देते हुए दिल्ली गेट स्थित बाल न्यायालय की प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट गीतांजली गोयल का कहना था, ‘…परिवारवालों की मदद से चोरियां करने वाले छोटे बच्चों से जुड़े कई मामले सामने आ रहे हैं. ज्यादातर घटनाओं में बच्चे मध्य प्रदेश के राजगढ़ या खंडवा जिले से हैं. सभी मामलों में बच्चे अपनी मांओं के साथ दिल्ली कपड़े बेचने आते हैं और बाद में बड़े समारोहों में चोरियां करते हुए पकड़े जाते हैं.’
इस अंतरराज्यीय नेटवर्क पर काम कर रही सामाजिक संस्था हक से जुड़े शाबाज खान बताते हैं, ‘इन गांवों की सारी आबादी कंजर बंजारों की है. इनके छोटे-छोटे बच्चे दिल्ली के संभ्रांत इलाकों में होने वाली शादियों में तैयार होकर पहुंच जाते हैं और मौका मिलते ही लाखों के जेवर लेकर फरार हो जाते हैं. आम तौर पर शादियों में दुल्हन या कुछ खास लोगों के कमरों में काफी सामान रखा रहता है जिसे ये बच्चे आसानी से चुरा लेते हैं. बाहर इन्हें ले जाने या भगाने के पूरे इंतजाम होते हैं. पकड़े जाने पर ये सिर्फ यही कहते हैं कि ये तो खाना खाने के लिए शादी में आ गए थे. ये बच्चे कभी भी अपने माता-पिता या घर का पता नहीं बताते और इन्हें लेने भी हमेशा इनके मामा, चाची, मौसी या कोई दूसरा रिश्तेदार ही आता है.’
‘सांसियों का यह गिरोह पुश्तैनी तौर पर अपने ही परिवार के बच्चों को अपराध में धकेलता है. ये लोग बहुत छोटी उम्र से ही अपने बच्चों को चोरियां करने का प्रशिक्षण देने लगते हैं’ सांसी समुदाय के बारे में बताते हुए राजगढ़ जिले की पुलिस अधीक्षक रुचि वर्धन मिश्रा कहती हैं, ‘हम लोग इस विषय पर पिछले दो सालों से काम कर रहे हैं और कई कैंप लगवाने के बाद भी आज तक सांसियों को पुनर्वासित नहीं कर पाए हैं. क्योंकि ये लोग अपनी आसान कमाई के रास्ते को नहीं छोड़ना चाहते. एक शादी में की गई चोरी ही इन्हें कई महीनों के लिए भरपूर पैसा दे देती है. मेरे पास दिल्ली, आगरा और मथुरा के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों से भी शिकायत के फोन आते हैं. लेकिन जब माता-पिता ही बच्चों को सुनियोजित चोरियों में धकेल रहे हों तो उन्हें बचाना बहुत मुश्किल हो जाता है. हमारे पास जिस भी राज्य से फोन आता है, हम संबंधित बाल सुधार गृहों या स्पेशल होम वालों को इस बात के सख्त निर्देश दे देते हैं कि वे किसी भी कीमत पर बच्चों को उनके परिवारएवालों को न सौंपें वर्ना वो बहुत जल्दी किसी दूसरी शादी में चोरी करते नजर आएंगे.’
ड्रग पैडलर्स गैंग
नशा बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेलने का सबसे आसान तरीका रहा है. अपनी तहकीकात के दौरान तहलका की टीम ऐसे दर्जनों बच्चों से मिली जो नशे के लिए चोरी और डकैती से लेकर हत्या तक की कोशिशों को अंजाम दे चुके हैं. हम इस दौरान 17 वर्षीय सौरभ से मिले जो अभी एक नशा मुक्ति केंद्र में है. सौरभ एक आपराधिक गिरोह और नशे के चंगुल में फंसकर पैसे और नशे के लिए हिंसा की हर सीमा लांघ जाता था. 16 वर्षीय शाहबाज नशे में और नशे के लिए अपने और दूसरों के घरों में चोरियां करता था.
दिल्ली के तमाम इलाके ऐसे अपराधियों से पटे पड़े हैं जो पहले तो मुफ्त का नशा मुहैया कराते हैं और फिर बच्चों को इसकी लत लगवाकर उसी नशे के लिए उनसे अपराध करवाते हैं. एक बार नशे की लत लग जाने के बाद ये बच्चे नशे की खुराक के लिए खुद ही चोरियां करना शुरू कर देते हैं. इसके बाद इनमें से कई बच्चे खुद भी नशा बेचने वाले नेटवर्क में शामिल होकर वही सब करने लग जाते हैं जो उनके साथ किया गया था. सड़कों, चौराहों और स्टेशनों पर रहने वाले बेघर बच्चों के साथ-साथ नशे के व्यवसाय में शामिल आपराधिक गिरोहों ने कई सामान्य परिवारों के स्कूल जाने वाले बच्चों की भी जिंदगियां चौपट की हैं.
राजधानी के किशनगढ़ इलाके में स्थित एक नशा मुक्ति केंद्र में हमारी मुलाकात सौरभ से होती है. सौरभ उन बच्चों में से नहीं है जो गरीबी, भुखमरी और पारिवारिक समस्याओं के चलते नशे के दुश्चक्र में फंस जाते हैं. वह माता-पिता के साथ जहांगीरपुरी के अपने छोटे-से घर में रहता था और रोज स्कूल भी जाता था. लेकिन उसके मोहल्ले में ड्रग्स का धंधा करने वाले अपराधियों ने उसे चोरी, डकैती और हिंसा के दलदल में धकेल दिया. तहलका से बातचीत में वह बताता है, ‘मुझे सबसे पहले नशा मेरे स्कूल के ही लड़कों ने दिया था. पहले हम लोग गुटका और सिगरेट ही लेते थे. फिर उन्होंने मुझे स्मैक दिया. कुछ ही दिनों में मुझे इतनी आदत हो गई कि मैं सबसे ज्यादा स्मैक लेने लगा. फिर धीरे-धीरे उस गिरोह तक पहुंच गया जो हमारे एरिया में स्मैक बंटवाता था. पहले तो उन्होंने फ्री में दिया बाद में घर से पैसे चोरी करके नशा खरीदना पड़ा. फिर जब घर में सबको पता चल गया तो मैंने घर ही छोड़ दिया और बाहर चोरियां करने लगा.’ वह आगे कहता है, ‘मैं उन्हें चोरियां करके सामान देता और वे मुझे नशा देते. फिर धीरे-धीरे मैंने इंजेक्शन लेना भी शुरू कर दिया. नशे के लिए मैं इतना पागल हो जाता था कि कई बार फ्लाई-ओवर पर गाड़ियों को रोककर उनका सामान चुरा लेता. कई बार मैंने लोगों को फ्लाई-ओवर से नीचे भी फेंका है. मैं नशे के लिए कुछ भी कर सकता था.’
‘कई बार गुम होने वाले छोटे-छोटे लड़कों के साथ पहले ही दिन बड़े लड़के गलत काम करते हैं. फिर वे बच्चे उन्हीं लड़कों की गैंग में शामिल हो जाते हैं’
सौरभ की ही तरह मध्यवर्गीय परिवारों के स्कूल जाने वाले विनय और योगेंद्र भी अपने मोहल्लों में मौजूद स्थानीय गिरोहों के संपर्क में आकर चोरियां और मारपीट करने लगे थे. ‘मैं सुबह उठता था और नशा ढ़ूंढ़ने लगता था. अगर स्मैक या सुई नहीं होती तो कहीं से भी पैसे का जुगाड़ करके अपने गिरोह के लड़कों के पास जाता और खरीदता. मुझे हर रोज़ 400-400 रुपये की तीन खुराकें चाहिए होती थीं. यानी एक दिन में कुल 1200 रुपये का नशा. हमारे मोहल्ले में लड़कों का एक गिरोह था जो नशा करता और बेचता भी था. शुरू में उन्होंने मुझे मुफ्त में नशा दिया फिर बाद में मुझसे अपने फायदे के लिए चोरियां करवाने लगे. इसके बाद मैंने उनका साथ छोड़ दिया और खुद ही चोरी करके नशा खरीदने लगा. मैंने नशे के लिए अपने घर का गैस का सिलेंडर तक बेच दिया था जिसके बाद मेरे घरवालों ने मुझे घर से निकाल दिया. मैं सड़क पर रहकर ही चोरियां करता और नशा खरीदता.’
मुफ्त में नशा बांटकर छोटे बच्चों को अपने आपराधिक गिरोहों में शामिल करने वाले अपराधी गिरोहों के लिए सड़कों पर रहने वाले बेघर बच्चों को अपना निशाना बनाना बेहद आसान होता है. राजधानी के चांदनी चौक मेट्रो स्टेशन के पीछे हमारी मुलाकात नशे के इस गोरखधंधे में फंसे लगभग दर्जन भर बच्चों से होती है. चांदनी चौक के मुख्य बाजारों की सड़कों पर रहने वाले ये बच्चे तहलका को नशे के इस व्यापार की बारीकियां तफसील से बताते हैं. 15 वर्षीय असलम पिछले चार साल से लगातार नशा करने की वजह से 12 साल के एक कमजोर और कुपोषित बच्चे की तरह दिखाई देता है. अपनी नशे की आदतों और इलाके में नशे के व्यवसाय के बारे में बताते हुए कहता है, ‘मैं एक दिन में लगभग 20 फ्लूइड पी जाता हूं. यहां पर रहने वाले सारे बच्चे नशा करते हैं, लड़के-लड़कियां सब. नशा हमें सड़कों पर ही रहने वाले बड़े लड़कों ने दिया था. पहले तो ऐसे ही, बिना पैसे के दे देते थे. फिर हमें नशे के लिए चोरियां करनी पड़ती थी. कभी-कभी हम पुराना सामान बेच कर भी पैसे इकठ्ठा करते और फिर अपने यहां के गैंग वाले लड़कों से नशा मांगते. यमुना मार्केट के पेटी बाजार से, निजामुद्दीन की दरगाह से और लाल किले के पीछे वाले मीना बाज़ार से भी आसानी से नशा मिल जाता है. वहां लड़के होते हैं हमारी पहचान के.’
नशे की लत लगवाकर बच्चों को अपराध में घसीट रहे इन आपराधिक गिरोहों और नशे की लत से जूझ रहे बच्चों के साथ लंबे समय से काम कर रहे सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ यूथ एंड मासेस के निदेशक डॉ राजेश कुमार इन गिरोहों को सरकारी व्यवस्था के पूरी तरह असफल होने का नतीजा बताते हुए कहते हैं, ‘अगर 14 साल से कम उम्र के इतने सारे बच्चे सड़कों पर नशा कर रहे हैं तो इससे साफ समझ में आता है कि हमारा शिक्षा के अधिकार से जुड़ा कानून कितनी बुरी तरह असफल है. हम इतनी कोशिश करते हैं, लेकिन स्कूल इन बच्चों को लेना ही नहीं चाहते. कोई सड़कों पर नशे में धुत बच्चों के लिए कुछ नहीं करना चाहता और देखते ही देखते वे कब बड़े अपराधी बन जाते हैं, उन्हें भी पता नहीं चलता. जब तक हम उन्हें मुख्यधारा से नहीं जोड़ेंगे तब तक कुछ भी नहीं बदलेगा. और कोई भी उन्हें मुख्यधारा में नहीं देखना चाहता. प्रशासन, पुलिस और सरकार सबको यही अच्छा लगता है कि सड़क के बच्चे सड़कों पर ही रहें.’
दिल्ली की बाल कल्याण समिति के पूर्व अध्यक्ष राज मंगल प्रसाद का मानना है कि अगर हम अपराध की दुनिया का हिस्सा बन चुके या बनने जा रहे बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं तो किशोरों के इन गिरोहों के अस्तित्व को स्वीकारने से ही हमें शुरुआत करनी होगी. वे कहते हैं, ‘दिक्कत यह है कि पुलिस यह मानती ही नहीं कि वयस्क अपराधी बच्चों को बहला-फुसला कर उन्हें अपराध की दुनिया में धकेल रहे हैं . इस प्रक्रिया में बच्चों के कुछ नए गिरोह पनप रहे हैं और राजधानी में सक्रिय हैं. अपने कार्यकाल के दौरान मुझे तो यहां तक पता चला कि खुद माता-पिता भी अपने बच्चों को चोरी-डकैती जैसे अपराधों में धकेल रहे हैं. अपराध के दंगल में फंस रहे इन सैकड़ों बच्चों के जीवन को बचाने के लिए ज़रूरी है कि सबसे पहले पुलिस इन्हें सड़क पर घूम रहे बच्चों के बजाय आपराधिक गिरोहों में फंसे बच्चों के तौर पर स्वीकार करे और इनका जीवन बर्बाद कर रहे वयस्कों को पकड़े.’
किशोरों के लिए बनाई गई दिल्ली पुलिस की विशेष इकाई का लंबे समय तक नेतृत्व करने वाले राजधानी के वर्तमान विशेष आयुक्त सुधीर यादव से बात करने पर राज मंगल प्रसाद की बात सही लगने लगती है. वे बच्चों के ऐसे आपराधिक गिरोहों के संगठित अस्तित्व को नकारते हुए से कहते हैं, ‘यह बात सही है कि बच्चों के ऐसे कुछ गिरोह सक्रिय हैं, लेकिन इस अवस्था में उन्हें संगठित नहीं कहा जा सकता. इनकी गतिविधियां छिटपुट और बिखरी हुई हैं. क्षेत्र में पहले से सक्रिय वयस्क अपराधी इन बच्चों को सिर्फ अपने प्यादों की तरह इस्तेमाल करते हैं. उन्हें भी यह मालूम होता है कि अगर ये बच्चे पकड़े भी गए तो भी किशोर न्याय अधिनियम की वजह से आसानी से छूट जाएंगे. इसलिए वयस्क गिरोह और कई मामलों में तो माता-पिता भी बच्चों को अपराधों में धकेल देते हैं. दिल्ली हाई कोर्ट ने भी बच्चों के इस बढ़ते अपराधीकरण को संज्ञान में लेते हुए निर्देश जारी किए थे और हमने भी इस दिशा में प्रयास करना शुरू कर दिया है. हम ‘युवा’ नामक योजना के तहत ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों को बचाने और उनके पुनर्वास के लिए विशेष प्रयास कर रहे हैं.’
दिल्ली सरकार के महिला और बाल विकास विभाग के सहायक निदेशक पी खाखा कहते हैं, ‘यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोर्ट के सख्त निर्देशों के बाद भी पुलिस इस मामले में गंभीर नहीं है और ऐसे मामलों की गहन पड़ताल कर बच्चों को अपराध में धकेल रहे वयस्क अपराधियों की धर-पकड़ पर ध्यान नहीं दे रही है. जब तक हम बच्चों के खो जाने की स्थिति में उन्हें शुरुआती 24 घंटे में ही बरामद कर सुरक्षित होम में नहीं डालेंगे, दूसरे राज्यों से आने वाले बच्चों का सही-सही आंकड़ा इकठ्ठा कर प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों का पुर्नवास नहीं करेंगे तब तक शहरों में पहले से मौजूद अपराधी उन्हें ऐसे ही अपना निशाना बनाते रहेंगे और इस तरह खुद हिंसा और शोषण के शिकार इन बच्चों के नए आपराधिक गिरोह पनपते रहेंगे.’
सोनभद्र को देखकर पहली नजर में ही लगता है मानो यहां कोई लूट मची हो. वाराणसी-शक्तिनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर ट्रकों का तांता कभी नहीं टूटता. मन में सवाल उठता है कि आखिर सोनभद्र में यह आपाधापी मची क्यों है? जवाब सीधा है. सोनभद्र का वरदान ही उसका अभिशाप बन गया है. यहां असीमित मात्रा में कोयला था, पानी था, बॉक्साइट था. जैसे ही इन संसाधनों की हवा दुनिया को लगी यही खजाना पूरे इलाके के जंगल, जमीन, जानवर और जनजीवन के लिए विनाश का सबब बन गया.
1970 के आस-पास इलाके में काले सोने की प्रचुर मात्रा की भनक लगते ही सोनभद्र में रिहंद बांध के बाद रुक चुके विस्थापन ने एक बार फिर से गति पकड़ ली. उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (यूपीआरवीयूएनएल), एनटीपीसी, हिंडाल्को की रेणुसागर ऊर्जा परियोजना, लैंको अनपरा पॉवर प्राइवेट लिमिटेड समेत तमाम छोटी-बड़ी कंपनियों ने यहां कोयले से बनने वाली तापीय ऊर्जा इकाइयां स्थापित करनी शुरू कीं. इसी के साथ विस्थापन के मानकों की अनदेखी, पुनर्वास में हीला-हवाली और पर्यावरण की धज्जियां उड़ाने का एक ऐसा कुचक्र भी शुरू हुआ जिसका अंत निकट भविष्य में तो दिखाई नहीं देता.
भारत सरकार के एक आकलन के मुताबिक सोनभद्र और इससे सटे मध्य प्रदेश के सिंगरौली इलाके में चल रहे, निर्माणाधीन और प्रस्तावित 20 से भी ज्यादा तापीय ऊर्जा संयंत्रों के लिए यहां अगले 100 वर्षों तक के लिए पर्याप्त मात्रा में कोयला मौजूद है. यही वजह है कि इस साल के अंत तक लैंको की अनपरा इकाई उत्पादन शुरू कर देगी, यूपीआरवीयूएनएल के तहत आने वाले अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन (एटीपीएस) की ‘डी’ इकाई निर्माणाधीन है, ‘ई’ के लिए सरकार ने हरी झंडी दे दी है. सिंगरौली में भी अगले कुछ सालों में रिलायंस, एस्सार और जेपी समेत कई निजी कंपनियों के ऊर्जा संयंत्र अस्तित्व में आ जाएंगे.
इसका खामियाजा यहां का आम आदमी उठा रहा है. वह आम आदमी जिसके घरों और खेतों पर ये परियोजनाएं खड़ी हैं या खड़ी होने वाली हैं. विस्थापन दर विस्थापन झेल रहे इन लोगों की चिंता न तो सरकारों को है और न ही यहां की हवा, पानी में जहर घोल रही कंपनियों को. अगर ये लोग इसके खिलाफ विरोध का मोर्चा बुलंद करते हैं तो इन्हें सरकारी दमन झेलना पड़ता है. एटीपीएस की निर्माणाधीन ‘डी’ इकाई के पास 17 मार्च से अनशन कर रहे विस्थापितों से अब तक किसी अधिकारी ने बात तक नहीं की है. यहां हमारी बड़ी संख्या में ऐसे अदिवासी और दलितों से मुलाकात होती है जिन्हें फर्जी या फिर छोटे-मोटे मामलों (मसलन जंगल से लकड़ी बीनना) में गंभीर धाराएं लगाकर फंसा दिया गया है. परशुराम, नौघाई, बिरजू बैगा, रामदुलारे, देवकुमार, पूरन समेत ऐसे तमाम लोग हैं जो गुंडा एक्ट जैसी संगीन धाराओं में फंसे कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं. धरना-स्थल पर मौजूद रामबली जो खुद भी ऐसे ही एक मामले में आरोपित हैं, बेहद गुस्से में कहते हैं, ‘जमाने से हम लोग इन्हीं जंगलों से अपना गुजारा चला रहे थे. आज एक दातून तोड़ लेने पर भी हमारे ऊपर गुंडा एक्ट लगा दिया जाता है. सरकार इलाके के नक्सलियों के पुनर्वास पर तो करोड़ों रुपया खर्च कर रही है और हमें नक्सली बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है.’ 22 वर्षीय अरविंद गुप्ता का मामला इसकी एक मिसाल है. एटीपीएस में मजदूरी करने वाले अरविंद 27 जून, 2008 को अपनी ड्यूटी पर गए थे. शाम को लौटे तो पुलिस ने उन्हें यह कहते हुए गिरफ्तार कर लिया कि एटीपीएस के ठेकेदारों और अनपरा डिबुलगंज के ग्रामीणों के बीच हुई मारपीट की एक घटना में वे भी शामिल थे. अरविंद पर अब कई गैर जमानती धाराओं के तहत मामला चल रहा है.
विस्थापन
सोनभद्र में विस्थापन की शुरुआत 1958 में रेणु नदी पर प्रस्तावित रिहंद बांध के चलते शुरू हुई. उस परियोजना में कुल 116 गांवों को रिहंद के डूब क्षेत्र में घोषित किया गया था. इसके बाद देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों में वर्णित रहस्य, तिलिस्म और तंत्रमंत्र वाले इस इलाके में विस्थापन की जो काली छाया पड़ी वह आज तक लोगों की जिंदगी को नर्क बनाए हुए है. रिहंद बांध की स्थापना के वक्त देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विकास के नाम पर लोगों से बलिदान की अपील की थी. उस समय सभी किसानों की जमीन का लगान एक रुपया सालाना मानकर उन्हें तीस गुना मुआवजा यानी 30 रुपए दिए गए साथ ही हर परिवार को सोन के ऊपरी जंगलों में 10 बीघा तक जंगल काटकर खेती करने की छूट भी दी गई.
यहां विस्थापन का एक सच यह भी है कि जिस भूमि पर विस्थापितों को बसाया जाता है उसका मालिकाना हक संबंधित कंपनी के पास ही रहता है
लोग नई जगहों पर अपनी जड़ें जमा ही रहे थे कि 70 के दशक में यहां तापीय ऊर्जा कंपनियों ने दस्तक दी. 1975 में एनटीपीसी ने शक्तिनगर में 2,000 मेगावॉट का संयंत्र लगाना शुरू किया. 1980 आते-आते यूपीआरवीयूएनएल ने अनपरा में 1,630 मेगावाॅट की योजना शुरू कर दी जिसके तहत इलाके में कई चरणों में ऊर्जा संयंत्र लगने थे. इसके बाद तो परियोजनाओं का जैसे तांता-सा लग गया.
एक तरफ परियोजनाएं स्थापित हो रही हैं और दूसरी तरफ स्थानीय लोग बार-बार अपनी जड़ों से उखड़ रहे हैं. और ऐसा भी नहीं कि उन्हें इस विस्थापन का कोई अतिरिक्त फायदा पहुंच रहा हो. ज्यादातर लोगों का न तो ठीक से पुनर्वास हो रहा है न ही उन्हें नौकरियों में मौका दिया जा रहा है. बेलवादाह, ममुआर, निमियाडाढ़, पिपरी, चिल्काडाढ़, औड़ी आदि पुनर्वास बस्तियों में कोई भी परिवार ऐसा नहीं है जिसने कम से कम दो बार विस्थापन की त्रासदी न झेली हो. रिहंद से विस्थापित होकर कोटा, अनपरा में जमने की कोशिश कर रहे लोगों को एनटीपीसी और यूपीआरवीयूएनएल ने फिर से विस्थापित किया तो ये लोग अनपरा, चिल्काडाढ़ जैसे इलाकों में बस गए. इन इलाकों में बसीं बस्तियां हिटलर के यातना शिविरों की तरह एक सीधी रेखा में बसी हैं जहां जनसुविधाएं तो दूर तमाम मूलभूत तकनीकी पहलुओं की भी घोर उपेक्षा नजर आती है.
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‘हमको न तो जमीन मिली है न पैसा’
बेलवादाह गांव के आदिवासी भोला बैगा ने तीस साल पहले एक रात अपने गांववालों के साथ छककर महुआ उड़ाई थी. यह 1980 की बात है.
भोला और गांव वालों के पास खुश होने की वजह भी थी. उनका गांव अनपरा तापीय इकाई से विस्थापित होने वालों की सूची में आने से बच गया था. इन लोगों को पहले भी 1960 में रिहंद बांध की वजह से अपने पुश्तैनी गांव बसुला खांड से उखड़ना पड़ा था. लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन नहीं रह सकी. एटीपीएस ने जल्दी ही अपने संयंत्र से निकलने वाली राख को फेंकने के लिए बेलवादाह, पिपरी पर उंगली रख दी. अब एक बार फिर से पूरा गांव अनिश्चितता के उसी भंवर में फंस गया था जिसे वह 1960 में झेल चुका था.
भोला के पिताजी और छोटे भाई का हाल ही में देहांत हुआ है. ले देकर पूरे परिवार की जिम्मेदारी अकेले भोला पर आन पड़ी है. स्वर्गीय भाई की पत्नी और बच्चों समेत उनके परिवार में कुल 12 सदस्य हैं. भोला को उम्मीद थी कि किसी तरह से शायद विस्थापन टल जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ले देकर इनकी उम्मीदें एटीपीएस केउन वादों पर टिक गईं जिनमें लोगों के घरों और खेती की जमीनों के बदले में एक लाख रुपए और प्लॉट देने का वादा किया गया था. भोला उन ज्यादातर बदकिस्मत लोगों में से हैं जिन्हें न तो प्लॉट मिला और न ही मुआवजा. बेलवादाह, पिपरी और आसपास के कुछ और गांव जो एटीपीएसके राख के अथाह सागर में दब जाने वाले थे उनमें से अधिकतर आज तक इसके बदले में मिलने वाले मुआवजे से वंचित हैं.
1985-86 में एटीपीएस ने 423 लोगों को प्लॉट के लिए चिह्नित किया था. लगभग 25 साल बीतने के बाद प्लाट पाने वाले खुशकिस्मत लोगों की संख्या महज 83 है. हां, सिर्फ 9 या 10 परिवार ही अपने घर-जमीन के एवज में एक लाख की राशि पाने से वंचित रह गए हैं. [/box]
डिबुलगंज विस्थापन बस्ती को ही लें. यहां घुसते ही नाक सड़ांध से भर उठती है. बस्ती और अनपरा पॉवर प्लांट के बीच में सिर्फ एक चहारदीवारी है. मानकों के मुताबिक कोई भी रिहाइशी क्षेत्र संयंत्र से कम से कम दो किलोमीटर दूर होना चाहिए. खुद अनपरा पावर की अपनी रिहाइशी कॉलोनी संयंत्र से दो किलोमीटर दूर स्थित है. यह एहतियात इसलिए ताकि संयंत्र से निकलने वाली भयंकर आवाज और चिमनियों से निकलने वाले धुएं के दुष्प्रभाव से लोगों को दूर रखा जा सके. लेकिन जिन लोगों की जमीनों पर यह परियोजना खड़ी है, लगता है उनके जीवन से कंपनी को कोई वास्ता नहीं है. इसी बस्ती में झारखंड और उड़ीसा से आए 3,000 के करीब दिहाड़ी मजदूर भी दड़बेनुमा कमरों में रहते हैं.
पिपरी, बेलवादाह जैसे गांवों के जो लोग इस विस्थापन से बच गए थे उन्हें एक दूसरी भयानक मुसीबत का सामना करना पड़ा. इन गांवों की जमीन को अनपरा और लैंको ने अपने संयंत्रों में कोयले के दहन से पैदा होने वाली राख यानी फ्लाइएश को ठिकाने
लगाने के लिए चुन लिया. आज आधे से ज्यादा ऐसे गांव इस राख में डूब चुके हैं. टापू बन चुकीं पहाड़ियों पर जिन लोगों के घर और खेत हैं वे आज भूरे रंग के दलदल में पांव धंसाते हुए उन तक पहुंचते हैं. राख के इस अथाह सागर के किनारे 2-3 फुट गहरे गड्ढे खोदकर लोग पीने के लिए जहरीला पानी निकालते हैं. अनपढ़ आदिवासियों को कोई यह बताने वाला भी नहीं है कि जिस इलाके में 100 फुट की गहराई तक पानी उपलब्ध नहीं है वहां 3-4 फुट के गड्ढे से पानी कैसे आ रहा है?
अनपरा थर्मल पावर स्टेशन (एटीपीएस) ने यहां के पीड़ितों को एक लाख रुपए का नगद मुआवजा और नौ सदस्यों पर एक प्लॉट देने का वादा किया था. लेकिन बेलवादाह के ग्राम प्रधान हरदेव सिंह बताते हैं, ‘शुरुआत में इन्होंने 423 लोगों को प्लॉट देने की घोषणा की थी. इसमें हेराफेरी की गई थी. हम लोगों ने जब विरोध किया तो कंपनी ने 1996 में इसमें 272 और नाम शामिल किए. लेकिन अब तक सिर्फ 84 लोगों को ही प्लॉट मिले हैं.’
एनटीपीसी द्वारा बसाई गई विस्थापन बस्ती चिल्काडाढ़ की हालत और भी बदतर है. इस बस्ती से महज 500 मीटर की दूरी पर एनसीएल की बीना कोयला खदान स्थित है. एनसीएल चिल्काडाढ़ को बसाने का विरोध कर रही थी लेकिन एनटीपीसी ने उनकी एक न सुनते हुए वहां 16 गांवों के करीब 500 परिवारों को बसा दिया. मुसीबत तब शुरू हुई जब एनसीएल ने इस गांव के चारों तरफ अपना ओबी (ओवर बर्डेन यानी कोयला खदानों की ऊपरी परत) डालना शुरू कर दिया. देखते ही देखते गांव के चारों तरफ नकली पहाड़ खड़े हो गए. इनसे चौबीसों घंटे धूल उड़-उड़ कर चिल्काडाढ़ बस्ती पर गिरती रहती है. और बीना कोयला खदान में हर दिन होने वाले विस्फोट से यह पूरा इलाका थर्रा उठता है.
चिल्काडाढ़वासियों पर विस्थापन की तलवार लगातार लटक रही है. एनसीएल का कहना है कि उनकी जमीन के नीचे भारी मात्रा में कोयले और गैस का भंडार है. सोनभद्र और सिंगरौली इलाके में लंबे समय से सृजन लोकहित समिति नाम का एक संगठन चला रहे अवधेश कुमार एक पुरानी घटना याद करते हुए कहते हैं, ‘1986 में एनसीएल के बुलडोजरों ने पूरे गांव को घेर लिया था. एनसीएल किसी भी कीमत पर इस जमीन पर कब्जा करना चाहती थी. उस वक्त गांव के सभी पुरुष फरार हो गए थे. महिलाओं ने आकर मोर्चा संभाल लिया था. वे बुलडोजर के सामने अपने बच्चों के साथ लेट गईं. इस तरह से एक और विस्थापन टल गया था.’ पर सवाल है कब तक?
इस इलाके में पानी का स्रोत रहा रिहंद जलग्रहण क्षेत्र इतना प्रदूषित है कि इसका पानी पीकर बीते तीन-चार महीनों के दौरान करीब 25 बच्चों की मृत्यु हो चुकी है
विस्थापन का एक सच यह भी है कि जिस भूमि पर विस्थापितों को बसाया जाता है उसका मालिकाना हक संबंधित कंपनी के पास ही रहता है. विस्थापितों की बस्ती भी परियोजना की भूमि के दायरे में आती है. लंबे समय से विस्थापितों की लड़ाई लड़ रहे यूपीटीयूवीएन (ऊर्जांचल पंचायत ट्रेड यूनियन एंड वॉलंटरी एक्शन नेटवर्क) के सदस्य जगदीश बैसवार बताते हैं, ‘जमीन पाने वाला विस्थापित न तो कहीं जा सकता है और न ही जमीन बेच सकता है. परियोजना की भूमि होने के नाते इस जमीन के आधार पर कोई बैंक कर्ज भी नहीं देता.’
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‘मीडिया ने मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा’
कैमरा देखते ही कुसमहा गांव के राम भजन भड़क जाते हैं. उनके बच्चे दौड़कर घर में घुस जाते हैं और दरवाजा भीतर से बंद कर लेते हैं. 38 साल के रामभजन चिड़चिड़ाए स्वर में कहते हैं, ‘हर साल टीवी, अखबार वाले आते हैं. बच्चों को तरह-तरह से परेशान करते हैं, उनकी फिल्म बनाते हैं लेकिन आज तक एक कौड़ी भी नहीं मिली है हमको. ऊपर से पूरे इलाके में हमारे परिवार की बदनामी हो गई है. लोग समझते हैं कि हमारे परिवार में यह बीमारी पुश्तैनी है इसलिए कोई भी हमारे लड़के से अपनी बेटी की शादी करने के लिए तैयार नहीं है.’
दरअसल, रामभजन के परिवार पर फ्लोरोसिस नाम की बीमारी की काली छाया पड़ गई है. दांतों और हड्डियों को कमजोर कर अपंग बना देने वाली यह बीमारी पानी में फ्लोराइड की ज्यादा मात्रा के कारण होती है. राम भजन के आठ जनों के परिवार में चार पर इसका प्रकोप है. काफी देर तक मान-मनौव्वल के बाद वे पत्नी के साथ फोटो तो खिंचवा लेते हैं मगर इस शर्त पर कि पत्नी अपने पैर नहीं दिखाएंगी.
सोनभद्र जिले के म्योरपुर और चोपन ब्लॉक के 21 गांवों में फ्लोरोसिस से पैदा हुई विकलांगता अब महामारी की शक्ल अख्तियार करती जा रही है. यहां अपाहिजों की बस्तियां तैयार हो रही हैं. अकेले कुसमहा में इस बीमारी से पीड़ित लोगों की संख्या 12 है. गौरतलब है कि कुसमहा, तुम्मा पाथर, नई बस्ती, रोहनिया दामर आदि उन्हीं इलाकों में आते हैं जहां हिंडाल्को, कनोरिया केमिकल्स और हाईटेक कार्बन जैसी कंपनियां कई सालों से अपना कचरा बहाती रही हैं. स्थानीय चिकित्सक डॉ उदयनाथ गौतम बताते हैं कि इस समस्या ने पिछले 10 सालों में विकराल रूप धारण किया है. इससे पहले छोटे-छोटे बच्चों में यह बीमारी इतनी आम नहीं थी.’ [/box]
ताक पर पर्यावरण
अनपरा और इसके आस पास स्थित लगभग सभी थर्मल पॉवर प्लांट पर्यावरणीय मानकों की खुलेआम धज्जी उड़ाने में लगे हुए हैं. अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन के राख निस्तारण क्षेत्र बेलवादाह और पिपरी गांव के किनारे-किनारे घूमते हुए हम उस हिस्से में पहुंचते हैं जहां इस फ्लाइएश साइट को रिहंद जलाशय से अलग करने के लिए बांध बना हुआ है. बांध के आखिरी छोर पर पहुंचने पर हमें प्रवेश निषेध का बोर्ड दिखता है और उसके पीछे झाड़ियां नजर आती हैं. सरसरी तौर पर यह प्रतीत होता है कि इसके आगे कुछ भी नहीं है. लेकिन थोड़ा और आगे बढ़ने पर लगभग 50 मीटर चौड़ा कंक्रीट का एक विशाल नाला नजर आता है. यह नाला फ्लाइएश साइट को रिहंद के जलाशय से सीधा जोड़ देता है. एटीपीएस ने फ्लाइएश साइट के स्तर की जो अधिकतम सीमा तय की है वह वर्तमान स्तर से कम से कम 20 मीटर ऊपर है जबकि इस नाले के स्तर से फ्लाइएश का मौजूदा स्तर सिर्फ 8-9 फीट नीचे होगा. यानी साइट की अधिकतम ऊंचाई तक पहुंचने से काफी पहले ही फ्लाइएश बरास्ता इस नाले सीधे रिहंद जलाशय में जाने लगेगी. ऐसा बहुत जल्दी ही होने वाला है क्योंकि कुछ ही दिनों में लैंको पॉवर का कचरा भी इसी फ्लाइएश साइट पर गिरने वाला है?
जहर का स्त्रोतः एटीपीएस की पाइपलाइनों से बाहर निकलती फ्लाइएश
बांध के दूसरे छोर पर जाने पर एक और ही गोरखधंधा सामने आता है. एक अंडरग्राउंड नाले के जरिए सीधे-सीधे फ्लाइएश का पानी रिहंद में डाला जा रहा है. रिहंद में जिस जगह पर यह गिर रहा है वहां पर पटी हुई फ्लाइएश साफ-साफ देखी जा सकती है. लेकिन इसके लिए पैदल ही एक पहाड़ी का चक्कर लगाकर वहां तक जाना होगा जहां यह नाला रिहंद जलाशय में खुलता है. जब हम एटीपीएस के प्रशासनिक महानिदेशक पीके गर्ग से इस संबंध में पूछते हैं तो वे ऐसे किसी नाले की जानकारी न होने की बात करते हैं. ज्यादा पूछने पर वे उस स्थान पर एक वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाने की बात करते हैं और बताते हैं कि ‘ट्रीटमेंट प्लांट के लिए लखनऊ प्रस्ताव भेजा गया है. लेकिन ऐसा करने में पैसे की कमी आड़े आ रही है’ यानी जब तक प्रस्ताव पास नहीं हो जाता तब तक यूं ही ज़हरीली राख रिहंद में गिरकर लोगों की जिंदगियों से खेलती रहेगी. विडंबना यह है कि सरकार के पास ‘डी’ और ‘ई’ संयंत्र का विस्तार करने के लिए तो पैसा है पर वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट के लिए नहीं.
एटीपीएस जो काम चोरी छिपे कर रहा है वही काम हिंडाल्को की ऊर्जा उत्पादन इकाई रेणुसागर थर्मल पॉवर कंपनी लिमिटेड खुलेआम कर रही है. बिड़ला की रेणुसागर थर्मल पॉवर परियोजना भी रिहंद के जलग्रहण क्षेत्र के ठीक किनारे पर स्थित है. यहां पहुंचने पर एक और नंगा सच दिखता है. रेणुसागर संयंत्र से निकलने वाली राख का एक बड़ा हिस्सा सीधे ही रिहंद के जलग्रहण क्षेत्र में पाटा जा रहा है. इस स्थिति का संज्ञान क्यों नहीं लिया जा रहा? जब यह सवाल हम सोनभद्र के जिलाधिकारी पंधारी यादव के सामने रखते हैं तो वे तर्क देते हैं, ‘पुराने बने प्लांट अपने कचरे का निपटारा इसी तरह से करते आए हैं. प्रदूषण क्लियरेंस जैसी चीजें तो 10-15 साल पुरानी हैं. इससे पहले ऐसे ही राख का प्रबंधन होता था. अब हमने मानकों को काफी कड़ा कर दिया है. चीजें रातों-रात तो बदलेंगी नहीं.’
इसके दूसरे छोर पर गरबंधा गांव है जो कोयले की धूल में ही सांस लेने को विवश है. इस गांव के बारे में हमें कुसमहा गांव के पास स्थित वनवासी सेवा आश्रम चलाने वाली शुभा बहन बताती हैं. वहां हमने पाया कि रेणुसागर ने इस गांव की चारदीवारी पर ही अपना कोल हैंडलिंग प्लांट लगा रखा है. 24 घंटे कोयला लादते-उतारते ट्रक इस इलाके में दौड़ते रहते हैं और कोयले की धूल उड़-उड़ कर गरबंधा पर अपनी काली छाया डालती रहती है.
इसी तरह रेणुकूट के समीप जंगल में रिहंद के किनारे-किनारे करीब 2 किलोमीटर पैदल चलकर डोंगियानाला पहुंचा जा सकता है. वहां की हवा में दूर-दूर तक रासायनिक तत्वों की महक घुली हुई है. किनारों पर जमी हुई सफेद रंग की तलछट इस बात का इशारा कर रही है कि यहां का पानी साफ तो कतई नहीं है. नाले के मुहाने पर पहुंचने पर दृश्य और भी भयानक हो जाता है. रिहंद के जलग्रहण वाले क्षेत्र में रासायनिक कचरे की मोटी-मोटी परतें जमी हुई दिखती हैं. रासायनिक कचरे वाला यह पानी कनोरिया केमिकल्स लिमिटेड से आ रहा है. वहीं मुहाने पर बैठी कुछ महिलाएं उसी प्रदूषित पानी को अपनी बाल्टियों में भरकर घरेलू इस्तेमाल के लिए ले जा रही हैं. जिस पहाड़ी रास्ते से यह रासायनिक कचरे वाला पानी आता है उस रास्ते के पत्थर भी ब्लीचिंग सोडा के चलते कट-छंट गए हैं. ऐसे विषाक्त पानी में जलीयजीवन की कल्पना करना भी मूर्खता है. शुभा बहन एक बड़े खतरे का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘इस पूरे इलाके में जितना प्रदूषण एटीपीएस और कनोरिया कैमिकल्स फैला रहे हैं उतना ही योगदान हिंडाल्को एलुमिनियम का भी है. रिहंद से आगे जाने वाली नदी की धारा में हिंडाल्को का रेडमड (यानी लालरंग का कचरा) प्रदूषण फैला रहा है. लेकिन राजनैतिक प्रभाव के चलते जब भी प्रदूषण की बात होती है कनोरिया के कान ऐंठ कर मामला खत्म कर दिया जाता है. हिंडाल्को का नाम तक नहीं लिया जाता.’
महामारी बनती बीमारी
पर्यावरणीय मानकों की इतनी खुलेआम अनदेखी का दुष्प्रभाव मानवजीवन पर पड़ना लाजिमी है. अंतत: यही वह पैमाना है जिस पर सरकारें और व्यवस्थाएं इस बात का फैसला करती हैं कि किसी स्थान विशेष पर वास्तव में कुछ गड़बड़ है. सोनभद्र के अतिशय औद्योगीकरण वाले इलाकों में हवा, भूस्तरीय और भूगर्भीय जल बुरी तरह से प्रदूषित हो चुका है. इस इलाके में पानी का सबसे बड़ा स्रोत रहा रिहंद जलग्रहण क्षेत्र आज इस कदर प्रदूषित है कि इसका पानी पीकर बीते तीन-चार महीनों के दौरान ही 25 के करीब बच्चों की मृत्यु हो चुकी है. म्योरपुर ब्लॉक स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सा अधीक्षक डॉ उदयनाथ गौतम बताते हैं, ‘रिहंद का पानी पीने वाले गांवों में बीते कुछ महीनों के दौरान असमय मौतों का सिलसिला शुरू हो गया है. कमरी डाढ़ गांव में अब तक 12 बच्चों की मौत हो चुकी है इसी तरह से एक गांव लबरी गाढ़ा है जहां 13 बच्चों की मृत्यु हुई है. इस संबंध में विस्तृत रिकॉर्ड सोनभद्र के मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) के पास भेजा जा चुका है.’
बच्चों की मृत्यु के संबंध में सोनभद्र के सीएमओ ने हाल ही में रिहंद जलाशय के पानी का नमूना जांच के लिए उत्तर प्रदेश राज्य स्वास्थ्य संस्थान, लखनऊ भेजा था. इसकी रिपोर्ट में कहा गया कि नमूने में घातक कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा 180 गुना तक ज्यादा पाई गई जो हैजा, पेचिश और टाइफाइड फैलाता है यह बैक्टीरिया प्रदूषित पानी में ही होता है. इस बाबत जिलाधिकारी पंधारी यादव का कहना था, ‘गांवों में मौतें हुई हैं, लेकिन पानी की जांच में हमें किसी हेवी मेटल के संकेत नहीं मिले हैं. इस इलाके में वायरल डायरिया का गंभीर प्रकोप है. लोग डॉक्टरों से इलाज करवाने के बजाय ओझाओं के चक्कर में पड़ जाते हैं. शायद बच्चों की मौतें इसी वजह से हुई हों.’ रिहंद के किनारे बसे 21 गांवों में फ्लोरोसिस की समस्या आज महामारी का रूप ले चुकी है. नई बस्ती गांव में विंध्याचल शर्मा, सीताराम, शीला, रमेश, राम प्रसाद पटेल, कुंज बिहारी पटेल, लल्लू पटेल, कुसमहा गांव में रामप्यारी, कबूतरी देवी, चंपादेवी, सोनू, पार्वती देवी, बीनाकुमारी, उत्तम,संगम आदि फ्लोरोसिस की अपंगता से पीड़ित लोग हैं. इसके अलावा ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जिनमें फ्लोरोसिस के प्राथमिक लक्षण मौजूद हैं. पिछले 10 सालों के दौरान इस रोग ने अपना दायरा बहुत तेजी से फैलाया है. डॉ गौतम कहते हैं, ‘पहले फ्लोरोसिस की समस्या इतनी गंभीर नहीं थी. लेकिन जब से कनोरिया केमिकल्स व हाईटेक कार्बन की इकाइयां यहां शुरू हुई हैं तब से ये मामले बहुत बढ़ गए हैं.’ स्थिति की गंभीरता का अंदाजा आप इससे भी लगा सकते हैं कि हाल ही में देहरादून स्थित पीपुल साइंस इंस्टिट्यूट ने जब सोनभद्र के 147 गांवों के 3,588 बच्चों में फ्लोराइड के असर की जांच की थी तो 2,219 बच्चे इससे प्रभावित पाए गए थे.
रिहंद के चोपन और म्योरपुर ब्लॉक में फ्लोरोसिस और विषाक्त पानी की समस्या है तो अनपरा में स्थितियां और भी गंभीर हैं. फ्लाइएश के चलते इस पूरे इलाके का भूगर्भीय जल बुरी तरह प्रदूषित हो चुका है. लेड, आर्सेनिक और पारा जैसे खतरनाक रसायन फ्लाइएश से रिस-रिस कर भूगर्भीय जल को विषाक्त कर रहे हैं. इसके अलावा सूखी हुई फ्लाइएश के महीन कण हमेशा हवा में उड़ते रहते हैं जिससे यहां पेट और सांस संबंधी बीमारियों की बाढ़ सी आ गई है. वाराणसी स्थित हेरिटेज हॉस्पिटल की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर साल भर पहले ही अनपरा में आकर अपना क्लीनिक खोलने वाले डॉ राज नारायण सिंह बताते हैं, ‘दिन भर में मेरे यहां आठ से दस मरीज जोड़ों के दर्द और ऑस्टियोपोरोसिस के आते हैं. इसका सीधा संबंध लेड और पारे से प्रदूषित पानी से है. लोगों में असमय ही बुढ़ापे के लक्षण दिखने लगते हैं. इसके अलावा दमे के काफी मरीज आते हैं. हर तीन में दो आदमी यहां पेट की बीमारी से पीड़ित हैं.’
डिबुलगंज के आस पास स्थित बैगा आदिवासियों की बस्ती में टीबी की बीमारी छुआछूत की तरह फैली हुई है. गौरतलब है कि यह वही गांव है जो फ्लाइएश के सागर से घिर चुके हैं और इसी के इर्द-गिर्द बने गड्ढों से पानी पीते हैं. इसी बस्ती में 28 वर्षीय सुनील बैगा रहते हैं जिन्हें टीबी है. इलाज के बारे में पूछने पर सुनील कहते हैं, ‘दो-तीन महीने तक दवा खाई फिर बंद कर दिया. पैसा नहीं था.’
नियुक्तियों में वादाखिलाफी
रिहंद बांध को पार करके जैसे-जैसे हम शक्तिनगर की तरफ बढ़ते हैं एक के बाद एक डिबुलगंज, पिपरी, बेलवादर, निमियाडाढ़, परसवार राजा, जवाहरनगर, खड़िया मर्रक, चिल्काडाढ़ आदि गांव आते-जाते हैं. इनमें से किसी भी गांव में घुसने पर इनकी बनावट और बसावट में एक खास तरह की एकरूपता नजर आती है. ठीक मुंबई की किसी झुग्गी बस्ती की तरह.
इन बस्तियों में बेरोजगारों की बहुतायत है. 1980 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अनपरा में थर्मल पॉवर संयंत्र लगाने की घोषणा के साथ ही जब एक बार फिर से यहां बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए थे तो उस वक्त सरकार ने सभी विस्थापितों का पुनर्वास और योग्यता के हिसाब से सभी परिवारों के एक सदस्य को नौकरी देने का वादा किया था. लेकिन इतने साल बीतने के बाद भी सरकारों और यहां स्थापित कंपनियों में यहां के निवासियों का किसी भी तरह से नियोजन करने की नीयत ही नहीं दिखती. 1980 के बाद से प्रदेश में एक के बाद एक सरकार बदलती रही,अनपरा इकाई अपना दायरा ए, बी, सी से फैलाकर डी तक पहुंच गई लेकिन विस्थापितों की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं. अनपरा इकाई में तैनात एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘पुनर्वास को लेकर उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (यूपीआरवीयूएनएल) न तो गंभीर है न इस मामले में उसकी नीयत साफ है.’
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‘न तो हमारी कोई जिम्मेदारी है न ही हमने कोई वादा किया है’
अनपरा में इसी साल के अंत में उत्पादन शुरू करने का दावा करने वाले लैंको-अनपरा पॉवर के कार्यकारी निदेशक आनंद कुमार सिंह स्थानीय लोगों के विरोध, फ्लाइएश के प्रबंधन, स्थानीय लोगों के रोजगार से जुड़े सवालों को दंभी अंदाज में झटक देते हैं.
विस्थापितों को नौकरियां देने की कोई योजना है?
हमारी परियोजना टेंडर आधारित परियोजना है. इसमें सरकार हमें कुछ सहूलियतें देने का वादा करती है जिसके आधार पर हम प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाते हैं. लिहाजा इस मामले में हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है. मानवीय आधार पर जो कुछ होगा हम करेंगे.
लेकिन लोग तो अपकी फ्लाइएश पाइपलाइन का विरोध कर रहे हैं.
इस तरह के विरोध हमने बहुत देखे हैं. जो कंपनी अरबों रुपये निवेश करती है उसे सब कुछ पता होता है. ऐसे ही कोई काम बंद नहीं हो जाता है. हमने भी इसी इलाके में 25 साल गुजारे हैं.
आप स्थानीय लोगों को कम से कम अस्थायी नौकरियों में तो रख ही सकते हैं? उनमें भी लोगों को क्यों समायोजित नहीं किया जाता है?
देखिए, नौकरी देने की हमारी न तो कोई मजबूरी है न ही हमने किसी से कोई वादा किया है. ये सिरदर्द सरकार और प्रशासन का है. शुरुआत में हमने यहां के लोगों को अपने यहां रखा था. पर इन लोगों ने स्थानीय नेताओं के इशारे पर कंपनी में टूलडाउन स्ट्राइक कर दी. इससे हमारा भरोसा यहां के लोगों पर से उठ चुका है. स्थानीय नेता प्रबंधन को ब्लैैकमेल करने के लिए ऐसा करते हैं.
पर इसमें उन लोगों का नुकसान हो रहा है जिनका जीवन आपके प्लांट से प्रभावित हो रहा है.
देखिए हम कतई किसी को समाहित नहीं करेंगे. ऐसे न जाने कितने आंदोलन यहां हमने देखे हैं, लेकिन काम नहीं रुका है. और आप भी अपनी बात मेरे मुंह में डालने की कोशिश मत कीजिए. आपके मन में जो आए लिख दीजिएगा. मुझे इन चीजों से बाहर निकलना अच्छी तरह से आता है. बहुत होगा तो मेरे सीनियर मुझसे थोड़ा नाराज हो जाएंगे.
(इसके बाद उनसे बात करने की कोई वजह ही नहीं बचती) [/box]
अपनी पहली सूची में एपीटीएस ने 1,307 लोगों को नौकरी के लिए पात्र माना था. आज 30 साल बाद कंपनी के सेवायोजन का आंकड़ा है 304 यानी 30 फीसदी के करीब. असल में यहां स्थित यूपीआरवीयूएनएल हो या फिर लैंको या फिर एनटीपीसी, सभी कंपनियों ने अब स्थानीय लोगों को नौकरी नहीं देने की अलिखित नीति अपना रखी है. कुशल कर्मियों के लिए देश या प्रदेशस्तरीय परीक्षाएं होती हैं और अकुशल कामगार, कंपनियां ठेके पर रखती हैं. ये दैनिक मजदूर झारखंड,उड़ीसा आदि के आदिवासी क्षेत्रों से आते हैं. स्थानीय लोगों को नौकरी न दिए जाने के सवाल पर लैंको पॉवर के कार्यकारी निदेशक आनंद कुमार सिंह बहुत दिलचस्प उत्तर देते हैं, ‘शुरुआत में ही स्थानीय लोगों ने हमारा विश्वास तोड़ दिया. ये लोग स्थानीय नेताओं के इशारे पर कंपनी में काम रोक देते थे.’
जल्दी ही इन कंपनियों ने दैनिक मजदूरों को ठेके पर रखना शुरू कर दिया. अकेले अनपरा की ए,बी इकाइयों और लैंको में इस वक्त कुल मिलाकर 3,000 के करीब दैनिक मजदूर काम करते हैं. यानी कि विस्थापितों के पुनर्वास और समायोजन की समस्या काफी हद तक हल हो सकती है. 2007 में उत्तर प्रदेश विद्युत मजदूर संगठन के अध्यक्ष आरएस राय और यूपीआरवीयूएनएल के तत्कालीन अध्यक्ष अवनीश कुमार अवस्थी के बीच इस संबंध में एक समझौता भी हुआ था जिसमें ठेका मजदूरी में 50 फीसदी स्थानीय लोगों को समायोजित करने पर सहमति हुई थीं लेकिन आज तक इसे लागू नहीं किया गया है. आखिर कंपनियां ऐसा क्यों कर रही हैं? पहली नजर में तो मामला नीयत का दिखता है लेकिन किसी मजदूर से और स्थानीय लोगों को थोड़ा विश्वास में लेकर बात करने पर इसकी कुछ नई परतें उघड़ती हैं. ठेका आधारित दैनिक मजदूर असल में कंपनी के अधिकारियों और ठेकेदारों के आपसी गठजोड़ और करोड़ों रुपए की अवैध कमाई का साधन है.
अपनी पहली सूची में एपीटीएस ने 1,307 लोगों को नौकरी के लिए पात्र माना था. आज 30 साल बाद कंपनी के सेवायोजन का आंकड़ा है 304 यानी 30 फीसदी के करीब
दरअसल, कंपनी के अधिकारी ठेकेदार को मजदूरों की व्यवस्था करने और उनके लेनदेन का जिम्मा संभालने का आदेश दे देते हैं. एक दैनिक मजदूर की प्रतिदिन की दिहाड़ी होती है 138 रुपये. मजदूर महीने में 26 दिन काम करता है और महीने के अंत में उसे लगभग 2,500 रुपये का भुगतान ठेकेदार करता है जबकि उसे मिलना चाहिए 3,588 रुपये. इस तरह से प्रति मजदूर करीब 1000 रुपये कंपनी के अधिकारियों और ठेकेदारों की जेबों में चला जाता है. पर कोई भी मजदूर इस बात को स्वीकार नहीं करता क्योंकि अगले ही दिन ठेकेदार उन्हें चलता कर देगा.
डोगिया नालाः कनोरिया केमिकल्स का रासायनिक कचरा इसी नाले से सीधे रिहंद जलाशय में मिल रहा है
नौकरियों पर रखे जाने के सवाल पर अनपरा इकाई के प्रशासनिक महानिदेशक पीके गर्ग के बयान विरोधाभासी हैं. कभी तो वे कहते हैं कि हम डी इकाई में अस्थाई पदों पर स्थानीय लोगों को समायोजित करने पर विचार करेंगे. और फिर अपनी ही बातों को काटते हुए कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश सरकार ने 1994 में एक शासनादेश पारित किया था जिसके मुताबिक अधिग्रहण के सात साल बाद किसी को भी समायोजन का अधिकार नहीं रह जाता है, सिर्फ मुआवजा दिया जाएगा.’ यह पक्ष उत्तर प्रदेश सरकार ने पहली बार हाई कोर्ट में साल 2007 में रखा जबकि स्वयं कंपनी ने लोगों को 1998 तक इस आशय के पत्र दिए हैं कि जब भी कंपनी में रिक्तियां होंगी उन्हें अर्हता के आधार पर समायोजित किया जाएगा. तहलका के पास ऐसे कई पत्रों की प्रतियां हैं. सवाल है,आखिर 1994 में शासनादेश पारित हो जाने के बाद भी अधिकारियों ने लोगों को इस तरह के पत्र किस आधार पर दिए? मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है और उत्तर प्रदेश सरकार आज तक इस शासनादेश की कॉपी न तो सुप्रीम कोर्ट को सौंप सकी है न ही आरटीआई दाखिल करने वाले गैर सरकारी संगठनों को. कमोबेश यही स्थितियां एनटीपीसी के विस्थापितों की भी है. यहां लोगों के पुनर्वास का स्तर तो कुछ हद तक संतोषजनक है लेकिन नौकरियों में सेवायोजन का प्रतिशत महज 33 फीसदी है. स्थानीय लोगों को दरकिनार करके ठेके पर मजदूरों से काम करवाने की प्रथा यहां भी धड़ल्ले से जारी है. स्थानीय लोगों ने भी कमाई का दूसरा जरिया निकाल लिया है. अपने घरों के आधे हिस्सों में लोगों ने दड़बेनुमा कमरे बनवा रखे हैं जिनमें 10-10, 15-15 की संख्या में बाहर से आए मजदूर अमानवीय स्थितियों में किराए पर रहते हैं. अनपरा शक्तिनगर के इलाके में दो पीढ़ियां नौकरी और काम की आस में बैठी रहीं, उन्होंने न तो बाहर का रुख किया न ही वैकल्पिक उपायों को अपनाया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि जिस आधुनिक भारत के तीर्थ को बनाने के लिए वे अपने घर, बाग-बगीचे, खेत-खलिहान और जीविका का बलिदान कर रहे थे वह अपनी संतानों को इतनी आसानी से नहीं दुत्कारेगा. वे गलत थे.
बेमानी जनसुनवाइयां
नई परियोजना को हरी झंडी देने से पहले इसके प्रभाव क्षेत्र में आने वाली जनता के बीच जनसुनवाई आयोजित की जाती है. ऊपरी तौर पर तो यह व्यवस्था एक स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया का आभास देती है मगर असलियत में यह सिर्फ औपचारिकता भर है. उदाहरण के तौर पर लैंको अनपरा पॉवर प्रा. लि. को ही लेते हैं. श्याम किशोर जायसवाल बताते हैं, ‘हमने 10 अगस्त, 2007 को लैंको परियोजना की जन सुनवाई के दौरान छह बिंदुओं वाली एक मांग सूची जिलाधिकारी को सौंपी थी, लेकिन सरकार ने एक महीने पहले ही लैंको का भूमिपूजन करके वहां निर्माण कार्य शुरू करवा दिया था.’ यही रवैया अनपरा की ‘बी’ यूनिट के निर्माण के दौरान भी रहा था. जनसुनवाई की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए जनता के हस्ताक्षर वाला सहमति पत्र अनिवार्य होता है. मगर प्रशासन ने इसका भी एक रास्ता निकाल लिया है. कार्यक्रम स्थल पर उपस्थिति रजिस्टर में दस्तखत करना अनिवार्य होता है. और बाद में प्रशासन इसी को सहमति हस्ताक्षर के रूप में पेश कर देता है.
बनारस जाते समय रास्ते भर सड़कों के किनारे बड़े-बड़े होर्डिंग दिखते हैं. लिखा है, ‘राष्ट्र की सेवा में सतत् समर्पित अ, ब, स ऊर्जा परियोजना.’ मन में एक सवाल उठा, ‘क्या इस देश में भी कई देश हैं?
यह सही है कि छात्र राजनीति की पहली प्राथमिकता अध्ययन है, लेकिन जो सामाजिक-राजनीतिक समस्याएं हैं, उन पर भी निगाह रखनी चाहिए और सभी विचारधाराओं से परिचित होना चाहिए. छात्रों के अपने कर्तव्य और अधिकार हैं. राष्ट्र या समाज के समक्ष कोई गंभीर समस्या आने पर छात्रों को देश सेवा के लिए भी उद्यत रहना चाहिए. छात्रों को व्यावहारिक दलगत राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए लेकिन विद्यार्थी को सभी विचारधाराओं का अध्ययन जरूर करना चाहिए. हालांकि, आदर्श रूप में हम यह बातें कहते हैं कि छात्र को राजनीति से दूर रहना चाहिए और राजनीतिक दलों को छात्रों के बीच दखल नहीं देना चाहिए. लेकिन व्यावहारिक पक्ष यह है कि भारत में युवकों की संख्या ज्यादा है. आज पूर्णतया उनको जबरन राजनीति से अलग रख पाना संभव नहीं है. राजनीतिक दलों में सत्ता के लिए संघर्ष चलता है. इसलिए उनसे भी यह अपेक्षा करना अव्यवहारिक होगा कि छात्रों को वे खुद से दूर रखें.
मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ का अध्यक्ष रहा. लेकिन मैंने एमए में टॉप भी किया. दोनों में सामंजस्य स्थापित करना बहुत जरूरी है. उस समय तक छात्र राजनीति में राजनीति दलों का हस्तक्षेप प्रभावी हो चला था लेकिन मैं राजनीतिक दलों से दूर रहा. मैंने खुद को किसी दल के प्रतिनिधि के रूप में पेश नहीं किया. आज की व्यवस्था में छात्रों को दलों से दूर रहने को बलात लागू नहीं कर सकते. मुझे याद है कि मैं विद्यार्थी जीवन में था, तब 18 साल की उम्र में मताधिकार की मांग उठी थी. हमने आवाज उठाई. जगह-जगह इस पर भाषण दिए, लेख लिखे. जब मैं प्रभाव डालने की स्थिति में पहुंचा तो जितना मुझसे हो सकता था, मैंने इसमें वह भूमिका निभाई. प्रत्येक विद्यार्थी का फर्ज है कि वह मुद्दों पर अपनी राय साफ करके अपना ध्येय बनाकर चले.
आज छात्र राजनीति में राजनीतिक दलों का दखल बढ़ गया है. क्योंकि समय के साथ राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था बदलती रहती है. आपके सामने जब ऐसा उद्देश्य हो जिस पर सब एकमत हों, तब वह उद्देश्य हासिल कर पाना आसान हो जाता है. स्वतंत्रता आंदोलन में ऐसा ही हुआ. तब देश के सामने एकलक्ष्य था आजादी. सत्तासुख भोगने के अवसर कम थे, लोग राजनीति में इसलिए आते थे कि देश और समाज को कुछ देना है. वे त्याग की भावना से राजनीति में आते थे. अब राजनीति में लोग हिस्सेदारी के लिए आते हैं. लोकतंत्र लूटतंत्र बन गया और लोग इस लूटतंत्र का हिस्सा बनने के लिए आते हैं. उस वक्त के संघर्ष की तुलना आज के संघर्ष से नहीं की जा सकती. वह संघर्ष देश के लिए था, आज का संघर्ष निजी है, क्योंकि राजनीति का स्वरूप बदल गया है. वह सत्तासुख भोगने का जरिया बन गई. निजी स्वार्थ हावी हो गए.
यह कहना गलत है कि सिर्फ राजनीति का ही पतन हुआ. सभी संगठनों, व्यवसायों का और समाज का भी चारित्रिक पतन हुआ. छात्र राजनीति को इससे अलग करके नहीं देख सकते. राजनीतिक दलों की जो भूमिका हो गई है, छात्र जीवन और छात्र राजनीति पर उसका प्रभाव पड़ेगा ही.
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष एवं पूर्व लोकसभा सचिव हैं )