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‘मन में बसी महादेव की मूर्ति पूरी तरह से ढह चुकी थी और मैं वापस घर लौट आया’

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बात साल 2007 की है. मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में बीए प्रथम वर्ष का छात्र था. सावन के महीने में एक दिन अचानक दोस्त के साथ झारखंड के देवघर में शिवजी को जल चढ़ाने के लिए निकल पड़ा. सफर ऐसा था कि सुल्तानगंज पहुंचते-पहुंचते बदन का हर हिस्सा हिल चुका था. शरीर थक चुका था. कांवड़ में गंगाजल लेकर आगे की पैदल यात्रा मुश्किल लग रही थी, लेकिन मन में जगी आस्था कह रही थी कि हर मुश्किल आसान है.

सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर 100 किमी. से ज्यादा पैदल यात्रा कर देवघर जाकर शिवलिंग पर ये जल चढ़ाना होता है. मेरा साथी सुमन मुझसे कहीं ज्यादा उत्साहित था. रास्ते में छोटी-बड़ी हजारों टुकड़ियां बोल-बम और हर-हर महादेव का जयकारा लगाते नजर आ रही थीं. सुमन ने मुझे ऐसे ही एक समूह के बारे में बताया जिसे ‘डाक-बम’ कहा जाता है. ‘हम ‘बोल-बम’ हैं मतलब महादेव तक पहुंचने के लिए हमारे लिए समयसीमा निर्धारित नहीं है लेकिन डाक-बम को 24 घंटे के भीतर हर हाल में मंदिर पहुंचना ही होता है वरना  ये वीआईपी लाइन से दर्शन नहीं कर पाएंगे. तब इन्हें सबसे निचली श्रेणी यानी बोल-बम वाली श्रेणी से ही महादेव के दर्शन प्राप्त हो सकेंगे मतलब पुण्य कम मात्रा में प्राप्त होगा.’

तभी मेरी नजर एक श्रद्धालु पर पड़ी जिसके दोनों पैर नहीं थे पर वह बोल-बम, बोल-बम कहते हुए दो बैसाखियों के सहारे लड़खड़ाते हुए मंदिर जा रहा था. मैंने सुमन से पूछा इसे किस श्रेणी का पुण्य मिलेगा? लेकिन सुमन बिना कोई जवाब दिए ही चलता रहा. रास्ते में एक और बुजुर्ग श्रद्धालु मिले जिनके हाथ में एक लकड़ी थी. वे जमीन पर लेटते और जहां तक उनका हाथ पहुंचता, वहां लकड़ी से निशान लगाकर खड़े हो जाते. ऐसे तरह-तरह के श्रद्धालुओं और कदम-कदम पर भिखारियों को देख मैं स्तब्ध और शांत आगे बढ़ता जा रहा था. सुमन कहता, ‘ये धोखेबाज भिखारी हैं. रूई में नीली-पीली दवाई भिगोकर लपेटे हुए हैं.’ मैं देख रहा था कि सड़क किनारे दुकानों में बैठे ‘भक्त’ कैसे गांजे के धुंए का गुंबद बना रहे थे. धर्मशालाओं में देर रात अपने परिजनों से बिछड़ीं औरतों का रात गुजारना ‘भक्त’ कैसे मुश्किल किए हुए हैं. यही ‘भक्त’ युवतियों को कैसी ‘श्रद्धा’ से एकटक निहार रहें हैं. भक्ति के उस पथ पर लोगों के पर्स और सामान चोरी हो रहे थे. मेरे मन में आस्था से जगी शांति में अब खलबली मच चुकी थी और धर्म-आस्था से जुड़े तमाम सवाल कौंधने लगे थे. अब मैं सिर्फ आते-जाते लोगों की गतिविधियों को ध्यान से देख रहा था. इस बीच सुमन कहीं छूट गया था. मैं अकेला देवघर के नजदीक शिव-गंगा के सामने खड़ा था. यहां से स्नान के बाद ही महादेव-दर्शन किया जाता है. शिव-गंगा के बीचों-बीच महादेव की विशाल मूर्ति देखकर शरीर में झुरझुरी दौड़ गई. जैसे डरना और अभिभूत होना दोनों चीजें एक साथ घटी हों. पर जैसे-जैसे डुबकी लगाते भक्त बटुवा गंवा रहे थे, चेन खींचे जाने की वजह से महिला श्रद्धालु घायल हो रही थीं, वैसे-वैसे महादेव की मूर्ति मेरी नजरों में ढह रही थी. अब मैं मंदिर के प्रांगण में क्यों प्रवेश कर रहा था मुझे पता नहीं था! लाखों की भीड़ में बच्चे-बूढ़े और महिलाएं रौंदे जा रहे थे. पंडे और पुलिस लाइन में आगे जगह देने के नाम पर भक्तों से पैसे ऐंठ रहे थे. प्रांगण में बस एक मंदिर था जो खाली था. मैंने अपने भीतर झांका तो देखा कि मन में बसी महादेव की मूर्ति पूरी तरह से ढह चुकी थी. मैंने इसी अकेली मूर्ति पर जल चढ़ाया और  लौट आया.

जैसे-जैसे चेन खींचे जाने की वजह से महिला श्रद्धालु घायल हो रही थीं, वैसे-वैसे मेरी नजरों में महादेव की मूर्ति ढह रही थी

तब ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ के भगत सिंह को नहीं जानता था, न मार्क्स को और न ही बुकानिन को. देवघर के अनुभव से मुझे यह समझ आने लगा कि इतनी श्रद्धा और आस्था के बावजूद बैसाखी पर चलने वाले व्यक्ति, गरीब बुजुर्ग, भिखारियों का भाग्य कभी नहीं बदलने वाला है. वहां सक्रिय चोर-उचक्कों को देखकर यह सवाल जेहन में अटक गया कि अन्याय और गलत चीजों को रोक पाने में असमर्थ महादेव पूजनीय कैसे हो सकते हैं!

इसी सवाल ने मुझे नास्तिकता के करीब पहुंचा दिया. अपने सोचने-समझने के तरीके पर लगातार आलोचना झेलने के बावजूद इतना तो मैं जानता हूं कि मेरा भविष्य चाहे जिस करवट मुझे सुलाए पर यह तो तय है कि न तो मैं किसी बाबरी-विध्वंस की भीड़ का हिस्सा बनूंगा, न किसी गोधरा कांड, मुजफ्फरनगर दंगे या किसी मंदिर की स्थापना के नाम पर खेली जा रही खून की होली में रहूंगा. मेरी नजर में अहमियत होगी तो सिर्फ इंसानियत की.

(लेखक शोधार्थी हैं और वर्धा में रहते हैं)

कुछ सपने, ख्वाहिशें और शीरोज हैंगआउट

जहां महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाता है, वहां किसी एसिड अटैक सरवाइवर का उस सदमे से उबरकर नए सिरे से जिंदगी शुरू करना हिम्मत का काम है. कुछ ऐसा ही जज्बा तेजाब हमलों की शिकार महिलाओं ने कैफे खोलकर दिखाया है. इन महिलाओं की ओर से आगरा में चलाए जा रहे कैफे ‘शीरोज हैंगआउट’ ने बीते 10 दिसंबर को पहली सालगिरह मनाई. इसे शुरू करने का उद्देश्य इन्हें समाज के साथ फिर से जोड़ना है. इसके जरिये अतीत से उठकर अपने जीवन के नए मायने तलाश रहीं इन आत्मविश्वासी महिलाओं ने अपने जैसे लोगों के साथ ही समाज को भी सीख दी है. कैफे का नाम ‘हीरो’ शब्द की तर्ज पर ‘शीरोज’ रखा गया है.

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सभी फोटो : पारोमिता चटर्जी

 कैफे की अपनी एक लाइब्रेरी है जिसकी किताबें यहां आने वालों द्वारा दान की गई हैं. ये अपने आप में एक अनूठा कैफे है जो आगरा जैसी ‘टूरिस्ट सिटी’ की शोर भरी भीड़ में सुकून का एहसास देता है.

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नीतू के पिता को बेटे की चाहत थी पर बेटियां ही पैदा हुईं. एक दिन नशे में धुत पिता ने तीन साल की नीतू सहित उसकी मां और छोटी बहन पर तेजाब फेंक दिया, सपने देखना भूल चुकी नीतू अब अपने पैरों पर खड़ी है

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यहां आने वालों में ज्यादातर ग्राहक विदेशी सैलानी होते हैं जो इन महिलाओं को सहजता से स्वीकार लेते हैं. इस कैफे के आस-पड़ोस के लोगों ने शुरू में तो इनसे दूरी बना के रखी पर कुछ महीनों पहले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा की गई तारीफ के बाद उनकी सोच में बदलाव आया है

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कैफे में काम करने वाली महिलाएं इस बात पर जोर देती हैं कि कैफे मुनाफे के लिए नहीं चलता. इस बात की तस्दीक मेन्यू कार्ड भी करता है जिस पर किसी व्यंजन की कीमत नहीं लिखी है. यहां आने वाले मेहमान अपनी इच्छानुसार भुगतान कर सकते हैं

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इस कैफे ने न केवल इन महिलाओं को रोजगार दिया है बल्कि इन्हें फिर से सपने देखने की हिम्मत भी दी है. यहां काम करने वाली डॉली अपने नृत्य के शौक को पूरा करने के लिए डांसिंग क्लासेज में जाती हैं, वहीं नीतू गायकी का शौक भी रखती हैं

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यहां डॉली, अंशु, नीतू, ऋतु और गीता काम करती हैं. अंशु (हरे रंग की ड्रेस में) यहां नई हैं. शीरोज हैंगआउट में काम मिल जाने के बाद अब वे अपनी पढ़ाई जारी रखने की योजना बना रही हैं

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कैफे में सजावट का खास ध्यान रखा गया है. यहां कई आकर्षक पेंटिंग्स लगी हैं. दीवारों का रंग-रोगन किसी चित्रकार का कैनवास लगता है. एक बोर्ड पर एसिड अटैक सरवाइवर्स पर अखबारों या मैगजीन में प्रकाशित खबरों को भी जगह दी गई है

जाने चले जाते हैं कहां…

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संजय तिवारी इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ में 2003-04 में अध्यक्ष चुने गए थे. इसके पहले वे महामंत्री भी रह चुके थे. वे छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय थे. उन्हें भाषण कला अच्छी आती थी. वे समय-समय पर छात्रों का मुद्दा उठाते रहते थे. छात्रों के बीच अक्सर चर्चा हुआ करती थी कि वे राजनीति में अच्छे नेता साबित होंगे. जाहिर है संजय को भी खुद से ऐसी ही उम्मीद रही होगी. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों में इस बात को लेकर बहुत गौरवबोध रहता है कि जिस तरह उत्तर प्रदेश ने देश को सात प्रधानमंत्री दिए, उसी तरह इस विश्वविद्यालय ने चंद्रशेखर, वीपी सिंह, शंकरदयाल शर्मा, मदनलाल खुराना, विजय बहुगुणा, जनेश्वर मिश्र, अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता दिए.

संजय के मन भी इस कतार में शामिल होने की तमन्ना रही ही होगी. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. वे अब तक इस इंतजार में हैं कि उत्तर प्रदेश में प्रभावशाली पार्टियों कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा में से कोई पार्टी उन्हें टिकट दे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. संजय कांग्रेस के एनएसयूआई पैनल से अध्यक्ष बने थे लेकिन कांग्रेस ने ही उन्हें आगे बढ़ने का कोई अवसर नहीं दिया. संजय ने पिछला विधानसभा चुनाव तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर लड़ा और हार गए क्योंकि यूपी में तृणमूल का कोई जनाधार नहीं है, न ही पार्टी मजबूत स्थिति में है. संजय कहते हैं, ‘जिसके पास धनबल और बाहुबल है, जिसके पास पीआर और एफआईआर है, पार्टियां उसी को टिकट देती हैं. मैं जनता के मुद्दों को लेकर संघर्ष करते हुए 60-70 बार जेल गया, लेकिन कांग्रेस ने मुझे ही टिकट नहीं दिया. राहुल गांधी से मैं बार-बार मिला लेकिन मुझे कांग्रेस से टिकट नहीं मिला. राहुल गांधी कहते हैं कि बस जमीन पर बस काम करो. बसपा ने टिकट देने के लिए डेढ़ से दो करोड़ रुपये मांगे. सपा से भी टिकट नहीं मिला. सभी दल बाहुबलियों को ही तवज्जो देते हैं. छात्रसंघ से निकले उसी नेता को टिकट मिल पाता है जो या तो किसी राजनीतिक परिवार से हो या जिसके पास अकूत पैसा हो.’ संजय ने अभी राजनीति छोड़ी नहीं है. वे अब भी किसी पार्टी से टिकट मिलने का इंतजार कर रहे हैं.

संजय तिवारी अकेले नहीं हैं जो छात्रसंघ से निकलकर डेढ़ दशक से अपना राजनीतिक करिअर तलाश रहे हैं. पूरे देश में जितने कॉलेज या विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ बचे हैं, वहां से निकलने वाले छात्रों के लिए राजनीति में कोई खास जगह नहीं है. गोरखपुर विश्वविद्यालय छात्रसंघ में सक्रिय रहे अशोक कुमार पांडेय 1991 से 97 तक विश्वविद्यालय में रहे. इसके बाद वे कृषि मंत्रालय में अधिकारी हो गए. वे अपने संगठन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता तो थे लेकिन उनके सामने कोई राजनीतिक विकल्प नहीं था. वे बताते हैं, ‘मेरे विश्वविद्यालय में पहुंचने के बाद से लेकर आज तक मुझे एक भी नाम याद नहीं है जो छात्रसंघ से होते हुए मुख्यधारा की राजनीति में आया हो.’ 1990 के बाद मंडलीकरण, भूमंडलीकरण और मंदिर-मस्जिद की राजनीति ने छात्र आंदोलनों की स्थितियां बदल दीं. अब छात्रसंघों के नेता मुख्यधारा की राजनीति में तभी आ रहे हैं जब उन पर बड़े राजनीतिक दलों का हाथ हो, या वे किसी राजनीतिक घराने से ताल्लुक रखते हों, या इतने प्रभावशाली हों कि पार्टियों के लिए फायदेमंद लगें. इलाहाबाद में पिछले एक-डेढ़ दशक में जितने भी युवा छात्रसंघ में सक्रिय रहे थे, उनमें से सिर्फ एक नेता राजनति में सक्रिय हुआ, वे हैं संग्राम यादव. संग्राम यादव 2003-04 में महामंत्री चुने गए थे. वे बलराम यादव के बेटे हैं. बलराम यादव उत्तर प्रदेश की राजनीति में हैसियत वाले नेता रहे हैं जो इंदिरा और राजीव की कैबिनेट में मंत्री रहे थे. संग्राम यादव को सपा से टिकट मिला, फिलहाल वे आजमगढ़ की अतरौलिया सीट से विधायक हैं.

‘जो लोग पार्टियों को फंडिंग करते हैं वे नहीं चाहते कि आम छात्रों और जनता के बीच से नए लोग राजनीति में आएं. नए लोगों के आने से राजनीतिक परिवारों के बच्चे आगे नहीं आ पाते’

जेपी आंदोलन के बाद के वर्षों में छात्रसंघ के अपराधीकरण ने उन पर प्रतिबंध लगाने का रास्ता साफ किया. छात्रसंघों में धनबल, बाहुबल और रुतबे की राजनीति का हासिल लिंगदोह कमेटी के रूप में सामने आया. लिंगदोह कमेटी को छात्र राजनीति को हतोत्साहित करने के प्रयास के रूप में देखा

गया, लेकिन कमेटी ने छात्रसंघों पर जिन चीजों पर प्रतिबंध लगाया, उनके पीछे पुख्ता तर्क थे. कमेटी ने चुनाव लड़ने की उम्रसीमा तय करते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नेता रघुनाथ द्विवेदी का उदाहरण दिया था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक ऐसे भी छात्रनेता हैं जिनकी उम्र 48 साल है. उनकी एक बेटी और एक बेटा भी विश्वविद्यालय में छात्र हैं. रघुनाथ द्विवेदी 1995 में उपाध्यक्ष चुने गए थे. वे एक दशक से ज्यादा तक विश्वविद्यालय में सक्रिय रहे और अब किसी पार्टी से चुनाव लड़ने की जुगत में हैं.

रमेश यादव 2003 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में सक्रिय रहे. वे चुनाव तो नहीं जीते लेकिन छात्रों के बीच उन्होंने काफी काम किया. तब से आज तक लगातार राजनीति में सक्रिय हैं. पीएचडी कर चुके हैं और विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. वे छात्रों से लेकर जनता तक के मुद्दे उठाते रहते हैं. विश्वविद्यालय में वे एनएसयूआई पैनल से चुनाव लड़ते थे, बाद में बहुत बार कोशिश की लेकिन कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया. रमेश कहते हैं, ‘जो लोग दलों को फंडिंग करते हैं वे नहीं चाहते कि जनता के बीच से या छात्रों के बीच से निकले नए लोग राजनीति में आएं. नए लोगों के आने से राजनीतिक परिवारों के बच्चे आगे नहीं आ पाते. आम छात्र आगे आते थे, वे जन नेता होते थे, उस पूरी व्यवस्था को ही खत्म कर दिया गया. केरल का वह उदाहरण ध्यान में रखिए कि बड़ी कंपनियां कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के तहत सभासद जैसे पदों पर अपने प्रत्याशियों को चुनाव लड़ा रही हैं. विचारों और आंदोलनों को खत्म कर दिया गया है. आम छात्र विश्वविद्यालय में जीत भी जाए तो मुख्यधारा की राजनीति में आकर धनबल और बाहुबल से हार जाता है. इसका मुकाबला करने के लिए छात्रों ने अपराध का रास्ता पकड़ लिया है.’ रमेश यादव अब तक राजनीति में इस उम्मीद के साथ सक्रिय हैं कि उन्हें किसी न किसी पार्टी से टिकट जरूर मिलेगा.

छात्रसंघों से निकलने के बाद ज्यादातर छात्र या तो ठेकेदारी, खनन आदि धंधों में चले जाते हैं या कहीं गुम हो जाते हैं. पिछले वर्षों में कई छात्र नेताओं के मारे जाने या अन्य कारणों से उनकी मौत की खबरें भी आईं. मई, 2015 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष कुलदीप सिंह केडी की संदिग्ध हालत में मौत हो गई. वे विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के शोधछात्र थे और 2013-14 के लिए छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गए थे. नवंबर, 2015 में काशीपुर उत्तराखंड में धर्मेंद्र भट्ट का महादेव नगर स्थित एक प्लाट में शव पाया गया था. धर्मेंद्र राधे हरि डिग्री कालेज का छात्रसंघ अध्यक्ष रह चुके थे. उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में मई, 2013 को पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष रमन सिंह समेत दो लोगों की खनन माफिया ने हत्या कर दी थी. दिसंबर, 2014 में उत्तराखंड के शक्तिफार्म में पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष प्रताप सिंह बिष्ट को तीन बदमाशों ने दिनदहाड़े गोली मार दी थी. नवंबर 2014 में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ़ के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष भुवन सिंह सौन का शव कार में पाया गया था. वे 2011 में छात्रसंघ अध्यक्ष थे. राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के महाराणा प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ दीपक शर्मा की अगस्त, 2013 में मध्य प्रदेश में एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी. वे सत्र 2010-11 में चुनाव जीते थे.

छात्र राजनीति में सक्रिय रहे कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने मकसद तय किए और उस पर लगातार काम कर रहे हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1993 में छात्रसंघ अध्यक्ष रहे लालबहादुर सिंह ऐसे ही छात्रनेता रहे जो अब नए राजनीतिक विकल्प पर काम कर रहे हैं. लालबहादुर विश्वविद्यालय में खासे लोकप्रिय थे. छात्र उनकी भाषण कला और नेतृत्व क्षमता के मुरीद थे. वे छात्रावासों और चौराहों पर जाकर कहीं भी खड़े होकर भाषण देने लगते थे और उन्हें सुनने वालों की भीड़ लग जाती थी. वे करीब दो दशक तक वाम राजनीति में सक्रिय रहे. लालबहादुर कहते हैं, ‘जेपी आंदोलन के समय मैं स्कूल में था. उसके प्रति मैं बहुत आकर्षित हुआ. लेकिन जब विश्वविद्यालय में आया तो कई सीनियर छात्रों की संगति में वाम विचारधारा की तरफ रुझान हुआ. जिनकी अपनी राजनीतिक समझ बन पाई  है वह मुख्यधारा के अनुकूल नहीं है. मेरी समझ बनी कि यही वो विचारधारा है जो इस समाज और देश के लिए सबसे मुफीद है.’ बाद के वर्षों में लालबहादुर का अपनी पार्टी से मतभेद हुआ. उन्होंने बताया, ‘भाकपा माले में एक लंबी बहस चली थी कि वामपंथी पार्टी के अलावा एक जनपार्टी की जरूरत है, जो अपने मुद्दे जनता की फौरी जरूरतों और उसकी सोच समझ के मुताबिक काम करे. हम कुछ लोगों का एक ग्रुप भाकपा माले से अलग हुआ और ऑल इंडिया पीपुल फ्रंट बनाया. इस पार्टी से कई महत्वपूर्ण लोग जुड़े हैं.’ लालबहादुर को उम्मीद है कि वे देश को बेहतर राजनीतिक विकल्प दे सकेंगे.

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छात्र आंदोलन अब नए रूप में सामने है

यह कहना गलत है कि छात्र आंदोलन खत्म हो गए हैं. मंडल कमीशन के बाद परिसरों की संरचना बदल गई. महिला और पिछड़े वर्ग की भागीदारी बढ़ गई. अब ये तबके सामाजिक समस्याओं पर आंदोलन कर रहे हैं. वे पारंपरिक मुद्दों पर आंदोलन नहीं करते. इसीलिए पिछले दिनों यूजीसी की तरफ से हॉस्टल पर एडवाइजरी जारी हुई. यह सभी छात्रों को सर्विलांस में रखता है. छात्रसंघ अब पहले जैसे नहीं दिखते, लेकिन सामाजिक मुद्दों पर छात्रों की सक्रियता बढ़ी है. वे विभिन्न मुद्दों पर हस्तक्षेप कर रहे हैं. इसीलिए उन्हें लगातार दबाने की कोशिश हो रही है. ऐसा दिख रहा है कि छात्रों का एक विराट आंदोलन सामने आने वाला है. बुनियादी चीजें आम जनता के लिए दुर्लभ होंगी तो जनाक्रोश उभरेगा. इसलिए उच्च शिक्षा में गरीबों की आमद रोकने की कोशिश हो रही.

परिसरों में विद्यार्थियों का जो कंपोजीशन बदला है, उससे उनकी सक्रियता भी नए स्वरूप में है. छात्र आंदोलन तो नहीं दिख रहा, लेकिन एक अंतर्धारा मौजूद है. दूसरे, मुख्यधारा की राजनीति में भी विमर्श बदल गया है. पूरी राजनीति में अब बेहद छुद्र सवालों पर बहस होती है. आम जनता राजनीति के केंद्र में नहीं है. इसलिए छात्र आंदोलन राजनीतिक नहीं दिख रहे, क्योंकि उनके मुद्दे अलग हैं, जिन्हें राजनीतिक पार्टियां उठा नहीं रहीं. राजनीति हमेशा सामाजिक परिवर्तन से ही नियंत्रित होती है, इसलिए तत्काल सतह पर परिवर्तन नहीं दिखेगा. लेकिन अगर राजनीति ने इस अंतर्धारा का संज्ञान नहीं लिया तो यह राजनीति को बदल देगी. यह हमेशा सतह पर दिखाई नहीं देती. छात्रसंघ विशेष प्रक्रिया में ही सामने आए थे. जहां छात्रसंघ नहीं था, छात्रों ने लड़कर हासिल किया. स्वाधीनता आंदोलन में छात्रों की विशेष भूमिका तो रही लेकिन आंदोलन के नेता इसके पक्ष में नहीं थे कि छात्रसंघ हों. छात्रसंघ आजादी के बाद सामने आए. लोहियावादी आंदोलन ने इसे एक स्वरूप प्रदान किया. जेपी आंदोलन छात्रों का आंदोलन था लेकिन उसमें भी छात्रसंघों की खास भूमिका नहीं थी. बाद के वर्षों में राजनीति बदली तो छात्रसंघ भी बदल गए. जैसे-जैसे समय बदल रहा है, छात्र नई भूमिका में सामने आ रहे हैं. नए आंदोलन पैदा हो रहे हैं. नया आंदोलन पैदा होता है तो वह छात्रसंघ को भी अपने हिसाब से परिभाषित करता है.

गोपाल प्रधान, पूर्व छात्रनेता, जेएनयू  [/box]

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कुछ सबसे पुराने संगठनों में से एक है, इसकी स्थापना 1949 में हुई थी. दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान समेत ज्यादातर राज्यों में इसकी मजबूत स्थिति रही है. लेकिन इस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नियंत्रण है. जेएनयू में एबीवीपी के अध्यक्ष रह चुके डॉ. मनीष कुमार कहते हैं, ‘संघ में भाजपा के लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है. जो लोग भाजपा में जाते हैं, संघ की निगाह में वे भ्रष्ट हो जाते हैं. संघ की नीति है कि एबीवीपी के लोग पढ़ाई करने के बाद या तो उनके अन्य संगठनों में जाते हैं या फिर अपना करिअर बनाते हैं. जैसे अरुण जेटली का उदाहरण लीजिए. वे एबीवीपी में थे, फिर पढ़ लिखकर वकील हो गए. बोफोर्स घोटाले में वीपी सिंह ने उन्हें वकील रखा. इसके बाद वे राजनीति में आ गए. उन्हें संघ या भाजपा राजनीति में नहीं लाई. संघ राजनीति में जिन्हें भेजता भी है वे उसके स्वयंसेवक होते हैं.’ संघ की यह नीति अब भी जारी है. एबीवीपी से जुड़े जो भी नेता छात्रसंघ में चुने गए, उनमें छिटपुट चेहरे ही राजनीति में आए. मनीष कुमार खुद एबीवीपी को जेएनयू में स्थापित करने वालों में से एक हैं, लेकिन वे राजनीति में न जाकर पत्रकार बने. अब छात्रसंघों से नेता बनने की संभावनाएं लगभग न के बराबर हैं. जिस छात्रसंघ को राजनीति की नर्सरी कहा जाता था, वह अब बंजर हो चुकी है.

‘हमने तय किया था कि चुनाव लड़ेंगे अगर नहीं भी जीत पाए तो इतिहास बनेगा’

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जिस छात्रसंघ में लड़कियों की मौजूदगी बिल्कुल नहीं थी, वहां पर चुनाव लड़ने का फैसला कैसे किया?

यहां का पूरा चुनाव धनबल और बाहुबल से लड़ा जाता है जैसे विधानसभा या संसद का चुनाव हो. हमारे छात्रसंघ चुनाव का स्वरूप लगातार बदलता जा रहा था. लोग छात्रनेता होकर तुरंत राजनीति में करिअर बनाने की तैयारी करने लग जाते हैं. वे छात्र हितों के लिए काम नहीं करते. हम लोग इसके लिए लगातार चिंतित थे कि क्या किया जा सकता है. हमारा एक फ्रेंड्स यूनियन ग्रुप है. 2012 में मैंने इसे शुरू किया था, जिसके जरिये हम छात्रों की मदद करते हैं. हमारे विश्वविद्यालय के हालात बेहद खराब हैं. यहां टॉयलेट नहीं हैं, हैं तो ताले लगे हैं. सेंट्रल लाइब्रेरी में किताबें नहीं हैं, लाइब्रेरी डिजिटलाइज नहीं है. वाई-फाई कैंपस नहीं है, सब्सिडाइज कैंटीन नहीं है. दो साल से विश्वविद्यालय कार्यवाहक वीसी के सहारे चल रहा है. शिक्षक नहीं हैं. हालात को देखते हुए हमने तय किया कि कुछ करना चाहिए. बाहर से हर चीज को बुरा कहना तो आसान है, अंदर आकर देखते हैं. हमें ये तो नहीं पता था कि हम जीत पाएंगे लेकिन ये पता था अगर कुछ कर पाए तो बहुत फर्क पड़ेगा. अब मैं 1927 के बाद मैं पहली अध्यक्ष हूं.

अकादमिक करिअर छोड़कर पुरुषों के वर्चस्व वाले सियासी अखाड़े में उतरना कितना आसान रहा?

बहुत मुश्किल था. मैं रिसर्च स्कॉलर हूं, मेरा एमफिल हो चुका है, दो विषय में नेट है. अकादमिक करिअर एकदम स्पष्ट था मेरे सामने. ऐसे में यह तय कर पाना बहुत मुश्किल था कि सब छोड़कर छात्र राजनीति में जाना है. लेकिन मैं पिछले पांच साल से महिला आंदोलन से जुड़ी रही हूं. काम करते हुए यह धारणा पक्की हो गई थी कि परिवर्तन के लिए आपको आगे आना पड़ता है. हमने तय किया था कि हम चुनाव लड़ेंगे अगर नहीं भी जीत पाए तो इतिहास बनेगा, सिर्फ महिला इतिहास नहीं, बल्कि इस बात का भी कि बाहुबल या धनबल के बिना भी चुनाव लड़ा जाता है. इससे ये फर्क पड़ेगा कि आम छात्र भी चुनाव में आने की कोशिश करेगा. मैंने पांच साल कैंपस में काम किया था तो पहचान का संकट नहीं था. सभी दलों के लोगों की कोशिश थी कि मैं उनके साथ आ जाऊं. एबीवीपी ने कहा, आप हमारे पैनल से आ जाइए, सारा चुनाव हम मैनेज कर देंगे. सपा ने भी प्रस्ताव दिया, आइसा ने भी, लेकिन हम लोगों का यह मानना था कि हमने पार्टी का साथ लिया तो हमें स्टूडेंट एजेंडा छोड़कर पार्टी एजेंडा फॉलो करना मजबूरी हो जाएगी. हमने किसी पार्टी पैनल से लड़ने का विचार नहीं किया. हमने बहुत ही कम पैसों में चुनाव लड़ा और अपनी स्कॉलरशिप का पूरा पैसा खर्च कर दिया.

दिल्ली जैसे शहर के मुकाबले इलाहाबाद में घर के अंदर से लेकर सड़क तक लड़कियों पर अच्छी खासी पाबंदियां हैं, विश्वविद्यालय में भी. ऐसे में राजनीति में आने के फैसले पर परिवार ने सहयोग किया या विरोध?

शुरू में बहुत मुश्किल हुई. घरवाले नाराज हो गए थे. पिता तो बहुत ज्यादा नाराज हो गए थे तो मैंने उनसे एक ही बात बोली कि नाराज मत होइए. कुछ गलत नहीं करूंगी, करने दीजिए, जो करूंगी, अच्छा करूंगी. उन्होंने न हां कहा, न ही ना. बाद में कहा कि अगर करना चाहती हो तो करो, लेकिन अपने को सुरक्षित कर लो. इसके बाद मैंने चुनाव पर फोकस किया क्योंकि मेरे पास सिर्फ अपनी बात और अपनी क्षमता थी. मुझे हर छात्र से खुद जाकर मिलना था और अपनी बात कहनी थी. मैं विमेन स्टडीज विभाग में बतौर असिस्टेंट काम कर रही हूं. मुझे बीस हजार की फेलोशिप मिलती थी. मैंने इस्तीफा दे दिया, क्योंकि इस्तीफा दिए बिना चुनाव नहीं लड़ सकते थे. मेरे घर वालों ने कहा कि बीस हजार की एक नौकरी है, वह भी छोड़ रही हो, फिर क्या करोगी? लेकिन जिद थी कि इस बार कोशिश करनी है और काम करना है.

इलाहाबाद छात्रसंघ की एक परंपरा हुआ करती थी कि सबसे अच्छे छात्र चुनाव लड़ते थे और यहां से निकलकर भी मुख्यधारा में दखल देते थे. क्या इलाहाबाद अपनी पुरानी गरिमा खो चुका है? 

हां, बिल्कुल. आदित्यनाथ के विरोध को इससे जोड़ना चाहूंगी. हमें कैंपस में नई परंपरा शुरू करनी है. हम लोग एक नई संस्कृति की शुरुआत कर रहे हैं. इलाहाबाद आईएएस और पीसीएस बनाने के लिए जाना जाता था. वह सब खत्म हो गया. यहां के छात्र अंग्रेजी से मात खाते हैं. इसके लिए हम कुछ संस्थाओं के साथ मिलकर कार्यशालाएं चलाने वाले हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय केंद्रीय संस्था है लेकिन यहां प्लेसमेंट एजेंसियां नहीं आतीं. हमने उसके लिए भी विवि से कहा है कि प्लेसमेंट एजेंसियां बुलाई जाएं. अराजकता इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बहुत बुरी तरह हावी है. इसे खत्म करने के लिए हमारे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, लेकिन इसका मॉडल है. वह है रचनात्मकता का मॉडल. हम ऐसी रचनात्मक चीजों को आगे बढ़ाएंगे कि अराजकता अपने आप खत्म हो जाए.

प्रशासन कहता है कि पैसे नहीं है, जबकि दौ सौ करोड़ यूजीसी को लौटा दिए. अगर जांच करा लें तो 30 प्रतिशत शिक्षक फंस जाएंगे

इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिसर पूरी तरह से पितृसत्तात्मक है. यहां लड़कियां जेएनयू या डीयू के मुकाबले सहज नहीं हैं. इस दिशा में क्या प्रयास होंगे?

इसका कारण है कि यहां का अकादमिक माहौल खराब है. परिसर में रचनात्मक गतिविधियां नहीं होतीं. सेमिनार नहीं होते. महिलाओं के साथ बुरा बर्ताव वे करते हैं जो उन्हें नहीं जानते. आपस में संवाद होगा तो यह सब खत्म हो जाएगा. महिला आजादी की बात करें तो हमारे यहां छह हॉस्टल हैं, उनका दरवाजा शाम नौ बजे बंद हो जाता है. कैंपस के अंदर के हॉस्टल का भी दरवाजा बंद हो जाता है. मैं अपने सामने वाले गर्ल्स हॉस्टल नहीं जा सकती. हम हॉस्टल के अंदर भी सुरक्षित नहीं हैं. हम कोशिश करेंगे कि स्थितियां सुधरें. कैंपस में भी हमने कहा है कि लैंगिक उत्पीड़न को एकदम नकार देना है, अब तक विश्वविद्यालय प्रशासन बेहद ढीला है, लेकिन मैं जानती हूं कि पीछे पड़ जाऊंगी तो इनको करना पड़ेगा. मैं पिछले साल से ही लैंगिक भेदभाव के मसले पर कोशिश कर रही हूं. विवि प्रशासन से दो साल से कह रही हूं प्रॉक्टर के नंबर और विमेन हेल्पलाइन नंबर बोर्ड पर लगा दीजिए, ताकि किसी असहज स्थिति में लड़कियां मदद ले सकें, लेकिन अब तक नहीं हुआ. वे कहते हैं कि हमारे पास पैसे नहीं हैं, जबकि दो सौ करोड़ रुपये विश्वविद्यालय ने यूजीसी को वापस कर दिए. अगर हमारे यहां विजिलेंस की जांच करा लें तो 30 प्रतिशत शिक्षक कदाचार में फंस जाएंगे. यहां का प्रशासन महिलाओं के प्रति उदासीन है. लड़के कमेंट करते हैं तो ये लोग लड़कियों को ही बुलाकर कहते हैं कि बाहर कम निकला करो. क्लास आने की जरूरत नहीं है क्योंकि यहां गुंडे रहते हैं. इस तरह का तो विश्वविद्यालय का रवैया है. हालांकि हमारी कोशिशें तब तक जारी रहेंगी जबकि हालात बदल नहीं जाते.

राष्ट्रीय स्तर पर छात्र राजनीति की जो दशा-दिशा है, उस पर क्या कहना चाहेंगी?

छात्र राजनीति की सबसे बड़ी खासियत थी कि यह प्रेशर ग्रुप (दबाव समूह) का काम करता था. अब यह कास्ट, क्लास और जेंडर के आधार पर बंट चुकी है. अगर छात्र बंटे रहेंगे तो उनकी आवाज बेअसर रहेगी. अभी यूजीसी के खिलाफ चल रहा आंदोलन पूरे छात्र समुदाय का मुद्दा है, पर न तो सब संगठन साथ आए न ही सब छात्र. संगठित होना ही हमारी ताकत है. संगठन शक्ति कमजोर हो गई है जिससे हम दबाव समूह के रूप में काम नहीं कर पा रहे.

काठ के घोड़े हो गए छात्रसंघ

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छात्रसंघों की भूमिका 1942 के बाद से ही सत्ताविरोधी रही है. 1942 और उसके आसपास के वर्षों में युवाओं का मकसद अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकना था. आजादी के बाद कांग्रेस आई, 67 तक राज्यों में और 77 तक केंद्र में. विपक्ष में जो संगठन थे वे उसी भूमिका में चल रहे थे. 1942 से जो संगठन चले आ रहे थे, वे या तो सोशलिस्ट थे या कम्युनिस्ट. कम्युनिस्ट छात्र संगठनों ने रूस का मॉडल अपनाया था. 1949 में विद्यार्थी परिषद बनी. हालांकि, कैंपस में उसकी गतिविधियां और उसकी पहचान बनी 65 के बाद. खासकर उत्तर प्रदेश में. इसकी भी खास वजह थी. 65 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के नाम से हिंदू शब्द हटाने के लिए विधेयक पेश हुआ, जिसके विरोध में बनारस में आंदोलन उठ खड़ा हुआ. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री बनारस से ही थे. उन्हें समझ में आ गया कि लेने के देने पड़ सकते हैं और उन्होंने इसे वापस ले लिया. उस आंदोलन ने एबीवीपी को नई जिंदगी दे दी.

उस दौरान तक समाजवादी पार्टी टूटती-बिखरती रहती थी. लोहिया ने अपनी पार्टी बना ली थी. वे खुद विश्वविद्यालय परिसरों में जाते रहते थे. बनारस आंदोलन के बाद वहां से यूथ कांग्रेस गायब हो गई. छात्र समाजवादी, सीपीआई और एबीवीपी की तरफ मुड़ गए. उस दौरान मेरठ से बनारस तक छात्र राजनीति में वर्चस्व एबीवीपी की पहली प्राथमिकता थी. मोटे तौर पर इनका चरित्र सत्ताविरोधी था. इन संगठनों में एक बात कूट-कूट कर भरी थी कि जिन पार्टियों से हम जुड़े हैं, वे सत्ता में आ गईं तो सब कुछ ठीक हो जाएगा. छात्रों को वैसे भी सत्ता का विरोध ज्यादा रास आता है. सत्ता का विरोध इन संगठनों के मूल में था.

उत्तर प्रदेश ने ही सारे उत्तर भारत या कहें कि सारे भारत की राजनीति को विरोध की राजनीति में परिवर्तित किया. लेकिन जैसे ही कांग्रेस-विरोध की राजनीति के तहत जनता पार्टी सरकार बनी, उस राजनीतिक धारणा को धक्का लगा. छात्रों को मोहभंग हुआ. करीब पांच साल तक सत्ताविरोधी राजनीति में एक खालीपन आ गया.

छात्र राजनीति के लिए यह जरूरी है कि छात्रसंघों के चुनाव हों और छात्र चुनकर आएं. छठवें सातवें दशक में नारा सामने आया कि हम कल के नहीं आज के नागरिक हैं, विश्वविद्यालय प्रशासन में हमारा रोल होना चाहिए. इस तरह भागीदारी का नारा सामने आया था. 1972-73 आते-आते गुजरात और बिहार आंदोलन से छात्रसंघ प्रमुखता से आगे आ गए. जेपी यह मानने लगे थे कि मार्क्सवादी क्रांति की जो अवधारणा है कि मजदूर क्रांति करेगा, वह अपने पेशे में परमानेंट होकर मिडिल क्लास में ही तब्दील हो जाता है. फ्रांस और दूसरे देशों में जो छात्र आंदोलन हुए, उनसे यह साबित हुआ कि मार्क्सवाद व्यर्थ हो गया है. अब छात्र राजनीति से ही बदलाव हो सकता है. इस तरह परिवर्तनकारी ताकत के रूप में छात्र आगे आए और विश्वविद्यालयों के छात्रों की निर्णायक भूमिका बनी.

संयुक्त सरकारों और जनता शासन के आने के बाद इस पर पुनर्विचार की जरूरत पड़ी कि अब करें क्या? छात्रसंघ या तो सरकार पर अंकुश लगाने की भूमिका अदा करें या सत्ता को उखाड़ फेंकें. यह दोनों नहीं हुआ. तो युवा वर्ग सोचने लगा कि अब किया क्या जाए? इंदिरा की सत्ता में वापसी के बाद शिक्षा और अर्थव्यवस्था में जो बदलाव हुआ और अभी तक जारी है, इसके कारण विश्वविद्यालय कैंपस अब वह नहीं रह गए जो वह हुआ करते थे. अब कुछ विश्वविद्यालय ही ऐसे बचे हैं जहां पर छात्रसंघ है.

अब समस्या यह है कि छात्रसंघों में एकरूपता नहीं है. एक छात्रसंघ का दूसरे छात्रसंघ से संपर्क नहीं है. आपस में समन्वय न होने के कारण वे प्रभावशाली भूमिका में नहीं हैं. एक परिसर वैसे ही कुछ नहीं कर सकता, जैसे एक चना अकेला भाड़ नहीं फोड़ सकता. छात्र संगठनों की भूमिका भी बदल गई है. अब छात्रसंघ काठ के घोड़े हो गए हैं. जो अरबी घोड़े थे, जिनकी चाल सौ-दो सौ किलोमीटर हुआ करती थी, जो सत्ता को ध्वस्त कर देने का जज्बा रखते थे, अब वे नहीं रह गए. अब छात्रसंघ दिखाऊ हो गए हैं. वे तमाम उन बुराइयों से ग्रस्त हैं जो मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में हैं. राजनीतिक दलों से जुड़े छात्र संगठन उन दलों पर ही आश्रित हैं, उन्हीं के निर्देश पर चलते हैं, इसलिए उनकी बुराइयों से ही ग्रस्त हैं. छात्रसंघों में पार्टियों के जैसा ही तिकड़म, पैसा आदि इस्तेमाल होने लगा है.

इन बुराइयों का कारण है छात्र आंदोलनों का न होना और दिशाहीनता. मैं निजी अनुभव से कह सकता हूं कि छात्र आंदोलन का स्वरूप बहती नदी जैसा होता है. नदी अपना रास्ता खुद बना लेती है और उसकी निर्मलता भी बनी रहती है. उसे आप पोखर बना देंगे तो पानी सड़ने लगता है. आंदोलनों के नहीं होने से छात्रसंघ सड़ गए हैं. चूंकि इनकी कोई भूमिका ही नहीं बची तो ये अप्रासंगिक हो गए. एक ताकत के रूप में जो इनकी पहचान थी वह नष्ट हो गई. इनके नष्ट होने का दुष्परिणाम यह हुआ कि जो सुधार हो सकते थे, वे नहीं हुए. जैसे शिक्षा, रोजगार और सामाजिक स्तर पर सुधार में छात्र आंदोलन की अहम भूमिका हो सकती है, लेकिन अब वे उस योग्य नहीं रह गए हैं. सुधारों के लिए जो दबाव समूह चाहिए होता है, वह युवा पीढ़ी पैदा कर सकती है, लेकिन 1975 के बाद वैसे दबाव समूह का कोई उदाहरण नहीं है. हाल में जो दबाव समूह सामने आए वे एनजीओ से निकले या किसी अन्ना या केजरीवाल की ओर से. यहां छात्र नेतृत्वकारी भूमिका में नहीं रहे, वे पिछलग्गू बनकर रह गए. वे नेतृत्वकारी भूमिका में होते तो नया नेतृत्व उभरता. तब केजरीवाल नहीं होते. केजरीवाल एनजीओ से निकले और आंदोलन करके सरकार बना ली. उन्होंने छात्रसंघ भी बना लिया, लेकिन वे उसी काजल की कोठरी में प्रवेश कर गए, जहां बाकी दल पहले से थे. उनका संगठन उस हद तक जा रहा है, जहां पर भाजपा कांग्रेस के संगठन नहीं जा सकते थे.

इसलिए मैं कहता हूं कि छात्रसंघ अब प्रासंगिकता खो चुके हैं. कुछ कारण उनके खुद के पैदा किए हुए हैं, कुछ परिस्थिति के कारण ऐसा हुआ और कुछ वैश्विक प्रभाव में बदले हालात के कारण. जिन मुद्दों पर छात्रसंघ की सक्रियता जरूरी थी, वह अब बची ही नहीं. इसीलिए अब ऐसा कहीं नहीं है कि सुदामा और कृष्ण एकसाथ पढ़ेंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

‘कांग्रेस ने छात्रसंघों का अपराधीकरण किया’

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छात्र राजनीति के लगभग खात्मे की कोई एक वजह नहीं है. ऐसी बड़ी सामाजिक-राजनीतिक परिघटना के अनेक कारण होते हैं. 70 के दशक के बाद बदलाव का बड़ा बिंदु है आपातकाल. उस दौरान दो चीजें हुईं. एक तो आपातकाल के खिलाफ बड़ा आंदोलन उठ खड़ा हुआ. जिसमें समाजवादी छात्र संगठन, एबीवीपी, कुछ वामपंथी छात्र संगठन शामिल हुए. सीपीआई तो आपातकाल के समर्थन में थी. लेकिन कुछ वामपंथी इसके लिखाफ थे. उसी समय दूसरी घटना यह घटी कि आपातकाल के मुख्य खलनायक बनकर उभरे संजय गांधी, जिनके नेतृत्व में छात्र राजनीति का अपराधीकरण शुरू हुआ. छात्र राजनीति में गुंडे लाए गए और उनको जगह दिलाने की कोशिश की गई. संजय के नेतृत्व में एनएसयूआई के साथ विश्वविद्यालय परिसरों का अपराधीकरण शुरू किया गया और गुंडों को परिसरों में जगह दिलाने के प्रयत्न किए गए. इसके जवाब में समाजवादी और अन्य संगठनों ने भी वही तरीका अपनाया.

इस प्रयास के फलस्वरूप छात्र राजनीति में अराजकता का बोलबाला होता गया. समाजवादी छात्र सभा, हिंदूवादी और अन्य संगठनों ने इस अवसर का इस्तेमाल अपने-अपने हिसाब से किया. छात्र राजनीति में जातिवाद तो पहले से ही व्याप्त था. बीएचयू में तो मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि वहां पर ठाकुर, ब्राह्मणों और भूमिहारों की लड़ाई पहले से थी. कांग्रेस ने इन सब तत्वों का इस्तेमाल करते हुए छात्रसंघों का अपराधीकरण किया. परिसरों में अपराधियों का समाजीकरण किया गया.

आगे चलकर छात्र राजनीति को एक और बड़ा झटका लगा. एक तरफ देश भर में बाबरी आंदोलन चला, जिसमें विद्यार्थी परिषद शामिल थी. दूसरी तरफ आरक्षण विरोधी आंदोलन चला. इन दोनों घटनाओं के कारण बजरंग दल जैसे संगठनों का तेजी से उभार हुआ. मंडल विरोधी प्रतिकार की राजनीति ने छात्रसंघों को बहुत नुकसान पहुंचाया. 80 के दशक के इन दोनों तथाकथित आंदोलनों से छात्र आंदोलनों को मर्मांतक चोट पहुंची. रही सही कसर बाद में इस धारणा ने पूरी कर दी कि छात्र संगठन राजनीतिक दलों के जेबी संगठन हैं, उनकी रुचि ठेकेदारी में है, छात्रसंघ अपराधियों के अड्डे हैं आदि. यह आरोप एक हद तक सही भी है. छात्रसंघों में ऐसे लोगों का प्रवेश हो गया था, जिनका छात्र हितों से कोई लेना-देना नहीं है.

ऐसे माहौल में राज्यों को यह बेहतर लगा कि छात्रसंघों को बंद कर दिया जाए. उन्हें ऐसा करने में सुविधा भी हुई क्योंकि छात्र हमेशा सत्ताविरोधी होता है. छात्रसंघ प्रतिबंधित करने के बाद सरकारों की राह आसान हो गई क्योंकि प्रतिरोध के मंच खत्म कर दिए गए. बिहार में 1989 के बाद से छात्रसंघ है ही नहीं. उप्र में भी छात्रसंघ एक तरह से बंद हो गया. वह कभी बंद हुआ, कभी शुरू हुआ. मायावती ने प्रतिबंध लगा दिया था, मुलायम ने अभी शुरू किया है. नियमित छात्रसंघों का चुनाव हो, यह दलों की मनमानी पर निर्भर हो गया.

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को 84 में ही जेलखाना बनाने का काम शुरू कर दिया गया था. परिसरों के अराजनीतिकरण की प्रक्रिया बीएचयू और अलीगढ़ से ही शुरू हुई. 85-87 के बीच बीएचयू के दर्जनों छात्रों को कैंपस से बाहर कर दिया गया. छात्रसंघ को बाधित करने की लगातार कोशिश की गई.

उसी दौरान यह चलन शुरू हुआ कि कानून व्यवस्था का तर्क देकर कैंपस का सैन्यीकरण शुरू कर दिया गया. अलीगढ़ में फिलहाल रिटायर्ड जनरल को वाइस चांसलर बनाया गया है. इसके पहले भी इसी तरह के अधिकारियों को वहां वीसी बनाया जाता रहा है. बिहार में 80 के दशक के आखिरी में एक झटके में सभी वाइस चांसलरों को हटाकर अधिकारियों को बिठा दिया गया. जामिया में भी यही हालत है. वहां पर या तो कोई रिटायर्ड अधिकारी वीसी बनता है, या फिर रिटायर्ड सेना अधिकारी. प्राक्टर को लगातार मजबूत करते जाना, छात्र आंदोलनों को कानून व्यवस्था के रूप में देखने की प्रवृत्ति ने छात्र संगठनों की जगह खत्म कर दी.

छात्रसंघ चुनावों को लेकर बनी लिंगदोह कमेटी ने भी मनमाने सुझाव दिए. उसने इस बात को ध्यान में नहीं रखा कि छात्र संगठनों का क्षरण सामाजिक राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का नतीजा था. उसका संवैधानिक निदान नहीं हो सकता.

मुझे लगता है कि यह सब जानबूझ किया गया कि पहले छात्रों को मिलाकर उन्हें खूब खिलाओ पिलाओ, संरक्षण दो, छात्रसंघों में गुंडे भर दो, फिर अराजकता का तर्क देकर उन्हें खत्म कर दो. लिंगदोह कमेटी की सिफारिशें जो भी थीं, लेकिन उसकी रिपोर्ट आने के बाद तो देश भर में छात्रसंघ चुनाव होने चाहिए थे, लेकिन नहीं हो रहे हैं. जहां चुनाव हो भी रहे हैं, वहां इस लिंगदोह कमेटी का कोई मतलब नहीं. देश की राजधानी दिल्ली में ही डीयू के छात्रसंघ चुनाव में लिंगदोह कमेटी की धज्जियां उड़ाई जाती हैं. इस पर न सुप्रीम कोर्ट ध्यान देता है, न ही सरकार. लिंगदोह भी यह देखते ही होंगे. अगर लिंगदोह कमेटी ने कोई बेहतर सुझाव दिए थे तो उसे लागू किया जाना चाहिए था. बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश के विश्वविद्यालयों में चुनाव क्यों नहीं होते? जामिया में चुनाव क्यों नहीं होता? जहां पर छात्र राजनीति की कोई परंपरा है, वहां पर छात्र लड़-भिड़ कर चुनाव करवा लेते हैं, बाकी जगहों पर प्रतिबंध है. सुप्रीम कोर्ट को यह सब क्यों नहीं दिखता? लिंगदोह कमेटी ने और तो कुछ नहीं किया, लेकिन जेएनयू में छात्र राजनीति की बेहतर संस्कृति थी, उसे नुकसान जरूर पहुंचाया.

हालांकि, मुझे एक चीज दिख रही है कि दुनिया भर में छात्रों का आंदोलन फिर से उभर रहा है. दिल्ली में अॉक्यूपाई यूजीसी चल रहा है. इलाहाबाद और हैदराबाद में छात्र आंदोलित रहते हैं. साउथ अफ्रीका में हाल में शिक्षा के मुद्दों को लेकर बड़ा आंदोलन उठ खड़ा हुआ. अमेरिका में भी उथल-पुथल का माहौल है. कई मसलों पर लैटिन अमेरिका में भी अस्थिरता दिखाई दे रही है. यह सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है. जब सब आवाजें दब जाएंगी तो छात्र आंदोलन उठ खड़ा होगा. बिहार में एक विश्वविद्यालय में मेस के खिलाफ और गुजरात में फीस वृद्धि के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन आपातकाल तक पहुंच गया था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

जुवेनाइल जस्टिस बिल पास, जानिये क्या है इसमें खास

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निर्भया कांड के दोषी ‘नाबालिग’ की रिहाई के बाद आक्रोशित हुई जनता के दबाव में आकर आखिरकार लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी किशोर न्याय अधिनियम (बाल देखभाल और संरक्षण), 2015 पास कर दिया गया. मंगलवार को पूरे दिन राज्यसभा में इस संवेदनशील मुद्दे पर बहस हुई. अधिनियम पास हो जाने से अब जघन्य अपराध करने वाले 16-18 आयुवर्ग के बच्चों पर वयस्कों की तरह मुकदमा चलाए जाने का रास्ता साफ हो जाएगा. हालांकि उन्हें सजा 21 साल की उम्र के बाद ही दी जा सकेगी. यह मौजूदा किशोर न्याय अधिनियम, 2000 की जगह लेगा. इस साल मई में यह अधिनियम लोकसभा में पारित हो चुका है.

अधिनियम के कुछ प्रमुख प्रावधान: 

1. इसके तहत ऐसे नाबालिग जिनकी उम्र 16 साल या उससे ज्यादा है और उसकी संलिप्तता किसी गंभीर अपराध में पाई जाती है तो उन्हें बालिग मानकर मुकदमा चलाया जाएगा और उसी हिसाब सजा का प्रावधान भी होगा. इसके अलावा जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड को नाबालिगों को नियमित अदालत ले जाने या सुधार केंद्र भेजने का फैसला लेने का अधिकार मिलेगा. मौजूदा किशोर न्याय अधिनियम के तहत सिर्फ तीन साल की सजा का प्रावधान है.                                                         

2. अधिनियम में हर जिले में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड और बाल कल्याण समिति का गठन करने का प्रावधान किया गया है.

3. बिल पारित होने के बाद 16 या उससे अधिक उम्र के नाबालिगों के जघन्य अपराधों में शामिल होने की स्‍थिति में उनके खिलाफ बालिग के हिसाब से मुकदमा चलाने का निर्णय जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड लेगा.

4. हर जिले की बाल कल्याण समिति ऐसे नाबालिगों की संस्‍थागत देखभाल करेगी. हर समिति में एक अध्यक्ष और चार सदस्य होंगे, जो बच्चों से जुड़े मामलों के विशेषज्ञ होंगे.

5. अधिनियम के तहत बच्चों के गोद लेने की प्रक्रिया को भी विधिसम्मत बनाया गया है. साथ ही गोद लेने वाले अभिभावकों की योग्यता भी तय की गई है. सेंट्रल एडॉप्‍शन रिसोर्स एजेंसी (सीएआरए) गोद लेने की प्रक्रिया से जुड़े नियम बनाएगी, जिसे हर जिले में लागू करवाने की जिम्मेदारी बाल कल्याण समिति की होगी.

छात्रसंघः बंजर होती राजनीति की नर्सरी

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पूरब के ऑक्सफोर्ड के नाम से मशहूर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जब ‘जय श्रीराम’ के नारे सुनाई देने लगे तो यह तय हो गया कि मौजूदा सियासत की गंदगी ने इस ऐतिहासिक परिसर में घुसपैठ कर ली है. निराला, महादेवी और बच्चन की परंपरा वाले इस विश्वविद्यालय के लिए इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता. हालिया निर्वाचित छात्रसंघ के उद्घाटन के लिए कट्टर हिंदूवादी नेता योगी आदित्यनाथ को आमंत्रित किया गया तो छात्रों के एक बड़े समूह ने इसे विश्वविद्यालय के लोकतांत्रिक माहौल पर कट्टरता के हमले के रूप में देखा. इलाहाबाद के बुद्धिजीवियों ने भी विश्वविद्यालय परिसर में हिंदूवादी नेता के प्रवेश को सर्वथा वर्जित करार दिया और योगी आदित्यनाथ को बैरंग लौटना पड़ा. जिस इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने बाबरी ध्वंस के बाद विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल को परिसर में नहीं घुसने दिया था, उसी विश्वविद्यालय के छात्रों ने वहां पर योगी आदित्यनाथ को भी नहीं आने दिया. लेकिन मसला योगी का विश्वविद्यालय में आना या न आना नहीं था, मसला यह था कि राजनीति के कट्टर और विवादित चेहरों की किसी विश्वविद्यालय परिसर को जरूरत ही क्या है? हालांकि, यह मसला यहीं नहीं खत्म हो गया. जिस भय से योगी आदित्यनाथ को विश्वविद्यालय में जाने से रोका गया था, वह सामने आया. विश्वविद्यालय परिसर योगी के समर्थन और विरोध को लेकर दो खेमों में बंट गया.

हाल ही में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ का चुनाव हुआ, जिसमें निर्दलीय प्रत्याशी ऋचा सिंह अध्यक्ष चुनी गईं. पैनल के बाकी पद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को मिले. 20 नवंबर को छात्रसंघ उद्घाटन का कार्यक्रम रखा गया. इसके लिए भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ को आमंत्रित किया गया. यह कार्यक्रम एबीवीपी ने आयोजित किया था और योगी को छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह की असहमति के बावजूद बुलाया गया था. ऋचा सिंह के विरोध को जब नजरअंदाज किया गया तो ऋचा ने विश्वविद्यालय से लिखित में शिकायत की. ऋचा का तर्क था कि एक तो ‘मेरे अध्यक्ष होने के बावजूद योगी को बुलाने या आयोजन की निर्णय प्रक्रिया में मुझे शामिल नहीं किया गया. दूसरे, योगी लगातार धर्म और संस्कृति के नाम पर भड़काऊ बातें करते हैं. वे ऐसी शख्सियत नहीं हैं जो विश्वविद्यालय की गरिमा के अनुरूप हो. छात्रसंघ को संबोधित करने के लिए किसी अकादमिक शख्सियत को बुलाया जाना चाहिए.’

इस विरोध के बावजूद जब गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ का कार्यक्रम रद्द नहीं हुआ तो ऋचा अपने समर्थक छात्रों-छात्राओं के साथ अनशन पर बैठ गईं. इस विरोध का इलाहाबाद के बुद्धिजीवियों ने भी समर्थन किया और प्रशासन से अपील की कि योगी को विश्वविद्यालय में आने देना एक गलत परंपरा की शुरुआत होगी, इसे रोका जाए. अंतत: प्रशासन ने योगी का कार्यक्रम रद्द कर दिया.

भारतीय छात्र आंदोलन का संगठित रूप सबसे पहले 1828 में कलकत्ता में ‘एकेडमिक एसोसिएशन’ के रूप में सामने आया. इसकी स्थापना एक पुर्तगाली छात्र हेनरी विवियन डीरोजियो द्वारा की गई

इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे कैंपस में 90 साल बाद किसी महिला को छात्रसंघ अध्यक्ष चुना गया है. ऋचा का आरोप है, ‘चुनाव के दौरान मुझपर लगातार जातिवादी और लैंगिक हमले हुए. यह परिसर लड़कियों के लिए बेहद डरावना है.’ अब ऋचा सिंह की अगुआई में छात्राएं दीवारों पर उनके नाम के साथ लिखी अश्लील गालियों के विरोध में आंदोलन कर रही हैं. इतने पुराने विश्वविद्यालय में भी अगर छात्राएं इस बात के लिए आंदोलन करें कि उनको गालियां न दी जाएं तो विश्वविद्यालय प्रशासन, छात्रसंघ और उस परिसर की छीजती परंपरा पर गंभीर सवाल उठते हैं.

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इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जहां की अकादमिक परंपरा और छात्रसंघ का बेहद गौरवशाली इतिहास रहा है, वहां ऐसे हालात क्यों पैदा हुए? जिस परिसर से युवा तुर्क कहे जाने वाले चंद्रशेखर, सामाजिक न्याय के पुरोधा वीपी सिंह समेत दर्जनों नेता निकले हों, उस परिसर की छात्र राजनीति का स्तर यहां तक कैसे पहुंच गया? छात्र हित के जरूरी मुद्दों से लेकर सामाजिक-आर्थिक सवालों पर लड़ने वाले छात्रसंघ की फिसलन उसे यहां तक कैसे ले आई कि अब वह योगी आदित्यनाथ को शैक्षिक परिसर में घुसाने पर आमादा हो गया?

इन सवालों के जवाब पिछले दो-तीन दशक की छात्र राजनीति के अवसान में छुपे हैं. देश भर के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ पर प्रतिबंध है. छात्रसंघ अब वहीं बचा है, जहां पर छात्र राजनीति की पुरानी परंपरा रही है और छात्रों ने लड़-भिड़ कर छात्रसंघ बहाल करा लिया है. आज पूरे देश में कहीं भी छात्रसंघ ऐसी हालत में नहीं हैं जो व्यापक स्तर पर सरकार, यहां तक कि विश्वविद्यालयों के किसी गलत निर्णय पर दबाव समूह की भूमिका में आएं और उस निर्णय को बदलवा सकें.

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्वतंत्रता के बाद के सालों में जितने भी बड़े आंदोलन हुए, उनमें छात्रों की सक्रिय भागीदारी रही है. स्वतंत्रता आंदोलन में बड़े नेताओं के नेतृत्व में जितने भी उल्लेखनीय आंदोलन हुए, उन सभी आंदोलनों की सफलता की इबारत युवाओं ने ही लिखी. पहली बार 1905 के स्वदेशी आंदोलन में युवाओं ने बड़े पैमाने पर भागीदारी की. 1920 में महात्मा गांधी ने जब असहयोग आंदोलन शुरू किया तो देश भर के युवा इसमें कूद पड़े. पहले महीने में ही 90,000 छात्र स्कूल-कॉलेज छोड़कर आंदोलन में शामिल हो गए थे. 1922 में चौरीचौरा कांड को राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में युवाओं ने ही अंजाम दिया था. 1930-31 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी व्यापक स्तर पर युवाओं ने भागीदारी की. 1942 में गांधीजी के आह्वान पर ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन छिड़ा तो सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. यह पूरा आंदोलन युवाओं और छात्रों के हाथ में आ गया था. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, रोशन सिंह, राजेंद्र सिंह लाहिड़ी, भगत सिंह आदि शहीदों के अलावा बलिदान देने वाले ज्यादातर क्रांतिकारी युवा ही थे. 1936 में ‘आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन’ (एआईएसएफ) की स्थापना हुई जिसका स्वतंत्रता आंदोलन में बेहद उल्लेखनीय योगदान रहा.

भारतीय छात्र आंदोलन का संगठित रूप सबसे पहले 1828 में कलकत्ता में ‘एकेडमिक एसोसिएशन’ के रूप में सामने आया. इसकी स्थापना एक पुर्तगाली छात्र हेनरी विवियन डीरोजियो द्वारा की गई. 1840 से 1860 के मध्य ‘यंग बंगाल मूवमेंट’ के रूप में दूसरे छात्र आंदोलन का संगठित प्रयास हुआ. 1848 में दादा भाई नौरोजी की पहलकदमी पर मुंबई में ‘स्टूडेंट्स लिटरेरी एंड साइंटिफिक सोसाइटी’ की स्थापना हुई. आनंद मोहन बोस और सुरेंद्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 में ‘स्टूडेंट्स एसोसिएशन’ की स्थापना हुई. इस संगठन ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में अहम भूमिका निभाई. डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अगुआई में 1906 में ‘बिहारी स्टूडेंट्स सेंट्रल एसोसिएशन’ की स्थापना हुई थी, जिसने बनारस से कलकत्ता तक अपना विस्तार किया. 1920 में नागपुर में ‘ऑल इंडिया कॉलेज स्टूडेंट्स कॉन्फ्रेंस’ की शुरुआत हुई. इसका उद्घाटन लाला लाजपत राय ने किया था. 26 मार्च, 1931 को कराची में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें देश भर से 700 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था. आजादी के बाद के वर्षों में भी देश में जो भी बड़े आंदोलन हुए, उनमें छात्रों की निर्णायक या नेतृत्वकारी भूमिका रही. 1969 में तेलंगाना आंदोलन, 1974-75 में इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन और आपातकाल, 1981 में असम आंदोलन और बोफोर्स घोटाले के बाद वीपी सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में छात्रों की ही अहम भूमिका रही.

आज पूरे देश में कहीं भी छात्रसंघ ऐसी हालत में नहीं हैं जो व्यापक स्तर पर सरकार, यहां तक कि विश्वविद्यालयों के किसी गलत निर्णय पर दबाव समूह की भूमिका में आएं और उस निर्णय को बदलवा सकें

आजादी के बाद हैदराबाद निजाम का हिस्सा रहे तेलंगाना को 1956 में नवगठित आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया था. 40 के दशक से ही कॉमरेड वासुपुन्यया की अगुवाई में वामपंथी अलग तेलंगाना राज्य की मांग के लिए अभियान चला रहे थे. तेलंगाना के छात्रों ने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया. 1969 में यह हिंसक हो गया. इस आंदोलन का केंद्र उस्मानिया विश्वविद्यालय था. 6 अप्रैल, 1969 को तेलंगाना के समर्थन में उस्मानिया विश्वविद्यालय के हजारों छात्रों ने मिलकर उस मीटिंग का घेराव किया जो आंध्र प्रदेश के तेलंगाना विरोधियों ने बुलाई थी. छात्रों की जबरदस्त भीड़ पर पुलिस की ओर से फायरिंग कर दी गई. तीन छात्र मारे गए.

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एक मई को एक बार फिर उस्मानिया के छात्रों और तेलंगाना क्षेत्र के लोगों ने बड़ी रैली निकाली. रैली पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने के बावजूद हजारों की भीड़ एकत्र हो गई. इस रैली में भी पुलिस फायरिंग हुई जिसमें बड़ी संख्या में लोग घायल हुए थे. 1969 के पूरे तेलंगाना आंदोलन के दौरान पुलिस की गोली से 369 लोगों की जान गई थी. मारे गए लोगों में ज्यादातर उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्र थे. हालांकि, उस वक्त एम. चेन्ना रेड्डी की अगुआई वाली तेलंगाना प्रजा समिति के कांग्रेस में विलय के साथ यह आंदोलन शांत हो गया. 2000 में भाजपा सरकार ने जब तीन नए राज्यों-उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ का गठन किया तो तेलंगाना आंदोलन फिर से शुरू हो गया. 2001 में के. चंद्रशेखर राव अलग तेलंगाना का मुद्दा उठाते हुए तेलुगू देशम पार्टी से अलग हुए और तेलंगाना राष्ट्र समिति बना ली. लंबे संघर्ष के बाद अंतत: 2 जून, 2014 को अलग तेलंगाना राज्य का गठन हुआ.

आजादी के बाद छात्र आंदोलन की सबसे मुखर भूमिका 70 के दशक में देखने को मिली. 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी लोकप्रियता की बुलंदियों पर थीं लेकिन 1973 से इंदिरा गांधी के लिए सियासत का रुख बदलने लगा. आजादी के 25 साल बाद भी जनता की आकांक्षाएं अधूरी थीं. गरीबी एवं आर्थिक विषमता के मोर्चे पर कोई उल्लेखनीय काम नहीं हो सका था. जनता में अलग-अलग कारणों से असंतोष उभर रहा था. मंदी, बढ़ती बेरोजगारी, आकाश छूती महंगाई और खाद्य पदार्थों की कमी ने मिलजुल कर एक गंभीर संकट खड़ा कर दिया. देश के कई हिस्सों में सूखे की वजह से दंगे होने लगे और देश भर में बड़े पैमाने पर अशांति उत्पन्न हो गई थी. हड़तालों का दौर शुरू हुआ. इस खराब होते हालात में छात्रों के आंदोलन, प्रदर्शन और जुलूस अक्सर हिंसक होने लगे.

संजय गांधी को मारुति कार बनाने का लाइसेंस मिलने के बाद भ्रष्टाचार से व्याप्त घोर असंतोष और बढ़ गया. देश में बढ़ता जनाक्रोश जनवरी, 1974 में गुजरात में छात्र आंदोलन के रूप में फूट पड़ा. राज्य के कई शहरों में छात्र सड़क पर उतर आए. छात्रों के इस प्रदर्शन में विपक्षी दलों ने भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया. दस सप्ताह तक लगातार गुजरात अशांत रहा और अंतत: इंदिरा गांधी ने वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया. गुजरात के नक्श-ए-कदम पर बिहार के छात्रों ने भी मार्च में आंदोलन शुरू कर दिया. बिहार विधानसभा के घेराव से शुरू हुआ यह आंदोलन बार-बार छात्रों और पुलिस की मुठभेड़ में तब्दील होने लगा. एक सप्ताह में 27 लोग मारे गए. इस आंदोलन में जयप्रकाश नारायण भी शामिल हो गए और आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया. जेपी ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया जो ‘उस पूरी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष था जिसने हर व्यक्ति को भ्रष्ट बनने के लिए मजबूर कर दिया था.’ जेपी के नेतृत्व में यह आंदोलन बिहार से निकलकर पूरे देश में फैल गया. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इस आंदोलन के प्रति लगातार उग्र होती गईं और इसकी परिणति आपातकाल के रूप में सामने आई जिसके बाद पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी.

‘विश्वविद्यालय में चुनाव लड़ने के लिए कोई छात्र फर्जी एडमिशन नहीं लेता था. सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर मूल्यों में गिरावट आई तो छात्रसंघ भी उसके शिकार हुए. अब परिसर में ‘दुधमुंहे’ युवा गोलियां तक चलाते हैं’

असम छात्र आंदोलन आजादी के बाद के बड़े छात्र आंदोलनों में से एक है, जिसने सत्ता परिवर्तन का सूत्रपात किया. 50 के दशक में यहां राज्य सरकार की नौकरियों में असमिया लोगों को प्राथमिकता देने और असमिया भाषा को कामकाज की भाषा बनाने की मांग हुई. 1979 के विधानसभा चुनाव के गैर-कानूनी प्रवासियों के बड़ी संख्या में मतदाता सूची में शामिल होने की बात सामने आई. ‘ऑल असम स्टूडेंट यूनियन’ ने क्षेत्रीय, भाषाई और सांस्कृतिक संगठनों के गठबंधन ‘असम गण संग्राम परिषद’ के साथ मिलकर इसके विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया. इस आंदोलन के चलते 16 में से 14 चुनाव क्षेत्रों में चुनाव नहीं कराए जा सके. इसी आंदोलन के दौरान 7 अप्रैल, 1979 को उल्फा का गठन हुआ जिसका मकसद एक समाजवादी असम राज्य की स्थापना बताया गया. बाद में यह संगठन हिंसक कार्रवाइयां करने लगा और आगे चलकर 1990 में इसे आतंकवादी संगठनों की सूची में डाल दिया गया.

इस छात्र आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि 1985 में हुए चुनावों में 33 वर्षीय प्रफुल्ल महंत अपने कॉलेज से सीधे सीएम की कुर्सी पर पहुंच गए. महंत को 126 में से 67 सीटें मिली थीं. बहुत समय बाद असम में कोई ऐसी सरकार आई थी, जिसे पूर्ण बहुमत मिला था. जनता की आकांक्षाएं सातवें आसमान पर थीं. महंत की सरकार पांच साल तक चली तो लेकिन इस आंदोलन से उपजी जन आकांक्षाएं निराशा में तब्दील होती गईं. 1990 में हुए चुनावों में प्रफुल्ल महंत हार गए.

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चंद्रशेखर हत्याकांडः युवा संभावनाओं की हत्या

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ में कई ऐसे युवा सक्रिय रहे हैं जिनमें बेहतर नेतृत्व की संभावनाएं मौजूद रही हैं. ऐसा ही एक नाम था चंद्रशेखर प्रसाद. चंद्रशेखर 1994-95 में जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए थे. उन्होंने लगातार तीन साल तक छात्रसंघ चुनाव जीतकर कीर्तिमान बनाया था. उन्होंने जेएनयू में आईसा का जनाधार बढ़ाने के साथ-साथ वहां के कर्मचारियों और शिक्षकों के साझे मोर्चे को भी पुख्ता किया था. 31 मार्च 1997 को बिहार के सिवान जिले में वे बथानी टोला नरसंहार के खिलाफ आयोजित एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे, तभी उनकी हत्या कर दी गई थी. उनके साथ दो अन्य पार्टी कार्यकर्ता श्यामनारायण यादव और भुट्टी मियां की भी गोली लगने से मौत हो गई थी. चंद्रशेखर बिहार में राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर होकर अभियान चला रहे थे. आरोप लगा था कि यह हत्या बाहुबली नेता शहाबुद्दीन के इशारे पर की गई थी. भारत में युवा राजनीति की संभावनाओं को बर्बरतापूर्वक खत्म करने देने का यह सबसे घातक उदाहरण है.

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60 से 80 के दशक के बीच का दौर छात्र आंदोलनों का तूफानी दौर रहा. लेकिन आपातकाल के बाद छात्रों की आंदोलनकारी भूमिका को राजनीतिक दखल के जरिये नीतिगत स्तर पर लगातार हतोत्साहित किया गया. उसके बाद, खासकर पिछले दो-तीन दशकों में मंडल-मंदिर की राजनीतिक लड़ाई में युवा विभाजित हुए. उदारीकरण-भूमंडलीकरण की चमक से प्रभावित होकर जनहित के मुद्दे गायब होते गए और छात्र आंदोलन कमजोर होता गया. इसके अलावा, सत्ताधारी वर्ग ने छात्र आंदोलन को कमजोर करने के लिए सुनियोजित तरीके से देश भर के विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों को प्रतिबंधित किया. रही सही कसर लिंगदोह समिति की सिफारिशों ने पूरी कर दी. इस सिफारिश के जरिये छात्रसंघों को कमजोर बनाने की कोशिश की गई. उदारीकरण के बाद ही विश्वविद्यालयों के अराजनीतिकरण का फैशन चला और छात्रसंघों को राजनीतिक दलों का पालतू बताया जाने लगा.

बीएचयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके आनंद प्रधान कहते हैं, ‘छात्रसंघों को सायास कमजोर करने की वजह यह थी कि चाहे कांग्रेस या गैर-कांग्रेसी पार्टियों की केंद्र में सरकार रही हो या राज्य सरकारें, सभी छात्रसंघों और छात्र-युवा आंदोलनों से डरती रही हैं, क्योंकि 60 से 80 के दशक के दौरान देश में विभिन्न मुद्दों पर सत्ता को चुनौती देने वाले ज्यादातर छात्र-युवा आंदोलनों की अगुवाई छात्रसंघों ने ही की थी.’ तेलंगाना आंदोलन का केंद्र उस्मानिया विश्वविद्यालय था तो 1975 के आंदोलन में भी कॉलेज और विश्वविद्यालय ही आंदोलन के केंद्र बने.

पहले डॉ. राम मनोहर लोहिया के आंदोलन और बाद में जेपी आंदोलन ने युवाओं पर बहुत व्यापक प्रभाव डाला था. लोहिया की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता ने जहां युवाओं को राजनीति से जोड़कर सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर जागरूक किया तो जेपी ने व्यवस्था की चूलें हिला देने वाले आंदोलन की अगुवाई करके उसे मूर्तरूप दिया था.

इन्हीं आंदोलनों की प्रेरणा थी कि भारतीय राजनीति में लालू यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, मुलायम सिंह, सुशील मोदी जैसे समाजवादी नेताओं की एक पूरी पीढ़ी तैयार हुई. भाजपा के रविशंकर प्रसाद, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और विजय गोयल छात्रसंघ से आए हुए नेता हैं. कांग्रेस के सीपी जोशी, अजय माकन, भाकपा के डी. राजा, सीताराम येचुरी, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी भी छात्रसंघ की उपज हैं. जेपी आंदोलन ने न सिर्फ इंदिरा गांधी की तानाशाही को मुंहतोड़ जवाब दिया था, बल्कि भारतीय राजनीति में कई क्षेत्रीय दलों के उभार के कारण कांग्रेस का एकाधिकार खत्म हो गया.

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के रीडर संजय द्विवेदी अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘पिछली सदी के आखिरी बड़े छात्र आंदोलन की शुरुआत 1974 में गुजरात के एक विश्वविद्यालय के मेस की जली रोटियों के प्रतिरोध के रूप में हुई और उसने राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐतिहासिक छात्र आंदोलन की भूमि तैयार की. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व संभालने के बाद यह आंदोलन युवाओं की भावनाओं का प्रतीक बन गया. किंतु सत्ता परिवर्तन के बाद कुर्सी की रस्साकसी में संपूर्ण क्रांति का नारा तिरोहित हो गया. सपनों के इस बिखराव के चलते छात्र राजनीति में मूल्यों का स्थान आदर्शविहीनता ने ले लिया. आदर्शविहीनता के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में तब तक संजय गांधी का उदय हो चुका था. उनके साथ विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली उद्दंड नौजवानों की एक पूरी फौज थी जो सब कुछ डंडे के बल पर नियंत्रित करना चाहती थी. जेपी आंदोलन में पैदा हुई युवा नेताओं की जमात, ‘संपूर्ण क्रांति’ की विफलता की प्रतिक्रिया में युवक कांग्रेस से जुड़ गई. इसके बाद शिक्षा मंदिरों में हिंसक राजनीति, छेड़छाड़, अध्यापकों से दुर्व्यवहार, गुंडागर्दी, नकल, अराजकता और अनुशासनहीनता का सिलसिला शुरू हुआ. छात्रसंघ चुनावों में बमों के धमाके सुनाई देने लगे. संसदीय राजनीति की सभी बुराइयां छात्रसंघ चुनावों की अनिवार्य जरूरत बन गईं.’ समय के साथ परिसरों का यह  अपराधीकरण बढ़ता गया और स्थिति यहां तक पहुंच गई कि छात्रसंघों पर प्रतिबंध लगाने के पर्याप्त बहाने मौजूद हो गए.

हाल के कुछ वर्षों में इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में गोली-बम चलना आम बात है. इस बार भी चुनाव पूर्व भाषण के दौरान बमबाजी हुई और फ्री में होर्डिंग न बनाने को लेकर एक छात्रनेता प्रवीण यादव ने सिविल लाइन्स में कथित दौर पर फायरिंग करके व्यापारी को धमकाया. इसी विश्वविद्यालय में 2006 के चुनाव के दौरान पोस्टर हटवाने को लेकर हुए विवाद में एक प्रत्याशी कमलेश यादव की हत्या हो गई थी. जनवरी, 2011 में मेरठ में सपा के छात्र नेता प्रसोनजीत गौतम ने कथित तौर पर एलएलबी की एक छात्रा का घर में घुसकर अपहरण कर लिया था. इस तरह के उदाहरण देश भर के छात्रसंघों में भरे पड़े हैं. तमाम ऐसे उदाहरण सामने आए जब छात्रसंघ से निकलकर युवाओं ने खनन, ठेकेदारी, अपहरण जैसे अपराधों की ओर रुख किया. लिंगदोह समिति की सिफारिशें लागू होने के पहले एक बार ऐसा दिलचस्प वाकया भी देखने को मिला जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक पचास वर्षीय शख्स ने अध्यक्ष पद पर चुनाव लड़ा और उसी विश्वविद्यालय में पढ़ रहे उनके बेटे ने उनके लिए प्रचार किया. कैंपस में बने रहने के लिए 40-45 साल तक के छात्रनेता चुनाव मैदान में उतरने लगे. इस तरह छात्रसंघों के अपराधीकरण और बढ़ते कदाचार ने उन पर प्रतिबंध की राह प्रशस्त की.

छात्र आंदोलनों को कमजोर करने में राजनीतिक दलों और उनके पालतू छात्र संगठनों ने अहम भूमिका निभाई है. सत्ताधारी दलों ने छात्र संगठनों को सिर्फ भीड़ जुटाने और गुंडागर्दी के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया

1968-69 में इलाहाबाद छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे विनोद चंद्र दुबे कहते हैं, ‘मैंने 32 रुपये में पूरा चुनाव लड़ा था. तब छात्र राजनीति में धन, बल, गोली-बंदूक, गाड़ी, पोस्टर-होर्डिंग आदि की जरूरत नहीं थी. छात्रों के बीच काम करके पहचान बनाई जाती थी. छात्रों को बस उम्मीदवारी की सूचना देनी होती थी. लिंगदोह समिति ने जो उम्र सीमा निर्धारित की, वह हमारे समय अघोषित नियम था. आम तौर पर विश्वविद्यालय में जितने वर्ष स्वाभाविक तौर पर पढ़ाई करना होता है, उन्हीं वर्षों में विद्यार्थी चुनाव लड़ते थे. विश्वविद्यालय में बने रहने और चुनाव लड़ने के लिए कोई छात्र फर्जी एडमिशन नहीं लेता था. सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर मूल्यों में गिरावट आई तो छात्रसंघ भी उसके शिकार हुए. अब परिसर में ‘दुधमुंहे’ युवा गोलियां तक चलाते हैं.’ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आज सब कुछ पहले के उलट है.

आपातकाल ने युवा शक्ति को गंभीर चोट पहुंचाई थी. इसने समय के साथ युवाशक्ति को और कमजोर किया. उसके बाद कई आंदोलन चले, लेकिन उनका हश्र बुरा हुआ. असम आंदोलन के बाद मुख्यमंत्री बने प्रफुल्ल महंत की सरकार सही मायने में पूरी तरह छात्र आंदोलन से बनी सरकार थी. यह भारत में पहली बार हुआ था. लेकिन सत्तासीन होने के बाद उस सरकार ने भी जनता को निराश किया. जेपी आंदोलन तो सफल रहा था, लेकिन जनता सरकार के गिर जाने से पूरे आंदोलन पर पानी फिर गया. जेपी आंदोलन की यह विफलता और उसके बाद असम छात्र आंदोलन की निराशाजनक परिणति ने छात्र आंदोलनों की संभावना पर गंभीर सवाल खड़े किए.

इसके बाद जब भी छात्र आंदोलन हुए, वे अपार उम्मीद के साथ शुरू हुए और पहले से अधिक निराशा छोड़ गए. विश्वनाथ प्रताप सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को भी युवाओं का देशव्यापी समर्थन मिला, लेकिन मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की हड़बड़ी और उस पर जाति की राजनीति ने युवाओं को दो धड़े में बांट दिया. इसके बाद आरक्षण विरोधी आंदोलन और फिर बाबरी ध्वंस ने और खराब स्थितियां उत्पन्न कीं. आनंद प्रधान कहते हैं, ‘देश में बाबरी आंदोलन और आरक्षण विरोधी आंदोलन के कारण बजरंग दल जैसे संगठनों का तेजी से उभार हुआ. प्रतिकार की राजनीति ने छात्रसंघों को बहुत नुकसान पहुंचाया. इन दोनों तथाकथित आंदोलनों से छात्र आंदोलनों को गहरी चोट पहुंची, जिसकी भरपाई नहीं हो सकी.’

छात्र आंदोलनों को कमजोर करने में राजनीतिक दलों और उनके पालतू छात्र संगठनों ने अहम भूमिका निभाई है. सत्ताधारी दलों ने छात्र संगठनों को सिर्फ गुंडागर्दी के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. उनकी भूमिका रैलियों में भीड़ जुटाने, शीर्ष नेताओं की जय-जयकार करने और जरूरत पड़ने पर हंगामा-तोड़फोड़ तक सीमित हो गई. इसका नतीजा यह हुआ कि छात्र राजनीति का अपराधीकरण होता गया. छात्रसंघ चुनाव धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा के मकड़जाल में फंसते चले गए. इस स्थिति ने छात्र-राजनीति को आम छात्रों के असल मुद्दों से दूर कर दिया. छात्रहितों से दुराव और अपराधीकरण ने युवाओं के अराजनीतिकरण में बड़ा योगदान दिया.

70 के दशक तक छात्र राजनीति में विश्वविद्यालयों के सबसे प्रतिभाशाली छात्र सक्रिय होते थे. पढ़ाई के साथ-साथ वे छात्रों के मसलों से लेकर समाज और देश के विभिन्न मसलों पर बहस-मुबाहिसों में हिस्सेदारी करते थे. यह रास्ता मुख्यधारा की राजनीति तक जाता था. अकेले इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ से शंकरदलाय शर्मा, मदनलाल खुराना, विजय बहुगुणा, जनेश्वर मिश्र, चंद्रशेखर, वीपी सिंह, अर्जुन सिंह जैसे नेता और सुभाष कश्यप जैसे प्रशासक और संविधानविद निकले. सुभाष कश्यप बताते हैं, ‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मैंने एमए टॉप किया था. तब 18 साल की उम्र में मताधिकार की मांग को लेकर हमने खूब सक्रियता भी दिखाई और पढ़ाई भी की. सियासी दलों का दखल परिसरों में तब भी था, लेकिन हमने दूरी बनाए रखी, इसलिए उसकी बुराइयों से दूर रहे.’

कोई हैरानी की बात नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में अन्ना आंदोलन और निर्भया गैंग रेप के उठ खड़े हुए जनाक्रोश को छोड़ दें, तो किसी व्यापक मुद्दे पर छात्र आंदोलन नहीं हुआ. जो हुआ भी वह बेहद निष्प्रभावी और क्षेत्रीय किस्म का आंदोलन रहा. अन्ना आंदोलन भी यूपीए सरकार के अनवरत भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्से की अभिव्यक्ति से ज्यादा कुछ नहीं साबित हुआ. निर्भया गैंग रेप के विरोध में भड़का जनाक्रोश इस मामले में ऐतिहासिक था कि कोई नेतृत्व न होने के बावजूद लगभग पूरे देश में प्रदर्शन हुए. इस बर्बरतापूर्ण घटना के सामने आते ही बड़ी संख्या में युवा अपना गुस्सा जताने के लिए सड़क पर आ गए. जेएनयू, जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय के सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के आवास पर जबरदस्त प्रदर्शन किया. पुलिस ने जब इस प्रदर्शन को वाटर कैनन और लाठीचार्ज के सहारे दबाने की कोशिश की तो जनता का गुस्सा और बढ़ गया. पूरी दिल्ली के लोग रायसीना हिल्स, विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक एकत्र हो गए. इस प्रदर्शन में बिना किसी नेतृत्व के बड़ी संख्या में युवतियां शामिल थीं, जिन्होंने राजधानी के सत्ता-केंद्रों को घेर लिया. सबसे दिलचस्प यह रहा कि पुलिस की लाठीचार्ज, वाटर कैनन, आंसूगैस आदि के इस्तेमाल से युवा पीछे नहीं हटे, बल्कि पुलिस के दमन से यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया. खासकर महिलाओं में जबरदस्त नाराजगी के चलते सरकार पर दबाव बना और महिलाओं की आजादी, सम्मान और सुरक्षा का मुद्दा राष्ट्रीय एजेंडे पर आ गया. हालांकि, अभी तक यह एजेंडा राजनीतिक जुमलेबाजी से आगे नहीं बढ़ सका है.

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आनंद प्रधान कहते हैं, ‘छात्र आंदोलन लोकतांत्रिक राजनीति की रीढ़ हैं. वे न सिर्फ सरकारों की सामाजिक निगरानी और उन पर अंकुश रखने का काम करते हैं बल्कि उनके जनविरोधी फैसलों के खिलाफ आंदोलनों की अगुवाई करके नया राजनीतिक विकल्प पैदा करने में भी मदद करते हैं. वे सामाजिक बदलाव के मुद्दों को भी राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने में मदद करते हैं. देश और दुनिया में जितने भी बड़े छात्र-युवा आंदोलन हुए हैं, वे छात्रों-युवाओं के निजी मुद्दों पर नहीं बल्कि तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की बहाली के लिए या भ्रष्टाचार के खिलाफ सार्वजनिक शुचिता और पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर हुए हैं. लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश में छात्र-युवा राजनीति और छात्रसंघों को सुनियोजित तरीके से खत्म करने की कोशिशें अभी भी जारी हैं.’

स्वराज अभियान के नेता योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘छात्रसंघ स्वतः खत्म नहीं हुए हैं, उन पर देश भर में प्रतिबंध लगा दिया गया है. हर राज्य की सरकारों ने इसे अपने-अपने स्तर पर प्रतिबंधित किया इसलिए यह राष्ट्रीय ट्रेंड के रूप में नहीं दिखा. छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर पाबंदी लगा दी गई. इसका कारण यह नहीं है कि युवा राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखता, बल्कि वह और अधिक आशाओं के साथ सामने आ रहा है. अब युवा शक्ति को जोड़ सकने वाली ताकतें निठल्ली हो गई हैं और छात्र राजनीति पर दलों का कब्जा हो गया है. छात्र राजनीति के बड़े इलाके पर विशुद्ध गुंडे काबिज हैं. चूंकि, पार्टियों में अब राजनीतिक परिवारों से लोग आ रहे हैं तो उनको छात्र राजनीति से खतरा है.’

इन हालात के बावजूद कुछ एक छात्रसंघ ऐसे बचे हैं जो अभी भी समय-समय पर विभिन्न मुद्दों पर दखल देकर युवा शक्ति के मायने बताने की कोशिश करते हैं. पिछले वर्षों में अलग-अलग मुद्दों को लेकर लगातार कई छोटे-छोटे छात्र आंदोलन चल रहे हैं. सितंबर, 2014 में कोलकाता के जाधवपुर विश्वविद्यालय में एक छात्रा के यौन उत्पीड़न की घटना हुई. आरोपियों पर कार्रवाई न करने और प्रदर्शनकारी छात्रों पर पुलिस की बर्बरता के विरुद्ध छात्रों का गुस्सा भड़क उठा. इस घटना के समर्थन में पूरे देश में प्रदर्शन हुए. यह आंदोलन पांच महीने तक चला. अंतत: मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अनशनरत छात्रों से मुलाकात की और वाइस चांसलर ने इस्तीफा दिया. इसी तरह हिमाचल प्रदेश में राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (रूसा) लागू करने और फीस बढ़ाने के खिलाफ लगातार आंदोलन चला, जिसे बार-बार सत्ता की ताकत से कुचलने का प्रयास किया गया. ये आंदोलन और सरकारी स्तर पर इन्हें कुचलने की कोशिशें अब भी जारी हैं. बीते नवंबर में इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी हैदराबाद के छात्रों ने छात्रसंघ चुनाव की मांग को लेकर रैली निकाली तो 12 छात्रों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई.

नॉन नेट फेलोशिप के मसले पर शुरू हुआ आंदोलन अब शिक्षा क्षेत्र में हो रहे निजीकरण के खिलाफ आंदोलन बन गया है. छात्र संगठनों ने सरकार विरोधी मार्च निकाला तो पुलिस ने लाठीचार्ज और वाटर कैनन का इस्तेमाल किया

जेएनयू का छात्रसंघ इस मामले में सबसे ज्यादा सक्रिय है और लगातार जनहित के मुद्दे उठाता रहा है. करीब दो महीने से जेएनयू के छात्र दिल्ली में यूजीसी दफ्तर के सामने धरना दे रहे हैं. नॉन नेट फेलोशिप खत्म करने के विरोध में शुरू हुआ यह आंदोलन अब उससे कहीं आगे पहुंच गया है. इस धरने को कई विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों का समर्थन मिल रहा है. नॉन नेट फेलोशिप के मसले पर शुरू हुआ यह आंदोलन अब शिक्षा क्षेत्र में हो रहे निजीकरण के खिलाफ आंदोलन बन गया है. छात्रों-छात्राओं का समूह लगातार यहां पर धरना दे रहा है, यूजीसी से लेकर सरकार तक ज्ञापन दिए जा चुके हैं. बीते नौ दिसंबर को कई छात्र संगठनों ने सरकार विरोधी मार्च निकाला था. शांतिपूर्ण मार्च पर पुलिस ने लाठी चार्ज की और वाटर कैनन का इस्तेमाल किया जिसमें कई छात्र-छात्राओं को गंभीर चोटें आईं. प्रदर्शनकारी छात्रों का कहना है कि संभवत: दिसंबर में केन्या की राजधानी नैरोबी बैठक में सरकार शिक्षा क्षेत्र को विश्व व्यापार संगठन के लिए खोलने जा रही है. सरकार के इस कदम के बाद शिक्षा में जो विषमता प्रवेश करेगी, वह भारत की साधारण जनता के लिए शिक्षा को दुर्लभ बना देगी. इस मुद्दे पर हो रहा विरोध अब अन्य राज्यों तक पहुंच गया है. दिल्ली के अलावा हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, हिमाचल और आंध्र प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों में शिक्षा क्षेत्र को विश्व व्यापार के लिए खोलने के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं. हालांकि, ये सारे विरोध-प्रदर्शन बिखरे हुए और निष्प्रभावी हैं. जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार का कहना है, ‘हमारा आंदोलन शिक्षा बचाने का है. हम इसे देशव्यापी बनाएंगे. शिक्षा का बाजारीकरण देश की गरीब जनता के खिलाफ है.’ हालांकि, इस मसले पर सियासी गलियारे में कोई बहस-मुबाहिसा अब तक शुरू नहीं हुआ है. यह सोचनीय स्थिति है कि एक जरूरी राजनीतिक मसले पर राजनीति खामोश है और जेएनयू के छात्र उसके लिए लगातार आवाज उठा रहे हैं.

जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष प्रणय कृष्ण कहते हैं, ‘जेएनयू का छात्रसंघ अनूठा है, जिसे जेएनयू के तत्कालीन छात्रों ने बगैर विश्वविद्यालय प्रशासन के सहयोग के, स्वतंत्र रूप से, जबरदस्त बहस-मुबाहिसे के बाद 1971 में कायम किया था, जिसका संविधान भी खुद छात्रों ने बनाया था और जिसका चुनाव भी 1971 से लेकर अब तक छात्र समुदाय एक चुनी हुई चुनाव संचालन समिति के माध्यम से खुद ही संचालित करता आया है. जेएनयू छात्रसंघ के इस स्वाधीन चरित्र के चलते ही इस पर आपातकाल के दौरान भी रोक नहीं लगाई जा सकी थी जबकि आपातकाल के विरोध का वह महत्वपूर्ण केंद्र बना रहा. छात्रसंघ चुनाव को लेकर बनी लिंगदोह कमेटी ने अपनी सिफारिशों में जेएनयू छात्रसंघ के मॉडल की तारीफ ही की. लिंगदोह कमेटी की सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंजूर की गई पहली ही सिफारिश यह है, ‘देशभर के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को छात्रों की प्रतिनिधि संस्थाओं में नियुक्ति के लिए सामान्यतः चुनाव कराने चाहिए.’ देश के अनेक प्रांतों के तमाम विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में किसी न किसी बहाने से छात्रसंघ चुनाव कराए ही नहीं जाते. क्या यह सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना नहीं है?’

विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव कराए जाएं या नहीं, इसे लेकर यूपीए सरकार ने पूर्व चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया था. 2006 में लिंगदोह कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें कई तरह के दिशा-निर्देश और सिफारिशें थीं. कमेटी ने छात्रसंघ उम्मीदवारों की आयु, क्लास में उपस्थिति, शैक्षणिक रिकॉर्ड आैैर धनबल-बाहुबल के इस्तेमाल आदि की समीक्षा करते हुए कई सिफारिशें की थीं. इसकी वजह से तमाम योग्य छात्र न सिर्फ छात्रसंघ चुनाव लड़ने से वंचित हो गए, बल्कि एक तरह से छात्रसंघों की नकेल विश्वविद्यालय प्रशासन के हाथों में दे दी गई. लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों का देश भर में विरोध हुआ, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने छात्रसंघ चुनावों के लिए लिंगदोह की सिफारिशों को बाध्यकारी कर दिया. कोर्ट ने निर्देश दिया कि छात्रसंघ चुनाव लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के आधार पर कराए जाएं या फिर उन पर रोक लगा दी जाए. इसके बाद ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव रुक गए. यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी कई साल तक चुनाव नहीं हो सके, जबकि यह अकेला विश्वविद्यालय है जिसके छात्रसंघ को लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों में आदर्श छात्रसंघ माना गया था.

जेएनयू के छात्र रह चुके सुयश सुप्रभ कहते हैं, ‘जहां राजनीति की धार भोथरी नहीं हुई थी, वहां संघर्ष की बुलंद आवाज को दबाने के लिए लिंगदोह कमेटी का गठन किया गया. इसमें ऐसे नियम हैं जिनका पालन होने पर कैंपसों की राजनीति और प्रबंधन में कोई अंतर नहीं रह जाता. राजनीति के दायरे में केवल बिजली-पानी, हॉस्टल जैसी समस्याएं नहीं आतीं. यह देश के तमाम तबकों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का साधन भी है. लिंगदोह समिति का एक नियम यह है कि आप पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई हुई है तो आप चुनाव नहीं लड़ सकते हैं. आप प्रशासन के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे और आपके खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं हो, ऐसा कभी हो सकता है? ऐसा तो हो नहीं सकता कि लिंगदोह समिति को राजनीति और प्रबंधन में अंतर नहीं मालूम हो. हमें राजनीति को प्रबंधन बनाने के इस सचेत प्रयास को ठीक से समझना होगा. अगर कैंपस की राजनीति मजबूत रहेगी तो शासक वर्ग न तो आसानी से फेलोशिप बंद कर पाएगा न अकादमिक जगत में वंचित तबकों के प्रवेश को रोकने वाले नियमों को लागू करने की कोशिश में कामयाब हो पाएगा. यही वजह है कि अनुशासन के नाम पर ऐसी अराजनीतिक पीढ़ी तैयार करने की कोशिश की जा रही है जो हर नियम को सिर झुकाकर स्वीकार कर ले. शासक वर्ग अपनी इस योजना में एक हद तक कामयाब हो भी गया था, लेकिन फेलोशिप के मामले ने सोई हुई कैंपस राजनीति को पूरी तरह चौकस-चौकन्ना कर दिया है.’

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जेएनयू एशिया का अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है जहां पर छात्रसंघ चुनाव की कमान सिर्फ छात्रों के हाथ में होती है. आपातकाल के दौरान जब देश भर में खौफ का माहौल था, तब यहां के छात्रों ने इंदिरा गांधी को परिसर घुसने नहीं दिया था. यह परंपरा कायम रखते हुए छात्रों ने हमेशा ही यहां आने वाले हर नेता को अपने सवालों से असहज किया है. यह जेएनयू छात्रसंघ ही है जिसने भारत की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी को दो पोलित ब्यूरो सदस्य दिए. फिलहाल जेएनयू की छात्र रह चुकीं निर्मला सीतारमन केंद्र में मंत्री हैं. इसके अलावा भी कई छात्र राजनीति में सक्रिय हैं. आजादी के बाद की छात्र-राजनीति ने एक ऐसी पीढ़ी तैयार की जिसने मुख्यधारा की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई. कांग्रेस छात्र शाखा एनएसयूआई के अध्यक्ष पद से होते हुए मुख्यधारा की राजनीति में आने वाले नेताओं में पीआर कुमारमंगलम, मुकुल वासनिक, मनीष तिवारी, अलका लांबा और मीनाक्षी नटराजन हैं. लेकिन आज छात्रसंघों की सूरत ऐसी बना दी गई है जहां से कोई नेतृत्व उभर सकेगा, इसकी संभावना करीब-करीब शून्य है.

इलाहाबाद छात्रसंघ में दिख रही अराजकता या दूसरे छात्रसंघों के निष्प्रभावी हो जाने की स्थिति अचानक नहीं आई है. वह पिछले दो-तीन दशक की राजनीतिक-सामाजिक गिरावट का हासिल है कि छात्रसंघ में चुनकर आए छात्र किसी अकादमिक शख्सियत की जगह योगी आदित्यनाथ को कैंपस में बुलाने के लिए एक अराजक लड़ाई लड़ रहे हैं. विद्यार्थी परिषद समेत हर छात्र संगठन का मुद्दा वही है, जो उसकी मातृ संस्था या पार्टी का है.

अनुशासन के नाम पर ऐसी अराजनीतिक पीढ़ी तैयार करने की कोशिश की जा रही है जो हर नियम को सिर झुकाकर स्वीकार कर ले. इस व्यवस्था को सवाल पूछने वाले ‘एंग्री यंग मैन’ नहीं पसंद हैं

ऐसे में यह उम्मीद बेमानी है कि अब विश्वविद्यालय परिसर बहस-मुबाहिसे के अखाड़े बन सकेंगे. अब छात्रसंघों के मुद्दे, उनके आदर्श, उनके सपने मुख्यधारा का कोई राजनीतिज्ञ तय कर रहा है. वहां पर ऐसे नेताओं के इर्द-गिर्द रहने वाली अराजकता ने अब कैंपस में प्रवेश पा लिया है, इसलिए संवाद की संस्कृति का खात्मा तेजी से जारी है. जो युवा देश के नेतृत्व से सवाल पूछ सकते थे, वे राजनीतिक दलों से सबसे अराजक नेताओं के पीछे लगी कतार में भी सबसे पीछे नारे लगाने की गरज से खड़े हो गए हैं. बाजार और राजनीति ने मिलकर युवाओं को यह आदत लगा दी है कि वे फ्रेशर्स-फेयरवेल पार्टियां करें, फैशन शो आयोजित करें, रंगारंग कार्यक्रमों का मजा लें और जब राजनीतिक दलों को जरूरत पड़े, तब भीड़ बटोरकर नारे लगाएं. इस व्यवस्था को सवाल पूछने वाले ‘एंग्री यंग मैन’ नहीं पसंद हैं. क्रॉनी कैपिटलिज्म के दौर में तैयार युवा पीढ़ी कॉरपोरेटी राजनीति का कल-पुरजा बनने को तैयार है, लेकिन एक स्वस्थ समाज के लिए ऐसी पीढ़ी जरूरी लड़ाइयों, बहसों, संवादों और सवालों से गुरेज करती है.

इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि जरूरी मसले उठाने के ‘अपराध’ में दिल्ली में छात्रों पर लाठियां बरसती हैं, हैदराबाद के एक विश्वविद्यालय में छात्रसंघ की मांग करने वाले 12 छात्रों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई कर दी जाती है, गलत आदमी की नियुक्ति के लिए एफटीआईआई के छात्रों को अरसे तक आंदोलन करना पड़ता है, बावजूद इसके उनकी बात नहीं सुनी जाती. अधिकांश राज्यों के विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव प्रतिबंधित हो चुके हैं. बीएचयू और अलीगढ़, जहां छात्रसंघों की ऐतिहासिक भूमिका रही है, अब वे प्रतिबंधित ही नहीं हैं, बल्कि वहां पर छात्रों की सांगठनिक गतिविधियों और चर्चाओं जैसे लोकतांत्रिक आयोजनों पर भी रोक लग चुकी है. लोकतंत्र की प्राणवायु कहे जाने वाले छात्रसंघों की रीढ़ तोड़ी जा चुकी है. हालांकि, छोटे-छोटे प्रदर्शन और संघर्ष यह संकेत देते हैं कि एक व्यापक छात्र-आंदोलन के उठ खड़े होने की संभावना शून्य नहीं हैं.

‘जुबानी तलाक एक गलत प्रथा है, महिलाओं के सम्मान के लिए इसे खत्म करना जरूरी है’

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 देश में कई दशक से धर्म के नाम पर वोट बैंक की राजनीति हो रही है. चुनाव कोई भी हो ‘हम मुस्लिमों के लिए ये कर देंगे, वो कर देंगे’ कहकर उनका सच्चा हितैषी बनने का खेल शुरू हो जाता है. इस शोर में मुस्लिमों की असली परेशानियां सुनने वाला कोई नहीं मिलता. काबिले गौर पहलू ये है कि मुस्लिमों के हित-अहित की बात करते सियासी रहनुमा पुरुषों को ही संबोधित करते नजर आते हैं, मुस्लिम महिलाओं द्वारा झेली जा रही परेशानियों-मुश्किलों पर कभी कोई बात नहीं होती. देश में औरतें चाहे किसी भी धर्म, जाति या समुदाय से आती हों, उनके सामने कमोबेश एक-सी दिक्कतें पेश आती हैं. पर बात जब मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक स्थिति की होती है तब चौंकाने वाले आंकड़े सामने आते हैं.

 देश में मुस्लिमों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर जानने के लिए 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा गठित ‘सच्चर कमेटी’ की रिपोर्ट आंखें खोल देने वाली साबित हुई. मुस्लिमों में साक्षरता का स्तर 59.15 प्रतिशत था जो देश के साक्षरता स्तर (65.1 प्रतिशत, 2001 जनगणना आंकड़ों के अनुसार) से कम था. देश के बड़े कॉलेजों में मुस्लिम विद्यार्थियों का स्नातक और परास्नातक में औसत क्रमशः 04 और 02 प्रतिशत था. ग्रामीण क्षेत्रों में 25 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में मात्र 18 फीसदी मुस्लिम महिलाएं काम करती हैं, जिसके फलस्वरूप उन्हें थोड़ी-बहुत आर्थिक स्वतंत्रता मिली हुई है. रिपोर्ट के अनुसार मुस्लिमों में महिलाओं की स्थिति ज्यादा खराब है.

 हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अनिल दवे और जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की बेंच ने भी नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी से सवाल किया था कि क्या मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव को भारतीय संविधान में दिए गए मूलभूत अधिकारों के अंतर्गत आने वाले अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, लिंग के आधार पर किसी नागरिक से कोई भेदभाव न किया जाए) और अनुच्छेद 21 (जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार) का उल्लंघन नहीं माना जाना चाहिए? देश में मुस्लिम महिलाओं की आवाज उठाने वाली संस्था ‘भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन’ (बीएमएमए) का मानना है कि मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाला भेदभाव इन मूलभूत अधिकारों का सीधा हनन है. 2007 में इस संस्था का गठन ज़किया सोमान और नूरजहां सफिया नियाज़ ने किया था. बीते नवंबर में बीएमएमए ने दस राज्यों में 4,710 मुस्लिम महिलाओं के बीच किए सर्वे के आधार पर एक रिपोर्ट ‘नो मोर तलाक तलाक तलाक’ प्रकाशित की.

 ये रिपोर्ट दावा करती है कि  92.1 प्रतिशत महिलाओं ने जुबानी या इकतरफा तलाक को गैरकानूनी घोषित करने की मांग की है. वहीं 91.7 फीसदी महिलाएं बहुविवाह के खिलाफ हैं. 83.3 प्रतिशत महिलाओं ने माना कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए मुस्लिम फैमिली लॉ को कोडीफाई (विधिसम्मत) करने की जरूरत है. इसके बाद संस्था द्वारा प्रधानमंत्री को एक पत्र भी भेजा गया जिसमें बीएमएमए द्वारा किए गए सर्वे के आधार पर मुस्लिम महिलाओं की कई मांगें रखी गईं.

बीएमएमए की स्थापना के पीछे क्या उद्देश्य था?

बीएमएमए की स्थापना के पहले से ही मैं और ज़किया मुस्लिम महिलाओं के लिए काम कर रहे हैं. हमें काम करते हुए लगभग एक दशक हो चुका है. आजादी के इतने समय बाद भी हमारा समुदाय काफी पिछड़ा हुआ है. विकास की बातें सब करते हैं पर कोई भी लीडर जमीनी मुद्दे नहीं उठाता. सरकारों ने भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई. जरूरी मुद्दों पर बात करने के लिए कोई नहीं है. उस पर महिलाओं के मुद्दे तो वैसे ही सामने नहीं आ पाते. लीडरशिप में एक खालीपन है, जिसे हमने भरने का फैसला किया, आगे बढ़कर अपने लिए खुद आवाज उठाने का फैसला किया, ताकि महिलाएं आगे आएं, उन्हें अपनी समस्याएं बताने के लिए एक मंच मिले. हम अभी पांच राज्यों गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और ओडिशा में काम कर रहे हैं और हमारी प्राथमिकता में शिक्षा, रोजगार, कानूनी सुधार और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे हैं.

अब तक के काम का अनुभव कैसा रहा?

अब तक हमारा अधिकतर काम कानूनी मुद्दों से जुड़ा हुआ ही रहा है. हमारे पास जो मामले आए उनमें अधिकतर घरेलू हिंसा और जुबानी तलाक के थे. लगातार महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है. हमने न जाने कितने मामले देखे जहां लंबे समय तक घरेलू हिंसा हुई, झगड़े होते रहे, फिर एक दिन पति ने तलाक तलाक तलाक कह दिया और सब खत्म! न मेहर वापस दी गई न भरण-पोषण के लिए गुजारा भत्ता. कई ऐसे भी मामले थे जहां पति ने दो शादियां की थीं और दोनों ही बीवियों को एक शादी के बारे में नहीं पता था. सोचिए 45-50 साल की एक महिला को पति यूं ही छोड़ देता है, वो शिक्षित नहीं है, कोई रास्ता नहीं है जिससे अपना पेट पाल सके, उसका क्या होगा? कई मामले ऐसे भी थे जहां पति ने किसी रिश्तेदार या काजी के जरिये तलाक कहलवा दिया. कहीं ईमेल पर तो कहीं वाट्सएप पर तलाक दे दिया गया. हमने जो रिपोर्ट जारी की है उसमें देखिए, कहीं तलाक के बाद भत्ते की बात ही नहीं है, कुछ तलाक बीवी की गैर-मौजूदगी में हुए. कहीं बीवी को ‘हलाला’ के लिए कहा गया. (हलाला- अगर शौहर तलाक दे दे और फिर उसी औरत से निकाह करना चाहे तो वह औरत उसी सूरत में निकाह कर सकती है जब दूसरा निकाह करके दूसरे पुरुष से संबंध स्थापित कर चुकी हो) जुबानी तलाक एक गलत प्रथा है और महिलाओं के सम्मान के लिए इसे खत्म करना जरूरी है. आप औरतों को कोई वस्तु नहीं समझ सकते. सोचिए ये सब 21वीं सदी में हो रहा है. यहां एक विधि सम्मत कानून की जरूरत है. जो कानून हैं उनमें सुधारों की जरूरत है. हम चाहते हैं महिलाएं संगठित हों, वे साथ में जुड़ें, सरकार से जुड़ें और अपने हक के लिए खड़ी हों.

आपकी सरकार से क्या मांगें हैं?

सबसे पहले तो हम चाहते हैं कि एक कोडीफाइड मुस्लिम फैमिली लॉ बनाया जाए. सभी समुदाय चाहे हिंदू हों या ईसाई, सबका एक कोडीफाइड कानून है जो शादी और उससे जुड़े मुद्दों के लिए नियम बताता है. मुस्लिम समुदाय में ऐसा कुछ नहीं है. कुरान के नाम पर बहुविवाह, जुबानी तलाक जैसी कुप्रथाओं को प्रश्रय दिया जा रहा है. इन समस्याओं का हल ढूंढना ही होगा.

कुरान के नाम पर बहुविवाह, जुबानी तलाक जैसी कुप्रथाओं को प्रश्रय दिया जा रहा है. कुरान के गलत अर्थ निकाले गए हैं. मुस्लिम समुदाय में धर्म के नाम पर डरा-धमकाकर पितृसत्ता को और बढ़ावा दिया गया

कुछ साल पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में  ‘इमराना रेप मामला’ सामने आया था जहां ससुर ने उससे बलात्कार किया और पंचायत में पीडि़ता को ससुर के साथ बीवी के बतौर रहने को कहा गया. दार-उल-उलूम ने भी कुरान का हवाला देते हुए इस फैसले को सही बताया था. इस पर क्या कहेंगी?

यही तो असली समस्या है. कुरान के नाम पर, धर्म के नाम पर डरा-धमका कर पितृसत्ता को और बढ़ावा दिया गया. कानूनी मसलों पर कुरान में ऐसा कुछ नहीं लिखा है. कुरान के गलत अर्थ निकाले गए हैं, उसमें चालाकी से हेर-फेर किया गया. दरअसल जिस भाषा में कुरान लिखी गई उसे लोग नहीं जानते थे तो इसका तर्जुमा किया गया और अपने हिसाब से अर्थ निकाले गए. हमने कुरान पढ़ी है और ये काफी प्रगतिशील है. उसमें कहीं बहुविवाह, जुबानी तलाक या हलाला की बात नहीं कही गई है.

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और इस तरह के संगठनों के बारे में क्या कहना है?

हम इन्हें नहीं मानते. इन्होंने पितृसत्ता को संस्थागत बना दिया है बस! और यह कोई सरकारी संस्था नहीं है. जिस तरह एनजीओ रजिस्टर होते हैं वैसे ही ये भी एक रजिस्टर्ड बोर्ड ही है. उन्हें कोई कानूनी अधिकार नहीं मिले हुए हैं. और फिर जो खुद को हमारे रहनुमा बता रहे हैं उन्होंने हमारे लिए कुछ किया क्यों नहीं. जो औरतों के साथ हो रही नाइंसाफी पर कुछ नहीं कर रहे उन्हें क्यों मानें? ये समुदाय की आधी आबादी की परेशानियों को नजरअंदाज कर रहे हैं. सरकार ने भी इन्हें गैर-जरूरी अहमियत दे रखी है.

एक तबके का मानना है कि वर्तमान सरकार मुस्लिम और महिला विरोधी है. आपका क्या कहना है?

सरकार किसी भी पार्टी की हो हमें इससे खास फर्क नहीं पड़ता. अगर वे जनता द्वारा चुनकर आई सरकार है तो उनका सभी नागरिकों के प्रति फर्ज बनता है. कोई भी जनतांत्रिक सरकार हो, उसे सभी नागरिकों की परेशानियों को सुनना होगा, उनका समाधान करना होगा, उनसे जुड़े मुद्दों को जानना होगा. हम बस ये चाहते हैं कि मुस्लिम महिलाओं को भी उतना हक मिले जितना बाकी नागरिकों को मिला है. वरना बताइए ये औरतें कहां जाएंगी? वैसे अब तक तो सभी सरकारें मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों को लेकर समान रूप से ही उदासीन रही हैं. मनमोहन सरकार के समय सच्चर कमेटी का गठन हुआ पर उस कमेटी के पैनल में एक भी महिला नहीं थी. खुद समझ लीजिए कि मुस्लिम महिलाओं से जुड़े मुद्दों को किस हद तक नजरअंदाज किया जाता है.

मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई 1985 में शाहबानो के मामले से शुरू हुई थी. इंदौर की 62 साल की शाहबानो ने तलाक के बाद गुजारा-भत्ता न देने पर अपने पति के खिलाफ सीआरपीसी की धारा 125 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर किया. कोर्ट ने उनके हक में फैसला दिया पर मुस्लिमों के एक तबके में इसका कड़ा विरोध हुआ, जिसके चलते तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए मुस्लिम विमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स एक्ट, 1986 पारित किया, जिसमें मुस्लिम महिलाओं के अपने तलाकशुदा पति से गुजारा-भत्ता पाने के अधिकार को नकार दिया गया. मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को इस मामले ने कैसे प्रभावित किया?

जो होना था वो हो गया है पर जो हुआ वो सही नहीं था. कोर्ट के फैसले को बदलकर सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकारों की लड़ाई में और पीछे धकेल दिया. उन्हें सीआरपीसी से ही निकाल दिया गया. अगर उस फैसले के लिए दी गई दलीलें पढ़ें तो सिर्फ हंसी आएगी.

देश की राजनीति में बार-बार मुस्लिम अपीजमेंट (मुस्लिम तुष्टिकरण) की बात होती है.

तुष्टिकरण सिर्फ धार्मिक नेताओं का हुआ है. अगर जमीन पर कुछ काम हुआ है तो वे बताएं. सच्चर कमेटी में आप मुस्लिमों का आर्थिक और शिक्षा का स्तर देख चुके हैं फिर भी क्या हालात सुधरे हैं. गरीबी का वही हाल है. न शिक्षा है न रोजगार.

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वक्फ बोर्ड पर क्या कहेंगी?

उनके भी हाल बुरे हैं. वहां कौन काम कर रहा है! हर रमजान में जकात में इतनी बड़ी रकम आती है, उससे क्या होता है? समुदाय के धार्मिक नेताओं को लगता है कि विकास हो रहा है पर उन्होंने सामाजिक विकास के लिए कुछ नहीं किया है. इसे आप टोटल फेलियर ऑफ लीडरशिप कह सकते हैं.

उत्तर प्रदेश के एक बड़े मुस्लिम नेता ने मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए यूनिवर्सिटी खुलवाई है, जिसे अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटी का दर्जा भी दिया गया है. अल्पसंख्यकों के लिए विशेष यूनिवर्सिटी की भूमिका को किस तरह देखती हैं?

शिक्षा बहुत जरूरी है पर ये देखना होगा कि जरूरतमंदों को यूनिवर्सिटी तक पहुंचने के मौके मिलें, पढ़कर निकलने वाले युवाओं को आगे बढ़ने के अवसर मिलें. कई बार मुस्लिमों को अरबी-फारसी जैसी भाषाएं सिखाने पर भी बहस होती है पर कोई दबाव नहीं होना चाहिए कि आप मुस्लिम हैं तो कोई भाषा विशेष जानना जरूरी है. जिस भाषा से रोजगार मिले वो सीखना जरूरी है. मिसाल के तौर पर महाराष्ट्र में काम करते हैं तो मराठी भी आनी चाहिए. राज्यों की भाषाएं आनी चाहिए. अंग्रेजी जानना भी जरूरी है. तो सीधा हिसाब है जो भाषा आपके रोजगार में मददगार हो, उसे सीखना ज्यादा जरूरी है. नेताओं को लोगों को हुनरमंद बनाने की ओर काम करना चाहिए, जिससे नौजवान अपने पैरों पर खड़े हो सकें, दो जून की रोटी कमा सकें, पैसा आए, उनकी गरीबी मिटे. इससे ही उनका जीवन स्तर सुधरेगा. बुनियादी मसलों को समझना ज्यादा जरूरी है.

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भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) ने प्रधानमंत्री को भेजे गए खत में कहा है कि मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए या तो शरियत एप्लीकेशन लॉ, 1937 और मुस्लिम मैरिज एक्ट, 1939 में संशोधन किए जाएं या फिर मुस्लिम पर्सनल कानूनों का एक नया स्वरूप ही लाया जाए. बीएमएमए ने मुस्लिम महिलाओं, वकीलों और धर्म के जानकारों से बातचीत और कुरान के सिद्धांतों के आधार पर मुस्लिम फैमिली लॉ का एक ड्राफ्ट तैयार किया है, जो उनके अनुसार भारतीय संविधान के अनुकूल है. इस ड्राफ्ट में दर्ज कुछ मुख्य बिंदु:

  • निकाह के लिए लड़के की न्यूनतम आयु 21 साल और लड़की की आयु 18 साल हो
  • निकाह के लिए बिना किसी धोखे या दबाव के, दोनों पक्षों की सहमति हो
  • मेहर की न्यूनतम रकम लड़के की पूरी वार्षिक आय के बराबर हो, जो निकाह के वक्त ही लड़की को देनी होगी
  • तलाक केवल तलाक-ए-अहसान को माना जाएगा जिसमें 90 दिनों की अनिवार्य मध्यस्थता जरूरी होगी
  • जुबानी और एकतरफा तलाक को गैरकानूनी घोषित किया जाए
  • शादी के बाद बीवी के भरण-पोषण की जिम्मेदारी शौहर की होगी, भले ही बीवी के पास आय का अलग स्रोत हो
  • तलाक के बाद गुजारा-भत्ता ‘मुस्लिम विमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स एक्ट, 1986’ के अनुसार दिया जाएगा
  • बहुविवाह गैरकानूनी हो
  • हलाला और मुताह निकाह को अपराध घोषित किया जाए
  • माता-पिता दोनों ही बच्चे के अभिभावक होंगे. तलाक की स्थिति में बच्चों की कस्टडी उनकी इच्छा और उनकी भलाई के लिए उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ विकल्प के आधार पर दी जाएगी
  • निकाह को रजिस्टर करवाना अनिवार्य हो
  • संपत्ति के मामलों में बेटियों को भी बेटों के बराबर हक दिया जाए
  • अगर तलाक, बहुविवाह या ऐसे ही किसी मसले में बनाए गए नियमों का उल्लंघन होता है, तो काजी की जवाबदेही होगी

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मदरसों में शोषण के मामले लगातार सामने आ रहे हैं, इस पर क्या कहेंगी?

शोषण कहां नहीं है? हर वो जगह जहां बच्चे अभिभावकों से दूर हैं, जहां कोई देखने वाला नहीं है, वहां शोषण हो रहा है, भले ही वो मदरसा हो, आश्रम, बोर्डिंग या अनाथालय. फिर ये समझिए कि मदरसों में जाता कौन है? किसी संपन्न परिवार के बच्चे तो मदरसों में जाते नहीं हैं. वहां वे जाते हैं जो बिलकुल हाशिये पर पड़े हैं. वे इस उम्मीद में वहां जाते हैं कि दो वक्त की रोटी मिल जाएगी, सिर पर छत होगी. कुछ सीख लेंगे तो जिंदगी में कुछ कर पाएंगे. मदरसे चलाने वाले भी जानते हैं कि वो कुछ भी कर सकते हैं क्योंकि विरोध करने वाला कोई नहीं है. यहां जिम्मेदारी सरकार की बनती है. उनके पास एक पूरा सिस्टम है. ये उस पर सवाल है कि उनके रहते ये सब हो कैसे रहा है. इस सिस्टम को एक्टिव होकर काम करने की जरूरत है.

हाल ही में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में, दिल्ली के जामिया मिलिया में लड़कियों पर पाबंदियां लगाई गईं, जिसके विरोध में वे खुलकर सामने आईं. इस बदलाव पर क्या कहना है?

ये बदलाव देखना सुखद है. अच्छा है लड़कियां आगे आ रही हैं. जहां भी गैर-जरूरी बंदिशें हैं, चाहे वे धार्मिक गुरुओं की लगाई गई हों, यूनिवर्सिटी प्रशासन की या सरकार की, उनके खिलाफ संगठित होकर आवाज उठाना बहुत जरूरी है.

सरकार को भेजे गए पत्र पर कोई जवाब मिला?

नहीं, अब तक सरकार की ओर से हमें कोई जवाब नहीं मिला है.

इस आंदोलन का भविष्य कैसा देखती हैं?

हर एक को आगे आकर लीडरशिप संभालनी होगी. बीएमएमए का नारा भी है, ‘जिसकी लड़ाई, उसकी अगुवाई.’ तो मुस्लिम महिलाओं को अपने हकों के लिए ये लड़ाई लड़ने आगे तो आना ही पड़ेगा.

विद्यार्थी और राजनीति

Bhagat Singhhhh

इस बात का बड़ा भारी शोर सुना जा रहा है कि पढ़ने वाले नौजवान (विद्यार्थी) राजनीतिक या पॉलिटिकल कामों में हिस्सा न लें. पंजाब सरकार की राय बिल्कुल ही न्यारी है. विद्यार्थी से कॉलेज में दाखिल होने से पहले इस आशय की शर्त पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं कि वे पॉलिटिकल कामों में हिस्सा नहीं लेंगे. आगे हमारा दुर्भाग्य कि लोगों की ओर से चुना हुआ मनोहर, जो अब शिक्षा-मंत्री है, स्कूलों-कॉलेजों के नाम एक सर्कुलर या परिपत्र भेजता है कि कोई पढ़ने या पढ़ानेवाला पॉलिटिक्स में हिस्सा न ले. कुछ दिन हुए जब लाहौर में स्टूडेंट्स यूनियन या विद्यार्थी सभा की ओर से विद्यार्थी-सप्ताह मनाया जा रहा था. वहां भी सर अब्दुल कादर और प्रोफेसर ईश्वरचंद्र नंदा ने इस बात पर जोर दिया कि विद्यार्थियों को पॉलिटिक्स में हिस्सा नहीं लेना चाहिए.

पंजाब को राजनीतिक जीवन में सबसे पिछड़ा हुआ कहा जाता है. इसका क्या कारण हैं? क्या पंजाब ने बलिदान कम किए हैं? क्या पंजाब ने मुसीबतें कम झेली हैं? फिर क्या कारण है कि हम इस मैदान में सबसे पीछे है? इसका कारण स्पष्ट है कि हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी लोग बिल्कुल ही बुद्धू हैं. आज पंजाब कौंसिल की कार्रवाई पढ़कर इस बात का अच्छी तरह पता चलता है कि इसका कारण यह है कि हमारी शिक्षा निकम्मी होती है और फिजूल होती है, और विद्यार्थी-युवा जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता. उन्हें इस संबंध में कोई भी ज्ञान नहीं होता. जब वे पढ़कर निकलते हैं तब उनमें से कुछ ही आगे पढ़ते हैं, लेकिन वे ऐसी कच्ची-कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफसोस कर बैठ जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता. जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए. यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए. ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्या है? कुछ ज्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं, ‘काका तुम पॉलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो जरूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो. तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमंद साबित होगे.’

हमारी शिक्षा निकम्मी होती है और फिजूल होती है, और विद्यार्थी-युवा जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता. उन्हें इस संबंध में कोई भी ज्ञान नहीं होता. जब वे पढ़कर निकलते हैं तब उनमें से कुछ ही आगे पढ़ते हैं, लेकिन वे ऐसी कच्ची-कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफसोस कर बैठ जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता. जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए.

बात बड़ी सुंदर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं, क्योंकि यह भी सिर्फ ऊपरी बात है. इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक दिन विद्यार्थी एक पुस्तक ‘अपील टू द यंग, प्रिंस क्रोपोटकिन’ पढ़ रहा था. एक प्रोफेसर साहब कहने लगे, ‘यह कौन-सी पुस्तक है? और यह तो किसी बंगाली का नाम जान पड़ता है!’ लड़का बोल पड़ा, ‘प्रिंस क्रोपोटकिन का नाम बड़ा प्रसिद्ध है. वे अर्थशास्त्र के विद्वान थे.’ इस नाम से परिचित होना प्रत्येक प्रोफेसर के लिए बड़ा जरूरी था. प्रोफेसर की ‘योग्यता’ पर लड़का हंस भी पड़ा. और उसने फिर कहा, ‘ये रूसी सज्जन थे.’ बस! ‘रूसी!’ कहर टूट पड़ा! प्रोफेसर ने कहा, ‘तुम बोल्शेविक हो, क्योंकि तुम पॉलिटिकल पुस्तकें पढ़ते हो.’ देखिए आप प्रोफेसर की योग्यता! अब उन बेचारे विद्यार्थियों को उनसे क्या सीखना है? ऐसी स्थिति में वे नौजवान क्या सीख सकते हैं?

दूसरी बात यह है कि व्यावहारिक राजनीति क्या होती है? महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यावहारिक राजनीति, पर कमीशन या वायसराय का स्वागत करना क्या हुआ? क्या वो पॉलिटिक्स का दूसरा पहलू नहीं? सरकारों और देशों के प्रबंध से संबंधित कोई भी बात पॉलिटिक्स के मैदान में ही गिनी जाएगी, तो फिर यह भी पॉलिटिक्स हुई कि नहीं? कहा जाएगा कि इससे सरकार खुश होती है और दूसरी से नाराज? फिर सवाल तो सरकार की खुशी या नाराजगी का हुआ. क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही खुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए? हम तो समझते हैं कि जब तक हिंदुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफादारी करने वाले वफादार नहीं, बल्कि गद्दार हैं, इंसान नहीं, पशु हैं, पेट के गुलाम हैं. तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफादारी का पाठ पढ़ें?

सभी मानते हैं कि हिंदुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की जरूरत है, जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी के लिए न्योछावर कर दें. लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फंसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फंसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो. सिर्फ गणित और ज्योग्राफी काे ही परीक्षा के पर्चों के लिए घोंटा न लगाया हो.

क्या इंग्लैंड के सभी विद्यार्थियों का कॉलेज छोड़कर जर्मनी के खिलाफ लड़ने के लिए निकल पड़ना पॉलिटिक्स नहीं थी? तब हमारे उपदेशक कहां थे जो उनसे कहते, जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो. आज नेशनल कॉलेज, अहमदाबाद के जो लड़के सत्याग्रह के बारदोली वालों की सहायता कर रहे हैं, क्या वे ऐसे ही मूर्ख रह जाएंगे? देखते हैं उनकी तुलना में पंजाब का विश्वविद्यालय कितने योग्य आदमी पैदा करता है? सभी देशों को आजाद करवाने वाले वहां के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं. क्या हिंदुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पाएंगे? नौजवान 1919 में विद्यार्थियों पर किए गए अत्याचार भूल नहीं सकते. वे यह भी समझते हैं कि उन्हें क्रांति की जरूरत है. वे पढ़ें. जरूर पढ़ें, साथ ही पॉलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें. अपने प्राणों को इसी में उत्सर्ग कर दें. वरना बचने का कोई उपाय नजर नहीं आता.