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उपचार की आड़…जिंदगी से खिलवाड़

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परेशान, कुछ-कुछ डरे-से मरीज, बेखौफ अपराधी-से कई डॉक्टर और चिरंतन काल से गहरी नींद में सरकार… बात किसी असफल अफ्रीकी देश की नहीं बल्कि अपने देश के मध्य प्रदेश के अस्पतालों की हो रही है. यहां के कुछ डॉक्टर अपने दिन की शुरुआत ही महान यूनानी चिकित्सक हिप्पोक्रेट्स की उस शपथ की अवहेलना से करते हैं, जो कभी डॉक्टर बनने पर उन्होंने ली थी. यह शपथ बाकी और बातों के अलावा कहती है कि एक चिकित्सक मरीजों को कभी कोई ऐसी दवा नहीं देगा जो उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो और उसकी जिंदगी को खतरे में डाल दे. प्रदेश के कई डॉक्टर शायद पैसों की तुलना में मरीजों की जिंदगी को ज्यादा तरजीह देते हैं. दवा कंपनियों द्वारा दिए जा रहे अकूत धन के लालच में इन डॉक्टरों ने सभी नियम-कानूनों को दरकिनार करके क्लिनिकल या ड्रग ट्रायल (कच्ची दवाओं या उपकरणों का इंसानों पर परीक्षण) को एक व्यवसाय में तब्दील कर दिया है.

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पिछले दिनों जब प्रदेश में मरीजों की अनुमति और उनकी जानकारी के बिना गैर कानूनी तरीके से किए जा रहे दवा परीक्षणों के कई गंभीर मामले सामने आए तो इसकी गूंज अखबारों के माध्यम से प्रदेश भर में घूमती हुई राज्य की विधानसभा तक भी पहुंच गई. मानसून सत्र में विभिन्न दलों के विधायकों द्वारा लाए गए एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का जवाब देते हुए राज्य सरकार ने स्वीकार किया कि पिछले पांच वर्षों में राज्य के अलग-अलग अस्पतालों में 2,365 लोग क्लिनिकल ट्रायल से गुजर चुके हैं. इनमें से 1,644 बच्चे थे और कुल 51 लोग ‘गंभीर प्रतिकूल प्रभावों’  के शिकार हुए. ध्यान रहे कि मेडिकल शब्दावली के अनुसार मृत्यु भी ‘गंभीर प्रतिकूल प्रभावों’ के अंतर्गत आती है.

यह आंकड़ा सरकारी है और कुछ अस्पतालों से मिले आंकड़े ही इसे सीधे-सीधे झुठला देते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता रोली शिवहरे को आरटीआई के तहत मिली जानकारी बताती है कि 2003 से 2009 के बीच अकेले ग्वालियर मेडिकल कॉलेज में ही 3,000 से ऊपर मरीजों पर मेडीकल परीक्षण किए गए हैं. सूचना के अधिकार के तहत मिली एक दूसरी जानकारी से यह भी पता चलता है कि 2005 से प्रदेश के अस्पतालों में मुख्यतः ब्रोंकिअल अस्थमा, टीबी, गंभीर स्नायविक विकार, हृदय रोग, स्ट्रोक, पल्मोनरी हाइपर टेंशन आदि बीमारियों से संबंधित दवाओं के परीक्षण मरीजों पर किए जा रहे हैं. ज्यादातर ऐसे मामलों से जुड़ी सूचनाएं प्राप्त करने की राह में एक सबसे बड़ी बाधा यह है कि इनमें भाग लेने वाले मरीजों की जानकारी आरटीआई के सेक्शन 8(1)(जे) और 8(1)(डी) के अंतर्गत नहीं आती. हालांकि इंडियन मेडिकल काउंसिल (प्रोफेशनल कंडक्ट, एटिकेट ऐंड एथिक्स) रेगुलेशन, 2002  के अनुसार जनहित में यह जानकारी आसानी से दी जा सकती है. सूत्र बताते हैं कि दुनिया की कुछ मशहूर दवा कंपनियां जैसे मर्क ऐंड कॉरपोरेशन (यूएस), हॉफमैन ला रॉश (स्विट्जरलैंड) और डाइची सांक्यो फार्मा डेवलपमेंट (यूएस) आदि मध्य प्रदेश में जारी इन ड्रग ट्रायल में सक्रिय रूप से शामिल हैं.

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क्लिनिकल ट्रायल्स को मोटे तौर पर ड्रग ट्रायल के नाम से भी जाना जाता है और ये किसी भी नयी दवा के आविष्कार के बाद उसके असर को परखने के लिए किए जाते हैं. चार चरणों की इस प्रक्रिया में पहले चरण में देखा जाता है कि दवा का सेवन सुरक्षित है या नहीं, दूसरे में उसकी प्रभावशीलता का अध्ययन होता है और तीसरे चरण के प्रयोग यह देखने के लिए होते हैं कि दवा पहले से मौजूद दवाओं से कितनी असरकारक है. आखिरी चरण में दवा के दीर्घकालीन प्रभावों का आकलन किया जाता है. सफल परीक्षण के बाद ही दवा के उत्पादन का लाइसेंस मिलता है. वैक्सीन (टीका) ट्रायल में भी इसी प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जाता है जबकि मेडिकल उपकरणों के ट्रायल में पहला चरण नहीं होता. मध्य प्रदेश में ये तीनों के तरह के ट्रायल धड़ल्ले से चल रहे हैं. इनसे जुड़ी सबसे गंभीर बात यह है कि ज्यादातर परीक्षण कमजोर और निचले तबके से जुड़े लोगों पर हुए हैं. इनमें बड़ी संख्या में बच्चे भी शामिल हैं. पिछले साल इस मामले ने तब तूल पकड़ना शुरू किया जब पता चला कि भोपाल गैस पीड़ितों पर भी ड्रग ट्रायल किए गए हैं. पिछले साल जून में पांच गैस पीड़ितों ने दावा किया था कि गैस पीिड़तों के लिए बनाए गए अस्पताल भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल ऐंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) में उन पर बिना उनकी जानकारी के दवाओं का परीक्षण किया जा रहा है. ड्रग ट्रायल के दुष्प्रभावों को झेल रहे एक गैस पीड़ित रामाधार श्रीवास्तव हमें बताते हैं, ‘अब डॉक्टरों के प्रति हमारे मन में एक डर बैठ गया है.’ परीक्षण के चलते रामाधार के जबड़े गलने लगे हैं और उनके पास आगे का इलाज कराने का न तो साहस है न ही पैसे. (देखें व्यथा कथा-1)

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व्यथा कथा 1

‘जेहन में एक डर बैठ गया है, डॉक्टरों पर भरोसा नहीं रहा’

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ड्रग ट्रायल की वजह से रामाधार श्रीवास्तव के जबड़े गलने लगे हैं

पुराने भोपाल में सालों पहले  बंद हो चुकी पुट्ठा मिल की वीरान सी कर्मचारी क्वार्टर्स  कॉलोनी के एक छोटे-से बदरंग मकान में रहने वाले  रामाधार श्रीवास्तव उनपर किए क्लिनिकल ट्रायल्स  के भयानक परिणामों  को आज भी भुगत रहे हैं. बातचीत के दौरान उनके बड़े बेटे अजय श्रीवास्तव बताते हैं कि उनके पिता गैस पीड़ित हैं और उन्हें 2007 में सीने में तेज दर्द की शिकायत हुई थी, ‘मैं उन्हें भोपाल मेमोरिअल हॉस्पिटल एवं रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी.)  ले गया जहां डॉक्टरों ने उन्हें  भर्ती कर लिया. 20 नवंबर को उन्हें दवाइयां लिखकर डिस्चार्ज  कर दिया गया. तब से हर 15 दिन में डॉक्टर उन्हें बुलाते और एक कागज पर दस्तखत लेकर वही  दवाइयां फिर से वापस दे देते. कुछ दिन बाद उनकी हालत बिगड़ने लगी और सांस लेने में तकलीफ की शिकायत भी शुरू हो गई. धीरे-धीरे उनके मुंह में छाले हो गए और अब उनके जबड़े गलने लगे हैं. हमें लग रहा था कि उनका अच्छा इलाज करने के लिए डॉक्टर उन्हें हर 15 दिन में बुलाते हैं.

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पर बाद में हमें पता चला कि जो दवाई उन्हें दी जा रही थी उसका कोई नाम ही नहीं है.’ जांच करने पर पता चला कि उन्हें जो दवाइयां दी गई थीं उनके नाम पर्चों पर नहीं लिखे थे. वे  एजेडटी 3443565 जैसी कोड में लिखी गयीं थी. बीएमएचआरसी द्वारा रामाधार जी को लिखी गई दवाइयों के पर्चे की एक प्रति तहलका के पास मौजूद है. रामाधार कहते हैं , ‘हमें  तो पता ही नहीं था कि मुझ पर किसी दवा का ट्रायल हो रहा हैं. हमें किसी जांच कमेटी की तरफ से कोई सूचना नहीं मिली है. जब हमने अस्पताल में पूछताछ की तो किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. हमारे जेहन में एक डर बैठ गया है और डॉक्टरों से विश्वास  उठ गया है. हम  कोई जानवर नहीं कि हमारे ऊपर बिना हमारी जानकारी  के किसी भी दवा का टेस्ट कर दिया जाए.’ [/box]

भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार तहलका से कहते हैं, ‘बीएमएचआरसी में लंबे समय से ड्रग ट्रायल चल रहे हैं. मेरे पास ऐसे कई लोगों की शिकायतें मौजूद हैं जिन पर कच्ची दवाइयों के परीक्षण बिना उनकी सहमति के किए गए. सूचना के अधिकार से भी जानकारियां नहीं मिल रहीं और अस्पताल का प्रशासन कोई जवाब नहीं देता.’ इस मामले की संवेदनशीलता देखते हुए राज्य सरकार ने तुरत-फुरत में स्वास्थ्य विभाग के संयुक्त संचालक डॉ. केएल साहू की अध्यक्षता में बीएमएचआरसी में हुए ड्रग ट्रायल्स की जांच समिति बना दी. लेकिन इस समिति पर काफी समय से तेजी से जांच न करने के आरोप लगते रहे हैं और अभी तक इसने अपनी रिपोर्ट नहीं दी है.

प्रदेश में अलग-अलग जगह से निकाली जा रही हर जानकारी क्लिनिकल ट्रायल्स की इस पहेली की तसवीर को और साफ करती जा रही है. विधानसभा के मानसून सत्र में विधायक प्रताप ग्रेवाल द्वारा पूछे गए प्रश्न क्रमांक-540 के जवाब में मिली जानकारी से वैक्सीन ट्रायल से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण खुलासे हुए हैं. जानकारी बताती है कि चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय (सीएनबीसी) में 30 वैक्सीनों के ट्रायल हुए हैं. और इसके लिए विभाग के दो प्रमुख डॉक्टरों- डॉ हेमंत जैन और शरद थोरा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने लगभग सवा दो करोड़ रुपये दिए हैं. इस अस्पताल में हुए वैक्सीन ट्रायल के शिकार बच्चे यथार्थ के पिता अजय नाईक हमें बताते हैं, ‘मुझसे अंग्रेजी के एक फार्म पर बिना यह बताए कि उसमें क्या लिखा है, दस्तखत कराए गए थे. उसके बाद मेरे बच्चे को कई टीके लगाए गए.’ इन टीकों के लगने के कुछ ही दिन बाद यथार्थ की त्वचा में तरह-तरह की समस्याएं होना शुरू हो गईं. अस्पताल के रवैये से हताश अजय हमें बताते हैं, ‘कोई डॉक्टर मेरी बात सुनने को तैयार नहीं है. अब मुझे आए दिन बच्चे को लेकर अस्पताल जाना पड़ता है.’ गौरतलब है कि जिन टीकों का यहां ट्रायल किया जाता था, आरटीआई से मिली जानकारी बताती है कि उनमें थिओमेरोसल, एल्यूमीनियम फॉस्फेट जेल, फिनोल रेड, ट्विन 80, फेनोजायएथेनोल, स्कुआलेने और फॉर्मलडिहायड जैसे हानिकारक एडजुविंट्स (वे एजेंट जो दवाओं के असर को बढ़ा देते हैं) भी पाए गए. इनमें से कई एडजुविंट्स अमेरिका में प्रतिबंधित हैं.

‘दवा कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए सस्ते और घातक एडजुविंट्स इस्तेमाल करती हैं और इस पूरी प्रक्रिया में सैकड़ों बच्चों की जान को दांव पर लगाया जाता है’

क्लिनिकल ट्रायल से जुड़े मामलों में अपनी ही बिरादरी के खिलाफ सबसे पहले जोरशोर से आवाज उठाने वाले महात्मा गांधी मेमोरिअल मेडिकल कॉलेज इंदौर (एमजीएमएमसी) से जुड़े वरिष्ठ नेत्र चिकित्सक डॉ आनंद राय बताते हैं कि दवा कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए बेहतर एडजुविंट्स को छोड़कर इन सस्ते और घातक एडजुविंट्स इस्तेमाल करती हैं और इस पूरी प्रक्रिया में सैकड़ों बच्चों की जान को दांव पर लगाया जाता है. डॉ. आनंद को पिछले साल अस्पताल में जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल से जुड़े होने के आरोप  में एमजीएमसी काउंसिल से निलंबित कर दिया गया था. उनका कहना है कि ड्रग ट्रायल मामले को उजागर करने के एवज में उन्हें यह सजा दी गई थी.

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व्यथा कथा 2

‘डॉक्टर कहते हैं साबुन का असर है’

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एक वर्षीय यथार्थ अपनी मां की गोद में

साइकिल का पैडल हर बार आगे बढ़ाने के साथ ही इंदौर शहर में टाटा टेली सर्विसेस के बिल घर-घर जाकर बांटने वाले अजय नाईक अपने 10 महीने के बीमार बच्चे की गंभीर स्थिति के बारे में सोचते रहते हैं.  8 मार्च, 2010 को उनके बेटे यथार्थ का जन्म इंदौर के महाराजा यशवंत राव (एमवाय) अस्पताल में हुआ था. डॉक्टरों के कहने पर 10 मार्च को वे उसे टीके लगवाने के लिए चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय (सीएनबीसी) ले गए. यहां डॉक्टर हेमंत जैन और अभिषेक दुबे ने उनके बेटे को टीके लगाए और कहा कि अब परेशानी की कोई बात नहीं. अजय की असली परेशानी इसके बाद ही शुरू हुई क्योंकि टीके लगने के कुछ ही दिन बाद उनके बेटे के शरीर पर मवाद भरी फुंसियां हो गईं और बुखार आ गया. ये फुंसियां कुछ दिनों बाद सफेद दाग में बदल गईं और अजय की जिंदगी भी बदल गईं. अब वे सारा दिन बिल बांटने के बाद अपने बेटे को लेकर अस्पतालों के चक्कर लगाते रहते हैं. शिशु के शरीर से दाग नहीं जा पा रहे हैं. इस नयी बीमारी पर शिशु विभाग के प्रमुख, अजय से बच्चों जैसी मासूमियत के साथ कहते हैं कि गलत साबुन की वजह से दाग हो गए हैं. एक बात अजय को लगातार कचोटती है कि आखिर यह जानते हुए भी कि उसे अंग्रेजी ठीक से नहीं आती, उसने 10 मार्च को डॉक्टरों द्वारा दिए गए एक फार्म पर दस्तखत क्यों किए? अजय का कहना है कि उनकी जानकारी और अनुमति के बिना डॉ हेमंत जैन और और डॉ अभिषेक दुबे ने उनके नवजात शिशु पर एक कच्चे टीके का परीक्षण किया. अजय ने पुलिस में शिकायत भी की, सरकार को कई पत्र भी लिखे पर अभी तक मामले का कोई नतीजा नहीं निकला, उल्टा पुलिस ने मामले को अस्पताल के ही मेडिको-लीगल के सुपुर्द कर दिया है. [/box]

क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्टरी-इंडिया (सीटीआरआई, इस संस्था में क्लिनिकल ट्रायल्स को पंजीकृत करवाना अनिवार्य होता है ) के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में सबसे अधिक ट्रायल्स इंदौर में किए गए. इंदौर के ही कई निजी अस्पतालों में डायबिटीज से लेकर दिल के ऑपरेशन और एंजियोप्लास्टी के वक्त इस्तेमाल होने वाले ‘कोरोनरी स्टेंट’ (एक पतली ट्यूब जिसे हृदय के बाहर स्थित रक्त वािहनियों में लगाया जाता है) के भी ट्रायल्स हो रहे हैं. सीटीआरआई में दर्ज जानकारी के अनुसार इंदौर के टोटल अस्पताल के डॉक्टर सुनील एम. जैन डायबिटिक मरीजों में ग्लायकेमिक की जांच कर रहे हैं तो सीएचएल अपोलो के डॉ. गिरीश कवठेकर गुजरात की एक कंपनी द्वारा बनवाए जा रहे एक खास प्रकार के स्टेंट के परीक्षण कर रहे हैं. लेकिन इन क्लिनिकल ट्रायल्स से जुड़ी गोपनीयता और सतर्कता का आलम यह है कि ज्यादातर डॉक्टर इस तरह के परीक्षणों से अपने जुड़ाव तक को स्वीकार नहीं करते. तहलका ने डॉ. सुनील एम जैन से प्रतिक्रिया के लिए कई बार संपर्क साधने की कोशिश की लेकिन वे इसके लिए उपलब्ध नहीं थे. डॉ. गिरीश कवठेकर ने किसी भी तरह के मेडिकल उपकरण के परीक्षण की जानकारी तक होने से मना कर दिया. सीटीआरआई में कोरोनरी स्टेंट के ट्रायल से जुडे सीएचएल अपोलो के तीन दूसरे डॉक्टरों के नाम भी दर्ज हैं. लेकिन पूछताछ करने पर अस्पताल के कार्यकारी निदेशक राजेश जैन तहलका को बताते हैं कि उनके अस्पताल में कोई मेडिकल डिवाइस ट्रायल नहीं हुआ. जबकि सीटीआरआई में दर्ज जानकारी के अनुसार अस्पताल में ‘इन्फिनियम’ ब्रांड के एक खास कोरोनरी स्टेंट का चौथे चरण का ट्रायल चल रहा है. डॉ राय कहते हैं कि सीटीआरआई में दर्ज होने का ही सीधा-सीधा मतलब है क्लिनिकल ट्रायल्स का मौजूद होना. वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘सरकार का ध्यान अभी तक निजी अस्पतालों की तरफ तो गया ही नहीं है. जबकि सरकारी अस्पतालों के जैसे ही प्रदेश के कई निजी अस्पतालों में मरीजों को गुमराह करके उनकी जानकारी के बिना उन पर कई तरह के परीक्षण किए जा रहे हैं.’

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जहां अलग-अलग प्रकार के क्लिनिकल ट्रायल्स के ये मामले पूरे प्रदेश में मकड़जाल की तरह फैलते जा रहे हैं वहीं  प्रशासन की जांच अपनी सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ रही है. बीएमएचआरसी से जुड़े मामलों की जांच कर रहे डॉ केएल साहू अपनी जांच की धीमी गति की वजह बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने समिति में दो और लोगों को शामिल करने का प्रस्ताव सरकार के पास भेजा था लेकिन सरकार ने इसे नामंजूर कर दिया इसलिए उन्हें अकेले ही सारे काम करने पड़े हैं. वहीं प्रमुख सचिव स्वास्थ्य शिक्षा आईएस दाणी  की अध्यक्षता में बनी सबसे महत्वपूर्ण छह सदस्यीय समिति भी सुस्ती से काम कर रही है. छह महीने पहले बनी समिति को अपनी रिपोर्ट देने में अभी कुछ समय और लग सकता है. तहलका से बातचीत में दाणी कहते हैं कि उनकी कमेटी अपने पॉलिसी ड्राफ्ट की तरफ बढ़ रही है. उनका कहना है, ‘स्वास्थ्य शिक्षा विभाग के तहत गठित ये कमेटी इस बात की पड़ताल कर रही है कि ड्रग ट्रायल को नियमानुसार संचालित करने के लिए एक राज्य केंद्रित नियम बनाने की जरूरत है भी या नहीं. हम कुछ बुनियादी सवालों के जरिए नियम के संदर्भ में आधार तैयार कर रहे हैं. जनसुनवाई भी कर रहे हैं पर रिपोर्ट आने से पहले मैं और कुछ नहीं बता सकता.’

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व्यथा कथा 3

‘सारा काम सरकार के नाम की आड़ में हो रहा था’ 

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लवीन अपनी छह माह की बेटी काव्या के साथ

250 रुपये अगर आज आपके हाथों में थमा दिए जाएं तो आज आप बाजार में क्या-क्या खरीद सकते हैं ? पर इंदौर के चाचा नेहरु बाल चिकित्सालय के कुछ डॉक्टर सिर्फ 250 रुपये में जिंदगी खरीदने के प्रयास कर रहे हैं. पिछले अक्टूबर जब इंदौर के एक हिंदी अखबार में काम करने वाले पत्रकार लवीन ओव्हाल अपने एक माह के बेटे को टीका लगवाने सीएनबीसी ले गए तो डॉ हेमंत जैन के दिशा-निर्देशन में काम कर रहे कुछ डॉक्टरों ने दिल्ली की एक दवा कंपनी के पोलियो वैक्सीन परीक्षण के लिए उन्हें 250 रुपए देकर एक सूचित-सहमति फार्म (मरीज से ड्रग ट्रायल का अनुमति पत्र) पर दस्तखत करने के लिए कहा. ‘जब उन्होंने मुझे 250 रुपए, देकर कहा कि सरकार टीका लगवाने के लिए ये पैसा दे रही है तो मुझे शक हुआ. फॉर्म पढ़ने पर पता चला कि वह सूचित सहमति फार्म हैं. मैंने कागज फोटोकॉपी कराए और अपनी बेटी को लेकर वहां से भाग आया. वे झूठ बोल रहे थे और बिना मुझे बताए मेरे बेटे पर परीक्षण करना चाहते थे’, लवीन ने तहलका को बताया. वह एक नयी प्रकार की ‘बाईवेलेंट ओरल वैक्सीन’ थी और उसके परीक्षण के लिए दो बार बच्चों के रक्त के नमूने भी लिए जाते थे. लवलीन का कहना है कि खतरनाक बात यह है कि यह सारा काम सरकार के नाम की आड़ में हो रहा था. वे बताते हैं, ‘वहां और भी बहुत से गरीब अशिक्षित लोग थे जो उन कागजों का मतलब नहीं जानते थे और सोचते रहे थे कि सरकार ने उन्हें टीका लगवाने के लिए 250 रुपये दिए हैं. उन्हें धोखा देकर बच्चों को लैब रैट्स की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था.’ [/box]

इन मामलों से जुड़ी आर्थिक अनियमितताओं की जांच कर रहे आर्थिक अपराध शाखा के पुलिस महानिरीक्षक अजय शर्मा का कुछ समय पहले तहलका से बातचीत में कहना था कि उनके द्वारा की जाने वाली जांच लगभग 70 फीसदी पूरी हो चुकी है. मामले से जुड़े करीबी सूत्रों के मुताबिक आर्थिक अपराध शाखा इस बहुचर्चित मुद्दे को लेकर कई तरह के दबाव में है. मामले को विधानसभा के मानसून सत्र में जोर-शोर से उठाने वाले विधायक पारस सकलेचा कहते हैं कि जांच के  लिए बनाई गई समितियां जनता को गुमराह करने के लिए छोड़ा गया सिर्फ एक शगूफा हैं. वे कहते हैं, ‘प्रशासनिक स्तर पर इस प्रकरण को दबाने के और जिम्मेदारियों से बचने के गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं. मुझे आश्वासन दिया गया था कि परीक्षण में शामिल मरीजों की सूची उपलब्ध कराई जाएगी, पर अभी तक कोई सूची शासन की तरफ से नहीं दी गई हैं. जांच कमेटी के पास कोई प्रारूप नहीं है. डॉक्टरों का एक वर्ग सरकार और जांच को प्रभावित करने का लगातार प्रयास कर रहा है.’

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होने के बाद की त्रासदी : बीएमएचआरसी

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भोपाल का जिक्र आते ही 3 दिसंबर, 1984 की तसवीर एक टीस की तरह सभी के जेहन में उतर आती है. दिसंबर की ठंड में डूबी रात और कोहरे में घुली मिथाइल आइसो-साइनाइड नामक जहरीली गैस. शहर की सड़कों, गलियों, चौराहों और घरों में फैली लाशें जो सुबह के सूरज को खुली आखों और खुले मुंह से ताक रही थीं. बाद में गैस पीड़ितों के इलाज के लिए भोपाल में भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल ऐंड रिसर्च सेंटर (बीएमएचआरसी) बनाया गया. सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से मिली जानकारी के मुताबिक 2004 से 2008 के बीच इस अस्पताल में सात बड़े क्लिनिकल ट्रायल हुए. आश्चर्य की बात यह है कि इन सातों ट्रायल में से सिर्फ एक का निरीक्षण ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीसीआई) द्वारा किया गया. सूत्रों के अनुसार  डीजीसीआई ने बंगलुरु की एक बड़ी फार्मा कंपनी को नोटिस जारी कर इन क्लिनिकल ट्रायल की जांच भी शुरू कर दी है. संभावना ट्रस्ट से जुडे़ सामाजिक कार्यकर्ता सतीनाथ सारंगी तहलका से बातचीत में बताते हैं कि बीएमएचआरसी में हुए परीक्षणों में अब तक दस लोगों की मौत हो चुकी हैं.

वे बताते हैं, ‘मीडिया की छपी खबरों में भी आया है कि 3 गैस पीड़ितों की जान टेलेवानसिन नामक ड्रग के ट्रायल की वजह से गई, पांच लोगों की मौत ‘फोंडापारिनक्स’ नामक दवा के परीक्षण से और दो लोगों की मौत टिगीसाइक्लीन नामक दवा के ट्रायल की वजह से हुई. हमने कानूनों को ताक पर रख कर किए गए इन ड्रग ट्रायल में लिप्त 3 प्रमुख डाक्टरों के निलंबन की मांग की है.’  आरटीआई से प्राप्त जानकारी के अनुसार बीएमएचआरसी  को 10 दवाओं के परीक्षण के लिए फाईजर, अस्ट्रा जेनेका और कुइनटाइल्स  जैसी बड़ी फार्मा कंपनियों से 1 करोड़ 85 हजार रुपये मिले हैं. इन सभी परीक्षणों को बीएमएचआरसी द्वारा गठित ‘संस्थागत समीक्षा बोर्ड’ द्वारा पारित किया जाता था. शहर में काम कर रहे सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों का कहना है कि इन सभी परीक्षणों की स्वीकृति  डॉ प्रभा देसिकन ने दी थी जो ‘संस्थागत समीक्षा बोर्ड’ की सचिव हैं. सूत्रों के मुताबिक डॉ देसिकन के पति डॉ एसके त्रिवेदी भी कई ट्रायलों में शामिल थे.

यूनियन कार्बाइड की भारत में जब्त संपत्ति से प्राप्त धन से स्थापित बीएमएचआरसी के दो प्रमुख उद्देश्य थे. पहला मिथाइल आइसो-साइनाइड (मिक) गैस की वजह से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित मरीजों का इलाज और दूसरा मिक गैस के मानव शरीर पर प्रभावों पर शोध. दुनिया के किसी भी दूसरे अस्पताल में मिक गैस से प्रभावित मरीजों का विशेष इलाज संभव नहीं है.  साथ ही यह दुनिया का एकमात्र अस्पताल है जहां मिक गैस के प्रभावों पर शोध के लिए हर प्रकार के संसाधनों का निवेश किया गया है. इस लिहाज से गैस पीड़ितों के हितों को लेकर इस अस्पताल की जिम्मेदारी सबसे अधिक है और उन पर किसी भी दवा का परीक्षण नहीं किया जा सकता. प्रसिद्ध चिकित्सीय शोध पत्रिका ‘मंथली इंडेक्स आफ मेडिकल स्पेशियालिटीज’ के संपादक सीएम गुलाटी ने बीएमएचआरसी में चल रहे दवा परीक्षणों के मुद्दे को हाल ही में अपने संपादकीय में उठाया है.  सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1991 में दिए गए एक फैसले के अनुसार इस संस्थान में गैस पीड़ितों के अलावा अन्य लोगों के इलाज का प्रावधान नहीं है. लेकिन सूत्र बताते हैं कि बीएमएचआरसी में कई ‘प्राइवेट पेइंग पेशेंट’ अपना इलाज करवा रहे हैं. [/box]

क्लिनिकल ट्रायल्स की इस आपराधिक गोपनीयता के पीछे कई कारण मौजूद हैं. इसमें प्रमुख है अंतर्राष्ट्रीय फार्मा कंपनियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता. इन कंपनियों में ज्यादा से ज्यादा दवाइयां बनाकर उसे सबसे पहले पेटेंट करवाने और बाजार में उतारने की होड़ लगी रहती है. कम से कम लागत में ट्रायल की प्रक्रिया पूरी करने और उसकी गोपनीयता बरकरार रखने को दवा कंपनियां बहुत महत्व देती हैं. इस होड़ में फार्मा कंपनियां, उनके कुछ विशेष डॉक्टर और प्रशासन के कुछ लोग आपस में मिलकर नियमों को ताक पर रख देते हैं. नतीजा यह होता है कि जिंदगी बचाने के लिए बनाई जाने वाली दवाइयों, मेडिकल उपकरणों और टीकों की शुरुआत ही लोगों को अपंग बनाने और जिंदगियों को खत्म करने से होती है.

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परीक्षण बनाम ग्लोबल धोखा

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डॉक्टर ज्ञान चुतर्वेदी

ड्रग ट्रायल को एक बड़े घपले के तौर पर पेश किया जा रहा है पर असल में इसके कई दूसरे पक्ष भी हैं.  ड्रग ट्रायल आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा का एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक हिस्सा है. आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक जैसी पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में ड्रग ट्रायल की कोई खास परंपरा नहीं है. इसलिए सालों से इन पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में लोगों का पुराने तरीकों से इलाज किया जा रहा है. वहीं दूसरी ओर एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में नयी दवाओं को खोजने और उन्हें लगातार बेहतर बनाने पर ज़ोर दिया जाता है. यहां हम ‘एविडेंस बेस्ड मेडिसिन’ या ‘साक्ष्य आधारित’ नयी दवाइयों को बनाने का लगातार प्रयास करते हैं. इस प्रक्रिया में हम पहले दवा की कार्य क्षमता की जांच करते हैं और फिर साक्ष्यों के आधार पर ही उस दवा को आम लोगों के लिए जारी किया जाता है. ड्रग ट्रायल इस वैज्ञानिक प्रक्रिया का एक हिस्सा है. ‘एविडेंस बेस्ड मेडिसिन’ की लगातार खोज आज के चिकित्सा विज्ञान की रीढ़ है. बशर्ते , इसे सही तरीके से किया जाए.

भारत सहित दुनिया के ज़्यादातर देशों में ड्रग ट्रायल के बहुत कड़े नियम कानून हैं. ड्रग ट्रायल से जुड़े सभी कानूनों में मानव अधिकारों का खास तौर पर ध्यान रखा गया है. किसी भी ट्रायल के वक़्त सभी कानूनों और प्रक्रियाओं का ठीक-ठीक पालन बहुत ज़रूरी है. मसलन मरीज को अपने ऊपर किये जा रहे परीक्षण की पूरी और सही जानकारी देना डॉक्टर का काम है. उसे उस दवा के सभी संभावित फायदे और नुकसान पता होने चाहिए. मरीज को ट्रायल से जुडे खतरे भी पता होने चाहिए और मरीज की सही जानकारी पर आधारित सहमति के बिना उस पर कोई ट्रायल नहीं किया जा सकता. ट्रायल के दौरान सारी कानूनी प्रक्रिया सही तरह से पूरी की जानी चाहिए. गौरतलब है कि किसी भी दवा का ट्रायल सीधे इंसानों पर नहीं किया जाता. किसी भी नयी दवा का परीक्षण पहले चूहों और जानवरों पर होता है. इन जीवों पर दवा के सूक्ष्म प्रभावों की जांच करने के बाद दवा की जांच ‘पेड वोलनटियर्स’ के एक छोटे समूह पर की जाती है. इसके बाद ही बड़े स्तर पर दवा के प्रभावों को जांचने के लिए उसे एक बड़े समूह पर टेस्ट किया जाता है. इस वजह से जान का खतरा लगभग न के बराबर हो जाता है. पर हां , इन सभी ट्रायल्स में एक निहित जोखिम तो होता ही है. इस खतरे के बारे में मरीज को बताया जाना चाहिए.

इस मामले का दूसरा पहलू यह है कि आजकल बड़ी-बड़ी फार्मा कंपनियां अपनी दवाइयों पर चल रहे ट्रायल्स के नतीजों को प्रभावित करने के लिए हर स्तर तक जाने को तैयार हैं. प्रसिद्ध डाक्टर और साहित्यकार डॉ राबिन कुक ने अपनी किताब  ‘माइंड बेन्ड’ में इस खतरे को बहुत पहले महसूस कर लिया था. डाक्टरों को ट्रायल्स के लिए जरुरत से अधिक भुगतान करके, प्रायोजित सपरिवार विदेश यात्राएं करवा के और तमाम दूसरी तरह की सुविधाएं देकर फार्मा कंपनियां परीक्षणों के नतीजों को प्रभावित करने का प्रयास करती हैं. पिछले 10-15 वर्षों में ऐसे मामले बढ़े हैं. कई डॉक्टर जाने -अनजाने और अपनी नासमझी या लापरवाही के चलते फार्मा कंपनियों के प्रभाव में फंस जाते हैं. एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि हमारे यहां शोध का माहौल बहुत खराब है. लोग डाटा कलेक्शन और नियम कायदों को लेकर लापरवाह रहते हैं और फिर इस तरह के मामले सामने आते हैं .

इसलिए ड्रग ट्रायल के दौरान सतर्कता और सुपरविजन  को बढ़ाना बहुत जरूरी है. सारे नियमों का पालन होना चाहिए. कानूनों का पूरा पालन, सही तरह से कई गयी रिसर्च, ठीक डाटा कलेक्शन और निष्पक्ष डाटा विश्लेषण एक ईमानदार ड्रग ट्रायल की आत्मा है. अगर ये सभी मापदंड पूरे नहीं किये जाते तो ड्रग ट्रायल सिर्फ फार्मा कंपनियों का एक ग्लोबल धोखा है.

डॉ चतुर्वेदी भोपाल के कस्तूरबा अस्पताल में मुख्य चिकित्सा अधिकारी हैं, यह लेख उनसे बातचीत पर आधारित है [/box]

नियमों के अनुसार उस हर अस्पताल में जहां ड्रग ट्रायल संचालित होते हैं, एक एथिकल और साइंटिफिक समिति  का गठन आवश्यक है. यह समिति परीक्षण की निगरानी के लिए बनाई जाती है. नियम कहते हैं कि मरीज पर दवा का परीक्षण करने से पहले उसकी लिखित अनुमति आवश्यक है. अनुमति पत्र मरीज की अपनी भाषा में होना चाहिए और उसकी सहमति के बिना उस पर किसी दवा का परीक्षण नहीं किया जा सकता. इसके अलावा मरीज को एक निश्चित बीमा रकम तथा किसी भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक हानि पहुंचने की स्थिति में निश्चित मुआवजा मिलना भी तय होता है. दवा के सफल परीक्षण की स्थिति में मुनाफे का एक हिस्सा मरीज को जाता है और डॉक्टर जनहित में परीक्षण के परिणाम प्रकाशित करवा सकते हैं.

इस लिहाज से क्लिनिकल ट्रायल के दौरान एथिकल कमेटी के गठन का नियम किसी भी ट्रायल प्रक्रिया का आधार है. लेकिन प्रदेश में चल रहे ट्रायल्स में इसी एक नियम का सबसे ज्यादा मखौल उड़ाया गया है. प्रदेश में जनस्वास्थ्य से जुड़ी विडंबना यह है कि क्लिनिकल ट्रायल्स की निगरानी के लिए बनने वाली एथिकल कमेटी के गठन, पंजीकरण एवं नियंत्रण के लिए कोई दिशानिर्देश मौजूद नहीं है. डॉ राय इस बारे में कहते हैं, ‘जो कमेटियां इस वक्त मध्य प्रदेश के अस्पतालों में गठित की गईं है उनमें भी मरीजों का पक्ष रखने वाला कोई नहीं है. जो डॉक्टर मरीजों के हितों की रक्षा के लिए बनी कमेटी के सदस्य हैं वही खुद अस्पतालों में ड्रग ट्रायल कर रहे हैं.’ दरअसल प्रदेश के जिन अस्पतालों में गैरकानूनी क्लिनिकल ट्रायल के मामले सामने आए हैं और जिनमें एथिकल कमेटियां हैं वहां ड्रग ट्रायल में शामिल डॉक्टर भी उसके सदस्य होते हैं. अब ऐसे में कमेटियों की निष्पक्षता पर उंगली उठना जायज ही है. हालांकि इसके विरोध में कुछ डॉक्टर हास्यास्पद तर्क भी देते हैं. इंदौर के मशहूर महाराजा यशवंत राव (एमवाय) अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर नाम न बताने की शर्त पर बताते हैं, ‘आरटीआई के तहत हम गोपनीय जानकारी नहीं दे सकते. हमने सारे नियमों का पालन किया है और एथिक्स कमेटी में भी हितों के संघर्ष जैसी कोई बात नहीं है. जो भी डॉक्टर ट्रायल में शामिल होता है वह मीटिंग के वक्त कमरे से उठकर बाहर चला जाता है.’

डॉ राय बताते हैं कि सूचना के अधिकार के तहत अस्पतालों और फार्मा कंपनियों के बीच अनुबंध और ऐसी ही कई दूसरी जानकारियां मांगने पर बौद्धिक संपदा अधिकार (इंटलैक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स) का हवाला देकर जानकारियों को छिपाया जा रहा है. जबकि मेडिकल काउंसिल के नियमों के अनुसार ये सभी जानकारियां जनहित में सार्वजनिक की जा सकती हैं.

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व्यथा कथा 4

‘डॉक्टरों ने कहा कि दवा खाने के बाद खाली पत्ते वापस कर देना’ 

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लक्ष्मीबाई अपने पति की फोटो के साथ

भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के पास बसी एक उजड़ी-सी बस्ती है जेपी नगर. इस बस्ती की एक संकरी अंधेरी गली के आखिरी छोर पर एक छोटे-से मकान में 48 वर्षीया लक्ष्मी बाई अपने 3 बच्चों और 2 बकरियों के साथ रहती हैं. 20 अगस्त, 2010 को लक्ष्मी के पति शंकरलाल का लंबी बीमारी के बाद देहांत हो गया. वे गैस पीड़ित थे और बीएमएचआरसी में उनका इलाज चल रहा था. आखिरी वक्त में डॉक्टरों ने लक्ष्मी को बताया था कि शंकर को हड्डी का कैंसर है जबकि मेडिकल कागजों में उसकी बीमारी ‘कोरोनरी आर्टरी डिसीज’ के नाम से दर्ज है.

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इन दोनों बीमारियों का अंतर लक्ष्मी की समझ से काफी परे है. और शायद यही वजह है कि ऐसे लोग ड्रग ट्रायल के लिए डॉक्टरों की पहली पसंद होते हैं. 19 सितंबर, 2007 को बीएचएमआरसी से मिली डिस्चार्ज शीट के मुताबिक शंकरलाल को पांच दवाइयां दी गई थीं. इनमें से एक दवा का नाम ‘ स्टडी ड्रग ‘ था. लक्ष्मी बताती हैं, ‘डाक्टरों ने इन्हें दवा के तीन बड़े-बड़े पत्ते दिए और कहा कि दवा खाने के बाद खाली पत्ते अस्पताल में वापस जमा कर जाना. क्योंकि दवा कंपनी वालों ने खाली पैकेट वापस मांगे हैं.’ दवाइयां खाने के बाद शंकर की तबीयत बिगड़ती गई. लक्ष्मी कहती हैं, ‘उसके बाद वे लगातार सूखते गए. बहुत कमज़ोर हो गए थे.’ लक्ष्मी आजतक नहीं समझ पाई हैं, कि उस दवा में ऐसा क्या था जो उनके पति के लिए जानलेवा साबित हुआ. [/box]

इस मसले से जुड़ा एक और स्याह पहलू यह है कि ड्रग ट्रायल के आरोपित डॉक्टर आज भी अपने पदों पर काम कर रहे हैं और ट्रायल से प्रभावित लोगों को प्रदेश सरकार की तरफ से कोई वित्तीय सहायता नहीं दी गई है. एशियाई मानवाधिकार आयोग (एएचआरसी) के तीन प्रतिनिधियों ने भी पिछले साल अक्टूबर में प्रदेश का दौरा किया था. आयोग के प्रतिनिधि बीजो फ्रांसिस ने क्लिनिकल ट्रायल पर हुई अपनी तफ्तीश के बारे तहलका को एक ईमेल के जरिए बताया कि प्रदेश में जारी क्लिनिकल ट्रायल्स बिलकुल भी पारदर्शी नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘हमने अपनी जांच के दौरान पाया कि प्रदेश में ट्रायल्स करवाने वाली सरकारी एजेंसियां लोगों की अज्ञानता का फायदा उठा रही हैं. उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं था कि उन पर किसी दवा का प्रयोग हो रहा है. दुख की बात है कि ये ट्रायल ज्यादातर उन गरीब लोगों पर हुए जो अपने इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों पर निर्भर रहते हैं. हमें ऐसे मामले भी सुनने को मिले हैं जहां मरीजों को ट्रायल्स के लिए पैसों का लालच दिया गया.’

इस पूरे मामले में एक सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि इतना वक्त गुजर जाने के बाद भी कैसे वही डॉक्टर जिन्होंने करोड़ों रुपयों के लालच में हजारों लोगों की जिंदगी को खतरे में डाल दिया आज भी प्रतिदिन सैकड़ों मरीजों का इलाज कर रहे हैं ? वह पिता जिसका नवजात बच्चा अजीब-सी बीमारी की वजह से जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है, वह पति जिसने अपनी पत्नी को खो दिया और ऐसे ही न जाने कितने लोग यह सोचने पर विवश हैं कि डॉक्टरों के सफेद कोट के पीछे कितना स्याह कालापन छिपा हुआ है.

दस बलात्कार, दो हत्याएं, चार साल जांच… नतीजा शून्य

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दृश्य एक– मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में मुलताई तहसील का चौथिया गांव. अभी दिन की शुरुआत ही हुई है और इस कस्बे में सूरज की नर्म रोशनी धीरे-धीरे खेतों में फैल रही है. तभी अचानक लगभग 2,000 लोगों की एक हिंसक भीड़ ट्रैक्टरों और जेसीबी मशीन के साथ खेतों के बीच बने रास्ते से एक बस्ती की तरफ नारे लगाते हुए बढ़ती है.

दृश्य दो– भीड़ उस बस्ती में खड़े चंद पक्के मकानों को हथौड़ों से ठोक-ठोक कर गिरा रही है. जिन घरों को हथौड़ों से नहीं तोड़ा जा सकता उन्हें जेसीबी मशीन से गिराया जा रहा है. यहां सारी कच्ची झोपड़ियों में आग लगा दी गई है. लोगों के घरों का सामान लूटा जा रहा है. जिसे लूटा जाना संभव नहीं है उसमें आग लगा दी गई है.

 दृश्य तीन– भीड़ के इस कारनामे के बीच पुलिस, निर्वाचित राजनीतिक प्रतिनिधि और लंबे-चौड़े प्रशासनिक महकमे के कई अधिकारी मौजूद हैं. इनमें से राजनीतिक प्रतिनिधि लोगों को लगातार उकसा रहे हैं. लेकिन पुलिस और प्रशासन के अधिकारी इस अंदाज में पूरी कार्रवाई देख रहे हैं जैसे उन्हें इसकी देखरेख के लिए ही नियुक्त किया गया है.

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तमाशबीनः पारधीढाना में 11 सितंबर 2011 को आगजनी के दौरान फायर ब्रिगेड वाहन होने के बावजूद पुलिस मूकदर्शक बनी रही

मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में घटी इस घटना को दिखाने वाले इन नाटकीय दृश्यों पर बड़ी आसानी से सवाल उठाया जा सकता था यदि इनकी वीडियो रिकॉर्डिंग न की गई होती. सितंबर, 2007 के दौरान मुलताई में बसी 350 पारधी आदिवासियों की एक बस्ती इस दौरान तीन दिन तक सामूहिक और सुनियोजित हिंसा का शिकार बनी रही. पूरी बस्ती को नेस्तनाबूत करने के अलावा यहां 10 पारधी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. एक पारधी दंपति की हत्या की गई. और यह सब बाकायदा पुलिस, प्रशासन और क्षेत्र के निर्वाचित प्रतिनिधियों के सामने हुआ.

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‘हमें तो अब अपने आप से चिढ़ होती है’

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कड़कती धूप के बावजूद एक ही आवाज देने पर बैतूल के उत्कृष्ट स्कूल मैदान में वहां रहने वाले सभी पारधी इकट्ठा होकर तुरंत जमीन पर बैठ जाते हैं. सितंबर, 2007 के चौथिया कांड के बारे में बताते हुए इनमें से कई लोग अपना शरीर खुजलाते हैं, कई घटना का नाट्य रूपांतरण करके बताते हैं, तो कई चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगते हैं. लेकिन जब इनसे 10 सितंबर की रात 10 पारधी महिलाओं के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बारे में पूछा जाता है तो अचानक ही धूल भरी जमीन पर बैठी इस भीड़ में सन्नाटा छा जाता है. फिर धीरे से भीड़ में बैठी महिलाओं में से छह औरतें अपने हाथ ऊपर उठाती हैं. हमें बताया जाता है कि हम छह ही से मिल सकते हैं, क्योंकि बाकी चार भीख मांगने गई हैं. जैसे ही चटक रंगों के मैले-कुचैले और फटे कपड़े पहने ये महिलाएं खड़ी होती हैं, उनके बुझे चेहरों और खामोश निगाहों को देखकर यह विश्वास कर पाना मुश्किल हो जाता है कि कभी तीखे नैन-नक्श वाली ये सभी महिलाएं स्वाभाविक आदिवासी सौंदर्य और उल्लास का प्रतीक हुआ करती थीं. उनमें से एक धीरे से आकर कहती है कि वे सब अकेले में बात करेंगी. एक टूटी झोपड़ी के सामने बैठकर जब उन्होंने अपने साथ हुए इस ‘पुरातन पौरुष अपराध’ के बारे में बताना शुरू किया तब बीच में न जाने कितनी ही बार उन्होंने कुछ ही दूरी पर बैठे अपने रिश्तेदारों, पतियों और बच्चों की तरफ देखा और फिर अपनी निगाहें झुका लीं.

पीड़ित महिलाओं ने तहलका को बताया कि 10 सितंबर, 2007 की रात पुलिसवालों, राजनेताओं और आम लोगों ने उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया था. संगीता पारधी, सुप्रि बाई, बसंती बाई, अंगूरा पारधी, कल्पना पारधी, सुनीता बाई, कमली बाई, बबली पारधी, बाया बाई और गुड्डी बाई नामक 10 पारधी महिलाओं ने अपने साथ हुए इस सामूहिक बलात्कार के बारे में पुलिस, नेशनल कमीशन फॉर डिनोटिफाइड एंड नोमाडिक ट्राइब्स (एनसीडीएनटी) और फिर सीबीआई के अधिकारियों को भी बताया था, पर किसी ने भी उनकी शिकायत आज तक दर्ज नहीं की है. बसंती बाई अपने सिर पर लगा जख्म दिखाते हुए कहती हैं, ‘मेरा मरद मुझे आज भी पीटता है. अक्सर रात को दारू पीने के बाद उसे याद आ जाता है कि चार साल पहले मेरा बलात्कार हुआ था.’ फिर कुछ देर चुप रहने के बाद अचानक अपने चेहरे पर एक पथरीली-सी भावशून्यता को लिए वे कहती हैं, ‘वह और मैं, हम लोग आज तक इस बात को मान नहीं पाए हैं कि मेरा बलात्कार हुआ है. मेरा मरद उन अपराधियों का तो कुछ नहीं कर सकता, इसीलिए मुझे मार कर ही अपना गुस्सा निकालता है.’ उस वीभत्स रात के घटनाक्रम को याद करते हुए संगीता आगे कहती हैं, ‘हमें एसडीओपी साकल्ले ने रोका था. उसने कहा कि वह हमें अपनी खाली गाड़ी से स्टेशन छुड़वा देगा पर जब अंधेरा हो गया और आठ बजने लगे तो हम लोगों ने इनसे कहा हमें भी हमारे आदमी और बच्चों के पास छोड़ दो, तब ये लोग हंसने लगे. साकल्ले ने कहा कि अब हमारे साथ भी वही होगा जो अनुसूइया के साथ हुआ. फिर हमें पकड़-पकड़ के कमरों में ले जाने लगे’ कहते-कहते उसकी आवाज भर्राने लगी और फिर रोते हुए उसने कहा, ‘दो-तीन आदमी एक-एक कमरे में थे मैडम जी. हमारी साड़ी-ब्लाउज सब फाड़ दिया और फिर हमारे साथ सबने बलात्कार किया.’ गौरतलब है कि संगीता पारधी का घर पूरे पारधीढाने में सबसे बड़ा था और पीड़ित महिलाओं का आरोप है कि उनका बलात्कार इसी घर के अलग-अलग कमरों में किया गया. अपने दो साल के बच्चे को संभालते हुए बबली कहती हैं, ‘पूरे साड़ी-लुग्गा फाड़ दिए थे हमारे. फिर संगीता बाई के घर में पड़े पुराने कपड़ों में से, जिसको जो मिला, वह वैसे ही गुड़-मुड़ करके पहन के निकला आया क्योंकि फिर हमें गाड़ियों में भरकर स्टेशन छोड़ा जाना था. वहां साकल्ले के साथ-साथ जगदीश, विजयधर, संजय यादव, राजा पवार, अशोक कड़वे जैसे कई लोग थे.’

इस घटना के बाद जहां बाया बाई के पति ने उन्हें छोड़ दिया वहीं गुड्डी बाई की पसलियां आज भी दर्द से टूटती हैं. गुड्डी अपनी कमर पकड़े हुए कहती हैं, ‘भीख मांगते-मांगते पेट दुख जाता है दीदी पर लोग खाना नहीं देते. उस दिन के बाद से आज तक मेरी पसलियां रोज दुखती हैं. पता नहीं क्यों, खुद से ही चिढ़ होती है.’

अपने साथ चार साल पहले हुए उस भयानक हादसे के तिरस्कार को ये सभी औरतें हर रोज, उतने ही दर्द के साथ जीती हैं. यह तिरस्कार तब और बढ़ जाता है जब सामंतवाद, जातिवाद और पक्षपात के अंधेरों में झूलता पुलिस-प्रशासन उनकी बातों को झूठा मानकर, उनके आरोपों के आधार पर एक एफआईआर तक दर्ज करने से इनकार कर देता है. [/box]

घटना की वीडियो रिकॉर्डिंग से साफ पता चलता है कि किस तरह पुलिस और प्रशासन की खुली सहमति से बस्ती को उजाड़ा गया

इस घटना का सबसे अन्यायपूर्ण पहलू यह है कि दिन दहाड़े आगजनी और लगभग 85 पारधी परिवारों के घरों के लुटने और जलने के चार साल पूरे होने के बाद भी न तो इस कांड के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा हो पाई है और न ही इस ‘विमुक्त जनजाति’ के लोगों को दोबारा अपने उजड़े घरों तक जाने का मौका मिल पाया है.

पुलिस और प्रशासन से निराश होने के बाद दो साल लंबी जद्दोजहद के परिणामस्वरूप जब मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने सीबीआई को इस मामले की जांच सौंपी तो पीड़ितों को न्याय की उम्मीद बंधी लेकिन जांच एजेंसी के रवैये से अब वह रही-सही उम्मीद भी धूमिल होती दिख रही है. सीबीआई जांच का आलम यह है कि घटना के चार साल बाद भी इस मामले में अदालती सुनवाई शुरू नहीं हो पाई है. अपनी दो साल लंबी जांच के दौरान तीन जांच अधिकारी बदल चुकी सीबीआई आज तक एक भी व्यक्ति की गिरफ्तारी नहीं कर पाई है. उधर, घोर सामाजिक अपमान, उपेक्षा और बहिष्कार झेल रहे पारधी आदिवासी हर मौसम में खुले आसमान के नीचे भीख मांगकर और पन्नी बीन कर जीवन गुजारने को मजबूर हैं.

देश के दूसरे हिस्सों की तरह ही मध्य प्रदेश में भी पारधी आदिवासियों पर हो रही हिंसा की कोई एक त्वरित वजह नहीं है. हिंसा की वजह एक निचले और बेहद कमजोर अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध सदियों से जारी जातिगत हिंसा और ऊंची जातियों द्वारा उन पर अपने ऐतिहासिक राजनीतिक प्रभुत्व मानने के पुराने तंत्र में छिपी है. बैतूल में भी पारधियों के खिलाफ हिंसा को ऐतिहासिक-सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है. उनकी हत्या या उनकी महिलाओं के बलात्कार को भुनाकर यहां के स्थानीय नेता अपनी जातिगत श्रेष्ठता के साथ-साथ भारी चुनावी जीत की ट्रॉफियां भी लंबे समय से घर ले जाते रहे हैं. बैतूल में हुए चौथिया कांड को जानने से पहले इस घटना की पृष्ठभूमि पर एक नजर डालने से मालूम होता है कि पहले भी यहां पारधियों की हत्याएं और आगजनी की कई घटनाएं हुई थीं. इन सबमें प्रमुख था अगस्त, 2003 का घाट-अमरावती कांड. 30 अगस्त, 2003 को लगभग 100 लोगों की एक भीड़ ने घाट-अमरावती गांव में, गोथन नाम से बसे एक पारधी टोले के 10 घरों में आग लगा दी थी और तीन पारधियों की हत्या कर दी थी. इस मामले में गवाहों के पलट जाने से सभी अभियुक्त छूट तो गए पर अपना निर्णय सुनाते हुए अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट अनिल पोहरे का कहना था कि अभियोजन पक्ष की कमजोर पैरवी के चलते उन्हें आरोपियों को छोड़ना पड़ा. इस घटना के बाद घाट-अमरावती के ज्यादातर पारधी परिवारों ने वह गांव छोड़ दिया. अब वे चौथिया के पारधीढाने में ही आकर रहने लगे. लगभग 2,000 की जनसंख्या वाले चौथिया गांव में पारधी पिछले 20 साल से रह रहे थे. सन 1996 में चौथिया ग्राम पंचायत ने इंदिरा ग्राम आवास योजना के तहत 11 पारधी परिवारों को स्थायी निवास के लिए पट्टे दिए और पक्के मकान बनवाने के लिए सहायता राशि भी दी. कोई दूसरा आश्रय न होने की वजह से आसपास के सभी पारधी पारधीढाने में आकर रहने लगे. सितंबर, 2007 में उजड़ने से ठीक पहले यहां 350 पारधी आदिवासियों के 85 परिवार रहा करते थे.

अदालत ने कहा था कि प्रशासन और राजनेताओं के घटना में शामिल होने की वजह से पुलिस दबाव में काम कर रही थी

चौथिया कांड में हुई हिंसा की शुरुआत नौ सितंबर, 2007 को चौथिया के पास ही बसे सांडिया गांव की एक महिला के बलात्कार और हत्या से उपजे भारी जनाक्रोश से हुई. नौ सितंबर की सुबह सांडिया गांव में रहने वाली अनुसूइया बाई की अपने खेत में बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी. कुनबी जाति की अनुसूइया की निर्मम हत्या से चौथिया और सांडिया के साथ-साथ आसपास के लगभग दस गांवों में त्वरित आक्रोश फैल गया. गांववालों को विश्वास था कि पारधीढाने के पारधियों ने ही अनुसूइया की हत्या की है. इसलिए आक्रोशित भीड़ ने इस बस्ती को जलाने का और तथाकथित अापराधिक प्रवृत्ति वाले पारधियों को क्षेत्र से खदेड़ने का निर्णय लिया. मामले की भनक पड़ते ही स्थानीय पुलिस और राजनेता अपने-अपने निहित उद्देश्यों के लिए हरकत में आ गए. सुखदेव पांसे और राजा पवार जैसे स्थानीय नेताओं ने गांववालों को पारधियों के खिलाफ भड़काया और प्रशासन के उनके साथ होने का विश्वास दिलाया. वहीं स्थानीय पुलिस अनुसूइया बाई के हत्यारों की खोज में पूरे पारधीढाने को ही खाली करवाकर मुलताई पुलिस स्टेशन ले गई. गौरतलब है कि चौथिया और सांडिया के साथ-साथ क्षेत्र के ज्यादातर गांवों में कुनबी जाति के मराठा क्षत्रिय ही रहते हैं और पारधी अल्पसंख्यक हैं. अनुसूइया की हत्या महाराष्ट्र के अमरावती जिले में रहने वाले दो पारधियों ने की थी, जिन्हें घटना के एक दिन बाद ही पकड़ लिया गया. स्थानीय पुलिस के अनुसार  भूरा और धर्मराज नामक अनुसूइया बाई की हत्या के दो संदिग्ध आरोपितों को पकड़ने में चौथिया गांव के पारधियों ने ही उनकी सहायता की थी. अनुसूइया बाई की हत्या के आरोप में गिरफ्तार भूरा और धर्मराज पिछले चार साल से जेल में हैं और मामले की सुनवाई चल रही है.

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अनुसूइया बाई की हत्या की खबर फैलते ही मुलताई पुलिस ने चौथिया गांव के पारधीढाना टोले पर छापा मारा. रविवार की उस सुबह के घटनाक्रम को याद करते हुए गजरी पारधी बताती हैं, ‘सुबह लगभग पौने नौ बजे तक पुलिस ने हमारे पूरे पारधीढाने की घेराबंदी कर दी थी. टोले में मौजूद सारे आदमियों, औरतों और बच्चों को लाइन बनवाकर खड़ा करवा दिया गया. फिर पुलिस सबको पुलिस-गाड़ी में ठूंस कर मुलताई पुलिस स्टेशन ले गई. अगले दिन दस सितंबर की दोपहर तक पुलिसवाले अमरावती से भूरा और धर्मराज को पकड़ लाए. उनके बारे में पुलिस को सारी जानकारी हम लोगों ने ही दी थी. फिर शाम तक पुलिसवालों ने हमें दुबारा गाड़ियों में भरकर वापस चौथिया छोड़ना शुरू कर दिया. वहीं पर कुछ लोगों को एक पन्ना पकड़ाने लगे. बाद में पता चला कि यह कागज किसी नोटिस का था. उन्होंने हमसे कहा कि अभी इसी वक्त अपना घर छोड़ दो, तुम्हें मुलताई स्टेशन पहुंचाया जाएगा.’ अब तक दस सितंबर की शाम हो चुकी थी. अनुसूइया बाई की हत्या के संदिग्ध आरोपित पकड़े जा चुके थे और मुलताई पुलिस ने पारधीढाना खाली करवाकर पारधियों को मुलताई से बाहर भगाना शुरू कर दिया था. अपने तत्कालीन बयान में एसडीओपी (प्रमुख पुलिस अनुभागीय अधिकारी) डीके साकल्ले ने यह बात स्वीकार की है कि पुलिस सुरक्षा की दृष्टि से इलाके को खाली करवा रही थी. 25 वर्षीया कपूरी पारधी आगे बताती हैं, ‘हमें बिलकुल मोहलत नहीं दी गई. कोई सामान, पैसे या जरूरत की चीजें साथ नहीं ले जाने दी गईं. हमें समझ में ही नहीं आ रहा था कि हमें घरों से निकालकर कहां भेजा जा रहा है.’ पारधियों का कहना है कि पुलिस ने झूठ बोल कर उन्हें उनके घरों से निकाला. पूरे मामले पर पारधियों का नेतृत्व कर रहे अलसिया पारधी ने तहलका को बताया, ‘उस रात पुलिसवालों ने हमसे कहा कि गांव में हमारी जान को खतरा है. खुद एसडीओपी साकल्ले साहब ने मुझसे कहा था कि पुलिस हमारे घरों की रक्षा करेगी. अगर गांववाले हमारे घर तोड़ने आएंगे तो उन्हें आंसू गैस से रोकेगी. पर हमें क्या मालूम था कि पुलिस खड़े होकर हमारे घरों को उजड़वा देगी.’ दस सितंबर की रात चौथिया गांव के सभी पारधियों को पुलिस की गाड़ियों में भरकर मुलताई स्टेशन छोड़ दिया गया, जहां से धीरे-धीरे ट्रेन बदल-बदल कर सभी अगली सुबह तक भोपाल पहुंचे.

बहुसंख्यक समुदाय की एक महिला की हत्या के संदिग्धों की गिरफ्तारी पारधियों की निशानदेही पर ही की गई थी

पारधियों का कहना है कि दस सितंबर की रात उनके समुदाय की दस महिलाओं को रोककर स्थानीय पुलिस और प्रशासन के लोगों के उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया. (देखें व्यथा कथा-1)  नेशनल कमीशन फॉर डिनोटिफाइड एंड नोमाडिक ट्राइब्स (विमुक्त, घुमंतू और खानाबदोश जनजातियों के लिए बनाया गया राष्ट्रीय आयोग) ने मामले पर जारी अपनी रिपोर्ट में भी इन सामूहिक बलात्कारों का उल्लेख किया है. संगीता पारधी घटनाक्रम की जानकारी देते हुए कहती हैं, ‘साकल्ले ने सबको गाड़ी में बिठा के भेज दिया पर मुझसे बोला कि तुम लोग रुक जाओ. मेरी गाड़ी में तुम लोगों को छुड़वा दूंगा. यह कहकर उसने मेरे साथ सुप्रि, बसंती, गुड्डी, कल्पना, बबली, सुनीता, अंगूरा, कमली बाई और बाया बाई को भी रोक लिया.’ संगीता की बात से सहमति जताते हुए बसंती आगे बताती हैं, ‘पर कई घंटे बाद भी वह हम लोगों को स्टेशन छोड़ने नहीं ले गया तो हम लोगों ने कहा कि हमें भी हमारे आदमियों के साथ जाने दिया जाए. फिर उन लोगों ने कहा कि जैसा सांडिया वाली बाई के साथ हुआ, वैसा अब तुम्हारे साथ भी होगा. वहां साकल्ले के साथ-साथ जगदीश, विजयधर, संजय यादव, अशोक कड़वे जैसे कई लोग थे. उन सबने हमारे कपड़े फाड़े और हमारा बलात्कार किया. फिर हमें मुलताई स्टेशन छुड़वा दिया गया. हम 11 सितंबर की शाम तक भोपाल पहुंचे जबकि हमारे परिवारवाले सुबह से ही भोपाल स्टेशन के सामने सड़क पर बैठे थे. हमने सबको बताया कि हमारा बलात्कार हुआ है, आयोग को, सीबीआई को, पुलिस को, पर किसी ने हमारी रिपोर्ट नहीं लिखी….दवा भी नहीं दी.’

महिलाओं के साथ बलात्कार की यह घटना हिंसा के तांडव की आखिरी कड़ी नहीं थी. 11 सितंबर को सुबह से ही आसपास के लगभग 10 गांव के लोग पारधीढाने के आसपास इकठ्ठा होने लगे. सुबह आठ बजे तक ट्रैक्टरों में बैठकर आए लगभग 400 लोग यहां जमा हो गए. सुबह के 10 बजते-बजते यह भीड़ दो हजार का आंकड़ा पार कर गई. लोगों की आक्रोशित भीड़ ने पारधियों की बस्ती को लूटना, तोड़ना और जलाना शुरू कर दिया. बस्ती में मौजूद कुल 85 घरों में से 16 पक्के मकान थे और लगभग 69 झुग्गियां. पक्के मकानों को तोड़ने के लिए जहां जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल किया गया वहीं झोपड़ियों को लोहे की सब्बलों और हथौड़ों से मार-मार कर तोड़ दिया गया. पारधियों के घरों में मौजूद इस्तेमाल लायक सारा सामान लूट लिया गया. पुराने बर्तन-भांडों को जला दिया गया. इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एसडीओपी डीके साकल्ले, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक डीएस ब्राजोरिया, एसडीएम वीआर इंगले और मुलताई के तहसीलदार एसके हनोथिया मौके पर मौजूद थे. बड़ी संख्या में तैनात किया गया पुलिस बल और फायर ब्रिगेड की गाड़ियां भी मौके पर खामोश खड़ी रहीं. दोपहर दो बजे के आसपास पुलिस अधीक्षक जेएस संसवाल और जिला कलेक्टर अरुण भट्ट भी मौका-ए-वारदात पर पहुंच गए. घटना की वीडियो रिकॉर्डिंग से साफ पता चलता है कि किस तरह पुलिस और प्रशासन की खुली सहमति से पारधियों की बस्ती को उजाड़ा गया. भीड़ को उकसाने का काम स्थानीय निर्वाचित नेताओं ने किया. मुलताई जिला पंचायत से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सदस्य राजा पवार ने आगे बढ़कर पारधियों के घर तुड़वाए वहीं उस समय मसूद से कांग्रेस के विधायक सुखदेव पांसे ने हंसते हुए कहा कि उनकी पार्टी के संजय यादव ने ही ‘पारधी बस्ती को उजाड़ने के इस बढ़िया काम’ की शुरुआत की. मौके पर मौजूद भाजपा और कांग्रेस के सभी नेताओं ने पारधियों को खुले आम ‘पैदाइशी अपराधी’ कहकर कोसा और उन्हें अपशब्द कहे. मीडिया को मौका-ए-वारदात से दिए अपने बयानों में क्षेत्र के सभी प्रमुख निर्वाचित प्रतिनिधियों ने पारधियों को ‘अपराधी जाति’ कहकर आगजनी का खुला समर्थन किया. 16 सितंबर को क्षेत्र से पारधियों के ‘सफाए’ की खुशी में स्थानीय नेताओं ने मुलताई में एक सभा आयोजित करवाई जिसके अध्यक्ष तत्कालीन राजस्व मंत्री कमल पटेल थे. सभा की वीडियो रिकॉर्डिंग और प्रत्यक्षदर्शीयों से पता चलता है कि सभा में सभी नेताओं ने पारधियों की तुलना राक्षस-अपराधियों से करते हुए उनके खिलाफ जनता को भड़काया. इसी बीच बस्ती के जलने के बाद 12 सितंबर को एक पारधी दंपति का शव गांव से बरामद किया गया. चौथिया अग्निकांड के दौरान डोडा बाई के सामूहिक बलात्कार के बाद बोंदरू और डोडा बाई की पत्थर मार-मार कर हत्या कर दी गई थी (देखें व्यथा कथा-2).

चौथिया कांड के बाद सामूहिक बलात्कार, नृशंस हत्याएं और अपनी बस्ती के उजाड़ कर जला दिए जाने जैसे कई कभी न भरने वाले जख्म अपने जेहन में लेकर पारधी लगभग एक महीने तक भोपाल में रहे. सुरमा बाई बताती हैं, ‘शुरू के एक हफ्ते तो हम स्टेशन के पास भीख मांगते रहे. फिर हमें शास्त्री नगर के एक हॉल में रखा गया. फिर छह अक्टूबर, 2007 की सुबह पुलिस हमें भोपाल से बैतूल की सरहद पर बसी बटेरा बस्ती में छोड़ गई. बाद में पता चला कि बटेरा जंगल में बसा कोई वन-ग्राम है. सरकार हमें आटा भिजवाती थी इसलिए हम वहां पन्नी की झुग्गियां बनाकर रहने लगे. फिर अचानक उन्होंने आटा देना बंद कर दिया. वहां जंगल में हम पन्नी भी नहीं बीन सकते थे और हमें कोई भीख भी नहीं देता, इसीलिए 2010 में हम बैतूल आ गए.’

आज बैतूल के उत्कर्ष मैदान में पारधी-धने के लगभग 300 पारधी पन्नी की झुग्गियों में रहते हैं. 35 वर्षीय कमलया पारधी कहते हैं, ‘अब हम भीख मांग कर खाते हैं. हमें कोई काम नहीं देता, इसलिए भीख में मिली सूखी रोटियों को पानी में भिगोकर बच्चों को खिलाते हैं. पर सर्दियों में गिरते पाले के नीचे सोना पड़ता है.’

‘सीबीआई ने बलात्कार पीड़ित महिलाओं के बयान तो लिए हैं लेकिन जांच पुलिस एफआईआर के आधार पर ही कर रही है’

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‘यदि वे हमें देख लेते तो हमें भी मार डालते’

भोंदरू और डोडेल बाई (उर्फ डोडा बाई) अपने बच्चों लंगडू और राम प्यारी के साथ चौथिया गांव के पारधीढाने में रहते थे. अनुसूइया बाई की हत्या के दिन यह पारधी दंपति अपने बच्चों और दूसरे पारधियों के साथ लगभग 13 लोगों के समूह में बकरियां चराने जंगल की तरफ निकला था. दस सितंबर की रात ये लोग अपने घर की तरफ लौट रहे थे तब पारधीढाने में हलचल और धुएं के उठते गुबार से आशंकित इन लोगों ने बस्ती से कुछ दूरी पर ही ठहरने का फैसला किया. हालांकि गुस्से और नफरत की आग में जल रहे स्थानीय लोगों ने उन्हें एक रात से ज्यादा वक्त नहीं दिया. वहशियों की तरह क्षेत्र के चप्पे-चप्पे में पारधियों के निशान ढूंढ़ रहे गांववालों ने आखिर भोंदरू और डोडल बाई को देख ही लिया. उन्होंने डोडल बाई के सामूहिक बलात्कार के बाद उसे कुएं में फेंक दिया और पत्थर मार-मार कर भोंदरू की हत्या कर दी. 11 सितंबर, 2007 की सुबह हुई इस घटना के लगभग 11 चश्मदीद गवाह हैं, लेकिन मामले में आज तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है. मामले के चश्मदीद गवाह सौदागीर पारधी बताते हैं, ‘हमने देखा कि टोले में बहुत हल्ला हो रहा था, अजीब-सा धुआं उठ रहा था और लोग चिल्ला रहे थे. खतरा महसूस हुआ तो हम टोले से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर रुक गए. उस रात बहुत बारिश हो रही थी, इसलिए हम लोग खेत में बने एक आम के पेड़ के नीचे बैठ गए. सुबह आंख खुली तो देखा कि टोले में आग लगी है और बड़ी-बड़ी गाड़ियों में भरकर लोग आ रहे हैं. हम लोग बहुत डर गए और भागने लगे मगर बीच में ही एक ट्रैक्टर पर आ रहे लोगों ने भोंदरू और डोडल बाई को देख लिया.’

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अपने मां और पिता की हत्या के बारे में पूछने पर लगभग 17 साल की रामप्यारी जमीन को खामोशी से देखने लगती है. फिर अपने भाई लंगडू की तरफ देखते हुए धीरे से कहती है, ‘उस दिन नीले रंग की साड़ी पहनी थी मेरी माई ने. उन लोगों ने उसे धक्का मार कर जमीन पर गिरा दिया और उसकी नीली साड़ी फाड़ डाली.’ इतने में रामप्यारी की खामोश सिसकियों को सुन कर लंगडू बातचीत आगे बढ़ाते हुए कहता है,  ‘ मैंने देखा कि ट्रैक्टर से संजय डॉक्टर (कांग्रेस के मुलताई ब्लॉक अध्यक्ष) लोगों की भीड़ को लेकर उतरे और बाबा को देखते ही चिल्लाए कि आज इन पारधियों को जिंदा नहीं छोड़ना है. फिर उन्होंने बाबा को फत्तर (पत्थर) मार कर गिरा दिया और उन्हें बार-बार फत्तर मारने लगे. फिर चिल्ला कर बोले कि जैसा सांडिया वाली बाई के साथ हुआ,  वैसा ही इस बाई के साथ होगा. फिर माई को फत्तर मार कर गिरा दिया और एक-एक करके लगभग 10 लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया. पहले वह चिल्लाती रही और फिर धीरे-धीरे खामोश हो गई. वहां बहुत सारे लोग थे और अगर हम विरोध करते तो सब मार दिए जाते. इसीलिए हम छिप कर सब कुछ देखते रहे, कुछ नहीं कर सके.’ सौदागीर आगे बताते हैं, ‘फिर उन लोगों ने डोडा को उठाकर पास के कुएं में फेंक दिया. जब उसे उठाया तो उसकी मुंडी लुज-लुज करके नीचे लटक रही थी. मुझे लगता है कि तब तक वह मर चुकी थी. भोंदरू के शरीर से भी बहुत खून बह रहा था. भीड़ के जाने के कुछ देर बाद हम लोगों ने जाकर भोंदरू को देखा तो वह मर चुका था.’

सीबीआई की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, बोंदरू पारधी का शव 12 सितंबर को अजाइब राव देशमुख के खेतों से और उसकी पत्नी डोडल बाई का शव 14 सितंबर को उसी खेत के एक कुएं से बरामद किया गया था. मामले को दबा कर रफा-दफा करने की फिराक में लगी मुलताई पुलिस ने कहा कि दोनों मामलों में पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट कहती है कि यह डूबने से हुई स्वाभाविक मृत्यु है.

इस घटना से जुड़ी कागजी कार्रवाई के पूरी करने के लिए जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट को भोपाल में बैठने वाले प्रदेश के मुख्य फोरेंसिक एक्सपर्ट डॉ डीके सतपथी के पास भेजा गया तो उन्होंने मृतकों की तस्वीरें देखते ही साफ कह दिया कि यह हत्या है. लगभग चार साल गुजर जाने के बाद 4 जुलाई, 2011 को फाइल की गई अपनी रिपोर्ट में सीबीआई ने लिखा है कि सतपथी ने पोस्टमार्टम में कई गलतियां बताई हैं. उन्होंने कहा है, ‘मृतकों की पीठ पर लाठी के मारे जाने के कई निशान हैं और उनकी खोपड़ी फूटी हुई है. इसलिए मृत्यु डूबने से नहीं बल्कि चोटों के कारण बहे खून और नसें फट जाने की वजह से हुई है.’ सीबीआई ने हत्या का मामला दर्ज करके मामले को गहन तफ्तीश के लिए दिल्ली के एम्स अस्पताल की एक विशेष फोरेंसिक टीम के पास भेज दिया है. सीबीआई ने भोंदरू और रामप्यारी के साथ-साथ पांच और लोगों के बयान भी लिए हैं, पर अभी तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका है. [/box]

चौथिया कांड की तफ्तीश में पूरे मामले की वीडियो रिकॉर्डिंग अदालत और सीबीआई को सौंपने वाले स्थानीय टीवी पत्रकार अकील एहमद और रेशू नायडू को भी स्थानीय राजनीतिक हलकों से कई बार अपने बयान वापस लेने के लिए धमकियां मिल चुकी हैं. गौरतलब है कि अकील और रेशू आगजनी के पूरे मामले में चश्मदीद गवाह हैं और उन्होंने मामले की लाइव रिकॉर्डिंग को अदालत में प्रमाणित भी किया है. मौका-ए-वारदात पर सबसे पहले पहुंचने वाले रेशू बताते हैं, ‘11 सितंबर को जब मैं पारधियों की बस्ती में पहुंचा तो मेरे सामने तीन भरे हुए ट्रैक्टरों से लोग नीचे उतरे और नारे लगाते हुए पारधियों की झोपड़ियां तोड़ना शुरू कर दिया.

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जंगलराजः पारधीढाने में बने पक्के मकानों को जेसीबी मशीन से ढहाया गया

धीरे-धीरे भीड़ बढ़ने लगी. राजा पवार खुद जेसीबी मशीन पर चढ़कर अलसिया पारधी का मकान तुड़वा रहा था जबकि सुखदेव पांसे और संजय यादव लोगों को भड़का रहे थे और कह रहे थे कि इन अपराधियों के घर जला दो.’ रेशू से सहमति जताते हुए अकील आगे कहते हैं, ‘पूरा प्रशासन और पुलिस महकमा वहां चुपचाप खड़ा था. उनके पास फायर ब्रिगेड की गाड़ियां थीं और आंसू गैस भी थी, लेकिन उन्होंने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कुछ नहीं किया. दोपहर के बाद कलेक्टर और एसपी भी मौके पर पहुंचे और आगजनी को सही ठहराते हुए कहने लगे कि अनुसूइया बाई की मौत की वजह से लोगों में जनाक्रोश है.’

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कौन हैं पारधी?

पारधी शब्द का उद्भव मराठी के ‘पारध’ शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ बहेलिया या शिकारी होता है. यह महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश राज्यों में पाए जाने वाली आदिवासियों की एक विमुक्त जनजाति है. पारधियों के बारे में एक प्रचिलित ऐतिहासिक किंवदंती है कि मुगलों के खिलाफ हुए हल्दीघाटी के युद्ध में पारधियों ने महाराणा प्रताप की सहायता करने के लिए उनकी तरफ से युद्ध लड़ा और हारने के बाद यह प्रण लिया कि जब तक उनका राजा दर-दर भटक रहा है, वे भी एक जगह नहीं रहेंगे. इस घटना को उनके बंजारा स्वभाव के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण माना जाता है. अपने स्वभाव से पारधी बहुत फुर्तिले, बुद्धिमान और अपनी शारीरिक बनावट में बलिष्ट होते हैं. इन्हें जंगल के पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों, पक्षियों और जानवरों के बारे में गहन जानकारी रहती है. पुरातन काल से पारधी वन और वन्य-उत्पादों के जरिए ही अपना आजीविका चलाते रहे हैं. स्वभाव से ही विद्रोही होने के कारण पारधियों ने अंग्रेजों का भी खुला विरोध किया. इसलिए अंग्रेजों ने सन 1871 में क्रिमिनल ट्राइब्स एेक्ट  पास करके पारधियों के साथ-साथ 50 अन्य बंजारी जनजातियों को भी प्रतिबंधित कर दिया. तब से ही पारधियों को एक आपराधिक जाति के तौर पर देखा जाने लगा. पुलिस इन्हें जब-तब पकड़ लेती और आम जनता भी इन्हें हिकारत भरी निगाहों से देखती है. धीरे-धीरे ये बंजारी जातियां एक ख़ामोश सामाजिक बहिष्कार का शिकार हुईं. डॉ अंबेडकर के प्रयासों से सन 1952 में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट  को निरस्त कर दिया गया. अब क्रिमिनल  शब्द की जगह डिनोटिफाइड  शब्द का उपयोग किया जाने लगा और ‘आदतन अपराधी अधिनियम’ नाम का एक नया कानून लागू किया गया.’ क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट ‘ तो खत्म हो गया, पर पारधियों के प्रति लोगों का नजरिया आज तक नहीं बदला. चौथिया कांड से विस्थापित हुए लगभग 350 पारधी फिलहाल बैतूल जिले में बने दो अलग-अलग कैंपों में जीवन गुजार रहे हैं. इनके स्थायी पुनर्वास की बात आज भी केंद्र और राज्य के बीच चक्कर लगाती कागजी फाइलों में कैद है. चौथिया कांड के तुरंत बाद तत्कालीन बैतूल कलेक्टर अरुण भट्ट ने पारधियों के पुनर्वास के लिए एक योजना बनाई. चारों तरफ से ऊंचे कटीले तारों से घिरी एक बड़ी इमारत में पारधियों को कैद करने जैसे हल सुझाने वाली इस नाजी योजना की कड़ी आलोचना हुई. अगस्त, 2010 में मध्य प्रदेश मानव अधिकार आयोग ने पारधियों के पुनर्वास की मांग करते हुए हाई कोर्ट में एक अपील दायर की. अक्टूबर, 2010 में इस अपील का जवाब देते हुए राज्य सरकार ने जानकारी दी कि पारधियों के पुनर्वास के लिए राज्य सरकार ने एक लिखित प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा है. इस विस्तृत प्रस्ताव में राज्य सरकार ने पारधियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आवास और दक्षतावृद्धि प्रशिक्षण का प्रावधान बनाया था. चार करोड़ 42 लाख रुपये के बजट आवंटन की आस में यह प्रस्ताव सन 2009 से केंद्र के सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण विभाग में लंबित पड़ा है. [/box]

पारधियों की हत्या या उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार को भुनाकर स्थानीय नेता सालों से यहां चुनाव जीतते रहे हैं

बैतूल में पारधियों के साथ हुए अत्याचारों की अदालती लड़ाई सितंबर, 2007 से ही जारी है और यह देश के उन चुनिंदा मामलों में से है जिसमें किसी विमुक्त जनजाति पर हुए अत्याचार की गंभीर जांच के लिए अदालत ने मामला सीबीआई को सौंपा हो. चौथिया कांड में पारधियों की तरफ से अदालती लड़ाई लड़ रहे सामाजिक कार्यकर्ता और समाजवादी जन परिषद के सदस्य अनुराग मोदी कहते हैं, ‘जिस अपराध में पुलिस खुद ही शुरू से सहभागी रही हो, उस मामले में पुलिस से निष्पक्ष जांच की उम्मीद करने का तो सवाल ही नहीं उठता. प्रमाणित वीडियो रिकॉर्डिंग, दो चश्मदीद गवाहों और नेशनल कमीशन फॉर डिनोटिफाइड एंड नोमाडिक ट्राइब्स (एनसीडीएनटी) की फटकार लगाती हुई रिपोर्ट के बाद भी पुलिसवालों ने दो साल तक कोई कार्रवाई नहीं की. यहां तक कि पारधी औरतों के लगातार कहने के बाद भी उन्होंने सामूहिक बलात्कार को एफआईआर में दर्ज तक नहीं किया. वह तो जस्टिस पटनायक थे जिन्होंने हिंसा के इस तांडव की दोनों सीडी अदालत में देखीं वर्ना जिन लोगों को पूरा समाज जन्म से ही अपराधी मानता हो उनकी सुनने वाला कौन होता है?  दो साल की कड़ी लड़ाई के बाद आखिर अगस्त, 2009 को हाई कोर्ट ने मामला सीबीआई को सौंप दिया.’ लेकिन अनुराग और उनके वकील राघवेंद्र झा को कुछ ही दिनों में महसूस हो गया कि सीबीआई भी जांच में कोताही बरत रही है. अनुराग बताते हैं, ‘हमने तुरंत दूसरी याचिका दाखिल करते हुए अदालत से कहा कि सीबीआई जांच की प्रोग्रेस रिपोर्ट फाइल करे.’ जांच शुरू होने के लगभग छह महीने बाद जांच अधिकारी एमएस खान ने मात्र तीन पन्ने की अपनी रिपोर्ट में लिखा कि उन्होंने तीन ट्रैक्टर और एक जेसीबी मशीन जब्त कर ली है और पूछताछ जारी है. खान की रिपोर्ट को हास्यास्पद बताते हुए अनुराग आगे जोड़ते हैं, ‘यह बहुत आश्चर्य की बात है कि वीडियो रिकॉर्डिंग और चश्मदीदों की गवाही के बावजूद छह महीने में सीबीआई कुछ ट्रैक्टर ही जब्त कर पाई, उस पर भी उन्होंने गाड़ी के मालिकों को दोषी नहीं बनाया. हाई कोर्ट ने सीबीआई को मामला सौंपते हुए अपने निर्णय में लिखा था कि पुलिस चौथिया कांड और भोंदरू-डोडा बाई की हत्या के मामलों की शुरू से ढीली जांच कर रही है. कोर्ट ने यह भी लिखा था कि स्थानीय राजनेताओं और प्रशासन के मामले में शामिल होने की वजह से पुलिस राजनीतिक दबाव में आ गई है इसीलिए सीबीआई को मामला सौंपा जा रहा है. पर अफसोस की बात है कि मामले की जांच को लेकर सीबीआई का रवैया भी संदेहास्पद है.

इतने खुले मामले में सीबीआई जांच के दो साल गुजर जाने के बाद भी आज तक एक भी अपराधी गिरफ्तार नहीं किया गया.’ पूरे मामले की छानबीन में सीबीआई की स्थिति हाल ही में जांच एजेंसी द्वारा चार जुलाई, 2011 को जबलपुर स्थित हाई कोर्ट में प्रस्तुत की गई ताजा प्रोग्रेस रिपोर्ट से जाहिर होती है (सभी अदालती दस्तावेजों और वीडियो रिकॉर्डिंग की एक प्रति तहलका के पास मौजूद है). रिपोर्ट में लिखा गया है कि भोंदरू-डोडा बाई के कत्ल के शव-परीक्षण पर विरोधाभासी मत होने की वजह से मामले को दिल्ली के एम्स अस्पताल की एक विशेष कमेटी के पास भेजा जा रहा है. रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि ग्राम पंचायत ने कलेक्टर की अनुमति के बिना, पारधी परिवारों को नोटिस पीरियड दिए बिना और उनकी बात सुने बिना ही गैरकानूनी तरीके से अतिक्रमण हटाया है. उस पर जिन 11 मकानों को कानूनी पट्टे मिले थे उन्हें भी नियमों को ताक पर रख कर हटाया गया. बिंदु क्रमांक 5.7 में रिपोर्ट यह बताती है कि केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट के अनुसार सभी पारधियों को घर खाली करने के नोटिस नहीं दिए गए थे. वीडियो रिकॉर्डिंग के बारे में केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की जांच का हवाला देते हुए जांच एजेंसी ने कहा है कि पड़ताल में वीडियो फुटेज सही पाए गए. इस मामले में अब तक 250 लोगों के बयान ले चुकी सीबीआई अभी तक दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पाई है. पारधी महिलाओं के सामूहिक बलात्कार को एफआईआर में शामिल न करने के लिए जांच एजेंसी को आड़े हाथों लेते हुए राघवेंद्र कहते हैं, ‘ मेरे क्लाइंट ने मुझे बताया है कि इस मामले में उनसे गहन पूछताछ की गई है. जिन दस पारधी महिलाओं का बलात्कार हुआ था, उन सभी से सीबीआई ने न सिर्फ पूछताछ की बल्कि उनके बयानों की वीडियो रिकॉर्डिंग भी हुई. मगर जांच एजेंसी आज भी मुलताई पुलिस द्वारा दायर एफआईआर पर ही काम कर रही है. जांच और सुनवाई की बात तो दूर, उन्होंने आज तक बलात्कार के मामले दायर ही नहीं किए.’

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बेआसराः पारधीढाना के पारधी फिलहाल बैतूल के दो शिविरों में रह रहे हैं

इस मामले में सीबीआई की ढिलाई का सिर्फ यही उदाहरण नहीं है. जांच अधिकारी खान के स्थानांतरण के बाद इस मामले की जांच के लिए एक दूसरे अधिकारी एसएल गुप्ता को नियुक्त किया गया, लेकिन इस नियुक्ति पर सवाल उठने के बाद सीबीआई की तहकीकात कानूनी पेंचों में उलझती नजर आ रही है. दरअसल जनवरी, 2011 में इस मामले की जांच अपने हाथ में लेने वाले एसएल गुप्ता को तकरीबन सात महीने बाद अचानक यह कहकर हटा दिया गया कि उनकी नियुक्ति मात्र एक परामर्श अधिकारी के तौर पर हुई थी. इस फेरबदल से केस पर पड़ने वाले असर के बारे में बताते हुए अनुराग कहते हैं, ‘गुप्ता ने मामले पर काफी काम किया है और बयान भी लिए हैं. अगर वे तहकीकात के लिए अधिकृत नहीं थे तो उन्हें जांच क्यों करने दी गई? यह बात केस को बहुत कमजोर बना देगी क्योंकि अदालत में इन सात महीनों की तहकीकात के अवैध घोषित होने का भी डर है.’ इस बारे में जब गुप्ता ने तहलका से बात की तो उनका कहना था, ‘मुझे भी नहीं पता कि मुझे जांच अधिकारी से परामर्श अधिकारी क्यों और कैसे बना दिया गया. मेरी नियुक्ति जांच अधिकारी के तौर पर हुई थी और इससे पहले भी सीबीआई के लिए कई मामलों में बतौर जांच अधिकारी छान-बीन कर चुका हूं.’ हालांकि सीबीआई का कहना है कि अपने सात महीने के कार्यकाल के दौरान गुप्ता ने कोई तफ्तीश नहीं की. सीबीआई की प्रवक्ता धारिणी मिश्रा तहलका को अपने लिखित जवाब में बताती हैं, ‘श्री एमएस खान के बाद जांच श्री एसएल गुप्ता को सौंपी गई और सहायता के लिए दो इंस्पेक्टर भी दिए गए. पर उनके काम का स्वभाव मुख्यतः पत्राचार और सुपरविजन से जुड़ा था. 21 जुलाई, 2011 को परामर्श अधिकारी के तौर पर उनकी पुनः नियुक्ति के बाद मामला अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक श्री एनके शर्मा को दे दिया गया. इस फेरबदल की वजह से अगर केस की सुनवाई पर कोई प्रभाव पड़ता है तो सीबीआई जरूरी कदम उठाएगी.’ इस मसले पर कोर्ट में बहस तो अभी बाकी है पर घटनाक्रम में आए इस ताजा परिवर्तन ने इतने संवेदनशील मामलों में भी जांच से लेकर जांच अधिकारियों की नियुक्ति तक जारी सीबीआई के लापरवाह रवैये पर सवालिया निशान तो खड़े किए हैं.

सीबीआई की तरफ से इस मामले की जांच सात महीने तक उस अधिकारी के हाथ में रही जो इसके लिए अधिकृत ही नहीं था

अपने गांव से पारधियों को भगाकर चौथिया का तथाकथित ‘नस्लीय शुद्धिकरण’ करने वाले गांववाले पारधियों का चेहरा दुबारा नहीं देखना चाहते. चौथिया कांड का दूसरा पहलू जानने के लिए जब तहलका की टीम बैतूल से 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चौथिया गांव पहुंची तो मालूम हुआ कि चौथिया आज भी पारधियों के खिलाफ नफरत में जल रहा है. पारधियों की किसी भी तरह की वापसी को नामुमकिन बनाने के लिए गांववालों ने पारधीढाने में आम के पेड़ लगा दिए हैं. आज एक सपाट मैदान पर किसी पनपते हुए आम के बगीचे की तरह नजर आने वाले पारधीढाने को देखकर यह विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि इस जमीन पर कभी 350 लोगों की एक बस्ती हुआ करती थी. हालांकि इतने पौधारोपण और सफाई के बाद भी गांववाले सितंबर की हिंसा के निशान मिटा नहीं पाए हैं. मैदान में पड़े अलसिया पारधी के घर के मलबे के कुछ टुकड़े रोंगटें खड़े कर देने वाले उन हिंसक अपराधों की गवाही आज भी देते हैं.  चौथिया गांव के तत्कालीन सरपंच कचरू बरंगी बताते है, ‘अगर पारधी वापस आए तो हम सब आत्महत्या कर लेंगे. उन्होंने हमारा जीना मुश्किल कर दिया था. हम आसपास के सभी गांववालों में उनके लिए भयंकर गुस्सा था. वे तो जन्म से ही अपराधी थे, कभी हमारी फसल चुरा लेते थे, कभी महिलाओं को तंग करते थे. इसलिए हम लोगों ने उन्हें भगाया. इस मामले में अगर हमें जेल भी हो जाए तो जेल जाएंगे लेकिन पारधियों को यहां वापस नहीं आने देंगे.’ गांववालों का मानना है कि अनुसूइया बाई की ‘शहादत’ से पूरे क्षेत्र में शांति फैल गई है. गांव के एक स्कूल में खाना पकाने वाली शकुन बाछले कहती हैं, ‘अनुसूइया बाई तो मर गई, लेकिन उसकी मौत से जो गुस्सा लोगों में भड़का, तो सारे पारधियों को भगा दिया गया. अनुसूइया की वजह से ही पूरे क्षेत्र में शांति है.’ ज्यादातर गांववालों की तरह एक ही बात को एक ही लहजे में दोहराते हुए नेपाल बिसंदरे कहते हैं, ‘हम अपनी मां-बहन के साथ कोई गलत बात बर्दाश्त नहीं करेंगे. पारधी तो जन्मजात चोर-लुटेरे हैं. उनके बच्चे स्कूल में पढ़ने की बजाय चोरी करते हैं क्योंकि पढ़ना-लिखना या बैठ कर कोई काम करना उनकी फितरत में ही नहीं है. हम कभी उनकी शक्ल भी नहीं देखना चाहते. उनके जाने के बाद से हम सब सुखी हैं.’

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तहलका ने पारधियों पर लग रहे तथाकथित चोरी और लूटपाट की शिकायत की सच्चाई जानने के लिए जब बैतूल पुलिस अधीक्षक बीएस चौहान से बात की तो चोरी के आरोपों के नीचे दबी सामाजिक बहिष्कार की परतें खुलने लगीं. पारधियों पर लुटेरे होने के तमाम आरोपों को ‘क्रिमिनल ब्रांडिंग’ बताते हुए उन्होंने कहा, ‘पिछले कुछ सालों में पारधियों के खिलाफ कोई प्रमुख अपराध दर्ज नहीं किया गया है.’ गांववालों में पारधियों के खिलाफ जिंदा इस नफरत के लिए स्थानीय राजनीतिक समीकरण को जिम्मेदार बताते हुए मुलताई के स्थानीय पत्रकार असलम खान कहते हैं, ‘पारधियों के कबीले तो दादा-परदादा के जमाने से यहां बसे हैं. हालांकि लोग उनसे हमेशा से ही कतराते थे, पर गांववालों में उनके खिलाफ इतना जहर कभी नहीं था. लेकिन 2003 के घाट-अमरावती कांड के बाद से पूरे क्षेत्र में अचानक तनाव बढ़ गया. स्थानीय नेताओं ने लोगों को भड़काया और उनके हितैषी बनने का ढोंग रचकर, चुनाव-दर-चुनाव जीतते चले गए. अमरावती-घाट हत्याकांड को परोक्ष रूप से संचालित करने वाले सुखदेव पांसे 2004 में मसूद से चुनाव जीते और 2007 में चौथिया कांड करवाने के बाद मुलताई से 2008 के चुनावों में उन्होंने फिर से जीत दर्ज की. पारधियों के अल्पसंख्यक होने की वजह से उनके वोटों का कभी कोई महत्व ही नहीं रहा. यही वजह है कि हर राजनीतिक पार्टी, क्षेत्र से उनके सफाये की जमीन पर अपनी राजनीतिक विजय की कहानी लिखने को बेताब रहती है.’

राजनीतिक, प्रशासनिक, पुलिसिया और जांच एजेंसियों के लापरवाह, पक्षपाती और भ्रष्ट रवैये के साथ-साथ पारधियों की इस सतत उपेक्षा और दुर्भाग्य के लिए सामाजिक सोच सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. अनुराग कहते हैं, ‘जब आप एक समुदाय को चारों तरफ से घेर कर खड़े हो जाएंगे और उन्हें चोर-चोर कहकर कोसते रहेंगे तो पूरा समुदाय अपने-आप मुरझा जाएगा. जरूरत इस बात की है कि उन्हें भी शिक्षा, रोजगार, घर और सम्मान से जीने का एक मौका दिया जाए. हम समाज के इस हिस्से को अपराधी कहकर मरने के लिए कैसे छोड़ सकते हैं?’

मासूम गिरोहों की दिल्ली

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गर्मियों की एक दोपहर. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन. नई-दिल्ली-गुवाहाटी राजधानी एक्सप्रेस अपनी यात्रा पूरी कर चुकी है. यात्रियों को प्लेटफॉर्म पर उतारने के बाद खाली हो चुकी ट्रेन धुलाई-सफाई के लिए रेलवे स्टेशन के पीछे बने यार्ड की तरफ बढ़ रही है. अचानक एक कोच के दरवाजे पर 14-15 साल का एक लड़का लटकता नजर आता है. हमें देखते ही वह जोर से हाथ हिलाता है और लहराते हुए चलती ट्रेन से उतर जाता है. उसके हाथ में फटी पन्नियों और प्लास्टिक की बोतलों से भरा एक मटमैला बोरा है. बुरी तरह घिस चुकी हाफ पैंट और लगभग चीथड़ों में तब्दील एक बदरंग टी-शर्ट पहने इस लड़के के शरीर के लगभग हर हिस्से पर चोटों के निशान दिखते हैं. खास चमड़ी के कटने से बनने वाले ये निशान उसके शरीर पर जमी मिट्टी, धूल और गंदगी की परतों को चीरते हुए बाहर झांक रहे हैं. अपने कान पर जमे खून के ताजा थक्कों से बेखबर वह लड़का मुस्कुराते हुए हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है. थोड़ी कोशिशों के बाद वह थोड़ा और सहज होता है और सबसे पहले अपना मौजूदा नाम रोहन बताता है.

रोहन से यह हमारी दूसरी मुलाकात है. पहली मुलाकात बस नाम के लिए हुई थी. हमें देखते ही वह भागने लगा था. फिर जब हमने उसे आश्वस्त करते हुए बुलाया तो वह आया तो जरूर, लेकिन काफी कोशिशों के बाद भी हमसे बात करने के लिए तैयार नहीं हुआ. इस बार लगता है कि उसका हम पर कुछ भरोसा जमा है.

साथ-साथ लोहे की पटरियां पार करते हुए हम स्टेशन के आखिरी छोर पर बने प्लेटफॉर्म पर बैठ जाते हैं. अपने बारे में बताते हुए रोहन कहता है, ‘मुझे नहीं पता मेरा घर कहां है. मुझे नहीं मालूम मैं कहां से आया हूं. पहले तो मेरा कोई नाम भी नहीं था. स्टेशन पर लोग मुझे लूला, पगला या गंजा कहते थे. ये नाम तो स्टेशन पर काम करने आने वाले भैया ने दिया है. मुझे आज तक घर से कभी कोई लेने नहीं आया. जब से याद पड़ता है, तब से मैं स्टेशन पर ही रहता हूं.’

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अनिश्चितताः अपराध के दुष्चक्र में फंसे इन किशोरो को अपने भविष्य का कुछ पता नहीं

रोहन बताता है कि वह नशा करता है, उसने कई चोरियां भी की हैं और गाहे-बगाहे लोगों को ब्लेड या चाकू भी मार चुका है. अपराध की दुनिया में अपने सफर के बारे में वह कहता है, ‘सब सीख जाते हैं, दीदी. जब मैं छोटा था तो बड़े लड़कों ने सिखाया. चलती ट्रेन में चढ़ना, पॉकेट मारना, पर्स उड़ाना, चाकू मारना सब. यहां के गैंगों में बड़े लड़के छोटे बच्चों को सब सिखाते हैं. मैं तो फिर भी ठीक हूं. स्टेशन के दूसरे लड़कों और कबाड़ी वालों ने तो काम के टाइम कइयों को निपटाया है. फिर यही नए बच्चे भी सीख जाते हैं.’

नशा और चोरी-चकारी करते-करते कई बच्चे खुद भी मासूम बच्चों को नशे का आदी और अपराधी बनाने वाले कारोबार का हिस्सा बन जाते हैं

आती गर्मियों के आसमान में धूप ढलान की ओर बढ़ती है. शाम होने तक रोहन हमें अपनी रहस्यमयी दुनिया के कई किस्से सुनाता है. बातचीत के दौरान साफ होता है कि अनजाने में यह मासूम बच्चा लगभग संगठित तरीके से चलने वाले बच्चों के एक ऐसे आपराधिक गिरोह का हिस्सा बन चुका है जिसकी कमान वयस्क अपराधियों के हाथों में है. इस कहानी का सबसे स्याह पहलू यह है कि वह अकेला नहीं है. अपराध के जाल में फंस कर अपना बचपन गंवा रहे रोहन जैसे सैकड़ों अन्य बच्चों की कहानियां दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में बिखरी पड़ी हैं.

अपनी दो महीने लंबी तहकीकात के दौरान तहलका ने इस मसले से जुड़ी कई छोटी-बड़ी जानकारियों और उलझे हुए बिंदुओं को जोड़ा. इससे अलग-अलग जगह, परिस्थितियों आदि में काम करने वाले बच्चों के करीब पांच प्रमुख आपराधिक गैंगों की एक चौंकाने वाली तस्वीर उभरी. दिल्ली में एक तरफ जहां तमाम बच्चे रेलवे स्टेशनों पर होने वाली लूटपाट और चाकूबाजी में शामिल, आपस में होड़ करते समूहों के तौर पर मौजूद हैं, वहीं शहर की लाल बत्तियों पर कार पंक्चर करके सामान चुराने वाले गिरोहों के रूप में भी इनकी सक्रियता देखी जा सकती है. एक तरफ राजधानी के सभी प्रमुख कबाड़ बाजारों में कबाड़ व्यापारियों की शह और मुश्किल परिस्थितियों का गठजोड़ कबाड़ बीनने वाले ज्यादातर बच्चों को अपराध के अंध-कूप में धकेल रहा है, तो बीड़ी और सिगरेट से शुरू होने वाले नशे को स्मैक और कोकीन तक पहुंचा कर बच्चों से चोरियां, डकैतियां और हत्याएं तक करवाने वाले अपराधियों का भी एक पूरा नेटवर्क शहर में सक्रिय है. नशा और चोरी-चकारी करते-करते कई बच्चे खुद भी मासूम बच्चों को नशे का आदी और अपराधी बनाने वाले कारोबार का हिस्सा बन जाते हैं.

मासूम बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेलने वाले अपराधी घर से भाग कर आने वाले और गुमशुदा बच्चों के साथ-साथ तस्करी के शिकार बच्चों को अपना पहला शिकार बनाते हैं. साथ ही, काम की तलाश में छोटे शहरों और कस्बों से पलायन करके दिल्ली का रुख करने वाले मजदूरों के बच्चे भी जाने-अनजाने इन गिरोहों के जाल में फंस रहे हैं.

बच्चों के नियोजित अपराधीकरण को लेकर अगस्त, 2012 में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करने वाले युवा अधिवक्ता अनंत अस्थाना कहते हैं, ‘बात चाहे किसी भी तरह के अपराध में शामिल बच्चों की हो, वयस्क अपराधी अपने फायदे के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं. धीरे-धीरे ये बच्चे भी अपराध की अंधेरी दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं. हालांकि इन बच्चों को अपराध में झोंकने वाले वयस्क अपराधियों के साथ-साथ तेजी से पनप रहे बच्चों के इन आपराधिक गिरोहों के बारे में जानकारी अभी भी सीमित ही है.’

आगे के पन्ने दिल्ली में सक्रिय संगठित अपराधियों के जाल में फंसे उन बच्चों की कहानियां कहते हैं जिन्हें इन अपराधियों के लालच और सभ्य समाज व व्यवस्था की आपराधिक उदासीनता ने अपराध की अंधेरी गलियों में धकेल कर उनके वापस आने वाले रास्ते बंद कर दिए हैं. बिना एक बार भी यह सोचे कि इस प्रक्रिया में हम भविष्य में उनके बड़े खूंखार अपराधियों में तब्दील होने की पूरी पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं. और उसके बाद शायद उनसे पीड़ित होने की भी.

कबाड़ी गैंग

दिल्ली के ओल्ड-सीमापुरी इलाके में बसी एफ ब्लाक झुग्गी बस्ती से लगभग 100 मीटर पहले ही रिक्शावाला हमें उतार देता है. पूछने पर बताया जाता है कि आगे दिल्ली की सबसे बड़ी और आपराधिक गतिविधियों के लिए बदनाम कबाड़ी बस्ती है. ज्यादातर रिक्शेवाले वहां तक सीधे जाना पसंद नहीं करते. मोहल्ले की ओर जाती सड़क पर आगे बढ़ते ही धूप और धूल भरी जमीन पर मुर्गों के कटे हुए लहूलुहान पंख, जहां-तहां पड़े बालों के गुच्छे और कतार में रखी कबाड़े से भरी बड़ी-बड़ी बदरंग बोरियां नजर आती हैं. जिंदा तत्वों के धीरे-धीरे नष्ट होने से पैदा होने वाली एक तीखी सड़ांध हमें झकझोरते हुए बताती है कि हम दिल्ली की सबसे पुरानी कबाड़ी बस्ती में दाखिल होने वाले हैं. अंदर छोटी-छोटी गलियों के किनारे बनी दड़बेनुमा खोलियों में बच्चे कभी कबाड़ साफ करते हुए तो कभी नशे के इंजेक्शन लेते नजर आते हैं. सिर्फ छह-सात फुट लंबे-चौड़े कमरे में छज्जा-सा डालकर उसमें 6-7 लोगों का परिवार गुजारा करता है. आगे बढ़कर जब हम पहला दरवाजा खटखटाते हैं तो पीली रोशनी में डूबे हुए कमरे में दो लड़के ड्रग्स का इंजेक्शन लगाते हुए दिखते हैं. उनके पीछे बैठी दो लड़कियां अपना नाम रजिया और फरहा बताती हैं. अपने हाथों में खाने की जूठी थालियां उठाए वे यह भी बताती हैं कि आज का कबाड़ साफ करने के बाद उन्होंने अभी-अभी अपना खाना खत्म किया है. रजिया और फरहा एक कमरे के अपने इसी घर में खाना खाती हैं, नशे में डूबे अपने भाइयों की लाल आंखों को बर्दाश्त करती हैं और सारी दिल्ली से आए कबाड़ को इसी के एक कोने में बैठकर साफ भी करती हैं.

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जिंदगी का कचराः कबाड़ व्यापारी बच्चों को इसलिए भर्ती करते हैं क्योंकि उन्हें पूरा पैसा नहीं देना पड़ता

कुछ दूर और आगे बढ़ने पर गली में हमें कबाड़ बीनने वाले बच्चों का एक झुंड ताश खेलता हुआ नज़र आता है.  झुंड में लगभग 15 साल का एक लड़का सफेदी (स्याही मिटाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला व्हाइटनर) में भीगा रूमाल सूंघ रहा है, जबकि बाकी पत्ते बांटने में व्यस्त हैं. हमें देखते ही सब पहले कुछ फुसफुसाते हैं, फिर हंसने लगते हैं. कुछ देर की कोशिशों के बाद वे बातचीत के लिए राजी हो जाते हैं. ताश खेल रहे ये सभी बच्चे 12-16 वर्ष के हैं और इन सभी ने छोटी उम्र से ही कबाड़ बीनने का काम शुरू कर दिया था. नशे और मारपीट की आदतों के बारे में बताते हुए 16 साल का रफीक कहता है, ‘हम सभी नशा करते हैं, इंजेक्शन, दारू, फ्लूइड, गांजा, पाउडर…सब कुछ. सबसे पहले तो नशा कबाड़ी वाले ही देना शुरू करते हैं.’ तभी अचानक 14 साल का रवि बीच में ही चिल्लाते हुए कहता हैं, “अरे मैं बताऊं, जब हम कबाड़ बीनने जाते हैं तो थकान होती है. फिर वहां गुटका खाना तो अपने आप सीख जाते हैं. फिर सिगरेट की हुड़क लगती है. सिगरेट से दारू, दारू से गांजा और गांजे से फ्लूइड. जब कबाड़ बेचने जाते हैं तो वहां सेठ फ्लूइड देता है. फिर पाउडर…सुई. यही है एक कबाड़ी बच्चे की सच्चाई! जान ली, अब जाओ यहां से.’

‘सबसे पहले तो कबाड़ीवाले खुद ही हम लोगों को फ्लूइड दे देते हैं. वे हम लोगों से चोरियां करवाते हैं और फिर हमें पुलिस से भी बचाते हैं’

अपनी बात खत्म करते हुए रवि लगभग हमें गली के बाहर धक्का देने लगता है. हमें बताया जाता है कि फिलहाल ये बच्चे नशे में हैं और कुछ भी कर सकते हैं. वहां से निकलते ही बस्ती के दूसरे छोर पर हमारी मुलाकात 12-13 साल के अफजल और सुरेश से होती है. दोनों सुबह-शाम कबाड़ बीनने जाते हैं. अपने काम में नशे और अपराध की मिलावट के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘सबसे पहले तो कबाड़ीवाले खुद ही हम लोगों को फ्लूइड दे देते हैं. वे हम लोगों से चोरियां करवाते हैं और फिर हमें पुलिस से भी बचाते हैं. कबाड़ीवाले हमारे लिए सब कुछ करते हैं इसलिए मेरे साथ के सारे बच्चे उनकी बात मानते हैं. फिर छिनैती, लड़ाई, चाकूबाजी और चोरी-चकारी…यहां कुछ सब चलता है.’

सीमापुरी की कबाड़ी बस्ती से निकलते-निकलते यह साफ हो जाता है कि कबाड़ बीनने वाले बच्चे अपने आस-पास के माहौल और अपने कबाड़ी सेठों के संरक्षण में अपराध और नशे की कभी न खत्म होने वाली अंधी गलियों में विचर रहे हैं. इस बस्ती के बच्चों की शिक्षा और पुनर्वास के लिए काम कर रही गैरसरकारी संस्था आशादीप फाउंडेशन से जुड़े एचके चेट्टी बताते हैं, ‘यहां कबाड़ा बीनने वाले लगभग 2,500 परिवार रहते हैं. ज्यादातर लोग बांग्लादेश से आए हैं, लेकिन इन्हें शरणार्थी होने तक का दर्जा हासिल नहीं है. पहचान नहीं होने की वजह से इन्हें कोई काम नहीं देता. इसलिए सबने कबाड़ा चुनना शुरू कर दिया. लेकिन ये लोग अपने बच्चों को कबाड़ मालिकों के यहां पनपने वाले नशे और अपराध की संस्कृति से बचा नहीं पाए.’

सीमापुरी की ही तरह दिल्ली के जहांगीरपुरी और सराय काले खां इलाकों में ऐसी ही कहानियों से पटी हुईं राजधानी की सबसे बड़ी कबाड़ी बस्तियां मौजूद हैं. इस स्टोरी के दौरान तहलका ने शहर के अगल-अलग हिस्सों में मौजूद इन कबाड़ा बस्तियों के बच्चों और कबाड़ा व्यापारियों से बात की तो अपने मुनाफे के लिए बच्चों को अपराध की दुनियां में धकेल रहे अपराधियों की तस्वीर और पुख्ता होने लगी. निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पीछे बसी सराय काले खां झुग्गी बस्ती में मौजूद कबाड़ा व्यापारियों के यहां काम कर चुका 17 वर्षीय विवेक बताता है, ‘सराय काले खां की झुग्गी बस्तियों में तकरीबन सात कबाड़ा व्यापारी हैं, लेकिन फारूख, खाला और शाहिद ही बड़े कबाड़ी वाले हैं. कभी कबाड़ के बदले पैसा मिलता है तो कभी नशा. फिर धीरे-धीरे हम खुद ही खरीदने लगते हैं. निजामुद्दीन दरगाह के पीछे और भोगल में सड़कों पर ही मिल जाता ह.ै’ विवेक आगे कहता है, ‘यहां बच्चों को सबसे ज्यादा फ्लूइड की लत है. कुछ महीने पहले तक मैं खुद लगभग 20 डबल रोज पी जाता था. एक सेट में फ्लूइड की दो बोतल होती हैं इसलिए उसे डबल कहते हैं. कबाड़ीवाले हमें नशे के लिए चोरियां करने को भी कहते हैं. मेरे कई दोस्तों ने तो इनके कहने पर स्टेशन से बाइक चुराई और दरगाह से कितनों के पर्स उड़ाये. अगर पुलिस का मामला होता है तो कबाड़ी-वाले ही हमें बचाते हैं.’

‘वयस्क अपराधियों का एक समूह इनको बहका कर इन्हें अपराध की दुनिया में धकेल रहा है. ये बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं और इन्हें बचाना राज्य की जिम्मेदारी है’

बच्चों की इन बातों को अपने मामले में खारिज और दूसरों के मामले में स्वीकार करती, सराय काले खां की प्रमुख कबाड़ा व्यापारी रीना उर्फ खाला कहती हैं, ‘यह सब मेरे यहां नहीं होता. बाजू में वे दूसरे कबाड़ीवाले हैं न, वे सब बच्चों से चोरियां करवाते हैं और उन्हें ब्लेडबाजी, चाकूबाजी सब सिखाते हैं. उनके बच्चे सब नशा करते हैं. वे खुद उन्हें नशा देते हैं और फिर उन्हीं से बाकी बच्चे भी सीख जाते हैं.’ कबाड़ा बीनने वाले बच्चों और कबाड़ा व्यापारियों के साथ लंबे समय से काम रही गैर सरकारी संस्था चेतना से जुड़े डॉ संजय गुप्ता बताते हैं कि पहले कबाड़ा व्यापारी बच्चों को एक सुरक्षा घेरा देते हैं और फिर उनका शोषण करते हैं. वे कहते हैं, ‘पहले ये लोग सड़क पर रहने वाले बच्चों को काम देते हैं, रहने की जगह और नशा भी देते हैं. इससे बच्चों को इन पर विश्वास हो जाता है. बच्चे इनके लिए सबसे अच्छे होते हैं. वे अपनी मेहनत का पूरा पैसा नहीं मांगते, वफादार होते हैं और नशे की लत की वजह से इनके कहने पर धीरे-धीरे चोरियां भी करने लगते हैं.’

ऐसा नहीं है कि इन बच्चों के लिए कुछ कर सकने वाले लोगों को इनके साथ और इनके द्वारा जो कुछ हो रहा है उसके बारे में पता नहीं. 20 अगस्त, 2010 को किंग्सवे कैंप स्थित जूवेनाइल जस्टिस बोर्ड (बाल न्यायालय) के एक आदेश में प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट अनुराधा शुक्ल भारद्वाज का कहना था कि राजधानी के कबाड़ा व्यापारी अपने मुनाफे के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों का शोषण कर रहे हैं. किशोर मामलों के अधिवक्ता अनंत अस्थाना की एक विस्तृत रिपोर्ट के आधार पर दिए गए इस फैसले में ऐसे बच्चों के लिए एक नई बाल कल्याण समिति बनाने का आदेश देते हुए उनका कहना था, ‘…यह देखा जा रहा है कि इन कबाड़ा व्यापारियों की वजह से सड़कों पर रहने वाले बच्चों, झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले बच्चों या फिर गरीबी, असाक्षरता या किसी प्राकृतिक प्रकोप की वजह से पोषण और देखभाल से दूर रहे बच्चों में नशे और अपराध की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है. ये कबाड़ीवाले बहुत सुनियोजित तरीके से छोटे बच्चों को कबाड़ा बीनने का काम देते हैं, फिर उनसे चोरियां और डकैतियां करवाई जाती हैं. यह सब बच्चों को ड्रग्स, शराब और फ्लूइड के नशे का आदी बनवाकर करवाया जाता है जो उन्हें सबसे पहले इन्हीं कबाड़ा व्यापारियों के पास से मिलता है. यह पूरा माहौल भविष्य में बच्चों के एक खूंखार अपराधी बनने का रास्ता साफ कर देता है…’

अपने फैसले में बोर्ड ने पुलिस और संबंधित संस्थाओं को बच्चों के इस सुनियोजित अपराधीकरण पर तुरंत कार्रवाई करने और इस चुनौती से निपटने के लिए सख्त निर्देश तो जारी कर दिए लेकिन जमीन स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकी. आज भी सैकड़ों असहाय बच्चे कबाड़ा व्यापारियों में अपने जिंदा रहने की आस देखकर कबाड़ बीनने का काम करते हुए नशे और अपराध के बीच झूल रहे हैं.

ठक-ठक और टायर ‘पंचर’ गैंग

15 फरवरी, 2013 को दिल्ली पुलिस ने राजधानी के पुष्प विहार इलाके में बने दिल्ली विकास प्राधिकरण के एक पार्क में छापा मारकर तीन लोगों को गिरफ्तार किया था. प्राथमिक पड़ताल के बाद ही यह पता चल गया कि ये तीनों आरोपित नाबालिग हैं और शहर के अलग-अलग इलाकों में सक्रिय ‘टायर पंचर गैंग’ के सदस्य हैं. मुखबिरों से मिली सूचना के आधार पर दिल्ली पुलिस के सहायक पुलिस आयुक्त (ऑपरेशंस) कुलवंत सिंह के नेतृत्व में एक विशेष टीम ने इन किशोरों को अपने संरक्षण में लेकर उनसे लगभग एक करोड़ रुपये के गहने बरामद किए. तहलका से बातचीत के दौरान नाबालिग बच्चों के इस आपराधिक गैंग के बारे में जानकारी देते हुए कुलवंत सिंह कहते हैं, ‘किशोर बच्चों का यह गिरोह रेड लाइट पर खड़ी कारों के टायरों में सुआ (लोहे की बड़ी सुई) घुसाकर उनके टायर पंक्चर कर देता है. कुछ दूर जाने पर जब टायर में से हवा निकलने लगती है तो वे गाड़ी चालक को उसकी गाड़ी के टायर के बारे में बताते हैं. जब गाड़ी चालक अपने पंक्चर हो चुके टायर को देखने या बदलने में व्यस्त हो जाता है तब ये बच्चे गाड़ी से सामान चुराकर भाग जाते हैं. इन चोरियों को अंजाम देने के लिए ये बच्चे स्कूटरों और मोटर-बाइकों का भी इस्तेमाल करते हैं. यह गिरोह लैपटॉप और मोबाइल के साथ-साथ नगदी, सोने के बिस्कुट और गहनों की बड़ी चोरियां भी करता है. अक्टूबर, 2012 में भी हमने चांदनी चौक के एक व्यापारी से साढ़े तीन किलो सोना चुराने वाले इसी गिरोह के बच्चों को पकड़ा था.’

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किशोरों के संगठित गिरोहों द्वारा लाल बत्तियों पर गाड़ियां लूटने के मामले 2009 से ही सामने आने लगे थे. शुरुआत में बच्चे लाल बत्तियों पर खड़ी गाडि़यों के शीशों पर हाथ मारकर ठक-ठक की आवाज करते और गाड़ी चालक के शीशा नीचे करते ही उसका ध्यान बंटाकर गाड़ी में रखा सामान लेकर चंपत हो जाते. दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में हो रही ऐसी तमाम घटनाओं में मौजूद समानता की वजह से इन सभी बच्चों को सामूहिक तौर पर ‘ठक-ठक गिरोह’ के तौर पर पहचाना जाने लगा. इसके बाद इन बच्चों ने गाड़ी के टायर पंक्चर करके गाड़ी चालकों को लूटना शुरू किया और एक नया टायर पंक्चर गैंग सामने आया.

चोरी करने वाले बच्चे के पकड़े जाते ही उसका वकील जांच अधिकारी से संपर्क करता है और इसके बाद उसकी जमानत की अर्जी तुरंत आगे बढ़ा दी जाती है 

बच्चों के संगठित अपराधीकरण के इन लगातार बढ़ रहे मामलों को देखते हुए किशोर मामलों के सरकारी वकील भूपेश समद द्वारा अदालत के आदेश पर एक रिपोर्ट तैयार की गई. 20 नवंबर, 2010 को सेवा कुटीर किंग्सवे कैंप स्थित बाल न्यायालय को सौंपी गई इस रिपोर्ट में भूपेश लिखते हैं, ‘…ये बच्चे सीधे-सीधे अपराध में शामिल नहीं हैं बल्कि वयस्क अपराधियों का एक समूह इनको बहला-फुसला कर इन्हें अपराध की दुनिया में धकेल रहा है. ये बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं और इन्हें बचाना राज्य की जिम्मेदारी है. ये बच्चे गिरोहों में शामिल अपराधी नहीं बल्कि स्वयं मुश्किल परिस्थितियों के शिकार हैं. तहकीकात करने पर यह साफ़ हो जाता है कि अपराध का स्वभाव संगठित है और इन अपराधों के पीछे छिपे मुख्य वयस्क अपराधी अपने फायदे के लिए बच्चों का दुरुपयोग कर रहे है.’

अदालती दस्तावेजों, थानों में दर्ज विवरणों और कानूनी आवेदनों को खंगालने पर तहलका को ठक-ठक गिरोह में शामिल रहे कुछ बच्चों की महत्वपूर्ण कहानियां मिलती हैं. बच्चों की पारिवारिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उनके इस आपराधिक दुश्चक्र में फंसने का विस्तृत विवरण देती ये कहानियां ऊपर की पंक्तियों में दर्ज भूपेश समद के आकलन को और पुख्ता करती हैं.

उदाहरण के लिए, नौ सितंबर 2010 को सेवा कुटीर किंग्सवे कैंप स्थित जुविनाइल जस्टिस बोर्ड के सामने पेश होने वाले रोहन और सुमित भी कुछ वयस्क अपराधियों की वजह से ठक-ठक गिरोह का हिस्सा बन गए थे. वे लाल बत्ती पर खड़े कार चालकों से कहते कि उनकी गाड़ी से पेट्रोल निकल रहा है और गाड़ी चालक का ध्यान बंटते ही उनकी गाड़ी में रखा सामान लेकर चंपत हो जाते. पुलिस द्वारा पकड़े जाने और उन्हें अपने संरक्षण में लेने के बाद भी बच्चे अपना पता और पहचान बताने से लगातार इनकार करते रहे. ठीक इसी तरह 11 नवंबर,  2010 को विजय का मामला बाल न्यायालय के सामने आया. विजय को लाल बत्ती पर खड़ी एक कार के शीशे तोड़कर उसमें रखा एक बैग चुराने की वजह से पकड़ा गया था. लेकिन जांच अधिकारी विजय से कोई बैग बरामद नहीं कर पाए. इस मामले में भी बच्चे ने अपना पता और परिवार की सही जानकारी नहीं बताई.

अपनी विस्तृत जांच रिपोर्ट में किशोर पुलिस अधिकारी बताते हैं कि कैसे बैग चुराते ही बच्चे का एक पहले से छिपा हुआ साथी बड़ी फुर्ती से उससे चोरी का सामान लेकर भाग जाता है. बच्चे के पकड़े जाते ही उसका वकील जांच अधिकारी से संपर्क करता है और उसकी ज़मानत की अर्जी तुरंत आगे बढ़ा दी जाती है. बच्चे की मां यह नहीं बता पाती कि उसकी अपने वकील से मुलाकात कैसे हुई थी. रोहन और सुमित की मां की तरह विजय की मां भी बार-बार यही कहती रही कि उसे कुछ नहीं पता. और मजे की बात तो यह है कि रोहन और सुमित की जमानती अर्जी देने वाले वकील ही विजय के बचाव के लिए भी आगे आते हैं. इन दोनों ही मामलों में महिलाओं ने अपने असली पते छिपाते हुए बोर्ड के सामने एक ही तरह के बयान दिए और इन बच्चों के परिवार का कोई पुरुष सदस्य कभी सामने नहीं आया.

ठीक इसी तरह तीन जनवरी, 2011 को बोर्ड के सामने हाजिर हुए नौ साल के कमल और 10 साल के वसीम के मामलों में भी उनके पकड़े जाते ही उनके वकीलों ने उनकी जमानत के लिए जांच अधिकारियों को फोन करना शुरू कर दिया था. बच्चों के अभिभावक के नाम पर आए व्यक्ति ने फर्जी कागज़ात दिखाकर अपनी और बच्चों की पहचान छिपाने का भरसक प्रयास किया. जांच अधिकारियों द्वारा पूछने पर दोनों बच्चे और उनका तथाकथित अभिभावक अपने पते-ठिकाने और वकील के बारे में पूछे गए आसान सवालों के जवाब तक नहीं दे सके.

ठक-ठक गैंग के मामले में वयस्कों के एक पूरे नेटवर्क की मौजूदगी पर अब तक की एकमात्र रिपोर्ट तैयार करने वाले भूपेश समद तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘एक 9-10 साल का बच्चा, जिसे पढ़ना-लिखना तक नहीं आता, लैपटॉप या गहने चुराकर क्या करेगा? अगर कोई तुरंत उससे उसका चोरी किया माल ले जाता है, कोई उसे बचाने के लिए मां-बाप बनकर आ जाता है और सभी मामलों में एक ही वकील बेल करवाने आ रहा है तो इससे साफ जाहिर है कि इस लूटपाट में बच्चों का कोई दोष नहीं है. वयस्क अपराधियों का एक बड़ा नेटवर्क है जो जल्दी और आसानी से पैसा कमाने के लिए बच्चों का इस्तेमाल कर रहा है.’

भूपेश समद की इस रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए किंग्सवे कैंप स्थित बाल न्यायालय की प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट अनुराधा शुक्ला ने 25 जनवरी, 2011 को एक आदेश जारी करते हुए कहा, ‘…बोर्ड ने सभी मामलों में बहुत-सी समानताएं देखी हैं. जैसे बोर्ड के सामने लाया गया हर बच्चा कहता है कि उसकी मां ने उसकी पिटाई की इसलिए उसने घर छोड़ दिया, जबकि किसी भी मां ने अपने बच्चे के गुमशुदा होने की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करवाई. अपने सही नाम और पते के साथ-साथ बच्चे यह भी नहीं बता पा रहे थे कि पेट्रोल की टंकी खोलने का, ड्राइवर को पेट्रोल लीक होने की सूचना देने और फिर चोरी करने का विचार उनके दिमाग में कैसे आया. ये सभी समानताएं स्पष्ट तौर पर यह बताती हैं कि कुछ संगठित आपराधिक गिरोह इन बच्चों का कितने सुनियोजित तरीके से दुरूपयोग और शोषण कर रहे हैं. इस बात की भी पूरी संभावना है कि यह सब बच्चों के माता-पिता की सहमति से हो रहा है.’

ठक-ठक गैंग के सभी मामलों में दिल्ली पुलिस को विशेष पड़ताल शुरू करने के निर्देश देते हुए बोर्ड ने आगे कहा, ‘इन गिरोहों में शामिल सभी वयस्कों के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र के मामले दर्ज होने चाहिए क्योंकि ये लोग अपने आर्थिक फायदे के लिए बच्चों को उन आपराधिक गतिविधियों में शामिल कर रहे हैं जिनके दूरगामी परिणाम समझ पाने की भी उनमें क्षमता नहीं. बच्चों से अपराध करवाकर ये लोग उनके भागने और पकड़े जाने पर उनकी कानूनी सहायता की भी व्यवस्था कर रहे हैं. इससे भी बड़ा षड्यंत्र अपने फायदे के लिए बच्चों को लगातार इस्तेमाल करते रहने की मानसिकता है. यह बच्चों के बचपन के खिलाफ एक षड्यंत्र है. इसलिए इन मामलों में वयस्कों के साथ-साथ बच्चों के माता-पिता पर भी मामले दर्ज होने चाहिए…’

दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रोजाना उतरने वाले दर्जनों मासूम कब और कैसे यहां रोज पनपने और टूटने वाले गिरोहों का हिस्सा बन जाते हैं, उन्हें भी पता नहीं चल पाता

लेकिन इन तमाम कड़े अदालती निर्देशों के बावजूद ठक-ठक गिरोह आज भी टायर पंक्चर गिरोह जैसे अपने नए रूपों में दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में सक्रिय है. दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग के सहायक निदेशक पी खाखा इस मामले में पुलिसिया लापरवाही की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘जब तक पुलिस इन बच्चों का शोषण करने वाले असली अपराधियों को नहीं पकड़ेगी, तब तक इन गिरोहों का खत्म होना मुश्किल है.’

रेलवे स्टेशन गैंग

सिर्फ कबाड़ के व्यापार में लगे अपराधी और शहर के लाल-बत्ती चौराहों पर चोरियां कराने वाला आपराधिक नेटवर्क ही राजधानी के बच्चों को अपराध के दुश्चक्र में धकेलने के लिए जिम्मेदार है. दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रोजाना उतरने वाले दर्जनों मासूम बच्चे कब और कैसे यहां रोज पनपने और टूटने वाले आपराधिक गिरोहों का हिस्सा बन जाते हैं, उन्हें भी पता नहीं चल पाता. राजधानी के प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर रहने वाले बच्चों की जिंदगियों में फैले अपराध की जड़ें टटोलने के लिए जब तहलका ने ऐसे तमाम बच्चों से बात की तो अंदर तक झकझोर देने वाली एक बेहद स्याह तस्वीर उभर कर सामने आई.

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नशे का दलदलः एक बार नशे की लत लग जाने पर बच्चे नशे के लिए कोई भी अपराध करने से नहीं हिचकते

एक उमस भरी दोपहर को हमारी मुलाकात शादाब से होती है. 14 साल का शादाब राजधानी के निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पीछे मौजूद निजामुद्दीन दरगाह के सामने बने फुटपाथ पर बैठा है. वह अपने कान, नाक और होठों पर मौजूद मवाद भरे घावों को खुजाकर खुद को थोड़ा आराम देने की कोशिश कर रहा है. कुछ देर कोशिश करने के बाद वह हमसे बात करने को राजी हो जाता है. शादाब सात साल की उम्र में पश्चिम बंगाल के 24 परगना क्षेत्र से दिल्ली आया था. अपने घर से दिल्ली आने और नशाखोरी, ब्लेडबाजी और चोरियों में शामिल एक आपराधिक गिरोह का हिस्सा बनने तक की यात्रा के बारे में वह कहता है ,”हम अपने मामा के संग गांव से पढ़ने दिल्ली आए थे. लेकिन मामा ने पंचर बनाने की दुकान पर लगवा दिया. कुछ दिन वहां काम किया फिर दिल नहीं लगा तो भाग के स्टेशन आ गया. फिर यहां दूसरे लड़के मिल गए और मैं यहीं रहने लगा. हम फेरी मारकर और चोरी करके अपना काम निकालते और पैसा मिलते ही नशा खरीदते. फिर यहां से मैं बटरफ्लाई (स्टेशन पर रहने वाले बच्चों पर काम करने वाली एक सामाजिक संस्था) गया. वहां कुछ दिन रहा लेकिन अच्छा नहीं लगा तो वापस भाग कर स्टेशन आ गया.’

अपने आपराधिक गिरोहों के बारे में बताते हुए वह आगे जोड़ता हैं, ‘दीदी, स्टेशन पर हम किसी का पर्स मार लेते हैं, सामान छीन कर भाग जाते हैं और कभी-कभी मोबाइल, गहने या छोटी गाडि़यां भी चुराते हैं. बाकी लड़के इस पैसे से नशा करते हैं. मैं तो सिर्फ फ्लूइड पीता हूं, बाकी सब मैंने छोड़ दिया.’

‘छोटे-छोटे बच्चे दिल्ली के संभ्रांत इलाकों में होने वाली शादियों में तैयार होकर पहुंच जाते हैं और मौका मिलते ही लाखों के जेवर लेकर फरार हो जाते हैं’

शादाब आगे बताता है कि स्टेशन पर मौजूद आपराधिक गिरोह बच्चों का यौन शोषण भी करते हैं. ‘यहां पर बड़े लड़के, जो पहले से स्टेशन पर रहते हैं वो छोटी लड़कियों और लड़कों के साथ भी गलत काम करते हैं. कई बार पीछे आखिर में खड़ी ट्रेनों के खाली डब्बों में बने टॉयलेट्स में ले जाकर ये लड़के छोटे बच्चों के साथ गलत काम करते हैं. कई बार तो गुम होकर स्टेशन पर भटक जाने वाले छोटे-छोटे लड़कों के साथ पहले ही दिन बड़े लड़के गलत काम करते हैं. फिर वे छोटे बच्चे उन्ही लड़कों की गैंग में शामिल हो जाते हैं. स्टेशन पर लड़कों के गैंग बंटे होते हैं न. हर गैंग का चोरी करने और बोतल बीनने का एरिया अलग होता है और नए बच्चों को किसी न किसी गैंग का हिस्सा तो बनना ही पड़ता है वर्ना वो यहां नहीं रह सकता.’ फिर अपने दोस्तों के साथ स्टेशन वापस जाने की जल्दी में हमसे विदा लेते हुए शादाब सिर्फ इतना कहता है, ‘मेरे घरवालों ने इतने सालों मेरे कोई पूछ-परख नहीं ली. तो अब स्टेशन पर ही अच्छा लगने लगा है. यहीं रहता हूं और सोचता हूं शायद यहीं रह जाऊंगा.’

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर छह और सात के आखिरी छोर से लगभग 50 मीटर की दूरी पर लोहे की एक जालीनुमा दीवार के दूसरी तरफ स्टेशन पर रहने वाले लगभग 10 बच्चों से हमारी मुलाकात होती है. फरीदाबाद, लखनऊ, पश्चिम बंगाल, मुजफ्फरनगर से लेकर बिहार के मोतिहारी और दरभंगा जिले से दिल्ली आए ये बच्चे 12 से 17 साल की उम्र के हैं. इनमें से ज्यादातर गरीबी, भुखमरी और परिवारवालों की पिटाई के चलते अपने-अपने घरों से भाग कर दिल्ली आए थे. कुछ को उनके रिश्तेदार बहला-फुसला कर मजदूरी करवाने दिल्ली लाए थे तो कुछ अपने ही परिचितों के हाथों बेचे गए थे. मजदूरी करवाने वाले दुकानदारों और अपनी गिरफ्त में रखने वाले तस्करों के चंगुल से भागकर जब बच्चे स्टेशन पहुंचते तो यहां पहले से मौजूद आपराधिक गिरोह उन्हें अपने अपराध के दलदल में धकेल देते.

तहलका से विस्तृत बातचीत के दौरान 14 वर्षीय किशन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मौजूद आपराधिक गिरोहों के बारे में जानकारी देते हुए कहता है, ‘दीदी, छुटुआ के जाने के बाद यहां रंजीत और सोनू बिहारी के गिरोह काम करते हैं. यही लोग नए और छोटे बच्चों को चोरी-चकारी सिखाते हैं. चलती ट्रेन पर चढ़ना, सामान उड़ाना और फिर बड़ी चोरियां करना भी. सोनू बिहारी वाले बड़े बच्चों का गिरोह शीलापुल के नीचे रहता है और उसके पीछे वाले एरिया में ही चोरी करता है. जबकि दूसरा ग्रुप 13-14 और 6-7 नंबर पर रहकर काम करता है.’ लगभग दो घंटे की बातचीत के बाद बच्चे धीरे से शादाब की तरह ही हमें यह भी बताते हैं कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रहने वाले बड़े उम्र के बच्चे छोटे बच्चों का शारीरिक शोषण भी करते हैं. 11 साल का धीरज और 16 वर्षीय जतिन बताते हैं, ‘यहां बच्चों के साथ बहुत गलत काम भी होता है. बड़े बच्चे छोटे बच्चों के साथ करते हैं. लड़के और लड़कियों दोनों के साथ. वहीं उन्हें अपने साथ रखते हैं. उन्हें बोतल बीनना और चोरी करना सिखाते हैं, उनसे भीख भी मंगवाते हैं और उनकी कमाई भी रख लेते हैं. अभी भी स्टेशन पर जो मेंटल नाम का आदमी रहता है, वह अपने साथ रहने वाले दो छोटे लड़कों के साथ रोज गलत काम करता है.’

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बेपटरी जिंदगीः रेलवे स्टेेशनों पर बच्चों के अलग-अलग गैंग होते हैं

अगर निजामुद्दीन स्टेशन की बात करें तो स्टेशन पर लंबे समय तक रहने के बाद अभी एक सामाजिक संस्था से जुड़े अंकित के शब्दों में, ‘यहां एक गैंग सूर्या और उसके लड़कों का है जो स्टेशन के पीछे बनी पानी की टंकी के पास रहता है. उसके गिरोह में लगभग 20 लड़के हैं. वो बच्चों को बोतल बीनने के साथ-साथ लोहा, कबाड़ी और यात्रियों के सामान चोरी करना भी सिखाता है. जो नए बच्चे जरा भी समझदार या तेज होते हैं, उन्हें वह अपने साथ ही रखता है. दूसरा गिरोह गोलू और अनिल का है. ये लोग सराय काले खां से सटे प्लेटफार्मों के आखिरी छोर पर रहते हैं. अनिल और गोलू के लड़के 7, 8 और 5 नंबर प्लेटफार्म के साथ-साथ सराय काले खां की बस्ती में सक्रिय रहते हैं जबकि 4, 3, 2 और 1 नंबर सूर्या का इलाका है. इसके साथ ही सूर्या का गैंग दरगाह और टैक्सी स्टैंड के पूरे क्षेत्र में भी सक्रिय रहता है. साथ ही इन बच्चों के लिए यहां सराय काले खां के पीछे बने बाजार में छोटी-छोटी चाय की दुकानें हैं. रेलवे पुलिस को भी सब पता है लेकिन कोई कुछ नहीं करता.’

‘मुफ्त में नशा बांटकर बच्चों को अपने गिरोह में शामिल करने वाले अपराधियों के लिए सड़कों पर रहने वाले बेघर बच्चों को निशाना बनाना बेहद आसान होता है’

दिल्ली के रेलवे स्टेशनों पर रहने वाले बच्चों के साथ लंबे समय से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता डॉ संजय गुप्ता राजधानी के स्टेशनों पर सक्रिय बच्चों के गिरोहों को स्टेशन के जीवन का अभिन्न हिस्सा बताते हुए कहते हैं, ‘बच्चे अक्सर रेलवे स्टेशनों पर इसलिए रुक जाते हैं क्योंकि यह शहर का सबसे जीवंत स्थान होता है जहां बच्चों को पीने का पानी, सोने की जगह और बचा-खुचा खाना मिल जाता है. लेकिन जाहिर है, यहां भी जो सबसे शक्तिशाली है वही जीवित रह सकता है. ऐसे में छोटे और नए बच्चे यहां पहले से सक्रिय गिरोहों को अपने सुरक्षा तंत्र के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. आप इन स्टेशनों पर वहां पहले से स्थापित और सक्रिय गिरोहों को नकार कर रह ही नहीं सकते. इसलिए छोटे बच्चे वयस्कों के इन आपराधिक गिरोहों में शामिल हो जाते हैं. फिर यहीं उन्हें चोरी करना, बोतल बीनना, ब्लेडबाजी करना और नशा करना सिखाया जाता है. इन गिरोहों में छोटे लड़कों का बहुत व्यापक स्तर पर शारीरिक शोषण होता है. बड़े लड़के छोटे लड़के-लड़कियों का लगातार शारीरिक शोषण करते हैं, उन्हें खाना और नशा भी देते हैं, अपने साथ रखते हैं और पुलिस से भी बचाते हैं. जब वो बड़े हो जाते हैं तो वो भी नए बच्चों के साथ वही सब कुछ दोहराते हैं जो उनके साथ हुआ था.’

स्टेशन पर रहने वाले सैकड़ों मासूम बच्चों का बचपन इन आपराधिक गिरोहों के कभी न खत्म होने वाले दुश्चक्र में तो खत्म होता ही है कभी-कभी तेज रफ्तार ट्रेनों से कटकर भी खत्म हो जाता है. 11 अप्रैल, 2011 को 10 वर्षीय पेटू पटरियों पर बोतलें बीनते-बीनते अचानक एक ट्रेन के नीचे आ गया था. स्टेशन पर रहने वाले बच्चों के योजनाबद्ध पुनर्वास के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करने वाली समाजशास्त्री खुशबू जैन बच्चों के साथ जारी सख्त पुलिसिया रवैये को खारिज करते हुए कहती हैं, ‘इस मामले को जब भी उठाया जाता है पुलिस तुरंत अपनी ताकत का इस्तेमाल करके बच्चों को स्टेशनों से मारकर भगा देती है. यह तरीका बिल्कुल गलत है क्योंकि पहले तो बच्चों के साथ किसी भी तरह की हिंसक जोर-जबरदस्ती कानून के खिलाफ है. दूसरी बात बच्चों को स्टेशनों से भगाना कोई समाधान नहीं है क्योंकि वे कुछ दिनों बाद यहां वापस आ जाते हैं. उनको धीरे-धीरे स्टेशनों के आस-पास ही पुनर्वासित करना होगा. उन्हें आसपास ही रोज़गार और शिक्षा के विकल्प देकर धीरे-धीरे मुख्यधारा में लाना होगा.’

कड़िया सांसी गैंग

मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले से दिल्ली, मथुरा और आगरा जैसे उत्तर भारतीय शहरों में छोटे बच्चों को चोरियां करने के लिए भेजने वाला एक अंतरराज्जीय आपराधिक गिरोह सक्रिय है. राजगढ़ के नरसिंहगढ़ ब्लाक की कड़िया चौरसिया ग्राम पंचायत का एक गांव है कड़िया सांसी. इस गांव के कई बच्चे दिल्ली के संभ्रांत इलाकों में होने वाली शादियों और अन्य पारिवारिक समारोहों में चोरियां करते पाए गए हैं. नवंबर, 2012 में यहीं के दो बच्चे अशोक और वरुण दिल्ली में एक निजी समारोह में चोरी करने के बाद पकड़े गए थे. फरवरी, 2013 में कड़िया सांसी के नजदीकी गांव जतखेरी के दो बच्चों-सावन और फूलन–को भी पुलिस ने पकड़ा था. ये बच्चे राजधानी के केशवपुरम इलाके में चल रहे एक विवाह समारोह से लगभग 50 लाख रुपये के गहने और नकदी चुराते पकड़े गए थे. इन बच्चों से संबंधित दस्तावेज तहलका के पास मौजूद हैं.

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सात जुलाई, 2012 को परमजीत सिंह दिल्ली के लारेंस रोड स्थित सेवन बैंक्वेट हाल में अपनी बेटी का जन्मदिन मना रहे थे. रात के लगभग 12 बजे केक कटने के बाद सोने के जेवरों और तोहफों से भरा एक बैग वहां से गायब हो गया. पार्टी के दौरान खींची गई तस्वीरों की मदद से शुरुआती तहकीकात के बाद केशवपुरम पुलिस ने वरुण और अशोक को उनकी मां के साथ पकड़ लिया. कड़िया सांसी गांव के मकान नंबर 81 में रहने वाले इन बच्चों ने पूछताछ के दौरान बताया कि समारोह के दौरान उन्होंने तोहफों के बैग के पास बैठी एक महिला की साड़ी पर चटनी गिरा दी. जैसे ही वह महिला अपनी साड़ी साफ करने में व्यस्त हुई, बच्चे बैग लेकर वहां से चंपत हो गए. बच्चों को सुधार गृह भेजने के निर्देश देते हुए दिल्ली गेट स्थित बाल न्यायालय की प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट गीतांजली गोयल का कहना था, ‘…परिवारवालों की मदद से चोरियां करने वाले छोटे बच्चों से जुड़े कई मामले सामने आ रहे हैं. ज्यादातर घटनाओं में बच्चे मध्य प्रदेश के राजगढ़ या खंडवा जिले से हैं. सभी मामलों में बच्चे अपनी मांओं के साथ दिल्ली कपड़े बेचने आते हैं और बाद में बड़े समारोहों में चोरियां करते हुए पकड़े जाते हैं.’

इस अंतरराज्यीय नेटवर्क पर काम कर रही सामाजिक संस्था हक से जुड़े शाबाज खान बताते हैं, ‘इन गांवों की सारी आबादी कंजर बंजारों की है. इनके छोटे-छोटे बच्चे दिल्ली के संभ्रांत इलाकों में होने वाली शादियों में तैयार होकर पहुंच जाते हैं और मौका मिलते ही लाखों के जेवर लेकर फरार हो जाते हैं. आम तौर पर शादियों में दुल्हन या कुछ खास लोगों के कमरों में काफी सामान रखा रहता है जिसे ये बच्चे आसानी से चुरा लेते हैं. बाहर इन्हें ले जाने या भगाने के पूरे इंतजाम होते हैं. पकड़े जाने पर ये सिर्फ यही कहते हैं कि ये तो खाना खाने के लिए शादी में आ गए थे. ये बच्चे कभी भी अपने माता-पिता या घर का पता नहीं बताते और इन्हें लेने भी हमेशा इनके मामा, चाची, मौसी या कोई दूसरा रिश्तेदार ही आता है.’

‘सांसियों का यह गिरोह पुश्तैनी तौर पर अपने ही परिवार के बच्चों को अपराध में धकेलता है. ये लोग बहुत छोटी उम्र से ही अपने बच्चों को चोरियां करने का प्रशिक्षण देने लगते हैं’ सांसी समुदाय के बारे में बताते हुए राजगढ़ जिले की पुलिस अधीक्षक रुचि वर्धन मिश्रा कहती हैं, ‘हम लोग इस विषय पर पिछले दो सालों से काम कर रहे हैं और कई कैंप लगवाने के बाद भी आज तक सांसियों को पुनर्वासित नहीं कर पाए हैं. क्योंकि ये लोग अपनी आसान कमाई के रास्ते को नहीं छोड़ना चाहते. एक शादी में की गई चोरी ही इन्हें कई महीनों के लिए भरपूर पैसा दे देती है. मेरे पास दिल्ली, आगरा और मथुरा के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों से भी शिकायत के फोन आते हैं. लेकिन जब माता-पिता ही बच्चों को सुनियोजित चोरियों में धकेल रहे हों तो उन्हें बचाना बहुत मुश्किल हो जाता है. हमारे पास जिस भी राज्य से फोन आता है, हम संबंधित बाल सुधार गृहों या स्पेशल होम वालों को इस बात के सख्त निर्देश दे देते हैं कि वे किसी भी कीमत पर बच्चों को उनके परिवारएवालों को न सौंपें वर्ना वो बहुत जल्दी किसी दूसरी शादी में चोरी करते नजर आएंगे.’

ड्रग पैडलर्स गैंग

नशा बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेलने का सबसे आसान तरीका रहा है. अपनी तहकीकात के दौरान तहलका की टीम ऐसे दर्जनों बच्चों से मिली जो नशे के लिए चोरी और डकैती से लेकर हत्या तक की कोशिशों को अंजाम दे चुके हैं. हम इस दौरान 17 वर्षीय सौरभ से मिले जो अभी एक नशा मुक्ति केंद्र में है. सौरभ एक आपराधिक गिरोह और नशे के चंगुल में फंसकर पैसे और नशे के लिए हिंसा की हर सीमा लांघ जाता था. 16 वर्षीय शाहबाज नशे में और नशे के लिए अपने और दूसरों के घरों में चोरियां करता था.

दिल्ली के तमाम इलाके ऐसे अपराधियों से पटे पड़े हैं जो पहले तो मुफ्त का नशा मुहैया कराते हैं और फिर बच्चों को इसकी लत लगवाकर उसी नशे के लिए उनसे अपराध करवाते हैं. एक बार नशे की लत लग जाने के बाद ये बच्चे नशे की खुराक के लिए खुद ही चोरियां करना शुरू कर देते हैं. इसके बाद इनमें से कई बच्चे खुद भी नशा बेचने वाले नेटवर्क में शामिल होकर वही सब करने लग जाते हैं जो उनके साथ किया गया था. सड़कों, चौराहों और स्टेशनों पर रहने वाले बेघर बच्चों के साथ-साथ नशे के व्यवसाय में शामिल आपराधिक गिरोहों ने कई सामान्य परिवारों के स्कूल जाने वाले बच्चों की भी जिंदगियां चौपट की हैं.

राजधानी के किशनगढ़ इलाके में स्थित एक नशा मुक्ति केंद्र में हमारी मुलाकात सौरभ से होती है. सौरभ उन बच्चों में से नहीं है जो गरीबी, भुखमरी और पारिवारिक समस्याओं के चलते नशे के दुश्चक्र में फंस जाते हैं. वह माता-पिता के साथ जहांगीरपुरी के अपने छोटे-से घर में रहता था और रोज स्कूल भी जाता था. लेकिन उसके मोहल्ले में ड्रग्स का धंधा करने वाले अपराधियों ने उसे चोरी, डकैती और हिंसा के दलदल में धकेल दिया. तहलका से बातचीत में वह बताता है, ‘मुझे सबसे पहले नशा मेरे स्कूल के ही लड़कों ने दिया था. पहले हम लोग गुटका और सिगरेट ही लेते थे. फिर उन्होंने मुझे स्मैक दिया. कुछ ही दिनों में मुझे इतनी आदत हो गई कि मैं सबसे ज्यादा स्मैक लेने लगा. फिर धीरे-धीरे उस गिरोह तक पहुंच गया जो हमारे एरिया में स्मैक बंटवाता था. पहले तो उन्होंने फ्री में दिया बाद में घर से पैसे चोरी करके नशा खरीदना पड़ा. फिर जब घर में सबको पता चल गया तो मैंने घर ही छोड़ दिया और बाहर चोरियां करने लगा.’ वह आगे कहता है, ‘मैं उन्हें चोरियां करके सामान देता और वे मुझे नशा देते. फिर धीरे-धीरे मैंने इंजेक्शन लेना भी शुरू कर दिया. नशे के लिए मैं इतना पागल हो जाता था कि कई बार फ्लाई-ओवर पर गाड़ियों को रोककर उनका सामान चुरा लेता. कई बार मैंने लोगों को फ्लाई-ओवर से नीचे भी फेंका है. मैं नशे के लिए कुछ भी कर सकता था.’

‘कई बार गुम होने वाले छोटे-छोटे लड़कों के साथ पहले ही दिन बड़े लड़के गलत काम करते हैं. फिर वे बच्चे उन्हीं लड़कों की गैंग में शामिल हो जाते हैं’

सौरभ की ही तरह मध्यवर्गीय परिवारों के स्कूल जाने वाले विनय और योगेंद्र  भी अपने मोहल्लों में मौजूद स्थानीय गिरोहों के संपर्क में आकर चोरियां और मारपीट करने लगे थे. ‘मैं सुबह उठता था और नशा ढ़ूंढ़ने लगता था. अगर स्मैक या सुई नहीं होती तो कहीं से भी पैसे का जुगाड़ करके अपने गिरोह के लड़कों के पास जाता और खरीदता. मुझे हर रोज़ 400-400 रुपये की तीन खुराकें चाहिए होती थीं. यानी एक दिन में कुल 1200 रुपये का नशा. हमारे मोहल्ले में लड़कों का एक गिरोह था जो नशा करता और बेचता भी था. शुरू में उन्होंने मुझे मुफ्त में नशा दिया फिर बाद में मुझसे अपने फायदे के लिए चोरियां करवाने लगे. इसके बाद मैंने उनका साथ छोड़ दिया और खुद ही चोरी करके नशा खरीदने लगा. मैंने नशे के लिए अपने घर का गैस का सिलेंडर तक बेच दिया था जिसके बाद मेरे घरवालों ने मुझे घर से निकाल दिया. मैं सड़क पर रहकर ही चोरियां करता और नशा खरीदता.’

मुफ्त में नशा बांटकर छोटे बच्चों को अपने आपराधिक गिरोहों में शामिल करने वाले अपराधी गिरोहों के लिए सड़कों पर रहने वाले बेघर बच्चों को अपना निशाना बनाना बेहद आसान होता है. राजधानी के चांदनी चौक मेट्रो स्टेशन के पीछे हमारी मुलाकात नशे के इस गोरखधंधे में फंसे लगभग दर्जन भर बच्चों से होती है. चांदनी चौक के मुख्य बाजारों की सड़कों पर रहने वाले ये बच्चे तहलका को नशे के इस व्यापार की बारीकियां तफसील से बताते हैं. 15 वर्षीय असलम पिछले चार साल से लगातार नशा करने की वजह से 12 साल के एक कमजोर और कुपोषित बच्चे की तरह दिखाई देता है. अपनी नशे की आदतों और इलाके में नशे के व्यवसाय के बारे में बताते हुए कहता है, ‘मैं एक दिन में लगभग 20 फ्लूइड पी जाता हूं. यहां पर रहने वाले सारे बच्चे नशा करते हैं, लड़के-लड़कियां सब. नशा हमें सड़कों पर ही रहने वाले बड़े लड़कों ने दिया था. पहले तो ऐसे ही, बिना पैसे के दे देते थे. फिर हमें नशे के लिए चोरियां करनी पड़ती थी. कभी-कभी हम पुराना सामान बेच कर भी पैसे इकठ्ठा करते और फिर अपने यहां के गैंग वाले लड़कों से नशा मांगते. यमुना मार्केट के पेटी बाजार से, निजामुद्दीन की दरगाह से और लाल किले के पीछे वाले मीना बाज़ार से भी आसानी से नशा मिल जाता है. वहां लड़के होते हैं हमारी पहचान के.’

नशे की लत लगवाकर बच्चों को अपराध में घसीट रहे इन आपराधिक गिरोहों और नशे की लत से जूझ रहे बच्चों के साथ लंबे समय से काम कर रहे सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ यूथ एंड मासेस के निदेशक डॉ राजेश कुमार इन गिरोहों को सरकारी व्यवस्था के पूरी तरह असफल होने का नतीजा बताते हुए कहते हैं, ‘अगर 14 साल से कम उम्र के इतने सारे बच्चे सड़कों पर नशा कर रहे हैं तो इससे साफ समझ में आता है कि हमारा शिक्षा के अधिकार से जुड़ा कानून कितनी बुरी तरह असफल है. हम इतनी कोशिश करते हैं, लेकिन स्कूल इन बच्चों को लेना ही नहीं चाहते. कोई सड़कों पर नशे में धुत बच्चों के लिए कुछ नहीं करना चाहता और देखते ही देखते वे कब बड़े अपराधी बन जाते हैं, उन्हें भी पता नहीं चलता. जब तक हम उन्हें मुख्यधारा से नहीं जोड़ेंगे तब तक कुछ भी नहीं बदलेगा. और कोई भी उन्हें मुख्यधारा में नहीं देखना चाहता. प्रशासन, पुलिस और सरकार सबको यही अच्छा लगता है कि सड़क के बच्चे सड़कों पर ही रहें.’

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दिल्ली की बाल कल्याण समिति के पूर्व अध्यक्ष राज मंगल प्रसाद का मानना है कि अगर हम अपराध की दुनिया का हिस्सा बन चुके या बनने जा रहे बच्चों के लिए कुछ करना चाहते हैं तो किशोरों के इन गिरोहों के अस्तित्व को स्वीकारने से ही हमें शुरुआत करनी होगी. वे कहते हैं, ‘दिक्कत यह है कि पुलिस यह मानती ही नहीं कि वयस्क अपराधी बच्चों को बहला-फुसला कर उन्हें अपराध की दुनिया में धकेल रहे हैं . इस प्रक्रिया में बच्चों के कुछ नए गिरोह पनप रहे हैं और राजधानी में सक्रिय हैं. अपने कार्यकाल के दौरान मुझे तो यहां तक पता चला कि खुद माता-पिता भी अपने बच्चों को चोरी-डकैती जैसे अपराधों में धकेल रहे हैं. अपराध के दंगल में फंस रहे इन सैकड़ों बच्चों के जीवन को बचाने के लिए ज़रूरी है कि सबसे पहले पुलिस इन्हें सड़क पर घूम रहे बच्चों के बजाय आपराधिक गिरोहों में फंसे बच्चों के तौर पर स्वीकार करे और इनका जीवन बर्बाद कर रहे वयस्कों को पकड़े.’

किशोरों के लिए बनाई गई दिल्ली पुलिस की विशेष इकाई का लंबे समय तक नेतृत्व करने वाले राजधानी के वर्तमान विशेष आयुक्त सुधीर यादव से बात करने पर राज मंगल प्रसाद की बात सही लगने लगती है. वे बच्चों के ऐसे आपराधिक गिरोहों के संगठित अस्तित्व को नकारते हुए से कहते हैं, ‘यह बात सही है कि बच्चों के ऐसे कुछ गिरोह सक्रिय हैं, लेकिन इस अवस्था में उन्हें संगठित नहीं कहा जा सकता. इनकी गतिविधियां छिटपुट और बिखरी हुई हैं.  क्षेत्र में पहले से सक्रिय वयस्क अपराधी इन बच्चों को सिर्फ अपने प्यादों की तरह इस्तेमाल करते हैं. उन्हें भी यह मालूम होता है कि अगर ये बच्चे पकड़े भी गए तो भी किशोर न्याय अधिनियम की वजह से आसानी से छूट जाएंगे. इसलिए वयस्क गिरोह और कई मामलों में तो माता-पिता भी बच्चों को अपराधों में धकेल देते हैं. दिल्ली हाई कोर्ट ने भी बच्चों के इस बढ़ते अपराधीकरण को संज्ञान में लेते हुए निर्देश जारी किए थे और हमने भी इस दिशा में प्रयास करना शुरू कर दिया है. हम ‘युवा’ नामक योजना के तहत ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों को बचाने और उनके पुनर्वास के लिए विशेष प्रयास कर रहे हैं.’

दिल्ली सरकार के महिला और बाल विकास विभाग के सहायक निदेशक पी खाखा कहते हैं, ‘यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोर्ट के सख्त निर्देशों के बाद भी पुलिस इस मामले में गंभीर नहीं है और ऐसे मामलों की गहन पड़ताल कर बच्चों को अपराध में धकेल रहे वयस्क अपराधियों की धर-पकड़ पर ध्यान नहीं दे रही है. जब तक हम बच्चों के खो जाने की स्थिति में उन्हें शुरुआती 24 घंटे में ही बरामद कर सुरक्षित होम में नहीं डालेंगे, दूसरे राज्यों से आने वाले बच्चों का सही-सही आंकड़ा इकठ्ठा कर प्रतिकूल परिस्थितियों में फंसे बच्चों का पुर्नवास नहीं करेंगे तब तक शहरों में पहले से मौजूद अपराधी उन्हें ऐसे ही अपना निशाना बनाते रहेंगे और इस तरह खुद हिंसा और शोषण के शिकार इन बच्चों के नए आपराधिक गिरोह पनपते रहेंगे.’

(सभी बच्चों के नाम बदल दिए गए हैं)

महान लोकतंत्र की सौतेली संतानें

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सोनभद्र को देखकर पहली नजर में ही लगता  है मानो यहां कोई लूट मची हो. वाराणसी-शक्तिनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर ट्रकों का तांता कभी नहीं टूटता. मन में सवाल उठता है कि आखिर सोनभद्र में यह आपाधापी मची क्यों है? जवाब सीधा है. सोनभद्र का वरदान ही उसका अभिशाप बन गया है. यहां असीमित मात्रा में कोयला था, पानी था, बॉक्साइट था. जैसे ही इन संसाधनों की हवा दुनिया को लगी यही खजाना पूरे इलाके के जंगल, जमीन, जानवर और जनजीवन के लिए  विनाश का सबब बन गया.

1970 के आस-पास इलाके में काले सोने की प्रचुर मात्रा की भनक लगते ही सोनभद्र में रिहंद बांध के बाद रुक चुके विस्थापन ने एक बार फिर से गति पकड़ ली. उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (यूपीआरवीयूएनएल), एनटीपीसी, हिंडाल्को की रेणुसागर ऊर्जा परियोजना, लैंको अनपरा पॉवर प्राइवेट लिमिटेड समेत तमाम छोटी-बड़ी कंपनियों ने यहां कोयले से बनने वाली तापीय ऊर्जा इकाइयां स्थापित करनी शुरू कीं. इसी के साथ विस्थापन के मानकों की अनदेखी, पुनर्वास में हीला-हवाली और पर्यावरण की धज्जियां उड़ाने का एक ऐसा कुचक्र भी शुरू हुआ जिसका अंत निकट भविष्य में तो दिखाई नहीं देता.

भारत सरकार के एक आकलन के मुताबिक सोनभद्र और इससे सटे मध्य प्रदेश के सिंगरौली इलाके में चल रहे, निर्माणाधीन और प्रस्तावित 20 से भी ज्यादा तापीय ऊर्जा संयंत्रों के लिए यहां अगले 100 वर्षों तक के लिए पर्याप्त मात्रा में कोयला मौजूद है. यही वजह है कि इस साल के अंत तक लैंको की अनपरा इकाई उत्पादन शुरू कर देगी, यूपीआरवीयूएनएल के तहत आने वाले अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन (एटीपीएस) की ‘डी’ इकाई निर्माणाधीन है, ‘ई’ के लिए सरकार ने हरी झंडी दे दी है. सिंगरौली में भी अगले कुछ सालों में  रिलायंस, एस्सार और जेपी समेत कई निजी कंपनियों के ऊर्जा संयंत्र अस्तित्व में आ जाएंगे.

इसका खामियाजा यहां का आम आदमी उठा रहा है. वह आम आदमी जिसके घरों और खेतों पर ये परियोजनाएं खड़ी हैं या खड़ी होने वाली हैं. विस्थापन दर विस्थापन झेल रहे इन लोगों की चिंता न तो सरकारों को है और न ही यहां की हवा, पानी में जहर घोल रही कंपनियों को. अगर ये लोग इसके खिलाफ विरोध का मोर्चा बुलंद करते हैं तो इन्हें सरकारी दमन झेलना पड़ता है. एटीपीएस की निर्माणाधीन ‘डी’ इकाई के पास 17 मार्च से अनशन कर रहे विस्थापितों से अब तक किसी अधिकारी ने बात तक  नहीं की है. यहां हमारी बड़ी संख्या में ऐसे अदिवासी और दलितों से मुलाकात होती है जिन्हें फर्जी या फिर छोटे-मोटे मामलों (मसलन जंगल से लकड़ी बीनना) में गंभीर धाराएं लगाकर फंसा दिया गया है. परशुराम, नौघाई, बिरजू बैगा, रामदुलारे, देवकुमार, पूरन समेत ऐसे तमाम लोग हैं जो गुंडा एक्ट जैसी संगीन धाराओं में फंसे कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं. धरना-स्थल पर मौजूद रामबली जो खुद भी ऐसे ही एक मामले में आरोपित हैं, बेहद गुस्से में कहते हैं, ‘जमाने से हम लोग इन्हीं जंगलों से अपना गुजारा चला रहे थे. आज एक दातून तोड़ लेने पर भी हमारे ऊपर गुंडा एक्ट लगा दिया जाता है. सरकार इलाके के नक्सलियों के पुनर्वास पर तो करोड़ों रुपया  खर्च कर रही है और हमें नक्सली बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है.’ 22 वर्षीय अरविंद गुप्ता का मामला इसकी एक मिसाल है. एटीपीएस में मजदूरी करने वाले अरविंद 27 जून, 2008 को अपनी ड्यूटी पर गए थे. शाम को लौटे तो पुलिस ने उन्हें यह कहते हुए गिरफ्तार कर लिया कि एटीपीएस के ठेकेदारों और अनपरा डिबुलगंज के ग्रामीणों के बीच हुई मारपीट की एक घटना में वे भी शामिल थे. अरविंद पर अब कई गैर जमानती धाराओं के तहत मामला चल रहा है.

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विस्थापन

सोनभद्र में विस्थापन की शुरुआत 1958 में रेणु नदी पर प्रस्तावित रिहंद बांध के चलते शुरू हुई. उस परियोजना में कुल 116 गांवों को रिहंद के डूब क्षेत्र में घोषित किया गया था. इसके बाद देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों में वर्णित रहस्य, तिलिस्म और तंत्रमंत्र वाले इस इलाके में विस्थापन की जो काली छाया पड़ी वह आज तक लोगों की जिंदगी को नर्क बनाए हुए है. रिहंद बांध की स्थापना के वक्त देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विकास के  नाम पर लोगों से बलिदान की अपील की थी. उस समय सभी किसानों की जमीन का लगान एक रुपया सालाना मानकर उन्हें तीस गुना मुआवजा यानी 30 रुपए दिए गए साथ ही हर परिवार को सोन के ऊपरी जंगलों में 10 बीघा तक जंगल काटकर खेती करने की छूट भी दी गई.

यहां विस्थापन का एक सच यह भी है कि जिस भूमि पर विस्थापितों को बसाया जाता है उसका मालिकाना हक संबंधित कंपनी के पास ही रहता है

लोग नई जगहों पर अपनी जड़ें जमा ही रहे थे कि 70 के दशक में यहां तापीय ऊर्जा कंपनियों ने दस्तक दी. 1975 में एनटीपीसी ने शक्तिनगर में 2,000 मेगावॉट का संयंत्र लगाना शुरू किया. 1980 आते-आते यूपीआरवीयूएनएल ने अनपरा में 1,630 मेगावाॅट की योजना शुरू कर दी जिसके तहत इलाके में कई चरणों में ऊर्जा संयंत्र लगने थे. इसके बाद तो परियोजनाओं का जैसे तांता-सा लग गया.

एक तरफ परियोजनाएं स्थापित हो रही हैं और दूसरी तरफ स्थानीय लोग बार-बार अपनी जड़ों से उखड़ रहे हैं. और ऐसा भी नहीं कि उन्हें इस विस्थापन का कोई अतिरिक्त फायदा पहुंच रहा हो. ज्यादातर लोगों का न तो ठीक से पुनर्वास हो रहा है न ही उन्हें नौकरियों में मौका दिया जा रहा है. बेलवादाह, ममुआर, निमियाडाढ़, पिपरी, चिल्काडाढ़, औड़ी आदि पुनर्वास बस्तियों में कोई भी परिवार ऐसा नहीं है जिसने कम से कम दो बार विस्थापन की त्रासदी न झेली हो. रिहंद से विस्थापित होकर कोटा, अनपरा में जमने की कोशिश कर रहे लोगों को एनटीपीसी और यूपीआरवीयूएनएल ने फिर से विस्थापित किया तो ये लोग अनपरा, चिल्काडाढ़ जैसे इलाकों में बस गए. इन इलाकों में बसीं बस्तियां हिटलर के यातना शिविरों की तरह एक सीधी रेखा में बसी हैं जहां जनसुविधाएं तो दूर तमाम मूलभूत तकनीकी पहलुओं की भी घोर उपेक्षा नजर आती है.

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‘हमको न तो जमीन मिली है न पैसा’

बेलवादाह गांव के आदिवासी भोला बैगा ने तीस साल पहले एक रात अपने गांववालों के साथ छककर महुआ उड़ाई थी. यह 1980 की बात है.

भोला और गांव वालों के पास खुश होने की वजह भी थी. उनका गांव अनपरा तापीय इकाई से विस्थापित होने वालों की सूची में आने से बच गया था. इन लोगों को पहले भी 1960 में रिहंद बांध की वजह से अपने पुश्तैनी गांव बसुला खांड से उखड़ना पड़ा था. लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन नहीं रह सकी.  एटीपीएस ने जल्दी ही अपने संयंत्र से निकलने वाली राख को फेंकने के लिए बेलवादाह, पिपरी पर उंगली रख दी. अब एक बार फिर से पूरा गांव अनिश्चितता के उसी भंवर में फंस गया था जिसे वह 1960 में झेल चुका था.

भोला के पिताजी और छोटे भाई का हाल ही में देहांत हुआ है. ले देकर पूरे परिवार की जिम्मेदारी अकेले भोला पर आन पड़ी है. स्वर्गीय भाई की पत्नी और बच्चों समेत उनके परिवार में कुल 12 सदस्य हैं. भोला को उम्मीद थी कि किसी तरह से शायद विस्थापन टल जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ले देकर इनकी उम्मीदें एटीपीएस केउन वादों पर टिक गईं जिनमें लोगों के घरों और खेती की जमीनों के बदले में एक लाख रुपए और प्लॉट देने का वादा किया गया था. भोला उन ज्यादातर बदकिस्मत लोगों में से हैं जिन्हें न तो प्लॉट मिला और न ही मुआवजा. बेलवादाह, पिपरी और आसपास के कुछ और गांव जो एटीपीएसके राख के अथाह सागर में दब जाने वाले थे उनमें से अधिकतर आज तक इसके बदले में मिलने वाले मुआवजे से वंचित हैं.

1985-86 में एटीपीएस ने 423 लोगों को प्लॉट के लिए चिह्नित किया था. लगभग 25 साल बीतने के बाद प्लाट पाने वाले खुशकिस्मत लोगों की संख्या महज 83 है. हां, सिर्फ 9 या 10 परिवार ही अपने घर-जमीन के एवज में एक लाख की राशि पाने से वंचित रह गए हैं. [/box]

डिबुलगंज विस्थापन बस्ती को ही लें. यहां घुसते ही नाक सड़ांध से भर उठती है. बस्ती और अनपरा पॉवर प्लांट के बीच में सिर्फ एक चहारदीवारी है. मानकों के मुताबिक कोई भी रिहाइशी क्षेत्र संयंत्र से कम से कम दो किलोमीटर दूर होना चाहिए. खुद अनपरा पावर की अपनी रिहाइशी कॉलोनी संयंत्र से दो किलोमीटर दूर स्थित है. यह एहतियात इसलिए ताकि संयंत्र से निकलने वाली भयंकर आवाज और चिमनियों से निकलने वाले धुएं के दुष्प्रभाव से लोगों को दूर रखा जा सके. लेकिन जिन लोगों की जमीनों पर यह परियोजना खड़ी है, लगता है उनके जीवन से कंपनी को कोई वास्ता नहीं है. इसी बस्ती में झारखंड और उड़ीसा से आए 3,000 के करीब दिहाड़ी मजदूर भी दड़बेनुमा कमरों में रहते हैं.

पिपरी, बेलवादाह जैसे गांवों के जो लोग इस विस्थापन से बच गए थे उन्हें एक दूसरी भयानक मुसीबत का सामना करना पड़ा. इन गांवों की जमीन को अनपरा और लैंको ने अपने संयंत्रों में कोयले के दहन से पैदा होने वाली राख यानी फ्लाइएश को ठिकाने

लगाने के लिए चुन लिया. आज आधे से ज्यादा ऐसे गांव इस राख में डूब चुके हैं. टापू बन चुकीं पहाड़ियों पर जिन लोगों के घर और खेत हैं वे आज भूरे रंग के दलदल में पांव धंसाते हुए उन तक पहुंचते हैं. राख के इस अथाह सागर के किनारे 2-3 फुट गहरे गड्ढे खोदकर लोग पीने के लिए जहरीला पानी निकालते हैं. अनपढ़  आदिवासियों को कोई यह बताने वाला भी नहीं है कि जिस इलाके में 100 फुट की गहराई तक पानी उपलब्ध नहीं है वहां 3-4 फुट के गड्ढे से पानी कैसे आ रहा है?

अनपरा थर्मल पावर स्टेशन (एटीपीएस) ने यहां के पीड़ितों को एक लाख रुपए का नगद मुआवजा और नौ सदस्यों पर एक प्लॉट देने का वादा किया था. लेकिन बेलवादाह के ग्राम प्रधान हरदेव सिंह बताते हैं, ‘शुरुआत में इन्होंने 423 लोगों को प्लॉट देने की घोषणा की थी. इसमें हेराफेरी की गई थी. हम लोगों ने जब विरोध किया तो कंपनी ने 1996 में इसमें 272 और नाम शामिल किए. लेकिन अब तक सिर्फ 84 लोगों को ही प्लॉट मिले हैं.’

एनटीपीसी द्वारा बसाई गई विस्थापन बस्ती चिल्काडाढ़ की हालत और भी बदतर है. इस बस्ती से महज 500 मीटर की दूरी पर एनसीएल की बीना कोयला खदान स्थित है. एनसीएल चिल्काडाढ़ को बसाने का विरोध कर रही थी लेकिन एनटीपीसी ने उनकी एक न सुनते हुए वहां 16 गांवों के करीब 500 परिवारों को बसा दिया. मुसीबत तब शुरू हुई जब एनसीएल ने इस गांव के चारों तरफ अपना ओबी (ओवर बर्डेन यानी कोयला खदानों की ऊपरी परत) डालना शुरू कर दिया. देखते ही देखते गांव के चारों तरफ नकली पहाड़ खड़े हो गए. इनसे चौबीसों घंटे धूल उड़-उड़ कर चिल्काडाढ़ बस्ती पर गिरती रहती है. और बीना कोयला खदान में हर दिन होने वाले विस्फोट से यह पूरा इलाका थर्रा उठता है.

चिल्काडाढ़वासियों पर विस्थापन की तलवार लगातार लटक रही है. एनसीएल का कहना है कि उनकी जमीन के नीचे भारी मात्रा में कोयले और गैस का भंडार है. सोनभद्र और सिंगरौली इलाके में लंबे समय से सृजन लोकहित समिति नाम का एक संगठन चला रहे अवधेश कुमार एक पुरानी घटना याद करते हुए कहते हैं, ‘1986 में एनसीएल के बुलडोजरों ने पूरे गांव को घेर लिया था. एनसीएल किसी भी कीमत पर इस जमीन पर कब्जा करना चाहती थी. उस वक्त गांव के सभी पुरुष फरार हो गए थे. महिलाओं ने आकर मोर्चा संभाल लिया था. वे बुलडोजर के सामने अपने बच्चों के साथ लेट गईं. इस तरह से एक और विस्थापन टल गया था.’ पर सवाल है कब तक?

इस इलाके में पानी का स्रोत रहा रिहंद जलग्रहण क्षेत्र इतना प्रदूषित है कि इसका पानी पीकर बीते तीन-चार महीनों के दौरान करीब 25 बच्चों की मृत्यु हो चुकी है

विस्थापन का एक सच यह भी है कि जिस भूमि पर विस्थापितों को बसाया जाता है उसका मालिकाना हक संबंधित कंपनी के पास ही रहता है. विस्थापितों की बस्ती भी परियोजना की भूमि के दायरे में आती है. लंबे समय से विस्थापितों की लड़ाई लड़ रहे यूपीटीयूवीएन (ऊर्जांचल पंचायत ट्रेड यूनियन एंड वॉलंटरी एक्शन नेटवर्क) के सदस्य जगदीश बैसवार बताते हैं, ‘जमीन पाने वाला विस्थापित न तो कहीं जा सकता है और न ही जमीन बेच सकता है. परियोजना की भूमि होने के नाते इस जमीन के आधार पर कोई  बैंक  कर्ज भी नहीं देता.’

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‘मीडिया ने मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा’

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कैमरा देखते ही कुसमहा गांव के राम भजन भड़क जाते हैं. उनके बच्चे दौड़कर घर में घुस जाते हैं और दरवाजा भीतर से बंद कर लेते हैं. 38 साल के रामभजन चिड़चिड़ाए स्वर में कहते हैं, ‘हर साल टीवी, अखबार वाले आते हैं. बच्चों को तरह-तरह से परेशान करते हैं, उनकी फिल्म बनाते हैं  लेकिन आज तक एक कौड़ी भी नहीं मिली है हमको. ऊपर से पूरे इलाके में हमारे परिवार की बदनामी हो गई है. लोग समझते हैं कि हमारे परिवार में यह बीमारी पुश्तैनी है इसलिए कोई भी हमारे लड़के से अपनी बेटी की शादी करने के लिए तैयार नहीं है.’

दरअसल, रामभजन के परिवार पर फ्लोरोसिस नाम की बीमारी की काली छाया पड़ गई है. दांतों और हड्डियों को कमजोर कर अपंग बना देने वाली यह बीमारी पानी में फ्लोराइड की ज्यादा मात्रा के कारण होती है. राम भजन के आठ जनों के परिवार में चार पर इसका प्रकोप है. काफी देर तक मान-मनौव्वल के बाद वे पत्नी के साथ फोटो तो खिंचवा लेते हैं मगर इस शर्त पर कि पत्नी अपने पैर नहीं दिखाएंगी.

सोनभद्र जिले के म्योरपुर और चोपन ब्लॉक के 21 गांवों में फ्लोरोसिस से पैदा हुई विकलांगता अब महामारी की शक्ल अख्तियार करती जा रही है. यहां अपाहिजों की बस्तियां तैयार हो रही हैं. अकेले कुसमहा में इस बीमारी से पीड़ित लोगों की संख्या 12 है. गौरतलब है कि कुसमहा, तुम्मा पाथर, नई बस्ती, रोहनिया दामर आदि उन्हीं इलाकों में आते हैं जहां हिंडाल्को, कनोरिया केमिकल्स और हाईटेक कार्बन जैसी कंपनियां कई सालों से अपना कचरा बहाती रही हैं. स्थानीय चिकित्सक डॉ उदयनाथ गौतम बताते हैं कि इस समस्या ने पिछले 10 सालों में विकराल रूप धारण किया है. इससे पहले छोटे-छोटे बच्चों में यह बीमारी इतनी आम नहीं थी.’ [/box]

ताक पर पर्यावरण

अनपरा और इसके आस पास स्थित लगभग सभी थर्मल पॉवर प्लांट पर्यावरणीय मानकों की खुलेआम धज्जी उड़ाने में लगे हुए हैं. अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन के राख निस्तारण क्षेत्र बेलवादाह और पिपरी गांव के किनारे-किनारे घूमते हुए हम उस हिस्से में पहुंचते हैं जहां इस फ्लाइएश साइट को रिहंद जलाशय से अलग करने के लिए बांध बना हुआ है. बांध के आखिरी छोर पर पहुंचने पर हमें प्रवेश निषेध का बोर्ड दिखता है और उसके पीछे झाड़ियां नजर आती हैं. सरसरी तौर पर यह प्रतीत होता है कि इसके आगे कुछ भी नहीं है. लेकिन थोड़ा और आगे बढ़ने पर लगभग 50 मीटर चौड़ा कंक्रीट का एक विशाल नाला नजर आता है. यह नाला फ्लाइएश साइट को रिहंद के जलाशय से सीधा जोड़ देता है. एटीपीएस ने फ्लाइएश साइट के स्तर की जो अधिकतम सीमा तय की है वह वर्तमान स्तर से कम से कम 20 मीटर ऊपर है जबकि इस नाले के स्तर से फ्लाइएश का मौजूदा स्तर सिर्फ 8-9 फीट नीचे होगा. यानी साइट की अधिकतम ऊंचाई तक पहुंचने से काफी पहले ही फ्लाइएश बरास्ता इस नाले सीधे रिहंद जलाशय में जाने लगेगी. ऐसा बहुत जल्दी ही होने वाला है क्योंकि कुछ ही दिनों में लैंको पॉवर का कचरा भी इसी फ्लाइएश साइट पर गिरने वाला है?

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जहर का स्त्रोतः एटीपीएस की पाइपलाइनों से बाहर निकलती फ्लाइएश

बांध के दूसरे छोर पर जाने पर एक और ही गोरखधंधा सामने आता है. एक अंडरग्राउंड नाले के जरिए सीधे-सीधे फ्लाइएश का पानी रिहंद में डाला जा रहा है. रिहंद में जिस जगह पर यह गिर रहा है वहां पर पटी हुई फ्लाइएश साफ-साफ देखी जा सकती है. लेकिन इसके लिए पैदल ही एक पहाड़ी का चक्कर लगाकर वहां तक जाना होगा जहां यह नाला रिहंद जलाशय में खुलता है. जब हम एटीपीएस के प्रशासनिक महानिदेशक पीके गर्ग से इस संबंध में पूछते हैं तो वे ऐसे किसी नाले की जानकारी न होने की बात करते हैं. ज्यादा पूछने पर वे उस स्थान पर एक वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाने की बात करते हैं और बताते हैं कि ‘ट्रीटमेंट प्लांट के लिए लखनऊ प्रस्ताव भेजा गया है. लेकिन ऐसा करने में पैसे की कमी आड़े आ रही है’ यानी जब तक प्रस्ताव पास नहीं हो जाता तब तक यूं ही ज़हरीली राख रिहंद में गिरकर लोगों की जिंदगियों से खेलती रहेगी. विडंबना यह है कि सरकार के पास ‘डी’ और ‘ई’ संयंत्र का विस्तार करने के लिए तो पैसा है पर वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट के लिए नहीं.

एटीपीएस जो काम चोरी छिपे कर रहा है वही काम हिंडाल्को की ऊर्जा उत्पादन इकाई रेणुसागर थर्मल पॉवर कंपनी लिमिटेड खुलेआम कर रही है. बिड़ला की रेणुसागर थर्मल पॉवर परियोजना भी रिहंद के जलग्रहण क्षेत्र के ठीक किनारे पर स्थित है. यहां पहुंचने पर एक और नंगा सच दिखता है. रेणुसागर संयंत्र से निकलने वाली राख का एक बड़ा हिस्सा सीधे ही रिहंद के जलग्रहण क्षेत्र में पाटा जा रहा है. इस स्थिति का संज्ञान क्यों नहीं लिया जा रहा? जब यह सवाल हम सोनभद्र के जिलाधिकारी पंधारी यादव के सामने रखते हैं तो वे तर्क देते हैं, ‘पुराने बने प्लांट अपने कचरे का निपटारा इसी तरह से करते आए हैं. प्रदूषण क्लियरेंस जैसी चीजें तो 10-15 साल पुरानी हैं. इससे पहले ऐसे ही राख का प्रबंधन होता था. अब हमने मानकों को काफी कड़ा कर दिया है. चीजें रातों-रात तो बदलेंगी नहीं.’

इसके दूसरे छोर पर गरबंधा गांव है जो कोयले की धूल में ही सांस लेने को विवश है. इस गांव के बारे में हमें कुसमहा गांव के पास स्थित वनवासी सेवा आश्रम चलाने वाली शुभा बहन बताती हैं. वहां हमने पाया कि रेणुसागर ने इस गांव की चारदीवारी पर ही अपना कोल हैंडलिंग प्लांट लगा रखा है. 24 घंटे कोयला लादते-उतारते ट्रक इस इलाके में दौड़ते रहते हैं और कोयले की धूल उड़-उड़ कर गरबंधा पर अपनी काली छाया डालती रहती है.

इसी तरह रेणुकूट के समीप जंगल में रिहंद के किनारे-किनारे करीब 2 किलोमीटर पैदल चलकर डोंगियानाला पहुंचा जा सकता है. वहां की हवा में दूर-दूर तक रासायनिक तत्वों की महक घुली हुई है. किनारों पर जमी हुई सफेद रंग की तलछट इस बात का इशारा कर रही है कि यहां का पानी साफ तो कतई नहीं है. नाले के मुहाने पर पहुंचने पर दृश्य और भी भयानक हो जाता है. रिहंद के जलग्रहण वाले क्षेत्र में रासायनिक कचरे की मोटी-मोटी परतें जमी हुई दिखती हैं. रासायनिक कचरे वाला यह पानी कनोरिया केमिकल्स लिमिटेड से आ रहा है. वहीं मुहाने पर बैठी कुछ महिलाएं उसी प्रदूषित पानी को अपनी बाल्टियों में भरकर घरेलू इस्तेमाल के लिए ले जा रही हैं. जिस पहाड़ी रास्ते से यह रासायनिक कचरे वाला पानी आता है उस रास्ते के पत्थर भी ब्लीचिंग सोडा के चलते कट-छंट गए हैं. ऐसे विषाक्त पानी में जलीयजीवन की कल्पना करना भी मूर्खता है. शुभा बहन एक बड़े खतरे का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘इस पूरे इलाके में जितना प्रदूषण एटीपीएस और कनोरिया कैमिकल्स फैला रहे हैं उतना ही योगदान हिंडाल्को एलुमिनियम का भी है. रिहंद से आगे जाने वाली नदी की धारा में हिंडाल्को का रेडमड (यानी लालरंग का कचरा) प्रदूषण फैला रहा है. लेकिन राजनैतिक प्रभाव के चलते जब भी प्रदूषण की बात होती है कनोरिया के कान ऐंठ कर मामला खत्म कर दिया जाता है. हिंडाल्को का नाम तक नहीं लिया जाता.’

महामारी बनती बीमारी

पर्यावरणीय मानकों की इतनी खुलेआम अनदेखी का दुष्प्रभाव मानवजीवन पर पड़ना लाजिमी है. अंतत: यही वह पैमाना है जिस पर सरकारें और व्यवस्थाएं इस बात का फैसला करती हैं कि किसी स्थान विशेष पर वास्तव में कुछ गड़बड़ है. सोनभद्र के अतिशय औद्योगीकरण वाले इलाकों में हवा, भूस्तरीय और भूगर्भीय जल बुरी तरह से प्रदूषित हो चुका है. इस इलाके में पानी का सबसे बड़ा स्रोत रहा रिहंद जलग्रहण क्षेत्र आज इस कदर प्रदूषित है कि इसका पानी पीकर बीते तीन-चार महीनों के दौरान ही 25 के करीब बच्चों की मृत्यु हो चुकी है. म्योरपुर ब्लॉक स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सा अधीक्षक डॉ उदयनाथ गौतम बताते हैं, ‘रिहंद का पानी पीने वाले गांवों में बीते कुछ महीनों के दौरान असमय मौतों का सिलसिला शुरू हो गया है. कमरी डाढ़ गांव में अब तक 12 बच्चों की मौत हो चुकी है इसी तरह से एक गांव लबरी गाढ़ा है जहां 13 बच्चों की मृत्यु हुई है. इस संबंध में विस्तृत रिकॉर्ड सोनभद्र के मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) के पास भेजा जा चुका है.’

बच्चों की मृत्यु के संबंध में सोनभद्र के सीएमओ ने हाल ही में रिहंद जलाशय के पानी का नमूना जांच के लिए उत्तर प्रदेश राज्य स्वास्थ्य संस्थान, लखनऊ भेजा था. इसकी रिपोर्ट में कहा गया कि नमूने में घातक कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा 180 गुना तक ज्यादा पाई गई जो हैजा, पेचिश और टाइफाइड फैलाता है यह बैक्टीरिया प्रदूषित पानी में ही होता है. इस बाबत जिलाधिकारी पंधारी यादव का कहना था, ‘गांवों में मौतें हुई हैं, लेकिन पानी की जांच में हमें किसी हेवी मेटल के संकेत नहीं मिले हैं. इस इलाके में वायरल डायरिया का गंभीर प्रकोप है. लोग डॉक्टरों से इलाज करवाने के बजाय ओझाओं के चक्कर में पड़ जाते हैं. शायद बच्चों की मौतें इसी वजह से हुई हों.’ रिहंद के किनारे बसे 21 गांवों में फ्लोरोसिस की समस्या आज महामारी का रूप ले चुकी है. नई बस्ती गांव में विंध्याचल शर्मा, सीताराम, शीला, रमेश, राम प्रसाद पटेल, कुंज बिहारी पटेल, लल्लू पटेल, कुसमहा गांव में रामप्यारी, कबूतरी देवी, चंपादेवी, सोनू, पार्वती देवी, बीनाकुमारी, उत्तम,संगम आदि फ्लोरोसिस की अपंगता से पीड़ित लोग हैं. इसके अलावा ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जिनमें फ्लोरोसिस के प्राथमिक लक्षण मौजूद हैं. पिछले 10 सालों के दौरान इस रोग ने अपना दायरा बहुत तेजी से फैलाया है. डॉ गौतम कहते हैं, ‘पहले फ्लोरोसिस की समस्या इतनी गंभीर नहीं थी. लेकिन जब से कनोरिया केमिकल्स व हाईटेक कार्बन की इकाइयां यहां शुरू हुई हैं तब से ये मामले बहुत बढ़ गए हैं.’ स्थिति की गंभीरता का अंदाजा आप इससे भी लगा सकते हैं कि हाल ही में देहरादून स्थित पीपुल साइंस इंस्टिट्यूट ने जब सोनभद्र के 147 गांवों के 3,588 बच्चों में फ्लोराइड के असर की जांच की थी तो 2,219 बच्चे इससे प्रभावित पाए गए थे.

रिहंद के चोपन और म्योरपुर ब्लॉक में फ्लोरोसिस और विषाक्त पानी की समस्या है तो अनपरा में स्थितियां और भी गंभीर हैं. फ्लाइएश के चलते इस पूरे इलाके का भूगर्भीय जल बुरी तरह प्रदूषित हो चुका है. लेड, आर्सेनिक और पारा जैसे खतरनाक रसायन फ्लाइएश से रिस-रिस कर भूगर्भीय जल को विषाक्त कर रहे हैं. इसके अलावा सूखी हुई फ्लाइएश के महीन कण हमेशा हवा में उड़ते रहते हैं जिससे यहां  पेट और सांस संबंधी बीमारियों की बाढ़ सी आ गई है. वाराणसी स्थित हेरिटेज हॉस्पिटल की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर साल भर पहले ही अनपरा में आकर अपना क्लीनिक खोलने वाले डॉ राज नारायण सिंह बताते हैं, ‘दिन भर में मेरे यहां आठ से दस मरीज जोड़ों के दर्द और ऑस्टियोपोरोसिस के आते हैं. इसका सीधा संबंध लेड और पारे से प्रदूषित पानी से है. लोगों में असमय ही बुढ़ापे के लक्षण दिखने लगते हैं. इसके अलावा दमे के काफी मरीज आते हैं. हर तीन में दो आदमी यहां पेट की बीमारी से पीड़ित हैं.’

डिबुलगंज के आस पास स्थित बैगा आदिवासियों की बस्ती में टीबी की बीमारी छुआछूत की तरह फैली हुई है. गौरतलब है कि यह वही गांव है जो फ्लाइएश के सागर से घिर चुके  हैं और इसी के इर्द-गिर्द बने गड्ढों से पानी पीते हैं. इसी बस्ती में 28 वर्षीय सुनील बैगा रहते हैं जिन्हें टीबी है. इलाज के बारे में पूछने पर सुनील कहते हैं, ‘दो-तीन महीने तक दवा खाई फिर बंद कर दिया. पैसा नहीं था.’

 नियुक्तियों में वादाखिलाफी

रिहंद बांध को पार करके जैसे-जैसे हम शक्तिनगर की तरफ बढ़ते हैं एक के बाद एक डिबुलगंज, पिपरी, बेलवादर, निमियाडाढ़, परसवार राजा, जवाहरनगर, खड़िया मर्रक, चिल्काडाढ़ आदि गांव आते-जाते हैं. इनमें से किसी भी गांव में घुसने पर इनकी बनावट और बसावट में एक खास तरह की एकरूपता नजर आती है. ठीक मुंबई की किसी झुग्गी बस्ती की तरह.

इन बस्तियों में बेरोजगारों की बहुतायत है. 1980 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अनपरा में थर्मल पॉवर संयंत्र लगाने की घोषणा के साथ ही जब एक बार फिर से यहां बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए थे तो उस वक्त सरकार ने सभी विस्थापितों का पुनर्वास और योग्यता के हिसाब से सभी परिवारों के एक सदस्य को नौकरी देने का वादा किया था. लेकिन इतने साल बीतने के बाद भी सरकारों और यहां स्थापित कंपनियों में यहां के निवासियों का किसी भी तरह से नियोजन करने की नीयत ही नहीं दिखती. 1980 के बाद से प्रदेश में एक के बाद एक सरकार बदलती रही,अनपरा इकाई अपना दायरा ए, बी, सी से फैलाकर डी तक पहुंच गई लेकिन विस्थापितों की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं. अनपरा इकाई में तैनात एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘पुनर्वास को लेकर उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (यूपीआरवीयूएनएल) न तो गंभीर है न इस मामले में उसकी नीयत साफ है.’

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‘न तो हमारी कोई जिम्मेदारी है न ही हमने कोई वादा किया है’

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अनपरा में इसी साल के अंत में उत्पादन शुरू करने का दावा करने वाले लैंको-अनपरा पॉवर के कार्यकारी निदेशक आनंद कुमार सिंह स्थानीय लोगों के विरोध, फ्लाइएश के प्रबंधन, स्थानीय लोगों के रोजगार से जुड़े  सवालों को दंभी अंदाज में झटक देते हैं.

 विस्थापितों को नौकरियां देने की कोई योजना है?

हमारी परियोजना टेंडर आधारित परियोजना है. इसमें सरकार हमें कुछ सहूलियतें देने का वादा करती है जिसके आधार पर हम प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाते हैं. लिहाजा इस मामले में हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है. मानवीय आधार पर जो कुछ होगा हम करेंगे.

लेकिन लोग तो अपकी फ्लाइएश पाइपलाइन का विरोध कर रहे हैं.

इस तरह के विरोध हमने बहुत देखे हैं. जो कंपनी अरबों रुपये निवेश करती है उसे सब कुछ पता होता है. ऐसे ही कोई काम बंद नहीं हो जाता है. हमने भी इसी इलाके में 25 साल गुजारे हैं.

आप स्थानीय लोगों को कम से कम अस्थायी नौकरियों में तो रख ही सकते हैं? उनमें भी लोगों को क्यों समायोजित नहीं किया जाता है?

देखिए, नौकरी देने की हमारी न तो कोई मजबूरी है न ही हमने किसी से कोई वादा किया है. ये सिरदर्द सरकार और प्रशासन का है. शुरुआत में हमने यहां के लोगों को अपने यहां रखा था. पर इन लोगों ने स्थानीय नेताओं के इशारे पर कंपनी में टूलडाउन स्ट्राइक कर दी. इससे हमारा भरोसा यहां के लोगों पर से उठ चुका है. स्थानीय नेता प्रबंधन को ब्लैैकमेल करने के लिए ऐसा करते हैं.

पर इसमें उन लोगों का नुकसान हो रहा है जिनका जीवन आपके प्लांट से प्रभावित हो रहा है.

देखिए हम कतई किसी को समाहित नहीं करेंगे. ऐसे न जाने कितने आंदोलन यहां हमने देखे हैं, लेकिन काम नहीं रुका है. और आप भी अपनी बात मेरे मुंह में डालने की कोशिश मत कीजिए. आपके मन में जो आए लिख दीजिएगा. मुझे इन चीजों से बाहर निकलना अच्छी तरह से आता है. बहुत होगा तो मेरे सीनियर मुझसे थोड़ा नाराज हो जाएंगे.

(इसके बाद उनसे बात करने की कोई वजह ही नहीं बचती) [/box]

अपनी पहली सूची में एपीटीएस ने 1,307 लोगों को नौकरी के लिए पात्र माना था. आज 30 साल बाद कंपनी के सेवायोजन का आंकड़ा है 304 यानी 30 फीसदी के करीब. असल में यहां स्थित यूपीआरवीयूएनएल हो या फिर लैंको या फिर एनटीपीसी, सभी कंपनियों ने अब स्थानीय लोगों को नौकरी नहीं देने की अलिखित नीति अपना रखी है. कुशल कर्मियों के लिए देश या प्रदेशस्तरीय परीक्षाएं होती हैं और अकुशल कामगार, कंपनियां ठेके पर रखती हैं. ये दैनिक मजदूर झारखंड,उड़ीसा आदि के आदिवासी क्षेत्रों से आते हैं. स्थानीय लोगों को नौकरी न दिए जाने के सवाल पर लैंको पॉवर के कार्यकारी निदेशक आनंद कुमार सिंह बहुत दिलचस्प उत्तर देते हैं, ‘शुरुआत में ही स्थानीय लोगों ने हमारा विश्वास तोड़ दिया. ये लोग स्थानीय नेताओं के इशारे पर कंपनी में काम रोक देते थे.’

जल्दी ही इन कंपनियों ने दैनिक मजदूरों को ठेके पर रखना शुरू कर दिया. अकेले अनपरा की ए,बी इकाइयों और लैंको में इस वक्त कुल मिलाकर 3,000 के करीब दैनिक मजदूर काम करते हैं. यानी कि विस्थापितों के पुनर्वास और समायोजन की समस्या काफी हद तक हल हो सकती है. 2007 में उत्तर प्रदेश विद्युत मजदूर संगठन के अध्यक्ष आरएस राय और यूपीआरवीयूएनएल के तत्कालीन अध्यक्ष अवनीश कुमार अवस्थी के बीच इस संबंध में एक समझौता भी हुआ था जिसमें ठेका मजदूरी में 50 फीसदी स्थानीय लोगों को समायोजित करने पर सहमति हुई थीं लेकिन आज तक इसे लागू नहीं किया गया है. आखिर कंपनियां ऐसा क्यों कर रही हैं? पहली नजर में तो मामला नीयत का दिखता है लेकिन किसी मजदूर से और स्थानीय लोगों को थोड़ा विश्वास में लेकर बात करने पर इसकी कुछ नई परतें उघड़ती हैं. ठेका आधारित दैनिक मजदूर असल में कंपनी के अधिकारियों और ठेकेदारों के आपसी गठजोड़ और करोड़ों रुपए की अवैध कमाई का साधन है.

अपनी पहली सूची में एपीटीएस ने 1,307 लोगों को नौकरी के लिए पात्र माना था. आज 30 साल बाद कंपनी के सेवायोजन का आंकड़ा है 304 यानी 30 फीसदी के करीब

दरअसल, कंपनी के अधिकारी ठेकेदार को मजदूरों की व्यवस्था करने और उनके लेनदेन का जिम्मा संभालने का आदेश दे देते हैं. एक दैनिक मजदूर की प्रतिदिन की दिहाड़ी होती है 138 रुपये. मजदूर महीने में 26 दिन काम करता है और महीने के अंत में उसे लगभग 2,500 रुपये का भुगतान ठेकेदार करता है जबकि उसे मिलना चाहिए 3,588 रुपये. इस तरह से प्रति मजदूर करीब 1000 रुपये कंपनी के अधिकारियों और ठेकेदारों की जेबों में चला जाता है. पर कोई भी मजदूर इस बात को स्वीकार नहीं करता क्योंकि अगले ही दिन ठेकेदार उन्हें चलता कर देगा.

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डोगिया नालाः कनोरिया केमिकल्स का रासायनिक कचरा इसी नाले से सीधे रिहंद जलाशय में मिल रहा है

नौकरियों पर रखे जाने के सवाल पर अनपरा इकाई के प्रशासनिक महानिदेशक पीके गर्ग के बयान विरोधाभासी हैं. कभी तो वे कहते हैं कि हम डी इकाई में अस्थाई पदों पर स्थानीय लोगों को समायोजित करने पर विचार करेंगे. और फिर अपनी ही बातों को काटते हुए कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश सरकार ने 1994 में एक शासनादेश पारित किया था जिसके मुताबिक अधिग्रहण के सात साल बाद किसी को भी समायोजन का अधिकार नहीं रह जाता है, सिर्फ मुआवजा दिया जाएगा.’ यह पक्ष उत्तर प्रदेश सरकार ने पहली बार हाई कोर्ट में साल 2007 में रखा जबकि स्वयं कंपनी ने लोगों को 1998 तक इस आशय के पत्र दिए हैं कि जब भी कंपनी में रिक्तियां होंगी उन्हें अर्हता के आधार पर समायोजित किया जाएगा. तहलका के पास ऐसे कई पत्रों की प्रतियां हैं. सवाल है,आखिर 1994 में शासनादेश पारित हो जाने के बाद भी अधिकारियों ने लोगों को इस तरह के पत्र किस आधार पर दिए? मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है और उत्तर प्रदेश सरकार आज तक इस शासनादेश की कॉपी न तो सुप्रीम कोर्ट को सौंप सकी है न ही आरटीआई दाखिल करने वाले गैर सरकारी संगठनों को. कमोबेश यही स्थितियां एनटीपीसी के विस्थापितों की भी है. यहां लोगों के पुनर्वास का स्तर तो कुछ हद तक संतोषजनक है लेकिन नौकरियों में सेवायोजन का प्रतिशत महज 33 फीसदी है. स्थानीय लोगों को दरकिनार करके ठेके पर मजदूरों से काम करवाने की प्रथा यहां भी धड़ल्ले से जारी है. स्थानीय लोगों ने भी कमाई का दूसरा जरिया निकाल लिया है. अपने घरों के आधे हिस्सों में लोगों ने दड़बेनुमा कमरे बनवा रखे हैं जिनमें 10-10, 15-15 की संख्या में बाहर से आए मजदूर अमानवीय स्थितियों में किराए पर रहते हैं. अनपरा शक्तिनगर के इलाके में दो पीढ़ियां नौकरी और काम की आस में बैठी रहीं, उन्होंने न तो बाहर का रुख किया न ही वैकल्पिक उपायों को अपनाया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि जिस आधुनिक भारत के तीर्थ को बनाने के लिए वे अपने घर, बाग-बगीचे, खेत-खलिहान और जीविका का बलिदान कर रहे थे वह अपनी संतानों को इतनी आसानी से नहीं दुत्कारेगा. वे गलत थे.

 बेमानी जनसुनवाइयां

नई परियोजना को हरी झंडी देने से पहले इसके प्रभाव क्षेत्र में आने वाली जनता के बीच जनसुनवाई आयोजित की जाती है. ऊपरी तौर पर तो यह व्यवस्था एक स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया का आभास देती है मगर असलियत में यह सिर्फ औपचारिकता भर है. उदाहरण के तौर पर लैंको अनपरा पॉवर प्रा. लि. को ही लेते हैं. श्याम किशोर जायसवाल बताते हैं, ‘हमने 10 अगस्त, 2007 को लैंको परियोजना की जन सुनवाई के दौरान छह बिंदुओं वाली एक मांग सूची जिलाधिकारी को सौंपी थी, लेकिन सरकार ने एक महीने पहले ही लैंको का भूमिपूजन करके वहां  निर्माण कार्य शुरू करवा दिया था.’ यही रवैया अनपरा की ‘बी’ यूनिट के निर्माण के दौरान भी रहा था. जनसुनवाई की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए जनता के हस्ताक्षर वाला सहमति पत्र अनिवार्य होता है. मगर प्रशासन ने इसका भी एक रास्ता निकाल लिया है. कार्यक्रम स्थल पर उपस्थिति रजिस्टर में दस्तखत करना अनिवार्य होता है. और बाद में प्रशासन इसी को सहमति हस्ताक्षर के रूप में पेश कर देता है.

बनारस जाते समय रास्ते भर सड़कों के किनारे बड़े-बड़े होर्डिंग दिखते हैं. लिखा है, ‘राष्ट्र की सेवा में सतत् समर्पित अ, ब, स ऊर्जा परियोजना.’ मन में एक सवाल उठा, ‘क्या इस देश में भी कई देश हैं?

‘समाज व संगठनों का भी पतन हुआ, छात्र राजनीति इससे अलग नहीं’

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यह सही है कि छात्र राजनीति की पहली प्राथमिकता अध्ययन है, लेकिन जो सामाजिक-राजनीतिक समस्याएं हैं, उन पर भी निगाह रखनी चाहिए और सभी विचारधाराओं से परिचित होना चाहिए. छात्रों के अपने कर्तव्य और अधिकार हैं. राष्ट्र या समाज के समक्ष कोई गंभीर समस्या आने पर छात्रों को देश सेवा के लिए भी उद्यत रहना चाहिए. छात्रों को व्यावहारिक दलगत राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए लेकिन विद्यार्थी को सभी विचारधाराओं का अध्ययन जरूर करना चाहिए. हालांकि, आदर्श रूप में हम यह बातें कहते हैं कि छात्र को राजनीति से दूर रहना चाहिए और राजनीतिक दलों को छात्रों के बीच दखल नहीं देना चाहिए. लेकिन व्यावहारिक पक्ष यह है कि भारत में युवकों की संख्या ज्यादा है. आज पूर्णतया उनको जबरन राजनीति से अलग रख पाना संभव नहीं है. राजनीतिक दलों में सत्ता के लिए संघर्ष चलता है. इसलिए उनसे भी यह अपेक्षा करना अव्यवहारिक होगा कि छात्रों को वे खुद से दूर रखें.

मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ का अध्यक्ष रहा. लेकिन मैंने एमए में टॉप भी किया. दोनों में सामंजस्य स्थापित करना बहुत जरूरी है. उस समय तक छात्र राजनीति में राजनीति दलों का हस्तक्षेप प्रभावी हो चला था लेकिन मैं राजनीतिक दलों से दूर रहा. मैंने खुद को किसी दल के प्रतिनिधि के रूप में पेश नहीं किया. आज की व्यवस्था में छात्रों को दलों से दूर रहने को बलात लागू नहीं कर सकते. मुझे याद है कि मैं विद्यार्थी जीवन में था, तब 18 साल की उम्र में मताधिकार की मांग उठी थी. हमने आवाज उठाई. जगह-जगह इस पर भाषण दिए, लेख लिखे. जब मैं प्रभाव डालने की स्थिति में पहुंचा तो जितना मुझसे हो सकता था, मैंने इसमें वह भूमिका निभाई. प्रत्येक विद्यार्थी का फर्ज है कि वह मुद्दों पर अपनी राय साफ करके अपना ध्येय बनाकर चले.

आज छात्र राजनीति में राजनीतिक दलों का दखल बढ़ गया है. क्योंकि समय के साथ राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था बदलती रहती है. आपके सामने जब ऐसा उद्देश्य हो जिस पर सब एकमत हों, तब वह उद्देश्य हासिल कर पाना आसान हो जाता है. स्वतंत्रता आंदोलन में ऐसा ही हुआ. तब देश के सामने एकलक्ष्य था आजादी. सत्तासुख भोगने के अवसर कम थे, लोग राजनीति में इसलिए आते थे कि देश और समाज को कुछ देना है. वे त्याग की भावना से राजनीति में आते थे. अब राजनीति में लोग हिस्सेदारी के लिए आते हैं. लोकतंत्र लूटतंत्र बन गया और लोग इस लूटतंत्र का हिस्सा बनने के लिए आते हैं. उस वक्त के संघर्ष की तुलना आज के संघर्ष से नहीं की जा सकती. वह संघर्ष देश के लिए था, आज का संघर्ष निजी है, क्योंकि राजनीति का स्वरूप बदल गया है. वह सत्तासुख भोगने का जरिया बन गई. निजी स्वार्थ हावी हो गए.

यह कहना गलत है कि सिर्फ राजनीति का ही पतन हुआ. सभी संगठनों, व्यवसायों का और समाज का भी चारित्रिक पतन हुआ. छात्र राजनीति को इससे अलग करके नहीं देख सकते. राजनीतिक दलों की जो भूमिका हो गई है, छात्र जीवन और छात्र राजनीति पर उसका प्रभाव पड़ेगा ही.

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष एवं पूर्व लोकसभा सचिव हैं )

‘मन में बसी महादेव की मूर्ति पूरी तरह से ढह चुकी थी और मैं वापस घर लौट आया’

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बात साल 2007 की है. मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में बीए प्रथम वर्ष का छात्र था. सावन के महीने में एक दिन अचानक दोस्त के साथ झारखंड के देवघर में शिवजी को जल चढ़ाने के लिए निकल पड़ा. सफर ऐसा था कि सुल्तानगंज पहुंचते-पहुंचते बदन का हर हिस्सा हिल चुका था. शरीर थक चुका था. कांवड़ में गंगाजल लेकर आगे की पैदल यात्रा मुश्किल लग रही थी, लेकिन मन में जगी आस्था कह रही थी कि हर मुश्किल आसान है.

सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर 100 किमी. से ज्यादा पैदल यात्रा कर देवघर जाकर शिवलिंग पर ये जल चढ़ाना होता है. मेरा साथी सुमन मुझसे कहीं ज्यादा उत्साहित था. रास्ते में छोटी-बड़ी हजारों टुकड़ियां बोल-बम और हर-हर महादेव का जयकारा लगाते नजर आ रही थीं. सुमन ने मुझे ऐसे ही एक समूह के बारे में बताया जिसे ‘डाक-बम’ कहा जाता है. ‘हम ‘बोल-बम’ हैं मतलब महादेव तक पहुंचने के लिए हमारे लिए समयसीमा निर्धारित नहीं है लेकिन डाक-बम को 24 घंटे के भीतर हर हाल में मंदिर पहुंचना ही होता है वरना  ये वीआईपी लाइन से दर्शन नहीं कर पाएंगे. तब इन्हें सबसे निचली श्रेणी यानी बोल-बम वाली श्रेणी से ही महादेव के दर्शन प्राप्त हो सकेंगे मतलब पुण्य कम मात्रा में प्राप्त होगा.’

तभी मेरी नजर एक श्रद्धालु पर पड़ी जिसके दोनों पैर नहीं थे पर वह बोल-बम, बोल-बम कहते हुए दो बैसाखियों के सहारे लड़खड़ाते हुए मंदिर जा रहा था. मैंने सुमन से पूछा इसे किस श्रेणी का पुण्य मिलेगा? लेकिन सुमन बिना कोई जवाब दिए ही चलता रहा. रास्ते में एक और बुजुर्ग श्रद्धालु मिले जिनके हाथ में एक लकड़ी थी. वे जमीन पर लेटते और जहां तक उनका हाथ पहुंचता, वहां लकड़ी से निशान लगाकर खड़े हो जाते. ऐसे तरह-तरह के श्रद्धालुओं और कदम-कदम पर भिखारियों को देख मैं स्तब्ध और शांत आगे बढ़ता जा रहा था. सुमन कहता, ‘ये धोखेबाज भिखारी हैं. रूई में नीली-पीली दवाई भिगोकर लपेटे हुए हैं.’ मैं देख रहा था कि सड़क किनारे दुकानों में बैठे ‘भक्त’ कैसे गांजे के धुंए का गुंबद बना रहे थे. धर्मशालाओं में देर रात अपने परिजनों से बिछड़ीं औरतों का रात गुजारना ‘भक्त’ कैसे मुश्किल किए हुए हैं. यही ‘भक्त’ युवतियों को कैसी ‘श्रद्धा’ से एकटक निहार रहें हैं. भक्ति के उस पथ पर लोगों के पर्स और सामान चोरी हो रहे थे. मेरे मन में आस्था से जगी शांति में अब खलबली मच चुकी थी और धर्म-आस्था से जुड़े तमाम सवाल कौंधने लगे थे. अब मैं सिर्फ आते-जाते लोगों की गतिविधियों को ध्यान से देख रहा था. इस बीच सुमन कहीं छूट गया था. मैं अकेला देवघर के नजदीक शिव-गंगा के सामने खड़ा था. यहां से स्नान के बाद ही महादेव-दर्शन किया जाता है. शिव-गंगा के बीचों-बीच महादेव की विशाल मूर्ति देखकर शरीर में झुरझुरी दौड़ गई. जैसे डरना और अभिभूत होना दोनों चीजें एक साथ घटी हों. पर जैसे-जैसे डुबकी लगाते भक्त बटुवा गंवा रहे थे, चेन खींचे जाने की वजह से महिला श्रद्धालु घायल हो रही थीं, वैसे-वैसे महादेव की मूर्ति मेरी नजरों में ढह रही थी. अब मैं मंदिर के प्रांगण में क्यों प्रवेश कर रहा था मुझे पता नहीं था! लाखों की भीड़ में बच्चे-बूढ़े और महिलाएं रौंदे जा रहे थे. पंडे और पुलिस लाइन में आगे जगह देने के नाम पर भक्तों से पैसे ऐंठ रहे थे. प्रांगण में बस एक मंदिर था जो खाली था. मैंने अपने भीतर झांका तो देखा कि मन में बसी महादेव की मूर्ति पूरी तरह से ढह चुकी थी. मैंने इसी अकेली मूर्ति पर जल चढ़ाया और  लौट आया.

जैसे-जैसे चेन खींचे जाने की वजह से महिला श्रद्धालु घायल हो रही थीं, वैसे-वैसे मेरी नजरों में महादेव की मूर्ति ढह रही थी

तब ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ के भगत सिंह को नहीं जानता था, न मार्क्स को और न ही बुकानिन को. देवघर के अनुभव से मुझे यह समझ आने लगा कि इतनी श्रद्धा और आस्था के बावजूद बैसाखी पर चलने वाले व्यक्ति, गरीब बुजुर्ग, भिखारियों का भाग्य कभी नहीं बदलने वाला है. वहां सक्रिय चोर-उचक्कों को देखकर यह सवाल जेहन में अटक गया कि अन्याय और गलत चीजों को रोक पाने में असमर्थ महादेव पूजनीय कैसे हो सकते हैं!

इसी सवाल ने मुझे नास्तिकता के करीब पहुंचा दिया. अपने सोचने-समझने के तरीके पर लगातार आलोचना झेलने के बावजूद इतना तो मैं जानता हूं कि मेरा भविष्य चाहे जिस करवट मुझे सुलाए पर यह तो तय है कि न तो मैं किसी बाबरी-विध्वंस की भीड़ का हिस्सा बनूंगा, न किसी गोधरा कांड, मुजफ्फरनगर दंगे या किसी मंदिर की स्थापना के नाम पर खेली जा रही खून की होली में रहूंगा. मेरी नजर में अहमियत होगी तो सिर्फ इंसानियत की.

(लेखक शोधार्थी हैं और वर्धा में रहते हैं)

कुछ सपने, ख्वाहिशें और शीरोज हैंगआउट

जहां महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाता है, वहां किसी एसिड अटैक सरवाइवर का उस सदमे से उबरकर नए सिरे से जिंदगी शुरू करना हिम्मत का काम है. कुछ ऐसा ही जज्बा तेजाब हमलों की शिकार महिलाओं ने कैफे खोलकर दिखाया है. इन महिलाओं की ओर से आगरा में चलाए जा रहे कैफे ‘शीरोज हैंगआउट’ ने बीते 10 दिसंबर को पहली सालगिरह मनाई. इसे शुरू करने का उद्देश्य इन्हें समाज के साथ फिर से जोड़ना है. इसके जरिये अतीत से उठकर अपने जीवन के नए मायने तलाश रहीं इन आत्मविश्वासी महिलाओं ने अपने जैसे लोगों के साथ ही समाज को भी सीख दी है. कैफे का नाम ‘हीरो’ शब्द की तर्ज पर ‘शीरोज’ रखा गया है.

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सभी फोटो : पारोमिता चटर्जी

 कैफे की अपनी एक लाइब्रेरी है जिसकी किताबें यहां आने वालों द्वारा दान की गई हैं. ये अपने आप में एक अनूठा कैफे है जो आगरा जैसी ‘टूरिस्ट सिटी’ की शोर भरी भीड़ में सुकून का एहसास देता है.

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नीतू के पिता को बेटे की चाहत थी पर बेटियां ही पैदा हुईं. एक दिन नशे में धुत पिता ने तीन साल की नीतू सहित उसकी मां और छोटी बहन पर तेजाब फेंक दिया, सपने देखना भूल चुकी नीतू अब अपने पैरों पर खड़ी है

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यहां आने वालों में ज्यादातर ग्राहक विदेशी सैलानी होते हैं जो इन महिलाओं को सहजता से स्वीकार लेते हैं. इस कैफे के आस-पड़ोस के लोगों ने शुरू में तो इनसे दूरी बना के रखी पर कुछ महीनों पहले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा की गई तारीफ के बाद उनकी सोच में बदलाव आया है

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कैफे में काम करने वाली महिलाएं इस बात पर जोर देती हैं कि कैफे मुनाफे के लिए नहीं चलता. इस बात की तस्दीक मेन्यू कार्ड भी करता है जिस पर किसी व्यंजन की कीमत नहीं लिखी है. यहां आने वाले मेहमान अपनी इच्छानुसार भुगतान कर सकते हैं

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इस कैफे ने न केवल इन महिलाओं को रोजगार दिया है बल्कि इन्हें फिर से सपने देखने की हिम्मत भी दी है. यहां काम करने वाली डॉली अपने नृत्य के शौक को पूरा करने के लिए डांसिंग क्लासेज में जाती हैं, वहीं नीतू गायकी का शौक भी रखती हैं

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यहां डॉली, अंशु, नीतू, ऋतु और गीता काम करती हैं. अंशु (हरे रंग की ड्रेस में) यहां नई हैं. शीरोज हैंगआउट में काम मिल जाने के बाद अब वे अपनी पढ़ाई जारी रखने की योजना बना रही हैं

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कैफे में सजावट का खास ध्यान रखा गया है. यहां कई आकर्षक पेंटिंग्स लगी हैं. दीवारों का रंग-रोगन किसी चित्रकार का कैनवास लगता है. एक बोर्ड पर एसिड अटैक सरवाइवर्स पर अखबारों या मैगजीन में प्रकाशित खबरों को भी जगह दी गई है

जाने चले जाते हैं कहां…

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संजय तिवारी इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ में 2003-04 में अध्यक्ष चुने गए थे. इसके पहले वे महामंत्री भी रह चुके थे. वे छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय थे. उन्हें भाषण कला अच्छी आती थी. वे समय-समय पर छात्रों का मुद्दा उठाते रहते थे. छात्रों के बीच अक्सर चर्चा हुआ करती थी कि वे राजनीति में अच्छे नेता साबित होंगे. जाहिर है संजय को भी खुद से ऐसी ही उम्मीद रही होगी. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों में इस बात को लेकर बहुत गौरवबोध रहता है कि जिस तरह उत्तर प्रदेश ने देश को सात प्रधानमंत्री दिए, उसी तरह इस विश्वविद्यालय ने चंद्रशेखर, वीपी सिंह, शंकरदयाल शर्मा, मदनलाल खुराना, विजय बहुगुणा, जनेश्वर मिश्र, अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता दिए.

संजय के मन भी इस कतार में शामिल होने की तमन्ना रही ही होगी. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. वे अब तक इस इंतजार में हैं कि उत्तर प्रदेश में प्रभावशाली पार्टियों कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा में से कोई पार्टी उन्हें टिकट दे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. संजय कांग्रेस के एनएसयूआई पैनल से अध्यक्ष बने थे लेकिन कांग्रेस ने ही उन्हें आगे बढ़ने का कोई अवसर नहीं दिया. संजय ने पिछला विधानसभा चुनाव तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर लड़ा और हार गए क्योंकि यूपी में तृणमूल का कोई जनाधार नहीं है, न ही पार्टी मजबूत स्थिति में है. संजय कहते हैं, ‘जिसके पास धनबल और बाहुबल है, जिसके पास पीआर और एफआईआर है, पार्टियां उसी को टिकट देती हैं. मैं जनता के मुद्दों को लेकर संघर्ष करते हुए 60-70 बार जेल गया, लेकिन कांग्रेस ने मुझे ही टिकट नहीं दिया. राहुल गांधी से मैं बार-बार मिला लेकिन मुझे कांग्रेस से टिकट नहीं मिला. राहुल गांधी कहते हैं कि बस जमीन पर बस काम करो. बसपा ने टिकट देने के लिए डेढ़ से दो करोड़ रुपये मांगे. सपा से भी टिकट नहीं मिला. सभी दल बाहुबलियों को ही तवज्जो देते हैं. छात्रसंघ से निकले उसी नेता को टिकट मिल पाता है जो या तो किसी राजनीतिक परिवार से हो या जिसके पास अकूत पैसा हो.’ संजय ने अभी राजनीति छोड़ी नहीं है. वे अब भी किसी पार्टी से टिकट मिलने का इंतजार कर रहे हैं.

संजय तिवारी अकेले नहीं हैं जो छात्रसंघ से निकलकर डेढ़ दशक से अपना राजनीतिक करिअर तलाश रहे हैं. पूरे देश में जितने कॉलेज या विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ बचे हैं, वहां से निकलने वाले छात्रों के लिए राजनीति में कोई खास जगह नहीं है. गोरखपुर विश्वविद्यालय छात्रसंघ में सक्रिय रहे अशोक कुमार पांडेय 1991 से 97 तक विश्वविद्यालय में रहे. इसके बाद वे कृषि मंत्रालय में अधिकारी हो गए. वे अपने संगठन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता तो थे लेकिन उनके सामने कोई राजनीतिक विकल्प नहीं था. वे बताते हैं, ‘मेरे विश्वविद्यालय में पहुंचने के बाद से लेकर आज तक मुझे एक भी नाम याद नहीं है जो छात्रसंघ से होते हुए मुख्यधारा की राजनीति में आया हो.’ 1990 के बाद मंडलीकरण, भूमंडलीकरण और मंदिर-मस्जिद की राजनीति ने छात्र आंदोलनों की स्थितियां बदल दीं. अब छात्रसंघों के नेता मुख्यधारा की राजनीति में तभी आ रहे हैं जब उन पर बड़े राजनीतिक दलों का हाथ हो, या वे किसी राजनीतिक घराने से ताल्लुक रखते हों, या इतने प्रभावशाली हों कि पार्टियों के लिए फायदेमंद लगें. इलाहाबाद में पिछले एक-डेढ़ दशक में जितने भी युवा छात्रसंघ में सक्रिय रहे थे, उनमें से सिर्फ एक नेता राजनति में सक्रिय हुआ, वे हैं संग्राम यादव. संग्राम यादव 2003-04 में महामंत्री चुने गए थे. वे बलराम यादव के बेटे हैं. बलराम यादव उत्तर प्रदेश की राजनीति में हैसियत वाले नेता रहे हैं जो इंदिरा और राजीव की कैबिनेट में मंत्री रहे थे. संग्राम यादव को सपा से टिकट मिला, फिलहाल वे आजमगढ़ की अतरौलिया सीट से विधायक हैं.

‘जो लोग पार्टियों को फंडिंग करते हैं वे नहीं चाहते कि आम छात्रों और जनता के बीच से नए लोग राजनीति में आएं. नए लोगों के आने से राजनीतिक परिवारों के बच्चे आगे नहीं आ पाते’

जेपी आंदोलन के बाद के वर्षों में छात्रसंघ के अपराधीकरण ने उन पर प्रतिबंध लगाने का रास्ता साफ किया. छात्रसंघों में धनबल, बाहुबल और रुतबे की राजनीति का हासिल लिंगदोह कमेटी के रूप में सामने आया. लिंगदोह कमेटी को छात्र राजनीति को हतोत्साहित करने के प्रयास के रूप में देखा

गया, लेकिन कमेटी ने छात्रसंघों पर जिन चीजों पर प्रतिबंध लगाया, उनके पीछे पुख्ता तर्क थे. कमेटी ने चुनाव लड़ने की उम्रसीमा तय करते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नेता रघुनाथ द्विवेदी का उदाहरण दिया था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक ऐसे भी छात्रनेता हैं जिनकी उम्र 48 साल है. उनकी एक बेटी और एक बेटा भी विश्वविद्यालय में छात्र हैं. रघुनाथ द्विवेदी 1995 में उपाध्यक्ष चुने गए थे. वे एक दशक से ज्यादा तक विश्वविद्यालय में सक्रिय रहे और अब किसी पार्टी से चुनाव लड़ने की जुगत में हैं.

रमेश यादव 2003 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में सक्रिय रहे. वे चुनाव तो नहीं जीते लेकिन छात्रों के बीच उन्होंने काफी काम किया. तब से आज तक लगातार राजनीति में सक्रिय हैं. पीएचडी कर चुके हैं और विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. वे छात्रों से लेकर जनता तक के मुद्दे उठाते रहते हैं. विश्वविद्यालय में वे एनएसयूआई पैनल से चुनाव लड़ते थे, बाद में बहुत बार कोशिश की लेकिन कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया. रमेश कहते हैं, ‘जो लोग दलों को फंडिंग करते हैं वे नहीं चाहते कि जनता के बीच से या छात्रों के बीच से निकले नए लोग राजनीति में आएं. नए लोगों के आने से राजनीतिक परिवारों के बच्चे आगे नहीं आ पाते. आम छात्र आगे आते थे, वे जन नेता होते थे, उस पूरी व्यवस्था को ही खत्म कर दिया गया. केरल का वह उदाहरण ध्यान में रखिए कि बड़ी कंपनियां कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के तहत सभासद जैसे पदों पर अपने प्रत्याशियों को चुनाव लड़ा रही हैं. विचारों और आंदोलनों को खत्म कर दिया गया है. आम छात्र विश्वविद्यालय में जीत भी जाए तो मुख्यधारा की राजनीति में आकर धनबल और बाहुबल से हार जाता है. इसका मुकाबला करने के लिए छात्रों ने अपराध का रास्ता पकड़ लिया है.’ रमेश यादव अब तक राजनीति में इस उम्मीद के साथ सक्रिय हैं कि उन्हें किसी न किसी पार्टी से टिकट जरूर मिलेगा.

छात्रसंघों से निकलने के बाद ज्यादातर छात्र या तो ठेकेदारी, खनन आदि धंधों में चले जाते हैं या कहीं गुम हो जाते हैं. पिछले वर्षों में कई छात्र नेताओं के मारे जाने या अन्य कारणों से उनकी मौत की खबरें भी आईं. मई, 2015 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष कुलदीप सिंह केडी की संदिग्ध हालत में मौत हो गई. वे विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के शोधछात्र थे और 2013-14 के लिए छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गए थे. नवंबर, 2015 में काशीपुर उत्तराखंड में धर्मेंद्र भट्ट का महादेव नगर स्थित एक प्लाट में शव पाया गया था. धर्मेंद्र राधे हरि डिग्री कालेज का छात्रसंघ अध्यक्ष रह चुके थे. उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में मई, 2013 को पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष रमन सिंह समेत दो लोगों की खनन माफिया ने हत्या कर दी थी. दिसंबर, 2014 में उत्तराखंड के शक्तिफार्म में पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष प्रताप सिंह बिष्ट को तीन बदमाशों ने दिनदहाड़े गोली मार दी थी. नवंबर 2014 में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ़ के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष भुवन सिंह सौन का शव कार में पाया गया था. वे 2011 में छात्रसंघ अध्यक्ष थे. राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के महाराणा प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ दीपक शर्मा की अगस्त, 2013 में मध्य प्रदेश में एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी. वे सत्र 2010-11 में चुनाव जीते थे.

छात्र राजनीति में सक्रिय रहे कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने मकसद तय किए और उस पर लगातार काम कर रहे हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1993 में छात्रसंघ अध्यक्ष रहे लालबहादुर सिंह ऐसे ही छात्रनेता रहे जो अब नए राजनीतिक विकल्प पर काम कर रहे हैं. लालबहादुर विश्वविद्यालय में खासे लोकप्रिय थे. छात्र उनकी भाषण कला और नेतृत्व क्षमता के मुरीद थे. वे छात्रावासों और चौराहों पर जाकर कहीं भी खड़े होकर भाषण देने लगते थे और उन्हें सुनने वालों की भीड़ लग जाती थी. वे करीब दो दशक तक वाम राजनीति में सक्रिय रहे. लालबहादुर कहते हैं, ‘जेपी आंदोलन के समय मैं स्कूल में था. उसके प्रति मैं बहुत आकर्षित हुआ. लेकिन जब विश्वविद्यालय में आया तो कई सीनियर छात्रों की संगति में वाम विचारधारा की तरफ रुझान हुआ. जिनकी अपनी राजनीतिक समझ बन पाई  है वह मुख्यधारा के अनुकूल नहीं है. मेरी समझ बनी कि यही वो विचारधारा है जो इस समाज और देश के लिए सबसे मुफीद है.’ बाद के वर्षों में लालबहादुर का अपनी पार्टी से मतभेद हुआ. उन्होंने बताया, ‘भाकपा माले में एक लंबी बहस चली थी कि वामपंथी पार्टी के अलावा एक जनपार्टी की जरूरत है, जो अपने मुद्दे जनता की फौरी जरूरतों और उसकी सोच समझ के मुताबिक काम करे. हम कुछ लोगों का एक ग्रुप भाकपा माले से अलग हुआ और ऑल इंडिया पीपुल फ्रंट बनाया. इस पार्टी से कई महत्वपूर्ण लोग जुड़े हैं.’ लालबहादुर को उम्मीद है कि वे देश को बेहतर राजनीतिक विकल्प दे सकेंगे.

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छात्र आंदोलन अब नए रूप में सामने है

यह कहना गलत है कि छात्र आंदोलन खत्म हो गए हैं. मंडल कमीशन के बाद परिसरों की संरचना बदल गई. महिला और पिछड़े वर्ग की भागीदारी बढ़ गई. अब ये तबके सामाजिक समस्याओं पर आंदोलन कर रहे हैं. वे पारंपरिक मुद्दों पर आंदोलन नहीं करते. इसीलिए पिछले दिनों यूजीसी की तरफ से हॉस्टल पर एडवाइजरी जारी हुई. यह सभी छात्रों को सर्विलांस में रखता है. छात्रसंघ अब पहले जैसे नहीं दिखते, लेकिन सामाजिक मुद्दों पर छात्रों की सक्रियता बढ़ी है. वे विभिन्न मुद्दों पर हस्तक्षेप कर रहे हैं. इसीलिए उन्हें लगातार दबाने की कोशिश हो रही है. ऐसा दिख रहा है कि छात्रों का एक विराट आंदोलन सामने आने वाला है. बुनियादी चीजें आम जनता के लिए दुर्लभ होंगी तो जनाक्रोश उभरेगा. इसलिए उच्च शिक्षा में गरीबों की आमद रोकने की कोशिश हो रही.

परिसरों में विद्यार्थियों का जो कंपोजीशन बदला है, उससे उनकी सक्रियता भी नए स्वरूप में है. छात्र आंदोलन तो नहीं दिख रहा, लेकिन एक अंतर्धारा मौजूद है. दूसरे, मुख्यधारा की राजनीति में भी विमर्श बदल गया है. पूरी राजनीति में अब बेहद छुद्र सवालों पर बहस होती है. आम जनता राजनीति के केंद्र में नहीं है. इसलिए छात्र आंदोलन राजनीतिक नहीं दिख रहे, क्योंकि उनके मुद्दे अलग हैं, जिन्हें राजनीतिक पार्टियां उठा नहीं रहीं. राजनीति हमेशा सामाजिक परिवर्तन से ही नियंत्रित होती है, इसलिए तत्काल सतह पर परिवर्तन नहीं दिखेगा. लेकिन अगर राजनीति ने इस अंतर्धारा का संज्ञान नहीं लिया तो यह राजनीति को बदल देगी. यह हमेशा सतह पर दिखाई नहीं देती. छात्रसंघ विशेष प्रक्रिया में ही सामने आए थे. जहां छात्रसंघ नहीं था, छात्रों ने लड़कर हासिल किया. स्वाधीनता आंदोलन में छात्रों की विशेष भूमिका तो रही लेकिन आंदोलन के नेता इसके पक्ष में नहीं थे कि छात्रसंघ हों. छात्रसंघ आजादी के बाद सामने आए. लोहियावादी आंदोलन ने इसे एक स्वरूप प्रदान किया. जेपी आंदोलन छात्रों का आंदोलन था लेकिन उसमें भी छात्रसंघों की खास भूमिका नहीं थी. बाद के वर्षों में राजनीति बदली तो छात्रसंघ भी बदल गए. जैसे-जैसे समय बदल रहा है, छात्र नई भूमिका में सामने आ रहे हैं. नए आंदोलन पैदा हो रहे हैं. नया आंदोलन पैदा होता है तो वह छात्रसंघ को भी अपने हिसाब से परिभाषित करता है.

गोपाल प्रधान, पूर्व छात्रनेता, जेएनयू  [/box]

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कुछ सबसे पुराने संगठनों में से एक है, इसकी स्थापना 1949 में हुई थी. दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान समेत ज्यादातर राज्यों में इसकी मजबूत स्थिति रही है. लेकिन इस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नियंत्रण है. जेएनयू में एबीवीपी के अध्यक्ष रह चुके डॉ. मनीष कुमार कहते हैं, ‘संघ में भाजपा के लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है. जो लोग भाजपा में जाते हैं, संघ की निगाह में वे भ्रष्ट हो जाते हैं. संघ की नीति है कि एबीवीपी के लोग पढ़ाई करने के बाद या तो उनके अन्य संगठनों में जाते हैं या फिर अपना करिअर बनाते हैं. जैसे अरुण जेटली का उदाहरण लीजिए. वे एबीवीपी में थे, फिर पढ़ लिखकर वकील हो गए. बोफोर्स घोटाले में वीपी सिंह ने उन्हें वकील रखा. इसके बाद वे राजनीति में आ गए. उन्हें संघ या भाजपा राजनीति में नहीं लाई. संघ राजनीति में जिन्हें भेजता भी है वे उसके स्वयंसेवक होते हैं.’ संघ की यह नीति अब भी जारी है. एबीवीपी से जुड़े जो भी नेता छात्रसंघ में चुने गए, उनमें छिटपुट चेहरे ही राजनीति में आए. मनीष कुमार खुद एबीवीपी को जेएनयू में स्थापित करने वालों में से एक हैं, लेकिन वे राजनीति में न जाकर पत्रकार बने. अब छात्रसंघों से नेता बनने की संभावनाएं लगभग न के बराबर हैं. जिस छात्रसंघ को राजनीति की नर्सरी कहा जाता था, वह अब बंजर हो चुकी है.

‘हमने तय किया था कि चुनाव लड़ेंगे अगर नहीं भी जीत पाए तो इतिहास बनेगा’

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जिस छात्रसंघ में लड़कियों की मौजूदगी बिल्कुल नहीं थी, वहां पर चुनाव लड़ने का फैसला कैसे किया?

यहां का पूरा चुनाव धनबल और बाहुबल से लड़ा जाता है जैसे विधानसभा या संसद का चुनाव हो. हमारे छात्रसंघ चुनाव का स्वरूप लगातार बदलता जा रहा था. लोग छात्रनेता होकर तुरंत राजनीति में करिअर बनाने की तैयारी करने लग जाते हैं. वे छात्र हितों के लिए काम नहीं करते. हम लोग इसके लिए लगातार चिंतित थे कि क्या किया जा सकता है. हमारा एक फ्रेंड्स यूनियन ग्रुप है. 2012 में मैंने इसे शुरू किया था, जिसके जरिये हम छात्रों की मदद करते हैं. हमारे विश्वविद्यालय के हालात बेहद खराब हैं. यहां टॉयलेट नहीं हैं, हैं तो ताले लगे हैं. सेंट्रल लाइब्रेरी में किताबें नहीं हैं, लाइब्रेरी डिजिटलाइज नहीं है. वाई-फाई कैंपस नहीं है, सब्सिडाइज कैंटीन नहीं है. दो साल से विश्वविद्यालय कार्यवाहक वीसी के सहारे चल रहा है. शिक्षक नहीं हैं. हालात को देखते हुए हमने तय किया कि कुछ करना चाहिए. बाहर से हर चीज को बुरा कहना तो आसान है, अंदर आकर देखते हैं. हमें ये तो नहीं पता था कि हम जीत पाएंगे लेकिन ये पता था अगर कुछ कर पाए तो बहुत फर्क पड़ेगा. अब मैं 1927 के बाद मैं पहली अध्यक्ष हूं.

अकादमिक करिअर छोड़कर पुरुषों के वर्चस्व वाले सियासी अखाड़े में उतरना कितना आसान रहा?

बहुत मुश्किल था. मैं रिसर्च स्कॉलर हूं, मेरा एमफिल हो चुका है, दो विषय में नेट है. अकादमिक करिअर एकदम स्पष्ट था मेरे सामने. ऐसे में यह तय कर पाना बहुत मुश्किल था कि सब छोड़कर छात्र राजनीति में जाना है. लेकिन मैं पिछले पांच साल से महिला आंदोलन से जुड़ी रही हूं. काम करते हुए यह धारणा पक्की हो गई थी कि परिवर्तन के लिए आपको आगे आना पड़ता है. हमने तय किया था कि हम चुनाव लड़ेंगे अगर नहीं भी जीत पाए तो इतिहास बनेगा, सिर्फ महिला इतिहास नहीं, बल्कि इस बात का भी कि बाहुबल या धनबल के बिना भी चुनाव लड़ा जाता है. इससे ये फर्क पड़ेगा कि आम छात्र भी चुनाव में आने की कोशिश करेगा. मैंने पांच साल कैंपस में काम किया था तो पहचान का संकट नहीं था. सभी दलों के लोगों की कोशिश थी कि मैं उनके साथ आ जाऊं. एबीवीपी ने कहा, आप हमारे पैनल से आ जाइए, सारा चुनाव हम मैनेज कर देंगे. सपा ने भी प्रस्ताव दिया, आइसा ने भी, लेकिन हम लोगों का यह मानना था कि हमने पार्टी का साथ लिया तो हमें स्टूडेंट एजेंडा छोड़कर पार्टी एजेंडा फॉलो करना मजबूरी हो जाएगी. हमने किसी पार्टी पैनल से लड़ने का विचार नहीं किया. हमने बहुत ही कम पैसों में चुनाव लड़ा और अपनी स्कॉलरशिप का पूरा पैसा खर्च कर दिया.

दिल्ली जैसे शहर के मुकाबले इलाहाबाद में घर के अंदर से लेकर सड़क तक लड़कियों पर अच्छी खासी पाबंदियां हैं, विश्वविद्यालय में भी. ऐसे में राजनीति में आने के फैसले पर परिवार ने सहयोग किया या विरोध?

शुरू में बहुत मुश्किल हुई. घरवाले नाराज हो गए थे. पिता तो बहुत ज्यादा नाराज हो गए थे तो मैंने उनसे एक ही बात बोली कि नाराज मत होइए. कुछ गलत नहीं करूंगी, करने दीजिए, जो करूंगी, अच्छा करूंगी. उन्होंने न हां कहा, न ही ना. बाद में कहा कि अगर करना चाहती हो तो करो, लेकिन अपने को सुरक्षित कर लो. इसके बाद मैंने चुनाव पर फोकस किया क्योंकि मेरे पास सिर्फ अपनी बात और अपनी क्षमता थी. मुझे हर छात्र से खुद जाकर मिलना था और अपनी बात कहनी थी. मैं विमेन स्टडीज विभाग में बतौर असिस्टेंट काम कर रही हूं. मुझे बीस हजार की फेलोशिप मिलती थी. मैंने इस्तीफा दे दिया, क्योंकि इस्तीफा दिए बिना चुनाव नहीं लड़ सकते थे. मेरे घर वालों ने कहा कि बीस हजार की एक नौकरी है, वह भी छोड़ रही हो, फिर क्या करोगी? लेकिन जिद थी कि इस बार कोशिश करनी है और काम करना है.

इलाहाबाद छात्रसंघ की एक परंपरा हुआ करती थी कि सबसे अच्छे छात्र चुनाव लड़ते थे और यहां से निकलकर भी मुख्यधारा में दखल देते थे. क्या इलाहाबाद अपनी पुरानी गरिमा खो चुका है? 

हां, बिल्कुल. आदित्यनाथ के विरोध को इससे जोड़ना चाहूंगी. हमें कैंपस में नई परंपरा शुरू करनी है. हम लोग एक नई संस्कृति की शुरुआत कर रहे हैं. इलाहाबाद आईएएस और पीसीएस बनाने के लिए जाना जाता था. वह सब खत्म हो गया. यहां के छात्र अंग्रेजी से मात खाते हैं. इसके लिए हम कुछ संस्थाओं के साथ मिलकर कार्यशालाएं चलाने वाले हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय केंद्रीय संस्था है लेकिन यहां प्लेसमेंट एजेंसियां नहीं आतीं. हमने उसके लिए भी विवि से कहा है कि प्लेसमेंट एजेंसियां बुलाई जाएं. अराजकता इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बहुत बुरी तरह हावी है. इसे खत्म करने के लिए हमारे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, लेकिन इसका मॉडल है. वह है रचनात्मकता का मॉडल. हम ऐसी रचनात्मक चीजों को आगे बढ़ाएंगे कि अराजकता अपने आप खत्म हो जाए.

प्रशासन कहता है कि पैसे नहीं है, जबकि दौ सौ करोड़ यूजीसी को लौटा दिए. अगर जांच करा लें तो 30 प्रतिशत शिक्षक फंस जाएंगे

इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिसर पूरी तरह से पितृसत्तात्मक है. यहां लड़कियां जेएनयू या डीयू के मुकाबले सहज नहीं हैं. इस दिशा में क्या प्रयास होंगे?

इसका कारण है कि यहां का अकादमिक माहौल खराब है. परिसर में रचनात्मक गतिविधियां नहीं होतीं. सेमिनार नहीं होते. महिलाओं के साथ बुरा बर्ताव वे करते हैं जो उन्हें नहीं जानते. आपस में संवाद होगा तो यह सब खत्म हो जाएगा. महिला आजादी की बात करें तो हमारे यहां छह हॉस्टल हैं, उनका दरवाजा शाम नौ बजे बंद हो जाता है. कैंपस के अंदर के हॉस्टल का भी दरवाजा बंद हो जाता है. मैं अपने सामने वाले गर्ल्स हॉस्टल नहीं जा सकती. हम हॉस्टल के अंदर भी सुरक्षित नहीं हैं. हम कोशिश करेंगे कि स्थितियां सुधरें. कैंपस में भी हमने कहा है कि लैंगिक उत्पीड़न को एकदम नकार देना है, अब तक विश्वविद्यालय प्रशासन बेहद ढीला है, लेकिन मैं जानती हूं कि पीछे पड़ जाऊंगी तो इनको करना पड़ेगा. मैं पिछले साल से ही लैंगिक भेदभाव के मसले पर कोशिश कर रही हूं. विवि प्रशासन से दो साल से कह रही हूं प्रॉक्टर के नंबर और विमेन हेल्पलाइन नंबर बोर्ड पर लगा दीजिए, ताकि किसी असहज स्थिति में लड़कियां मदद ले सकें, लेकिन अब तक नहीं हुआ. वे कहते हैं कि हमारे पास पैसे नहीं हैं, जबकि दो सौ करोड़ रुपये विश्वविद्यालय ने यूजीसी को वापस कर दिए. अगर हमारे यहां विजिलेंस की जांच करा लें तो 30 प्रतिशत शिक्षक कदाचार में फंस जाएंगे. यहां का प्रशासन महिलाओं के प्रति उदासीन है. लड़के कमेंट करते हैं तो ये लोग लड़कियों को ही बुलाकर कहते हैं कि बाहर कम निकला करो. क्लास आने की जरूरत नहीं है क्योंकि यहां गुंडे रहते हैं. इस तरह का तो विश्वविद्यालय का रवैया है. हालांकि हमारी कोशिशें तब तक जारी रहेंगी जबकि हालात बदल नहीं जाते.

राष्ट्रीय स्तर पर छात्र राजनीति की जो दशा-दिशा है, उस पर क्या कहना चाहेंगी?

छात्र राजनीति की सबसे बड़ी खासियत थी कि यह प्रेशर ग्रुप (दबाव समूह) का काम करता था. अब यह कास्ट, क्लास और जेंडर के आधार पर बंट चुकी है. अगर छात्र बंटे रहेंगे तो उनकी आवाज बेअसर रहेगी. अभी यूजीसी के खिलाफ चल रहा आंदोलन पूरे छात्र समुदाय का मुद्दा है, पर न तो सब संगठन साथ आए न ही सब छात्र. संगठित होना ही हमारी ताकत है. संगठन शक्ति कमजोर हो गई है जिससे हम दबाव समूह के रूप में काम नहीं कर पा रहे.

काठ के घोड़े हो गए छात्रसंघ

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छात्रसंघों की भूमिका 1942 के बाद से ही सत्ताविरोधी रही है. 1942 और उसके आसपास के वर्षों में युवाओं का मकसद अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकना था. आजादी के बाद कांग्रेस आई, 67 तक राज्यों में और 77 तक केंद्र में. विपक्ष में जो संगठन थे वे उसी भूमिका में चल रहे थे. 1942 से जो संगठन चले आ रहे थे, वे या तो सोशलिस्ट थे या कम्युनिस्ट. कम्युनिस्ट छात्र संगठनों ने रूस का मॉडल अपनाया था. 1949 में विद्यार्थी परिषद बनी. हालांकि, कैंपस में उसकी गतिविधियां और उसकी पहचान बनी 65 के बाद. खासकर उत्तर प्रदेश में. इसकी भी खास वजह थी. 65 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के नाम से हिंदू शब्द हटाने के लिए विधेयक पेश हुआ, जिसके विरोध में बनारस में आंदोलन उठ खड़ा हुआ. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री बनारस से ही थे. उन्हें समझ में आ गया कि लेने के देने पड़ सकते हैं और उन्होंने इसे वापस ले लिया. उस आंदोलन ने एबीवीपी को नई जिंदगी दे दी.

उस दौरान तक समाजवादी पार्टी टूटती-बिखरती रहती थी. लोहिया ने अपनी पार्टी बना ली थी. वे खुद विश्वविद्यालय परिसरों में जाते रहते थे. बनारस आंदोलन के बाद वहां से यूथ कांग्रेस गायब हो गई. छात्र समाजवादी, सीपीआई और एबीवीपी की तरफ मुड़ गए. उस दौरान मेरठ से बनारस तक छात्र राजनीति में वर्चस्व एबीवीपी की पहली प्राथमिकता थी. मोटे तौर पर इनका चरित्र सत्ताविरोधी था. इन संगठनों में एक बात कूट-कूट कर भरी थी कि जिन पार्टियों से हम जुड़े हैं, वे सत्ता में आ गईं तो सब कुछ ठीक हो जाएगा. छात्रों को वैसे भी सत्ता का विरोध ज्यादा रास आता है. सत्ता का विरोध इन संगठनों के मूल में था.

उत्तर प्रदेश ने ही सारे उत्तर भारत या कहें कि सारे भारत की राजनीति को विरोध की राजनीति में परिवर्तित किया. लेकिन जैसे ही कांग्रेस-विरोध की राजनीति के तहत जनता पार्टी सरकार बनी, उस राजनीतिक धारणा को धक्का लगा. छात्रों को मोहभंग हुआ. करीब पांच साल तक सत्ताविरोधी राजनीति में एक खालीपन आ गया.

छात्र राजनीति के लिए यह जरूरी है कि छात्रसंघों के चुनाव हों और छात्र चुनकर आएं. छठवें सातवें दशक में नारा सामने आया कि हम कल के नहीं आज के नागरिक हैं, विश्वविद्यालय प्रशासन में हमारा रोल होना चाहिए. इस तरह भागीदारी का नारा सामने आया था. 1972-73 आते-आते गुजरात और बिहार आंदोलन से छात्रसंघ प्रमुखता से आगे आ गए. जेपी यह मानने लगे थे कि मार्क्सवादी क्रांति की जो अवधारणा है कि मजदूर क्रांति करेगा, वह अपने पेशे में परमानेंट होकर मिडिल क्लास में ही तब्दील हो जाता है. फ्रांस और दूसरे देशों में जो छात्र आंदोलन हुए, उनसे यह साबित हुआ कि मार्क्सवाद व्यर्थ हो गया है. अब छात्र राजनीति से ही बदलाव हो सकता है. इस तरह परिवर्तनकारी ताकत के रूप में छात्र आगे आए और विश्वविद्यालयों के छात्रों की निर्णायक भूमिका बनी.

संयुक्त सरकारों और जनता शासन के आने के बाद इस पर पुनर्विचार की जरूरत पड़ी कि अब करें क्या? छात्रसंघ या तो सरकार पर अंकुश लगाने की भूमिका अदा करें या सत्ता को उखाड़ फेंकें. यह दोनों नहीं हुआ. तो युवा वर्ग सोचने लगा कि अब किया क्या जाए? इंदिरा की सत्ता में वापसी के बाद शिक्षा और अर्थव्यवस्था में जो बदलाव हुआ और अभी तक जारी है, इसके कारण विश्वविद्यालय कैंपस अब वह नहीं रह गए जो वह हुआ करते थे. अब कुछ विश्वविद्यालय ही ऐसे बचे हैं जहां पर छात्रसंघ है.

अब समस्या यह है कि छात्रसंघों में एकरूपता नहीं है. एक छात्रसंघ का दूसरे छात्रसंघ से संपर्क नहीं है. आपस में समन्वय न होने के कारण वे प्रभावशाली भूमिका में नहीं हैं. एक परिसर वैसे ही कुछ नहीं कर सकता, जैसे एक चना अकेला भाड़ नहीं फोड़ सकता. छात्र संगठनों की भूमिका भी बदल गई है. अब छात्रसंघ काठ के घोड़े हो गए हैं. जो अरबी घोड़े थे, जिनकी चाल सौ-दो सौ किलोमीटर हुआ करती थी, जो सत्ता को ध्वस्त कर देने का जज्बा रखते थे, अब वे नहीं रह गए. अब छात्रसंघ दिखाऊ हो गए हैं. वे तमाम उन बुराइयों से ग्रस्त हैं जो मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में हैं. राजनीतिक दलों से जुड़े छात्र संगठन उन दलों पर ही आश्रित हैं, उन्हीं के निर्देश पर चलते हैं, इसलिए उनकी बुराइयों से ही ग्रस्त हैं. छात्रसंघों में पार्टियों के जैसा ही तिकड़म, पैसा आदि इस्तेमाल होने लगा है.

इन बुराइयों का कारण है छात्र आंदोलनों का न होना और दिशाहीनता. मैं निजी अनुभव से कह सकता हूं कि छात्र आंदोलन का स्वरूप बहती नदी जैसा होता है. नदी अपना रास्ता खुद बना लेती है और उसकी निर्मलता भी बनी रहती है. उसे आप पोखर बना देंगे तो पानी सड़ने लगता है. आंदोलनों के नहीं होने से छात्रसंघ सड़ गए हैं. चूंकि इनकी कोई भूमिका ही नहीं बची तो ये अप्रासंगिक हो गए. एक ताकत के रूप में जो इनकी पहचान थी वह नष्ट हो गई. इनके नष्ट होने का दुष्परिणाम यह हुआ कि जो सुधार हो सकते थे, वे नहीं हुए. जैसे शिक्षा, रोजगार और सामाजिक स्तर पर सुधार में छात्र आंदोलन की अहम भूमिका हो सकती है, लेकिन अब वे उस योग्य नहीं रह गए हैं. सुधारों के लिए जो दबाव समूह चाहिए होता है, वह युवा पीढ़ी पैदा कर सकती है, लेकिन 1975 के बाद वैसे दबाव समूह का कोई उदाहरण नहीं है. हाल में जो दबाव समूह सामने आए वे एनजीओ से निकले या किसी अन्ना या केजरीवाल की ओर से. यहां छात्र नेतृत्वकारी भूमिका में नहीं रहे, वे पिछलग्गू बनकर रह गए. वे नेतृत्वकारी भूमिका में होते तो नया नेतृत्व उभरता. तब केजरीवाल नहीं होते. केजरीवाल एनजीओ से निकले और आंदोलन करके सरकार बना ली. उन्होंने छात्रसंघ भी बना लिया, लेकिन वे उसी काजल की कोठरी में प्रवेश कर गए, जहां बाकी दल पहले से थे. उनका संगठन उस हद तक जा रहा है, जहां पर भाजपा कांग्रेस के संगठन नहीं जा सकते थे.

इसलिए मैं कहता हूं कि छात्रसंघ अब प्रासंगिकता खो चुके हैं. कुछ कारण उनके खुद के पैदा किए हुए हैं, कुछ परिस्थिति के कारण ऐसा हुआ और कुछ वैश्विक प्रभाव में बदले हालात के कारण. जिन मुद्दों पर छात्रसंघ की सक्रियता जरूरी थी, वह अब बची ही नहीं. इसीलिए अब ऐसा कहीं नहीं है कि सुदामा और कृष्ण एकसाथ पढ़ेंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)