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क्यों न जाएं मंदिर में महिलाएं?

Photo by Srinivas Mangalapurapu
फोटोः एसके मोहन

केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी सदियों पुरानी रोक पर कानूनी लड़ाई शुरू हो गई है. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर संज्ञान लेते हुए मंदिर के ट्रस्ट से इस पाबंदी को हटा लेने के लिए कहा है. राज्य के दूसरे मंदिरों में भी माहवारी के दौरान महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर पाबंदी है, लेकिन सबरीमाला मंदिर में 10-50 की उम्र की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश करने पर पूरी तरह से रोक लगा रखी है.

जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच ने त्रावणकोर देवाश्वम बोर्ड के वकील केके वेणुगोपाल से पूछा है, ‘किस तर्क के आधार पर बोर्ड ने महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर रोक लगाई हुई है.’ बेंच ने यह भी कहा कि कोई भी मंदिर या इसका प्रशासनिक निकाय महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से नहीं रोक सकता क्योंकि यह उनका संवैधानिक अधिकार है. कोर्ट ने मंदिर की ओर से पेश होने वाले वकील से इस बाबत सबूत भी देने के लिए कहा कि मंदिर के पिछले 1500 वर्ष के इतिहास में एक भी महिला ने मंदिर में प्रवेश नहीं किया है.

मंदिर के वकील और कोर्ट की विशेष बेंच के बीच आधे घंटे की बहस में वेणुगोपाल ने कहा कि यह पाबंदी मंदिर की प्राचीन विशिष्ट प्रथा के आधार पर लगी हुई है. उन्होंने बताया कि कड़े प्रायश्चित के लिए भक्त 41 दिनों तक सादगी से जीवन जीने के लिए इस मंदिर में आते हैं. इस अवधि में उन्हें सांसारिक सुखों से दूर रहना होता है. इसके अलावा मंदिर के प्रमुख देवता अयप्पा सनातन संन्यासी हैं. बहरहाल कोर्ट ने सुनवाई की अगली तिथि 8 फरवरी दी है. कोर्ट ने अगली सुनवाई से पहले राज्य सरकार से इस बाबत नया शपथ-पत्र जमा करने के लिए भी कहा है.

सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को अनुमति देने के सवाल पर केरल में पिछले दो दशकों से बहस जारी है. तीर्थ यात्रा के हर सीजन में यह बहस परवान चढ़ती है और सीजन खत्म होते ही यह भी खत्म हो जाती है. पिछले सीजन में एक सरकारी बस में बैठे सबरीमाला के तीर्थयात्रियों ने एक महिला को बस में नहीं चढ़ने दिया. महिला की शिकायत के बाद अब केरल राज्य सड़क परिवहन निगम (केएसआरटीसी) ने दूसरे यात्रियों के साथ महिलाओं को भी विशेष सबरीमाला बसों में यात्रा करने की अनुमति दे दी है. गुरुवयूर मंदिर में गैर हिंदुओं का प्रवेश और सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश ये दो धार्मिक सवाल हैं, जिन पर पिछले कुछ वर्षों से लगातार बहस चल रही है.लगातार होने वाला यह बवाल पारंपरिक मान्यताओं तथा प्रगतिशील विचारों के बीच टकराव का परिणाम है.

सीपीएम के राज्य समिति सदस्य और पूर्व देवाश्वम मंत्री जी. सुधाकरण ने कहा, ‘आज के युग में इस तरह की प्रथा को जारी रखने का कोई मतलब नहीं है. इस संबंध में इंडियन यंग लॉयर एसोसिएशन ने जो याचिका दायर की है वह मेरे मंत्रीत्व में ही उनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट में जमा शपथ-पत्र पर आधारित है. उन्होंने यह शपथ-पत्र तब जमा किया जब 2006 में महिला वकीलों ने त्रावणकोर राजपरिवार की महिलाओं के मंदिर में जाने का पक्का सबूत देते हुए कोर्ट में सबरीमाला मंदिर की इस पाबंदी पर सवाल उठाए थे. इस पर कोर्ट ने राज्य सरकार का पक्ष तलब किया था.’

‘यह कहना बिलकुल वाहियात है कि मंदिर में बैठा एक देवता महिला की उपस्थिति में अपनी पवित्रता खो देगा. क्या वह देवता अपने ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखने में असमर्थ है’

सुधाकरण का यह भी कहना है, ‘अगर तीर्थयात्रा के दौरान महिलाओं के लिए सुरक्षा का सवाल कोई है तो उनके लिए विशेष समय नियत किया जाना चाहिए ताकि महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके. यह मसला एक या दो दिन में हल होने वाला नहीं है, क्योंकि इससे कई लोगों के हित प्रभावित होंगे. इसके लिए कोर्ट को समाजशास्त्री,  कानूनविद और वैदिक विशेषज्ञ को लेकर एक समिति तैयार करनी चाहिए.’

इस बीच राज्य सरकार ने कहा है कि वह भक्तों की आस्था की रक्षा के लिए नया शपथ-पत्र जमा करेगी. देवाश्वम मंत्री वीएस शिवकुमार का कहना है, ‘केरल की यूडीएफ सरकार की नीति मंदिर की उन परंपराओं और प्रथाओं की रक्षा करने के लिए है जो सदियों से चली आ रही हैं. जब हम शपथ-पत्र जमा करेंगे तो हम लोगों की आस्था और परंपरा को ध्यान में रखेंगे.’

त्रावणकोर देवाश्वम बोर्ड (टीडीबी) का कहना है, ‘सदियों से सबरीमाला में चली आ रही परंपरा को बदलने का उनका कोई इरादा नहीं है.’ टीडीबी के अध्यक्ष प्रयार गोपालकृष्णन का कहना है, ‘पूर्व की एलडीएफ (लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट) सरकार सुप्रीम कोर्ट के इस प्रकार के अवलोकन के लिए जिम्मेदार है. पूर्व सरकार द्वारा जमा किया गया यह शपथ-पत्र गलत था, जिसकी वजह से यह स्थिति पैदा हुई. कोर्ट ने मंदिर की परंपरा के आधार और मंदिर के देवता की विशिष्टता को बिना समझे अपना वक्तव्य दिया है.’

गोपालकृष्णन यह भी साफ करते हैं, ‘टीडीबी भक्तों के हित में केस लड़ेगा. मंदिर की प्रथाएं सदियों से चली आ रही परंपरा का हिस्सा हैं. टीडीबी का यह कर्तव्य है कि वह किसी भी कीमत पर इनकी रक्षा करे.’ शिवकुमार और गोपालकृष्णन के तर्कों को सुधाकरण खारिज कर देते हैं. वे कहते हैं, ‘यह फैसला लेने वाले वे दोनों कौन होते हैं? यह बेवकूफी है. महिलाओं को उनके मौलिक अधिकारों से कोई वंचित नहीं कर सकता. इसके अलावा सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश करने के कई उदाहरण हैं.’

स्कूल ऑफ भगवद्गीता के संस्थापक स्वामी संदीपानंदगिरि का कहना है, ‘तर्क दिया जा रहा है कि यह हिंदू आस्था के खिलाफ है. यह कहना बिलकुल वाहियात है कि मंदिर में बैठा एक देवता महिला की मौजूदगी में अपनी पवित्रता खो देगा. क्या वह देवता अपने ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखने में असमर्थ है और लालसाओं से मुक्त नहीं हुआ है? अगर महिलाओं की इच्छा है तो उन्हें मंदिर में जाने देना चाहिए.’ सुधाकरण मंदिर से जुड़े पुजारियों की भी आलोचना करते हुए कहते हैं कि पैसा उनकी प्राथमिकता है, भक्तों का कल्याण नहीं. वहीं प्रसिद्ध कवियत्री और पर्यावरणविद सुगाथा कुमारी का कहना है, ‘मैं सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को अनुमति देने के किसी भी फैसले का विरोध करूंगी. हमें कुछ परंपराओं का सम्मान करना ही चाहिए और महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में जाने की कोई जरूरत नहीं है. पहाड़ से नीचे भी बहुत से अयप्पा मंदिर हैं, वे वहां जा सकती हैं और पूजा कर सकती हैं.’

इस बीच एक माह पूर्व गोपालकृष्णन द्वारा दिए गए विवादित वक्तव्य की प्रतिक्रिया में ‘हैप्पी टू ब्लीड’ अभियान की शुरुआत करने वाली निकिता आजाद ने तहलका से बातचीत में कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट का वक्तव्य वाकई प्रशंसनीय है. कोर्ट के वक्तव्य ने हमारे अभियान में जान फूंक दी है और मैं वकीलों को धन्यवाद कहना चाहूंगी जिन्होंने यह याचिका कोर्ट में दायर की है. मुझे लगता है कि इससे माहवारी के समय महिलाओं के मंदिरों में प्रवेश करने के विषय पर चर्चा को बढ़ावा मिलेगा.’

वह कहती हैं, ‘सारे देश और विशेषकर केरल के युवाओं ने हमारे अभियान को शानदार प्रतिक्रिया दी. अभियान ने इस बहस को लोकतांत्रिक बनाने में मदद की है. यह अभियान और वकीलों का दृढ़ निश्चय था जिसने इस बहस को आगे बढ़ाया.’

हिंदू ऐक्यवेदी संगठन के राज्य महासचिव आरवी बाबू कहते हैं, ‘यह मसला हिंदू धर्म का आंतरिक मसला है और इससे हिंदू भावनाओं को चोट पहुंचने की संभावना है, इसलिए कोर्ट को इस मामले में दखल नहीं देना चाहिए था. बेहतर हो कि पुजारी और मंदिर प्राधिकारी इस बारे में फैसला करें.’ उनका कहना है हिंदू ऐक्यवादी संगठन को बदलते समय के अनुसार प्रथाओं और कर्मकांडों में बदलाव लाने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन ऐसा विचार-विमर्श के बाद ही होना चाहिए.

इस बीच भाजपा की ओर से सधा हुआ बयान आया है. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष कुम्मनम राजशेखरण ने कहा है, ‘बेहतर होगा कि मंदिर की प्रथाओं पर फैसला लेने का अधिकार धार्मिक विद्वानों पर छोड़ दिया जाए और कोर्ट केवल अवलोकन करे.’

‘मैं लेखक बनना चाहता था, लेकिन सिर्फ यह खत लिख सका’

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गुड मॉर्निंग

जब आप यह खत पढ़ रहे होंगे, तब मैं आपके पास नहीं होऊंगा. मुझसे नाराज मत होइएगा. मैं जानता हूं, आप में से कई लोग मुझे दिल से चाहते हैं, प्यार करते हैं और मेरा ख्याल रखते रहे हैं. मुझे किसी से शिकायत नहीं है. मुझे हमेशा खुद से समस्याएं रही हैं. मैं अपनी आत्मा और अपने शरीर के बीच के फासले को बढ़ता हुआ महसूस कर रहा हूं. मैं एक राक्षस बन गया हूं. मैं हमेशा से एक लेखक बनना चाहता था. कार्ल सेगन जैसा विज्ञान का लेखक. हालांकि अंत में, मैं सिर्फ यह खत ही लिख पा रहा हूं.

मैंने विज्ञान से, सितारों से और प्रकृति से प्यार किया, लेकिन यह जाने बगैर कि लोग कब का प्रकृति का साथ छोड़ चुके हैं. हमारी भावनाएं दोयम दर्जे की हैं. हमारा प्यार बनावटी है. हमारी मान्यताएं झूठी हैं. हमारी मौलिकताएं कृत्रिम हैं. वास्तव में अब यह असंभव हो गया कि बिना दुख पहुंचाए‌ किसी को प्यार किया जा सके.

एक इंसान की कीमत उसकी पहचान एक वोट… एक संख्या… एक वस्तु तक सिमट कर रह गई है. कोई भी क्षेत्र हो, अध्ययन में, राजनीति में, मरने में, जीने में, कभी भी एक व्यक्‍ति को उसकी बुद्धिमत्ता से नहीं आंका गया.

इस तरह का खत मैं पहली दफा लिख रहा हूं. आखिरी खत लिखने का यह मेरा पहला अनुभव है. अगर यह कदम सार्थक न हो पाए तो मुझे माफ कीजिएगा.

हो सकता है इस दुनिया, प्यार, दर्द, जिंदगी और मौत को समझ पाने में, मैं गलत था. कोई जल्दी नहीं थी, लेकिन मैं हमेशा जल्दबाजी में रहता था. एक जिंदगी शुरू करने की हड़बड़ी में था. इसी क्षण में, कुछ लोगों के लिए जिंदगी अभिशाप है. मेरा जन्म मेरे लिए एक घातक हादसा है. अपने बचपन के अकेलेपन से मैं कभी उबर नहीं सका. अतीत का एक क्षुद्र बच्चा.

इस वक्त मैं आहत नहीं हूं… दुखी नहीं हूं, मैं बस खाली हो गया हूं. अपने लिए भी बेपरवाह. यह दुखद है और इसी वजह से मैं ऐसा कर रहा हूं. लोग मुझे कायर कह सकते हैं और जब मैं चला जाऊंगा तो स्वार्थी, या मूर्ख भी समझ सकते हैं. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे क्या कहा जा रहा है. मैं मौत के बाद की कहानियों… भूतों या आत्माओं पर विश्वास नहीं करता. अगर किसी बात पर मैं विश्वास करता हूं तो वह यह है कि मैं अब सितारों तक का सफर कर सकता हूं. और दूसरी दुनिया के बारे में जान सकता हूं.

जो भी इस खत का पढ़ रहे हैं, अगर आप मेरे लिए कुछ कर सकते हैं, तो मुझे सात महीने की फेलोशिप‌ मिलनी बाकी है जो एक लाख और 75 हजार रुपये है, कृपया ये कोशिश करें कि वह मेरे परिवार को मिल जाए. मुझे 40 हजार रुपये के करीब रामजी को देना है. उसने कभी इन पैसों को मुझसे नहीं मांगा, मगर कृपा करके ये पैसे उसे दे दिए जाएं.

मेरी अंतिम यात्रा को शांतिपूर्ण और सहज रहने दें. ऐसा व्यवहार करें कि लगे जैसे मैं आया और चला गया. मेरे लिए आंसू न बहाएं. यह समझ लें कि जिंदा रहने की बजाय मैं मरने से खुश हूं.

‘परछाइयों से सितारों तक’

उमा अन्ना, मुझे माफ कीजिएगा कि ऐसा करने के लिए मैंने आपके कमरे का इस्तेमाल कर रहा हूं.
एएसए (आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोशिएशन) परिवार के लिए, माफ करना मैं आप सबको निराश कर रहा हूं. आपने मुझे बेहद प्यार किया. मैं उज्ज्वल भविष्य के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं दे रहा हूं.

आखिर बार के लिए

जय भीम

मैं औपचारिकताएं पूरी करना भूल गया. मेरी खुदकुशी के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है.

किसी ने ऐसा करने के लिए मुझे उकसाया नहीं किया, न तो अपने शब्दों से और न ही अपने काम से.

यह मेरा फैसला है और मैं अकेला व्यक्ति हूं, जो इस सबके लिए जिम्मेदार है.

कृपया मेरे जाने के बाद, इसके लिए मेरे मित्रों और शत्रुओं को परेशान न किया जाए.

‘रोहित ने आत्महत्या नहीं की, हमारी व्यवस्‍था ने उसे मार डाला’

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हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या करने से पहले जो पत्र लिखा उसमें उन्होंने खालीपन के अहसास को आत्महत्या जैसा कदम उठाने का कारण माना है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ब्राह्मणवादी करतूतों का विरोध करते हुए खालीपन के अहसास से भर जाना बहुत बड़ी त्रासदी है. यह हमारी सामूहिक त्रासदी है. रोहित जैसे न जाने कितने लोग व्यवस्था के खिलाफ लड़ते हुए इस खालीपन से भर जाते हैं. यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे हम देखकर भी अनदेखा कर देते हैं. रोहित को याद करने और उनकी स्मृति को सम्मान देने का सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि हम इस खालीपन को भरने के लिए एक-दूसरे के करीब बने रहें. कमियों की अनदेखी करके संवाद बनाए रखने की कोशिश करें.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों की जनविरोधी विचारधारा और पूंजीवाद की विचारहीनता ने हमारे देश के माहौल को इतना जहरीला बना दिया है कि बदलाव की छोटी-मोटी कोशिशें अपने छोटे दायरे में ही दम तोड़ देती हैं. अगर प्रगतिशील ताकतों में एकजुटता रहे तो यह छोटा दायरा बड़ा भी हो सकता है.
रोहित के लिए अपने संघर्ष को जारी रखना कितना मुश्किल बना दिया गया था इसे समझने के लिए उस मामले को ठीक से समझना होगा जिसने अंत में रोहित की जान ले ली. पिछले साल अगस्त में दिल्ली विश्‍वविद्यालय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्यों और अन्य हिंदूवादी संगठनों के सदस्यों ने हिंसा की धमकी देकर ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ नाम की डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग रोक दी थी. भारतीय लोकतंत्र के लिए यह बहुत शर्मनाक घटना थी. जब देश की राजधानी में ऐसा हो सकता है तो दूसरी जगहों पर क्या-क्या हो सकता है इसकी कल्पना करके ही दिल भय और निराशा से भर जाता है. हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में इस घटना का विरोध हुआ और बाद में इस कैंपस में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक सदस्य ने रोहित और दूसरे छात्रों पर हिंसा का आरोप लगाया. जांच-पड़ताल के बाद यह आरोप झूठा सिद्ध हुआ. लेकिन इसके बाद कुछ ऐसा हुआ जो हमारे देश की ब्राह्मणवादी व्यवस्था की मानसिक गंदगी और कुटिलता को हमारे सामने लाता है.

भयानक गरीबी का सामना करते हुए उच्च शिक्षा तक पहुंचने वाले इन छात्रों ने ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया था जिसके लिए उन्हें इतनी बड़ी सजा दी गई? यह अपराध था अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की हिंसात्मक और अलोकतांत्रिक गतिविधियों का विरोध करना

भाजपा विधायक रामचंद्र राव ने इस मामले में ‘दोषियों’ को सजा दिलाने की मुहिम छेड़ दी. बंडारू दत्तात्रेय ने तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय को पत्र लिखकर ‘राष्ट्रविरोधी’ छात्रों को सजा दिलवाने की मांग की थी. पुराने वीसी के कार्यकाल में प्रशासन ने मेडिकल रिपोर्ट में मारपीट की बात के गलत साबित होने के बावजूद भाजपा के दबाव में रोहित और चार दूसरे दलित छात्रों को निलंबन की सजा दे दी. बाद में जब विद्यार्थियों ने इस सजा का जोरदार विरोध किया तो यह सजा वापस ले ली गई और नई जांच समिति गठित करने की घोषणा की गई. नए वीसी ने इस समिति को भंग करके नई समिति बनाई जिसने संबंधित पक्षों से पूछताछ किए बिना रोहित और उनके चार साथियों के हॉस्टल, प्रशासनिक भवन समेत मेस, लाइब्रेरी जैसी सार्वजनिक जगहों पर जाने पर पाबंदी लगा दी.

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आप रोहित के रूप में एक व्यक्ति को एक तरफ रखिए और दूसरी तरफ हमारे शासन तंत्र को. हमें रोहित की आत्महत्या को सही राजनीतिक संदर्भों में देखना होगा. जब आपको इस बात का अहसास हो जाए कि पूरा तंत्र आपके खिलाफ खड़ा है तो आप क्या महसूस करेंगे? इस पाबंदी को कैंपसों में जाति प्रथा लागू करने के उदाहरण के तौर पर ही देखा जाना चाहिए. चार दलित छात्रों के पिता खेतिहर मजदूर हैं. एक के माता-पिता गुजर चुके हैं. भयानक गरीबी का सामना करते हुए उच्च शिक्षा तक पहुंचने वाले इन छात्रों ने ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया था जिसके लिए उन्हें इतनी बड़ी सजा दी गई? यह अपराध था अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की हिंसात्मक और अलोकतांत्रिक गतिविधियों का विरोध करना. हम भारत के शिक्षा संस्थानों के भगवाकरण को रोकने में नाकामयाब हो रहे हैं. रोहित इस सामूहिक नाकामयाबी से उपजी निराशा से उबरने की कोशिश कर रहे थे.
उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण लागू होने के बाद अनुसूचित जाति-जनजाति और ओबीसी के विद्यार्थियों की मौजूदगी बढ़ी है. हालांकि जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से यह मौजूदगी संतोषप्रद नहीं है, लेकिन असमानता और शोषण को ही जीवन मूल्य मानने वाले लोग इस बदलाव से न केवल चिढ़ते हैं बल्कि इस प्रक्रिया को रोकने के लिए कोई भी कदम उठाने को तैयार रहते हैं. जब हैदराबाद केंद्रीय विश्‍वविद्यालय कैंपस में पानी की दिक्कत चल रही थी तब इस कैंपस के सौंदर्यीकरण के नाम पर फव्वारे लगाए गए. यही हाल तमाम दूसरे कैंपसों का है. रोहित को सात महीने से फेलोशिप नहीं मिली थी. उन्होंने आत्महत्या से पहले लिखे अपने पत्र में इस पैसे को अपने घरवालों तक पहुंचाने का अनुरोध किया है. पैसे की यह दिक्कत उन लाखों विद्यार्थियों को होती है जो तमाम असुविधाओं का सामना करते हुए अपनी पढ़ाई जारी रखते हैं. यूजीसी ने फेलोशिप बंद करने का जो फैसला सुनाया है उसका सबसे खराब असर दलितों और महिलाओं पर पड़ेगा.

हम अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की हिंसक गतिविधियों को तो फिर भी देख लेते हैं लेकिन उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बौद्धिक हिंसा पर उतना ध्यान नहीं दे पाते जितना देना चाहिए. जब 2011 में एके रामानुजम के प्रसिद्ध निबंध ‘300 रामायणें : पांच उदाहरण और अनुवाद पर तीन विचार’ को दिल्ली विश्‍वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम से हटाया गया तब यही हिंसा काम कर रही थी. वेंडी डोनिगर की हिंदुओं पर लिखी किताब को नष्ट करवाने वाली हिंसा भी हमारी चिंता के दायरे में होनी चाहिए. यही हिंसा दीनानाथ बत्रा जैसे लोगों को बौद्धिकता का तमगा देकर रोमिला थापर के सामने खड़ा कर देती है. इस बौद्धिक हिंसा की काट ढूंढ़े बिना रोहित जैसे लोगों का संघर्ष हर दिन ज्यादा जटिल और कठिन होता जाएगा. तमाम शिक्षा संस्थानों में अयोग्य दक्षिणपंथियों को बड़े पदों पर बैठाना भी इसी हिंसा का हिस्सा है. यही लोग रोहित जैसे साथियों की जिंदगी को इतना बोझिल और कष्टप्रद बना देते हैं कि उन्हें आत्महत्या का विकल्प चुनना पड़ता है.

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अभी यह खबर मिली है कि हैदराबाद केंद्रीय विश्‍वविद्यालय में रोहित के शव के इर्द-गिर्द खड़े प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने बेरहमी से पीटा है और आठ विद्यार्थियों को गिरफ्तार किया गया है. दिल्ली में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सामने विरोध-प्रदर्शन कर रहे लोगों पर वाटर कैनन से पानी डाला गया है. जनवरी की ठंड में पुलिस की लाठी-ठंडे और पानी का सामना करते हुए कैंपसों के भगवाकरण का विरोध कर रहे ये लोग ही हमारे लोकतंत्र के असली पहरेदार हैं. जो जैसा चल रहा है उसे वैसा ही चलने दो, इस मानसिकता ने हमारे देश को दलितों, स्त्रियों, मजदूरों आदि के लिए खुली जेल बना दिया है. एक तरफ इस जेल के कैदी आत्महत्या कर रहे हैं तो दूसरी तरफ वैश्विक पूंजी के बाजार में हमारे देश को विश्व की उभरती ताकत के रूप में पेश किया जा रहा है. इस बौद्धिक अश्लीलता पर जितनी जल्दी रोक लगे उतना अच्छा होगा.

‘हमें हथियार बनाना आता है फिर भी नौकरी नहीं मिली’

Trade Apprentice Protest web
Photo- Amarjeet Singh

कौन: ऑर्डिनेंस फैक्ट्री के हजारों पूर्व प्रशिक्षु

कब: दिसंबर, 2015 से

कहां: जंतर मंतर, दिल्ली 

क्यों

‘मैंने ऑर्डिनेंस फैक्ट्री में प्रशिक्षण देश सेवा के लिए लिया था. मेरा मानना है कि सेना के लिए हथियार बनाने वाली इन फैक्ट्रियों का महत्व सीमा पर लड़ने वाले सैनिकों जितना ही है.’ ये कहना है नवनिर्मित राज्य तेलंगाना के मेंढक जिले के क्रांति कुमार का. क्रांति ने फिटर ट्रेड से मार्च 2013 में अपना प्रशिक्षण पूरा किया गया था. उनकी फैक्ट्री में सारथ टैंकर के पुर्जे बनते थे. लेकिन नौकरी न मिलने के चलते बीएससी की पढ़ाई पूरी कर चुके क्रांति वेब डिजाइनर का काम कर रहे हैं. इतने समय से दिल्ली में रहने के चलते अब वह अच्छी हिंदी भी बोलने लगे हैं. वे आगे बताते हैं, ‘अगर हम जैसे युवा इन फैक्ट्रियों में काम करके सेना के लिए गोला-बारूद समेत अन्य हथियार नहीं बनाएंगे तो हमारे सैनिक आपात स्थिति में युद्ध कैसे लड़ेंगे लेकिन अब ये सारी बातें सिर्फ सपना लगती हैं. खुली भर्ती होने के बाद से भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है. कई खुली भर्तियों पर सीबीआई जांच चल रही हैं. पुणे के देबू रोड स्थित ऑर्डिनेंस फैक्ट्री में 203 लोगों का चयन खुली भर्ती के तहत किया गया था. इसमें से 41 एक ही गांव के थे. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि खुली भर्ती में किस तरह भ्रष्टाचार हो रहा है. ऐसे में हमारे सामने सिर्फ प्रदर्शन का ही रास्ता बचता है.’ क्रांति कुमार करीब पिछले डेढ़ महीने से दिल्ली के जंतर-मंतर पर ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियों द्वारा प्रशिक्षित किए गए हजारों पूर्व प्रशिक्षुओं के साथ धरने पर बैठे हुए हैं. ये सारे लोग अप्रेंटिस (संशोधन) एक्ट-1961 की धारा-22 के तहत अप्रेंटिस भर्ती पॉलिसी लागू करने के लिए अनिश्चितकालीन धरने पर हैं. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (पीएमएसडीएस) के तहत अप्रेंटिस एक्ट-1961 की धारा 22 की उपधारा 1 में संशोधन किया. इस अधिनियम की धारा 22 में यह साफ लिखा है कि प्रत्येक नियोक्ता ऐसे प्रशिक्षु को, जिसने उसके संस्थान में प्रशिक्षुता प्रशिक्षण लिया है, ऐसे प्रशिक्षुओं को भर्ती करने के लिए अपनी स्वयं की नीति तैयार करेगा. गौरतलब है कि लोकसभा ने 14 अगस्त, 2014 और राज्यसभा ने 26 नवंबर, 2014 को अप्रेंटिस (संशोधन) एक्ट-1961 को पारित कर दिया था. यहां तक कि राष्ट्रपति ने भी इस एक्ट पर हस्ताक्षर कर दिए हैं. इसके बाद इसे गजट में प्रकाशित भी किया गया, लेकिन एक्ट में संशोधन के बाद एक साल का समय गुजर चुका है, पर अब तक इस संबंध में ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड कोलकाता एक्स ट्रेंड अप्रेंटिसों को नौकरी मुहैया कराने से संबंधित नीति नहीं बना सकी है. इस मामले को लेकर सारी प्रक्रिया बहुत ही धीमी गति से चल रही है और सरकार द्वारा कानून में संशोधन के बावजूद अब भी सीधी भर्तियां निकल रही हैं. ऐसे में प्रशिक्षण पूरा कर चुके क्रांति जैसे युवा रोजगार के वैकल्पिक माध्यमों से अपना जीवन निर्वाह कर रहे हैं. प्रदर्शन कर रहे पूर्व प्रशिक्षु सत्येंद्र सिंह कहते हैं, ‘यह पहली बार नहीं है जब खुली भर्ती का विरोध करते हुए ऑर्डिनेंस फैक्ट्री के पूर्व प्रशिक्षु धरने पर बैठे हैं. हम इससे पहले पिछले साल 27 जुलाई को जंतर-मंतर पर चार दिन तक धरने पर बैठ चुके हैं. तब जल्द समाधान के आश्वासन के बाद हमने अपना धरना खत्म कर दिया था लेकिन इसके बाद भी छह माह का वक्त गुजर गया है और किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी है. इसलिए अब हमें अनिश्चितकाल के लिए धरने पर बैठना पड़ा है. हम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, कौशल विकास मंत्री सभी के सामने गुहार लगा चुके हैं, लेकिन अब तक आश्वासन के अलावा कुछ और हासिल नहीं हुआ है.’ मजेदार बात यह है कि जो युवक खुली भर्ती के जरिए रोजगार हासिल करते हैं, उन्हें फैक्ट्री में दोबारा उतना ही प्रशिक्षण दिया जाता है जितना पहले प्रशिक्षुओं को दिया जा चुका है. इसके अलावा प्रशिक्षुओं को प्रशिक्षण के दौरान स्टाइपेंड दिया जाता था, लेकिन जिन अप्रशिक्षित लोगों को नियुक्ति दी जाती है उन्हें प्रशिक्षण के दौरान पूरी तनख्वाह दी जाती है. अब इस दौरान वे कितना गुणवत्तापूर्ण कार्य कर पाते हैं यह देखने वाली बात होगी, लेकिन एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि इस पूरी प्रक्रिया में सरकार के पैसे और संसाधनों की बर्बादी होती है. वैसे साल 2010 से पहले ऐसे वरिष्ठता के आधार पर ऐसे प्रशिक्षुओं को ऑर्डिनेंस फैक्ट्री में नियुक्ति दी जाती थी, लेकिन साल 2010 में संप्रग सरकार के दौरान इसमें बदलाव कर दिया गया और ऐसी नियुक्तियां खुली भर्ती परीक्षा के जरिए होने लगीं. प्रदर्शन कर रहे युवाओं में से एक प्रशांत कुमार कहते हैं, ‘हमें हथियार बनाना सिखाया गया लेकिन नौकरी नहीं दी गई है. यहां प्रदर्शन कर रहे हर युवक को अलग-अलग तरह के हथियार बनाने की ट्रेनिंग दी गई है. कोई आरडीएक्स का काम जानता है तो तो कोई पिस्तौल बनाना जानता है. किसी को बारूद, किसी को गोली तो किसी को बम शेल बनाना आता है. हालांकि किसी एक को यह काम पूरी तरह नहीं आता है लेकिन सभी मिलकर इस तरह का काम कर सकते हैं. हमारे देश में निजी क्षेत्र में यह काम इतना नहीं होता है कि हमें बाहर नौकरी मिल सके. हमने अपने जीवन के दो-तीन साल ऐसे काम में लगा दिए हैं, जिसका बाहर कोई महत्व ही नहीं है. ऐसे में हमारे पास सरकार से अपनी मांगे मनवाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है.’

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ऐसे होती है ऑर्डिनेंस फैक्ट्री में प्रशिक्षुओं की नियुक्ति

हाईस्कूल या आईटीआई की परीक्षा पास करने के बाद प्रतियोगी परीक्षा के जरिये ऑर्डिनेंस फैक्ट्री में प्रशिक्षुओं की नियुक्ति होती है. आईटीआई करके आए प्रशिक्षुओं को एक साल और हाईस्कूल पास करके आने वाले प्रशिक्षुओं को तीन साल गोले, हथियारों के पार्ट्स, नाइट विजन डिवाइस, हथियार, बारूद, आरडीएक्स, टैंक और मिसाइल के पार्ट बनाने जैसे कई कार्यों से संबंधित प्रशिक्षण दिया जाता है. प्रशिक्षण पूरा करने के बाद प्रशिक्षु को राष्ट्रीय प्रशिक्षुता प्रमाण-पत्र (नेशनल अप्रेंटिसशिप सर्टिफिकेट) परीक्षा में बैठना होता है. परीक्षा पास करने के लिए प्रशिक्षु को तीन मौके दिए जाते हैं. किसी भी प्रयास में परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों को श्रम एवं रोजगार मंत्रालय राष्ट्रीय प्रशिक्षुता प्रमाण-पत्र प्रदान करता है.

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देश भर में इस तरह के प्रशिक्षुओं की संख्या लगभग 8 से 10 हजार है, जिसमें ज्यादातर लोग बेरोजगार हैं. कुछ प्रशिक्षु नक्सल प्रभावित आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के हैं. यदि ऐसे प्रशिक्षु बेरोजगारी की वजह से असामाजिक तत्वों के बहकावे में आ जाएं तो सरकार के लिए एक नई समस्या खड़ी हो जाएगी. असामाजिक तत्वों को इन युवाओं को प्रशिक्षण भी नहीं देना होगा क्योंकि हमारी सरकार ने इन लोगों को प्रशिक्षण देकर बेरोजगार छोड़ दिया है. धरने पर बैठे इन प्रशिक्षुओं का मामला संसद में भी उठ चुका है. हाल ही में महाराष्ट्र के रावेर से भाजपा सांसद रक्षा खड़से ने ये मामला सदन में उठाया. इसके पहले 16 मार्च, 2015 को श्रम और रोजगार राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बंडारु दत्तात्रेय ने लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित जवाब में बताया था कि प्रशिक्षु (अप्रेंटिस) अधिनियम, 1961 में संशोधन किया गया है व इसे 22 दिसंबर, 2014 से प्रभावी किया गया है. अधिनियम में संशोधन किए जाने से पहले प्रतिष्ठानों के लिए नियमित रोजगार के लिए अपने कम से कम 50 प्रतिशत प्रशिक्षुओं को काम पर रखना अनिवार्य  नहीं था. संशोधन के बाद अधििनयम में यह प्रावधान है कि हर नियोक्ता किसी ऐसे प्रशिक्षु, जिसने उसके प्रतिष्ठान में शिक्षुता प्रशिक्षण की अवधि पूरी कर ली है, की भर्ती हेतु अपनी स्वयं की नीति बनाएगा. हालांकि इसके बाद भी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है और प्रशिक्षु अब भी जंतर मंतर पर बैठे हुए हैं. कौशल विकास और उद्यमशीलता प्रशिक्षण महानिदेशालय ने सूचना के अधिकार के तहत दी जानकारी में बताया कि प्रशिक्षु अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए पहले श्रम एवं रोजगार मंत्रालय जिम्मेदार था, अब इसकी जिम्मेदारी कौशल विकास एवं उद्यमशीलता मंत्रालय के पास है. यह जानकारी 12 जून, 2015 को दी गई थी. धरने पर बैठने के बाद प्रशिक्षुओं ने 7 दिसंबर, 2015 को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री को पत्र लिखे. इसके संबंध में प्रधानमंत्री कार्यालय से 10 दिसंबर को उचित कार्रवाई करने संबंधी जवाब आया लेकिन इसके एक माह बाद भी स्थिति जस की तस है. प्रशिक्षुओं का धरना जारी है. रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने पांच जनवरी, 2016 को इन प्रशिक्षुओं से मिलने का वक्त दिया था लेकिन पठानकोट आतंकी हमले की वजह से यह मुलाकात भी स्थगित हो गई.

तमिलनाडु में जल्लीकट्टू पर रोक जारी

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सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगा दिए जाने के चलते तमिलनाडु में पारंपरिक त्योहार पोंगल के दौरान खेले जाने वाला जल्लीकट्टू खेल नहीं हो पाया. राज्य में जल्लीकट्टू पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद चार साल से पाबंदी थी. लेकिन गत आठ जनवरी को नरेंद्र मोदी सरकार ने अधिसूचना जारी करते हुए कुछ नियमों के साथ इस खेल पर लगी पाबंदी हटा दी थी. इसके खिलाफ भारत पशु कल्याण समिति, पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (पेटा) और एक गैर-सरकारी संस्था की ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गई थी. जिस पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय और तमिलनाडु सरकार के इस अनुरोध को ठुकरा दिया कि जल्लीकट्टू प्राचीन परंपरा व संस्कृति का हिस्सा है और इसे नहीं रोका जाना चाहिए क्योंकि सरकार की अधिसूचना में सुरक्षा के पर्याप्त प्रावधान हैं. हालांकि इस फैसले के बाद से राज्य में जल्लीकट्टू के समर्थकों द्वारा विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शन भी किया गया.

जल्लीकट्टू तमिलनाडु में पोंगल के त्योहार के हिस्से के तौर पर मट्टू पोंगल के दिन आयोजित किया जाता है . केंद्र सरकार द्वारा जारी अधिसूचना में कहा गया था कि समुदाय के रीति-रिवाजों या परंपराओं के तहत तमिलनाडु में जल्लीकट्टू और महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा में बैलगाड़ी दौड़ जैसे कार्यक्रमों में सांड़ों को प्रदर्श पशु (परफॉर्मिंग एनिमल) के तौर पर प्रदर्शित या प्रशिक्षित करना जारी रखा जा सकता है. दरअसल तमिलनाडु में कुछ ही महीने में विधानसभा चुनाव होने हैं और जानकारों का मानना है कि संभवतः चुनाव के मद्देनजर केंद्र सरकार ने यह फैसला किया था.

फसल बीमा योजना

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क्या है योजना?

देश में लगातार दो साल से सूखे की स्थिति के बीच केंद्र सरकार ने एक नई फसल बीमा योजना को मंजूरी दी है. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के जरिये अब किसान कम प्रीमियम देकर फसल बीमा का पूरा लाभ उठा सकते हैं. यह बहु-प्रतीक्षित योजना इस साल खरीफ सत्र से लागू होगी. नई योजना मौजूदा राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (एनएआईएस) और परिवर्तित एनएआईएस की जगह लेगी. इनमें कुछ खामियां थीं, जिसे इस योजना के जरिये दूर करने की कोशिश सरकार ने की है. फसल बीमा को व्यापक बनाते हुए इसमें खेत में फसलों की बुवाई से लेकर खलिहान तक को समेट लिया गया है. भारतीय कृषि बीमा कंपनी लिमिटेड के साथ निजी बीमा कंपनियां इस योजना का कार्यान्वयन करेंगी.

कितना प्रीमियम भरेंगे किसान?

अनाज एवं तिलहन फसलों के बीमा के लिए अधिकतम दो प्रतिशत प्रीमियम रखा गया है. बागवानी व कपास की फसलों के लिए अधिकतम पांच प्रतिशत प्रीमियम रखा गया है. रबी के अनाज एवं तिलहन फसलों के लिए डेढ़ प्रतिशत, जबकि खरीफ के अनाज तथा तिलहन के लिए दो प्रतिशत प्रीमियम राशि देनी होगी. बाकी प्रीमियम केंद्र और राज्य सरकारें बराबर-बराबर देंगी. कम से कम 25 प्रतिशत क्लेम राशि सीधे किसानों के बैंक खाते में आएगी. शेष राशि भी 90 दिनों के भीतर मिल जाएगी. अभी कर्ज लेने वाले किसानों के लिए फसल बीमा लेना जरूरी है. नई योजना सभी किसानों के लिए होगी. इतना ही नहीं प्राकृतिक आपदा की वजह से बुवाई न होने पर भी किसानों को बीमा राशि मिलेगी. फसल कटने के 14 दिन तक अगर फसल खेत में है और कोई आपदा आती है तो नुकसान होने पर बीमा का लाभ मिलेगा. योजना पर साल में 17,600 करोड़ रुपये खर्च आने का अनुमान है. इसमें से 8,800 करोड़ रुपये केंद्र सरकार देगी, जबकि इतनी ही राशि राज्य सरकारें देंगी.  

नई योजना का क्या है दावा?

नई फसल बीमा योजना से दावा किया रहा है कि जोखिम वाली खेती पूरी तरह सुरक्षित हो जाएगी. योजना से देश के कम से कम आधे इलाके की फसलों को कवरेज मिलने की उम्मीद है. इसका ज्यादा फायदा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड, विदर्भ, मराठवाड़ा और तटीय क्षेत्रों के किसानों को मिलेगा. इसके अलावा अभी तक सरकारी सब्सिडी की ऊपरी सीमा तय होती थी. इसके चलते किसानों के नुकसान की पूरी भरपाई नहीं हो पाती थी. इन बीमा योजना में पूरी बीमित राशि किसानों को दी जाएगी. इसके कारण सरकार ने फसल बीमा को मौजूदा 23 फीसद रकबे से बढ़ाकर 50 फीसद तक पहुंचाने का लक्ष्य तय किया है. 

महबूबा अगर विधायक दल की नेता बनती हैं तो भाजपा समर्थन करेगी : राम माधव

Mahbooba Mufti by Shailendraweb

मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद जम्मू-कश्मीर सरकार के फिर से गठन को लेकर लग रही तमाम अटकलों के बीच भाजपा ने कहा है कि पिछले 8-9 महीने से जिस व्यवस्था के तहत सरकार चल रही थी, भाजपा उसी के साथ आगे बढ़ना चाहेगी. यानी अगर पीडीपी महबूबा मुफ्ती को विधायक दल का नेता चुनती है तो भाजपा उनका समर्थन करेगी.

भाजपा ने राज्य में किसी भी नए या पुराने गठबंधन की सरकार बनाने की कोशिशों को सिरे से खारिज करते हुए कहा है कि मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद उनका परिवार शोक में था, इ​सलिए कोई भी राजनीतिक चर्चा हुई ही नहीं है. आगे जो भी होना है, उसकी शुरुआत पीडीपी को करनी है. भाजपा पीडीपी की पहलकदमी का इंतजार कर रही है.

भाजपा महासचिव राम माधव ने सोमवार सुबह ‘तहलका’ को बताया बताया, ‘मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद भाजपा समेत सभी दलों के नेता पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती से मिलने जरूर गए, लेकिन ये मुलाकातें संभवत: शोक संवेदना व्यक्त करने के क्रम में थीं.’ कांग्रेस के साथ मिलकर पीडीपी के सरकार बनाने की अटकलों को खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि अब तक किसी तरह की राजनीतिक चर्चा की शुरुआत नहीं हुई है. फिलहाल राज्य में राज्यपाल शासन है. राम माधव ने बताया, ‘सरकार के गठन को लेकर प्रक्रिया आज से शुरू होगी, जिसके अंजाम तक पहुंचने में एक दिन भी लग सकता है या एक सप्ताह, इस बारे में अभी ठीक-ठीक कुछ कहा नहीं जा सकता.’

रविवार को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और भाजपा नेता नितिन गडकरी ने मह​बूबा मुफ्ती से मुलाकात की थी. इस मुलाकात को राजनीतिक रूप से अहम माना जा रहा है, क्योंकि अब तक न तो पीडीपी की तरफ से विधायक दल का नेता चुना गया है, न ही भाजपा ने महबूबा को औपचारिक रूप से समर्थन दिया है. खबरें हैं कि भाजपा और पीडीपी में सरकार बनाने को लेकर जबरदस्त सौदेबाजी चल रही है.

सोनिया गांधी की महबूबा से मुलाकात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि 1999 में पीडीपी के गठन के पहले तक मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती कांग्रेस में ही थे. इसके अलावा 2002 से लेकर 2008 तक पीडीपी और कांग्रेस मिलकर सत्ता में रह चुकी हैं. हालांकि, भाजपा और कांग्रेस दोनों की ओर से इन मुलाकातों को शोक संवेदना के क्रम में हुई मुलाकात बता जा रहा है.

पी​डीपी के साथ गठबंधन में अहम भूमिका निभाने वाले भाजपा महा​सचिव राम माधव ने कहा, ‘पीडीपी के साथ हमने एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सरकार बनाई थी. अगर पीडीपी उसी व्यवस्था पर आगे बढ़ना चाहती है तो हम भी उसी पर आगे बढ़ना चाहेंगे. राज्य के हित में यही होगा कि वह व्यवस्था जारी रहे. हालांकि, अब तक किसी भी तरह की बातचीत शुरू नहीं हुई है. मीडिया में जो खबरें छप रही हैं, वे ​सिर्फ अफवाह हैं. सोनिया गांधी के साथ महबूबा की क्या बात हुई, इस बारे में हम कुछ कह नहीं सकते. मेरे ख्याल से अन्य नेताओं की तरह सोनिया गांधी भी शोक संवेदना व्यक्त करने गई थीं, जो कि स्वाभाविक है.’

‘देश की धड़कन’ एचएमटी बंद!

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किसी जमाने में घरों में ‘हाईस्कूल में फर्स्ट डिवीजन लाओगे तो घड़ी दिलाएंगे’ जैसे जुमले सुनना आम था. घड़ी यानी एचएमटी ‘जनता’. और फिर जब घड़ी आती तो शुरू होते किस्से. पता चलता कि वो घड़ी जिसे पिताजी हाथ तक नहीं लगाने देते, वो उनकी पहली कमाई से खरीदी थी. मां की पहली ‘एचएमटी’ उनके पिताजी ने बीए पास होने पर दिलाई थी. ‘देश की धड़कन’ के नाम से मशहूर हुई इन घड़ियों से हिंदुस्तानी लोगों का भावनात्मक जुड़ाव रहा है.

कभी स्टेटस सिंबल रही एचएमटी (हिंदुस्तान मशीन टूल्स) की घड़ियां जल्द ही बाजार से नदारद हो जाएंगीं. केंद्र सरकार ने इन्हें बनाने वाली कंपनियों एचएमटी वॉचेज और एचएमटी चिनार वॉचेज को बंद करने का निर्णय लिया है. इस समूह की एक और कंपनी एचएमटी बियरिंग्स पर भी ताला लगेगा. ये तीनों कंपनियां लंबे वक्त से घाटे में चल रही थीं और सरकार का मानना है कि इनका पुनरुद्धार नहीं किया जा सकता.

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एचएमटी समूह को पिछली तीन तिमाही के दौरान हर तिमाही में करीब 25 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है. पिछले वित्त वर्ष में भी इसे करीब 96 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था. पिछले पांच सालों में से चार साल के दौरान कंपनी ने घाटा ही उठाया है. इसी के चलते इसके पुनरुद्धार की उम्मीदें धूमिल हो गईं थीं. सरकार के इस फैसले से 1985 में उत्तराखंड के रानीबाग में एचएमटी की वॉच फैक्ट्री की नींव रखने वाले वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी खुश नहीं हैं. उन्होंने कहा, ‘मेरे सामने एचएमटी फैक्ट्री बंद न होती तो अच्छा होता.’

केंद्र सरकार के इस निर्णय के चलते कंपनियों में काम कर रहे करीब हजार लोगों की रोजी-रोटी पर तलवार लटक गई है. सरकार का कहना है कि प्रभावित कर्मचारियों को आकर्षक वीआरएस पैकेज दिया जाएगा. यह पैकेज 2007 के वेतनमान के आधार पर दिया जाएगा. तीनों कंपनियों को बंद करने और प्रभावित कर्मचारियों के वीआरएस के लिए 427.48 करोड़ रुपये फिलहाल मंजूर कर लिए गए हैं. फैसले के मुताबिक कंपनियों की चल-अचल संपत्तियों को सरकारी नीति के तहत बेचा जाएगा.

फिलहाल भारी उद्योग विभाग के अधीन मैन्यूफैक्चरिंग, कंसल्टेंस और कॉन्ट्रैक्टिंग करने वाले 31 केंद्रीय उपक्रम हैं, जिनमें 12 उपक्रम लाभ में और बाकी 19 घाटे में चल रहे हैं. इस चिंताजनक स्थिति को देखते हुए केंद्र सरकार ने ये फैसला किया है. केंद्र सरकार द्वारा चरणबद्ध तरीके से एचएमटी कंपनी को बंद करने का फैसला सितंबर 2014 में लिया गया था.

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 दृष्टिहीनों के लिए भी बनाई थी घड़ी

  • एचएमटी कंपनी की स्थापना वर्ष 1953 में की गई थी जबकि कंपनी की घड़ी बनाने की पहली इकाई वर्ष 1961 में बंगलुरू में जापान की सिटीजन वाच कंपनी के सहयोग से स्थापित की गई थी. साल 1972 और फिर 1975 में इस इकाई का विस्तार भी किया गया था.
  • बंगलुरू स्थित इस इकाई में बनी पहली घड़ी को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जारी किया था.
  • ‘जनता’ घड़ी एचएमटी की सबसे लोकप्रिय घड़ियों में एक मानी जाती है. दूसरी घड़ियों में पायलट, झलक, सोना सबकी प्रिय थीं. दृष्टिहीनों के लिए भी कंपनी ने ‘एचएमटी ब्रेल’ घड़ी बनाई थी.
  • घड़ियों के पुर्जे बनाने के लिए 1978 में टुमकुर (कर्नाटक) और 1985 में रानीबाग (उत्तराखंड) में नई इकाईयां लगाई गईं थीं.