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मराठवाड़ा : त्रासदी की तस्वीर

Photo : Tehelka Archives
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42 डिग्री सेल्सियस की तपा देने वाली धूप और भीषण गर्मी के बीच सधे हुए कदमों से अपने घर की ओर बढ़ती हुई 10 साल की अमृता मुजमुले इस बात का पूरा ध्यान रखे हुए है कि उसके सिर पर रखे हुए घड़े का पानी जरा भी न छलके. अमृता हर रोज़ करीब 4० किमी. का फासला सिर्फ पानी भरने के लिए पूरा करती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि उसे दिनभर में अपने घर से दो किमी. की दूरी पर स्थित कुएं पर 10 बार पानी भरने जाना पड़ता है. सोचिए अगर शहर में आपको अपने घर से हर रोज 200 मीटर ही दूर पानी भरने जाना पड़े तो आप पर क्या बीतेगी.

अमृता जैसे कई बच्चे हैं जो हर रोज कई मील दूर अपने परिवारों की पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए 10-10 चक्कर लगाते हैं. कई बार भीषण गर्मी से शरीर में पानी की कमी और कई बार कुओं में गिर जाने से, ये काल के गाल में भी समा जाते हैं. ऐसी कई घटनाएं हैं जो सूखाग्रस्त महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र की हकीकत से रूबरू कराती हैं. ‘तहलका’ ने मराठवाड़ा के बीड जिले का दौरा किया और पाया कि पानी की कमी से मौत, विस्थापन, मानव तस्करी, अवैध हिरासत और शादियों के टूटने के खतरे ने इस क्षेत्र के जनजीवन को तार-तार कर दिया है.

अमृता के दिन की शुरुआत सुबह छह बजे हो जाती है. वह उठते ही अपनी मां और दो छोटी बहनों के साथ दो किमी दूर स्थित कुएं में पानी भरने निकल जाती है. वह कहती है, ‘हम सुबह उठते ही यहां आ जाते हैं. कभी-कभी हमें पानी भरने के लिए एक घंटा इंतजार करना पड़ता है और कभी-कभी नंबर आने में 4-5 घंटे लग जाते हैं. शाम को चार बजे हमें फिर से यहां पानी भरने आना पड़ता है, कुल मिलाकर दिन भर में पानी भरने के लिए हम 10 चक्कर तो लगा ही लेते हैं.’ अमृता की मां शीला मुजमुले कहती हैं, ‘मुझे अपनी छोटी-छोटी बच्चियों को इस तरह पानी भरता देख दुख होता है, लेकिन क्या करूं मेरे पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है. सूखे की वजह से यहां पानी की इतनी किल्लत है कि अगर हम कुओं से पानी नहीं भरेंगे तो प्यास से मर जाएंगे. दिन भर में औरतें और बच्चे लगभग पांच-छह घंटे कुओं, नलों और टैंकरों से पानी भरने में गुजारते हैं. हाल ये है कि हम दिन भर सिर्फ पानी भरने के बारे में सोचते रहते हैं और किसी काम की तरफ ध्यान जाता ही नहीं है.’

मौत का कुआं : यह कुआं बीड जिले की वडवनी तहसील के उपली गांव का है. कुओं से पानी भरने के दौरान बच्चों की मौत की वजह से यह जिला लगातार सुर्खियों में बना हुआ है.
यह कुआं बीड जिले की वडवनी तहसील के उपली गांव का है. कुओं से पानी भरने के दौरान बच्चों की मौत की वजह से यह जिला लगातार सुर्खियों में है. फोटो : प्रतीक गोयल

मराठवाड़ा में कर्ज और फसलों के नुकसान के चलते किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं. साथ ही पानी भरने के दौरान हुए हादसों के भी कई मामले सामने आए हैं. बीड जिले में पिछले तीन महीनों में पानी भरने के दौरान आठ बच्चों की मौत हो चुकी है. 21 अप्रैल की सुबह खेज तहसील के वीडा गांव में 10 साल के सचिन खेंगेरे की कुएं से पानी भरने के दौरान उसमें गिरकर मौत हो गई. गांव के सरपंच बापूसाहेब देशमुख कहते हैं, ‘गांव के हर परिवार को पता है कि बच्चों का कुओं पर पानी भरना खतरनाक है. हमारे गांव में चार कुएं हैं और सभी गांववालों को बताया हुआ है कि बच्चों को पानी भरने न तो साथ लाएं और न ही अकेले भेजें, लेकिन कोई सुनता नहीं है. टैंकरों से पानी बांट नहीं सकते क्योंकि पानी भरने के दौरान लोग आपस में झगड़ने लगते हैं.’

मराठवाड़ा में सूखे से उपजी पानी की कमी के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी तो सभी को है लेकिन इसका महिलाओं और बच्चों को क्या खामियाजा भुगतना पड़ता है इसकी ओर लोगों का ध्यान तब आकर्षित हुआ जब 18 अप्रैल को बीड जिले की आष्टी तहसील के सबलखेड गांव में रहने वाली 12 साल की योगिता देसाई की पानी भरने के दौरान मौत हो गई. यह मौत लू लगने की वजह से हुई थी. योगिता दिन में कई बार कड़ी धूप में पानी भरने जाती थी. उस रोज जब वह 5वीं बार हैंडपंप पर पानी भरने गई तो बेहोश होकर गिर गई और फिर उसे कभी होश नहीं आया. स्थानीय गुरुदत्त अस्पताल में काम करने वाले डॉ. हनुमंत काकड़े, जिन्होंने योगिता की जांच की थी, कहते हैं, ‘बच्ची को पिछले 24 घंटों से बुखार था. घटना वाले दिन उसे सुबह उल्टियां भी हुई थीं लेकिन फिर भी वह पानी भर रही थी. लू लगने और शरीर में पानी की कमी की वजह से उसकी मृत्यु हो गई.’ योगिता के चाचा ईश्वर देसाई कहते हैं, ‘हमारे गांव में बाकी कामों के लिए पर्याप्त पानी है लेकिन पीने के पानी की कमी है इसलिए बच्चे-बूढ़े सभी लोग पानी भरने जाते हैं.’

इसी साल फरवरी में गेवराई तहसील के बाग पिंपलगांव में 10 साल की राजश्री कांबले की भी पानी भरते समय कुएं में गिरकर मौत हो गई. उसके पिता नामदेव कांबले के अनुसार, ‘स्कूल में मध्याह्न भोजन खाने के बाद वहां पानी न होने के चलते वह घर पर पानी पीने आई थी लेकिन जब घर पर भी पानी नहीं मिला तो वह कुएं से पानी भरने गई और उसमें गिर पड़ी.’ नामदेव कांबले ने इस हादसे के बाद गांव के सरपंच के खिलाफ गेवराई थाने में शिकायत दर्ज कराई. उन्होंने अपनी शिकायत में कहा था कि गांव में जल स्वराज्य योजना के तहत बने कुएं में पर्याप्त पानी होने के बावजूद  सरपंच ने दलित बस्तियों में जा रही पाइप लाइनों में पानी नहीं छोड़ा, जिसके चलते लोगों को दूसरे कुओं से पानी भरने जाना पड़ता है और इसी वजह से उनकी बेटी की मौत हो गई. गांव की सरपंच सत्यभामा चितलकर से बातचीत करने की कोशिश की गई तो उनके पति जनार्दन चितलकर उनका पक्ष रखते हुए कहते हैं, ‘जब कुएं में पर्याप्त पानी था तो नलों में पानी छोड़ा जाता था लेकिन सूखे के चलते कुएं में पानी की कमी हो गई है और इस वजह से हमने नलों में पानी छोड़ना बंद कर दिया है. अब सभी लोग कुएं से पानी भरने आते हैं, किसी के साथ भी कोई भेदभाव नहीं हुआ है.’

इसी साल जनवरी में नौ साल की कोमल जगताप की कुएं में गिरकर मौत हो गई. कोमल के माता-पिता उस वक्त कर्नाटक में गन्ने की कटाई करने के लिए गए थे. कोमल तब अपने मामा के साथ गेवराई तहसील के जातेगांव में रहती थी. मामा सतीश चह्वाण बताते है, ‘उस कुएं में पानी बहुत कम था, इसलिए पानी भरने के दौरान जब वह उसमें गिरी तो उसके सिर पर चोट लगी जिससे उसकी मौत हो गई.’

मराठवाड़ा में लगातार तीन साल से अकाल की स्थिति है और इस साल हालत बुरी तरह से बिगड़ चुकी है. फसलें नष्ट हो चुकी हैं. इन हालात में तमाम लोग रोजी-रोटी के जुगाड़ में ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. पानी की कमी और बेरोजगारी ने इस विस्थापन को इतना विकराल रूप दे दिया है कि मराठवाड़ा के ग्रामीण क्षेत्रों की 40 प्रतिशत आबादी पश्चिम महाराष्ट्र के बड़े-छोटे शहरों की ओर कूच कर गई है. पुणे, कोल्हापुर, मुंबई जैसे शहरों में मराठवाड़ा से आए लोगों का तांता लगा हुआ है. ये किसान शहरों में मजदूरी करके अपना पेट पाल रहे हैं. क्षेत्र के कई गांवों का दौरा करने के बाद स्थिति बिल्कुल साफ हो जाती है.

बंद दरवाजा बीड जिले की वडवनी तहसील की पांच हजार की आबादी वाला उपली गांव अब वीरान नजर आता है. स्थानीय लोगों के मुताबिक इस गांव के 300 परिवार अपना घर-बार छोड़कर शहर पलायन कर चुके हैं. फोटो : प्रतीक गोयल
बीड जिले की वडवनी तहसील की पांच हजार की आबादी वाला उपली गांव अब वीरान है. स्थानीय लोगों के मुताबिक गांव के 300 परिवार घर-बार छोड़कर पलायन कर चुके हैं. फोटो : प्रतीक गोयल

खाली सड़कें और घर के दरवाजों पर लगे ताले उपली गांव में एक आम नजारा है. बीड जिले की वडवनी तहसील की पांच हजार की आबादी वाला यह गांव अब वीरान-सा नजर आता है. स्थानीय लोगों के मुताबिक इस गांव के 300 परिवार अपना घर-बार छोड़कर शहर पलायन कर चुके हैं और बाकी भी शहर जाने की योजना बना रहे हैं. बहुत- से लोग तो अपने बूढ़े मां-बाप को गांवों में ही छोड़कर जा चुके हैं.

70 वर्षीय जयराम इचके अपने परिवार सहित काम की तलाश में पुणे जा रहे हैं. उनकी माली हालत इतनी खराब है कि कुछ दिन पहले उनके पास शक्कर तक खरीदने के पैसे नहीं थे. उनकी बीमार बेटी के लिए दवाई तक का इंतजाम वह नहीं कर पा रहे थे. इचके को शक्कर और दवाई का इंतजाम करने के लिए घर में रखा पलंग और एक पुराना टेलीविजन बेचना पड़ा. वे कहते हैं, ‘यहां पानी की बहुत कमी है जिसके चलते न ही यहां खेती बची है और न ही कोई काम. मेरे बेटे की मृत्यु बहुत साल पहले हो गई थी, इसलिए मेरी पत्नी और बेटी की जिम्मेदारी मुझ पर है. हमने पुणे जाने का फैसला कर लिया है. अभी फिलहाल वहां मजदूरी करने के बारे में सोचा है.’ इसी गांव के विष्णु सावंत अपने परिवार के साथ पुणे रहने लगे हैं. सावंत कहते हैं, ‘सूखे के चलते मुझे अपनी पौने दो एकड़ खेती बेचनी पड़ी. बेटी की शादी के लिए भी साहूकार से डेढ़ लाख रुपये का कर्ज लिया था लेकिन कर्ज न चुका पाने की वजह से मुझे अपना घर उसके नाम करना पड़ा. ऐसी परिस्थिति में मजबूरन शहर जाना पड़ा.’ सावंत का 16 वर्षीय लड़का भी उनके साथ मजदूरी करता है. पैसों की कमी के चलते उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ी. सावंत कहते हैं, ‘मैं अपने बेटे को स्कूल भेजना चाहता था, लेकिन अभी अपने परिवार को दो जून की रोटी खिलाना ज्यादा जरूरी है. क्या करें, हमारे जैसे लोगों के जीवन में ज्यादा विकल्प नहीं होते.’

उपली में रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता कांता इचके ने बताया, ‘ग्रामीण अपनी जमीन-जायदाद बेचकर पश्चिम महाराष्ट्र के शहरों में पलायन कर रहे हैं. स्थिति इतनी खराब है कि लोग अपना घर बेचकर शहर जाने के लिए किराये का जुगाड़ कर रहे हैं ताकि वहां पहुंचकर उन्हें कुछ रोजगार मिल सके. कोई भी गांव में रहना नहीं चाहता.’ इस गांव में पानी की इतनी ज्यादा कमी है कि लोगों को पानी पांच दिन में एक बार नसीब होता है. गांववालों ने बताया कि पानी भरने के लिए हर परिवार को सरपंच को 50 रुपये देने पड़ते हैं. दत्ता नातेवाइके ने बताया, ‘अगर पैसे न दिए जाएं तो सरपंच के लोग पानी भरने नहीं देते और गांव के नलों पर ताला लगा देते हैं.’ इस बारे में गांव की सरपंच असरबी शेख से बात की तो वे कहती हैं, ‘गांव में लगे हुए नल और पाइपलाइन सरकारी पैसों से नहीं बल्कि हमने अपने निजी खर्चे से लगवाए हैं इसीलिए हर परिवार से पानी भरने के लिए हम 50 रुपये लेते हैं. हालांकि गरीबों को इससे निजात है.’ नलों पर ताले लगाने के बारे में वे कहती हैं, ‘गांव में पानी 3-4 दिन में एक दफा आता है. नलों पर ताले इसलिए लगाए हैं ताकि सबको समान रूप से पानी मिले और कोई विवाद न हो.’

माजल गांव तहसील स्थित झरनेवाड़ी गांव के 40 वर्षीय रामराव मुथाल ने अपने खेत पर एक बोर्ड लगा रखा है जिस पर मराठी में लिखा है, ‘जमीन बिक्रि आहे’ यानी ये जमीन बिकाऊ है. मुथाल जमीन बेचकर अपनी तीन बेटियों की शादी के लिए ग्रामीण बैंक और साहूकार से लिया हुआ छह लाख रुपये का कर्ज चुकाकर मुंबई या पुणे जाकर बसना चाहते हैं. वे कहते हैं, ‘पिछले दो सालों से फसल नहीं हुई है. यहां पीने के लिए पानी नहीं है तो खेती के लिए पानी कहां से आएगा. जमीन बेचना जरूरी है वरना बैंक और साहूकार का कर्ज कैसे चुकाएंगे. हालात ऐसे हैं कि शहर जाकर मजदूरी करना ही एक विकल्प रह गया है.’

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आत्महत्याओं का सिलसिला जारी

गेवराई तहसील के जातेगांव की रहने वाली जनाबाई चह्वाण की आंखें आज भी अपने बेटे का जिक्र आने के साथ नम हो जाती हैं. उनके 23 वर्षीय बेटे सखाराम चह्वाण ने 15 महीने पहले जहर पीकर अपनी जान दे दी थी. सखाराम ने खेत में कुआं बनाने के लिए तीन लाख रुपये का कर्ज लिया था जिसे वे चुका नहीं पाए थे. फोटो : प्रतीक गोयल
गेवराई तहसील के जातेगांव की रहने वाली जनाबाई चह्वाण की आंखें आज भी अपने बेटे का जिक्र आने के साथ नम हो जाती हैं. उनके 23 वर्षीय बेटे सखाराम चह्वाण ने 15 महीने पहले जहर पीकर अपनी जान दे दी थी. सखाराम ने खेत में कुआं बनाने के लिए तीन लाख रुपये का कर्ज लिया था जिसे वे चुका नहीं पाए. फोटो : प्रतीक गोयल

बीड जिले के पुसरा गांव के विलास जोगड़े एक भूमिहीन मजदूर थे. उन्होंने अपनी बेटी की शादी के लिए पिछले साल 1.5 लाख रुपये का कर्ज लिया था लेकिन सूखे के चलते वे इतने पैसे नहीं कमा पाए कि कर्ज चुका सकें. इस साल अप्रैल में उन्होंने पेड़ से फांसी लगाकर अपनी जान दे दी. उनके अंतिम संस्कार तक के लिए उनकी पत्नी प्रियंका जोगड़े को 10 हजार रुपये का कर्ज लेना पड़ा.

उनकी पत्नी प्रियंका नम आंखों से कहती हैं, ‘उन्होंने हमारी बेटी की शादी के लिए कर्ज लिया था लेकिन विडंबना ये है कि बेटी के पति ने उसे एक साल में ही छोड़ दिया. मेरे पास तो 10वीं कक्षा में पढ़ने वाले बेटे की पढ़ाई के लिए भी पैसे नहीं हैं. सरकार भूमिहीन किसानों के लिए कुछ नहीं करती. गांव में भी कुछ काम नहीं है, अब हमें शहर जाकर मजदूरी करनी पड़ेगी.’

गेवराई तहसील के जातेगांव की रहने वाली जनाबाई चह्वाण की आंखें आज भी अपने बेटे का जिक्र आने के साथ नम हो जाती हैं. उनके 23 वर्षीय बेटे सखाराम चह्वाण ने 15 महीने पहले जहर पीकर अपनी जान दे दी थी. सखाराम ने खेत में कुआं बनाने के लिए तीन लाख रुपये का कर्ज लिया था जिसे वे चुका नहीं पाए थे. सरकार की तरफ से उनके परिवार को एक लाख रुपये का मुआवजा दिया गया था और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत उन्हें लाभार्थी बनाकर उनके खेत पर एक कुआं बनाया जा रहा है लेकिन इसकी प्रक्रिया में उनके माता-पिता को विभिन्न दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं और संबंधित अधिकारियों को उनकी फाइल बढ़ाने के लिए रिश्वत भी देनी पड़ रही है. जनाबाई कहती हैं, ‘बेहतर होता कि सरकार हमें मुआवजे के रूप में कुछ पैसे दे देती यह कुएं का निर्माण जी का जंजाल बन चुका है.’

बीड कलेक्ट्रेट में कार्यरत एक अधिकारी अपना नाम न लिखने की शर्त पर बताते हैं, ‘ब्लॉक लेवल पर अधिकारी किसानों का मुआवजा पास कराने के लिए उनसे 15 प्रतिशत तक का कमीशन मांगते हैं. यह दुख की बात है लेकिन बिना इसके काम नहीं होता.’ बीड जिले के कलेक्टर नवल किशोर राम मानते हैं कि भूमिहीन मजदूरों के परिवारों को किसी भी तरह का मुआवजा नहीं दिया जाता लेकिन सरकार एक नई नीति जल्द ही बनाएगी जिसके तहत भूमिहीनों को लाभ मिलेगा. उन्होंने बताया, ‘मुआवजा देने से पहले वह तीन बातों की तसल्ली जरूर करते है. जिस व्यक्ति ने आत्महत्या की है क्या उसने कोई कर्ज लिया है, क्या उसकी फसल बर्बाद हो चुकी है और तीसरी यह कि क्या बैंक वाले उनके घर चक्कर लगा रहे हैं?’ नवल किशोर राम आगे कहते हैं, ‘आत्महत्या कोई भी करे उसे आत्महत्या ही माना जाएगा. सरकार नई नीति लेकर आएगी जिसके तहत कोई भी किसान भूमिहीन या जिनके पास भूमि है अगर सूखे की वजह से या खेती में हुए नुकसान की वजह से आत्महत्या करता है तो सरकार उसे मुआवजा देगी.’ वे यह भी कहते है कि अगर कोई अधिकारी किसानों को मुआवजा देते वक्त भ्रष्टाचार करता है तो उसे कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी.[/symple_box]

बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूर

बीड को गन्ना काटने वाले मजदूरों का गढ़ कहा जाता है. महाराष्ट्र में गन्ना काटने वाले मजदूरों की संख्या तकरीबन नौ लाख है और इनमें से चार लाख बीड के रहवासी हैं. प्रायः भूमिहीन मजदूर ही गन्ने की कटाई का काम करते हैं. यह अक्टूबर से लेकर मई के बीच होता है. गन्ना काटने के लिए ये मजदूर पश्चिम महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के तमाम शहरों में जाते हैं लेकिन सूखा के चलते इन भूमिहीन मजदूरों के संघर्षपूर्ण और शोषित जीवन में एक ऐसा उतार आया है जो बंधुआ मजदूरी की याद दिलाता है. इन भूमिहीन मजदूरों को काम देने वाले इनके ठेकेदार जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘मुकादम’ कहा जाता है, फसल के उत्पादन में आई कमी के चलते इन्हें कैद रखने लगे हैं. इन मजदूरों का जीवन बेहद कठिन होता है. साल के आठ महीने ये अपने घर से कोसों दूर अस्थायी घरों में गुजारते हैं. इनके बच्चे भी इनके साथ चले जाते हैं जिसके चलते उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है. हालांकि कुछ मजदूर अपने बच्चों को घर के बड़े-बुजुर्गों के पास छोड़कर जाते हैं ताकि वे पढ़-लिख सकें. ये मजदूर शक्कर कारखाने वाले मुकादम के साथ गन्ने की कटाई का करार करते हैं और मुकादम इन्हें गन्ना काटने के लिए अलग-अलग इलाकों में लेकर आते हैं. मुकादम जोड़ों (पति-पत्नी) के रूप में मजदूरों को लाते हैं. उन्हें एक अग्रिम रकम दे दी जाती है. मुकादम को शक्कर कारखानों से तो पैसे मिलते ही हैं उसमें से 20 प्रतिशत कमीशन मुकादम को देना पड़ता है. दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि अगर इन मुकादमों को लगता है कि मजदूरों ने उन्हें अग्रिम रूप से मिली हुई रकम के अनुसार गन्ने नहीं काटे तो वे इन्हें पैसे लौटाने के लिए मजबूर करते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता राजू थोराट कहते हैं, ‘मुकादम हर गांव से 100-200 जोड़े अपने साथ ले जाते हैं. आठ महीने काम करने के लिए ये प्रति जोड़ा मात्र 30,000 से 80,000 रुपये तक देते हैं. उनसे कोल्हू के बैल की तरह काम करवाया जाता है. सूखे के चलते गन्ने की उपज कम हो गई है जिसके चलते मजदूरों का काम निर्धारित समय के पहले ही पूरा हो जाता है. ऐसी स्थिति में मुकादम इन लोगों को दी हुई रकम का कुछ हिस्सा लौटाने के लिए बाधित करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि मजदूरों ने मिली हुई रकम के हिसाब से गन्ने नहीं काटे. ऐसी सूरत में अगर मजदूर पैसे नहीं लौटा पाते तो उन्हें बंधक बना लिया जाता है और तब तक नहीं छोड़ा जाता जब तक उनके दोस्त या रिश्तेदार वह रकम मुकादम को लौटा नहीं देते.’

बीड के कारी गांव के रहने वाले विजय कसबे को कर्नाटक में एक महीना बंधक बनाकर रखा गया था. विजय ने बताया कि मुकादम ने उन्हें और उनकी पत्नी को छह महीने तक काम करने के लिए 50,000 रुपये दिए थे. काम तीन महीनों में ही खत्म हो गया, जिसके बाद मुकादम उन पर तीन महीनों का बकाया पैसा लौटाने के लिए दबाव बनाने लगा और फिर एक महीने तक उन्हें बंधक बनाकर रखा. फोटो : प्रतीक गोयल
बीड के कारी गांव के रहने वाले विजय कसबे को कर्नाटक में एक महीना बंधक बनाकर रखा गया था. विजय ने बताया कि मुकादम ने उन्हें और उनकी पत्नी को छह महीने तक काम करने के लिए 50,000 रुपये दिए थे. काम तीन महीनों में ही खत्म हो गया, जिसके बाद मुकादम उन पर तीन महीनों का बकाया पैसा लौटाने के लिए दबाव बनाया और बकाया न दे पाने पर उन्हें  एक महीने बंधक बनाकर रखा. फोटो : प्रतीक गोयल

बंधक बनाए गए कुछ मजदूरों ने अपने अनुभव ‘तहलका’ से साझा किए हैं. बीड में काम करने वाली एक गैर-सरकारी संस्था ‘मानवीय हक अभियान’ के प्रयासों से इन्हें छुड़ाया गया था. बीड जिले की धारूर तहसील की रहने वाली 29 वर्षीया जयश्री मुजमुले ने अपनी व्यथा सुनाते हुए बताया कि उन्हें और उनके जैसे 20 दूसरे जोड़ों (पति-पत्नी) व उनके बच्चों को कर्नाटक के गुलबर्गा में इस साल फरवरी में एक महीने तक बंधक बनाकर रखा गया था. जयश्री कहती हैं, ‘हमें और हमारे बच्चों को जानवरों की तरह एक मैदान में रखा गया था. मैदान के चारों ओर मुकादम के आदमियों का पहरा रहता था. हमारे सिर पर न छत थी और न ही हमें एक महीने तक खाना दिया गया था. हम-में से कुछ लोगों को मुकादम के आदमी एक आटा चक्की ले जाते थे और वहां जमीन पर पड़ा आटा उठवाकर वापस ले आते थे. उस आटे की रोटियों और गांव से साथ में लाए हुए बचे-खुचे ज्वार-बाजरे से हमने अपना और बच्चों का गुजारा किया था. हमारे कुछ लोगों को वे मारते-पीटते भी थे.’

बीड के कारी गांव के रहने वाले विजय कसबे की भी यही कहानी है. उन्हें भी कर्नाटक में एक महीना बंधक बनाकर रखा गया था. विजय ने बताया कि मुकादम ने उन्हें और उनकी पत्नी को छह महीने तक काम करने के लिए 50,000 रुपये दिए थे लेकिन पानी की कमी की वजह से उपज कम हुई थी इसलिए काम तीन महीने में ही खत्म हो गया, जिसके बाद मुकादम उन पर तीन महीने का बकाया पैसा लौटाने के लिए दबाव बनाने लगा और फिर उन्हें एक महीने तक बंधक बनाकर रखा गया. कसबे कहते हैं, ‘हम गरीब लोग हैं. हमारे पूरे परिवार का पेट गन्ने की कटाई में कमाए गए पैसों से पलता है. शादी, दवा, बच्चों की पढ़ाई सब कुछ इन पैसों के बल पर होता है. इसलिए जब पैसा आता है तो एक ही बार में खर्च हो जाता है. मुकादम को लौटाने के लिए हमारे पास कुछ नहीं बचता. लेकिन ये हमारी मजबूरी है कि इतनी कठिनाइयों और शोषण के बावजूद हम वापस उन्हीं लोगों के साथ काम पर जाते हैं. अगर नहीं जाएंगे तो परिवार को कैसे पालेंगे.’

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जालना जिले के चिंचोली गांव के रहने वाले राहुल पालेकरएओ को भी पंढरपुर में 15 दिन तक मुकादम ने बंधक बनाकर रखा था. वे कहते हैं, ‘हमें 60,000 रुपये दिए गए थे. हम लोग रोज सुबह चार बजे उठते थे और रात 12 बजे तक काम करते थे. लगभग 20 घंटे काम करते थे, कम उपज के चलते मुकादम हमें चार जगह गन्ने की कटाई और ढुलाई के लिए ले गया था. लेकिन इतना काम करने के बावजूद उसे लगा कि हमने रकम के हिसाब से गन्ने नहीं काटे हैं और हमें 15 दिन के लिए बंधक बना लिया.’ पालेकरएओ के साथ दस अन्य जोड़ों को भी एक बिल्डिंग में बंधक बनाकर रखा गया था, पुरुषों को एक कमरे में बंद कर दिया गया था सिर्फ महिलाओं को बाहर जाकर दिहाड़ी मजदूर की तरह काम करने की इजाजत थी वह भी इसलिए ताकि बंधकों के खाने का इंतजाम हो जाए.

लोकसभा सांसद और स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के अध्यक्ष राजू शेट्टी के अनुसार बिचौलियों को मजदूर और कारखानों के बीच से हटाकर पारदर्शिता बढ़ानी चाहिए. शेट्टी कहते हैं, ‘मुकादमों द्वारा संचालित इस प्रणाली पर प्रतिबंध लगना चाहिए. ये मुकादम कोई और नहीं बल्कि स्थानीय नेता या उनके चमचे होते हैं जिनका स्थानीय राजनीति में हस्तक्षेप होता है. ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिसके तहत मजदूर और कारखानों का सीधा संपर्क हो सके और इन ठेकेदारों का सफाया हो जाए.’

टूटती शादियां

बीड जिले के बाबी तांडा गांव में मटकों और बाल्टियों की एक लंबी कतार लगी हुई है. महिला-पुरुष, छोटे-बड़े सभी लोग गांव के एकमात्र नल के आगे पानी भरने के इंतजार में खड़े हुए हैं. बंजारों के इस गांव में इस साल 100 लड़कियों की शादियां टूट चुकी हैं, 800 की आबादी वाले इस गांव में पानी की कमी को लोग अपनी बेटियों की शादी टूटने का कारण बताते हैं. 50 वर्षीया केसरबाई राठौड़ कहती हैं, ‘पानी के चलते किसी के पास कोई काम नहीं है, अब जब काम ही नहीं है तो बेटियों की शादी में हुंडा (दहेज) कहां से दें. लड़के वाले बिना दहेज के शादी करने से मना कर देते हैं.’ 19 वर्षीय कविता राठौड़ की शादी मई में होने वाली थी, लेकिन दहेज का इंतजाम न हो पाने की वजह से उनकी शादी टूट गई. वे कहती हैं, ‘मैं 12वीं तक पढ़ी हूं और नर्सिंग की पढ़ाई करना चाहती थी, लेकिन शादी तय होने की वजह से और पैसों की कमी के चलते पढ़ नहीं पाई. मेरे माता-पिता शादी और पढ़ाई दोनों का खर्च नहीं उठा सकते थे. उनका मानना है कि पढ़ाई करने के बाद नौकरी के जरिए मिले हुए पैसे तो मेरे पति को ही मिलेंगे तो इससे अच्छा है कि वे शादी में पैसे लगाएं लेकिन अब अकाल के चलते पैसों की इतनी कमी हो गई है कि मेरी शादी ही टूट गई.’

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पानी भरने की कतार में लगी हुई सोनाली राठौड़ बताती हैं, ‘मेरी चचेरी बहन की शादी तय तारीख से दो दिन पहले टूट गई थी. चाचा ने दो लाख रुपये का कर्जा उठाया था, अपनी जमीन भी बेच दी थी और खुद के पास जमा सारे पैसे शादी की तैयारियों में लगा दिए थे लेकिन फिर लड़केवालों ने 12 लाख रुपये की रकम की मांग कर दी जिसके चलते शादी टूट गई.’

मराठवाड़ा के किसान बेटियों की शादी करवाने के दौरान अक्सर कर्जदार हो जाते हैं. 20 जनवरी को लातूर जिले के भिसे वाघोली गांव की मोहिनी भिसे ने इसलिए आत्महत्या कर ली थी कि उनके पिता को शादी के लिए कर्ज न लेना पड़े. उन्होंने अपने सुसाइड नोट में दहेज प्रथा को अपनी आत्महत्या का कारण बताया था. भिसे वाघोली गांव में रहने वाले सत्तार पटेल मोहिनी के परिवार से परिचित हैं. वे किसानों के लिए काम करने वाले बलिराजा शेतकरी संगठन के मुखिया हैं. उनका कहना है, ‘मोहिनी के माता-पिता बेटी की शादी के लिए अपनी जमीन बेच रहे थे. वह नहीं चाहती थी कि उसका परिवार भूमिहीन हो जाए इसलिए उसने आत्महत्या कर ली थी. अब तक तो सिर्फ किसान आत्महत्या कर रहे थे लेकिन अब उनके परिवार के सदस्य आत्महत्या कर रहे हैं, यह स्थिति बेहद चिंताजनक है.’

पुरसा गांव में रहने वाली रुक्मिणी गलफड़े के परिवार को खाने के भी लाले पड़े हैं. उनके पति एक मैरिज बैंड में काम करते हैं और उनकी कमाई 150 रुपये प्रतिदिन है. फोटो : प्रतीक गोयल
पुरसा गांव की रुक्मिणी गलफड़े के घर खाने के भी लाले हैं. उनके पति एक मैरिज बैंड में काम करते हैं, जिनकी कमाई 150 रुपये प्रतिदिन है. फोटो : प्रतीक गोयल

मानव तस्करी का खतरा

मानव तस्करी के खिलाफ काम करने वाली गैर-सरकारी संस्था स्नेहालय के अध्यक्ष गिरीश कुलकर्णी ने बताया, ‘सूखे के चलते किशोर लड़कियों की तस्करी का खतरा बढ़ गया है. मराठवाड़ा से इतने बड़े स्तर पर पलायन हो रहा है कि ऐसे में आपराधिक तत्वों के लिए उनका शोषण करना आसान हो गया है.’ कुलकर्णी और उनका संगठन केतन तिरोडकर के जिलों में पलायन करके आए लोगों को मानव तस्करी के खतरे के प्रति जागरूक कर रहे हैं. उन्होंने अहमदनगर स्थित स्नेहालय में तकरीबन 150 किशोर-किशोरियों के रहने का बंदोबस्त भी किया है. वे कहते हैं, ‘शहर पहुंचने के बाद इन लोगों के पास रहने तक की जगह नहीं होती, पैसे नहीं. होते ऐसे में मानव तस्कर काम दक़िलाने के बहाने इन्हें बहला-फुसलाकर वेश्यावृत्ति के धंधे में झोक देते हैं. इनका निशाना ज्यादातर किशोरियां होती हैं. मुंबई के कमाठीपुरा इलाके में वेश्यावृत्ति करने वाली मराठी मूल की अधिकांश लड़कियां मराठवाड़ा से हैं. सूखे की वजह से सामाजिक दुष्परिणाम का यह एक जीता-जागता उदाहरण है.’

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आईपीएल पर पीआईएल

महाराष्ट्र में आईपीएल मैच करवाने के खिलाफ पीआईएल यानी जनहित याचिका लगाने वाले पत्रकार केतन तिरोडकर कहते हैं, ‘महाराष्ट्र में सूखे की स्थिति होने के बावजूद सरकार के पास पर्याप्त पानी है पर इसे लोगों की जान बचाने के बजाय आईपीएल मैचों, गोल्फ क्लबों और फाइव स्टार होटलों में प्रयोग किया जा रहा है. ऐसी फिजूल गतिविधियों में पानी बर्बाद करने से ही महाराष्ट्र में सूखे की यह स्थिति आई है. इस साल फरवरी की शुरुआत में केंद्र सरकार की एक टीम ने सूखे की संभावनाओं को जांचने हेतु राज्य के 16 जिलों का दौरा किया था और निष्कर्ष दिया था कि सूखे जैसी स्थितियां नहीं बनेंगी. इसके बाद ही राज्य में आईपीएल मैच करवाने की अनुमति दी गई थी. यही कारण था कि पहले लातूर और अन्य सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए वॉटर ट्रेन की व्यवस्था नहीं हो पाई.’

तिरोडकर द्वारा डाली गई याचिका के अनुसार, एक आईपीएल मैच के लिए पिच तैयार करने में 22 लाख लीटर और इसके रखरखाव के लिए 60 हजार लीटर पानी की जरूरत होती है. जबकि महाराष्ट्र सरकार ने लातूर में ट्रेन द्वारा केवल 25 लाख लीटर पानी भेजने की घोषणा की है.

गौरतलब है कि बॉम्बे हाई कोर्ट ने 1 मई के बाद महाराष्ट्र में होने वाले सभी आईपीएल मैचों को शिफ्ट करने का आदेश दिया है. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने भी मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन और महाराष्ट्र क्रिकेट एसोसिएशन की बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा इस फैसले के खिलाफ दायर याचिका को खारिज करते हुए हाई कोर्ट के फैसले को ही कायम रखा है.[/symple_box]

70 वर्षीय जयराम इचके अपने परिवार सहित काम की तलाश में पुणे जा रहे हैं. उनकी माली हालत इतनी खराब है कि कुछ दिन पहले उनके पास शक्कर तक खरीदने के पैसे नहीं थे. उनकी बीमार बेटी के लिए दवाई तक का इंतजाम वे नहीं कर पा रहे थे. इचके को शक्कर और दवाई का इंतजाम करने के लिए घर में रखा पलंग और एक पुराना टेलीविजन बेचना पड़ा. फोटो : प्रतीक गोयल
70 वर्षीय जयराम इचके अपने परिवार सहित काम की तलाश में पुणे जा रहे हैं. उनकी माली हालत इतनी खराब है कि बीमार बेटी के लिए दवाई का इंतजाम भी नहीं कर पा रहे थे. दवाई का इंतजाम करने के लिए उन्हें घर में रखा पलंग और एक पुराना टेलीविजन बेचना पड़ा. फोटो : प्रतीक गोयल

किसानों के हक के लिए लड़ने वाले और मौजूदा प्रदेश सरकार द्वारा सूखे से निपटने के लिए गठित वसंतराव नाईक शेती स्वावलंबन मिशन के निदेशक किशोर तिवारी कहते हैं, ‘गन्ने की कटाई करने वाले मजदूरों की स्थिति अमेरिका में अफ्रीकी मूल के लोगों की दासता की याद दिलाती है. इन मजदूरों की यह स्थिति का कारण शुगर मिल चला रहे नेताओं का सामंतवाद है. इन मिलों को बंद करना चाहिए. इन लोगों की वजह से सूखे की स्थिति और खराब हो जाती है. ऐसे लोगों को फांसी दे देनी चाहिए. भूमिहीन मजदूर हो या किसान अगर वह आत्महत्या करता है तो उसके परिवार को मुआवजा मिलना चाहिए. हर सरकार उनके हालात ठीक करने की बात करती है लेकिन कोई कुछ नहीं करता.’ तिवारी ने बताया कि इन मुद्दों पर वे मुख्यमंत्री के साथ होने वाली समीक्षा बैठक में चर्चा करेंगे.

PankajaMunde

महाराष्ट्र की ग्रामीण विकास और जल संरक्षण मंत्री पंकजा मुंडे ‘तहलका’ से बातचीत में कहती हैं, ‘प्रदेश सरकार द्वारा शुरू की गई जलयुक्त शिविर योजना पानी  संरक्षित करने की अच्छी पहल है. इसका फायदा जुलाई में जब बारिश शुरू होगी तब दिखेगा. इससे सूखे से निजात मिलेगी और मराठवाड़ा में जीवन फिर से पटरी पर आ जाएगा. पानी भरने की समस्या से निजात मिलने के साथ किसान आत्महत्या भी रुक जाएगी.’

लोकसभा सांसद राजू शेट्टी कहते हैं, ‘सरकार को सभी किसानों का कर्ज माफ कर देना चाहिए. इस मांग को लेकर हम नौ मई को देश भर में आंदोलन करेंगे. जब सरकारी बैंक रईस उद्योगपतियों के एक लाख चौदह हजार करोड़ रुपये का कर्ज छोड़ सकते हैं तो गरीब किसानों का छोटा-सा कर्ज क्यों माफ नहीं करते? विजय माल्या जैसा व्यक्ति बैंकों का 9000 करोड़ का कर्जा चुकाए बिना लंदन भाग जाता है लेकिन एक गरीब किसान 50,000 रुपये का कर्ज न चुका पाने के कारण आत्महत्या कर लेता है.’ 

किसका झारखंड?

रांची का अल्बर्ट एक्का चौक फोटोः अमित दास
रांची का अल्बर्ट एक्का चौक फोटोः अमित दास
रांची का अल्बर्ट एक्का चौक
फोटोः अमित दास

23 जुलाई, 2002 की बात है. पहली बार रांची पहुंचा था. काम के सिलसिले में जब अगली सुबह निकला तो देखा कि सड़कें वीरान होने लगीं. चारों ओर भय-दहशत का माहौल. तोड़फोड़-आगजनी का दौर शुरू हुआ. गाड़ियां बंद. जो जहां था वहीं छिपने की कोशिश करने लगा. एक-दूसरे के पास सूचनाएं पहुंचने लगीं. धुर्वा, डिबडीह, कुटे, नया सराय और आदर्शनगर में स्थिति गंभीर होने का पता चला. पांच लोग मारे जा चुके थे और कर्फ्यू का ऐलान हो चुका था. रांची के इन मोहल्लों का नाम पहली बार सुना था. सुबह से शाम एक अनजान गली में एक अजनबी के घर शरण लिए रहा. मालूम करता रहा कि मामला क्या है. सब यही बताते कि डोमिसाइल की लड़ाई है. ज्यादा समझ में नहीं आया. कोई साफ-साफ बताने वाला नहीं था कि आखिर डोमिसाइल की लड़ाई है क्या. बाद में पता चला कि तब के मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने बिहार की ही डोमिसाइल नीति को झारखंड में लागू कर दिया है और पूरा बवाल इस कारण ही मचा था. दोनों पक्षों में नाराजगी है. दोनों ही पक्षों का मतलब एक पक्ष वह जो झारखंड के मूल निवासी- आदिवासी हैं और दूसरा वह जो बाहर से आकर झारखंड में रह रहे हैं. उस रोज कर्फ्यू लगा रहा. अगले कई दिनों तक शहर तनाव की आग में झुलसता रहा. इस घटना को तकरीबन 14 साल हो गए. झारखंड में डोमिसाइल का मसला काफी गंभीर है. इन वर्षों में डोमिसाइल यानी स्थानीय नीति को तय करने के लिए सभी सरकारों ने बातें कीं, बयान दिए, लगातार वाद-विवाद हुए लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. अब समझ में आ गया था कि दरअसल यह एक ऐसा मसला भी है जिसे हर राजनीतिक दल, हर सरकार बनाए रखना चाहती है ताकि उसे लेकर राजनीति की जा सके.

एक दशक से ज्यादा समय तक चले इस विवाद के बाद अब डोमिसाइल के मुद्दे को झारखंड की वर्तमान सरकार ने एक नीति लागू करके कई निशानों को साधने का काम किया है. मुख्यमंत्री रघुबर दास ने सात अप्रैल को नई डोमिसाइल नीति पास कर दी. रघुबर चाहते तो वे भी अपने पूर्ववर्ती भाजपाई मुख्यमंत्रियों बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा या फिर पूर्व की हेमंत सोरेन सरकार की तरह इसे मुद्दा बनाकर टालते रहते लेकिन उनके लिए अब यह मुश्किल-सा होता जा रहा था. मुश्किल सिर्फ विपक्षियों से नहीं थी. विपक्षियों ने तो मार्च में चले विधानसभा सत्र के दौरान ही डोमिसाइल नीति की मांग को लेकर पांच दिन तक सदन नहीं चलने दिया था. हो-हंगामा होता रहा था और रघुबर दास ने एक लाइन में जवाब देकर विपक्षियों को चुप करा दिया था. पूर्व मुख्यमंत्री और झामुमो नेता हेमंत सोरेन ने विधानसभा सत्र के दौरान डोमिसाइल नीति को लेकर कहना शुरू किया कि यह सरकार नीति बनाना नहीं चाहती तब रघुबर ने पूछा था, ‘आप भी सरकार में थे, आपने तब क्यों नहीं बनाया था?’ इसका जवाब हेमंत नहीं दे पाए थे.

रघुबर ऐसे ही सवाल बाबूलाल मरांडी से लेकर किसी भी पूर्व मुख्यमंत्री से पूछकर उसे चुप करा सकते थे लेकिन उन पर किसी भी तरह से डोमिसाइल नीति को जल्द से जल्द पास कराने का दबाव उनके अपने ही लोगों की ओर से बढ़ गया था. मार्च में जिस समय सदन में रघुबर डोमिसाइल पर विरोधियों के विरोध का सामना कर रहे थे उसी समय भाजपा के ही 28 विधायक भी अपनी ही सरकार को लिखित मांग पत्र सौंपकर जल्द से जल्द स्थानीय नीति बनाने की मांग कर रहे थे. ये 28 विधायक वे थे जो झारखंड के मूल निवासी- आदिवासी हैं. यह स्थिति असहज थी और मामला दिल्ली तक पहुंच गया. भाजपा के प्रदेश प्रभारी त्रिवेंद्र सिंह रावत रांची आए. उन्होंने विधायकों से पूछा कि आप अपनी ही सरकार से लिखित मांग कर रहे हैं, विपक्षियों की तरह घेर रहे हैं, यह गंभीर मामला है.

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‘इस नीति से बाहरी लोगों की स्वार्थपूर्ति होगी. सरकार एक ओर खतियान की बात कर रही है लेकिन दूसरी ओर 1985 को आधार बनाकर उन्हें झारखंड का निवासी बना रही है जो एक षडयंत्र है. सरकार ने सरहुल के पहले स्थानीय लोगों को अपमानित करने का काम किया है इसलिए हम इसके विरोध में लगातार आंदोलन करेंगे’

सुप्रियो भट्टाचार्य
महासचिव, झारखंड मुक्ति मोर्चा[/symple_column]

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रवींद्र राय ने विधायकों की ओर से रावत को जवाब दिया कि भाजपाई विधायकों पर, विशेषकर आदिवासी- विधायकों पर जबरदस्त दबाव है. वे अपने क्षेत्र में जाते हैं तो जनता पूछती है कि स्थानीय नीति का वादा था, वह क्यों नहीं पूरा हो रहा. रावत को भी बात समझ में आ गई. दबाव बढ़ता गया और नतीजा यह हुआ कि मुख्यमंत्री को झारखंड में 10 अप्रैल को होने वाले सबसे लोकप्रिय पर्व ‘सरहुल’ के पहले इसकी घोषणा करनी पड़ी ताकि वे बता सकें कि उनकी सरकार ने जनता को इस त्योहार का तोहफा भेजा है.

16 वर्षों से फंसे एक पेच को सुलझाने की कोशिश करना और डोमिसाइल जैसे विवादित मसले पर एक फाइनल नीति कैबिनेट से पास करना रघुबर दास के लिए कितना मुश्किल काम रहा होगा, उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस दिन इस नीति की घोषणा हुई उसके दो दिन पहले तक वे लगातार एक जगह से दूसरी जगह मीटिंग करते रहे, लोगों से मिलते रहे. उन्होंने बाबूलाल मरांडी को फोन किया लेकिन उनसे बात नहीं हो सकी. हेमंत से बात करने की कोशिश की, उनसे भी बात नहीं हो सकी. आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन पार्टी) के नेता सुदेश महतो से मिले. प्रमुख अखबारों के संपादकों से मिले. कई आला अधिकारियों के साथ मिलते रहे. जिस दिन इसकी घोषणा होनी थी, उस दिन रांची समेत सभी बड़े शहरों को सुरक्षाकर्मियों से पाट दिया गया ताकि कोई प्रतिक्रिया हो तो उसे तुरंत संभाला जा सके. यह शंका-आशंका बेजा नहीं थी.

2002 की घटना झारखंड में एक बड़ी घटना मानी जाती है और यह घटना लोगों के जेहन में अब भी ताजा है. खैर, शंकाएं निर्मूल साबित हुईं. स्थानीय नीति की घोषणा हुई. राजनीतिक पार्टियों का विरोध हुआ. कुछ जगहों पर प्रदर्शन भी हुए. प्रदर्शन और विरोध से ज्यादा दूसरे विपक्षी नेता टीवी चैनलों पर बयान देने और अखबारों को अपने बयान भिजवाने में लगे रहे. रघुबर दास ने जो नीति घोषित की उसका सार छह बिंदुओं में है. पहला- झारखंड में निवास करने वाले ऐसे व्यक्ति जिनका स्वयं या उनके पूर्वज का नाम गत खतियान में दर्ज हो और ऐसे मूल निवासी हों जिनके संबंध में उनकी प्रचलित भाषा, संस्कृति और परंपरा के आधार पर ग्राम सभा की ओर से पहचान किए जाने पर झारखंड के माने जाएंगे. दूसरा- राज्य के ऐसे निवासी जो व्यापार, नियोजन या अन्य कारणों से पिछले 30 साल या उससे अधिक समय से यहां निवास करते हों और अचल संपत्ति अर्जित किया हो, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के निवासी माने जाएंगे. तीसरा- झारखंड सरकार की ओर से संचालित या मान्यता प्राप्त संस्थानों, निगमों आदि के नियुक्त और कार्यरत पदाधिकारी या कर्मचारी, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे. चौथा- भारत सरकार के पदाधिकारी या कर्मचारी, जो झारखंड में कार्यरत हों, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे. पांचवां- झारखंड में किसी संवैधानिक या विधिक पद पर नियुक्त व्यक्ति, उनकी पत्नी और संतानों को झारखंड का निवासी माना जाएगा. आखिरी- जिनका जन्म झारखंड में हुआ हो और जिन्होंने मैट्रिक या समकक्ष स्तर की पूरी परीक्षा राज्य के किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से की हो, उन्हें झारखंड का निवासी माना जाएगा.

इस नीति को लाने का दबाव इसलिए ज्यादा था क्योंकि झारखंड में बड़ी संख्या में बहालियां होने वाली हैं. इनका ऐलान हो चुका है. स्थानीय नीति के साथ ही सरकार ने नियोजन नीति को भी स्पष्ट कर दिया है. सरकार ने जो नियोजन नीति बनाई है उसके अनुसार शिक्षक, जनसेवक, पंचायत सचिव, आरक्षी, चौकीदार, वनरक्षी और एएनएम जैसे पदों पर बहाली जिला स्तर पर होगी और इन पदों पर सिर्फ उसी जिले के स्थानीय लोगों को बहाल किया जाएगा. साथ ही यह भी निर्णय लिया गया कि झारखंड के साहेबगंज, पाकुड़, रांची, खूंटी, लातेहार, सरायकेला खरसांवा, लोहरदगा, पलामू, गुमला, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम जैसे इलाकों में अगले दस वर्षों तक तृतीय और चतुर्थ वर्ग के पदों पर शत-प्रतिशत मूल निवासियों की ही नियुक्ति होगी. इसी तरह की कई बातें डोमिसाइल और नियोजन नीति में सरकार ने शामिल किया है.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/opinion-of-social-activist-a-k-pankaj-on-domicile-policy-in-jharkhand/” style=”tick”]जानिए स्थानीय नीति पर सामाजिक कार्यकर्ता अश्विनी कुमार पंकज के विचार[/ilink]

झारखंड सरकार के इस फैसले के बाद बवाल की स्थिति है लेकिन बवाल कौन करे, किस आधार पर करे, यह अभी तमाम राजनीतिक दल तय नहीं कर पाए हैं. हालांकि झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इसे लेकर झारखंड बंद का भी ऐलान किया था और कई जगहों पर प्रदर्शन भी किए. झामुमो के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य कहते हैं, ‘इस नीति से बाहरी लोगों की स्वार्थपूर्ति होगी. सरकार एक ओर तो खतियान की बात कर रही है लेकिन दूसरी ओर 1985 को आधार बनाकर उन्हें झारखंड का निवासी बना रही है जो एक षड्यंत्र है. सरकार ने सरहुल के पहले स्थानीय निवासियों को अपमानित करने का काम किया है, इसलिए हम इसके विरोध में लगातार आंदोलन करेंगे.’ हालांकि विरोध करने के पीछे सुप्रियो के पास कोई ठोस तर्क नहीं होता. तथ्य नहीं होता. यहां यह बताते चलें कि सुप्रियो अपनी बातों में जिस खतियान की चर्चा करते हैं, उसका आशय 1932 के खतियान से है. झारखंड में कई राजनीतिक दलों व संगठनों की यह मांग रही है कि 1932 के ही खतियान को आधार बनाकर किसी व्यक्ति को झारखंड का निवासी बनने का मौका दिया जाए. झारखंड विकास मोर्चा के प्रमुख व राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी कहते हैं, ‘स्थानीय नीति के जरिए सरकार ने झारखंडियों को झुनझुना थमा दिया है, जो सही नहीं है.’ मरांडी आगे कहते हैं, ‘अभी हमने मसौदा नहीं देखा है, देखेंगे तो बात करेंगे.’

धनबाद का बिरसा मुंडा चौक
धनबाद का बिरसा मुंडा चौक

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‘कोई बोलेगा क्या? किस आधार पर बोलेगा. यहां सबकी सरकारें रही हैं. किसी ने रोका तो नहीं था. जब इतनी चिंता थी तो उनको अपने कार्यकाल में स्थानीय नीति बनाकर लागू करना चाहिए था’ 

नीलकंठ सिंह
भाजपा नेता और कैबिनेट मंत्री[/symple_column]

इस मसले पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय अलग राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार ने जो नीति लागू की है उसमें कुछ छूट गया हो तो उसे शामिल करना चाहिए. आज भले ही भाजपा सरकार ने इसे लागू कर दिया हो लेकिन इसका खाका पूरी तरह से यूपीए सरकार ने ही तय किया था.’ सुबोध कांत  सहाय जैसे वरिष्ठ नेता यह समझ नहीं पा रहे कि उन्हें इस मसले पर क्या स्टैंड लेना है. हालांकि कांग्रेस के ही एक दूसरे नेता और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत कहते हैं, ‘इसमें तो स्थानीय का भाव ही नहीं है तो फिर यह स्थानीय नीति कैसे हुई? यह दुविधा और आपस में ही एक-दूसरे के बयान काटने का खेल सिर्फ कांग्रेस के अंदर नहीं है बल्कि दूसरी पार्टियों में भी ऐसा देखने को मिल रहा है. जैसे एक ओर आजसू के प्रमुख सुदेश महतो इस नीति के लागू होने के पहले मुख्यमंत्री से मुलाकात करते हैं तो दूसरी ओर नीति के लागू होने के बाद आजसू के ही एक प्रमुख नेता देवशरण भगत कहते हैं कि यह नीति अन्याय है.

यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि आजसू सरकार में शामिल पार्टी है. इस पर कुछ बोलने-न बोलने की दुविधा सबसे ज्यादा राजद-जदयू जैसी बिहारी पार्टियों को है. राजद-जदयू जैसी पार्टियां अगर इस पर कुछ बोलती हैं तो उनका बिहारी बेस ही खत्म होगा और बिहारी बेस को हटा देने के बाद झारखंड में राजनीति के लिए उनके पास कुछ खास बचता भी नहीं. प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता व राज्य के कैबिनेट मंत्री नीलकंठ सिंह मुंडा कहते हैं, ‘कोई बोलेगा क्या? किस आधार पर बोलेगा. यहां सबकी सरकारें रही हैं. किसी ने रोका तो नहीं था. जब इतनी चिंता थी तो अपने कार्यकाल में दूसरी सरकारों को इसे बनाकर लागू करना चाहिए था.’ नीलकंठ सिंह वही बात कहते हैं जो भाजपा के सभी बड़े-छोटे नेता कह रहे हैं.

दरअसल स्थानीय की नीति को लागू करना और फिर लगे हाथ विपक्षियों को भी घेर लेना भाजपा की रणनीति का हिस्सा रहा है. जानकार बताते हैं कि रघुबर दास ने इस एक नीति को लागू करके एक साथ कई निशाने साध लिए हैं. एक तो यह कि इससे विपक्षियों कोे झटका लगा है. दूसरा यह कि उन्होंने जिस तरह से स्थानीय नीति तैयार की है उससे भाजपा के आधार वोट में वृद्धि होगी और वह लंबे समय तक जुड़ा भी रह सकता है. सामाजिक कार्यकर्ता अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं, ‘इस खेल को अभी समझ नहीं पा रहा. रघुबर दास ने इस नीति के जरिए झारखंडियों के लिए भले कब्र खोदी हो लेकिन भाजपा के भविष्य के लिए एक उर्वर जमीन जरूर तैयार कर दी है. राजनीतिक दल तो इसका उस तरह से विरोध नहीं कर पाएंगे क्योंकि जब नीति बन रही थी और सरकार ने सुझाव मांगे थे तभी दलों को खुलकर अपनी राय रखनी चाहिए थी लेकिन दलों के विरोध नहीं करने का मतलब यह नहीं होगा कि इस पर झारखंडी समाज चुप रहेगा.’

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कौन होगा झारखंड का निवासी

  • झारखंड में रहने वाले ऐसे व्यक्ति जिनका स्वयं या उनके पूर्वज का नाम गत खतियान (जमीन के मालिकाना हक का कागज) में दर्ज हो और ऐसे मूल निवासी हों जिनके संबंध में उनकी प्रचलित भाषा, संस्कृति और परंपरा के आधार पर ग्राम सभा की ओर से पहचान किए जाने पर झारखंड के माने जाएंगे.
  • राज्य के ऐसे निवासी जो व्यापार, नियोजन या अन्य कारणों से पिछले 30 साल या उससे अधिक समय से यहां निवास करते हों और अचल संपत्ति अर्जित किया हो, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के निवासी माने जाएंगे.
  • झारखंड सरकार की ओर से संचालित या मान्यता प्राप्त संस्थानों, निगमों आदि के नियुक्त और कार्यरत पदाधिकारी या कर्मचारी, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे.
  • भारत सरकार के पदाधिकारी या कर्मचारी, जो झारखंड में कार्यरत हों, वे, उनकी पत्नी और बच्चे झारखंड के माने जाएंगे.
  • झारखंड में किसी संवैधानिक या विधिक पद पर नियुक्त व्यक्ति, उनकी पत्नी और संतानों को झारखंड का निवासी माना जाएगा.
  • जिनका जन्म झारखंड में हुआ हो और जिन्होंने मैट्रिक या समकक्ष स्तर की पूरी परीक्षा राज्य के किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से पास की हो, उन्हें झारखंड का निवासी माना जाएगा.

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बकौल अश्विनी पंकज, ‘वैसे झारखंडी समाज किसी बात पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं करता, इसलिए अभी शांत है लेकिन आज नहीं तो कल इस नीति के खिलाफ प्रतिक्रिया होगी और जब लोग प्रतिक्रिया करेंगे तो एक विशाल आंदोलन खड़ा होगा.’ गिरिडीह में रहने वाले भाकपा माले के नेता मनोज उन नेताओं में रहे हैं जिन्होंने स्थानीय की नीति लागू होते ही उसका अध्ययन किया और कहा कि यह झारखंड के भविष्य के लिए ठीक नहीं. मनोज कहते हैं, ‘इस नीति की खामियों को दूसरे तरीके से समझना होगा तब मालूम होगा कि यह क्यों और कैसे झारखंड विरोधी नीति है. सरकार ने 1985 से या उससे पहले रहने वाले लोगों को झारखंडी बनाने का फैसला किया है. हम लोगों की मांग 1932 के आधार पर रही है. 60 और 70 का दशक वह दौर रहा है जब झारखंड में बड़ी संख्या में बाहरियों का प्रवेश हुआ. कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ, एचईसी और बोकारो स्टील प्लांट जैसी कंपनियां झारखंड में आईं. इसके साथ ही मजदूर से लेकर ठेकेदार के रूप में लोग यहां पहुंचे. इनमें ऐसे लोग अधिक रहे जिनका झारखंड से वास्ता सिर्फ रोजगार का रहा. वे भाषा, संस्कृति के आधार पर हमेशा अपने मूल से ही जुड़े रहे. अब वे सारे लोग झारखंडी हो जाएंगे. इनमें अधिकांश संख्या उन लोगों की होगी जिनका आगे भी झारखंड की अस्मिता, भाषा-संस्कृति और संकटों से मतलब नहीं रहेगा. जब ऐसे लोग अचानक ही वैधानिक तौर पर झारखंडी बन जाएंगे तो जाहिर-सी बात है कि उनका वर्चस्व बढ़ेगा और फिर झारखंडी जनता पीछे हो जाएगी.’ मनोज जिन बातों की ओर इशारा करते हैं उसे झारखंड में कई स्तरों पर जांचा और आंका जा सकता है. झारखंड के हर हिस्से में बाहरी आबादी की संख्या बहुत ज्यादा है लेकिन उसमें भी बोकारो, रांची के एचईसी इलाके और धनबाद में बसे लोगों में अधिकांश बाहरी ही हैं. इन इलाकों में झारखंड की भाषा-संस्कृति का न तो ज्यादा असर दिखता है, न ही इन लोगों का झारखंड की संस्कृति से कोई सरोकार ही नजर आता है. यह स्थिति कमोबेश हर जगह दिखती है.

जो झारखंड को जानते हैं वे यह मान रहे हैं कि स्थानीय नीति के बाद एक नई लड़ाई जरूर अंगड़ाई लेगी. झारखंड में बाहरी-भीतरी की लड़ाई राज्य निर्माण के पहले से ही तेज रही है. राज्य निर्माण के बाद से तो यह लड़ाई और तेज होती रही है. दो महीने पहले तक राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जैसे नेता सदन में खुलेआम बाहरियों को तीर-धनुष से भगाने की बात किया करते थे.  यह माना जा रहा है कि झामुमो अब अपना पक्ष साफ करेगी. वह झारखंडी अस्मिता की राजनीति करने वाली सबसे बड़ी पार्टी है. वह चाहेगी कि इस मसले पर जनता की गोलबंदी हो. इसके लिए वह आक्रामक राजनीति करने की कोशिश करेगी. आदिवासी इलाके में झामुमो के आंदोलन का असर भी होगा. पेच बस यह फंसेगा कि डोमिसाइल की नीति से सिर्फ आदिवासियों का अहित नहीं होने वाला बल्कि यह झारखंड के मूल निवासियों का साझा मसला है और राज्य निर्माण के 16 सालों में झामुमो, आजसू समेत कई पार्टियों ने मूल निवासी- आदिवासियों और सदानों (गैर-आदिवासी) के बीच अपने-अपने आधार के विस्तार के चक्कर में झारखंडी एकता को दांव पर लगा दिया है.

‘गुजराती समाज के सांप्रदायिकीकरण की लंबी प्रक्रिया चलाई गई थी’

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अपनी किताब  ‘गुजरात बिहाइंड द कर्टेन’  के बारे में बताइए?

यह किताब 2015 में प्रकाशित हुई थी, लेकिन इसका लोकार्पण नहीं हो सका था. इसके लिए न तो प्रकाशक और न ही किसी और ने हिम्मत दिखाई क्योंकि लोगों को एक तरह का डर है. इस किताब में मूल रूप से वही बातें हैं जो मैंने अपने एफिडेविट में दी थीं, यह सारा रिकाॅर्ड मेरी वेबसाइट पर उपलब्ध था लेकिन उसकी पहुंच ज्यादा नहीं थी. फिर मैंने इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए पुस्तक का रूप देने के बारे में सोचा, क्योंकि मुझे लगा कि पुस्तक के रूप में इसे ज्यादा लोग पढ़ेंगे. लोगों ने भी सुझाव दिया कि इसे पुस्तक का रूप देते हुए प्रकाशित किया जाए. इस तरह से ये किताब ‘गुजरात बिहाइंड द कर्टेन’ सामने आई जिसका उद्देश्य सच्चाई को सामने लाना है. किताब तैयार होने के बाद कोई भी प्रकाशक इसे प्रकाशित करने को तैयार नहीं हो रहा था. एक प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक ने तो इसे चार महीने अपने पास रखने के बाद यह कहते हुए वापस कर दिया कि इसमें खतरनाक बातें हैं. जब मैंने उनसे कहा कि इस किताब में जो भी लिखा है, उसके सपोर्टिंग दस्तावेज मेरे पास हैं और सारी जवाबदेही मेरी होगी, लेकिन उनका कहना था कि हम एक कंपनी हैं और कोई रिस्क नहीं ले सकते.

240 पृष्ठों की इस किताब में कुल 14 अध्याय हैं, पहले अध्याय में 2002 के नरसंहार का संदर्भ बताया गया है. दूसरे अध्याय में उस समय के वातावरण का विवरण है. तीसरे में इस बात का उल्लेख है कि कैसे मैंने एक पुलिस आॅफिसर के तौर पर अपने कर्तव्यों का पालन किया. चौथे अध्याय में है कि कैसे सत्य की विजय हुई. पांचवें में मैंने लिखा है कि कैसे अपना काम ईमानदारी से करने की वजह से मुझे दंडित किया गया और मैंने इसके खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी. छठे अध्याय में जांच आयोग की उदासीनता का विवरण है. सातवां अध्याय जांच टीम द्वारा की गई लापरवाही के बारे में है. आठवें अध्याय में यह विवरण है कि कैसे मैंने गलत आदेशों को नहीं माना. नौवें अध्याय में मैंने उन अधिकारियों के बारे में बताया है जिन्होंने दंगों में सहयोग किया था और इसी अध्याय में उन अधिकारियों के बारे में भी बताया गया है जिन्होंने कानून के अनुसार कार्य करते हुए हिंसा नहीं होने दी. दसवां अध्याय कांग्रेस व समाजवादी पार्टी की फर्जी धर्मनिरपेक्षता को लेकर है. ग्यारहवें अध्याय में दंगे और राजधर्म का उल्लेख किया गया है. बारहवें अध्याय में बताया है कि गुजरात दंगे से हम क्या सबक सीख सकते हैं. तेरहवें अध्याय में राजनीति के अपराधीकरण का विवरण है और अंतिम अध्याय में मेरे वे पत्र शामिल हैं जो मैंने प्रधानमंत्री, तत्कालीन गृहमंत्री आडवाणी, केरल के मुख्यमंत्री एवं केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री को लिखे थे. 

वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के तौर पर गुजरात दंगों के दौरान आपने क्या महसूस किया?

दंगों के दौरान हालात बहुत खराब थे, उस समय मैं ऑफिस के लिए अहमदाबाद से गांधीनगर आता था. मैंने खुद देखा कि किस तरह से पुलिस की टुकड़ी खड़ी हुई है और दंगाई लोगों को मार रहे हैं, दुकानें जला रहे हैं. दंगे की तैयारी बहुत पहले से की गई थी क्योंकि मुस्लिम मिल्कियत वाली दुकानों और घरों को चिह्नित करके जलाया गया था. इसके कई उदाहरण आपके सामने पेश कर सकता हूं. एक बार देखा कि बाटा की एक दुकान जलाई गई है. मैंने अपने सहयोगी पुलिसकर्मी से पूछा कि इन लोगों ने बाटा की दुकान क्यों जलाई तो उन्होंने बताया कि इसमें मेमन लोगों का 50 प्रतिशत शेयर है. इसी तरह से मेट्रो शूज की दुकानों को निशाना बनाया गया क्योंकि इनकी ओनरशिप में भी मुस्लिम समुदाय के लोग थे. इससे स्पष्ट है कि दंगे की तैयारी बहुत पहले से की गई थी और बाकायदा अध्ययन किया गया था कि कौन-सी दुकान हिंदुओं की थी और कौन-सी मुसलमानों की. यहां तक कि कई हिंदू नाम वाले होटलों पर भी हमले हुए क्योंकि उसे मुस्लिम चला रहे थे. ऐसा लगता है उनका इरादा मुसलमान समुदाय को आर्थिक रूप से भी तोड़ देने का था.

गुजरात में जो कुछ भी हुआ, उसमें आप राजनीति, पुलिस-प्रशासन और समाज की भूमिका को कैसे देखते हैं?

गुजरात में 2002 में हुई घटनाएं सुनियोजित थीं. इसके लिए पहले से योजनाएं बनाई गई थीं. फरवरी और मार्च के महीनों में गुजरात के 11 जिलों में बिना किसी रोक-टोक के हिंसा होती रही क्योंकि इसे संरक्षण प्राप्त था. उस दौरान पुलिस-प्रशासन की भूमिका मूकदर्शक की बनी रही. मैंने जांच के दौरान पाया कि हिंदुत्ववादी संगठनों के लोगों ने गुजरात हिंसा को अंजाम दिया और इसमें उन्हें मोदी सरकार का संरक्षण प्राप्त था. प्रशासन ने जिन स्थानों पर दंगाइयों की मदद की या मौन रही वहीं पर ही बड़ी घटनाएं हुईं. इन हिंसक घटनाओं के प्रति समाज का रवैया भी संवेदनहीन था. जो थोड़ी-बहुत प्रतिक्रियाएं हुईं भी, वे भी कुछ शहरों और कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित थीं. लेकिन ये सब अचानक नहीं हुआ था. इसकी एक पृष्ठभूमि है. गुजराती समाज के सांप्रदायिकीकरण  के लिए लंबी प्रक्रिया चलाई गई थी. गुजरात में ऐसा जनमानस बना दिया गया था कि लोग हिंदू और मुसलमान को अलग-अलग प्रजाति की तरह मानने लगे थे. ऐसा लगता था मानो लोगों में एक-दूसरे के प्रति नफरत और घृणा की भावना ‘बोन मैरो’ (अस्थि-मज्जा) तक इंजेक्ट कर दी गई हो. इन सबमें कांग्रेस की भी भूमिका है, क्योंकि वह धर्मनिरपेक्षता का दिखावा ही करती रही और उन्होंने जमीनी स्तर पर इस प्रक्रिया के जवाब में कुछ नहीं किया. इसी तरह से मुसलमानों के ‘अरबीकरण’ की प्रक्रिया भी चलाई गई.

‘लोगों में एक-दूसरे के प्रति नफरत और घृणा की भावना ‘बोन मैरो’ तक इंजेक्ट कर दी गई. इन सबमें कांग्रेस की भी भूमिका है, क्योंकि वह धर्मनिरपेक्षता का दिखावा ही करती रही. इसी तरह से मुसलमानों के ‘अरबीकरण’ की प्रक्रिया भी चलाई गई’

गुजरात दंगों में और उसके बाद भी पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल उठते रहे हैं? इस बारे में आप क्या कहेंगे?

ऐसा नहीं है कि गुजरात में पुलिस की भूमिका सिर्फ नकारात्मक रही है, बल्कि गुजरात पुलिस ने कई राज्यों के मुकाबले इस मामले में बेहतर भूमिका निभाई है. गुजरात में दंगों के दौरान 30 पुलिस प्रशासनिक जिले थे, जिसमें से केवल 11 जिलों में गंभीर हिंसा की घटनाएं हुईं, अन्य 11 जिलों में कोई भी बड़ी घटना नहीं हुई और न ही कोई हत्या हुई. बाकी जिलों में भी छिटपुट घटनाएं ही देखने को मिलीं. इसलिए यह व्यवस्था की असफलता नहीं थी, बल्कि यह कई अधिकारियों की व्यक्तिगत असफलता थी. ज्यादातर जिलों में व्यवस्था बनी रही तो इसका श्रेय व्यवस्था और प्रतिबद्ध अधिकारियों को जाता है. इसके बाद जिन लोगों ने दंगे रोकने का प्रयास किया या चार्जशीट में दर्ज ‘आधिकारिक’ बयान पर असहमति जताई थी, उन्हें अनेक तरीकों से दंडित किया गया जिसमें मैं भी शामिल हूं. सांप्रदायिक परिस्थितियों में किस तरह का एक्शन लेना है इसके लिए पुलिस मैन्युअल में एसओपी (Standard Operating Procedures Manual) है, जिसे घटनाओं के समय कार्यान्वित करना जरूरी है लेकिन ज्यादातर अधिकारियों ने गलत एफिडेविट दिया जो कि मोदी साहब द्वारा बनवाया गया था और सरकार के समर्थन में था, केवल मैंने और राहुल शर्मा ने अपना एफिडेविट बनाया था. इसका हमें खामियाजा भी भुगतना पड़ा. गुजरात सरकार ने मेरे खिलाफ गुपचुप तरीके से ‘सीक्रेट डायरी’ बनाने और सरकार के गोपनीय दस्तावेज जांच पैनल को मुहैया कराने के आरोप लगाए. मुझे धमकी दी गई थी कि अगर मैंने सच बोला तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. नौकरी के आखिरी चार सालों में मोदी साहब ने मुझे कोई काम नहीं दिया और मेरी पदोन्नति भी रोक दी गई. उस दौरान मेरे पास कोई फाइल नहीं भेजी जाती थी, बस मुझे एक कमरे में बैठा दिया गया था और एक चपरासी दे दिया गया था. मुझे वहां आकर सुबह से शाम तक खाली बैठे रहना पड़ता था.

आप लंबे समय तक पुलिस सेवा में रहे हैं, इस दौरान पुलिसिंग में किस तरह के बदलाव आए?

पहले के मुकाबले परिस्थितियों में बदलाव आया है. यह बदलाव इमरजेंसी के बाद स्पष्ट देखा जा सकता है जिसके बाद से पॉलिटिकल ब्यूरोक्रेसी (मंत्री) की तरफ से सिविल ब्यूरोक्रेसी (पुलिस-प्रशासन) को ये संदेश आने लगे कि आपको क्या और कैसे करना है. इस तरह से पुलिस और प्रशासन के लोग दबाव में काम करने को मजबूर किए जाने लगे लेकिन फिर भी उस समय अगर कोई अधिकारी दबाव में कोई काम करने से मना कर देता था तो राजनेताओं की तरफ से उन पर ज्यादा दबाव नहीं डाला जाता था.

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ऐसा नहीं है कि गुजरात में पुलिस की भूमिका सिर्फ नकारात्मक रही है, बल्कि गुजरात पुलिस ने कई राज्यों के मुकाबले इस मामले में बेहतर भूमिका निभाई है. गुजरात में दंगों के दौरान 30 पुलिस प्रशासनिक जिले थे, जिसमें से केवल 11 जिलों में हिंसा की गंभीर घटनाएं हुईं

प्रशिक्षण के बाद मुझे गुजरात कॉडर मिला, वहां मैं सात जिलों में एसपी रहा. स्थानीय नेता और एमएलए लोग मुझे किसी भी जिले में 10 माह से ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. पहले के राजनेता थोड़े बेहतर थे और कई बार मुख्यमंत्री तबादला करने से पहले मुझे बुलाकर कहते थे कि मैं आपके काम से खुश हूं लेकिन आप स्थानीय विधायक से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं. मुझे उनकी बात भी सुननी पड़ेगी, इसलिए आपको कहीं और भेजना पड़ेगा.

अब तो पुलिस का राजनीतिकरण कर दिया गया है. राजनेता चाहते हैं कि पुलिस उनके मन और विचार के अनुसार ही काम करे. नेताओं के इस स्वभाव को मैं एंटीसिपेटरी साइकोफेंसी यानी अग्रिम चाटुकारिता कहता हूं. पुलिस भी, जो लोग सत्ता में होते हैं उनके कहने के अनुसार काम करने लगी है. अब उसका मकसद सत्ताधारी नेताओं और पार्टी को खुश करना हो गया है. इसकी वजह से आज हम देखते हैं कि कई पुलिस अधिकारी राजनेताओं को खुश करने के लिए एनकाउंटर तक कर रहे हैं. पुलिस में बहुत गिरावट आई है. सीआरपीसी में कॉन्स्टेबल से लेकर डीजी तक के अधिकारों का उल्लेख है. विधायिका ने उन्हें सीधे तौर पर शक्ति दी है लेकिन वे इन शक्तियों के उपयोग की जगह राजनेताओं के दबाव में काम करने लगे हैं.

नरेंद्र मोदी आपसे नाराज क्यों हो गए थे?

9 अप्रैल, 2002 को जब मुझे एडीजीपी (इंटेलीजेंस) के तौर पर पोस्ट किया गया तो मैंने डीजी साहब को साफ कहा था कि मैं सच ही रिपोर्ट करूंगा. मेरे पास फील्ड से हेड कॉन्स्टेबल, इंस्पेक्टर जो रिपोर्ट भेजते थे, मैंने उन पर एक्शन लेना शुरू कर दिया जो कि ज्यादातर संघ परिवार के खिलाफ थे. यह सब मोदी साहब को अच्छा नहीं लगा होगा, उस समय आला अधिकारियों ने मुझसे यहां तक कहा कि आप हिंदुओं के खिलाफ काम कर रहे हैं.

अपनी किताब के हर अध्याय की शुरुआत भी आप धर्म ग्रंथों से उद्धरण देकर करते हैं, एक तरफ वह हिंदू धर्म है जिस पर आप विश्वास करते हैं लेकिन दूसरी तरफ हिंदुत्व के ही नाम पर अलग तरह का समाज और देश बनाने की कोशिश की जा रही है, इन दोनों में क्या फर्क देखते है?

दोनों में बहुत फर्क है. हिंदुत्व का आंदोलन हिंदू धर्म के मूल आदर्शों के खिलाफ है, मेरा जिस हिंदू दर्शन में विश्वास है वो गांधी जी की तरह है जो भगवद्गीता में विश्वास करते थे जबकि उन लोगों का जिस हिंदू धर्म में विश्वास है वो गोडसे की तरह का है. अजीब बात है कि गोडसे ने अपनी पुस्तक ‘मैंने गांधी को क्यों मारा’ में लिखा है कि उन्होंने गांधी जी की हत्या भगवद्गीता से प्रेरणा लेकर की है. यहां हम देखते हैं कि गांधी और गोडसे दोनों की प्रेरणा भगवद्गीता ही है. ठीक इसी तरह से जिन लोगों ने हजारों गरीब और निर्दोष मुसलमानों को मार डाला है अगर उनका प्रेरणास्रोत भगवद्गीता है तो मुझे भी गीता से ही प्रेरणा मिलती है. मैं मानता हूं कि जिस तरह से ‘आईएसआईएस’ और ‘अलकायदा’ का राजनीतिक इस्लाम, इस्लाम धर्म के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है उसी तरह से संघ परिवार और दूसरे हिंदुत्ववादी संगठनों की विचारधारा भी हिंदू धर्म के खिलाफ है. हिंदू धर्म तो इतना विविध है कि एक ही परिवार में एक भाई नशा करके मांस खाकर काली की आराधना कर सकता है, वहीं दूसरा भाई बिना प्याज-लहसुन खाए विष्णु की पूजा करता है. मैंने लालकृष्ण अाडवाणी को भेजे गए अपने पत्र में उनसे पूछा था कि अगर आप मुझे हिंदू धर्म की मूल पुस्तकों में एक भी ऐसा श्लोक दिखा दें जो मस्जिद तोड़ने को जायज ठहरता हो तो मैं आपका समर्थन करने को तैयार हो जाऊंगा. इबादतगाहों को तोड़ना किसी भी ग्रंथ में नहीं लिखा है और जिन लोगों ने ऐसा किया है उन्होंने हिंदू धर्म के खिलाफ काम किया है, आईएसआईएस ने इस्लाम का जितना नुकसान किया है उतना किसी और का नहीं किया है. इसने सबसे ज्यादा मुसलमानों को ही मारा है. इसी तरह से हिंदुत्ववादी भी हिंदू धर्म के लिए खतरनाक हैं और इनको रोकना सच्चे हिंदू का कर्तव्य है.

आजकल जिस तरह खुलेआम भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात की जा रही है, भविष्य के मद्देनजर इसे आप कैसे देखते हैं?

मैं ये मानता हूं कि अभी भी बहुसंख्यक भारतीय सर्वधर्म सद्भावना में विश्वास करते हैं. आज भी आप दरगाहों, मजारों पर बड़ी संख्या में हिंदुओं को देख सकते हैं. हमारे देश की सबसे बड़ी खासियत यही है कि लोग भले ही अपने धर्म को ज्यादा पसंद करते हों लेकिन इसी के साथ वे दूसरों की धार्मिक भावनाओं को भी इज्जत देते हैं. हमारी इसी ताकत को तोड़ने की कोशिश की जा रही है और इसके बदले संघ परिवार देश और समाज पर हिंदुत्ववादी व्यवस्था को थोपने की कोशिश कर रहा है जो कि मूल रूप से ब्राह्मणवादी विचारधारा है. वर्तमान में इसके खतरे बढ़ गए हैं लेकिन हमारे देश और समाज की जिस तरह से बनावट है उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं होने वाला है. मुझे विश्वास है कि आने वाले दिनों में इसके खिलाफ प्रतिरोध की और आवाजें उठेंगी.

नेताजी गुमनाम!

सभी फोटो साभार : शक्ति सिंह, राकेश यादव
सभी फोटो साभार : शक्ति सिंह, राकेश यादव
सभी फोटो साभार : शक्ति सिंह, राकेश यादव

कभी अवध की राजधानी रहा फैजाबाद जिला अपने भीतर तमाम तरह की रहस्यमयी कहानियां समेटे हुए है. सरयू नदी के किनारे बसे इस शहर में ऐसी ही एक कहानी की शुरुआत 16 सितंबर, 1985 को तब होती है जब शहर के सिविल लाइंस में स्थित ‘राम भवन’ में गुमनामी बाबा या भगवन जी की मौत होती है और उसके दो दिन बाद बड़ी गोपनीयता से इनका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है. हालांकि लोग तब हैरान रह जाते हैं जब उनके कमरे से बरामद सामान पर उनकी नजर जाती है. उसी के ठीक बाद इस तरह की बात ने दम भरा कि ये व्यक्ति कोई साधारण बाबा नहीं थे और ये नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी हो सकते हैं. हालांकि सरकार के अनुसार नेताजी की 1945 में एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई थी. लेकिन गुमनामी बाबा के पास से बरामद चीजों में नेताजी के परिवार की तस्वीरें, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित नेताजी से संबद्ध आलेख, कई आला लोगों के पत्र, नेताजी की कथित मौत के मामले की जांच के लिए गठित शाहनवाज आयोग एवं खोसला आयोग की रिपोर्ट आदि शामिल हैं.

स्थानीय लोगों की मानें तो गुमनामी बाबा इस इलाके में तकरीबन 15 साल रहे. वे 1970 के दशक में फैजाबाद पहुंचे थे. शुरुआत में वे अयोध्या की लालकोठी में किरायेदार के रूप में रहा करते थे और इसके बाद कुछ समय प्रदेश के बस्ती शहर में भी बिताया लेकिन यहां लंबे समय तक उनका मन नहीं लगा और वे वापस अयोध्या लौट आए. यहां वे पंडित रामकिशोर पंडा के घर रहने लगे. कुछ सालों बाद ही उन्होंने यह जगह भी बदल दी. उनका अगला ठिकाना अयोध्या सब्जी मंडी के बीचोबीच स्थित लखनऊवा हाता रहा. इन सारी जगहों पर वे बेहद गुप्त तरीके से रहे. इस दौरान उनके साथ उनकी एक सेविका सरस्वती देवी रहीं जिन्हें वे जगदंबे के नाम से बुलाया करते थे. अपने आखिरी समय में गुमनामी बाबा फैजाबाद के राम भवन में पिछवाड़े में बने दो कमरे के मकान में रहे. यहीं उनकी मृत्यु हुई और उसी के बाद कयास तेज हुए कि ये सुभाष चंद्र बोस हो सकते हैं.

सुभाष चंद्र बोस राष्ट्रीय विचार केंद्र के अध्यक्ष और राम भवन के मालिक शक्ति सिंह उनके राम भवन आने की कहानी बताते हैं, ‘शहर के एक चिकित्सक डॉ. आरपी मिश्र के माध्यम से गुमनामी बाबा का संपर्क पूर्व नगर मजिस्ट्रेट और मेरे दादा ठाकुर गुरुदत्त सिंह से हुआ. उस समय यह कहा गया कि एक दोस्त के बाबा बीमार हैं. इस दौरान वे पूरी गोपनीयता बरतते हुए रात में राम भवन के उस हिस्से में शिफ्ट हो गए जो उनके लिए मुकर्रर किया गया था. यहां उनसे मिलने सीमित लोग आते थे. कुछ लोग देर रात कार से भी आते थे और सुबह होने से पहले ही चले जाते थे. चिट्ठियां भी आती थीं. गुमनामी बाबा ज्यादातर लोगों से पर्दे के पीछे रहकर बात करते थे. वे किसी के सामने नहीं आते थे. गुमनामी बाबा अंग्रेजी, जर्मन, बांग्ला समेत कई भाषाएं जानते थे. उन्होंने करीब दो साल का समय राम भवन में बिताया. लोग उन्हें देख नहीं पाते थे. मैंने भी इस दरमियान उन्हें कभी ठीक ढंग से नहीं देखा.’ 

कहा जाता है कि गुमनामी बाबा के चेहरे पर तेजाब डाले जाने को लेकर उनके स्थानीय शिष्यों में विवाद इस कदर उग्र हुआ था कि इस हाईप्रोफाइल मामले को मीडिया के सामने लीक कर दिया गया था. नतीजतन देहांत के 42 दिन बाद एक समाचार पत्र ने संबंधित समाचार को सुर्खियां देते हुए प्रकाशित किया

राम भवन में गुमनामी बाबा ने जब अंतिम सांस ली तो उस दिन की गतिविधियों के गवाह रहे कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि गुमनामी बाबा उर्फ भगवन जी के करीबी डॉ. आरपी मिश्र और पी. बनर्जी सुबह से लगातार उनके कमरे से अंदर-बाहर आ-जा रहे थे. दोपहर तक गुमनामी बाबा की मौत की खबर फैल चुकी थी. लिहाजा राम भवन के बाहर लोगों का जमावड़ा लगने लगा था. सबसे ज्यादा कौतूहल इस बात को लेकर था कि पता करें गुमनामी बाबा दिखते कैसे थे. हालांकि इस दौरान स्थानीय प्रशासन भी पहरा बिठा चुका था. कहा जाता है कि फौज व प्रशासन के आला अधिकारियों की मौजूदगी में गुपचुप ढंग से गुमनामी बाबा के पार्थिव शरीर को गुफ्तार घाट ले जाकर कंपनी गार्डेन के पास अंतिम संस्कार कर दिया गया. लोगों का कहना है कि इस सैन्य संरक्षित क्षेत्र में किसी साधारण शख्स के अंतिम संस्कार की कल्पना तक बेमानी है. उनके बाद से आज तक फिर वहां किसी का अंतिम संस्कार नहीं किया गया है. बाद में इसी जगह पर उनकी समाधि बनवाई गई है. कहा जाता है कि गुमनामी बाबा के चेहरे पर तेजाब डाले जाने को लेकर उनके स्थानीय शिष्यों में विवाद इस कदर उग्र हुआ था कि कुछ शिष्यों ने इस हाई प्रोफाइल मामले को मीडिया के सामने लीक कर दिया था. नतीजतन देहांत के 42 दिन बाद एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र ने संबंधित समाचार को सुर्खियां देते हुए प्रकाशित किया. इसके बाद फैजाबाद समेत पूरे देश में भूचाल-सा आ गया.

स्थानीय लोगों ने बताया कि जब उनके निधन के बाद उनके नेताजी होने की बातें फैलने लगीं तो नेताजी की भतीजी ललिता बोस कोलकाता से फैजाबाद आईं और गुमनामी बाबा के कमरे से बरामद सामान देखकर यह कहते हुए फफक पड़ी थीं कि यह सब कुछ उनके चाचा का ही है. इसके बाद से स्थानीय लोगों ने राम भवन के सामने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया. लंबे समय तक चले इस प्रदर्शन से सरकार इस मामले पर बैकफुट पर आ गई. जब लंबे समय तक जनदबाव बना रहा तो केंद्र सरकार को नए सिरे से इस मामले की जांच कराने के लिए मुखर्जी आयोग का गठन करना पड़ा. हालांकि बाद में जब आयोग की पूरी रिपोर्ट को सरकार ने ठीक ढंग से स्वीकार नहीं किया तो सुभाष चंद्र बोस की भतीजी ललिता बोस ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. बाद में गुमनामी बाबा के यहां मिली चीजों के सही रखरखाव और संरक्षण के लिए राम भवन के मालिक शक्ति सिंह भी इस मामले से जुड़ गए.

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      गुमनामी बाबा के कमरे से मिला सामान

  • नेताजी की तरह के दर्जनों गोल चश्मे
  • प्रख्यात रोलेक्स ब्रांड की जेब और हाथ घड़ियां
  • 555 सिगरेट, सिगार, सिगार क्लीनर और विदेशी शराब का बड़ा स्टॉक, दूरबीन, ऑडियो टेप, टाइपराइटर
  • आजाद हिंद फौज की यूनिफॉर्म
  • सुभाष चंद्र बोस के परिवार की निजी तस्वीरें
  • 1974 में कलकत्ता के दैनिक अखबार ‘आनंद बाजार पत्रिका’ में 24 किस्तों में छपी खबर ‘ताइहोकू विमान दुर्घटना एक बनी हुई कहानी’ की कटिंग्स
  • जर्मन, जापानी और अंग्रेजी साहित्य की ढेरों किताबें
  • कलकत्ता में हर वर्ष 23 जनवरी को मनाए जाने वाले नेताजी के जन्मोत्सव की तस्वीरें
  • सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु की जांच पर बने शाहनवाज और खोसला आयोग की रिपोर्टें
  • सैकड़ों टेलीग्राम, पत्र आदि जिन्हें भगवन जी के नाम पर संबोधित किया गया था, इसमें गुरु गोलवलकर के पत्र भी
  • आजाद हिंद फौज की गुप्तचर शाखा के प्रमुख पवित्र मोहन रॉय के लिखे गए बधाई संदेश[/symple_box]

इस दौरान याचिकाकर्ताओं ने मांग की कि गुमनामी बाबा से जुड़े सामान को संग्रहालय में रखा जाए ताकि आम लोग उसे देख सकें. मामले की सुनवाई करते हुए 31 जनवरी, 2013 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया था कि गुमनामी बाबा के सामान को संग्रहालय में रखा जाए ताकि आम लोग उन्हें देख सकें. इससे पहले भी हाई कोर्ट के आदेश पर जिला प्रशासन को गुमनामी बाबा के कमरे से मिली चीजों और दस्तावेजों की फर्द (सूची) बनानी पड़ी और राजकीय कोषागार में इसे रखा गया.

लखनऊ बेंच ने 31 जनवरी, 2013 के फैसले में यह भी कहा था, ‘1945 में एक प्लेन क्रैश में मारे गए नेताजी की मृत्यु के संदर्भ में विभिन्न इतिहासकारों और पत्रकारों की खोजबीन को खंगालने के बाद निष्कर्ष निकला है कि प्लेन क्रैश में नेताजी की मृत्यु हुई या नहीं, इस बारे में निश्चित राय कायम नहीं की जा सकती, पर यह तथ्य निर्विवाद और सर्वविदित है कि नेताजी स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे सेनानी थे जिन्होंने आजादी की लड़ाई में सभी के दिल में आजादी का जज्बा भर दिया था. ऐसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की स्मृति या उनकी धरोहर आने वाली नस्लों के लिए प्रेरणादायक है. अगर फैजाबाद में रहने वाले गुमनामी बाबा, जिनके बारे में लोगों का विश्वास था कि वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस हैं और उनके पास आने-जाने वाले लोगों व उनके कमरे में मिली तमाम वस्तुओं से इस बात का तनिक भी आभास होता है कि लोग गुमनामी बाबा को नेताजी के रूप में मानते थे तो ऐसे व्यक्ति की धरोहर को राष्ट्र की धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा जाना चाहिए.’ इसी आदेश के परिप्रेक्ष्य में गृह अनुभाग उत्तर प्रदेश शासन ने तत्कालीन जिलाधिकारी विपिन कुमार द्विवेदी को आदेश दिया कि गुमनामी बाबा के सामान को संग्रहीत करने के लिए निर्माणाधीन राम कथा संग्रहालय का चयन किया गया है. तब से लेकर गुमनामी बाबा से जुड़े सामान को राम कथा संग्रहालय पहुंचाने की कवायद चल रही है.

‘अपने जीवन में नेताजी ने जैसी जिंदगी जी है उसके आधार पर क्या आप यह मान सकते हैं कि वह सिर्फ मौत के डर से गुमनामी की जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो सकते हैं. जब वह गुलामी के समय अंग्रेजों को छका सकते हैं तो आजाद भारत में उनके लिए यह बेहद आसान रहता’

फैजाबाद में गुमनामी बाबा के पास से मिले चश्मे व अन्य सामान की जांच करते तकनीकी टीम के सदस्य
फैजाबाद में गुमनामी बाबा के पास से मिले चश्मे व अन्य सामान की जांच करते तकनीकी टीम के सदस्य

फैजाबाद में आपको गुमनामी बाबा और नेताजी से जुड़ी ढेरों कहानियां मिल जाएंगी. इसमें से ज्यादातर कहानियों के अनुसार गुमनामी बाबा ही नेताजी थे. ऐसी ही एक कहानी के अनुसार, नेताजी की गुमनाम जिंदगी पं. जवाहरलाल नेहरू और गांधी की देन है. 18 अगस्त, 1945 को विमान दुर्घटना में नेताजी शहीद हो गए, ऐसा सरकार कहती है. उस समय नेताजी जापान में थे. अंग्रेजों ने जापान में उनकी हत्या का षडयंत्र रचा था जिसकी भनक लगने पर नेताजी भूमिगत हो गए थे और 22 अगस्त, 1945 को बीबीसी रेडियो पर खबर आई थी कि विमान दुर्घटना में नेताजी मारे गए. रूसी राष्ट्रपति स्टालिन से नेताजी के अच्छे संबंध थे. नेताजी ने उनसे बात की और गुप्त रूप से रूस चले गए. इससे ब्रिटेन और अमेरिका दिग्भ्रमित हो गए. नेताजी 1955 तक रूस में रहे. जब देश आजाद हुआ तो भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को रूस में रह रहे नेताजी ने गुप्त पत्र भेजा था और भारत आने की मंशा जाहिर की थी. परंतु नेहरू ने गद्दारी करते हुए ब्रिटिश हुकूमत को यह जानकारी दे दी कि रूस जिसे वह मित्र देश समझता है उसी ने नेताजी को शरण दे रखी है. ब्रिटिश हुकूमत ने स्टालिन पर दबाव बनाया और कहा कि नेताजी को खत्म कर दो, जिस पर स्टालिन ने जवाब दिया था कि उन्हें खत्म कर दिया गया है लेकिन नेताजी 1955 में चीन के रास्ते तिब्बत होते हुए भारत पहुंचे और 30 साल विभिन्न स्थानों पर गुमनामी की जिंदगी बिताई और अंतत: राम भवन में 16 सितंबर, 1985 को अंतिम सांस ली.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/interview-of-the-reporter-ram-teerth-vikal-who-first-reported-about-gumnami-baba-who-is-allegedly-known-as-sc-bose/” style=”tick”]पहली बार गुमनामी बाबा के नेताजी होने की खबर लिखने वाले पत्रकार राम तीर्थ विकल से ‘तहलका’ की बातचीत[/ilink]

हालांकि बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं जो गुमनामी बाबा को नेताजी मानने से इनकार करते हैं. फैजाबाद से निकलने वाले अखबार जनमोर्चा के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह इस पर सवाल खड़ा करते हैं. वे कहते हैं, ‘राजनीतिक फायदे के लिए कुछ लोग इस मामले को जिंदा रखे हुए हैं. यह ऐसा मसला है जिसका जवाब तलाशने के लिए कई कमेटियों का गठन किया जा चुका है, लेकिन कुछ भी पता नहीं चल पाया है. क्या सिर्फ कदकाठी समान होने और कुछ सामान मिलने से किसी को नेताजी मान लिया जाए. अपने जीवन में नेताजी ने जैसी जिंदगी जी है, उसके आधार पर क्या आप यह मान सकते हैं कि वे सिर्फ मौत के डर से गुमनामी की जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो सकते हैं. जब वे गुलामी के समय अंग्रेजों को छका सकते हैं तो आजाद भारत में उनके लिए यह बेहद आसान रहता. फैजाबाद में भी जो समझदार तबका है वह ऐसी किवदंतियों के साथ कभी नहीं रहा. क्या आपने सुना कि कभी गुमनामी बाबा को लेकर कोई बड़ा आंदोलन सामने आया.’ शीतला सिंह इस मुद्दे पर राजनीति करने वालों को लेकर भी सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘आपको यह भी पता होगा कि 30 साल पहले गुमनामी बाबा की मौत के समय उनके भक्तों ने उनका चेहरा बिगाड़ दिया था. उन्होंने ऐसा किस मंशा से किया था? कहा जाता था कि कलकत्ता से कई लोग सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन पर उनसे मिलने आया करते थे. बाद में जांच कमेटी या वैसे भी कोई आदमी कभी भी सामने क्यों नहीं आया? आजाद हिंद फौज और उनके कुछ विश्वसनीय लोगों से भी जब मेरी बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि क्या आपको विश्वास है कि अगर वे नेताजी होते तो कम से कम उनकी मौत पर हम उनसे मिलने नहीं आते. कहते हैं गुमनामी बाबा की मौत के बाद कलकत्ता से कोई भी नहीं आया था, जबकि उनकी लाश दो दिन बाद जलाई गई थी. ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिनका कोई जवाब नहीं मिलता है और जो इस बात को साबित भी करते हैं कि गुमनामी बाबा नेताजी नहीं थे.’

हालांकि अगर हम यह मान लें कि गुमनामी बाबा नेताजी नहीं थे तो भी कई सवाल खड़े होते हैं जो भ्रम पैदा करते हैं. सबसे पहले अपने इर्द-गिर्द गोपनीयता बनाकर रहने वाला यह व्यक्ति कौन था? दूसरा, कोई नहीं जान सका कि यह व्यक्ति 1970 के दशक में फैजाबाद-बस्ती के इलाके में कहां से आया? तीसरा- अगर यह व्यक्ति जंगलों में ध्यानरत एक संत था तब इतनी फर्राटेदार अंग्रेजी और जर्मन कैसे बोलता था? चौथा- इस व्यक्ति के पास दुनिया भर के नामचीन अखबार, पत्रिकाएं, साहित्य, सिगरेट और शराबें कौन पहुंचाता था? पांचवां- इस व्यक्ति के पास नेताजी से जुड़ी चीजें कहां से पहुंचीं? छठवां- वे हमेशा लोगों को नए नोट दिया करते थे उनके पास यह करेंसी कहां से आती थी? सातवां- उनके भक्तों की मानें तो वे कौन लोग थे जो उनसे मिलने दुर्गा पूजा के दिनों और खास तौर से 23 जनवरी को गुप्त रूप से फैजाबाद आते थे और उस वक्त बाबा के परम श्रद्धालु और निकट कहे जाने वाले परिवारजनों को भी उनसे मिलने की मनाही थी? आठवां- गुमनामी बाबा का अंतिम संस्कार सैन्य संरक्षित क्षेत्र में क्यों हुआ? नवां- उनके मरने के बाद पूरा प्रशासनिक अमला, लोकल इंटेलीजेंस यूनिट समेत दूसरे लोग क्यों सक्रिय रहे? दसवां- जब अखबारों में उनके नेताजी होने की खबरें छपने लगीं तो प्रशासन ने इसका खंडन क्यों नहीं किया?

‘गुमनामी बाबा नेताजी थे या नहीं यह पता लगाना सरकार का काम है. लेकिन उनसे मिले सामान को देखकर यही लगता है कि ये कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि नेताजी हो सकते थे. हमने अदालत से गुहार लगाई थी कि गुमनामी बाबा से मिले सामान को संरक्षित किया जाए जिसे अदालत ने मान लिया है’ 

गुमनामी बाबा के पास से मिली नेताजी के परिजनों की तस्वीर
गुमनामी बाबा के पास से मिली नेताजी के परिजनों की तस्वीर

हालांकि शक्ति सिंह भी इस बारे में सीधे-सीधे कुछ भी कहने से बचते हैं. वे कहते हैं, ‘गुमनामी बाबा नेताजी थे या नहीं यह पता लगाना सरकार का काम है. लेकिन उनसे मिले सामान को देखकर यही लगता है कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि नेताजी हो सकते थे. अभी मामला अदालत में है. हमने अदालत से गुहार लगाई थी कि गुमनामी बाबा से मिले सामान को संरक्षित किया जाए, उसकी सुरक्षा की जाए, जिसे अदालत ने मान लिया है. अब उनसे जुड़े सामान को संग्रहालय में प्रदर्शित किया जा रहा है. हम इसे अपनी पहली जीत मान रहे हैं. हम इस मामले पर लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे हैं. जनता का सहयोग हमारे साथ है. बोस के परिवार के लोगों का भी हमें सहयोग मिलता है. हर साल बड़ी संख्या में लोग 16 सितंबर को उनकी पुण्यतिथि केे कार्यक्रम में इकट्ठा होते हैं, सरकार को एक न एक दिन सच सबके सामने लाना होगा.’

वहीं इस मामले पर डॉ. आरपी मिश्रा भी अलग राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘गुमनामी बाबा या भगवन जी सिद्ध पुरुष थे. उनके पास परकाया प्रवेश करने की भी ताकत थी. हमारे शास्त्रों में इसका जिक्र किया जाता है. मुझे नहीं लगता है कि वे नेताजी थे. आप ही बताइए अगर लोगों को उनके मरने की तिथि पता है तो गुफ्तार घाट स्थित उनकी समाधि पर जन्म की तारीख लिखी गई है और मृत्यु की तारीख के सामने तीन प्रश्नवाचक चिह्न क्यों बनाए गए हैं जबकि बहुत सारे लोगों को उनकी मौत के बारे में पता चला था?’ गुमनामी बाबा के शव के चेहरे को विकृत किए जाने संबंधी सवाल पर डॉ. मिश्रा कहते हैं, ‘उस दौरान भी बहुत सारे लोगों का कहना था कि डॉक्टरों ने उनके शव को विकृत कर दिया था जबकि ऐसा नहीं था. हम डॉक्टर लोगों की जान बचाने के लिए होते हैं न कि किसी के शव को खराब करने के लिए. मुझे नहीं पता कि यह अफवाह क्यों फैलाई जा रही है.’

हालांकि 1945 में उनकी मृत्यु हुई थी या नहीं, इसे लेकर विवाद है. तीन-तीन जांच आयोग भी इस रहस्य को नहीं सुलझा सके. 1954 में शाहनवाज आयोग और 1970 में खोसला आयोग ने अपने-अपने निष्कर्ष में कहा था कि उक्त दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु हुई थी, लेकिन 1999 में बने मुखर्जी आयोग ने इसे मानने से मना कर दिया. असाधारण जीवन की तरह असाधारण मृत्यु ने नेताजी के इर्द-गिर्द रहस्यों का जाल-सा बुन दिया है. दुखद यह है कि जांच आयोगों के भंवरजाल में नेताजी किसी जासूसी कथा के नायक बन गए हैं.

केशव के हाथ कमल

Lead

कहते हैं कि राजनीति में टोटके खूब चलते हैं. ऐसा ही एक टोटका सत्तारूढ़ भाजपा में चल रहा है. यह टोटका हिंदुत्व, पिछड़ा और चायवाला कंबिनेशन का है. लोकसभा चुनाव में ऐसे ही उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने बड़ी जीत दर्ज की तो अब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ऐसे ही कंबिनेशन के सहारे जीत हासिल की जाने की तैयारी हो रही है. उप्र भाजपा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य इस कंबिनेशन पर सटीक बैठ रहे हैं. अपेक्षाकृत कम अनुभवी और दागदार छवि वाले केशव कोइरी जाति से आते हैं. वे बजरंग दल से जुड़े रहे हैं. विश्व हिंदू परिषद के संगठन में रहे हैं और एक जमाने में चाय भी बेचते रहे हैं.

गत आठ अप्रैल को जब भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष के रूप में उनके नाम की घोषणा की तो पार्टी कार्यकर्ता, विरोधी और राजनीतिक विश्लेषक सभी भौचक रह गए. पार्टी में अध्यक्ष पद के लिए धर्मपाल सिंह, स्वतंत्रदेव सिंह, मनोज सिन्हा, दिनेश शर्मा, विनय कटियार और ओम प्रकाश सिंह जैसे दूसरे नेताओं के नाम की चर्चा चल रही थी, लेकिन इसके बजाय शीर्ष नेतृत्व ने केशव को उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को अगले आम चुनावों के पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है. इस बार भी नरेंद्र मोदी की सरकार बनाने में उत्तर प्रदेश का बड़ा हाथ रहा है. पार्टी ने यहां से 73 सीटों पर जीत दर्ज की है. हालांकि उसके बाद से होने वाले पंचायत चुनावों, विधान परिषद चुनावों समेत अन्य मुकाबलों में पार्टी की बुरी गत हुई है. ऐसे में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव बहुत रोचक होने जा रहा है. हालांकि विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा के खेवनहार केशव की जिंदगी भी काफी उठापटक भरी रही है.

केशव प्रसाद मौर्य इलाहाबाद से सटे कौशांबी के सिराथू के कसया गांव के रहने वाले हैं. जानकार बताते हैं कि किसी जमाने में उनके पिता श्याम लाल वहां चाय की दुकान चलाते थे. केशव की प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा भी वहीं हुई थी. उन्होंने पिता की चाय की दुकान में मदद करने से लेकर अखबार बेचने का काम किया. इसी दौरान एक दिन उनकी मुलाकात विहिप नेता दिवंगत अशोक सिंहल से हुई. इसके बाद से केशव का रुझान संघ की तरफ हो गया और बहुत कम उम्र में ही उन्होंने संघ की शाखाओं में जाना शुरू कर दिया. सिंहल से करीबी और अपने जुनून से वे बहुत जल्द संगठन में जिला स्तर तक पहुंचने में सफल हो गए. विहिप कार्यकर्ता के रूप में केशव 18 साल तक गंगापार और यमुनापार में प्रचारक रहे.

साल 2002 में इलाहाबाद शहर पश्चिमी विधानसभा सीट से उन्होंने भाजपा प्रत्याशी के रूप में राजनीतिक सफर शुरू किया. उन्हें बसपा प्रत्याशी राजू पाल ने हराया था. इसके बाद साल 2007 के चुनाव में भी उन्होंने इसी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा. पर इस बार भी उन्हें जीत तो हासिल नहीं हुई. 2012 के चुनाव में उन्हें सिराथू विधानसभा से जीत मिली. यह सीट पहली बार भाजपा के खाते में आई थी. दो साल तक विधायक रहने के बाद केशव ने फूलपुर लोकसभा सीट पर भी पहली बार भाजपा का झंडा फहराया. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के संसदीय क्षेत्र फूलपुर में इससे पहले भाजपा को कभी जीत नहीं मिली थी.

‘केशव प्रसाद मौर्य आपराधिक नहीं जुझारू प्रवृत्ति के नेता हैं. वे हमेशा अत्याचार के विरोध में आवाज उठाते रहे हैं. आप देख सकते हैं कि उन पर ज्यादातर मुकदमे कार्यकर्ताओं का साथ देने के चलते दायर हुए हैं. इसमें कोई निजी स्वार्थ नहीं है’ 

इन सबसे अलग मौर्य का एक पहलू और भी है. लोकसभा चुनाव के लिए उन्होंने मई 2014 में जो हलफनामा चुनाव आयोग में जमा किया था, उसके अनुसार केशव के खिलाफ 10 आपराधिक मामले हैं. इनमें धारा 302 (हत्या), धारा 153 (दंगा भड़काना) और धारा 420 (धोखाधड़ी) के तहत लगाए गए आरोप शामिल थे. इसके अलावा हलफनामे में यह भी बताया गया है कि कभी चाय बेचने वाले केशव और उनकी पत्नी करोड़ों के मालिक हैं. केशव दंपति पेट्रोल पंप, एग्रो ट्रेडिंग कंपनी, लॉजिस्टिक कंपनी आदि के मालिक हैं. साथ ही वे इलाहाबाद के जीवन ज्योति अस्पताल में पार्टनर भी हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश जातीय राजनीति की प्रयोगशाला है. यहां सपा ने पिछड़ों के सहारे जातीय समीकरण साधकर इस बार सत्ता का सफर तय किया है तो इससे पहले बसपा ने ब्राह्मण और दलितों को एकजुट कर सत्ता हासिल की थी. कुछ ऐसा ही भाजपा केशव प्रसाद मौर्य को अध्यक्ष बनाकर करना चाह रही है. दरअसल उत्तर प्रदेश में भाजपा 2003 से सत्ता से बाहर है. इसके बाद से हर विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटों में तेजी से गिरावट आई है. 2002 के विधानसभा चुनाव में जहां भाजपा ने 88 सीटों पर जीत दर्ज की थी वहीं 2007 में यह संख्या 51 रही तो 2012 में यह घटकर 47 हो गई. ऐसे में 12 सालों बाद प्रदेश में किसी पिछड़े की ताजपोशी कर भाजपा सत्ता हथियाना चाहती है. केशव को अध्यक्ष बनाए जाने का यह सबसे प्रबल कारण रहा.’

सियासी मुलाकात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह समेत पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं के साथ केशव प्रसाद मौर्य
सियासी मुलाकात : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह समेत पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं के साथ केशव प्रसाद मौर्य

हालांकि उत्तर प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी इस बात से इत्तफाक नहीं रखते हैं. वे कहते हैं, ‘केशव प्रसाद मौर्या का चुनाव किसी जाति विशेष से आने के कारण नहीं हुआ है. उनके चुनाव का कारण सिर्फ उनका हिंदू होना है. वे एक कुशल राजनेता हैं.’

कुछ ऐसी ही राय वहीं कौशांबी के सरसवां ब्लॉक के पूर्व प्रमुख और भाजपा नेता लाल बहादुर भी रखते हैं. वे कहते हैं, ‘केशव प्रसाद का चुनाव जाति के आधार पर नहीं हुआ है. उनकी ताकत संगठन को मजबूत करने और सबको साथ लेकर चलने की क्षमता है. संघ और विहिप में रहने के दौरान ही केशव प्रसाद ने अपनी इस प्रतिभा को दिखा दिया था. संघ का विश्वास उनके ऊपर है. वे अपने काम को लेकर जुनूनी हैं. उनमें बहुत उत्साह है. जिस दौर में इलाहाबाद में भाजपा से लोग दूर जा रहे थे उस दौर में कार्यकर्ताओं को एकजुट करने का काम उन्होंने किया था. इसी के बलबूते वे ऐसी जगहों पर जीतने में भी सफल रहे जहां भाजपा ने कभी जीत हासिल नहीं की थी. सिराथू विधानसभा सीट और फूलपुर लोकसभा सीट दोनों पर पहली बार भाजपा ने उन्हें ही प्रत्याशी बनाकर जीत हासिल की. पार्टी में उनकी स्वीकार्यता खूब है. वे किसी गुट विशेष से जुड़े हुए नहीं माने जाते हैं. अध्यक्ष बनने के बाद वे जहां भी गए उनका जोरदार स्वागत किया गया है. लखनऊ में कार्यकर्ताओं ने नारा लगाया- केशव मौर्या संत है, सपा-बसपा का अंत है.’

लेकिन वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में भाजपा हमेशा यह कोशिश करती है कि अगड़ी और यादव के अलावा बाकी पिछड़ी जातियों का गठजोड़ बनाया जाए. यह दीनदयाल उपाध्याय के जमाने से भाजपा की सामाजिक रणनीति रही है. जब भाजपा इसमें कामयाब हो जाती है मतलब जब उसे अगड़ी जातियों के साथ लोधी, कोइरी, कुर्मी, पटेल आदि गैर-यादव पिछड़ी जातियों का वोट मिल जाता है तो उसकी सीटों में भारी इजाफा हो जाता है. इसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने अब अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को बनाया है जो कोइरी जाति का है. अब वहां कुर्मी और कोइरी को जोड़कर लव-कुश कंबिनेशन बनाया जा रहा है. अपना दल वगैरह के साथ गठबंधन करके भाजपा पहले से ही कुर्मियों को अपने साथ करने में सफल रही है. ऐसे में भाजपा यह दांव खेलकर कितनी कामयाब होगी यह कहना जल्दबाजी होगा क्योंकि सिर्फ अध्यक्ष बदलने से आप विधानसभा चुनाव जीत नहीं सकते हैं. इसके लिए आपको टिकट वितरण को ध्यान में रखना होगा. इसके अलावा विपक्षी पार्टियां अपनी रणनीति कैसी बनाती हैं यह भी देखना होगा.’

वहीं वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष के रूप में केशव प्रसाद मौर्य का चुनाव नहीं किया गया है. दरअसल इस पद पर उनकी नियुक्ति अमित शाह द्वारा की गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विकास की कितनी भी बात करें लेकिन जब-जब अमित शाह को निर्णय लेने का मौका मिलता है तो वह सिर्फ राम मंदिर और हिंदुत्व का ही मुद्दा चलाने की कोशिश करते हैं. हालांकि वह इसमें फेल भी होते हैं, लेकिन अभी इस मुद्दे से उनका मोह गया नहीं है. अब इस फैसले में भी यह साफ नजर आता है. केशव का इतिहास देखें तो हिंदुत्व और अशोक सिंहल के करीबी होने के अलावा उन्होंने कुछ खास नहीं किया है. उन्होंने गोहत्या पर रोक लगाने के लिए एक संगठन बनाया लेकिन कौशांबी के रहने वाले लोगों का कहना है कि वह गोहत्या करने वाले लोगों को बचाने में भी खूब लगे रहे.’ 

हालांकि ऐसा नहीं रहा कि केशव प्रसाद मौर्य का विरोध नहीं हुआ. इलाहाबाद में ही भाजपा नेत्री राजेश्वरी पटेल ने उन्हें अध्यक्ष बनाए जाने के विरोध में पार्टी से इस्तीफा दे दिया. लेकिन ज्यादातर भाजपा नेताओं ने इस घटना को ज्यादा तवज्जो नहीं दी और इस इस्तीफे को निजी रंजिश का परिणाम बताया. हालांकि इलाके में यह उनकी इकलौती रंजिश नहीं है. इसकी फेहरिस्त काफी लंबी है. जिले में जैसे-जैसे उनका कद और पद बढ़ा, उन पर मुकदमे भी बढ़ते गए. इनमें साजिश, लूट, दंगा भड़काने, धार्मिक स्थल तोड़ने, धोखाधड़ी समेत तमाम संगीन धाराओं में उन पर मुकदमे दर्ज हैं. इनमें सबसे अधिक मुकदमे दंगा भड़काने के हैं. उनके खिलाफ इलाहाबाद और कौशांबी के विभिन्न थानों में कुल दस एफआईआर दर्ज हैं.

केशव प्रसाद के खिलाफ सबसे पहले 1996 में कौशांबी के पश्चिम शरीरा थाने में दंगा भड़काने, सरकारी काम में बाधा डालने, पुलिस पर हमला, और बलवा करने का मामला दर्ज हुआ था. इसके बाद ठीक दो साल बाद इलाहाबाद के कर्नलगंज थाने में ऐसे ही मामलों में एफआईआर हुई . 2008 में कौशांबी के मोहम्मदपुर पइंसा थाने में धोखाधड़ी, जालसाजी समेत अन्य धाराओं में रिपोर्ट लिखी गई. इसी घटना के साथ एक अन्य मुकदमा किया गया है जिसमें केशव पर मोहम्मदपुर पइंसा थाने में ही धार्मिक स्थल तोड़ने, बलवा करने और दंगा भड़काने की एफआईआर दर्ज हुई. उनके खिलाफ कौशांबी में 2011 में तीन मुकदमे दर्ज हुए. पहला मंझनपुर थाने में बलवा, दंगा भड़काने समेत अन्य मामलों में दूसरा कोखराज थाने में एक मुस्लिम युवक की हत्या और साजिश के मामले में वे नामजद हुए. कोखराज थाने में भी दंगा भड़काने की एफआईआर हुई. 2014 में लोकसेवा आयोग अध्यक्ष के खिलाफ प्रतियोगी छात्रों के आंदोलन के दौरान हुए बवाल में केशव के खिलाफ बलवा, सरकारी संपत्ति को क्षति पहुंचाने, तोड़फोड़, पुलिस टीम पर हमला, सरकारी काम में बाधा समेत अनेक धाराओं में मुकदमा किया गया.

हालांकि मुकदमों की लंबी फेहरिस्त बताकर विरोध करने वालों को केशव ने जोरदार भाषा में जवाब दिया. लखनऊ में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि अन्याय के खिलाफ उनकी लड़ाई जारी रहेगी. सरकार 11 नहीं, 11 हजार मुकदमे लगा दे तब भी कोई परवाह नहीं है. वहीं इस मामले पर कौशांबी भाजपा के जिलाध्यक्ष रमेश पासी कहते हैं, ‘केशव प्रसाद मौर्य आपराधिक नहीं जुझारू प्रवृति के नेता हैं. वे हमेशा अत्याचार के विरोध में आवाज उठाते रहे हैं. आप देख सकते हैं कि उन पर ज्यादातर मुकदमे कार्यकर्ताओं का साथ देने के चलते दायर हुए हैं. इसमें कोई निजी स्वार्थ नहीं है. मेरा मानना है कि भाजपा कार्यकर्ता अब विपक्ष का अत्याचार बर्दाश्त नहीं करेगा.’

कुछ ऐसी ही बात लक्ष्मीकांत बाजपेयी भी करते हैं. वे कहते हैं, ‘किसी भी पार्टी का कोई कार्यकर्ता जब किसी जिले में अपने काम की बदौलत तेजी से उभरना शुरू होता है तो वह सत्तारूढ़ दल समेत अन्य लोगों को खटकना शुरू हो जाता है. फिर उस पर अंकुश लगाने के लिए विभिन्न अर्जी-फर्जी मुकदमे दायर होने लगते हैं. जो इन मुकदमों से डर जाता है वह नेपथ्य में चला जाता है, लेकिन जिसने अपने शर्ट के दो बटन खोल दिए उसके उपर दो मुकदमे और दायर हो जाते हैं. वैसे भी ऐसा नहीं है कि कोई भी व्यक्ति सिर्फ मुकदमे दायर होने से जनप्रतिनिधि नहीं बन सकता है. अगर वह जनप्रतिनिधि बन सकता है तो संगठन के लिए क्यों अयोग्य होगा?’

हालांकि बाजपेयी से जब यह पूछा गया कि आखिर भाजपा की ऐसी कौन-सी मजबूरी थी जिसके चलते वह संगठन में तमाम वरिष्ठ लोगों की मौजूदगी के बावजूद आपराधिक छवि वाले केशव प्रसाद मौर्य को पार्टी अध्यक्ष के रूप में चुनती है तो उन्होंने कहा, ‘मुझसे आप तीन वाक्य सुन लो पहला, टिट फॉर टैट; दूसरा, जैसे को तैसा और तीसरा शठे शाठ्यम् समाचरेत. अरे, सामने वाला नंगा है और आप मुझसे कह रहे हैं कि आपने लंगोट क्यों पहन लिया है. अरे, माला जपने से राजनीति नहीं होती है. राजनीति के हिसाब से चीजें बदल जाती है.’

केशव को प्रदेशाध्यक्ष बनाए जाने के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा बनाया गया एक पोस्टर, जिस पर विवाद हुआ
केशव को प्रदेशाध्यक्ष बनाए जाने के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा बनाया गया एक पोस्टर, जिस पर विवाद हुआ

आपराधिक छवि को लेकर 47 वर्षीय केशव का समर्थन करने वालों में सिर्फ भाजपा नेता नहीं बल्कि इलाहाबाद में रहकर सिविल परीक्षाओं की तैयारी करने वाले कुछ युवा भी शामिल हैं. सिविल परीक्षा की तैयारी करने वाले अनूप तिवारी कहते हैं, ‘2014 में लोकसेवा आयोग अध्यक्ष के खिलाफ प्रतियोगी छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ तो केशव छात्रों के समर्थन में कूद पड़े. 2015 में लोकसेवा आयोग के मुद्दे पर छात्रों का आंदोलन चल रहा था तो वे बेली अस्पताल में छात्रों से मिलने पहुंचे. इस दौरान उनकी दरोगा से कहासुनी भी हो गई थी. इसके पहले वे 2013 में सिविल लाइंस में छात्रों के साथ खड़े रहे. इन तीनों मामलों में उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज है. अब इसमें उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं हैं. जहां दूसरे नेता छात्रों के साथ खड़े नहीं होते हैं वही केशव एक आवाज देने पर हमारे साथ कहीं भी चलने के लिए तैयार हो जाते हैं. हालांकि लोकसभा चुनाव के दौरान उन्हें इसका फायदा मिला और छात्रों ने उनके पक्ष में जबरदस्त माहौल बनाया था.’

हालांकि ऐसा नहीं है कि सब केशव प्रसाद मौर्य की इस छवि से खुश हैं. चायल विधानसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ चुके सामाजिक कार्यकर्ता मोहम्मद रूफी कहते हैं, ‘शीर्ष भाजपा नेतृत्व केशव की छवि को कैसे भी दिखाए लेकिन इलाहाबाद में हकीकत सबको पता है. केशव ने अपराध के सहारे ही अपनी राजनीति चमकाई है. उनके उपर मामले इसलिए नहीं दर्ज हुए कि वे राजनीतिक रूप से मजबूत हो रहे थे बल्कि जितना अपराध में वे मजबूत हुए उतना ही राजनीति में उनका कद बढ़ा. गोरक्षा समेत दूसरे अभियान चलाकर उन्होंने हमेशा अल्पसंख्यकों को डराने और बहुसंख्यकों के ध्रुवीकरण की कोशिश की है. इलाहाबाद से मुरली मनोहर जोशी, केशरी नाथ त्रिपाठी समेत दूसरे भाजपा नेता भी रहे हैं, लेकिन केशव इस कड़ी में सबसे कमजोर हैं. उनके नेतृत्व में भाजपा के मजबूत होने के आसार कम ही हैं. खुद उनकी अपनी ही जाति में उनका जनाधार बहुत ज्यादा नहीं है. उनका कद इतना बड़ा नहीं है कि अल्पसंख्यक उनके साथ अपने को जोड़ सकें. कुल मिलाकर केशव भाजपा के लिए फायदे का सौदा नहीं हैं.’

‘चुनाव से पहले केशव की नियुक्ति से साफ पता चलता है कि भाजपा को हिंदुत्व और राम मंदिर के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता है. जबकि यह साफ है कि राम मंदिर और हिंदुत्व को भुनाने का वक्त बीत चुका है. पार्टी जब-जब इस मुद्दे पर चुनाव लड़ती है तो उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है’

वहीं शरत प्रधान कहते हैं, ‘चुनाव से पहले केशव की नियुक्ति से साफ पता चलता है कि भाजपा को हिंदुत्व और राम मंदिर के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता है. जबकि यह साफ है कि राम मंदिर और हिंदुत्व को भुनाने का वक्त बीत चुका है. पार्टी जब-जब इस मुद्दे पर चुनाव लड़ती है तो उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है. लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा उपचुनावों में पार्टी ने योगी आदित्यनाथ को आगे बढ़ाकर चुनाव लड़ा था लेकिन सफलता नहीं मिल पाई थी. इस दौरान जमकर हिंदुत्व, लव जेहाद और राम मंदिर जैसे मुद्दों को उछाला गया था. वैसे भी चुनाव के ठीक पहले लक्ष्मीकांत बाजपेयी को हटाकर केशव की नियुक्ति करके भाजपा भी कांग्रेस की राह पर है. कांग्रेस में पहले से ही यह कल्चर रहा है कि काम करने वाले आदमी को चुनाव के ठीक पहले हटाकर अपने आदमी को नियुक्त कर दें. यही अब अमित शाह कर रहे हैं. योगी आदित्यनाथ को उपचुनाव की बागडोर देकर हार का सामना कर चुकी भाजपा अब दूसरे योगी आदित्यनाथ यानी केशव को बागडोर सौंप रही है. मुझे आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्या में खास फर्क नजर नहीं आता है. आगामी विधानसभा चुनावों में अमित शाह की कलई खुल जाएगी.’

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता रमेश यादव कहते हैं, ‘केशव के चुने जाने से कुछ अलग होने का दावा करने वाली भाजपा का चेहरा प्रदेश की जनता के सामने खुल गया है. विधानसभा चुनाव से पहले दागी छवि वाले व्यक्ति को प्रदेश की कमान सौंपे जाने से सीधे-सीधे यह पता चलता है कि अमित शाह और मोदी की जोड़ी सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. हालांकि उत्तर प्रदेश में उनका यह दांव नहीं चलने वाला है. प्रदेश की जनता ने पिछले दो साल में केंद्र की सत्ता में भाजपा के कुशासन को देख लिया है.’

विपक्षी उनकी संपत्ति को लेकर भी सवाल उठाते रहे हैं. उनका कहना है कि चाय बेचने से अपने जीवन की शुरुआत करने वाले केशव सिर्फ दो दशक के भीतर करोड़पति हो गए. हालांकि भाजपा नेता लाल बहादुर इसके जवाब में कहते हैं, ‘विरोधियों ने केशव का जुझारूपन नहीं देखा है. वह आदमी मेहनती और उर्जा से भरपूर है. उन्होंने बिजनेस करके सारा पैसा कमाया है और खुद अपनी संपत्ति घोषित की है. उन्होंने कोई चोरी नहीं की है. उनका व्यापार इलाहाबाद समेत अन्य जिलों में फैला है. अगर आपको कुछ गड़बड़ लगता है तो जांच करा लीजिए. प्रदेश में कौन-सी हमारी सरकार है. दरअसल यह सिर्फ राजनीतिक मुद्दा है, जिसके जरिए जनता को भरमाया जा रहा है.’

फिलहाल प्रदेश में नेतृत्व संभालते ही केशव अपने तेवर दिखाने लगे हैं. वे अभी प्रदेश में ताबड़तोड़ दौरे कर रहे हैं और स्थानीय नेताओं से मुलाकात कर रहे हैं. जल्ह ही वे आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अपनी टीम का गठन भी करने वाले हैं. प्रदेश कार्यकारिणी समेत जिला कार्यकारिणी में बड़े बदलाव किए जाने की बात भी हो रही है. वे मंदिर मुद्दे से तो परहेज कर रहे हैं लेकिन प्रदेश में रामराज्य लाने की बात कर रहे हैं. सोशल मीडिया पर भी सक्रिय केशव ने मिशन 265 प्लस को अपना एजेंडा बना लिया है. जीत के लिए सपा-साफ, बसपा-हाफ और बीजेपी ऑन ‘टॉप’, सपा-बसपा मुक्त उत्तर प्रदेश जैसे जुमले भी गढ़े जा रहे हैं.

हालांकि इस सबके बावजूद विश्लेषक भाजपा और केशव की राह को कांटों भरी ही बता रहे हैं. डॉक्टर प्रदीप सिंह कहते हैं, ‘केशव प्रसाद मौर्य के सामने चुनौती काफी बड़ी है और उनका कद काफी छोटा है. प्रदेश की कुल 20-25 विधानसभा सीटों पर प्रभाव रखने वाले व्यक्ति को मिशन 265 प्लस की जिम्मेदारी सौंपा जाना समझ से परे है. प्रदेश में लोकसभा चुनाव के बाद से भाजपा समर्थकों में कमी ही आई है. इसमें इजाफा नहीं हुआ है. हालांकि केशव जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए सबसे मुफीद हैं, लेकिन बुंदेलखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, रूहेलखंड, मध्य यूपी और अवध जैसे अलग-अलग हिस्सों में वे कैसे प्रभाव जमाएंगे यह देखने वाली बात होगी. पूरे प्रदेश में आप एक नारे से जीत नहीं हासिल कर सकते हैं. हर जगह अपने स्थानीय मुद्दे और समीकरण हैं जिन्हें साधकर चलना होगा. हालांकि अभी तक भाजपा पिछली विधानसभा में हासिल की गई सीटों में सिर्फ 10-20 सीटों का इजाफा करती नजर आ रही है. इसे बहुमत तक पहुंचाना केशव, अमित शाह और संघ सभी के लिए चुनौतीपूर्ण है.’            

खेती में लिंगभेद के बीज

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सभी फोटो : विजय पांडेय

स्कूूल के दिनों में हम सबने ‘अपना देश भारत’ या ‘हमारा देश भारत’ विषय पर निबंध जरूर लिखा होगा. यह निबंध एक किस्म के आध्यात्मिक अनुष्ठान की तरह होता था, लिखा ही होगा. जहां तक मुझे याद है इसका एक शुरुआती वक्तव्य होता था- भारत एक कृषि प्रधान देश है. निबंध का विषय आज भी बना हुआ है, किंतु यह वक्तव्य मृत्युशैया पर पड़ा हुआ है. अब भी जबकि भारत की 48.17 करोड़ की कामकाजी जनसंख्या में से 26.30 करोड़ लोग खेती पर सीधे-सीधे निर्भर हैं (जनगणना 2011), वहां विकास की नीति का मूल मकसद यह है कि खेती क्षेत्र से लोगों को बाहर निकलना है. तर्क यह है कि खेती पर बहुत ज्यादा बोझ है और लोगों को दूसरे क्षेत्रों में रोजगार खोजना चाहिए.

ऐसे में पांच अहम बातों को छिपाकर रखा जाता है. पहला- अगर लोग खेती छोड़ेंगे तो कंपनियों या औद्योगिक समूहों को इसमें निर्णायक दखल देने का मौका मिल जाएगा. दूसरा- जब खेतिहर समाज उत्पादन से दूर होगा, तो वह अपनी खाद्य सुरक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए बाजार में आएगा, जहां उसे राज्य का संरक्षण प्राप्त नहीं होगा. उसकी जिंदगी ठेके पर संचालित होगी. तीसरा- कृषि एक व्यापक व्यवस्था है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों (जंगल, पशुधन, जल स्रोत, जमीन, पहाड़ आदि) का जुड़ाव अंतर्निहित है. जब समाज का रिश्ता खेती से टूट जाएगा, तब इन संसाधनों का खनिज संपदा और भीमकाय औद्योगिकीकरण के लिए ‘बेतहाशा’ शोषण करना आसान हो जाएगा. चौथा- जब हम समाज को संगठित और असंगठित क्षेत्र में बांटते हैं, तब यह भूल जाते हैं कि समाज अपने आप में असंगठित नहीं है. जब राज्य अपने दायरे का व्यापक तौर पर विस्तार करके खेती-संसाधनों-सामाजिक व्यवहार को अपने कब्जे में कर लेने की नीति पर काम करता है, तब समाज का सबसे ज्यादा संगठित हिस्सा अपने आप असंगठित की श्रेणी में आ जाता है, क्योंकि उसका अपने संसाधनों पर नियंत्रण खत्म हो जाता है. और एक समूह, जो हमेशा इस फिराक में रहता है कि किस तरह से सामाजिक-आर्थिक-प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण हासिल किया जाए, वह एकदम से ‘संगठित’ क्षेत्र का आकार ले लेता है. पांचवां- जब यह सवाल पूछा जाता है कि रोजगार कहां है और सरकार क्यों आजीविका सुरक्षित नहीं करती; तो अचानक विवादित बयान आने लगते हैं, दंगे भड़क जाते हैं और मीडिया मूल सवाल छिपा देता है.

ऐसा नहीं है कि खेती में सब कुछ अच्छा ही चलता रहा है. वहां भी कुछ मूल विषय छिपाए जाते रहे हैं. भारत पर लिखे जाने वाले अपने निबंधों में हमने भी शायद यह कभी उल्लेख नहीं किया होगा कि खेती और उससे जुड़े कामों में हमारे घर-समाज की महिलाओं की भूमिका सबसे अहम रही है. इस नजरिये पर कोई शंका नहीं की जा सकती है कि जिस तरह की भूमिका महिलाओं ने कृषि में निभाई है, उनके बिना खेती के होने और बने रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.

16 करोड़ महिलाओं का मुख्य काम ‘घर की जिम्मेदारियां’ निभाना है. इसे हमारे समाज में भावनात्मक काम के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, इसलिए कभी ये ‘श्रमिक’ हड़ताल पर नहीं जाती हैं. परंतु आप कल्पना कीजिए कि अगर इनकी हड़ताल हो तो क्या होगा?

श्रम का असमान विभाजन और लैंगिक आधार पर अमान्यता

ईयू-एफटीए एेंड द लाइकली इम्पैक्ट आॅन इंडियन विमेन; सेंटर फाॅर ट्रेड एेंड डेवलपमेंट के अनुसार, भारत में कुल कामकाजी महिलाओं में से 84 प्रतिशत महिलाएं कृषि उत्पादन और इससे जुड़े कार्यों से आजीविका अर्जित करती हैं. चाय उत्पादन में लगने वाले श्रम में 47 प्रतिशत, कपास उत्पादन में 48.84 प्रतिशत, तिलहन उत्पादन में 45.43 प्रतिशत और सब्जियों के उत्पादन में 39.13 प्रतिशत का सीधा योगदान महिलाओं का होता है. मानव समाज में श्रम के असमान बंटवारे और उसके भेदभाव मूलक महत्व के निर्धारण के जरिये लैंगिक भेदभाव को स्थापित किया गया है. खेती के घरेलू काम में महिलाएं सबसे ज्यादा श्रम वाला काम करती हैं, किन्तु उनके काम को मान्यता नहीं दी जाती है और उस काम के जरिए किए जाने वाले आर्थिक योगदान को ‘नगण्य’ मान लिया जाता है. रोल आॅफ फार्म विमेन इन एग्रीकल्चर एेंड लेसंस लर्न्ड (सेज पब्लिकेशन) की ओर से समय के उपयोग पर किए गए अध्ययन से पता चलता है कि भारतीय महिलाएं सप्ताह में 25 घंटे अपने घर के काम के लिए श्रम करती हैं. इसके साथ ही पांच घंटे देखभाल और सामुदायिक काम में लगाती हैं. इसके बाद वे 30 घंटे ‘बिना भुगतान का श्रम’ करती हैं.  

दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार बन चुके भारत देश में अब तक घरेलू जिम्मेदारियां निभाने के लिए किए गए श्रम और काम को नीतिगत स्तर पर कोई सामाजिक-आर्थिक मान्यता नहीं मिली है. पहले समाज तय करता है कि घर का काम करना स्त्री की जिम्मेदारी है और फिर यह तय भी कर दिया जाता है कि इस काम का कोई ‘मोल’ नहीं होगा. लेकिन यह जानना दिलचस्प होगा कि अगर आर्थिक पैमानों पर समाज में महिलाओं के नियमित घरेलू काम का ही आकलन करें तो प्रचलित कुशल मजदूरी की न्यूनतम दर (भारत के राज्यों की औसत मजदूरी) के आधार पर उनके काम का सालाना आर्थिक मूल्य (16.29 लाख करोड़ रुपये) भारत सरकार के सालाना बजट (वर्ष 2013-14 के बजट का संशोधित अनुमान 15.90 लाख करोड़ रुपये था) से अधिक होता है.

यह काम करने वालों के लिए कोई अवकाश नहीं होता है. यह समूह संगठित और असंगठित श्रम की अवधारणाओं से ऊपर है. 16 करोड़ महिलाओं का मुख्य काम ‘घर की जिम्मेदारियां’ निभाना है. इसे हमारे समाज में भावनात्मक काम के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, इसलिए कभी ये ‘श्रमिक’ हड़ताल पर नहीं जाती हैं. परंतु आप कल्पना कीजिए कि अगर इनकी हड़ताल हो तो क्या होगा? घर में खाना न बनेगा, सफाई न होगी, बच्चों की देखभाल न हो पाएगी, कपड़े धुल न पाएंगे, मेहमाननवाजी न हो पाएगी. इस तर्क को लैंगिक भेदभाव के नजरिये से न भी देखें, तो भी उस भूमिका को मान्यता दी जानी चाहिए. उनके इस योगदान को खारिज करने का मतलब है घरेलू श्रम की उपेक्षा और महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक न्याय के हकों का सुनियोजित उल्लंघन.

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कृषि की मौजूदा स्थिति
21वीं सदी का पहला दशक हमारे समाज के लिए बहुत बड़ी चुनौतियां लाया है. सरकार उस नीति में सफल होती दिखाई दे रही है, जिसे लागू करके वह खेती से लोगों को दूर करना चाहती थी. इस शुरुआती दशक में भारत में कुल कामकाजी जनसंख्या में 8 करोड़ का इजाफा हुआ, किंतु खेती से जुड़े लोगों को आजीविका के अपने संसाधन त्यागने पड़े. वर्ष 2001 में भारत में 12.73 करोड़ लोग किसान की श्रेणी में आते थे, यानी कृषि उत्पादन का काम कर रहे थे. वर्ष 2011 में इनकी संख्या में 86.2 लाख की कमी आई. हर रोज 2368 किसानों को खेती का साथ छोड़ना पड़ा. अकेले उत्तर प्रदेश में 31 लाख किसानों ने खेती छोड़ी. पंजाब में 13 लाख, हरियाणा में 5.37 लाख, बिहार में 9.97 लाख, मध्य प्रदेश में 11.93 लाख और आंध्र प्रदेश में 13.68 लाख किसानों ने खेती को त्यागा.
इसका दूसरा पहलू ज्यादा भयावह और दर्दनाक है. इन्हीं दस साल में खेतिहर मजदूरों की संख्या में 3.75 करोड़ की बढ़ोतरी हुई. महाशक्ति का मुखौटा ओढ़ रहा भारत हर घंटे 430 कृषि मजदूर पैदा करता है. उत्तर प्रदेश में दस साल में कृषि मजदूरों की संख्या में 1.25 करोड़ का इजाफा हुआ. बिहार में 49.27 लाख, आंध्र प्रदेश में 31.35 लाख और मध्य प्रदेश में 47.91 लाख कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ी है.

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हमारी कुल जनसंख्या को दो भागों में बांटा जाता है- कार्यशील जनसंख्या और अकार्यशील जनसंख्या. जो पूरे समय या अंशकालिक रूप से आर्थिक उत्पादन से जुड़े हैं, वे कार्यशील माने जाते हैं. अकार्यशील जनसंख्या वह मानी गई जिसने किसी तरह का काम नहीं किया. इसमें ये शामिल हैं- विद्यार्थी, भिखारी, आवारा और घरेलू जिम्मेदारी निभाने वाला समूह. जनगणना 2011 के मुताबिक भारत में कुल 72.89 करोड़ लोगों को अकार्यशील माना गया है. आधिकारिक परिभाषा के मुताबिक ये वे लोग हैं जिन्होंने संदर्भ समय में कोई और किसी भी तरह का काम नहीं किया है. ये वो लोग हैं जिनके काम या गतिविधि को आर्थिक योगदान करने वाली गतिविधि नहीं माना जाता है. इन 72.89 करोड़ अकार्यशील लोगों में से 16.56 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके जीवन में मुख्य काम ‘घरेलू जिम्मेदारियां’ निभाना रहा है. सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इनमें से 15.99 करोड़ यानी 96.50 फीसदी महिलाएं हैं. ताजा जनगणना 2011 के आंकड़ों से पता चलता है कि मुख्य काम के तौर पर केवल 34.49 लाख पुरुष (3.5 प्रतिशत) ही घरेलू जिम्मेदारियां निभाते हैं. महिलाएं घरेलू जिम्मेदारियां (खाना, बर्तन, कपड़े धोना, देखभाल, पानी भरना, सफाई आदि) निभाती हैं, पर उन्हें कामगार नहीं माना गया.

महिला हकों के लिए संघर्षरत संगठन यह साबित कर चुके हैं कि हर महिला कामकाजी है, फिर वह चाहे आय अर्जित करने के लिए श्रम करे या फिर परिवार-घर को चलाने-बनाने के लिए. इस हिसाब से मातृत्व हक हर महिला का हक है. माउंटेन रिसर्च जर्नल में उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय अंचल का एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था. इसका विषय था- परिवार की खाद्य और आर्थिक सुरक्षा में महिलाओं का योगदान. इस अध्ययन में महिलाओं ने अध्ययनकर्ताओं से कहा कि वे कोई काम नहीं करती हैं, पर जब विश्लेषण किया गया तो पता चला कि परिवार के पुरुष औसतन 9 घंटे काम कर रहे थे, जबकि महिलाएं 16 घंटे काम कर रही थीं. अगर तात्कालिक सरकारी दर पर उनके काम के लिए न्यूनतम भुगतान किया जाता तो पुरुष को 128 रुपये प्रतिदिन और महिला को 228 रुपये प्रतिदिन प्राप्त होते. जब इनमें से कुछ कामों की कीमत का आकलन बाजार भाव से किया गया तो पता चला कि लकड़ी, चारे, शहद, पानी और सब्जी लाने के लिए साल भर में परिवार को 34,168 रुपये खर्च करने पड़ते. 

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कृषि क्षेत्र में महिलाएं

व्यापक तौर पर समाज में महिलाओं की स्थिति को जांचने के लिए एक महत्वपूर्ण पैमाना है उनकी सहभागिता और उनके योगदान को मान्यता दिया जाना. जब हम कृषि क्षेत्र में लगी जनसंख्या (जो श्रम कर रहे हैं, उनकी संख्या) में महिलाओं की संख्या का आकलन करते हैं, तब पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में आए संकट का उन पर गहरा असर पड़ा है.

किसानी का श्रम करने वालों में महिलाएंः इसमें कोई शक नहीं रह जाता है कि कृषि में महिलाओं की बराबर की भूमिका और योगदान है, पर उन्हें मान्यता नहीं दी जाती है. वर्ष 2001 में भारत में 12.73 करोड़ किसान (कृषि उत्पादक) थे. इनमें से 4.19 करोड़ (33 प्रतिशत) महिलाएं थीं. वर्ष 2011 में कृषि क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में और कमी आई और यह घटकर 3.60 करोड़ (30.3 प्रतिशत) रह गई.

राज्य की स्थिति देखने पर हमें पता चलता है कि खाद्यान्न उत्पादन में नाम कमाने वाले पंजाब में कृषि श्रम करने वालों में केवल 14.6 प्रतिशत महिलाएं थीं. यह संख्या भी दस साल में घटकर 9.36 प्रतिशत रह गई. मध्य प्रदेश में 37.6 प्रतिशत महिलाएं किसान थीं, जो घटकर 33 प्रतिशत रह गईं. बहरहाल इससे हम अंतिम रूप से यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल सकते हैं कि मुख्य काम के रूप में पंजाब में महिलाएं किसानी का काम नहीं कर रही हैं. इसका मतलब यह है कि किसान के रूप में उनकी भूमिका और योगदान को पहचाना नहीं जा रहा है. हमें यह ध्यान रखना होगा कि उच्च सामाजिक-आर्थिक तबकों में महिलाओं का अस्तित्व तुलनात्मक रूप से ज्यादा उपेक्षित होता है.

वर्ष 2001 में किसानी का काम करने वालों में सबसे बेहतर स्थिति राजस्थान (46 प्रतिशत महिलाएं) और महाराष्ट्र (43.4 प्रतिशत महिलाएं) की थी. इन दोनों राज्यों में भी महिला किसानों की संख्या में कमी आई है.

खेती छोड़ने वालों में महिलाएं ज्यादाः इन दस सालों में जिन 86.20 लाख किसानों ने खेती छोड़ी, उनमें से 59.10 लाख (68.5 प्रतिशत) महिलाएं थीं. हरियाणा में खेती छोड़ने वाले 5.37 लाख किसानों में से 87.6 प्रतिशत (4.70 लाख) महिलाएं थीं. इसी तरह मध्य प्रदेश में ऐसे 11.93 लाख किसानों में से 75.5 प्रतिशत (9 लाख) महिलाएं थीं.

गुजरात में पुरुष किसानों की संख्या में 3.37 लाख की वृद्धि हुई, किंतु महिला किसानों की संख्या में 6.92 लाख की कमी हो गई. केवल राजस्थान एक ऐसा राज्य है जहां किसानों (महिला-पुरुष) की संख्या में 4.78 लाख की वृद्धि हुई.  झारखंड एक ऐसा राज्य है जहां 1.14 लाख पुरुषों ने खेती छोड़ी है, किंतु इस काम में 39 हजार महिलाएं जुड़ी हैं.[/symple_box]

कृषि और महिलाएं यानी बेदखली

पूरे भारत में महिलाएं खेती के लिए जमीन तैयार करने, बीज चुनने, अंकुरण संभालने, बुआई करने, खाद बनाने, खरपतवार निकालने, रोपाई, निराई-गुड़ाई, भूसा सूपने और फसल की कटाई का काम करती हैं. वे ऐसे कई काम करती हैं जो सीधे खेत से जुड़े हुए नहीं हैं, पर कृषि क्षेत्र से संबंधित हैं. मसलन पशुपालन का लगभग पूरा काम उनके जिम्मे होता है. जहां मछली पालन होता है, वहां उनकी भूमिका बहुत अहम होती है. घर के लिए जलाऊ लकड़ी, पशुओं के लिए घास, परिवार के लिए लघु वन उपज, पीने का पानी समेत हर काम में महिलाओं की श्रम भूमिका केंद्रीय है किंतु उसका सम्मान और मान्यता नहीं है. इस सबके बावजूद उन्हें किसान का दर्जा नहीं मिलता है. खेती के काम में लिए जाने वाले निर्णयों में उनकी सहभागिता लगातार कम हुई है खास तौर पर तब से, जब से संकर बीजों, रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के उपयोग और मशीनीकरण की व्यवस्था खेती की स्थानीय तकनीकों पर हावी हुई है. बाजार की परिभाषा में किसान होने की पहचान इस बात से तय होती है कि जमीन का आधिकारिक मालिक कौन है. इस बात से नहीं कि उसमें श्रम किसका लग रहा है.

फरवरी 2014 में जारी हुई कृषि जनगणना (2010-11) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में मौजूदा स्थिति में केवल 12.78 प्रतिशत कृषि जोतें महिलाओं के नाम पर हैं. स्वाभाविक है कि इस कारण से ‘कृषि क्षेत्र’ में उनकी निर्णायक भूमिका नहीं है. यह महज एक प्रशासनिक मामला नहीं है कि जमीन केे कागज पर किसका नाम है; वास्तव में यह एक आर्थिक-राजनीतिक विषय है, जिस पर सरकार कानूनी पहल नहीं कर रही है, क्योंकि उसका चरित्र भी तो पितृ-सत्तात्मक ही है.

घर के लिए जलाऊ लकड़ी, पशुओं के लिए घास, परिवार के लिए लघु वन उपज, पीने का पानी समेत हर काम में महिलाओं की श्रम भूमिका केंद्रीय है किंतु उसका सम्मान और पहचान नहीं है

समाज जानता है कि पुरुषों की तुलना में खेती महिलाओं के लिए संसाधन से ज्यादा सम्मान, जिम्मेदारी और भावनाओं का केंद्र है. कृषि जनगणना के मुताबिक भारत में वर्ष 2005-06 में कृषि जोतों की संख्या 12.92 करोड़ थी. जो वर्ष 2010-11 में बढ़कर 13.83 करोड़ हो गई, लेकिन कृषि भूमि में तो इजाफा हुआ नहीं. वास्तव में भूमि सुधार न होने और असमान वितरण के बाद अब भूमि अधिग्रहण के कारण जोतों के आकार लगातार छोटे हो रहे हैं. वर्ष 1970-71 में भारत में जोतों का औसत आकार 2.28 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2010-11 में घटकर 1.15 हेक्टेयर रह गया है. कुल किसानों में से 85.01 प्रतिशत किसान वे हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है, जो छोटे और सीमांत किसान कहलाते हैं. ऐसी स्थिति में जरूरी हो जाता है कि समाज उन तकनीकों से खेती करे जिनसे उत्पादन बढ़े, किंतुु मिट्टी और उसकी उर्वरता को नुकसान न पहुंचे. हरित क्रांति के जरिए थोपी गई तकनीकों, बीजों, रसायनों के कारण छोटी जोतों पर खेती करना नुकसानदायक ‘कर्म’ होता गया. जरा सोचिए कि जब 85 प्रतिशत किसान छोटे और मझौले हों, तब क्या खेती को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी काॅरपोरेट कंपनियों के हवाले किया जाना उचित और नैतिक है?

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तथ्यों में झांकने से पता चलता है कि विकास की मौजूदा नीति न केवल कृषि क्षेत्र के लिए घातक है, बल्कि इससे पैदा होने वाले अभावों और असुरक्षा के चलते लैंगिक भेदभाव की खाई और चौड़ी होती जाएगी (देखें बॉक्स). गैर-बराबरी को बढ़ाना विकास के मौजूदा दृष्टिकोण का मूल चरित्र है.

भारत में आज भी सभी महिलाओं को मातृत्व, स्वास्थ्य और सुरक्षा का अधिकार मयस्सर नहीं है. कृषि क्षेत्र (किसान और कृषि मजदूर दोनों ही संदर्भों में) में काम करने वाली महिलाओं के सामने एक तरफ तो सूखा, बाढ़, नकली बीज-उर्वरक-कीटनाशक-फसल के मूल्य का अन्यायोचित निर्धारण सरीखे संकट हैं ही इसके साथ ही उन्हें हिंसा-भेदभाव से मुक्ति और मातृत्व हक जैसे बुनियादी संरक्षण नहीं मिले हैं. वास्तव में हमें अपने विकास की धारा का ईमानदार आकलन करने की जरूरत है. बेहतर होगा कि यह आकलन लैंगिक बाल केंद्रित दृष्टिकोण से किया जाए. हम संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता चाहते हैं किंतु अपने किसानों की सुरक्षा तो कर नहीं पा रहे हैं. इससे आप अंदाजा लगा लें कि जिन सालों में देश की वृद्धि दर सबसे उल्लेखनीय मानी गई, उन सालों में समाज को क्या हासिल हो रहा था.  

बुत को पूजते हैं पर इंसानियत की कीमत पता नहीं

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ये घटना बीते साल की है. हमारे शहर से लगभग 20 किलोमीटर दूर एक छोटा पर प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर है, जहां हर महीने की 17 तारीख को मेला लगता है. इस मेले में आसपास के क्षेत्रों के लोग अच्छी-खासी संख्या में जुटते हैं. मंदिर बहुत बड़ा और व्यवस्थित नहीं है, श्रद्धालु ही खुद व्यवस्थापक की भी भूमिका निभाते हैं. ये जुलाई या अगस्त का महीना था. मानसून की बौछारों के बाद तेज धूप निकली थी. गर्मी और उमस अपने चरम पर थी. वैसे तो यहां ज्यादा भीड़ नहीं होती पर चंूकि ये सावन के दिन थे इसलिए श्रद्धालुओं की भीड़ का कोई ठिकाना नहीं था.

उस दिन शिव को जल चढ़ाने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ी हुई थी. उनकी सुविधा और व्यवस्था बनाए रखने के लिए जगह-जगह बैरिकेड लगाए गए थे, कुछ सुरक्षाकर्मी भी व्यवस्था में लगाए गए थे. दर्शन करने जाने के लिए कई कतारें लगी हुई थीं. ये कतारें आसमान में सूरज चढ़ने के साथ-साथ बढ़ती जा रही थीं. हर कुछ देर में ‘बम-बम भोले’  औैर ‘हर-हर महादेव’ के स्वर मंदिर को गुंजायमान कर रहे थे. लोग इतनी गर्मी में अपना धैर्य बनाए रखने के लिए शायद जोर-जोर से जयकारे लगा रहे थे. कई लोग बैरिकेड लांघकर आगे निकलने की कोशिश में भी थे पर सुरक्षाकर्मियों की मुस्तैदी के चलते सफल नहीं हो पा रहे थे. मंदिर से दर्शन करके निकलने के लिए भी लाइन लगी थी.

दुनिया में तमाम धर्म हैं पर आज जिंदगी के पचास-पचपन साल देखने के बाद भी मुझे मानवता से बड़ा धर्म कोई नहीं लगता

मैं अपनी एक परिचित के साथ थी और हम दर्शन कर चुके थे. मंदिर से निकलने वाली कतार में लगे हम धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे कि तभी अचानक पीछे से कुछ शोर सुनाई दिया. इतनी धक्का-मुक्की और भीड़ में हमें लगा कोई जेबकतरा या चेन स्नेचर मौके का फायदा उठा ले गया पर यहां माजरा कुछ और ही था. मंदिर में दर्शन करने के लिए लगी कतार में एक महिला भीषण गर्मी और उपवास के कारण गश खाकर गिर गई थी. हमें लगा उसके साथ कोई संगी-साथी तो होगा पर ऐसा नहीं था. पीछे से किसी ने बताया कि वो महिला अकेली है क्योंकि गिरने के बाद उसकी मदद के लिए कोई नहीं आया. यहां तक कि पास खड़े लोगों ने भी उनकी मदद करना जरूरी नहीं समझा. हम दोनों ही ये सुनकर पीछे मुड़े पर भीड़ के रेले ने पलटकर जाने का मौका नहीं दिया.

भीड़ में से ही इतना देख पाए कि वो महिला जमीन पर गिरी हुई थी और लोग उसको लांघते हुए दर्शन करने के लिए बढ़े जा रहे थे. जिस जगह वो महिला थी, हम दोनों ही उस जगह से विपरीत लाइन में काफी दूर थे और उलटी दिशा में निकलकर जाने का कोई रास्ता नहीं था. ऐसी कोई कोशिश भी करते तो वहां की व्यवस्था में खलल पड़ने का डर था. उसे असहाय देखते रहने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था. हम उसकी मदद न कर पाने की विवशता में पलटकर देखते और दूसरी तरफ की लाइन में लगे लोगों से कहते कि कोई जाकर उसकी मदद तो कर दे पर कोई फायदा नहीं हुआ. इसी रेलमपेल में हम मंदिर प्रांगण से बाहर आ गए.

फिर पलटकर देखा तो शायद किसी सुरक्षाकर्मी या रहमदिल ने उसे उठाकर पेड़ के नीचे बैठा दिया था. वो पानी पी रही थी. देखकर थोड़ा सुकून मिला. पर इस वाकये ने सोचने पर मजबूर कर दिया. लोगों के लिए इंसान से ज्यादा कीमत उस मूर्ति, उस बुत की थी जिसे हम सब भगवान कहते हैं. श्रद्धालुओं की आस्था सिर्फ भगवान के दर्शन में थी पर क्या उनकी ईश्वर में इस आस्था के सामने इंसानी जान या इंसानियत की कीमत कम थी! किसी पुण्य की आशा में भगवान को पूजना पर किसी को दुख में देखते हुए भी उसकी मदद न करना… ये सत्कर्म या पूजा का कौन-सा रूप है?

दुनिया में तरह-तरह के विश्वासों को मानने वाले लोग हैं. सभी के पास अपने तर्क हैं पर आज जिंदगी के पचास-पचपन साल देखने के बाद भी मुझे मानवता से बड़ा धर्म कोई नहीं लगता.  

(लेखिका गृहिणी हैं और उत्तर प्रदेश के रामपुर में रहती हैं)

सियासी शराब

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बिहार में एक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो एक जमाने में लालू यादव के काफी करीबी रहे हैं. शराबबंदी के आदेश के दिन संयोग से उनके साथ ही था. वे एक किस्सा सुनाते हैं. उन दिनों का किस्सा जब लालू यादव का बिहार में नया-नया उभार हो रहा था. उन्हें सत्ता मिल गई थी और मुख्यमंत्री बनने के कुछ माह के अंदर ही लालू सासाराम पहुंचे थे. भारी भीड़ थी. लालू मंच पर गए. तब समाज की नब्ज पकड़ने की उस्तादी सीख रहे थे लालू प्रसाद. उन्होंने अचानक ही मंच से पूछा कि यहां कौन-कौन है जो ताड़ के पेड़ पर चढ़ता है. हाथ उठाओ. भीड़ में सहमते हुए कुछ लोगों ने हाथ उठाया. लालू प्रसाद ने ललकार भरी, डरो नहीं, हाथ उठाओ. हाथों की संख्या कुछ और बढ़ी. लालू ने कहा कि सब इधर मंच पर आओ. हाथ उठाने वाले कुछ लोग मंच के पास बनी सीढ़ी के पास खड़े हो गए. लालू प्रसाद ने ललकारा, ‘ सीढ़ी से आओगे! नाम हंसाओगे! सामने से मंच पर चढ़ो.’ जो सीढ़ियों के पास थे, वे मंच के सामने गए और मंच पर चढ़ गए. लालू प्रसाद ने सबको मंच पर खड़ा किया. सबके कुरते के बटन को सामने से खोलने को कहा. फिर ताड़ के पेड़ पर चढ़ने से बने दाग को भीड़ को दिखाया. लालू ने कहा, ‘लालू जादव इसी दाग को मिटाने आया है. जाओ आज से ताड़ी टैक्स फ्री हुई.’

जिस समय की यह बात है, उस समय मीडिया का इतना विस्तार नहीं था. न तो इतने क्षेत्रीय चैनल थे, न सोशल मीडिया का जमाना. मोबाइल युग का सूत्रपात भी नहीं हुआ था. फोन भी तब इतने नहीं थे लेकिन सासाराम की यह बात शाम होते-होते तक पूरे बिहार में फैल गई और लालू प्रसाद एक बड़े तबके के लिए नायक बन गए. इस बार जब एक अप्रैल से देसी शराब पर प्रतिबंध की पूर्व घोषित योजना पर अमल शुरू हुआ और उसके चार दिन बाद ही विदेशी शराब पर भी प्रतिबंध लगा तो यह बात हवा में उड़ी कि ताड़ी को भी प्रतिबंधित कर दिया जाए जबकि ऐसा हुआ नहीं. नीतीश कुमार की कैबिनेट ने यह फैसला लिया कि ताड़ी सार्वजनिक जगहों पर नहीं बिकेगी और खुलेआम नहीं बिकेगी. शराबबंदी की बात तो सबको समझ में सीधे-सीधे आ गई कि देसी हो या विदेशी शराब, जो भी बेचेगा, पिएगा, उसे पकड़ लेना है. शराब जहां मिले, उसे जब्त कर लेना है, सड़कों पर बहा देना है. पुलिसवाले यह भी समझ गए कि अगर कोई शराब बेचते या बनाते हुए मिलता है तो उसे समझाना है कि 10 लाख रुपये तक का जुर्माना और दस साल तक की सजा हो सकती है. सार्वजनिक जगहों पर पीकर कोई बौराता है तो उसे दस साल तक की सजा दी जा सकती है. पुलिसवाले को यह भी समझ में आ गया था कि कैंपस या घर आदि में जमावड़ा लगाकर कोई पीने-पिलाने का प्रबंध करता है तो उसे भी बताना है कि दस साल की सजा और उम्रकैद तक हो सकती है. पुलिसवाले यह सब समझ गए लेकिन वे ताड़ी का पेंच समझ नहीं सके इसलिए अगले दिन से ताड़ी उतारने वाले चौधरियों को भी पकड़ने लगे, परेशान करने लगे. दो-चार दिन तक यह होता रहा और बिहार में शराबबंदी पर जितनी बात हुई, जितनी खुशी हुई, उतनी ही नाराजगी एक बड़े वर्ग में ताड़ी को लेकर हुई कार्रवाइयों से व्याप्त हो गई.

ताड़ी के धंधे में लगे लोगों ने कहा कि लालू प्रसाद ही हमारे मसीहा थे, नीतीश तो दुश्मन जैसा व्यवहार कर रहे हैं. कुछ दिनों बाद ताड़ीवालों को परेशान करना छोड़ दिया गया लेकिन यह बात चूंकि तेजी से फैल चुकी थी इसलिए शराबबंदी के कुछ दिनों बाद नीतीश कुमार को भी बोलना पड़ा. उन्होंने कहा था, ‘हम जल्द ही ताड़ और ताड़ी का नया इस्तेमाल करने जा रहे हैं. रोजगार के सृजन का नया द्वार खोलने जा रहे हैं. सूर्योदय से पहले की ताड़ी सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होती है इसलिए सुबह-सुबह की ताड़ी सभी जगहों से जमा होगी और फिर उसका प्रसंस्करण होगा, उसे बोतलबंद किया जाएगा जो ‘नीरा’ नाम से पूरे बिहार में बिकेगी.’

‘शराबबंदी के राजनीतिक निहितार्थ हैं. यह नीतीश के लिए अग्निपरीक्षा है. पुलिसवाले चाहेंगे, तभी यह सफल होगा और पुलिसवाले ऐसा आसानी से चाहेंगे, इसमें संदेह है’

शराबबंदी के प्रसंग में ताड़ी पर यह बात इसलिए कि महज पांच दिन में यह पता लग गया कि शराबबंदी का बिहारियों की सेहत और आर्थिक नफा-नुकसान से चाहे जिस किस्म का रिश्ता हो लेकिन इसका सियासत से भी उतना ही गहरा रिश्ता है लेकिन सियासी रिश्ते सतह पर नहीं हैं. बात सिर्फ ताड़ी पर नहीं हुई, पहले सिर्फ देसी शराब पर प्रतिबंध लगाने के ठीक चार दिन बाद ही जिस तरह से नीतीश कुमार ने विदेशी शराब पर भी प्रतिबंध लगाने का आदेश पारित किया, बिहार में शराबियों के मुंह से चाहे जितनी गालियां निकली हों, शराब का विरोध करने वालों ने चाहे जितनी वाहवाही दी लेकिन बिहार की सियासत को जो समझते हैं, उन्होंने प्रतिक्रिया दी थी कि जनता की नब्ज पकड़ने के मामले में नीतीश अब लालू से ज्यादा उस्ताद हो गए हैं और उन्होंने शराबबंदी के जरिए एक ऐसा तीर चलाया है जिससे एक साथ कई निशाने सधेंगे. जो यहां की सियासत को समझते हैं, वे यह भी जानते हैं कि नीतीश ने शराबबंदी का एजेंडा चुनाव के पहले क्यों सामने लाया और चुनाव होने और परिणाम आने के बाद सबसे पहले ठोस फैसले के रूप में शराबबंदी को ही क्यों लागू किया.

मीनापुर के पूर्व राजद विधायक हिंद केशरी यादव कहते हैं, ‘नीतीश जी ने ये फैसला अचानक लिया है. स्वागत है लेकिन इस शराबबंदी के राजनीतिक निहितार्थ हैं. यह उनके लिए अग्निपरीक्षा है. उनके पुलिसवाले चाहेंगे, तभी यह सफल होगा और पुलिसवाले आसानी से चाहेंगे, इसमें संदेह है. मैं तो वर्षों से शराबबंदी अभियान चलाता रहा, चार साल पहले मुझे जिला प्रशासन और पुलिस के तमाम बड़े पदाधिकारियों के बीच में ही शराबबंदी अभियान के तहत पदयात्रा निकालने के कारण शराब माफियाओं ने मारा-पीटा. मेरे साथ महिलाओं को मारा-पीटा गया था. अभियान में शामिल एक गर्भवती महिला को इतना पीटा गया कि उनका अबॉर्शन कराना पड़ा. हमने नामजद एफआईआर कराई लेकिन आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई.’

हिंद केशरी कांग्रेसी कुल के नेता रहे हैं. बाद में राजद से जुड़े और विधायक बने. अब राजद, कांग्रेस सब नीतीश कुमार के साथ हैं इसलिए वे खुलकर कुछ नहीं बोल रहे. हिंद केशरी की मजबूरी है, इसलिए वे जो कहना चाह रहे हैं वह कह नहीं पा रहे लेकिन बिहार के जानकार लोग जानते हैं कि इसके निहितार्थ क्या हैं. निहितार्थ गहरे न होते तो शराब के कारोबार पर प्रतिबंध लगाने का फैसला एक झटके में नहीं लिया गया होता. एक झटके में 500 करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान उठाने को कोई भी यूं ही तैयार नहीं हो जाता. बहरहाल इस प्रतिबंध के निहितार्थ सरल हैं. नीतीश दो साल पहले जब भाजपा से अलग होकर लालू प्रसाद के साथ जा मिले थे तो यह कोई साधारण राजनीतिक फैसला नहीं था. नीतीश के राजनीतिक जीवन के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी इस नए सियासी समीकरण को साध लेना और खुद को फिर से स्थापित कर लेना. उन्होंने ऐसा साबित किया और यह सब जानते हैं कि यह सब सिर्फ लालू से जुड़ाव या भाजपा की कमजोर रणनीतियों की वजह से नहीं हुआ बल्कि इसमें सबसे बड़ी भूमिका बिहार के महिलाओं की रही जिन्होंने नीतीश कुमार को खुलकर वोट किया और नीतीश को बड़ी जीत दिलवाने में अहम भूमिका निभाई. महिलाओं का इस तरह एकमुश्त खुलकर नीतीश को वोट देने के पीछे कई कारण माने जाते हैं.

संभावना है कि साइकिल वितरण और पंचायत में महिलाओं को आरक्षण देने के बाद शराबबंदी का फैसला सभी वर्गों की महिलाओं को नीतीश से जोड़ेगा

बताया जाता है कि नीतीश ने महिलाओं को पंचायत चुनाव में आरक्षण दिया इसलिए महिलाएं उनकी मुरीद हुईं. एक बड़ा तबका यह मानता है कि चूंकि नीतीश कुमार ने लड़कियों को साइकिल दी इसलिए भी महिलाएं प्रभावित हुईं. पहली खेप में साइकिल पाने वाली लड़कियां भी अब वोटर हो चुकी हैं, इसलिए भी उनके महिला वोट में इजाफा हुआ है. लेकिन जानकार यह बताते हैं कि इस बार तमाम प्रतिकूल स्थितियों में भी कास्ट और कम्युनिटी के दायरे से बाहर निकलकर महिलाओं ने नीतीश को वोट दिया. एक बड़ी वजह यह भी रही कि नीतीश ने चुनाव के पहले महिलाओं से शराबबंदी का वादा किया था. यह सब जानते हैं कि इसकी बुनियाद कब रखी गई थी. चुनाव के ठीक पहले नौ जुलाई, 2015 को पटना में जीविका परियोजना से जुड़ी महिलाएं ग्रामवार्ता कार्यक्रम में भाग लेने आई थीं. कार्यक्रम में नीतीश के भाषण के बाद एक महिला ने कहा कि शराब बंद करवा दीजिए, सर. तो नीतीश को एक बार फिर माइक संभालना पड़ी. तब उन्होंने कहा था कि इस बार जीत मिली तो पक्का. नीतीश के इस एलान का असर रहा. बाद में नीतीश ने इसे अपने सात निश्चयों में भी शामिल किया और सरकार बनने के बाद पहला फैसला शराबबंदी का ही लिया.

पहला फैसला यही लेने की ठोस वजहें भी थीं. नीतीश जान चुके थे कि भाजपा से अलगाव और राजद से जुड़ने के बाद भी वे अगर भारी जीत हासिल करने में सफल हुए हैं तो उसमें महिलाओं का वोट सबसे अहम रहा है और यह सही वक्त है जब वे उस वोट के चैंपियन बन जाएं और सदा-सदा के लिए अपने पक्ष में कर लें. पहले नीतीश कुमार ने सिर्फ देसी शराबबंदी का आदेश दिया लेकिन चार दिन में ही वे यह भी जान गए कि यह उनकी राजनीतिक भूल है और इसका नुकसान उन्हें ज्यादा होगा इसलिए चार दिन के भीतर ही विदेशी पर भी प्रतिबंध लगा दिया. नीतीश कहते भी हैं कि यह फैसला उन्होंने महिलाओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए लिया है.

नीतीश यह बात सही कह रहे हैं. उन्होंने वास्तव में महिलाओं के दबाव में आकर यह फैसला लिया है क्योंकि महिलाएं न सिर्फ इसकी मांग कर रही थीं बल्कि पिछले कुछ सालों से बिहार के अलग-अलग हिस्से में आंदोलन भी चला रही थीं. अपने दम पर शराबबंदी अभियान चलाकर शराब के अड्डों को ध्वस्त भी कर रही थीं. नीतीश के पास शराबबंदी करने की घोषणा करना ही एकमात्र विकल्प बच गया था. महिलाओं ने पूरे बिहार में किस तरह से शराबबंदी की कमान संभाली थी उसकी बानगी बिहार चुनाव के दौरान ही देखने को मिली थी. रोहतास जिले में महिलाओं ने शराबबंदी के लिए नोटा का प्रचार शुरू कर दिया था. पांच सितंबर को एक बड़ी खबर छपरा के शोभेपुर गांव से आई. वहां शराबबंदी के लिए समूह में पहुंची महिलाओं ने शराब के अड्डे को ध्वस्त कर दिया था. ऐसी ही खबर पटना से सटे मनेर हल्दी छपरा, सादिकपुर, शेरपुर, छितनावां जैसे गांवों से आई थी कि वहां महिलाओं ने शराब के अड्डों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया है. बरबीघा जैसे इलाके से यहां तक खबर आई कि महिलाओं ने वहां समूह बनाकर पीने और पिलाने वाले, दोनों पर जुर्माना और सार्वजनिक तौर पर डंडे से पिटाई जैसे दंड की व्यवस्था की न सिर्फ घोषणा की बल्कि उस पर अमल भी कर रही थीं. बिना किसी राजनीतिक दल के सहयोग के ये सारे अभियान महिलाओं ने खुद चलाए. इस तरह के अभियान पूरे बिहार में इतनी तेजी से फैल रहे थे कि अगर नीतीश यह फैसला नहीं लेते तो शायद जिन महिलाओं ने उनका साथ दिया था वे उनसे छिटकना शुरू कर देतीं.

Photo by - Sonu Kishan
Photo by – Sonu Kishan

इसका दूसरा मजबूत पक्ष यह है कि नीतीश अब यह जान चुके हैं कि पूरी तरह से जाति की राजनीति में फंस चुके बिहार में उन्होंने जाति से इतर अपने लिए एक वोट बैंक खुद के बूते तैयार किया है और वह वोट बैंक इतना ठोस है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी उनके कद को बनाए-बचाए रख सकता है. नीतीश ने पिछड़ों से अतिपिछड़ों और दलितों से महादलितों को अलग करके अपने लिए एक अलग वोट बैंक तैयार किया था लेकिन ये वोट बैंक मजबूती से नीतीश के साथ नहीं रह पाए. महादलितों के वोट का बंटवारा हो चुका है और अतिपिछड़ा अब अपनी सत्ता के लिए अलग राह अपना रहे हैं. ऐसे में भविष्य की राजनीति के लिए यह जरूरी था कि नीतीश महिलाओं को अपने साथ रखते. अब साइकिल वितरण योजना और पंचायत में महिलाओं को आरक्षण देने के बाद शराबबंदी का फैसला पिछड़ी से लेकर उच्च जाति की महिलाओं को नीतीश से जोड़ेगा. साथ ही पढ़ी-लिखी शहरी लड़कियों से लेकर गांव-कस्बों में रहने वाली लड़कियों को भी उनके पक्ष में खड़ा करेगा. नीतीश कह भी रहे हैं कि फैसले का असर अभी से दिख रहा है. एक सप्ताह में ही बिहार में जिस तरह से महिलाओं में खुशी की लहर है उससे पता चल रहा है कि आगे बिहार का भविष्य बेहतर होने वाला है.

वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘महिलाओं का अलग से वोट बैंक बन जाने की ऐसी घटना बिहार में पहले कभी नहीं हुई थी.’ सच्चिदानंद सिन्हा जैसे कई लोग मानते हैं कि यह एक अभूतपूर्व राजनीतिक गोलबंदी है जो नीतीश को बड़ा नेता बनाती है लेकिन नीतीश ने शराबबंदी करके भाजपा की आगे की राह मुश्किल करने के साथ ही सबसे बड़ी चुनौती लालू यादव के लिए खड़ी कर दी है. पत्रकार पुष्यमित्र कहते हैं, ‘बहुत साफ है कि नीतीश और लालू की जोड़ी के जीतने के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि लालू खुद को बड़े कद का नेता साबित करने की कोशिश करेंगे लेकिन नीतीश ने खुद को उनसे पहले ही बड़े कद का लोकप्रिय नेता बना लिया. इस प्रक्रिया में शराबबंदी एक बड़े औजार की तरह रही.’ पुष्यमित्र की बातों का विस्तार करें तो एक और बात सामने आती है. इस फैसले से नीतीश ने लालू को चुनौती भर ही नहीं दी है बल्कि इन दिनों वे लालू को दरकिनार करके खुद को एक बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने में जुटे हुए हैं. बिहार में चुनाव परिणाम आने के बाद लालू ने कहा था कि नीतीश बिहार संभालेंगे और वे अब देश घूमकर राजनीति करेंगे लेकिन लालू के इस मंसूबे पर भी नीतीश ने पानी फेर दिया है. नीतीश राष्ट्रीय लोकदल और झारखंड विकास मोर्चा जैसी पार्टियों का विलय जदयू में करवा रहे हैं, और अब वे खुद जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन केंद्रीय राजनीति में अपना कद बढ़ा चुके हैं.

बात इतनी ही नहीं हैं. वे किसी स्तर पर लालू प्रसाद को यह मौका ही नहीं दे रहे कि वे खुद का उभार कर सकें. कहा जा रहा है कि इस शराबबंदी के जरिए भी नीतीश ने लंबी सियासी चाल चली है. नीतीश भी जानते हैं कि अभी नहीं तो 2019 में लोकसभा चुनाव आते-आते तक लालू और उनके बीच का रास्ता अलग हो सकता है. लालू से अलगाव के बाद नीतीश को खुद को खड़ा करने के लिए एक मजबूत आधार चाहिए होगा. उस आधार के तौर पर ही उन्होंने हर तरह के कार्ड खेलने शुरू किए हैं. उनमें से एक कार्ड तो हालिया दिनों में लगातार नीतीश कुमार द्वारा निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग वाला कार्ड है, जिससे वे एक नए किस्म का आधार वोट बैंक नौजवानों, पिछड़ों और दलितों के बीच बनाना चाह रहे हैं. इस बार के चुनाव में नीतीश और लालू अपने वोट बैंक के आधार पर ही चुनावी मैदान में थे. उस आधार से इतर नीतीश ने एक अलग ठोस वोट बैंक का निर्माण महिलाओं के रूप में किया है. यह सब जानते हैं कि लालू इस तरह शराबबंदी के पक्ष में कभी नहीं रहे. उनका जहां-जहां भी कोर वोटर है वहां शराब उसकी जीवन का अहम हिस्सा है, इसलिए लालू पहले भी कहते रहे हैं कि गरीबों का लाल पानी (देसी शराब) कभी बंद नहीं होना चाहिए. अब नीतीश ने सबका लाल पानी बंद कर दिया है और इसे लेकर लालू का अब तक कोई ठोस बयान नहीं आया है. हालांकि उनके बेटे और राज्य के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव कहते हैं कि हमने तो नया नारा ही दिया है- ‘नशा छोड़ो, समाज जोड़ो.’ तेजस्वी कहते हैं कि हमारी सरकार ने बिहार की गरीब जनता का ध्यान रखकर और महिलाओं-बच्चों की खुशी के लिए यह फैसला लिया है और ताड़ीवालों को परेशान होने की जरूरत नहीं. सरकार जल्द ही उनके लिए नया वैकल्पिक इंतजाम करने जा रही है ताकि ताड़ी के धंधे पर आश्रित लोगों का जीवनयापन होने के साथ वे कमाई भी कर सकें. तेजस्वी शराबबंदी पर अपनी बात खुलकर रखते हैं. वे इसे अपनी सरकार के श्रेय के खाते में जोड़ना चाहते हैं वहीं नीतीश इसे सरकार के बजाय अपनी उपलब्धियों के खाते में डाल चुके हैं.

शराबबंदी की सियासत तो एक बात हुई. बिहार में शराबबंदी के आदेश के बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या बिहार में सिर्फ सरकारी आदेश से शराबबंदी हो जाएगी. यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है कि यहां पहली बार शराबबंदी नहीं हुई है. इससे पहले 1977 में जब कर्पूरी ठाकुर की सरकार थी तब भी शराबबंदी का आदेश सरकार ने दिया था लेकिन यह ज्यादा दिनों तक चल नहीं सका था. तस्करी के कारण आदेश धरा का धरा रह गया था और अंत में कर्पूरी ठाकुर के बाद दूसरी सरकार आते ही शराबबंदी का आदेश वापस ले लिया गया. इस बार भी कहा जा रहा है कि तस्करी होगी. सूचना यह मिल रही है कि बिहार से लगे झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाके में शराब की दुकानें खोलने की तैयारी है और उससे तस्करी भी होगी. मुख्यमंत्री के पास भी यह सवाल रखा जाता है तो वे कहते हैं कि इस भ्रम में किसी को रहने की जरूरत नहीं है. हमने शराबबंदी की बात की है तो जो पड़ोसी राज्य हैं वहां भी यह आवाज उठेगी और कोई तस्करी नहीं होगी. हालांकि पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश से तो यह आवाज अब तक नहीं उठी लेकिन झारखंड में इस बात की आवाज नीतीश द्वारा बिहार में आदेश दिए जाने के बाद से ही उठने लगी है. तस्करी तो फिर भी एक मसला है, लेकिन दूसरी बड़ी चुनौती पुलिस-प्रशासन के सहयोग से स्थानीय स्तर पर ‘चुलइया’ शराब बनाने की होगी. अपराध विशेषज्ञ ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘नीतीश के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती होगी क्योंकि बिहार की पुलिस लगातार कमजोर और शिथिल चल रही है. ऐसे में संभव है कि पुलिस शराबबंदी की आड़ में अवैध वसूली का नया कारोबार शुरू करे.’

शराबबंदी से नीतीश ने लालू को चुनौती ही नहीं दी है बल्कि इन दिनों वे उन्हें दरकिनार करके खुद को एक बड़े नेता के बतौर स्थापित करने में भी जुटे हुए हैं

खैर, यह सब तो बाद की बात है. फिलहाल बिहार में शराबबंदी का आदेश होने के बाद से हर दिन शराब को लेकर प्रशासन कार्रवाइयां कर रहा है. नीतीश भी हर आयोजन में शराबबंदी के अपने फैसले की चर्चा करते नहीं अघा रहे हैं. शराबबंदी के बाद रोजाना नए किस्से-कहानियों का भंडार भी बढ़ता जा रहा है. जैसे शराबबंदी के आदेश के दूसरे दिन ही खबर आई कि झारखंड से आने वाली ट्रेनों में दूध के ड्रम में शराब छिपाकर लाने का काम शुरू हो गया है. बेतिया से खबर आई कि वहां कई शराबी शराब न मिलने से साबुन खाने लगे हैं. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया जा रहा है. पूर्णिया से खबर आई कि वहां एंबुलेंस में मरीज को साथ रखकर उसकी आड़ में शराब लाया जा रहा था. औरंगाबाद इलाके से खबर आई कि रोजाना पीने वाले लोग 30-40 किमी तक साइकिल चलाकर झारखंड के सीमावर्ती इलाकों में जा रहे हैं. इसी तरह की खबरें राज्य के अलग-अलग हिस्सों से आ रही हैं. दूसरी ओर पुलिस भी सक्रियता दिखा रही है. राज्य के अपर पुलिस महानिदेशक सुनील कुमार कहते हैं, ‘शराबबंदी के आदेश के बाद पुलिस द्वारा अब तक 15 हजार से अधिक स्थानों पर छापेमारी हो चुकी है. शराब की भट्ठियां तोड़ी गई हैं. केस दर्ज किए जा रहे हैं.’

खैर! यह होना स्वाभाविक भी है. इतने वर्षों में बिहार की एक बड़ी आबादी को शराब पीने की आजादी मिली है. सब अचानक से बंद होने पर ये मुश्किलें आनी ही थीं लेकिन यह भी तय है कि अगर यह कुछ सालों तक लागू रहा और पुलिस ने सख्ती दिखाई तो बिहार में एक नई किस्म की मुश्किल जरूर खड़ी होगी. वजह है कि पिछले कुछ सालों से बिहार में यह कहावत बन चुकी है कि द्वारे-द्वारे शराब पहुंचाकर और शिक्षा को रसातल में पहुंचाकर सरकार ने इसे बर्बादी के मुहाने पर पहुंचा दिया है, जहां सामाजिक न्याय, समावेशी विकास और बिहारीपन जैसे नारे का कोई महत्व नहीं होता. वहीं शराबबंदी के आदेश के बाद बिहार में नई उम्मीद जगी है. नीतीश के फैसले का स्वागत विरोधी भी कर रहे हैं.        

नरगिस के नखरे उफ-उफ-उफ!

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जिसे इस देश का बच्चा-बच्चा सीरियल किसर के नाम से जानता है, उसकी ‘किसिंग’ काबिलियत पर सवालिया निशान लगाना कम दिलेरी का काम नहीं है. और तो और, ये सवालिया निशान किसी और ने नहीं बल्कि पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी मोहम्मद अजहरुद्दीन की बायोपिक ‘अजहर’ में संगीता बिजलानी का किरदार निभा रही उनकी को-स्टार नरगिस फाखरी ने लगाए हैं. इमरान हाशमी के साथ किसिंग सीन के बारे में पूछे जाने पर  उन्होंने कह दिया कि ये कुछ खास नहीं था. इतना ही नहीं उन्होंने फिल्म के पोस्टर की ओर इशारा करते हुए कुछ ऐसा कहा जिसका लब्बोलुआब ये था कि उन मूंछों (इमरान फिल्म में मूंछों के साथ नजर आएंगे) के होते हुए किस कैसे अच्छा हो सकता है. ‘हफिंग्टन पोस्ट’ से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘फिल्म में उन्हें कई बार किस करना पड़ा. उनकी मूंछें बेहद खीझ दिलाने वाली थीं.’ नरगिस के इस बयान से इमरान के चाहने वालों की भवें तन गई हैं. बॉलीवुड में नरगिस जैसे-जैसे पुरानी हो रही हैं उनके नखरे ‘उफ-उफ-उफ टाइप’ होते जा रहे हैं. वैसे कुछ सूत्र ये भी कह रहे हैं कि नरगिस मजाक कर रही थीं.

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कंगना के लिए कड़ी परीक्षा की घड़ी
कंगना रनौत इन दिनों इम्तिहान की घड़ी से गुजर रही हैं. साल की शुरुआत में हृतिक रोशन के साथ कथित प्रेम संबंधों के उजागर होने के बाद दोनों के बीच चल रही लड़ाई में फिलहाल हृतिक का पलड़ा भारी होता दिख रहा है. कंगना की इस लड़ाई में जहां उनकी बहन रंगोली उनके साथ हैं वहीं अब तक अकेले कानूनी लड़ाई लड़ रहे हृतिक को कंगना के एक्स बॉयफ्रेंड अध्ययन सुमन का साथ मिल गया है. कंगना से ब्रेकअप के सात साल बाद उन्होंने चुप्पी तोड़ी है. हृतिक से सहानुभूति जताते हुए उन्होंने बताया कि कंगना उन्हें मारती-पीटती थीं. साथ ही उन पर काले जादू का इस्तेमाल करती थीं. इस पर अब तक कंगना की ओर से कोई टिप्पणी नहीं आई है. वैसे इस लड़ाई में अभी और खुलासे होने बाकी हैं. अब देखना ये है कि अपनी ‘रिवाल्वर रानी’ इसका जवाब कैसे देती हैं.

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सनी के ‘स्वीट ड्रीम्स’
बॉलीवुड में कदम रखने के बाद से मशहूर पॉर्न स्टार सनी लियोन की प्रतिभा दिनोंदिन निखरती ही जा रही है. बॉलीवुड की कई फिल्मों में काम करने के बाद अब वे लेखिका भी बन गई हैं. हाल ही में उन्होंने ‘स्वीट ड्रीम्स’ नाम की एक किताब लिखी है. एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया, ‘मैं बस अलग-अलग कहानियों और विचारों के बारे में सोच रही थी लेकिन असल में मैंने कभी कुछ लिखा नहीं था.’ हालांकि जब जगरनॉट बुक पब्लिकेशन ने उनसे लिखने के लिए संपर्क किया तो उन्होंने 3 महीनों में ये किताब लिख डाली. इस किताब में12 छोटी कहानियां हैं जो ऐसी-वैसी नहीं हैं. बताया जा रहा है कि हर कहानी उनकी फिल्मों की तरह ही खुद में ‘चाट मसाले’ के साथ काफी मात्रा में ‘गरम मसाला’ लपेटे हुए है. अब जिसमें इतना मसाला हो उस किताब को बेस्टसेलर बनने से कौन रोक सकता है.

गांवों में बुजुर्गों की बदहाली

वरिष्ठ नागरिकों के लिए चलाई जा रही तमाम योजनाओं के बावजूद गांव में रहने वाले बुजुर्गों की हालत खराब है. बुजुर्गों पर आई सरकार की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, देश के ग्रामीण इलाकों में मौजूद कुल बुजुर्गों में करीब 66 फीसदी ऐसे हैं जो अब भी दिहाड़ी पर अपना जीवनयापन कर रहे है. इसी तरह आजीविका कमाने को मजबूर बुजुर्ग महिलाओं की संख्या एक चौथाई से कुछ अधिक है. गांवों में करीब 28 फीसदी बुजुर्ग महिलाओं को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है. रिपोर्ट के अनुसार, गांव में मेहनत-मजदूरी करके जीवन-यापन करने वाली बुजुर्ग महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है. इसके अनुसार 2001 में ग्रामीण भारत में रोजी-रोटी कमाने वाली महिला बुजुर्गों की संख्या 24.9 फीसदी थी, जो 2011 आते-आते बढ़कर 28.4 फीसदी हो गई. वहीं 2001 में पुरुष बुजर्गों में 65.6 फीसदी अपनी रोजी-रोटी कमा रहे थे जो 2011 में बढ़कर 66 फीसदी हो गए.