अब भारतीय मानचित्र का गलत चित्रण करना भारी पड़ सकता है. केंद्र सरकार इस संबंध में एक विधेयक तैयार कर रही है. इसके पारित हो जाने के बाद कंपनियां और एजेंसियां सरकार की तरफ से बिना लाइसेंस के कोई मैप ऑनलाइन नहीं दिखा सकेंगी. इस विधेयक के अनुसार भारत का गलत नक्शा दिखाने वालों को अधिकतम सात वर्ष की जेल हो सकती है और उन पर 100 करोड़ रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है. भू-स्थानिक सूचना नियमन विधेयक, 2016 के मसौदे के अनुसार भारत से जुड़ी किसी भू-स्थानिक सूचना को प्राप्त करने, उसका प्रचार-प्रसार करने, उसको प्रकाशित करने या उसमें संशोधन करने से पहले शासकीय प्राधिकार से अनुमति लेना आवश्यक होगा. कुछ सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों द्वारा हाल ही में जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान और अरुणाचल प्रदेश को चीन का हिस्सा बताए जाने की पृष्ठभूमि में सरकार ने यह कदम उठाया है. हाल ही में ट्विटर ने कश्मीर की भौगोलिक स्थिति को चीन में और जम्मू को पाकिस्तान में दिखाया था, जिसका भारत सरकार ने विरोध किया था, जिसके बाद इसमें सुधार किया गया था.
भारत-चीन के बीच सेतु बने टैगोर
चीन ने नोबेल पुरस्कार से सम्मानित गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की संपूर्ण रचनावली का 33 खंडों में अनुवाद प्रकाशित किया है. इन 33 खंडों में कुल 1.6 करोड़ शब्द हैं. टैगोर की 155वीं जयंती से पहले जारी हुए इस अनुवाद को पांच साल से ज्यादा का वक्त लगाकर चीन के इंटरनेशनल रेडियो, वहां की सरकारी न्यूज एजेंसी शिन्हुआ, कम्युनिस्ट पार्टी के नेशनल पार्टी स्कूल और यहां तक कि चीनी फौज से जुड़े 18 अनुवादकों ने संपन्न किया है. अनुवादकों ने इस काम में भारत सरकार या किसी भी भारतीय संस्था का कोई सहयोग नहीं लिया. अलबत्ता बांग्लादेश के बौद्धिकों ने इस परियोजना में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और चीनी अनुवादकों को जहां भी भाषा की कोई समस्या हुई, वहां अपनी क्षमता भर उनकी सहायता की. अनुवादकों का कहना है कि उन्हें उन शब्दों का भाव समझने में सबसे ज्यादा मुश्किल आई जो संस्कृत के ज्यादा करीब हैं, क्योंकि बांग्लादेशी विद्वान इस काम में उनकी कुछ खास मदद नहीं कर पाते थे.
ये देखकर दुख होता है कि अभिनेत्रियों का इस्तेमाल डिजाइनर कपड़े बेचने के लिए किया जा रहा है : श्रेया नारायण
एक राजनीतिक परिवार से होने के बावजूद अभिनय का ख्याल कब आया?
मैं बिहार के मुजफ्फरपुर शहर से हूं. मैं ऐसे परिवार से हूं जिसने एक ही काम सीखा है और वो है पढ़ाई-लिखाई. मैंने दिल्ली में रहकर पढ़ाई की है. मैं एक अच्छी स्टूडेंट रही हूं और एमबीए किया है. कॉलेज के समय में थियेटर करने के दौरान ही मुझे लगा कि अभिनय ही करना है. मेरे परिवार का कला और संगीत से दूर-दूर तक नाता नहीं रहा है. हमारे यहां ये परंपरा रही है कि हमने आपको पढ़ा दिया है. इसके आगे की जिम्मेदारी आपकी है कि आप जो करना चाहें, जैसे चाहें, कर सकते हैं. परिवार की ओर से ऐसा कोई बंधन नहीं था कि तुम ये नहीं कर सकती, वो नहीं कर सकती. इसलिए पढ़ाई-लिखाई के बाद मैंने अभिनय को बतौर करियर चुना क्योंकि मुझे लगता है कि ये एक ऐसा पेशा है जो आपको कई जिंदगियां जीने का मौका देता है. बाकी आप अगर डॉक्टर या इंजीनियर बनते हो तो ताउम्र उसी भूमिका में होते हो.
राजनीतिक घरानों से तमाम लोग फिल्मों में अभिनय की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन ऐसे घरानों से आए लोगों में से कुछ को ही इस डगर पर सफलता मिल पाती है. आपका क्या ख्याल है?
मेरे परिवार से तमाम लोग राजनीति में हैं फिर भी बॉलीवुड में कदम रखने के लिए परिवार से मुझे कोई खास मदद नहीं मिली. यहां तक पहुंचने का मेरा संघर्ष खुद का है जो आज भी जारी है. हालांकि मैं ये भी कहूंगी कि ये संघर्ष ऐसा भी नहीं रहा कि मुंबई में मुझे कभी खाने या फिर रहने की दिक्कत हुई हो. जहां तक राजनीतिक परिवारों से आने वाले कलाकारों के इंडस्ट्री में स्थापित न हो पाने की बात है तो मुझे लगता है कि ये राजनीतिक परिवार से आने का मसला नहीं है. जो भी कलाकार यहां (इंडस्ट्री से) के नहीं हैं उन्हें इस तरह की दिक्कत पेश आती ही है. बॉलीवुड में एक फिल्म बनती है तो या तो स्थापित कलाकारों को लिया जाता है या फिर उन लोगों को जो फिल्म में पैसा लगाते हैं. मतलब ये पूरी दुनिया लेन-देन पर चल रही है.’
रेखा की फिल्म ‘सुपर नानी’ के तकरीबन दो साल बाद आपकी फिल्म ‘लाल रंग’ रिलीज हुई है. कोई खास वजह?
जो भी आप काम करते हो उसके पीछे एक प्रेरणा होती है. बीच में मां का निधन हो जाने के बाद लगा था कि अब ये काम किसके लिए करूंगी. ऐसा लग रहा था कि अब फिल्मों से वैसा जुड़ाव नहीं रख पाऊंगी. इसलिए कुछ दिनों तक इंडस्ट्री से दूर रही लेकिन ऐसा भी नहीं था कि पूरी तरह से गायब थी. बीच में रेखा जी के साथ फिल्म ‘सुपर नानी’ करने के बाद टीवी के लिए काम किया. पिछले साल ही रबींद्रनाथ टैगोर की कहानियों पर आधारित और अनुराग कश्यप के निर्देशन में बने टीवी सीरियल ‘दुई बोन’ (दो बहन) में काम किया. यशराज फिल्म्स की टीवी सीरीज ‘पावडर’ में भी अभिनय किया. इसके अलावा तिग्मांशु धूलिया की फिल्म ‘यारा’ इसी साल रिलीज होने वाली है. ये विद्युत जामवाल, श्रुति हसन और अमित साध की फिल्म है. इसमें मैं अमित के अपोजिट कास्ट की गई हूं. हालांकि इस फिल्म में लड़कियों का कोई खास रोल नहीं था, लेकिन तिग्मांशु सर ने बोला कि मुझे इसमें काम करना चाहिए इसलिए मैंने काम किया और फिर मुझे फिल्म ‘लाल रंग’ मिल गई. ‘लाल रंग’ में मेरा किरदार रणदीप हुडा और अमित ओबरॉय की मदद खून की तस्करी करने में करता है.
2009 में फिल्म ‘एक दस्तक’ से बॉलीवुड में दस्तक देने के बाद अभी भी फिल्मों में आप छोटे किरदारों में ही नजर आती हैं?
फिल्म ‘एक दस्तक’ में मेरा लीड किरदार था. इसके अलावा जो भी रोल मुझे मिला मैंने उसे पूरी ईमानदारी से निभाया है, इस बात की परवाह किए बगैर कि वे छोटे किरदार हैं या फिर बड़े. मुझे लगता है कि हम जैसे लोग जो ऑडिशन से आते हैं उन्हें भी बड़े और अच्छे रोल मिलने चाहिए. मैंने अलग-अलग तरह का अभिनय किया है. ‘लाल रंग’ में भी मेरा किरदार काफी मजेदार और प्रभाव छोड़ने वाला है, पर अभी उस तरह का मामला नहीं बन पाया है कि मुझे और अच्छे किरदार मिल सकें. अभी अभिनय में बहुत विकल्प नहीं मिल रहे हैं तो अभी असली लड़ाई इसी बात को लेकर है कि मुझे अच्छे किरदार मिलें और मैं अच्छा परफॉर्म कर सकूं.
बीते दिनों आपने बॉलीवुड के बिजनेस मॉडल पर एक रिपोर्ट भी लिखी है? क्या सौ करोड़ क्लब का मॉडल बॉलीवुड और इसके दर्शकों के लिए ठीक है?
देश में शिक्षा का मॉडल आपको पता है. इसके हिसाब से आप परीक्षा देते हो और पास होकर अगली कक्षा में चले जाते हो, लेकिन बॉलीवुड में ऐसा नहीं है. इंडस्ट्री में पढ़ाई, प्रतिभा या अच्छी फिल्में महत्व नहीं रखती हैं. महाराष्ट्र में सरकार ने 45 प्रतिशत का मनोरंजन कर लगा रखा है. जैसे सौ रुपये किसी फिल्म का टिकट है तो सरकार पहले ही कर के रूप में 45 रुपये ले लेती है. कुछ पैसे डिस्ट्रीब्यूटर और मल्टीप्लेक्स वालों में बंट जाते हैं. कुल मिलाकर 100 रुपये में से तकरीबन 27 रुपये ही प्रोड्यूसर तक पहुंच पाते हैं. ऐसे में जब सौ करोड़ की फिल्म वो बनाएगा तभी वह मुनाफे के बारे में सोच सकता है. छोटी फिल्मों के साथ कमाई की बात आप सोच भी नहीं सकते. ये सारा खेल पैसों का हो चला है.
‘आजकल ये हमारी मजबूरी हो गई कि हम शरीर को फिट रखें, डिजाइनर कपड़े पहनें, बाल खास तरह से बनाएं और लिपस्टिक के शेड तक का ध्यान रखें ताकि मीडिया हमें तवज्जो दे’
आपने माधुरी दीक्षित और जूही चावला अभिनीत ‘गुलाब गैंग’ का गाना ‘लाज शरम’ भी लिखा है. इसकी क्या कहानी है?
फिल्म ‘गुलाब गैंग’ के निर्देशक सौमिक सेन मेरे अच्छे मित्र हैं. उन्होंने मुझसे बोला था कि वे एक महिला केंद्रित फिल्म बना रहे हैं और इसके लिए एक गाना चाहते हैं जिसमें महिलाएं अपने कर्तव्य और जिंदगी को सेलिब्रेट करती नजर आएं. बोल आसान हों ताकि आम लोगों को भी समझ में आ जाएं. उस समय मुझे फिल्म का नाम तक नहीं मालूम था. मैं लिखती-पढ़ती भी रहती हूं. मैंने कविताएं भी लिखी हैं इसलिए उन्होंने ऐसा कहा था. तब मैंने उनसे कहा कि गाने का तो पता नहीं क्योंकि मैंने गाना नहीं लिखा लेकिन मैं एक कविता लिख सकती हूं. ये कविता ही ‘लाज शरम’ थी जिसे फिल्म में गाने के रूप में शामिल किया गया. मुझे इस बात की भी खुशी है कि ये गाना माधुरी दीक्षित पर फिल्माया गया है.
आप सामाजिक कार्यों में भी हिस्सा लेती हैं. कई विज्ञापनों में नजर आ चुकी हैं और फिल्मों से जुड़ी रिपोर्टिंग भी करती रहती हैं. इतने अलग-अलग माध्यमों के काम में कैसे तालमेल बिठा पाती हैं? क्या आपको नहीं लगता कि किसी एक माध्यम पर आपको अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए?
मुझे ये देखकर दुख होता है कि इतनी इंटेलीजेंट अभिनेत्रियों का इस्तेमाल डिजाइनर कपड़े बेचने और फैशन के टूल के तौर पर किया जा रहा है जबकि वे और भी बहुत कुछ कर सकती हैं. ये हमारी मजबूरी हो गई कि हम शरीर को फिट रखें, डिजाइनर कपड़े पहनें, बाल खास तरह से बनाएं और लिपस्टिक के शेड तक का ध्यान रखें ताकि मीडिया हमें तवज्जो दे. डिजाइनर कपड़े पहनकर फोटो शूट कराने में मेरी कभी भी रुचि नहीं रही. अगर मैं इन चीजों पर ध्यान दूं तो मैं विकसित नहीं हो पाऊंगी और मेरा सारा समय इन्हीं सब कामों में निकल जाएगा, इसलिए मैं समय निकालती हूं ताकि कुछ लिख सकूं, कुछ पढ़ सकूं, सामाजिक कार्यों में शामिल हो सकूं और समाज को कुछ देकर जा सकूं. जहां तक ध्यान केंद्रित करने की बात है तो अब भी अभिनय मेरी प्राथमिकता है, लेकिन बतौर इंसान हमारी दूसरी भी जिम्मेदारियां होती हैं.
सिंहस्थ की झलकियां
महाकाल, राजा विक्रमादित्य और कालिदास के नगर उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ महापर्व शुरू हो चुका है. उज्जयनी और अवंतिका के नाम से मशहूर क्षिप्रा तट पर स्थित धर्म और आस्था की इस नगरी में आयोजित सिंहस्थ में शामिल होने के लिए संन्यासियों के साथ गृहस्थों का भी रेला लगा हुआ है. रामघाट पर स्नान-ध्यान और पूजा-पाठ का सिलसिला अनवरत जारी है. 22 अप्रैल को पहले शाही स्नान पर अखाड़ों ने भव्य पेशवाई निकाली. इस सिंहस्थ में पहली बार किन्नरों की भी पेशवाई निकली. सिंहस्थ उज्जैन में लगने वाला पवित्र कुंभ स्नान पर्व है. 12 वर्षों के अंतराल के बाद यह पर्व तब मनाया जाता है जब बृहस्पति, सिंह राशि पर स्थित रहता है. क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियां चैत्र माह की पूर्णिमा से शुरू होकर पूरे महीने चलते हुए वैशाख पूर्णिमा के अंतिम शाही स्नान (21 मई) के साथ पूरी होंगी. सिंहस्थ के कुछ आध्यात्मिक क्षण.

‘सत्ता हस्तांतरण संधि से पता चल पाएगी नेताजी की सच्चाई’ : राम तीर्थ विकल
गुमनामी बाबा उर्फ भगवन जी की ‘गुमनाम’ मौत के 42 दिन बाद फैजाबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘नये लोग’ के दो पत्रकार राम तीर्थ विकल और उनके सहयोगी चंद्रेश कुमार ने गुमनामी बाबा के नेताजी होने का दावा करते हुए पहली खबर लिखी. इस खबर को अखबार के पहले पन्ने पर जगह दी गई. इस रिपोर्ट के आने के बाद ही दूसरे अखबारों ने इस खबर को तरजीह देना शुरू किया. रिपोर्ट में विकल और चंद्रेश ने लिखा, ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस जो पिछले 12 साल से अयोध्या-फैजाबाद में गुमनामी बाबा के नाम से रह रहे थे, उनकी मौत 16 सितंबर को रहस्यमय परिस्थितियों में हो गई है. मौत के बाद फैजाबाद के बस स्टॉप के पास स्थित राम भवन पर उनके तीन तथाकथित दावेदारों ने नेताजी की संपत्ति पर दावा किया है. तीनों ने घर पर अपने-अपने ताले भी जड़ दिए हैं. साथ ही वे सभी सबूतों को मिटाने में भी लग गए हैं.’ बाद में अखबार के संपादक अशोक टंडन ने ‘गुमनामी सुभाष’ नाम की पुस्तक भी लिखी. इसके कुछ अंश कमलेश्वर के संपादन में दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका ‘गंगा’ में धारावाहिक के रूप में छपे थे. टंडन का दावा है कि उन्होंने बाबा के पास से मिली 2,760 वस्तुओं की बारीकी से जांच की है और उनमें से अनेक नेताजी से संबंधित हैं.

गुमनामी बाबा के नेताजी होने की खबर कैसे पता चली और इसके सूत्र क्या रहे?
उन दिनों मैं अपने अखबार में संडे मैगजीन का पेज देखता था. इसके लिए मैं रामकथा पर कुछ लेख लिख रहा था. इसी सिलसिले में शायद पांच अक्टूबर के दिन यहां के राजकरन इंटर कॉलेज के शिक्षक कृष्ण गोपाल श्रीवास्तव के पास कुछ स्केच लेने गया था. स्केच लेने के दरमियान ही उन्होंने इस घटना का उल्लेख किया. उन्होंने बताया कि 14 सितंबर को राम भवन में रहने वाले गुमनामी बाबा, जो कि नेताजी थे, की मौत हो गई है. उसके तीन दिन बाद उनका अंतिम संस्कार गुफ्तार घाट पर कर दिया गया. जब हमने पूछा कि यह कैसे मान लिया जाए कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे, तब उन्होंने कहा कि हम आपकी मुलाकात उनकी सबसे खास सेविका सरस्वती देवी से करा देते हैं. गुमनामी बाबा के अंतिम दिनों में वही उनके साथ रही थीं. सरस्वती देवी बस्ती की रहने वाली हैं.
जब हमारी भेंट सरस्वती देवी से हुई तब उनसे बातचीत के दौरान हमें कई ऐसी बातों का पता चला जिससे लगा कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे. हालांकि इस दौरान हमारे पास कोई ऐसे साक्ष्य नहीं थे जिनसे साबित होता कि यह बात सही है. हमने इस खबर के बारे में अपने संपादक को बताया. उन्होंने कहा कि इस घटना के बारे में और पड़ताल करो. करीब 21 दिन तक पूरी पड़ताल करने के बाद 27 अक्टूबर को हमने यह खबर लिखी और 28 अक्टूबर, 1985 के अंक में यह खबर लोगों को पढ़ने को मिली. इस दौरान हमने राम किशोर पंडा, राजकुमार शुक्ला, डॉ. पी बनर्जी समेत इस मामले से जुड़े सारे लोगों से बातचीत की. खबर पढ़ने के बाद यहां जनांदोलन शुरू हो गया. उस दौरान राम भवन के जिस कमरे में गुमनामी बाबा रहा करते थे वहां पर तीन ताले लगे हुए थे. पहला ताला डॉ. पी. बनर्जी ने लगा रखा था. दूसरा डॉ. आरपी रॉय ने लगा रखा था जबकि तीसरा सरस्वती देवी ने लगा रखा था. इस दौरान भारी जनदबाव के चलते प्रशासन ने सूची बनाकर सारी चीजों को अपनी कस्टडी में रखने का निर्णय लिया. इतना होने तक सारे देश के अखबारों का ध्यान इस तरफ गया. कई अखबार इसे फॉलो करने लगे.
पहली खबर छपने के बाद से मामले में क्या प्रगति हुई?
खबर छपने के बाद प्रशासन ने गुमनामी बाबा के सारे सामान को बाहर निकालकर एक सूची बनाई और उसे बक्सों में भरकर कोषागार पहुंचा दिया गया. हालांकि ये बात आ चुकी थी तो जनता ने इस मामले काे साफ करने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया. इसी का परिणाम हुआ कि केंद्र सरकार को मुखर्जी आयोग का गठन करना पड़ा. जब मुखर्जी आयोग ने मामले की जांच शुरू कर दी तो लोगों को लगा कि सच सामने आएगा लेकिन सरकार ने इस आयोग की जांच को बीच में ही रोक दिया. तब इस मामले को लेकर नेताजी के परिवार की एक महिला और राम भवन के मालिक शक्ति सिंह अदालत की शरण में चले गए.
1985 में जब आपने यह खबर छापी तो क्या प्रशासन की तरफ से इसका खंडन आया था या जिले के अधिकारियों ने इससे इनकार किया?
उस दौरान जिले में कौन-कौन-से अधिकारी थे, यह तो याद नहीं है, लेकिन एक बात साफ है कि किसी भी अधिकारी ने इस खबर का खंडन नहीं किया था. यह सिर्फ हमारे अखबार की बात नहीं थी, देश भर के अखबारों ने इस खबर को छापना शुरू किया था. इसमें लखनऊ, नई दिल्ली और कोलकाता से छपने वाले अखबार शामिल थे. इस दौरान यह आरोप भी लगा कि बहुत सारे अधिकारी गुमनामी बाबा के अंतिम संस्कार में शामिल भी रहे लेकिन न तो किसी अधिकारी ने इन खबरों की पुष्टि की और न ही खंडन किया. जबकि उस वक्त अगर हम प्रशासन के खिलाफ कोई भी खबर छापते थे तो तुरंत अगले दिन अधिकारी उसका खंडन करते थे. इस मामले में उस परंपरा का निर्वाह नहीं किया गया.
कहा जाता है कि गुमनामी बाबा के अंतिम संस्कार में शामिल होने कोलकाता से उनका कोई भी परिजन नहीं आया था. क्या यह बात सच है?
सरस्वती देवी के अनुसार गुमनामी बाबा की मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार दो दिन बाद किया गया था. उन्होंने बताया था कि इस दौरान कोलकाता से आने वाले उनके परिजनों का इंतजार किया जा रहा था. हालांकि जब वहां से कोई नहीं आया तो शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया.
क्या वाकई में गुमनामी बाबा के मरने के बाद उनका चेहरा विकृत कर दिया गया था. उस समय मौजूद डॉ. आरपी मिश्रा इस बात का खंडन करते हैं?
हां, बिल्कुल उनका चेहरा खराब कर दिया गया था. सरस्वती देवी ने मुझे पहली मुलाकात में यह बात बताई थी कि डॉ. बनर्जी और डॉ. मिश्रा ने उनका चेहरा खराब कर दिया था. यही कारण भी था कि उनके भक्तों में इस बात को लेकर लड़ाई हुई और यह बात दुनिया को पता चल गई. डॉ. मिश्रा आज भले ही इस बात से इनकार कर रहे हैं लेकिन उस दौरान जब लोग उन पर आरोप लगा रहे थे तब उन्होंने चुप्पी साध रखी थी या कहते थे कि यह गुमनामी बाबा का आदेश था.
इतने दिनों तक गुमनामी बाबा या नेताजी से जुड़ा यह रहस्य बना हुआ है, क्या लगता है कि इस मामले का कभी खुलासा होगा?
मुझे लगता है इस मामले का खुलासा ट्रांसफर ऑफ पावर पैक्ट (सत्ता हस्तांतरण संधि) के खुलासे से हो सकता है. मुझे यह भी लगता है कि सरकार को यह पता है कि गुमनामी बाबा कौन थे, पर वह किन मजबूरियों के चलते खुलासा नहीं कर रही है इस बारे में मुझे पता नहीं है. हालांकि अब आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद जनता को यह पता चलना चाहिए कि हमें अंग्रेजों ने आजादी किन शर्तों पर दी थी. बहुत सारे लोगों का मानना है कि इसमें नेताजी को सौंपे जाने की भी शर्त जुड़ी हुई थी. अगर यह बात सच है तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा.
इतने लंबे समय तक इस मामले पर रिपोर्टिंग करने के बाद आप किस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं?
इन 30 सालों की रिपोर्टिंग के दरमियान मेरी मुलाकात तमाम ऐसे लोगों से हुई और तमाम ऐसे साक्ष्य सामने आए जिससे मुझे लगता है कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे. आज भी जब गुमनामी बाबा का सामान बाहर निकाला जाता है या इसे इधर-उधर किया जाता है तो एक बड़ा वर्ग यह दावा करता है कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे. पर अभी देखिए जो सामान रामकथा संग्रहालय भेजा जा रहा है और जिसे देखकर लोग उनके नेताजी होने का कयास लगा रहे हैं. उन्हें मैं 30 साल से देख रहा हूं. पहली बार जब वो सामान जब्त हुआ तब भी बहुत सारे लोगों की यही धारणा थी. बाद में जब मुखर्जी आयोग बना तो इस धारणा को और बल मिला. अब जब अदालत के आदेश से सामान को संग्रहालय में रखा जा रहा है तो भी कहीं न कहीं इसी बात की पुष्टि हो रही है. सरकार इस पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है तो यह बात तो साफ है कि वे जरूर ही आजादी से जुड़े नायक रहे होंगे.
अब नहीं हो रहा दिल पे काबू…!
साल 2002 में आई भट्ट कैंप की फिल्म ‘राज’ की याद तो अब भी आपको रह- रहकर आती ही होगी. फिर तो वो भूत भी याद होगा जिसका रोल मालिनी शर्मा ने निभाया था. क्यों क्या हो गया? जी ललचाए, रहा न जाए… टाइप फीलिंग आ रही है न? चलिए सस्पेंस के बादल हटा देते हैं. दरअसल भट्ट कैंप 14 साल बाद इस फिल्म को ‘राज रिबूट’ नाम से रिलॉन्च कर रहा है. हालांकि इसे फिल्म का चौथा संस्करण भी बताया जा रहा है. खैर इस फिल्म के साथ बॉलीवुड में एक नई तारिका कदम रखने काे एकदम तैयार नजर आ रही है. इनका नाम है कृति खरबंदा. फिल्म में वे इमरान हाशमी और गौरव अरोड़ा के साथ नजर आएंगी. बॉलीवुड में कृति भले ही नई हों लेकिन तेलुगु और कन्नड़ सिनेमा में वे एक जाना-पहचाना नाम हैं. लेकिन इससे हमें क्या. हमें तो मतलब फिल्म ‘राज’ से है. जैसे- क्या उनका रोल मालिनी शर्मा जैसा ‘हाहाकारी’ होगा? और फिल्म में इमरान हैं तो कुछ नहीं तो ‘वो’ सब होगा ही, अगर ऐसा है तो भाई अभी से वो गाना याद आने लगा है, अब नहीं हो रहा दिल पे काबू सनम, आपकी चाहतों में है जादू सनम… क्यों आ रहा है न याद?
आलिया और नीतू में कैट फाइट
बिहारी अस्मिता के नाम पर दो हीरोइनों में भिड़ंत हो गई है. विवाद आलिया भट्ट की आने वाली फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ से जुड़ा है जिसमें आलिया एक बिहारी मजदूर का रोल निभा रही हैं. फिल्म के ट्रेलर में उनके एक डायलॉग पर कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं. अब डायलॉग में क्या है ये हम नहीं बताएंगे, जाकर यू-ट्यूब पर देख लीजिए. बहरहाल इसे लेकर आलिया से नाराज हुई हैं फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ फेम नीतू चंद्रा. ओपन लेटर लिखने के इस दौर में उन्होंने भी आलिया के नाम एक पत्र लिखा है जिसका कुल मिलाकर सार है कि आलिया के इस किरदार से बिहारियों की छवि खराब करने की कोशिश की जा रही है. आलिया ने इसके जवाब में कहा, ‘ट्रेलर से अनुमान लगाकर कुछ भी कहने से बेहतर होगा कि ऐसे लोग चुप रहें.’
काम की मारी, समांथा बेचारी
दक्षिण की कुछ खूबसूरत हीरोइनों में शुमार ‘मक्खी’ फेम समांथा रुथ प्रभु ‘थेरी’ और ‘24’ जैसी ब्लॉकबस्टर देने के बाद कुछ समय के लिए ब्रेक लेने की बात कही तो बवाल मच गया. तब गर्मी थाेड़ी और बढ़ गई जब उन्होंने एक ट्वीट करके बोल दिया, ‘किसने कहा कि मैं सिंगल हूं?’ इसके बाद तो अटकलों का बाजार गर्म हो गया. उनके चाहने वालों के जेहन में छिपे जासूस के दिमाग में तमाम प्रश्नवाचक शब्द उमड़ने-घुमड़ने लगे. तो आपको बता दें कि ऐसी कोई बात नहीं. अरे नहीं भाई… जैसा आप सोच रहे हैं ‘वैसी’ भी कोई बात नहीं. दरअसल पिछले काफी दिनों से लगातार काम करने की वजह से कुछ दिनों के लिए उन्होंने शूटिंग से ब्रेक लेकर आराम फरमाने का मन बनाया है. इसलिए वे ट्वीट करके आपके मजे ले रही हैं. दिखावे पर न जाओ, अपनी अकल लगाओ… बूझ गए न मोहन प्यारे?
असुरक्षित पत्रकार, राष्ट्रपति से गुहार

कौन
छत्तीसगढ़ के पत्रकार
कब
10 मई, 2016
कहां
जंतर मंतर, दिल्ली
क्यों
छत्तीसगढ़ में चार पत्रकारों को जेल, कई पत्रकारों पर मुकदमा और कई को खबर लिखने पर मिलने वाली धमकियों ने गंभीर सवाल खड़े किए हैं. नक्सलियों और सरकार की दोहरी मार झेल रहे पत्रकार 10 मई को दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना देने पहुंचे और राष्ट्रपति से सुरक्षा की गुहार लगाई है.
छत्तीसगढ़ में 2012 से अब तक छह पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. इन हत्याओं के सिलसिले में कोई भी आरोपी पकड़ा नहीं गया है. चार पत्रकार जेल में हैं. छह पत्रकार डर के मारे फरार हैं. कुछ को धमकियां मिल रही हैं. कुछ को डराया जा रहा है. कुछ को कई तरीकों से प्रताड़ित किया जा रहा है. कुछ ने पत्रकारिता छोड़ दी है. कुछ पर छोड़ने का दबाव है. कुछ सिर्फ सरकारी विज्ञापन को खबर बनाकर लिखते हैं, कुछ ऐसा कभी नहीं करना चाहते. कुछ ने सवाल करना छोड़ दिया है. कुछ ने पत्रकारिता ही छोड़ दी है और ठेकेदार बन गए हैं. उन्हें प्रसाद स्वरूप सरकारी ठेके भी मिल गए हैं. कुछ ने अन्य तरीकों से समझौता कर लिया है और कुछ अभी डटे हुए हैं.
छत्तीसगढ़ के नक्सली पत्रकारों से कहते हैं कि हमारे लिए लिखो. सरकार कहती है कि हमारे लिए लिखो. नक्सलियों के पास बंदूक है तो सरकार के पास पुलिस, बंदूक, जेल और मशीनरी सब कुछ है. दोहरी मार झेल रहे पत्रकार राष्ट्रपति से गुहार लगाने दिल्ली पहुंचे हैं कि उन्हें न्यूनतम पत्रकारीय सुरक्षा दे दी जाए, ताकि वे अपना काम कर सकें. जंतर मंतर पर धरना देने पहुंचे अलग-अलग पत्रकारों ने ये हालात बयान किए.
‘हम पत्रकार तो मीडिया घरानों से भी असुरक्षित हैं. हम फंसते हैं तो ये कभी भी हमसे नाता तोड़ लेते हैं. पत्रकारों के फंसने पर संस्थान कह देता है कि ये हमारे संस्थान के नहीं हैं. ईटीवी, नवभारत, पत्रिका आदि ऐसा कर चुके हैं.’
पत्रकार नितिन सिन्हा कहते हैं, ‘ऐसे बहुत सारे मामले हैं जब खबर लिखने के बाद पत्रकारों पर केस दर्ज हुए, हमले हुए, धमकाया गया. यहां तक कि गोली भी मारी गई है. छत्तीसगढ़ में प्रशासनिक आतंक मचा हुआ है. अगर कोई पत्रकार किसानों को मुआवजा न मिलने का मसला उठाता है तो वह दोषी हो जाता है. उसे धमकी दी जाती है, या केस दर्ज कर दिया जाता है.’
पत्रकारों की ओर से राष्ट्रपति को जो ज्ञापन सौंपा गया है उसमें लिखा है, ‘छत्तीसगढ़ में पिछले काफी समय से स्वतंत्र व निरपेक्ष पत्रकारिता के लिए माहौल लगभग समाप्त हो गया है. सरकार की नीतियों और उनके क्रियान्वयन में हो रही गड़बड़ी को उजागर करने वाले पत्रकारों को फर्जी प्रकरण बनाकर जेल भेजा जा रहा है. विशेषकर बस्तर संभाग में राज्य शासन की स्थानीय पुलिस व प्रशासन पर पकड़ ढीली हो चुकी है और अपनी विफलताओं का गुस्सा वहां के निर्दोष ग्रामीण तथा जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों पर उतारा जा रहा है.
बस्तर में नक्सली का सहयोगी बताकर और फर्जी मामलों में फंसाकर एक वर्ष के भीतर चार पत्रकारों- सोमारू नाग, संतोष यादव, दीपक जायसवाल और प्रभात सिंह को जेल भेजा गया है जबकि पूरे प्रदेश में कई पत्रकारों के खिलाफ फर्जी प्रकरण दर्ज करके उन्हें जेल भेजने की कोशिश की जा रही है. बस्तर में पत्रकार साथी नेमीचंद जैन और साईं रेड्डी को पुलिस मुखबिर बताकर नक्सलियों द्वारा मौत के घाट उतारा जा चुका है. इनमें से साईं रेड्डी को नक्सली का सहयोगी बताकर राज्य सरकार ने ‘छत्तीसगढ़ राज्य जनसुरक्षा अधिनियम’ के तहत दो वर्ष बंद रखा था.’
प्रदर्शन में शामिल कमल शुक्ला कहते हैं, ‘लंबे समय से बस्तर समेत पूरे छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का माहौल खराब हो गया है. वहां हमको दोनों तरफ से दबाव झेलना पड़ रहा है. एक तरफ तो माओवादी दबाव बनाते हैं कि हम उनकी तरफ से रिपोर्ट करें, दूसरी तरफ सरकार दबाव बना रही है कि उनके हिसाब से रिपोर्ट करें. कोई खोजबीन या जांच पड़ताल न करें. नक्सलियों ने दो साथियों को मार डाला. उनमें से एक-दो साल जेल में गुजारकर आया था. पुलिस कह रही है कि वे नक्सलियों के आदमी थे. नक्सली कह रहे हैं कि वे पुलिस के आदमी थे. जो भी लिखने-पढ़ने वाले पत्रकार हैं, वे सब दबाव में हैं. संतोष और सोमारू को जेल भेज दिया गया तो हम लोगों ने सोचा कि पत्रकार सुरक्षा जैसा कोई कानून होना चाहिए क्योंकि माहौल बिल्कुल खराब हो रहा है. 10 अक्टूबर को हम लोगों ने रायपुर में आंदोलन शुरू किया जिसमें सारे पत्रकार शामिल हुए. हम पत्रकार तो मीडिया घरानों से भी असुरक्षित हैं. हम फंसते हैं तो ये कभी भी हमसे नाता तोड़ लेते हैं. पत्रकारों के फंसने पर संस्थान कह देता है कि ये हमारे नहीं हैं. ईटीवी, नवभारत, पत्रिका आदि ऐसा कर चुके हैं.’
पत्रकारों ने पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति के तहत निरपेक्ष पत्रकारिता के विरुद्ध बने इस माहौल के खिलाफ पिछले एक वर्ष से आंदोलन छेड़ रखा है. जेल में बंद पत्रकारों की रिहाई के साथ ही पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग को लेकर 21 दिसंबर, 2015 को छत्तीसगढ़ के जगदलपुर जिले में पत्रकारों ने जेल भरो आंदोलन किया. इसमें देश भर के पत्रकारों ने हिस्सा लिया था. कमल शुक्ला कहते हैं, ‘जेल भरो आंदोलन स्थगित करवाने के लिए मुख्यमंत्री रमन सिंह ने हमारे साथ बहुत बड़ा धोखा किया. पहले फोन पर, बाद में प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन दिया था कि सभी मांगें मान रहे हैं. संतोष और सोमारू को रिहा करवा देंगे. फर्जी प्रकरणों में फंसाए गए पत्रकार के मामलों की जांच के लिए समन्वय समिति गठित की जाएगी. उन्होंने यह भी माना कि दोनों के साथ गलत हुआ है. मगर बाद में इस प्रतिनिधिमंडल में शामिल पत्रकार प्रभात सिंह और दीपक जायसवाल को भी जेल भेज दिया गया. मामूली धाराओं के बावजूद दोनों को जमानत नहीं मिल सकी है.’ पत्रकारों के मुताबिक, उपर्युक्त मामलों के अलावा प्रदेश में धरमजयगढ़ से पावेल अग्रवाल, गुरुचरण, डोंगरगढ़ से संतोष राजपूत, सोमेश्वर सिन्हा, रोहन सिन्हा, दुर्ग के पत्रकार नरेंद्र मार्कंडेय व विनोद दुबे, अंबागढ़ चौकी के पत्रकार एनिस गोस्वामी, बिलासपुर के पत्रकार दुलेश्वर प्रसाद गिरी गोस्वामी, देवधर तिवारी, शिव तिवारी, महेंद्र द्विवेदी, विनोद श्रीवास्तव, कोंडागांव के पत्रकार राजेश शर्मा के साथ ही छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी पत्रकार पवन ठाकुर, संदीप कडक्वार व संतोष साहू पर भी रिपोर्टिंग के दौरान प्रशासन द्वारा ज्यादती की जा चुकी है.
कमल शुक्ला ने कहा, ‘पत्रकार की सुरक्षा की मांग करने गए प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों को ही जेल में डाल दिया तो बाकी लोग क्या उम्मीद करें. सरकार की इस तरह की कार्रवाइयों से डर का माहौल है. पिछले लंबे समय से वहां के स्थानीय पत्रकारों ने कोई खोजी रिपोर्टिंग नहीं की. जो भी हुआ वह सब नेशनल मीडिया ने किया है. चाहे जेल से छूटे हुए व्यक्ति को पुलिस द्वारा एक लाख का इनामी बताकर मारने का मसला हो, या 72 नक्सलियों के समर्पण का मसला हो, कोई पत्रकार पुलिस अधिकारियों से पूछने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है कि आप ये जो फोटो जारी कर रहे हैं वो हैं कहां.’
पत्रकार नितिन सिन्हा बताते हैं, ‘जगदीश कुर्रे मानवाधिकार के मामलों की रिपोर्टिंग करते थे. काफी मामले उन्होंने उठाए कि आदिवासी लड़कियों को दिल्ली और बाहर के शहरों में ले जाकर बेचा जा रहा है. इससे सरकार बदनाम हो रही थी. दो-तीन बार उनको धमकी दी फिर उसी में से एक मामले में मानव तस्करी का आरोप लगाकर फंसा दिया गया.’
‘छत्तीसगढ़ में स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए माहौल लगभग समाप्त हो गया है. सरकार की कमियां उजागर करने वाले पत्रकारों को फर्जी मामलों में जेल भेजा जा रहा है’
कमल शुक्ला ने बताया, ‘मनीष सोनी जी-न्यूज में रिपोर्टिंग करते थे. सोनी ने पुलिस विभाग के खिलाफ कई मामले उठाए थे. पहले जी-न्यूज ने उनको निकाल दिया. जी-न्यूज से निकाले जाने के बाद ही पुलिस विभाग ने उनके पूरे परिवार के खिलाफ मामले दर्ज कर लिए. अब वे फरार चल रहे हैं.’
ऐसी ही एक दूसरी घटना के बारे में वे बताते हैं, ‘हिंडाल्को मामले में रिपोर्टिंग करने वाले सौरभ अग्रवाल ने जिंदल समूह पर सवाल उठाए. हिंडाल्को की वजह से मिझोर आदिवासियों की पूरी बस्ती रात भर में हटा दी गई थी. उस मामले को कवर करने गए सौरभ का मोबाइल जब्त कर लिया गया और उनके खिलाफ केस दर्ज कर दिया. फिलहाल सौरभ फरार चल रहे हैं.’
नितिन सिन्हा कहते हैं, ‘प्रशासनिक आतंकवाद का ताजा उदाहरण आपको दूं कि रायगढ़ में नाबालिग बच्चियों से दुष्कर्म होता था. एक अनाथालय चलता था जिसकी व्यवस्था भाजपा से जुड़े कुछ लोग देख रहे थे. उसके अंदर कई घोटाले भी थे. बच्चियों का यौन शोषण होता था. उसके विरुद्ध हमने मुहिम चलाई थी. उसकी वजह से मुझे भी जेल जाना पड़ा. मेरे खिलाफ दो फर्जी मामले दर्ज किए गए. मेरे जेल में रहने के दौरान सारा मामला रफा-दफा हो गया. फाइनली वह आरोपी जमानत पर बाहर है.’
पत्रकार सौरभ ने बताया, ‘रायगढ़ में कॉरपोरेट घरानों का राज है. जो पत्रकार सच्चाई लिख रहे हैं, जो पत्रकार कॉरपोरेट घरानों के खिलाफ कुछ लिख रहे हैं, उनके खिलाफ फर्जी एफआईआर दर्ज कर दी जा रही है. धमकियां दी जा रही हैं. मुख्यमंत्री पूरी तरह कॉरपोरेट के कंट्रोल में हैं. रिपोर्टिंग के दौरान मेरा मोबाइल जब्त कर लिया गया और मुझे धमकी दी गई.’
कमल शुक्ला ने बताया कि यहां से जाते हुए इनकी भी गिरफ्तारी हो सकती है. छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता पर आए संकट के बारे में बात करते हुए कमल शर्मा कहते हैं, ‘सिर्फ बस्तर ही नहीं, पूरे प्रदेश में पत्रकारिता करना बेहद मुश्किल हो गया है. विशेषकर जहां कॉरपोरेट घरानों का काम चल रहा हो, सरकार की नीतियों के खिलाफ कुछ लिखना हो, कोई भंडाफोड़ करना हो, इस सबके खिलाफ लिखने से सरकार को दिक्कत है. सरकार का सीधा संदेश है कि उसके खिलाफ लिखने-बोलने वाले को प्रताड़ित किया जाएगा.’
कमल शुक्ला बताते हैं, ‘हमारे साथ आंदोलन के दौरान जो पत्रकार सक्रिय थे, उनमें से कई आंदोलन से अलग हो गए और पत्रकारिता छोड़कर ठेकेदारी शुरू कर दी है. अधिकांश को एक-एक करोड़, 70-75 लाख के ठेके बांट दिए गए. किसी को कंस्ट्रक्शन किसी को सप्लाई में. ये ठेके सरकार की तरफ से दिए जा रहे हैं. कई पत्रकारों को उनके चैनल हेड ने सीधा फोन करके बोला कि आप आंदोलन से अलग हो जाइए वरना नौकरी से हटना पड़ेगा. प्रदर्शन में शामिल होने के लिए दिल्ली आने वाले पत्रकारों पर नहीं आने के लिए दबाव बनाया गया.’
सौरभ कहते हैं, ‘रायगढ़ में नक्सलवाद उतना प्रभावी नहीं है. वहां तो कॉरपोरेट का दबदबा है. सब उन्हीं के कब्जे में है. जो वे कहते हैं, वही होता है.’ पत्रकार नितिन सिन्हा कहते हैं, ‘रमेश अग्रवाल अवैध खनन के खिलाफ लिखते रहे हैं. 2012 में उन पर गोली चलवाई गई और जान से मारने की कोशिश की गई. वे दो साल तक राष्ट्रद्रोह की धारा में जेल में रहे. बाद में इस मामले को दबा दिया गया, लेकिन यह निश्चित है कि यह गोली जिंदल ने चलवाई थी.’
ज्ञापन में कहा गया है, ‘बस्तर संभाग में पुलिस आईजी शिवराम प्रसाद कल्लूरी सीधे पत्रकारों को फोन करके धमकाते हैं कि पत्रकार अगर सरकार के खिलाफ लिखेंगे तो उन्हें भुगतना पड़ेगा. इस माहौल में पूरे प्रदेश के पत्रकारों में भय व्याप्त है. अतः मान्यवर से प्रार्थना है कि प्रदेश में लोकतांत्रिक मूल्यों की बहाली और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए पहल करें.’
राष्ट्रपति को दिए ज्ञापन में पत्रकारों ने फर्जी मामलों में फंसाकर जेल में बंद किए गए पत्रकारों की रिहाई, पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करने, पुलिस द्वारा धमकी देने का सिलसिला बंद कराने समेत छह सूत्री मांगें उठाई हैं.
‘हिंदी इंटरनेट पर बहुत अकेली है’
हिमोजी बनाने का विचार कैसे आया?
हिंदी का अब जो सिलेबस है वो पहले की तरह नहीं है कि आपको सिर्फ मध्ययुगीन प्रेम आख्यान पढ़ाने हैं या सिर्फ तुलसीदास या आधुनिक कवि पढ़ाने हैं. हिंदी के सिलेबस में बहुत बदलाव आए हैं. इंटरनेट है, सोशल मीडिया है, ब्लॉगिंग है, वेब डिजाइनिंग में हिंदी है, कंप्यूटर में हिंदी का प्रयोग है. ये सारी चीजें पढ़ाने के लिए आपको तकनीकी क्षेत्र में उतरना ही पड़ेगा. 2006 में मुझे पहली बार हिंदी कंप्यूटर पढ़ाने को मिला. मेरा झुकाव तकनीक और स्केचिंग की ओर था. जब ब्लॉग आदि लिखना शुरू किया तब ही महसूस किया कि हिंदी इंटरनेट पर कितनी अकेली है. हमारे पास साझा करने के लिए रचनात्मक सामग्री नहीं है.
फिर हम लगातार चैट यानी बातचीत करते हैं पर आजकल जैसे चैट स्टिकर हैं वो तब नहीं थे. मेरी अपने विद्यार्थियों से लगातार चैट होती है और हिंदी में बातचीत के दौरान हम अंग्रेजी के इमोटिकॉन प्रयोग करते जो शायद उस समय महसूस की गई भावना की सही अभिव्यक्ति नहीं होते. यही सोचकर मैंने साल 2015 की शुरुआत में अपने तरीके के 15-20 स्टिकर बनाए और उन्हें सोशल मीडिया पर साझा किया. इन स्टिकर को दोस्तों ने बहुत सराहा. तब मुझे लगा कि इसे एक प्रोजेक्ट के बतौर आगे ले जाना होगा. पहले खुद कोशिश की इस पर ऐप की तरह काम करने की, पर फिर जल्द ही समझ आ गया कि तकनीकी रूप से ये सीखने में लंबा समय लग जाएगा. फिर ऐप बनाने के लिए दोस्तों की मदद ली. दो दोस्त मदद के लिए आगे आए और फिर ये स्टिकर ऐप के रूप में लॉन्च हुए.
क्या इस ऐप को लाने का कोई आर्थिक पहलू भी था?
अभी फिलहाल तो ऐसा बिल्कुल नहीं था. चाहे मेरे या जिन्होंने कैलीग्राफी की या जिन्होंने तकनीकी सहयोग दिया, हम सबके दिमाग में यही था कि हम हिंदी के लिए कुछ करने जा रहे हैं, जो अपने आप में पहली बार होगा. हमें सिर्फ अपना थोड़ा-सा समय देना है. हममें से जिसे जो ज्ञान था, उसने वही किया है. मैं स्टिकर बना सकती हूं, मैंने वो बनाए. मेरे पति भास्कर कर्ण कैलीग्राफी बहुत अच्छी करते हैं तो उन्होंने वो किया. टेक्निकल सपोर्ट आईटेकलाइनफॉरयू का है. उसे तरुण चौधरी ने इसीलिए शुरू किया ताकि हम इसे नाम दे सकें. हां, अगर हम इसे बेहतर बनाकर बाजार में लाते हैं तब आर्थिक पहलू के बारे में सोचा जा सकता है.
हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए साल भर में कितने ही सेमिनारों, बैठकों का आयोजन होता है. आपको क्या लगता है जिस उद्देश्य के लिए ये कार्यक्रम किए जाते हैं, वो पूरा होता है? हिंदी को अगर इंटरनेट के जरिए जन-जन तक पहुंचना है, क्या तकनीक की जरूरत होगी?
देखिए, आपके पास तो ये सवाल आज है पर हम क्लासरूम में इस सवाल से रोज टकराते हैं. जब हमारा विद्यार्थी हिंदी ऑनर्स कोर्स में एडमिशन लेता है तो उसका पहला सवाल होता है कि मैं इससे किस रोजगार की ओर जा सकूंगा. क्या मैं किसी बड़ी कंपनी में बड़े पद पर जा सकता हूं. किसी मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर सकता हूं, क्या मैं सिविल सर्विस परीक्षा पास कर सकता हूं? ये सच है कि केवल हिंदी से ये सब हासिल नहीं हो सकता. हिंदी को अपने हाथ-पांव फैलाने होंगे. दूसरी बात कि अगर इंटरनेट के जरिए हिंदी को आम जन तक पहुंचना है तो इसकी सबसे बड़ी जरूरत टेक्निकल बनना है. हालांकि, बहुत-से लोग इस ओर बहुत काम कर रहे हैं लेकिन वो काम बहुत कम है. हमें चाहिए कि हर व्यक्ति जो हिंदी भाषा जानता है, हिंदी के लिए कुछ करना चाहता है वो आगे आए.
जहां तक बात है बड़े सेमिनारों और बैठकों की तो ये आलोचना के लिए मददगार साबित होते हैं. आपको नए तरह से पढ़ने-समझने की दृष्टि मिलती है.
बोलचाल को छोड़ दें तो समाज में भाषा के रूप में हिंदी कहां है?
एक बात है. बड़े-बड़े रचनाकारों की बड़ी रचनाओं से ज्यादा हिट छोटी हिंदी फिल्में हो जाती हैं. हमें माध्यम का फर्क समझना है. हमें आम जनता को भाषा से जोड़ने के लिए हिंदी में वो सहजता लानी होगी जिससे जनता उससे जुड़ा हुआ महसूस करे. अगर हम कहेंगे कि नहीं ऐसे नहीं लिखा जा सकता क्योंकि साहित्य में ऐसे नहीं लिखा जा सकता, ऐसे नहीं बोल सकते क्योंकि इसका चलन ही नहीं है तो कोई भी व्यक्ति हिंदी के पास आने से डरेगा. आप इसके बजाय उन्हें हिंदी प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित कीजिए. हिमोजी ऐप बनाने के पीछे भी हिंदी को प्रोत्साहित करने का ही उद्देश्य था. आपको प्रयास करने होंगे, चाहे वो भाषा को विकसित करने के लिए हों या अपने कौशल को विकसित करने के लिए. भारतेंदु ने तो बहुत पहले कह दिया था कि कलाहीनता समाज को हमेशा गर्त में ले जाती है. निज भाषा उन्नति में ही हमारी उन्नति है पर लोग ये समझते नहीं हैं.
छोटे-छोटे बच्चों को सिखाया जाता है कि नाक मत बोलो, नोज बोलो, मां नहीं ममा तो हम उनसे शब्द छीन रहे हैं. उन्हें ऐसी भाषा में ठूंस दे रहे हैं जहां वो सहज रूप में अभिव्यक्त नहीं कर सकते. आपको सपने अंग्रेजी में नहीं आते. वो अपनी भाषा-बोली में ही आते हैं. जब हम हिमोजी बना रहे थे तब भी ये बात दिमाग में थी कि जिस पीढ़ी को हम पढ़ा रहे हैं, बढ़ता देख रहे हैं, हम उसकी भाषा सुधारने का काम कर रहे हैं. जो भाषा वो बोलते हैं मुझे उसे बोलने में बहुत आपत्ति है. वे क्लासरूम में एक-दूसरे से बोलते हैं कि उसको देखकर तेरी तो फट गई! अगर आप उससे पूछें तो वो बताते हुए शर्मिंदा हो जाएंगे कि इसका असली अर्थ क्या है. पर वो आसानी से इसे बोलते हैं क्योंकि इसे बोला जाता है, इस भाव के लिए कोई अभिव्यक्ति विकल्प में ही नहीं है. भाषा का सजग होकर प्रयोग करना बहुत जरूरी है. अगर एक बार उसका गलत इस्तेमाल होना शुरू हो जाए तो फिर उस गलती की कोई सीमा नहीं रह जाती. कूल होने और बदतमीज होने में फर्क है. जरूरी नहीं है कि हनी सिंह के गाने गाकर ही कूल दिखा जाए. जो आपकी भाषा है उसका प्रयोग कीजिए, उसे जिंदा रखने का प्रयास कीजिए.
हिमोजी को लेकर कैसी प्रतिक्रिया मिली?
बहुत ही उत्साहजनक प्रतिक्रिया रही. हमें इतनी उम्मीद ही नहीं थी. इस साल 14 मार्च को लॉन्च होने के बाद एक महीने में इसके बीस हजार से ज्यादा डाउनलोड हुए हैं. लोगों के लगातार फोन आ रहे हैं कि आईओएस और विंडोज पर भी इसे लाया जाए. ये सब बहुत सकारात्मक है और अब मैं इसे एक सामाजिक जिम्मेदारी मानते हुए आगे बढ़ाने की सोच रही हूं.

वैसे बैंक या किसी अन्य जगह निर्देश आदि हिंदी में पढ़ते हैं तो पाते हैं कि बहुत कठिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है. हम उसे आसानी से नहीं समझ सकते.
मैं उसमें हर स्तर पर सुधार की जरूरत समझती हूं. जिस हिंदी की बात आपने की वो उधारी हिंदी है, वो शब्द हिंदी के अपने शब्द भंडार से नहीं हैं. आप दूसरी भाषाओं से शब्द लेकर उन्हें हिंदी में क्रिएट करने की कोशिश कर रहे हैं. आप प्रतिष्ठित भाषाओं के बजाय बोलियों से शब्द उधार लेते हैं तो वो ज्यादा सजीव हैं. आप संस्कृत से शब्द ले रहे हैं. जो भाषा अपने समय में इतनी प्रतिष्ठित और क्लिष्ट हो गई थी कि लोग उसे छोड़कर पाली, प्राकृत, जो उस समय की देशज भाषाएं थीं, उनकी ओर मुड़ गए थे. जब भी कोई भाषा अपने व्यवहार, व्याकरण और कलेवर में दुरूह हो जाएगी, जनता उससे दूर होगी.
इंटरनेट पर हिंदी कहां ठहरती है?
हिंदी को इंटरनेट पर बनाए रखने के काफी प्रयास हो रहे हैं पर फिर भी हम मुट्ठी भर ही हैं. अगर हम हिंदी बोलने वालों, उसे पढ़ने वालों और उसमें लिखने वालों का प्रतिशत देखें तो ये लगातार घटता जाता है. हम इंटरनेट के लिए हिंदी में बहुत कम कंटेंट क्रिएट कर पा रहे हैं. हमें उस पर काम करना चाहिए. मेरे ख्याल से ब्लॉग इसका सबसे अच्छा और आसान माध्यम है. अगर हमें लगता है कि हम थोड़ा-बहुत लिख पाते हैं, तो ब्लॉग बनाएं. फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया पर लिखा हुआ सर्च इंजन पर ढूंढ़ने पर नहीं दिखता, जबकि ब्लॉग सर्च इंजन पर सबसे पहले आता है. ऐसे में मैं यही कहूंगी कि ये हमारी, शिक्षित वर्ग की जिम्मेदारी है कि जो भी लिखना चाहता है भले ही वो किसी भी क्षेत्र का हो, ब्लॉग बनाकर टूटी-फूटी अंग्रेजी में लिखने के बजाय अच्छी हिंदी या अपनी भाषा-बोली में लिखिए. लिखना, दर्ज करना जरूरी है क्योंकि जितना ज्यादा लिखा जाएगा, हिंदी की स्थिति मजबूत होगी. लोग जानेंगे कि हिंदी में लिखा जा रहा है. दुनिया भर में देखिए. फ्रेंच और जापानी अपनी भाषा में बोलते हैं. आपको उन्हें समझना है तो आप इंटरप्रेटर (दुभाषिया) की मदद लीजिए. वे अपनी ही भाषा में बोलेंगे, वे दूसरी भाषा को हमेशा दोयम रखते हैं.
इस सरकार के मंत्रियों की ये एक बात मुझे अच्छी लगती है कि इनके नेता अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी भाषा में बोलने का माद्दा रखते हैं, चाहे प्रधानमंत्री हों, सुषमा स्वराज या स्मृति ईरानी. राजनाथ सिंह तो बहुत अच्छी हिंदी बोलते हैं.
चेतन भगत का कहना है कि हिंदी लोकप्रिय तो है पर भाषा जानते हुए भी बहुत-से लोग इसे पढ़ नहीं पाते, इसलिए रोमन में ही हिंदी लिखी जानी चाहिए. आपका क्या कहना है?
चेतन भगत बहुत बुद्धिमान हैं! उन पर कोई कमेंट करना अपने को गर्त में गिराने जैसा है. उनकी बौद्धिकता तक शायद अभी हम पहुंच नहीं पा रहे हैं. वैसे मैं उनकी इस बात से इत्तफाक नहीं रखती. देवनागरी लिपि बहुत खूबसूरत, वैज्ञानिक और तर्कसंगत है, वो ऐसे कि आप जो बोल रहे हैं वही लिख रहे हैं. हिंदी अकेली ऐसी भाषा है जहां कोई शब्द साइलेंट नहीं है. कोई ऐसा अक्षर नहीं है जो अतिरिक्त लिख दिया जाएगा पर बोला नहीं जाएगा. अतिरिक्तता देवनागरी का हिस्सा नहीं है, अंग्रेजी का है. बचपन में हमारी टीचर बोर्ड पर लिखकर पढ़ाती थीं, गोल-गोल अंडा, मास्टर जी का डंडा, घोड़े की पूंछ, रावण की मूंछ…बोलो क्या बना? हम सब बच्चे कोरस में बोलते थे क. ये क का बनना अपने आप में एक चित्र है. इससे आपकी इमेजिनेशन आगे बढ़ती है. मैं चेतन भगत से यही कहना चाहूंगी कि सर देवनागरी में बस अपना नाम ही लिखकर देख लें, जो चेतना है वो जागृत हो जाएगी.
ऐप में हिंदी की बात करें तो हाईक (एक चैटिंग ऐप) पर भी देवनागरी में इमोटिकॉन उपलब्ध हैं जो खासे लोकप्रिय भी हैं. उनमें और हिमोजी में क्या फर्क है?
हिमोजी और हाईक में यही फर्क है कि वहां कई हिंदी-अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाएं भी हैं जबकि हिमोजी देवनागरी में ही हैं. हाईक एक खिचड़ी की तरह है जहां सब कुछ है पर हिमोजी पहला ऐसा ऐप है जिसमें देवनागरी में स्टिकर की 14 कैटेगरी हैं और कैटेगरी के नाम भी हिंदी में ही हैं.
ऐसा मानना है कि आजकल के युवाओं में हिंदी भाषा के प्रति झुकाव नहीं है. आप शिक्षा के क्षेत्र में हैं, क्या अनुभव रहा?
हिंदी की ओर रुझान तो है पर जैसा मैंने पहले कहा कि युवाओं में आशंका बस यही है कि रोजगार क्या मिलेगा. आपको सोचना होगा कि अपनी भाषा में कितना रोजगार पैदा कर रहे हैं. अभिभावक अपने बच्चों को तब ही कोई भाषा पढ़ने की इजाजत देंगे जब उसमें रोजगार होंगे. जैसे-जैसे रोजगार की संभावना बढ़ती जाएगी, ये आशंकाएं दूर होती जाएंगी.
आजकल स्कूलों में जब मां-बाप से बच्चों के लिए कोई भाषा चुनने को कहा जाता है तो वो जर्मन या फ्रेंच चुनते हैं. भले ही बच्चे को उसका अक्षर न आए पर वो दुनिया से कह सकें कि उसने विदेशी भाषा सीखी है. वो शायद ये भी सोचते हैं कि अगर वो कुछ नहीं बन पाया तो हो सकता है इन भाषाओं का ज्ञान उसे बेहतर रोजगार पाने में मदद करे. अन्य भाषाओं का ज्ञान भी अर्जित करें, ये बुरा नहीं है पर लिखें-समझें अपनी भाषा में. जरूरत अपनी भाषा में रोजगार पैदा करने की भी है. यहां जरूरी बात ये भी है कि ये सब रोजगार सरकार नहीं पैदा कर सकती. हम अपने ज्ञान, कला-कौशल का विस्तार करें और अपनी भाषा को अपने प्रयासों से आगे बढ़ाएं.
आपने बार-बार लोगों के हिंदी में लिखने की बात कही, लोग हिंदी में लिखना भी चाहते हैं पर हिंदी में जो अब तक लिखा जा चुका है उसे पढ़ने की बात कम ही होती है. पहले पत्र-पत्रिकाओं में प्रचलित और बड़े लेखकों की रचनाएं छपा करती थीं, अब वे सिर्फ साहित्यिक पत्रिकाओं तक सीमित हैं. लोग ब्लॉग, फेसबुक आदि पर हिंदी में पढ़ते है पर साहित्य और आम जनता के बीच दूरी आ चुकी है.
एक तरह से ये दूरी लिखने वालों द्वारा खुद पैदा की हुई है. आपने एक स्तर तय कर लिया है कि इस पत्रिका में छपना बड़ी बात है, इसमें छपना छोटी. अगर आप इस तरह का कोई पैमाना बना लेते हैं तो आप पाठक और साहित्य के बीच की खाई को खुद बड़ा कर रहे हैं. आज साहित्यिक पत्रिकाओं के पाठकों की संख्या कितनी है? बहुत कम. कुछ पत्रिकाएं तो नुकसान उठाकर भी छापी जा रही हैं. वे कुछ दिन चलती हैं फिर बंद हो जाती हैं. वहीं प्रचलित पत्रिकाएं, जिनके पाठकों की संख्या लाखों में है, उनमें भी कहानियां छप रही हैं पर उन लेखकों को आप मुख्यधारा में शामिल कब करेंगे!
अंग्रेजी में देखिए. बड़े-बड़े लेखक अखबारों में छपते हैं. आप किसी पत्र-पत्रिका में छपना तौहीन मत समझिए. जनता के बीच जाइए, स्वीकार-अस्वीकार पाठक पर छोड़ दीजिए. समय बदला है. लोगों के पढ़ने-लिखने की आदतें बदली हैं, तो लेखक को उन बदली आदतों के अनुसार पाठक तक पहुंचना होगा. साहित्य और जनता के बीच खाई नहीं बल्कि पुल बनना होगा.