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नरगिस के नखरे उफ-उफ-उफ!

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जिसे इस देश का बच्चा-बच्चा सीरियल किसर के नाम से जानता है, उसकी ‘किसिंग’ काबिलियत पर सवालिया निशान लगाना कम दिलेरी का काम नहीं है. और तो और, ये सवालिया निशान किसी और ने नहीं बल्कि पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी मोहम्मद अजहरुद्दीन की बायोपिक ‘अजहर’ में संगीता बिजलानी का किरदार निभा रही उनकी को-स्टार नरगिस फाखरी ने लगाए हैं. इमरान हाशमी के साथ किसिंग सीन के बारे में पूछे जाने पर  उन्होंने कह दिया कि ये कुछ खास नहीं था. इतना ही नहीं उन्होंने फिल्म के पोस्टर की ओर इशारा करते हुए कुछ ऐसा कहा जिसका लब्बोलुआब ये था कि उन मूंछों (इमरान फिल्म में मूंछों के साथ नजर आएंगे) के होते हुए किस कैसे अच्छा हो सकता है. ‘हफिंग्टन पोस्ट’ से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘फिल्म में उन्हें कई बार किस करना पड़ा. उनकी मूंछें बेहद खीझ दिलाने वाली थीं.’ नरगिस के इस बयान से इमरान के चाहने वालों की भवें तन गई हैं. बॉलीवुड में नरगिस जैसे-जैसे पुरानी हो रही हैं उनके नखरे ‘उफ-उफ-उफ टाइप’ होते जा रहे हैं. वैसे कुछ सूत्र ये भी कह रहे हैं कि नरगिस मजाक कर रही थीं.

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कंगना के लिए कड़ी परीक्षा की घड़ी
कंगना रनौत इन दिनों इम्तिहान की घड़ी से गुजर रही हैं. साल की शुरुआत में हृतिक रोशन के साथ कथित प्रेम संबंधों के उजागर होने के बाद दोनों के बीच चल रही लड़ाई में फिलहाल हृतिक का पलड़ा भारी होता दिख रहा है. कंगना की इस लड़ाई में जहां उनकी बहन रंगोली उनके साथ हैं वहीं अब तक अकेले कानूनी लड़ाई लड़ रहे हृतिक को कंगना के एक्स बॉयफ्रेंड अध्ययन सुमन का साथ मिल गया है. कंगना से ब्रेकअप के सात साल बाद उन्होंने चुप्पी तोड़ी है. हृतिक से सहानुभूति जताते हुए उन्होंने बताया कि कंगना उन्हें मारती-पीटती थीं. साथ ही उन पर काले जादू का इस्तेमाल करती थीं. इस पर अब तक कंगना की ओर से कोई टिप्पणी नहीं आई है. वैसे इस लड़ाई में अभी और खुलासे होने बाकी हैं. अब देखना ये है कि अपनी ‘रिवाल्वर रानी’ इसका जवाब कैसे देती हैं.

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सनी के ‘स्वीट ड्रीम्स’
बॉलीवुड में कदम रखने के बाद से मशहूर पॉर्न स्टार सनी लियोन की प्रतिभा दिनोंदिन निखरती ही जा रही है. बॉलीवुड की कई फिल्मों में काम करने के बाद अब वे लेखिका भी बन गई हैं. हाल ही में उन्होंने ‘स्वीट ड्रीम्स’ नाम की एक किताब लिखी है. एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया, ‘मैं बस अलग-अलग कहानियों और विचारों के बारे में सोच रही थी लेकिन असल में मैंने कभी कुछ लिखा नहीं था.’ हालांकि जब जगरनॉट बुक पब्लिकेशन ने उनसे लिखने के लिए संपर्क किया तो उन्होंने 3 महीनों में ये किताब लिख डाली. इस किताब में12 छोटी कहानियां हैं जो ऐसी-वैसी नहीं हैं. बताया जा रहा है कि हर कहानी उनकी फिल्मों की तरह ही खुद में ‘चाट मसाले’ के साथ काफी मात्रा में ‘गरम मसाला’ लपेटे हुए है. अब जिसमें इतना मसाला हो उस किताब को बेस्टसेलर बनने से कौन रोक सकता है.

गांवों में बुजुर्गों की बदहाली

वरिष्ठ नागरिकों के लिए चलाई जा रही तमाम योजनाओं के बावजूद गांव में रहने वाले बुजुर्गों की हालत खराब है. बुजुर्गों पर आई सरकार की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, देश के ग्रामीण इलाकों में मौजूद कुल बुजुर्गों में करीब 66 फीसदी ऐसे हैं जो अब भी दिहाड़ी पर अपना जीवनयापन कर रहे है. इसी तरह आजीविका कमाने को मजबूर बुजुर्ग महिलाओं की संख्या एक चौथाई से कुछ अधिक है. गांवों में करीब 28 फीसदी बुजुर्ग महिलाओं को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है. रिपोर्ट के अनुसार, गांव में मेहनत-मजदूरी करके जीवन-यापन करने वाली बुजुर्ग महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है. इसके अनुसार 2001 में ग्रामीण भारत में रोजी-रोटी कमाने वाली महिला बुजुर्गों की संख्या 24.9 फीसदी थी, जो 2011 आते-आते बढ़कर 28.4 फीसदी हो गई. वहीं 2001 में पुरुष बुजर्गों में 65.6 फीसदी अपनी रोजी-रोटी कमा रहे थे जो 2011 में बढ़कर 66 फीसदी हो गए.

चुनावी चंदा पाने में भाजपा नंबर एक

देश की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों को पिछले वित्त वर्ष के दौरान कुल 622 करोड़ रुपये चंदे के रूप में मिले हैं. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सबसे ज्यादा चंदा (437.35 करोड़ रुपये) केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को मिला. उसके खाते में आई रकम चार राष्ट्रीय दलों कांग्रेस, राकांपा, भाकपा और माकपा को मिले कुल चंदे के दुगने से भी ज्यादा है. वहीं देश के छठे राष्ट्रीय दल बसपा को कोई चंदा ही नहीं मिला. सभी दलों द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए चंदे के ब्योरे से ये आंकड़े निकले हैं. गौरतलब है कि सभी राष्ट्रीय दलों को 20 हजार रुपये से ज्यादा मिले चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है. इसी के तहत भाजपा ने बताया है कि उसे 1,234वीं बार दान में कुल 437.35 करोड़ रुपये की रकम मिली. इनमें बड़े व्यावसायिक घराने और व्यक्तिगत दानदाता दोनों शामिल हैं. वहीं बसपा ने बताया है कि उसे 20 हजार रुपये से बड़ा कोई चंदा नहीं मिला. बसपा के साथ यह स्थिति पिछले 10 साल से है. इसके अलावा राकांपा ने घोषित किया है कि उसको 2013-14 में 14.02 करोड़ रुपये चंदे के रूप में मिले थे. इसमें एक साल में 177 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. 2014-15 में उसे 38.82 करोड़ रुपये चंदे के रूप में मिले थे. वहीं भाजपा को पिछले वित्त वर्ष के 170.86 करोड़ रुपये के मुकाबले 437.35 करोड़ रुपये मिले. यानी भाजपा के चंदे की रकम में कुल 156 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. 

अगस्ता वेस्टलैंड घोटाला

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क्या है मामला?

भारत को 12 वीवीआईपी हेलिकॉप्टर आपूर्ति के दौरान हुए घोटाले के आरोप में इटली की एक अदालत ने दो लोगों को सजा सुनाई है. यह सौदा फिनमेकैनिका से 3600 करोड़ रुपये में किया गया था. मिलान की अपीलीय अदालत ने इस मामले में इटली की रक्षा और अंतरिक्ष क्षेत्र की बड़ी कंपनी फिनमेकैनिका के पूर्व प्रमुख गिसपे ओरसी और फिनमेकैनिका की अधीनस्थ कंपनी अगस्ता वेस्टलैंड के पूर्व सीईओ ब्रूनो स्पैगनोलिनि को साढे़ चार साल कैद की सजा सुनाई है. इस मामले में भारत के पूर्व वायुसेना प्रमुख एसपी त्यागी भी दोषी ठहराए गए हैं. 

कैसे हुआ सौदा?

भारत में वीआईपी लोगों के लिए पहले रूस के हेलिकॉप्टर एमआई-8 का प्रयोग होता था. इनके पुराने हो जाने पर अगस्त 1999 में भारतीय वायुसेना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को एमआई-8 हेलिकॉप्टर को बदलने का प्रस्ताव दिया. 2006 में इसके लिए ग्लोबल टेंडर निकाला गया और फिर नए हेलिकॉप्टर के तौर पर इटली के अगस्ता वेस्टलैंड का चुनाव हुआ. भारतीय रक्षा मंत्रालय ने फिनमेकैनिका कंपनी से 2010 में 3600 करोड़ रुपये में 12 हेलिकॉप्टर खरीदे थे. फरवरी 2012 में इस सौदे में रिश्वतखोरी के आरोप लगे. 12 फरवरी 2013 को इटली पुलिस ने फिनमेकैनिका के तत्कालीन प्रमुख को गिरफ्तार किया. इसके बाद भारतीय रक्षा मंत्रालय ने अगस्ता वेस्टलैंड कंपनी के बकाया भुगतान पर रोक लगाई और इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी. जनवरी 2014 में भारत सरकार ने अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर डील को रद्द कर दिया.

क्यों मचा बवाल?

इटली की मिलान कोर्ट में मामले से जुड़े कुछ दस्तावेज पेश किए गए हैं. इन दस्तावेजों में भारतीय नेताओं के नाम भी शामिल हैं. इनमें से एक नाम ‘सिग्नोरा गांधी’ भी है. कुछ राजनीतिक दल आरोप लगा रहे हैं कि ‘सिग्नोरा गांधी’ नाम सोनिया गांधी के लिए इस्तेमाल किया गया और वे रिश्वत लेने वालों में शामिल थीं. इसके अलावा जिन नेताओं का नाम दस्तावेजों में सामने आने की बात कही जा रही है उनमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, अहमद पटेल, एम वीरप्पा मोईली, ऑस्कर फर्नाडीज और एमके नारायण शामिल हैं. इतालवी कोर्ट से इस तरह का विवरण सामने आने के साथ ही सत्ताधारी भाजपा ने कांग्रेस और सोनिया गांधी को घेरने की कोशिश की. राज्यसभा में जब सुब्रमण्यन स्वामी ने मामले में सोनिया गांधी का नाम लिया तो कांग्रेस सांसद भड़क गए और हंगामा करने लगे. हालांकि इस मामले पर सोनिया गांधी ने कहा कि मैं आरोपों से डरी नहीं हूं. इस मामले में केवल झूठ बोला जा रहा है.

मुठभेड़ चाल

गुजरात में 15 जून, 2004 को इशरत जहां का एनकाउंटर किया गया. बाद में जांच में इसे फर्जी पाया गया.
गुजरात में 15 जून, 2004 को इशरत जहां का एनकाउंटर किया गया. बाद में जांच में इसे फर्जी पाया गया.
गुजरात में 15 जून, 2004 को इशरत जहां का एनकाउंटर किया गया. बाद में जांच में इसे फर्जी पाया गया.

सीबीआई कोर्ट ने 25 साल पहले पीलीभीत में हुए 10 सिखों के फर्जी एनकाउंटर में 47 पुलिसकर्मियों को दोषी पाया है. फर्जी एनकाउंटर तो हमारे देश में आम बात है, लेकिन बहुत कम मामले ऐसे हैं जिनमें फर्जी एनकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मियों या सैन्यकर्मियों को सजा हुई हो. हो सकता है कि एनकाउंटर कभी ऐसे अपराधियों को ठिकाने लगाने का हथियार रहा हो जो कानून-व्यवस्था और जनता के लिए खतरा बने, लेकिन साथ-साथ यह विरोधियों को ठिकाने लगाने और राजनीतिक बदला लेने या अंडरवर्ल्ड के इशारे पर किसी को निपटाने का भी जरिया बना. बीहड़ों के डकैत और अंडरवर्ल्ड के लोग, जो कानून व्यवस्था के लिए मुसीबत बने हुए थे, उनके खात्मे से शुरू हुई पुलिस मुठभेड़ की कार्रवाई बहुत जल्द ही पुलिस अधिकारियों के लिए  पद-पैसे में बढ़ोतरी और प्रशंसा बटोरने का खेल बन गई. पिछले दो-तीन दशकों में कई ऐसे एनकाउंटर के मामले चर्चित हुए जो पहले पुलिस के दावे से अलग फर्जी एनकाउंटर या कहें पुलिस द्वारा की गई गैर-कानूनी हत्या साबित हुए.

उत्तर प्रदेश फर्जी एनकाउंटर के मामले में सबसे अव्वल है. अगस्त 2009 में लखनऊ में ह्यूमन राइट्स वॉच ने ‘ब्रोकेन सिस्टम, डिस्फंक्शनल एब्यूज ऐंड इम्प्यूनिटी इन इंडियन पुलिस’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की थी. रिपोर्ट की शुरुआत में एक पुलिस अधिकारी का कबूलनामा था, ‘इस हफ्ते मुझे एक एनकाउंटर करने को कहा गया है. मैं उसकी तलाश कर रहा हूं. मैं उसे मार डालूंगा. हो सकता है कि मुझे जेल भेज दिया जाए लेकिन यदि मैं ऐसा नहीं करता तो मेरी नौकरी चली जाएगी.’ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2010 से 2015 के बीच देश में सबसे ज्यादा फर्जी एनकाउंटर उत्तर प्रदेश में हुए. इस दौरान यूपी में लगभग 782 फर्जी एनकाउंटर की शिकायतें दर्ज कराई गईं. वहीं, दूसरे नंबर पर आंध्र प्रदेश रहा, जहां सिर्फ 87 फर्जी एनकाउंटर की शिकायतें आईं. आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी के मुताबिक, इन 782 मामलों में से 160 मामलों में यूपी सरकार ने पीड़ित परिवार को लगभग 9.47 करोड़ रुपये मुआवजा भी दिया. वहीं, इस दौरान पूरे देश में कुल 314 शिकायतों में मुआवजे दिए गए. यूपी और आंध्र प्रदेश के बाद तीसरा नंबर बिहार और चौथा असम का रहा. जहां इस दौरान बिहार में 73 फर्जी एनकाउंटर के मामले आए तो असम में 66 मामले दर्ज हुए. इसके अलावा जुलाई 2014 में गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने बताया था कि साल 2011 से 2014 के बीच 185 फर्जी मुठभेड़ के केस पुलिसकर्मियों के खिलाफ दर्ज हुए थे. इनमें सबसे ज्यादा यूपी में 42 केस और इसके बाद झारखंड में 19 केस दर्ज हुए हैं. आंकड़ों के मुताबिक, 2006 में भारत में मुठभेड़ों में हुई कुल 122 मौतों में से 82 अकेले उत्तर प्रदेश में हुईं. 2007 में यह संख्या 48 थी जो देश में हुई 95 मौतों के 50 फीसदी से भी ज्यादा थी. 2008 में जब देश भर में 103 लोग पुलिस मुठभेड़ों में मारे गए तो उत्तर प्रदेश में यह संख्या 41 थी. 2009 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने 83 लोगों को मुठभेड़ों में मारकर अपने ही पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए.

उत्तर प्रदेश के भदोही में 2005 में हुई एक फर्जी मुठभेड़ के केस में 28 पुलिसकर्मियों के विरुद्ध मामला दर्ज हुआ था. सीआईडी जांच में पाया गया कि 5000 रुपये के इनामी बदमाश विजय उर्फ लल्लू उर्फ बुद्धसेन को पुलिस ने मार गिराया था. पुलिस ने इसे मुठभेड़ दिखाया लेकिन बाद में इसे फर्जी पाया गया. जिन 28 पुलिसकर्मियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया, उनमें से पांच बाद में थाना प्रभारी भी बन गए.

नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान 2002 से 2007 के बीच गुजरात में 31 फर्जी एनकाउंटर हुए जिसमें गुजरात पुलिस के कुल 32 अधिकारी जेल गए. इनमें से ज्यादातर अभी तक जेल में हैं. इन अधिकारियों में पांच आईपीएस अफसर भी शामिल हैं 

पीलीभीत फर्जी एनकाउंटर मामले के पहले भी एनकाउंटर की कई ऐसी घटनाएं सामने आईं जो फर्जी साबित हुईं. दिसंबर 2015 में सीबीआई की विशेष अदालत ने मेरठ के दौराला के एक जंगल में फर्जी मुठभेड़ मामले में तीन सेवानिवृत्त अधिकारियों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. इस घटना में मेरठ कॉलेज की एक 20 साल की छात्रा स्मिता भादुड़ी की 14 जनवरी, 2000 को मेरठ के सिवाया गांव के पास फर्जी मुठभेड़ में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. अतिरिक्त जिला न्यायाधीश नवनीत कुमार ने सेवानिवृत्त पुलिस उपाधीक्षक अरुण कौशिक, कांस्टेबल भगवान सहाय और सुरेंद्र कुमार को हत्या का दोषी पाया था.

जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के माछिल सेक्टर में अप्रैल 2010 में एक फर्जी मुठभेड़ का मामला सामने आया था. इस मामले में सेना ने 2015 में एक कर्नल रैंक अधिकारी समेत छह जवानों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. कर्नल दिनेश पठानिया, कैप्टन उपेंद्र, हवलदार देवेंद्र कुमार, लांस नायक लखमी, लांस नायक अरुण कुमार और राइफल मैन अब्बास हुसैन ने तीन आतंकियों को मारने का दावा किया था. मरने वालों की तस्वीर सामने आने के बाद काफी विवाद हुआ. मरने वालों के परिजनों ने दावा किया कि वे तीनों सामान्य नागरिक थे, जिनको फर्जी मुठभेड़ में मारा गया. उनकी पहचान  बारामूला जिले के नदीहाल इलाके के रहने वाले मोहम्मद शाफी, शहजाद अहमद और रियाज अहमद के रूप में की गई. इस घटना के बाद पूरी कश्मीर घाटी में अशांति फैल गई. बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए जिसमें 123 लोग मारे गए थे. पुलिस जांच में साबित हुआ कि तीनों नागरिकों को नौकरी का झांसा देकर सीमा पर ले जाया गया जहां उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया. इस मुठभेड़ का मकसद इनाम और प्रमोशन पाना था. सेना ने जनरल कोर्ट मार्शल का आदेश दिया तो छह जवान दोषी पाए गए.

जुलाई 2009 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के एक पूर्व आतंकी चोंग्खम संजीत मेइतेई को मणिपुर पुलिस के हेड कांस्टेबल हेरोजित सिंह ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था. उस समय तहलका ने कुछ तस्वीरों के जरिए इस मुठभेड़ की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए थे. हाल में आई एक अंग्रेजी दैनिक की रिपाेर्ट के मुताबिक हेरोजित ने माना कि यह मुठभेड़ नहीं थी बल्कि उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी के कहने पर संजीत को मारा था
जुलाई 2009 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के एक पूर्व आतंकी चोंग्खम संजीत मेइतेई को मणिपुर पुलिस के हेड कांस्टेबल हेरोजित सिंह ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था. उस समय तहलका ने कुछ तस्वीरों के जरिए इस मुठभेड़ की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए थे. हाल में आई एक अंग्रेजी दैनिक की रिपाेर्ट के मुताबिक हेरोजित ने माना कि यह मुठभेड़ नहीं थी बल्कि उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी के कहने पर संजीत को मारा था

अप्रैल 2015 में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु सीमा पर तिरुपति के पास आंध्र प्रदेश के सेशाचलम के जंगल में एसटीएफ ने 20 लोगों को मार गिराया. एसटीएफ ने दावा किया कि ये सभी दुर्लभ लाल चंदन की लकड़ियों की तस्करी से जुड़े थे, लेकिन बाद में जो तस्वीरें और तथ्य सामने आए वे विरोधाभासी थे. मारे गए लोगों के परिजनों ने दावा किया कि वे सभी मजदूर थे जिनकी गलत तरीके से हत्या की गई. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी इस एनकाउंटर पर सवाल उठाए थे. इसी दौरान अप्रैल 2015 में तेलंगाना के वारांगल जिले में पुलिस ने पांच ऐसे लोगों को मुठभेड़ में मारने का दावा किया जो न्यायिक हिरासत में थे. पुलिस के मुताबिक वारंगल सेंट्रल जेल से हैदराबाद कोर्ट ले जाते समय कैदियों ने हथियार छीनने की कोशिश की और पुलिस कार्रवाई में मारे गए. इन पांचों पर एक स्थानीय आतंकी संगठन से जुड़े होने का आरोप था. जिस वक्त इन्हें मारा गया, सभी कैदियों के हाथ में हथकड़ियां लगी थीं. इस एनकाउंटर पर भी सवाल उठे थे. 

भारत में पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा नक्सलियों, कुख्यात अपराधियों और बीहड़ के डकैतों को फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाने का इतिहास काफी पुराना है. इसका चलन साठ के दशक में शुरू हुआ जब पुलिस ने बीहड़ों के डाकुओं के खिलाफ अभियान चलाए. सीधी मुठभेड़ में कुख्यात डाकुओं के मारे जाने के बाद आॅपरेशन को अंजाम देने वाले अधिकारी को राज्य सरकारों द्वारा पुरस्कार और पदोन्नति मिलती थी. बाद में सामने आया कि इन मुठभेड़ों में कुख्यात अपराधियों के अलावा कई निर्दोष लोग फर्जी तरीके से मारे गए. 20वीं सदी के आखिरी वर्षों में और नई सदी के पहले दशक में मानवाधिकार संगठनों ने इन मुठभेड़ों और गैर-कानूनी हत्याओं पर चिंताएं जाहिर करनी शुरू कीं. इसके पहले ये एनकाउंटर एक तरह से जायज माने जाते रहे. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मानना है कि राज्यों में होने वाली फर्जी मुठभेड़ों में से ज्यादातर को पुलिस अंजाम देती है, सेना की ओर से ऐसी कार्रवाइयां कम सामने आती हैं.

मुंबई में 1990 के दशक में संगठित अपराध खत्म करने के लिए धड़ाधड़ एनकाउंटर हुए और ऐसे अधिकारियों को ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ के तमगे से नवाजा गया. पुलिस का कहना था कि एनकाउंटर करके वह न्याय प्रक्रिया में तेजी ला रही है. जनवरी, 1982 में मान्या सुर्वे नामक कुख्यात गैंगस्टर को पुलिस ने वडाला इलाके में मार गिराया. इसे मुंबई पुलिस के पहले एनकाउंटर के रूप में दर्ज किया गया. इसके बाद 2003 तक मुंबई पुलिस ने करीब 1200 एनकाउंटर किए. मुंबई पुलिस के कई अधिकारी एनकाउंटर  स्पेशलिस्ट के तौर पर पहचाने गए. जैसे इंस्पेक्टर प्रदीप शर्मा के नाम 104 एनकाउंटर करने का तमगा है. उनका कहना था, ‘अपराधी गंदगी हैं और मैं सफाईकर्मी हूं.’ शर्मा को राम नारायण गुप्ता एनकाउंटर केस में 2009 में सस्पेंड किया गया था, बाद में 2013 में कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया. इसी तरह सब इंस्पेक्टर दया नायक ने 83 एनकाउंटर किए, जिन पर ‘अब तक छप्पन’ फिल्म बनी थी. इंस्पेक्टर प्रफुल्ल भोंसले के नाम 77, इंस्पेक्टर रवींद्रनाथ अंग्रे के नाम 54, असिस्टेंट इंस्पेक्टर सचिन वाजे के नाम 63 और इंस्पेक्टर विजय सालस्कर के नाम 61 एनकाउंटर केस दर्ज हैं. इंस्पेक्टर विजय सालस्कर 2008 में मुंबई आतंकी हमले में मारे गए थे.

हालांकि बाद में न्याय की इस थ्योरी पर सवाल उठना शुरू हुआ. अदालतों ने इस पर नकारात्मक टिप्पणियां कीं. कुछ ऐसी घटनाएं भी सामने आईं कि पुलिसवालों ने अंडरवर्ल्ड से पैसे लेकर किसी व्यक्ति की फर्जी एनकाउंटर में हत्या की. एक मामले की सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि ‘पुलिस अब जनता की रक्षक न होकर एक पेशेवर कातिल बन चुकी है.’ महाराष्ट्र में 2006 में हुए लखन भैया फर्जी मुठभेड़ मामले में 11 पुलिसकर्मियों को मुंबई सत्र अदालत ने जुलाई 2013 में दोषी करार दिया था.

हाल के वर्षों में रणवीर फर्जी एनकाउंटर मामला काफी चर्चित रहा था. जुलाई 2009 में गाजियाबाद का रणवीर, जो एमबीए का छात्र था, अपने अपने एक दोस्त के साथ नौकरी के लिए इंटरव्यू देने व घूमने के लिए देहरादून गया था. उत्तराखंड पुलिस ने उसे बदमाश बताकर देहरादून स्थित लाडपुर के जंगल में एनकाउंटर में मार गिराया. उत्तराखंड सरकार ने एनकाउंटर में शामिल पुलिसकर्मियों को सम्मानित भी किया. रणवीर के शरीर में 29 गोलियों के निशान पाए गए, जिनमें से 17 गोलियां करीब से मारी गई थीं. बहुत हंगामे के बाद में राज्य सरकार ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपते हुए इसे दिल्ली स्थानांतरित कर दिया. सीबीआई जांच में पाया गया कि यह एनकाउंटर फर्जी था. जून 2014 में दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट ने 17 पुलिसकर्मियों को अपहरण, हत्या की साजिश और हत्या के जुर्म में उम्रकैद और एक पुलिसकर्मी को दो साल की सजा सुनाई.

राजस्थान पुलिस की एसओजी टीम ने अक्टूबर 2006 में एक संदिग्ध डकैत दारा सिंह को मार गिराया. पुलिस ने उस पर 25 हजार का इनाम रखा था. पुलिस ने दावा किया कि हत्या और स्मगलिंग के केस में बंद दारा सिंह ने हिरासत से भागने की कोशिश की तो एनकाउंटर में मारा गया. दारा सिंह की पत्नी सुशीला की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच का आदेश दिया. सीबीआई ने 2011 में जांच पूरी करके 16 लोगों के खिलाफ चार्जशीट तैयार की. इसमें तत्कालीन एडिशनल डीजीपी, एसपी, एडिशनल एसपी, सात सब इंस्पेक्टर और तीन कॉन्स्टेबल भी शामिल थे. इस केस की सुनवाई करते हुए जस्टिस मार्कंडेय काटजू और सीके प्रसाद की बेंच ने सभी आरोपियों की गिरफ्तारी का आदेश देते हुए कहा था, ‘पुलिस को कानून का संरक्षक माना जाता है और यह आशा की जाती है कि वह लोगों की जान की सुरक्षा करेगी, न कि उनकी जान ही ले लेगी. पुलिस द्वारा की जाने वाली फर्जी मुठभेड़ अमानवीय हत्या के अलावा कुछ नहीं है, जिसे रेयरेस्ट ऑफ द रेयर अपराध माना जाएगा. फर्जी मुठभेड़ों में संलिप्त पुलिसवालों को फांसी पर लटका देना चाहिए.’

गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान कई एनकाउंटर हुए जो विवादों में रहे. एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, 2002 से 2007 के बीच गुजरात में 31 फर्जी  एनकाउंटर हुए. फर्जी एनकाउंटर को लेकर गुजरात के कुल 32 पुलिस अधिकारी जेल गए, जिनमें से ज्यादातर अभी तक जेल में हैं. इन अधिकारियों में पांच आईपीएस अफसर भी शामिल हैं. हाल ही में गुजरात के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट, 1987 बैच के आईपीएस अधिकारी डीजी वंजारा नौ साल बाद गुजरात पहुंचे तो उनका भव्य स्वागत किया गया. वे 2007 में गिरफ्तार किए गए थे. 2015 में जमानत मिली, लेकिन सीबीआई कोर्ट ने उनके गुजरात में प्रवेश पर रोक लगा रखी थी. बाद में कोर्ट ने यह रोक हटा ली. वंजारा 2002 से 2005 तक अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस थे. इस दौरान राज्य में करीब बीस लोगों का एनकाउंटर हुआ. बाद में जब सीबीआई जांच हुई तो पता चला कि इनमें से कई एनकाउंटर फर्जी थे. वंजारा के बारे में कहा जाता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुत करीबी थे. 2007 में गुजरात सीआईडी ने उन्हें गिरफ्तार किया और जेल भेजा. उन पर सोहराबुद्दीन, उसकी पत्नी कौसर बी, तुलसीराम प्रजापति, सादिक जमाल, इशरत जहां समेत आठ लोगों की हत्या का आरोप है. इन सभी एनकाउंटरों के बाद गुजरात क्राइम ब्रांच ने दावा किया था कि ये सभी पाकिस्तानी आतंकी थे और गुजरात के मुख्यमंत्री को मारना चाहते थे, लेकिन बाद में कोर्ट के आदेश पर सीबीआई जांच में साबित हुआ कि ये सभी एनकाउंटर फर्जी थे.

आंध्र प्रदेश के सेशाचालम जंगल में एसटीएफ द्वारा मारे गए कथित चंदन तस्करों के शव (फाइल फोटो)
आंध्र प्रदेश के सेशाचालम जंगल में एसटीएफ द्वारा मारे गए कथित चंदन तस्करों के शव (फाइल फोटो)

इशरत जहां एनकाउंटर केस 15 जून, 2004 को अहमदाबाद में हुआ था. इसमें 19 वर्षीय इशरत के साथ जावेद शेख उर्फ प्राणेश पिल्लै, अमजद अली, अकबर अली राणा और जीशान जौहर मारे गए थे. इस मामले में पृथ्वीपाल पांडेय (पीपी पांडेय) व जीएल सिंघल समेत सात अधिकारियों को सीबीआई ने चार्जशीट में अभियुक्त बनाया था. बाद में जीएल सिंघल ने यह कहते हुए इस्तीफा भी दिया था कि सरकार उनका बचाव नहीं कर रही, जबकि उन्होंने क्राइम ब्रांच में रहते हुए जो भी किया, वह सब सरकार के दिशा-निर्देश पर किया.

पीपी पांडेय 1982 बैच के अधिकारी हैं जो 2003 में अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के मुखिया बने. उनकी अगुवाई में क्राइम ब्रांच ने 11 कथित आतंकियों को मुठभेड़ों में मार गिराया. इन मुठभेड़ों में कई के फर्जी होने के आरोप लगे. इनमें से इशरत जहां मुठभेड़ भी शामिल है. सीबीआई का दावा था कि पांडे ने इंटेलीजेंस ब्यूरो के अफसरों के साथ मिलकर इस कथित फर्जी मुठभेड़ की ‘साजिश’ रची. अदालत ने उन्हें भगोड़ा घोषित किया. बाद में उन्होंने आत्मसमर्पण किया था. फरवरी 2016 में सीबीआई कोर्ट से जमानत मिलने के बाद उन्हें फिर से बहाल करके अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) बनाया गया. अप्रैल में उन्हें गुजरात पुलिस का प्रभारी महानिदेशक बनाया गया.

हाल में पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई ने एक इंटरव्यू में कहा कि इशरत मामले में दूसरा हलफनामा गृह मंत्री पी चिदंबरम के कहने पर बदला गया था. इसी बीच गृह मंत्रालय के एक मौजूदा अधिकारी आरवीएस मणि ने आरोप लगाया कि इशरत मुठभेड़ के मामले में हलफनामा बदलवाने के लिए सतीश वर्मा ने उन पर दबाव बनाया और प्रताड़ित किया. गुजरात काडर के आईपीएस अधिकारी सतीश वर्मा इशरत जहां एनकाउंटर की जांच करने वाली कोर्ट की गठित उस एसआईटी के सदस्य थे. वर्मा ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा, ‘ये पूरा आईबी नियंत्रित ऑपरेशन था. चार लोगों को पकड़ा गया. इनमें से दो के बारे में आईबी को जानकारी थी कि वे संभवत: लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य थे. इन सभी पर आईबी और गुजरात पुलिस की नजर थी और फिर ये लोग कथित मुठभेड़ में मार दिए गए. ये पूरा ऑपरेशन बड़ा कामयाब था. लेकिन साथ ही फर्जी भी था.’

26 नवंबर, 2005 को सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस हुआ. सोहराबुद्दीन शेख पर हत्या, उगाही करने और अवैध हथियारों का धंधा चलाने जैसे 60 आपराधिक मामले चल रहे थे. 23 नवंबर को वह अपनी बीवी कौसर बी के साथ हैदराबाद से महाराष्ट्र जा रहा था तभी गुजरात एटीएस ने दोनों को उठा लिया. तीन दिन बाद पुलिस हिरासत में ही सोहराबुद्दीन का एनकाउंटर कर दिया गया. आरोप है कि कौसर बी को भी मारकर अधिकारी डीजी वंजारा के गांव में दफना दिया गया. इस घटना के करीब एक साल बाद सोहराबुद्दीन के सहयोगी तुलसी प्रजापति का भी एनकाउंटर हो गया. इस एनकाउंटर को लेकर भाजपा नेता और गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह पर आरोप लगे कि यह एनकाउंटर उनके कहने पर किया गया है. अमित शाह को जेल भी जाना पड़ा था. इन मुठभेड़ों में जेल जाने वाले वंजारा ने भी दावा किया था कि ‘गृहमंत्री अमित शाह ने कई लोगों के एनकाउंटर का आदेश दिया था.’ 2014 में विशेष कोर्ट ने अमित शाह के खिलाफ आरोप खारिज कर दिए.

‘फर्जी एनकाउंटर के मामले इसलिए होते हैं कि सारा समाज चाहता है कि इस तरह के एनकाउंटर हों. कुछ ऐसे जघन्य अपराधी हैं जिनको कानून नहीं पकड़ पाता है. नेता चुपचाप पुलिस के कान में कहता है कि मारो और खत्म करो. जनता भी कहती है कि वाह-वाह, जान छूटी’

सितंबर 2008 में दिल्ली के बाटला हाउस में पुलिस ने दो संदिग्ध आतंकियों को मारने का दावा किया. दो आतंकी पकड़े गए थे और एक भागने में सफल रहा था. इस मुठभेड़ में एक इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा भी मारे गए. जामा मस्जिद के शाही इमाम समेत मानवाधिकार संगठनों से इस एनकाउंटर को फर्जी बताया और जांच की मांग की. हालांकि, जांच के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अाैर अदालत ने फर्जी एनकाउंटर के आरोप को खाारिज कर दिया. 

हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ में कई ऐसे मामले सामने आए जब पुलिस-नक्सल मुठभेड़ को लेकर सवाल उठे. पुलिस का दावा है कि उसने नक्सली मारे लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि पुलिस ग्रामीण आदिवासियों को नक्सली बताकर फर्जी मुठभेड़ में मार रही है. कुछ दिनों पहले प्रदेश कांग्रेस ने जनाक्रोश रैली की जो इसी मसले पर थी. इस रैली में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल ने कहा, ‘चिड़िया मारने वाली बंदूक रखने वाले आदिवासियों को 5 से 10 लाख तक का इनामी नक्सली बताकर पुलिस झूठी मुठभेड़ में उन्हें मार रही है. पुलिस को नक्सलियों को मारना ही है तो पहले ऐसे आरोपियों के नाम और पहचान की सूची उजागर करे जो सभी थानों में सहज सुलभ हो. बस्तर में फर्जी मुठभेड़ का खेल खेलकर पुलिस झूठी वाहवाही ले रही है. बेकसूर आदिवासियों को या तो जेल में ठूंसा जा रहा है या मार दिया जाता है.’

उत्तर प्रदेश पुलिस में अतिरिक्त महानिदेशक रह चुके एसआर दारापुरी कहते हैं, ‘राजनीति में अपराधी तत्वों का बढ़ता प्रभाव कथित फर्जी मुठभेड़ों के पीछे एक बड़ा कारण है. जो राजनेता सत्ता में हैं, उनके लिए काम करने वाले अपराधियों को संरक्षण मिलता है जबकि उनके विरोधियों के लिए काम करने वाले अपराधियों को खत्म करने के लिए पुलिस को औजार बनाया जाता है. कई मामलों में पुलिस सत्तारूढ़ राजनेताओं को खुश करने के लिए, पदोन्नति और शौर्य पदकों के लिए भी ऐसी कार्रवाइयां करती है.’

जब अपराधियों को सजा देने के लिए पुलिस, कानून और अदालतें मौजूद हैं तो किसी को कानून से परे जाकर मारने की प्रक्रिया क्यों अपनाई जाती है, इसके जवाब में पूर्व अधिकारी प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘फर्जी एनकाउंटर के मामले इसलिए होते हैं कि सारा समाज चाहता है कि इस तरह के एनकाउंटर हों. आपको सुनकर अजीब लगेगा, लेकिन सारा समाज चाहता है. उसका कारण यह है कि समाज में कुछ ऐसे अराजक तत्व या जघन्य अपराधी हैं जिनको कानून नहीं पकड़ पाता है. अगर पकड़ता भी है तो जमानत हो जाती है. मुकदमे 20 साल चलते हैं. तब तक गवाह टूट जाते हैं. लोग कहते हैं कि इनको मारो और खत्म करो. नेता चुपचाप पुलिस के कान में कहता है कि मारो और खत्म करो. जनता भी कहती है कि वाह-वाह, जान छूटी. ऐसे बदमाश से छुट्टी मिली. मुख्य कारण तो यह है कि लोग चाहते हैं और खुलकर कोई नहीं कहता है. दूसरे, हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम इतना विलंब से काम करता है, कछुए की चाल चलता है कि इस तरह की कार्रवाई को सामाजिक मान्यता मिली हुई है. अब आप कह रहे हैं कि इसकी वजह से कई निर्दोष लोग मारे जाते हैं, यह भी सही है. जब आप इस तरह की छूट दीजिएगा तो जाहिर है कि पुलिस इसका दुरुपयोग करेगी और करती भी है.’

रिहाई मंच संगठन से जुड़े वकील मोहम्मद शोएब कहते हैं, ‘कानून फर्जी एनकाउंटर की इजाजत बिल्कुल नहीं देता है. पुलिस एनकाउंटर के मसले में किसी भी तरह से नियमों का पालन नहीं करती है. पुलिस को ऐसा कोई अधिकार ही नहीं है. हां, पुलिस को अगर अपनी जान का खतरा है तो वह किसी को मार सकती है. लेकिन जानबूझकर किसी को मारा जाए, तो यह कानूनन गलत है. जिस व्यक्ति से उनको जान का खतरा नहीं है, उसे भी मार देना गलत है. ज्यादातर एनकाउंटर में पुलिस लोगों को पहले से पकड़ती है, बाद में मार देती है और उसे दिखाती है कि यह एनकाउंटर में मारा गया. एनकाउंटर के बाद उस मसले की जांच तभी होती है जब कोई शिकायत आती है, वरना तो पुलिस के दावे को ही मान लिया जाता है. पुलिस कहती है कि फलां आदमी मुठभेड़ में मारा गया, और इसे ही सच मान लिया जाता है. फर्जी एनकाउंटर के बाद भी अगर कोई इस मसले को उठाता है तो उसे इतना डरा दिया जाता है कि वह चुपचाप बैठ जाए.’

प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘इसका एक ही उपाय है कि आपका क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम इतना प्रभावशाली हो कि जघन्य अपराध में भी एक आदमी को दो साल में सजा हो जाए. 20 साल न चले मुकदमा, इसका और कोई उपाय नहीं है. इसके लिए पुलिस सुधार चाहिए. न्यायिक व्यवस्था में सुधार चाहिए. जमानत के प्रावधानों में सुधार चाहिए. मामलों का जल्दी से निस्तारण हो. चार्जशीट 60 दिन में फाइल हो जाती है. दो साल में मामले का निस्तारण हो जाना चाहिए. अभी तो लोगों को सिस्टम में विश्वास ही नहीं है कि आदमी पकड़ा तो गया, लेकिन उसको सजा कहां होगी. शहाबुद्दीन ज्वलंत उदाहरण हैं. उन्होंने जेएनयू के प्रेसिडेंट चंद्रशेखर की हत्या करवा दी. अभी तक उन्हें कोई दंड नहीं मिला, उल्टा वे पार्टी की नेशनल एक्जिक्यूटिव के सदस्य हो गए. इसका मतलब उनको राजनीतिक संरक्षण हासिल है. न्यायिक तंत्र से सजा भी नहीं हो पाती है. ऐसे लोगों के लिए क्या उपाय है. हर कोई यही चाहेगा कि ऐसे लोग न रहें तो अच्छा है. समाज के पाप और व्यवस्था के निकम्मेपन की गठरी पुलिस अपने सर पर ढोती है.’ 

तुम्हारे धर्म की क्षय

Rahul Sankrityayan

वैसे तो धर्मों में आपस में मतभेद है. एक पूरब मुंह करके पूजा करने का विधान करता है, तो दूसरा पश्चिम की ओर. एक सिर पर कुछ बाल बढ़ाना चाहता है, तो दूसरा दाढ़ी. एक मूंछ कतरने के लिए कहता है, तो दूसरा मूंछ रखने के लिए. एक जानवर का गला रेतने के लिए कहता है, तो दूसरा एक हाथ से गर्दन साफ करने को. एक कुर्ते का गला दाहिनी तरफ रखता है, तो दूसरा बाईं तरफ. एक जूठ-मीठ का कोई विचार नहीं रखता तो दूसरे के यहां जाति के भीतर भी बहुत-से चूल्हे हैं. एक खुदा के सिवाय दूसरे का नाम भी दुनिया में रहने देना नहीं चाहता, तो दूसरे के देवताओं की संख्या नहीं. एक गाय की रक्षा के लिए जान देने को कहता है, तो दूसरा उसकी कुर्बानी से बड़ा सबाब समझता है.

इसी तरह दुनिया के सभी मजहबों में भारी मतभेद है. ये मतभेद सिर्फ विचारों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि पिछले दो हजार वर्षों का इतिहास बतला रहा है कि इन मतभेदों के कारण मजहबों ने एक-दूसरे के ऊपर जुल्म के कितने पहाड़ ढाए. यूनान और रोम के अमर कलाकारों की कृतियों का आज अभाव क्यों दीखता है? इसलिए कि वहां एक मजहब आया, जो ऐसी मूर्तियों के अस्तित्व को अपने लिए खतरे की चीज समझता था. ईरान की जातीय कला, साहित्य और संस्कृति को नामशेष-सा क्यों हो जाना पड़ा? क्योंकि, उसे एक ऐसे मजहब से पाला पड़ा, जो इंसानियत का नाम भी धरती से मिटा देने पर तुला हुआ था. मेक्सिको और पेरू, तुर्किस्तान और अफगानिस्तान, मिस्र और जावा – जहां भी देखिए, मजहबों ने अपने को कला, साहित्य, संस्कृति का दुश्मन साबित किया. और खून-खराबा? इसके लिए तो पूछिए मत. अपने-अपने खुदा और भगवान के नाम पर, अपनी-अपनी किताबों और पाखंडों के नाम पर मनुष्य के खून को उन्होंने पानी से भी सस्ता कर दिखलाया. यदि पुराने यूनानी धर्म के नाम पर निरपराध ईसाई बूढ़ों, बच्चों, स्त्री-पुरूषों को शेरों से फड़वाना, तलवार के घाट उतारना बड़े पुण्य का काम समझते थे, तो पीछे अधिकार हाथ आने पर ईसाई भी क्या उनसे पीछे रहे? ईसा मसीह के नाम पर उन्होंने खुल कर तलवार का इस्तेमाल किया. जर्मनी में ईसाइयत के भीतर लोगों को लाने के लिए कत्लेआम सा मचा दिया गया. पुराने जर्मन ओक वृक्ष की पूजा करते थे. कहीं ऐसा न हो कि ये ओक उन्हें फिर पथभ्रष्ट कर दें, इसके लिए बस्तियों के आस-पास एक भी ओक को रहने न दिया गया. पोप और पेत्रियार्क, इंजील और ईसा के नाम पर प्रतिभाशाली व्यक्तियों के विचार-स्वातंत्र्य को आग और लोहे के जरिए से दबाते रहे. जरा से विचार-भेद के लिए कितनों को चर्खी से दबाया गया- कितनों को जीते जी आग में जलाया गया. हिंदुस्तान की भूमि ऐसी धार्मिक मतांधता का कम शिकार नहीं रही है. इस्लाम के आने से पहले भी क्या मजहब ने बोलने और सुनने वालों के मुंह और कानों में पिघले रांगे और लाख को नहीं भरा? शंकराचार्य ऐसे आदमी जो कि सारी शक्ति लगा गला फाड़-फाड़कर यही चिल्ला रहे थे कि सभी ब्रह्म हैं, ब्रह्म से भिन्न सभी चीजें झूठी हैं तथा रामानुज और दूसरों के भी दर्शन जबानी जमा-खर्च से आगे नहीं बढ़े, बल्कि सारी शक्ति लगाकर शूद्रों और दलितों को नीचे दबा रखने में उन्होंने कोई कोर-कसर उठा नहीं रखी और इस्लाम के आने के बाद तो हिंदू-धर्म और इस्लाम के खूंरेज झगड़े आज तक चल रहे हैं. उन्होंने तो हमारे देश को अब तक नरक बना रखा है. कहने के लिए इस्लाम शक्ति और विश्व-बंधुत्व का धर्म कहलाता है, हिंदू धर्म ब्रह्मज्ञान और सहिष्णुता का धर्म बतलाया जाता है, किंतु क्या इन दोनों धर्मों ने अपने इस दावे को कार्यरूप में परिणत करके दिखलाया? हिंदू मुसलमानों पर दोष लगाते हैं कि ये बेगुनाहों का खून करते हैं, हमारे मंदिरों और पवित्र तीर्थों को भ्रष्ट करते हैं, हमारी स्त्रियों को भगा ले जाते हैं. लेकिन झगड़े में क्या हिंदू बेगुनाहों का खून करने से बाज आते हैं? चाहे आप कानपुर के हिंदू-मुस्लिम झगड़े को ले लीजिए या बनारस के, इलाहाबाद के या आगरे के, सब जगह देखेंगे कि हिंदुओं और मुसलमानों के छुरे और लाठी के शिकार हुए हैं- निरपराध, अजनबी स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे. गांव या दूसरे मुहल्ले का कोई अभागा आदमी अनजाने उस रास्ते आ गुजरा और कोई पीछे से छुरा भोंक कर चंपत हो गया. सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन हिंदुस्तान के इन धार्मिक झगड़ों को देखिए, तो आपको मालूम होगा कि यहां मनुष्यता पनाह मांग रही है. निहत्थे बूढ़े और बूढ़ियां ही नहीं, छोटे-छोटे बच्चे तक मार डाले जाते हैं. अपने धर्म के दुश्मनों को जलती आग में फेंकने की बात अब भी देखी जाती है.

एक देश और एक खून मनुष्य को भाई-भाई बनाते हैं. खून का नाता तोड़ना अस्वाभाविक है, लेकिन हम हिंदुस्तान में क्या देखते हैं? हिंदुओं की सभी जातियों में, चाहे आरंभ में कुछ भी क्यों न रहा हो, अब तो एक ही खून दौड़ रहा है. क्या शक्ल देखकर किसी के बारे में आप बतला सकते हैं कि यह ब्राह्मण है और यह शूद्र? कोयले से भी काले ब्राह्मण आपको लाखों की तादाद में मिलेंगे और शूद्रों में भी गेहुएं रंग वालों का अभाव नहीं है. पास-पास में रहने वाले स्त्री-पुरुष के यौन संबंध, जाति की ओर से हजार रुकावट होने पर भी, हम आए दिन देखते हैं. कितने ही धनी खानदानों, राजवंशों के बारे में तो लोग साफ ही कहते हैं कि दास का लड़का राजा और दासी का लड़का राजपुत्र. इतना होने पर भी हिंदू धर्म लोगों को हजारों जातियों में बांटे हुए है. कितने ही हिंदू, हिंदू के नाम पर जातीय एकता स्थापित करना चाहते हैं. किंतु, वह हिंदू जातीयता है कहां? हिंदू जाति तो एक काल्पनिक शब्द है. वस्तुतः वहां है तो एक काल्पनिक शब्द है. वस्तुतः वहां है ब्राह्मण ब्राह्मण भी नहीं, शाकद्वीपी, सनाढ्य, जुझौतिया, राजपूत, खत्री, भूमिहार, कायस्थ, चमार आदि-आदि. एक राजपूत का खाना-पीना, ब्याह-श्राद्ध अपनी जाति तक सीमित रहता है. उसकी सामाजिक दुनिया अपनी जाति तक सीमित है. इसीलिए जब एक राजपूत बड़े पद पर पहुंचता है, तो नौकरी दिलाने, सिफारिश करने या दूसरे तौर से सबसे पहले अपनी जाति के आदमी को फायदा पहुंचाना चाहता है. यह स्वाभाविक है. जबकि चौबीसों घंटे जीने-मरने सब में साथ संबंध रखने वाले अपनी बिरादरी के लोग हैं, तो किसी की दृष्टि दूर तक कैसे जाएगी?

कहने के लिए तो हिंदुओं पर ताना कसते हुए इस्लाम कहता है कि हमने जात-पांत के बंधनों को तोड़ दिया. इस्लाम में आते ही सब भाई-भाई हो जाते हैं. लेकिन क्या यह बात सच है? यदि ऐसा होता तो आज मोमिन (जुलाहा), अप्सार (धुनिया), राइन (कुंजड़ा) आदि का सवाल न उठता. अर्जल और अशरफ का शब्द किसी के मुंह पर न आता. सैयद-शेख, मलिक-पठान, उसी तरह का ख्याल अपने से छोटी जातियों से रखते हैं, जैसा कि हिंदुओं के बड़ी जात वाले. खाने के बारे में छूतछात कम है और वह तो अब हिंदुओं में भी कम होता जा रहा है. लेकिन सवाल तो है – सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र में इस्लाम की बड़ी जातों ने छोटी जातों को क्या आगे बढ़ने का कभी मौका दिया? हिंदुस्तानियों में से चार-पांच करोड़ आदमियों ने हिंदुओं के सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अत्याचारों से त्राण पाने के लिए इस्लाम की शरण ली. लेकिन, इस्लाम की बड़ी जातों ने क्या उन्हें वहां पनपने दिया? सात सौ वर्ष बाद भी आज गांव का मोमिन जमींदारों और बड़ी जातों के जुल्म का वैसा ही शिकार है, जैसा कि उसका पड़ोसी कानू-कुर्मी. सरकारी नौकरियों में अपने लिए संख्या सुरक्षित कराई जाती है. लेकिन जब उस संख्या को अपने भीतर वितरण करने का अवसर आता है, तब उनमें से प्रायः सभी को बड़ी जाति वाले सैयद और शेख अपने हाथ में ले लेते हैं. साठ-साठ, सत्तर-सत्तर फीसदी संख्या रखने वाले मोमिन और अंसार मुंह ताकते रह जाते हैं. बहाना किया जाता है कि उनमें उतनी शिक्षा नहीं. लेकिन सात सौ और हजार बरस बाद भी यदि वे शिक्षा में इतने पिछड़े हुए हैं, तो इसका दोष किसके ऊपर है? उन्हें कब शिक्षित होने का अवसर दिया गया? जब पढ़ाने का अवसर आया, छात्रवृत्ति देने का मौका आया, तब तो ध्यान अपने भाई-बंधुओं की तरफ चला गया. मोमिन और अंसार, बावर्ची और चपरासी, खिदमतगार, हुक्काबरदार के काम के लिए बने हैं. उनमें से कोई यदि शिक्षित हो भी जाता है, तो उसकी सिफारिश के लिए अपनी जाति में तो वैसा प्रभावशाली व्यक्ति है नहीं और बाहर वाले अपने भाई-बंधु को छोड़ कर उन पर तरजीह क्यों देने लगे? नौकरियों और पदों के लिए इतनी दौड़-धूप, इतनी जद्दोजहद सिर्फ खिदमते-कौम और देश सेवा के लिए नहीं है, यह है रुपयों के लिए, इज्जत और आराम की जिंदगी बसर करने के लिए.

हिंदू और मुसलमान फरक-फरक धर्म रखने के कारण क्या उनकी अलग जाति हो सकती है? जिनकी नसों में उन्हीं पूर्वजों का खून बह रहा है, जो इसी देश में पैदा हुए और पले, फिर दाढ़ी और चुटिया, पूरब और पश्चिम की नमाज क्या उन्हें अलग कौम साबित कर सकती है? क्या खून पानी से गाढ़ा नहीं होता? फिर हिंदू और मुसलमान को फरक से बनी इन अलग-अलग जातियों को हिंदुस्तान से बाहर कौन स्वीकार करता है? जापान में जाइए या जर्मनी, ईरान जाइए या तुर्की- सभी जगह हमें हिंदी और ‘इंडियन’ कहकर पुकारा जाता है. जो धर्म भाई को बेगाना बनाता है, ऐसे धर्म को धिक्कार! जो मजहब अपने नाम पर भाई का खून करने के लिए प्रेरित करता है, उस मजहब पर लानत! जब आदमी चुटिया काट दाढ़ी बढ़ाने भर से मुसलमान और दाढ़ी मुड़ा चुटिया रखने मात्र से हिंदू मालूम होने लगता है, तो इसका मतलब साफ है कि यह भेद सिर्फ बाहरी और बनावटी है. एक चीनी चाहे बौद्ध हो या मुसलमान, ईसाई हो या कनफूसी, लेकिन उसकी जाति चीनी रहती है. एक जापानी चाहे बौद्ध हो या शिंतो-धर्मी, लेकिन उसकी जाति जापानी रहती है. एक ईरानी चाहे वह मुसलमान हो या जरतुस्त, किंतु वह अपने लिए ईरानी छोड़ दूसरा नाम स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं. तो हम हिंदियों के मजहब को टुकड़े-टुकड़े में बांटने को क्यों तैयार हैं और इन नाजायज हरकतों को हम क्यों बर्दाश्त करें?

धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है और इसीलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की भी बातें कभी-कभी सुनने में आती हैं. लेकिन क्या यह संभव है? ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’- इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना है? अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता, तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आज तक हमारा मुल्क पामाल क्यों है? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिए, आज भी हिंदुस्तान के शहरों और गांवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों के खून का प्यासा कौन बना रहा है? कौन गाय खाने वालों से गोबर खाने वालों को लड़ा रहा है? असल बात यह है- ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना. भाई को है सिखाता भाई का खून पीना.’ हिंदुस्तानियों की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी. कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता. काली कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता. मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है. उसको मौत छोड़ कर इलाज नहीं. 

एक तरफ तो वे मजहब एक-दूसरे के इतने जबर्दस्त खून के प्यासे हैं. उनमें से हर एक एक-दूसरे के खिलाफ शिक्षा देता है. कपड़े-लत्ते, खाने-पीने, बोली-बानी, रीति-रिवाज में हर एक एक-दूसरे से उल्टा रास्ता लेता है. लेकिन, जहां गरीबों को चूसने और धनियों की स्वार्थ-रक्षा का प्रश्न आ जाता है, तो दोनों बोलते हैं.

गदहा गांव के महाराज बेवकफ बख्श सिंह सात पुश्त से पहले दर्जे के बेवकूफ चले आते हैं. आज उनके पास पचास लाख सालाना आमदनी की जमींदारी है, जिसको प्राप्त करने में न उन्होंने एक धेला अकल खर्च की और न अपनी बुद्धि के बल पर उसे छह दिन चला ही सकते हैं. न वे अपनी मेहनत से धरती से एक छटांक चावल पैदा कर सकते हैं, न एक कंकड़ी गुड़. महाराज बेवकूफ बख्श सिंह को यदि चावल, गेहूं, घी, लकड़ी के ढेर के साथ एक जंगल में अकेले छोड़ दिया जाए, तो भी उनमें न इतनी बुद्धि है और न उन्हें काम का ढंग मालूम है कि अपना पेट भी पाल सकें, सात दिन में बिल्ला-बिल्लाकर जरूर वे वहीं मर जायेंगे. लेकिन आज गदहा गांव के महाराज दस हजार रुपया महीना तो मोटर के तेल में फूंक डालते हैं. बीस-बीस हजार रुपये जोड़े कुत्ते उनके पास हैं. दो लाख रुपये लगाकर उनके लिए महल बना हुआ है. उन पर अलग डॉक्टर और नौकर हैं. गर्मियों में उनके घरों में बरफ के टुकड़े और बिजली के पंखे लगते हैं. महाराज के भोजन-छाजन की तो बात ही क्या? उनके नौकरों के नौकर भी घी-दूध में नहाते हैं और जिस रुपये को इस प्रकार पानी की तरह बहाया जाता है, वह आता कहां से है? उसे पैदा करने वाले कैसी जिंदगी बिताते हैं? वे दाने-दाने को मोहताज हैं. उनके लड़कों को महाराज बेवकूफ बख्श सिंह के कुत्तों का जूठा भी यदि मिल जाए, तो वे अपने को धन्य समझें. 

लेकिन यदि किसी धर्मानुयायी से पूछा जाए कि ऐसे बेवकूफ आदमी को बिना हाथ-पैर हिलाए दूसरे की कसाले की कमाई को पागल की तरह फेंकने का क्या अधिकार है, तो पंडित जी कहेंगे, ‘अरे वे तो पूर्व की कमाई खा रहे हैं. भगवान की ओर से वे बड़े बनाए गए हैं. शास्त्र-वेद कहते हैं कि बड़े-छोटे को बनाने वाले भगवान हैं. गरीब दाने-दाने को मारा-मारा फिरता है, यह भगवान की ओर से उसको दंड मिला है.’ यदि किसी मौलवी या पादरी से पूछिए तो जवाब मिलेगा, ‘क्या तुम काफिर हो? नास्तिक तो नहीं हो? अमीर-गरीब दुनिया का कारबार चलाने के लिए खुदा ने बनाए हैं. राजी-व-रजा खुदा की मर्जी में इंसान को दखल देने का क्या हक? गरीबी को न्यामत समझो. उसकी बंदगी और फरमाबरदारी बजा लाओ, कयामत में तुम्हें इसकी मजदूरी मिलेगी.’ पूछा जाए जब बिना मेहनत ही के महाराज बेवकूफ बख्श सिंह धरती पर ही स्वर्ग का आनंद भोग रहे हैं, तो ऐसे ‘अंधेर नगरी-चौपट राजा’ के दरबार में बंदगी और फरमाबरदारी से कुछ होने-हवाने की क्या उम्मीद?

उल्लू शहर के नवाब नामाकूल खां भी बड़े पुराने रईस हैं. उनकी भी जमींदारी है और ऐशो-आराम में बेवकफ बख्श सिंह से कम नहीं हैं. उनके पाखाने की दीवारों में इतर चुपड़ा जाता है और गुलाबजल से उसे धोया जाता है. सुंदरियों और हुस्न की परियों को फंसा लाने के लिए उनके सैकड़ों आदमी देश-विदेशों में घूमा करते हैं. ये परियां एक ही दीदार में उनके लिए बासी हो जाती हैं. पचासों हकीम, डॉक्टर और वैद्य उनके लिए जौहर, कुश्ता और रसायन तैयार करते रहते हैं. दो-दो साल की पुरानी शराबें पेरिस और लंदन के तहखानों से बड़ी-बड़ी कीमत पर मंगाकर रखी जाती हैं. नवाब बहादुर का तलवा इतना लाल और मुलायम है, जितनी इंद्र की परियों की जीभ भी न होगी. इनकी पाशविक काम-वासना की तृप्ति में बाधा डालने के लिए कितने ही पति तलवार के घाट उतारे जाते हैं, कितने ही पिता झूठे मुकदमों में फंसा कर कैदखाने में सड़ाए जाते हैं. साठ लाख सालाना आमदनी भी उनके लिए काफी नहीं है. हर साल दस-पांच लाख रुपया और कर्ज हो जाता है. आपको बड़ी-बड़ी उपाधियां सरकार की ओर से मिली हैं. वायसराय के दरबार में सबसे पहले कुर्सी इनकी होती है और उनके स्वागत में व्याख्यान देने और अभिनंदन-पत्र पढ़ने का काम हमेशा उल्लू शहर के नवाब बहादुर और गदहा गांव के महाराजा बहादुर को मिलता है. छोटे और बड़े दोनों लाट, इन दोनों रईसूल उमरा की बुद्धिमानी, प्रबंध की योग्यता और रियाया-परवरी की तारीफ करते नहीं अघाते. 

नवाब बहादुर की अमीरी को खुदा की बरकत और कर्म का फल कहने में पंडित और मौलवी, पुरोहित और पादरी सभी एक राय हैं. रात-दिन आपस में तथा अपने अनुयायियों में खून-खराबी का बाजार गर्म रखने वाले, अल्लाह और भगवान यहां बिलकुल एक मत रखते हैं. वेद और कुरान, इंजील और बाइबिल की इस बारे में सिर्फ एक शिक्षा है. खून चूसने वाली इन जोंकों के स्वार्थ की रक्षा ही मानो इन धर्मों का कर्तव्य हो और मरने के बाद भी बहिश्त और स्वर्ग के सबसे अच्छे महल, सबसे सुंदर बगीचे, सबसे बड़ी आंखों वाली हूरें और अप्सराएं, सबसे अच्छी शराब और शहद की नहरें उल्लू शहर के नवाब बहादुर तथा गदहा गांव के महाराजा और उनके भाई-बंधुओं के लिए रिजर्व हैं, क्योंकि उन्होंने दो-चार मस्जिदें, दो-चार शिवाले बनवा दिए हैं. कुछ साधु-फकीर और ब्राह्मण-मुजावर रोजाना उनके यहां हलवा-पूड़ी, कबाब-पुलाव उड़ाया करते हैं. गरीबों की गरीबी और दरिद्रता के जीवन का कोई बदला नहीं. हां, यदि वे हर एकादशी के उपवास, हर रमजान के रोजे तथा सभी तीरथ-व्रत, हज और जियारत बिना नागा और बिना बेपरवाही से करते रहे, अपने पेट को काट कर यदि पंडे-मुजावरों का पेट भरते रहे, तो उन्हें भी स्वर्ग और बहिश्त के किसी कोने की कोठरी तथा बची-खुची हूर-अप्सरा मिल जाएगी. गरीबों को बस इसी स्वर्ग की उम्मीद पर अपनी जिंदगी काटनी है. किंतु जिस स्वर्ग-बहिश्त की आशा पर जिंदगी भर के दुःख के पहाड़ों को ढोना है, उस स्वर्ग-बहिश्त का अस्तित्व ही आज बीसवीं सदी के इस भूगोल में कहीं नहीं है. पहले जमीन चपटी थी. स्वर्ग इसके उत्तर से सात पहाड़ों और सात समुद्रों के पार था. आज तो न उस चपटी जमीन का पता है और न उत्तर के उन सात पहाड़ों और सात समुद्रों का. जिस सुमेरु के ऊपर इंद्र की अमरावती व क्षीरसागर के भीतर शेषशायी भगवान थे, वह अब सिर्फ लड़कों के दिल बहलाने की कहानियां मात्र हैं. ईसाइयों और मुसलमानों के बहिश्त के लिए भी उसी समय के भूगोल में स्थान था. आजकल के भूगोल ने तो उनकी जड़ ही काट दी है. फिर उस आशा पर लोगों को भूखा रखना क्या भारी धोखा नहीं है?

फर्जी एनकाउंटर का खेल जनता को स्वीकार नहीं करना चाहिए

इशरत जहां एनकाउंटर
इशरत जहां एनकाउंटर
इशरत जहां एनकाउंटर, जिसे बाद में हुई जांच में फर्जी पाया गया था

सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय समाज में एनकाउंटर को स्वीकार्यता मिली हुई है. समाज इसे स्वीकार करता है. आप इसे एक उदाहरण से समझिए कि एक मशहूर कांड; भागलपुर का अंखफोड़वा कांड, जिस पर प्रकाश झा ने फिल्म भी बनाई थी वह बहुत ही जघन्य कांड था. बिहार की जनता आम तौर पर पुलिस विरोधी जनता है और जब भी कोई बात होती है तो सड़क पर निकल आती है. लेकिन उस कांड की जांच करने जब एक दल गया तो पूरा भागलपुर बंद हो गया. भागलपुर के प्रोफेसरों से लेकर रिक्शेवालों तक सबने हड़ताल की और सबने कहा कि नहीं बहुत सही हुआ था. तो सबसे बड़ी दिक्कत है कि सामाजिक रूप से जब आप ऐसी घटनाओं को इस तरह से स्वीकार करेंगे तो पुलिसवालों को भी लगता है कि अगर कानून-कायदा और अदालतें काम नहीं कर रही हैं तो यह उसकी जिम्मेदारी है कि वह सब कुछ ठीक करे और अपराधी को मार दे क्योंकि अपराधी को अदालतें सजा नहीं दे पा रहीं.

यह बड़ा खतरनाक खेल है कि एक-दो अपराधी, जो सचमुच दुर्दांत होते हैं, जिनको अदालत सजा नहीं दे पाती वे मारे जाते हैं. फिर एक चलन बन जाता है और पैसा लेकर मारना शुरू हो जाता है. इसमें यह भी होता है कि किसी राजनीतिक व्यक्ति के कहने पर उसके दुश्मन को मार दिया जाता है. जो माफिया गैंग हैं वे अपने विरोधियों को पकड़-पकड़कर पुलिस को देते रहते हैं, पैसा भी देते हैं और लोग मारे जाते हैं. तो कुल मिलाकर यह एक खराब और खतरनाक खेल होता है जिसमें पुलिस फंसती है जबकि उसे इससे बचना चाहिए.

वंजारा साहब जिस इशरत जहां के केस में फंसे थे, उसमें मसला यह नहीं था कि इशरत लश्कर-ए-तैयबा की सदस्य थी कि नहीं, वह तो लश्कर की सदस्य थी. उसमें बहस यह होनी चाहिए थी कि क्या राज्य को यह अधिकार है कि आप किसी को भी पकड़कर मार देंगे. अगर वह लश्कर की सदस्य भी है तो क्या आप उसको पकड़कर मार देंगे? आपको यह मारने का ये अधिकार भारत का संविधान या कानून देता है! इस पर बहस होने लगी कि नहीं वह तो बड़ी भली महिला थी. उसे गलत तरीके से मारा गया. आप किसी को पकड़कर नहीं मार सकते. ऐसा इसलिए हुआ कि यह कांग्रेस भी इस तरह की मूर्खता करती रहती है. प्रतिस्पर्धात्मक सांप्रदायिकता पर अमल करती है और इसमें कांग्रेस से भाजपा हमेशा जीत जाएगी. यह कहने के बजाय कि वह बड़ी भली महिला थी, सज्जन थी, कहना यह था कि वह लश्कर की थी भी तो आपको यह अधिकार किसने दिया कि आप उसे पकड़कर मार दें. आप किसी को भी ऐसे नहीं मार सकते.

पीलीभीत वाले मामले में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे. इस एनकाउंटर को अंजाम देने वालों को इनाम दिया गया था जबकि पूरा उत्तर प्रदेश जानता था कि ये फर्जी है

एनकाउंटर ऐसा खेल है जिसे जनता को स्वीकार नहीं करना चाहिए. लेकिन आपको इसी के साथ सवाल उठाना चाहिए कि 1947 के बाद पुलिस का बुनियादी स्वरूप क्यों नहीं बदला गया. ये पुलिस अंग्रेजों ने बनाई थी. 1860-61 में यह पुलिस बनाई गई थी. और यह भी पूछना चाहिए कि 60-70 देशों में अंग्रेजों ने पुलिस बनाई, लेकिन सारे देशों में अलग-अलग पुलिस क्यों बनाई. भारत में ऐसी पुलिस क्यों बनाई जो कानून विरोधी थी, जनता की दुश्मन थी? यह पुलिस भारत में क्यों बनाई, श्रीलंका, केन्या और बर्मा में ऐसी ही पुलिस क्यों नहीं बनाई? उनमें केवल रैंक एक जैसी हैं, लेकिन उनके स्वरूप अलग-अलग हैं. यह एक गंभीर मसला है जिस पर बहस होनी चाहिए.

अब फर्जी एनकाउंटर काफी हद तक कम हो गए हैं क्योंकि मीडिया बहुत सक्रिय हो गया है. न्यायपालिका का समर्थन कम हो गया है. एक जमाने में न्यायपालिका का भी समर्थन खूब मिलता था. पीलीभीत वाले मामले में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और इस एनकाउंटर को अंजाम देने वालों को इनाम दिया गया था जबकि पूरा उत्तर प्रदेश जानता था कि यह फर्जी है. उसमें एक ऐसा भी अफसर शामिल था जिसने मेरठ में मलियाना कांड किया था, जिसने 84 में सिखों को मरवाया. लेकिन उसे कभी कोई सजा नहीं मिली. उसने अपनी नौकरी पूरी की और ऊपर तक पहुंचकर रिटायर हुआ. अब इसमें सच्चाई यह है कि आपने छोटे पुलिसवाले को सजा दे दी. गुजरात का मसला अलग है जिसमें डीजी रैंक का अफसर जेल चला गया वरना छोटे स्तर के अधिकारी और कर्मचारी ही सजा पाते हैं.

यह भी बात महत्वपूर्ण है कि यह काम उन्हीं से कराया जाता है जो इसे करने को तैयार होते हैं. जो करने को नहीं तैयार होते, उनसे कोई कहता ही नहीं. हमारे साथ एक इंस्पेक्टर बनवारी हुआ करते थे, वे कभी गलत काम नहीं करते थे तो कभी उनसे कोई कहता भी नहीं था. लेकिन ज्यादातर लोग उसके लिए तैयार रहते हैं. यह एक मनोवैज्ञानिक निर्मिति है कि पुलिसवाले जानते हैं कि वे जो कर रहे हैं वह कानून और जनता के हित में है और सबसे बड़ी बात जनता इसे सपोर्ट करती है. आप जाकर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसरों से बात कीजिए तो वे भी सपोर्ट करते हैं. आप एक सामान्य चोरी के आरोपी को थाने में ले आइए तो लोगों की प्रतिक्रिया होती है कि साहब देखिए, थाने में बैठाए हुए हैं, अब तक इसे उल्टा लटकाया नहीं गया, इसे पीटा नहीं गया. लोग थर्ड डिग्री के लिए दबाव डालते हैं तो पुलिसवाला सोचता है कि वह थर्ड डिग्री करके बड़ा पवित्र काम कर रहा है.

(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं )

फर्ज का एनकाउंटर

न्याय! अदालत से सजा पाने के बाद पीलीभीत फर्जी एनकाउंटर में शामिल दोषी पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार कर पुलिस वैन से जेल ले जाया गया. इस दौरान वैन को घेरे उनके परिजन
न्याय! अदालत से सजा पाने के बाद पीलीभीत फर्जी एनकाउंटर में शामिल दोषी पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार कर पुलिस वैन से जेल ले जाया गया. इस दौरान वैन को घेरे उनके परिजन

12 जुलाई, 1991 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश स्थित नानकमत्था गुरुद्वारे (अब उत्तराखंड के उधमसिंह नगर में) से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र स्थित सिख धर्मस्थलों के दर्शन के लिए चली तीर्थयात्रियों से भरी एक बस अपनी यात्रा पूरी करके वापस लौट रही थी. बस में उस समय 25 लोग सवार थे. इनमें दो बुजुर्गों सहित 13 पुरुष, नौ महिलाएं और तीन बच्चे शामिल थे. सभी पंजाब के गुरदासपुर और उत्तर प्रदेश के पीलीभीत शहर के रहने वाले थे. यह बस 29 जून, 1991 को नानकमत्था गुरुद्वारे से चली थी. बस में नवविवाहिता बलविंदर कौर भी अपने पति, देवर और सास के साथ सवार थीं. वे बताती हैं, ‘दो हफ्ते लंबी यात्रा थी जिसे पूरी कर हम वापस नानकमत्था गुरुद्वारा लौट रहे थे. बस में खुशी का माहौल था और जल्द से जल्द घर पहुंचने की उत्सुकता. हम यात्रा के आखिरी पड़ाव पर थे.’

हालांकि इन यात्रियों को यह नहीं पता था कि उत्साह का यह माहौल जल्द ही दहशत में बदलने वाला था. उसी सुबह पीलीभीत से 125 किलोमीटर पहले स्थित बदायूं के कछला घाट पर पहुंचते ही उत्तर प्रदेश पुलिस की एक वैन ने बस को रोका और पास के चेकपोस्ट पर ले गए. वहां पुलिस के जवान बस के अंदर दाखिल हुए और सभी पुरुष यात्रियों को जबरन बाहर निकाल दिया. उनकी पगड़ी उतारकर उससे उनके हाथ बांध दिए. बस में चीख-पुकार में मच गई थी. किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या चल रहा है. बाद में दो बुजुर्गों को वापस बस में चढ़ा दिया गया और बाकी को एक पुलिस वैन में बैठाया गया. बस में मौजूद महिलाएं और बच्चे रोते रहे, बुजुर्ग अपने बच्चों को छोड़ देने की विनती करते रहे लेकिन बस में घुसे जवानों ने सबको चुप रहने की हिदायत दी. जिन्होंने उनके हुक्म की नाफरमानी की, उनके साथ हाथापाई भी की गई.

पंजाब के गुरदासपुर की निवासी बलविंदर कौर की जिंदगी का वह सबसे खौफनाक दिन था. उस दिन की कहानी बताते हुए वे कहती हैं, ‘हमारी बस और जिस गाड़ी में नौजवानों को बैठाया था, दोनों को पुलिस की गाड़ियों ने घेर लिया. पुलिस की गाड़ियां आगे चल रही थीं, उनके पीछे हमारी बस. बस में भी कुछ पुलिसवाले सवार थे. जिन्होंने हमें यहां-वहां देखने तक से मना कर रखा था. हमें बोलने की भी इजाजत नहीं थी. हम जब भी उनसे कुछ जानने की कोशिश करते तो हमें चुप करा देते, धक्के मारते और डराते. किसी को न तो बाथरूम जाने दिया जा रहा था, न खाना-पानी दिया जा रहा था. मैं तब सात माह की गर्भवती थी. हमारी बस में मेरे अलावा एक और गर्भवती महिला थी. इसी तरह रात दस बजे तक वो हमें जंगलों में घुमाते रहे. इसके बाद हमारी बस और पुलिस वैन जिसमें हमारे सगे-संबंधियों बैठे  हुए थे, को अलग कर दिया गया. हमें पीलीभीत ले जाकर एक गली के पास बस रोक दी औैर बोला गया कि इस गली के उस पार गुरुद्वारा है. वहां रात गुजार लो और किसी से कुछ मत कहना. आपके पति और बच्चों की छानबीन करने के बाद उन्हें छोड़ दिया जाएगा.’ लेकिन उस दिन के बाद बलविंदर कभी अपनी पति और देवर को वापस नहीं देख सकीं.

यह घटना उस दौर की है जब उत्तर प्रदेश के सिख बहुल तराई क्षेत्र में आतंकवाद ने अपने पैर पसार लिए थे. दिन ढलते ही थानों तक के दरवाजे बंद हो जाते थे. मिनी पंजाब कहे जाने वाले पीलीभीत में दहशत का ऐसा माहौल था कि दिन ढलते ही वहां सन्नाटा पसर जाता था

यह घटना उस दौर की है जब उत्तर प्रदेश के सिख बहुल तराई क्षेत्र में आतंकवाद ने अपने पैर पसार लिए थे. दिन ढलते ही पुलिस थानों तक के दरवाजे बंद हो जाते थे. हथियारबंद जवान ड्यूटी देने से कतराते थे. मिनी पंजाब कहे जाने वाले पीलीभीत में दहशत का ऐसा माहौल था कि दिन ढलते ही बाजार में सन्नाटा पसर जाता था. लोग अपने-अपने घरों में कैद हो जाते थे. आम जनता ही नहीं, खुद पुलिस पर भी हमले हो रहे थे. उन्हीं दिनों एसपी पीलीभीत आवास के पास गोलियां बरसाई गई थीं. पुलिस पर दबाव पड़ रहा था कि आतंक के इस साये से क्षेत्र को बाहर निकाला जाए. इसी बीच कथित तौर पर कुछ पुलिस अफसर समस्या की जड़ तक पहुंचने के बजाय पूरा माहौल अपने पक्ष में भुनाकर वाहवाही लूटने में प्रयासरत थे. क्षेत्र के निवासी बताते हैं कि एक ओर आतंकवाद था तो दूसरी ओर हमें पुलिसिया जुल्म का भी सामना करना पड़ता था. आतंकवाद के नाम पर जिले के निर्दोष सिख युवकों को टाडा के तहत जेल में ठूंस दिया जाता था. पुलिस के गश्ती दल के हत्थे अगर कोई आम आदमी भी चढ़ जाता था तो उसे भी वैसी ही यातनाएं भोगनी पड़ती थीं जैसी किसी दहशतगर्द को. पुलिसवाले अपने कंधे पर तरक्की का तमगा लगवाने के लिए ऐसा करते थे.

संघर्ष बलविंदर कौर के पति और देवर को पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में  मार गिराया था. तंग आर्थिक हालात के बावजूद उन्होंने पच्चीस साल तक न्याय के लिए लड़ाई लड़ी
संघर्ष बलविंदर कौर के पति और देवर को पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में
मार गिराया था. तंग आर्थिक हालात के बावजूद उन्होंने पच्चीस साल तक न्याय के लिए लड़ाई लड़ी

इसी कड़ी में 13 जुलाई, 1991 को पीलीभीत के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक आरडी त्रिपाठी ने मीडिया को बताया कि पुलिस ने तीन अलग-अलग मुठभेड़ों में खालिस्तान लिबरेशन आर्मी के कमांडर बलजीत सिंह समेत 10 खूंखार आतंकियों को मार गिराया है. अगले दिन जब यह खबर अखबारों की सुर्खियां बनी तो पुलिस के दावे पर सवाल उठने लगे. मुठभेड़ में मारे गए जिन लोगों को पुलिस आतंकी बता रही थी उनके परिजन सामने आए. उनके दावे के अनुसार पुलिस जिन्हें आतंकी बता रही थी वे सिख तीर्थस्थलों के दर्शन करके लौट रहे लोगों से भरी बस में सवार तीर्थयात्री थे जिन्हें पुलिस ने जबरन बस से उतारकर अपनी वैन में बैठा लिया था. बलजीत सिंह जिन्हें पुलिस ने खालिस्तान लिबरेशन आर्मी का कमांडर बताकर मुठभेड़ में मारा था, वे कोई और नहीं बल्कि बलविंदर कौर के ही पति थे.

इस मामले ने जब तूल पकड़ा तो अधिवक्ता आरएस सोढ़ी ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका लगाकर इस मामले की सीबीआई से जांच कराए जाने की मांग की. 12 मई, 1992 से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई ने जांच शुरू की और उत्तर प्रदेश पुलिस के 57 पुलिसकर्मियों पर आरोप तय किए. 12 जून, 1995 को सीबीआई ने 55 पुलिसकर्मियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की क्योंकि दो आरोपियों की मौत हो चुकी थी. इस घटना के 25 साल बाद बीते दिनों लखनऊ की सीबीआई कोर्ट का इस मामले पर फैसला आया है. सीबीआई के विशेष न्यायाधीश लल्लू सिंह ने इस मुठभेड़ को फर्जी करार देते हुए सभी 47 आरोपियों को दोषी ठहराया है. अपने फैसले में उन्होंने कहा कि ‘आउट ऑफ टर्न’ प्रमोशन की चाह में पुलिसवालों ने 11 निर्दोषों का कत्ल कर दिया. फैसले पर नजर डालते हुए मामले की पैरवी करने वाले सीबीआई के अधिवक्ता सतीश जायसवाल बताते हैं, ‘25 साल के लंबे संघर्ष के बाद पीड़ितों को न्याय देते हुए कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है और उनसे वसूली जाने वाली जुर्माना राशि से हर पीड़ित परिवार को 14 लाख रुपये दिए जाने के आदेश दिए हैं.’

फर्जी मुठभेड़ के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार 2010 से 2015 के दरमियान उत्तर प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ की 782 शिकायतें दर्ज कराई गई हैं. जबकि सूची में दूसरे नंबर पर रहे आंध्र प्रदेश में इस अवधि में महज 87 शिकायतें दर्ज हुई हैं

इस पूरे मामले में 57 पुलिसकर्मी जांच के दायरे में आए थे. इनमें से दो की मौत मामले पर सुनवाई शुरू होने से पहले ही हो गई थी. 20 साल चली सुनवाई के दौरान आठ और पुलिसकर्मियों की मौत हो गई. बाकी बचे 47 दोषियों में से 38 को फैसले वाले दिन ही जेल भेज दिया गया और अदालत में पेश नहीं हुए नौ दोषियों के खिलाफ वारंट जारी कर दिए गए. लेकिन पीड़ितों के परिजनों को जो बात खल रही है वह यह कि जो पुलिसकर्मी सीबीआई जांच के दायरे में थे और जिन पर 11 हत्याओं का मुकदमा चल रहा था वे इस पूरी अवधि में न सिर्फ अपनी नौकरी पर बने रहे बल्कि प्रमोशन भी पाते रहे. अदालत ने भी अपने फैसले में इस ओर ध्यान आकर्षित किया और पुलिस की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े किए. बलविंदर कौर पूरी व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए पूछती हैं, ‘जो हत्यारे थे उन्हें अपने पापों की सजा के बजाय इनाम और सम्मान मिला. सरकारी पगार पर मौज करते रहे. वहीं दूसरी ओर हम दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे थे. सजा जिन्हें मिलनी थी वो तो ऐशोआराम की जिंदगी जीते रहे और हम 25 सालों तक बिना किसी गुनाह की सजा भुगतते रहे. ये कैसी व्यवस्था है?’ दोषी 47 पुलिसवालों में से 13 अब भी पुलिस विभाग में विभिन्न पदों पर तैनात हैं.

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व्यथा कथा : 1 

पूरा परिवार तबाह हो गया, उसके सामने मुआवजा कुछ भी नहीं

1991 में पीलीभीत के पस्तौर इलाके में रहने वाले नरिंदर सिंह अपनी मां जोगिंदर के साथ तीर्थयात्रा पर निकले तो फिर कभी वापस न आए. वे अपने पीछे चार बच्चे छोड़ गए थे. दो लड़के और दो लड़कियां. उनके बड़े लड़के सतनाम सिंह की उम्र उस समय 16-17 वर्ष थी और उनकी सबसे छोटी संतान 3 वर्ष की थी. आज 25 साल बाद भी उनका परिवार उसी खौफ में जी रहा है. इसकी बानगी तब मिली जब सतनाम से ‘तहलका’ ने संपर्क साधा. सतनाम से कई बार बात करने की कोशिश की गई लेकिन वे बार-बार किसी न किसी बहाने से फोन काट देते थे. फिर उन्होंने फोन ही उठाना बंद कर दिया जिससे साफ था कि वे उस बारे में किसी से कोई बात नहीं करना चाहते.

कारण जानने के लिए उनके चचेरे भाई शैली सिंह से संपर्क किया गया. तब पुलिसिया जुल्म की उस दास्तान से पर्दा हटा जिसने सतनाम के मन में भय के बीज बो दिए थे. सतनाम ने पुलिसिया जुल्म के चलते केवल अपने पिता को नहीं खोया बल्कि अपने चाचा लखविंदर सिंह को भी इसका शिकार बनते देखा था. लखविंदर को पुलिस ने टाडा लगाकर जेल में ठूंस दिया था. जब नरिंदर की हत्या की गई तब उनके छोटे भाई लखविंदर जेल में थे. लखविंदर को 1997 में जमानत मिली. शैली बताते हैं, ‘जमानत के बाद भी उन्हें तंग किया जाता था तो हमारे फूफा जी जो पंजाब में रहते हैं वे उन्हें पंजाब ले गए. मामला कोर्ट में चलता रहा और आखिरकार हमारे ताऊ लखविंदर बरी हो गए. वे आजकल पंजाब में ही हैं.’ नरिंदर की मां जो उनके साथ उस घटना के समय बस में थीं, अपने बेटे के न्याय की लड़ाई लड़ते हुए दशक भर पहले चल बसीं. शैली बताते हैं, ‘इन हालात में घर-परिवार में किसी की पढ़ाई तक नहीं हो सकी. इस दौरान सतनाम ने अपनी एक बहन को भी खो दिया. हम लोगों की जमीन-जायदाद पुलिसिया ज्यादतियों की भेंट चढ़ गई. हालात ऐसे थे कि कुछ कर नहीं पा रहे थे, उस समय पुलिस पर किसी का जोर नहीं था.’

नरिंदर के न्याय की लड़ाई लड़ रहे उनके करीबी हरजिंदर सिंह कहलो बताते हैं, ‘पुलिसिया सितमों के कारण मैंने नरिंदर का पूरा परिवार ही तबाह होते देखा है. आज उस परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी भी नहीं दिखती कि वह दो वक्त की रोटी सुकून से खा सके. इस परिवार ने जितना खोया है, उसके सामने 14 लाख रुपये की मुआवजा राशि कुछ नहीं.’ [/symple_box]

मामले में पैरोकार हरजिंदर सिंह कहलो कहते हैं, ‘इतनी बड़ी वारदात को अंजाम देना इंस्पेक्टर स्तर के पुलिसवालों के लिए संभव नहीं था. वह सब कुछ बड़े अधिकारियों के निर्देशों पर ही हुआ था लेकिन सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में उन्हें बचाया है. फैसला हमारे पक्ष में आया है इसलिए अब मुझे अगर उन बड़े अफसरों को सलाखों के पीछे भिजवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट भी जाना पड़ा तो जाऊंगा.’ विशेष न्यायाधीश लल्लू सिंह भी यह मानते हैं. फैसला सुनाते वक्त उन्होंने कहा भी, ‘सीबीआई ने ऊपर से मिले निर्देशों के चलते ऐसे महत्वपूर्ण लोगों को बचाया जो अभियुक्त थे. जिन लोगों पर आरोप तय हुए हैं, उन्होंने सभी निर्णय अपनी मर्जी से नहीं लिए. जिस तरह पुलिस ने 11 लोगों को तीन हिस्सों में बांटकर अलग-अलग क्षेत्रों में उनकी हत्या करने के बाद पूरे घटनाक्रम को मुठभेड़ की शक्ल दी, इससे साफ है कि उन्हें जिला स्तर के वे महत्वपूर्ण अधिकारी निर्देश दे रहे थे जिनके पास काफी शक्तियां थीं.’

मृतकों के परिजनों को जो बात खल रही है वह यह कि जो पुलिसकर्मी सीबीआई जांच के दायरे में थे और जिन पर 11 हत्याओं का मुकदमा चल रहा था वे मामले की सुनवाई के दौरान न सिर्फ अपनी नौकरी पर बने रहे बल्कि प्रमोशन भी पाते रहे

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व्यथा कथा :2 

‘तब तक लड़ेंगे जब तक दोषियों के गले में फांसी का फंदा न पहुंच जाए’

मुखविंदर सिंह के पिता संतोख सिंह
मुखविंदर सिंह के पिता संतोख सिंह

‘23 साल का था वो. बढ़ई का काम करता था. एक दिन मेरे पास आया और बोला कि मुझे किसी कोठी में काम करने का मौका मिला है. उस दिन वो बहुत ही खुश नजर आ रहा था. फिर बोला कि काम शुरू करने से पहले मैं गुरुद्वारों की यात्रा पर जाना चाहता हूं. उसके मन में यह बहुत दिनों से था. वो धार्मिक किस्म का था इसलिए मैंने भी उसे नहीं रोका.’

पीलीभीत में हुई उस फर्जी मुठभेड़ कांड में पुलिस की गोली का शिकार बने पंजाब के गुरदासपुर स्थित राउरखेड़ा गांव के रहने वाले मुखविंदर सिंह के पिता संतोख सिंह जब उस 25 साल पुराने दिन को याद करते हैं तो उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं. वे आगे बताते हैं, ‘15 दिन की यात्रा थी. जिस दिन उसे वापस आना था, उसी दिन उसकी मौत की खबर आई.’ संतोख सिंह के मुताबिक, उन्हें अपने बेटे के मुठभेड़ में मारे जाने की खबर अखबार के जरिए मिली. पहली बार तो उन्हें पढ़कर यकीन नहीं हुआ लेकिन जब दोबारा पढ़ा और गौर से अपने बेटे का चेहरा देखा तो पैरों तले जमीन खिसक गई. वे बताते हैं, ‘उस दिन को याद कर आज भी रूह कांप उठती है. जब बेटे की फोटो देखी तो दिल दहल गया, जमीन पर लाइन से लाशें पड़ी हुई थीं, जिनमें से एक मेरा बेटा मुखविंदर भी था. पुलिस मेरे निर्दोष बेटे को मारकर वाहवाही लूट रही थी. हम खेती-किसानी करने वाले लोग थे. उत्तर प्रदेश पहुंचे तो किसी को नहीं जानते थे. हमने पुलिस को बताया कि वो काम करके आता था, हमें रोटी खिलाता था. मेहनत की कमाई से घर का खर्च चलाता था. उसे क्यों मार दिया? पर यहां हमारी सुनने वाला कोई नहीं था. पुलिस और प्रशासन तो हमें आतंकवादी का पिता मान ही चुका था तो किससे न्याय की आस लगाते?’

मुखविंदर काम करके जो भी कमाते थे वह सब लाकर अपने पिता के हाथ में रख देते थे. लेकिन मुखविंदर के फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने के बाद संतोख के परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई. एक तरफ घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था तो दूसरी तरफ बेटे के न्याय की लड़ाई भी लड़नी थी, जिसमें भी पैसा लगाना था. वहीं जब संतोख सिंह की उम्र बिस्तर पर आराम करने की थी वे अदालतों के चक्कर काट रहे थे. वे बताते हैं, ‘हमारे पास तो इतना पैसा नहीं था कि हम इतनी लंबी लड़ाई लड़ पाते. वो तो उत्तर प्रदेश सिख प्रतिनिधि बोर्ड था जिसने हमारे लिए न्याय की लड़ाई लड़ी.’ उनके मुताबिक एक वक्त ऐसा भी आया कि उन्हें लगने लगा था कि उनके बेटे के हत्यारों को सजा नहीं मिलेगी.

वे कहते हैं, ‘न्याय मिला है पर खुशी नहीं मिली. 25 साल लगा दिए. पूरी उम्र ढल गई न्याय के इंतजार में. हमने तो एक तरह से हथियार ही डाल दिए थे. मेरा बेटा निर्दोष था यह तो तभी तय था जब पुलिस उसके खिलाफ एक आपराधिक मामला तक नहीं खोज पाई थी. इस न्याय से बस सांत्वना मिली है कि इतनी भाग-दौड़ के बाद कुछ तो हासिल हुआ. पर अभी हमारा हक पूरा नहीं हुआ है. जिन्होंने हमारे बच्चों को मारा, उन्होंने तो तरक्की पा ली. गुनहगार वो रहे और संघर्ष हमने किया. उनके गुनाहों की सजा हमें मिली. वे घर-बंगला बनाकर बैठे हैं. किसी का परिवार डुबो दिया और अपने परिवार को खुशहाल बना लिया. वे हाई कोर्ट जाएंगे तो हम भी तब तक लड़ेंगे जब तक उन हत्यारों के गले में फांसी का फंदा न पहुंच जाए.’ संतोख सिंह आज अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में हैं, उनसे ठीक से चला भी नहीं जाता लेकिन देश में न्याय की धीमी रफ्तार के चलते वे इस उम्र में भी न्याय के लिए अदालतों के चक्कर काटने को मजबूर हैं.[/symple_box]

न्याय की यह पूरी कवायद इतनी आसान भी नहीं रही. न्याय के लिए ताल ठोकने वालों और गवाहों पर पुलिस लगातार दबाव बनाती रही कि वे अपना नाम वापस ले लें. मारे गए गुरदासपुर के रहने वाले सुरजन सिंह के पिता करनैल सिंह पर भी लगातार ऐसा ही दबाव रहा. करनैल सिंह की दिमागी हालत आज ठीक नहीं है. उनकी बहू बताती हैं, ‘कभी उन्होंने मुझे सीधे तौर पर नहीं बताया कि उन्हें धमकियां मिल रही हैं लेकिन उनसे मिलने-जुलने वाले और पड़ोसी बताया करते थे कि उन पर बहुत दबाव है कि वे मामले से अपने हाथ पीछे खींच लें.’ ऐसा ही दबाव गुरदासपुर के ही रहने वाले अजीत सिंह पर बनाया गया. अजीत सिंह के बेटे हरमिंदर सिंह मिंटा भी उस दिन पत्नी स्वर्णजीत के साथ उसी बस में सवार थे जिन्हें मार दिया गया. स्वर्णजीत मामले की एक प्रमुख गवाह थीं. अजीत सिंह बताते हैं, ‘पंजाब पुलिस लगातार मुझे इस मामले से हटने की नसीहत देती रही लेकिन मैंने कह दिया कि मर जाऊंगा पर गुनहगारों को सजा दिलाकर ही रहूंगा.’ वहीं हरजिंदर सिंह कहलो को तो उत्तर प्रदेश पुलिस ने आतंकवादी तक घोषित करने का प्रयास किया. वे बताते हैं, ‘मुझे आईपीसी की धारा 216 के तहत नोटिस थमा दिया गया था जिसके खिलाफ मैं सुप्रीम कोर्ट चला गया और पुलिस के मंसूबों पर पानी फिर गया. यही नहीं, पुलिस ने तो मेरे ऊपर धारा 302 तक का एक झूठा मुकदमा कायम कर दिया था और मेरे ऊपर इनाम भी घोषित कर दिया.’ कहलो के मुताबिक, उनके ऊपर जानलेवा हमला भी करवाया गया. पुलिस ने उस दिन बस से उतारा तो 11 लोगों को था लेकिन मुठभेड़ में 10 लोगों का मारा जाना दर्शाया. उन लोगों में शामिल शाहजहांपुर के रहने वाले तलविंदर का आज तक कुछ पता नहीं चल सका कि उनके साथ क्या हुआ. उनके पिता मलकैत सिंह उस घटना के थोड़े ही समय बाद भारत छोड़कर कनाडा जा बसे थे. कहलो कहते हैं, ‘संभव है कि वे तराई में बढ़ रही आतंकी घटना और पुलिस के जुल्म या फिर पुलिस के डराए-धमकाए जाने के कारण भाग गए हों.’

इस घटना के दौरान पीलीभीत के एसएसपी रहे आरडी त्रिपाठी से ‘तहलका’ ने बात की. वे अपने ऊपर लग रहे आरोपों को निराधार बताते हैं. इस पर यूपी सिख प्रतिनिधि बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. गुरमीत सिंह जो इस पूरे मामले में शुरू से अंत तक पीड़ित परिवारों के साथ खड़े रहे, कहते हैं, ‘वे लोग आतंकवादी थे या नहीं, हमने कभी इस पर बहस नहीं की. हमने सिर्फ ये सवाल उठाया कि क्या आपको किसी को भी बस से उतारकर मारने का अधिकार संविधान देता है? अगर वे आतंकी थे तो आपने उन्हें पकड़ लिया था. कोर्ट में पेश करते, फांसी दिलाते.’ वे आगे कहते हैं, ‘राज्य सरकार ने आरडी त्रिपाठी को वहां आतंकवाद से निपटने के लिए भेजा था. पर उन्हीं के नेतृत्व में इस नरसंहार को अंजाम दिया गया. बाद में वही आरडी त्रिपाठी एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में दावा करते है कि उन्होंने तराई में सब ठीक कर दिया. वे इस नरसंहार को अपनी उपलब्धि बताते हैं. अब इसे क्या कहा जाएगा? जब लोग निर्दोषों की हत्या करने को अपनी उपलब्धि मानते हैं और इसके लिए पुरस्कारों से नवाजे जाते हैं तो देश के इस सिस्टम पर अफसोस जताने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता.’ मृतकों में से एक मुखविंदर सिंह के पिता संतोख सिंह कहते हैं, ‘मेरा बेटा आतंकी था तो क्यों पुलिस उसके खिलाफ एक भी आपराधिक मामला साबित नहीं कर सकी?’ बस में लखविंदर सिंह नाम का एक किशोर भी था. उसकी उम्र तकरीबन 15 वर्ष थी. पीलीभीत के अमरिया में रहने वाले उनके भाई हरदीप बताते हैं, ‘हम तीन भाइयों में वे सबसे बड़े थे. स्कूल जाया करते थे और उसके बाद मेडिकल स्टोर पर बैठा करते थे. उन्हें उस वारदात को अंजाम देने वाले कई पुलिसकर्मी पहचानते थे. उस वारदात के प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया था कि जब पुलिसवाले उन्हें बस से उतारकर ले जा रहे थे तो उन्होंने उनसे पूछा भी था कि हमें तो आप पहचानते हो फिर भी क्यों ले जा रहे हो.’

इस मामले की पैरवी से जुड़े वकील परविंदर सिंह ढिल्लो बताते हैं, ‘उन लोगों का कोई आपराधिक रिकॉर्ड पुलिस के पास नहीं मिला था और न ही उनसे कोई हथियार बरामद हुआ था.’

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वहीं गुनहगारों को मिली सजा और मुआवजे की राशि से मृतकों के परिजन संतुष्ट नहीं हैं. वे चाहते हैं कि उन्हें फांसी की सजा हो और मुआवजे की राशि बढ़ाकर कम से कम 50 लाख रुपये की जाए. बलविंदर कहती हैं, ‘जिन्होंने मेरे पति और देवर की हत्या की, उन पर सीबीआई जांच चल रही थी. तब भी वे नौकरी में बने रहे और तनख्वाह पाते रहे. मेरा घर उजाड़कर उन्होंने अपना आबाद कर लिया. अगर मेरे पति और देवर जिंदा होते तो हमें दो वक्त की रोटी जुटाने में परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता. सरकार की ओर से 14 लाख रुपये का जो मुआवजा मिल रहा है उससे ज्यादा तो सुनवाई के दौरान हमारा खर्च हो चुका है.’ वह यह भी मांग करती हैं कि इन 25 सालों के दौरान सरकारी नौकरी में रहकर दोषी पुलिसवालोंको सरकार ने अब तक जितनी तनख्वाह दी है उसे वापस लिया जाए. मुआवजे की राशि को बढ़ाने के संबंध में कहलो कहते हैं, ‘मृतकों के परिजन बहुत ही दयनीय जीवन जी रहे हैं. फर्जी मुठभेड़ का शिकार पीलीभीत निवासी नरिंदर के परिरजनों को तो दो वक्त की रोटी के भी लाले हैं. 25 साल तक लड़ते-लड़ते वो सब गंवा चुके हैं और फर्जी मुठभेड़ में नरिंदर की मौत ने उन्हें तोड़कर रख दिया है. पीडि़तों की हालत देखते हुए उन्हें कम से कम 50 लाख रुपये तक का मुआवजा तो दिया ही जाना चाहिए.’ जहां तक फांसी की सजा का सवाल है तो सीबीआई के विशेष न्यायाधीश लल्लू सिंह अपने फैसले में साफ कर चुके हैं, ‘फांसी से अधिक दर्दनाक सजा उम्रकैद होती है जिसमें व्यक्ति एक बार नहीं बल्कि सलाखों के अंदर रहकर खुद को बार-बार मरा पाता है. उसकी दुनिया ही वहां सिमटकर रह जाती है.’

बहरहाल उत्तर प्रदेश के फर्जी मुठभेड़ों के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार 2010 से 2015 केे दरमियान राज्य में फर्जी मुठभेड़ की 782 शिकायतें दर्ज कराई गई हैं. जबकि सूची में दूसरे नंबर पर रहे आंध्र प्रदेश में इस अवधि में महज 87 शिकायतें दर्ज हुई हैं. इससे यूपी पुलिस के काम करने का तरीका समझा जा सकता है. यह फैसला अपने आप में ऐतिहासिक है जहां इतनी बड़ी संख्या में फर्जी मुठभेड़ में शामिल पुलिसवालों को सजा सुनाई गई है. इस फैसले के आने के बाद संभावना है कि पुलिस की मानसिकता में बदलाव आए.

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व्यथा कथा : 3 

‘असि मर जावांगे पर केस वापस न लांगे’

हरमिंदर सिंह के पिता अजीत सिंह (दाएं)
हरमिंदर सिंह के पिता अजीत सिंह (दाएं)

हरमिंदर सिंह उर्फ मिंटा और स्वर्णजीत की शादी को अभी सात महीने ही हुए थे. स्वर्णजीत को पांच महीने का गर्भ भी था. विदेश जाने के लिए हरमिंदर ने पासपोर्ट बनवाया था. स्वर्णजीत ने उनसे गुजारिश की कि आपके विदेश जाने से पहले क्यों न हम हुजूर साहिब जाकर मत्था टेक आएं. हरमिंदर राजी हो गए. पिता अजीत सिंह ने भी जाने की अनुमति दे दी. 15 दिन लंबी यह यात्रा उन दोनों की साथ की गई अंतिम यात्रा साबित हो जाएगी, यह किसी को नहीं पता था.

स्वर्णजीत अपनी जिंदगी के उस सबसे खौफनाक मंजर को याद करते हुए बताती हैं, ‘यात्रा पूरी कर वापस लौटते समय पीलीभीत के पास हमारी बस पुलिस ने रोक ली. फिर वो बस को अपने साथ ले जाने लगे. बाद में एक नहर के पास बस को रोक दिया गया. कई पुलिसवाले अंदर घुसे और सभी युवकों को नीचे उतारकर ले गए. सब कुछ इतनी जल्दबाजी में हुआ कि कुछ समझ नहीं आ रहा था. बुजुर्ग पुरुषों को उन्होंने बांध दिया था, उनके साथ मारपीट की. बस से उतारे गए युवकों को उन्होंने एक पुलिस वैन में चढ़ा दिया. हमारी चीख-पुकारों का उन पर कोई असर नहीं हो रहा था.’ स्वर्णजीत के अनुसार, उनकी बस को बंधक बना लिया गया था. पूरा दिन पुलिस की कई गाड़ियों के साथ बस सड़क पर दौड़ती रही. वे बताती हैं, ‘पता नहीं चल रहा था कि हम कहां घूम रहे हैं. रात को हमें एक गली के पास छोड़कर कहा गया कि पास में ही एक गुरुद्वारा है, वहां चले जाओ. मैंने हिम्मत करके उनसे अपने पति के बारे में पूछा तो वे बोले कि जल्द ही छोड़ देंगे. बस जैसा कहा है वैसा करते रहो. यहां से जाकर किसी को कुछ मत बताना.’ वे रूआंसे स्वर में कहती हैं, ‘उन्होंने कोई अपराध नहीं किया था तो मुझे भी लगा कि छोड़ देंगे. जैसा वे कह रहे थे, मैं उनका इंतजार करती रही. पुलिस बेगुनाह युवकों को भी मार सकती है ऐसा तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था. सुना था पुलिस तो रक्षा करती है पर वो लालच के लिए बेगुनाहों की हत्या भी करती है ऐसा कभी न देखा था, न सुना. वो पुलिस के हवाले थे तो उम्मीद तो यही थी कि वो सुरक्षित हैं.’

स्वर्णजीत ने दो दिन उसी गुरुद्वारे में बिताए. अगले दिन उनके ससुर उन्हें लेने आए. जब स्वर्णजीत ने उनसे हरमिंदर के बारे में पूछा तो वे बोले कि पहले तुम्हें घर छोड़ दें. वे बताती हैं, ‘उन्होंने मुझे कुछ नहीं बताया क्योंकि मेरी हालत ठीक नहीं थी, उन्हें पहली चिंता मुझे घर वापस पहुंचाने की थी. जब मैं घर पहुंच गई तो वे बोले तुम अपना ख्याल रखो, उन्होंने मिंटा को गिरफ्तार कर लिया है, जैसे तुमको ले आए हैं, उसको भी लेकर वापस आते हैं. उसके बाद वापस आने पर वे रोने लगे और मेरे हाथ में एक अखबार थमा दिया.’

गन्ना मिल में काम करने वाले 21 वर्षीय मिंटा को पुलिस की फर्जी मुठभेड़ में आतंकी ठहराकर मारा जा चुका था. उनकी मौत के बाद अजीत सिंह के घर के आर्थिक हालात बिगड़ने लगे. चार महीने बाद स्वर्णजीत ने एक लड़की को जन्म दिया लेकिन जिसके जन्म पर खुशी होनी थी वहां स्वर्णजीत के सामने सवाल खड़ा था कि वे अपनी बच्ची की परवरिश कैसे करेंगी. 20 साल की उम्र में स्वर्णजीत विधवा हो गई थीं और एक बच्चे को पालने का भार भी उनके कंधे पर था. वे सिलाई करके घर चलाने लगीं. बाद में अजीत सिंह ने अपने छोटे बेटे से उनकी शादी करा दी. आज हरमिंदर और स्वर्णजीत की बेटी पच्चीस साल की हो गई हैं. उसने नर्सिंग की पढ़ाई की है.

अजीत सिंह बताते हैं, ‘केस शुरू हुआ तो यूपी पुलिस ने पंजाब पुलिस से हम पर दबाव बनवाना शुरू कर दिया कि हम केस वापस लें. गवाही न दें. यहां का थानेदार मक्खन सिंह बार-बार हम पर दबाव बनाता था. आए दिन तंग करता था. हम बोले कि ‘असि मर जावांगे पर केस वापस न लांगे.’ वे मायूसी से कहते हैं, ‘फैसले में 25 साल लगे, इन 25 सालों में कितना पैसा लगता है? आज हरमिंदर की बेटी की शादी करनी है. हमारे पास तो अब इतना पैसा रहा नहीं है. उसकी बच्ची को अच्छी जिंदगी मिले बस यह तमन्ना है.’ [/symple_box]

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व्यथा कथा : 4 

परिवार का एक सदस्य अगर बेमौत मारा जाए तो पूरे परिवार की मौत हो जाती है

करनैल सिंह (बीच में) अपनी बहू परमजीत कौर के साथ सुनवाई में शामिल होने बीते दिनों लखनऊ आए थे
करनैल सिंह (बीच में) अपनी बहू परमजीत कौर के साथ सुनवाई में शामिल होने बीते दिनों लखनऊ आए थे

कहते हैं कि न्याय के इंतजार में पीढ़ियां गुजर जाती हैं. गुरदासपुर जिले के मानेपुर गांव निवासी करनैल सिंह के परिवार के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. उनके दो बेटे थे. बड़े बेटे सुरजन की उम्र 21 साल थी और छोटा 10 साल का था. सुरजन सिंह भी पीलीभीत पुलिस के उस अमानवीय कृत्य का शिकार बने थे. वे उस बस में अपनी मां के साथ मौजूद थे.

करनैल सिंह से जब ‘तहलका’ ने संपर्क साधा तो उनकी बहू परमजीत कौर से पता लगा कि वे साफ देख व सुन नहीं सकते. इसलिए अब इस लड़ाई को लड़ने की जिम्मेदारी उन्होंने अपने कंधों पर उठा रखी है. आगे परमजीत सिंह ने जो बताया, वह संवेदनाओं को झकझोरने वाला था. वे बोलीं, ‘सुरजन सिंह मेरे जेठ थे पर मैं कभी उनसे मिली नहीं. उनकी मौत मेरी शादी के 10 साल पहले ही हो गई थी.’ यह बोलते समय उनके चेहरे और जुबान पर दर्द साफ देखा जा सकता था. आगे हम कुछ पूछते उससे पहले ही वे बोल पड़ीं, ‘पुलिस की उस घिनौनी करतूत के बारे में मैंने अपने ससुर से जाना था. उस हादसे के बाद वे दिमागी रूप से कमजोर हो गए थे इसलिए मेरी सास जो उस घटना के समय बस में मौजूद थीं, वही कानूनी लड़ाई लड़ती रहीं. मेरे पति तब महज 10 साल के थे. ससुर की दिमागी हालत ठीक नहीं थी इसलिए घर और बाहर का सारा भार मेरी सास के कंधे पर आ गया जिसके दबाव में 1997 में उन्होंने भी दम तोड़ दिया. परिवार की आर्थिक हालत भी बिगड़ गई.’

उस हादसे ने करनैल सिंह से केवल उनका बड़ा बेटा ही नहीं छीना था. बल्कि इस घटना में यह परिवार ही टूट गया. वहीं करनैल सिंह के मन में यह भी डर बैठ गया था कि कहीं कोई उनके छोटे बेटे की भी हत्या न कर दे तो वे उन्हें अपनी आंखों से दूर कहीं नहीं जाने देते थे. कुछ सालों बाद उन्होंने उनकी शादी परमजीत से करा दी. इस बीच सदमे और डर के साये में रहकर मेरे  पति धीरे-धीरे अपना दिमागी संतुलन खो बैठे. परमजीत बताती हैं, ‘आज भी मेरे पति अपने भाई और मां के गम में डूबे रहते हैं. उनका दिमागी संतुलन ठीक नहीं है. शराब भी पीते हैं. हमारे पास इतना पैसा नहीं कि उनका इलाज करा सकें. जो जमीन-जायदाद और गहने थे वो सब या तो इस केस में बिक गए या फिर घर चलाने में. यही कारण था कि शादी के बाद इस मुकदमे की बागडोर लेने के लिए मैं बेबस थी. मैं न लेती तो कौन लेता और लड़ूं भी क्यों नहीं? आज मैं दूसरों के घर के बर्तन साफ कर घर चलाती हूं. यह सब उस 25 साल पुराने जख्म की देन है. आज मेरे पति को कोई सहारा देने या समझाने वाला नहीं है. इसलिए मन में आता है कि अगर मेरे जेठ होते तो उनकी ऐसी हालत नहीं होती. अब तो हम अकेले रह गए हैं. खुद ही जानते हैं कि कैसे समय काट रहे हैं, घर का भी करते हैं और बाहर का भी.’ आगे वे आरोपियों को मिली सजा के बारे में कहती हैं, ‘अगर परिवार का एक सदस्य बेमौत मारा जाए तो मौत पूरे परिवार की होती है. उन्होंने हमारे पूरे परिवार का कत्ल किया है, जो था वो सब छिन गया. उन्हें तो फांसी होनी चाहिए.’

बहरहाल करनैल सिंह भले ही साफ देख व सुन नहीं सकते, चलने के लिए भी उन्हें एक व्यक्ति के सहारे की जरूरत पड़ती है, लेकिन अपने बेटे सुरजन सिंह को न्याय दिलाने के लिए वे आज भी प्रतिबद्ध हैं. जिस दिन लखनऊ की सीबीआई कोर्ट आरोपी पुलिसवालों की सजा मुकर्रर करने वाली थी, उस दिन भी वे एक हजार किलोमीटर का सफर तय करके पंजाब से लखनऊ पहुंचे थे.[/symple_box]

छत्तीसगढ़ में एक तरफ अमीरों की सेना है, दूसरी तरफ आदिवासी

Photo : Tehelka Archives
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छत्तीसगढ़ की लड़ाई नक्सलवादियों के खिलाफ कतई नहीं है. यह खनिजों, जंगलों, नदियों पर कब्जे के लिए किया जाने वाला युद्ध है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि भारत में आजादी से लेकर आज तक अमीर कंपनियों के लिए सारी जमीनों पर कब्जा पुलिस की लाठी और बंदूकों के दम पर ही किया गया है. जहां नक्सली नहीं होते वहां भी सरकारी बंदूकों के दम पर गरीबों को डराकर या मारकर उनकी जमीनों पर कब्जा करके अमीरों को सौंपने का काम किया जाता. चाहे वह ओडिशा के जगतसिंहपुर में कोरियन कंपनी पोस्को के लिए जमीन छीनने का किस्सा हो या दिल्ली के नजदीक नोएडा में जमीन छीनने का मामला, हर जगह किसानों के घर जलाए गए, किसानों को मारा गया और जेलों में डाल दिया गया.

इसलिए हम सबको यह साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि छत्तीसगढ़ की लड़ाई भी खनिजों के लिए लड़ी जा रही है. इस लड़ाई में एक तरफ बड़ी कंपनियां हैं. कंपनियों की तरफ सरकार है, कंपनियों की तरफ सरकार की पुलिस है, कंपनियों की तरफ सरकार की अदालतें हैं और कंपनियों की तरफ मीडिया का एक बड़ा वर्ग है. इस युद्ध में दूसरी तरफ आम आदिवासी हैं. आदिवासी की तरफ गांधीवादी लोग भी हैं. वामपंथी लोग हैं. सही सोच वाले न्यायप्रिय लोग भी आदिवासियों की तरफ हैं. इत्तफाक से नक्सली भी आदिवासी की तरफ हैं.

सरकार एक चालाक खेल खेलती है. सरकार कहती है कि चूंकि नक्सली भी आदिवासियों की तरफ हैं इसलिए सारे आदिवासी नक्सली हैं. सरकार और ज्यादा चालाकी से कहती है कि चूंकि गांधीवादी और वामपंथी भी आदिवासियों की तरफ हैं इसलिए वामपंथी और गांधीवादी भी नक्सली हैं और इसलिए सारे सही सोचने वाले लोग भी नक्सली हैं.

सरकार अपनी चालाकी की आड़ में अपने सारे अत्याचारों और मानवाधिकार हनन को राष्ट्रहित में किया गया काम बताती है. सरकार कहती है कि चूंकि हम जनता की रक्षा करने के लिए नक्सलियों से लड़ाई कर रहे हैं इसलिए नक्सली समर्थक लोग सरकारी सुरक्षा बलों को बदनाम करते हैं.

लेकिन हकीकत यह है कि सरकारी सुरक्षा बल इन इलाकों में आदिवासियों को जमीनों से भगाने के लिए एक योजना के तहत अत्याचार कर रहे हैं ताकि आदिवासियों के दिलों में खौफ पैदा किया जा सके. आदिवासी महिलाओं के साथ सिपाहियों द्वारा सामूहिक बलात्कारों को एक रणनीति के तहत लागू किया जा रहा है. अभी हाल ही में कई सारे सामूहिक बलात्कार के मामले हुए हैं, जिनमें सिपाहियों के बचाव में पूरी सरकार लग गई है. मेरे द्वारा 500 से ज्यादा मामले सर्वोच्च न्यायालय को सौंपे गए हैं. लेकिन आज तक एक भी मामले में किसी सिपाही को सजा नहीं दिलाई जा सकी. मीना खलखो के साथ सामूहिक बलात्कार मामले में तो जांच आयोग ने भी बलात्कार की पुष्टि की. लेकिन एफआईआर होने के आठ महीने बाद भी आज तक किसी सिपाही को गिरफ्तार नहीं किया गया है. उलटा सोनी सोरी को थाने में ले जाकर उसके गुप्तांगों में पत्थर भरने वाले पुलिस अधिकारी को राष्ट्रपति वीरता पुरस्कार दिया गया.

इसलिए हमें साफ-साफ यह समझ लेना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में एक युद्ध चल रहा है. इसमें एक तरफ अमीरों की सेना है जो गरीबों की जमीनें छीनने के लिए भेजी गई है और दूसरी तरफ आदिवासी हैं. जो इस समय छत्तीसगढ़ में हो रहा है वैसा दुनिया के अनेक देशों में पहले हो चुका है. अमेरिका में लाखों नेटिव अमेरिकियों ने आदिवासियों की हत्या की और उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया.

कनाडा, आॅस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड समेत दुनिया के 65 देशों में आदिवासियों को मारकर उनकी जमीनों पर कब्जा किया गया है. हम भी जानते हैं कि अगर हमें कारों और शॉपिंग माल वाला ऐशो-आराम का जीवन चाहिए तो आदिवासियों की जमीनों को छीनना ही पड़ेगा. इसलिए हम अपने ‘लुटेरे’ सिपाहियों की तरफ हैं. इस युद्ध में कानून, नैतिकता, संविधान का कोई स्थान ही नहीं है. इसलिए जो आज संविधान और कानून की बात कर रहे हैं उन्हें देशद्रोही और नक्सली समर्थक कहा जा रहा है.

डर एक ही है कि अगर एक बार सरकार को इस तरह संविधान को कुचल-कर सफल होने की आदत पड़ गई तो फिर सरकार हर जगह इसी तरह से आतंक के माध्यम से अमीरों के लिए लूटपाट करेगी. सारे देश के किसानों की जमीनों पर इसी तरह बड़ी कंपनियों के लिए कब्जा करने का अभियान चलाया जाएगा. यानी अमीरों के फायदे के लिए गरीब पर हमला किया जाएगा और उस हमले को राष्ट्रवाद का नाम दे दिया जाएगा. फासीवाद ऐसे ही आता है और दशकों बाद हमें समझ में आता है कि हम असल में लुटेरे बन चुके हैं. छत्तीसगढ़ के माध्यम से हम देश के संविधान को ही बचाने की कोशिश कर रहे हैं.

राजनीति का नया कलाम, ‘जय भीम – लाल सलाम’

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Photo : IANS

जेएनयू में कथित देशविरोधी नारे को लेकर बवाल हुआ तो छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी से पहले उनके भाषण में ‘जय भीम, लाल सलाम’ का नारा शामिल था. उन्होंने अपने भाषण में कहा, ‘जब हम महिलाओं के हक की बात करते हैं तो ये (संघ-भाजपा के लोग) कहते हैं कि आप भारतीय संस्कृति को बर्बाद करना चाहते हो. हम बर्बाद करना चाहते हैं शोषण की संस्कृति को, जातिवाद की संस्कृति को, मनुवाद और ब्राह्मणवाद की संस्कृति को. आपकी संस्कृति की परिभाषा से हमारी संस्कृति की परिभाषा तय नहीं होगी. इनको दिक्कत होती है जब इस मुल्क के लोग लोकतंत्र की बात करते हैं, जब लोग लाल सलाम के साथ नीला सलाम का नारा लगाते हैं.’ उन्होंने भाषण खत्म किया तो ‘इंकलाब जिंदाबाद, जय भीम, लाल सलाम’ नारा लगाया. कन्हैया जेल से छूटे तो भी उनके भाषण में ‘लाल और नीले’ झंडे की एकजुटता का संदेश प्रमुखता से मौजूद था. इसके पहले हैदराबाद में रोहित वेमुला प्रकरण में भी यह नारा गूंज रहा था. हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, जेएनयू और अन्य विश्वविद्यालयों में घटी घटनाओं के बाद आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी संगठनों की नजदीकी पर चर्चा जोर पकड़ रही है. 

सत्ता में आने के बाद भाजपा ने लगभग सभी इतिहास-पुरुषों पर अपनी दावेदारी पेश की. इसकी शुरुआत सरदार पटेल से हुई थी और फिर इस कड़ी में गांधी, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, आंबेडकर आदि एक-एक कर जुड़ते गए. 14 अप्रैल को देश भर में आंबेडकर की 125वीं जयंती बड़े धूमधाम से मनाई गई, जिसे लेकर सभी राजनीतिक दलों ने भव्य आयोजन किए. इस दिन सोशल मीडिया पर भी आंबेडकर खूब सेलिब्रेट किए गए. इस सेलिब्रेशन में यह सवाल शामिल था कि ‘जय भीम और लाल सलाम’ की भविष्य की संभावनाएं क्या हैं.

आईआईएम इंदौर के शोधछात्र विनोद कुमार कहते हैं, ‘भारत में वामपंथियों की गलती यही थी कि वे इस देश में गरीबी की सबसे बड़ी वजह और हकीकत ‘जाति’ को उपेक्षित करते रहे (और इसी का फल भुगता है). अब अगर नई पीढ़ी समझ रही है, बदल रही है तो स्वागत कीजिए. पुरानी पीढ़ी के आधार पर हर पीढ़ी पर संदेह करना ही तो मनुवादी सोच है, हमें इसी से लड़ना है. खुद पर भरोसा रखिए. अगर इस देश के मनुवाद से लड़ना है तो सारी गैरमनुवादी ताकतों को एकजुट होना होगा; हमारी ताकत अपने हित को समझने में, हमारी समझ में होगी हमारे संदेह में नहीं. भारत में वामपंथ का मार्ग सही मायने में आंबेडकर की तरफ बढ़े बिना हासिल नहीं होगा.’

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आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद की सिंथेसिस की जरूरत है : अशोक कुमार पांडेय

वामपंथ और दलित राजनीति के बीच एक तरह का अंतः संबंध शुरू से रहा ही है. वाम आंदोलन सर्वहारा का पक्षधर है और इस देश के सर्वहारा वर्ग का सबसे बड़ा हिस्सा दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय से आता है, जो भूमिहीन है, कृषि मजदूर है और शहरी समाज के सबसे निचले तबके की नौकरियों में शोषण का शिकार है. आंबेडकर के समय से ही दोनों आंदोलनों को करीब लाने की कोशिशें हुईं, संवाद भी हुए लेकिन अगर एका नहीं बन सका तो उसके लिए दोनों के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां जिम्मेदार रहीं. वाम आंदोलन में शामिल कई तत्व जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्ति नहीं पा सके थे, पार्टी संवैधानिक और गैर-संवैधानिक तरीकों से इंकलाब की राहों को लेकर एक दिग्भ्रम जैसी स्थिति में रही और डॉ. आंबेडकर संविधान को लेकर आशान्वित थे, उनके नजरिये में यह दलित समुदाय को उसके अधिकार दिलाने के लिए एक महत्वपूर्ण जरिया था. बाद में नामदेव ढसाल जैसे विद्रोही दलित कवि ने मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद की एक सिंथेसिस करने की कोशिश की. राव साहब कसबे की किताब ‘मार्क्स और आंबेडकर’ इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल थी, लेकिन अलग-अलग वजहों से कोई ठोस पहल नहीं हो पाई. कम्युनिस्ट पार्टियां वर्ग की अपनी आर्थिक समझ को भारतीय परिस्थितियों में जाति से नहीं जोड़ पाईं, हालांकि दलितों पर होने वाले अत्याचारों को लेकर पार्टियों की पक्षधरता हमेशा साफ रही. बिहार, झारखंड, ओडिशा सहित जिन जगहों पर सीधे किसान संघर्ष चले, वहां भूमिहीन दलितों की एक बड़ी संख्या जुड़ी भी. दलित राजनीति भी रामदास अठावले से मायावती तक तमाम मोड़ पार करती रही. कभी उत्तर प्रदेश में भाजपा से गठबंधन हुआ, कभी महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ दोस्ती हुई. हिंदू राष्ट्र को दलितों के लिए सबसे खतरनाक बताने वाले डॉ. आंबेडकर के अनुयायियों के लिए यह विचलन सहज तो नहीं ही था.

आज के समय वामपंथ और आंबेडकरवाद के सामने सबसे बड़ी चुनौतियां हैं- आवारा पूंजी व जल-जंगल-जमीन की लूट और दक्षिणपंथी फासीवाद का उदय. रोहित वेमुला के साथ प्रशासन का व्यवहार और उसकी आत्महत्या इस संकट को बहुत स्पष्टतः व्यंजित करती है. जाति और आर्थिक वंचना का दंश साथ मिलकर इस संकट को इतना गहरा कर देता है कि संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखता. इसलिए लाल और नीले का साथ आना कोई चुनावी गठबंधन या सत्ता का खेल नहीं, देश की वंचित-दमित जनता की मुक्ति का सवाल है. यह ऐतिहासिक आवश्यकता है कि आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद की एक ऐसी सिंथेसिस प्रस्तुत की जाए जो भारत में मुक्ति के एक लंबे और फैसलाकुन संघर्ष के लिए आवश्यक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के लिए वैचारिक आधार दे सके. आज लेखकों-बुद्धिजीवियों और छात्रों के बीच इसे लेकर एक सहमति-सी बनती दिख रही है, देखना यह होगा कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व इसे कितनी गंभीरता से लेता है. आज अगर वह इस ऐतिहासिक मौके को चूकता है तो यह दोनों आंदोलनों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा.[/symple_box]

भागलपुर के एक कॉलेज में अध्यापक डॉ. योगेंद्र ने फेसबुक पर लिखा, ‘मैं इंतजार कर रहा हूं कि नीला और लाल कब और कहां मिल रहे हैं. जेल से लौटने के बाद जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया ने बयान दिया था. इससे नीला-लाल की बहस जोर पकड़ ली है. लाल के बड़े-बड़े नेता चुप मारे हुए हैं. लगता है कि ऐसा होने पर उनकी कुर्सी को खतरा है. यह सर्वेक्षण मजेदार होगा कि लाल के मौजूदा नेतृत्व में नीला कितना प्रतिशत है?’

इस बहस ने शायद आरएसएस-भाजपा को असहज स्थिति में ला दिया है क्योंकि दलितों और पिछड़ों का मार्क्सवादियों के साथ जाना भाजपा के लिए खतरे की घंटी है. आंबेडकर जयंती पर आरएसएस के मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ ने मार्क्स और आंबेडकर को साथ जोड़ने को ‘कुत्सित कृत्य’ बताकर उसकी कड़ी आलोचना भी कर डाली है.

इस नए समीकरण की चर्चा कैंपसों से बाहर लेखक समुदाय में भी है. रोहित वेमुला प्रकरण के बाद दिल्ली में पांच लेखक संगठनों ने ‘आजाद वतन, आजाद जुबान’ नाम से एक आयोजन शुरू किया है. यह आयोजन आंबेडकर की 125वीं जयंती की पूर्व संध्या पर भी गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में संपन्न हुआ. यह अपने आप में ऐतिहासिक है कि इन पांच संगठनों में तीन वामपंथी संगठन- ‘जनवादी लेखक संघ’, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘जन संस्कृति मंच’ हैं और दो दलित संगठन- ‘दलित लेखक संघ’ और ‘साहित्य संवाद’. इन संगठनों का कहना है, ‘भाजपा का हिंदूवादी राष्ट्रवाद प्रगतिशील, समाजवादी और दलित तबकों के लिए खतरा है जिससे मिलकर लड़ना ही कारगर उपाय हो सकता है.’

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इस कार्यक्रम में शरीक हुए जेएनयू छात्रसंघ महासचिव रामा नागा ने कहा, ‘सवाल यह नहीं है कि हमारे झंडे का रंग लाल है या नीला, सवाल यह है कि इन दोनों को मिलकर भगवा से लड़ना है. जिस तरह से हम पर हमले बढ़े हैं, ­­­हम साथ आने को मजबूर हुए हैं. सवाल लाल-नीले के विलय या एक हो जाने का नहीं, सवाल साथ मिलकर फासीवाद से लड़ने का है.’

आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद के साथ आने की इस नई परिघटना पर जेएनयू के शोधछात्र ताराशंकर कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि चूंकि एक बड़ी लड़ाई है पूंजीवाद के खिलाफ, जो आर्थिक गैर-बराबरी का मसला है, और जो तमाम तरह की गैर-बराबरी को जन्म देता है, उस बड़ी गैर-बराबरी के समानांतर इस तरह की हजारों लड़ाइयां हमें लड़नी होती हैं. जैसे कि जेंडर का मसला हो, जाति का मसला हो, छुआछूत का मसला हो, आजादी हो. इस तरह की तमाम समानांतर लड़ाइयां लड़नी होती हैं. चूंकि मार्क्सवाद एक जगह थोड़ा-सा फेल होता है कि जाति के मसले को चिह्नित नहीं कर पाया जो भारत में बहुत बड़ा मसला था. हालांकि, उसका भी आधार शुरू में आर्थिक रहा है, लेकिन बाद में वह मानसिक स्तर पर चला गया. इसलिए इसकी लड़ाई भी साथ-साथ लड़नी बहुत जरूरी है. इसलिए इस संबंध में आंबेडकर और मार्क्स का एक साथ आना बहुत जरूरी हो जाता है. हाल में कैंपसों में बड़ा ध्रुवीकरण हुआ है.’

भाकपा माले की कार्यकर्ता कविता कृष्णन आंबेडकरवादी और मार्क्सवादियों के साथ आने को वक्त की जरूरत बताते हुए कहती हैं, ‘क्योंकि आज जिस तरह से लोकतंत्र पर हमला हो रहा है, वह खतरनाक है. आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी ही नहीं, मुझे तो लगता है कि आंदोलनकारी जितनी ताकतें हैं, गांधीवादी भी, समाजवादी भी, आपस में बहसें करते हुए एकता को मजबूत कर सकते हैं. इसकी जरूरत सब महसूस कर रहे हैं. यह कोई बड़ी पार्टियों के स्तर से नहीं तय हुआ है. यह एकता स्वाभाविक रूप में आंदोलनों में बढ़ी है. क्योंकि जो हमला हो रहा है, वह काॅरपोरेट गाइडेड फासीवादी हमला है जिसमें वामपंथी और आंबेडकरवादी छात्रों को निशाना बनाया गया. दूसरी ओर कई दलित पार्टियां सत्ता में भागीदार भी हैं. तो जो युवा तबका है, उसे लगता है कि एक ऐसे राजनीतिक मॉडल की जरूरत है जो आंबेडकरवादी आंदोलन को आगे बढ़ाए और वामपंथी आंदोलन के साथ भी मजबूती स्थापित करे.’

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोधार्थी और आइसा के कार्यकर्ता रामायण राम कहते हैं, ‘यह भगत सिंह और आंबेडकर को एक साथ याद करने का समय है. क्योंकि उन्हीं के विचारों के आधार पर शोषणमुक्त समाज बन सकता है. आज जब राष्ट्रवाद की नई और संकीर्ण परिभाषा गढ़ी जा रही है तब आंबेडकर याद आते हैं. हमें उनकी संकल्पनाओं को स्वीकार करने की जरूरत है. आज वर्णव्यवस्था का समर्थन हो रहा है, भेदभावपूर्ण जातिवाद को संस्थाबद्ध करने की कोशिश की जा रही है. देश भर के विश्वविद्यालयों में जातीय युद्ध छेड़ा जा रहा है और ऐसा करने वाले भी आंबेडकर का नाम ले रहे हैं. जाति उन्मूलन ही बाबा साहब के राष्ट्रवाद का आधार था. बाबा साहब का कहना था कि दस सालों में लोकतांत्रिक ढंग से राजकीय समाजवाद लागू हो. हमें उनके इस सपने को लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है.’

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जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के शोध छात्र रमाशंकर सिंह का मानना है, ‘आज जब विश्वविद्यालयों में जय भीम, लाल सलाम का नारा लग रहा है तो इसे तात्कालिक रूप से ही नहीं देखना होगा. इसकी पृष्ठभूमि तैयार हो रही है. पिछले साल बांदा जिले में सम्मेलन हुआ जिसमें मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, अनीता भारती, आनंद तेलतुंबड़े ने हिस्सा लिया. इसमें प्रकाश करात भी आए थे. कहा गया कि किसान, मजदूर, दलित और स्त्री की मुक्ति के समान धरातल मार्क्स और आंबेडकर के बताए रास्ते से ही आ सकते हैं.’

इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एक शोध छात्रा अपना नाम न छापने की शर्त पर कहती हैं, ‘आज गहराते आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक संकट में आंबेडकरवादियों और मार्क्सवादियों का नजदीक आना जरूरी व स्वागत योग्य है. लेकिन इसके साथ ही कई सवाल भी हैं. आंबेडकरवाद सवर्ण वर्ग को ही अपना मूल शत्रु मानता है. निश्चित तौर पर, सवर्ण वर्चस्व व मानसिकता के खिलाफ संघर्ष जरूरी है, लेकिन क्या यह संघर्ष पूंजीवादी आर्थिक संकट, अभाव, शोषण व गैर-बराबरी, पूंजीवादी मुनाफे की लूट के खिलाफ भी होगा? मजदूर, किसान, कर्मचारी, छात्र-नौजवान, महिला- इनके कॉमन प्रश्न क्या आंदोलन के केंद्र बनेंगे? सामाजिक आंदोलनों से कटे रहने और अपनी गंभीर ऐतिहासिक गलतियों के चलते समाज में अपना प्रभाव नहीं बना पा रहे प्रमुख मार्क्सवादी दल बढ़ते फासीवादी खतरे से निपटने के लिए यह शॉर्ट कट अपना रहे हैं, ताकि समाज के एक हिस्से में अपनी जगह बना सकें.’

हालांकि, रमाशंकर इन नए गठजोड़ को लेकर आशान्वित हैं. वे कहते हैं, ‘एक तरफ आंबेडकर हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक संदर्भों में इस विचार को आगे बढ़ाते हैं कि लोकतंत्र से ही वंचना और बहिष्करण से मुक्ति मिलेगी, बराबरी और अधिकार से ही दुनिया समान होगी. तो दूसरे छोर पर मार्क्स हैं जो पूंजी और समाज के रिश्ते को समझाकर उसे आम जनता के पक्ष में लाना चाहते हैं. मार्क्स और आंबेडकर के अनुयायी समाज को आमूलचूल बदलना तो चाहते रहे हैं लेकिन वे ऐसी किसी दृष्टि का विकास करने में असफल रहे जो एक वैकल्पिक राजनीतिक समाज बना सके जिसमें दलित, मजदूर, स्त्री, अल्पसंख्यक का शोषण न हो. अब एक ऐसा समय है कि जहां युवा, किसान, मजदूर, दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक नवपूंजीवादी ब्राह्मणवादी सत्ताओं से दबाए जा रहे हैं और यही समूह इतिहास को एक नए रास्ते पर ले जाना चाहता है. जब रोजगार के अवसर सीमित हो रहे हैं, सरकारें अपनी सामाजिक और संवैधानिक जिम्मेदारियों से पीछे हटना चाह रही हों और उन्हें फासीवादी पूंजीवाद का सहारा मिल रहा हो तो आंबेडकर और मार्क्स की गतिकी से एक मदद मिल सकती है.’

दूसरी ओर आंबेडकर को अपनाने लेने के लिए मचे सियासी हड़कंप पर भी सवाल उठ रहे हैं. पत्रकार अजय प्रकाश ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा, ‘देश के आखिरी आदमी के नेता आंबेडकर की इतनी ऊंची बोली पहली बार लगी है. जिसे देखो वही आंबेडकर को अपनी ओर घसीट रहा है. समझ में नहीं आ रहा कि राजनीतिक पार्टियों का यह हृदय परिवर्तन उनको बाजार में नीलाम करने के लिए है या फिर मंशा कुछ और है. ऐसे में मैं इस आशंका से उबरने के लिए एक जानकारी चाहता हूं कि क्या आप 6 लाख गांवों के इस देश में ऐसे छह गांव भी जानते हैं जहां दलितों के साथ भेदभाव और छुआछूत नहीं होती? छह छोड़िए, एक ही बता दीजिए. अगर नहीं तो आंबेडकर को अपने-अपने पाले में घसीटना छोड़कर पहले एक ऐसा गांव बनाइए और भरोसा रखिए वहां आंबेडकर खुद चलकर आ जाएंगे. आपको खुद के आंबेडकरवादी होने की बांग नहीं देनी पड़ेगी.’

वामपंथ और आंबेडकरवाद के बीच कोई सियासी सामंजस्य हो सकता है या नहीं, भविष्य में राजनीतिक मोर्चा जैसी कोई संभावना हो सकती है या नहीं, इस सवाल पर पत्रकार और जेएनयू के शोध छात्र दिलीप मंडल कहते हैं, ‘दलित आंदोलन की तरफ से  मार्क्सवाद की तरफ कोई हाथ बढ़ाया गया हो, इसके मुझे कोई संकेत नहीं दिखे हैं. मार्क्सवादी पार्टी के रहते हुए आंबेडकर ने अपनी पार्टी बनाई थी. उसकी जरूरत महसूस की थी. उनके लिए जाति का सवाल बहुत जरूरी था, सामाजिक लोकतांत्रिक समाज बने, यह सवाल बहुत जरूरी था. चूंकि लेफ्ट ने इस इश्यू को सीधे-सीधे कन्फ्रंट नहीं किया, इसलिए इस पार्टी की जरूरत महसूस की गई थी. आप कांशीराम को देखेंगे तो उन्होंने भी एक प्रयोग किया. वाम पार्टियों के रहते हुए भी आंबेडकरवादी आंदोलन का स्पेस था और लोगों ने अपने ढंग से काम करने की कोशिश की. नई चीज जो हुई है कि लेफ्ट ने पहली बार, अपने हाशिये पर चले जाने के दौर में, ये कोशिश की है कि जाति के सवाल को एड्रेस करें. पहली बार उन्होंने जातियों के सवाल पर सम्मेलन किए. पार्टी का ढांचा बदलने की बात की, हालांकि अभी तक हुआ ऐसा कुछ नहीं है कि जो सवर्ण वर्चस्व था पार्टी में उसको तोड़ने की कोशिश की हो. कुल मिलाकर एक नई प्रक्रिया शुरू हुई है. मुझे लगता है कि इस पर नजर रखनी चाहिए कि चीजें कहां तक जाती हैं. अभी यह दोतरफा प्रक्रिया नहीं है. उधर से चार कदम आगे बढ़े तो इधर से एक कदम कोई बढ़ाए, ऐसा मुझे नहीं दिखता. कैंपसों में जरूर वाम और आंबेडकरवादियों के बीच एक सिंथेसिस बना है, लेकिन कैंपस में वाम पर दलित लोग बहुत भरोसा कर रहे हैं, ऐसा लगता नहीं है.’

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साथ-साथ ? आंबेडकर जयंती पर आयोजित एक कार्यक्रम में भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य

आजादी की लड़ाई के समय से ही आंबेडकर की अपनी अलग लड़ाई रही थी, क्योंकि वे जातीय शोषण और भारतीय समाज की विषमता को खत्म किए बगैर दलित समाज की मुक्ति को असंभव मान रहे थे. इसलिए मार्क्सवाद से भी उनकी दूरी बनी रही. मार्क्सवादी रुझान के दलित लेखकों को यह उम्मीद है कि अगर मार्क्सवादी अपने विचारों और संगठनों में कुछ संशोधनों के साथ दलितों को जगह दें तो दोनों मिलकर बेहतर राजनीतिक विकल्प बन सकते हैं. लेखक कंवल भारती कहते हैं, ‘मार्क्सवादियों ने आंबेडकर के जमाने में उनको नकार दिया था, लेकिन आज उनको स्वीकार करने के लिए विवश हो रहे हैं वोट की राजनीति की वजह से. आंबेडकर ने तो जब लेबर पार्टी बनाई थी, उस समय कहा था कि जितनी भी सोशलिस्ट ताकतें हैं, वे सब हमारे साथ आ जाएं और मिलकर एक जॉइंट फ्रंट बनाएं. लेकिन उस समय तक कोई भी उनके साथ खड़ा होने को तैयार नहीं था. आज से 20-25 साल पहले नंबूदरीपाद तक आंबेडकर को साम्राज्यवाद का पिट्ठू कह रहे थे. आज वही वामपंथी आंबेडकर के साथ आने को कह रहे हैं तो इसका मतलब है कि उन्होंने आंबेडकर को भारतीय संदर्भ में समझने की कोशिश की है. मैं तो शुरू से कहता हूं कि वामपंथी विचारधारा जब तक भारतीयकरण नहीं करेगी अपनी राजनीति का, तब तक वह इस देश में विकल्प नहीं बन सकती.’

राजनीतिक संभावनाओं के सवाल पर कंवल भारती कहते हैं, ‘बाबा साहब पूरे मार्क्सवादी थे, पूरे समाजवादी थे. वे चाहते थे कि सब समाजवादी ताकतें मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाएं. अगर ऐसा हुआ होता तो सत्ता कांग्रेस के हाथ में आती ही नहीं. लेकिन ऐसी ताकतें कांग्रेस की पिछलग्गू थीं.’

वामपंथी बुद्धिजीवियों के बीच भी इस मसले पर बहस छिड़ चुकी है. मार्क्सवाद हर समस्या के मूल में वर्ग को देखता है तो आंबेडकरवाद जाति के सवाल के बिना आगे नहीं बढ़ता. हाल ही में बांदा में प्रकाश करात के बयान पर प्रतिक्रिया स्वरूप लेखक अरुण माहेश्वरी ने एक लेख में लिखा है, ‘मार्क्सवाद किसी भी संरचना के लक्षणों की, उसकी दरारों की पहचान कराता है. जाति से अगर वर्ग बनते हैं तो जातियों का अंत वर्ग का अंत नहीं हो सकता. यह एक संरचना का टूटना और उसकी जगह दूसरी संरचना का निर्माण है. इसीलिए कम्युनिस्टों ने जातिवाद के विरोध के साथ ही वर्ग संघर्ष पर हमेशा बिल्कुल सही बल दिया है. जातिवाद का खात्मा तो पूंजीवाद के विकास से भी होगा, लेकिन जातिवाद के अंत से पूंजीवाद का अंत नहीं होगा… आज जो लोग कम्युनिस्ट आंदोलन में आए गतिरोध के कारण जातिवाद के मसले के प्रति कम्युनिस्टों के नजरिये में किसी प्रकार के दोष में देख रहे हैं, वे पूरे विषय को सिर के बल खड़ा कर रहे हैं. कम्युनिस्ट आंदोलन को अपनी विफलता के कारण अपनी राजनीतिक कार्यनीति और सांगठनिक नीतियों की कमियों में खोजना चाहिए. मुश्किल यह है कि ऐसा करने पर पार्टियों के प्रभावी नेतृत्व की क्षमताओं पर सवाल उठने लगेंगे, जो कोई करना नहीं चाहता.’

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वामपंथियों ने कभी सामाजिक प्रश्न पर विचार नहीं किया : अभय कुमार दुबे

वामपंथी पार्टियों ने कभी सामाजिक प्रश्न पर पुनर्विचार नहीं किया. पार्टियों की जो लाइन तय की जाती है उसमें सामाजिक प्रश्न नहीं आए, जबकि आरएसएस इस पर व्यवस्थित तरीके से काम कर रहा है. वह वैदिक ज्ञान और आधुनिक संविधान में एक सूत्र स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. वामपंथी सही सवाल क्यों नहीं उठा रहे? वे दलितों के सवाल से बचते क्यों हैं? दलितों के सवाल बड़े जटिल हैं, क्योंकि वे असुविधा पैदा करते हैं. कम्युनिस्ट पार्टियां दलित विमर्श और आंबेडकर के विचारों के जरिए अपना पुनर्संस्कार कर पाएं, इसके लिए तो उन्हें अपने विचारों में संशोधन करना चाहिए.

सीपीआई एमएल ने थोड़ा-सा वर्ग से अलग हटकर दलित महासभा बनाने का भी प्रयोग किया था. लेकिन उनका प्रयोग दो महीने नहीं चला. ऐसा क्यों हुआ? ये सीपीआईएमएल वही पार्टी है जिसको, जब मैं दिल्ली आया था तब दिल्ली के वामपंथी सर्किल में चमार पार्टी कहा जाता था. तो ऐसी पार्टी जिसे गरीबों और भूमिहीन दलितों का समर्थन हासिल था, उसने दलित महासभा बनाई तो वह दो महीने भी नहीं चली. इसकी सीधी वजह यह है कि जब तक आप सिर्फ वर्ग के सवाल पर फंसे रहेंगे तब तक न तो जाति के सवाल पर गंभीरतापूर्वक सोचेंगे, न ही जेंडर के साथ गंभीरता से विचार कर पाएंगे.

जो हो रहा है वह तो ऐतिहासिक है. मैं पिछले तीस सालों से राजनीति में दिलचस्पी रखता हूं, जो हो रहा है, ऐसा कभी नहीं देखा. लेकिन इसकी सीमा है कि ये छात्रों तक सीमित है. ये अभी कैंपस पॉलिटिक्स तक ही सीमित है. ज्यादा से ज्यादा बाहर जो कुछ बुद्धिजीवी वर्ग तक है, जो छात्रों के मुखातिब बहुत कम होता है. छात्रों में भी यह उन छात्रों तक सीमित है जिनमें से बहुत-से अब छात्र नहीं रहे. इस चीज का अगर हम लोग लाभ उठाना चाहते हैं और इस मुद्दे पर कोई ठोस और दीर्घकालिक राजनीति करना चाहते हैं, तो इस बारे में राजनीतिक दलों को सोचना पड़ेगा. जब तक राजनीतिक दल इस विषय पर नहीं सोचेंगे, तब तक यह मसला केवल लेखक संघों और छात्रसंघों द्वारा ही संचालित किया जा सकता है. और राजनीतिक दल कब सोचेंगे, कैसे सोचेंगे, ये मुझे नहीं पता. राजनीतिक दल अपनी सोच और अपनी स्थापित राजनीति बड़ी मुश्किल से बदलते हैं. उनको सामाजिक रूप से बहुत बड़ा धक्का लगता है तब वे अपनी रणनीति बदलते हैं. अभी मुझे नहीं लगता कि ऐसी स्थिति आई है कि वे इस दिशा में सोचें. इसका जो तुरंत राजनीतिक लाभ होगा, मुझे लगता है कि भाजपा रोहित वेमुला प्रकरण से पहले परमानेंट एलेक्टोरल बैलेट डेफिसिट के साथ आती थी और वो था अल्पसंख्यकों का घाटा. उसके पास अल्पसंख्यकों का घाटे का खाता था. अगर स्थिति इसी तरह से आगे बढ़ती रही और भाजपा अपनी कुल्हाड़ी से अपने पैर काटने की कोशिश करती रही तो उसका एक दूसरा परमानेंट डेफिसिट का खाता खुल जाएगा, वह है दलितों का खाता. अब देखने की बात है कि आगे क्या होगा.

(राजनीतिक विश्लेषक हैं. लेखक संगठनों के कार्यक्रम में दिए वक्तव्य के अंश)
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