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महात्मा गांधी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाए

कमोबेस भारत का हर नागरिक क्रिकेट और राजनीति का महारथी होता है. उसी तरह हमारे यहां लगभग हर व्यक्ति महात्मा गांधी के बारे में कोई न कोई राय जरूर रखता है, फिर चाहे वह अच्छी हो या बुरी. गांधी अक्सर लोगों के बीच बहस का विषय भी बनते हैं और बहस में जब गांधी विरोधी परास्त होने लगते हैं तब अक्सर ही वह कहानी सामने आती है जिसके सहारे उनके विरोधी गांधी वध को जायज ठहराने की हद तक चले जाते हैं. कहानी यूं है- ‘गांधी ने भारत सरकार को ब्लैकमेल करके पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलवाए थे.’ महात्मा गांधी द्वारा पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलवाने की बात सुर्खियों में तब आई जब गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे ने अदालत में अपने बयान में गांधी की हत्या की वजहें गिनवाते हुए इन रुपयों का भी जिक्र किया. गांधी विरोधियों का कहना है कि कश्मीर में पाकिस्तान की तमाम आक्रामक गतिविधियों और घुसपैठ के बावजूद गांधी ने अनशन करके भारत सरकार पर यह दबाव बनाया कि वह पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की आर्थिक मदद दे. मिर्चमसाले के तौर पर कहानी में यह भी जोड़ा जाता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल कतई नहीं चाहते थे कि पाकिस्तान को यह मदद दी जाए लेकिन महात्मा गांधी ने उपवास करके ये 55 करोड़ रुपये पाकिस्तान को देने को मजबूर कर दिया.


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यह सच है कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की राशि दी गई थी लेकिन मदद का प्रचार एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया है जो कि मिथ्या है. पाकिस्तान को दी गई मदद खैरात नहीं थी बल्कि भारत-पाक के विभाजन की शर्तों के मुताबिक परिसंपत्तियों और देनदारियों का जो बंटवारा हुआ था उसके तहत यह राशि भारत द्वारा पाकिस्तान को सौंपी जानी थी. वास्तव में पाकिस्तान को 75 करोड़ रुपये दिए जाने थे. 20 करोड़ रुपये की पहली किस्त पाकिस्तान को जारी की जा चुकी थी जबकि 55 करोड़ रुपये देने बाकी थे. इसी बीच कश्मीर पर पाकिस्तानी हमले की वजह से भारत ने 55 करोड़ की शेष राशि का भुगतान रोक दिया था. इस पर तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने महात्मा गांधी से मुलाकात की और कहा कि यह पाकिस्तान के साथ हुई संधि का उल्लंघन होगा. उसूलों के पक्के गांधीजी को उनकी बात जंची सो उन्होंने सार्वजनिक वक्तव्य देकर कहा कि पाकिस्तान को उसका बकाया पैसा दे दिया जाना चाहिए. यह बात निराधार है कि गांधीजी ने यह पैसा दिलवाने के लिए उपवास किया. गांधीजी विभाजन के बाद शांति बहाली की अपील करने पाकिस्तान भी जाना चाहते थे लेकिन उसके पहले वे पाकिस्तान को उसका पूरा हक दिलवाना चाहते थे.

सरदार पटेल प्रधानमंत्री बनते तो भारत हिंदू राष्ट्र बन जाता

sardar_patelयह कथा बनारस के अस्सी घाट पर बातचीत में तल्लीन दो पुलिसकर्मियों के बीच से निकल कर आई. इस कहानी में दो खलनायक और एक बेचारा रूपी नायक है जो प्रधानमंत्री बनने से रह गया. दोनों पुलिस बंधुओं के बीच कथा कुछ ऐसे आगे बढ़ी की आजादी के समय पूरा देश और पूरी कांग्रेस पार्टी मिलकर सरदार बल्लभ भाई पटेल को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी. सरदार पटेल बहुत ही निडर, जीवटवाले और इरादों के पक्के नेता थे. वे न होते तो जितना भारत आज बचा हुआ है वो भी नहीं बच पाता. जवाहरलाल नेहरू तो प्रधानमंत्री बनने के लालच में थे. उनका बस चलता तो इस देश के कई और टुकड़े हो जाते. वो तो सरदार पटेल अड़ गए अपनी बात पर कि पाकिस्तान के अलावा दूसरा हिस्सा नहीं मिलेगा मुसलमानों को. पाकिस्तान मुसलमानों का देश बनेता तो भारत हिंदूराष्ट्र बनेगा. पटेलजी की इस बात पर पूरी कांग्रेस पार्टी उनके साथ हो गई और उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाने पर एकराय हो गई थी. तब जवाहरलाल नेहरू ने गहरी चाल चली. वे गांधीजी को अपने वश में रखते थे. गांधीजी के साथ मिलकर उन्होंने खुद को प्रधानमंत्री घोषित करवा लिया. महात्मा गांधी का कद बहुत बड़ा था, उनकी बात कोई नहीं टालता था. इसी का फायदा नेहरू ने उठाया. भारत हिंदूराष्ट्र भी नहीं बन पाया और आज देखिए पाकिस्तान जब मन करता है आंख दिखाने लगता है. भारत का सारा गुड़गोबर नेहरूजी के प्रधानमंत्री पद की लालच की वजह से हुआ.


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यह सच है कि आजादी के समय गांधीजी के बाद नेहरू और पटेल सबसे कद्दावर नेता थे. दोनों के बीच में कई विषयों को लेकर टकराव भी रहते थे. लेकिन कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि कांग्रेस पार्टी ने पटेलजी को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित किया हो. न ही कभी पटेल भारत को हिंदूराष्ट्र बनाने का सपना देखते थे. एक बार को यह मानकर चीजों को परखें कि पटेल अगर प्रधानमंत्री बनते तो भारत का चेहरा अलग होता तब भी यही बात साबित होती है कि कमोबेश जैसा भारत आज है वैसा ही रहता. इसकी वजह ये है कि 15 दिसंबर 1950 को सरदार पटेल की स्वाभाविक मृत्यु हो गई. यानी स्वतंत्र भारत का पहला लोकतांत्रिक चुनाव होने से पहले ही पटेल का देहांत हो चुका था. उनकी अनुपस्थिति में दूसरे सबसे बड़े कद के नेता एक बार फिर से जवाहरलाल नेहरू ही सामने आते. और जितने लंबे समय तक नेहरू देश के प्रधानमंत्री रहे उसे देखते हुए एक दो साल कम या ज्यादा होने पर भी भारत का मौजूदा चेहरा कुछ खास अलग होता यह मानने की ठोस वजह नहीं मिलती.

संजय गांधी की मौत के पीछे इंदिरा गांधी का हाथ

sanjay_gandhiराजनीति में न कोई मां-बाप होता है, न कोई बेटा-बेटी. बीती सर्दियों में आजमगढ़ के निजामाबाद बाजार में आग ताप रहे आठ-नौ लोगों के एक समूह में यह कहानी संजय गांधी और इंदिरा गांधी के संदर्भ में एकदम नए सिरे से सुनने को मिली. संजय गांधी की मौत एक ट्रेनर विमान दुर्घटना में हुई थी. हादसा दिल्ली के सफदरजंग एयरपोर्ट के पास हुआ था. संजय की मौत के बाद से यह कहानी जितने मुंह उतने तरीके से सुनने को मिलती रही है कि कहीं न कहीं इस हत्या के पीछे उनकी मां इंदिरा गांधी का हाथ था. तो आग ताप रहे झुंड के बीच इस कथा की शुरुआत कुछ इस तरह से हुई कि संजय गांधी मुसलमानों के घनघोर विरोधी थे. आलम यह था उस जमाने में कि कमलनाथ समेत उनके कुछ डॉक्टर साथी खुद हाथों में उस्तरे लेकर दिल्ली के तुर्कमान गेट के इलाके में रात-बिरात घूमा करते थे और अगर ऐसा कोई मुसलमान उन्हें मिल जाता जिसकी नसबंदी नहीं हुई होती थी तो वे उसकी लगे हाथ नसबंदी कर देते थे. उनका मानना था कि कई-कई शादियां करने की वजह से मुसलमानों की आबादी देश में बढ़ती जा रही थी. संजय का जलवा सिर्फ यहीं नहीं था. उस समय इंदिराजी की सरकार में भी उन्हीं की तूती बोलती थी. कांग्रेसी नेता और मंत्री प्रधानमंत्री कार्यालय की बजाय सफदरजंग मार्ग स्थित प्रधानमंत्री आवास, जहां संजय गांधी रहते थे वहां से सारी जरूरी फाइलें पास करवाते थे.

धीरे-धीरे संजय की यह मनमानी इंदिरा गांधी की सियासत और देश की एकता-अखंडता के लिए खतरा बनने लगी. संजय के खिलाफ शिकायतों का अंबार इंदिरा के दरबार में लगने लगा. संजय और उनके साथियों की अजब-गजब करतूतें सामने आती मसलन कभी रात में किसी की कार उठा लेना तो कभी किसी लड़की को छेड़ देना. मतलब यह कि हर दिन के साथ इंदिरा के सामने अपने बेटे की कारगुजारियों का पहाड़ बड़ा ही होता जा रहा था. अंतत: हर दिन की किचकिच से आजिज आकर इंदिरा गांधी ने एक हवाई जहाज दुर्घटना के जरिए अपने ही बेटे की हत्या का षडयंत्र रचा ताकि अपनी राजनीति को जिंदा रख सकें. इस तरह से 23 जून 1980 की वह मनहूस सुबह आ गई जब इस षडयंत्र को अंजाम दिया गया. संजय गांधी के साथ उस ग्लाइडर विमान में एक और साथी था, उसकी भी मौत हो गई.


गौर फरमाएं

संजय गांधी की मौत पर गढ़ी गई ये कहानी उन तमाम कहानियों का एकमात्र संस्करण है. इस दुर्घटना पर कई लेखकों ने जमकर अपनी लेखनी चलाई है. वरिष्ठ पत्रकार और आउटलुक पत्रिका के संपादक रहे विनोद मेहता ने अपनी किताब द संजय स्टोरी में उनकी मौत की घटना की बारीक पड़ताल की है. अगर इस पड़ताल से किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाय तो यह लापरवाही से, बिना किसी जरूरी प्रशिक्षण और योग्यता के विमान चलाने का मामला था. विमान चलाने का जूनून संजय में ताजा-ताजा पैदा हुआ था. यह बात सर्वविदित है कि संजय थोड़ा झक्की और जिद्दी स्वभाव के थे. वे हर बार जरूरी सुरक्षा उपायों की अनदेखी करते थे. जिस दिन उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ उस दिन भी संजय कोल्हापुरी चप्पल और पजामा-कुर्ता पहनकर विमान उड़ा रहे थे. साफ बात है कि विमान उड़ाने जैसी बहुत ही विशेषज्ञता का काम बेहद लापरवाही से करने का नतीजा था संजय गांधी की मौत.

सप्तमो अध्याय समाप्ते !

sdfबिहार के कुछ ब्राह्मण नेताओं से बात कीजिए और उनकी बातों पर गौर कीजिए. बहुत दिलचस्प जवाब मिलते हैं उनसे. मिसाल के तौर पर जगन्नाथ मिश्र से पूछें कि फिलहाल तो किसी सवर्ण या ब्राह्मण के हाथ सत्ता की बागडोर आने की गुंजाइश नहीं दीखती, इसके जवाब में वे कह उठते हैं- अरे! क्यों नहीं. राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है. मिश्र तमिलनाडु का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘देखिए, वहां दलित राजनीति होती है लेकिन दलितों की नेता तो जयललिता ही हैं न! फिर बिहार में ऐसी स्थिति क्यों नहीं हो सकती है? जयललिता ब्राह्मण हैं लेकिन दलितों की नेता हैं. एक और बड़े ब्राहमण नेता हैं जयनारायण त्रिवेदी. वे ब्राह्मण समाज के प्रमुख हैं और जदयू के उपाध्यक्ष भी रहे हैं. फिलहाल वे केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के कोषाध्यक्ष हैं. इससे आगे बढ़कर वे अतीत में झांकते हैं और फिर कहते हैं, ‘देखिए ब्राह्मणों ने हमेशा से चाणक्य की भूमिका निभाई है और भविष्य में भी वे इस भूमिका में सक्रिय रहेंगे. चाणक्य के बगैर सत्ता चल ही नहीं सकती.

एक नेता प्रेमचंद मिश्र हैं. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं. वे बताते हैं कि असल में बिहार के ब्राह्मणों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया इसलिए उनकी दुर्गति हो रही है. वे बुनियादी तौर पर ब्राह्मणों के विरोधी रहे लालू प्रसाद के साथ कांग्रेस से किनारा करके जाते रहे. प्रेमचंद मिश्र कहते हैं जिस दिन ब्राह्मण फिर से कांग्रेस के साथ आ जाएंगे, उसी दिन से उनका भाग्य बदल जाएगा.

आप अलग-अलग ब्राह्मण नेताओं से बात कीजिए, आपको सभी मंगल ग्रह से बात करते हुए नजर आएंगे. मानों वे राजनीति के मैदान से दूर आभासी संसार रचने में जुटे हों. वे चाणक्य से लेकर अब तक बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों की राजनीतिक भूमिका बता देंगे. वे हकीकत से अनजान बने रहना चाहते हैं. बिहार को वे बार-बार चाणक्य की कर्मभूमि बताते हैं. चंद्रगुप्त को बनाने में चाणक्य की भूमिका को रेखांकित करते हैं लेकिन सच तो यह है कि उसी बिहार में जीतन राम मांझी प्रकरण के बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व में जो सरकार बनी है, उस मंत्रिमंडल में एक भी ब्राह्मण शामिल नहीं है. संभव है कि यह आजादी के बाद का पहला मंत्रिमंडल है जिसमें एक भी ब्राह्मण नहीं है. इस मंत्रिमंडल को देखते हुए यह बात पानी की तरह साफ हो चुकी है कि बिहार की राजनीति में कभी ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा होगा लेकिन अब उन्हें तवज्जो देने न देने से कोई फर्क नहीं पड़नेवाला. राज्य की राजनीति के लिए अब ‘वे सबसे निष्क्रिय व अनुपयोगी समूह में तब्दील हो चुके हैं.

दिलचस्प यह है कि जाति की राजनीति के खोल में समा चुकी या समाने को बेचैन बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों को एक सिरे से बाहर कर देने का मसला महत्वपूर्ण नहीं है. हां, सवर्णों के नाम पर राजनीतिक गलियारे मंे रोज-ब-रोज बात जरूर हो रही है. नीतीश कुमार पहले तो सवर्णों के लिए सवर्ण आयोग बनाकर अपनी राजनीति साधने में लगे हुए थे लेकिन मांझी सवर्णों के लिए अलग से आरक्षण का पासा फेंक चुके हैं. इस बिगड़े समीकरण में अगड़ी जातियों को एक सवर्ण समूह में बदलने के बाद ब्राह्मणों का नुकसान सबसे ज्यादा हुआ है.

गौरतलब है कि बिहार में सवर्ण जातियों में आबादी के आधार पर सबसे बड़ी जाति ब्राह्मणों की है लेकिन जिस बिहार में चाणक्य को एक प्रतीक मानकर बार-बार ब्राह्मणों को श्रेष्ठ रणनीतिकार बताया जाता रहा है और जिस बिहार में कई ब्राह्मण नेताओं ने बतौर मुख्यमंत्री और मंत्री रहकर लंबे समय तक राज किया है आज वहां ओबीसी राजनीति के उभार के बाद अतिपिछड़ों व दलित-महादलितों की राजनीति के उभार के दौर में ऐसा क्या हो गया कि सवर्ण समूह की तो हैसियत बढ़ी लेकिन ब्राह्मण इतने उपेक्षित या अनुपयोगी होते गये? राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि  बताते हैं कि सवर्णों के समूह में ब्राह्मणों को हाशिये पर धकेल दिया जाना बहुत स्वाभाविक है. यह वह समूह है, जो कुख्यात लोगों को पैदा नहीं कर सकता. दबंगों को पैदा नहीं कर सकता फिर राजनीतिक पार्टियों के लिए क्यों उपयोगी बना रहेगा? मणि कहते हैं- ‘बिहार की राजनीति में ब्राह्मण एक ही बार सबसे महत्वपूर्ण रहे हैं. यह एक मिथ गढ़ लिया गया है कि कांग्रेस के समय में ब्राहमणों की चलती थी. वह कहते हैं कि 30 के दशक में जायेंगे तो कायस्थों का वर्चस्व कांग्रेस में था. उसके बाद भूमिहारों व राजपूतों का आया. बाद में इंदिरा गांधी ने जब नये राजनीतिक समीकरण बनाये तो उसमें ब्राहमणों को अलग किया और ब्राह्मणों के साथ पिछड़े, दलितों व मुसलमानों को मिलाकर सत्ता की सियासत के लिए एक नया समीकरण बनाया जो हिट हुआ. इसे लेकर सवर्णों की ही दूसरी जातियों में ब्राह्मणों से ईर्ष्या बढ़ी. मणि कहते हैं कि बिहार में जेपी (जयप्रकाश नारायण) आंदोलन के समय ब्राह्मणों को दरकिनार कर दिया गया था. जेपी आंदोलन के समय इस तरह का एक नारा चला था- लाला, ग्वाला और अकबर के साला वाली जाति की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है. मणि संभावना टटोलले हुए कहते हैं कि बिहार में अब आगे दूसरे रूप में ब्राह्मणों का राजनीतिक महत्व बढ़ने की गुंजाइश दिखाई देती है क्योंकि जीतन राम मांझी ने दलित राजनीति के नये अध्याय की शुरुआत कर दी और दलित जब राजनीति में अपना आयाम तलाशेगा तो अतिपिछड़ों के साथ ब्राह्मणों का ही समीकरण बनाना उसके लिए सबसे बेहतर होगा. ब्राह्मणों को दलितों के नेतृत्व का साथ देना होगा और इससे ब्राह्मण समूह को कोई परेशानी भी नहीं होगी. ऐसा पहले भी होता रहा है.

राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन ने बातचीत में कहा, ‘ब्राह्मणों को ऐतिहासिक सम्मोह छोड़ना होगा. वे अब भी अतीत में जी रहे हैं इसलिए उनकी यह गति तो होनी  थी. रही बात भूमिहार और राजपूतों को तवज्जो मिलने की तो उसकी एक वजह यह है कि इन दोनों अगड़ी जातियों का एक हिस्सा समाजवादी और वामपंथी आंदोलन में सक्रिय भूमिका में रहा इसलिए उनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. सुमन कहते हैं कि एक और बात पर आप गौर करें कि 1980 से 90 के बीच ब्राह्मणों का वर्चस्व बिहार की राजनीति में रहा और रामलखन सिंह यादव जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को दरकिनार कर विंदेश्वरी दुबे और भागवत झा ‘आजाद’ को मंत्री और मुख्यमंत्री बनाया गया था.  यह प्रकृति और राजनीति का नियम है कि शीर्ष पर पहुंचने के बाद ढलान की बारी आती है. कुछ वर्षों बाद ओबीसी राजनीति का भी पराभव काल शुरू होगा जिसकी दस्तक सुनायी देने लगी है.

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कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रेमचंद मिश्र का मानना है कि जिस दिन ब्राह्मण पार्टी के साथ हो जाएंगे उस दिन हमारे भाग्य बदलने लग जाएंगे   

sasasबिहार में कुछ जो चर्चित ब्राह्मण नेता हुए, उसमें कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके प्रजापति मिश्र, ललित नारायण मिश्र, विनोदानंद झा, जगन्नाथ मिश्र, विंदेश्वरी दुबे, केदार पांडेय, भागवत झा ‘आजाद’ आदि का नाम लिया जाता है. इसमें कुछ मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचे. ये सभी कांग्रेसी रहे. समाजवादी नेताओं में रामानंद तिवारी एक बड़े नाम हुए लेकिन उनकी पहचान ब्राह्मण नेता की नहीं रही. बाद में उनके बेटे शिवानंद तिवारी भी राजनीति में आये और चर्चित रहे लेकिन उनकी पहचान भी ब्राहमण नेता की नहीं रही. समाजवादी राजनीति में ब्राह्मण नेताओं की उपस्थिति कभी ‘ब्राह्मण’ की नहीं रही. जेपी आंदोलन में भी ब्राह्मणों की भूमिका वैसी नहीं रही. जो खुर्राट ब्राह्मण नेता हुए, कांग्रेसी पृष्ठभूमि के रहे और वे धीरे-धीरे अपने ही कुनबे में सिमटते गये. भागवत झा ‘आजाद’ की राजनीतिक फसल उनके बेटे कीर्ति झा  ‘आजाद’ के सांसद बनने तक सिमट गयी. ललित नारायण मिश्र के परिवार से उनके बेटे विजय मिश्र जदयू से विधान परिषद के सदस्य हैं, विजय मिश्र के भी बेटे ऋषि मिश्र जदयू के कोटे से ही विधायक हैं लेकिन नीतीश कुमार की पार्टी में उनकी हैसियत भी बस एक विधान पार्षद या विधायक भर की है. इसी परिवार से ताल्लुक रखनेवाले जगन्नाथ मिश्र के परिवार की कहानी कुछ अलग है. जगन्नाथ मिश्र खुद कई बार मुख्यमंत्री रहे, बाद में जब कांग्रेसी राजनीति के दिन लद गये तो अपनी राजनीति बचाये रखने के लिए नीतीश के संगी-साथी बने, फिर अपने बेटे नीतीश मिश्र की सियासत को चमकाने में ऊर्जा लगाते रहे. नीतीश मिश्र मंत्री भी बने. अब जगन्नाथ मिश्र और उनके बेटे जीतन राम मांझी खेमे में हैं. जदयू खेमे में एक संजय झा का नाम बीच-बीच में आता रहा और कहा जाता रहा कि वे नीतीश कुमार के रणनीतिकारों में से हैं. लेकिन अब संजय झा भी हाशिये पर भेजे गये नेता से मालूल पड़ रहे हैं.

जदयू खेमे की बात छोड़ अगर राजद की बात करें तो वहां रघुनाथ झा ब्राह्मण नेता के तौर पर रहे लेकिन उनकी भी हैसियत कभी ऐसे ब्राहमण नेता की नहीं बन सकी, जिसकी राज्यव्यापी अपील हो. अब तो वे पूरी तरह पराभव की ओर अग्रसर हैं. भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय ब्राह्मण समुदाय से जरूर हैं लेकिन अपनी पार्टी में भी उनका वैसा प्रभाव नहीं, जैसा कि दूसरों का है. कहा जाता है कि वे आपसी गुटबाजी में इस्तेमाल करने के लिए बनाये गये अध्यक्ष हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता अश्विनी चौबे हैं जो भागलपुर से विधायक थे. वे राज्य में मंत्री भी थे, फिलहाल ब्राह्मण बहुल संसदीय क्षेत्र बक्सर से सांसद हैं. वैसे यह भी सच है कि बिहार से वर्तमान समय में दो सांसद ब्राह्मण हैं और दोनों भाजपा के ही हैं. प्रदेश अध्यक्ष भी ब्राह्मण हैं, इसलिए भाजपा भी राजनीतिक तौर पर ब्राह्मणों को अपने खेमे का मतदाता मानकर निश्चितंता की मुद्रा में ही है.

ब्राहमण समाज से ताल्लुक रखनेवाले बीएन तिवारी उर्फ भाईजी भोजपुरिया कहते हैं कि ब्राह्मणों की अगर आज राजनीतिक पूछ घटी है तो उसके लिए खुद ब्राह्मण नेता ही जिम्मेवार हैं. कभी किसी ब्राह्मण नेता ने भूमिहारों, राजपूतों या दूसरी जातियों की तरह गोलबंद करने की कोशिश नहीं की, जिसके चलते ब्राह्मण हमेशा बिखरे रहे और कभी इस खेमे में तो कभी उस खेमे में जाते रहे और आज वे इस स्थिति में पहुंच गए हैं.

स्वतंत्र पत्रकार अमित कहते हैं कि 90-95 तक ब्राहमणों का वर्चस्व रहा लेकिन उसके बाद वे उपयोग किये जाते रहे और उसके बाद तो उन्हें कठपुतली की तरह नचाया जाता रहा और वे नाचते भी रहे. भाजपा में भी यदि मंगल पांडेय अगर प्रदेश अध्यक्ष बने हैं तो ऐसा उनकी कोई राज्य स्तरीय अपील के कारण संभव नहीं हुआ. अपना मकसद साधने के लिए उन्हें मोहरे की तरह इस्तेमाल में लाया गया. अमित कहते हैं कि बिहार में ब्राह्मण राजनीति की नियति बस इतनी ही  है कि सभी नेताओं को अपने-अपने क्षेत्र में समेटकर रखा जाता रहा है और एक-दूसरे को आपस में ही लड़ाकर कभी किसी को तो कभी किसी को आगे किया जाता रहा है. अमित कहते हैं कि आप खुद ही देख लीजिए कि बक्सर में लालमुनी चौबे भाजपा के बड़े नेता थे. वे लगातार ब्राह्मण बहुल बक्सर से चुनाव लड़ते रहे, जीतते रहे. वे बहुत पहले ही विधायक दल के नेता भी बने थे. लेकिन एक बार कम वोट से लोकसभा चुनाव क्या हारे तो उन्हें दरकिनार करने के लिए ब्राह्मण नेता अश्विनी चौबे को वहां ले जाया गया और उनकी राजनीति खत्म की गई. अमित कहते हैं कि ब्राह्मणों का इस्तेमाल सभी दल इसी तरह करते रहे हैं. लालू प्रसाद ने भी राधानंदन झा को अपने साथ बनाये रखा और उन्हें चाणक्य और पता नहीं क्या-क्या कहा गया लेकिन राधानंदन को एक समय के बाद उपेक्षित किया गया.

जदयू के एक वरिष्ठ और नीतीश कुमार के करीबी नेता कहते हैं कि नीतीश के मंत्रिमंडल में अभी कोई ब्राह्मण नहीं है तो अचरज की क्या बात. इससे पहले भी नीतीश कुमार ऐसा करते रहे हैं. 2009 में भी लोकसभा चुनाव में उन्होंने एक भी ब्राह्मण को टिकट नहीं दिया था. ऐसा क्यों? नीतीश कुमार क्यों सवर्णों में भूमिहारों के प्रति और लालू प्रसाद यादव राजपूतों के प्रति दीवाने दिखते हैं जबकि नीतीश के मतदाताओं में ब्राह्माणों ने भी उनका उतना साथ दिया है जितना भूमिहार मतदाताओं ने. इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. जदयू के वरिष्ठ नेता रहे और लालू-नीतीश दोनों के साथ रह चुके वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने इस संवाददाता से बाचतीत में कहा कि इसमें अचरज की कोई बात नहीं है. लोकतंत्र में सियासत के समीकरण तो बदलते रहते हैं.

जगन्नाथ मिश्र कई बार मुख्यमंत्री रहे लेकिन दिन लदे तो नीतीश कुमार के साथ लग गए आैर अपने बेटे नीतीश मिश्र की सियासत चमकाने में ऊर्जा लगाते रहे

बिहार की सियासत का जातीय समीकरण यह कहता है कि सवर्णों में ब्राह्मणों की आबादी करीब चार प्रतिशत है. ब्राह्मणों से थोड़ी कम आबादी भूमिहारों की है. लगभग तीन प्रतिशत राजपूत हैं और एक प्रतिशत के करीब कायस्थ. फिर ब्राह्मण समुदाय के बीच आज एक ऐसा बड़ा नेता नहीं है जो राजनीति में उनकी इस दुर्गति का जवाब दे! जवाब फिर वही मिलता है-बिहार में इस समय समाजवादियों की राजनीति का युग है. जेपी आंदोलन से निकले नेताओं का युग है. जेपी आंदोलन के दौरान ब्राह्मणों के वर्चस्व को खत्म करने का व्यापक अभियान चलाया गया, जिसका असर मानों अब हो रहा है. अब इतिश्री रेवाखंडे हो चुका है तो संभव है कि एक बार फिर से बिहार में नये किस्म से राजनीति की शुरुआत हो तो शायद ब्राह्मणों की भूमिका बढ़े लेकिन फिलहाल यह भी दिल बहलानेवाले एक खयाल की तरह ही लग रही है…

वे, जो अपने डर से हार गए

गोविंद पानसरे (26 नवंबर 1933 - 20 फरवरी, 2015)
गोविंद पानसरे (26 नवंबर 1933 – 20 फरवरी, 2015)

बहुत नहीं थे सिर्फ़ चार कौए थे काले/उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़नेवाले/

उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खाएं और गाएं/वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनाएं.

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की उपरोक्त पंक्तियां एकाएक मन में कौंध गई जब से काॅमरेड गोविंद पानसरे की हत्या की खबर सुनी. इन  मुट्ठीभर काले कौओ की हमेशा से यही चाल रहती है कि जो उनके तयशुदा नियमों को तोड़ेगा वह उसका जीना मुहाल कर देंगे. हमारे देश के ये कौए भी ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले से लेकर शंकर गुहा नियोगी, एमएफ हुसैन ….  और हाल ही में नरेंद्र दाभोलकर  और अब काॅमरेड पानसरे तक को अपने प्रतिगामी तयशुदा नियमों के तहत बांधना चाहते थे. डराना चाहते थे.  जब हरा नहीं पाए, बांध नहीं पाए तो धमकाने पर उतर आए. और जब इससे भी बात नहीं बनी तो हर तरह से हैरान-परेशान किया. इन काले कौओं ने कभी पत्थर चलाए तो कभी चित्र फाड़े और इससे भी मन नहीं भरा तो कायरों की तरह छुपकर वार कर भागे. दरअसल यह इनके भीतर का डर है जो किसी न किसी शक्ल में सामने आता है. काॅमरेड पानसरे की कायरतापूर्ण हत्या के पीछे भी यही डर काम कर रहा था. पर हमेशा की तरह ये भूल गए कि तर्कपूर्ण विचार, कायरतापूर्ण हत्यारी कार्रवाईयों से मारे नहीं मरता है, इतना अवश्य होता है कि ये कायर हर बार अपने इस डर से हार जाते हैं. सो, अभी ये कौए अपने अच्छे दिनों का भले ही त्यौहार मना लें पर इनकी हार निश्चित है. इतिहास का कूड़ेदान इनकी प्रतिक्षा में है.

गोविंद पानसरे से कौन डरता है

इसी 16 फरवरी की सुबह जब महाराष्ट्र के कोल्हापुर से 82 वर्षीय काॅमरेड पानसरे को गोली मारे जाने की खबर आई तो देश की प्रगतिशील, बहुजन, लोकतांत्रिक और साम्यवादी जमातों में एक भारी रोष की लहर पैदा हुई. इसी सब के बीच एक अहम बात की फिर से तस्दीक हुई कि देश, इतिहास और जन विरोधी जमात एक सच्चे और तर्कशील व्यक्ति से कितना डरती है. याद रहे कि काॅमरेड पानसरे अपने लगभग साठ वर्ष के सार्वजनिक जीवन में इन्हीं पूंजीवादी, सांप्रदायिक और जातिवादी शक्तियों के खिलाफ आवाज बुलंद किए हुए थे. छत्रपति शिवाजी को संकीर्ण हिंदुवादी ताकतों द्वारा गौ-ब्राह्मण प्रतिपालक हिंदु राजा साबित करने की भरपूर कोशिशों को पानसरे की लिखी चर्चित पुस्तिका शिवाजी कौन था,  ऐतिहासिक तथ्यों और तार्किक दलीलों से ध्वस्त कर देती है। संक्षिप्त किंतु सारगर्भित कलेवर लिए यह पुस्तिका अनेक भाषाओं में अनुवादित होकर व्यापक तौर पर पढ़ी गई है। पानसरे द्वारा एक जगह लाकर रख दिए ऐतिहासिक तथ्य पुष्टी करते हैं कि शिवाजी आम जनता के पालक थे न कि कोई धर्मांध राजा जो अपनी प्रजा में भेद करता है. यही नहीं बहुजन मुक्ति के प्रतीक शाहूजी महाराज की क्रांतिकारी विरासत को चर्चा में लाने और मिसाल बनाने का महत्वपूर्ण काम भी पानसरे ने शिद्दत के साथ किया। गोडसेवादी उनसे डरने लगे थे क्योंकि वे उनकी तथाकथित सामाजिक समरसता की पोल खोल रहे थे.

कोल्हापुर में शहरी सीमा के भीतर ही आने-जाने के लिए वसूले जानेवाले टोल टैक्स के वे घोर विरोधी थे. इसके खिलाफ एक सशक्त आंदोलन चलाए हुए थे. ऐसे अभियानों के कारण धनपति और बाहुबलि गिरोह उनके विरोधी थे. सांप्रदायिक दुराग्रहों और दक्षिणपंथी आर्थिक सोच के बीच पनपे और मजबूत होते जा रहे गठजोड़ को वे खुली चुनौती दे रहे थे. हाल ही में नाथूराम गोडसे को जिस तरह राष्ट्रभक्त करार देने की घृणित कोशिशें तेज हुई हैं, पानसरे उसके प्रबल विरोधी तो थे ही, उस सोच के पोले पन को सतत बेनकाब करने में भी लगे हुए थे. सो अंदाज लगाना क्या मुश्किल है कि इस दुनिया में उनके न रहने से किस तरह की ताकतों का हित सध सकता है. ऐसे कितने उदाहरण हमारे सामने हैं जो यह बताते हैं कि पानसरे हिंदुत्ववादी और पूंजीवादी ताकतों के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुके थे. उनकी सक्रियता ही फासीवादी ताकतों की आंख की किरकिरी बनी हुई थी. कायरों ने वही किया जो वे कर सकते थे. अब हमें कुछ करना है.

पानसरे की हत्या एक व्यक्ति की हत्या भर नहीं है. वह तर्कशील विचार परंपरा को नष्ट करने की कोशिश है. पानसरे की हत्या के बाद और हत्याएं ना हों, इसलिए  जरूरी है कि समाज के विचारशील, संवेदनशील, समतावादी लोग और समूह संगठन चुप ना बैठें। सांप्रदायिकता, जातिवाद, कायरता, हिंसा, गैर बराबरी की खिलाफत करे। जरूरी है सब मिलकर अस्तित्व की मुद्दे पर बल दें,  भ्रामक अस्मिता पर नहीं। ऐसा कार्य हो, यही काॅमरेड पानसरे को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

असली दोषी कौन

काॅमरेड पानसरे की हत्या प्रगतिशील राष्ट्र के लिए एक बड़ा हादसा है. साथी नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों की तलाश और उन पर कोई कार्यवाई न होते हुए फिर इस मार्क्सवादी नेता पर इसी प्रकार से हमला होना बहुत कुछ संदेश दे रहा है।  दाभोलकर और कॉमरेड पानसरे पर हमला एक ही तरीके से हुआ है. हालांकि, अभी तक की कानूनी कार्रवाई में यह साफ नहीं हुआ है कि पानसरे की हत्या के असली हत्यारे कौन हैं लेकिन आज के राजनीतिक और सामाजिक हालत पर नजर डालें तो समझ में आता है कि इस कायरतापूर्ण हत्याकांड के पीछे असली षडयंत्रकारी कौनसी ताकतें हो सकती हैं. यह वही मुट्ठीभर लोग हैं, जो जाति और धर्म के नाम पर गर्व व अस्मिता का मुद्दा बनाते हैं. वही दोषी हैं. इनमें पूंजीपति और धर्मपति दोनों का गठजोड़ साफ दिखता है. दाभोलकर की हत्या का समर्थन, ‘अपने कर्मों से ही उन्हें मौत आ गई’ यह कहकर करनेवाले तथा ‘पानसरे भी दाभोलकर के ही मार्ग से जाएंगे’ यह कहकर धमकानेवाले भी महाराष्ट्र में ही हैं। खुले या छुपे राजनीतिक  समर्थन-संरक्षण भी इन्हें प्राप्त है. इन्हें पहचानना कठिन नहीं है. सवाल है इन्हें कानून की जद में लाने का.

जमशेदपुर की जकड़न

जमशेदपुर लंबी और असहज खामोशी का शहर है. इस भयावह चुप्पी को तोड़ने का जरिया टाटा स्टील में हर रोज काम शुरू होने और फिर खत्म होने के बाद बजनेवाला सायरन है. स्टील सिटी के लोगों के लिए सब कुछ, खास तौर पर उनका रोजगार, टाटा स्टील के इर्द-गिर्द ही घूमता है. विडंबना है कि शहर के लोग अक्सर खामोश ही रहते हैं और बातचीत का प्रयास करने पर धीरे से मुस्कुराते हुए निकल जाते हैं. ऐसा आपके साथ जरूर होगा अगर आपने किसी जमशेदपुरवासी से टाटा स्टील के बारे में बात करने की कोशिश की, मसलन कैसे देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने ने जमशेदपुर के अतीत पर काबिज होकर इसकी प्राकृतिक संपदा का दोहन किया और शहरवासियों को बेदर्दी से शोषण के अंतहीन चक्र में फंसा दिया.

सबसे पहले मिलते हैं फागु सोरेन से. इस शहर के लाखों गरीब लोगों में से एक. फागु सोरेन जमशेदपुर के मूल निवासियों में से हैं, लेकिन अब शहर के बाहरी इलाके में रहते हैं. सोरेन सुवर्णरेखा नदी के किनारे टीन के एक घर में रह रहे हैं. इस घर का फर्श कीचड़ से सना है और बांस के सहारे प्लास्टिक लगाकर घर की छत खड़ी की गई है. फरवरी की दोपहर, सोरेन सुवर्णरेखा नदी, जिसका अर्थ ‘सोने की नदी’ है, के किनारे गुमसुम बैठे हैं. उनके एक हाथ में सामान से भरा पुराना थैला और दूसरे हाथ में पुरानी टोपी है. सोरेन की उम्र बमुश्किल 40 साल होगी, लेकिन वह उम्र से कहीं अधिक बड़े नजर आते हैं. सोरेन ज्यादा बोल नहीं रहे लेकिन उनकी आंखें अभी से ही नम हो गईं. सोरेन की गमगीन आंखें अन्याय और शोषण को स्थापित करने का पहला जरिया-भर हैं.

अगर सोरेन को मौका मिले तो वह मुझे, आपको और जो भी उनकी कहानी सुनना चाहे उन्हें बताएंगे कि स्वघोषित ‘इस्पात से भी मजबूत हमारे उसूल’ की बात करने वाली कंपनी ने कैसे उनकी रोजी-रोटी छीन ली. रोजगार छीनने के साथ ही कंपनी ने उनके शहर की प्राकृतिक संपदाओं का भरपूर दोहन किया और उनके पुरखों के गृहनगर को जानलेवा वायु प्रदूषण से भर दिया. सोरेन ने लोगों को अपनी दर्दनाक कहानी से आगाह करने की जगह चुपचाप बिना किसी प्रतिरोध के गुमनामी की जिंदगी का रास्ता अपना लिया. इसकी वजह है कि सोरेन के पास विकल्पों का अभाव था, या फिर कह सकते हैं कि कोई विकल्प था ही नहीं. सोरेन देश में टाटा के सबसे बड़े स्टील प्लांट वाले शहर की जहरीली गैस से प्रदूषित हवा में सांस लेने के लिए मजबूर हैं. इंसान के लिए नुकसानदेह सुवर्णरेखा नदी के पानी को पीने के लिए इस्तेमाल करना उनकी मजबूरी है. सोरेन की आंखें अनायास ही दलमा की उन पहाड़ियों की तरफ उठ जाती हैं, जो कभी हरी-भरी और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर थीं. इसी पहाड़ी के तले कभी उनके पूर्वजों ने जन्म लिया और कई पीढ़ियों ने जिंदगी बिताई. अब दलमा की ये पहाड़ियां कठोर चट्टानों में तब्दील हो चुकी हैं.

सोरेन इन त्रासदियों के बाद भी ज्यादा नहीं बोलते. वह सिर्फ सुनते हैं-सरकारी अधिकारियों को, टाटा स्टील के पदाधिकारियों को, पर्यावरणविदों को और पत्रकारों को. ये सभी लोग भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बनाने की बात करते हैं, भूमि कानूनों के न होने पर चिंता जाहिर करते हैं, नागरिक सुविधाओं के अभाव, पर्यावरण के दूषित होने और कॉरपोरेट चालाकियों की बात करते हैं. इन सबके बाद भी सोरेन की स्थिर चुप्पी नहीं टूटती है. ‘इस्पात से भी मजबूत उसूल’ की बात करनेवाले टाटा स्टील के लिए लगता है कि ‘उसूल’ महज 3000 करोड़ के विज्ञापन तक ही सीमित है. टाटा ग्रुप ऑफ कंपनीज के संस्थापक जमशेदजी नसरवानजी टाटा के नाम पर बने शहर जमशेदपुर की जमीनी हकीकत कुछ अलग है. 3.72 लाख करोड़ की अनुमानित लागतवाली टाटा कंपनी के विज्ञापन, भारतीय औद्योगिक घरानों से खुद को अलहदा कहनेवाली, पूंजीवादी नैतिकता और सामाजिक सरोकार की बातें जमशेदपुर के निवासियों के लिए एक क्रूर मजाक हैं. साथ ही यह उस दावे का भी मजाक उड़ाती है, जो टाटा ग्रुप के पूर्व चेयरमैन रतन टाटा ने ‘नैनो’, जिसे आम आदमी की कार भी कहते हैं, के बारे में किया था. रतन टाटा ने कहा था कि एक बार बारिश में 4 सदस्यों के परिवार को उन्होंने स्कूटर पर भीगते देखा था. इसे देखकर वह इतने द्रवित हो गये कि उन्हें एक सस्ती ‘आम आदमी के लिए’ कार बनाने की प्रेरणा मिली.

 

कानूनी कवच और टालमटोल

एक क्रूर पहलू यह भी है कि कानूनी दांव-पेंच और जटिल कानूनी प्रक्रियाओं के सहारे टाटा समूह ने जमशेदपुर शहर के लोगों को उनके द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित कर रखा है. जमशेदपुर में कोई नगर निगम नहीं है. हालांकि फैक्ट्रियों के इस शहर में निर्वाचित नगर निगम के लिए 1967 से ही कोशिशें चल रही हैं. लेकिन टाटा समूह ने भ्रामक कानूनी प्रक्रियाओं और याचिकाओं के सहारे लंबे समय से नगर निगम की स्थापना की सभी कोशिशों को सफलतापूर्वक रोके रखा है. स्टील सिटी में नागरिक सुविधाओं के दायरे में आनेवाली चीजें मसलन सड़कों का निर्माण, सीवरेज, ड्रेनेज, पानी की आपूर्ति, स्ट्रीट लाइट लगाने जैसे काम टाटा की व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर हैं.

जमशेदपुर प्रशासन की राह में मूल समस्या उसके लीज समझौते के प्रावधान हैं, जिन्हें जानबूझकर एक पक्ष में रखा गया है. इसके नियम और शर्तें संदिग्ध नजर आती हैं. 37,000 एकड़ क्षेत्रवाले जमशेदपुर में समझौते के तहत टाटा स्टील का लगभग इसके आधे हिस्से पर अधिकार है और यहां के निवासियों को मूलभूत नागरिक सुविधाएं मुहैया कराना टाटा की जिम्मेदारी है.

2011 के जनगणना आंकड़ों के तहत जमशेदपुर पूर्वी भारत में कोलकाता और पटना के बाद तीसरा सबसे बड़ा शहर है. 13 लाख की आबादीवाले इस शहर का प्रशासन जमशेदपुर नोटिफाइड एरिया कमिटी (जेएनएसी) के तहत होता है. जमशेदपुर शहरी समुदाय के तहत यू/ए (यूए) सिटी की श्रेणी में आता है. यह दस लाख से ऊपर के शहरों के लिए मिलता है. इसमें जमशेदपुर शहर जिसकी आबादी छह लाख है, मैंगो (नोटिफाइड एरिया कमिटी के तहत) क्षेत्र जिसकी आबादी करीब दो लाख से अधिक और आदित्यपुर की नगर पंचायत जिसकी आबादी 1.7 लाख है, के क्षेत्र इसमें समाहित हैं. यह फैक्ट्री क्षेत्र में आता है और इस आबादी की स्पष्ट जिम्मेदारी किसी की भी नहीं है.

आज स्थिति यह है कि जमशेदपुर के भीतरी इलाकों में पड़नेवाली टेल्को कॉलोनी जैसी कुछेक संभ्रांत कॉलोनियों और उसके आस-पास के लोगों का ही नागरिक सुविधाओं पर एकाधिकार है. इन इलाकों में रहनेवाले लोगों के पास बड़े बंगले, हरे-भरे बगीचे, खूबसूरत पार्क, पानी से भरे तालाब और मुख्य सड़क से जोड़नेवाली चमचमाती सड़कें हैं. वहीं दूसरी तरफ शहर की एक बड़ी आबादी टूटे-फूटे घरों में रह रही है. इन घरों की दीवारों पर प्लास्टर तक नहीं है, टूटी नालियों से कचरा बहता है और बरसात में छतों से पानी टपकता है, सड़कें भी खस्ताहाल हैं. हवा में फैला जहरीला प्रदूषण नुकसानदायी स्तर से भी कई गुना ज्यादा है.

जमशेदपुर टाटा स्टील फैक्ट्री की विशालकाय परछाई तले जीता है. फैक्ट्री से रोज निकलने वाले टनों अलग-अलग रंग के धुएं की उल्टी से शहर का आकाश सफेद रंग से ढंका रहता है. धुंध भरी सुबहों के साथ दिन की शुरुआत होती है और अंत तारों से खाली रात के आकाश के साथ होता है. इस शहर के लोग हर वक्त पानी और दूसरी कई बीमारियों से होनेवाले डर में जीते हैं. टाटा स्टील प्लांट के आस-पास (आधा दर्जन से अधिक जगहों) पर कचरे का ढेर लगा है और लोग उस दमघोंटू बदबू से गुजरकर बच्चों को स्कूल छोड़ने जाते हैं. शहर के 12 लाख से अधिक लोग नागरिक सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं. स्टील सिटी का यह हिस्सा जरूरी सुविधाओं के बिना जीने के लिए अभिशप्त हैं.

आश्चर्य की बात है कि जमशेदपुर में स्थिति ऐसी क्यों बनी हुई है? सवाल यह भी है इस शहर में नागरिक सुविधाओं को बहाल करने के लिए देशभर में कहीं से कोई आवाज क्यों नहीं आती? टाटा स्टील कानूनन शहर में नागरिक सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए जिम्मेदार है, संवैधानिक तौर पर भी और कॉरपोरेट-सोशल उत्तरदायित्व के तहत भी. इसके बावजूद विरोध के स्वर नदारद क्यों हैं? इन सवालों के जवाब के लिए हमें लगभग एक दशक से भी पीछे जाना होगा और जमीनी स्तर पर टाटा का विशाल भवन कैसे डगमगाते हुए खड़ा है, इसकी पड़ताल करनी होगी.

जमशेदपुर में टाटा स्टील प्लांट की स्थापना 1907 में की गई थी. 21 जून 1924 को नोटिफिकेशन नंबर 5960 के तहत जमशेदपुर को अधिसूचित क्षेत्र घोषित किया गया था. 21 अगस्त 1989 को स्थानीय नागरिक जवाहरलाल शर्मा की ओर से दाखिल 1988 की रिट याचिका (सिविल) नंबर 154 की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने की थी. जस्टिस सब्यसाची मुखर्जी, एस. रंगनाथन और कुलदीप सिंह की इस पीठ ने रेखांकित किया था, ‘यह हमारे ध्यान में लाया गया है कि 1967 में बिहार और उड़ीसा नगर निगम अधिनियम 1922 की धारा 390A के तहत बिहार सरकार ने जमशेदपुर के अधिसूचित क्षेत्र को नगरनिगम में बदलने की मंशा जाहिर की थी. मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद 1973 में जमशेदपुर को नगरनिगम में बदलने का विचार रद्द कर दिया गया था हम इस पक्ष में हैं कि याचिका में उठाए गए बिंदुओं, तथ्यों और प्रस्तुतियों के आलोक में बिहार सरकार को इस मामले पर नए सिरे से विचार करना चाहिए. हम सरकार को निर्देश देते हैं कि वह इस तारीख से आठ सप्ताह के भीतर उक्त अधिनियम की धारा 390A के तहत जमशेदपुर को नगरनिगम में बदलने की मंशा की घोषणा के संबंध में एक अधिसूचना जारी करे.’

इसके बाद जमशेदपुर में नगरनिगम बनाने के लिए 23 नवंबर 1990 को बिहार और उड़ीसा नगरनिगम अधिनियम 1922 की धारा 390A के तहत एक अधिसूचना जारी की गई थी. हालांकि 11 जनवरी 1991 को टिस्को (टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड, जिसे अब टाटा स्टील के नाम से जाना जाता है) ने इस अधिसूचना को चुनौती देते हुए पटना उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दाखिल की, जिसके बाद न्यायालय ने अधिसूचना पर रोक लगा दी. फिर 11 मार्च 1992 को जमशेदपुर नोटिफाइड एरिया कमेटी (जेएनएसी) का गठन किया गया और न्यायालय ने 25 नवंबर 1992 को इस संबंध में स्थगन आदेश जारी कर दिया.

एक जून 1993 को जब संविधान का 74वां संशोधन प्रस्तुत किया गया, तब इसमें नगरनिगम/औद्योगिक नगर बसाने के लिए अनुच्छेद 243Q जोड़ा गया. यहां भी टाटा समूह का सर्वव्यापी प्रभाव काम कर रहा था. जमशेदपुर पश्चिम से पूर्व भाजपा सांसद सरयू रॉय इसे इस तरह से बताते हैं, ‘सरकार के शहरी विकास विभाग के उच्चतम स्तर के सबसे विश्वसनीय सूत्रों ने एक बार बताया था कि टाटा स्टील प्रबंधन संविधान के अनुच्छेद 243Q में औद्योगिक नगरी के नाम पर एक नई इकाई की शुरुआत चाहता था. यह तथ्य सच भी हो सकता है और नहीं भी, लेकिन जमशेदपुर में नगरपालिका को लेकर टाटा स्टील का विरोध जगजाहिर है.’

संविधान के 74वें संशोधन के अनुपालन में बिहार सरकार ने 30 मई 1994 को बिहार नगरपालिका अधिनियम में संशोधन करते हुए औद्योगिक नगर के प्रावधानों को जहां जैसी जरूरत थी वैसा प्रस्तुत किया. रॉय स्पष्ट करते हैं कि कैसे प्रावधान सिर्फ सांकेतिक बने रहे और व्यवहार में इनके कार्यान्वयन के लिए विशिष्ट नियम तैयार करने के बावजूद इन्हें लागू नहीं किया जा सका. रॉय के अनुसार, ‘किसी वृहत्तर नगरीय क्षेत्र के लिए नगरनिगम का गठन किया जाएगा, परंतु इस खंड के अधीन कोई नगरनिगम ऐसे नगरीय क्षेत्र या उसके किसी भाग में गठित नहीं की जा सकेगी जिसे राज्यपाल, क्षेत्र के आकार और उस क्षेत्र में किसी औद्योगिक स्थापना द्वारा दी जा रही या दिए जाने के लिए प्रस्तावित नगरनिगम सेवाओं और ऐसी अन्य बातों को, जो वह ठीक समझे, ध्यान में रखते हुए, लोक अधिसूचना द्वारा, औद्योगिक नगरी के रूप में विनिर्दिष्ट करे.’

आठ सितंबर 1998 को एक दूसरी अधिसूचना जारी की गई और 1992 में गठित किए गए जेएनएसी को खत्म कर दिया गया. 28 अप्रैल 2000 को पटना उच्च न्यायालय में रिट याचिका दाखिलकर इस अधिसूचना को चुनौती दी गई. फिर न्यायालय ने राज्य सरकार को एक उपयुक्त अधिसूचना जारी करने का निर्देश देते हुए इस याचिका का निपटारा किया.

15 नवंबर 2000 को बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 लागूकर बिहार से एक नए राज्य झारखंड का गठन किया गया. इसके बावजूद जमशेदपुर के निवासियों से अछूतों की तरह व्यवहार जारी रहा. 2003 में जवाहरलाल शर्मा ने एक दूसरी रिट याचिका इस प्रार्थना के साथ दाखिल की कि राज्य जेएनएसी के स्थान पर एक नगरनिगम विधिवत रूप से गठित की जाए. इसके बाद मई 2005 में उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को नगरनिगम चुनाव कराने के निर्देश दिए. अगस्त 2005 में जब टाटा स्टील का पट्टा अगले 20 साल के लिए बढ़ाया गया, तो नगरनिगम सेवाएं देने के लिए कंपनी को शुल्क लगाने का अधिकार था. यह भारत के संविधान के भाग 11 के विपरीत था.

एक सदी से चल रहे इस खेल में राज्य सरकार ने जमशेदपुर को नगरनिगम घोषित करने के अपने इरादों से संबंधित एक अधिसूचना दिसंबर 2005 में जारी की. आठ दिसंबर 2005 को यह अधिसूचना आधिकारिक गजट में प्रकाशित की गई. जून 2006 में झारखंड उच्च न्यायालय ने रिट याचिका का निपटारा करते हुए मामला राज्य सरकार के पाले में डाल दिया.

हालांकि, उम्मीद के मुताबिक 10 अगस्त 2006 को टाटा स्टील ने रिट याचिका (सिविल) नंबर 517/06 में 23 जून 2000 को दिए गए निर्णय को चुनौती देते हुए विशेष अनुमति याचिका संख्या 14926/06 दाखिल की. इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने 25 सितंबर 2006 और 9 जनवरी 2008 को नोटिस जारीकर आदेश दिया कि जमशेदपुर में यथास्थिति बनाए रखी जाएगी.

जमशेदपुर में नगरनिगम के गठन को लेकर अपना प्रयास जारी रखते हुए शर्मा ने 1 मई 2008 को सुप्रीम कोर्ट में सीए संख्या 467/08 में कार्रवाई (आईए संख्या 3) के लिए आवेदन दायर किया. तब शीर्ष अदालत ने अक्टूबर 2008 में सुनवाई और आदेश के लिए याचिका प्रस्तुत करने का निर्देश दिया. हालांकि छह साल बाद भी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है और जमशेदपुर के लोगों का इंतजार हमेशा की तरह जारी है.

72 वर्षीय शर्मा कहते हैं, ‘यह मामला सबसे लंबे समय तक चलने वाले मुकदमों में से एक है. जमशेदपुर में नागरिक अधिकारों की यह लड़ाई 1988 में हमने जेएनएसी की जगह नगरनिगम स्थापित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दाखिल करके शुरू की थी. इस साल  कभी न खत्म होने वाली मुकदमेबाजी के 27 साल पूरे हो जाएंगे. टाटा स्टील के कार्य आपराधिक होने के साथ ही नगरपालिका की कार्यप्रणाली के संबंध में संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन भी है.’ उन्होंने कहा, ‘2005 में 30 साल के लीज एग्रीमेंट के नवीनीकरण के तहत 1996 से सर्वव्यापी प्रभाव के साथ टाटा स्टील सफाई, सड़क निर्माण और उसका रखरखाव, पानी की सप्लाई, पानी की पाइपलाइन के निर्माण, स्ट्रीट लाइट और बिजली जैसी तमाम जनसुविधाएं जमशेदपुर की जनता को देने के लिए कानूनन बाध्य है.’

हालांकि, चारों ओर अगर सरसरी निगाह डाली जाए जो पता चलाता है कि जमशेदपुर यूटिलिटीज एंड सर्विसेज कंपनी (जस्को) सिर्फ नाम के लिए ही नागरिक सेवाएं प्रदान कर रही है (2004 में जस्को, टाटा स्टील के नगर सेवा प्रभाग से ही अलग करके बनाई गई थी). मुकदमेबाजी में देरी की रणनीति अपनाने को लेकर टाटा स्टील के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई, जिसका असर ये हुआ कि इस विशालकाय इस्पात कंपनी को जस्को के जरिए जमशेदपुर के नागरिकों से जनसुविधाओं के नाम पर नए कर वसूलने का हौसला मिल गया.

नाम जाहिर न करने की शर्त पर एक दुकानदार ने बताया, ‘जस्को क्या सेवा प्रदान कर रही है? झारखंड जैसे पिछड़े राज्य में रहने के बावजूद हम यहां की सुविधाओं को उससे भी निचले स्तर पर पाते हैं. यहां किसी भी तरह की नागरिक सुविधा नहीं दी जा रही है. सब कुछ स्थानीय नागरिकों की ओर से खुद की पहल पर किया जा रहा है.’

असमः हिंसा और तस्करी की उपजाऊ धरती

गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पर कदम रखते ही 15 वर्ष की नताशा की आंखों में आंसू आ गए. उसकी आंखें लगातार अपने माता-पिता की खोज में इधर-उधर घूम रही थी. वे मां-बाप जिन्हें उसने लंबे समय से देखा नहीं था. नताशा उन पीड़ितों में से एक है, जिन्हें महाराष्ट्र में एक मछली पकड़ने वाली कंपनी पर छापामारी के दौरान पुलिस ने बचाया था. नताशा असम के शोनिलपुर जिले के बालिखुढी गांव की रहनेवाली है.

पिछले साल सितंबर महीने में भी एक गैर सरकरी संस्था के अभियान में 40 बच्चों को मुंबई के एक कारखाने से मुक्त करवाया गया था. सभी बच्चे जिनमें 36 लड़कियां और चार लड़के शामिल थे, उन्हें असम से ही तस्करी के जरिए मुंबई पहुंचाया गया था. अमानवीय स्थितियों में बिना खाए-पीए दिन में लगातार 14 घंटे तक इन बच्चों से काम करवाया जाता था. बदले में इन्हें 700 रुपये महीने की तनख्वाह मिलती थी. वापस असम पहुंचने पर उनमें से ज्यदातर बच्चे सदमे में थे और किसी से ठीक से बात तक नहीं कर पा रहे थे.

असम में बाल एवं महिला तस्करी के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. इस समस्या के पीछे असम के ग्रामीण इलाकों में लोगों का बेघर होना, भूमिहीन होना, प्राकृतिक आपदाओं का आना और इन सबसे बड़ी समस्या है जातीय संघर्ष और उग्रवाद. जनवरी 2014 के बाद से जातीय और धार्मिक हिंसा का दौर यहां अपने विकृत रूप में देखने को मिला है. कार्वि आलांज में आतंकवादी हमलों की वजह से, जो रेंजामा नगा और कार्बी ग्रामीणों पर किया गया था, 900 से ज्यादा बच्चे विस्थापन शिविरों में पहुंच गए. इसी प्रकार बोडो बहुल इलाकों में मई 2014 में 200 से भी ज्यादा बच्चे हिंसा की चपेट में आकर विस्थापित हुए थे. यह विस्थापन निचले असम के बक्सा जिले में नेशनल डेमोक्रेडिट फ्रंट (संविजित गुट) द्वारा मुसलमानों की हत्या की घटना के कारण हुआ था. हिंसा और विस्थापन की घटनाएं निरंतर जारी हैं. 2014 में ही नागा हमलावरों द्वारा नागालैंड और असम की सीमा पर रहनेवाले लोगों पर हमले के बाद 2000 से अधिक बच्चे गोलाघाट जिले में स्थापित राहत शिविरों में पहुंचाए गए थे. हाल ही में दिल दहला देने वाली एक घटना तब घटी जब एनडीएफवी द्वारा आदिवासियों के ऊपर किए गए हमले में कोकराझार और सोनितपुर जिलों में 50,000 आदिवासी महिला, पुरुष और बोडो बच्चे विस्थापित हुए.

यह आम तथ्य है कि ज्यादातर लोग उसी समय तस्करों के जाल में फंसते हैं जब जातीय संघर्ष या प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप रहता है.

हिंसक झड़पों के बाद देखा जाता है कि विस्थापन शिविरों के आस-पास तस्कर डेरा डाल लेते हंै. हिंसा से प्रभावित गांवों के आस-पास का इलाका इन तस्करों के लिए उपजाऊ जमीन साबित होता है. संघर्ष में अपना सब कुछ लुटा चुके बेघर-बार लोगों को बड़ी आसानी से ये तस्कर अपना निशाना बना लेते हैं. बच्चे और महिलाएं इनके निशाने पर सबसे ऊपर होते हैं. इन मामलों पर नजर रखनेवाली असम सरकार की इकाई सीआईडी के आंकड़े बाल तस्करी की बड़ी भयावह तस्वीर पेश करते हैं. पिछले पांच वर्षों में असम के विभिन्न जिलों से लापता हुए बच्चों की कुल संख्या 4000 से ऊपर है. इनमें 2000 के लगभग लड़कियां है.

इन घटनाओं को लेकर पुलिस और प्रशासन का रवैया बेहद लचर है. असम सरकार के पास अभी भी तस्करी को रोकने की कोई स्पष्ट योजना नहीं है. जातीय संघर्ष के पीड़ितों के पुनर्वास का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है. लिहाजा विस्थापन शिविरों में रह रहे गरीब, बीमार लोग न चाहते हुए भी तस्करों के चंगुल में फंस जाते हंै. ‘फिलहाल सरकार की तरफ से किसी भी तरह कि जागरुकता देखने को नहीं मिल रही है.’  गुवाहाटी के बाल अधिकार कार्यकर्ता मिजुएल दाश कुया ने यह बात बताई.

मानव तस्करी के लिहाज से असम देश का एक अति संवेदनशील राज्य है. पूर्वोततर के देशों का द्वार होने के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से भी इसका महत्व बढ़ जाता है. निरंतर संघर्ष के कारण सामाजिक, आर्थिक बदलाव, व्यापक जनसांख्यिकीय परिवर्तन और कभी समाप्त नहीं होनेवाली बाढ़ की समस्या मिलकर ऐसा दुष्चक्र रचती है, जिसमें असमवासी पिस रहे हैं. तस्करों का लक्ष्य शरणार्थी शिविर होते हैं जहां विस्थापित लोग जातीय संघर्ष/प्राकृतिक आपदाओं के कारण शरण लेते हैं. असम सीआईडी की एक आंतरिक रिपोर्ट कहती है कि साल 2012 में बच्चों की तस्करी सबसे अधिक संख्या में हुई है. गौरतलब है कि वर्ष 2012 में बोडो जनजाति और बंगाली मुसलमानों के बीच जो खूनी संघर्ष हुआ था उसमें 100 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी और लाखों की संख्या में लोग विस्थापित हुए थे.

मानवाधिकार संगठन के एशियाई केंद्र की रिपोर्ट के अनुसार असम के चार जिलों (सोनितपुर, कोकराझार, उदालजुरी और चिरांग) में आंतरिक रूप से विस्थापितों की आबादी 3,00,000 से अधिक है. ये विस्थापित इन चार जिलों में बने करीब 85 राहत शिविरों में भटक रहे हैं. इन विस्थापन शिविरों की यात्रा के बाद एशियाई केंद्र ने पाया कि असम सरकार विस्थापन को रोकने और पुनर्वास की गति को बढ़ाने के प्रति पूरी तरह से उदासीन हैं. यहां तक कि वह मूलभूत मानवीय सहायता प्रदान करने में भी असफल रही है.

चिंताजनक तथ्य यह भी है कि मानव तस्करी में ज्यादातर महिलाएं और लड़कियां हैं, जिन्हें देश-भर के वैश्यालयों में बेच दिया जाता है.

23 दिसंबर 2014 को नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट (संबिजित गुट) द्वारा सोनितपुर, कोकराझार और चिरांग जिले में आदिवासियों पर हमले के बाद आंतरिक रूप से विस्थापितों की नई बाढ़ आ गई. आदिवासयों पर हुए इस आकस्मिक हमले में 90 से ज्यादा महिलाएं और बच्चे मारे गए थे. इन अादिवासियों को निशाना बनाने के पीछे वजह यह थी कि उन पर सुरक्षाबलों को जानकारी देने का शक था. इसके बाद सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई में 21 दिसंबर 2014 को तीन बोडो उग्रवादी मारे गए. यह जानकारी एशियाई केंद्र, नई दिल्ली के निदेशक सुहास चाकमा ने दी.

असम से बच्चों और महिलाओं की तस्करी के मुख्य गंतव्य हैं सिलीगुड़ी, चेन्नई, गोवा, मुम्बई, हरियाणा, पंजाब, बिहार और दिल्ली. भारत-भूटान सीमा से लगे जिले बाक्सा, चिरांग, कोकराझार मजंलढ़, उदालजुरी और बारा अवैध तस्करी से सबसे ज्यादा ग्रस्त हैं. यहां से बोडो, नेपाली आदिवासी (चाय जनजाति), संभा, राजवंशी और मुसलमानों की तस्करी सबसे ज्यादा होती है. यूनिसेफ द्वारा जारी किए गए एक अध्ययन में असम के छह जिलों को तस्करी से बुरी तरह प्रभावित इलाके के रूप में चिन्हित किया गया है. ये छह जिले हैं, सोनितपुर, धमाजी, लखीमपुर, बाक्सा, कोकराझार, उदालजुरी और कामरूप. रिपोर्ट के अनुसार तस्कर असम के पश्चिम हिस्से को ट्रांजिट कॉरिडोर के रूप में इस्तेमाल करते हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार साल

2012 में महिलाओं के अपहरण के लगभग 3360 मामले इन्हीं इलाकों में दर्ज किए गए थे.

असम पुलिस के रिकार्ड के मुताबिक उन्होंने बीते साल 422 मानव तस्करी के पीड़ितों को बचाया है, जिसमें से ज्यादातर नाबालिग हैं और 281 अपराधियों को गिरफ्तार किया गया है. लापता बच्चों की बड़ी संख्या को देखते हुए यह आंकड़ा बहुत निराश करनेवाला है. असम पुलिस ने बाल एवं महिला तस्करी के बढ़ते खतरे से निपटने के लिए 14 मानव तस्करी विरोधी इकाइयां गठित की हैं. अपराधिक जांच विभाग (सीआईडी) ने 20 और इकाइयां गठित करने की मांग की है. इनमें से एक राजकीय रेलवे पुलिस से जुड़ी हुई है. ‘तस्करी के दौरान होनेवाले टकरावों में अक्सर बड़ी संख्या में लोगों की जानमाल को खतरा पैदा हो जाता है. लिहाजा हमने जातीय संघर्ष होने की हालत में स्थानीय एनजीओ को राहत आदि के काम में सहायता करने के लिए अलर्ट किया है. ये संगठन राहत शिविरों पर नजर रखने का काम करते हैं. इससे सुरक्षा बलों को शांति बहाली के कामों में लगाया जा सकता है. इस व्यवस्था से तस्करों का राहत शिविरों में घुसना कठिन हो जाता है.’ यह कहना है असम के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक मुकेश सहाय का.

यह आम तथ्य है कि ज्यादातर लोग उसी समय तस्करों के जाल में फंसते हैं, जब जातीय संघर्ष या प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप रहता है. सहाय के मुताबिक हाल के दिनों में बड़ी संख्या में लड़कियों और बच्चों की मुंबई, हरियाणा, चेन्नई और सिलीगुड़ी से बचाया गया है. हमने तीन महीने के अंदर 3000 गायब हुए बच्चों को दोबारा से उनके घर वापस पहुंचाया है. ये बच्चे देश के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न कल-कारखानों में काम कर रहे थे. साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि बहुत सी महिलाओं को भी इस दौरान खोज निकालने में सफलता मिली है. महिलाओं की तस्करी का सबसे बड़ा गंतव्य है हरियाणा. गौरतलब है कि हरियाणा में लड़के और लड़कियों के लिंगानुपात की विषमता के कारण तस्करों को यहां से ले जाई गई लड़कियों के लिए खरीददार आसानी से मिल जाते हैं. सहाय मानते हैं कि हमें अभी काफी सुधार करने की जरूरत है.

एक चिंताजनक तथ्य यह भी है कि बीते एक-दो सालों के दौरान मानव तस्करी की घटनाओं में अनपेक्षित बढ़ोत्तरी हुई है. एक सरकारी अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज आंकड़ों पर मत जाइए. पिछले एक साल के दौरान अगर उन सभी मामलों को जोड़ दिया जाय जिनका पुलिस रिकॉर्ड में कोई जिक्र ही नहीं है, तो यह आंकड़ा 10,000 तक पहुंच जाएगा. इनमें से ज्यादातर महिलाएं और नाबालिग लड़कियां हैं, जिन्हें देश-भर के वैश्यालयों में बेच दिया जाता है. ग्लोबल ऑर्गनाइजेशन फॉर लाइफ डेवलपमेंट की सहायक महासचिव कावेरी शर्मा कहती हंै, ‘अधिकांश मामले ग्रामीण और संघर्ष पीड़ित क्षेत्रों से ही देखने को मिल रहे हैं. लड़कियों की तस्करी का एक बड़ा हिस्सा देह व्यापार के लिए हो रहा है.’

जाहिर है बारंबार संघर्ष और प्राकृतिक आपदाओं का दुष्चक्र असम के लोगों को मानव तस्करी की ऐसी अंधेरी सुरंग में धकेल चुका है, जिसका निकट भविष्य में अंत होता नहीं दिख रहा.

‘किसानविरोधी है भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन’

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 में संशोधन कर दिया है.  सालभर के भीतर दूसरी बार संशोधन की नौबत क्यों आई? बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सरकार के इस निर्णय से होनेवाले असर को लेकर कड़ा ऐतराज जताया है, लेकिन उनकी आवाज दबती दिख रही है. नए संशोधन में मूल अधिनियम की 13 धाराओं को बदला गया है. यह बदलाव कार्यकर्ताओं और किसानों के लिए एक बड़ा झटका है. खास तौर पर किसानों के लिए यह संशोधन काफी अहम है क्योंकि इसका वास्तविक असर उन्हीं पर पड़ना है. किसानों के लिए कुठाराघात इसलिए भी है कि वे इस सरकार से अपने लिए एक उचित और संवेदनशील नजरिए की अपेक्षा कर रहे थे. यह अध्यादेश 31 दिसंबर 2014 को लागू हो गया.

सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने इसके विरोध में आवाज बुलंद करते हुए कहा कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 को संशोधित करने के लिए केंद्र सरकार ने संसद के बाहर का रास्ता अपनाया है, जो भारतीय संविधान की मूल भावना के खिलाफ है. पाटकर ने इसे अलोकतांत्रिक और उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने की कोशिश करार दिया है. कांग्रेस ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने इस अध्यादेश के जरिए किसानों से वे सारे अधिकार छीन लिए हैं जो उन्हें यूपीए सरकार ने दिए थे. पूर्व मंत्री और वयोवृद्ध कांग्रेस नेता एएच विश्वनाथ ने यह अध्यादेश लाने के केंद्र के निर्णय के खिलाफ पोस्ट कार्ड अभियान शुरू किया है.

इस संशोधन के खिलाफ आदिवासी नेता और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने राज्यव्यापी विरोध आरंभ कर दिया है. उन्होंने कहा कि यह संशोधन जहां संवैधानिक प्रक्रिया के विरुद्ध है, वहीं यह आदिवासियों व किसानों के हितों पर गहरा आघात है. विभिन्न प्रगतिवादी लोकतांत्रिक संगठनों और कार्यकर्ताओं ने इस अध्यादेश के विरोध में भारत के राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया है.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा सांसद जयराम रमेश बताते हैं, ‘वित्तमंत्री अरुण जेटली और उनके सहयोगी जिस तरह के संकेत दे रहे थे, उनके मुताबिक भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 में संशोधन तो अपेक्षित थे, लेकिन यह काम अध्यादेश के जरिए किया जाना उन लोगों को भी चौंका गया जो इन संशोधनों के पक्षधर थे.’

अधिनियम में जो ताजा संशोधन किए गए हैं उन्हें देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भूमि अधिग्रहित करनेवाले के हितों की रक्षा पर ही इसका सारा जोर है. जाहिर है इसका खामियाजा उन किसानों को उठाना पड़ेगा जिनकी जमीने अधिग्रहीत होंगी. उचित मुआवजे का अधिकार एवं भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना अधिनियम 2013 के अध्याय तीन और धारा 10 में एक नया अध्याय तीन-अ और धारा 10-अ जोड़ी गई है. इस नई धारा 10-अ ने सरकार को कुछ परियोजनाओं को छूट देने की शक्ति दे दी है. ऐसी परियोजनाएं जो राष्ट्रीय सुरक्षा या भारत की सुरक्षा और उससे संबंधित सभी पहलुओं से जुड़ी हों, विद्युतीकरण सहित ग्रामीण बुनियादी ढांचा, औद्योगिक गलियारे, बुनियादी ढांचे और सामाजिक बुनियादी ढांचे से संबंधित परियोजनाएं जिनमें सार्वजनिक, निजी भागीदारीवाली वे परियोजनाएं भी शामिल हैं, जिनमें जमीन का मालिकाना हक सरकार के पास ही होगा. अगर कोई प्रस्तावित परियोजना ताजा अध्यादेश में बताई गई इन पांच श्रेणियों के भीतर आती है, तो अध्यादेश इस बात की अनुमति देता है कि जमीन के मालिक की सहमति की प्रक्रिया आरंभ किए बगैर या इसके सामाजिक प्रभाव का आकलन किए बिना ही उससे जमीन ली जा सकेगी.

पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री रमेश के अनुसार, चूंकि भविष्य में किए जानेवाले अधिकांश अधिग्रहण औद्योगिक गलियारे और बुनियादी ढांचे व सामाजिक बुनियादी ढांचे से संबंधित परियोजनाओं के तहत ही आ जाएंगे, ऐसे में किसानों के हितों की सुरक्षा से जुड़े वे सारे उपाय पूरी तरह बेकार हो जाएंगे, जो 2013 के मूल कानून में किए गए थे. इसके अलावा, उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई ‘अदा मुआवजा’ शब्द की परिभाषा को भी इस बदलाव के जरिए निष्प्रभावी कर दिया गया है. उच्चतम न्यायालय ने ‘अदा मुआवजा’ शब्द की जो परिभाषा दी थी, उसका अर्थ था वह राशि जो न्यायालय में जमा कराई गई है. लेकिन नई धारा कहती है कि इस संदर्भ में किसी भी खाते में अदा की गई कोई राशि इस लिहाज से पर्याप्त होगी.

रमेश के अनुसार, भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 दो सालों तक चले राष्ट्रव्यापी विचार-विमर्श, दो सर्वदलीय बैठकों, संसद के दोनों सदनों में 14 घंटों तक चली बहस, जिसमें 60 से अधिक सदस्यों ने भाग लिया था और उस समय के प्रमुख विपक्षी दल (भाजपा) द्वारा सुझाए गए संशोधनों को शामिल करने के बाद बनाया गया था. साल 2013 के कानून की धारा 101 में कहा गया था कि अगर अधिग्रहित की गई भूमि का पांच साल तक उपयोग नहीं किया जाता, तो उसे वापस उसके मालिक को लौटाना होगा. लेकिन इस संशोधन के जरिए इस अवधि को खत्म कर दिया गया है.

रमेश आगे कहते हैं, निजी क्षेत्र की परियोजनाओं और पीपीपी परियोजनाओं के लिए बलपूर्वक अधिग्रहण के विरुद्ध किसानों के हितों की रक्षा के लिए साल 2013 के कानून में सहमति की शर्त जोड़ी गई थी. इसमें कहा गया था कि निजी परियोजना की स्थिति में 80 फीसदी और पीपीपी परियोजना की स्थिति में 70 फीसदी जमीन मालिकों की सहमति अनिवार्य होगी. लेकिन इस अध्यादेश ने प्रभावी रूप से सहमति की यह शर्त ही हटा दी है.

अबकी बार अध्यादेश सरकार

rs2नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने शुरुआती कुछ महीनों के दौरान ही जिस तरह अध्यादेशों की झड़ी लगा दी है, वह इन दिनों बहस का विषय बन गया है. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस इन अध्यादेशों में मौजूदा सरकार की तानाशाही प्रवृत्तियों की झलक देख रही है, जबकि कुछ दूसरे लोग इसे संवैधानिक और संसदीय तरीकों से बचकर आगे बढ़ने की कोशिश करार दे रहे हैं. बड़ी संख्या में अध्यादेश जारी किए जाने की वजह से मौजूदा केंद्र सरकार को अध्यादेश सरकार भी कहा जाने लगा है.

आठ महीने, दस अध्यादेश
केंद्र की सत्ता में आने के बाद से अब तक सरकार दस अध्यादेश जारी कर चुकी है. इनमें बीमा अधिनियम (संशोधन) अध्यादेश, कोयला खदान (विशेष प्रावधान) अध्यादेश, कोयला खदान (विशेष प्रावधान) द्वितीय अध्यादेश, खदान एवं खनिज (संशोधन) अध्यादेश, नागरिकता (संशोधन) अध्यादेश, मोटर वाहन अधिनियम (संशोधन) अध्यादेश, वस्त्र उपक्रम राष्ट्रीयकरण अधिनियम (संशोधन एवं विधिमान्यकरण) अध्यादेश, आंध्र प्रदेश पुनर्गठन (संशोधन) अध्यादेश और भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (संशोधन) अध्यादेश शामिल हैं.

विपक्ष भले ही अध्यादेशों से नाखुश हो, लेकिन उद्योग जगत सरकार के इस कदम को लेकर उत्साहित है. महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने एक टेलीविजन इंटरव्यू में कहा, ‘जहां तक अध्यादेशों का सवाल है, मेरी इसके बारे में राय सकारात्मक है क्योंकि यह डिलीवरी सुनिश्चित करने के लिए है. अध्यादेशों की राह अपनाकर सरकार ने यह संकेत दिया है कि यह महज बातचीत से आगे बढ़ने को तैयार है. अगर ऐसा करने के लिए उसे अध्यादेश जारी करने पड़ रहे हैं, तो यही सही.’

2008 इंदिरा गांधी ने तकरीबन 16 साल के अपने शासन काल में 208 अध्यादेश जारी कराए थे, जबकि जवाहर लाल नेहरू के लगभग 17 साल के शासन काल में 200 अध्यादेश जारी किए गए

आठ महीनों के दौरान 10 अध्यादेश जारी किए जाने से ऐसा लगता है कि सरकार किसी जल्दबाजी में है. ऐसा लगता है कि इस जल्दबाजी में सरकार यह भी भूल गई है कि किसी कानून को पारित कराने के लिए ही संविधान के जरिए लोकसभा और राज्यसभा के नाम से दो विधायी सदन बनाए गए हैं. इस बारे में सरकार का तर्क यह है कि उसके पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था. संसदीय कार्य मंत्री एम वैंकैया नायडू ने दिसंबर के आखिरी हफ्ते में सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि संसद में कांग्रेस के नकारात्मक और बाधक रवैए की वजह से उसे ऐसा करने को बाध्य होना पड़ा.

 कांग्रेस का आरोप, भाजपा का पलटवार
विपक्ष वेंकैया के इस दावे को हवा में उड़ा देता है. उसका सवाल है कि अगर बिल लोकसभा के शीतकालीन सत्र में पास नहीं हुए तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है. सरकार के लोग घर वापसी से लेकर रामजादे और हरामजादे जैसे कार्यक्रम चला रहे थे, प्रधानमंत्री सदन में बोलने को तैयार तक नहीं थे, तो विपक्ष के सामने क्या विकल्प बचता है. अगर प्रधानमंत्री ने घर वापसी जैसे मामलों पर विपक्ष की मांग मानते हुए संसद में बयान दे दिया होता, तो सत्र बर्बाद होने से बच जाता. उस हालत में अहम विधेयकों पर चर्चा के लिए अधिक समय मिल जाता, जिन पर बाद में सरकार को अध्यादेश जारी करने पड़े हैं. मोदी सरकार के दौरान जारी किए गए अध्यादेशों का हवाला देते हुए 13 जनवरी को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक के दौरान कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने टिप्पणी की कि नरेंद्र मोदी में ‘तानाशाही प्रवृत्तियां’ हैं. इस बीच भाजपा ने कांग्रेस पर पलटवार करते हुए पूछा है कि क्या इंदिरा गांधी और जवाहर लाल नेहरू को भी तानाशाह का दर्जा दिया जा सकता है? नायडू ने 14 जनवरी को पत्रकारों से बातचीत के दौरान कहा, ‘सोनिया गांधी को यह स्पष्ट करना चाहिए कि नेहरू तानाशाह थे या लोकतांत्रिक? वह (सोनिया) इंदिरा गांधी को किस नजरिए से देखती हैं? क्या वह तानाशाह थीं?’

नायडू जिन संदर्भों में इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू का उल्लेख कर रहे थे, उन पर भी नजर डालना जरूरी है. इंदिरा गांधी ने 5825 दिनों (तकरीबन 16 साल) के अपने शासन काल में 208 अध्यादेश जारी कराए थे, यानी तकरीबन हर 28 दिन में उनके शासन काल में एक अध्यादेश जारी हुआ. इसके अलावा, जवाहरलाल नेहरू के 6126 दिनों (तकरीबन 17 साल) के शासन काल में 200 अध्यादेश जारी किए गए थे यानि लगभग 31 दिन में एक. अब हम इन दोनों के शासनकाल की तुलना मौजूदा मोदी सरकार के साथ कर लेते हैं. मौजूदा केंद्र सरकार के शुरुआती नौ महीनों के दौरान 10 अध्यादेश जारी किए गए हैं, यानी तकरीबन 24 दिनों में औसतन एक अध्यादेश. लेकिन यह तुलना करते समय यह याद रखना भी अहम है कि गांधी और नेहरू के जमाने में कांग्रेसी सरकारों को कभी भी राज्यसभा में अल्पमत की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा था, जबकि नरेंद्र मोदी की मौजूदा सरकार को इस दिक्कत से भी दो-चार होना पड़ रहा है, क्योंकि उसके पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है.

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अध्यादेश और उसकी वैधता
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति को विधि से संबंधित कुछ विशेष शक्तियां देता है. यह शक्तियां उस समय के लिए होती हैं जब संसद के दोनों सदन न चल रहे हों और संसद के जरिए कानून बनाना संभव न हो. लेकिन कानून बनाने के इस तरीके पर भी हमारे संविधान निर्माताओं ने कुछ सीमाएं लगा रखी हैं. अध्यादेश केवल उन्हीं विषयों के बारे में जारी किया जा सकता है, जिनके बारे में संसद को कानून बनाने का अधिकार है. इसके अलावा राष्ट्रपति केवल तभी अध्यादेश जारी कर सकता है जब संसद का सत्र न चल रहा हो.

अनुच्छेद 123 आगे कहता है, ‘राष्ट्रपति केवल तभी अध्यादेश जारी कर सकते हैं जब वह इस बात से पूरी तरह संतुष्ट हो जाएं कि मौजूदा परिस्थितियों में इस बारे में त्वरित कार्रवाई करना जरूरी है.’ दरअसल अनुच्छेद 123 का यही वह बिंदु है जिसकी वजह से विपक्षी दल सरकार पर हमलावर हो गए हैं. सवाल यह उठाए जा रहे हैं कि अब तक जो अध्यादेश जारी किए गए हैं, उनमें से आखिर किनमें मौजूदा परिस्थितियों में त्वरित कार्रवाई करना जरूरी हो गया था.

संसद के दो अधिवेशनों के बीच अधिकतम छह महीने का अंतर हो सकता है और संसद का सत्र बुलाए जाने के छह हफ्तों के भीतर अध्यादेश को कानून बनवाना अनिवार्य होता है. इसका मतलब यह है कि कोई अध्यादेश अधिकतम साढ़े सात महीने तक ही अस्तित्व में रह सकता है. अगर इस अवधि के दौरान उसे विधेयक के तौर पर पेशकर कानून का रूप नहीं दिलाया जाता, तो वह स्वतः समाप्त हो जाता है.

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 राष्ट्रपति दो बार कर चुके हैं टिप्पणी
अध्यादेशों का रास्ता अपनानेवाली मोदी सरकार पर इसकी वजह से राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी अब तक दो बार टिप्पणी कर चुके हैं. 66वें गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में मुखर्जी ने कहा, ‘बिना बहस के कानून लागू करना संसद की विधि निर्माण की भूमिका पर असर डालता है. यह उस भरोसे को तोड़ता है, जो लोग इस पर जताते हैं. यह न तो लोकतंत्र के लिए अच्छा है और न ही उन नीतियों के लिए.’ इससे पहले केंद्रीय विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के छात्रों व शिक्षकों को विडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए संबोधित करते हुए 19 जनवरी को मुखर्जी ने टिप्पणी की थी कि अध्यादेश खास उद्देश्यों के लिए होते हैं, इन्हें ‘असामान्य परिस्थितियों में असामान्य दशाओं से निबटने के लिए लाया जाता है.’ उन्होंने ताकीद की कि इस तरीके का इस्तेमाल सामान्य विधायी प्रक्रिया के लिए नहीं किया जाना चाहिए.

राष्ट्रपति ने विपक्ष को दी नसीहत
हालांकि 19 जनवरी के अपने संबोधन के दौरान राष्ट्रपति विपक्ष को भी नसीहत देने से नहीं चूके. उन्होंने कहा कि विपक्ष को सदन की गतिविधियों को बाधित करने से बचना चाहिए. उनके शब्दों में, ‘यह सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि वे एक साथ बैठें और मिलकर कामकाज का माहौल तैयार करें.’

राज्यसभा से बचने की मंशा
खबर है कि सरकार इन सभी अध्यादेशों के बदले विधेयक लाने की तैयारी कर रही है, ताकि 23 फरवरी से शुरू हो रहे बजट सत्र में इन्हें दोनों सदनों में पारित कराया जा सके. संसदीय कार्य मंत्रालय ने सभी संबंधित मंत्रालयों को विधेयक तैयार करने के लिए कहा है और जनवरी के आखिरी हफ्ते में ही सभी विभागों के प्रमुखों की बैठक बुलाई है, ताकि इन विधेयकों को संसद में पारित कराने की रणनीति तैयार की जा सके.

34 साल 1993 में सबसे अधिक 34 अध्यादेश जारी किए गए थे. अगर हम साल 1952 से 2014 के बीच जारी किए गए अध्यादेशों की बात करें, तो कुल 637 अध्यादेश जारी किए जा चुके हैं

अगर सरकार इसे दोनों सदनों में अलग-अलग पारित नहीं करा पाती है, तो राज्यसभा से बचकर विधेयक पारित कराने का एक संवैधानिक तरीका भी मौजूद है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 111 के मुताबिक, जब किसी एक सदन में कोई विधेयक पारित हो जाता है, तो उसके बाद उसे चर्चा के लिए दूसरे सदन में भेजा जाता है. वहां से भी पारित हो जाने के बाद उसे राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा जाता है. जब उस पर राष्ट्रपति अपनी सहमति दे देता है, तभी वह विधेयक से अधिनियम का रूप ले पाता है. यह तो हुई बात सामान्य स्थितियों की, लेकिन मौजूदा स्थितियां अलग हैं. सरकार का तर्क यह है कि उसके पास राज्यसभा में पर्याप्त बहुमत नहीं है, ऐसे में उसे विधेयकों को पारित कराने में दिक्कत हो रही है. अगर हम विशिष्ट संवैधानिक प्रावधानों पर नजर डालें, तो सरकार दूसरे सदन में विधेयक को पारित कराए बगैर उसे कानून का रूप दे सकती है. संविधान के अनुच्छेद 108 के मुताबिक अगर कोई विधेयक एक सदन में पारित हो जाता है, लेकिन दूसरे सदन में उस पर सहमति नहीं बन पाती या दूसरा सदन उस विधेयक में किए गए संशोधनों से पूरी तरह असहमति व्यक्त कर चुका हो या पहले सदन में उस विधेयक को पारित कर दूसरे सदन को वह विधेयक मिलने की तारीख के बीच छह महीने से अधिक का वक्त बीत चुका हो और दूसरेे सदन ने उसे अब तक पारित नहीं किया हो, तो राष्ट्रपति उस विधेयक पर चर्चा और मतदान के लिए एक संयुक्त बैठक बुला सकता है. अगर संयुक्त बैठक में वह विधेयक दोनों सदनों के मौजूद और मतदान करनेवाले सदस्यों के बहुमत से पारित हो जाता है, तो उस विधेयक को दोनों सदनों में पारित मान लिया जाता है. यह प्रावधान धन विधेयक और संविधान संशोधन विधेयकों पर लागू नहीं होता.

ऐसे में आशंका यह भी है कि लोकसभा में पर्याप्त बहुमत होने और राज्यसभा में संख्याबल कम होने की वजह से केंद्र सरकार इनमें से कुछ अध्यादेशों को पारित कराने के लिए अनुच्छेद 108 के तहत बुलाए जानेवाली सदन की संयुक्त बैठक की मदद ले सकती है. ध्यान रहे कि 19 जनवरी के अपने संबोधन में मुखर्जी इस तरह के प्रयासों को यह कहते हुए खारिज कर चुके हंै कि सत्ताधारी दल के पास राज्यसभा में बहुमत न होने की स्थिति में कानून बनाने के लिए संख्या जुटाने के उद्देश्य से दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाना व्यावहारिक नहीं है.

‘मैं और बराक’ साथ-साथ

एशिया में शक्ति संतुलन स्थापित करने के क्रम में चीन भारतीय और अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के समक्ष विकट समस्या की तरह मौजूद था; फोटोः िीआईबी
एशिया में शक्ति संतुलन स्थापित करने के क्रम में चीन भारतीय और अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के समक्ष विकट समस्या की तरह मौजूद था;
फोटोः िीआईबी

वो आए, उन्होंने देखा और ज्यादातर चीजों से वे सहमत भी दिखे! रायसीना पहाड़ी का जो माहौल था उससे अगर कोई निष्कर्ष निकाला जाय तो यह बात कही जा सकती है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन सभी चीजों को बहुत करीब से देखा और समझा, जिसे उनके नये-नवेले दोस्त नरेंद्र मोदी दिखाना-बताना चाहते थे. कुछेक बातें जरूर अपवाद थीं मसलन ताजमहल के दीदार को टाल देना, प्रधानमंत्री द्वारा उनके पहले नाम से संबोधित करने पर कोई गर्मजोशी न दिखाना, यात्रा के अंतिम पड़ाव पर खुले शब्दों में धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक बहुलता जैसी नसीहतों को नजरअंदाज कर दें तो यह दौरा ऐतिहासिक तो नहीं लेकिन महत्वपूर्ण है. दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने एक साथ रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में आम जनता को संबोधित किया. भारतीय प्रधानमंत्री के साथ किसी अमेरिकी राष्ट्रपति का रेडियो पर यह पहला संयुक्त संबोधन था. यह कहना गलत नहीं होगा कि कम समय में भारतीय प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति ने इतिहास बनाने के रास्ते पर कदम बढ़ा दिया है.

ओबामा पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जिन्होंने बतौर मुख्य अतिथि गणतंत्र दिवस समारोह में शिरकत की और उन्होंने राष्ट्रपति रहते हुए दो बार भारत का दौरा किया, इन प्रतीकात्मक घटनाओं से परे अगर देखें तो भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों की दिशा में यह परिवर्तनकारी अध्याय की तरह है. पहली बार दोनों देशों के प्रमुखों के बीच जिस तरह से बातचीत हुई वह दो बराबरी के लोगों के बीच की बातचीत थी,  खुद के संघर्षों से जूझकर खड़े हुए नेताओं की बातचीत थी जिन्होंने इस मुकाम तक पहुंचने के पहले तमाम विषम परिस्थितियों को मात दी है. एक भारतीय प्रधानमंत्री जो अपने विचारों को शालीनता और शिष्टाचार के दबाव में छुपाता नहीं और एक अमेरिकी राष्ट्रपति जो बोलने से ज्यादा सुनना चाहता है. फिर चाहे मसला क्षेत्रीय सुरक्षा और शांति का हो, जलवायु परिवर्तन का या फिर विनिवेश और अंतरराष्ट्रीय व्यापार का.

यह बात स्पष्ट है कि द्विपक्षीय वार्ता के दौरान दोनों देशों के प्रतिनिधिमंडल के दिमाग में कहीं न कहीं चीन घूम रहा था. बातचीत शुरू होने से पहले भारत में अमेरिका के पूर्व राजदूत रॉबर्ट डी ब्लैकविल ने कहा, ‘चीन के बढ़ते प्रभुत्व को काबू में करने को लेकर भारत और अमेरिका दोनों में सुनियोजित तालमेल का बुरी तरह से अभाव है. कुछ हद तक इस समस्या की वजह यह भी है कि अब तक भारत ओबामा प्रशासन की दीर्घकालिक और तर्कसंगत चीन-नीति को नजरअंदाज करता आया है.’

महज कुछ साल पहले की  ही बात है जब ओबामा ने चीन के साथ मिलकर जी2 संघ की संकल्पना पेश की थी. इसका उद्देश्य दक्षिण एशिया को नियंत्रित करना था. इस समूह के जरिए ओबामा दक्षिण एशिया में एक शक्ति केंद्र की बात कर रहे थे जिसमें भारत के लिए भी एक बड़ी भूमिका की परिकल्पना थी. इसका विस्तार क्षेत्र अदन की खाड़ी से लेकर मलक्का जलडमरुमध्य तक था. नवंबर 2009 में अमेरिका और चीन द्वारा जारी संयुक्त वक्तव्य में कहा गया- ‘दोनों पक्ष दक्षिण एशिया में शांति, स्थिरता और विकास के सभी प्रयासों का स्वागत करते हैं. वे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आतंकवाद से मुकाबले के सभी प्रयासों का समर्थन करेंगे. इन देशों में आंतरिक स्थिरता और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को स्थापित करने के सभी प्रयासों को उनका समर्थन रहेगा. दोनों देश भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को सुधारने और बेहतर करने की कोशिश करेंगे. दोनों देश आपसी बातचीत, सहयोग के जरिए दक्षिण एशिया क्षेत्र में स्थिरता और विकास के लिए काम करेंगे.’

2012 आते-आते अमेरिका ने एशिया में पुन: शक्ति संतुलन की अपनी बदली हुई रणनीति के तहत भारत को इस क्षेत्र की मुख्य धुरी बताना शुरू कर दिया. भारत दौरे पर आने से ठीक पहले संयुक्त राज्य असेंबली को अपने संबोधन में ओबामा ने स्पष्ट कहा कि ‘अमेरिका वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर नए गठजोड़ निर्मित कर रहा है और साथ ही यह सुनिश्चित भी कर रहा है कि दूसरे देश नियम-कानूनों के दायरे में काम करें.’ इस वक्तव्य को ध्यान में रखकर नई दिल्ली में ओबामा की बातचीत और भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी के संयुक्त संबोधन में ‘एशिया पेसिफिक’ और हिंद महासागर क्षेत्र को लेकर दोनों देशों की भविष्य की रणनीति बहुत चौंकानेवाली है.

‘एशिया पैसिफिक और हिंद महासागर क्षेत्र में शांति, स्थिरता और विकास के लिए भारत और अमेरिका दोनों की ही भूमिका महत्वपूर्ण है. इस लिहाज से भारत की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ और अमेरिका की दक्षिण एशिया में पुन: शक्ति संतुलन की नीति, दोनों देशों के लिए अथाह अवसर ले आई है. यही बात एशिया पैसिफिक के दूसरे देशों के लिए भी कही जा सकती है. एशिया पैसिफिक के दूसरे देश आपसी सहयोग बढ़ाने और यहां के नेता द्विपक्षीय बातचीत के जरिए संबंधों को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.’ दोनों देशों की शिष्टमंडल स्तरीय वार्ता के बाद जारी वक्तव्य में ये बातें कही गईं.

2012 आते-आते अमेरिका ने एशिया में पुन: शक्ति संतुलन की अपनी बदली हुई रणनीति के तहत भारत को इस क्षेत्र की मुख्य धुरी बताना शुरू कर दिया

मोदी ने भी आगे बढ़कर ओबामा का साथ दिया. उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार द्वारा शुरू की गई सिविल न्यूक्लियर डील पर अंतिम मुहर लगाने के साथ ही चीन के साथ नीति को भी एक नया आयाम दिया है. उनके पूर्ववर्ती चीन के प्रति अपनी नीतियों को कभी भी स्पष्ट रूप में पेश नहीं कर सके थे. ‘चीन भारत के लिए खतरा है या फिर वह एक सहयोगी भी हो सकता है’ इस मसले पर भारत की दुविधा लगातार बनी हुई थी जिसे मोदी ने काफी हद तक साफ कर दिया है. पूर्ववर्ती सरकारों की दुविधा को समझने के लिए पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन के एक बयान को देखना चाहिए, जिसे उन्होंने 2008 में पूर्व एयर चीफ मार्शल पीसी लाल मेमोरियल लेक्चर में दिया था, नारायणन ने नाराजगी जताई थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मामलों और चीन के प्रति किसी तरह की सर्वसहमत नीति का घोर अभाव है.

मजबूत बहुमत और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के सहयोग के साथ ऐसा लगता है कि मोदी ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में पूरी दृढ़ता से अपने कदम आगे बढ़ाने का मन बना लिया है. इसमें उनकी एक्ट ईस्ट नीति भी शामिल है. पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन बताते हैं, ‘ओबामा-मोदी की मुलाकात ने उम्मीदों को नई उड़ान दे दी है. एशिया-प्रशांत के समुद्री क्षेत्र में अब भारत पहले से भी कहीं ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाएगा.’

हालांकि शेर की पूंछ से खिलवाड़ करने के अपने खतरे भी हैं. चीन की तरफ से मिलनेवाली चुनौतियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. इस यात्रा के दौरान बीजिंग की तरफ से आनेवाले बयानों पर अगर निगाह दौड़ाई जाए तो चीन के मन में चल रही उठापटक का कुछ हद तक अंदाजा मिल जाता है. उदाहरण के लिए चीन सरकार द्वारा प्रायोजित एक मीडिया संस्थान ने मोदी-ओबामा की मुलाकात पर चुटकी लेते हुए इसे सतही-घनिष्टता की संज्ञा दी है. इसी तरह एक अन्य अखबार, पाकिस्तान के सेना प्रमुख के चीन दौरे पर लिखता है कि पाकिस्तान चीन का वह मित्र है जिसे कोई दूसरा बदल नहीं सकता. पाकिस्तान चीन का बारहमासी दोस्त है.

सरन यहां सावधान करते चलते हैं कि भारत और अमेरिका के बीच सहयोग और वार्ता को चीन से जोड़कर देखना जरूरी नहीं है. भारतीय राजनयिकों का एक दल नये विदेश सचिव एस जयशंकर के नये नेतृत्व में इस साल के अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा की तैयारियों में जुट गया है. इस यात्रा की तैयारी में पूरी सावधानी बरती जा रही है. ऐसे में दोनों देशों से मिलनेवाला ऐसा कोई भी भ्रामक संदेश नई परेशानी को जन्म दे सकता है.

फिर से दो देशों के रिश्तों की चर्चा है लेकिन इस बार बात भारत-पाकिस्तान की नहीं बल्कि भारत और चीन की हो रही है.