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स्वामी विवेकानंद ने इंदिरा गांधी के साथ शादी से इनकार किया

vivekanadगांव में एकमात्र जनार्दन माटसाब थे जो बेनागा बीबीसी हिंदी के समाचार रेडियो पर सुना करते थे. खबर सुनने के बाद गांव-भर में घूमकर बताने की उनके अंदर बेचैनी भी रहती थी. सामनेवाले को खबर बताते हुए उनके चेहरे पर गर्व का ऐसा भाव होता मानों युद्ध जीतकर आए हों. एक तरह से वो गांव के लोगों के लिए ऐसी खिड़की थे जिससे लोग बाहरी दुनिया में झांका करते थे. गांव में उन्हें जानकार का दर्जा हासिल था इसीलिए लोगों ने अपने बच्चों को उनसे ट्यूशन पढ़वाना शुरू कर दिया था.

एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने बच्चों को भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बारे में बताना शुरू किया. इंदिरा की जीवनी की शुरुआत उन्होंने उनकी शादी की कहानी से की. कथा कुछ यूं है- ‘नेहरूजी इंदिरा की शादी के लिए बहुत परेशान थे. इस बात की जानकारी उन्होंने गांधीजी को दी. गांधीजी ने कहा इसमें क्या दिक्कत है. उनकी नजर में एक बहुत विद्वान और योग्य लड़का है. नेहरूजी ने पूछा कौन? तो गांधीजी ने कहा- स्वामी विवेकानंद. नेहरू तैयार हो गए. घर पहुंचकर उन्होंने इंदिरा से कहा कि बाबू तुम्हारी शादी विवेकानंद से कराने को कह रहे हैं. उन्होंने विवेकानंद से बात भी कर ली है. अभी विवेकानंद शिकागो में हैं. तुम जाकर कुछ दिन शिकागों में उनके साथ रहो. अगर तुम्हारी सहमति होती है तो हम उनसे शादी की बात आगे बढ़ाएंगे. पिता की आज्ञा पर इंदिरा शिकागो पहुंच गईं. अगले दिन स्वामीजी सुबह चार बजे उठकर अपने कामकाज में लग गए जबकि इंदिरा दोपहर में ग्यारह बजे सोकर उठीं. उठने के बाद बिना नहाए-धोए इंदिरा पाउडर-क्रीम लगाकर तैयार हो गईं. उस दिन तो स्वामीजी कुछ नहीं बोले. संत आदमी थे. लेकिन अगले दिन फिर वही गत. बिना नहाए-धोए इंदिरा तैयार हो गईं.

इंदिरा गांदी के इस गंदे स्वभाव को देखकर स्वामीजी बोले, ‘देखिए हमारे और आपके व्यवहार में बहुत अंतर है. हम आपसे शादी नहीं कर सकते.’ स्वामीजी की इस बात पर इंदिरा तुरंत ही रोते-बिलखते हुए भारत वापसी की तैयारी करने लगीं. वापस आकर उन्होंने नेहरू को बताया कि स्वामीजी ने उनके साथ शादी से इनकार कर दिया है. तब जाकर उनकी शादी फिरोज गांधी से हुई.

मास्टरजी ने यह कहानी गांव के लगभग हर रहवासी को सुनाई थी. इतना ही नहीं बलिया और आस-पास के उस दयार में जाने किस स्रोत से यह कहानी थोड़े फेरबदल के साथ चौतरफा फैली हुई है. पूरी तरह से अफवाह और झूठ पर आधारित यह कहानी उस इलाके में ऐतिहासिक तथ्य बन चुकी थी. अधिकांश लोगों को इस कहानी की सत्यता पर कोई संदेह नहीं था. बाद के समय में जब कुछ पढ़-लिख गए लड़कों ने मास्टरजी की इस कहानी पर सवाल उठाया तो गांव के बड़े-बुजुर्ग और खुद मास्टरसाब कहने लगे, ‘बड़े होकर सारा संस्कार भूल गए हो तुम लोग इस तरह बड़े-बुजुर्गों की बात काटकर उनका अपमान कर रहे हो.’


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स्वामी विवेकानंद और इंदिरा की शादी की कहानी कितनी फर्जी है इसका प्रमाण यही एकमात्र तथ्य है कि स्वामी विवेकानंद की मृत्यु 4 जुलाई 1902 को हुई जबकी इंदिरा गांधी का जन्म 19 नवंबर 1917 को हुआ. यानी स्वामी विवेकानंद की मृत्यु के 15 साल बाद इंदिरा गांधी ने इस दुनिया में कदम रखा था.

‘लगिहें बीसा, न रहिएं ईसा, न रहिएं मूसा’

pos_negगांव-देहात में बसनेवाला समाज अपने हिसाब से अपनी कहानियां गढ़ता रहता है. देवी-देवता, चुनावी राजनीति और तो और दुनियाभर में घट रही घटनाओं तक पर इस समाज के अपने कुछ मिथक जरूर होते हैं. बिहार के कई इलाकों में एक ऐसी ही मिथकीय कहावत सुनी-सुनाई जाती है.

‘लगिहें बीसा, न रहिएं ईसा, न रहिएं मुसा’ इस कहावत का अर्थ यह है कि बीसवीं सदी की शुरुआत से हजार साल के दौर में यानी सन 3000 तक ईसाई धर्म के मानने वालों और इस्लाम को माननेवालों के बीच जबरदस्त लड़ाइयां होंगी और इस लड़ाई में इन दोनों समुदायों का लगभग सफाया हो जाएगा. दुनिया में सिर्फ भारतीय दर्शन ही शेष रह जाएगा.

इस कहावत का सच से कोई विशेष लेना-देना नहीं है लेकिन फिर भी यह एक खास इलाके में काफी सुनी-सुनाई जाती है. आलम यह है कि बिहार के एक हिस्से में बीसवीं सदी से जुड़ा यह मिथक इतना लोकप्रिय है कि लोग इसे कहावतों का हिस्सा बना चुके हैं. किसी कालखंड में इस कहावत को किसी व्यक्ति ने कहा या बोला होगा. फिर यह पूरे इलाके के मानस में बैठ गई है.

इस साल सात जनवरी को जब फ्रांस से छपनेवाली साप्ताहिक व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली हेब्दो’ के दफ्तर पर आतंकी हमला हुआ था तब बिहार के वैशाली जिले के एक गांव में इस कहावत से सामना हुआ. शार्ली हेब्दो पर हमले की खबर एक दिन बाद अखबार के जरिए गांव में पहुंची थी. खबर पढ़ने के बाद गांव के कुछ बड़े-बुजुर्ग इसी विषय पर गंभीर चर्चा में लगे हुए थे. तभी एक बुजुर्ग के मुंह से यह कहावत फूट पड़ी. वहां मौजूद बाकी लोगों ने भी पूरे विश्वास से सहमति में सिर हिला दिया. उस कहावत के बारे में थोड़ी गहरी पड़ताल करने पर पता चला कि उन्हें यह कहावत गांव के ही एक बुजुर्ग ने सुनाई थी.

तब 1962 का भारत-चीन युद्ध हो चुका था. गांव-देहात में बसनेवाले लोग भी यह जानते थे कि इस लड़ाई में भारत को चीन ने हरा दिया है. वे अपने कुछ दोस्त-यारों के साथ भारत-चीन युद्ध पर बात कर रहे थे. सारे लोग इस बात से परेशान थे कि चीन से हार जाने के बाद भारत पर कहीं दूसरे देश भी हमला न कर दें. इसी बातचीत के बीच गांव के एक बुजुर्ग भी शामिल हो गए. उन्होंने इस कहावत को सुनाकर लड़कों को भरोसा दिलाया कि भविष्य में जो लड़ाई होगी उससे भारत का कोई नुकसान नहीं होगा. भविष्य में लड़ाई उन देशों के बीच होगी जहां ईसाई और मुसलमान रहते हैं और राज करते हैं. यह कहावत उन बुजुर्ग की भी नहीं थी. गांव के लोगों के मुताबिक उनसे यह कहावत किसी बड़े संत ने कही थी. वो संत भविष्यवाणी के धंधे में थे और बिहार के इस पूरे इलाके उनकी भविष्यवाणी को सत्य माना जाता था.


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इस कहावत में जो कहा गया है उस पर यकीन करने का कोई आधार नहीं है क्योंकि यह बात ऐसे ही किसी ने अपने धर्म के श्रेष्ठता बोध में कही है. इसका कोई तार्किक या वैज्ञानिक आधार नहीं है. इस हवाले से इतना जरूर समझा जा सकता है कि लड़ाई हार चुके एक देश का गंवई समाज कैसे एक कहावत के जरिए अपनी चिन्ता या डर को छुपाने का प्रयास करता है और कैसे एक भविष्यवाणी करनेवाला इस डर की नींव पर अपनी धाक कायम करता है.

‘एडविना माउंटबेटन के प्रभाव में थे नेहरू’

sdfdrजवाहर लाल नेहरू के बारे में यह बात जगजाहिर है कि उनके एडविना माउंटबेटन से गहरे ताल्लुकात थे. सच या झूठ ज्यादा किसी को नहीं पता. मित्रता तक तो ठीक है, लेकिन कल्पनाशील, गप्पप्रेमी भारतीय समाज ने इस संबंध को कई और मुकाम दिए हैं. कल्पना यहां तक जाती है कि एडविना माउंटबेटन से नेहरू के जिस्मानी संबंध थे. कहानीकारों और इतिहासकारों का एक समूह दोनों के संबंधों को इस तरह से परिभाषित करता है कि एडविना को अंग्रेजों ने नेहरू को बरगलाने के लिए भारत भेजा था. एडविना ने नेहरू को अपने प्रेम में फांसकर ऐसी तमाम शर्तें मनवाईं जो भारत के हित में नहीं थी. नेहरूविरोधी धारा के लोगों ने यह प्रचार भी किया है कि एडविना के कहने पर ही नेहरू पाकिस्तान के बंटवारे के लिए तैयार हो गये थे. कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि भारत से जाने के बाद नेहरू विदेश नीति से लेकर कई राजनीतिक मुद्दों पर एडविना की सलाह लिया करते थे.


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एडविना माउंटबेटन की बेटी पामेला ह्रिक्स ने अपनी किताब डॉटर ऑफ एम्पायर में लिखा है कि उनकी मां एडविना भारत के पहले प्रधानमंत्री की करीबी दोस्त थीं. दोनों एक-दूसरे के साथ वक्त बिताते थे और खुश रहते थे. एडविना नेहरू के इस संबंध के बारे में पिता माउंटबेटन भी जानते थे. पार्टी और तेज रफ्तार जिंदगी की शौकीन लेडी माउंटबेटन के जीवन में नेहरू के आने के बाद ठहराव आया था और पामेला इस रिश्ते को आध्यात्मिक और रूहानी बताती हैं, जिसमें वासना के लिए कोई जगह नहीं थी.

यह सच है कि नेहरू और लेडी माउंटबेटन के बीच आत्मीय संबंध थे. दोनों एक-दूसरे से गहराई तक जुड़े हुए थे और 13 साल की इस दोस्ती में उन्होंने अच्छा वक्त बिताया. यह दो राजनेताओं या प्रमुख शख्सियतों के बीच बननेवाले रिश्ते की एक मिसाल है. नेहरू और एडविना के जिन चित्रों के आधार पर उनके संबंधों पर चुटकियां ली जाती हैं उनमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है. दुनिया की तमाम शीर्ष राजनीतिक और प्रभावशाली शख्सियतों के बीच आत्मीय और गहरे संबंध रहे हैं. एक-दूसरे के बीच पत्र व्यवहार भी होता है. अपने समय की इन दो महत्वपूर्ण हस्तियों के बीच का संबंध भी कुछ कुछ ऐसा ही था.

डॉ. हेडगेवार ने सुरंग खोदकर तिरंगा फहराया

asdasयूं तो स्वतंत्रता के आंदोलन में होम हुए सेनानियों के मामले में हमारे राष्ट्रवादी कुनबे का झोला रीता ही है लेकिन कहानियों और संघ साहित्य में ब्रिटश काल के दौरान प्रबल राष्ट्रवाद से जुड़ी अनेकानेक दंत कथाएं पूरी प्रखरता से मौजूद हैं. जब गांधी, नेहरू, पटेल, आजाद समेत आजादी के तमाम नायक अंग्रेजों से भारत को छुड़ाने की कोशिश में थे तब संघी कुनबा भारत को मलेच्छों और मुसलमानों से छुड़ाने की फिराक में था. खैर करने को भले न कुछ रहा हो लेकिन कहने को बहुत कुछ है.

यह कथा संघ के शिक्षालयों और शिशु मंदिरों में संघ संस्थापक डॉ. केशव बलराम पंत हेडगेवार को लेकर है जिसे खूब कहा-सुना भी जाता है. कथा कुछ यूं है कि बचपन से ही हेडगेवार के मन में देशप्रेम की भावना बलवति थी. पंद्रह बरस की आयु में ही उनके मन में अंग्रेजों को इस देश से बाहर खदेड़ने का भाव हावी हो गया था. अंग्रेजी जमाना था. नागपुर के अंग्रेज मजिस्ट्रेट का दफ्तर किसी किले की मानिंद ऊंची दीवारों और अट्टालिकाओं से घिरा होता था. निरंतर संतरी पहरेदारी किया करते थे. किले के भव्य द्वार के शीर्ष पर कभी न अस्त होनेवाला अंग्रेजी साम्राज्य का प्रतीक यूनियन जैक फड़फड़ाता रहता था. हर दिन उधर से गुजरते बाल हेडगेवार के मन को यह बात बहुत कचोटती थी. अपमान के प्रतीक यूनियन जैक को उसकी हैसियत दिखाने और अंग्रेजों को उनकी वाजिब जगह दिखाने का प्रण बाल हेडगेवार ने कर लिया. रणनीति तय हो गई. बाल हेडगेवार ने अपने कुछ साथियों के साथ अपने घर के भीतर से एक सुरंग खोदनी शुरू कर दी. उनका दृढ़ निश्चय था कि यूनियन जैक के स्थान पर तिरंगा फहराना है. अपने बाल मित्रों के सहयोग से कुछ ही दिन में हेडगेवार ने इस काम को अंजाम तक पहुंचा दिया. यूनियन जैक हटाकर मजिस्ट्रेट के दफ्तर पर तिरंगा फहराने की यह कहानी शिशु मंदिरों में खूब कही सुनी जाती हैं. बाद में इस कहानी के सूत्र पकड़ने की तमाम कोशिशें व्यर्थ गईं. किसी स्वतंत्र इतिहासकार अथवा पुस्तक में इस तरह का कोई दृष्टांत देखने-सुनने को नहीं मिला.


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संघ का एक सच यह है कि आजादी के पहले और बाद तक वह तिरंगे को भारत का राष्ट्रीय प्रतीक मानता ही नहीं था. उसके सपनों में भारत का राष्ट्रीय ध्वज भगवा स्वरूप लिए हुए था. दूसरी बात हेडगेवार का जन्म 1889 में हुआ था. यानी यह घटना पंद्रह वर्ष बाद 1904 या 05 के आस पास की होनी चाहिए. उस समय तक तिरंगे का कोई अस्तित्व ही नहीं था. मौजूदा स्वरूपवाला तिरंगा 1947 में अस्तित्व में आया उससे पहले तिरंगे के बीच में चक्र की जगह चरखा होता था. उससे भी पहले का ध्वज औऱ भी अलग आकार-प्रकार का होता था. एक सच यह भी है कि लंबे समय तक संघ तिरंगे से खुद को इतना दूर रखता रहा कि नागपुर स्थित संघ मुख्यालय पर 2002 में पहली बार तिरंगा फहराया गया.

वीर सावरकर ने अंग्रेजों से नहीं मांगी थी माफी

tgfesdहिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करनेवालों में सबसे अग्रणी नाम विनायक दामोदर सावरकर का है. वीर सावरकर के नाम से जाने-जानेवाले इस क्रांतिकारी के बारे में कहा जाता है कि कालापानी की सजा पाने के बाद उन्होंने ब्रिटिश सरकार से माफी मांगी थी. यह उनकी एक चाल थी, ताकि जेल से रिहा होकर वह स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले सकें. अंग्रेजों से उनकी माफी को लेकर भारतीय समाज में कई मत हैं. सावरकर समर्थकों का मानना है कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार से माफी नहीं मांगी थी.

सावरकर के लिखे साहित्य पर ब्रिटिश सरकार ने पाबंदी लगा रखी थी. सात अप्रैल 1911 को नासिक के तात्कालिक कलेक्टर एटीएम जैक्सन की हत्या के संबंध में उन्हें कालापानी की सजा के तौर पर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में स्थित सेल्यूलर जेल (कालापानी) भेजा गया था. यहां कैदियों को जानवरों की तरह रखा जाता था और कठोर परिश्रम कराया जाता था. कहा जाता है कि इस जेल में कैदियों को नारियल से तेल निकालना पड़ता था. इसके लिए उन्हें कोल्हू के बैल की तरह जोत दिया जाता था. उनसे जंगलों को साफ रखने के लिए काम कराया जाता था. साथ ही दलदली और उबड़-खाबड़ जमीन को समतल करना होता था. कैदियों को लगातार काम करना होता था और रुकने पर कोड़े और बेंतों से पिटाई की जाती थी. उन्हें भरपूर खाना भी नहीं दिया जाता था. सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहने के बाद रिहा हो गए.

सावरकर की रिहाई अब भी विवाद का विषय है. विवाद इसलिए, क्योंकि कालापानी के बारे में मशहूर था कि वहां से कोई भी जिंदा वापस नहीं लौटता था. सावरकर के जेल से छूटने की कहानी को लेकर समाज दो धड़ों में बंट गया. एक धड़े का मानना है कि सावरकर ने माफी मांगी थी, वहीं दूसरे धड़े की सोच इसके विपरीत है.


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फ्रंटलाइन पत्रिका के मार्च 2005 के एक अंक में वह पत्र प्रकाशित हुआ था जो सावरकर की ओर से अंडमान के चीफ कमिश्नर को 30 मार्च 1920 को भेजा गया था. पत्रिका में छपी रिपोर्ट के मुताबिक चार जुलाई 1911 को सेल्यूलर जेल पहुंचने के छह महीने के भीतर सावरकर ने दया याचिका दाखिल की थी. अक्टूबर 1913 में वायसराय की कार्य परिषद के सदस्य सर रेगिनाल्ड क्रेडॉक जेल पहुंचकर सावरकर और कुछ दूसरे कैदियों से मिले थे लेकिन बात नहीं बनी. इसके बाद 14 नवंबर 1913 उन्होंने दूसरी दया याचिका दाखिल की थी. इसमें उन्होंने लिखा था, ‘मैं अपनी पूरी शक्ति के साथ सरकार की इच्छा के अनुसार सेवा करना चाहता हूं…’ पत्र के आखिर में उन्होंने खुद को सरकार का सबसे आज्ञाकारी मुलाजिम बताया था. यह पत्र भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में संरक्षित रखा गया है.

का प्रधानमंत्री इंदिरा मर गइली?

indira2014 लोकसभा चुनाव के दौरान पत्रकारों की एक टीम बनारस जिले के एक गांव में पहुंची. ये टीम बनारस संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आनेवाले गांवों में घूमकर चुनावी सर्वेक्षण का काम कर रही थी. उस टीम के पास प्रश्नों की एक पूरी सूची थी जिसके आधार पर वो गांव-गांव घूमकर लोगों से सवाल पूछते और फिर उनके जवाब नोट करते जाते.

उस गांव में पहुंचने के बाद टीम के लोगों ने बाकी जगहों की तरह ही गांववालों से सवाल पूछने का काम शुरू किया. इसी प्रक्रिया में टीम गांव की 80 साल की एक बुजुर्ग महिला से मिली. महिला से उन्होंने पहला सवाल पूछा- ‘क्या वो नरेंद्र मोदी को वोट देंगी?’ सवाल सुनकर 80 वर्षीय महिला चौंक गईं? उसने पलटकर सवाल दागा- ‘क्या मोदी?’ पत्रकार ने फिर अपना सवाल दुहराया- ‘हां मोदी. वो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. बनारस से लड़ रहे हैं. क्या आप मोदी को वोट देंगी?’ महिला इस बार पहले से ज्यादा चौंकते हुए बोली, ‘का कहत बाड़ बचवा. का प्रधानमंत्री इंदिरा मर गइली?’ महिला के इस सवाल के बाद पत्रकारों का सिर घूम गया. सिर घूमकर जब दोबारा अपनी जगह वापस आया तब उन्हें माजरा समझ आया. 80 वर्षीय उस बुजुर्ग महिला के लिए भारतीय राजनीति इंदिरा गांधी के टाइम मशीन में ही अटकी हुई थी. तब तक वह इसी भरोसे में थी कि देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ही हैं. यह घटना इंदिरा गांधी के राजनीतिक कद को स्थापित करने के साथ इस बात को भी रेखांकित करती है कि कैसे इंदिरा गांधी के बाद देश के राजनीतिक व्यक्तित्व के क्षेत्र में एक शून्य पैदा हुआ है. इससे यह भी पता चलता है कि कैसे सरकारें इतने सालों तक आम आदमी के जीवन से बिल्कुल दूर रही हैं. इस कहानी का एक राजनीतिक संदेश यह भी है कि इंदिरा गांधी के बाद कोई भी प्रधानमंत्री ऐसा नहीं हुआ जो लोगों के जेहन में अपनी जगह बना सके.

ये कहानी बस उस महिला की नहीं है. एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम ‘जायका इंडिया का’ के सिलसिले में विनोद दुआ असम गए हुए थे. वहां ब्रह्मपुत्र नदी के कछार में बसे कुछ गांवों में जाकर उन्होंने लोगों से बात की. दुआ ने वहां लोगों से देश के प्रधानमंत्री का नाम पूछा? कई लोगों ने ना में अपना सिर हिलाया. यानी लोगों को नहीं पता था कि जिस देश के वो नागरिक हैं उसका प्रधानमंत्री कौन है. लोगों ने दुआ को बताया कि उन तक सरकार की कोई योजना आज तक नहीं पहुंची है. ये घटना भी बताती है कि सरकार एक समाज या क्षेत्र के बीच से कैसे गायब है. लोगों तक न सरकार पहुंची है न उसकी योजनाएं. कहीं समय इंदिरा गांधी पर अटका हुआ है तो कहीं वो शुरु ही नहीं हुआ है.

इंदिरा गांधी के पुत्र हैं अमिताभ बच्चन

amitabhनेहरू-गांधी परिवार के साथ जुड़ी अनगिनत गल्प कथाओं में एक किस्सा यह भी है कि अमिताभ बच्चन इंदिरा गांधी के पुत्र थे. अब जबकि इंदिरा की मौत के तीन दशक बीत चुके हैं और खुद महानायक अमिताभ बच्चन भी उम्र के सातवें दशक में हैं, लोग चटखारे लेकर इस किस्से को बयान करते हैं. अमिताभ को इंदिरा का पुत्र बताने के लिए कई तर्क दिए जाते हैं. अक्सर सुनाई जानेवाली एक कहानी तो यही है कि अमिताभ को फिल्मों में काम देने के लिए इंदिरा ने सिफारिशी चिट्ठी लिखी थी. दूसरा कि कुली के सेट पर घायल होने के बाद इंदिरा ने ब्रीच कैंडी अस्पताल के डॉक्टरों और प्रशासन को खास हिदायत दी थी. साथ ही अगले दिन विदेश से आए कुछ डॉक्टरों की टीम ने अमिताभ का इलाज किया था. इतना ही नहीं इंदिरा की आखिरी यात्रा के दौरान अमिताभ फूट-फूटकर रो रहे थे और लगातार उनके शव के पास ऐसे खड़े रहे जैसे कोई पुत्र अपनी मां को आखिरी विदाई दे रहा हो. इन सभी बातों में सच्चाई है, लेकिन ये बातें कहीं से अमिताभ को इंदिरा का पुत्र साबित नहीं कर सकती.


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हकीकत यह है कि अमिताभ के पिता हरिवंशराय बच्चन के अच्छे संबंध जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी से थे. इंदिरा की दोस्ती अमिताभ की मां तेजी बच्चन से भी थी. इन दोनों परिवारों का संबंध इलाहाबाद से जुड़ा हुआ था. परिवारों का एक दूसरे के घर आना-जाना था. इस पारिवारिक दोस्ती के नाते इंदिरा गांधी, अमिताभ बच्चन से बेटे की तरह स्नेह करती थीं. खुद राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन के बीच गहरी दोस्ती थी. दोनों की पढ़ाई तक एक ही स्कूल में हुई थी. प्रियंका गांधी की शादी में अमिताभ बच्चन मेहमानों का स्वागत करने के लिए खड़े थे. लंबे समय की इसी पारिवारिक दोस्ती को ध्यान में रखकर इंदिरा ने सुनील दत्त को अमिताभ के लिए सिफारिशी चिट्ठी लिखी थी और उन्होंने रेशमा और शेरा में अमिताभ को रोल दिया.

पारिवारिक दोस्त के बेटे के लिए सिफारिशी चिट्ठी लिखना या बीमार होने पर ध्यान रखने की ताकीद करना एक सामान्य बात है. यह लंबे समय की दोस्ती से उपजे स्नेह और सामान्य शिष्टाचार का सबब है कि मुश्किल वक्त में एक-दूसरे के साथ खड़े हों. फिलहाल गांधी-बच्चन परिवार के बीच रिश्तों की वह गहराई खत्म हो चुकी है.

काबा में शिवलिंग

dfgकाबा में शिवलिंग! यह कहानी भी गांव-गुरबे में इतने भरोसे के साथ कही-सुनी जाती है मानो किस्सागो खुद काबा में गंगाजल और बेलपत्र चढ़ाकर आया हो. अगर आपके सामने कोई किस्सागो यह कहानी लेकर न आया हो तो एक बार फिर से पीएन ओक साहब की किताबों को पढ़े. वहां भी यही बात साबित करने की कोशिश है. मुसलमानों के पवित्र स्थल काबा की मस्जिद में मौजूद विशाल काला पत्थर शिवलिंग है. यह कहानी कहनेवाले ये बातें इतने पुरयकीन अंदाज में बताते हैं मानो उनके पुरखे पूरा जीवन काबा में ही बिताकर लौटे हों. इस कहानी में यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि पुराने समय में जब यूनान और पश्चिम एशिया में हिंदू रहते थे और वहां मूर्ति पूजा का प्रचलन था तभी काबा में शिवलिंग की स्थापना की गई थी. काबा के पूर्वी कोने में जड़ा गया शिवलिंग और उसकी पूजा का सिलसिला दोनों इस्लाम की पैदाइश से बहुत पुराने हैं. इन कहानीकारों की मानें तो पैगंबर मोहम्मद साहब ने जिन लोगों को परास्तकर इस्लाम की स्थापना की वे और कोई नहीं बल्कि हिंदू ही थे. पैगंबर ने उनको पराजित करके मूर्ति पूजा तो बंद करवा दी लेकिन भगवान शिव की ताकत से वह भी बखूबी परिचित थे इसलिए बकायदा शिवलिंग की पूजा खुद भी की और बाकी मुसलमानों से भी करवाई. अपनी बात के समर्थन में कहानीकार यह तर्क भी देता है कि जिस तरह हिंदू समाज के लोग पूजा के दौरान केवल धोती पहनते हैं उसी तरह हज के दौरान मक्का जानेवाले भी बिना सिला हुआ सफेद वस्त्र पहनते हैं. यानी शिवलिंग की पूजा मुसलमान भी करते हैं.


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इस्लामी मान्यता के मुताबिक इस पत्थर को काबा की पूर्वी दीवार में पैगंबर हजरत मोहम्मद ने 605 ईस्वी में जड़ा था. बीते सालों के दौरान यह कई टुकड़ों में विभाजित हो गया है और उनको एक साथ रखने के लिए बाहर से चांदी का आवरण लगाया गया है. इतिहासकारों के मुताबिक इस्लाम के आगमन से पूर्व काबा में करीब 360 ऐसी चीजें थीं जिनकी इबादत की जाती थी. ये वस्तुएं साल के प्रत्येक दिन का उदाहरण थीं. इन्हीं में से एक काले पत्थर को पैगंबर हजरत मोहम्मद ने काबा में स्थापित किया था और उसे इस तरह की ख्याति हासिल हो गई.

‘गांधी चाहते तो भगत सिंह को फांसी नहीं होती’

bhagat_singhदेश की बहुत बड़ी आबादी खासकर नौजवानों के मन में गांधी बनाम भगत सिंह के शीर्षक से कई काल्पनिक कहानियां रची-बसी हैं. इनसे उपजनेवाला अंतिम सवाल अक्सर ये होता है कि आखिर गांधी ने भगत सिंह और उनके साथियों की रिहाई के लिए कुछ क्यों नहीं किया? इसके बाद तर्कों और तथ्यों की तरफ पीठ करके गांधी के व्यक्तित्व के तमाम पहलुओं का पोस्टमार्टम शुरू हो जाता है, कोई कहता है कि गांधी स्वार्थी थे और अपनी शोहरत चाहते थे? कोई कहता है कि गांधी की वजह से भारत का विभाजन हुआ. लोक में गांधी की तमाम स्वीकार्यता के बावजूद लंबे समय तक देश के वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों उनसे समान रूप से दूर रहे. यह जुमला भगत सिंह की मौत के बाद से आज तक उछाला जा रहा है कि महात्मा गांधी, भगत सिंह की लोकप्रियता से बहुत जलते थे. उनको लगता था कि भगत सिंह का क्रांति दर्शन लोगों को उनकी अहिंसा के मुकाबले अधिक भाता है और यही वजह है कि गांधी ने भगत सिंह की रिहाई में कोई रुचि नहीं ली. यह भी कि गांधी के साथ वैचारिक टकराव की कीमत भगत सिंह और उनके साथियों को अपनी जान देकर गंवानी पड़ी. विडंबना तो यह है कि ऐसी बातें केवल गांव की चौपालों का हिस्सा नहीं हैं बल्कि कई प्रतिष्ठित विद्वानों ने भी इस विषय पर तमाम कागज काले किए हैं.


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सच्चाई यह है कि गांधी ने भगत सिंह और उनके साथियों की रिहाई के लिए अपनी सीमा के भीतर हर संभव प्रयास किया. इस मुद्दे पर गांधी की आलोचना करनेवाले यह भूल जाते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों की जान बचने का सबसे अधिक फायदा उनको ही मिलता. गांधीजी को अच्छी तरह पता था कि भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी होने पर देश के युवा खासतौर पर कांग्रेस के युवा बहुत नाराज होंगे और हुआ भी यही. गांधीजी का अहिंसा में दृढ़ विश्वास था और यह बात किसी से छिपी नहीं है. भगत सिंह के मामले में उनके रुख को भी इसी नजरिये से देखना होगा. वह आजादी की लड़ाई में हिंसा का रास्ता अपनाने वालों को भ्रमित मानते थे. दिल्ली में एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने कहा था कि वह हर तरह की हिंसा के खिलाफ हैं फिर चाहे वह सरकार की हिंसा ही क्यों न हो. उन्होंने इसी आधार पर भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी का भी विरोध किया था. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी के तीन दिन बाद कांग्रेस के कराची सत्र में उन्होंने कहा, ‘आपको जानना चाहिए कि मैं हत्यारों तक को सजा देने के खिलाफ हूं. यह शंका निराधार है कि मैं भगत सिंह को बचाना नहीं चाहता था लेकिन मैं उनकी गलतियों से भी आपको अवगत कराना चाहता हूं. उनका रास्ता गलत था.’

यह बात भी गलत है कि भगत सिंह के मामले में गांधीजी ने फांसी के कुछ दिन पहले ही सक्रियता दिखाई. गांधी ने 4 मई 1930 को ही वायसराय को खत लिखकर इस बात पर नाराजगी जताई थी. इसके बाद लाहौर षडयंत्र मामले की सुनवाई के लिए अलग पंचाट बनाया गया. 31 जनवरी 1931 को उन्होंने इलाहाबाद में कहा कि भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी नहीं दी जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि उन्हें फांसी तो क्या जेल तक में नहीं रखा जाना चाहिए.

गांधी और इर्विन के बीच फरवरी-मार्च 1931 में हुई वार्ता के दौरान गांधीजी पर बहुत दबाव था कि वह बातचीत के लिए भगत सिंह की रिहाई को शर्त बनाएं लेकिन गांधी ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने वायसराय के साथ बातचीत में यह जरूर कहा कि अगर आप माहौल को और अधिक अनुकूल बनाना चाहते हैं तो आपको भगत सिंह की फांसी रोक देनी चाहिए. एक हकीकत यह भी है कि तत्कालीन कानूनों के मुताबिक एक बार प्रिवी काउंसिल का निर्णय आ जाने के बाद खुद वायसराय भी सजा को कम नहीं करवा सकते थे.

ताज महल या तेजोमहालया

tajmahalबहुत हद तक संभव है कि आप सबने यह कहानी सुनी हो. कहानी यह कि ताजमहल दरअसल भगवान शिव का मंदिर है और उसका नाम अतीत में तेजोमहालया था. अगर आप आगरा गए होंगे तो इस बात से इत्तफाक रखेंगे कि आगरे के रिक्शेवालों और तांगेवालों से बड़ा किस्सागो शायद ही कोई हो. आपके बैठने की देर है कि वे आपको मुगलिया हरम और शाही परिवार के किस्से ऐसे सुनाना शुरू करते हैं मानो उनकी पैदाइश उसी दौर की है और वे टाइम मशीन में बैठकर इधर टहलने आए हैं. अक्सर उनकी बातचीत का एक सिरा इस बात पर जाकर खुलता है कि ताजमहल दरअसल मुगल बादशाह शाहजहां और उनकी बेगम मुमताज महल का मकबरा नहीं बल्कि भगवान शिव का मंदिर है और उसका असली नाम तेजोमहालया था.

इस बात को आप कोरी गप्प मानकर खारिज कर सकते हैं लेकिन जिंदगी में हैरानियां इतनी जल्दी खत्म नहीं होती हैं. हिंदूवादी इतिहासकार पीएन ओक ने तो बकायदा इस पर एक किताब ही लिख मारी है. ओक साहब कहते हैं कि मुस्लिम शासक अपने समय में राजघराने के मृतकों को दफनाने के लिए हिंदुओं से हथियाए गए मंदिरों तथा अन्य भवनों का इस्तेमाल करते थे. ताजमहल के तेजोमहालया होने की दलील देते हुए वह कहते हैं कि दुनिया के किसी भी मुस्लिम देश में भवन के लिए महल शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जाता. वह खारिज करते हैं कि यह नाम मुमताज महल के नाम से लिया गया है. क्योंकि अगर शाहजहां को अपनी पत्नी के नाम पर इमारत बनवानी होती तो वह उसके पूरे नाम यानी मुमताज महल का इस्तेमाल करते न कि आधा अधूरा. पीएन ओक का कहना है कि ताजमहल दरअसल तेजोमहालया का अपभ्रंश है. शिवमंदिर से एक और तुलना करते हुए वह कहते हैं कि ताजमहल में दोनों कब्रों के ऊपर निरंतर पानी की बूंदे टपकने की व्यवस्था की गई जो कि दुनिया के तमाम शिवालयों में देखी जा सकती है जहां शिवलिंग पर कलश से जल की बूंदें गिरती हैं.


गौर फरमाएं

इतिहास का ज्ञान रखनेवाला हर विद्यार्थी जानता है कि ताजमहल का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी प्रिय पत्नी मुमताज महल के नाम पर करवाया था. सन् 1631 से 1653 के बीच 22 सालों की अवधि में बनी इस इमारत में शाहजहां और मुमताज की कब्रें दफन हैं. इस इमारत की प्रेरणा दिल्ली स्थित हुमायूं का मकबरा है. ताजमहल काफी हद तक उसकी अनुकृति लगता है. ताजमहल परिसर में मौजूद बागे बहिश्त शैली में बने चारबाग भी इसके मुगल वास्तु की गवाही देते हैं. इसका वास्तु उस्ताद अहमद लाहौरी ने तैयार किया था. करीब 20,000 मजदूर 22 सालों तक दिन रात इसे बनाने में लगे रहे. देश की सर्वोच्च अदालत सन् 2000 में ही पीएन ओक की स्थापना को खारिज कर चुकी है.