‘मैं और बराक’ साथ-साथ

एशिया में शक्ति संतुलन स्थापित करने के क्रम में चीन भारतीय और अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के समक्ष विकट समस्या की तरह मौजूद था; फोटोः िीआईबी
एशिया में शक्ति संतुलन स्थापित करने के क्रम में चीन भारतीय और अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के समक्ष विकट समस्या की तरह मौजूद था;
फोटोः िीआईबी

वो आए, उन्होंने देखा और ज्यादातर चीजों से वे सहमत भी दिखे! रायसीना पहाड़ी का जो माहौल था उससे अगर कोई निष्कर्ष निकाला जाय तो यह बात कही जा सकती है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन सभी चीजों को बहुत करीब से देखा और समझा, जिसे उनके नये-नवेले दोस्त नरेंद्र मोदी दिखाना-बताना चाहते थे. कुछेक बातें जरूर अपवाद थीं मसलन ताजमहल के दीदार को टाल देना, प्रधानमंत्री द्वारा उनके पहले नाम से संबोधित करने पर कोई गर्मजोशी न दिखाना, यात्रा के अंतिम पड़ाव पर खुले शब्दों में धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक बहुलता जैसी नसीहतों को नजरअंदाज कर दें तो यह दौरा ऐतिहासिक तो नहीं लेकिन महत्वपूर्ण है. दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने एक साथ रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में आम जनता को संबोधित किया. भारतीय प्रधानमंत्री के साथ किसी अमेरिकी राष्ट्रपति का रेडियो पर यह पहला संयुक्त संबोधन था. यह कहना गलत नहीं होगा कि कम समय में भारतीय प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति ने इतिहास बनाने के रास्ते पर कदम बढ़ा दिया है.

ओबामा पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जिन्होंने बतौर मुख्य अतिथि गणतंत्र दिवस समारोह में शिरकत की और उन्होंने राष्ट्रपति रहते हुए दो बार भारत का दौरा किया, इन प्रतीकात्मक घटनाओं से परे अगर देखें तो भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों की दिशा में यह परिवर्तनकारी अध्याय की तरह है. पहली बार दोनों देशों के प्रमुखों के बीच जिस तरह से बातचीत हुई वह दो बराबरी के लोगों के बीच की बातचीत थी,  खुद के संघर्षों से जूझकर खड़े हुए नेताओं की बातचीत थी जिन्होंने इस मुकाम तक पहुंचने के पहले तमाम विषम परिस्थितियों को मात दी है. एक भारतीय प्रधानमंत्री जो अपने विचारों को शालीनता और शिष्टाचार के दबाव में छुपाता नहीं और एक अमेरिकी राष्ट्रपति जो बोलने से ज्यादा सुनना चाहता है. फिर चाहे मसला क्षेत्रीय सुरक्षा और शांति का हो, जलवायु परिवर्तन का या फिर विनिवेश और अंतरराष्ट्रीय व्यापार का.

यह बात स्पष्ट है कि द्विपक्षीय वार्ता के दौरान दोनों देशों के प्रतिनिधिमंडल के दिमाग में कहीं न कहीं चीन घूम रहा था. बातचीत शुरू होने से पहले भारत में अमेरिका के पूर्व राजदूत रॉबर्ट डी ब्लैकविल ने कहा, ‘चीन के बढ़ते प्रभुत्व को काबू में करने को लेकर भारत और अमेरिका दोनों में सुनियोजित तालमेल का बुरी तरह से अभाव है. कुछ हद तक इस समस्या की वजह यह भी है कि अब तक भारत ओबामा प्रशासन की दीर्घकालिक और तर्कसंगत चीन-नीति को नजरअंदाज करता आया है.’

महज कुछ साल पहले की  ही बात है जब ओबामा ने चीन के साथ मिलकर जी2 संघ की संकल्पना पेश की थी. इसका उद्देश्य दक्षिण एशिया को नियंत्रित करना था. इस समूह के जरिए ओबामा दक्षिण एशिया में एक शक्ति केंद्र की बात कर रहे थे जिसमें भारत के लिए भी एक बड़ी भूमिका की परिकल्पना थी. इसका विस्तार क्षेत्र अदन की खाड़ी से लेकर मलक्का जलडमरुमध्य तक था. नवंबर 2009 में अमेरिका और चीन द्वारा जारी संयुक्त वक्तव्य में कहा गया- ‘दोनों पक्ष दक्षिण एशिया में शांति, स्थिरता और विकास के सभी प्रयासों का स्वागत करते हैं. वे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आतंकवाद से मुकाबले के सभी प्रयासों का समर्थन करेंगे. इन देशों में आंतरिक स्थिरता और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को स्थापित करने के सभी प्रयासों को उनका समर्थन रहेगा. दोनों देश भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को सुधारने और बेहतर करने की कोशिश करेंगे. दोनों देश आपसी बातचीत, सहयोग के जरिए दक्षिण एशिया क्षेत्र में स्थिरता और विकास के लिए काम करेंगे.’

2012 आते-आते अमेरिका ने एशिया में पुन: शक्ति संतुलन की अपनी बदली हुई रणनीति के तहत भारत को इस क्षेत्र की मुख्य धुरी बताना शुरू कर दिया. भारत दौरे पर आने से ठीक पहले संयुक्त राज्य असेंबली को अपने संबोधन में ओबामा ने स्पष्ट कहा कि ‘अमेरिका वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर नए गठजोड़ निर्मित कर रहा है और साथ ही यह सुनिश्चित भी कर रहा है कि दूसरे देश नियम-कानूनों के दायरे में काम करें.’ इस वक्तव्य को ध्यान में रखकर नई दिल्ली में ओबामा की बातचीत और भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी के संयुक्त संबोधन में ‘एशिया पेसिफिक’ और हिंद महासागर क्षेत्र को लेकर दोनों देशों की भविष्य की रणनीति बहुत चौंकानेवाली है.

‘एशिया पैसिफिक और हिंद महासागर क्षेत्र में शांति, स्थिरता और विकास के लिए भारत और अमेरिका दोनों की ही भूमिका महत्वपूर्ण है. इस लिहाज से भारत की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ और अमेरिका की दक्षिण एशिया में पुन: शक्ति संतुलन की नीति, दोनों देशों के लिए अथाह अवसर ले आई है. यही बात एशिया पैसिफिक के दूसरे देशों के लिए भी कही जा सकती है. एशिया पैसिफिक के दूसरे देश आपसी सहयोग बढ़ाने और यहां के नेता द्विपक्षीय बातचीत के जरिए संबंधों को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.’ दोनों देशों की शिष्टमंडल स्तरीय वार्ता के बाद जारी वक्तव्य में ये बातें कही गईं.

2012 आते-आते अमेरिका ने एशिया में पुन: शक्ति संतुलन की अपनी बदली हुई रणनीति के तहत भारत को इस क्षेत्र की मुख्य धुरी बताना शुरू कर दिया

मोदी ने भी आगे बढ़कर ओबामा का साथ दिया. उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार द्वारा शुरू की गई सिविल न्यूक्लियर डील पर अंतिम मुहर लगाने के साथ ही चीन के साथ नीति को भी एक नया आयाम दिया है. उनके पूर्ववर्ती चीन के प्रति अपनी नीतियों को कभी भी स्पष्ट रूप में पेश नहीं कर सके थे. ‘चीन भारत के लिए खतरा है या फिर वह एक सहयोगी भी हो सकता है’ इस मसले पर भारत की दुविधा लगातार बनी हुई थी जिसे मोदी ने काफी हद तक साफ कर दिया है. पूर्ववर्ती सरकारों की दुविधा को समझने के लिए पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन के एक बयान को देखना चाहिए, जिसे उन्होंने 2008 में पूर्व एयर चीफ मार्शल पीसी लाल मेमोरियल लेक्चर में दिया था, नारायणन ने नाराजगी जताई थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मामलों और चीन के प्रति किसी तरह की सर्वसहमत नीति का घोर अभाव है.

मजबूत बहुमत और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के सहयोग के साथ ऐसा लगता है कि मोदी ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में पूरी दृढ़ता से अपने कदम आगे बढ़ाने का मन बना लिया है. इसमें उनकी एक्ट ईस्ट नीति भी शामिल है. पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन बताते हैं, ‘ओबामा-मोदी की मुलाकात ने उम्मीदों को नई उड़ान दे दी है. एशिया-प्रशांत के समुद्री क्षेत्र में अब भारत पहले से भी कहीं ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाएगा.’

हालांकि शेर की पूंछ से खिलवाड़ करने के अपने खतरे भी हैं. चीन की तरफ से मिलनेवाली चुनौतियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. इस यात्रा के दौरान बीजिंग की तरफ से आनेवाले बयानों पर अगर निगाह दौड़ाई जाए तो चीन के मन में चल रही उठापटक का कुछ हद तक अंदाजा मिल जाता है. उदाहरण के लिए चीन सरकार द्वारा प्रायोजित एक मीडिया संस्थान ने मोदी-ओबामा की मुलाकात पर चुटकी लेते हुए इसे सतही-घनिष्टता की संज्ञा दी है. इसी तरह एक अन्य अखबार, पाकिस्तान के सेना प्रमुख के चीन दौरे पर लिखता है कि पाकिस्तान चीन का वह मित्र है जिसे कोई दूसरा बदल नहीं सकता. पाकिस्तान चीन का बारहमासी दोस्त है.

सरन यहां सावधान करते चलते हैं कि भारत और अमेरिका के बीच सहयोग और वार्ता को चीन से जोड़कर देखना जरूरी नहीं है. भारतीय राजनयिकों का एक दल नये विदेश सचिव एस जयशंकर के नये नेतृत्व में इस साल के अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा की तैयारियों में जुट गया है. इस यात्रा की तैयारी में पूरी सावधानी बरती जा रही है. ऐसे में दोनों देशों से मिलनेवाला ऐसा कोई भी भ्रामक संदेश नई परेशानी को जन्म दे सकता है.

फिर से दो देशों के रिश्तों की चर्चा है लेकिन इस बार बात भारत-पाकिस्तान की नहीं बल्कि भारत और चीन की हो रही है.