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भितरघात से मिलेगी मात!

कैप्टन अमरिंदर सिंह को कांग्रेस पार्टी ने भले ही संसद का उपनेता बना दिया हो लेकिन उनकी नजर प्रदेश (पंजाब) की राजनीति पर है
कैप्टन अमरिंदर सिंह को कांग्रेस पार्टी ने भले ही संसद का उपनेता बना दिया हो लेकिन उनकी नजर प्रदेश (पंजाब) की राजनीति पर है

लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद लगे झटके से कांग्रेस पार्टी उबर नहीं पा रही है. आम चुनावों के बाद पार्टी को हरियाणा समेत कई राज्यों में पराजय का मुंह देखना पड़ा. इस बात से न केवल आलाकमान का दबदबा कम हुआ है, बल्कि पंजाब जैसे अहम राज्य में क्षत्रपों ने उसे चुनौती देनी भी शुरू कर दी है.

दिल्ली से सटे हरियाणा में हालांकि गुटबाजी अभी सार्वजनिक नहीं हुई है, लेकिन वहां प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर तथा पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के बीच खींचतान चल रही है. वहीं पंजाब में पार्टी अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा और कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच आपसी विवाद भी सतह पर आ गया है. यह स्थिति पार्टी को असहज बना रही है.

कांग्रेस पार्टी के लिए हरियाणा और कांग्रेस दोनों ही चिंता का कारण बन गए हैं. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री हुड्डा अपने समर्थक विधायकों का शक्ति प्रदर्शन आलाकमान के सामने कर चुके हैं. लोहड़ी के मौके पर उन्होंने दिल्ली स्थित अपने निवास पर पत्रकारों को भोज पर आमंत्रित किया था जिसमें पार्टी के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल, मोतीलाल वोरा, ऑस्कर फर्नांडीज, जनार्दन दिवेदी, आनंद शर्मा तथा गुलाम नबी आजाद मौजूद थे. उल्लेखनीय है कि तंवर को राहुल गांधी का करीबी माना जाता है. हुड्डा के शक्ति प्रदर्शन के बावजूद उनके कट्टर विरोधी स्वर्गीय बंसीलाल की पुत्रवधु किरण चौधरी को आलाकमान ने विधायक दल का नेता बना दिया.

उधर पंजाब में हालत और खराब है. पार्टी लंबे समय से यहां सत्ता से बाहर है और राज्य के नेता गुटबाजी में व्यस्त हैं. पंजाब विधानसभा में वर्ष 2017 में चुनाव होने हैं इसे देखते हुए यह गुटबाजी कांग्रेस की चिंताओं में सबसे ऊपर है. कांग्रेस वहां दो बार अकाली दल और भाजपा गठबंधन से परास्त हो चुकी है. अकाली-भाजपा गठबंधन के खिलाफ एक स्वाभाविक सत्ता विरोधी लहर पूरे पंजाब में मौजूद है, लेकिन भयंकर गुटबाजी के चलते कांग्रेस पार्टी में जरूरी विश्वास पैदा नहीं हो पा रहा.

प्रदेश पार्टी अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा के नेतृत्व के खिलाफ लोकसभा में पार्टी के उपनेता और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री (अमृतसर से मौजूदा सांसद) कैप्टन अमरिंदर सिंह ने खुली बगावत कर दी है. न केवल इनके समर्थक, बल्कि ये दोनों नेता भी एक-दूसरे के खिलाफ जहर उगल रहे हैं. आलाकमान की तमाम नसीहतों के बावजूद दोनों एक-दूसरे के साथ अपने मतभेद सार्वजनिक रूप से जाहिर कर रहे हैं. यह बात जाहिर है कि तंवर की तरह बाजवा को भी राहुल गांधी की पसंद पर अध्यक्ष बनाया गया है.

प्रताप सिंह बाजवा 2009 के लोकसभा चुनाव में गुरदासपुर सीट से भाजपा के नेता विनोद खन्ना को हराकर राहुल गांधी की नजरों में आए थे

उनके खिलाफ बगावत को सीधे राहुल गांधी को दी गई चुनौती माना जा रहा है. इस बीच तीन विधायक पार्टी छोड़कर जा चुके हैं, इनमें से मोगा के जोगिंदर पाल जैन और तलवंडी के मोहिंदर सिंह तो अकाली दल का दामन भी थाम चुके हैं. पार्टी को ताजा झटका लगा है धुरी के विधायक अरविंद खन्ना के इस्तीफे से. हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर तो उन्होंने इस्तीफे की वजह सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर परिवार और कारोबार संभालने को बताया है, लेकिन माना जा रहा है कि अमरिंदर सिंह के समर्थन में उन्होंने यह कदम उठाया है. उनके इस्तीफे से अकाली दल को काफी मजबूती मिली है.

पंजाब की राजनीति दिलचस्प मोड़ पर खड़ी है. इन दिनों अकाली दल और भाजपा गठबंधन की दरारें भी स्पष्ट नजर आ रही हैं. राजनीतिक हल्कों में यह धारणा है कि भाजपा आगामी चुनाव से पहले अकाली दल के साथ अपना गठबंधन तोड़ लेगी. ताजा घटनाक्रम के तहत सूबे में नशीली दवा के धंधे में संलिप्त होने के आरोपी अकाली मंत्री तथा मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के रिश्तेदार विक्रम सिंह मजीठिया का इस्तीफा भाजपा की ओर से मांगा जा रहा है.

पंजाब में नशीली दवाओं का धंधा बड़ा चुनावी मुद्दा है. कांग्रेस और भाजपा दोनों बादल सरकार पर इस धंधे में शामिल लोगों को प्रश्रय देने का आरोप लगाती रही हैं. पंजाब कांग्रेस विधायक दल के नेता सुनील झाखड़ ने तो यहां तक आरोप लगाया है कि मोदी सरकार ने अकाली दल के दबाव में ही मजीठिया से पूछताछ करनेवाले प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों का तबादला किया है.

जाखड़ का यह भी कहना है कि अकाली दल ने भाजपा को धमकी दी थी कि वह दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक दर्जन जगहों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर सकता है. बाजवा समर्थकों का कहना है कि खन्ना ने इसलिए इस्तीफा दिया है ताकि उस सीट से अकाली उम्मीदवार जीत जाए. इससे विधानसभा में समीकरण अकाली दल के पक्ष में हो जाएंगे और वह बिना भाजपा के समर्थन के अपनी सरकार बना सकती है.

पंजाब कांग्रेस में चल रही गुटबाजी पर एक कहावत पूरी तरह से लागू होती है कि दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर रोटी ले भागा. जब अमरिंदर सिंह औ्र बाजवा आपसी लड़ाई में लीन हैं, तब पूर्व मुख्यमंत्री रजिंदर कौर भट्टल भी इसमें अपनी संभावनाएं तलाशने लगी हैं. उन्होंने खन्ना के इस्तीफे पर बयान दिया कि वह कांग्रेस के नहीं, बल्कि अमरिंदर सिंह के वफादार थे. भट्टल ने अपने लिए गुंजाइश देखते हुए तत्काल आलाकमान से यह मांग भी कर दी कि वह पार्टी की गुटबाजी रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए.

अमरिंदर सिंह ने अपने संसदीय क्षेत्र अमृतसर में ललकार रैली कर आलाकमान को अपनी ताकत दिखा दी है;
अमरिंदर सिंह ने अपने संसदीय क्षेत्र अमृतसर में ललकार रैली कर आलाकमान को अपनी ताकत दिखा दी है;

भट्टल का आकलन है कि पार्टी मौजूदा  हालत में बाजवा को तो पद से हटाएगी, लेकिन उनकी जगह अमरिंदर सिंह को अध्यक्ष नहीं बनाएगी. ऐसे में दो बिल्लियों की लड़ाई वाली कहावत चरितार्थ होने पर वे भी पार्टी अध्यक्ष बन सकती हैं. काबिलेगौर है की भट्टल पंजाब की पहली महिला मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं. भट्टल और अमरिंदर सिंह के रिश्ते भी काफी समय से खराब चल रहे हैं. 12 साल पहले उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री रहे अमरिंदर सिंह के खिलाफ खुली बगावत की थी. अपने समर्थक विधायकों के साथ उन्हें हटवाने के लिए दिल्ली में डेरा भी डाला था, लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई. इस उठापटक में भट्टल अपना पुराना हिसाब चुकाने की संभावना भी देख रही हैं.

पंजाब कांग्रेस विधायक दल के नेता सुनील जाखड़ फिलहाल अमरिंदर सिंह के साथ हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी हालांकि कहते हैं कि अध्यक्ष बदलना पार्टी का विशेषाधिकार है, लेकिन वह यह जोड़ना नहीं भूलते कि अमरिंदर सिंह पार्टी के बहुत कद्दावर नेता हैं.

अमरिंदर सिंह की मांग है कि बाजवा की जगह पार्टी की कमान उन्हें सौंपी जाए. वे अपने गुट की अलग बैठक करके आलाकमान को अपनी ताकत और इरादे का अहसास करा चुके हैं. इस गुटबाजी से निपटना पार्टी के लिए बड़ी दिक्कत बन गया है.  बाजवा की नियुक्ति से राहुल गांधी की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई ह,ै लिहाजा उन्हें हटाने की सूरत में राहुल की किरकिरी होनी तय है. यही वजह है कि बाजवा लगातार उनके दरबार में हाजिरी दे रहे हैं.

प्रताप सिंह बाजवा को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने दो वर्ष पहले पार्टी का अध्यक्ष बनाया था. युवक कांग्रेस से राजनीति शुरू करनेवाले बाजवा राजनीतिक परिवार से हैं. उनके पिता सतनाम सिंह बाजवा पंजाब में मंत्री रह चुके हैं. वे भी कई बार विधायक रह चुके हैं और उनकी पत्नी भी इस समय विधायक हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में गुरदासपुर सीट से भाजपा के तत्कालीन सांसद विनोद खन्ना को हराकर बाजवा राहुल गांधी की नजरों में आए थे.

लेकिन अब अपनी ही पार्टी के दिग्गज नेता अमरिंदर सिंह के सामने वे खुद को घिरा हुआ पा रहे हैं. भले ही बाजवा को आलाकमान और राहुल गांधी का वरदहस्त हासिल है, लेकिन ज्यादातर विधायक, राज्य इकाई के नेता और जिलाध्यक्ष आदि अमरिंदर सिंह के साथ हैं. ऐसे में बाजवा की सारी उम्मीदें राहुल गांधी पर ही टिकी हैं.

कलह से परेशान पार्टी के पंजाब प्रभारी और कांग्रेस महासचिव शकील अहमद ने कांग्रेसियों को एक भोज में एकता की नसीहत दी थी, लेकिन वह बेअसर रही

बाजवा के नेतृत्व के खिलाफ बगावत के सुर लोकसभा चुनाव के बाद ही फूटने लगे थे जब वे गुरदासपुर की सीट से चुनाव हार गए थे. जबकि उनके विरोधी अमरिंदर सिंह ने अमृतसर में भाजपा के कद्दावर नेता अरुण जेटली को पराजित कर दिया था. जाहिर है इससे उनका कद और हौसला दोनों बढ़ा है. पंजाब की राजनीति को जाननेवाले बताते हैं कि यहां के लोगों को अमरिंदर सिंह जैसे दबंग छविवाले नेता ही रास आते हैं. राजनीतिक विश्लेषक डॉ. रमेश मदान का कहना है कि अमरिंदर सिंह में प्रदेश की अकाली दल-भाजपा गठबंधन सरकार से टक्कर लेने का माद्दा है. पार्टी ने उन्हें संसद में उपनेता भले बना दिया है, लेकिन उनका मन पंजाब की राजनीति में ही रमा हुआ है.

अकाली दल और भाजपा सरकार के खिलाफ जनता में पैदा हुए रोष को देखते हुए दोनों नेताओं को सूबे की सत्ता अपने करीब आती दिख रही है. इस उम्मीद ने बाजवा और सिंह के बीच तनाव और संघर्ष को हवा दे दी है. अकाली दल के खिलाफ लोगों में भारी रोष है. वरिष्ठ अकाली मंत्री और मुख्यमंत्री बादल के रिश्तेदार विक्रम सिंह मजीठिया पर नशीली दवाओं के धंधे में शामिल होने का आरोप लग चुका है. प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों ने उनसे पूछताछ भी की है. ऐसे में कांग्रेस को पूरी उम्मीद है कि आगामी चुनाव में जनता उसे सरकार बनाने का मौका देगी. जाहिर है जिस नेता के पास चुनाव की कमान होगी वही मुख्यमंत्री पद का दावेदार होगा. पिछले तीन दशक से पंजाब की राजनीति को परख रहे राजनीतिक विश्लेषक और पत्रकार बलजीत बल्ली कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में अकाली दल-भाजपा सरकार के खिलाफ रोष का फायदा कांग्रेस के बजाय आम आदमी पार्टी को मिला और उसके चार सांसद जीते. इस बार फिर से कांग्रेस नेताओं की आपसी लड़ाई देखकर लगता है कि पार्टी विधानसभा चुनाव में किसी तरह का फायदा उठाने की स्थिति में नहीं है.’

कलह से परेशान पार्टी के पंजाब प्रभारी और कांग्रेस महासचिव शकील अहमद ने भी पंजाब के कांग्रेसियों को एक भोज में एकता की नसीहत दी थी, लेकिन वह बेअसर रही. हालांकि इस बीच दिखावे की राजनीति भी खूब हुई. इसने लोगों को हैरान भी किया. राहुल गांधी की उपस्थिति में मंच पर ही बाजवा और अमरिंदर सिंह गले मिलते भी नजर आए.

जानकारों का कहना है कि कांग्रेस को तो पिछले विधानसभा चुनाव में ही जीत मिलनी चाहिए थी, लेकिन वह सत्ता हासिल करने से चूक गई. उस पराजय में भी गुटबाजी और अंतर्कलह की अहम भूमिका रही. पंजाब में विधानसभा चुनाव अभी कुछ दूर हैं, लेकिन लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पर ग्रहण लग चुका है. शकील अहमद  द्वारा  पार्टी की गुटबाजी को खत्म न कर पाने के बाद पार्टी ने उनकी जगह पी.सी चाको को कमान दी, लेकिन वह भी कोई चमत्कार नहीं दिखा सके.

अंतर्कलह की बात की जाए तो फिलहाल हरियाणा और पंजाब के बीच कमोबेश एक जैसी परिस्थितियां हैं. यही वजह है कि लोकसभा चुनाव में दोनों राज्यों में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा. पंजाब को लेकर आलाकमान की चिंता लगातार बढ़ती जा रही है. अकाली दल और भाजपा गठबंधन लगातार दूसरी बार सत्ता में हैं. इसे देखते हुए होना तो यह चाहिए था कि बेहतर समन्वय के जरिए पार्टी संगठन को मजबूत करती और इसका इस्तेमाल चुनावों में विरोधियों को मात देने के लिए करती.

फिलहाल तो पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता दिल्ली के विधानसभा चुनाव में व्यस्त हैं. ऐसे में तत्काल बाजवा को हटाए जाने की कोई सूरत नहीं नजर आती. पिछले दिनों राज्य में दौरे पर आई राज्यसभा सदस्य और सोनिया गांधी के कार्यालय से जुड़ी अंबिका सोनी ने भी साफ कहा था कि किसी के महज शक्ति प्रदर्शन करने भर से प्रदेश अध्यक्ष को पद से नहीं हटाया जाएगा. हालांकि जब उनसे नेतृत्व परिवर्तन की संभावना पर सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि फिलहाल पार्टी का सदस्यता अभियान जारी है और अप्रैल में इसके खत्म होने के बाद संगठन चुनाव होंगे. चुनाव में कोई भी चुनकर आ सकता है. लेकिन जमीनी हालात अलग हैं. नेताओं और उनके समर्थकों की आपसी बयानबाजी को आलाकमान भी नहीं रोक पा रहा है.

कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा
कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा

अमरिंदर सिंह जहां पटियाला स्थित मोतीबाग निवास में अपने समर्थकों की बैठक बुलाकर आलाकमान को अपनी ताकत दिखा चुके हैं, वहीं उन्होंने पार्टी द्वारा माघी मेले के मौके पर मुक्तसर में आयोजित कार्यक्रम का बहिष्कार भी किया. उस कार्यक्रम में बाजवा, भट्टल, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मोहिंदर सिंह केपी और युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा शामिल हुए. बाजवा से जब पूछा गया कि पार्टी के इस कार्यक्रम में अमरिंदर सिंह क्यों नहीं आये, तो उन्होंने गोलमोल जवाब देते हुए कहा कि क्या अकालियों के कार्यक्रम में सारे अकाली नेता आये थे.

बाजवा, अमरिंदर सिंह के समर्थकों पर कार्रवाई करने में भी पीछे नहीं हैं. उन्होंने अमरिंदर समर्थक माने जानेवाले लुधियाना  शहर के पार्टी अध्यक्ष पवन दीवान को पद से हटा दिया. वहीं बाजवा द्वारा विधानसभा उपचुनाव में पार्टी की हार के लिए अमरिंदर सिंह को जिम्मेदार ठहराये जाने की सिंह समर्थकों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है. बाजवा के गृह नगर गुरदासपुर के कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष सुखजिंदर सिंह ने कहा कि बाजवा तो खुद लोकसभा चुनाव हार चुके हैं जबकि वे खुद को भावी मुख्यमंत्री बता रहे थे.

उन्होंने यहां तक कहा कि बाजवा को अमरिंदर सिंह की आलोचना करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं क्योंकि अमरिंदर सिंह अरुण जेटली को हराकर अपनी लोकप्रियता साबित कर चुके हैं. इतना ही नहीं पिछले दिनों लुधियाना में अमरिंदर सिंह के समर्थकों ने बाजवा को काले झंडे दिखाए और बाजवा वापस जाओ के नारे भी लगाए. दोनों नेताओं के समर्थकों के बीच हाथापाई की नौबत आ गई थी.

इसी बीच अमरिंदर सिंह द्वारा अपने संसदीय क्षेत्र अमृतसर में ललकार रैली के आयोजन को खुले तौर पर आलाकमान के खिलाफ चुनौती के रूप में देखा जा रहा है. मौजूदा सरकार द्वारा नशीली दवाओं के कारोबार में लगे लोगों को संरक्षण देने के खिलाफ इस रैली का आयोजन किया गया था. यह वास्तव में अमरिंदर सिंह का शक्ति प्रदर्शन था. रैली में पूरे प्रदेश से काफी तादाद में लोग आए. पंजाब के 43 कांग्रेस विधायकों में से 33 ने यहां अपनी मौजूदगी दर्ज कराई. यहां तक कि प्रताप सिंह बाजवा के गृह जिले गुरदासपुर के चार विधायक सुखजिंदर सिंह रंधावा, राजिंदर सिंह बाजवा, अश्वनी शेखरी और अरुणा चौधरी भी रैली  में शामिल  हुए.  इसके अलावा  कांग्रेस विधायक दल के नेता सुनील जाखड़, पूर्व केंद्रीय मंत्री परनीत कौर, मनीष तिवारी, जालंधर के सांसद चौधरी संतोष सिंह व पूर्व राजयपाल आरएल भाटिया भी रैली में शामिल हुए. जबकि बाजवा और भट्टल समेत विरोधी गुट के नेता इस रैली से दूर रहे. रैली में एक के बाद एक नेताओं ने अमरिंदर सिंह से पार्टी की कमान संभालने का आग्रह किया. चौधरी संतोष सिंह ने तो यहां तक ऐलान कर दिया की आज की रैली ने दो वर्ष बाद कांग्रेस के सत्ता में आने की नींव रख दी है. नेतृत्व परिवर्तन का मुद्दा इतना छाया रहा कि नशे के मुद्दे पर सरकार को घेरने का मुख्य एजेंडा कहीं पीछे छूट गया.

राजनीतिक हलकों में कहा जा रहा है कि रैली में अमरिंदर सिंह ने अपनी ताकत पार्टी आलाकमान को दिखा दी है. रैली से एक दिन पहले ही प्रताप सिंह बाजवा ने कह दिया था की न तो उन्हें रैली में बुलाया गया है और न ही रैली को आलाकमान का समर्थन  है. लेकिन बाजवा ने यह जरूर कहा था की अमरिंदर सिंह अमृतसर से सांसद हैं और अपने क्षेत्र में रैली करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं.

पिछले दिनों लुधियाना में अमरिंदर सिंह के समर्थकों ने बाजवा को काले झंडे दिखए और बाजवा वापस जाओ के नारे तक लगाए गए

पिछले दिनों ऐसी चर्चा भी चली थी कि अमरिंदर  सिंह भाजपा नेताओं के सम्पर्क में है तथा वे कांग्रेस पार्टी छोड़ सकते है. सिंह के समर्थक इन अफवाहों के पीछे बाजवा का हाथ होने की बात कह रहे हैं. सिंह साफ कह चुके हैं कि वे पार्टी के निष्ठावान सिपाही हैं और उसे छोड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता.

हालांकि पिछले दिनों लोकसभा के शीतकालीन सत्र में भाग नहीं लेने बारे अमरिंदर सिंह कहते है कि वे पारिवारिक कारणों से वे सत्र में हिस्सा नहीं ले पाए. इसकी पूर्व सूचना उन्होंने आलाकमान को दे दी थी.

वह खुलकर कहते हैं कि बाजवा के नेतृत्व में पार्टी कमजोर हो रही है. जबकि बाजवा का दावा है कि उन्होंने कमान संभालने के बाद पार्टी में नई जान फूंकी है और प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्ववाली गठबंधन सरकार को नशे के कारोबार से जुड़े मुद्दों पर कई बार कठघरे में खींचा है. यहां यह बात ध्यान देनेवाली है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी इसी मुद्दे पर अमृतसर में रैली करनेवाले थे, लेकिन अमरिंदर सिंह द्वारा उसी दिन अमृतसर में रैली करने की चुनौती देने के बाद शाह की रैली रद्द कर दी गई. हालांकि इसकी वजह दिल्ली विधानसभा चुनाव को बताया गया. अब  अमरिंदर सिंह के समर्थक इसे अपनी जीत के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं.

फिलहाल बाजवा और अमरिंदर सिंह दोनों के समर्थक दिल्ली में जमे हुए हैं और एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी का सिलसिला जारी है. बाजवा का कहना है कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से अपनी मुलाकात के बारे में अमरिंदर सिंह मीडिया में बयानबाजी कर रहे हैं. वहीं सिंह ने पार्टी अध्यक्ष को साफ बता दिया है कि वह प्रदेश में पार्टी की कमान अपने हाथ में चाहते हैं. इन तमाम बातों के बीच एक बात तो तय है कि प्रदेश के इन दोनों नेताओं की आपसी लड़ाई ने जनाक्रोश का सामना कर रही अकाली दल-भाजपा गठबंधन सरकार को मुस्कराने का अवसर दे दिया है.

‘एनआईए’ पर मत जाइये

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय

देश में राजनेताओं के अब तक के सबसे बड़े हत्याकांड की जांच कर रही राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) अपनी अंतिम रिपोर्ट के कारण खुद सवालों के कठघरे में नजर आ रही है. रिपोर्ट देखकर लगता है कि एनआईए ने इस जघन्य हत्याकांड के कारणों की पड़ताल करने के बजाय राज्य सरकार को क्लीन चिट देने में ज्यादा रुचि दिखाई है.

छत्तीसगढ़ में बस्तर का केंद्र कहलाने वाले जगदलपुर की झीरम (दरभा) घाटी में 25 मई 2013 को नक्सलियों ने कांग्रेस के 27 नेताओं को मौत के घाट उतारकर देश के लोकतंत्र को सीधी चुनौती दी थी. परिवर्तन यात्रा पर निकले कांग्रेस के निहत्थे नेताओं को घेरकर नक्सलियों ने न केवल उनकी हत्या कर दी थी, बल्कि उनके शवों के साथ भी अमानवीय व्यवहार किया था. इस घटना में किसी तरह बच गए कांग्रेस के ही नेताओं ने इसे राजनीतिक हत्याकांड करार दिया था. विभिन्न आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच राज्य सरकार ने झीरम हत्याकांड की न्यायिक जांच कराने के निर्देश दिए थे, लेकिन मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार ने इसकी पड़ताल एनआईए को सौंप दी थी. उसके बाद से ही यानी पिछले दो वर्षों से एनआईए की जांच रिपोर्ट का इंतजार किया जा रहा था, जिसे नवंबर 2014 में गुपचुप रूप से बिलासपुर हाईकोर्ट में पेश भी कर दिया गया. लेकिन अब जबकि एनआईए का अंतिम चालान सार्वजनिक हो गया है, तो इस पर कई सवाल उठाए जा रहे हैं. सवाल लाजिमी भी हैं, क्योंकि झीरम हत्याकांड के प्रभावितों के साथ-साथ आम लोग भी इस हमले की वजहों को जानना चाहते थे. लेकिन एनआईए की रिपोर्ट ‘खोदा पहाड़, निकली चुहिया’ साबित हुई है. अपने अंतिम चालान के बाद एनआईए की विश्वसनीयता पर ग्रहण लगता दिखाई दे रहा है.

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय

जब तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने रायपुर में ही ऐलान कर झीरम नक्सल हत्याकांड की जांच एनआईए को सौंपी थी, तब लोगों के साथ ही साथ कांग्रेस पार्टी को भी उम्मीद थी कि यह जांच एजेंसी किसी ठोस नतीजे पर जरूर पहुंचेगी. लेकिन अब एनआईए ने जो अंतिम चालान बिलासपुर हाईकोर्ट में पेश किया है, उसमें कई खामियां नजर आ रही हैं. यह तो सभी जानते हैं कि कांग्रेस नेताओं की हत्या नक्सलियों ने की थी, लेकिन हैरानी की बात यह है कि एनआईए की रिपोर्ट भी ‘केवल’ यही बता रही है. आश्चर्य की बात है कि पूरी रिपोर्ट में कहीं भी न तो सुरक्षा चूक का जिक्र किया गया है और न ही किसी की जिम्मेदारी तय की गई है. जबकि घटना के बाद खुद राज्य सरकार ने ही यह माना था कि नेताओं की सुरक्षा में बड़ी चूक हुई है.

यही नहीं, एनआईए ने राज्य की पुलिस की उन गुप्त सूचनाओं की चर्चा भी नहीं की है, जो 25 मई को हुए हत्याकांड के करीब तीन माह पहले से ही साझा की जा रही थीं (तहलका के पास वे गोपनीय पत्र मौजूद हैं). इन गोपनीय पत्रों में यह बात बार-बार कही जा रही थी कि नक्सली झीरम घाटी में किसी बड़ी वारदात को अंजाम दे सकते हैं. इस तरह की सूचना की एक बानगी 19 मार्च 2013 को पुलिस मुख्यालय के गोपनीय पत्र क्रमांक पु.मु/विआशा/सूत्र/2013 (एस-580) को देखकर मिल सकती है. पत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि जगदलपुर के दरभा थाना के तहत क्षेत्रों में 100 से 150 की संख्या में माओवादियों की उपस्थिति बनी हुई है. पत्र में लिखा गया है कि माओवादी 10 मार्च से 10 जून 2013 तक टेक्टिकल काउंटर ऑफेंसिव कैम्पेन (टीसीओसी) अभियान चला रहे हैं. इस दौरान वे दरभा या बयानार थाना पर हमला कर सकते हैं या फिर घात लगाकर गश्त पर निकली पुलिस पार्टी पर बड़ा हमला कर सकते हैं. 10 और 17 अप्रैल 2013 को पुलिस मुख्यालय के दो अलग-अलग पत्रों पु.मु/विआशा/सूत्र/2013 (एस-739) और (एस-799) में सूचना दी गई है कि माओवादी टीसीओसी अभियान 2013 के दौरान पूर्व नेता प्रतिपक्ष और सलवा जुडूम नेता महेंद्र कर्मा, कांग्रेस नेता विक्रम मंडावी, अजय सिंह (निवासी भैरमगढ़) और कांग्रेस नेता राजकुमार तामो (निवासी दंतेवाड़ा) को मारने के लिए एक एक्शन टीम का गठन किया गया है, जिसका दायित्व माओवादी मिलिट्री कम्पनी नंबर 02 के पार्टी प्लाटून सदस्य राकेश को सौंपा गया है. इस एक्शन टीम में भैरमगढ़ प्लाटून, गंगालूर प्लाटून तथा भांसी एलओएस से एक-एक सदस्य को शामिल किया गया है. एक्शन टीम के प्रभारी को 9 एमएम पिस्टल और सदस्यों को रिवाल्वर उपलब्ध कराया गया है. पत्र में खास ताकीद की गई है कि महेंद्र कर्मा की सुरक्षा में तैनात अधिकारियों और जवानों को विशेष सतर्कता बरतने को कहा जाए. साथ ही उनके सुरक्षा मापदंड के अनुरूप ही सुरक्षा मुहैया कराई जाए.

यह तो सभी जानते हैं कि कांग्रेस नेताओं की हत्या नक्सलियों ने की थी, लेकिन हैरानी की बात यह है कि एनआईए की रिपोर्ट भी ‘केवल’ यही बता रही है

यही नहीं, 9 मई 2013 यानी हत्याकांड के महज 16 दिन पूर्व पीएचक्यू के एक गोपनीय पत्र पु.मु/विआशा/सूत्र/2013 (एस-1046) में भी चेताया गया है कि सुकमा के थाना तोंगपाल में आनेवाले ग्राम बाढ़नपाल में 50 से 60 सशस्त्र वर्दीधारी नक्सली अस्थाई कैम्प किए हुए हैं, जो राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर झीरम घाटी के पास घटना को अंजाम दे सकते हैं. इसी पत्र में बताया गया है कि थाना गादीरास के ग्राम फूलबगड़ी के जंगल केरलापाल में एरिया कमेटी सचिव केशा भी अपने 35 सशस्त्र नक्सलियों के साथ डेरा डाले हुए है, जो राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर ग्राम बोरगुडा रामाराम के पास सुरक्षा बलों पर हमलाकर नुकसान पहुंचा सकते हैं.

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यह था मामला
25 मई 2013 को नक्सलियों ने झीरम घाटी में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला किया था. इसमें उस समय के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, विद्याचरण शुक्ल और महेंद्र कर्मा सहित 27 लोगों की मौत हुई थी. घटना के बाद सुरक्षा में बड़ी चूक की बात सामने आई थी.


पुलिस जांच भी बेनतीजा
झीरम हमले को लेकर पुलिस की विभागीय जांच बेनतीजा रही. मामले में न तो कोई खुलासा हुआ है और न ही विभागीय अधिकारियों-कर्मचारियों की लापरवाही तय की गई. यही नहीं, नक्सली प्रवक्ता गुडसा उसेंडी से पूछताछ में भी छत्तीसगढ़ पुलिस को कुछ हाथ नहीं लगा. अब पुलिस मुख्यालय के आला अधिकारी एनआईए जांच का हवाला देकर कुछ भी जानकारी देने से बच रहे हैं. घटना के समय पीएचक्यू के आला अधिकारियों ने मामले में लापरवाही तय होने पर कार्रवाई की बात कही थी. घटना की जांच सीआईडी के हवाले की गई थी.


इन बिंदुओं पर होनी थी जांच
घटना कैसे हुई? क्या घटना के पहले नक्सलियों का जमावड़ा आसपास के इलाके में था? परिवर्तन यात्रा के दौरान रोड ओपनिंग पार्टी थी या नहीं? थाना बल तैनात थी या नहीं? इन्हीं बिंदुओं पर सीआईडी की जांच केंद्रित थी. घटनास्थल पर मौजूद पीएसओ तथा अन्य लोगों के बयान भी दर्ज किए गए थे. जांच के बाद रिपोर्ट पुलिस मुख्यालय को सौंपी जानी थी, लेकिन रिपोर्ट पूरी ही नहीं हुई.


संपत्ति की जांच तक नहीं कर पाई एनआईए
एनआईए यह भी पता नहीं लगा पाई कि फरार आरोपियों के नाम पर कोई संपत्ति है भी या नहीं. एनआईए ने बिलासपुर हाईकोर्ट में 25 फरार आरोपियों की संपत्ति कुर्क करने के लिए इस्तगासा पेश किया था. लेकिन पुलिस जांच के दौरान पता चला कि उनके नाम पर संपत्ति ही नहीं है. इस मामले में भी कोर्ट में एनआईए की किरकिरी हुई. झीरम घाटी मामले में कुल 34 नामजद आरोपी हैं. इनमें नौ लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं, जबकि 25 आरोपी अब तक फरार हैं, जिनकी तलाश की जा रही है.


कुछ खास उपलब्धि नहीं रही है एनआईए की
मुंबई हमलों के बाद वर्ष 2008 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी नाम के संघीय संगठन के गठन के लिए संसद में एक विधेयक पेश किया था. देशभर में बने माहौल के चलते हालात को देखते हुए सभी राजनीतिक दलों ने इस विधेयक का समर्थन किया. 17 दिसंबर 2008 को लोकसभा में पारित होने के बाद 31 दिसंबर को इसे राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिल गई. यह बात और है कि सभी दलों की सहमति के बाद भी 6 जनवरी 2009 को नई दिल्ली में प्रधानमंत्री द्वारा बुलाए गए मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में ज्यादातर गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने एनआईए के गठन पर आपत्ति जताई थी, जिनमें छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह भी शामिल थे. रमन सिंह एनआईए को दिए गए अधिकारों को राज्य के अधिकारों में हस्तक्षेप के रूप में देख रहे थे. जम्मू-कश्मीर कैडर के 1975 बैच के आईपीएस अधिकारी राधा विनोद राजू को एनआईए का पहला मुखिया नियुक्त किया गया था.

एनआईए का गठन देश की ऐसी आंतरिक जांच एजेंसी के रूप में किया गया है, जिसका काम आतंकवाद या नक्सलवादी हमलों की तह तक जाना है. इसका काम ऐसे हमलों की सहायक बनी परिस्थितियों की पड़ताल करनी है. देश की संप्रभुता और एकता से जुड़ी चुनौती, विस्फोट, विमान या जलपोत अपहरण और परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमले इसी एजेंसी की जांच के दायरे में आते हैं. एजेंसी ऐसी घटनाओं की भी जांच करती है, जो पेचीदा अंतर-राज्यीय और अंतरराष्ट्रीय संपर्कों वाली होती हैं और जिनका संभावित संबंध हथियारों और नशीली दवाओं की तस्करी, जाली भारतीय मुद्रा और सीमापार से घुसपैठ से होता है. लेकिन आज तक एनआईए के खाते में कोई विशेष उपलब्धि नहीं आई है.


न्यायिक जांच आयोग कर रहा है अलग जांच
झीरम कांड न्यायिक जांच आयोग मामले की अलग से जांच कर रहा है. अभी उसकी जांच पूरी नहीं हुई है. मामले में अब तक 44 लोगों का बयान दर्ज किया जा चुका है. आयोग के समक्ष एक गवाह मदन दुबे ने शपथ पत्र में दिए गए बयान में कहा है कि अतिविशिष्ट लोगों को दिए जानेवाले सुरक्षा मानक के अनुरूप सुरक्षा व्यवस्था झीरम की घटना के दौरान नहीं की गई थी. यही कारण था कि नक्सली अपने मंसूबों में कामयाब हो गए.

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इसके अलावा 17 मई 2013 को भेजे गए एक पत्र में नक्सलियों द्वारा ग्रामीणों की बैठक में भाजपा की विकास यात्रा व कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा का विरोध करने और किसी भी नेता को गांव में न घुसने देने का निर्देश देने की सूचना भेजी गई थी. एनआईए अपने चालान में नक्सलियों द्वारा जो चावल व चंदा एकत्र करने की बात कर रही है, उसके बारे में भी राज्य की पुलिस के गोपनीय पत्रों में घटना के पहले ही बता दिया गया था. ऐसे तीन-चार नहीं बल्कि दर्जनों गोपनीय पत्र पुलिस मुख्यालय से जगदलपुर, दंतेवाड़ा, बस्तर, कोंडागांव, सुकमा के पुलिस अधीक्षकों को भेजे जा रहे थे, जिनमें नक्सलियों के टीएलओसी अभियान के तहत 10 जून 2013 तक किसी बड़ी वारदात की आशंका जताई जा रही थी. पुलिस यह भी जानती थी कि वारदात राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर दरभा थाना के आसपास ही होनी थी. पुलिस की गोपनीय सूचनाओं में बार-बार झीरम घाटी का भी जिक्र हो रहा था. लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि एनआईए ने अपनी जांच रिपोर्ट में एक बार भी यह जिक्र नहीं किया है कि जब स्थानीय पुलिस के पास इतनी पुख्ता सूचनाएं थीं, तो कांग्रेस नेताओं को झीरम घाटी जाने की अनुमति क्यों दी गई. सवाल कई हैं. यदि कांग्रेस नेताओं को झीरम घाटी से गुजरने की अनुमति दी गई, तो उन्हें सुरक्षा मुहैया क्यों नहीं करवाई गई. कांग्रेस के काफिले के पहले रोड ओपनिंग पार्टी (पुलिस का गश्ती दल, जो यह सुनिश्चित करता कि रास्ते में कोई खतरा नहीं है) क्यों नहीं भेजी गई. जब राज्य की पुलिस के पास यह पुख्ता जानकारी थी कि झीरम घाटी में नक्सली किसी बड़ी वारदात को अंजाम देने की फिराक में हैं और महेंद्र कर्मा को मारने के लिए एक्शन टीम बनाई गई है, तो भी कांग्रेस नेताओं को नक्सलियों की मांद में बगैर किसी सुरक्षा के कैसे भेज दिया गया. लेकिन एनआईए ने इन सभी सवालों को अनदेखा करते हुए अपनी अंतिम रिपोर्ट पेश कर दी.

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
झीरम घाटी की असभ्यता नक्सलियों के नृशंस हमले की तस्वीरें जिसमें छत्तीसगढ़ कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं के साथ कुल 27 लोग मारे गए थे;
फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय

एनआईए के अंतिम चालान से घटना के वे प्रत्यक्षदर्शी भी आश्चर्यचकित हैं, जिन्हें कभी बयान के लिए बुलाया ही नहीं गया. प्रत्यक्षदर्शियों का यह आरोप गंभीर प्रश्न खड़े करता है. कई प्रत्यक्षदर्शियों को एनआईए की तरफ से केवल एक बार कॉल की गई कि वे तैयार रहें, उनके बयान लिए जाएंगे, लेकिन कभी उन्हें बयान के लिए बुलाया ही नहीं गया. झीरम हमले में मारे गए कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल के प्रवक्ता रहे दौलत रोहड़ा घटना के वक्त शुक्ल के साथ उसी गाड़ी में थे. हमले से वह सकुशल बचकर वापस आ गए. रोहड़ा बताते हैं, ‘राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने मुझे एक बार फोन किया कि आप तैयार रहें, आपको कभी भी बयान देने के लिए बुलाया जा सकता है. लेकिन कभी बुलाया नहीं.’  नक्सल हमले में घायल हुए कांग्रेस के एक अन्य नेता शिवनारायण द्विवेदी सवाल करते हैं, ‘हमसे एनआईए ने पूछताछ क्यों नहीं की. हमसे ब्यौरा क्यों नहीं लिया गया, जबकि हम अपने नेताओं की हत्या के वक्त मौके पर मौजूद थे.’

एनआईए के अंतिम चालान से घटना के वे प्रत्यक्षदर्शी भी आश्चर्यचकित हैं, जिन्हें कभी बयान के लिए बुलाया ही नहीं गया

इस बारे में एनआईए के आईजी संजीव सिंह केवल यही बताते हैं कि ‘अब तक नौ नक्सलियों की गिरफ्तारी हो चुकी है. घटना को आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नक्सलियों ने मिलकर अंजाम दिया था. झीरम घाटी में वारदात को अंजाम देनेवाले नक्सलियों में ओडीसा का एक भी बड़ा कमांडर शामिल नहीं है. इसे एनआईए की टीम नक्सलियों के बीच चल रहे वैचारिक मतभेद के रूप में देख रही है.’ लेकिन एनआईए की जांच रिपोर्ट में छूटे गए बिंदुओं पर वह कोई भी बात करने को तैयार नहीं दिखते. सिंह कहते हैं, ‘रिपोर्ट तथ्यपरक है, जो पाया गया, वही पेश किया गया है.’ वहीं छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक अमरनाथ उपाध्याय कहते हैं, ‘झीरम घाटी में नक्सली वारदात की जांच एनआईए की टीम ने की है. इस मामले में छत्तीसगढ़ पुलिस का कोई हस्तक्षेप नहीं है. कोर्ट में मामला होने के कारण अभी कोई टिप्पणी नहीं कर सकता.’

फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय
फोटो: गणेश मिश्रा/मितेश पांडेय

कांग्रेस ने इस रिपोर्ट को पूरी तरह नकार दिया है. कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल का आरोप है कि एनआईए ने आधी-अधूरी रिपोर्ट पेश की है और यह राज्य सरकार को बचाने का काम रह रही है. नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव और उमेश पटेल (हमले में मारे गए तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल के पुत्र) ने झीरम घाटी में मारे गए कांग्रेस नेताओं के परिजनों के साथ मुख्यमंत्री रमन सिंह से मुलाकातकर एनआईए की रिपोर्ट पर आपत्ति दर्ज करवाई है. कांग्रेस के इस प्रतिनिधिमंडल ने घटना की सीबीआई जांच करवाने की मांग दोहराई है. रमन सिंह ने प्रतिनिधि मंडल को गृहमंत्री राजनाथ सिंह से भी मुलाकात करने की सलाह दी है.

हालांकि एनआईए की रिपोर्ट पर खुद राज्य सरकार दो तरह से प्रतिक्रिया देती नजर आ रही है. मुख्यमंत्री रमन सिंह ने रिपोर्ट से पल्ला झाड़ते हुए कहा है, ‘मुझे तो जस्टिस प्रशांत मिश्रा की अध्यक्षता में बनाई गई न्यायिक जांच रिपोर्ट का इंतजार है. एनआईए की रिपोर्ट से राज्य सरकार का कोई लेना-देना नहीं है.’ वहीं प्रदेश के गृहमंत्री रामसेवक पैकरा ने रिपोर्ट को सही ठहराया है. पैकरा कहते हैं, ‘एनआईए ने जो पाया, वही अपने अंतिम चालान में पेश किया है.’

हालांकि छत्तीसगढ़ समाज पार्टी के अध्यक्ष अनिल दुबे, जिन्होंने झीरम घाटी हत्याकांड के बाद पुलिस मुख्यालय के गोपनीय पत्रों को सार्वजनिक करने में अहम भूमिका निभाई है, उनकी इस बात से सहमत नजर नहीं आते. वह तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘माओवाद की समस्या केंद्र और राज्य सरकार की मिलीभगत का नतीजा है. यह एक बार फिर एनआईए की आधी-अधूरी रिपोर्ट से साबित हो गया है.’ दुबे कहते हैं, ‘कांग्रेस और भाजपा दोनों की यह नीयत नहीं है कि माओवाद खत्म हो, क्योंकि इसमें बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार की संभावना बनी रहती है. यह बात सभी जानते हैं कि झीरम घाटी की घटना सोची-समझी साजिश है, जो बिना राजनीतिक संरक्षण के संभव नहीं थी. आप देखिए, उसी दौरान मुख्यमंत्री की विकास यात्रा भी निकल रही थी, जिसे पूरी सुरक्षा प्रदान की गई थी, वहीं उसके पंद्रह दिन बाद कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा निकली. लेकिन परिवर्तन यात्रा के दौरान जितने नेता थे, उतने सिपाही भी नहीं लगाए गए. सरकार को हर दिन किसी बड़े हमले की जानकारी मिल रही थी, लेकिन फिर भी जरूरी कदम नहीं उठाए गए.’

दुबे आगे कहते हैं, ‘एनआईए की रिपोर्ट में केवल एक महत्वपूर्ण काम किया गया है. वह यह कि इसमें आरोपी नक्सलियों को सूचीबद्ध कर दिया गया है. लेकिन दूसरे अहम बिंदुओं की इसमें कोई पड़ताल नहीं की गई है. सरकार को मिल रही सटीक गोपनीय सूचनाओं तक का इसमें हवाला नहीं दिया गया है. सही मायनों में एनआईए की जांच अधूरी है.’

‘फिलहाल लक्ष्मण की जरूरत सबसे ज्यादा है’

आरके लक्ष्मण।1921-2015। इलेस्ट्रेशनः जव‍जिथ सीवी
आरके लक्ष्मण।1921-2015।
इलेस्ट्रेशनः जव‍जिथ सीवी

‘आम आदमी’ के रचयिता विश्वविख्यात कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण ने पुणे के एक अस्पताल में आखिरी सांस ली. छह दशक तक लगातार, हर सुबह आम आदमी को अपनी पेंसिल से गुदगुदाने, छेड़ने और कुछ लोगों को नाराज करने के बाद अब यह लंबी यात्रा थम गई है. 93 बसंत, पतझड़ और सावन देख चुके आरके लक्ष्मण की जीवनयात्रा जितनी लंबी रही, उनकी कार्टून यात्रा भी उतनी ही विस्तृत रही. उनका जीवन अभिव्यक्ति के बंधनों को लगातार तोड़ता रहा और साथ ही आजाद भारत की लोकतांत्रिक यात्रा के तमाम उजास भरे पहलुओं का गवाह भी बनता रहा. दशकों तक बेनागा आदमी टाइम्स ऑफ इंडिया के पन्नों पर आनेवाला उनका आम आदमी आम भारतीयों की जीवनचर्या का एक तरह से हिस्सा ही बन चुका था.

आरके लक्ष्मण राजनीति, समाज, खेल, चिकित्सा, कानून व्यवस्था यानी आम आदमी से जुड़े हर उस मुद्दे पर हर रोज कटाक्ष करते थे जिसका सरोकार देश की आम जनता से होता था. उनके कार्टून देश के उस आम आदमी को भरोसा देते थे, जिसे आमतौर पर व्यवस्था के हाशिए पर रखा जाता है. शुरुआत से ही लक्ष्मण अपने समकालीनों के विपरीत गहरे राजनीतिक कार्टूनिस्ट नहीं थे. उनकी कूची कॉमन मैन के इर्द-गिर्द ही घूमती थी. उनके प्रिय विषय महंगाई, भ्रष्टाचार, बिजली, सड़क और पानी हुआ करते थे. और इन विषयों पर वे पूरी बेबाकी से अपनी कूची फेरते थे. उनकी  कूची के निशाने पर अपने समय के लगभग सभी बड़े राजनेता और उद्योगपति रहे. इस निडरता की वजह से उन्हें चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा. आपातकाल में सत्तारूढ़ इंदिरा सरकार ने उन्हें मनमुताबिक काम न करने पर देश छोड़कर चले जाने को कहा. उन्होंने सरकार की शर्तों पर काम करने की बजाय देश छोड़ना पसंद किया. इस तरह देश का यह प्रखर कार्टूनिस्ट आपातकाल के खत्म होने तक मॉरिशस में निर्वासित जीवन जीता रहा. कहना गलत नहीं होगा कि वह एक ‘पिक्चर परफेक्ट’ कार्टूनिस्ट थे. उनके ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के पॉकेट कार्टून ‘यु सेड इट’ की खास बात यही थी, जैसा दृश्य किसी कैमरे से दिखाई पड़ता है, वैसा हूबहू लक्ष्मण वर्षों तक लगातार कागज पर उतारते रहे. उनके बनाये नेहरू, इंदिरा, राजीव, लालू प्रसाद यादव, डॉ. अब्दुल कलाम जैसी तमाम मशहूर हस्तियों के कैरीकेचर अद्भुत हैं.

मेरे अपने कार्टूनिस्ट जीवन के ऊपर भी उनका कुछ असर है, जिसे यहां बताना चाहूंगा. वे अपने कार्टून ब्रश से ही बनाते थे. उनकी देखा-देखी ही मैं भी अपने कैरियर के शुरुआती सालों में ब्रश का इस्तेमाल किया करता था. वह बड़ा ही मुश्किल काम था, मगर लक्ष्मण तो लक्ष्मण थे. उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि वे अपना दस्तखत भी ब्रश से ही करते थे. तकनीक चाहे जितनी आगे निकल गई हो, उन्होंने ब्लैक एंड व्हाइट कार्टून ही बनाये, यानी आखिर तक उनका ब्रश किसी तकनीक का मोहताज नहीं हुआ. दुख की बात यह है कि आज जब लक्ष्मण हमारे बीच से चले गए हैं तब भ्रष्टाचार, अपराध और बेईमानी का माहौल पहले से ज्यादा घना हुआ है, ऐसे में लक्ष्मण की जरूरत किसी भी समय से ज्यादा इस समय है.

नस्लवादी दिल्ली?

इलेस्ट्रेशनः एम दिनेश, आनंि नॉरम
इलेस्ट्रेशनः एम दिनेश, आनंि नॉरम

साल 2014 में राजनीतिक बदलाव से लेकर टेस्ट क्रिकेट से धोनी के सन्यास तक काफी कुछ हुआ लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में बसा एक तबका ऐसा भी है जिसके लिए बीता साल सिर्फ दुख और अवसाद के पल ही लाया. पूर्वोत्तर भारत के ये लोग किसी अन्य राज्य के लोगों की तरह ही दिल्ली की प्रगति की आंच को तेज करते हैं. ‘चिंकी’, ‘मोमोस’ और कई दूसरी नस्ली टिप्पणियों से उन्हें हर रोज दो-चार होना पड़ता है. सालभर का आंकड़ा देखें, तो दिल्ली के अंदर उत्तर भारतीयों के खिलाफ बढ़ती आपराधिक घटनाएं राजधानी का अलग चेहरा दिखलाती हंै. क्या यह शहर उत्तर पूर्व के लोगों के प्रति घृणाभाव रखता है या फिर सारी घटनाए एक संयोग मात्र हैं? इसमें मेन लैंडर यानी ‘मूल निवासी’ होने की दम्भी सोच किस हद तक जिम्मेदार है, यह भी महत्वपूर्ण सवाल है. नस्लवादी घटनाओं की बढ़ती संख्या देखकर कह सकते हैं कि यह दिलवालों की दिल्ली का बदनुमा चेहरा है.

बीते साल दिल्ली में पूर्वोत्तर भारत से आए छात्रों और कामकाजी लोगों के साथ भेदभाव का नतीजा मारपीट, हमले और हत्या जैसे गंभीर अपराधों के रूप में हमारे सामने आया. मणिपुर महिला गन सरवाईवर्स नेटवर्क की संस्थापक बिनालक्ष्मी नेप्राम बताती हंै, ‘दिल्ली पूर्वोत्तरवासियों के साथ बहुत कठोर व्यवहार करती है. 2009 से 2014 के बीच में नस्लभेदी घंटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. पूर्वोतर की महिलाओं और लड़कियों को विशेष रूप से निशान बनाया जा रहा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ 60 फीसदी हिंसा के मामलें अकेले पूर्वोतर की महिलाओं के साथ होते हैं’. पूर्वोत्तरवासियों के साथ घट रही हिंसा की घटनाएं हमें मामले की गंभीरता को समझने और सोचने पर मजबूर करती है. दिल्ली पुलिस के आंकड़ों के अनुसार बीते वर्ष में नवंबर महीने तक पूर्वोत्तरवासियों के साथ हिंसा और मारपीट की 650 घटनाएं दर्ज हुई थी. इनमंे से 139 में एफआईआर दर्ज हुईं थी. यह आंकड़ा साल 2013 में इसी अवधि के दौरान घटी घटनाओं का दो गुना है. इनमें से सिर्फ दक्षिणी दिल्ली में 259 वारदातें सामने आईं.

साल की शुरुआत में नीडो तनिया पर हुआ हमला इसकी शुरुआत थी. इसके बाद पूरे साल दिल्ली में पूर्वोत्तरवासियों के साथ हिंसा और झड़प की खबरें आती रहीं. जनवरी में 19 वर्षीय नीडो पर हुए हमले में पुलिस ने सात लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की थी. इनमें से तीन नाबालिग थे, जिनका मामला जुवेनाइल कोर्ट में चल रहा है. उत्तरपूर्वी क्षेत्र के लोगों के बढ़ते गुस्से और दबाब को देखते हुए नीडो का मामला सीबीआई को सौंपा गया था. मई में सीबीआई ने हत्या की धाराओं को गैर-इरादतन हत्या के मामले में तब्दील कर दिया. बाद में कोर्ट ने दिल्ली पुलिस द्वारा लगाई गई एससी-एसटी की धाराओं को भी खारिज कर दिया. यह मामला अभी कोर्ट में लंबित है.

इलेस्ट्रेशनः एम दिनेश, आनंि नॉरम
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फरवरी में पूर्वोत्तर वासियों पर हमलों की गति तेज हो गई. मुनिरका इलाके में किराए पर रह रही मणिपुर की 14 वर्षीय लड़की के साथ उसके ही मकान मालिक के बेटे ने बलात्कार किया. इस घटना के बाद विभिन्न छात्र संगठनों द्वारा पुलिस स्टेशन का घेराव कर प्रदर्शन हुआ. इधर छात्र प्रदर्शन कर रहे थे दूसरी तरफ मुनिरका गांव में स्थानीय लोगों ने एक पंचायत बुलाई. वहां से उड़ती-पड़ती खबर आई की पंचायत ने ‘गंदे लोग’ यानी उत्तर पूर्व समुदाय के किराएदारों से छुटकारा पाने का निर्णय लिया है. पंचायत के फैसले के खिलाफ जेएनयू छात्र संघ और पूर्वोत्तर के छात्र संगठनों ने मुनिरका पुलिस थाने का घंटों घेराव किया. उस समय प्रदर्शन में शामिल आइसा कार्यकर्ता शेहला राशीद बताती हैं, ‘पंचायत के फैसले के बाद मुनिरका में रह रहे पूर्वोत्तर के छात्रों के अंदर डर बैठ गया था. उनके रिश्तेदार इतने सहमे हुए थे कि उन्होंने मुनिरका छोड़, दिल्ली के किसी और इलाके में रहने का दबाव बना दिया था.’ स्थानीय लोगों का कहना था कि मुनिरका में देर रात लड़के शराब पीकर हंगामा करते हैं और पंचायत या आरडब्ल्यूए की सभा इस मसले से निपटने के लिए की गई थी. अगर पंचायत के फैसले में थोड़ा भी सच का अंश है तो यह दिल्ली में बढ़ रही मूल निवासी की सोच को दर्शता है, और यह चिंता की बड़ी वजह है.

दिल्ली विश्वविद्यायल पूर्वोत्तर से आने वाले छात्रों का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. यहां बड़ी संख्या में पूर्वोत्तर के छात्र रहते और पढ़ते हैं. स्थितियां यहां भी बहुत बेहतर नहीं हैं. नस्लभेदी टिप्पणियां और हिंसा यहां भी रोजमर्रा का हिस्सा है. साउथ कैंपस के पीजीडीएवी कॉलेज में एक मामूली बात पर भरी कैंटीन में असम के प्राण सैकिया को बुरी तरह से पीटा गया. ‘मेरी हालत को देखते हुए मुझे तुरंत ट्रामा सेंटर ले जाया गया था. कान पर लगी गहरी चोटों की वजह से काफी समय तक सुनने में भी दिक्कत होती रही. हालांकि इस मामले में कॉलेज प्रसाशन ने तेजी दिखाते हुए प्रशासनिक व कानूनी दोनों करवाईयों को तेजी से अंजाम दिया. हमला करनेवाले लड़के को सस्पेंड भी कर दिया गया’ प्राण बताते हैं. प्रशासनिक कार्रवाई के नजरिये से डीयू में पढ़ रहे पूर्वोत्तर के हर छात्र की किस्मत प्राण जैसी नहीं है. नस्लवादी हिंसा से निपटने के लिए कॉलेज कैंपसों के अंदर कोई भी एंटी रेसियल सेल नहीं है. डीयू प्रशासन ने अब तक इस ओर कुछ खास प्रयास नहीं किए हैं. ऐसे में सालों बाद भी कैंपस के अंदर किसी ठोस तंत्र का न होना मामले को लेकर विश्वविद्यालय प्रसाशन के लचर रवैये को दर्शाता है. डूसू चुनाव के दौरान भी हर साल यह मुद्दा एनएसयूआई और आईसा वोट बैंक की राजनीत के बीच खो जाता है.

दिल्ली में नस्लीय हिंसा पूर्वोत्तरवासियों के मानस का हिस्सा बन चुकी है. मई में तीस हजारी कोर्ट में हुई घटना बेहद शर्मनाक है. पूर्वोत्तर की नोशी अपनी 38 वर्षीय मुवक्किल के साथ बीती रात हुई छेड़खानी का मामला दर्ज कराने पहुंची थी. अभियुक्त जो खुद भी पेशे से एक वकील था उसने अपने साथियों के साथ मिलकर कोर्ट परिसर में ही नोशी से बदसलूकी शुरू कर दी. बाद में मामले ने हिंसक रूप ले लिया. जमा हुई भीड़ ने बिना सोचे-समझे नोशी और उसके साथियों को खदेड़ दिया.

जुलाई 21 की रात दिल्ली के साउथ एक्स इलाके में सीसीटीवी कैमरे में माणिपुर के शालोनी की आखिरी तसवीरें कैद हुईं. सेनापति गांव का रहनेवाला शालोनी अपने दोस्त को छोड़ने कोटला मुबारकपुर आया था. हमलावरों ने पहले उसे छेड़ा और विरोध करने पर उसकी पीट-पीटकर हत्या कर दी. इस मामले में किसी तरह की कहासुनी भी नहीं हुई थी. हत्या करने वाले सभी अभियुक्त दक्षिणी दिल्ली के गढ़ी गांव के रहने वाले थे. ठीक इसी तरह 15 सितम्बर की रात में मणिपुर के 20 वर्षीय लैथ गोलाइन और बॉयले पर चार स्थानीय लड़कों ने नस्लभेदी टिप्पणी करने के बाद बुरी तरह से हमला किया. चार में से दो हमलावर नाबालिग थे.

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binalakshmi‘दिल्ली पूर्वोत्तरवासियों के साथ बहुत कठोर व्यवहार करती है. पूर्वोतर की लड़कियों को विशेष रूप से निशान बनाया जा रहा है.

बिनालक्ष्मी नेप्राम समाजिक कार्यकर्ता

 


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फेसबुक और व्हाट्सऐप की मदद से हम दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों से संपर्क स्थापित करने में सफल हुए हैं.

रॉबिन हिबू ज्वाइंट कमिश्नर दिल्ली पुलिस

 


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पूर्वोत्तर के लोगों पर हो रहे हमले चिंता का विषय तो हैं पर भारत में नस्लवाद की कल्पना करना गलत है.

‌डॉ अवनिजेश अवस्थी प्रो. दिल्ली विश्वविद्यालय

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जो हाल दिल्ली शहर का है वही स्थिति इससे सटे एनसीआर की भी है. गुड़गांव की साइबर सिटी के समीप बसे सिकंदरपुर गांव में 15 अक्टूबर की रात नागालैंड के रहनेवाले अवांग स्वांग और अलोतो चीसी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. सात स्थानीय लड़कों ने पहले दोनों को हॉकी स्टिक और बल्लों से पीटा और फिर अवांग के बाल कतर दिए. पीड़ित के परिजनों का कहना था कि हमलावरों ने इलाके में रह रहे सभी पूर्वोत्तर के किराएदारों को मकान खाली करने की भी धमकी दी.

पूर्वोत्तर के लोग रूप-रंग से बाकी भारतीयों से अलग दिखते हैं, लेकिन नस्लवाद की समस्या सिर्फ दिल्ली में तेजी से फैली है. दिल्ली और बंगलुरु के अलावा किसी और मेट्रो शहर में नस्लवाद ने इतना हिंसक रूप नहीं लिया है. इग्नू की प्रो वाईस चांसलर प्रो सुषमा यादव कहती हैं, ‘बाकी मेट्रो शहरों की तरह दिल्ली अभी कॉस्मोपॉलिटन नहीं हो पाई है. इस वजह से भी वह सांस्कृतिक भिन्नता व मातृप्रधान सोच में पले समुदाय के प्रति अपना नजरिया बदल नहीं पा रही है. खुद को मूल भारतीय मानने के साथ-साथ यह भावना भी दिल्लीवालों के मन में बैठी हुई है कि पूर्वोत्तर के लोग चीनी मूल के हैं.’ उनका कहना है, ‘यह एक सुनियोजित षड्यंत्र भी हो सकता है. जिसके तहत उत्तर पूर्व को मूल भारत से दूर रखने की कोशिश की जा रही हो. लेकिन इस ओर अभी गंभीर अध्यन व विश्लेषण की जरूरत है.’

इत्तफाकन दिल्ली पुलिस के ज्वॉइंट कमीश्नर व पूर्वोत्तर मामलों के नोडल ऑफिसर रोबिन हिबु खुद भी पूर्वोत्तर के हैं. अरुणाचल कैडर के पहले आईपीएस हिबु पूर्वोत्तरवासियों पर लगातार हो रहे हमलों के संदर्भ में कहते हैं, ‘1093 (पूर्वोत्तर हेल्पलाइन न.) के आने के बाद तस्वीर काफी बदली है. फेसबुक और व्हाट्सऐप की मदद से हम दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों से संपर्क स्थापित करने में सफल हुए हैं. दिल्ली पुलिस द्वारा पूर्वोत्तर राज्यों के युवा प्रतिनिधियों को वालंटियर के तौर पर नियुक्त करना और उन्हें अपेक्षित ट्रेनिंग देना, दोनों ही सही कदम थे. ये वालंटियर्स कई मामलों में पीड़ितों के लिए सबसे पहली राहत साबित हुए हैं.’

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नीडो तान्या की हत्या के बाद गठित की गई बेजबरुआ कमेटी के सुझावो पर केंद्र सरकार गौर कर रही है. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को जुलाई 2014 में सौंपते हुए ठोस कदम उठाने की सिफारिश की थी. दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर  के लोगों की प्राथमिकता नस्लभेदी टिप्पणियों पर अंकुश लगाने की है. कमेटी ने इसके लिए आईपीसी के सेक्शन 159 में बदलाव कर ‘चिंकी’, ‘चू-चू’ जैसे शब्दों का प्रयोग करनेवाले लोगों पर नकेल कसने के लिए पांच साल के कारवास के प्रावधान की सिफारिश की है. साथ ही सभी उत्तर पूर्वी राज्यों से दस महिला और दस पुरुष पुलिसकर्मियों की दिल्ली पुलिस में भर्ती करने को कहा है. स्थानीय लोगों, पुलिस और पूर्वोत्तर समुदाय के लोगों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिहाज से यह कदम महत्वपूर्ण है.

बेजबरुआ का दूसरा पक्ष रखते हुए मणिपुर छात्र एसोसिएशन दिल्ली (मसाद) के एक्टिविस्ट मनीश्वर का कहना है, ‘कमेटी की रिपोर्ट और उसकी सिफारिशें मुआवजे की रकम की तरह हैं. पहले हिंसा करो और फिर पीड़ित समुदाय को संतुष्टि का आभास कराने के लिए कमेटी का गठन कर दो. जब तक सिफारिशों के लिए जमीनी ढांचा तैयार नहीं किया जाता, सब व्यर्थ है.’ मसाद ने दिल्ली में लगातर बढ़ रही नस्लवादी हिंसा को साबित करने के कई महत्पूर्ण दस्तावेज़ कमिटी के सामने रखे थे.

इसका दूसरा पहलू भी है कि दिल्ली में एक तबका ऐसा भी है जो मानता है की इस संघर्ष को नस्लीय रूप देना ठीक नहीं है. दिल्ली विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ अवनिजेश अवस्थी के शब्दों में, ‘भारत एक विशाल देश है और प्रांत व भाषा के नाम पर अलग-अलग समय में यहां टकराव होते आए हैं. पूर्वोत्तर के लोगों पर हो रहे हमले चिंता का विषय तो हैं, पर भारत में नस्लवाद की कल्पना करना गलत है. यह पूर्ण रूप से लॉ एंड आर्डर का मामला है. बेशक इसे प्रांतीय संघर्ष का नाम दिया जा सकता है. लेकिन जब यही व्यवहार यहां पर बिहार जैसे पूर्वी राज्यों के लोगों के साथ भी होता है तब मीडिया इसे दो गुटों के बीच का मामला बनाकर पेश करती है.’

ऐसे संघर्षों को देखने का एक तरीका न्यूटन का तीसरा सिद्धांत भी है. पूर्वोत्तर में पढ़ रहे हिंदीभाषी छात्र और रह रहे लोगों तक भी इसकी धमक पहुंचने लगी है. निफ्ट शिलांग में पढ़ रहे विकास बताते हैं, ‘जैसा व्यवहार दिल्ली में पूर्वोतर के लोगों के साथ किया जाता है शिलांग मे चीज़ें उसी दिशा में आगे बढ़ रही हैं. उत्तर भारतीय लड़कियां इनके निशाने पर रहती हैं. पूर्व में भी असम में कई बार हिंदीभाषियों के साथ हिंसा की वारदाते हुई हैं. ऐसे में राष्ट्रीय राजधानी को कई मायनों में खुद को बदलना है.

वादों से जुदा हकीकत

4_DSC04690-Lगांधीनगर के महात्मा मंदिर परिसर में प्रवासी सम्मेलन से लेकर वाइब्रेंट गुजरात के भव्य समारोह में घोषणाएं तो ढेरों हुईं, लेकिन इस सवाल का जवाब वक्त ही देगा कि इनमें से कितनी घोषणाएं जमीन पर उतर पाएंगी. इनमें निवेश कितना आएगा, यह सवाल जस का तस बना हुआ है.

वैसे तो पिछले कई सालों से प्रवासी भारतीय दिवस का आयोजन किया जाता रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रवासियों के बीच अलग ही आकर्षण है. यह बात उनको भी भली-भांति मालूम है. इसीलिए उन्होंने महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका से भारत वापसी के 100 साल पूरे होने के मौके पर  अपने गृह राज्य गुजरात में प्रवासी दिवस के आयोजन का निर्णय लिया. सात से नौ जनवरी के बीच गांधीनगर के महात्मा मंदिर परिसर में तीन दिवसीय प्रवासी सम्मेलन का आयोजन किया गया. इसके बाद इसी परिसर में 11 से 13 जनवरी के बीच वाइब्रेंट गुजरात का आयोजन भी हुआ.

यह वही मंदिर परिसर है जिसे नरेन्द्र मोदी ने कभी अपनी मार्केटिंग के लिए 250 करोड़ रुपये से भी अधिक खर्चकर बनवाया था, यह बात और है कि विश्व की अनमोल धरोहर साबरमती आश्रम को अपने मुख्यमंत्रित्व के 12 साल में वह मात्र 4.64 लाख रुपये ही आवंटित कर पाए. दक्षिण अफ्रीका से आने के बाद महात्मा गांधी ने जिस कोचरब आश्रम से सत्याग्रह का आह्वान कर सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की थी, उस आश्रम को भी रखरखाव के लिए प्रतिवर्ष मात्र सवा लाख रुपये का अनुदान राज्य से मिलता है.

गुजरात में निवेश आकर्षित करने के लिए मोदी द्वारा शुरू किया गया ‘वाइब्रेंट गुजरात’ अब वैश्विक निवेशक सम्मेलन का रूप ले चुका है. यही कारण है कि इसमें सभी अहम केंद्रीय मंत्रियों का तो जमावड़ा था ही, साथ ही इसमें देश-विदेश के जाने-माने उद्योगपतियों के अलावा अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून, विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किम और भूटान के प्रधानमंत्री भी शामिल हुए. सभी ने मुक्त कंठ से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का गुणगान किया और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए ‘मेक इन इंडिया और ‘मेड इन इंडिया’ के नारे भी लगाए गए, इस पूरे तामझाम के बावजूद वास्तविक निवेश को लेकर दुविधा जस की तस बनी हुई है.

दरअसल इस बात को लेकर बार-बार विवाद उठता रहा है कि ऐसे सम्मेलनों और इनमें की जानेवाली घोषणाओं के बाद असल में कितना निवेश आता है. पिछले वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में भी आंकड़ों को लेकर विवाद उठा था, इस विवाद को लेकर स्वयं प्रधानमंत्री भी उलझन में पड़ गए थे. शायद इसी विवाद के चलते प्रधानमंत्री को इस सम्मेलन के बारे में कहना पड़े कि ‘लोग मुझे कहते हैं कि मैं ‘हाइप क्रिएट’ करता हूं, लेकिन मैं ‘हाइप’ न करूं तो लोग काम न करें.’ आंकड़ों के विवाद से खुद को और सरकार को दूर रखने की गरज से ही राज्य के वित्त मंत्री सौरभ पटेल को भी एक प्रेस सम्मेलन के दौरान यह कहना पड़ा कि इस बार वाइब्रेंट के आंकड़े जारी नहीं किए जाएंगे, बल्कि ‘एक्सप्रेशन ऑफ इंट्रेस्ट’ की घोषणा की जाएगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, और इस सम्मेलन में 21,000 से अधिक निवेश करारों के साथ 25 लाख करोड़ रुपये के निवेश के आंकड़े घोषित किए गए.

साल 1997-98 में गुजरात राज्य पर कर्ज 17,900 करोड़ रुपये था, जो भाजपा के शासन में बढ़कर साल 2013-14 में 1,69,538 करोड़ रुपये हो गया

साल 2003 से ही हर दो साल बाद वाइब्रेंट गुजरात का आयोजन होता रहा है. अब तक कुल सात वाइब्रेंट महोत्सव का आयोजन हो चुका है. ऐसे में स्थिति को परखने के लिए यह जरूरी है कि आंकड़ों की बात एक बार कर ली जाए और यह देखने की कोशिश की जाए कि अब तक के आयोजनों का नतीजा क्या रहा है. अर्थशास्त्र के प्राध्यापक हेमंत शाह इस सम्मेलन को भव्य मेले के रूप में देखते हैं. उनका कहना है, ‘साल 2003 से साल 2011 के दौरान हुए सम्मेलनों में राज्य सरकार ने 39,60,146 करोड़ रुपये के करार किए थे, लेकिन निवेश आया सिर्फ 3,10,985 करोड़ रुपये, जो अनुमानों का सिर्फ 7.85 फीसदी ही है.

गुजरात के उद्योग कमिश्नर की वेबसाइट का हवाला देते हुए शाह कहते हैं कि एक जनवरी 1983 से 31 अक्टूबर 2014 तक 2,61,411 करोड़ रुपये के 6135 सहमति पत्रों पर अमल हुआ और 8,62,166 करोड़ रुपये की 3584 परियोजनाएं क्रियान्वयन की दिशा में हैं यानी पिछले 30 वर्षों में गुजरात राज्य में 11,23,577 करोड़ रुपये निवेश हुआ है. वह कहते हैं, ‘जब वाइब्रेंट के बिना इतना निवेश आया है, तो ऐसे में वाइब्रेंट सम्मेलन का महत्व क्या हैै?’

प्राप्त जानकारी के मुताबिक, गुजरात वाइब्रेंट 2015 के आयोजन पर 350 करोड़ रुपए की राशि खर्च की गई. गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष अर्जुन मोढवाडिया भाजपा पर आरोप लगाते हैं कि अपनी प्रसिद्धि के लिए सरकार करोड़ों रुपये फूंक रही है, वाइब्रेंट गुजरात में अब तक कितना खर्च हुआ, इसके आंकड़े तो राज्य की सरकार अभी तक सामने नहीं ला पाई. सूचना अधिकार के तहत भी वाइब्रेंट गुजरात के आंकड़ों की जानकारी नहीं दी जाती. कांग्रेस का दावा है कि अब तक के वाइब्रेंट सम्मेलनों में भाजपा सरकार ने 65 लाख करोड़ रुपये के निवेश के जो दावे किए हैं, उनमें से 3.6 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाएं ही क्रियान्वयन की दिशा में हैं. अभी तक इनकी वजह से केवल 2.68 लाख लोगों को ही रोजगार मिल सका है. कांग्रेस का कहना है कि इस दौरान राज्य पर कर्ज कई गुना बढ़ गया है. साल 1997-98 में गुजरात पर कर्ज 17,900 करोड़ रुपये था, जो भाजपा के शासन में बढ़कर साल 2013-14 में 1,69,538 करोड़ रुपये हो गया.

डिपार्टमेंट ऑफ इंड्रस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रमोशन (डीआईपीपी) की रिपोर्ट के मुताबिक, अप्रैल 2000 से मार्च 2013 के बीच भारत में 9.1 लाख करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आया. जहां तक गुजरात का सवाल है, यहां इस दौरान महज 39,000 करोड़ रुपये का एफडीआई आया. यहां विदेशी निवेश में ही नहीं, बल्कि घरेलू निवेश में भी कमी आई है. साल 2011 के वाइब्रेंट समिट के 544 सहमति पत्रों में से साल 2013 में मात्र 354 पर सहमति बन पाई है और प्रस्तावित निवेश 1.42 लाख करोड़ रुपये से घटकर 2013 में 94,259 करोड़ रुपये रह गया है. कांग्रेस विधानदल की महिला प्रवक्ता तेजश्री बेन पटेल का कहना है कि पिछले वर्ष ही विधानसभा में उन्होंने छह वाइब्रेंट सम्मेलनों में हुए निवेश करारों का आंकड़ा मांगा था और उन्हें जो आंकड़े मिले हैं, वे बेहद चौंकानेवाले हैं. शुरुआती छह वाइब्रेंट सम्मेलनों में कुल 30,115 निवेश करार हुए हैं, लेकिन अमल में लाई गई योजनाएं मात्र 1,512 ही हैं. ऐसे में ऐसी आशंका बढ़ती जा रही है कि यह निवेशक सम्मेलन जनता के करोड़ों रुपयों के खर्च से आयोजित होनेवाला भव्य मेला मात्र बनकर ही न रह जाए.

बाबरी मस्जिद और मेरे मित्र की उदासी!

babriअगर मुझसे पूछा जाए तो मैं यही कहूंगा कि हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद देश की राजनीति को सबसे गहरे तक प्रभावित करनेवाली कोई घटना अगर हुई तो वह थी बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना. लेकिन वह घटना केवल राजनीतिक भी नहीं थी. भले ही उसको अंजाम देने का मकसद राजनीतिक लाभ हो, लेकिन उसने आम जनमानस को जिस कदर प्रभावित किया वह किसी से छिपा नहीं है. मेरे जीवन पर भी उस दिन की अहम छाप है.

मैं उस वक्त बेतिया के सेंट मैरी मिडिल स्कूल में पढ़ता था. मैं यूकेजी का विद्यार्थी था और यह 7 दिसंबर 1992 की बात है, यानी बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के अगले दिन की. उस वक्त कतई अंदाजा नहीं था कि यह घटना देश को किस हद तक प्रभावित कर सकती है. मैं तो बस इतना जानता था कि हिंदुओं ने एक मस्जिद तोड़ दी है, वह मस्जिद जो हमारा पूजा स्थल है. सच पूछिए तो उस वक्त तक इतनी समझ भी कहां थी कि हिंदू धर्म और आज के उग्र हिंदुुत्व में कोई फर्क कर सकूं.

मैं एक नन्हा बालक था और संघ परिवार, विश्व हिंदू परिषद के नाम और इनकी लीलाओं से पूरी तरह अपरिचित था. मेरे लिए राजनीतिक दल का मतलब केवल उसका चुनाव चिह्न होता था. मिसाल के तौर पर हाथ का पंजा (कांग्रेस), चक्र (तत्कालीन जनता दल)  आदि. उस दौर में चुनाव प्रचार की रणनीतियां भी अलग हुआ करती थीं.

चुनाव के वक्त पार्टी कार्यालयों से स्टीकर, बैज वगैरह मांगा करते थे. हाथ छाप का स्टीकर बटन के साइज का आता था जिसको हम शर्ट कीबटन पर चिपका लिया करते थे. चक्र छाप का बैज शर्ट की जेब पर फंसा लेते और एक ही बार में हाथ छाप और चक्र छाप दोनों का प्रचार कर देते थे.

‘मुझे नहीं मालूम कि उसे मस्जिद का अर्थ पता था या नहीं लेकिन वह हड़बड़ाता हुआ लगभग सफाई देने लगा कि उसने मस्जिद नहीं तोड़ी है’

तो बाबरी मस्जिद की शहादत को लेकर घटे पूरे घटनाक्रम में मेरा नन्हा मन केवल यही बात समझ पाया था कि वह मस्जिद हिंदुओं ने गिराई है. कहना न होगा कि उतना छोटा होने पर भी मुझे यह बात बुरी लगी थी. शायद इसलिए क्योंकि अपने आसपास मैं दिन-रात यही चर्चा होते देखता था. स्कूल में मेरा सबसे अच्छा दोस्त था शैलेश. 7 दिसंबर को जब मैं स्कूल पहुंचा तो शैलेश मुझे देखकर मुस्कराया. हम एक ही बेंच पर बैठा करते थे. लेकिन मेरे मन में तो उस दिन कुछ और ही चल रहा था. मैंने उसकी आंखों में आंखे डालकर कहा कि अब हम दोस्त नहीं हैं और वह मेरे साथ न बैठे. शैलेश को सवाल करना ही था सो उसने किया. मैंने जवाब में कहा कि तुम लोगों ने हमारी मस्जिद गिरा दी है. आज से हम बात नहीं करेंगे.

पता नहीं मेरी बात उसे कितनी समझ में आई, लेकिन उसका चेहरा एकदम उतर गया. मुझे नहीं मालूम कि उसे मस्जिद का अर्थ भी पता था या नहीं लेकिन वह हड़बड़ाता हुआ लगभग सफाई देने लगा कि उसने मस्जिद नहीं तोड़ी है, कि वह मुझे बहुत प्यार करता है वगैरह… वगैरह.

आज जब मैं उस घटना को याद करता हूं तो मुझे सबकुछ बहुत तकलीफदेह मालूम होता है. अगर कोई टाइम मशीन होती तो मैं अतीत में जाकर उन घटनाओं को दुरुस्त करता, जिनकी वजह से मुझे और शैलेश को इस तरह की तकलीफ पहुंची.

हालांकि कुछ दिन बाद सबकुछ दुरुस्त हो गया और हम फिर से पहले जैसे दोस्त बन गए. लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. मेरा स्कूल बदल गया और फिर हम दोबारा कभी नहीं मिल पाए. लेकिन आज भी कभी-कभी कुछ राजनीतिक बयानों को सुनकर मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आते हैं और साथ ही याद आती है शैलेश की वह उदासी.

मेरी यही कामना है कि कभी किसी पर ऐसा कुछ न गुजरे कि उसे इस कदर उदास होना पड़े और ऐसा तो कभी न हो कि कोई दोस्त किसी दूसरे दोस्त की उदासी की वजह बने. क्योंकि जब दोस्त उदास होता है, तो ईश्वर की आंखों से भी दो बूंद आंसू छलक ही जाते हैं.

जेएलएफ: बाजार का साहित्य उत्सव

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल

जयपुर साहित्य उत्सव, जो कि अब जेएलएफ नाम से मशहूर है, दुनिया का सबसे बड़ा साहित्योत्व है जिसमें प्रवेश निशुल्क है. पांच दिन तक चलनेवाले इस जलसे में मामूली औपचारिकता के साथ कोई भी व्यक्ति शामिल हो सकता है. जेएलएफ खुद भी अपनी ब्रांडिंग इसी पहचान के साथ करता है.

देश भर के साहित्यिक एवं अकादमिक मंचों से होनेवाली संगोष्ठी, परिचर्चा और विमर्शों में यह चिंता जताई जाती रही है कि साहित्य और कला के प्रति लोगों की अभिरुचि तेजी से खत्म हो रही है, जेएलएफ इस चिंता को पूरी तरह ध्वस्त करता है. मसलन साल 2014 में शामिल लोगों की जो संख्या 2,20,000 थी, वह इस साल बढ़कर 2,55,000 हो गई. किसी भी साहित्यिक उत्सव में अगर साहित्य प्रेमियों की संख्या ढाई लाख से ज्यादा हो जाती है, इसका मतलब है कि इस बात के लिए आश्वस्त हुआ जा सकता है कि बहुत जल्द ही देश में कई छोटे-छोटे साहित्य गणराज्य स्थापित हो जाएंगे. फिर इस चिंता से तो मुक्ति मिल जाएगी कि देश में साहित्यिक अभिरुचि तेजी से खत्म हो रही है.

ऐसे सपाट निष्कर्ष तक पहुंचने के पहले इस उत्सव को लेकर दूसरे कई जरूरी संदर्भ हैं, जो कि संभव है परिचर्चा सत्र का हिस्सा न होने के कारण शामिल नहीं किए जाते. वैसे भी इस उत्सव को लेकर जो भी कवरेज होती रही है, वह चुस्त मीडिया मैनेजमेंट का बेहतरीन हिस्सा है. जिसे हम दुनिया का सबसे बड़ा प्रवेश निशुल्क साहित्यिक आयोजन कह रहे हैं, वह क्या सिर्फ साहित्योत्सव है? दूसरी बात सिर्फ परिचर्चा देखने-सुनने के लिए किस साहित्यिक जलसे में फीस लगाई जाती है? ये दो जरूरी सवाल हैं जिससे कि ये पूरा साहित्योत्सव नए सवालों की तरफ ले जाता है. मसलन फ्रंट लॉन में होनेवाली सारी परिचर्चा शुरू होने से पहले, जिनमें कि नोबल पुरस्कार विजेता वीएस नायपॉल तक की बातचीत शामिल थी, ये लाइन बार-बार दुहराई गई- इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं रजनीगंधा और उसके बाद अपील कि कृपया धूम्रपान या किसी भी तरह के नशे का प्रयोग न करें. दो कार्यक्रमों के बीच के अंतराल में रजनीगंधा पान मसाला का विज्ञापन दैत्याकार एलइडी स्क्रीन पर भारी-भरकम आवाज के साथ प्रसारित होता रहा.

ऐसे अंतर्विरोधों की श्रृंखला पूरे साहित्योत्सव में मौजूद रही. जो साहित्यिक दुनिया में गैरजरूरी शोर के शामिल किए जाने के सवाल की तरफ ले जाती है. हम बाजार के उसी शोर के बीच होते हैं, जिससे राहत पाने के लिए यहां आते हैं. दरअसल  जेएलएफ जिन थोड़े साहित्यिक अभिरुचि रखनेवाले लोगों के लिए साहित्योत्सव है, वह पीआर प्रैक्टिसनर्स के लिए ‘स्पॉन्सर्स डायरेक्टरी’ है. हरेक कार्यक्रम प्रायोजित होता है, वक्ता और प्रतिभागी को दिए जानेवाले पहचान पत्र से लेकर मंच और पूरा परिसर ब्रॉन्ड और उनके नाम से अटे पड़े होते हैं. पांच दिनों तक डिग्गी पैलेस एक नए सिरे से रियल एस्टेट स्पेस में तब्दील हो जाता है. ऐसा होने से मंच से जो चिंता व्यक्त की जाती है, उन्हीं समस्याओं से प्रतिभागी जूझ रहे होते हैं.

प्रत्येक परिचर्चा स्थल पर दर्जनों फूड ज्वाइंट्स मिल जाएंगे, जहां कीमत डॉलर के हिसाब से तय होती है. उसके अनुपात में आपको वॉशरूम नहीं मिलेंगे और न ही बुकशॉप क्योंकि इसे किसी ने प्रायोजित नहीं किया. पूरे साहित्योत्सव में प्रवेश द्वार के बाद सबसे लंबी कतार स्त्री-पुरुष वॉशरूम के आगे दिखेगी. ये नजारा देश के किसी भी सामुदायिक शौचालय के आगे लगनेवाली लाइन से अलग नहीं होता.

प्रायोजित अखबारों और न्यूज चैनलों में इस उत्सव को लेकर परिचर्चा सत्र से फिल्टर करके वे बातें तो फिर भी सामने आ जाती हैं और उनके लिए बेहद उपयोगी भी होतीं है, जो कि घर बैठे इसका रसास्वादन करना चाहते हैं. जो वहां जाकर पूरे कार्यक्रम को सुनना-समझना चाहते हैं, उन्हें फिर उन्हीं सवालों से टकराना होता है, जिसके प्रतिरोध में साहित्य लिखे जाते हैं. प्रायोजकों के विज्ञापनों की बमबारी जबकि सत्र में कई बार कुर्सियों के खाली रह जाने का विरोधाभास ऐसा है जहां से साहित्योत्सव एक नया अर्थ ग्रहण करता है.

ये अर्थ इस रूप में है कि जेएलएफ शामिल होनेवाले प्रतिभागियों को एक स्टेट्स देता है कि वो साहित्यिक बहसों में दिलचस्पी रखते हैं. इस पहचान पत्र के साथ भीतर वर्ल्ड ट्रेड फेयर, डिजनीलैंड जैसे किसी भी कार्यक्रम का आनंद ले सकते हैं. जहां जितनी तत्परता से धूम्रपान निषेध के जनहित में जारी लगातार विज्ञापन प्रसारित किए जाते हैं, उतने ही मनोयोग से नशे की सारी सामग्री डॉलर कीमत पर बेची जाती है. इस दौरान ये पूरा कार्यक्रम एक ऐसा द्वीप हो जाता है जहां साहित्य का झंडा दूर से लहराता दिखाई तो देता है, लेकिन वह न तो जयपुर का हिस्सा हुआ करता है, न ही साहित्य का, जिनके साहित्यिक कृतियों में होने की अनिवार्यता रचनाकार के यहां तक आने की पहचान देती है. इसे फैन्स कॉर्निवल कह सकते हैं जहां लेखक और फैन्स (पाठक) अपने लिखे और पढ़े की अंतर्वस्तु से एक हद तक मुक्त हो जाते हैं. ये नैतिक दवाब से मुक्त हो जाने का उत्सव है.

बिखरे हुए जनआंदोलनों को एकजुट करने की कोशिश

फोटोः अंबरीश कुमार
फोटोः अंबरीश कुमार
फोटोः अंबरीश कुमार

सोलह मार्च को दिल्ली के जंतर-मंतर पर चल रहे एक कार्यक्रम के मंच के ठीक नीचे करीब सत्तर साल की एक आदिवासी महिला भरी दोपहरी में गुड़ खाकर पानी पी रही थी और उसके साथ आई दूसरी महिला उससे एक मोटी रोटी खाने का आग्रह कर रही थी. यह बड़ा ही मार्मिक दृश्य था. जमीन बचाने के संघर्ष को ताकत देने के लिए यह महिला अपने जत्थे के साथ झारखंड से यहां पहुंची थी. मौका था ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम की जन संसद का, जिसमें करीब बारह राज्यों के किसान मजदूर और आदिवासी पहुंचे थे. उसी समय मंच पर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर जन संसद को संबोधित करते हुए बोल रहे थे कि उनकी जमीन को उनकी मर्जी के बगैर कोई नहीं ले सकता. यह उनका लोकतांत्रिक हक है. उन्होंने कहा कि इस हक के लिए जो जरूरी लड़ाई लड़ी जानेवाली है, वे हर स्तर पर उसका साथ देंगे. इस मौके पर भाकपा-माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने इस जन संसद और इसके पीछे के राजनीतिक माहौल पर भी रौशनी डाली. उन्होंने इस मंच की जरूरत, इसके साथ खड़ी ताकतों के बारे में बताया और उन हालात पर भी रौशनी डाली जिसके चलते यह एकजुटता हुई. उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने लोगों से अच्छे दिन का वादा किया था, पर अच्छे दिन सिर्फ काॅरपोरेट और अमीरों के लिए आए हैं.

भट्टाचार्य के मुताबिक जब से नई सरकार बनी है, सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे पर बेहद संवेदनहीन रवैया देखने को मिल रही है. जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों पर लगातार हमले किए जा रहे हैं. सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश किसानों की जमीन हड़पने वाला अध्यादेश है. दीपांकर भट्टाचार्य के शब्दों में यह दूसरी आजादी की लड़ाई है. जन आंदोलनों की जो व्यापक एकता बन रही है, उसके जरिए यह लड़ाई निश्चित तौर पर जीती जाएगी. समाजवादी समागम का प्रतिनिधित्व करते हुए मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक व किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष सुनीलम ने भी भूमि पर किसानों-आदिवासियों के हक और सरकारी जमीन के बंटवारे के लिए पूरे देश में एक बड़े आंदोलन की जरूरत पर जोर दिया. सुनीलम ने इस अवसर पर अपनी बात रखते हुए कहा कि काॅरपोरेट ताकतों की मददगार पार्टियां इस देश की जनता का भला नहीं कर सकतीं, यह साबित हो चुका है. जमीनों पर काॅरपोरेट कब्जे की राजनीति के खिलाफ सरकारी जमीन पर भूमिहीन-मेहनतकश किसानों और खेत मजदूरों के कब्जे का आंदोलन तेज करना ही होगा. दूसरी तरफ झारखंड की प्रसिद्ध समाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला ने कहा कि जल, जंगल, जमीन के साथ-साथ राजसत्ता पर भी जनता का अधिकार है, जिसे हासिल करना अभी बाकी है.

जन संसद में उपस्थित लोगों की संख्या दस हजार से ज्यादा रही. ये लोग देश भर के अलग-अलग हिस्सों से यहां पहुंचे थे. पूरी भीड़ बेहद अनुशासित तरीके से एक लाइन में चलती हुई नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से यहां तक पहुंची थी. नारा लग रहा था ‘जन-जन की यह आवाज, नहीं चलेगा कंपनी राज.’

यह पहल कई मायनों में बहुत अलग है क्योंकि इसमें तीन तरह की धाराओं का समावेश हो रहा है. भाकपा माले और उनसे जुड़े वामपंथी, धुर वामपंथी संगठनों के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे जन आंदोलनों के प्रतिनिधि भी इसका हिस्सा बने. समाजवादी तबका भी इससे जुड़ा. दक्षिण भारत में परमाणु ऊर्जा प्लांट के खिलाफ चल रहे आंदोलन से लेकर ओडिशा, झारखंड और असम जैसे कई राज्यों में प्राकृतिक संसाधनों को बचानेवाले आंदोलनकारी समूह भी इसमें शामिल थे. पर इसकी बुनियाद में समाजवादी धारा के कुछ महत्वपूर्ण संगठन थे जो मुंबई में पिछले वर्ष 10-11 अगस्त में हुई समाजवादी समागम के बाद खुद को एक नई भूमिका में स्थापित करने की कोशिश में लगे हुए हैं. इस तबके का प्रतिनिधित्व किसान नेता डाॅ. सुनीलम और समाजवादी चिंतक विजय प्रताप जैसे नेता कर रहे थे. इनके साथ भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य, कविता कृष्णन आदि की भी इस पहल में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही. प्रयास यह है कि बहुत से जनहित के मुद्दों को आधार बनाकर समाजवादियों, वामपंथियों, गांधीवादियों से लेकर अंबेडकरवादियों तक को एक साथ एक मंच पर लाया जाय. उनके गठजोड़ से देश में एक नया और व्यापक मंच तैयार किया जाय. इससे जन आंदोलनों की दम तोड़ रही संस्कृति एक बार फिर से बहाल हो सके और एक बड़े आंदोलन की जमीन तैयार हो. इस लिहाज से संसद के सामने सोलह मार्च को संपन्न हुई जन संसद बेहद कामयाब रही. जन संसद के एेलान पर 23 मार्च को शहीद भगत सिंह की शहादत के मौके पर भूमि अध्यादेश के खिलाफ कई प्रदेशों में इस मंच ने अपनी ताकत दिखाते हुए प्रदर्शन भी किया. अखिल भारतीय लोक मंच (आॅल इंडिया पीपुल्स फोरम- एआईपीएफ) के दो दिवसीय स्थापना सम्मेलन के बाद सोमवार को जंतर मंतर पर जन संसद में सौ दिन के संघर्ष का एेलान किया गया था. एआईपीएफ ने भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस 23 मार्च से 30 जून तक पूरे देश में भूमि अधिकार-श्रम अधिकार अभियान चलाने का निर्णय लिया है.

ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम का मानना है कि भूमि अधिग्रहण और श्रम कानूनों में बदलाव को देखते हुए मौजूदा सरकार का रवैया सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे पर बेहद संवेदनहीन है और वह लोकतांत्रिक अधिकारों पर लगातार हमला कर रही है

दरअसल एआईपीएफ बनाने की ठोस पहल पिछले वर्ष ग्यारह अक्टूबर को दिल्ली में हुई बैठक में हुई थी जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जन आंदोलनों के साथ समाजवादी और वामपंथी धारा के कार्यकर्ता शामिल हुए. दिल्ली के एनडी तिवारी भवन में दिन भर चली बैठक के बाद राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा राजनीतिक मोर्चा बनाने का फैसला हुआ जिसमें सभी धर्म निरपेक्ष ताकतों को शामिल होने की अपील भी की गई. यह पहल वाम धारा के कई संगठनों के साथ भाकपा माले, समाजवादी समागम और विभिन्न जन आंदोलनों की तरफ से हुई थी. बैठक में इंकलाबी नौजवान सभा, क्रांतिकारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, पंजाब से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, जन संस्कृति मंच, एटमी ऊर्जा विरोधी आंदोलन, आइसा, रिहाई मंच, खेत मजदूर सभा, सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी, समाजवादी समागम, एआईसीसीटीयू जैसे कई जन संगठनों के साथ देश के महत्वपूर्ण चिंतक और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता शामिल हुए. बैठक में शामिल कुछ महत्वपूर्ण नामों में  रामजी राय, मजदूर नेता विद्या भूषण, राजा राम, गौतम नवलखा, सुमित चक्रवर्ती, विनायक सेन, एंडी पंचोली, विजय प्रताप आदि रहे.  उसके बाद इस दिशा में कई छोटी-बड़ी बैठकों के बाद 14-15 मार्च को इसका स्थापना सम्मेलन हुआ.

दिल्ली के बदले हुए राजनीतिक माहौल में झंडेवालान स्थित अंबेडकर भवन प्रांगन में शुरू हुए ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम (एआईपीएफ) के स्थापना सम्मेलन ने काॅरपोरेट घरानों की लूट के खिलाफ देशभर में प्रतिरोध का साझा और व्यापक मंच बनाने की दिशा में नई उम्मीद भी जगाई. स्थापना सम्मेलन में करीब पंद्रह राज्यों के कार्यकर्ता शामिल हुए जिसमें नौजवानों और महिलाओं की संख्या ज्यादा थी. सम्मेलन में आइसा के नौजवानों की सहभागिता और उनका उत्साह नारों, पोस्टरों और क्रांतिकारी गीतों के रूप में झलक रहा था. दोपहर बाद तक देश के करीब पंद्रह राज्यों से आए प्रतिनिधियों की संख्या पांच सौ से ऊपर जा चुकी थी. इनमें झारखंड, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार, मध्य प्रदेश, बंगाल, ओिडशा, असम, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे प्रदेश शामिल थे.

कॉरपोरेट की चांदी आदिवासियों की बर्बादी

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छत्तीसगढ़ में खनन कंपनियां धड़ल्ले से खनिज संपदाओं का दोहन कर रही हैं. इसकी वजह से प्रदेश की उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है. भूमि का प्रदूषण भयावह स्तर पर फैल गया है. इसका यहां की प्राकृतिक संपदा और निवासियों, दोनों पर बुरा असर हो रहा है.

बुद्धराम कडाती बस्तर के किरांदुल में रहते हैं और पेशे से किसान हैं. जब तहलका उनके गांव पहुंचा तब वे गांव के तालाब में मछली पकड़ने में व्यस्त थे. बुद्धराम उन हजारों गरीब आदिवासियों में से एक हैं जिनकी उपजाऊ जमीन लौह अयस्क निकालने के कारण अब बंजर हो गई है. उनका कहना है कि गांव के लोगों के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है. भयंकर रूप से प्रदूषित सनकिरी नदी के पानी का प्रयोग वे लोग अपनी दैनिक जरूरतों के लिए करते हैं. हालांकि इस दूषित पानी के प्रयोग से होनेवाली स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से अच्छी तरह वाकिफ हैं. सालों से इस क्षेत्र में हो रहे खनन उद्योग के कारण नदी का पानी जहरीला हो चुका है.

नदी के पानी में लोहे (आयरन) की अधिक मात्रा के कारण पानी जहरीले लाल रंग में बदल गया है. बुद्धराम का कहना है कि इस गड़बड़ी के खिलाफ आवाज उठाना हमारे लिए आसान नहीं है. अगर हम कभी आवाज उठाते भी हैं तो खनन कंपनियां अपने सर्वे कराकर राज्य सरकार की तरफ से मुआवजे की घोषणा कर देती हैं. लेकिन मुआवजे की राशि मुश्किल से हम तक पहुंचती है. कडाती ने बताया कि अपनी जमीन के बदले मिले एक लाख के मुआवजे में से 50 हजार रुपये एजेंट को देने पड़े.

अवैध ढंग से हो रहे खनन कारोबार की वजह से सनकिनी नदी का पानी प्रदूषित हो गया है, इसके बारे में मीडिया में कोई खबर नहीं आती. दूसरी ओर राष्ट्रीय खनन विकास प्राधिकरण (एनएमडीसी) और इसकी सहयोगी एस्सार स्टील बड़ी मात्रा में लौह अयस्क का कचड़ा हर साल नदी में बहा देती हैं  जिसके कारण उपजाऊ भूमि बंजर जमीन में तब्दील हो गई है, इस पर अब तक कोई भी कड़ा सरकारी कदम नहीं उठाया गया है.

बस्तर खनिज संपदा की दृष्टि से सर्वाधिक संपन्न क्षेत्रों में से एक है. एनएमडीसी और केंद्र सरकार की लौह अयस्क खनन की दो योजनाएं बछेली और बेलाडीला में पिछले पांच दशक से चल रही हैं. एनएमडीसी छह खदानों से लौह अयस्क का खनन करती है और प्रतिवर्ष इससे 90 लाख मीट्रिक टन कचड़ा पैदा होता है.

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खनन से जमा होनेवाले कचड़े के निष्पादन के लिए एनएमडीसी के पास कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है. इस कारण इनमें से ज्यादातर कचड़ा नदी और किसानों की उपजाऊ भूमि पर फेंक दिया जाता है. यह अलग बात है कि नियमों के अनुसार किसी भी कंपनी के पास ऐसा करने का अधिकार नहीं है. स्थानीय लोगों के द्वारा लगातार विरोध करने के बाद भी इस दिशा में कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है. खनन के बाद बहाए जाने वाले कूड़े की वजह से नदी के किनारे दलदल बन गए हैं. एक दुर्घटना में पांच बच्चे इसमें बुरी तरह फंस गए थे. बच्चे नदी किनारे खेल रहे थे जब नदी किनारे जमा कीचड़ में फंस गए. ऐसी ही किसी और दुर्घटना की स्थिति यहां निरंतर बनी हुई है. उस दुर्घटना में फंसे बच्चों में से एक बच्चे के पिता एनएमडीसी में ही ड्राइवर की नौकरी करते हैं.

खनन से जमा होने वाले कचड़े के निष्पादन के लिए एनएमडीसी के पास कोई व्यवस्था नहीं है. ज्यादातर कचड़ा नदी और उपजाऊ भूमि पर फेंक दिया जाता है 

Localsआदिवासियों की अनदेखी

एनएमडीसी में काम करनेवाले कर्मचारियों के लिए आधुनिक सुविधाओं से युक्त दो टाउनशिप बनाए गए हैं. दूसरी तरफ जिन आदिवासियों की जमीन पर यह टाउनशिप खड़ी की गई हैं, उनके हितों की पूरी तरह अनदेखी की गई. पूरे क्षेत्र में उनके लिए एक अच्छा स्कूल और अस्पताल तक नहीं है.  60 किमी के क्षेत्र में एकमात्र अंग्रेजी मीडियम स्कूल केंद्र सरकार की योजना के तहत है. एनएमडीसी टाउनशिप में स्थित इस स्कूल में आदिवासी बच्चों की संख्या नगण्य है. एनएमडीसी ने क्षेत्र में एक अस्पताल बनाया है लेकिन गंभीर बीमारी के इलाज के लिए मरीज को जगदलपुर अस्पताल भेज दिया जाता है, जो यहां से करीब 100 किमी दूर है.

स्थानीय सीपीआई नेता एनआरके पिल्लई खुद इसके गवाह हैं. सड़क हादसे में पिल्लई का बेटा बुरी तरह जख्मी हो गया था. इलाज के लिए उसे जगदलपुर ले जाना पड़ा. रुंधे गले से पिल्लई बताते हैं कि एनएमडीसी के अस्पताल में यदि बेहतर सुविधाएं होतीं तो उनके बेटे को गंभीर हालत में जगदलपुर नहीं जाना पड़ता. शायद उसे बचाया जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं हो सका. मुझे अपना बेटा खोना पड़ा. ऐसे लोगों की फेहरिश्त लंबी है जिन्हें इलाज की सुविधा के अभाव में अपने परिजनों को खोना पड़ा है.

सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी) के नाम पर एनएमडीसी और एस्सार ने क्षेत्र में बस स्टैंड और पार्क बनाए हैं. ये समय-समय पर खेल प्रतियोगिताएं आयोजित करती हैं. दंतेवाड़ा कलेक्ट्रेट में हमारे एक सूत्र ने बताया कि हर साल एनएमडीसी और एस्सार करोड़ों रुपये इन टूर्नामेंट के आयोजन के लिए देती हैं. लेकिन इन पैसों का इस्तेमाल कहां होता है, यह सोचने की बात है. जिले में एक कबड्डी टूर्नामेंट के आयोजन के लिए लाखों रुपये खर्च किए गए, जबकि हर रोज हजारों आदिवासी भूखे सोने के लिए अभिशप्त हैं. एनएमडीसी और एस्सार इलाके में आधारभूत संरचना के नाम पर बहुत कम पैसे खर्च करते हैं. कलेक्ट्रेट में हमारे दूसरे सूत्र ने बताया कि माओवादी क्षेत्र होने के कारण इलाका बेहद संवेदनशील है. इस कारण यहां विकास योजनाएं लागू नहीं हो पातीं.

नाम न छापने की शर्त पर हमारे सूत्र ने इलाके के पिछड़ेपन के बारे में बताया कि अगर क्षेत्र में विकास की कोई परियोजना शुरू भी होती है तो नक्सली हमलाकर उसे रोकने का प्रयास करते हैं. क्षेत्र में ऐसी किसी परियोजना की शुरुआत से पहले सरकार को कई बार सोचना पड़ता है.

सीपीआई नेता पिल्लई कहते हैं, ‘सीएसआर के नाम पर कलेक्ट्रेट को कंपनियों से मिलनेवाला पैसा अक्सर दूसरे कामों में खर्च कर दिया जाता है. स्थानीय लोगों ने इस पैसे के सही इस्तेमाल के लिए कई बार आवाज उठाई लेकिन अब तक कुछ नहीं हो सका. यह प्राथमिकता तय करने की बात है. शीर्ष पर बैठे लोगों को लगता है कि पार्क और बस स्टैंड, शिक्षा और स्वास्थ्य से ज्यादा बड़ी जरूरते हैं.

पर्यावरण पर बुरा प्रभाव

बड़े पैमाने पर होनेवाले खनन की वजह से पर्यावरण संतुलन भी डगमगाया है. दुग्ध उत्पादों का काम करनेवाले किसानों का कहना है कि पिछले एक दशक में दुधारू पशुओं की उम्र कम हुई है. पेशे से किसान जगजीवन का कहना है, ‘दो साल पहले मैंने जगदलपुर से गाय खरीदी थी लेकिन अब उसकी मौत हो गई. यह सब नदी के प्रदूषित पानी के कारण हुआ है. प्रदूषण का असर मछलियों के स्वास्थ्य और संख्या पर भी नजर आता है. हम अपने बचपन में हर रोज तकरीबन पांच किलो मछलियां पकड़कर बेचते थे लेकिन आज एक मछली भी नदी के पानी में नहीं मिलती.’

नौकरी के लिए भी रिश्वत

मुआवजे की राशि तो दूर की बात है, पिछले पांच दशक में एनएमडीसी ने जिन लोगों की जमीन ली, उन्हें नौकरी भी नहीं मिली. स्थानीय लोगों का कहना है कि 50 साल पहले जब उनकी जमीन ली जा रही थी, तब उनसे नौकरी का वादा किया गया था. लेकिन पहली बार 1985 में कुछ लोगों को नौकरी मिली जब दुबारा से एनएमडीसी ने बांध बनाने के लिए 600-700 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया. लेकिन तब भी महज चार लोगों को ही नौकरी दी गई. मंगल (परिवर्तित नाम) का कहना है, ‘मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है, 1985 से पहले किसी को भी एनएमडीसी में नौकरी नहीं मिली थी. 1985 में मैं उन चार लोगों में से एक था, जिसे मुआवजे के बदले नौकरी मिली.’

एनएमडीसी का दावा है कि केंद्रीय संस्थान होने के कारण उनके यहां आरक्षण की नीतियों का पूरी तरह पालन होता है. एनएमडीसी के एक अधिकारी के अनुसार देश-भर के अभ्यर्थी यहां नौकरी के लिए आवेदन करते हैं. चयन प्रक्रिया योग्यता के आधार पर होती है. भूमि अधिग्रहण बिल के मुताबिक स्थानीय लोगों को वरीयता देने की नीति यहां पर लागू नहीं है.

स्थानीय आदिवासियों के साथ अन्याय की कहानी यहीं खत्म नहीं होती. कुछ मजदूर यूनियन के अधिकारी नौकरी दिलाने के बदले एनएमडीसी के अधिकारियों से मिली-भगत कर लोगों से लाखों वसूलते हैं. मंगल के बेटे ने बातचीत में तहलका को बताया कि एनएमडीसी में मैकेनिकल असिस्टेंट की नौकरी के लिए मैंने एक लाख रुपये दिए. मैंने चार साल तक लगातार नौकरी की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली. तभी मैं समझ गया कि इस नौकरी के बदले मुझे रिश्वत देनी ही होगी. इसलिए मुझे पैसों का इंतजाम करना पड़ा. (रिश्वत की यह रकम पांच से आठ लाख तक भी हो सकती है. ऊंचे पद के लिए अधिक पैसे देने पड़ते हैं).

स्थानीय लोग एनएमडीसी में नौकरी के लिए लालायित रहते हैं. इसकी वजह वेतन के साथ मिलनेवाली सुविधाएं हैं. एनएमडीसी में मकैनिकल असिस्टेंट को 40 हजार प्रतिमाह वेतन के साथ तमाम सुविधाएं और भत्ते मिलते हैं.

मजदूर यूनियन के नेता ‘नौकरी के बदले घूस’ के मुद्दे पर बात करने के लिए राजी नहीं हुए. हालांकि कुछ युवा जिन्हें नौकरी नहीं मिल सकी, इस मामले की जांच करवाने की मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि मजदूर यूनियन के लोग इस गड़बड़ी को क्यों स्वीकार करेंगे? अगर हम झूठ बोल रहे हैं तो इस मामले की सीबीआई जांच करवा लें, सच सामने आ जाएगा. अगर सच सामने आ गया तो बहुत से सफेदपोश सलाखों के पीछे होंगे.

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नौकरी के नाम पर मजाक

स्थानीय लोगों को नौकरी देने के नाम पर कंपनियां क्रूर मजाक कर रही हैं. एस्सार स्टील ने छत्तीसगढ़ के किरनदुल स्थित मदादी के 12 लोगों को महज एक महीने के लिए नौकरी पर रखा है. इन सभी लोगों को इसके बदले 5000 रुपये मिल रहे हैं. इन स्थानीय लोगों का काम अलग-अलग शिफ्ट में कंपनी की तरफ से लगाए गए पानी के पंप की देखभाल करना है. इनमें से हर आदमी को दूसरी बार ड्यूटी के लिए पूरे एक साल का इंतजार करना पड़ता है. एस्सार का इसके पीछे तर्क है कि एक-एक महीने के लिए 12 लोगों को रखकर वह ज्यादा से ज्यादा स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर दे रहे हैं.

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कानूनी तिकड़मों से जारी है शोषण प्रक्रिया

एनएमडीसी की छह लौह-अयस्क खदानों में से पांच की लीज इस साल दिसबंर में खत्म होनेवाली है. कंपनी सभी प्रभावित गांवों से सहमति लेने की पुरजोर कोशिश कर रही है, हालांकि दो गांवों ने पूरी तरह इनकार कर दिया है. पंचायत एक्ट (पेसा, पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल एरिया) 1996 के तहत किसी भी औद्योगिक गतिविधि, जिसमें खनन उद्योग भी शामिल है, के लिए ग्राम सभा से सहमति अनिवार्य है. हालांकि, लोकसभा में इसी साल पारित हुए दो बिल- खनिज और खनन संशोधन विधेयक और भूमि सुधार विधेयक पास हो चुका है, लिहाजा खनन कंपनियों के लिए आगे का रास्ता काफी आसान है.

बड़े पैमाने पर होने वाले खनन की वजह से पर्यावरण संतुलन डगमगाया है. दुग्ध उत्पादों का काम करने वालों का कहना है कि दुधारू पशुओं की उम्र घटी है

इस नए अधिनियम के तहत अब लीज 50 साल के लिए दी जाएगी और जिन्हें पहले से लीज मिली है, उनकी लीज आगामी 50 वर्षों के लिए बढ़ा दी जाएगी. इसी तरह भूमि अधिग्रहण विधेयक में भी जमीन लेने से पहले जमीन मालिक से सहमति की अनिवार्यता के नियम को हटा दिया गया है. राज्यसभा में पास हो जाने के बाद यह बिल आदिवासियों के हितों को अनदेखा करने का एक और माध्यम बन सकता है.

जिनके भरोसे लाखों-करोड़ों लोग विमान यात्रा करते हैं वे इन्हें उड़ाने के योग्य भी हैं?

aviation

एक सुबह तहलका के एक रिपोर्टर ने रोजगार मांगने के बहाने नागर विमानन मंत्रालय, भारत सरकार के निदेशक के निजी सचिव सुरेश कुमार लांबा से फोन पर संपर्क किया. बातचीत के संपादित अंश-

तहलका: हैलो, सर कैसे हैं?

सुरेश कुमार लांबा: बढ़िया. आप सुनाइए, कुछ नई ताजी?

तहलकाः कुछ नहीं, सर. आप बताइए.

लांबा: क्या हुआ जेट का? आपने परीक्षा दिया था…

तहलका: अभी तक रिजल्ट नहीं आया है. पिछली बार लिखित परीक्षा पास कर गया था लेकिन इंटरव्यू में रह गया था.

लांबा: अपनी िडटेल्स मुझे भेजना, अगर पहले परीक्षा दिया हुआ है तो कई बार उन पर विचार कर लेते हैं, किसी काे अप्रोच कर लेने पर.

तहलका: स्पाइस जेट या इंडिगो में कुछ जुगाड़ है क्या?

लांबा: इंडिगो में अप्लाई किया है क्या? एक क्वेश्चन बैंक आया है मेरे पास. किसी ने भेजा था. मुझे कहा था कि अगर तुम्हारा कोई बच्चा पढ़नेवाला हाे तो दे देना… भेजता हूं आपको. इसी में से आएगा.

तहलका: क्वेश्चन बैंक तो मेरे पास भी है, सर. नौकरी का कुछ करवाएं. लिखित परीक्षा पास करने के बाद कुछ जुगाड़ है क्या आपका?

लांबा: हां, जुगाड़ ताे है.

तहलका: कितने लगेंगे? एक अंदाजा तो बता दीजिए. कोई बोल रहा था 20 (लाख) तक हो जाएगा.

लांबा: मैं आपको बता दूंगा, पर काम चाहे जिससे भी करवाओ. हमसे करवाओ या किसी और से, पैसे काम के बाद ही देना, वर्ना फंस जाएंगे. रात में बता दूंगा, पहले आपको लिखित परीक्षा पास करना होगा.

तहलका: अच्छा सर, लाइसेंस कन्वर्जन भी कराना है एक दोस्त का. एक सप्ताह में हो जाएगा?

लांबा: हो जाएगा, लेकिन रेट बदल गए हैं. पहले बीस हजार में हो जाता था. अब नए बंदे आ गए हैं तो रेट बदल जाएंगे. समय-समय की बात है.

कुछ दिन बाद रोजगार के सिलसिले में दूसरे उम्मीदवार के बतौर तहलका ने लांबा से फिर संपर्क किया.

तहलका: हैलो सर.

लांबाः हां बोलिए क्या काम है?

तहलका: सर जरा रिक्रूटमेंट के बारे में बात करनी थी… इंडिगो के लिए…

लांबा: एयर इंडिया में भी वैकेंसी निकली है. उसमें अप्लाई करो.

तहलकाः ओके सर. लेकिन सर, आप भी जानते हैं न कि बिना पहचान के नहीं होता, आप अगर करवा सकते हैं तो बताइए.

लांबाः हां, हां. हो जाएगा. उसमें आप अप्लाई कर दो. अप्लाई तो हर जगह करना चाहिए. आपने इंडिगो का पेपर दिया था?

तहलका: दिया, था सर.

लांबाः पेपर तो सुना है आसान था. देखो, लिखित में तो कोई आपकी मदद नहीं कर सकता है. नतीजा आने पर ही कुछ हो सकता है.

तहलका: सर, आप भी जानते हैं कि कई बार ऐसा भी होता है कि लोगों का नाम सूची में नहीं होता है लेकिन फिर भी उनका चयन हो जाता है.

लांबा: हा, हा, हा…

तहलका: सर, कुछ करवा सकते हैं तो बताइए और अमाउंट बता दीजिए.

लांबाः रिजल्ट आने दो, फिर बात करते हैं.

तहलकाः अमाउंट बता दीजिए… 20-30? कितना?

लांबा: 20 तक हो जाएगा. जितना न्यूनतम हो जाए, लेकिन अभी मैं तुम्हें कुछ भी नहीं बता सकता. सामनेवाला क्या चाहता है, वो सब काम लेने पर ही पता चलेगा.

तहलकाः हो जाएगा क्या, सर?

लांबाः साधारण सी बात है. सेटिंग होनी चाहिए… हो जाएगा. 20 के आसपास हो जाएगा… 20 से 30 तक.

airways

2011 में कॉमर्शियल पायलट की नियुक्ति में नकली दस्तावेज के आधार पर नौकरी पानेवालों की खबर जब लीक हुई थी तब बहुत अफरा-तफरी मच गई थी. नागर विमानन मंत्रालय ने इस मामले में जांच के आदेश भी दिए थे. इस मसले में कइयों के लाइसेंस भी जब्त किए गए थे. इस घटना से यह बात सामने आई कि बहुत सारे नकली लाइसेंस का काम करनेवाले व्यक्ति उड्डयन क्षेत्र में काम कर रहे हैं और उनका कारोबार परवान पर है. दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने 2011 में एक पायलट को गिरफ्तार किया था जो नकली एयरलाइन ट्रांसपोर्ट लाइसेंस दूसरे को मुहैया करवाता था. नकली एयरलाइन ट्रांसपोर्ट लाइसेंस हासिल किए हुए पायलट 2013 में एयर इंडिया एक्सप्रेस के विमान उड़ा रहे थे. यह कोई अकेला मामला नहीं था.

अयोग्य पायलटों को फर्जी लाइसेंस देने वाले घोटाले को उजागर हुए चार साल बीत चुके हैं, लेकिन देश के उड्डयन क्षेत्र में नौकरी पाने की पहली योग्यता आज भी पैसा और रसूख ही है. तहलका की पड़ताल 

एक आरोपी पायलट ने बताया कि पिता ने उसके लिए लाइसेंस की व्यवस्था करवाई थी. उस पायलट के पिताजी उस वक्त डीजीसीए (डायरेक्टर जनरल ऑफ सिविल एविएशन) के एयर सेफ्टी में निदेशक थे. दिलचस्प है कि इस पायलट को धोखाधड़ी के मामले में स्पाइसजेट से पहले ही बाहर का रास्ता भी दिखाया जा चुका था. इस समय वह एयर इंडिया एक्सप्रेस में काम कर रही हैं. वह एयर इंडिया एक्सप्रेस में नोटिस पीरियड में हैं और इंडिगो ज्वाइन करनेवाली हैं. दोनों शीर्ष हवाई जहाज कंपनियां और डीजीसीए बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार करने वालों के लिए धुरी  बन गए हैं. यहां आप तब तक फल-फूल सकते हैं जबतक कि आप धांधली करते हुए पकड़े न जाएं. यहां नौकरी पाए हुए लोग मौज मार रहे हैं लेकिन बहुत सारे लोग जो इस क्षेत्र में काम करना चाहते हैं और प्रतिभाशाली भी हैं लेकिन पैसे और प्रभावशाली लोगों के संपर्क में नहीं होने की वजह से इस क्षेत्र में नौकरी से वंचित हैं. यह विमानन क्षेत्र में विमान उड़ाने के प्रशिक्षण से लेकर नौकरी सुनिश्चित करने के दौरान होनेवाली तमाम तरह की धांधलियों की कहानी है.

खूबसूरती से काली-सफेद पोशाक पहने पायलट दुनिया के किसी भी एयरपोर्ट पर सिर हिलाते, हाथ घुमाते हुए देखे जा सकते हैं और यह किसी के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है. लेकिन इस चमकते हुए मुखड़े के पीछे कुछ कड़वा सच छुपा है. बहुत से पायलटों पर यह आरोप हैं कि उन्होंने इस मुकाम को हासिल करने के लिए फर्जी दस्तावेज और रिश्वत का सहारा लिया है. कुछ कैप्टन पर आपराधिक मुकदमे भी चल रहे हैं और कुछ कैप्टन जहाज उड़ा पाने के काबिल ही नहीं हैं. हालांकि इन गड़बड़ियों के बावजूद वे जहाज उड़ा रहे हैं. यह सच है कि भारत में बहुत बड़ी संख्या में काबिल उपलब्ध पायलट हैं लेकिन इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि एयरलाइंस और डीजीसीए की मिलीभगत के चलते इस क्षेत्र में अयोग्य पायलटों की भरमार होती जा रही है. अगर आपके पास पैसा या जुगाड़ है तो फिर आपका भारतीय उड्डयन क्षेत्र में स्वागत है.

एक पायलट ने बताया कि उसके पिता ने लाइसेंस की व्यवस्था की थी. उसके पिताजी उस वक्त डीजीसीए के एयर सेफ्टी विभाग में निदेशक के पद पर थे

जनवरी 2011 में एक तकनीशियन को इंडिगो  एयरक्राफ्ट के नोज गियर में कुछ गड़बड़ी मिली. इस बारे में पड़ताल की गई तो पाया गया कि एक पायलट कैप्टन परमिंदर कौर गुलाटी लैंडिग के समय मुख्य गियर की बजाए नोज गियर का इस्तेमाल करते हैं. गुलाटी के बारे में जब खोजबीन की गई तो पाया गया कि उसके दस्तावेज नकली हैं और वह पायलट के लिए लिखित परीक्षा सात बार में भी पास नहीं कर पायी थीं. इस घटना के बाद डीजीसीए और एयलाइंस के अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच मिलीभगत से अंजाम दिए जा रहे घोटाले का पर्दाफाश हुआ था. दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने इस घोटाले की तफ्तीश के दौरान 20 लोगों को गिरफ्तार भी किया था.

तहलका के पास मौजूद सूचना के अनुसार, एयर इंडिया एक्सप्रेस के पायलट कैप्टन दीपक असत्कार को उक्त घोटाले में शामिल पाया गया था. असत्कार कोच्चि में उड्डयन कंपनी में बतौर अधिकारी (फर्स्ट ऑफिसर) नियुक्त हैं. कैप्टन असत्कार अन्य पायलटों को कैप्टन प्रदीप त्यागी की मदद से फर्जी दस्तावेज मुहैया करवाते थे. घोटाले का पर्दाफाश होते ही असत्कार छह महीने के लिए फरार हो गए लेकिन बाद में उन्हें दो सितंबर 2011 को दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने धर दबोचा. पुलिस दस्तावेज के अनुसार, असत्कार मध्य प्रदेश के निवासी हैं और मुंबई में रहते हैं. असत्कार ने खुद को डीजीसीए में नामांकित करवा रखा है. असत्कार ने 2007 तक डीजीसीए की कॉमर्शियल पायलट लाइसेंस पाने के लिए तीनों (एयर नेविगेशन, एविएशन मीट्रोलॉजी और एयर रेग्युलेशन) ही परीक्षाएं पास की थीं. उसने अमेरिका की ऑरलेंडो फ्लाइंग स्कूल में दाखिला लिया और 250 घंटे की अनिवार्य उड़ान भरने का प्रशिक्षण भी पूरा किया था. भारत में उड़ान भरने के लिए उसने अमेरिका की फेडरल एविएशन एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा जारी किए गए लाइसेंस को भारतीय लाइसेंस में तब्दील करने का आवेदन दिया लेकिन उसे दो महीने के बाद भी लाइसेंस मुहैया नहीं कराया गया. इसी क्रम में वह त्यागी के संपर्क में आया. त्यागी ने असत्कार को लाइसेंस दिलवाने में बिचौलिए की भूमिका निभाई थी.

त्यागी के डीजीसीए के अधिकारी प्रदीप शर्मा से बहुत अच्छे रिश्ते थे. प्रदीप शर्मा प्रशिक्षण व लाइसेंस निदेशालय में काम करते थे. असत्कार ने अब त्यागी के साथ मिलकर बिचौलिए का काम करना शुरू कर दिया और कर्मिशयल पायलट लाइसेंस हासिल करने की परीक्षा में फेल हो जाने वाले छात्रों को  डीजीसीए की मिलीभगत से लाइसेंस दिलवाने में मदद करने लगे. असत्कार जब मुंबई स्थित फ्लाइविंग्स एविएशन एकेडमी में पढ़ा रहा था तब उसके संपर्क में दो पायलट आए जिन्हें उसने लाइसेंस दिलवाया. इस काम के लिए

असत्कार को 5.50 लाख रुपये मिले जबकि त्यागी को इसी काम के लिए 13 लाख रुपये मिले थे.

एयरलाइंस और डीजीसीए की मिलीभगत से इस क्षेत्र में अयोग्य पायलटों की भरमार होती जा रही है. पैसे और रसूखों वालों का यहां हमेशा स्वागत है

एविएशन इंडस्ट्री से जुड़े एक व्यक्ति बताते हैं, ‘असत्कार बहुत ही मेधावी है और उसे एविएशन के बारे में बहुत अच्छी जानकारी है. उसने डीजीसीए की सभी परीक्षाएं ईमानदारी से पास की हैं लेकिन डीजीसीए में व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से वह बिचौलिया बन गया और अंततः पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया.’ अपराध शाखा के इंस्पेक्टर आर श्रीनिवासन का कहना है कि हमने फर्जी लाइसेंस मामले की पड़ताल की और इससे संबंधित चार्जशीट साकेत कोर्ट को सुपुर्द कर दी. मामला अभी अदालत में चल रहा है. श्रीनिवासन ने बताया कि त्यागी और असत्कार के खिलाफ आईपीसी की धारा 120बी (आपराधिक षड्यंत्र), 420 (ठगी और बेइमानी से धन उगाहना), 421 (बेइमानी या धोखाधड़ी से ली गई धन राशि का ब्यौरा छिपाना) के तहत मामला दर्ज है.

असत्कार को दो सितंबर 2011 में गिरफ्तार किया गया और खोजबीन की गई तो यह पाया गया कि उसे जिस साल एयर इंडिया एक्सप्रेस के लिए चुना गया था उससे अगले साल वह लिखित परीक्षा के लिए योग्य पाया गया था. वर्तमान समय में वह बोइंग 737-800 एनजी उड़ाता है. तहलका ने असत्कार से संपर्क किया तो उसने बताया कि मुझ पर पायलट को फर्जी तरीके से लाइसेंस मुहैया कराने का मामला मढ़ा गया है. मैं इस मामले में दोषी नहीं पाया गया. इस मामले में कहीं भी शामिल नहीं रहा हूं. सच तो यह है कि मैं मुंबई में छात्रों को प्रशिक्षण देता था, जिसमें कुछ इस मामले लिप्त पाए गए हैं. असत्कार ने तहलका से यह वादा किया है कि वह इस मामले में क्लीयरेंस सर्टिफिकेट मुहैया कराएगा लेकिन इस रिपोर्ट के प्रेस में छपने जाने तक उसकी ओर से कुछ भी उपलब्ध नहीं कराया जा सका. गरिमा पासी भी गलत तरीके से लाइसेंस हासिल करने की आरोपी हैं. एयर इंडिया एक्सप्रेस यह जानते हुए भी गरिमा को नियुक्त करने जा रहा है कि उन्हें स्पाइस जेट पहले ही निलंबित कर चुका है. ऐसा भला क्यों न हो, वह आखिरकार आरएस पासी की बेटी जो हैं. मालूम हो कि आरएस पासी, एयर सेफ्टी के उप-निदेशक हैं. तहलका के पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार, गरिमा पासी कोच्चि स्थित एयर इंडिया एक्सप्रेस में फर्स्ट ऑफिसर के बतौर कार्यरत हैं. एक सूचना के अनुसार वह इंडिगो ज्वाइन करनेवाली हैं और इस समय एयर इंडिया एक्सप्रेस में नोटिस पीरियड पर चल रही हैं. उनके पिछले रिकॉर्ड के बारे में पड़ताल करने पर पता चला कि वह किसी भी एयरक्राफ्ट को उड़ाने में असमर्थ हैं. लेकिन इसके बावजूद वह एयर इंडिया एक्सप्रेस की बोइंग 737-800 की उड़ान भरने में व्यस्त हैं. गरिमा को स्पाइसजेट के 2008 कैडेट प्रशिक्षण के तहत अमेरिका के एरिजोना स्थित सबीना फ्लाइट एकेडमी में प्रशिक्षण के लिए भेजा गया था लेकिन असमर्थ पाए जाने की वजह से अकादमी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया था. उनके नाम विमान लैंडिंग से जुड़ी दो दुर्घटनाएं दर्ज हैं-  एक नोज गीयर के क्षतिग्रस्त होने का और दूसरा प्रोपेलर स्ट्राइक का. उनके दो विमान प्रशिक्षकों ने इन घटनाओं के मद्देनजर यह सिफारिश की थी कि इनके ‘विमान उड़ाने पर तत्काल रोक’ लगाई जाए.  उनके प्रशिक्षकों ने यह महसूस किया था कि वह पायलट के निर्देशों को समझने (पायलट इन कमांड) में असमर्थ हैं. गरिमा के अंदर विमान चलाने को लेकर एक डर व्याप्त है. सबीना फ्लाइट अकादमी छोड़ने के बाद वे भारत लौट आईं. यहां उन्होंने उत्तराखंड के पंतनगर में अम्बर एविएशन अकेडमी में दाखिला ले लिया. यहां प्रशिक्षण पूरा करने के बाद 2009 में उन्हें सीपीएल (कमर्शियल पायलट लाइसेंस) मिल गया और उसी साल स्पाइस जेट में बतौर ट्रेनी पायलट नौकरी भी मिल गई.

डीजीसीए के नियमों के अनुसार सीपीएल के लिए आवेदन करते समय अभ्यर्थी को विमान चलाने के दौरान हुए सभी हादसों के बारे में बताना होता है. पांच साल के दौरान हुए हादसे या दुर्घटना के साथ-साथ अभ्यर्थी के खिलाफ की गई सभी अनुशासनात्मक कार्रवाइयों की जानकारी भी देनी होती है. लेकिन ऐसा लगता है कि गरिमा ने अमेरिका में हुए दो लैंडिंग हादसों की जानकारी डीजीसीए को नहीं दी. 2011 में जब यह घटना सामने आई कि गरिमा ने फर्जी तरीके से लाइसेंस हासिल किया, तब स्पाइस जेट ने उन्हें निलंबित कर दिया. उनके साथ कई और लोगों को भी इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था. इसका सीधा सा मतलब था कि उन सभी लोगों का विमान उड़ाने का करियर खत्म हो गया लेकिन गरिमा के लिए ऐसा नहीं हुआ क्योंकि उनके पास पैसा और प्रभावशाली व्यक्तियों से संपर्क दोनों ही थे. उनके पिता तत्कालीन डीजीसीए के डायरेक्टर थे. वह भी जांच के दायरे में आए. मीडिया में आई खबरों के बाद पासी को पद का दुरुपयोग कर अपनी बेटी को नौकरी दिलाने के आरोप में हटा दिया गया.

डीजीसीए प्रमुख ईके भारत भूषण ने स्पाइस जेट में गरिमा की नियुक्ति से संबंधित चिट्ठी मिलने के बाद पासी को पद से हटा दिया. चिट्ठी में कहा गया था कि गरिमा को नौकरी ‘विशेष परिस्थितियों’ के तहत दी गई थी. जांच के दौरान पाया गया कि एक और पायलट रश्मि शरण को अपने पिता के प्रभाव के कारण नौकरी मिली थी. फिलहाल रश्मि इंडिगो के लिए काम कर रही हैं. रश्मि के पिता आलोक कुमार शरण डीजीसीए के पूर्व संयुक्त निदेशक थे और जनवरी में सेवानिवृत्त हुए हैं. शरण पर आरोप है कि उन्होंने 2007 में रायपुर स्थित टचवुड फ्लाइंग स्कूल को लाइसेंस दिया, जिसके पास उस समय एक भी एयरक्राफ्ट नहीं था. उसी अकादमी से उनकी बेटी रश्मि शरण को भी पायलट का लाइसेंस दिया गया. उस समय शरण ट्रेनिंग और लाइसेंस विभाग के उपनिदेशक के पद पर तैनात थे. डीजीसीए के नियमों के अनुसार किसी भी फ्लाइंग क्लब को सीपीएल देने की अनुमति तभी मिल सकती है जब उसके पास काम करने लायक एयरक्राफ्ट हों. एयरोड्रम स्टैंडर्ड के अधिकारियों की जांच रिपोर्ट के मुताबिक टचवुड एविएशन के पास उस समय एक भी एयरक्राफ्ट नहीं था. यहां तक कि क्लब के पास जरूरी सुविधाओं का भी नितांत अभाव था. छात्रों के लिए ब्रीफिंग रूम और एयरक्राफ्ट हैंगर भी नहीं थे.

रश्मि ने अपनी फ्लाइंग 2008 में टचवुड एविएशन से ही पूरी की थी. इसके एक साल बाद संस्थान पूरी तरह से बंद हो गया. सरन पर यह भी आरोप है कि अपनी बेटी के लिए उन्होंने तीन बार विशेष परीक्षा सत्र की व्यवस्था की, जबकि ऐसा करना सरासर गलत है. लगातार पांच प्रयासों के बाद भी रश्मि एयर नेगिवेशन, एविएशन मीटरोलॉजी और एयरक्राफ्ट टेक्निकल विषयों की परीक्षा में सफल नहीं हो सकीं, जिसके बाद उनके लिए विशेष परीक्षा का आयोजन किया गया. सामान्य परीक्षाएं हर तीसरे महीने आयोजित की जाती हैं, जबकि विशेष परीक्षाओं का आयोजन कुछ समय के अंतराल पर होता है.

असत्कार को एविएशन क्षेत्र की गहरी जानकारी है. उसने डीजीसीए की सभी परीक्षाएं पास की हैं लेकिन यहां के भ्रष्ट माहौल ने उसे बिचौलिया बना दिया

डीजीसीए के नियमों के अनुसार अभ्यर्थी नियंत्रक से विशेष परीक्षा के लिए आवेदन तभी कर सकते हैं, जब विमान उड़ाने के पर्याप्त घंटे हों, या फिर नौकरी के अवसर हाथ से निकलने की स्थिति हो और अभ्यर्थी किसी एक पर्चे में फेल हो. 2007 में रश्मि जब पहली बार विशेष परीक्षा में शामिल हुईं, उस वक्त न तो उन्होंने जिन तीन विषयों में ‘बैक’ थी, उन्हें उत्तीर्ण किया था और न ही विमान उड़ाने के लिए जरूरी घंटों का अनुभव था.

डीजीसीए के नियमों के अनुसार सामान्य परीक्षाएं हर तीसरे महीने होती हैं. नाम न छापने की शर्त पर हमारे एक सूत्र ने बताया कि हर परीक्षा के बाद लगभग छह हफ्ते का अंतराल रहता है. अक्सर इस नियम की अनदेखी डीजीसीए से संपर्क रखनेवाले अभ्यर्थियों के लिए कर दी जाती है. विशेष परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना आसान होता है क्योंकि परीक्षार्थियों की संख्या बहुत कम (पांच से दस) होती है. साथ ही इन परीक्षाओं मे नियंत्रक परीक्षा हॉल में बहुत चौकस भी नहीं रहते. इन परीक्षाओं में नकल करना बहुत आसान रहता है और असफल परीक्षार्थी भी पास हो जाते हैं. शरण मार्च 2012 में 28 फ्लाइंग स्कूलों को गलत ढंग से लाइसेंस देने और उप निदेशक के पद पर रहते हुए 190 करोड़ के घपले के आरोप में बर्खास्त कर दिए गए. लेकिन अगस्त 2012 में उनकी फिर से वापसी हो गई. पिछले साल सीबीआई ने उनके ऊपर बिलासपुर के एक फ्लाइंग स्कूल को गलत दस्तावेजों के आधार पर लाइसेंस देने के आरोप में केस दायर किया.

हालांकि इन सभी अनियमितताओं के खिलाफ उन्हें क्लीन चिट मिल गई. इसके बाद तत्कालीन डीजीसीए निदेशक भूषण ने विशेष परीक्षाओं के साथ 2011 में ऑनलाइन पायलट परीक्षाओं की भी शुरुआत की.

यशराज टोंगिया और उनके यश एयर फ्लाइंग स्कूल की कहानी और भी दिलचस्प है. सभी युवा और पुराने पायलट जो भारतीय विमानन उद्योग से थोड़ा भी परिचित हैं, मध्य प्रदेश के उज्जैन के यश फ्लाइंग स्कूल की कहानी जरूर जानते हैं. बॉलीवुड स्टार सोहेल खान ने भी फ्लाइंग लाइसेंस वहीं से लिया है. संस्थान की वेबसाइट पर दावा किया गया है कि यश फ्लाइंग अकादमी भारत का सबसे बड़ा उड्डयन संस्थान है. 19 मई 2010 को इसी संस्थान से प्रशिक्षण ले रहे दो छात्रों की मौत एक विमान हादसे में हो गई. दोनों छात्रों में से एक फ्लाइट प्रशिक्षक और दूसरे ट्रेनी पाइलट की मौत विमान सीजेना-152 के क्रैश होने में हुई थी. विमान हाई टेंशन तार की चपेट में आ गया और उज्जैन की सूखी नदी के किनारे दुर्घटनाग्रस्त हो गया.

इस दुर्घटना के बारे में डीजीसीए की जांच टीम ने विमान हादसे के लिए कम ऊंचाई पर फ्लाइंग के साथ विमान उड़ाने के दौरान कोई निगरानी न होने और अकुशल निरीक्षण को जिम्मेदार बताया. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि संस्थान की तरफ से स्थानीय हवाई सुरक्षा विभाग को कोई सूचना नहीं दी गई थी. यहां तक कि स्थानीय हवाई सुरक्षा विभाग ने कई बार मुख्य प्रशिक्षक टोंगिया को सूचना देने की कोशिश भी की लेकिन वह फोन पर भी उपलब्ध नहीं थे. दुर्घटना के बाद मुख्य विमान प्रशिक्षक से पहली बार 20 मई 2010 को संपर्क हो पाया, वह भी डीजीसीए के अधिकारियों के दुर्घटनास्थल पर पहुंचने के बाद.