मैं बहुत खुश थी अम्मा ! – अंशु मालवीय

ये कविता, तहलका के एक पाठक कुमार मुकेश ने गुजरात पर तहलका के विशेष अंक में लिखे तरुण जी के संपादकीय पर टिप्पणी करते हुए उद्धृत की थी…एक भीषण मानवीय त्रासदी का ऐसा चित्रण कि कलेजा मुंह को आ जाए…जिसने पढ़ा वही रोया जितनी बार पढ़ा उतनी बार रोया…मगर कविता से पहले थोड़ा सा संदर्भ समझना ज़रूरी है…

अहमदाबाद में कौसर बानो की बस्ती नरोदा पाटिया पर 28 फरवरी 2002 को हमला हुआ था। वह गर्भवती थी। हत्यारों ने पेट चीर कर गर्भस्थ शिशु को आग के हवाले कर दिया। कविता में शिशु को लडकी माना गया है और इसे, अभागन कौसर की उसी अजन्मी बिटिया की तरफ से लिखा गया है…पढ़ें और पढ़कर डरें…

सब कुछ ठीक था अम्मा !

तेरे खाए अचार की खटास 

तेरी चखी हुई मिट्टी 

अक्सर पहुँचते थे मेरे पास…!

सूरज तेरी कोख से छनकर 

मुझ तक आता था। 

मैं बहुत खुश थी अम्मा ! 

मुझे लेनी थी जल्दी ही 

अपने हिस्से की साँस 

मुझे लगनी थी 

अपने हिस्से की भूख 

मुझे देखनी थी 

अपने हिस्से की धूप । 

मैं बहुत खुश थी अम्मा ! 

अब्बू की हथेली की छाया 

तेरे पेट पर देखी थी मैंने 

मुझे उन का चेहरा देखना था 

मुझे अपने हिस्से के अब्बू देखने थे 

मुझे अपने हिस्से की दुनिया देखनी थी। 

मैं बहुत खुश थी अम्मा ! 

एक दिन 

मैं घबराई…बिछली 

जैसे मछली…

तेरी कोख के पानी में 

पानी में किस चीज़ की छाया थी अनजानी…. 

मुझे लगा 

तू चल नहीं घिसट रही है अम्मा ! 

फ़िर जाने क्या हुआ 

मैं तेरी कोख के 

गुनगुने मुलायम अंधेरे से निकलकर 

चटक धूप 

फिर…

चटक आग में पहुँच गई। 

वो बहुत बड़ा ऑपरेशन था अम्मा। 

अपनी उन आंखों से 

जो कभी नहीं खुलीं 

मैंने देखा 

बड़े-बड़े डॉक्टर तुझ पर झुके हुए थे 

उनके हाथ में तीन मुंह वाले 

बड़े-बड़े नश्तर थे अम्मा…

वे मुझे देख चीखे ! 

चीखे किसलिए अम्मा…

क्या खुश हुए थे मुझे देख कर 

बाहर निकलते ही 

आग के खिलौने दिए उन्होंने अम्मा ! 

फ़िर मैं खेल में ऐसा बिसरी 

कि तुझे देखा नहीं…

तूने भी अन्तिम हिचकी से सोहर गाई होगी अम्मा ! 

मैं कभी नहीं जन्मी अम्मा ! 

और इस तरह कभी नहीं मरी 

अस्पताल में रंगीन पानी में रखे हुए 

अजन्मे बच्चे की तरह 

मैं अमर हो गई अम्मा !

लेकिन यहाँ रंगीन पानी नहीं 

चुभती हुई आग है ! 

मुझे कब तक जलना होगा …..अम्मा !!!

                         अंशु मालवीय 

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