साउंडबाइट की सीमाएं

कोयला घोटाले पर खबरों के शोर में स्पष्टता कम और भ्रम ज्यादा है.

कोयला खदानों में आवंटन में धांधली पर सीएजी की रिपोर्ट और उस पर संसद में मचे हंगामे के बाद से देश भर में कोयला घोटाला सुर्खियों में है. प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग पर अड़े विपक्ष ने संसद का मॉनसून सत्र ठप कर दिया. नतीजा, इस मुद्दे पर बहस का मंच न्यूज चैनलों का स्टूडियो हो गया और वहीं कांग्रेस और भाजपा के नेता और मंत्री ‘तू-तू-मैं-मैं’ और एक-दूसरे को नंगा करते नजर आने लगे. इसमें कोई नई बात नहीं है. संसद चले या नहीं, संसद सत्र हो या नहीं लेकिन चैनलों पर बिला नागा इस या उस मुद्दे पर बहस से लेकर महाबहस चलती रहती है.

यह भारतीय राजनीति के संपूर्ण टीवीकरण का एक और उदाहरण है. सच पूछिए तो राजनीति टीवी के जरिये ही हो रही है. राजनेता और पार्टियां टीवी को ध्यान में रखकर चलने लगे हैं. टीवी का पर्दा राजनीति का असली अखाड़ा बन गया है. वहीं शह और मात होने लगी है. 24 घंटे के न्यूज चैनलों के कारण राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों का संवेदी सूचकांक (पोल्सेक्स) घंटे-घंटे में चढ़ने-उतरने लगा है. प्रधानमंत्री संसद में बयान नहीं दे पाते तो वे टीवी के कैमरों पर बोलते हैं. उसका जवाब तुरंत विपक्ष के नेता देते हैं. सब कुछ लाइव है. 

सचमुच, न्यूज चैनलों ने भारतीय राजनीति को बदल दिया है. उनके कारण राजनीति ज्यादा गतिशील और त्वरित हुई है और एक हद तक जवाबदेह और पारदर्शी भी. लेकिन इससे कहीं ज्यादा उसमें ड्रामे का महत्व बढ़ा है, तर्क और तथ्य की जगह वाक्पटुता या कहें कि गले की ताकत और प्रदर्शन क्षमता ने ले ली है और बहस का मतलब शोर-शराबा होता जा रहा है. इन सबके बीच राजनीतिक पत्रकारिता का ‘चाल-चरित्र-चेहरा’  काफी बदल-सा गया है और वह चाहे-अनचाहे साउंडबाइट और पीआर पत्रकारिता में बदलती जा रही है. यही नहीं, साउंडबाइट, लाइव और स्टूडियो बहस के बीच फाइलों-दस्तावेजों और स्रोतों पर आधारित खोजी पत्रकारिता तो जैसे अतीत की बात हो गई है.

चैनलों की ‘आरामतलब पत्रकारिता’  साउंडबाइट और स्टूडियो बहसों से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं दिख रही

कोयला घोटाले को ही लें. इस मुद्दे पर चैनलों ने दिनों-घंटों का एयर टाइम खर्च किया है, खूब हंगामी बहसें हुई हैं, लाइव प्रेस कॉन्फ्रेंसों में आरोप-प्रत्यारोप हुए हैं लेकिन इन सबके शोर-शराबे के बीच स्पष्टता कम और भ्रम ज्यादा बढ़ गया है. कोयला आवंटन पर सीएजी की रिपोर्ट, विपक्ष के आरोपों, सरकार के बचाव और सिविल सोसाइटी की ओर से दोनों पर लगाए आरोपों ने भारी भ्रम पैदा कर दिया है. इसके कारण राष्ट्रीय राजनीति में भी भ्रम का  माहौल है. दर्शक हैरान हैं. लेकिन न्यूज चैनल इस भ्रम को दूर करने के बजाय और बढ़ाने में लगे हुए हैं.

असल में, चैनलों पर छा गई साउंडबाइट पत्रकारिता की यह सबसे बड़ी विफलता है. वह राष्ट्रीय राजनीति की मौजूदा गुत्थियों को सुलझाने और सच्चाई को सामने लाने में नाकाम रही है. चैनलों से यह अपेक्षा थी और है कि वे कोयला घोटाले की बारीकियां खोलेंगे, उसकी स्वतंत्र पड़ताल करेंगे, उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखेंगे और दर्शकों के लिए उसके मायने बतलाएंगे उदाहरण के लिए, जिन 57 कोयला ब्लॉकों का आवंटन हुआ है, उनकी लाभार्थी कंपनियां कौन-सी हैं, उनकी किस योग्यता पर यह आवंटन हुआ, उसका उन्हें क्या फायदा हुआ, वे कोयले की खुदाई क्यों नहीं शुरू कर पाईं और विभिन्न राज्य सरकारों की इसमें क्या भूमिका रही है?

ऐसे बहुतेरे सवालों का उत्तर मिलना अभी बाकी है. लेकिन चैनलों की ‘आरामतलब पत्रकारिता’  पार्टी कार्यालयों की साउंडबाइट और स्टूडियो बहसों से बाहर निकलने और मेहनत करने के लिए तैयार नहीं दिख रहीं. नतीजतन देश की बेशकीमती प्राकृतिक संपदा की लूट पर राजनीति तो बहुत हो रही है लेकिन अफसोस कि साउंडबाइट के बढ़ते शोर में चोर को भाग निकलने का मौका मिल जा रहा है.