सात मई की दोपहर दिल्ली के विवेक विहार में रहने वाले 55 वर्षीय शिव प्रसाद गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायालय में आए हैं. मई की इस तपती दोपहरी में शिव प्रसाद पिछलेदो घंटे से चहलकदमी कर रहे हैं. वो समय रहते अपने बेटे का ‘बेल बॉन्ड’ भर लेना चाहते हैं ताकि उसे जेल से निकालकर घर ले जा सकें. शिव प्रसाद का 25 वर्षीय बेटा प्रदीप कुमार पिछले ढाई साल से जेल में बंद है. एक दिन पहले ही उसे जमानत मिली है. आज सुबह जब शिव प्रसाद घर से अदालत के लिए निकल रहे थे तो उनकी पत्नी ने उनसे कहा कि आज बेटे को घर लेकर ही आना. शिव प्रसाद कहते हैं, ‘क्या कहें ये ढाई साल कैसे बीते हैं. जवान बेटा जेल में था. आज-कल करते-करते ये ढाई साल निकल गए. जब कभी भी राकेश की मां को मिलने-मिलवाने के लिए लाया वो केवल रोई. घर पर भी उसके दिन और रात रोते-रोते ही बीते हैं. अगर आज लड़का घर जाएगा तो सबको सालों बाद थोड़ी खुशी मिलेगी.’
प्रदीप उन 148 मजदूरों में से एक हैं जो जुलाई 2012 में मारुति के हरियाणा स्थित मानेसर इकाई में मजदूरों और प्रबंधन के बीच हुई झड़प के बाद गिरफ्तार किए गए थे. इस घटना में कंपनी के महाप्रबंधक (एचआर) अवनीश कुमार देव की जलने से मौत हो गई थी.
मामले में पुलिस ने मारुति के मानेसर इकाई से जुड़े 148 मजदूरों पर आईपीसी की धारा 302 (हत्या), 307 (हत्या करने का प्रयास करना), 147 (दंगा करना), 353 (सरकारी काम में बाधा पहुंचाना), 436 (आग लगाना) और 120बी (साजिश करना) के तहत मामला दर्ज किया और सभी आरोपित मजदूरों को अगले कुछ दिनों में गिरफ्तार भी कर लिया.
‘मजदूरों के साथ बहुत बुरा हुआ. मारुति प्रबंधन ने तो अन्याय किया ही, हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने भी मजदूरों के साथ न्याय नहीं किया. मैं खुद कई बार इस मामले में मुख्यमंत्री से मिला था. मेरे द्वारा बार-बार इस मुद्दे को उठाने की वजह से हुड्डा जी नाराज हो गए और उन्होंने मेरी शिकायत कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी तक से कर दी थी. यह मामला उतना बड़ा था नहीं जितना राज्य सरकार ने बना दिया’
राव सुरेंद्र कुमार, महासचिव, राष्ट्रीय मजदूर कांग्रेस
‘तहलका’ ने मार्च 2014 में इस मामले पर ‘मजबूर मजदूर’ नाम से रिपोर्ट प्रकाशित की थी. तब मजदूरों की तरफ से गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायालय में मामले की पैरवी कर रहे वरिष्ठ वकील रघुवीर सिंह हुड्डा ने पुलिस के चार्जशीट पर सवाल खड़े किए थे. उन्होंने चार्जशीट के जिस हिस्से पर सवाल खड़े किए थे उसमें चार चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज हैं. गवाह नंबर 9 ने अपने बयान में कुल 25 मजदूरों के नाम लिए हैं जिनके नाम अंग्रेजी के अक्षर ‘ए’ से ‘जी’ तक हैं. गवाह नं.10 ने भी अपने बयान में गिनकर 25 मजदूरों को ही देखने की बात स्वीकारी है. इनके नाम क्रम से अंग्रेजी के अक्षर ‘जी’ से ‘पी’ तक हैं. गवाह नंबर 11 ने जिन 25 मजदूरों के नाम लिए हैं वे अंग्रेजी के ‘पी’ से ‘एस’ तक हैं. गवाह नंबर 12 ने अपने बयान में 14 मजदूरों के नाम लिए हैं और ये नाम अंग्रेजी के ‘एस’ से ‘वाई’ तक हैं. इसके अलावा इन सभी चार गवाहों के बयान बिल्कुल एक जैसे ही हैं. जैसे कि इन सभी गवाहों ने अपने बयान के अंत में कहा है कि इनके अलावा और तीन-चार सौ मजदूर थे जो अपने हाथ में डोरबीम लिए हुए कंपनी के बाहर चले गए थे और मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाई.
पुलिस द्वारा अदालत में दाखिल की गई इस चार्जशीट को दिखाते हुए रघुवीर सिंह ने कहा था कि पहली ही नजर में यह साफ जान पड़ता है कि ये सारे बयान किसी एक ही आदमी ने लिखे हैं और इनमें जो नाम लिखे गए हैं वो कंपनी के किसी रजिस्टर से देखकर लिखे गए हैं.
आज, जुलाई 2012 की उस घटना को तीन साल होने वाले हैं. मामला अदालत में है और फिलहाल 114 आरोपित मजदूर जमानत पर रिहा हो चुके हैं, 34 मजदूर अब भी जेल में हैं. हालांकि जिन्हें जमानत मिली उन्हें भी इसके लिए कम से कम दो साल तीन महीने का इंतजार करना ही पड़ा.
इस मामले में पहली दफा फरवरी 2015 में दो मजदूरों को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली थी और उसके बाद ही बाकी 112 को जमानत मिलना संभव हो पाया. इस साल फरवरी में जिन दो मजदूरों को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली उनकी याचिका गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायलय से तीन बार खारिज हो चुकी थी और चंडीगढ़ हाईकोर्ट से दो बार. चंडीगढ़ हाईकोर्ट के जज केसी पुरी ने मई 2013 में इन दो मजदूरों की जमानत याचिका को पहली बार खारिज करते हुए कहा था, ‘इस घटना की वजह से भारत की छवि दुनिया भर में खराब हुई है. विदेशी निवेशकों में गलत संदेश गया है. संभव है कि विदेशी निवेशक, मजदूर वर्ग में व्याप्त रोष की वजह से भारत में पूंजी निवेश न करें.’
चंडीगढ़ हाईकोर्ट द्वारा जमानत याचिका खारिज होने के बाद इन दो मजदूरों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट ने 17 फरवरी 2014 को यह कहते हुए इनकी याचिका खारिज कर दी कि पहले मामले के चश्मदीद गवाहों के बयान निचली अदालत में दर्ज हो जाएं, इसके बाद जमानत पर विचार किया जाएगा. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने जिला एवं सत्र न्यायालय गुड़गांव को निर्देश दिया कि 30 अप्रैल 2014 तक इस केस के चश्मदीद गवाहों के बयान अदालत में दर्ज करा लिए जाएं लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई समयसीमा के बाद चश्मदीद गवाहों के बयान अदालत में दर्ज हुए. गवाहों ने अदालत में इन दो मजदूरों की गलत पहचान की.
इस आधार पर इन लोगों ने एक बार फिर जमानत के लिए चंडीगढ़ हाईकोर्ट से गुहार लगाई लेकिन 23 दिसंबर 2014 को हाईकोर्ट ने एक बार फिर इन्हें जमानत देने से मना कर दिया. जमानत याचिका खारिज करते हुए कोर्ट ने यह तो माना कि इन्हें जमानत दी जानी चाहिए लेकिन साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि इन लोगों को इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगानी चाहिए. चंडीगढ़ हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद मजदूरों ने दोबारा से सुप्रीम कोर्ट में जमानत याचिका दाखिल की और आखिरकार यहां से इन्हें 20 फरवरी 2015 को राहत मिली. इन दो मजदूरों को इनकी गिरफ्तारी के लगभग 31 महीने बाद जमानत मिली और ये जेल से बाहर आ पाए. इसके बाद मार्च 2015 में 77 और आरोपित मजदूरों को गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायालय से जमानत मिली. कुल मिलाकर अब 114 आरोपित मजदूर जमानत पर बाहर हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन्हें जमानत मिलने में ही इतना वक्त क्यों और कैसे लग गया? जबकि कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट खुद ही यह मान चुका है कि देश की अदालतों को ‘जेल नहीं बेल’ की थ्योरी के तहत काम करना चाहिए. हम ये सवाल देश की जानी-मानी वकील वृंदा ग्रोवर के सामने रखते हैं. वृंदा इस मामले में मजदूरों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में पैरवी कर रही हैं. सवालों के जवाब में वृंदा कहती हैं, ‘मैं खुद नहीं समझ पा रही हूं कि जमानत मिलने में इतना समय कैसे लग गया. जबकि कानूनी तौर पर ये केस बहुत कमजोर है. जुलाई में इस मामले की अंतिम सुनवाई होनी है और अब तक 34 मजदूर जेल में हैं.’ वहीं गुड़गांव जिला एवं सत्र न्यायालय में मजदूरों की तरफ से पैरवी कर रहे वकील मोनू कुहाड़ का मानना है कि यह मामला कभी कानूनी था ही नहीं. मोनू कहते हैं, ‘जब हम इस मामले को कानून के दायरे से बाहर जाकर समझते हैं तो काफी कुछ साफ होता है. गुड़गांव में करीब-करीब 12 लाख मजदूर और कर्मचारी हैं जो कई अलग-अलग निजी कंपनियों में काम कर रहे हैं और समय-समय पर अपनी मांगों के लिए प्रबंधन पर दबाव बनाते रहते हैं. इस केस के हवाले से इन लाखों कर्मचारियों को एक संदेश देने की कोशिश की गई है कि अगर तुमने अपनी यूनियन बनानी चाही तो तुम्हें भी मारुति के मजदूरों की तरह बिना किसी खास सबूत और गवाह के दो-ढाई साल तक जेल में सड़ा दिया जाएगा. तुम्हारी नौकरी चली जाएगी और परिवार बिखर जाएगा.’
मोनू आगे बताते हैं, ‘इस केस में 148 मजदूर पिछले दो-ढाई साल से जेल में थे लेकिन जब हम इस केस को पढ़ते हैं तो पाते हैं कि केवल 10-15 मजदूर ऐसे हैं जिनके खिलाफ कुछ सबूत हैं वो भी इतने पुख्ता नहीं हैं कि उन पर हत्या का मामला साबित हो सके. इस केस में 102 गवाह थे और सबकी गवाही अदालत में हो चुकी है. 148 आरोपित मजदूरों में से 16 ऐसे हैं जिनके खिलाफ एक भी गवाह अदालत में नहीं आया. 98 ऐसे आरोपित मजदूर हैं जिनके खिलाफ गवाह तो आए लेकिन किसी भी गवाह ने इनकी पहचान नहीं की. ये लोग जिन्हें अभी जमानत मिली है वो पहली फुर्सत में बरी किए जाने चाहिए थे. क्योंकि इनके खिलाफ कोई सबूत ही नहीं है, कोई गवाह ही नहीं है.’
मोनू बात करते हुए कुछ सवाल उठाते हैं और इन सवालों के जवाब भी वो खुद ही देते हैं. वो कहते हैं, ‘जिनके खिलाफ कोई सबूत या गवाह नहीं है उस पर मुकदमा कैसे चल सकता है? इन्हें जेल में कैसे रखा जा सकता है? लेकिन सच्चाई ये है कि ये सालों तक जेल में रहे हैं और अब जमानत पर बाहर आए हैं. अब इससे तो यही समझ आता है कि सरकार और व्यवस्था इन मजदूरों के बहाने बाकी लाखों मजदूरों को एक सबक देना चाहती थी. जिसमें वो कामयाब रही.’
‘पूरा मामला बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. मारुति मजदूरों के साथ जो हुआ वो बहुत ही पीड़ादायी है. वास्तव में सुजुकी ने अपने प्लांट में न तो जापान का श्रम कानून लागू किया और न ही भारत का. हमारे देश की सरकारें मारुति सुजुकी का ही समर्थन करती हैं’
विरजेश उपाध्याय, महासचिव, भारतीय मजदूर संघ
इस बारे में बात करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण से संपर्क करते हैं तो वह साफ शब्दों में न्यायपालिका और सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हैं. वो कहते हैं, ‘जमानत की पूरी प्रक्रिया ही मनमानी है. अदालतें जिसे चाहें जमानत दें और जिसे चाहें, न दें. हमारी अदालतों में वर्ग भेद भी बहुत है, यही कारण है कि पढ़े-लिखे और पैसे वाले व्यक्ति को तुरंत जमानत मिल जाती है लेकिन निचले तबके को जमानत के लिए सालों चक्कर लगाने पड़ते हैं. सरकारों की मंशा भी अदालतों को प्रभावित करती है. सरकार जिसे दबाना चाहती है, अदालत उसे जमानत नहीं देती है.’

इस पूरे प्रकरण से जुड़ा एक और तथ्य है जिसे नजरअंदाज करके आगे नहीं बढ़ा जा सकता. जिस वक्त यह घटना हुई थी उस वक्त हरियाणा में कांग्रेस का शासन था और भूपेंद्र सिंह हुड्डा राज्य के मुख्यमंत्री थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील केटीएस तुलसी को स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर नियुक्त किया. आरटीआई से मिली एक जानकारी के मुताबिक तत्कालीन हरियाणा सरकार ने केटीएस तुलसी को हर पेशी के लिए 11 लाख रुपये फीस दी. तुलसी के तीन सहायकों को एक पेशी के लिए 66,000 रुपये मिलते थे. दो साल में मारुति केस में भूपिंदर सिंह हुड्डा सरकार ने केटीएस तुलसी को 5 करोड़ रुपये बतौर फीस दिए थे. पिछले साल राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ. भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनी और मनोहर लाल खट्टर राज्य में मुख्यमंत्री बने. भाजपा सरकार ने पिछले साल दिसंबर में केटीएस तुलसी को इस केस से अलग कर दिया. इस मामले में हरियाणा की मौजूदा सरकार का पक्ष जानने के लिए हमने खट्टर सरकार के श्रम और रोजगार मंत्री कैप्टन अभिमन्यु से संपर्क किया लेकिन उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल सकी.
इस कानूनी लड़ाई में एक पक्ष उन परिवारों का भी है जिनके लड़के इस मामले में सालों से जेल में बंद हैं या सालों बाद जमानत पर रिहा हुए हैं. जिन परिवारों के लड़के अभी तक जेल में बंद हैं वो जल्दी ही उनके जेल से छूटने की उम्मीद लगाए हुए हैं और इसी सहारे अपना जीवन जी रहे हैं. वहीं जिन परिवारों के बच्चे जमानत पर बाहर आ चुके हैं वो ठगा-सा महसूस करते हैं. उन्हें इस बात की खुशी तो है कि उनका लड़का जेल से बाहर आ गया लेकिन इनके मन में यह सवाल भी है कि इतने समय बाद क्यों? जब ‘तहलका’ ने ऐसे प्रभावित परिवारों से संपर्क किया तो कईयों ने बात करने से साफ मना कर दिया. कुछ लोगों का कहना था कि वो अब पिछली जिंदगी को याद नहीं करना चाहते और जो हुआ उसे भुलाकर भविष्य की तरफ देखने की कोशिश कर रहे हैं. वहीं कुछेक परिवारों ने मीडिया के प्रति अपनी नाराजगी का इजहार करते हुए बात करने से ही मना कर दिया.
Ab bhi in logo ko bhane ke liye kuch kro vrna aam aadmi ka kanoon k upr se vishvas uth jayega ab media chahe to inko jaldi se insaaf dila sakti h
kaun kehta h bhart ek loktantrik desh h itne atyachar to angrej bhi nahi karte the……news padh kar aankhe bhar aayi unki pida koi nahi samj sakta in politician kya pata gribi kya hoti h hamare tex k paise se aish karte h…..muje manav ki banayi adalt m to insaf nahi milta par muje yakeen h ki us bhgwan ki adalt m faisla jroor hoga
It seems Tehleka want to say A General manager of maruti Suzuki was murdered. But no one was the murderer. The story is totally one sided.
Labour issue may be justified but cold blooded murder of any one is not justified. Those murderers were not ordinary workers. they were workers of maruti, getting good salary.
sorry to say but these ppl were to blame..they needed this type of punishment. it doesn’t mean if u made a strong union u r having every right to do anything.they were such a morons.but gd if they realise the things from now on and will be better for their future.
Very bad ye sarkar media police San pase valo ki h Jo kama k deta h use ye use &throw killed tarah kam karte h