जिंदगी पर भारी मुनाफा

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महामारी बन चुके स्वाइन फ्लू के कारण पूरे देश में पिछले छह वर्षों के दौरान लगभग 10 हजार लोगों की जान जा चुकी है. तहलका ने रोंगटे खड़ी कर देनेवाली अपनी पड़ताल में पाया कि इस महामारी को ‘चिकित्सकीय लापरवाही’ और ‘मुनाफा’ कमाने की होड़ ने देश में समान रूप से फलने-फूलने का अवसर दिया. इस वजह से इस महामारी की पीड़ा कम होने के बजाय दिनोदिन भयावह होती गई. कहते हैं मौत जब आती है तो उसकी आहट पहले सुनाई दे जाती है. लेकिन, मौत का सौदा अगर लालच पर हो तो इसे आप क्या कहेंगे. जी हां देश में पिछले छह वर्षों से मौत का नंगा नाच खेला गया अपने मुनाफे केे लिए. याद करें कि स्वाइन फ्लू के मामलों को लेकर एक तरफ संसद में पर्चे बंटते रहे और उधर अस्पताल में गरीब मरीज कतार में खड़े होकर अपनी मौत का इंतजार करते रहे.लेकिन, सरकार इस मामले पर आज तक कोई सटीक जबाव नहीं दे पाई है. एक तरफ अस्पतालों में इलाज के लिए पर्याप्त दवा नहीं वहीं दूसरी ओर इस बीमारी को चेक यानी जांच करने के लिए पूरे साधन नहीं. हालांकि पिछली सरकार और मौजूदा सरकार लगातार ये दावा करती रही है कि देश के अस्पतालों में स्वाइन फ्लू से लड़ने के लिए पुख्ता इंतजाम हैं. जांच के लिए साधन हैं. इलाज के लिए दवा भी है.

2009 में सरकार को स्वाइन फ्लू की जांच के लिए उपलब्ध किट के लिए लगभग 10 हजार रुपये खर्च करने होते थे. वहीं, देश की कई कंपनियों का दावा है कि उन्होंने छह वर्ष पहले ही स्वाइन फ्लू टेस्ट के लिए विदेशों से अच्छी और सस्ती टेस्टिंग किट तैयार कर ली थी. बावजूद इसके देश के स्वास्थ्य विभाग और उच्च संस्थाएं हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे. और लोगों की जान जाती रही. सरकार और प्रशासनिक तंत्र के लचर रवैये के कारण जो नुकसान होना था वह तो हुआ ही, लेकिन मामले की तह में जाने पर कई ऐसे राज सामने आए जो एक नई तरह की अनियमितता की ओर इशारा करते नजर आ रहे हैं. हैरान करनेवाली बात ये है कि दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र और दिल्ली सरकार को निर्देश भी दिया था कि वह स्वाइन फ्लू के परीक्षण के लिए सस्ती किट लोगों को मुहैया कराए लेकिन सरकार ने इस निर्देश को अनदेखा करते हुए न सिर्फ एक विशेष कंपनी को फायदा पहुंचाया बल्कि लोगों के जीवन से खिलवाड़ किया है.

फोटोः एएफपी
फोटोः एएफपी

तहलका की पड़ताल में सबसे पहले जो बात सामने आई वह थी स्वाइन फ्लू की जांच करनेवाली किट की कीमतों में भारी अंतर. जहां विदेशी कंपनी की किट की कीमत पांच हजार से 10 हजार रुपये के बीच थी, जबकि स्वदेशी कंपनियों से यह किट मात्र 700 रुपये में ली जा सकती थी. अगर उपलब्ध तथ्यों पर गौर करें तो मालूम चलता है कि केवल वर्ष 2009 में ही अमेरिकी कंपनी एप्लायड बायोसिस्टम्स इनकॉरपोरेटेड (एबीआई) से सरकार ने  47,000 किट आयात की थी. यह वही वर्ष है जब भारत में इस महामारी ने अपने कदम रखे थे. अमेरिकी कंपनी एबीआई का 2008 में इनविट्रोजेन में विलय हो गया था. इसके बाद कंपनी का नाम लाइफ टेक्नोलॉजी हो गया. 2014 में इसे अमेरिका की थर्मोफीचर साइंटिफिक कंपनी ने खरीद लिया. हैरानी की बात है कि एबीआई फ्लू की जांच के दौरान भी अलग-अलग कीमत वसूलती थी. जैसे अगर जांच रिपोर्ट पॉजिटिव आती थी तो मरीज को पांच हजार चुकाने पड़ते थे.

अगर रिपोर्ट निगेटिव हुई तो मरीज को दुगने यानी 10 हजार रुपये तक चुकाने पड़ते थे.

विदेशी कंपनी की किट की कीमत 10 हजार रुपये थी, जबकि देशी कंपनी इसे मात्र 700 रुपये में देने का दावा कर रही थी

तहलका जांच में यह भी पता चला कि लखनऊ स्थित संजय गांधी पोस्ट ग्रैजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एसजीपीजीआई) और बंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज (निमहंस) ने प्रमाणित किया है कि स्वदेशी किट, विदेशी किट से कहीं अधिक सस्ती, प्रभावी और उपयोगी है. इसके बावजूद सरकार ने इन तथ्यों को नजरअंदाज किया. जीनोम डायग्नोस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड का दावा है कि उसने सरकार, स्वास्थ्य मंत्रालय और संबद्ध विभागों में स्वदेशी किट के निर्माण व उत्पादन के लिए लाइसेंस का आवेदन किया था लेकिन सरकार की ओर से कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला. हर बार कोशिश करने पर भी उसके हाथ निराशा ही लगी.

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर जब तहलका ने तफ्तीश शुरू की तो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय सहित उसके दो विभागों के अधिकारियों ने एक-दूसरे के सिर पर बात टालने के प्रयास किए. सरकारी महकमों में यह दुखद कहानी खासी मशहूर हो चुकी है कि सरकार ने कैसे एक विदेशी कंपनी की मदद कर एक स्वदेशी कंपनी को नजरअंदाज किया है. दरअसल जब स्वदेशी कंपनी संबंधित सरकारी विभागों के पास आवेदन के लिए गई तो विभागों ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने में देर नहीं लगाई. हालांकि मंत्रालय ने कंपनी को इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के पास आवेदन करने के निर्देश दिए.

तहलका टीम ने इस बारे में आईसीएमआर से सवाल किया कि क्यों नहीं एक स्वदेशी कंपनी को अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी)  दिया गया. क्या कंपनी उसके मानकों पर खरी नहीं उतरती थी आदि. इस पर आईसीएमआर की ओर से गोलमोल जवाब आया कि यह काम ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) के अधिकार क्षेत्र में आता है. वही इस मामले में कुछ कर सकती है. इसके बाद तहलका टीम ने डीसीजीआई से संपर्क करने के प्रयास किया लेकिन यह असफल रहा.

वर्ष 2009 में आईसीएमआर के महानिदेशक रहे डॉ. विश्व मोहन कटोच के अनुसार, ‘तब एक बड़ी गलती हुई थी और संबंधित अधिकारियों पर कार्रवाई होनी चाहिए.’ कटोच ने अपने विभाग के कर्मचारियों के व्यवहार पर खेद भी जताया. हालांकि उन्होंने इसे सारे सरकारी महकमों में पसरे लालफीताशाही रवैये का हिस्सा बताते हुए इसे सरकारी विभागों की कार्य संस्कृति से जोड़ अपने विभाग का बचाव करने का प्रयास भी किया. इन सबके बावजूद तहलका को इस पहेली का हल किसी ने साफ तौर पर नहीं दिया कि सस्ती और प्रभावी जांच किट के उत्पादन करने का लाइसेंस देगा कौन? कटोच ने यह तो स्वीकार किया कि जिस अमेरिकी कंपनी ने जांच किट की सप्लाई की है, उसे करोड़ों रुपये का फायदा हुआ. यही नहीं इस कंपनी को अनायास ही मुफ्त का प्रचार भी मिल गया. इस लिहाज से देखा जाए तो कहीं न कहीं गलती तो हुई है. अब वह कहां और किस के स्तर पर हुई वह जांच का विषय है. कटोच की बात की तस्दीक आईसीएमआर के उप महानिदेशक (प्रशासन) टीएस जवाहर करते हैं. वह इस संस्थान के मुख्य सतर्कता अधिकारी भी हैं. जवाहर के अनुसार संप्रग सरकार के कार्यकाल में आईसीएमआर के भीतर काम को लेकर समन्वय का भारी अभाव और अकाल था.

हजारों मरीज महंगा परीक्षण न करा पाने के चलते अपनी जान से हाथ धो बैठे और अमेरिकी कंपनी मुनाफा कमाती रही

अब जरा इस तथ्य पर गौर करें कि वर्ष 2009 में सरकार ने स्वाइन फ्लू के परीक्षण के लिए 47,000 किट  का आयात किया था. इसमें से हर किट का कम से कम 100 नमूनों के परीक्षण में इस्तेमाल हो सकता था. सरकार ने एबीआई को हर परीक्षण के लिए 10 हजार रुपये का भुगतान किया था. दूसरे शब्दों में, सरकार ने 47,000 करोड़ रुपये खर्च किए. नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (एनसीडीसी) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, ‘कुछ किट का उपयोग 100 नमूनों के परीक्षण में किया जा सकता था तो कुछ दूसरी किट का 1000 नमूनों के इस्तेमाल में किया जा सकता था.

sandeepदूसरी तरफ भारतीय कंपनी कीे किट से परीक्षण का खर्च सिर्फ 700 रुपये आता है. इसका मतलब यह होता है कि इतनी ही संख्या में परीक्षणों के लिए सरकार का मात्र 329 करोड़ रुपये खर्च आता. इसलिए अगर आयात की गई किट की जगह स्वदेशी किट का इस्तेमाल परीक्षण के लिए किया गया होता तो सरकारी खजाने में कम से कम 4371 करोड़ रुपये (या यहां तक कि 47,671 करोड़ रुपये) की बचत हो सकती थी.

इसे विरोधाभास न कहा जाए तो क्या कहें. एक ओर आईसीएमआर यह दावा कर रहा है कि उसने अधिकतम गरीब लोगों को हर स्तर पर इलाज मुहैया कराया है, जबकि हजारों मरीज इलाज के अभाव या महंगे परीक्षण न करा पाने के चलते अपनी जान से हाथ धो बैठे और अमेरिकी कंपनी मुनाफा कमाती रही. जवाहर इस तथ्य की तस्दीक करते हुए कहते हैं, ‘इस मसले में मुनाफा अन्य सब कारणों में सबसे अहम कारक सिद्ध हुआ है.’हैरानी की बात है कि जब सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत जीमोन डायग्नोस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड ने आईसीएमआर से खुद को लाइसेंस न देने के बारे में जानकारी मांगी तो जवाब बेहद विरोधाभासी आया. आईसीएमआर ने अपने जवाब में कहा कि उन्हें इसकी कोई जानकारी ही नहीं है.

इस बारे में जब आईसीएमआर के दो अधिकारियों डॉ. कटोच और जवाहर से पूछताछ की गई तो उन्होंने माना कि संस्थान से गलती हुई है. एनसीडीसी के जैव रसायन और जैव प्रौद्योगिकी विभाग के संयुक्त निदेशक और केंद्र सरकार की जैव सुरक्षा समिति के सदस्य-सचिव डॉ. अरविंद  राय ने स्वीकार किया है कि वह उन लोगों में शामिल थे, जिन्होंने अमेरिका से किट आयात करने की वकालत की थी. राय ने यह भी कहा, ‘अगर कोई यह कहता है कि निगेटिव और पॉजिटिव टेस्ट की कीमत एक नहीं होनी चाहिए तो वह तार्किक बात नहीं कर रहा है.’ तहलका की तहकीकात में इस बात का खुलासा हुआ कि मुनाफे की लूट न चल रही होती और स्वास्थ्य विभाग ने भारतीय कंपनी के दावों पर समय रहते कार्रवाई की होती तो बहुत से मासूमों की जान बचाई जा सकती थी. भारतीय कंपनी का दावा है कि उसकी किट स्वाइन फ्लू के वायरस की पहचान प्रारांभिक अवस्था में ही करने में सक्षम है. कंपनी के अनुसार, उसने आवश्यक अनुमोदन और प्रमाणीकरण के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय से संपर्क भी किया था लेकिन उधर से कोई सकारात्मक जवाब नहीं आया.

ज्ञात हो कि मई, 2009 में जब स्वाइन फ्लू को महामारी घोषित कर दिया गया तब इसकी पहचान, रोकथाम और इलाज के मद्देनजर दुनिया भर में कई प्रकार की शोध परियोजनाएं और अनुसंधान शुरू हुए. इसी दौरान आईसीएमआर की ओर से घोषणा की गई कि भारत अमेरिकी कंपनी से परीक्षण किट आयात कर रहा है. इसके फौरन बाद जीनोम ने डीसीजीआई से संपर्क कर अपने उत्पाद को प्रमाणित करने का आवेदन किया तो कहा गया कि वह पहले आईसीएमआर से पहले अनुमोदन और प्रमाणित कराए. इससे पहले आईसीएमआर ने कंपनी को तीन केंद्रों से प्रमाणित कराने का आदेश दिया था. उसी महीने में कंपनी ने स्वास्थ्य मंत्रालय और डीसीजीआई के डॉ. सुरेंद्र सिंह को भी खत लिखा. यही नहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी इस मसले पर हस्तक्षेप की मांग की गई, लेकिन यह प्रयास भी व्यर्थ साबित हुआ. जब कहीं से कोई जवाब नहीं आया तो कंपनी ने 6 अगस्त, 2009 को टेस्ट लाइसेंस के लिए हिमाचल प्रदेश के ड्रग कंट्रोलर को आवेदन दिया. इस लाइसेंस के मिलने के बाद कंपनी ने आईसीएमआर के अन्य केंद्रों से भी प्रमाण पत्र हासिल कर लिया. इसी समय कुछ मीडिया रिपोर्ट में विदेशी किट के प्रभावी होने पर सवाल उठाए गए. आरोप लगाए गए थे कि एक विदेशी किट से सिर्फ 20 नमूनों के परीक्षण हो पा रहे हैं. इस वजह से लोगों को जांच रिपोर्ट देरी से मिल रही है.जब तहलका की टीम डॉ. कटोच से मिली तो उन्होंने इस बात पर जोर दिया, ‘सरकार जनता की भलाई के लिए स्वाइन फ्लू का परीक्षण मुफ्त में करवा रही है.’ लेकिन जब उनसे यह समझाने को कहा गया कि जांच परिणामों के आधार पर खर्च में फर्क क्यों आ रहा है तो उनका कहना था, ‘निगेटिव परिणाम आने पर एक अतिरिक्त टेस्ट कराना होता है इसीलिए खर्च दुगना हो जाता है.’

फोटोः एएफपी
फोटोः एएफपी

खैर परिस्थितियों  के बिगड़ने देख डॉ. कटोच ने 11 अगस्त 2009 को आननफानन में प्रेस वार्ता आयोजित की.  इसमें तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद भी शामिल हुए थे. आजाद ने मीडिया के सामने कहा था कि आईसीएमआर कम लागतवाला परीक्षण किट विकसित करेगा, आजाद ने पहले से ही देश में मौजूद व कम लागत वाले किट के बारे में कुछ नहीं कहा. आजाद ने यह भी कहा था कि केवल अमेरिकी कंपनी के पास ही स्वाइन फ्लू की पहचान करनेवाला किट विकसित करने का पेटेंट है.

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drdoतहलका टीम ने जब इस पर आजाद से बात करने की कोशिश की तो दस दिन के बाद उधर से एक फोन आया लेकिन जब पूर्व स्वास्थ्य मंत्री को इस बारे में तथ्य मुहैया कराए गए  तो उन्होंने रिकॉर्ड चेक करने का वादा किया लेकिन बाद में उनके दफ्तर की ओर से फोन तक नहीं उठाया गया. टीम की ओर से ईमेल भी भेजा गया लेकिन उसका भी कोई जवाब नहीं आया. इसी तरह जब स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों से, जिसमें सचिव और संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी शामिल थे, संपर्क साधने की कोशिश की गई तो उनका रवैया भी बहुत सकारात्मक नहीं था. लगभग 15 दिनों बाद संयुक्त सचिव डॉ. अंशु प्रकाश का फोन आया. उन्होंने जनसंपर्क अधिकारी डॉ. मनीषा वर्मा को अपने सवाल भेजने के लिए कहा. डॉ. मनीषा को भी सवाल भेजे गए पर खबर लिखे जाने तक उधर से कोई जवाब नहीं आया. तहलका टीम ने डीसीजीआई को भी ईमेल भेजा पर कोई जवाब नहीं आया.

20 अगस्त 2009 को ही जीनोम डायग्नोस्टिक्स को एसजीपीजीआई के प्रो. टीएन ढोले की ओर से 50 नमूनों के मूल्यांकन और सत्यापन रिपोर्ट मिली. रिपोर्ट के अनुसार, ‘भारत सरकार की ओर से मुहैया कराए एक एबीआई किट की हमने इन दोनों के लगभग 50 सैंपल रोटोर जीन और एबीआई मशीन 7500 पर परीक्षण कर तुलना की. इसमें पाया कि जीनोम किट और एबीआई किट के नतीजे एक जैसे हैं. कई अर्थों में जीनोम किट का प्रदर्शन एबीआई से बेहतर था. खासकर परिवर्धन और चक्रीय सीमा रेखा (सीटी) के मूल्यों की कसौटी पर जीनोम का प्रदर्शन एबीआई से बेहतर था. साधारण शब्दों में इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि कौन सा किट लो पॉजिटिव (रोग के लक्षणों के न्यूनतम स्तर) को भी परख और पकड़ लेने में ज्यादा सक्षम है. इस लिहाज से जीनोम किट बेहतर निकली और हमने इसे प्रारंभिक जांच के लिए अनुमोदित किया है.’ यह मूल्यांकन रिपोर्ट डॉ. कटोच के पास भी भेजी गई थी. जिसे उन्होंने सैद्धांतिक तौर पर स्वीकार भी किया गया है.

डॉ. कटोच ने स्वीकारा कि सरकार ने एबीआई से महंगे दामों पर किट खरीदी. इसमें विभाग की भी जिम्मेदारी बनती है और विभाग की ओर से कई चूक भी हुईं. कटोच ने अपने सहयोगियों को दोषी ठहराते हुए कहा, ‘इस प्रकरण ने मुझे बहुत दुखी कर दिया है. यह एक बड़ी गलती है जिसके चलते एबीआई ने खूब मुनाफा कमाया है. इसके लिए दोषियों को सजा मिलनी चाहिए.’

aakadeyकटोच से बातचीत के बाद तहलका टीम ने आईसीएमआर के मुख्य सतर्कता अधिकारी से भी बातचीत की. उन्होंने बातचीत में माना कि अगर संस्थान ने समय रहते इस मामले में हस्तक्षेप किया होता तो जीनोम को बहुत पहले ही लाइसेंस मिल जाता और काफी लोगों की जिंदगी बचाई जा सकती थी. उनके अनुसार डीसीजीआई एक नियामक संस्था है जो उत्पादन के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करती है जबकि आईसीएमआर केवल कुछ तकनीकी मसलों पर सिफारिश कर सकती है. यह इसकी सीमा है. लेकिन कुछ भी हो नुकसान तो देश और जनता का हुआ है. सरकार को इसके लिए एक प्रभावी तंत्र विकसित करना चाहिए.

इस मामले पर नई दिल्ली स्थित एम्स के निदेशक एमसी मिश्रा कहते हैं, ‘व्यावसायिक हितों के कारण कुछ स्वार्थी लोग ऐसे निर्णय लेते रहे हैं. ये लोग जनता के स्वास्थ से पहले अपने हितों का ख्याल रखतें हैं. खासकर जब मामला महामारी का हो. मेरे कई दोस्त बताते हैं कि जब ऐसा कोई रोग फैलता है तो लैब टेक्नीशियन की चांदी हो जाती है. वे नई गाड़ियां खरीदते दिखाई देते हैं. दरअसल किसी का नुकसान किसी का फायदा बन जाता है. यह उनके लिए सिर्फ एक व्यापार है और कुछ नहीं. सरकारी तर्क चाहे जो भी हो पर इतना तो तय है कि सांठ-गांठ और लापरवाही के कारण एक स्वदेशी कंपनी के हाथ से मेक इन इंडिया का अवसर निकल गया.’