ग्रीनपीस : प्रताड़ना का पर्यावरण

Rape Victim

मैं एक वालंटियर के तौर पर 2009 में ग्रीनपीस से जुड़ी. 2012 में बेंगलुरु ऑफिस जॉइन किया. ग्रीनपीस इंडिया के माहौल में अजीब से लगने वाले द्विअर्थी मजाक आसानी से सुने जा सकते हैं. ये यहां हमेशा से होते रहे हैं पर शुरुआत में आप हर मजाक पर इस वजह से सवाल नहीं उठाते कि कहीं कोई आपको झगड़ालू न समझ बैठे. मेरे साथ भी यही हुआ. वहां स्त्री विरोधी और जेंडर संबंधी मजाक आम हैं पर मुझे इनसे तब तक ज्यादा फर्क नहीं पड़ा जब तक मैंने इस घटिया सोच को मेरे साथ हुए दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम में बदलते नहीं देखा.

 अक्टूबर, 2012 में ऑफिस के कई साथियों के साथ मैं हैदराबाद में टूर पर थी. सीनियर एडमिन मैनेजर उदय कुमार भी वहीं था. एक दिन अचानक रात में उसने मुझे फोन करके कहा कि अपना कमरा खाली करो और मेरे कमरे में सोने आ जाओ! ये बहुत ही घटिया बात थी. मुझे वो शराब के नशे में लग रहा था इसलिए मैंने बात ज्यादा नहीं बढ़ाई. इसके बाद वो हर जगह मेरा पीछा करता, मेरी असहजता भांपने के बावजूद करीब आने की कोशिशें करता. उसने कई बार मेरा हाथ पकड़ने की कोशिश की. मेरे जन्मदिन पर मुझे जबरदस्ती केक खिलाने लगा. मैं उससे परेशान हो गई थी. पूरी मेज पर जगह खाली होने के बाद भी नाश्ते के समय मेरे ही पास आकर बैठता.

 वापस आकर लगभग डेढ़ महीने बाद मैं उसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराने की हिम्मत जुटा पाई. तब मुझे पता चला कि नवंबर 2011 में उदय एक और महिला कर्मचारी सीमा से भी बदतमीजी कर चुका है. मैं उसके ओछे स्वभाव को समझ चुकी थी इसलिए मैंने अपनी शिकायत में उसके लिए ‘रिपीट ऑफेंडर’ (अपराध दोहराने वाला) शब्द का प्रयोग किया. दिसंबर 2012 में ही सीमा ने भी एक-दो दिन के अंतराल पर उदय के खिलाफ अपनी शिकायत दर्ज कराई थी. बाद में (2015 में) पता चला कि एचआर मैनेजर ने उस शिकायत को यौन प्रताड़ना की श्रेणी में रखा ही नहीं था जिससे इसकी जांच आंतरिक शिकायत समिति द्वारा हो पाती.

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पढ़ेंं: ‘मुझसे ऐसा व्यवहार किया गया जैसे मानो मैं अपराधी हूं’
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‘ये लड़ाई मेरी अकेली नहीं उन सब महिलाओं की है जो इस सो-कॉल्ड ‘सिविल’ सोसाइटी में बिना किसी उत्पीड़न या शोषण के डर के अपने अधिकारों की जमीन तलाश रही हैं’

 हम दोनों लड़कियों से इस बारे में कोई आधिकारिक बातचीत नहीं हुई कि उदय को क्या सजा मिली है पर हमने ऐसा सुना कि क्योंकि दोनों घटनाएं आउटस्टेशन टूर पर हुई थीं इसलिए उदय को एक साल के लिए टूर पर बाहर नहीं भेजा जाएगा. इसके बावजूद उसे एक टूर पर भेजा गया. वैसे ये सभी फैसले ऑर्गनाइजेशनल डायरेक्टर अनंत ने लिए थे, जिस पर पहले ही एक और महिला कर्मचारी उत्पीड़न का आरोप लगा चुकी थी. 2013 में ग्रीनपीस में कार्यरत मेरे एक दूसरे सहकर्मी ने अचेतावस्था में मुझसे बलात्कार किया. वह खुद को मेरा दोस्त कहता था. इस हादसे ने मुझे तोड़कर रख दिया. मैं दहशत में थी. मामले की शिकायत दर्ज कराना तो दूर, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि इसके बारे में किसी दोस्त को बता सकूं. बाद में पता चला कि वह व्यक्ति और भी कई महिला कर्मचारियों के साथ बदतमीजी कर चुका था, जिसमें कई वालंटियर्स भी शामिल थीं. एक बार उसने एक वालंटियर को अपने निजी अंगों की तस्वीरें भी भेजी थीं. ये मेरा दुर्भाग्य था कि मेरे बलात्कारी के साथ मुझे काम करना पड़ता था. उसकी घटिया नजरों का सामना करना मेरे लिए बहुत मुश्किल था और जब मेरी सहनशीलता जवाब दे गई तो मैंने नौकरी छोड़ दी. तब मैंने अपने मैनेजर को इस्तीफा देने की बात कही तो उसने हंसते हुए कहा, चलो अच्छा है… अब मुझे तुम्हारा पेपरवर्क तो नहीं करना पड़ेगा! किसी संस्थान को अपना सौ प्रतिशत देने के बाद आप इस तरह के व्यवहार की तो उम्मीद नहीं रखते!

 ये बहुत मुश्किल समय था. एक बड़े शहर में मुझे खुद को हर तरह से संभालना था. मैं मानसिक रूप से बहुत परेशान थी. पर धीरे-धीरे मैंने साहस जुटाया जिसका परिणाम इस साल फरवरी में फेसबुक पोस्ट के रूप में सामने आया. मैंने इस पोस्ट में मेरी आपबीती लिखी और प्रबंधन के ढुलमुल रवैये पर सवाल खड़े किए. इसके कुछ दिनों बाद ग्रीनपीस ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके मुझसे माफी मांगी. एचआर मैनेजर परवीन ने मुझे ईमेल पर बताया कि मामले की दोबारा जांच होगी (पर पहली बार तो कभी जांच हुई ही नहीं थी!) मैंने अब तक अपने और कुछ दूसरी लड़कियों के मामले को लेकर ग्रीनपीस इंटरनेशनल से भी संपर्क किया था, उन्होंने बात तो सुनी पर किसी कार्रवाई के नाम पर चुप्पी साध ली.

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 कुछ दिनों बाद पता चला कि एक नई समिति बनी है जो मामले कि जांच करेगी पर फिर भी हम दोनों लड़कियों से कोई संपर्क नहीं किया गया. इस समिति ने उदय कुमार को निकलने का फैसला लिया पर कार्यकारी निदेशक समित एच ने पता नहीं किन कारणों से समिति भंग करके उदय की सजा को एक लिखित माफीनामे तक सीमित कर दिया. गौर करने वाली बात ये है कि लगभग ढाई साल बाद उदय कुमार ने अपने किए की माफी मांगी, वो भी ईमेल में. ईमेल की भाषा बहुत भ्रामक और अस्पष्ट थी. उसने लिखा था, ‘मैं अपने संवेदनहीन व्यवहार के लिए माफी मांगता हूं… आशा है हम अच्छे दोस्त बने रहेंगे.’ क्या ये कोई स्कूली बच्चों का झगड़ा था? वो किस बात के लिए माफी मांग रहा था जिसका जिक्र तक उसने नहीं किया? ये बहुत ही निराशाजनक था. क्या यौन उत्पीड़न भोग चुका इंसान उस व्यक्ति को माफी दे सकता है?  मेरे कई सवाल हैं पर जवाब देने वाले संस्थान से एक-एक कर के इस्तीफा दे के जा चुके हैं. इस बीच मेरे बारे में बहुत-सी घटिया बातें की गईं. मुझे ग्रीनपीस को बदनाम करने की साजिश करने वाला भी कहा गया पर मुझे अब कोई फर्क नहीं पड़ता. ये मेरे अकेले की लड़ाई नहीं है. ये उन सब महिलाओं के लिए है जो इस सो-कॉल्ड ‘सिविल’ सोसाइटी में बिना किसी उत्पीड़न या शोषण के डर के अपने अधिकारों की जमीन तलाश रही हैं. मैं डरना छोड़ कर जीना सीख चुकी हूं. मेरी सच्चाई लोगों की छोटी सोच से बड़ी है.

अपनी एक कर्मचारी की ओर से बलात्कार के आरोप लगाए जाने पर ये रवैया उस संस्था का था जो मानव अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होने का दावा करती है

ये व्यथा मेघना की है. ग्रीनपीस की पूर्व कर्मचारी मेघना 2009 में संस्था से जुड़ी थीं. मेघना ने बीते फरवरी में अपने साथ हुई इस घटना का सोशल मीडिया पर जिक्र किया. मामले के सामने आने के साथ ही जो ग्रीनपीस संस्था मेघना के छेड़खानी और बलात्कार के आरोपों को लंबे समय से नजरअंदाज करती आई थी वो एकाएक हरकत में आ गई. आनन फानन में संस्था ने कुछ आरोपी कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाने के साथ ही पूरे मामले को बेहद दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया और कहा हमसे गलती हो गई.

मेघना बताती हैं, ‘इस साल फरवरी में हिम्मत जुटाकर मैंने फेसबुक पर अपनी आपबीती एक पोस्ट में अपने दोस्तों से शेयर की, जिसके बाद ग्रीनपीस की ओर से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके मुझसे माफी मांगी गई और उस कथित आरोपी ने मुझे ईमेल में सॉरी लिख के भेजा! क्या माफ कर देना इतना आसान होता है! फिर मैंने एचआर मैनेजर से फोन पर बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने को लेकर बात की, पर वो बोलीं कि कोई पूर्व कर्मचारी आंतरिक शिकायत समिति में कोई शिकायत दर्ज नहीं करा सकता. हालांकि बाद में भेजे गए एक ईमेल में वो अपनी ही इस बात से पलट गईं. तब उन्होंने कहा कि मैं शिकायत दर्ज करा सकती हूं. उनकी बातों में इतने विरोधाभास थे कि किसी शिकायत के संदर्भ में मैं उन पर विश्वास ही नहीं कर पाई.’ मेघना के अनुसार, ‘2012 में एक आउटस्टेशन टूर के दौरान वो यौन उत्पीड़न की शिकार हुई. उसके बाद फिर 2013 में उनके एक सहकर्मी ने उनके साथ अचेतावस्था में बलात्कार किया.’ बकौल मेघना, ‘मैं इस घटना से पूरी तरह से टूट गई थी, डिप्रेशन में थी. उत्पीड़न की शिकायत पर मैं प्रबंधन का नकारा रवैया भी देख चुकी थी. मेरा साथ देने वाले गिने-चुने ही लोग थे. कुछ लोगों का कहना था कि मैंने लोगों को छूट दी कि वो मेरे साथ ऐसा व्यवहार करें. जब मैं लोगों के ताने-फब्तियां नहीं सह पाई तो नौकरी छोड़ दी.’

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सोशल मीडिया पर ये मामला सामने आने के बाद मेघना से संस्थान की कई दूसरी कर्मचारियों ने भी संपर्क कर अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के बारे में जानकारी दी (देखे बाॅॅक्स, मामला आगे बढ़ाया तो…). इस संबंध में ग्रीनपीस के कई वालंटियर्स ने ग्रीनपीस इंटरनेशनल के प्रमुख कुमी नायडू को ईमेल कर उचित कार्रवाई के लिए कहा पर उन्हें कोई जवाब नहीं मिला.

अपनी एक महिला कर्मचारी की ओर से बलात्कार जैसे गंभीर आरोप लगाए जाने पर ये रवैया उस संस्था का था जो मानवाधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होने का दावा करती है. जो न्याय की बात करती है और जिसका ध्येय एक ऐसे विश्व का निर्माण है जहां शांति हो. लेकिन दुनिया में शांति को स्थापित करने की लालसा पालने वाली ये संस्था अपने संस्थान में ही छेड़खानी और बलात्कार से उठने वाली चीखों को या तो सुन नहीं पाई या उसने सुनकर भी अनसुना कर दिया. एक महिला कर्मचारी सालों तक संस्था में कथित तौर पर छेड़खानी और दुष्कर्म का शिकार होती रहीं लेकिन प्रबंधन के कान पर जू तक नहीं रेंगी. उसने प्रबंधन से छेड़खानी और दुष्कर्म करने वाले की शिकायत की. उन्हें कई बार मेल किया, कार्रवाई करने की विनती की, लेकिन संस्था ने उन शिकायतों को कूड़े के ढेर पर फेंक दिया. उसने आरोपों की जांच कराने तक की सुध नहीं ली. सबसे शर्मनाक और चौंकाने वाला तथ्य तो ये है कि मेघना का मामला अपवाद नहीं है. ‘तहलका’ ने अपनी पड़ताल में पाया कि ग्रीनपीस में मेघना जैसी तमाम कर्मचारी हैं जो ग्रीनपीस इंडिया के अलग-अलग दफ्तरों में छेड़खानी और हाल में अस्तित्व में आए नए रेप कानून के तहत बलात्कार बने इस कृत्य का शिकार हुई हैं. लेकिन इन सभी के साथ भी संस्था ने वही सलूक किया जो मेघना के साथ किया था.

 ग्रीनपीस की इन पूर्व पीड़ित कर्मचारियों से बातचीत करने पर पता चलता है कि कैसे संस्था के भीतर लंबे समय से स्त्री विरोधी माहौल है. जहां छेड़खानी और महिलाओं को लेकर तंग नजरिया बेहद आम है. उतना ही आम है इनको लेकर संस्था का रवैया. अपने ही दफ्तरों में हुए महिला उत्पीड़न के खिलाफ कदम उठाने में ग्रीनपीस इंडिया पूरी तरह नाकाम रही है. उसने कभी यौन उत्पीड़न को यौन उत्पीड़न न मानकर आरोपी को माफ करने या फिर दूसरा मौका देने के लिए कहा, तो कभी पुरुष कर्मचारियों की भद्दी टिप्पणियों को ‘हार्मलेस जोक’ ठहराया.

मेघना इसके पीछे ग्रीनपीस के वर्क कल्चर को दोष देती हैं. वो कहती हैं, ‘ग्रीनपीस का वर्क कल्चर ही ऐसा है. अनौपचारिक व्यवहार के नाम पर पुरुष कर्मचारी अनुचित छूट लेते हैं. शुरुआत छोटे-छोटे मजाक से होती है जिन पर अमूमन लड़कियां प्रतिक्रिया नहीं करतीं पर बात धीरे-धीरे बढ़ते हुए कंधे पर हाथ रखने, जबरन हाथ पकड़ने और जबरदस्ती नजदीक आने की कोशिशों में बदल जाती है.’

 एक अन्य पीड़िता सीमा अपनी व्यथा साझा करते हुए कहती हैं, ‘साल 2०11 की बात है. मेरे साथ संस्था के एक वरिष्ठ अफसर ने शराब के नशे में बदतमीजी की. उस समय संस्थान के तमाम वरिष्ठ लोग वहां मौजूद थे. किसी ने उसको न रोका न ही विरोध किया. मैंने इसकी शिकायत दर्ज करवाई पर बाद में पता चला कि एचआर मैनेजर ने इसे यौन उत्पीड़न की श्रेणी में ही नहीं रखा था. इसके बाद ऐसी किसी घटना के दोहराव के डर से मैंने दफ्तर की किसी भी पार्टी या कार्यक्रम में जाना ही बंद कर दिया.

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पढ़ें: ‘मामला आगे बढ़ाया तो ग्रीनपीस  को एक वालंटियर कम होने से कोई  फर्क नहीं पड़ेगा’
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संस्था के वर्क कल्चर के बारे में बताते हुए मेघना कहती हैं, ‘वहां हाईस्कूल की क्लास जैसा माहौल है, जहां किसी भी महिला का पुरुष सहयोगी से बात करना, उसके साथ कॉफी पी लेना, कही बाहर चले जाना, नई-नई अफवाहों को जन्म दे देता है. वहां आपके ड्रेसिंग सेंस से लेकर आपकी शारीरिक बनावट तक पर टिप्पणियां की जाती हैं, अश्लील द्विअर्थी मजाक होते हैं. ऐसे माहौल में उन्हें आगे बढ़ने का हौसला तब मिल जाता है जब इसकी शिकायत पर इसे ‘हार्मलेस जोक’ कहकर टाल दिया जाता है. वहां सिर्फ कागजों में महिला अपराधों के मामले में जीरो टॉलरेंस की बात की गई है, पर ऐसा कभी अमल में नहीं लाया गया. महिलाओं का शराब पीना उनके लिए अजूबे की तरह है और सड़कछाप, जाहिल लोगों की तरह वे शराब पीने, दोस्तों के साथ पार्टी करने वाली लड़कियों को आसानी से उपलब्ध समझने लगते हैं.’

‘वहां आपके ड्रेसिंग सेंस से लेकर आपकी शारीरिक बनावट तक पर लगातार टिप्पणियां की जाती हैं. इसकी शिकायत पर इसे ‘हार्मलेस जोक’ कहकर टाल दिया जाता है’

ग्रीनपीस इंडिया की एक पूर्व कर्मचारी कहती हैं, ‘इन मामलों के बारे में संस्थान को भनक भी होती है पर जिन ‘वेल एजुकेटेड’ व्यक्तियों के खिलाफ ये असंतुष्टि थी वे उच्च पद पर थे तो उन्हें कोई क्यों और कैसे नाराज करना चाहेगा!’ महिला उत्पीड़न के लेकर संस्था के नजरिए पर चर्चा करते हुए एक पीड़िता कहती हैं, एक बार जब एक वालंटियर ने अपने सहकर्मी पर यौन प्रताड़ना का आरोप लगाते हुए उसे कड़ी सजा की मांग की तब उसे जवाब मिला कि जो सजा मिली है वो ठीक है. (सजा के नाम पर उसे संस्थान से साल भर के लिए बैन करने की बात कही गई थी.) प्रबंधन का कहना था कि आरोपी ने उन्हें ये विश्वास दिलाया है कि वो आगे से ऐसा नहीं करेगा. लेकिन अगर तुम मामला आगे ले जाओगी तो ग्रीनपीस को एक वालंटियर के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा.’

 इन महिलाओं से हुई बातचीत को आधार मानें तो पिछले कुछ सालों में ग्रीनपीस इंडिया में महिला उत्पीड़न की तमाम घटनाएं हुई हैं. कुछ मामले प्रकाश में आए जहां महिलाओं ने आगे बढ़कर प्रबंधन से इनके खिलाफ शिकायत की. लेकिन उन मामलों की संख्या और ज्यादा है जहां नौकरी की मजबूरी के चलते महिलाओं ने चुप रहना बेहतर समझा. क्योंकि ऐसे भी कई मामले संस्थान में हुए जहां सवाल उठाने पर किसी महिलाकर्मी को इस कदर प्रताड़ित किया गया कि उसे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी. जबकी उसी समय जिन लोगों पर आरोप थे वे बेतकल्लुफी से वहां काम करते रहे.

 ऐसी ही कहानी कीर्ति की है. कीर्ति ने इस एनजीओ में हुए शारीरिक उत्पीड़न के मामलों को जब सीनियर मैनेजमेंट टीम के सामने उठाया तो उन्हें पागल और मानसिक रूप से असंतुलित करार देते हुए नौकरी से निकालने की धमकी दी गई. उनके अनुसार, ‘उन्होंने मेरी निजी जिंदगी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि आपके जीवन में सब ठीक नहीं चल रहा इसलिए आपको हर पुरुष से परेशानी है. कौन छेड़ेगा आपको!’ वह कहती हैं, ‘मामला मेरा नहीं उन बच्चियों का था पर उनका उद्देश्य बस मेरी बेइज्जती करना था. मेरे मैनेजर ने सरेआम मुझ पर चिल्लाते हुए कहा कि 47 साल की उम्र में आपको पता होना चाहिए कि आपके पास नौकरी के क्या विकल्प हैं! वो कहना चाहता था कि अगर मैं वहां पर बनी रहना चाहती हूं तो मुझे अपने काम से काम रखना चाहिए. पर फिर भी मैंने ये शिकायत ग्रीनपीस के बोर्ड तक पहुंचाई, जहां उन्होंने (समित एच) साफ झूठ बोल दिया कि यौन शोषण का कोई मामला नहीं हुआ है. इसके बाद मुझे मानसिक रोगी करार देते हुए इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया गया. प्रबंधन ने अगर तब यौन शोषण के उन मामलों को गंभीरता से लेते हुए कथित आरोपियों के खिलाफ कड़े कदम उठाए होते तो बलात्कार की दुर्भाग्यपूर्ण घटना होती ही नहीं. पुरुष सहकर्मियों को पहले से ही एक चेतावनी मिल गई होती पर ऐसा हुआ नहीं.’

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एक पीड़िता कहती हैं, ग्रीनपीस ने मार्च 2015 में अपनी आतंरिक शिकायत समिति में यौन प्रताड़ना से जुड़े कुछ मामलों को उठाया तो सही लेकिन किसी पीड़िता से कोई बात नहीं की. बाद में पता चला कि उन्होंने आरोपियों को पीड़िताओं से क्षमा मांगने का कहकर मामले को रफा-दफा कर दिया गया. मामले पर नवनियुक्त अंतरिम कार्यकारी निदेशक विनुता गोपाल सफाई देते हुए कहती हैं, ‘आतंरिक प्रक्रियाओं में बहुत चूक हुई है.’

 ग्रीनपीस ने फरवरी में मेघना के फेसबुक पोस्ट के बाद प्रेस विज्ञप्ति जारी कर अपनी गलती मान पीड़िता से माफी मांगी है और जांच करवाने की बात भी कही है. जून में उनकी वेबसाइट पर लिखे गए एक ब्लॉगपोस्ट में भी कमोबेश यही बातें कही गई हैं. इसमें लिखा है कि अब हमारा उद्देश्य खुद में बदलाव लाना है, हमें ग्रीनपीस इंडिया का कल्चर बदलना है और ख्याल रखना है कि आगे से ऐसी कोई शिकायत न हो. पर फिर भी अगर दुर्भाग्य से कभी ऐसा हुआ तो हमारी पूरी कोशिश रहेगी कि संबंधित व्यक्ति को न्याय मिले. ग्रीनपीस की बात पर भरोसा तो किया जा सकता है पर गौर करने वाली बात ये रहेगी कि जिसे ग्रीनपीस ‘नैतिक जिम्मेदारी’ लेना कह रहा है, ये फजीहत से बचने के लिए किया गया ‘डैमेज कंट्रोल’ न हो!

(सभी पीड़िताओं के नाम बदले गए हैं.)

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