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झारखंड का चुनावी समर

झारखंड में चुनावी समर की घोषणा हो  चुकी है। देखना है कि ऊंट किस करवट बैठता है। भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती सत्ता विरोधी लहर से खुद को बचाना है। विपक्षी दलों का मानना है कि पांच चरणों में चुनाव का ऐलान भाजपा सरकार की खोखली नीति की खुलासा है। चाहिए तो यह था कि हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली और झारखंड का चुनाव एक साथ करवाती। लेकिन भाजपा अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए पहले महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव करवाती है। विपक्षी नेताओं का कहना है कि हरियाणा और महाराष्ट्र में अपनी सरकार होने के बावजूद उनको अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाए हैं। इसी से हतोत्साहित होकर उन्होंने झारखंड में पाँच चरणों में चुनाव का ऐलान करवाकर अपनी जीत सुनिश्चित करवाना चाहती है। संभवत: इसीलिए अभी तक दिल्ली के चुनाव की घोषणा नहीं की है। वह अपने सभी संगठनों की ताकत चरणबद्ध तरीकेसे झोंककर वहाँ अपना जीत सुनिश्चित करना चाहेगी। झारखंड के सत्ताधारी स्थानीय नेता इस बाबत बात करने से कतरारते दिखे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) के झारखंड राज्य के सचिव जी.के. बख्शी ने बताया कि पाँच चरणों के चुनाव का यहाँ की तमाम विपक्षी पार्टियों ने विरोध किया और यहाँ एक या दो चरणों में चुनाव सम्पन्न कराने की माँग की है। लेकिन विपक्षी पार्टी को धता बताते हुए चुनाव आयोग ने पाँच चरणों में चुनाव कराने का फैसला किया है। अब हम खासतौर से वामपंथी पार्टियाँ यहाँ अपना विकल्प देने की कोशिश कर रहे हैं। जहाँ तक रही झारखंड मुक्ति मोर्चा, झारखंड विकास मोर्चा, कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, जदयू के साथ-साथ तमाम स्थानीय निकाय की पार्टियाँ सत्तारुढ़ पार्टी के साथ दो-दो हाथ करने की तैयारी में जुट गई हैं।

दूसरी तरफ सत्तारुढ़ भाजपा कोई कोर कसर नहीं छोडऩा चाहती है। जिसके लिए यहाँ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू और गृहमंत्री अमित शाह तक झारखंड का दौरा करके वहाँ की जनता को लुभाने का प्रयास किया है। प्रधानमंत्री ने अपने दौरे में उद्घाटनों और शिलान्यास के ज़रिये चुनावी बिगुल फूँका है। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने अनेक केन्द्रीय योजनाओं की लॉन्चिंग के ज़रिये झारखंड की पैड का इस्तेमाल किया। बहु-प्रचारित स्वास्थ्य की महत्त्वाकांक्षी योजना-आयुष्मान भारत, किसानों, छोटे दुकानदारों के लिए पेंशन योजना या योग दिवस पर प्रधानमंत्री ने झारखंड को चुना।

मंशा साफ है कि भाजपा यहाँ जीत की कोई कोर कसर नहीं छोडऩा चाहती है। यहाँ के मात्र 14 लोकसभा और 81 विधानसभा के सीटों के प्रति प्रधानमंत्री का इतना ध्यानाकर्षण आम आदमी की समझ से परे है। प्रधानमंत्री की अभिरुचि दो वजहों से हो सकती है। पहली, भाजपा की जीत सुनिश्चि हो, जिससे भाजपा को अधिकाधिक लाभ मिल सके। दूसरी, भाजपा नीति का हिस्सा कि उनको सहयोग करने वाले पूँजीपतियों को अधिकाधिक लाभ पहुँचाया जा सके। जिसका प्रमाण यह है कि 2014  के चुनाव के तुरन्त बाद चुनी हुई सरकार ने राज्य में अडानी को अनेक महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं को  सौंप दिया। साथ ही साथ आदिवासी ज़मीन की खरीद फरोख्त पर लगी रोक को लचीला बनाने के लिए एसटी एसपीटी एक्ट को सरकार ने कमाोर किया।

65 पार का नारा बुलंद करने के साथ  झारखंड भाजपा प्रदेश का प्रभारी ओम माथुर को बनाया। उन्होंने प्रदेश का दौरा करने के बाद जो रिपोर्ट केंद्रीय नेताओं को सौंपा 65 पार के भाजपा के नारों को हतोत्साहित करने वाला था। उन्होंने सांगठनिक स्तर की कमाोरी के साथ-साथ मंत्रीमंडल के आपसी तालमेल में खामियाँ गिनायीं। सरकार द्वारा किये गये कामों को पार्टी जनता तक पहुँचाने में नाकाम रही है। ऊपर से सत्ता विरोधी लहर का खतरा। माथुर की इस रिपोर्ट के बाद केंद्रीय नेतृत्व ने चुनाव का प्रचार-प्रसार की कमान अपने हाथों में ले ली है। झारखंड में ही सबसे यादा मॉब लिंचिंग की घटनाएं हुई हैं, जिससे साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने की तैयारी से विपक्षी दल जोड़ रहे हैं। वहाँ के एक नेता ने बताया कि हाल की मॉब लिंचिंग की घटना में एक युवक की जान चली गई है। दूसरा अस्पताल में भर्ती है। इस तरह की घटना के सहारे वह अपना चुनावी बेड़ा पार लगाना चाहती है। साथ ही उन्होंने बताया कि राम मंदिर के मसले पर अभी उच्चतम न्यायालय का निर्णय आना है। उससे पूर्व भाजपा और उनके तमाम संगठनों ने एक हवा निर्मित कर इस पर एक अभियान सा छेड़ रखा है। इसके बावजूद नय्या पार लगाना आसान नहीं है। भाजपा के लिए रघुवर दास का चेहरा आगे लाना भी ङ्क्षचता पैदा कर रहा है। भाजपा ने घर-घर रघुवर दास का नारा लगाया है। जिसका विरोध भाजपा के अन्दर ही दिखाई देता है। इसका उदाहरण यह है कि उनके इलाके में लगे बैनर और होर्डिंग्स में रघुवर दास का चेहरा नदारद है। उनकी  जगह मोदी और अन्य नेताओं की तस्वीर ज़रूर लगी हुई हैं। उनके िखलाफ मंत्रिमंडल के सदस्य सरयू राय ने बगावती स्वर बुलन्द किये हुए हैं। जिन्होंने दर्जन से अधिक मंत्रीपरिषद् की बैठकों में भाग नहीं लिया है। साथ ही एक बार तो कैबिनेट की एक बैठक में एक प्रस्ताव के विरोध में बैठक से नाराज़ होकर चले गये थे। इससे भाजपा की राह आसान नहीं दिख रही है।

…यहाँ 65 प्लस की चुनौती

क्या झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा का मिशन 65 प्लस का टारगेट सचमुच फलीभूत हो जाएगा या फिर हरियाणा की ही तरह वो अधर में लटकी रह जाएगी, यह एक बड़ा सवाल है। चुनाव की रणभेरी बज चुकी है और खिलाड़ी मैदान में डट चुके हैं। भाजपा के लिए यह चुनाव हरियाणा और महाराष्ट्र के कुछ कड़वे अनुभवों के बाद आ रहा है लिहाज़ा वह फूँक-फूँककर कदम रखना चाहती है। वहीं कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष भी एकजुट होने की कोशिश कर रहा है, ताकि भाजपा को एक सक्षम चुनौती दी जा सके।

मुख्यमंत्री रघुवर दास के नेतृत्व में भाजपा लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है और उसने इस बार हरियाणा और महाराष्ट्र की तरह कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने के लिए मिशन-65 प्लस का स्लोगन उछाला है। ज़मीनी हकीकत क्या रही है? यह तो नतीजे ही बताएँगे। िफलहाल तमाम बड़े राजनीतिक दल एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में जुटे हैं।

पाँच चरणों में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अलग-अलग अधिसूचनाएँ जारी होंगी, लिहाज़ा सभी दलों के पास प्रचारक का काफी समय रहेगा। भाजपा ने ए.जे.एस.यू. के साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है। हालांकि, माना जा रहा है कि पार्टी टिकटों का वितरण कितनी चतुराई से करती है, इस पर उसकी जीत अधिक निर्भर करेगी। हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजे बता चुके हैं कि भाजपा राष्ट्रीय मुद्दों पर कतई निर्भर नहीं रह सकती। वैसे भी झारखंड के अपने संवेदनशील मसले हैं और चुनाव का दारोमदार इनके आसपास ही रहेगा।

झारखंड के विधासभा चुनाव कितने संवेदनशील हैं, यह इस तथ्य से जाहिर हो जाता है कि झारखंड के 19 िज़ले नक्सल प्रभावित हैं और 81 में से 67 सीटें ऐसी हैं, जहाँ नक्सल आंदोलन का असर है। भाजपा सत्ताधारी है और उसने बहुत पहले से ही चुनाव की तैयारी शुरू भी कर दी थी। दूसरे राज्यों की तरह उसने झारखंड में भी विपक्षी कांग्रेस और अन्य दलों के 6 विधायकों को चुनाव से ऐन पहले तोडक़र अपने पाले में मिला लिया है। इसके आलावा अपनी ज़मीन मज़बूत करने के लिए भाजपा मुख्यमंत्री रघुवर दास की ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ के ज़रिये लोगों तक पहुँचने की कोशिश में जुट चुकी है।

उधर, भाजपा को दोबारा सत्ता में न आने देने के लिए तमाम विपक्षी दल एकजुट होने की कवायद कर ही रहे हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष हेमंत सोरेन सत्ता में एक बार फिर वापसी के लिए ‘बदलाव यात्रा’ निकाल रहे हैं। उनकी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से मुलाकात की भी चर्चा है। सोरेन चाहते हैं कि इससे भाजपा के िखलाफ माहौल बनाने में मदद मिलेगी।

उधर, कांग्रेस ने रामेश्वर उरांव को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर ‘आदिवासी कार्ड’ चुनाव के लिए खेलने की कोशिश की है। देखना दिलचस्प होगा कि उसे इसमें कितनी सफलता मिलती है। बाबूलाल मरांडी की पार्टी जेवीएम अकेले चुनावी ताल ठोकने की तैयारी में है, जिसे भाजपा अपने लिए अच्छा मान रही है। जेवीएम को लगता है कि इससे विपक्ष का वोट बँटेगा और उसे इसका लाभ मिलेगा।

भाजपा के सामने तब विकट स्थिति बन जाती है जब वह चुनाव से ठीक पहले दूसरे दलों के नेताओं को साथ मिला लेती है और टिकट दे देती है। इस बार भी उसके सामने यह चुनौती है। चुनाव में वह किसे टिकट देगी, इस पर सभी की निगाहें टिकी हैं। सबसे अधिक उसके अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं में ही इसकी उत्सुकता है।

वर्तमान विधायक और वरिष्ठ नेता टिकटों के लिए मज़बूत लॉबिंग कर रहे हैं। उन्हें हाल में दूसरे दलों से आए नेताओं से चुनौती है। दूसरे दलों से शामिल किये विधायक हर हालत में टिकट चाहते हैं। वे इसके लिए गंभीर कोशिश में लगे हैं। ऐसे में भाजपा के सामने टिकट बाँटने का संकट तो है ही।

दूसरे दलों से भाजपा में आये विधायकों के समर्थक दावा कर रहे हैं कि उन्हें टिकट का पक्का भरोसा मिला है। खुद भाजपा के पूर्व विधायक और वरिष्ठ नेता टिकट की दौड़ में हैं ही। ऐसे में एक टकराव इन सीटों पर दिख सकता है। भाजपा कार्यकर्ता माहौल भांपने में लगे हैं और खुलकर चुनाव प्रचार में नहीं दिख रहे। अगर अपने ही नेताओं का टिकट कटा तो वे अन्य विकल्प तो ज़रूर तलाशेंगे।  ऐसे में उनके बागी होने का खतरा भी रहता ही है।

भाजपा के दफ्तर में टिकट चाहने वालों का मजमा लगने लगा है। पार्टी के वरिष्ठ नेता राष्ट्रीय महामंत्री बीएल संतोष, चुनाव प्रभारी ओम प्रकाश माथुर और सह प्रभारी नंद किशोर यादव रांची में गहरी नज़र बनाए हुए हैं। वे पार्टी के टिकट दावेदारों से मुलाकात कर रहे हैं। फिलहाल विरोध के स्वर सामने तो नहीं आ रहे हैं, लेकिन इसके यह मायने नहीं कि टिकट बाँटने के बाद ऐसा नहीं होगा।

भाजपा में आये विपक्षी विधायकों को टिकट मिलने पर बागी होने का खतरा

भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती उन हलकों में है, जहाँ पिछले चुनाव में दूसरे दलों से जीते नेता भाजपा में आए थे। उन सीटों पर हारे भाजपा नेता टिकट का दावा नहीं छोडऩा चाहते। यही हाल इस बार का है। जो नेता दूसरे दलों से भाजपा में आये, वे टिकट चाहते हैं और जो पिछले चुनाव में उन सीटों पर भाजपा के टिकट पर हारे, वे अपना दावा नहीं छोडऩा चाहते। वे जानते हैं कि ऐसा करेंगे तो उनका राजनीतिक भविष्य ही दाँव पर लग सकता है।

हटिया में विधायक नवीन जायसवाल 2014 चुनाव में झारखंड विकास मोर्चा से जीते, लेकिन बाद में भाजपा में चले गए। तब चुनाव में भाजपा की सीमा शर्मा हारी थीं। बरही में विधायक मनोज यादव चुनाव से पहले कांग्रेस से भाजपा में आए थे। पिछले चुनाव में भाजपा प्रत्याशी और पूर्व विधायक उमाशंकर अकेला इससे बहुत खफा हैं और हर हाल में टिकट चाहते हैं। लोहरदगा में सुखदेव भगत उपचुनाव में कांग्रेस से जीते और अब भाजपा में शामिल हो चुके हैं। वैसे यह सीट आजसू के कोटे में है। आजसू नेता कमल किशोर भगत ने 2014 में जीत दर्ज की थी, लेकिन एक मामले में सजा मिलने के बाद उपचुनाव कराना पड़ा था। यहाँ पर अब टिकट किसे मिलेगा, देखना दिलचस्प होगा।

बहरागोड़ा में झारखंड मुक्ति मोर्चा के कुणाल षाडंगी 2014 में जीतकर भाजपा में चले गये। अब पूर्व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी का क्या होगा, जिन्हें पिछले चुनाव में कुणाल ने हराया था। सिमरिया में विधायक गणेश गंझू झाविमो के टिकट पर 2014 में जीते, लेकिन बाद में भाजपा में शामिल हो गए। पिछली दफा सुजीत कुमार यहाँ से भाजपा प्रत्याशी थे, इस बार उनका क्या होगा। इस पर विरोधियों की भी नज़र रहेगी।

उधर, सारठ में 2014 में झाविमो से जीतकर रणधीर सिंह अब भाजपा में हैं। उनसे हारे भाजपा के उदयशंकर सिंह झाविमो में जा चुके हैं। लिहाजा वहाँ अधिक समस्या नहीं दिखती, लेकिन बरकट्टा में झारखंड विकास मोर्चा के टिकट पर 2014 में चुनाव जीतने वाले जानकी यादव अब भाजपा में हैं। भाजपा ने सत्ता में आकर उन्हें आवास बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया। पिछले चुनाव में भाजपा के टिकट पर उनसे हारे अमित यादव का क्या होगा, इस पर सवाल है।

कुछ ऐसा ही हाल लातेहार सीट का भी है, जहाँ प्रकाश राम 2014 चुनाव में झाविमो के टिकट पर जीते और अब भाजपाई हो चुके हैं। वहाँ भाजपा के पूर्व विधायक बैद्यनाथ राम अब अपनी िकस्मत को रो रहे हैं और टिकट न मिलने पर बागी हो सकते हैं।

कुछ यही स्थिति चंदनकियारी की है। यह सीट वैसे गठबंधन में आजसू के पास थी। आजसू के उमाकांत रजक को झाविमो के अमर बाउरी ने हराया था। बाउरी जीते और भाजपा में चले गये। िफलहाल भाजपा और आजसू दोनों इस सीट पर अपना-अपना दावा जता रहे हैं। सिसई और गुमला में भाजपा विधायक हैं। सिसई से दिनेश उरांव और गुमला से शिवशंकर उरांव विधायक हैं। इस बीच कांग्रेस के अरुण उरांव भाजपा में चले गये हैं। उन्हें कहाँ से चुनाव लड़ाया जाएगा, यह पेच फँसा है।

यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और विपक्षी दलों के महागठबंधन के बीच सीधी लड़ाई होगी या एक तीसरा पक्ष भी मज़बूत होकर उभरेगा। गठबंधन सीटों पर दावेदारी को लेकर पेच फँसा है। भाजपा की सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (आजसू) ने भी 10 से अधिक सीटों पर दावा कर भाजपा के सामने परेशानी पैदा की है। भाजपा पिछली विधानसभा की तर्ज पर सीट बँटवारा चाहती है, जिसे आजसू पूरी तरह खारिज कर रही है। आजसू के अध्यक्ष सुदेश महतो का कहना है कि 2014 में स्थिर सरकार देने के लिए उनकी पार्टी ने कुर्बानी दी थी। इस बार भाजपा को नये सिरे से सीटों पर समझौता करना होगा। ‘इस बार सीट बँटवारे को लेकर प्रदेश भाजपा के नेताओं के साथ उनका मंथन जारी है। अभी बात नहीं बनी है, अब सीटों के बँटवारे को लेकर दिल्ली में बात होनी है।’

यह चुनाव ऐसे मौके पर हो रहे हैं, जब भाजपा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और अन्य भावनात्मक मुद्दों को केंद्र में लाने का प्रयास कर चुकी है। लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजे कुछ और कहानी कह रहे हैं। स्थानीय मुद्दों को लोग अहमियत दे रहे हैं। इसलिए झारखंड में भाजपा की राह उतनी आसान नहीं दिखती। झारखंड में विपक्ष इन दो राज्यों के नतीजों के बाद उत्साह में है। झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नेता हेमंत सोरेन का कहना है कि जिस तरह से भाजपा छत्तीसगढ़ में बुरी तरह हारी थी, वहीं हाल झारखंड में भी होने वाला है। जो कांग्रेस मई के लोकसभा चुनाव में बहुत खराब प्रदर्शन के बाद संगठन के संकट से भी जूझ रही थी, उसे हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों से उम्मीद की एक नई किरण दिखी है। वह झारखंड में जेएमएम के साथ जाकर चुनाव में उतरने को तैयार दिखती है, भले ऐसे में उसकी स्थिति छोटे दल की हो जाती हो। कांग्रेस को वैसे उम्मीद है कि झारखंड में उसका प्रदर्शन सुधरेगा। कांग्रेस में सुबोधकांत सहाय जैसे नेता नई टीम से खुश नहीं हैं। लिहाज़ा उसे चुनाव से पहले पार्टी के अंदर के अंतॢवरोधों और लड़ाई को खत्म करना होगा।

81 सीटों पर पाँच चरण में चुनाव

झारखंड विधानसभा चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही वहां चुनावी बिगुल बज चुका है। राज्य की 81 सीटों पर पाँच चरणों में विधानसभा के चुनाव संपन्न कराए जाएंगे। नतीजे 23 दिसंबर को आएँगे। पहले चरण का मतदान 30 नवंबर को होगा, जबकि 7 दिसंबर को दूसरे, 12 दिसंबर को तीसरे, चौथे चरण की 16 दिसंबर जबकि 20 दिसंबर को पाँचवें चरण का मतदान होगा। पहले चरण में 13 सीटों पर मतदान होगा, दूसरे में 20 सीटों पर, तीसरे में 17 सीटों पर, चौथे 15 सीटों पर और पाँचवें चरण में 16 सीटों पर मतदान होगा। झारखंड विधानसभा का कार्यकाल 5 जनवरी को खत्म होगा।

2014 में भाजपा बनी थी सबसे बड़ी पार्टी

81 सीटों वाले झारखंड में जादुई आँकड़ा 41 का है। साल 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के हिस्से 31.3 फीसदी वोट आये थे और उसे 37 सीटें मिली थीं। उसकी सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (एजेएसयू) 3.7 फीसदी वोट के साथ 5 सीटें जीती थीं। जेएमएम ने 20.4 फीसदी वोट के साथ 19 सीटें, कांग्रेस ने 10.5 फीसदी वोट के साथ 7 और जेवीएम 10 फीसदी वोट के साथ 8 सीटें जीती थीं। अन्य को भी 6 सीटें मिली थीं। चुनाव के बाद जेवीएम के 6 विधायकों ने दलबदल कर भाजपा का दामन थाम लिया था।

ई-कॉमर्स कंपनियों के खिलाफ लामबंद हो रहे खुदरा व्यापारी

देश में ऑन लाइन खरीदारी का ग्राफ बढऩे के बाद अपना धंधा चौपट होते देख अब भारत के खुदरा व्यापारी ई-कॉमर्स की बड़ी कंपनियों अमेजन, फ्लिपकार्ट और अन्य के िखलाफ लामबंद हो रहे हैं। इन व्यापारियों के देशव्यापी संगठन कन्फेडरेशन ऑफ आल इंडिया ट्रेडर्स (सीएआईटी) ने ई-कॉमर्स का विरोध करने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू करने का ऐलान कर दिया है।

गौरतलब है कि ‘तहलका’ ने पिछले अंक में ई-कॉमर्स आउटलेट्स पर एक खास रिपोर्ट छापी थी, जिसमें इन व्यापारियों में ई-कॉमर्स की बड़ी कंपनियों के खिलाफ बढ़ती नाराज़गी का विस्तार से िज़क्र किया गया था। अब देश का सबसे बड़ा व्यापारी संगठन सीएआईटी खुलकर इनके विरोध में आ गया है।

व्यापारियों के संगठन सीएआईटी कि ई-कॉमर्स कंपनियाँ हुलाम एफडीआई नीति के नियमों की धज्जियाँ उड़ा रही है, जिसका विपरीत असर खुदरा व्यापार पर पड़ा है और यह खत्म होने की हालत में पहुँच रहा है।

सीएआईटी ने अब अमेजन और फ्लिपकार्ट के खिलाफ विरोध करने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन की चेतावनी दे दी है। कन्फेडरेशन ने कहा कि एक ज्ञापन एमपीएस को सौंपा जाएगा और विरोध के शुरुआती चरण में 200 शहरों में धरना आयोजित किया जाएगा।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (सीसीआई) ई-कॉमर्स उद्योग के लिए ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर छूट और मूल्य निर्धारण पर चिंताओं के समाधान के लिए एक नीति की योजना बना रहा है। सीसीआई शीघ्र ही इस सम्बन्ध में एक नीति परामर्श जारी करेगा।

सीसीआई के अध्यक्ष अशोक गुप्ता ने इस बात पर सहमति जताई कि कोई भी इस बात से इन्कार नहीं कर सकता है कि ऑनलाइन यहाँ रहने के लिए है, लेकिन ई-कॉमर्स उद्योग को भारत में खुदरा क्षेत्र की तरफ़ से उठायी जा रही तमाम चिंताओं को निपटाना होगा।

कन्फेडरेशन ऑफ आल इंडिया ट्रेडर्स के महासचिव प्रवीण खंडेलवाल ने इस बारे में कहा- एक नीति हर देश में लागू है। यदि बहुराष्ट्रीय कंपनी किसी देश में व्यापार करती है, तो वह उस नीति का पालन करने के लिए बाध्य है। खंडेलवाल ने कहा कि ग्राहक अकल्पनीय छूट के कारण ऑनलाइन जा रहे हैं। इस वजह से इस महीने ऑफलाइन कारोबार की बिक्री में 30 से 40 फीसदी कमी आई है।

भले देरी से सही, ऑफलाइन व्यापारी ई-कॉमर्स कंपनियों के खिलाफ अब लामबंद हो रहे हैं। वे सरकार पर एक समान नीति पर ज़ोर देने लगे हैं। अगले कुछ महीनों में ई-कॉमर्स कंपनियों के साथ एक नीति तय किए जाने की सम्भावना है, क्योंकि वे इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि विदेशी निवेश के लिए ज़्यादा दरवाो खोले जाएँ और कारोबारी माहौल में सुधार हो। सम्भावित नीति किसी उत्पाद पर अधिकतम छूट को सीमित कर सकती है और मूल्य-निर्धारण विवरण में छूट के विस्तृत ब्रेकअप को सुनिश्चित किये जाने की भी सम्भावना है, ताकि यह सुनिश्चित हो कि ई-कॉमर्स पोर्टल इसका वित्तपोषण नहीं कर रहे।

सीएआईटी इसके लिए ज़ोर डाल रही है और सरकार ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि वह यह सुनिश्चित करना चाहती है कि ऑफलाइन रिटेलर्स प्रमुख ई-कॉमर्स फर्मों के सामने खत्म न हो जाएँ। वैसे ऑनलाइन मार्केट प्लेस अपनी ओर से हमेशा यह दावा करते रहे हैं कि वे छूट से जुड़े सभी दिशा-निर्देशों का पालन कर रहे हैं और ये विक्रेता हैं, जो छूट की पेशकश कर रहे हैं। ऑफलाइन और पारम्परिक व्यापारी छूट मूल्य निर्धारण के मुद्दे पर स्पष्ट नीति चाहते हैं।

ई-कॉमर्स कंपनियाँ त्योहारों के सीजन से पहले विशेष छूट की घोषणा कर देती हैं। हाल में दिवाली और अन्य त्योहारों से पहले ऑनलाइन कंपनियों ने भारी भरकम छूट उपभोक्ताओं को दी। उनकी ओर से ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म दावा करते रहे हैं कि केवल विक्रेता ही बड़ी छूट की पेशकश करते हैं। उनका दावा है कि खुद ई-मार्केटप्लेस प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें प्रभावित नहीं करता है।

सीएआईटी जैसे पारम्परिक खुदरा विक्रेताओं और व्यापारी निकायों का आरोप है कि ऑनलाइन कंपनियाँ अपने नामों के तहत मेगा बिक्री के साथ बाहर आती हैं, न कि विभिन्न बिक्री ब्राण्डों के नाम पर। यह पता चला है कि सरकार इस बात पर गौर कर रही है कि क्या वॉलमार्ट के स्वामित्व वाली फ्लिपकार्ट और अमेजॉन.कॉम पर दी जाने वाली भारी छूट विदेशी निवेश नियमों का उल्लंघन तो नहीं। सरकार अखिल भारतीय व्यापारियों के परिसंघ की दायर की गई शिकायतों और सबूतों की समीक्षा भी कर रही है। सीएआईटी से करीब 7 करोड़ खुदरा विक्रेता जुड़े हैं।

व्यापारियों के निकाय सीएआईटी ने सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए इस महीने कई विरोध-प्रदर्शनों की घोषणा की है। इसने पहले प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर ई-कॉमर्स छूट के िखलाफ कार्यवाही करने का आग्रह भी उसने किया था। यह पता चला है कि किसानों, फेरी वालों, छोटे उद्योगों और स्वयं उद्यमियों को आंदोलन में शामिल होने के लिए कहा जाएगा। विभिन्न रिपोर्ट्स के अध्ययन से ज़ाहिर होता है कि ई-कॉमर्स कंपनियों को मध्यस्थ बैठकों, कोर्ट-रूम और सरकार के पास ले जाने के बाद ऑल इंडियेा ट्रेडर्स के कन्फेडरेशन ने अब फ्लिपकार्ट, अमेजन और अन्य ई-कॉमर्स कंपनियों के िखलाफ महीने-भर चलने वाले देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया है।

दरअसल, प्रमुख मुद्दा तटस्थता का है; क्योंकि ऑनलाइन बिक्री सीधे पारंपरिक विक्रेताओं के लाभ को प्रभावित करती है। ई-कॉमर्स एक तरह का हितों का टकराव पैदा करता है। ई-कॉमर्स काउंसिल ऑफ इंडिया (टीईसीआई) के एक सर्वेक्षण में 89 उत्तरदाताओं ने महसूस किया कि बाज़ार की तटस्थता एक प्रमुख सिद्धांत के रूप में महत्त्वपूर्ण थी और बाज़ार में प्लेटफॉर्म पर अपने स्वयं के या सम्बन्धित पार्टी विक्रेताओं में से कोई भी नहीं होना चाहिए। इसके अलावा लगभग 94 फीसदी ने महसूस किया कि बाज़ार नियंत्रित विक्रेताओं ने प्लेटफॉर्म पर स्वतंत्र विक्रेताओं के व्यवसाय को चोट पहुँचायी है। लगभग 90 फीसदी उत्तरदाताओं ने कहा कि मार्केटप्लेस निजी लेबल मार्केट प्लेस के लिए हितों का टकराव पैदा करते हैं और मार्केट प्लेस को अपने प्लेटफॉर्म पर अपने निजी लेबल को बेचने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

टीईसीआई के सर्वेक्षण में 541 उत्तरदाताओं की भागीदारी रही जो फ्लिपकार्ट, अमेजन, स्नैपडील, पेटीएम मॉल और शॉप क्लूज पर कम-से-कम 12 महीने से ऑनलाइन से जुड़े हैं। सर्वेक्षण में 89 फीसदी उत्तरदाताओं का यह साफ मानना था कि ऑनलाइन बिक्री के लिए कानूनों, नियमों और िज़म्मेदारियों में ऑफलाइन बिक्री के लिए समानता होनी चाहिए।

हालाँकि सर्वेक्षण सीएआईटी के दृष्टिकोण का समर्थन करता दिखता है। व्यापारियों के निकाय का आरोप है कि फ्लिपकार्ट और अमेजन दोनों सरकार के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नीति के नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं। उसके आरोप के मुताबिक वे मूल्य निर्धारण और बड़े डिस्काउंट से देश के खुदरा व्यापार को खत्म कर रहे हैं।

मेघालय घूमने का प्लान है, तो पहले कराना होगा रजिस्ट्रेशन

मेघालय में जल्द ही बाहरी लोगों के प्रदेश में प्रवेश करने पर पंजीकरण कराना अनिवार्य होगा। इसके लिए पिछले दिनों राज्य की कैबिनेट ने आदिवासी नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए ऐसे अधिनियम में संशोधन को मंज़ूरी दे दी है। मेघालय निवासियों के लिए सुरक्षा और सुरक्षा अधिनियम 2016 को मंजूरी दे दी है। इस बारे में मेघालय के उप मुख्यमंत्री प्रस्टोन तिनसॉन्ग ने बता कि संशोधित अधिनियम को मंज़ूरी देने के साथ ही यह तत्काल प्रभाव से लागू हो गया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि इसे राज्य के आगामी विधानसभा के अगले सत्र में नियमित किया जाएगा।

दरअसल, राजनीतिक दलों और गैर सरकारी संगठनों के साथ ही आदिवासियों से जुड़े कई संस्थाएँ इस तरह की माँग कर रहे थे। ऐसे ही संगठनों और संस्थाओं से जुड़े लोगों के साथ कई बैठकों के बाद यह निर्णय लिया गया। उप मुख्यमंत्री ने कहा कि कोई भी नागरिक जो मेघालय का रहने वाला नहीं है और राज्य में 24 घंटे से अधिक ठहरना चाहता है, उसे सरकार को दस्तावेज़ प्रस्तुत करने होंगे। इस पर सिर्फ केंद्र, राज्य और िज़ला परिषदों के कर्मचारियों को छूट रहेगी। मेघालय निवासी, सुरक्षा और सुरक्षा अधिनियम 2016 (एम.आर.एस.एस.ए.) को तत्कालीन कांग्रेस की एमयूए-ढ्ढढ्ढ सरकार ने इनर लाइन परमिट (आई.एल.पी.) के एवज़ में अवैध आव्रजन की जाँच के लिए एक व्यापक तंत्र के हिस्से के रूप में पारित किया था। जब अधिनियम 2016 में पहली बार पारित किया गया था, तब केंद्र में किरायेदार थे।

हालाँकि अभी पंजीकरण के लिए क्या प्रक्रिया होगी, इस पर काम जारी है। प्रक्रिया सरल रहे साथ ही ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन का विकल्प भी आने वाले लोगों को मुहैया कराया जाएगा। एक बार नियम तैयार हो जाने के बाद इसे कैबिनेट के सामने रखा जाएगा। उप मुख्यमंत्री ने कहा कि संबंधित उपायुक्तों के नेतृत्व वाले िज़ला कार्य बलों को और अधिक सक्रिय होना होगा।’

ध्यान देने वाली बात यह है कि मेघालय की सरकार ने केंद्र सरकार का विरोध कर प्रदेश में नया अध्यादेश लागू किया है। इस नए कानून के तहत किसी भी गैर मेघालयन को 24 घंटे से ज़्यादा रुकने पर रजिस्ट्रेशन कराना ही होगा।

केंद्र सरकार ने हाल ही में धार्मिक उत्पीडऩ से भागने वाले प्रवासियों को वैध बनाने के लिए नागरिकता अधिनियम में संशोधन करने के लिए अध्यादेश जारी किया था। इसी के विरोध के चलते मेघालय ने नया अध्यादेश लागू किया है। मेघालय डेमोक्रैटिक अलायंस कैबिनेट ने मेघालय रेजिडेंट्स सेफ्टी एंड सिक्योरिटी एक्ट, 2016 में संशोधन को मंज़ूरी दे दी है। यहाँ पर अवैध तरीके से पलायन करने वालों को आने से रोकने के लिए आईएलपी सिस्टम की माँग पहले से चल रही थी। लेकिन तब यह सिर्फ यहाँ पर रहने वाले स्थानीय लोगों ही पर लागू होता था।

दरअसल परमिट एक डॉक्यूमेंट है, जो आमतौर पर केंद्र सरकार जारी करती है। यह सुरक्षित इलाकों में एक सीमित समय के लिए रहने को ज़रूरी होता है। अभी तक ऐसे सुरक्षित इलाके नागालैंड, अरुणाचल और मिजोरम में ही हैं, लेकिन मेघालय के इस नए अध्यादेश के बाद यह भी अब सुरक्षित क्षेत्रों में शामिल हो जाएगा। बड़ी बात ये है कि इस परमिट को केंद्र नहीं, राज्य सरकार जारी करेगी।’

नागालैंड, अरुणाचल और मिजोरम के बाद मेघालय होगा चौथा राज्य सुरक्षित इलाकों या कहें कि बाहरी लोगों को प्रदेश में किसी भी तरह से बसने के मकसद से घुसने से रोकने को ऐसी व्यवस्था लागू की गई थी। इससे वहाँ की संस्कृति और लोक परम्पराओं को बढ़ावा देना है। इसलिए अब अगर किसी को भी मेघालय का दौरा करना है या घूमने की योजना बनाना है, तो इसे पहले पंजीकरण करना होगा। हालांकि सरकार की ओर से स्पष्ट किया गया है कि मेघालय के स्थायी निवासी चाहे वे जनजातीय हों या न हों उनको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। यह कानून सैलानियों, मज़दूरों या फिर कारोबार की गतिविधियों में शामिल लोगों के लिए है। ऐसे लोग इन नियमों का पालन करने के लिए बाध्य होंगे।’

मेघालय के उप मुख्यमंत्री ने कहा कि इस कानून के लिए धारा 4 (ए) के तहत एक नियम है, जिसमें कहा गया है कि कोई भी बाहरी शख्स जो राज्य में 24 घंटे से अधिक रुकना चाहता है, उसे कानून अपनी जानकारी देनी होगी। अगर कोई कानून का उल्लंघन करते पकड़ा जाता है तो उसके िखलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत कार्यवाही की जाएगी।

सिंगल यूज प्लास्टिक…बेज़ुबानों की भी सुनें

सिंगल यूज प्लास्टिक या पॉलीथिन के बारे में कहा जाता है कि यह हज़ारों साल तक खत्म नहीं होती। इससे इंसान तो प्रभावित हैं ही, जिसके जनक वे स्वयं हैं, पर बेज़ुबानों पर भी इसका उल्टा असर हो रहा है। वे इसे बयां नहीं कर सकते। उनके दर्द और तकलीफ को इंसान हीं समझ सकता है, पर नासमझ बना हुआ है। प्लास्टिक के नुकसान और इससे होने वाले कैंसर के बारे में लोगों को तो जागरूक किया जाता है, पर जीव जंतुओं पर इसके नुकसान के बारे में कम ही चर्चा होती है।

वैसे तो भारत में गाय को माँ का दर्जा दिया जाता है, पर अक्सर दूध दूहने के बाद उनको खुला छोड़ दिया जाता है। इससे वो कूड़ा घरों में पेट भरने के लिए बचे सड़े खाने के साथ प्लास्टिक और पॉलिथीन भी उनको निगलना पड़ जाता है। पिछले दिनों तमिलनाडु में एक ऐसा ही मामला सामने आया, जब गाय दूध देने के वक्त ज़्यादा लातें मारने लगी। मालिक को कुछ अंदेशा हुआ, तो उसने ध्यान दिया कि गाय को मल मूत्र त्यागने में भी परेशानी हो रही है। जाँच कराने पर पता चला कि पेट में बहुत सारा प्लाटिक होने की वजह से ऐसा हो रहा है।

डॉक्टरों ने गाय की सर्जरी करने का फैसला किया। चेन्नई में पशु डॉक्टरों ने उस गाय का ऑपरेशन किया तो उसके पेट से निकले प्लास्टिक ने डॉक्टरों को भी चौंका दिया। तिरुमुल्लाइल की इस गाय के पेट का ऑपरेशन 5.30 घंटे तकचला और करीब 52 किलो प्लास्टिक-पॉलिथीन निकाली गई। चेन्नई स्थित वेटरनरी एनिमल साइंस यूनिवर्सिटी में हुए ऑपरेशन में सिर्फ 140 रुपये खर्च हुए हैं। यदि किसी निजी अस्पताल में सर्जरी होती तो करीब 35 हज़ार रुपये का खर्च आता। गाय अब ठीक है और दवा लेने के साथ स्वास्थ्य लाभ ले रही है।

सर्जन ए. वेलावन के मुताबिक, गाय के शरीर के करीब 45 फीसदी हिस्से में प्लास्टिक थी। इससे उसे असहाय दर्द होता था। उसके दूध की मात्रा भी कम हो गई थी। जानवरों के पेट से लगातार प्लास्टिक पाए जाने की खबरें चिंताजनक तो हैं ही साथ ही हमें चेताती भी हैं। वेलावन के मुताबिक, सर्जरी के दौरान उन्हें गाय के हृदय के पास कई सुइयाँ भी मिलीं। उन्होंने कहा, प्लास्टिक की वजह से गाय को दर्द होता था। इस कारण वह अपने पेट में लात मारती थी।

विशेषज्ञों का मानना है कि गाय के पेट से इतनी अधिक मात्रा में प्लास्टिक का निकलना एक बड़े खतरे को दर्शाता है। डॉक्टरों के अनुसार, गाय के पेट में इस प्लास्टिक को जमा होने में करीब दो साल लगे होंगे। गत 15 अगस्त के अपने राष्ट्र के संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिंगल यूज प्लास्टिक के इस्तेमाल पर रोक लगाने की अपील लोगों से की थी। आगे सम्भावना है कि सरकार आने वाले कुछ दिनों में सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा दे।  महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती पर आयोजित एक कार्यक्रम में पीएम मोदी ने कहा था कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती पर भी देशभर में सिंगल यूज प्लास्टिक के उपयोग के िखलाफ कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ।

इसी के तहत यूपी में प्लास्टिक वेस्ट संग्रह श्रमदान कार्यक्रम में सीएम योगी आदित्यनाथ ने लोगों से सिंगल यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल पूरी तरह खत्म करने की अपील की थी। छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव ने अम्बिकापुर में प्लास्टिक के बदले खाना दिए जाने को बाकायदा निगम की ओर से एक ढाबा खोला है। यहाँ पर कोई भी शख्स प्लास्टिक के बदले में स्वादिष्ट खाने का आनंद ले सकता है।

विशेषज्ञों का मानना है कि प्लास्टिक का उपयोग जहाँ कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी की वजह बनती है, वहीं गाय आदि को मौत का सबब भी बनती है।

मीडिया, लोकतंत्र और चयन की सुविधा

मीडिया आज मुद्रित टेक्स्ट से लेकर नॉन-टेक्स्ट तक हर जगह, हर समय मौजूद है। समाचार पत्र से लेकर रेडियो, टीवी िफल्म, कम्प्यूटर, इंटरनेट और अब मोबाइल भी इसकी परिधि के भीतर शामिल है। इन माध्यमों से प्राप्त सूचनाएँ और जानकारियाँ हमें समृद्ध तथा सचेत करती हैं और हमारे अनुभवों में विस्तार करती हैं। शक्ति के विस्फोट की तरह सूचनाओं और जानकारियों के एक बड़े घेरे के बीच आज हम खड़े हैं; पर स्थिति बिलकुल मेले में खो गए एक हतप्रभ आदमी-से हैं। सब कुछ इतना अधिक मौजूद है कि हमारी आँखें तो चकाचौंध में डूबी हुई हैं, मगर अपना ही पता याद नहीं है। मीडिया सचमुच एक बड़ी शक्ति है। परन्तु क्या हम इस शक्ति का किसी हद तक गलत प्रयोग करने लगे हैं? या इसके प्रयोग के नियम भूल गए हैं? इस पर ठहरकर विचार करने का समय किसी के पास नहीं, बस दौड़ रहे हैं; एक ऐसी दौड़, जिसका गन्तव्य भी शायद हमें ठीक से पता नहीं। आइये, इस लेख के माध्यम से हम लोकतंत्र के इस चौथे खम्भे मीडिया की शक्ति को पहचानते हुए इसके मानदंड, महत्त्व और लोकतंत्र की हिफाज़त में इसके सही उपयोग के साथ-साथ इसके भीड़तंत्र में बदलने का अध्ययन करें। इसमें कुछ सवाल हैं और पाठकों के भीतर चयन के विवेक को खंगालने की कोशिश है। साथ ही बाज़ार और मीडिया के गणित की पड़ताल है और कला माध्यमों से की जाने वाली कुछ अपेक्षाएँ हैं।

आजकल एक वाक्यांश बहुत अधिक चलन में है- ‘चयन का अधिकार!’ टीवी से लेकर इंटरनेट तक मीडिया के सभी चैनल अपने दर्शकों को चयन का अधिकार देने को बेताब हैं। जब देखेंगे आप, तो निर्णय कोर्ई और क्यों करेगा?’ ‘आप ही तय कीजिए कि आप क्या देखना चाहते हैं? ऐसा लगता है कि मीडिया का लोकतंत्र एक ऐसा समाज निर्मित कर रहा है, जहाँ हर व्यक्ति अपनी इच्छा और सुविधा के अनुसार चयन कर सकता है और जी सकता है। अपने हिस्से की खुशी को; अपने हिस्से के हर पल को। मनोरंजन इसके केंद्र में है और चमकीली दिखने वाली वस्तुओं को मूलभूत आवश्यकता में परिवर्तित करना इसकी ज़रूरत। जॉन फिस्के मीडिया को सच दिखाने वाला न मानकर ‘सत्याभास’ कराने वाला मानते हैं। वे लिखते हैं- ‘टेलिविजन वास्तव में हमारे समाज की अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, बल्कि प्रतिबिंबित करता है।’ तो क्या यह चयन का अधिकार वास्तव में मिलने वाला है अथवा यह भी आभासी ही है?

लोकतंत्र की सबसे बड़ी सुविधा यह है कि वह समाज के हर युवा व्यक्ति को वोट के माध्यम से चयन का अधिकार देता है। हालाँकि, यह अधिकार अकेले नहीं आते, बल्कि अपने साथ कुछ नैतिक कर्तव्यों की सूची भी लेकर आते हैं; जिन्हें सामान्य भाषा में दायित्व कहा जा सकता है। लोकतांत्रिक समाज में रहकर यह अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को मिलता है; भले ही वह व्यक्ति इस अधिकार को ग्रहण करने की पात्रता रखता हो या नहीं। इसीलिए शिक्षा ग्रहण करते समय विवेक और समझ की शिक्षा भी व्यक्ति को दी जाती है। यहाँ यह भी समझने की ज़रूरत है कि लोकतंत्र एक ऐसे समाज की ताकत है, जहाँ व्यक्ति के पास अपना भला-बुरा समझने की शक्ति हो। ऐसे किसी भी समाज में लोकतंत्र असफल है, जहाँ व्यक्ति चयन के विवेक से परिचित नहीं है। मीडिया की दुनिया में भी चयन के विवेक का प्रश्न सर्वोपरि है और होना भी चाहिए। मीडिया की दुनिया आभासी रूप से अत्यंत लोकतांत्रिक होने का दावा करती है; पर यहाँ इस लोकतंत्र के विवेक का प्रश्न समकालीन समाज में सिरे से लापता है। क्या सचमुच दर्शक इतना विवेकवान हो गया है कि चयन कर सके? यह भी प्रश्न है कि विकल्पों की सूची में क्या सचमुच दर्शक को यह अधिकार मिल रहा है कि वह अपनी इच्छा से सही और ज़रूरी चुन सके? जिस तरह लोकतंत्र के नाम पर जिन दलों के बीच चयन करने का भ्रम हमें दिखाया जाता है, उन दलों के बीच न तो वैचारिकी का अंतर है, न ही सत्ता के लोभ का। ठीक उसी प्रकार जिन चैनलों के बीच हमें चयन की सुविधा दी जा रही है, क्या उनमें चरित्रगत अंतर है? या केवल प्रस्तुतीकरण का! सामान्य जनता और उसके मुद्दे उनमें से किसी के केंद्र में नहीं हैं। न ही किसानों की तकलीफें, न ही किसानों में बढ़ती आत्महत्या को रोकने और इसके लिए विवश करने वाले कारकों को खत्म करने की इच्छा शक्ति तथा मैनिफेस्टो ही है। केवल मीडिया में ही नहीं, बल्कि विभिन्न दलों की चिन्तन प्रक्रिया में भी इसका नितांत अभाव है। इसी तरह सडक़ पर मरते आदमी को बचाने से लेकर किसी की मदद करने और राजनीति तथा अन्य क्षेत्र में लोगों के चयन, सम्मान का स्तर आदि भी जाति और धर्म की राजनीति का खेल बन गया है। मीडिया भी इस भेदभाव से नहीं उबर सक रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, जनता से जुड़े लगभग 60 प्रतिशत मुद्दों को छोडक़र मीडिया हाउसेज़ गैर-ज़रूरी मुद्दों को हमारे सामने रखते हैं। क्या करें! टीआरपी का ज़माना है और मीडिया घरानों के बीच टिके रहने की होड़ भी है।

मीडिया के इस भ्रामक लोकतंत्र की यह एक बड़ी समस्या है। मीडिया हमारे सामने हर विषय पर विकल्प प्रस्तुत करने का दावा कर रही है। परन्तु एक चैनल के विषयों के चयन और उसकी प्रस्तुति में उतना ही झूठापन और उबाऊपन है, जितना कि किसी दूसरे चैनल के विषय चयन और प्रस्तुति में। खबरों की दुनिया में ऐसा सतहीपन है, जो दर्शक को किसी प्रकार के वैचारिक निष्कर्ष नहीं देता और न ही सोचने का अवसर; क्योंकि रिमोट की आज़ादी ने विचार की अपेक्षा चयन और बदलाव पर बल दिया है; विवेक और विचार पर नहीं। एक अजब विवेकहीनता का दौर है, जहाँ मीडिया के पास विषयों का अभाव नहीं है; पर कुछ नया की इच्छा और ज़रूरी भी नहीं है। जहाँ दर्शक को डान्स और म्यूजिक के लाइव शोज़ में किसी को विजयी बनाने का झूठा अधिकार दिया जाता है; जिसके हर संदेश की कीमत है- 6 रुपये से 8 रुपये। एक ऐसा झूठा और गर्वीला भाव, जिसकी कीमत चुकाते-चुकाते दर्शक भावानात्मकता की गिरह में फँसकर नियंता होने के भाव से अभिभूत होता रहता है और ज़रूरी मुद्दों से भटक जाता है। इतनी रंगीन दुनिया मीडिया ने निर्मित की है, जिससे जब दर्शक को चयन का अधिकार मिलता है, तो अक्सर औसत दर्शक इन्फोटेंमेंट से इन्फो छोड़ देता है और टेनमेंट चुन लेता है।

यहाँ एक बार फिर दलगत राजनीति और भारत को देखने की ज़रूरत है। जिस प्रकार प्रत्येक दल आम आदमी का ज़रूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए ग़ैर-ज़रूरी चीज़ों को बड़ा बनाकर प्रस्तुत करता है, ठीक उसी प्रकार मीडिया भी ज़रूरी चीज़ों को गैर-ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी चीज़ों को ज़रूरी बनाकर दर्शकों का ध्यान भटका रही है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। विधानसभा, न्यायपालिका और कार्यपालिका नाम के तीन खम्भों पर खड़े लोकतंत्र के आयत को पूर्ण करने का काम मीडिया ही करता है। परन्तु आज चयन की सुविधा के नाम पर नया दर्शक एक ग्राहक बनकर सोच रहा है, जहाँ काम से लौटने पर वैचारिक प्रक्रिया से जुडऩे की बजाय वह केवल बाज़ारवाद के गणित के भीतर मनोरंजन खरीदना चाहता है। मसलन, एक घूँट मनोरंजन, कम खर्च और अतृप्त आकांक्षाएँ! एडोर्नो ने इसी गणित की परख करते हुए ‘कल्चर इंडस्ट्री’ को खुला झूठ माना है। वे कहते हैं- वे (संस्कृति उद्योग) किसी भी कीमत पर उनकी (दर्शकों की) इच्छाओं को पूरा नहीं करेंगे।

आज हम एक खतरनाक दौर से गुज़र रहे हैं। एक ऐसा दौर, जहाँ चारों ओर लगभग वैचारिक शून्यता का माहौल है। मीडिया भी इस वैचारिक शून्यता के निर्माण में भूमिका निभा रहा है। आजकल लगातार चैनल चयन पर दबाव है- कम पैसा खर्च करके अपनी पसंद के चैनल देखने की सुविधा। पर इस सुविधा में मुद्दे लापता हैं और बहस पूरे 24 घंटे और सातों दिन! यहाँ मीडिया का अर्थ केवल टीवी पर चलने वाली अनवरत बहस नहीं, बल्कि हर माध्यम से केवल और केवल बहस की दुनिया को देखने का प्रयास है। लगातार वाचाल होती इस दुनिया में शब्द वाचाल हो रहे हैं और इतने ज़्यादा कि वे अपना अर्थ खोकर केवल शून्य में खोने के लिए विवश हैं। मीडिया की तटस्थ और बेबाक भूमिका सवालों के घेरे में है। ब्रेख्त ने लिखा था- ‘जो लोग पूँजीवाद का विरोध किए बिना फासिज्म का विरोध करते हैं, वे उस बर्बरता पर दु:खी होते हैं, जो बर्बरता के कारण पैदा होती है। वे ऐसे लोगों के समान हैं, जो बछड़े को जि़बह किए बिना ही उसका मांस खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाने के इच्छुक हैं; लेकिन उन्हें खून देखना पसंद नहीं है। वे आसानी से संतुष्ट हो जाते हैं, अगर कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ धो लेता है। वे उन सम्पत्ति-सम्बन्धों के िखलाफ नहीं हैं, जो बर्बरता को जन्म देते हैं। केवल अपने आपमें बर्बरता के िखलाफ हैं। वे बर्बरता के िखलाफ आवाज़ उठाते हैं और ऐसा वे उन देशों में करते हैं, जहाँ ठीक ऐसे ही सम्पत्ति-सम्बन्ध हावी हैं; लेकिन जहाँ कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ धो लेता है।

मीडिया की जि़म्मेदारी बहुत बड़ी है। आज भी देश की एक बड़ी आबादी समाचार पत्रों को विश्वसनीयता का सबसे बड़ा स्रोत मानती है। घरों के बाहर अखबार वाले जब सुबह अखबार नहीं देते, तब एक अजब-सी बैचेनी उनके भीतर खदबदाहट मचाती है। आज भी कुछ लोग अखबारों को पढक़र भाषा के सुधार की सलाह देते हैं। खबरों की कटिंग को प्रामाणिकता का स्रोत समझकर रखते हैं। पर मीडिया का लक्ष्य अब खबर कम और बाज़ार ज़्यादा है। दर्शक के उपभोक्ता के रूप में तब्दील होने के दौरान खबरें और सूचनाएँ भी प्रोडक्ट के रूप में तब्दील होती गई हैं। यह सब कुछ इतनी सूक्ष्मता से हुआ कि खुद जन-समूह को भी खबर नहीं हुई कि वह कब उपभोक्ता के रूप में बदल गया। डेनिस मेक्वेल मास की व्याख्या एक विद्रोही, अशिक्षित और असंस्कृत समूह के रूप में करते हैं, जिसे मीडिया बाज़ार के माध्यम से पहले छोटा बनाती है; महत्त्वाकांक्षा पैदा करती है; फिर आकांक्षाओं के सपने देकर उसे खबरों से ज़्यादा विज्ञापन के लुभावने आकर्षण से जोड़ती है। दर्शक प्राय: मीडिया से अपना भावनात्मक सम्बन्ध बना लेता है। क्योंकि मीडिया के पास हर वर्ग के लिए कुछ-न-कुछ है। जैसे-बच्चों के लिए कार्टून, गृहणियों के लिए पाक सामग्री, युवाओं के लिए स्पोट्र्स आदि पर क्या यही है वह चयन, जिसकी हमें सचमुच ज़रूरत है? अथवा इसे हमारे मन-मस्तिष्क पर किसी खास नशे की तरह चस्पा कर दिया गया है?

मीडिया दर्शक की इसी भावात्मकता को ‘इनकैश’ करने का कार्य करती है। रामशरण जोशी लिखते हैं- ‘जब मीडिया का लक्ष्य केवल मनोरंजन करना और सूचना देना मात्र रह जाता है, तब सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक धरातल पर कई प्रकार की विकृतियाँ उभरने लगती हैं। मीडिया प्रत्येक कवरेज का मास प्रोडक्शन करने लगती है। वह प्रत्येक घटना को प्रोडक्शन और पैकेजिंग की नज़र से देखने लगती है। इतना भोग-सापेक्ष कार्य सोचने के लिए विवश करता है। समाचार चैनल पर की जाने वाली बहस का अंतहीन प्रसारण न किसी लक्ष्य पर पहुँचता है, न ही दर्शक को किसी प्रकार की विचारोत्तेजक सामग्री देता है। हर चैनल किसी एक खास दल का समर्थक है और अपनी किसी खास प्रतिबद्धता को दर्शाने के लिए ही बहस का इस्तेमाल करता है; जिसके प्रभाव और परिणाम से उसका कोर्ई सम्बन्ध नहीं होता। जैसे कहा जा रहा हो कि फैशन के दौर में गारंटी की इच्छा न करें।’

आज आधुनिकता का दौर है। महानता के सारे वृत्तांत नष्ट हो चुके हैं। महानता के वृत्तांत अब क्षण-भर में प्रोद्योगिकी और तकनीक के माध्यम से बनते और नष्ट हो जाते हैं। इसीलिए अब मीडिया हमारी प्राइवेसी का ही विस्तार हो गई है। सरकारी तंत्र के अनुसार भी अब कहीं भी कोर्ई प्राइवेसी नहीं हो सकती। आपकी हर गतिविधि अब तकनीक के माध्यम से देखी और जाँची जा रही है। जो कहा जा रहा है, उससे अलग जो नहीं कहा जा रहा, इस बात में दिलचस्पी ज़्यादा है। इसीलिए शब्द मुँह में डालकर कुछ कहलवाना है। क्योंकि मीडिया और राजनीति अब केवल मुँह हैं- कान और मस्तिष्क नहीं। हालाँकि इसमें कोर्ई संदेह नहीं कि मीडिया ने हमें एक विश्वग्राम में बदला है। मार्शल मैक्लुहान ने कहा था कि मीडिया के भीतर का कथ्य नहीं, बल्कि मीडिया खुद ही संदेश है। मैक्लुहान ने माना था कि यह मीडिया का भीतरी गुण नहीं, स्वयं उसका चरित्र है; जिससे वह स्वयं संदेश बन जाती है। वे इसके लिए लाईट-बल्ब का उदाहरण देते हैं, जिसके भीतर किसी भी ‘कंटेंट’ का अभाव होता है; पर फिर भी उसका सामाजिक प्रभाव बहुत अधिक होता है। ठीक इसी तरह वे कहते हैं कि कथ्य का उतना महत्त्व नहीं होता, जितना मीडिया का! कथ्य का यह घटाव चिंता पैदा करता है। हम क्या चुनें और कैसे चुनें, इसका विवेक उत्पन्न होने से पहले ही हमारा सामना मीडिया के छितरे साम्राज्य से हो जाता है।

ऐसा नहीं कि सारा दोष मीडिया का है अथवा मीडिया में सब कुछ नकारात्मक ही है। ऐसा कहना और समझना दोनों ही विवेकहीनता के परिचायक होंगे। जिस तरह लोकतंत्र में खामियों की लम्बी फेहरिस्त होने के बावजूद अराजकता को उसका विकल्प कभी नहीं माना जा सकता, ठीक उसी तरह मीडिया में समस्याएँ होने के बावजूद उसके बिना जीना सम्भव नहीं है। अपने ही कुएँ के भीतर आदमी जी नहीं सकता। मीडिया अपने डैनों के भीतर ज़रूरी और ग़ैर-ज़रूरी दोनों पक्षों को लेकर खड़ी है; ज़रूरत है सिर्फ चयन के विवेक की। बालमन अभी कल्पना के पंखों की उड़ान भी नहीं भर पाता कि हत्या और लूटमार से भरे खेलों से उसका परिचय मीडिया उपकरणों के माध्यम से हो जाता है। खेल के मैदान में थकने की बजाय वह उस अनजान दुनिया में ‘विरोधियों’ से लड़ता है; सबको खत्म करता है और एक झूठी वर्चुअल दुनिया का शहंशाह बन जाता है। विवेक उत्पन्न होने से पहले वह उन सभी सूचनाओं को पा लेता है, जिसके सही और गलत के बीच का अंतर वह नहीं जानता। परिणाम हम सब जानते हैं। अब मैट्रो के सफर में पुस्तकें नहीं दिखतीं, मोबाइल में डूबी आँखें दिखती हैं; नेट-फ्लिक्स की िफल्में दिखती हैं। मीडिया के पास दोनों कंटेंट हैं- हॉट भी और कूल भी। हॉट माध्यम में ज़्यादा मानसिक परिश्रम नहीं करना पड़ता; जबकि कूल माध्यम के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ती है। मैक्लुहान कहते हैं कि एक व्याख्यान संगोष्ठी की तुलना में कम भागीदारी के लिए बनता है और एक किताब से कम के लिए एक संवाद। चयन तो हमारा ही होगा, पर देखने और दिखाने वाले दोनों पर उसका दायित्व बोध भी तो आ जाए।

जिस तरह लोकतंत्र विवेकशील जनता की मांग करता है, मीडिया भी सजग और सचेत दर्शक की माँग अवश्य करती है। हम भूल नहीं सकते कि ऐसे अनेक मामलों में मीडिया के सजग हस्तक्षेप ने सकारात्मक भूमिका निभाई है, जहाँ उम्मीद लगभग खत्म हो चुकी थी। परन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि मीडिया ट्रायल को ही निर्णय न बना दिया जाए, बल्कि थोड़ा ठहरकर विचार किया जाए। आर्थिक दबावों ने मीडिया के चरित्र को भी बदला है, पूँजीवादी विश्व

अर्थव्यवस्था की छाप अब हर जगह है। टीआरपी की लड़ाई भी है। परन्तु दायित्व भी उतना ही बड़ा है; जि़म्मेदारी भी उतनी ही बड़ी है। सब कुछ आए, पर सजग हस्तक्षेप की इच्छा से; हंगामे-भर के लिए नहीं। दुष्यंत कुमार की पंक्ति याद आ गई- ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए’। एक सजग लोकतंत्र, सजग मीडिया और सजग जनता ही कुछ बदल सकते हैं; रच सकते हैं। इस शक्ति को मीडिया पहचाने और तोप के सामने अखबार निकालने की सदिच्छा, जो अकबर इलाहाबादी ने की थी; वह आज भी पूरी होती रहे।

भारत में भूख की गंभीर समस्या

भारत दक्षिण एशिया में भी सबसे नीचे है। श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान सभी भारत से आगे हैं। बंाग्लादेश 88वें स्थान पर है और अभी भारत और पाकिस्तान की तुलना में बेहतर स्थिति में है।

विश्व में हर साल 16 अक्टूबर विश्व खाद्य दिवस के रूप में मनाया जाता है और इस मौके पर दुनियाभर में भुखमरी पर चर्चा की जाती है। कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि 21वीं सदी का दूसरा दशक करीब खत्म होने के कगार पर है, चाँद और अन्य ग्रहों पर संसाधनों की खोज में विश्व के कई मुल्कों में होड़-सी दिखाई देने लगी है, तो ऐसे में भुखमरी की बात करना क्या प्रासगिंक है। भुखमरी पर बात करना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि आज भी लाखों की संख्या में लोग भूखे सोते हैं। हाल ही में जारी वैश्विक भूख सूचकंाक -2019 में भारत 117 देशों वाली सूची में 102वें पायदान पर है। 2017 में वह 100वें स्थान पर था। गौर करने लायक यह है कि वैश्विक भूख सूचकांक में 2014 में भारत 55वें, 2015 में 80वें, 2016 में 97वें और 2017 में 100वें स्थान पर था। 2018 में 103वें पायदान पर था, लेकिन उस सूची में 119 देश शमिल थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत दक्षिण एशिया में भी सबसे नीचे है। श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान सभी भारत से आगे हैं। बंाग्लादेश 88वें स्थान पर है और अभी भारत और पाकिस्तान की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रहा है।

भारत ब्रिकस देशों में भी सबसे पीछे है। चीन 25वें पायदान पर है। इस सूचकांक में भूख की स्थिति के आधार पर देश को अंक दिए जाते हैं। 10 से कम अंक का मतलब है कि देश में भूख की समस्या बहुत कम है। 10 से लेकर 19.9 तक अंक होने का मतलब है कि यह समस्या यहां है। 20 से लेकर 34.9 अंक का मतलब समस्या के गंभीर होने से है और 35 से 49.9 अंक का मतलब है कि हालात चुनौतीपूर्ण है। भारत का स्कोर 2019 के सूचकांक में 30.3 है यानी यहां भूख की समस्या गंभीर है, 2000 में भारत का स्कोर 38.8 यानी चुनौतीपूर्ण वाली श्रेणी में था। यूं देखा जाए तो भारत चुनौतीपूर्ण वाली श्रेणी से बाहर निकल अब गंभीर वाली श्रेणी में आ गया है मगर यह प्रगति बहुत ही धीमी है। देश में 40 फीसद भोजन वार्षिक उत्पादन में बेकार हो रहा है। 01 लाख करोड़ की फसल कटाई के बाद खराब हो रही। 2.1 करोड़ टन गेहूँ हर साल नष्ट हो रहा है। दुनिया में सबसे अधिक 19.44 करोड़ कुपोषित भारत में हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें दोनों वक्त का भोजन नहीं मिलता। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत 2030 तक भुखमरी से मुक्ति दिलाने वाले स्थाई विकास लक्ष्य को हासिल कर पाएगा। दरअसल दुनिया में भुखमरी को मिटाना स्थायी विकास लक्ष्यों की सूची में शमिल है और इस दिशा में विभिन्न सरकारें काम भी कर रही हैं। आज के दौर में कुपोषण एक अहम मसला है, क्योंकि विश्वभर में गरीबी, शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और भोजन संबंधी खराब चयन स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाने वाले आहार की ओर लेकर जा रहे हैं।।

यूनिसेफ की हाल ही में बच्चों, भोजन और पोषण पर जारी ‘ द स्टेट ऑफ द वल्ड्र्स चिल्ड्रन’ रिपोर्ट बताती है कि विश्व में पाँच साल से कम आयु वाले बच्चों में तीन में से एक बच्चा कुपोषित है, यानी ऐसे बच्चे या तो अल्पपोषित हैं या मोटे हैं। दो साल से कम आयु वाले बच्चों में तीन में से दो बच्चे खराब आहार पर जीवित हैं और उन्हें ऐसा भोजन नहीं खिलाया जा रहा, जो उनके शरीर व दिमाग को तेज़ी से विकसित करने में मददगार हो। भारत की चर्चा करें तो यहाँ हर साल करीब दो करोड़ 60 लाख बच्चे पैदा होते हैं। बच्चों की सेहत सम्बन्धी आँकड़े चिंताजनक हैं। भारत में हर दूसरा बच्चा किसी-न-किसी रूप में कुपोषित हैं। भारत में 35 प्रतिशत बच्चे नाटे हैं, 17 प्रतिशत बच्चे कद के हिसाब से पतले हैं, 33 प्रतिशत बच्चों का वज़न कम है। दरअसल बच्चों की स्थिति पर यह रिपोर्ट आगाह करती है कि कुपोषण के खात्मे के लिए खराब खान-पान की आदतों में सुधार करना बहुत ज़रूरी है। अब ऐसे बच्चे भी कुपोषित माने जाने लगे हैं, जिनका वज़न अधिक है या वे मोटापे से ग्रस्त हैं। घटिया भोजन के नतीजे भुगतने वाले बच्चों की संख्या चिंताजनक है। विश्व भर में पाँच साल से कम आयु वाले बच्चों में 50 प्रतिशत बच्चों में ज़रूरी विटामिन और पोषक तत्त्वों की कमी है। यहाँ पर सवाल यह उठता है कि बच्चों के कुपोषण का मसला महज़ बच्चों का है, नहीं इस समस्या के दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं। वैज्ञानिक व शोध कहती हैं कि इंसान के दिमाग का 90 प्रतिशत विकास उसकी ज़िन्दगी के पहले 1000 दिनों में होता है, इसमें गर्भ के नौ महीने व उसके जन्म के पहले दो साल शमिल हैं। यह वही नाज़ुक व अहम् दौर होता है, जब यह तय हो जाता है कि कोई कैसे सोचेगा व क्या महसूस करेगा और अपनी बाल्यावस्था से लेकर बड़े होने तक क्या सीखेगा। इसलिए ज़रूरी है कि एक महिला व माँ का आहार भी स्वास्थ्य के लिहाज़ से अच्छा हो और बच्चे का भी। अगर शिशु की खुराक उसके शरीर व दिमाग को तेज़ी से विकसित करने वाली नहीं है, तो उसका खामियाज़ा भी भुगतना पड़ता है। ऐसे बच्चों पर सीखने में कमज़ोर रहने, कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता और बहुत से मामलों में मरने का खतरा बना रहता है। नोबेल विजेता भारतीय अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी का भी मानना है कि बचपन में अच्छा पोषण मिलने का जीवन में दूरगामी प्रभाव पड़ता है। अजन्मे भ्रूण व बच्चे,जो पर्याप्त पोषण पाते हैं, कालांतर में उनकी आय बाकी के मुकाबले बेहतर होती है। गौरतलब है कि जिन बच्चों का विकास सही नहीं हो रहा है, वे कुपोषण के तिहरे बोझ के शिकार हैं। इसकी चपेट में दुनिया-भर के समुदाय आ रहे हैं, जिसमें विश्व के सबसे गरीब देश भी शमिल हैं। पहला बोझ अल्पपोषण है, बेशक इसमें कुछ कमी आयी है, लेकिन इसके बावजूद यह लाखों बच्चों को प्रभावित कर रहा है। कुपोषण, अल्पपोषण के चलते ही अधितर बच्चे नाटे रहते हैं, और यह दूर नहीं होता। दूसरा छिपी हुई भूख है- बच्चों में आवश्यक विटामिन व खनिजों की कमी है। कई तरह की छिपी हुई भूख से प्रभावित बच्चों व महिलाओं के बारे में काफी बाद में पता चलता है और इस समय दुनिया में ऐसे बच्चों व महिलाओं की तादाद चिंताजनक है। अक्सर अधिक ध्यान इस ओर रहता है कि बच्चे व माँ का पेट भर जाये, लेकिन वे कितना पौष्टिक खाना खा रहे हैं, इस ओर ध्यान नहीं दिया जाता। गरीब लोगों पर किया गया एक अध्ययन यह बताता है कि अधिक पोषक भोजन लेने की चिंता उन्हें नहीं रहती है। तीसरा बोझ अधिक वजन का होना है, मोटापा। 1970 के मध्य से पाँच से 19 साल के लडक़े-लड़कियों में मोटापा तेज़ी से बढ़ा है, वैश्विक स्तर पर यह 10-12 गुणा बढ़ा है। अधिक वज़न के बारे में यह धारणा बनी हुई है कि यह संपन्नता की निशानी है, लेकिन अब यह गरीब लोगों की बीमारी के रूप में सामने आ रही है। इससे यह पता चलता है कि विश्वभर में लगभग हर मुल्क में फैटी व मीठे भोजन से मिलने वाली सस्ती कैलोरी बड़ी मात्रा में उपलब्ध है। इसके अपने खतरे हैं। सभी प्रकार के कुपोषण का सबसे अधिक बोझ सबसे गरीब व सबसे अधिक हाशिये पर रहने वाले समुदायों के बच्चों के कन्धों पर है। विकास की ओर अग्रसर इस दुनिया में मूलभूत विकास यानी भुखमरी से निजात पाना, हरेक को पौष्टिक आहार मुहैया कराना हर सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।

आखिर मारा गया बगदादी

पागल, बूढ़ा शख्स। कुछ ऐसे ही अंदाज़में आईएस के प्रवक्ता ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को संबोधित किया था, जब उन्होंने व्हाइट हाउस से एक टेलीविज़न संबोधन में बगदादी की एक अमेरिकी ऑपरेशन में ‘कुत्ते की तरह’ मरने की घोषणा की थी। हालाँकि इसके तुरंत बाद ही एक ऑडियो संदेश में नए आईएस प्रवक्ता ने अमेरिका को चेतावनी दी कि आईएस के समर्थक बगदादी की मौत का बदला लेंगे।

प्रवक्ता ने अमेरिका को चेतावनी दी – ‘ज़्यादा खुशी मत मनाओ। हमारा नया नेता आपके मन में बैठे उस खौफ को भुला देगा जो अभी तक आपने देखा है। क्योंकि यह उस से भी भयानक होगा और  बगदादी की उपलब्धियों को यह और यादगार बना देगा।’

बगदादी का एक अमेरिकी ऑपरेशन में खात्मा उत्तरी सीरिया से अमेरिकी सेना की वापसी की घोषणा के कुछ सप्ताह बाद ही हुआ। निश्चित रूप से दुनिया के सबसे वांछित आतंकियों में से एक इस्लामिक स्टेट (आईएस) प्रमुख अबू बकर अल-बगदादी, अब इस दुनिया में नहीं है। अमेरिकी ऑपरेशन में घेरे जाने के बाद उसने अपने तीन बच्चों के साथ खुद को विस्फोट से उड़ा लिया।

बगदादी मर चुका है, लेकिन घृणा की जिस सोच का विस्तार उसने किया, वह अब भी िज़ंदा है। इस बड़े झटके के बावजूद, जिहादी आंदोलन एक शक्तिशाली ताकत बना हुआ है, क्योंकि यह एक साइबर सिस्टम स्थापित करने में कामयाब रहा है, जो सीमाओं में नहीं बँधा है। आईएस के डरावने और ज़हरीले संदेश तेजी से ऑनलाइन दुनिया भर में फैल रहे हैं।

दरअसल, अमेरिका, जिसने बगदादी के सिर 25 मिलियन डॉलर का इनाम घोषित किया हुआ था, के पास बगदादी की मौत पर जश्न मनाने के बहुत कारण हैं। खासकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के लिए जो अपने देश की संसद में महाभियोग जाँच का सामना कर रहे हैं। अमेरिका वास्तव में गौरव के सागर में गोते लगा रहा है।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक वीडियो लिंक के माध्यम से ऑपरेशन को लाइव देखा। अमेरिका के विशेष दस्ते के सैनिकों ने बगदादी के ठिकाने में विस्फोट किया। अपनी जान बचाने  के लिए

बगदादी उस सुरंग में अंत तक भागा जिसका दूसरा छोर बंद था। अमेरिका के दस्ते के प्रशिक्षित कुत्ते उसके पीछे रहे और वह भय से चल्लाने-चीखने के साथ रो भी रहा था।

हमेशा दूसरों को अपने आतंक से डराने वाला बगदादी खुद आतंक को सामने देख भयभीत था। जिस सुरंग में वह भाग रहा था, आिखर में वह उसके लिए मौत की सुरंग साबित हुई। जब बचने की कोई सम्भावना नहीं रही तो उसने अपनी जैकेट पहनकर उसमें लगे विस्फोट से खुद को और अपने तीन बच्चों को उड़ा लिया। इस तरह आतंक के एक अध्याय का अंत हो गया। उसकी मौत के बाद ट्रम्प ने टीवी प्रसारण में उसकी मौत को ‘कुत्ते की मौत’ बताया और ट्वीट के ज़रिये दुनिया को इसकी खबर दी।

अमेरिका के विशेष बल तैयार होकर आए थे और उनके पास अल-बगदादी के डीएनए के नमूने तक थे। ट्रम्प के मुताबिक दस्ते ने मरे व्यक्ति का डीएनए टेस्ट किया, जिसमें साफ हो गया कि वह बगदादी ही है। बाद में विस्फोट से चीथड़े हो चुके उसके शरीर को समंदर में दफना दिया गया। बगदादी को 2003 में पकड़ लिया गया था, लेकिन लगभग एक साल बाद रिहा कर दिया गया। इसका कारण उसे पकडऩे वालों का यह मानना था कि वह एक सामाजिक आंदोलनकारी है और कोई सैन्य ख़तरा नहीं। ईरान के सूचना मंत्री मोहम्मद जवाद अज़री-जहरोमी ने अमेरिका के बगदादी को मार गिराने के दावे के बाद ट्वीट कर उस पर कुछ इस अंदाज़में छींटाकशी की- कोई बड़ी बात नहीं। आपने एक ऐसे व्यक्ति को मार दिया, जो वास्तव में आपकी ही उत्पत्ति थी।

गौरतलब है कि ईरान हमेशा से यह आरोप लगाता रहा है कि आईएस की उत्पत्ति के पीछे अमेरिका और उसके सहयोगी नाटो सदस्य देश हैं। उसका मानना रहा है कि दशक तक चले सोवियत-अफगान संघर्ष के दौरान अमेरिका ने मुजाहिदीन को समर्थन दिया।  अतीत में बगदादी जिस तरह आतंक का पर्याय बना और उसकी मौत की ख़बरें भी समय-समय पर उड़ीं। उसकी मौत को लेकर जब खुद अमेरिका के राष्ट्रपति ने दावा किया, तो सबको भरोसा हो गया कि बगदादी अब मर चुका है। इस्लामिक स्टेट ने भी एक बयान में अपने नेता की मौत की पुष्टि की, जिससे ट्रम्प के दावे पर मुहर लग गई।

आईएस ने इसके साथ ही अबू इब्राहिम अल-हाशिमी अल-कुरैशी को बगदादी का उत्तराधिकारी बनाने का ऐलान भी किया। हाशिमी के बारे में बहुत कम लोगों को पता है, जिसका नाम उत्तराधिकारी के रूप में घोषित किया गया। हालाँकि, अमेरिका ने यह भी दावा किया है कि बगदादी की मौत के दो दिन बाद उसके सम्भावित उत्तराधिकारी को भी उसके कमांडो ने मार गिराया है। क्या बगदादी की मौत आईएस के लिए अपने पुन: संगठित होने और क्षेत्रीय प्रभाव बढ़ाने का आखिरी अवसर है? यह एक बड़ा सवाल है। निश्चित ही आईएस एक बड़ा जिहादी संगठन बन गया है और बगदादी की मौत प्रतीकात्मक से ज्यादा हो सकती है।

ट्रम्ंप का बयान

इस्लामिक स्टेट के भगोड़े नेता अबू बकर अल-बगदादी को उत्तर पश्चिमी सीरिया में अमेरिकी सैन्य अभियान में मार गिराया गया। बगदादी एक कुत्ते की तरह मारा गया। खुद को फँसता हुआ देखकर बगदादी ने अपने को बम से उड़ा लिया, जिसके साथ ही उसके तीन बच्चे भी मारे गये। अल-बगदादी ने विशेष सैन्य बलों द्वारा चलाये गये एक ऑपरेशन के दौरान खुद को उड़ा लिया था।  अमेरिकी सैन्य बलों ने एक साहसी रात-समय की छापेमारी को अंजाम दिया और अपने मिशन को बखूबी अंजाम दिया। वह (अबू बक्र अल-बगदादी) फिर से किसी अन्य निर्दोष पुरुष, महिला या बच्चे को नुकसान नहीं पहुँचाएगा। वह कुत्ते की तरह मरा, वह कायर की तरह मरा। अमेरिका का मानना है कि बगदादी के मारे जाने के बाद दुनिया अब ज़्यादा सुरक्षित जगह है।

आईएस का ऑडियो संदेश

बगदादी की मौत के बाद आईएस ने यह ऑडियो संदेश जारी किया- ‘हम आपकी शहादत का शोक कर रहे हैं, वफादारों के कमांडर।’ आईएस प्रवक्ता अबू हमज़ा अल-कुरैशी ने कहा कि उनका संघर्ष जारी रहेगा। बगदादी, जो 2014 से आईएस का नेतृत्व कर रहा था और दुनिया का सबसे वांछित आतंकी था, सीरिया के उत्तर-पश्चिमी प्रांत इदलिब में छापे गए अमेरिकी विशेष बलों में मारा गया था। सात मिनट के ऑडियो संदेश में कहा गया – ‘इस्लामिक स्टेट ने शेख अबू बकर अल-बगदादी की ‘शहादत’ की पुष्टि करने के तुरंत बाद शूरा काउंसिल बुलायी, जिसमें उसके उत्तराधिकारी का ऐलान किया गया।’

दिल्ली को गैस चैंबर नहीं बनने देना है

राजधानी दिल्ली की इन दिनों खासी चर्चा है। खासकर यहाँ की आबोहवा में धुंध और प्रदूषण खासा है। यूँ तो अक्टूबर से जनवरी के मध्य तक हर साल यह हाल रहता है, लेकिन इस बार प्रदूषण खासा बढ़ गया था। इस पर सियासत भी खूब हुई, क्योंकि एक तो दिल्ली में चुनाव के दिन करीब हैं। दूसरे सारी दुनिया में इस बात पर चर्चा छिड़ गयी कि बड़ी आबादी के देश की राजधानी में इतना प्रदूषण है कि साँस ले पाना भी दूभर है।

इसकी एक वजह यह भी रही कि दिल्ली में छाई धुंध और प्रदूषण का फैलाव पूरे उत्तर भारत में रहा। लखनऊ में तो राजभवन 200 मीटर की दूरी पर भी नज़र नहीं आता था। यही हाल चंडीगढ़ में रहा। उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा के अनेक शहरों में इस धुंध-कोहरे का प्रकोप रहा। बच्चों, बूढ़ों के बीमार होने और मौतों की तादाद बढऩे की खबरें आने लगीं।

हर साल दीपावली की रात के बाद तीन-चार दिन तक धुंध में पटाखों का प्रदूषण दूसरी वजहों से होता ही है, जो प्रदूषण को और बढ़ा देता है। लेकिन इस साल पहले से ही धुंध के साथ प्रदूषण था। इसमें पटाखों के प्रदूषण के बढ़ जाने से परेशानी भी खासी बढ़ गयी। इस परेशानी में उबाल तब और आया जब जर्मनी की चांसलर डॉ. एंजेला मार्केल भारतीय उद्योगों के समूह के न्यौते पर दो नवंबर को अपनी दो दिन की यात्रा पर भारत आईं।

जर्मन चांसलर ने दिल्ली की आबोहवा में प्रदूषण की वह गन्ध महसूस की जो जानलेवा थी। इंडो-जर्मन उद्योग समूह के प्रतिनिधियों के बीच मानेसर में बोलते हुए उन्होंने गले में हल्की खराश महसूस की। उनसे रहा नहीं गया, उन्होंने भारतीय राजधानी में छाई धुंध में प्रदूषण और उसके भयावह असर पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि चेन्नई में जर्मन सहयोग से इलेक्ट्रिक बसें चल रही हैं। वहाँ अब इतना ज़्यादा प्रदूषण नहीं है। जर्मन चांसलर ने कहा कि यहाँ और विकासशील भारत के विभिन्न शहरों में विकास के कारण जो धुंध और प्रदूषण बढ़ रहा है, उस पर काबू पाने में जर्मनी, भारत को सहयोग दे सकता है। उन्होंने भरोसा दिया कि जर्मनी इस काम में भारत को पाँच साल में एक अरब यूरो डॉलर का सहयोग दे सकता है।

यह कहना कठिन है कि जर्मनी से सहयोग का यह भरोसा क्या भारतीय राजनीतिकों को लुभा गया क्या धुंध और प्रदूषण पर एक विदेशी महिला नेता की लताड़ का उन पर असर हुआ। केंद्रीय मंत्री, पंजाब के मुख्यमंत्री दिल्ली में भाजपा नेता सभी ने दिल्ली में राज कर रही आप सरकार पर धावा बोल दिया। आप ने भी मौका नहीं गँवाया। कहा, केंद्रीय प्रदूषण मंत्री ने उत्तरी भारत के विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक तीन बार बुलाई ज़रूर। लेकिन बाद में बैठक कैंसिल कर दी। दिल्ली के लोग प्रदूषण नहीं फैलाते। पंजाब और हरियाणा के किसान खेतों में जो पराली जलाते हैं। उससे हर साल दिल्ली प्रभावित होती है। वहां के किसानों को मशीनें और मुआवज़ देने की बात तय हुई थी, वह क्यों पूरी नहीं हुई।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्री ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पर आरोप लगाया कि उन्होंने विज्ञापनों पर  1500 करोड़ रु पये खर्च कर दिए। उन्हें यह धन वातावरण को दुरु स्त करने पर खर्च करना था। पंजाब के मुक्तसर और बरनाला में धुंध और प्रदूषण के चलते सडक़ दुर्घटनाओं में सात लोगों  की जान गई। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने इन घटनाओं पर अफसोस जताते हुए कहा कि खेतों में आग लगाने के लिए किसान को दोष नहीं देना चाहिए। इसके लिए केंद्र सरकार को सभी उत्तरी राज्यों के साथ बात करनी चाहिए।

उधर दिल्ली सरकार ने ‘ऑड-ईवन’ की अपनी पुरानी नीति चार से पन्द्रह नवंबर के लिए लागू की। इसका विरोध किया भाजपा नेता विजय गोयल ने। विरोध में वे डीज़ल कार से अपनी कोठी से निकले। उनका कहना था कि आप सरकार ने पाँच साल में दिल्ली का प्रदूषण रोकने के लिए कुछ नहीं किया। इस कारण वे सांकेतिक विरोध कर रहे हैं। इस पर आप के राज्यसभा सांसद संजय ङ्क्षसह ने कहा कि गोयल साहब वायु प्रदूषण के समर्थक हैं। भाजपा की यही सोच रही है इसलिए वे ऑड-ईवन स्कीम का विरोध कर रहे हैं। कांगे्रस नेता अजय माकन ने कहा, मैं केजरीवाल का विरोध ज़रूर करता हूं। लेकिन मैं कतई वायू प्रदूषण बढ़ाने में सहयोग नहीं करूँगा। नई दिल्ली में एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (रेडी) के 15 दिन के धुंध-प्रदूषण पर अपनी खोज रिपोर्ट में कहा है कि इस प्रदूषण की वजह विभिन्न उत्तरी राज्यों में किसानों को पराली जलाना ही नहीं है। बल्कि इसके अलावा मौसमी बदलाव है और शहरों के बढ़ते वाहन हैं। खेतों में आग लगाने के कारण फैली चिनगारियों और धुंध पूरे परिवेश में खासकर अक्टूबर की 26 से 30 अक्टूबर के दौरान फैला। इसे हवा से फैलने में सहयोग मिला जिसका खासा असर दिल्ली पर पड़ा। टेरी की रिपोट में बताया गया है कि पराली जलाने से वातावरण में प्रदूषण की मात्रा महज़ चार फीसद होती है। सर्दियों में यह बढक़र 40 फीसद हो जाती है, क्योंकि विभिन्न राज्यों में किसान खेतों में पराली जलाने लगते हैं। इस कारण प्रदूषण का स्तर बहुत ऊँचा हो जाता है। यह बढक़र 2.5 पीएम होता है, जो 300 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर होता है। कई जगह पाया गया कि दिन में भी लगभग प्रति घंटे यह स्तर 2.5 पीएम रहा। यह प्रदूषण से कठिन समय की ओर इशारा था। इस तरह के लेखे जोखे से यह बात साफ हुई कि कार्बन डाइऑक्साइड भी कई स्तरों पर गहराई है। यानी पराली कूड़ा आदि जलाने के कारण यह संकेत आया कि प्रदूषण की मात्रा और घनी हो रही है।

दिल्ली देश की राजधानी है, इसलिए यहाँ  मेट्रो के व्यापक संचालन के बावजूद आटोमोबाइल वाहन ज़्यादा हैं। इनमें व्यावासायिक वाहन, व्यावसायिक कारें, बसें, तिपहिये, भारी वाहन, दोपहिया वाहनों की तादाद अच्छी खासी है। इसके अलावा यहाँ उद्योग, बिजली, आवासीय ढाँचे, धूल वगैरह से हवा चलने पर वायु प्रदूषण बढ़ता है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटिओटोलॉजी (आई.आई.टी.एम.)  पुणे की रिपोर्ट बताती है कि न केवल राजधानी दिली, बल्कि पूरे एनसीआर में 2010 की तुलना में 2018 में विभिन्न तरह की गाडिय़ों का आवागमन बढ़ा है। प्रदूषण का स्तर आज दिल्ली में पीएम2.5 है। जबकि यह 2010 में जहाँ 25.4 फीसद था, वह 2018 में 41 फीसद हो गया। इसी तरह एनसीआर में जहाँ यह स्तर 32.1 फीसद था, वह 2018 में बढक़र 39.1 हो गया। राजधानी में गाडिय़ाँ की आवाजाही में लगातार बढ़ोतरी हुई है, जबकि यह उम्मीद थी कि दिल्ली मेट्रो के परिचालन से यह तादाद कम होगी।

केंद्र के पर्यावरण मंत्रालय ने एक रिपोर्ट पिछले साल जारी की थी, जिसमें अलग-अलग गाडिय़ों की किलोमीटर यात्रा (वी.के.टी.) का जायज़ा लिया गया था। इसमें पाया गया कि तमाम व्यावसायिक चार पहिया वाहनों में सबसे ज़्यादा प्रदूषण अनेक कंपनियों की कैब आदि से दिल्ली में होता है। इनमें हर कार एक साल में एक लाख पैंतालीस हज़ार किमी की यात्रा करती है।

दिल्ली और इसके आसपास औद्योगिक बस्तियाँ हैं। हरियाली जो कभी सघन थी, वह अब कहीं कम हो गई है। ऐसे में इन औद्योगिक इलाकों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करना बहुत ज़रूरी है। दिल्ली में पिछले साल तक 18.6 फीसद प्रदूषण था, जबकि एनसीआर में यह 22.3 फीसद है। इसी तरह भवन निर्माण, सडक़ निर्माण वगैरह भी वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी की वजहें हैं।

प्रधानमंत्री आवास पर छोटे बच्चों के माता-पिता ने रैली-प्रदर्शन कर वायु प्रदूषण से बच्चों को बचाने की अपील की। उधर केंद्र सरकार अब दैनिक आधार पर दिल्ली और एनसीआर में प्रदूषण स्तर की जाँच-पड़ताल करेगी। प्रधानमंत्री कार्यालय में कैबिनेट सचिव राजीव गाबा इसके मुखिया बनाये गये हैं। केंद्र सरकार ने दिल्ली के सभी पड़ोसी राज्यों को सलाह दी है कि वे खेतों में आग लगाए जाने की घटनाएँ रोकें। साथ ही धूल को उडऩे से रोकें, जिससे हालात बेहतर हों।

दिल्ली और उत्तरी राज्यों में वायु प्रदूषण की बद्तर स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट ने भी संज्ञान लिया। ऑड-ईवन की दिल्ली सरकार की नीति पर सवालिया निशान लगाते हुए कि यदि कामकाजी लोगों ने दुपहिया-तिपहिया वाहनों का इस्तेमाल शुरू किया तो इस नीति का क्या लाभ? पंद्रह दिन बाद आई रिपोर्ट पर अदालत फिर विचार करेगी। अदालत ने सलाह दी कि कई लोग आपस में कार शेयर करें। बसों की तादाद बढ़ाई जाए।

वायु प्रदूषण रोकने के लिए ज़रूरी है कि किसानों को सज़ा देने की बजाय उन्हें सस्ती दर पर या किराये पर मशीनों का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किया जाए। ज़रूरी है कि केंद्र, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली की सरकारें मिलकर यह मसला सुलझाएँ।

ज़हरीली हवा की मार आधा भारत हो रहा बीमार

दरवाज़ें बंद करते हैं तो दम घुटता है

और दरवाज़ें खोलें तो ज़हरीली हवाएँ आती हैं

रास्तों पर उड़ती है धूल, उठता है धुआँ

दिल्ली का यूँ भी घुट रहा है दम

और यूँ भी घुट रहा है दम…

इस बार दीपावली से लेकर 3 नवंबर तक देश की राजधानी दिल्ली समेत एनसीआर के मुख्य शहर गुरुग्राम, फरीदाबाद, बल्लभगढ़, नोएडा और गाजियाबाद धुंध से बुरी तरह ढके रहे। यूँ तो इस वायु प्रदूषण से पूरे उत्तर भारत यानी आधे भारत को चपेट में ले लिया; लेकिन दिल्ली में धुएँ से सप्ताह-भर तक हुई घुटन चर्चा और सियासी बहस को हवा दे गयी। दीवाली पर फोड़े गये पटाखों से लेकर हरियाणा और पंजाब में किसानों द्वारा जलायी जा रही पराली से उठने वाले धुएँ पर होने वाली इस सियासत के बीच ही दिल्ली सरकार ने ऑड-ईवन लागू कर दिया। हालाँकि ऑड-ईवन से दिल्ली को काफ़ी राहत मिली और यह पहला साल नहीं है कि ऑड-ईवन लागू किया गया; लेकिन भाजपा नेताओं ने हर साल की तरह इसका जमकर विरोध किया और कहा कि केजरीवाल ने फायदे के लिए यह सब किया है। अब दिल्ली में भले ही प्रदूषण को समाप्त करने के लिए कार्यवाही के तौर पर गली-मोहल्लों में खुले छोटे-छोटे तंदूरों को नष्ट किया जा रहा है। लेकिन वायु प्रदूषण की कई और भी वजहें हैं, जिनकी ओर ध्यान दिया जाना अति आवश्यक है।

अगर हम दिल्ली की बात करें तो यहाँ वायु प्रदूषण के कुछ ऐसे कारक हैं, जो पूरे साल प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं और इस पर न तो केंद्र सरकार कुछ कहने को तैयार है, न ही एनसीटी कोई कार्यवाही कर रहा है और दिल्ली सरकार थोड़ा-सा काम कर भी रही है, तो उस पर सियासत उससे बढक़र हो रही है। हालाँकि, वायु प्रदूषण के मूल मुद्दों पर दिल्ली सरकार भी धरातल पर आकर काम नहीं कर रही है और नतीज़ा प्रदूषण हर साल इन दिनों में भयंकर खाँसी, दमा, जुकाम और अन्य श्वसन बीमारियों की आपात स्थितियाँ पैदा कर जाता है, जिसके शिकार बच्चे, बूढ़े, युवा सब बराबर हो रहे हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को लेकर राज्य और केंद्र सरकारों पर कड़ी फटकार लगायी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि लोग प्रदूषण की चपेट में आने से मर रहे हैं; घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। जि़म्मेदारों की दिलचस्पी सिफऱ् तिकड़मबाज़ी में है। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि इस मामले में तुरन्त ठोस कदम उठाए जाएँ, ताकि ज़हरीली हवा को रोका जा सके। बढ़ते प्रदूषण से निपटने के लिए पीएमओ ने भी राज्य सरकारों के आला अधिकारियों से बातचीत की है।

यहाँ दुष्यंत कुमार की गज़ल का एक शे’र याद आ रहा है- ‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।’ कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि पीड़ा पर्वत की तरह बढ़ गई है और उसके घटाने के लिए काम कोई भी करे, पर काम तो होना ही चाहिए; आम लोगों को राहत मिलनी ही चाहिए। मगर दिल्ली में काम क्या और कितना हो रहा है। दिल्ली-एनसीआर में इस बात की पड़ताल करते हुए ‘तहलका’ संवाददाता ने स्थानीय लोगों, विशेषज्ञों और नेताओं से बातचीत की। बातचीत के दौरान लोगों ने बताया कि सरकारें दावे और वादे तो करती हैं, मगर ज़मीन पर रहकर काम नहीं करना चाहतीं। दिल्ली में हर साल अक्टूबर महीने से ही ज़हरीली हवाएँ बहने लगती हैं और नेता सिर्फ एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करते रहते हैं, बहस करते हैं। कुछ चैनल्स इसको और हवा देते हैं; परन्तु हकीकत में सही तरीके से कोई भी काम करना नहीं चाहता। जब ज़हरीली हवाएँ दिल्ली की फज़ा को पूरी तरह दूषित करने लगती हैं, तब समाधान की जगह सियासी तबकों में एक-दूसरे पर आरोपबाज़ी होती है। क्योंकि सरकारें जन-सरोकारों पर तब ध्यान देती हैं, जब मुसीबत जनता और खुद सरकार पर आ पड़ती है। फिर लम्बे समय तक नाटकबाज़ी होती है। जब खुद-व-खुद मौसम के बदलने से धुआँ कम होने से वायु प्रदूषण का प्रकोप रुक जाता है, तब सरकारें कहती हैं कि उनके अथक प्रयास से प्रदूषण कम हुआ है। पर ऐसा होता नहीं है। दिल्ली के लोगों का कहना है कि जब प्रदूषण लोगों को बुरी तरह से बीमार करने लगता है, तब दिल्ली सरकार केंद्र, हरियाणा और पंजाब सरकारों पर दोष देती है। केंद्र सरकार को तो जैसे लोगों के स्वास्थ्य और जीवन से मतलब भी नहीं रह गया हो। दोनों ओर से बहसें होती हैं। ऐसे में पिसते तो लोग ही हैं। वहीं नोएडा के किसानों का कहना है कि केंद्र और राज्य सरकारों के जो कृषि मंत्रालय हैं, वो सिर्फ नाम मात्र के हैं। कभी भी इन मंत्रालयों से कोई अधिकारी या नेता किसानों की समस्याओं और तकलीफों को जानने-समझने तक नहीं आया कि किसान किस हालत में किसानी कर रहे हैं। जब वायु प्रदूषण अपना कहर दिखाता है, तो सरकारें किसानों पर पराली जलाने का आरोप लगाकर सारा दोष उनके सिर मढ़ देती हैं; जबकि सच्चाई यह नहीं है।

छोटे किसान कभी नहीं जलाते पराली

किसान गोबिन्द दास ने बताया कि बड़े किसान, जो किसानी को पैसे के दम पर कंबाइंड हार्वेस्टर नामक बड़ी मशीन से फसलों को कटवाते हैं। यह मशीन फसल की बालियों को ही काटती है और बाक़ी अवशेष यानी पराली खेतों में ही छोड़ देती है, जिसे बड़े किसान जलाते हैं और बदनाम सभी किसान होते हैं। उन्होंने कहा कि छोटे किसान ते आज भी हाथ से फ़सलों की जड़ से कटाई करते हैं और उन्हें पराली जलाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। वे तो उसे अपने जानवरों के लिए चारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

किसान कृष्णपाल का कहना है कि आज भी ज़्यादातर किसान ट्रैक्टर और बैलों से खेतों में जाकर काम करते हैं। फसल काटते समय ही पराली भी काट लेते हैं और उसी का चारा और भूसा बनाते हैं, जो पशुओं के खाने के काम आता है। ऐसे में उन किसानों की पराली जलाए जाने नौबत तक नहीं आती है। ऐसे में सरकारों को तथ्यों को समझना होगा। अन्यथा वायु प्रदूषण इसी तरह लोगों का स्वास्थ्य बिगाड़ता रहेगा।

दिल्ली में भी जलता है कूड़ा

अब बात करते हैं दिल्ली की, जहाँ पर वायु प्रदूषण के कारण आपातकाल जैसे हालात हैं; जिसके चलते दिल्ली के स्कूलों को बंद करना पड़ा, अस्पतालों में मरीज़ों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है। सबसे ज़्यादा तकलीफ श्वसन रोगियों को हो रही है। दिल्ली सरकार को स्कूलों और सरकारी विभागों में मास्क बाँटने पड़े।

अगर दिल्ली की बात करें, तो यहाँ भी कूड़ा जलता है। दिल्ली में एमसीडी और एनडीएमसी के कई ऐसे इलाके हैं, जहाँ पर सफाई कर्मचारियों और अधिकारियों की ज़िम्मेदारी है कि कूड़े को एकत्रित न होने दें, ताकि उसे जलाने की नौबत न आए। लेकिन ऐसा नहीं होता। आज भी दिल्ली में हर दिन कई जगह कूड़े के ढेर जलते और सुलगते नज़र आ जाते हैं। अगर ऐसे किसी मामले की कोई स्थानीय सम्बन्धित विभाग में शिकायत करता है, तो भी इस पर न तो रोक लगाई जाती है और न ही आग जलाने वालों के िखलाफ कोई कार्यवाही होती है। पुलिस तक को बुलाते हैं, तो वह भी इस दिशा में कोई कार्यवाही नहीं करती। इसके चलते स्वच्छता और स्वास्थ्य के हामी लोगों में गुस्सा है। द्वारका और यमुनापार में तो कूड़े के जहाँ-तहाँ अनेक ढेर लगे ही रहते हैं और उसमें से अधिकतर ढेरों को आग लगाकर नष्ट किया जाता है। ऐसा नहीं है कि इस बात की जानकारी स्थानीय प्रतिनिधियों और ज़िम्मेदार अधिकारियों को नहीं है, परन्तु वे जान-बूझकर इसे नज़रअंदाज करते हैं। एनडीएमसी जो दिल्ली का पॉश एरिया माना जाता है, यहाँ के मंडी हाउस के पास कई जगह कूड़े दान बने है; लेकिन फिर भी यहाँ पर कूड़े के ढेरों को जलाया जाता है। मडी हाउस से गाँधी शांति प्रतिष्ठान को जाने के लिए जो रास्ता है, रेलवे का पुल है, उसके चारों ओर तो विकट कूड़ा फैला रहता है, जिसकी वजह से भयंकर बदबू भी आती रहती है। दु:ख की बात यह है कि इस कूड़े को उठाने की जगह सीधे आग के हवाले किया जाता है।

पुलों के नीचे स्मोकिंग का खेल

इतना ही नहीं दिल्ली के बड़े-बड़े पुलों के नीचे, पार्कों में, पुरानी बिल्डिंग्स और स्मारकों आदि में चरसी, स्मैकिये दिन रात स्मोकिंग करके धुआँ उड़ाते रहते हैं। ये लोग सर्दियों में और अधिक सक्रिय हो जाते हैं और स्मोकिंग करके धुआँ उड़ाने के साथ-साथ आग भी जलाते रहते हैं। इस आग में ये लोग हर रोज़ लकडिय़ों के अलावा टायर आदि भी जलाते हैं, जिससे काफी घातक गैसों वाला धुआँ निकलता है। उदाहरण के लिए शाहदरा से मानसरोवर पार्क के लिए जाने वाले रास्ते पर है एक लम्बा पुल है, जहाँ पर स्मैकियों के कई झुंड दिन-रात धुआँ और गंदगी फैलाते रहते हैं। यहाँ कूड़ा भी खूब जलाया जाता है, जिसकी शिकायत समाज सेवी आलोक गुसांई ने कई बार सम्बन्धित विभागों से की है। उनका कहना है कि शिकायत करने के बावजूद भी कोई इस ओर न तो कभी ध्यान दिया गया है और न ही कभी किसी के िखलाफ कोई कार्रवाई ही की गई है; जबकि पुल के नीचे लगातार प्रदूषित माहौल पनप रहा है।

बात केवल स्मैकियों की नहीं है। दिल्ली में अनेक पढ़े-लिखे लोग भी सिगरेट और बीड़ी पीने से बाज़ नहीं आते। वहीं कच्ची कॉलोनियों और झुग्गी-झोंपडिय़ों में भी सर्दियों में लोग आग जलाते हैं, जिससे काफी धुआँ निकलता है। कहने को यह छोटी-सी बात है, परन्तु इसके परिणाम बहुत ही भयंकर होते हैं।

हर व्यक्ति के लिए घातक है प्रदूषण

दिल्ली बढ़ते प्रदूषण की वजह से साँस लेने में दिक्कत और आँखों में जलन की समस्या बढ़ती जा रही है। इस बारे में एम्स के हार्ट रोग विशेषज्ञ डॉ. राकेश यादव का कहना है कि वायु प्रदूषण से हर उम्र के लोग पीडि़त होते हैं। इससे हार्ट को काफी नुकसान होता है। ऐसे हालात में सावधानी बहुत ज़रूरी है। क्योंकि हवाओं में मौज़ूद तत्त्व शरीर के प्रत्येक अंग को डैमेज करते हैं। मैक्स अस्पताल के हार्ट रोग विशेषज्ञ डॉ. विवेका कुमार ने बताया कि इस दूषित और प्रदूषित माहौल में मधुमेह और उच्च रक्तचाप से पीडि़त हार्ट रोगी सावधानी बरतें; क्योंकि ये मौसम हार्ट रोगियों के लिए काफी घातक है। एम्स के नैत्र रोग विशेषज्ञ डॉ. आलोक रंजन का कहना है कि आँखों को काफी क्षति होती है। प्रदूषण में ज़्यादा देर तक रहने से रेटिना को बड़ा नुकसान होता है। आई सिंड्रोम की समस्या पैदा होती है। ऐसे में सावधानी के तौर पर प्रदूषित माहौल से बचें। जलन होने पर बार-बार साफ पानी से आँखों धोना चाहिए। आँखों में अधिक जलन होने या लाली आने पर चिकित्सक को दिखाएँ।

क्या ऑड-ईवन है स्थायी हल?

दिल्ली में ऑड-ईवन से प्रदूषण का स्तर काफ़ी कम होता है। इसी वजह से पिछले वर्षों की तरह इस वर्ष भी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने वायु प्रदूषण को कम करने के लिए ऑड-ईवन फार्मूला लागू किया। दिल्लीवासियों ने भी सरकार के इस फैसले का स्वागत किया और साथ दिया। हालाँकि, भाजपा नेताओं ने इसका पहले की तरह ही विरोध किया है। विजय गोयल ने ऑड-ईवन का विरोध करते हुए कहा है कि मुख्यमंत्री केजरीवाल राजनीति कर रहे हैं। उनका कहना है कि दिल्ली में पहले भी केजरीवाल ने ऑड-ईवन का फार्मूला लागू किया था, तब वायु प्रदूषण पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा था। ऐसे में केजरीवाल राजनीतिक फायदे के लिए काम कर रहे हैं और लोगों को परेशान कर रहे हैं। दरअसल, हर बार देखा गया है कि भाजपा नेता ऑड-ईवन का सिर्र्फ विरोध ही नहीं करते, बल्कि पालन भी नहीं करते हैं। इसके चलते पहले भी कई भाजपा नेताओं और मंत्रियों के चालान कटे हैं और इस बार भी विजय गोयल का चालान कटा। साथ ही ड्राइविंग लांइसेंस भी ज़ब्त कर लिया गया। वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री और बाकी सभी मंत्री ऑड-ईवन का पूरी तरह पालन कर रहे हैं। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया तो आजकल साइकिल से सफर कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ऑड-ईवन वायु प्रदूषण का स्थाई हल है? हालाँकि, दिल्ली सरकार इससे निपटने के लिए दूसरे उपाय भी अपना रही है, जिसमें जल-छिडक़ाव भी प्रमुख है।

प्रदूषण से निपटने की जगह हो रही सियासत

मुश्किल यह है कि जब भी भारत में कोई समस्या पैदा होती है, तो राजनीतिक दल और सरकारें उससे निपटने की जगह उस पर सियासत ज़्यादा करने लगते हैं। वायु प्रदूषण को रोकने के मामले में भी यही हो रहा है। दिल्ली में इससे निपटने के पुख़्ता इंतज़ाम करने पर चर्चा कम हो रही है, लेकिन राजनीतिक रोटियाँ ज़्यादा सेंकी जा रही हैं। दिल्ली कांग्रेस ने मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के निवास पर प्रदर्शन किया है। प्रदूषण के लिए आप पार्टी को ज़िम्मेदार ठहराते हुए सुभाष चोपड़ा ने कहा कि दिल्ली में प्रदूषण केजरीवाल की लापरवाही का नतीज़ा है। वहीं, लक्ष्मी नगर के विशाल सिन्हा का कहना है कि दिल्ली सरकार अपनी ओर से जो हो सकता है, वह कर रही है। इस मामले पर किसी को भी सियासत नहीं करनी चाहिए; सभी को इस समस्या से मिलकर निपटना चाहिए। जनता को भी इसमें भागीदारी करनी चाहिए।

मेडिकल मालिकों, डॉक्टरों की चाँदी

कहते हैं कि कोई आपदा और विपदा आती है, व्यापारी वर्ग धंधा करके चाँदी कूटता है। इन दिनों प्रदूषण की वजह से उसका हौवा भी बनाया जा रहा है और इसका फायदा उठाते हुए दवा कंपनियों, मेडिकल मालिकों और डॉक्टरों की बड़े पैमाने पर चाँदी हो रही है। इसकी पड़ताल करने पर पता चला है कि दिल्ली-एनसीआर में 50 रुपये से लेकर 250 रुपये तक में मास्क बेचे जा रहे हैं। मेडिकल स्टोर पर मास्क की बिक्री अचानक कई गुना बढ़ गई है। सबसे गंभीर बात ये है कि रंगों के हिसाब से मास्कों की कीमतें वसूली जा रही हैं। काले रंग और सफेद रंग और हल्के आसमानी रंग के मास्क के दाम बढ़ा-चढ़ाकर वसूले रहे हैं। ऐसे हालात में जनता लुट रही है। इस ओर न तो ड्रग्स विभाग ध्यान दे रहा है और न ही स्वास्थ्य विभाग। स्वास्थ्य मंत्रालय तो मानो इस ओर ध्यान देने की ज़रूरत ही नहीं समझता। इस बारे में इरा फाउण्डेशन के चेयरमेन रिंकू निगम का कहना है कि इस समय दिल्ली में धुंध की चादर से लोगों को साँस लेने में दिक्कत हो रही है, लोग बीमार पड़ रहे हैं; इस ओर सरकारें कोई ध्यान नहीं दे रही हैं। जनता अपने बचाव के लिए खुद ही जूझ रही है और मास्क व्यापारी लूट मचा रहे हैं। सरकार को मास्क के उचित मूल्य को सार्वजनिक करना चाहिए और मोटी कमाई करने वालों के िखलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए।

तंदूरों पर लग रहा प्रतिबंध

जिस तरीके से दिल्ली में अब निर्माण कार्य को रोका जा रहा है। गली-मोहल्लों में खुले छोटे-छोटे ढाबों, रेस्टोरेंट के तंदूरों को नष्ट किया जा रहा है, उनके मालिकों के िखलाफ कार्यवाही की जा रही है और चालान काटे जा रहे हैं। तंदूर मालिक राजेश गुप्ता का कहना है कि सरकार जो भी काम करे, उसमें इस बात का ध्यान रखे कि किसी का नुकसान न हो। किसी का रोज़गार चौपट न हो।

बेलगाम दौड़ रहे धुआँ उगलते वाहन

काफी समय से पुराने वाहनों पर रोक लगी होने के वाबजूद दिल्ली-एनसीआर में विकट धुआँ उगलते वाहन खूब दौड़ते दिख जाते हैं। हालात ये हैं कि कई वाहन तो जिधर से गुजऱते हैं, उधर पूरे वातावरण को धुएँ से भरते चले जाते हैं। यहाँ तक कि ट्रैफिक पुलिस भी ऐसे वाहनों को खड़ी देखती रह जाती है। अगर यातायात पुलिस इस ओर ध्यान दे और ठोस कार्यवाही करे, तो काफी वायु प्रदूषण से काफी हद तक स्थायी राहत मिल सकती है। लेकिन क्या सडक़ पर विकट धुआँ उगलते वाहनों पर प्रतिबंध लगाकर चालकों के िखलाफ कोई कार्यवाही की जा रही है? दिल्ली में यातायात पुलिस न जाने क्यों ऐसे वाहनों को प्रतिबंधित कर चालकों पर कार्यवाही करने से हिचकती है?

साफ हवा के लिए जंग

बत्तीस साल के जतिन की नींद हराम है। उसे उसकी पत्नी ने चेतावनी दी है कि यदि परिवार ने नवंबर तक दिल्ली नहीं छोड़ी, तो वह उसे हमेशा के लिए छोड़ देगी। जतिन की पत्नी करीब एक साल से टीबी से पीडि़त है और बढ़ते प्रदूषण ने उसकी समस्या और विकराल कर दी है। राजधानी दिल्ली में दूभर हुई ज़िदगी के बारे में बता रही हैं परी सैकिया

शरद ऋ तु की शुरुआत के साथ ही दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) तेज़ी से गिरा है। इससे यहाँ के नागरिकों को स्वास्थ्य सम्बन्धी कई दिक्कतें पेश आ रही हैं। हवा में प्रदूषण की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुँच जाने से वे साँस लेने में तकलीफ, दुर्गंध, आँखों में जलन के साथ-साथ गले में खराश जैसी समस्याओं से दो-चार हैं। अक्टूबर में हवा में प्रदूषण का जो स्तर खराब और बहुत खराब मानकों पर था, वह अचानक नवंबर में खतरनाक स्तर पर पहुँच जाएगा, जिसमें सबसे बड़ी भूमिका औद्योगिक निर्माण और शरद ऋ तु की होगी की होगी। पराली जलने से पड़ोसी राज्यों पंजाब और हरियाणा से आने वाला धुआँ भी प्रदूषण के स्तर में इजाफा कर रहा है।  गौरतलब है कि 0 और 50 के बीच एक्यूआई (प्रदूषण का स्तर) को अच्छा, 51 और 100 के बीच संतोषजनक, 101 और 200 मध्यम, 201 और 300 के बीच खराब, 301 और 400 बहुत खऱाब और 401 और 500 के बीच गंभीर माना जाता है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की सितंबर में जारी एक अध्ययन रिपोर्ट से पता चला था कि दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर 25 फीसदी कम हो गया है, जो पिछले तीन वर्षों में सबसे कम था। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के संसद में पेश किए वार्षिक वायु गुणवत्ता आँकड़ों का विश्लेषण बताता है कि 2016-2018 (तीन वर्ष) के दौरान पीएम2.5 स्तरों का तीन साल का औसत 2011-2014 के आधार (तीन साल का औसत) से 25 फीसदी से कम है।

अध्ययन रिपोर्ट के सामने आते ही वायु प्रदूषण पर राजनीति भी शुरू हो गई। दिल्ली सरकार और विपक्षी भाजपा के बीच इसका श्रेय लेने की जंग छिड़ गई। इसके बाद विभिन्न राजनीतिक दलों ने दिल्ली के वायु प्रदूषण को अपने भाषणों का हिस्सा तो बनाया; लेकिन विरोधी दलों पर हमले के लिए इस्तेमाल करने भर को।

प्रदूषण निरोधी निकाय सीपीसीबी पर निशाना साधते हुए उसे आम आदमी पार्टी ने सुझाव दिया कि वह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रदूषण से निपटने के मंत्र से कुछ सीखे कि कैसे वाराणसी जैसे शहरों में प्रदूषण से निपटा जा सकता है। आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता राघव चड्ढा ने कहा- ‘मुझे यकीन है कि सीपीसीबी की प्रदूषण को लेकर चिंता यदि वाराणसी की जनता से ज़्यादा नहीं तो कम-से-कम दिल्ली के लोगों के समान तो होगी ही। और आप देखेंगे कि दिल्ली में दोषी पार्टियों को समय पर जवाबदेह बनाया जाएगा।’

दिल्ली में हवा की बिगड़ती गुणवत्ता के लिए अरविंद केजरीवाल को दोषी ठहराने वाले भाजपा नेता विजय गोयल का कहना है कि यह केंद्र सरकार है, जिसने वायु प्रदूषण से निपटने के लिए महत्त्वपूर्ण क़दम उठाए। गोयल ने कहा- ‘केंद्र ने प्रदूषण से निपटने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग और पुल बनाए हैं और पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने वाले किसानों के लिए 11,000 करोड़ रुपये का आवंटन भी किया है।’

दिल्ली में अगले साल फरवरी में विधानसभा चुनाव हैं। और राजनीतिक दल स्वच्छ हवा के मसले पर मतदाताओं को जीतने के लिए पुरज़ोर प्रयास कर रहे हैं। वायु प्रदूषण का मुद्दा निश्चित रूप से विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों के लिए प्रमुख एजेंडा में से एक है। हालाँकि, प्रमुख राजनीतिक दल इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं कि सीएसई की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली को अभी भी साफ-सुथरा होने के लिए मौज़ूदा आधारभूत से 65 फीसदी की चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ रहा है, जो कि पीएम 2.5 के लिए बेसिक मानक है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के अनुसार, राजधानी में वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी के पीछे अभी भी मुख्य कारक पराली का जलना है। ‘जब तक बाहर से आने वाले प्रदूषण का हल नहीं निकाला जाता, दिल्ली अक्टूबर और नवंबर में इसी तरह पीडि़त होती रहेगी।’

हालाँकि, सीएसई की रिपोर्ट साफतौर परखती है कि दिल्ली के प्रदूषण में पराली कोई सबसे बड़ा कारक नहीं है। पराली का योगदान तो महज़ 5-7 फीसदी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पंजाब और हरियाणा से उडऩे वाले धुएँ से ज़्यादा, स्थानीय स्रोत प्रदूषण के वास्तविक कारक हैं।

प्रदूषण से निपटना

सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण का एक वीडियो रिपोर्ट में कहना- ‘प्रदूषण के िखलाफ नाराजग़ी मात्र से कुछ नहीं होगा। प्रदूषण की वजह से हमारा क्रोधित होना स्वाभाविक है; क्योंकि यह हमारे और हमारे बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। प्रदूषण से बचना है, तो हमें कार्रवाई की माँग भी करनी चाहिए।’

सीएसई की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दिल्ली को सर्दियों के प्रदूषण से बचाने के लिए और कठोर तरीकों और कार्रवाई की ज़रूरत है। दिल्ली अब तक की गयी कोशिशों की गति और इससे मिले लाभ को कम करने का जोखिम नहीं उठा सकती। प्रणालीगत बदलाव और पूरे क्षेत्र में निरंतर लाभ के लिए व्यापक कार्य योजना को लागू करना ज़रूरी है।

सितंबर में सीएम केजरीवाल ने दिल्ली के लिए सात-सूत्रीय कार्य योजना की घोषणा की थी, जिसमें वायु प्रदूषण को कम करने के लिए प्रदूषण-रोधी मास्क का वितरण और विषम-सम योजना के कार्यान्वयन की घोषणा की गई थी, जो 4-15 नवंबर से शुरू हो गयी है। इसके अलावा आप सरकार लोगों को सर्दियों के दौरान कचरा जलाने से रोकने के लिए मार्शल रखने की घोषणा कर चुकी है। अपने इलाके में पेड़ लगाने के इच्छुक पर्यावरण प्रेमियों के लिए एक हेल्पलाइन नंबर शुरू करना भी एक अन्य उपाय सरकार की तरफ से सामने आया है।

दिल्ली मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय राजधानी में प्रदूषण के िखलाफ बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाने के लिए सूचना और प्रचार निदेशालय के बजट से 36 करोड़ रुपये के खर्च को भी मंज़ूरी दी है। जनवरी 2019 में भाजपा सरकार ने 2024 तक दिल्ली सहित कम-से-कम 102 शहरों में 20-30 फीसदी तक कण (पीएम) प्रदूषण को कम करने के लिए एनसीएपी लॉन्च किया था। कांग्रेस ने इस साल की शुरुआत में अपने घोषणा पत्र में वायु प्रदूषण से निपटने की एक योजना का जि़क्र किया था। पार्टी ने कहा था कि उसकी सरकार आने पर प्रदूषण की समस्या से तत्काल निपटने के लिए राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम को प्राथमिकता के आधार पर किया जाएगा। इसके अलावा उत्सर्जन के सभी प्रमुख स्रोतों को लक्षित, शमन और स्वीकार्य स्तरों तक कम किया जाएगा।

इसके अलावा थर्मल पॉवर प्लांट, पेट कोक, फर्नेस ऑयल, कोयला को बंद करना, बीएसवीआई ईंधन वाहनों का उपयोग करना, राजधानी और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पुराने ट्रकों के प्रवेश पर प्रतिबंध जैसे कुछ ऐसे कार्य हैं, जिन्होंने पिछले आठ महीनों में वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने में मदद की है। लेकिन किस राजनीतिक दल को इसका श्रेय जाता है, यह कहना तो कठिन है। क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों ने कुछ हद तक समान रूप से योगदान दिया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि ये दल अब विधानसभा चुनावों में कैसा प्रदर्शन करते हैं।