भारत में भूख की गंभीर समस्या

बच्चे कुपोषण के शिकार

भारत दक्षिण एशिया में भी सबसे नीचे है। श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान सभी भारत से आगे हैं। बंाग्लादेश 88वें स्थान पर है और अभी भारत और पाकिस्तान की तुलना में बेहतर स्थिति में है।

विश्व में हर साल 16 अक्टूबर विश्व खाद्य दिवस के रूप में मनाया जाता है और इस मौके पर दुनियाभर में भुखमरी पर चर्चा की जाती है। कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि 21वीं सदी का दूसरा दशक करीब खत्म होने के कगार पर है, चाँद और अन्य ग्रहों पर संसाधनों की खोज में विश्व के कई मुल्कों में होड़-सी दिखाई देने लगी है, तो ऐसे में भुखमरी की बात करना क्या प्रासगिंक है। भुखमरी पर बात करना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि आज भी लाखों की संख्या में लोग भूखे सोते हैं। हाल ही में जारी वैश्विक भूख सूचकंाक -2019 में भारत 117 देशों वाली सूची में 102वें पायदान पर है। 2017 में वह 100वें स्थान पर था। गौर करने लायक यह है कि वैश्विक भूख सूचकांक में 2014 में भारत 55वें, 2015 में 80वें, 2016 में 97वें और 2017 में 100वें स्थान पर था। 2018 में 103वें पायदान पर था, लेकिन उस सूची में 119 देश शमिल थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत दक्षिण एशिया में भी सबसे नीचे है। श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान सभी भारत से आगे हैं। बंाग्लादेश 88वें स्थान पर है और अभी भारत और पाकिस्तान की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रहा है।

भारत ब्रिकस देशों में भी सबसे पीछे है। चीन 25वें पायदान पर है। इस सूचकांक में भूख की स्थिति के आधार पर देश को अंक दिए जाते हैं। 10 से कम अंक का मतलब है कि देश में भूख की समस्या बहुत कम है। 10 से लेकर 19.9 तक अंक होने का मतलब है कि यह समस्या यहां है। 20 से लेकर 34.9 अंक का मतलब समस्या के गंभीर होने से है और 35 से 49.9 अंक का मतलब है कि हालात चुनौतीपूर्ण है। भारत का स्कोर 2019 के सूचकांक में 30.3 है यानी यहां भूख की समस्या गंभीर है, 2000 में भारत का स्कोर 38.8 यानी चुनौतीपूर्ण वाली श्रेणी में था। यूं देखा जाए तो भारत चुनौतीपूर्ण वाली श्रेणी से बाहर निकल अब गंभीर वाली श्रेणी में आ गया है मगर यह प्रगति बहुत ही धीमी है। देश में 40 फीसद भोजन वार्षिक उत्पादन में बेकार हो रहा है। 01 लाख करोड़ की फसल कटाई के बाद खराब हो रही। 2.1 करोड़ टन गेहूँ हर साल नष्ट हो रहा है। दुनिया में सबसे अधिक 19.44 करोड़ कुपोषित भारत में हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें दोनों वक्त का भोजन नहीं मिलता। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत 2030 तक भुखमरी से मुक्ति दिलाने वाले स्थाई विकास लक्ष्य को हासिल कर पाएगा। दरअसल दुनिया में भुखमरी को मिटाना स्थायी विकास लक्ष्यों की सूची में शमिल है और इस दिशा में विभिन्न सरकारें काम भी कर रही हैं। आज के दौर में कुपोषण एक अहम मसला है, क्योंकि विश्वभर में गरीबी, शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और भोजन संबंधी खराब चयन स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाने वाले आहार की ओर लेकर जा रहे हैं।।

यूनिसेफ की हाल ही में बच्चों, भोजन और पोषण पर जारी ‘ द स्टेट ऑफ द वल्ड्र्स चिल्ड्रन’ रिपोर्ट बताती है कि विश्व में पाँच साल से कम आयु वाले बच्चों में तीन में से एक बच्चा कुपोषित है, यानी ऐसे बच्चे या तो अल्पपोषित हैं या मोटे हैं। दो साल से कम आयु वाले बच्चों में तीन में से दो बच्चे खराब आहार पर जीवित हैं और उन्हें ऐसा भोजन नहीं खिलाया जा रहा, जो उनके शरीर व दिमाग को तेज़ी से विकसित करने में मददगार हो। भारत की चर्चा करें तो यहाँ हर साल करीब दो करोड़ 60 लाख बच्चे पैदा होते हैं। बच्चों की सेहत सम्बन्धी आँकड़े चिंताजनक हैं। भारत में हर दूसरा बच्चा किसी-न-किसी रूप में कुपोषित हैं। भारत में 35 प्रतिशत बच्चे नाटे हैं, 17 प्रतिशत बच्चे कद के हिसाब से पतले हैं, 33 प्रतिशत बच्चों का वज़न कम है। दरअसल बच्चों की स्थिति पर यह रिपोर्ट आगाह करती है कि कुपोषण के खात्मे के लिए खराब खान-पान की आदतों में सुधार करना बहुत ज़रूरी है। अब ऐसे बच्चे भी कुपोषित माने जाने लगे हैं, जिनका वज़न अधिक है या वे मोटापे से ग्रस्त हैं। घटिया भोजन के नतीजे भुगतने वाले बच्चों की संख्या चिंताजनक है। विश्व भर में पाँच साल से कम आयु वाले बच्चों में 50 प्रतिशत बच्चों में ज़रूरी विटामिन और पोषक तत्त्वों की कमी है। यहाँ पर सवाल यह उठता है कि बच्चों के कुपोषण का मसला महज़ बच्चों का है, नहीं इस समस्या के दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं। वैज्ञानिक व शोध कहती हैं कि इंसान के दिमाग का 90 प्रतिशत विकास उसकी ज़िन्दगी के पहले 1000 दिनों में होता है, इसमें गर्भ के नौ महीने व उसके जन्म के पहले दो साल शमिल हैं। यह वही नाज़ुक व अहम् दौर होता है, जब यह तय हो जाता है कि कोई कैसे सोचेगा व क्या महसूस करेगा और अपनी बाल्यावस्था से लेकर बड़े होने तक क्या सीखेगा। इसलिए ज़रूरी है कि एक महिला व माँ का आहार भी स्वास्थ्य के लिहाज़ से अच्छा हो और बच्चे का भी। अगर शिशु की खुराक उसके शरीर व दिमाग को तेज़ी से विकसित करने वाली नहीं है, तो उसका खामियाज़ा भी भुगतना पड़ता है। ऐसे बच्चों पर सीखने में कमज़ोर रहने, कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता और बहुत से मामलों में मरने का खतरा बना रहता है। नोबेल विजेता भारतीय अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी का भी मानना है कि बचपन में अच्छा पोषण मिलने का जीवन में दूरगामी प्रभाव पड़ता है। अजन्मे भ्रूण व बच्चे,जो पर्याप्त पोषण पाते हैं, कालांतर में उनकी आय बाकी के मुकाबले बेहतर होती है। गौरतलब है कि जिन बच्चों का विकास सही नहीं हो रहा है, वे कुपोषण के तिहरे बोझ के शिकार हैं। इसकी चपेट में दुनिया-भर के समुदाय आ रहे हैं, जिसमें विश्व के सबसे गरीब देश भी शमिल हैं। पहला बोझ अल्पपोषण है, बेशक इसमें कुछ कमी आयी है, लेकिन इसके बावजूद यह लाखों बच्चों को प्रभावित कर रहा है। कुपोषण, अल्पपोषण के चलते ही अधितर बच्चे नाटे रहते हैं, और यह दूर नहीं होता। दूसरा छिपी हुई भूख है- बच्चों में आवश्यक विटामिन व खनिजों की कमी है। कई तरह की छिपी हुई भूख से प्रभावित बच्चों व महिलाओं के बारे में काफी बाद में पता चलता है और इस समय दुनिया में ऐसे बच्चों व महिलाओं की तादाद चिंताजनक है। अक्सर अधिक ध्यान इस ओर रहता है कि बच्चे व माँ का पेट भर जाये, लेकिन वे कितना पौष्टिक खाना खा रहे हैं, इस ओर ध्यान नहीं दिया जाता। गरीब लोगों पर किया गया एक अध्ययन यह बताता है कि अधिक पोषक भोजन लेने की चिंता उन्हें नहीं रहती है। तीसरा बोझ अधिक वजन का होना है, मोटापा। 1970 के मध्य से पाँच से 19 साल के लडक़े-लड़कियों में मोटापा तेज़ी से बढ़ा है, वैश्विक स्तर पर यह 10-12 गुणा बढ़ा है। अधिक वज़न के बारे में यह धारणा बनी हुई है कि यह संपन्नता की निशानी है, लेकिन अब यह गरीब लोगों की बीमारी के रूप में सामने आ रही है। इससे यह पता चलता है कि विश्वभर में लगभग हर मुल्क में फैटी व मीठे भोजन से मिलने वाली सस्ती कैलोरी बड़ी मात्रा में उपलब्ध है। इसके अपने खतरे हैं। सभी प्रकार के कुपोषण का सबसे अधिक बोझ सबसे गरीब व सबसे अधिक हाशिये पर रहने वाले समुदायों के बच्चों के कन्धों पर है। विकास की ओर अग्रसर इस दुनिया में मूलभूत विकास यानी भुखमरी से निजात पाना, हरेक को पौष्टिक आहार मुहैया कराना हर सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।