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ऐतिहासिक फैसला, आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने सुलझाया मंदिर-मस्जिद विवाद

आखिरकार लम्बे इंताज़र के बाद अयोध्या पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला 9 नवंबर को आ ही गया। सर्वोच्च न्यायालय की पाँच जजों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से किये फैसले में राम मंदिर को विवादित ज़मीन देने का फैसला सुनाया। साथ ही मुस्लिम पक्ष को 5 एकड़ ज़मीन अयोध्या में ही मस्जिद बनाने के लिए देने का आदेश दिया है। केंद्र सरकार को इसके लिए ट्रस्ट बनाने का ज़िम्मा दिया गया है।

यह महत्त्वपूर्ण है सर्वोच्च अदालत ने मंदिर निर्माण और मस्जिद को ज़मीन की पूरी प्रक्रिया का िज़म्मा केंद्र सरकार को दिया है। इससे केंद्र सरकार की यह िज़म्मेदारी बन गयी है कि वह बिना कोई विवाद पैदा किये सर्वोच्च अदालत के फैसले पर काम करे। मंदिर निर्माण की प्रक्रिया का िज़म्मा केंद्र सरकार को दिया गया है, न कि किसी धार्मिक संगठन को।

सर्वोच्च अदालत के फैसले से तीसरे हिन्दू पक्ष का दावा खारिज होने से सिर्फ एक हिन्दू और एक ही मुस्लिम पक्ष रह गया, जिससे भविष्य में विवाद की गुंजाइश भी खत्म हो गयी है। सुन्नी वक्फ बोर्ड ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि फैसले को चुनौती (पुनर्विचार याचिका) दी जाए या नहीं इसका फैसला बाद में किया जाएगा। अदालत का फैसला तमाम आशंकाओं के बीच एक तरह से नज़ीर बनकर आया है। कमोवेश हर तबके ने फैसले का स्वागत किया है। देश में शांति भी बनी रही, इसका बहुत श्रेय फैसले के संतुलित को ही जाता है।

सुप्रीम कोर्ट की प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की संविधान पीठ ने 9 नवंबर को अयोध्या केस पर फैसला सुनाया। शीर्ष अदालत ने फैसले में केंद्र से कहा कि मंदिर निर्माण के लिए वह ट्रस्ट बनाये और इसकी योजना तीन महीने में तैयार करे। विवादित मानी गयी 2.77 एकड़ की ज़मीन केंद्र सरकार के रिसीवर के पास ही रहेगी। अदालत ने कहा कि बाबरी मस्जिद खाली ज़मीन पर नहीं बनी थी। हिन्दुओं की आस्था है अयोध्या में राम का जन्म हुआ था आस्था और विश्वास पर कोई सवाल नहीं। पीठ ने कहा कि हिन्दू अयोध्या को राम का जन्म स्थान मानते हैं। किसी ने अयोध्या में राम-जन्म के दावे का विरोध नहीं किया। कोर्ट ने कहा कि अयोध्या में विवादित स्थल के नीचे बनी संरचना इस्लामिक नहीं थी, लेकिन भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने यह साबित नहीं किया कि मस्जिद के निर्माण के लिए मंदिर गिराया गया था। न्यायालय ने कहा कि हिन्दू विवादित भूमि को भगवान राम का जन्म स्थान मानते हैं और मुस्लिम भी इस स्थान के बारे में यही कहते हैं। हिन्दुओं की यह आस्था अविवादित है कि भगवान राम का जन्म स्थल ध्वस्त संरचना है।

पीठ ने कहा कि सीता-रसोई, राम-चबूतरा और भण्डार गृह की उपस्थिति इस स्थान के धार्मिक होने के तथ्यों की गवाही देती है। शीर्ष अदालत ने साथ ही यह भी कहा कि मालिकाना हक का निर्णय सिर्फ आस्था और विश्वास के आधार पर नहीं किया जा सकता और यह विवाद के बारे में फैसला लेने के संकेतक हैं।

अदालत ने कहा कि सबूत है कि बाहरी स्थान पर हिन्दुओं का कब्जा था, इस पर मुस्लिम का कब्जा नहीं था। लेकिन मुस्लिम अंदरूनी भाग में नमाज़ भी करते रहे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यात्रियों के विवरण को सावधानी से देखने की ज़रूरत है, वहीं गजट ने इसके सबूतों की पुष्टि की है। हालाँकि मालिकाना हक आस्था के आधार पर नहीं तय किया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजस्व रिकॉर्ड के अनुसार विवादित भूमि सरकारी है। राम-जन्म स्थान पर एएसआई की रिपोर्ट मान्य है। स्थल पर ईदगाह का मामला उठाना आफ्टर थॉट है, जो मुस्लिम पक्ष द्वारा एएसआई की रिपोर्ट के बाद उठाया गया। 12वीं से 16वीं सदी के बीच यहाँ मस्जिद थी, इसके सबूत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राम का केंद्रीय गुंबद के बीच में हुआ यह मान्यता है।

फैसले में अदालत ने कहा कि एएसआई ने अपनी रिपोर्ट में विवादित ज़मीन पर मंदिर की बात कही है। एएसआई की रिपोर्ट में मस्जिद ईदगाह का जिक्र नहीं है। एएसआई रिपोर्ट में 12वीं सदी के मंदिर होने का जिक्र है। एएसआई रिपोर्ट के मुताबिक, वहाँ इस्लामिक ढाँचा नहीं था। कोर्ट ने कहा कि खुदाई में मिले सबूतों को अनदेखा नहीं कर सकते।

कोर्ट ने कहा कि बाबरी मस्जिद खाली ज़मीन पर नहीं बनी थी। हिन्दुओं की आस्था है कि अयोध्या में राम का जन्म हुआ था। आस्था और विश्वास पर कोई सवाल नहीं किया जा सकता। हिन्दू अयोध्या को राम का जन्म स्थान मानते हैं। किसी ने अयोध्या में राम-जन्म के दावे का विरोध नहीं किया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एएसआई की रिपोर्ट में मंदिर की बात है। एएसआई की रिपोर्ट में मस्जिद ईदगाह का जिक्र नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 12वीं सदी के मंदिर होने का रिपोर्ट के मुताबिक, वास्ता नहीं था।

सुप्रीम कोर्ट ने नयी मस्जिद बनाने के लिए मुस्लिमों को वैकल्पिक ज़मीन आवंटित करने के निर्देश दिये हैं। सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए किसी प्रमुख स्थान पर 5 एकड़ की उपयुक्त ज़मीन दी जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में पूरी विवादित ज़मीन का नियंत्रण हासिल करने की निर्मोही अखाड़े की याचिका खारिज कर दी।

सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ ने शनिवार को अयोध्या केस पर फैसला सुनाया। पीठ के अध्यक्ष सीजेआई ने 45 मिनट तक फैसला पढ़ा और कहा कि मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाया जाए और इसकी योजना तीन महीने में तैयार की जाए। कोर्ट ने 2.77 एकड़ की विवादित ज़मीन रामलला विराजमान को देने का आदेश दिया और कहा कि मुस्लिम पक्ष को मस्जिद निर्माण के लिए पाँच पाँच एकड़ वैकल्पिक ज़मीन आवंटित की जाए। सीजेआई गोगोई ने कहा कि हिन्दू-मुस्लिम विवादित स्थान को जन्मस्थान मानते हैं, लेकिन आस्था से मालिकाना हक तय नहीं किया जा सकता। पीठ ने कहा कि ढहाया गया ढाँचा ही भगवान राम का जन्मस्थान है, हिन्दुओं की यह आस्था निर्विवादित है।

चीफ जस्टिस ने कहा कि हम सर्वसम्मति से फैसला सुना रहे हैं। इस अदालत को धर्म और श्रद्धालुओं की आस्था को स्वीकार करना चाहिए। अदालत को संतुलन बनाए रखना चाहिए।

फैसले के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड ने सर्वोच्च अदालत के फैसले का स्वागत किया हालाँकि जफरयाब जिलानी ने कहा है कि फैसले को चुनौती दी जाए या नहीं, इसका फैसला बाद में किया जाएगा। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने यह फैसला सुनाया। फैसले में विवादित ज़मीन रामजन्मभूमि न्यास को देने का फैसला किया है, जबकि मुस्लिम पक्ष को अलग स्थान पर जगह देने के लिए कहा गया है। अर्थात् सुन्नी वफ्फ बोर्ड को अलग ज़मीन देने का आदेश कोर्ट ने दिया है।

मुस्लिम पक्ष को वैकल्पिक ज़मीन कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि मुस्लिम पक्ष को वैकल्पिक ज़मीन दी जाए। ज़मीन पर दावा साबित करने में मुस्लिम पक्ष नाकाम रहा। कोर्ट ने फैसले में कहा कि मुस्लिम पक्ष ज़मीन पर दावा साबित करने में नाकाम रहा है। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि आस्था के आधार पर मालिकाना नहीं दिया जा सकता।

कोर्ट ने फैसले में कहा कि आस्था के आधार पर ज़मीन का मालिकाना हक नहीं दिया जा सकता। साथ ही कोर्ट ने साफ कहा कि फैसला कानून के आधार पर ही दिया जाएगा। कोर्ट ने कहा कि मंदिर तोडक़र मस्जिद बनाने की पुख्ता जानकारी नहीं है। कोर्ट ने एएसआई रिपोर्ट के आधार पर अपने फैसले में कहा कि मंदिर तोडक़र मस्जिद बनाने की भी पुख्ता जानकारी नहीं है।

निर्मोही अखाड़े का दावा सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि अखाड़े का दावा लिमिटेशन से बाहर है। इस दौरान चीफ जस्टिस ने कहा कि 1949 में मूर्तियाँ रखी गयीं।

फैसले की मुख्य बातें

            रामलला की ज़मीन रामजन्मभूमि न्यास को दे दी गयी।

            सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को कहा है कि वह तीन महीने में राम मंदिर निर्माण को लेकर ट्रस्ट और बोर्ड ऑफ ट्रस्टी बनाए।

            विवादित स्थल का आउटर कोर्टयार्ड हिन्दुओं को मंदिर बनाने के लिए दिया जाए।

            इस ट्रस्ट को केंद्र सरकार ही सँभालेगी।

            सुप्रीम कोर्ट ने निर्मोही अखाड़े का दावा खारिज कर दिया।

            सर्वोच्च अदालत के फैसले के मुताबिक अयोध्या में केंद्र या राज्य सरकार 5 एकड़ वैकल्पिक ज़मीन सुन्नी वक्फ बोर्ड को दी जाएगी। यानी सुन्नी वक्फ बोर्ड को विवादित ज़मीन से अलग अयोध्या शहर में किसी और जगह ज़मीन मिलेगी।

            मुस्लिम पक्ष विवादित ज़मीन पर दावा साबित करने में नाकाम रहा।

            सुप्रीम कोर्ट ने निर्मोही अखाड़े का दावा खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि अखाड़े का दावा लिमिटेशन से बाहर है।

            सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शिया वक्फ बोर्ड का दावा नहीं बनता। इसे खारिज किया जाता है।

            सुन्नी वक्फ बोर्ड को अयोध्या में ही वैकल्पिक ज़मीन देने का आदेश दिया है।

            सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को तीन महीने में योजना बनाने कहा है।

            सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को मंदिर निर्माण के नियमों पर योजना बनाने को कहा है।

            सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र में मस्जिद निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाने का आदेश दिया है।

            पक्षकार गोपाल विशारद को पूजा का अधिकार दिया है।

सर्वोच्च न्यायालय की बेंच के पाँच जज जिन्होंने राम जन्मभूमि विवाद पर फैसला दिया।

प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई

बहुत यादा लोगों को पता नहीं होगा कि प्रधान न्यायाधीश गोगोई असम के पूर्व मुख्यमंत्री केशव चंद्र गोगोई के पुत्र हैं। गोगोई का जन्म 18 नवंबर, 1954 को हुआ। उन्होंने डिब्रूगढ़ के डॉन बोस्को स्कूल से अपनी स्कूली शिक्षा हासिल की और दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास की पढ़ाई की। गोगोई ने 1978 में वकालत के लिए पंजीकरण कराया। उन्होंने संवैधानिक, कराधान और कंपनी मामलों में गुवाहाटी हाई कोर्ट में वकालत की। उन्हें 28 फरवरी, 2001 को गुवाहाटी उच्च न्यायालय का स्थायी न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। उनका 9 सितंबर, 2010 को पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में तबादला किया गया जबकि 12 फरवरी, 2011 को वे पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। उन्हें 23 अप्रैल, 2012 को सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया गया।

जस्टिस शरद अरविंद बोबडे

जस्टिस शरद अरविंद बोबडे का जन्म 24 अप्रैल, 1956 को नागपुर में हुआ। उनके पिता का नाम अरविंद श्रीनिवास बोबडे हैं। बोबडे ने नागपुर विश्वविद्यालय से बीए और एलएलबी की है। मौज़ूदा समय में वे सुप्रीम कोर्ट के दूसरे वरिष्ठतम जज हैं और अगले प्रधान न्यायाधीश भी। शरद अरविंद बोबडे अपर न्यायाधीश के रूप में 29 मार्च, 2000 को बॉम्बे हाई कोर्ट की खंडपीठ का हिस्सा बने। 16 अक्टूबर, 2012 को मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ली। 12 अप्रैल, 2013 को भारत के सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया। उनका कार्यकाल 23 अप्रैल, 2021 में सम्पूर्ण होगा।

जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़

जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सेंट स्टीफन कॉलेज, नई दिल्ली से अर्थशास्त्र में ऑनर्स के साथ बीए दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस लॉ सेंटर से एलएलबी किया है। इसके साथ ही उन्होंने हार्वर्ड लॉ स्कूल, यूएसए से एलएलएम की डिग्री और ज्यूरिडिकल साइंसेज (एसजेडी) में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है। डीवाई चंद्रचूड़ को 13 मई 2016 को सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया गया। चंद्रचूड़ 2013 तक इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और बॉम्बे हाई कोर्ट के जज भी रहे हैं। जस्टिस चंद्रचूड़ 1998 तक भारत के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल के रूप में भी अपनी सेवाएँ दे चुके हैं।

जस्टिस अशोक भूषण

जस्टिस अशोक भूषण का जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर में 5 जुलाई, 1956 को हुआ। उनके पिता का नाम चंद्रमा प्रसाद श्रीवास्तव और माता का नाम कलावती श्रीवास्तव था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक अशोक भूषण ने साल 1979 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ही फस्र्ट डिवीजन में एलएलबी की डिग्री भी हासिल की। 9 अप्रैल 1979 को वे उत्तर प्रदेश बार काउंसिल में रजिस्टर्ड हुए और इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू की। साल 2001 तक वो वहाँ रहे। 24 अप्रैल 2001 को वह इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज नियुक्त किये गये। 2014 में वे केरल हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने। 13 मई, 2016 को अशोक भूषण को सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्तकिया गया।

जस्टिस एस. अब्दुल नाीर

जस्टिस नाीर का जन्म 5 जनवरी 1958 को कर्नाटक के कनारा में हुआ। नाीर ने 18 फरवरी, 1983 में बेंगलुरु में कर्नाटक हाई कोर्ट में एक वकील के तौर पर प्रैक्टिस शुरू की। 12 मई, 2003 में उन्हें कर्नाटक हाई कोर्ट का एडिशनल जज नियुक्त किया गया। 24 सितंबर, 2004 को कर्नाटक हाई कोर्ट में उन्हें स्थायी न्यायाधीश नियुक्त किया गया। फरवरी, 2017 में उन्हें भारत के सर्वोच्च न्यायालय में प्रोन्नत किये गये। अब्दुल नाीर ने 2017 में ट्रिपल तलाक मामले की सुनवाई भी की थी।

अयोध्या विवाद : साल-दर-साल घटनाएँ

अयोध्या में विवादित स्थल पर मालिकाना हक से जुड़े मामले में आखिर 9 जुलाई को फैसला आ गया। लंबे समय से पूरे देश को इसका इंतजार था। प्रधान न्यायाधीश रंजन गागोई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने इस ऐतिहासिक मामले में फैसला 16 सितंबर को सुरक्षित रख लिया था।

‘तहलका’ के पाठकों के लिए यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं विवाद की पूरी कहानी। इतिहास के मुताबिक अयोध्या में विवाद की नींव कोइ 491 साल पहले पड़ी जब वहां मस्जिद का निर्माण हुआ। आइए जानते हैं साल-दर-साल पूरी तस्वीर-

            साल 1528 में मुगल बादशाह बाबर ने उस जगह मस्जिद का निर्माण कराया, जिसे अब विवादित कहा जाता है। हिन्दु पक्ष का दावा है कि यह जगह भगवान राम की जन्मभूमि है और यहाँ पहले एक मंदिर था।

            साल 1853 में इस जगह के आसपास पहली बार साम्प्रदायिक सौहार्द को चोट लगी जब दो समुदायों में दंगे देखने को मिले।

            साल 1859 में तनाव देखते हुए अंग्रेजी शासन ने उस जगह बाड़ लगा दी, जिसे लेकर विवाद था। मुसलमानों को ढांचे के अंदर और हिंदुओं को बाहर चबूतरे पर पूजा करने की इजाजत दी गई।

            साल 1949 में जमीन को लेकर बड़ा विवाद शुरू हुआ जब 23 दिसंबर, 1949 में भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में मिलीं। यह मूर्तियाँ मिलने के बाद हिंदु पक्ष ने दावा किया कि वहाँ भगवान राम प्रकट हुए हैं। हालाँकि, मुस्लिम पक्ष का आरोप था कि किसी ने चुपचाप मूर्तियां वहाँ रखीं। उस समय की यूपी सरकार ने यह मूर्तियां हटाने का आदेश दिया, लेकिन जिला मजिस्ट्रेट केके नायर ने दंगों और हिंदुओं की भावनाओं के भडक़ने के भय से इस आदेश को पूरा करने में असमर्थता जताई। यूपी सरकार ने इस स्थल को विवादित ढाँचा मानकर वहाँ ताला लगवा दिया।

            साल 1950 में फैजाबाद सिविल कोर्ट में दो अर्जियाँ दायर की गयीं। इसमें एक में राम लला की पूजा की इजाजत और दूसरे में विवादित ढांचे में भगवान राम की मूर्ति रखे रहने की इजाजत माँगी गयी। नौ साल बाद साल 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने तीसरी अर्जी दायर की।

            साल 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अर्जी दाखिल कर विवादित जगह के पोजेशन की और मूर्तियाँ हटाने की माँग उठायी।

            साल 1984 में विवादित ढाँचे की जगह मंदिर बनाने के लिए विश्व हिन्दू परिषद (वीएचपी) ने एक समिति का गठन किया।

            साल 1986 में याचिकाकर्ता यूसी पांडे की याचिका पर फैजाबाद के जिला जज केएम पांडे ने पहली फरवरी, 1986 को हिन्दुओं को पूजा करने की इजाजत देते हुए ढाँचे पर से ताला हटाने का आदेश दिया।

            6 दिसंबर, 1992 को भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद् और शिवसेना समेत दूसरे हिन्दू संगठनों के लाखों कार्यकर्ता विवादित ढांचे पर पहुंचे और उसे ढहा दिया। इस घटना से देश भरमें साम्प्रदायिक तनाव पैदा हुआ और दो समुदायों के बीच दंगे भडक़े गए। एक अनुमान के मुताबिक इस भयावह स्थिति में करीब 2000 लोगों की जान चली गयी।

            साल 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में विवादित स्थल को सुन्नी वक्फ बोर्ड, रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़ा के बीच तीन बराबर हिस्सों में बाँटने का आदेश दिया।

            साल 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी।

            साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट का आह्वान किया। भाजपा के शीर्ष नेताओं पर आपराधिक साजिश के आरोप दोबारा बहाल किये।

            8 मार्च, 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को मध्यस्थता के लिए भेजा। पैनल को आठ हफ्ते के भीतर कार्यवाही पूरी करने को कहा।

            पहली अगस्त, 2019 को मध्यस्थता पैनल ने अपनी रिपोर्ट पेश की।

            2 अगस्त, 2019 को सर्वोच्च अदालत ने कहा कि मध्यस्थता पैनल मामले का समाधान निकालने में विफल रहा।

            6 अगस्त 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या मामले की रोजाना सुनवाई शुरू की जो लगातार 40 दिन चली।

            16 अक्टूबर, 2019 को अयोध्या मामले की सुनवाई पूरी हुई। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुरक्षित रखा।

            9 नवंबर, 2019 को फैसला आया।

कितनी सुनवाइयाँ कितने घंटे

यह जानना भी बहुत दिलचस्प है कि आखिर सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले में कितनी सुनवाइयाँ हुईं, कितने घंटे दलीलें सूनी गयीं और क्या-क्या हुआ। ‘तहलका’ पाठकों की दिलचस्पी के लिए पेश है इसका पूरा ब्योरा –

अयोध्या में ज़मीन के इस विवाद की मैराथन सुनवाई हुई। रिकॉर्ड के मुताबिक इस मामले में कुल 39 सुनवाइयों हुईं। करीब 165 घंटे दोनों पक्षों की दलीलें सुनी गईं। हिंदू पक्षकार ने पहले 16 दिन में 67.35 घंटे तक मुख्य दलीलें रखीं। मुस्लिम पक्ष ने अपना पक्ष रखने के लिए 18 दिन में 71.35 घंटे का वक्त लिया। यह जानना भी दिलचस्प है कि इतने दिन तक चलने के बावजूद यह देश का सबसे लम्बे समय तक चलने वाला सबसे बड़ा फैसला नहीं। केशवानंद भारती का मामला सबसे लम्बा मुकदमा है, जो 68 दिन तक चला। इस लिहाज से अयोध्या ज़मीन विवाद दूसरा सबसे लंबा मुकदमा है।

इस मामले में कुल 20 याचिकाएं दायर की गयीं, जिनके प्रमुख याचिकाकर्ता पक्षकार रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड हैं। हालाँकि, शिया सेंट्रल बोर्ड भी बाद में एक पक्षकार बना। शिया बोर्ड विवादित जगह पर राम मंदिर ही बनाये जाने का समर्थक रहा।

वकीलों और पुलिस के बीच खूनी संघर्ष

दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में शुरू हुआ दिल्ली पुलिस और वकीलों का विवाद 2 नवंबर की दोपहर तक इस तरह खूनी संघर्ष में बदल गया कि किसी ने सोचा भी नहीं था। दरअसल यह खूनी संघर्ष पार्किंग को लेकर शुरू हुआ। इसमें दस पुलिस कर्मियों को चोंटें आयीं, तो आठ वकील भी घायल हुए। मामला इस कदर तूल पकड़ता गया कि अब यह देश व्यापी मुद्दा पुलिस और वकीलों के बीच बन गया है। वकीलों ने हड़ताल कर दी, तो पुलिस ने भी अपनी सुरक्षा की माँग को लेकर 5 नवंबर को आई.टी.ओ. स्थित पुलिस मुख्यालय पर प्रदर्शन कर शासन-प्रशासन को चौंका दिया। सोशल मीडिया के युग में पुलिस वालों का अपनी सुरक्षा को लेकर दस घंटे तक का प्रदर्शन करना छोटी बात नहीं है। हालाँकि पुलिस के आला अधिकारियों के आश्वासन के बाद पुलिसकर्मियों ने 5 नवंबर को देर रात प्रदर्शन समाप्त तो कर दिया, परन्तु पुलिस की इस तरह की बगावत पूरे देश में चर्चा का विषय बन गई।

पुलिस बनाम वकील की बात तो अलग दिखी, इस प्रदर्शन में पुलिस बनाम पुलिस मामला भी दिखा। पुलिसकर्मी अपने मानवाधिकारों की सुरक्षा को लेकर प्रदर्शन करते रहे। इस प्रदर्शन में पुलिसकर्मियों के परिजनों ने भी भाग लिया और कहा कि वर्दी की हिफ़ाजत के लिए हमें सडक़ों पर उतरने को मजबूर होना पड़ा और कहा कि पुलिस वाले नौकरी देश सेवा के लिए करते हैं, न कि पिटने के लिए।

बताते चलें शायद यह मामला इतना तूल न पकड़ता अगर इसमें राजनीति न होती; क्योंकि घायल वकीलों को देखने तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल सेंट स्टीफंस अस्पताल गए, उनका हालचाल भी जाना और हर सम्भव मदद का आश्वासन भी दिया। जबकि दिल्ली पुलिस आयुक्त अमूल्य पटनाटक घायल पुलिस जवानों को देखने अरुणा आसफ अली अस्पताल तक देखने नहीं गए; यह कहना है प्रदर्शनकारी पुलिसकर्मियों का। ऐसे में पुलिसकर्मियों में हताशा और निराशा बढ़ी है। पुलिस जवान के बगावती तेवर को लेकर पुलिस के आला अधिकारी मामले को शांत करने में लगे रहे; पर प्रदर्शनकारी पुलिसकर्मी अपनी माँगों को लेकर अड़े रहे। बाद दिल्ली पुलिस आयुक्त अमूल्य पटनायक ने प्रदर्शनकारियों को सम्बोधित कर मामले को शांत करना चाहा, तभी किरण बेदी जैसे अफसरों की ज़रूरत जैसे नारे लगने लगे कि आज पुलिस को किरण बेदी जैसे अफसरों की ज़रूरत है। ऐसे में आयुक्त अपनी बात न रख सके। तमाम आश्वासन के बाद ही पुलिस जवानों ने प्रदर्शन को समाप्त किया।

िफलहाल जाँच प्रक्रिया कई स्तर पर गंभीरता से चल रही है। ऐसे में 5 नवंबर को बग़ावती तेवर से देर रात पीएमओ और गृह मंत्रालल मामले की पल-पल की जानकारी लेता रहा। सूत्रों का कहना है कि गृह मंत्रालय दिल्ली पुलिस की इस घटना से काफी खफ़़ा है; क्योंकि पुलिस ही अपनी माँगों को लेकर हड़ताल करने लगे, तो सरकार के प्रति देशवासियों का नज़रिया क्या होगा? गृह मंत्रालय शीघ्र ही कोई ठोस फैसले ले सकती है।

अगर पुलिस और वकील के बीच यह बखेड़ा हुआ है, तो उसकी जड़ में सोशल मीडिया है। पार्किंग विवाद के दौरान जब पुलिस वाले ने गोली चलाई और घायल होकर वकील गिरा पड़ा, तो तीस हजारी कोर्ट में मामला एकदम इस कदर भयावह हो गया कि अफरा-तफरी और भागो और मारो की आवाों आने लगीं। मामला यहाँ तक बढ़ा कि जिसको देखा, वही हिंसक बातें करता मिला। पुलिस और वकील के बीच जो मारपीट हो रही थी, उसको देखकर अपनी तारीख पर सुनवाई के लिए मुवक्किल व लोगों ने बताया कि मामला भयंकर गर्म था। उन्हें कोर्ट परिसर से बाहर निकलने तक में दिक्कत हुई। घटना स्थल पर मौज़ूद लोगों का कहना था कि दर्जनों की संख्या में पुलिस और सैकड़ों की संख्या में वकीलों के बीच जो खूनी संघर्ष चला उसको देखकर लगा कि ये कानून के रखवालों की अहम् की लड़ाई है; जिसमें मारने वाला भी रो रहा है और पिटना वाला भी। क्योंकि जब खूनी संघर्ष चल रहा था, तब वकीलों के कई ग्रुप हिंसक फोटो वायरल करने में लगे थे।

सोशल मीडिया की देन है कि एक ओर पुलिस और वकील भिड़ रहे, तो एक ओर वकीलों के कई ग्रुप खूनी संघर्ष की फोटो वायरल कर वकीलों को संगठित करने में लगे थे। दिल्ली के कडक़डड़ूमा कोर्ट, साकेत कोर्ट और द्वारका कोर्ट के वकीलों ने वकील एकता का परिचय दिया और हड़ताल कर दी। सोशल मीडिया के ज़रिये वायरल होकर जैसे ही यह मामला दूसरे राज्यों में पहुँचा, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वकीलों ने भी हड़ताल कर दी और देखते ही देखते कानपुर, इलाहाबाद से भी हड़ताल की खबरें आने लगीं; वहां भी पुलिस और वकीलों के बीच हिंसक झड़पें हुईं।

दिल्ली के उप राज्यपाल अनिल बैजल ने दोनों पक्षों से आपसी सौहार्द रखने की बात कही। उन्होंने मामले को गंभीरता से लेते हुए कहा कि दिल्ली पुलिस और वकील आपस में मिलकर मामले को निपटा लें; क्योंकि वकील और पुलिस दोनों ही कानून के रखवाले हैं। ऐसे में दोनों के बीच का विवाद ठीक नहीं है।

घटना में एडिशनल डी.सी.पी. हरेन्द्र कुमार व एस.एच.ओ. सहित 10 पुलिसकर्मिर्यों को चोटें आयीं। आठ वकील घायल हुए। वहीं 17-18 वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया, जिसमें एक पुलिस की जिप्सी भी वकीलों द्वारा जलायी गयी।

वकीलों का आरोप है कि पुलिस ने गोली चलायी, जिससे विजय शर्मा नामक वकील घायल हो गया। वकीलों का कहना है कि जब तक इस मामले में दोषी पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार और बर्खास्त नहीं किया जाता है, तब तक हड़ताल जारी रहेगी। दिल्ली बार एसोसिएशन के सीनियर वाइस प्रेसीडेंट इक्रांत शर्मा ने कहा कि वकीलों हड़ताल तब तक जारी रहेगी, जब तक दोषी पुलिस वालों के िखलाफ कार्रवाई नहीं होती। उन्होंने कहा कि पुलिस ने जो वकीलों पर गोली चलाई और अत्याचार किया है, उसको माफ नहीं किया जा सकता है। उन पुलिसकर्मियों को बर्खास्त करना चाहिए। उनके िखलाफ मुकदमा दर्ज होना चाहिए। वकीलों के अधिकारों के लिए संघर्षरत कडक़डड़ूमा कोर्ट के जाने-माने वकील पीयूष जैन का कहना है कि वकालत ही एक ऐसा पेशा है, जिसमें न्याय दिलाने के लिए हम लोग मेहनत करते हैं और संघर्षरत रहते हैं। उनका कहना है कि कितना दु:खद है कि आज पुलिस गोली भी वकीलों को मार रही है और अपनी सुरक्षा के लिए रो रही है। उन्होंने भी दोषी पुलिसकर्मियों के बर्खास्त होने तक हड़ताल जारी रहने की बात कही। दिल्ली हाई कोर्ट सीनियर एडवोकेट आनंद महेश्वरी का कहना है कि कानून के मंदिर में न्याय और अधिकारों के लिए संघर्ष होता है; पर पुलिस ने वकील पर गोली चलाकर ग़लत किया है, जो निंदनीय है। दोषी पुलिस वालों के िखलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि आगे से ऐसी घटना न हो सके।

बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा का कहना है कि तीस हजारी कोर्ट में जो भी हुआ वो निन्दनीय और शर्मनाक है। काउंसिल वकीलों के अधिकारों के साथ है और दोषी पुलिस वाले के िखलाफ कार्रवाई तक संघर्ष करेगी। उन्होंने कहा कि वकीलों को भी अपनी गरिमा बनाये रखना होगा। उन्होंने कहा कि उपद्रवी वकीलों को चिन्हित किया जायेगा ताकि फिर से ऐसी घटना न हो सके ।

ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर देवेश श्रीवास्तव ने बताया कि दिल्ली पुलिस के जो भी जवान घायल हुए हैं, उनका बेहतर इलाज करवाया जाएगा और जो भी माँगें हैं उन पर भी विचार किया जा रहा है। क्योंकि पुलिस का काम शांति बनाये रखना है, ऐसे में पुलिस के प्रदर्शन से मैसेज सही नहीं जा रहा है। ऐसे में पुलिस वाले अपनी नैतिकता व िज़म्मेदारी के साथ ड्यूटी पर जाएँ।

प्रदर्शनकारी पुलिस जवान राजीव भारद्वाज ने बताया कि दिल्ली पुलिस के जवान दिल्ली के नागरिकों की सुरक्षा के लिए अपनी जान की बाज़ी तक लगा देते हैं; ऐसे में पुलिस के साथ मारपीट की जाए और सरेराह गाली-गलौज और अपमानित किया जाए, तो मनोबल भी गिरेगा और भय भी पनपेगा।

दिल्ली पुलिस आयुक्त अमूल्य पटनाटक ने दिल्ली के पुलिस जवानों से अपील की है कि वे किसी प्रकार के उकसावे में न आएँ और अपनी गरिमा को बनाए रखें। उन्होंने कहा कि हम सब देश के प्रतिष्ठित पुलिस बल का हिस्सा हैं। इसलिए अपनी प्रतिष्ठता को कायम रखें और किसी प्रकार से बहकावे में न आएँ। उन्होंने बताया कि रिव्यू पिटीशन के माध्यम से हमने जो मुद्दा उठाया था, उसमें भी हमें न्यायोचित राहत मिली है। आशा है कि आगे भी न्याय होगा।

दिल्ली पुलिस के कांस्टेबल संजय ने बताया कि वकीलों ने जो पुलिस वालों के साथ किया है, वो यूनियन के दम पर किया है; क्योंकि वकीलों की यूनियन पूरे देश में हिंसक झड़पों के लिए जानी जाती है। हमारी भी यही माँग है कि पुलिस वाले अपनी माँगों को रखने के लिए एक यूनियन का गठन करें, ताकि वे भी अपने अधिकारों की बात को यूनियन के माध्यम से रख सकें। क्योंकि आए दिन अदालतों में वकीलों और पुलिस के बीच हिंसक झड़पें आम बात हो गयी है।

मुवक्किल रहे परेशान

वकीलों की हड़ताल से सबसे ज़्यादा अगर असर मुवक्किलों पर पड़ रहा है। मुवक्किलों का कहना है कि उनको वैसे ही अदालत में बार-बार आने-जाने में दिक्कत होती है। इस झगड़े से जो फैसले होने वाले थे, वे प्रभावित हुए हैं। वकीलों की हड़ताल के चलते चैक बाउंस का केस लड़ रहे रमन कुमार ने बताया कि तीन साल से केस लड़ रहे थे, उन्हें उम्मीद थी कि 4 या 5 नवंबर को मामला निपट जाएगा; पर हड़ताल के चलते ऐसा नहीं हो सका। लक्ष्मी नगर निवासी सुनील शर्मा ने बताया कि परिवारिक मामले का निपटारा होना था, पर इस झगड़े के चलते लटक गया।

72 साल में पहली बार पुलिस माँग रही सुरक्षा : कांग्रेस

कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा कि आज कानून के रखवाले ही अपनी माँगों को लेकर सडक़ों पर हैं। दिल्ली में 72 वर्षों में पहली बार देखा गया है कि आज पुलिस वाले अपनी सुरक्षा की माँग कर रहे हैं; जिन पर देश की सुरक्षा की जि़म्मेदारी है। ऐसे में आम नागरिकों की सुरक्षा की बात कैसे की जा सकती है। उन्होंने कहा कि देश के गृह मंत्री अमित शाह अपनी बात रखें, ताकि जो भय का माहौल बन चुका है, उससे राहत मिले। क्योंकि उत्तर भारत में क़ानून के स्तर में जो गिरावट आयी है। इससे पहले कभी भी नहीं देखी गयी है।

समय पर नहीं मिलतीं डी.टी.सी. बसें

दिल्ली सरकार ऑड-ईवन को लागू करके भले ही वायु प्रदूषण को कम करने का दम भरे पर लोगों के आने-जाने के लिए बसों की पर्याप्त व्यवस्था न होने के कारण काफी परेशानी का सामना करना पड़ा है। मौज़ूदा वक्त में दिल्ली की परिवहन व्यवस्था काफी चरमरा-सी गयी। आलम ये है कि इस समय लगभग 5500 बसें दिल्ली की सडक़ों में दौड़ रही है। जबकि सरकार ने यातायात को सुचारू करने के लिए प्राइवेट बसों का सहारा लिया हैं; उसके वाबजूद परिवहन व्यवस्था चौपट रही है।

दिल्ली के लोगों से तमाम रूटों और बस अड्डों पर जाकर तहलका संवाददाता ने बसों की कमी के बारे में जाना। यात्रियों की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही। कुछ यात्रियों ने बताया कि सरकार द्वारा ऑड-ईवन लागू करने प्रदूषण तो कम हुआ है, पर दैनिक यात्रा करने वालों की परेशानी भी बढ़ी है। क्योंकि बसों में यात्री बढऩे के अलावा बसों की चालन की स्थिति ठीक नहीं है। कहीं-कहीं तो घंटों बसें नहीं आतीं। इसके चलते लोग ऑफिस तक समय से नहीं पहुँच पा रहे हैं। ऑफिस मालिक या प्रबंधक आदि इस समस्या को समझते नहीं हैं और वेतन में कटौती कर देते हैं। वहीं कुछ लोगों ने यह भी बताया कि प्राइवेट सीएनजी बसों को सडक़ों पर उतार दिया गया है, जिससे काफी राहत मिली है। लेकिन पड़ताल करने पर कुछ रूट पर प्राइवेट बसों की सेवा देखने को नहीं मिली। भाजपा नेता व केंद्रीय िफल्म बोर्ड के सदस्य राजकुमार सिंह का कहना है कि मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल तो आदेश जारी करते हैं; जनता की समस्याओं को नहीं समझते, जिसके कारण छात्र-छात्राओं को काफी दिक्कत हुई है।

वहीं दिल्ली सरकार का मानना है कि राजधानी में जनसंख्या के हिसाब से लगभग 10 हज़ार बसों की ज़रूरत है; पर दिल्ली परिवहन निगम डी.टी.सी. की लगभग 3,500 और कलस्टर की औरेंज 2,000 बसों से ही काम चलाया जा रहा है। बसों की कमी के कारण दिल्ली वालों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। रूटों पर बसों का समय पर न आने की मुख्य वजह बसों का टोटा है। बताते चलें दिल्ली में 2010 में कॉमन गेम्स के बाद से डी.टी.सी. बसें ही नहीं खरीदी गई हैं। हालाँकि, कलस्टर बसों की संख्या में इज़ाफा हुआ है। डी.टी.सी. बसों की कमी के चलते बस से चलने वालों को हर दिन यातायात की समस्या से जूझना पड़ता है।

सरकार से नाराज़ हैं डी.टी.सी कर्मचारी

इधर, दिल्ली के डी.टी.सी. कर्मचारी भी सरकार से नाराज़ चल रहे हैं। उनका कहना है कि कुछ माँगों को लेकर डी.टी.सी. कर्मचारियों ने हड़ताल की थी, तो सरकार ने 108 कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया था। ऐसे में कर्मचारी चुपचाप रोज़ी-रोटी बचाने के डर से सरकार के समक्ष कोई बात तक नहीं रख पा रहे हैं। डी.टी.सी. बसों के कुछेक ड्राइवरों-कंडक्टरों ने बताया कि सीएनजी बसों के चलाने से स्वास्थ्य को काफी नुकसान हो रहा है। ऐसे में जो मेडिकल सुविधाएँ मिलती थीं, वो भी सरकार ने कम कर दी हैं। कलस्टर बस के चालकों का कहना है ओवर टाइम की प्रथा पूरी तरह से बंद है। डी.टी.सी. वालों की तरह सुविधाएँ उन्हें नहीं मिलती हैं। वेतन इतना कम मिलता है कि उससे परिवार चलाना मुश्किल है। दिल्ली में बसों की कमी के अलावा पुरानी बसों की हालत भी दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। यह बसें कई बार रास्ते में ही बंद हो जाती हैं। कलस्टर बस चालक संतोष का कहना है कि माना कि हम लोग ठेकेदारी-प्रथा के तहत काम करते हैं। सरकार को सोचना चाहिए हम लोग भी डी.टी.सी. ड्राइवरों-कंडक्टरों की तरह काम करते हैं, तो हमें भी उसी तरह की सुविधाएँ और वेतन आदि मिलना चाहिए। कलस्टर और डी.टी.सी. कर्मचारियों के बीच यह भेदभाव ठीक नहीं। डी.टी.सी. कर्मचारी अशोक कुमार का कहना है कि बसों की कमी के कारण और खराब बसों की बढ़ती संख्या से जनता काफी दु:खी है। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया से बातचीत करने पर उन्होंने कहा कि हमारी ओर से कोशिशें जारी हैं। बसों की कमी को दूर किया जाएगा। ऑड-ईवन के दौरान जो भी परेशानी हो रही है, उसको भी दूर किया जा रहा है।

फैसले के आगे

आयोध्या पर फैसला आ गया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ का सर्वसम्मत फैसला। दशकों तक यह मुद्दा राजनीति के पालने में डोलता रहा। भाजपा इसके केंद्र में रही। भले तमाम हिन्दू संगठन, विश्व हिन्दू परिषद्, आरएसएस, शिवसेना और अन्य संगठन भी इससे शिद्दत से जुड़े रहे। लेकिन राजनीति की सबसे बड़ी खुराक तो इसे भाजपा ने ही बनाया; पिछले दो-तीन दशक में कमोवेश हर लोक सभा और उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में भी। अब जबकि राम मंदिर निर्माण का मार्ग सर्वोच्च न्यायालय के सर्वसम्मत फैसले से प्रशस्त हो गया है, यह उचित समय है कि केंद्र में सत्तासीन भाजपा अब जनता से जुड़े गम्भीर मसलों पर ध्यान दे।

राम हिन्दुओं की आस्था के सबसे बड़े केंद्र हैं। इसलिए भी कि वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं। उत्तर प्रदेश, जहाँ राम की नगरी अयोध्या है और जहाँ राम निवास करते हैं, उनकी मान्यताओं और आदर्शों को आत्मसात करने का यह उचित समय है। सर्वोच्च अदालत के फैसले से मानव-मान्यताएँ और विश्वास जीता है; यह फैसले के बाद तमाम समुदाओं और धर्मों के बीच सौहार्द बने रहने से साफ हो गया है। यह फैसला किसी एक की धर्म नहीं, एक विश्वास की जीत है। यह मर्यादा पुरुषोत्तम के आदर्शों की जीत है।

धर्म की अफीम खिलाकर राजनीति के खिलाड़ी सदियों से अपनी दुकान चलाते रहे हैं। इसे यदि कोई परास्त कर पाया है, तो वह और कोई नहीं, बल्कि जनता ही है। जनता खुद नफरत करना और लडऩा नहीं चाहती। परदे के पीछे ऐसा खेल खेलने वाले चेहरे दूसरे ही होते हैं। सर्वोच्च अदालत के सर्वसम्मत फैसले ने इन चेहरों को भी परास्त कर दिया है।

देश के संविधान ने यहाँ के नागरिकों को समान अधिकार दिये हैं; खाने-पीने, उठने-बैठने से लेकर धर्म का पालन करने तक। इसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए; क्योंकि पूर्व के अनुभव कड़वे रहे हैं। कुछ खराब बातें भी हुई हैं। असंख्य निर्दोषों की जान भी गयी है। यह सब मर्यादा पुरुषोत्तम के आदर्शों के विपरीत है। सुख की बात है कि 9 नवंबर के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद पुराने जख्म हरे नहीं हुए। यही मानवतावाद है, यही राम की शिक्षा है। सभी धर्मों के मूल में यही है। आने वाले महीनों में अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की प्रक्रिया शुरू होगी। आओ इसकी नींव में मर्यादा पुरुषोत्तम के आदर्शों का मज़बूत गारा डाल दें।

यह सही वक्त है कि मोदी सरकार अयोध्या के फैसले के बाद अब विकास, रामराज्य और पाँच ट्रिलियन डॉलर अर्थ व्यवस्था का लक्ष्य हासिल करने पर ध्यान केंद्रित करे। ‘तहलका’ सभी समझदार आवाज़ों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सहमत है; जिन्होंने सही कहा है कि ‘सुप्रीम कोर्ट के फैसले को किसी की जीत या हार के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।’ उन्होंने ट्वीट किया- ‘चाहे वह राम या रहीम की भक्ति हो, अब हर किसी के लिए समर्पण के साथ भारत को मज़बूत करने का समय है।’

अब जबकि लम्बे समय से देश में ध्रुवीकरण के सूत्रधार रहे मसले को सुलझा लिया गया है और मस्जिद और राम मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त हो गया है; राष्ट्र का ध्यान अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दों के विकास के लिए स्थानांतरित होना चाहिए। बेहतर कानून व्यवस्था, रोज़गार, किसान, सामाजिक और आर्थिक समृद्धि अब सूची में सबसे ऊपर होने चाहिए। शासन में तमाम भागीदारों को 2025 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थ व्यवस्था बनाने के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लक्ष्य को पूरा करने के लिए जुट जाना चाहिए। यह असली राम राज्य बनाने का वक्त है।

इंटीरियर डिजाइनर, खुद डिजाइन करें अपना करियर

आजकल शादी-पार्टियों में हर कोई सजावट को महत्त्व देने लगा है। इसके साथ ही महानगरों में ही नहीं, बल्कि छोटे शहरों और कस्बों में भी लोग अपने घरों, दफ़्तरों सजाने में रुचि रखने लगे हैं। इसलिए यह काम एक बेहतर स्वरोजगार का माध्यम बनता जा रहा है।

आज इंटीरियर डिजाइनिंग के प्रति लोगों का रुझान इस हद तक बढ़ चुका है कि लोग खुद किसी स्पेस को डिजाइन करने की अपेक्षा प्रशिक्षित इंटीरियर डिजाइनर की मदद लेना पसंद करने लगे हैं। सजावट चाहे घर की हो, दफ्तर की हो, होटल की हो, भवन की या फिर शोरूम की, इंटीरियर डिजाइनर का काम उसे अच्छे से अच्छा लुक देना होता है। इंटीरियर डिजाइनिंग में खासतौर से योजना, डिजाइन, निर्माण, पुनर्निर्माण, पुनरुद्धार और साज-सज्जा आदि पर ध्यान देना होता है। किसी भी स्थान की इंटीरियर डिजाइनिंग का मुख्य उद्देश्य सही बजट में सही वातावरण तैयार करना होता है।

इस क्षेत्र में यों तो बहुत से अवसर हैं। मगर यदि आप इंटीरियर डिजाइनर को स्वरोजगार के रूप में अपनाते हैं, तो यह क्षेत्र आपके लिए फायदे वाला साबित हो सकता है। इस काम में पढ़ाई से ज़्यादा काम आती है आपकी क्रिएटिविटी। एक इंटीरियर डिजाइनर बनने के लिए कलात्मकता, प्रबंधकीय दक्षता, कला, तार्किक बुद्धि, नई-नई सोच, तुरंत बदलाव करने की क्षमता और तकनीकी पारस्परिकता का मेल होना बहुत जरूरी है। इंटीरियर डिजाइनर को अपने विचारों, हुनर तथा काम से हर तरह के ग्राहक को संतुष्ट करना होता है। इसमें आप मॉडर्न आर्ट का काफी अच्छे से इस्तेमाल कर सकते हैं। जो कला में रुचि रखते हैं, वे इस क्षेत्र में अच्छा मुकाम पा सकते हैं। एक इंटीरियर डिजाइनर को बिल्डर्स, आर्किटेक्ट, कॉन्ट्रेक्टर, प्लंबर और इलेक्ट्रीशियन से सामंजस्य बिठाना पड़ता है। इंटीरियर डिजाइनिंग में एक ही फील्ड में स्पेशल तौर पर भी किया जा सकता है। आप िफल्मों और थिएटर के अलावा अनेक मेलों में ठेके पर इंटीरियर के काम की तलाश कर सकते हैं। जो लोग बदलते ट्रेंड को अच्छी तरह समझते हैं और उसी हिसाब से अपने काम में बदलाव लाते रहते हैं, वे इस क्षेत्र में और भी अच्छा करियर बना सकते हैं।

जगह का चुनाव

इंटीरियर डिजाइनर का काम शुरू करने के लिए वैसे तो एक छोटे से ऑफिस टाइप कमरे की जरूरत होती है, लेकिन अगर आप सजावट का सामान भी रखना चाहते हैं तो एक गोदाम की ज़रूरत पड़ेगी। आप यह काम कहीं भी कर सकते हैं। बस इतना ध्यान रहे कि आप जहाँ भी बैठें, आपके पास ग्राहक आसानी से आ सकें और आप वहाँ से अपने काम का अच्छी तरह प्रचार कर सकें।

ज़रूरी उपकरण

आजकल डिजाइनिंग का काम तो कंप्यूटर द्वारा होने लगा है, अत: इस काम को शुरू करने के लिए सबसे पहली प्राथमिकता तो कम्प्यूटर ही है। इसके अलावा चित्रकला के काम आने वाली प्राथमिक चीों जैसे सादा कागा, पेंसिल, रबड़ आदि की ज़रूरत होगी। प्लास, पेचकस, कारपेंटर के उपकरण और बिल्डिंग मैटीरियल की भी ज़रूरत होती है।

लागत

इंटीरियर डिजाइनिंग का काम शुरू करने के लिए तकरीबन 50-60 हज़ार रुपये की ज़रूरत पड़ती है। इसके अलावा आपको ऑफिस बनाने के लिए अलग से पैसा लगाना पड़ेगा। इसके बाद आपको हर महीने ऑफिस खर्च की ज़रूरत पड़ेगी। अधिक पैसा लगाने की इस काम में सीमा नहीं है, फिर भी बड़े स्तर पर दो से पाँच लाख रुपए में आपका काम शुरू हो सकता है, जो आपके ऑफिस और गोदाम के खर्चे के अतिरिक्त भी हो सकता है।

आय

इंटीरियर का काम तकरीबन पाँच-छह महीने बाद बाज़ार पकड़ पाता है, यानी पाँच-छह महीने तक आपको बहुत कम आमदनी हो सकती है। हाँ, आपका ऑफिस और गोदाम खर्च आराम से निकल आएगा। अगर आप बाज़ार में जल्दी पकड़ बना लेते हैं, तो एक-दो महीने में ही आपको अच्छी आमदनी होने लगेगी। यह काम ऐसा है, जो एक बार जम गया, तो कभी ठप नहीं होगा। फिर भी कम लागत पर शुरुआत में आप 10 से 25 हाज़र रुपये कमा सकते हैं। अगर काम अच्छा चल गया तो हर महीने 50 हाज़र से एक लाख रुपए महीने तक आमदनी हो सकती है। बड़े स्तर पर काम करने पर आमदनी भी अधिक होगी, लेकिन यह आपके काम के चलने पर ही निर्भर करेगी।

कोर्स

इंटीरियर डिजाइनिंग का कोर्स अधिकतर आर्ट स्कूल कराते हैं। भारत में इसके डिप्लोमा और डिग्री कोर्स उपलब्ध हैं। इन कोर्सेज में विद्यार्थी को बिल्डिंग में आंतरिक और बाहरी साज-सज्जा के अलावा उसकी बनावट के हिसाब से बेहतर से बेहतर लुक देना सिखाया जाता है। कुछ संस्थान बिल्डिंग बनाने और उसमें सज्जा के लिए बनाई जाने वाली चीज़ों का निर्माण करना भी सिखाते हैं।

योग्यता

इंटीरियर डिजाइनिंग का किसी भी कोर्स  के लिए गणित, कला, अंग्रेजी में कम से कम 55 प्रतिशत अंकों के साथ बारहवीं पास होना आवश्यक है। इसके अलावा आपकी कला में रुचि और चित्रकला का ज्ञान, कम्प्यूटर की प्राथमिक जानकारी और सृजन क्षमता का होना आवश्यक है।

दाखला

डिप्लोमा या डिग्री कोर्स करने के लिए प्रवेश परीक्षा पास करनी होगी, जिसमें आपकी तार्किक, बौद्घिक और सृजन क्षमता की जाँच के अलावा गणित, हिंदी, अंग्रेजी, कला और विज्ञान के सामान्य ज्ञान की परख की जाती है। कुछ प्राइवेट संस्थान बिना प्रवेश परीक्षा के ही प्रवेश दे देते हैं।

फीस

इंटीरियर डिजाइनिंग के कोर्सेज की फीस डिप्लोमा कोर्सेज में समयावधि तथा संस्थान और डिग्री कोर्सेज में संस्थान के हिसाब से अलग-अलग है। सरकारी संस्थान जहाँ 5 से 20 हाज़र में एक साल के डिप्लोमा और डिग्री कोर्स कराते हैं, वहीं प्राइवेट संस्थान 15 हजार रुपए महीने से लेकर एक-डेढ़ लाख रुपये साल तक वसूलते हैं।

लोन

इंटीरियर डिजाइनिंग का काम और इसकी पढ़ाई, दोनों के लिए ही बैंक से लोन मिल जाता है। पढ़ाई के लिए सभी बैंक लोन नहीं देते। काम शुरू करने के लिए लोन लेने पर आपको बैंक की प्राथमिक शर्तों का पालन करना होगा, जो अधिकतर आरबीआई द्वारा निर्धारित होती हैं। इसके अलावा आपको ज़रूरी दस्तावेज जमा कराने होंगे। लोन आप अपने स्तर पर बैंक से संपर्क करके सीधे लेने के अलावा प्रधानमंत्री स्वरोजगार योजना के अंतर्गत भी ले सकते हैं।

प्रमुख संस्थान

मीराबाई पॉलिटेक्निक, महारानी बाग, नई दिल्ली

साउथ दिल्ली पॉलिटेक्निक फॉर वुमन, नई दिल्ली

एमेटी स्कूल ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी, नोएडा, उत्तर प्रदेश

अकेडमी ऑफ आर्ट एंड डिजाइन, नवी मुंबई, महाराष्ट्र

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन डिजाइन, चंडीगढ़

बांग्लादेश के बिहारी मुसलमान

इंसान दो सूरतों में पलायन करता है। एक मजबूरी में और दूसरा अपनी खुशी से। भारत विभाजन के समय बंगाल, पंजाब और बिहार में भीषण साम्प्रदायिक दंगे हुए। कभी साथ मिलकर आज़ादी की लड़ाई लडऩे वालों के बीच खूनी जंग शुरू हो गयी। कत्ल-ओ-गारत की इस घटना में लाखों लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी। बिहार से लाखों मुसलमान माहब के नाम पर बने देश पूर्वी पाकिस्तान गए। चौबीस वर्षों तक इन लोगों को यहाँ कोई परेशानी नहीं हुई; लेकिन 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद बंगालियों की नारों में बिहारी मुसलमानों की पहचान एक गद्दार के रूप में होने लगी। अपने ही देश में उनकी हालत शरणार्थियों जैसी हो गयी।

दस साल पहले बांग्लादेश हाईकोर्ट के आदेश पर उन्हें नागरिकता मिली; लेकिन उनकी दुश्वारियाँ अब भी बरकरार है। भारत विभाजन के समय कलकत्ता साम्प्रदायिक हिंसा की ज़द में आया उसके बाद नोआखाली में हाज़रों लोग दंगे की भेंट चढ़ गये। नतीजतन बिहार में भी भीषण साम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये। इस तरह साथ मिलकर आज़ादी की लड़ाई लडऩे वालों के बीच शुरू हुई खूनी जंग में अनेक लोग मारे भी गये। ढाई दशकों तक इन लोगों को पूर्वी पाकिस्तान में कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद बंगाली मुसलमान उर्दू बोलने वाले बिहारी मुसलमानों को पराये की तरह देखने लगे।

अपने ही देश में उनकी हालत शरणार्थियों जैसी हो गई। हालाँकि साल 2008 में बांग्लादेश हाईकोर्ट के आदेश पर उन्हें नागरिकता मिली;  पर उनकी दुश्वारियाँ अब भी बरकरार है।

साल 1947 से 1971 तक उर्दू भाषी बिहारी मुसलमान तब के पूर्वी पाकिस्तान के नागरिक थे। वे नहीं चाहते थे कि पाकिस्तान का विभाजन हो और कोई नया मुल्क बने। यही कारण था कि 1971 के मुक्ति युद्ध के दौरान उस समय बांग्लादेश में रहने वाले लाखों बिहारी मुसलमानों ने मुक्ति वाहिनी के िखलाफ पाकिस्तान सेना का साथ दिया। मुक्ति युद्ध के समय सात-साढ़े-सात लाख बिहारी मुसलमान बंगाली मुसलमानों के हाथों मारे गए। उसके बाद 1973 में त्रिदेशीय समझौता होने के बाद सवा लाख बिहारी मुसलमान पाकिस्तान के शहर कराची, लाहौर और हैदराबाद में जाकर बसे। अभी िफलहाल ढाका समेत समूचे बांग्लादेश में साढ़े सात लाख बिहारी मुसलमान रहते हैं। बिहारी मुसलमानों को नागरिकता और मताधिकार का हक मिले इस बाबत उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहेव्लिटेशन मूवमेंट (यूएसपीयूआरएम) ने बांग्लादेश हाईकोर्ट में एक रिट पिटीशन 11239/2007 सदाकत खान वगैरह बनाम बांग्लादेश सरकार व चुनाव आयोग वगैरह दायर किया था। साल 2008 में बांग्लादेश हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए बिहारी मुसलमानों को बांग्लादेश की नागरिकता और वोटिंग राइट देने का आदेश दिया।

ढाका में बसता है बिहार

मोहम्मद गुलाम मुस्तफा पेशे से ऑटो मैकेनिक हैं। 1947 में इनके पिता बिहार के छोटी बलिया (बेगूसराय) से ढाका आए थे। वे बताते हैं कि साल 1973 में बांग्लादेश सरकार और इंटरनेशनल रेडक्रॉस के बीच एक समझौता हुआ था। समझौते के तहत ढाका के मीरपुर और मोहम्मदपुर में बिहारी मुसलमानों को बसाया गया था। अब अगर हमसे यह कैंप भी छिन जाएगा, तो हमारा परिवार कहाँ जाएगा? 1971 के मुक्ति युद्ध से पहले ढाका में रहने वाले बिहारी मुसलमान राजधानी के अलग-अलग कॉलोनियों में रहते थे। लेकिन बांग्लादेश बनने के बाद ढाका में रहने वाले सभी बिहारी मुसलमानों को उनके घरों से बेदखल कर दिया गया। मीरपुर में जहाँ आज 39 कैम्प हैं वह पहले एक खुला मैदान था। इंटरनेशनल रेडक्रॉस की मदद से मीरपुर में पन्द्रह-बीस गज के 4000 कैम्प बनाए गए। ढाका में रहने वाले बिहारी मुसलमान 1971 से अब तक उसी कैम्प में रहते हैं। दस फीट के दो कमरे में गुलाम मुस्तफा अपने चार बेटों और दो बेटियों के साथ रहते हैं। उनकी पत्नी नसरीन खातून बताती हैं कि घर में जगह नहीं होने की वजह से वे अपने बेटों की शादी नहीं कर रहे हैं।

अधिकारों के लिए कानूनी लड़ाई

उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहेव्लिटेशन मूवमेंट (यूएसपीयूआरएम) दो दशकों से बांग्लादेश खासकर राजधानी ढाका में बिहारी मुसलमानों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है। इस संगठन के अध्यक्ष सदाकत खान का ताल्लुक बिहार के दरभंगा िज़ले से है। इससे पहले नसीम खान की अगुवाई में स्ट्रैनडेड पाकिस्तानी जनरल रिपेट्रिएशन कमिटी (एस.जी.पी.आर.सी.) भी अस्सी के दशक से बांग्लादेश के बिहारी मुसलमानों को पाकिस्तान वापस भेजने की लड़ाई लड़ी। नसीम खान की मौत के बाद यह संगठन अंदरूनी गुटबाज़ी का शिकार हो गया।

सदाकत खान बताते हैं, बँटवारे के वक्त नोआखाली में भडक़ी साम्प्रदायिक हिंसा के बाद बिहार के कई िज़लों मसलन भागलपुर, पटना, गया, भागलपुर, मुंगेर, छपरा और दरभंगा जैसी जगहों पर माहबी फसाद शुरू हो गए। हाज़रों लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी खासकर मुसलमानों को। लिहाजा हिंसा प्रभावित इन िज़लों के मुसलमान अपनी जान बचाने के लिए लाखों की तादाद में पूर्वी पाकिस्तान जाकर बस गए। क्योंकि बिहारी मुसलमानों के लिए लाहौर या कराची जाना उतना आसान नहीं था। एक तो वहाँ उनके कोई रिश्तेदार नहीं थे और दूसरी बात कि वहाँ कि संस्कृति में ढल पाना उनके लिए उतना आसान भी नहीं था। सदाकत खान का रिश्ता दरभंगा िज़ले के अंतर्गत जाले प्रखंड के पठानपट्टी गाँव से है और साल 1946 में उनके पिता ढाका आकर बसे थे।

रिपेट्रिएशन एग्रीमेंट

मीरपुर में उर्दू भाषी बिहारी मुसलमानों के 39 कैम्प हैं, जहाँ सबसे अधिक 75,000 लोग रहते हैं। िफलहाल समूचे बांग्लादेश में करीब 7,50,000 लाख बिहारी मुसलमान रहते हैं। ढाका के अलावा मोहम्मदपुर में भी 75,000 बिहारी मुसलमान रहते हैं। बांग्लादेश बनने के बाद अब तक एक लाख 25 हाज़र लोग पाकिस्तान गये। सदाकत खान के मुताबिक, साल 1973 में बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत के बीच त्रिदेशीय समझौता हुआ। इस समझौते में बांग्लादेश के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान, जुल्िफकार अली भुट्टो और इंदिरा गाँधी की सहमति से नई दिल्ली में इस समझौते पर दस्तखत किए थे। इस समझौते में उर्दू भाषियों के जान-माल के हिफाज़त सम्बन्धी अहम करार हुए थे। इस समझौते के बाद साल 1973 में 550 परिवारों को ढाका से कराची बसाया गया।

पाकिस्तान की बेरुखी

सदाकत खान ने बताया, साल 1993 में बिहारी मुसलमानों का आिखरी जत्था पाकिस्तान गया। उसके बाद रिपेट्रिएशन की प्रक्रिया बंद हो गई। पाकिस्तान ने स्पष्ट कर दिया कि उनके जितने लोग बांग्लादेश में थे वे सभी वापस आ गए। जबकि हकीकत यह थी कि साल 1971 के मुक्ति युद्ध की हार के बाद करीब नब्बे हाज़र पाकिस्तानी बांग्लादेश रह गए थे। उन्हें वापस लाने के लिए पाकिस्तान ने रि-पार्टीशन समझौता किया था। बँटवारे के वक्त 16 अगस्त 1946 को मोहम्मद अली जिन्ना ने ‘डायरेक्ट एक्शन’ का नारा दिया था। नतीजतन, कलकत्ता भीषण साम्प्रदायिक हिंसा की जद में आ गया। तारीख में यह घटना ‘द ग्रेट कलकत्ता किलिंग’ के नाम से दर्ज है। दंगे की आग देखते-ही-देखते पूर्वी बंगाल स्थित नोआखाली पहुँच गई। लक्ष्मी पूजा के दिन से शुरू हुआ यह कत्लेआम हफ्ते भर चला, जिसमें पंद्रह हाज़र से अधिक हिन्दुओं ने अपनी जानें गँवाईं। नोआखाली की प्रतिक्रिया सबसे अधिक बिहार में हुई। पटना, छपरा, मुंगेर, भागलपुर समेत राज्य के दर्ज़न भर िज़लों में भीषण दंगे हुए। जान-माल बचाने के लिए लाखों बिहारी मुसलमान पूर्वी बंगाल चले आए। जब तक पूर्वी पाकिस्तान था, उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद बिहारी मुसलमानों की हालत दोयम दर्जे की हो गई।

भारत विभाजन के समय करीब पन्द्रह लाख उर्दू भाषी बिहारी मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान गए थे। मुक्ति युद्ध में पाकिस्तान का साथ देने की वजह से वे बंगालियों के निशाने पर आ गए। बांग्लादेश की आज़ादी के बाद रंगपुर, दिनाजपुर, खुलना, जेसौर, मैमन सिंह और चटगांव में ढाई महीनों के भीतर तीन लाख बिहारी मुसलमानों को कत्ल कर दिया गया। 1972 में बांग्लादेश सरकार और इंटरनेशनल रेडक्रॉस के बीच एक समझौता हुआ, जिसके तहत ढाका, रंगपुर, मैनन सिंह एवं खुलना िज़लों में बिहारी मुसलमानों को बसाया गया। 1973 में बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत के बीच नई दिल्ली में ‘रिपेट्रिएशन एग्रीमेंट’ हुआ, जिसके बाद 550 परिवारों को ढाका से कराची लाकर बसाया गया। 1993 में बिहारी मुसलमानों की आिखरी खेप पाकिस्तान गई, उसके बाद रिपेट्रिएशन की प्रक्रिया बंद हो गई। पाकिस्तान ने दो टूक कह दिया कि उसके जितने लोग बांग्लादेश में थे, वे सभी वापस आ गए। जबकि हकीकत यह थी कि 1971 के मुक्ति युद्ध की हार के बाद सवा लाख पाकिस्तानी सैन्यकर्मी, आईएसआई अधिकारी, रेलवे एवं डाकघरों के कर्मचारी, जिनका ताल्लुक पंजाब ख़ासकर लाहौर, पेशावर एवं रावलपिंडी आदि इलाकों से था, वे बांग्लादेश में फँस गए थे। उनकी सकुशल वापसी के लिए पाकिस्तान ने ‘रिपेट्रिएशन एग्रीमेंट’ का सहारा लिया। जबकि वह भली-भांति जानता था कि काफी संख्या में बिहारी मुसलमान सेना और रेलवे समेत दूसरे महकमों में हैं। ‘रिपेट्रिएशन एग्रीमेंट’ के बाद 5 लाख 26 हाज़र बिहारी मुसलमानों ने पाकिस्तान जाने की अर्जी लगाई, लेकिन अपने सवा सरकारी मुलाजिमों को छोडक़र पाकिस्तान ने बाकी अर्जियाँ खारिज कर दीं।

पाकिस्तान के लिए गद्दार बने बिहारी मुसलमान खुद को ठगा-सा महसूस करने लगे। मँझधार में फँसे इन मुसलमानों ने 1978 में बांग्लादेश से पाकिस्तान तक पदयात्रा की घोषणा कर अपनी समस्याओं पर दुनिया का ध्यान खींचा, लेकिन पाकिस्तान को उन पर रहम नहीं आया। इस तरह उनकी िज़ंदगी में यंत्रणा का जो दौर शुरू हुआ, वह आज तक जारी है। पाकिस्तान के इस रवैये से हैरान नहीं होना चाहिए; क्योंकि बँटवारे के बाद उत्तर भारत से जो लोग सिंध प्रान्त में बसे, उनकी हालत आज भी दयनीय है। गैर बराबरी के शिकार उन लोगों को आज भी मुहािज़र कहा जाता है। ऐसे में पाकिस्तान ने बांग्लादेश के बिहारी मुसलमानों के साथ जो कृतघ्नता बरती। दरअसल वह उसके आचरण में शामिल है। बांग्लादेश में बिहारी मुसलमानों के बड़े नेता नसीम खान की अगुवाई में एस.पी.जी.आर.सी. ने कई वर्षों तक पाकिस्तान वापसी की लड़ाई लड़ी। उनकी मौत के बाद बांग्लादेश में फंसे बिहारी मुसलमानों की पाकिस्तान जाने की उम्मीदें भी खत्म हो गईं। बांग्लादेश में रहने के सिवा इन मुसलमानों के पास कोई विकल्प नहीं था। सदाकत खान के नेतृत्व में ‘उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहैव्लिटेशन मूवमेंट’ (यूएसपीयूआरएम) ने बिहारी मुसलमानों को बांग्लादेश की नागरिकता और मताधिकार का हक दिलाने की लम्बी लड़ाई लड़ी। इस बाबत बांग्लादेश हाईकोर्ट में एक रिट पिटीशन 11239/2007 सदाकत खान वगैरह बनाम बांग्लादेश सरकार/चुनाव आयोग वगैरह दायर की थी। 2008 में हाईकोर्ट ने बिहारी मुसलमानों को बांग्लादेश की नागरिकता और वोटिंग राइट देने का आदेश दिया। साथ ही अदालत ने कहा कि जिनका जन्म 1971 के बाद हुआ, वे सभी बांग्लादेशी नागरिक हैं। नागरिकता मिलने के बाद पहली बार 2009 के नेशनल असेंबली के चुनाव में इन मुसलमानों ने वोट दिया।

भेदभाव के शिकार

राजधानी ढाका के मीरपुर रहने वाले उर्दू भाषी बिहारी मुसलमान दशकों से गैर बराबरी के शिकार रहे हैं। हालात पहले से कुछ बेहतर जरूर है; लेकिन देश की राजनीति और सरकारी नौकरियों में इनकी भागीदारी सिफर है। इन लोगों को बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का समर्थक माना जाता है। बांग्लादेश में इन्हें इसलिए भी हिकारत भरी निगाहों से देखा जाता है। क्योंकि ये लोग पाकिस्तान के विभाजन के िखलाफ थे और इन्होंने मुक्ति युद्ध में पाकिस्तानी फौज का साथ दिया था।

ढाका में बिहारी मुसलमानों और बंगाली मुसलमानों के बीच अक्सर खूनी संघर्ष की घटनाएं होती हैं। कभी त्योहार के नाम पर तो कभी अपनी रवायत के नाम पर। इन घटनाओं में अक्सर कई जि़ंदगियाँ ज़ाया होती हैं। हताहत होने वाले अधिक बिहारी मुसलमान ही होते हैं। साल 2014 की बात करें, मीरपुर कैंप में एक बिहारी मुसलमान परिवार को घर में बंद कर िज़ंदा जला दिया गया। इस घटना में नौ लोगों की मौत हो गई थी। विवाद शब-ए-बारात के मौके पर पटाखे फोडऩे को लेकर शुरू हुई थी। देखते-ही-देखते यह खूनी संघर्ष में तब्दील हो गया। दरअसल, बांग्लादेश में बिहारी मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए सिर्फ एक बहाना चाहिए। पुलिस-प्रशासन का रवैया भी बिहारी मुसलमानों के प्रति सकारात्मक नहीं है।

बिहारी मुसलमानों की समस्याएँ

बांग्लादेश में रहने वाले उर्दू भाषी बिहारी मुसलमानों की समस्याएँ यहीं खत्म नहीं होती। मुल्क में कई दशकों से रहने के बावजूद उन्हें हिकारत भरी निगाहों से देखा जाता है। सुन्नी मुसलमान होने के बावजूद उर्दू भाषियों से बंगाली मुसलमान शादियाँ नहीं करते। दरअसल गैर बिहारी मुसलमानों की नार में बिहारी मुसलमान मुल्क के गद्दार हैं। इसलिए उनसे किसी तरह का सम्बन्ध रखना वह उचित नहीं मानते। हालाँकि नई पीढ़ी की सोच में थोड़ी तब्दीली ज़रूर आयी है। लेकिन एक-दो शादियों को छोड़ दें, तो बिहारी मुसलमानों से कोई रोटी-बेटी का सम्बन्ध रखना नहीं चाहता।

अदालत का ऐतिहासिक फैसला

बिहारी मुसलमानों की नागरिकता और मताधिकार का हक मिले इस बाबत उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहेव्लिटेशन मूवमेंट (यू.एस.पी.यू.आर.एम.) ने बांग्लादेश हाईकोर्ट में एक रिट पिटीशन 11239/2007 सदाकत खान वगैरह बनाम बांग्लादेश सरकार-चुनाव आयोग वगैरह दायर किया था। साल 2008 में हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए बिहारी मुसलमानों को बांग्लादेश की नागरिकता और वोटिंग राइट देने का आदेश दिया।

शिविरों में रहना मजबूरी

1971 की जंग में पाकिस्तान की हार और बांग्लादेश बनने के बाद बंगालियों का आक्रोश बिहारी मुसलमानों पर टूट पड़ा। लाखों बिहारी मुसलमानों को अपने घरों और नौकरी से बेदखल होना पड़ा।

उस बर्बर घटना को याद करते हुए उर्दू स्पीकिंग पीपुल्स यूथ रिहेव्लिटेशन मूवमेंट (यू.एस.पी.यू.आर.एम.) के महासचिव शाहिद अली बबलू बताते हैं कि नया मुल्क बनने के बाद बिहारी मुसलमानों के घरों की तलाशी लेने का फरमान सुनाया गया। पुलिस की मौज़ूदगी में लोगों को घरों से बाहर एक खुले मैदान में बैठा दिया गया। तलाशी के नाम पर बुजुर्गों और महिलाओं के साथ गलत व्यवहार किया गया। घरों में लूटपाट भी की गई और हम अपने पक्के घरों से बेदखल होकर खुले आसमान के नीचे आ गए। साल 1976 में रेड क्रॉस सोसायटी के सहयोग से ढाका में बिहारी मुसलमानों के लिए कैंप बनाए गए। लेकिन चार दशक बाद भी हमें कैम्पों में रहना पड़ रहा है।

पाकिस्तानी सेना का साथ

बांग्लादेश के बिहारी मुसलमानों को पाकिस्तान का समर्थक माना जाता है, लेकिन कई लोग इन आरोपों को सही नहीं मानते। ये सही है कि अधिक बिहारी मुसलमान पाकिस्तान के बँटवारे के पक्ष में नहीं थे। लेकिन कई काफी संख्या में वैसे बिहारी मुसलमान भी थे, जो मुक्ति वाहिनी में शामिल होकर पाकिस्तानी फौज का मुकाबला कर रहे थे। आम लोगों की धारणा है कि बिहारी मुसलमानों ने पाकिस्तानी सेना का साथ दिया, लेकिन कोई यह नहीं कहता है कि बंगालियों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी था, जो मुक्ति युद्ध के िखलाफ रहा। अनीसुर रसूल कहते हैं कि युद्ध अपराध में जिन लोगों को फाँसी दी गई, उनमें एक भी बिहारी मुसलमान नहीं था और वे सभी बंगाली मुसलमान थे। यहाँ तक कि जमात-ए-इस्लामी के अध्यक्ष मोतिउर रहमान निजामी बंगाली मुसलमान थे न कि बिहारी। इसके बावजूद बिहारी मुसलमानों को पाकिस्तान परस्त कहा जाता है।

बंगबन्धु शेख मुजीब की अपील

बांग्लादेश बनने के बाद बंगबन्धु शेख मुजीबुर्रहमान ढाका के रेसकोर्स मैदान में एक विशाल जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। मुक्ति युद्ध के दौरान जिन बिहारी मुसलमानों ने पाकिस्तान का साथ दिया था, उनके बारे में उनका कहना था कि जो बातें बीत गयी हैं, उसे भुला देना चाहिए। पाकिस्तान का साथ देने वालों को उन्होंने आम माफी देने का ऐलान किया था। शेख मुजीब ने कहा था, बिहारी और बंगाली दोनों अब बांग्लादेशी हैं और पुरानी बातों को याद करने से तकलीफें बढ़ती हैं। इसलिए दोनों कौम एक साथ मिलकर बांग्लादेश की तरक्की में अपना योगदान दें। उनकी इस अपील से बिहारी मुसलमानों को काफी हिम्मत मिली और उन्हें अपनी गलती का एहसास भी हुआ। बदिकस्मती से उनकी हत्या ऐसे वक्त हुई, जब बांग्लादेश के बिहारी मुसलमानों को उनकी ज़रूरत थी।

चिकित्सा क्षेत्र में आईआईटी कानपुर की पहल

इस प्रमुख संस्थान ने अपने 61वें स्थापना दिवस पर एक नए क्षेत्र में प्रवेश की घोषणा की। प्रस्तावित केंद्र का अनुसंधान फोकस तीन मुख्य क्षेत्रों पर होगा (क) पुनर्योजी चिकित्सा, स्टेम सेल इंजीनियरिंग के लिए केटरिंग, पाड़ (स्काफोल्ड) इंजीनियरिंग, विकास कारक इंजीनियरिंग और इम्यूनो-इंजीनियरिंग (ख) आणविक चिकित्सा, जीनोम इंजीनियरिंग, प्रेसिजन चिकित्सा, न्यूरो-इंजीनियरिंग और (सी) डिजिटल मेडिसिन, सॉफ्टवेयर-एज-ए थेरेपी, डिजिटल डायग्नोस्टिक्स और कम्प्यूटेशनल ड्रग डिस्कवरी। इन क्षेत्रों में से प्रत्येक को संस्थान द्वारा चुना गया है। क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि भविष्य में दवा जिस तरीके से उपयोग में लायी जाएगी, उसे क्रान्तिकारी बनाया जाएगा।

देश में बहु-प्रतीक्षित पहल 2 नवंबर, 2019 को हुई जब केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री (एचआरडी) रमेश पोखरियाल निशंक और न्यूयॉर्क स्थित समाजसेवक और मेहता फैमिली फाउण्डेशन के संस्थापक राहुल मेहता ने इसकी आधारशिला रखी और नए अनुसंधान भवन मेहता फैमिली सेंटर फॉर इंजीनियरिंग इन मेडिसिन के लिए मॉडल का अनावरण किया। इस अवसर पर आईआईटीके के निदेशक अभय करंदीकर भी उपस्थित थे। उनके अलावा संदीप वर्मा, सचिव विज्ञान और इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (एसईआरबी), रक्षा सचिव अजय कुमार और और अन्य प्रतिष्ठित जन उपस्थित थे। राहुल मेहता ने 1998 में शिक्षा, बच्चों और स्वास्थ्य सेवा पर केंद्रित जनकल्याण गतिविधियों के माध्यम से लोगों को सशक्त बनाने के उद्देश्य से परिवार की नींव राखी। फाउंडेशन ने चेन्नई में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में स्कूल ऑफ बायोसाइंसेज के निर्माण के लिए भी वित्त पोषण किया है।

आईआईटीके ने एक प्रसिद्ध वास्तुशिल्प फर्म, अक्षय जैन एंड एसोसिएट्स को साथ जोड़ा है, जिसने देश में कई आईआईटी भवनों और परिसरों के अलावा चीन में एक बौद्ध मंदिर का निर्माण भी किया है। पिता अक्षय और बेटे क्षितिज के आर्किटेक्ट्स में अनुभव के साथ ऊर्जा का एक अनूठा सम्मिश्रण है और यह इंडियन ग्रीन बिल्डिंग काउंसिल (आईजीबीसी) से संबद्ध हैं। स्थापना दिवस समारोह के दौरान आईआईटीके ने पूर्व विद्वानों को सम्मानित किया गया। इन्फोसिस की स्थापना करने वाले नागवारा रामाराव नारायण मूर्ति (लोकप्रिय रूप से नारायण मूर्ति) के अलावा, आईआईटीके ने कई अन्य लोगों को सम्मानित किया जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है। केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. कृष्णमूर्ति वी सुब्रमण्यन की मौज़ूदगी ने वर्तमान व्यवस्था के इस संकल्प को दोहराया कि देश टेक्नोक्रेट को प्रशासन की बागडोर में देखना चाहता है।

उपस्थित प्रमुख गणमान्य जन में शोधकर्ता और प्रबंधन शिक्षक डॉ. राम बी. मिश्रा भी थे, जिन्होंने 1870 के दशक में अलेक्जेंडर ग्राहम बेल के स्थापित बेल लैब्स और बेल कम्युनिकेशन रिसर्च में कार्यकारी निदेशक के रूप में काम किया है। बेल लैब्स के पास लगभग 33,000 पेटेंट हैं। वह वर्तमान में प्रतिष्ठित मॉन्टक्लेयर स्टेट यूनिवर्सिटी, न्यू जर्सी, यूएसए में प्रबंधन के प्रोफेसर हैं। इस पुरस्कार के एक अन्य विजेता न्यूयॉर्क में रहने वाले राकेश हैं, जो 1978 में पास आउट हैं, और उन्होंने कई आईआईटीयन को एक छत्र के नीचे लाया है। संस्थान की परोपकार की अवधारणा को बढ़ावा देने और लोगों के कल्याण के लिए अपनी प्रतिबद्धता के लिए धन भी वे जुटा चुके हैं। बिहार कैडर के एक पुलिस अधिकारी, विकास वैभव को भी सत्येन्द्र के दुबे मेमोरियल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया, जो बिहार के बहुचर्चित पुलिस बल के बारे में जनता के बीच विश्वास स्तर को सुधारने का प्रयास कर रहे हैं। याद रहे, बिहार में ठेकेदार माफिया द्वारा सत्येंद्र दुबे की हत्या कर दी गई थी। इस अवसर पर सम्मानित किए गए अन्य लोगों में प्रोफेसर राजेश गोपकुमार, प्रोफेसर अजीत रस्तोगी, प्रोफेसर नीतिश बलसारा, दिनेश कुमार जैन, रवींद्र कुमार धारीवाल, अजीत सिंह, अरुण सेठ और मनु प्रकाश शामिल थे। इन गणमान्य लोगों ने उद्यमशीलता, अनुसंधान और नागरिक सेवाओं में भी उत्कृष्टता हासिल की। स्थापना दिवस को इसलिए भी याद रखा जाएगा, क्योंकि इसमें केंद्रीय मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक, जिन्हें उनके ज्योतिष में अध्ययन की सहायता वाले ब्यान के लिए आलोचना हुई है, ने कार्यक्रम में भरोसा दिलाया कि आईआईटीके मिशन के लिए पूर्ण नीति और वित्तीय सहायता प्रदान की जाएगी। इस अवसर पर पोखरियाल ने उन लोगों का भी स्वागत और सम्मान किया, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में नाम कमाया है।

किसानों के नाम पर मगरमच्छ के आँसू बहा रहे हैं राजनीतिक दल : राजू शेट्टी

आप कह रहे हैं कि किसानों को सरकार की तरफ से मोरल सपोर्ट नहीं मिल रही है। लेकिन लगभग सभी सियासी दल उनकी मदद के लिए उनसे मिलने जा रहे हैं?

सभी दलों का किसानों के प्रति प्रेम जाग उठा है; यह अच्छी बात है। लेकिन कितने दिनों तक?  4 दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात। किसानों के प्रति जितने भी राजनीतिक दलों का अचानक प्यार जाग उठा है यह मगरमच्छ के आँसू हैं।

इनको किसी से कुछ लेना-देना नहीं है; क्योंकि किसान तो पिछले 15 -20 दिनों से परेशान हैं। वे पहले अति बारिश से जूझ रहे थे, अब बेमौसम बारिश से; यानी 365 दिन परेशान। कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन अब जब एकाएक सरकार नहीं बन रही है; जनता इनको गालियाँ दे रही है; तो सबके-सब किसानों के पीछे पड़ गए। उनको किसान अब याद आ रहा है, यह है सच्चाई।

दरअसल, सरकार नहीं बन रही है। इससे आम लोगों में बहुत ग़ुस्सा है। ख़ास करके महाराष्ट्र ग्रामीण क्षेत्र के जो किसान हैं, मादूर हैं, इस बारिश में उनका बहुत नुकसान हो चुका है। वेस्टर्न महाराष्ट्र, नॉर्थ महाराष्ट्र, मराठवाड़ा, विदर्भ सभी क्षेत्रों में किसान तकरीबन बर्बाद हो चुका है। किसानों को एक मोरल सपोर्ट की ज़रूरत थी। वह सब कुछ सरकार दे सकती थी; लेकिन जब सरकार ही नहीं है, तो किसान किसकी तरफ देखेगा मदद के लिए?  महाराष्ट्र में एकदम विषम स्थिति आ चुकी है। दूसरी तरफ से सभी लोग सत्ता संघर्ष में व्यस्त हैं। यह कैसी विडंबना है। पछले 15-20 दिनों में 40 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है; क्योंकि किसानों को लग रहा है कि उनकी सहायता करने वाला कोई है ही नहीं; वे डेमोरलाइज हो चुके हैं। सबसे ज़्यादा मराठवाड़ा में वेस्टर्न महाराष्ट्र में आत्महत्या हुई है; विदर्भ में हुई है।

इतने गंभीर मसले पर आप भी तो आवाज़ नहीं उठा रहे हैं। आप लोग इस मामले को क्यों नहीं उठा रहे?

नहीं, नहीं; ऐसा नहीं है। हम इस इश्यू को लगातार उठा रहे हैं। लेकिन मीडिया का ध्यान िफलहाल इससे ज़्यादा इस पर लगा है कि सत्ता कौन बनाएगा? सत्ता का क्या खेल चल रहा है? किसानों की दुर्दशा पर तो अभी-अभी अटेंशन गया है। मैं मराठवाड़ा में दो-तीन परिवार से मिल चुका हूँ। हाल-िफलहाल में मैं उस्मानाबाद िज़ले के मराठवाड़ा में भी गया। उस्मानाबाद में तो नहीं, लेकिन लातूर में इस तरह का एक मामला हुआ है।

किसानों की मुख्य परेशानी क्या है?

सबसे बड़ी परेशानी है फसलों का नुकसान और सरकार का रवैया। किसानों का बुरी तरह से नुकसान हुआ है। धान, कपास, सोयाबीन, उड़द, मक्का, ग्राउंडनट सभी फसलें खराब हुई हैं। यह बर्बादी का आलम है।

सरकारी आँकड़ा कितना सच है फसलों के नुकसान को  लेकर?

सरकारी आँकड़ा कहता है कि 70 लाख हेक्टर का नुकसान हुआ है; लेकिन यह आँकड़ा उससे भी ज़्यादा है, तकरीबन 90 लाख हेक्टर। मेरे हिसाब से 80 प्रतिशत इलाका क्षतिग्रस्त है।

जिन किसानों से आप मिले हैं। उनकी क्या माँग है?

किसानों की माँग है कि उनको सीधे कज़ऱ् मुक्त कर दिया जाए। वह कहते हैं हम कर्ज़ा वापस नहीं कर सकते, क्योंकि सूखे की वजह से हम लगातार दो साल से नुकसान में हैं। इस साल बारिश से सब तबाह हो चुका है, तो हम कर्ज़ा तो वापस नहीं कर सकते हैं। जो प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना है, वह बेकार साबित हो चुकी है। किसानों को सीधे सरकार की तरफ से मुआवजा मिलना चाहिए यह किसानों की माँग है।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना बेकार क्यों है?

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में बहुत बड़ा भ्रष्टाचार है। इसमें जो भी सर्वे होता है, वह फजऱ्ी होता है। प्रोडक्टिविटी फसलों की ज़्यादा दिखाई जाती है। रेवेन्यू के कर्मचारी, इंश्योरेंस कंपनी और एग्रीकल्चर ऑफिसर इन सभी की मिलीभगत किसानों को नुकसान होता है। कंपनी द्वारा रिश्वत देकर फर्ज़ी रिकॉर्ड बनाया जाता है और किसानों को फँसाया जाता है। इसका सबसे बढिय़ा उदाहरण आपको बताता हूँ- पिछले साल पूरे महाराष्ट्र में सूखा था; खास करके मराठवाड़ा में। लेकिन मराठवाड़ा के 8 िज़ले हैं और इन िज़लों में तकरीबन बीमा कंपनियों ने 2,900 करोड़ का मुनाफा कमाया। पिछले साल तो सब कुछ बर्बाद था। इंश्योरेंस कंपनियों को बर्बाद हो जाना चाहिए था; क्योंकि मराठवाड़ा में तो सूखा पड़ा हुआ था। सवाल यह है कि उन्हें मुनाफा कैसे हुआ? इसका मतलब यही है कि यह प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री कॉर्पोरेट कल्याण योजना है। निजी कंपनियों के फायदे के लिए योजना है किसानों के लिए तो है ही नहीं।

तो यह योजना बंद हो जानी चाहिए?

योजना को बंद करने की ज़रूरत नहीं है; योजना में संशोधन होना चाहिए। इसकी ड्राफ्टिंग किसानों के हित के मद्देनजर की जानी चाहिए; न कि प्राइवेट कंपनियों को फायदा पहुँचाने के मद्देनजर।

शिवसेना ने कहा है कि बीमा कंपनियों पर उसकी नजऱ है!

पुणे में जिस बीमा कंपनी में उन्होंने तोडफ़ोड़ की है। उन्होंने पिछले साल फसलों का इंश्योरेंस का क्लेम लिया था। इस साल तो लिया ही नहीं है, तो आप समझ सकते हैं कि उनकी नार कहाँ पर है।

 

आदित्य ठाकरे और उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के किसानों से मिल रहे हैं; उनका दावा है कि महाराष्ट्र में भगवा की लहर है। इस स्टेटमेंट को किस तरह देखते हैं?

एक तो लोगों को बीजेपी सरकार नहीं चाहिए। लोग नहीं चाहते कि बीजेपी एक बार फिर सत्ता में आए। इसलिए एक विकल्प के तौर पर लोग शिवसेना की तरफ देख रहे हैं। कांग्रेस और एनसीपी की सरकार तो नहीं बन सकती है; क्योंकि उनको मेजॉरिटी नहीं मिली है। यह एक आम धारणा है कि यदि शिवसेना कांग्रेस एनसीपी की सरकार बनती है, तो बननी चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि लोग शिवसेना को पसंद करते हैं, एक ऑप्शन के तौर पर देख रहे हैं।

शरद पवार किसानों की मदद के लिए गाँव-गाँव दौड़ रहे हैं। उनका मानना है कि किसानों को, जो नुकसान हुआ है। उसके एवा में सरकार ने जो राशि ज़ाहिर की है, वह नाकाफी है।

शरद पवार जी बुजुर्ग हैं। इस उम्र में भी वह महाराष्ट्र-भर में घूम रहे हैं। किसानों के पास जा रहे हैं और उनके दु:ख-दर्द को समझ रहे हैं तो लोगों को अच्छा लग रहा है। वह देश के कृषि मंत्री भी रह चुके हैं। उन्हें किसानों के दु:ख-दर्द का अच्छी तरह से पता है। उनकी बातों में सच्चाई है।

और चीफ मिनिस्टर देवेंद्र फडणवीस?

मुख्यमंत्री इस मामले पर बिलकुल सीरियस नहीं हैं। वह सिर्फ एक ही जाति के ऊपर मुख्यमंत्री बने हैं; किसानों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं है।

आचार्य महाप्रज्ञ की जन्म शताब्दी 100 वर्ष (1920-2020)

आचार्य महाप्रज्ञ

तेरापंथ संघ के दसवें आचार्य आचार्य महाप्रज्ञ ज्ञान के विश्वकोश थे। जैन धार्मिक ग्रंथों के एक विद्वान, जिन्होंने जैन दर्शन और जीवन पद्धति को समझने और प्रसार में महत्ता योगदान दिया है। अपनी प्रेरणादायक यात्रा को उन्होंने ऐसे साझा किया।

जैन श्वेताम्बर तेरापंथ संघ के दसवें आचार्य आचार्य महाप्रज्ञ एक मानवतावादी नेता, आध्यात्मिक गुरु और शांति के राजदूत थे। सहज ज्ञान युक्त अंतर्दृष्टि के साथ एक तपस्वी चिकित्सक जिन्होंने अपने जीवन को सार्वभौमिकता के लिए प्रयास करते हुए जिया।

वे एक विपुल लेखक, एक प्रखर योगी, एक शिक्षक, दार्शनिक और एक प्रतिष्ठित जैन आचार्य थे। उन्होंने पूरे भारत में 1,00,000 किलोमीटर से अधिक की पदयात्रा की, हज़ारों जनसभाओं को सम्बोधित किया और उनके शान्ति और सद्भाव के उपदेश जनता तक पहुँचे।

आचार्य महाप्रज्ञ ने ‘प्रेक्षा ध्यान प्रणाली’ को लोकप्रिय बनाया, जो आत्म-परिवर्तन प्राप्त करने के लिए आत्म-नियंत्रण सिखाती है। उन्होंने अहिंसा और सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए अहिंसा यात्रा आंदोलन भी चलाया। उन्होंने ध्यान और आध्यात्मिकता से लेकर मानव मानस और योग तक कई विषयों पर 300 से अधिक आलेख लिखे, जिनमें से कई को क्लासिक्स माना जाता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने ‘भीतर देखने’ के लिए प्रोत्साहित किया। 9 मई, 2010 को अपने अंतिम प्रवचन में उन्होंने कहा कि ‘अनंत अंतज्र्ञान, अनंत ज्ञान, अनंत आनंद और अनंत शक्ति का एक सागर है।’ वह केवल एक व्यक्ति नहीं है, बल्कि एक उद्देश्य भी है। केवल एक प्राणी मात्र नहीं है, बल्कि एक विश्वास भी है। वह एक धारणा है जो समय या स्थान से बँधी नहीं हो सकती।

उनका नाम महाप्रज्ञ, जिसका अर्थ है ‘महान् चेतना’, ने व्यक्ति को परिभाषित किया।

भारत के पूर्व राष्ट्रपति, भारत रत्न, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने उन्हें ज्ञान का एक मर्मज्ञ माना, जिन्होंने उनके सम्पर्क में आने वाली हर आत्मा को शुद्ध किया।

प्रारंभिक जीवन

आचार्य महाप्रज्ञ का जन्म जैन श्वेताम्बर तेरापंथी अग्रवाल परिवार में राजस्थान के तमकोर के छोटे से गाँव में तोला राम चोरारिया और बालूजी के यहाँ हुआ था। उन्हें उनका परिवार नथमल कहकर बुलाता था। महाप्रज्ञ की माता धार्मिक महिला थीं, जिन्होंने अपना खाली समय आध्यात्मिक मामलों को समर्पित किया। वह धार्मिक गीत भी सुनाती थीं, जो छोटे बच्चों पर अच्छी छाप छोड़ते थे। उनकी आध्यात्मिकता ने उन्हें प्रेरित किया। [15] महाप्रज्ञ ने जैन भिक्षुओं से दर्शन का पाठ प्राप्त किया, जो उनके गाँव के भ्रमण पर पधारे थे। आिखरकार उन्होंने अपनी मां के सामने भिक्षु बनने की इच्छा व्यक्त की और 29 जनवरी, 1931 को दस साल की उम्र में भिक्षु बन गए। उनके बौद्धिक विकास में तेज़ी आयी और उन्होंने हजारों उपदेश और श्लोक याद किए और जैन धर्म का गहन अध्ययन किया। शास्त्र, जैन आगमों के विद्वान और भारतीय और पश्चिमी दर्शनशास्त्र के आलोचक बन गये। उन्होंने भौतिकी, जीव विज्ञान, आयुर्वेद, राजनीति, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र का भी अध्ययन किया।

आचार्य तुलसी के उत्तराधिकारी

मुनि नथमल (बाद में महाप्रज्ञ) से प्रभावित होकर, आचार्य तुलसी ने उन्हें 12 नवंबर, 1978 को महाप्रज्ञा (उच्च ज्ञानी) के गुणात्मक उपाधि से सम्मानित किया। 4 फरवरी, 1979 को उनके अपीलीय नाम ‘महाप्रज्ञ’ को आचार्य तुलसी ने उनके नए नाम में बदल दिया। उन्हें ‘युवाचार्य’ बनाया गया जिसे वर्तमान आचार्य का उत्तराधिकारी माना जाता है। अर्थात स्वयं आचार्य के बाद दूसरा सर्वोच्च पद। इसके साथ, उन्हें अब युवाचार्य महाप्रज्ञ कहा गया। युवाचार्य के रूप में, महाप्रज्ञ संप्रदाय से सम्बन्धित प्रमुख निर्णयों और गतिविधियों में आचार्य तुलसी के करीबी सहयोगी बन गए। 18 फरवरी, 1994 को एक सार्वजनिक बैठक में, आचार्य तुलसी ने घोषणा की कि महाप्रज्ञ के पास अब ‘आचार्य’ की उपाधि भी होगी और वे इस पद को त्याग रहे हैं। इसके बाद, 5 फरवरी, 1995 को दिल्ली में एक सार्वजनिक बैठक में तेरापंथ धार्मिक व्यवस्था के सर्वोच्च प्रमुख- महाप्रज्ञ को औपचारिक रूप से 10वें आचार्य के रूप में स्वीकार किया गया।

प्रेक्षा ध्यान (अवधारणात्मक ध्यान)

महाप्रज्ञ ने प्रेक्षा ध्यान की रचना की और इस विषय पर विस्तार से लिखा। इन पुस्तकों में उन्होंने मानस की विभिन्न तकनीकों और मानस, शरीर विज्ञान, हार्मोनल प्रभाव, अंत:स्रावी तंत्र और तंत्रिका तंत्र पर उनके प्रभावों का वर्णन किया। उन्होंने आचार्य तुलसी के साथ अपनी खोजों पर चर्चा की और ध्यान का गहरा अभ्यास किया। विभिन्न तकनीकों के साथ प्रयोग किए। उन्होंने 1970 में प्रेक्षा ध्यान प्रणाली तैयार की और इस ध्यान प्रणाली को बहुत अच्छी तरह से व्यवस्थित और वैज्ञानिक तरीके से तैयार किया। ध्यान प्रणाली के मूल चार बिंदुओं को ध्यान, योगासन और प्राणायाम, मंत्र और चिकित्सा के रूप में संक्षेपित किया जा सकता है।

जीवन विज्ञान (जीने का विज्ञान)

जीवन विज्ञान मूल्य आधारित शिक्षा और नैतिक शिक्षा को लागू करने का एक प्रयास है। इसका लक्ष्य और दृष्टिकोण छात्र का समग्र विकास है, न कि केवल बौद्धिक विकास। मात्र बौद्धिक विकास वास्तविक अनुभव और चरित्र निर्माण में मदद नहीं कर सकता है और इस तरह इसका उद्देश्य संतुलित भावनात्मक, बौद्धिक और शारीरिक विकास है। जीने का विज्ञान की वैज्ञानिक तकनीकें हमारे शरीर में न्यूरो-एंडोक्राइन सिस्टम की भावनाओं और कामकाज को संतुलित करने में मदद करती हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने 28 दिसंबर, 1979 को ‘साइंस ऑफ लिविंग’ के विचार की कल्पना की और शिक्षकों के लिए कई शिविर आयोजित किए गए। साइंस ऑफ लिविंग को शिक्षा मंत्रालय और विभिन्न शैक्षिक समाज से सकारात्मक स्वागत मिलना शुरू हो गया। स्कूलों में इसके लागू होने के एक साल बाद परिणाम आश्चर्यजनक थे और छात्रों के लिए बहुत सकारात्मक थे। इसे भारत सरकार और राज्य सरकारों के शिक्षा मंत्रालय के साथ व्यापक स्वीकृति मिलनी शुरू हुई। कई स्कूलों ने इसे अपने पाठ्यक्रम में शामिल करना शुरू कर दिया। प्रतिक्रिया में से कुछ को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा सकता है जैसे तनाव में कमी, पढ़ाई में बेहतर दक्षता, बेहतर एकाग्रता और स्मृति, बेहतर क्रोध प्रबंधन आदि।

अणुव्रत आंदोलन

महाप्रज्ञ ने अणुव्रत आंदोलन में महत्ती भूमिका निभाई, जिसे 1949 में राजस्थान में आचार्य तुलसी द्वारा शुरू किया गया था। यह जैन धर्म की जीवन शक्ति की उपस्थिति का सकारात्मक प्रमाण है – और इसमें विश्व के तत्वों की भी पुष्टि है। जैन धर्म का उद्देश्य व्यक्तिगत चरित्र का विकास है और यह कि आत्म-शुद्धि और आत्म-नियंत्रण की प्रक्रिया के माध्यम से समाज के विचार स्वत: ही ठीक हो जाते हैं। अणुव्रत को दृढ़ विश्वास का प्रतिनिधित्व करने के लिए माना जाता है अर्थात छोटी प्रतिज्ञा बड़े बदलावों को प्रभावित कर सकती है। आंदोलन का आधार अंतत: एक नौ-सूत्री कार्यक्रम और एक 13 सूत्री योजना के बारे में पता लगाया जाना है, जो 25,000 लोगों द्वारा प्रयोगात्मक रूप से आजमाया और स्वीकार किया गया था। नौ सूत्रीय कार्यक्रम में शामिल हैं: (1) आत्महत्या के बारे में नहीं सोचना ; (2) शराब और अन्य नशीले पदार्थों का उपयोग नहीं करना; (3) मांस और अंडा नहीं खाना; (4) चोरी में लिप्त न होना; (5) जुआ नहीं खेलना (6) अवैध और अप्राकृतिक संभोग में लिप्त नहीं होना; झूठे मामले और असत्य के पक्ष में कोई सबूत न देना; पदार्थों में मिलावट न करना और न ही नकली उत्पादों को असली बताकर बेचना और (9) तौलने और नापने में बेईमानी न करना। 13 सूत्री योजना थी: (1) जानबूझकर निर्दोष प्राणियों को नहीं मारना ; (2) आत्महत्या नहीं करना; (3) शराब न लेना; (4) मांस न खाना; (5) चोरी न करना; (6) जुआ नहीं खेलना (7) झूठा दिखावा नहीं करना (8) द्वेष या प्रलोभन में आकर निर्माण या सामग्रियों में आग नहीं लगाना ; (9) अवैध और अप्राकृतिक संभोग में लिप्त नहीं होना; (10) वेश्याओं से नहीं मिलना ; (11) धूम्रपान न करना और नशीली दवाओं का उपयोग न करना ; (12) रात को भोजन न लेना और (13) साधुओं के लिए अलग से भोजन न बनाना।

आगम संपंदन

1955 में, आचार्य तुलसी ने अनुसंधान शुरू किया। आचार्य तुलसी, महाप्रज्ञ और अन्य बौद्धिक भिक्षुओं और ननों की संयुक्त गतिविधि ने हजारों साल पुराने विहित शास्त्रों के स्थायी संरक्षण का काम शुरू किया। 32 आगम शास्त्रों का मूल पाठ निर्धारित किया गया और उनका हिन्दी अनुवाद भी पूरा हुआ। उन्होंने कई आगम रहस्यों को उजागर किया और इसमें जड़ दर्शन, महावीर दर्शन और दर्शन को प्रस्तुत किया। दृढ़ संकल्प और पुरुषार्थ दोनों की मान्यताएँ हैं, सृष्टि दुनिया में भाग्य का योग है लेकिन प्रयास भी महत्त्वपूर्ण है। भाग्य प्रयास पर निर्भर करता है। यदि कोई कठिनाई या संदेह है, तो नवकार मन्त्र का जाप करें। अगम स्वाध्याय साधु का भोजन है। आगम स्वाध्याय से ऋ षि का पोषण होता है, इससे ज्ञान और वैराग्य बढ़ता है।

अहिंसा समवय

वैश्विक स्तर पर अहिंसा की शक्तियों को एकजुट करने की महाप्रज्ञा की दृष्टि अहिंसा संवत् की स्थापना में परिवर्तित हुई। अहिंसा वर्तमान युग की युग धर्मा या धर्म है, तीर्थंकर परम् पवित्र आत्मा है, जबकि महावीर और तथागत प्रबुद्ध हैं।

साहित्य सृजन (महाप्रज्ञ का लेखन)

महाप्रज्ञ ने लिखना तब शुरू किया जब वह 22 वर्ष के थे। अपने जीवनकाल में 300 से अधिक पुस्तकें लिखीं। ये कार्य ध्यान और आध्यात्मिकता, मन, मानव मानस और उसके लक्षणों, भावनाओं की जड़ों और व्यवहार, मन्त्र-साधना, योग अनेकतावाद के माध्यम से प्रकट होते हैं। उनकी मुख्य उपलब्धि कर्म और जैन व्यवहार की जैन अवधारणाओं को जेनेटिक्स, डीएनए, हार्मोन और अंत:स्रावी तंत्र जैसे क्षेत्रों में आधुनिक जीव विज्ञान के निष्कर्षों के साथ लाना था। अपनी पुस्तक आर्ट ऑफ थिंकिंग पॉजिटिव में उन्होंने नकारात्मक विचारों के मूल कारणों का पता लगाया और इसके परिवर्तन के लिए एक पद्धति प्रदान की। कुछ अन्य पुस्तक के शीर्षक टुवार्ड्स इनर हार्मनी, आई एंड माइन, माइंड परे माइंड, मिस्ट्री ऑफ माइंड, न्यू मैन न्यू वल्र्ड, मिरर ऑफ सेल्फ शामिल हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने बड़ी स्पष्टता से लिखा। जैसा कि उनके अनुवादक में से एक ने कहा था ‘एक पूर्ण विराम और अगले वाक्य के बीच, एक साम्राज्य का निर्माण किया जा सकता है’।

आचार्य महाप्रज्ञ

जन्म का नाम :     नथमल

जन्म स्थान   :      तमकोर, राजस्थान

जन्मतिथि     :     14 जून, 1920

जैन तपस्वी दीक्षा :           29 जनवरी, 1931 को आप संत बने।

आचार्य पदनाम :  5 फरवरी 1995 को, महाप्रज्ञ को औपचारिक रूप से 10वें आचार्य – सर्वोच्च प्रमुख – तेरापंथ धार्मिक व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया गया था।

प्रमुख पुरस्कार और उपलब्धियाँ

इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार 2002

लोकमहर्षि नई मुंबई नगर निगम 2003

सम्प्रदायिक सद्भावना पुरुष (साम्प्रदायिक सद्भाव पुरस्कार, भारत सरकार 2004)

शान्ति, अंतर्धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय महासंघ, लंदन के राजदूत (2003)

कबीर पुरुस्कर भारत सरकार (2004)

धर्म चक्रवर्ती, कर्नाटक (2004)

मदर टेरेसा नेशनल पीस ऑफ पीस, इंटर फेथ ह्यूमैनिटी फाउंडेशन ऑफ इंडिया (2005)

अहिंसा पुरस्कार, जैनोलॉजी संस्थान, लंदन (2008)

मैं अभिभूत हो गया

यह वह साल था, जब भारत ने पोखरण में अपने परमाणु कौशल का प्रदर्शन किया और भारत रत्न डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने महरौली में आचार्य महाप्रज्ञ से मुलाकात की। आचार्य महाप्रज्ञ ने डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम से कहा- ‘कलाम! आपने अपनी टीम के साथ जो किया है, उसके लिए आपको ईश्वर का आशीर्वाद रहेगा। लेकिन सर्वशक्तिमान के पास आपके लिए एक बड़ा मिशन है और जो आपने और आपकी टीम ने किया है, उससे बड़ा है। यह वास्तव में किसी भी इंसान ने जितना किया है, उससे कहीं अधिक है। परमाणु हथियार दुनिया में हज़ारों की संख्या में फैल रहे हैं। मैं आपको और केवल आपको शांति की एक प्रणाली को विकसित करने के लिए दिव्य आशीर्वाद के साथ आदेश देता हूँ कि ये सभी परमाणु हथियार अप्रभावी, महत्त्वहीन और राजनीतिक रूप से असंगत होंगे।’ कलाम ने संत के संदेश के नतीजे के साथ आकाशीय संगम को महसूस किया। उन्होंने इन शब्दों के असर से खुद को अचंभित महसूस किया। शांति के इस संदेश ने डॉ. कलाम के जीवन को एक नया अर्थ दिया और यह उनका मार्गदर्शक बन गया।

550वें प्रकाश पर्व पर करतारपुर जाने के लिए नि:शुल्क यात्रा

नवंबर 2019 में पूरी दुनिया गुरु नानक की 550वीं जयंती मनाएगी। पंजाब में सिख धर्म के संस्थापक, गुरु नानक देव की 550वीं प्रकाश पर्व के जश्न के लिए साल भर की तैयारी की। लोगों से आह्वान किया कि वे अपनी सरकार में शामिल होने के लिए अपने धार्मिक और राजनीतिक मतभेदों को एक यादगार घटना बनाने के लिए अलग रखें। जहाँ नानक देव ने अपने प्रारम्भिक जीवन के 14 साल बिताए, लोगों को अपनी शिक्षाओं, सिद्धांतों और आदर्शों के साथ फिर से जुडऩे के लिए प्रेरित किया।

कैप्टन ने समारोह के सम्बन्ध में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार को राज्य सरकार के विभिन्न अनुरोधों के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने पंजाब के गुरदासपुर िज़ले से करतारपुर साहिब कॉरिडोर को विकसित करने के केन्द्र के फैसले की सराहना की, ताकि भारतीय तीर्थयात्रियों को पाकिस्तान के करतारपुर में गुरुद्वारा दरबार साहिब जाने की सुविधा मिल सके।

उन्होंने इस मुद्दे पर पलटवार करने के लिए पाकिस्तान सरकार को धन्यवाद दिया और कहा कि उनकी सरकार परियोजना में समय पर पूरा होने के लिए आवश्यक योगदान देगी। सभा को सम्बोधित करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमरिंदर सिंह और उनकी सरकार का आभार व्यक्त किया और उन्हें इस विशेष क्षण का हिस्सा बनने का अवसर दिया।

पूर्व प्रधानमंत्री ने लोगों को जाति, रंग, पंथ और धर्म की परवाह किए बिना पूरे उत्साह और उल्लास के साथ साल भर चलने वाले समारोहों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।  दुनिया भर के 100 गुरुद्वारों से संबंधित एक किताब प्रस्तुत करते करेंगे।

गुरु नानक देव के 550वें प्रकाश पर्व के मौके पर 9 और 12 नवंबर को करतारपुर कॉरिडोर से गुरु द्वारा साहिब जाने वाले श्रद्धालुओं का शुल्क नहीं देना होगा। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने इसकी घोषणा की है।

गुरु नानक देव जी के 550वें  प्रकाश पर्व पर करतारपुर साहिब (पाकिस्तान) के लिए भारत में सिखों के लिए मुफ्त यात्रा का प्रबन्ध किया जा रहा है। सिख गुरु द्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा सिखों के लिए मुफ्त यात्रा का प्रबंध कर रही है। भारत  से यात्रा की मंजूरी मिलने के बाद श्रद्धालुओं को करतारपुर जाने के लिए 20 डॉलर यानी करीब 1400 रुपये का शुल्क देना होगा। यह शुल्क पाकिस्तान ने तय किया है। करतारपुर का कॉरिडोर साल भर खुला रहेगा। श्रद्धालु कभी भी दर्शन करने की अनुमति और शुल्क लेकर करतारपुर जा सकते हैं।

इस मौके पर दिल्ली सिख गुरु द्वारा प्रबंधक कमेटी ने 10 स्पेशल ट्रेनों की बोगियों को सजाकर गुरु  साहिब का संदेश देगी और विशाल बाइक रैली भी निकाली जाएगी। इसमें राइडर्स के लिए पूरा ड्रेस कोड दिया जाएगा और निशान साहिब लगाया जाएगा।

करतारपुर साहिब जाने के लिए उम्र की शर्त रखी गई है, जो कि 13 साल से 75 साल तक के श्रद्धालु पवित्र यात्रा पर जा सकते हैं। किसी भी धार्मिक मान्यता रखने वाला भारतीय नागरिक पाकिस्तान के करतारपुर साहिब जा सकता है। लेकिन खास शर्त यह है कि अगर वो कॉरिडोर से गए, तो फिर करतारपुर साहिब से आगे नहीं जा सकेंगे। इसके अलावा श्रद्धालुओं को उसी दिन शाम को वापस आना होगा। श्रद्धालु अपने साथ 7 किला से ज्य़ादा वजन का सामान नहीं ले जा सकते हैं। यात्रा के दौरान 11,000 रु पये से ज्य़ादा की भारतीय करंसी भी अपने पास नहीं रख सकते हैं।

भारत के हर प्रदेश से श्रद्धालु जा रहे हैं और वहाँ के गुरु द्वारा प्रबंधक करतारपुर साहिब की यात्रा की हर तरह से ट्रेन, बसों और बाईक का सजा कर भेजने का प्रबंधक कर रही है। इस मौके पर गुरु  साहिब के 550वें प्रकाश पर्व पर एक सिक्का भी जारी किया जा रहा है।