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मुस्लिम आरक्षण : महाराष्ट्र सरकार के गले की हड्डी!

महाराष्ट्र की महा विकास आघाड़ी सरकार में ‘सब कुछ ठीकठाक है’ का दावा करने वाले अब इस बात को लेकर परेशान हैं कि मुस्लिम आरक्षण को लेकर आपसी विवाद कैसे सुलझाया जाए?

जहाँ एक ओर महा विकास अघाड़ी के घटक दल इस मामले को अपने-अपने तौर पर डायल्यूट करने की कोशिश में लगे हैं, ताकि उनके बीच समन्वय की तस्वीर बनी रहे। वहीं दूसरी ओर भाजपा इस मामले को तूल देकर बड़ा मुद्दा बनाने पर तुली है, ताकि वह इसका राजनीतिक फायदा उठा सकें। इतना ही नहीं हिन्दुत्व के मुद्दे पर मुखर रहने वाले विश्व हिन्दू परिषद्, राष्ट्रीय बजरंग दल जैसे संगठन भी इस मामले में शिवसेना को घेरने की कोशिश कर रहे हैं। महाराष्ट्र में खुद को हिन्दुत्व का नया चेहरा बताने की कोशिश में लगे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे की इस लड़ाई में कूद पड़े हैं।

 दरअसल, मामले की शुरुआत हुई राज्य के अल्पसंख्यक विकास मंत्री नवाब मलिक के एक बयान से। मलिक ने विधान परिषद् में एक सवाल के जवाब में कहा कि महाराष्ट्र में मुस्लिम समाज को शिक्षा में 5 फीसदी आरक्षण मिलेगा और इसके लिए राज्य सरकार कानून बनाएगी। सरकार के घटक दल एनसीपी व कांग्रेस ने इसका स्वागत किया। लेकिन भाजपा द्वारा इसका विरोध करने के बाद शिवसेना ने कहा कि इस बाबत कोई विचार ही नहीं हुआ है। इससे एक नया विवाद पैदा हो गया। मलिक के इस घोषणा और उसे इसी शैक्षणिक वर्ष से लागू करने के वादे पर शिवसेना के एक कद्दावर मंत्री एकनाथ शिंदे ने यह कहकर कि महा विकास आघाड़ी की बैठक में ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया गया; महा विकास आघाड़ी  सरकार में आपसी समन्वय की तस्वीर साफ कर दी।

 हालाँकि, दूसरे दिन इस मसले पर अपना स्पष्ट रवैया रखते मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कहा कि मुस्लिम आरक्षण को लेकर अब तक कोई फैसला नहीं लिया गया है। अगर ऐसा कोई प्रस्ताव सरकार के सामने आता भी है, तो सरकार पहले सभी कानूनी पहलुओं की जाँच करेगी। िफलहाल इस पर कोई भी निर्णय नहीं लिया है।

ठाकरे के इस बयान को शिवसेना, एनसीपी, कांग्रेस अपने-अपने नज़रिये से देख रही हैं और भाजपा अपने नज़रिये से।

 कयास लगाये जा रहे हैं कि शिवसेना ने यह कहकर कि महा विकास आघाड़ी की बैठक में ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया गया है, भाजपा जैसे विरोधी पक्ष और हिन्दूवादी संगठनों को चुप कराने की कोशिश की है।

 हालाँकि, मुस्लिम आरक्षण को लेकर कांग्रेस और एनसीपी अभी भी आश्वस्त हैं कि मुस्लिम आरक्षण का मामला कोई बड़ा पेंच नहीं बनेगा।

एनसीपी और कांग्रेस के खेमे का मानना है कि उद्धव ठाकरे ने मुस्लिम आरक्षण के प्रस्ताव आने पर सरकार द्वारा कानूनी पहलू की जाँच करने की बात कहकर शिवसेना की सकारात्मक सोच को दर्शाया है और समय आने पर महा विकास अघाड़ी में इस मामले में कोई मतभेद नहीं दिखाई देगा।

दूसरी ओर शिवसेना से गठबन्धन वाली सत्ता से दूर हुई भाजपा मुस्लिम आरक्षण मामले में महा विकास आघाड़ी में विवाद को हवा देकर शिवसेना के साथ एक बार फिर सत्ता का खवाब देखने लगी है।

भाजपा के एक खेमे में से इस बात को लेकर एक बार फिर चर्चा शुरू होने की खबर है कि यदि महाविकास आघाड़ी में इसी तरह विवाद उठते रहते हैं और विशेषकर मुस्लिम आरक्षण को लेकर मतभेद सिरे तक जा पहुँचता है, तो इसका फायदा उठाया जाए। इसके लिए आरक्षण के मुद्दे पर शिवसेना को चुनौती दी जाए और स्थिति पैदा की जाए की महाविकास आघाड़ी में इस विवाद को लेकर खटास उत्पन्न हो जाए और उस स्थिति में शिवसेना से नज़दीकी बढ़ायी जाए।

 जहाँ एक ओर तीखे तेवर के साथ विधानसभा में ही नेता प्रतिपक्ष देवेंद्र फडणवीस ने उद्धव ठाकरे को चुनौती देते हुए कहा कि यदि ठाकरे में हिम्मत है, तो वह बोलें कि वे मुस्लिमों को आरक्षण नहीं दे सकते।

दूसरी ओर भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेता सुधीर मुनगंटीवार ने सॉफ्ट रवैये के साथ शिवसेना को अप्रोच भी किया। उनका कहना था कि यदि मुस्लिम आरक्षण को लेकर कांग्रेस, एनसीपी, शिवसेना का साथ छोड़ देती है, तो ऐसे में भाजपा उद्धव ठाकरे को साथ देगी।

हालाँकि, भाजपा के तल्ख तेवरों को देखते हुए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का कहना था कि इस मामले में जब कोई निर्णय ही नहीं लिया गया है, तो हंगामा किस बात का किया जा रहा है। साथ ही ठाकरे ने सलाह भी दे डाली कि हंगामा करने वाले अपनी ऊर्जा बचाकर रखें और उसका इस्तेमाल उस समय करें, जब यह मुद्दा चर्चा के लिए सामने आये।

 राजनीतिक विश्लेषक भरत राऊत महा विकास आघाड़ी सरकार का हिस्सा होते हुए भी घटक दल कांग्रेस, एनसीपी द्वारा मुस्लिम आरक्षण की पैरवी किये जाने के बावजूद उसका विरोध करने की असली वजह उद्धव ठाकरे की मजबूरी बताते हैं। वह कहते हैं कि उद्धव ठाकरे की यह बात भले ही एनसीपी और कांग्रेस को सांत्वना देती लगे, लेकिन सच्चाई यह है कि शिवसेना कभी नहीं चाहेगी कि उसके माथे पर मुस्लिमों को आरक्षण देने का दाग लगे और हिन्दुत्व की लाइन पर चलने वाली भाजपा उसे बार-बार इस मामले पर जलील करती रहे।

यह बात जुदा है कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बयानों पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सरकार में लोक निर्माण मंत्री अशोक चव्हाण मुस्लिम आरक्षण के मामले में अपनी पार्टी का नज़रिया स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मुस्लिमों को आरक्षण देकर रहेंगे। कांग्रेस एनसीपी के घोषणा-पत्र मेंं मुस्लिम आरक्षण शामिल है।

मुस्लिम आरक्षण के मामले में उद्धव ठाकरे के इस बयान पर कि प्रस्ताव आने पर सरकार पहले सभी कानूनी पहलू की जाँच करेगी; को लेकर महाराष्ट्र कांग्रेस प्रमुख बाला साहेब थोरात भी जायज़ ठहराते हैं।

 थोरात कहते हैं कि ठाकरे ने जो कुछ कहा वह सच है। क्योंकि इस मुद्दे पर अब तक कोई चर्चा नहीं की है। कांग्रेस, एनसीपी ने मुसलमानों को आरक्षण दिया था; यह पिछले 5 साल में आगे नहीं बढ़ा। लेकिन हमारी प्रतिबद्धता है और यह कांग्रेस, एनसीपी के घोषणा-पत्र का हिस्सा है। इसलिए हम इसे देना चाहते हैं। यह कोई बहुत बड़ा मसला नहीं है, जिस पर इतना हंगामा बरपाया जाए। क्योंकि महाराष्ट्र विकास आघाड़ी  सरकार की समन्वय समिति और मंत्रिमंडल में इस मुद्दे पर चर्चा होगी और मुझे पूरा विश्वास है कि यह और इसका नतीजा अच्छा ही निकलेगा।

चंद पीएसयू के प्रदर्शन पर ही खुशी क्यों?

जब सरकार 10 फरवरी को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) को लेकर संसद में सर्वे रिपोर्ट रख रही थी, तो बहुत उत्साहित होकर ओएनजीसी, इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन और एनटीपीसी के लाभदायक सार्वजनिक उपक्रम होने के कसीदे पढ़े। लेकिन उसने बड़ी चतुराई से इसे अनदेखा कर दिया कि 2018-19 में ही बीएसएनएल, एयर इंडिया और एमटीएनएल जैसे सार्वजनिक उपक्रमों को लगातार तीसरे साल सबसे ज़्यादा घाटा हुआ है। यह न केवल घाटे वाले पीएसयू हैं, बल्कि निजी क्षेत्र में भी टेलीकॉम, पॉवर, इन्फ्रास्ट्रक्चर, इलेक्ट्रिक उपकरण, स्टील, एविएशन में निजी क्षेत्र की बड़ी कम्पनियों के साथ-साथ स्टार्टअप्स भी बड़े घाटे में हैं। हालाँकि, सबसे बुरी हालत 300 मिलियन से अधिक मोबाइल उपयोगकर्ताओं वाले टेलीकॉम सेक्टर की है, जिसे फिक्स्ड और मोबाइल फोन कनेक्शन के मामले में वैश्विक रूप से दूसरे सबसे बड़े सेक्टर के रूप में जाना जाता है।

दूरसंचार क्षेत्र में वोडाफोन-आइडिया 67,116 करोड़ रुपये के घाटे में हैं। इसके बाद रिलायंस कम्युनिकेशंस है, जो 38,592 करोड़ रुपये का घाटा झेल रहा है। एयरटेल का घाटा 26,838 करोड़ रुपये, बीएसएनएल का 14,904 करोड़ रुपये और एमटीएनएल का 3589 करोड़ रुपये है। भारती एयरटेल ने 17 फरवरी, 2020 को दूरसंचार विभाग (डीओटी) को अपने लम्बित समायोजित सकल राजस्व (एजीआर) बकाया के हिस्से के रूप में 10,000 करोड़ रुपये का भुगतान किया। वोडाफोन-आइडिया और टाटा टेलीसर्विसेज के भी अपने एजीआर बकाया के लिए भुगतान की सम्भावना है। दूरसंचार विभाग को तीनों कम्पनियों से कुल 1.47 लाख करोड़ रुपये तक का बकाया लेना है।

सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई कर रहा है और इस मुद्दे पर उसने नाराज़गी जतायी थी। वोडाफोन-आइडिया उस राशि की गणना कर रहा है, जिसकी एजीआर बकाया के रूप में उसे भुगतान करने की आवश्यकता है। यह सब उसे तब करना है, जब कम्पनी यह कह रही है कि एजीआर बकाया के भुगतान से भारत में उसे अपना कारोबार बन्द करना पड़ सकता है।

इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में जीएमआर इंफ्रा ने 3610 करोड़ रुपये का नुकसान झेला है, जयप्रकाश एसोसिएट्स 2715 करोड़ रुपये के घाटे के साथ चल रही है; आईएलएंडएफएस इंजीनियङ्क्षरग सर्विसेस 2042 करोड़ रुपये, एकता इंफ्रा 1844 करोड़ रुपये, ग्लोबल टेली एसवाईएस 1,600 करोड़ और जेपी इंफ्राटेक 1582 करोड़ रुपये के घाटे में है। बिजली उपकरण क्षेत्र में ज्योति स्ट्रक्चर्स को 4166 करोड़ रुपये और सुजलॉन को 2,111 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था।

पॉवर सेक्टर में रिलायंस पॉवर 3360 करोड़ रुपये के घाटे के साथ घाटे में चल रही कम्पनियों में सबसे ऊपर है। इसके बाद केएसके एनर्जी वेंचर्स लिमिटेड का नाम आता है, जो 2893 करोड़ रुपये, जयप्रकाश पॉवर वेंचर्स लिमिटेड 2327 करोड़ रुपये के घाटे में और क्रॉमर ग्रीव्स 1966 करोड़ रुपये के घाटे में है। स्टील सेक्टर में जिंदल स्टील एंड पॉवर को 2460 करोड़ रुपये का घाटा हुआ; जबकि उत्तम स्टील को 1539 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। एयरलाइंस की बात करें, तो एयर इंडिया घाटे में शीर्ष पर थी और यह 8850 करोड़ रुपये का घाटा झेल रही थी। इसके बाद जेट एयरवेज़ का नम्बर है, जो 4244 करोड़ रुपये के नुकसान में थी। िफलहाल जेट का संचालन बन्द है और एयर इंडिया बेचने के लिए सरकार ने बोली आमंत्रित की की हैं।

यदि सार्वजनिक उद्यम सर्वेक्षण में 2018-19 का विश्लेषण करें, तो पाएँगे कि घाटे की शीर्ष 10 कम्पनियों ने वर्ष के दौरान घाटे वाले सभी 70 सीपीएसई में कुल घाटे के 94.04 फीसदी का दावा किया है। लाभ कमाने वाले शीर्ष तीन पीएसयू तेल और प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी), इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन और एनटीपीसी सहित सार्वजनिक उपक्रमों ने पीएसयू के अर्जित कुल लाभ में क्रमश: 15.3 फीसदी, 9.68 फीसदी और 6.73 फीसदी का योगदान दिया। आश्चर्य की बात यह है कि शीर्ष 10 घाटे वाली फर्मों के सर्वे में यह पाया गया कि स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, एमएसटीसी और चेन्नई पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन, जो 2017-18 में सीपीएसई को लाभकारी बना रहे थे; उन्हें 2018-19 में घाटा झेलना पड़ा । सभी सीपीएसई की कुल आय 2017-18 में 20,32,001 करोड़ रुपये की तुलना में साल 2018-19 के दौरान 24,40,748 करोड़ रुपये रही, जो 20.12 फीसदी की वृद्धि दर्शाती है।

उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क, जीएसटी, कॉरपोरेट कर (टैक्स), केंद्र सरकार के ऋणों ब्याज, लाभांश और अन्य करों के माध्यम से केंद्रीय खज़ाने को सीपीएसई का योगदान 2017-18 के 3,68,803 करोड़ रुपये के मुकाबले 2018-18 में 3,52,361 रुपये था, जो 4.67 फीसदी की वृद्धि दर्शाता है। सर्वेक्षण के अनुसार, 31 मार्च, 2019 तक कुल 348 सीपीएसई थे, जिनमें से 249 चालू हालत में थे। शेष 86 निर्माणाधीन थे और 13 बन्द या परिसमापन की स्थिति में थे। संसद के दोनों सदनों में 10 फरवरी को पेश किये गये सार्वजनिक उपक्रम सर्वेक्षण 2018-19 से ज़ाहिर होता कि 31 मार्च, 2019 तक सभी सीपीएसई में कुल प्रदत्त पूँजी 2,75,697 करोड़ रुपये रही, जो 8.55 फीसदी की वृद्धि के साथ दर्ज की गयी थी। सभी सीपीएसई में वित्तीय निवेश 14.65 फीसदी की वृद्धि के साथ 16,49,628 करोड़ रुपये रहा।

सभी सीपीएसई में पूँजी रोज़गार 31 मार्च, 2019 को 26,33,956 करोड़ रहा; जबकि 31 मार्च, 2018 में यह 23,57,913 करोड़ रुपये था। यह 11.71 फीसदी की वृद्धि को दर्शाता है। साल 2018-19 के दौरान सभी सीपीएसई के संचालन से कुल सकल राजस्व 25,43,370 करोड़ रुपये हुआ, जो पिछले वर्ष के 21,54,774 करोड़ रुपये की तुलना में 18.03 फीसदी की वृद्धि दर्शाता है।

साल 2018-19 के दौरान सभी सीपीएसई की कुल आय 24,40,748 करोड़ रुपये रही, जो 2017-18 के 20,32,001 करोड़ रुपये की तुलना में 20.12 फीसदी की वृद्धि दर्शाता है। इसके अलावा 178 लाभ देने वाले सीपीएसई का लाभांश 2018-19 में 1,74,587 करोड़ रहा, जो 2017-18 के 1,55,931 करोड़ रुपये के मुकाबले 11.96 एएसडी की वृद्धि दिखाता है।

माल और सेवाओं के निर्यात के माध्यम से 79 सीपीएसई की विदेशी मुद्रा आय 2018-19 में 1,43,377 करोड़ रुपये रही; जबकि 2017-18 में यह 98,714 करोड़ रुपये थी, जो 45.24 फीसदी  की बड़ी वृद्धि है। आयात और रॉयल्टी पर 144 सीपीएसई का विदेशी मुद्रा व्यय परामर्श, ब्याज और अन्य व्यय रुपये के मुकाबले 2018-19 में 6,64,914 करोड़ पर रहा; जबकि 2017-18 में यह 5,22,256 करोड़ रुपये था, अर्थात् इसमें 27.32 फीसदी की वृद्धि हुई है। सीपीएसई का रिजर्व और सरप्लस 31.03.2019 को 9,93,328 करोड़ रुपये था जो 31.03.2018 के 9,26,906 करोड़ रुपये के मुकाबले 7.17 फीसदी  ज्यादा है। सभी सीपीएसई की कुल सम्पत्ति 31 मार्च, 2018 के 11,15,552 करोड़ रुपये के मुकाबले 31 मार्च, 2019 को 12,08,758 करोड़ यानी 8.36 फीसदी की वृद्धि थी।

सर्वेक्षण की खास बात यह है कि घाटे वाले 70 सीपीएसई का कुल घाटा 2018-19 में 36,635 करोड़ रुपये रहा, जो 2017-18 में 32,180 करोड़ रुपये के नुकसान के मुकाबले 1.69 फीसदी कम है।

साल 2018-19 में सीपीएसई का प्रदर्शन

वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान 249 ऑपरेटिंग सीपीएसई का कुल शुद्ध लाभ 1,42,951 करोड़ रुपये रहा, जबकि वित्त वर्ष 2017-18 में 258 ऑपरेटिंग सीपीएसई का कुल शुद्ध लाभ 1,23,751 करोड़ रुपये था। साल 2018-19 के दौरान 178 ऑपरेटिंग सीपीएसई ने 1,74,587 करोड़ रुपये का शुद्ध लाभ कमाया, जबकि वित्त वर्ष 2017-18 के लिए 183 ऑपरेटिंग सीपीएसई ने 1,55,931 करोड़ रुपये का शुद्ध कमाया था। इसी तरह 70 ऑपरेटिंग सीपीएसई ने वर्ष 2018-19 के लिए 31,635 करोड़ रुपये, जबकि 2017-18 में 72 ऑपरेटिंग सीपीएसई ने 32,180 करोड़ रुपये का घाटा दर्शाया। कुल 348 सीपीएसई में कुल निवेश 31 मार्च, 2019 तक 1,6,40,628 करोड़ रुपये रहा; जबकि 31 मार्च, 2018 तक 339 सीपीएसई में कुल निवेश 1,4,31,008 करोड़ का था। वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान सीपीएसई का घोषित/भुगतान किया गया लाभांश 7,916 करोड़ रुपये है; जबकि वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान इनका घोषित/भुगतान किया गया लाभांश 7,014 करोड़ रुपये था।

ओ माई गॉड! यह इंदौर है क्या…?

सिडनी से इंदौर आयीं सुधा शर्मा ने एयरपोर्ट से बाहर जैसे ही कदम रखे, आसपास सब कुछ बदला-सा देखकर उसके मुँह से यही शब्द निकले- ‘ओ माई गॉड! यह इंदौर है क्या…?’ वह 10 साल बाद इंदौर आयी थीं। इंदौर तीन साल पहले गन्दगी वाला शहर था। लेकिन यही शहर पिछले तीन साल से बराबर देश के सबसे साफ शहरों में अव्वल रहा है। इसे ‘क्लिनेस्ट सिटी ऑफ इंडिया’ का खिताब मिला। सबसे खास बात यह है कि इंदौर शहर स्वच्छता की रैंकिंग में आने के बाद रहने लायक शहरों में भी शुमार हो चुका है। लेकिन यह जानना भी ज़रूरी है कि इस शहर को स्वच्छता में अव्वल लाने पर क्या-क्या कदम उठाये गये हैं?

इंदौर के लोगों का कहना है कि शहर में गन्दगी का जो आलम था, उस दृष्टि से इस शहर को स्वच्छ कर पाना सपने जैसा लगता था; लेकिन यहाँ के नगर निगम के अधिकारियों और कर्मचारियों के दृढ़ संकल्प तथा मेहनत के चलते इंदौर शहर की काया बदल गयी। अब 5 जनवरी, 2020 को इस शहर की पहली आदर्श, स्वच्छ और स्मार्ट सड़क के लोकार्पण समारोह के अवसर पर लोगों ने इस सड़क पर बैठकर खाना खाया था। शायद यह स्वच्छता का जश्न मनाने का रोचक तरीका था। इंदौर की अव्वल नम्बर पर लाने के लिए निगम की महापौर रही मालिनी गौड़, तत्कालीन कमिश्नर मनीष सिंह और वर्तमान कमिश्नर आशीष सिंह की भूमिका सराहनीय है।

नगर निगम इंदौर के टीम लीडर प्रोजेक्ट डिजाइन एंड मैनेजमेंट कंसल्टेंट असद वारसी का कहना है कि इंदौर शहर अगर क्लीनेस्ट सिटी ऑफ इंडिया बन पाया है, तो उसके पीछे राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति के अलावा जनता के सहयोग से यह सब हो पाया है। उन्होंने बताया कि इंदौर में ध्वनि प्रदूषण कम करने और ट्रैफिक मैनेजमेंट के लिए भी लगातार काम कर रहे हैं। प्रशांत राय पे बताया कि इंदौर ऐसा शहर है, जो सर्वधर्म समभाव का उदाहरण माना जा सकता है। गुजराती, मराठी, बंगाली या पंजाबी होने की लीक से परे इंदौर की पहचान किसी विशेष जाति, सम्प्रदाय या धर्म से नहीं है। यहाँ तक राजनीतिक लोग भी मुद्दों पर चाहे बहस करते हों, लेकिन सर्वहित के लिए आपस में मिलकर बैठते हैं। स्वच्छता अभियान भी इसी धारणा से साकार हो पाया है। यहाँ के एक मंत्री का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं कि शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी की सादगी बड़ी रोचक है। वह मंत्री होकर भी साइकिल से चलते हैं और जहाँ कहीं चाय की तलब हो, वहीं किसी के घर चाय पीने अपनी पहचान बताकर चले जाते हैं। ऐेसे नेता जनता में अपनी अमिट छाप बना लेते हैं।

गायिका लता मंगेशकर, अभिनेता सलमान खान और शायद राहत इंदौरी की जन्मभूमि है- इंदौर शहर। सांस्कृतिक गतिविधियों के चलते लोगों का आपस में काफी जुड़ाव रहता है। यहाँ के लोग खाने के भी काफी शौकीन हैं। छप्पन दुकान और सर्राफा बाज़ार खाने के शौकीनों का खास केंद्र है। यहाँ खाने की ओटें (दुकानें) रात दो-ढाई बजे तक चलती हैं। बाज़ार दिन जैसी रोशनी से नहाया रहता है। छप्पन दुकान में हर तरह का खाना उपलब्ध रहता है। इस बाज़ार को विश्वस्तरीय स्मार्ट मार्केट बनाने के लिए नगर निगम ने चार करोड़ रुपये की लागत से काम शुरू किया हुआ है, जो 56 दिन में ही पूरा किया जाएगा। हर दिन के काम का ब्यौरा लिया जाता है। नो व्हीकल जोन के अलावा इस बाज़ार का सौंदर्यीकरण भी किया जाएगा।

शहर में रंगपंचमी का त्योहार सबसे खास है और बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। ट्रकों में रंगों के ड्रम भरे रहते हैं, जहाँ से तीन-चार मंज़िल तक पिचकारी से रंग फेंका जाता है। इस शहर में पिछले कई साल से रह रहीं वरिष्ठ लेखिका संध्या  बताती हैं कि स्वच्छता में नम्बर-वन आने के बाद सफाई से किसी तरह का समझौता नहीं किया जाता। त्योहार के बाद दो-तीन घंटे में ऐसी सफाई हो जाती है कि अगले दिन कहीं कोई रंग बिखरा नज़र नहीं आता। यहाँ रंग भी ऑर्गेनिक ही इस्तेमाल किये जाते हैं।

स्वच्छता सर्वेक्षण में फीडवैक के तरीके

सर्वेक्षण करने वाली टीम लोगों के घरों में जाकर सीधे बात करती है। इसके अलावा स्वच्छता एप, इंदौर  311 एप वोट फॉर माई सिटी पर अपनी बात कह सकते हैं और टोल फ्री नंबर 1969 पर कॉल कर सकते हैं।

क्या-क्या पूछे जाते हैं सवाल?

क्या आप अपने शहर का ओडीएफ स्टेट्स जानते हैं? क्या आप अपने शहर के कचरामुक्त सिटी की स्टार रेटिंग के बारे में जानते हैं? क्या आप जानते हैं कि आपका शहर स्वच्छता सर्वेक्षण 2020 में भाग ले रहा है? आप अपने शहर की सफाई के लिए कितने अंक देना चाहेंगे? अपने शहर के व्यावसायिक व सार्वजनिक स्थानों की सफाई को कितने अंक देना चाहेंगे? क्या आपसे सूखा व गीला कचरा अलग-अलग माँगा जाता है? क्या आपके शहर मेें रोड डिवाइडर पर पौधरोपण हुआ है? शहर के सार्वजनिक व सामुदायिक शौचालयों की सफाई के आप कितने अंक देना चाहेंगे।

पान खाकर थूकने वालों की कमी नहीं

शहर को पहचान देता ग्रेटर कैलाश रोड अथवा आदर्श रोड है। इंदौर को आदर्श व स्मार्ट बनाया गया है। लेकिन बदिकस्मती है कि पान खाकर थूकने वालों को स्वच्छ शहर की रैंकिंग से कोई लेना-देना नहीं। सड़क किनारे कई जगह दीवार के नीचे और स्टील के खम्भों के नीचे पान की पीकें दिखाई देती हैं। इसको लेकर भी नगर निगम के लोगों को गम्भीरता से एक्शन लेने की ज़रूरत है।

कचरे की पहाडिय़ों से घिरी दिल्ली

महेश दुबला-पतला किशोर है। पूछने पर वह खुद को 18 का बताता है। वह कूड़ा बीनता है। उसके माता-पिता और छोटे दो भाई-बहन भी यही काम करते हैं। पूरा परिवार सारा दिन गाज़ीपुर के कचरा पहाड़ पर घूमता रहता है। आते और लौटते हुए हमेशा उनकी नज़र सड़क के किनारे पर रहती है। कहीं शीशे या प्लास्टिक की बोलत दिखी, तो वे लपककर उसे उठाते हैं।

मौसम ठीकठाक यदि रहा, पुलिस वालों और इलाके के सरदारों ने सताया नहीं, तो पूरा परिवार तकरीबन 6-700 रुपये कमा पाता है। अब इस महँगाई में क्या पढ़ाई और क्या घुमायी? बस जी रहे हैं।

महेश और उसका परिवार गाज़ीपुर के कचरे के पहाड़ पर दो-जून की रोटी कमाने की मशक्कत में उस पहाड़ के रखवालों की नज़र बनाते हुए जी रहा है। उसे न सरकार से मतलब है और किसी पार्टी से। हाँ, चुनाव और सभाओं में कभी-कभी जाने पर कुछ कमाई और हो जाती है। झगड़े-फसाद दंगे में परेशानी बढ़ जाती है। आम तौर तब वे सीमा पार कर परिवार के साथ अपने दादा-दादी के घर गाज़ियाबाद आ जाते हैं।

भारत की राजधानी दिल्ली में बढ़ती आबादी की साथ डर कहीं कूड़े का फैलाव, कूड़े का टीला और कूड़े के पहाड़ हैं। केंद्र सरकार का पर्यावरण और वन विभाग और दिल्ली सरकार और एमसीडी के अफसर कूड़े के भंडारण की जगह तय करते हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से भी राय लेते हैं। फिर लैंडफिल बनाकर कूड़े का भंडारण नियत ऊँचाई तक तय होता है। लेकिन जिस तरह दिल्ली का हर दिशा में विकास हो रहा है। आबादी बढ़ती जा रही है। उसके अनुपात में कई गुना कूड़ा भी बढ़ रहा है। नियत ऊँचाई से भी कई गुना ज़्यादा कूड़ा इकट्ठा होता रहता है। प्रशासन की अनदेखी से कचरा पहाड़ बन जाता है। फिर पहाड़ की ऊँचाई घटाने की सिरदर्दी शुरू होती है। फिर नियत ऊँचाई के काफी ऊपर तक कूड़ा रहता ही है।

आज दिल्ली की स्थानीय सरकार, केंद्र सरकार और प्रशासन के लिए कूड़े के पहाड़ों का निदान एक बड़ी चुनौती हैं। सारी दुनिया में मौसम परिवर्तन (क्लाइमेंट चेंज), शुद्ध वातावरण और हरीतिया के रख-रखाव के लिए युवा सड़कों पर उतर रहे हैं। वे खुद के स्वास्थ्य की भीख माँग रहे हैं। वे चाहते हैं कि उनकी खातिर पर्यावरण और पारीस्थितिकी को बचाया जाए।

दिल्ली में कूड़े को व्यवास्थित तरीके से शोधित करने के इरादे से 60 के दशक में भलस्वा, गाज़ीपुर, ओखला नरेला बवाना में लैंडफिल बने थे। दिल्ली की आबादी और विकास के साथ कूड़ा भी कई गुना बढ़ा। अब वैकल्पिक तरीकों की तलाश में राज्य प्रशासन और मंत्री स्तर पर कई दौर में बातचीत भी हुई। लेकिन कूड़े के अंबार को ठिकाने लगाने के लिए दूसरी जगहों की तलाश तो समस्या है। साथ ही कैसे कूड़े की निस्तारण हो वह कभी प्राथमिकता की सूची मेें शामिल नहीं किया। नतीजा यह है कि पूरी दिल्ली की आबोहवा की चर्चा देश भर में ही नहीं, बल्कि दुनिया की गन्दी राजधानियों में इसकी गिनती अब होती है।

दिल्ली की इस बनी गन्दी तस्वीर को समझने और खूबसूरत बनाने की दिशा में इसी साल फरवरी में सांसद गौतम गम्भीर ने दिल्ली के पूर्वी हिस्से में गाज़ीपुर के विशाल कूड़ा पहाड़ का दौरा किया। ऐतिहासिक कुतुबमीनार की ऊँचाई से भी ऊपर बढ़ रहे कूड़े के इस पहाड़ को देखकर वे आश्चर्य में पड़ गये। गाज़ीपुर कूड़ा पर्वत पर आज 1.3 मिलियन मीठरिकस से भी ज़्यादा कूड़े को भंडारण है। अब भी इस पर कूड़ा घटाया बढ़ाया जा रहा है। इस पहाड़ की ढलानों के साथ ऊपर को बढ़ रहा यह पहाड़ आज भी खासा खतरनाक है। अपनी दुर्गंध और हवा के ज़रिये तरह-तरह की बीमारियों के संक्रमण के लिहाज़ से। यह खतरनाक है मानव, पशु और मशीनों के लिए भी। लेकिन इसकी विभिन्न दुर्घटनाओं के बावजूद इस कूड़े के निस्तारण पर कभी कोई खास बेचैनी प्रशासन में नहीं देखी गयी।

पूर्वी दिल्ली के गाज़ीपुर लैंडफिल का काम 1984 में शुरू हुआ था। देखते-ही-देखते यह भरता गया और कूड़े का पहाड़ बनने लगा। कानून की किताब में सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स 2016 में बताया गया है कि एक लैंडफिल की मियाद ज़्यादा-से-ज़्यादा 25 साल होनी चाहिए। लेकिन अब तो 36 साल भी ज़्यादा हो चले। कूड़ा बढ़ता ही जा रहा है। इसकी वजह यह बतायी जाती है कि दिल्ली सरकार केंद्र सरकार और पड़ोसी राज्य सरकारें मसलन उत्तर प्रदेश, हरियाणा के कूड़े के लिए लैंडफिल की उपयुक्त जगह मुहैया नहीं करा पा रही हैं।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने यह जानना चाहा था कि जब लैंडफिल की ऊँचाई की मियाद 15 फीट 2002 में ही पूरी हो गयी थी, तो गाज़ीपुर लैंडफिल मेें कूड़े का पहाड़ क्यों विकसित होने दिया गया? प्रशासन इस पर खामोश रहा। गाज़ीपुर लैंडफिल पर प्रतिदिन 2,500 से 3,000 मीट्रिक टन कूड़ा 2002 के बाद भी लगातार लादा जाता रहा। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दो साल अवधि दी, जिसमेें एक उपयुक्त स्थान तलाशा जाए, जहाँ यहाँ की नियत क्षमता से अधिक कूड़ा हटाया जाए, ताकि यहाँ और कचरा फेंका जाए। लेकिन यहाँ कचरा बढ़ता ही गया। यहाँ कचरे से ऊर्जा बनाने का संयंत्र भी लगा है। लेकिन वह 1,200 टन कूड़ा ही उपयोग में लेने मे सक्षम है।

आज गाज़ीपुर का कचरा पहाड़ 80 फीट से भी ज़्यादा ऊँचा है, जबकि यहाँ की कुल क्षमता 15 फीट निर्धारित थी। आिखर स्थापना के 70 साल बाद एक दिन तेज़ आवाज़ यह असंतुलित पहाड़ धसक गया। शुक्रवार ही उस दिन था। कचरे के ढेर में दबकर तीन कारें पिचक गयीं और 15 लोग मारे गये। उस समय नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल कुछ हरकत में आया। लेकिन समय बीता और फिर वही, ढाक के तीन पात।

गाज़ीपुर कचरा पहाड़ के आसपास के इलाके में तकरीबन 50 लाख से ऊपर लोगों की रिहायशी बस्तियाँ हैं। कचरा पहाड़ के दो सौ मीटर की दूरी से ही बस्तियों का सिलसिला शुरू हो जाता है। यहाँ से तकरीबन ढाई किलोमीटर दूर संजय झील है, जो आज छोटे तालाब-सी गन्दी है। यहाँ की बस्तियों में पाइप से जो पानी आता है, वह पीली रंगत लिये होता है। लेकिन न एमसीडी, न दिल्ली जल बोर्ड और न दिल्ली सरकार इस मानवीय समस्या पर गौर नहीं करती। और तो और विशेषज्ञों के अनुसार इस कचरे का असर भूमिगत जल पर भी है। इसके बावजूद केंद्र सरकार इस मानवीय समस्या के प्रति उदासीन रहीं।

लेकिन अभी दिल्ली से सांसद का मौका मुआयना करना, स्थानीय लोगों, भवन निर्माताओं और व्यापारियों में एक उम्मीद जग रहा है कि परिवेश सुधरेगा; विश्वास बढ़ेगा।

फरवरी महीने के दूसरे सप्ताह में संसदीय स्थायी समिति के साथ गाज़ीपुर पहुँचे। सांसद साथ आए विभिन्न सरकारी एजंसियों के प्रतिनिधियों से गाज़ीपुर कचरा पहाड़ की ऊँचाई कम करने में हो रही देर पर अपनी नाराज़गी जतायी। वे इस बात से खासे चकित थे कि स्थानीय एमसीडी इस मामले में गम्भीरता नहीं दिखा रही है। कचरा पहाड़ 70 एकड़ में फैला हुआ है और इसकी ऊँचाई किसी 15 मंजिला इमारत से भी ऊपर पहुँच चुकी है। प्रशासनिक अनदेखी और जन स्वास्थ्य के प्रति घोर लापरवाही का यह खतरा एक नमूना है।

हालाँकि, एमसीडी के प्रतिनिधि अलबत्ता यह तर्क देते रहे कि कचरे को अलग-अलग करने और परिष्कृत करने के लिए इस पहाड़ पर एक मशीन लगायी गयी है। मशीन यह चार हिस्सों में है, जो भवन निर्माण का अपशिष्ट कूड़ा, प्लास्टिक, मिट्टी, लोहा आदि अलग-अलग करती है। लेकिन सवाल इसकी क्षमता पर अटका है। यह मशीन यदि ठीक रहे, तो प्रतिदिन 640 मीट्रिक टन कचरा साफ कर सकती है। पूर्वी एमसीडी की कमिश्नर ने बताया कि एनएचएआई से यह बात की जा रही है कि क्या वे सड़क निर्माण के इस्तेमाल में यहाँ का कचरा लेंगे, जिसे सड़क निर्माण कार्य में इसका इस्तेमाल हो सके।

संसद में इस कचरा पहाड़ के कारण पूरे इलाके में सप्लाई हो रहे पीले से पेयजल की गुणवत्ता पर दिल्ली जल बोर्ड के अधिकारियों से जानकारी भी ली। इस बात से वे खासे नाराज़ थे कि कचरे के पहाड़ का असर न केवल घरों में पहुँच रहे कूड़े, बल्कि सप्लाई हो रहे पेयजल, भूमिगत जल और वायु प्रदूषण को बढ़ा रहा है, बल्कि इससे संजय लेक भी बर्बाद हो रही है।

उन्होंने कहा यह कचरे का पहाड़ एशिया भर में सबसे बड़ा है। यदि इस पर जनता और सरकारी एजंसियाँ नज़र रखतीं, तो समाधान काफी आसानी से हो जाता। हर घर से फेंके हुए कूड़े से आज यह कचरा पहाड़ बना। यदि हर घर के निवासी भी इस ओर ध्यान देता, तो यह शायद पहाड़ इतना घातक न बन पाता। दिल्ली राज्य के मुख्यमंत्री को इस कचरे के पहाड़ को इसकी पहले की नियत ऊँचाई तक लाने में सहयोग करना चाहिए। उनकी सरकार की मदद से इस काम को पूरा करने में आसानी होगी।

सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट का पूरा दारोमदार केंद्र के पर्यावरण वन विभाग के पास है। मंत्रालय अपनी प्रथामिकता के आधार पर कचरे के अध्यक्ष योजना शोधन और वितरण की योजनाओं को संचालित करता है। इसमें राज्य सरकारों से भी सक्रिय सहयोग लिया जाता है। देश के महानगरों में कचरे का एक अध्यक्ष 2007 में सालिड वेस्ट मैनेजमेंट ने किया था। इसके अनुसार, इस कचरे में वनज के अनुसार तकरीबन 41 फीसदी जैविक और निचले स्तर के 40 फीसदी निष्कय पदार्थ, छ: फीसदी कागज़, चार फीसदी प्लास्टिक चार फीसदी कपड़ा, दो फीसदी ग्लास, दो फीसदी धातुएँ व एक फीसदी चमड़ा अमूमन मिलता है।

कचरा प्रबंधन में शोध करने वाली जूलियाना लिटकोणकी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि गाज़ीपुर कचरे का पहाड़ दिल्ली के नागरिकों के कचरे में इकट्ठे होते जाने से बना। इस पहाड़ की ढलुवा परतें खासी खतरनाक हैं। ये नीचे को धसकती हैं, जो मानव, पशु और मशीनों के लिए खासी खतरनाक हैं। जो इस कचरे में खोजबीन, शोधन और इसे जलाने के काम में जुटे हैं।

दिल्ली के बाहरी इलाके ओखला लैंडफिल 1996 में बना। यह दक्षिणी दिल्ली की एमसीडी के क्षेत्र में हैं। यहाँ कचरा पिछले साल तक 58 मीटर ऊँचा हो गया था, जो अब 38 मीटर तक घटाया गया हैं। अब इसे ईको पार्क के तौर पर विकसित किया जा रहा है। इसके चारों तरफ 7,000 वर्गमीटर के क्षेत्र में हरी घास लगा दी गयी है। इस काम में कमिश्नर पुनीत गोयल ने खुद दिलचस्पी ली और इसे अमलीजामा पहनाया। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के एक विशेषज्ञ के सहयोग से कचरे के टीले को अब हरियाली के एक अहम केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। ओखला वेस्ट ट्रीटमेंट से यहाँ संशोधित जल की नियमित सप्लाई है और ठीमठाक संख्या में मज़दूर हरियाली विकसित करने की प्रक्रिया में जुटे हुए हैं।

नरेला बवाना के लैंडफिल भी मर चले हैं। लेकिन वहाँ भी दिल्ली की एमसीडी खासी निष्क्रिय है। वहाँ रह रहे नागरिकों, बहुमंज़िला इमारतें के निर्माताओं और व्यापारिक संगठनों की शिकायतों पर कुछ दिन की सक्रियता और फिर घनघोर निष्क्रियता का बोलबाला है। नागरिक मुकेश वर्मा कहते हैं कि जब तक यहाँ कोई बड़ा हादसा नहीं होगा, तब तक न तो एमसीडी कुछ करेगी, न राज्य सरकार और न केंद्र सरकार का पर्यावरण विभाग। नरेला बवाना की ऊँचाई अधिकतम 15-20 मीटर नियत हुई थी, जो पीछे छूट चुकी है। पूरे इलाके में खासी दुर्गंध और गन्दगी फैली हुई है।

यदि दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार को मिलकर महानगर की कचरा निपटान समस्या का जल्दी ही आधुनिक तरीकों से समाधान करना होगा। ऐसा नहीं होने से संक्रामक रोगों के महामारी के रूप में फैलने का खतरा बढ़ेगा, जिसके लिए न तो नागरिकों के पास क्षमता है और न प्रशासन के पास उपयुक्त साधन। दिल्ली की हर दिशा में बेतरतीब फैलाव आज है। बढ़ती जनसंख्या के लिहाज़ से मोहल्ला क्लीनिक, स्वास्थ्य केंद्र और अस्पतालों के निर्माण के साथ-साथ महानगर की साफ-सफाई पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है। एक अनुमान के अनुसार, आर्थिक हालात बेहतर हुए तो 2030 तक यहाँ कचरे में 165 मिलियन टन से भी ज़्यादा की बढ़ोतरी हो जाएगी, जिसका निदान हर हाल में ज़रूरी होगा।

नई दिल्ली में लगातार ध्वंस और नव निर्माण का सिलसिला जहाँ निराश करता हैं, वहीं कूड़े के पहाड़ भी। राजधानी की जनता तमाम तरह के वायु प्रदुषण की बेचैन ही रहती हैं। फिर भी देश के नागरिक अपनी राजधानी को साफ-सुथरा, सुन्दर और शान्तिपूर्ण देखना चाहते हैं। क्योंकि पूरे देश की विविधता और संस्कृति की पहचान इसी शहर से होती है। पिछले दिनों सांसद गौतम गम्भीर का दिल्ली उत्तर प्रदेश सीमा के पास गाज़ीपुर में कूड़े के विशाल पहाड़ का दौरा हुआ। इस लिहाज़ से यह दौरा अहम है कि पहली बार न केवल चंद मिनट उस समस्या पर गौर किया गया, बल्कि नाकारा अफसरशाही से संसदीय स्थायी समिति ने सवाल भी किये। यदि सांसद, स्थानीय प्रशासन और अफसरशाही नियमित तौर पर कूड़े के बढ़ते पहाड़ों पर कूड़ा लादने का सिलसिला बन्द कराकर आकर्षक पर्यावरणीय बगीचे के तौर पर विकसित करा पाते हैं, तो इन इलाकों के तकरीबन 50 लाख से भी ज़्यादा लोगों के आशीष के वे हकदार होंगे। दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमा पर बसी हज़ारों बस्तियों, बहुमंज़िला खाली इमारतों और व्यायसायिक केंद्रों में घुलती कूड़े की गन्ध की बजाय सुगंधित वायु बहेगी और विकास हो सकेगा। बच्चे और युवा खेलते, टहलते मुस्कुराते दिखेंगे। यह तस्वीर ही बता सकेगी दिल्ली है वाकई दिल वालों की।

देश की पहली बाल रोग चिकित्सक बनीं लेफ्टिनेंट जनरल

सुप्रीम कोर्ट के सेना में महिलाओं के स्थायी कमीशन बनाये जाने के आदेश के बाद आर्मी में महिलाओं के हौसले अब दिन-ब-दिन बुलंद होने हैं। वे इतिहास रचने में पीछे नहीं हैं। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) से महज़ एक हफ्ते पहले 29 फरवरी को देश में पहली बार किसी महिला बाल रोग चिकित्सक ने लेफ्टिनेंट जनरल का पद सँभाला है। इससे पहले सशस्त्र बल में महज़ दो महिलाएँ ही लेफ्टिनेंट जनरल के पद तक पहुँची हैं। यह ऐतिहासिक मुकाम माधुरी कानिटकर ने हासिल किया है।

इससे पहले, इस मुकाम को हासिल करने वाली देश की पहली महिला डॉ. पुनीता अरोड़ा हैं, जो एक सर्जन वाइस-एडमिरल और भारतीय नौसेना की थ्री स्टार अधिकारी रहीं। दूसरी महिला भारतीय वायु सेना की पहली महिला एयर मार्शल बनने वाली पद्मा बंधोपाध्याय हैं, जिनको कानिटकर के बराबर की रैंक मिल चुकी है। 37 साल से सेना में अलग-अलग पदों पर अपनी क्षमता साबित कर रहीं माधुरी कानिटकर को प्रमोशन के बाद आर्मी मुख्यालय में इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ (डीसीआईडीएस) में तैनाती दी गयी है, जो चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ के तहत आता है। यह भी अपने आपमें एक रिकॉर्ड है कि माधुरी के पति राजीव कानिटकर भी लेफ्टिनेंट जनरल के पद से हाल ही में रिटायर हुए हैं। सेना के इतिहास में पहले ऐसे पति-पत्नी बन गये हैं, जिन्होंने लेफ्टिनेंट जनरल का पद सँभाला है। माधुरी पुणे में सशस्त्र बल मेडिकल कॉलेज की पहली महिला डीन रह चुकी हैं और उन्हें आर्मी मेडिकल कोर में पहला बाल चिकित्सा नेफ्रोलॉजी यूनिट स्थापित करने के लिए भी जाना जाता है।

कानिटकर को पसन्द हैं चुनौतियाँ

माधुरी राजीव कानिटकर को चुनौतियाँ पसन्द हैं। उनका जन्म 15 अक्टूबर, 1960 को कर्नाटक के धारवाड़ में हुआ था। इनके पिता का नाम चंद्रकांत गोपाल राव और माँ का नाम हेमलता चंद्रकांत खोट था। इनके पिता रेलवे में थे। कानिटकर ने फज्र्यूसन कॉलेज, पुणे से 12वीं तक की पढ़ाई पूरी की। यहीं से उन्होंने मेडिकल के क्षेत्र में जाने का फैसला किया। उनका पहले डॉक्टर बनने का इरादा था, क्योंकि दादी भी डॉक्टर थीं; जो एक बाल विधवा थीं और 1900 में ही डॉक्टर बनी थीं। कानिटकर ने 1980 के दशक में पुरुषों के वर्चस्व वाले आम्र्ड फोर्सेज मेडिकल कॉलेज (एएफएमसी) से एमबीबीएस की डिग्री पूरी करके गोल्ड मेडल हासिल किया। एम्स, नई दिल्ली में पोस्ट ग्रेजुएशन पीडियाट्रिक और पीडियाट्रिक नेफ्रोलॉजी की पढ़ाई पूरी की। सिंगापुर और लंदन में फेलोशिप भी मिलीं।

जब काम में नयापन आता है, तो काम करने का हौसला बढ़ता है। पहले डॉक्टर बनीं, उसके बाद पीडियाट्रिशियन। 2017 में पुणे के सशस्त्र बल मेडिकल कॉलेज में डीन के रूप में दो साल से अधिक समय तक सेवा दी है। मई 2019 में जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के उत्तरी कमान क्षेत्र के युद्ध चिकित्सा देखभाल के रूप में प्रभारी मेजर जनरल मेडिकल, उधमपुर में कार्यभार सँभाला।

उन्होंने प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक और तकनीकी सलाहकार बोर्ड की भी सदस्य हैं। हमेशा चुनौतियों को स्वीकार किया। थ्री-इन-वन की भूमिका अदा की है-एक सोल्जर, एक डॉक्टर और और एक टीचर। स्पोट्र्स में काफी सक्रिय थीं, इसलिए सेना में तमाम कठिनाइयों के बावजूद बहुत सारे मौके भी हैं। माधुरी कहती हैं कि लड़कियाँ ज़्यादा टफ होती हैं, लेबर पेन भी झेल लेती हैं। युवतियों से हमेशा कहती हैं कि अगर सुरक्षित माहौल में काम करना है, तो सेना में आयें। वह जोधपुर, गुवाहाटी, बुमला, सेला, टेंगा यानी पूरे देश भर में तैनात रह चुकी हैं। छुट्टियों में परिवार के साथ समय बिताना पसन्द करती हैं। माधुरी के दो बच्चे निखिल और विभूति हैं। बच्चे भी समझदार हैं और माता-पिता की व्यस्तता को समझते हैं।

माधुरी कहती हैं कि कई बार महसूस हुआ कि नौकरी छोड़कर घर सँभालूँ, पर बच्चे बोले- नहीं; ऐसा मत कीजिए- फुल टाइम मॉम नहीं चाहिए।

37 साल की शादीशुदा ज़िन्दगी में महज़ 12 साल एक ही जगह पर तैनाती के दौरान पति के साथ रहीं। एक साक्षात्कार में रिटायरमेंट के बाद ज़्यादातर समय परिवार के साथ बिताने की बात कह चुकी हैं।

विदेशों में भारतीय व्यंजनों की फेमस ‘करी क्वीन’ हैं सारा

सारा अली चौधरी, जो कि भारतीय मूल की ब्रिटिश नागरिक हैं और यूनाइटेड किंगडम (यूके) में रहती हैं; कुछ समय बैंकिंग और रीयल एस्टेट सेक्टर मे भी अपना दबदबा बनाने के बाद अपने शेफ के पसंदीदा क्षेत्र में लौट आयी हैं। अगर सारा अली को एक सामान्य शेफ कहा जाए, तो यह उनका अपमान होगा। इस काम के प्रति उन्होंने बचपन से जो जुनून और लगाव रखा था, वह आकस्मिक नहीं है। बैंकिंग और रियल एस्टेट में कुछ समय काम करने के बाद अब वह वापस से अपने पसंदीदा कुकिंग के क्षेत्र में लौट आयी हैं। अगर सारा की मानें, तो यह काम न केवल उन्हें सुकून देता है, बल्कि इस काम से उन्हें प्रशंसा व लोकप्रियता भी मिली है।

हाल ही में अपनी भारत यात्रा के दौरान उन्होंने ‘तहलका’ से बात की। उन्होंने बताया कि वह भोजन के व्यवसाय से जुुड़े परिवार में पैदा हुईं और वर्षों इसी क्षेत्र काम भी किया। लेकिन शादी और बच्चे होने के बाद उन्होंने यह कार्य छोड़कर बैंकिंग और रियल एस्टेट में कार्य करके यह सुनिश्चित किया कि मेरे पास और भी काम करने की काबिलियत है। हालाँकि यह कोई ऐसा काम नहीं है, जिसके लिए मैं मरी जा रही थी। लेकिन अब मन फिर पुराने क्षेत्र में लौटने को किया और मैं फिर से अपने पसंदीदा काम की ओर लौट आयी हूँ; जो कि मुझे सुकून देता है। सारा कहती हैं कि बैंकिंग और रियल एस्टेट सेक्टर में काम करने के बाद अपने पहले प्रिय करियर- खाना बनाने के काम में फिर से वापसी करना उन सभी लोगों के लिए एक सदमा है, जो उन्हें जानते हैं।

बता दें कि सारा को यूके, नेपाल फ्रेंडशिप सोसायटी, चाइल्ड नेपाल और जानकी महिला जागरूकता सोसायटी के लिए राजदूत नियुक्त किया गया है और वर्तमान में वह 2015 के भूकम्प के बाद की स्थितियों को दूर करने के लिए नेपाल में भी कर रही हैं।

 वर्ष 2017 में उन्हें इजी करी के लिए स्टार्टअप, द न्यू किड ऑन द ब्लॉक अवॉर्ड, यूनाइटेड किंगडम से सम्मानित भी किया गया था। इतना ही नहीं, इन्होंने ‘करी क्वीन’ जैसे नामों से लोगों में खूब प्रशंसा भी बटोरी। उन्होंने बताया कि यूके में भारतीय व्यंजन बनाने वाली एशियाई महिलाओं की कमी एक गम्भीर समस्या है। वह इस कमी को दूर करने के लिए अपने कौशल और प्रतिभा का उपयोग करके इस क्षेत्र को आगे बढ़ाने के लिए कई बड़ी योजनाएँ शुरू कर रही हैं।

उन्होंने मुस्कुराते हुए अपने ही नाम का ज़िक्र करते हुए कहा कि जिस तरह से चौधरी ने विनम्र स्वभाव से यह साबित किया है कि आज के दौर में पुरुष शेफ इस क्षेत्र में आगे बढऩे की नयी सोच रखते हैं। ऐसे में अगर महिलाओं को इस क्षेत्र में आगे नहीं रखा जाएगा, तो पुरुष उन पर भारी पड़ सकते हैं। सारा ने कहा कि महिलाओं ने प्रत्येक क्षेत्र में काम कर यह साबित किया कि महिलाएँ न केवल घर के कामों में सक्षम हैं, बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में समर्थ भी हैं।

सारा कहती हैं कि वह ज़्यादा-से-ज़्यादा महिलाओं को जागरूक कर भोजन बनाने के प्रति बढ़ावा दे रही हैं और इस काम का खूब आनंद ले रही हैं। कई महिलाओं ने अपनी कॉर्पोरेट और डे-जॉब छोड़कर इस व्यवसाय में कदम रखा है, जहाँ वे रसोई में काम करके या फिर निवेश करके उसे अपना व्यवसाय बोल सकती हैं। मेरा मानना है कि ऐसी महिलाएँ अन्य महिलाओं को भी ऐसा ही करने के लिए प्रशिक्षित और प्रेरित करें, जिससे ज़्यादा-से-ज़्यादा महिलाएँ इस व्यवसाय से जुड़ सकें। सारा ने बताया कि वह इस क्षेत्र में महिलाओं के बीच जागरूकता फैलाने में खुशी महसूस कर रही हैं, जिसे वे अपना कह सकती हैं। उन्होंने बताया कि वह एक ऐसे परिवार में जन्मीं, जिनका व्यवसाय रेस्तरां चलाना ही था। सारा ब्रिटेन में भारतीय रेस्तरां चलाने वाली सबसे कम उम्र की एशियाई महिला हैं।

सारा ने कई साल तक महिलाओं और पुरुषों दोनों को प्रशिक्षित किया है। वह बताती हैं कि मुझे मेरे पिता रफीक चौधरी ने सबसे अच्छा प्रशिक्षण दिया है। मेरे पिता बहुत कम उम्र में यूके आ गये थे। वे परफेक्शनिस्ट थे। मुस्कुराते हुए सारा कहती हैं कि पिता के द्वारा प्रशिक्षित होना कठिन था; लेकिन मुझे भविष्य के लिए बेहतरीन मंच उन्होंने ही प्रदान किया। उन्होंने हमेशा मुझे और माँ को रेस्तरां चलाने के लिए प्रोत्साहित किया है। लेकिन पत्रकारोंं ने अब इसमें दिलचस्पी दिखायी है, जो कि हमारे लिए सामान्य बात है। हालाँकि मैं इस व्यवसाय में आने वाली परेशानियों की स्थिति से काफी नाखुश थी। तीन वर्ष पहले जब मैंने इस उद्योग में वापसी की थी, तब यह एक रेस्तरां खोलने की योजना नहीं थी; क्योंकि मुझे नहीं लगता था कि इंग्लैंड में भारतीय रेस्तरां के व्यापार के लिए बहुत कुछ है,   वहाँ रेस्तरां खोलने के लिए उन्होंने कुछ इमीग्रेशन नियम, वेतन, स्टाफिंग और लागत की शर्तें व इन सभी के साथ-साथ लिंग अनुपात का अन्तर। मैं पूछती हूँ कि ऐसा क्यों है? जबकि रसोईघर महिलाओं का अनिवार्य क्षेत्र है। यह स्थिति असहनीय है। मैं उन लोगों के लिए खेद महसूस करती हूँ, जो मुझे कहते हैं कि वे रेस्तरां चलाते हैं।

जब आप इंडियन फूड रेस्तरां खोलते हैं, उसमें लगने वाली मेहनत और निवेश से मिलने वाले लाभ में एक हिस्सा आपदा का भी होता है। चौधरी ने इशारा किया कि भविष्य की योजनाओं की ओर था,, जिसमें भारत उनका गंतव्य वन-स्टॉप-डेस्टीनेशन के है।

सारा कहती हैं कि मैंने यूके में भारतीय व्यंजनों का बाज़ार तलाशने के दौरान पाया कि पाँच में से केवल एक ही महिला शेफ है और उससे भी कम भारतीय हैं। मुझे लगता है यह लैंगिक अन्तर पारम्परिक संस्कृति से आता है। वे लोग, जो अपनी मातृभूमि को छोड़ चुके हैं और दूसरे देशों में अपनी ज़िन्दगी दोबारा से शुरू कर रहे हैं, परन्तु उनकी मातृभूमि की मानसिकता वैसी ही है, जैसी उन्होंने छोड़ी थी।

वे लोग नहीं समझ सकते कि इन दिनों भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान में क्या चीज़ें चल रही हैं? जब उन्होंने अपना देश छोड़कर किसी दूसरे देश में जीवन शुरू किया था, तब दूसरा दौर रहा होगा। जहाँ उन लोगों ने अपने परिवारों को बसाया, सुरक्षात्मक होने के मामले में जो सही समझते हैं, वही करते हैं। ऐसे लोग अपने से ज़्यादा मेहनत करने वालों की बात नहीं करते।

एक तरफ तो सारा की इस बात में गुस्सा दिखा, दूसरी तरफ उन्होंने यूके की तुलना में भारत के आतिथ्य उद्योग की प्रशंसा भी की। उन्होंने बताया कि हाल ही में मैंने अपने भारत दौरे के दौरान यह देखा यहाँ के लोग संस्कृति को लेकर अपनी सोच कितनी आगे की रखते हैं और खानपान में शायद ही कोई लैंगिक अन्तर रखते हों। इंग्लैंड इस मामले में निश्चित रूप से भारत से पीछे है।

इससे एक बात तो स्पष्ट है कि सारा अली चौधरी पैदा तो यूके में हुई हैं, लेकिन उनकी भारतीय जड़े आज भी मज़बूत हैं; जिसका स्वाद उनके द्वारा शुद्ध देसी भारतीय व्यंजनों में भी मिलता है। सारा गज़ब का भारतीय भोजन बनाती हैं। भारत की संस्कृति, विरासत और बाकी सभी चीज़ों के लिए किसी से भी मुकाबले में पीछे नहीं हैं।

प्रामाणिक भारतीय भोजन

 सारा कहती हैं कि जब वह प्रामाणिक कहती हैं, तो इसकी वजह यह है कि यूके में भारतीय रेस्तरां ने पश्चिमी लोगों के लिए खाना बनाया है। उन्होंने मार्केटिंग प्रमोशन और पीआर के लिए अपनी रेसेपी को मेन्यू सेल में सुनिश्चित करने के लिए व्यंजनों के स्वाद को बदला और नये तरीके के व्यंजन भी बनाये। कुछ ऐसे भी रेस्तरां हैं, जिन्होंने मूल स्वाद को भीतर रखने की कोशिश की है; लेकिन भारतीय भोजन के ज़ायकों को व्यापक रूप से स्वीकार नहीं किया है।

वह कहती हैं कि मैं एक साथ सैकड़ों लोगों को खाना नहीं खिलाती हूँ और न ही मैं कोई रेस्तरां चला रही हूँ। मुझे अपने भोजन को जनता की माँग के हिसाब से भी बनाने की आवश्यकता नहीं है। मेरा मकसद दुनिया को बताना है कि हम क्या खाते हैं? कैसे खाते हैं? और क्यों खाते हैं? जितने भी भारतीय व्यंजन मैं लोगों के साथ साझा करती हूँ, ये सदियों से चली आ रही हैं।

नये-नये भोजन का रुझान क्या है?

सारा कहती हैं कि फ्यूजन फूड कोई नया भोजन नहीं है। लेकिन मुझे यह हमेशा ही रोमांचक लगता है। इस समय इंग्लैंड में इसकी माँग बहुत बढ़ी है। इसलिए भी, क्योंकि यह शाकाहारी है। उनका मानना है कि भारत इसका उपयोग वर्षों से कर रहा है, इसलिए भारत इस मामले में कहीं आगे है। सारा कहती हैं कि उन्हें केले के पत्तों पर परम्परागत रूप से परोसा हुआ भारतीय भोजन बेहद पसन्द है। वह कहती हैं कि मुझे बड़ी प्लेटों में कई व्यंजन परोसना पसंद नहीं हैं। यह सब तब ही अच्छा लगता है, जब आप फ्रांस में होते हैं। मैं मानती हूँ कि फाइन डाइनिंग कॉनसेप्ट पुराना हो गया है। जब हम भारतीय भोजन की बात करते हैं, तब बड़े भाग में अच्छे स्वाद का भोजन करना ही अच्छा होता है।

भारतीय हॉकी के कुछ रोचक किस्से

केवल तीन लोगों ने विदा की टीम

बात 10 मार्च 1928 की है। भारतीय हॉकी टीम पहली बार ओलंपिक खेलों में भाग लेने के लिए जा रही थी। यह ओलंपिक हालैंड के शहर एमेस्ट्रम में होने थे। टीम में हॉकी के जादूगर ध्यानचंद शौकत अली, पटौदी के नवाब एसएम यूसफ, केहर सिंह, टीम के कप्तान जयपाल सिंह और सेमीफाइनल और फाइनल में कप्तानी करने वाले ई. पिनीगर जैसे खिलाड़ी मौज़ूद थे; पर आम लोगों में मीडिया में कोई उत्साह नहीं था। यही वजह थी कि टीम को मुम्बई (उस समय बम्बई)  की बंदरगाह पर विदाई देने कुल तीन लोग थे। इन में भारतीय हॉकी संघ (आईएचएफ) के अध्यक्ष मेजर बने मैट्रोक, उपाध्यक्ष सीई पूहल और एक पत्रकार एस. भट्टाचार्यजी शामिल थे। इस ओलंपिक में भारत समेत हॉकी की टीमें थीं। यहाँ भारत ने कुल पाँच मैच खेले और सभी जीते। उन्होंने स्विटजरलैंड को 6-0 से, आस्ट्रिया को 6-0 से, बेल्जियम को 9-0 से, डेनमार्क को 5-0 से और फाइनल में मेजबान हॉलैंड को 3-0 से परास्त कर स्वर्णपदक जीत लिया। इस प्रकार भानत ने 29-0 गोल किये और उनके िखलाफ एक भी गोल नहीं हुआ।

यह टीम जब लौटकर आयी, तो मुम्बई का वही बंदरगाह, जो टीम की विदाई के समय उजाड़ था; जनसैलाब से भरा था। टीम का भव्य स्वागत किया गया। यहीं से उदय हुआ हॉकी के जादूगर ‘दादा’ ध्यानचंद का। इस ओलंपिक में अपने पूल और नाकआउट मैचों में कुल 29 गोल किये। इनमें से लगभग आधे (14) ध्यानचंद ने किये। फिरोज़ खान ने पाँच मौरिस गेटले, केट्रिक सीमैन और जॉर्ज मार्टिन ने तीन-तीन और शौकत अली ने एक गोल किया। भारत पर कोई गोल नहीं हुआ।

ब्रिटेन की टीम में घबराहट

एमेस्ट्रम जाते हुए भारतीय टीम लंदन की बंदरगाह पर रुकी थी। वहाँ ब्रिटेन को पता चला कि भारतीय टीम ओलंपिक के लिए जा रही है। उन्हें पता था कि इस टीम के सामने वे लोग टिक नहीं पाएँगे, इसलिए उन्होंने मुकाबले से अपना नाम वापस ले लिया। ध्यान रहे कि 1908 और 1920 की ओलंपिक खेलों में हॉकी का स्वर्णपदक ब्रिटेन ने ही जीता था।

गोलरक्षक तो ऑटोग्राफ दे रहा था

यह बात तो सबको पता है कि 1932 के लॉस एंजिलेस ओलंपिक में लालशाह बुखारी के नेतृत्व में गयी भारतीय हॉकी टीम ने मेज़बान अमेरिका को 24-1 से हराकर ओलंपिक में सबसे ज़्यादा गोल करने का रिकॉर्ड कायम किया था, जो आज भी कायम है। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि भारत पर एक गोल कैसे हुआ? यह एक रोचक िकस्सा है। असल में भारत की फारवर्ड लाइन ने ताबड़तोड़ हमले करके लगभग हर तीसरे मिनट में गोल करने का सिलसिला बना दिया था। गेंद भारत के क्षेत्र में आ ही नहीं रही थी। इसी दौरान अमेरिकी खिलाडिय़ों ने एक लम्बी हिट से गेंद भारत के गोल की तरफ मारी। टीम डिफेंस के खिलाड़ी यह सोचकर गेंद के पीछे नहीं भागे कि इस गेंद क्लीयर करना गोलरक्षक रिचर्ड ऐलन के लिए कठिन नहीं होगा। पर जब उन्होंने पीछे देखा, तो ऐलन कहीं नज़र नहीं आ रहे थे। गोल पोस्ट खाली थी। जब ध्यान से देखा, तो पाया कि ऐलन तो गोलपोस्ट के पीछे अपने चहेते दर्शकों को ऑटोग्राफ दे रहे हैं। खूब गप्पें लग रही हैं। जब तक वे लौटकर आते, तब तक गोल हो चुका था। असल में ऐलन खड़े-खड़े बोर गये थे। गेंद उनसे कोसों दूर थी। अपनी बोरियत मिटाने व गप्पें हाँकने गोल पोस्ट के पीछे चले गये थे। ओलंपिक हॉकी में इस तरह की कोई दूसरी मिसाल नहीं मिल सकती। इस ओलंपिक के एक और मैच मेें भारत ने जापान को 11-1 से परास्त करके स्वर्ण पदक जीता। यहाँ भारत ने कुल 35 गोल किये और दो खाये। इन दो मैचों में ध्यान चंद ने 12, उनके भाई रूप सिंह ने 13, गुरमीत सिंह ने आठ ऐलन और एरिक पिनिगर ने एक-एक गोल किया।

जब भारत 1-4 से मैच हारा

1936 का बॢलन ओलंपिक भारत की अग्नि परीक्षा थी। हिटलर के देश में जर्मनी को हराना आसान नहीं था। इस बार टीम की बागडोर ध्यानचंद के हाथ थी। टीम में एम. ज़ाफर, आर.जे. ऐलन, अली यकदीर शाह उर्फ दारा, सी. तापसेल, मोहम्मद हुसैन, एफ.जे. गोडसर कुलेन, जे. फिलिप, एमएन मसूद अहसान मोहम्मद खान, पीटर फर्नांडिस, गुरचरण सिंह रूप सिंह, अहमद शेर खान, शहाबुद्दीन, बी.एन. निमल आई.सी. इमट, सीजे मिशी, जे.डी.टी. गैलीबर्डी, जगन्नाथ (मैनेजर) और पंकज गुप्ता  सहायक मैनेजर थे।

यदि उस समय के हालात पर नज़र डालें, तो वे भारत के ज़्यादा हक में नहीं थे। टीम के चयन के समय वेल्स की जगह इमट को लिया गया। इस पर सभी हैरान थे। इसके अलावा डिक्की कार को भी हटाना पड़ा, क्योंकि रेलवे के इस खिलाड़ी को रेलवे ने छुट्टी नहीं दी। इसके बाद को एक बड़ा झटका उस समय लगा, जब एक अभ्यास मैच के दौरान भारत की टीम जर्मन एकादश से 1-4 से हार गयी। बॢलन में टीम का यह पहला ही मैच था। उस समय तुरन्त टीम के मैनेजर, सहायक मैनेजर, कप्तान और उप कप्तान के बीच विचार विमर्श हुआ और भारतीय हॉकी संघ के अध्यक्ष सर जगदीश प्रसाद को तार भेजा गया। इसके बाद ऑफ फार्म इमट का स्थान लेने दारा को वायुयान से भेजा गया। इस तरह टीम में राइट इन की पोजीशन मज़बूत हो गयी।

टीम में गोलरक्षक ही नहीं था

ओलंपिक में भारतीय टीम ने कुछ अड़चनों के बावजूद जीत का जज़्बा बनाये रखा। टीम में पूरा तालमेल था। यह केवल मैदान पर ही नहीं, अपितु मैदान के बाहर भी नज़र आता था। दिल्ली में अभ्यास मैचों के दौरान पाया गया टीम के पास कोई गोलरक्षक ही नहीं है। उस समय सिंध प्रान्त के खिलाड़ी पीटर पाल फर्नांडिस ने इस कार्य के लिए अपनी सेवाएँ दीं और उन्होंने इसे बखूबी निभाया भी।

इसी प्रकार उस समय के सबसे तेज़ और होशियार लैफ्टआउट मोहम्मद जाफर को अधिकतर अभ्यास मैचों में राइट इनके स्थान पर खेलना पड़ा; क्योंकि हालात कुछ ऐसे थे। इसी प्रकार सेंटर हाफ बी.एम. निमल को राइट हाफ के स्थान पर खिलाया गया। उन्होंने भी टीम की ज़रूरत को देखते हुए कभी इसका विरोध नहीं किया। उन्होंने गज़ब का खेल दिखाया और टीम को जिताने में अपनी बड़ी भूमिका निभायी। गोडसर कुलन को कई स्थानों पर आज़माने के बाद अन्त में सेंटर हाफ खिलाया गया। रक्षा पंक्ति में तपसल और मोहम्मद हुसैन ने कमाल का खेल दिखाया।

इसके बाद लाहौर में कुछ अभ्यास मैच खेले गये। इनमें से एक मैच ऐसा था, जिसमें रूप सिंह नहीं खेलना चाहते थे। क्योंकि उनकी टाँग की चोट के कारण वे चल भी नहीं पाते थे। लेकिन जब कप्तान ने उन्हें खेलने का आदेश दिया, तो वे बिना एक शब्द बोले मैदान में आ गये। इसी प्रकार आरक्षित खिलाडिय़ों ने कभी इस बात पर ऐतराज़ नहीं किया कि उन्हें मौका क्यों नहीं दिया जा रहा? यही भावना लेकर बॢलन गयी टीम लगातार तीसरा स्वर्ण पदक लेकर लौटी; वह भी हिटलर के सामने जर्मनी को 8-1 से हराकर। इसके अलावा अपने पूल मैचों में भारत ने हंगरी को 4-0 से, अमेरिका को 7-0 से, जापान को 9-0 से, सेमीफाइनल में फ्रांस को 10-0 से और फाइनल में जर्मनी को 8-1 से परास्त किया। इस प्रकार भारत ने पाँच मैचों में कुल 38 गोल किये और एक खाया। यहाँ ध्यानचंद और रूप सिंह ने 11-11 गोल किये जबकि तपसल और दारा ने चार-चार, ज़ाफर ने तीन, फर्नांडिस ने दो, शहाबुद्दीन ने दो और कुलन ने एक गोल किया।

ब्रिटेन पहली बार हारा

एक रोचक तथ्य यह है कि भारत के तीन स्वर्ण पदक जीतने के बावजूद ब्रिटेन का ओलंपिक में अजय रहने का कीर्तिमान बरकरार था। कारण यह कि 1908 और 1920 में दो स्वर्ण पदक जीतने के बाद उसने ओलंपिक हॉकी में भाग ही नहीं लिया था। 1936 के बॢलन ओलंपिक के बाद दूसरे विश्व युद्ध के कारण 1940 और 1944 के ओलंपिक खेल नहीं हो पाये थे। अब आये 1948 के ओलंपिक खेल, जो लंदन में खेले गये। यह वह समय था, जब भारत आज़ाद हुआ था और विभाजन का दंश सह रहा था। देश में टीम का बनना कठिन था। उस समय भारतीय हॉकी संघ के अध्यक्ष नवल एच. टाटा ने एक ऐसी टीम खड़ी की, जिसने एक बार फिर यानी चौथी बार स्वर्ण पदक भारत की झोली में डाल दिया। लंदन ओलंपिक में कुल 13 टीमों ने हिस्सा लिया, जिन्हें तीन ‘पूलों’ में बाँटा गया था। यहाँ भारत ने फाइनल में ब्रिटेन को 4-0 से हराकर िखताब जीता, वहीं ओलंपिक खेलों में ब्रिटेन की यह पहली हार थी। यहाँ ब्रिटेन दूसरे, हॉलैंड तीसरे और पाकिस्तान चौथे स्थान पर रहा। यहाँ खेले मैचों में भारत ने आस्ट्रिया को 8-0 से, अर्जेंटीना को 9-1 से, स्पेन को 2-0 से और सेमीफाइनल में हालैंड को 2-1 से हराया था। उस समय ओलंपिक हॉकी में भारत की हालैंड पर 2-1 की जीत भारतीय हॉकी इतिहास की सबसे कम अन्तर की जीत थी।

इस टीम का नेतृत्व किशनलाल ने किया था। दिगविजय सिंह बाबू उप कप्तान थे।

अलविदा बलबीर सिंह कुलार

1942 में पंजाब के संसारपुर गाँव में जन्मे प्रसिद्ध हॉकी खिलाड़ी और सेवानिवृत्त डीआईजी बलवीर सिंह कुलार अब हमारे बीच नहीं रहे। 01 मार्च को लम्बी बीमारी के बाद उन्होंने इस नश्वर संसार को छोड़ दिया। 02 मार्च को उनके परिजनों, प्रशंसकों और रिश्तोदारों के अलावा जिले भर के दिग्गज राजनीतिज्ञों, पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों ने उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि देकर अलविदा कहा। गाँव संसारपुर में उनका अंतिम संस्कार किया गया। कुलार के बेटे कमल वीर सिंह सन्नी ने उनकी चिता को मुखाग्नि दी।

बलवीर सिंह कुलार ने स्कूली शिक्षा के दौरान ही हॉकी खेलना शुरु कर दिया था। पढ़ाई के दौरान ही अच्छा खेलने पर उन्हें पंजाब सरकार ने अपनी टीम में शामिल कर लिया था। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सन् 1963 में कुलार ने भारतीय टीम की तरफ से पहला इंटरनेशनल मैच फ्रांस में खेला था। इसके बाद इंग्लैंड, नीदरलैंड, पूर्वी अफ्रीका, पूर्वी जर्मनी, इटली, न्यूजीलैंड और केन्या सहित कई देशों में बलवीर सिंह कुलार ने हॉकी में देश का नाम रोशन किया। वे सन् 1966 में बैंकाक एशियाई गेम्स में स्वर्ण पदक, सन् 1968 में मैक्सिको ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली टीमों का हिस्सा रहे। उन्हें सन् 1999 में अर्जुन अवॉर्ड और सन् 2009 में पद्मश्री सम्मान से नवाज़ा गया। सन् 1962 में पंजाब सरकार ने उन्हें पंजाब पुलिस में एएसआई नियुक्त किया।

बलवीर सिंह कुलार को अपने ही वतन की मिट्टी नसीब हुई, क्योंकि वे अपने बेटे के पास कनाडा जाने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन वहाँ जाने से दो दिन पहले ही उन्होंने नश्वर शरीर को त्याग दिया। कुलार के परिवार में पत्नी, एक बेटा और दो बेटियाँ हैं।

मन का मौसम मन का वसंत

इस बार भी होली आयी, हर बार आती है। अपने साथ गुलाल और अबीर का मौसम लिपटाये चली आती है। सबके चेहरे पर खुशी, हर मन में उमंग और हर हाथ में गुलाल, होठों पर फाग! होली का आना जैसे हर भेद का मिट जाना है। हर ओर राग, हर ओर फाग! इस बार होली आयी पर इतने रंग-राग की तैयारी साथ न लायी। कई तरह के वायरस हवा में तिर रहे थे, हैं और उनसे खतरे को लेकर एडवाइजरी भी हावी है। तरह तरह के अचूक उपाय भी साथ ही साथ सुनाई दे रहे हैं, जिसमें वायरस के पक्के इलाज का दावा भी है। चीन भले ही ढूँढ न पाये पर हमारे यहाँ हर कोने से इलाज भेजे जा रहे हैं। डर है कि फिर भी खत्म नहीं हो रहा। गज़ब तरीके से भीतर जगह बनाये बैठा है। होली तो आयी, पर उतना रंग-राग न लायी। बेटे के लिए गुझिया बनाकर और मीठे पूए बनाने के बाद बैठी सोच ही रही थी कि बसंत अपने साथ अब वो उत्साह क्यों नहीं लाता? जिसके बारे में हम कथाओं में पढ़ते थे! हम बदल गये या मौसम ही बदल गया… ये सोचते-सोचते आँख लग गयी।

देखती क्या हूँ कि मेरे घर के दरवाज़े की घंटी लगातार बज रही है। दौड़कर गयी, तो देखा तो कृष्ण और राधा की वेशभूषा में एक बालक और बालिका खड़े हैं…, हाथ में अबीर और गुलाल! हैरान होते हुए मैंने दरवाज़ा क्या खोला, वे तो भीतर आकर मंद-मंद मुस्काते मेरे काउच पर विराजमान हो गये! अभी मैं कुछ पूछ पाती कि कृष्ण सरीखा बालक बोल उठा- ‘रंग नहीं खेलोगी सखी!’ अच्छा, तो ये दोनों किसी ड्रामे का हिस्सा होंगे। मेरी सोसायटी में नाटक खेला जा रहा है और मुझे ही पता नहीं! बालक ने आगे बढ़कर मुझे रंग लगा दिया। राधा बनी बालिका भी रंग लिये खड़ी है। किसी को इतने प्यार से रंग लगाते देख मन भीज-भीज गया। पर डर भी उतना ही था। पूछ बैठी- ‘लोकल मार्केट के रंग तो नहीं लिए बेटा आपने? इस बार तो रंग की क्वालिटी को लेकर इतना डर फैला हुआ है कि मैं तो रंग खरीद ही नहीं सकी।’ कृष्ण मुस्कुरा उठे- ‘सखी, सीधे माँ यशोदा के हाथ से बने रंग लेकर आये हैं हम दोनों- फूलों को पीसकर बनाये गये रंग!’ यशोदा तो इस टॉवर में रहती नहीं! फिर किसके बाल-गोपाल हैं ये दोनों? राधा मुस्काई… माँ, हम दोनों सीधे वृन्दावन से आये हैं…। वही कृष्ण और राधा, जिन्हें तुम याद कर रही थीं। मैं मुग्ध थी.., बात न मानने का कोई कारण ही न था। मेरे मन में कई शंकाएँ थीं, कई सवाल भी। मुझसे मिलने इतने दूर देश से? कृष्ण कहने लगे- ‘इस दुनिया को जैसे-जैसे बिखरते देखता हूँ, हर बार इंसानों से संवाद करने की इच्छा बढ़ती चली जाती है। आज होली है। तुम जानती हो हमने होली मनाना कैसे शुरू किया?’ मैं बिल्कुल नहीं जानती थी। अब राधा बोल उठीं- ‘आप ही सब कुछ बताएँगे या मैं भी!’ कृष्ण मुस्कुराये, तो राधा ने इस कहानी को कहना शुरू किया- ‘बरसों पहले जब कृष्ण को राक्षसी पूतना ने स्तनपान कराया, तो उसके मरने के बाद भी कुछ विष का भाग इनके भीतर छूट गया, जिससे कृष्ण का रंग साँवला हो गया। मुझे तो साँवले कृष्ण ही भाते हैं। पर खुद इनको अपना रंग परेशान करता था। हर बखत इनके बाल सखा भी चिढ़ाते कि- ‘गोरे नन्द, यशोदा गोरी, तू क्यों श्यामल गात/ चुटकी दे-दे ग्वाल नचावत, हँसत सबै मुस्कात’ ये भी तो माँ से रूठ जाते और कहते- ‘तू मोहि को मारन सीखी, दाऊ कबहूँ न खीझे’ माँ क्या करतीं, बस हँसकर इन्हें अंक (गोद) में भर लेतीं। ऐसे ही एक दिन मैं इनकी उस नगरी में आयी।

कृष्ण बीच में ही बोले- ‘आगे की कथा मैं कहूँ राधे!’ राधा मुस्कायीं, तो कृष्ण बोल उठे- ‘राधा तो गौर वर्ण और मैं श्यामल! मन के भीतर के द्वंद्व को माँ के सामने प्रकट किया, तो माँ हँसकर बोलीं कि जाओ नीले फूलों का रंग या पीले-लाल फूलों का रंग राधा को लगा दो। बस अब क्या था? फागुन के इस मौसम में राधा को ही नहीं, हम सब ग्वालों ने सभी को लाल-पीले-नीले फूलों से रंग दिया! अब कौन किस रंग का रहता! सब अनेक रंगों के हो गये।’

मेरी उत्सुकता जागी- ‘तो क्या भगवान के मन में भी हीन भाव पनप गया था?’ आज भी तो हर कोई रंग-भेद करता है…। गोरे हो, तो सब जगह तुम्हारी; काले हो तो कहीं स्वीकार नहीं! तो क्या आपके साथ भी ऐसा ही था! क्या गोरी राधा से ईष्र्या भी थी? कृष्ण बोले- ‘नहीं, नहीं; राधा को अनेक रंग से रंगने का ये अर्थ ले लेंगी आप, तो सब बदल जाएगा। आज यही तो दिक्कत है, कि कहा कुछ गया, अर्थ कुछ और हो जाता है। यह राग-रस की होली थी, जिसे मनाकर कहीं कोई भेद नहीं रहता। उस दिन सब अपनी देह के रंग से परे होकर इतने रंगों में डूब गये कि किसी की कोई पहचान नहीं रह गयी। सब रास-होली में डूबे थे। किसी में कोई भेद नहीं था। मन का भेद नहीं; रूप का भेद नहीं; भाव का भेद नहीं; ऊँचे-नीचे का भेद नहीं; अहं का भेद नहीं! जो श्याम रंग में डूबा, सो डूबता ही गया। यही तो है होली; जहाँ सब भेद मिट जाते हैं और सब अपने हो जाते हैं। ‘ज्यों-ज्यों बूढत स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।’ ऐसी ही रहे, तो ही तो होली फागुन के उत्साह से भरी रहेगी। जहाँ सब मनुष्य होंगे, सब समान..; कोई भेद नहीं। यही तो है ब्रज की रंगपंचमी।

तो अब मैं समझी कि होली में अब उछाह क्यों नहीं दिखता? मन के मौसम में आज किसी के लिए जगह ही नहीं। हर जगह तो भेद ही है। कोई किसी को देखकर खुश नहीं। रंग भेद, भाव भेद, मन भेद, वर्ग भेद! तो होली कैसे होगी?

पर होली से तो आपके भक्त प्रह्लाद की कथा को जोड़कर देखा जाता है ना! होलिका दहन को लेकर जो कथा कही जाती है, हम तो वही जानते हैं। मैं पूरी तरह जाँच लेना चाहती थी कि किसी ने इन बालकों को सिखा-पढ़ाकर तो नहीं भेजा है!

कृष्ण की मुस्कान कितनी मोहक थी- ‘ठीक कहती हो माँ! पर विविधता के इस देश में कथाओं की कमी है क्या? फिर हर कथा तो एक प्रतीक है- कहीं बुराई पर अच्छाई की जीत का, तो कहीं सद्भाव, प्रेम और सम्मान का। हिरण्यकश्यपु का अहं ही तो जला था उस दिन होली की अग्नि में। होलिका कोई स्त्री नहीं थी माँ! जिसे मारकर अग्नि ने प्रह्लाद को जिला दिया था। वह तो सिर्फ प्रतीक थी उस बुराई की, अंह की, जो दूसरों को नष्ट करने के अभिमान से भरा रहता है। हम जब दूसरों को मिटाने का प्रयास करते हैं, तो हमारा मिटना तो तय है ना! बस इसीलिए वह शान्त, सौम्य, साधारण-सा बालक अग्नि से बच गया और अहं, भेद, स्वार्थ, गर्व जल गया। होलिका दहन के दिन यही तो जलाने का संकल्प करते हैं न माँ! अहं को नष्ट करके एक नये दिन की प्रतीक्षा, स्वार्थ को छोड़कर सबको गले लगाने का भाव, आपसी भेदों को मिटाकर सबको अपना बनाने का भाव! इसीलिए तो हर घर का दरवाज़ा खटकाकर सबको साथ ले जाना होता है- होली खेलने के लिए! मन के दरवाज़े बन्द करके बैठने का त्यौहार नहीं है होली। यह तो समूह का त्योहार है। साथ होने का त्योहार; मिलकर गाने का त्योहार।

राधा मंत्रमुग्ध-सी बैठी थीं, अब बोल उठीं- ‘फिर फसल भी तो लहलहा उठती है ना! नयी फसल का स्वागत करते किसान और उन किसानों के साथ झूमता किसानी मन। जौ की बालियाँ, जिन्हें होला भी कहते हैं। उन्हें भी आग में पकाकर नयी फसल का स्वागत भी तो किया जाता है।

कृष्ण बोले- ‘किसानी सभ्यता का ये देश नयी ऋतु का स्वागत करता है। शिशिर के बाद वसंत का उत्साह, फसलों के बदलाव और मौसम के परिवर्तन का सूचक त्योहार भी है होली। अग्निदेव तो मुख हैं ना! नया भोजन तो उनकी सहायता से ही सौंधा होता है। तो उनको भोग लगाये बिना नयी फसल को कैसे खाया जा सकता है? ये भी तो प्रतीक है अपने बड़ों को हर खुशी में शामिल करने का। उनके दाय (बड़प्पन या दान) को कभी न भुलाने का! उनके साथ से ही आगे बढऩे का और उनके आशीष के साथ बने रहने का।’

तो आज वो उत्साह क्यों नज़र नहीं आता? मैं जानना चाहती थी। ‘कैसे आएगा? -राधा ने पूछा ‘जैसे-जैसे हम सभ्य होने का दावा करने लगे हैं, क्या हम ज़्यादा अहंकारी नहीं होते जा रहे? क्या हम अपने अहं को भुलाकर दूसरे को गले लगाने के लिए तैयार हैं? क्या भेदभाव कम करने या खत्म करने की पहल करने का साहस है हमारे भीतर? क्या रंग भेद, वर्ग भेद को कम करने की दिशा में कोशिश करने के लिए तैयार हैं हम? अगर हाँ, तो होली मनाने अर्थ होगा माँ! वरना…।

कृष्ण और राधा मुझे होली का मतलब समझा रहे थे और बस तभी मेरी आँख खुल गयी! यह क्या? मैं कोई सपना देख रही थी क्या? आँख बन्द करके फिर से उन्हें ढूँढने की कोशिश की, पर तब तक तो वे जा चुके थे। मुझे क्यों चुना उन्होंने? पता नहीं…। पर होली का मतलब तो मैं समझ गयी थी। बाज़ार से खरीदे रंग तो नहीं थे मेरे हाथ में, पर अपने हाथ से बनी गुझिया, पूए और मन में सबको गले लगाने का उत्साह था; जिससे भरकर मैं पड़ोसियों का दरवाज़ा खटखटाने के लिए बढ़ गयी…।

आप समझे होली क्या है? आज नज़ीर की पंक्तियाँ मेरे भीतर गूँज रही थीं-

‘जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की।

और दफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की।

परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की।’

इस होली पर यही दुआ है कि हर ओर अमन-शान्ति हों, अपने-अपने अहं के खोल से हम निकलें और सबको प्रेम के रंग में रंग सकें, हिंसा खत्म हो और देश की विविधताओं के बीच अपनापा बना रहे। होली तभी तो मन का वसंत है, जिसमें सब एक हो जाते हैं। हम भी विविधताओं के बीच एक रहें… हँसते-मुस्काते।

फिट रहने के लिएव्यायाम ज़रूरी

स्वस्थ रहने के लिए संतुलित भोजन, नियमित रूप से व्यायाम तथा उचित आराम, इन तीनों का होना स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक है। व्यक्ति की इस व्यस्ततम भागदौड़ की दिनचर्या में इनको शामिल कर व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वस्थ रह सकता है।

व्यक्ति के खान-पान तथा रहन-सहन में काफी परिवर्तन आ रहे हैं। आधुनिक युग में चिकित्सा जगत में काफी विकास के साथ-साथ हमारे रोगों में भी कमी आयी है। इसके बावजूद प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के प्रति काफी चिन्तित रहता है, कारण इस अत्यधिक व्यस्त ज़िन्दगी में उसके सामने बड़ी समस्या है- समय का अभाव।

अगर हम अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग हैं और समय निकाल सकें, तो कई बीमारियों से बचाव व उपचार का एक अनूठा साधन है- व्यायाम, जिसे अपनाकर आप रोगों से दूर सकते हैं। व्यायाम भी कई तरह के हैं। इन सबमें सबसे आसान व्यायाम तेज़ी से चलना यानी घूमना है। सप्ताह में पाँच दिन तेज़ गति से 20 मिनट तक चलना अथवा कम-से-कम 3 किलोमीटर की दूरी तय करनी चाहिए। व्यायाम से पहले अपने शरीर को पाँच मिनट तक गरम करने का अभ्यास भी ज़रूरी है। व्यायाम के बाद भी पाँच मिनट तक शरीर को पूर्ण आराम भी मिलना आवश्यक है। व्यायाम में साइकिल चलाना व तैराकी भी शामिल हैं; लेकिन कोई व्यायाम यकायक शुरू नहीं करना चाहिए। प्रारम्भ में धीरे-धीरे अभ्यास करके व्यायामों को सीखना चाहिए। ज़्यादा बल प्रयोग वाले व्यायामों से बचना चाहिए, जिन्हें हमारा शरीर आसानी से नहीं कर पा रहा हो। हृदय रोग से पीडि़त व्यक्ति के लिए भी तेज़ गति से घूमना लाभकारी होता है; लेकिन इससे पहले उन्हें अपने विशेषज्ञ से राय मशविरा कर टी.एम.टी. अवश्य करवा लेना चाहिए, ताकि पता चल सके कि उनका हृदय व्यायाम का बोझ सहने लायक है या नहीं।

व्यायाम करने से हमारे पूरे शरीर में रक्त प्रवाह बढऩे से स्फूर्ति व तंदुरुस्ती बनी रहती है। नियमित व्यायाम करने से हृदय रोगों से बचा जा सकता है। तेज़ चाल चलने से हमारे शरीर में फैली रक्तनलिकाओं को ताकत मिलती है। व्यायाम से शरीर व दिमाग दोनों स्वस्थ रहते हैं। रोज़ाना कसरत करने से मधुमेह, मोटापा, तनाव, डिप्रेशन व कब्ज़ इत्यादि रोगों से बचा जा सकता है।

रोज़ सुबह ताज़ा हवा में लम्बी साँसें लेने से फेफड़ों की क्रियाशीलता में वृद्धि होती है तथा रक्त शुद्धि की क्रिया अच्छी तरह से होती है। यह भी देखा जाता है कि मधुमेह के रोगी प्राय: अधिक मोटापे से भी पीडि़त होते हैं। रोज़ाना कसरत करने से व्यक्ति का वज़न भी कम होने लगता है। पेट की मांसपेशियों पर चर्बी जम जाने से ढीली और कमज़ोर पड़ जाती है; लेकिन नियमित व्यायाम से पुन: यह हमारे शरीर को मज़बूत करती है और पेट भी घटने लगता है। इससे पेट की आँतें सक्रिय हो उठती हैं। इस वजह से उनमें मल जमा नहीं होता और व्यक्ति कब्ज़ से बचा रहता है। व्यायाम करने से शरीर की मांसपेशियों व हड्डियों में भी मज़बूती आती है।

वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता लगा है कि नियमित सैर-सपाटा करने से महिलाओं में भी हार्मोन्स नियमित रहते हैं। इससे कैंसर की आशंका कम रहती है। व्यायाम करने से पहले या बाद में कुछ सावधानियाँ बरतनी ज़रूरी हैं। खाने के बाद 2 घण्टे तक व्यायाम नहीं करना चाहिए। धूम्रपान के साथ-साथ व्यायाम नहीं करना चाहिए। हृदयरोगी तथा हर्निया के मरीज़ों को कसरत शुरू करने से पहले अपने डॉक्टर से परामर्श लेना ज़रूरी है। हम अपने स्वास्थ्य हेतु हज़ारों रुपयों की दवाइयाँ लेते हैं तथा डाइटिंग पर खर्च करते हैं। प्रतिदिन व्यायाम को अपनी दिनचर्या में शामिल कर बहुत-सी परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है।

 (स्वास्थ्य दर्पण) अर्जुन सिंह बिष्ट

हम मज़हबों की बात भी नहीं मानते

इधर के हैं, उधर के हैं?

ये अपराधी किधर के हैं?

इन्हें बस जेल में भेजो,

हैं अपराधी; जिधर के हैं।

मेरे कहने का सिर्फ इतना ही अर्थ है साहब! कि अपराधी, केवल अपराधी होता है। अपराधी का न कोई ईमान होता है, न कोई ज़ात होती है और न कोई मज़हब। सीधे-सीधे कहें, तो अपराधी इंसान होते हुए भी इंसान नहीं होते। कोई भी जगह हो; कोई भी समाज हो; कोई भी देश हो; यहाँ तक कि कोई भी मज़हब हो; तब तक आबाद नहीं हो सकते, जब तक एक भी अपराधी यहाँ होगा। दिल्ली में दंगे करने वाले भी अपराधी ही थे। ये अपराधी इधर के हों या उधर के? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपराधियों की जगह जेल में ही होनी चाहिए। दिल्ली के दंगों में कौन जला? किसका घर जला? किसने जलाया? कौन लुटा? किसने लूटा? कौन बर्बाद हुआ? किसने बर्बाद किया? इन सवालों के जवाब में इतना कहना ही मुनासिब होगा- इन दंगों में केवल दिल्ली नहीं जली है साहब! बल्कि देश की धाॢमक एकता जली है; भाईचारा जला है; आपसी प्यार जला है और जली है देश की मज़बूती, अर्थ-व्यवस्था, अनगिनत ज़िन्दगियाँ, कारोबार और मोहब्बत के पैरोकारों के दिल।

अगर इन दंगों की जड़ में जाएँ, तो मज़हबी दीवारें ही आिखरकार इन दंगों का भी कारण बनीं। और दंगा कौन करता है? मज़हब के ठेकेदारों या सियासी लोगों के पाले हुए आपराधिक प्रवृत्ति के लोग; इन ठेकेदारों या सियासतदाँ लोगों पर आँखें मूँदकर भरोसा करने वाले भक्त या वे लोग, जो मज़हबों की नसीहतों को पढ़े और समझे बगैर ही कट्टरवाद की खाई में कूद जाते हैं।

दरअसल, हम अपने-अपने मज़हबों को एक किताब में कैद नियमों का पिटारा समझ लेते हैं। यही वजह है कि हम मज़हबों की शिक्षाओं पर न तो कभी गौर करते हैं और न अमल… और यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। हमने मज़हबों की किताबों को अपने-अपने द्वारा बनाये धर्म-स्थलों की दीवारों में कैद कर दिया है। इन स्थलों पर अपने-अपने अनुसार पूजा-इबादत आदि करने और उनकी रक्षा करने को हम धाॢमकता समझते हैं और अपनी ज़िम्मेदारियों से इतिश्री कर लेते हैं। इन मज़हबों में प्यार बाँटने की सीख को तो जैसे हमने ताक पर उठाकर रख दिया है। ईश्वर एक है, इस बात से भी हमें कोई मतलब नहीं। हमें इससे भी मतलब नहीं कि हमारा मज़हब दूसरे मज़हब और दूसरे मज़हब को मानने वालों से प्यार करना सिखाता है। हमें इस बात से भी कोई सरोकार नहीं कि हमारा मज़हब हमें किसी से भी घृणा करने की इजाज़त नहीं देता। हमें इस बात से भी मतलब नहीं कि दुनिया के हर इंसान, हर प्राणी को उस एक ही ईश्वर ने पैदा किया है, जिसने हमें पैदा किया है। कितने मूर्ख हैं हम! न हम ईश्वर से डरते हैं। न ही उन मज़हबों की शिक्षाओं का पालन करते हैं, जिन्हें हम मानते हैं। न हम खुद को किसी से कम समझते हैं। न ही किसी की पीड़ा समझने को तैयार हैं और न ही सच के रास्ते पर चलना चाहते हैं। बस मज़हब की किताब बगल में दबाकर खुद को महान् और ज्ञानी सिद्ध करना चाहते हैं। अपनी गलतियों पर, अपने अपराधों पर सफाई देते हैं। मिथ्या ज्ञान, मिथ्याभिमान को अपनी अकड़ पर रखकर ढोते हैं। मज़हबों के हिसाब से हमारे द्वारा तय किये गये लिबास ओढ़ते हैं। धाॢमक प्रोपेगंडा करते हैं। मज़हबी नारों का शोर करके खुद को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं और अंत में इसी में मर जाते हैं। क्या लेकर जाते हैं? शायद नफरत और बुराई। क्या देकर जाते हैं? वही नफरत और बुराई। यानी हम स्वयं अपनी पीढिय़ों को फसाद, नफरत, डर की आग और धाॢमक कट्टरता की उसी अँधेरी खाई में धकेल रहे हैं, जिसने हमें कभी चैन से जीने नहीं दिया और न ही हमारी आने वाली पीढिय़ों को कभी चैन से जीने देगी।

कितने स्वार्थी हैं हम! हम हमारे ही हाथों से हमारे मानव धर्म का गला घोंट रहे हैं। केवल सत्ता-सुख के स्वार्थ में अन्धे होकर बनावटी होते जा रहे हैं।  हर जगह, हर चीज़ में दिखावा करने की हमारी आदत हो चुकी है। इस दिखावे की होड़ में हम अपने जमीर से इतने नीचे गिर चुके हैं कि अब अगर हमें कोई उठाना भी चाहे, तो वह सिर्फ और सिर्फ शत्रु ही नज़र आता है। दु:ख की बात यह है कि हम जिसके प्रति मन में बैर पाल लेते हैं, उसे अपना नहीं, बल्कि अपने मज़हब का, देश का और कानून का शत्रु घोषित कर देते हैं, ताकि हम जिससे नफरत करते हैं, उसका हम जैस सोच वाले लाखों लोग विरोध करें और उसे गलत साबित करके ही दम लें। मज़हबों की आड़ में हमने यही तो किया है आज तक। कभी मज़हब के नाम पर, तो कभी जातिवाद के नाम पर दूसरे को गलत या कमतर साबित करके उसका विरोध विरोध किया है, उस पर अत्याचार किये हैं।

इससे भी दु:खद यह है कि अब हम अपने-अपने मज़हबों के आधार पर रखे गये ईश्वर के नामों का सहारा लेकर, उसके नाम के जयकारे लगाकर ङ्क्षहसा करते हैं। कितने बड़े मूर्ख हैं हम लोग? अपने पागलपन के चलते उस एक परमेश्वर को, एक शक्ति को न केवल कई रूपों में देखते हैं, बल्कि उसके दूसरे रूप-स्वरूप या नाम से इतनी घृणा करते हैं कि अभद्रता करने और वह सब करने से भी नहीं चूकते, जिसे हमारे धर्म-ग्रन्थ भी हैवानियत कहते हैं; पाप कहते हैं। इसका मतलब यही तो हुआ कि हम जाने-अनजाने पाप कर रहे हैं। वह भी ऐसा पाप, जो हमारे विनाश का कारण बन रहा है। मानव जाति के साथ-साथ दूसरे प्राणियों और हमारे द्वारा बनायी गयी सुविधाजनक चीज़ों को बर्बाद कर रहा है। क्या अजब हाल है हम लोगों का? हम यह भी नहीं समझ सके कि हमारी खुशी और हमारा सुख किस तरह जीने में है? केवल चंद बुरे लोगों के कहने पर हम वह सब कुछ कर डालते हैं, जिसका परिणाम कभी अच्छा हो ही नहीं सकता। हम वह कर रहे हैं, जिसका परिणाम हम ही नहीं हमारी पीढिय़ाँ भी भुगतेंगी, लेकिन हमें कोस-कोसकर!