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गांव लौटने के लिए मुंबई निवासी आवेदन न करें – गार्जियन मिनिस्टर असलम शेख

मुंबई सिटी के गार्जियन मिनिस्टर असलम शेख ने वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि मुंबई से सिर्फ उन्हीं प्रवासी मजदूरों को उनके राज्य भेजा जाएगा, जो मूल रूप से बाहर के रहने वाले हैं।

असलम शेख ने कहा कि अपने राज्य जाने के लिए वे मजदूर ही आवेदन करें, जिनके पास मुंबई के बाहर उनके राज्य का आधार कार्ड या फिर राशन कार्ड है।शेख ने साफ किया है कि जिन लोगों के पास मुंबई का आधार या राशन कार्ड है, उन्हें उनके राज्य नहीं भेजा जाएगा।

दरअसल इन दिनों अपने राज्य जाने के लिए कई ऐसे लोगों द्वारा भी पुलिस के अलावा अन्य सरकारी एजेंसी के पास आवेदन करने की बात भी सामने आ रही जिनके पास मुंबई के एड्रेस का आधार और राशन कार्ड हैं।

सरकार ने प्रवासी मजदूरों को उनके राज्य में भेजने का आश्वासन तो दिया है, लेकिन यह राह आसान नजर नहीं आ रही है।

गार्जियन मिनिस्टर का कहना था कि लोगों से आवेदन मंगाने के बाद उनकी लोकेशन के हिसाब से छंटनी की जाएगी फिर उसके बाद लोकेशन के हिसाब से ट्रेनों की तैयारी करने के बाद प्रवासी मजदूरों की इसकी सूचना दी जाएगी। इस प्रोसेस को पूरा करने में समय लगेगा। हालांकि गार्जियन मिनिस्टर ने आश्वासन दिया है कि सरकार इस योजना पर तेजी से काम कर रही है और जल्द ही प्रवासी मजदूरों को उनके राज्य में भेजने का काम शुरू होगा।

‘बसों से प्रवासी मजदूरों को उनके राज्य के बॉर्डर तक छोड़ने के लिए दूसरे राज्यों के चीफ मिनिस्टर से बात चल रही है। *यदि दूसरे राज्यों के सीएम इसके लिए तैयार हो जाते है तो बसों से भी मजदूरों को भेजा जाएगा* ।’-गार्जियन मिनिस्टर असलम शेख

जन सुरक्षा में लगे योद्धाओं पर हमले क्यों?

कोरोना वायरस (कोविड-19) महामारी पर अंकुश के लिए बिना दवा के सबसे कारगर तरीका सोशल डिस्टेंस के तौर पर सामने आया। चूँकि चीन में सबसे पहले इस नामुराद बीमारी ने पाँव पसारे, लिहाज़ा यह सुरक्षित तरीका वहीं से अस्तित्त्व में आया। वहाँ इसके नतीजे काफी अच्छे रहे और बिना किसी दवाई, टीका या वेक्सीन के चीन ने काफी राहत पायी। इसके अलावा अन्य कोई चारा नहीं था। हमारे यहाँ इसका पालन पुलिस के अलावा और कौन करा सकता है? प्रभावित लोगों का उपचार डॉक्टरों, नर्सों और अन्य सहायकों के अलावा और कौन कर सकता है?

दुर्भाग्य की बात यह कि हमारे देश में इन्हीं दो वर्गों पर जानलेवा हमले तक हुए। भारत के अलावा अन्य किसी देश में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। अमेरिका में विरोध स्वरूप कुछ लोग सड़कों पर उतरे, लेकिन कहीं कोई हिंसा या हिंसक घटना नहीं हुई। हमारे यहाँ कुछ घटनाएँ तो ऐसी घटीं, जिन्हें देखकर लगता नहीं कि किसी सभ्य समाज में ऐसी घटनाएँ घट सकती हैं।

पटियाला (पंजाब) की वह घटना देश के लोगों को झकझोर देने वाली रही, जिसमें धारधार हथियारों से लैस तथाकथित निहंगों ने एक एएसआई (अब एसआई) की कलाई काट दी, जबकि तीन अन्य को जख्मी कर दिया। लॉकडाउन की अविध में पुलिस पर जानलेवा हमले की सम्भवत: यह पहली घटना रही, जिसने आम जनमानस की धारणा पुलिस के प्रति बदली।

अब तक तो जो घटनाएँ हो रही थीं, उनमें पुलिस कानून का पालन कराने के लिए काफी सख्ती कर रही थी। कहीं-कहीं तो बर्बरता से पिटाई की घटनाओं के बारे में पढ़कर, सुनकर या वीडियो देखकर पुलिस के प्रति आक्रोश की भावनाएँ तक पैदा हुईं। सड़कों पर किसी काम से या फिर कहीं-कहीं तफरी पर निकले लोगों को बेरहमी से पीटा गया। उन्हें समझा-बुझाकर या चेतावनी देकर भी तो छोड़ा जा सकता था। वे देश के लोग हैं। कानून का पालन बेशक नहीं कर रहे, पर कोई दंगाई तो नहीं; जिनसे कानून व्यवस्था बिगडऩे का खतरा हो। ऐसी पिटाई की घटनाओं से लोगों के मन में पुलिस की वही क्रूर छवि अंकित रही, जो अमूमन रहती है। पर पंजाब की इस घटना से पुलिस के प्रति लोगों की धारणा बदली। उन्हें खाकी में वो जांबाज़ दिखे, जो ड््यूटी के दौरान जान देने में भी गुरेज़ नहीं करते और हमलावरों के प्रति गुस्से की इस भावना ने जैसे पूरा परिदृश्य ही बदल दिया।

उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में डॉक्टर की टीम पर हमला हुआ। इसमें डॉक्टर एस.सी. अग्रवाल तो बुरी तरह से घायल हो गये, जबकि टीम के अन्य सदस्यों को जान बचाकर भागना पड़ा। उनके साथ दो-चार पुलिसकर्मी भी थे; लेकिन बेकाबू भीड़ के आगे उन्हें भी जान बचाकर भागना पड़ा। गनीमत रही कि हमले में किसी की जान नहीं गयी। लेकिन इसने डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकॢमयों की सेवा भावना के ज•बे को तोड़कर रख दिया।

इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप देश के अन्य हिस्सों में बिना पुख्ता सुरक्षा के डॉक्टरों की टीमों ने मोहल्लों और गलियों में जाकर नमूने लेने से मना कर दिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि बावजूद इन घटनाओं के कोरोना के खिलाफ लड़ाई इसी तरह से जारी रहेगी। सरकारें भी ऐसी घटनाओं को गम्भीरता से ले रही हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने तो ऐसे लोगों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत मामले दर्ज करने से गुरेज़ नहीं की। दु:ख इस बात का है कि कुछ अराजक तत्त्वों की वजह से अगर अभियान नाकाम होता है, तो इसकी कीमत हज़ारों-लाखों लोगों को अपनी जान की कीमत देकर चुकानी पड़ेगी।

इस महामारी से बचाव में लगे डॉक्टरों, नर्सों, स्वास्थ्यकॢमयों, पुलिस और अन्य गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों पर उग्र होकर हमले कर रहे लोगों के खिलाफ कठोर कार्रवाई होनी ही चाहिए। इनके खिलाफ गम्भीर धाराओं के तहत मामले दर्ज होने चाहिए। इसके बाद ठोस साक्ष्यों के साथ मामले अदालत में जाएँ, ताकि ऐसे लोग सज़ा से बच नहीं सकें।

ऐसी घटनाएँ देश के कई हिस्सों में हुईं, हो रही हैं और अगर अराजक लोगों से सख्ती से नहीं निपटा गया, तो आगे भी होती रहेंगी। एक विशेष समुदाय में भय का माहौल क्यों है? क्या कोई साज़िश के तहत ऐसा है या फिर बढ़ते अविश्वास की भावना का परिणाम है यह?

डॉक्टरों और पुलिस पर हमले की ज़्यादातर घटनाएँ एक विशेष समुदाय से जुड़ी रहीं। गलत संदेश गया कि डॉक्टर उन्हें स्वस्थ होते हुए भी ऐसी कोई दवा या टीका लगा देंगे, जिससे वे कोरोना वायरस से ग्रस्त हो जाएँगे। यह सब नासमझी और मूर्खतापूर्ण बातें हैं। पूरा देश ही क्यों विश्व ही महामारी से बचाव के लिए लड़ रहा है। ऐसे में ऐसी सोच को क्यों पैदा होने दिया जा रहा है?

जहाँ लोकतंत्र नहीं, वहाँ सरकारें सख्ती से किसी भी आदेश का पालन कराने का अधिकार रखती हैं। लोगों को भी इस बात का पता होता है। सवाल है कि जिन देशों में लोकतंत्र है और लोग जनप्रतिनिधियों को चुनकर सरकार बनाते हैं, वहाँ क्या आदेशों का उल्लंघन करने का किसी को कोई अधिकार है? उत्तर होगा नहीं। बावजूद इसके सब कुछ हो रहा है। चीन और उत्तर कोरिया जैसे देशों में भी जैसा वहाँ की सरकारों ने जैसा चाहा, वैसा ही हुआ। वहाँ लोगों ने हर आदेश का पालन किया। पर हमारे यहाँ ऐसा नहीं हो सका। नतीजतन अभद्र घटनाएँ हो रही हैं।

लॉकडाउन के दौरान पटियाला (पंजाब) में नाके ड्यूटी पर तैनात पुलिस टीम पर हमले की खबर अपने में चौंकाने वाली है। यह घटना नयी नहीं, बल्कि अपने आपमें अलग है। किस तरह से तथाकथित निहंगों ने वहाँ खड़े पुलिसकॢमयों पर जानलेवा हमला कर दिया। किसी को ऐसी स्थिति का अंदाज़ा नहीं रहा होगा। यह सब कुछ ही मिनटों में हो गया। पुलिस ने तो ऐसी कल्पना भी नहीं की होगी कि उन्हें ही जान बचाने के लिए भागना पड़ सकता है।

पंजाब की घटना में तो पुलिसकॢमयों का शुरुआती बर्ताव भी बुरा नहीं था। वहाँ नाके पर आगे जाने के लिए जब पुलिसकॢमयों ने एक पिकअप गाड़ी चालक से कफ्र्यू पास की माँग की, तो उसे अनसुना किया गया। अवरोधक तोड़कर जब गाड़ी आगे बढ़ी, तो पुलिस टीम ने गाड़ी पर डंडे चलाये। इस दौरान अन्दर से निकले लोगों ने हाथों में कृपाण (कटार) लेकर वहाँ सुरक्षा में खड़े वर्दीधारियों पर हमला कर दिया। इसमें एक सहायक पुलिस निरीक्षक की कलाई कट गयी, जबकि तीन अन्य को जख्मी हो गये। हालाँकि चंडीगढ़ के पीजीआई में ऑपरेशन के बाद कटी कलाई जोड़ दी गयी और अन्य जख्मी जवानों का इलाज भी कर दिया गया। फिलहाल वे सब ठीक हैं।

इस घटना की प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई। लॉकडाउन के दौरान शायद देश की यह पहली ऐसी घटना रही, जिसने आम जनमानस के मन में कई तरह के सवाल खड़े कर दिये। जैसे, क्या मौज़ूदा स्थिति में पुलिस पर ऐसे हमले की कल्पना भी की जा सकती है? सामान्य दिनों में ऐसी घटनाएँ होती हैं, चाहे उनके होने के तरीके अलग-अलग हों। उन्हें उतना महत्त्व नहीं मिलता, जितना इस घटना को मिला। सबसे सुखद बात यह रही कि इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। लेकिन यह भी अच्छा हुआ कि इस घटना को धाॢमक या राजनीतिक रंग नहीं दिया जा सका।

सिखों के सबसे बड़े धाॢमक संगठन शिरोमणि गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) ने इस घटना की घोर निंदा करते हुए हमलावरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की माँग के साथ इस घटना को किसी धर्म विशेष से जोड़कर न देखने की बात भी कही। इससे बड़ी बात निहंग प्रमुख बाबा बलबीर सिंह ने कह दी। उन्होंने हमलावरों के कृत्य की कड़ी आलोचना करते हुए इसे असामाजिक तत्त्वों की कारस्तानी बताया। अन्य धाॢमक और सामाजिक संगठनों ने कायराना हमला बताते हुए उनके खिलाफ कड़ी-से-कड़ी कार्रवाई की माँग की।

यह घटना पटियाला में हुई, जो मुख्यमंत्री कैप्टन अमङ्क्षरदर सिंह का गृहनगर भी है। ऐसे में पुलिस के मनोबल को और ज़्यादा मज़बूत करने की ज़रूरत थी और सरकार ने ऐसा करके पूरा समर्थन भी दिया। हमलावर एक धर्म विशेष के थे; अगर उनको किसी भी तरह से अपरोक्ष समर्थन मिल जाता, तो इसका व्यापक असर होता। पर ऐसा नहीं हुआ और होना भी नहीं चाहिए। यही वजह रही कि पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करके एक महिला समेत 10 तथाकथित निहंगों को गिरफ्तार कर लिया। यह कार्रवाई भी शान्तिपूर्ण नहीं रही, बल्कि इसके लिए मान-मनौव्वल के बाद सख्ती बरती गयी। सभी आरोपी पुलिस हिरासत में हैं।

सवाल यह कि आिखर उस दिन ऐसी क्या नौबत आ गयी, जिसमें पिकअप सवारों ने पुलिस पर जानलेवा हमला कर खाकी को ही चुनौती दे डाली? उनके इतना उग्र होने की मुख्य वजह क्या रही होगी? क्या हमलावर कोरोना वायरस से उपजी गम्भीर स्थिति को जानते नहीं थे? या फिर उन्हें सब कुछ अपनी मर्ज़ी से ही करना था? कफ्र्यू लगाने और इतनी सख्ती के कारणों का तो उन्हें पता ही रहा होगा! फिर वे बिना पास के कफ्र्यू के बीच बाहर क्यों निकले?

बता दें कि निहंगों को सिख धर्म में गुरु की फोज के तौर पर जाना जाता है। अलग बाणे (वेशभूषा) में दिखने वाले ये लोग हथियारबन्द रहते हैं। मान्यता है कि ये हथियारों का प्रयोग लोगों को ज़ुल्म से बचाने के लिए करते हैं और ज़रूरत पडऩे पर अपना बचाव भी करते हैं। पटियाला नाके पर तो उन्हें अपने बचाव के लिए हथियार निकालने की ज़रूरत ही नहीं थी। पास न होने पर ज़्यादा-से-ज़्यादा चालान या अन्य कानूनी कार्रवाई होती। अगर गुरद्वारे के काम का हवाला देते, तो शायद उन्हें उच्चाधिकारों से अनुमति भी मिल सकती थी।

वैसे नाका तोडऩे के बाद जिस तरह से पिकअप पर डंडे चलाये गये, उससे भी निहंग आवेश में आ गये। इनका प्रमुख हमलावर बलविंदर सिंह कृपाण लेकर दूर तक दौड़ा, जबकि दो अन्य वहीं खड़े तलवारें लहराते रहे। बाद में पूरे तंत्र को धता बताते हुए ये निकल गये और गुरद्वारे में पहुँच गये।

एक वर्ग का कहना है कि पुलिस ने गाड़ी पर डंडे चलाकर एक तरह से उन्हें हमला करने की भूमिका तैयार कर दी। उनकी राय में पुलिस ने संयम बरता होता, तो शायद यह घटना टल जाती। बहरहाल, जो भी हुआ, उसकी चौतरफा निंदा हुई। अपुष्ट सूत्र बताते हैं कि बलबेड़ा के जिस गुरद्वारे से हमलवरों की गिरफ्तारी हुई, वहाँ से हथियार, मादक पदार्थ और भारी मात्रा में नकदी आदि मिली है। निहंग बलविंदर सिंह का अतीत भी उजला नहीं है। ज़मीन कब्ज़ाने और छिटपुट विवाद में उसके हिंसक होने की कई बातें सामने आयी हैं। पास की ज़मीन पर कब्ज़ा करने की शिकायत भी उसके खिलाफ थी; लेकिन धमकी के बाद वादी ने उसे वापस ले लिया था।

पुलिस पर जानलेवा हमले की घटना कोई नयी तो नहीं, पर सवाल मौज़ूदा हालात का है, जिसमें पुलिस पर लोगों की सुरक्षा की और अहम् ज़िम्मेदारी है। राज्य में कफ्र्यू के शुरुआती दिनों में सोशल मीडिया पर आने वाली वीडियो में ज़्यादातर पंजाब से जुड़ी ही देखने को मिलीं, जिनमें कफ्र्यू का उल्लंघन करने पर पुलिसकर्मी लोगों को बेरहमी से पीटते नज़र आये। देश के अन्य हिस्सों में भी ऐसी घटनाएँ हुईं, लेकिन प्रमुखता इसी राज्य को मिली। इसकी बहुत तीव्र प्रतिक्रिया हुई, जिस पर सरकार ने संज्ञान लिया। उसके बाद बाकायदा ऐसी घटनाओं में कमी आयी। फिर तो यह होने लगा कि बड़े अधिकारी हाथ जोड़कर लोगों से घरों में रहने और कफ्र्यू का पालन करने का आग्रह करते हुए दिखे। इससे लोगों में पुलिस के प्रति सोच बदली।

ज़रूरतमंदों को घर-घर राशन पहुँचाने की खबरों और सोशल मीडिया पर आने वाले वीडियो ने पहले की छवि को बिल्कुल बदलकर रख दिया। यही वजह रही कि हमले के बाद आरोपियों पर कड़ी-से-कड़ी कार्रवाई करने की माँग उठी। सोशल मीडिया पर आरोपियों के समर्थन में डाले गये पोस्ट पर पुलिस ने कार्रवाई की। घटना को राजनीतिक या धाॢमक रंग मिल जाता, तो फिर पुलिस के मनोबल का क्या होता? कौन खतरा उठाने के लिए आगे आता? इन सभी को देखते हुए सरकार ने कड़ी कार्रवाई की अनुशंसा दी, जो मौज़ूदा स्थिति का तकाज़ा भी था।

फिलहाल घटना को निहंगों से जोड़कर देखे जाने की भी आलोचना हो रही है। निहंग प्रमुख बलबीर सिंह ने आरोपियों को अपने संगठन का सदस्य होने से इन्कार कर दिया है। उनकी राय में कफ्र्यू के दौरान बिना अनुमति के निकलने और पास माँगने पर ड्यूटी पर तैनात पुलिसकॢमयों पर ही जानलेवा हमला करना कानून का खुलेआम मज़ाक उड़ाने जैसा है। जब सभी लोग आदेशों की पालना कर रहे हैं, तो बाणा पहने निहंगों के पास ऐसे क्या विशेषाधिकार थे, जिसके चलते वे मनमानी करने पर उतारू हो गये?

निहंग पीडि़त लोगों की रक्षा के लिए आगे आएँ, तो उनका और हमारे संगठन का बड़प्पन है। सिख धर्म यही सिखाता है कि हथियार किसी पर बेवजह हमला करने के लिए नहीं, बल्कि कमज़ोर की रक्षा के लिए हैं। उन लोगों न केवल धर्म के विपरीत काम किया, बल्कि आम लोगों में निहंगों की छवि को भी धूमिल करने की कोशिश की। इसलिए उन पर कानूनी कार्रवाई वाजिब है।

कहा जा रहा है कि हमले का प्रमख आरोपी बाबा बलविंदर सिंह विवादास्पद रहा है। वह करीब 20 साल पहले अहमदगढ़ से यहाँ आया था। उसने निजी प्रयास से बलबेड़ा नामक स्थान पर गुरुद्वारा खिचड़ी साहिब बनवाया। बलविंदर पर आरोप है कि उसने गुरुद्वारे के साथ लगती डेढ़ एकड़ ज़मीन पर कब्ज़ा कर रखा है। इस बाबत भूपेंद्र सिंह ने शिकायत दी थी, लेकिन बाद में कोई कारण बताये बिना उसने अपनी शिकायत वापस ले ली थी।

खाकी का गौरव

पुलिस की बर्बरता की घटनाएँ आमजन में सिहरन पैदा कर देती हैं। सच बाहर लाने या फिर सबक सिखाने के लिए हिरासत में मौत या फिर इसके मुहाने पर पहुँचाने की घटनाओं से खाकी भी काफी बदनाम है। एनकाउंटरों पर भी सवाल उठते रहे हैं। लेकिन जब उन पर हमला होता तो है, लोग उनके समर्थन में भी आ खड़े होते हैं। दिल्ली में एनआरसी के मुद्दे पर एक शख्स के निहत्थे पुलिसकर्मी पर पिस्तौल तान देने की घटना के बाद कैसे वह पुलिसकर्मी जांबाज़ के तौर पर उभरा। पुलिस का काम ही कुछ ऐसा है कि कभी-न-कभी कोई एक पक्ष उसकी आलोचना में आ खड़ा होता है। पटियाला की घटना में भी यही हुआ। कानून का पालन कराने के दौरान उनकी जान पर बन आयी। ऐसी या समकक्ष घटनाएँ पहले भी होती रही हैं और भविष्य में न हों, यह सम्भव नहीं। लेकिन खाकी को अपनी ड्यूटी मुस्तैदी से करनी ही होगी, क्योंकि यही उनकी ड्यूटी है और देश के प्रति फर्ज़ भी।

जांबाज़ी का सम्मान

मुस्तैदी से ड्यूटी निभाने के दौरान घायल होने वाले पंजाब पुलिस के सहायक पुलिस निरीक्षक (एएसआई) हरजीत सिंह को राज्य सरकार ने तरक्की देकर पुलिस निरीक्षक (एसआई) बना दिया है। उनके अलावा तीन घायल होने वाले थानाधिकारी बिक्कर सिंह, एएसआई रघबीर सिंह और राज सिंह के साथ ही पंजाब मंडी बोर्ड के यादवेंद्र सिंह को सराहनीय सेवा के लिए सम्मानित किया है। मुख्यमंत्री ने पुलिस महानिदेशक दिनकर गुप्ता को घटना के बाद जांबाज़ पुलिसकॢमयों को उचित पुरस्कार देने को कहा था। मुख्यमंत्री कैप्टन अमङ्क्षरदर सिंह ने वीडियो कॉन्फ्रेंस के ज़रिये पीजीआई में उपचार करा रहे हरजीत सिंह से बात करके उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना की और उनकी बहादुरी का सम्मान किया। मुख्यमंत्री ने उन्हें बाकायदा बेटा कहकर सम्बोधित किया। सरकार की इस कार्रवाई से पुलिस का मनोबल और ज़्यादा बढ़ा है।

ऑपरेशन सफल

कलाई कटने के बाद पुलिस अधिकारी हरजीत सिंह की हिम्मत प्रशंसनीय है। उनकी सकारात्मक सोच और ज•बे को उनका ऑपरेशन करने वाली टीम के प्रमुख डॉक्टर रमेश शर्मा भी मान चुके हैं। रमेश शर्मा की राय में अगर कोई कमज़ोर व्यक्ति होता और उसकी सोच नकारात्मक होती, तो सम्भवत: ऑपरेशन इतना सफल नहीं होता। जो व्यक्ति अपने कटे अंग के साथ अस्पताल तक पहुँच जाए और भयंकर दर्द के बावजूद उसकी हिम्मत कायम रहे, उसका नाम हरजीत सिंह ही हो सकता है।

घटना के बाद पंजाब के पुलिस प्रमुख दिनकर गुप्ता ने पीजीआई चंडीगढ़ के निदेशक डॉक्टर जगत राम को घटना की सूचना देते हुए ऑपरेशन की तैयारी रखने का संदेश दिया था। उन्होंने घटना की गम्भीरता को देखते हुए तुरन्त प्लास्टिक सर्जरी के प्रमुख डॉक्टर रमेश शर्मा को अपनी टीम तैयार रहने को कहा। पटियाला से चंडीगढ़ पहुँचने में करीब एक घंटा लगा। समय रहते संस्थान में पहुँचने का नतीजा यह रहा कि ऑपरेशन सफल हो गया। देरी होने पर इसकी सम्भावना और कम हो सकती थी।

डॉक्टर शर्मा की टीम में डॉक्टर सुनील गाबा, डॉक्टर जैरी आर. जोन, डॉक्टर सूरज नय्यर, डॉक्टर मयंक, डॉक्टर चंद्रा और डॉक्टर शुभेंदु थे। करीब साढ़े सात घंटे तक ऑपरेशन चला। 12 अप्रैल के बाद हरजीत सिंह का दूसरा ऑपरेशन भी हो गया है। डॉक्टरों ने ऑपरेशन को पूरी तरह से सफल बताया है। कुछ महीनों तक हाथ की फिजियोथेरेपी करानी होगी। करीब छ: माह के दौरान हाथ के पूरी तरह से सामान्य होने की बात कही गयी है। खुद हरजीत सिंह मानते हैं कि वे पूरी तरह से ठीक हो जाएँगे; क्योंकि उन्हें हाथ की हलचल का काफी कुछ आभास होने लगा है।

हरजीत सिंह के परिवार में पत्नी बलविंदर कौर के अलावा एक बेटा अर्शप्रीत सिंह है। बेटे अर्शप्रीत को घटना की जानकारी टीवी के माध्यम से मिली, तो वह सन्न रह गया। उसने तुरन्त टीवी की केबल ही निकाल दी, ताकि माँ को इसके बारे में पता न चले। कुछ अप्रिय होने की आशंका से उसने ऐसा किया। मगर ऐसी बातें भला ज़्यादा समय तक कहाँ छिप पाती हैं? कुछ समय बाद परिवार के लोगों को घटना के बारे में पता चल गया। ऑपरेशन की सफलता के बाद सभी खुश हैं। करीबी शहर राजपुरा में रहने वाले गुरजीत सिंह को भाई हरजीत सिंह की बहादुरी पर गर्व है।

कौन होते हैं निहंग?

सिख धर्म में निहंगों का अपना इतिहास है। निहंग का मतलब है- निर्बलों की रक्षा करने वाला। ये देश की रक्षा के लिए गुरुगोबिंद सिंह द्वारा तैयार फौज के लोग हैं। इन्हें निडर सैनिक माना जाता है। देश में इनकी संख्या हज़ारों में है। इनके तरुणा दल, विधिचंद दल और बुड्ढा दल हैं। इन्हें गुरु की लाडली फौज के नाम से भी जाना जाता है। गुरबाणी का पाठ और बाणे (नीली वेशभूषा) में रहना इनकी पहचान है। इनमें ब्रह्मचारी और गृहस्थ दोनों होते हैं। ये ज़्यादातर समूहों में रहते हैं और एक जगह से दूसरी जगह सिखों के ऐतिहासिक स्थलों पर जाते रहते हैं। हथियार चलाने में इन्हें निपुणता हासिल होती है। कमज़ोर की रक्षा करना इनके धर्म में शामिल है। निहंग घोड़ों पर शौर्य दिखाने के अलावा ये हथियार चलाने में माहिर होते हैं। सिखों में इनका बहुत महत्त्व है। इस समय निहंग प्रमुख बाबा बलबीर सिंह हैं।

अतीत के पन्ने

विश्व में महामारियों का इतिहास रहा है। एक संयोग 20 का भी रहा है। वर्ष 1720 में द ग्रेट प्लेग ऑफ मार्शले नामक बीमारी फैली। जो फ्रांस के मार्शले शहर से उपजी और उसे यही नाम दे दिया गया। इसमें एक लाख से ज़्यादा लोगों की मौत हुई। तब विज्ञान इतना समृद्ध नहीं था। लिहाज़ा जब तक इसके कारणों का पता चलता, तब तक व्यापक स्तर पर इससे जनहानि हो चुकी थी। इसके ठीक 100 साल बाद वर्ष 1820 आया, तो एशियाई देशों में हैज़ा फैला। यह इसी उपमहाद्वीप में रहा अन्य विश्व के देश इससे प्रभावित नहीं हुए। ठीक इसके 100 साल बाद 1920 में स्पेनिश फ्लू एक विकराल महामारी के रूप में आया। स्पेन से निकली इस बीमारी ने महामारी का रूप लिया, तो देखते-ही-देखते यह विश्वव्यापी हो गयी।

जानकारी के मुताबिक, इसमें मरने वालों की संख्या पाँच करोड़ के आसपास तक बतायी जाती है। संख्या को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इसकी विकरालता को लेकर शक की कोई गुंजाइश नहीं है। इस सदी की बात करें, तो वर्ष 2020 में कोरोना वायरस के तौर पर विगत 400 साल में चौथी बार महामारी ने दस्तक दी है। वैश्विक स्तर पर फैली इन महामारियों से लाखों की तादाद में लोगों की मौत हुई। खास बात यह है कि इन सभी महामारियों की जन्मस्थली कभी भारत नहीं रहा है। लेकिन वह इससे प्रभावित नहीं हुए बिना भी नहीं रह सका है। चार सदियों में बड़ी महामहारियों के बीच ऐसा नहीं कि यहाँ भी सब कुछ ठीक रहा हो। उससे पहले महामारी प्रकृति के प्रकोप के तौर पर जानी गयी। वर्ष 1347-1351 के दौरान चीन में प्लेग फैला। इसका विस्तार अन्य उप महाद्वीपों में हुआ। उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक, इससे तीन करोड़ से ज़्यादा लोग मौत के मुँह में समा गये। इसकी भयावहता और मारक क्षमता के कारण इसे ब्लैक डेथ के नाम से जाना गया। चूहों के पिस्सुओं से होने वाली इस बीमारी के आतंक से भारत भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका था। वर्ष 1860 में चीन में फिर से प्लेग की दस्तक हुई, इससे एशियाई देश बेहद प्रभावित हुए, विशेषकर भारत। इसे तब मॉडर्न प्लेग का नाम दिया गया और इस पर अंकुश पाया गया, तब तक सवा करोड़ से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी थी। इनमें एक करोड़ के लगभग भारत के लोग ही थे। महामारियाँ रूप और कारण बदल-बदल कर आती रही हैं और हज़ारों-लाखों लोगों को यह सोचने पर मजबूर करती रही हैं कि आिखर इंसान ज़िन्दा रहे, तो कैसे?

वर्ष 1950 में एशियन फ्लू और 1968 में हॉन्ग कॉन्ग फ्लू, कुछ साल पहले तक स्वाइन फ्लू और बर्ड फ्लू। कुल मिलाकर पशु-पक्षियों से होने वाली बीमारियाँ ही बाद में महामारी बनती हैं। कोरोना वायरस के बारे में भी यही बात कही जाती है। हालाँकि अधिकृत और वैज्ञानिक तौर पर कहना मुश्किल है कि यह वायरस इंसानों में कैसे आया? अलग-अलग धारणाओं के बीच फिलहाल यह शोध का विषय ही कहा जा सकता है।

खतरनाक भूख वायरस

पहले से गरीबों की बड़ी गठरी पीठ पर लादे भारत की समस्याएँ आने वाले महीनों में और अधिक बढऩे वाली हैं। कोरोना के कारण लॉकडाउन ने लाखों लोगों के सामने रोटी की समस्या खड़ी कर दी है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की अप्रैल के शुरू में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में करीब 50 करोड़ श्रमिक हैं, जिनमें से 90 फीसदी असंगठित क्षेत्र से हैं। ज़ाहिर है यही बड़ा वर्ग लॉकडाउन से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुआ है और उनकी ज़िन्दगी जल्दी पटरी पर लौटने में बहुत लम्बा वक्त लगेगा। सबसे बड़ा सवाल यह है कि इनमें से कितने दोबारा रोज़गार पाने की हालत में पहुँच पाएँगे? चिन्ताजनक रिपोर्ट यह है कि कोरोना और लॉकडाउन के कारण भारत में करीब 10 करोड़ से भी ज़्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाएँगे।

पहले लॉकडाउन की घोषणा के बाद जिस बड़े पैमाने पर देश भर में प्रवासी मज़दूरों का पलायन हुआ, उसने 1947 के पलायन की तस्वीर सामने ला दी। यह बहुत दु:खद और चिन्ताजनक तस्वीरें थीं। लेकिन और भी चिन्ताजनक बात यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों के तमाम दावों के बावजूद लॉकडाउन के बाद गरीब और प्रवासी मज़दूर गम्भीर दिक्कतों का सामना कर रहे हैं।

वैसे भी भारत दुनिया के भूख इंडेक्स में बहुत निचले पायदान पर खड़ा है। कुल 117 देशों की रिपोर्ट में भारत 102वें स्थान पर इस साल जनवरी में तब था, जब कोरोना और लॉकडाउन का भूत सामने नहीं था। अब स्थिति और गम्भीर बन चुकी है।

लॉकडाउन के बाद आने वाली रिपोट्र्स में साफ संकेत मिल रहा है कि देश भर में असंगठित क्षेत्र ही नहीं, बल्कि संगठित क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर नौकरियाँ जा रही हैं। पहले से बेरोज़गारी के बेहद खराब हालात में नयी परिस्थिति ने आग में घी जैसा काम किया है। इससे सबसे खराब स्थिति दिहाड़ीदारों, मज़दूरों और रवासी कामगारों की ही होगी।

ऑक्सफोर्ड कोविड-19 गवर्नमेंट रेस्पॉन्स स्ट्रिन्जेंसी इंडेक्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन भले कोरोना के विस्तार को रोकने में सहायक रहे, लेकिन यह असंगठित क्षेत्र में बेरोज़गारी और भुखमरी का बड़ा कारण बन सकता है। बड़ी संख्या में कामगार अपने गाँवों को लौटने के लिए मजबूर हो गये हैं। ज़ाहिर है वर्तमान स्थिति देश में असंगठित क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी बढ़ायेगी, जिसका असर प्रति-व्यक्ति आय और खपत पर पड़ेगा। इसके अलावा इसमें चिन्ताजनक कमी भी आयेगी।

अभी तक की रिपोट्र्स बताती हैं कि देश में लॉकडाउन के बाद भूख से भी मौतें हुई हैं। भीषण गर्मी में छोटे बच्चों की हालत खराब हुई है और उनके पोषण में बड़े पैमाने गरीब लोग पर मुसीबतें झेल रहे हैं। भारत के लिहाज़ से संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय (यूएनयू) की रिपोर्ट भी बहुत चिन्ताजनक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भले ही मोदी सरकार आॢथक मंदी से बचने की पूरी कोशिश कर रही है, लेकिन वर्तमान हालात देश की अर्थ-व्यवस्था पर खराब प्रभाव डालेंगे ही।

यूएनयू की इस रिपोर्ट का सबसे चिन्ताजनक पहलू यह है, जिसमें कहा गया है कि कोरोना और इसके चलते लॉकडाउन के कारण भारत में करीब 10 करोड़ से भी ज़्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाएँगे। कारण देश भर में आॢथक गतिविधियों पर ब्रेक लग जाना है।

भारत के नये सरकारी पैमाने के अनुसार शहरों में महीने भर में 859 रुपये 60 पैसे और ग्रामीण क्षेत्रों में 672 रुपये 80 पैसे से कम कमाने वाले को गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है। इसे दूसरे तरीके से देखें, तो सरकार के मुताबिक, देश में जो व्यक्ति हर रोज़ 28.65 रुपये (शहर) और 22.42 रुपये रोज़ (गाँव) में खर्च करता है, वो गरीब नहीं माना जा सकता है।

इसमें एक दिलचस्प पेच यह है कि इसी नीति आयोग (तब योजना आयोग) ने 2004-05 में 32 रुपये से कम खर्च करने वाले को गरीबी रेखा से नीचे बताया था। हालाँकि, उस समय इस पर भी बड़े पैमाने पर सवाल उठे थे कि सिर्फ 32 रुपये में कोई कैसे दिनभर गुज़ारा कर सकता है। आज की तारीख में तो 32 रुपये में तो दूध की एक थैली और एक ब्रेड भी नहीं आता।

इसी साल मार्च में नीति आयोग ने गरीबी के जो आँकड़े जारी किये गये थे, उसमें दावा किया गया था कि पिछले पाँच साल के दौरान देश में गरीबी 37.2 फीसदी से घटकर 29.8 फीसदी पर आ गयी है। हालाँकि, आॢथक विशेषज्ञ इन आँकड़ों को चुनौती देते रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण शहरी और ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा की निश्चित परिभाषा तय न होना भी है।

ज़ाहिर है जो लाखों मज़दूर अभी तक पलायन कर गये हैं और जिनके रोज़गार छूट चुके हैं, वे सभी गरीबी रेखा के नीचे चले गये हैं और इससे गरीबी रेखा का अब तक के आँकड़े में बड़ा इज़ाफा हो चुका है। फिलहाल इसकी बहुत कम सम्भावना है कि यह स्थिति अस्थायी होगी।

ज़ाहिर है लॉकडाउन के अभी तक के 40 दिन में जिस तरह कारोबार ठप रहा है, वो निश्चित ही गरीबों की कतार में 8 फीसदी की बढ़ोतरी करने वाला है। इस लिहाज़ से आने वाले महीनों में या लॉकडाउन खत्म होने के समय तक भारत में गरीबों का आँकड़ा उछलकर 91.5 करोड़ पहुँच जाएगा। विश्व बैंक भारत में करीब 244 रुपये रोज़ाना कमाने वाले को गरीब मानता है, जबकि भारत के नीति आयोग के आँकड़े भिन्न हैं।

राशन कार्ड और स्टॉक

देश में लाखों की संख्या में गरीबों के पास भी राशन कार्ड नहीं हैं, जिससे उन्हें लॉकडाउन के दौरान राशन लेने में बहुत दिक्कतें झेलनी पड़ रही हैं। ऐसे में यह भी बड़ा सवाल है कि जिन लोगों के लिए राशन भेजा गया है, उनमें से कितनों को सही मायने में राशन मिल पाया है? क्योंकि इसकी देखरेख करने वाला कोई मजबूत तंत्र लॉकडाउन के समय में देखने को नहीं मिला है। ज़ाहिर है यह राशन या पैसा गलत हाथों में जाने की सम्भावना बनी रही है।

कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और उनसे पहले पी. चिदम्बरम और टीएमसी नेता ममता बनर्जी ने राष्ट्रीय अपातकाल भण्डार से गरीबों और पलायन करने वाले मज़दूरों को अनाज देने में सरकार की कंजूसी पर उसकी ज़ोरदार खिंचाई की थी। उनका कहना था कि पर्याप्त भण्डार होते हुए भी ज़रूरतमंदों को राशन न देना बहुत गलत बात है। यह नेता आनाज का कोटा 10 किलो करने की माँग भी कर चुके हैं; जबकि सरकार 5 किलो प्रति व्यक्ति (यह रिपोर्ट फाइल होने के वक्त) दे रही है। हालाँकि कुछ राज्य सरकारों ने लॉकडाउन के दौरान अच्छी पहल करते हुए कुछ ज़्यादा राशन वितरित किया है।

तहलका की जानकारी के मुताबिक, मार्च 2020 में भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के भण्डार में पोन आठ करोड़ टन अनाज था। यह ज़रूरत के बफर स्टॉक का तीन गुना था। चूँकि, रबी फसलों की खरीदी शुरू हो चुकी है, इसका स्टॉक बढ़ता ही। लिहाज़ा राहुल गाँधी और ममता बनर्जी जैसे नेता माँग कर रहे हैं कि राष्ट्रीय अपातकाल का जो स्टॉक है, उसे इस्तेमाल कर लेना चाहिए।

देश में आज की तारीख में बड़ी संख्या में पलायन करके गये प्रवासी मज़दूरों में काफी मज़दूर अपने घरों तक नहीं पहुँच सके। लाखों की संख्या में मज़दूर राहत शिवरों में फँसे हैं। वे पेट भरने के लिए सरकारों और भोजन कराने वाली संस्थाओं पर निर्भर हैं। जिनके पास राशन कार्ड नहीं, उनकी संख्या भी लाखों में है और वे मुफ्त राशन के लिए दर-दर भटक रहे हैं।

सरकार का दावा

केंद्र सरकार के उपभोक्‍ता कार्य, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के मुताबिक, भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ज़रूरतमंदों को अनाज दे रहा है। सरकार के मुताबिक, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्‍न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत एनएफएसए के दायरे में आने वाले प्रत्येक लाभार्थी को 5 किलोग्राम खाद्यान्न 3 महीने के लिए मुफ्त प्रदान किया जा रहा है।

सरकार के मुताबिक, एनएफएसए के दायरे के बाहर के व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए राज्य सरकारों को उनके जारी कार्डधारकों के लिए 21 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से गेहूँ और 22 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर चावल जैसे खाद्यान्न उठाने का विकल्प दिया गया है। इसके अलावा राज्यों को 22.50 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से चावल की खरीद सीधे एफसीआई से करने का विकल्प दिया गया है। किसी भी अतिरिक्त आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नीलामी प्रक्रिया में भाग लेने की ज़रूरत नहीं होगी।

ज़रूरतमंदों को भोजन उपलब्ध कराने में गैर-सरकारी संगठनों और अन्य कल्याणकारी संगठनों को सरकार ने 21 रुपये प्रति किलोग्राम दर पर गेहूँ और 22 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर चावल प्रदान करने की योजना बनायी है। वे इस दर पर देश में कहीं भी एफसीआई के किसी भी डिपो से खाद्यान्‍न ले सकेंगे और इसके लिए कोई ऊपरी सीमा नहीं होगी। सरकार के मुताबिक, पूर्वोत्तर राज्यों में लॉकडाउन के पहले 25 दिन के दौरान एफसीआई ने प्रति माह लगभग 80 ट्रेन की क्षमता को लगभग दोगुना करते हुए 158 ट्रेनों के माध्यम से पूर्वोत्तर राज्यों के लिए करीब चार लाख 42 हज़ार मीट्रिक टन खाद्यान्न (22 हज़ार मीट्रिक टन गेहूँ और चार लाख 20 हज़ार मीट्रिक टन चावल) की आपूर्ति की।

पूर्वोत्तर के मामले में कई क्षेत्रों में रेल की पहुँच नहीं है। पूर्वोत्तर के सात राज्यों में एफसीआई ने अपने कुल 86 डिपो में से केवल 38 से रेल के माध्यम से आपूर्ति की। मेघालय की आपूर्ति पूरी तरह से सड़क मार्ग पर निर्भर रही, जबकि अरुणाचल के 13 में से केवल 2 डिपो को ही रेल के माध्यम से आपूर्ति की जाती है। नागालैंड के दीमापुर तक रेल और फिर मणिपुर तक सड़क मार्ग से आपूर्ति की जाती है।

हालात का राजनीतिक असर

वर्तमान स्थिति का सबसे बड़ा असर राजनीति पर भी पड़ेगा। देश में बेरोज़गारी और भुखमरी जिस तरह बड़े मुद्दे रहे हैं, उसे देखते हुए आने वाले महीनों में मोदी सरकार के लिए राजनीतिक रूप से बड़ी चुनौतियाँ बन सकती हैं। भाजपा पिछले कई विधानसभा चुनाव लगातार हारी है, ऐसे में खराब होती आॢथक स्थिति उसके लिए गम्भीर राजनीतिक मुश्किलें पैदा करने जा रही है।

खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी देश के नाम अपने सभी सम्बोधन में स्वीकार कर चुके हैं कि कोरोना और लॉकडाउन के कारण देश की आॢथक स्थिति पर विपरीत असर पडऩे वाला है। सरकार कोरोना से पहले के हालात में भले देश में आॢथक हालत काबू में होने का दावा करती रही थी, लेकिन तमाम आॢथक जानकार इसे खराब बताते रहे थे और सरकार के दावों पर सवाल उठाते रहे थे।अब मोदी सरकार के पास कोरोना वायरस के चलते एक बहाना मिल गया है, जिसमें वह देश की खराब हो चुकी हालत का ठीकरा इस महामारी के सिर पर फोड़ सकती है। लेकिन इसके बावजूद उसे जनता का सामना करना तो उसे पड़ेगा ही। इस साल के आिखर में बिहार जैसे राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं और तब तक लॉकडाउन बेरोज़गारी और रोटी का मसला और गम्भीर बना चुका होगा।

यह तो सरकार भी मान रही है कि वर्तमान धक्के से उबरने में लम्बा वक्त लगेगा। उसके आॢथक प्रबन्धक भी बेचारगी की स्थिति में हैं। वैसे भारत अकेला इस आॢथक मंदी में नहीं फँसा है, दूसरे देशों की भी यही हालत है। लेकिन भारत के संसाधन ऐसे नहीं हैं कि भारत को खराब स्थिति से कुछ महीनों में ही बाहर ले आएँ। आज की तारीख में मज़दूरों का बहुत बड़ा तबका बेरोज़गार हो चुका है।

अभी भले लॉकडाउन और कोरोना के कारण विपक्षी दल मोदी सरकार पर हमला न कर रहे हों, लॉकडाउन के बाद वे निश्चित ही सरकार को निशाने पर रखेंगे। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी मोदी सरकार पर लापरवाही के आरोप दोहरा चुके हैं। प्रेस कॉन्फ्रेंस और ट्वीट के ज़रिये उन्होंने जिस तरह लगातार गरीबों और मज़दूरों मुद्दे उठाये हैं, उससे कांग्रेस की साख बढ़ी है। मोदी सरकार पर सबसे गम्भीर आरोप यह लग रहा है कि उसने अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें बन्द करने में बहुत ज़्यादा देरी कर दी। भारत में 15 मार्च को जाकर अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें बन्द हुईं और इस दौरान बड़ी संख्या में विदेश से लोग चार्टेड और अन्य फ्लाइट्स से भारत आये, जिनमें से ज़्यादातर का टेस्ट नहीं हुआ। इससे स्थिति गम्भीर हो गयी।

बहुत-से जानकारों का मानना है कि अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप की यात्रा, जिस पर 100 करोड़ रुपये से ज़्यादा खर्च होने का अनुमान बताया गया है; को स्थगित किया जा सकता था, क्योंकि तब तक कोरोना वायरस अपना विस्तार दूसरे देशों में कर चुका था। ट्रम्प की इस यात्रा से वास्तव में भारत का अपना कोई हित-लाभ नहीं था। क्योंकि ट्रंप इस साल के आिखर में होने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में भारतीयों के समर्थन के नज़रिये से भारत आये थे।   भारत में कोरोना का आकलन करने में मोदी सरकार की चूक को लेकर अब लोग ज़िक्र कर रहे हैं। यह सही है कि स्थिति की गम्भीरता को समझते ही मोदी सरकार ने तेज़ी दिखायी, लेकिन तब तक शायद काफी देर हो चुकी थी। सच यह है कि लॉकडाउन और कफ्र्यू जैसे उपाय बहुत-सी राज्यों सरकारों, खासकर गैर-भाजपा सरकारों ने केंद्र से पहले ही लागू कर दिये थे। ऐसे में भाजपा और मोदी सरकार के लिए आने वाले महीने कड़ी परीक्षा वाले साबित हो सकते हैं। विधानसभा चुनाव में वो किन मुद्दों के आधार पर जाएगी, यह तो तभी पता चलेगा, जब विपक्ष -खासकर कांग्रेस, टीएमसी और आरजेडी जैसे दल उसके सामने कठिन चुनौतियाँ खड़ी करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।

गरीबी रेखा का देश

भारत के कर्णधार भले पाँच ट्रिलियन इकोनॉमी का दावा करते हों, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि देश की करीब 130 करोड़ की आबादी का आधे से भी ज़्यादा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है। वर्तमान में भारत में कुल आबादी के करीब 60 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। इसके मायने हुए 130 करोड़ में से करीब सवा 81 करोड़ लोग गरीबी रेखा हैं। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि दुनिया में गरीबी का हिसाब रखने वाला विश्व बैंक गरीबी का आकलन चार आय श्रेणियों के आधार पर करता है। इसी के आधार पर उनका वर्गीकरण होता। इस तरह इस पैमाने पर भारत गरीबी रेखा की श्रेणियों में निम्न मध्य आय वर्ग में आता है। इस वर्गीकरण के हिसाब से निम्न मध्यम  आय वर्ग में उन देशों को माना जाता है, जिनकी प्रति व्यक्ति आय की सालाना औसत, राष्ट्रीय आय 78,438 रुपये से तीन लाख रुपये के बीच है। इन देशों में 78 हज़ार रुपये सालाना से कम कमाने वाले गरीबी रेखा के नीचे माने जाते हैं। इसके बाद अपर मिडिल आय वर्ग है और जिन देशों में प्रति व्यक्ति सालाना औसत आय 3,996 डॉलर से 12,375 डॉलर के बीच है, वो देश इसमें हैं। इन देशों में 5.5 डॉलर या इससे कम कमाने वाले गरीबी रेखा के नीचे गिने जाते हैं। उच्च आय वर्ग में उन देशों को माना जाता है, जहाँ प्रति व्यक्ति सालाना औसत आय 13375 डॉलर से ज़्यादा है। इन देशों में गरीबी रेखा से नीचे के लोगों का कोई मानक तय नहीं किया गया है। ज़ाहिर है यह वे देश हैं, जहाँ कोई गरीब नहीं माना जाता। सबसे खराब श्रेणी निम्न आय वर्ग की है, जिसमें प्रति व्यक्ति सालाना आय 1026 डॉलर से कम वाले देश शामिल हैं। इस श्रेणी के देशों में जो व्यक्ति रोज़ाना 1.9 डॉलर से कम कमाता है, उसे गरीब माना जाता है। इन आँकड़ों से ज़ाहिर होता है कि लॉकडाउन और वर्तमान हालात भारत की तकलीफ और बढ़ा सकते हैं।

बिना लक्षण कोरोना और घटिया किट

क्या देश भर में, बल्कि विश्व भर में बिना लक्षण के भी कोरोना के जो पॉजिटिव मामले सामने आ रहे हैं, वो वास्तव में इस रोग के किसी गम्भीर रुख का संकेत करते हैं या इसके पीछे कोई और बजह है? टेस्टिंग किटों की गुणवत्ता को लेकर उठ रहे सवालों के बीच यह बहुत खतरनाक स्थिति है, जिसे लेकर दुनिया भर के चिकित्सक चिन्ता में डूब गये हैं। सच यह है कि रैपिड टेस्ट किट की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़ा हो गया है।

लेकिन अब जो जानकारी सामने आ रही है, उसमें कुछ विशेषज्ञ मान रहे हैं कि यह पॉजिटिव मामले बिना लक्षण के आना, दोषपूर्ण जाँच किट के कारण भी हो सकता है। वैसे भी चीन से महँगी कीमतों पर आ रही कोरोना जाँच किट की गुणवत्ता को लेकर गम्भीर सवाल उठ रहे हैं।

कई राज्यों ने आरोप लगाये हैं कि जो जाँच किटें उन्हें दी गयी हैं, वो दोषपूर्ण या खराब हैं। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने आरोप लगाया कि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् (आईसीएमआर) की सप्लाई की जा रही खराब टेस्टिंग किट के कारण कोरोना वायरस के संक्रमण के लिए की जा रही जाँच के परिणाम बिना नतीजे के आ रहे हैं, जिससे पूरी जाँच प्रक्रिया में देरी हो रही।

राजस्थान सरकार ने इसी कारण से रैपिड कोरोना जाँच पर 21 अप्रैल को रोक लगा दी। राष्ट्रीय हैजा और आंत्र रोग संस्थान (एनआईसीईडी) की निदेशक शान्ता दत्ता तो कह चुकी हैं कि बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि जाँच किटें इतनी प्रामाणित नहीं कि वो सही रिजस्ट दें पाएँ। सभी मेडिकल कॉलेजों के लिए यह बहुत ही मुश्किल काम है कि पहले वो इन किटों की गुणवत्ता की जाँच करें।

दरअसल पहले टेस्टिंग किटें पुणे में बनायी जा रही थीं। लेकिन जब टेस्टिंग  किटों की माँग बढ़ी, तो मोदी सरकार ने चीन से जाँच किटें मँगवाने का फैसला किया। दक्षिण कोरिया से भी किटें मँगवायी जा रही हैं।

जैसे ही जाँच किटों के दोषपूर्ण होने की जानकारी सामने आयी राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार ने रैपिड टेस्ट पर रोक लगा दी। सूबे के स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा ने कहा कि किटों के गलत परिणाम सामने आ रहे हैं, जिसकी वजह से राज्य में एंटीबॉडी रैपिड टेस्ट रोक दिया गया है। जाँच किटों के इस्तेमाल में हमारी तरफ से कोई प्रक्रियागत चूक नहीं हुई है। यह किटें इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) द्वारा भेजी गयी थीं और हमने इसकी सूचना आईसीएमआर को दे दी है।

अब दिक्कत यह हो गयी है कि डॉक्टरों को मरीज़ों की कोरोना जाँच करने से पहले रैपिड टेस्ट किट की ही जाँच करनी पड़ रही है। दूसरे मरीज़ों की जाँच भी दोहरानी पड़ रही है। उधर, इस सारी कवायद के दौरान आईसीएमआर के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. आर. गंगाखेड़कर ने कहा कि ऐसी सूचना मिली है कि पश्चिम बंगाल में कुछ जाँच किटें ठीक से काम नहीं कर रही हैं। हमें यह ध्यान रखना है कि ये पीजीआई किट अमेरिकी लैब से मान्य हैं। यकीनन इन किटों को 20 डिग्री से कम तापमान में रखना होगा। ऐसा नहीं करने से दिक्कत होगी।

 यही नहीं चीन से आईएन पीपीई किट आने के बाद 17 अप्रैल को यह जानकारी सामने आयी कि कोरोना वायरस की जाँच के लिए चीन से मँगवायी गयीं पीपीई (व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण) किटें भी टेस्ट में फेल हो गयी हैं। भारत सरकार ने चीन से 63 हज़ार पीपीई किटों का आयात किया था, जिसके बाद जानकारी आयी कि ये पीपीई किटें सुरक्षा मानदंडों को पूरा नहीं करती हैं।

इससे पहले 5 अप्रैल को भी चीन से 1.70 लाख पीपीई किटें आयी थीं और डीआरडीओ लैब में हुई उनकी जाँच में पाया गया कि इनमें से 50 हज़ार सुरक्षा के लिहाज़ से उचित नहीं पायी गयीं। इसके बाद इनके वितरण पर तत्काल प्रभाव से रोक लगानी पड़ी। और भी दिलचस्प यह है कि भारत की भी दो नामी कम्पनियों ने 40 हज़ार पीपीई किटें सरकार को उपलब्ध करायी  गयीं, लेकिन वो भी सुरक्षा जाँच में मापदंडों पर खरी नहीं उतरीं।

पीपीई किटों के अलावा सबसे ज़्यादा चिन्ता टेस्टिंग किटों ने पैदा की है। कई देश टेस्टिंग किटों को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं। चीन सफाई दे रहा है कि चीन से वही कीटें मँगवाई जाएँ, जो उसके द्वारा तय कम्पनियाँ बना रही हैं। हालाँकि, कई देशों ने चीन से किटें मँगवानी बन्द कर दी हैं।

दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल ने भी 20 अप्रैल को कहा कि दिल्ली में 186 ऐसे पॉजिटिव मामले आये हैं, इनमें से किसी भी मरीज़ में कोरोना वायरस का एक भी लक्षण नहीं था। ज़ाहिर है इन खबरों से चिन्ता बढ़ी है। क्योंकि जब किसी व्यक्ति में कोरोना वायरस के लक्षण ही नहीं होंगे, तो वह टेस्ट के लिए जाएगा भी क्यों? ऐसे में यदि वह सचमुच कोरोना वायरस से संक्रमित है, तो ज़ाहिर है कि वह अपने सम्पर्क में आने वाले अन्य लोगों को भी अनजाने में संक्रमित कर देगा।

फिलहाल यह ज़रूरी है कि टेस्टिंग किट को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाँच हो, ताकि टेस्टिंग किटों का सच सामने आ सके। यदि लोगों में टेस्टिंग किटों के दोषपूर्ण होने के कारण पॉजिटिव नतीजे आ रहे हैं, तो भी यह बहुत गम्भीर बात है।

मीडिया पर संकट

मुम्बई में 20 अप्रैल को 167 पत्रकारों की कोविड-19 की जाँच हुई। नतीजे चिंताजनक निकले, क्योंकि इनमें से 53 पत्रकार संक्रमित निकले। इसके बाद दिल्ली सरकार ने भी मीडियाकॢमयों की कोविड-19 की जाँच का फैसला किया। कुछ और राज्यों में भी कई पत्रकारों की जाँच रिपोर्ट पॉजिटिव आयी है। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस मामले को गम्भीरता से लेते हुए राज्य सचिवालय नबन्ना से दिये एक सम्बोधन में इस पर चिन्ता जतायी। उन्होंने कहा कि पत्रकार चौबीसों घंटे काम कर रहे हैं। उनके पास कोई सुरक्षा कवच नहीं है और न ही उनका वेतन अच्छा है। हम सभी मान्यता प्राप्त पत्रकारों को 10 लाख रुपये का बीमा कवर दे रहे हैं। निश्चित ही ममता बनर्जी ने यह बेहतर कदम उठाया है। लेकिन जब पत्रकार कोविड-19 को लेकर अपना फर्ज़ निभाने मैदान में उतरते हैं, तो और भी कई कठिनाइयाँ और चुनौतियाँ उनके सामने होती हैं।

कोरोना वायरस एक वैश्विक महामारी है। लेकिन स्वाभाविक रूप से यह स्थानीय भी है। विडम्बना यह है कि इस महामारी की खबरों की माँग बड़े पैमाने पर रही है। लेकिन मीडिया घरानों का राजस्व हाल के वर्षों के मुकाबले कम हो गया है। ज़ाहिर है कि इसके चलते मीडियाकॢमयों के वेतन भुगतान में देरी, छँटनी, वेतन में कटौती के अलावा कुछ केंद्रों को बन्द करने की खबरें भी हैं। कुछ अखबारों और पत्रिकाओं ने प्रिंट संस्करण बन्द करके ई-एडिशन शुरू किये हैं। प्रिंट मीडिया उद्योग, जो पहले से ही कठिन दौर में है; अब इस संकटकाल में विपरीत आॢथक प्रभावों के कारण अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है। अधिकांश मीडिया घराने इससे प्रभावित हैं। समय की माँग है कि केंद्र और राज्य सरकारें अग्रपंक्ति के इन योद्धाओं की मदद के लिए आगे आएँ। क्योंकि ये अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा दाँव पर लगाकर इस महामारी पर सच्ची, ज़रूरी जानकारी प्रदान कर समाज की सेवा कर रहे हैं।

मीडिया उद्योग के लिए अगले कुछ महीनों में सबसे बड़ा संकट नकदी प्रवाह का होने वाला है। आईएनएस अध्यक्ष शैलेश गुप्ता ने सूचना एवं प्रसारण सचिव रवि मित्तल को पत्र लिखकर उन्हें विज्ञापन राजस्व में संकट की स्थिति, भारी इनपुट लागत और अखबारी कागज़ के आयात शुल्क के चलते प्रिंट मीडिया के अस्तित्व के संकट की याद दिलायी है। गुप्ता ने कहा है कि इस स्थिति में अखबारों को पृष्ठों की संख्या कम करने के साथ-साथ साप्ताहिक पन्नों को मुख्य संस्करणों में जोडऩा पड़ा है। लेकिन इन उपायों के बावजूद अखबार हर दिन घाटा झेल रहे हैं। अपने पत्र में उन्होंने अखबार के कागज़ पर 5 फीसदी सीमा शुल्क हटाने, समाचार पत्रों के प्रतिष्ठानों के लिए दो साल तक टैक्स होली-डे, ब्यूरो ऑफ आउटरीच एंड कम्युनिकेशन (बीओसी) की विज्ञापन दर में 50 फीसदी की वृद्धि और प्रिंट मीडिया के लिए बजट खर्च में 100 फीसदी वृद्धि के अलावा बीओसी से विज्ञापन के सभी बकाया बिलों के तत्काल भुगतान करने की मज़बूत दलील रखी है। विडम्बना यह है कि जब उपभोक्ता भोजन, दूध और किराने के सामान जैसी आवश्यक वस्तुओं का पूर्ण भुगतान करते हैं, तो अखबारों के मामले में यह लागू क्यों नहीं होता? उपभोक्ता अखबारों की लागत का केवल एक हिस्सा ही अदा करते हैं और बाकी विज्ञापनों के माध्यम से आना होता है; जो अब बन्द हैं। यदि प्रिंट मीडिया संस्थान प्रकाशन को स्थगित करते हैं, तो इससे बड़ी संख्या में मीडियाकॢमयों, वेंडरों और हॉकरों का रोज़गार चला जाएगा। इसलिए समय की माँग है कि सरकार लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की मदद के लिए एक प्रोत्साहन पैकेज के साथ आगे आये।

खुशहाल देशों में अब 144वें नम्बर पर भारत

1991 के बाद से देश में आॢथक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ। सच यह भी है कि इस दौरान लोगों के लिए काम करने के अवसर उपलब्‍ध हुए और शहरों की ओर पलायन भी बढ़ा। इस बीच पिछले कुछेक वर्षों से सरकारें आँकड़ों के सहारे देश की अर्थ-व्यवस्था की बेहतर तस्वीर पेश करके अपना उल्लू सीधा करती रही हैं। आॢथक विकास के बड़े-बड़े दावे पेश किये जाने के आँकड़े अब धराशायी होते नज़र आने लगे हैं। तमाम सर्वे बताने लगते हैं कि भारत में तेज़ी से आॢथक विकास हो रहा है और देश में अरबपतियों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है; इस सबके बीच भारत लोग खुशहाल नहीं हैं, यह भी सच्चाई भी सामने आती है। पिछले दिनों जारी आँकड़े इसकी हकीकत को बयाँ कर रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र की ‘वल्र्ड हैपिनेस रिपोर्ट-2020’ में भारत को 144वाँ स्थान मिला है। पिछले वर्ष ही भारत 140वें पायदान पर था। उससे पहले यानी 2018 में 133वें और 2017 में 122वें पायदान पर था। सर्वे में कुल 156 देश शामिल हैं। यानी साल-दर-साल खुशहाल लोगों की तादाद में कमी हो रही है और खुशहाली का ग्राफ गिर रहा है। यह आँकड़े सोचने को मजबूर करते हैं कि हम कौन-सा आॢथक विकास कर रहे हैं? दु:खद यह है कि खुशहाली के मामले में हम तमाम विकसित और विकासशील देशों से ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान समेत तमाम छोटे-छोटे पड़ोसी देशों और युद्धग्रस्त फिलिस्तीन से भी पिछड़ चुके हैं।

संयुक्त राष्ट्र का ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन नेटवर्क’ सालाना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वे करके ‘वल्र्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ जारी करता है। इसमें अर्थशास्त्रियों की एक टीम समाज में सुशासन, प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, जीवित रहने की उम्र, दीर्घ जीवन की प्रत्याशा, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता, उदारता आदि पैमानों पर दुनिया के 156 देशों के नागरिकों को परखती है कि वे कितने खुश हैं। इस साल की रिपोर्ट में भारत उन चन्द देशों में से है, जो नीचे की तरफ खिसके हैं। कई बड़े देशों की तरह हमारे देश के नीति-नियामक भी आज तक इस हकीकत को गले नहीं उतार पाये हैं कि देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) या विकास दर बढ़ा लेने भर से हम एक खुशहाल समाज नहीं बन जाएँगे। यह तथ्य भी कम दिलचस्प नहीं है कि 66वें स्थान पर पाकिस्तान, 87वें स्थान पर मालदीव, 92वें स्थान पर नेपाल, 94वें स्थान पर चीन और 107वें स्थान पर रहे बांग्लादेश जैसे मुल्क कैसे हमसे ऊपर हैं? जिन पर खस्ताहाल और बदहाल होने का ठप्पा लगा रहता है।

श्रीलंका, म्यांमार और भूटान भी हमसे ज़्यादा खुशहाल हैं। सार्क देशों में सिर्फ अफगानिस्तान ही खुशमिज़ाजी के मामले में भारत से पीछे है। ध्यान देने वाली बात यह है कि आठ साल पहले यानी 2013 की रिपोर्ट में भारत 111वें नम्बर पर था। महज़ आॢथक समृद्धि ही किसी समाज में खुशहाली नहीं ला सकती। इसीलिए आॢथक समृद्धि के प्रतीक माने जाने वाले अमेरिका, ब्रिटेन और संयुक्त अरब अमीरात भी दुनिया के सबसे खुशहाल 10 देशों में अपनी जगह नहीं बना सके हैं।

फिनलैंड सबसे खुशहाल देश

फिनलैंड को दुनिया का सबसे खुशहाल देश बताया गया है। वह लगातार तीन साल से शीर्ष पर बना हुआ है। उससे पहले वह पाँचवें स्थान पर था। लेकिन एक साल में ही वह पाँचवें से पहले स्थान पर आ गया। यहाँ पर भ्रष्टाचार न के बराबर है और सामाजिक तौर पर प्रगतिशील है। उसकी पुलिस दुनिया में सबसे ज़्यादा साफ-सुथरी और भरोसेमंद है। यहाँ पर सभी के लिए मुफ्त इलाज खुशहाली की बड़ी वजहों में से एक है। फिनलैंड के बाद डेनमार्क, स्विट्जरलैंड, आइसलैंड, नार्वे, नीदरलैंड, स्वीडन, न्यूजीलैंड, आस्ट्रिया और लग्ज़मबर्ग हैं। इन देशों में प्रति व्यक्ति आय काफी ज़्यादा है। यानी भौतिक समृद्धि, आॢथक सुरक्षा और व्यक्ति की खुशी का सीधा रिश्ता है।

आसान नहीं होगा पटरी पर लौटना

लॉकडाउन के बाद से चौपट पड़े उद्योग धन्धों, कम्पनियों और व्यापारिक संस्थानों में से कुछ को केंद्र सरकार ने चलाने की अनुमति दे दी है। इन उद्योगों में ज़रूरी फूड प्रोसेसिंग, कोरियर सॢवस, बंदरगाह, आईटी हार्डवेयर मैन्युफैक्चरिंग, फार्मा इंडस्ट्री, खनन, बिजली उत्पादन, टेलीकॉम, जूट इंडस्ट्री, कार्गो मूवमेंट, पैकेजिंग मटीरियल, कृषि कार्य और मनरेगा आदि प्रमुख हैं। सरकार की इस अनुमति से परेशानियों से टूट चुके कामगार लोगों को भले ही एक उम्मीद जगी हो, लेकिन अभी उद्योगों, व्यापारिक संस्थानों और कम्पनियों के सुचारू रूप से चलने में काफी समय लग जाएगा। भले ही सरकार ने विश्वास दिलाया है कि उद्योगों के चलने की अनुमति देने से सब धीरे-धीरे ठीक हो जाएगा और देश की अर्थ-व्यवस्था धीरे-धीरे पटरी पर लौट आयेगी। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। इस पर अभी कई सवाल हैं, जिन पर विचार करने की ज़रूरत है। पहला सवाल तो यही है कि जब अभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट शुरू नहीं हुआ है, तो कैसे मान लिया जाए कि जिन उद्योगों को चलाने की अनुमति सरकार दे चुकी है, वे सुचारू रूप से चल पाएँगे? दूसरा सवाल यह है कि जब लोग घरों में कैद रहेंगे, तो इन उद्योगों और व्यापारिक संस्थानों में काम कौन करेगा? ये सवाल उठाने का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि सरकार लॉकडाउन खत्म कर दे और धीरे-धीरे थम रहे कोरोना वायरस के संक्रमण को लोग फिर से तेज़ी से आमंत्रण दे दें। बल्कि सवाल उठाने का मकसद सिर्फ यह बताना है कि सरकार ने जिन उद्योगों और व्यापारिक संस्थानों को चलाने की अनुमति दी है, उसमें काम करने वाले सभी लोगों की पहले कोरोना जाँच होनी चाहिए और उसके बाद उन्हें काम पर लाने और वापस घर भेजने की समुचित व्यवस्था कम्पनी या फैक्ट्री पर छोडऩी चाहिए, ताकि वे सुरक्षित रहकर काम कर सकें और संक्रमण न फैलने पाये। क्योंकि अब अगर संक्रमण फैला, तो उससे निपटना आसान नहीं होगा।

अनेक समस्याएँ

सरकार द्वारा कुछ उद्योग धन्धों को चलाने की अनुमति को लेकर विभिन्न संस्थानों के मालिक खुश भी हैं और हताश भी। इसके पीछे उनकी अनेक समस्याएँ हैं। सबसे पहली समस्या इन उद्योगों में काम करने वाले लोगों के आने की है। क्योंकि अभी सभी लोग घरों में हैं और पुलिस तथा कोरोना वायरस की चपेट में आने के डर से बाहर निकलने से कतरा रहे हैं। ऐसे में जब उद्योगों में कोई आयेगा ही नहीं, तो काम कौन करेगा? दूसरी समस्या यह है कि जिन संस्थानों को सरकार ने चलाने की अनुमति दी है, उनके मालिक खुद ही डरे हुए हैं। उनका कोई एक डर नहीं है। पहला डर तो यही है कि अब अगर वे अपने कर्मचारियों को बुलाते हैं, तो उनकी जाँच और उन्हें काम पर बुलाने के खर्चे बढ़ जाएँगे, क्योंकि कर्मचारियों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी इन उद्योगों के मालिकों की होगी। दूसरा, यह कि उत्पादन के लिए पर्याप्त माल मिलना एक साथ आसान नहीं होगा; जिससे उत्पादन प्रभावित होगा। तीसरा, अब कर्मचारियों को काम पर वापस लाना आसान नहीं होगा; क्योंकि कर्मचारी इस दहशत के माहौल में आने को राज़ी नहीं होंगे। चौथा, उत्पादनों की बाज़ार में बिक्री फिलहाल बहुत कम होगी। क्योंकि उपभोक्ताओं के बाज़ार से जुडऩे में अभी काफी समय लगेगा।

खपत के बड़े आधार की टूट चुकी है कमर

माना जा रहा है कि बाज़ार में उछाल आने में काफी समय लगेगा। इसका कारण यह है कि देश की बड़ी आबादी आॢथक रूप से काफी कमज़ोर हो चुकी है, इनमें सबसे बड़ा वर्ग मज़दूरों और अन्नदाता किसानों का है, जो कि बाज़ार की रीड़ की हड्डी होते हैं। भले ही यह लोग कम आमदनी वाले होते हैं, लेकिन इनके बिना उद्योग धन्धों को चलाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। इस बार तो किसानों पर दोहरी मार पड़ चुकी है। पहले बेमौसम बारिश ने खेती चौपट कर दी और इसी बीच लॉकडाउन के चलते फसलें नहीं उठ पा रही हैं। इतना ही नहीं, अब जिन किसानों पर सरकारी कर्ज़ है, लेबी पर उन्हें कर्ज़ का पैसा काटकर गेहूँ का भुगतान किया जा रहा है। ऐसे में किसानों की हालत और भी खराब होने वाली है। अगर किसानों की आॢथक स्थिति कमज़ोर होगी, तो बाज़ार की स्थिति अच्छी हो ही नहीं सकती।

जल्द नहीं उबरेंगे छोटे उद्योग

इस लॉकडाउन से आम आदमी की जो हालत हुई है, उससे यह तय है कि छोटे उद्योग धन्धे जल्दी नहीं उबरेंगे। क्योंकि लघु और मध्यम उद्योगों के अधिकांश उपभोक्ता निम्न और मध्यम वर्ग से आते हैं। इस बार दोनों ही वर्गों को बड़ा नुकसान हुआ है और कइयों के छोटे-मोटे धन्धे और रोज़गार खत्म हो गये हैं। ऐसे में छोटे उद्योगों पर इसका असर लम्बे समय तक रहेगा। हालाँकि बड़ी कम्पनियाँ और बड़े उद्योग भी एक साथ नहीं उबर पाएँगे। क्योंकि बड़े लोगों की आॢथक स्थिति भी आम लोगों पर टिकी होती है।

धीरे-धीरे पटरी पर लौटेगी अर्थ-व्यवस्था

जो भी हो, अगर संस्थान भी चलने लगेंगे, मगर अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने में लम्बा समय लगेगा। हालाँकि एक साथ न सही, तो धीरे-धीरे सही; पर देश की अर्थ-व्यवस्था पटरी पर लौटने ही लगेगी। कुछ उद्योगपतियों का मानना है कि उद्योगों को ठीक से चलने में अभी चार-छ: महीने तो लग ही जाएँगे। फिर बाज़ार के रुख पर भी उत्पादन और उद्योगों के चलने की गति निर्भर करेगी। हाल ही में इंडस्ट्री चैम्बर एसोचैम के महासिचव दीपक सूद ने एक मीडिया चैनल से कहा था कि अगर सब कुछ सही रहा, तो 30 से 40 फीसदी आॢथक गतिविधियाँ बहाल हो सकती हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि सरकार का फैसला स्वागत योग्य है, लेकिन अभी तो सरकार की प्राथमिकता कोरोना वायरस पर काबू पाना है।

सरकार के आदेश

कुछ उद्योगों को चलाने की अनुमति के साथ ही सरकार ने कुछ आदेश भी दिये हैं। इन आदेशों में कहा गया है कि सभी कामगार कृषि और मनरेगा के अतिरिक्त औद्योगिक गतिविधियों, मैन्युफैक्चङ्क्षरग, निर्माण आदि कार्यों को कर सकते हैं। लेकिन सरकार ने कामगारों की आवाजाही को लेकर कुछ दिशा-निर्देश भी जारी किये हैं। इन दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि मज़दूर और कर्मचारी जिस राज्य में हैं, उस राज्य में ही काम कर सकेंगे और फिलहाल उन्हें बाहर जाने की अनुमति नहीं होगी। लोग बसों में यात्रा के दौरान आपसी दूरी का ध्यान रखें। वहीं बसों को अच्छी तरह से साफ रखा जाना चाहिए। इसके साथ ही यात्रा के दौरान स्थानीय प्रशासन को मज़दूरों के खाने-पीने की व्यवस्था करनी होगी। किसी संस्थान के जो कर्मचारी अपने राज्य जा चुके हैं, वे वापस नहीं आ सकेंगे। उद्योग चाहे ग्रामीण क्षेत्र में हो या फिर शहर में सरकार के दिशा-निर्देशों और आदेशों का सभी को पालन करना होगा। अगर कोई ऐसा नहीं करेगा, तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।

लम्बे समय तक नहीं लौटेगी बाज़ारों की रौनक

यह हो सकता है कि चार-छ: महीने में कम्पनियाँ और उद्योग धन्धे ठीक से चलने लगें, मगर बाज़ारों की रौनक जल्दी नहीं लौटने वाली। ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि आम उपभोक्ता का हाथ तंग हो चुका है। ऐसे में बाज़ारों की बिक्री पर लम्बे समय तक असर रहेगा। इससे वस्तुओं की खपत कम होगी और अगर खपत कम होगी, तो उत्पादन घटाना पड़ेगा। इससे अर्थ-व्यवस्था को भी पटरी पर लौटने में लम्बा समय लग जाएगा। बाज़ार छोटा हो या बड़ा, उस पर देश की अर्थ-व्यवस्था निर्भर करती है। क्योंकि बड़ी मात्रा में पैसे का लेन-देन बाज़ारों के माध्यम से ही होता है। जहाँ कोई भी उपभोक्ता हर खरीद पर किसी-न-किसी रूप में टैक्स देता है, जो देश की अर्थ-व्यवस्था का सबसे बड़ा माध्यम है।

तालाबन्द घरेलू हिंसा

लॉकडाउन का मूल मकसद सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंस) की अनिवार्यता है। कोरोना वायरस से बचाव के लिए फिलहाल इसका पूरे ज़ोर-शोर से पालन हो रहा है। ऐसे में इस लॉकडाउन के दौरान परिवार के सभी सदस्य लगभग एक महीने से कमोबेश साथ-साथ ही हैं। बिना किसी काम या अनुमति के चूँकि घर से बाहर निकलना कानूनन गलत है और पुलिसिया कार्रवाई भी हो रही है। अक्सर देखा जाता है कि जब आदमी के पास काम न हो और रोज़गार आदि पर भी संकट मँडरा रहा हो, तब घरेलू कलह और हिंसा में बढ़ोतरी हो जाती है। तो क्या लॉकडाउन के समय में भी सामान्य दिनों के मुकाबले घरेलू हिंसा की घटनाएँ घट रही हैं या फिर इनका विस्तार हो रहा है?

लॉकडाउन अवधि के दौरान पंजाब, हरियाणा और पड़ोसी राज्य राजस्थान में मिली शिकायतों के आधार पर कहा जा सकता है कि शिकायतों की संख्या कम हुई है; लेकिन घटनाएँ कम हुई हैं, इस बारे में नहीं कहा जा सकता। ये शिकायतें ईमेल, फोन या अन्य माध्यमों से आयोग तक पहुँच रही हैं। सामान्य दिनों मेें पीडि़त पक्ष सीधे तौर पर आयोग तक पहुँच करता है।

अभी शिकायतों की स्थिति जस-की-तस है, क्योंकि मौज़ूदा हालात में कार्रवाई सम्भव नहीं है। हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष प्रतिभा सुमन के मुताबिक, सामान्य दिनों में राज्य में औसत तौर पर 200 से 250 शिकायतें आती हैं। मौज़ूदा स्थिति में संख्या में कमी हुई है, लेकिन इसकी वजह घटनाओं में कमी को नहीं, बल्कि पहुँच न सकने की विवशता हो सकती है। गम्भीर तरह के मामलों को सम्बन्धित उच्चाधिकारियों के पास भेजा जाता है और ऐसा हो भी रहा है। बाकी शिकायतों के बारे में कामकाज की स्थिति सामान्य होने पर संज्ञान लिया जाएगा।

पंजाब में भी कमोबश ऐसी ही स्थिति है, लेकिन वहाँ संख्या हरियाणा की अपेक्षाकृत कुछ ज़्यादा है। पंजाब महिला आयोग की अध्यक्ष मनीषा गुलाटी की राय में शिकायतों का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। स्थिति के मुताबिक संख्या में कमी आ सकती है, लेकिन हालात तो वही हैं। वैसे चौबीसों घंटे साथ रहने की स्थिति बिल्कुल अलग है। ऐसा कभी हुआ नहीं था और न ही इसके बारे में किसी ने कल्पना की होगी। जहाँ पहले से ही घरेलू हिंसा की ज़मीन तैयार थी, वहाँ स्थिति अब भी कमोबेश वैसी ही होगी। मजबूरी के चलते साथ-साथ, लेकिन अलग की मनोवृत्ति कहीं-न-कहीं खुन्नस के रूप में उभरती है।

देश में घरेलू हिंसा की घटनाएँ तेज़ी से बढ़ रही है। इसकी वजह महिला आयोगों की स्थापना और सशक्तिकरण होना है। जागरूकता की कमी और मामले सार्वजनिक होने के डर से कई शिकायतें बाहर नहीं आती। ऐसे मामलों का नतीजा घुट-घुटकर किसी तरह ज़िन्दगी बिता देना या फिर कोई आत्मघाती कदम उठाने तक रह जाता है। दहेज प्रताडऩा से लेकर यौन उत्पीडऩ या फिर छिटपुट विवाद का बड़ा मसला बन जाने जैसे कई कारक हैं।

मनोविज्ञान कहता है कि लम्बे समय तक साथ रहने से छोटे-मोटे विवाद दूर होने की ज़्यादा सम्भावना है। इस दौरान संवाद की गुंज़ाइश बहुत ज़्यादा होती है। पूरा समय रहता है, जिससे मुद्दे की तह तक पहुँचना ज़्यादा आसान होता है। सामान्य दिनों में ऐसा नहीं हो पाता। ज़रा की बात पर छोटा विवाद बड़ा हो जाता है और एक पक्ष घर से बाहर चले जाने पर विवश हो जाएगा। लॉकडाउन में ऐसा सम्भव नहीं है। लिहाज़ा हल की उम्मीद कुछ ज़्यादा बढ़ जाती है। इसके दूसरे पहलू पर विचार करना भी ज़रूरी होगा। अगर विवाद ज़्यादा बढ़ गया तो क्या हो? चूँकि अब बाहर जाना सम्भव नहीं, फिर लम्बे समय तक के लिए तो सोचा भी नहीं जा सकता। सामान्य दिनों में परिवार के सभी सदस्य हर समय साथ नहीं होते लिहाज़ा कोई मध्यस्थता नहीं करता। मौज़ूदा स्थिति में यह सम्भव है। निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि लॉकडाउन की विशेष अवधि में मामलों में कमी आने का यह भी एक कारण हो सकता है। इसे स्थायी हल नहीं कहा जा सकता है, लेकिन हालातों को देखते हुए यह राहत भरा कदम तो है।

कल्पना (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि उन्हें पति से कई मुद्दों पर गम्भीर गिला शिकवा है। छिटपुट मुद्दों पर हाथ उठाने की प्रवृत्ति से तंग हूँ। गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह चला रही हूँ, लेकिन कब तक इसे नहीं जानती। ससुराल वाले भी मेरी बातों से ज़्यादा उनके कहे पर भरोसा करते हैं। दोनों पक्षों की कई बार पंचायत हो चुकी है, लेकिन स्थिति में कमोबेश कोई सुधार नहीं है। अब बच्चे बड़े हो रहे हैं। मामला सार्वजनिक होने और सामाजिक बदनामी के डर से कभी कहीं शिकायत नहीं की।

वैसे इस समस्या का स्थायी हल भी नहीं है। आपसी विवादों को मिल बैठकर बिना किसी पूर्वाग्रह के दूर किया जा सकता है। लॉकडाउन ने शायद इसकी भूमिका तैयार कर दी है। पिछले 20 से ज़्यादा हो गये, हम लोग साथ-साथ हैं। इस दौरान किसी मुद्दे पर बहस तक नहीं हुई। पुराना कोई विवाद उभरा नहीं, अगर कोई सामने आया तो भी उसे ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया। घरों में बन्द रहने की यह बेबसी उनके लिए तो एक मायने में ठीक ही है, क्योंकि इससे रिश्तों में आयी दरार कुछ हद तक पाटी जा सकी है। घरों में बन्द रहने की मजबूरी के चलते हर किसी की िकस्मत शायद कल्पना जैसी न हो।

लॉकडाउन की अवधि में घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों में कमी आनी चाहिए। इसके लिए बहुत से कारण है। इस दौरान परिवार के सभी सदस्य साथ हैं। अगर बात करें संयुक्त परिवार की तो फिर स्थिति में सुधार की गुंजाइश और भी ज़्यादा है। बड़े बुजुर्ग किसी भी छोटे-मोटे विवाद को दूर करने में अहम भूमिका निभा सकता हैं। सामान्य दिनों के मुकाबले अब स्थिति कुछ अलग है। हर व्यक्ति कोरोना वायरस से भयभीत है। अन्य देशों से मौत के भयावह आँकड़ों से सिहरन-सी दौड़ जाती है। ज़िन्दगी बहुत ही छोटी-सी लगने लगती है। वायरस के डर से मौत के बाद शव न लेने जैसी घटनाओं ने एक वर्ग को ज़िन्दगी के प्रति नज़रिया बदलने पर विवश-सा कर दिया है।

यह सब स्थायी तो नहीं है। सम्भव है महामारी निकलने के बाद फिर से वैसे ही हालात होने लगें। लेकिन यह तय है कि इसने बहुसंख्यक वर्ग की सोच को बदल दिया है। ऐसे में घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों की संख्या बढऩे के मुकाबले उनमें कमी आने की सम्भावना ज़्यादा प्रतीत होती है। हरियाणा में लगभग एक माह के दौरान 100 से भी कम शिकायतें आयी हैं। यह संख्या सामान्य के मुकाबले आधे से भी कम है। इनमें भी ज़्यादातर मामले गम्भीर प्रवृत्ति के नहीं है। इसलिए उन्हें हल करना आसान माना जा सकता है।

राजस्थान राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष सुमन शर्मा का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा की घटनाओं के कम या ज़्यादा होने का अभी कोई पैमाना नहीं है। आयोग के पास सामान्य दिनों में 10 से 12 शिकायतें आती थीं। महीने का औसत 300 या इससे ज़्यादा होता था। शिकायतों में लगभग हर तरह के मामले सामने आते हैं, जिनमें कुछेक गम्भीर होते हैं।

राजस्थान कोराना से बहुत ज़्यादा प्रभावित है। हर व्यक्ति मौत से सहमा हुआ है, ऐसे में घरेलू हिंसा का होना भी अपने में बड़ा सवाल है। मौज़ूदा हालात में आयोग के पास बहुत कम शिकायतें आयी हैं। सरकारी कर्मचारी और अधिकारी शासन के हिसाब से काम कर रहे हैं। ईमेल और फोन के माध्यम से बहुत कम शिकायतें आयी हैं, इनमें कुछेक तो लड़ाई झगड़े आदि की हैं, जिन्हें स्थिति सामान्य होने के बाद देखा जाएगा। वैसे अभी का समय घरेलू हिंसा को अंजाम देने की बजाय अपनी और अपनों की जान की सुरक्षा में लगने का है।

पहले महामारी की मार से तो बचा जाए, उसके बाद ही कुछ सोचा जा सकता है। इसे लोग भी अच्छी तरह से समझ रहे हैं। संयुक्त तौर पर साथ रहने से कई तरह के विवाद दूर हो सकते हैं। क्योंकि अभी पुलिस बल लोगों की निगरानी में लगा है। ऐसी कल्पना शायद किसी ने नहीं की होगी कि घर की चहारदीवारी के भीतर इतने लम्बे समय तक पूरे परिवार को साथ रहना होगा। अभी कुछ कहना मुश्किल है यह अवधि कितनी होगी।

मौज़ूदा हालात में घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों में की इस कमी को कैसे देखा जाएगा? यह तो स्थिति के सामान्य होने पर फिर से ज़िन्दगी के ढर्रे पर आने के बाद ही पता चल सकेगा।

लॉकडाउन और नुकसान के तनाव में हिंसा

कोरोना वायरस (कोविड-19) के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए विश्व के अधिकांश मुल्कों ने लॉकडाउन यानी तालाबन्दी की रणनीति अपनायी है। कहा जाने लगा कि अब इस हालात में घर-परिवार के सब लोग एक साथ रहेंगे, तो क्वालटी वक्त एक साथ गुज़ारेंगे; अच्छी फिल्में देखेंगे; संगीत सुनेंगे; इनडोर गेम्स खेलेंगे; अच्छी किताबें पढ़ेंगे और एक-दूसरे को खुशनुमा माहौल में वक्त देंगे।

इस लॉकडाउन की टैगलाइन है- ‘घर में रहें, सुरक्षित रहें।’ हर पल टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर यही संदेश सरकार सुना रही है और निजी कम्पनियाँ भी अपने उत्पादनों के विज्ञापनों के ज़रिए इसी सरकारी संदेश का प्रसार-प्रचार कर रही हैं। लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या लॉकडाउन में महिलाएँ पुरुषों की तरह ही महफूज़ हैं? क्या लॉकडाउन में घरों में ही रहने वाला सरकारी निर्देश घरों के भीतर महिलाओं और पुरुषों को बराबरी के सुरक्षित माहौल की गारंटी देता है? कोरोना वायरस के मद्देनज़र लगाये जाने वाले लॉकडाउन में सिर्फ इस वायरस से बचाव, सुरक्षित रहने वाले बिन्दु को ही ध्यान में रखा गया, लेकिन महिलाओं को वायरस से सुरक्षित रखने के साथ-साथ हिंसा, खासकर घरेलू हिंसा से भी बचाने की ज़रूरत होती है, लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है।

लॉकडाउन के दौरान दुनिया भर में महिलाओं के खिलाफ होने वाली घरेलू हिंसा की घटनाओं में वृद्धि वाली खबरों के मद्देनज़र संयुक्त राष्ट्र ने भी चिन्ता जतायी है। इसी लॉकडाउन के बीच पति-पत्नी के झगडऩे, मार-पीट वाली खबरें परेशान करने वाली हैं। बात भारत से ही शुरू करते हैं। देश में कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने के मद्देनज़र फिलहाल 3 मई तक लॉकडाउन है। आवागमन के सभी साधन बन्द हैं। लोगों के संसाधन बन्द हैं। अधिकतर लोगों की आमदनी खत्म हो गयी है। लाखों लोगों की नौकरी पर संकट है। ऐसे में लोग तनाव में आने लगे हैं। कई जगह से आत्महत्या और भूख से मरने के भी मामले सामने आए हैं। कुल मिलाकर इन सब प्रतिक्रियाओं का एक मात्र कारण है तनाव, जो कि कोरोना वायरस के चलते लगे लॉकडाउन से बहुत अधिक बढ़ गया है।

तनाव के बीच हिंसक वारदात

इन दिनों लॉकडाउन के चलते हो रहीं अनेक ङ्क्षहसक वारदात सामने आ रही हैं। हाल ही में लॉकडाउन में फँसी एक महिला जब अपने पति के कहने पर भी ससुराल नहीं लौट पायी, तो उसके गुस्साये पति ने अपनी प्रेमिका से विवाह कर लिया। यह वारदात बिहार के एक गाँव की है। हरियाणा राज्य के हिसार में हरियाणा पुलिस के एक गनमैन ने पत्नी के साथ किसी बात को लेकर हुए झगड़े में अपना आपा खो दिया और पत्नी की चटनी कूटने वाले सोटे से हत्या कर दी। हाल ही में मध्य प्रदेश के दमोह में एक रूह कँपा देने वाले वारदात सामने आयी। यहाँ छ: साल की बच्ची के साथ दो युवकों ने दुष्कर्म किया और उसके बाद मासूम की आँखें फोड़ दीं।

भारत के राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक, 23 मार्च से 16 अप्रैल तक 587 शिकायतें आयीं। इनमें 239 घरेलू हिंसा से जुड़ी हुई हैं। आयोग का दावा है कि ऐसे मामलों में बहुत इज़ाफा हुआ है। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा का कहना है कि घरेलू हिंसा के इतने अधिक मामलों के पीछे एक प्रमुख वजह कोरोना वायरस के कारण लगाया हुआ लॉकडाउन हो सकता है। क्योंकि लॉकडाउन के चलते हालात ऐसे बन गये हैं कि परिवार बिना काम के एक जगह लगातार रहने को विवश हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि हालात ऐसे ही हैं। मगर महिलाओं पर अत्याचार बढ़ रहे हैं। ऐसे में घरेलू हिंसा की शिकार महिलाएँ हिंसा से बचने के लिए पड़ोसी के यहाँ भी नहीं जा सकतीं। क्योंकि पड़ोसी भी कोरोना वायरस के डर से मदद करने से हिचकिचाते हैं।

आवागमन के सभी साधन बन्द होने के चलते पीडि़त महिलाएँ न तो नज़दीकी अथवा दूर के रिश्तेदारों के यहाँ जा सकती हैं। जहाँ तक पुलिस की मदद का सवाल है, तो इस महामारी के लॉकडाउन के वक्त पुलिस लॉकडाउन का पालन कराने, सील किये गये हॉटस्पाट स्थानों की निगरानी करने, अस्पतालों और क्वारंटीन केंद्रों की निगरानी करने आदि में व्यस्त है।

विश्व में हिंसक घटनाएँ और सरकारों के प्रयास

ऐसे में भारत ही नहीं, बल्कि यूरोप के कई मुल्कों में भी इस तरह की घटनाओं पर नज़र डालना ज़रूरी हो जाता है। क्योंकि इन घटनाओं के दस्तावेज़ीकरण से बाद में विश्लेषण करने में मदद मिलेगी।

ऑस्ट्रेलिया में 75 फीसदी ऑनलाइन सर्च घरेलू हिंसा को लेकर हुईं। आस्ट्रेलिया के राज्य न्यू साउथ में लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामले 40 फीसदी बढ़ गये हैं। ऐसे हालात में यहाँ की सरकार ने 15 करोड़ डॉलर का बजटट महज़ घरेलू हिंसा के मामलों से निपटने के लिए रखा है। चीन के वुहान शहर में लॉकडाउन के दौरान 03 फीसदी ज़्यादा घरेलू हिंसा के मामले दर्ज किये गये थे। फ्रांस में घरेलू हिंसा के 32 फीसदी और इसकी राजधानी पेरिस में 36 फीसदी ऐसे मामलों में वृद्धि दर्ज की गयी। फ्रांस ने ऐसे हालात में घरेलू हिंसा के मामलों की जानकारी पर संज्ञान लेते हुए उनकी संख्या में वृद्धि का पूर्वानुमान लगाकर घरेलू हिंसा के पीडि़तों के लिए 20 हज़ार होटल के कमरों का खर्चा देने का ऐलान कर दिया था।

यही नहीं, फ्रांस ने यह भी ऐलान किया कि फ्रांस सरकार घरेलू हिंसा के पीडि़तों के लिए काम करने वाले संगठनों के ज़रिये सुपर मार्केट और फार्मेसी की दुकानों पर सहायता प्वांइट गठित करने के लिए 10 लाख डॉलर की राशि भी मुहैया करायेगी। तुर्की में भी घरेलू हिंसा के मामलों में 40 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है।

घरेलू हिंसा के कारण

हिंसा के मामलों की वृद्धि के पीछे दुनिया भर में कई कारण बताये जा रहे हैं। संकट का दौर चाहे किसी भी तरह का हो, महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा बढऩे वाले साक्ष्य उपलब्ध हैं। कोरोना वायरस चीन में वर्ष 2019 के आिखर में आया और वहाँ से यह वायरस स्पेन, इटली, फ्रांस, ब्रिटेन, जापान, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका और भारत के अलावा दुनिया के अनेक देशों में फैलता गया, जिससे आज सभी पीडि़त हैं।

गौर करने वाली बात यह है कि जहाँ-जहाँ यह वायरस फैल रहा है, वहाँ-वहाँ घरेलू हिंसा की घटनाओं में भी वृद्धि हो रही है। वायरस के प्रसार के साथ-साथ घरेलू हिंसा में प्रसार के मद्देनज़र संयुक्त राष्ट्र ने इसे शेडो पैन्डेमिक यानी छाया महामारी कहा है। गौर करने वाली बात यह है कि लॉकडाउन के वक्त अनेक लोगों ने कहा था कि सिर्फ घर तक ही सीमित रहने से उन महिलाओं की दिक्कतें बढ़ जाएँगी, जो पहले से ही घरेलू हिंसा की शिकार हैं। उनके लिए अत्याचार करने वाले पति के साथ 24 घंटे साथ रहना हालात को बद से बदतर ही बनायेगा।

यूरोप के साक्ष्य बताते हैं कि जब भी परिवार एक साथ अधिक वक्त बिताते हैं, तब-तब घरेलू हिंसा बढ़ती है। घरेलू हिंसा की परिभाषा में केवल शरीरिक हिंसा ही नहीं, बल्कि मानसिक व भावात्मक हिंसा भी शमिल है। ब्रिटिश अध्ययन दर्शाते हैं कि ब्रिटेन में घरेलू हिंसा के पीडि़तों में गम्भीर मानसिक बीमारियों के पनपने की सम्भावना तीन गुना अधिक रहती है। देखा जाए तो घरेलू हिंसा एक जारी रहने वाला अपराध है। इस अपराध की प्रवृत्ति कभी दृश्य, तो कभी अदृश्य रूप से पनपती है।

दिल्ली सरकार की पहल

घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि के मद्देनज़र दिल्ली सरकार के अधीन दिल्ली विवाद निपटारा समिति ने 1800117282 टोल फ्री हेल्पलाइन नम्बर जारी किया है। सरकार के अंतर्गत चलने वाली यह समिति मध्यस्था के ज़रिये समस्या का समाधान कर रही है। मनमुटाव के मामलों में समय पर की गयी मध्यस्था मददगार साबित हो सकती है। इसी के मद्देनज़र यह सेवा उपलब्ध करायी जा रही है। दिल्ली महिला आयोग ने लॉकडाउन के चलते हाल ही में घरेलू हिंसा की घटनाओं के लिए एक व्हाट्स एप हेल्पलाइन शुरू की है। इसमें पीडि़त महिलाएँ 9350181181 नम्बर पर मैसेज करके शिकायत भेज सकती हैं। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल का कहना है कि लैंडलाइन हेल्पलाइन नम्बर 181 के ज़रिये महिलाएँ लॉकडाउन के चलते अपनी शिकायतें ज़्यादा दर्ज नहीं करा पा रही हैं। इसका कारण यह है कि लैंडलाइन पर पीडि़ता के लिए बात करना आसान नहीं हैं; क्योंकि आरोपी भी पीडि़त के आस-पास ही रहता है। दिल्ली महिला आयोग का दावा है कि व्हाट्स एप नम्बर पर ही शिकायत मिलने के बाद आयोग चैट के ज़रिये ही उन्हें काउंसिलिंग भी दे रहा है।

राष्ट्रीय महिला आयोग की पहल

राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी लॉकडाउन में घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि को देखते हुए एक व्हाट्स एप नम्बर- 7217735372 जारी किया है और स्पष्ट किया है कि यह नम्बर आपातकालीन नम्बर है, जिसका इस्तेमाल वे महिलाएँ कर सकती हैं, जो इन दिनों घरेलू हिंसा का सामना कर रही हैं। इसके साथ आयोग यह भी साफ कर दिया कि शिकायत दर्ज कराने वाले ऑनलाइन लिंक्स व ईमेल भी पहले की तरह काम करते रहेंगे। यानी पीडि़त महिलाएँ उनका भी इस्तेमाल कर सकती हैं। देश में लॉकडाउन के दौरान होने वाली घरेलू हिंसा के वास्तविक मामलों की संख्या क्या सामने आयेगी? इस बारे में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा की कहना है कि लॉकडाउन के बीच उन्हें घरेलू हिंसा वाली शिकायतें अधिकतर ईमेल से ही मिल रही हैं। आयोग में अक्सर महिलाएँ पोस्ट के ज़रिये अपनी शिकायतें भेजती हैैं। लिहाज़ा आयोग को भी लाकॅडाउन के खत्म होने के बाद ही वास्तविक स्थिति का पता चलेगा।

सरकार की उदासीनता

एक सवाल यह भी उठता है कि क्या भारत ने लॉकडाउन में घरेलू हिंसा की वारदात रोकने और पीडि़तों के संरक्षण के लिए कोई योजना समय रहते बनायी? सम्भवत: इसका जवाब हैं- नहीं। राष्ट्रीय महिला आयोग के देरी से उठाये गये कदम यही कह रहे हैं। केंद्र सरकार ने भी कोविड-19 महामारी से प्रभावित गरीबों, मज़दूरों के लिए तो आॢथक राहत का ऐलान किया, लेकिन घरेलू हिंसा के लिए कोई भी खास पैकेज नहीं दिया। इस पर एनी राजा की टिप्पणी- ‘दरअसल भारत सरकार ने भी लॉकडाउन की घोषणा करने से पहले कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने वाली तैयारियों और लॉकडाउन के आॢथक पहलुओं पर तो आपस में चर्चा की होगी, लेकिन लॉकडाउन से पारिवारिक जीवन, दाम्पत्य रिश्तों में क्या समस्याएँ पैदा होगीं?  इस पहलू पर सोचा ही नहीं होगा। यह कहा जाए कि सरकार इस मुद्दे से अनजान थी।’

लॉकडाउन से सरकारों को सीख

केंद्र सरकार और राज्य सरकारें लॉकडाउन से बहुत कुछ सीख रही हैं। जैसे कोविड-19 ने केंद्र और राज्य सरकारों को पीपीई, वेंटीलेटर, आईसीयू बेड की संख्या बढ़ाने को विवश कर दिया। भविष्य में प्रवासी मज़दूरों के झुंड पलायन वाली समस्या पैदा नहीं हो, इस बाबत भी सरकारें काम करेंगी। इसी तरह ऐसे हालात पैदा होने पर सम्भवत: घरेलू हिंसा को लेकर भी अग्रिम तैयारी दिखे। दरअसल केवल मंत्रालय, सरकारी अधिकारी ही लॉकडाउन से पैदा हुई विभिन्न दिक्कतों से सबक नहीं ले रहे हैं, बल्कि गैर-सरकारी संगठन व स्वैच्छिक कार्यकर्ता भी बहुत कुछ सीख रहे हैं। और इस सबक को वे अपनी रणनीतियों में शमिल करेंगे।

संयुक्त राष्ट्र संघ की चिन्ता

कोविड-19 के वैश्विक संकट के दौर में घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि को संयुक्त राष्ट्र संघ ने बहुत गम्भीरता से लिया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने कहा कि दुनिया में कोरोना वायरस के लगातार बढ़ते हुए संक्रमण का महिलाओं की सामाजिक और आॢथक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव बढ़ा है, जिसके चलते उनके प्रति मौज़ूद सामाजिक असमानता काफी बढ़ी है। महासचिव ने यह भी कहा कि इस महामारी के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य से लेकर उनकी आॢथक स्थिति और सामाजिक सुरक्षा पर भी बुरा असर पड़ा है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा भी बहुत बढ़ गयी है। उन्होंने कहा कि कोविड-19 के खिलाफ जुटी हुई महिलाओं और उनसे जुड़े हुए संगठनों की भूमिका के महत्त्व को समझना होगा। महिलाओं के भविष्य को केंद्र में रखकर सामाजिक एवं आॢथक नीतियाँ बनायी जानी चाहिए; जिनका परिणाम बेहतर होगा और सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी। कोविड-19 ने अंतर्राष्ट्रीय फलक पर घरेलू हिंसा को एक गम्भीर मुद्दे के रूप में फिर से चर्चा में ला दिया है।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ

नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडिया की महासाचिव एनी राजा कहती हैं कि लॉकडाउन के कारण घर में पति-पत्नी, बच्चे और बुजुर्ग 24 घंटे एक साथ रह रहे हैं। इससे एक-दूसरे के हर काम पर नज़र रखने या एक-दूसरे से ऊब जाने की स्थितियाँ पैदा हुई हैं, जिसके चलते घरेलू हिंसा बढ़ी है। इसके अलावा लॉकडाउन ने अर्थ-व्यवस्था पर गहरी चोट पहुँचायी है। मर्द इस कारण भी परेशान हैं कि आने वाले दिनों में क्या होगा? घर कैसे चलेगा? शराब पीने के आदी मर्दों को शराब पीने को नहीं मिल रही है और छोटे घरों में सभी सदस्यों के एक साथ रहने के चलते वे अपनी यौन इच्छाओं की पूर्ति में खलल पडऩे से भी परेशान होंगे। ऐसे में घरों में, खासकर छोटे घरों में निजता (प्राइवेसी) की समस्या इन दिनों विशेष तौर पर लड़ाई-झगड़े बढ़ा रही है।

कोरोना वायरस के चक्कर में नहीं हो रहा दूसरे मरीज़ों का इलाज

कई बार शासन-प्रशासन से जुड़े लोग पद के घमंड में मानवीय संवेदनाओं को ऐसे भूल जाते हैं कि उन्हें अपनी इस बड़ी भूल का अहसास ही नहीं रहता। ऐसा ही आजकल केंद्र व राज्य सरकारों में बैठे अफसर, कर्मचारी कर रहे हैं। सरकार भी कोविड-19 के मरीज़ों के अलावा बाकी रोगों से पीडि़त मरीज़ों की ओर ध्यान नहीं दे रही। इनमें अनेक मरीज़ ऐसे हैं, जिनको तत्काल इलाज की सख्त ज़रूरत है। यही वजह है कि सरकार के इस रवैये और पुलिस के डर से देश भर के हज़ारों मरीज़ इलाज के अभाव में मरने को मजबूर हैं।

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली व पंजाब के मरीज़ों के परिजनों ने बताया कि निजी स्वास्थ्य सेवाएँ बन्द हैं और सरकारी अस्पतालों में अधिकतर कोरोना वायरस के मरीज़ों का ही इलाज हो रहा है। ऐसे में टीबी, कैंसर, लीवर, किडनी, न्यूरो और नेत्रों के रोगी इलाज से वंचित हैं। अस्पतालों में उनकी कोई सुनवाई भी नहीं हो रही है। दिल्ली में देश भर से, खासकर उत्तर भारत से मरीज़ इलाज कराने को आते हैं। मगर 22 मार्च से देश की स्वास्थ्य सेवाएँ प्रभावित होने से उन्हें अपनी ज़िन्दगी बचाने के लाले पड़े हैं। यूपी के कुलपहाड़ निवासी सूरज कुशवाहा और झांसी के चुरारा गाँव निवासी अन्नू सरकार से पूछते हैं कि क्या सिर्फ कोरोना वायरस के मरीज़ों को इलाज की ज़रूरत है, अन्य रोगों से पीडि़तों को नहीं? सूरज को किडनी की परेशानी के अलावा मधुमेह और अन्य कई रोग हैं। उनका इलाज दिल्ली के एम्स में चल रहा था, जो कि अब नहीं हो पा रहा है। इसकी वजह लॉकडाउन के साथ-साथ सरकारी अस्पतालों में ओपीडी सेवा का बन्द होना है। इसी तरह अन्नू का एम्स में ऑपरेशन 23 अप्रैल को होना था, पर लॉकडाउन के चलते नहीं हो सका। उनका कहना है कि सरकार को कोरोना के अलावा अन्य मरीज़ों के लिए भी अलग से चिकित्सा सेवाओं की व्यवस्था करनी थी, पर ऐसा नहीं हो रहा है, जिससे मरीज़ ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। एम्स तो छोड़ो, मरीज़ पुलिस के डर से ज़िला स्तरीय अस्पतालों तक में इलाज को नहीं जा रहे हैं।

मध्य प्रदेश के दमोह ज़िले के बेनीदास का कहना है कि उनका न्यूरो सम्बन्धी रोग का इलाज दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में चल रहा है। उन्हें महीने में एक बार स्वास्थ्य जाँच की ज़रूरत होती है, पर लॉकडाउन के चलते वह इलाज से वंचित हैं। लेकिन वह इसके लिए सरकारी सिस्टम को दोषी मानते हैं।  छतरपुर के धीरज कुमार का कहना है कि वह मुँह के कैंसर से पीडि़त हैं। उनका वर्षों से मुम्बई के टाटा मेमोरियल अस्पताल में इलाज चल रहा है, जहाँ उनकी नियमित कीमोथैरेपी होती है, जो कि बहुत ज़रूरी है। पर लॉकडाउन के चलते वह रुकी हुई है। उन्होंने सरकार से अपील की है कि कोरोना वायरस के अतिरिक्त उन मरीज़ों की सुध ले, जो दूसरी बीमारी के इलाज के अभाव में तड़प रहे हैं। अलवर (राजस्थान) के एस. कुमार ने बताया कि उनके परिजन एम्स में नौकरी करते हैं। इस लिहाज़ से राजस्थान के गरीबों का एम्स में बड़ी आसानी से उपचार हो जाता है। राजस्थान के अनेक मरीज़, जो गम्भीर रोगों से पीडि़त हैं; लॉकडाउन खुलने के इंतज़ार में बेठे हैं; ताकि इलाज़ करवा सकें। एस. कुमार ने कहा कि अगर सरकार लॉकडाउन में दूसरे गम्भीर मरीज़ों को विशेष सुविधाएँ नहीं देगी, तो उनका जीवन जा सकता है। हरियाणा और पंजाब से भी ज़्यादातर मरीज़ दिल्ली के एम्स में या गुरुग्राम के प्रमुख अस्पतालों में इलाज के लिए आते हैं। उनका इलाज तो हो रहा है, लेकिन वे पुलिस के तांडव से परेशान हैं। पंजाब के भरत कपूर कहते हैं कि उनके परिजन का इलाज गुरुग्राम के एक बड़े अस्पताल में करीब दो माह से चल रहा है। ऐसे में उन्हें दिल्ली सहित अन्य जगहों पर आना-जाना पड़ता है, पर अस्पताल का पास दिखाने पर पुलिस उन्हें परेशान और बेइ•ज़त करती है। दिल्ली के मयूर विहार निवासी मोहन बिष्ट की कहानी भी काफी दु:ख भरी है। 17 और 18 मार्च को उनके सीने में तेज़ दर्द उठा। सफदरजंग अस्पताल में उन्होंने जाँच भी करवाई थी। डाक्टरों 22 मार्च को उन्हें भर्ती करने को कहा था। लेकिन तभी लॉकडाउन होने के चलते वे घर में इलाज के लिए तड़प रहे हैं। क्योंकि सफदरजंग अस्पताल में कोरोना वायरस के मरीज़ो का ही इलाज चल रहा है। जब देश में चिकित्सा विस्तार का ङ्क्षढढोरा पीटा जा रहा था, तब चिकित्सा से जुड़े लोगों दावा कर रहे थे कि देश के महानगरों में महामारी के दौरान भी अन्य बीमारियों के इलाज में कोई बाधा नहीं आयेगी। पर आज देश के कई महानगरों में कोरोना वायरस के मरीज़ों के अलावा अन्य मरीज़ो को इलाज नहीं मिल रहा है।

आईएमए के पूर्व सचिव अनिल बंसल का कहना है कि सरकार को कोई ठोस फैसला लेना होगा, ताकि कोरोना वायरस के मरीज़ो के अलावा दूसरे मरीज़ों का इलाज भी हो सके। चाहे इसके लिए मेडिकल पास मुहैया कराये जाएँ या अन्य कोई रास्ता निकाला जाए अन्यथा यह दूसरे मरीज़ों के जीवन से खिलवाड़ ही माना जाएगा। उनका कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन और तमाम स्वास्थ्य संस्थाओं का कहना है कि भारत में मधुमेह, तनाव, उच्च रक्तचाप सहित मोटापे जैसी बीमारियों के कारण युवा वर्ग गम्भीर रोगों की चपेट आ चुका है। इसलिए सरकार को कोरोना वायरस के मरीज़ों के अलावा अन्य मरीज़ों के इलाज के लिए जल्द-से-जल्द स्वास्थ्य सेवाएँ बहाल करनी चाहिए।