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रविवार के जनता कर्फ्यू से पहले ही सडक़ों-बाजारों पर पसरा सन्नाटा

देश में कोरोना वायरस के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। यह स्टेज टू से स्टेज थ्री की ओर अग्रसर है। अगर ऐसी स्थिति आती है तो यह भयावह हो सकती है। लेकिन इसके लिए सजगता और सतर्कता ही बचा सकती है। पीएम मोदी के रविवार को 14 घंटे के जनता कर्फ्यू के आह्वान से पहले ही राजधानी नई दिल्ली समेत देशभर के तमाम बड़े शहरों में शनिवार से ही सन्नाटा पसरा नजर आ रहा है। रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों और हवाई अड्डों पर भी खास भीड़ नजर नहीं आ रही है। रविवार को तो पूरे देश में लॉक डाउन होने वाला है। लोग अभी से घरों में कैद होने लगे हैं। रविवार को देशभर में 3,700 ट्रेनें नहीं चलेंगी, इसके अलावा प्रमुख निजी कंपनी की एयरलाइंस इंडिगो और गोएयर ने भी रविवार को अपनी सभी घरेलू उड़ानें रद्द करने का फैसला किया है।
नई दिल्ली में शनिवार से ही प्रमुख बाजारों को तीन दिन के लिए बंद कर दिया गया है। इसके अलावा सभी सरकारों और निजी संस्थाओं ने व संगठनों ने समर्थन देने का फैसला लिया है। शनिवार और रविवार की रात 10 बजे से देश के किसी भी स्टेशन से कोई पैसेंजर या एक्सप्रेस ट्रेन नहीं मिलेगी। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और सिकंदराबाद में उपनगरीय रेल सेवाओं में भी बड़ी कटौती होगी और उतनी ही ट्रेनें चलाई जाएंगी जितनी बेहद जरूरी हों।
जानकारों का मानना है कि रविवार को जनता कर्फ्यू के जरिये सरकार यह देखना चाहती है कि कोरोना का असर बढऩे पर लॉकडाउन की स्थिति के लिए देश कितना तैयार है। अब जब रेलवे ने इतना बड़ा ऐलान कर दिया है तो ऐसी अटकलों को और बल मिलने लगा है।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस क्या तैयार हैं स्कूल?

यह 27 फरवरी, 2020 की ही बात है, जब नीति आयोग ने स्कूलों में आॢटफिसियल इंटेलिजेंस (एआई) कृत्रिम बुद्धिमत्ता मॉड्यूल तैयार करने के लिए नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कम्पनीज (नैसकॉम) के साथ हाथ मिलाया। वैसे साल 2019-2020 का शैक्षणिक सत्र अब समाप्त हो गया है, जब नीति आयोग और नैसकॉम ने स्कूलों में आईए को पूरा करने के लिए हाथ मिलाया है। इस आयोजन के बाद जारी एक बयान में कहा गया है कि देश के युवाओं के दिमाग को सशक्त बनाने के लिए 27 फरवरी को नैसकॉम के सहयोग से नवीनतम तकनीकों के साथ भारतीय विद्यालयों में छात्रों के लिए एक एआई आधारित मॉड्यूल शुरू किया गया है।

एआई-आधारित मॉड्यूल को छात्रों के लिए एआईएम की अटल टिंकरिंग लैब (एटीएल) की पूरी क्षमता का लाभ उठाने के उद्देश्य से पेश किया गया है और यह उन्हें बड़े पैमाने पर समाज को लाभ पहुँचाने वाले मूल्यवान समाधानों को नया करने और बनाने का अधिकार देता है। मॉड्यूल में गतिविधियाँ, वीडियो और प्रयोग शामिल हैं, जो छात्रों को एआई की विभिन्न अवधारणाओं के माध्यम से काम करने और सीखने में सक्षम बनाते हैं। नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) अमिताभ कान्त ने इस मामले में अपने विचार साझा किये। उन्होंने कहा कि भारत मशीन लॄनग और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उपयोग के माध्यम से वार्षिक आधार पर अपने सकल घरेलू उत्पाद में 1.3 फीसदी वृद्धि कर सकता है। उन्होंने कहा कि भारतीय एक साझा कनेक्टेड शून्य-उत्सर्जन दुनिया, तपेदिक, कैंसर जैसी बीमारी और सीखने के परिणामों की चुनौतियों का हल खोज सकते हैं। अगर हम भारत के 1.3 अरब लोगों के लिए इन चुनौतियों का समाधान खोजने में सक्षम होते हैं, तो हम दुनिया के 7.5 अरब लोगों के लिए भी समाधान खोज सकते हैं।

उन्होंने कहा कि एआई मॉड्यूल इस अर्थ में बहुत महत्वपूर्ण है कि यह बहुत कम उम्र से छोटे बच्चों को पढ़ाना शुरू कर देगा। फिर भारतीय एआई में प्रमुख खिलाड़ी बन जाएँगे, जैसा कि अतीत में रोबोट, 3डी प्रिंटिंग, आईओटी के क्षेत्र में किया गया है। यह नयी खोज है, जो खेल और शिक्षाविदों को जोड़ती है और हमारा काम चीज़ों को बहुत रोचक बनाना है। हम कृत्रिम बुद्धिमत्ता को बहुत मज़ेदार बनाना चाहते हैं, ताकि बच्चे इसका आनन्द ले सकें, वे विकसित हो सकें और कुछ नया सीखकर भारत को आगे ले जा सकें।

सीबीएसई की तैयारी

गौरतलब है कि सीबीएसई ने 14/2019 नम्बर का एक सर्कुलर 09 मार्च, 2019 को जारी किया था। इस सर्कुलर में स्पष्ट रूप से सूचित किया था कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को व्यापक रूप से ऐसी शक्ति के रूप में पहचाना जा रहा है, जो भविष्य की वैश्विक डिजिटल अर्थ-व्यवस्था को बढ़ावा देगी। पिछले कुछ वर्षों में एआई ने भू-रणनीतिक महत्त्व प्राप्त किया है और बड़ी संख्या में खुद को तैयार करने और देश को नीतिगत पहल के साथ आगे रखने के लिए हम कड़ी मेहनत कर रहे हैं। भारत की अपनी एआई रणनीति समावेशी आर्थिक विकास और सामाजिक विकास के लिए एआई को एक अवसर और समाधान प्रदाता के रूप में पहचानती है।

यह रिपोर्ट कौशल-आधारित शिक्षा, जो गहन ज्ञान पर आधारित शिक्षा नहीं है; को एआई परियोजना से सम्बन्धित कार्यों का प्रभावी तरीके से दोहन करते हुए भारत की अगली पीढ़ी को एआई के हिसाब से तैयार करने के महत्त्व को रेखांकित करती है। नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कान्त का कहना है कि यह एआई मॉड्यूल बहुत महत्त्वपूर्ण है; खासकर इस अर्थ में कि यह बहुत कम उम्र से छोटे बच्चों को पढ़ाना शुरू करेगा। उन्होंने कहा कि हम कृत्रिम बुद्धिमत्ता को ज़्यादा मज़ेदार बनाना चाहते हैं, ताकि बच्चे इसका आनन्द लेते हुए सीखने के साथ-साथ विकसित हो सकें और भारत को आगे ले जा सकें।

पिछले दशक में प्रौद्योगिकी नवाचार में तेज़ी थी; क्योंकि उद्योगों ने उभरती प्रौद्योगिकियों के साथ हस्तक्षेप किया, जो पहले कभी नहीं हुआ था। यह अनुमान लगाया गया है कि 2030 तक एआई में वैश्विक बाज़ार के 15 से 15.5 ट्रिलियन डॉलर की सीमा तक पहुँचने का अनुमान है, जिसमें से भारत का हिस्सा करीब एक ट्रिलियन डॉलर होगा। नीति आयोग के अटल इनोवेशन मिशन के निदेशक आर. रमानन का कहना है कि एआई 21वीं सदी के नवाचारों का एक अभिन्न हिस्सा बनने जा रही है। हमें अपने 5000 अटल टिंकरिंग लैब्स में ‘लर्न इट योरसेल्फ’ मॉड्यूल शुरू करने पर गर्व है, जिनमें 25 लाख से अधिक छात्रों की पहुँच है। उन्होंने कहा कि स्कूली बच्चों को नवीनतम तकनीकों के अनुरूप रखने के लिए इस तरह के पैमाने पर सरकार की यह पहली अकादमिक पहल है।

भारत इस नये तकनीक-संचालित दशक में नेतृत्व करने और प्रासंगिक बने रहने के लिए, विशेषकर एआई जैसी उभरती हुई तकनीकों और समाज में एआई की सर्वव्यापकता के लिए अग्रसर है। सरकार और शिक्षाविदों के लिए यह महत्त्वपूर्ण है कि वे स्कूलों में एआई सीखने में सहयोग करें और डिजिटल भविष्य के लिए युवा दिमाग तैयार करें। सहयोग के बारे में नैसकॉम के अध्यक्ष देबजानी घोष कहते हैं कि एआई पूरे राष्ट्र में आर्थिक विकास के लिए एक रणनीतिक औज़ार बन गया है और भविष्य की सबसे महत्त्वपूर्ण तकनीकों में से एक रहेगा। इसके प्रभाव को देखते हुए छात्रों को एआई सीखने के लिए संसाधनों को पेश करने का नीति आयोग द्वारा उठाया गया यह एक अहम कदम है। यह छात्रों, विशेष रूप से केजी से लेकर 12वीं तक की कक्षाओं के लिए भविष्य की तकनीकों को ऑनबोर्ड करने और डिजिटल तथा एआई युग के लिए उन्हें पूरी तरह से तैयार करने के लिए सही नींव तैयार करेगा। इसकी साझेदारी देश नागरिकों के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण कदम है और एक कार्यबल, जिसे एआई के बारे में पता है तथा जो एआई के साथ काम कर सकता है; इसके लिए काम करेगा।

हैंड्स-ऑन एआई मॉड्यूल को स्कूल में अकादमिक, सह-विद्वान और अन्य एटीएल कार्यक्रमों का ध्यान रखते हुए डिजाइन किया गया है। युवा छात्रों को राष्ट्र निर्माण की यात्रा में योगदान करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए भी इसे तैयार किया गया है। मॉड्यूल युवाओं के लिए नवीनतम तकनीकों का पता लगाने, उन्हें तैयार करने और सीखने के लिए एक उत्प्रेरक होगा और ज़मीनी स्तर पर नवाचारियों की एक पीढ़ी का निर्माण करेगा।

नीति आयोग द्वारा शुरू किया गया अटल इनोवेशन मिशन उद्यमिता और नवाचार की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार की प्रमुख पहल है। एआईएम पूरे भारत के सभी ज़िलों में स्कूल स्तर पर एटीएल की स्थापना कर रही है। एआईएम ने अब तक एटीएल की स्थापना के लिए 33 प्रदेशों व केंद्र शासित प्रदेशों में फैले देश भर के कुल 14,916 स्कूलों का चयन किया है।

नैसकॉम, एआई और अन्य उभरती प्रौद्योगिकियों की भूमिका को स्वीकार करता है; जो कि डिजिटल रूप से संचालित भविष्य के लिए आवश्यक है। स्कूलों में एआई और सीखने की संस्कृति को विकसित करके वैश्विक स्तर पर समग्र उद्योगों के लिए बड़े अवसर पैदा होते हैं। इसे प्राप्त करने के लिए नैसकॉम और एआईएम ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस लॄनग पर विशेष मॉड्यूल विकसित करने के लिए उद्योग के सदस्यों और विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर काम किया है।

राष्ट्र निर्माण के लिए डिजिटल प्रतिभा को बढ़ावा देना आईटी-आईटीईएस सेक्टर कौशल परिषद्, नैसकॉम के किये गये लगातार प्रयासों में से एक है। इस महत्त्वपूर्ण पहल और इस तरह के कई कार्यक्रमों के आयोजन के लिए आईटी-आईटीईएस सेक्टर कौशल परिषद् नैसकॉम ने प्रयास शुरू किये हैं। यह देश में कौशल विकास पारिस्थितिकी तंत्र को उत्प्रेरित करने और भारत में आईटी व उद्योगों के लिए योग्य प्रतिभाओं का निर्माण करने के लिए एक प्रमुख स्तम्भ रहा है। एआई बेस मॉड्यूल एटीएल छात्रों को प्रस्तुत करने के लिए तैयार है। इसके अतिरिक्त एआई स्टेप-अप मॉड्यूल, जो बेस मॉड्यूल तैयार करता है; अगले कदम की तैयारी कर रहा है।

सीबीएसई की पहल

कृत्रिम शिक्षा के लिए स्कूली छात्रों को एआई अवेयर बनाना या छात्रों के बीच एआई रेडिनेस बनाना सीबीएसई का प्राथमिक कार्य और नयी पहल है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मार्गदर्शन में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने इस सम्बन्ध में दोहरी पहल की है। पहली, एआई को 8वीं, 9वीं और 10वीं कक्षा में इसे ऐच्छिक विषय के रूप में पेश करना है। शुरुआत के रूप में स्कूलों को सीबीएसई को आवेदन करना होगा और इस पाठ्यक्रम को चलाने के लिए अनुमोदित किया जाएगा। कक्षा 8 और 9 के लिए एआई पाठ्यक्रम को तैयार कर दिया गया है और एक फैसिलिटेटर्स हैंडबुक बनायी गयी है। सीबीएसई स्कूलों में एआई के शिक्षण के लिए व्यापक शिक्षक प्रशिक्षण का भी समर्थन कर रहा है।

दूसरी पहल इस आधार से सम्बन्धित है कि एआई एक संज्ञानात्मक विज्ञान है, जिसे विभिन्न विषयों से जोड़ा जा सकता है; जो स्वयं अनुभूति और तर्क के साथ स्वचिंतन करते हैं। लगभग हरेक स्कूल में ये विषय डोमेन में आते हैं, जिनमें गणित, कम्प्यूटिंग, न्यूरो-विज्ञान, मनोविज्ञान, भौतिकी, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन, भाषा और कुछ अन्य विषय शामिल हैं। इसलिए, सीबीएसई ने यह अनिवार्य किया है कि उसके सभी स्कूल पहली कक्षा से 12वीं तक अन्य विषयों के साथ एआई को एकीकृत करना शुरू करेंगे। एआई एकीकृत लॄनग से आजीवन सीखने के लिए मुख्य दक्षताओं को विकसित करने में मदद मिलेगी, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं- एआई को एक उपकरण के रूप में विषय ज्ञान प्राप्त करना, सीखने की समस्या का समाधान, नवाचार और पहल करना, प्रमुख विषयों में आवेदन, बातचीत करने की कला विकसित करना, सामाजिक ज़िम्मेदारियों तथा अनुप्रयोगों का पालन करना, व्यावसायिक नैतिकता सीख और संचार कौशल को लागू करना। उच्च शिक्षा का भविष्य आंतरिक रूप से नयी प्रौद्योगिकी और नयी आधुनिक मशीनों की कम्प्यूटिंग क्षमताओं के विकास से जुड़ा हुआ है। इस क्षेत्र में उच्च शिक्षा में शिक्षण-प्रशिक्षण की नयी सम्भावनाओं और चुनौतियों के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता में प्रगति, मौलिक रूप से शासन में परिवर्तन और उच्च शिक्षा संस्थानों की आंतरिक क्षमता बढ़ाना शामिल हैं।

नेतृत्व करेगा भारत

दुनिया की कुल आबादी का छठा हिस्सा यानी भारत सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की वैश्विक सफलता का निर्धारण करने में अग्रणी भूमिका निभाने वाला है। साल 2030 तक भारत में दुनिया के सबसे अधिक युवा होंगे। यदि ये युवा कार्यबल में शामिल होने के लिए पर्याप्त कुशल हो जाएँ, तब यह हमारे देश के लिए एक वरदान साबित होगा।

हाल ही में नीति अयोग ने ‘भारतीय शिक्षा क्षेत्र के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा व्यवधान के लिए परिपक्व है’ शीर्षक से अभिजय अरोड़ा का लिखा एक पत्र प्रकाशित किया है। इस पत्र में कहा गया है कि हाल ही में लॉन्च किये गये एसडीजी इंडेक्स 2019-2020 में नीति आयोग ने क्वालिटी पर एसडीजी के तहत 58 का समग्र स्कोर भारत को सौंपा है, जिसके अनुसार केवल देश के 12 प्रदेशों और केंद्र शासित प्रदेशों में 64 से अधिक का स्कोर है।

शिक्षा पर वर्तमान सरकारी व्यय जीडीपी के 3 फीसदी से कम है और प्राथमिक विद्यालय के लिए विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात 24:1 है, जो ब्राजील और चीन जैसे देशों से भी कम है। इसके अलावा तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या और घटते संसाधनों के साथ शिक्षकों की माँग की पूर्ति करना सम्भव नहीं होगा।

उच्च स्तर का दृष्टिकोण ज़रूरी

एसडीजी को ज़मीनी स्तर पर मज़बूत बनाना होगा। अगर हम संयुक्त राष्ट्र के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पिछले दशक में देखें, तो महसूस होता है कि इन लक्ष्यों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। इसे प्राप्त करने के लिए समयसीमा के अन्दर एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाते हुए अपने संकेतकों की निगरानी करने की ज़रूरत होगी। ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट्स कार्यक्रम के तहत लक्ष्यों की निगरानी और ट्रैकिंग किस तरह से विभिन्न ज़िलों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दे सकती है, जिसमें कि प्रत्येक ज़िले को निर्धारित जनादेश प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

इन लक्ष्यों की दिशा में गति देने के लिए आवश्यक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) द्वारा गति प्रदान की जाएगी, जो इन आकांक्षाओं को उपलब्धियों में बदलने के लिए गेमचेंजर साबित होगी। काफी संवाद शक्ति के उपयोग के साथ दुनिया के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश में डाटा बिन्दुओं की अभूतपूर्व उपलब्धता सम्भावित रूप से भारत को एआई के ज़माने के सबसे मज़बूत लाभार्थियों में से एक बना सकती है। इसे शुरू तो कर दिया गया था, लेकिन अब एआई-संचालित सिस्टम को बेहतर किया जा रहा है। क्योंकि वे अधिक-से-अधिक सीखते हैं और उनके पास अधिक डाटा उपलब्ध है।

गुणवत्ता वाली शिक्षा के एजेंडे के तहत एक लक्ष्य है कि 2030 तक हमारे राष्ट्र को योग्य शिक्षकों की आपूर्ति में पर्याप्त वृद्धि करनी चाहिए। हालाँकि, वर्तमान माँग-आपूर्ति के अन्तर को भरना सम्भव नहीं है, लेकिन यह सम्भव है कि शिक्षकों को अधिक कुशल बनाया जाए।

क्या कर सकता है एआई?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2019 के ड्राफ्ट (प्रारूप) के अनुरूप, जिसने मातृभाषा के सीखने को प्रोत्साहित किया है, उसमें इस बात पर ध्यान दिया जाएगा कि वीडियो-ऑडियो और लिखे हुए की अनुवाद प्रणालियों द्वारा निर्धारित समय में क्षेत्रीय भाषा में सूचनाओं को मूल रूप से प्रसारित करने के लिए किया जा सकता है? भाषा अनुवाद की इन प्रणालियों को एमएचआरडी की स्थापित डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर दीक्षा (डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर फॉर नॉलेज शेयरिंग) या ई-पाठशाला (सर्व शिक्षा अभियान के तहत पहल) के साथ मिलाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि ई-पाठशाला पर एक पाठ्यपुस्तक केवल हिन्दी में उपलब्ध है, तो अनुवाद प्रणालियाँ इसे अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध कराने के साथ-साथ इसे और अधिक आसान बना सकती हैं। इन अनुवाद प्रणालियों के ज़रिये भाषा की बाध्यता को हटाया जा सकता है और राज्यों में शिक्षकों की क्षमता बढ़ायी जा सकती है, जो पहले की तुलना में माँग को पूरा करने में मदद करती है।

बायोमीट्रिक प्रमाणीकरण

शिक्षक के उपस्थिति और अन्य प्रशासनिक कार्यों को एआई अपना सकता है। उदाहरण के लिए, छात्रों के लिए बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण को यूडीआईएई प्लस (एकीकृत ज़िला सूचना प्रणाली शिक्षा के लिए) एक एप्लिकेशन, जो स्कूल शिक्षा पर सबसे बड़े प्रबन्धन सूचना प्रणाली में से एक है; के साथ एकीकृत किया जा सकता है। बायोमेट्रिक उपस्थिति रिकॉर्ड का उपयोग ज़िले, राज्य और ब्लॉक में शिक्षा की विशिष्टता के लिए एक प्रॉक्सी के रूप में किया जा सकता है और इसे आसानी से ट्रैक किया जा सकता है। लिहाज़ा इससे युवाओं और वयस्कों की भागीदारी दर के अनुपात में पुरुषों-महिलाओं की उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा के अनुपात में दािखला लेने जैसे राष्ट्रीय संकेतकों में मदद मिलेगी। यह स्कूल में शिक्षा की गुणवत्ता की निगरानी में मदद कर सकता है।

चैटबोट और ग्रेडिंग

भारत जैसे विविध भाषा और संस्कृति वाले देश में डिजिटल बुनियादी ढाँचे में चैटबोट का एकीकरण या आईवीआरएस प्रणाली शिक्षा डोमेन के माध्यम से उपलब्धता परिवर्तनकारी हो सकती है। उन्हें विषयवस्तु के आधार पर प्रशिक्षित किया जा सकता है और विद्याॢथयों की शंकाओं का बेहतर तरीके से तुरन्त उत्तर दिया जा सकता है, जिससे शिक्षकों का वर्तमान कार्यभार कम हो जाएगा। ऐसे में वे रचनात्मक कार्यों पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। मोबाइल का प्रवेश यहाँ बाधा नहीं होगा, क्योंकि इसे ग्रामीण भारत द्वारा संचालित किया जा रहा है। साल 2019 के अन्त तक ग्रामीण भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 29 करोड़ तक पहुँच चुकी थी।

चूँकि, राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने ऑनलाइन सीखने की प्राथमिकता को अपना एजेंडा बनाया है। ऐसे में प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण, जैसे मशीन से पठन-पाठन के तरीकों का इस्तेमाल, दीक्षा, ई-पाठशाला और स्वयं (स्टडी वेब्स ऑफ एक्टिव लॄनग फॉर यंग एस्पायरिंग माइंड्स) के वस्तुनिष्ठ प्रश्न ही नहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर व्यक्तिपरक स्वचालित ग्रेडिंग के आकलन के लिए भी किया जा सकता है। सामग्री का स्वचालित निर्माण एक अन्य क्षेत्र है, जहाँ एआई हस्तक्षेप कर सकता है। इंटरनेट पर जानकारी के बड़े स्रोतों को देखते हुए, एनएलपी तकनीक दिलचस्प सामग्री बनाने और उन्हें इन ई-लॄनग वेबसाइटों पर प्रकाशित करने के लिए स्वचालित पाठ संक्षेप का उपयोग करने में सक्षम होगी। एमएल-आधारित विधियों का बनाया गया मानक एकीकृत पाठ्यक्रम राष्ट्रीय रूप से परिभाषित करने, चीज़ों को सीखने के अनुरूप होगा। हाल ही में एमएचआरडी ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को ग्रेड देने के लिए प्रदर्शन ग्रेडिंग इंडेक्स (पीजीआई) नामक एक 70 संकेतक-आधारित मैट्रिक्स को डिजाइन किया है। यह कम-से-कम न्यूनतम दक्षता स्तर प्राप्त करने वाले छात्रों की प्रतिशतता पर संकेतक का मूल्यांकन करेगा।

व्यक्तिगत ई-लॄनग

जब इस तरह की सामग्री इन ई-लॄनग प्लेटफॉर्मों पर होती है, तो बड़े पैमाने पर व्यक्तिगत प्रतिक्रिया और सिफारिशें सम्भव हो सकती हैं। वर्तमान में हर छात्र को व्यक्तिगत ध्यान देना सम्भव नहीं है। हालाँकि, जब सामग्री एआई से बनायी और वर्गीकृत की जाती है, तो यह छात्रों के लिए मुख्य बिन्दुओं की पहचान करके और उसके अनुरूप सिफारिशें प्रदान करके उनके सीखने के लिए व्यक्तिगत मार्ग सुनिश्चित करेगा। एआई का संचालित शैक्षिक बुनियादी ढाँचा भारत के प्रत्येक छात्र को अनिवार्य रूप से एक व्यक्तिगत ट्यूटर प्रदान करेगा।

एक ऐसे युग में, जहाँ तकनीक दुनिया को सिकोड़ रही है, यह स्मार्ट सामग्री के रूप में बड़ी आबादी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को अधिक सुलभ बना रही है। एआई के उन्नत अनुप्रयोगों के साथ शिक्षक देश के विभिन्न हिस्सों में विद्याॄथयों की स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार सामग्री प्रदान कर रहे हैं। वे अक्सर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, व्याख्यान आदि जैसी आभासी सामग्री के माध्यम से शिक्षा प्रदान करते हैं। अब पाठ्यपुस्तकों को भी बदल दिया जाएगा, क्योंकि एआई सिस्टम अब विशिष्ट विषयों और विषयों के लिए डिजिटल पाठ्यपुस्तक बनाने के लिए उपयोग किया जा रहा है। यह सभी शैक्षणिक ग्रेड और उम्र के छात्रों को संलग्न करने में मदद कर रहा है।

कम हुआ ड्रॉप-आउट

जब एआई सिस्टम व्यक्तिगत प्रतिक्रिया प्रदान करता है, तो हम अखिल भारतीय ड्रॉप-आउट दरों पर अंकुश लगा सकते हैं, जो प्राथमिक स्तर पर 4 फीसदी है। लेकिन उच्च शिक्षा में 20 फीसदी तक बढ़ जाती हैं। चूँकि, ये व्यक्तिगत ट्यूटर्स बच्चों की शिक्षा प्रणाली में प्रत्येक बिन्दु पर डाटा बिन्दु एकत्र करना जारी रखते हैं, इसलिए वर्गीकरण एमएल मॉडल का उपयोग बच्चों के स्कूल छोडऩे के जोखिम के बारे में भविष्यवाणी करने के लिए किया जा सकता है और इसे रोकने के लिए उचित निवारण तंत्र तैयार किया जा सकता है। इन गतिविधियों की परिणति एक उच्च शिक्षा नामांकन अनुपात में मदद करेगी और सुनिश्चित करेगी कि एसडीजी के तहत लक्ष्यों के अनुरूप वयस्कों का पर्याप्त अनुपात साक्षरता हासिल करे।

समग्रता के लिए एआई

शिक्षा में लैंगिक असमानता को दूर करने और विकलांग व्यक्तियों को शामिल किये जाने के लक्ष्य को एआई के उपयोग के साथ सकारात्मक रूप से प्रभावित किया जा सकता है। एपल के सिरी और अमेजॅन के एलेक्सा समाज के शहरी वर्गों और दृष्टिहीन उपयोगकर्ताओं को ही अधिक सहभागी नहीं बना रहे हैं, बल्कि इनका रीयल टाइम टेक्स्ट टू स्पीच मूक लोगों को भी सक्रिय जानकारी के आदान-प्रदान की इजाज़त दे रहा है।

खास ज़रूरत वाले विद्याॄथयों को समावेशी शिक्षा के लिए एमएचआरडी के समग्र शिक्षा कार्यक्रम के तहत वाणी विकार, कम्पन रोग या अन्य किसी रोग, जिसके परिणामस्वरूप वाणी विकार हो सकता है; से प्रभावित बच्चे ई-लॄनग वेबसाइटों की मदद ले सकेंगे। ये वेबसाइट्स भाषण पैटर्न का पता लगाती हैं। गलत भाषणों या टूटे हुए शब्दों को सही करके भाषण को बढ़ाती हैं और फिर ऑडियो या टेक्स्ट फॉर्मेट में इसे आउटपुट करती हैं। इसके एकीकरण से ऐसे विद्यार्थी लाभ उठा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, आज की प्रणाली में कुछ शैक्षिक संस्थानों में एक से अधिक छात्रों का चयन करने में मदद मिलेगी। या कुछ स्वदेशी समूहों के लिए समान अवसरों को बाधित करने वाली नीतियों, जैसे- जानबूझकर किये या अन्यथा निहितार्थ किये गये कार्यों का पता लगाना सम्भव हो सकता है।

डिजिटल और एआई लॄनग अल्गोरिदम्स (गणितीय समस्याएँ हल करने के लिए कुछ निर्धारित नियम या प्रतीकगणित) को सहायता और नामांकन की निगरानी के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इस तरह के पूर्वाग्रह से छुटकारा पाने के लिए स्पष्ट रूप से प्रोग्राम किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, नौकरियों के लिए चयन मानदंड आदि की एआई प्रणालियों द्वारा एक स्क्रीनिंग को शामिल कर सकते हैं, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह प्रक्रिया एक ऐसी प्रणाली है, जो समावेशी शिक्षा की अग्रदूत बन जाएगी। मस्तिष्क के कुछ हिस्सों को बौद्धिक और भावनात्मक बुद्धिमत्ता में वायर्ड या प्रशिक्षित किया जा सकता है। सीखने के विज्ञान के आधार पर कहा जा सकता है कि यह सम्पूर्ण मस्तिष्क का दृष्टिकोण और नवीन प्रौद्योगिकी को सक्षम बनाने के लिए डिजिटल प्रौद्योगिकियों की शक्ति का उपयोग करता है। यूनेस्को के महात्मा गाँधी शिक्षा, शान्ति और सतत विकास शिक्षा संस्थान (एमजीआईईपी) के निदेशक डॉ. अनंता दुरैयप्पा कहते हैं कि शिक्षा प्रणाली के लिए यह अनिवार्य है कि मौज़ूदा व्यवस्था पद्धतियों को सुदृढ़ करने के लिए एआई को लागू करने से आगे जाना चाहिए। हमें परिवर्तनकारी शैक्षणिक दृष्टिकोणों का पता लगाना चाहिए, जो शिक्षार्थियों के संज्ञानात्मक और भावनात्मक बुद्धिमत्ता के निर्माण के लिए प्रौद्योगिकी को लागू करते हैं।

क्या है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस?

वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) एक सॉफ्टवेयर इंजन है, जो चौथी औद्योगिक क्रान्ति को संचालित करता है। इसका असर पहले से ही घरों, व्यवसायों और राजनीतिक प्रक्रियाओं में देखा जा सकता है। रोबोट के अपने मूर्त रूप में यह जल्द ही कारों को चलायेगा। गोदामों को स्टॉक करेगा और युवा और बुजुर्गों की देखभाल करेगा। यह समाज के सामने आने वाले कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों को हल करने का भरोसा दिलाता है। लेकिन यह ब्लैक बॉक्स एल्गोरिदम, डाटा के अनैतिक उपयोग और सम्भावित नौकरी विस्थापन जैसी चुनौतियों को भी प्रस्तुत करता है।

मशीन लॄनग (एमएल) में तेज़ी से आगे बढऩे से दैनिक जीवन के सभी पहलुओं में एआई का बढ़ता दायरा और जैसा कि तकनीक खुद सीख सकती है और अपने आप बदल सकती है। इसमें जवाबदेही, पारदर्शिता, विश्वास पैदा करने के लिए निष्पक्षता और गोपनीयता का अनुकूलन करने के लिए बहु-हितधारक सहयोग की आवश्यकता होती है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एक संज्ञानात्मक विज्ञान है और इसके विकास का इतिहास बताता है कि यह विज्ञान, गणित, दर्शन, समाजशास्त्र, कम्प्यूटिंग और अन्य जैसे विषयों से प्राप्त ज्ञान से विकसित हुआ है। इसलिए, किसी भी शिक्षा प्रणाली के लिए यह उचित है कि वह एआई रेडीनेस को एकीकृत करने के महत्त्व को पहचानें, ताकि अन्य विषयों में सीखने को अधिकतम किया जा सके। एआई को व्यापक रूप से ऐसी शक्ति के रूप में पहचाना जा रहा है, जो भविष्य की वैश्विक डिजिटल अर्थ-व्यवस्था को बढ़ावा देगा और इसने भू-रणनीतिक महत्त्व प्राप्त किया है। बड़ी संख्या में देश एआई और अन्य उभरती प्रौद्योगिकियों के संचालित पर्यावरण में अपने युवाओं को कार्य करने को तैयार करने के लिए अपनी नीतिगत पहल के साथ आगे रहने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। भारत की अपनी एआई रणनीति समावेशी आर्थिक विकास और सामाजिक विकास के लिए एआई को एक अवसर और समाधान प्रदाता के रूप में पहचानती है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मशीनों को सोचने, विचार करने, सीखने, समस्या को हल करने और निर्णय लेने जैसे संज्ञानात्मक कार्यों को करने की क्षमता को सन्दर्भित करता है। यह उन तरीकों से प्रेरित है जो लोग अपने दिमाग का उपयोग करने, सीखने, तर्क करने और कार्रवाई का निर्णय लेने के लिए करते हैं। प्रारम्भ में एक ऐसी तकनीक के रूप में कल्पना की गयी थी, जो मानव बुद्धि की नकल कर सकती थी। एआई उन तरीकों से विकसित हुई है जो अब तक अपनी मूल अवधारणा से अधिक हैं। डाटा संग्रह, प्रसंस्करण और गणना शक्ति में किये गये अविश्वसनीय अग्रिमों के साथ, बुद्धिमान सिस्टम अब विभिन्न कार्यों को सँभालने, कनेक्टिविटी को सक्षम करने और उत्पादकता बढ़ाने के लिए तैनात किया जा सकता है।

एसएमएस से हुआ यस बैंक के संस्थापक और नेताओं के बीच ‘रिश्ते’ का खुलासा

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का एक पोट्र्रेट जारी किया है, जिसको यस बैंक के संस्थापक राणा कपूर ने कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा से 2 करोड़ रुपये में खरीदा था।

2010 में कांग्रेस नेता मिलिंद देवड़ा की ओर से राणा कपूर को भेजे गये एसएमएस से इस बात का खुलासा हुआ है कि उक्त पेंटिंग शो में कैसे देवड़ा बार-बार ‘राणा अंकल’ को इसे खरीदने के लिए तत्परता दिखाने को कहा था। मिलिंद देवड़ा के ये टेक्स्ट मैसेज ‘तहलका’ के पास उपलब्ध हैं। एक संदेश में देवड़ा ने लिखा है- ‘मुझे एक तय समय सीमा बता दें कि चेक कब दिया जाएगा…? इसमें देरी से यह डर लगता है कि इस बारे में यस बैंक गम्भीर नहीं है।’ एक अन्य मैसेज में लिखा है- ‘राणा अंकल! पीजी आपको एक पत्र भेजेंगी, जिसमें लिखा होगा कि वह पेंटिंग बेचने के लिए राज़ी हैं।’ एक अन्य संदेश में कहा गया है- ‘राणा अंकल कृपया मुझे बताएँ कि मैं चेक कब लेने आ सकता हूँ?’

इसके बाद राणा कपूर ने 3 जुलाई, 2010 को एक चेक भेजा और अगले दिन प्रियंका गाँधी वाड्रा से एक पावती पत्र मिला, जिसमें उन्होंने पेंङ्क्षटग खरीदने के लिए उन्हें धन्यवाद दिया। अपने पत्र में प्रियंका ने लिखा- ‘श्री एमएफ हुसैन की बनायी मेरे पिताजी श्री राजीव गाँधी की पेंङ्क्षटग को खरीदने के लिए धन्यवाद! यह पेंङ्क्षटग 1985 में कांग्रेस पार्टी के शताब्दी समारोह में उनको भेंट की गयी थी, जो मेरे स्वामित्व में थी।’ पत्र में यह भी लिखा गया है- ‘मुझे 3 जून, 2010 का लिखा पत्र मिला है, जिसमें 3 जून, 2010 की तारीख का चेक आपके एचएसबीसी के बैंक खाते का है। यह पेंटिंग का फुल एंड फाइनल पेमेंट है।’

ईडी अब आपराधिक मामले की जाँच के दौरान राणा कपूर से इस पेंङ्क्षटग के बारे में भी सवाल-जवाब कर सकता है। राणा कपूर को हिरासत में लिये जाने के बाद उनके आवास से यह पेंटिंग भी मुम्बई के ईडी कार्यालय लायी गयी। राजीव गाँधी को 1985 में कांग्रेस पार्टी के शताब्दी समारोह के दौरान यह पेंटिंग भेंट की गयी थी।

सूत्रों का कहना है कि मनी लॉन्ड्रिंग रोधी कानून के तहत कपूर से मिली इस रकम को प्रियंका ने शिमला के पास कॉटेज बनाने में खर्च किया, जिसे अपराध की श्रेणी में माना जाता है और इस सम्पत्ति को ईडी अटैच भी कर सकता है। सूत्रों के मुताबिक, पेंङ्क्षटग मामले में देवड़ा से भी ईडी के अधिकारी पूछताछ कर सकते हैं।

इस खुलासे के साथ ही भाजपा ने कांग्रेस नेता प्रियंका गाँधी वाड्रा और उनके पति रॉबर्ट वाड्रा को सियासत का ‘बंटी और बबली’ करार दिया। भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिंहा राव ने कहा है कि प्रियंका के पति रॉबर्ट वाड्रा पर पहले से ही संदिग्ध अचल सम्पत्ति लेन-देन से मुनाफा कमाने के आरोप हैं और अब कपूर से एक पेंटिंग के लिए 2 करोड़ रुपये मिले, जिसे शक्तिशाली दम्पति ने निजी लाभ के लिए अपनी राजनीतिक शक्ति का दुरुपयोग कर फायदा उठाया। राव ने कहा कि वे (वाड्रा दम्पति) वित्तीय गड़बड़ी और धोखाधड़ी में शामिल लोगों को संरक्षण और सुरक्षा देने के लिए सौदा करते हैं। वाड्रा दम्पति को उनके चुनाव संचालन और संदिग्ध तरीकों के लिए राजनीतिक वर्ग का ‘बंटी और बबली’ कहा जा सकता है। बता दें कि बंटी और बबली एक ऐसे दम्पति के जीवन पर आधारित बॉलीवुड िफल्म थी, जो अलग-अलग तरीकों से लोगों के पैसे उड़ाते हैं।

हालाँकि, कांग्रेस ने प्रियंका के एमएफ हुसैन की पेंङ्क्षटग को बेचे जाने के मामले में कुछ भी गलत होने से इन्कार किया है। कांग्रेस ने तो यह भी कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कई कार्यक्रमों के प्रायोजक राणा कपूर रहे हैं। पार्टी ने स्पष्ट कहा कि चेक के ज़रिये वैध लेन-देन था, जिसका खुलासा प्रियंका ने अपने आयकर रिटर्न में किया था। पार्टी के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने पूछा कि 10 साल पहले राजीव गाँधी की एमएफ हुसैन की पेंटिंग को किस तरह से प्रियंका गाँधी ने यस बैंक के मालिक राणा कपूर को बेचा? और इसे टैक्स रिटर्न में भी भरा, तब इसे कैसे गैर-कानूनी लेन-देन करार दिया?

बीमार होते बैंक

यस बैंक में हालिया मुसीबत इस बात का गम्भीर संकेत है कि देश की बैंकिंग प्रणाली अब भी धोखाधड़ी मुक्त नहीं है और लम्बे समय से इसे ठीक करने की ज़रूरत रही है। बैंकिंग संकट की वास्तविकता पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक में आये एक घोटाले से सामने आती है। यह घोटाला एकल क्लाइंट-रियल-एस्टेट फर्म हाउसिंग डेवलपमेंट एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (एचडीआईएल) पर भारी पड़ा, जो खुद दिवालियापन की कार्यवाही का सामना कर रही थी। लेकिन ऐसा लगता है कि पीएमसी की घटना से कोई सबक नहीं लिया गया। यह राजनेता, बैंकर और कॉरपोरेट साठगाँठ का एक अनोखा मामला था, जिसमें शासन और हितों की रक्षा करने वालों की विफलता उजागर हुई है।

इससे पहले भी नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और विजय माल्या के मामलों ने बैंकिंग प्रणाली को हिलाकर रख दिया था, जहाँ बिना बैंक गारंटी के कर्ज़ लिया गया था। अब बैंकिंग प्रणाली में धोखाधड़ी की पुनरावृत्ति ने बैंकों की कार्यप्रणाली पर संदेह पैदा किया है। इससे वित्तीय संस्थानों पर से जनता का भरोसा कम हुआ है। विडम्बना यह है कि यस बैंक का मामला सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र के 10 बैंकों को चार मेगा स्टेट-स्वामित्व वाले ऋणदाताओं में समेकित करके सरकार की योजनाओं को लागू करने के लिए निर्धारित किये जाने से कुछ हफ्ते पहले आया है। वास्तव में बैंकिंग प्रणाली में सुधार का रास्ता काफी मुश्किल लग रहा है।

यस बैंक की कहानी भी बड़ी अजीब है। यह बैंक अनेक कर्ज़दारों द्वारा कर्ज़ न चुका पाने के बावजूद वित्तीय वर्ष 2014 और 2019 के बीच 334 फीसदी बढ़त के साथ कर्ज़ देने की होड़ में शामिल हो गया। बैंक की सकल गैर-निष्पादित परिसम्पत्ति (एनपीए) 7.39 फीसदी तक देखी गयी, जो दूसरे बैंकों की तुलना में सबसे अधिक है। सबसे पहले, यस बैंक ने खराब ऋणधारकों की संख्या को बढऩे दिया, कई नये ऋणों को मंज़ूरी भी दी। फिर जब संकट आया, तो उसका समाधान करने और अपना मुनाफा बढ़ाने में पूरी तरह विफल रहा। हालाँकि, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जमाकर्ताओं को भरोसा दिलाया है कि उनका पैसा सुरक्षित है। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने भी यस बैंक को संकट से उबारने तथा उसके ग्राहकों को राहत देने के लिए कदम बढ़ाया है। बता दें कि एसबीआई की यस बैंक में अधिकतम 49 फीसदी हिस्सेदारी है और इसके लिए वह लगभग 11,760 करोड़ रुपये इस संकट से उबारने में लगाएगा।

जाँच एजेंसियाँ अब यस बैंक के संस्थापक राणा कपूर की भूमिका की जाँच कर रही हैं। इन सबके बावजूद संकट घटता नहीं दिखता। वित्त मंत्रालय और आरबीआई दोनों के लिए यह जानना समझदारी होगी कि बैंकिंग क्षेत्र में घोटालों का कोई अन्त नहीं है, क्योंकि अक्सर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, निजी बैंकों और सहकारी बैंकों के अलावा गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियाँ भी धोखाधड़ी करते हुए पकड़ी गयी हैं। यदि बैंकिंग प्रणाली पर जनता का भरोसा बनाये रखना है, तो बैंकों की कार्यप्रणाली में निहित खामियों को प्रभावी ढंग से दुरुस्त करना होगा। बैंक, अर्थ-व्यवस्था के पहियों की महत्त्वपूर्ण धुरी हैं और अगर भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर अर्थ-व्यवस्था हासिल करनी है, तो बैंकिंग व्यवस्था और कार्यप्रणाली की खामियाँ हमेशा के लिए खत्म करनी होंगी।

क्या चल पायेगा अमेरिका-तालिबान समझौता?

क्या अमेरिका और तालिबान के बीच अफगानिस्तान को लेकर 29 फरवरी को कतर की राजधानी दोहा में हुआ शान्ति समझौता लागू होने से पहले ही खतरे की तरफ बढ़ रहा है? तीन बड़ी घटनाएँ इसका इशारा करती हैं। एक, समझौते के एक हफ्ते के भीतर ही तालिबान ने अफगानिस्तान के 16 प्रान्तों पर एक के बाद एक 33 हमले किये, जिसमें 40 से ज़्यादा लोग मारे गये। देश में मौज़ूद अमेरिकी सैनिकों ने जवाब में तालिबान क्षेत्र में हवाई हमले किये। दो, अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने समझौते के बाद कहा कि अफगानिस्तान सरकार ने 5000 तालिबान कैदियों को रिहा करने को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं जतायी है; जैसा कि समझौते में दावा किया गया है। तीन, राष्ट्रपति गनी ने इसके बाद शर्त रखी कि तालिबान कैदियों की रिहाई उसी सूरत में की जा सकती है, जब वह पाकिस्तान के साथ अपने रिश्ते खत्म कर ले।

इस शान्ति समझौते को लेकर सबसे  ज़्यादा उत्साहित अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को तालिबान के व्यवहार से झटका लगा है। तालिबान के हमले के बाद ट्रम्प को कहना पड़ा कि तालिबान इस अवसर को गँवाना चाहता है।

भले ट्रम्प ने कहा कि तालिबान के राजनीतिक प्रमुख मुल्ला बरदार से मेरे बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं; लेकिन हमले ने अमेरिका को झटका दिया है।

बता दें समझौते का मकसद अफगानिस्तान में 18 साल से जारी संघर्ष को खत्म करना है। समझौता तालिबान के युद्धविराम खत्म करने और अमेरिकी सैनिकों के वहाँ से वापस चले जाने को लेकर है। गौरतलब है कि 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने 2001 में तालिबान के िखलाफ लड़ाई के लिए अपने सैनिक अफगानिस्तान भेजे थे। तालिबान ने साल 1996 से साल 2001 तक अफगानिस्तान पर शासन किया था। भारत ने तालिबान से बातचीत को कभी प्राथमिकता नहीं दी। तालिबान से अमेरिका के इस समझौते को लेकर भारत में भी दर्जनों आशंकाएँ हैं। अफगानिस्तान में चुनी सरकार ही भारत की हितों के लिहाज़ से सही कही जा सकती है। दूसरे तालिबान की पाकिस्तान में ऐसे तमाम तत्त्वों से घनिष्टता है; जो भारत को रास नहीं आते। ऐसे में इस समझौते से भारत की चिन्ता स्वाभाविक है।

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप भले कह रहे हों कि तालिबान के राजनीतिक प्रमुख मुल्ला बरदार से उनकी लम्बी बातचीत हुई है और वे हिंसा पर रोक चाहते हैं। लेकिन समझौते के बाद भी तालिबान के हमले जारी रहने पर अमेरिकी सेना के प्रवक्ता लेगेट को भी कहना पड़ा कि तालिबान अफगान लोगों की शान्ति की इच्छा की अनदेखी कर रहे हैं। ऐसे में समझौते को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है।

तालिबान के हमले के बाद अफगानिस्तान के शानिस्तान क्षेत्र के हेलमंड प्रान्त में अमेरिकी फौज के तालिबानी ठिकानों पर हवाई हमलों से यह तो ज़ाहिर है कि तालिबान अमेरिका िफलहाल खुली छूट नहीं देना चाहता। लेकिन इससे यह भी आशंका खड़ी हो गयी है कि क्या अमेरिका-तालिबान शान्ति समझौता लागू होने से पहले ही अशान्ति के भँवर में फँस रहा है।

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की तैयारियों के बीच हुए इस समझौते में देखा जाए, तो भारत के हितों का कुछ खास खयाल नहीं रखा गया है। यह दिलचस्प है कि हाल में जब अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप भारत के दौरे पार आये थे, तो इस दौरान कहा जाता है कि उन्होंने तालिबान के साथ शान्ति समझौते को लेकर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ज़िक्र किया था। यह भी कहा जाता है कि भारत ने इसे लेकर सहमति जतायी थी।

लेकिन यह समझौता होने के बाद से ही यह आशंकाएँ अब खुले रूप से सामने आने लगी हैं। लेकिन समझौते से भारत में राजनीतिक स्तर पर चिन्ता महसूस की जा रही है। इसमें सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि तालिबान पाकिस्तान के काफी करीब है। पाकिस्तान की सेना में तालिबान के प्रति सॉफ्ट कार्नर है और राजनीतिक स्तर पर भी तालिबान का कोई विरोध पाकिस्तान में नहीं है।

नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता में आने से पहले पाकिस्तान के पीएम इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) चुनाव से पहले ही तालिबान का खूब गुणगान करती रही थी। सत्ता में आने के बाद भी इमरान खान ने कभी तालिबान के हितों के विपरीत कोई बात नहीं कही है। इसका एक बड़ा कारण सेना का तालिबान के प्रति अघोषित समर्थन है।

भारत की चिन्ता यह है कि भले आज अफगानिस्तान में अशरफ गनी के नेतृत्व वाली लोकतांत्रिक सरकार हो, भविष्य में तालिबान के सत्ता पर काबिज़ होने की सम्भावना को खारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे में भारत के लिए चिन्ता का बड़ा क्षेत्र सामने होगा। पिछले साल अक्टूबर में ही इमरान खान के बुलावे पर तालिबान के एक प्रतिनिधिमंडल ने मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में पाकिस्तान का दौरा किया था।

पाकिस्तान भले आतंकियों के िखलाफ बोलता रहा हो और खुद को भी आतंक का शिकार बताता रहा हो, ज़मीनी हकीकत सब जानते हैं कि पाक में आतंकपरस्ती भी कम नहीं होती। लोग नहीं भूले होंगे कि पाकिस्तान में नेशनल एसेम्बली के चुनाव से पहले ही पाकिस्तान में इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के तमाम विरोधी दल तालिबान खान तक पुकारते रहे हैं। कारण था इमरान खान का लगातार तालिबान के पक्ष में बयान देना। तालिबान की सोच में हाल के वर्षों में कोई फर्क नहीं आया है। कतर के दोहा में अमेरिका से समझौते के तुरन्त बाद तालिबान के प्रतिनिधि अब्दुल्लाह बिरादर ने जब अपना सम्बोधन दिया, तो उनकी भाषा और सोच कमोवेश वही दिखी, जो 90 के दशक में तालिबान की रही है। बिरादर ने कहा कि इस्लामी मूल्यों की रक्षा के लिए अफगानिस्तान में सभी को एकजुट हो जाना चाहिए। ज़ाहिर है कि बिरादर जिस एकजुटता की बात कर रहे थे, वह कट्टर इस्लामी व्यवस्था की तरफ ही संकेत करती है।

यदि अफगानिस्तान में वर्तमान सरकार भी रहती है, तब भी भविष्य में अमेरिकी सैनिकों की अनुपस्थिति में पाकिस्तान-तालिबान गठजोड़ के भारत के हितों का नुकसान करने की सम्भावना को खारिज नहीं किया जा सकता। अफगानिस्तान के विकास में भारत लाखों डॉलर हाल के समय में खर्च कर चुका है। अफगानिस्तान भारत के विदेशी सहायता कार्यक्रम का सबसे बड़ा भागीदार है। ऐसे में भारत की चिन्ताओं को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है।

करीब दो दशक से अफगानिस्तान जंग झेल रहा है और उसका भीतरी आर्थिक ढाँचा तबाह हो चुका है। वहाँ बचाव, विकास और राहत कार्यों के लिए भारत एक अनुमान के मुताबिक, अब तक करीब तीन बिलियन यूएस डॉलर की मदद कर चुका है।

वैसे सच यह है कि इस समझौते में भारत की कोई भूमिका नहीं रही है। न भारत ने इसे लेकर किसी तरह का हस्तक्षेप ही करने की कोशिश की है। लेकिन एक बात तय कि भारत को बदले हालत में अफगानिस्तान को लेकर अपनी रणनीति में व्यावहारिक बदलाव करना होगा।

तालिबान की माँग

अमेरिका के साथ समझौते में तालिबान ने अफगानिस्तान में युद्धविराम के लिए शर्त रखी कि उसके जेल में बन्द लोगों को रिहा किया जाए। अभी शान्ति समझौते को लेकर बैठकों के दौर होने हैं। युद्ध के बाद महिला और अल्पसंख्यकों को लेकर योजनाओं और क्षेत्र के विकास पर व्यापक बातचीत होनी है। ज़ाहिर है, इसमें कुछ वक्त लगेगा।

लेकिन अफगानिस्तान सरकार ने अभी से इन लोगों की रिहाई को लेकर अपना विरोध दर्ज करवाना शुरू कर दिया है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति ने साफ कहा कि तालिबान की रिहाई को लेकर उनकी सरकार से कोई बात नहीं की गयी। हालाँकि, उन्होंने एक शर्त के साथ तालिबान की रिहाई पर रज़ामंदी जतायी है कि तालिबान पाकिस्तान से कोई सम्बन्ध नहीं रखेगा। ज़ाहिर है, तालिबान ऐसा नहीं करेगा। क्योंकि इससे अफगान सरकार और तालिबान में तनाव बन सकता है।

इस शान्ति समझौते ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी और खींचा है। बहुत से जानकार इसे अमेरिका की हार के रूप में परिभाषित कर रहे हैं। कहने को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने समझौते के बाद तालिबान को चेतावनी दी कि उसके तालिबान से हाथ मिलाने मतलब यह नहीं है कि वह अपने सैनिकों के जाने के बाद अफगानिस्तान में हिंसा बर्दाश्त करेगा। लेकिन देखा जाए, तो यह बहुत संवेदनशील मामला है और समझौते के अपनी शर्तों पर खरा न उतरने से अमेरिका की बड़ी किरकिरी भी हो सकती है। सब जानते हैं कि एक बार सैनिकों को वापस बुला लेने के बाद अमेरिका के लिए दोबारा वहाँ लौटना बहुत मुश्किल काम होगा।

तालिबान के साथ शान्ति समझौता हो जाने के बाद भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान में आतंकवाद को समर्थन देता रहेगा। आप एक समझौते तक पहुँचे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि जब समझौते तक पहुँचे हैं, तो यह लम्बी अवधि तक शान्ति लाने वाला होना चाहिए। जल्दबाज़ी में सिर्फ वहाँ से बाहर निकलने के लिए अस्थायी कदम के बतौर नहीं होना चाहिए। उन्हें (तालिबान) अफगानिस्तान की मुख्यधारा की राजनीति में आना होगा। अगर वो देश पर शासन चलाना चाहते हैं, तो उन्हें वहाँ के लोगों की मर्ज़ी के मुताबिक शासन करना होगा।

जनरल बिपिन रावत

चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ समझौते को लेकर।

हम तालिबान नेताओं से मुलाकात करेंगे। अगर कुछ बुरा हुआ तो हम वहां वापस जाएंगे। मुझे भरोसा है कि तालिबान सिर्फ समय बर्बाद करने के लिए यह सब (शान्ति समझौता) नहीं कर रहा। अगर कुछ खराब हुआ तो हम वापस (अफगानिस्तान) जायेंगे और ऐसे जायेंगे जैसे पहले किसी ने नहीं देखा होगा। मुझे भरोसा है कि ऐसी नौबत नहीं आएगी।

डोनाल्ड ट्रम्प, अमेरिकी राष्ट्रपति

क्या है शान्ति समझौता?

यह समझौता कतर के दोहा में हुआ। इसमें तालिबान के प्रतिनिधि मुल्ला बिरादर, जबकि अमेरिका के प्रतिनिधि (वार्ताकार) जलमय खलीलज़ाद ने दस्तखत किये। आज की तारीख में अफगानिस्तान के युद्ध ग्रस्त क्षेत्र में करीब 13,200 नाटो सैनिक (अमेरिका और सहयोगी देशों के)

मौज़ूद हैं। अमेरिका-तालिबान समझौते के तहत अमेरिका को अपने सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुलाना है। शान्ति समझौते के मुताबिक, अमेरिका 14 महीने के भीतर अफगानिस्तान से अपने सैनिक हटायेगा। इसके अलावा समझौते में शामिल अन्य शर्तें भी 135 दिन में पूरी कर ली जाएँगी। समझौते के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा कि तालिबान से यह समझौता तभी कारगर होगा, जब वह (तालिबान) पूरी तरह शान्ति कायम करने के लिए काम करेगा।  तालिबान को आतंकी संगठन अलकायदा से अपने सारे रिश्ते तोडऩे होंगे। यह समझौता इस क्षेत्र में एक प्रयोग है। हम तालिबान पर नज़र बनाये रखेंगे। अफगानिस्तान से अपनी सेना पूरी तरह से तभी हटाएँगे, जब पूरी तरह से पुख्ता कर लेंगे कि तालिबान अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर आतंकी हमले नहीं करेगा। वैसे यह भी दिलचस्प है कि तालिबान अफगानिस्तान में आईएसआईएस का कट्टर विरोधी है और उसके िखलाफ भी लड़ता है। साल 2009 के बाद से तालिबान के हमलों में एक लाख से ज़्यादा अफगानी नागरिक और सुरक्षा बल के लोग मारे जा चुके हैं।  यही नहीं, इन 18 वर्षों में करीब 2352 अमेरिकी सैनिक भी जान गँवा चुके हैं। तालिबान के पास इस समय करीब 1000 सरकारी कर्मी बन्धक हैं, जिन्हें तालिबान अपने करीब 5000 लोगों की रिहाई के बदले मुक्त करेगा।

तालिबान के ‘हमदर्द’ इमरान

एक मौके पर इमरान खान ने, जब वे सत्ता से दूर थे; तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के कमांडर वाली-उर-रहमान को शान्ति समर्थक कहा था। रहमान वही हैं, जिन्हें साल 2013 में अमेरिका की सेना ने ड्रोन हमले में मार गिराया था। अमेरिका के रहमान को मारने पर तब खान ने कहा कि शान्ति समर्थक वाली-उर-रहमान को मार डाला गया। कई सैनिकों की मौत और कई घायल हुए हैं। यह पूरी तरह अस्वीकार्य है और ऐसा जानबूझकर किया गया है।

यही नहीं लगभग उन्हीं दिनों में इमरान खान ने तालिबान को पाकिस्तान में अपना दफ्तर खोलने की मंज़ूरी देने को कहा था। उनका तर्क था कि अमेरिका यदि कतर में अफगान तालिबान के लिए कार्यालय खोल सकता है, तो पाकिस्तान तालिबान ऐसा क्यों नहीं कर सकता? यह माना जाता है कि पाकिस्तान में अपनी पार्टी पीटीआई की जड़ें जमाने के लिए इमरान ने तालिबान को खुश रखने की नीति अपनायी थी। ऐसा वक्त ऐसा भी आया, जब फरवरी 2014 में तालिबान ने इमरान खान को एक मध्यस्थता बैठक में जाने के लिए अपना प्रतिनिधि ही घोषित कर दिया। यह अलग बात है कि राजनीतिक खतरे को भाँपते हुए खान ने मना कर दिया। लेकिन इससे यह ज़ाहिर हो गया कि तालिबान इमरान पर भरोसा करता है। इमरान ने तब अपनी सफाई में कहा था कि पाकिस्तान तालिबान की खुद को यूएस वॉर से अलग करने की माँग उनकी पार्टी की इस बारे लाइन से मेल खाती है।

अपनी राजनीतिक रैलियों में भी इमरान खान तब तालिबान को लेकर बहुत नरम भाषा अपनाते थे। उसके िखलाफ तो कुछ बोलते थे ही नहीं। यह कुछ ऐसी बातें थीं, जिनके चलते पाकिस्तान में उनके राजनीतिक विरोधी इमरान को तालिबान खान तक कहने लगे थे। पीटीआई मौलाना फज़ल-उर-रहमान खलील के साथ भी हाथ मिला चुकी है, जो अमेरिका की आतंकवादी सूची में शामिल है।

दो साल पहले एक साक्षात्कार में इमरान तालिबान की न्याय प्रणाली का समर्थन कर दिया था, जिसके बाद दिवंगत बेनजीर भुट्टो के बेटे और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के सर्वेसर्वा बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने खान का ज़ोरदार विरोध किया था। यही नहीं जनवरी में इमरान खान की पार्टी पीटीआई तालिबान प्रभावशाली नेता सामी-उल-हक को मदरसे के निर्माण और रखरखाब के लिए 550 मिलियन पाकिस्तानी रुपये दान कर चुकी है।

आज इमरान खान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हैं। उनके सत्ता में आने के बाद भारत से रिश्तों को लेकर कोई खास प्रगति नहीं देखी गयी है। उलटे 2019 के शुरू में तो भारत-पाक रिश्तों का तनाव चर्म पर पहुँच गया, जब पाक समर्थित आतंकियों ने पुलवामा में सेना के कािफले पर हमला कर दिया और जवाब में भारत की तरफ से बालाकोट हुआ। इमरान को लेकर यह भी धारणा रही है कि वे सेना के दबाव में काम करते हैं।

ऐसे में अफगानिस्तान में तालिबान हावी होता है, तो यह भारत के लिए गहन चिन्ता की बात होगी। दूसरे जिस तरह अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार तालिबान की रिहाई और पाकिस्तान से उनके सम्बन्धों को लेकर चिन्ता दिखा रही है, वही चिन्ता भारत की भी है। अफगानिस्तान में तालिबान हमेशा भारतीय हितों के िखलाफ काम करता रहा है और इसके पीछे पाकिस्तान का ही दिमाग माना जाता है। वहाँ काम करने वाले भारतीयों पर भी तालिबान ने हमले किये हैं।

दरअसल, इस्लामाबाद समर्थित तालिबान के साथ अमेरिका के समझौते में इस बात का कहीं भी ज़िक्र नहीं है कि अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में पाकिस्तान का हस्तक्षेप नहीं होगा। यह उल्लेख न होने से यह भी संकेत मिलता है कि अमेरिका ने इस शान्ति समझौते के ज़रिये एक तरह से अफगानिस्तान से अपने बाहर निकलने का रास्ता ही बनाया है।

यह हमेशा से माना जाता रहा है कि तालिबान की कुंजी वास्तव में पाकिस्तान के हाथ है। दरअसल, अमेरिका की कोशिश तालिबान और उसके हक्कानी नेटवर्क को अफगानिस्तान की मुख्यधारा की राजनीति में लाने की कोशिश में है, जो वास्तव में उसकी अपनी रणनीति का हिस्सा है।

हालाँकि, बहुत से जानकार मानते हैं कि इससे पाकिस्तान को अफगानिस्तान में हस्तक्षेप का अवसर मिलेगा, क्योंकि हक्कानी नेटवर्क  पाकिस्तान की पकड़ में रहा है। इसका सरगना सिराजुद्दीन हक्कानी वास्तव में पाकिस्तान का ही खास माना जाता है और पूरी तरह आईएसआई और पाक सेना के इशारे पर काम करता है। यही नहीं, पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर हक्कानी और तालिबान को फंडिंग होती है, जो इस बात का साफ इशारा है कि दोनों देशों के रिश्ते मज़बूत हैं।

भारत की अपेक्षाएँ और फायदे

अमेरिका के चुनावी वर्ष में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हाल की दो दिवसीय भारत यात्रा कई मायनों में महत्त्वपूर्ण थी। दौरे के दौरान एक-दूसरे को लेकर व्यक्त प्रशंसा और अभिव्यक्तियों से परे इस यात्रा को एक अलग परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है। किसी को भी यह समझ लेना चाहिए कि कोई भी अमेरिकी नेता भारत के हितों के बारे में उस सीमा तक ही चिन्ता करेगा, जहाँ तक वाशिंगटन के अपने हित को चोट न पहुँचती हो।

उनकी यात्रा का पहला दिन प्रदर्शन से भरा था, जिसे वे अपने देश के लोगों को दिखाने के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे कि कैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उनका स्वागत किया गया। उन्होंने मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम (सरदार बल्लबभाई पटेल स्टेडियम) में एक लाख से अधिक लोगों की एक सभा को सम्बोधित किया था। इससे उन्हें आने वाले राष्ट्रपति चुनाव में भारतीय-अमेरिकियों, खासकर अति-राष्ट्रवादी विचारों वाले भारतीयों का समर्थन हासिल करने में मदद मिल सकती है।

सच्चाई यह है कि दोनों देशों को उभरते भू-राजनीतिक वैश्विक परिदृश्य में एक-दूसरे की ज़रूरत है, विशेष रूप से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में। अमेरिका नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच अपनी भारत-प्रशांत नीति के एक आवश्यक घटक के रूप में अहम सहयोगी मानता है; खासकर तब जब क्षेत्र में चीनी उपस्थिति तेज़ी से बढ़ रही है। जिस गति के साथ चीन एक विशाल वैश्विक उपस्थिति की योजना के साथ तकनीकी, आर्थिक और सैन्य क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है, वह न केवल भारत, बल्कि अमेरिका के लिए भी चिन्ता का विषय है। भविष्य में एक महाशक्ति के रूप में उभरने के अपने सपने को साकार करने के उद्देश्य से शक्ति बढ़ाने के लिए चीन के कार्यक्रम के प्रति चौकन्ना होने के लिए अमेरिका बाध्य है। भारत और अमेरिका के बीच घनिष्ठ रणनीतिक और समुद्री सहयोग बीजिंग को एक कड़ा संदेश दे सकता है कि उसे क्षेत्र और दुनिया में शक्ति संतुलन को बदलने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। अमेरिका इस बात से खुुश होगा, यदि वह चीन को यह अहसास दिला सके कि क्षेत्र में उसके प्रभुत्व को चुनौती देने में भारत सक्षम है। चीन के विस्तारवादी डिजाइन में भारत की मज़बूती अमेरिका के सुपर पॉवर स्टेटस को बनाये रखने के लिए एक उच्च-स्तरीय भारत-अमेरिकी रणनीतिक सहयोग प्रभावी साबित हो सकती है।

चीन की बड़ी सैन्य ताकत और अर्थ-व्यवस्था दोनों विश्व स्तर पर, विशेष रूप से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अमेरिकी वर्चस्व के लिए खतरा मानी जाती हैं। साल 2017 के आधार पर चीन की अर्थ-व्यवस्था 3 ट्रिलियन डॉलर की है; जो क्रय शक्ति समानता में दुनिया में सबसे ज़्यादा और जीडीपी के मामले में दूसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था है। बाज़ार केंद्रित अर्थ-व्यवस्था में अपनी केंद्र-नियोजित प्रणाली को बदलने के बाद चीन अधिक-से-अधिक आर्थिक शक्ति का अधिग्रहण कर रहा है।

भारत-प्रशांत क्षेत्र में भारत को चीन से मिलने वाली चुनौती अमेरिका की समस्या के रूप में भी देखा जाता है। इसलिए, यदि अमेरिका चीन को भारत के पड़ोसियों- नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान तक सीमित रखने के उपाय करता है, तो इससे वह भारत के हितों की भी पूर्ति करता है। अगर वाशिंगटन इस पर गम्भीरता से काम करे, तो अमेरिका भारत के चारों ओर एक मज़बूत घेरा बनाने की चीन की रणनीति को कमज़ोर कर सकता है। नई दिल्ली से किसी भी तरह की मदद के लिए भारत के पड़ोसियों को कम दिलचस्पी लेने की चीन की नीति के बारे में एक विचार सार्क (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) देशों में बीजिंग से बड़े पैमाने पर निवेश से हो सकता है। चीन इन देशों को ऋण जाल में फँसाये रखने की कोशिश कर रहा है, ताकि उनकी नीतियों और कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से प्रभावित कर सके।

स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के एक अनुमान के अनुसार, बांग्लादेश में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (चीन प्रायोजित एक योजना, जिसमें पुराने सिल्क रोड के आधार पर एशिया, अफ्रीका और यूरोप के देशों को सड़कों और रेल मार्गों से जोड़ा जाना है) से सम्बन्धित चीनी निवेश जुलाई, 2019 तक लगभग 38 बिलियन डॉलर था। चीन ने बांग्लादेश में विभिन्न प्रकार के निवेश किये हैं। बिजली क्षेत्र में यह सबसे अधिक हैं, जिसके कारण कई विदेशी मामलों के विशेषज्ञ ढाका को धीरे-धीरे चीनी ऋण जाल में फँसता देख रहे हैं। जहाँ तक श्रीलंका का सम्बन्ध है, वह भी विदेशी ऋण करीब 66 बिलियन डॉलर में बहुत गहरा फँसा है और वित्त मंत्रालय के जारी आँकड़ों के अनुसार इस कर्ज़ में से अकेले चीन का 12 फीसदी है, जो सबसे बड़ा हिस्सा है।

यह बात नेपाल और म्यांमार के बारे में भी सच है। नेपाल और म्यांमार में कुल एफडीआई का 90 फीसदी चीन से आता है। चीन म्यांमार के विदेशी निवेश का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत और उसका शीर्ष व्यापार भागीदार है। वहाँ साल 1988 से 2019 तक स्वीकृत चीन का निवेश 20 अरब डॉलर से अधिक था, जो उस देश के कुल एफडीआई का करीब 26 फीसदी है। पाकिस्तान तो वस्तुत: चीन का उपनिवेश ही बन गया है, क्योंकि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में बीजिंग ने बड़ा निवेश किया है। यह पाकिस्तान के एक छोर से शुरू होकर चीन (शिनजियांग प्रान्त) तक जाता है और दूसरे छोर पर अरब सागर को छूता है, जहाँ पाकिस्तान की ग्वादर बंदरगाह स्थित है।

मौज़ूदा वैश्विक स्थिति भारत को विभिन्न क्षेत्रों में अमेरिकी साझेदारी के लिए एक आकर्षक गंतव्य बनाती है। यह स्पष्ट था कि राष्ट्रपति ट्रंप नयी दिल्ली में 2.6 बिलियन डॉलर कीमत के 24 सैन्य हेलीकॉप्टरों की आपूर्ति में तेज़ी लाने के लिए भारत-अमेरिकी सौदों पर हस्ताक्षर करने से क्यों खुश थे। अगर भारत में छ: परमाणु रिएक्टरों के निर्माण के लिए तकनीकी-वाणिज्यिक अमेरिकी प्रस्ताव के साथ हेलीकॉप्टरों की खरीद नई दिल्ली के लिए आवश्यक थी, तो ये सुस्त अमेरिकी रक्षा उद्योग में भी नये प्राण फूँकने के लिए मददगार थी। इसके कोई ज़्यादा मायने नहीं हैं कि इस साल के अन्त तक दोनों पक्षों के बीच बहुप्रतीक्षित व्यापार सौदे को अंतिम रूप दिया जाना है। इसके लिए रास्ता साफ हो चुका है।

हालाँकि, राष्ट्रपति ट्रंप ने अफगानिस्तान में चल रही शान्ति प्रक्रिया के मामले में भारत के रोल पर ज़्यादा भरोसा नहीं दिया, सिवाय इसके कि नई दिल्ली और वॉशिंगटन ने यह सुनिश्चित करने के लिए अपने संकल्प को दोहराया कि यह शान्ति प्रक्रिया अफगान के नेतृत्व वाली और अफगान-स्वामित्व वाली होगी। ट्रंप की भारत यात्रा के समापन के बाद जारी साझे बयान में इस बात का कोई उल्लेख या प्रावधान नहीं है कि पाकिस्तान को इस्लामाबाद समर्थित तालिबान गुटों के माध्यम से अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से रोका जाए, जो कि कुछ ही महीनों में अमेरिका सेना की वापसी के बाद योजनाबद्ध तरीके से काबुल में सत्ता संरचना का हिस्सा होगा। भारत स्पष्ट रूप से दक्षिण एशिया और अन्य जगहों से सीमा पार आतंकवाद को रोकने के लिए नयी अमेरिकी प्रतिबद्धताओं से खुश है। हालाँकि, इसमें कोई नई बात नहीं है। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रधान मंत्री मोदी और भारत के कुछ मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के किये इन वादों का स्वागत किया कि वे इस काम में जुटे हैं कि चीनी दूरसंचार दिग्गज हुआ वे को जल्द ही भारतीय 5जी नेटवर्क से बाहर किया जा सके, जिसका नतीजा अमेरिका में कौशल विकास के लिए किया गया भारतीय निवेश है। संयुक्त बयान के करीबी अध्ययन से पता चलता है कि दोनों पक्षों के बीच कोई बड़ी बात नहीं थी; क्योंकि यह नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच असैनिक परमाणु सहयोग समझौते के मामले में भी हुआ था, जब भारत में मनमोहन सिंह सरकार थी और अमेरिकी प्रशासन का नेतृत्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने किया था।

 फिर भी ट्रंप की यात्रा भारत के लिए संतोषजनक थी। इसके प्रमुख लाभ में से एक राष्ट्रपति ट्रम्प का रणनीतिक रूप से यह महत्वपूर्ण आश्वासन था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का एक स्थायी सदस्य बनने के भारत के सपने को साकार करने के लिए अमेरिका पूर्ण समर्थन देगा, क्योंकि बदले वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए कई देशों  की इस (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्) के विस्तार की माँग है।

सिंधिया के कांग्रेस छोडऩे के मायने

वफादारी किसी ब्लैंक चेक जैसी नहीं होती। यह किसी के जीवन का ऐसा हिस्सा है, जो केवल तभी काम करता है जब चीज़ें निश्चित हों और समय प्रामाणिक हो। सत्ता में रहने वाले जब इसे एक अधीनता के रूप में मानने की भूल कर बैठते हैं, तो उन्हें अक्सर इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। कांग्रेस और गाँधी परिवार के साथ हाल में ज्योतिरादित्य सिंधिया के मामले में यही हुआ, जिन्हें अक्सर कांग्रेस के वंशज राहुल गाँधी के ‘दाहिने हाथ’ के रूप में वर्णित किया जाता रहा था। यह न तो कोई अतिशयोक्ति थी और न मिथ्य। क्योंकि सिंधिया ने कांग्रेस में बिताये तमाम वर्षों में शायद ही कभी इस लक्ष्मण रेखा को लांघा हो।

उनके हथियार डाल देने का एक उदाहरण उनके गृह राज्य मध्य प्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद का है। जब पार्टी नेतृत्व ने मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ को सिंधिया के मुकाबले तरजीह दी। सिंधिया ने इस कड़ुवी गोली को भी निगल लिया। यदि उन्होंने राजस्थान के अपने समकक्ष सचिन पायलट की तरह मज़बूत सौदेबाज़ी की होती, तो सिंधिया की राजनीति की पटकथा आज अलग होती। याद करें, कांग्रेस ने जब अशोक गहलोत को राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में चुना था, तो पायलट ने इस पर कड़ा रुख अपनाया था। पायलट ने इसे भाँपते ही उच्च पद के लिए दावा ठोक दिया था, उसी के बाद उन्हें उप मुख्यमंत्री पद के लिए नामित किया गया था।

इसके विपरीत, सिंधिया की आकांक्षाओं पर विचार तक नहीं किया गया। उनकी चुप्पी ही काफी थी। लेकिन नेतृत्व ने इसे नहीं सुना, शायद इस भरोसे कि सिंधिया पार्टी को नुकसान पहुँचाने के लिए कुछ भी नहीं करेंगे और यह भी कि गाँधी परिवार के साथ उनके करीबी रिश्ते हैं। पार्टी ने अपनी इस सोच को सिंधिया के मामले में एक गारंटी की तरह मान लिया।

यह उनकी पहली गलती थी। यह उन्हें एक पद से वंचित कर देने भर की बात नहीं थी, बल्कि एक बड़ा सवाल उठा कि क्या किसी की बफादारी की यही कीमत चुकानी चाहिए? जो लोग आज सिंधिया को नीचा दिखा रहे हैं और उनके इस कदम को राजनीतिक अवसरवाद बता रहे हैं, उन्होंने अवश्य ही इस भावना को नज़रअंदाज़ किया है।

 कांग्रेस ने जो दूसरी गलती की, वह यह कि सिंधिया के समर्थन को उसने उनकी कमज़ोरी मान लिया। वर्षों की मित्रता और सान्निध्य के बावजूद वे यह समझने में असफल रहे कि सिंधिया बहुत मज़बूत व्यक्तित्व हैं और जब उन्हें किनारे लगाने की कोशिश होगी, तो वह जवाबी हमले के लिए खड़े हो सकते हैं।

इन तथ्यों के मद्देनज़र यह काफी स्पष्ट है कि उनके कांग्रेस से सम्बन्ध विच्छेद करने के पीछे महज़ भावना इकलौता कारक नहीं था। उनका राजनीतिक भविष्य भी खतरे में था।

दूसरों को पुरस्कृत करते हुए नेतृत्व ने न केवल उन्हें दरकिनार कर दिया था, बल्कि उनके विरोधियों की भी पीठ थपथपायी। उनके गृह राज्य में कमलनाथ-दिग्विजय सिंह की साठगाँठ ने उनका दबदबा कम कर दिया। उनके समर्थकों को उनके हिस्से से वंचित कर दिया गया और उनके अनुरोधों को व्यवस्थित तरीके से लगातार अनदेखा किया गया। कहा जाने लगा कि सिंधिया ज़मीन खो रहे थे। शायद, आिखरी झटका यह था कि उन्हें राज्यसभा टिकट से वंचित किया जा सकता है, क्योंकि कमलनाथ उन्हें समायोजित करने के लिए तैयार नहीं हैं। अगर ऐसा होता, तो यह सिंधिया के लिए बड़े अपमान से कम नहीं होता। किसी के स्वाभिमान को खत्म करके भी वफादारी की उम्मीद करना कुछ ज़्यादा ही बड़ी उम्मीद होती।

इतिहास का खुद को दोहराने का एक अजीब तरीका है। ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया को भी कांग्रेस और गाँधी परिवार के हाथों प्रताडि़त होना पड़ा था। साल 1989 में राजीव गाँधी ने अर्जुन सिंह के इशारे पर मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी को नज़रअंदाज़ कर दिया, जिन्हें अदालत के आदेश का अपना पद छोडऩा पड़ा था। ठीक इसी की तर्ज पर राहुल गाँधी ने ज्योतिरादित्य की जगह कमलनाथ को चुना।

1996 का दोहराव

माधवराव सिंधिया को लोकसभा चुनाव में टिकट देने से इन्कार कर दिया गया था। उन्होंने बगावत की और पार्टी से बाहर चले गये। 24 साल बाद उनके बेटे ने भी यही राह चुनी। और कांग्रेस छोडऩे के लिए उन्होंने 10 मार्च का दिन चुना, जो उनके दिवंगत पिता की 75वीं जन्मजयंती का है और काफी महत्त्वपूर्ण है। अपने पिता की तरह ज्योतिरादित्य को भी किनारे कर दिया गया। लेकिन उनके विपरीत, ज्योतिरादित्य ने एक सुरक्षित राह चुनी। उनके पिता एक नयी पार्टी बनायी, जबकि ज्योतिरादित्य ने उस भाजपा को चुना; जो सत्ता में है। कांग्रेस के भीतर और बाहर कई लोग इस बात से सहमत हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया बेहतर पाने के हकदार थे। लेकिन वे उन्हें भाजपा की बाहों में जा समाने के लिए दोषी मानते हैं। अगर इस बात को अलग कर दें, तो उनके पक्ष में सहानुभूति का एक बड़ा कारक पैदा हो जाता है। लेकिन कांग्रेस छोडऩे के कुछ ही घंटों के भीतर भगवा को गले लगाना भी एक तरह से उनका गलत आकलन करने जैसा ही है।

इसमें स्पष्ट रूप से दो विचार हैं- एक यह कि सिंधिया एक अवसरवादी हैं और दूसरा यह कि उनके साथ खराब व्यवहार किया गया। हालाँकि, इन दोनों तर्कों को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त सुबूत हैं, लेकिन मुद्दा कहीं अधिक जटिल है। यह महज एक कांग्रेसी के बाहर निकलने या वफादारी तोडऩे तक सीमित नहीं है, न तो यह किसी डूबते जहाज़ को छोडऩे जैसा या व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा का है। यह उससे कहीं बड़ी बात है। यह कांग्रेस में पैदा हो चुकी उदासीनता का संकेत है। यह नेतृत्व के पार्टी कार्यकर्ता की ज़रूरतों और आकांक्षाओं के प्रति उदासीनता का संकेत है। यह उस पार्टी के बारे में है, जो तब जागती है, जब बहुत देर हो चुकी होती है। यह अपने दल को एकजुट रखने के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाता है; और सबसे अहम, यह कि यह उन चुनौतियों का सामना करने में नाकामी का संकेत है, जो उसके आड़े हैं।  यह किसी एक व्यक्ति के बारे में नहीं है, बल्कि पूरी कांग्रेस के बारे में है- इसका पतन; जिसे रोकने में इसका नेतृत्व विफल रहा है। यह उन मुद्दों का समाधान करने में असमर्थता के बारे में है, जिन्हें तत्काल निवारण की आवश्यकता है।

इसलिए, कांग्रेस यदि सिंधिया के पार्टी से बाहर निकलने को इक्का-दुक्का मामले या इसे बस यूँ ही हो जाने वाली घटना के ही रूप में लेती है, तो यह उसकी एक घातक गलती होगी। यदि वो दीवार पर लिखी इबारत को पढऩे में नाकाम रहती है और इसे एक रुटीन घटना मान लेती है, तो वो अपना बड़ा नुकसान करेगी। यह भी सच है कि सिंधिया कांग्रेस छोडऩे वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं; न ही वह आिखरी होंगे। लोग आते-जाते रहते हैं, लेकिन संस्थाएँ अपनी जगह रहती हैं। इसलिए, कम-से-कम इस स्तर पर कांग्रेस को खत्म मान लेना न केवल मूर्खता होगी, बल्कि यह समय से पहले ही ऐसा सोच लेने जैसा भी होगा।

कांग्रेस की उन्नत्ति में सबसे बड़ा रोड़ा राहुल गाँधी हैं। यह उनकी वजह से है कि दूसरों को किनारे रखा गया है। उनका एक वास्तविक डर है। इस तरह से उनके व्यवहार से उन सभी लोगों के करियर को खतरे में डालना है, जो निष्ठा की प्रतिज्ञा कर चुके हैं। भले ही सिंधिया को उनकी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के लिए कोसा जा रहा हो, लेकिन कोई भी उन्हें उनकी शीर्ष पर पहुँचने की आवश्यकता को गलत नहीं ठहरा सकता। कांग्रेस ने माधवराव सिंधिया को शिकस्त दी, लेकिन उनके बेटे ने घुटने नहीं टेकने का फैसला किया। महत्त्वाकांक्षा के अलग-अलग पैमाने नहीं हो सकते। 100 साल की पार्टी का भविष्य दाँव पर रख दिया गया है; क्योंकि एक माँ अपने बेटे को शासन में देखने की महत्त्वाकांक्षा रखती है।

इस दृष्टिकोण से देखें, तो सिंधिया महत्त्वाकांक्षी होने के लिए क्यों गलत हैं? राहुल के लिए राजनीति एक खेल का मैदान हो सकती है, लेकिन कई अन्य लोगों के लिए यह गम्भीर व्यवसाय है। इसलिए, भले ही ज्योतिरादित्य का ‘देश सेवा’ का कथन एक पाखंड हो, लेकिन उनके इरादे अंतर्निहित हैं। कांग्रेस में वह एक बन्द गली में पहुँचते दिख रहे थे। इसलिए, कांग्रेस को इस संदेश को समझने की ज़रूरत है। इसका नेतृत्व बेखबर होने का जोखिम नहीं उठा सकता। रेत में अपना सिर दबाने के बजाय उसे उठकर बैठना चाहिए। उसे यह मानना चाहिए कि सिंधिया के बाहर निकलना और बड़े नुकसान की आहट है, जो पार्टी के भीतर एक बड़े पलायन का रास्ता खोल सकती है। हो सकता है वे अकेले मशालवाहक न हों, लेकिन उन्होंने निश्चित ही अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी है।

(कुमकुम चड्ढा वरिष्ठ पत्रकार हैं। कई किताबें लिख चुकी हैं, उनकी हालिया पुस्तक ‘द मैरीगोल्ड स्टोरी : इंदिरा गाँधी व अन्य’ चर्चित रही है। कई पुरस्कारों से सम्मानित कुमकुम ने जेल सुधार पर राष्ट्रीय समिति में भी कार्य किया है।)

कोरोना का रोना, व्यापार ठप!

चीन के वुहान से शुरू हुआ कोरोना वायरस दुनिया के 100 से अधिक देशों में फैल चुका है। इसके कारण भारत के स्वास्थ्य महकमे पर ही नहीं, बल्कि यहाँ का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं हैं, जहाँ कोरोना के चलते भय न फैला हो। दिल्ली एनसीआर में स्वास्थ्य महकमे, व्यापार जगत के साथ-साथ शिक्षा का क्षेत्र काफी प्रभावित हुआ है। दिल्ली के बाज़ारों, स्कूलों और अस्पतालों के साथ मेडिकल स्टोरों पर कोरोना के कहर को लेकर तहलका के विशेष संवाददाता ने पड़ताल की। इस दौरान पता चला कि चीन के कोरोना वायरस ने दिल्ली में भयावह हालात पैदा कर दिये हैं, जिसके चलते होली के सीजन में बड़ा आर्थिक घाटा हुआ। कोरोना के कारण लोगों का बुरा हाल है। वहीं, मुनाफाखोर सैनेटाइजर्स और मास्क विक्रेता कालाबाज़ारी से बाज़ नहीं आये। इस कालाबाज़ारी में ड्रग विभाग के साथ दिल्ली पुलिस की साठगाँठ से गरीबों को खास दिक्कतों को सामना करना पड़ा। दिल्ली सरकार के अस्पतालों, निजी असपतालों, एम्स और सफदरजंग अस्पतालों के साथ-साथ दिल्ली नगर निगम के अस्पतालों में इस समय मास्क उन मरीज़ों के मिल रहे हैं, जो अस्पतालों में अपनी पहुँच रखते हैं या फिर दलालों से सम्पर्क कर पैसा देकर मास्क प्राप्त कर रहे हैं। सैनेटाइजर्स तो दिल्ली सरकार के अस्पतालों में कभी मिलते ही नहीं हैं। इसलिए सख्त ज़रूरत के दौरान मरीज़ और तीमारदार सैनेटाइजर्स की उम्मीद ही नहीं कर रहे हैं। निजी अस्पतालों मेें तो मास्क की कोई कमी नहीं है। दिल्ली के नामी मेडिकल स्टोरों में मास्कों की कोई कमी नहीं है। मास्कों की बिक्री मनमानी कीमत पर धड़ल्ले से की जा रही है। जो मास्क आसानी से पाँच और 10 रुपये में मिल जाता था, वह अब मेडिकल स्टोरों पर 20, 30 और 40 रुपये में बेचा जा रहा है। मेडिकल स्टोरों पर कुछ जागरूक ग्राहक मनमाने दामों पर बेचे जा रहे मास्कों और सैनेटाइजर्स की बिक्री का विरोध करते हैं। अगर ऐसे ग्राहक ड्रग विभाग व दिल्ली पुलिस में शिकायत करने की बात करते हैं, तो मेडिकल स्टोर वाले उन्हें मास्क नहीं देते और बेधड़क कहते हैं कि जो करना है, कर लो; सब जगह सेटिंग है। नामी मेडिकल स्टोर वाले और छोटे-छोटे मेडिकल स्टोर वालों ने तो पुलिस और ड्रग विभाग से बचने के लिए मेडिकल स्टोर से दूर हटकर अड़ोस-पड़ोस की दुकानों में कालाबाज़ारी के लिए मास्कों का स्टोर जमा कर रखा है। मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर डॉ. विवेक कुमार ने बताया कि कोरोना वायरस का असर शरीर के प्रत्येक अंग पर पड़ता है। इसमें हृदय रोगियों को विशेष सावधानी बरतने की ज़रूरत है। दिल शरीर का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण अंग है, जो ज़रा-सी लापरवाही होने पर धोखा दे सकता है। ऐसे में ज़रा-सी घबराहट होने पर डॉक्टर से परामर्श लें और ज़रूरी उपचार करवाएँ।

देश-दुनिया में इस समय कोरोना वायरस से मरीज़ों का हाल बेहाल है। उनमें ज़बरदस्त खौफ है। बहुत-सी जानें जा चुकी हैं। इलाके-के-इलाके बन्द कर दिये गये हैं। स्कूल और सिनेमाघरों के अलावा एक जगह इकट्ठे होने वाली जगहों से बचने की सलाह दी जा रही है। वहीं, दलाल व मुनाफाखोर पैसा कमाने के लिए इस बीमारी को वे एक उत्सव की तरह देख रहे हैं। सबसे गम्भीर व चौंकाने वाली बात तो यह है कि मास्क और सैनेटाइजर्स कालाबाज़ारी में वे लोग लग गये हैं, जिनका दूर-दूर तक स्वास्थ्य महकमे से कोई लेना-देना नहीं है। पर अब मज़े से लाखों करोड़ों रुपये के मास्क उपलब्ध करा रहे हैं और अच्छा-खासा मुनाफा कमा रहे हैं। दिल्ली का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहाँ पर मास्कों की सप्लाई में मुनाफाखोर न लगे हों।

दिल्ली के भागीरथ पैलेस और लाजपत नगर में दवा विक्रेताओं ने बताया कि मास्कों का बाज़ार से टोटा उसी समय होने लगा था, जब चीन में कोरोना वायरस का कहर ज़ोर पकड़ रहा था। अब तो दुनिया के साथ-साथ भारत में कोरोना वायरस के मरीज़ों की संख्या मेें इज़ाफा हो रहा है। कैमिस्ट एसोसिएशन के कैलाश गुप्ता का कहना है कि इस समय चीन और सिंगापुर में मास्कों की सप्लाई भारत से हो रही है। ऐसे में एक साज़िश के तहत मास्कों की कालाबाज़ारी करने वालों ने यहाँ पर मास्कों की कमी दिखाकर एक धन्धे के तौर पर काम करना शुरू कर दिया है। यह बाज़ार में हौवा खड़ा कर दिया है कि मास्कों की कमी है।

मास्कों, सैनेटाइजर्स के साथ-साथ ग्लव्स की कमी भी बाज़ारों में बनी हुई है। लाजपत नगर के दवा व्यापारी सुरेंद्र सिंघल ने बताया कि देश में एक अजीब-सा माहौल बनता जा रहा है। जिसको देखो वही मार्केटिंग कर रहा है। अब दिल्ली में मास्क और सैनेटाइजर्स के साथ ग्लव्स की कमी बतायी जाने लगी है। जहाँ लोगों को इस ‘महामारी’ के समय लोगों की मदद करनी चाहिए, पर वास्तव में ऐसा नहीं हो रहा है। सरकार को तत्काल ऐसे लोगों के िखलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, ताकि कालाबाज़ारी को रोका जा सके।

यही हाल व्यापार जगत का है कि कोई भी व्यापारी ऐसा नहीं है, जो कोरोना का रोना नहीं रो रहा हो। होली के सामान की बिक्री करने वाले धीरज अग्रवाल ने बताया कि पिछले कई साल से वे दिल्ली के चाँदनी चौक पर फुटपाथ पर लाखों रुपये की पिचकारी और होली के खिलौने त्योहार से दो सप्ताह पहले ही बेच लेते थे। इस बार चाइनीज सामान को लोग खरीदने से कतरा रहे हैं और उस पर देश के पीएम नरेन्द्र मोदी और दिल्ली के सीएम केजरीवाल ने घोषणा कर दी थी कि वे कोराना वायरस की वजह से होली मिलन में शामिल नहीं होंगे यानी होली नहीं मनाएँगे। उसके बाद तो मानो होली का सामान बिकना ही बन्द हो गया।

मिठाई विक्रेता पवन गर्ग ने बताया कि वैसे ही बाज़ार में मंदी के कारण पिछले कई साल से धन्धा मन्दा पड़ा था, उस पर इस बार कोरोना वायरस के डर के कारण लोगों ने बाहर का खाना बन्द-सा कर दिया है, जिसके कारण उनकी मिठाई की बिक्री दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। क्योंकि, लोगों को लगता है कि मिठाई में मिलावटी सामान होने की वजह से संक्रमण हो सकता है, जो उनको बीमार कर सकता है।

दिल्ली के स्कूलों की बात करें, तो बच्चों के ज़्यादातर अभिभावकों ने अपने बच्चों को मास्क और हाथों में ग्लव्स और सैनेटाइजर्स के साथ स्कूल भेज रहे हैं। ऐसे में उन बच्चों को काफी दिक्कत हो रही है, जो महँगे मास्क, सैनेटाइजर्स और ग्लव्स नहीं खरीद सकते हैं। अभिभावक राजकुमार बीणा ने बताया कि दिल्ली सरकार ने ज़रूर पाँचवीं तक के स्कूलों की छुट्टी कोरोना वायरस के चलते 31 मार्च तक कर दी है। लेकिन दिल्ली और केंद्र सरकार का यह भी तो दायित्व बनता है कि वे स्कूलों में सभी बच्चों को मास्क मुहैया कराएँ, ताकि यह बीमारी फैलने ही न पाये।

व्यापार मंडल के महामंत्री विजय जैन का कहना है कि भारत सरकार और रिज़र्व बैंक ने ज़रूर आश्वासन दिया है कि वो बाज़ार को हर सम्भव सहायता देंगे। ऐसे समय में यह बयान हौसलाअफजाई तो करता है, पर फायदा नहीं। इसके लिए सरकार को ठोस नीति बनानी होगी, ताकि आने वाले दिनों में बाज़ार की और हालत खस्ता हो, उससे पहले ज़रूरी कदम उठाने होंगे।

कोरोना का कहर दवा कम्पनियों, फार्मास्युटिकल की कम्पनियों, इलेक्ट्रिक व्हीकल इंडस्ट्री की रफ्तार कम कर सकता है। आयात-निर्यात बड़े पैमाने पर प्रभावित कर सकता है। नोएडा के व्यापारी संजीव अग्रवाल और रमाकांत गर्ग ने कहा कि सरकार की कौन-सी ऐसी पॉलिसी है, जिससे दिन-ब-दिन बाज़ारों से रौनक खत्म होने के बारे में कुछ किया जा रहा हो? कोई भी अमानवीय संकट आने पर सबसे पहले बाज़ार पर उसका असर दिखता है। इस समय एक संकट कोरोना का है। सरकार से लेकर हर महकमा कोरोना के कहर से बचाव में लग गया है, लेकिन बाज़ार में मंदी छा गयी है।

गौर करने वाली बात यह सामने आयी है कि सरकार के ही लोग आर्थिक चोट पहुँचाने में लगे हैं। इस समय मास्कों, ग्लव्स और सैनेटाइजर्स की कालाबाज़ारी में दिल्ली सरकार के लोकनायक अस्पताल के स्वास्थ्य कर्मचारी, राममनोहर लोहिया अस्पताल के स्वास्थ्य कर्मचारी और दिल्ली नगर निगम के कर्मचारी लगे हैं। सूत्रों के मुताबिक, ये कर्मचारी रोज़ाना बड़ी आसानी से बाज़ारों में मास्क, ग्लव्स सप्लाई कर रहे हैं। और तो और, दवा कम्पनियाँ भी अधिकारियों से साठगाँठ करके बिना जीएसटी के बिलों के लाखों मास्क बेचने में लगे हैं।

चौंकाने वाली बात यग है कि मास्कों के नमूने भी सोशल मीडिया में दिखाकर पास हो रहे हैं और आसानी से ग्राहकों तक पहुँचाये जा रहे हैं। इस समय एनसीआर में दिल्ली के यमुनापार और राजौरी गार्डन के कई क्षेत्रों से इन मास्कों की कालाबाज़ारी ज़ोरों पर है।

हरियाणा को नशे की गिरफ्त से बचाने की कोशिश में राज्य सरकार

हरियाणा में बढ़ती नशाखोरी रोकने के लिए हरियाणा सरकार ने नशा तस्करी पर लगाम कसने की तैयारी शुरू कर दी है। सरकारी सूत्रों की मानें, तो हरियाणा सरकार इसके लिए जल्द ही 65 स्निफर डॉग खरीदेगी। नशामुक्त राज्य बनाने के लिए सरकार इसके लिए पाँच करोड़ रुपये खर्च करेगी। हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज ने इसकी जानकारी दी।

अनिल विज ने यह भी कहा कि हरियाणा में मादक (नशीले) पदार्थों की पैदावार नहीं होती, बल्कि बाहर से नशीले पदार्थों की तस्करी होती है। सवाल यह है कि अनिल विज ने नशीले पदार्थों की तस्करी का आरोप इशारों-ही-इशारों में किन राज्यों की तरफ किया? शायद, पंजाब और दिल्ली की तरफ। क्योंकि पंजाब में नशे की तस्करी होती है। वहीं दिल्ली और उत्तर प्रदेश भी इस मामले में पीछे नहीं है।

विज ने कहा कि दूसरे राज्यों से नशे की तस्करी को रोकने के लिए राज्य सरकार ने जल्द ही 65 स्निफर डॉग खरीदने का फैसला किया है, ताकि सीमाओं पर सघनता से जाँच की जा सके और मादक पदार्थों के तस्करों को पकड़ा जा सके। यहाँ बताना ज़रूरी है कि दूसरे राज्यों की तरह हरियाणा भी नशे की गिरफ्त से मुक्त नहीं है। यहाँ तक कि हरियाणा के अनेक खिलाडिय़ों पर भी नशा करने के आरोप लग चुके हैं। एक सर्वे में पाया गया है कि हरियाणा में हुक्के के चलन को युवाओं ने न केवल बढ़ावा दिया है, बल्कि उसका क्रेज भी उनमें लगातार बढ़ रहा है। इसके लिए हुक्काबार जाकर देखा जा सकता है। यही नहीं पिछले 15 साल में हरियाणा के बड़े शहरों, खासतौर से गुडग़ाँव में बार और क्लबों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है, जो नशे के मुख्य केंद्र बन चुके हैं। हरियाणा में नशाखोरी के चलते कई बार हत्या, लूट, चोरी और बलात्कार जैसी घटनाएँ भी सामने आयी हैं। फरीदाबाद के एक समाजसेवी ने नाम न छापने की शर्त बताया कि पूरे हरियाणा में मादक पदार्थों के तस्करों का जाल फैला है, जिनसे उलझने का मतलब है मौत को बुलावा देना। यह जाल युवाओं को अपनी जकड़ में लेता जा रहा है।

तस्करों के सॉफ्ट टारगेट हैं युवा

माना जा रहा है कि पंजाब के बाद अब हरियाणा में नशे का जाल बढ़ता जा रहा है। हरियाणा मादक पदार्थों के तस्करों के लिए सॉफ्ट टारगेट है। इसका कारण यह है कि हरियाणा में युवा आॢथक मज़बूती के चलते आसानी से नशे की लत में फँसने लगे हैं। एक रिपोर्ट में ऐसा कहा भी गया है कि हरियाणा के युवा मादक पदार्थों के तस्करों के सबसे सॉफ्ट टारगेट हैं। 2019 में उत्तर भारत के सबसे बड़े स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ में संचालित राज्य व्यसन निर्भरता उपचार केंद्र की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हरियाणा में नशे का ट्रेंड बदल रहा है। रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि राज्य के 18 से 25 साल की उम्र के अधिकतर युवा इंजेक्शन के ज़रिये नशा ले रहे हैं और महँगे नशे के शौकीन होने लगे हैं। यहाँ तक कि अनेक युवा हेरोइन को पानी में घोलकर इंजेक्शन के माध्यम से नशा लेते हैं, जो कि बहुत खतरनाक है।

खतरनाक रोगों की चपेट में नशा करने वाले लोग

राज्य व्यसन निर्भरता उपचार केंद्र की रिपोर्ट में कहा गया है कि संकट की बात केवल नशा ही नहीं है, बल्कि यह भी है कि एक ही इंजेक्शन से अनेक लोग नशा ले लेते हैं, जिससे उनमें खतरनाक रोग, जैसे- एचआईवी, हेपेटाइटिस और दूसरे रोगों के फैलने का खतरा बढ़ रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बार-बार इंजेक्शन लेने से युवाओं की नसें बन्द हो रही हैं, जिससे उन्हें दर्द होता है और उससे बचने के लिए वे दोबारा नशा लेते हैं। यही नहीं युवा हर बार ओवरडोज लेते हैं, जो कि उनकी ज़िन्दगी को निगल रही है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि नशे के आदी हो चुके युवा महँगे नशे की लत को पूरा करने के लिए अपराध की दुनिया में कदम रख रहे हैं। ऐसे युवा पहले घर से चोरी की शुरुआत करते हैं और बाद में गम्भीर अपराधों को अंजाम देने से भी नहीं चूकते। स्टेट ड्रग डिपेंडेंट सेल में हर रोज़ ऐसे मामले आ रहे हैं। महँगे नशे के शौकीन 70 फीसदी युवा इंजेक्शन ले रहे हैं। वे इंजेक्शन के ज़रिये हेरोइन और स्मैक लेने लगे हैं।

नशा मुक्ति केंद्रों में हर साल आते हैं सैकड़ों मामले

रिपोर्ट में कहा गया है कि नशा मुक्ति केंद्रों में नशा करने वाले 1712 मरीज़ सन 2018 में और 600 से अधिक मरीज़ 2019 के सितंबर तक आये थे। मानसिक स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार, यहाँ के डॉक्टरों ने वर्ष 2018 व 2019 के सितंबर माह तक के आँकड़े इकट्ठे किये। यह आँकड़े बताते हैं कि राज्य के सैकड़ों युवा हेरोइन, स्मैक, कोकीन, स्मैक, अफीम, कैप्सूल, नशीली दवाएँ, इंजेक्शन, गाँजा, सुलपा, महँगी शराब और हुक्का भी पीते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि नशा करने वालों में 60 फीसदी युवा हेरोइन व स्मैक लेने के आदी मिले हैं, जबकि 30 फीसदी इंजेक्शन के ज़रिये महँगे नशे का सेवन करने वाले मिले हैं।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पिछले दो वर्षों में नशे के आदी अधिकतर युवाओं ने गाँजा, अफीम, तम्बाकू की जगह हेरोइन, कोकीन, स्मैक और इंजेक्शन का सेवन शुरू कर दिया है। जिन लोगों को नशे से छुटकारा पाने की इच्छा होती है या उनके परिजनों को उनकी लत के बारे में पता चलता है, उन्हें नशा मुक्ति केंद्रों में लाये जाने पर काउंसिलिंग और दवाओं के ज़रिये इस लत से छुटकारा दिलाया जाता है।

दिल्ली-पंजाब से सप्लाई होते हैं मादक पदार्थ

रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि इलाज के लिए आने वाले अधिकतर लोगों ने काउंसिलिंग के दौरान बताया है कि दिल्ली व पंजाब से सटे बॉर्डर के क्षेत्रों से उन्हें सीधे या तस्करों के ज़रिये हेरोइन, स्मैक व कोकीन जैसे नशीले पदार्थ मिलते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि मादक पदार्थों की तस्करी का यह कारोबार गुडग़ाँव, फरीदाबाद, रोहतक, झज्जर, सिरसा, फतेहाबाद, हिसार, सोनीपत समेत अन्य कई ज़िलों में बेरोकटोक हो रहा है। इसके अलावा बस अण्डों, रेलवे स्टेशनों पर और होटलों, रेस्टोरेन्टों में तस्कर बेखौफ होकर हेरोइन, कोकीन, स्मैक व गाँजे की सप्लाई करते हैं। यहाँ तक कि तस्करों के जाल में छोटे कस्बों और गाँवों के युवा भी फँसते जा रहे हैं। काउंसिलिंग के दौरान 55 फीसदी युवाओं ने कहा है कि पहले-पहल तो उन्होंने शौक में या यारी-दोस्ती में नशा किया और बाद में नशे की लत लग गयी। जबकि, 30 फीसदी ने प्यार या करियर में फेल होने के बाद नशा लेना शुरू किया था। वहीं, 10 फीसदी ने बिना किसी कारण के नशा करना शुरू किया और 5 फीसदी को धोखे से या ज़बरन नशे का शिकार बनाया गया।

केवल हरियाणा नहीं, हर राज्य है नशे की गिरफ्त में

एक सर्वे के अनुसार, देश के अधिकतर युवा नशीले पदार्थों का सेवन कर रहे हैं। इनमें सिगरेट, बीड़ी, शराब, तम्बाकू और गुटखा का सेवन करने वालों की संख्या सबसे ज़्यादा है। 2019 में किये गये एक सर्वे के अनुसार, प्रतिदिन देश के छ: हज़ार से अधिक युवा तम्बाकू उत्पादों का सेवन करते हैं, जिनकी संख्या में लगातार बढ़ रही है। सर्वे के आँकड़ों पर विश्वास करें, तो भारत में करीब 12 करोड़ लोग धूम्रपान करते हैं, जिनमें से 25 फीसदी महिलाएँ हैं।  पिछले साल वाशिंगटन यूनिवर्सिटी ने 185 देशों में सिगरेट पीने वालों पर सर्वे करके एक रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी दुनिया में अमेरिका के बाद भारत ही एक ऐसा देश है, जिसमें युुवतियाँ सबसे ज़्यादा सिगरेट पीती हैं।

हैरत की बात है कि भारत में सिगरेट पीने वाली युवतियों की संख्या 1 करोड़ 27 लाख से अधिक है। वहीं भारतीय युवा तेज़ी से शराब की गिरफ्त में आ रहे हैं। 40 देशों के शराब सेवन सम्बन्धी अध्ययन से पता चला है कि भारत में केवल 20 साल में शराब का सेवन करने वालों की संख्या में 60 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। अध्ययन रिपोर्ट यह भी कहती है कि भारत में 55 फीसदी पुरुष शराब पीते हैं और 45 फीसदी महिलाएँ शराब पीती हैं। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि नशा करने वाली महिलाओं की संख्या शहरों में ज़्यादा है।

बच्चे और छात्र भी आ रहे गिरफ्त में

रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि मादक पदार्थ के तस्करों की गिरफ्त से बच्चे और स्कूल, कॉलेज के छात्र भी नहीं बच पा रहे हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि नशे का शिकार बनाने के लिए शुरू में तस्कर बच्चों और छात्रों को फ्री में मादक पदार्थ मुहैया कराते हैं, ताकि उन्हें इसकी आदत पड़ सके और वह खरीदकर नशा करने पर मजबूर हो जाएँ। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि तस्कर नये युवाओं और बच्चों को दोस्ती करके अथवा किसी और तरीके से बहला-फुसलाकर उनके साथ खुद भी नशा करते हैं और बाद में उन पर दबाव बनाकर मादक पदार्थों का पैसा वसूलते हैं। चाइल्ड लाइन इंडिया फॉउन्डेशन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 18 वर्ष से कम उम्र के 65 फीसदी बच्चे नशे की गिरफ्त में हैं।

लड़कियाँ भी फँस रहीं जाल में

नशा मुक्ति केंद्र के डॉक्टरों की मानें, तो लड़कियाँ भी नशे की गिरफ्त में फँसती जा रही हैं। डॉक्टरों का कहना है कि लड़कियाँ अपने शौक पूरे करने के लिए ऐसे लड़कों के चंगुल में फँस जाती हैं, जो नशा करते हैं और बाद में उनके साथ नशा करने लगती हैं। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लैमरस दुनिया और महँगे शौक लड़कियों को हुक्का बार, क्लब, डांस बार जैसी जगहों तक ले जाते हैं और फिर उनको नशे की गिरफ्त में ले लिया जाता है। इतना ही नहीं नशे की आदी हो जाने के बाद अधिकतर लड़कियों को जिस्मफरोशी के धन्धे में धकेल दिया जाता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कुछ लड़कियाँ अपनी अमीरी के चलते शौिकया नशा करने लगती हैं और फिर उन्हें नशे की लत लग जाती है।

क्या भरोसा, अब नहीं सुलगेगी दिल्ली!

कहा जाता है कि दिल्ली में कुछ भी हो, उसका असर पूरे देश में दिखाई देता है। दिल्ली जब दंगे की आग में जल रही थी, तो पूरा देश संवेदनशील था और देश के लोग परेशान-हैरान थे, जिसकी दहशत कम-से-कम दिल्ली के लोगों के मन में तो आज भी है। सरकार, पुलिस प्रशासन आश्वासन दे रहे हैं कि अब सब शान्त है; किसी को भी डरने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन क्या भरोसा कि दिल्ली अब नहीं सुलगेगी!

यह बात आपको अचम्भित ज़रूर करेगी, लेकिन यह बात मैं बहुत सोच-समझकर कह पाने की हिम्मत जुटा पाया हूँ। इसका पहला कारण यह है कि दिल्ली में दंगे की अफवाहें दंगे के बाद भी भी उड़ती रही हैं। यह अलग बात है कि दंगों की अफवाह फैलाने वाले 24 आरोपियों को पुलिस ने 2 मार्च तक गिरफ्तार कर लिया था। दूसरा कारण यह है कि अभी भी सभी दंगाई पुलिस के हत्थे नहीं चढ़े हैं। न ही सरकार का पुलिस पर दंगाइयों को पकडऩे के लिए कोई बड़ा दबाव दिख रहा है। तीसरा कारण यह है कि दंगा भड़काने वाले कई लोगों के िखलाफ तो एफआईआर तक नहीं हुई है। इनमें ज़्यादातर लोग सियासत से जुड़े हैं, जिन पर पुलिस हाथ डालने से भी कतरा रही है। चौथा कारण है, दंगा भड़काने वालों के िखलाफ कार्रवाई करने का आदेश देने वाले जज का रातोंरात ट्रांसफर हो जाता है। पाँचवाँ कारण है, अब भी सोशल मीडिया पर अनेक ऐसे वीडियो आ रहे हैं, जिनमें लोग हथियार लहराकर दूसरे धर्म के लोगों को धमकियाँ दे रहे हैं और उन लोगों पर कोई भी कार्रवाई नहीं हो रही है। यह अलग बात है कि कुछ लोगों पर कार्रवाई की गयी है, लेकिन उसमें धार्मिक विद्वेष की बू भी आ रही है। इसकी वास्तविकता यह है कि दिल्ली में जो साहिब-ए-मसनद हैं, वे चाहते हैं कि सत्ता का सुख मरते दम तक उनके लिए ही रहे, फिर चाहे इसके लिए जो भी करना पड़े। लेकिन ये साहिब-ए-मसनद यह बात भूल बैठे हैं कि गरिमामयी पदों पर आसीन होने के बावजूद उन पर से पूरे देश की अवाम का भरोसा उठता जा रहा है। इसकी कई वजहें हैं, जो न केवल जायज़ हैं, बल्कि स्वभाविक भी हैं। इतिहास गवाह है कि जब-जब सियासी लोग केवल स्वहित की सोचने लगते हैं, अवाम उनके लिए इतनी गौड़ हो जाती है कि आम लोग उन्हें कीड़े-मकोड़े से ज़्यादा कुछ नहीं दिखते। यहीं से सियासत मर्यादाओं का उल्लंघन करती है और तानाशाही शासन की शुरुआत होती है। दिल्ली में इसी तानाशाही शासन की एक झलक प्रस्तुत की गयी है। इसमें कोई हैरत नहीं कि जब चुनाव जीतने की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं, तब यह एक बौखलाहट ही थी कि गोली मारो जैसे बयान देकर सनकी भीड़ को उकसाया गया। लेकिन सियासी लोग यह भूल गये कि दिल्ली दंगों का जो असर देश के तमाम हिस्सों पर पड़ा है, या कहें कि इस आग की जो चिंगारियाँ देश के दूसरे हिस्सों में छिटककर गिरी हैं, उनसे कभी भी कहीं भी हिंसा की आग भड़क सकती है। दिल्ली में भी अब कभी दंगे नहीं होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं। क्योंकि अगर सरकार सभी दंगाइयों के िखलाफ कार्रवाई करती, तब यह भरोसा बढ़ता कि दिल्ली में दंगे नहीं होंगे। दूसरा आम आदमी पार्टी की सरकार ने इस बार दंगाइयों के िखलाफ बोलने से जिस तरह परहेज़ करते हुए पीडि़तों के घावों पर दूर से मरहम लगाने की कोशिश की है, उससे भी दंगाइयों के हौसले बुलंद होने स्वाभाविक हैं। यह अलग बात है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी के दंगों के आरोपी निगम पार्षद ताहिर हुसैन को बर्खास्त करके सज़ा देने की इल्तिजा की।

पूरा देश कर रहा सवाल

वर्तमान सरकार की यह बड़ी कमी है कि वह सवालों के जवाब नहीं देती। सवाल करने वालों को देशद्रोही तक कह दिया जाता है। किसी गलत काम का खुलासा करने वाले पत्रकारों पर हमले हो जाते हैं और सीधे-सादे लोगों को बिना खता के आरोप लगाकर पीट दिया जाता है- कहीं तथाकथित उपद्रवी भीड़ के द्वारा, तो कहीं पुलिस के ही द्वारा। दिल्ली दंगों को लेकर भारत सरकार ने अब भी एक चुप्पी साधी हुई है। पूरा देश सवाल कर रहा है। दिल्ली दंगों के बाद सोनिया गाँधी की अगुवाई में कांग्रेस नेताओं ने राष्ट्रपति से मिलकर विरोध भी जताया और गृह मंत्री अमित शाह का इस्तीफा भी माँगा। लेकिन उसका भी असर न तो सरकार पर हुआ और न ही अमित शाह के कान पर जूँ रेंगी। न ही उन्होंने विपक्ष को कोई तरजीह दी। राष्ट्रपति भी खामोश रहे। कपिल मिश्रा को वाई प्लस सिक्योरिटी दे दी गयी। क्या इससे दंगा करने वालों का मनोबल नहीं बढ़ेगा? क्या आने वाले समय में सियासी लोग और उत्तेजक और भड़काऊ बयान देने की ज़ुर्रत नहीं करेंगे? यही बात है कि पूरी दुनिया कह रही है कि दंगा भड़काने या उत्तेजक बयानबाज़ी करने वालों के साथ एनडीए सरकार सीधे-सीधे खड़ी है। संदेश भी यही जाता है। दृश्य साफ है कि सरकार उन लोगों पर कार्रवाई नहीं करना चाहती, जो सरकार के पक्ष में हैं। चाहे फिर वो आपराधिक पृष्ठभूमि के ही क्यों न हों। अगर ऐसा है, तो पूर्ण बहुमत वाली सरकार पर विपक्षी दलों के दबाव का कोई असर न होना कोई बड़ी बात नहीं और यह असर तब तक नहीं होगा, जब तक कि जनता चुनाव में इसका जवाब नहीं देगी। अन्यथा निरंकुश होती सरकार लगातार और निरंकुश होती जाएगी।

ट्रंप के आने पर ही क्यों हुए दंगे?

पूरी दुनिया जानती है कि ट्रंप किस तरह से इस्लामिक देशों के िखलाफ रहे हैं। उन्होंने न केवल आतंकवाद का खात्मा करने के लिए जंग छेड़ी है, बल्कि मुस्लिम समाज के िखलाफ बयान भी दिये हैं। मुसलमानों का विरोध किया है। ऐसे में ट्रंप को मुस्लिमों की यह छवि दिखाना कि वे दुनिया के लिए ही नहीं, भारत के लिए भी सिरदर्द हैं- पाकिस्तान की ओर से भी और आंतरिक स्तर पर भी; कहीं-न-कहीं अमेरिकी राष्ट्रपति की पुचकार पाने की कोशिश लगता है। लेकिन इस सबसे न केवल भारत की छवि दुनिया भर में धूमिल हुई है, बल्कि भारत को बड़ी क्षति भी हुई है। साथ ही ट्रंप पर भी इसका कोई असर नहीं पड़ा। उलटा उन्होंने पाकिस्तान को अमेरिका का दोस्त बताकर साफ संदेश दे दिया कि अमेरिका के लिए पाकिस्तान भारत से किसी भी मायने में कम महत्त्व नहीं रखता। ऐसे में हमारे प्रधानमंत्री को अमेरिकी कूटनीति को और समझने की ज़रूरत तो है ही, इस बात को समझने की भी ज़रूरत है कि घर की इज़्ज़त खराब होने पर बाहर वालों से सम्मान की अपेक्षा करना मूर्खता के सिवाय कुछ और नहीं है।

बिहार, उत्तर प्रदेश और प. बंगाल भी नहीं सुरक्षित

दिल्ली के बाद अब बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल संवेदनशील प्रदेश के रूप में देखे जा रहे हैं। इसी साल अक्टूबर-नवंबर में बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। बिहार के बाद उत्तर प्रदेश और उसके बाद पश्चिम बंगाल में चुनाव होंगे। ज़ाहिर है इन प्रदेशों में भी भड़काऊ बयानबाज़ी से सियासी लोग बाज़ नहीं आएँगे। क्योंकि इन प्रदेशों की सुरक्षा व्यवस्था के हालात तो दिल्ली से भी बदतर हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार का माहौल तो पहले से ही खराब माना जाता है। दोनों प्रदेशों में बात-बात पर तनाव, बात-बात पर दंगे, बात-बात पर कत्लेआम के हालात बन जाते हैं। ऐसे में क्या भरोसा किया जा सकता है कि वहाँ दंगे नहीं भड़केंगे? क्या इन प्रदेशों में भी लोग उपद्रव नहीं मचाएँगे? क्या दिल्ली में दंगाइयों पर कार्रवाई में देरी से बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल के अराजक तत्त्वों के हौसले बुलंद नहीं होंगे? उत्तर प्रदेश में जिस तरह सीएए का विरोध करने वालों पर बर्बर पुलिस कार्रवाई हुई है, उससे तो वहाँ के हालात और भी खराब हुए हैं। बिहार भी इस दमन से अछूता नहीं है।

कितना हुआ नुकसान?

उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगों की जाँच के लिए एसआईटी का गठन किया गया है। पिछले दिनों लॉ एंड ऑर्डर के स्पेशल कमिश्नर ने दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा भी किया। अब तक आयी की रिपोर्टों की मानें, तो दंगाइयों ने 287 से अधिक मकानों, 327 से अधिक दुकानों, 424 से अधिक वाहनों, 175 से अधिक रेहडिय़ों-ठेलियों को तहस-नहस कर दिया। यह खुलासा उत्तर-पूर्वी ज़िला प्रशासन की 18 एसडीएम की अगुवाई वाली टीमों के सर्वे की अंतरिम रिपोर्ट और स्थानीय लोगों से बातचीत में हुआ है। हालाँकि, प्रशासन की अंतिम रिपोर्ट अभी आनी बाकी है। माना जा रहा है कि अभी जलायी गयी सम्पत्तियों की संख्या बढ़ सकती है। 2 मार्च तक के आँकड़े बताते हैं कि इन दंगों में 52 से अधिक मौतें हुई हैं। दर्ज़नों लोग लापता हैं। कई परिवार घरबार छोड़कर चले गये हैं और करोड़ों का नुकसान हुआ है। जाँच में यह बात भी सामने आ रही है कि इस दंगे में दोनों समुदाय के उपद्रवियों ने उत्पाद मचाया है। अभी तक चार दर्ज़न से अधिक के िखलाफ एफआईआर दर्ज हुई हैं और करीब दो दर्जन के िखलाफ एफआईआर और हो सकती है। इसके अलावा 1000 से अधिक सीसीटीवी फुटेज ज़ब्त की गयी हैं। तकरीबन 109 लोगों के गिरफ्तार किये जाने का दावा किया जा रहा है।

दिल्ली सरकार कुल नुकसान का सर्वे करा रही है। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा है कि नुकसान का आँकड़ा बढ़ सकता है। दिल्ली सरकार ने पीडि़तों को 38.75 लाख की आर्थिक मदद देने की बात कही है।

700 मीट्रिक टन ईंट-पत्थर!

हैरत की बात है कि पूर्वी नगर निगम ने दंगा प्रभावित क्षेत्र की सड़कों से केवल चार दिन में 700 मीट्रिक टन ईंट-पत्थर और 424 क्षतिग्रस्त एवं जली हुईं गाडिय़ाँ हटाने का दावा किया है। रिपोर्टों की मानें, तो पूर्वी निगम के शाहदरा के नौ थानाक्षेत्र के 15 इलाके दंगे से प्रभावित हुए हैं। यही नहीं, घरों की छतों पर भी पत्थरों के ढेर मिले हैं। मलबा उठाने के लिए पूर्वी नगर निगम ने 200 टिपरों, 80 मिनी ट्रकों के साथ 500 से अधिक कर्मचारियों को लगाया हुआ है। इसके अलावा वॉलेंटियर्स और स्वयंसेवी संस्थाएँ भी इन इलाकों में सफाई तथा दूसरे कामों में लगी हुई हैं।

घाव भरने में लगेगा समय

दिल्ली के कलेजे पर इन दंगों से ऐसा घाव लगा है, जिसने पूरे देश को एक पीड़ा से गुज़ार दिया है। इस घाव को भरने में सदियाँ लग जाएँगी; वह भी तब, जब सियासत नफरत को हवा न दे। भारत की हिन्दू-मुस्लिम एकता को इन दंगों में जिस तरह खंडित किया गया है, वह नफरत की खाई को इतना गहरा कर गया है कि सदियों तक नासमझ लोग इस खाई में गिरते-लड़ते रह सकते हैं। लेकिन अगर इन लोगों को भाईचारे और मोहब्बत का पाठ पढ़ाया जाए, तो नफरत के इस घाव को काफी हद तक भरा जा सकता है। और देश को पुन: एकता के साथ तरक्की के रास्ते पर ले जाया जा सकता है।