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वर्चस्व के लिए जद्दोजहद शिरोमणि अकाली दल विभाजित

पंजाब की राजनीति में हाशिये पर बैठे अकाली दल में हलचल शुरू हो गयी है। वरिष्ठ अकाली नेता सुखदेव सिंह ढींढसा ने मूल पार्टी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के नाम से ही पार्टी का ऐलान कर दिया है। अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने घोषणा कर दी कि उनका दल असली शिअद है, जहाँ पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था होगी। मूल शिअद को वह बादल परिवार नियंत्रित ऐसा दल बता रहे हैं, जहाँ संगठन और सरकार में उनका ही दबदबा रहेगा।

 अब सवाल यह कि ढींढसा के असली शिअद के दावे में कितना दम है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति और वर्ष 2022 में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव में दल के दम का पता चल जाएगा। अकाली दल में पहले भी विभाजन होते रहे हैं; लेकिन कोई भी दल सफल नहीं हो सका है। मूल पार्टी से अलग हुए नेताओं ने दल ज़रूर बनाये; लेकिन जनाधार बनाने में असफल रहे। रविंदर सिंह के नेतृत्व वाला शिरोमणि अकाली दल (1920) और रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा की अध्यक्षता वाला शिरोमणि अकाली दल (टकसाली) तो इसके ताज़ा उदाहरण है। पार्टी से निष्कासन के बाद ढींढसा की नज़दीकी ब्रह्मपुरा से रही। पहले ढींढसा के उनके साथ जाने की अटकलें थीं; लेकिन उपेक्षित नेताओं के समर्थन के बाद वे अलग दल बनाने को तैयार हो गये।

उनके विद्रोही तेवरों को देखते हुए पार्टी से निष्कासन की अटकले काफी समय से थी; क्योंकि पार्टी अध्यक्ष सुखबीर बादल से उनकी बन नहीं पा रही थी। वह अध्यक्ष के तौर पर उनको मन से स्वीकार नहीं कर पाये। उन्हें ही क्या पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को यह गवारा नहीं था; लेकिन अनुशासनहीनता के चाबुक के डर से कोई विरोध करने को तैयार नहीं हुए। पर ढींढसा ने हिम्मत की, जिसका नतीजा उन्हें पार्टी से बेदखल होकर चुकाना पड़ा; लेकिन उन्हें इसका कोई अफसोस नहीं है। वह कहते हैं कि बादल नियंत्रित शिअद अब दल नहीं, बल्कि परिवार की जागीर जैसा है। जहाँ राजनीति इतनी संकुचित स्वार्थ वाली हो जाए, वहीं नीतियों और आदर्श की बात करना बेमानी जैसा है।

सवाल यह है कि उन्होंने सुखबीर को उप मुख्यमंत्री या फिर पार्टी अध्यक्ष बनाने के समय कोई विरोध नहीं किया। तब एक मायने में उनकी भी सहमति भी रही होगी। बाद में राजनीति के समीकरण बदलने लगे, वरिष्ठ नेता अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे, तो उन्होंने दल में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करने का प्रयास किया। धीरे-धीरे पार्टी नेतृत्व ने उनकी उपेक्षा शुरू कर दी, जिसका उन्हें काफी कुछ अंदाज़ रहा भी होगा।

चूँकि बादल परिवार की पार्टी पर पूरी पकड़ है। पहले दल पर प्रकाश सिंह बादल का नियंत्रण रहा बाद में उन्होंने बेटे को अध्यक्ष पद सौंप दिया था। प्रकाश सिंह बादल ने मुख्यमंत्री रहते बेटे सुखबीर को आगे बढ़ाने का काम जारी रखा। पिता मुख्यमंत्री और बेटा उप मुख्यमंत्री और बाद में पूरी तरह से पार्टी की कमान उन्हें सौंप दी। दल में सुखबीर सिंह बादल के बढ़ते कद और रुतबे से कई वरिष्ठ अकाली नेता खुश नहीं थे; लेकिन किसी ने खुलेआम विरोध करने का साहस नहीं जुटाया। ढींढसा के मतभेद पार्टी नीतियों और वैचारिक से ज़्यादा बादल परिवार के कब्ज़े को लेकर थे।

पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे और वर्तमान में राज्यसभा के सदस्य ढींढसा पार्टी नेतृत्व के खिलाफ खुलकर आ गये। उन्हें इसके नतीजे का भी पता था, पर वह इसके लिए बिल्कुल तैयार थे। बगावत के सुर बुलंद करने से पहले उन्हें पता था कि ऐसा होगा। उन्हें अपना ही नहीं, बल्कि अपने बेटे परमिंदर सिंह के राजनीतिक भविष्य को भी देखना था। शिअद सरकार में परमिंदर ढींढसा वित्तमंत्री रह चुके हैं। पिता के विद्रोही तेवरों के बावजूद परमिंदर उनके साथ खुले तौर पर सामने नहीं आये। वह दल की बैठकों में आने से भी परहेज़ करने लगे। लगने लगा था कि आिखरकार वह भी पिता के साथ ही जाएँगे।

पार्टियों में अक्सर विभिन्न मुद्दों पर विभाजन होते रहते हैं। इनमें निजी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा से लेकर पार्टी नीतियों का कारण रहता है। उम्र के आठवें दशक में चल रहे ढींढसा की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा अगर अब उबाल मार रही है, तो इसे क्या कहें? वे पार्टी में लोकतंत्र व्यवस्था के ज़बरदस्त हिमायती के तौर पर आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। उन्हें जितना समर्थन मिलना चाहिए था, फिलहाल तो नज़र नहीं आता। उनकी नयी पार्टी की नीतियाँ भी कमोबेश मूल शिअद जैसी ही हैं। वह पंजाब और पंजाबियों के हितों की बात करते हैं और यही नीति कमोबेश मूल शिअद की भी है।

ढींढसा अब जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाने, राज्य का दर्जा खत्म करने और नागरिकता संशोधन कानून को पार्टी नीतियों से अलग बता रहे हैं। शिअद का इन मुद्दों पर केंद्र सरकार को मूक समर्थन उन्हें ठीक नहीं लग रहा। वह इसे पार्टी नीति के बिल्कुल खिलाफ बताते हैं।

सवाल यह कि यह सब तो केंद्र में भाजपा सरकार के एजेंडे में रहे थे, जिन्हें समय आने पर पूरा करना था। ढींढसा केंद्र में वाजपेयी सरकार के दौरान मंत्री रह चुके हैं, तो क्या उन्हें तब अपनी भावनाओं से अवगत नहीं कराना चाहिए था।

ढींढसा पक्के अकाली नेता के तौर पर जाने जाते हैं। वे संगरूर से लोकसभा सदस्य भी रह चुके हैं, इस नाते क्षेत्र में उनका कुछ आधार माना जा सकता है। इससे मूल अकाली दल को कितना राजनीतिक नुकसान होगा यह कहना फिलहाल मुश्किल है, क्योंकि विस चुनाव से पहले बहुत कुछ उलटफेर होने वाला है। सम्भव है कि कई अकाली नेता ढींढसा के साथ चले जाएँ। फिलहाल पूर्व केंद्रीय मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया, दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के पूर्व अध्यक्ष मनजीत सिंह जीके, हरियाणा सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के अध्यक्ष दीदार सिंह नलवी और बीर देविंदर सिंह ही प्रमुख समर्थकों में है।

मूल शिअद में कोई बड़ा विभाजन होगा, इसकी सम्भावना बहुत कम जान पड़ती है। विगत में पार्टी विभाजन इसके उदाहरण के तौर पर सामने है। राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके अकाली नेता सुरजीत सिंह बरनाला का पार्टी से अलग होने के बाद राजनीतिक अस्तित्व खत्म हो गया था।

ढींढसा समर्थकों के असली शिरोमणि अकाली दल के दावे को मूल शिअद के प्रवक्ता दलजीत सिंह चीमा बचकाना कहते हैं। उनकी राय में शिअद लगभग 100 साल पुरानी पार्टी है। क्या कोई भी व्यक्ति मोहल्ला समिति जैसी बैठक करके इस पर हक जमा सकता है? यह सम्भव नहीं है, पार्टी का अलग नाम रखा जा सकता है। आपको जिस पार्टी ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण निष्कासित कर दिया गया है ।आप उसे ही चुनौती देने लगते हैं। यह दावा कानूनी तौर पर भी कहीं नहीं ठहरता। चुनाव आयोग में शिअद पंजीकृत दल है, इसका अपना चुनाव निशान है। संवैधानिक तौर पर असली शिअद होने का भ्रम पाले हुए नेताओं को जल्द ही पता चल जाएगा कि असली कौन है और नकली कौन?

यह परम्परा-सी बनी हुई है कि मूल पार्टी से छिटके हुए लोगों ने अलग नाम से पहचान बनायी; लेकिन यहाँ बात बिल्कुल उलटी ही है। वह कहते हैं कि ढींढसा उनके लिए आज भी सम्मानित व्यक्ति हैं। चाहे वह अब पार्टी में नहीं है; लेकिन असली पार्टी का बचकाना-सा दावा उनके कद को छोटा करता है। ढींढसा के समर्थकों में कोई बड़े जनाधार वाला नेता नहीं है। उनके साथ आने वाले कई नेताओं के अपने-अपने गुट हैं। ऐसे अवसरवादी लोगों के सहारे कहाँ तक सफल हो पाएँगे, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।

ढींढसा समर्थक नये दल को लेकर काफी उम्मीद लगाये बैठे हैं। उनकी राय मे सुखबीर के नेतृत्व में संगठन कमज़ोर है। कई वरिष्ठ अकाली नेता जिन्होंने दल के लिए पूरी निष्ठा से काम किया; लेकिन परिवारवाद के चलते वे आगे नहीं बढ़ पाये। ऐसे कई नेता हमारे साथ जुडऩे वाले हैं। वे पार्टी नीतियों से ज़्यादा नाखुश एक ही परिवार के दबदबे से हैं। वे कांग्रेस में गाँधी परिवार के कब्ज़े की खुलेआम निंदा करते हैं; लेकिन अपनी पार्टी में यह सब होता देख रहे हैं। बादल परिवार से इतर भी दल में नेता हैं, जिन्हें संगठन और सरकार का पूरा अनुभव है। लेकिन उन्हें मौका नहीं मिल रहा है। ऐसे उपेक्षित लोग आने वाले समय में बागी हो सकते हैं। अभी विभाजन की शुरुआत है, एक बार कारवाँ बन गया, तो लोग अपने आप ही जुड़ते जाएँगे।

आने वाले दौर में असली शिअद को लेकर कानूनी दाँव-पेच की लड़ाई शुरू होने वाली है। ढींढसा समर्थकों के इस दावे में कितना दम है? यह आने वाला समय ही बतायेगा। विधान सभा चुनाव से पहले प्रदेश में कांग्रेस सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में दल अध्यक्ष सुखबीर बादल को पहले अपने िकले को और मज़बूत करना होगा। पिता प्रकाश सिंह बादल राजनीति में सक्रिय ज़रूर है; लेकिन उम्र के इस दौर में वह बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं होंगे। शिअद की मज़बूती के लिए उन्हें ही यह लड़ाई अपने बलबूते पर लडऩे होगी; क्योंकि आने वाले समय में उन्हें उनके ही दल में चुनौती देने वाले चेहरे सामने आएँगे।

अकाली दल का अतीत

अकाली दल का इतिहास बहुत पुराना है। एक मायने में तो यह कांग्रेस के बाद देश की दूसरी सबसे पुरानी पार्टी है। इसकी स्थापना 14 दिसंबर, 1920 को हुई थी। तब इसे सिखों की सबसे बड़ी धाॢमक संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति की टास्क फोर्स के तौर पर बनाया गया था। इसके पहले अध्यक्ष सरमुख सिंह थे। देश आज़ाद होने के बाद राजनीतिक तौर पर अकाली दल की पैठ बनी। इसके अध्यक्षों में मास्टर तारा सिंह, फतेह सिंह और खडग़ सिंह प्रमुख तौर पर जाने और माने गये। अकाली दल को सबसे बड़ी पहचान मास्टर तारा सिंह ने दी। सिखों के हितों के लिए इस पार्टी के बिना पंजाब में राजनीति की कल्पना नहीं की जा सकती। यह बात मशहूर हो गयी कि अकाली जब भी सत्ता आते हैं, इनके नेता आपस में लड़ते हैं और जब विपक्ष में होते हैं, तो सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते हैं। लगातार दो बार सत्ता में रहकर यह मिथ भी तोड़ दिया। हर पार्टी की तरह यहाँ भी मनभेद और मतभेदों का सिलसिला चलता रहता है; लिहाज़ा विभाजन से यह दल भी अछूता नहीं रहा है। कई बार विभाजन हुए बड़े नेता अलग हुए नया दल बनाया; लेकिन सफलता नहीं मिल सकी। दल के अध्यक्ष रहे सुरजीत सिंह बरनाला और सिमरनजीत सिंह मान अलग होकर अस्तित्व ही नहीं बचा सके। इनमें बरनाला तो केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल भी रहे।

कितने अकाली दल

शिरोमणि अकाली दल (शिअद) में विभाजन का इतिहास भी लम्बा है। शिअद (डेमोक्रेटिक) शिअद (लोंगोवाल) शिअद (यूनाइटेड) शिअद (अमृतसर) शिअद (पंथक), शिअद (1920) और शिअद (टकसाली) प्रमुख तौर पर है। विभाजन के बाद इनमें से कोई भी पार्टी सफल नहीं रही। इतिहास यही बताता है कि मूल पार्टी ही मुख्य धारा के तौर पर चलती है। सुखदेव सिंह ढींढसा के नेतृत्व में बना शिअद क्या इस परम्परा को तोड़ पायेगा, यह देखने वाली बात होगी।

तो क्या उत्तर प्रदेश में दो बच्चे वाले ही लड़ सकेंगे ग्राम पंचायत चुनाव?

अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार कई बदलाव कर चुकी है। राजनीति में भी अब तक कई ऐसे बदलाव हो चुके हैं कि आम आदमी लाख कोशिशों के बावजूद भी राजनीति में नहीं आ सकता, जब तक कि वह अच्छी राजनीतिक साठगाँठ के अलावा अच्छा पैसे वाला न हो। अब तक यह सब ब्लॉक प्रमुख, निगम पार्षद, नगर पालिका अध्यक्ष, विधायक, सांसद जैसे स्तरों पर होता था। पर अब ग्राम पंचायत स्तर पर भी होने की उम्मीद है। इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों पर नियंत्रण करने से हो सकती है।

हाल ही में केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी राज्यमंत्री संजीव कुमार बालियान ने ग्राम पंचायत चुनाव में प्रत्याशियों की पारिवारिक स्थिति के हिसाब से टिकट देने को लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखा है। इस पत्र को लेकर कहा जा रहा है कि बालियान ने यह पत्र उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर लिखा है, लेकिन ऐसा लगता नहीं है। क्योंकि अगर ऐसा होता, तो वह जनसंख्या नियंत्रण को लेकर पत्र लिखते, चुनाव को लेकर नहीं। हालाँकि उन्होंने इस पत्र में सहारा जनसंख्या नियंत्रण का ही लिया है। इस पत्र में उन्होंने योगी से कहा है कि उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण का अभियान शुरू किया जाए और इसकी शुरुआत आगामी ग्राम पंचायत चुनाव से की जानी चाहिए। संजीव बालियान ने पत्र में लिखा है कि उत्तराखंड में दो से अधिक बच्चे वाले ग्राम पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकते, यही कानून उत्तर प्रदेश में लागू किया जाना चाहिए। हालाँकि बालियान ने योगी से इस अभियान को विश्व जनसंख्या दिवस के अवसर पर शुरू करने को कहा था, लेकिन अभी तक योगी आदित्यनाथ सरकार ने इस पर कुछ कहा नहीं है।

पिछड़े तबकों को लगेगा झटका

अगर उत्तर प्रदेश में योगी सरकार संजीव कुमार बालियान के सुझाव को लागू करती है, तो पिछड़े तबकों के लोगों को ज़्यादा नुकसान होगा। सम्भव है कि अधिकतर सामान्य वर्ग के लोगों को ग्राम पंचायत चुनाव में टिकट मिलें और पिछड़े वर्ग के लोग सिर्फ दो से अधिक बच्चे होने के चलते चुनाव मैदान में उतर ही न सकें। क्योंकि पिछड़े तबकों के लोगों, जिनमें पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक वर्ग- खासकर मुस्लिमों में अधिकतर के बच्चे दो से अधिक हैं। ऐसे में दो बच्चों की शर्त पर इन वर्गों के लोग आसानी से जनसंख्या नियंत्रण के बहाने से ग्राम पंचायत चुनाव की दौड़ से बाहर हो जाएँगे और अधिकतर सीटों पर सामान्य वर्ग का कब्ज़ा हो जाएगा।

कहीं अपने लोगों को कुर्सी सौंपने की कोशिश तो नहीं

भाजपा और संघ के बड़े नेता पार्टी के सदस्यों, कार्यकर्ताओं, छोटे स्तर के नेताओं का मज़बूत संगठन बनाकर खुद को हमेशा के लिए मज़बूत करना चाहते हैं, ताकि वो हमेशा सत्ता में बने रहें।

कहीं ऐसा तो नहीं कि भाजपा उत्तराखण्ड के बाद उत्तर प्रदेश में दो बच्चों वाले प्रत्याशियों के बहाने ग्रामीण स्तर पर अपने लोगों को राजनीति के सबसे छोटे स्तर पर सत्ता में लाकर जनाधार मज़बूत करना चाहती है। क्योंकि पार्टी कमान यह जानती है कि अगर ऐसा हो गया, तो उसे चुनावों के दौरान मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में आसानी होगी।

इसका कारण यह है कि गाँव के अधिकतर लोग प्रधान, ग्राम पंचायत अधिकार, ग्राम पंचायत सदस्यों आदि से अपना काम निकलवाने के चलते उनसे बिगाड़कर नहीं चलते और चुनावों में उनका कहना मानते हैं। ऐसे में अगर निचले स्तर की कुॢसयों पर भाजपा का कब्ज़ा होगा, तो विधानसभा और लोकसभा के चुनाव जीतने में भाजपा को आसानी होगी।

प्रियंका गाँधी को एसपीजी नहीं, तो बंगला नहीं

राजनीति हिंसा, प्रलोभन और बदले की भावना से शून्य नहीं होती है। कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा से बंगला खाली कराने को लेकर कोई कुछ भी कहें, पर हकीकत तो यह है कि यह मामला पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित है। बंगला खाली कराये जाने को लेकर कांग्रेस का कहना है कि केंद्र सरकार कोरोना वायरस जैसी घातक महामारी में तमाम स्तरों पर असफल हुई है। भारत-चीन के बीच तनाव को लेकर भी सरकार कोई कारगर सफलता हासिल नहीं कर पायी है। ऐसे में सरकार ने अपनी नाकामियाँ छिपाने के लिए प्रियंका गाँधी वाड्रा का बंगला खाली का आदेश दिया है; लेकिन इससे केंद्र सरकार को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। क्योंकि प्रियंका गाँधी वाड्रा अब लखनऊ में कौल हाउस में शिफ्ट हो सकती हैं। इससे कांग्रेस को और फायदा होगा। इतना ही नहीं, प्रियंका 2022 के विधानसभा चुनाव का शंखनाद यहीं से करेंगी।

केंद्र सरकार का कहना है कि स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) सुरक्षा हटाये जाने के बाद प्रियंका लोदी एस्टेट के बंगला नंबर-35 में रहने की हकदार नहीं हैं। शहरी विकास मंत्रालय के सम्पत्ति निदेशालय ने नियमों के आधार पर बंगले का आंवटन रद्द किया है। बताते चलें कि नवंबर, 2019 में सरकार ने प्रियंका से एसपीजी की सुरक्षा हटा ली थी और जेड प्लस सुरक्षा प्रदान की थी। इसी आधार पर सरकार ने माना कि जब एसपीजी नहीं, तो बंगला नहीं।

मगर कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि मोदी सरकार इस आधार पर प्रियंका वाड्रा से बंगला खाली करा रही है कि वह सांसद भी नहीं हैं। लेकिन सत्ता के नशे में मोदी नीत केंद्र सरकार यह भूल रही है कि भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी न तो सांसद हैं और न ही एसपीजी सुरक्षा उनको मिली हुई है। उनको भी जेड प्लस सुरक्षा मिली हुई है, तो फिर उनका बंगला खाली क्यों नहीं कराया जा रहा है। कांग्रेस का कहना है कि ये दोनों नेता अब राजनीति में सक्रिय भी नहीं हैं, जबकि प्रियंका गाँधी राजनीति में सक्रिय भी हैं। प्रियंका को यह बंगला सन् 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा के शासनकाल मिला था। उसके बाद अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार रही, लेकिन सरकार ने बंगला खाली कराने पर विचार नहीं किया। 2014 में मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार केंद्र में आयी, तब भी प्रियंका गाँधी से बंगला खाली नहीं कराया गया। लेकिन अब ऐसा क्या हो गया कि मोदी नीत केंद्र सरकार ने उन्हें बंगला खाली करने का सख्त आदेश दे दिया?

कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। लेकिन सत्ताधारी नेता बदले की भावना से काम करेंगे, तो लोकतंत्र में इसे जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। कांग्रेस ने किसी राजनीतिक दल के नेता को लेकर ओछी राजनीति नहीं की है। कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का कहना है कि प्रियंका गाँधी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की पोती और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की बेटी हैं। इन दोनों नेताओं की हत्या भी हुई है। इस लिहाज़ से गाँधी परिवार की सुरक्षा का ज़िम्मा भी सरकार का बनता है। पर सरकार गाँधी परिवार को किसी-न-किसी बहाने परेशान करने में लगी रहती है, पर कांग्रेस केंद्र सरकार की इस ओछी राजनीति से डरने वाली नहीं है। यह केंद्र सरकार की घबराहट का नतीजा है। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय सिंह लल्लू का कहना है कि मोदी सरकार चीन से कब्ज़ा नहीं हटवा पा रही है; लेकिन जिसके परिवार ने देश की सेवा की है, उसके परिजनों को परेशान करने लिए बंगला खाली करवा रही है। उनका कहना है कि प्रियंका का बंगला ऐसे समय में खाली कराया जा रहा है, जब देश में कोरोना वायरस के कहर से हाहाकार मची हुई है। कांग्रेस के युवा नेता अम्बरीश का कहना है कि अजीब विडम्बना है कि केंद्र सरकार कोरोना वायरस और चीन जैसी समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दे रही है। बस एक ही काम है कि कांग्रेस को किसी-न-किसी बहाने परेशान करो। लेकिन कांग्रेस मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों को उजागर करती रहेगी। उन्होंने कहा कि सम्पत्ति निदेशालय ने प्रियंका गाँधी के नाम जारी पत्र में सरकारी बंगला के किराये के तौर पर बकाया 3 लाख 46 हज़ार 677 रुपये का भुगतान करने को कहा गया था। इसका ऑनलाइन भुगतान किया जा चुका है। रही बात बंगले की, तो 01 अगस्त तक बंगला को खाली कर दिया जाएगा।

वहीं भाजपा के नेता राजीव प्रताप रूड़ी का कहना है कि बंगला को नियमों के तहत खाली कराया जा रहा है; न कि बदले की भावना से। हाँ, पर इतना है कि यह परिवारवाद का अध्याय समाप्त हो रहा है, जिससे कांग्रेस के नेता तिलमिला रहे हैं। क्योंकि न तो प्रियंका के पास एसपीजी की सुरक्षा है और न ही वह सांसद हैं; फिर किस आधार पर उनको बंगला दिया जा सकता है? भाजपा का तर्क है कि अभी हाल में राज्य सभा के चुनाव के ज़रिये नये राज्य सभा के सांसद चुनकर आये हैं, उनके रहने के लिए भी बंगलों की ज़रूरत है। राजनीतिक विश्लेषक हरिश्चंद्र पाठक का कहना है कि मौज़ूदा दौर में राजनीति का स्तर काफी गिरता जा रहा है। इसमें एक दल दूसरे दल पर आरोप लगाकर अपने आप में बचने का प्रयास करता है। जबकि सच्चाई यह है कि हम्माम में सब नंगे हैं। जब एनडीए सरकार अपने निक्कमेपन से घिरी होती है, तब विरोधियों को परेशान करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती है। जबकि मौज़ूदा समय में देश की आॢथक स्थिति ठीक नहीं है। युवाओं को रोज़गार नहीं है और मज़दूरों को काम नहीं है। इसलिए सरकार सियासी खेल न खेलकर बुनियादी समस्याओं पर ध्यान दे और उनका समाधान करे।

प्रसार भारती का अपना भर्ती बोर्ड गठित

प्रसार भारती (भारत का लोक सेवा प्रसारक) ने 01 जुलाई, 2020 से अपना भर्ती बोर्ड गठित कर लिया है। प्रसार भारती (भारत का प्रसारण निगम) अधिनियम, 1990 की धारा-10 के तहत प्रसार भारती (ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया) भर्ती बोर्ड नियम, 2020 की स्थापना के लिए 12 फरवरी, 2020 को केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने अधिसूचना जारी की थी। इसमें केंद्र सरकार में संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी के वेतनमान से कम वेतनमानों के विभिन्न पदों पर कर्मचारियों को नियुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया गया था।

इसके साथ ही अब आकाशवाणी और दूरदर्शन में मुख्य समाचार सेवाओं, प्रोग्राङ्क्षमग और इंजीनियङ्क्षमग विंग में भर्ती का रास्ता साफ हो गया है। इस कवर के तहत वर्तमान में मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) के अनुबन्ध के आधार पर भर्ती किये गये आरएसएस पृष्ठभूमि वाले कॢमयों को नियमित किया जाएगा।

इस तरह संघी विचारधारा के पुरुषों और महिलाओं को स्थायी आधार पर नियुक्त करके एनडीए सरकार की सार्वजनिक संस्थानों पर चौतरफा सीधे हमले की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। इसका एकमात्र उद्देश्य केंद्रीय सरकार के कामों की समीक्षा और उन पर नज़र रखने का रास्ता बन्द करना और फासीवादी तरीके से जनता के विचारों और दिमागों को सरकारी प्रचार मशीनरी पर नियंत्रण करके सभी आयामों और अभिव्यक्तियों में बदलना है।

प्रसार भारती भर्ती बोर्ड की नियुक्ति के साथ निगम में मानव संसाधन (एचआर) प्रभाग विघटित हो गया है और भर्ती बोर्ड को सचिवीय सहायता (संचालन व्यवस्था) प्रदान करने के लिए प्रतिस्थापित किया गया है। संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएसई) और कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) को भी प्रसार भारती में संयुक्त सचिव स्तर से नीचे के कर्मचारियों की भर्ती की ज़िम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया है। इसके साथ ही चुनाव के ज़रिये सरकार में परिवर्तन के बाद कॉन्ट्रेक्ट पर बड़ी संख्या में रखे गये कर्मचारियों की जगह उपरोक्त नव-नियुक्त कर्मचारियों को रखने की प्रक्रिया का निराकरण भी कर लिया गया है। यह केंद्र में सत्ता बदलने के बावजूद आकाशवाणी और दूरदर्शन में संघ विचारधारा के लम्बे समय तक असर को भी सुनिश्चित करेगा।

प्रसार भारती भर्ती बोर्ड में जगदीश उपासने की अध्यक्षता में छ: सदस्य होंगे। उपासने वर्तमान में भारत प्रकाशन के निदेशक हैं और माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं। वह आरएसएस के साथ जुड़े हुए हैं और उनकी नियुक्ति से आने वाले समय में चीज़ें कैसी रहेंगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय में संयुक्त सचिव (बी-2) बोर्ड के पदेन सदस्य होंगे। बोर्ड के चार अन्य सदस्यों में दीपा चंद्रा- सेवानिवृत्त अतिरिक्त महानिदेशक (एडीजी) कार्यक्रम, प्रसार भारती; पी.एन. भक्त- सेवानिवृत्त एडीजी (इंजीनियङ्क्षरग), प्रसार भारती; किम्बुओंग किपगेन- सचिव, सार्वजनिक उद्यम चयन बोर्ड (पीईएसबी) और चेतन प्रकाश जैन- महाप्रबंधक, मानव संसाधन (एचआर), रेल विकास निगम लिमिटेड (आरवीएनएल। भर्ती बोर्ड 12 फरवरी, 2020 के सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जारी अधिसूचना के अनुसार, खण्ड-5 के तहत निर्धारित अपने कर्तव्य के चार्टर के अनुसार कार्य करेगा।

प्रसार भारती भर्ती बोर्ड का गठन आकाशवाणी और दूरदर्शन में केंद्र की वर्तमान में एक व्यक्ति की सरकार की रणनीति को हिटलरी अंदाज़ में पूरी तरह थोपने में मदद करेगा। पहले ही अन्य सार्वजनिक संस्थान जैसे न्यायपालिका, चुनाव आयोग, यूपीएससी, सीएजी, सीबीआई, एनआईए, ईडी, आयकर प्राधिकरण, आरबीआई, सभी नियामक प्राधिकरण और अन्य, सरकार के आदेशों के अनुसार चल रहे हैं और कानून आधारित संवैधानिक लोकतांत्रिक शासन और सार्वजनिक जवाबदेही के नियम को कमज़ोर कर रहे हैं। वे ऐसा करके लोकतंत्र की होली जला रहे हैं और इन्हें केवल चुनाव केंद्रित करने के लिए काम कर रहे हैं। हालाँकि सच यह भी है कि सार्वजनिक प्रसारक की समाचार सेवाएँ हमेशा उस समय की सरकार के समर्थक जैसी रही हैं।

महामारी में रिकॉर्ड गेहूँ खरीद किसानों ने जगायी उम्मीद

कोविड-19 महामारी के बीच कृषि क्षेत्र ने भारतीय अर्थ-व्यव्यवस्था के लिए एक उम्मीद की किरण दिखायी है। इससे देश को कुछ रफ्तार मिल सकती है; साथ ही खाद्यान्न की ज़रूरत को भी सुनिश्चित किया जा सकता है। हालाँकि सभी क्षेत्रों में नकारात्मक रुख के बीच 2020 में हुई रिकॉर्ड गेहूँ खरीद ने शुभ संकेत दिये हैं। कोविड-19 प्रकोप के प्रसार को रोकने के लिए लगाये गये प्रतिबन्धों के बावजूद मण्डियों में गेहूँ की खरीद चालू विपणन वर्ष में 382 लाख मीट्रिक टन से अधिक हुई; जो अब तक हुई सर्वाधिक खरीद का रिकॉर्ड है। उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार, सरकारी एजेंसियों द्वारा किसानों से 16 जून, 2020 तक गेहूँ की खरीद ने सर्वकालिक रिकॉर्ड आँकड़े को छू लिया; जब केंद्रीय भण्डार के लिए कुल खरीद 382 लाख मीट्रिक टन (एलएमटी) तक पहुँच गयी थी।  2012-13 के दौरान 381.48 एलएमटी के पुराने रिकॉर्ड (कीॢतमान) को पीछे छोड़ दिया। खास बात यह है कि पूरे देश में लॉकडाउन के बीच कोविड-19 महामारी के समय किसानों से फसल की खरीदारी की गयी।

लॉकडाउन के कारण खरीद शुरू होने में एक पखवाड़े की देरी हुई थी और 01 अप्रैल की बजाय 15 अप्रैल से इसकी इसे शुरू किया जा सका। इसकी वह यह थी कि लॉकडाउन के चलते राज्य सरकारों, एजेंसियों और खरीद के लिए मानक तय नहीं किये गये थे और सरकारी आदेशों का इंतज़ार और तालमेल भी करना था। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने यह सुनिश्चित करने को कहा कि किसानों से बिना किसी देरी के और सुरक्षित तरीके से गेहूँ की खरीद की जाए।

पारम्परिक केंद्रों के अलावा सभी सम्भावित स्थानों में खरीद केंद्र खोलकर खरीद केंद्रों की संख्या 14,838 से बढ़ाकर 21,869 कर दी गयी। इससे मण्डियों में किसानों की भीड़ कम करने में मदद मिली और ज़रूरी सामाजिक दूरी का पालन करना भी सुनिश्चित हो सका। टोकन सिस्टम (पर्ची प्रणाली) के माध्यम से मण्डियों में दैनिक प्रवाह को विनियमित करने के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया गया। ये उपाय नियमित सफाई और कोरोना से बचने के तरीकों के साथ-साथ प्रत्येक किसान के लिए डम्पिंग क्षेत्र को चिह्नित करना आदि सुनिश्चित किया। इससे देश में कहीं भी खाद्यान्न खरीद केंद्रों में से कोई भी कोविड-19 हॉटस्पॉट (कोरोना संक्रमण केंद्र) नहीं बना।

सरकारी एजेंसियों द्वारा गेहूँ की खरीद पिछले साल के आँकड़े 341.31 लाख मीट्रिक टन (एलएमटी) को पार करते हुए 24 मई 2020 को 341.56 एलएमटी की खरीद तक पहुँच गया। कोविड-19 वायरस के प्रसार और देशव्यापी लॉकडाउन के कारण उत्पन्न सभी बाधाओं के बीच यह खरीदारी की गयी। गेहूँ की कटाई आम तौर पर मार्च के अन्त में शुरू होती है और हर साल अप्रैल के पहले सप्ताह में खरीद शुरू होती है। हालाँकि 25 मार्च से राष्ट्रीय लॉकडाउन लागू होने के साथ देश में हर जगह सब कुछ ठप-सा हो गया। फसल तब तक पक चुकी थी और कटाई के लिए तैयार थी। इस पर विचार करते हुए भारत सरकार को लॉकडाउन अवधि के दौरान कृषि और सम्बन्धित गतिविधियों को शुरू करने की छूट दी गयी और अधिकांश खरीद वाले राज्यों में खरीद 15 अप्रैल, 2020 से शुरू भी गयी। हरियाणा ने खरीद की शुरुआत 20 अप्रैल से की।

सबसे बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करना था कि महामारी के दौरान खरीद सुरक्षित तरीके से की जा सके। इसे जागरूकता फैलाकर, सामाजिक दूरी को अपनाकर और प्रौद्योगिकी के ज़रिये बहुस्तरीय रणनीति के माध्यम से हासिल किया गया। व्यक्तिगत क्रय केंद्रों पर किसानों की भीड़ को कम करते हुए खरीद केंद्रों की संख्या में काफी वृद्धि की गयी। ग्राम पंचायत स्तर पर उपलब्ध हर सुविधा का उपयोग करके नये केंद्र स्थापित किये गये और पंजाब जैसे प्रमुख खरीद वाले राज्यों में संख्या काफी बढ़ायी गयी। यहाँ पर यह संख्या 1836 से 3681 व हरियाणा में 599 से 1800 तक की गयी। मध्य प्रदेश में 3545 से 4494 तक की गयी। प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए किसानों को अपनी उपज लाने के लिए विशिष्ट तिथियाँ और अलग-अलग खाँचे (खड़े होने के स्थान) प्रदान किये गये; जिससे भीड़भाड़ से बचने में मदद मिली। इस दौरान सामाजिक दूरी का सख्ती से पालन करने के लिए ज़रूरी मानदण्ड अपनाये गये साथ ही नियमित रूप से साफ सफाई का ध्यान रखा गया।

पंजाब में प्रत्येक किसान को अपने अनाज जमा कराने के लिए विशिष्ट स्थान आवंटित किये गये और किसी अन्य को उन निर्धारित क्षेत्रों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गयी। केवल वे लोग जो सीधे खरीद फरोख्त से जुड़े हुए थे, उन्हें ही इस दौरान उपस्थित रहने की अनुमति दी गयी।

कोरोना वायरस के फैलने के खतरे के अलावा गेहूँ की खरीद में एजेंसियों के सामने तीन बड़ी चुनौतियाँ थीं। इस दौरान सभी जूट मिलों को बन्द कर दिया गया था, खरीदे गये गेहूँ को भरने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले जूट के थैलों का उत्पादन एक बड़ा संकट सामने पैदा हो गया। अच्छी गुणवत्ता वाले बोरों का इस्तेमाल करने की बजाय, इस दौरान ज़रूरी मानकों वाले प्लास्टिक बैग का उपयोग करके इस समस्या से निपटा गया। निरंतर निगरानी और समय पर कार्रवाई के माध्यम से यह सुनिश्चित किया गया कि देश में कहीं भी पैकेङ्क्षजग सामग्री की कमी के कारण खरीद बन्द न हो।

दूसरी चुनौती सभी प्रमुख उत्पादक राज्यों में बे-मौसम बारिश हुई, जिससे गेहूँ भीग भी गया। इसने किसानों के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर दिया; क्योंकि सामान्य विशिष्टताओं के तहत ऐसे गेहूँ की खरीद नहीं की जा सकती थी। भारत सरकार और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने इस पर तत्काल हस्तक्षेप करते हुए विस्तृत वैज्ञानिक विश्लेषण करने के बाद यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश दिये। इसमें तय गया कि कोई भी किसान इस संकट में न पड़ें कि खरीदी गयी उपज न्यूनतम गुणवत्ता आवश्यकताओं को पूरा करती है या नहीं। तीसरी चुनौती तंग श्रमिकों की कमी के साथ-साथ कोरोना वायरस के बारे में आम लोगों में खौफ पैदा हो गया था। इसके लिए राज्य प्रशासन ने स्थानीय स्तर पर विश्वास पैदा किया और इसके लिए ज़रूरी उपायों को अपनाया गया। श्रमिकों को पर्याप्त सुरक्षा और उपाय जैसे मास्क, सैनिटाइजर आदि प्रदान किये गये और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अन्य एहतियाती तौर पर उपाय भी अपना गये।

इस वर्ष एक और अहम बदलाव यह देखने को मिला कि मध्य प्रदेश में 129 एलएमटी गेहूँ के साथ केंद्रीय भण्डारण का सबसे बड़ा योगदानकर्ता बन गया है, जो पंजाब के 127 एलएमटी की खरीद से ज़्यादा है। हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान ने भी गेहूँ की राष्ट्रीय खरीद में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। पूरे भारत में 42 लाख गेहूँ किसानों को लाभान्वित किया गया जिनसे न्यूनतम समर्थन मूल्य की दर पर 73,500 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया। केंद्रीय भण्डार में खाद्यान्न की भारी आमद ने सुनिश्चित किया कि एफसीआई आने वाले महीनों में देश के लोगों के लिए ज़रूरी खाद्यान्न ज़रूरत में किसी भी तरह की कमी नहीं होने वाली है।

पिछले सभी कीॢतमानों (रिकॉड्र्स) को तोड़ते हुए मध्य प्रदेश वर्ष 2020 में गेहूँ की खरीद के मामले में देश में अग्रणी राज्य के रूप में उभरा है। मध्य प्रदेश ने समर्थन मूल्य पर गेहूँ खरीद में देश के शीर्ष राज्य को 1.27 करोड़ टन से अधिक की खरीद की। यह देशभर के किसानों से गेहूँ खरीद का 33 फीसदी हिस्सा है। इससे पता चला है कि मध्य प्रदेश खरीद का एक विकेन्द्रीकृत मॉडल का पालन करता है, जिसके तहत राज्य सरकार केंद्र की ओर से गेहूँ की खरीद करती है और राज्य के सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को चलाने के लिए आवश्यक मात्रा को बरकरार रखती है, जबकि शेष स्टॉक को केंद्र सरकार द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।

8 जून तक मध्य प्रदेश ने रिकॉर्ड 1,28,69,553 टन (128 लाख टन) गेहूँ की खरीद दर्ज की; जबकि इसी दौरान पंजाब ने 1,27,67,473 टन (127 लाख टन) ही गेहूँ खरीदा। पंजाब में खरीद 31 मई को बन्द कर दी गयी; जबकि मध्य प्रदेश के चार ज़िलों- इंदौर, भोपाल, उज्जैन और देवास में खरीद जारी थी। 73.98 लाख टन के साथ हरियाणा देश में गेहूँ का तीसरा सबसे बड़ा खरीदार रहा। केंद्र द्वारा 440.66 लाख टन के अनुमान के मुकाबले देश में कुल गेहूँ खरीद ने 386 लाख टन के आँकड़े को छुआ। देश में कुल खरीद में मध्य प्रदेश की हिस्सेदारी 33 फीसदी है। 2019 में देश में कुल खरीद 368 लाख टन थी।

गेहूँ की खरीद में मध्य प्रदेश का पिछला रिकॉर्ड वर्ष 2012- 2013 में था, जब राज्य ने 84.89 लाख टन की खरीद की थी। 2019 में गेहूँ की खरीद 73.69 लाख टन रही। मौज़ूदा खरीद पिछले साल के मुकाबले 74 फीसदी अधिक है और यह अब भी जारी है। कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण लगाये गये लॉकडाउन के कारण मध्य प्रदेश में गेहूँ की खरीद 15 अप्रैल को शुरू हुई, जबकि आमतौर पर 25 मार्च को होती है। जहाँ पंजाब वर्षों से गेहूँ की खरीद में अग्रणी राज्य रहा है, वहीं पिछले कुछ वर्षों में सरकारी खरीद केवल मध्य प्रदेश में बढ़ी है। इसी अवधि के दौरान 13,606 खरीद केंद्रों के माध्यम से सरकारी एजेंसियों द्वारा 119 लाख मीट्रिक टन धान की खरीद की गयी। अधिकतम खरीद तेलंगाना द्वारा 64 एलएमटी की गयी, इसके बाद 31 एलएमटी के साथ आंध्र प्रदेश दूसरे नम्बर पर रहा।

गेहूँ

क्र.सं.     राज्यवार खरीदारी (एलएमटी में)

1          मध्य प्रदेश   129

2          पंजाब     127

3          हरियाणा    74

4          उत्तर प्रदेश    32

5          राजस्थान    19

6          अन्य          01

            कुल     382

धान

क्र.सं.     राज्यवार खरीदारी (एलएमटी में)

1          तेलंगाना   64

2          आंध्र प्रदेश   31

3          ओडिशा   14

4          तमिलनाडु   04

5          केरल    04

6          अन्य     02

            कुल    119

क्या कुलभूषण को भूल गयी सरकार?

पाकिस्तानी सुरक्षाबलों द्वारा जासूसी के मामले में 3 मार्च, 2016 को बलूचिस्तान से गिरफ्तार किये गये भारतीय नागरिक और पूर्व भारतीय नौसेना अधिकारी कुलभूषण जाधव का मामला भारतीय मीडिया ने एक समय में ज़ोर-शोर से उठाया। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, इस मामले को ठण्डे बस्ते में डालती जा रही केंद्र सरकार की तरह ही मीडिया भी इसे भूलता जा रहा है। हाल ही में पाकिस्तान ने दावा किया है कि भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव ने रिव्यू पिटीशन दाखिल करने से इन्कार कर दिया है। विदित हो कि कुलभूषण जाधव जासूसी के आरोप में पाकिस्तान की जेल में बन्द हैं। उनके बारे में पाकिस्तान ने कहा है कि उसने जासूसी के आरोप में गिरफ्तार जाधव को दूसरा अतिरिक्त काउंसलर देने की पेशकश की, मगर जाधव ने ही मना कर दिया। पाकिस्तान के एडीशनल अटॉर्नी जनरल ने इस बारे में कहा है कि 17 जून, 2020 को कुलभूषण जाधव को आमंत्रित किया गया कि वह अपनी सज़ा पर पुनर्विचार करने के लिए एक याचिका दायर कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने खुद ही याचिका दायर करने से इन्कार कर दिया। समाचार एजेंसी एएनआई की 8 जुलाई, 2020 की खबर के अनुसार, पाकिस्तानी मीडिया के हवाले से जानकारी दी गयी है कि कुलभूषण ने पुनर्विचार याचिका के बजाय अपनी लम्बित दया याचिका का पालन करने की बात कही। सवाल यह है कि क्या भारत के उदासीन रवैये के चलते कुलभूषण जाधव का मनोबल टूट गया है? क्योंकि काफी समय से भारत सरकार कुलभूषण जाधव के मामले में कोई खास दिलचस्पी लेती नहीं दिख रही है। इस बार भी जब पाकिस्तान सरकार ने यह बयान जारी किया है, तब भी भारत सरकार की तरफ से इस मामले में कोई बयान नहीं दिया गया था।

विदित हो कि कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान ने गिरफ्तार करके दावा किया था कि कुलभूषण ईरान की तरफ से पाकिस्तान में जासूसी के लिए घुसे थे। उस समय भारत ने दावा किया था कि कुलभूषण व्यापार के सिलसिले में ईरान गये थे और पाकिस्तान ने उन्हें वहीं से अगवा किया था और पाकिस्तानी सैन्य अदालत ने कुलभूषण जाधव को अप्रैल, 2017 में कथित तौर पर जासूसी और आतंकवाद के आरोप में मौत की सज़ा भी सुना डाली थी। लेकिन कुलभूषण की इस सज़ा के खिलाफ भारत सरकार द्वारा हेग (नीदरलैंड) स्थित इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (आईसीजे) में अपील पर पाकिस्तान को हार का मुँह देखना पड़ा था।

कहीं यह पाकिस्तान की चाल तो नहीं

भारत ने इंटरनेशन कोर्ट में कहा था कि भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव के मामले में पाकिस्तान ने विएना सन्धि का पूरी तरह उल्लंघन किया है। अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट में जाधव की का केस वकील हरीश साल्वे लड़े थे, जिसके बदले उन्होंने भारत सरकार से फीस लेने से इन्कार कर दिया था। भारत सरकार के आग्रह पर उन्होंने महज़ एक रुपये फीस ली। आईसीजे में यह मामला लगभग दो साल दो माह तक चला और 18 जुलाई, 2019 को कोर्ट के न्यायाधीशों की 16 सदस्यीय पीठ ने भारत के पक्ष में फैसला सुनाया था। उस समय आईसीजे ने जाधव की सज़ा की प्रभावी समीक्षा और पुनर्विचार करने के लिए पाकिस्तान से कहा था। साथ ही कुलभूषण जाधव को बिना देरी किये अतिरिक्त काउंसलर देने को भी कहा था। अब पाकिस्तान सरकार यह दावा कर रही है कि वह जाधव के सामने अतिरिक्त काउंसलर देने का प्रस्ताव रख चुकी है; लेकिन उन्होंने खुद मना कर दिया है। सवाल यह है कि ऐसे समय में जब भारत सरकार देश में अनेक समस्याओं और कोरोना वायरस पर ध्यान केंद्रित किये हुए है; ऐसा तो नहीं कि पाकिस्तान जाधव को अतिरिक्त काउंसलर देने की झूठी खबर फैलाकर यह साबित करने की कोशिश में लगा है कि वह आईसीजे के आदेश का पालन कर रहा है? क्या इस समय भारत सरकार को आगे बढ़कर कुलभूषण जाधव के लिए अतिरिक्त काउंसलर देने के पाकिस्तान के दावे पर इसे मानने के लिए जाधव को नहीं मनाना चाहिए था? क्योंकि कुलभूषण की रिहाई से न केवल पाकिस्तान के हौसले पस्त होंगे, बल्कि भारत का पाकिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दबाव भी बनेगा।

गम्भीर और संदेहास्पद आरोप

पाकिस्तान ने आईसीजे में जाधव पर गम्भीर आरोप लगाये थे। उसने कहा था कि जाधव ने एक नकली पासपोर्ट पर वीजा लेकर चहबार में घुसपैठ की थी। पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि चहबार से 2003 में जाधव को एल 9630722 के नाम से हुसैन मुबारक पटेल नाम से नयी पहचान मिली थी, जिनका जन्म 30 अगस्त, 1968 को महाराष्ट्र (भारत) में जन्मे थे। आईसीजे में पाकिस्तानी अधिकारियों ने दावा किया कि जाधव 2013 से एक अभियान चला रहे थे, जिसके तहत वह बलूचिस्तान और कराची में एक अलगाववादी आन्दोलन को मज़बूत करके पाकिस्तान में हालात बिगाडऩा चाहते थे।

अधिकारियों ने दावा किया कि जाधव ऐसा कर पाने में सफल हो जाते, क्योंकि वह नौसेना से लडऩे की तकनीक में एक विशेषज्ञ थे। उन्होंने आईसीजे में कुलभूषण जाधव के द्वारा एक कुबूलनामा भी पेश किया, जिसमें जाधव की तरफ से कहलावाया गया कि वह वाध में हाजी बलूच के सम्पर्क में थे, जिन्होंने कराची में बलूच अलगाववादियों और आईएस नेटवर्क को वित्तीय और तर्कसंगत समर्थन प्रदान किया था। वहीं असीम बाजवा (पाकिस्तान के तत्कालीन डीजी आईएसपीआर) ने कहा था कि जाधव का लक्ष्य विशेष रूप से ग्वादर बंदरगाह के अलावा बलूच राष्ट्रवादी राजनीतिक दलों के बीच फूट पैदा करना और उन्हें भड़काकर चीन और पाकिस्तान आॢथक सम्बन्धों की खिलाफत करवाना था। उन्होंने यह भी कहा था कि जाधव ने चबहार में ईरान के बंदरगाह से एक नौका खरीदी थी और उनका लक्ष्य एक आतंकवादी साज़िश में कराची और ग्वादर बंदरगाहों को निशाना बनाना था।

इस तरह के अनेक आरोप पाकिस्तानी सैन्य और खुफिया अधिकारियों ने आईसीजे में दिये। लेकिन फिर भी भारत इस मामले में जीत सका; क्योंकि पाकिस्तान की ओर से कुलभूषण जाधव पर लगाये गये आरोपों में तथ्य नहीं थे।

क्या था जाधव का इकबालिया बयान

जाधव के खिलाफ सबूत जुटाने की कोशिश में पाकिस्तान ने उनका इकबालिया बयान रिकॉर्ड किया था, जो उन्हें प्रताडि़त करने के बाद रिकॉर्ड किया गया था। जाधव ने वीडियो के ज़रिये कराये गये इस कु़बूलनामे में कहा था कि भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ पाकिस्तान को अस्थिर करने में शामिल थी। वह भी रॉ के इशारे पर पाकिस्तान में काम कर रहे थे और भारतीय नौसेना के एक अधिकारी थे। इस वीडियो में उनका बयान इस तरह से है, जैसे कोई एक साधारण आदमी पुलिस के डर से सब कुछ आसानी से बता देता है। सवाल यह उठता है कि कोई सैन्य अधिकारी, वो भी तब जब वह किसी खुफिया एजेंसी के लिए काम करता हो, इतनी आसानी से इतना बड़ा आरोप अपने सिर पर नहीं ले सकता। इससे साबित होता है कि यह जबरन कहलवाया गया बयान है, जिसकी स्क्रिप्ट पाकिस्तानी अधिकारियों ने ही लिखी थी। भारत ने साफ कह दिया कि कुलभूषण जाधव भारतीय नागरिक हैं और वह व्यापार के सिलसिले में विदेश यात्राएँ करते थे।

ईरान का खेल

इस मामले में ईरान न तो पाकिस्तान को नाराज़ कर सकता और न ही भारत को नाराज़ करना चाहता। ईरान ने कहा था कि जाधव के पाकिस्तान-ईरान सीमा को अवैध रूप से पार करने की वह जाँच कर रहा है। इस मामले में भारत में ईरान के राजदूत गुलाम रज़ा अंसारी ने उस समय कहा था कि ईरान जाधव मामले की जाँच कर रहा है। ईरान जब जाँच पूरी कर लेगा, तो इसकी रिपोर्ट मित्र देशों के साथ साझा करेगी। बता दें कि पाकिस्तान तथा ईरान एक-दूसरे के पड़ोसी देश व विश्वसनीय साथी हैं और दोनों में अच्छे सम्बन्ध हैं, जिन्हें दोनों ही देश खराब करना नहीं चाहते। भारत सरकार ने तथ्यों के आधार पर दावा किया था कि कुलभूषण को ईरान से उठाया गया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि ईरान ने इसमें पाकिस्तान का सहयोग किया हो?

भारत ने किया हर सम्भव प्रयास

भारत सरकार ने कुलभूषण जाधव को बचाने का हर सम्भव प्रयास किया है। कुलभूषण जाधव के साथ पाकिस्तान सरबजीत सिंह जैसा बर्ताव न करे, इसके लिए भारत ने हर सम्भव प्रयास किया। इस मामले में भारत की ओर से आईसीजे में जाधव का मुकदमा लड़ रहे ख्याति प्राप्त वकील हरीश साल्वे ने कहा कि भारत कुलभूषण जाधव को बचाने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा है और उनके मामले में पाकिस्तान की हर गतिविधि पर लगातार नज़र रखे हुए है। उन्होंने कहा कि हम लगातार प्रयास कर रहे हैं कि पाकिस्तान की जेल से कुलभूषण जाधव को रिहा कराया जाए।

उस समय विदेश मंत्री रहीं सुषमा स्वराज ने भी इस मामले में बेहतर प्रयास किये। लेकिन हाल के दिनों में भारत सरकार इस मामले में कोई खास दिलचस्पी लेती दिखायी नहीं दे रही है। अन्यथा जब पाकिस्तान ने दावा किया कि उसके प्रस्ताव के बावजूद जाधव ने अपना बचाव पक्ष रखने के लिए अतिरिक्त काउंसलर नियुक्त करने से मना कर दिया, भारत सरकार को तुरन्त इसका जवाब देना चाहिए था और पाकिस्तान के इस प्रस्ताव में कहना चाहिए था कि अतिरिक्त काउंसलर भारत सरकार मुहैया करायेगी।

इससे पाकिस्तान की चाल का पोल खुलती और उसे इसे ठुकराना आसान नहीं होता। कुल मिलाकर भारत सरकार को कुलभूषण जाधव की रिहाई के लिए फिर से सार्थक और प्रभावी प्रयास करने चाहिए, ताकि भारत माता का एक सपूत अपने वतन वापस हो सके।

हिन्दू-धर्म को समझना 3 – समान गोत्र विवाह यह तर्कसंगत है या मात्र एक लत?

अतिवामपंथी बुद्धिजीवियों, छद्म धर्म-निरपेक्षतावादियों, मुखर संवैधानिकतावादियों और अपरम्परागत नारीवादियों ने एक ही गोत्र विवाह से बचने की परम्परागत प्रथा और इस कठोर प्रथागत नियम की निंदा की है। साथ ही इस नियम के वैज्ञानिक आधार को जाने बिना उस के बारे में अपने पूरी तरह से उथले ज्ञान को वैधता प्राप्त कराने के लिए इस तरह के स्वयंभू सक्रियतावादी हिन्दू संस्कृति को बदनाम  करने के लिए संवैधानिक न्यायालयों में जनहित याचिकाओं के जरिये गुहार लगा रहे हैं। आइए, देखते हैं कि हमारे द्रष्टाओं की प्रतिपादित इस सोच का कोई वैज्ञानिक आधार था या नहीं और क्या यह सब केवल प्रेमीयुगलों के अपनी इच्छानुसार जीवन जीने के अधिकार पर कुठाराघात मात्र है, जो उन्हें संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत प्राप्त हुआ है।

हमारी चर्चा पूरी तरह से आनुवंशिक ज्ञान पर आधारित है, जिसके साथ किसी भी व्यक्ति को जीव विज्ञान की मूल बातें पता हैं कि महिला में गुणसूत्र एक्सएक्स (&&) है और पुरुष में एक्स4 (&4) गुणसूत्र है। इनकी संतान में पुत्र हुआ, तो मन गया है कि (&4) अर्थात् इस पुत्र में 4 गुणसूत्र पिता से ही आये, यह तो निश्चित ही है; क्योंकि माता में तो 4 गुणसूत्र होते ही नहीं हैं। और यदि पुत्री हुई तो (&& गुणसूत्र) यानी यह गुण सूत्र पुत्री में माता और पिता दोनों से आते हैं।

1) & गुणसूत्र और & गुणसूत्र अर्थात् पुत्री, मतलब && गुणसूत्र के जोड़े में एक & गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा & गुणसूत्र माता  से आता है। तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गाँठ-सी रचना बना लेता है; जिसे क्रॉसओवर कहा जाता है।

 2) &4 गुणसूत्र और &4 गुणसूत्र अर्थात् पुत्र, यानी पुत्र में 4 गुणसूत्र केवल पिता से ही आना सम्भव है; क्योंकि माता में 4 गुणसूत्र हैं ही नहीं। और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारण पूर्ण अन्योन्य गमन (क्रॉसओवर) नहीं होता; केवल 5 फीसदी तक ही होता है। और 95 फीसदी 4 गुणसूत्र ज्यों-का-त्यों (इनटैक्ट) ही रहता है, तो महत्त्वपूर्ण 4 गुणसूत्र हुआ। क्योंकि  4 गुणसूत्र के विषय में निश्चित है कि यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है। बस इसी 4 गुणसूत्र का पता लगाना ही गोत्र प्रणाली का एकमात्र उद्देश्य है, जो हज़ारों / लाखों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था।

वैदिक गोत्र प्रणाली और 4 गुणसूत्र

अब तक हम यह समझ चुके हैं कि वैदिक गोत्र प्रणाली 4 गुणसूत्र पर आधारित है, अथवा 4 गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है। उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है, तो उस व्यक्ति में विद्यमान 4 गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस 4 गुणसूत्र के मूल हैं। चूँकि 4 गुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता। यही कारण है कि विवाह के पश्चात् स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है।

वैदिक/हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वॢजत होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष और स्त्री भाई-बहिन कहलाएँगे; क्योंकि उनका प्रथम पूर्वज एक ही है। परन्तु यह थोड़ी अजीब बात नहीं कि जिन स्त्री और पुरुष ने एक-दूसरे को कभी देखा तक नहीं और दोनों अलग-अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे तो वे भाई बहन हो गये? इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता का भी है।

आज के आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार, यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो, तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों के साथ उत्पन्न होगी। ऐसे दम्पत्तियों की संतान में एक-सी विचारधारा, पसन्द, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। विज्ञान में भी इस सम्बन्ध में यही बात कही गयी है कि सगोत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दम्पत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, गम्भीर रोग आदि जन्मजात ही पाये जाते हैं।

शास्त्रों के अनुसार, इन्हीं कारणों से सगोत्र विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया था। इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके, इसलिए विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है, यही कारण था कि उस समय विधवा-विवाह भी स्वीकार्य नहीं था। क्योंकि कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति, तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है।

इसीलिए कुण्डली मिलान के समय वैधव्य पर खास ध्यान दिया जाता और मांगलिक कन्या होने पर ज़्यादा सावधानी बरती जाती है। आत्मज या आत्मजा का सन्धिविच्छेद तो कीजिए। आत्म + ज अथवा आत्म + जा = मैं, ज या  जा = जन्मा या जन्मी, यानी मैं ही जन्मा या जन्मी हूँ।

यदि पुत्र है, तो 95 फीसदी पिता और 5 फीसदी माता का हिस्सा है। यदि पुत्री है, तो 50 फीसदी पिता और 50 फीसदी माता का हिस्सा है। फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई, तो वह डीएनए 50 फीसदी का 50 फीसदी रह जाएगा। फिर यदि उसके भी पुत्री हुई, तो उस 25 फीसदी का 50 फीसदी डीएनए रह जाएगा। इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में यह फीसदी घटकर एक फीसदी ही रह जाएगा। अर्थात् एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुन: पुन: जन्म लेता रहता है, और यही है सात जन्मों का साथ।

डीएनए या डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड शायद सबसे प्रसिद्ध जैविक अणु है, जो पृथ्वी पर जीवन के सभी रूपों में मौज़ूद होता है। लेकिन जब पुत्र होता है, तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95 फीसदी गुणों को आनुवंशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5 फीसदी (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक फीसदी से कम भी हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है, और यही क्रम अनवरत चलता रहता है, जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं, अर्थात् यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है। इसीलिए अपने ही अंश को पित्तर जन्म जन्मान्तरों तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रद्धेय भाव रखते हुए आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं, और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है तथा सन्तानों की उन्नति के लिए समॢपत होने का सम्बल देती है।

एक बात और, माता-पिता यदि कन्यादान करते हैं, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं। बल्कि इस दान का विधान इस निमित्त किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिए और उस कुल की कुलधात्री बनने के लिए, उसे गोत्र मुक्त होना चाहिए। डीएनए मुक्त तो हो नहीं सकता; क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही, इसलिए मायका अर्थात् माता का रिश्ता बना रहता है।

गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है। तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं होने देगी। वर्णसंकर नहीं करेगी। क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिए रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है। यही कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है। यह रजदान भी कन्यादान की ही तरह कोटि यज्ञों के समतुल्य उत्तम दान माना गया है, जो एक पत्नी पति को दान करती है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अलावा यह संस्कारगत शुचिता किसी अन्य सभ्यता में है ही नहीं।

(अगले अंक में- अध्यात्म के प्रमुख आधार वेद)

व्हाइट हाउस की जंग

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए अब चार ही महीने रह गये हैं और दुनिया भर में इस पर चर्चा शुरू हो गयी है कि क्या डोनाल्ड ट्रंप फिर से इस पद पर चुने जाएँगे? पिछले कुछ रिकॉर्ड को देखें, तो वहाँ राष्ट्रपति दूसरे कार्यकाल के लिए चुने जाते रहे हैं। लेकिन ट्रंप के सामने दूसरे चुनाव के साल में कुछ ऐसी चुनौतियाँ सामने आयी हैं, जिन्होंने इस मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है। दूसरे अभी तक अमेरिका में हुए तीन सर्वे में ट्रंप को उनके इस चुनाव में मुख्य प्रतिद्वंद्वी पूर्व उप राष्ट्रपति डेमोक्रेट जोसेफ रोबिनेटे बिडेन जूनियर (जो. बिडेन) मुश्किल चुनौती देते दिख रहे हैं।

इस चुनाव के नतीजे पर भारत की भी खास नज़र रहेगी। क्योंकि हाल के वर्षों में, खासकर डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत अमेरिका के नज़दीक जाता दिखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद कह चुके हैं कि ट्रंप से उनके रिश्ते दोस्त जैसे हैं। ह्यूस्टन (टेक्सॉस) में पिछले साल सितंबर में हाउडी मोदी और इस साल फरवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात के अहमदाबाद में नमस्ते ट्रंप जैसे भव्य कार्यक्रम मोदी की बात पर मुहर लगाते हैं। ऐसे में ज़ाहिर है, यह एक बड़ा सवाल है कि यदि अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव नतीजे में उटलफेर होता है, तो भारत के साथ इसके सम्बन्धों पर क्या असर पड़ेगा?

इस चुनाव से पहले अमेरिका में कुछ बड़े घटनाक्रम हुए हैं, जो राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। चीन से निकलकर दुनिया भर में पहुँचे कोविड-19 ने सबसे ज़्यादा जानें अमेरिका में ली हैं। कोविड-19 के कहर के बीच अमेरिका में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत ने अमेरिका भर में बवाल मचा दिया है। जॉर्ज की मौत के बाद पूरे अमेरिका में हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए हैं।

अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत के बीच मशहूर रैपर कान्ये वेस्ट ने भी चुनाव मैदान में कूदने की घोषणा कर दी है। आगामी चुनाव को लेकर कान्ये वेस्ट लोगों के बीच पहुँच रहे हैं। उनकी अभियान सलाहकार उनकी पत्नी मशहूर टीवी स्टार किम कार्दशियन हैं। गर्भपात विरोध, शिक्षा के लिए ईश्वर का भय और प्रेम लौटाना उनके बड़े मुद्दे हैं और वह कोविड-19 वैक्सीन के प्रति भी संदेह जता रहे हैं। माना जा रहा है कि वेस्ट भले खुद चुनाव न जीत सकें, मगर वर्तमान घटनाक्रम में जो बिडेन को पडऩे वाले सम्भावित अश्वेत वोट बड़ी संख्या में वेस्ट के हिस्से में जा सकते हैं, जिसका लाभ अंतत: ट्रंप को मिल सकता है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि विरोधियों की गहरी नापसन्दगी के बावजूद ट्रंप के इस  कार्यकाल के पहले तीन साल प्रभावशाली रहे हैं। लेकिन कोविड-19 महामारी से अमेरिका में एक लाख से ज़्यादा लोगों की मौत होने और अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की हिरासत में मौत (जिसे हत्या बताया जा रहा है) से भड़के आन्दोलन से चुनाव में कुछ दिलचस्प पेच आते दिख रहे हैं। अभी तक के सर्वे में बिडेन अमेरिका के 50 राज्यों में से से 25 में ट्रंप पर बढ़त हासिल करते दिखे हैं। ट्रंप 13 राज्यों में बिडेन से आगे हैं; जबकि पाँच राज्यों में दोनों में बराबर की टक्कर है। चार राज्य ऐसे हैं, जहाँ लोगों की राय अभी फैसला नहीं किया वाली है।

इस पर एक सर्वे जाने माने अखबार वाशिंगटन पोस्ट-एनबीसी ने मिलकर किया है। इसमें बिडेन को 50 फीसदी और ट्रंप को 42 फीसदी वोट मिलते बताये गये हैं। लेकिन इस सर्वे में जो बहुत दिलचस्प बात सामने आयी है, वह यह है कि ट्रंप को कॉलेज जाने वाले छात्रों का बड़ा समर्थन है। इसका कारण देश के युवाओं को रोज़गार में प्राथमिकता वाली ट्रंप की नीति हो सकती है। लेकिन दूसरी और देश की महिलाओं का ज़्यादा समर्थन बिडेन के लिए है। कोरोना से लोगों की बड़े पैमाने पर मौत भी अमेरिका के लोगों के लिए काफी बड़ा मसला है।

चुनाव की इस गहमागहमी के बीच ये खबरें भी मीडिया के एक हिस्से में आयी हैं कि यदि नवंबर में होने वाले चुनाव में ट्रंप हारते हैं, तो वह पद नहीं छोड़ेंगे। हालाँकि ट्रंप ने इन रिपोट्र्स को सिरे से खारिज किया है। उन्होंने ने इन रिपोट्र्स के बाद कहा कि चुनाव हारने पर वह शान्तिपूर्ण ढंग से प्रक्रिया अनुसार पद छोड़ देंगे। इसका मतलब होगा कि वह नहीं जीते। कोई अन्य आये और कार्य करे; लेकिन वह हारते हैं, तो यह देश के लिए बहुत खराब होगा। वैसे मशहूर राजनीतिक पत्रिका पॉलिटिको भी अपने एक सम्पादकीय में यह कह चुकी है कि ट्रंप की ओर से कभी भी ऐसा (पद न छोडऩे का) संकेत नहीं दिया गया। विदेश नीति ही नहीं, स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर जलवायु परिवर्तन तक पर दोनों की सोच और नीतियों में बड़ा अन्तर है। डेमोक्रेटिक नेशनल कमेटी के चेयरमैन टॉम पेरेज ने बिडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी के बाद कहा था कि बिडेन के मूल्य अमेरिका की बहुसंख्यक आबादी के मूल्यों को प्रतिबिम्बित करते हैं; ऐसे में हमें पक्की उम्मीद है कि बिडेन ही जीतेंगे।

लेकिन ट्रंप के चुनाव प्रबन्धक टिम मुरटो, जो बिडेन को स्लीपी कहते हैं; का दावा है कि इस चुनाव में ट्रंप बिडेन को नष्ट कर देंगे। ट्रंप की चुनाव मुहिम कमोवेश उन्हीं लाइंस पर है, जैसी पिछले चुनाव में डेमोक्रेट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ थीं। इसमें वह विरोधियों पर आरोपों से लेकर अपने खिलाफ षड्यंत्र तक की बात कह रहे हैं।

डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद की बिडेन की उम्मीदवारी भी दिलचस्प रही। न्यूयॉर्क के पूर्व मेयर माइक ब्लूमबर्ग ने उनके खिलाफ जब अपना नामांकन वापस लिया था, तब तक अरबपति ब्लूमबर्ग, देशभर में टीवी विज्ञापनों और सोशल मीडिया अभियान में करीब 38 करोड़ डॉलर खर्च कर चुके थे। वैसे वे पहले भी चार चुनाव छोड़ चुके हैं। मैदान से हटने के बाद उन्होंने बिडेन को समर्थन का ऐलान कर दिया था। इसके बाद बिडेन ने अपनी पार्टी के साथी डेमोक्रेट नेता सीनेटर बर्नी सैंडर्स को पद की दौड़ में पीछे छोड़ा। याद रहे बिडेन ने डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर साउथ कैरोलिना में पार्टी के प्राइमरी चुनाव में बड़ी जीत हासिल की थी। बिडेन ने हैरानी भरे नतीजे में टेक्सॉस में भी जीत दर्ज की थी और सैंडर्स से यह राज्य छीन लिया था। बिडेन ने वॢजनिया, नॉर्थ कैरोलिना, अल्बामा, टेनेसी, ओक्लाहोमा, अरकंसास, मिनेसोटा और मैसाचुसेट्स जैसे राज्यों में जीत दर्ज की; जबकि वामपंथ की तरफ झुकाव रखने वाले नेता बर्नी सैंडर्स ने कैलिफोर्निया, कोलोराडो और उटा के अलावा अपने गृह राज्य वरमोंट में भी जीत दर्ज की थी।

हाल के समय में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को कई राजनीतिक विरोधों का सामना करना पड़ा है। उनके वेस्ट विंग सलाहकार और कैंपेन सहयोगी ट्रंप के दोबारा चुने जाने को लेकर चिन्तित रहे हैं। कोरोनो वायरस से निपटने को लेकर ट्रंप की नीतियों के खिलाफ और फिर नस्लीय भेदभाव के मसले पर पूरे अमेरिका में प्रदर्शन इन सहयोगियों की चिन्ता का बड़ा कारण है। निश्चित ही इससे बिडेन समर्थक उत्साह से भरे हैं। अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन 25 मई को मिनोपोलिस में एक पुलिस अफसर ने कई मिनट तक घुटने से दबाये रखी थी, जिसे उसकी मौत का कारण माना गया है।

कोविड-19 के मामले बढऩे के बाद भी ट्रंप ने आॢथक आधार को प्राथमिकता दी और उनकी छूट की घोषणा से वायरस फैलने में मदद मिली, जिससे लोगों की बड़ी संख्या में मौत हुई। वैसे यह अलग बात है कि इसके बावजूद अमेरिका में आॢथक समस्या बढ़ रही है। विपक्षी ट्रंप के खिलाफ इस मुद्दे को उठा रहे हैं। ज़ाहिर है इसका असर ऐसे क्षेत्रों में उनके समर्थन पर पड़ सकता है, जो उनकी जीत के लिहाज़ से अहम हैं। यह भी मीडिया रिपोट्र्स में आया है कि ट्रंप को बिडेन की तुलना में कम चुनाव चंदा (फण्ड) मिला है।

युवाओं के विपरीत बड़ी उम्र के लोगों में ट्रंप के प्रति लोकप्रियता में कमी की बात सर्वे में सामने आ रही। पिछले चुनाव में और उसके बाद के तीन साल तक इस वर्ग का ट्रंप की ओर स्पष्ट झुकाव रहा है। इसके बावजूद ट्रंप के चुनाव प्रबन्धक यह दावा कर रहे हैं कि पिछले चुनाव में भी सर्वे ट्रंप को हारा बता रहे थे; लेकिन वह जीते थे। इस बार भी यही होगा। खुद ट्रंप ने कुछ समय पहले फॉक्स न्यूज रेडियो से कहा था कि वोटर्स मेरे पक्ष में हैं। पिछली बार भी मैं सर्वे में हर राज्य में हिलेरी से हार रहा था; लेकिन मैंने हर जगह जीत हासिल की। इसके बावजूद व्हाइट हाउस में उनके सलाहकार लगातार मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए रणनीति पर काम कर रहे हैं। ओहियो राज्य, जहाँ पिछले चुनाव में उन्हें महज़ 8 फीसदी ही वोट मिले थे, वहाँ विज्ञापन ब्लिट्ज जारी किया गया। एरिजोना में भी उनके समर्थक ट्रंप के लिए चुनौतियाँ को महसूस कर रहे हैं। अश्वेत युवा डेमोक्रेटिक समर्थक ट्रंप के खिलाफ एकजुट दिख रहे हैं। पिछली बार इन्होंने हिलेरी क्लिंटन का विरोध कर ट्रंप का समर्थन किया था, जिससे उन्हें जीतने में बड़ी मदद मिली थी। वैसे उनके शासनकाल में अमेरिका में बेरोज़गारी दर कम हुई है, जो ट्रंप के हक में जाती है। हालाँकि कोरोना ने फिर खेल बिगाड़ा है।

बिडेन ट्रंप पर दबाव बनाने के लिए यह भी घोषणा कर रहे हैं कि यदि वह चुनाव जीते, तो एच-1बी वीजा पर लागू अस्थायी निलंबन हटा लेंगे। बता दें कि ट्रंप प्रशासन ने 23 जून को एच-1बी वीजा और बाकी विदेशी कार्य वीजा को 2020 के आिखर तक निलंबित कर दिया था। बता दें एच-1बी वीजा भारतीय आईटी पेशेवरों के बीच काफी लोकप्रिय है। यह एक नॉन-इमीग्रेंट वीजा है, जो अमेरिकी कम्पनियों को विशेष कामों में विदेशी कर्मचारियों को नियुक्त करने की अनुमति देता है, जिनके लिए सैद्धांतिक या तकनीकी विशेषज्ञता की ज़रूरत होती है।

इस बीजा के निलंबन से भारतीयों में मायूसी फैली है। उधर बिडेन ट्रंप की इमीग्रेशन पॉलिसी को क्रूर बता रहे हैं। बिडेन ने यह कि वह राष्ट्रपति बने तो मुस्लिम यात्रा पर लगा प्रतिबन्ध वापस ले लेंगे और अमेरिकी मूल्यों और ऐतिहासिक नेतृत्व के हिसाब से शरणार्थी प्रवेश को बहाल करेंगे। बिडेन कह रहे हैं कि ट्रंप ने इस साल के बाकी समय में एच-1बी वीजा को समाप्त कर दिया, उनके प्रशासन में ऐसा नहीं होगा। उनका कहना है कि कम्पनी वीजा पर आये लोगों ने इस देश का निर्माण किया है।

बिडेन ने जुलाई के पहले पखबाड़े कहा कि अपने कार्यकाल के पहले दिन मैं 1.1 करोड़ दस्तावेज़ रहित इमीग्रेंट्स की नागरिकता की राह आसान करने के लिए कांग्रेस में विधायी इमीग्रेशन सुधार बिल भेजने जा रहा हूँ। इन लोगों ने इस देश के लिए बहुत ज़्यादा योगदान दिया है, जिसमें (एशियाई अमेरिकी और प्रशांत द्वीप समूह) एएपीआयी समुदाय के 17 लाख लोग शामिल हैं। बिडेन के मुताबिक, उनकी इमीग्रेशन पॉलिसी परिवारों को एक साथ रखने के लिए है।

भारत-अमेरिका सम्बन्ध

भारत-अमेरिका रिश्ता अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव से बहुत गहरे से जुड़ा है। दोनों देशों के वर्तमान प्रमुखों- ट्रंप और मोदी के बीच अच्छी मित्रता है। ट्रंप दोबारा जीतते हैं, तो ज़ाहिर है, यह रिश्ता जारी रहेगा। लेकिन सवाल यह है कि यदि जो बिडेन जीतते हैं, तो भारत और प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनके रिश्ते क्या ट्रंप जैसे ही रहेंगे? खुद बिडेन, जो बराक ओबामा के काल में अमेरिका के उप राष्ट्रपति रहे हैं, कहते हैं कि भारत और अमेरिका के रिश्ते दोनों देशों की सुरक्षा के लिहाज़ से अहम हैं। हमारी सुरक्षा की खातिर एशिया प्रशांत क्षेत्र में भारत जैसे सहयोगी का होना ज़रूरी है और साफतौर पर उनके (भारत) लिए भी हम ज़रूरी हैं।

बिडेन का कहना है कि अगर वह राष्ट्रपति चुनाव जीतते हैं, तो भारत-अमेरिका रिश्तों को और मज़बूत करने पर ध्यान देंगे। वे भारत को अमेरिका का स्वाभाविक साझेदार बताते हैं और उनका कहना है कि भारत के साथ बेहतर रिश्ता उनके प्रशासन की प्राथमिकता में होगा। भारत-अमेरिका रिश्ता दक्षिण एशिया में बहुत महत्त्व रखता है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भारत-चीन का हाल का खूनी टकराव के बाद इसका महत्त्व और बढ़ जाता है। चीन की महत्त्वााकांक्षाओं और विस्तारवादी नीति को लेकर प्रधानमंत्री मोदी कमोवेश, वहीं रुख दिखा रहे हैं, जो ट्रंप दिखाते हैं।

हालाँकि विदेश मामलों के बहुत-से जानकार यह भी मानते हैं कि चीन के साथ तनाव के दौरान अमेरिका और ट्रंप दोनों की भूमिका भारत को उकसाने वाली रही है। चीन से अमेरिका के सम्बन्धों की तल्खी कोरोना वायरस के बाद गहरी हुई है और अमेरिका उसे घेरने के लिए भारत को एक उपयुक्त जगह मानता है। यही कारण है, बहुत जानकार मोदी सरकार को ट्रंप और अमेरिका के उकसावे में न आने की चेतावनी देते रहे हैं।

अमेरिका के साथ भी चीन का व्यापार समेत कई मुद्दों पर विवाद इस सुॢखयों में है। शायद यही कारण है कि बिडेन भी भारत के साथ यह साझेदारी को एक रणनीतिक साझेदारी बताते हैं और कहते हैं कि यह हमारी सुरक्षा के लिए ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण है। यहाँ यह ज़िक्र करना भी बहुत ज़रूरी है कि मनमोहन सरकार के समय भारत और अमेरिका के बीच सिविल न्यूक्लियर डील ओबामा प्रशासन के समय हुई थी और इसमें भारत की कांग्रेस पार्टी को सहमत करवाने में उप राष्ट्रपति, जो बिडेन की बड़ी भूमिका रही थी। वह खुद कहते हैं कि मुझे गर्व है कि करीब एक दशक पहले हमारे प्रशासन में मैंने भारत-अमेरिका सिविल न्यूक्लियर डील को कांग्रेस की सहमति दिलाने में बड़ी भूमिका निभायी थी। यह एक बड़ा सौदा है। बिडेन भारत के साथ रिश्ते की वकालत करते हुए कहते हैं कि रिश्तों की बेहतर प्रगति के दरवाज़े खोलने और भारत के साथ अपनी रणीतिक साझेदारी को मज़बूत करना ओबामा-बिडेन प्रशासन की प्राथमिकता में ऊपर था और अगर मैं राष्ट्रपति चुना गया, तो भी यह उच्च प्राथमिकता में रहेगा।

हालाँकि पिछले साल ह्यूस्टन में हाउडी मोदी और इस साल फरवरी में नमस्ते ट्रंप कार्यक्रम को लेकर भारत में सवाल उठे हैं और अमेरिका के एक बड़े वर्ग में भी मोदी प्रशासन के प्रति इसे लेकर नाराज़गी रही है। कहा जाता है कि, खासकर डेमोक्रेट्स ने महसूस किया कि प्रधानमंत्री मोदी एक तरह से ट्रंप चुनाव मुहिम में हिस्सा ले रहे हैं। भारत में तो विपक्षी कांग्रेस ने इसे लेकर मोदी की कड़ी आलोचना तक की और आरोप लगाया कि यह भारत की घोषित विदेश नीति के खिलाफ है।

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में प्रवासी भारतीय बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं। इसलिए वहाँ रह रहे भारतीयों को अपने साथ रखने की कोशिश रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स हमेशा करते रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि ऐसा वह अपने स्तर पर करते रहे हैं। लेकिन मोदी के लिए जिस तरह हाउडी मोदी और अब नमस्ते ट्रंप कार्यक्रम हुए, उसे लेकर आलोचकों ने कहा कि वह (मोदी) ट्रंप से अपनी निजी मित्रता के लिए एक तरह से उनके चुनावी कार्यक्रम का हिस्सा बन रहे हैं, जो उन्हें किसी भी सूरत में नहीं करना चाहिए था। यही कारण है कि बहुत-से विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत को अमेरिकी सिस्टम के साथ सम्बन्धों को मज़बूत करने पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि सिस्टम किसी राष्ट्रपति का मोहताज नहीं होता, राष्ट्रपति तो बदल जाते हैं; व्यवस्था नहीं बदलती।

चीन के साथ सीमा पर जब तनाव बढ़ा था, तो प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप से ही फोन पर बात की थी। जानकार कहते हैं कि इसका मकसद चीन को यह संदेश देना था कि अमेरिका हमारे साथ है, ताकि उस पर दबाव बनाया जा सके। वैसे यह भी सच है कि यह वही ट्रंप हैं, जिन्होंने अप्रैल में मलेरिया रोधी हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दवा न देने पर भारत को कड़े परिणाम भुगतने की चेतावनी दे दी थी, जिससे मोदी सरकार ने बेचैनी महसूस की थी। उसे कुछ घंटे के भीतर ही पैरासिटामोल और हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के निर्यात को अस्थायी तौर पर मंज़ूरी देनी पड़ी थी।

बहुत से विशेषज्ञ यह मानते हैं कि अमेरिका की भारत या अन्य देशों के नेताओं से दोस्ती अपने हितों तक ही सीमित होती है। यह तय है कि ट्रंप ही दोबारा चुनकर आते हैं, तो मोदी से उनकी मित्रता और गहरी ही होगी। बिडेन आते हैं तो, कहना कठिन है कि यह मित्रता किस स्तर की होती है। यदि अमेरिका में सत्ता परिवर्तन होता है, तो इसका निश्चित ही भारत में राजनीतिक संदर्भ में भी असर तो पड़ेगा ही।

हाल के वर्षों को देखें, तो अमेरिका के लिए भारत से ज़्यादा अमेरिका की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में पाकिस्तान ज़्यादा महत्त्वपूर्ण रहा है। पाकिस्तान के काफी हद तक चीन के पाले में चले जाने के बाद ज़रूर अमेरिका का रुख बदला है और उसमें भारत को महत्त्व दिया है। लेकिन ऐसा करना उसकी मजबूरी है। भारत के प्रति उसका प्यार अपने स्वार्थों से ज़्यादा कुछ नहीं।

यदि देखें, तो चाहे डेमोक्रेट हों या रिपब्लिकन, भारत को बहुत ज़्यादा महत्त्व किसी ने नहीं दिया है। अमेरिका में भारतीयों की संख्या पिछले वर्षों में बढऩे के बावजूद उनके वोट चुनाव में निर्णायक नहीं रहते। एच-1 वीजा पर अमेरिकी प्रशासन हमेशा मनमाना फैसला करता रहा है; जिसका असर भारतीय छात्रों पर पड़ा है। लेकिन एचवन वीजा के ग्रीन कार्ड और फिर नागरिक बनने यानी वोट डालने का अधिकार पाने में किसी भारतीय को आज की तारीख में 12 से 15 साल का समय लग जाता है।

वर्तमान में यह धारणा है कि भारतीय समुदाय रिपब्लिकन पार्टी से नाराज़ है। दिसंबर महीने तक एच-1 वीजा से लेकर कई अन्य वीजा सेवाएँ बन्द कर दी गयी हैं। इससे अमेरिका में रहने वाले भारतीयों परिवारों के कुछ सदस्य फँस गये हैं। कुछ तो ऐसे हैं, जिनका घर बार अमेरिका में है और आधा परिवार वीजा प्रक्रिया के कारण भारत में अटका हुआ है। भारतीय समुदाय मानता है कि ट्रंप का वीजा से जुड़ा निर्णय एक राजनीतिक फैसला है और चुनाव के बाद ट्रंप खुद प्रतिबन्ध खत्म कर देंगे। भारतीय आईटी इंजीनियरों को अमेरिका की जितनी ज़रूरत है, उतनी ही अमेरिका को भारतीय इंजीनियरों की है। चीन से तनातनी के बाद जो तस्वीर बदली है, उसमें भारतीय इंजीनियर और महत्त्वपूर्ण हो गये हैं।

ट्रंप के फैसले से भारतीय छात्र प्रभावित 

ट्रंप को लेकर भारत के छात्र सॉफ्ट माने जाते रहे हैं। लेकिन हाल में अमेरिका में रहने वाले विदेशी छात्र ट्रंप प्रशासन के एक फैसले से प्रभावित हुए हैं। अमेरिकी सरकार ने कहा है कि जिन छात्रों की सभी क्लासेस ऑनलाइन शिफ्ट हो गयी हैं, उन्हें देश लौटना होगा। इमीग्रेशन एंड कस्टम एनफोर्समेंट डिपार्टमेंट ने जो आदेश जारी किया है; उसके मुताबिक, वह विदेशी छात्र जो अमेरिका में ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन कोर्सेस कर रहे हैं और जिनकी सभी क्लासेस ऑनलाइन कंडक्ट की जा रही हैं, उन्हें देश छोडऩा होगा। ट्रंप प्रशासन के इस फैसले से करीब 10 लाख छात्र प्रभावित हुए हैं, जिनमें से अकेले भारत के दो लाख से ज़्यादा छात्र हैं। वैसे अमेरिका में छात्र ही नहीं अप्रवासियों के मामले में भी चीन के ही लोग सबसे ज़्यादा रहते हैं, जिनके बाद भारतीयों का नम्बर आता है। अमेरिका में मौज़ूद हर 6 अप्रवासी में एक भारतीय है। देखा जाए, तो अमेरिका में भारतीय बड़ी संख्या में आईटी सेक्टर से जुड़े हैं। अमेरिकी की कुल आबादी 32.6 करोड़ है, जिसमें से अप्रवासियों की संख्या 4.5 करोड़ के करीब है। इस तरह वहाँ अप्रवासी कुल आबादी का करीब 14 फीसदी हैं। वहाँ चीन के 28 लाख से ज़्यादा, जबकि भारत के 26 लाख से ज़्यादा अप्रावासी हैं। अमेरिका में ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन वाले स्टूडेंट्स के लिए एफ-1 और एम-1 कैटेगरी के वीजा जारी किये जाते हैं। लेकिन ट्रंप प्रशासन के फैसले से छात्र बड़ी संख्या में प्रभावित होंगे। वैसे यह आदेश उन्हीं छात्रों पर लागू होगा, जिनकी सभी क्लासेस ऑनलाइन हैं और जिनका कॉलेज या यूनिवॢसटी जाना ज़रूरी नहीं। अकेले साल 2019 में 2,02,014 भारतीय छात्र अमेरिका गये थे। इनमें से ज़्यादातर न्यूयॉर्क, कैलिफोॢनया, टेक्सॉस, मेसाचुसेट्स और इलिनॉय में हैं।

जॉर्ज फ्लॉयड की मौत से उठा तूफान

अमेरिका में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत वहाँ एक बड़ा मुद्दा बना है। पूरे अमेरिका में हिंसक विरोध-प्रदर्शन हुए हैं और कुछ लोगों की इसमें मौत भी हुई है। हज़ारों गिरफ्तार हुए हैं। अरबों डॉलर की सम्पत्ति को नुकसान हुआ है। यहाँ तक कि व्हाइट हाउस के बाहर बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए, जिसके बाद राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रंप को बंकर में जाने को मजबूर होना पड़ा। एक तरह से जॉर्ज फ्लॉयड अमेरिका में न्‍याय और बराबरी माँग के प्रतीक बन गये हैं। उनके समर्थक ट्रंप हो गये हैं, जिसका चुनाव में असर पड़ेगा। दरअसल 25 मई को अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड को जब पुलिस ने पकड़ा, तो उन्होंने कहा कि उन्हें साँस लेने में परेशानी हो रही थी। पुलिस हिरासत में उनकी मौत होने के बाद यह वीडियो अमेरिका भर में सोशल मीडिया पर वायरल हो गया, जिसके बाद हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गये। फ्लॉयड (46) अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय से थे। वह नॉर्थ कैरोलिना में पैदा हुए और टेक्सॉस के ह्यूस्टन में रहते थे। काम की तलाश में कई साल पहले मिनियापोलिस चले गये थे। जॉर्ज मिनियापोलिस के एक रेस्त्रां में सुरक्षा गार्ड का काम करते थे और उसी रेस्त्रां के मालिक के घर पर किराया देकर पाँच साल से रहते थे। जॉर्ज को बिग फ्लॉयड के नाम से जाना जाता था। फ्लॉयड को एक दुकान में नकली डॉलर का इस्तेमाल करने के संदेह में गिरफ्तार किया गया था। पुलिस के मुताबिक, जॉर्ज पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने 20 डॉलर (करीब 1500 रुपये) के फर्ज़ी नोट के ज़रिये एक दुकान से खरीदारी की कोशिश की। इसके बाद एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें पुलिस अधिकारी को घुटने से आठ मिनट तक जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन दबाते हुए देखा गया। वीडियो में जॉर्ज कहते हुए सुना जा सकता है कि मैं साँस नहीं ले सकता (आयी कान्ट ब्रीद)। बाद में फ्लॉयड की चोटों के कारण मौत हो गयी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक, गर्दन और पीठ पर दबाव के कारण फ्लॉयड की मौत दम घुटने से हुई। फ्लॉयड की मौत की खबर आग की तरह फैली और प्रदर्शन शुरू हो गये। मामले में श्वेत अधिकारी डेरेक चाउविन को गिरफ्तार किया और उन पर थर्ड डिग्री हत्या और मानव वध का आरोप लगाया गया। अब यह मामला चल रहा है।

किसानों को चाहिए चौधरी चरण सिंह जैसा नेतृत्व

वर्तमान का किसान और श्रमिक वर्ग प्राकृतिक न होकर धाॢमक पाखण्डवाद और अन्धविश्वास की गिरफ्त में है। यही वजह है कि धाॢमक दंगों में किसान और श्रमिक वर्ग आगे रहता है। जो किसान और श्रमिक वर्ग कभी अपने हक-हुकूक की लड़ाई लड़ता था, वह आज हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई लड़ रहा है। किसानों में सबसे बड़ी संख्या में जाट समुदाय कभी धाॢमक कट्टरता का पक्षधर नहीं रहा, लेकिन आज के दौर में अगर देखा जाए तो इस समुदाय में सबसे अधिक धाॢमक कट्टरवाद और पाखण्डवाद दिखाई देता है। अगर फिलहाल की बात करें, तो इस मौसम में हरिद्वार से काँवड़ लाने वालों में सबसे अधिक जाट समुदाय या अन्य ओबीसी समुदाय के युवा होते हैं। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि किसान और किसान के साथ जुडऩे वाली अन्य जातियाँ किस प्रकार से धाॢमक कट्टरता और पाखण्डवाद में जकड़ी हुई हैं। जिन किसानों और श्रमिक वर्ग के पूर्वज चौधरी छोटूराम मुस्लिमों के गढ़ में चुनाव जीतते थे; अनुसूचित जातियों से दीनबन्धु की उपाधि प्राप्त करते थे; मुस्लिम समुदाय ने जिसको रहबर-ए-आज़म के खिताब से नवाज़ा था। उन सर छोटूराम के वशंज आज राजनीतिक चक्रव्यूह में फँसकर और मण्डी-फण्डी (मण्डी के दलालों) के बहकावे में आकर मुस्लिमों एवं अनुसूचित जातियों से दूर हो गये हैं। यह एक प्रकार से किसानों और श्रमिक वर्ग के राजनीतिक पतन का कारण है। सर्वविदित है कि देश के एकमात्र किसान नेता चौधरी चरण सिंह के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक सबसे ज़्यादा सहयोग करने वाले यही मुसलमान, अनुसूचित जाति के किसान और कामगार लोग थे।

एक समय में चौधरी चरण सिंह का यह रुतबा था कि उनकी धाक थी। सन् 1979 की बात है, जब वह प्रधानमंत्री थे। शाम के 6 बजे वह मैला-कुचैला कुर्ता पहनकर एक गरीब किसान की वेशभूषा में इटावा ज़िले के ऊसराहार थाने पहुँचे और वहाँ के थानेदार से अपने बैल चोरी होने की रिपोर्ट लिखने को कहा। वहाँ के दारोगा ने पुलिसिया अंदाज़ में पहले तो उनसे चार-पाँच टेढ़े-मेढ़े सवाल पूछे, फिर फटकारकर भगा दिया। जब प्रधानमंत्री (चौधरी चरण सिंह) थाने से जाने लगे, तो पीछे से एक सिपाही आकर बोला- ‘थोड़ा खर्चा-पानी दे, तो रपट लिख जाएगी।’ किसान के रूप में चौधरी चरण सिंह ने रिश्वत देने की हामी भर दी और 35 रुपये की रिश्वत पर रिपोर्ट लिखने की बात तय हो गयी। रिपोर्ट लिखकर थाने के मुंशी ने उनसे पूछा- ‘बाबा! दस्तखत करोगे या अँगूठा लगाओगे?’ उन्होंने दस्तखत करने को कहकर स्याही का स्टैंप पैड (अँगूठा / मुहर लगाने वाला सियाहीदान) उठाया, तो मुंशी चक्कर में पड़ गया कि दस्तखत करने की बात कहकर वह (किसान) स्टैंप पैड क्यों उठा रहा है? वह हँसने लगा। उसे लगा कि इस किसान को शायद दस्तखत का मतलब नहीं मालूम होगा। तब तक उन्होंने चौधरी चरण सिंह नाम से दस्तखत कर दिये और अपने मैले-कुचैले कुर्ते से मुहर, जिस पर प्राइम मिनिस्टर ऑफ इंडिया लिखा था; निकालकर वहाँ लगा दी। इतना देखते ही पूरे थाने में हड़कम्प मच गया। सभी के होश फाख्ता हो गये। इसके बाद ऊसराहार का पूरा थाना बर्खास्त कर दिया गया।

आज किसानों के हित में सोचने वाले ऐसे ही नेताओं की ज़रूरत है; ताकि किसानों की दशा और दिशा बदल सके। लेकिन आज की राजनीति में किसान वर्ग के नेता की कमी साफ झलकती है। मेरा मानना है कि आज के राजनीति हालात में किसानों की नज़रें एक अदद किसान नेता को तलाशती नज़र आती हैं। आज भारतीय राजनीति में किसान नेताओं का टोटा साफ दिखायी देता है। दरअसल कुछ राजनीतिक दलों के चालाक िकस्म नेताओं ने किसानों और श्रमिकों में फूट डालने के लिए भयंकर षड्यंत्र रचने का काम किया है; यह उसी का नतीजा है। नेताओं द्वारा सबसे पहले किसानों को जाति और धर्म के आधार पर बाँटा गया, फिर किसानों और श्रमिकों के बीच एक भेद पैदा किया गया, साथ ही श्रमिकों को भी जाति और धर्म के आधार पर बाँटा गया। इसका किसानों को यह नुकसान हुआ कि उसके आवाज़ उठाने के लिए सरकार में कोई नेता ही नहीं बचा। नतीजतन किसान कमज़ोर होने लगे। अब तो हद ही हो गयी है। राजनीतिक दलों के नेताओं ने किसान को पूरी तरह बर्बाद करने के लिए अब किसानों को फसलों के नाम पर बाँटने की मुहिम चला रखी है। जैसे यह गन्ना किसान, आलू का किसान, धान का किसान और कपास का किसान, बड़ा किसान, छोटा किसान आदि कहकर उन्हें बाँटा जा रहा है। किसान भी लालच में आकर कहीं-न-कहीं नेताओं की इस मुहिम का हिस्सा बन जाता है; क्योंकि लगभग हर साल चुनाव सिर पर रहते हैं; कभी ग्राम पंचायत, कभी विधानसभा, कभी लोकसभा चुनाव, तो कभी अन्य चुनाव। इन चुनावों में अन्य लोगों के साथ किसान भी बँट जाते हैं; और किसानों की इसी आपसी फूट का राजनीतिक दल भरपूर राजनीतिक फायदा उठाकर अपनी राजनीतिक फसलों को लहलहाने का काम कर रहे हैं। जबकि किसानों को ठगे जाने का एहसास तक नहीं होता और वे मूर्ख बनकर लगातार लुटते-पिटते जा रहे हैं। कभी कुदरत उन्हें सताती है, तो कभी सरकार और आये दिन मण्डियों में बैठे दलाल, आला-अफसर उनको लूटते-सताते रहते हैं।

दरअसल आज देश में पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजनीतिक सामंत पैदा हो गये हैं, जो दिल्ली और लखनऊ की सत्ता की अधीनता में ऐशो-आराम एवं दलाली बट्टा कर रहे हैं। ज़ाहिर है कि दलित-पिछड़े वर्ग की हालत पहले से ही बहुत दयनीय हैं। किसानों की आज़ादी की पहली पंक्ति के नेताओं ने जो मार्गदर्शन दिया और किसानों के हित में जो कानून बनाये, उससे एकबारगी लगा कि किसान सँभल जाएँगे। अगर पीछे मुड़कर देखें, तो 1980-90 के दशक में किसानों का जो नेतृत्व दिल्ली की तरफ बढ़ा था, वो भले ही केंद्र सरकार को लम्बे समय तक अपने कब्ज़े में न ले सका हो, मगर उसकी बदौलत कई राज्यों में उसने सरकारें बनाने कामयाबी हासिल अवश्य की थी। सन् 1990 के बाद राजनीतिक दलों और मण्डी-फण्डी को लगा कि किसान कहीं सत्ता पर कब्ज़ा न कर लें; इसलिए इन्होंने बड़े शातिराना अंदाज़ में समाजवाद को लात मारते हुए पूँजीवाद के चरणों में गिरना मुनासिब समझा। अब विदेशी कम्पनियों के गुलाम बनकर, देशी-विदेशी लालाओं के पैसों के बल पर किसानों से सस्ते दामों पर अपनी मन-मर्ज़ी के मुताबिक दलाल अनाज, सब्ज़ियाँ और दालें खरीदने लग गये हैं। सरकारें और नेता भी दलाल पक्ष में खड़े दिखते हैं। यही वजह है कि असली किसानों नेतृत्व गायब हो चुका है और जो किसान बचे हैं, वे बिखर चुके हैं। जो सरेआम हो रही लूटपाट और अत्याचार से तंग आ जाते हैं या इस सबके चलते पोर-पोर कर्ज़ में डूब जाते हैं, वे आत्महत्या कर लेते हैं।

आज़ादी से पूर्व चौधरी सर छोटूराम किसान और श्रमिक वर्ग की राजनीति का केंद्र हुआ करते थे। उनके द्वारा किये गये किसान और श्रमिक वर्ग हित के कार्यों से लगभग सभी किसान और श्रमिक भलीभाँति परिचित हैं। सर छोटूराम इतने बड़े ओजस्वी नेता थे कि उनके आगे अंग्रेजी हुकूमत भी नतमस्तक थी। सर छोटूराम द्वारा बनाये गये किसान और श्रमिक वर्ग के हितैषी कानून अंग्रेजी हुकूमत इस प्रकार से लागू करती थी कि मानों सर छोटूराम उस हुकूमत के पार्टनर हों। इस प्रकार हमें आभास होता है कि आज़ादी से पूर्व किसानों और श्रमिकों की राजनीतिक स्थिति बहुत-ही समृद्ध एवं प्रभावशाली थी।

आज़ादी के बाद अगर किसानों की राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए, तो स्वतंत्र भारत में किसानों और श्रमिक वर्ग की राजनीति करने वाले सबसे बड़े नेता का नाम चौधरी चरण सिंह आता है। चौधरी चरण सिंह आज़ादी के बाद किसान और श्रमिक वर्ग की राजनीति का केंद्र हुआ करते थे। चरण सिंह उस महानतम् शिख्सयत का नाम है, जिनकी एक आवाज़ से किसानों और श्रमिक वर्ग का जनसैलाब दिल्ली की तरफ अपना रुख किया करता था। कहते हैं कि चौधरी चरण सिंह राजनीतिक रूप से इतने प्रभावशाली नेता थे कि उनके घर तक तत्कालीन बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेताओं को मुलाकात के लिए उनके घर तक आना ही पड़ता था। वह जब तक राजनीति में रहे, तब तक उन्होंने किसानों और श्रमिक वर्ग की उन्नति के लिए अनेक कार्य किये। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उनके द्वारा भारत के सबसे बड़े राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना करना है। चौधरी चरण सिंह के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, ग्रह मंत्री, वित्त मंत्री और भारत के उप प्रधानमंत्री एवं प्रधानमंत्री तक बड़े पदों पर विराजमान हुए थे। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि आज़ादी के बाद भी 80 के दशक तक किसानों का केंद्रीय राजनीति में भी डंका बजता रहा था।

चौधरी चरण सिंह के बाद केंद्रीय राजनीति में ख्याति प्राप्त करने वालों में से उनके विशेष सिपहसालार एवं जगत ताऊ चौधरी देवीलाल प्रमुख स्थान रखते थे। उनको देश की राजनीति में ङ्क्षकगमेकर के नाम से भी जाना जाता हैं। हरियाणा का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने किसानों और कामगारों के लिए बुढ़ापा पेंशन, बिजली बिल और किसान वर्ग की कर्ज़-माफी जैसे अनेक जनकल्याण कार्य किये। चौधरी देवीलाल के किसानों के हित में किये गये इन कामों का नतीजा यह हुआ कि उसके बाद बनने वाली सभी सरकारों को उनकी योजनाओं को आगे बढ़ाने पर मजबूर होना पड़ा।

वहीं दूसरी ओर अगर देश की राजनीति की बात की जाए, तो वहाँ भी किसान नेताओं का दबदबा साफ दिखायी पड़ता है। गौरतलब है कि 01 दिसंबर, 1989 को आम चुनाव के बाद संयुक्त मोर्चा संसदीय दल की बैठक हुई। उस बैठक में चौधरी देवीलाल को संसदीय दल का नेता बनाया गया। चौधरी देवीलाल धन्यवाद देने के लिए खड़े हुए, लेकिन उन्होंने अपने प्रधानमंत्री के ताज को विश्वनाथ प्रताप सिंह को सौंप दिया। इस प्रकार से उन्होंने प्रधानमंत्री का पद त्यागकर भारतीय राजनीति में ङ्क्षकगमेकर की भूमिका निभायी, जिससे उन्हें ङ्क्षकगमेकर के नाम से जाना जाने लगा। चौधरी देवीलाल मुख्यमंत्री से लेकर उप प्रधानमंत्री तक बने, इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि उस समय तक भारतीय राजनीति किसानों और श्रमिक वर्ग की राजनीति चौ. देवी लाल इर्द-गिर्द घूमती थी। हरियाणा में बिना किसान नेता के कोई भी राजनीतिक पार्टी तब तक अधूरी थी, जब तक उसमें कोई किसान नेता न हो। ज़ाहिर है कि आज हरियाणा जैसे कृषि प्रधान राज्य में भी किसान नेताओं का टोटा साफतौर पर दिखायी देता है।

आज की स्थिति में किसानों पर हालात पर गौर किया जाए, तो आज हालात ऐसे हो गये हैं कि कोई भी किसान अपने बच्चों को खेती में नहीं डालना चाहता। यही वजह है कि किसानों जो बच्चे पढऩे-लिखने शहर चले जाते हैं, उनमें 95 फीसदी पढ़-लिखकर वहीं के होकर रह जाते हैं। यहाँ तक कि इनमें अधिकतर को अपने गाँव में रहने वाले अपने भाई से भी पसीने की बदबू आती है। शहर जाने के बाद उसके पीछे से खेती-किसानी को सँभालने वाला उसका भाई उसे गँवार लगने लगता है। उसका जुड़ाव खेती से वैसा नहीं रहता, जैसा खेती करने वाले उसके भाई का रहता है। इसीलिए वह अपने पुरखों की पुश्तैनी ज़मीन को बार-बार बेचने की बात भी करता है। मैं मानता हूँ कि यह किसानों और उनके शहर जाने वाले बच्चों, दोनों के लिए ही यह दुर्भाग्यपूर्ण है।

अगर देखा जाए शहर में तमाम सुख-सुविधाओं में रहने वाला किसान का बेटा आज की तारीख में खेती करने वाले किसान का सबसे बड़ा दुश्मन बना बैठा है। वह बात तो किसान की करता है, परन्तु उसकी नज़र पुश्तैनी ज़मीन पर रहती है। इसलिए मेरा मानना है कि किसानों और श्रमिकों को खुद को अकेला मानकर संगठित होना पड़ेगा और अपनी लड़ाई खुद ही लडऩी पड़ेगी। राजनीतिक लोगों पर भरोसा करने से कोई फायदा नहीं, ये किसानों, श्रमिकों को कहीं का नहीं छोड़ेंगे। आज किसानों, श्रमिकों को होश सँभालकर खड़ा होने और अपनी लड़ाई खुद लडऩे के लिए अपनी शक्ति को पहचानना होगा। अपनी किसान-श्रमिक एकता, किसान एकता को प्रबल करना होगा। किसानों को समझना होगा कि ज़मीन उनकी माँ है और माँ को वे किसी गैर के हाथों में कैसे जाने दे सकते हैं?

कुल मिलाकर आज के हालात में हम कह सकते हैं कि हिन्दु-मुसलमान की राजनीति ने किसानों और श्रमिक वर्ग की राजनीति को निगल लिया है। आज के दौर में किसानों और श्रमिक वर्ग की राजनीति मरणासन्न अवस्था में है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हालाँकि मेरा मानना है कि अब भी किसानों और श्रमिक वर्ग के पास समय है। इनको चाहिए कि जिनका साथ इनके पूर्वज लिया करते थे उन्हीं का साथ लीजिए अन्यथा तुम्हारे किसान और कमेरे वर्ग के लोगों के मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब मात्र ख्वाब ही बनकर रह जाएँगे। आज देश का पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय किसानों की और देख रहा है। मगर आज किसान नेतृत्व है ही नहीं। इसलिए किसान खुद लखनऊ-दिल्ली की सल्तनत के दलालों के बीच फँसकर पिस रहे हैं। जब बच्चे उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर पाते हैं, तो खेती से परे विकल्प खत्म हो जाते हैं। अन्त में ज़मीन बेचने के अलावा कोई विकल्प बचता नहीं है। ज़मीन किसान की माँ होती है। इसलिए इसको बेचने के बजाय आत्महत्या का रास्ता चुनता है या फिर बच्चे नशाखोरी-अपराध की दुनिया में कदम रख देते हैं। आज भारत की जेलों में बन्द कैदियों के आँकड़े जारी किये जाएँ, तो समझ में आयेगा कि अधिकतर कैदी किसान वर्ग के हैं।

(लेखक दैनिक भास्कर के

राजनीतिक सम्पादक हैं।)

चीन को करारा जवाब

चीन को एहसास होना चाहिए कि भारत को कोई धमका नहीं सकता है। भारत ही एकमात्र देश है; जो उसका हर स्तर पर मुकाबला कर सकता है और उसी भाषा में जवाब दे सकता है। भारत ने चीनी एप्स पर प्रतिबन्ध लगाकर साफ संदेश दिया है कि चीन को भारत के साथ सम्मानजनक व्यवहार करना चाहिए। चीनी व्यवहार में असमानता को देखते हुए भारत सरकार ने कड़ा और बड़ा फैसला लेते हुये टिकटॉक समेत 59 चीनी एप्स पर रोक लगा दी है। तहलका संवाददाता ने चीनी एप्स के यूजर्स से सम्बन्धित लाभ-हानि के बारे में विशेषज्ञों से बात की और दोनों देशों पर क्या इसका क्या असर पड़ेगा उसके बारे में जाना। मौज़ूदा वक्त में भारत में लगभग 80 करोड स्मार्ट फोन यूजर्स है। इस लिहाज़ से दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार भारत ही है। चीन को भारत के इस कदम से न केवल सामरिक स्तर पर, बल्कि आॢथक स्तर पर खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा।

बताते चलें कि केंद्र सरकार ने सूचना प्रौधौगिकी मंत्रालय के मुताबिक, आई.टी. कानून की धारा-6(ए) के तहत, नियम 2009 के अतंर्गत इन 59 एप पर रोक लगायी है। आई.टी. के जानकार सचिन सिंह गौड़ का कहना है कि चीन ने भारत के साथ विश्वासघात किया है। इसलिए उस पर कार्यवाई होनी चाहिए। क्योंकि सरकार ने भी खुद माना है कि चीन के एप्स देश की सुरक्षा व सम्प्रभुता के लिए खतरा हैं। इन 59 एप के ज़रिये जनता के निजी डाटा में सीधे सेंध लगायी जा रही थी। सरकार के पास इस बात के पुख्ता जानकारी थी और शिकायतें भी आ रही थीं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इनमें तीन तरीके के ऐसे एप हैं, जिनको भारतीय बाज़ार से कभी भी निकाला जा सकता है, जिसका सीधा असर भारत पर नहीं पड़ेगा, बल्कि चीन के सामानों और उसकी अर्थ-व्यवस्था पड़ेगा। सचिन का कहना है कि टिकटॉक एप्स तो भारतीय युवा पीढ़ी के लिए काफी घातक रहा है। दिन भर बच्चे टिकटॉक में भी व्यस्त रहते थे; जिससे युवा वर्ग भटककर गुमराह हो रहा था। भाजपा आई.टी. सैल के संयोजक दीपक शर्मा का कहना है कि सरकार का साफ कहना है कि भारतीय सम्प्रभुता के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता है। चीन के एप पर प्रतिबन्ध लगाने के बाद एमएसएमई और हाईवे परियोजना में चीन की कम्पनियों का कोई प्रवेश न होने की घोषणा से साफ हो गया कि भारत वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी आक्रामकता का हर स्तर पर करारा जवाब देगा और सबक सिखायेगा। दीपक शर्मा का कहना है कि डोकलाम विवाद के दौरान रक्षा मंत्रालय ने एक रिपोर्ट तैयार की गयी थी, जिसमें 40 चीनी एप को यूजर्स के डाटा के लिए घातक और गोपनीयता को भंग करने वाला बताया गया था। ऐसे में सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम सराहनीय है। आई.टी. व एप्स के जानकार भरत कपूर का कहना है कि जब बात देश के स्वाभिमान पर आती है, तो नफा-नुकसान नहीं देखा जाता है। इसी समय ऐसा ही मामला चीन के साथ है। एक आँकडे के अनुसार, मोबाइल इंडस्ट्री की बात करें, तो भारत में लगभग 80 करोड़ लोगों के पास स्मार्ट फोन है। गत वर्ष सबसे अधिक एप भारत में इंस्टॉल किये गये थे, जिनमें सबसे अधिक टिकटॉक को डाउनलोड किया था। भारत में खेल, फिल्म, जॉक्स और विभिन्न क्षेत्रों में टिकटॉक का सबसे ज़्यादा प्रयोग किया जाता रहा है। उन्होंने बताया कि प्रमुख एप्स, जिनकी अनुमानित यूजर्स की संख्या करोड़ों में है; इस प्रकार है- शेयर इट 50-60 करोड़, टिकटॉक 35-40 करोड़, जूम एप 18-20 करोड़, पबजी चार-पाँच करोड़, ब्यूटी प्लस 45-50 करोड़, कैम स्कैनर 8-10 करोड़ और जेंडर पर 65-70 करोड़ उपयोगकर्ता है। जेंडर का प्रयोग फोटो वीडियो एप ट्रांसफर करने के लिए किया जाता है। दो से ज़्यादा डिवाइस को जोड़ा जा सकता है। स्मार्ट टीवी के साथ भी इसको कनेक्ट किया जा सकता है। इसलिए इसकी संख्या में दिन-ब-दिन इज़ाफा हुआ था। एक्सेंट हेल्थकेयर के निदेशक अमित निगम का कहना है कि जब एप्स का दौर देश-दुनिया में अपना बाज़ार और रुतबा स्थापित कर रहा था। तब छोटे-बड़े व्यापारियों को आई.टी. से जुड़े जानकार की ज़रूरत के साथ एक दफ्तर खोलने की ज़रूरत पड़ी थी; क्योंकि चीन के एप्स ने अपनी घुसपैठ कर ली थी। पर अब  तो चीन को सबक सिखाने के लिए और उसको आॢथक मोर्चा पर असफल करने लिए वर्चुअल स्ट्राइक की ज़रूरत है। वर्चुअल स्ट्राइक के माध्यम से चीन को काफी क्षति पहुँचायी जा सकती है। उनका कहना है कि भारत में चीन के एप्स चार तरह के हैं। इनमें पहला छोटे और बड़े लेन-देन के लिए, दूसरा खरीददारी के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। तीसरा चुटकुले आदि में प्रयोग किया जाता रहा है। जबकि चौथा एप चीनी अपना प्रचार करने में प्रयोग करने में लगा रहा है। अमित निगम का मानना है कि चीनी एप्स के माध्यम से दवा, मेडिकल के क्षेत्र में जो चलन बढ़ा था। ऐसे में अब भारतीय एप्स को बढ़ावा मिलना चाहिए, ताकि देश के कारोबार की गोपनीयता भंग होने का खतरा भी न रहे और आॢथक लाभ भी हो।

साइबर विशेषज्ञ राजकुमार राज का कहना है कि कोई भी दो देशों के सम्बन्ध चाहे वो राजनीतिक स्तर पर हों, व्यापारिक स्तर पर हों या कूटनीतिक स्तर पर हों; लेकिन वो सियासत के इर्द-गिर्द ही होते हैं। क्योंकि इस समय दोनों देशों के बीच जो भी तनाव है, उसके जो भी परिणाम निकलें, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन अपनी आॢथक शक्ति के बल पर उभरा है और दुनिया के बाज़ारों में अपनी धाक स्थापित की है। ऐसे में चीन को मात देने के लिए नीति की ज़रूरत है। इसलिए डिजिटल व मोबाइल परिस्थितिकी तंत्र में हमें चौकन्ना रहने की ज़रूरत है। क्योंकि कई दफा ज़रा-सी चूक काफी नुकसान पहुँचा सकती है। बदलते दौर में चीन के एप्स के प्रतिबन्धित होने के चलते जो आयात निर्यात में नाकाबन्दी चल रही है, जो दोनों देशों के लिए किसी प्रकार से शुभ नहीं है। लेकिन जब हालात ही ऐसे पैदा हों, तो प्रतिबन्ध और नाकाबन्दी ज़रूरी हो जाते हैं।

चीनी एप्स में प्रतिबन्ध लगने से युवाओं को निराशा इस बात कि हुई है कि टिकटॉक के माध्यम से मज़ाकिया खेल उनका चलता रहता था। पर खुशी भी इस बात की है कि चीनी को क्षति और आॢथक मोर्चे पर चोट के लिए वह सरकार के इस फैसले का स्वागत करते हैं। सॉफ्टवेयर इंजीनियर रोहित अग्रवाल का कहना है कि भारतीय एप्स निर्माताओं को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार ने आत्मनिर्भर भारत एप इनोवेशन चैलेंज लॉन्च किया है। यह भारतीय एप डेवलपरों के लिए भारतीय बाज़ार में विकसित करने का अवसर प्रदान करता है, जो सरकार की ओर से उठाया गया पहला कदम है। इसके ज़रिये भारतीय युवाओं को रोज़गार मुहैया कराने का व्यापक साधन व अवसर हो सकता है।

चीन के किस-किस एप के दिन गये?

टिकटॉक, यूसी ब्राउजर, शेयर इट, क्वाई, बायडू मैप, शीइन, फोटो वंडर, क्यू-क्यू फ्लेयर, वी मीट, स्वीट सेल्फी, बायडू ट्रांसलेट, वीमेट, क्यूक्यू इंटरनेशनल, क्यू क्यू सिक्योरिटी सेन्टर, क्यूक्यू लॉन्चर, यू वीडियो, वी फ्लाई स्टेटस वीडियो, मोबाइल लीजेंड्स और डीयू प्राइवेसी, क्लैश ऑफ ङ्क्षकग्स, डीयू बैटरी सेवर, हेलो, लाइकी, यूकैम मेकअप, एमआई कम्युनिटी, सीएम ब्राउजर्स, बाइरस क्लीनर, एपसब्राउजर, रॉमवी, क्लब फैक्ट्री, न्यूजडॉग, ब्यूटी प्लस, वी चैट, यूसी न्यूज, क्यूक्यूमेल, वीबो जेंडर, क्यूक्यू म्यूजिक, क्यूक्यू न्यूजफीड, बिगो लाइब, सेल्फी सिटी, मेल मास्टर, पैरलल स्पेस, एमआई वीडियो कॉल जियाओमी, वी ङ्क्षसक, एएसफाइल, एक्सफ्लोर, वीवा वीडियो, क्यूक्यू वीडियो इंक, विको वीडियो माइट, न्यू वीडियो स्टेटस, डीयू रिकॉर्डर, क्लीन मास्टर चीता मोबाइल, कैम स्कैनर को  भारत में प्रतिबंधित किया जा चुका है।

 दरअसल सरकार ने 59 एप्स पर प्रतिबन्ध अपनी मंशा बता दी है कि चीन की विस्तारवादी नीतियों को किसी प्रकार किसी भी दबाव में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। साइबर जानकारों का कहना है कि भारत सरकार ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत काम किया है कि एक ओर तो चीन को एप्स के ज़रिये आॢथक क्षति पहुँचायी है और दूसरी ओर सही मायने में देश को आत्मनिर्भर बनाने की शुरुआत की है।