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गोरे भ्रमजाल का काला सच

मशूहर फिल्म अभिनेत्री और फिल्म निर्देशक नंदिता दास अपने एक लेख की शुरुआत ऐसे करती हैं- ‘जबसे मेरा सार्वजनिक जीवन शुरू हुआ है और मेरे बारे में लिखा जाने लगा है, 10 में नौ लेखों की शुरुआत इस बात से होती है कि मेरा रंग धूमिल या मटमैला है। अच्छे-से-अच्छा पत्रकार भी यह बताना नहीं भूला है कि मेरी त्वचा का रंग कैसा है? माना जाता है कि अभिनेत्री तो गोरी ही होगी। अत: मेरा अनुमान है कि जो इससे हटकर है, वह सामान्य से विचलन है। या एक ऐसी कंडीशनिंग है, जिससे लोग बच नहीं पाते? अपने अनुभवों के आधार पर कह सकती हूँ कि बचपन से ही जब भी मुझे किसी से मिलाया जाता रहा है या किसी को मेरे बारे में बताया जाता रहा है; तब मेरी त्वचा का रंग अपरिहार्य रूप से एक मुद्दा रहा है। लोग कहते थे कि बेचारी उसका रंग कितना काला है। या रंग काला होने के बावजूद तुम्हारे फीचर कितने सुन्दर हैं। लेकिन मेरे माता-पिता ने कभी इस बात की चर्चा नहीं की। अगर वे न होते, तो मैं यही मानकर बड़ी होती कि मैं किसी काम की नहीं हूँ।’ नंदिता दास के लेख के शुरुआती अंश के ज़िक्र का तात्पर्य यही है कि भारत में साँवला / काला बनाम गोरा रंग को लेकर लोगों के बीच एक कमतर बनाम श्रेष्ठ का कंप्लेक्स बहुत गहरी जड़ें जमाये हुए है। और इस सामाजिक नज़रिये ने किशोरियों / युवतियों और महिलाओं को बुरी तरह से अपनी ज़द में कैद कर रखा है। मिशिगन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अनिल कमानी ने अपनी किताब ‘इन फाइटिंग पॉवर्टी टूगेदर’ (2011) में फेयर एंड लवली क्रीम बनाने वाली कम्पनी हिन्दुस्तान यूनिलीवर की एक शोध का ज़िक्र किया था। एचयूएल कम्पनी ने उस शोध में दावा किया था कि 90 फीसदी भारतीय महिलाएँ त्वचा को सफेद (गोरा) करने वाले उत्पादों का इस्तेमाल करने की चाह रखती हैं। यह वज़न कम करने वाली अभिलाषा की ही तरह है। एक गोरी त्वचा को सामाजिक और आॢथक तरक्की में आगे बढऩे के लिए शिक्षा की ही तरह समझा जाता है। बहरहाल खबर यह है कि बीते दिनों हिन्दुस्तान यूनिलीवर कम्पनी ने फेयर एंड लवली क्रीम से फेयर शब्द हटाने की घोषणा की और बताया कि कम्पनी ने पेटेंट डिजाइन और ट्रेडमार्क महानियंत्रक के पास ‘ग्लो एंड लवली’ नाम पंजीयन के लिए भेज दिया है। गौरतलब है कि 25 मई को अमेरिका में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड की एक श्वेत पुलिस अधिकारी के द्वारा बर्बर तरीके से दी गयी यंत्रणा के बाद मौत हो गयी थी। उसके बाद से अमेरिका सहित दुनिया के कई मुल्कों में अश्वेतों के साथ भेदभाव को लेकर ‘ब्लैक लाइव्स मैटर्स’ अभियान चल रहा है। कई बड़ी-बड़ी हस्तियों ने आगे आकर इस मुहिम को अपना समर्थन दिया हैै। ब्लैक लाइव्स मैटर्स मुहिम ने बाज़ार पर भी अपनी छाप छोडऩी शुरू कर दी है। यानी बिजैनसस भी रंगभेद को बढ़ावा देने वाले विज्ञापनों, नीतियों, कार्यक्रमों को हटाने वाले प्रेशर में आये दिन दिखायी दे रहे हैं। मसलन-अमेरिकी कम्पनी जॉनसन एंड जॉनसन ने अपने उत्पाद ‘बैंडएड’ की स्किन कलर वाली पट्टी को गहरे काले और भूरे रंग का करने जा रही है। शादी डॉट कॉम ने अपनी वेबसाइट से उस विकल्प को हटा दिया है, जिसके तहत लोग स्किन टोन के आधार पर अपने पार्टनर को सर्च कर सकते थे। अमेरिकी कम्पनी ग्लोशियर ने अपने सभी उत्पादों से नस्लभेद के विकल्प को न केवल हटाया, बल्कि इसके खिलाफ चलाये जा रहे अभियान में करीब चार करोड़ रुपये की रकम भी दान की है। भारत में 45 साल पहले हिन्दुस्तान यूनिलीवर ने बाज़ार में भारतीय समाज की गोरी खाल को श्रेष्ठ मानने वाली मानसिकता को बाज़ार में भुनाने की मंशा से ‘फेयर एंड लवली’ क्रीम लॉन्च की और इन 45 वर्षों की उसकी बिजनेस यात्रा ने उसे भारत में गोरेपन का दावा करने वाले सौंदर्य उत्पादों के बीच अलग ही मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है। यह क्रीम भारत में त्वचा को गोरा करने वाली क्रीमों में से सबसे अधिक बिकती है। इसका सालाना बिजेनस भारत में करीब 2,000 करोड़ रुपये का है। अक्सर सुन्दर त्वचा का मतलब गोरे रंग से लिया जाता है। स्टेस्टिा के अनुसार, भारत में मौज़ूदा अनुमान बताते हैं कि यहाँ 58,000 करोड़ रुपये का स्किन केयर प्रोडक्ट्स का बाज़ार है। भारत में 2023 तक स्किन केयर प्रोडक्ट्स का बाज़ार 73,000 करोड़ रुपये का हो जाएगा। मुल्क में स्किन केयर प्रोडक्ट्स में सालाना 7.9 फीसदी की वृद्धि हो रही है। टॉप की फिल्मी अदाकारा फेयर एंड लवली के विज्ञापन में नज़र आती रही हैं और इसके विज्ञापनों ने यही संदेश समाज में दिया है कि गोरा रंग नौकरी पाने में मददगार साबित होता है और प्यार पाने में भी। यह बात दीगर है कि कम्पनी ने जारी अपने बयान में कहा कि बीते एक दशक में फेयर एंड लवली के विज्ञापन ने महिला सशक्तिकरण का संदेश दिया, ब्रांड का विजन सुन्दरता को लेकर एक समग्र दृष्टिकोण को अपनाना है। हिन्दुस्तान यूनिलीवर कम्पनी का कहना है कि उस पर कई साल से आरोप लग रहे हैं कि त्वचा के रंग को लेकर वह दुराग्रह पैदा कर रही है, जिसके चलते कम्पनी ने इस क्रीम का नाम बदलने का निर्णय लिया है।

कम्पनी ने यह भी कहा कि 2019 में कम्पनी ने दो चेहरे वाला कैमियो हटा दिया था। अब कम्पनी अपने ब्रांड की पैकेजिंग से फेयर, व्हाइटनिंग और लाइटनिंग जैसे शब्दों को हटा देगी। कम्पनी अब नये लॉन्च किये जाने वाले उत्पाद में अलग-अलग स्किन टोन वाली महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर अधिक ध्यान देगी। यानी विज्ञापनों और प्रचार सामग्री में हर रंग की महिलाओं को जगह दी जाएगी। कम्पनी के नाम बदलने पर बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रणौत ने ट्वीट करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की- ‘यह कभी-कभी अकेली लड़ी गयी लड़ाई रही है। लेकिन परिणाम तभी मिलते हैं, जब पूरा मुल्क इसमें भाग लेता है।’ अपनी त्वचा के रंग को लेकर पक्षपात का सामना कर चुकी सुहाना खान ने भी इस कदम की सराहना की और इंस्टाग्राम पर ब्रांड की घोषणा वाली पोस्ट साझा की। दरअसल त्वचा के एक खास रंग यानी गोरे रंग को बढ़ावा देने के पीछे कई शाक्तिशाली ताकतों का हाथ रहा है। इसके ज़रिये कभी एक नस्ल / जाति विशेष को कमतर आँका गया, तो कभी किसी अन्य तबके को निशाना बनाया गया। किसी नस्ल/इंसान का त्वचा का रंग क्यों कैसा होता है? इसे जानने-समझने के लिए साइंस जर्नल में छपे एक अध्ययन में बताया गया है कि त्वचा का बदलता रंग एक विकासवादी प्रक्रिया का हिस्सा है। जीन के विकास का पता लगाने वाली टीम ने यह जाँचा कि जीन दुनिया भर में कैसे यात्रा करते हैं। अंतत: टीम इस निष्कर्ष पर पहुँची कि अफ्रीकी मूल के लोगों के एक बड़े हिस्से में जीन में ऐसे बदलाव हुए, जो उनकी त्वचा के रंग के लिए ज़िम्मेदार है। दरअसल त्वचा का रंग सब का एक जैसा नहीं हो सकता। क्योंकि जीन की अहम भूमिका के साथ-साथ भूगौलिक परिस्थितियों को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। जिस तरह नाम में क्या रखा है, उसी तर्ज पर त्वचा के रंग में क्या रखा है? समाज में इसी नज़रिये पर अधिक ज़ोर देने की ज़रूरत है। और यह हमारे सामने एक बहुत बड़ी चुनौती भी है और 21वीं सदी के मानव जाति के लिए शर्मनाक भी है कि वह अभी भी रंग की उलझन में फँसा हुआ है। बदलते वक्त के साथ मुनाफा कमाने वाली कम्पनियों ने पुरुषों पर भी अपनी पकड़ बनायी और उनके लिए भी फेयर एंड हैंडसम जैसे सौंदर्य उत्पाद बाज़ार में उतार दिये। भारत एक विशाल देश है और विविधता ही इसकी अहम पहचान है। यहाँ दक्षिण में अधिकतर लोगों का रंग साँवला / काला होता है; मगर बाज़ार ने यहाँ भी लोगों के मन में गोरे रंग की चाहत की लालसा पैदा कर दी। यह विविधता के लिए एक खतरा है। दरअसल वैश्वीकरण के युग में सब कुछ एक ही साँचे में देखने वाली सोच के अपने खतरनाक नतीजे भी सामने आने लगे हैं। कद, काठी, रंग, नैन-नक्श, बोली में विविधता एकरूपता को तोड़ती है और सौंदर्य के दायरे को फैलाती है। क्या गोरापन ही सुन्दरता है? अगर ऐसा होता, तो वह कहावत कि सुन्दरता तो देखने वालों की आँखों में होती है; कब की गायब हो चुकी होती। गोरेपन को ही सौंदर्य का मज़बूत प्रतीक बनाने वाली अवधारणा को तोडऩे व सौंदर्य के दायरे को बड़ा करने या उसे समावेशी बनाने व लोगों को रंगवाद के प्रति जागरूक करने के मकसद से 2009 में भारत में ‘डार्क इज ब्यूटीफुल  मुहिम शुरू की गयी। आज यह मुहिम भारत सहित विश्व के 18 मुल्कों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है। इस मुहिम की संस्थापक कविता इम्मानुएल का विश्वास है कि रंग इत्यादा को लेकर जोभी पूर्वाग्रह या मतभेद हैं, वे तभी खत्म होंगे, जब पूरी दुनिया में लोगों की सोच एक जैसी बनेगी। लोगों को जागरूक करने के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर और कॉरपोरेट स्तर पर नीतियों में बदलाव की ज़रूरत है। विशेषतौर पर विज्ञापन के क्षेत्र में बड़े बदलाव ज़रूरी हैं। कविता ने अपने ये विचार हाल ही में अपने एक लेख में अभिव्यक्त किये हैं। उनका यह भी मानना है कि डार्क केवल सुन्दर ही नहीं है, यह स्मार्ट भी है; बोल्ड भी है और स्ट्रॉन्ग भी है। अब देखना यह है कि ‘फेयर’ की जगह लेने वाला ‘ग्लो’ शब्द रंगभेद की मानसिकता पर कितनी तीव्रता से प्रहार कर पायेगा।

धोखाधड़ी के जाल में शेयर बाज़ार

पूँजी बाज़ार नियामक सेबी ने शेयरों में हेराफेरी के आरोप में 18 लोगों को तीन साल तक पूँजी बाज़ार में कारोबार करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। साथ ही, इन लोगों के म्यूचुअल फंड, इक्विटी बाज़ार और अन्य होल्डिंग पर रोक लगा दी है। ये सभी आरोपी ग्रीनक्रेस्ट कम्पनी से जुड़े थे, जो गैर वित्तीय बैंङ्क्षकग संस्थान (एनबीएफसी) के रूप में पंजीकृत थी। सबसे मज़ेदार बात यह है कि इस कम्पनी के शेयरों के केवल 16 खरीददार और 15 बेचने वाले थे। इसका यह अर्थ यह हुआ कि ये सभी आपस में शेयरों की खरीद-बिक्री कर रहे थे और ग्रीनक्रेस्ट इन्हें शेयरों की खरीद बिक्री के लिए पैसा मुहैया करा रही थी। शेयरों की हेराफेरी करने से इस कम्पनी का सालाना राजस्व 80 लाख रुपये से बढ़कर 10 करोड़ रुपये हो गया। सेबी के अनुसार, वित्त वर्ष 2013-14 में सालाना राजस्व 8.38 करोड़ रुपये था; लेकिन शुद्ध लाभ महज़ 70 लाख रुपये था। इसी तरह वित्त वर्ष 2014-15 में इसका सालाना राजस्व 10.30 करोड़ रुपये था; लेकिन शुद्ध लाभ लेवल 1.16 करोड़ रुपये था। यह आँकड़े कम्पनी की ईमानदारी पर सवाल खड़े करते हैं। इस कम्पनी का मार्केट कैपिटलाइजेशन 2,552 करोड़ रुपये था; जबकि इसके एक शेयर की कीमत 12 रुपये थी। कम्पनी के शेयर की कीमत और मार्केट कैपिटलाइजेशन के बीच कहीं से भी कोई तालमेल नहीं दिखता है। मार्केट कैपिटलाइजेशन किसी कम्पनी के आउटस्टैंडिंग शेयरों के मूल्य को दिखाता है। आउटस्टैंडिंग शेयर का मतलब उन सभी शेयरों से है, जो कम्पनी ने जारी किये हैं। इसे कम्पनी के कुल आउटस्टैंडिंग शेयरों (बाज़ार में जारी शेयर) के साथ शेयर के मौज़ूदा बाज़ार भाव को गुणा करके निकाला जाता है।

इसी तरह दूसरे मामले में सेबी ने ग्लोबल डिपॉजिटरी रिसिप्ट (जीडीआर) में नियमों का उल्लंघन करने के आरोप में लायका लैब पर पूँजी बाज़ार में तीन साल तक कारोबार करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। कम्पनी ने निवेशकों के साथ गुमराह करने वाली वित्तीय जानकारी भी साझा की थी, जिससे बड़ी संख्या में निवेशक गुमराह हुए। इधर भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के चेयरमैन रजनीश कुमार के अनुसार, स्टेट बैंक के शेयरों के साथ बाज़ार सही बर्ताव नहीं कर रहा है। स्टेट बैंक के शेयरों की मौजूदा कीमत ज़्यादा होनी चाहिए। स्टेट बैंक के शेयर को शुरू से ही निवेशक पसन्द करते आये हैं।

कोरोना वायरस की वजह से शेयर बाज़ार में मचे कोहराम को समझने के लिए शेयर और शेयर बाज़ार के परिचालन को समझना ज़रूरी है। शेयर का अर्थ होता है- हिस्सा। शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध कम्पनियों के शेयरों को शेयर ब्रोकर की मदद से खरीदा और बेचा जाता है यानी कम्पनियों के हिस्सों की खरीद-बिक्री की जाती है। भारत में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) नाम के दो प्रमुख शेयर बाज़ार हैं। शेयर बाज़ार में बांड, म्युचुअल फंड और डेरिवेटिव भी खरीदे एवं बेचे जाते हैं।

कोई भी सूचीबद्ध कम्पनी पूँजी उगाहने के लिए शेयर जारी करती है। कम्पनी के प्रस्ताव के अनुसार, निवेशकों को शेयर खरीदना होता है। जितना निवेशक शेयर खरीदते हैं, उतना उसका कम्पनी पर मालिकाना हक हो जाता है। निवेशक अपने हिस्से के शेयर को ब्रोकर की मदद से शेयर बाज़ार में कभी भी बेच सकते हैं। ब्रोकर इस काम के एवज़ में निवेशकों से कुछ शुल्क लेते हैं। जब शेयर जारी की जाती है, तो शेयर किसी व्यक्ति या समूह को कितना देना है; का निर्णय कम्पनी का होता है।

शेयर बाज़ार में खुद को सूचीबद्ध कराने के लिए कम्पनी को शेयर बाज़ार से लिखित करारनामा करना होता है। इसके बाद कम्पनी सेबी के पास वांछित दस्तावेज़ को जमा करती है; जिसकी जाँच सेबी करता है। जाँच में सूचना सही पायी जाने पर आवेदन के आधार पर कम्पनी को बीएसई या एनएसई में सूचीबद्ध कर लिया जाता है। फिर कम्पनी को समय-समय पर अपनी आॢथक गतिविधियों के बारे में सेबी को जानकारी देनी होती है, ताकि निवेशकों का हित प्रभावित नहीं हो।

किसी कम्पनी के कामकाज का मूल्यांकन ऑर्डर मिलने या नहीं मिलने, नतीजे बेहतर रहने, मुनाफा बढऩे या घटने, आयत या निर्यात होने या नहीं होने, कारखाने या फैक्ट्री में कामकाज ठप पडऩे, उत्पादन घटने या बढऩे, तैयार माल का विपणन नहीं होने आदि जानकारियों के आधार पर किया जाता है। इसलिए कम्पनी पर पडऩे वाले सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव के आधार पर शेयरों की कीमतों में रोज़ उतार-चढ़ाव आती है।

शेयर बाज़ार का नियामक सेबी है, जो सूचीबद्ध कम्पनियों की गतिविधियों पर नज़र रखने का काम करता है। अगर कोई सूचीबद्ध कम्पनी करारनामा से इतर काम करती है, तो सेबी उसे बीएसई या एनएसई से अलग कर देती है। इसका काम कृत्रिम तरीके से शेयरों की कीमतों को बढ़ाने या नीचे गिराने वाले दलालों पर भी लगाम लगाना होता है। बीते साल से एक शेयर ब्रोकर हर्षद मेहता ने शेयरों की कीमतों को कृत्रिम तरीके से घटा-बढ़ाकर एक बड़े घोटाले को अंजाम दिया था।

आमतौर पर ज़्यादा प्रतिफल मिलने की आस में घरेलू एवं विदेशी निवेशक शेयर के रूप में कम्पनियों में निवेश करते हैं। लेकिन अर्थतंत्र की समझ नहीं होने या कम्पनियों द्वारा गलत जानकारी देने, शेयरों के साथ हेराफेरी करने के कारण निवेशकों को नुकसान उठाना पड़ता है। इसलिए अगर कोई निवेशक शेयर में निवेश करना चाहता है, तो उसे सतर्क रहने की ज़रूरत है। साथ ही सेबी को भी सूचीबद्ध कम्पनियों की गतिविधियों पर पैनी नज़र रखनी होगी।

वैसे शेयर की कीमतों में उतार-चढ़ाव से सिर्फ निवेशकों को नुकसान नहीं होता है। इससे देश की अर्थ-व्यवस्था पर भी नकारात्मक असर पड़ता है। विदेशी निवेशकों द्वारा बिकवाली करने से एफडीआई में कमी आती है; जबकि भारत के आॢथक विकास के लिए एफडीआई काफी अहम है। इसके अभाव में भारत की विकास दर प्रभावित हो सकती है। एफडीआई कम आयेगा, तो रोज़गार में भी कमी आयेगी, साथ-ही-साथ आॢथक गतिविधियों पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।

बढ़ सकता है एनपीए का मर्ज

वैसे तो कोरोना वायरस की वजह से सभी क्षेत्रों का बुरा हाल है। लेकिन बैंङ्क्षकग क्षेत्र का हाल आगामी महीनों में सबसे ज़्यादा बुरा होने वाला है। इस बात की पुष्टि बैंकों द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक से तीन लाख करोड़ रुपये के कर्ज़ को पुनर्गठित (रिस्ट्रक्चङ्क्षरग) करने की माँग से होती है। मोटे तौर पर ये कर्ज़ होटल, विमानन और रियल एस्टेट क्षेत्र से जुड़े हुए हैं; क्योंकि इन क्षेत्रों को कोरोना वायरस की वजह से सबसे ज़्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। इन क्षेत्रों के ऋण खातों को पुनर्गठित करने की ज़रूरत इसलिए है, क्योंकि पुनर्गठन के बाद कम्पनियों को बहुत सारी राहतें दी जाती हैं; जिससे कुछ समय के लिए पुनर्गठित खाते गैर-निष्पादित आस्ति (एनपीए) होने से बच जाते हैं और मिले हुए अतिरिक्त समय में कम्पनियों को अपनी आॢथक स्थिति में सुधार करने का मौका मिलता है।

जब कम्पनियों की माली हालत जब बहुत ज़्यादा खराब हो जाती है, तो वे बैंकों से ऋण खातों को पुनर्गठित करने के लिए कहते हैं। चूँकि इस विकल्प का चुनाव बैंकों के लिए भी मुफीद होता है, इसलिए वे भारतीय रिजर्व बैंक से नकदी की िकल्लत झेलने वाली कम्पनियों के खातों को पुनर्गठित करने का आग्रह करते हैं। दरअसल कम्पनी के दिवालिया होने पर कम्पनी से बैंक जितनी वसूली कर सकते हैं, उससे कहीं अधिक पैसे बैंक को ऋण खातों के पुनर्गठन से मिलने की उम्मीद होती है। आमतौर पर ऋण का ब्याज दर कम करके या िकस्तों के भुगतान की अवधि में इज़ाफा करके ऋण खातों का पुनर्गठन किया जाता है। इस प्रक्रिया के तहत ऋण के बदले कम्पनी के शेयरों की भी अदला-बदली की जाती है। इसका यह मतलब हुआ कि कम्पनी के शेयरों के बदले बैंक, कम्पनी का कुछ या पूरा कर्ज़ माफ कर सकते हैं।

ऋण खातों के पुनर्गठन के तहत कम्पनी बैंक को बांड का कुछ हिस्सा देने के लिए भी राज़ी हो सकते हैं। कम्पनी, बैंक से ब्याज या पूँजी का कुछ हिस्सा माफ करने के लिए भी आग्रह कर सकती है।

अप्रैल के अन्त तक बैंकों का होटल क्षेत्र पर 45,862 करोड़ रुपये, विमानन क्षेत्र पर 30,000 करोड़ रुपये और रियल एस्टेट क्षेत्र पर 2.3 लाख करोड़ रुपये बकाया था। एक अनुमान के अनुसार, इन क्षेत्रों की स्थिति सामान्य होने में छ: महीनों से एक साल का समय लग सकता है। ऐसे में इन क्षेत्रों से जुड़े ऋण खातों को अगर पुनर्गठित नहीं किया जाएगा, तो बैंकों के एनपीए में भारी बढ़ोतरी हो सकती है। हालाँकि भारतीय रिजर्व बैंक ने कम्पनियों, व्यक्तिगत, खुदरा और कैश क्रेडिट कर्ज़ धारकों के लिए िकस्त एवं ब्याज की मोराटोरियम अवधि को बढ़ाकर 31 अगस्त कर दिया है। लेकिन इससे कर्ज़धारकों की समस्या का समाधान होने वाला नहीं है। भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकों को ऋण की िकस्तों और ब्याज को सिर्फ टालने का निर्देश दिया है। इन्हें माफ नहीं किया गया है। अगर कर्ज़दार मोराटोरियम का फायदा लेना चाहते हैं, तो उन्हें बाद में बैंकों को िकस्त और ब्याज दोनों देना होगा। साथ ही टाली गयी अवधि के िकस्त एवं ब्याज पर भी ब्याज लगेगा, जिसे उन्हें चुकाना होगा। क्योंकि बैंक आमतौर पर सभी प्रकार के ऋणों में चक्रवृद्धि ब्याज लेते हैं। चूँकि अभी भी आॢथक गतिविधियों को  शुरू करने में लम्बा समय लग सकता है। ऐसे में मोराटोरियम की सुविधा लेने वाले ग्राहकों को लाभ की जगह नुकसान होगा।

सरकार ने लॉकडाउन के बाद सभी क्षेत्रों को अनलॉक करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। होटल, विमानन और रियल एस्टेट क्षेत्र में भी आॢथक गतिविधियों को शुरू करने का रास्ता साफ हो गया है। बावजूद इसके माना जा रहा है कि हाल-फिलहाल में इन क्षेत्रों के कामकाज में तेज़ी आने के आसार नहीं हैं। रेटिंग एजेंसी इक्रा का कहना है कि पहले से खस्ताहाल विमानन क्षेत्र को आगामी तीन वर्षों में लगभग 35,000 करोड़ रुपये की ज़रूरत होगी। होटल क्षेत्र में कई होटल कर्ज़ में डूबे हैं। व्यावसायिक परिसम्पत्ति और किराये के कारोबार में भी लगभग 25 फीसदी से ज़्यादा गिरावट आने की सम्भावना है।

लॉकडाउन की वजह से करोड़ों लोगों की नौकरियाँ जा चुकी हैं। स्व-रोज़गार करने वाले कामगार भी दो महीनों से घरों में बैठे हैं। आज नौकरी करने वाले हों या कारोबार करने वाले लगभग सभी ने बैंकों से कर्ज़ ले रखा है और वर्तमान में वे बेरोज़गार हैं। आगामी महीनों में उन्हें रोज़गार मिलने की सम्भावना कम है। क्योंकि लॉकडाउन को पूरी तरह से अनलॉक करने के बाद भी सभी क्षेत्रों में आॢथक गतिविधियों को छ: महीनों से पहले शुरू करना मुमकिन नहीं है। हालाँकि प्रवासी मज़दूरों को फिर से काम पर वापस बुलाने की कवायद शुरू कर दी गयी है। लेकिन क्या उनकी वापसी आसान होगी? घर वापसी में जिस दर्द से वे रू-ब-रू हुए हैं, क्या उनके लिए उसे भूलना मुमकिन होगा? शायद नहीं। ऐसे में बड़ी संख्या में व्यक्तिगत ऋण, कार ऋण, गृह ऋण आदि एनपीए हो सकते हैं।

बैंङ्क्षकग क्षेत्र को अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी माना जाता है। लेकिन आज यह क्षेत्र एनपीए की समस्या से जूझ रहा है। दिसंबर, 2019 में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी वित्तीय स्थायित्व रिपोर्ट में कहा गया था कि सितंबर, 2020 तक भारतीय अनुसूचित व्यावसायिक बैंकों का एनपीए कुल कर्ज़ के 9.9 फीसदी के स्तर पर पहुँच सकता है। इस रिपोर्ट के अनुसार, सितंबर, 2020 में 53 देशी-विदेशी बैंकों की पूँजी पर्याप्तता अनुपात कम होकर 14.1 फीसदी हो जाएगी; जो सितंबर, 2019 में 14.9 फीसदी थी। कोरोना महामारी एनपीए की समस्या को और भी गम्भीर बनाने वाली है। बैंङ्क्षकग क्षेत्र में एनपीए बढऩे से अर्थ-व्यवस्था भी डावाँडोल होगी। एनपीए बढऩे से बैंक को ज़्यादा प्रावधान करने होंगे, जिससे उनका मुनाफा कम होगा और उन्हें पूँजी की कमी का सामना करना होगा, जिससे उन्हें ज़रूरतमंदों को ऋण देने में मुश्किलें आएँगी।

सभी क्षेत्रों को अनलॉक करने के बाद कारोबारी, कुटीर उद्योग, छोटे व मझौले उद्योग एवं बड़े उद्योगों को फिर से काम-काज शुरू करने के लिए वित्तीय सहायता की ज़रूरत होगी। सरकार ने 21 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की है, जिसकी एक बड़ी राशि ज़रूरतमंदों को ऋण के रूप में दी जानी है। ऐसे में अगर बैंकों को नकदी की समस्या का सामना करना पड़ेगा, तो आॢथक गतिविधियों को शुरू करने में परेशानी आयेगी। इसलिए भारतीय रिजर्व बैंक को होटल, विमानन और रियल एस्टेट क्षेत्र से जुड़े ऋण खातों के पुनर्गठन के प्रस्ताव को मान लेना चाहिए। साथ ही केंद्रीय बैंक को आने वाले महीनों में बड़ी संख्या में खुदरा ऋणों को एनपीए होने से बचाने के लिए उपाय भी करने होंगे। क्योंकि मोराटोरियम अवधि के समाप्त होने के बाद बड़े पैमाने पर कार, गृह और व्यक्तिगत ऋण के एनपीए होने की सम्भावना है।

गिलानी के इस्तीफे से कश्मीर में अलगाववादी मुहिम को झटका

कश्मीर में 30 जून को एक आश्चर्यचकित करने वाली घटना हुई। दशकों से सूबे में अलगाववादी मुहिम के अगुआ रहे शीर्ष हुॢरयत नेता सैयद अली शाह गिलानी ने संगठन के अपने धड़े से इस्तीफा दे दिया। यह संगठन उन्होंने ही 2003 में स्थापित किया था, जिसने उन्हें उसी दिन अपना आजीवन अध्यक्ष चुन लिया था। गिलानी के इस्तीफे ने अब सवालों का पिटारा खोल दिया है।

गिलानी ने पिछले साल अनुच्छेद-370 के निरस्तीकरण के मद्देनज़र न केवल कुछ अन्य नेताओं को अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन न करने का दोषी ठहराया, बल्कि हुॢरयत के पाकिस्तान चैप्टर के नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाये हैं।

गिलानी ने अपने सहयोगियों को लिखे पत्र में कहा कि जब नई दिल्ली ने जम्मू और कश्मीर को अपने संघ में मिला लिया और इसे दो भागों में विभाजित किया, तो हमारे जो नेता जेलों में नहीं थे; उनसे लोगों का मार्गदर्शन करने और नेतृत्व करने की उम्मीद थी। मैंने आपको खोजा, संदेशों के माध्यम से सम्पर्क स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन प्रयास सफल नहीं हुआ। आप नहीं मिल सके।

अपने गुट के पाकिस्तानी चैप्टर पर गिलानी ने अनुशासनहीनता, वित्तीय अनियमितताओं और संगठन का नुकसान करने का आरोप लगाया। गिलानी ने कहा कि  आज़ाद कश्मीर (पीओके) शाखा केवल एक प्रतिनिधि मंच है। इसमें किसी एक व्यक्ति के पास या सामूहिक रूप से फैसला करने की शक्ति नहीं है। लेकिन पिछले दो साल में हमें मंच के बारे में कई शिकायतें मिली हैं। नेताओं ने अपने प्रभाव का दुरुपयोग किया है। उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल सत्ता के गलियारों तक पहुँच के लिए किया है और वे वास्तव में सरकार में भाग लेते हैं। इसके अलावा अंदरूनी कलह में उनकी भागीदारी और उनका आचरण गम्भीर बहस का विषय रहे हैं।

गिलानी के इस्तीफे से अलगाववादी हलकों में भूचाल आ गया है। इससे लोगों में यह जानने की उत्सुकता पैदा हुई है कि अपने पत्र में गिलानी ने जिन कारणों का उल्लेख किया है, उसके अलावा और क्या कारण हैं। एक थ्योरी यह है कि पिछले एक साल में गिलानी की हुॢरयत के अपने धड़े पर पकड़ कमज़ोर हुई है, और इसका कारण उनका कमज़ोर होते स्वास्थ्य से लगातार जूझना है।

हालाँकि, उनके इस्तीफे का एक बड़ा कारण हाल ही में हुई हुॢरयत कॉन्फ्रेंस की सलाहकार समिति की बैठक है, जिससे उन्हें दरकिनार कर दिया गया था। गौरतलब है कि बैठक में गिलानी का सबसे करीबी विश्वासपात्र अशरफ सेहराई भी शामिल था, जिसका आतंकवादी बेटा जुनैद सेहराई हाल ही में श्रीनगर में एक मुठभेड़ में मारा गया था। पाकिस्तान में भी, गिलानी का सबसे खास आदमी सैयद अब्दुल्ला गिलानी हुॢरयत के पीओके चैप्टर के नेता के रूप में दरकिनार कर दिया गया है। गिलानी ने इसे हुॢरयत के अध्यक्ष के रूप में अपना अपमान माना है और इसलिए इस्तीफा देने का उनका फैसला सामने आया है। गिलानी के हुॢरयत की राजनीति से बाहर होने का कितना महत्त्व है, यह इस तथ्य से समझा जा सकता है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता और पार्टी के जम्मू-कश्मीर के प्रभारी राम माधव ने इस घटना पर लगातार तीन ट्वीट किये।

हालाँकि हुॢरयत ने गिलानी के इस कदम पर खुद चुप्पी साध ली है। साथ ही इस इस्तीफे ने हुॢरयत के सामने एक गम्भीर चुनौती भी पैदा की है। गिलानी के खुद को संगठन से अलग करने के साथ ही हुॢरयत को उनकी अनुपस्थिति में नेतृत्व की विश्वसनीयता का संकट झेलना होगा। ज़ाहिर है कि उसे नया नेता चुनना होगा। इसके अलावा, गिलानी के अनुच्छेद-370 हटाने के बाद की अवधि में संगठन में भ्रष्टाचार के आरोप और नेतृत्व त्याग भी हुॢरयत को परेशान करेंगे।

हुॢरयत नेता के इस्तीफे ने कई सवाल खड़े किये हैं। कश्मीर के लिहाज़ से एक बहुत महत्त्वपूर्ण समय में गिलानी का इस्तीफा चरम कदम है। इसलिए यहाँ जवाबों से ज़्यादा सवाल हैं। कई लोगों ने उनके इस्तीफे वाले पत्र की प्रमाणिकता पर शंका भी ज़ाहिर की है, और इसका कारण वह यह बताते हैं कि गिलानी बहुत बीमार हैं और इस्तीफे जैसे बड़े फैसले के बारे में सोचने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन सार्वजनिक रूप से हुॢरयत या उनके परिवार से किसी ने भी इस्तीफे को चुनौती नहीं दी है।

इसके अलावा पत्र में जहाँ गिलानी के अपने ही गुट के घटकों की निंदा के गयी है, वहीं इसमें नरम धड़े के नेता माने जाने वाले मीरवैज उमर फारूक के नेतृत्व वाले समानांतर गुट के नेताओं की आलोचना जैसा कुछ भी नहीं है। हालाँकि गिलानी के इस्तीफे के दो दिन पहले मीरवैज गुट के नेताओं- प्रो. अब्दुल गनी भट, बिलाल लोन और मसरूर अब्बास अंसारी ने जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक अनिश्चितता खत्म करने और सूबे की जनसांख्यिकी को बदलने के लिए कथित कदमों पर रोक लगाने पर चर्चा के लिए एक बैठक की। उन्होंने मीरवैज की घर में ही नज़रबन्दी से रिहा करने की भी माँग की। 05 अगस्त के भारत सरकार के कदम के बाद हुॢरयत के मीरवैज फारूक धड़े की ओर से यह पहला बयान था और लोगों ने गिलानी के इस्तीफे के लिए इसे भी एक कारण ठहराया।

हालाँकि घाटी में अलगाववादी राजनीति में वरिष्ठता और राजनीतिक वज़न दोनों के लिहाज़ से गिलानी निश्चित ही पहले नम्बर पर आते हैं; लेकिन उनके इस्तीफे का असर सिर्फ उनके हुॢरयत से बाहर जाने तक ही सीमित रहने वाला नहीं है।

बचत और सेहत का खज़ाना गोबर गैस

आजकल सभी तरह के ईंधन जैसे पेट्रोल, डीज़ल, कैरोसीन और गैस सभी लगातार महँगे होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं, जबसे इन ईंधनों का उपयोग बढ़ा है, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण भी बढ़े हैं, जिसका सीधा असर इंसानों की सेहत पर पड़ा है। यहाँ तक कि हमारा खानपान भी प्रदूषित हो गया है। आज खाने में वो स्वाद ही नहीं है। इसका कारण कृत्रिम खादों और कीटनाशक दवाओं का फसलों पर बेइंतिहां उपयोग है। अफसोस इस बात का है कि हमारा देश प्राकृतिक खजाने से भरपूर है, बावजूद इसके हम उनका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारें भी निजी कम्पनियों के मुनाफे के लिए किसानों और लोगों को प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के लिए प्रोत्साहित करने से बचती नज़र आती हैं।

कृषि प्रधान हमारे देश में खेती और पशुओं का एक-दूसरे पर निर्भर और पूरक होना यह बताता है कि मानव जीवन के लिए ये दोनों ही उपयोगी हैं। सच तो यह है कि पशु मनुष्य के एक अच्छे दोस्त हैं। पशुओं से खेती करना हमारे देश की परम्परा रही है। इतना ही नहीं, फसलों को खाद भी पशुओं से मिलती है।

क्या है गोबर गैस या बायो गैस

सभी किसान जानते हैं कि गोबर के रूप में प्राप्त पशुओं का अवशिष्ट खाद के साथ-साथ ईंधन का बेहतर संसाधन होता है। इसे सीधे जलाकर इस्तेमाल करने के साथ-साथ इससे गैस (गोबर गैस या बायो गैस) भी बनायी जा सकती है। गोबर गैस या बायोगैस पशुओं के गोबर से बनायी जाने वाली एक ऐसी गैस है, जिसका उपयोग घर से लेकर खेती तक के लिए किया जा सकता है। घर में इसका उपयोग रोशनी करने से लेकर खाना बनाने तक में किया जा सकता है, तो खेतों में ङ्क्षसचाई के लिए इससे उत्पन्न ऊर्जा का इस्तेमाल किया जा सकता है।

करीब दो ढाई दशक पहले गोबर गैस का जिस प्रकार उपयोग शुरू हुआ था, उससे किसानों को अनेक लाभ मिल रहे थे। मगर कृत्रिम खाद कम्पनियों को यह रास नहीं आ रहा था और आिखर सरकारों ने इस ओर कोई ध्यान देना बन्द कर दिया। 15-16 साल पहले तक गोबर गैस का जितना बजट था, उतना अब नहीं है। यही वजह है कि किसान भी अब इसमें रुचि नहीं लेते। क्योंकि एक आम किसान के बस की बात नहीं कि वह गोबर गैस या बायो गैस के टैंक बनवा सके। अगर कोई टैंक बनवा भी ले, तो उनमें लगने वाली दूसरी लागत भी कम नहीं होती। ऐसे में अधिकतर किसान इसका लाभ नहीं ले पाते।

सबसे बड़ी बात है कि कृत्रिम गैसों की तरह गोबर गैस नुकसानदायक नहीं होती। इसमें कई गैसों का मिश्रण होता है; जो प्राकृतिक रूप से तब बनती हैं, जब हवा की अनुपस्थिति में कार्बनिक यौगिक यानी गोबर सड़ता है। गोबर गैस में जिन गैसों का मिश्रण होता है, उनमें अन्य गैसों के अलावा मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड (ष्टह्र2) और मीथेन (ष्ट॥4) होती हैं। यही वजह है कि यह ज्वलनशील यानी आग पकडऩे वाली गैस भी होती है। इस तरह इसका उपयोग ईंधन के रूप में उपयोग किया जाता है।

बता दें कि गोबर गैस प्रणाली का आविष्कार कृषि वैज्ञानिक सी.बी. देसाई ने किया था। इससे गोबर का उपयोग कई कामों में किया जाने लगा था। गोबर गैस में सड़ रहे गोबर को बाद में निकालकर खेतों में खाद के रूप में उपयोग किया जा सकता है। गोबर से तैयार इस जैविक खाद से खाद्यान में किसी प्रकार का विष नहीं रहता और उसका स्वाद तथा सुगन्ध बढ़ जाती है।

हर कोई नहीं बना पाता गोबर गैस टैंक

गोबर गैस कोई आम राज मिस्त्री नहीं बना सकता। इसे वही राज मिस्त्री बना सकता है, जिसे इसे बनाने की विधि पता होने के साथ-साथ इसमें लगने वाली उपयोगी चीज़ों की जानकारी होगी। एक गोबर गैस से बिजली से लेकर गैस तक को इस तरह निकालने के सिस्टम तैयार किया जाता है कि उसका सही उपयोग हो सके। इसलिए जब भी कोई किसान गोबर गैस टैंक तैयार करवाये, तो कृषि वैज्ञानिकों से सलाह लेकर उनकी निगरानी या जानकार राज मिस्त्री से ही करवाये।

गोबर गैस में क्या-क्या डालें

अक्सर किसानों के मन में एक सवाल रहता है कि गोबर गैस में क्या केवल गोबर ही डाल सकते हैं? ऐसा नहीं है। गोबर गैस में गोबर के अलावा पशुओं का मूत्र, गलनशील कूड़ा यानी पेड़ों के पत्ते, घास, खराब सब्ज़ी, सब्ज़ी के छिलके, खराब फल, फसलों के अवशेष और पशुओं का मूत्र भी डाल सकते हैं। लेकिन इन सबकी मात्रा गोबर से अधिक नहीं होनी चाहिए, बल्कि इन सबकी मात्रा गोबर से कम ही रखें।

गोबर से बन रही सीएनजी

आजकल गोबर से बॉयो सीएनजी (कंप्रेज्ड नेचुरल गैस) भी बनायी जा रही है। गोबर से तैयार यह सीएनजी ल्यूकोफीड पेट्रोलियम गैस यानी एसपीजी की तरह काम करती है और एसपीजी से काफी सस्ती पड़ती है। यही नहीं यह पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुँचाती। बॉयो सीएनजी को गाय भैंस समेत दूसरे पशुओं के गोबर के अलावा सड़ी-गली सब्जियों और फलों से भी बनाया जाता है। इसका टैंक यानी प्लांट गोबर गैस की तरह ही काम करता है, मगर इससे निकलने वाली गैस से बॉयो सीएनजी बनाने के लिए मशीनें अगल से लगायी जाती हैं। यह भी कमायी वाला कारोबार है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में ऐसे प्लांट लगाये जा चुके हैं। इस प्लांट का बड़ा फायदा यह है कि यह कम लागत से लग जाता है और सीएनजी के उत्पादन के बाद इसके टैंकों से जैविक खाद भी निकलती है, जो बिक जाती है।

बायो सीएनजी प्लांट से नहीं कोई नुकसान

पहले के लोग गोबर का उपयोग खाद बनाने, उपले पाथने और फसलों पर गोबर के घोल का छिड़काव करने के लिए करते थे। मगर अब लोग ऐसा नहीं करते, इससे गोबर बेकार तो जाता ही है, गन्दगी का कारण भी बनता है। आजकल शहरों में मौज़ूद डेयरी वाले भी गोबर को नालियों में बहा देते हैं, जिससे नालियाँ बन्द होने के साथ-साथ गन्दगी और बदबू भी फैलती है। इसके अलावा पशुओं को अवारा छोड़ देते हैं, जिससे वो कहीं भी गोबर और मूत्र कर देते हैं, जो गन्दगी और बदबू का कारण बनता है। अगर ये डेयरी मालिक पाले गये पशुओं के गोबर और मूत्र का उपयोग बायो सीएनजी बनाने में करें, तो काफी पैसा कमाने के साथ-साथ पर्यावरण को स्वच्छ बनाने में सहयोग कर सकते हैं। इसी तरह गाँवों में भी पशुओं के गोबर और मूत्र का सदुपयोग किया जा सकता है। इसमें वीपीएसए (वेरियेबल प्रेशर स्विंग एडसोरप्शन सिस्टम) टेक्नोलॅाजी से गोबर को प्यूरीफाई करके मीथेन गैस बनायी जा सकती है और उसे कम्प्रेस करके सिलेंडर में भरकर बेचा जा सकता है। इसके प्लांट में मुर्गी और कबूतर की बिष्टा भी मिलाकर डाल सकते हैं। इससे 10 से 15 फीसदी तक गैस भी ज़्यादा बनती है और खाद की गुणवत्ता भी बेहतर होती है। इस प्लांट को जनता बायो गैस प्लांट भी कहा जाता है। इससे निकलने वाली गैस को दूसरे टैंक में इकट्ठा किया जाता है और वहाँ से इसे उपयोग के हिसाब से निकाला जाता है।

गोबर गैस के असफलता के कारण

भारत में में गोबर गैस यानी बायो गैस की असफलता के कई कारण हैं। इनमें पहला कारण है- किसानों के पास धनाभाव। इसके अलावा उन्हें प्रोत्साहित भी नहीं किया जाता। इसके अलावा अधिकतर किसानों के पास पशुओं और जगह की कमी भी इसके प्रति हतोत्साहित होने का कारण है। क्योंकि अगर किसी के पास एक-दो पशु हैं, तो उनसे इतना गोबर नहीं मिल सकता कि इसका एक सामान्य टैंक ठीक से चल सके। हालाँकि, इससे उसे रात को एक बल्ब जलाने लायक बिजली मिल सकती है और सम्भव है कि एक समय का खाना भी बन जाए, लेकिन यह काफी महँगा साबित होगा। क्योंकि इतने गोबर को सीधे बेचने से तत्काल ज़्यादा फायदा होगा। और टैंक का खर्चा नहीं करना पड़ेगा, जो कि काफी आता है। वहीं गोबर के उपले भी बेचकर ठीकठाक पैसे कमाये जा सकते हैं। वैसे भी एक-दो पशु पालने वाला किसान इस काम में हाथ नहीं डालना चाहता। उसे इसका शुरुआती खर्चा और बाद में टैंक से खाद निकालकर खेत में डालने का खर्चा काफी लगता है। साथ ही उसे लगता है कि एक बल्ब के लिए वह क्यों इतना झंझट करे। ऐसे में सरकार को इस काम में बड़े पैमाने पर किसानों का सहयोग करना चाहिए। साथ ही कृषि विश्वविद्यालयों और सरकार को गाँव-गाँव में जागरूकता कैंप लगाने चाहिए और गोबर गैस प्लांट लगाने के इच्छुक किसानों की मदद करनी चाहिए।

भारत में में वातावरण और कृषि भूमि की अधिकता के कारण यहाँ गोबर गैस प्लांट काफी सफल और लाभकारी हो सकते हैं। मगर सरकार को इसमें विशेष रुचि लेनी पड़ेगी। कृषि मंत्रालय को सजग और ईमानदार होना पड़ेगा। बहरहाल ऐसा नहीं हो रहा है; क्योंकि इसमें सरकारों का तो स्वार्थ छिपा ही है, लोगों, खासकर किसानों का भी फसलों के अधिक पैदावार का स्वार्थ छिपा है। इसके साथ ही अब अधिकतर किसान मेहनत से बचना भी चाहते हैं। यही कराण है कि वे जैविक खादों का उपयोग ही नहीं करते; क्योंकि इसके लिए उन्हें जानवरों का गोबर इकट्ठा करना पड़ेगा और उसे कम-से-कम छ: महीने गड्ढे में सड़ाना पड़ेगा, तब कहीं जाकर उसे खाद मिलेगी। प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से देशवासियों को शुद्ध भोजन, शुद्ध वायु और शुद्ध जल मिलने के साथ-साथ स्वास्थ्य लाभ भी मिलेगा।

विलासिता बनाम पर्यावरण : ज़रूरी क्या?

निरंतरता भविष्य की कुंजी है- यह मातृत्व वक्तव्य अक्सर सुनने को मिल जाता है। मानव उदासीनता और नासमझ बर्बादी की वजह से पर्यावरण को बेहद नुकसान पहुँचाया गया है। इसे दुनिया के सबसे बड़े जंगल अमेजॅन की भयावह आग वाली छवियों या ऑस्ट्रेलियाई बुशफायर के हालिया दिल तोडऩे वाले दृश्यों को भुला दिया गया है। कुछेक वर्षों में भारतीय समुद्र तट पर भी समुद्र के किनारे कई टन कचरा फेंकने के लिए काॢमक अधिनियम भी बनाया जा सकता है।

जैसा कि जलवायु परिवर्तन और प्लास्टिक से तबाही एक भयावह वास्तविकता बन चुकी है। सिद्धांत और व्यावहारिक रूप से विलासिता यानी लग्जरी जैसा नया शब्द उछाला जा रहा है। महामारी से प्रेरित लॉकडाउन के चलते प्रकृति नये जीवन की साँस ले रही है या कहें फर से साँस लेने दे रही है। ऐसा ही लग्जरी होटल के लिए सामान्य रूप से व्यापार करने के लिए पर्यावरण के प्रति सावधान रहना ज़रूरी है। अस्पतालों से जुड़ा उद्योग विलंबित वेकअप कॉल की तरह है, जिसके संरक्षण के लिए तत्काल कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। अपारदॢशता और भव्यता का पर्याय, जिसे अक्सर संसाधनों के भ्रामक दुरुपयोग के रूप में माना जाता है; लग्जरी होटल अब पर्यावरण के अनुकूल के रूप में अपने मूल्यों का विज्ञापन करते हुए महज़ प्रचार के साधन साबित हो रहे हैं। ये लोकाचार नये युग के यात्री के साथ प्रतिध्वनित हो रहा है, जिन्हें इस बदलाव में एक प्रमुख योगदान देने वाले के तौर पर देखा जाता है। अपशिष्ट और नागरिक उदासीनता के तहत एक ग्रह के टूटने के बारे में संवेदनशील रूप से विघटन के कारण, उपभोक्ता विलासिता का चयन कर रहा है, जिसके लिए पर्यावरण को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।

नई दिल्ली के एक पाँच सितारा होटल जेडब्ल्यू मैरियट के परिसर से ही सालाना 17,00,000 प्लास्टिक की बोतलों की खपत होती है। ऐसी परिस्थिति का सामना करने के बारे में सोचना बेहद कठिन कार्य है। बदलाव की शुरुआत की कभी भी की जा सकती है और यहाँ पर इसी महीने से प्लास्टिक मुक्त अभियान का आगाज़ किया गया है। जेडब्ल्यूएम ने अपने फ्लैग-शिप वॉटर ट्रीटमेंट और प्यूरिफिकेशन प्लांट को भी शुरू कर दिया, जो आर्टिफिशियल-इंटेलिजेंस प्रोग्राम पर आधारित है। यह विचार इस तरह से सामने आया कि होटल में इस्तेमाल होने वाली सभी पानी की प्लास्टिक की बोतलों का फिर से प्रयोग किया जाए। इसके अलावा पानी की बोतल के लिए काँच की बोतलों में पानी दिया जाए और उसमें ऐसा पानी हो, जिसमें ज़रूरी खनिज भी हों। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि आतिथ्य उद्योग अपव्यय का ध्वजवाहक है, और इसके लिए इसका श्रेय कुछ अमीर घरानों के लोगों के ग्राहकों को दिया जाए, तो कहना गलत नहीं होगा। यात्री के रूप में बार-बार प्लास्टिक की बोतल में पानी की दिये जाने और एक उपयोग टॉयलेटरीज से नाराज़ होना लाज़िमी था। मैडियस हेल्थ की सीओओ सैमी भाटिया कहती हैं, मैं होटल के संसाधनों का बोझ कचरे को जोड़कर कम करने की कोशिश कर सकती हूँ। वह कहती हैं कि स्वयं अपने टॉयलेटरीज और पानी की बोतल ले जाती है और हर दिन अपने बिस्तर की चादर और तौलिये को रोज़ाना नहीं बदलती हैं। वेस्टिन गुडग़ाँव में फॉरवर्ड-थिंकिंग के तहत लग्जरी में कुछ ऐसे बदलाव किये हैं, जिनका स्वागत किया जाना चाहिए। यहाँ पर पानी काँच की बोतलों में परोसा जाता है, साथ ही सभी तरह के प्लास्टिक के प्रयोग से बचा जाता है। उनके सॉप फॉर होप कार्यक्रम ने रीसाइकिल किये गये साबुन से फिर उपयोग करने योग्य नये साबुनों में किया, जिनको अनाथालयों और वृद्धाश्रमों में वितरित किया जाता है। अपने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) के माध्यम से सम्पत्ति ऊर्जा के संरक्षण के लिए परिसर में एलईडी लाइट का उपयोग करने के अलावा फ्लशिंग, बागवानी और सफाई फर्श के लिए पुनर्नवीनीकरण पानी का फिर से उपयोग किया जाता है।

वेस्टिन गुडग़ाँव नई दिल्ली में इंजीनियङ्क्षरग के निदेशक हलीम अहमद सिद्दकी कहते हैं, डिजाइन से लेकर अतिथि अनुभव तक निरंतरता हमारी व्यावसायिक रणनीति में अंतर्निहित है। उदाहरण के लिए हमारे सभी खाद्य और पेय पदार्थ काँच के बर्तनों या बोतलों में ही परोसा जाता है और जो पानी खरीदा जाता है, उसमें भरपूर खनिज होते हैं; फिर काँच की पैकेजिंग की जाती है। होटल मिनी बार को प्लास्टिक मुक्त बनाने के भी उपाय किये जा रहे हैं। इसे लिये स्थायी पैकेजिंग को लाने के लिए नये मॉडल पर काम किया जा रहा है।

रोजियट होटल्स एंड और रिजॉट्र्स ने प्लास्टिक कटलरी के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगा दिया है और इसकी जगह इसे इको-फ्रेंडली विकल्प चुन लिया है। इसके साथ ही एक और कदम उठाया है, जिसमें भोजन को प्लास्टिक की पैकेजिंग की जगह कागज़ के बॉक्स में दिया जाता है। रोजियट हाउस में उपयुक्त सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट भी स्थापित किया गया है। यह ऐसी तकनीक है, जिसमें सीवेज का पानी इको-एडजस्ट होने की विविध प्रक्रिया के ज़रिये फिर से प्रयोग में लाया जाता है।

जब होटल अपने रिकॉर्ड और प्रतिष्ठा को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं और ऐसी पहल में वे कामयाब भी हो रहे, तो इनके संरक्षक भी छोटी-मोटी असुविधाओं को शिकायत की बजाय बड़े परिदृष्य में देखें। जब तक हम उनके प्रयासों में होटल के साथ सहयोग नहीं करते हैं, तब तक वे प्रकृति का दोहन जारी रखेंगे। कमरे के अन्दर पंखे को चलाना ज़रूरी है या नहीं, इसे बन्द रखने के बारे में शख्स कहाँ और कितना ध्यान देता है? दिल्ली के सलाहाकर प्रमोद दास महसूस करते हैं कि यह मानसिकता कि हम होटलों में राजा हैं और जब हम वहाँ जाते हैं, तो सब कुछ वहन करने में सक्षम हैं।

भविष्य में सतत बदलाव के लिए समय की माँग है कि इसमें ठोस कार्रवाई की जाए। जेडब्ल्यू मैरियट के महाप्रबन्धक नितेश गाँधी कहते हैं कि जब हमने पहला कदम उठाया है, तो हमें यह सुनिश्चित करने के लिए कि अपनी पीढिय़ों के लिए बेहतर रास्ता और विकल्प छोड़कर जाएं, इसके लिए ज़रूरी है कि यह सुनिश्चित करें कि हमें अपने भागीदारों और सभी बिरादरी से समर्थन चाहिए। एक और सचेत निर्णय जो कि सतत विलासिता की सूची में बड़ा स्कोर है- वह है जल संरक्षण और इसके लिए होटल टैप एरेटर का उपयोग कर रहे हैं। आमतौर पर फ्लो रेगुलेटर, ताज पैलेस, नई दिल्ली और ताज सिटी सेंटर, गुरुग्राम ने अपने लॉबी वॉशरूम में स्थापित किया है। समूह के अनुसार, इन टैप एरेटर की स्थापना से नल से पानी के प्रवाह को 80 से 85 फीसदी तक कम करने में मदद मिली है।

वाशरूम में पानी के एयरेटर या विशेष टैप ऐसी चीज़ें हैं, जो किसी की भी नज़र से बच नहीं सकते। डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर शौर्य प्रथी कहते हैं कि बदलाव छोटे दिखते हैं; लेकिन उनमें एक बड़ा प्रभाव डालने की क्षमता होती है और यही वह चीज़ है, जो मैं अपने होटल बुक करने से पहले देखता हूँ। महीने में 20 दिनों के लिए अपने सूटकेस से बाहर रहने का मतलब है कि नियमित रूप से देखता हूँ कि ‘फाइव-स्टार अनुभव’ पर्यावरण को कैसे प्रभावित कर रहा है। मैं अपनी बुङ्क्षकग करने से पहले एक सम्पत्ति के पर्यावरण के अनुकूल नैतिकता के बारे में बहुत शोध करता हूँ। एक जगह जो हर उपयोग के बाद बिस्तर लिनन या तौलिये को बदलने को तवज्जो नहीं देता हूँ। आगे प्रथी कहते हैं कि मेरी सूची में उच्च स्कोर उस होटल का होता है, जो पर्यावरण को बिना नुकसान पहुँचाये सबसे अच्छा विकल्प देने को लेकर जुनूनी कदम उठाते हैं।

ताज पैलेस में अपशिष्ट जल प्रबन्धन प्रणाली प्रतिदिन 80 किलोलीटर पानी उपचारित करती है, जिसका उपयोग बागवानी और भूनिर्माण गतिविधियों, कारों की धुलाई, फर्श और होटल के कूङ्क्षलग टॉवरों के लिए किया जाता है। ताज सिटी सेंटर ने हाल ही में बायो स्केल रिमूवर स्थापित किया है, जो रसायनों के उपयोग के बिना कूङ्क्षलग टॉवर का उपचार करता है, जिससे पानी और बिजली दोनों में लगभग 50 फीसदी की बचत होती है। होटल प्रति रात की ऊर्जा खपत, कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन और पानी की खपत को कम करने की दिशा में अथक प्रयास कर रहा है। ताजमहल क्रेंद्र के इंजीनियरिंग विभाग के निदेशक सुमित शर्मा का कहना है कि हम धीरे-धीरे स्थानीय रूप से टिकाऊ उत्पादों और सेवाओं का भी

उपयोग करेंगे।  एक ओर होटल लग्जरी और पारिस्थितिक रूप से सचेत कदमों को परस्पर प्रभावित करके प्रकृति के प्रति संवेदनशील होने का दावा कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, पर्यावरणविद् इसे एक निष्क्रिय तिरस्कार के रूप में देखते हैं और उत्साह में ऐस गतिविधियों में शामिल होने से इन्कार करते हैं। वे देखते हैं कि यह एक छोटा कदम है, होटल के दिग्गजों द्वारा ज़्यादतियों के विशाल सागर में एकमात्र आई वॉश। ये सराहनीय उपाय हैं; लेकिन बहुत मामूली हैं। नेचुरल हैरिटेज फस्र्ट के संयोजक दीवान सिंह कहते हैं, होटल विशाल बर्बादी और संसाधनों के दुरुपयोग के लिए कुख्यात हैं। इन स्थानों पर दूर-दूर तक फैले विशाल पदचिह्नों को छोड़ दिया जाता है, जो कि उनकी भव्यता का स्वभाव है। अगर वे वास्तव में बदलाव करना चाहते हैं तो उन्हें ज़मीनी तौर पर काम करने की ज़रूरत है। क्या वे जानते हैं कि वे इतालवी संगमरमर के साथ पैरों के निशान छोड़ते हैं, जिसे वे लॉबी से सजाते हैं या लग्जरी कारें, जिनमें उनके मेहमान सफर करते हैं? उनका पर्यावरणवाद प्लास्टिक की बोतलों और फूस से आगे बढऩा है।

इस बीच अंदाज़ दिल्ली ने अपने स्टूडियो और बॉलरूम में परोसी जाने वाली पानी की बोतल के आकार को 250 मिली से घटाकर 200 मिली कर दिया है। जो बोतलें हमारे कार्यक्रमों में उपयोग की जाती हैं, वे जैव-अपघट्य हैं। यहाँ तक कि हम काँच की बोतल को आधे हिस्से में काटकर पानी के गिलास के रूप में उपयोग करते हैं। घटनाओं में टैग के लिए कागज़ की बर्बादी से बचने के लिए हम ब्लैक बोर्ड का उपयोग करते हैं; क्योंकि यह दिलचस्प लगता है और कई मेहमानों द्वारा इसकी सराहना की जाती है। अंदाज़ दिल्ली के इंजीनियङ्क्षरग के निदेशक राकेश कुमार बताते हैं कि यह रेस्तरां अन्नामाया हर रविवार को एक पॉप-अप होस्ट करता है, जहाँ मेहमानों को बेकार की चीज़ों से कुछ बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

निरंतर प्रयास का दूसरा पहलू है- कीटनाशक रहित भोजन खाना। खाद्य उत्पादों के माध्यम से उर्वरकों और रसायनों की खपत को कम करने के लिए होटल अपनी उपज भी बढ़ा रहे हैं। पुलमैन नई दिल्ली एरोसिटी ऐसे स्थानीय ताज़े उत्पाद परोसते हैं, जिनकी ऑर्गेनिक तरीके से 5,000 वर्ग फुट के इन-हाउस फार्म में पैदावार की जाती है।

दिल्ली की पर्यावरण कार्यकर्ता छाया मेथी को लगता है कि निरंतरता शब्द लग्जरी गुणों के लिए मौज़ूद नहीं है और वह इसके लिए संरक्षक को भी ज़िम्मेदार ठहराती हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितने भी संरक्षणवादी बनने की कोशिश करें, भले ही वह पैमाने पर भी हों। पर वे असफल हो जाएँगे, क्योंकि उनके उपभोक्ता होटल में सभी सुविधाएँ चाहते हैं। इसलिए उन्हें टूथब्रश और टॉयलेटरीज जैसी चीज़ें उपलब्ध करानी होंगी, सभी एक ही प्लास्टिक में पैक किये जाएँगे; जिन्हें वे कम करने की कोशिश कर रहे हैं। वह कहती हैं कि इन सभी को एकल उपयोग के बाद फेंक दिया जाता है। इसलिए वे अधिक अनावश्यक अपशिष्ट पैदा

करते हैं। इसी तरह के सवाल उपभोक्ता की तरफ से भी अक्सर पूछे जा रहे हैं, जो अपनी आदतों का आत्मनिरीक्षण कर रहा है और होटल प्रथाओं का हिस्सा बनने वाली बहुत-सी प्रथाओं के लिए भी बेहद अहम है। भोजन की बर्बादी सभी होटलों में एक बड़े धब्बे की तरह है, खासकर जब बफे (खड़े होकर खाना) परोसा जाता है। इस भारी मात्रा में अपव्यय के प्रति उदासीनता आपराधिक है। होटलों को इस पर ध्यान देने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए। यह पर्यावरण का भी हिस्सा है, सुदीप्त बनर्जी, जो एक पब्लिशिंग हाउस के साथ काम करते हैं; कहते हैं- यह कपड़े के रुमाल से हाथ पोंछने और फिर टोकरी में फेंकने में बहुत शाही लगता है। अब मैं खुद से पूछती हूँ कि क्या मैं घर पर वॉशरूम इस्तेमाल करने के बाद भी ऐसा ही करूँगी? डेटा विश्लेषक और यात्री एकांत मेहता, स्थायी विलासिता केवल तब तक कायम रह सकती है; जब तक कि मेहमान यह भी समझ जाते हैं कि उन्हें अपनी इच्छा और नखरे पर पर्दा डालने की ज़रूरत है।

कम हो रहे दुर्लभ प्रजाति के पेड़

इंसानों को जीने के लिए जल-भोजन के अलावा पर्यावरण की बहुत ज़रूरत है। क्योंकि पृथ्वी पर मनुष्य और अन्य प्राणी तभी तक जीवित हैं, जब तक वे साँस ले पा रहे हैं। सभी जानते हैं कि मनुष्य सहित सभी जीवों के जीने के लिए साँस लेना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, जिसके लिए ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है।

यह ऑक्सीजन पेड़ों और वनस्पतियों से मिलती है। लेकिन पिछले पाँच दशक के दौरान अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य ने पेड़ों को जमकर काटा है, जबकि पेड़ काटने की तुलना में पौधरोपण काफी कम किया है। यही कारण है कि पेड़ों और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियाँ काफी कम हो चुकी हैं, जिनमें कई तो खत्म होने की कगार पर हैं। सवाल यह है कि हर साल पर्यावरण दिवस के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने वाली संस्थाएँ, सरकारें क्या वाकई इस दिशा में गम्भीर हैं? हमारे देश में हर साल पौधरोपड़ के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने वाले अधिकतर नेता और अखबारों की सुॢखयाँ बनने के शौकीन लोग एक पौधा लगाकर फोटोशूट कराने से नहीं चूकते; लेकिन जब अगले दिन से उस पौधे की ओर पलटकर भी नहीं देखते।

सवाल यह है कि तेज़ी से काटे जा रहे जंगल और इंसानों की बढ़ती आबादी से हमारा जीवन खतरे में पड़ता जा रहा है। क्योंकि जंगलों को काटने से वातावरण दूषित होने के साथ-साथ वन्य जीवों का भी जीवन खतरे में पड़ रहा है।

अक्टूबर, 2019 में मुम्बई की आरे कॉलोनी में 200 हरे पेड़ों को अवैघ रूप से काट दिया गया। यही नहीं वहाँ 2600 से अधिक पेड़ों को काटे जाने की योजना बनायी गयी। यह काम लकड़ी माफिया और राजनीतिक-प्रशासनिक गठजोड़ से आगे बढ़ा, जिसके चलते पेड़ काटने का विरोध कर रहे लोगों की भी नहीं चली। आिखरकार इस मामल में कुछ लोग हाई कोर्ट गये, लोकिन वहाँ माफिया की जीत हुई। इस पर गुस्सा ए लोगों ने सड़क पर उतरकर नारेबाज़ी भी की। मगर तब की भाजपा-शिवसेना की महाराष्ट्र सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। यहाँ तक कि प्रकृति प्रेमी प्रदर्शनकारियों में कुछ लोगों की मौत भी हो गयी। नतीजा यह निकाल कि आरे के आसपास पर्यावरणीय क्षेत्र को तबाह कर दिया गया और लकड़ी माफिया जीत गये। इस मामले में आदित्य ठाकरे ने आवाज़ उठायी थी, पर कोई फायदा नहीं निकला।

दुर्लभ पेड़ और वनस्पतियाँ

पर्यावरण के दृष्टि से हमारा देश एक सम्पन्न देश है। यहाँ दुनिया में पाये जाने वाले फलों के पेड़ों में से लगभग 80 फीसदी फलों के पेड़ यहीं मिलते हैं। इसी तरह मसालों और जड़ी-बूटियों से भरपूर पेड़-पौधे भी हमारे देश में काफी संख्या में मिलते हैं। हर पेड़ की अपनी अलग खासियत और अपना अलग उपयोग है। इनमें बहुत से पेड़ और वनस्पतियाँ खत्म होने के कगार पर बढ़ रहे हैं, जिन्हें बचाना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। हमारे देश में निम्नलिखित पेड़ और वनस्पतियाँ कम हो रही हैं :-

वट वृक्ष

हज़ारों साल तक रहने वाला वट वृक्ष हिन्दू धर्म में काफी महत्त्व रखता है। इसे बरगद भी कहा जाता है। यह अधिकतर धार्मिक स्थलों, जंगलों में मिलता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इनकी संख्या लगातार कम हो रही है। यह एक ऐसा पेड़ है, जिसे लोग जल्दी नहीं लगाते। अगर यह पेड़ खुद ही कहीं उग आये, तो अलग बात; पर इसे रोपने की ज़हमत लोग नहीं उठाना चाहते। हालाँकि बरगद के पेड़ों को अगर काटा न जाए, तो इनकी संख्या घटने का सवाल नहीं। लेकिन लोगों ने पिछले तीन-चार दशक में हज़ारों वट वृक्ष काट दिये हैं।

इसके बावजूद हमारे यहाँ लाखों वट वृक्ष बचे हुए हैं। हज़ारों साल पुराने वट वृक्षों में प्रयाग का अक्षयवट, गया का गयावट, उज्जैन का सिद्धवट,  मथुरा-वृंदावन का वंशीवट, पंचवटी (नासिक) का पंचवट प्रमुख माने जाते हैं।

हिंदुस्तान में दुनिया का सबसे चौड़ा वट वृक्ष  भी है, जिसका नाम है- द ग्रेट बनियान ट्री। यह लगभग 14,500 वर्ग मीटर में फैला हुआ है। इस बरगद की 3,372 से अधिक जटाएँ हैं, जो ज़मीन तक उतरकर जड़ का रूप ले चुकी हैं। इस अकेले पेड़ पर 87 प्रजातियों के हज़ारों पक्षी और सैकड़ों अन्य जीव निवास करते हैं।

फिलहाल 24 मीटर ऊँचा यह विशालकाय वृक्ष करीब 18.92 वर्ग मीटर क्षेत्र में फैला हुआ है और इसकी परिधि करीब 486 मीटर है। वहीं ज़मीन तक पहुँचने वाली इसकी जड़ें 3800 के करीब हैं। सन् 1884 और 1987 में चक्रवाती तूफान आने से इस पेड़ को काफी नुकसान पहुँचा था। इसके अलावा सन् 1925 में इसका काफी हिस्सा बीमारी लगने के कारण काटना पड़ा था, अन्यथा यह पेड़ और भी विशालकाय होता।

पीपल

पीपल का हिन्दू धर्म में सबसे ज़्यादा महत्त्व है। पीपल की पूजा करने और इस पर दैवीय शक्तियों का वास होने की मान्यता के चलते इस पेड़ को काटने से भी लोग बचते हैं; बावजूद इसके पिछले कुछ वर्षों में पीपल के पेड़ों का खूब कटान हुआ है। हालाँकि पीपल के पेड़ की लकड़ी अमूमन कोई भी घरों में इस्तेमाल नहीं करता। इस पेड़ की सबसे बड़ी खासियत है कि यह लगातार ऑक्सीजन छोड़ता है। इतने पर भी लोग इसे लगाने से कतराते हैं। यह एक ऐसा पेड़ है, जो कहीं भी उग आता है। लेकिन लोग घरों में इसे लगाने से डरते हैं।

पीपल के पेड़ चिडिय़ों द्वारा इसका फल खाकर विष्टा करने से भी उग आते हैं। अधिकतर पीपल के पेड़ धाॢमक स्थलों पर होते हैं। भारत में पीपल के पेड़ों के अनुकूल जलवायु होने के चलते इनकी संख्या बहुतायत में है। लेकिन शहरों के बढ़ते मकडज़ाल ने इस स्वास्थ्यवर्धक पेड़ को काफी हानि पहुँचायी है।

24 घंटे ऑक्सीजन छोडऩे वाले इस पेड़ की पत्तियाँ, फल और छाल औषधीय गुणों से सम्पन्न हैं। इस पेड़ की खासियत यह है कि यह जहाँ होता है, वहाँ शीतलता रहती है। इसके अलावा यह दूसरे पेड़ों की शाखाओं पर भी उगने की क्षमता रखता है। कई बार घरों की दीवारों पर भी यह आसानी से उग आता है।

गूलर

गूलर एक औषधीय पेड़ है, जिसका फल बहुत ही काम का है। लेकिन इसका फल अमूमन लोग नहीं खाते, क्योंकि उसमें पकते-पकते उडऩे वाले कीड़े पड़ जाते हैं। इस दुर्लभ पेड़ का तना, छाल और जड़ का औषधीय महत्व काफी है। गूलर की लकड़ी मजबूत नहीं होती, लेकिन हल्के-फुल्के कामों में इस्तेमाल हो जाती है। इसका दुर्लभ फूल किसी को देखने को नहीं मिलता। कहा जाता है कि इसका फूल रात्रि में बहुत कम समय के लिए खिलता है और उसे देखने वाले को अथाह सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। बस यही वजह है कि इसका धार्मिक महत्त्व भी है। इस वृक्ष पर शुक्र का आधिपत्य माना गया है और वृषभ व तुला राशि का यह प्रतिनिधि पेड़ है। अफसोस कि अब इसके पेड़ों की संख्या तेज़ी से घटती जा रही है और इसके पौधे कोई लगाता ही नहीं है। शायद इसकी वजह इसकी कम उपयोगी लकड़ी हो।

शीशम

मज़बूत लकड़ी वाला शीशम का पेड़ औषधीय गुणों से भी भरपूर होता है। इसकी लकड़ी घरों के दरवाजे, खिड़कियाँ और अन्य फर्नीचर बनाने के लिए बेहतरीन रहती है। भारतीय उप महाद्वीप का यह पेड़ प्रोटीनयुक्त पत्तियों और फलियों वाला होता है। इस पेड़ को तैयार होने में लम्बा समय लगता है। लेकिन इसकी लकड़ी उतनी ही मज़बूत, भारी और महँगी होती है। यही वजह है कि माफिया इसका अवैध कटान जमकर करते हैं। आयुर्वेद में इसकी छाल, पत्तियों और जड़ का विशेष महत्व बताया गया है। यही नहीं इसकी पत्तियों को पशु बड़े चाव से खाते हैं। जहाँ भी यह पेड़ होता है, वहाँ ज़मीन और अधिक उपजाऊ हो जाती है। पिछले तीन दशकों से शीशम की संख्या लगातार घटती जा रही है।

चन्दन

एक समय में हिन्दुस्तान में चन्दन के जंगल के जंगल थे। इसकी लकड़ी इतनी महँगी है कि इसके हजारों तस्कर पैदा हो गये। तेज़ी से अवैध रूप से हुई इसकी लकड़ी की तस्करी से आज इसके पेड़ों की संख्या काफी कम हो चुकी है। भारत का चन्दन पूरी दुनिया में निर्यात होता है। हालाँकि चन्दन की खेती भी भारत में होती है, लेकिन जंगलों से इसके पेड़ों को तेज़ी से काटा जा रहा है, जिस पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं होती। चन्दन में सबसे महँगा लाल चन्दन होता है, जो काफी दुर्लभ भी है। इसकी लकड़ी हमेशा महकती रहती है और शीतलता प्रदान करती है। सरकारों को इसे बचाने पर ध्यान देना चाहिए।

अन्य पेड़

इसके अलावा कैम, जो कि श्लेचेरा सोपबेरी प्रजाति का है, धीरे-धीरे कम हो रहा है। पलाश भी अब कोई नहीं लगाता। पुराने पलाश के पेड़ उम्र या अवैध कटान के चलते आधे से अधिक खत्म हो चुके हैं और नये कोई लगाता नहीं। इससे वृक्षों की यह प्रजाति भी नष्ट होने की ओर अग्रसर है। पलाश एक औषधीय गुण वाला पौधा है। इसके फूल के हरे भाग की सब्ज़ी बनाकर खाने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है। पलास को टेसू, किंशुक, छूल, ढाक, परसा और केसू भी कहते हैं। अमलतास भी अब भारत में धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। अमलतास की फली औषधीय गुणों से सम्पन्न होती है।

विलुप्त होते औषधीय पौधे

भारत में औषधीय पौधों की हमेशा से भरमार रही है। यही कारण है कि यहाँ आयुर्वेद दवाओं का निर्माण बड़े पैमाने पर किया जाता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से औषधीय पौधे तेज़ी से घट रहे हैं। इन पौधों में सोनाख, चिरौंजी, गूगल (गुग्गल), चिरौंजी, अरनी (दशमूल द्रव), शतावरी, आँवला, दिव्यसार, वरुण, सैंजना, लिसोड़ा (गूँदी), गाँगड़ी, केंत, कदम्ब, इक्षवाकु (कछी तुमड़ी), सफेद मूसली, तेंदू आदि प्रमुख हैं। यह सब विलुप्त हो गये हैं या विलुप्त होने के कगार पर हैं। पिछले कुछ समय से जंगल से जलाऊ लकड़ी, इमारती लकड़ी का व्यापारियों द्वारा अवैध कटान किया जा रहा है।

नृत्य कीजिए सेहतमंद रहिए

सारिका बहुत दिनों से कुछ बुझी-बुझी सी दिखायी दे रही थी। शाम को ऑफिस से लौटते हुए मुलाकात में उसने बताया कि जब से उसकी नयी नौकरी लगी है। लेकिन उसे अपने लिए बिल्कुल वक्त नहीं मिलता। रोज़ शाम को जो वह एक घंटा नृत्य (डांस) क्लासेस ले रही थी। व्यस्तता के कारण वह भी बन्द हो गयी थी। इस वजह से ऑफिस में भी वह उस ताज़गी के साथ काम नहीं कर पा रही है।

सारिका की बात सुनकर मुझे भी लगा कि अगर मुझे कोई एक हफ्ते तो क्या, एक दिन भी यह कहे कि आज नृत्य मत करो, तो शायद मुझे मंज़ूर नहीं। मैं अपने रुटीन में से आधा से पौना घण्टा नृत्य के लिए अवश्य रखती हूँ।

अगर आप का मन बुझा-बुझा रहता है या आपको लगता है कि आपकी बॉडी पहले जैसी एक्टिव नहीं रही है, तो आप नृत्य रूपी व्यायाम को अपनाकर देखिए। कुछ ही दिनों में आपको लगेगा कि आपके अन्दर एक नयी ऊर्जा का संचार हो रहा है। अगर आपको व्यायाम करने में आलस आता है, तो आप ज़रा अपना म्यूजिक-सिस्टम थोड़ी-सी ऊँची आवाज़ में करके उसके ऊपर अपना पाँव थिरकाइए और झूम जाइए। लेकिन याद रखिए, संगीत इतनी तेज़ मत बजाइए, जिससे किसी को परेशानी हो।

चाहे आपका लगाव कथक, भरतनाट्यम्, हरियाणवी, पंजाबी, गरबा, वेस्टर्न, जैज़ आदि कोई भी नृत्य हो; तत थई तत् की आवाज़ आते ही आपके पैरों के साथ आपका पूरा शरीर झूम उठेगा। नृत्य केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक रूप से भी आपके लिए अच्छा है। शायद आप यकीन न करें, लेकिन जो लोग रोज़ नृत्य का अभ्यास करते हैं, उनमें गज़ब का आत्मविश्वास होता है।

नृत्य करते समय इन बातों का रखें ध्यान :-

पेट अगर भरा हो तो भूल से भी नृत्य नहीं करना चाहिए। हमेशा हल्के भरे पेट से ही नृत्य करना चाहिए।

नृत्य हमेशा किसी खाली कमरे में ही करना चाहिए, वरना आप नृत्य करते समय अनायास ही किसी चीज़ से टकरा सकते हैं।

जहाँ तक हो सके, नृत्य के अभ्यास का समय निश्चित कर लें, जिससे आपका रुटीन बना रहेगा और आपकी बॉडी उसकी अभ्यस्त हो जाएगी।

अपने रेडियो या म्यूजिक सिस्टम की आवाज़ बहुत तेज़ न रखें, वरना इससे आपकी सुनने की शक्ति पर विपरीत असर पडऩे के साथ-साथ आप अपने पड़ोसियों की परेशानी का कारण बन सकते हैं।

नृत्य वाले रूम में आईना कभी नहीं रखना चाहिए, वरना बीच में उस पर नज़र पडऩे से आपका ध्यान भंग हो सकता है।

लगातार नृत्य न करें। अगर आपने अभ्यास का समय एक घंटा चुना है, तो बीच में कम-से-कम तीन से चार बार रुकें और फिर पुन: नृत्य करें करें।

नृत्य के लाभ :-

नृत्य हृदय गति को सही रखता है। जो लोग नृत्य को व्यायाम की भाँति रोज़ करते हैं, उनके हृदय की गति ठीक रहती है और वे पूरी तरह से फिट रहते हैं।

कभी-कभी अपने उबाऊ कार्य या दैनिक कार्य से टाइम निकालकर अगर आप नृत्य करते हैं, तो चिन्ता आपके पास फटकेगी भी नहीं। क्योंकि नृत्य चिन्ता, तनाव, बोरियत दूर करने का सबसे कारगर तरीका है।

नृत्य मांसपेशियों को मज़बूती प्रदान करता है। हर रोज़ नृत्य करने वाले लोगों को किसी अन्य व्यायाम का सहारा तो शायद ही लेना पड़ता हो। नृत्य करने से आपकी बॉडी पर मोटापा नहीं चढ़ता।

नृत्य करते रहने से पेट और पैरों पर चर्बी नहीं चढ़ती। इसलिए जो लोग नृत्य का अभ्यास करते हैं, उनकी काम करने की शक्ति भी ज़्यादा होती है।

नृत्य करने से न सिर्फ आपका शरीर, वरन मन-मस्तिष्क भी स्वस्थ-दुरुस्त रहते हैं। वहीं आप दूसरों के सामने ज़्यादा आत्मविश्वास के साथ पेश आते हैं और दूसरों के सामने बिना हिचकिचाहट के आपनी बात प्रस्तुत कर सकते हैं।

तरन्नुम अतहर (स्वास्थ्य दर्पण)

रेणु और शैलेंद्र की तीसरी कसम

फणीश्वर नाथ रेणु ने उल्लेख किया है कि जब वह (रेणु) तीसरी कसम फिल्म के निर्माण के बाद वापस आ रहे थे, तो शैलेन्द्र के जूनियर ने पूछा कि इतना लम्बा नाम देने की बजाय पी.एन. रेणु क्यों न लिख दिया जाए! शैलेन्द्र ने कहा कि कितना भी लम्बा नाम हो, पूरा ही जाएगा। उसके बाद लेखक के रूप में उनका पूरा नाम ही दिया गया।

रेणु अंचल के रचनाकर होते हुए भी साहित्य के क्षितिज पर जिस तरह जगह बनाते हैं, उससे उनकी कहानियों के विस्तृत फलक को समझा जा सकता है। तीसरी कसम हिन्दी की शायद सबसे भोली, सबसे तेज़, सबसे ज़बरदस्त और सबसे गहरी कहानियों में से एक है। एकदम टिपिकल, ठेठ देहाती अंचल से निकली और दिल-ओ-दिमाग पर छा जाने वाली कहानी। कहानी की मूल कथा तो वही प्रेम परक दास्तान है, जहाँ प्रेमी मन मिल नहीं पाते और एक गहरी उदासी पाठक के भीतर छोड़ जाते हैं। रेणु की कहानी में हीरामन और हीराबाई एक से नामों वाले मीता तो बन गये, पर जनम-जनम के साथी न बन सके। एक भोला-भाला गाड़ी चालक हीरामन और दूसरी ओर नौटंकी में काम करने वाली हीराबाई; उन दोनों के बीच क्या कोई सम्बन्ध हो भी सकता था? किसी भी युग में? हीरामन को तो भौजाई एक कुँवारी कन्या (भाभी की ज़िद, कुमारी लड़की से ही हिरामन की शादी करवायेगी। कुमारी का मतलब हुआ पाँच-सात साल की लड़की…) से शादी कराने के लिए प्रतिश्रुत है, पर हीराबाई की शादी कैसे हो सकती है? सामाजिक बन्धनों को तोडऩे का भ्रम पाल बैठी हीराबाई को भी खुद को बुरा बनाकर हीरामन का दिल तोडऩा ही था और उसने तोड़ा भी। ये बन्धन टूट नहीं सकते थे, तो रेणु की कथा में भी नहीं टूटे। साहित्य की दुनिया में तो कथा अमर हो गयी, पर दुनियावी बन्धनों को तोडऩे में कथा असफल रही।

अब इस कहानी के दूसरे पक्षों पर बात करें। इस कहानी के भीतर जो अंतर्कथा है, वह हमें दो समाजों के बीच के अन्तर को दिखाती ही नहीं, बल्कि उस अन्तर को पुख्ता ही करती है। हीरामन जो अन्तर्मन से एक तरफ इतना भोला है कि जिस नौटंकी कम्पनी की औरत (स्त्री नहीं) को सभी जानते हैं और पतुरिया मानते हैं, उसके बारे में हीरामन जानता ही नहीं। यहाँ तक कि उसके बारे में जानने के बाद भी वह उसे पतुरिया नहीं मान पाता, बल्कि हीरादेवी ही मानता है या परी ही समझता है। (हिरामन को सबकुछ रहस्यमय- अजगुत-अजगुत लग रहा है। सामने चंपानगर से सिंधिया गाँव तक फैला हुआ मैदान… कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं? हिरामन की सवारी ने करवट ली। चाँदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी, तो हिरामन चीखते-चीखते रुक गया… अरे बाप! ई तो परी है!)

दूसरी ओर हीरामन उतना ही तेज़ भी है। बाँस की लदनी से लेकर कंट्रोल के ज़माने में कालाबाज़ारी का काम करके पैसा ही नहीं कमा चुका, बल्कि जब पकड़े जाने के हालात बने तो गाड़ी छोड़कर भागने की भी समझ उसमें पूरी तरह मौज़ूद है। उसकी बुद्धि के प्रमाण कहानी में हमारे सामने बार-बार रखे जाते हैं। कहानी में छोटे-छोटे सूत्र इसे प्रमाणित करते हैं। जब दूसरे गाड़ीवान उससे गाड़ी में बैठे व्यक्ति के बारे में पूछताछ करते हैं, तो कभी वह उसे छत्तापुर पचीरा की सवारी बताता है, तो कभी लाली… लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया की छवि गढ़ता है। जब छत्तापुर पचीरा के गाड़ीवान मिलते हैं, तो कहता है- सिरपुर बाज़ार के इसपिताल की डागडरनी हैं। रोगी देखने जा रही हैं। पास ही कुड़मागाम। तो हीरामन इतना तेज़ भी है और उतना ही सीधा भी (सिधाई ज़रूरी भी थी, वरना प्रेम कैसे करता, वो भी नौटंकी में काम करने वाली हीराबाई से!) राजकपूर ने इसे निभाया भी बखूबी, पर जिस िकरदार को उन्होंने अमर कर दिया, वो उसकी कथा में बदलाव करना चाहते थे; जिसके लिए न तो रेणु तैयार थे, न ही शैलेन्द्र। रेणु ने इस बात का ज़िक्र खुद किया है।

‘…शैलेंद्र ने मुझे सारी स्थिति समझा दी। टक्कर राज कपूर जैसे व्यक्ति से थी, जो न केवल फिल्म के हीरो थे, बल्कि उनके मित्र और शुभङ्क्षचतक भी। भाषण शुरू हुआ। उपन्यास क्या है? साहित्य क्या है? फिल्म क्या है? पाठक क्या हैं? दर्शक क्या हैं? कहानी लिखने से पाठक तक पहुँचने की प्रक्रिया क्या है? खर्च क्या है? फिल्म निर्माण क्या है? उसका आॢथक पक्ष क्या है? ऐसे विचार-प्रवर्तक भाषण शायद पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में भी नहीं होते होंगे। इतना ही नहीं तो शैलेंद्र पर चढ़े कर्ज़ और उसे उबारने की भी दुहाई दी गयी। और तो और, पैसा लगाने वाला मारवाड़ी भी जो आँखें बन्द किये बैठा था, कहने लगा- ‘आप यह मत समझिए कि मैं सो रहा था। मैं तो कहानी का ऐंड सोच रहा था। चेन खींचकर गाड़ी रोक लो और दोनों को मिला दो।’ (रेणु रचनावली, भाग-5, पृष्ठ-295)

लेकिन शैलेन्द्र नहीं माने, न ही रेणु। मानना ठीक भी न था। असल में बम्बइया फॉर्मूले के लिहाज़ से दर्शक को शुद्ध मनोरंजन मिलना ज़रूरी था, जिसे राजकपूर भी समझ रहे थे। विदा लेने और अलग होने के प्रसंग साहित्य में तो स्वीकार हो सकते हैं, पर फिल्मी दुनिया साहित्य को अपनाकर भी साहित्य को अपनी तरह से बदलने का फॉर्मूले पर चलती रही है। रेणु इसे नहीं मान सके, शैलेन्द्र भी नहीं और आिखर फिल्म असफल हो गयी। रेणु ने इस असफलता की लम्बी कहानी ‘तीसरी कसम को जान-बूझकर फेल किया गया’ शीर्षक से लिखी है, जिसे पढ़ा जाना चाहिए। मैं यहाँ उस पक्ष पर विस्तार से नहीं जाऊँगी। उसके पीछे एक लम्बी कथा है, जिससे बम्बइया फिल्मों का असल चेहरा हमारे सामने दीखता है— साहित्य और फिल्मों का द्वंद्व ही नहीं एक लड़ाई, जिसमें प्रेमचन्द भी असफल हुए और कमॢशयलाइजेशन जीत गया। मज़े की बात यह कि इसका ठीकरा दर्शक यानी हम पर ही फोड़ दिया गया। अब आते हैं शैलेन्द्र और रेणु की तीसरी कसम पर! रेणु की कहानी की शुरुआत और फिल्म की शुरुआत अलग-अलग सी है। जहाँ रेणु की कथा कंट्रोल के ज़माने में कालाबाज़ारी और बाँस की लदनी का संकेत करते हुए उसकी दो कसमों का उल्लेख करती है, वहीं शैलेन्द्र की फिल्म ‘सजन रे झूठ मत बोलो..’ गीत से शुरू होती है।

लड़ने से कोई फायदा नहीं

इन दिनों फेसबुक पर एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें एक माँ अपने नवजात बच्चे को देशभक्ति गीत सुना रही है- ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा-हमारा।’ दुधमुँहा बच्चा माँ के मुँह से यह गीत सुनकर, अपनी माँ की तरफ देख-देखकर, मुस्कुराकर गाने की कोशिश कर रहा है। यह वीडियो इतना प्यारा लग रहा है कि अगर आप इसे एक बार देखें, तो पूरा देखे बगैर रह नहीं सकेंगे। इस वीडियो पर बहुत कम समय में हज़ारों लाइक और टिप्पडिय़ाँ आ चुकी हैं। आज सभी माता-पिता अगर बचपन से ही ऐसी शिक्षा बच्चों को दें कि उनके मन में देश के साथ-साथ भाईचारे और इंसानियत पैदा हो, तो शायद आने वाला समय नफरत से मुक्त हो। अगर ऐसा हो गया, तो केवल एक-दो देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया नफरत से मुक्त हो जाएगी और दंगे-फसाद, युद्ध, साज़िशें सब कुछ खत्म हो जाएगा। लेकिन ऐसा होना आसान नहीं है; क्योंकि कुछ लोग यह कभी नहीं चाहते कि लोग चैन से जीएँ। कहने को अक्सर कहा जाता है कि नफरत से यह दुनिया नहीं चलती, दुनिया प्यार से चलती है। लेकिन यह भी सच है कि नफरतें आजकल लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर इस कदर हावी होती जा रही हैं कि इसका नतीजा अनेक भयावह घटनाओं के रूप में हमारे सामने आये दिन आता रहता है। दरअसल नफरत की आग बड़ा नुकसान कर देती है और यह अगर एक बार लग गयी, तो फिर लाख बुझाने पर भी हमेशा के लिए बुझी नहीं रह सकती। क्योंकि नफरत की एक छोटी-सी ङ्क्षचगारी कभी भी भयंकर आग का रूप ले सकती है। रहीमदास जी ने कहा है-

 ”रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय,

टूटे तो फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय’’

आज के दौर में यह प्रेम का धागा जगह-जगह से टूटता जा रहा है, जिसे आने वाली नस्लें जोड़ नहीं पाएँगी। क्योंकि हम उनके दिलों में नफरत की आग सुलगा रहे हैं, और जो लोग यह आग सुलगा रहे हैं, वे सोचते हैं कि उनके पास पैसे और ताकत की ऐसी दीवारें हैं कि उनके घर कभी इस आग की चपेट में नहीं आएँगे। लेकिन यह गलत-फहमी है। आग नफरत की हो या असलियत की; उसका काम है कुछ-न-कुछ जलाना। इसलिए ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि वे चाहे जितनी भी दौलत बटोर लें, चाहें कितनी भी सुरक्षा में रह लें; लेकिन एक दिन वे भी इस आग की चपेट में आएँगे-ही-आएँगे। दरअसल, ये नफरत फैलाने वाले लोग संसार को जीतना चाहते हैं, उस पर शासन करना चाहते हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि नफरत और युद्ध से संसार जीतने की कोशिश करने वालों का अन्त बुरा हुआ है और आज भी लोग उनका नाम आदर से नहीं लेते। मेरा एक दोहा है-

 ”वाणी निर्मल कीजिए, सबसे करिए प्यार,

कड़ुवाहट से ‘प्रेम जी’ किन जीता संसार?’’

वास्तव में कड़ुवाहट से तो हम किसी एक व्यक्ति का दिल भी नहीं जीत सकते, तो फिर संसार को कैसे जीत सकते हैं? कड़ुवी भाषा इंसान तो क्या, पशु-पक्षी भी स्वीकार नहीं करते।

हमें किसी से नफरत इसलिए भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि नफरत से ङ्क्षनदा यानी मज़मत (किसी की बुराई करने के पाप) को जन्म देता है। इससे सामने वाले का नहीं, हमारा ही कद नीचा होता है।

संत कबीर दास कहते हैं-

 ”तिनका कबहू न ङ्क्षनदिये, जो पाँवन तर होय

कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय’’

अर्थात् तिनके की भी अवहेलना (ङ्क्षनदा) कभी मत कीजिए, उसे भी तुच्छ मत समझिए; जो कि पैरों के नीचे होता है। क्योंकि अगर कभी तिनका उड़कर आँख में पड़ गया, तो बहुत पीड़ा (दर्द) देगा। कहने का मतलब यह है कि कभी भी छोटे-से-छोटे इंसान या किसी प्राणी को भी कष्ट मत पहुँचाइए, उसका अपमान या शोषण मत कीजिए। क्योंकि यह मत सोचिए कि आप उससे शक्तिशाली हैं; वक्त बदला तो वही छोटा आदमी या प्राणी (जो तिनके के समान दिख रहा है) आपको भी विकट कष्ट पहुँचा सकता है।

बहुत-से लोग इस बात को नहीं समझते और वे अपने से छोटे लोगों या जीवों को हमेशा पैरों तले रौंदते रहने का काम करते रहते हैं। वे दूसरों को कभी मज़हब के नाम पर लूटते-पीटते हैं, तो कभी जातिवाद के नाम पर। ये वही लोग होते हैं, जिन्होंने मज़हबी दीवारों को खड़ा किया होता है; जो लगातार जातिवाद की विषबेल को सींचने का काम करते हैं। मगर ऐसे लोग भूल जाते हैं कि ईश्वर ने सभी को एक बनाया है और एक दिन उनको भी इस दुनिया से खाली हाथ विदा होना है। वे भूल जाते हैं कि जिस गलत काम को वे ज़िन्दगी भर करते हैं और जिस दौलत को पाने के लिए करते हैं, वह उनका साथ नहीं देगी। वे यह भी भूल जाते हैं कि वे जितनी महब्बत बाँटेंगे, उतने ही सम्मान और दु:ख के साथ लोग उन्हें विदा करेंगे।

ऐसे लोगों को समझना होगा कि मरने के बाद सोने की चादर में लपेटकर किसी को दुनिया से विदा नहीं किया जाता। चाहे कोई अमीर हो, चाहे गरीब, हर किसी को वही दो गज़ का सफेद कपड़ा यानी कफन ही ओढ़ाया जाता है। ऐसा नहीं है कि यह बात वे लोग नहीं जानते, जो दूसरों को तुच्छ समझते हैं और नफरतें फैलाते हैं। सब जानते हैं; लेकिन अपनी आदतों से बाज़ नहीं आते।

हाल के समय में यह सब खूब देखने को मिल रहा है। क्योंकि सत्ता और दौलत का नशा और लालच इन लोगों पर इस कदर हावी हुआ है कि वे इसके अलावा कुछ और देख ही नहीं पा रहे हैं। यही कारण हैं कि इसका अंजाम भी वे भूल बैठे हैं।

कुछ भी हो, ये ज़िम्मेदारी दुनिया के हर अच्छे इंसान की है कि वह इस नफरत की आग को न फैलने दे; ताकि ऐसे स्वार्थी और सत्ता के लालची लोग कामयाब न हो पाएँ। क्योंकि ऐसे लोग जितनी अधिक नफरतें हमारे बीच फैलाते जाएँगे, हम उतने ही कमज़ोर और दु:खी होते जाएँगे और हमारा जीवन नरक बनता जाएगा। क्या हमें ऐसा जीवन मंज़ूर होगा? नहीं। इसलिए आपस में लडऩे से कोई फायदा नहीं।