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आदिवासियों का जीवन बदलने वाले स्वास्थ्य शिविर

छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के ग्रामीण बाज़ारों, जिनको हाट-बाज़ारों के नाम से जाना जाता है; ऐसे दूरदराज़ और दुर्गम क्षेत्रों में आयोजित स्वास्थ्य शिविर के ज़रिये ‘स्वास्थ्य सेवा प्रणाली’ नये आयाम गढक़र लोगों को राहत पहुँचा रही है। ब्लड प्रेशर, मलेरिया और शुगर टेस्ट जैसी सुविधाएँ इन शिविरों में प्रदान की जा रही हैं। हर हफ्ते लगने वाले हाट में बड़ी तादाद में लोग जुटते हैं और यहाँ पर बेहद रंगारंग व खुशनुमा माहौल होता है।

राज्य के कोंडागाँव ज़िले में स्थित एनजीओ साथी समाज सेवी संस्था के भूपेश तिवारी ने कहा कि स्वास्थ्य शिविर के ज़रिये स्वास्थ्य और कुपोषण के लिए काम करने को आसानी से पहुँच बनायी जा सकती है।

एक बेहतर पहल

हाट बाज़ार स्वास्थ्य शिविरों के आयोजन के लिए 2011 में रामकृष्ण मिशन के साथ और 2012 में साथी के साथ यूनिसेफ ने भी साझेदारी की। वर्षों से इन शिविरों के माध्यम से कमज़ोर तबके के आदिवासी आबादी तक स्वास्थ्य सुविधाएँ पहुँचायी गयीं, जिससे इनको अपार लोकप्रियता मिली। यह सुविधा बस्तर जैसे इलाके में भी लोकप्रिय हुई, जिसे नक्सलियों का गढ़ माना जाता है। यूनिसेफ के इमरजेंसी ऑफिसर विशाल वासवानी के अनुसार, हाट बाज़ार स्वास्थ्य दिवस अवधारणा हाट बाज़ार टीकाकरण अभियान से सीधी पहुँच होती है; जो पहले ही ऐसे छूटे बच्चों या ज़रूरतमंदों को कवर करने के लिए चल रहा था।

तिवारी ने कहा कि दूरदराज़ के जनजातीय क्षेत्रों में बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच की स्थिति अब भी बहुत बेहतर नहीं है। कई बच्चों को टीकाकरण कवरेज से बाहर रखा जाता है; क्योंकि उनकी माँ उन्हें अपने साथ काम पर ले जाती हैं। साथी के लिए काम करने वाले प्रमोद पोटाई ने कहा कि शुरू में टीकाकरण की दर कम थी, हमें किसी तरह कुल कवरेज (आवृत्त क्षेत्र) सुनिश्चित करना था। ऐसे दुर्गम क्षेत्र में हमें बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और कई बच्चों को छोड़ दिया गया। हमारे रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए हाट बाज़ार टीकाकरण दिवस की अवधारणा की शुरुआत की गयी। इसने चीज़ों को आसान बना दिया। उन्होंने कहा कि आदिवासी अपने बच्चों के साथ खरीदने और बेचने के लिए साप्ताहिक बाज़ारों में जाते हैं, हम यहीं पर छूटे हुए बच्चों का भी आसानी से टीकाकरण कर देते हैं।

भूपेश तिवारी ने बताया कि छूट जाने वाले बच्चों के मुद्दे को ध्यान में रखते हुए हाट बाज़ार स्वास्थ्य शिविर शुरू किया गया और टीकाकरण कवरेज की पहुँच 92 फीसदी तक की गयी। धीरे-धीरे यूनिसेफ फंडिंग की मदद से इन शिविरों में ओपीडी सेवाएँ भी शुरू की गयीं। अब एक हाट बाज़ार के लिए हमें किट के साथ लगभग 1,500 रुपये मिलते हैं। हम नारायणपुर ज़िले के नारायणपुर ब्लॉक में पाँच स्थानों पर ऐसे शिविर लगाते हैं, जो लगभग 20 गाँवों को कवर

करता है। साथी की काउंसलर निशा निषाद ने बताया कि चूँकि आदिवासी बहुल इलाकों में ओपीडी सेवाएँ मानकों के अनुरूप नहीं है, इसलिए लोग गुणवत्ता जाँच, दवा और उपचार की माँग करते हैं। इसके बाद जब स्वास्थ्य शिविर शुरू हुए, तो उसका अच्छी प्रतिक्रिया और तारीफ  मिली। साथी के एक अन्य कार्यकर्ता अजय बैद्य ने बताया कि आमतौर पर ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों तक पहुँच के लिए बड़े बाज़ारों को चुना जाता है। लोगों को शिविरों में आकर्षित करने के लिए, तमाम सेवाओं की पेशकश के बारे में घोषणाएँ साउंड सिस्टम के ज़रिये हिन्दी के साथ ही स्थानीय बोलियों के माध्यम से की जाती हैं। शुरू में लोग इस ओर भागे चले आते थे क्योंकि यह इलाके में अपनी तरह की नयी पहल थी। लेकिन अब मरीज़ नियमित रूप से दूर-दराज़ के गाँवों से भी खुद आते हैं। शिविर सुबह 11 बजे से शाम 5 बजे तक लगाये जाते हैं। प्रत्येक शिविर में मरीज़ों की मदद के लिए स्वयंसेवक, परामर्शदाता और पर्यवेक्षक होते हैं।

यूनिसेफ के साझा किये गये आँकड़ों में कहा गया है कि 2014 से अब तक साथी ने इन हाट बाज़ार स्वास्थ्य शिविरों के माध्यम से 6,907 लाभाॢथयों तक पहुँच बनायी है। रामकृष्ण मिशन और साथी दोनों के साथ साझेदारी के तहत यूनिसेफ ने 2012 से अब तक कुल 39,61,800 रुपये के बजट के साथ 1,433 हाट, बाज़ारों में स्वास्थ्य शिविर आयोजित किये। लाभार्थियों की कुल संख्या 23,259 है; जिसमें मुख्य रूप से महिलाएँ और बच्चे शामिल हैं। इस बारे में तिवारी ने कहा कि लोगों के व्यवहार में बदलाव लाने में समय ज़रूर लगता है, लेकिन अब लोग हमारे पास खुद आते हैं।

राज्य सरकार की पहल

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ सरकार भी यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रही है कि गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच कमज़ोर जनजातीय आबादी तक हो सके।

इस सम्बन्ध में मुख्यमंत्री हाट बाज़ार क्लीनिक (औषधालय) योजना की शुरुआत 2 अक्टूबर, 2019 को की गयी। यह एक सरकारी पहल है, जिसका मकसद ऐसे जनजातीय क्षेत्रों को लक्षित करना है, जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच नहीं है। जनसम्पर्क आयुक्त तरन सिन्हा ने कहा कि कई बार आदिवासियों के पास डॉक्टरों की पहुँच के लिए चलने या गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुविधाओं का विकल्प की कमी होती है।

स्वास्थ्य शिविर की पहल की शुरुआत बस्तर से की गयी और अब यह पूरे राज्य में पहुँच रही है। मार्च 2020 तक लगभग 26,357 हाट, बाज़ार क्लीनिक आयोजित किये गये हैं और 91 लाख से अधिक लोग स्वास्थ्य लाभ से जोड़े गये हैं। इन शिविरों से लगभग 8 लाख रोगियों को लाभ मिला है। छत्तीसगढ़ का लगभग 44 फीसदी भाग वनों से घिरा है और राज्य की 31 फीसदी आबादी आदिवासी है; जिनमें कुपोषण दर सबसे ज़्यादा है। उप-स्वास्थ्य केंद्र एडका (नारायणपुर का एक गाँव) की सहायक नर्स/मिडवाइफ (उपचारिका)नीलमणि दत्ता ने कहा कि आदिवासी बहुल इलाकों में जागरूकता की कमी के कारण कुपोषण एक गम्भीर मुद्दा है। भूपेश तिवारी ने कहा कि इसकी मुख्य वजह लोगों के खानपान में आहार की विविधता का नहीं होना है। अक्सर गर्भवती महिलाएँ कुपोषित और एनीमिक होती हैं, और इस तरह कम वजन वाले शिशुओं को जन्म देती हैं। कुपोषण की समस्या से निजात पाने के लिए साथी अपने काम करने वाले क्षेत्रों में किचन गार्डन (शाक वाटिका) की अवधारणा को लोकप्रिय बनाने पर भी काम कर रही है।

अखरोट का स्वाद

हमें देर हो रही है, पति ने सुबह 8.30 बजे कन्धों से हिलाते हुए मुझे जगाने के अपने चौथे प्रयास में ज़ोर से मेरे कान के पास आकर कहा। मैंने अपनी एक आँख खोली और अपनी आरामदायक जयपुरी रज़ाई में दुबकने से पहले उन पर एक नज़र डाली। मेरे पति ने दीर्घ श्वास भरते हुए कहा कि डॉक्टर अपाइंटमेंट कैंसल कर देंगे। मैं पलटी और फिर और ज़्यादा गहरे से बिस्तर में सिमट गयी।

वर्षों की अनिद्रा और नतीजतन रोज़ नींद की गोली ने कुछ ऐसा कर दिया है कि मैं  भोर होते ही सो पाती हूँ। वास्तव में हम एक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक से मिलने के लिए आज सुबह 9.30 बजे इलाज के परामर्श के लिए जाने वाले थे। मेरे पति की तरह मेरे लिए चिन्तित उनके एक दोस्त ने डॉक्टर से अपॉइंटमेंट तय करवायी थी और हमारे ही साथ जाने वाला था। जैसे ही पति वहाँ से गये, मैं अलसायी आँखों के साथ लगभग लहराते हुए उठी। मैं सीधे वाशरूम में घुसी और वस्त्र बदलकर जैसे ही बाहर पहुँची, कार झटके से सामने आ खड़ी हो गयी।

मैं तुम्हें एक रहस्य बताऊँगी। बहुत कुछ है कि मैं अपनी अनिद्रा पर व्यथित होने का दिखावा करती हूँ, मुझे यह पसन्द है। रात मेरी है, जो मर्ज़ी मैं करूँ! पढऩा, लिखना, संगीत, कविता, कल्पना की उड़ानें, यह आनन्द से भरपूर है।

कार रुकी, हम क्लीनिक के भीतर पहुँचे, जहाँ डॉक्टर के जूनियर ने हमारा स्वागत किया। जैसे ही हम बैठे और प्रारम्भिक जानकारी दी। उसने कहा- ‘पृष्ठभूमि बताएँ।’ आयु, पेशा, रोग की हिस्ट्री जैसी तमाम जानकारियाँ दर्ज कर ली गयीं, तब मेरे पति ने गला खँखारते हुए कहा- ‘वह तब गुस्सा हो जाती हैं, जब मैं वाहन चलाते हुए फोन पर बात करने लगता हूँ या जब संगीत की ध्वनि बहुत ऊँची होती है।’ जूनियर लिखते हुए बुदबुदाया- ‘इसमें कुछ भी गलत नहीं।’ अपनी बात पर ज़ोर देने के लिए मेरे पति ने दोहराया- ‘वह तनाव से पीडि़त हैं, जब भी मैं थोड़ा तेज़ गाड़ी चलाता हूँ। वह बेचैन हो जाती हैं।’ जूनियर ने उनकी तरफ सख्ती से देखते हुए कहा- ‘तेज़ ड्राइविंग कुछ लोगों को तनाव में ला सकती है। यह सामान्य बात है।’

मेरे पति ने अपनी बात जारी रखी- ‘वह पार्टियों और शादियों में शामिल होना पसन्द नहीं करतीं।’ जूनियर ने लिखना बन्द कर दिया और मेरे पति को आँख मारते हुए देखा- ‘इसमें कुछ भी गलत नहीं है; कुछ लोग ऐसे होते हैं।’ मैंने कुछ दया भाव से अपने पति की तरफ देखा। कुछ भी उनके हिसाब से नहीं जा रहा है। मैं उनके कान में कहना चाहती थी कि वह हमारे डॉक्टर के पास जाने से पहले बहादुर बनें और कुछ संयम रखें। इस तरह यह यह सिर्फ अप्रिय विवरण भर था। भावुकतापूर्ण कथा सत्र कहीं और होगा; लेकिन मैंने खुद को रोक लिया। ज़ाहिर है, बेचारे मेरे पति ने डॉक्टर से इस अपॉइंटमेंट को अपने लिए एक अवसर के रूप में देखा, ताकि वह अपनी सनक-भरी सोच को स्थापित कर सकें। अपनी सारी परेशानियों की तुलना करने के लिए उन्हें कोई भी छोटा कारण चाहिए था। यहाँ तक कि कोइ जूनियर भी। उन्होंने बहुत बहादुरी से अपनी बात कहनी जारी रखी- ‘बच्चे जब आपस में झगड़ते हैं, तो वह बहुत परेशान हो जाती हैं।’ इस बार हम दोनों ने ही उनकी तरफ क्रोध भरी निगाह से देखा। जैसे ही डॉक्टर ने हमें अपने चैंबर में बुलाया, मेरे पति तुरन्त नीचे बैठ गये।

डॉक्टर ने हमें बैठाया और अपना ध्यान मेरी तरफ किया। रिकॉर्ड किये गये विवरण को पढऩे के बाद उन्होंने मुझसे पूछा- ‘आप क्या करती हैं?’ मैंने जवाब दिया- ‘मैं कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की प्रमुख हूँ।’ डॉक्टर ने कहा- ‘वो क्या होता है?’ मैंने विस्तार से ब्रांड मैनेजमेंट के बारे डॉक्टर को बताना शुरू किया; लेकिन मेरी बात बीच में काटकर बोले- ‘सब लिफाफेबाज़ी (बकवास) है जी।’ मैंने सवालिया निगाह से उनकी तरफ देखा, वह मेरी बीमारी या मेरे पेशे पर निर्णय सुना रहा था? उसने कहा- ‘ठीक है, हम यहाँ कोई भी ब्रांड मैनेजमेंट नहीं करते हैं।’ इस बार भौचक्का रहने की मेरी बारी थी (निश्चित रूप से, उससे यह यह उम्मीद नहीं थी। क्या वह डॉक्टर नहीं था?)। उसने कहना जारी रखा- ‘हम जिस पर विश्वास करते हैं और अभ्यास करते हैं, वह शुद्ध विज्ञान है।’ (निश्चित ही, और मैं चाहती थी कि वह अपनी साइंस से मुझे स्वस्थ करे; न कि कॉरपोरेट मैनेजमेंट, जिसमें मुझे निद्रा रोग दिया था।) अब तक मेरे पति एकदम शान्त बैठे थे, और इससे मैं उलझन में थी।

यहाँ कोई ब्रांड प्रबन्धन नहीं, मनोचिकित्सक ने दोहराया। शायद मुझे सहज करने के लिए! मैं हलके से मुस्कुरायी; बिना यह जाने कि मुझे क्या कहना चाहिए? वह मेरी ओर झुक गया और एक ऊँगली हिलायी- ‘हम जो अभ्यास करते हैं वह शुद्ध विज्ञान है; सूर्य के प्रकाश जैसी शुद्ध।’ ज़रूर! मैंने अपना सिर हिलाते हुए जल्दी से उसे आश्वस्त करने की कोशिश की।

मेरे पास कोई जादुई इलाज नहीं है। (मैं विज्ञान के व्यक्ति से किसी भी जादू की उम्मीद नहीं कर रही थी। मैं आँखों से ही उसकी बात को सहमति दी।) उसने मुझे चेताया और शायद चुनौती दी कि मैं विदेश में इलाज करवा लूँ- ‘कोई इलाज नहीं, यहाँ नहीं; विदेश में नहीं।’ मैं अपनी कुर्सी ठिठककर बैठी रह गयी; पराजित सी! देखो, मैं वह हूँ, जिसे मदद की ज़रूरत है। …मैं कहना चाहती थी, यह मेरे बारे में नहीं होना चाहिए।

पूरे सत्र के दौरान, मनोचिकित्सक ने मेरे पति को नज़रअंदाज़ कर दिया था, जो अब तक अपनी शिकायतों को रखने की कोशिश कर रहे थे। यह महसूस करते हुए कि अप्वाइंटमेंट जल्द ही खत्म होने वाला था, वह अन्दर ही अन्दर घुट रहे थे। यह सिर्फ अनिद्रा नहीं थी; जिससे इलाज की मुझे ज़रूरत थी। मुझे स्पष्ट रूप से एक पेशेवर से बात करने की सख्त ज़रूरत थी; ताकि वह मुझे उस ठप्पे से बाहर निकाल सके, जिसमें मुझे समाज विरोधी संज्ञा दे दी गयी थी। मेरे खिलाफ उसके सामाजिक कार्यों या शादियों में शामिल नहीं होने या रिश्तेदारों से नहीं मिलने पर क्रोध जताने का कभी वांछित असर नहीं हुआ था; उलटे इसके विपरीत ही हुआ था। मैं पूरी ताकत लगाऊँगी और जाने से मना कर दूँगी।

अब यदि मनोचिकित्सक मेरे लम्बे समय तक पीडि़त होने की मेरे पति की शिकायतों का समर्थन करता है, तो निश्चित रूप से मेरे पास अपने तरीकों की त्रुटि को देखने और उन्हें दूर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। जैसे ही पति के मुँह से मेरी शिकायतों का पिटारा निकला, उनकी आवाज़ तब तक नहीं रुकी जब तक सब कुछ कह नहीं दिया- ‘डॉक्टर साहब! वह बहुत जल्दी तनाव में आ जाती हैं। अगर मैं तेज़ी से गाड़ी चलाता हूँ, या अगर लडक़े लड़ रहे होते हैं।’ अब तक मुझे एहसास हो गया था कि यह उनके लिए भी अच्छा नहीं रहेगा। मैं मुस्कुराते हुए, अपनी बाहों को बाँधते हुए इत्मीनान से आराम की मुद्रा में कुर्सी पर बैठ गयी, जैसे कोई अच्छा निश्चिन्त दर्शक बैठता है। मनोचिकित्सक ने मुडक़र मेरे पति को अविश्वास से देखा, उनकी नज़र मेरे पति को डगमगा देने के लिए काफी थी। उसकी ओलती बन्द ही हो गयी, जब मनोचिकित्सक ने कहा- ‘क्या आपको पता है कि बाहर (विदेश में) वे बहुत समझदार हैं? यही कारण है कि वे किसी को भी अकेले नहीं जाने देते, सिवाय रोगी को डॉक्टर के पास परामर्श लेने के जाने के। वे ध्यान नहीं भटकाते। यहाँ तो कोई भी मरीज़ के साथ-साथ चल सकता है।’ जब मैं इस सारी बातचीत का आनन्द ले रही थी, उसका जूनियर भीतर आया और उसे अन्य मरीज़ों के साथ अप्वाइंटमेंट की याद दिलायी। अनिच्छा के साथ उन्होंने मेरे पति को छोड़ हमारी तिकड़ी के तीसरे सदस्य, हमारे दोस्त को देखा। राहत से भरे मेरे कमज़ोर पड़ गये पति ने अपने माथे का पसीना पोछने के लिए जेब से रूमाल निकाल लिया। उसके बाद उनके मुँह से एक शब्द नहीं निकला।

डॉक्टर ने मेरे दोस्त की तरफ रुख किया- ‘तुम क्या करते हो?’ दोस्त ने जवाब दिया- ‘मैं जीवन कौशल प्रशिक्षक हूँ।’ उन्होंने कहा- ‘हाँ, बहुत खुशी हुई। लेकिन इसका क्या फायदा? आप अपने दोस्त को कोई भी जीवन कौशल प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं; वह सो नहीं सकती।’ यह कहते डॉक्टर ने मेरी तरफ इशारा किया। मेरी मित्र ने अपनी शॄमदगी छिपाने की कोशिश की; लेकिन समझदारी दिखाते हुए कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने हमें कुछ और व्याख्यान दिये, मेरे लिए कुछ नुस्खा लिखा और हमें विदा कर दिया। जब हम घर लौटे, तो मेरे पति बहुत शान्त और हतोत्साहित थे। जिसे उन्होंने आसान समझ लिया था, वो अखरोट उनके लिए बहुत कठोर साबित हुआ था। और यह तो पत्नी को वश में करने के लिए उनकी तुरुप का पत्ता था; लेकिन अफसोस वह मौका चूक गये थे।

‘इतनी चिन्ता मत करो, दवा काम करेगी, यह कहकर मैंने उन्हें खुश करने की कोशिश की, मन-ही-मन हॢषत होते हुए कि मेरी रातें अभी भी सुरक्षित थीं; लेकिन मेरी असामाजिक गतिविधियाँ बगैर सज़ा के जारी रह सकती हैं। घर पर अब मेरे खिलाफ कम ही युद्ध होंगे और मेरी खोई नींद मेरी मानसिकता को ग्रहण लगाने के लिए जल्द ही वापस आने वाली नहीं थी। मेरे दयनीय पति का सम्भवत: एक ज़्यादा बड़े अखरोट से सामना हो गया था! एक मनोचिकित्सक से मदद की उन्हें शायद मुझसे ज़्यादा ज़रूरत थी।

शोषण और अत्याचार के विरुद्ध एक आन्दोलन

झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा समेत मध्य भारत के आदिवासी हर साल ‘हूल दिवस’ मनाते हैं। वैसे यह आन्दोलन लम्बा चला था, लेकिन आदिवासी इसे 30 जून को मनाते हैं। संथाली भाषा में हूल का अर्थ होता है- विद्रोह यानी शोषण, अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना। हूल दिवस को हूल क्रान्ति, संथाल विद्रोह आदि नामों से भी पुकारा जाता है।

दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 30 जून, 1855 एक महत्त्वपूर्ण दिन था। इस दिन बंगाल प्रेसिडेंसी के इलाके में संथाल आदिवासियों ने भोगनाडीह में 400 गाँवों के लगभग 50 हज़ार संथालों ने घोषणा की कि वे अब अंग्रेजी हुकूमत यानी ईस्ट इंडिया कम्पनी को मालगुज़ारी नहीं देंगे। वर्तमान में यह क्षेत्र झारखण्ड के संताल परगना डिवीजन के साहिबगंज ज़िले के बरहेट प्रखण्ड के भोगनाडीह में है।

इस क्रान्ति के लिए अंग्रेजी हुकूमत ज़िम्मेदार थी। क्योंकि 1793 में ब्रिटिश भारत के तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड कार्नवालिस ने परमानेंट सेटलमेंट एक्ट के तहत बंगाल, बिहार, ओडिशा तथा वाराणसी व अन्य इलाकों में ज़मींदारी व्यवस्था की शुरुआत की थी। इसके तहत अंग्रेजों ने ज़मींदारों को निश्चित इलाके देकर कम्पनी साम्राज्य के प्रतिनिधि के रूप में लोगों को नियंत्रित करने तथा उनसे मालगुज़ारी वसूलने का अधिकार दिया था। संथालों की आॢथक जीवनशैली अंग्रेजों के आने के पहले छोटे-छोटे जंगलों को काटकर खेती करने, शिकार एवं जंगली उत्पाद पर निर्भर थी। ब्रिटिश अफसरों, उसके एजेंट ज़मींदारों और भारी सूद पर कर्ज़ देने वाले साहूकारों द्वारा लगातार शोषण, अत्याचार, अन्याय से तंग आकर संथालों ने स्थानीय दरोगा से शिकायत करनी शुरू की। संथालों की इस शिकायत सभा का नेतृत्व भोगनाडीह निवासी और उस समय के भूमिहीन ग्राम प्रधान चुन्नी मंडी के चार पुत्र- सिदो, कान्हू, चाँद, भैरव और , दो पुत्रियाँ- फूलो व झानो कर रहे थे। यह शिकायत की प्रक्रिया लगातार पाँच वर्षों तक चलती रही और पूरा तंत्र बहरा बना रहा। जब अति हो गयी, तब 30 जून 1855 को सिदो व कान्हू के नेतृत्व में 50 हज़ार की संख्या में संथाल आदिवासी (नर-नारी) पारम्परिक हथियारों से लैस होकर बरहेट, संथाल परगना, झारखण्ड के भोगनाडीह गाँव में जमा हुए और इस शोषण, अत्याचार, अन्याय के विरुद्ध लड़ाई लडऩे और मालगुज़ारी नहीं देने का बीड़ा उठाया तथा ‘अबुआ दिशुम, अबुवा राज’ (अपना देश, अपना राज्य) की स्थापना करने की शपथ ली। इस हूल यानी विद्रोह के दौरान में संथालों ने खुद की सरकार बनाने की भी घोषणा कर दी; जिसे उस समय के अंग्रेज इतिहासकार समानांतर सरकार की घोषणा के रूप में देखते हैं। इस हूल क्रान्ति का मूल उद्देश्य था- स्वयं की कर वसूली करने की व्यवस्था लागू करना तथा अपनी परम्पराओं के हिसाब से कानून बनाना।

जब अंग्रेजों को इसकी जानकारी मिली, तो उन्होंने एक दरोगा को सिदो, कान्हू, चाँद, भैरव को गिरफ्तार करने के लिए भेजा, लेकिन संथाल विद्रोहियों ने उसका सर कलम कर दिया। इसके बाद ब्रिटिश कम्पनी के कई एजेंटों, ज़मींदारों, साहूकारों पर हमले हुए। अंग्रेजों ने सिदो और कान्हू की गिरफ्तारी के लिए तब 10 हज़ार रुपये की इनाम की घोषणा की; जो उस समय के लिहाज़ से बहुत अधिक थी। जब इससे भी बात नहीं बनी तो ब्रिटिश कम्पनी ने बड़ी फौज भेजी, जिसमें कई भारतीय ज़मींदारों और मुॢशदाबाद के नवाब ने अंग्रजी हुकूमत की मदद की थी। हूल में शामिल संथालों के साथ-साथ ग्वालों, लोहारों के घरों को भी तोड़ा गया; लेकिन वे दमन के बावजूद हूल क्रान्ति का समर्थन करते रहे।

जुलाई 1855 से जनवरी 1856 के बीच कई युद्ध हुए। इस पूरे विद्रोह में करीब 60 हज़ार संथालों ने हिस्सा लिया, जिसमें से करीब 20 हज़ार मारे गये थे। इस लड़ाई में चाँद और भैरव वीरगति को प्राप्त हुए और बाद में सिद्धो और कान्हो को गिरफ्तार करके 26 जुलाई को उनके गाँव में ही सरेआम पेड़ से लटकाकर फाँसी दे दी गयी।

संताल हूल इतना शक्तिशाली और प्रभावशाली था कि इससे पूरा ब्रिटिश सम्राज्य हिल गया और ब्रिटिश शासकों को इस क्षेत्र की सामाजिक, भौगोलिक तथा आॢथक स्थिति के बारे में गम्भीरता से पुनॢवचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस संथाल हूल के परिणामस्वरूप 22 दिसंबर, 1855 को संताल परगना ज़िले का गठन वर्तमान बंगाल, बिहार, झारखण्ड राज्यों के कुछ हिस्सों को लेकर हुआ। हालाँकि अब इसको छ: ज़िलों में बाँट दिया गया है; लेकिन संताल परगना डिविजन के रूप में यह अभी भी अस्तित्व में है। इसी संथाल हूल के फलस्वरूप एसपीटी एक्ट भी अस्तिव में आया। संथाल हूल में सिदो, कान्हू, चाँद, भैरव, फूलो, झानो (एक ही परिवार के शहीद) और उनके असंख्य अनुयायियों ने देश के नाम अपने प्राण त्याग दिये। इस संथाल हूल में सिर्फ आदिवासी ही नहीं, बल्कि अन्य सभी सम्प्रदाय के लोगों ने भी बढ़-चढक़र हिस्सा लिया और देश के लिए हँसते-हँसते शहीद हो गये।

संथाल हूल के 165 वर्ष हो गये; लेकिन झारखण्ड के मूलवासी और आदिवासी विशषेकर ग्रामीण लोग अभी भी विकास से कोसों दूर हैं। आज़ादी मिली, झारखण्ड मिला; लेकिन यहाँ गाँवों में अभी तक मूलभूत समस्याएँ मौज़ूद हैं। पेयजल, बिजली, शिक्षा, दूरसंचार, ङ्क्षसचाई व्यवस्था की कमी के अलावा यहाँ ढाँचागत समस्याएँ अभी भी है। फिर भी आदिवासी हूल शहीदों की याद में इस उम्मीद से हूल दिवस मना रहे हैं कि कभी-न-कभी विकास की बयार उन तक पहुँचेगी। यह दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के नज़रिये से ही नहीं, बल्कि मानव सभ्यता के दो अलग-अलग रूपों के बीच टकराव को लेकर भी खास माना जाता है। बावजूद इसके भारतीय इतिहास में इसकी चर्चा कम देखने को मिलती है। भारत में आदिवासी समुदाय की वर्तमान परिस्थितियों, उनके जल-जंगल-ज़मीन बचाओ अभियान के मद्देनज़र हूल क्रान्ति के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को रेखांकित करना ज़रूरी हो गया है।

खजूरे का हिंदी साहित्य

रे खजूरे…!

जी हुज़ूर!

एक बात बताओगे?

पूछैं हुज़ूर! नाचीज़ ज़ोर लगायी देई, शंका के समाधान में।

यह साहित्य क्या चीज़ है; जानते हो?

अरे सरकार! …ई तौ बहुत पवित्र चीज़ है। कहा जात है कि ई समाज कै आईना है। आनंददायी वस्तु मानी जात है। गुँसाई जी कै रमैन ही देख लिया जाय सरकार! इहै सब साहित्य है।

आजकल कूड़ा साहित्य सुनने में भी आ रह है…; तो पवित्र चीज़ कूड़ा कैसे है?

सरकार! ई आलोचकन कै आपन-आपन विचार और कद के अनुसार मत हैं। जेकर जइसन सोच, ऊ वइसै बोल देत है। पहिले एक जने कहे रहेन कि पन्त वाला साहित्य कूड़ा है।

पल्लव पाती देखि के कह्य दिहे होइहैं। काहे से कि ई पल्लव पाती तो गिर-पडि़ के बाद में कूड़ै तौ होई जात है। आजकल एक जने कहत हयन की प्रेमचंदौ वाला कूड़ा है। हालाँकि आप जौन ऊ मस्तराम पड़त हैं; उहौ कूड़ा है। …अइसन विद्वान लोग बतावत हैं।

अच्छा छोडो, छोड़ो; यह बता खजूरे कि यह कबीरदास कौन था?

सरकार! ऊ विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से जन्म लिहे रहा। …यही से बहुत गियानी रहा। बाद में जोलाहा होई गय रहा। काहे से वोकी माई विधवा रही, जब ऊ भय रहा। …औ सरकार! यही से वोकी माई वोका फेंक दिहे रहिन। ऊ जौन कहानी दुर्जोधन के वीर साथी कर्ण कै रही। यही से तौ कबीर आलोचकन कै नज़र में गड़त रहा।

यह कबीर कौन-सी भाषा में लिखता था?

अरे सरकार! …ऊ तौ अवधी, भोजपुरी, ब्रज, राजस्थानी, मारवाड़ी, पंजाबी, खड़ी बोली, और न जानै कौन-कौन सी भाखा में लिखत रहा। बहुत घुमक्कड़ रहा; यही से बहुतै भाखा सीख लिहे रहा। लेकिन अनपढ़ रहा सरकार! …यही से।

यही से क्या?

जाये देव सरकार!

हम्म…!

खड़ी बोली… हम्म! तो यह खड़ी बोली का आरम्भ कबसे था?

अब देखा जाय तौ आधुनिकै काल में माना जात है सरकार! भारतेंदु बाउ एंका नयी चाल में दौड़ायन; लेकिन पहिलवौं कौनो-कौनो यहमा लिखत रहेन। ऊ आदिकाल में अमीर खुसरो रहा न! …उहौ लिखत रहा। अउरो रहेन केहू-केहू जे लिखत रहेन; लेकिन दूर-दूर कै लोग रहेन।

तो इसका आरम्भ अमीर खुसरो से क्यों नहीं?

अरे सरकार! वोसे कइसे माना जाए सकत है…, ऊ तौ…।

हम्म! …खजूरे यह पहली कहानी कौन सी थी?

ऊ यस है कि यह में बहुतै विवाद है सरकार!

तो बताओ क्या है विवाद?

एकै निर्धारण तौ अब तक ना होय पाय है सरकार! कि पहिली कहानी कौन है? लेकिन गोस्वामी जी कै ‘इन्दुमती’, माधवराव जी कै ‘एक टोकरी भर मिट्टी’, भगवानदास वाली प्लेग कै ‘चुड़ैल’, शुकुल वाली ‘ग्यारह वर्ष का समय’ औ ‘बंग महिला’ कै दुलाई वाली, …यही सब कै चर्चा कीन जात है सरकार! एकरे पहिलवों केहू-केहू कहानी लिखत रहेन। जेहमा इंशाअल्ला खान ई सबसे 100 साल पहिलवैं ‘रानी केतकी की कहानी’ लिखे रहेन।

तो इंशाअल्ला की कहानी पहली कहानी क्यों नहीं?

आजकल केहू-केहू उनके ई कहानी कै चर्चा करत हैं। …ऊ यस रहा सरकार! कि खान साहब लिखे तौ रहेन बहुत पहिले, औ कहानी के नमवै में कहानी धै दिहे रहेन जौन हइकै; लेकिन खाली इहै कै दिहे से कहानी थोड़े न होई जात है। आलोचकन बतावत हैं कि यहमा कहानी कै तत्त्वै न है। काहे से यह में घटनाएँ पायी गयन हैं; औ उहौ समयानुक्रम में निबद्ध है। यही से आलोचकन सब कहिन कि ई तो फिटै न है।

कहानी पढ़े हो यह?

(खजूरा खींसे निपोरकर) ही..ही…ही….; नाहीं सरकार!

अच्छा यह मातृभाषा क्या है?

मातृभाषा मादरी ज़बान होत है सरकार!

मेरी मातृभाषा क्या है?

आजकल तो कौनो न रहि गय सरकार! आजकल तौ खड़ी बोलियै चलत है सरकार! उही में आप बतियौबो करत हैं, औ सपनवौ तौ अब आपके उही भाषा में आवत है। पहिले ई मातृभाषा सबके अलग अलग रहै। केहू कै अवधी, केहू कै भोजपुरी, केहू कै मैथिली, मगही, ब्रजी…, इहै सब।

ठीक है खजूरे! …चलो अब स्नान करता हूँ। तुम गम्भीर अध्येता हो।

आवा जाय हुज़ूर!

(लेखक असम विश्वविद्यालय के रवीन्द्रनाथ टैगोरे स्कूल ऑफ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज में अध्यापक हैं और आधुनिक हिन्दी की छ: लम्बी कविताओं पर जे.एन.यू., दिल्ली से पीएच.डी.

कर रहे हैं)

आत्मनिरीक्षण के लिए मौन की आवश्यकता

वह हर तरह की चुप्पी से परिचित थी। एक घंटे से अधिक समय तक रिया जाग रही थी। दिसंबर का आखरी हफ्ता था। सर्दियों के मौसम में बिस्तर छोडऩे के लिए उसकी अनिच्छा तेज़ी से बढ़ती जाती है। सर्दियाँ उसे सुस्त बनाती हैं और उसका कुछ करने का मन नहीं करता। विस्तर में दुबके होने के बीच ऐसे खराब और ठण्डे मौसम में बाहर निकलने के प्रति उसकी अनिच्छा स्वाभाविक ही थी। अपनी बाँह को बाहर निकालने के लिए उसे संघर्ष-सा करना पड़ा और उसने मोबाइल को टटोलकर समयदेखा। सुबह के 5:46 बजे थे। उसके मस्तिष्क ने गणितीय अंदाज़ में काम करना शुरू कर दिया।

उसने हिसाब लगाना शुरू किया। बिस्तर समेटने, व्यायाम करने और स्नान करने के लिए 30 मिनट, रसोई में और 30 मिनट, ईश्वर की प्रार्थना करने के लिए 10, पोशाक इस्त्री करने के लिए  भी 10 और लगभग इतने ही मिनट तैयार होने के लिए। यानी कुल मिलाकर करीब-करीब 85 मिनट। यदि कुछ मिनट दाएं-वायें भी होते हैं तो भी वह लगभग 7:45 बजे तक घर से निकलने के लिए तैयार हो ही जाएगी, यानी अभी और 15 मिनट तक वह विस्तर की इस मीठी-सी गर्माहट का आनन्द ले सकती है। जितने काम उसने गिने थे; उतने ही शॉर्टलिस्ट हुए। सर्दियों का मौसम दिन के लिए उसकी गतिविधियों की सूची को कम कर देता है। इस समय 8 बजने को 5 मिनट हैं और अपने दैनिक साथी अपनी बास्केट के साथ वह कार में घुसी, दायें-बायें हिलकर सीट पर सही-से बैठी; चाबी को इग्निशन में डाला, गियर स्टिक में आवश्यक बदलाव किये, कुँजी को घुमाया और अपने कार्य स्थल की ओर रवाना हो गयी।

पिछले कुछ दिनों की तरह आज भी उसके दफ्तर जाने वाला रास्ता घनी धुंध में सिमटा था। वह सडक़ को ठीक से नहीं देख पा रही थी। 20 फीट दूर भी कुछ देखना मुश्किल था। सडक़ पर बहुत कम वाहन थे, और कमोवेश सभी की या तो हेडलाइट्स जल रही थीं या पीली फॉग लाइट्स।

वातावरण में चारों ओर अजीब-सा सन्नाटा और आलस्य था। धुंध ने वास्तव में एक विचित्र या कहिए भयानक-सा वातावरण बना दिया था। लेकिन रिया सामान्य थी। यह उसके लिए नया नहीं था। वह हर तरह के मौन और आलस्य से परिचित थी। कोई उसे खामोश रहने वाली कह सकता है। ईमानदारी से कहूँ तो, उसे चुप रहने या ज़ोर से बोलने वाली लडक़ी के रूप में परिभाषित करना थोड़ा मुश्किल है। वास्तव में उसके दोनों ही रूप हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ज़्यादातर मौन ही उसका सहभागी रहा है। अधिक सही तरीके से कहा जाए, तो मौन ने उसे एक परिपक्व व्यक्तित्व में बदल दिया था; जो आसानी से अपने आसपास के किसी भी अवांछनीय व्यवहार को सहन कर सकती थी। एक समय था, जब उसकी दिनचर्या से आसपास के लोग अच्छी तरह परिचित थे। कई बार उसकी सराहना की जाती थी, लेकिन कई बार लोग उसकी प्रशंसा करने में खुद को कठिनाई में पाते थे। चुप्पी के साथ उसका पहला साक्षात्कार तब हुआ जब उसने अपने आसपास के कुछ लोगों से पीड़ा और नाराज़गी अनुभव की।

एक बार जब वह चुप थी, उसने महसूस किया कि किसी को इसकी परवाह नहीं है। कुछ दिनों के लिए उसे चुप्पी में पीड़ा महसूस हुई। बाद में वह एक पूरी तरह से अलग व्यक्तित्व के रूप में विकसित हुई। उसने हर काम और सम्बन्ध में जीवन के नये पहलुओं की खोज की। वह लोगों और स्थितियों का अवलोकन करने लगी। मौन ने उसे नियंत्रित और मानसिक रूप से मज़बूत व्यक्ति बनाया।

कभी-कभी वह अपनी पुरानी आदत के प्रभाव के कारण बोलना चाहती थी, लेकिन बहुत सोचती थी कि यदि वह बोलती है, तो लोग उसे जज करेंगे और ध्यान से देखेंगे।  इस सोच ने रिया को चुप करा दिया। वह वास्तव में विचार और अभिव्यक्ति के बीच अदृश्य सम्बन्ध से प्रभावी ढंग से निपटना सीख गयी।

दिन बीतते गये। उसकी चुप्पी ने उसकी रचनात्मकता को बढ़ा दिया। उसने न केवल अपने घर और कार्यस्थल की साज-सज्जा की, बल्कि इसमें खर्चा भी नहीं किया। कुछ न सोचने की मानसिकता के साथ उसकी चुप्पी ने उसकी रचनात्मकता को पर लगा दिये।

उसके आसपास के बदले परिवेश ने उसे केंद्रित रहने के लिए मजबूर कर दिया और वह अपनी क्षमताओं को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी, जो विभिन्न कार्यों के लाखों विचारों और सराहनीय आउटपुट के रूप में दिखायी दीं।

एक बार अपनी चुप्पी को लेकर आत्मनिरीक्षण करते हुए उसने महसूस किया कि भावनात्मक रूप से उग्र परिस्थितियों में उसने कई बार आहत करने वाले अंदाज़ में जवाब दिया, जो बाद में भविष्य में उन सम्बन्धों को बनाये रखने के मामले में खतरनाक साबित हुआ।

उसने यह भी महसूस किया कि कभी-कभी वह अपने दोस्तों और रिश्तेदारों पर भावनाओं का ज्वार उमड़ा रही थी; लेकिन कोई भी विचारशील या आशान्वित नहीं था। उनकी तरफ से कभी कोई सराहनीय प्रतिक्रिया नहीं हुई। इस अवलोकन ने उसे और अधिक मौन कर दिया, और उसने जाना कि उसके आस-पास के लोग बहुत व्यस्त हैं तथा उनके पास आपकी भावनाओं के लिए समय नहीं है।

उसने मौन में जीवन के नये आयाम पाये। अब वह विभिन्न स्थितियों में लोगों को देखना पसन्द करने लगी थी।

विश्लेषण अद्भुत थे और उसने सहानुभूति की गुणवत्ता विकसित की। अब वह हर पल लोगों के नकारात्मक लक्षणों के बावजूद लोगों की मदद करने की कोशिश कर रही थी।

उसके जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि उसकी चुप्पी ने उसे अकेला कर दिया था। वह अपने आसपास के लोगों की मदद करने से कभी पीछे नहीं हटी। लेकिन उसने यह भी कभी पसन्द नहीं किया कि वे उसे लम्बे समय तक घेरे रहें। उसने कभी किसी कोने से उसे मिली तालियों की गडग़ड़ाहट की परवाह नहीं की। वह अब मान्यता मिलने के आकर्षण से बहुत दूर थी। वह कुछ मौन क्षणों के साथ खुद का इलाज करना पसन्द करती थी; जो ज़बरदस्त रूप से उसे सभी आवश्यक चीज़ों के लिए रिचार्ज करने में सक्षम थे।

मैं आपके जीवन में पूरी तरह से मौन का पालन करने की वकालत नहीं कर रही हूँ। लेकिन हाँ, एक सप्ताह में कुछ घंटों की चुप्पी आवश्यक है; ताकि आप अपने वर्तमान का विश्लेषण कर सकें, जिससे कि आपके भविष्य के कार्यक्रम को जीवन के किसी स्वरूप में फिर से तैयार कर सकने में मदद मिले।

उदाहरण के लिए, किसी मुद्दे पर दृष्टिकोण के लिए आपको चुपचाप पीछे हटने और छिपे हुए तथ्यों को महसूस करने की आवश्यकता हो सकती है। यह निश्चित रूप से मुद्दे पर आगे बढऩे में ताॢकक रूप से मदद करेगा।

समझौता करते हुए बस अपना विचार प्रस्तुत करें और चुप रहें। दूसरे व्यक्ति को किसी निष्कर्ष पर पहुँचने पर्याप्त समय मिल जाएगा।

कुछ स्थितियों में एक व्यक्ति खुद से लड़ रहा है। उस व्यक्ति को बोलने की अनुमति देना बेहतर है कि आपको चुप रहना चाहिए; क्योंकि दूसरा व्यक्ति यह सुनने की स्थिति में नहीं है कि आपको क्या कहना है?

कभी शान्ति बनाये रखने के लिए अपनी भावनाओं को भीतर कहीं दबा लें, चुप रहें और खुद को व्यक्त करने के लिए सही समय की प्रतीक्षा करें।

सबसे अहम है- मौन के कुछ क्षण आवश्यक हैं। क्योंकि वे आपके भीतर की उत्तेजना को हल्का करने में मदद करेंगे और आपकी आत्मा को उन सभी जैविक और अजैविक घटकों के साथ सामंजस्य बनाने के लिए विचारशीलता के उच्च स्तर तक ले जाएँगे; जिनके साथ आप धरती माता के दिये वरदानों को साझा कर रहे हैं।

मुझे उम्मीद है कि आप सभी समकालीन दुनिया में मौन के महत्त्व और आवश्यकता को समझेंगे, जहाँ जीवन हर पल विकसित होती, तेज़ी से बदलती परिस्थितियों और परिदृश्यों के साथ तालमेल रखने के लिए अंतहीन संघर्ष कर रहा है। आत्मनिरीक्षण करते रहें!

इंसानियत ज़िन्दा रहेगी

जबसे कोरोना वायरस नाम की महामारी फैली है, तबसे बहुत-से लोग इसे मज़हबी रंग देने की कोशिशों में लगे हैं। कुछ लोग ऐसे लोगों के बहकावे में आ भी रहे हैं।  इसका नतीजा सोशल मीडिया पर फैल रही मज़हबी नफरत से लेकर मॉब लिंचिंग होने तक के रूप में हमारे सामने आ रहा है। अब तो हाल यह हो गया है कि देश में किसी तरह का अपराध करने वालों को भी मज़हबी चश्मे से देखा जाने लगा है। इसी के चलते महाराष्ट्र में पीट-पीटकर की गयी दो साधुओं की हत्या से लेकर उत्तर प्रदेश में की गयी साधुओं की हत्या और हाल ही में उत्तर प्रदेश में ही मॉब लिंचिंग में मार दिये गये एक युवक तक के मामले में मज़हबी भेदभाव की सियासत हावी रही है।

अगर कोई किसी भी घटना को मज़हबी चश्मा हटाकर देखने की कोशिश करता भी है, तो उसे मज़हबी नफरत की दुर्गन्ध फैलाने वाले बर्दाश्त नहीं करते। सोशल मीडिया पर आये दिन इसी को लेकर बहसबाज़ी और गाली-गलौज तक होती रहती है। मज़हबी नफरत फैलाने वाला तबका इस अभद्रता का सूत्रधार होता है। सच तो यह है कि ऐसे तबके हर मज़हब में हैं, जिन्हें खड़ा करने वाले या तो सियासी हैं या फिर मज़हबों के ठेकेदार। ये वे लोग हैं, जो कई मुखौटे ओढ़े हुए हैं। बाहर से हमेशा विनम्र दिखने वाले ये लोग अन्दर से उतने ही क्रूर हैं। इनके संरक्षण में दहशतगर्द, दंगा-फसाद करने-कराने वाले, बड़े-बड़े माफिया से लेकर छोटे-मोटे स्तर पर गुण्डागर्दी करने वाले लोग तक रहते हैं; जिनका काम सिर्फ और सिर्फ इंसानों को तोडऩा और किसी-न-किसी तरह उन्हें लूटना है। मज़हबी भाँग के नशे में या लालच में हर समाज का एक बड़ा तबका ऐसे ही लोगों के बहकावे में फँसा रहता है, जो इन लोगों के द्वारा लगायी गयी आग में घी डालने का काम बड़ी आसानी से करता है। यही वजह है कि नफरत दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। लेकिन नफरतों के आज के माहौल में कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो सभी के साथ एक जैसा मोहब्बत भरा भाईचारे का व्यवहार करते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब और देश की एकता पसन्द है। ये वे लोग हैं, जो जानते हैं कि देशविरोधी ताकतें काफी मज़बूत हो चुकी हैं और वो अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक गिर सकती हैं। कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, अगर कहा जाए कि मज़हबी नफरत फैलाकर लोगों को तोडक़र सियासत का घिनौना खेल खेलने वाली ये सियासी ताकतें लोगों की लाशों पर खड़े होकर ही तैयार हुई हैं।

लेकिन नफरत कितनी भी बढ़ जाए, यह तय है कि मोहब्बत ज़िन्दा रहेगी; इंसानियत ज़िन्दा रहेगी। इसके कुछ उदाहरण हाल ही चन्द घटनाओं के तौर पर देखे जा सकते हैं। मसलन, कोरोना वायरस के संक्रमणकाल में कुछ हिन्दुओं की मौत पर अनेक मुस्लिमों ने उनके शवों को काँधा दिया। हाल ही में मरे एक पुजारी तक को अनेक हिन्दुओं ने हाथ नहीं लगाया, तब कुछ मुस्लिम युवक आगे आये और पुजारी का अन्तिम संस्कार कराया। इसी तरह एक नवजात की जान बचाने के लिए एक मुस्लिम युवक ने दिन में ही रोज़ा खोलकर बच्ची को खून दिया। वहीं कई हिन्दू भी मुस्लिमों के लिए फरिश्ता बन चुके हैं। अनेक हिन्दू उन मुस्लिमों के पक्ष में लगातार खुलकर बोल रहे हैं, जिन पर अत्याचार हुए हैं या जो निर्दोष होते हुए भी सज़ा-प्रताडऩा  भुगत रहे हैं।

एक बार गुरु नानक देव किसी गाँव में पहुँचे,  वहाँ के लोग सन्तों का अपमान करने वाले, अभद्र और झगड़ालू थे। उन्होंने गुरु नानक देव और उनके शिष्यों का जमकर तिरस्कार और अनादर किया। उन्हें अपशब्द कहे। जब गुरु नानक देव वहाँ से चलने लगे, तो कुछ लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि उन्हें आशीर्वाद नहीं देंगे? इस पर गुरु नानक देव ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘आबाद रहो!’ उसके बाद गुरु नानक देव  निकट के एक दूसरे गाँव में गये। वहाँ के लोग नेकदिल, भले, संस्कारवान और ईश्वर में आस्था रखने वाले थे। उन लोगों ने गुरु नानक देव और उनके शिष्यों का बहुत आदर-सत्कार किया। जब गुरु नानक देव इस गाँव से जो लगे, तो वहाँ के लोगों ने उनसे आशीर्वाद देने की प्रार्थना की। इस पर गुरु नानक देव ने कहा- ‘उजड़ जाओ!’ यह बात उनके शिष्यों को अजीब लगी। आिखरकार उनमें से एक ने पूछ ही लिया कि गुरुदेव! आपने हमारा अपमान और तिरस्कार करने वालों को आशीर्वाद दिया, जबकि हमारा सम्मान और सत्कार करने वालों को श्राप दिया; ऐसा क्यों? तब गुरु नानक देव ने कहा कि अगर बुरे लोग दुनिया में फैलेंगे, तो वे और लोगों को भी अपनी तरह दुर्जन (बुरा) बनाएँगे। इसलिए मैंने उन्हें एक ही जगह रहने का आशीर्वाद दिया। जबकि दूसरे सभ्य और शालीन लोग जहाँ-जहाँ जाएँगे अपनी अच्छाइयाँ फैलाएँगे। इसीलिए मैंने उन्हें दुनिया भर में फैल जाने का आशीर्वाद दिया।

गुरु नानक देव का कहना बिल्कुल सही है। जिस समाज में जिस तरह के लोग अधिक फैलते हैं, उसी तरह का माहौल भी उस समाज का बनता है। इसमें दो-राय नहीं कि आज बुरी प्रवृत्ति के लोग ज़्यादा फैल चुके हैं और ये हर जगह हैं। यही वजह है कि आज नफरतें और झगड़े बढ़ते जा रहे हैं, जिससे हर सीधा-सच्चा इंसान भयभीत और असुरक्षित होता जा रहा है।

सवाल यह है कि क्या इस नफरत और अपराध के बीज बोने वालों की देश-विरोधी, इंसान-विरोधी नीतियों को रोका जा सकता है? बिल्कुल रोका जा सकता है। क्योंकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि आग कितनी भी प्रबल हो, पानी से बुझायी जा सकती है, बशर्ते पानी उतनी ही मात्रा में और उतनी ही तेज़ी से डाला जाए, जितनी प्रचण्ड आग  हो। इसी तरह नफरत की आग को मोहब्बत से बुझाया जा सकता है; बशर्ते नफरतें फैलाने वालों को उतना ही आपसी भाईचारे और मोहब्बत की मिसालें पेश करके जवाब दिया जाए।

एसटीएफ से बातचीत वाला विकास दुबे का वीडियो वायरल, दो भाजपा नेताओं के ले रहा है वो नाम  

उतर प्रदेश पुलिस के ८ जवानों की हत्या करके फरार होने वाले शातिर अपराधी विकास दुबे के दो पुराने वीडियो में सामने आया है कि उसका ”राजनीतिक गुरु’ कौन था और उसके यह भी कि उसके भाजपा के दो बड़े नेताओं से कथित संबंध रहे। वैसे दुबे के यूपी की तीन सबसे पार्टियों बसपा, भाजपा और सपा से संबंधों के आरोप लगते रहे हैं।

इन दो वीडियो में से एक २००६ का है जिसमें दुबे ने अपने ”राजनीतिक गुरू” का नाम बताया है। इसके अलावा दूसरा वीडियो २०१७ का जिसमें वो एसटीएफ की पूछताछ में भाजपा विधायक भगवती सागर और अभिजीत सांगा का नाम ले रहा है।

वीडियो के मुताबिक विकास दुबे ने स्वीकार किया है कि इन भाजपा नेताओं से उसके कथित राजनीतिक रिश्ते हैं। यह वीडियो सामने आने के बाद, इन दोनों विधायकों ने, दुबे से किसी भी तरह के रिश्तों की बात को गलत बताया है।

उधर पुलिस इस बात की जांच कर रही है कि इस घटना से ऐन पहले विकास को किस पुलिस वाले या थाने से फोन आया था, जैसा कि इस घटना में पकड़े गए एक आरोपी ने खुलासा किया है। उधर तीन और पुलिस वालों को विकास कनेक्शन में सस्पेंड कर दिया गया है।

फिलहाल विकास दुबे फरार है और उसका कोई सुराग पुलिस को नहीं मिला है। बीच में उसके एनकाउन्टर में मारे जाने के फ़र्ज़ी वीडियो भी सामने आये हैं। यह माना जा रहा है कि विकास को भगाने में पुलिस में उसके ”दोस्तों” ने मदद की है।

कोरोना मामलों में रूस को पीछे छोड़ भारत तीसरे नंबर पर, ६.९७ लाख लोग हैं संक्रमित

पिछले एक पखबाड़े में लगातार बड़े कोविड-१९ संक्रमितों के कारण भारत कोरोना वायरस के मामले में अमेरिका और ब्राज़ील के बाद दुनिया का तीसरा सबसे ज्यादा प्रभावित देश बन गया है। भारत ने आंकड़ों के मामले में रूस को पीछे छोड़ दिया है।
स्वास्थ्य मंत्रालय के सोमवार के ताजा आंकड़ों के अनुसार, भारत में में अबतक ६.९७ लाख लोग कोरोना संक्रमित हो चुके हैं जिनमें से १९,६९३ की जान जा चुकी है। अच्छी खबर यह है कि ४.२४ लाख लोग स्वस्थ हो चुके हैं। पिछले २४ घंटों में कोरोना वायरस के २४ हजार नए मामले सामने आए हैं जबकि ४२५ लोगों की जान गयी है।
इस बीच इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के मुताबिक ५ जुलाई तक टेस्ट किए गए सैंपलों की कुल संख्या एक करोड़ के करीब है, जिसमें से १,८०,५९६ सैंपलों का कल टेस्ट किया गया है।
कोरोना संक्रमितों की संख्या के हिसाब से भारत अब दुनिया का तीसरा सबसे प्रभावित देश बन गया है। अमेरिका और ब्राजील के बाद एक दिन में सबसे ज्यादा मामले भी भारत में ही दर्ज किए जा रहे हैं। अमेरिका में २९,८१,००९ जबकि ब्राजील में १६,०४,५८५ मामले हैं। रूस में ६,८१,२५१ मामले हैं।

गाज़ियाबाद की फैक्टरी में आग, ७ महिलाओं और एक बच्चे की मौत  

यूपी के गाजियाबाद में एक पेंसिल बम बनाने वाली अवैध फैक्ट्री में धमाके के बाद भीषण आग लगने से ८ लोगों की मौत हो गयी है जिनमें से ७ महिलाएं हैं।  कुछ लोग घायल भी हुए हैं जिन्हें मोदीनगर के अस्पताल में भर्ती किया गया है। आरोप है कि इस अवैध फैक्टरी में सुरक्षा के कोई इंतजाम नहीं थे।

जानकारी के मुताबिक यह घटना करीब चार बजे की है। आग पर काबू पाने के लिए फायर बिग्रेड और पुलिस की टीम घटनास्थल पर मौजूद है। यह एक अवैध फैक्ट्री बताई।  इसमें बर्थडे केक पर लगने वाले पेंसिल बम और मोमबत्ती बनाई जाती थी। इस फैक्ट्री में ज्यादातर महिलाओं और बच्चे काम करते हैं, इसलिए मरने वालों में ज्यादातर अहिलाएँ और एक बच्चा है।

करीब ४ बजे के करीब आग एक छप्पर में लगी जिसके बाद पूरी फैक्ट्री में फैल गई। भीतर काम कर रहे लोग बाहर नहीं निकल सके। जलने की वजह से इन लोगों की मौके पर ही मौत हो गई। तीन महीने पहले यह फैक्ट्री अवैध रूप से शुरू हुई और सुरक्षा के कोई इंतजाम इसमें नहीं थे।

पुलिस और फायर बिग्रेड घटना की जानकारी मिलते ही मौके पर पहुंच गए। घायलों को निकालकर अस्पताल भेजा गया है। लोगों के मुताबिक गांव में ही यह फैक्ट्री चल रही थी। आसपास के लोग ही इस फैक्ट्री में आकर काम करते थे। हादसे में आठ लोगों की मौत हो चुकी है और कम-से-कम चार लोग घायल हैं।

घटना से गुस्साए लोगों ने अवैध फैक्ट्री में हुए धमाके में लोगों की मौत के बाद गुस्साए लोगों ने मौके पर पहुंचे डीएम और एसएसपी को घेर लिया। लोग शवों को घटनास्थल से नहीं हटाने दे रहे हे। लोगों ने पुलिस पर लापरवाही का आरोप लगाया है।

कश्मीर : मुठभेड़ में मारे गए दोनों आतंकी कोरोना पॉजिटिव

कश्मीर के कुलगाम के अर्रे गांव में मुठभेड़ में मारे गए दोनों स्थानीय आतंकी की कोरोना जांच में पॉजिटिव पाए गए हैं। जम्मू कश्मीर पुलिस के अनुसार, कल मुठभेड़ में दोनों के मारे जाने के बाद स्वास्थ्य और कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करने के दौरान उनके नमूने एकत्र किए गए थे। इससे पुलिस और सुरक्षा बल के साथ स्वास्थ्य महकमा सकते में है।
1984 के सिख विरोधी दंगों के दोषी पूर्व विधायक महेंद्र यादव की कोरोना से मौत
1984 के सिख विरोधी दंगों के दोषी और पूर्व विधायक महेंद्र यादव का शनिवार को एक अस्पताल में निधन हो गया, उनकी कोरोना जांच में रिपोर्ट  पॉजिटिव आई है।  वह पहले मंडोली जेल में बंद थे और 10 साल की सजा काट रहे थे।
24 घंटे में रिकॉर्ड 24,850 नए संक्रमित
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 24 घंटे में रिकॉर्ड 24,850 नए मामले सामने आए हैं और 613 लोगों की मौत हुई है। इसके बाद देशभर में कोरोना पॉजिटिव मामलों की कुल संख्या 6,73,165 हो गई है, जिनमें से 2,44,814 सक्रिय मामले हैं, 4,09,083 लोग ठीक हो चुके हैं।
अब तक  देश में 19,268 संक्रमित लोगों की मौत हो चुकी है। वहीं, आज आंध्र प्रदेश में 998, ओडिशा में 469 और राजस्थान में 224 नए मामले दर्ज किए गए हैं।