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गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब में मिल रहीं सबसे सस्ती दवाएँ

गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब में मेडिकल स्टोर की शुरुआत की गयी है, जिसमें आम रोगों से लेकर कैंसर, हार्ट जैसे गम्भीर रोगों की दवाएँ भी फार्मा (दवा) कम्पनियों के रेट पर उपलब्ध करायी जाती हैं। गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब परिसर में ‘बाला प्रीतम दवाखाना’ नाम से यह मेडिकल स्टोर खोला गया है, जो काफी बड़ा है। दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मनजिंदर सिंह सिरसा ने तहलका संवाददाता को बताया कि इसी 29 अगस्त को इस दवाखाने का शुभारंभ श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के सम्पूर्णत: दिवस के अवसर पर किया गया है। दवाखाना खोलने के पीछे मकसद के बारे में उन्होंने बताया कि कोविड-19 महामारी फैलने से लोग काफी परेशान हैं। गरीबों को पैसों के अभाव में दवाएँ नहीं मिल पा रही हैं। ऐसे में लोगों की दु:खों को देखते हुए दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा बाला प्रीतम नाम से दवाखाना खोलने का फैसला लिया गया। मनजिंदर सिंह सिरसा ने कहा कि गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब एक पवित्र स्थल है। यहाँ हज़ारों लोग हर रोज़ मत्था टेकने को आते हैं। इन लोगों में किसी को या बाहर किसी को कोई बीमारी हो, तो वह यहाँ से फार्मेसी के रेट पर दवाएँ ले सकेंगे। इन दवाओं में एक रुपये का भी मुनाफा नहीं लिया जाएगा। उन्होंने बताया कि तमाम दवा कम्पनियों ने खुद गुरुद्वारा कमेटी से सम्पर्क करके कम्पनी रेट पर दवा मुहैया कराने को कहा है।

दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के एक्जीक्यूटिव सदस्य और गुरु हरिकिशन पोली क्लीनिक के चेयरमैन भूपेन्द्रर सिंह भुल्लर ने बताया कि इस दवाखाने में किसी भी राज्य से किसी जाति-धर्म का कोई भी व्यक्ति दवा ले सकता है। अभी दवाखाना सुबह 10 से रात 8 बजे खुलता है। लेकिन ज़रूरतमंदों की बढ़ती संख्या को देखते हुए इसके समय में विस्तार किया जाएगा, ताकि उन्हें कोई परेशानी न हो। उनका कहना है कि दवाखाने के माध्यम से एक ओर मरीज़ों को सस्ती दवा मुहैया करायी जा रही है, तो दूसरी ओर इसमें युवाओं को एक रोज़गार का अवसर मिल रहा है।

भुल्लर का कहना है कि जल्द ही इसी तर्ज पर वहाँ भी दवाखाने खोले जाएँगे, जहाँ पर हमारी डिस्पेंसरी हैं। उन्होंने बताया कि यहाँ पर सारी ब्रांडेड और जेनेरिक दवाएँ उपलब्ध हैं। मतलब, दवा की क्वालिटी से कोई समझौता नहीं। यह शुभ काम है और मरीज़ों के लाभ के लिए है। बताते चले देश में दवा का कारोबार एक बड़े मुनाफे के तौर देखा जाता है और दवा कारोबारी इससे मोटा पैसा कमाते हैं, महामारी में तो कई दवा कारोबारियों ने और भी फायदा उठाया है। ऐसे में गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब का काम बहुत सराहनीय है और उन धर्म स्थलों तथा धर्म के ठेकेदारों के लिए भी प्रेरणास्रोत है, जो जनहित की बात तो करते हैं, पर जनहित नहीं करते। दूसरी धार्मिक संस्थाओं को भी बिना किसी भेदभाव के ऐसी ही पहल करनी चाहिए, ताकि लोगों को सही मायने में लाभ मिल सके। क्योंकि मौज़ूदा दौर में देशवासी, खासकर गरीब और मध्यम वर्ग के लोग पहले ही अनेक परेशानियों में घिरे हैं। बीमार होने पर उनका काफी पैसा इलाज और दवाओं पर खर्च होता है। ऐसे में इस पहल से उन्हें काफी

राहत मिलेगी। गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब में दवा खरीदने आये भुप्पी कपूर ने बताया कि उनके घर में कई लोग अलग-अलग बीमारियाँ हैं, जिससे दवाओं में उनका बहुत पैसा उठ जाता था। लेकिन गुरुद्वारे से दवा खरीदने पर उन्हें काफी राहत मिली है और बचत हो रही है। दवा खरीदने वालों में सविन्दर सहोता ने बताया कि गुरुद्वारे से कोई भी भूखा नहीं जाता है। अब गुरु जी की असीम कृपा से कोई भी गरीब दवा के अभाव के चलते बीमारी से परेशान नहीं रहेगा। दिल्ली के अनेक डॉक्टरों का कहना है कि गुरुद्वारे की इस पहल का सही मायने में बीमार, गरीब लोगों को लाभ होगा; क्योंकि वे बाहर से महँगी दवाएँ नहीं खरीद पाते, जिससे कई बार उनका इलाज नहीं हो पाता। साथ ही इस पहल से दवा कारोबारियों की मनमानी पर भी कुछ हद तक अंकुश लगेगा। उत्तर प्रदेश के चित्रकूट से आये सुनील सिंह ने बताया कि गुरुद्वारे से उन्हें काफी कम कीमत पर दवा मिली है। उन्होंने देश भर के अन्य धार्मिक अनुष्ठानों से आग्रह किया है कि वो भी इस तरह की पहल करें, जिससे आम लोगों को लाभ हो सके। वैसे तो दिल्ली में तामाम मेडिकल स्टोर वाले दवाओं पर 10 से 15 फीसदी तक की छूट देते हैं, लेकिन गुरुद्वारा श्री बंगला साहिब में सीधे दवा कम्पनियों से लिये गये मूल्य पर ही बिना एक पैसे का लाभ कमाये दवाएँ दी जा रही हैं, वह काम बहुत सराहनीय है।

दोहरी चुनौतियों के बीच अँधेरे में अर्थ-व्यवस्था

कहते हैं कि जब भी कोई समस्या आती है तो चारों तरफ से आती है, जिसका अगर समय रहते सामना न किया जाए तो भयानक रूप धारण कर लेती है। कोरोना महामारी से उपजे संकट से भारत में जो दिक्कतें आ रही हैं, उनका केंद्र सरकार, राज्य सरकारों सहित सभी नागरिक सामना कर रहे हैं। चाहे वो स्वास्थ्य के क्षेत्र में हों या बाज़ार के क्षेत्र में हों। लेकिन इस समय देश तीन समस्याओं से जमकर जूझ रहा है। इनमें एक है- कोरोना के लगातार बढ़ते मामले, दूसरी है- भारत की लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था, तीसरी है- चीन से निपटने की चुनौती। ऐसे में सरकार अपनी गलतियों पर गौर करे और छोटे-बड़े व्यापारियों को सुविधा दे, जीएसटी में संशोधन करे, किसानों को बढ़ावा दे और उनकी माँगों पर अमल करे, तो अर्थ-व्यवस्था में सुधार हो सकता है।

तहलका संवाददाता ने लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था और चीन की चालों पर जानकारों से बात की है, उनका कहना है कि यह कहना बहुत कठिन है कि अर्थ-व्यवस्था को कब तक पटरी पर लाया जा सकता है। पर इतना ज़रूर है कि अगर सरकार अपनी नीतियों में सुधार करे और धैर्य तथा सूझ-बूझ के साथ काम ले, तो आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। रहा सवाल चीन की चालों का, तो उस पर चौकसी रखनी होगी। वैसे चीन कभी इतना साहस नहीं कर सकता है कि वह भारत से युद्ध कर सके। क्योंकि हमारे जवान अपना बेहतर शक्ति-प्रदर्शन करके कई बार चीनी सैनिकों को खदेड़ चुके हैं।

अगर हम अपने देश की लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था की बात करें, तो कहना गलत नहीं होगा कि केंद्र सरकार ने कुछ गलतियाँ भी की हैं; जैसे कि अचानक लॉकडाउन करना। इससे देश की अर्थ-व्यवस्था पर बड़ा बुरा असर पड़ा है। लेकिन सरकार ने कुछ सुधार भी किये हैं; जैसे कि बैंकों और वित्तीय संस्थानों के माध्यम से तरलता और सरलता लाने के लिए किये गये प्रयास अर्थ-व्यवस्था के लिए मददगार रहे हैं। आरबीआई की रेगुलेटरी पॉलिसी से भी अर्थ-व्यवस्था में मज़बूती आयी है। लेकिन अभी जो खबर आयी कि वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में अर्थ-व्यवस्था में 23.9 फीसदी तक का जो संकुचन हुआ है, उससे देशवासियों के साथ-साथ अर्थशास्त्री भी विस्मित हैं। इस पर भले ही सियासत हो रही हो, पर यह देश का संवेदनशील मुद्दा है। जीडीपी में गिरावट में एक मात्र क्षेत्र कृषि ही लगभग बचा रहा है, जो अब भी 3.4 फीसदी की दर पर है। जीडीपी गिरावट में कोरोना महामारी मूल जड़ में है।

दरअसल मार्च के अंतिम सप्ताह के बाद से मई तक हुए लॉकडाउन से देश के तमाम व्यापारिक संस्थानों के बन्द रहने और पैसे का लेन-देन पूरी तरह से बन्द होने से से अर्थ-व्यवस्था चौपट हुई और जीडीपी में इतनी बड़ी गिरावट आ गयी। लेकिन अनलॉक से बाज़ारों में लौटती रौनक से भी अब लगता है कि अगली तिमाही में भी अर्थ-व्यवस्था पर कोई विशेष सुधार नहीं होगा। लेकिन जीडीपी में गिरावट का आकार कम होगा, जिसकी उम्मीद भी है। आर्थिक मामलों के जानकार सुरेश सिंह का कहना है कि जब भी देश में आर्थिक संकट या मंदी आयी है, तब-तब भारतीय किसानों ने अपनी मेहनत के दम पर भारतीय अर्थ-व्यवस्था को मज़बूती दी है। फिर भी सरकारों ने सदैव किसानों की माँगों और समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया है। कोरोना-काल में सम्पूर्ण लॉकडाउन के दौरान किस प्रकार किसानों को परेशानी हुई। उन्हें पुलिस ने भी किया, यह किसी से छिपा नहीं है। किसानों को अपनेअनाज को ही बेचने लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

आर्थिक मामलों के एक और जानकार राज के. आनन्द का कहना है कि सरकार ने जब 25 मार्च को लॉकडाउन किया था, तब ही यह सवाल उठा था कि अर्थ-व्यवस्था का क्या होगा? लेकिन तब यह भी बात सामने थी कि बीमारी से जान बचाना ज़रूरी है। जो दूसरे राज्यों में मेहनत-मज़दूरी करके अर्थ-व्यवस्था को सहारा देते रहे हैं, उनको काम देने में सरकार असफल रही और एक ऐसा माहौल बन गया कि मज़दूर अपनी जान पर खेलकर अपने-अपने घर जाने को मजबूर हो गये। ऐसे में सरकार को आगामी आर्थिक संकट से निपटने के लिए सटीक नीति की आवश्यकता है। छोटे कारोबार की सहायता के लिए व्यापक प्रोत्साहन की ज़रूरत है। व्यापारी नेता राकेश यादव का कहना है कि देश में कोरोना महामारी से जो व्यापारियों की दुर्गति हुई है, उससे आर्थिक हालात नाज़ुक हुए हैं। एक दम बाज़ार व उद्योग बन्द होने से लोगों की नौकरी चली गयी, जिससे हाथ में पैसा नहीं रहा और लेने-देन ठप हो गया था। छोटे और बड़े व्यापारियों के सामने फिलहाल उम्मीद जागी है कि इस त्योहारी सीजन में नवदुर्गा, दशहरा और दीपावली के अवसर पर कुछ कमायी हो जाए, तो व्यापारियों के साथ-साथ देश की अर्थ-व्यवस्था सुधर जाए। अन्यथा तो मुश्किल ही है। क्योंकि जिस गति से कोरोना वायरस फैल रहा है, उससे अब व्यापारियों को डर लग रहा है कि कहीं फिर से कोई दिक्कत न हो जाए। इस डर की एक और बड़ी वजह भारत में असंगठित उद्योगों की संख्या को ज़्यादा होना भी है। कोरोना महामारी की मार इन्हीं असंगठित उद्योगों पर सबसे अधिक पड़ी है। इनके पास धन की कमी व आय के साधन कम होने से आगे भी तामाम तरह का संकट और चुनौतियाँ हैं। मौज़ूदा समय में लोग आतंकित और आशंकित हैं, क्योंकि कोरोना वायरस ने आतंक मचा रखा है और आर्थिक संकट ने आशंकाओं के घने बादल खड़े कर दिये हैं। ऐसे में बाज़ारों में रौनक की उम्मीद कम ही है। बाज़ारों में छायी उदासी को लेकर व्यापारी नेता पीयूष कुमार गुप्ता का कहना है कि केंद्र सरकार बड़ी भूल यह कर रही है कि वह सही मायनों में व्यापारियों की समस्याओं का समाधान नहीं कर रही है। जैसे कि जीएसटी को लेकर जो पेच फँसा है, जिसका समाधान नहीं हुआ है। इसके चलते व्यापारियों को तमाम अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है और व्यापार लडख़ड़ा रहा है। उनका कहना है कि कोरोना-काल के पहले ही देश में आर्थिक मंदी रही है। सरकार ने कहने को तो आर्थिक सुधार के लिए काम किया है, लेकिन उसमें व्यापारियों की अनदेखी की है; जिससे अर्थ-व्यवस्था फिसलती गयी है।

रही बात चीन की चालों की, तो इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि भारत और चीन के बीच कभी भी परस्पर सौहार्द नहीं रहा है। चीन छल-कपट करता ही रहा है। वैसे चीन ने ही कोरोना का संकट पैदा किया है। चीन ने अपनी चाल से ऐसे समय पूरी तरह अमानवीयता का परिचय दिया है। आज जब सारी दुनिया जीवन के लिए संघर्ष कर रही है, उसने मौके का गलत फायदा उठाते हुए पहले भारत के गलवान और अब लद्दाख क्षेत्र में घुसपैठ करने की कोशिशें की हैं। लेकिन भारतीय सेना ने उसे करारा जबाव दिया है। सदर बाज़ार से व्यापारियों का कहना है कि कोरोना की दस्तक के पहले तो चीन भारत के व्यापार में इस कदर घुसा था कि ज़्यादातर व्यापार उसी पर आश्रित था। अब ऐसे हालात है कि चीन के समान से ही नहीं, बल्कि चीन से ही नफरत हो गयी है। व्यापारियों का कहना है कि पहले की सरकारें और मौज़ूदा केंद्र सरकार का पहला शासनकाल तो चीनी हरकतों और व्यापार के प्रति कभी गम्भीर ही नहीं रहा। कोरोना वायरस ने और सीमा विवाद के बाद सरकार के सख्त तेवर देखने को ही मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ज़रूर आत्मनिर्भर और खिलौना उत्पादन पर बल दिया है, लेकिन इस काम को करने के लिए संसाधन और धन की ज़रूरत होती है।

सर्वविदित है कि देश में काम शुरू करने के पहले कितनी दिक्कतें होती हैं? खासकर उन लोगों को, जो नये सिरे से काम करते हैं। ऐसे में सरकार को रियायत देने के बारे में जानकारी देनी चाहिए। आत्मनिर्भर की बात तो प्रधानमंत्री करते हैं, लेकिन मौज़ूदा दौर में जिस तरीके से काम चल रहा है, क्या उससे बेरोज़गार लोग आत्मनिर्भर हो सकते हैं। चाटर्ड अकाउंटेंट रमेश कुमार का कहना है कि हमारी अर्थ-व्यवस्था 40 साल के सबसे बुरे दौर में है। देश पिछले कई वर्षों से मंदी के दौर से गुज़र रहा था, लेकिन लॉकडाउन की वजह से बिना तैयारी के अचानक बन्द किया गया, जिससे देश में करोड़ों लोगों की नौकरी चली गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि अर्थ-व्यवस्था चौपट हो गयी और अब जीडीपी औंधे मुँह गिर गयी, जिससे जल्दी उबर पाना बहुत ही मश्किल है। जीडीपी और अर्थ-व्यवस्था की ऐतिहासिक गिरावट पर कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी ने कहा कि जीएसटी कोई कर प्रणाली नहीं है, बल्कि भारत के गरीबों, किसानों श्रमिकों और छोटे-बड़े व्यापारियों पर हमला है। जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स करार देते हुए उन्होंने कहा कि यह भारत की असंगठित अर्थ-व्यवस्था पर बड़ा हमला है। राहुल गाँधी ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि यह गिने-चुने बड़े उद्योगपतियों की भलाई करने वाली सरकार है।

तहलका संवाददाता को कुछ किसानों ने बताया कि सरकार को अब भी समझना चाहिए कि देश की अर्थ-व्यवस्था में देश के अन्नदाता का बड़ा योगदान है। फिर भी आज का किसान अपने खेती उत्पादों को उचित दामों में नहीं बेच पाता है। इसकी वजह सरकार द्वारा किसानों की अनदेखी है। किसान राहुल का कहना है कि किसानों के लिए जो भी पहल सरकार कर रही है, वो पर्याप्त नहीं है। सरकार को अगर सही मायने में किसान की मदद करनी है, तो प्रदेश स्तर से लेकर ज़िला स्तर तक किसानों के लिए अलग से बोर्ड स्थापित करके देश भर के सभी छोटे-बड़े किसानों की समस्याओं को ठीक से सुनकर उनका समाधान करना होगा।

करोड़ों रुपये का छात्रवृत्ति घोटाला

पंजाब में केंद्र सरकार की योजना पोस्ट मेट्रिक स्कॉलरशिप यानी छात्रवृत्ति (अनुसूचित जाति) वितरण में व्यापक स्तर पर वित्तीय अनियमितताएँ उजागर हुई हैं। राज्य के अतिरिक्त मुख्य सचिव कृपा शंकर सरोज ने व्यापक स्तर पर मामले की जाँच की। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने 55 करोड़ रुपये का स्पष्ट घोटाला बताया। 33 पेज की यह रिपोर्ट बताती है कि विभाग के अधिकारियों ने मनमाने तरीके से काम किया। जिन पात्र विद्यार्थियों को यह स्कॉलरशिप मिलनी थी और उससे उन्हें आगे बढऩा था, वे इससे वंचित रह गये।

पात्र लोगों के नाम करोड़ों की राशि आखिर किनके खातों में पहुँच गयी। पात्र, ज़रूरतमंद और आगे की पढ़ाई के लिए सहारा स्कॉलरशिप राशि का गोलमाल करने वाले कौन हैं? निश्चित तौर पर सरकार में बैठे लोग और सामाजिक न्याय, आधिकारिता विभाग के अधिकारी। करोड़ों का खेल छोटे-मोटे अधिकारी अपने बूते नहीं कर सकते। पंजाब में व्यापक स्तर पर करोड़ों का हेरफेर अधिकारियों ने किसकी शह पर किया गया। क्या कभी इसका खुलासा राज्य सरकार की जाँच में हो सकेगा?

 हज़ारों पात्र विद्यार्थियों की स्कॉलरशिप का कोई हिसाब-किताब नहीं है। जिन फाइलों में वितरण का पूरा ब्यौरा था, वे न जाने कहाँ गायब हो गयी है। अतिरिक्त मुख्य सचिव के बार-बार माँगने के बावजूद विभाग के सम्बन्धित अधिकारियों ने उन्हें कुछ नहीं बताया है। मतलब साफ है कि केंद्रीय योजना राशि का सामाजिक न्याय, आधिकारिता और अल्पसंख्यक विभाग सही से वितरण नहीं कर सका। यह गफलत या चूक नहीं, बल्कि सोची-समझी साज़िश के तहत करोड़ों रुपये का हेरफेर किया गया। इसके लिए सम्बन्धित मंत्री साधू सिंह धर्मसोत की ज़िम्मेदारी बनती है। योजना के तहत इस राशि का एक बड़ा हिस्सा शिक्षण संस्थाओं को दिया गया और राशि पात्र विद्यार्थियों तक नहीं पहुँची। अगर योजना का लाभ पात्र तक न पहुँचे, तो दोष योजना का नहीं, बल्कि इसे लागू करने वाले विभाग का है।

रिपोर्ट में विभाग के डिप्टी डायरेक्टर परमिंदर सिंह गिल के अलावा राकेश अरोड़ा, बलदेव सिंह, चरणजीत सिंह और मुकेश भाटिया को बाकायदा नोटिस जारी करके 39 करोड़ रुपये की वित्तीय अनियमितताओं पर स्पष्टीकरण माँगा गया था। मज़ेदार बात यह कि उक्त राशि की फाइलें ही नहीं मिल रही। नोटिस के बावजूद आरोपी अधिकारियों ने अभी तक कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है।

मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने मामले की जाँच का ज़िम्मा मुख्य सचिव विनी महाजन को सौंपा है। उन्होंने कहा है कि राज्य सरकार अपने स्तर पर मामले की जाँच कराने में सक्षम है। विपक्ष राजनीतिक फायदे के लिए बेवजह सीबीआई या किसी केंद्रीय एजेंसी से जाँच की माँग कर रहा है। वह कहते हैं कि मंत्री हो या कोई अधिकारी, जाँच में जो भी दोषी होगा, चाहे वह कोई भी क्यों न हो कड़ी कार्रवाई होगी। पर विपक्षी नेताओं को उनकी बात पर भरोसा नहीं है। उनकी राय में जो मुख्यमंत्री अपने ही अतिरिक्त मुख्य सचिव की रिपोर्ट पर भरोसा न तो इस बात की क्या गारंटी है कि वह मुख्य सचिव की रिपोर्ट पर कार्रवाई करेगा। उन्हें अंदेशा है कि मुख्य सचिव की रिपोर्ट लीपापोती वाली होगी, जिसमें कुछ अधिकारी तो ज़रूर लपेटे में आ सकते हैं, पर विभाग से जुड़े मंत्री तक शायद आँच न पहुँचे।

शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल कहते हैं कि बिना सीबीआई जाँच मामले की गहराई तक नहीं, पहुँचा जा सकता। जब अतिरिक्त मुख्य सचिव की विस्तृत जाँच रिपोर्ट पर कैप्टन कुछ नहीं कर रहे तो स्पष्ट है कि वह मामले को रफा-दफा करना चाहते हैं और आरोपी मंत्री साधू सिंह धर्मसोत को किसी तरह बचाना चाहते हैं। उनकी कथनी और करनी में अन्तर है। कैप्टन तो राज्य में सरकार बनने पर नशा एक माह में खत्म करने का दावा करते थे आज क्या हाल है, नशे का कारोबार बदस्तूर जारी है। राज्य में शराब त्रासदी में 120 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गयी। पूरा विपक्ष घोटाले की जाँच सीबीआई से कराने की माँग कर रहा है तो इसे कराने में क्या दिक्कत है। सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। राज्य सरकार की जाँच पर उन्हें भरोसा नहीं है। राज्य में स्कॉलरशिप में गड़बडिय़ों के आरोप नये नहीं है। वर्ष 2019 के फरवरी और मार्च के दौरान केंद्र ने पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप (अनुसूचित जाति) के लिए 303 करोड़ रुपये जारी किये। इनमें से 248 करोड़ रुपये वितरण के लिए ट्रेजरी से निकलवाये गये। वैसे तीन साल के दौरान केंद्र ने योजना के तहत 811 करोड़ रुपये जारी किये हैं। विपक्ष तीन साल के दौरान स्कॉलरशिप वितरण की जाँच माँग रहा है, पर फिलहाल मुद्दा 55 करोड़ की जाँच पर ही अटका है।

राज्य में विपक्ष के नेता हरपाल सिंह चीमा के मुताबिक, जब अतिरिक्त मुख्य सचिव की संगीन रिपोर्ट पर मुख्यमंत्री कार्रवाई नहीं कर रहे तो मतलब साफ है, वह भ्रष्टाचार विरोधी नहीं, बल्कि ऐसा करने वालों को संरक्षण दे रहे हैं। आरोपी मंत्री धर्मसोत को नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देना चाहिए था। वह ऐसा नहीं करते, तो मुख्यमंत्री को हटा देना चाहिए था। जब अतिरिक्त मुख्य सचिव की रिपोर्ट पर सरकार गम्भीर नहीं तो मुख्य सचिव की रिपोर्ट पर क्या करेगी। मतलब स्पष्ट है कि जाँच के नाम पर मामले को ठण्डे बस्ते में डालने की तैयारी है। आम आदमी पार्टी करोड़ों रुपये के घोटाले में चुप नहीं रहेगी, बल्कि आरोपियों को सलाखों के पीछे पहुँचाने के सडक़ों पर उतरेगी।

विपक्ष के अलावा कांग्रेस के सांसद और पूर्व कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष रहे प्रताप सिंह बाजवा के विपक्ष की माँग के समर्थन पर कैप्टन उन्हें पहले अपने गिरेबान में झाँकने को कहते हैं। कैप्टन उन्हें याद दिलाते हैं कि वर्ष 2002-2007 के दौरान जब वह (बाजवा) सार्वजनिक निर्माण मंत्री थे, तब उन पर महँगे दाम पर कोलतार खरीदने के आरोप लगे थे। तो क्या विपक्ष की माँग पर उन्हें हटाया गया था? अब वह क्यों अपनी ही पार्टी की सरकार के मंत्री को बर्खास्त करने की माँग कर रहे हैं। बाजवा को तो सरकार के खिलाफ बोलने का मौका चाहिए, वह विपक्ष की भूमिका में आ जाते हैं। भाजपा ने घोटाले की सीबीआई जाँच की माँग पर राज्य में कई स्थानों पर प्रदर्शन किया और मंत्री धर्मसोत के पुतले जलाकर रोष जताया।

स्कॉलरशिप के मामले में घोटाला तो हुआ है, वरना 39 करोड़ रुपये के वितरण की फाइलें गायब नहीं होतीं। क्यों नहीं अधिकारी उनका स्पष्टीकरण देते? दिसंबर, 2019 में स्कॉलरशिप वितरण में गड़बड़ी के आरोपों के चलते तब के मुख्य सचिव करण अवतार सिंह ने 19 दिसंबर, 2019 को डिप्टी डायरेक्टर परमिंदर सिंह गिल समेत कई अधिकारियों को निलंबित कर दिया था। गिल आरोपी मंत्री साधू सिंह धर्मसोत के करीबी माने जाते हैं, लिहाज़ा तीन दिन उनका निलंबन रद्द हो गया था। इसी से स्पष्ट है कि विभाग में गिल का कितना प्रभाव है। सामाजिक, न्याय आधिकारिता और अल्पसंख्यक विभाग में डिप्टी डायरेक्टर रहते गिल का रुतबा बड़ा था। वह बजाय डायरेक्टर बलविंदर सिंह धालीवाल के सीधे मंत्री को रिपोर्ट किया करते थे। अतिरिक्त मुख्य सचिव कृपाशंकर सरोज की 33 पेज की रिपोर्ट में इन्हीं परमिंदर सिंह गिल पर भी आरोप हैं। केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल की मामले की सीबीआई जाँच की माँग पर कैप्टन कहते हैं कि वह (हरसिमरत) तो हर मामले की सीबीआई जाँच की ही माँग करती हैं। वह अपनी पार्टी शिअद की माँग का समर्थन कर रही हैं; लेकिन उन्हें इस जाँच एजेंसी के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है। पंजाब में कई मामले सीबीआई को दिये गये; लेकिन एजेंसी नाकाम रही।

संघ नेता सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर जगदीश कुमार गगनेजा की हत्या हुई। मामले की जाँच सीबीआई के पास गयी; लेकिन एजेंसी सफल नहीं हो सकी। राज्य में बेअदबी के मामलों की जाँच में भी केंद्रीय एजेंसी तह तक नहीं पहुँच सकी। राज्य सरकार ने अपने तौर पर इसकी जाँच करायी और सफलता मिली। सरकार स्कॉलरशिप में वित्तीय अनियमितताओं पर गम्भीर है। मामले की जाँच का ज़िम्मा मुख्य सचिव विनी महाजन को सौंपा गया है। इनकी रिपोर्ट के आधार पर सरकार कड़ी कार्रवाई करने में कोई गुरेज़ नहीं करेगी। सरकार आरोपी मंत्री या अधिकारियों को क्यों बचायेगी? जब यह मामला उसकी प्रतिष्ठा से जुड़ा है। अतिरिक्त मुख्य सचिव सरोज की रिपोर्ट पर कैप्टन कुछ भी नहीं कहते, जबकि उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि आखिर उनकी रिपोर्ट में क्या खामियाँ हैं। किसी अधिकारी का सरकार के खिलाफ इस तरह रिपोर्ट देना कोई आसान काम नहीं है। कितने दवाब होते हैं; लेकिन उन्होंने हिम्मत दिखायी और विभाग की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किये। रिपोर्ट में मंत्री पर सीधे आरोप नहीं है; लेकिन निष्कर्ष के तौर पर बात उन पर ही आकर रुकती है। विभाग में व्याप्क स्तर पर गड़बड़ी हो रही थी, तो क्या वह इससे अनजान थे? या फिर उन्हें सब पता था कि कहाँ क्या हो रहा है? केंद्र चाहे, तो रिपोर्ट के आधार पर मामले की जाँच करने को स्वतंत्र है; लेकिन अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं आया है।

शिरोमणि अकाली दल के एक प्रतिनिधि मंडल ने केंद्रीय समाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत से मुलाकात करके मामले की जाँच सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय से कराने की माँग की। सदस्यों में विधायक पवन कुमार टीनू, सुखविंदर कुमार सुक्खी, बलदेव सिंह खैरा और पूर्व मंत्री गुलज़ार सिंह राणिके थे। सदस्यों के मुताबिक, केंद्र इस मामले के प्रति गम्भीर है। योजना के तहत पैसा पात्र विद्यार्थियों तक पहुँचना चाहिए था; लेकिन बहुत विद्यार्थी इससे वंचित हो गये और बीच के लोगों ने सब गोलमाल कर दिया। विपक्ष का दावा है कि यह घोटाला 55 करोड़ का नहीं, बल्कि इससे कहीं ज़्यादा है। तीन साल के दौरान पंजाब को 811 करोड़ रुपये योजना के तहत मिले हैं। पूरे प्रकरण की केंद्रीय एजेंसी या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश से जाँच करायी जाए, तो निश्चित तौर पर बड़ा घोटाला सामने आयेगा। 55 करोड़ के घोटाले की रिपोर्ट तो केवल 248 करोड़ रुपये के वितरण की ही है।

तीन साल के दौरान राज्य में स्कॉलरशिप का मुद्दा जब तब उठता रहा है। केंद्र राशि के जारी होने की बात कहता, तो राज्य सरकार इससे इन्कार की बात कहती। यह गम्भीर बात है कि जिन पात्र लोगों को इस स्कॉलरशिप के लिए चुना गया है, वह ही इससे वंचित हो जाएँ और उनके नाम पर यह राशि खुर्द-बुर्द कर दी जाए। अतिरिक्त मुख्य सचिव कृपाशंकर सरोज की 33 पेज की रिपोर्ट और विपक्ष की ओर से मंत्री को हटाने और उन पर आपराधिक मामला दर्ज करने की माँग के बावजूद संगीन आरोपों में घिरे सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री साधू सिंह धर्मसोत निश्ंिचत से लगते हैं। वह हर जाँच के लिए तैयार और पूरा सहयोग देने का भरोसा दिलाते हैं। देखना होगा कि मुख्य सचिव कब तक मामले की जाँच रिपोर्ट पेश करती है।

नवनियुक्त मुख्य सचिव विनी महाजन के लिए यह एक चुनौती जैसा काम होगा। पद पर तैनाती के बाद यह उनके सामने सबसे बड़ा काम आया है। क्या वह कृपाशंकर सरोज की तरह दबावों से मुक्त होकर किसी निष्कर्ष तक पहुँच सकेगी? अगर वह ऐसा करने में सक्षम होती है, तो उन्हेंं इसके लिए भी याद किया जाएगा। अगर रिपोर्ट कुछ कमतर या सरोज के विपरीत हुई, तो विपक्ष के पास फिर से यह मुद्दा होगा। कहा जा सकता है कि फिलहाल मुख्यमंत्री ने विपक्ष के विरोध को कुछ कमज़ोर तो कर ही दिया है। जब तक राज्य न चाहे सीबीआई जाँच मुमकिन नहीं है। इस संदर्भ में कैप्टन पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि राज्य सरकार अपने स्तर पर जाँच करने में सक्षम है। सीबीआई को मामला सौंपने की कोई ज़रूरत नहीं है। वह इतना भरोसा दिलाते हैं कि जाँच में आरोप साबित होने वाले को बख्शा नहीं जाएगा, चाहे वह व्यक्ति सरकार के अन्दर का हो या बाहर का कोई नहीं बच सकेगा।

विपक्षी दल स्कॉलरशिप में वित्तीय अनियमितताओं के आरोपों पर पर राजनीति कर रहे हैं। राज्य में भ्रष्टाचार के किसी मामले के उजागर से सरकार की छवि को भी बट्टा लगता है। मामला प्रकाश में आया है, अतिरिक्त मुख्य सचिव ने जाँच कर रिपोर्ट पेश की है। सरकार ने उसे गम्भीरता से लिया है और विस्तृत जाँच का काम मुख्य सचिव को सौंपा है। दोनों अधिकारियों की मामले में मंत्रणा हो चुकी है। वह राज्य की जनता से वादा करते हैं कि जाँच निष्पक्ष होगी और रिपोर्ट में दोषी साबित होने पर शर्तिया कड़ी कार्रवाई होगी। उन्होंने एक तरह से वंचित विद्यार्थियों, उनके परिजनों, विपक्षी दलों समेत पूरे राज्य को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की है कि डरने की कोई बात नहीं है मैं हूँ न! विपक्ष को उन पर भरोसा करना चाहिए और जब तक जाँच रिपोर्ट नहीं आती, तब तक राज्य हित में राजनीतिक बयानबाज़ी न करे तो ही अच्छा होगा, क्योंकि कोई फायदा नहीं जाँच राज्य सरकार अपने ही स्तर पर कराकर दोषियों को दण्डित करेगी।

अमरिंदर सिंह, मुख्यमंत्री (पंजाब)

 

सीबीआई जाँच से डर क्यों?

स्कॉलरशिप में गड़बड़ी तो व्यापक स्तर पर हुई है। आरोपों के सीधे घेरे में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता के अलावा ट्रेजरी विभाग भी है। रिपोर्ट खुलासा करती है कि केंद्रीय योजना की राशि को अमुक-अमुक तरीके से खपाया जा सकता है। सरकार की ओर से एक बार भी बेबुनियाद आरोपों जैसा बयान नहीं आया है। मतलब साफ है कि घोटाला तो हुआ है; पर इसकी जाँच राज्य सरकार आखिर अपने स्तर पर ही क्यों कराना चाहती है? क्यों नहीं अतिरिक्त मुख्य सचिव की रिपोर्ट पर ही कार्रवाई कर दी गयी? उसने जाँच कोई हवा में तो नहीं की है; सुबूत जुटाये गये हैं। अनेक शिक्षण संस्थाओं को योजना के तहत पैसा दिया गया; लेकिन वह पात्र विद्यार्थियों तक तो नहीं पहुँचा। राशि के समय पर मिलने पर अक्सर सरकार की ओर से केंद्र की लेटलतीफी बताया जाता था। केंद्र से पैसा जारी होने में देरी होती रही है। पर जब राशि आ गयी, तो उसे किन खातों में पहुँचा दिया गया? विपक्ष की सीबीआई जाँच की माँग गलत नहीं ठहरायी जा सकती।

राज्य सरकार मानती है कि सब कुछ ठीक है, तो जाँच कराने में कुतर्क क्यों किये जा रहे हैं? सीबीआई जाँच पर कांग्रेस के अलावा सारे विपक्षी दलों को भरोसा है, पर किया क्या जाए? मुख्यमंत्री इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं ।

महिलाओं को मिले पीरियड लीव

एक रुपये में सेनिटरी पैड! जी हाँ। यह सेनिटरी पैड बनाने वाली किसी कम्पनी के विज्ञापन की टैग लाइन नहीं है, बल्कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 74वें स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र के नाम सम्बोधन में इस वाक्य का ज़िक्र किया था। प्रधानमंत्री ने अवाम को बताया कि गरीब बहनों-बेटियों के बेहतर स्वास्थ्य की चिन्ता हमेशा सरकार को बनी रहती है।

बीते कुछ महीनों में देश के 6000 जन-औषधि केंद्रों से एक रुपये में 5 करोड़ सेनिटरी पैड पहुँचाने का बड़ा काम किया है। हाल ही में भाजपा सांसद राकेश सिन्हा ने कहा कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम सम्बोधन में सेनिटरी नेपकिन के उल्लेख से चौखट के अन्दर व बाहर जो हिचक थी, वह समाप्त हुई है। उन्होंने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री ने किशोरियों और महिलाओं को सेनिटरी नेपकिन की आवश्यकता की पूर्ति को राज्य की कल्याणकारी योजनाओं में प्राथमिकता के रूप में रेखांकित किया। इसी से प्रेरणा लेकर वह अपने द्वारा विकास के लिए चुने गये दो गाँवों कोंगथोंग (मेघालय) तथा बरेपुरा (बेगूसराय, बिहार), जहाँ सामाजिक व आर्थिक रूप से उपेक्षित लोगों की बड़ी तादाद है; वहाँ छ: हज़ार सेनिटरी नेपकिन भेज रहे हैं। प्रधानमंत्री के 15 अगस्त के सम्बोधन में सेनिटरी पैड का ज़िक्र होने से क्या वास्तव में समाज व कार्य स्थलों पर किशोरियों-महिलाओं के मासिक धर्म (माहवारी / पीरियड) के बाबत जो पूर्वाग्रह / अवधारणा बनी हुई है, क्या वह कम होगी? या उसमें क्रान्तिकारी बदलाव आने की सम्भावना तलाशी जा सकती है?

दरअसल ऐसे ही कुछ सवाल हमेशा उठते हैं, जब ऐसी कोई खबर सामने आती है। अगस्त महीने में ही ऑनलाइन फूड डिलीवरी कम्पनी जोमैटो ने ऐलान किया कि कम्पनी में अब महिलाओं और ट्रांसजेंडर कर्मचारियों को एक साल में 10 दिन की पीरियड लीव (मासिक धर्म की छुट्टी) मिलेगी। जोमैटो कम्पनी ने इस नियम को पीरियड पॉलिसी का नाम दिया है। जोमैटो कम्पनी के सीईओ दीपिंदर गोयल ने अपने कर्मचारियों को भेजे ईमेल में कहा कि आप पीरियड अवधि वाली लीव को किसी भी शर्म या कलंक के साथ जोडक़र न देखें और इस दौरान कर्मचारी अवकाश लेने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं। सीईओ ने यह भी बताया कि जोमैटो में हम विश्वास, सच्चाई और स्वीकृति की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहते हैं। गोयल ने कहा कि जोमैटो समझती है कि महिला और पुरुष अलग-अलग बायोलॉजिकल रियलिटी के साथ पैदा होते हैं। यह जीवन का एक हिस्सा है। यह सुनिश्चित करना हमारा काम है कि हम अपनी ज़रूरतों के लिए जगह बनाएँ। इतना ही नहीं सीईओ ने अपने पुरुष कर्मचारियों के लिए लिखा कि उन्हें कतई शर्मिंदा नहीं होना चाहिए, जब एक महिला सहकर्मी कहती है कि वह पीरियड लीव पर है।

जोमैटो की पीरियड पॉलिसी ने एक बार फिर से पीरियड लीव वाले मुद्दे को बहस का विषय बना दिया है। इस चर्चा में पीरियड लीव दिये जाने के पक्ष व विपक्ष में दलीलें सामने आ रही हैं। दरअसल महिलाओं के बदन को परम्पराओं, धार्मिक मान्यताओं के नाम पर शुचिता के बोझ से इतनी बुरी तरह से दाब दिया गया है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक के खत्म होने में महज़ तीन महीने ही बचे हैं और महिलाएँ इनसे मुक्ति पाने के लिए संघर्षरत हैं।

किशारियों / महिलाओं को रजोधर्म के दौरान किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, इसकी सूची बहुत लम्बी है। इन मुश्किल दिनों में कइयों के पेट में ऐंठन से दर्द होता है; व्यग्रता होती है; जी मिचलाता है; मूड स्विंग आदि होता है।

भारत के कई इलाकों में रजोधर्म के दौरान लड़कियाँ / महिलाएँ रसोई में काम नहीं कर सकतीं, पूजा स्थल पर नहीं जा सकतीं। इसे स्त्री के बदन की शुचिता-अशुचिता से जोडक़र देखने की परम्परा आज भी लोगों के दिल-ओ-दिमाग पर हावी है। समय की माँग है कि रजोधर्म से जुड़ी ऐसी सामाजिक-धार्मिक रूढ़ परम्पराओं के खिलाफ जागरूकता फैले; परिवार, समाज और सरकारी स्तर पर अधिक-से-अधिक चर्चा हो और हम इसके समाधान की ओर अग्रसर हों।

जोमैटो ने पीरियड लीव का ऐलान किया, तो ऐसे अवकाश को लेकर कहा गया कि क्या वास्तव में यह प्रगतिशील, महिला हितेषी कदम है? या प्रतीकात्मक या प्रतिगामी कदम है। वैसे यहाँइस बात का ज़िक्र करना प्रासंगिक है कि जोमैटो से पहले 2018 में मुम्बई की डिजिटल मीडिया कम्पनी कल्चर मशीन ने भी अपनी महिला कर्मचारियों के लिए रजोधर्म के पहले दिन अवकाश देने की नीति की घोषणा की थी। स्पोट्र्स कम्पनी नाइक भी महिला कर्मचारियों को पीरियड लीव वाली सुविधा प्रदान करती है। बिहार राज्य सरकार भी अपनी महिला कर्मचारियों को महीने में दो दिन का ऐसा अवकाश प्रदान करती है। जापान में तो 1947 से ही महिला कर्मचारियों के लिए ऐसे अवकाश वाला प्रावधान है। दक्षिण कोरिया में 2001 से अवकाश दिया जा रहा है।

इंग्लैंड के ब्रिस्टल शहर में महिलाओं को रजोधर्म के दौरान ऑफिस से छुट्टी दी जाती है। वैसे इन दिनों महिलाओं को कार्य स्थलों पर नहीं आने अवकाश देने वाले बिन्दु को लेकर एक वर्ग का तर्क है कि ऐसा करना महिलाओं को अतिरिक्त सुविधा मुहैया कराना है। जब महिलाएँ कहती हैं कि वे पुरुषों से कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चल सकती हैं; उनके बराबर हैं; पुरुषों से कमतर नहीं हैं; तो पीरियड लीव की माँग क्यों करती हैं? उनके पास सिक लीव लेने वाला प्रावधान है, उन्हें उसका इस्तेमाल करना चाहिए।

एक दलील यह भी दी जाती है कि अगर ऐसी लीव को कानून बनाकर अनिवार्य कर दिया जाता है, तो नियोक्ता महिलाओं को नौकरी देने में हिचकेंगे। वे महिलाओं की भर्ती करते समय अपने आर्थिक नुकसान का आकलन भी करेंगे। वैसे महिला कर्मचारियों के लिए पहले से ही सवैतनिक प्रसूति अवकाश देने वाला कानून है। भारत में महिला कर्मचारियों की दर 21 फीसदी है और बीते वर्षों में इसमें वृद्धि होने की बजाय गिरावट ही दर्ज की गयी है। पीरियड लीव का विरोध करने वालों का माननी है कि अगर इस बाबत कोई कानून बन जाता है या कम्पनियों में पीरियड लीव देने का रुझान बढ़ता है, तो हो सकता है कि महिला कर्मचारियों की संख्या में और गिरावट देखने को मिले। महिलाएँ जब विमान उड़ाने में सक्षम हैं; सेना में उन्हें फ्रंट लाइन पर तैनात वाला मुद्दा विचाराधीन है; तो क्या वे रजोधर्म में ऑफिस नहीं आ सकतीं? पीरियड लीव के पक्ष वाले वर्ग का कहना है कि विरोध करने वाले पुरानी मानसिकता के तहत सोचते हैं। महिलाएँ अगर इन खास दिनों में एक या दो छुट्टी ले लेती हैं, तो इसका मतलब यह नहीं कि वे पुरुषों से कमतर हैं। बल्कि उनकी शारीरिक संरचना पुरुषों से भिन्न है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं निकालना चाहिए कि वे पुरुषों वाले पदों पर तैनात नहीं हो सकतीं। ऐसा सोचना / करना उनकी कार्य क्षमता के साथ नाइंसाफी करना होगा, लैंगिक अन्याय होगा।

उन्हें पीरियड अवकाश देना उनकी ज़रूरत के लिए जगह बनाने जैसा है। और यह सुनिश्चित करने का काम सरकार और कम्पनी का है। उन्हें ऐसी नीतियाँ भी बनानी चाहिए। ज़रूरत वाले अहम बिन्दुओं पर फोकस करते समय यह विकल्प भी सामने आता है कि कामकाजी महिलाओं को पूरा अथवा आंशिक अवकाश लेने, सुविधाानुसार काम करने के घंटे या वर्क फ्रॉम होम वाले विकल्प भी मुहैया कराये जा सकते हैं। एक बात यह भी ध्यान देने की है कि भारत में 90 फीसदी से अधिक महिला श्रमबल असंगठित क्षेत्र में काम करता है, जहाँ एक दिन की छुट्टी लेने पर वेतन काट लिया जाता है; उन महिलाओं को कौन पीरियड लीव देगा? वैसे जोमैटो ने जो पीरियड लीव देने का ऐलान किया, उसकी इस पहल की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा हुई है। जोमैटो कम्पनी कई देशों में अपनी सेवाएँ दे रही है और इसके कुल कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी 35 फीसदी है।

कम्पनी के सीईओ ने कर्मचारियों को इस सूचना हेतु भेजे ईमेल में यह भी कहा कि महिलाएँ / ट्रांसजेंडर जब पीरियड लीव लें, तो उन्हें एचआर विभाग को बताना होगा कि वे वास्तव में काम पर नहीं आ सकतीं। साथ ही आगाह भी किया कि वे इन छुट्टियों का गलत इस्तेमाल नहीं करें। इनका इस्तेमाल अपने पेंडिंग काम करने के लिए नहीं करें, और इन छुट्टियों को बैसाखी के तौर पर उपयोग में न लाएँ। यही नहीं, उन्होंने यह भी बताया कि महिलाएँ / ट्रांसजेंडर पौष्टिक आहार लें और फिटनेस पर फोकस करें, ताकि वे शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रहें। कामकाजी महिलाएँ व पीरियड लीव वाला मुद्दा तो अहम है ही, पर इसके साथ यह भी जानना ज़रूरी है कि लोगों में रजोधर्म को लेकर कितनी जानकारी है। एक सर्वे बताता है कि करीब 71 फीसदी किशोरियों को रजोधर्म के बारे में तब पता चला, जब पहली बार वे खुद इससे गुज़रीं।

यूनिसेफ का सन् 2014 का एक सर्वे बताता है कि किशोरियों / महिलाओं को मैनस्टुरूल हाईजीन के बारे में जानकारी बहुत ही कम है। तमिलनाडु में 79 फीसदी महिलाएँ पीरियड के दौरान स्वच्छता के बारे में नहीं जानती थीं। यानी इस दौरान खुद को कैसे साफ रखें, उन्हें यह नहीं पता था। यह संख्या उत्तर प्रदेश में 66 फीसदी, तो राजस्थान में 56 फीसदी थी।

एक सर्वे यह भी बताता है कि देश में करीब दो करोड़ 30 लाख लड़कियाँ इसी पीरियड के कारण स्कूल से बाहर हो जाती हैं। कई हज़ार लड़कियाँ पीरियड के दिनों में स्कूल नहीं जातीं। इसकी कई वजहें हैं, मसलन- उन दिनों तबीयत ठीक न रहना, स्कूल में पैड-कपड़ा बदलने की समुचित सुविधा का नहीं होना, आदि। कई मामलों में अभिभावक भी लड़कियों को इन दिनों स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करने की बजाय घर पर ही रहने तथा आराम करने के लिए दबाव बनाते हैं। देश में स्कूलों में मैनस्टुरूल हाईजीन मैनेजमेंट (एमएचएम) पर काम हो रहा है, ताकि लड़कियाँ रजोधर्म वाली अवधि में स्कूल जा सकें और उनकी पढ़ाई का नुकसान न हो।

इसके साथ ही वे स्वस्थ भी रहें। इन दिनों साफ-सफाई का खास ध्यान रखना होता है। ऐसा नहीं करने से लड़कियों / महिलाओं में प्रजनन प्रणाली संक्रमण, मूत्र मार्ग संक्रमण, हैेपेटाइटिस-बी, सर्वाइकल कैंसर आदि होने का खतरा बना रहता है। ‘स्वच्छ भारत : स्वच्छ विद्यालय’ अभियान के तहत उन्हें इन दिनों ज़रूरी सपोर्ट सिस्टम मुहैया कराने पर ज़ोर रहता है।

इसके साथ ही एमएचएम के तहत लड़कियों / महिलाओं के बीच रजोधर्म को लेकर जागरूकता के स्तर को बढ़ाना भी मकसद है। बेशक एमएचएम आधी दुनिया से सीधे तौर पर जुड़ता है, पर इस पर सभी को ध्यान देना चाहिए; क्योंकि इस आधी दुनिया के स्वस्थ रहने से सामाजिक तथा आर्थिक सशक्तिकरण को आगे बढ़ाने में मदद मिलती है। हो सकता है कि कम्पनियाँ महिलाओं को पीरियड लीव इसलिए भी दे रही हों, ताकि अगले दिन जब वे काम पर लौटें, तो अपनी पूरी कार्य क्षमता, ऊर्जा के साथ अपना योगदान दे सकें। कुल मिलाकर आज निजी कार्य क्षेत्र के प्रबन्धन और सरकार को आपस में मिलकर पीरियड लीव वाले मुद्दे पर काम करने की ज़रूरत है, ताकि पूरे देश में एक जैसी व्यवस्था लागू हो सके। चाहे वह स्वैच्छिक अवकाश हो, आशिंक अवकाश हो या फिर वर्क फ्रॉम होम वाला विकल्प ही क्यों न हो।

फिल्म अभिनेत्रियाँ बनीं राजनीति का मोहरा

आजकल बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री बड़ी चर्चा में है। ऐसा नहीं कि हाल में इंडस्ट्री से कोई बड़ी लाजवाब फिल्में निकली हैं, बल्कि चर्चा दो अभिनेत्रियों- रिया चक्रवर्ती और कंगना रणौत के कारण ज़्यादा है। शुरुआत उदीयमान अभिनेता बिहार के रहने वाले सुशांत सिंह राजपूत की असमय और संदिग्ध हालत में मौत से हुई। कंगना रणौत ही थीं, जिन्होंने सुशांत की मौत को लेकर सवाल खड़े किये और फिर यह एक बड़ा मुद्दा बन गया। दरअसल इसमें राजनीति घुस गयी, जिसके चलते यह मुद्दा और भी गरमा गया। सुशांत की मौत के कारण का पता लगाना असली मुद्दा था, जो अब भी अनसुलझा ही है। लेकिन ड्रग को आधार बनाकर रिया और उनके साथियों की गिरफ्तारी और कंगना पर खींचतान से मामला दूसरी तरफ ही मुड़-सा गया है। एक तरफ सुशांत की मौत पर सवाल उठाने वाली कंगना खुले रूप से महाराष्ट्र सरकार तथा से उद्धव ठाकरे भिड़ी हुई हैं, तो दूसरी तरफ भाजपा कंगना के सहारे महाराष्ट्र सरकार और कांग्रेस पर निशाना साध रही है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि बॉलीवुड में कलाकारों की संदिग्ध हालात में होने वाली मौतें एक बड़ा मुद्दा है। हाल के वर्षों में कई कलाकारों ने असमय और संदिग्ध हालात में मौत को गले लगाया है। सुशांत सिंह राजपूत की इन्हीं हालात में हुई मौत के बाद जब इस पर जाँच की देश भर में माँग उठी, तो लगा कि शायद अब कोई चौंकाने वाला सच सामने आयेगा। सीबीआई को इसकी जाँच सौंपी गयी, तो जनता का यह भरोसा पुख्ता हो गया कि अब तो सच सामने आयेगा ही। लेकिन अचानक सुशांत की मौत का मुद्दा कहीं भटक गया और इस पर राजनीति हावी हो गयी।

सुशांत सिंह बिहार के रहने वाले थे, जहाँ इसी साल विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। विपक्ष ने आरोप लगाया कि बिहार के चुनाव को देखते भाजपा इस गम्भीर मुद्दे का राजनीतिकरण कर रही है। महाराष्ट्र पुलिस से जाँच सीबीआई को देने के पीछे भी कारण राजनीति ही बताया गया; क्योंकि आरोप है कि भाजपा केंद्र की एजेंसियों का उपयोग कर महाराष्ट्र में शिव सेना-एनसीपी-कांग्रेस गठबन्धन सरकार को गिराने का षड्यंत्र कर रही है। यह मसला तब पूरी तरह राजनीतिक रंग ले गया, जब हिमाचल प्रदेश से ताल्लुक रखने वाली अभिनेत्री कंगना रणौत खुले रूप से भाजपा के कन्धे पर सवार होकर महाराष्ट्र सरकार और वहाँ के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के खिलाफ खड़ी हो गयीं। इसी दौरान महाराष्ट्र की बॉम्बे नगर पालिका (बीएमसी) ने उनके दफ्तर में नियम तोडऩे का आरोप लगाते हुए तोड़-फोड़ की, जिससे यह मसला पूरी तरह राजनीतिक रंग ले गया है।

पहले बात कंगना की

यह कोई ढकी-छिपी बात नहीं है कि कंगना भाजपा की समर्थक हैं। महीनों से वह भाजपा के समर्थन वाले ट्वीट अपने अंदाज़ में करती रही हैं। अब यह भी चर्चा है, खासकर हिमाचल में; कि वह भाजपा में शामिल हो सकती हैं। एक भाजपा नेता उन्हें भाजपा में शामिल होने का निमंत्रण भी दे चुके हैं। इसलिए आरोप लग रहे हैं कि भाजपा उनकी लोकप्रियता और बात कहने से नहीं डरने वाले व्यक्तित्व को अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल कर रही है, ताकि महाराष्ट्र सरकार को परेशानी में डाला जा सके। जैसी भाषा कंगना इस्तेमाल कर रही हैं, उससे साफ ज़ाहिर है कि इस फिल्म का निर्देशक कोई और है।

जब कंगना के मुम्बई वाले दफ्तर को लेकर बीएमसी ने नोटिस जारी किया, वह हिमाचल के मनाली में थीं। दो साल पहले बीएमसी ने कंगना रणौत को एक नोटिस जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि घर में गलत तरीके से बदलाव किया गया है। बीएमसी का आरोप था कि इसमें नियमों का उल्लंघन किया गया है। तब कंगना ने सीटी सिविल कोर्ट में जाकर स्टे ले लिया था। बीएमसी ने पिछले हफ्ते कैविएट फाइल किया, जिसमें उसने कहा कि स्टे ऑर्डर को रद्द किया जाए और उसे तोडऩे की इजाज़त दी जाए। हालाँकि कंगना का कहना है कि बीएमसी ने उन्हें कभी कोई नोटिस नहीं भेजा है, बल्कि उन्होंने अपने ऑफिस के सारे दस्तावेज़ खुद बीएमसी से पास करवाये थे। उन्होंने दो साल पहले के नोटिस की बात को झूठ बताया और कहा कि कम-से-कम सच बोलने की हिम्मत तो रखो। इतना झूठ किसलिए? कल को आपके साथ भी यही होगा।

बता दें खार इलाके में कंगना रणौत का घर डीबी ब्रिज नाम की बिल्डिंग में पाँचवीं मंज़िल पर है। इसमें आठ जगह पर बदलाव किये गये हैं। छज्जा और बालकनी में गलत तरीके से निर्माण का आरोप है। किचिन के एरिया में किये गये बदलाव को भी गलत बताया गया है। इससे पहले बीएमसी ने कंगना रणौत के मुम्बई स्थित मणिकर्णिका फिल्म्स के दफ्तर में कथित अवैध निर्माण गिरा दिया। हालाँकि बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी। हाई कोर्ट ने ऑफिस में अवैध निर्माण को गिराने में इतनी जल्दबाज़ी करने के लिए बीएमसी से जवाब माँगा।

कंगना के स्टूडियो पर जब कार्रवाई हुई, तब वह मुम्बई में नहीं थीं। मुम्बई लौटते ही कंगना ने खुले रूप से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पर हमला बोल दिया। उन्होंने मूवी माफिया कहते हुए करण जौहर को खुली चुनौती दे दी। कंगना ने एक ट्वीट में लिखा- ‘आओ उद्धव ठाकरे और करण जौहर गैंग। तुमने मेरे काम की जगह तोड़ी है, अब मेरा घर तोड़ दो। मेरा मुँह तोड़ो, शरीर तोड़ो। मैं चाहती हूँ कि दुनिया साफ-साफ देखे कि तुम लोग पीठ पीछे क्या करते हो। मैं मर जाऊँ या ज़िन्दा रहूँ, तुम लोगों को फिर भी एक्सपोज़ करूँगी।’

कंगना मनाली से जब मुम्बई लौटीं, तो जिस तरह उनके समर्थन में एयरपोर्ट में लोगों और संगठनों का जमाबड़ा किया गया, उससे साफ ज़ाहिर है कि भाजपा उन्हें महाराष्ट्र सरकार खासकर ठाकरे परिवार के खिलाफ लामबंद कर रही है। हालाँकि उनकी मुम्बई की तुलना पीओके से करने से वहाँ लोगों में उनके प्रति गुस्सा भी है। जब कंगना ने सुशांत की मौत का मामला उठाया था, तब उन्हें भरपूर समर्थन मिला था। हालाँकि जबसे उनके विरोध में राजनीति की एंट्री हुई, इसका उनके समर्थक वर्ग पर भी असर पड़ा है। फिलहाल कंगना खुले रूप से राजनीति में कूद चुकी हैं। भाजपा भी एक तरह खुलकर उनका साथ दे रही है। पहले से ही यह चर्चा रही है कि भाजपा किसी भी तरह महाराष्ट्र की सरकार को गिराना चाहती है। अब वह कंगना रूपी मोहरे को ठाकरे परिवार और महाराष्ट्र की गठबंधन वाली सरकार के खिलाफ आगे किये हुए है, भले कंगना भाजपा की राजनीति का औज़ार बनने के आरोपों से मना कर रही हो। आने वाले समय में इस जंग में और दिलचस्प घटनाएँ देखने को मिलेंगी।

रिया और मीडिया का रोल

सुशांत सिंह राजपूत की असमय मौत ने भले देश के लाखों लोगों और उनके प्रशंसकों को गहरा सदमा दिया, पर उनकी मौत भी आखिर में एक बेशर्म राजनीतिक तमाशे में बदल दी गयी। विपक्ष का तो आरोप था ही कि भाजपा सुशांत की दु:खद मौत को राजनीति और बिहार चुनाव के लिए इस्तेमाल कर रही है, इसमें मामले में सबसे शर्मनाक पहलू कुछ टीवी चैनलों का रहा। जिस तरह उन्होंने कोर्ट के किसी फैसले और यहाँ तक कि किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ आरोप-पत्र दायर होने से पहले ही किसी को दोषी और कातिल ठहराने वाली पत्रकारिता की, उससे ढेरों मीडिया के रोल पर गम्भीर सवाल उठे हैं। मीडिया ट्रायल का यह शर्मनाक उदाहरण रहा। अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती की जुलाई में इस मामले में तब एंट्री हुई जब सुशांत के परिवार ने उन पर 15 करोड़ रुपये के कथित हेर-फेर का आरोप लगाया। अगस्त में मीडिया ने एक तरह अपना समान्तर ट्रायल करके रिया को ही सुशांत की हत्या और साज़िश आदि का ज़िम्मेदार या उसका हाथ होने का दोषी बना दिया। लेकिन दुर्भाग्य से एक होनहार युवा अभिनेता की संदिग्ध मौत का यह मामला सितंबर आते-आते ड्रग्स के मामले तक सीमित हो गया। इस मामले में कई लोगों से पूछताछ हुई और 8 सितंबर को रिया को एनसीबी ने गिरफ्तार कर लिया। अब फिलहाल ड्रग्स के मामले में कार्रवाई चल रही है। अब यहाँ यह बड़ा सवाल उभर रहा है कि क्या रिया की ड्रग्स मामले में गिरफ्तारी के बाद सुशांत की मौत का मामला ठण्डा पड़ गया है? टीवी चैनलों ने जिस तरह सुशांत की मौत के मामले और ड्रग्स के मामले का घालमेल किया, वह पत्रकारिता का निकृष्ट उदाहरण है। अब यह रिपोर्ट लिखे जाने तक अनुत्तरित हैं। सुशांत सिंह राजपूत की मौत आत्महत्या ही थी या उनकी हत्या हुई है। आत्महत्या ही है; और क्या इसके पीछे भी उकसावा था? अगर था, तो किसका था? यह भी सवाल है कि सुशांत की मौत के महीने भर बाद जब 25 जुलाई को उनके परिवार ने बिहार की राजधानी पटना की पुलिस के सामने रिया के खिलाफ एफआईआर दर्ज करायी, तो उसमें रिया पर सुशांत के पैसे निकालने और उनके बेटे सुशांत को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप था। अब ड्रग मामले में रिया की गिरफ्तारी भी हो चुकी; लेकिन इस एफआईआर के मसले अभी भी अनसुलझे हैं। सेशंस कोर्ट ने रिया चक्रवर्ती और उनके भाई शोविक समेत सैमुअल, दीपेश, बासित तथा जैद की जमानत याचिका खारिज कर दी है। इन आरोपों के आधार पर हुई सीबीआई की जाँच में वास्तव में क्या सामने आया है? इसका कोई खुलासा अब तक नहीं हुआ है। देखना है कि आने वाले समय में यह मामला क्या रंग लेता है?

रफाल विमानों के लिए पक्षियों का खतरा

हरियाणा के अंबाला स्थित एयरबेस में देश के पहले पाँच रफाल लड़ाकू विमानों के आगमन के साथ भारतीय वायु सेना (आईएएफ) के महानिदेशक, निरीक्षण और सुरक्षा शाखा ने राज्य सरकार से अंबाला एयरबेस के आसपास कचरे के ढेर की जाँच करने के लिए कहा है। इस कचरे के ऊपर काली चील और कबूतर जैसे पक्षियों के झुण्ड मँडराते रहते हैं और इस तरह वायुयानों के लिए गम्भीर खतरा पैदा हो जाता है।

अंबाला में 29 जुलाई को शामिल रफाल विमानों की सुरक्षा को वायुसेना की सर्वोच्च प्राथमिकता बताते हुए आईएएफ के निरीक्षण और सुरक्षा शाखा के महानिदेशक एयर मार्शल मानवेंद्र सिंह ने हाल में हरियाणा के मुख्य सचिव शेषनी अरोड़ा को पत्र लिखा है। अंबाला में एयरबेस के आसपास पक्षियों की उपस्थिति बहुत अधिक है और टकराने की स्थिति में पक्षी से विमान को बहुत गम्भीर नुकसान पहुँच सकता है।

उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि हवाई क्षेत्र में पक्षियों की गतिविधि आसपास के क्षेत्र में कचरे की मौज़ूदगी के कारण है। पत्र में उन्होंने कहा कि इसे कम करने के लिए कई उपायों की सिफारिश की गयी है और अंबाला स्थित एयरफोर्स स्टेशन के एयर ऑफिसर कमांडिंग ने 24 जनवरी, 2019, 10 जुलाई, 2019 और 24 जनवरी, 2020 को एरोड्रम पर्यावरण प्रबन्धन समिति की बैठकों के माध्यम से अंबाला नगर निगम के संयुक्त आयुक्त और अतिरिक्त नगर आयुक्त से इस सिलसिले में मुलाकात की थी। पत्र में कहा गया है कि इससे यह ज़ाहिर होता है कि यह आवश्यक है कि लड़ाकू विमानों की सुरक्षा के लिए बड़े और छोटे पक्षियों को हवाई क्षेत्र से दूर रखा जाए। ऐसे में आईएएफ ने अंबाला हवाई क्षेत्र के आसपास 10 किलोमीटर के एरोड्रम क्षेत्र में चील जैसे बड़े पक्षियों की गतिविधि को कम करने के लिए ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन (एसडब्ल्यूएम) योजना को तत्काल लागू करने को कहा है। पत्र में आगे कहा गया है कि इसमें कचरा फैलाने के लिए ज़ुर्माना, कचरा संग्रहण में सुधार और उपयुक्त एसडब्ल्यूएम संयंत्र स्थापित करना शामिल होगा। साथ ही एयरफील्ड के आसपास कबूतर प्रजनन गतिविधि पर प्रतिबन्ध और नियंत्रण की माँग की गयी है। नागरिक प्रशासन से मदद की माँग करते हुए एयर मार्शल मानवेंद्र सिंह ने आगे लिखा है कि यह आवश्यक है कि लड़ाकू विमान की सुरक्षा और वायुसेना की इस विशिष्ट आवश्यकता को पूरा करने के लिए बड़े और छोटे पक्षियों को हवाई क्षेत्र से दूर रखा जाए। एयर मार्शल ने हरियाणा सरकार से स्पष्ट रूप से इस बहुमूल्य राष्ट्रीय सम्पत्ति को बचाने के लिए प्रक्रिया को तेज़ करने के अंबाला के स्थानीय अधिकारियों को निर्देश देने के लिए हस्तक्षेप की माँग की है।

कार्य प्रगति पर है

हरियाणा सरकार ने इस मामले को सबसे ज़रूरी और समयबद्ध मानते हुए शहरी स्थानीय निकाय विभाग को अलर्ट किया है और इसे तुरन्त कार्रवाई करने के लिए कहा है। यहाँ तक कि मुख्य सचिव ने कार्रवाई के लिए शहरी स्थानीय निकाय विभाग को आईएएफ का पत्र भी भेज दिया है। स्थानीय नगर निगम ने उन व्यक्तियों को नोटिस जारी करना शुरू कर दिया है, जो अंबाला आईएएफ स्टेशन के आसपास के क्षेत्रों में कबूतरों का प्रजनन कर रहे हैं और उन्हें अपने पक्षियों को एयरबेस क्षेत्र से 10 किलोमीटर दूर ले जाने के लिए कहा है। हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज, जो शहरी स्थानीय निकाय विभाग का ज़िम्मा भी सँभाल रहे हैं; ने कहा कि उन्होंने सम्बन्धित विभाग से कहा है कि वह इस मसले को गम्भीरता से लें और तेज़ी से कार्य करें; क्योंकि यह राष्ट्रीय महत्त्व का मामला है।

उन्होंने कहा कि चूँकि अंबाला में अभी तक अपना ठोस कचरा प्रबन्धन संयंत्र नहीं है, इसलिए मैंने विभाग को इसके लिए तत्काल निविदाएँ जारी करने का निर्देश दिया है। इसके अलावा शहरी निकाय विभाग को कबूतरों के प्रजनन को प्रभावी ढंग से जाँचने के लिए सख्त निर्देश जारी किये गये हैं और अधिकारियों ने कुछ लोगों को नोटिस भी भेजे हैं। साथ ही ज़िला प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि अंबाला छावनी में पडऩे वाले एयरबेस के आसपास के क्षेत्र में कबूतर प्रजनन के व्यवसाय में शामिल छ: परिवारों को शिफ्ट करने का भी निर्णय किया गया है। यह भी पता चला है कि अभी भी अंबाला छावनी के साथ-साथ अंबाला शहर में बड़ी संख्या में लोग हैं, जो कबूतर प्रजनन के व्यवसाय से जुड़े हैं। इसके अलावा फाइट फ्लाइंग और प्राइवेट ड्रोन उड़ान पर प्रतिबन्ध को एयरबेस क्षेत्र से तीन किलोमीटर से बढ़ाकर चार किलोमीटर करने का भी फैसला किया गया था।

बता दें कि यद्यपि अंबाला का अपना एसडब्ल्यूएम प्लांट एयरबेस से लगभग 10 किलोमीटर दूर पाटवी गाँव में स्थापित किया गया था, यह पिछले कई साल से उपयोग में नहीं था।

पक्षी टकराने की घटनाएँ

कुछ रिपोर्टों के अनुसार, फाइटर जेट की 10 फीसदी दुर्घटनाएँ सिर्फ पक्षी टकराने (बर्ड हिट) से ही होती हैं। भारतीय वायुसेना पक्षी-रोधक राडार और जनशक्ति की कमी के अलावा बहुत ही महत्त्वपूर्ण हवाई ठिकानों के आसपास कचरा जमा होने को समस्या का मुख्य कारण मानती है। अंबाला में भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमान को गम्भीर नुकसान पहुँचाने वाले पक्षी टकराने के उदाहरण दुर्लभ भी नहीं हैं।

उदहारण : जून, 2019 में आईएएफ के जगुआर फाइटर जेट को अंबाला एयरबेस से रुटीन उड़ान भरते समय पक्षी की चपेट में आने के बाद अपना पेलोड गिराना पड़ा था। एयरफील्ड और शहर के बलदेव नगर के आवासीय इलाके के पास ऑफ-लोडेड फ्यूल टैंक और प्रैक्टिस बम, हालाँकि काफी होते हुए भी; से किसी नुकसान की सूचना नहीं मिली थी। अप्रैल, 2019 की शुरुआत में भी जगुआर फाइटर जेट पायलट को अंबाला ज़िले के रोलन गाँव में खाली खेतों में तब दो ईंधन-ड्रॉप टैंकों को नीचे गिराना पड़ा था, जब विमान के एक इंजन को कुछ पक्षियों से टकराने के बाद नुकसान हुआ था। ईंधन टैंक या अन्य भार को तुरन्त हटाने का कदम जेट के वज़न को कम करने के लिए किया जाता है, ताकि आपातकालीन लैंडिंग के लिए इसे सक्षम किया जा सके।

इसी तरह अन्य हवाई ठिकानों पर भी पक्षी टकराने (बर्ड हिट) के मामले नये नहीं हैं। हाल में पड़ोसी राज्य राजस्थान के जोधपुर में भी सुखोई एसयू-30 एमकेआई को पक्षी टकराने से बड़ा नुकसान हुआ था। यह पता चला है कि अकेले जोधपुर में पिछले पाँच साल में 50 से अधिक पक्षी टकराने से जुड़े मामले दर्ज किये गये हैं। ग्वालियर एयरबेस, असम में तेजपुर एयरबेस और पश्चिम बंगाल में हासिमारा एयरबेस में भी लड़ाकू विमानों को कथित तौर पर पक्षी टकराने से नुकसान होने की रिपोट्र्स मिली हैं। आईएएफ पक्षियों को डराने के लिए बंदूकों और पटाखों का उपयोग करता है। हालाँकि यह एक असफल-सुरक्षित तरीका नहीं हो सकता है। भारत सरकार के पास वायुसेना और नौसेना के लिए बर्ड-डिटेक्शन राडार खरीदने की भी योजना है।

अंबाला एयरबेस का महत्त्व

अंबाला भारतीय वायुसेना के अग्रिम पंक्ति के ठिकानों में से एक है, जिसने कारगिल संघर्ष के दौरान सक्रिय भूमिका निभायी थी। लड़ाकू विमान मिराज 2000 को यहाँ तैनात किया गया था। एयरबेस में अन्य लड़ाकू विमान भी हैं, जैसे कि जगुआर स्ट्राइक एयरक्राफ्ट और आवश्यकता के अनुसार, अलग-अलग समय पर मिग-21 बाइसन्स। देश में छ: वायु कमांडों में से अंबाला एयरबेस पश्चिमी वायु कमान में आता है और चीन और पाकिस्तान से सीमाओं पर खतरों से निपटने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण हवाई अड्डों में से एक है।

इस एयरबेस की रणनीतिक लोकेशन के कारण ही बहु-भूमिका वाले रफाल लड़ाकू विमान अंबाला में रखे गये हैं। यह जगह भारत-पाकिस्तान सीमा के सबसे पास है और आपात स्थिति में तत्काल उड़ान भरने और पाकिस्तान के भीतर गहरे लक्ष्यों पर हमला करने के लिए निकटतम दूरी पर है। यही नहीं, अंबाला स्थित वायु सेना हवाई अड्डा चीन के साथ उत्तरी सीमाओं पर किये जाने वाले किसी भी हवाई हमले के लिए भी एक आदर्श प्रारम्भिक केंद्र भी है।

रक्षा बेड़े में शामिल हुआ राफेल

बता दें कि 10 सितंबर को राफेल विमान आधिकारिक रूप से वायुसेना के बेड़े में शामिल हो गया है। इस दौरान अंबाला एयरबेस में आयोजित कार्यक्रम में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ फ्रांस की रक्षा मंत्री फ्लोरेंस पार्ली भी शामिल हुईं।

हिन्दू-धर्म को समझना (7) – हिन्दू-दर्शन में माया : एक भ्रामक वास्तविकता या वास्तविकता के रूप में एक इंद्रियग्राह्य भ्रम

श्रुति-स्मृति द्वारा संचालित एक अखण्ड शृंखला (जब ज्ञान को सुनने और उसे पुनरावृत्ति से स्मृति में सहेजकर रखा जाता है) के माध्यम से पवित्र गूढ़ गुरु-शिष्य परम्परा (ज्ञान का गुरु से शिष्य तक प्रवाह) को एक ऋषि से दूसरे द्रष्टा तक बहने वाले दिव्य ज्ञान से आगे बढ़ाया गया।

महर्षि वेद व्यास ने इसे भोज-पत्र (एक विशेष प्रकार के सूखे पत्ते, जो समय के आवेग और वातावरण की अनिश्चितताओं को सहन कर गये) पर अपरिवर्तनीय प्राचीन ज्ञान की सच्चाई को उजागर करने के लिए लिखा। इससे ईश्वरीय ज्ञान को संरक्षित करने के लिए श्रुति-स्मृति मार्ग को छोडक़र सनातन विचार के परम्परागत हिन्दू ज्ञान, परम्पराओं और अवधारणाओं को उजागर किया गया। इस विशाल में से एक, अनंत ज्ञान का भण्डार, अब प्रलेखित, संहिताबद्ध और भावी पीढिय़ों के लिए दर्ज, कई सिद्धांतों, अवधारणाओं और पवित्र पुरुषों द्वारा उनके स्पष्टीकरण के असंख्य तरीकों से, एक विरोधाभास, जिसे लोकप्रिय रूप से माया के रूप में जाना जाता है; का अलग-अलग कथित धर्म-गुरुओं द्वारा कल्पना से परे तरीकों से चर्चा और दार्शनिक विश्लेषण किया गया है।

माया क्या है? इसकी पहेली को समझाने के लिए सबसे लोकप्रिय और बहुत व्यापक रूप से सुनायी गयी एक कहानी, ऋषि नारद (आकाशीय एवररिंग नारायण भगत से सम्बन्धित है; जिन्हें कुछ हास्य कहानियों में बुद्धिमान और शरारती दोनों के रूप में वर्णित किया गया है। लेकिन आमतौर पर भगवान श्री विष्णु के श्री नारायण के रूप में समर्पित भजनों के माध्यम से शुद्ध उच्चीकृत आत्मा के रूप में दर्शाया गया है। यह दिलचस्प कहानी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ऋषि नारद के साथ क्या किया? इसका सम्बन्ध माया के बारे में उनके उस सवाल के जवाब में है।

देवर्षि नारद ने सदा जिज्ञासु और हमेशा-हमेशा चलने वाले दिव्य वरदान के रूप में एक बार योगेश्वर श्रीकृष्ण से पूछा- ‘भगवान! मैंने आपकी माया के बारे में बहुत सुना है; लेकिन कभी देखी नहीं है। कृपया मुझे माया दिखाएँ।’ भगवान श्रीकृष्ण ने ऋषि नारद को अपने साथ रेगिस्तान की ओर एक यात्रा करने के लिए कहा। कई मील चलने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने ऋषि से कहा कि वह उनकी प्यास बुझाने के लिए पानी लाएँ। ऋषि नारद पास के एक गाँव में गये और एक दरवाज़े पर दस्तक दी, जिसे एक खूबसूरत युवती ने खोला। उसे देखते ही नारद भूल गये कि उनका वह भगवान, जिनके लिए वह हर समय प्रार्थना करते हैं, पानी के लिए रेगिस्तान में इंतज़ार कर रहे हैं। वह खूबसूरत युवती से बातें करने लगे। उन्होंने पूरे दिन और रात को बात की, और अगले दिन वापस उस सुन्दर युवती के पिता से उसका हाथ माँगने के लिए गये।

ऋषि और खूबसूरत युवती की शादी हुई और उनके बच्चे हुए। अपने ससुर की मृत्यु के बाद उन्हें अपनी सारी सम्पत्ति विरासत में मिली और बहुत समृद्ध जीवन जीया। इस तरह से 12 साल बीत गये। एक दिन पश्चिम दिशा से एक बड़ा तूफान आया, जिसके कारण बाढ़ आ गयी और नदी किनारे के गाँव बह गये। हताशा में नारद ऋषि ने अपने तीन बच्चों और पत्नी को पकड़ लिया और अत्यधिक अशांत पानी से बचाने की कोशिश की। लेकिन एक के बाद एक उसने अपने बच्चों पर अपनी पकड़ खो दी और आखिर में उसकी पत्नी भी बह गयी। वह तैरकर नदी के तट तक पहुँचे और वहाँ पहुँचकर गिर गये। फिर निराशा में रोये कि उनका सब खो गया। तभी उनके पीछे से एक कोमल आवाज़ आयी- ‘हे वत्स! पानी कहाँ है? आप मेरे लिए पानी लाने गये थे, और मैं आधे घंटे से आपका इंतज़ार कर रहा हूँ।’ नारद ऋषि यह मान ही नहीं सकते थे कि पिछले 12 साल की जो यादें उनके दिमाग में भरी थीं, वे मुश्किल से आधे घंटे में ही हुईं। भगवान कृष्ण मुस्कुराये और कहा- ‘यह सब माया है। सभी इंसान इस तरह अपना जीवन बिताते हैं; लेकिन बहुत कम लोगों के पास यह अनुभव होता है, जो अब आपके पास है। अब आपको कभी नहीं भूलना चाहिए कि माया क्या है?’

यदि पास के गाँव में जा रहे हैं, यदि देवर्षि नारद जैसे विद्वान ऋषि ब्रह्माण्ड के भगवान के लिए अपनी आजीवन भक्ति को भूल सकते हैं और दूसरे जीवन का सपना देखते हुए गहरी नींद में गिर सकते हैं, तो कोई भी कम ज्ञानी व्यक्ति आसानी से सांसारिक सुख और कुछ ही समय में सभी प्रकार की कल्पनाएँ बनाने का शिकार हो सकता है। इस रूपक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण हमें अपने सपनों से ही नहीं जगाते हैं, बल्कि हमें नश्वरता देते हैं कि हम अपनी दिवास्वप्नों को जाने दें। जैसा कि देवर्षि नारद ने सीखा था। उन्होंने माया के विषय पर किताबें पढ़ी होंगी, और उन्होंने बड़े-बड़े आचार्यों को इस पर बातचीत करते हुए सुना भी होगा, लेकिन वे तब भी सपने देखते रहे; क्योंकि वह अपने भ्रमों के जाल में फँसे थे।

उसे खुद को उस हिस्से के साथ सम्पर्क बनाने और सम्पर्क बनाने की ज़रूरत थी, जो चीज़ों का अनुभव कर सके। कृष्ण जानते थे कि क्या चाहिए? उन्होंने समझा कि नारद को ऐसी परिस्थितियों में रखा जाना चाहिए, जो ध्यान के बल को सक्रिय करने में मदद करें। इसलिए नारद को माया के बारे में पढ़ाने की पेशकश करने के बजाय, उन्होंने उसे अपने लिए अनुभव करने के लिए भेज दिया।

एक अन्य रहस्यमय उदाहरण फिर से योगेश्वर श्रीकृष्ण के साथ जुड़ा हुआ है, जब लोकप्रिय धारणा के अनुसार माना जाता है कि उन्होंने गीता की पवित्र पुस्तक के सभी 18 अध्यायों का खुलासा किया है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस सारे दिव्य ज्ञान में 700 श्लोक शामिल थे, जो बहुत ही विद्वान व्यक्ति के लिए अकेले पढऩे में कम से कम कुछ घंटे लगाते थे; सुनने, बात करने और फिर दिव्य संदेश पर अभिनय करने के लिए नहीं।

जब दोनों पक्षों की सेनाएँ युद्ध गर्जना के बीच हाथियों और घोड़ों पर सवार होती थीं और वे सभी तरह के हथियारों और पैदल सैनिकों से लैस होकर एक अर्धचंद्राकार में आक्रामक मुद्रा धारण करती थीं, तो इस स्थिति कैसे अनुभवहीन, अनिर्णय से घिरा और भयभीत जिज्ञासु योद्धा कैसे दैवी ज्ञान के इस लम्बे वर्णन को सुन सकता है।

इस कहानी के अनुसार, भगवान ने स्वयं अर्जुन को योद्धा के रूप में अपना विराट रूप दिखाया, जिससे उन्हें अपने कर्तव्य का एहसास हुआ या जिसे उनका स्वधर्म कहा गया। यदि किसी ने भी पूरी श्रद्धा के साथ ऋषि नारद की कहानी सुनी या पढ़ी है, तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि सम्पूर्ण दिव्य ज्ञान स्वयं भगवान द्वारा अवगत कराया गया था और साधक अर्जुन ने तुरन्त अपने परिचित समय के पैमाने पर जाना। यह फिर से माया का एक बहुत ही आकर्षक, अभी तक परिचित, गूढ़ उदाहरण है- सनातन हिन्दू दर्शन का शाश्वत् विरोधाभास। माया की अवधारणा में गहराई से उतरना यहीं नहीं रुकता।

नयी मुसीबत में फँसे सिंधिया

कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया, जो कि अब राज्यसभा सांसद हैं, एक नयी मुसीबत में फँस गये हैं। दरअसल उन पर 100 बीघा सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने का आरोप है। इस ज़मीन की कीमत करीब 600 करोड़ रुपये बतायी जाती है। इस ज़मीन को लेकर उन पर चल रहे मुकदमे की हाल ही में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में सुनवाई थी। इस ज़मीन को लेकर जनहित याचिका दायर करने वाले याचिकाकर्ता ग्वालियर के सामाजिक कार्यकर्ता ऋषभ भदौरिया हैं। हाई कोर्ट ने इस मामले में मध्य प्रदेश सरकार से जवाब देने को कहा है।

बता दें कि इससे छह महीने पहले भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ ज़मीन से जुड़े दो मामलों में आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ (ईओडब्ल्यू) ने जाँच की थी। बाद में सिंधिया के एक ज़िम्मेदार अधिकारी ने बताया कि दोनों मामलों को सुबूतों के अभाव में खत्म कर दिया गया है। सवाल यह उठता है कि दोनों मामले उनके भाजपा में शामिल होने के बाद ही समाप्त कैसे हो गये?

वैसे मध्य प्रदेश के राजनीतिक जानकारों की मानें, तो ज्योतिरादित्य सिंधिया पर ज़मीन हथियाने के अब तक कई आरोप लग चुके हैं। उन पर ईओडब्ल्यू की जाँच तक चले जिन दो मामलों को खत्म करने की बात उनके ज़िम्मेदार अधिकारी ने कही, उनमें एक मामले का शिकायतकर्ता सुरेंद्र श्रीवास्तव नाम का एक शख्स था।

इस मामले में आवेदक का आरोप था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके परिजनों ने 2009 में ग्वालियर के महलगाँव की सर्वे नम्बर-916 की ज़मीन खरीदकर रजिस्ट्री में हेरफेर कराकर उसकी 6000 वर्ग फीट ज़मीन कम कर दी। वहीं दूसरे मामले में सिंधिया देवस्थान के चेयरमेन और ट्रस्टियों द्वारा राजस्व विभाग के अधिकारियों और प्रशासनिक अधिकारियों से मिलकर सर्वे नम्बर-1217 की सरकारी ज़मीन के फर्ज़ी दस्तावेज़ तैयार करके बेचने का आरोप लगाया गया है। इसके अलावा उन पर शिवपुरी के पास आदिवासियों की करीब 700 बीघा ज़मीन हड़पने का भी आरोप लगा था। सिंधिया पर यह आरोप जून-जुलाई, 2019 में भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं राज्यसभा सदस्य प्रभात झा ने लगाया। तब सिंधिया कांग्रेस में थे। प्रभात झा ने उस समय कहा था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस ज़मीन पर कब्ज़ा जमाया, उस ज़मीन के सरकारी कागज़ हैं। उन्होंने तब के मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ से आग्रह किया था कि वह इस मामले की जाँच करवाएँ।

अब इस 100 बीघा सरकारी ज़मीन मामले में मध्य प्रदेश के राजनीतिक जानकारों ने बताया है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने यह ज़मीन 100 रुपये के आसपास में ली थी। हालाँकि इसके सुबूत नहीं मिल सके हैं, पर आरोप यही है। मगर यह बात सही है कि ज़मीन सरकारी है। बताया जा रहा है कि यह ज़मीन ज्योतिरादित्य सिंधिया चेरिटेबल और कमलराजा चेरिटेबल ट्रस्ट के नाम से ली गयी है। इस ज़मीन पर फिलहाल सुनवाई हो रही है, क्योंकि मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ 3 अगस्त को याचिकाकर्ता ने माँग की कि इस मामले में केंद्र सरकार का पक्ष भी सुना जाना चाहिए।

याचिकाकर्ता के वकीलों डी.पी. सिंह और अवधेश सिंह तोमर ने दलील दी कि देश की आज़ाद के वक्त तत्कालीन रियासतों का विलय किया गया था, तब केंद्र सरकार ने रियासतों के राजाओं के साथ एक प्रतिज्ञा पत्र तैयार कराया था कि कौन-सी सम्पत्तियाँ राजा के पास रहेंगी और कौन-सी सरकारी हो जाएँगी। इसी सिलसिले में 30 अक्टूबर 1948 को केंद्र सरकार व तत्कालीन सिंधिया राजघराने के बीच एक प्रतिज्ञा पत्र तैयार हुआ था। इसलिए 22 सर्वे नम्बरों की 100 बीघा ज़मीन ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलराजा ट्रस्टों के नाम की गयी थी, उसका उल्लेख केंद्र सरकार और ग्वालियर की पूर्ववर्ती सिंधिया रियासत के बीच हुए करार में है या नहीं? यह बात केंद्र सरकार ही बता सकती है। केंद्र सरकार की रिपोर्ट के आधार पर ही पता चलेगा कि यह ज़मीन किसकी है?

इस अपील पर हाई कोर्ट ने वकीलों से पूछा कि किसी पक्षकार को बनाने के लिए जवाब की ज़रूरत क्या है? लेकिन याचिकाकर्ता ने दोबारा अपनी माँग दोहरायी और कोर्ट को यह भी बताया कि ग्वालियर शहर के सिटी सेंटर, महलगाँव ओहदपुर, सिरोल की सरकारी ज़मीन को राजस्व अधिकारियों ने इन दोनों ट्रस्टों के नाम किया है। तब हाई कोर्ट ने इस रिपोर्ट को पेश करने के लिए मध्य प्रदेश सरकार की ओर से हाई कोर्ट में मौज़ूद वकील से कहा, जिस पर उन्होंने इसके के लिए समय माँगा।

सिंधिया ने फँसने पर स्कूल निर्माण की कही बात

जानकार कहते हैं कि इस ज़मीन के विवाद में फँसने पर ज्योतिरादित्य सिंधिया अब ज़मीन पर स्कूल निर्माण की बात कह रहे हैं। याचिकाकर्ता और कुछ अन्य लोगों की मानें, तो राज्यसभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा पहले इस ज़मीन का उपयोग निजी हित में किये जाने की कोशिशें की गयीं; लेकिन जब मामला अदालत में पहुँचा, तो उन्होंने इस पर स्कूल निर्माण का राग अलापना शुरू कर दिया। लोगों का कहना है कि अगर सिंधिया को इस ज़मीन पर स्कूल ही बनवाना था, तो अब तक निर्माण शुरू क्यों नहीं किया गया और यह बात उन्होंने अदालत में मुकदमा दर्ज होने से पहले क्यों नहीं कही। हालाँकि इस मामले में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बहुत कुछ बोलने से परहेज़ किया है; लेकिन उन्हें बताना चाहिए कि यदि वह इस सरकारी ज़मीन पर वाकई स्कूल बनाना चाहते हैं और अगर भविष्य में ऐसा हुआ, तो क्या इस स्कूल में गरीबों के बच्चे पढ़ सकेंगे?

यह सवाल इसलिए भी बहुत ज़रूरी है, क्योंकि स्कूल तो ट्रस्टों के ज़रिये ही बनेगा और देश भर का रिकॉर्ड है कि ट्रस्टों के नाम पर सस्ते दामों में सरकारी ज़मीनों को लेने वाले ट्रस्टों या समाजसेवी संगठनों या संस्थाओं ने इनका इस्तेमाल व्यापारिक तरीके से किया है और जमकर पैसा कमाया है। ट्रस्टों के नाम पर बने कई स्कूल तो ऐसे हैं, जिनमें गरीबों के बच्चे मिलेंगे ही नहीं। अगर कोई एकाध गरीब का बच्चा वहाँ पढ़ भी रहा है, तो उसके साथ एक जैसा और सही व्यवहार नहीं होता।

मध्य प्रदेश सरकार की बढ़ रही मुुुश्किल

इन दिनों मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार काफी मुश्किलों का सामना कर रही है। इसके तीन-चार कारण हैं। एक यह कि कोरोना की रोकथाम को लेकर शिवराज सरकार को कोई खास सफलता नहीं मिल सकी है। दूसरा यह कि जबसे मध्य प्रदेश में कांग्रेस की मध्यावर्ती सरकार गिरने के बाद शिवराज की सरकार बनी है, तबसे किसानों की आत्महत्याएँ, प्रशासन के द्वारा ही किसानों की खेती की ज़मीन को जबरन छीनने की कोशिश और उनकी पिटाई, जिसमें कई किसानों ने आत्महत्या की कोशिश तक की; किसानों के प्रदर्शन भी बढ़ गये। और अब बेरोज़गार युवाओं ने रोज़गार की माँग को लेकर प्रदर्शन करके मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार की नाक में दम कर दिया है। जगह-जगह प्रदर्शन के चलते इन बेरोज़गारों को पुलिस ने हिरासत में भी लिया; लेकिन इससे बेरोज़गारों के प्रदर्शन और सरकार के खिलाफ नारेबाज़ी में कोई कमी नहीं आयी। अब आलम यह है कि बेरोज़गारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। शिवराज सरकार की अगली सबसे बड़ी समस्या है विधानसभा के उप चुनाव में उसकी जीत का संकट। विदित हो कि कांग्रेस के विधायकों को तोडऩे के बाद शिवराज सिंह चौहान ने सरकार तो बना ली, लेकिन 27 सीटों पर उप चुनाव होने थे, जो अभी तक नहीं हुए हैं।

हालाँकि यह उप चुनाव सीटें खाली होने के छ: महीने के अन्दर होने थे; लेकिन कोरोना के चलते लगे लॉकडाउन की वजह से अभी तक नहीं हुए हैं, जबकि शिवराज सरकार के गठन को छ: महीने हो गये हैं। मुश्किल यह है कि मध्य प्रदेश की जनता में अधिकतर लोग शिवराज सरकार के काम से असंतुष्ट नज़र आ रहे हैं, और इस बात को खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी अच्छी तरह समझ रहे हैं। उप चुनाव सितंबर में ही होने की बात भी अब फीकी पड़ती नज़र आ रही है; क्योंकि अभी तक इनकी तारीख तय नहीं हुई है। वहीं चुनाव आयोग ने इस उप चुनाव को लेकर कानून मंत्रालय को प्रस्ताव भेजा है, जिसमें मध्य प्रदेश में उप चुनाव टालने को लेकर कहा गया है। विपक्ष यानी कांग्रेस का कहना है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान चुनाव नहीं कराना चाहते, क्योंकि वह जानते हैं कि भाजपा को हार का सामना करना पड़ सकता है, जिसके आसार भी नज़र आ रहे हैं। वहीं सट्टा बाज़ार के सूत्रों के मुताबिक, उप चुनावों में भाजपा की हार होने पर ज़्यादा चर्चा है।

हालाँकि सट्टा बाज़ार की जानकारियों को प्रमाणित नहीं कहा जा सकता है, मगर इन खबरों को काफी पक्के तौर पर माना जाता है। ऐसे में शिवराज सरकार द्वारा प्रदेश की सत्ता में बने रहने पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं। राजनीति के जानकार पवन सिंह कहते हैं कि मामा (शिवराज सिंह चौहान) ने मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बना तो ली है, लेकिन अब उन्हें जन-समर्थन उस तादाद में नहीं मिल रहा है, जितना कि पहले मिला करता था। ऐसे में अगर उप चुनाव हुए, तो शिवराज सरकार के मध्य-काल में ही गिर जाने की आशंका है। लोग अब भी कांग्रेस को ही अच्छा मान रहे हैं और उप चुनाव में कांग्रेस को ही ज़्यादा सीटें दे सकते हैं। सुनने में यह भी आया है कि उप चुनाव के मद्देनज़र मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लोगों को तरह-तरह के प्रलोभन दे रहे हैं।

राज्यसभा के 24 फीसदी सदस्यों के खिलाफ हैं आपराधिक मामले

जब नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स ने एक सूची जारी करके खुलासा किया कि 2019 के लोक सभा चुनाव में जीतने वाले कुल 539 विजेता में से 233 लोकसभा सदस्यों ने चुनाव के दौरान खुद के खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किये थे, तो इस जानकारी ने कई की भौंहें चढ़ा दीं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि घोषित आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवार के लिए लोकसभा में जीतने की सम्भावना 15.5 फीसदी थी, जबकि स्वच्छ पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के लिए यह केवल 4.7 फीसदी थी।

विडम्बना यह है कि बात जब राज्यसभा की आती है, तो कहानी अलग नहीं है। कुल 229 राज्यसभा सांसदों का विश्लेषण किया गया, तो ज़ाहिर हुआ कि इनमें से 54 अर्थात् (24 फीसदी) राज्यसभा सदस्यों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किये हैं। राज्यसभा की 233 सीटें हैं, जिनमें से तीन सीटें खाली हैं। नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) ने 230 राज्यसभा सदस्यों में से 229 के शपथ पत्रों का विश्लेषण किया। एक सांसद का विश्लेषण नहीं किया गया है; क्योंकि उसका हलफनामा अनुपलब्ध था।

एडीआर के पास उपलब्ध आँकड़ों से पता चलता है कि विश्लेषण किये गये 229 राज्यसभा सदस्यों में से 54 अर्थात् (24 फीसदी) राज्यसभा सांसदों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किये हैं। साथ ही 28 अर्थात् (12 फीसदी) राज्यसभा सदस्यों ने गम्भीर आपराधिक मामले घोषित किये हैं। लोकसभा की बात देखें, तो लोकसभा चुनाव-2019 में विश्लेषण किये गये 539 विजेता उम्मीदवारों में से, 233 अर्थात् (43 फीसदी) सदस्यों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किये हैं। इनमें से 19 सांसद ऐसे हैं, जिन्होंने महिलाओं के खिलाफ अपराधों से सम्बन्धित मामलों की घोषणा की है। इनमें से तीन ने बलात्कार (आईपीसी की धारा-376) से सम्बन्धित हैं; जबकि छ: ने अपहरण से सम्बन्धित मामलों की घोषणा की है। हलफनामे में, जेडीयू के 16 विजेता उम्मीदवारों में से 13

(81 फीसदी), आईएनसी के 51 विजेताओं में से 29 (57 फीसदी), डीएमके से 23 विजेताओं में से 10 (43 फीसदी), एआईटीसी के मैदान में उतरे 22 विजेताओं में से 9 (41 फीसदी) और भाजपा के 301 विजेताओं में से 116 (39 फीसदी) ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किये हैं। राजनीतिक दलों में जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) में आपराधिक रिकॉर्ड वाले सांसदों का फीसदी सबसे अधिक है। केरल में इडुक्की निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस सांसद डीन कुरीकोकोस ने अपने खिलाफ 204 आपराधिक मामले घोषित किये हैं। इनमें दोषपूर्ण हत्या, घर पर अत्याचार, डकैती, आपराधिक धमकी आदि से सम्बन्धित मामले शामिल हैं। गम्भीर आपराधिक मामलों की बात आने पर यह आँकड़ा कहीं अधिक भयावह है। लगभग 159 (29 फीसदी) विजेताओं ने इस बार बलात्कार, हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध आदि से सम्बन्धित मामलों सहित गम्भीर आपराधिक मामलों की घोषणा की है।

हत्या और हत्या के मामलों की कोशिश

उम्मीदवारों की शपथ पत्र के आधार पर संकलित एडीआर और इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट से पता चलता है कि महाराष्ट्र से एक राज्यसभा सांसद, भोंसले श्रीमंत उदयनराजे प्रतापसिंह महाराज (भाजपा) ने हत्या (आईपीसी धारा-302) से सम्बन्धित मामलों की घोषणा की है। चार राज्यसभा सांसदों ने हत्या के प्रयास – भारतीय दंड संहिता (भादंसं) की धारा-307 – से सम्बन्धित मामलों की घोषणा की है।

महिलाओं के खिलाफ अपराध

चार राज्यसभा सदस्यों ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों से सम्बन्धित मामलों की घोषणा की है। चार सांसदों में से एक, राज्यसभा सदस्य राजस्थान के के.सी. वेणुगोपाल (कांग्रेस) ने बलात्कार (भादंसं की धारा-376) से सम्बन्धित मामला घोषित किया है। जब आपराधिक मामलों के साथ राज्यसभा सदस्यों की पार्टीवार भागीदारी की बात आती है, तो भाजपा के 77 राज्यसभा सांसदों में से 14 (18 फीसदी), कांग्रेस के 40 राज्यसभा सदस्यों में से 8 (20 फीसदी), टीएमसी के 13 में से 2 (15 फीसदी) बीजद के 9 राज्यसभा सांसदों में से 3 (33 फीसदी), वाईएसआरसीपी के 6 राज्यसभा सदस्यों में से 3 (50 फीसदी) और सपा के 8 राज्यसभा सांसदों में से 2 (25 फीसदी) ने अपने हलफनामों में खुद के खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किये हैं।

गम्भीर आपराधिक मामलों के साथ पार्टी के राज्यसभा सांसदों का डेटा दर्शाता है कि भाजपा के 77 राज्यसभा सांसदों में से 5 (6 फीसदी), कांग्रेस के 40 राज्यसभा सांसदों में से 6 (15 फीसदी), टीएमसी के 13 राज्यसभा सदस्यों में से 1 (8 फीसदी), बीजेडी के 9 राज्यसभा सदस्यों में से 1 (11 फीसदी), वाईएसआरसीपी के 6 राज्यसभा सदस्यों में से 3 (50 फीसदी) और आरजेडी के 5 राज्यसभा सांसदों में से 3 (60 फीसदी) ने खुद के खिलाफ गम्भीर अपराधी मामलों को अपने हलफनामों में घोषित किया है।

जब हम आपराधिक मामलों वाले राज्य वार राज्यसभा सदस्यों की बात करते हैं, तो उत्तर प्रदेश के 30 राज्यसभा सदस्यों में से 6 (20 फीसदी), महाराष्ट्र के 19 राज्यसभा सांसदों में से 8 (42 फीसदी), तमिलनाड के 18 में से 4 (22 फीसदी), पश्चिम बंगाल के 16 राज्यसभा सांसदों में से 2 (13 फीसदी) और बिहार के 15 राज्यसभा सदस्यों में से 8 (53 फीसदी) ने अपने हलफनामों में खुद के खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किये हैं।

अमीर सांसद

एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि 86 राज्यसभा सदस्यों के पास 10 करोड़ रुपये से अधिक की सम्पत्ति है, जबकि 36 के पास पाँच-पाँच करोड़ रुपये से अधिक की सम्पत्ति है। वास्तव में 229 में से राज्यसभा सांसदों का विश्लेषण किया जाए तो 203 (89 फीसदी) करोड़पति हैं। प्रमुख दलों में भाजपा के 77 राज्यसभा सदस्यों में से 69 (90 फीसदी), कांग्रेस के 40 राज्यसभा सांसदों में से 37 (93 फीसदी), एआईएडीएमके के 9 (100 फीसदी) राज्यसभा सदस्य और टीएमसी के 13 में से 9 (69 फीसदी) राज्यसभा सदस्य करोड़पति हैं।

प्रमुख दलों में 77 भाजपा राज्यसभा सांसदों की प्रति सांसद औसत सम्पत्ति 27.74 करोड़ रुपये है; 40 कांग्रेस राज्यसभा सांसदों के पास औसत सम्पत्ति 38.96 करोड़ रुपये है। वहीं 13 टीएमसी राज्यसभा सांसदों के पास औसत सम्पत्ति 3.46 करोड़ रुपये और 9 एआईएडीएमके राज्यसभा सांसदों के पास 12.40 करोड़ रुपये हैं। सबसे ज़्यादा सम्पत्ति वाले शीर्ष तीन राज्यसभा सांसद महेंद्र प्रसाद (जेडीयू, बिहार), अल्ला अयोध्या रामी रेड्डी (वाईएसआरसीपी आंध्र प्रदेश) और जया अमिताभ हैं।

राज्यसभा के 24 (10 फीसदी) सांसदों ने अपनी शैक्षणिक योग्यता 8वीं और 12वीं पास के बीच की घोषित की है, जबकि 200 (87 फीसदी) राज्यसभा सांसदों ने स्नातक या उससे ऊपर की शैक्षिक योग्यता होने की घोषणा की है।

कुल 5 राज्यसभा सांसद डिप्लोमा धारक हैं। चार (2 फीसदी) राज्यसभा सांसदों ने अपनी उम्र 31 से 40 साल के बीच बतायी है, जबकि 117 (51 फीसदी) राज्यसभा सांसदों ने अपनी उम्र 41 से 60 साल के बीच बतायी है। राज्यसभा सांसद 105 (46 फीसदी) हैं, जिन्होंने अपनी आयु 61 से 80 वर्ष के बीच होने की घोषणा की है। तीन राज्यसभा सांसद ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी आयु 80 वर्ष से अधिक होने की घोषणा की है। कुल 229 राज्यसभा सदस्यों में से केवल 22 (10 फीसदी) राज्यसभा सदस्य ही महिलाएँ हैं।

कोरोना-काल में बढ़ी बेरोज़गारी में नये अवसर, नये रोज़गार

कोरोना काल में पूरी दुनिया में लगे लॉकडाउन ने बहुतों के रोज़गार छीन लिए, रोज़ी-रोटी की समस्या पैदा कर दी, कितनों का जीने का हौसला छीन लिया। लेकिन कहते हैं कि परिस्थितियों का मुकाबला करके जीने का नाम ही ज़िन्दगी है। यानी इंसान वही है, जो हर परिस्थिति में जीने का रास्ता निकाल ले। इस बात को शायद ही सदियों तक भुलाया जा सके कि दुनिया भर के 92 फीसदी लोगों पर कोरोना वायरस के संक्रमण का बेहद खराब असर पड़ा है। 92 फीसदी इसलिए, क्योंकि दुनिया के 8 फीसदी लोग, जो सबसे ज़्यादा ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी जीते हैं, उन्हें इस महामारी से कोई नुकसान नहीं हुआ है। यह वो अमीर लोग हैं, जो अथाह सम्पत्तियों के मालिक हैं। कोरोना वायरस की महामारी ने जिन 92 फीसदी को प्रभावित किया, उनमें करोड़ों लोग धन हानि से जूझ गये। लाखों लोगों की मौत हो गयी और लाखों लोग अभी भी रोज़ी-रोटी की िकल्लत से जूझ रहे हैं। अगर तरह की कम्पनियाँ बन्द हो गयीं, जिससे लोगों के रोज़गार तो गये ही, लाखों लोगों की नौकरी भी चली गयी। इसके अलावा कई काम-धन्धों पर कुछ समय के लिए रोक लगा दी गयी, उदाहरण के तौर पर रेस्टोरेंट और बहुत-से होटल तक बन्द कर दिये गये। लेकिन वहीं कुछ लोगों ने इस परेशानी वाले दौर में भी कुछ रोज़गार करने शुरू कर दिये हैं। इन रोज़गारों में मास्क बनाना, सैनेटाइज बनाना और घर से खाना बनाकर ऑनलाइन सप्लाई करना आदि शामिल हैं।

लॉकडाउन में स्वरोज़गार करने वाले कुछ लोगों से हमने बात की, तो पता चला कि इन लोगों ने दिमाग का इस्तेमाल करते हुए कम सही, लेकिन पैसा कमाया और अपना घर चलाते रहे। दिल्ली में रहने वाली चेतना कपूर ने बताया कि वह इस कोरोना महामारी में मास्क बनाती हैं। साथ ही उन्होंने बताया कि वह अकेले की रोज़ी-रोटी के लिए ही यह काम नहीं करतीं, बल्कि एक दर्ज़न से अधिक महिलाओं को भी उन्होंने इस काम से जोड़ा है। इसके लिए उन्होंने उन्हें ट्रेनिंग देकर रोज़गार का रास्ता तैयार किया है। चेतना कपूर ने बताया कि आज इस लॉकडाउन और बेरोज़गारी के दौर में भी, जो महिलाएँ घर में बैठी रहती थीं, वे इस खाली समय में पाँच से छ: हज़ार रुपये तक महीने में कमा रही है। चेतना कपूर ने बताया कि वह खुद इस काम से 15-20 हज़ार रुपये महीने कमा लेती हैं। इसके अलावा वह प्रीमिक्स बनाना सिखाती हैं। चेतना कपूर के अनुसार, यह एक हेल्दी और पाँच से 10 मिनट में आसानी से बन जाता है। प्रीमिक्स कई तरह का होता है। लॉकडाउन में जब बाहर के खाने के शौकीनों को घर में तुरन्त बाहर के स्वाद जैसा खाना चाहिए, तो वह प्रीमिक्स का इस्तेमाल कर सकते हैं। चेतना कपूर के अनुसार, कोरोना-काल में प्रीमिक्स की बिक्री में काफी उछाल आया है। खाने के प्रोडक्ट को कैसे बेचें, इस सवाल के जवाब में चेतना कपूर कहती हैं कि ऑनलाइन खाना बेचने वाली कम्पनियों के ज़रिये अपने घर में बनाकर खाने की सप्लाई की जा सकती है।

चेतना कपूर का कहना है कि लॉकडाउन में उन्होंने न केवल अपना घर चलाने के लिए पैसे कमाये, बल्कि घरों में बेकार बैठी अनेक महिलाओं के लिए भी रोज़गार का ज़रिया तैयार किया। यह पूछने पर कि क्या मास्क के साथ-साथ घर में सैनेटाइजर भी बना सकते हैं? उन्होंने कहा कि बना सकते हैं, लेकिन उसके लिए लाइसेंस लेना बहुत ज़रूरी है।

इस बारे में गली-गली सब्ज़ी बेचने वाले ब्रजपाल उर्फ राजा ने बताया कि कोरोना महामारी से पहले उनका बेल्डिंग का काम था। लेकिन जैसे ही लॉकडाउन लगा, उनका काम एकदम चौपट हो गया। घर चलाने की समस्या ने उन्हें दूसरा काम करने पर मजबूर किया। लेकिन उनके आगे दो समस्याएँ थीं, एक यह कि वह क्या करें? जिससे घर का खर्च चलता रहे और दूसरा यह कि उस काम के लिए उनकी जेब में बजट है या नहीं? तब उनके दिमाग में सब्ज़ी बेचने का विचार आया और उन्होंने 1200 रुपये का एक पुराना ठेला खरीदा तथा उस पर मण्डी से 600 रुपये की सब्ज़ी लाकर गली-गली बेचने लगे। शुरू में उन्हें थोड़ी झिझक भी हुई और आमदनी भी कम हुई; पर बाद में उनका यह काम भी खूब चलने लगा। आज वह इस काम से ठीकठाक कमा रहे हैं।

ब्रजपाल उर्फ राजा के काम बदलने में प्रधानमंत्री के महामारी में अवसर ढूँढने की बात काफी फिट बैठती है। अवसर का मतलब बहुत-से लोगों ने भले ही जो निकाला हो, पर अवसर का मतलब यह भी होता है कि चाहे जैसी परिस्थिति हो, इंसान को जीना सीखना चाहिए।

रोज़गार बढऩे से उबरेगी अर्थ-व्यवस्था

आर्थिक मामलों के जानकारों का कहना है कि देश की अर्थ-व्यवस्था को सुधारने के लिए उद्योगों को फिर से शुरू करना होगा, जिन्हें चलाने के लिए पूँजी के साथ-साथ लॉकडाउन में अपने-अपने घरों को लौट चुके श्रमिकों को वापस बुलाना बहुत ज़रूरी है। इसके लिए दिल्ली मॉडल की तरह रोज़गार मुहैया कराने होंगे। पिछले दिनों दिल्ली सरकार की पहल पर लाखों लोगों को नौकरियाँ मिली हैं। ऐसी ही पहल देश के हर राज्य में की जानी चाहिए, ताकि लोगों के पास पैसे की आवक हो और लोग उसे खर्च करें और बाज़ारों खरीदारी बढ़े। क्योंकि खरीदारी होने पर ही माँग बढ़ेगी और उत्पादक नये उत्पादन के लिए अग्रसर होंगे।

अपनानी होंगी नयी व्यवस्थाएँ

विशेषज्ञों की राय है कि आज जब लाखों लोग बेरोज़गार हो रहे हैं, ऐसे में नये रोज़गारों की तलाश करनी होगी। उनका कहना है कि इस समय उद्योग-धन्धों की पूरी संरचना और उसमें काम करने के लिए निमंत्रित रोज़गार को नये सिरे से तैयार करने की ज़रूरत है। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन ने कहा है कि कोविड-19 जैसी महामारी के असर और चौथी औद्योगिक क्रान्ति के चलते हो रहे बदलावों से लगभग 50 फीसदी लोगों की आजीविका पर प्रभाव पड़ा है। यानी बहुत बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार हुए हैं। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि इस समय देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती नये तरीके से पूरे व्यावसायिक ढाँचे को खड़ा करना है। इसके लिए कारोबारियों को नयी व्यवस्थाएँ अपनाने के लिए तैयार रहना होगा और सरकार को उनकी मदद करनी होगी। हालाँकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर बनने का आह्वान पर शहरों और गाँवों में बहुत लोगों ने इस पहल को सकारात्मक तरीके से लिया है और नये रोज़गार की खोज भी की है; जिसका उदाहरण शहरों में चेतना कपूर और ब्रजपाल उर्फ राजा जैसे लोग हैं, तो वहीं गाँवों में मास्क आदि बनाकर रोज़ी-रोटी चलाने वाली महिलाएँ हैं। ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएँ राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत समूह बनाकर स्वरोज़गार कर रही हैं। गुरु नानक स्वयं सहायता समूह की मदद से भी अनेक महिलाएँ आज रोज़गार पा रही हैं। इस मामले में खादी ग्रामोद्योग भी काफी समय से पहल कर रहा है; लोग उसकी मदद से भी स्वरोज़गार कर सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि स्वरोज़गार की ट्रेनिंग मिलती है और उसके बाद स्वरोज़गार करने के लिए लोन भी मिल जाता है। ऐसे कई समूह और ट्रेनिंग सेंटर देश में काफी समय से चल रहे हैं, जिनको प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है। ऐसे समूहों और ट्रेनिंग सेंटरों को अगर सरकार प्रोत्साहित करेगी, तो देश में स्वरोज़गार करने वालों की संख्या में काफी वृद्धि होगी, जिससे लोगों को काफी राहत मिलेगी और अर्थ-व्यवस्था मज़बूत होगी।

श्रमिकों के मन से निकालना होगा डर

आज हालात ये हैं कि हर कोई कोरोना वायरस महामारी से बुरी तरह डरा हुआ है। ऐसे में सरकार को लॉकडाउन के समय शहरों से अपने-अपने घरों को लौट चुके श्रमिकों के मन से डर निकालना होगा। साथ ही उन्हें आश्वासन देना होगा कि अब उन्हें लॉकडाउन के दौरान की तरह परेशानी नहीं उठानी होगी और न ही उनके साथ किसी तरह का दुव्र्यवहार होगा। जैसा कि विदित है कि लॉकडाउन के दौरान रोज़गार छिन जाने पर घर लौट रहे श्रमिकों पर अनेक जगह पुलिस वालों ने दुव्र्यवहार किया था। इसके अलावा लोगों को आश्वस्त करना होगा कि उन्हें शहर लौटने पर रोज़गार मिलेगा। हालाँकि यह करना आसान और पूरी तरह सुरक्षित नहीं है; लेकिन इसका बेहतर तरीका यह हो सकता है कि किसी संस्थान को जितने लोग चाहिए, वह उतने ही लोगों को अपने भरोसे और सुरक्षा के पूर्ण आश्वासन के साथ बुलाये तथा उन्हें रोज़गार दे। ऐसे करने से न केवल श्रमिकों का दोबारा भरोसा कायम होगा, बल्कि उनके मन का डर भी निकलेगा और धीरे-धीरे अर्थ-व्यवस्था पटरी पर लौटने लगेगी।