Home Blog Page 771

भारत में बढ़ सकते हैं कैंसर के मामले

कोरोना-काल में भारत में दूसरे रोगों से पीडि़त लोगों के इलाज में काफी रुकावट पैदा हुई है। ऐसे में कई रोगों में बढ़ोतरी हुई है। हाल में कैंसर को लेकर भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् यानी इंडियन कॉउन्सिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) और राष्ट्रीय रोग सूचना विज्ञान एवं अनुसंधान केंद्र यानी नेशनल सेंटर फॉर डिसीज इन्फॉरमेटिक्स एंड रिसर्च (एनसीडीआईआर) द्वारा किये गये खुलासे ने एक बड़ी चिन्ता पैदा कर दी है। आईसीएमआर और एनसीडीआईआर ने कहा है कि आने वाले पाँच साल में भारत में कैंसर के 12 फीसदी तक मामले बढ़ जाएँगे।

इन संस्थानों द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में इस साल 13.9 लाख कैंसर के मामले रह सकते हैं। यही नहीं संस्थानों ने रिपोर्ट में कहा है कि 2025 तक भारत में कैंसर के मरीज़ों की संख्या 15.7 लाख तक पहुँच सकती है। इतना ही नहीं, नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम (एनसीआरपी) की एक ताज़ा रिपोर्ट में भी यही कहा गया है कि अगले पाँच साल में भारत में कैंसर के 12 फीसदी तक तक मामले बढ़ जाएँगे। इस हिसाब से इस साल के अन्त तक यहाँ 13.9 लाख और 2025 तक 15.7 लाख कैंसर के मामले हो जाएँगे। रिपोट्र्स के मुताबिक, पूर्वोत्तर में सबसे ज़्यादा कैंसर के मामले हैं और आगे भी यहीं सबसे ज़्यादा कैंसर के मामले बढऩे की सम्भावना है। पूर्वोत्तर में कैंसर के तेज़ी से बढऩे का सबसे बड़ा कारण तम्बाकू सेवन बताया गया है।

आईसीएमआर और एनसीडीआईआर के मुताबिक, राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम रिपोर्ट- 2020 में लगाया गया यह अनुमान 58 अस्पतालों की कैंसर मरीज़ों और जनसंख्या आधारित कैंसर मरीज़ों को लेकर मिली सूचना पर आधारित है। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर के मामले तकरीबन दो लाख (14.8 फीसदी) और गर्भाशय के कैंसर के करीब 0.75 लाख (5.4 फीसदी) मामले हैं। भारत में वर्ष 2018 में ब्रेस्ट कैंसर से 87 हज़ार महिलाओं की मौत हुई, जिसका औसत हर दिन 239 पीडि़त महिलाओं की मौतें है। इसी तरह गर्भाशय के कैंसर से हर दिन 164 और अण्डाशय के कैंसर से हर दिन 99 मौतें हुईं। वहीं तम्बाकू से करीब 3.7 लाख (27 फीसदी) मामले फैले हैं, जो 2020 के कैंसर के कुल मामलों के 27.1 फीसदी हैं। इसके अलावा, पुरुषों और महिलाओं दोनों में 2025 तक आँतों के कैंसर के करीब 2.7 लाख मामले (19.7 फीसदी) रहने का अनुमान है।

जरनल ऑफ ग्लोबल एन्कोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पुरुषों में फेफड़ों, मुँह, पेट और गले का कैंसर, तो वहीं महिलाओं में स्तन कैंसर तथा गर्भाशय का कैंसर तेज़ी से बढ़ रहा है। यह साझा अध्ययन टाटा मेडिकल सेंटर के डिपार्टमेंट ऑफ डाइजेस्टिव डिजीस (कोलकाता) के शोधछात्र मोहनदास के. मल्लाथ और किंग्स कॉलेज (लंदन) के शोधछात्र राबर्ट डी. स्मिथ ने एक फेलोशिप के तहत किया है, जो हिस्ट्री ऑफ द ग्रोइंग बर्डेन ऑफ कैंसर इन इंडिया : फ्रॉम एंटीक्विटी टू ट्वेंटीफस्र्ट सेंचुरी नाम से प्रकाशित हुआ है। मल्लाथ और स्मिथ ने लंदन स्थित ब्रिटिश लाइब्रेरी और वेलकम कलेक्शन लाइब्रेरी में 200 साल के दौरान भारत में कैंसर से सम्बन्धित विभिन्न प्रकाशनों का अध्ययन किया है। अध्ययन में लगाये गये अनुमान के मुताबिक, भारत में हर 20 साल में कैंसर के दोगुने मामले हो जाएँगे। अध्ययन में बताया गया है कि भारत में 26 वर्षों (सन् 1990 से 2016 के बीच) कैंसर से मरने वालों की दर दोगुनी रही है। सन् 2018 में कैंसर के 11.50 लाख नये मामले सामने आये थे। अब सन् 2040 तक इस कैंसर के इससे दोगुने यानी करीब 23 लाख मामले होने की आशंका है।

पूर्वोत्तर राज्यों में ज़्यादा मरीज़

अध्ययन में कहा गया है कि पूर्वोत्तर राज्यों झारखण्ड, ओडिशा, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि में कैंसर का सबसे ज़्यादा खतरा है। इसकी वजह यह इन राज्यों में कोरोना महामारी के चलते कैंसर के मरीज़ों के इलाज में आयी गिरावट है। अगर इन राज्यों ने जल्द ही इस दिशा में पहल नहीं की, तो इसके गम्भीर परिणाम भुगतने होंगे। शोधछात्र मोहनदास के मल्लाथ ने तो अपने अध्ययन में यहाँ तक कहा है कि देश में कैंसर के इलाज का आधारभूत ढाँचा बेहतर नहीं है; क्योंकि सरकारी अस्पतालों में ऐसी सुविधाओं का अभाव है और निजी अस्पतालों तक आम लोगों की पहुँच ही नहीं है। अध्ययन में कहा गया है कि अगर तम्बाकू पर पूरी तरह पाबन्दी लगा दी जाए, तो महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर और पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर के केवल वो मामले बढ़ेंगे, जो उम्र से सम्बन्धित हैं और आम लोगों की औसतन 10 साल उम्र बढ़ जाएगी। अध्ययन में कहा गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों को शुरू में ही कैंसर के इलाज की पहल करनी चाहिए। लेकिन दोनों सरकारों की आपसी खींचतान के चलते आम मरीज़ों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इस मामले में विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को निजी अस्पतालों को कैंसर केयर प्रोग्राम चलाने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए। क्योंकि वहाँ आम मरीज़ अपना इलाज नहीं करा सकते।

कोलकाता के एक सरकारी कैंसर अस्पताल से जुड़े एक डॉक्टर कहते हैं कि केंद्र सरकार को कैंसर के इलाज के लिए वर्ष 1946 में बनी भोरे समिति और मुदलियार समिति की रिपोट्र्स लागू करनी चाहिए। बता दें कि इन दोनों समितियों ने सभी मेडिकल कॉलेजों में बहुआयामी कैंसर इलाज यूनिट स्थापित करने और हर राज्य में केरल के तिररुअनंतपुरम स्थित रीजनल कैंसर सेंटर की तर्ज पर कैंसर स्पेशिलिटी अस्पताल खोलने की सिफारिश की थी।

भारत में 10 मरीज़ों में से 7 की मौत

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) और ग्लोबल कैंसर ऑब्जर्वेटरी (जीसीओ) के 2018 के एक अध्ययन के मुताबिक, दुनिया भर में 2018 में कुल 96 लाख मौतें केवल कैंसर से हुई थीं, जिनमें से गरीब देशों में 70 फीसदी मौतें हुई थीं, जिसमें से करीब 7.84 लाख (8 फीसदी) मौतें अकेले भारत में हुई थीं।

जर्नल ऑफ ग्लोबल एन्कोलॉजी में 2017 प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, भारत में विकसित देशों की अपेक्षा लगभग दोगुने लोग कैंसर से मरते हैं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, भारत में 2018 में महिलाओं में कैंसर के 5.87 लाख और पुरुषों में 5.70 लाख मामले सामने आये थे। वहीं, सन् 2018 में कैंसर से 4.13 लाख पुरुषों की मौत हुई, जो महिलाओं से 42 फीसदी ज़्यादा थी।

वहीं, इस साल 3.71 लाख महिलाएँ कैंसर से मरी थीं। अध्ययन में कहा गया है कि भारत में हर 10 कैंसर मरीज़ों में से 7 की मौत हो जाती है, जिसका कारण कैंसर के डॉक्टरों की कमी बताया गया था। पूरे विश्व में 2018 में कैंसर से 22 फीसदी मौतें तम्बाकू सेवन से हुईं। वहीं गरीब और विकासशील देशों में 25 फीसदी मौतों का कारण हैपेटाइटिस और एचपीवी वायरस के इंफेक्शन रहा। अध्ययन में यह भी कहा गया है कि भारत में पैसे वाले लोग कैंसर का इलाज विदेशों में कराना पसन्द करते हैं।

विश्व में कैंसर की स्थिति

डब्ल्यूएचओ और जीसीओ के मुताबिक, सन् 2018 में विश्व भर में कैंसर के करीब 1.81 करोड़ मामले सामने आये थे, जिनमें से 94 लाख से अधिक पुरुष तथा 86 लाख से अधिक महिलाएँ कैंसर पीडि़त पायी गयी थीं। वहीं इस साल 53.85 लाख पुरुषों तथा 41.69 लाख महिलाओं की कैंसर से मौत हुई थी। सन् 2018 की इस रिपोर्ट में पुरुषों में फेफड़ों के कैंसर, प्रोस्टेट कैंसर और मलाशय कैंसर के सबसे ज़्यादा मामले सामने आये; जबकि महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर, मलाशय कैंसर और फेफड़ों के कैंसर के सबसे ज़्यादा मामले सामने आये थे।

पुरानी बीमारी है कैंसर

कैंसर काफी पुरानी बीमारी है, जिसे आयुर्वेद-काल से ही पनपा बताया गया है। यह बात कोलकाता के शोधछात्र मोहनदास के. मल्लाथ और लंदन के राबर्ट डी. स्मिथ अपनी साझा अध्ययन रिपोर्ट में कही है। मल्लाथ कहते हैं कि कैंसर पश्चिमी सभ्यता की देन नहीं है। आम लोगों में यह धारणा गलत बैठी हुई है। दरअसल भारत में कैंसर की बीमारी सदियों पुरानी है, जिससे मिलते-जुलते लक्षण और उससे बचने के उपायों का अथर्ववेद समेत कई पुराने भारतीय ग्रन्थों में मिलता है। फर्क यह है कि कैंसर की प्राथमिक पहचान 19वीं सदी में की गयी थी। इंडियन मेडिकल सर्विस ने सन् 1910 में कैंसर के मामलों का ब्यौरा भी प्रकाशित करना शुरू किया था। लेकिन 19वीं सदी में पश्चिमी दवाओं की स्वीकार्यता बढऩे के बाद इस बीमारी की जाँच शुरू हुई।

मीठे ड्रिंक्स और गर्म पेय से भी कैंसर का खतरा

फ्रांस में हुए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि मीठे (शक्कर वाले) ड्रिंक्स का सेवन कम करने से कैंसर के मामले घट सकते हैं। शोधकर्ताओं ने कहा है कि दुनिया भर में मीठे ड्रिंक्स का सेवन बढऩे से मोटापा बढ़ा है, जिससे कैंसर का जोखिम बढ़ा है। कुछ समय पहले साइंस पत्रिका ‘ब्रिटिश मेडिकल जनरल’ में एक लाख लोगों पर किये गये अध्ययन में पाया गया 21 फीसदी पुरुषों और 79 फीसदी महिलाओं में मीठे ड्रिंक्स लेने की आदत है; जो कैंसर के खतरे को बढ़ाती है। अध्ययन में पाया गया कि एक दिन में 100 मिलीलीटर से अधिक शर्करा युक्त ड्रिंक्स लेने से 18 फीसदी कैंसर का जोखिम बढ़ जाता है, जिसमें करीब 22 फीसदी मामले स्तन कैंसर के हो सकते हैं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, लोगों को रोज़ की अपनी ऊर्जा खपत का 10 फीसदी या इससे भी कम भाग शक्कर या चीनी के रूप में लेना चाहिए। बेहतर होगा कि चीनी का सेवन पाँच फीसदी या 25 ग्राम तक प्रतिदिन ही रखना चाहिए।

वहीं, ईरान की तेहरान यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिकल साइंसेज के शोधकर्ताओं ने अपने 2016 के एक अध्ययन में कहा है कि 60 डिग्री से अधिक तापमान पर बनाकर पी जाने वाली चाय, कॉफी आदि के सेवन से एसोफैगल कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है। एक अन्य अध्ययन में कहा गया है कि डिस्पोजल और प्लास्टिक के बर्तनों में गर्म पेय पीने से कैंसर का खतरा बहुत ज़्यादा रहता है। इसके अलावा शराब, बीड़ी, सिगरेट और अन्य नशीले पदार्थों से कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।

कुत्ते लगा सकते हैं लंग्स कैंसर का पता

अमेरिकी शहर ऑरलैंडो में अमेरिकन सोसायटी फॉर बायोकेमिस्ट्री एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी की वार्षिक बैठक में पेश किये गये एक शोध में कहा गया है कि इंसान की तुलना में कुत्ते 10,000 गुना ज़्यादा तेज़ गति से कोई चीज़ सूँघ सकते हैं। इस अध्ययन रिपोर्ट को कुत्तों को इंसानों के खून के नमूने सुँघाकर लिये गये जायज़े के आधार पर तैयार किया गया, जिसमें दो साल के चार कुत्तों को कुछ सैंपल सुँघाये गये। इनमें से तीन कुत्तों ने कैंसर के लक्षण वाले खून को सूँघकर भौंककर इसकी सूचना दी, जो जाँच में सही पायी गयी। कुत्तों की लंग्स कैंसर की पता लगाने की क्षमता 96.7 फीसदी सटीक निकली, जो इस अध्ययन में पहली बार सामने आयी।

कैंसर में कारगर है फफूँद

फफूँद (फंगस) को हर कोई एकदम बेकार समझता है; लेकिन आम लोग यह बात नहीं जानते कि फफूँद का प्राचीनकाल से ही दवाओं में इस्तेमाल होती आयी है। एक अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि फफूँद में ऐसे कुछ तत्त्व होते हैं, जो कैंसर कोशिकाओं से लडऩे में मदद करते हैं। इसके लिए बाकायदा वैज्ञानिकों ने एक फफूँद को विकसित किया, जो कैंसर के इलाज में कारगर है। एफआरआई की फॉरेस्ट पैथोलॉजी डिवीजन के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एन.एस.के. हर्ष ने इस अध्ययन में कहा था कि भारत में फफूँद को आसानी से उगाया जा सकता है। अध्ययन में कहा गया है कि फफूँद से केवल कैंसर का ही नहीं, बल्कि एचआईवी, तंत्रिका रोग, अस्थमा, हृदय रोग, पक्षाघात, उच्च व निम्न रक्तचाप, मधुमेह, हेपेटाइटिस, अल्सर, एल्कोहोलिज्म, मम्स, इपीलेप्सी, टॉयरडनेस आदि का इलाज हो सकता है।

खानपान बचायेगा कैंसर से

दवाओं के अलावा खानपान से विभिन्न बीमारियाँ ठीक करने की जुगत में दुनिया भर के रोग विशेषज्ञ और पोषण-विज्ञानी लगे हैं। इस खोज में पाया गया है कि खानपान सुधारकर कैंसर जैसी बीमारी को भी ठीक किया जा सकता है। इसमें ब्रोकली (हरी गोभी) बहुत ही कारगर है। ब्रोकली के तने में फूलों से ज़्यादा ऐसे तत्त्व होते हैं, जो कैंसर-रोधी तत्त्वों से भरपूर होते हैं। इसके अलावा कद्दू और लाल और पीले रंग के फल भी कैंसर-रोधी का काम करते हैं। सेब, अँगूर, पपीता, नारंगी में भी कैंसर से लडऩे की क्षमता पायी जाती है। कई लोगों ने खानपान से कैंसर के प्रभाव को कम किया है। कई लोगों ने तो इस खतरनाक बीमारी से छुटकारा भी पाया है। इतना ही नहीं, अगर शुरू से ही शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाए, तो कैंसर को शरीर में फैलने से रोका जा सकता है। इस बात के अनेक उदाहरण हैं कि स्वस्थ्य लोगों को कैंसर ही नहीं, बल्कि कोई और बीमारी भी जल्द नहीं होती।

64 परिवारों को घर छोडऩे का नोटिस

दो साल पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिस बस्ती के विद्यालय में एक सभा को सम्बोधित करके गये थे, अब उस बस्ती के लोगों से उनके घरों को खाली करने के लिए नोटिस जारी किया जा चुका है। मामला सोनभद्र में राबट्र्सगंज विकास खण्ड के ग्राम पंचायत बहुअरा का है, जहाँ के 64 परिवारों को सिंचाई विभाग मीरजापुर नहर प्रखण्ड के ज़िलेदार (द्वितीय) की ओर से एक नोटिस भेजा गया है। इनमें से एक नोटिस में लिखा है- ‘आपको सूचित किया जाता है कि आपके द्वारा सिंचाई विभाग की ज़मीन में ग्राम-बहुअरा के आराजी नं.-….में रकबा 0.037 पर कच्चा, पक्का मकान/जोत-कोड़ करके अतिक्रमण किया गया है, जो कि अवैधानिक कार्य है। इस सम्बन्ध में यदि आपको कोई आपत्ति हो, तो दिनांक 26/06/2020 को 10 बजे दिन कार्यालय ज़िलेदारी द्वितीय मिर्ज़ापुर नहर प्रखण्ड राबट्र्सगंज सोनभद्र में उपस्थित होकर अपनी सफाई पेश करें। अन्यथा मियाद गुज़रने के बाद कोई आपत्ति नहीं सुनी जाएगी और यह समझा जाएगा कि उक्त घटना सत्य है तथा आपके विरुद्ध वैधानिक कार्यवाही अमल में लायी जाएगी।’

उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के अधीन मीरजापुर नहर प्रखण्ड के ज़िलेदार (द्वितीय) का यह नोटिस राबट्र्सगंज विकास खण्ड के ग्राम पंचायत बहुअरा निवासी करीब 60 वर्षीय निर्मल कोल को मिला है। निर्मल कोल आठ सदस्यों के परिवार के मुखिया हैं। अब कोल और उनके परिजन परेशान हैं। कोल का कहना है कि वह यहीं जन्मे। यहाँ उनके परिवार की बसावट यहाँ करीब 70 साल से है। हमारे बाप-दादा यहीं रहे और मरे। अब हम लोग कहाँ जाएँगे? कोल के दर्द भरे बयान का वीडियो ‘तहलका’ के पास उपलब्ध है। कोल के परिवार में उनकी पत्नी श्याम प्यारी, बेटा शिव शंकर, बेटी ज्योति, शिव शंकर की पत्नी सरोज, उसका एक बेटा और एक बेटी है।  राबट्र्सगंज तहसील प्रशासन की रिपोर्ट की मानें, तो निर्मल कोल भूमिहीन हैं और 0.037 हेक्टेयर (करीब तीन बिस्वा) ज़मीन पर बने कच्चे मकान में रहते हैं।

बस्ती के सभी 64 परिवारों का करीब-करीब ऐसा ही हाल है। नहर प्रखण्ड की नोटिस के बाद उन्हें हर वक्त बेघर होने का डर सता रहा है। प्रशासन की गाडिय़ाँ बस्ती की ओर मुड़ते ही ये लोग डर से काँप जाते हैं कि कहीं उन्हें बेघर न कर दिया जाए? बस्ती के लोग पूछते हैं कि दशकों से बाप-दादा के समय से जमी-जमायी गृहस्थी लेकर आिखर हम लोग कहाँ जाएँगे? हमारे पास कोई अन्य ज़मीन भी नहीं है। इसी चिन्ता में निर्मल कोल और बस्ती के अन्य 63 परिवारों की रातों की नींद उड़ी हुई है। क्योंकि बहुअरा बंगला स्थित बस्ती के सभी 64 परिवारों का कहना है कि नहर प्रखण्ड की ओर से उन्हें नोटिस मिला है। अब कोरोना-काल में उन्हें कभी भी बेघर किया जा सकता है। यह सब भाजपा के उत्तर प्रदेश विधान परिषद् सदस्य (एमएलसी) केदारनाथ सिंह के एक पत्र पर हुआ है।

वाराणसी (स्नातक) निर्वाचन क्षेत्र से एमएलसी केदार नाथ सिंह उत्तर प्रदेश विधान परिषद् में भाजपा विधायक दल के मुख्य सचेतक भी हैं। उन्होंने एमएलसी बनने के बाद ग्राम पंचायत बहुअरा में अपने बेटे अमित कुमार सिंह के नाम 2.692 हेक्टेयर (करीब 10.73 बीघा) ज़मीन और इससे सटे ग्राम पंचायत तिनताली में अपनी बहू प्रज्ञा सिंह की कम्पनी ‘जीवक मेडिकल ऐंड रिसर्च सेंटर प्राइवेट लिमिटेड’ नाम से 0.253 हेक्टेयर (एक बीघा) ज़मीन खरीदी   है। दोनों ही खेती वाली ज़मीनें हैं; जबकि उत्तर प्रदेश सरकार ने इन दोनों ज़मीनों को गैर-कृषि  ज़मीन घोषित करके लगान से मुक्त कर दिया है; जबकि ग्राम पंचायत बहुअरा वाली ज़मीन में अभी भी खेती हो रही है।

इतना ही नहीं, ‘तहलका’ के हाथ लगे सुबूतों और सूचनाओं के मुताबिक, एमएलसी केदार नाथ सिंह ने पद का दुरुपयोग करते हुए विधायक निधि से अपनी बहू की कम्पनी वाली ज़मीन के चारों ओर लाखों रुपये खर्च करके आरसीसी चकरोड, पक्की नाली, विद्युत लाइन, पुलिया आदि की व्यवस्था करा ली है।

ग्राम पंचायत बहुअरा में अपने बेटे अमित कुमार सिंह के नाम से खरीदी ज़मीन तक विधायक निधि के करोड़ों रुपये खर्च करके तिनताली मोड़ से विद्युत लाइन पहुँचायी गयी है। इस विद्युत लाइन की दूरी करीब डेढ़ किलोमीटर है। उनके बेटे की ज़मीन को विद्युत लाइन से घेर दिया गया है। उसमें ट्रांसफॉर्मर की भी व्यवस्था की गयी है। विधायक निधि से इस ज़मीन पर सरकारी हैंडपम्प भी लगाया गया है, जबकि इस ज़मीन के पास कोई घर तक नहीं है।

एमएलसी केदार नाथ सिंह ने गत 17 फरवरी को उत्तर प्रदेश सरकार की समन्वित शिकायत निवारण प्रणाली (आईजीआरएस) के माध्यम से मुख्यमंत्री को शिकायत कर ग्राम पंचायत बहुअरा स्थित उत्तर प्रदेश सरकार की 3.470 हेक्टेअर (करीब 15 बीघा) ज़मीन अवैध कब्ज़ेदारों से मुक्त कराकर बाउण्ड्री बनवाकर सरकारी प्रयोग के लिए सुरक्षित किये जाने की गुहार लगायी थी। अगले ही दिन उन्होंने अपने लैटर पैड पर यह शिकायत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लखनऊ में की।

केदारनाथ सिंह ने अपने पत्र में लिखा है- ‘वाराणसी-शक्तिनगर मार्ग पर उत्तर प्रदेश सरकार की लगभग 15 बीघा ज़मीन स्थित है। इस सरकारी ज़मीन को वहाँ के स्थानीय दबंगों द्वारा 10 रुपये के स्टाम्प पर एक लाख से तीन लाख बिस्वा बेचकर अवैध रूप से कब्ज़ा दिया जा रहा है। इसमें अधिकांश बाहरी मुस्लिम समुदाय के लोग हैं। नौ बीघा ज़मीन परती खाली ज़मीन है। इस पर बाउंड्री बनवाकर सरकारी कार्य हेतु सुरक्षित कराया जाना जनहित में अति आवश्यक है।’ वह आगे लिखते हैं- ‘उपरोक्त भूखण्ड एसएच-5ए पर स्थित है, जो कीमती है। यह उत्तर प्रदेश सरकार के नाम से दर्ज है। इसे अवैध कब्ज़ा धारकों से मुक्त कराया जाना प्रशासनिक हित में है। जो लोग अवैध कब्ज़ा किये हुए हैं। एवं जिन लोगों ने पैसा लेकर यह अवैध कब्ज़ा करवाया है, उनसे भू-राजस्व की तरह वसूली कराने एवं उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करायी जानी आवश्यक है। इससे भविष्य में लोग उत्तर प्रदेश सरकार की ज़मीन पर कब्ज़ा न कर सकें।’ उन्होंने पत्र की प्रति सोनभद्र के ज़िलाधिकारी, प्रमुख सचिव (राजस्व) और विंध्याचल मण्डल के आयुक्त को भी प्रेषित की।

मुख्यमंत्री कार्यालय के विशेष कार्याधिकारी आर.एन. सिंह ने 20 फरवरी को एमएलसी के पत्र पर मिर्ज़ापुर के मण्डलायुक्त से दो सप्ताह के अन्दर जाँच आख्या तलब की। मण्डलायुक्त ने भी 22 फरवरी को सोनभद्र के ज़िलाधिकारी को पत्र लिखकर मामले की जाँच करके कार्रवाई करने का निर्देश दिया। मामला एमएलसी से जुड़ा होने की वजह से सोनभद्र ज़िला प्रशासन ने तुरन्त मामले की जाँच का आदेश दे दिया।

राबट्र्सगंज तहसील के उप-ज़िलाधिकारी ने तहसीलदार और क्षेत्रीय राजस्व निरीक्षक से मामले की जाँच कराकर गत 6 मार्च को जाँच आख्या ज़िलाधिकारी को प्रेषित की। ‘तहलका’ के पास जाँच आख्या की छायाप्रति (फोटो कॉपी) मौज़ूद है। इसमें लिखा है कि ग्राम बहुअरा के आकार पत्र-45 में कुल 19 गाटा (रकबा 3.7470 हेक्टेयर) खाता संख्या-5 पर उत्तर प्रदेश सरकार (एनजेडए) के नाम से दर्ज है, जिसका प्रबन्धन नहर विभाग के पास है। जाँच आख्या में यह भी लिखा है कि मौके पर 64 परिवारों की घनी आबादी है। कुछ आराज़ी नम्बर पर त्रिभुवन सिंह और किशुनलाल ने खेती की है। शेष चार बीघा रकबा रास्ते और गड्ढे के रूप में खाली है। तहसील प्रशासन ने शासन को यह भी सूचित किया है कि मामले में कार्यवाही के लिए सम्बन्धित नहर विभाग को अलग से रिपोर्ट प्रेषित कर दी है।

अगर राबट्र्सगंज तहसील प्रशासन की रिपोर्ट में उल्लिखित विवादित ज़मीन पर निवास करने वाले वर्ग की बात करें, तो इसमें आरक्षित वर्गों के कोल, चमार, बहेलिया, बिन्द, नाई, भाँट, बियार, फकीर, कहार, लोहार, कोइरी, कुर्मी, अहीर, मुस्लिम-अंसार समुदायों के लोग आधे बिस्वा से लेकर पाँच बिस्वा ज़मीन पर कच्चे-पक्के मकान बनाकर रह रहे हैं।

अगर एमएलसी केदारनाथ सिंह के पत्र में उल्लिखित मुस्लिम समुदाय के कब्ज़ेदारों की बात करें, तो कुल 21 मुस्लिम परिवारों को नगर प्रखण्ड की नोटिस मिला है। नोटिस पाने वाले शेष 43 परिवार हिन्दू समुदाय के हैं। इनमें करीब 18 परिवार अनुसूचित जाति वर्ग के हैं। शेष पिछड़ी जाति वर्ग के हैं। केवल एक परिवार उच्च जाति वर्ग से आने वाले पठान समुदाय का है। या यूँ कहें कि नोटिस पाने वालों में से कोई भी उच्च जाति वर्ग से आने वाले एमएलसी केदार नाथ सिंह के समुदाय का नहीं है।

उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के अधीन मीरजापुर नहर प्रखण्ड के ज़िलेदार (द्वितीय) ने राबट्र्सगंज तहसील प्रशासन की रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए ग्रामीणों को कोविड-19 वायरस से उपजे वैश्विक संकट के बीच नोटिस भेजकर एक सप्ताह के अन्दर जवाब माँगा। नोटिस मिलते ही ग्रामीणों में हड़कम्प मच गया। कोरोना वायरस जैसी महामारी के संकट में आर्थिक हालत से जूझ रहे ये गरीब अपने-अपने घरों को बचाने के लिए नेताओं और अधिकारियों का चक्कर लगा रहे हैं; लेकिन उन्हें अभी तक कोई राहत नहीं मिली है।

विवादित ज़मीन पर बसे जाटव समुदाय से आने वाले मेवा लाल की पत्नी गीता नोटिस मिलने की बात से ही गुस्से में भरी बैठी हैं। वह कहती हैं कि नोटिस भेजा गया है ताकि हम लोग यहाँ से उजड़ जाएँ। लेकिन हम लोग कानूनी लड़ाई लड़ेंगे, घर छीनने वालों से झगड़ा करेंगे, मगर यहाँ से नहीं जाएँगे। गीता ने ऑन रिकॉर्ड (एक वीडियो) में ये बातें कही हैं।

गीता के परिवार में भी कुल आठ लोग हैं। वह और उनके पति मज़दूरी कर अपने परिवार का खर्च चलाते हैं। उनके तीन बेटे हंसलाल, पिंटू, मिंटू और एक बेटी लक्ष्मीना है। सभी साथ में रहते हैं। बड़े बेटे हंसलाल की शादी हो चुकी है। उसकी पत्नी पिंकी और उनकी लड़की शिवानी की ज़िम्मेदारी भी उन पर है। उन्होंने बताया कि उनकी बहू गर्भवती है। ऐसे हालात में हम कहाँ जाएँगे? हमारे पास इसके अलावा कोई ज़मीन या दूसरा घर भी नहीं है।

गीता के पति मेवा का घर तो प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत ही बना है। ये लोग उसी में रहते हैं और उनके बेटे आवास के पीछे कच्चे मकान में रहकर जीवनयापन कर रहे हैं। इनके पास शौचालय और विद्युत कनेक्शन भी है; लेकिन प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत इनको अभी तक गैस कनेक्शन नहीं मिला है।

फिलहाल नोटिस पाने वाले बस्ती के 64 परिवारों के मुखियाओं ने मिर्ज़ापुर नहर प्रखण्ड  के ज़िलेदार (द्वितीय) को लिखित जवाब भेज दिया है और उनसे नोटिस को वापस लेने और निरस्त करने की माँग की है। जवाब में बस्ती वालों ने लिखा है कि उनके द्वारा जारी नोटिस बिल्कुल अवैधानिक और साज़िशन है। उन्होंने सम्बन्धित नोटिस पर सवाल उठाते हुए लिखा है कि नोटिस में आराज़ी संख्या और अतिक्रमण स्थल की चौहद्दी नहीं दी गयी है। आपके द्वारा जारी नोटिस पर कोई विधिक कार्रवाई किया जाना महज़ पद का दुरुपयोग है।

अगर सरकारी ज़मीन पर 64 परिवारों की बस्ती के विकास की बात करें, तो यहाँ सभी घरों में सरकारी विद्युत कनेक्शन दिया गया है। पूरी बस्ती तक आरएसीसी चकरोड (सड़क) का निर्माण कराया गया है।

इंदिरा आवास योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना और मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत यहाँ दर्ज़नों घर बने हैं। अधिकतर घरों में सरकार की तरफ से शौचालय का निर्माण कराया गया है। यानी पूरी बस्ती के विकास कार्य में उत्तर प्रदेश सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा करोड़ों रुपये खर्च किये गये हैं। अब सवाल उठता है कि अब तक सोनभद्र ज़िला प्रशासन और सिंचाई विभाग का नहर प्रखण्ड क्यों सोता रहा? ज़िला प्रशासन ने बिना वैधानिक ज़मीन के इनके निर्माण को मंज़ूरी किस आधार पर दे दी? फिलहाल उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग के अधीन मीरजापुर नहर प्रखण्ड की ओर से विवादित खाली ज़मीन पर पिछले महीने सिंचाई विभाग के अधिशासी अभियंता, मिज़ापुर की तरफ बोर्ड लगा दिया गया, जिस पर लिखा है कि यह ज़मीन सिंचाई विभाग की है। स्थानीय लोगों ने बताया कि उसी दिन विभाग के अधिकारियों ने खाली पड़ी ज़मीन को ट्रैक्टर से जुताई भी करायी।

बता दें कि ग्राम पंचायत बहुअरा वही गाँव है, जहाँ सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने करीब दो साल पहले 12 सितंबर, 2018 को आये थे। विवादित ज़मीन पर बसी 64 परिवारों की बस्ती से महज़ 25 मीटर दूर स्थित प्राथमिक विद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश में मुसहरों के विकास के लिए विभिन्न योजनाओं समेत मुख्यमंत्री आवास योजना की शुरुआत की थी। उस समय उनके साथ भाजपा एमएलसी केदारनाथ सिंह भी मौज़ूद थे। मंच से उन्होंने ग्राम पंचायत बहुअरा को गोद लेने की सार्वजनिक घोषणा भी की थी और अब वह इसे खाली कराने पर आमादा हैं, जिससे बस्ती के लोग बहुत परेशान हैं।

परम्परागत वन्य-भूमि से बेदखल हो सकते हैं 3.78 लाख आदिवासी, वन-निवासी परिवार

आज कोविड-19 जैसी महामारी के चलते जहाँ पूरी दुनिया उथल-पुथल हो चुकी है, वहीं मध्य प्रदेश के जंगलों में सदियों से रह रहे आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों के सामने आवास और आजीविका का संकट पैदा होने की स्थिति आ गयी है। परम्परागत रूप से वनों में रहने वाले आदिवासियों एवं वन-निवासियों ने सदियों से अपनी कर्मभूमि रही वन्य-भूमि पर वन अधिकार हेतु पट्टों के लिए मध्य प्रदेश शासन को 6 जुलाई, 2020 तक 3.79 लाख आवेदन दिये थे, जिसमें राज्य सरकार ने केवल 716 आवेदन स्वीकार किये हैं; जबकि 3.78 लाख से ज़्यादा आवेदन खारिज कर दिये। एक परिवार से एक आवेदन किया गया था। सरकार द्वारा इतनी बड़ी संख्या में वन अधिकार पट्टों के आवेदन खारिज किये जाने से वनों में रहने वाले 15 लाख से अधिक आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों के सामने आवास व आजीविका की समस्या पैदा हो गयी है।

क्या है मामला

ज्ञात हो कि कुछ एनजीओ द्वारा वन अधिकार कानून-2006 को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई के दौरान 13 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि उन सभी लोगों को वन्य-भूमि से बेदखल किया जाए, जिनके वननिवासी होने का दावा खारिज कर दिया गया है। इसकी ज़द में 16 राज्यों के लगभग 12 लाख से ज़्यादा आदिवासी एवं वननिवासी परिवार थे।

सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश से देश में हड़कम्प मच गया था। इस आदेश पर अनेक बुद्धिजीवियों ने चिन्ता ज़ाहिर की थी और विपक्ष समेत अनेक वन अधिकार कार्यकर्ताओं ने केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए आरोप लगाया कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में आदिवासियों और परम्परागत वन-निवासियों का पक्ष सही ढंग से नहीं रखा। वन अधिकार कार्यकर्ताओं ने इंगित किया कि बहुत-से लोगों के दावों को यांत्रिक तरीके से खारिज कर दिया गया और उनके दावों पर ठीक से विचार नहीं किया गया था। इस आदेश पर विवाद होने के बाद केंद्र सरकार ने एक अर्जी दायर कर इस पर रोक की माँग की। 28 फरवरी, 2019 को कोर्ट ने अपने दिये आदेश पर रोक लगा दी। सितंबर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को निर्देश दिया कि वन्य-भूमि पर इन दावों के न्यायिक निर्णय की प्रक्रिया के तौर-तरीकों का खुलासा करते हुए हलफनामा दायर करें और उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाली वन्य-भूमि के वन सर्वे की विस्तृत रिपोर्ट अगली सुनवाई पर पेश करें।

पट्टों के लिए वन-मित्र एप लॉन्च

आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों को वन अधिकार कानून के तहत भूमि आवंटन की प्रक्रिया में तेज़ी लाने और भ्रष्टाचार की जाँच करने के लिए मध्य प्रदेश की कमलनाथ नीत तत्कालीन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 2 अक्टूबर, 2019 को वन-मित्र एप लॉन्च किया था। सभी आवेदन पत्र एप के माध्यम से भरे गये थे। एप लॉन्च के बाद उम्मीद की जा रही थी कि आदिवासियों एवं वन-निवासियों के दशकों से चली आ रही वन अधिकार पट्टा सम्बन्धी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। लेकिन हमेशा की तरह तीन पीढिय़ों के कब्ज़े का प्रमाण उपलब्ध नहीं करने की बात कहकर आवेदकों के दावों को ज़िलास्तर की समितियों द्वारा खारिज कर दिया गया। जबकि वन अधिकार कानून-2006 की धारा-2(ण) एवं धारा-4(3) में आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों से सम्बन्धित दिये गये प्रावधानों में तीन पीढिय़ों के कब्ज़े के प्रमाण उपलब्ध कराने का कोई उल्लेख नहीं है, बल्कि 13 दिसंबर, 2005 तक आदिवासियों, वन-निवासियों द्वारा सम्बन्धित भूमि पर काबिज़ रहने का उल्लेख है।

क्या है वन अधिकार कानून

देश को आज़ादी मिलने के साठ साल बाद देश की संसद ने वनाश्रितों के साथ ऐतिहासिक अन्याय होना स्वीकार किया और 2006 में वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को मान्यता देने के लिए एक कानून पारित किया गया- अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006। यह केवल वनाश्रित समुदाय के अधिकारों को ही मान्यता देने का नहीं, बल्कि देश के जंगलों एवं पर्यावरण को बचाने के लिए वनाश्रित समुदाय के योगदान को भी मान्यता देने का कानून है।

यह कानून सन् 1927 के औपनिवेशिक युग के भारतीय वन अधिनियम के असंतुलन को ठीक करने के लिए लाया गया। वन अधिकार अधिनियम-2006 पहला और एकमात्र कानून है, जो भूमि और खेती पर महिलाओं के स्वतंत्र अधिकारों को मान्यता देता है। इस कानून में जंगलों में रहने वाले आदिवासी समूहों और अन्य वन-निवासियों को संरक्षण देते हुए उनके पारम्परिक भूमि पर अधिकार देने का प्रावधान है। सामुदायिक पट्टे का भी प्रावधान है; जिसके अनुसार, ग्राम सभा के जंगल और ज़मीन पर स्थानीय ग्राम-सभा का ही अधिकार होगा। इसके लिए आदिवासी लोगों को कुछ निश्चित दस्तावेज़ दिखाकर ज़मीनों पर अपना दावा करने के बाद अधिकारी द्वारा इन दस्तावेज़ों के आधार पर आदिवासियों और वन-निवासियों के दावों की जाँच करके वन अधिकार पट्टा दिया जाता है।

वन विभाग की अनैतिक कार्यवाही

वन अधिकार कानून-2006 की धारा-2(घ) में वन्य-भूमि की परिभाषा दी गयी है, जिसमें भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-27 एवं धारा-34(अ) के अनुसार राजपत्र में डीनोटिफाइड की गयी भूमि को एवं सुप्रीम कोर्ट की याचिका क्रमांक- 202/95 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तुत आई.ए. क्रमांक- 791, 792 में 01 अगस्त, 2003 के कोर्ट के आदेशानुसार बड़े झाड़ के जंगल, छोटे झाड़ के जंगल मद में दर्ज भूमि को वन संरक्षण कानून-1980 के दायरे से मुक्त घोषित किया गया है। लेकिन राज्य स्तरीय वन अधिकार समिति एवं राज्य मंत्रालय डीनोटिफाइड भूमि एवं अदालत द्वारा मुक्त की गयी भूमि को गैर वन्य-भूमि माने जाने के बाबत अभी तक कोई पत्र, प्रपत्र या आदेश जारी ही नहीं किया। उक्त डीनोटिफाइड भूमि, बड़े झाड़ के जंगल, छोटे झाड़ के जंगल मद में दर्ज भूमि को संरक्षित वन मानकर वन-विभाग द्वारा लगातार कब्ज़ा किया गया। वहाँ के आदिवासियों और वन-निवासियों पर अत्याचार किये गये। घरों को ढहा दिया गया। खेतों को नष्ट कर दिया गया और मामला दर्ज कर प्रताडि़त भी किया गया।

आदिवासियों-वन-निवासियों के विरुद्ध वन-विभाग की पिछली कुछ कार्यवाहियाँ

22 जुलाई 2020 पुष्पराजगढ़ ज़िले के ग्राम बेंदी के डूमर टोला में राष्ट्रपति द्वारा संरक्षित बैगा आदिवासी समुदाय के लगभग 50 परिवारों की 103 एकड़ खेती की भूमि वन-विभाग ने सरकारी दबदबा बनाकर कब्ज़ा ली और खेतों में गड्ढे खोदकर धान की खड़ी फसल को नष्ट कर दिया।

11 जुलाई, 2020 को रीवा ज़िले के अंतर्गत गुढ़ तहसील के ग्राम हरदी में वन-विभाग ने आदिवासियों, वन-निवासियों के लगभग 100 मकान बिना किसी सूचना के तोड़ दिये। पीडि़तों का आरोप था कि सन् 1990 में उन्हें सरकारी पट्टे वितरित हुए थे, तब से वे वहाँ रह रहे हैं। वन-विभाग के अधिकारियों द्वारा 5000 रुपये तक की माँग की गयी, जो नहीं दे पाने पर वन-विभाग ने उनके घर तोड़ दिये। 27 जून, 2020 को सिंगरौली ज़िले के बंधा गाँव में आदिवासियों के घरों पर वन-विभाग ने बुल्डोजर चला दिया।

आदिवासियों, वन-निवासियों में जानकारी का अभाव

परम्परागत रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी जंगलों में निवास करने वाले अधिकांश आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों में ज़मीन के कागज़, पहचान पत्र, सरकारी योजनाओं की जानकारी इत्यादि का सर्वथा अभाव रहता है, जिसके मद्देनज़र वन अधिकार पट्टा देने के लिए वन अधिकार कानून-2006 में नियम-13 में साक्ष्य का विस्तृत ब्यौरा दिया गया। वन अधिकार कानून-2006, नियम-2008 के नियम 13(झ) के तहत वन अधिकार पट्टा के लिए तीन पीढिय़ों के कब्ज़े के साक्ष्य के तौर पर ग्राम के बुजूर्गों के बयान तथा ग्राम पंचायत के सरपंच और सचिव के द्वारा बयान सत्यापित करके वन अधिकार पट्टा देने का प्रावधान है। बावजूद इसके आदिवासियों व परम्परागत वन-निवासियों के साथ लगातार अत्याचार-अन्याय होता रहा और उन्हें वन अधिकार पट्टे से वंचित किया जाता रहा। वन अधिकार कानून-2006 लागू होने एवं राज्य में प्रभावी होने के समय से लेकर आज तक राज्य सरकार द्वारा लगभग 98 फीसदी दावों को तीन पीढिय़ों के कब्ज़े के प्रमाण के नाम पर लगातार अमान्य किया गया। तहसील एवं ज़िला स्तर के अधिकारियों, वन अधिकारियों द्वारा ग्राम सभा की भूमिका को नज़रअंदाज़ किया गया। उसी क्षेत्र में निवास करने से सम्बन्धित शासकीय अभिलेखागारों में उपलब्ध अभिलेखों (दस्तावेज़ों) का विवरण भी वन अधिकार समिति, उपखण्ड स्तरीय समिति एवं ज़िला स्तरीय समिति को उपलब्ध नहीं करवाया गया, जिसके आधार पर सत्यापन की प्रक्रिया भी निर्धारित नहीं की गयी। गैर वन्य-भूमि को वन्य-भूमि मानकर दावे मान्य-अमान्य किये गये।

कैसी हो सरकार की भूमिका

किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का उत्तरदायित्व होता है कि वह जनता के कल्याण के लिए योजनाएँ बनाये और कार्य करे; न कि जनता के ही संसाधनों को कब्ज़ाने का प्रयास करे। लेकिन अब तक वन-विभाग की आदिवासियों, वन-निवासियों को जंगलों से किसी तरह बेदखल करने की पूरी कोशिश रही है। राज्य सरकार द्वारा 3.79 लाख आवेदनों में 99 फीसदी दावों को अमान्य किया जाना एक ऐतिहासिक शासकीय भूल साबित होगी। 3.79 दावे वाले परिवारों की कुल जनसंख्या लगभग 20 लाख हो सकती है। आिखर 15 लाख से अधिक लोग कहाँजाएँगे? कैसे गुज़र-बशर करेंगे? आदि सवालों का समाधान करना राज्य सरकार का दायित्व है। मध्य प्रदेश के आदिवासियों एवं परम्परागत वन निवासियों में जीवन को लेकर अनिश्चितता बरकरार है। मध्य प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह आवेदकों के दावों का पुन: निरीक्षण करे और वन अधिकार कानून-2006, नियम-2008 के नियम-13(झ) का बड़ी संख्या में इस्तेमाल कर आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों को तेज़ गति वन अधिकार पट्टे जारी करे।

हिन्दू-धर्म को समझना-6: विश्व स्तर पर लोगों को मंत्रमुग्ध करता है सनातम धर्म

सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) अपनी निहित प्रवृत्ति पर अधिक ज़ोर देता है। भले ही विशेष रूप से नहीं, पर इसके दर्शन के गूढ़ पहलुओं पर दुनिया में शान्ति की एक पूर्व शर्त के रूप में आंतरिक शान्ति पर अधिक ध्यान केंद्रित करने के लिए सामाजिक न्याय के सवालों के साथ ऐतिहासिक रूप से चिन्ता की एक कम परम्परा थी। सवाल जो पश्चिम के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं; पश्चिम के धर्मों, जैसे- यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म जैसी संस्कृतियों को विश्वशान्ति के लिए एक पूर्व शर्त के रूप में सामाजिक न्याय प्रश्नों सहित अपने धर्मों के बहिर्वादी पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं; हालाँकि विशेष रूप से नहीं।

सनातन हिन्दू दर्शन के विभिन्न प्रतिष्ठित प्रतीक, जैसे प्रसिद्ध पुरुष-महिला स्वैच्छिक गले लगाते हैं; जो संक्षेप में पुरुष और महिला सिद्धांतों के संतुलन या भगवान के साथ आध्यात्मिक मिलन के मार्ग के प्रतीक के रूप में देखते हैं। लेकिन पश्चिमी देशों में इसकी अक्सर गलत व्याख्या की गयी है। यह वास्तव में संकेत देता है कि आध्यात्मिक, रहस्यमय मार्ग को विरोधाभासों के संतुलन और पारगमन की आवश्यकता होती है, न कि विरोधाभासों के उन्मूलन की; जैसा कि अन्य धार्मिक विचारों द्वारा प्रतिपादित है।

यह माना जाता है कि यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस (580-500 ईसा पूर्व) ने पुनर्जन्म (एक आत्मा का एक शरीर से दूसरे में जाना) के सिद्धांत को विकसित किया है। एक चक्रीय ब्रह्माण्ड के पाइथागोरस सिद्धांत भी सम्भवत: भारत से प्राप्त किये गये थे। ग्रीक और भारतीय चिन्तन के बीच सबसे खास समानता यह है कि नियोप्ले टॉनिक दार्शनिक प्लाटिनस (205-270) के नौ सिद्धांतों में वर्णित रहस्यवादी सूक्ति (गूढ़ ज्ञान) की प्रणाली और महर्षि पतंजलि के लिए योग-सूत्र में वर्णित समानता है। चूँकि पतंजलि पाठ पुराना है, इसलिए इसका प्रभाव सबसे अधिक सम्भावित है।

 ग्रीक दर्शन को आत्मसात् करने के अलावा हिन्दू प्रतीक-चिह्न नेपाल, थाईलैंड, इंडोनेशिया, कंबोडिया, वियतनाम, पूर्व में मॉरीशस और दक्षिण अमेरिका के सूरीनाम, गुयाना आदि देशों में भी पहचाने जाते हैं। भारत में हम जिन्हें भगवान यम के रूप में जानते हैं और भैंसे को जिनकी सवारी के रूप में दिखाया गया है तथा जो मुख्य न्यायाधीश के रूप में पूज्यनीय हैं, जिनके सामने सभी को मृत्यु के बाद प्रकट होना है; एक समान चिह्न, जिसे भगवान एम्माटेन कहा जाता है; जापान में पूजनीय है। वहाँ उन्हें भैंसे की सवारी करते हुए दिखाया गया है और सभी को मृत्यु के बाद उनके सामने पेश होना होता है। देवी लक्ष्मी की प्रतिष्ठित उपस्थिति और गुणात्मक गुणों से तो हम खूब परिचित हैं, उनसे मिलती-जुलती विशेषताओं की तरह जापान की देवी किचिज्जो-टेन हैं; जिनके हाथ में नोईहोजु (चिन्तामणि) है और वे कमल के फूल पर खड़ी हैं।

भगवान गणेश या भगवान विनायक (हाथी के सिर वाले भगवान) को बाधाओं का निवारण करने वाला और सौभाग्य का देवता माना जाता है। जापान में भी इनसे मिलते-जुलते हाथी के सर वाले देवता हैं; जिन्हें गॉड कांगिटेन या लॉर्ड बिनायका-तेन कहा जाता है। भारत में हमारे पास जहाँ स्वर्ग के राजा के रूप में इंद्रदेव हैं और हाथी की सवारी करने वाले देवताओं में प्रमुख हैं; जापानियों के पास भी अपने भगवान तैशकू-तेन स्वर्ग के राजा और देवताओं के प्रमुख हैं और एक हाथी की सवारी करते हैं। हाथ में संगीत वाद्य यंत्र वीणा धारण करने वाली भारतीय देवी सरस्वती, जिन्हें विद्या की देवी के रूप में पूजते हैं; ऐसी ही देवी को जापान में लोग देवी बेज़ाइतेन को पूजते हैं, जिनके हाथ में वाद्ययंत्र बिवा रहता है। यहाँ भारत में मानव शरीर में आध्यात्मिक शरीर के प्रसिद्ध सात केंद्रों को चक्र कहा जाता है, जबकि जापान में आध्यात्मिक ऊर्जा के समान केंद्रों को चाकुर कहा जाता है। हिन्दू धर्म दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है और भारत, नेपाल और मॉरीशस में व्यापक रूप से प्रतिष्ठित है; जबकि बाली (इंडोनेशिया) में भी यह एक प्रमुख धर्म है। हालाँकि इंडोनेशिया आधिकारिक तौर पर एक मुस्लिम राष्ट्र है, उसके राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में गरुड़ पंचशील हैं। इस प्रतीक को सुल्तानों द्वारा देख-रेख किये गये पोंटियानक के सुल्तान हामिद (द्वितीय) द्वारा डिजाइन किया गया था, और 11 फरवरी, 1950 को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया गया था। भगवान विष्णु के अनुशासित वाहक या वाहन गरुड़ इंडोनेशिया के कई प्राचीन हिन्दू मन्दिरों में दिखायी देते हैं। इंडोनेशिया में बाली के लोग अभी भी अपने स्वरूप के अनुकूल हिन्दू धर्म के एक प्रकार का पालन करते हैं। वास्तव में इंडोनेशियाई के राष्ट्रीय हवाई अड्डे को गरुड़ हवाई अड्डा भी कहा जाता है। उनके 20,000 रुपये के करेंसी नोट में भगवान गणेश का एक शिलालेख है; जबकि इंडोनेशियाई सेना में भगवान हनुमान उनके शुभंकर हैं।

वियतनाम में हिन्दू धर्म मुख्य रूप से चाम जातीय लोगों में प्रचलित है, जो शैव ब्राह्मणवाद का एक रूप है। ज़्यादातर चाम हिन्दू नागवंशी क्षत्रिय जाति के हैं; लेकिन काफी अल्पसंख्यक ब्राह्मण हैं। चाम हिन्दुओं का मानना है कि जब वे मर जाते हैं, तो पवित्र बैल नंदी उनकी आत्मा को भारत की पवित्र भूमि पर ले जाते हैं। थाईलैंड की बात करें, जो एक बुद्धवादी बहुसंख्यक राष्ट्र है, फिर भी इस पर हिन्दू धर्म का बहुत प्रभाव है।

लोकप्रिय थाई महाकाव्य रामकियेन रामायण पर आधारित है। थाइलैंड के प्रतीक ने गरुड़ को दर्शाया है, जो भगवान विष्णु के पुत्र हैं। बैंकॉक के पास थाई शहर अयुत्या, राम के जन्मस्थान अयोध्या के नाम पर है। ब्राह्मणवाद से प्राप्त कई अनुष्ठानों में संरक्षित किया जाता है; जैसे कि पवित्र तारों का उपयोग और शंख से पानी डालना। यहाँ दुकानों के बाहर विशेष रूप से कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में; धन, भाग्य और समृद्धि (लक्ष्मी का संस्करण) के देवता के रूप में नंग क्वाक की मूर्तियाँ मिलती हैं।

5वीं शताब्दी की शुरुआत में कंबोडियन रानी कुलप्रभावती ने अपने अधिकार में एक विष्णु मन्दिर के लिए धनराशि दी थी। खमेर साम्राज्य में भी उसके क्षेत्र में हिन्दू परम्पराओं की शक्ति और प्रतिष्ठा के लिए शिव और विष्णु के विशाल मन्दिर बनाये गये थे। अंगकोर वट, जो कंबोडिया का एक प्रतिष्ठित प्रतीक है; पर राष्ट्रीय ध्वज दिखायी देता है, जो आगंतुकों के लिए देश का प्रमुख आकर्षण है। यह कंबोडिया में एक मन्दिर परिसर है और 162.6 हेक्टेयर (402 एकड़) क्षेत्र में स्थित दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक स्मारक है। मूल रूप से यह भगवान विष्णु को समर्पित एक हिन्दू मन्दिर था। हालाँकि धीरे-धीरे 12वीं शताब्दी के अन्त में यह बौद्ध मन्दिर में तब्दील हो गया। अंगकोर वट खमेर मन्दिर वास्तुकला की दो बुनियादी योजनाओं को जोड़ता है- मन्दिर पर्वत और बाद में गैलरी-नुमा मन्दिर।

यह हिन्दू पौराणिक कथाओं में देवों के घर माउंट मेरू का प्रतिनिधित्व करने के लिए बनाया गया है। मन्दिर के केंद्र में मीनारों का एक समूह है। अधिकांश अंगकोरियाई मन्दिरों के विपरीत अंगकोर वट पश्चिम में उन्मुख किया गया है। इसके महत्त्व को लेकर विद्वानों के मत विभाजित हैं। अब तक के सबसे बड़े हिन्दू मन्दिरों में से एक इस मन्दिर में दुनिया की सबसे बड़ी नक्काशी है, जिसमें दूध के समुद्र के मंथन को दर्शाया गया है। यह भारतीय वास्तुकला का एक मामूली विषय है; लेकिन खमेर मन्दिरों में प्रमुख कथाओं में से एक है। दक्षिण अमेरिका में हिन्दू धर्म कई देशों में पाया जाता है। लेकिन गुयाना और सूरीनाम की इंडो-कैरिबियन आबादी में यह सबसे मज़बूत है।

दक्षिण अमेरिका में लगभग 5,50,000 हिन्दू हैं। मुख्य रूप से गुयाना में भारतीय बँधुआ मज़दूरों के वंशज हैं। गुयाना में लगभग 2,70,000 हिन्दू, सूरीनाम में 1,20,000 और कुछ अन्य फ्रेंच गुयाना में हैं।

गुयाना और सूरीनाम में हिन्दू इसे दूसरा सबसे बड़ा धर्म बनाते हैं, वहीं कुछ क्षेत्रों और ज़िलों में हिन्दू बहुसंख्यक हैं। हाल के वर्षों में सनातन प्रभाव ने अपनी पहुँच को दूर-दूर तक फैलाया है, जो मुख्य रूप से इस्कॉन और अन्य हिन्दू दर्शन-शास्त्रीय संगठनों के प्रयासों के कारण है, जो अपने भक्ति सत्रों को बहुत उत्साह और आनन्दपूर्ण तरीके से करते हैं। सनातन धर्म ग्रन्थ विश्व स्तर पर लोगों को मंत्रमुग्ध कर रहे हैं।

पैतृक सम्पत्ति में बेटी का भी बराबर हक

हिन्दू कानून में सुधार के लिए सन् 1941 से लेकर सन् 1956 तक यानी 15 वर्षों की अवधि तक मंथन होता रहा। हिन्दू महिलाओं के सम्पत्ति अधिकार अधिनियम-1937 की विसंगतियों को देखने के लिए सन् 1941 में हिन्दू कानून समिति की स्थापना की गयी थी। सन् 1944 में फिर दूसरी हिन्दू कानून समिति का गठन किया गया। कानून के जानकारों और जनता की राय लेने के बाद समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और इसकी सिफारिशों पर संसद में सन् 1948 और सन् 1951 के बीच और फिर सन् 1951-1954 के बीच कई दफा बहस हुई। चार प्रमुख बिन्दुओं को लेकर सन् 1955-56 में इसे पारित किया जा सका। बाद में इसने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 का रूप लिया। इसके तहत महिलाओं के सम्पत्ति के अधिकार यानी संयुक्त हिन्दू परिवार में विरासत के अधिकार को मान्यता दी गयी। हालाँकि तब भी बेटी को को-पार्सनर (सम उत्तराधिकारी) का दर्जा नहीं दिया गया।

महिलाओं के अधिकारों पर भ्रम की स्थिति

भारत में पुरखों की सम्पत्ति अधिकार पर शास्त्र और परम्परागत कानूनी प्रावधानों का पालन किया जाता रहा है। ग्रंथकारों और टीकाकारों के मतभेद से पैतृक धनविभाग के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न व्यवस्थाएँ प्रचलित हैं। प्रधान पक्ष दो हैं- मिताक्षरा और दायभाग। मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका है; जबकि दायभाग जिमुतवाहन की कृति है। मिताक्षरा के अनुसार, पैतृक (पूर्वजों के) धन पर पुत्रादि का सामान्य स्वत्व उनके जन्म ही के साथ उत्पन्न हो जाता है, पर दायभाग पूर्वस्वामी के स्वत्वविनाश के उपरांत उत्तराधिकारियों के स्वत्व की उत्पत्ति मानता है।

नतीजे के तौर पर हिन्दुओं के बीच सम्पत्ति कानून भिन्न थे; जिन पर महिलाओं के साथ भेदभाव किया गया और इनमें पुरुषों के पक्ष में स्वामित्व के अधिकार दिये गये। मिताक्षरा कानून के तहत एक हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति पुरुष उत्तराधिकारियों की चार पीढिय़ों पर संयुक्त रूप से जीवित रहने से विकसित हुई। स्वामित्व जन्म से था न कि उत्तराधिकार से। उनके जन्म के समय पुरुष सदस्य ने सम्पत्ति का अधिकार हासिल कर लिया। बंगाल में स्वीकृत दायभाग ने संयुक्त स्वामित्व या को-पार्सनरी की धारणा को नहीं अपनाया।

चूँकि पहले महिलाएँ को-पार्सनरी (सम उत्तराधिकार) का हिस्सा नहीं थीं, इसलिए उनके पास संयुक्त स्वामित्व का सैद्धांतिक अधिकार भी नहीं था। इस तरह वे अपने हिस्से की माँग नहीं कर सकती थीं। सिर्फ पत्नियाँ ही इस तरह के लिंगभेद की शिकार नहीं थीं, बल्कि जब मालिकाना हक दिये जाने की बात आती, तो बेटियों को भी इसी तरह वंचित रखा जाता था। हिन्दू कानून के पूरे इतिहास में पहली बार सन् 1937 अधिनियम के आधार पर महिलाओं को सम्पत्ति रखने और निपटान के अधिकार को वैधानिक मान्यता मिली। यहाँ तक कि अगर महिलाओं को सम्पत्ति के स्वामित्व की अनुमति दी गयी थी, तो यह केवल एक जीवन हित था, जो उनकी मृत्यु पर उसे मूल स्रोत पर लौट जाता था। महिलाएँ दो प्रकार की सम्पत्ति की मालकिन हो सकती थीं-स्त्रीधन और और विमेंस एस्टेट। हालाँकि उसके नाम की यह सम्पत्ति हमेशा ही बेहद कम रही। उसके पास दावा करने का शायद माद्दा भी नहीं था, साथ ही उसे अपने अधिकारों के बारे में जानकारी भी नहीं थी।

स्त्रीधन को हिन्दू महिलाओं की सम्पूर्ण सम्पत्ति माना जाता है। इसके तहत उसके पास अपने विवाह और विधवापन के दौरान बेचने, उपहार, बन्धक, पट्टे या विनिमय करने जैसी शक्तियाँ थीं; लेकिन उसकी शादी होने पर उसकी शक्ति पर कुछ पाबंदिया लगा दी थीं। इसलिए महिलाओं ने इस पर पूर्ण नियंत्रण का आनन्द नहीं लिया। क्योंकि स्त्रीधन के कुछ मामलों में उनको अपने पति की सहमति लेनी ज़रूरी थी। हिन्दू महिलाओं को बेहद सीमित स्वामित्व दिया गया था, जिसने अपनी सम्पत्ति को महिलाओं की सम्पत्ति या विधवा की सम्पत्ति के रूप में जाना।

सन् 1937 के अधिनियम के आधार पर विधवा के पास निपटान की सीमित शक्ति थी, यानी वह कानूनी आवश्यकता को छोड़कर पति की मौत के बाद अलग नहीं कर सकती थी। उसकी मृत्यु पर यह महिलाओं की सम्पत्ति अन्तिम पूर्ण मालिक के वारिसों को वापस कर देती थी। सन् 1956 में लैंगिक असमानताओं का ज़िक्र किया गया और हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-14 ने महिलाओं की सम्पत्ति की इस अवधारणा को खत्म कर दिया। लेकिन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 ने को-पार्सनर प्रणाली को बरकरार रखा, जिसके परिणामस्वरूप पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं के अधिकारों का हनन हुआ। महिलाओं को को-पार्सनर नहीं

माना गया। मिताक्षरा परिवारों की बेटियों को समान अधिकारों से वंचित रखा गया। कई लोगों ने इसे महिलाओं के सम्पत्ति अधिकारों से वंचित रखने के तौर पर देखा।

हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 में बेटियों के अधिकार

9 सितंबर, 2005 को 39 वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 में संशोधन किया गया। हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम-2005 के अनुसार, हर बेटी, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित; को पिता के हिन्दू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) का सदस्य माना जाता है और उसे उसकी एचयूएफ सम्पत्ति की कर्ता के रूप में भी नियुक्त किया जा सकता है। सन् 2005 का संशोधन अब बेटियों को उन्हीं अधिकारों, कर्तव्यों, देनदारियों को प्रदान करता है, जो उनके जन्म के आधार पर अभी बेटों तक सीमित था। अब परिवार की महिलाएँ भी को-पार्सनर हैं। संशोधन अधिनियम-2005 ने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा-4 (2) को हटा दिया और पुरुषों के समान कृषि भूमि में महिलाओं के उत्तराधिकार का मार्ग प्रशस्त किया। संशोधन ने भेदभावपूर्ण राज्य-स्तरीय अन्य कानूनों को खत्म कर दिया है और कई महिलाओं को लाभान्वित किया है, जो अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। इस प्रकार हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम-2005 ने मिताक्षरा को-पार्सनरी में बेटियों के अधिकारों से सम्बन्धित एक बहुत ही प्रासंगिक मामले को सम्बोधित किया है। इसमें हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा-6 में संशोधन करके एक बेटी के अधिकार को बढ़ाया है। संशोधित धारा-6 में सम्पत्ति में बेटियों को भी समान हक दिया गया है। हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम-2005 के लागू होने के साथ ही धारा-6 (1) मिताक्षरा कानून द्वारा शासित एक संयुक्त परिवार में एक बेटी, बेटे की तरह ही जन्म से ही को-पार्सनर बन जाएगी। बेटी के पास समान भी सम्पत्ति पर बेटे की ही तरह अधिकार होंगे, जिनको उसके अधीन किया जाएगा।

एक पुत्र के रूप में को-पार्सनर सम्पत्ति में बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार होगा और हिन्दू मिताक्षरा को-पार्सनर के किसी भी सन्दर्भ को बेटी के सन्दर्भ में शामिल किये जाने के तौर पर समझा जाएगा। लेकिन संशोधन के ज़रिये एक बेटी को दिये गये लाभों का फायदा केवल तभी मिल सकता है, जब उसके पिता का निधन 9 सितंबर, 2005 के बाद हुआ हो और बेटी केवल सह-हिस्सेदार बनने के योग्य हो सकती है साथ ही पिता और पुत्री दोनों के 9 सितंबर, 2005 तक जीवित होने की शर्त थी। इसके साथ ही अधिनियम की धारा-23 में महिला वारिस को संयुक्त परिवार के पूर्ण आवास में हिस्सेदार माना गया है; जब तक कि पुरुष उत्तराधिकारी अपने सम्बन्धित शेयरों को विभाजित करने का विकल्प नहीं चुनते हैं। संशोधन अधिनियम में इसे छोड़ दिया गया था। 174वें विधि आयोग की रिपोर्ट ने भी हिन्दू उत्तराधिकार कानून में इस तरह के सुधार की सिफारिश की गयी थी। कानूनी व्यवस्था में लैंगिक भेद को दूर करते हुए अधिनियम में संशोधन करके यह सुनिश्चित किया कि मिताक्षरा कानून द्वारा शासित संयुक्त हिन्दू परिवार में एक को-पार्सनर की बेटी जन्म से ही बराबर की हिस्सेदार बन जाएगी, जिस तरह से बेटा को-पार्सनर प्रॉपर्टी में अधिकार रखता है। बेटी को भी बेटे जितना ही हिस्सा प्रदान किया जाए।

कैसे सामने आया मामला?

सन् 2005 के कानून में जब महिलाओं को समान अधिकार दिये गये थे, इसे बावजूद कई मामलों में सवाल उठाये गये थे कि क्या कानून पूरी तरह से लागू होता है और महिलाओं के अधिकार पिता के जीवित रहते हुए क्या होते हैं या विरासत में इनको क्या मिलता है? इस तरह कई सवाल सामने आये थे। ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की विभिन्न पीठों ने इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी फैसले देकर मुद्दे को और जटिल बना दिया था। विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी शीर्ष अदालत के विभिन्न विचारों को बाध्यकारी मिवर्षों के रूप में पालन किया था। प्रकाश वी. फूलवती (2015) मामले में न्यायमूर्ति ए.के. गोयल की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि 2005 के संशोधन का लाभ केवल 9 सितंबर, 2005 (कानून में संशोधन लागू होने की तिथि सेे) को जीवित को-पार्सनर की बेटियों को दिया जा सकता है। फरवरी, 2018 में सन् 2015 के फैसले के विपरीत न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी की अध्यक्षता वाली खण्डपीठ ने कहा कि सन् 2001 में मृत्यु हो चुकी एक पिता की हिस्सेदारी भी 2005 के कानून के अनुसार सम्पत्ति के विभाजन के दौरान उनकी बेटियाँ को-पार्सनर के रूप में होंगी। उसी साल अप्रैल में जस्टिस आर.के. अग्रवाल की अध्यक्षता वाली एक अन्य पीठ ने सन् 2015 में लिये गये फैसले की स्थिति को ही दोहराया।

अब एक कदम और आगे

समान अधिकार को लेकर अदालतों की अलग-अलग पीठ द्वारा परस्पर विरोधी फैसलों के मामले में सुप्रीम कोर्ट में तीन सदस्यों की पीठ के समक्ष लाया गया। इसमें वर्तमान पीठ ने सन् 2015 और अप्रैल, 2018 के फैसले को पलटते हुए मामले का निपटारा कर दिया। इसमें कहा गया कि 2005 के कानून का मकसद ही था कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 की धारा-6 में निहित भेदभाव को दूर करके बेटियों को समान अधिकार प्रदान किये जाएँ। हिन्दू मिताक्षरा को-पार्सनरी सम्बन्धी सम्पत्ति में बेटों की तरह ही अधिकार दिये गये। 11 अगस्त, 2020 को लैंगिक मतभेद को मिटाने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया कि बेटियों को पैतृक सम्पत्ति पर समान अधिकार होगा।

कोर्ट ने कहा कि बेटा तभी तक बेटा रहता है, जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती; लेकिन बेटी ताउम्र बेटी रहती है। हिन्दू उत्तराधिकार कानून-1956 की धारा-6 का प्रावधान संशोधन से पहले या बाद में पैदा हुई बेटी को बेटे की तरह ही समान अधिकार और दायित्व प्रदान करता है। पीठ ने कहा कि 9 सितंबर, 2005 से पहले जन्मी बेटियाँ धारा-6 (1) के प्रावधान के तहत 20 दिसंबर, 2004 से पहले बेची या बँटवारा की गयी सम्पत्तियों में हिस्सा माँग सकती हैं। चूँकि को-पार्सनरी (समान हक) का अधिकार जन्म से ही है; लिहाज़ा यह आवश्यक नहीं है कि 9 सितंबर, 2005 को कानून के अमल में आने से पहले पिता जीवित ही होना चाहिए।

(लेखिका नेशनल यूनिवॢसटी ऑफ स्टडी एंड रिसर्च इन लॉ की डीन तथा एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)

शादी की उम्र बढ़ाने से सुधरेगी महिलाओं की दशा?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को 74वें स्वतंत्रता दिवस पर अपने 86 मिनट के राष्ट्रीय सम्बोधन में सुरक्षा व सम्प्रभुता को लेकर सरकार का कड़ा रुख साफ करने के साथ-साथ बड़े आर्थिक व सामाजिक सुधारों का ज़िक्र किया। इसी के साथ उन्होंने देश की अवाम को इससे भी अवगत कराया कि सरकार लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु पर फिर से विचार कर रही है। प्रधानमंत्री ने कहा कि लड़कियों की शादी की उपयुक्त उम्र क्या होनी चाहिए, इस बारे में केंद्र सरकार विचार कर रही है। चर्चा है कि सरकार की मंशा लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु 18 वर्ष से बढ़ाकर लड़कों के बराबर 21 वर्ष करने की है।

इस विषय पर बात करने से पहले थोड़ा पीछे लौटते हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सदन में अपने 2020-2021 वित्तीय भाषण में ऐलान किया था कि महिलाओं की शादी की न्यूनतम आयु की समीक्षा के लिए एक टॉस्क फोर्स का गठन किया जाएगा, जो शादी की आयु के मातृ स्वास्थ्य, पोषण पर पडऩे वाले प्रभावों का अध्ययन करेगा और छ: माह के भीतर अपनी अनुशंसाएँ सौंप देगा। वित्त मंत्री ने यह भी कहा कि 1978 में 1929 के शारदा कानून में संशोधन करके लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु 16 से बढ़ाकर 18 साल कर दी गयी थी। देश प्रगति की राह पर अग्रसर है और महिलाओं के लिए उच्चतर शिक्षा व करिअर के अवसर भी बढ़ रहे हैं। मातृ मृत्यु-दर को कम करना भी अति आवश्यक है और इसके साथ-साथ पोषण के स्तर में सुधार लाना भी ज़रूरी है। एक लड़की किस उम्र में मातृत्व अवस्था में प्रवेश करे? इस मुद्दे को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। लिहाज़ा मैं एक टॉस्क फोर्स गठित करने का प्रस्ताव रख रही हूँ। विधि मंत्रालय के अधिकारियों की भी राय है कि मातृ व बाल स्वास्थ्य में सुधार के लिए शादी की उम्र एक अहम तत्त्व है। विशेषज्ञों का भी मानना है कि इस बात के साक्ष्य हैं कि जिन लड़कियों की शादी 18 साल से पहले कर दी जाती है, उनके अवांछित गर्भधारण करने की सम्भावना अधिक होती है और वे यौन रोगों की चपेट में भी आ सकती हैं। दरअसल भारत में लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु को बढ़ाने वाले मुद्दे के पक्ष व विरोध में आवाज़ें भी सुनायी पड़ती हैं। अब प्रधानमंत्री ने इसे अपने स्वतंत्रता सम्बोधन में उठाया है, तो यह मुद्दा फिर से गरम हो गया है। गौरतलब है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के ऐलान के बाद केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय ने 02 जून को टॉस्क फोर्स का गठन कर दिया। इस टॉस्क फोर्स की अध्यक्ष समता पार्टी की पूर्व अध्यक्ष जया जेटली हैं और इस समिति में नीति आयोग के सदस्य डॉ. विनोद पॉल भी हैं और कई विभागों के उच्च अधिकारी भी हैं। इस टॉस्क फोर्स का मकसद शादी की उम्र व मातृत्व में पारस्परिक सम्बन्धों को देखना, मातृ मृत्यु-दर को कम करना, महिलाओं में पोषण के स्तर को सुधारने का आकलन करने के साथ-साथ गर्भावस्था, शिशु के जन्म और उसके बाद माँ व नवजात, शिशु के पोषण स्तर का शादी की उम्र के साथ पारस्परिक सम्बन्ध वाले अहम बिन्दुओं पर भी ध्यान देना है। इसके साथ ही यह अहम मापदण्डों जैसे कि शिशु मृत्यु-दर, मातृ मृत्यु-दर, कुल प्रजनन-दर, जन्म के समय लिंगानुपात और बाल लिंगानुपात को भी ध्यान में रख रही है और शादी की उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने की सम्भवानाओं की जाँच करना है।

भारत में शादी के लिए न्यूनतम आयु वाले कानूनी ढाँचे की शुरुआत सन् 1880 में होती है। बाल विवाह निषेध अधिनियम-1929, जो कि शारदा अधिनियम से भी जाना जाता है; उसमें लड़कियों के लिए न्यूनतम शादी की उम्र 16 साल और लड़कों के लिए 18 साल रखी गयी थी। उसके बाद सन् 1978 में संशोधन कर लड़कियों के लिए यह आयु 18 साल और लड़कों के लिए 21 साल कर दी गयी है। सन् 1978 से वर्तमान में यही आयु सीमा शादी के लिए वैध है। अब सवाल यह है कि जब संविधान महिला व पुरुष को बराबरी के अधिकार देता है। 18 साल की आयु में लड़की, लड़के को मतदान का अधिकार, ड्राइविंग लाइसेंस, कम्पनी शुरू करने का अधिकार है, तो शादी की उम्र में भेदभाव क्यों? वैसे कानून में ऐसा करने का कोई तर्क नहीं दिया गया। कानून तो रीति-रिवाज़ों व धर्मिक परम्पराओं का संहिताकरण है। लॉ कमीशन के एक पेपर में भी कहा गया कि विभिन्न कानूनी मानक रूढि़वादिता को ही दर्शाते हैं कि पत्नी पति से उम्र में छोटी होनी चाहिए। वैसे प्रसंगवश यहाँ ज़िक्र किया जा रहा है कि प्राचीन काल में भी लड़की और लड़के की शादी की न्यूनतम आयु में भिन्नता वाला मुद्दा उठता रहता था।

लाला लाजपत राय की किताब ‘अ हिस्ट्री ऑफ द आर्य समाज’ में इसका ज़िक्र है कि विवाह की न्यूनतम उम्र लड़कों की 25 वर्ष और लड़कियों की 16 वर्ष निर्धारित की गयी थी। यह अन्तर लैंगिक रूप से (स्त्री-पुरुष) उनकी भौतिकीय (शारीरिक बनावट) के बारे में हिन्दू विचारों पर आधारित था। महिला अधिकार कार्यकर्ताओं की भी सोच है कि कानून भी इस रूढि़वादिता को जारी रखते हैं कि महिलाएँ पुरुषों के समान आयु होने पर भी पुरुषों से अधिक प्रौढ़ होती हैं, इसलिए उन्हें जल्दी शादी करने की इजाज़त दी जानी चाहिए।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी महिला व पुरुष की शादी की न्यूनतम उम्र एक समान करने की ज़रूरत कई बार बतायी। लॉ कमीशन ने भी 2018 में फैमिली लॉ (पारिवारिक कानून) सम्बन्धित परामर्श पत्र में यह सुझाव दिया था कि सभी धर्मों में महिला व पुरुष के लिए शादी की न्यूनतम वैध आयु 18 वर्ष होनी चाहिए। यह अनुशंसा करते हुए साफ किया था कि पति व पत्नी की आयु में अन्तर का कोई कानूनी आधार नहीं है। जैसे ही दो लोग जीवन-साथी बनते हैं, वे हर तरह से बराबर होते हैं और उनकी भागीदारी भी बराबर वालों के बीच वाली ही होनी चाहिए। गौरतलब है कि महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभावों को समाप्त करने वाले सम्मेलनों में भी ऐसे कानूनों को खत्म करने का आह्वान किया गया था, जो यह मान लेते हैं कि महिलाओं की शारीरिक व बौद्धिक वृद्धि दर पुरुषों से भिन्न होती है। दुनिया के 140 देशों में महिला व पुरुष के लिए शादी की न्यूनतम आयु 18 साल है। भारत में भी लॉ कमीशन ने पुरुष के लिए भी महिला के समान शादी की न्यूनतम आयु 18 साल करने की अनुशंसा की थी। एक खबर यह भी सामने आयी थी कि सरकार ऐसा कर सकती हैं; लेकिन यह विचार इसलिए आगे नहीं बढ़ सका कि ऐसा करने से देश की आबादी में और अधिक वृद्धि हो सकती है। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सन् 2019 के स्वतंत्रता सम्बोधन में बढ़ती आबादी वाला बिन्दु भी उठाया था। बहरहाल उन्होंने फिर कहा कि सरकार इस पर विचार कर रही है कि लड़कियों की शादी की उपयुक्त उम्र क्या होनी चाहिए? महिला की शादी की उम्र क्यों बढ़ानी चाहिए? इसके पीछे दलील दी जाती है कि जल्दी गर्भधारण करने से महिला व बच्चे का स्वास्थ्य तथा पोषण प्रभावित होता है। बाल व मातृ मृत्यु-दर बढ़ जाती है। नवीनतम सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के अनुसार देश में मातृ मृत्यु-दर प्रति लाख 122 है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 (2015-16) के आँकड़ें बताते हैं कि देश में बाल विवाह में भी कमी आयी है। लेकिन भारत में बाल विवाह अभी भी एक गम्भीर समस्या है। यूनिसेफ का अनुमान है कि भारत में हर साल 18 साल से कम उम्र की करीब 15 लाख लड़कियों की शादी हो जाती है। भारत बालिका वधु के सन्दर्भ में विश्व में पहले नम्बर पर आता है, दुनिया की एक-तिहाई बाल-वधु भारत में ही हैं। 15-19 आयु-वर्ग की 16 फीसदी किशोरियाँ शादीशुदा हैं। बाल-विवाह का सम्बन्ध गरीबी व शिक्षा के स्तर से भी जुड़ता है।

ताज़ा उदाहरण देखें, तो कोविड-19 महामारी में स्कूल बन्द हैं। ऑनलाइन पढ़ाई की सुविधा हरेक के पास नहीं है। लिहाज़ा अभिभावक विवश होकर नाबालिग लड़कियों की शादी कर रहे हैं। बच्चों के अधिकारों व संरक्षण के लिए बनी चाइल्ड हेल्पलाइन को बीते चार महीनों में देश भर से 5,584 बाल विवाह की घटनाओं के बारे में जानकारी मिली और हस्तक्षेप किया। महाराष्ट्र में करीब 200 बाल विवाह रुकवाये। बच्चियाँ पढऩा चाहती हैं; लेकिन स्कूल बन्द हैं और गरीबी बढ़ी है। अभिभावकों का मानना है कि इस महामारी में शादियों पर सामान्य दिनों की तुलना में बहुत कम खर्च करना पड़ रहा है और लड़की का बोझ हल्के में उतर रहा है। शिक्षा व लड़कियों की शादी की उम्र के बीच भी पारस्परिक सम्बन्ध है। आँकड़े बताते हैं कि 18 साल की कम उम्र की शादीशुदा लड़कियों में 44.7 फीसदी ऐसी हैं, जो बिल्कुल अनपढ़ हैं। प्राइमरी शिक्षा हासिल करने वाली ऐसी लड़कियाँ 39.7 फीसदी, सेकेंडरी शिक्षा प्राप्त लड़कियाँ 23.2 फीसदी, तो हायर शिक्षा पाने वाली लड़कियाँ 2.9 फीसदी हैं। इससे एक बात तो साफ है कि सरकार को गरीबी कम करने वाली योजनाओं का वास्तविक परिणाम व असर देखने के लिए उन्हें ज़मीनी स्तर पर लागू करने हेतु ठोस कदम उठाने होंगे। लड़कियों की शिक्षा को और अधिक बढ़ावा देने के लिए बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ को और अधिक कारगर बनाने की ज़रूरत है। कोविड-19 में चाइल्ड हेल्पलाइन को बाल-विवाह के बारे में जो कॉल आ रही हैं। इन पर जो सूचनाएँ मिल रही हैं, वह इस बात की तस्दीक करती हैं कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का आकलन करना कितना अहम है। अब सवाल यह है कि क्या महिला की शादी की न्यूनतम आयु 18 साल से अधिक करने से सरकार अपना लक्ष्य हासिल कर लेगी। या सरकार को शादी की उम्र बढ़ाने वाले उपाय की बजाय गरीबी कम करने व लड़कियों को शिक्षा के लिए अधिक प्रोत्साहित करने व उन्हें उनके सशक्तिकरण के लिए अधिक सुविधाएँ देकर अपना लक्ष्य हासिल करना चाहिए।

उपलब्ध आँकड़े बताते हैं कि लड़कियों के सशक्तिकरण की राह में घर का आर्थिक स्तर, उनकी शिक्षा की अहम भूमिका होती है। लिहाज़ा सरकार को इस पर अधिक फोकस करना चाहिए; लेकिन इसके साथ ही एक वर्ग लड़की-लड़का बराबर वाले सिद्धांत को शादी की न्यूनतम आयु में भी अमल होते देखने के पक्ष में है। एक आशंका यह भी ज़ाहिर की जा रही है कि उम्र 18 से 21 करने पर बाल विवाह, किशोरावस्था विवाह के मामले और बढ़ेंगे, बाल विवाह और नाबालिग यौन उत्पीडऩ को रोकने वाले कानूनों को प्रभावशाली बनाने के लिए कड़ा रुख अपनाना होगा। इसके अलावा अन्य कई चुनौतियाँ भी सामने आएँगी, तो ऐसे में सरकार को ऐसी आशंकाओं व चुनौतियों से निपटने वाले निगरानी तंत्र को क्रियाशील तंत्र में तब्दील करना होगा, ताकि लैंगिक सूचकांक में भारत की रैकिंग में सुधार हो; मातृ व नवजात मृत्यु-दर कम हो; महिलाओं व बच्चों के पोषण स्तर में सुधार हो।

नर पिशाच को सज़ा-ए-मौत

शुक्रवार 28 फरवरी का दिन था। कोटा के पोक्सो कोर्ट संख्या पाँच के विशिष्ठ न्यायाधीश कैलाश चंद्र मिश्रा की अदालत खचाखच भरी थी। अदालत के बाहर भी लोगों की भीड़ उमड़ी पड़ रही थी। मामला साइको किलर की दहशतज़दा कर देने वाली दरिन्दगी से जुड़ा हुआ था। इसलिए लोगों की उत्कंठा उसको मिलने वाली सज़ा से कहीं ज़्यादा उसे देखने में थी। पुलिस ने अपनी जाँच पूरी कर चार्जशीट न्यायालय में पेश कर दी थी। निश्चित समय पर न्यायाधीश कैलाश चंद्र मिश्रा अदालत में पहुँचे। न्यायाधीश मिश्रा ने नौ महीने पहले महिला की नृशंस हत्या के मामले में आरोपी मोहन सिंह उर्फ महावीर को भारतीय दंड संहिता की धारा-302, 376 और 379 के तहत फाँसी की सज़ा सुनायी। न्यायाधीश मिश्रा ने टिप्पणी करते हुए कहा- ‘यह व्यक्ति इतना खतरनाक हो चुका है कि इसको सभ्य समाज में नहीं रहने दिया जा सकता। पहले ही तीन महिलाओं की हत्या कर चुका यह अपराधी चौथी हत्या करने से भी नहीं हिचका। स्पष्ट है कि यह अपनी क्रूर और आपराधिक मानसिक स्थिति बदलने को तैयार नहीं था। इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं बची है। आरोपी मोहन सिंह उर्फ महावीर मानवता के नाम पर धब्बा है। एक गरीब महिला को मज़दूरी के बहाने निर्माणाधीन मकान में दुष्कर्म की नीयत से ले गया। महिला के विरोध किये जाने पर जघन्य तरीके से उसकी हत्या कर लाश की भी दुर्गति की। यह विरल से विरलतम अपराध है। मोहनसिह का जुर्म इतना संगीन है कि इसे अधिकतम सज़ा मिलनी चाहिए। अत: यह अदालत मुल्जिम मोहन सिंह उर्फ महावीर को सज़ा-ए-मौत का हुक्म देती है। इसे मृत्यु होने तक फाँसी के फंदे पर लटकाया जाए।’

फाँसी की सज़ा सुनाये जाने पर मुल्जिम को काँप उठना चाहिए था, लेकिन उसके चेहरे पर तो पछतावा तक नज़र नहीं आया। अदालत ने जैसे ही उसे फाँसी की सज़ा सुनायी, उसने निर्लज्जता दिखाते हुए कहा कि साब! मुझे फैसले की कॉपी दिलवा दो। मैं हाईकोर्ट में अपील करूँगा। न्यायालय ने मुजरिम को मनोरोगी नहीं माना। चिकित्सीय परीक्षण में उसमें मानसिक रोग के कोई लक्षण नहीं पाये गये। मुजरिम विकृत व्यक्ति है ओर महिलाओं से सम्बन्ध बनाने की टोह में रहता था। विरोध करने पर वह बड़े ही पैशाचिक ढंग से महिलाओं की हत्या कर देता था! आिखर क्यों करता था ऐसे?

क्या है कहानी

कोटा की विज्ञान नगर कॉलोनी भी महानगरों की अन्य कॉलोनियों की तरह है। सुबह पाँच बजे के लगभग यहाँ भी लोगों का सैर पर जाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। ज़्यादातर लोग समूहों में घर से निकलते हैं। 24 मई, 2019 को सुबह जब सेक्टर-6 के लोग घरों से निकलकर रास्ते में पडऩे वाले सरकारी स्कूल की तरफ से गुज़रे, तो उन्हें विकट बदबू आयी। नतीजतन उन्होंने नाक को रुमाल से ढककर चाल तेज़ कर दी। अपने आगे जाने वालों की टोली की तरफ उनकी नज़र पड़ी, तो उनको भी उन्होंने नाक को रुमाल से ढके ही देखा। जैसे-तैसे साँस रोककर अब तक काफी आगे निकल चुके लोग बाते करते रहे कि लगता है कोई जानवर मर गया। सभी की सोच यही थी। बता दें कि विज्ञान नगर का सरकारी स्कूल कॉलोनी के छोर पर है। एक-चौथाई आबादी पिछवाड़े होस्टल के लिए छोड़ी गयी ज़मीन के बाद शुरू होती है। बाकी तीन-चौथाई आबादी अगले हिस्से में खेल मैदान के बाद शुरू होती है। करीब 8:00 बजे कॉलोनी निवासी पवन अपने दो तीन साथियों के साथ उधर से गुज़रा, तो मेन गेट पर ही ठिठककर रह गया। एकाएक उसे तेज़ बदबू आयी, तो नाक दबाता हुआ बड़ी तेज़ी से पीछे पलटा। थोड़े फासले पर जाकर उसने स्कूल की तरफ नज़र दोड़ायी, तो उसे चहारदीवारी के पास कुत्तों का झुण्ड नज़र आया। उनकी हरकतों से लगता था, वे किसी चीज़ को नोंचने-खसोटने में जुटे थे। पवन भी इतना ही अंदाज़ा लगा पाया कि ज़रूर कोई जानवर मर गया होगा? कुत्ते उसी को भँभोडऩे में लगे होंगे। लेकिन गरम हवा के झोंकों के साथ माहौल में बदबू बढ़ती ही जा रही थी, तभी उसे स्कूल की इमारत से सफाई कर्मचारी राजू हड़बड़ाता निकलता दिखायी दिया; तो पवन से पूछे बिना नहीं रहा गया- ‘क्यों रे राजू! यह बदबू कहाँ से आ रही है?’ सफाई कर्मचारी राजू गुस्से से लाल-पीला होता हुआ बोला- ‘स्कूल में तो घुसना मुश्किल है। बदबू के मारे नाक फटी जा रही है। दीवार के पास कोई जानवर मरा पड़ा होगा।’ उसने हाथ उठाकर कुत्तों की तरफ इशारा किया- ‘उधर देखो, लगता है लाश को कुत्ते नोच रहे हैं।’

पवन ने थोड़ा आगे बढ़कर नज़र दोड़ायी, असहनीय बदबू एक बार फिर उसे आयी, तो वह फौरन पीछे पलटा। राजू की बात गलत नहीं थी। भयंकर बदबू आ रही थी। कुत्ते लाश को भँभोड़ते नज़र आ रहे थे। राजू की बात पर सहमति जताते हुए उसने कहा कि इसका फौरन कोई इंतज़ाम करना पड़ेगा। मैं कमेटी के सफाई दस्ते को फोन करता हूँ।

कॉर्पोरेशन की सफाई टोली पहुँची, तो स्कूल की दीवार के पास बड़ा वीभत्स दृश्य देखने को मिला। कुत्तों को भगाने के बाद मुँह पर ढाटा लगाये सफाई टोली ने जो देखा, तो उनके हाथ-पाँव फूल गये। लाश किसी जानवर की नहीं, बोरे में कोई इंसानी शव बन्द था। एक बार तो सफाईकर्मी घबराकर फौरन वहाँ से भाग खड़े हुए। उन्होंने अपने ओवरसीयर सुरेश लखेरा को खबर की। उन्होंने मौके पर पहुँचने से पहले विज्ञान नगर पुलिस को इत्तला कर दी। थाना प्रभारी मुनीन्द्र सिंह ने स्टेशन डायरी में सूचना दर्ज करने के साथ अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक राजेश मील को भी वाकये की जानकारी दी। दोनों पुलिस अधिकारी लगभग आगे-पीछे ही घटनास्थल पर पहुँचे। पुलिस अधिकारी भी असहनीय बदबू की वजह से बमुश्किल ही वहाँ खड़े रह पा रहे थे। सिपाहियों ने नाक पर ढाटे बाँधकर बोरे को खोला। किसी स्त्री का नग्न शव था। युवती 25 से 30 वर्ष की दरमियानी उम्र की रही होगी।

हत्यारे ने महिला के पेट को काटकर उसमें कपड़े भरकर पेट को जीआई तार से सिल दिया था। शव को जिस तरह मोड़कर जीआई तार से सिला गया था। पुलिस अधिकारी इस निर्णय पर पहुँचे बिना नहीं रहे कि हत्यारा निश्चित रूप से विकृत मानसिक अवस्था वाला कोई बड़ा ही क्रूर और पेशेवर रहा होगा। मौके की स्थिति देखने से ऐसा लग रहा था कि जैसे युवती की हत्या किसी दूसरी जगह की गयी और फिर बदमाश उसे बोरे में डालकर यहाँ पटककर चले गये। ज़रूर इस वारदात में दो या दो से अधिक व्यक्ति शामिल रहे होंगे? लाश को जिस बोरे में बन्द करके फेंका गया था, वो सीमेंट का खाली कट्टा लगता था। कट्टे पर कई जगह जलने के निशान भी थे। अलबत्ता उस पर कोई ऐसा निशान नहीं था, जिससे मामले की तह तक पहुँचने में मदद मिल सकती? जिस तरह शव नग्न अवस्था में मिला था, पुलिस के अंदेशों को बल देने वाला था कि सम्भव है उसके साथ दुष्कर्म हुआ हो? उसके बाद उसकी हत्या करके शव यहाँ फेंक दिया गया। पुलिस ने डाग स्कवॉयड और एफएसएल टीम को भी सुबूत जुटाने के लिए बुलाया; लेकिन कोई खास बात सामने नहीं आयी। घटनास्थल पर अब तक काफी भीड़ जुट गयी थी। पुलिस के आग्रह पर कुछ लोगों ने हिम्मत जुटाकर युवती का चेहरा देखा। लेकिन कोई भी उसे पहचान नहीं पाया। शिनाख्त न हो पाने पर सीआई मुनीन्द्र सिंह ने शव का पंचनामा करवाया। शव का फोटो लिया गया। बाद में पोस्टमार्टम के लिए शव को एमबीएस अस्पताल के मोर्चरी में भिजवा दिया गया।

युवती का शव जिस अवस्था में मिला था। पुलिस की निगाह में यह मामला काफी रहस्यमय हो गया था। शारीरिक सौष्ठव से युवती किसी मज़दूरी पेशे वाली मालूम होती थी। मामले की टोह लेने के लिए पुलिस ने इलाके के सीसीटीवी कैमरे भी खँगाले और कुछ लोगों से पूछताछ भी की। लेकिन कोई भी कोशिश सिरे नहीं चढ़ी। कोटा में बढ़ते अपराधों के कारण पहले ही पुलिस की नाकामी को लेकर भरे बैठे लोगों का गुस्सा इस सनसनीखेज़ वारदात से और भड़क उठा।

भाजपा सांसद ओम बिरला ने तो यहाँ तक चेतावनी दे दी कि हत्यारों को दो दिन में नहीं पकड़ा गया, तो आन्दोलन छेड़ दिया जाएगा। भाजपा विधायक मदन दिलावर ने भी बिरला के सुर में सुर मिलाते हुए अंदेशा ज़ाहिर किया कि महिला की गैंगरेप के बाद हत्या कर दी गयी होगी। नतीजतन इस मामले की कमान पुलिस महानिरीक्षक विपिन कुमार पांडे ने अपने हाथ में ले ली। उन्होंने पुलिस अधीक्षक दीपक भार्गव अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक राजेश मील, एएसपी मुख्यालय हर्ष रत्नू, सहायक पुलिस अधीक्षक डॉ. अमृता दुहन, आरपीएस महावीर प्रसाद, विज्ञान नगर थाना प्रभारी मुनीन्द्र सिंह के नेतृत्व में अलग-अलग टीमों का गठन किया। इस टीम में साइबर सेल के कांस्टेबल सुरेश कुमार, राकेश कुमार और श्याम सुंदर को भी शामिल किया गया। मृतक की पहचान नहीं हो पायी, तो विज्ञान नगर पुलिस ने समाचार पत्रों में मृतका का ब्यौरा प्रकाशित करवाने का निर्णय लिया। साथ ही अज्ञात युवती के शव की बरामदगी का वायरलैस संदेश भी प्रसारित करवा दिया कि जिस थाने में इससे सम्बन्धित जानकारी मिले वह विज्ञान नगर थाने को सूचित करे। घटना के दो दिन बाद 26 मई, 2019 को अनंतपुरा पुलिस थाने से मिली सूचना के अनुसार रिपोर्ट कोटा के नज़दीकी लखावा मारूका घाटी नामक का गाँव के गुलाब बंजारा की पत्नी गीता की गुमशुदगी से सम्बन्धित थी।

गुलाब अपने  बच्चों  और पत्नी गीता के साथ मंगलवार 21 मई को रोज़ाना की तरह लखावा से कोटा स्थित गोबरिया बावड़ी चैराहे पर मज़दूरी की तलाश में आया था। गुलाब को तो काम मिल गया था। वह बच्चों को लेकर काम कराने वाले ठेकेदार के साथ चला गया। लेकिन पत्नी गीता की ज़िद पर उसे इस ताकीद के साथ छोड़ गया कि मज़दूरी नहीं मिले तो घर लोट जाना। लेकिन पत्नी जब रात ढले तक घर नहीं पहुुची, तो चिन्ता होनी स्वाभाविक थी। नतीजतन गुलाब के साथ सभी परिजनों ने उसे हर जगह तलाशा। आिखर थक-हारकर अनंतपुरा थाने जाकर गीता की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवायी। विज्ञान नगर पुलिस ने इस रिपोर्ट के मद्देनज़र इस इत्तला के साथ गुलाब को बुलाया कि एक महिला का शव मिला है। आकर उसकी शिनाख्त कर लो। गुलाब को बुलाने के लिए उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी। इसके लिए उन्हें लखावा मारू का भाटी गाँव के करीब 50 बंजारा परिवारों से सम्पर्क करना पड़ा। आिखर 28 मई की सुबह वह विज्ञान नगर थाने पहुँचा। उसके साथ उसका भाई मनोज और परिजन भी थे। शव काफी फूल चुका था। उससे शव की शिनाख्त करवायी गयी। लेकिन गुलाब ने यह कहते हुए शव को उसकी पत्नी गीता का होने से इन्कार कर दिया कि उसके हाथ पर तो टेटू था। जबकि शव के हाथ पर ऐसा कोई निशान नहीं था। थाना प्रभारी का कहना था कि गुलाब ने गले की माला पहचानने से भी इन्कार कर दिया। शव को अधिक दिनों तक रखना सम्भव नहीं था। इसलिए पुलिस ने महिला के बाल कपड़े दाँत और फोटो शिनाख्त के लिए रख लिये थे। एहतिहात के तौर पर पुलिस ने गुलाब के बच्चों का खून जाँच के लिए लेने के बाद इन सभी चीज़ों के साथ डीएनए टेस्ट के लिए जयपुर भेज दिया था। अगले दिन दोपहर बाद पुलिस ने शव का अंतिम संस्कार कर दिया।

उधर जन चर्चा और अखबारी खबरों ने ज़ोर पकड़ा, तो गुलाब अगले दिन अपने भाई मनोज और परिजनों के साथ एक बार फिर पुलिस स्टेशन पहुँचा। गुलाब ने अपना बयान बदलते हुए कहा कि शिनाख्त में उससे चूक हुई। शव उसकी पत्नी गीता का ही था। उसे दिखाये गये कपड़े, पायल और माला भी उसकी पत्नी गीता के ही थी। लेकिन वह इस बात को लेकर फट पड़ा कि कल उसे यह क्यों नहीं बताया गया कि यह सब चीज़ें पोस्टमार्टम के दौरान उसकी पत्नी के पेट से निकाली गयी थीं। गुलाब और उसके परिजन एक बार फिर गीता का शव दिखाने पर अड़ गये। लेकिन जब पुलिस अधिकारियों ने बताया कि तुम्हारे इन्कार के बाद तो शव की अंत्येष्टि करनी ही थी। शव इस कदर सड़ चुका था कि उसे और रखना सम्भव भी नहीं था। लेकिन वे उल्टे पुलिस पर अपराधी को बचाने का इल्जाम लगाते हुए प्रदर्शन पर उतर आये। कांग्रेस और भाजपा नेताओं का गुस्सा भी इन आरोपों के साथ फूट पड़ा कि पुलिस जघन्य हत्या जैसे गम्भीर अपराध को लेकर लुका-छिपी का खेल कर रही है। लोगों का आक्रोश नहीं थमा, तो थाना प्रभारी ने यह कहकर लोगों की समझाइश की  कि इस तथ्य को उजागर करने से कि कपड़े आदि पोस्टमार्टम के दौरान मृतका के पेट से निकाले गये थे, आरोपी को फायदा पहुँच सकता था।

इससे पहले कि पुलिस तहकीकात आगे बढ़ाती? वायरल हुए एक वीडियो ने पुलिस जाँच पर नये सवाल खड़े कर दिये। वायरल हुए वीडियो में बुधवार 22 मई को तड़के 4:24 बजे पर एक शख्स कन्धे पर सफेद रंग का बोरी का कट्टा लेकर गोबरियाबावड़ी की तरफ से आता नज़र आ रहा था। इस शख्स पर संदेह होने की वजह भी साफ थी। यह कैमरा उसी जगह लगा हुआ था, जहाँ से पुलिस ने शव बरामद किया था। बरामद हुए बोरी के कट्टे का रंग भी सफेद ही था। जो शख्स कन्धे पर कट्टा लेकर जाता नज़र आ रहा था, उसने सफेद रंग की शर्ट, हल्के कलर की पेंट और पैरों में चप्पल पहन रखी थी। लेकिन उसका चेहरा साफ नज़र नहीं आ रहा था। लोगों का कहना था कि जब वारदात का वीडियो वायरल हो गया, तो सीसीटीवी खँगालने में पुलिस खाली हाथ कैसे रह गयी? पुलिस ने इसे सामान्य चूक तो माना; लेकिन जाँच की दिशा ने एक नया मोड़ ले लिया था। पुलिस ने गोबरिया बावड़ी के क्षेत्र के करीब 200 कैमरों को खँगाला, तो 22 मई को महावीर सिंह गीता के साथ ही नज़र आया। पुलिस ने तब पहला काम आरोपी के चेहरे को सर्च करने का शुरू किया।

किसी स्त्री की इतनी जघन्य हत्या का रहस्य क्या रहा? कौन था यह नर पिशाच? शव जहाँ पाया गया था, वहीं होस्टल की इमारत का आधा-अधूरा निर्मित ढाँचा खड़ा हुआ था। शव जिस अवस्था में पाया गया था, उसके हिसाब से हत्यारे ने महिला की चाकू से हत्या करके उसके पेट में उसी के कपड़े ठूँस कर जीआई तार से सिल रखा था। महिला के श्रमिक होने, प्लास्टिक का कट्टा और जीआई तार मिलने से एक बार तो पुलिस को हत्या के सूत्र निर्माणाधीन इमारत से जुड़े होने का शक हुआ। लेकिन बात इसलिए सिरे नहीं चढ़ी, क्योंकि निर्माणाधीन इमारत का काम तो अर्से से बन्द पड़ा था। किन्तु जिस निर्ममता से हत्या की गयी थी, उससे साफ लगता था कि निश्चित रूप से यह किसी सनकी और मानसिक रूप से विक्षिप्त आदमी का ही काम हो सकता था।

पुलिस महानिरीक्षक पांडे का मानना था कि यह व्यक्ति निश्चित रूप से जेलबर्ड होना चाहिए। उन्होंने इस िकस्म के फितरती शख्स ही तलाश के लिए प्रदेश की सभी जेल अधिकारियों से सम्पर्क किया, तो उन्हें अपनी कोशिश कामयाब होती नज़र आयी। पता चला कि इस िकस्म का सनकी हत्यारा मोहन उर्फ महावीर 10 जुलाई, 2016 को जयपुर की सांगानेर खुली जेल से पेरोल के बाद से फरार है। जेल अधीक्षक द्वारा भेजी गयी सूचना में कहा गया कि मोहन कभी अपने को कोटा के केबल नगर तथा कभी अजमेर के केकड़ी का रहने वाला बताता रहा है। आईजी पांडे के लिए सूचना उत्साहवद्र्धक थी। उन्होंने छानबीन में सहूलियत के लिए मोहन का फोटो भी मँगवा लिया।

एक बात तो निश्चित हो चुकी थी कि मोहन कोटा में हो सकता है। पुलिस छोटी-से-छोटी बात पर भी नज़र गड़ाये हुए थी। पुलिस टोलियों को सतर्क किया, तो एक टीम को केकड़ी भी भेजा। केकड़ी पहुँची पुलिस टीम को मिली जानकारी के अनुसार मोहन का परिवार 50 साल पहले केकड़ी छोड़कर कोटा आ गया था और केवल नगर में बस गया था। इस बीच पुलिस ने महत्त्वपूर्ण सुबूत हासिल किया। विज्ञान नगर के सेक्टर-3 में चल रहे निर्माण कार्य में जुटे एक कारीगर ने फोटो देखकर उसे पहचान लिया। लेकिन वह  इससे ज़्यादा कुछ नहीं बता सका कि यह आदमी एक महिला श्रमिक को लेकर यहाँ आया था। लेकिन बाद में उसे नहीं देखा गया। पुलिस के इस सवाल पर कि क्या कोई मोबाइल भी उसके पास था? कारीगर ने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि होगा भी, तो उसने नहीं देखा। पुलिस  का मानना था कि मोहन ज़रूर किसी निर्माणाधीन काम पर अथवा मण्डियों में मज़दूरी करता मिलना चाहिए। पुलिस ने इन सभी जगहों को खँगालने की कोशिश की। यहाँ तक कि फुटपाथों पर सोने वाले करीब 2000 से ज़्यादा लोगों की जाँच की। लेकिन पुलिस को कोई कामयाबी नहीं मिली।

आिखर पुलिस की भागदौड़ 10 जून को रंग लायी। छानबीन के सिलसिले में करीब सुबह 11:00 बजे जब थाना प्रभारी मुनीन्द्र सिंह पुलिस टोली के साथ कुन्हाड़ी इलाके से गुज़र रहे थे। पेट्रोल पम्प के पास उन्हें आरोपी से मिलते-जुलते हुलिये का शख्स नज़र आया। सीआई मुनीन्द्र सिंह ने आव देखा, न ताव; फौरन उसके करीब जिप्सी रोककर उसे सवालों के घेरे में ले लिया। ताबड़तोड़ सवालों ने हक्का-बक्का हुए शख्स को इस कदर बदहवास किया कि नाम पूछने पर ना-नुकर करने की बजाय सीधा बोल पड़ा- ‘महावीर हूँ साब!’

उस शख्स का हुलिया भी पूरी तरह आरोपी से मिल रहा था। इतनी मशक्कत के बाद ब्लाइंड मर्डर की तह तक पहुँच जाने की खुशी सीआई मुनीन्द्र सिंह के चेहरे से साफ झलक रही थी। पुलिस की गिरफ्त में आ जाने का भान होतेे ही, वह बुरी तरह काँपते हुए कहने लगा- ‘साब! मैंने किया क्या है? और मेरा नाम तो मोहन है। महावीर तो गलती से मँुंह से निकल गया…।

‘…यह तो तुम्हीं अभी गा-गाकर बताओगे कि तुमने किया क्या है?’ -सीआई बोले।

कोर्ट में 11 जून को पेश करके रिमांड पर लेने के बाद पुलिस पूछताछ में मोहन सिंह उर्फ महावीर जल्दी ही टूट गया। पुलिस ने उसके कब्ज़े से एक चाकू, खून सना जीआई वायर और वारदात के वक्त के कपड़े भी बरामद कर लिये। उसने 22 मई को महिला की नृशंस हत्या को करना और शव कन्धे पर रखकर करीब 200 मीटर दूर स्कूल की दीवार के पास फेंकना भी स्वीकर कर लिया। पुलिस ने मोहनसिंह उर्फ महावीर से गहन पूछताछ की। पुलिस को बताये गये मुद्दों और लेखकीय छानबीन में प्राप्त तथ्यों के आधार पर एक ऐसे सनकी और पैशाचिक  प्रवृति के व्यक्ति की दहशतज़दा करने वाली गाथा सामने आयी। जो साइकोकिलर (मनोरोगी हत्यारे) से भी एक कदम आगे थी। शराब पीते ही यह आदमी राक्षस बन जाता था। नशा इसे बेलगाम कर देता था। शराब पीने के बाद इसे औरत चाहिए ही चाहिए थी। ऐसी औरत, जो इसे मनमानी करने दे। नशे में धुत्त इस आदमी के साथ कोई औरत सम्बन्ध बनाने से इन्कार कर दे तो इसके अन्दर का जानवर बाहर निकल पड़ता फिर यह उसे भेडिय़े की तरह नोचता। उसकी हत्या कर शरीर को बुरी तरह क्षत्-विक्षत् कर देता। गीता के मामले में भी यही हुआ। सम्बन्ध बनाने से इन्कार करने के बाद चाकू से गोदते हुए बड़ी बेरहमी के साथ उसे मौत के घाट उतार दिया। उसका पेट चीरकर आँते और आमाशय बाहर निकालकर फेंक दिये। वहशी नर-निशाच के बारे में आज भी ढेरों सवाल है, जो माँझे की गिट्टी की तरह उलझे हुए हैं। महावीर उर्फ मोहनसिंह का पूरा ब्यौरा आज भी अज्ञात है। लगभग 50 वर्षीय महावीर युवावस्था में परिवार के साथ अजमेर ज़िले के केकड़ी से कोटा आकर केवल नगर में बस गया था। करीब 25 बरस पहले उसका परिवार उसे छोड़कर केकड़ी लौट गया। तबसे वह अकेला रह गया। आिखर महावीर से उसे परिजनों ने क्या देखा कि उसका संग-साथ छोडऩा ही बेहतर समझा। क्या परिवार उसकी खुराफातों को भाँप गया था? न कोई दोस्त, न संगी-साथी। रिश्तेदार का तो सवाल ही नहीं। वह मेहनत-मज़दूरी और हलवाई-गीरी के पेशे से खा-कमा रहा था। एक खानाबदोश की तरह रहने वाले महावीर के पास मोबाइल भी नहीं था। सन् 1985 से सन् 2015 के बीच उसने चार हत्याएँ की। उसकी शिकार सभी महिलाएँ थी। सभी परिचयहीन दीन-दरिद्र लोग। सभी हत्याएँ पूरी दरिन्दगी के साथ इस तरह की गयी, ताकि शव पहचाने तक नहीं जा सके। कितनी महिलाओं के साथ यह दुष्कर्म कर चुका है? इसकी ठीक संख्या तो इसको भी याद नहीं। अलबत्ता, जो बचीं मौत के पंजों से क्योंकर बच गयी? इस बाबत महावीर का कहना था, दुष्कर्म के बाद शोर मच जाने से मुझे भागना पड़ा।

पुलिस रोज़नामचे में दर्ज होने वाला उसका चौथा शिकार मारू भाट समाज गुलाब बंजारा की पत्नी गीताबाई थी। 21 मई की सुबह पति के साथ मज़दूरी के लिए निकली थी और गोबरिया बावड़ी चौराहे से लापता हो गयी थी। जिस समय गीता मज़दूरी की तलाश में थी। मोहन उसे ज़्यादा मज़दूरी दिलाने का प्रलोभन देकर विज्ञान नगर स्थित सेक्टर-3 में एक निर्माणाधीन मकान में ले आया। उसने पहले गीता से मकान की साफ-सफाई करवायी। फिर खाना बनवाया। इस बीच वह शराब पीता रहा। फिर खाना खाया और उसे भी खिलाया। शराब का नशा सिर पर चढ़कर बोलने लगा, तो उसने गीता से सम्बन्ध बनाने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया। गीता इन्कार करते हुई भड़क उठी, तो मोहन बुरी तरह हिंसक हो उठा। उसने गीता को नीचे पटककर बेबस कर दिया और गला दबाकर उसकी हत्या कर दी। बाद में पेट चीरकर आँते और आमाशय बाहर निकाल दिये। उसके बाद जीआई तार से पेट सिलकर उसे वहीं पड़े एक बोरे में बन्द कर दिया। तब तक सुबह के 4:00 बज चुके थे। अँधेरे का फायदा उठाते हुए बोरा लादकर विज्ञान नगर स्थित स्कूल के अहाते से जुड़ी दीवार के पीछे फेंक आया।

पुलिस रोज़नामचे में दर्ज हुई पहली वारदात उसने कोटा के उद्योग नगर थाना क्षेत्र के मंडाना में सन् 1985 में की थी। यह चोरी की वारदात थी। दूसरी वारदात भी उद्योग नगर में सन् 1996 में की। उस दिन आकाश में घने काले बादल छाये हुए थे। सर्द तेज़ हवाएँ रात को भयावह बना रही थी। ऐसे में जमकर पानी बरसने लगा था। मौके का फायदा उठाते हुए मोहन एक मकान में चोरी की नीयत से घुस गया। चोरी तो वह कर नहीं पाया। लेकिन परिवार की नाबालिग लड़की को दबोचकर उसके साथ दुष्कर्म कर डाला। लड़की शोर मचाने पर आमादा हुई, तो उसने गला दबाकर मार डाला। यह मुकदमा प्रकरण 146/96 के तहत दर्ज हुआ।

मोहन ने तीसरा अपराध भी उद्योग नगर थाना क्षेत्र में सन् 1997 में किया। यहाँ उसने जिस महिला की हत्या की उससे वह एकतरफा प्रेम करता था। एक रात महिला का पति बाहर गया हुआ था, मोहन उसके पास पहुँच गया। उसने जबरन महिला को उठाया और दूसरे कमरे में ले जाकर दुष्कर्म पर आमादा हो गया। महिला के इन्कार पर उसकी गला दबाकर हत्या कर दी। हिंसक हुए मोहन ने तब अपना क्रोध महिला की बेटी पर भी उतारा और उसके साथ दुष्कर्म करके उसकी भी हत्या कर दी।

उद्योग नगर के दोहरे कांड के बाद मोहन चित्तौडग़ढ़ के निंबाहेड़ा कस्बे में चला गया। वहाँ एक मज़दूर महिला को काम दिलाने का बहाना कर ले आया और उसके साथ दुष्कर्म कर डाला। महिला ने शोर मचाने का प्रयास किया, तो गला घोंटकर उसको मार डाला। सन् 2016 में जब वह जयपुर की सांगानेर जेल में था, तो पेरोल पर फरार होकर कोटा आ गया था। इस मामले में उसके विरुद्ध सांगानेर थाने में प्रकरण संख्या-589/16 के तहत मुकदमा दर्ज था। गीताबाई प्रकरण को पुलिस ने अफसर स्कीम के तहत लिया था। प्रकरण में केस अफसर विज्ञान नगर थाने के पुलिस निरीक्षक अमर सिंह को नियुक्त किया गया था। चार्जशीट में आरोपी के विरुद्ध धारा-376 के तहत आने वाला शरीर से अंग निकालने का अपराध साबित नहीं हो सका, इसलिए इस धारा को हटा दिया गया।

बदहाली की ओर बढ़ते मध्यम और निम्न वर्ग

वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमण का खतरा देखते हुए कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री मोदी ने देश में तालाबन्दी यानी लॉकडाउन की घोषणा की थी और इस घोषणा के साथ ही प्रधानमंत्री ने विश्वास दिलाया कि इस दौरान जनता की मदद के लिए केंद्र सरकार समेत सभी राज्य सरकारें उनके साथ हैं। लेकिन लॉकडाउन-02 लॉकडाउन-03 के दौरान गरीब परिवारों पर भारी मार देखने को मिली है। जो अभी भी उन्हें बदहाली में खींचे हुए है। लोग अपनी दिहाड़ी या रोज़ की कमायी पर निर्भर थे, उनका तो पहले ही बुरा हाल हो चुका था; अब तो मासिक कमाने वाले मध्यम वर्गीय परिवारों की स्थिति भी खराब और दयनीय हो चली है। उनके घरों में राशन के लाले पड़े हुए हैं। मध्यम वर्ग निम्न वर्ग के हालात की तरफ बढ़ चला है। जानकारों के मुताबिक, जुलाई माह में लगभग 18 करोड़ से अधिक लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा और आगामी समय में यह आँकड़ा बढ़ सकता है। बच्चों के स्कूल की फीस, घर का किराया, राशन खर्र्च एवं ऋण िकस्तों की चिन्ता ने आम नागरिक को अवसाद की ओर धकेल दिया है। दिल्ली के पटेल नगर में एक डॉक्टर से बात करने पर उन्होंने बताया कि आजकल मेरे पास मानसिक अवसाद के मरीज़ों की तादाद में लगातार इज़ाफा हो रहा है। कोरोना-काल में लॉकडाउन की स्थिति में अवसाद से ग्रसित लोगों का कहना है कि उन्हें नींद नहीं आती और आने वाले समय की चिन्ता लगी है। इनमें से अधिकांश लोग मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखते हैं।

जब मेरी बात कुछ दुकानदारों और उनकी दुकान पर काम करने वाले लोगों से हुई, जिनकी दिल्ली के अलग-अलग बाज़ारों में छोटी-मोटी दुकानें हैं। दिल्ली के पश्चिम विहार इलाके के ज्वालाहेड़ी बाज़ार में छोटी-सी कपड़े की दुकान चलाने वाले राजपाल राही का कहना है कि मेरी दुकान से मुझे मासिक अच्छी कमायी हो जाती थी; लेकिन लॉकडाउन की वजह से दुकान बन्द करनी पड़ी है। घर के हालात बिगडऩे पर अब मैं अपने स्कूटर पर रखकर पश्चिम विहार और पंजाबी बाग की कॉलोनी में फल बेचता हूँ; जिससे बमुश्किल महीने का गुज़ारा हो पाता है। अगर यह स्थिति ज़्यादा दिन चली, तो मुझे लगता है कि मुझे अपनी दुकान बेचनी पड़ सकती है। लॉकडाउन की अवधि के लगातार बढ़ोतरी से पैदा हो रही परिस्थिति से तो केंद्र और राज्य सरकारों को लोगों को फिर से भोजन बाँटना पड़ सकता है। क्योंकि हालात बद से बदतर होते दिखायी पड़ रहे हैं। हालाँकि प्रधानमंत्री ने 6 किलो अनाज देने की घोषणा पिछले दिनों की थी; लेकिन वह राशन किस प्रकार मिलता है? किस क्वालिटी का होता है? यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। मदद के नाम पर मिले इस 6 किलो अनाज से कितने दिन एक परिवार का गुज़ारा होगा? यह भी सोचनीय विषय है। वैसे राशन तो पहले सामान्य दिनों में भी हर राशन कार्ड धारक हर परिवार को मिलता ही था।

भारत सरकार के उपक्रम भारतीय खाद्य निगम के अनुसार, देश के पास करीब-करीब सालभर के राशन की पर्याप्त व्यवस्था है, जिसका इस्तेमाल महामारी के दौरान लॉकडाउन की स्थिति में देश के ज़रूरतमंद लोगों के भोजन की व्यवस्था करने में किया जा सकता है। इसके अलावा नयी फसलों के आ जाने से इस भण्डार में खाद्यान्न का और इज़ाफा होता है। एक सर्वे के अनुसार, सामान्य हालात में देश भर में ज़रूरतमंदों को अनाज बाँटने के लिए लगभग 50 से 60 मिलियन (500 से 600 लाख) टन राशन की आवश्यकता पड़ती है। एक अनुमान के मुताबिक, मई तक देश के पास लगभग 1000 करोड़ टन से अधिक खाद्यान्न उपलब्ध हैं। खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग (डीएफपीडी) की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019-20 में मई माह तक गेहूँ का उत्पादन 1062 लाख टन एवं सरकारी खरीद 359 लाख टन रही। वहीं धान का 1174 लाख टन उत्पादन व 473 लाख टन खरीद हुई। जबकि इस वित्तीय वर्ष में भारत में लगभग 3000 लाख टन रिकॉर्ड खाद्यान्न (गेहूँ-धान) के उत्पादन का अनुमान है। इस हिसाब से भारत गरीबों को साल भर से ज़्यादा खिलाने में सक्षम है।

अगर आपने गौर किया हो, तो देश में लॉकडाउन की घोषणा के बाद सम्पन्न लोग राशन की खरीद में किस प्रकार टूट पड़े थे। हालाँकि बाद में बड़ी समस्या यह हुई कि लॉकडाउन की घोषणा से डरकर लोगों ने अधिक राशन जमा कर लिया। जबकि पूरे देश में लॉकडाउन होने के बावजूद ज़रूरी राशन की दुकानें खुली रहीं हैं। उसके बावजूद भी लोग बड़े पैमाने पर राशन की खरीद करने में जुटे रहे। लॉकडाउन के बीच लोगों का अधिक राशन जमा करके रखने और कीमतों के बढ़ जाने से गरीब ही नहीं मध्यम वर्ग भी मुसीबत में आ चुका है। पिछले कुछ दिनों से लगातार तेल की कीमतों में उछाल से ढुलाई का खर्र्च बढ़ता जा रहा है। छोटे दुकानदार, रेहड़ी-पटरी और फेरी करने वाले दम तोडऩे के कगार पर है। यहाँ तक कि बड़े दुकानदार भी अधिक किराये और बिक्री कम होने के कारण, व्यापार को समेटने लगे हैं। गुरुद्वारों के सामने खाने की लम्बी-लम्बी लाइनें देखी जा रही है। खबरों के अनुसार बहुत से लोग तो आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो रहे हैं।

महामारी के बढ़ते प्रकोप, दहशत और खोप के चलते अभी भी कम ही लोग घरों से बाहर  निकल रहे हैं। जिससे साइकिल रिक्शा, ऑटो, टैक्सी, ई-रिक्शा आदि से जुड़े लोग भयंकर संकट का सामना करने पर मजबूर हैं। खानपान, फैशन, कपड़े, आदि कि अगर कोई दुकान खुली भी है, तो उससे ग्राहक नदारद है। बाज़ार में इन वस्तुओं की कोई माँग नहीं है, सिर्फ ज़रूरी वस्तुएँ जैसे राशन, दूध, सब्ज़ी और फल की ही बिक्री हर छोटे-बड़े बाज़ार में देखने को मिल रही है। जबकि कई जगह देखने में आ रहा है कि ढुलाई की असुविधा होने से भी खाद्य सामग्री में कमी हो रही है। सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि जहाँ भी खाद्य सामग्रियाँ स्टॉक में हैं, वहाँ इस्तेमाल नहीं हो पा रही और इससे कालाबाज़ारी बढ़ गयी है। जिसका सीधा असर गरीब और मध्यम वर्ग पर पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में राशन से जुड़ी तमाम वस्तुओं की कीमतों में इजाफा हुआ है और साथ ही मौज़ूदा समय में अचानक खाद्य वस्तुओं कमी भी देखी जा रही है।

गौरतलब है कि दूसरे काम-धन्धे और रोज़गार बन्द होने पर कई लोगों ने सब्ज़ियाँ और फल बेचने शुरू कर दिये हैं। एक हिसाब से सब्ज़ियाँ और फल-सब्ज़ी बेचने वालों की बाढ़-सी आ गयी है। लेकिन उपभोक्ता को फिर भी राहत नहीं मिल रही है। सब्ज़ियों और फलों के रेट आसमान पर हैं। जबकि दूसरी ओर किसान का फल और सब्ज़ियाँ नहीं बिक पा रही हैं। कई किसानों को सब्ज़ियों के वाजिब दाम न मिल पाने पर उनको अपनी सब्ज़ियों को नष्ट करना पड़ रहा है। पिछले दिनों एक किसान ने अपने पालक के खेत में ट्रैक्टर चलाने की खबर आयी थी। उत्तर प्रदेश के ज़िले बुलंदशहर के एक किसान ने बताया कि उसका आम 10 से 12 रुपये किलो ही बिका है। बाज़ार में खरीदार नहीं मिले; जबकि दूसरी ओर शहरों में आम 60 से 180 रुपये प्रति किलो के हिसाब से अभी भी बिक रहा है। वहीं दूसरी ओर दूध बेचने वाले किसानों का कहना है कि उनको मात्र 30 से 35 रुपये किलो का भाव मिलता है। जबकि उपभोक्ता को यह 60 से 80 रुपये किलो तक में प्राप्त हो रहा है। सब्ज़ी उगाने वाले एक किसान का कहना है कि मण्डी में उसका टमाटर सिर्फ 4 से 6 रुपये किलो ही बिकते हैं; जबकि शहरों में इन दिनों 60 से 100 रुपये किलो तक टमाटर बेचा जा रहा है।

बहरहाल इस महामारी से यह तो स्पष्ट हो गया है कि अगर लॉकडाउन लम्बे समय तक चलता है, तो ऐसे में सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि कमायी के सारे रास्ते बन्द होने और सरकार के राशन की वितरण प्रणाली में गड़बड़ी के कारण बड़ी संख्या में लोग गरीबी या भुखमरी के शिकार हो सकते हैं- अगर परिस्थितियों में जल्दी सुधार नहीं होता है तो; जिसकी सम्भावना बहुत कम नज़र आ रही है। अगस्त माह के अन्त तक बैंकों द्वारा दिये गये मोरेटोरियम पीरियड (ऋण स्थगन अवधि) का भी अन्त हो जाएगा और सितम्बर माह से बैंक िकस्त लेनी शुरू कर दी है। ऐसे समय में आम आदमी के हाथों में नकदी की िकल्लत होने की प्रबल सम्भावना है। रही-सही कसर चीन से सीमा विवाद से पूरी हो गयी है, यह अपने आप में एक दुर्घटना है।

बहरहाल इन परिस्थितियों में लोगों के लॉकडाउन को तोड़कर सड़क पर आने की सम्भावनाएँ बढ़ गयी हैं; क्योंकि उनके पास अपना कुछ खोने को नहीं है। उनको तो सिर्फ अपना पेट भरने का साधन चाहिए, जिसके लिए वह कोई भी काम करने पर उतारू हो सकते हैं। इससे कहीं-न-कहीं सामाजिक व्यवस्था में गड़बडिय़ाँ पैदा हो सकती हैं। चोरी एवं लूटपाट की वारदात लगातार बढ़ रही हैं। गाँव-देहात के क्षेत्रों में भी ट्यूबवेल मोटर और अन्य कृषि यंत्रों की चोरी की वारदात बढऩे की खबरें आ रही हैं। इन परिस्थितियों में सरकार को कम-से-कम लोगों को एक सहारा देने की ज़रूरत है, ताकि आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों को यह विश्वास हो जाए कि सरकार उनकी चिन्ता कर रही है और कम-से-कम उनके खाने का इंतज़ाम तो कर रही है।

मेरा मानना है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें आपसी समन्वय के साथ इस संकटकाल से निपटने की और बेहतर कोशिश करें, ताकि अगर भारत में कोरोना वायरस और फैलता है तथा इससे खाद्यान्न उत्पादन में कमी नज़र आती है, तो उस स्थिति में मध्यम और निम्न वर्ग के लिए रोज़गार व खाद्यान्न की व्यवस्था करने में समस्या न हो। मानवता के नाते भारतीय राजनीति में सहयोगात्मक एकजुटता दिखनी चाहिए। क्योंकि कोरोना वायरस के संक्रमण के नुकसान से जिस तरह दूसरे देश प्रभावित हुए हैं, अगर वैसा नुकसान भारत में होता है, तो इससे निपटना न तो अकेले केंद्र सरकार के वश की बात होगी और न ही किसी राज्य सरकार की। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों को पक्ष-विपक्ष और स्वहित की चिन्ता छोड़कर देशहित और जनहित के रास्ते पर आगे बढऩा चाहिए।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक है और यह उनके निजी विचार हैं।)

फँसे कर्ज़ से निपटने की चुनौती

बीते कुछ वर्षों से अर्थ-व्यवस्था बुरे दौर से गुज़र रही है; खासकर सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों (एमएसएमई) की हालत ठीक नहीं है। अधिकांश कम्पनियाँ तथा लोग ऋण के िकस्तों एवं ब्याज का भुगतान महीने के आखरी सप्ताह या महीने के आखरी दिन में कर रहे हैं। अर्थात् ऐसी कम्पनियों के ऋण खाते इसलिए गैर-निष्पादित परिसम्पत्ति (एनपीए) में तब्दील नहीं हो रहे हैं, क्योंकि वे अंतिम समय में िकस्त चुका दे रहे हैं।

उनकी वित्तीय स्थिति खस्ता हालत में है। ऐसी कम्पनियों की वित्तीय स्थिति को कोरोना वायरस ने बुरी तरह से तहस-नहस कर दिया है। इसलिए ऐसे उद्योगों एवं अन्य ग्राहकों को वित्तीय संकट से उबारने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने बड़ी कम्पनियाँ, एमएसएमई क्षेत्र की सूक्ष्म, लघु एवं मझौले कम्पनियाँ और खुदरा व व्यक्तिगत ऋण खातों के पुनर्गठन की अनुमति दी है। ऋण पुनर्गठन की सुविधा उन्हीं कर्ज़दारों को मिलेगी, जिन्होंने 1 मार्च 2020 तक कर्ज़ भुगतान में 30 दिनों से अधिक देरी नहीं की थी। ऐसे ऋण खातों का पुनर्गठन 31 दिसंबर तक किया जा सकता है।

दबावग्रस्त खातों की श्रेणियाँ

तकनीकी तौर पर एनपीए में तब्दील होने से पहले किसी खाते को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है। ऐसे खाते स्पेशल मेंशन अकाउंट्स (एसएमए) के नाम से जाने जाते हैं। एसएमए-0 ऐसे खाते होते हैं, जिनमें भुगतान में 30 दिनों तक देरी हुई है। एसएमए-1, ऐसे ऋण खाते होते हैं, जिनमें 31 से 60 दिनों तक भुगतान बकाया रहता है। एसएमए-2 में ऐसे खाते, जिनका 61 से 90 दिनों तक भुगतान बकाया रहता है। भुगतान 90 दिनों से अधिक बकाया रहने पर खाते एनपीए में तब्दील हो जाते हैं।

ऋण खातों के पुनर्गठन के नियम 

भारतीय रिजर्व बैंक ने एमएसएमई क्षेत्र के ऋण खातों के एसएमए के किसी भी श्रेणी में रहने पर  पुनर्गठन की अनुमति दे दी है; लेकिन मामले में शर्त यह है कि ऋणी को कुल 25 करोड़ रुपये से ज़्यादा का ऋण नहीं दिया गया हो। 25 करोड़ रुपये से अधिक ऋण लेने वाले उद्योग जो एसएमए-1 और एसएमए-2 श्रेणियों में आते हैं, के ऋण का पुनर्गठन नहीं किया जाएगा। अर्थात् एमएसएमई सहित 25 करोड़ रुपये से अधिक का ऋण लेकर उसे चुकाने में 30 दिनों से ज़्यादा की चूक करने वाले उद्योगों को इस योजना का लाभ नहीं मिलेगा।

ऋण अदायगी स्थगन का समाधान

कुछ बैंकों को छोड़कर अधिकांश बैंकों का एनपीए जून तिमाही में कम हुआ है; लेकिन सितंबर और दिसंबर तिमाही में एनपीए में बढ़ोतरी की आशंका है। हालाँकि जून तिमाही में भी कुछ बैंकों ने परिसम्पत्ति गुणवत्ता में गिरावट आने का अनुमान लगाकर एनपीए के लिए प्रावधान किये हैं। बैंकों का मानना है कि आर्थिक गतिविधियों में तेज़ी आने में अभी भी कुछ समय लगेगा, जिससे ऋण अदायगी स्थगन का लाभ लेने वाले कर्ज़दारों को ऋण की िकस्त एवं ब्याज चुकाने में और भी समय लग सकता है।

भारतीय रिजर्व बैंक ने ऋण पर पहले मार्च से जून और फिर अगस्त तक 6 महीनों के स्थगन की घोषणा की है। बैंकों के अनुसार, ऋण के िकस्त एवं ब्याज का स्थगन समस्या का समाधान नहीं है; क्योंकि विमानन, पर्यटन, यात्रा तथा निर्माण जैसे प्रभावित उद्योगों को ऋण स्थगन सुविधा का लाभ देने के बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति में जल्दी सुधार आयेगा, यह कहना मुश्किल है।

कर्ज़दारों के बीच लोकप्रिय नहीं स्थगन की सुविधा

ऋण के िकस्तों एवं ब्याज स्थगन की योजना कर्ज़दारों के बीच लोकप्रिय नहीं है। एक अनुमान के अनुसार, केवल 15 फीसदी बड़े कॉर्पोरेट्स ने ही इस विकल्प को चुना है, जबकि खुदरा क्षेत्र में सिर्फ 20 से 30 फीसदी लोगों ने इस विकल्प को चुना है। अगर सभी क्षेत्रों को मिला दिया जाए, तो कुल 30 फीसदी कर्ज़दारों ने इस विकल्प को चुना है, जबकि यह विकल्प सभी के लिए उपलब्ध था।

िकस्त एवं ब्याज को टालना अस्थायी प्रक्रिया है। इसकी एक सीमा है। लम्बे समय तक इस प्रक्रिया को जारी नहीं रखा जा सकता है। ऐसा करने से ऋण की राशि, टाली गयी राशि को मिलाकर इतनी बड़ी हो जाएगी कि उसकी वसूली बैंकों के लिए असम्भव हो जाएगी।

केवल ज़रूरतमंदों को मिले सुविधा

ऋण अदायगी स्थगन की सुविधा सभी के लिए नहीं होनी चाहिए। क्योंकि कोरोना-काल में बहुत सारे उद्योग और व्यक्ति ऋण की िकस्तों एवं ब्याज को चुकाने में समर्थ हैं। फिर भी ऐसे लोग इस सुविधा का फायदा उठा रहे हैं, जिसकी वजह से बैंकों को पूँजी की कमी का सामना करना पड़ रहा है।

ऋण खातों का पुनर्गठन ज़्यादा व्यावहारिक

ऋण अदायगी स्थगन की सुविधा की जगह ऋण खातों का पुनर्गठन ज़्यादा व्यवहारिक है। लेकिन यह भी सभी के लिए नहीं होनी चाहिए। यह सुविधा सिर्फ प्रभावित उद्योगों एवं व्यक्तियों को ही दी जानी चाहिए। मामले में बैंकों को तनावग्रस्त ऋण खातों को चिह्नित करने एवं उनके पुनर्गठन की छूट दी जानी चाहिए। हालाँकि अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि कोरोना महामारी बैंकों पर कितना असर डालेगी। यदि अगस्त महीने में ऋण अदायगी का स्थगन समाप्त हुआ, तो एनपीए की वास्तविक तस्वीर चालू वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में दिख सकती है।

कोरोना से बढ़ेगा एनपीए स्तर

जून, 2020 की तिमाही में ऋणों के भुगतान पर रोक से परिसम्पत्ति गुणवत्ता पर दबाव बना रहा। इस तिमाही में बैंकों को एनपीए के मद में बड़ी राशि का प्रावधान करना पड़ा। प्रमुख निजी बैंकों की पहली तिमाही के आय विश्लेषणों से पता चलता है कि समग्र आधार पर, आकस्मिक प्रावधान, परिसम्पत्ति गुणवत्ता में कमी की वजह से किये गये। कोरोना महामारी से बैंकों के परिचालन लाभ का लगभग 27 फीसदी हिस्सा प्रभावित हुआ। हालाँकि यह प्रभाव सभी बैंकों के लिए उनके सेगमेंट, ग्राहक आधार और आंतरिक जोखिम आकलन के अलावा मार्च, 2020 तिमाही में किये गये कोरोना महामारी से सम्बन्धित प्रावधान की मात्रा आदि के आधार पर अलग-अलग है।

सकल एनपीए, जो मार्च, 2018 में 12.5 फीसदी था; वह मार्च, 2019 में कम होकर 9.7 फीसदी हो गया और सितंबर, 2019 में 9.3 फीसदी तथा मार्च, 2020 में महज 8.5 फीसदी रह गया। लेकिन कोरोना वायरस से आगामी महीनों में एनपीए की स्थिति बिगड़ जाएगी की प्रबल सम्भावना है। रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट 2020 के मुताबिक मार्च, 2021 तक सकल एनपीए का स्तर बढ़कर 14.7 फीसदी हो सकता है। यदि मार्च, 2021 तक सकल एनपीए 14.7 फीसदी हुआ, तो यह 22 वर्षों का उच्चतम स्तर होगा। इससे पहले वर्ष 1999 में सकल एनपीए 15.9 फीसदी के स्तर पर पहुँचा था, जो वर्ष 2000 में घटकर 14 फीसदी और वर्ष 2003 में 9.3 फीसदी रह गया था।

वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के मुताबिक, सरकारी बैंकों की स्थिति निजी बैंकों से ज़्यादा खराब हो सकती है। भारी-भरकम एनपीए का असर बैंकों की पूँजी और ऋण देने की क्षमता पर भी पड़ेगा। रिपोर्ट के अनुसार, दबावग्रस्त परिसम्पत्तियों की वजह से कम-से-कम 5 बैंक मार्च, 2021 तक न्यूनतम पूँजी स्तर का पालन करने में चूक कर सकते हैं।

सितंबर, 2020 में 53 देशी-विदेशी बैंकों की पूँजी पर्याप्तता अनुपात कम होकर 14.1 फीसदी होने का अनुमान है; जो सितंबर, 2019 में 14.9 फीसदी थी। निजी बैंक पूँजी बढ़ा चुके हैं या इस प्रक्रिया में हैं; लेकिन सरकार को अभी भी सरकारी बैंकों में पूँजी डालने की योजना की घोषणा करनी है। बजट में इस बारे में कोई प्रावधान नहीं किया गया था। जिन बैंकों को पूँजी नहीं मिलेगी, उनकी वित्तीय स्थिति का खराब होना लगभग तय है। इस रिपोर्ट में निजी बैंकों का एनपीए अनुपात 3.1 फीसदी से 4.5 फीसदी के बीच बढऩेे का अनुमान जताया गया है।

संकट से उबरने में समर्थ हैं बैंक 

कोरोना महामारी के पहले एनपीए का स्तर घट रहा था। पूँजी पर्याप्तता अनुपात भी मज़बूत था।  इसलिए माना जा रहा है कि कोरोना वायरस से उत्पन्न संकट से निपटने में भी भारतीय बैंक कामयाब रहेंगे। ज़्यादातर बैंक संकट से निकलने की कला जानते हैं। वित्त वर्ष 2012-13 में बैंकों ने बड़े पैमाने पर ऋण खातों का पुनर्गठन किया था। फिर भी वे संकट से उबर गये। हालाँकि बैंकों की बैलेंस शीट प्रभावित हुई थी; लेकिन पुनर्पूंजीकरण, आईबीसी और कुशल प्रबन्धन के ज़रिये बैंकों ने प्रतिकूल स्थिति पर काबू पा लिया।

निष्कर्ष

फिलहाल कोरोना महामारी के कारण ऋण की लागत बढ़ गयी है। साथ में आगामी महीनों में एनपीए बढऩे की सम्भावना भी प्रबल है। अगर ऋण ईमआई स्थगन यानी मोरेटोरियम अगस्त महीने में समाप्त होती है, तो परिसम्पत्ति गुणवत्ता के बारे में स्पष्टता सितंबर तिमाही में सामने आ जाएगी। सरकारी बैंक कोरोना महामारी से निपट सकें इसके लिए सरकार, सरकारी बैंकों को स्वतंत्र निदेशक खुद चुनने अधिकार दे सकती है। इस सम्बन्ध में 5 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकारी बैंकों के मुख्य कार्याधिकारियों के साथ बात की है। सरकार मामले में पीजे नायक समिति की सिफारिशों को लागू करने वाली है।

माना जा रहा है कि सरकारी बैंकों को यह अधिकार मिलने से वे किन ऋण खातों का पुनर्गठन करना है? इसके सम्बन्ध में बिना किसी दबाव के निर्णय ले सकेंगे, जिससे ज़रूरतमंदों और बैंकों को लाभ होगा। एक अनुमान के मुताबिक, कोरोना वायरस की वैक्सीन दिसंबर महीने तक बाज़ार में आ सकती है। अगर ऐसा होता है, तो आर्थिक गतिविधियों के सामान्य होने में ज़्यादा समय नहीं लगेगा।

(सतीश सिंह वर्तमान में भारतीय स्टेट बैंक के कॉरपोरेट केंद्र, मुम्बई के आर्थिक अनुसंधान विभाग में मुख्य प्रबंधक हैं और यह उनके निजी विचार हैं।)

अब सेहत पर नज़र

15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना महामारी से जूझ रहे देश के लोगों को राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन (एनडीएचएम) तोहफा दिया है। इस तकनीक सहारे देश के हर नागरिक की सेहत का लेखा-जोखा डिजिटल हेल्थ आईडी के तहत ऑनलाइन दर्ज होगा। तहलका संवाददाता ने हेल्थ से जुड़े जानकारों और डॉक्टरों से बात की, तो उन्होंने बताया कि एनडीएचएम योजना तो 2018 में नीति आयोग के प्रस्ताव पर स्वास्थ्य मंत्रालय के पैनल ने तैयार की थी; जिसकी घोषणा अब प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को की है। जबकि सरकार का कहना है कि य स्वास्थ्य क्रान्ति है। लेकिन जानकारों का कहना है कि यह सारा मामला देश के आम लोगों का मेडिकल डाटा एक जगह एकत्रित करने की पुष्टि करता है। जो देश की सियासत के गुणा-भाग में उलझा हुआ है। क्योंकि देश के लोग बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए डॉक्टरों, नर्सों और पैरामेडिकल के अभाव में जूझ रहे हैं। इस ओर सुधार पर प्रधानमंत्री ने कुछ भी नहीं बोला है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि देश की आबादी 135 करोड़ के करीब है, जिनमें कुल 42-43 करोड़ लोग ही मोबाइल इंटरनेट यूजर हैं। यानी 30 फीसदी लोग ही इंटरनेट सेवा से जुड़े हैं और अभी 70 फीसदी लोगों के पास इंटरनेट कनेक्शन का अभाव है। ऐसे में डिजिटल हेल्थ के नाम पर स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के नाम पर कुछ और ही विस्तार किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में एनडीएचएम का लाभ मिलना मुश्किल है। कहीं यह आरोग्य सेतु एप की तरह फ्लॉप न पड़ जाए। क्योंकि सरकार को भली-भाँति मालूम है कि देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की पोल इस कोरोना वायरस की महामारी ने खोलकर रख दी है। निजी अस्पताल वाले अपनी मनमर्ज़ी से महँगा इलाज कर रहे हैं। डॉक्टर बंसल का कहना है कि जब तक देश में सरकारी और निजी स्वास्थ्य सेवाओं के डेटा का खाका पूरी पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक नहीं होगा, तब तक डिजिटल एनडीएचएम का लाभ लोगों को मुश्किल से मिलेगा। क्या डिजिटल कार्ड मिलने से स्वास्थ्य सेवाएँ मिलने लगेंगी? क्योंकि जिस तरीके से सरकार इस बात का शोर कर रही है कि देश के सारे डॉक्टरों की अब डिजिटल जानकारी उपलब्ध होगी; उसका देश के नागरिकों को कोई लाभ होने वाला नहीं है।

इस पहल के अंतर्गत हेल्थ आईडी को आधार कार्ड से लिंक करना होगा, जिसके आधार पर रोगी अपनी बीमारी के साथ अपनी जानकारी डॉक्टर के साथ साझा कर सकता है। रोगी अगर सरकारी योजनाओं का लाभ लेना चाहे, तो उसे अपनी हेल्थ आईडी को आधार कार्ड से जोडऩा  होगा। हेल्थ आईडी का संचालन सरकार द्वारा ही होगा। पूरे सिस्टम पर सरकार की निगरानी होगी।

एक छत के नीचे मिलेंगी सभी स्वास्थ्य सुविधाएँ

एनडीएचएम योजना के तहत अस्पताल, डॉक्टर, स्वास्थ्य सुविधाएँ मुहैया कराने वाले संस्थान, जैसे- बीमा कम्पनियाँ, रक्त की जाँच लैब वाले और दवा की दुकानें, सभी एक छत के नीचे उपलब्ध होंगी। इसमें विशेष रूप से हेल्थ आईडी, डिजिटल डॉक्टर, ई-फार्मेसी, स्वास्थ्य सम्बन्धी व्यक्तिगत जानकारी और टेलिमेडिसिन आदि शामिल हैं।

हेल्थ आईडी से मेडिकल हिस्ट्री तक

इसमें मरीज़ का नाम, पता, स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियाँ, जाँच रिपोर्ट, दवा, अस्पताल में भर्ती से लेकर डिस्चार्ज होने तक की जानकारी के साथ-साथ डॉक्टर से जुड़ी सभी जानकारियाँ आसानी से मिल सकेंगी। हेल्थ आईडी के माध्यम से मरीज़ की पूरी मेडिकल हिस्ट्री का पता लगाना आसान होगा। डॉक्टर कम्प्यूटर में लॉगइन कर रोगी की मेडिकल हिस्ट्री को देख सकते हैं। मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि एनडीएचएम योजना रोगी और डॉक्टरों के बीच इलाज के दौरान एक आसानी भरा कदम है। चिकित्सा के क्षेत्र में हो रही उपलब्धियों का सीधा लाभ अब मरीज़ों को और आसानी से मिल सकेगा। इंडियन हार्ट फाउण्डेशन के डायरेक्टर डॉक्टर आर.एन. कालरा का कहना है कि सरकार की इस पहल से मरीज़ों और डॉक्टरों के बीच पारदर्शिता बढ़ेगी और सारी मेडिकल हिस्ट्री जो रोगी आसानी से नहीं बता सकता, वह डॉक्टर को सहूलियत के साथ उपलब्ध होगी। कोरोना महामारी जिस प्रकार लोगों को इलाज में दिक्कत हुई है, हेल्थ आईडी के होने से उस तरह दिक्कत नहीं होगी।

एक दवा कम्पनी से जुड़े धीरज बजाज का कहना है कि एनडीएचएम के माध्यम से कॉरपोरेट को लाभ पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है। क्योंकि देश के शहरी हेल्थ सेक्टर में गत एक दशक से निजी स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार हुआ है और निजी स्वास्थ्य केंद्र मज़बूती के साथ उभरे हैं। जिस पर सरकार के साथ दवा कम्पनियों की भी नज़र है। क्योंकि सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ कमज़ोर पड़ रही हैं और मरीज़ों को आसानी से इलाज न मिलने पर सरकारी अस्पताल की अपेक्षा वे निजी अस्पतालों में इलाज कराने का जाते हैं। सबसे चौंकाने वाली बात यह सामने आयी है कि देश में नामी-गिरामी पैथलैब वालों का जाल छोटे और बड़े शहरों में तेज़ी से फैला है और कई दवा कम्पनी वाले भी अस्पतालों को शहरों के साथ-साथ गाँवों में भी खोलने में लगे हैं। कोरोना-काल में जिस प्रकार हेल्थ सेक्टर की कमी देखी गयी है, कहीं उसकी भरपाई के साथ कॉरपोरेट घराने को लाभ देने का प्रयास तो नहीं है। क्योंकि डिजिटल हेल्थ योजना में रोगियों को सस्ता इलाज के नाम पर कहीं ज़िक्र तक नहीं किया गया है। वैसे कोरोना-काल के पहले भी भारत पर देशी और विदेशी कम्पनियों की नज़र रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कोरोना वायरस से आयी विपदा को देश के सियासतदान मुनाफे के लिए हेल्थ सेक्टर में विस्तार करने की जुगत में हों। क्योंकि कोरोना-काल में अगर कोई कारोबार चमका है, तो वह हेल्थ सेक्टर है; जिसमें दवा विक्रेताओं ने जमकर चाँदी काटी है। हेल्थ मिशन से जुड़े रमन सिंह का कहना है कि मौज़ूदा समय की बात की जाए, तो हेल्थ डिजिटल की अपेक्षा सरकार को इस कोरोना महामारी के संकट से उभरने के लिए कड़े कदम उठाने के साथ-साथ मौज़ूदा हेल्थ सेवाओं को सुधारने की ज़रूरत है। लेकिन सरकार हेल्थ आईडी बनाने पर ज़ोर दे रही है; जबकि आज के डिजिटल युग में हर किसी डॉक्टर का नाम अब ऑनलाइन उपलब्ध है। उनसे ऑनलाइन अप्वाइंटमेन्ट (मिलने के समय) के साथ-साथ ऑनलाइन डॉक्टरों की फीस भरने की जानकारी भी उपलब्ध है। लोगों तकनीकी युग में बड़ी आसानी डॉक्टरों से जुड़ भी रहे हैं और इलाज भी करा रहे हैं। फिर ऐसे में सरकार हेल्थ आईडी के नाम पर डाटा हासिल करके क्या लाभ प्राप्त करना चाहती है? क्या वह अन्य समस्याओं से लोगों का ध्यान भटकाना चाहती है? वैसे एम्स सहित सरकारी और नामी-गिरामी निजी अस्पतालों में ऑनलाइन प्रक्रिया का वर्षों से चलन है, जिसके ज़रिये गाँव तक के लोग जुड़ रहे हैं।

आयुर्वेद और होम्योपैथ के डॉक्टरों का कहना है कि एनडीएचएम योजना में उनका का क्या स्थान है? या है कि नहीं? नहीं पता। लेकिनअगर इस योजना में उन्हें शामिल नहीं किया गया, तो उनकी उपेक्षा होगी और लोगों का आयुर्वेद व होम्योपैथ पर से विश्वास कम होने लगेगा। वैसे कोरोना महामारी में आयुर्वेद और होम्योपैथ चिकित्सों ने अहम योगदान दिया है, जिससे काफी रोगियों को लाभ भी हुआ है। आयुर्वेदिक चिकित्सक डॉक्टर कन्हैया लाल का कहना है कि केंद्र और राज्य सरकारों के आपसी सियासी तालमेल के अभाव में अभी तक आयुर्वेद डॉक्टरों को तमाम सुविधाओं से वंचित रखा गया है। होम्योपैथिक चिकित्सक डॉक्टर आर.के. बनर्जी का कहना है कि सरकार को अन्य पैथियों की तरह होम्योपैथी को भी बढ़ावा देते हुए इसे डिजिटल हेल्थ योजना में शामिल करना चाहिए।