Home Blog Page 772

महिला सशक्तिकरण की तरफ हरियाणा

2018 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने जब महिलाओं के साथ हुए यौन हिंसा के आँकड़े प्रस्तुत किये थे, तो उन आँकड़ों में महिलाओं के यौन शोषण को लेकर हरियाणा राज्य की स्थिती बहुत दयनीय बतायी गयी थी। सन् 2011 की जनगणना में हरियाणा का लिंगानुपात भी देश के लिंगानुपात से काफी कम था, जिससे यह बात सामने आयी थी कि हरियाणा में कन्या भ्रूण हत्या बड़े पैमाने पर होता है। लेकिन हरियाणा अपनी इस छवि को पीछे छोड़ते हुए एक नयी छवि गढऩे जा रहा है; जहाँ महिलाओं को पुरुषों से कतई कम नहीं समझा जाएगा। हरियाणा सरकार, पुरुषों और महिला उम्मीदवारों के लिए पंचायत चुनावों में 50-50 फीसदी आरक्षण प्रदान करने के लिए एक विधेयक लाने की योजना बना रही है, जिसके तहत प्रत्येक कार्यकाल की समाप्ति के बाद महिला और पुरुष उम्मीदवारों के बीच सीटों की अदला-बदली की जाएगी। यह व्यवस्था 2021 में होने वाले पंचायत चुनावों से शुरू होगी।

पिछले दिनों हरियाणा के उप मुख्यमंत्री सीएम दुष्यंत चौटाला ने इसकी घोषणा की थी। उन्होंने कहा कि भाजपा-जजपा विधायक दल इस पर सहमति जता चुके हैं। यह गठबन्धन सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम का भी हिस्सा है। जल्द ही कैबिनेट बैठक में मंज़ूरी के लिए इसका एजेंडा लाया जाएगा। इस पर काम शुरू कर दिया गया है। कैबिनेट मंज़ूरी के बाद सरकार विधानसभा के अगले सत्र में विधेयक पारित कराकर 50 फीसदी आरक्षण का कानून बना देगी। पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को यह आरक्षण मिलने से ग्रामीण विकास तेज़ी से हो सकेगा।

उन्होंने कहा कि राज्य सरकार महिला जनप्रतिनिधियों की हौसला बढ़ाने के लिए उत्कृष्ट कार्य करने वाली 100 महिला प्रतिनिधियों को स्कूटी देने जा रही है। इनमें 10 ज़िला परिषद् सदस्य, 20 ब्लॉक समिति सदस्य, 40 वार्ड सदस्य व 30 सरपंच शामिल होंगी। रक्षाबन्धन के मौके पर खुद मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने भी इसका ऐलान किया। ज्ञात हो कि विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा और जजपा ने अलग-अलग चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए महिलाओं की पंचायती राज व्यवस्था में भागीदारी बढ़ाने का दावा किया था।

20 राज्यों में पहले से ही है 50 फीसदी महिला आरक्षण

महिलाओं के 50 फीसदी आरक्षण देने पर गौर करें तो देश में फिलहाल 20 राज्य पहले ही पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दे चुके हैं। इनमें आंध्र प्रदेश, बिहार, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु जैसे बड़े प्रदेश शामिल हैं। हालाँकि इन राज्यों में लॉटरी द्वारा महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की जाती हैं; जबकि हरियाणा में प्रत्येक कार्यकाल की समाप्ति के बाद महिला और पुरुष उम्मीदवारों के बीच सीटों की अदला-बदली की जाएगी। हरियाणा इस प्रकार की विधि को अपनाने वाला देश का पहला राज्य होगा।

जनप्रतिनिधियों के शैक्षणिक-योग्यता की शर्त

हरियाणा देश का पहला राज्य है, जिसने पंचायत चुनाव के लिए शैक्षणिक योग्यता की शर्त लगायी थी। चाहे महिला हो या पुरुष सभी के लिए शैक्षणिक योग्यता की सीमा निर्धारित है। इसका विरोध भी हुआ था और मामला अदालत में पहुँचा। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इस फैसले पर अपनी मुहर लगायी थी। इससे पंचायतों के विकास कार्य में काफी तेज़ी आयी है।

देश में हैं 14 लाख से ज़्यादा महिला सरपंच

केंद्रीय मंत्री नरेद्र सिंह तोमर ने 2019 में संसद में दिये गये एक वक्तव्य में कहा था कि देश में 2 लाख 53 हज़ार 380 ग्राम पंचायतें हैं, जिनमें करीब 31 लाख जनप्रतिनिधि हैं। इनमें महिलाओं की संख्या 14.39 लाख है, यह जनप्रतिनिधियों का करीब 46 फीसदी है।

हरियाणा में महिलाओं की भागीदारी

हरियाणा में महिलाओं के प्रति लोगों के नज़रिये में धीरे-धीरे ही सही, लेकिन लचीलापन आया है। यही कारण रहा है कि हरियाणा की महिलाओं ने राष्ट्रीय स्तर से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक अपना परचम लहराया है। पिछले आँकड़े देखें, तो सिनेमा में सफलता, अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में मेडल जीतने, माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने, विश्व सुंदरी का ताज जीतने से लेकर हर क्षेत्र में हरियाणा की लड़कियों ने एक नया इतिहास लिखा है। विश्व सुंदरी मानुषी छिल्लर, दंगल गर्ल गीता और बबीता फोगाट, ओलंपिक कांस्य जीतने वाली पहलवान साक्षी मलिक, माउंट एवरेस्ट फतह करने वाली पहली भारतीय महिला पर्वतारोही संतोष यादव, अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी सायना नेहवाल, पूर्व मिस इंडिया और बालीवुड अभिनेत्री जुही चावला, परिणीति चोपड़ा और मल्लिका सहरावत, अंतरिक्ष मिशन पर जाने वाली कल्पना चावला या स्व. राजनेता सुषमा स्वराज जैसी दिग्गज हरियाणा की महिलाओं ने अपने उपलब्धियों से राज्य में बहुत समय से स्थापित रुढि़वादी मानसिकताओं को तोडऩे में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

पंचायत चुनावों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने का हरियाणा सरकार का हालिया फैसला निश्चित ही महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में एक असाधारण कदम साबित होगा। ऐसे कई अध्ययन मौज़ूद हैं, जो यह दर्शाते हैं कि सरकार द्वारा दिये गये आरक्षण ने सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी में काफी सुधार किया है। स्थानीय स्वशासन में महिलाओं की भागीदारी की सबसे अच्छी बात यह है कि स्थानीय शासन में मौज़ूद महिलाएँ संवेदनशील वर्गों खासतौर पर महिलाओं और बच्चों की ज़रूरतों और हितों को ध्यान में रखते हुए कार्य करती हैं।

मन की बात में डिसलाइक और मोदी का डर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रसिद्ध कार्यक्रम मन की बात को सोशल मीडिया प्लेटफार्म यूट्यूब पर लाइक ज़्यादा डिसलाइक मिलने की खबर तो सभी ने सुनी होगी। लेकिन इससे भाजपा और प्रधानमंत्री खुद बहुत ज़्यादा डर सकते हैं, यह बात शायद ही किसी ने सोची होगी। यह डर इस हद तक प्रधानमंत्री के मन में घर कर गया कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने मन की बात वाले वीडियो में डिसलाइक और कमेंट का ऑप्शन ही बन्द कर दिया है। विदित हो कि प्रधानमंत्री ने इसी 30 अगस्त को अपने पसंदीदा रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ के ज़रिये देश को सम्बोधित किया था। लेकिन उनके इस कार्यक्रम को तकरीबन दोगुने से अधिक डिसलाइक मिले। इससे परेशान होकर पीएमओ ने यूट्यूब पर इस वीडियो में डिसलाइक और कमेंट का ऑप्शन ही बन्द कर दिया है।

दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी के नाम से बने यूट्यूब अकाउंट ‘हृड्डह्म्द्गठ्ठस्रह्म्ड्ड रूशस्रद्ब’ पर ‘प्राइम मिनिस्टर नरेंद्र मोदी मन की बात विद नेशन’ शीर्षक से उनके वीडियो अपलोड होते हैं। इसमें रेडियो के ज़रिये हर महीने के आखिर में प्रसारित होने वाले उनके प्रसिद्ध कार्यक्रम मन की बात का वीडियो भी अपलोड होता है, जिसे अब तक काफी पसन्द किया जाता रहा है। लेकिन अगस्त महीने वाले मन की बात कार्यक्रम को दोगुने से अधिक डिसलाइक मिलने पर हडक़म्प मच गया।

इस वीडियो को पहले ही दिन तकरीबन 35 हज़ार लाइक मिले, तो 90 हज़ार लोगों ने इसे डिस्लाइक कर दिया। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि साढ़े छ: लाख से अधिक व्यूज के बावजूद लाइक और डिसलाइक कम ही मिले। प्रधानमंत्री के इस वाले मन की बात कार्यक्रम के डिसलाइक ऑप्शन के बन्द होने से पहले तक के आँकड़ों को देखने पर पता चलता है कि यूट्यूब पर लाइक करने वाले से करीब दो गुना अधिक लोगों ने इस वीडियो को डिसलाइक किया। इसके अलावा निगेटिव कमेंट की भी भरमार इस वीडियो में है। बता दें कि इस बार के मन की बात कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देसी खिलौने बनाने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित किया था। उन्होंने कहा था- ‘अब सभी के लिए लोकल खिलौनों के लिए वोकल होने का समय है। आइए हम अपने युवाओं के लिए कुछ नये प्रकार के अच्छी क्वालिटी वाले खिलौने बनाते हैं। उन्होंने कहा कि खिलौना वो हो, जिसकी मौज़ूदगी में बचपन खिले भी, खिलखिलाए भी।’

पार्टी के चैनल पर मिले सबसे ज़्यादा डिसलाइक

हैरत की बात यह है कि प्रधानमंत्री के यूट्यूब चैनल पर ही नहीं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा के चैनल पर अपलोड मन की बात कार्यक्रम को भी लोगों ने बहुत अधिक नापसंद किया है। यहाँ पर तो इस कार्यक्रम को प्रधानमंत्री के यूट्यूब चैनल से भी ज़्यादा तकरीबन आठ गुना डिसलाइक मिले हैं।

इसी दौरान भाजपा के यूट्यूब चैनल पर नज़र डाली गयी, तो पता चला कि मन की बात कार्यक्रम को यहाँ 1,312,602 व्यूज मिले, जिसमें 52 हज़ार लाइक, तो इससे तकरीबन आठ गुना ज़्यादा 392 हज़ार डिसलाइक मिले।

क्या विदेशियों को भी पसंद नहीं मोदी

यह बात हम नहीं कह रहे, बल्कि भाजपा का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात कार्यक्रम को यूट्यूब पर 98 फीसदी विदेशियों के डिसलाइक मिले हैं। भारतीयों में डिसलाइक का बटन दबाने वाले केवल दो फीसदी ही हैं। हालाँकि भाजपा का यह भी कहना है कि इसके पीछे कांग्रेस का हाथ है। भाजपा का कहना है कि यह जेईई और नीट परीक्षा के खिलाफ कांग्रेस के कैंपेन का हिस्सा है। वहीं कांग्रेस ने इस आरोप को सिरे से खारिज कर दिया और कहा कि इसके लिए प्रधानमंत्री खुद ज़िम्मेदार हैं। गौरतलब है कि कांग्रेस सहित कई राजनीतिक दल मोदी सरकार से परीक्षा को एक बार फिर टालने की माँग कर रहे हैं।

क्या प्रधानमंत्री की गरिमा हुई है धूमिल

ऐसा माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी जबसे प्रधानमंत्री बने हैं, तबसे प्रधानमंत्री पद की गरिमा धूमिल हुई है। कई बार यह बात सामने आयी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पसंद करने वाले लोग काफी हैं; लेकिन उन पर तंज करने वालों की भी कमी नहीं रही है। उन्हें अब तक कई ऐसे नाम लोगों ने दिये हैं, जो एक प्रधानमंत्री की गरिमा का धूमिल करते महसूस होते हैं। इतना ही नहीं, देश में जब प्रधानमंत्री पद के लिए योग्य चेहरे की बात होती है, तो राहुल गाँधी उनको टक्कर देते दिखते हैं। नाम न छापने की शर्त पर एक राजनीति के जानकार ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी छवि खराब करने के लिए खुद ज़िम्मेदार हैं; वरना 2014 में ही नहीं, बल्कि 2019 में भी लोगों ने उन्हें बड़ी उम्मीद के साथ भारी बहुमत दिया था।

बजरी माफिया का खूनी शिकंजा

संगठित अपराध और हिंसक गतिविधियों के चलते खनन माफिया ने पूरे राज्य को निजी जागीर के रूप में बन्धक बना लिया है। माफिया की दहशतगर्दी का इससे बड़ा सुबूत और क्या होगा कि जहाँ कहीं भी उन्हें रोका गया, उन्होंने खून की नदियाँ बहाने में एक पल की भी देर नहीं की। अलवर में बार्डर होमगार्ड की नृशंस हत्या और जालोर में पिता, पुत्र, पुत्री को ट्रेक्टर-ट्राली से कुचलने की हाहाकारी घटनाएँ प्रतीकात्मक रूप से एक भयावह सच्चाई को उजागर कर रही थी कि राज्य की बागडोर अब माफिया सरदारों के हाथों में पहुँच गयी है। अलवर में खनन माफिया के दुस्साहस की पराकाष्ठा थी कि पहले तो रोके जाने पर हेामगार्डों को ट्रेक्टर-ट्राली चढ़ाकर एक गार्ड की हत्या कर दी। फिर बजरी माफिया के गुण्डे पत्थर बरसाकर भाग निकले। जालोर के खायला कस्बे में अवैध बजरी ले जा रहे ट्रेक्टर ने रोक-टोक किये जाने पर एक परिवार को ही कुचल दिया। पिछले पाँच साल में माफिया के बढ़ते शिकंजे में कितने लोग जान गँवा चुके हैं। इसके आँकड़े ही चौंका देते हैं।

जल, जंगल और पर्वतों को खोखला करने वाले गिरोहबंद बेखौफ खिलाडिय़ों की दस्तक को क्या अनसुना किया जा रहा है? सरकार इस मामले में सफाई देते हुए नहीं थकती कि पिछले तीन साल में बजरी माफिया से 100 करोड़ का ज़ुर्माना वसूला जा चुका है। लेकिन साथ ही बुझे मन से प्रशासन भी अपराधीकरण को भी स्वीकार करता है कि माफिया के हौसले बुलंद है। इस मामले में सरकार द्वारा तैयार करवाई गयी एक रिपोर्ट अवैध खनन की मोटी तस्वीर तो बयाँ करती है, लेकिन रिपोर्ट में इस खेल को रोकने की कोशिशों की स्पष्ट तस्वीर का ज़िक्र तक नहीं है। खनन मंत्री प्रमोद जैन भाया यह कहकर अपनी ज़िम्मेदारियों से भागते हुए नज़र आते हैं कि ‘यह कैंसर तो हमें पिछली भाजपा सरकार ने दिया है। हमें तो इसे जबरन भोगना पड़ रहा है।

भाया यह कहते हुए अपनी परवशता जताते हैं कि इस कैंसर का इलाज आसान नहीं है। हालाँकि उन्होंने माफिया को नेस्तोनबूद करने के लिए यह कहते हुए नयी नीति लाने का ज़िक्र भी किया कि एक सीमा तक खनन में वैधता निर्धारित कर दी जाए, ताकि यह खेल थम सके। लेकिन जानकार सूत्रों का कहना है कि इस तरह के बयान तो खनन मंत्री की लफ्फाज़ी के सिवाय कुछ नहीं है। सवाल है कि ज़मीनी स्तर पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? सूत्र तो यहाँ तक कहते हैं कि पूरा खेल राजनीतिक संरक्षण और विभागीय अफसरों की मिलीभगत पर टिका है। भाजपा नेता इसका पूरा दोष सन् 2013 के दौरान सत्ता में रही कांग्रेस सरकार पर मढ़ते हैं कि यह नौबत तो तत्कालीन गहलोत सरकार की नीतियों का नतीजा है। खनन कारोबारी कुछ और ही पीड़ा बयाँ करते हैं। उनका कथन सरकार की मंशा को ही कटघरे में खड़ा करता है कि अवैध खनन रोकने के लिए बनाये गये 80 चैक पोस्ट हटाने का क्या मतलब था? खनन महकमे के भविष्य को लेकर दो धारणाएँ हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इस मंत्रालय को ही समाप्त कर देना चाहिए। इसके कलुषित इतिहास को देखते हुए इससे बड़ा कोई विकल्प नहीं हो सकता।

बजरी खनन के अवैध खेल को लेकर मंत्रीजी का तर्क है कि इस बाबत तो केंद्र सरकार ही कोई नीति बनाए, तो बेहतर होगा। लेकिन सवाल है कि बजरी खनन के लाल बाग में मज़े करने वाला माफिया क्या किसी भी नीति को सफल होने देगा? परजीवी िकस्म का माफिया क्यों नयी पाबंदियों को चलने देगा? विशेषज्ञों का कहना है कि बजरी माफिया पर शिकंजा कसने की ताकत ही जब छीज रही हो, तो कैसा भी कोई कानून क्या कर लेगा?

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने बजरी माफिया के बुलंद होसलों पर राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए जवाब तलबी की कि ‘अवैध बजरी खनन रोकने के लिए क्या किया? चार हफ्ते में बताए सरकार।’ बीती फरवरी में जारी किये गये इस आदेश को 6 महीने गुज़र चुके हैं। लेकिन सरकार ने क्या किया? 100 करोड़ का ज़ुर्माना वसूला और 30 हज़ार वाहनों को ज़ब्त किया। किन्तु बजरी खनन तो नहीं थमा। बजरी माफिया कितना ताकतवर है? इसकी तफतीश करें तो, तस्करी के तार मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश हरियाणा-दिल्ली तथा गुजरात और महाराष्ट्र तक जुड़े हैं। अरावली के खत्म होते पहाड़ों की तस्वीर पर हैरानी जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ तक कह दिया कि ‘क्या इन पहाड़ों को हनुमान जी उठा ले गये?’

सूत्रों का कहना है कि बजरी माफिया को बेकाबू करने के नाम पर अब तक समितियाँ बनती रही हैं और बैठकें होती रही हैं। लेकिन समितियाँ में शामिल अफसर बजरी माफिया की आहटों को सुनने तक को तैयार नहीं है। बजरी माफिया के हौसले बुलंद हैं और वो पूरी गिरोहबन्दी के साथ सरकारी फौज पाटे से दो-दो हाथ करने को तैयार लगता है। इस मुहाने पर खान महकमा क्या कर रहा है? कोई खबर नहीं है। हैरत की बात है कि पिछली भाजपा सरकार की मुखिया वसुंधरा राजे ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाते हुए रेत खनन पर लगाये गये प्रतिबन्ध में कुछ रियायतें देने की याचिका लगायी थी। लेकिन विद्वान न्यायाधीश लाकोर ने दोहराया कि ‘पारिस्थितिकी पर खनन के प्रभाव तथा रेत की फिर से भरायी की दर के वैज्ञानिक आकलन के बाद ही खनन की अनुमति दी जाए।’ लेकिन यह आदेश खनन और निर्माण क्षेत्र में सक्रिय परिवारों को प्रभावित करने वाला साबित हुआ। नतीजतन रेत और बजरी के दाम आसमान छूने लगे। यहाँसर्वोच्च न्यायालय के 2012 में दिये गये आदेशों का ज़िक्र करना भी प्रासंगिक होगा। इसमें कहा गया था कि ‘बालू रेत के खनन से जुड़ी एक नीति बनायी जाए, जिसमें पर्यावरण की मंज़ूरी, उसकी निगरानी और लीज से जुड़े अन्य ज़रूरी प्रावधान भी शामिल किये जाए। खनन का अधिकार इसी नीति के तहत दिया जाए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी के बावजूद सरकार ढीली-ढाली ही बनी रही। अलबत्ता

सरकारी अफसर इस मामले में लीपापोती ही करते रहे कि सरकार सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का पालन करने का पूरा प्रयास कर रही है। लेकिन सरकार चाहे जो नीति बना ले, फायदों की कोई-न-कोई सूरत तो बजरी माफिया अपने लिए निकाल ही लेता है। दरअसल यह पूरा खेल ज़िद और पूर्वाग्रहों में फँस गया है। जब प्रदेश में कांग्रेस सत्तारूढ़ होती है, तो पूर्ववर्ती भाजपा सरकार पर तोहमतें जड़ती है। जब भाजपा सरकार में होती है, तो पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार पर जमकर कीचड़ उछाला जाता है। विवादों और तजुर्बों को लेकर कोई मुहिम चलायी जाए, ऐसा कभी नहीं होता। लेकिन इस जंग में कोई मुनाफे के सूत्र खोजने में कामयाब होता है, तो वो है बजरी माफिया। चेजा पत्थर जैसी चीज़ की भी अचानक माँग बढ़ जाना इसकी अनूठी मिसाल है। आसलपुर पर खनन विभाग जयपुर के क्षेत्राधिकार की 40 खदानें (38.47 हेक्टेयर) स्वीकृत हैं। सभी खदानें सन् 1999 से सन् 2008 के बीच में स्वीकृत की गयी हैं। इन खदानों में करीब 12 से अधिक अवैध खनन के गड्ढे वर्तमान में मौज़ूद है। पूरी 40 खानों में कुल खनन क्षेत्रफल की गणना की जाए तो अब तक लगभग सवा करोड़ लाख टन चेजा पत्थर का खनन किया गया है। जबकि विभागीय रवन्ना रिकॉर्ड के अनुसार, उत्तर क्षेत्र से आसलपुर क्षेत्र की खदानों से केवल 70 लाख टन चेजा पत्थर ही खनन किया गया है। शेष 52 लाख करोड़ टन का अवैध खनन है। सन् 2010 तक यहाँ से 11 लाख टन चेजा पत्थर का खनन हुआ। सन् 2009 के बाद खनन की रफ्तार बढ़ी। इसका एक कारण फ्रंट कॉरिडोर और मेट्रो का काम भी प्रदेश में होना रहा। चेजा पत्थर की डिमांड बढ़ी, तो अवैध खनन में भी रफ्तार बढ़ी है। क्या यह सुराग सरकार को चौंकाते नहीं कि बनास नदी की बजरी की माँग महाराष्ट्र तक है। उदयपुर से बजरी की तस्करी गुजरात के कई ज़िलों में होती है। बनास की बजरी सबसे उच्च गुणवत्ता वाली मानी जाती है। हरियाणा में बनास की बजरी सबसे ज़्यादा जाती है। इसकी खबर जन-जन को है; लेकिन कोई बेखबर है, तो खनन मंत्री और उनके महकमे का पूरा लाव-लश्कर! खनन माफिया ने तो भारत-पाक सीमा क्षेत्र को भी नहीं छोड़ा। बॉर्डर की करीब एक दर्ज़न चौकियाँ माफिया की कारगुजारी की चपेट में हैं। नतीजतन सुरक्षा बलों का इन चौकियों तक पहुँचना मुश्किल हो रहा है। इसकी वजह इस क्षेत्र में जिप्सम (हरसौंठ) का अकूत भण्डार है।

जिप्सम निकालने में जुटे माफिया ने बॉर्डर पर पहुँचने वाली सभी सडक़ों को तहस-नहस कर दिया है। सीमावर्ती क्षेत्र में सफेद सोने के नाम से विख्यात बेशकीमती जिप्सम का भण्डार है। हालात ये हैं कि बीएसएफ और सेना के वाहनों को बॉर्डर तक पहुँचने में दोगुना ज़्यादा समय लगता है। कई स्थानों पर तो सडक़ के अवशेष तक नहीं बचे हैं। खाजूवाला से बिज्जू के बीच जिप्सम का बड़े पैमाने पर खनन होता है। यहाँ पर सीमावर्ती सडक़ों से ओवरलोड दर्ज़नों ट्रक रोज़ाना गुज़रते हैं। जबकि यहाँ सडक़ का निर्माण सीमा चौकियों पर सेना के आवागमन के लिए किया गया था। ग्रामीण बताते हैं कि जिप्सम माफिया पुलिस और खनन विभाग के दस्तों की पकड़ में नहीं आये, इसलिए सडक़ को जान-बूझकर तोड़ देते हैं। इनके पास खुदाई करने वाली बड़ी मशीनें हैं। माफिया और अपराधी नहीं चाहते कि यहाँ ज़्यादा लोग आबाद हों। खेती-बाड़ी करना और आवागमन सुगम होने पर माफिया के मंसूबे पूरे नहीं होंगे। ऐसे में माफिया गाँवों तक आवागमन के रास्तों को निशाना बनाते हैं। उन्हें यह भी भ्रम या कहें कि घमण्ड है कि उनका कोई क्या कर लेगा? यह भ्रम या घमण्ड किन लोगों के दम पर है? यह बात बहुत-से लोग जानते हैं; मगर कहे कौन?

अक्षय ऊर्जा से दूर होगा अँधेरा

देश की सबसे बड़ी बिजली उत्पादक कम्पनी एनटीपीसी के बिजली उत्पादन के नज़रिये में हाल ही में परिवर्तन आया है। सन् 2012 में अक्षय ऊर्जा के कारोबार में आयी एनटीपीसी ने अगस्त, 2020 में निवेशकों के लिए तैयार किये ये प्रस्तुतिकरण बुकलेट के पहले पन्ने पर वर्षों से प्रकाशित की जा रही बड़े तापीय विद्युत संयंत्रों की तस्वीरों के स्थान पर एक नन्हें पौधे की तस्वीर छापी है और उसके नीचे जेनरेटिंग्रोथ फॉर जेनरेशन लिखा है; जो इस बात का प्रतीक है कि अब एनटीपीसी का ज़ोर पारम्परिक ऊर्जा के उत्पादन की जगह अक्षय ऊर्जा के उत्पादन पर रहेगा और वह अक्षय ऊर्जा की मदद से 62 मेगावॉट की उत्पादन क्षमता को बढ़ाकर 130 मेगावॉट करेगी।

हालाँकि इस बदलाव का एक बड़ा कारण वैश्विक स्तर पर बिजली परियोजनाओं के लिए धन मुहैया कराने वाले कर्ज़दाताओं का रुझान पारम्परिक ऊर्जा की तरफ होना है। इसी वजह से ऊर्जा क्षेत्र की कम्पनियाँ मौज़ूदा समय में अक्षय ऊर्जा के उत्पादन पर ज़ोर दे रही हैं। वैश्विक कर्ज़दाता कार्बन उत्सर्जन की अधिकता, नियामकीय स्तर पर जोखिम और आर्थिक नुकसान के खतरे को देखते हुए कोयला आधारित सभी ताप बिजली परियोजनाओं में निवेश करने से परहेज़ कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर वैश्विक कर्ज़दाताओं में से एक ब्लैकरॉक ने कोल इंडिया, एनटीपीसी और अडाणी एंटरप्राइजेज में बड़ी राशि निवेश कर रखी है; लेकिन अब यह सिर्फ अक्षय ऊर्जा पर आधारित परियोजनाओं में निवेश करना चाहता है। अमेरिका स्थित इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी, इकोनॉमिक्स ऐंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईईएफए) के अनुसार, लगभग 20 सॉवरिन फंड, परिसम्पत्ति प्रबन्धकों और पेंशन फंड ने कोयला आधारित बिजली संयंत्रों में निवेश नहीं करने की बात कही है। विदेशी बैंक भी कोयला आधारित बिजली परियोजनाओं के लिए पूँजी मुहैया कराने से मना कर रहे हैं, जिससे अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं को शुरू करने या मौज़ूदा परियोजनाओं को गति देने में तेज़ी आ रही है।

ऊर्जा क्षेत्र की सभी कम्पनियाँ कोयला आधारित बिजली संयंत्रों पर निर्भरता कम करने की दिशा में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। उदाहरण के तौर पर जेएसडब्ल्यू एनर्जी और टाटा पॉवर ताप विद्युत क्षमता में इज़ाफा करने की जगह अक्षय ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ाना चाहती हैं। जेएसडब्ल्यू एनर्जी आगामी पाँच वर्षों में 10 मेगावॉट क्षमता वाली कम्पनी बन सकती है, जिसमें अक्षय ऊर्जा का योगदान 100 फीसदी होगा। जेएसडब्ल्यू एनर्जी ने शून्य कार्बन उत्सर्जन का भी लक्ष्य रखा है, जिसे वह 2050 तक हासिल करना चाहती है।

टाटा पॉवर भी वर्ष 2025 तक कुल बिजली उत्पादन में 60 फीसदी हिस्सा अक्षय ऊर्जा से पूरा करना चाहती है और वर्ष 2030 तक वह इसे बढ़ाकर 75 फीसदी करना चाहती है। कम्पनी की योजना वर्ष 2050 तक अक्षय ऊर्जा आधारित बिजली उत्पादक बनने की है। अडाणी एंटरप्राइजेज ऊर्जा क्षेत्र के लिए आवंटित राशि में से 70 फीसदी से अधिक राशि अक्षय ऊर्जा की क्षमता को विकसित करने में खर्च करेगी। अडाणी समूह ने वर्ष 2025 तक 25 मेगावॉट क्षमता हासिल करने का लक्ष्य रखा है। सेंबकॉर्प एनर्जी इंडिया लिमिटेड (एसईआईएल) ने भी अक्षय ऊर्जा की मदद से 800 मेगावॉट बिजली उत्पादन करना शुरू किया है। इसकी अल्प हिस्सेदारी भारतीय सौर ऊर्जा निगम (एसईसीआई) की पवन ऊर्जा परियोजनाओं में भी है।

मौज़ूदा सरकार भी अक्षय ऊर्जा के उत्पादन में इज़ाफा करना चाहती है। इसके लिए मेक इन इंडिया के लिए चिह्नित क्षेत्रों में अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र को भी शामिल किया गया है। स्टार्ट अप इंडिया की संकल्पना मेक इन इंडिया से जुड़ी हुई है। स्टार्ट अप इंडिया के तहत ऐसे उद्यमियों, जो मेक इन इंडिया अभियान से जुड़े हैं; की मदद की जाती है। क्योंकि किसी नये उद्योग को शुरू करने में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। सरकार द्वारा शुरू की गयी योजनाओं की मदद से कोई भी आत्मनिर्भर बन सकता है। जब देश का हर युवा आत्मनिर्भर होगा, तो स्वाभाविक रूप से अर्थ-व्यवस्था मज़बूत होगी और देश में खुशहाली आयेगी।

ऊर्जा एवं अक्षय ऊर्जा का महत्त्व

हमारे जीवन में ऊर्जा का महत्त्व अतुलनीय है। इसके बिना मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। सदियों से मानव अपनी आवश्यकता के लिए ऊष्मा, प्रकाश आदि को ऊर्जा के स्रोत के रूप में इस्तेमाल करता रहा है। ऊर्जा की कमी की वजह से हमारा देश दूसरे देशों से पिछड़ता जा रहा है। ऊर्जा की बदौलत ही औद्योगिक विकास में बढ़ोतरी, रोज़गार में इज़ाफा, ग्रामीण पिछड़ेपन को दूर करने में मदद, अर्थ-व्यवस्था में मज़बूती, विकास दर में तेज़ी आदि सम्भव है। वर्तमान में ऊर्जा का मुख्य स्रोत कोयला है; लेकिन इसकी उपलब्धता सीमित है। इसलिए अक्षय ऊर्जा की खोज की गयी। अक्षय का अर्थ होता है- असीमित। अर्थात् जिसका उत्पादन हमेशा किया जा सके। हमारे देश में अक्षय ऊर्जा के स्रोत मसलन, सूर्य की रोशनी, नदी, पवन, ज्वार-भाटा आदि हैं। यह सस्ती भी है और पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुँचाती है। ऊर्जा के स्रोत को दो भागों में विभाजित किया गया है। पहले वर्ग में वो स्रोत आते हैं, जो कभी खत्म नहीं होंगे। इस वर्ग में सौर और वायु ऊर्जा, जल ऊर्जा, जैव ईंधन आदि को रखा जाता है। दूसरे वर्ग में वो स्रोत आते हैं, जिनके भण्डार सीमित हैं। प्राकृतिक गैस, कोयला, पेट्रोलियम आदि ऊर्जा के स्रोत को इस श्रेणी में रखा जाता है। परमाणु ऊर्जा का वर्गीकरण भी इस श्रेणी में किया जा सकता है; क्योंकि यूरेनियम की मदद से ही परमाणु ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है और यूरेनियम का भण्डार सीमित है। भारत में अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र को व्यापक और प्रभावी बनाने के लिए नवीन एवं अक्षय ऊर्जा के नाम से एक स्वतंत्र मंत्रालय बनाया गया है। भारत विश्व का पहला देश है, जहाँ अक्षय ऊर्जा के विकास के लिए एक अलग मंत्रालय है।

बजट में अक्षय ऊर्जा को तरजीह

वित्त वर्ष 2020-21 में ऊर्जा व अक्षय ऊर्जा के लिए 22,000 करोड़ रुपये आवंटित किया गया है, जो यह दर्शाता है कि सरकार अक्षय ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ाने के प्रति कितनी गम्भीर है। इतना ही नहीं, अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में तेज़ी लाने के लिए सरकार अक्षय ऊर्जा के उत्पादकों को आर्थिक मदद, कर में छूट, सब्सिडी आदि भी मुहैया करा रही है।

अक्षय ऊर्जा के कारोबारी

अक्षय ऊर्जा का सबसे अधिक उत्पादन पवन एवं सौर ऊर्जा के ज़रिये होता है। भारत में पवन ऊर्जा की शुरुआत सन् 1990 में हुई थी। लेकिन हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में बहुत तेज़ी से प्रगति हुई है। आज भारत के पवन ऊर्जा उद्योग की तुलना विश्व के प्रमुख पवन ऊर्जा उत्पादक अमेरिका और डेनमार्क से की जाती है। भारत में पवन ऊर्जा उत्पादित करने वाले राज्यों में तमिलनाडू, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश आदि हैं। भारत के बड़े पवन ऊर्जा पार्कों में तमिलनाडू का मुपेंडल, राजस्थान का जैसलमेर, महाराष्ट्र का ब्रहमनवेल, ढालाँव, चकाला, वासपेट आदि हैं। इस क्षेत्र में मुख्य कारोबारी सूजलन एनर्जी, परख एग्रो इंडस्ट्री, मुपेंडल विंड, रिन्यू पॉवर आदि हैं। पवन ऊर्जा के मुकाबले सौर ऊर्जा का उत्पादन भारत में अभी भी शैशवावस्था में है, जबकि इस क्षेत्र में विकास की सम्भावना पवन ऊर्जा से अधिक है।

तकनीक की कमी एवं जानकारी के अभाव में भारत अभी ज़्यादा मात्रा में सौर ऊर्जा नहीं उत्पादित कर पा रहा है। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भारत सन् 2000 के बाद से ज़्यादा सक्रिय हुआ है। भारत में सौर ऊर्जा की अपार सम्भावनाएँ हैं; खासकर रेगिस्तानी इलाकों में। भारत के सौर ऊर्जा कार्यक्रम को संयुक्त राष्ट्र का भी समर्थन मिला हुआ है। सौर ऊर्जा के उत्पादन के क्षेत्र में भारत द्वारा ऋण देने के कार्यक्रम को भी संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम का समर्थन हासिल है। भारत के इस कार्यक्रम को एनर्जी ग्लोब वल्र्ड पुरस्कार मिल चुका है। भारत चाहता है कि सौर ऊर्जा मौज़ूदा बिजली से सस्ती हो। इस लक्ष्य को अनुसंधान की मदद से हासिल किया जा सकता है। भारत के प्रमुख सौर ऊर्जा उत्पादकों में वेलस्पून एनर्जी, मीठापुर सोलर पॉवर प्लांट, अडानी पॉवर, चंरका सोलर पार्क आदि शामिल हैं।

उत्पादन की रफ्तार

अक्टूबर, 2019 तक भारत में अक्षय ऊर्जा की स्थापित क्षमता 83 मेगावॉट की थी, जिसे वर्ष 2022 तक बढ़ाकर 175 मेगावॉट करने का लक्ष्य है। एक आकलन के अनुसार, वर्ष 2030 में देश में स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता में से 55 फीसदी हिस्सा अक्षय ऊर्जा का हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के जलवायु सम्मेलन में कहा था कि वर्ष 2030 तक भारत 450 मेगावॉट बिजली का उत्पादन अक्षय ऊर्जा की मदद से कर सकता है।

कार्बन उत्सर्जन कम करने का प्रयास

कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए भारत में अक्षय ऊर्जा की मदद से माइक्रो ग्रिड की स्थापना की जा रही है साथ ही साथ मौज़ूदा ग्रिड को आधुनिक भी बनाया जा रहा है। साथ ही अक्षय ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ाने की कोशिश तेज़ी से की जा रही है।

किफायती ऊर्जा

ऊर्जा के सीमित संसाधन व आयात की ऊँची लागत के मद्देनज़र अक्षय ऊर्जा के उत्पादन में नवोन्मेष और शोध पर ज़ोर दिया जा रहा है। ऐसा करने से बिजली उत्पादन की लागत को कम किया जा सकता है। आज विकास में सबसे अहम भूमिका ऊर्जा की है। सौर ऊर्जा घर से बिजली की लागत में उल्लेखनीय कमी लायी जा सकती है। शोध और अनुसंधान से इसे और भी कम किया जा सकता है।

उत्पादन की सम्भावनाएँ

हमारे देश में प्रकृति प्रदत्त बहुत सारी सौगातें हैं। तालाब में सौर पैनल लाया जा सकता है। नदी के पानी से ऊर्जा उत्पादित की जा सकती है। हवा से भी ऊर्जा बनायी जा सकती है। सौर और पवन ऊर्जा के ज़रिये हाइब्रिड बिजली उत्पादित की जा सकती है।

महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक आदि राज्यों में पवन निर्बाध रूप में बहता है। पवन की तेज़ गति पवन ऊर्जा के उत्पादन के लिए मुफीद मानी जाती है। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भारत के ग्रामीण इलाकों में बहुत ही अच्छा काम हो रहा है। देश के अनेक राज्यों में घर-घर में सौर ऊर्जा-घर देखे जा सकते हैं। भले ही पवन ऊर्जा का उत्पादन पूरे देश में सम्भव नहीं है, लेकिन सौर ऊर्जा के क्षेत्र में ऊर्जा उत्पादन की अपार सम्भावनाएँ हैं। आज देश के दूर-दराज़ के गाँवों में भी छोटे सौर ऊर्जा घरों से ऊर्जा का उत्पादन किया जा रहा है। अपशिष्ट से भी घर-घर में ऊर्जा उत्पादित किया जा सकता है। इसमें सबसे प्रचलित जैव ईंधन है। वैसे इस संदर्भ में शहरी, औद्योगिक और बायोमेडिकल अपशिष्ट से भी ऊर्जा उत्पादित की जा सकती है। अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में जल एवं ज्वार-भाटा से भी ऊर्जा बनाया जाता है; लेकिन भारत में इसकी सम्भावना सीमित है।

फायदे

अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में कौशल को विकसित करने, कारोबार शुरू करने, वस्तु, उत्पाद, उपकरण आदि के निर्माण की असीम सम्भावनाएँ हैं। इसलिए माना जा रहा है कि इस क्षेत्र में स्किल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया और मेक इन इंडिया की संकल्पना को व्यापक फलक में आकार मिलेगा, जिससे भारत और भारतीय आत्मनिर्भर बन सकें। अक्षय ऊर्जा की मदद से कारोबार को कम पूँजी में शुरू किया जा सकता है।

भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहाँ खेती-किसानी मॉनसून पर निर्भर है। लेकिन सौर ऊर्जा की मदद से सिंचाई कार्य किया जा सकता है। बिजली की उपलब्धता से छोटे-मोटे उद्योग-धन्धे भी शुरू किये जा सकते हैं। बड़े उद्योगों में भी काम-काज इसकी मदद से निर्बाध गति से चल सकता है। आज दक्षिण भारत सहित देश के अनेक हिस्सों में सौर ऊर्जा घर की मदद से बिजली उत्पादन किया जा रहा है।

निष्कर्ष

हम प्रकृति से प्रेम करते हैं। हम नदी को माँ मानते हैं। पवन को देवता मानते हैं। प्रकृति से जुड़ाव हमारे स्वभाव में है। समाज के कमज़ोर तबके के लोग भी चाहते हैं कि उनके बच्चों को शिक्षा मिले; लेकिन बिजली नहीं होने के कारण उनकी पढ़ाई-लिखाई बाधित रहती है। ऐसे में अक्षय ऊर्जा की मदद से स्थिति में सकारत्मक बदलाव आ रहे हैं। हालाँकि इस दिशा में बहुत-से कार्य किये जाने की ज़रूरत है, ताकि भारत और भारतीयों का भविष्य उज्ज्वल बन सके। आज हम मेगावॉट में बिजली उत्पादन की बात कर रहे हैं, जो निश्चित रूप से अक्षय ऊर्जा की वजह से ही सम्भव हुआ है।

पैमाना कुछ तो सवाल हैं

उस सुबह सूरज के उगने के साथ मैं उतरी थी सीढिय़ों से। दबे पाँव। सामने थोड़ी ही दूर पर चाँदी-सी चमकती चौड़ी सडक़ थी। पहली और आखरी बार मैंने उस घर को विदा कहा। मेरे माँ-बाप को किसी ज़रूरी काम से गाँव जाना पड़ा। उन्होंने उसकी हिफाज़त में मुझे वहाँ छोड़ा। ‘आप तो टीवी में काम करते हैं! क्या मेरी कहानी सबको बताएँगे? क्या उसको सज़ा मिलेगी? लेकिन मेरे माँ-बाप ट्यूशन करते हैं। उनके और मेरे पास रुपये नहीं हैं। मेरी कहानी में धुआँ उड़ाने वाली पार्टी नहीं है। आपके अलावा अभी कोई और जानता नहीं। कोई नेता या पार्टियाँ नहीं हैं। हत्या या आत्महत्या का एंगल भी नहीं है। पर मैं सुन्दर हूँ…, सब कहते हैं। क्या मेरी भी कहानी टीवी पर आएगी? क्या मिल सकेगी उसे सज़ा?’

आज तकरीबन तीन महीने से भी ज़्यादा समय से तमाम टीवी चैनेल और अखबारों की खास खबर बालीवुड अभिनेता की हत्या-आत्महत्या की गुत्थी में उलझी है। मामले की पेचीदगी इतनी कि खूब व्याख्या हुई, जिसमें विभिन्न पार्टियों के राजनेता शामिल रहे। उनके कोरस गान पर दो राज्यों के मुख्यमंत्री भी उलझे। आिखर मामले की जाँच सीबीआई को सौंप दी गयी। दूसरी दो जाँच एजेंसियाँ भी इस पूरे मामले की पड़ताल करने में जुट गयीं। भारतीय मीडिया इस पूरे मामले की तहकीकात में जुटा रहा। जाँच जारी है और राजनीतिक तकरार बढ़ चुकी है।

मुम्बई के पूर्व कमिश्नर और अनुभवी पुलिस अधिकारी जूलियस रिबेरो इस कांड मामले की जाँच में सीबीआई, आईबी और नारकोटिक्स महकमों की जाँच में शामिल होने पर कुछ नहीं कहते। लेकिन मुम्बई पुलिस की पड़ताल को वे उचित मानते हैं। मीडिया ट्रायल पर हँसते हुए कहते हैं कि उन्हें भी जाँच के दायरे मेें लाना चाहिए। सभी टीवी चैनेल और अखबार, जो इस जाँच के काम में अतिरिक्त उत्साह दिखा रहे हैं; उनकी भूमिका जाँची जाए और सुशांत सिंह राजपूत मामले में जो कहानियाँ विभिन्न भाषाई चैनेलों ने प्रसारित की हैं, उनकी पड़ताल गहराई से हो, तो काफी कुछ सामने आए। मीडिया का क्या धर्म है और उसका पालन क्यों ज़रूरी है? यह भी फिर और साफ होगा।

देश की प्रेस कॉन्सिल ऑफ इंडिया ने पहले ही इस पूरे मामले की खबरें टीवी पर और अखबारों को देने वालों को नसीहत दी है कि वे इस पूरे मामले में ज़्यादा उत्साह से रिपोटिंग न करें। लेकिन इस संस्था को मीडिया खास महत्त्व नहीं देता। देश के सूचना प्रसारण मंत्रालय ने भी कोई हिदायत जारी नहीं की है।

दरअसल बालीवुड का यह कांड एक ऐसा चटपटा मसाला है, जो टीवी से दर्शकों को दूर नहीं जाने देता। एक हिट व्यावसायिक फिल्म के लिए ज़रूरी है- रोमांस, हत्या-आत्महत्या की पहेली, मादक ड्रग का कारोबार, नायक के परिवार में कलह, फिर इस मामले की जाँच-पड़ताल में दो बड़े राज्यों के नेताओं में तकरार, अदालत का पूरे मामले को सीबीआई के हवाले करना, मीडिया की मामले की पेचीदगियों को बड़े ही सनसनीखेज़ तरीके से पेश करने की बेसब्र ललक में पूरे संवेदनशील मामले को अत्यंत रोमांचक बना दिया है। तथ्यों की उचित पड़ताल न होने से भाषाई टीवी और अखबारों की अपनी तटस्थता पर सवालिया निशान लग रहे हैं।

देश के एक अखबार में समाचार ब्यूरो सँभालने वाले वी.पी. डोभाल कहते हैं कि आमतौर पर अपराध की बीट देखने वाले संवाददाता से यह अपेक्षा रहती है कि उसने पूरे वाकये को निगरानी (सर्विलॉन्स), पारस्परिक सह-सम्बन्ध (को-रिलेशन) और सम्प्रेषण (ट्रांसमिशन) के लिहाज़ से जाँचा-परखा है या नहीं। यदि ऐसा नहीं है, तो पत्रकार को गलत खबर देने के आरोप में सज़ा दी जा सकती है। संविधान निर्माताओं ने मीडिया की ताकत का अनुमान करते हुए ही धारा-19 और उसके तहत कई व्यवस्थाएँ दी हैं। अपराधी को अपनी बात कहने का मौका मिले और संचार माध्यम ‘ट्रायल ऑफ मीडिया’ ईमानदारी से करे, तो उनके सुझाये मुद्दों को सरकारी जाँच एजेंसियाँ जाँच के दायरे में ले लेती हैं। ज़रूरत यह है कि पूरे मामले को स्कैंडल का रूप लेने से बचाना। न्याय में दखल नहीं, बल्कि जाँच के काम में निष्पक्षता ज़्यादा ज़रूरी है। यानी न्यायपालिका बिना किसी बाधा के वह स्थिति बना पाये कि यह अहसास हो कि हाँ, न्याय वाकई हुआ। हर आरोपी को सही न्याय पाने का अधिकार है। उसे प्रभावित करने पर मानहािन भी सम्भव है। मीडिया ने पहले भी कुछ महत्त्वपूर्ण आपराधिक कांडों में बेहताशा दिलचस्पी ली। ऐसे मामलों में प्रियदर्शनी मट्टू, जेसिका लाल, नीतीश कटारा, विजाल जोशी, आरुषि तलवार आदि प्रमुख हैं। मीडिया को हमेशा सूचना देने का ही काम करना चाहिए और सूचना देने वाले पुख्ता होने चाहिए। ‘मीडिया ट्रायल’ का मतलब यही होता है कि पूरे मामले की उचित तरीके से छानबीन हो। अपराधी होने का जिन पर आरोप है, वे भी अपनी बात कह सकें; उनकी ठीक से सुनवाई हो। हाल-फिलहाल जिस तरह से भारतीय टीवी चैनेल और अखबारों में एक युवा अभिनेता की मौत की छानबीन का मुद्दा मीडिया में कवर हो रहा है। उसमें उलझाव ज़्यादा है। विभिन्न चैनेल में पधारे विशेषज्ञ जब अपनी राय देते हैं, तो लगता नहीं कि उनकी राय के पीछे भी कहीं कोई आधार (कोई घटना) है। वे वही कहते हैं, जो मीडिया से मिली खबर और उनका अनुभव होता है। फिर इस मामले में सूचना का ही हैं। जो प्रमाण कतई नहीं, सिर्फ सूचना स्रोत हैं। आधार हवाट्स एप संदेश, टेलिफोन रिकॉर्ड और पूरे मामले में नित्य-प्रति उपलब्ध वीडियो रिकार्डिंग। निष्पक्ष जाँच-एजंसियाँ भी यही कहती हैं। इससे इन्कार करती हैं; लेकिन तहकीकात जारी है।

सवाल उठता है कि क्या जाँच एजेंसियों, अपने सवाल या अनुमान जाँच के दौरान संवाददाताओं को देती हैं। क्या यह उचित है? क्या मीडिया विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली ऐसी तमाम असामयिक हादसों पर फोकस करता रहा है और क्या आगे भी करेगा। देश विभिन्न मोर्चों मसलन स्वास्थ्य, सीमाई तनाव, आर्थिक बदहाली और प्राकृतिक विपदाओं से खासा जूझ रहा है। लेकिन इन घटनाओं को वह प्रमुखता मीडिया में नहीं मिली, जो देश की प्रगति के लिहाज़ से भी ज़रूरी हैं। शायद टीवी चैनल और अखबारों को अपनी रेटिंग-रेवेन्यू के लिहाज़ से यह ज़रूरी नहीं जान पड़ा। लेकिन अब उस लडक़ी को क्या जवाब दिया जाए, जिसे जवाब चाहिए। देखिए वही लडक़ी जो खुद को सुन्दर बता रही थी। कार के बंद शीशे से इशारे में टाटा करती निकल गयी।

जीत

आशिमा अपनी जीत को याद कर अकेले में बार-बार मुस्करा रही थी। सोच रही थी कि कैसे एक पुरस्कार ने उसकी ज़िन्दगी बदल दी। कल तक उसके टीचर, दोस्त और रिश्तेदार उसे हिकारत की नज़रों से देखते थे, लेकिन 11 जुलाई, 2020 को लोगों की उसके प्रति सोच बदल गयी। उसे 10 जुलाई की शाम को फोन से सूचित किया गया कि उसे पुरस्कार लेने के लिए 11 जुलाई को नरीमन प्वाइंट स्थित यशवंत राव चव्हाण ऑडोटोरियम सायंकाल 5:00 बजे आना है। प्रदेश के मुख्यमंत्री उसे पुरस्कार से नवाज़ेंगे और उसका टेलीविजन के सभी चैनलों पर सीधा प्रसारण किया जाएगा।

हिन्दी अकादमी, मुम्बई ने इस पुरस्कार समारोह को आयोजित किया था। कोरोना महामारी विषय पर अकादमी ने 6 से 14 साल के बच्चों के लिए पेंटिंग और क्विज प्रतियोगिता का आयोजन 5 जुलाई को किया था। पहले पुरस्कार समारोह नवंबर या दिसंबर महीने में आयोजित करने की योजना थी, लेकिन प्रतियोगिता में शामिल बच्चों की विशेष माँग पर इसे जुलाई में करने का फैसला किया गया।

ऑडोटोरियम में सोशल डिस्टेन्सिंग की व्यवस्था की गयी थी। बिना मास्क के किसी को भी ऑडोटोरियम में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। ऑडोटोरियम में सभी एक निश्चित दूरी बनाकर बैठे थे। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री मुख्य अथिति थे। उनके साथ कुछ काबीना मंत्री भी आये थे। मुख्यमंत्री की उपस्थिति की वजह से हर तरफ पुलिस की मौज़ूदगी थी। कला-संस्कृति से जुड़े शहर के नामी-गिरामी कलाकार इस समारोह की शोभा बढ़ा रहे थे। कुछ फिल्मी सितारे भी इस समारोह में शामिल हुए थे, जिसकी वजह से ऑडोटोरियम लगभग भरा हुआ था, जो यह बता रहा था कि अभी भी आमजन के बीच फिल्मी सितारों का आकर्षण कायम है। विजेता बच्चों के स्कूल के प्रिंसिपल को भी अथिति के तौर पर समारोह में बुलाया गया था। सरस्वती वंदना के बाद अथितियों को पुष्पगुच्छ भेंट की गयी। तत्पश्चात् मंच संचालक ने पुरस्कार प्राप्त करने के लिए पहला नाम आशिमा का पुकारा।

पेंटिंग और क्विज दोनों प्रतियोगिताओं में आशिमा ने पहला पुरस्कार जीता था। बेटी का नाम पुकारे जाने पर माँ की आँखों से खुशी के आँसू छलक पड़े।

मुख्यमंत्री के हाथों सर्टिफिकेट और शील्ड प्राप्त करने के बाद आशिमा को मंच संचालक ने अपनी बात रखने के लिए कहा। आशिमा ने सबसे पहले आयोजकों को धन्यवाद दिया। इसके बाद उसने कहा कि मेरी इस उपलब्धि का श्रेय मेरे माता-पिता और छोटी बहन सनाया को जाता है।

आशिमा के स्कूल की प्रिंसिपल स्वाति मैडम को भी दो शब्द बोलने के लिए मंच पर बुलाया गया। प्रिंसिपल मैडम भाषण में शुरू से अन्त तक आशिमा की तारीफ करती रहीं। उन्होंने कहा कि आशिमा पढऩे में बहुत ही ज़हीन है। वह अच्छी आर्टिस्ट भी है। उसका सामान्य ज्ञान का स्तर बहुत ही ऊँचा है। वह पहले भी हिन्दुस्तान टाइम्स, मुम्बई संस्करण द्वारा आयोजित क्विज प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीत चुकी है। वह हमारे स्कूल की शान है। हमें उस पर नाज़ है; आदि-आदि। आशिमा सोच रही थी कि प्रिंसिपल मैडम की सोच में अचानक से कैसे बदलाव आ गया? स्कूल में तो वह हमेशा उसे डाँटती रहती हैं। दूसरे टीचरों में, कल्पना मैडम, जानकी मैडम, सरिता मैडम, गुलेरिया मैडम आदि उसे डाँटा करती हैं; जबकि उसकी कभी कोई गलती नहीं होती है। उसका गुनाह हमेशा इतना ही होता है कि वह या उसकी माँ टीचरों की चमचागिरी करने से परहेज़ करती हैं। वह हमेशा टीचरों का सम्मान करती है। कभी भी पलटकर उन्हें जबाव नहीं देती; जबकि अनेक बच्चे टीचरों को उनके सामने ही खरी-खोटी सुना देते हैं।

आशिमा ने हिन्दी अकादमी, मुम्बई द्वारा आयोजित पेंटिंग और क्विज प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता था। दोनों प्रतियोगिताओं में 10,000 से अधिक प्रतियोगी शामिल हुए थे। इन दोनों प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरस्कार जीतना उसके लिए बड़ी उपलब्धि थी। जब उसने यह खबर अपने पापा को सुनायी, तो वह खुशी से उछल पड़े। पापा बोले, आशिमा मुझे विश्वास था कि इन प्रतियोगिताओं में तुम्हें ज़रूर पुरस्कार मिलेगा; लेकिन प्रथम पुरस्कार मिलेगा, इसके बारे में मैंने कभी नहीं सोचा था। उन्होंने तुरन्त फेसबुक पर और परिवार के व्हाट्स एप ग्रुप में आशिमा उपलब्धि को साझा किया। अपने बॉस, सहकॢमयों एवं दोस्तों के साथ भी उसकी उपलब्धि को शेयर किया।

आशिमा की माँ को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था; क्योंकि उसे स्कूल में कभी भी पेंटिंग में अच्छे नम्बर नहीं मिले थे। पेंटिंग की टीचर अनुराधा मैडम आशिमा को हमेशा डाँटती रहती थीं। वह आशिमा की पेंटिंग की कभी भी तारीफ नहीं करती थीं। हालाँकि आशिमा के पापा टीचर के विचारों से इत्तिफाक नहीं रखते थे। उनका मानना था कि वह अच्छी पेंटिंग बनाती है। वह अक्सर कहा करते थे कि तुम कला की दुनिया में एक दिन ज़रूर अपना नाम रौशन करोगी; लेकिन इसके लिए तुम्हें कड़ी मेहनत करनी होगी।

माँ, पापा की बातों से सहमत नहीं थी। माँ का कहना था कि अगर आशिमा अच्छी पेंटिंग बनाती है, तो क्यों नहीं वह मनीष आवासीय सोसायटी द्वारा आयोजित की जाने वाली पेंटिंग प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतती है? आशिमा और उसका परिवार इसी सोसायटी में रहता था। यह सोसायटी हर साल कला-संस्कृति से जुड़े 4 से 5 कार्यक्रम अवश्य आयोजित करवाती थी। मुम्बई में सोसायटियों द्वारा ऐसे कार्यक्रमों को आयोजित करने का पुराना चलन है। आशिमा के पापा के अनुसार, इस तरह के आयोजनों का मुम्बई की सोसायटियों में होना बहुत ज़रूरी है; क्योंकि महानगरीय जीवन में अधिकांश लोग तनाव से ग्रसित रहते हैं और यहाँ टेलीविजन को छोडक़र मनोरंजन के दूसरे विकल्प उपलब्ध नहीं हैं।

उसके पापा, उसकी माँ को हमेशा चिन्ता करने से मना कहते थे। उनका मानना था कि किसी की प्रतिभा को दबाया नहीं जा सकता है और न ही किसी प्रतियोगिता में हारने से किसी की प्रतिभा कम हो जाती है। हमेशा कोशिश करते रहना ज़रूरी है। इसलिए सोसायटी द्वारा आयोजित पेटिंग प्रतियोगिता में हारने के बाद भी आशिमा के उसके पापा उसका उत्साहवर्धन करते रहते थे और माँ के सामने उसकी पेंटिंग की तारीफ करते थकते नहीं थे। उनके अनुसार, आशिमा में उच्च दर्जे का चित्रकार बनने की अपूर्व क्षमताएँ और सम्भावनाएँ हैं। हालाँकि पापा का हमेशा समर्थन मिलने के बाद भी पिछले साल सोसायटी द्वारा आयोजित पेंटिंग प्रतियोगिता में हारने की वजह से आशिमा बहुत ज़्यादा आहत हो गयी थी। हारने से ज़्यादा वह माँ और सीता आंटी के बीच लड़ाई होने के कारण दु:खी थी। सावन का महीना था। मुम्बई में रोज़ बारिश हो रही थी। बच्चे कई दिनों से अपने घर में कैद थे। बच्चों को रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखने के लिए सोसायटी ने एक पेंटिंग प्रतियोगिता का आयोजन किया। पेंटिंग की थीम बारिश थी। आशिमा ने पूरे उत्साह से प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। उसने पेंटिंग बहुत ही सुन्दर बनायी थी। बावजूद इसके उसे कोई पुरस्कार नहीं मिला। सभी पुरस्कार सोसायटी की सेक्रेटरी सीता ने अपने पहचान वाले प्रतिभागियों को दे दिये। आशिमा रोने लगी। उसकी माँ उसका रोना सह नहीं सकीं। वह बोलीं, तुम्हारे पापा हमेशा बोलते हैं कि तुम बहुत अच्छी पेंटिंग बनाती हो; फिर क्यों तुम्हें कोई पुरस्कार नहीं मिला? माँ बहुत ज़्यादा गुस्से में थीं। वह आवेश में सेक्रेटरी सीता से उलझ गयीं। उन्होंने उस पर प्रतियोगिता में भेदभाव करने के आरोप लगाये; लेकिन सीता पर ज़रा भी असर नहीं हुआ। उल्टा वह आशिमा की माँ से लडऩे लगीं। वह उनसे बोलीं, तुम्हारी बेटी को जब पेंटिंग बनाना नहीं आता है, तो वह क्यों प्रतियोगिता में हिस्सा लेती है? सबसे खराब पेंटिंग तुम्हारी बेटी की है। सच कहूँ तो आशिमा की पेटिंग को पेंटिंग कहना पेटिंग की तौहीन है। आशिमा की माँ बहुत ही भावुक थीं। वह लड़ाई का दबाव नहीं झेल पायीं और रोने लगीं। जबकि वहाँ पर मौज़ूद लोग उनका पक्ष ले रहे थे। सीता की बेटियाँ भी स्वभाव में अपनी माँ की प्रतिलिपि थीं। एक तरफ सीता आशिमा की माँ से लड़ रही थी, तो दूसरी तरफ उसकी बेटियाँ लड़ाई का वीडियो बना रही थीं। आशिमा अपनी माँ को चुप कराने की कोशिश करती है; लेकिन उनका सुबकना कम नहीं होता है। फिर आशिमा माँ को समझा-बुझाकर घर ले आती है।

स्कूल एवं सोसायटी में लोगों के ताने सुन-सुनकर आशिमा बहुत ज़्यादा हतोत्साहित हो गयी थी। वह किसी भी पेटिंग प्रतियोगिता में शामिल नहीं होना चाहती थी। इसलिए जब उसके पापा ने हिन्दी अकादमी, मुम्बई द्वारा आयोजित की जाने वाली पेंटिंग और क्विज प्रतियोगिता के बारे में बताया, तो भी उसने प्रतियोगिता में शामिल होने से मना कर दिया। फिर उन्होंने कहा कि आशिमा यह केवल प्रतियोगिता नहीं है, यह तुम्हें अपने को साबित करने का अवसर भी है। उच्च स्तर के प्रतियोगिताओं में पक्षपात नहीं किया जाता। अगर तुम्हें अपनी कला और ज्ञान पर भरोसा है, तो ज़रूर प्रतियोगिता में भाग लो। अगर प्रतियोगिता को जीतने में तुम कामयाब होती हो, तो तुम्हारे प्रति लोगों का नज़रिया बदल जाएगा। अंतत: पापा के समझाने पर आशिमा प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए मान जाती है। आशिमा को अपने पापा पर पूरा भरोसा था; क्योंकि उनको कला की अच्छी समझ थी। पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में भी वह अच्छी दखल रखते हैं।

आशिमा को किताबें पढऩे का भी बहुत शौक है। वह हर महीने पापा को अपनी पसन्द की किताबें खरीदने के लिए कुछ किताबों की सूची देती थी या फिर पापा को ज़बरदस्ती इन-आर्बिट मॉल ले जाती थी; ताकि वह मॉल में स्थित क्रॉसवर्ड की दुकान से किताबों की खरीददारी कर सके। क्रॉसवर्ड में अंग्रेजी किताबों की एक विस्तृत शृंखला मौज़ूद थी। इस दुकान में पाँच रैक सिर्फ बच्चों की किताबों से भरी थीं। अमूमन पापा उसकी पसन्द की किताबें खरीद देते थे; पर कभी-कभार मना भी कर देते थे। फिर भी वह अपने पैसों से हर महीने कुछ किताबें अवश्य खरीदती थी। पापा पॉकेट मनी नहीं देते थे; लेकिन वह हर महीने 1500 से 2000 रुपये लेखन से कमा लेती थी। वह बच्चों की समस्याओं पर नियमित तौर पर अंग्रेजी अखबारों में लेख लिखती थी। कविताएँ लिखने का भी शौक था उसे। एक लेख से उसे 1000 रुपये और एक कविता से 500 रुपये मानदेय मिलता था। वह हर महीने कम-से-कम एक लेख और एक कविता ज़रूर लिख लेती थी।

लेख लिखने के क्रम में आशिमा सम्बन्धित विषय का गहन अनुसंधान करती थी। आशिमा को समाचार पत्र और पत्रिका पढऩे की भी आदत थी, जिससे वह सम-सामयिक विषयों से अवगत रहती थी; जिसका फायदा उसे लेखन में मिलता था। कविता वह तभी लिखती थी, जब मौसम बहुत खुशनुमा होता था या वह बहुत खुश होती थी। चूँकि मुम्बई का मौसम हमेशा खुशनुमा रहता था और घर में भी वह लाडली थी। इसलिए उसे कविता लिखने में कभी कोई परेशानी नहीं होती थी।

आशिमा इनसाइक्लोपीडिया दो बार पढ़ चुकी थी। मनोरमा ईयर बुक का नया संस्करण वह हर साल पढ़ती थी। कहानी की किताबें तो वह नियमित तौर पर पढ़ती थी। हिन्दी की किताबें पढऩे में आशिमा की कोई खास रुचि नहीं थी। फिर भी नंदन, बाल भारती, चंपक, पंचतंत्र और बीरबल की कहानियाँ यदा-कदा वह पढ़ती रहती थी। अंग्रेजी भाषा से उसे खास लगाव था। कई अंग्रेजी कहानी की किताबें वह पढ़ चुकी थी और उसकी पढ़ी हुई किताबों की सूची में हर महीने 8 से 10 नयी किताबें जुड़ जाती थीं। एलन मूरे की बैटमैन द किलिंग जोक, क्रिस वेयर की जिमी कोरीगन द स्मार किड ऑन अर्थ, क्रेग थॉमसन की ब्लेंकेट्स, ब्रायन के वॉगन की सागा, टॉम पारकिसन मॉर्गन की किल सिक्स बिलियन डेमन्स, एलिसन बेचडेल की फन होम अ फैमली ट्रेजी कॉमिक आदि से आशिमा विशेष रूप से प्रभावित थी। आशिमा के सामान्य ज्ञान या उसके लेखन या फिर उसके पेंटिंग करने के गुण आदि से टीचर भली-भाँति परिचित थे। बावजूद इसके टीचर जान-बूझकर उसकी प्रतिभा को नज़रअंदाज़ करते थे। वे उन बच्चों को तरजीह देते थे, जिनके अभिभावकों से उनकी जान-पहचान होती थी या जिनके बच्चों को वे ट्यूशन पढ़ाते थे या जिनके अभिभावक उन्हें गिफ्ट देते थे। बच्चों का भी ग्रुप बना हुआ था। इस ग्रुप के कुछ बच्चे आशिमा को नियमित रूप से बुली करते थे और ऐसा करने के लिए टीचर उन्हें शह देते थे। इसी वजह से आशिमा को कभी स्कूल के सालाना कार्यक्रम में उभरते लेखक का पुरस्कार नहीं दिया गया, जबकि वह स्थापित लेखिका थी। स्कूल में होने वाले क्विज में भी आशिमा को कभी शामिल नहीं किया जाता था।

आशिमा को अच्छी तरह से अहसास हो गया था कि इस दुनिया में जीने के लिए खुद को मानसिक रूप से मज़बूत रखना ज़रूरी है। अपने अधिकारों को पाने के लिए चुपचाप रहना समाधान नहीं है। सिर्फ प्रतिभाशाली होना भी काफी नहीं है। अपने को साबित करने एवं अपने गुणों की मार्केटिंग करने की ज़रूरत है। शिक्षा आज कारोबार बन गयी है। गुरु-शिष्य की परम्परा बीते ज़माने की बात हो गयी है। टीचर से बहुत अपेक्षा रखना बेवकूफी है। बच्चे पढ़ रहे हैं या नहीं? इससे मतलब न तो टीचर को है और न ही स्कूल संचालकों को। सभी को सिर्फ पैसा चाहिए। तन-मन-धन से टीचरों की सेवा करने वाले बच्चे ही व्यावहारिक हैं, आदि-आदि।

लोगों की लगातार उपेक्षा सहने की वजह से आशिमा कम उम्र में ही परिपक्व बन गयी थी। उसने कम उम्र में ही हर तरह के उतार-चढ़ाव को देख लिया था। लोगों की फितरत को वह अच्छी तरह से समझने लगी थी। वह ज़हीन और प्रतिभाशाली थी; लेकिन सिस्टम ने उसकी प्रतिभा को दबा दिया था। उसका खुद पर से भरोसा उठने लगा था; लेकिन इस जीत ने उसके अन्दर के आत्मविश्वास को फिर से जगा दिया। सभी के नज़रिये को भी इस जीत ने पूरी तरह से बदल दिया। अब वह टीचरों, दोस्तों और रिश्तेदारों की आँखों में अपने प्रति सम्मान के भाव को साफ तौर पर देख पा रही थी।

बढ़ रहा है लिवर सिरोसिस का कहर

खानपान पर ध्यान न देना और लापरवाही बरतने से शरीर के कई अंगों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इस अनहेल्दी लाइफ स्टाइल को फॉलो करने के कारण अधिकतर लोग कई प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं। हम जिस भी खाद्यान्न का सेवन करते हैं, हमारा लिवर (यकृत) उस खाद्यान्न को पचाकर उसे शरीर को पोषण देने वाले रस में परिवर्तित कर देता है। लिवर हमारे शरीर में मौज़ूद सभी अम्लीय-क्षारीय पदार्थों को बाहर निकालने के साथ-साथ हमारे पाचन तंत्र के सही से कार्य करने का भी खयाल रखता है। लिवर हमारे शरीर के कई कार्यप्रणालियों को बेहतरीन तरीके से चलाने का काम करता है।

हमारे शरीर में ज़रूरी पोषक तत्त्वों को विभिन्न अंगों तक पहुँचाता है। वैसे तो हमारे लिवर के आसपास फैट (वसा) जमा रहता ही है, परन्तु जब इसके सेल में फैट की मात्रा अधिक हो जाए, तब लिवर बीमारी से ग्रसित हो जाता है और सही से कार्य करने में मुश्किलों का सामना करता है। लिवर को क्षति खानपान व अनहेल्दी आदतों से होती है। हाल ही में दृश्यम और मदारी फिल्मों के डायरेक्टर निशिकांत कामत का 50 वर्ष की आयु में निधन हुआ है। वह लिवर की खतरनाक बीमारी ‘लीवर सिरोसिस’ से पिछले दो साल से पीडि़त थे। लिवर सिरोसिस एक गम्भीर चिकित्सा स्थिति है। इस स्थिति में लिवर को हुए दीर्घकालिक नुकसान के कारण यह अपना कार्य ठीक से नहीं करता। धूम्रपान, शराब हेपेटाइटिस इत्यादि कारकों का सेवन करने से लिवर को होने वाले नुकसान से होता है। इस स्थिति में यह स्वयं को ठीक करने की कोशिश में बने निशान ऊतक बनाता है। निशान ऊतक की संख्या बढ़ जाने से यह अपना कार्य करने में धीरे-धीरे काम करना बन्द कर देती है, और तब स्थिति घातक बन जाती है। इस बीमारी को विकसित होनें में महीनों व वर्षों का समय लगता है।

सन् 2015 में 2.8 मिलियन लोग सिरोसिस से प्रभावित हुए थे और 1.3 मिलियन लोगों की इसके कारण मृत्यु हो गयी थी। वैसे तो सिरोसिस को समय रहते उपचार द्वारा रोका जा सकता है, लेकिन लगभग 15-20 फीसदी लोगों को इस स्थिति के बारे में तभी पता चलता है, जब यह चरम स्थिति में होता है। विश्व गैस्ट्रोएंटरोलॉजी संगठन के अनुसार, वर्ष 2001 में लिवर सिरोसिस से होने वाली मृत्यु दर लगभग 771,000 थी। जहाँ तक लिवर सिरोसिस के उपचार का सम्बन्ध है। यह स्थिति आपके लिवर को हुए नुकसान पर निर्भर करती है। दवाओं को पहले निर्धारित किया जाता है और फिर अन्तिम चरण में एक लिवर ट्रांसप्लांट सर्जरी की जाती है। इस साल (2020 में) सिरोसिस दुनिया में होने वाली मौतों का 12वाँ प्रमुख कारण बना है। लेकिन हमारे देश में लिवर ट्रांसप्लांटेशन करवाना बेहद मुश्किल कार्य है। हमारे देश में प्रत्येक वर्ष दो लाख से ज़्यादा लोग लिवर ट्रांसप्लांट का इंतज़ार करते हैं; लेकिन उनमें से केवल 1200-1500 लोग ही इसे प्राप्त कर पाते हैं।

इस बीमारी के लक्षण

वैसे तो शुरुआत में इस बीमारी से ग्रसित रोगी को किसी भी प्रकार के लक्षण का अनुभव नहीं होता है। लिवर को बड़े पैमाने पर क्षति हो जाने के बाद ही इसके लक्षण देखने को मिलते हैं, जिसमें ग्रसित व्यक्ति थकान, मितली (जी मिचलाने), भूख न लगने, दिन-प्रतिदिन वजन घटने, खुजली होने, हथेलियों में लालिमा होने, पीले रंग की आँखें और त्वचा होने, महिलाओं में एब्सेंट पीरियड्स, भ्रम, सुस्त रहने, उलटी में खून आने, काले रंग का मल होने, गहरे पीले रंग का मूत्र होने, घुटनों व पैरों में सूजन होने जैसी परेशनियों का सामना करता है।

कैसे बचें

लीवर सिरोसिस से पीडि़त व्यक्ति शराब व धूम्रपान के सेवन से बचें, रोज़ाना कम-से-कम 3 से 4 किलोमीटर पैदल चलें, विटामिन-सी से भरपूर आहार लें, हरी पत्तेदार सब्जियाँ खाएँ, आहार में वसा का सेवन कम करें, नियमित रूप से व्यायाम करें और हेपेटाइटिस के जोखिम को कम करें।

योगासनों से लिवर होगा स्वस्थ

योगासन हमारे शरीर के लिए बेहद ज़रूरी हैं, परन्तु हम आलस के चलते या जानकारी न होने की वजह से योग नहीं करते या फिर मेहनत की वजह से योगासनों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। लेकिन यदि प्रतिदिन योग किया जाए, तो योग करना एक स्वस्थ लिवर के लिए, बल्कि पूरे शरीर के लिए बेहद फायदेमंद सिद्ध हो सकता है। लिवर को मजबूत बनाये रखने के लिए कुछ योगासन इस प्रकार हैं :-

नौकासन : इस आसन को करने के लिए शवासन की मुद्रा में लेटें। दोनों हाथों को कमर से सटाकर, धीरे से एड़ी व पंजों को मिलाएँ। हथेली व गर्दन को ज़मीन पर सीधा रखें। दोनों पैरों के साथ-साथ गर्दन और हाथों को धीरे-धीरे ऊपर उठाएँ और पूरा वजन अपने हिप्स पर डालें। कम-से-कम 30 सेकेंड तक इस अवस्था में रहे और फिर वापस शवासन की मुद्रा में आ जाएँ।

उष्ट्रासन : वज्रासन की अवस्था में बैठने के बाद घुटनों के सहारे खड़े हो जाएँ। गहरी साँस लेते हुए पीछे की ओर झुकते हुए बायें हाथ से बायें पैर की एड़ी व दायें हाथ दायें पैर की एड़ी को पकड़ें। मुँह आसमान की तरफ रखें, तथ इस स्थिति में रहकर शरीर का भार हाथ और पैर पर डाले। कुछ मिनट तक इस अवस्था में बने रहें और इस आसन को तीन से चार बार करें।

भुजंगासन : पेट के बल सीधे लेटेें। पैर के बीच थोड़ी दूरी रखते हुए उन्हें तंग रखें। हाथों को छाती के पास लाएँ और हथेलियों को नीचे टिकाएँ। गहरी साँस लेते हुए नाभि तक के हिस्से को ऊपर उठाते हुए आसमान को देखें। थोड़े समय यह आसन करने के बाद फिर प्रारम्भिक अवस्था में आएँ।

कपालभाति : इसे करने से पूर्व पद्मासन, वज्रासन व सिद्धासन में बैठें। गहरी साँस लें और आठ से 10 सेकेंड तक अन्दर रखें, फिर धीरे से नाक के द्वारा साँस छोड़ें। इस योग को रोज़ाना बारह से पंद्रह मिनट तक करें।

आयुर्वेदिक उपचार

भोजन में तेल, मसाले अधिक मात्रा में खाने और अत्यधिक शराब पीने से लिवर खराब होता है। पेट से सम्बन्धित सभी परेशानियों का कारण लिवर में गड़बड़ी होना है। खाने पर ध्यान न देना इसका सबसे बड़ा कारण है। इसके अंतर्गत लिवर फैटी होने के साथ-साथ सूज जाना और उसमें इंफेक्शन हो जाता है। इससे खाना भी ठीक से नहीं पचता। लिवर की अनदेखी करना बड़ा खतरा पैदा कर सकता है। लिवर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए स्वामी परमानंद प्राकृतिक चिकित्सालय के प्रवक्ता डॉक्टर सुबोध भटनागर ने कुछ आयुर्वेदिक उपाय बताये हैं :-

एक चम्मच एप्पल साइडर विनेगर और शहद को एक गिलास पानी में मिलाकर दिन में दो से तीन बार इसका सेवन करें। यह शरीर में विषैले पदार्थों को बाहर निकालता है।

पपीता रोज़ाना खाएँ। यह पेट सम्बन्धी सभी परेशानियों से निजात दिलाता है। खासकर लिवर सिरोसिस में यह बेहद लाभकारी है।

रोज़ाना चार से पाँच आँवले खाएँ। यह विटामिन-सी का अच्छा स्रोत है।

रात को सोने से पहले दूध में हल्दी मिलाकर पीने से हैपेटाइटिस बी तथा हैपेटाइटिस सी के कारण होने वाले वायरस का बढऩे से रोकता है।

पालक और गाजर का रस मिलाकर पीने से भी लिवर सिरोसिस में फायदा मिलता है।

मुम्बई के भाइयों के गणपति

मुम्बई का एक समय आराम से था। हर विभाग में दादा लोग हुआ करते थे। यह दादाजी आज के भाई लोगों से अलग हुआ करते थे। वास्तव में दादा भाई में तब्दील होना शुरू नहीं हुए थे। दादा के पास दादा के समानांतर एक सरकार हुआ करती थी। दादाजी आमतौर पर अन्याय नहीं करते थे। पुलिस बल ने भी दादा को माना था।

दादा के पास दादा के क्षेत्र में कई घटनाओं और मामूली घटनाओं की रिपोर्ट होती थी और ज़रूरत पडऩे पर अपराध नियंत्रण पुलिस विभाग दादा की मदद लेता था। उस समय कोई भी यह पता लगाने के लिए नहीं जाता था कि दादा क्या कर रहे थे। दादा गरीबों की सहायता के लिए दौड़ते थे। क्षेत्र में दादा के आदेशों का पालन किया जाता था। यहाँ तक ​​कि दादा का आदेश आने पर एक कौड़ी चुंबक भी पाँच से 10 हज़ार तक आसानी से उड़ाता था।

दादा की सामाजिक गतिविधियाँ लोगों की नज़र में थीं। कई दादाओं के पास एक व्यायामशाला थी। वह खेल मैचों के प्रायोजन को स्वीकार करते थे। जब सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत हुई, तो दादा अपने क्षेत्र में त्योहारों के लिए बहुत दान करते थे।

अगला दादाजी समय के साथ बदल गया। उसका पुलिस से सम्पर्क टूट गया। उन्हें राजनीतिक समर्थन मिल रहा था। उससे यह कई अन्य (अ) व्यवसायों से जुड़ा था। वह भाई बन गया। जब वह एक भाई बन गया, तो उसने लोगों से सम्पर्क खो दिया। लेकिन उनका एकमात्र आशीर्वाद इन उपक्रमों तक ही रहा। भाई के प्रशिक्षण में मण्डली वह थी, जो गतिविधियों का प्रबन्धन करती थी। तो इस अद्भुत घटना के लिए धन जुटाने के नये तरीके उपलब्ध हो गये।

यहीं से हाल ही में संगठित अपराध शुरू हुआ था। पुलिस से मिली जानकारी के अनुसार, ये संगठित गिरोह गणेशोत्सव मण्डल में धन उगाही करने वालों में सबसे आगे थे। भविष्य में गिरोह ऐसे चतुर युवाओं को अपनी छतरियों के नीचे ले जाएगा।

विभिन्न क्षेत्रों में संगठित गिरोहों के वर्चस्व के बाद संगठित गिरोह के नेता उदार हाथों से अपने क्षेत्र में सार्वजनिक गणेशोत्सव की मदद करते थे, जो आज भी प्रायोजकों के रूप में जारी है; उन त्योहारों को उस भाई के गणपति के रूप में जाना जाता है। विभिन्न गिरोहों के संघ अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय थे। सन् 1997-98 के आसपास राजा गणेशोत्सव के रूप पहचाने जाने वाले मण्डल के अध्यक्ष की हत्या अश्विन नाइक गिरोह ने उनके घर के पास कर दी थी। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि अध्यक्ष ने अरुण गवली गिरोह को एक टिप दी थी कि जब अश्विन नाइक अदालत में लाया जाएगा, तब उसकी हत्या करनी है। उस टिप के अनुसार, अश्विन नाइक को जाल में फाँसकर गणेश भोसले वकील ने योजना बनाकर रविंद्र सावंत के ज़रिये उस पर गोलियाँ चलायी थीं।

सन् 1996 में ऐसे ही एक बदला लिया गया… माहिम पब्लिक गणेशोत्सव मण्डल के एक कार्यकर्ता राजेश गुप्ता को गोली मार दी गयी। प्राथमिक जाँच में पुलिस ने तीन सम्भावनाएँ सुझायीं- पेशेवर प्रतियोगिता, पूर्वाग्रह और प्रतिद्वंद्वी गिरोह। बाद में यह स्पष्ट हो गया कि राजेश गुप्ता भाजपा के कार्यकर्ता थे। वह सन् 1992 में कार सेवक के रूप में अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस में शामिल हो गये थे। उनकी हत्या के पीछे छोटा शकील गिरोह था।

सार्वजनिक गणेशोत्सव मण्डप में मामा म्हस्के की हत्या कर दी गयी। त्योहार खत्म हो चुका था; लेकिन तम्बू अभी भी गढ़ा था। पुलिस ने निष्कर्ष निकाला था कि हत्या गवली नाइक विवाद के कारण हुई थी। वह मुम्बई सेंट्रल-बीआईटी चॉल के इलाके में रहते थे।

यह केवल तीन प्रतिनिधिक उदाहरण हमने दिये हैं और कई उदाहरण पुलिस रिकॉर्ड पर होंगे। सार्वजनिक गणेशोत्सव ट्रस्टों द्वारा मनाया जाता है। उस पर सरकारी तंत्र का ध्यान है। लोक न्यास अधिनियम के अनुसार, त्योहार के लिए एकत्र किये गये धन और खर्च को संतुलन में रखकर उन्हें सरकार को प्रस्तुत करना होता है। मुम्बई के कुछ गणेशोत्सव के लिए जुटायी गयी धनराशि आँख खोल देने वाली थी, इसलिए उनकी पूछताछ की जाती। लेकिन पुलिस जाँच में यह भी पता चला कि उनके धन उगाहने के तरीके कानूनी थे। लेकिन केवल संदेह था कि कैसे दाता ने लाखों रुपये का भुगतान किया? पर इस लेकर कभी कोई कार्रवाई नहीं की गयी इसका क्या कारण होना चाहिए?

इस मुद्दे पर कई पुलिस अधिकारियों से बात करने के बाद घटना के प्रति उनका रवैया स्पष्ट हो गया। उनकी राय है कि यह एक त्योहार है, युवाओं में उत्साह है। भले ही कानून का उल्लंघन हो; लेकिन हम इसे अनदेखा करते हैं। उत्साह से यदि एक बच्चा आक्रामक हुआ, तो पुलिस एक या दो चाँटे मारकर मामला समाप्त कर दे सकती है। पर यदि उस युवक पर कोई अपराध दर्ज किया जाता है, तो वह जीवन से बर्बाद हो सकता है। वह क्या कर रहा है? उस उम्र में उसे भी ज्ञात नहीं होता। पर हम तो समझदार हो सकते हैं न! क्योंकि फिरौती वसूलने के लिए बल से धन निकालना अपराध है। हालाँकि इस तरह की चेतावनी देने के बाद पुलिस विभाग बच्चे के व्यवहार पर पूरा ध्यान देता है; वह भी उसकी जानकारी के बिना ही।

विज्ञापन सार्वजनिक त्योहार मनाने वाले मण्डलों के लिए धन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। लेकिन अक्सर त्योहार के पहले तस्वीरों वाले बोर्ड और होर्डिंग लग जाते हैं। सन् 1997-98 से पुलिस ने इन होर्डिंगों को हटाने के लिए एक अभियान शुरू किया। इस पर कुछ जगहों पर विरोध-प्रदर्शन हुए; लेकिन पुलिस ने इन्हें तोडऩे का फैसला ले ही लिया था। वहीं कुछ डॉन राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं से ग्रस्त थे। उस समय शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे का सरकार पर कंट्रोल था। लेकिन क्या होगा अगर किसी डॉन का नाम अनजाने में एक त्योहार से जुड़ा हो? तो पुलिस क्या कार्रवाई कर सकती है?

मुम्बई में दो त्योहार हैं, जिनके साथ डॉन मण्डली के नाम सीधे जुड़े थे, बल्कि इसे जोड़ा जा रहा है। मुम्बई के सह्याद्रि क्रीड़ा मण्डल का गणेशोत्सव चेंबूर क्षेत्र के तिलकनगर में मनाया जाता है। संगठन इस क्षेत्र में सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को अंजाम देता है। हालाँकि वह मण्डल के गणपति हैं, उन्हें नाना उर्फ ​​छोटा राजन उर्फ ​​राजन निकलजे के गणपति के रूप में जाना जाता है। छोटा राजन की माँ की कई तस्वीरें लगभग 25 साल पहले एक स्मारक संस्मरण में प्रकाशित हुई थीं।

इस सह्याद्रि गणेशोत्सव मण्डल की विशेषता यह है कि हर साल भारत में एक प्रसिद्ध मंदिर की प्रतिकृति यहाँ बनायी जाती है। स्वाभाविक रूप से इसे देखने के लिए लोगों की लम्बी-लम्बी कतारें लगती हैं। चेंबूर तिलक नगर मैदान में जून से उत्सव की तैयारी शुरू हो जाती है। वस्तुत: प्रतिकृति बनाने के लिए सैकड़ों कारीगर कड़ी मेहनत कर रहते हैं। हालाँकि इस साल कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते उतना शानदार दिव्य सेट नहीं होगा, जितना कि हर साल लगता है।

ऐसा कहा जाता है कि त्योहार के लिए फण्ड जुटाने के लिए छोटा राजन के गुर्गे ज़िम्मेदार होते हैं। लेकिन इस इलाके से ऐसी कोई शिकायत नहीं थी। 10 दिनों के लिए लोग गणपति और इसकी सजावट को देखने के लिए दिन-रात कतार में लगते हैं। वास्तव में त्योहार स्थल के प्रबन्धन में सैकड़ों कार्यकर्ता शामिल होते हैं।

ऐसा माना जाता था कि छोटा राजन भले ही मलेशिया में है, पर त्यौहार के दौरान कम-से-कम एक दिन गणपति दर्शन के लिए ज़रूर आता था; वह भी सख्त गोपनीयता बनाये रखकर। उस समय इस बात पर मतभेद था कि वास्तव में छोटा राजन कहाँ था। कुछ लोगों के अनुसार, वह मलेशिया के तट पर एक नौका में है। बैंकॉक में उन पर हमला हुआ था, जिसमें उनके दोस्त रोहित वर्मा मारे गये थे। पुलिस के मुताबिक, छोटा राजन पर समुद्र में हमला किया गया था। उस समय वह किसी तरह बच गया था। सन् 2014 में भाजपा सरकार बनने के कुछ दिनों के भीतर उसे बाली के द्वीप पर सीबीआई द्वारा पकड़ा गया था।

उसके बाद उसे मुम्बई लाया गया। लेकिन इन छ: वर्षों के दौरान यह नहीं देखा गया कि छोटा राजन गणपति के रूप में तिलकनगर आया था या विशेष रूप से उसे वहाँ लाया गया था। अब इस गणेशोत्सव की डोर नवयुवकों के हाथ में है। इस अभियान के युवा कार्यकर्ता राहुल वालूंज के अनुसार, अब इस सह्यादि क्रीड़ा मण्डल से छोटा राजन का कोई नाता नहीं है। फिर भी उन दिनों के अशोक सातर्डेकर आज भी मण्डल में मार्गदर्शक के रूप में नज़र आते हैं।

एक और गणपति उत्सव, जिसे मुम्बई में माफिया प्रमुख के रूप में भी जाना जाता है, वह वर्धा भाई के गणपति हैं। वर्धा के गणपति पहले दिन से सबसे अलग स्थापित हुआ। यह मुम्बई के माटुंगा में स्थापित किया जाता था। आइए, सबसे पहले देखते हैं कि वर्धा भाई कौन है? जिनके नाम से यह गणपति जाना जाता है।

वर्धा उर्फ ​​वर्धा भाई उर्फ ​​वर्धराजन मुदलियार तमिलनाडु से मुम्बई अपना नसीब बनाने आये थे। मुम्बई में आते ही वर्धा भाई ने यार्ड की मालगाडिय़ाँ लूटने का धन्धा शुरू किया। वैसे वह मुम्बई में कैसे मशहूर हुए? इसके बारे में कई किंवदंतियाँ हैं। कुछ का कहना है कि वह मुम्बई के डॉक में हुआ करता था। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि वह कोलीवाड़ा, माटुंगा में एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने मौका मिलते ही पूरी व्यवस्था को ही निगल लिया था। उन्होंने धारावी पर कब्ज़ा कर लिया और बाद में दक्षिण भारतीयों को वहाँ खाली पड़ी ज़मीनों पर कब्ज़ा करने के लिए तामिलनाडु से लाये। वह तमिल लोगों के मसीहा बन गये। उन्होंने वहाँ अवैध व्यापारों को खोलने के लिए अपने लोगों को प्रोत्साहित किया। वर्धा भाई इन सभी नाजायज़ ट्रेडों से रॉयल्टी प्राप्त करते थे। वह क्षेत्र के सभी आपराधिक साम्राज्यों का सम्राट बन चुके थे।

सन् 1975 में आपातकाल के दौरान उन्हें जेल भेज दिया गया। वहाँ उनकी मुलाकात हाजी मस्तान मिर्ज़ा, करीम लाला, लल्लू जोगी, सुक्कुर बखिया जैसे तस्करों से हुई। उन भाइयों का हवालात में रौब देखकर वर्धा अभिभूत हुए और उनके दोस्त बन गये। वर्धा भाई के रूप में उनका सम्मान बढ़ता गया।

वर्धा के गणपति के लिए मुम्बई के माटुंगा में एक शानदार मण्डप स्थापित किया गया था। जहाँ कई नामी-गिरामी हस्तियों के साथ-साथ फिल्मी दुनिया के कलाकार भी रातों में अपनी मौज़ूदगी दर्शाते थे। जैसे शत्रुघ्न सिन्हा, संजय दत्त वगैरह। यह इतना बड़ा था कि यातायात अवरुद्ध हो जाता था। उसी गणपति उत्सव के मण्डप में दिन-दहाड़े नोटों के साथ जुआ खेला जाता था। (अब तो सुनने ने यह आया है कि जुए के गैंबलर लोग मण्डलों को ही 10 दिनों के लिए खरीदते हैं।)वर्धा भाई का यह त्योहार माटुंगा स्टेशन के पास मनाया गया था। इस गणपति का अन्तर यह था कि अन्य सभी सार्वजनिक गणपति अनंत चतुर्दशी पर विसर्जित होते थे।

सन् 1987-88 के आसपास यादव राव पवार को इस क्षेत्र में उपायुक्त नियुक्त किया गया था। उन्होंने इन सभी शिकायतों को एकत्रित किया। उन्होंने इस विभाग के नगर उपायुक्त से मुलाकात की और शिकायतों के निवारण के बारे में लिखित निर्देश दिये, जिन्हें नगर पालिका स्तर पर हल करने की आवश्यकता थी। उसी समय पुलिस विभाग द्वारा एक नोटिस भी जारी किया गया था। जैसा कि वर्धा भाई और यादव राव पवार के बीच की मित्रता आज भी जगज़ाहिर है, वर्धा भाई ने उस समय स्थापित श्रीगणेशोत्सव समिति के दरवाज़े पर एक अन्तिम उपाय के रूप में इजाज़त के लिए दस्तक दी। लेकिन विभाग ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अगर गणपति को स्थापित करने की अनुमति दी होती, तो हम इस मुद्दे को सहयोग करते। पर अनुमति नहीं दी गयी है। नियमों का पालन सभी को करना होता है।

यादव राव पवार और वर्धराजन मुदलियार के बीच इस गणपति पंडाल को लेकर विवाद इसके बाद भी जारी रहा। वक्त के चलते वर्धा भाई गाँव भाग गया। उन्हें सहायक पुलिस आयुक्त ललित कुमार गोडबोले ने गाँव से पकडक़र मुम्बई लाया। उन पर कार्रवाई हुई, वर्धनराजन का दिखावा चला गया। फिर से वह गाँव गया, और बाद में प्राकृतिक कारणों से मर गया। वर्धा भाई दिल से गणेश भक्त था; लेकिन अगर उनके पारिवारिक मामलों पर ध्यान दिया जाए, तो कोई भी आश्चर्य करता है कि ऐसा क्यों हुआ? (एक दिन हम वर्धा भाई को मिलने उनके माटूंगा के घर पर चले गये। तब पहले हमारी मुलाकात उनकी बीवी से हुई जो कि उस वक्त घर के अन्दर भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति को पूजते हुए उस मूर्ति के पैरों से सर तक फूलो को चढ़ाकर अपने पति की सलामती की दुआ माँग रही थीं। यह नज़ारा हमारे लिए कुछ दिल को छू लेने वाला था।)

वर्धा भाई के मौत के कुछ दिनों बाद उनके बेटे को पुलिस ने हिरासत में लिया था। उस पर संगीन आरोप लगाये गये थे। उन्होंने कहा कि उनके पिता की मृत्यु के बाद हमने पैसे खो दिये और हमें इसके लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी। वर्धा भाई की जीवनी पर कई फिल्में बनीं, जिसमें से हिन्दी में बनी विनोद खन्ना, माधुरी दीक्षित और फिरोज़ खान अभिनीत दयावान फिल्म काफी हिट साबित हुई, जिसमें वर्धा भाई का ही चरित्र दयावान के रूप में चित्रित किया गया है।

दूसरी ओर ठाणे ज़िले के मीरा रोड में भी एक नामी भाई का जन्म हो चुका था। वासुदेव नांबियार। उनके यहाँ भी बड़ी धूमधाम से गणेशोत्सव मनाया जाता था। वह भाईगीरी करते-करते शिवसेना के नेता भी बने, जिनके गणेश के भी जैकी श्रॉफ जैसों के साथ कई अभिनेता भी बप्पा के दर्शन करने जाते थे। उन दिनों मीरा रोड भाइंदर में शमशुनिसा गुलाम रसूल पटेल गैंग का दबदबा था। उनके बेटे तांत्या और आसिफ पटेल ने पुलिस की नाक में दम कर रखा था। जो वक्त के चलते राकांपा के नेता बने, तो वासुदेव नांबियार अपनी भाई गिरी पर विराम लगा दिया।

यह उस समय के भाइयों के गणेशोत्सव की कहानी है। पर अब के गणेश उत्सवों की कहानी अब बहुत ही अलग है।

(उपरोक्त विचार लेखक के अपने हैं।)

राजनीति के कद्दावर नेता का अवसान

शायद सन् 2018 में आरएसएस के कार्यक्रम में जाना ही एक ऐसा फैसला था, जो खाँटी कांग्रेस विचारधारा के प्रणब मुखर्जी ने अपने जीवन में पार्टी के सिद्धांतों से हटकर किया। हालाँकि तब वह राष्ट्रपति होने के बाद अपना कार्यकाल पूरा कर चुके थे। अलवत्ता वह आत्मा से कांग्रेसी रहे और एक बार नाराज़ होने के बाद अपनी पार्टी भी बनायी; लेकिन फिर कांग्रेस में ही लौट आये। हालाँकि अपनी पार्टी का नाम उन्होंने कांग्रेस से ही रखा- ‘राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस’। समाजवादी इसलिए कि वह नेहरू के समाजवादी दर्शन से अपनी राजनीति के अंतिम दिन तक प्रभावित रहे।

यह भी आश्चर्य की ही बात है कि उन्हें देश का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ विपक्षी भाजपा के शासन काल में मिला। बहुत-से लोग मानते हैं कि कांग्रेस की अपील के बावजूद आरएसएस के कार्यक्रम में जाने के कारण आरएसएस ने मोदी सरकार से इसकी सिफारिश की थी। हालाँकि इसमें भी कोई दो-राय नहीं कि प्रणब दा अपने आप में देश की राजनीति की बड़ी शिख्सयत थे। प्रणब दा भारतीय राजनीति के उन बिरले नेताओं में से हैं, जो विवादों से बचे रहे। कभी भी उन्हें लेकर किसी विरोधी तक ने भी कटु टिप्पणी नहीं की।

प्रणब इंदिरा गाँधी से लेकर मनमोहन सिंह तक की सरकारों में मंत्री रहे। राजनीति में उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार माना जाता रहा; लेकिन दो बार यह पद बहुत करीब आकर उनसे दूर सरक गया। वित्त मंत्री के नाते उनकी तारीफ भारत से बाहर भी हुई। हालाँकि सच यह भी है कि बतौर वित्त मंत्री प्रणब ने नेहरू के समाजवाद के ढाँचे के भीतर ही देश की अर्थ-व्यवस्था को साधा। देश में खुली अर्थ-व्यवस्था का रास्ता तो सन् 1991 में प्रधानमंत्री बने नरसिम्हा राव और उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने खोला था। लेकिन इसके बावजूद प्रणब दा देश की बड़ी राजनीतिक शिख्सयत थे। राष्ट्रपति बनने से पहले कांग्रेस से बाहर दूसरे दलों के नेताओं में भी उनका बड़ा सम्मान था। राष्ट्रपति के नाते भी कमोवेश कोई बड़ा विवाद उनसे नहीं जुड़ा। मोदी नीत एनडीए सरकार के साथ उनके सम्बन्ध धुर विपरीत राजनीतिक विचारधारा के बावजूद अच्छे रहे। कई मौकों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी और कुछ मौकों पर प्रणब ने भी मोदी की सराहना की। यह दुर्भाग्य ही है कि अच्छी-भली सेहत के बावजूद वह अचानक बीमार हो गये। उन्हें ब्रेन ट्यूमर की सर्जरी के लिए सेना के अस्पताल में भर्ती किया गया था, जहाँ जाँच के दौरान उन्हें कोरोना पॉजिटिव भी पाया गया। ब्रेन ट्यूमर के लिए उनकी सर्जरी तो कर ली गयी; लेकिन वह अचानक इसके बाद कोमा में चले गये और आिखर तक उनकी यह बेहोशी नहीं टूटी। इस तरह देश का एक बड़ा नेता 31 अगस्त को 84 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा हो गया।

प्रणब का जीवन

प्रणब मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर, 1935 को पश्चिम बंगाल के वीरभूम ज़िले में किरनाहर शहर के निकट स्थित मिराती गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में पिता कामदा किंकर मुखर्जी और माता राजलक्ष्मी मुखर्जी के घर हुआ। उनके पिता सन् 1920 से ही कांग्रेस में सक्रिय थे। वह पश्चिम बंगाल विधान परिषद् में सन् 1952 से 1964 तक सदस्य और वीरभूम ज़िला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे थे। वह एक सम्मानित स्वतन्त्रता सेनानी थे और ब्रिटिश शासन की खिलाफत के कारण उन्हें 10 साल से अधिक का समय जेल में सज़ा के तौर पर काटना पड़ा। पढ़ाई के बाद प्रणब तार विभाग में क्लर्क की नौकरी करने लगे। वह वकील और कॉलेज प्राध्यापक भी रहे। उन्हें मानद डी. लिट की उपाधि भी हासिल थी। उन्होंने कॉलेज प्राध्यापक के बाद एक पत्रकार के रूप में बांग्ला प्रकाशन संस्थान देशेर डाक (मातृभूमि की पुकार) में काम किया। यही नहीं, प्रणब बंगीय साहित्य परिषद् के ट्रस्टी और अखिल भारतीय बंग साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रहे। प्रणब का विवाह 22 साल की उम्र में 13 जुलाई, 1957 को शुभ्रा मुखर्जी के साथ हुआ था। उनके दो बेटे और एक बेटी सहित कुल तीन बच्चे हैं। उनकी बेटी और प्रोफेशनल कथक डांसर शर्मिष्ठा मुखर्जी भी राजनीति में सक्रिय हैं और कांग्रेस की नेता हैं। उनके पुत्र अभिजीत मुखर्जी भी सांसद रहे हैं।

राजनीतिक करियर

इंदिरा गाँधी उन्हें राजनीति में लायीं। सन् 1969 में कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बने। वह सन् 1975, 1981, 1993 और 1999 में फिर से चुने गये। सन् 1973 में वह औद्योगिक विकास विभाग के केंद्रीय उप मंत्री बने। सन् 2004 में वह पहली बार लोकसभा के लिए चुने गये।

इंदिरा गाँधी के भरोसे के चलते वह कांग्रेस का सबसे बड़ा और भरोसेमंद चेहरा बने। सन् 1973 में प्रणब पहली बार केंद्रीय मंत्री बने, उसके बाद लगातार वह इंदिरा गाँधी की सरकार, फिर राजीव गाँधी की सरकार में मंत्री बनते रहे। सन् 1980 में प्रणब को राज्यसभा में कांग्रेस दल का नेता बना दिया गया और प्रधानमंत्री के बाद वह सबसे ताकतवर नेता बन गये। वह सन् 1984 में भारत के वित्त मंत्री बने। न्यूयॉर्क से प्रकाशित पत्रिका यूरोमनी के एक सर्वेक्षण के अनुसार, सन् 1984 में दुनिया के पाँच सर्वोत्तम वित्त मंत्रियों में से प्रणब मुखर्जी एक थे। सन् 1985 में उन्हें पश्चिम बंगाल कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। पी.वी. नरसिम्हा राव जब सन् 1991 में प्रधानमंत्री बने, तब उन्होंने प्रणब मुखर्जी को योजना आयोग का प्रमुख बना दिया। राव के मंत्रिमंडल में सन् 1995 से 1996 तक विदेश मंत्री के रूप में कार्य किया, जबकि सन् 1997 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद चुना गया। सन् 2004 में जब कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार बनी, तो पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने मनमोहन सिंह, जो राज्यसभा सदस्य थे; को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना। उस समय जंगीपुर लोकसभा क्षेत्र से जीतने वाले प्रणब मुखर्जी को लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया। सन् 2009 में यूपीए के दोबारा सत्ता में आने के बाद प्रणब फिर मंत्री बने। प्रणब अपने करियर में रक्षा, वित्त, विदेश, राजस्व, नौवहन, परिवहन, संचार, आर्थिक मामले, वाणिज्य और उद्योग, समेत विभिन्न महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों के मंत्री रहे। उनके नेतृत्व में ही भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ऋण की 1.1 अरब अमेरिकी डॉलर की अन्तिम िकस्त नहीं लेने का गौरव अर्जित किया।

कुल मिलाकर प्रणब ने इंदिरा गाँधी की सरकार में 15 जनवरी, 1982 से 31 दिसंबर, 1984 तक वित्त मंत्री के पद पर कार्य किया। पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार में 24 जून, 1991 से 15 मई, 1996 तक योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे। नरसिम्हा राव सरकार में 10 फरवरी, 1995 से 16 मई, 1996 तक भारत के विदेश मंत्री रहे। मनमोहन सिंह की सरकार में 22 मई, 2004 से 26 अक्टूबर, 2006 तक भारत के रक्षा मंत्री रहे। मनमोहन सरकार में ही 24 जनवरी, 2009 से 26 जून, 2012 तक भारत के वित्त मंत्री के पद पर रहे।

आखिर में चुने गये राष्ट्रपति

सन् 2012 में प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस ने राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार चुना। भाजपा सहित विपक्ष के उम्मीदवार पी.ए. संगमा को 70 फीसदी वोटों से हराकर 25 जुलाई, 2012 को प्रणब मुखर्जी गणतंत्र भारत के 13वें राष्ट्रपति बने। बतौर राष्ट्रपति राव ने शुरुआती दो साल में मनमोहन सिंह और अंतिम तीन वर्षों में नरेंद्र मोदी के साथ काम किया। मोदी और मुखर्जी की जोड़ी हमेशा चर्चा में रही। इस पद पर अपने पाँच साल के कार्यकाल को पूरा कर 25 जुलाई, 2017 को वह सेवानिवृत्त हुए। प्रणब इस पद पर विराजने वाले पहले बंगाली थे।

प्रणब मुखर्जी को अवॉड्र्स

सन् 2019 में प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न सम्मान से नवाजा गया। इससे पहले अपने जीवन में प्रणब दा ने कई अवॉड्र्स हासिल किये। सन् 2008 में उन्हें देश का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मश्री मिला। सन् 2010 में उन्हें एक रिसर्च के बाद फाइनेंस मिनिस्टर ऑफ दी इयर फॉर एशिया अवॉर्ड दिया गया। सन् 2011 में वोल्वरहैम्टन विश्वविद्यालय ने प्रणब को डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 2013 में बांग्लादेश सरकार ने उन्हें वहाँ के दूसरे सबसे बड़े अवॉर्ड बांग्लादेश लिबरेशन वॉर ऑनर से सम्मानित किया। सन् 2016 में आइवरी कोस्ट की ओर से प्रणब को ग्रैंड क्रॉस ऑफ नेशनल ऑर्डर ऑफ द आइवरी कोस्ट अवॉर्ड दिया गया। सन् 1997 में उन्हें श्रेष्ठ सांसद चुना गया। सन् 2012 में विश्वेस्वराइया टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी और असम विश्वविद्यालय की ओर से उन्हें डी लिस्ट की मानद उपाधि दी गयी। सन् 2013 में ढाका विश्वविद्यालय में मुखर्जी ने बांग्लादेश के राष्ट्रपति से कानून की डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की।

जब प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए प्रणब

दो बार ऐसा मौका आया जब लगा कि प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री होने की अपने दिल की हसरत पूरी कर ही लेंगे। लेकिन दोनों बार पद उनके हाथ से रेत की तरह फिसल गया। प्रणब मुखर्जी इंदिरा गाँधी कैबिनेट में वित्त मंत्री थे और उनके बाद हैसियत में दूसरे नम्बर पर थे। सन् 1984 में जब इंदिरा गाँधी की हत्या हुई तो राजीव गाँधी और प्रणब मुखर्जी बंगाल के दौरे पर थे और उन्हें बीबीसी न्यूज से इसकी खबर मिली। तब राजीव कांग्रेस के महासचिव थे। एक ही विमान से जब वह दिल्ली लौट रहे थे, तो राजीव ने उनसे पूछा कि अब प्रधानमंत्री कौन होगा? प्रणब ने जबाव दिया- ‘मंत्रिमंडल का सबसे वरिष्ठ मंत्री (जो वह खुद थे)। ऐसा पहले भी हुआ, जब लाल बहादुर शास्त्री के अचानक निधन के बाद सबसे वरिष्ठ मंत्री गुलजारीलाल नंदा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया था। हालाँकि उनके दिल्ली पहुँचने से पहले ही उस समय के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने का फैसला कर चुके थे; क्योंकि कांग्रेस नेता अरुण नेहरू और अन्य ने राष्ट्रपति से मिलकर कहा कि यही करना संकट की इस घड़ी में सबसे बेहतर रास्ता होगा। राजीव को अनुभव नहीं था, लेकिन यही हुआ और राजीव के नेतृत्व में इसके कुछ समय बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को रिकॉर्ड 411 सीटें मिलीं। इस तरह प्रणब का प्रधानमंत्री बनने का सपना अधूरा रह गया।

इसके बाद राहुल ने अपनी सरकार में प्रणब को जगह नहीं दी, जिससे रुष्ट होकर उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली। हालाँकि ऐसा करके प्रणब जैसा सक्षम नेता हाशिये पर चला गया, लिहाज़ा वह कांग्रेस में लौट आये। राजीव की हत्या के बाद सन् 1991 में जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, तो भी प्रणब को मंत्री नहीं बनाया गया। हालाँकि बाद में उन्हें राव ने पहले योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया और जब कांग्रेस के भीतर वरिष्ठ नेता अर्जुन सिंह राव के लिए चुनौती बनने लगे, तो राव ने इसकी काट के लिए प्रणब को सन् 1995 में विदेश मंत्री बना दिया। सन् 2004 के चुनाव में जब सोनिया गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी और भाजपा ने उनके विदेशी मूल का सवाल उठा दिया। भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने तो अपने केश काटने तक की धमकी दे दी। ऐसे में सोनिया ने प्रधानमंत्री नहीं बनने की घोषणा की और लगा कि उनके भरोसेमंद प्रणब मुखर्जी अब प्रधानमंत्री बन ही जाएँगे। लेकिन सोनिया गाँधी ने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को इस पद के लिए चुन लिया। इस तरह प्रधानमंत्री का पद दूसरी बार प्रणब के हाथ से निकल गया।

परदे के पीछे वाले प्रणब बाबू

प्रणब मुखर्जी के साथ 35 साल तक संवाददाता के तौर पर काम करने का अवसर मिला। पहली बार मैं सन् 1985 में एक प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में उनसे तब मिला, जब वह वर्तमान के तत्कालीन सम्पादक बरुण सेनगुप्ता के बेहद करीबी हुआ करते थे। मेरा सौभाग्य रहा कि मैं उनसे आसानी से मिलता रहा और उन्होंने हमेशा मुझे बेहद धैर्य के साथ समझाया कि राज्य और देश में क्या हो रहा है और क्यों?

एक बार मैंने उनसे पूछा था कि क्या वह कभी पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनने के इच्छुक थे? उस समय वह पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के अध्यक्ष और पार्टी के लिए फंड जुटाने वाले नेता थे। लेकिन इसका उन्होंने फौरन जवाब दिया था कि उन्हें पता है कि वह बड़े जननेता नहीं हैं, इसलिए कोई बड़ा नेता ही मुख्यमंत्री बन सकता था। मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि कितने नेताओं को इस तरह का अहसास है।

प्रणब दा से बात करने का सबसे अच्छा समय आधी रात के आसपास का रहता था। मैं अक्सर रात 11:30 बजे उनके घर पहुँचता था और उन्हें अपने बुलाने का इंतज़ार करता था। कई बंगाली लोगों की तरह उन्हें दोपहर में हल्की नींद लेना, यानी आराम करना पसंद था। उन्होंने एक बार मुझे बताया था कि पश्चिम बंगाल के पहले मुख्यमंत्री डॉ. बी.सी. रॉय के समय से ही यह प्रैक्टिस शुरू हो गयी थी। उन्होंने मज़ाक में कहा था कि पूरी राइटर्स बिल्डिंग (राज्य सचिवालय) दोपहर में सो जाती होगी। लेकिन तब वह एक रात्रिचर की तरह थे और देर रात तक काम करते थे। भारत के राष्ट्रपति बनने तक वह सुबह 4 बजे तक जगा करते थे।

इन 35 वर्षों में मुझे एक भी वाकया याद नहीं आ रहा है, जब उन्होंने कभी भी हल्की-फुल्की बातें की हों। मैंने कभी उनको किसी से अभद्र भाषा में बात करते नहीं सुना। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मैंने उनकी राय से उन लोगों को अलग होते देखा, जिन्हें वह पसंद करते थे। जो लोग उन्हें पसंद नहीं करते थे, ऐसे लोगों को भी वह बर्दाश्त करते थे। यह वैसा ही हो सकता है, जैसे पी.वी. नरसिम्हा राव या आर. वेंकटरमन के बारे में कहें। तो पी.वी. के बारे में आप क्या सोचते हैं? या आर. वेंकटरमन के बारे में आपकी क्या राय है? इस पर तुरन्त एन.डी. तिवारी को फोन किया। तिवारी जी! आपका क्या आकलन है? मुझे अंदाज़ा रहता था कि वह किस मसले में किसकी राय लेते थे। अगर वह कभी किसी से बहुत नाराज़ भी हुआ करते थे, तो बंगाली में कहते कि फलाँ शख्स एक मुस्क्रट (चुंचो) था।

बंगाली कथा और अंग्रेजी में नॉन-फिक्शन के पढऩे के शौकीन थे और वह अक्सर ताराशंकर बंदोपाध्याय और समरेश मजूमदार की प्रशंसा करते थे। लेकिन मुझे यकीन नहीं है कि कभी उन्होंने झुम्पा लाहिड़ी को पढ़ा। वह अपने दिल के करीब के विषयों पर खासकर इतिहास की किताबें अंग्रेजी में पढ़ा करते थे। राष्ट्रपति भवन में उन्होंने एक बार नीली किताब की ओर उँगली से इशारा करते हुए कहा था कि चाहे वह या कोई भी अन्य व्यक्ति अपने पद के बारे में सोचे, तो यह भारत को नियंत्रित करने वाली पुस्तक है। यह पुस्तक देश का संविधान था और राष्ट्रपति ने दावा किया था कि इसे हर जगह ले जाना उनकी आदत में शुमार है। इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दुनिया के सबसे बड़े संविधान के ज्ञान से वह अच्छी तरह से वािकफ थे।

सर्वविदित है कि प्रणब मुखर्जी पिछले करीब 50 वर्षों से रोज़ाना अपने जीवन के पहलुओं को डायरी में नोट करते थे। वह फाउंटेन पेन और नीली स्याही का प्रयोग किया करते थे। मैंने एक बार उनकी डायरी देखने की गुज़ारिश की थी। इस पर उन्होंने कहा था- ‘मैंने अपनी डायरी मुन्नी (उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी) को सौंप दी है, जो मेरी मृत्यु के बाद इसे प्रकाशित करवा सकती हैं या जो उनको अच्छा लगे, वैसे इसका इस्तेमाल कर सकती हैं।

वह ऐसी शिख्सयत थे, जो किसी को उद्धृत तभी करते थे, जब उसको लम्बे समय से जानते हों या उनकी मेजबानी कर चुके हों। वह शायद ही कभी लोगों को अपने घर बुलाते। मुझे लगता है कि वह जन्मदिन की पार्टियों और अपनी शादी की सालगिरह पर सबको साथ देखना पसंद करते रहे। लेकिन उन्होंने मुझे कभी आमंत्रित नहीं किया। निमंत्रण अक्सर उनकी पत्नी की ओर से आता था, जिन्हें मैं बोदी (भाभी) कहकर बुलाता था। यहाँ तक कि ऐसे मौकों पर जब वह ऑफिस से बहुत देरी से घर पहुँचते और लोगों से मुस्कुराते हुए मिलते या सिर हिलाकर अभिवादन करते, यहाँ तक कि मुझसे कहते अरे, आप भी यहाँ हैं। मुझे एक खास शाम की आज भी याद है। संभवत: उनकी शादी की सालगिरह थी। जब मेहमान उनका इंतज़ार कर रहे थे, फिर भी वह एक गणमान्य व्यक्ति के साथ अपने कार्यालय में बैैठक में मशगूल रहे।

खास मौके पर तैयार बोदी को भी साथ में तस्वीर खिंचाने के लिए इंतज़ार करना पड़ा। काफी समय बीत गया और मेहमानों का सब्र टूट रहा था। लेकिन कोई भी उनके कार्यालय में जाने और उनके बाहर आने के लिए कहने को तैयार नहीं था। लम्बे इंतज़ार के बाद मुझसे ही कहा गया कि आप जाएँ; क्योंकि अगर वह खफा होंगे भी, तो आपसे अपेक्षाकृत अच्छे से पेश आएँगे।

एक अन्य अवसर पर बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना जब नई दिल्ली की यात्रा पर थीं, तो उन्होंने प्रणब बाबू के घर जाने की इच्छा व्यक्त की। तब प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री थे और उस दौरान कोई और नहीं होता। इस पर उन्होंने शेख हसीना को तकरीबन चेताते हुए फोन किया। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के लिए भारत के वित्त मंत्री के घर का दौरा करना उचित नहीं होगा। उन्होंने तर्क दिया कि प्रोटोकॉल इसकी अनुमति नहीं देता। शेख हसीना ने आिखर में कहा था- ‘मैं आपकी पत्नी से बोलूँगी। यदि आप प्रोटोकॉल पर अड़े हुए हैं, तो मुझसे न मिलें।’ यह कहकर वह वापस चली गयीं। अगर मेरी याददाश्त सही है, तो प्रणब बाबू उस दिन देर शाम तक अपने ऑफिस में ही रहे थे। पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता अब्दुल मन्नान को योजना भवन में दोपहर के भोजन का वह दिन ज़रूर याद होगा, जब प्रणब बाबू ने राज्य के विधायकों के एक समूह को आमंत्रित किया था, उस समय वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष थे। सोमेन मित्रा के नेतृत्व में प्रतिनिधिमण्डल समय पर दोपहर 1:00 बजे पहुँचा और एक शानदार दोपहर के भोजन की उम्मीद में थे। बाद में विधायकों में से एक ने बताया कि उस समय हमारे लिए योजना भवन हैदराबाद हाउस की तरह था, जहाँ शाही मेजबानी की अपेक्षा थी।

लेकिन प्रणब बाबू ने उन्हें जीडीपी, बचत और निवेश पर व्याख्यान देना शुरू किया। विधायकों को प्रणब बाबू ने करीब एक घंटे तक व्याख्यान दिया और उनमें से एक ने याद दिलाया कि उनको भूख लगी है। इसके बाद उन्हें पता चला कि उप सभापति ने अपने परिचारक हीरा लाल को बुलाया और मेहमानों को कुछ खाने का इंतज़ाम करने को कहा। कैंटीन में खीरा, सैंडविच और गुलाब जामुन की कुछ प्लेटें तैयार की गयीं। यह देखकर विधायक खफा हो गये और चैंबर के बाहर हंगामे वाली स्थिति हो गयी। बाद में लंच करने के लिए गोल मार्केट चले गये। प्रणब बाबू ने दावा किया कि उन्हें बिल्कुल भी याद नहीं था कि उन्होंने इस तरह का कोई आमंत्रण दिया था। हालाँकि इनमें से ज़्यादातर विधायक घर में बना बंगाली खाना पसंद करते थे। वह भारत या विदेश, जहाँ भी जाते वहाँ हमेशा एक या दो बंगाली साथ में रहते थे या परिवारों के सम्पर्क में रहते थे; जो उनके भोजन की व्यवस्था करते थे। मुझे याद है कि अमेरिका में उनका भोजन रोनेन सेन के घर से आया था, जो उस समय अमेरिका में भारत के राजदूत थे। विदेशी दौरों पर उनको ज़्यादातर फल और दूध का ही सेवन करते देखा। हम न्यूयॉर्क पैलेस होटल में उनके सुइट में बैठे थे। तब वह भारत के विदेश मंत्री थे और उनका पूरे दिन व्यस्त कार्यक्रम था। मैं यह जानने का इच्छुक था कि तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस के साथ उनकी बैठक में क्या चर्चा हुई? लेकिन वह चिन्तन के मूड में थे और उन्होंने न्यूयॉर्क की गगनचुंबी इमारतों बीच बन रहे क्षितिज की ओर मेरा ध्यान आकर्षित करते हुए कहा- ‘इस देश की शक्ति को देखें, जो दुनिया भर को चला रहा है।’ उन्होंने बताया कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश मंत्री के रूप में जाना जाता है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि यह भौतिकवादी सभ्यता लम्बे समय तक किसी भी तरह चलने वाली नहीं है। यह कभी भी बिखर सकता है।

मेरी बर्दाश्त से बाहर था और मैं बोर होने लगा था; लेकिन उनकी हाँ-में-हाँ मिलाता रहा। मैंने उनसे पूछा कि विदेश मंत्री राइस के साथ बैठक में क्या हुआ? इसे पर वह मन को खुश करने वाले भाव में दिखे और मुझे झिडक़ दिया। कहा- ‘उसने मुझे प्रभावित किया कि अच्छे सैन्य शासक और बुरे सैन्य शासक हैं और भारत को अच्छे शासकों के सम्पर्क में रहना चाहिए।’ इससे ज़्यादा उन्होंने कुछ नहीं कहा और मेरा समय भी खत्म हो गया था। उन्होंने अपने सचिव अनिल को बुलाया और जानना चाहा कि अभी नई दिल्ली में क्या समय होगा? दिल्ली में सुबह के 8:00 बजे थे; उन्हें बताया गया। उन्होंने कहा कि मुझे सलाहकार से बात करवाएँ और अपने विश्वसनीय सहयोगी ओमिता पॉल से चर्चा की। झिझकते हुए मैंने वहाँ से हटने से मना कर दिया, जब तक कि यहाँ से जाने को नहीं कहा जाए। लेकिन अगले 15 मिनट में उन्होंने ज़ाहिर तौर पर नई दिल्ली के अखबारों में छपी उन तमाम खबरों, जानकारियों, बयानों और टिप्पणियों के बारे में जानकारी दी। यह स्पष्ट रूप से एक साफ सारांश था। क्योंकि प्रणब बाबू ने एक या दो सवाल बेहद ध्यान से सुने। मेरे लिए यह दोनों के बीच कामकाजी सम्बन्धों में एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि थी, जो तब शुरू हुई थी, जब ओमिता पॉल वित्त मंत्रालय से जुड़ी एक सूचना अधिकारी थीं। हर कोई जानता है कि वह इंदिरा गाँधी के मुरीद थे और उनको गुरु के रूप में देखते थे। मैंने एक बार पूछा था कि क्या वह सरकारी क्षेत्र के दिमाग वाले हैं? क्योंकि मेरे सम्पादक ऐसा एक तरह से साबित कर चुके थे।

स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने बैंकों और कोयला खनन का राष्ट्रीयकरण किया था और रियासतों के अधिकारों को समाप्त कर दिया था। इस पर उन्होंने अलग तरह का मुँह बनाया और चिढ़ाते हुए कहा- ‘मैं एक वामपंथी हूँ? लेकिन क्या आप पत्रकार लोग यह नहीं कहते कि मैं धीरूभाई अंबानी के उदय के लिए ज़िम्मेदार था?’

प्रणब बाबू ने कभी इस बात से इन्कार नहीं किया कि उनके धीरूभाई और अंबानी परिवार के साथ एक व्यक्तिगत सम्बन्ध थे। एक बार जब मुकेश और अनिल अंबानी की माँ कोकिलाबेन का फोन आया, तो मैं वहाँ पर मौज़ूद था। दोनों उनको अंकल कहकर सम्बोधित कर रहे थे। मैंने दोनों भाइयों को उनसे बात करते हुए हुए देखा है। मुझे यह भी पता है कि यह अनिल अंबानी ही थे, जिन्होंने उन्हें रिलायंस कम्युनिकेशन द्वारा निर्मित फिल्म लिंकन देखने के लिए ज़ोर दिया था। मुझे लगता है कि अनिल अंबानी ही थे, जिन्होंने यूपीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में प्रणब मुखर्जी के पक्ष में लाने के लिए मुलायम सिंह यादव को मनाया था।

उन्होंने मुझसे एक बार कहा था कि जब भाजपा विनिवेश के बारे में गीत और नृत्य पेश करेगी, तो इसकी वजह कांग्रेस ही होगी। क्योंकि कांग्रेस ही है, जिसने खस्ताहाल पीएसयू के विनिवेश की शुरुआत की थी। लेकिन हमने हर बार प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। उन्होंने कहा कि वित्त मंत्री के रूप में मेरा पहला बजट भाषण पढ़ें और इसे आप देख सकते हैं।

वह सच में एक अलग तरह की शिख्सयत थे। हालाँकि उन्होंने राष्ट्रीय राजधानी में 50 साल बिताये थे; लेकिन उन्हें कभी भी पार्टियों या पाँच सितारा होटलों में नहीं देखा जाता था, जहाँ सभी पार्टियों के शक्तिशाली राजनेता देर शाम को एक ड्रिंक के लिए जमा होते और अपनी अगली रणनीति की चालें चला करते थे। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने से पहले मैंने राष्ट्रपति भवन में उनसे मुलाकात की। हम उसके कमरे में बैठे और बातें करते रहे। बाहर के लोग व्यवस्था बनाने में व्यस्त थे। सार्क देशों के नेताओं के स्वागत के लिए एक शामियाना तैयार किया गया था, जिनको मोदी ने शपथ ग्रहण के लिए आमंत्रित किया था। प्रणब बाबू की आँखें पलक झपकते ही चीज़ों को भाँप लेती थीं। उन्होंने बंगाली में चुटकी लेते हुए कहा- ‘वह इसे ऐसे देखते हैं, जैसे भाजपा को ममता।’ आगे वह अधिक गम्भीरता के साथ कहते हैं कि यह ऐसा नहीं कि विदेश नीति कैसे बनायी जाती है।

उन्होंने मेरे साथ राजनीति या व्यक्तित्व पर शायद ही कभी चर्चा की। लेकिन मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी या जीएसटी लागू करने से पहले प्रणब मुखर्जी से सलाह ली थी। तथ्य यह भी है कि राष्ट्रपति के रूप में उन्हें दूसरा कार्यकाल नहीं मिला, जिसकी अपनी कहानी है। जब उन्होंने राष्ट्रपति भवन छोड़ा, तो इस पर उनका कहना था कि इससे पहले कभी उनको ऐसा नहीं लगा कि वह इतने ज़्यादा अकेले हैं, जबकि भाजपा के मंत्री कभी-कभार टकरा जाते थे। उन्होंने एक बार कहा था कि वह पुराने साथियों और कॉमरेड से मिलने से चूक गये थे। मैंने उनसे एक बार पूछा था कि क्या उन्हें कांग्रेस छोड़ देनी चाहिए थी?

उन्होंने कहा- ‘मैंने इसे एक बार किया था; लेकिन फिर कभी नहीं करूँगा। उन्होंने कहा कि शरद पवार और वी.पी. सिंह ने कांग्रेस छोडऩे पर अफसोस जताया। उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा था कि वी.पी. सिंह ने सोनिया गाँधी से मुलाकात की और बोफोर्स पर लगाये आरोपों के लिए माफी माँगी थी। वह एक महान् राजनीतिक संगठनकर्ता नहीं थे; बंगाल में कांग्रेस को मज़बूत करने में वह विफल रहे। वह जननेता भी नहीं थे। वह उन सभी चुनावों में हार गये, जिनमें उन्होंने आखरी तीन बार लोकसभा के लिए पर्चा भरा साथ ही राष्ट्रपति के लिए एक बार चुनाव लड़ा था। फिर भी मृत्यु के बाद पिछले कुछ दिनों में मैंने लोगों को यह कहते सुना है कि भारत प्रणब बाबू को मिस करेगा; जबकि प्रणब बाबू खुद अपनी पहचान तलाशते रहे।

काश! उनको इसकी जानकारी होती, तो वह बहुत खुश होते।

(लेखक एक अनुभवी राजनीतिक सम्पादक हैं।)