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जमाखोरी के खिलाफ कार्रवाई करें सरकार

देश में एक ओर जनता कोरोना जैसी महामारी से जूझ रही है । वहीं शासन और प्रशासन की अनदेखी के चलते अब जमाखोरी होने से खाद्य सामानों के दाम बढ़ने लगे है। दिल्ली के व्यापारियों का कहना है कि सरकार का दायित्व होता है कि वह बाजारों में बढ़ रही दलाली प्रथा पर नजर रखें। पर ऐसा ना होने के कारण कोरोना काल में अमीर व्यापारी चांदी काट रहे है और गरीबों को काफी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। आलम ये है कि बाजारों में जाने पर ऐसा लगता है, जैसे कोई धनी धौरी ही ना हो अपनी , व्यापारी मनमर्जी से काम और दाम तय कर रहे हो।

तहलका संवाददाता को छोटे व्यापारियों ने बताया कि देश में जब सियासत अपने तरीके से काम करें , जनता और व्यापारियों की तकलीफों को ना समझें तो वहुत सी धांधली ऐसी होने लगती है जिससे आम लोगों के साथ खासकर गरीबों को काफी परेशान करती है। जैसे एक ही बाजार में एक की वस्तु के दामों में काफी अंतर का होना है। सब्जी मंडियों में आलू और प्याज को दामों में जो ऊछाल है, उसकी मुख्य वजह है , जमा खोरी । कोरोना काल में जरूर जनता आर्थिक तंगी और तामाम परेशानियों से जूझ रही है । पर दलालों का बोलबाला है और वे कोरोना काल को अवसर के तौर पर देख रहे है और अपनी जेबे भर रहे है।

तहलका संवाददाता को रिटायर्ड अधिकारी मोती लाल ने बताया कि आज वो जनता पिस रही है, जिनका सियासत से कोई लेना देना नहीं है और सियासी घात और प्रतिघात का कोई असर नहीं होता है। वे आज दो कारणों से दुखी है एक तो कोरोना का बढ़ता कहर और बढ़ती महंगाई जिसके लिये वे सरकार को दोषी मानते है। उनका कहना है अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले दिनों में और समस्या बढ़ सकती है। क्योंकि आज शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ –साथ आर्थिक मोर्चे पर देश आज लाचार नज़र आ रहा है। सरकार ने अगर जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई ना की तो ये कोरोना महामारी की तरह देश की गरीब जनता को ठसना शुरू कर देगीं।

योशिहिदे सुगा जापान के नए पीएम बने, जापानी संसद डायट के दोनों सदनों ने बहुमत से चुना उन्हें नेता

आठ साल बाद जापान के नए प्रधानमंत्री के रूप में योशिहिदे सुगा (71) का चुनाव हो गया है। जापानी संसद ने बुधवार को सुगा को नया नेता चुना। किसान परिवार के सुगा को उनके पूर्ववर्ती आबे और उनकी नीतियों का समर्थक माना जाता है। अभी तक सुगा मुख्य केबिनेट सचिव के पद पर थे और उन्हें शक्तिशाली सरकारी सलाहकार माना जाता था।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सुगा को जापानी संसद डायट के दोनों सदनों में पार्टी के सदस्यों और स्थानीय प्रतिनिधियों की एक साझी बैठक में चुना गया। बैठक में उपस्थित 394 डायट सदस्यों ने मत दिया। देश के 47 प्रीफेक्चरल चैप्टर में से प्रत्येक के तीन प्रतिनिधियों ने कुल 141 वोट दिए।

इस चुनाव में सुगा के अलावा, दो अन्य उम्मीदवारों में पूर्व रक्षा मंत्री शीगेरू इशिबा (63) और एलडीपी के नीति प्रमुख फुमियो किशिदा (63) थे। सामान्य परिस्थितियों में एलडीपी के शीर्ष नेता को पार्टी से संबंधित डायट सदस्यों और रैंक-फाइल सदस्यों की तरफ से चुना जाता है। हालांकि, कोरोना महामारी और आबे के कार्यकाल के बीच इस्तीफा देने के कारण एलडीपी ने प्रक्रिया को सरल बनाने का फैसला किया गया था।

सुगा अपने दम पर राजनीति में शीर्ष स्तर पर पहुंचे हैं। बता दें शिंजु आबे खराब स्वास्थ्य का हवाला देते हए इस महीने के शुरू में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।

जापान के मुख्य केबिनेट सचिव योशिहिदे सुगा को सोमवार को सत्तारूढ़ लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) का नया नेता चुना गया था।

याद रहे सुगा का प्रधानमंत्री बनना सोमवार को ही तय हो गया था जब जापान की लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) ने उन्हें नेता चुन लिया था। इसके लिए सुगा को आंतरिक चुनाव में 534 में से 377 वोट मिले थे। उन्होंने अपने दो प्रतिद्वंदियों पूर्व रक्षा मंत्री शिगेरु इशिबा और पूर्व विदेश मंत्री फुमियो किशिदा को पीछे छोड़ा था।

भारत में कोविड-19 का कुल आंकड़ा 50 लाख के पार, 82,066 की मौत

देश में कोरोना वायरस संक्रमितों की संख्या 50 लाख के पार निकल गयी है। देश में अब तक 82,066 संक्रमित लोगों की मौत हो चुकी है। तेजी से बढ़ोतरी के संकेत पिछले करीब एक महीने से मिल रहे थे जब से टेस्ट की संख्या में तेजी आई है। बहुत से जानकार कह चुके हैं कि भारत के कुल मामलों की आने वाले समय में संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा हो सकती है।

स्वास्थ्य मंत्रालय के सुबह जारी 24 घंटे के आंकड़ों के मुताबिक कोरोना संक्रमितों की संख्या 50 लाख के पार पहुंच गई है। पिछले 24 घंटे में देशभर में संक्रमण के 90,123 नए मामले सामने आये हैं। इस दौरान रेकॉर्ड 1,290 संक्रमित लोगों की मौत हो गई है। टेस्ट में भी अब काफी तेजी आ चुकी है। आईसीएमआर के मुताबिक कोविड -19 के लिए 5,94,29,115 नमूनों का परीक्षण 15 सितंबर तक किया गया है। इनमें से 11,16,842 नमूनों का कल परीक्षण किया गया।

बता दें कि करीब 11 दिन पहले ही कोरोना संक्रमितों की संख्या 40 लाख तक पहुंची थी। पिछले 11 दिन में ये आंकड़ा 10 लाख बढ़ गया है। स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, देश में कोरोना के एक्टिव केस से ज्यादा ठीक होने वालों की संख्या है। मंत्रालय के अनुसार, देश में फिलहाल, कोरोना वायरस के 9,95,933 एक्टिव केस हैं। कुल मामलों में से 39,42,361 संक्रमित लोग ठीक हो चुके हैं।

देश में कोरोना से अब तक 82,066 संक्रमित लोगों की मौत चुकी है। इसी के साथ देश में कोरोना वायरस के कुल 50,20,360 मामले हो गए हैं। महामारी से सबसे अधिक प्रभावित महाराष्ट्र है जहां कोरोना वायरस के 2,92,174 एक्टिव केस हैं। कर्नाटक में 98,555 सक्रिय मामले हैं, आंध्र प्रदेश में 92,353, उत्तर प्रदेश में 67,335 और दिल्ली में 29,735 मामले हैं।

पिछले एक महीने से भी ज़्यादा समय से दुनिया में रोज़ाना संक्रमण के सबसे ज़्यादा मामले अपने देश में ही सामने आ रहे हैं। इस दौरान अनलॉक की प्रक्रिया भी जारी है। दुनिया के 17 फीसदी मामले अब भारत में हैं। इससे अधिक अब अमेरिका में ही 67,64,598 मरीज हैं।
हालांकि, राहत की बात यह है कि ठीक होने वालों में भारत दुनिया में पहले नंबर पर है। ब्राजील दूसरे व अमेरिका तीसरे नंबर पर है।
मंत्री का दावा, 40 लाख लोग निगरानी में
केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी चौबे ने मंगलवार को राज्यसभा में बताया कि देश में संक्रमितों के संपर्कों का पता लगाने को 40 लाख लोगों को निगरानी में रखा है। उन्होंने दावा किया कि लॉकडाउन के चलते संक्रमण बेकाबू होने से रोक लिया गया, लेकिन बाद में मामले बढ़ गए। वहीं, स्वास्थ्य मंत्रालय यह लगातार दावा कर रहा है कि कोरोना से मृत्यु दर 1.64 फीसदी है और स्थिति नियंत्रण में है, पर मरीजों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। यह बेहद चिंता का सबब है, क्योंकि अपने सभी पड़ोसी देशों में कोरोना के मामले कम होने लगे हैं और मरने वालों का आंकड़ा भी नियंत्रण में है।

राजस्थान में चंबल नदी में पलटी नाव ; कई डूबे, 7 शव निकाले

राजस्थान के कोटा और बूंदी जिले की सीमा पर बुधवार को चंबल नदी में एक नाव पलट जाने से कई लोगों की मौत हो गयी है जबकि कुछ तैर कर किनारे पहुँच गए। नाव में 50 के करीब लोग सवार थे। अभी तक 7 शव निकाले जा चुके हैं जबकि कुछ लोग अभी लापता बताये गए हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने हादसे पर शोक जताया है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक जिले के सीमा पर स्थित गाँव गोठड़ा कला के पास बहने वाली चंबल नदी में नाव अचानक पलट गई। इसमें करीब 50 लोग सवार बताये गए हैं। नाव में मनुष्यों के अलावा लोगों का सामान और वाहन भी थे। नाव से यह लोग कमलेश्वर धाम जा रहे थे कि अचानक नाव पलट गई।  इससे इसमें सवार लोग, जिनमें महिलाएं बच्चे भी थे, नदी में गिर गए। कुछ लोगों ने नदी को तैर कर पार लिया जिससे उनकी जान बच गयी।

राजस्थान के कोटा जिले में चंबल नदी को पार करते वक्त एक नाव डूबने से 30 लोग डूब गए। इसमें से 7 लोगों के शव निकाले जा चुके है, जबकि कुछ लोग अभी लापता बताए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ट्वीट करके कहा है कि कोटा में थाना खातोली क्षेत्र में चम्बल ढिबरी के पास नाव पलट जाने की घटना बेहद दुखद और  दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने अधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि लापत लोगों का तत्काल पता लगाया जाए ताकि उनकी जान बचाई जा सके।

गहलोत ने हादसे का शिकार लोगों के परिजनों के प्रति गहरी संवेदना जताई है। सीएम ने कोटा  प्रशासन से बात कर घटना की जानकारी ली है। तत्परता से राहत और बचाव के साथ लापता लोगों को शीघ्र ढूंढने के निर्देश दिए हैं। स्थानीय पुलिस और प्रशासन घटनास्थल पर मौजूद है। प्रभावित परिवारों को मुख्यमंत्री सहायता कोष से मदद के लिए निर्देश दिए हैं।

यूएई, बहरीन ने इजराइल के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये, ट्रंप ने बताया इसे ऐतिहासिक

संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और बहरीन ने इजराइल के साथ प्रस्तावित ऐतिहासिक शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस समझौते के सूत्रधार हैं। समझौता दसतावेजों पर हस्ताक्षर वाशिंगटन में व्हाइट हाउस में हुए। समझौते के समय यूएई और बहरीन के सरकारी प्रतिनिधियों के अलावा इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू भी मौजूद रहे। रिपोर्ट्स के मुताबिक इजराइल सेना ने कहा जब समझौते पर हस्ताक्षर हो रहे थे ठीक उसी वक्त गज़ा पट्टी से इजरायल की तरफ़ दो रॉकेट फेंके गए।

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने समझौते के बाद एक ट्वीट में कहा – ‘यह नए मध्य पूर्व की शुरुआत है। इससे दुनिया के एक अहम हिस्से में अब शांति स्थापित की जा सकेगी।’ ट्रंप ने समझौते पर हस्ताक्षर होने के समय का एक वीडियो भी शेयर किया है और कहा – ‘दशकों के विभाजन और संघर्ष के बाद आज हमने एक नए मिडिल ईस्ट की शुरुआत की है। इजराइल, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के लोगों को बधाई। भगवान आप सबका भला करे।’

राष्ट्रपति ने ट्रंप मंगलवार को कार्यक्रम में शामिल होने के व्हाइट हाउस पहुंचे लोगों को संबोधित भी किया। ट्रम्प ने कहा – ‘आज दोपहर हम यहां इतिहास बदलने आए हैं। इजराइल, यूएई और बहरीन अब एक दूसरे के यहां दूतावास बनाएंगे। राजदूत नियुक्त करेंगे और सहयोगी देशों के तौर पर काम करेंगे। वो अब दोस्त हैं।’

इजराइल के प्रधानमंत्री बेंज़ामिन नेतन्याहू ने इस समझौते का स्वागत करते हुए कहा – ‘आज इतिहास के करवट का दिन है। ये शांति की नई सुबह लेकर आएगा।’ याद रहे हाल में राष्ट्रपति ट्रंप को ऐतिहासिक समझौते के लिए नोबेल पुरूस्कार के लिए भी नामित किया गया है। उधर तुर्की, ईरान और फिलीस्तीन बहरीन और इजराइल के शांति समझौते पर भड़क उठे हैं। तीनों ने इस समझौते पर कड़ा ऐतराज जताया है।

अब यूएई और बहरीन, इजराइल की 1948 में स्थापना के बाद उसे मान्यता देने वाले क्रमशः तीसरे और चौथे अरब देश बन गए हैं। पिछले महीने संयुक्त अरब अमीरात यानी यूएई भी इजराइल के साथ अपने रिश्ते सामान्य करने पर सहमत हुआ था। संभावना जताई जा रही है कि आने वाले समय में ओमान भी ऐसा कर सकता है। इस बीच फिलीस्तीन के लोगों ने अरब देशों से अपील की है जब तक फिलीस्तीन और इजराइल के बीच विवाद का हल नहीं निकल जाता, उन्हें इंतज़ार करना चाहिए। फिलीस्तीन के नेता महमूद अब्बास ने कहा – ‘मध्य पूर्व में शांति तभी आ सकती है जब इजराइल वहां क़ब्ज़ा की गई जगहों से पीछे हट जाएगा।’

समझौते के बाद ट्रम्प का ट्वीट –
Donald J. Trump
@realDonaldTrump
After decades of division and conflict, we mark the dawn of a new Middle East. Congratulations to the people of Israel, the people of the United Arab Emirates, and the people of the Kingdom of Bahrain. God Bless You All!

अनर्थ व्यवस्था

देश की आर्थिक स्थिति पटरी से उतर रही है, इसके संकेत पिछले साल 27 अगस्त को ही मिल गये थे; जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने केंद्र सरकार को 24.8 अरब डॉलर यानी लगभग 1.76 लाख करोड़ रुपये लाभांश और सरप्लस पूँजी के तौर पर देने का फैसला किया था। तब बहुत-से आर्थिक जानकारों ने अर्थ-व्यवस्था को लेकर सवाल उठाये थे और यह भी कहा था कि केंद्रीय बैंक आरबीआई अपनी कार्यकारी स्वायत्तता खो रहा है। अब ठीक एक साल बाद, जब जीडीपी की पिछले 40 साल की सबसे कमज़ोर और निराश करने वाली -23.9 की विकास दर सामने आयी है; तो चिन्ता बढ़ गयी है। यह चिन्ता इसलिए भी और गम्भीर है कि सीमा पर चीन के साथ तनाव गम्भीर होता जा रहा है, और युद्ध के काले बादल मँडराते दिख रहे हैं। इसका निवेश, खासकर विदेशी निवेश पर विपरीत असर पडऩे की आशंका है; जो विशेषज्ञ पहले से ही जता रहे हैं। ऐसे हालात में कमज़ोर अर्थ-व्यवस्था अनेक संकटों का एक बहुत बड़ा कारण बन सकती है। बेशक भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम ने कहा है कि कोरोना वायरस महामारी से खस्ताहाल हुई भारतीय अर्थ-व्यवस्था और जीडीपी अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र चुकी है और अगस्त के दौरान कई सेक्टरों में कारोबार बढऩे के संकेत मिले हैं।

पहले से खराब हो रही अर्थ-व्यवस्था पर कोविड-19 ने और कहर ढाया है। केंद्र सरकार पैसा जोडऩे के लिए जिस तेज़ी से निजीकरण के रास्ते पर जा रही है, उससे भी संकेत मिलते हैं कि आर्थिक हालत पर नियंत्रण के लिए सरकार को क्या-क्या करना पड़ रहा है। ये रिपोट्र्स हैं कि काफी कुछ निजी क्षेत्र में देने के बाद अब केंद्र सरकार अपने स्वामित्व वाली कई कम्पनियों के निजीकरण की तैयारी कर रही है। केंद्र सरकार ने 18 क्षेत्रों, जिनमें पेट्रोलियम, बैंकिंग, रक्षा उपकरण, बीमा, इस्पात जैसे महत्त्वपूर्व क्षेत्र शामिल हैं; को निजी हाथों में देने की कोशिश की है।

राजनीतिक रूप से भी यह केंद्र सरकार के लिए बहुत संकट की घड़ी है। गिरती अर्थ-व्यवस्था को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गाँधी लगातार सरकार पर हमला कर रहे हैं। उनके लगातार इस विषय पर बोलने से जनता का भी ध्यान इस तरफ जा रहा है। कई आर्थिक विशेषज्ञ भी इस हालत को गम्भीर बता रहे हैं। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का तो कहना है कि देश की जीडीपी के आँकड़ों से सभी को अलर्ट हो जाना चाहिए। उनके मुताबिक, जब इनफॉर्मल सेक्टर के आँकड़े जोड़े जाएँ, तो अर्थ-व्यवस्था -23.9 फीसदी से भी नीचे चली जाएगी, जिससे स्थिति और भी बदतर हो सकती है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जीडीपी की कमज़ोर दर को कोरोना वायरस के कारण उपजी समस्या बताया है। हालाँकि रघुराम राजन कहते हैं कि भारतीय अर्थ-व्यवस्था को दुनिया में कोरोना वायरस से सबसे ज़्यादा प्रभावित अमेरिका और इटली से भी कहीं ज़्यादा नुकसान हुआ है।

ब्रिकवर्क रेटिंग्स ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में कहा है कि भारत सरकार की वित्तीय हालत काफी नाज़ुक है। रिपोर्ट के अनुसार, आयकर और जीएसटी संग्रह में इस साल ज़बरदस्त गिरावट आयी है। कोविड-19 महामारी और उसकी रोकथाम के उद्देश्य से लागू की गयी तालाबन्दी ने आर्थिक गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित किया है और राजस्व को ज़बरदस्त नुकसान पहुँचा है। इससे राजकोषीय घाटा बढ़ा है। ब्रिकवर्क रेटिंग्स के मुताबिक, लॉकडाउन से आर्थिक गतिविधियों पर प्रभाव चालू वित्त वर्ष के पहले तीन महीने के राजस्व संग्रह में झलकता है।

भारत के महालेखा नियंत्रक (सीजीए) के आँकड़ों के अनुसार, केंद्र सरकार का राजस्व संग्रह चालू माली साल की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में पिछले साल की इसी तिमाही के मुकाबले बहुत कम रहा। आयकर (व्यक्तिगत और कम्पनी कर) से प्राप्त राजस्व जून तिमाही में 30.5 फीसदी और वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) लगभग 34 फीसदी कम रहा। आँकड़ों के मुताबिक, इससे राजकोषीय घाटा चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में बजटीय लक्ष्य का 83.2 फीसदी पर पहुँच गया।

हाल में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 4 सितंबर की के.वी. कामथ समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक की है। इससे भारतीय अर्थ-व्यवस्था के बहुत-से चिन्ताजनक पहलू सामने आते हैं। कोरोना वायरस महामारी से सबसे ज़्यादा मुश्किल वाले 26 सेक्टर के बारे में कामथ समिति ने कर्ज़दारों के कर्ज़ की री-स्ट्रक्चरिंग (पुनर्संरचना) को लेकर कई सुझाव दिये हैं। हालाँकि इसमें जो सबसे चिन्ताजनक पहलू है, वह यह है कि इसमें कोरोना-काल में भी अच्छा बिजनेस करती रहे केमिकल सेक्टर्स और फार्मा में अच्छी ग्रोथ के बावजूद इन सेक्टर्स को भी री-स्ट्रक्चरिंग के दायरे में रखा है। ज़ाहिर है कि कामथ समिति ने कमोवेश सभी सेक्टर्स को नहीं छोड़ा है। कई विशेषज्ञों के मुताबिक, कामथ समिति ने यदि सभी सेक्टर्स को शामिल किया है, तो साफ है कि अर्थ-व्यवस्था की हालत ज़्यादा खराब है।

रिजर्ब बैंक ने समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों को स्वीकार किया है। कामथ समिति ने जिन 26 सेक्टर की री-स्ट्रक्चरिंग की बात की है, उनमें ऑटो, एविएशन, रियल एस्टेट, कंस्ट्रक्शन, पॉवर, हॉस्पिटलिटी आदि शामिल हैं। समिति का कहना है कि कर्ज़दारों के लिए कोई समाधान को अन्तिम रूप देने से पहले बैंकों को इन 26 सेक्टर के वित्तीय पैरामीटर का खास ध्यान रखना होगा। रिजर्व बैंक ने कहा है कि उसने समिति के सुझावों को व्यापक रूप से स्वीकार किया है।

रिजर्व बैंक का कहना है कि समिति ने वित्तीय पैरामीटर के बारे में सुझाव दिया है, जैसे कर्ज़-इक्विटी अनुपात, नकदी की स्थिति, डेट सर्विस एबिलिटी (ईएमआई चुकाने की क्षमता) आदि। समिति ने 26 सेक्टर की सिफारिश की है, जिनका ध्यान कर्ज़ देने वाली संस्थाओं को किसी कर्ज़दार के लिए समाधान योजना को अन्तिम रूप देने से पहले ध्यान रखा जा सकता है। बता दें आरबीआई ने रेजोल्युशन फ्रेमवर्क फॉर कोविड-19 रिलेटेड स्ट्रेस के तहत ज़रूरी वित्तीय पैरामीटर के बारे में सुझाव देने के लिए 7 अगस्त को कामथ समिति गठित की थी। कामथ आईसीआईसीआई बैंक के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) हैं। समिति में दिवाकर गुप्ता, टी.एन. मनोहरन, अश्विन पारेख, सुनील मेहता (सदस्य सचिव) शामिल थे।

अपनी रिपोर्ट में समिति ने कहा है कि यह ध्यान रखना होगा कि किसी कम्पनी की कुल देनदारी कितनी है? कुल कर्ज़ या अर्निंग बिफोर इंट्रेस्ट (ब्याज से पहले की कमायी), टैक्सेस (कर), डेप्रिसिएशन एंड अमॉर्टाइजेशन (ईबीआईडीटीए) यानी मूल्यह्रास तथा परिशोधन और डेब्ट सर्विस कवरेज रेशो (कर्ज़ सेवा आवृत्ति क्षेत्र अनुपात) कितना है? आरबीआई ने मार्च से अगस्त तक बैंकों को लोन की री-स्ट्रक्चरिंग और उन्हें एनपीए घोषित करने से बचने की छूट दी थी।

कुछ जानकारों का कहना है कि कामथ कमेटी की रिपोर्ट में नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलू हैं। कुछ जानकारों का कहना है कि 26 सेक्टर को री-स्ट्रक्चरिंग के दायरे में रखने से कमोवेश पूरी इंडस्ट्री ही नहीं, जीडीपी को भी री-स्ट्रक्चरिंग की ज़रूरत है। हालाँकि कुछ आर्थिक जानकार यह भी कहते हैं कि अगर री-स्ट्रक्चरिंग होगी, तो बैंकों के एनपीए कम होंगे; जिससे जनता को राहत मिलेगी। लेकिन यह देखना ज़रूरी होगा कि री-स्ट्रक्चरिंग किस स्तर तक होगी। यह कब और कैसे होगा? यह भी अभी भविष्य के गर्त में है। यह देखने की बात होगी कि री-स्ट्रक्चरिंग जब होगी, तो कितनी कम्पनियाँ इसमें शामिल की जाएँगी? साथ ही बैंक का स्ट्रक्चर क्या होगा? जानकारों के मुताबिक, इन के लिए अभी वक्त है और यह भी देखना दिलचस्प होगा कि कितने सेक्टर्स को इसका लाभ मिलता है?

तमाम चिन्ताओं के बीच भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम का दावा है कि भारत में अर्थ-व्यवस्था का बुरा दौर खत्म हो चुका है। उनके मुताबिक, अगस्त में तालाबन्दी के अनलॉक चरण के शुरू होने के बाद कई सेक्टरों में कारोबार बढऩे के साफ संकेत हैं। सुब्रमण्यम के मुताबिक, इस अगस्त का कारोबार पिछले साल अगस्त के लगभग बराबर ही चल रहा है। कई सेक्टर अप्रैल की स्थिति से बेहतर हो रहे हैं, जिसमें कोयला, तेल, गैस, रिफाइनरी प्रोडक्ट, उर्वरक, स्टील, सीमेंट और बिजली आदि शामिल हैं। उन्हें भरोसा है कि जल्द ही अर्थ-व्यवस्था पटरी पर लौट आयेगी।

सुब्रमण्यम का मानना है कि अर्थ-व्यवस्था की यह खराब स्थिति कोरोना वायरस की वजह से हुई है; लेकिन सरकार इससे जल्द ही उभर जाएगी। उनके मुताबिक, भारत की जीडीपी विकास दर मई में -23.9 फीसदी थी, जो जून में सुधरकर -15 फीसदी और जुलाई में और सुधरकर -12.9 फीसदी पर आ गयी। उनके मुताबिक, यह इस बात का संकेत है कि अनलॉक के बाद हालात बदले हैं और बेहतर समय आ रहा है।

हालाँकि आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का कहना है कि भारत में कोविड-19 महामारी आज की तारीख में तेज़ी से बढ़ रही है। लिहाज़ा ऐसे खर्च, जिनके लिए आपको फैसले करने पड़ते हैं; विशेष रूप से रेस्त्रां जैसी जगहों पर जहाँ काफी लोगों से सम्पर्क हो सकता है, तो इससे जुड़ी नौकरियाँ वायरस के खत्म होने तक कम रहेंगी। ऐसे में सरकार की ओर से दी जाने वाली राहत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। हालाँकि उनका कहना है कि मोदी नीत केंद्र सरकार आर्थिक पैकेज देने से शायद इसलिए हिचक रही है; क्योंकि वह सम्भवता भविष्य में पैकेज देने के लिए पैसे रख रही है। रघुराम राजन का साफ मानना है कि जब तक वायरस पर नियंत्रण नहीं हो जाता है, तब तक भारत में विवेकाधीन खर्च की स्थिति कमज़ोर रहेगी। राजन केंद्र सरकार की अब तक दी राहत को भी नाकाफी बताते हैं। आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को लगता है कि सरकार भविष्य में प्रोत्साहन पैकेज देने के लिए वर्तमान में संसाधनों को बचाने की रणनीति अपना रही है। उनके मुताबिक, यह आत्मघाती है। वह कहते हैं कि सरकारी अधिकारी सोच रहे हैं कि वायरस पर काबू पाये जाने के बाद राहत पैकेज देंगे; लेकिन ऐसा करके वह स्थिति की गम्भीरता को कम आँक रहे हैं। राजन के मुताबिक, इस रणनीति से बाद में अर्थ-व्यवस्था का बहुत ज़्यादा नुकसान हो चुका होगा।

वरिष्ठ अर्थशास्त्री रथिन रॉय कह चुके हैं कि ऐसा मानना कि ब्याज दरों में कटौती से अर्थ-व्यवस्था विकास के रास्ते पर लौट रही है; गलत होगा। उनके मुताबिक, यह तरीका काम नहीं कर रहा है। रॉय आरबीआई की मौद्रिक नीति के बयानों से भी सहमत नहीं हैं। याद रहे आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास दो चरणों में ब्याज दरों में 1.15 फीसदी की कमी कर चुके हैं। कई आर्थिक जानकार आर्थिक पैकेज और आरबीआई की ब्याज दरों में कटौती को लेकर सवाल खड़े कर चुके हैं।

भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जे.पी. नड्डा कहते हैं कि अर्थ-व्यवस्था खराब ज़रूर हुई है, लेकिन यह कोरोना वायरस और उसके कारण लोगों के जीवन को ध्यान में रखते हुए लगायी पाबन्दियों के कारण हुआ है। लेकिन अब इन पाबन्दियों में काफी ढील दी गयी है। वह अर्थ-व्यवस्था को लेकर विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री की निंदा से पूरी तरह असहमत हैं। उनके मुताबिक, प्रधानमंत्री ने आपूर्ति पर पूरा ध्यान दिया और आर्थिक पैकेज के कारण बाज़ार में नकदी बढ़ी। अर्थात् लोगों और व्यवसायों को कर्ज़ देने के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के पास पर्याप्त नकदी आयी। उनके मुताबिक, लोगों के खाते में पैसे भी डाले गये, जिसके सकारात्मक नतीजे निकले। बाज़ार खुलने से धीरे-धीरे अर्थ-व्यवस्था पटरी पर आ जाएगी।

कुएँ में जीडीपी

देश में अर्थ-व्यवस्था को लेकर आर्थिक विशेषज्ञ पिछले एक साल से सरकार को चेता रहे थे। हालाँकि सरकार का बार-बार कहना रहा कि चिन्ता की कोई बात नहीं है और सब कुछ सही चल रहा है। ज़ाहिर है कि सरकार राजनीतिक नुकसान के डर से सही आँकड़ों को छिपाती रही। हाल में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने चालू माली साल (वर्ष 2020-21) की पहली तिमाही (क्यू1) के जो जीडीपी आँकड़े जारी किये हैं, उनसे ज़ाहिर होता है कि इस वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी विकास दर माइनस 23.9 फीसदी रही है।

निश्चित ही पाँच ट्रिलियन अर्थ-व्यवस्था हासिल करने के दावों के लिए यह स्थिति बहुत बड़ा झटका है। इन आँकड़ों से ज़ाहिर होता है कि आने वाले दिन बहुत मुश्किल भरे हो सकते हैं। कोरोना वायरस से पहले ही अर्थ-व्यवस्था को लेकर चिन्ताएँ जतायी जा रही थीं और कोविड-19 के बाद तो यह रसातल में पहुँचती दिख रही है। जो आँकड़े सामने आये हैं, वो अभी तक के अनुमानों से भी बहुत खराब हैं। इस समय जीडीपी की दर माइनस (घाटे) में जाने का अर्थ है देश गरीबी की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है, जिस पर तत्काल काबू पाना होगा। यह पिछले 40 साल का अर्थ-व्यवस्था का सबसे कमज़ोर आँकड़ा है। इससे यह भी ज़ाहिर होता है कि अर्थ-व्यवस्था के क्षेत्र में आने वाले दिन बहुत चिन्ता वाले हो सकते हैं। अभी तक के आँकड़ों के मुताबिक, होटल इंडस्ट्री पर सबसे बड़ी मार पड़ी है।

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आँकड़े बताते हैं कि यदि इसी तिमाही में पिछले साल की बात करें, तो उस समय यह दर उससे कहीं कम है। रेटिंग एजेंसियाँ पहले से इसकी आशंका जता रही थीं; लेकिन यह उनके अनुमानों से भी खराब स्थिति है। बता दें वर्ष 2019-20 की अंतिम तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर 3.1 फीसदी थी। एनएसओ के मुताबिक, जीवीए में 22.8 फीसदी की गिरावट आयी है। वैसे तो अर्थ-व्यवस्था को लेकर आर्थिक जानकार पहले से गहरी चिन्ता जता रहे थे, लेकिन आँकड़ों को देखने से लगता है कि कोरोना वायरस महामारी और लॉकडाउन के कारण औद्योगिक उत्पादन में बड़ी कमी आयी है। रोज़गार के आँकड़ों में भी खासी गिरावट देखने को मिली है।

वैसे तो जुलाई से अनलॉक शुरू होने के बाद मज़दूर, दुकानदार, कर्मचारी और अन्य काम पर लौटने शुरू हुए हैं और व्यापार को भी कुछ गति मिली है। लेकिन अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर आने में अभी बहुत वक्त लगेगा। लॉकडाउन के दौरान करोड़ों लोगों की नौकरियाँ चली गयीं और अभी तक ऐसे संकेत नहीं मिल रहे कि बेरोज़गार हुए लोग दोबारा जल्दी रोज़गार पा सकेंगे। एनएसओ के आँकड़ों के मुताबिक, अप्रैल से जुलाई की तिमाही के दौरान भारत का राजकोषीय घाटा 8.21 लाख करोड़ रुपये रहा। इस अवधि में वर्ष 2019-20 में यह 5.47 लाख करोड़ रुपये था।

यह हैरानी की बात कोरोना वायरस का सबसे पहला और बड़ा संकट झेलने वाले और वर्तमान में सीमा पर भारत के साथ तनाव में उलझे चीन की अर्थ-व्यवस्था दुनिया के अन्य देशों में गम्भीर समस्या के बावजूद प्लस (3.2 फीसदी) में रही है। उसके अलावा वियतनाम ही ऐसा देश है, जहाँ जीडीपी प्लस (0.4 फीसदी) रही है।

बहुत-से आर्थिक जानकार कहते हैं कि तालाबन्दी के दौरान उपजी विपरीत परिस्थितियों में अधिकतर लोगों की जेबों में पैसे नहीं डाले गये, जिसके कारण माँग में बढ़ोतरी नहीं आ सकी। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी इसी मुद्दे को बहुत ज़ोर से उठाते रहे हैं। उनकी बार-बार माँग रही कि जनता की जेब में पैसे नहीं डाले गये, तो स्थिति चिन्ताजनक बन जाएगी; और ऐसा ही हुआ भी है। जानकारों का कहना है कि मई में आम लोगों के बैंक खातों में अगले छ: महीने के लिए हर महीने 10-10 हज़ार रुपये डाले जाने चाहिए थे। छोटे किसानों और महिलाओं को मनरेगा और दूसरी योजनाओं के ज़रिये रोज़गार दिये गये और नकदी भी; लेकिन माँग बढ़ाने के लिए मध्य वर्ग और अच्छे वेतन प्राप्त करने वालों को आर्थिक मदद नहीं दी गयी।

इस दौरान लाखों की संख्या में कर्मचारियों को या तो नौकरी से हाथ धोना पड़ा या उन्हें उनकी कम्पनियों ने काटकर वेतन दिया। हो सकता है कि केंद्र सरकार भविष्य में एक और आर्थिक पैकेज की घोषणा करे; लेकिन इन महीनों में जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई करना कठिन है। सरकार के बीच ही पैकेज को लेकर दुविधा है। अनलॉक के दूसरे महीने में भी लोगों के पास पैसे नहीं हैं और जिनके पास कुछ जमा पूँजी है भी, वे उसे खर्च करने से गुरेज़ कर रहे हैं। इसका कारण उनके सामने कई अनसुलझे डर हैं।

कोरोना वायरस के मामले जिस तेज़ी से बढ़ रहे हैं, इसके चलते बहुत-से लोग अभी घरों से नहीं निकल रहे हैं। ज़ाहिर है कि बाहर निकलकर जो पैसा वे खर्च कर सकते थे, वो नहीं खर्च रहे। इसका विपरीत असर व्यवसायों पर पड़ा है। इसी के कारण बहुत-से लोगों को नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा है, या उनके वेतन में कटौती की गयी है। आँकड़ों के मुताबिक, अप्रैल से जून के बीच निजी खपत महज़ 26.7 फीसदी रही। इसलिए रघुराम राजन जैसे आर्थिक विशेषज्ञ और कांग्रेस नेता राहुल गाँधी लगातार लोगों की जेब में पैसा डालने पर ज़ोर दे रहे हैं। यह सभी लोग कुछ उत्पादों में जीएसटी की दर घटाने और आर्थिक सुधार की कोशिश पर ज़ोर दे रहे हैं। वैसे केंद्र सरकार के निजीकरण को भी एक उपाय के तौर पर देखा जा रहा; लेकिन बहुत-से जानकार इसे आत्मघाती कदम बता रहे हैं।

बाकी तिमाहियों में भी कम उम्मीद : इकोरैप

सितंबर के शुरू में स्‍टेट बैंक ऑफ इंडिया की रिसर्च रिपोर्ट ‘इकोरैप’ भी सामने आयी है। इसमें 2020-21 के माली साल के दौरान भारत के वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद में 10.9 फीसदी तक की गिरावट की बात कही गयी है। इसके मायने हैं कि अगली चार तिमाहियों में भी देश की आर्थिक हालत लचर बनी रहेगी। यदि एसबीआई की इकोरैप रिपोर्ट पर नज़र डालें, तो उसने पहले के मुकाबले ज़्यादा गिरावट का अनुमान लगाया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही यानी अप्रैल-जून 2020 में देश की अर्थ-व्यवस्था माइनस 23.9 फीसदी तक नीचे चली गयी है। वित्त वर्ष 2019-20 की समान तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर 5.2 फीसदी रही थी। इससे पहले एसबीआई-इकोरैप में वास्तविक जीडीपी में 6.8 फीसदी की गिरावट का अनुमान लगाया गया था, यानी देश के सबसे बड़े कर्ज़दाता ने इस बार पहले के मुकाबले 4.1 फीसदी ज़्यादा तक की गिरावट का अनुमान लगाया है। बीते वित्त वर्ष की चौथी तिमाही यानी जनवरी-मार्च 2020 में जीडीपी की वृद्धि दर 3.1 फीसदी रही थी। एसबीआई-इकोरैप रिपोर्ट में कहा गया है कि एसबीआई के शुरुआती अनुमान के मुताबिक, वित्त वर्ष 2020-21 की चारों तिमाहियों में वास्तविक जीडीपी में गिरावट आयेगी। पूरे वित्त वर्ष में जीडीपी में 10.9 फीसदी की गिरावट आयेगी। रिपोर्ट के मुताबिक, चालू माली साल की दूसरी तिमाही में वास्तविक जीडीपी में 12 से 15 फीसदी की गिरावट आ सकती है; जबकि तीसरी तिमाही में यह शून्‍य से 5-10 फीसदी (-5 फीसदी से -10 फीसदी) नीचे रहेगी। रिपोर्ट के मुताबिक, इसी तरह चौथी तिमाही में वास्तविक जीडीपी में दो से पाँच फीसदी की गिरावट आयेगी। इकोरैप में कहा गया है कि कोविड-19 का प्रसार रोकने के लिए देश में 25 मार्च से लॉकडाउन लगाया गया, जिससे जीडीपी में गिरावट आयी। यह गिरावट बाज़ार और बैंक के अपने पहले के अनुमान से ज़्यादा है। बैंक ने जैसा अनुमान लगाया था, ठीक वैसे ही पर्सनल फाइनल कंज्‍यूमर एक्‍सपेंसेस में (पीएफसीई) की वृद्धि में ज़ोरदार गिरावट आयी। कोविड-19 की वजह से ज़्यादातर आवश्यक वस्तुओं का इस्तेमाल घटा और क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं होने से निवेश माँग नहीं सुधर रही है। ऐसे में कुल जीडीपी अनुमान में निजी उपभोग व्यय का हिस्सा ऊँचा रहेगा। ज़ाहिर है कि इकोरैप की यह रिपोर्ट अर्थ-व्यवस्था के लिहाज़ से कोई सुखद संकेत नहीं करती है।

कामथ समिति की रिपोर्ट में मुश्किल सेक्टर

  1. पॉवर, 2. कंस्ट्रक्शन, 3. आयरन एंड स्टील मैन्युफैक्चरिंग, 4. सडक़, 5. रियल एस्टेट, 6. ट्रेडिंग-होलसेल, 7. टेक्सटाइल, 8. केमिकल्स, 9. कंज्यूमर ड्यूरेबल्स/एफएमसीजी, 10. नॉन-फेरस मेटल्स, 11. फार्मास्यूटिकल्स मैन्युफक्चरिंग, 12. लॉजिस्टिक्स, 13. जेम्स ऐंड ज्वैलरी, 14. सीमेंट, 15. ऑटो कम्पोनेंट, 16. होटल, रेस्टोरेंट, टूरिज्म, 17. माइनिंग, 18. प्लास्टिंग प्रोडक्ट्स मैन्युफैक्चरिंग, 19. ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरिंग, 20. ऑटो डीलरशिप, 21. एविएशन, 22. शुगर, 23. पोर्ट ऐंड पोर्ट सर्विसेज, 24. शिपिंग, 25. बिल्डिंग मटीरियल्स और 26. कॉरपोरेट रिटेल आउटलेट्स।

वैश्विक आर्थिक स्वतंत्रता सूचकांक में लुढक़ा भारत

ग्लोबल इकोनामिक फ्रीडम इंडेक्स (वैश्विक आर्थिक स्वतंत्रा सूचकांक) 2020 के 10 सितंबर को जारी किये आँकड़ों में भारत 26 स्थान नीचे लुढक़कर कमज़ोर 105वें स्थान पर जा पहुँचा है। कनाडा की एक संस्था हर साल यह रिपोर्ट जारी करती है, जिसमें किसी देश में कारोबार के वातावरण के खुलेपन का पता चलता है। यह रिपोर्ट फ्रेजर इंस्टीट्यूट तैयार करता है। पिछले साल भारत इस रिपोर्ट में 79वें स्थान पर था। यह रिपोर्ट 162 देशों और अधिकार क्षेत्रों में आर्थिक स्वतंत्रता को आँका गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले एक साल में सरकार के आकार, न्यायिक प्रणाली और सम्पत्ति के अधिकार, वैश्विक स्तर पर व्यापार की स्वतंत्रता, वित्त, श्रम और व्यवसाय के विनियमन जैसी कसौटियों पर भारत की स्थिति खराब हुई है। 10 अंक के पैमाने पर सरकार के आकार के मामले में भारत को एक साल पहले के 8.22 के मुकाबले 7.16 अंक, कानूनी प्रणाली के मामले में 5.17 की जगह 5.06, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की स्वतंत्रता के मामले में 6.08 की जगह 5.71 और वित्त, श्रम और व्यवसाय के विनियमन के मामले में 6.63 की जगह 6.53 अंक मिले हैं। सूची में प्रथम 10 देशों में न्यूजीलैंड, स्विट्जरलैंड, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, मॉरीशस, जॉर्जिया, कनाडा और आयरलैंड शामिल हैं। जापान को सूची में 20वाँ, जर्मनी को 21वाँ, इटली को 51वाँ, फ्रांस को 58वाँ, रूस को 89वाँ और ब्राजील को 105वाँ स्थान मिला है। बता दें कि जो देश प्राप्तांक 10 के जितने करीब होता है, स्वतंत्रा उसी अनुपात में अधिक मानी जाती है। यह रिपोर्ट भारत में दिल्ली की गैर-सरकारी संस्था सेंटर फॉर सिविल सोसायटी ने 10 अगस्त को जारी की। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में आर्थिक स्वतंत्रा बढऩे की सम्भावनाएँ अगली पीढ़ी के सुधारों और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के खुलेपन पर निर्भर करेंगी। रिपोर्ट में व्यक्तिगत पसन्द का स्तर, बाज़ार में प्रवेश की योग्यता, निजी सम्पत्ति की सुरक्षा, कानून का शासन सहित अन्य मानकों को देखा जाता है। इसके लिए विभिन्न देशों की नीतियों और संस्थानों का विश्लेषण किया जाता है। जिन देशों को सबसे नीचे स्थान मिला है, उनमें अफ्रीकी देश, कांगो, जिम्बाब्वे, अल्जीरिया, ईरान, सूडान, वेनेजुएला आदि शामिल हैं।

केंद्र सरकार ने युवाओं का भविष्य कुचल दिया : राहुल गाँधी

कोरोना वायरस महामारी के शुरू से ही कांग्रेस नेता राहुल गाँधी केंद्र सरकार की तैयारियों और फैसलों के कटु आलोचक रहे हैं। वह बार-बार कह चुके हैं कि जब तक सरकार आम आदमी की जेब में पैसा नहीं डालती, स्थिति सही नहीं हो सकती। वह केंद्र सरकार पर हमले के लिए कांग्रेस की स्पीकअप मुहिम के तहत वीडियो सीरीज भी चला रहे हैं। राहुल केंद्र सरकार को भारत की गिरती अर्थ-व्यवस्था को लेकर ज़िम्मेदार बता रहे हैं। उन्होंने एक वीडियो में कहा है कि केंद्र सरकार ने देश के युवाओं के भविष्य को कुचल दिया है। राहुल कोरोना वायरस के चलते किये गये केंद्र सरकार के लॉकडाउन को गलत बता रहे हैं। उन्होंने कहा है कि भारत की सुस्त अर्थ-व्यवस्था के चलते जीडीपी गिर गयी। तमाम युवा बेरोज़गार हो गये। गाँधी का यह भी कहना है कि केंद्र सरकार की नीतियों से करोड़ों की नौकरियों चली गयीं। जीडीपी में ऐतिहासिक गिरावट आयी है। इसने भारत के युवाओं के भविष्य को कुचल दिया है। आइए, सरकार को उनकी आवाज़ सुनाते हैं। वीडियो में राहुल कहते हैं कि कोरोना वायरस महामारी में बिना सोचे समझे किये गये लॉकडाउन से बड़ा नुकसान हुआ है। जीडीपी में 23.9 फीसदी गिरावट दर्ज हुई है। लाखों की नौकरियाँ चली गयी हैं। मध्यम और छोटे व्यापार तबाह हो गये हैं। केंद्र सरकार गरीब परिवारों और बेरोज़गारों को तुरन्त न्याय दे। राहुल गाँधी लॉकडाउन को असंगठित वर्ग के लिए मृत्युदण्ड के बराबर बता चुके हैं। उन्होंने देश की खराब आर्थिक हालत पर हमला बोलते हुए एक अन्य वीडियो में कहा कि बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन लगाने से भारतीय अर्थ-व्यवस्था को गहरा धक्का पहुँचा है और यह मोदी शासित केंद्र सरकार का असंगठित क्षेत्र पर तीसरा बड़ा हमला है। राहुल के मुताबिक, छोटे, सूक्ष्म और मझौले क्षेत्र में काम करने वाले लोग रोज़ कमाने-खाने वाले हैं। जब आपने बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन की घोषणा की, तो ये गरीबों पर हमला था।

अगर आप अर्थ-व्यवस्था को एक मरीज़ की तरह देखें, तो उसे लगातार इलाज की ज़रूरत है। राहत के बिना लोग खाना छोड़ देंगे। वह बच्चों को स्कूल से निकाल देंगे और उन्हें काम करने या भीख माँगने के लिए भेज देंगे। कर्ज़ लेने के लिए अपना सोना गिरवी रख देंगे; ईएमआई और मकान का किराया बढ़ते जाएँगे। इसी तरह राहत के अभाव में छोटी और मझोली कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पाएँगी, उनका कर्ज़ बढ़ता जाएगा, और अन्त में वो बन्द हो जाएँगी। इस तरह जब तक कोरोना वायरस पर काबू होगा, तब तक अर्थ-व्यवस्था बर्बाद हो जाएगी। यह धारणा गलत है कि सरकार राहत और प्रोत्साहन, दोनों पर खर्च नहीं कर सकती है। संसाधनों को बढ़ाने और चतुराई के साथ खर्च करने की ज़रूरत है। ऑटो जैसे कुछ सेक्टर्स में माँग में तेज़ी वी-शेप्ड रिकवरी का प्रमाण नहीं हैं।’

रघुराम राजन, पूर्व गवर्नर, आरबीआई 

‘जब कोरोना वायरस आया था और लॉकडाउन लगाने की बात चल रही थी। उस वक्त पश्चिमी देश लोगों की जान और अर्थ-व्यवस्था को लेकर असमंजस की स्थिति में थे। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का साफ कहना था कि जान है, तो जहान है। इसलिए प्रधानमंत्री ने देश में लॉकडाउन लगाने में कोई देरी नहीं की, जिसके कारण कोरोना वायरस का कहर भारत में वैसा नहीं दिखा जैसा अमेरिका और कई पश्चिमी देशों में देखने को मिला। अर्थ-व्यवस्था को सँभालने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने कई उपाय किये हैं। अर्थ-व्यवस्था के लिए 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज और किसानों के लिए एक लाख करोड़ से अधिक की आर्थिक सहायता की घोषणा की गयी है। प्रधानमंत्री ने अर्थ-व्यवस्था में जान फूँकने के लिए एमएसएमई की परिभाषा में बदलाव लाया। साथ ही किसानों को उनकी खाद्यान्न का उचित मूल्य मिले इसके लिए मण्डियों की व्यवस्था में भी सुधार किया गया। रेहड़ी और फड़ वालों के लिए भी प्रधानमंत्री मोदी ने मुआवज़े की घोषणा की। लोकल के लिए वोकल होने का नारा अर्थ-व्यवस्था को मज़बूती देने की ही कवायद है।

जेपी नड्डा, भाजपा अध्यक्ष

 

अर्थ-व्यवस्था का ग्राफ/एशिया

* चीन    +3.2 फीसदी

* वियतनाम        +0.4 फीसदी

* ताइवान           -0.6 फीसदी

* दक्षिण कोरिया  -2.9 फीसदी

* इंडोनेशिया      -5.3 फीसदी

* अमेरिका         -9.5 फीसदी

* जापान -9.9 फीसदी

* थाईलैंड           -12.2 फीसदी

* सिंगापुर           -13.2 फीसदी

* मलेशिया         -17.1 फीसदी

* भारत  -23.9 फीसदी

प्रमुख देश/दुनिया

* इंग्लैंड -21.7 फीसदी

* इटली  -17.7 फीसदी

* फ्रांस   -18.9 फीसदी

* कनाडा            -13 फीसदी

* जर्मनी -11.3 फीसदी

* जापान -9.9 फीसदी

(विभिन्न स्रोतों से उपलब्ध जानकारी के आधार पर)

मुद्रास्फीति की वापसी

भारत में मुद्रास्फीति अक्टूबर, 1974 में सर्वाधिक 34.7 फीसदी और मई, 1976 में 11.3 फीसदी के निचले स्तर को छू चुकी है। अब 2020 की बात करें, तो इससे पहले और 2019-20 की पहली छमाही के दौरान 4 फीसदी के लक्ष्य से नीचे थी, जबकि दूसरी छमाही के दौरान मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी दर्ज की गयी और और जनवरी, 2020 में यह पिछले 68 महीनों के दौरान सर्वाधिक उच्च स्तर 7.6 फीसदी पर पहुँच गयी।

आरबीआई ने मुद्रास्फीति की पुष्टि की

संकट के इस दौर में चेतावनी भरी मुद्रास्फीति की पुष्टि भारतीय रिजर्व बैंक ने की है। 25 अगस्त, 2020 को जारी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में आरबीआई ने बताया कि भारत में दिसंबर, 2019 से फरवरी, 2020 के दौरान, मौद्रिक मुद्रास्फीति ने मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के लिए अनिवार्य मुद्रास्फीति की तय सीमा को पार कर दिया।

मुद्रास्फीति के अन्त: वर्ष वितरण में भी फर्क देखा गया, जबकि साल की दूसरी छमाही के दौरान खाद्य मुद्रास्फीति में वृद्धि देखी गयी।

सन् 2019 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दावा किया था कि महँगाई पूरी तरह से नियंत्रण में है। महँगाई को लेकर हमारी सरकार पर कोई सवाल नहीं उठा सकता है। सन् 2014 के बाद से महँगाई दर में कोई तेज़ी नहीं आयी है। यह सन् 2009 से 2014 (यूपीए के दौरान) पर था, जब आवश्यक वस्तुओं की कीमतें दो अंक में थीं।

माँग-आपूर्ति में अवरोध

आरबीआई की रिपोर्ट यह साबित होता है कि अप्रैल, 2020 के बाद खाद्य कीमतों में इज़ाफा हुआ है, जो मुद्रास्फीति बढऩे का अहम कारक कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए लगाये गये एक राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के कारण आपूर्ति में अवरोध रहा।

खाद्य कीमतों में भारी वृद्धि ने भारत की खुदरा मुद्रास्फीति को नवंबर में 5.54 फीसदी तक पहुँचा दिया, जो पिछले 68 महीने के उच्च स्तर पर यानी 7.60 फीसदी तक पहुँच गयी; जबकि इसी अवधि में थोक मूल्य आधारित मुद्रास्फीति 2.59 फीसदी बढ़ गयी। सकल घरेलू उत्पाद के निराशाजनक परिणाम के अनुमानों के साथ ये आँकड़े सरकार के महँगाई न होने के लम्बे दावों को भी खोखला साबित कर रहे हैं।

सब्ज़ियों की कीमतें आसमान पर

2019-20 की पहली छमाही के दौरान 4 फीसदी के लक्ष्य के नीचे रहने के बाद दूसरी छमाही के दौरान मुद्रास्फीति बढ़ गयी और जनवरी, 2020 में 7.6 फीसदी पहुँचने के साथ पिछले करीब साढ़े पाँच साल के उच्च स्तर पर पहुँच गयी। सितंबर से दिसंबर, 2019 तक खरीफ की फसल-अवधि के दौरान बेमौसम बारिश से हुए नुकसान और दक्षिण-पश्चिम मानसून (एसडब्ल्यूए) में भी बारश के साथ चलते फसलों को नुकसान हुआ; साथ ही सब्ज़ियों की आपूर्ति में भी बाधा हुई, जिससे कीमतें आसमान पर पहुँच गयीं।

2019-20 में पूरे वर्ष के लिए मुद्रास्फीति औसतन 4.8 फीसदी दर्ज की गयी, जो पिछले एक साल की तुलना में 136 आधार अंक (बीपीएस) ज़्यादा रही। सितंबर, 2019 से मुद्रास्फीति में वृद्धि के साथ 2019-20 की दूसरी छमाही के दौरान महँगाई की मार का आसर दिखा, जिसमें मुद्रास्फीति 103 बीपीएस से अगले तीन महीने में 133 बीपीएस तक पहुँच गयी।

दूसरी छमाही के दौरान स्थिति उलट गयी और खाद्य मुद्रास्फीति के शीर्ष पर रही, जिसमें भोजन और ईंधन की कीमतों को छोडक़र स्थिति नियंत्रण में रही। फरवरी, 2019 से फरवरी, 2020 तक ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी ने मुद्रास्फीति को कम कर दिया था; लेकिन मार्च, 2020 में इस पर दबाव बढ़ गया।

खाद्य और पेय पदार्थ

अप्रैल, 2019 में खाद्य और पेय पदार्थों की कीमतों में मुद्रास्फीति 1.4 फीसदी से बढक़र दिसंबर, 2019 में 12.2 फीसदी पर पहुँच गयी। परिणामस्वरूप कुल मुद्रास्फीति के योगदान में जहाँ 2019-20 से एक साल पहले 9.6 फीसदी था, वह बढक़र 57.8 फीसदी हो गया। दक्षिण-पश्चिम मानसून (एसडब्ल्यूएम) की शुरुआत में लगभग एक सप्ताह की देरी, इसके बाद वापसी में काफी देरी (39 दिनों तक) के बाद हालात और खराब हो गये, जिससे खाद्य व पेय पदार्थों की कीमतों में भारी इज़ाफा दर्ज किया गया। इसके अतिरिक्त चक्रवाती तूफान और बेमौसम बारिश के कारण दिसंबर-जनवरी 2019-20 के दौरान खरीफ फसलों की, मुख्य रूप से सब्ज़ियों और दालों की आपूर्ति बाधित हुई, जिससे काफी नुकसान हुआ। इससे अचानक से अनाज, दूध, अण्डे, मांस और मछली और मसालों जैसी वस्तुओं की कीमतों में भारी उछाल देखा गया। जनवरी-मार्च, 2020 के दौरान सर्दी के दिनों में सब्ज़ियों की कीमतों में मामूली राहत मिली।

सब्ज़ियों की कीमतों में कमी रहने के बहुत-से कारण रहे। खाद्य और पेय पदार्थों ने 2019-20 के दौरान समग्र खाद्य मुद्रास्फीति के हिसाब से अच्छा नहीं कहा जा सकता। सब्ज़ियों को छोडक़र खाद्य मुद्रास्फीति 2019-20 (सब्ज़ियों सहित 6.0 फीसदी) में औसतन 236 बीपीएस कम हो गयी। फसलों को हुए नुकसान के चलते ऐतिहासिक सब्ज़ियों की महँगाई दिसंबर, 2019 में ऐतिहासिक स्तर पर 60.5 फीसदी के उच्च स्तर को छू गयी।

सब्ज़ियों में प्याज की कीमतों ने जून, 2019 से ही बाज़ार में हाहाकार मचा दिया, जिसकी वजह मंदी और विपरीत हालात बने; क्योंकि सूखे जैसी स्थिति के कारण रबी की फसल में पैदा होने वाली प्याज की आवक कम होने से बाज़ार में इसकी कमी से यह महँगी हो गयी।

फसलों को नुकसान

सितंबर-अक्टूबर, 2019 के दौरान बेमौसम बारिश ने महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के प्रमुख उत्पादक राज्यों में खरीफ की फसल वाली प्याज को नुकसान पहुँचाया, जिससे सितंबर, 2019 से कीमतों में तेज़ी आयी। इसके अलावा बारिश की वजह से खरीफ फसल वाली प्याज को खराब कर दिया।

दिसंबर, 2019 में प्याज की महँगाई दर 327.4 फीसदी पर पहुँच गयी। सितंबर, 2019 में थोक व्यापारियों और खुदरा विक्रेताओं पर स्टॉक होल्डिंग की सीमा लागू करते हुए आपूर्ति का 850 डॉलर प्रति टन का न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) लागू कर दिया। इसके अलावा सरकार ने 1.2 लाख टन के प्याज आयात करने की घोषणा नवंबर-दिसंबर, 2019 में तुर्की, अफगानिस्तान और मिस्र से की, ताकि कीमतों के दबाव को कम किया जा सके।

आलू की कीमतों में भी साल भर (सितंबर, 2019 और फरवरी, 2020 तक) की वृद्धि हुई, मुख्य रूप से बेमौसम और अधिक बारिश के कारण। इससे तैयार फसलों को नुकसान तो पहुँचाया ही साथ ही बाज़ारों में आपूर्ति बाधित हुई। नतीजतन नवंबर, 2019 में 7 महीनों के लगातार अपस्फीति के बाद जनवरी, 2020 में आलू की कीमत मुद्रास्फीति 63 फीसदी के उच्च स्तर पर पहुँच गयी। टमाटर की कीमतों के मामले में मई, 2019 में मुद्रास्फीति 70 फीसदी पर पहुँच गयी। दिसंबर, 2019 तक उच्च दोहरे अंकों में महाराष्ट्र में देरी से पैदावार और कर्नाटक में फसलों को नुकसान की वजह से प्रमुख आपूर्तिकर्ता राज्यों- कर्नाटक, महाराष्ट्र और हिमाचल प्रदेश से आवक नहीं हो सकी। हालाँकि नवंबर, 2019 से फरवरी, 2020 के दौरान टमाटर की कीमतें सामान्य मौसमी पैटर्न के अनुरूप रहीं। लेकिन अब टमाटर फिर से बहुत महँगा हो चुका है।

अनाज़ की कीमतें

अनाज और उत्पादों की कीमतों में भी 2019-20 के दौरान देखा गया कि इनकी कीमतों में लगातार बढ़ोतरी हुई। कीमतों में अप्रैल, 2019 में 1.2 फीसदी से जनवरी-मार्च, 2020 के दौरान लगभग 5.3 फीसदी की वृद्धि हुई। गेहूँ के मामले में वर्ष के दौरान मुद्रास्फीति में औसतन 6.5 फीसदी की वृद्धि हुई। उच्च स्तर पर खरीदारी के चलते आयात भी सीमित (2019-20 में 31.4 प्रति फीसदी कम) हुआ। जनवरी, 2019 में गैर-पीडीएस चावल की कीमतें सकारात्मक मूल्य दबाव और प्रतिकूल आधार प्रभाव के कारण अक्टूबर, 2019 में अपस्फीति के 11 महीनों में ऊपर आ गयीं, जिनकी जनवरी, 2020 में मुद्रास्फीति का स्तर 4.2 फीसदी पर पहुँच गया।

दूध के दाम बढ़े

दूध और इसके उत्पादों की कीमतें भी साल भर माँग के चलते बढ़ीं। दूध की खरीद की कीमतों में वृद्धि के कारण अमूल और मदर डेयरी जैसी प्रमुख दुग्ध सहकारी समितियों ने खुदरा दूध की कीमतें प्रति लीटर दो बार- मई और फिर दिसंबर, 2019 में बढ़ा दीं। इसके बाद दुग्ध सहकारी समितियों द्वारा इसी तरह की बढ़ोतरी की गयी अन्य राज्यों में वर्ष के दौरान दूध और उत्पादों की कीमतों में इज़ाफा किया गया। चारे की उपलब्धता कम होने के कारण उत्पादन की लागत में वृद्धि हुई है, जिसके चलते खुदरा कीमतों में इज़ाफा दर्ज किया गया। मार्च, 2020 में दूध की महँगाई दर 6.5 फीसदी पर पहुँच गयी।

दालों की कीमतों ने छुआ आसमान

मई, 2019 में 29 महीने के लम्बे समय तक अपस्फीति की समाप्ति के साथ दालों की कीमतों में इज़ाफा सन् 2019-20 की शुरुआत से हुआ। पर्याप्त पैदावार के बावजूद, 2018-19 के दौरान आयात में पर्याप्त गिरावट (54 फीसदी) दर्ज की गयी। इसके अतिरिक्त दालों के उत्पादन में गिरावट के तमाम अनुमानों को देखते हुए 2019-20 के दौरान आयात में लगभग 14.6 फीसदी की बढ़ोतरी होने के बावजूद, मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी हुई। प्रोटीन युक्त वस्तुओं, जैसे कि अण्डा, मांस और मछली में मुद्रास्फीति औसतन 4.5 फीसदी और 9.3 फीसदी रही; जो कि पिछले छ: वर्षों में सबसे अधिक थी। इसके साथ ही 2019-20 के दौरान कुल खाद्य मुद्रास्फीति का 13.7 फीसदी रही। मांस और मछली की कीमतों की वजह इनके लिए ज़रूरी बीज जैसे कि मक्का और सोयाबीन आदि की कीमतें भी बढ़ीं। इसी तरह सितंबर, 2019 से जनवरी, 2020 के दौरान अण्डे की कीमतों में वृद्धि देखी गयी। हालाँकि कोविड-19 के प्रकोप और प्रसार के साथ फरवरी-मार्च, 2020 के दौरान पोल्ट्री की खपत कम हो गयी और कीमतों में भारी कमी आयी।

चीनी और मिष्ठान

अन्य प्रमुख खाद्य पदार्थों में चीनी और मिष्ठान और तेल और वसा ने भी समग्र खाद्य मुद्रास्फीति को बढ़ाया। इससे पहले के उच्च कीमतों के मामले में हालाँकि बाद में घरेलू उत्पादन में गिरावट को दर्शाता है।

मसालों के दाम में भी उछाल

मसाले की कीमतें, विशेष रूप से सूखी मिर्च और हल्दी के उत्पादन में कमी के कारण इनकी कीमतों में काफी उछाल दर्ज किया गया।

आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, मुद्रास्फीति के अन्य संकेतक और 2019-20 के दौरान औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित सेक्टोरल सीपीआई मुद्रास्फीति दिसंबर, 2019 में बढक़र 9.6 फीसदी (73 महीने में उच्चतम) पर पहुँच गयी। इसकी मुख्य वजह आवास और भोजन की कीमतों में इज़ाफा रहा। कृषि श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और ग्रामीण मज़दूरों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति हुई, जिसमें आवास घटक नहीं है। पिछले वित्त वर्ष के दौरान उसमें भी वृद्धि हुई और यह क्रमश: 11.1 फीसदी व 10.6 फीसदी तक पहुँच गयी। दिसंबर, 2019 में (72 महीनों में सबसे अधिक) से पहले भोजन की कीमतों में नरमी रही थी।

अस्थिरता का माहौल

आरबीआई की रिपोर्ट कहती है कि वित्तीय बाज़ारों में बढ़ी अस्थिरता का असर मुद्रास्फीति पर भी पड़ता है। खाद्य और ईंधन की कीमतों का झटका सभी घरों की मुद्रास्फीति की उम्मीदों को प्रभावित कर सकता है, जो प्रकृति व संवेदनशीलता के अनुकूल नहीं है। इसलिए मौद्रिक नीति को मूल्य आंदोलनों पर निरंतर सतर्कता बरतनी होगी, खासकर ऐसी स्थिति में जब सामान्यीकृत मुद्रास्फीति के हालात बनते हैं।

सक्रिय दृष्टिकोण की ज़रूरत

केंद्र सरकार के लिए यह इंतज़ार करने और देखने का समय नहीं है; क्योंकि आम आदमी के सब्र का इम्तिहान कभी भी टूट सकता है। सरकार को माँग-आपूर्ति की खाई को पाटने के लिए सक्रिय दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है और जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए; जो कोरोना वायरस जैसी महामारी द्वारा उत्पन्न अनिश्चितता का फायदा उठाते हैं। केंद्र सरकार इसे ईश्वर का काम कहकर नहीं बच सकती; क्योंकि तथ्य यह है कि उच्च बेरोज़गारी और स्थिर माँग के साथ उच्च मुद्रास्फीति न केवल अर्थ-व्यवस्था, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी नुकसान पहुँचा रही है।

जीडीपी की चिन्ता

31 अगस्त, 2020 को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी किये गये सकल घरेलू उत्पाद का अनुमान भी चिन्ता का बड़ा सबब है, जो पहली तिमाही अप्रैल से जून 2020-21 तक का है। रिपोर्ट के अनुसार, 2020-21 की पहली तिमाही में निरंतर कीमतों पर जीडीपी का अनुमान 26.90 लाख करोड़ रुपये है, जबकि 2019-20 की पहली तिमाही में 35.35 लाख करोड़ रुपये की तुलना में 23.9 फीसदी का संकुचन दिखा। वहीं पिछले वर्ष इसी दौरान यह 5.2 फीसदी रहा। 2020-21 की पहली तिमाही के लिए लगातार कीमतों पर बेसिक मूल्य पर त्रैमासिक सकल मूल्य 25.53 लाख करोड़ रुपये का अनुमान है, जबकि 2019-20 की पहली तिमाही में 33.08 लाख करोड़ रुपये के मुकाबले, 22.8 फीसदी का संकुचन दिखा।

वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में जीडीपी का मूल्य 38.08 लाख करोड़ रुपये अनुमानित है, जबकि 2019-20 की पहली तिमाही में 49.18 लाख करोड़ रुपये था, जो 2019-20 में 8.1 फीसदी वृद्धि की तुलना में 22.6 फीसदी था। 2020-21 में वर्तमान मूल्य पर आधार मूल्य में सकल मूल्य को जोडक़र 35.66 लाख करोड़ रुपये अनुमानित है, जबकि 2019-20 में 44.89 लाख करोड़ रुपये था, यानी इसमें 20.6 फीसदी का संकुचन दिखा।

कांग्रेस को खड़ा करने की कवायद

कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने की प्रक्रिया आखिर शुरू हो गयी है। लम्बे समय के बाद कांग्रेस संगठन में बड़े पैमाने पर फेरबदल किया गया है। नयी कांग्रेस कार्यसमिति बनायी गयी है और महासचिवों के स्तर पर भी बड़ा फेरबदल किया गया है। कई पुराने नेताओं का कद घटा दिया गया है; जबकि युवाओं को अधिक अवसर दिये गये हैं। राहुल गाँधी के समर्थक अहम पद पाने में सफल रहे हैं; जबकि प्रियंका गाँधी को उत्तर प्रदेश के प्रभारी का पूरा ज़िम्मा दे दिया गया है। संसद के सत्र से पहले कांग्रेस की यह कोशिश मोदी शासित केंद्र सरकार के खिलाफ लामबन्द होने का संकेत देती है।

हाल में पार्टी अध्यक्ष को चिट्ठी लिखने वाले नेताओं में से कई का कद घटा दिया गया है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने संगठन चलाने और संचालन में अपनी मदद के लिए जिस विशेष समिति का गठन किया, उसमें ए.के. एंटनी, अहमद पटेल और अंबिका सोनी शामिल हैं। संगठन से जुड़े मामलों में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की मदद के लिए विशेष समिति में के.सी. वेणुगोपाल, मुकुल वासनिक, रणदीप सुरजेवाला भी शामिल होंगे। एक अन्य महत्त्वपूर्ण फैसले के तहत गुलाम नबी आज़ाद, अंबिका सोनी, मोतीलाल वोरा, मल्लिकार्जुन खडग़े को महासचिव पद से हटा दिया गया है।

वैसे पार्टी में फेरबदल की ज़रूरत काफी समय से महसूस की जा रही थी; क्योंकि आम कार्यकर्ताओं का मानना है कि राहुल को पार्टी अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी सँभालकर पूरी तरह संगठन को मज़बूत करने में जुट जाना चाहिए। पार्टी की युवा इकाई में पदाधिकारी रहे रमन सिंह का कहना है कि आज की तारीख में राहुल ही पूरे विपक्ष में ऐसे नेता हैं, जिनका राष्ट्रव्यापी आधार है। रमन ने कहा- ‘जिन 23 वरिष्ठ नेताओं की चिट्ठी को पार्टी के बीच विद्रोह बताया जा रहा है, वह भाजपा की शरारत है। यह विद्रोह नहीं, बल्कि कांग्रेस को मज़बूत करने की ज़िक्र है। मोदी के नेतृत्व में सरकार बहुत से मोर्चों पर जिस तरह फेल हुई है, उससे आम आदमी में अब तेज़ी से नाराज़गी उभर रही है।

राहुल गाँधी को पार्टी की कमान सँभालकर पूरी ताकत से मोदी सरकार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू करना चाहिए। कांग्रेस के भीतर बेचैनी का सबसे बड़ा कारण अगले लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी को बहुत मज़बूती से दोबारा खड़ा करने की चिन्ता है। पार्टी के किसी भी राज्य स्तर के नेता या ज़मीनी स्तर पर छोटे कार्यकर्ता से बात कर लो, वह आपको कहेगा कि हमें किसी भी सूरत में अगला चुनाव नहीं हारना है। अगर ऐसा हुआ, तो पार्टी बिखर जाएगी। चुनाव में जीत को पार्टी के कार्यकर्ता सबसे बड़ी खुराक मानते हैं। दिल्ली में कांग्रेस के एक पूर्व विधायक ने कहा- ‘आप याद करें, तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद अचानक कांग्रेस को राष्ट्र स्तर पर कितनी तबज्जो मिलनी शुरू हो गयी थी। इन चुनावों के बाद भाजपा ने विधानसभा का कोई चुनाव नहीं जीता है। लेकिन कांग्रेस उस माहौल को बनाकर नहीं रख पायी। हालाँकि इसके यह मायने नहीं हैं कि कांग्रेस का अस्तित्व ही खत्म हो गया है। भाजपा भी पाँच साल सत्ता में रहने के बाद सन् 2004 और सन् 2009 में लगातार दो लोकसभा चुनाव हारी थी। लिहाज़ा कोई ऐसी बात नहीं है कि कांग्रेस के लोग निराशा होकर घर बैठ जाएँ। भाजपा ने कांग्रेस की हार को लेकर जैसा दुष्प्रचार किया है, वो उसके अपने भीतर के डर को उजागर करता है। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जो जज़्बात पार्टी नेताओं के भीतर उठे थे और जैसी तल्खी उभरी थी, वह अब धीरे-धीरे कम हो रही है और पार्टी के भीतर सभी नेता इस घटना को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं, जिनसे इस संवाददाता की बात हुई है, उससे यही नतीजा निकलता है कि आने वाले समय में पार्टी एक मज़बूत दल के तौर पर उभरेगी। इन नेताओं के मुताबिक, संगठन के भीतर संवाद की प्रक्रिया जारी है। एक वरिष्ठ नेता ने कहा- ‘अध्यक्ष के चुनाव से पहले विस्तृत तौर पर संगठन को लेकर सुझाव मिलेंगे और इन सबको नज़र में रखते हुए भविष्य की तैयारी की जाएगी।’

कांग्रेस की अहम बैठकों में जिस तरह अब तमाम वरिष्ठ नेता दिखने लगे हैं, उससे ज़ाहिर होता है कि पार्टी के भीतर तल्खी को काम करने की आलाकमान के स्तर पर कोशिश हुई है। गुलाम नबी आज़ाद जैसे कांग्रेस के समर्पित और वफादार नेता अब फिर बैठकों में दिखने लगे हैं और अपने सुझाव दे रहे हैं। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक, जिसमें 23 बड़े नेताओं के पत्र बम्ब ने बड़ी हलचल पैदा की थी, के बाद संसद के मानसून सत्र की तैयारी के लिए सोनिया गाँधी के नेतृत्व में 8 अगस्त को हुई पार्टी के संसदीय रणनीति समूह की बैठक में अच्छा माहौल देखने को मिला और आज़ाद सहित तमाम नेताओं ने खुलकर अपने सुझाव रखे। कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता चाहते हैं कि देश भर में राज्यों में मज़बूत और ज़मीनी नेताओं को पार्टी की प्रांतीय बागडोर देकर आने वाले एक साल के भीतर पार्टी को खड़ा किया जाए। एक नेता ने कहा कि इसके बाद प्रदेश कार्यकारिणी और ज़िला स्तर की नियुक्तियों में देरी न हो और तमाम लोगों को ज़िम्मेदारियाँ बाँटकर संगठन को तेज़ी से सक्रिय किया जाए। इन नेताओं का कहना है कि उन राज्यों में भी संगठन को मज़बूत करने के लिए तेज़ कदम उठाये जाएँ, जहाँ सहयोगी दलों की सरकारें हैं। एक वर्तमान सांसद ने नाम न छापने की शर्त पर कहा- ‘हम हमेशा दूसरे दलों के पिछलग्गू की भूमिका में नहीं रह सकते। हम देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी रहे हैं और आज भी कांग्रेस का देश भर में एक बड़ा समर्थक वर्ग है। मोदी सरकार के खिलाफ नाराज़गी का ग्राफ बढ़ता जा रहा है और कांग्रेस ही उसका सबसे बेहतर और जनता की हितों की रक्षा वाला श्रेष्ठ विकल्प है। लिहाज़ा संगठन को पहले राज्यों में मज़बूत किया जाना और अपने स्तर पर विधानसभा चुनावों में पूरी ताकत से हिस्सा लेना बहुत ज़रूरी है।’

कांग्रेस के भीतर उतर प्रदेश में पार्टी को दोबारा खड़ा करने की कोशिशों और इसके नतीजों से उत्साह है। प्रियंका गाँधी की सक्रियता और विपरीत हालात में भी लगातार दो बार पार्टी टिकट पर विधायक बन चुके अजय कुमार लल्लू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने से भले कुछ पुराने नेताओं में अपने अलग-थलग पडऩे को लेकर बेचैनी है, यह बात सभी मान रहे हैं कि इतने वर्षों से ध्वस्त पड़े संगठन में अब कुछ जान आयी है और पार्टी कार्यकर्ता उत्साहित दिखने लगे हैं।

हाल के महीनों को देखें, तो योगी सरकार के निशाने पर बसपा और सपा से ज़्यादा कांग्रेस या कह लीजिए प्रियंका गाँधी रही हैं। प्रियंका ने प्रदेश से जुड़े हर उस मसले को उठाया है, जो योगी सरकार को परेशान कर सकता है। बसपा तो हाल के महीनों में भाजपा की समर्थक जैसी भूमिका में दिखने लगी है। सपा भी उतनी सक्रिय नहीं है, जितनी प्रियंका गाँधी हैं। यह भी आरोप हैं कि भाजपा उत्तर प्रदेश कांग्रेस के उन नेताओं को कथित रूप से शह दे रही है, जो प्रियंका गाँधी के आने से अपनी हैसियत को लेकर परेशान हैं। भले जब उनके पास अवसर था, तो उन्होंने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मज़बूत करने के लिए कुछ नहीं किया हो। पार्टी के भीतर नेता मानते हैं कि प्रियंका जैसी सक्रियता ही कांग्रेस को उत्तर प्रदेश की कठोर राजनीतिक ज़मीन पर दोबारा खड़ा कर सकती है। योगी सरकार कांग्रेस की सक्रियता से कितनी परेशान है, इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि प्रियंका गाँधी की तरफ से अध्यक्ष बनाये गये अजय कुमार लल्लू के खिलाफ इन महीनों में दर्ज़नों मामले बना दिये गये हैं और उन्हें पार्टी के सरकार विरोधी कार्यक्रमों में जाने से भी रोका जाता है।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिहाज़ से बहुत ही अहम राज्य है। दशकों से कांग्रेस वहाँ सत्ता से बाहर है और उसका संगठन लचर हो चुका है। सन् 2009 में पार्टी ने लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अचानक 22 लोकसभा सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था। हालाँकि इससे यह तो ज़ाहिर हो ही गया था कि कांग्रेस ज़्यादा कोशिश करे, तो सूबे में फिर खड़ी हो सकती है। उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस ने प्रशांत किशोर को अपना रणनीतिकार बनाया था, तो उन्होंने एक आंतरिक सर्वे करके पार्टी आलाकमान को यह सुझाव दिया था कि प्रियंका गाँधी को इस चुनाव में मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया जाए। लेकिन कांग्रेस इसकी हिम्मत नहीं जुटा पायी। अब कांग्रेस खुद प्रियंका को आगे कर रही है, तो उत्तर प्रदेश के कांग्रेस संगठन में सक्रियता भी दिखने लगी है।

अध्यक्ष पद का मसला

कांग्रेस में अध्यक्ष पद की लड़ाई इस बात को लेकर है नहीं है कि राहुल गाँधी अध्यक्ष बनें या न बनें। लड़ाई इस बात को लेकर है कि जो भी अध्यक्ष बने वो पूरा वक्त संगठन को समर्पित करे। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चाहते हैं कि भले राहुल गाँधी अध्यक्ष बनें, वो पूरा समय संगठन को दें और पूरी ताकत के साथ मोदी सरकार के खिलाफ खड़े हों। पार्टी नेताओं के मुताबिक, वरिष्ठ 23 नेताओं ने जो पत्र लिखा था, उसमें गाँधी परिवार का विरोध नहीं था, अपितु नेता पूरे समय वाला अध्यक्ष चाहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस के भीतर अनुभवी नेताओं की कमी नहीं है। लेकिन इन सबकी एक समस्या समान है। किसी भी नेता का अखिल भारतीय स्तर का कद नहीं है। ऐसे में कांग्रेस में स्वाभाविक रूप से अध्यक्ष के तौर पर राहुल गाँधी का ही नाम सामने आता है। हाँ, राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनकर युवा और अनुभवी नेताओं की एक मज़बूत टीम बनानी पड़ेगी और खुद को पूर्णकालिक अध्यक्ष के तौर पर मैदान में उतरना पड़ेगा।

पार्टी के भीतर एक वर्ग प्रियंका गाँधी को भी अध्यक्ष के रूप में देखता है; लेकिन ज़्यादातर नेताओं का मानना है कि राहुल गाँधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने के लिए सबसे बेहतर विकल्प हैं। सीडब्ल्यूपी के सदस्य रह चुके जम्मू-कश्मीर के एक कांग्रेस नेता ने कहा कि राहुल को अध्यक्ष बनकर चार वरिष्ठ नेताओं को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर अपनी टीम बनानी चाहिए, जिसमें युवा नेताओं से लेकर वरिष्ठ नेताओं का मिश्रण हो और सबको राज्यों में संगठन को दोबारा खड़ा करने की जबावदेही वाली ज़िम्मेदारी सौंपी जाए। हालाँकि पार्टी में एक ऐसा छोटा वर्ग भी है, जो कहता है कि किसी गैर-गाँधी को अध्यक्ष बनाकर आजमाना चाहिए। यह वर्ग यह तर्क देता है कि इससे गाँधी परिवार के पार्टी को अपने तक सीमित रखने के विरोधियों के आरोपों से भी कांग्रेस को मुक्त होने में मदद मिलेगी। यह नेता कहते हैं कि पहले भी ऐसा हुआ है। हालाँकि ज़्यादातर कांग्रेस नेता मानते हैं कि भाजपा ही सबसे ज़्यादा गाँधी परिवार का विरोध करती है और दुष्प्रचार करके परिवार को बदनाम करती है। जनता में गाँधी परिवार के प्रति हमेशा भरोसा रहा है, क्योंकि उसे कांग्रेस और गाँधी-नेहरू परिवार की पृष्ठभूमि पता है। एक वरिष्ठ नेता ने कहा- ‘भाजपा अपनी नाकामियाँ छिपाने के लिए नेहरू से लेकर इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी जैसे दिवंगत नेताओं को कोसती है। इन सभी नेताओं ने समर्पण से देश के लिए काम किया और मुश्किल वक्तों में देश को सँभाला और विकास की बड़ी योजनाएँ लायीं। ऐसी विरोधी पार्टी भाजपा को खुश करने के लिए कांग्रेस को गाँधी परिवार से बाहर जाने का रिस्क क्यों लेना चाहिए?’

‘तहलका’ की जानकारी बताती है कि आने वाले समय में अध्यक्ष पद के लिए बाकायदा चुनाव करवाने की तैयारी पार्टी में चल रही है। एआईसीसी का अधिवेशन जब भी होगा, उसमें नया अध्यक्ष चुना जाएगा। गाँधी परिवार चाहता है कि यदि कोई भी चुनाव लडऩा चाहता है, तो ऐसा किया जाए। ऐसे में हो सकता है चुनाव में एक से ज़्यादा प्रत्याशी हों। यह भी हो सकता है कि राहुल गाँधी या अन्य कोई भी जो चुना जाए, वह सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना जाए।

कांग्रेस में यह सोच ज़रूर बन रही है कि पार्टी का नेता आक्रामक हो और वह सरकार की बखिया उधेड़ सके। संगठन में जान फूँक सके। कांग्रेस के भीतर वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि मोदी सरकार के खिलाफ हमला करने का यह सबसे बेहतर समय है; क्योंकि उसकी लोकप्रियता गलत नीतियों के कारण नीचे जा रही है। इन नेताओं के अनुसार मोदी के नेतृत्व में भाजपा जनता के बीच अब तक की सबसे बड़ी अलोकप्रियता का सामना कर रही है और कांग्रेस के लिए यह खुद को एक मज़बूत विकल्प के रूप में जनता के सामने करने का सबसे उपयुक्त अवसर है। पार्टी के एक नेता ने कहा- ‘लेकिन इसके लिए आपको बहुत ज़्यादा संगठित होना पड़ेगा। देश भर में संगठन को अपने नेता के पीछे खड़ा होना पड़ेगा, ताकि भाजपा के कांग्रेस या गाँधी परिवार पर हमले के वक्त लोगों को हमारे ही कैम्प में खामोशी न मिले। और सबसे ज़्यादा ज़रूरी यह कि हमारे पास एक ऐसा अध्यक्ष होना चाहिए, जो मैदान में पूरी ताकत से सरकार की चूलें हिला सके।’

कांग्रेस में भविष्य की सम्भावनाएँ

पार्टी के भीतर हलचल के बावजूद भविष्य में संगठन के स्वरूप को लेकर एक सोच विकसित हो रही है। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, नेतृत्व में इस बात को लेकर चिंता है कि पार्टी के आम कार्यकर्ता में कांग्रेस के भविष्य को लेकर चिन्ता पनप रही है, जो कुछ हद तक निराशा में भी बदल रही है। पार्टी में गाँधी परिवार के नजदीकी कुछ बड़े नेता अब यह सोचने लगे हैं कि संगठन में बड़े पैमाने पर फेरबदल किया जाना आवश्यक हो गया है। राज्यों में नये और मज़बूत नेताओं को अध्यक्ष बनाने की ज़रूरत है, ताकि राज्य इकाइयाँ सक्रिय हो सकें; एक यह भी विचार पार्टी में उभर रहा है। कुछ कद्दावर नेताओं, जो अपने राज्यों को बेहतर जानते हों और संगठन के स्तर पर भी माहिर हों; उन्हें राज्यों में अध्यक्ष बनाया जाए, ताकि सन्देश जाए कि आलाकामन पार्टी को पुनर्जीवित करने में जुट गया है। कुछ वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि राज्यों में पार्टी को अपने स्तर पर ज़िन्दा करना होगा। यह भी विचार है कि युवा और वरिष्ठ नेताओं को संतुलित आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर अहम ज़िम्मेदारियाँ दी जाएँ और उनकी जवाबदेही सुनिश्चित की जाए। साथ ही महिला नेताओं का प्रतिनिधित्व भी बढ़ाया जाए। यह भी एक विचार है कि यदि राहुल गाँधी अध्यक्ष बनते हैं, तो उन्हें सुझाव देने और राजनीतिक दाँवपेच में माहिर करने के लिए अशोक गहलोत जैसे बड़े कद के दो कार्यवाहक अध्यक्ष भी बनाये जाएँ। इसके अलावा देश के सभी बड़े मुद्दों के विशेषज्ञों की एक मज़बूत टीम बनायी जाए, जो मोदी सरकार के कमज़ोर पहलुओं को लेकर उसके खिलाफ आक्रामक प्रचार कर सकने वाले मसौदे तैयार करे। पार्टी के बीच एआईसीसी अधिवेशन के बाद बड़े पैमाने पर मोदी सरकार के खिलाफ देशव्यापी अभियान शुरू करने का भी विचार है, जिसे लघु रणनीतिक विराम देते हुए अगले लोकसभा चुनाव तक जारी रखा जाये। पार्टी में एक विचार यह भी है कि अध्यक्ष के चुनाव के बाद पहले कांग्रेस से जुड़े रहे कद्दावर नेताओं को वापस पार्टी में लाने की मुहिम शुरू की जाए। इन नेताओं में एनसीपी प्रमुख शरद पवार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस जगनमोहन रेड्डी और अन्य नेता शामिल हैं। नेता यह भी चाहते हैं कि यदि राहुल अध्यक्ष बनते हैं, तो भी सोनिया गाँधी पार्टी अभिभावक के रूप में सक्रिय रहें और यूपीए की अध्यक्ष भी बनी रहें। हालाँकि यह नेता अध्यक्ष के तौर पर राहुल गाँधी को पूरी शक्ति देने के हक में भी हैं।

कांग्रेस के दो ध्रुव

कांग्रेस के बीच वर्तमान में एक बहुत दिलचस्प स्थिति है। इसमें दो मज़बूत ध्रुव हैं और दोनों ही कांग्रेस से पार्टी-निष्ठा रखते हैं। इनमें एक का नेतृत्व सोनिया गाँधी करती हैं, दूसरे का उनके पुत्र राहुल गाँधी। सोनिया के साथ पुराने और आजमाये हुए नेता हैं और राहुल के साथ कांग्रेस की युवा पीढ़ी के नेता। पहले यह तो होता था कि कांग्रेस में गाँधी परिवार के समर्थक होते थे और जो थोड़े बहुत बचते थे, वे पार्टी में गैर-गाँधी की बात करते थे। लेकिन हाल के महीनों में कांग्रेस में स्थिति बदलकर गाँधी बनाम गाँधी की हो गयी है। सोनिया गाँधी के साथ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी, अंबिका सोनी, शक्तिशाली राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल, गुलाम नबी आज़ाद, पी. चिदंबरम, अमरिंदर सिंह, सुमन दुबे, अशोक गहलोत, सुशील कुमार शिंदे, मल्लिकार्जुन खडग़े, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा और वीरप्पा मोइली जैसे वरिष्ठ नेता हैं। जबकि राहुल गाँधी के साथ सचिन पायलट, के.सी. वेणुगोपाल, सुष्मिता देव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश भगेल, जयराम रमेश, रणदीप सुरजेवाला, अजय माकन और गौरव गोगोई जैसे नेता हैं। इसके अलावा राहुल गाँधी की टीम में कुछ प्रोफेशनल भी हैं, जो सोनिया गाँधी की टीम में नहीं। इनमें सोशल मीडिया समन्वयक निखिल अल्वा (पार्टी की नेता रहीं मार्गरेट अल्वा के बेटे), पूर्व निवेश बैंकर आईआईएम स्नातक अलंकार सवाई, रणनीतिक सलाहकार सचिन राव, ऑक्सफोर्ड के पढ़े कौशल किशोर विद्यार्थी के अलावा राजीव गाँधी के ज़माने में दूर संचार में सी-डॉट प्रणाली लाने वाले सैम पित्रोदा जैसे लोग हैं। यहाँ एक बहुत ही दिलचस्प बात यह है कि कुछ वरिष्ठ या युवा कांग्रेस नेता ऐसे हैं, जो सोनिया और राहुल दोनों के बराबर करीबी और भरोसेमंद हैं। इनमें प्रमुख हैं- ए.के. एंटनी, जयराम रमेश और के.सी. वेणुगोपाल। दरअसल राहुल गाँधी के सबसे भीतरी सॢकल में जो प्रोफेशनल हैं, वरिष्ठ नेताओं की चिढ़ उनसे ही है। यह राजनीतिक लोग नहीं है और राहुल के साथ बदली हुई आधुनिक राजनीति करना चाहते हैं। वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि यह लोग मोदी और शाह जैसे नेताओं से पार नहीं पा सकते और कच्ची राजनीति करते हैं। वरिष्ठ नेताओं को यह भी लगता है कि राहुल गाँधी पूरी तरह कांग्रेस का ज़िम्मा लेते हैं, तो उनके यह साथी वरिष्ठ नेताओं को किनारे करने की मुहिम छेड़ सकते हैं। यही कारण है कि पार्टी के भीतर तठस्थ नेता यह कोशिश कर रहे हैं कि राहुल गाँधी अध्यक्ष का ज़िम्मा सँभालें और वरिष्ठ नेताओं को साथ लेकर कांग्रेस की अनुभव और युवा जोश की एक मज़बूत टीम बनाएँ। इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल गाँधी ने पिछले दो-ढाई साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार के खिलाफ दम पर लोहा लिया है। उन्हें इसमें वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं साथ न के बराबर मिला है। राहुल के अध्यक्ष के नाते तीन राज्य विधानसभा चुनाव जीतने के बाद इन नेताओं का रुख कुछ बदला था; लेकिन उसके बाद वे खामोश होकर बैठ गये। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के 50 ही सीटों के आसपास सिमट जाने से इन वरिष्ठ नेताओं को यह बात कहने का अवसर मिल गया कि अपने युवा सलाहकारों के बूते राहुल पार्टी को बड़ा चुनाव नहीं जिता सकते। बहुत-से लोग राहुल की इस हिम्मत को दाद देते हैं कि चुनाव में पार्टी की हार के बाद उन्होंने इस्तीफा देने की नैतिकता दिखायी, जो आज की राजनीति बिरली चीज़ हो गयी है। हालाँकि कुछ अन्य उनके इस्तीफे को मैदान छोडक़र भागने की संज्ञा देते हैं। हालाँकि हाल के राजस्थान संकट के दौरान राहुल गाँधी की एक ही एंट्री ने सचिन पायलट वाला मसला हल करवाकर यह भी साबित किया कि एक नेता के गुण उनमें हैं, और पार्टी का एक मज़बूत वर्ग उनका समर्थन करता है। अब देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस का अध्यक्ष कौन बनेगा? लेकिन कांग्रेस के ज़्यादातर नेता और छोटे कार्यकर्ता तो यही मानते हैं कि यह राहुल गाँधी ही होंगे।

कहीं भारत को युद्ध के लिए मजबूर तो नहीं कर रहा चीन!

29 और 30 अगस्‍त की रात को चीन की सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) ने भारतीय सीमा में घुसपैठ की दूसरी कोशिश की। इस घुसपैठ की कोशिश में भारतीय सेना और चीनी सेना के बीच झड़प हुई। हालाँकि इस झड़प में कोई घायल हुआ या नहीं, इसकी आधिकारिक जानकारी नहीं मिली। रक्षा मंत्रालय की ओर से एक बयान जारी कर यह भी कहा गया था कि चीनी सेना ने सैन्य गतिविधियाँ कीं, लेकिन भारतीय सेना ने उनकी इस गतिविधि का अंदाज़ा लगाते हुए उसे नाकाम कर दिया।

भारत-चीन सीमा पर गतिविधियों वाली कुछ खबरों के मुताबिक, चीनी सेना भारतीय सीमा पर नज़रें गड़ाये बैठी है और घुसपैठ की कोशिशें कर रही है। मगर इस बार भारतीय सेना ने चीन को मुँह की खिलाने की ठान ली है। अनेक जानकारों का कहना है कि चीन भारत को युद्ध के लिए उकसा रहा है। सवाल यह है कि क्या चीन से युद्ध की सम्भवानाएँ ठीक हैं? विदेश मंत्री एस जयशंकर ने लद्दाख की स्थिति को 1962 के संघर्ष के बाद सबसे गम्भीर बताया है।

बता दें कि कोर कमांडर लेवल पर चीन से भारत की 30 अगस्त तक करीब पाँच-छ: बार बातचीत हुई। हर बार की बातचीत में दोनों देश पहले जैसी स्थिति को वापस लाने पर राज़ी हुए; लेकिन चीन ने एक बार भी अपना वादा नहीं निभाया और सीमा पर सैन्य संख्या में लगातार बढ़ोतरी करता रहा है। इसी साल 15 जून को भारत-चीन के सैनिकों के बीच झड़प हुई थी। इस झड़प में हमारे 20 जवान शहीद हो गये थे, जबकि चीन के भी सैनिकों के मारे जाने की खबरें आयी थीं। झगड़ा चीन की सेना द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ का था। चीन के साथ सैन्य स्तर की बातचीत हो रही थी कि पूर्वी लद्दाख में दोनों देशों के सैनिकों के बीच हालात बिगड़ गये। इसकी वजह चीनी सैनिकों द्वारा पैंगॉन्ग त्सो (झील) के दक्षिणी किनारे पर भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की कोशिश थी। जब भारतीय सैनिकों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, तो उन्होंने हमला कर दिया। भारतीय सैनिक निहत्थे थे, मगर फिर भी पीछे नहीं हटे और शत्रु फौज का डटकर मुकाबला किया। हालाँकि केंद्र सरकार ने चीन की सेना द्वारा घुसपैठ से इन्कार किया और चीन ने भी शान्ति और बातचीत से विवाद सुलझाने की बात कही। मगर चीन एक शातिर शत्रु देश है, जिसकी नज़रें भारत के गलवान, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश आदि क्षेत्रों पर पूरी तरह टिकी हुई हैं।

बता दें कि चीन से भारत की सीमारेखा करीब 4057 किमी लम्बी है, जो पाँच भारतीय राज्यों से मिलती है। चीन चाहता है कि वह इन राज्यों में तबाही मचाकर रखे और भारत की वो भूमि अपने कब्ज़े में ले ले, जिसकी वजह से भारत पर आक्रमण करना आसान नहीं है। मगर इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि चीन खामोश बैठा है और शान्ति चाहता है। क्योंकि चीनी सेना लगातार भारतीय सीमा में घुसपैठ की कोशिश में है। अभी कुछ दिन से चीन की सेना सीमा पर लगातार हरकतें कर रही है।

भारतीय सेना के प्रवक्ता कर्नल अमन आनंद ने हाल ही में बताया था कि चीन की सेना ने पूर्वी लद्दाख गतिरोध पर सैन्य और राजनयिक बातचीत के ज़रिये बनी पिछली आम सहमति का उल्लंघन करके भारतीय सेना को उकसाने के लिए सैन्य अभियान चलाया। उन्होंने यह भी कहा था कि भारतीय सेना बातचीत के माध्यम से शान्ति और स्थिरता बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन देश की रक्षा करने के लिए भी उतनी ही प्रतिबद्ध है। वहीं चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ बिपिन रावत ने कहा है कि अगर सैन्य और कूटनीतिक स्तर पर प्रयास नाकाम होते हैं, तो सेना का विकल्प खुला है। इसके संकेत भी साफ हैं कि अगर चीन भारत को युद्ध के लिए मजबूर करता है, तो वह पीछे नहीं हटेगा।

अँधेरे में घुसपैठ करते हैं चीनी सैनिक

भारतीय सेना की ओर जारी एक बयान में कहा गया है कि चीनी सैनिक अँधेरे का फायदा उठाकर भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की कोशिश करते हैं। हालाँकि उनकी हर कोशिश को भारतीय सैनिक नाकाम कर देते हैं। हाल ही में सैन्य सूत्रों के हवाले से जानकारी मिली कि हाल ही में बड़ी संख्या में पैंगॉन्ग झील के दक्षिणी किनारे पर चीनी सैनिक इकट्ठे हुए, वे पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे। ऐसा कहा गया है कि वे इस भारतीय क्षेत्र पर कब्ज़ा करना चाहते थे। सूत्रों का तो यहाँ तक कहना है कि चीनी सेना की मौज़ूदगी इस क्षेत्र में बनी हुई है। हालाँकि भारतीय सेना बड़ी संख्या में यहाँ तैनात है।

सीमा पर चीन ने बनाये हेलीपैड

चीन के भारत के खिलाफ षड्यंत्रों का खुलासा सैटेलाइट से अब तक मिली तस्वीरों से भी हुआ है। वह आक्रामक तरीके से हर तरफ से भारत को घेरने की नीचतापूर्ण कोशिशों में जुटा है। ओपन सोर्स सैटेलाइट तस्वीरों से खुलासा हुआ है कि चीन की सेना चीन के दो विवादित और संवेदनशील सीमा क्षेत्रों- डोकलाम तथा सिक्किम सेक्टर्स के पास ट्राइ जंक्शन पर एक स्ट्रक्चर बना चुकी है, जो हेलीपैड जैसा लगता है। एक ओपन सोर्स इंटेलिजेंस एनालिस्ट ने अपने ञ्चस्रद्गह्लह्म्द्गह्यद्घड्ड नाम के ट्विटर पर इन तस्वीरों में दिखाया है, जिसमें ट्राई जंक्शन के नज़दीक संदिग्ध हेलीपैड का निर्माण करना दिख रहा है। यह नाकु ला (नाकु पास) और डोका ला (डोका पास) से केवल 100 किलोमीटर दूर है। इंटेलिजेंस एनालिस्ट ने ट्वीट किया है कि पीएलए का संदिग्ध हेलीपैड इन्फ्रास्ट्रक्चर भारत, चीन, भूटान के ट्राई-जंक्शन डोकलाम क्षेत्र को लेकर जारी जाँच के दौरान दिखा। बताया जा रहा है कि चीनी सेना इन संदिग्ध हेलीपैड को ज़मीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों को तैनात करने के लिए बना रही है।

चीन जानता है जाँबाज़ है भारतीय सेना

चीन इस बारे में अच्छी तरह जानता है कि भारतीय सेना बहुत ही जाँबाज़ है। पिछली बार जब चीनी सैनिकों ने भारतीय सेना के 20 निहत्थे सैनिकों पर हमला किया था, तब वे निहत्थे होकर भी उनसे भिड़ गये और चीन के तकरीबन 47 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। हालाँकि इस झड़प में 20 भारतीय जवान शहीद हो गये। लेकिन भारतीय सेना ने कई बार चीन की घुसपैठ को नाकाम कर दिया है। सबसे बड़ी बात यह है कि चीनी सेना से भारतीय सैनिकों की जितनी बार भी झड़प हुई है, हर बार चीनी सेना ने ही अतिक्रमण की है, जबकि भारतीय सैनिकों ने आज तक चीन की सीमा में किसी भी तरह की घुसपैठ नहीं की है और न ही सीमा पर कोई आपत्तिजनक सैन्य गतिविधि चलायी है। इस बार खबरें हैं कि पूर्वी लद्दाख में जाँबाज़ भारतीय सैनिकों ने चीनी सैनिकों के मंसूबों को विफल करते हुए पैंगॉन्ग झील के दक्षिणी किनारे पर ऊँचाई वाले इलाके को अपने नियंत्रण में ले लिया है। निष्क्रिय पड़े इस क्षेत्र पर भारत के नियंत्रण से भारतीय सेना को यहाँ जंग का रणनीतिक लाभ मिलेगा।

लगातार धमकियाँ दे रहा चीन

हाल ही में छपे ग्लोबल टाइम्स के सम्पादकीय में अखबार के सम्पादक हू जिजिन ने भी भारत के खिलाफ कार्रवाई की धमकी दी है। हू ने इस सम्पादकीय में आरोप लगाया है कि भारत चीन के प्रति आक्रामक रुख अपना रहा है। हू ने चीनी सेना का हौसला बढ़ाते हुए भारत की जवाबी कार्रवाई को गुण्डों वाला व्यवहार बताया है। उसने चीनी आक्रामकता के खिलाफ भारत की प्रतिक्रिया को स्टंट बताते हुए ट्वीट करके लिखा है कि भारत को हमेशा लगता है कि चीन उकसावे पर समझौता करेगा। स्थिति को अब और गलतफहमी में न समझा जाए। यदि पैंगॉन्ग झील में संघर्ष होता है, तो इसका अन्त केवल भारतीय सेना की हार से ही होगा। हर बार

की तरह हूल देते हुए हू ने अपने सम्पादकीय में चीनी सेना को ताकतवर बताते हुए लिखा कि अगर भारत प्रतिस्पर्धा में शामिल होना चाहता है, तो चीन के पास उसकी तुलना में ज़्यादा हथियार और सैन्य क्षमता है। हू ने धमकी दी है कि अगर भारत सैन्य प्रदर्शन करता है, तो चीन उसे 1962 में हुए नुकसान की तुलना में ज़्यादा नुकसान पहुँचाने को मजबूर होगा। हू ने यह भी लिखा है कि अगर भारत चीन से युद्ध करता है, तो अमेरिका भी उसकी कोई मदद नहीं करेगा। इतना ही नहीं हू ने कम्युनिस्ट पार्टी की चीनी सरकार से अनुरोध किया है कि वह चीन की ओर से भी सैन्य कार्रवाई करे। वैसे बता दें कि चीन भारत को कई महीनों से गीदड़ भभकी दे रहा है और लगातार धृष्टता करने के बावजूद धमकियाँ दे रहा है। जबकि भारत एक ताकतवर शेर की तरह शान्त है।

रूस और तेहरान गये थे राजनाथ

इधर सीमा पर चीनी सेना के फिज़ूल की अनैतिक गतिविधियों और चीन से लगातार बढ़ रहे तनाव के मद्देनज़र देश के रक्षा मंत्री राजनाथ 4 सितंबर को रूस से लौटकर तेहरान भी गये थे। उनके दोनों देशों के दौरे का मकसद चीन और पाकिस्तान को उनकी नापाक हरकतों के खिलाफ सबक सिखाना माना जा रहा है। रक्षामंत्री की इस यात्रा से बौखला गया है।

हालाँकि भारत कभी भी सीमा विवाद पर गलतियाँ नहीं करता, इस बात का परिचय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने चीनी रक्षा मंत्री वेई फेंगही से रूस में बातचीत करके दिया है। लेकिन चीन ने इसके बाद जारी बयान में कहा है कि वह अपनी एक इंच ज़मीन नहीं छोड़ेगा। उसने भारत पर झूठा आरोप लगाते हुए यह भी कहा कि भारत सीमा पर विवाद बढ़ाना

चाहता है। इधर राजनाथ सिंह ने फ्रांस को भारत में रक्षा क्षेत्र में निवेश का सौदा दिया है।

क्या युद्ध चाहते हैं शी जिनपिंग

आये दिन भारतीय सेना को हूल देने की कोशिश करने और भारतीय सैनिकों से मुँह की खाने पर चीनी सेना को जिस तरह से उसके राष्ट्रपति शी जिनपिंग की आलोचना का शिकार होना पड़ा, उससे तो यही लगता है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत से युद्ध चाहते हैं। बताया जा रहा है कि शी जिनपिंग चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी के उस कमांडर से बहुत नाराज़ हैं, जिसने पैंगांग के दक्षिणी इलाके में अपनी सेना का नेतृत्व किया था। जिनपिंग चीनी सेना से इतने नाराज़ हैं कि जल्द ही सेना में बड़े बदलाव कर सकते हैं। सूत्रों की मानें तो सेना के साथ ही अन्य कानून प्रवर्तक एजेंसियाँ भी उनके निशाने पर हैं। बता दें कि शी जिनपिंग कभी हार नहीं मानने वाले ज़िद्दी नेता के तौर पर उभरे हैं। शी जिनपिंग की कूटनीति भी बहुत शातिराना िकस्म की है। वह एक ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने एक तरफ अपने देश में हमेशा के लिए सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया है, तो दूसरी तरफ दूसरे देशों को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया है।

युद्ध हुआ तो क्या होगा?

इधर, चीन से हर दिन तनाव बढ़ता जा रहा है। स्थिति यह है कि अब युद्ध की सम्भावनाएँ बढ़ती जा रही हैं। हाल ही में चीनी सैनिक भारतीय सैनिकों के सामने हथियारों से लैस होकर आ गये और उन्हें धमकाने लगे। लेकिन भारतीय सैनिकों ने इस तनाव को बहुत बढऩे नहीं दिया। सवाल यह हैं कि अगर चीन से युद्ध होता है, तो क्या होगा? क्या भारत का चीन से अधिक

नुकसान होगा?

चीन की ताकत को देखें, तो भारत उससे कई तरह से कमज़ोर है। क्योंकि इस समय कमज़ोर अर्थ-व्यवस्था और कोरोना वायरस के कहर से जूझ रहा भारत परमाणु और दूसरे हथियारों में भी चीन से कमज़ोर है। दूसरा चीन के पास जैविक हथियार होने की सम्भावना है। इसके अलावा चीन ने पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों को अपने पक्ष में कर रखा है। अमेरिका द्वारा भारत की मदद की उम्मीद भी उतनी नहीं की जा सकती, क्योंकि अमेरिका ने परदे के पीछे से भारत को हमेशा दबाये रखने की कोशिशें की हैं। रूस ने भी मध्यस्था करने से साफ इन्कार कर दिया है। हालाँकि इससे भारत का पक्ष कमज़ोर नहीं होता, क्योंकि अभी बहुत से देश हैं, जो भारत के पक्ष में खुलकर भले ही नहीं खड़े हैं; लेकिन अगर युद्ध हुआ तो भारत के पक्ष में मैदान में होंगे। लेकिन फिर भी यही कहना उचित होगा कि अगर युद्ध होता है, तो भारत को अपने दम पर इसे जीतना होगा। और इसके लिए केंद्र सरकार को मज़बूती से देश-रक्षा पर ध्यान देना चाहिए, न कि राजनीतिक दाँवपेच में उलझना या देशवासियों को उलझाना चाहिए। क्योंकि भारतीय सेना बहुत मज़बूत है, पर उसे स्वायत्तता मिलनी चाहिए, तो वह दुश्मन को धूल चटा सकती है।

भारत-चीन भिड़े, तो छिड़ सकता है विश्व युद्ध!

यह तय है कि अगर भारत और चीन में युद्ध होता है, तो विश्व युद्ध छिड़ सकता है। इसके कई कारण हैं। एक कारण यह है कि चीन से कई देश खार खाये बैठे हैं और उसे व्यापार में पछाडऩा चाहते हैं। दूसरा कारण यह है कि चीन ने कई देशों के खिलाफ षड्यंत्र रचने का काम किया है। उसने लक्षद्वीप से मात्र 600 किलोमीटर की दूरी पर एक कृत्रिम द्वीप का निर्माण किया है। इतना ही नहीं, चीन दक्षिण सागर में ऐसे कई कृत्रिम द्वीप बना चुका है। वैश्विक नियमों के मुताबिक, किसी देश की समुद्री सीमा उसकी ज़मीनी सीमा के बाद समुद्र में 200 नॉटिकल मील तक मानी जाती है। लेकिन चीन ने कई पड़ोसी देशों के बीच स्थित समुद्र पर कब्ज़ा करने किया है। चीन ने काफी समय से समुद्र के बीच नकली द्वीपों का निर्माण शुरू कर दिया है। उसने इन द्वीपों को बनाने का आसान तरीका चुना है। इस तरह समुद्र पर कब्ज़ा करने के पीछे चीन की मंशा दुनिया की सबसे ताकतवर देश बनने की है। चीन की ताकत बढ़ी भी है। ऐसा नहीं है कि चीन ने यह ताकत दो-चार साल में हासिल की है, ऐसा करने के लिए उसे तकरीबन दो से ढाई दशक लगे हैं। शायद यही वज़ह है कि वह भारत के खिलाफ लगातार हरकतें और शाज़िशें कर रहा है।

‘आये दिन भारत की संप्रभुता पर हमला हो रहा है। आये दिन हमारी सरजमीं पर कब्ज़े का दुस्साहस और देश की धरती पर चीनी घुसपैठ की खबरें आ रही हैं। देश की सेना तो देश की रक्षा कर रही है। सीमा पर सीना ताने खड़ी है। लेकिन देश के प्रधानमंत्री मोदी कहाँ हैं? वह लाल आँख दिखाकर चीन से कब बात करेंगे? चीन को कब करारा जवाब देंगे? देश की ज़मीन से कब्ज़ा कब छुड़वाएँगे? मोदी जी! लाल आँख कहाँ है? चीन की आँखों में आँखें कब डाली जाएँगी?’

रणदीप सिंह सुरजेवाला, कांग्रेस प्रवक्ता

‘चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सन् 1962 के बाद निश्चित तौर पर यह सबसे गम्भीर स्थिति है। यहाँ तक कि 45 साल बाद चीन के साथ संघर्ष में भारतीय सैनिक हताहत हुए हैं। सीमा पर दोनों तरफ से सैनिकों की तैनाती भी अप्रत्याशित है। अगर हम पिछले तीन दशकों से देखें, तो विवादों का निपटारा राजनयिक संवाद के ज़रिये ही हुआ है और हम अब भी यही कोशिश कर रहे हैं। भारत ने चीन से कह दिया है कि सीमा पर शान्ति की स्थापना दोनों देशों में बराबरी के सम्बन्धों पर ही सम्भव है।’

एस जयशंकर, विदेश मंत्री, भारत सरकार

भारत में चीन के खिलाफ पोस्टर वॉर

इधर, भारत के लोगों में चीन के खिलाफ विकट गुस्सा है। कई महीनों से भारत के विभिन्न हिस्सों में चीन के खिलाफ तरह-तरह के अभियान चलाये जा रहे हैं। इसी विरोध के तहत जून में दिल्ली में पंचशील मार्ग पर बने चीनी दूतावास के सामने बोर्ड पर और आस-पास लोगों ने पोस्टर लगाये गये थे। हालाँकि कहा जा रहा है कि चीनी दूतावास के बोर्ड पर से पोस्टर को हटा दिया गया है। बताया जा रहा है कि चीनी दूतावास के आगे हिंदू सेना कार्यकर्ताओं पोस्टर लगाये थे। इसमें एक पोस्टर पर लिखा था- ‘हिंदी-चीनी बाय-बाय’। इसके अलावा भी देश भर में पहले से ही काफी विरोध हो रहा है। इसमें चीन के सामान से लेकर वहाँ के राष्ट्रपति तक के पुतले फूँके गये। भारत में अब भी लोग चीन और चीन के सामान का जमकर विरोध दिखें।

विदेश मंत्री का महत्त्वपूर्ण दौरा

इधर, भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने मॉस्को का दौरा किया है। उन्होंने मॉस्को में चल रही शंघाई कॉपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (एससीओ) देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में भाग लिया। मॉस्को में उन्होंने अपने चीनी समकक्ष वाँग यी से बातचीत की। हालाँकि दोनों विदेश मंत्रियों के बीच क्या बातचीत हुई? इसका ब्यौरा अभी नहीं मिल सका है। एक तरफ मॉस्को में जहाँ दोनों विदेश मंत्रियों के बीच बातचीत हुई, वहीं दूसरी तरफ एलएसी पर सैन्य बातचीत में दोनों सेनाओं के बीच ब्रिगेडियर स्तर की बातचीत हुई। इससे पहले दोनों देशों के बीच लेफ्टिनेंट जनरल या कोर कमांडर स्तर की कई राउंड बातचीत हो चुकी है; लेकिन तनाव कम करने में कोई खास प्रगति नहीं हो सकी है।

दोराहे पर कांग्रेस

देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के लिए शायद यह सबसे अच्छा समय है, और सबसे खराब भी। देश के सबसे मुख्य विपक्षी दल के लिए यह सबसे अच्छा समय इसलिए है, क्योंकि उसके पास सत्तारूढ़ दल को कटघरे में खड़ा करने का सुनहरा अवसर है। इसके कारण हैं- देश की अर्थ-व्यवस्था में चिन्ताजनक गिरावट, राज्यों को जीएसटी संग्रह में कमी के लिए केंद्र से भुगतान नहीं मिलना और कोरोना वायरस महामारी का आज भी तेज़ी से फैलना। इसके अलावा चीन के साथ सीमा पर पाँच महीने से चल रहा गम्भीर तनाव अलग है। लेकिन लगता है कि सरकार को घेरने के बजाय कांग्रेस को अपने भीतर की कलह से ही फुरसत नहीं मिल रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद राहुल गाँधी के इस्तीफा देने के बाद इन 15 महीनों में पार्टी एक पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं ढूँढ पायी है। सच कहें तो यह काम पार्टी के लिए एक तरह की बड़ी चुनौती बन गया है।

हालाँकि यह भी एक सच है कि जब भी राहुल गाँधी ने सत्तारूढ़ दल को देश के गम्भीर और प्रासंगिक मुद्दों- अर्थ-व्यवस्था, युवाओं को रोज़गार, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि पर घेरा है। उन्हें देश के दुश्मनों के साथ खड़ा दिखाने की कोशिश सत्ताधारी दल के नेताओं ने की है। इसमें कोई दो राय नहीं कि एक नेता के तौर पर राहुल गाँधी ने सरकार के खिलाफ मुद्दों पर आधारित आवाज़ बुलंद की है; लेकिन कांग्रेस जनता को इन मुद्दों पर आन्दोलित करने में नाकाम रही है। हाल के चुनावों में पार्टी के आधार का क्षरण हुआ है और युवाओं के बीच इसने प्रासंगिकता खोयी है। ज़ाहिर है इसका सबसे ज़्यादा लाभ भाजपा को मिला है।

हाल ही में कांग्रेस कार्यसमिति की महत्त्वपूर्ण बैठक से एक दिन पहले 23 कांग्रेसियों का पत्र मीडिया में लीक हो गया; जिसमें सामूहिक नेतृत्व के सुझाव की बात है। इससे यह संकेत मिलता है कि पार्टी के कई नेताओं का गाँधी परिवार के नेतृत्व के प्रति मोहभंग हुआ है। इस पत्र का 11 सूत्री एजेंडा 134 साल पुराने इस राजनीतिक दल को देश की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ एक मज़बूत राष्ट्रीय गठबन्धन के रूप में सुदृढ़ करने की प्रेरणा देता महसूस होता है। साथ ही यह नेता कांग्रेस में एक पूर्णकालिक, प्रभावी, सक्रिय अध्यक्ष चाहते हैं और उनका पार्टी में सीडब्ल्यूसी सहित सभी स्तर पर चुनाव करवाने, पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए सामूहिक संस्थागत नेतृत्व का मॉडल अपनाने और समान विचारधारा के दलों के साथ राष्ट्रीय गठबन्धन तैयार करने पर ज़ोर है। निश्चित ही सामूहिक नेतृत्व की बात नेहरू-गाँधी परिवार के लिए एक संकेत है कि पार्टी आलाकमान के पूर्ण नियंत्रण की अवधारणा बदलनी होगी। आंतरिक लोकतंत्र बहाल करके और राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता वाला अध्यक्ष नियुक्त करके ही पार्टी को ज़मीनी स्तर पर पुनर्जीवित किया जा सकता है। भले ही देर से सही, पार्टी में संगठनात्मक सुधार की माँग की गयी है; लेकिन कोई आत्मनिरीक्षण नहीं हुआ है।

कांग्रेस एनडीए सरकार के खिलाफ धारदार आन्दोलन शुरू करने के बजाय, आलाकमान को पत्र लिखने वाले नेताओं को दण्डित करने में अपनी ऊर्जा बर्बाद कर रही है। कांग्रेस यदि पत्र लिखने वालों और किन्हीं मुद्दों पर अलग विचार रखने वाले नेताओं की निष्ठा पर शक करेगी और उनकी निष्ठा के परीक्षण के चक्कर में फँसी रहेगी, तो खुद को ही नुकसान पहुँचायेगी। कांग्रेस को नहीं भूलना चाहिए कि वो पहले ही पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और महाराष्ट्र में शरद पवार जैसे व्यापक जनाधार वाले नेताओं को खो चुकी है। पार्टी के लिए यह अहंकार और निष्ठा की सोच को परे धकेलने का समय है। देश के एक जवाबदेह राजनीतिक दल के नाते कांग्रेस की ज़िम्मेदारी है कि वह व्यापक संगठनात्मक सुधार करके खुद को सरकार से भिडऩे के लिए तैयार करे; जो एक विपक्षी दल होने के नाते उसका प्राथमिक कार्य है।