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कितना सुरक्षित होगा कोविड-19 का टीका ?

यह पता चला है कि कई देशों और भारत में हज़ारों कोविड-19 टीके आ चुके हैं। ये अब से कुछ ही हफ्तों में उपलब्ध होंगे और वहाँ से ये जल्द ही लोगों को मिलने लगेंगे। डॉ. अगुस दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में मेडिसिन एंड इंजीनियरिंग के प्रोफेसर हैं। वह व्यक्तिगत दवा कम्पनी और एप्लाइड प्रोटिऑमिक्स, नैविजेनिक्स के सह-संस्थापक हैं और साथ ही सीबीएस न्यूज के योगदानकर्ता हैं।

टीके से प्रतिरक्षा कब तक मिलती है?

हमारे पास अब जो डेटा है, उसके मुताबिक यह दूसरे टीके के एक सप्ताह बाद है। याद रखें, फाइज़र वैक्सीन (टीके) के मामले में दूसरा टीका 21 दिन पर है, और इसलिए उसके एक हफ्ते बाद आप प्रतिरक्षा प्राप्त कर लेते हैं।

अब तक किस टीके को मंज़ूरी दी गयी है?

फाइज़र-बॉयोएंटेक वैक्सीन और मॉडेर्ना वैक्सीन हैं, जिन्हें आपातकालीन उपयोग के लिए अनुमोदित किया गया है। लेकिन अन्य भी कतार में हैं।

पिछले सवाल पर वापस आते हैं। जब कोई पूर्ण प्रतिरक्षा प्राप्त करेगा, तो क्या मास्क पहनने की आवश्यकता नहीं होगी?

मॉडेर्ना टीके के साथ यह 28 दिन (दूसरे टीके के लिए) है। इसके एक हफ्ते बाद आप प्रतिरक्षित होते हैं। लेकिन आप अभी भी वायरस संचारित कर सकते हैं। यानी टीका लेने के बाद भी आपको तब तक मास्क पहनना होगा, जब तक देश में संक्रमितों की संख्या कम नहीं हो जाती।

क्या टीकों को चुनने का विकल्प है और ये कितने सुरक्षित हैं?

हाँ, लोगों के पास एक विकल्प होगा कि वे कौन-सा टीका चाहते हैं? लेकिन फाइज़र वैक्सीन और अन्य दो नमूने जल्द ही स्वीकृत होने को हैं; जो सुरक्षित हैं और अच्छी तरह से काम करते हैं। फिलहाल आपके पास एक विकल्प है; क्योंकि और अनुमोदित हैं। आशा है कि मॉडेर्ना को भी इस सप्ताहांत मंज़ूरी मिलेगी, और एस्ट्राजेनेका को एक या दो सप्ताह बाद। इसलिए आप देखेंगे कि जब आपका नंबर आयेगा और जब आपका विशेष समूह टीकाकरण करेगा, आप अस्पताल जा सकते हैं और एक विशेष टीका चुन सकते हैं। यह आपकी पसन्द होगी।

वैक्सीन की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित करें?

मैं आपको बताऊँगा कि ये सभी (टीके) शानदार हैं। ये तीनों आपको अस्पताल में भर्ती होने से बचाते हैं। ये तीनों उल्लेखनीय रूप से सुरक्षित हैं। आपकी सभी आशंकाओं को दूर करने के लिए मैं खुद पहला टीका लूँगा, जो मेरे लिए उपलब्ध होगा। क्योंकि जितनी जल्दी एक टीका मिल जाएगा, उतनी ही जल्दी कोई भी गम्भीर बीमारी को रोक सकता है और जिनसे वह प्यार करता है, उनमें वायरस फैलने से बचा सकता है।

क्या टीके भेजने के लिए हड़बड़ी है?

कई लोगों ने चिन्ता व्यक्त की है कि टीकों को जल्दी में भेजा जा रहा है। कुछ शीर्ष चिकित्सा पत्रिकाओं ने पाया कि पहले महामारी में 1967 में कण्ठमाला के टीके के विकास के लिए रिकॉर्ड चार साल लगे थे। कुछ विशेषज्ञों ने चेतावनी दी कि महामारी में पहले एक टीके के लिए 12 से 18 महीने का पूर्वानुमान था; जो उम्मीद-भरा तो था, लेकिन यथार्थवादी नहीं हो सकता। तथ्य यह कि इतने कम समय में एक टीका आ गया है, जो डर का कारण नहीं होना चाहिए। टीके के मामले में वास्तव में कोई जल्दबाज़ी नहीं की गयी है, बल्कि सिर्फ इतना है कि प्रौद्योगिकी और विज्ञान पहले से बेहतर हो गया है। इसलिए हम चीज़ों को बहुत अधिक जल्दी विकसित कर सकते हैं। क्योंकि एक या दो दशक की अवधि में इस मोर्चे पर हम बहुत बेहतर हुए हैं।

वैक्सीन के बारे में सोशल मीडिया में षड्यंत्र की बहुत बातें कही गयी हैं। आप क्या कहते हो?

कुछ लोगों ने वैक्सीन के बारे में साज़िश की बात भी कही थी, जैसे कि इसमें माइक्रोचिप हो और इसका इस्तेमाल लोगों को ट्रैक करने के लिए किया जा सकता है, या यह लोगों के डीएनए को बदल सकता है। इंटरनेट पर उन दावों को साझा किया जा रहा है। लेकिन यह सब झूठ है। इस टीके में कोई माइक्रोचिप नहीं है; कोई परिरक्षक नहीं है। यह शुद्ध रूप से एक टीका है। और एक आरएनए टीका आपके डीएनए को नहीं बदल सकता है। यह प्रजनन क्षमता या किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं करता है। वे सुरक्षित हैं और वे काम करते हैं।

इसके अलावा पीजीआई चंडीगढ़ के वरिष्ठ चिकित्सक प्रोफेसर जे.एस. ठाकुर, डॉ. अर्पित गुप्ता, डॉ. नुसरत शफीक, डॉ. शुभमोहन सिंह, डॉ. आरपीएस भोगल, डॉ. अर्नब घोष, डॉ. साई चैतन्य रेड्डी, डॉ. रोनिका पाइका और डॉ. दीप्ति सूरी ने कोरोना प्रिवेंशन एंड आईईसी कमेटी, पीजीआईएमईआर चंडीगढ़ को अपना इनपुट दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि कोरोना वायरस एक ऐसा वायरस है, जिसे पहले पहचाना नहीं गया है। कोरोना वायरस रोग 2019 (कोविड-19) पैदा करने वाला वायरस आम कोरोना वायरस के समान नहीं है, जो आमतौर पर मनुष्यों के बीच घूमता है और आम सर्दी जैसी हल्की बीमारी का कारण बनता है। नये वायरस को गम्भीर तीव्र श्वसन सिंड्रोम कोरोना वायरस-2 (सारस सीओवी-2) नाम दिया गया है। दिसंबर, 2019 में चीन के वुहान में प्रकोप शुरू होने से पहले नया वायरस और यह महामारी अज्ञात थी, जो बाद में दुनिया भर में फैल गयी।

गौरतलब है कि पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआईएमईआर) ने 100 स्वयंसेवकों पर मानव नैदानिक परीक्षणों के एक भाग के रूप में ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की खुराक दी है और स्वयंसेवकों के बीच अब तक कोई बड़ा दुष्प्रभाव नहीं हुआ है। दिलचस्प बात यह है कि संस्थान के एक 64 वर्षीय वरिष्ठ प्रोफेसर ने भी परीक्षणों के लिए स्वेच्छा से काम किया है। एक प्रोफेसर ने कहा- ‘चूँकि मैं उच्च रक्तचाप और मधुमेह का मरीज़ हूँ, इसलिए मैं यह देखना चाहता था कि मेरी उम्र के मरीज़ सम्भावित टीके पर कैसी प्रतिक्रिया देंगे।’ विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) भी आमतौर पर पूछे जाने वाले कुछ सवालों के जवाब देता है।

स्वच्छता और स्वच्छ जल के पर्याप्त स्तर के साथ क्या अभी भी टीकाकरण की आवश्यकता है?

संक्रामक रोगों को रोकने के लिए टीके आवश्यक हैं, और अच्छी स्वच्छता, स्वच्छ पानी और पोषण अपर्याप्त हैं। यदि हम टीकाकरण या बड़े स्तर की प्रतिरक्षा की इष्टतम दरों को बनाये नहीं रखते हैं, तो टीकाकरण द्वारा रोकी गयी बीमारियाँ वापस आ जाएँगी। जबकि बेहतर स्वच्छता और स्वच्छ जल लोगों को संक्रामक रोगों से बचाने में मदद करते हैं, पर कई संक्रमण फैल सकते हैं; भले ही हम कितने भी साफ हों। यदि लोगों को टीका नहीं लगाया जाता है, तो ऐसे रोग, जो असामान्य हो गये हैं, जैसे कि काली खाँसी, पोलियो और खसरा आदि जल्दी से फिर से प्रकट हो जाएँगे।

क्या टीके सुरक्षित हैं?

टीके सुरक्षित हैं। किसी भी लाइसेंस प्राप्त टीके का उपयोग करने के लिए अनुमोदित होने से पहले परीक्षण के कई चरणों में कड़ाई से इनका परीक्षण किया जाता है, और नियमित रूप से बाज़ार में आने के बाद नियमित रूप से आश्वस्त किया जाता है। वैज्ञानिक किसी भी संकेत के लिए कई स्रोतों से लगातार जानकारी की निगरानी कर रहे हैं कि एक टीका प्रतिकूल घटना का कारण बन सकता है। ज़्यादातर वैक्सीन प्रतिक्रियाएँ आमतौर पर मामूली और अस्थायी होती हैं, जैसे कि गले में खराश या हल्का बुखार। दुर्लभ घटना में एक गम्भीर दुष्प्रभाव की सूचना दी जाती है, इसकी तुरन्त जाँच की जाती है।

यह टीके की तुलना में टीका-रोकथाम योग्य बीमारी से गम्भीर रूप से पीडि़त होने की अधिक सम्भावना है। उदाहरण के लिए पोलियो की स्थिति में रोग पक्षाघात का कारण बन सकता है। खसरा इंसेफेलाइटिस और अन्धेपन का कारण बन सकता है। यहाँ तक कि कुछ टीका-निरोधक रोग मौत का कारण बन सकते हैं। जबकि टीकों के कारण होने वाली कोई भी गम्भीर चोट या मृत्यु बड़ी बात है। टीकाकरण के लाभ जोखिमों को बहुत कम कर देता है, और कई अन्य रोग व मौतें टीकों के बिना होती हैं।

क्या टीके प्राकृतिक संक्रमण से बेहतर प्रतिरक्षा प्रदान करते हैं?

टीका प्रतिरक्षा प्रणाली के साथ तालमेल करता है, ताकि प्राकृतिक संक्रमण द्वारा उत्पन्न प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न हो सके। लेकिन वो इस बीमारी का कारण नहीं बनता है और न ही प्रतिरक्षित व्यक्ति को इसकी सम्भावित जटिलताओं के जोखिम में डालता है। इसके विपरीत प्राकृतिक संक्रमण के माध्यम से प्रतिरक्षा प्राप्त करने के लिए चुकायी गयी कीमत हीमोफिलस इन्फ्लुएंजा टाइप-बी (एचआईबी) से जन्मजात बधिरता दोष, रूबेला से जन्म दोष, हेपेटाइटिस-बी वायरस से यकृत कैंसर या खसरे के कारण दर्दनाक मौत हो सकती है।

क्या मुझे उन बीमारियों के खिलाफ टीकाकरण की आवश्यकता है, जो मैं अपने समुदाय या अपने देश में नहीं देखता हूँ?

यद्यपि कई देशों में वैक्सीन से रोके जाने वाले रोग असामान्य हो गये हैं; लेकिन संक्रामक कारक उन्हें दुनिया के कुछ हिस्सों में प्रसारित करना जारी रखे हुए हैं। वैश्विक रूप से जुड़ी दुनिया में ये रोग भौगोलिक सीमाओं को पार कर सकते हैं और किसी को भी संक्रमित कर सकते हैं, जो संरक्षित नहीं है। टीका लगवाने के दो प्रमुख कारण हैं- एक, स्वयं की रक्षा करना और दो, अपने आसपास के लोगों की भी सुरक्षा करना। सफल टीकाकरण कार्यक्रम सभी की भलाई सुनिश्चित करने के लिए हर व्यक्ति के सहयोग पर निर्भर करता है। हमें बीमारी फैलने से रोकने के लिए अपने आस-पास के लोगों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। लेकिन हमें वह ज़रूर करना चाहिए, जो हम कर सकते हैं।

क्या एक बार में एक बच्चे को एक से अधिक टीके दिये जा सकते हैं?

वैज्ञानिक प्रमाण बताते हैं कि एक ही समय पर कई टीके देने से बच्चे की प्रतिरक्षा प्रणाली पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। बच्चे असंख्य बाहरी पदार्थों के सम्पर्क में आते हैं, जो हर दिन एक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को सक्रिय करते हैं। भोजन करने का सरल कार्य भी शरीर में नये एंटीजन (प्रतिजन) पैदा करता है और कई बैक्टीरिया मुँह और नाक में रहते हैं। एक बच्चा एक सामान्य सर्दी या गले में खराश से अधिक एंटीजन के सम्पर्क में है; जितना कि वह एक टीके से है। एक बार में कई टीके लगवाने का मुख्य लाभ कम क्लीनिक-दौरा है; जो समय और पैसे, दोनों बचाता है। इसके अलावा जब एक संयुक्त टीकाकरण सम्भव है (जैसे डिप्थीरिया, पर्टुसिस और टिटनेस के लिए), तो इसके परिणामस्वरूप कम इंजेक्शन होंगे और बच्चे के लिए असुविधा कम हो जाएगी। टीकाकरण के समय दर्द को कम करने के लिए कई कदम उठाये जा सकते हैं।

क्या टीकाकरण के माध्यम से मुझे इन्फ्लूएंजा से बचाव करने की आवश्यकता है?

इन्फ्लुएंजा एक गम्भीर बीमारी है, जो दुनिया भर में हर साल 30 हज़ार से पाँच लाख लोगों की जान ले सकती है। गर्भवती महिलाएँ, छोटे बच्चे, खराब स्वास्थ्य वाले बुजुर्ग और अस्थमा या हृदय रोग से पीडि़त लोग गम्भीर संक्रमण या मृत्यु के अधिक जोखिम वाली उम्र में इससे अधिक संक्रमित होते हैं। गर्भवती महिलाओं का टीकाकरण उनके नवजात शिशुओं की सुरक्षा का अतिरिक्त लाभ है (छ: महीने से कम उम्र के बच्चों के लिए वर्तमान में कोई टीका नहीं है)। मौसमी इन्फ्लूएंजा के टीके किसी भी मौसम में पैदा होने वाले तीन सबसे प्रचलित प्रभावों (थकान, कमज़ोरी आदि) के लिए प्रतिरक्षा प्रदान करते हैं। यह गम्भीर फ्लू की सम्भावना को कम करने और इसे दूसरों को फैलाने से बचाव का सबसे अच्छा तरीका है और 60 से अधिक वर्षों से इसका उपयोग किया जाता है। फ्लू से बचने का मतलब है कि अतिरिक्त चिकित्सा खर्च बचाना, और इसके कारण रोज़गार या स्कूल से मिस होने वाले दिनों और आय को बचाना।

टीकों में किन परिरक्षकों (प्रिजर्वेटिव) का उपयोग किया जाता है?

थायोमर्सल एक कार्बनिक, पारा युक्त यौगिक है, जो कुछ टीकों में परिरक्षक के रूप में जोड़ा जाता है। यह सुरक्षित है और टीकों के लिए सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला प्रिजर्वेटिव है; जो मल्टी-डोज वैक्सीन शीशियों में प्रदान किया जाता है। यह बताने के लिए कोई सुबूत नहीं है कि टीकों में इस्तेमाल किये जाने वाले थायोमर्सल की मात्रा एक स्वास्थ्य जोखिम पैदा करती है।

टीके और ऑटिज्म के बारे में क्या कहेंगे?

सन् 1998 के एक अध्ययन, जिसमें खसरा, कंठमाला, जर्मन खसरा (एमएमआर) वैक्सीन और ऑटिज्म (न्यूरोलोलॉजिकल और विकास सम्बन्धी विकार) के बीच सम्भावित लिंक के बारे में चिन्ता जतायी थी; को बाद में गम्भीर रूप से दोषपूर्ण और कपटपूर्ण पाया गया था। बाद में इसे प्रकाशित करने वाले जर्नल द्वारा पेपर को वापस ले लिया गया। दुर्भाग्य से इसके प्रकाशन ने आतंक जैसे माहौल को जन्म दिया, जिसके कारण प्रतिरक्षण दर गिर गयी, और बाद में इन बीमारियों का प्रकोप हुआ। एमएमए वैक्सीन और ऑटिज्म या ऑटिस्टिक विकारों के बीच एक लिंक का कोई सुबूत नहीं है।

संकट में मीडिया की सहायता के लिए आगे आया गूगल

तकनीकी दिग्गज, गूगल ने पत्रकारिता आपातकालीन राहत कोष के माध्यम से दुनिया भर के उन मीडिया घरानों को वित्तीय सहायता प्रदान करने की पहल की है, जो चल रही कोरोना वायरस की महामारी के कारण अपने ऑपरेशन जारी रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ‘तहलका’ ने गूगल द्वारा वित्तीय सहायता को स्वीकार किया, जो संकट की स्थिति में संपादकीय सहयोगियों के लिए मददगार साबित हुई। निस्संदेह गूगल द्वारा एक प्रशंसनीय और सराहनीय पहल !

शाह और शेरनी का मुकाबला

दिसंबर के दूसरे पखवाड़े की बात है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के बड़े नेता शुवेंदु अधिकारी गृह मंत्री अमित शाह की जनसभा में भाजपा में शामिल हो गये। शाह ने इसे पश्चिम बंगाल में भाजपा की लहर का संकेत बताया। इसके दो दिन बाद ही भाजपा ने 2016 में अपने यूट्यूब चैनल और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉम्र्स पर अपलोड किया एक वीडियो डिलीट कर दिया, जिसमें अन्य के अलावा शुवेंदु भी थे; क्योंकि यह वीडियो अब फिर वायरल हो रहा था। एक स्टिंग वाला यह वीडियो भाजपा ने अपने यूट्यूब चैनल पर चार साल पहले इसलिए अपलोड किया था, ताकि वह टीएमसी पर भ्रष्टाचार को लेकर हमला कर सके। क्योंकि इसमें शुवेंदु अन्य नेताओं के साथ पैसे लेते दिख रहे थे; जो उस समय टीएमसी में थे। एक दिन बाद ही भाजपा ने शुवेंदु को जेड कैटेगरी की सुरक्षा प्रदान करते हुए बुलेट प्रूफ गाड़ी भी उपलब्ध करवा दी। इसी वीडियो में दिखने वाले दो नेता भाजपा में शामिल हो गये; जबकि मुकुल रॉय पहले ही पार्टी में जा चुके थे। इसके बाद टीएमसी के एक नेता ने टिप्पणी की- ‘भाजपा के लिए अब शुवेंदु दूध के धुले हो गये। इससे उसके दोगलेपन का पता चलता है।’ पश्चिम बंगाल में इस साल विधानसभा चुनाव हैं; लेकिन वहाँ अभी से चुनावी सरगर्मी दिखने लगी है। पश्चिम बंगाल की शेरनी के नाम से जाने जाने वाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को टक्कर देने के लिए भाजपा ने पार्टी के चाणक्य कहे जाने वाले गृह मंत्री अमित शाह को मैदान में उतारा है। ज़मीन पर बहुत मज़बूत ममता को शाह कैसे टक्कर दे पाते हैं? यह देखना दिलचस्प होगा।

भाजपा को पश्चिम बंगाल में जो उम्मीद दिख रही है, उसके पीछे 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजे हैं, जिनमें भाजपा ने 42 में 18 सीटें जीती थीं। हालाँकि टीएमसी को 22 सीटें, जो सबसे ज़्यादा हैं; मिली थीं। लेकिन यह माना गया कि भाजपा टीएमसी की टक्कर में है। मगर, यह लोकसभा के नहीं, विधानसभा के चुनाव हैं। राजनीति के जानकारों का मानना है कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में बहुत फर्क है। लोकसभा में नरेंद्र मोदी के लिए वोट पड़े थे; क्योंकि विपक्ष के पास कोई राष्ट्रीय विकल्प नहीं था। विधानसभा चुनाव में भाजपा के सामने ममता बनर्जी जैसी ताकतवर नेता हैं, जिनका दामन बेदाग रहा है और पिछले 10 साल में उनकी सरकार के काम पर कोई एंटी इंकम्बेंसी नहीं दिखती। राज्य में उनके राज में दंगे नहीं हुए हैं। दूसरे ममता की जनता पर पकड़ किसी भी अन्य नेताओं के मुकाबले बहुत ज़्यादा है।

देखा जाए तो भाजपा टीएमसी और अन्य दलों के नेताओं को दल-बदल करवाकर अपने साथ जोडऩे के अलावा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर ज़्यादा निर्भर है। भाजपा के पास पश्चिम बंगाल में कोई मज़बूत संगठन नहीं है और न ही कोई कद्दावर नेता, जो ममता बनर्जी जैसी ताकतवर नेता को टक्कर देने की क्षमता रखता हो। यहाँ तक कि टीएमसी से दल-बदल करके जो नेता भाजपा में आये हैं, उनमें से अधिकतर ऐसे हैं, जो चुनाव जीतने के लिए ममता बनर्जी पर निर्भर रहे हैं। ऐसे में वे कैसे भाजपा को फायदा पहुँचा पाएँगे? यह भविष्य ही बतायेगा।

हाँ, एक बात सच है कि विधानसभा का अगला चुनावी मुकाबला पश्चिम बंगाल में टीएमसी और भाजपा के बीच ही होगा। पश्चिम बंगाल में वाम दल और कांग्रेस शून्य जैसी स्थिति में हैं; लोकसभा चुनाव के नतीजों में भी यह दिखा था। वामदल तो एक भी सीट नहीं जीत पाये थे, जबकि कांग्रेस को दो सीटें मिली थीं। लोकसभा चुनाव में भी अमित शाह ने ही भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल का मैदान सँभाला था, तब वह भाजपा अध्यक्ष भी थे। इस बार भी शाह ममता को चुनौती देने निकले हैं। हालाँकि ‘बाहरी’ बनाम ‘धरती पुत्री’ का नारा उनके रास्ते का रोड़ा बन सकता है।

पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा हमेशा होती रही है। इस बार भी चुनाव से पाँच महीने पहले ही हिंसा की घटनाएँ शुरू हो गयी हैं। भाजपा टीएमसी पर हिंसा करने और उसके कार्यकर्ताओं की हत्याओं का आरोप लगा रही है; लेकिन एक मामले में तो आत्महत्या को भी हत्या बता देने से भाजपा को काफी किरकिरी झेलनी पड़ी। कई जगह भाजपा पर हिंसा के आरोप भी लग चुके हैं। टीएमसी किसी भी तरह की हिंसा से साफ इन्कार कर चुकी है। दरअसल भाजपा को पूरी तरह साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश में दिख रही है, भले वो इससे लाख इन्कार करे। शाह सीधे ममता बनर्जी पर हमला कर रहे हैं। हालाँकि टीएमसी के नेता मान कर चल रहे हैं कि इससे भाजपा का ही नुकसान होगा; क्योंकि दीदी की छवि जनता में बहुत अच्छी है।

पश्चिम बंगाल की राजनीति को गहरे से समझने वाले कोलकाता में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर मणि तिवारी से ‘तहलका’ ने बातचीत की, तो उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा दािगयों के सहारे चुनाव जीतने की कल्पना कर रही है। शाह के दौरे के समय भगवा झण्डा थामने वाले शुवेंदु अधिकारी हों या फिर दो साल पहले टीएमसी से नाता तोड़कर भाजपा के पाले में जाने वाले मुकुल रॉय; किसी का दामन उजला नहीं है। अगले चुनाव में दो-तिहाई बहुमत से सत्ता में आने का दावा करने वाली भाजपा ऐसे दागी नेताओं की बैशाखी पर चलने का फैसला कर चुकी है, जो पहले से ही भ्रष्ट्राचार और हत्या तक के आरोपों से जूझ रहे हैं, ऐसे में उसका रास्ता मुझे मुश्किल दिखता है। ज़मीन पर ममता बनर्जी को टक्कर देने के लिए उसे इसके अलावा और कुछ ठोस करना होगा।

दरअसल जिन नेताओं को भाजपा ममता बनर्जी से मुकाबला करने के लिए साथ ले रही है और अपना ट्रंप कार्ड बता रही है, उनमें से ज़्यादातर पर गम्भीर आरोप हैं। सारदा चिटफंड घोटाले में भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझने वाले इन नेताओं में से मुकुल रॉय पर तो तृणमूल कांग्रेस विधायक सत्यजीत विश्वास की हत्या तक का आरोप है। हत्या की जाँच करने वाली सीआईडी की टीम ने दिसंबर के शुरू में अदालत में पूरक आरोप-पत्र दायर किया है और उसमें राज्य का नाम शामिल है। सारदा चिटफंड के मालिक सुदीप्त सेन ने जेल से सीबीआई को जो पत्र भेजा था, उसमें जिन पाँच नेताओं का ज़िक्र है, जिनमें मुकुल रॉय और शुवेंदु अधिकारी शामिल हैं। कड़वा सच यह है कि खुद के पाक-साफ होने का दावा करने वाली भाजपा अन्य से अलग नहीं है। भाजपा के लिए यह स्थिति तब और भी हास्यास्पद हो जाती है, जब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह टीएमसी के भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाने की बात करते हैं।

पश्चिम बंगाल में भाजपा संगठन के तौर पर कितनी कमज़ोर है? यह अमित शाह की मेदिनीपुर की जनसभा में कही बात से ज़ाहिर हो जाता है, जब उन्होंने कहा- ‘शुवेंदु अधिकारी समेत 10 विधायकों का पार्टी में शामिल होना तो एक शुरुआत है। चुनाव आते-आते दीदी आप अकेली रह जाओगी।’ ज़ाहिर है भाजपा और शाह दूसरे दलों से भाजपा में आने वाले नेताओं के सहारे ही हैं, जब वे कहते हैं- ‘ममता ने पश्चिम बंगाल में भाजपा की सुनामी की कल्पना तक नहीं की होगी। अगले चुनाव में पार्टी 200 से ज़्यादा सीटें जीतेगी। पूरा पश्चिम बंगाल दीदी के खिलाफ है। भाजपा को सत्ता में आते ही राज्य को सोनार बांग्ला बना देगी।’

इसमें कोई दो-राय नहीं कि मुस्लिम वर्ग का ममता और टीएमसी को मज़बूत समर्थन रहा है। ऐसे में भाजपा पर टीएमसी आरोप लगा रही है कि वो बिहार की तरह असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को पैसे देकर पश्चिम बंगाल में वोट कटवा पार्टी के रूप में लाने की तैयारी कर रही है। ओवैसी इस आरोप को गलत बता रहे हैं; लेकिन भाजपा ओवैसी के चुनाव में उतरने को अपने लिए फायदे की बात मानती है। इसके बावजूद मुस्लिम पश्चिम बंगाल में ममता से छिटककर ओवैसी की पार्टी को वोट देंगे, इसकी सम्भावना बहुत नहीं दिखती।

ममता की तैयारी और चुनौतियाँ

हाल की अपनी बैठकों में ममता ने तमाम टीएमसी नेताओं को सरकार के 10 साल के कामकाज के साथ आम लोगों के बीच जाने का निर्देश दिया है। पार्टी के नेता जनता को यही बताएँगे कि अपने पैरों तले ज़मीन कमज़ोर होने की वजह से भाजपा कैसे तृणमूल को तोडऩे का प्रयास कर रही है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि पिछले दो विधानसभा चुनावों के मुकाबले इस बार टीएमसी का मुकाबला नये विरोधी से है। लोकसभा में स्थिति भिन्न थी। विधानसभा चुनाव में टीएमसी पर अपनी सत्ता बचाने का दबाव है। पिछले चुनावों में टीएमसी का मुकाबला बेहतर संगठन वाली माकपा से था; जो अलोकप्रिय हो गयी थी। लेकिन इस बार उसका मुकाबला संगठन में कमज़ोर, मगर लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी वाली भाजपा से है। ऐसे में उसे अपनी पूरी ताकत झोंकनी होगी।

राजनीतिक संघर्ष से निकलीं ममता बनर्जी के सामने इस बार पार्टी की बगावत चिन्ता का विषय है; भले यह बहुत गम्भीर स्तर की बात न हो। ममता जानती हैं कि पैसे के मामले में वह भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकतीं। लेकिन यह भी सच है कि जिस कद की नेता ममता हैं, भाजपा उस कद को पैसे के बूते हासिल नहीं कर सकती। हाल के महीनों तक ममता की बात पार्टी के नेताओं के लिए पत्थर की लकीर होते थी; लेकिन माना जाता है कि टीएमसी के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के कुछ फैसलों से कई नेता असहमत रहे हैं। इसके अलावा ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी के काम करने के तरीके को लेकर भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में मतभेद रहा है।

भाजपा को जबाव देने के लिए ममता बनर्जी ने रोड शो के साथ-साथ प्रेस वार्ता करके भी अपनी सरकार की उपलब्धियाँ जनता के सामने रखी हैं। वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर मणि तिवारी कहते हैं- ‘ममता के खिलाफ जनता में कुछ है नहीं। सरकार के खिलाफ भी कोई विरोधी रुझान नहीं दिखता। उनका विकास के मामले में भी रिकॉर्ड बुरा नहीं है; लिहाज़ा भाजपा के पास जनता को ममता के खिलाफ करने के लिए कोई ठोस मुद्दा है नहीं।’

हाल में ममता सरकार ने ‘द्वारे सरकार’ नाम से बड़ी योजना शुरू की है। इसमें पंचायत, वार्ड स्तर पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इसके अलावा राशन कार्ड, उससे जुड़े बदलाव को घर बैठे पूरा किया जा सकेगा। आदिवासी, तापिस समुदाय के बच्चों को 800 रुपये सालाना की स्कॉलरशिप मिलेगी। 60 साल से अधिक उम्र वाले लोगों, जिनके पास कमाई का कोई साधन नहीं है; को सरकार घर बैठे 1000 रुपये प्रति महीना दे रही है। इसके अलावा सरकार राज्य में 8,000 से अधिक हिन्दू पुजारियों के लिए 1,000 मासिक वित्तीय सहायता और मुफ्त आवास और सनातन ब्राह्मण सम्प्रदाय को कोलाघाट में एक अकादमी तैयार करने के लिए ज़मीन दे चुकी है। लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार ‘कर्म साथी’ योजना में दो लाख युवाओं को मोटरसाइकिल बाँटने की योजना चला रही है। केंद्र की ‘आयुष्मान भारत योजना’ के मुकाबले ममता राज्य में सरकारी अस्पतालों में फ्री उपचार और दवाए मुहैया करवा रही हैं। राज्य की स्वास्थ्य साथी योजना के तहत 7.5 करोड़ आबादी को कवर किया गया है।

भाजपा की रणनीति

भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा पश्चिम बंगाल का दौरा कर चुके हैं। अमित शाह तो लगातार सक्रिय हैं ही। भाजपा आर नोई अन्याय (अब और अन्याय नहीं) के तहत टीएमसी को खलनायक की तरह पेश करने की कोशिश कर रही है और आरोप लगा रही है कि उसके कार्यकर्ताओं की हत्या की जा रही है। भाजपा हिन्दुत्व के एजेंडा भी साथ में चला रही है। यही नहीं, भाजपा ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के गृह क्षेत्र भवानीपुर और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी के डायमंड हार्बर में चुनाव तक अभियान चलाने की योजना बनायी है। हालाँकि टीएमसी सांसद सौगत रॉय कहते हैं कि इसका कोई फर्क नहीं पड़ेगा। रॉय कहते हैं कि जे.पी. नड्डा को यहाँ लोग जानते तक नहीं। वे हिमाचल से हैं और यहाँ की राजनीति को समझते नहीं हैं।

भाजपा प्रशासनिक मोर्चे पर भी ममता पर हमले कर रही है। दिसंबर में भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के काफिले पर हमले के बाद केंद्र ने जहाँ ममता सरकार से रिपोर्ट तलब की, वहीं उनके मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को दिल्ली तलब किया। भले केंद्र के दबाव के सामने झुकने से इन्कार करते हुए ममता ने इन अधिकारियों को दिल्ली नहीं भेजा, लेकिन इसके बाद केंद्र ने तीन वरिष्ठ आईपीएस अफसरों को जबरन केंद्रीय डेपुटेशन पर जाने का निर्देश दे दिया। इसके अलावा पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ भी अन्य राज्यपालों के मुकाबले ज़्यादा सक्रिय दिखते हैं और ममता सरकार को कटघरे में खड़ा करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। टीएमसी मानती है कि यह सब केंद्र के इशारे पर उन्हें परेशान करने के लिए है।

भाजपा दक्षिण और उत्तर 24 परगना ज़िलों में ज़्यादा ताकत झोंक रही है। टीएमसी से भाजपा में आये मुकुल रॉय इसी क्षेत्र से हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इस क्षेत्र में बैरकपुर और बनबांव की सीटें जीती थीं। मतुआ समुदाय का यहाँ ज़ोर रहा है। शुवेंदु अधिकारी भी भाजपा में जा चुके हैं, जो दक्षिण पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर से हैं। वैसे वह यहाँ एक बार हार चुके हैं। लेकिन सच है कि इससे भाजपा को इलाके में घुसने का अवसर मिल गया है। नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण विरोधी आन्दोलन ने जब ममता नारजी को जबरदस्त राजनीतिक लाभ दिया था, तब शुवेंदु ही यहाँ विधायक थे।

राज्य में मुख्य रूप से गंगीय बंगाल, उत्तर बंगाल, राढ़ और दक्षिण बंगाल के चार क्षेत्र हैं। लोकसभा चुनाव में 2019 में भाजपा का उत्तर बंगाल और राढ़ क्षेत्र में प्रदर्शन बेहतर रहा था। गंगीय और दक्षिण बंगाल क्षेत्रों में टीएमसी हावी रही थी। भाजपा तो उम्मीद है कि उत्तर बंगाल में वह उलटफेर कर सकती है। कभी यह वामपंथ का मज़बूत गढ़ था। भाजपा को दक्षिण-पश्चिम बंगाल में टीएमसी को पछाड़े बगैर सफलता नहीं मिलेगी। यदि वह वाम जनाधार को अपने पक्ष में कर सके, तभी यह सम्भव है, और यह कोई मामूली चुनौती नहीं है। पेच एक ही है कि लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल की जनता ने कहा था कि दिल्ली में मोदी और बंगाल में ममता। जनता की इस सोच को भाजपा बदल पायेगी या नहीं? यह बड़ा सवाल है।

कांग्रेस और वामपंथी

कांग्रेस और वामपंथी दलों का पश्चिम बंगाल में वोट बैंक होने के बावजूद इस बार दोनों दल बहुत ठण्डे दिख रहे हैं। वैसे 2011 में कांग्रेस ने टीएमसी के साथ गठबन्धन करके चुनाव लड़ा था, जबकि 2016 में वाम दलों के साथ। हो सकता है अन्तिम समय में टीएमसी भाजपा को पूरी तरह रोकने के लिए कांग्रेस का साथ ले। ममता बनर्जी हाल में एनसीपी नेता शरद पवार से भी बात कर चुकी हैं। लिहाज़ा फरवरी या मार्च तक ही ऐसे किसी गठबन्धन की तस्वीर साफ हो सकेगी। तब तक कांग्रेस में नया नेतृत्व होगा और देखना होगा, उसका क्या फैसला रहता है। आज की तारीख में तो कांग्रेस भाजपा की ही तरह टीएमसी की भी निन्दा ही करती है।

क्या सौरव गांगुली उतरेंगे मैदान में!

भाजपा की बंगाल में सबसे बड़ी कमज़ोरी ममता जैसी मज़बूत नेता का मुकाबला करने के लिए बड़ी कद-काठी का नेता न होना है। बंगाल टाइगर के नाम से मशहूर सौरव गांगुली जब बीसीसीआई के अध्यक्ष बने और जिस तरह अमित शाह के पुत्र जय शाह उनके साथ सचिव बने, तभी से यह कयास लगते रहे हैं कि भाजपा उनकी लोकप्रियता और कद को देखते हुए उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में आगे कर सकती है। फिलहाल तो सौरव राजनीति में जाने की बात पर न ही कहते हैं; लेकिन बहुत से जानकार मानते हैं कि भाजपा अन्तिम समय में तुरुप के पत्ते के रूप में उन्हें आगे कर सकती है।

हमारी ताकत आम लोग हैं, नेता नहीं। दल-बदलू नेताओं के पार्टी छोडऩे से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसे लोग पार्टी पर बोझ थे। आम लोग उन्हें विश्वासघात की सज़ा देंगे; क्योंकि पश्चिम बंगाल के लोग विश्वासघातियों को पसन्द नहीं करते।

ममता बनर्जी, मुख्यमंत्री

ममता बनर्जी ने माँ, मानुष और माटी के नारे को भ्रष्ट्राचार, तोलाबाज़ी और भतीजावाद में बदल दिया है। जब विधानसभा चुनाव के नतीजे आएँगे, तो भाजपा 200 से अधिक सीटों के साथ सरकार बनायेगी। पश्चिम बंगाल की जनता आपने पश्चिम बंगाल के तीन दशक कांग्रेस को दिये, 27 साल कम्यूनिस्टों को दिये, 10 साल ममता दीदी को दिये; अब आप पाँच साल भाजपा को दीजिए, हम आपके लिए सोनार बांग्ला बनाएँगे।

अमित शाह, गृहमंत्री

जम्मू-कश्मीर : गुपकार की जीत के मायने

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 के तहत सूबे का विशेष दर्जा खत्म करने और उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदलने के मोदी सरकार के फैसले के बाद पहले बड़े चुनाव में कश्मीर घाटी में नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व में बने सात दलों के गुपकार गठबन्धन को बड़ी जीत मिली है। गुपकार गठबन्धन ज़िला विकास परिषद् (डीडीसी) के चुनाव में अनुच्छेद-370 खत्म करने के मोदी सरकार के फैसले के इकलौते मुद्दे के साथ जनता के सामने गया था और उसकी जीत से ज़ाहिर होता है कि घाटी के लोग राज्य का विशेष दर्जा खत्म करने के फैसले के खिलाफ और उससे आहत हैं। भाजपा को 75 जबकि गुपकार गठबन्धन को 112 सीटें और अकेले चुनाव में उतरी कांग्रेस को 26 सीटें मिलीं।

इन चुनावों के ज़रिये भाजपा भविष्य में जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभा बहाल करने का प्रयोग कर रही थी। घाटी की जनता ने आतंकियों की तमाम धमकियों के बावजूद अच्छी संख्या में चुनावों में हिस्सा लेकर लोकतंत्र में भरोसा जताया है। अब यह केंद्र सरकार पर निर्भर है कि वह विधानसभा को बहाल करके लोगों को अपने प्रतिनिधि चुनने का अवसर दे; घाटी के विकास का यही सबसे बेहतर तरीका होगा।

नतीजों के बाद पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘भाजपा को इन नतीजों से समझ लेना चाहिए कि जनता क्या चाहती है? यह नतीजे भाजपा की हार हैं। अब उसे कश्मीर का विशेष दर्जा बिना देरी बहाल करना चाहिए और यहाँ विधानसभा चुनाव करवाने चाहिए।’

जम्मू सम्भाग में भाजपा ने 10 में से छ: ज़िला परिषदों में बहुमत हासिल किया है। हालाँकि वहाँ भी नेशनल कॉन्फ्रेंस अपना असर दिखाने में सफल रही है। इसके इतर भाजपा कश्मीर में अपना खाता खोलने और इक्का-दुक्का जीत के बावजूद प्रभावशाली प्रदर्शन नहीं कर पायी है। भाजपा के साथ दो साल पहले तक सरकार चला रही पीडीपी को भी कश्मीर के लोगों ने समर्थन नहीं दिया है। इन चुनावों में एक तरह से नेशनल कॉन्फ्रेंस बहुत ताकतवर होकर उभरी है, जिसने जीत के बाद कहा कि भविष्य में कभी उसकी सरकार बनी, तो वह प्रदेश का विशेष दर्जा खत्म करने वाले कानून को खत्म कर देगी। भाजपा को ज़्यादा मत मिलने की वजह यह रही कि जम्मू में मतदान 70 फीसदी हुआ, जबकि कश्मीर में यह महज़ 37 फीसदी मतदान हुआ। केंद्र में मंत्री भाजपा नेता अनुराग ठाकुर ने कहा- ‘लोग न गोली से डरे, न ही आतंक से; जम्मू-कश्मीर में जनतंत्र की जीत हुई है। चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन शानदार रहा है और कश्मीर में भी हमने दस्तक दे दी है।’

कांग्रेस ने इन चुनावों में सघन प्रचार तक नहीं किया था। उसके कार्यकर्ता घरों में दुबके रहे; लेकिन इसके बावजूद उसे 26 सीटें मिलने से ज़ाहिर होता है कि भविष्य में वह जम्मू में भाजपा के लिए चुनौती बन सकती है। यह माना जाता है कि अपनी पार्टी (जेकेएपी) केंद्र और भाजपा के सहयोग से बनी थी; लेकिन उसे जनता से ज़्यादा समर्थन नहीं मिला, जिससे भाजपा का कश्मीर में इस दल के ज़रिये घुसने का प्रयोग नाकाम रहा है।

भले कहने को भाजपा इन चुनावों में सबसे बड़ी इकलौती पार्टी बनी हो, लेकिन नतीजों का गहन अध्ययन बताता है कि उसकी जीत बहुत उत्साहजनक जीत नहीं है। राज्य में उप राज्यपाल प्रशासन में एक तरह से भाजपा का ही सिक्का चल रहा है। लेकिन जम्मू में जिस तरह भाजपा को बहुत आशातीत परिणाम मिले हैं, उससे ज़ाहिर होता है कि हिन्दू बहुल इस क्षेत्र में प्रशासन के कामकाज से जनता बहुत ज़्यादा खुश नहीं है। जम्मू में बढ़ते भ्रष्टाचार और जनता के काम नहीं होने की शिकायतें पिछले महीनों में बहुत तेज़ी से सामने आयी हैं।

यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा का प्रचार बहुत बड़े स्तर पर था और उसके बड़े नेता अनुराग ठाकुर और शाहनवाज़ हुसैन लम्बे समय तक कश्मीर में डेरा डाले रहे। गुपकार गठबन्धन और कांग्रेस दोनों ने आरोप लगाया था कि उन्हें प्रचार से रोका गया। इसके बावजूद गुपकार की कश्मीर में जीत बड़ी जीत मानी जाएगी। बड़ी संख्या में निर्दलीयों के जीतने के दो कारण रहे। एक तो कुछ जगह उन्हें दूसरे दलों का समर्थन था, जबकि कश्मीर में जिन लोगों ने पीडीपी से नाराज़गी होने के बावजूद नेशनल कॉन्फ्रेंस को बहुमत नहीं दिया, उन्होंने निर्दलीयों को तरजीह दी। कश्मीर में वरिष्ठ पत्रकार माज़िद जहांगीर ने ‘तहलका’ से कहा- ‘140 डीडीसी सीटों में भाजपा को कश्मीर में सिर्फ तीन सीटें मिलीं और इसका मुख्य कारण उसके पक्ष में कम मतदान करना था। गुपकार गठबन्धन के शीर्ष नेताओं को प्रचार नहीं करने दिया गया। भाजपा के दावे के बावजूद सच यह है कि अशान्त कश्मीर ने भाजपा को हराया है।’

किसको कितनी सीटें, कितने मत

दल                            सीट                             मत

भाजपा                        75                          4,87,364

नेशनल कॉन्फ्रेंस              67                          2,82,514

कांग्रेस                        26                          1,39,382

पीडीपी                       27                             55,789

निर्दलीय                      49                          1,71,420

जेकेएपी                      12                             3,8147

जेकेपीसी                      8                             43,274

माकपा                        5                               6,407

जेकेपीएम                     3                               6,754

पीडीएफ                      2                               7,273

जेकेएनपीपी                   2                             12,137

बसपा                         1                               7,397

यूपी में प्रतिभाओं को मौके प्रदान करने के लिए योगी की मेगा फिल्म सिटी परियोजना

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अब राज्य की प्रतिभाओं को वापस लाने के लक्ष्य के लिए परियोजनाओं पर काम शुरू कर दिया है। महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था के लिए राजस्व के प्रमुख स्रोत के रूप में योगदान दे रहे बॉलीवुड को नया विकल्प प्रदेश में मिल सकता है। नोएडा अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट (जेवर) और दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस-वे के आसपास यमुना एक्सप्रेस-वे पर बन रहे इकोनॉमिक हब में करीब 1000 एकड़ भूमि पर प्रस्तावित मेगा फिल्म सिटी स्थापित करने का दृढ़ संकल्प अब एक कदम और आगे बढ़ चुका है।

राजनीतिक रूप से इस चतुर ‘चाल’ को लेकर शिवसेना नेताओं की जवाबी प्रतिक्रिया देखने को मिली, हालांकि योगी की सक्रिय उदारवादी नीतियों के वादों ने कई प्रमुख फिल्मी हस्तियों को यूपी सरकार के प्रस्तावों की तरफ आकर्षित किया। महत्वाकांक्षी फिल्म सिटी परियोजना के निष्पादन का जिम्मा अतिरिक्त मुख्य सचिव, एमएसएमई और सूचना नवनीत सहगल को सौंपा गया है।

नवनीत सहगल ने अपने सामने की बड़ी चुनौतियों का मुकाबला करने की मजबूत क्षमता को तब साबित किया जब उन्होंने लॉकडाउन के दौरान योगी आदित्यनाथ की महत्वाकांक्षी परियोजना ओडीओपी (वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट) के तहत उत्पादन, वितरण और कारीगरों की कौशल विकास गतिविधियों के जरिये प्रवासी श्रमिकों के लिए रोजगार के बड़े अवसर पैदा करने के अलावा रिकार्ड समय में लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे के काम को पूरा किया। इसके अलावा ‘बीमार’ खादी और ग्रामोद्योग और एमएसएमई क्षेत्र को पुनर्जीवित करने में अहम भूमिका अदा की।

उत्तर प्रदेश सरकार और यमुना एक्सप्रेस-वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण फिल्म सिटी में स्टूडियो और उत्पादन इकाइयों को स्थापित करने के इच्छुक दलों के लिए सामान्य सुविधा, बुनियादी ढांचे का निर्माण करेंगे। पिछले दिनों सीएम योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश फिल्म विकास परिषद के अध्यक्ष राजू श्रीवास्तव के आयोजित एक समारोह में भाग लिया और राहुल मित्रा, सुभाष घई, बोनी कपूर, मनमोहन शेट्टी, सतीश कौशिक, अर्जुन रामपाल, जयंतीलाल गडा, तिग्मांशु धुलिया, अनिल शर्मा और रवि किशन जैसी फिल्मी हस्तियों से मुलाकात की। अभिनेता अक्षय कुमार भी फिल्म सिटी के लिए अपने प्रोजेक्ट के साथ मुंबई में अलग से मिले। अक्षय ने अयोध्या में अपनी आगामी फिल्म ‘राम सेतु’ की शूटिंग की अपनी योजनाओं पर भी चर्चा की, जिसके लिए तत्काल अनुमति और सुरक्षा व्यवस्था की गारंटी दी गई।

फिल्म निर्माता और निर्देशक प्रकाश झा ने भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लखनऊ में मुलाकात कर राज्य सरकार की नोएडा में नई फिल्म सिटी परियोजना पर चर्चा की। योगी से मुलाकात के बाद प्रकाश झा ने कहा, ‘यहां मनोरंजन उद्योग के लिए वातावरण बहुत उत्साहजनक है। हम इसका समर्थन करेंगे। मैं बहुत सारे अवसर देखता हूं।’ दिलचस्प बात यह है कि प्रकाश झा पिछले तीन साल से अपने टीवी धारावाहिक ‘आश्रम’ की शूटिंग कर रहे हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश के 52 अभिनेताओं सहित लगभग 1000 अभिनय जगत के लोग शामिल हैं।

नवनीत सहगल ने ‘तहलका’ को बताया कि यूपी सरकार की उदार नीतियों ने बॉलीवुड को कई क्षेत्रीय भाषाओं, पारंपरिक अनुष्ठानों और सांस्कृतिक विरासत के साथ विशाल राज्य में विभिन्न स्थानों पर शूटिंग करने का फायदा उठाने के लिए आकर्षित किया है। राज्य कर छूट के लाभों के साथ प्रोत्साहन के रूप में 2.5 करोड़ रुपये तक की सब्सिडी प्रदान करता है। राज्य ने सभी अनुमतियों के लिए एकल खिड़की प्रणाली को अपनाया है।

यमुना एक्सप्रेस-वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण (वाईईआईडीए) के  सीईओ अरुणवीर सिंह ने बताया कि नोएडा फिल्म सिटी प्रोजेक्ट के निर्माण के लिए एक फॉर्च्यून 500 कंपनी सीबीआरई साउथ एशिया प्राइवेट लिमिटेड को सलाहकार के रूप में चुना गया है। कंपनी दो महीने के भीतर डीपीआर तैयार करेगी। इसका फैसला भी वाईईआईडीए के सीईओ अरुणवीर सिंह की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा किया गया था। सिंह ने बताया, चार एजेंसियों ने निविदा के अनुसरण में इस प्रतिष्ठित परियोजना के लिए बोली में भाग लिया था। हमने 29 नवंबर को वित्तीय बोलियां खोलीं और इस परियोजना के विकास में तेजी लाने के लिए नोडल एजेंसी को अंतिम रूप दिया।

वाईईआईडीए तीन मॉडल पर काम करने का इच्छुक है : परियोजना को विकसित करने के लिए सार्वजनिक-निजी-भागीदारी (पीपीपी), अकेले प्राधिकरण या कोई अन्य एकल डेवलपर। डीपीआर प्रभावी रूप से स्थायी समाधान खोजने के लिए सभी विकल्प देखेगा। इसमें फिल्म सिटी परियोजना के लिए समर्पित क्षेत्र के लेआउट और परियोजना की वित्तीय व्यवहार्यता का विवरण होगा। अध्ययन का उद्देश्य विकास के लिए एक व्यवहार्य वित्तीय मॉडल का सुझाव देना है। परामर्शदाता एजेंसी सभी बुनियादी सुविधाओं को विकसित करने और व्यक्तिगत पार्टियों को भूमि पट्टे पर देने के लिए एकल निजी डेवलपर को पूर्ण भूमि हस्तांतरण के विकल्प पर सक्रिय रूप से विचार करेगी। वाईईआईडीए साइट योजना तैयार करता है और इच्छुक पार्टियों को व्यक्तिगत भूखंड पट्टे पर देता है। उत्तर प्रदेश और वाईईआईडीए ने हाथ मिलाते हुए बुनियादी ढांचे का निर्माण और फिल्म शूटिंग के काम को आगे बढ़ाने के लिए कमर कस ली है। सीएम योगी ने कहा, ‘हम किसी के निवेश या अवसर को छीन नहीं रहे हैं। हम यूपी में एक और विश्वस्तरीय फिल्म सिटी का प्रस्ताव कर रहे हैं।’

उन्होंने कहा, ‘हम देश को अत्याधुनिक नई फिल्म सिटी देने की प्रक्रिया में हैं। हम एक नई चीज दे रहे हैं – अंतरराष्ट्रीय मानकों का एक उत्कृष्ट बुनियादी ढांचा। सभी को बड़ा होने, बड़ा सोचने और लोगों और निवेश को आकर्षित करने के लिए बेहतर सुविधाएं प्रदान करने की आवश्यकता है। यह बेहतर सुविधाएं और एक सुरक्षित वातावरण प्रदान करने के लिए एक खुली प्रतियोगिता है और इसके लिए यूपी प्रतिबद्ध है।’ सीएम ने आगे कहा, ‘यह एक पिक एंड चूज मामला नहीं है और राज्य सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों के लिए अपनी उदारीकृत निवेशक अनुकूल नीतियां तैयार की हैं। एक निवेशक को एक सुरक्षित वातावरण, लाभकारी नीतियों और एक भूमि बैंक और अन्य बुनियादी ढांचे की ज़रूरत होती है, जिसे उत्तर प्रदेश बिना किसी अड़चन के उपलब्ध करवा रहा है।

मुख्यमंत्री ने कहा कि उत्तर प्रदेश के पास अपने अधिकार में सभी संसाधन हैं जो निवेशकों के लिए यूपी को एक आदर्श केंद्र बनाते हैं। उन्होंने कहा, ‘हमारा एकमात्र उद्देश्य यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हो और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के प्रयासों में अपना योगदान फिल्म सिटी के रूप में दे रही है।’

योगी आदित्यनाथ की सक्रियता से खफा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने योगी के ‘मिशन बॉलीवुड’ पर हमला करते हुए कहा, ‘कोई भी महाराष्ट्र में आकर यहां जे फि़ल्म इंडस्ट्री को दूर नहीं ले जा सकता है।’ फिल्म सिटी को मुंबई के मुकुट में एक अनमोल रत्न की तरह माना जाता है और जब योगी आदित्यनाथ ने निवेश के लिए सपनों के इस शहर के आसपास यात्रा की तो महाराष्ट्र सरकार ने इसे सहजता से नहीं लिया।

शिवसेना नेता संजय राउत ने इस कदम को सांप्रदायिक राजनीति से जोड़ा तो वहीं महारष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि कोई अन्य राज्य मुंबई जैसी सुविधाएं प्रदान कर सकता है, जैसी हमने की हैं। हम बेहतर कानून व्यवस्था का उदाहरण पेश करते हैं। मुझे विश्वास है कि फिल्म उद्योग कहीं और नहीं जा सकता है।’

उत्तर प्रदेश में नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व वाले कांग्रेस शासन के कार्यकाल के दौरान भी दिल्ली और आसपास के सेक्टर-16ए, नोएडा में अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म सिटी परियोजना के लिए फिल्म निर्माण गतिविधियों को लाने का प्रयोग किया गया था। फिल्म सिटी ने शुरू में प्रमुख फिल्म हस्तियों और उत्पादन संस्थाओं द्वारा बड़े स्टूडियो और नियमित शूटिंग की एक श्रृंखला स्थापित की गयी, हालाँकि, इसका अधिकांश स्थान या तो बड़े कॉर्पोरेट घरानों द्वारा अपने संबंधित कार्यालयों के लिए या उच्च प्रीमियम मूल्य पर व्यावसायिक गतिविधियों के लिए पट्टे पर दिया गया या खरीदा गया है। लिहाजा फिल्म निर्माण गतिविधियों का उद्देश्य फ्लॉप रहा था।

यमुना एक्सप्रेस-वे पर 780:220 एकड़ के औद्योगिक और व्यावसायिक उपयोग के अनुपात के साथ रणनीतिक रूप से डिज़ाइन किए गए प्रमुख फिल्म सिटी के सफलतापूर्ण निर्माण के सामने भी कुछ इसी तरह की चुनौतियाँ हैं। खासकर फि़ल्मी हस्तियों के विश्वासघात के कड़वे अनुभवों से सबक लेना जरूरी है जिन्होंने उन्हें बहुत कम कीमत पर मिले भूखंडों को बड़े लाभ की कमाई का जरिया बना दिया था।

उत्तर प्रदेश में वापसी की तैयारी में जुटी कांग्रेस

क्या कभी सत्ता से कांग्रेस का वनवास खत्म होगा? क्या आने वाले समय में कांग्रेस सत्ता में वापसी होगी? ऐसे कई सवाल हैं, जिनका जवाब शायद किसी के पास नहीं है। लेकिन अब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बूथ मज़बूत करने की मुहिम से लगता है कि यहाँ कांग्रेस का वनवास खत्म हो सकता है। कांग्रेस ने प्रदेश में 30 साल बाद ब्लॉक इकाइयों के गठन का काम शुरू कर दिया है। बड़ी बात यह है कि यहाँ पार्टी को नये सिरे से खड़ा करने का काम कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा के निर्देशन में चल रहा है। माना जा रहा है कि उनका मकसद बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं को जोड़कर पार्टी को मज़बूती प्रदान करना है। पिछले महीने पूरे प्रदेश में करीब दो हज़ार 300 से अधिक ब्लॉक इकाइयों का गठन किया जा चुका है।

प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू दिसंबर से ही प्रदेश का सिलसिलेवार दौरा कर रहे हैं। इसके लिए वह 16 ज़िलों की न्याय पंचायत स्तर की बैठकों में शामिल होकर ब्लॉक कांग्रेस समितियों और न्याय पंचायत समितियों के गठन में शामिल हो रहे हैं। उनका दावा है कि ब्लॉक स्तर पर 21 सदस्यों की समितियों का गठन किया जा रहा है और जल्द ही प्रदेश की सभी आठ हज़ार न्याय पंचायतों में पार्टी इन समितियों के गठन प्रक्रिया को अंजाम तक पहुँचा देगी। समितियों के गठन में तेज़ी लाने और अधिक-से-अधिक लोगों को पार्टी से फिर से जोडऩे के लिए आगामी दिनों में हर ज़िले में 15 दिवसीय प्रवास की योजना बनायी जा रही है। इसके अंतर्गत पार्टी के पदाधिकारी अपने-अपने ज़िलों में संगठन की निर्माण प्रकिया को मज़बूती देने के लिए अन्तिम रूप देंगे। कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि पार्टी का लक्ष्य प्रदेश की सभी 60 हज़ार ग्राम सभाओं पर ग्राम कांग्रेस समितियों का जल्द-से-जल्द गठन पूरा करना है। हालाँकि जानकारों का कहना है कि कांग्रेस ने ब्लॉक स्तर पर इकाइयों का गठन भाजपा की तर्ज पर करना शुरू किया है; लेकिन कांग्रेस के समर्थकों का कहना है कि भाजपा जब देश में कहीं नहीं थी, तबसे ही कांग्रेस बूथ मज़बूत करने के लिए ब्लॉक और ग्राम स्तर पर कार्यकर्ताओं को पार्टी से जोड़ती रही है। बहरहाल जो भी हो, कांग्रेस के लोग इस मुहिम को पार्टी की डूबी हुई नैया को फिर से पार लगाने की पहल मान रहे हैं और इसे कांग्रेस की मौन क्रान्ति बता रहे हैं।

प्रदेश पार्टी इकाई का कहना है कि भाजपा की नीतियों और निरंकुश शासन से तंग लोग इस मुहिम से बड़ी संख्या में जुड़ रहे हैं। बड़ी बात यह है कि पार्टी में सलाहकार के रूप में उपेक्षित बुजुर्ग नेताओं को शामिल किया जा रहा है, ताकि उनके अनुभवों को भुनाया जा सके। राजनीति के जानकार कहते हैं कि जब तक कांग्रेस में अन्दरखाने जिस तरह कलह चल रहा है, अगर उसे खत्म नहीं किया गया, तो ब्लॉक इकाइयों के गठन का उतना फायदा नहीं मिलेगा, जितना कि मिलना चाहिए। इसके अलावा पार्टी को गाँवों के साथ-साथ शहरों में भी खुद को मज़बूत करना चाहिए। कुछ जानकारों का कहना है कि कांग्रेस को मीडिया में लगातार बने रहना चाहिए और सरकार की ऐसी नीतियों पर घेरे रहना चाहिए, जो देशहित में नहीं हैं।

बता दें कि आज़ादी के बाद से अब तक उत्तर प्रदेश में 47 बार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, जिनमें कांग्रेस प्रदेश में 21 बार सरकार बना चुकी है। लेकिन प्रदेश में सन् 1989 से कांग्रेस सत्ता में नहीं आ सकी है। अब लोगों का कहना है कि केंद्र में कांग्रेस की वापसी का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही खुलेगा। अगर यह बात सही साबित होती है और 2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस प्रदेश की सत्ता में वापसी होती है, तो 2024 के लोकसभा चुनाव में केंद्र में कांग्रेस की सरकार बने या न बने, लेकिन यह तय है कि उसे बड़ा बहुमत ज़रूर मिलेगा। इसकी उम्मीद इसलिए भी है, क्योंकि देश भर में भाजपा का विरोध बढ़ता जा रहा है। इन दिनों चल रहे किसान आन्दोलन ने इस विरोध को और भी धार देनी शुरू कर दी है। कांग्रेस के समर्थक राजनीति के जानकारों का मानना है कि अगर प्रियंका गाँधी के हाथ में उत्तर प्रदेश की कमान रही, तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। वहीं कुछ लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस को बिहार में अपनी ढीली गतिविधियों से करारी हार मिली है, इससे उसे सीख लेनी चाहिए और उत्तर प्रदेश में इस तरह की लापरवाही से बचना चाहिए। सवाल यह है कि ब्लॉक स्तर पर मज़बूत करने के बाद 2022 में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री चेहरा किसे बनाएगी? क्योंकि अगर 2022 में कांग्रेस के पास मुख्यमंत्री का कोई बेहतर चेहरा नहीं होगा, तो एक बार फिर उसे प्रदेश की सत्ता से हाथ धोना पड़ सकता है। वहीं कुछ लोगों का मानना है कि अगर खुद प्रियंका गाँधी प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने का ऐलान कर दें, तो फिर भाजपा किसी भी हाल में उत्तर प्रदेश में दोबारा सरकार नहीं बना पाएगी।

जो भी हो, फिलहाल तो तीन दशक के वनवास के बाद प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने प्रदेश की सत्ता में वापसी का मन बनाकर ब्लॉक स्तर पर लोगों को पार्टी से जोडऩे का काम शुरू कर दिया है और पार्टी ज़मीनी स्तर पर लोगों से जुड़कर उन्हें मनाना चाहती है। वैसे सत्ता में फिर से वापसी का यह समय कांग्रेस के लिए बहुत ही अनुकूल है। क्योंकि उसके पास सरकार को घेरने और लोगों को बताने के लिए बहुत से मुद्दे हैं, जिन्हें वह अपने फायदे, या कहें कि वापसी के लिए इस्तेमाल कर सकती है।

भाजपा को सत्ता से बाहर करना नहीं आसान

कांग्रेस ने प्रदेश में ब्लॉक स्तर पर समितियों की गठन प्रक्रिया शुरू करके भले ही लोगों को फिर से मनाना शुरू कर दिया है; लेकिन भाजपा को अब प्रदेश की सत्ता से बाहर करना इतना आसान नहीं है। इसके कई कारण हैं। पहला यह कि भाजपा ब्लॉक और बूथ स्तर पर पहले से बहुत अधिक मज़बूत हो चुकी है। दूसरा भाजपा के पास हिन्दुत्व के नाम पर लोगों को अपने पक्ष में वोट करने की एक ऐसी जादुई छड़ी है, जिसका तोड़ कांग्रेस के पास नहीं है। प्रदेश में सबसे ज़्यादा संख्या हिन्दुओं की है और करीब 23 फीसदी उसका पक्का वोट बैंक प्रदेश में है। इसके अलावा इस बार प्रदेश में अयोध्या में राम मन्दिर का शिलान्यास होना भी बड़ी घटना है, जिससे भाजपा के प्रति हिन्दुओं का झुकाव और बढ़ा है। भाजपा अभी आने वाले कई साल तक राम मन्दिर का खेल करके हिन्दुओं को अपने पक्ष में वोट करने के आकर्षित कर सकती है। अगर यह मुद्दा भी भाजपा के काम नहीं आया, तो वह मथुरा में मस्जिदों को हटाने के मामले को उठा सकती है; जिसे वह राम मन्दिर के शिलान्यास से ही तूल दे चुकी है। इसके अलावा कांग्रेस से ज़्यादा रैलियाँ करने और जोड़तोड़ की राजनीति में भाजपा माहिर हो चुकी है। ऐसे में प्रदेश में कांग्रेस की वापसी की खीर थोड़ी टेढ़ी ही नज़र आ रही है। हालाँकि प्रियंका गाँधी प्रदेश में अगर डटी रहीं, तो कांग्रेस को काफी मज़बूती मिलेगी और हो सकता है कि कांग्रेस अकेले न सही, तो गठबन्धन से सही 2022 में सरकार बना ले।

गठबन्धन का प्रयोग हो चुका है फेल

यह सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि बिहार में भी सत्ता में आने की चाह में गठबन्धन का कांग्रेस का प्रयोग फेल हो चुका है। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में दो बार गठबन्धन किया- पहली बार 1996 के विधानसभा चुनाव में और दूसरी बार 2017 के विधानसभा चुनाव में; लेकिन दोनों ही बार उसे हार का मुँह देखना पड़ा। ऐसे में कांग्रेस हाईकमान को यह बात समझ में आ ही गयी होगी कि पार्टी की नैया अकेले के दम पर ही पार लग सकती है। शायद इसीलिए उड़ती-उड़ती खबरें यह भी आ रही हैं कि प्रदेश में होने वाले 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस किसी भी पार्टी के साथ गठबन्धन नहीं करेगी और खुद के दम पर ही चुनाव लड़ेगा। पार्टी को यह भी अनुभव हो चुका है कि गठबन्धन करने पर वह अपनी सहयोगी पार्टियों से नीचे ही रहती है। मसलन 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 33 सीटें जीत पायी। जबकि 2017 के गठबन्धन में चुनाव लडऩे के बाद भी केवल सात सीटों पर ही चुनाव जीत पायी। राष्ट्रीय स्तर की पार्टी, वह भी एक ऐसी पार्टी, जिसने देश की सत्ता पर दशकों शासन किया हो, इतनी करारी हार कम शर्मनाक नहीं है। पार्टी को इससे सीख लेकर अपनी स्थिति को मज़बूत करने की इस समय बहुत सख्त ज़रूरत है।

आपसी तनाव को खत्म करे पार्टी

जैसा कि सभी जानते हैं कि पार्टी में उच्च स्तर पर पिछले दिनों जिस तरह हाईवोल्टेज ड्रामा हुआ और लेटर बम का मामला सामने आया, वह पार्टी के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है। पार्टी को इस उच्च स्तरीय आपसी तनाव को तत्काल खत्म करना चाहिए और सभी वरिष्ठ और युवा नेताओं को लेकर आगे बढऩा चाहिए। इसके अलावा पार्टी को जल्द-से-जल्द एक ऐसे राष्ट्रीय अध्यक्ष की नियुक्ति कर देनी चाहिए, जो सर्वगुण सम्पन्न हो और अपनी सबसे बड़ी विरोधी पार्टी भाजपा की हर कूटनीति का जवाब दे सके, उसे विभिन्न समस्याओं और मुद्दों पर घेर सके। पार्टी को देश के युवाओं को भी अपने विश्वास में लेना पड़ेगा, तभी उसकी नैया पार लगेगी; अन्यथा जो भाजपा ने नीति बनायी है कि वह कांग्रेस को जड़ से उखाड़ देगी, उसमें वह कामयाब भी हो सकती है।

हाथरस गैंगरेप केस : सीबीआई ने भरोसे को दी मज़बूती

जब किसी मामले में न्यायालय, पुलिस या किसी जाँच एजेंसी से न्याय होता है, तो लोगों का भरोसा मज़बूत होता है। बीते साल 14 सितंबर, 2020 को हाथरस के चर्चित गैंगरेप और हत्या मामले में केंद्रीय जाँच एजेंसी (सीबीआई) की जाँच रिपोर्ट आने के बाद लोगों ने उसकी जिस तरह तारीफ करनी शुरू की है, उससे यह बात और भी साबित होती है। सीबीआई ने अपनी जाँच में चारों आरोपियों को गैंगरेप और हत्या का दोषी पाया है और अदालत में अपराधियों के खिलाफ केस डायरी सहित आरोप पत्र दाखिल कर दिया है। सीबीआई ने अपनी जाँच में किसी को बाहर नहीं किया है। पीडि़त परिवार और पीडि़तों को न्याय दिलाने की माँग करने वालों ने सीबीआई की जाँच रिपोर्ट आने के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस से सवाल पूछने शुरू कर दिये हैं। आशा है कि इस मामले में न्यायालय भी जो करेगा, वह न्यायोचित ही होगा।

मेरा मानना यह है कि हाथरस मामले में पुलिस की जो भूमिका रही, उससे पुलिस की छवि एक बार फिर धूमिल हुई है। उत्तर प्रदेश में जिस प्रकार लगातार अपराध बढ़ रहे हैं, उससे प्रदेश पुलिस प्रशासन की कार्य प्रणाली पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। हाथरस मामले में पुलिस तंत्र ने कई काम ऐसे किये जो शुरू से ही संदेह और सवालों के घेरे में थे, अब सीबीआई की जाँच रिपोर्ट ने उन संदेहों को विश्वास में बदल दिया है और सवालों को और भी तीक्ष्ण व मज़बूत कर दिया है।

उत्तर प्रदेश में घटी इस वीभत्स घटना ने दिल्ली के निर्भयाकांड की यादों को ताज़ा कर दिया था। हालाँकि निर्भया मामले में न्याय मिलने में काफी समय लगा; उम्मीद है हाथरस मामले में पीडि़त परिवार को जल्दी न्याय मिलेगा। सीबीआई ने इन चारों आरोपियों का गुजरात में ब्रेन मैपिंग और पॉलिग्राफिक टेस्ट भी कराया था। हर स्तर से जाँच के बाद सीबीआई ने चार्जशीट में बलात्कार, हत्या और सामूहिक बलात्कार के मामले में आईपीसी की जिन धाराओं का ज़िक्र किया है, अगर वो साबित हो गयींं, तो इन दोषियों को फाँसी तक की सज़ा हो सकती है। चार्जशीट में कई ऐसे तथ्यों का भी ज़िक्र है, जिससे प्रदेश पुलिस के दावों की पोल खुलती है और उसकी भूमिका पर सवाल खड़े होते हैं। करीब चार महीने गहन जाँच करने के बाद सीबीआई ने अपनी अन्तिम रिपोर्ट में यह कहा है कि चारों आरोपियों- संदीप, लवकुश, रवि और रामू ने युवती से उस वक्त कथित तौर पर सामूहिक बलात्कार करके उसकी हत्या करने के इरादे से मारा-पीटा था और उसकी जीभ काटी थी, जब वह चारा एकत्र करने के लिए खेतों में गयी थी। सीबीआई ने आरोपियों के खिलाफ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (प्रताडऩा रोकथाम) अधिनियम के तहत रिपोर्ट तैयार की है।

इस वीभत्स घटना के बारे में सुनकर या सोचकर आज भी कलेजा काँप जाता है, तो हम सोच सकते हैं कि उस निरीह परिवार पर क्या बीतती होगी, जिसकी बेटी के साथ यह दुर्दांत घटना हुई है। इससे बड़ी बात यह है कि हाथरस के उस गाँव को घटना के बाद से पुलिस ने घेर लिया था और पीडि़त परिवार को नज़रबन्द-सा कर दिया था। वहीं अभी भी इस गाँव बूलगढ़ी में गुप्तचर विभाग (एलआईयू) के लोग लगातार ड्यूटी पर हैं। इसके अलावा केंद्रीय सुरक्षा बल (सीआरपीएफ) के जवानों ने गाँव को छावनी बनाया हुआ है। गाँव आने वाले आसपास के रास्तों पर भी कंटीले तार लगा दिये हैं। केवल मुख्यद्वार से ही प्रवेश दिया जा रहा है। गाँव में भी जवान 24 घंटे गश्त दे रहे हैं। गाँव का कोई भी आदमी बिना फोर्स की इजाज़त के न बाहर जा सकता है और न अन्दर आ सकता है। इतना ही नहीं, पीडि़त परिवार की सुरक्षा के भी पुख्ता इंतज़ाम कर दिये गये हैं। घर के बाहर बने एक कमरे के आसपास तार लगा दिये हैं, ताकि कोई भी व्यक्ति प्रवेश न कर पाये। घर में आने-जाने वाले हर व्यक्ति की तलाशी ली जा रही है। उसके नाम, पता और मोबाइल नंबर रजिस्टर में दर्ज किया जा रहा है। यानी अगर इस सुरक्षा को दूसरे नज़रिये से देखें, तो पीडि़त परिवार को एक तरह से कैद कर लिया गया है। पीडि़त परिवार से पहले भी किसी को नहीं मिलने दिया जा रहा था, अब भी लगभग वैसा ही हाल है। लेकिन फर्क अब इतना है कि आरोपियों के परिजनों पर भी अब कड़ी निगरानी रखी जा रही है। वहीं अब आरोपियों के घरों में मातम जैसा माहौल है। सीबीआई की चार्जशीट दाखिल करने के बाद अलीगढ़ जेल में बन्द चारो आरोपी न तो चैन की नींद सो रहे हैं और न ही ठीक से खा-पी रहे हैं। अब तक एक ही बैरक में बन्द रहे चारो आरोपियों को जेल प्रशासन ने अब अलग-अलग बैरकों में रखने का फैसला लिया है। जेल प्रशासन ने चारो आरोपियों की निगरानी भी कड़ी कर दी गयी है।

खबरों के मुताबिक, इस मामले में चार्जशीट दाखिल होने के बाद चारो आरोपी काफी परेशान दिख रहे हैं। चारो के चेहरों पर तनाव रहने लगा है। आपको याद होगा कि इस घटना और बाद में चर्चाओं में यह बात तेज़ी से फैली थी कि युवती के साथ इन आरोपियों ने कुछ नहीं किया है। गाँव का उच्चवर्ग भी यही मानता था कि सीबीआई की जाँच में दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो जाएगा। ऐसे में सीबीआई की चार्जशीट के बाद से आरोपियों, उनके परिवारों और उनके समर्थकों को गहरा धक्का लगा है।

राज्य में आये दिन हो रहे अपराध

उत्तर प्रदेश में अपराधियों पर रोक नहीं लग पा रही है। दु:खद यह है कि कहीं-कहीं पुलिस भी जाने-अनजाने ऐसे काम करती नज़र आ जाती है, जिससे शर्म से सिर झुक जाता है। अभी हाल ही में कुशीनगर की पुलिस पर ऐसे ही आरोप लगे हैं। एक वीडियो में एक परिवार यहाँ की पुलिस पर युवतियों से छेड़छाड़ और परिवार को प्रताडि़त करने का आरोप लगाता नज़र आ रहा है। इस वीडियो और कुछ खबरों के मुताबिक, यहाँ मुम्बई से एक परिवार शादी में आया था। ये लोग जब कुशीनगर घूम रहे थे, तब दो-तीन पुलिसकर्मियों ने कथित तौर पर परिवार में मौज़ूद युवतियों से छेड़छाड़ की। परिजनों का आरोप है कि बाद में पुलिस ने रेस्टोरेंट में लगे सीसीटीवी कैमरे का रिकॉर्डिंग बॉक्स हटा दिया, ताकि उनके खिलाफ कोई सुबूत न मिल सके और उन्हें थाने ले जाकर भी उनके साथ बदसुलूकी की। पीडि़तों ने मोबाइल में वीडियो बनायी थी, वह भी पुलिस ने जबरन डिलीट की और पीडि़तों की गाड़ी तोड़ दी। हालाँकि बाद में पीडि़त परिवार वहाँ के पुलिस अधिकारी से मिला और अधिकारी ने आरोपी पुलिसकर्मियों के खिलाफ दोष सिद्ध होने पर सख्त-से-सख्त कार्रवाई का आश्वासन दिया है। पीडि़त परिवार का कहना है कि अगर उन्हें इंसाफ नहीं मिलता है, तो वे लोग मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलकर न्याय की माँग करेंगे।

एक दूसरी आपराधिक घटना हापुड़ ज़िले में घटी। यहाँ गढ़मुक्तेश्वर थाना क्षेत्र के एक गाँव की एक 12 साल की बच्ची के साथ गैंगरेप के मामले ने लोगों को अन्दर तक झकझोर दिया है। सोचने की बात है कि उत्तर प्रदेश में अपराधियों, दरिंदों की इतनी हिम्मत कैसे बढ़ रही है कि एक बच्ची अपनी दादी के साथ जा रही होती है और अपराधी उसे खींचकर ले जाते हैं और गैंगरेप कर देते हैं। इतना ही नहीं, पीडि़त के भाई को बन्धक बनाकर फैसले का दबाव भी बनाया जाता है। आखिर पुलिस क्यों ऐसे लोगों पर शिकंजा नहीं कस पा रही है? जो प्रदेश में खौफ का माहौल पैदा किये हुए हैं। हद तो यह है कि अब अपराधी डरते नहीं हैं। इस बच्ची के भाई ने जब अपराधियों का उनके गाँव तक पीछा करके यह जान लिया ये लोग कौन हैं? तो अपराधियों और उनके परिवार वालों ने पीडि़त के भाई को तीन घंटे तक बन्धक बनाये रखा और फैसले का दबाव बनाया। हालाँकि पुलिस ने इस मामले में एफआईआर दर्ज कर ली है और मामले की जाँच कर रही है। हापुड़ के एसपी नीरज जादौन ने बताया कि थाना गढ़मुक्तेश्वर में एक व्यक्ति ने शिकायत दी थी कि उसकी बच्ची के साथ दुष्कर्म हुआ है। बच्ची का मेडिकल कराने के बाद मुकदमा दर्ज कर लिया गया है। कुछ आरोपियों को गिरफ्तार भी कर लिया गया है। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के मुताबिक, कार्रवाई जारी है और पीडि़त को न्याय दिलाया जाएगा।

इधर पीडि़त बच्ची घटना के बाद से सदमे में है। परिजनों के अनुसार, बच्ची के साथ हुई हैवानियत ने उसे अन्दर से मार दिया है। गाँव वालों ने बताया कि बच्ची अपनी दादी के साथ जंगल में लकड़ी काटने जा रही थी, उसी दौरान दूसरे गाँव के कुछ आपराधिक प्रवृत्ति के युवकों ने उसका अपहरण कर लिया और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया। इत्तेफाक से इसी दौरान बच्ची का भाई जंगल में पहुँच गया और उसे अपनी बहन के अपहरण की बात पता चली, तो वह उसे खोजने लगा। उसने देखा कि कुछ युवक तेज़ी से भाग रहे हैं और मासूम बहन बेहोश पड़ी है। इस बच्चे ने होशियारी से काम लिया और अपराधियों का पीछा करने लगा। लेकिन जैसे ही वह पीछा करते हुए उनके गाँव पहुँचा उसे ही बन्दी बनाकर प्रताडि़त किया जाने लगा और पंचायत लगाकर उस पर फैसले का दबाव बनाने की कोशिश की जाने लगी। क्या इस मामले में आरोपियों समेत फैसले का दबाव बनाने वाले सभी लोगों के खिलाफ सख्त-से-सख्त कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? ताकि अपराध करने वालों के साथ-साथ उनका साथ देने वालों के मन में भी कानून का खौफ पैदा हो सके। इसी तरह हाथरस मामले में भी आरोपियों का पक्ष लेने वाले लोगों के खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। क्योंकि अपराध करने वालों को बढ़ावा देने वाले भी अपराध के लिए उतने ही ज़िम्मेदार होते हैं।

इससे लोगों को पुलिस प्रशासन पर भी यह भरोसा बनेगा कि वह उनकी सुरक्षा के लिए है और पुलिस भी सही मायने में अपना फर्ज़ अदा कर पाएगी।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक हैं।)

भारत के लिए चुनौती भरा है कुपोषण से जंग जीतना

30 September 2013. Abu Shouk: A nurse measures a child's arm with a severe malnutrition in a clinic of the NGO Kuwait Patient Helping Fund in Abu Shouk camp for Internally Displaced Persons (IDP), North Darfur. The NGO provides medical care and feeding for children with severe and moderate malnourishment and also for pregnant women. Photo by Albert González Farran, UNAMID

हाल में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस -5, 2019-2020) जारी किया और यह सर्वे बताता है कि बीते पाँच वर्षों में देश के पाँच साल से कम आयु के बच्चों में कुपोषण का स्तर सुधरने की बजाय खराब हुआ है। एनएफएचएस-5 सर्वे के पहले चरण में 17 राज्यों और पाँच केंद्र शासित राज्यों के आँकड़े जारी किये गये हैं। कोविड-19 महामारी के कारण दूसरे चरण का काम नवंबर में शुरू हुआ और सम्भावना है कि मई, 2021 में इसके आँकड़े जारी हो जाएँगे। इसके तहत शेष राज्यों व केंद्र शासित राज्यों में सर्वे का काम जारी है। भारत में एनएफएचएस सर्वे 1992-93 से शुरू किया गया है और इस सर्वेक्षण के तहत जनसंख्या, परिवार नियोजन और पोषण से जुड़े सूचकांक के लिए जानकारी इकट्ठी करने को लोगों के घर जाया जाता है। 2019-2020 का एनएफएचएस-5 के पहले चरण के आधिकारिक आँकड़े खुलासा करते हैं कि देश में पाँच साल पहले कुपोषित बच्चों का फीसद आज की अपेक्षा कम था।

कई प्रदेशों की स्थिति चिन्ताजनक

चिन्ता की बात यह भी है कि अमीर सूबों, जैसे केरल, गोवा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात व महाराष्ट्र में भी इस सन्दर्भ में उलट स्थिति सामने आयी है। 17 राज्यों में से 11 राज्यों में बच्चों में नाटापन यानी आयु के अनुपात में कम लम्बाई वाले बच्चों का फीसद बढ़ा है। नाटापन अक्सर बच्चों में तब होता है, जब वे चिरकालिक तौर पर पर्याप्त पौष्टिक आहार से वंचित रहते हैं। अगर बच्चे की माता भी कुपोषित है, तो बच्चे के कुपोषित होने की सम्भावना बढ़ जाती है। नवीनतम सर्वे के अनुसार, त्रिपुरा व तेलगांना में बच्चों में नाटापन आठ से छ: फीसदी बढ़ गया है। केरल व हिमाचल प्रदेश में चार फीसदी बढ़ गया है। गुजरात और महाराष्ट्र में भी यह आँकड़ा बढ़ा हुआ बताया गया है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक व असम में हालात लगभग पहले वाले ही हैं। बिहार, सिक्किम व मणिपुर अपवाद के तौर पर देखे जा सकते हैं, जहाँ कुपोषण में गिरावट दर्ज की गयी है। यह सर्वे इस पर भी रोशनी डालता है कि दक्षिण राज्य भी खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों की सूची में शमिल हो गये हैं। उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उड़ीसा जहाँ नाटेपन की समस्या अति गम्भीर रही है, जिनके आँकड़े आने बाकी हैं। कुपोषण के चलते बच्चे महज़ नाटे ही नहीं होते, बल्कि उनका वज़न भी लम्बाई के अनुपात में कम हो जाता है, जिसे वेस्टेड बच्चे कहा जाता है। यह रिपोर्ट इस तथ्य पर भी रोशनी डालती है कि 18 राज्यों में से 14 राज्यों में ऐसे बच्चों की संख्या कम होने की बजाय बढ़ी है। यह संख्या 4 से लेकर करीब 10 फीसदी तक बढ़ी है। यही नहीं, अधिकतर राज्यों में खून की कमी वाले बच्चों की तादाद में भी बढ़ोतरी पायी गयी है। असम में पाँच साल से कम आयु वाले एनेमिक बच्चों में 33 फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई है, यानी असम में इस आयु के दो-तिहाई से अधिक बच्चे तकरीबन 68 फीसदी एनेमिक हैं। गुजरात जहाँ भाजपा की सरकार बीते कई दशक से सत्ता में है; वहाँ के एनेमिक बच्चों की संख्या में भी वृद्धि दर्ज की गयी है। वहाँ ऐसे बच्चों की संख्या 80 फीसदी है, जो कि पिछले एनएफएचएस 2015-16 में 63 फीसदी थी। नवीनतम रिपोर्ट यह तथ्य भी सामने लाती है कि पिछली बार जिन राज्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया था, वहाँ हालात आज खराब हैं।

दिन-ब-दिन स्थिति हो रही खराब

ध्यान देने वाली बात यह है कि 2005-6 एनएफएचएस-3 और 2015-16 एनएफएचएस-4 के बीच भारत ने नाटेपन को कम करने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की और नाटापन 48 फीसदी से 38.4 फीसदी तक पहुँच गया। लेकिन बीते चार वर्षों में इस दिशा में प्रगति करने की बजाय पीछे खिसकना एक बहुत बड़ा धक्का है। पर भारत की केंद्र सरकार ने देश की अवाम को यह बताने का कोई भी मौका नहीं छोड़ा कि देश विकास की राह पर आगे बढ़ रहा है। इन चार वर्षों में विकास इतना हुआ कि भारत जीडीपी में दुनिया में 5वें स्थान पर पहुँच गया और अगले चार वर्षों में 2.93 खरब से पाँच खरब डॉलर तक पहुँच जाएगा। पर रफॉल वाले भारत और विकास की ऐसी तस्वीर में कुपोषित बच्चों के आँकड़ें बताते हैं कि सरकार इस दिशा में ज़मीनी स्तर पर कितनी गम्भीर है! अगर दुनिया में वेस्टेड (निहित) बच्चों की संख्या 4.95 करोड़ हैं, तो इसमें से 2.55 करोड़ वेस्टेड बच्चे भारत के हैं। यह फिक्र वाला बिन्दु है, और सवाल खड़ा करता है, सरकार, योजनाओं को अमलीजामा पहनाने वालों पर और ऐसी व्यवस्था पर जो कुपोषित बच्चों की संख्या कम करने में ज़मीनी स्तर पर अपेक्षित नतीजे देने में नाकामयाब हो रही है। एक बात और ध्यान देने वाली है कि 2015-16 की तुलना में 2019-2020 में भारत में सेनिटेशन, स्वच्छ रसोई ईंधन व स्वच्छ पेयजल की सुविधा का विस्तार हुआ है यानी अधिक लोगों तक इसकी पहुँच बढ़ी है, तो कुपोषण के आँकड़ों में वृद्धि सवाल खड़े करती है। भारत की अर्थ-व्यवस्था सन् 1991 से आज दोगुनी हो गयी है और बाल कुपोषण को दूर करने का विश्व का सबसे बड़ा समेकित बाल विकास कार्यक्रम देश में सन् 1975 से काम कर रहा है। सन् 2017 में देश में पाँच साल से कम आयु के तकरीबन 14 लाख बच्चों की मौत हो गयी, जिसमें से 68 फीसदी से अधिक की मौत कुपोषण के कारण हुई। भारत में बाल कुपोषण एक ऐसी समस्या है, जिसे दूर करने के लिए भारत सरकार पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बराबर बना रहता है। चीन ने बाल कुपोषण में सुधार को लेकर बेहतर प्रदर्शन किया है। भारत के सन्दर्भ में कई अनुभवी विशेषज्ञ भारत व चीन का इस सन्दर्भ में तुलनात्मक सवाल करने पर समझाते हैं कि भारत में अकाल का गहरा इतिहास रहा है और उसका खामियाज़ा कई पीढिय़ों को भुगतना पड़ता है। बहरहाल एनडीए सरकार ने अपने पहले शासनकाल में बाल कुपोषण चुनौती से निपटने के लिए 2018 में पोषण अभियान की शुरुआत की और इसके तहत हर साल कुपोषण को कम करने का लक्ष्य रखा गया। यही नहीं, सरकार ने अपनी इस महत्त्वाकांक्षी योजना के तहत 2022 तक भारत को कुपोषण मुक्त करने का लक्ष्य भी रख दिया। लेकिन क्या भारत अपने इस लक्ष्य को हासिल कर पाएगा? एनएफएचएस-5, 2019-20 के इस बाबत आँकड़े तो निराशाजनक ही तस्वीर पेश करते हैं। कोविड-19 महामारी ने विश्व की अर्थ-व्यवस्था को बहुत कमज़ोर कर दिया है, इसकी सबसे अधिक मार गरीब, हाशिये पर रहने वाली आबादी पर पड़ी है और बच्चे व महिलाएँ बहुत ही बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं।

महामारी में स्थिति और बिगड़ी

इस महामारी का आने वाले वर्षों में क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अंदाज़ लगना शुरू हो गया है। भारत में तो इस महामारी से पहले के ही वर्षों में कुपोषण के मामलों में वृद्धि के आँकड़े सरकार अपने सर्वे के ज़रिये सार्वजनिक कर रही है, महामारी के दौरान व बाद में बच्चों के जो आँकड़े आएँगे, सम्भावना है कि उसमें भी वृद्धि नज़र आये। हंगर वॉच के एक ताज़ा सर्वे में गरीब घरों के वयस्कों ने बताया कि वे लॉकडाउन से पहले की तुलना में आज कम पौष्टिक आहार ले रहे हैं। ज़ाहिर है असंख्य लोगों की नौकरी छिन गयी, असंख्य लोगों के वेतन में कटौती कर दी गयी है। असंख्य लोगों का बीमारियों के इलाज का खर्चा बढ़ गया है, ऐसे माहौल में लोग खासकर गरीब, निम्न मध्य वर्ग अपने खान-पान के खर्चों में कटौती कर रहा है, जिससे वयस्क व बच्चे दोनों प्रभावित हो रहे हैं। यही नहीं, लॉकडाउन के दौरान मिड-डे मील व्यवस्था स्कूलों व आँगनबाड़ी केंद्रों में रोक दी गयी थी, जो कि आज तक फिर से हर जगह शुरू नहीं हुई है; उसका खामियाज़ा भी आने वाले वर्षों में सामने आयेगा।

ज़मीनी स्तर पर सुधार ज़रूरी

बेशक सरकार ने लाभार्थी बच्चों के घर राशन पहुँचाने वाली वैकल्पिक व्यवस्था की हुई है, मगर वह ज़रूरत के हिसाब से कारगर साबित नहीं हो रही है। बाल कुपोषण को लेकर भारत की केंद्र व राज्य सरकारों को अति गम्भीर रुख अिख्तयार करना होगा। बाल कुपोषण को दूर करने वाली योजनाओं, कार्यक्रमों को ज़मीनी स्तर पर अमलीजामा पहनाने के लिए तमाम बाधाओं को दूर करने के वास्ते मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ-साथ सालाना बजट में भी पर्याप्त राशि का आवंटन भी ज़रूरी है। यह सही है कि बाल कुपोषण भारत में ऐसा राजनीतिक व सामाजिक मुद्दा नहीं है, जिसके बल पर सरकारें गिर जाएँ। ऐसे मुद्दे चुनावी रैलियों के एजेंडे का हिस्सा भी नहीं बनते, मगर चुनाव लडऩे वाले जन प्रतिनिधियों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज व देश का भविष्य बच्चे ही हैं। अगर बच्चे ही कुपोषित, बीमार होंगे, तो देश का भविष्य कैसे उज्ज्वल हो सकता है? किसी खास पर्व पर सिर्फ लाखों दीये जलाकर, भारत में उजियारा नहीं बिखेरा जा सकता, अगर वास्तव में भारत का वर्तमान, भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो बाल कुपोषण को कम करने की दिशा में गम्भीरता बरतने के साथ कार्यों में तेज़ी लानी होगी।

एनएफएचएस-5 के बाल कुपोषण के जो निराशाजनक आँकड़े अभी तक सामने आये हैं, उम्मीद है कि सरकार उनके कारणों की पड़ताल करेगी व उन सब छिद्रों को बन्द करेगी, जिसके चलते देश में बाल कुपोषण कम होने की बजाय बढ़ रहा है। इस दिशा में हासिल की गयी उपलब्धियों को और आगे ले जाने की बजाय पीछे की ओर लौटना किसी भी बड़ी अर्थ-व्यवस्था और लोकतंत्र, दोनों के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता। बाल कुपोषण की मौज़ूदा तस्वीर से एनडीए-2 की सरकार भी पसोपेश में होगी। प्रधानमंत्री मोदी की महत्त्वाकांक्षी योजना कुपोषण मुक्त भारत-2022 क्या हकीकत में अपना लक्ष्य हासिल कर पायेगी।

मानव शरीर : सबसे मिथ्या समझी गयी प्राकृतिक मशीन

हालाँकि मानव शरीर को मातृ प्रकृति द्वारा कुछ ऐसा प्रारूप दिया गया है और इस तरह के उत्कृष्ट रक्षा तंत्रों के साथ नियंत्रित किया गया है, जो हमेशा खतरनाक कारणों के निरंतर हमलों, जैसे दुर्घटनाओं, सर्वव्यापी जीवाणु, वायरस, विषाक्त पदार्थों, परजीवियों द्वारा आक्रमण और कवक आदि निपटने में सक्षम है। हालाँकि यह भी सच है कि एकल या कई रूपों में इसे प्रकृति की सबसे ज़्यादा दुव्र्यवहार और शोषण करने वाली कृति माना जाता है; जो मिथ्या है। इस आलेख में क्या और कैसे जैसे व्यापक कथनों का उत्तर सरल भाषा में दिया जा रहा है।

किसी भी मानव शरीर की भौतिक तल पर रक्षा की तीन परतें हैं। एक, भौतिक बाधाएँ; जो किसी भी रोगजनक को बहुत शुरू में दहलीज़ पर रोकने का काम करती हैं और इस प्रकार शरीर की रक्षा करती हैं। दो, किसी भी सुरक्षा के उल्लंघन की स्थिति में प्राकृतिक शारीरिक बाधाएँ शुरू हो जाती हैं; रक्षात्मक कोशिकाएँ निष्क्रिय होने लगती हैं; प्रोटीन-रक्षा की दूसरी परत सक्रिय हो जाती है और शरीर को सचेत करने के लिए सूजन, खाँसी, उलटी, बुखार आदि को सक्रिय कर देती है और साथ ही शरीर को अपक्षय कारण से छुटकारा पाने में सक्षम बनाती है। तीन, प्रतिरक्षा प्रणाली, जो अक्षमता या उल्लंघन या रक्षा की पहली दो पंक्तियों की विफलता के बाद रक्षा की तीसरी परत बनाती है। यह तुरन्त हमलावर कारणों, रोगजनकों, कीटाणुओं से लडऩे और उन्हें त्वरित प्रक्रिया के रूप में नष्ट करने के लिए ऐसे जीवाणु, वायरस, विष, परजीवी और कवक से मानव शरीर को बीमार कर सकते हैं; को रोकने के लिए एकल या कई रूपों में तैयारी कर लेती है।

भौतिक बाधाओं में भौतिक और रासायनिक बाधाओं का एक संयोजन होता है, जो सभी प्रकार के बाहरी घटक को शरीर की बाहरी परत को भेदने से रोकता है। इस स्तर पर किसी विशिष्ट बाहरी घटक को लक्षित नहीं किया जाता है। हालाँकि ये शारीरिक बाधाएँ हमेशा किसी भी संक्रमण, जिनमें त्वचा, आँसू, बलगम, सिलिया, पेट में अम्ल, मूत्र प्रवाह, श्वेत अनुकूल बैक्टीरिया और श्वेत रक्त कोशिकाएँ शामिल हैं। इन्हें न्यूट्रोफिल कहा जाता है और ये शरीर की रक्षा के लिए तैयार रहती हैं।

त्वचा मानव शरीर का सबसे बड़ा हिस्सा है। यह आक्रमणकारियों (रोगजनकों) और मानव शरीर के बीच एक बाधा के रूप में कार्य करता है और इस तरह यह एक जलरोधी यान्त्रिक अवरोध बनाता है। त्वचा सबसे बाहरी और दृश्यमान शारीरिक बाधा है, जिसकी कोशिकाएँ प्राकृतिक रूप से केरातिन के साथ दृढ़ हो गयी हैं; जो एक ही अभेद्य, जलरोधक और विघटनकारी विषाक्त पदार्थों और अधिकांश आक्रमणकारियों के लिए प्रतिरोधी है। मानव शरीर की त्वचा पर रहने वाले सूक्ष्मजीव तब तक अन्दर नहीं जा सकते, जब तक कि यह टूट न जाए। त्वचा की मृत कोशिकाएँ, जो हर 40 मिनट में अनुमानत: एक मिलियन झड़ जाती हैं और उसमें मौज़ूद रोगाणुओं को अपने साथ ले जाती हैं।

मानव शरीर में नाक, मुँह और आँखें रोगजनकों के लिए स्पष्ट प्रवेश बिन्दु हैं। हालाँकि आँसू, बलगम और लार में एक एंजाइम होता है, जो बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति को तोड़ देता है। वो तुरन्त नहीं मारे जाते हैं, बल्कि बलगम में फँस जाते हैं और निगल जाते हैं। विशेष कोशिकाएँ मानव शरीर के भीतर नाक, गले और अन्य मार्ग की रक्षा करती हैं। शरीर के कण्ठ और फेफड़े की आंतरिक परत भी आक्रमणकारी रोगजनकों को फँसाने के लिए बलगम पैदा करती है। बहुत महीन बाल (सिलिया), जो साँस की नली को अस्तर करते हैं; बलगम और जाल के कणों को फेफड़ों से दूर ले जाते हैं। कण बैक्टीरिया या सामग्री जैसे धूल या धुआँ हो सकते हैं। अनुकूल (लाभदायक) बैक्टीरिया त्वचा पर, आंत्र और शरीर के अन्य स्थानों (जैसे मुँह और आँत) में बढ़ते हैं, जो अन्य हानिकारक जीवाणुओं को लेने से रोकते हैं। पेट का एसिड बैक्टीरिया और परजीवी को मारता है, जो अनजाने में निगल लिया गया होता है। मूत्र प्रवाह मूत्राशय क्षेत्र से रोगजनकों को बाहर निकालता है।

शारीरिक अवरोधों वाले अन्य घटकों में श्लेष्म झिल्ली होती है। मानव शरीर के श्वसन, पाचन, मूत्र और प्रजनन प्रणालियों की सभी आंतरिक सतहों को श्लेष्म झिल्ली द्वारा संरक्षित / पंक्तिबद्ध किया जाता है; जो आंतरिक अस्तर की रक्षा करते हैं। हालाँकि श्लेष्म झिल्ली त्वचा की तुलना में अधिक कमज़ोर हैं। नाक में बालों का विकास किसी भी अप्रिय चीज़ को रोकने के लिए एक मोटे फिल्टर की तरह कार्य करता है, जो नाक के मार्ग से गुज़रता है। भौतिक बाधाओं के बाद पहली परत में एक और प्राकृतिक रक्षा, रासायनिक अवरोध शामिल हैं। पसीना एक ऐसा दृश्य रासायनिक अवरोध है, जो त्वचा में ग्रन्थियों द्वारा निर्मित होता है और रोगाणुओं को दूर करता है और उनकी अम्लता और बैक्टीरिया के विकास को काफी धीमा कर देता है। श्लेष्म झिल्ली चिपचिपा श्लेष्म पैदा करता है। यह ऐसे कई रोगाणुओं को फँसाता है, जो शरीर पर हमला करते हैं और नुकसान पहुँचा सकते हैं। लार और आँसू में लाइसोजाइम नामक एक एंजाइम होता है, जो अपनी कोशिका की दीवारों को तोड़कर बैक्टीरिया को मारता है। सेरुमेन, अर्थात् कान छिद्र में उत्पन्न कान मोम, गन्दगी और धूल के कणों को फँसाकर श्रवण द्वार को रक्षा प्रदान करती है।

रोगजनक (बीमारी पैदा करने वाले) सूक्ष्मजीवों को रक्षा की इस पहली पंक्ति से पार करके जब यह बचाव टूट जाता है, तो मानव शरीर के भीतर रक्षा की दूसरी परत सक्रिय हो जाती है। माँ प्रकृति द्वारा मानव शरीर में प्रदान की गयी रक्षा की इस दूसरी परत में विशेष कोशिकाएँ हैं, जिन्हें रक्षात्मक कोशिकाएँ कहा जाता है। कार्यात्मक रूप से यदि कोई हानिकारक इकाई या एक रोगजनक शरीर पर आक्रमण करता है और रक्षा की पहली पंक्ति को पार करने में सक्षम है। ये विशेष कोशिकाएँ शरीर को नुकसान पहुँचाने से पहले रोगजनक को रोकने या नष्ट करने में भूमिका निभाती हैं। वे गैर-विशिष्ट हैं और किसी भी विदेशी जीव या पदार्थ की उपस्थिति पर प्रतिक्रिया करते हैं। फागोसाइट्स रोगजनकों, क्षतिग्रस्त ऊतकों या मृत कोशिकाओं को संलग्न करता है। न्यूट्रोफिल, मैक्रोफेज और इओसिनोफिल, फागोसाइट्स (उदाहरण के लिए, परजीवी कीड़े) जैसे बड़े रोगजनकों को नष्ट करने के लिए विनाशकारी एंजाइमों का निर्वहन करते हैं। प्राकृतिक मारक कोशिकाएँ असामान्य कोशिकाओं, उदाहरण के लिए कैंसर कोशिकाओं की तलाश करती हैं और उन्हें मार देती हैं।

रक्षात्मक प्रोटीन में रक्षा की दूसरी परत शामिल है। इंटरफेरॉन प्रोटीन को विशेष उल्लेख की आवश्यकता होती है, जब भी कोई वायरस किसी सेल में प्रवेश करता है और संक्रमित सेल इंटरफेरॉन का उत्पादन करता है। यह इंटरफेरॉन अन्य कोशिकाओं के साथ जुड़कर, जो वायरस से संक्रमित हो जाते हैं; एंटीवायरल प्रोटीन का उत्पादन करने के लिए सेल को उत्तेजित करके इसकी रक्षा करते हैं और वायरस को इसकी प्रतिकृति बनाने या खुद की प्रतियाँ बनाने से रोकते हैं। इंटरफेरॉन प्राकृतिक हत्यारी कोशिकाओं और मैक्रोफेज को भी आकर्षित करता है और वायरस से संक्रमित कोशिकाओं को मारने के लिए प्रेरित करता है। रक्षा की दूसरी पंक्ति के रक्षात्मक प्रोटीन भी सेल-लिसिस नामक रोगजनकों के विनाश से रक्षा प्रणालियों के पूरक हैं। फागोसाइटोसिस का बढऩा (ओप्सनाइजेशन), सूजन की उत्तेजना (केमोटैक्सिस), मैक्रोफेज और न्यूट्रोफिल को आकर्षित करता है।

रक्षा की दूसरी पंक्ति का हिस्सा (सूजन) मानव शरीर को सचेत करने के लिए शरीर की पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रिया है और यह अवगत कराती है कि कहीं कुछ ऊतक घायल या क्षतिग्रस्त हैं, जहाँ परिवर्तन की एक स्वचालित शृंखला, जिसे लोकप्रिय रूप से उत्तेजक प्रतिक्रिया कहा जाता है; उस स्थल पर लालिमा पैदा करती है। लाली क्षतिग्रस्त क्षेत्र में रक्त के प्रवाह में वृद्धि के कारण होती है, जिससे स्थानीयकृत गर्मी पैदा होती है। यह गर्मी बदले में रक्त के प्रवाह में वृद्धि के कारण होती है, जो चोट के क्षेत्र में तापमान को बढ़ाती है।

इस प्रकार शरीर की कोशिकाओं की चयापचय दर बढ़ जाती है, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय सूजन होती है। सूजन की प्रतिक्रिया हिस्टामाइन के स्तर को बढ़ाती है, जो कोशिकाओं को सामान्य से अधिक पारगम्य बना देती है और परिणामस्वरूप दर्द प्रकट होता है, जो प्रभावित क्षेत्र की रक्षा के लिए मानव शरीर को सचेत करता है। बचाव की दूसरी पंक्ति बुखार के रूप में एक और चेतावनी देती है। बुखार कैसे बढ़ता है और मानव प्रणाली के लिए इसका उद्देश्य क्या है। बुखार एक असामान्य रूप से उच्च शरीर का तापमान है, जो पाइरोजेन (रसायन, जो मस्तिष्क में थर्मोस्टेट को एक उच्च तय बिन्दु पर स्थापित करते हैं) के कारण होता है। हल्के या मध्यम बुखार में यह फायदेमंद है; क्योंकि यह बैक्टीरिया के विकास को धीमा करके और प्रतिरक्षा रक्षा प्रतिक्रियाओं को उत्तेजित करके शरीर को बैक्टीरिया के संक्रमण से लडऩे में मदद करता है।

इम्यून सिस्टम शरीर की रक्षा की तीसरी परत है और मानव शरीर को किसी भी प्रकार के संक्रमण या विप्लव या रोगजनक कारण या उस नुकसान से बचाता है, जो किसी भी रूप या तरीके से मानव शरीर को नुकसान पहुँचाता है। प्रतिरक्षा और इसे बढ़ावा देने या इसे मज़बूत करने के तरीके, विशेष रूप से वर्तमान कोविड-19 महामारी के दौरान, इतनी अधिक प्रमुखता प्राप्त कर ली है कि अब इसे धन कमायी के रूप में माना जाता है। वास्तव में इम्युनिटी (प्रतिरक्षण) का अर्थ है- मानव शरीर को ऐसे सभी प्रकार के खतरों और किसी भी ऐसे रोगजनकों, संक्रमणों, अन्य कारणों से उत्पन्न होने वाले खतरों से बचाना, जो उसके लिए घातक हैं। प्रतिरक्षण को बनाये रखने के लिए ज़िम्मेदार कोशिकाएँ और अणु, जो स्वाभाविक रूप से मातृ प्रकृति द्वारा लगाये जाते हैं; प्रतिरक्षा का गठन करते हैं। प्रणाली और बाहरी पदार्थ के लिए उनकी सामूहिक और समन्वित प्रतिक्रिया, अर्थात् सभी विषाक्त व संक्रामक घटकों को प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया कहा जाता है। प्रतिरक्षा या प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया में आमतौर पर दो चरण होते हैं। चरण-1, प्राकृतिक रक्षा के पहले दो परतों के घातक उल्लंघन के बाद शरीर पर आक्रमण करने वाले रोगजनकों, कारणों या विदेशी अणुओं की पहचान को रोकता है। चरण-2 में शामिल रोगजनक के खिलाफ शरीर की अंतर्निहित बढ़ती प्रतिक्रिया और शरीर को इस तरह के कष्ट से छुटकारा पाने में सक्षम बनाना है।

इस तथ्यपूर्ण चर्चा से प्रथम दृष्टया, यह स्पष्ट हो जाता है कि आम धारणा के विपरीत, दर्द, सूजन, बुखार, खाँसी, उलटी इत्यादि खुद से कोई बीमारी नहीं हैं, और इसे मातृ प्रकृति की स्वाभाविक अनुकम्पा के रूप में सम्मानपूर्वक देखा और लिया जाना चाहिए। मानव शरीर इस तरह के शरीर के संकेतों के अंतर्निहित कारणों की तलाश करने और गम्भीरता से पता लगाने, जानने, समझने की कोशिश करने व अंतर्निहित शरीर की दुर्बलता के लिए उपचार प्राप्त करने के लिए कह रहा है। चिकित्सा हस्तक्षेप द्वारा शरीर की प्राकृतिक सुरक्षा को रोकने या उससे निपटने के लिए किसी भी प्रयास से बचने के दौरान सुन्न या शक्तिहीन कर देना उचित नहीं है। यह वास्तव में मामलों की एक बहुत ही चिन्ताजनक स्थिति है; जिसे देखने के लिए आधुनिक चिकित्सक तथाकथित मानव शरीर से स्वाभाविक रूप से अंतर्निहित रक्षा तंत्र के साथ छेड़छाड़ करते हैं और केवल अंतर्निहित कारणों को ठीक करने के प्रयास के बिना फिर वर्तमान शिकायत को ठीक करने का दावा करते हैं। यह बीमार व्यक्ति के दीर्घकालिक हित के लिए हानिकारक है।

शिक्षा का व्यावसायीकरण

नयी शिक्षा नीति के लिए हमारे उत्साह के बावजूद इससे किसी क्रान्तिकारी रुझान का संकेत नहीं मिलता। यथास्थिति ने परिवर्तन के खतरे से निपटने के लिए एक नयी तकनीक विकसित की है। हमें शैक्षिक क्रान्ति का वर्षों से इंतज़ार रहा है। परिवर्तन का प्रतिरोध इस परिस्थिति से आता है कि शैक्षिक प्रणाली एकाधिकार है, और एकाधिकार की तरह व्यवहार करती है। यदि यह किसी अन्य की तरह एक व्यापार होता, तो अब तक एकाधिकार और प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार आयोग (एमआरटीपीसी) ने इस पर संज्ञान लिया होता। डॉ. जे.एन. कपूर ने अपनी पुस्तक ‘करंट इश्यूज इन हायर एजुकेशन’ में लिखा है- ‘शिक्षा एक बड़ा उद्योग है; लेकिन यह उपभोक्ता या उत्पाद अनुसंधान नहीं करता है। यह एक संरक्षित उद्योग है, और इसीलिए यह अक्षम है।’ संरक्षण का स्तर इस तथ्य से आँका जा सकता है कि कोई भी व्यक्ति डिग्री और लेबल के बिना शिक्षित होने की पहचान की उम्मीद नहीं कर सकता है।

इसका कारण तलाश करना मुश्किल नहीं है। शैक्षिक उद्योग में लगभग पाँच मिलियन (50 लाख) शिक्षक कार्यरत हैं। इसके पास 150 मिलियन से अधिक युवा ग्राहक हैं। इसके अलावा सिस्टम के आस-पास निहित स्वार्थ में लाखों माता-पिता शामिल होते हैं, जो बच्चे को स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय भेजते हैं। कई सहायक ट्रेड और प्रोफेशन भी इस प्रणाली पर रहते हैं। केंद्रीय और राज्य निधियों से कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को वितरित धन का एक बड़ा हिस्सा ईंट-गारे और सीमेंट में जाता है। इसलिए यह दावा किया जा सकता है कि हमारी उच्च शिक्षा के सबसे बड़े लाभार्थी भवन उद्योग हैं।

देश भर में कुकुरमुत्ते की तरह शैक्षिक संस्थानों के उग आने के बावजूद हमारी शिक्षा के मानक और गुणवत्ता में बहुत सुधार नहीं हुआ है। देश भर में डीपीएस और डीएवी जैसे निजी स्कूल अंग्रेजी माध्यम पब्लिक स्कूलों के नाम पर भोली-भाली जनता को लूट रहे हैं। कॉलेज रोज़गारोन्मुखी पाठ्यक्रमों के नाम पर लूट रहे हैं और विश्वविद्यालय लाभप्रद रोज़गार के नाम पर असहाय छात्रों को ठग रहे हैं। इसके अलावा निजी कोचिंग प्रतिष्ठान को लेकर शिक्षकों की नाराज़गी दिलचस्प है; क्योंकि भरोसेमंद उम्मीदवारों को 100 फीसदी सफलता की झूठी गारंटी देकर ये जमकर पैसे कमा रहे हैं। ये सी-ग्रेड कोचिंग सेंटर सीखने के लिए त्वरित शॉर्ट-कट का वादा करते हैं; जिसे प्रदान करने में ये वास्तव में विफल होते हैं। लेकिन शैक्षिक प्रणाली के भीतर पारम्परिक संस्थान, जो युवा मासूम छात्रों को लम्बा रास्ता तय करने के लिए बाध्य करते हैं; वो भी अपने ग्राहकों से किये गये लुभावने वादों के असल गंतव्य तक ले जाने में विफल होते हैं।

हमारे शिक्षण संस्थानों की लागत निजी कोचिंग कक्षाओं से अधिक है। हालाँकि पैसा दोनों मामलों में सार्वजनिक धन से ही जुटता है। ऐसा नहीं है कि शैक्षणिक समुदाय उन सम्मोहक कारणों से अनभिज्ञ हैं, जो छात्रों को सीखने के गैर-पारम्परिक तरीकों की ओर आकर्षित करते हैं। एक कारण यह है कि पारम्परिक तरीकों के साथ पारम्परिक प्रणाली का विस्तार करने के लिए संसाधन समाप्त हो गये हैं। एक अच्छे कॉलेज में एक सप्ताह में 30 घंटे बाहरी दुनिया में बिताये अन्य 70 घंटों के मुकाबले नहीं हो सकते हैं।

सिर्फ दो करोड़ की आबादी वाले हरियाणा जैसे छोटे राज्य में सरकारी और निजी सहायता प्राप्त 250 कॉलेज और 23 विश्वविद्यालय हैं। इनमें ज़्यादातर में बुनियादी ढाँचा नहीं है और अप्रभावी शिक्षण के शोध भी नगण्य है। सिर्फ पाँच लाख की आबादी वाले हिसार जैसे छोटे शहर में तीन विश्वविद्यालय- एक कृषि वि.वि., एक पशु चिकित्सा और एक प्रबंधन और प्रौद्योगिकी संस्थान हैं। लगभग हर राज्य के मुख्यमंत्री ने अपने पिता के नाम पर एक विश्वविद्यालय खोला है और इस तरह विश्वविद्यालय को एक व्यक्तिगत जागीर के रूप में निरूपित कर दिया है। एकमात्र उद्देश्य गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान करना नहीं, बल्कि ठोस वोट बैंक है। विश्वविद्यालय एक राज्य का विषय हैं। लिहाज़ा यूजीसी को उन्हें सही मानदण्डों से चूक करने पर लगाम कसने से नहीं रुकना चाहिए। संविधान शिक्षा को सूचीबद्ध करते हुए विश्वविद्यालय सहित इसे राज्य विषयों के बीच स्पष्ट रूप से जोड़ता है और कहता है कि यह संघ सूची में कुछ प्रविष्टियों के प्रावधानों के अधीन है, जिसमें उच्च शिक्षा और अनुसंधान संस्थानों में मानकों का समन्वय और निर्धारण शामिल है।

यूजीसी की कार्य करने की शक्ति और ज़िम्मेदारी जवाबदेही से भरी है। उदाहरण के लिए जब विश्वविद्यालय परीक्षाओं में धोखा देते हैं और फर्ज़ी डिग्रियाँ प्रदान करते हैं; पाठयक्रम आवश्यकताओं को कमज़ोर करते हैं या शैक्षणिक-कानून के अलावा अन्य विचारों पर उप-मानक पत्राचार पाठ्यक्रम संचालित करते हैं। वास्तव में अधिकार इतने कम नहीं हैं, जितने बताये जाते हैं। इसके अलावा किसी विश्वविद्यालय की शक्ति और प्रभाव को उसके नियमों में विस्तृत रूप से और विशेष रूप से वर्णित करने की उम्मीद नहीं की जाती है। उसके निर्णयों और दृष्टिकोणों के अनुसार इस तरह के नैतिक अधिकारों का निर्माण करने की अपेक्षा की जाती है कि व्यक्ति और संस्थाएँ उनकी अवहेलना करने में संकोच करें। हमारे सम्बद्ध विश्वविद्यालयों के इतिहास के 100 से अधिक वर्षों में कितने ही कॉलेज हैं, जो न्यूनतम मानदण्डों से नीचे गिर गये और उन्होंने अपनी सम्बद्धता खो दी। इसके विपरीत उप-मानक उपकरण और कर्मियों की कमी वाले कॉलेज और भविष्य में सुधार की सम्भावना नहीं दिखाने वाले संस्थानों को तर्कहीन आधार पर सम्बद्धता दी जाती है। पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और हिमाचल प्रदेश में लगातार नियमों का उल्लंघन करने वाले डीएवी कॉलेज बिना वैध तरीके से गठित निकायों के काम कर रहे हैं। ये त्रुटिपूर्ण डीएवी कॉलेज गैर-वैधानिक डीएवी प्रबन्धन, नई दिल्ली के निरंकुश पदाधिकारियों द्वारा रिमोट कंट्रोल के माध्यम से चलाये जा रहे हैं। हालाँकि डीएवी शिक्षकों के तमाम विरोधों के वाबजूद सम्बन्धित सरकारें और विश्वविद्यालय के अधिकारी चालाक और भ्रष्ट डीएवी संगठन के दबदबे और साठगाँठ के कारण मूकदर्शक बने हुए हैं। सरकार और विश्वविद्यालय की निष्क्रियता और मिलीभगत के कारण कुछ गैर-सरकारी मान्यता प्राप्त कॉलेजों को शिक्षकों को कम पैसे देने और कुप्रबन्धन से उबरने से बचने में मदद मिलती है। नतीजतन ऐसे कॉलेजों, विशेष रूप से डीएवी कॉलेजों के खिलाफ मुकदमों की बहुतायात रहती है। सही मानकों पर ज़ोर देने की इच्छा के लिए कोई वैधानिक विकल्प नहीं हैं। कई मामलों में शीर्ष अदालत ने माना है कि उच्च न्यायालय के निर्देश भी विश्वविद्यालय के कानून के विपरीत नहीं जा सकते। यदि कोई अदालत ऐसा करती है, तो इसका मतलब है कि यह कानून की अवज्ञा करने का अधिकार जाता रहा है; जो कि असंगत है।

कई लाख छात्र प्रवेश के लिए हर साल कई प्रवेश परीक्षाओं में शामिल होते हैं। व्यवसाय कार्ड प्रत्येक परीक्षण के लिए कुछ ऐसा शुल्क दिखाता है- जेईई 1300 रुपये, कैट 2000 रुपये, सीएमएटी 400 रुपये, एसएनएपी 1750 रुपये, एनएमएटी 2000 रुपये और आईआईएफटी 2000 रुपये। इंजीनियरिंग स्ट्रीम के लिए एक इच्छुक कम-से-कम छ: परीक्षणों में शामिल होता है और परीक्षा में लगभग 10,000 रुपये खर्च करता है। मेडिकल, यूजीसी नेट, आईसीएआर, सीएसआईआर नेट आदि के लिए भी यही स्थिति है। इन परीक्षाओं के लिए कोचिंग शुल्क अतिरिक्त है। वास्तव में 2019 में मद्रास उच्च न्यायालय को बताया गया था कि केवल दो फीसदी छात्र, जिनके पास कोचिंग नहीं है; को ही अच्छे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश मिल पाता है। सितंबर, 2020 में अनुमानित 22 लाख छात्र जेईई की परीक्षा में शामिल हुए। जेईई के लिए औसत फीस संग्रह 85 करोड़ रुपये है। राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) अब चिकित्सा और विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा के लिए जेईई और एनईईटी आयोजित करती है। वर्तमान राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ऑनलाइन मूल्यांकन और परीक्षाओं में इस परीक्षण को दोहराया जाता है। इस शीर्षक के तहत इस्तेमाल की जाने वाली भाषा एक वाणिज्यिक भर्ती एजेंसी की है, न कि एक अनुभवी शैक्षणिक एजेंसी की।

स्कूली शिक्षा के लिए भारत में अनुमानित बाज़ार का आकार 52 बिलियन डॉलर, जिसमें स्नातक शिक्षा का 15 बिलियन डॉलर,  व्यावसायिक शिक्षा का पाँच बिलियन डॉलर और प्रवेश परीक्षण व्यवसाय 23 बिलियन डॉलर का है। इसका अर्थ है 2.05 लाख करोड़ रुपये का वृहद बाज़ार। वार्षिक परीक्षाएँ मूल रूप से स्कूल शिक्षा बोर्डों द्वारा संचालित की जाती हैं। विश्वविद्यालयों द्वारा स्नातक और स्नातकोत्तर परीक्षाएँ आयोजित की जाती हैं; क्योंकि इन्हें परिणामों के आधार पर प्रतियाँ जाँचने, मूल्यांकन करने और डिग्री / प्रमाण पत्र / डिप्लोमा देने का उनका अधिकार है। अधिकांश विश्वविद्यालयों में शानदार, विश्वसनीय और मज़बूत प्रणाली है। किसी भी प्रकार की परीक्षा या परीक्षा आयोजित करने के लिए 100 से अधिक वर्षों के अनुभव के साथ। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें कॉर्पोरेट लॉबिंग के माध्यम से ऐसी चालाक निजी एजेंसियों के साथ बदल दिया गया है, जिनके पास न तो शिक्षण में अनुभव है और न ही पढ़ाने की प्रक्रिया। वास्तव में ये परीक्षण एजेंसियाँ एक ही विश्वविद्यालय परीक्षा प्रणाली पर निर्भर करती हैं। जनता के पैसे से बनाये गये देश के लगभग 450 विश्वविद्यालयों का बहुत बड़ा बुनियादी ढाँचा बर्बाद हो गया है।

हम अब एक ऐसे दुष्चक्र में प्रवेश कर गये हैं, जो मार्गदर्शन और शिक्षा नहीं देता है, बल्कि केवल परीक्षण करता है। शिक्षण, अनुसंधान, विस्तार और परीक्षण सहित सैकड़ों वर्षों की विरासत वाले शिक्षा बोर्डों और विश्वविद्यालयों की विशाल प्रणाली को इस मेगा 2.5 लाख करोड़ के बाज़ार को सौंपने का मार्ग प्रशस्त किया गया है; पूरी तरह निजी ऑपरेटरों के लिए। अंतत: पीडि़त लाखों निर्दोष छात्र और उनके असहाय माता-पिता हैं, जिन्हें वास्तविक शिक्षा के लिए नहीं, बल्कि परीक्षण के लिए पैसे देने पड़ते हैं; उन एजेंसियों को, जो कभी पढ़ाती नहीं हैं और जिनके पास शिक्षा का कोई विचार नहीं है। पूरी प्रक्रिया अकादमिक शिक्षण मॉडल का हिस्सा नहीं है, और न ही ज्ञान प्राप्त करने और उपयोग करने की उच्च शिक्षा प्रक्रिया के बुनियादी पहलू से सम्बन्धित है।

वर्तमान परीक्षण एक शुद्ध व्यवसाय मॉडल है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय व्यावसायिक स्कूलों द्वारा विकसित किया गया है और विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से थोप दिया गया है। फिक्की और दूसरे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समूह भारत में शिक्षा सेवा बाज़ार की सीमा को समझने में कूद पड़े हैं। सरकार के धन से एक परीक्षण एजेंसी की स्थापना और फिर दक्षता, जवाबदेही, पारदर्शिता और सम्भावना के अतार्किक कारण बताकर उसका निजीकरण करके आज विभिन्न परीक्षाओं के लिए उम्मीदवारों का परीक्षण पैसा कमायी का सबसे आकर्षक ज़रिया बन गया है। शिक्षा प्रणाली में सीखने का मतलब रटने और याद करने से नहीं है। यह वह प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षार्थी सामग्री की अवधारणा करता है और यह समझता है कि वास्तविक जीवन की समस्याओं को हल करने के लिए कौशल और ज्ञान कैसे लागू किया जाए। प्राचीन भारत में शिक्षा का यही उद्देश्य था। इसे प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका है कि हर स्तर पर शिक्षण को आनंदमय बनाना।

टिके रहेंगे भारत-अमेरिकी समझौते

संयुक्त राज्य अमेरिका के नये राष्ट्रपति के तौर पर 20 जनवरी को जोसेफ रॉबिनेट बाइडेन शपथ लेंगे। उनके साथ ही उप राष्ट्रपति पद सँभालेंगी कमला हैरिस। इन्हें अमेरिकी जनता से इतना पर्याप्त मत मिला है कि ये डोनाल्ड ट्रंप के चार साल के शासन को सिमटा सकें। हालाँकि ट्रंप को अब भी यकीन नहीं है कि उन्हें अमेरिकी जनता ने राष्ट्रपति पद से मुक्त कर दिया है।

अमेरिकी समाज को अलग-अलग करके देखने और कोविड-19 की महामारी न सँभाल पाने के कारण ट्रंप को चार साल ही शासन के लिए दिये। लेकिन चार साल में ही ट्रंप ने डेमोक्रेटिक पार्टी के गढ़ राज्यों के भीतर तक अपनी पैठ बना ली है। हो सकता है कि अगले चार साल बाद जब चुनाव हों, तो ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी सरकार में फिर लौटे। अमेरिका में जो बाइडेन के पद सँभालने के साथ ही देश को पहले नंबर पर लाने की कोशिश होगी। अपनी प्राथमिकताओं में बाइडेन ने कोरोना-19 की महामारी से निबटने की पुरज़ोर कोशिश करने की बात कही है। इसके लिए उन्होंने डेढ़ महीने पहले ही विशेषज्ञों का दस्ता भी नियुक्त कर दिया था। उन्होंने यह भी साफ किया कि पिछली सरकार के विभिन्न फैसलों को गुण-दोष के आधार पर परखा जाएगा।

हालाँकि विशेषज्ञों का मानना है कि नयी ड्रेमोक्रेटिक सरकार भारत के साथ हुए विभिन्न समझौतों पर कोई आँच नहीं आने देगी। इसकी वजह है कि भारत-अमेरिकी सम्बन्धों का दायरा वैश्विक रणनीति का रहा है। भारत के साथ हुए अमेरिकी समझौते न केवल रक्षा, बल्कि तकनीक, व्यापार, कृषि, शिक्षा आदि क्षेत्रों से भी सन्बन्धित हैं। भावी समय के साथ अमेरिकी नीतियों के तहत हुए ये समझौते दोनों देशों और उनके नागरिकों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए किये गये हैं। इन समझौतों के तहत दोनों देशों के बीच सामरिक, वाणिज्यिक और आर्थिक विकास की सम्भावनाओं पर भी राय-मशविरा हुआ है।

अमेरिकी चुनाव नतीजों में डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बाइडेन को शुभकामनाएँ दीं। उनसे 18 नवंबर की देर रात बातचीत भी की। दोनों बड़े लोकतांत्रिक देशों में आपसी सम्बन्ध कैसे प्रगाढ़ हो सकते हैं? इस सम्भावना पर भी दोनों नेताओं में अच्छी बातचीत हुई। दोनों ही देशों में सर्वोच्च प्राथमिकता कोविड-19 वायरस की महामारी से निपटने की है। उस पर अच्छा संवाद हुआ। दोनों ही देशों को कोविड-19 महामारी का प्रकोप है। अमेरिका में जहाँ 11 मिलियन से भी ज़्यादा लोग इससे संक्रमित हैं, वहीं भारत में यह तादाद आठ मिलियन से भी ज़्यादा है। अमेरिका में इससे निपटने के लिए बने टीके मैडरना की परीक्षण-प्रक्रिया और उसे सस्ते में जन-जन तक पहुँचाने की सम्भावनाओं पर भी दोनों राजनेताओं में राय-मशविरा हुआ।

अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिहाज़ से बाइडेन ने यह बताया कि उनकी सरकार बॉय अमेरिकन नीति पर ज़ोर देगी। वह इस दिशा में सोच रहे हैं कि जो कम्पनियाँ अमेरिका में उत्पादन नहीं करतीं, उन्हें अमेरिका में व्यावसायिक लाइसेंस नहीं दिया जाए। क्योंकि देश में नौकरी के मौके फिर घट जाते हैं। दोनों ही देशों में इस बात पर सहमति थी कि दोनों मिलकर काम करें, तो न केवल आपसी सम्बन्ध प्रगाढ़ होंगे, बल्कि वैश्विक शान्ति के लिए एक मज़बूत रणनीति पर भी सक्रियता हो सकती है।

भारत ने जलवायु परिवर्तन पर फिर अमेरिकी सहयोग करने के फैसले का स्वागत किया और अमेरिकी नौसैनिक टुकड़ी के साथ भारतीय युद्धाभ्यास की ओर भी ध्यान खींचा। अमेरिकी सहयोग से भारत न केवल अरब और हिन्द महासागर, बल्कि प्रशान्त महासागर क्षेत्र में तमाम चुनौतियों का सामना करते थे और सक्षम होगा। ओबामा सरकार के दौर में प्रशान्त महासागर में चौकसी की विभिन्न सम्भावनाओं में भारतीय भूमिका की सम्भावना पर विचार हुआ था। अब बाइडेन के नेतृत्व की सरकार के साथ इस पहलू पर और ध्यान देने की गुंजाइश हैं।

जलवायु परिवर्तन पर बाइडेन के नेतृत्व में फिर सक्रियता से भारतीय हलकों में उम्मीद बढ़ी है कि अंतर्राष्ट्रीय सोलर सहयोग योजना पर और व्यापक तौर पर अमल अब हो सकेगा। बाइडेन ने जो नया मंत्रिमंडल बनाया है, उसमें ओबामा सरकार के कई दिग्गज मंत्री शामिल हैं। इससे लगता है कि अनुभव के आधार पर अमेरिका नीतिगत फैसलों को नयी धार देगा। इससे देश और विदेश में उसकी तस्वीर साफ-सुथरी दिख सकेगी। जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी मामलों को ओबामा मंत्रिमंडल में दिग्गज मंत्री रहे जान केरी को सौंपा गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बातचीत से यह संकेत ज़रूर मिलता है कि दोनों देश एक-दूसरे के और करीब आ सकते हैं; बशर्ते राजनयिक स्तर पर नियमित प्रयास किये जाएँ। इसकी ज़रूरत इसलिए भी है, क्योंकि ट्रंप प्रशासन में खासी भारतीय पैठ थी; जिसके चलते अमेरिका स्थित भारतीय समुदाय के आग्रह पर फरवरी, 2020 में अमदाबाद में नमस्ते ट्रंप का भव्य आयोजन हुआ था। लेकिन अब नयी सरकार का प्रशासन इस वािकये को किस हद तक नज़रअंदाज़ करता है, उसे राजनयिक स्तर पर बेहतरी के आधार पर ही समझा जा सकेगा। सम्भावना है कि भारतीय विदेश विभाग इस लिहाज़ से भारत-अमेरिकी सहयोग बढ़ाने पर राय-मशविरा कर भी रहा हो।

मारक हथियारों की क्षमता से विनाश हो सकता है। उससे टूटे दिलों को नहीं मिलाया जा सकता। अमेरिका ने विश्वयुद्ध की विभीषिकाओं को जाना-समझा है। उसकी प्राथमिकता रही है कि दुनिया भर में तानाशाही, सीमाओं को लेकर दो देशों में झगड़े, लोकतंत्र के खतरों और एटमी हथियारों के विरोध के नाम पर युद्ध को बढ़ाने से रोकने की अमेरिकी तरीके से खास रणनीति के तहत हस्तक्षेप। इसकी धमक पूरी दुनिया में रही है।

भारत को उम्मीद है कि चीन का जो प्रभाव प्रशान्त महासागर और चीन सागर में बढ़ रहा है, उस पर अमेरिका चिन्ता जताता रहा है और भारत व अमेरिका आपस में सैन्य सहयोग करके चीन के अपना विस्तार करने के रवैये को थाम सकेंगे। भारत-अमेरिकी और मित्र देशों का समुद्री युद्धाभ्यास इसी दिशा की एक कड़ी रहा हैै।

हालाँकि भारत की एक सोच यह भी है कि बाइडेन प्रशासन शायद चीन पर वैसा दबाव रखना चाहे, जैसा ट्रंप के प्रशासन में था। बाइडेन ने अपने भाषणों में यह संकेत दिया भी है कि ट्रंप प्रशासन के सभी फैसलों की समीक्षा गुण-दोष के आधार पर की जाएगी। इससे चीन में फिलहाल कुछ राहत अब वाणिज्यिक और व्यापारिक मामलों को लेकर है। वहीं रूस को संशय है कि जर्मनी तक ऊर्जा पहुँचाने के लिए प्राकृतिक गैस देने के लिए नार्ड स्ट्रीम पाइपलाइन बिछाने के उसके काम में बाइडेन मंत्रिमंडल में शामिल ओबामा सरकार के दौर के मंत्री और अफसरशाही फिर कहीं हस्तक्षेप की नीति न छेड़े। जबकि नार्ड स्ट्रीम पाइपलाइन को ईयू संसद की अनुमति मिली हुई है। इसी तरह बाइडेन सरकार के कार्यकाल की शुरुआत से खाड़ी के देशों ईरान, वेनेजुएला और क्यूबा में भी नयी उम्मीदें हैं। ट्रंप सरकार ने जिस तरह इज़राइल, संयुक्त अरब अमीरात के साथ समझौता करके गोलन हाइटूस से फिलस्तीनियों की बेदखली का अभियान छेड़ा था। उस पर नये सिरे से विचार अब सम्भव है।

अमेरिकी जनता ने डोनाल्ड ट्रंप के नेतत्व में रिपब्लिकन पार्टी के चार साल के कामकाज पर अपना नतीजा, डेमोक्रेटिक पार्टी को जिताकर जताया। इसकी विभिन्न वजहों में देश के विभिन्न शहरों में श्वेतों और अश्वेतों में झड़प, हालात काबू करने में पुलिस का गोली चलाना और अश्वेतों का मारा जाना ही नहीं, बल्कि देश के समुदायों को (लैटिन अमेरिकी, लैटिनो, स्पैनिश, एशियन) अलग-अलग बाँटने की कोशिश रहा। इसके अलावा काविड-19 के चलते हुए लॉकडाउन में लोगों की बढ़ी बेरोज़गारी, बेरोज़गारी भत्ते के भी न मिलने से किराये के मकानों को छोडऩा भी था। स्थानीय आक्रोश को शान्त करने के लिए ट्रंप का नेशनल गाड्र्स की तैनाती का आदेश देना भी एक बड़ी वजह रहा। डेमोक्रेटिक पार्टी अमेरिका में संविधान के तहत हम अमेरिकी की बात करती रही है। लेकिन पिछले चार वर्षों में अमेरिका बेहद बँटा हुआ देश बना दिखता है। इन वर्षों में डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रभाव वाले इलाकों में रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक भी हावी दिखने लगे हैं। विभिन्न सामाजिक संस्थाओं यहाँ तक कि अदालतों तक में यह विभाजन अब दिखता है।

लेकिन डेमोक्रेटिक पार्टी के चुने गये नये राष्ट्रपति जो बाइडेन भावुक होने के साथ ही अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। उन्हें राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के साथ ही अपने कौशल को दिखाना होगा। जो भी फैसला वह लेंगे, उन्हें सीनेट में उसकी मंज़ूरी लेनी होगी। चाहे वह विश्व स्वास्थ्य संगठन में फिर अमेरिका का पहुँचना हो, विश्व व्यापार संगठन को फिर महत्त्व देने की बात हो, जलवायु परिवर्तन में सक्रिय होना हो या फिर ईरान में एटामिन ऊर्जा का बेज़ा इस्तेमाल या चीनी समस्याओं पर अपनी बात रखनी हो।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हुई अच्छी बातचीत से अनेक आशाएँ जगी हैं। अमेरिकी चुनाव मे विजयी जोसेफ बाइडेन से बातचीत के एक दौर के बाद अब भारतीय विदेश मंत्रालय को अमेरिका के साथ बातचीत में अपने देश की अर्थ-व्यवस्था, व्यापार, सामारिक मुद्दों और बहुराष्ट्रीय समझौतों के लिए नयी ज़मीन तैयार करनी है, जिससे भारत का विश्व शक्ति बनने का सपना साकार हो सके।