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देश के 116 जिलों में 259 जगह शुरू हुआ कोविड-19 ‘ड्राई रन’

कोरोना वैक्सीन की तरफ एक बड़े कदम के रूप में शनिवार (आज) देश के 116 जिलों में 259 जगह कोविड-19 की तैराइयों का आकलन के लिए ड्राई रन का आयोजन शुरू हो चुका है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने आज दिल्ली के गुरु तेग बहादुर अस्पताल में ड्राई रन का जायजा लिया। ये ड्राई रन कम से कम 3 सेशन साइटों में सभी राज्य की राजधानियों में आयोजित करने का प्रस्ताव हुआ है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक कोरोना वैक्सीन का ड्राई रन ठीक उसी पैटर्न पर किया जा रहा है, जिस पर वैक्सीन आने पर टीकाकारण की योजना तैयार की गयी है। बता दें ड्राई रन में वैक्सीन नहीं दी जाएगी बल्कि जनता का डेटा लिया जा रहा है और उसे coWin App पर अपलोड किया जा रहा है। माइक्रो प्लानिंग, सेशन साइट मैनेजमेंट और ऑनलाइन डेटा सिक्योर करने जैसी कई चीजों का परीक्षण किया जा रहा है।

आज स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कहा कि ड्राई रन में लोगों के वो सुझाव शामिल किए जा रहे हैं, जो उनकी तरफ से सरकार को मिले हैं। हर्षवर्धन ने कहा – ‘पिछले साल के आखिर में हमने ड्राई रन किया था। उस समय जो सुझाव लोगों ने दिए थे, उन्हें इस बार शामिल किया गया है। हम लोग इसके लिए पिछले चार महीनों से तैयारी कर रहे हैं। जनता ने इतना धैर्य रखा है, बस थोड़ा और इंतजार कर लें।’

स्वास्थ्य मंत्री ने यह भी कहा कि देश के लोगों को अपील है कि वो किसी भी अफवाह में न जाएं। ‘भारत रकार देश के लोगों को कोविड-19 से सुरक्षित रखना चाहती है, वैक्सीन का विकास उसी प्रक्रिया का हिस्सा है।’

याद रहे तीन वैक्सीन कंपनियों ने इमरजेंसी यूज ऑथोराइजेशन के लिए अनुमति मांगी थी जिनमें फाइजर, भारत बायोटेक इंटरनेशनल लि. और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया हैं। अब सब्जेक्ट एक्सपर्ट कमेटी की सिफारिश के आधार पर डीसीजीआई इस बाबत फैसला करेंगे।

बता दें आज देश के सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 116 जिलों में 259 जगह ‘ड्राई रन’ का आयोजन चल रहा है। कुछ राज्यों में ऐसे जिले भी शामिल हैं जो दूर दराज हैं। ड्राई रन पिछले साल 20 दिसंबर को मंत्रालय की ऑपरेशनल गाइडलाइन के मुताबिक हो रहा है।

यह भी बता दें पहली जनवरी को सीडीएससीओ के विशेषज्ञ पैनल ने ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया से ऑक्सफोर्ड और एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन कोविशील्ड को इमरजेंसी इस्तेमाल की मंज़ूरी देने की सिफारिश की है। कमेटी के इस फैसले से भारत को कोरोना महामारी के खिलाफ अपनी पहली वैक्सीन मिलने का रास्ता लगभग तया माना जा रहा है। कोविशील्ड वैक्सीन का निर्माण भारत की सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया कर रही है।

ईडी ने वर्षा राउत के माध्यम से संजय राउत पर कसा शिकंजा

एक ओर जहां भाजपा की पुरानी सहयोगी शिवसेना दोनों एक दूसरे पर हमला करने से नहीं चूकते हैं। वहीं, अब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने शिवसेना सांसद संजय राउत के करीबी प्रवीण राउत की 72 करोड़ रुपये की संपत्ति जब्त की है। इसके साथ ही राउत की पत्नी वर्षा के जरिये शिकंजा कसना शुरू कर दिया है।

ईडी ने ट्वीट के जरिये जानकारी दी कि प्रवीण के खिलाफ पीएमसी बैंक घोटाला मामले में यह कार्रवाई की है। एजेंसी के मुताबिक, प्रवीण राउत की पत्नी माधुरी के बैंक खाते से ही 55 लाख रुपये संजय राउत की पत्नी के बैंक खाते में भेजने का मामला सामने आ चुका है। इसको लेकर ईडी ने संजय राउत की पत्नी वर्षा राउत को 5 जनवरी को पेश होने के लिए समन जारी किया है।

प्रवीण राउत की संपत्ति जब्त होने के बाद भाजपा नेता किरीट सोमैया ने एक बार फिर संजय राउत पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा कि पीएमसी बैंक का पैसा एचडीआईएल के जरिए प्रवीण राउत के खाते में जमा हुआ था। इसमें से लाखों रुपये संजय राउत परिवार के खाते में जमा हुआ है। उन्होंने कहा कि ईडी से पूछा गया है कि अब सांसद संजय राउत पर कार्रवाई कब होगी?

चार कंपनियों में पार्टनर हैं वर्षा राउत
राउत परिवार मुंबई में भांडुप की फ्रेंड्स कॉलोनी स्थित मैत्री बंगले में रहता हैं। संजय राउत के चुनाव के दौरान दिए गए हलफनामे के मुताबिक, वर्ष 2014-15 में वर्षा राउत की आय 13,15,254 रुपये थी। जबकि, कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के रिकॉर्ड के अनुसार वर्षा राउत चार फर्मों, रायटर एंटरटेनमेंट एलएलपी, सनातन मोटर्स प्राइवेट लिमिटेड, सिद्धांत सिस्कोन प्राइवेट लिमिटेड और अवनी कंस्ट्रक्शन की पार्टनर हैं। बता दें कि रायटर एंटरटेनमेंट एलएलपी नाम की फर्म ने ही वर्ष 2019 में बॉलीवुड फिल्म ‘ठाकरे’ बनाई थी।

नये साल 2021 में जमकर मनाया जश्न , गो कोरोना का गाना गाकर जमकर झूमे लोग

नये वर्ष के अवसर पर आज दिल्ली में लोगों ने अपने परिजनों के साथ जमकर खरीददारी  की और होटलों में जाकर नये साल का जश्न भी मनाया। दिल्ली के कनाँट लेस के साथ-साथ लाल किला और कुतुबमीनार सहित अन्य मालों में लोगों के खिले चेहरे नये उत्साह के साथ देखने को मिले।

कोरोना के कारण संपूर्ण लाँक डाउन के कारण लोगों का आना-जाना कम हो गया था। लेकिन दिल्ली में नये साल में गो कोरोना के नारे के साथ जश्न मनाते हुये कहा कि, कोरोना अब भारत में नहीं रहेगा। तहलका संवाददाता को कनाँट पलेस में अपने परिवार साथ प्रताप मुंजाल ने बताया कि मार्च माह के अंतिम सप्ताह में जब लाँकडाउन लगा था तब से अब तक वे अपने परिवार के साथ घर से नहीं निकले थे। लेकिन 2020 के साल को परेशान करने वाला बीमारी फैलाने वाला साल मानकर उसकी पुरानी यादों को भुलाकर नया साल का अब 2021 का नये तरीके स्वागत किया।

लालकिला में बच्चों के खिलौने बेचने वाले रवीन्द्र सलूजा ने बताया कि 2021 के पहले दिन लोगो के घरों से निकलने और जमकर खरीददारी होने पर उन्हे बढ़ी खुशी हो रही है। कि ये 2021 का साल स्वास्थ्य वर्धक होगा। लोगो को रोजगार मिलेगे। दिल्ली में लोगों ने अपने परिजनों के साथ सोशल डिस्टेंसिंग के साथ मास्क पहनकर नये साल का जश्न मनाया और गो कोरोना के नाम पर गाना गाकर जमकर झूमें।

क्रान्तिकारी महिलाएँ – किसान आन्दोलन में आधी आबादी निभा रही सशक्त भूमिका

हाल में केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसान आन्दोलन भले ही पुरुषों की भागीदारी ज़्यादा दिखती हो, लेकिन इसमें एक सामाजिक परिवर्तन भी दिखा है, जो अनोखा भी है और सुखद भी। इस विरोध का एक आश्चर्यजनक और बहुत हृदयस्पर्शी पहलू एक क्रान्ति है, जो मौन रूप से आन्दोलन की महिलाएँ प्रस्तुत कर रही हैं। इस पुरुष वर्चस्व वाले किसान आन्दोलन में सभी सामाजिक-आर्थिक वर्गों की युवा, प्रौढ़ और वृद्ध महिलाओं ने एक मूक, लेकिन शक्तिशाली उपस्थिति दर्ज की है और रूढिय़ों को दरकिनार करते हुए सशक्त नेतृत्व वाली भूमिकाएँ निभायी हैं।

मानवता को सेवा प्रदान करने की इच्छा और इसके माध्यम से साधन परिवर्तन इन महिलाओं की विशेषता है। अपने असंख्य रूपों में सामुदायिक सेवा यहाँ स्पष्ट है और कुछ नहीं; यहाँ हम अकेले देखभाल करने वाली या गृह रक्षा की पारम्परिक भूमिकाओं यानी महिलाओं के बारे में बात नहीं कर रहे हैं। इनमें अधिकतर महिलाएँ रोटियाँ नहीं बना रहीं, लंगर नहीं कर रहीं या बर्तन साफ नहीं कर रही हैं; ये तो उन्होंने अपने पुरुष समकक्षों के लिए छोड़ दिया है। महिलाएँ तो किसान आन्दोलन में अग्रिम पंक्ति में खड़ी हैं। अग्रणी भूमिकानिभा रहीं हैं। टीम बना रही हैं। भाषण दे रही हैं। दूसरों का मार्गदर्शन कर रही हैं। आन्दोलन को सफल बनाने का प्रयास कर रही हैं। उसका संचालन कर रही हैं। आगे की रणनीति बना रही हैं और सभाओं को सम्बोधित कर रही हैं। यहाँ होने के नाते इन प्रेरणादायक महिलाओं को देखकर आँखों में उमड़े दर्द से सुखद राहत मिलती है।

नवप्रीत कौर : कक्षा 9वीं की इस 15 वर्षीय छात्रा को पगड़ी पहनना पसन्द है। वह अपने 16 वर्षीय भाई और 20 वर्षीय बहन के साथ एक सेवादार के रूप में काम कर रही हैं। वे कैथल, हरियाणा में रहते हैं और उनकी माँ, जो वहाँ शिक्षक हैं; ने उन्हें यहाँ रहने, सेवा करने और इस तरह किसान समुदाय और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष के सार को समझने के लिए भेजा है। नवप्रीत कहती हैं- ‘जब आप किसी व्यक्ति के बीच में रहते हैं, तो आप उसके लिए खड़े होते हैं। वे जो अवतार लेते हैं, उसके लिए खड़े होते हैं और यह मेरे लिए बहुत प्रेरणादायक है। मुझे यह पसन्द है। मेरी माँ ने मुझे कानूनों के बारे में पढऩे के लिए कहा और अगर मुझे लगा कि वे न्यायपूर्ण नहीं हैं, तो उनके खिलाफ आन्दोलन में शामिल होने के लिए जाएँ। ऐ हक दी लड़ाई है।’ कहते हुए वह मुस्कुराती हैं और वहाँ मौज़ूद बड़ी उम्र की महिलाओं के लिए भोजन लाने के लिए उठ जाती हैं।

जस्सी सांघा : मोगा की 25 वर्षीय कार्यकर्ता जस्सी कहती हैं- ‘यहाँ कोई विशेष पुरुष बस्तियाँ नहीं हैं, और फिर कोई विशेष महिला भूमिका भी नहीं है। पारम्परिक लिंग भूमिकाएँ पाश्र्व में चली गयी हैं और हवा में बदलाव है। मैं विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा हूँ और मैं अपनी टीम के साथ यहाँ समानांतर पहल करने की कोशिश कर रही हूँ। हम किसी विशेष संगठन या राजनीतिक दल से नहीं हैं। इस टीम का गठन एक विचारधारा के व्यक्तियों की तरह किया गया है, जो यहाँ मिले थे; आन्दोलन स्थल पर और एक साथ काम करना शुरू कर दिया।’ जस्सी बताती हैं कि इस सहायता समूह में हरियाणा और अन्य राज्यों के स्वयंसेवक शामिल हैं, जो किसान अधिकारों के लिए एकजुट होकर काम करना चाहते हैं।

जस्सी बताती हैं कि हमने यहाँ एक पुस्तकालय स्थापित किया है, ताकि प्रदर्शनकारी विभिन्न महत्त्वपूर्ण मुद्दों के बारे में अपने ज्ञान में वृद्धि कर सकें और इसे व्यापक बना सकें। हम ‘ट्रॉली टाइम्स’ नामक अपना स्वयं का अखबार प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि इस आन्दोलन की सच्चाई लोगों तक पहुँचे। हमने चर्चा और विचार के लिए ‘साँझी छत’ के नाम से विनिमय कक्ष बनाया है। इसके अलावा हमने एक स्कूल ‘फुलबाड़ी’ की स्थापना की है, जो विशेषाधिकार प्राप्त बच्चों को स्थानीय शिक्षा प्रदान करता है। हमने बहुत-से स्थानीय बच्चों को कूड़ा उठाते हुए या इलाके के चारों ओर बोतलें इकट्ठी करते हुए देखा है। उन्हें मदद करने के लिए स्कूलों की आवश्यकता है। खेती से जुड़ी फिल्मों की स्क्रीनिंग भी शुरू कर रहे हैं, ताकि हमारे युवाओं को खेती के काम और उससे जुड़े मुद्दों की गहराई से जानकारी और समझ हो सके। कहते हुए जल्दी से जस्सी बात खत्म करती हैं; क्योंकि उन्हें आन्दोलन में कहीं और कार्य आ गया था।

कनुप्रिया : पंजाब विश्वविद्यालय छात्र परिषद् की पूर्व अध्यक्ष 24 वर्षीय कनुप्रिया विश्वविद्यालय छात्रा के रूप में पंजाब में आन्दोलन शुरू होने से लेकर ही जानी जाती हैं। कनुप्रिया कहती हैं- ‘अब हमारे साथ यहाँ अन्य राज्यों के किसान और विभिन्न व्यवसायों से जुड़े लोग भी जुड़ गये हैं। यह हमारे अन्न और अंतत: हमारी ज़िन्दगी के बारे में है। हम चाहते हैं कि केवल किसान ही नहीं, बल्कि इन कृषि कानूनों को सभी लोग एक हितधारक के रूप में जानें और समझें।’

उग्र और मुखर कनु इस बात से खुश हैं कि महिलाएँ इस आन्दोलन में अपना सही स्थान फिर से हासिल कर रही हैं। वह कहती हैं- ‘हम सभी चाहते हैं कि ये जन-विरोधी कानून वापस लिये जाएँ। महिलाएँ सकारात्मक बदलाव की लहर बनने जा रही हैं, हम चाहते हैं कि यह पूरे देश में हो। बस चारों ओर देखो, इस ग्रामीण पुरुष प्रधान आन्दोलन में हमें स्वीकार किया गया और मुख्य आन्दोलनकारियों के रूप में पहचाना गया। यहाँ के नौजवानों को इसमें कोई हिचकिचाहट नहीं है कि महिला टीम की नेता उनका मार्गदर्शन कर रही हैं और वे उनके निर्देशों को पूरी तरह पालन कर रहे हैं।’

हरिंदर बिंदु : फरीदकोट की यह 43 वर्षीय ग्रामीण महिला, थोड़ा शर्माते हुए मुस्कुराकर हमें बताती हैं कि वह ज़्यादा शिक्षित नहीं हैं; सिर्फ 10वीं कक्षा उत्तीर्ण की हैं। फिर कहती हैं- ‘लेकिन मैंने खुद को किसानों, खेती, अपने समुदाय और उन सभी समस्याओं के बारे में पूरी तरह से शिक्षित किया है, जो छोटे किसान झेलते हैं।’ बिंदु जब बोलती हैं, तो उनका एक निर्भीक और अनोखी महिला का चरित्र सामने आता है। सही मायने में कार्यकर्ता बिंदु ने किसानों की लड़ाई लड़कर अपना जीवन किसान समुदाय को समर्पित कर दिया है और उनके उद्देश्य के लिए नेतृत्व का ज़िम्मा सँभाल रही हैं।

बिंदु कहती हैं- ‘हाँ, मैं बीकेयू एकता संघ की महिला शाखा की कमान सँभाल रही हूँ; लेकिन संघर्ष हमेशा मेरे लिए जीवन का एक तरीका रहा है। जब 13 साल की उम्र में मेरे पिता को आतंकवादियों ने गोली मार दी थी, मैंने किसानों और महिलाओं के लिए काम करने की कसम खायी थी। मैं फासीवाद, मानव अधिकार उल्लंघन, किसी भी प्रकार के उत्पीडऩ और शोषण के खिलाफ हूँ। मेरे दिल के करीब का यह मिशन महिलाओं को प्रेरित करने और उनके जीवन को सशक्त बनाने के लिए है, जो दूरदराज़ के पिछड़े क्षेत्रों में अपने दु:खों को दूर करने के लिए संघर्षरत हैं और जहाँ कुशासन का राज है।’

वह कहती हैं- ‘कृषि कानूनों के खिलाफ इस आन्दोलन को मज़बूत किया जाना चाहिए और अधिक-से-अधिक महिलाओं को इसमें शामिल होना चाहिए। मैं उस जागरूकता को बढ़ाने की दिशा में काम कर रही हूँ। हमारा क्या अधिकार है? और हम बच्चों और आने वाली पीढिय़ों के लिए इसे कैसे सुरक्षित रख सकते हैं? मैं सभाओं को सम्बोधित करती हूँ और गहराई से लोगों के साथ हमारे मुद्दों पर चर्चा करती हूँ।’ एक खामोश-सी मुस्कान और दृढ़ निश्चय वाली यह महिला कहती है- ‘यह एक लम्बा संघर्ष होने जा रहा है; लेकिन हम आगे बढऩे के लिए दृढ़ हैं और एक दिन हम ज़रूर जीतेंगे।’

सिमरनजीत कौर : अमृतसर की यह युवा वकील और कार्यकर्ता उन लोगों के लिए आशा की एक और किरण है, जो उन्हें प्रेरित करती है। कौर कहती हैं- ‘कोई भी विरोध तब तक पूर्ण नहीं है, जब तक उसमें महिलाओं की भागीदारी न हो। हम आधी आबादी हैं और हम उसके अनुसार अपनी भूमिकाओं का दावा करेंगी। मैं शुरू से इस आन्दोलन के साथ रही हूँ; विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं को कृषि कानूनों और उनके प्रभाव के बारे में शिक्षित करने की कोशिश कर रही हूँ।’ विश्वास से भरी वकील कहती हैं- ‘मैं घर-घर जाकर लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रही हूँ कि ये कानून क्या हैं? और हम वकील, कैसे उन्हें असंवैधानिक मानते हैं? पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की बार काउंसिल भी हमारा पूरा समर्थन कर रही है। मैं एक किसान की बेटी हूँ और खेती ने ही मेरे लिए वकील बनना सम्भव बनाया। मैं किसी को भी अपनी आने वाली पीढिय़ों का हक छीनने नहीं दे सकती। इसके लिए मैं विभिन्न मुद्दों के बारे में बड़े पैमाने पर जागरूकता बढ़ाने की दिशा में काम कर रही हूँ। यह एक मिथक है कि ये कानून शहरी निवासियों को प्रभावित नहीं करेंगे। मैं बताना चाहती हूँ कि ये तीनों कानून सभी के लिए मुसीबत खड़ी करेंगे, महँगाई में वृद्धि करेंगे।’

सिंघू में वह और उनकी महिला वकीलों की टीम बच्चों और महिला प्रदर्शनकारियों के लिए आवास और स्वच्छता की व्यवस्था कर रही हैं। सैनिटरी नैपकिन वितरित करना, उन महिलाओं के स्वच्छता सम्बन्धी मुद्दों से निपटना, जो वहाँ अमानवीय परिस्थितियों में डेरा डाले बैठी हैं, उनके कार्यों में से एक है। टॉयलेट स्पेस को बनाये रखना उनके कई कार्यों में से एक बड़ा कार्य है।

मूस जट्टाना : यह चुलबुली और क्रियाशील 19 वर्षीय इंस्टाग्राम सेलिब्रिटी और प्रभावशाली लड़की पिछले दो सप्ताह से यहाँ है। मूल रूप से मोहाली की रहने वाली मूस (असली नाम मुस्कान) पिछले छ: साल से ऑस्ट्रेलिया में रहती हैं और विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए विशेष रूप से यहाँ आयी है। गहरी मुस्कान के साथ मूस कहती हैं- ‘मैंने वापसी टिकट नहीं खरीदा है, मैं तब तक इस आन्दोलन का समर्थन करने वाली हूँ; जब तक यह जारी है। यह लोगों का आन्दोलन है और मैं यहाँ समर्थन देने और जो भी सम्भव हो, करने के लिए यहाँ हूँ।’

वह कहती हैं- ‘मुझे लगता है कि यह केवल एक किसान आन्दोलन नहीं है, यह एक मानव अधिकार आन्दोलन है। और अगर युवा इसके लिए अपना समर्थन नहीं देते हैं, तो हमारे भविष्य से समझौता करने वाली बात होगी। मुझे आपको यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि बहुत-से लोग इस विरोध में शामिल हुए हैं; क्योंकि उन्होंने मेरी पोस्ट देखीं और महसूस किया कि वह (मूस) यहाँ इसीलिए आयी है, लिहाज़ा हमें भी कुछ करना है। यह ज़िम्मेदारी कई बार भारी पड़ती है और लोग मेरे बारे में बहुत सुरक्षात्मक भाव महसूस करते हैं, लेकिन यह सब लोग अपने प्यार के साथ आते हैं और मैं उस पहलू को भी समझती हूँ। मैं विशेष रूप से भारत में महिलाओं को सशक्त बनाने में मदद करना चाहती हूँ।’

समस्या की शुरुआत

वर्तमान संघर्ष की उत्पत्ति तीन कृषि कानून हैं, जिन्हें अध्यादेश के रूप में पेश किया गया था और फिर राज्यसभा में पर्याप्त चर्चा और यहाँ तक कि साफ मतदान प्रक्रिया के बिना पास कर दिया गया। सरकार ने स्पष्ट रूप से कोविड-19 जैसे संकटकाल और लोगों के महामारी के खौफ के बीच इसका निर्णय किया, ताकि किसी तरह के विरोध प्रदर्शनों की गुंजाइश ही न रहे। उसने उन किसान संगठनों के साथ कोई विचार-विमर्श नहीं किया, जो अध्यादेशों के प्रति आशंकित थे और जिन्होंने जून में ही इसका विरोध शुरू कर दिया था। चूँकि विरोध-प्रदर्शन केवल पंजाब में शुरू हुए थे और कि किसान संगठनों द्वारा केवल तीन मुख्यधारा के राजनीतिक दलों- कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी (आप) ने ज़ुबानी सहानुभूति जतायी थी। कांग्रेस और आप के मामले- अध्यादेशों को गलत ठहराना, जैसा कि शिअद द्वारा किया गया था; को केंद्र सरकार ने गम्भीरता से नहीं लिया।

अगले चरण में आन्दोलन

पंजाब में आन्दोलन 26 सितंबर से अपने अगले चरण में तभी प्रवेश कर गया था, जब किसान संगठनों ने पटरियों पर बैठकर ‘रेल रोको’ आन्दोलन शुरू किया था। किसानों को तुरन्त सुनने के बजाय केंद्र ने उन्हें फिर से थकाने की कोशिश की। हालाँकि जब रेल रोको आन्दोलन अक्टूबर के मध्य में पहुँचा, तब सरकार ने उन्हें नये कानूनों के लाभ समझाने के लिए बुला लिया। बाद में एक चाल के तहत केंद्र ने आक्रामक रवैये में मालगाडिय़ों को फिर से शुरू करने में देरी की, जबकि रेल रोको आन्दोलन दिल्ली कूच के साथ ही थम गया था। यह स्पष्ट रूप से व्यापारियों और उद्योगपतियों के साथ-साथ शहरी आबादी की दृष्टि में किसानों को खलनायक बनाने के उद्देश्य से किया गया।

दिल्ली मार्च

केंद्र सरकार ने 26 नवंबर को ‘दिल्ली मार्च’ के आह्वान को बहुत हल्के में लिया। सरकार स्पष्ट रूप से आश्वस्त थी कि उसके पास हरियाणा का सुरक्षित क्षेत्र है, और खट्टर सरकार मार्च को आगे नहीं बढऩे देगी। इसके लिए खट्टर ने हाईवे पर अत्यंत गहरे गड्ढे करा दिये, मानो दुश्मन देश ने चढ़ाई कर दी हो। खट्टर का यह बहुत गलत कदम था। इससे पहले हरियाणा में प्रवेश करने से पहले ही पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी की ट्रैक्टर रैली को रोक दिया गया था। हरियाणा के साथ-साथ केंद्र ने भी लम्बे समय से मार्च की तैयारी कर रहे किसानों को धैर्य के साथ प्रतिक्रिया नहीं दी और उन्हें बलपूर्वक खदेडऩे का हर सम्भव प्रयास किया। किसानों ने ट्रैक्टर-ट्राली और पानी बरसाती तोपों में मार्च शुरू किया और तमाम बाधाओं को दूर किया और यहाँ तक कि सिंघू और टिकरी में दिल्ली की सीमाओं तक पहुँचने के लिए सड़कों पर बने विशाल गड्ढों को पार किया। इस सफलता ने आन्दोलन को गति दी और हज़ारों किसानों ने सीमाओं पर पहुँचना शुरू कर दिया और अब भी क्रम के आधार पर आ रहे हैं। अब तक लगभग 40 हज़ार किसान सिंघू और टिकरी में खड़े हैं। जबकि 32 संगठनों के 32 प्रतिनिधियों को सिंघू में रखा गया है। टीकरी की सीमा पंजाब के सबसे बड़े किसान संगठन भारतीय किसान संघ (उग्राहन) द्वारा संचालित की जा रही है।

केंद्र की लीपापोती

बिना किसी नतीजे के आन्दोलनकारी किसानों के साथ पाँच दौर की वार्ता हो चुकी है। पहले की दो वार्ताएँ पूरी तरह खोखली थीं। इसके बाद 14 अक्टूबर को केंद्रीय कृषि सचिव द्वारा कृषि संगठनों के प्रतिनिधियों को बुलाकर उन्हें नये कानूनों के फायदे बताये गये। वे बस वॉकआउट कर गये। फिर 13 नवंबर को दूसरी बैठक में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर, पीयूष गोयल और सोम प्रकाश ने किसानों को आश्वासन दिया कि उनके प्रतिनिधियों सहित एक उच्च स्तरीय समिति बनायी जाएगी और उन्हें अपने आन्दोलन को स्थगित करने के लिए कहा गया। इस पर सहमति नहीं बनी। किसानों के लिए एकमात्र वास्तविक ठोस पहल पहली दिसंबर को की गयी, जब केंद्र सरकार अपने कानूनों में कुछ संशोधन करने के लिए सहमत हो गया। यद्यपि यह प्रस्ताव कागज़ पर अच्छा था और उचित प्रतीत होता था; लेकिन दो कारण थे, जिनके चलते इसे स्वीकार नहीं किया गया। एक कारण यह था कि मुख्य किसान संगठन बीकेयू (उग्राहन) को वार्ता के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था। दूसरे सिंघू सीमा पर ज़मीन पर चीज़ें बदल गयी थीं, जहाँ 32 किसान संगठन आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। यह निर्णय उन युवाओं के हाथ में था, जिन्होंने अपने नेताओं को अधिनियमों को निरस्त करने के अलावा कुछ भी स्वीकार करने के लिए मना किया था। इसके परिणामस्वरूप किसान संगठनों की चर्चित ‘हाँ या नहीं’ प्रतिक्रिया हुई। हालाँकि गृह मंत्री अमित शाह द्वारा गतिरोध को तोडऩे के लिए 8 दिसंबर को एक और प्रयास किया गया; लेकिन किसान संगठन अपने रुख पर अड़े रहे। फिर 20 दिसंबर को किसानों को बातचीत का एक और न्यौता दिया गया; लेकिन तब तक तनाव काफी बढ़ गया और कोई बातचीत नहीं हुई।

आगे का रास्ता

पानी अब ज़्यादा और दलदल वाला हो गया है। मुख्य रूप से केंद्र सरकार द्वारा, जो इस मुद्दे के हल करने के लिए समय पर नहीं जागी; यदि आन्दोलन को शुरुआती चरण में किसान संगठनों के साथ गम्भीर बातचीत करके हल किया होता, तो शायद कृषि कानूनों में संशोधन स्वीकार्य हो सकते थे। हालाँकि आन्दोलन के लोकप्रिय होने के साथ ही किसान संगठनों ने भी एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया है। ऐसे में विरोध-प्रदर्शन के लम्बे समय तक जारी रहने की सम्भावना है; जब तक कि केंद्र को यह महसूस नहीं हो जाता कि इसने राष्ट्रीय समर्थन हासिल कर लिया है और वह अपनी हार नहीं मान लेती।

विरोध की राजनीति

यह पंजाब और हरियाणा के इतिहास में पहली बार है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दल विरोध-प्रदर्शन का नेतृत्व नहीं कर रहे हैं। कमान सीधे किसानों और किसान संगठनों के हाथ में है, और यह स्पष्ट रूप से राजनीतिक दलों के लिए बहुत निराशाजनक है कि इसमें कांग्रेस, शिअद या आप नहीं हैं। कांग्रेस के सांसदों, जिनमें गुरजीत औजला और रवनीत बिट्टू शामिल हैं; सहित कांग्रेस सदस्यों ने आन्दोलन में जुडऩे की कोशिश की, लेकिन तुरन्त पीछे हटना पड़ा। वे अब जंतर-मंतर पर डेरा डाले हुए हैं और पूरी तरह से लोकप्रिय माहौल से दूर हैं। शिअद को तो एक ही बात में घेरा जाता है कि उसकी केंद्रीय मंत्री हरसिमरत बादल ने तो कृषि कानूनों के समर्थन में इंटरव्यू तक दिये थे। अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने भी तीन महीने तक कानूनों का बचाव किया और उनका रुख तभी पलटा, जब उन्होंने देखा कि माहौल कृषि कानूनों के खिलाफ है। अब अकाली दल दिल्ली में विरोध-प्रदर्शन में घुसने की पूरी कोशिश कर रहा है; लेकिन किसान उनके खिलाफ गोलबन्द हैं। पंजाब की आम आदमी पार्टी की इकाई ने विरोध-प्रदर्शन के पक्ष में बहुत अधिक आवाज़ उठायी; लेकिन इसके संयोजक भगवंत मान को भी जल्दबाज़ी में पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। हरियाणा में कांग्रेस पार्टी के साथ यही स्थिति है और वह आन्दोलन को ज़ुबानी समर्थन दे रही है।

भाजपा की बात करें, तो उसके नेता पंजाब और हरियाणा में किसानों के गुस्से का सामना कर रहे हैं और वे गाँवों में प्रवेश करने तक में असमर्थ हैं। विशेष रूप से पंजाब में, पार्टी एक अवसर ढूँढ रही है। भाजपा को लगता है कि किसान आन्दोलन मुख्य रूप से जाटों, सिखों का एक आन्दोलन है और यह आंशिक रूप से सही भी है। जाट राज्य की आबादी का लगभग 22 फीसदी हिस्सा हैं, और शिअद और कांग्रेस के बीच विभाजित हैं। ये अन्य मतदाताओं के एक बड़े हिस्से से अलग हैं, जिन्हें विशेष रूप से हिन्दू और शहरी समुदाय की 40 फीसदी आबादी और 32 फीसदी अनुसूचित जातियाँ शामिल हैं। पंजाब भाजपा बादल परिवार और साथ ही कांग्रेस पार्टी पर चौटाला जैसा प्रयोग करना चाहती है, जो जाट-सिख समुदाय का नेतृत्व कर रही है और आक्रामक रूप से हिन्दू और दलित आबादी को साध रही है। कांग्रेस पार्टी उम्मीद कर रही है कि आन्दोलन के प्रति मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का नरम रुख उसे मज़बूत स्थिति में रखेगा।

महिलाओं में पाँच समानताएँ

◆ महिलाओं के लिए रोल मॉडल बनकर ग्रामीण और शहरी परिदृश्य में बदलाव की अग्रदूत होने का मज़बूत अर्थ- प्राकृतिक नेत्री।

◆ बड़े पैमाने पर विवादास्पद कृषि कानूनों का अध्ययन करना। महिलाएँ एक निष्कर्ष पर पहुँचती हैं और मुद्दों पर व्यापक चर्चा कर सकती हैं।

◆ सेवा करने की प्रबल इच्छा- मानवता की सेवा। विभिन्न भूमिकाओं के लिए उन्होंने स्वेच्छा से काम किया है और निर्णायक रूप से उनका कार्यभार सँभाला है।

◆ वे सभी व्यक्तिगत हैसियत से यहाँ हैं और किसी समूह विशेष या राजनीतिक दल का हिस्सा नहीं हैं। लेकिन एक समान विचारों के लोगों, जो उन्हें इस आन्दोलन के दौरान ही मिले हैं; के साथ एक टीम की तरह काम कर रही हैं।

◆ वे यहाँ रहने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं। वे तब तक काम करेंगी, जब तक कि यह विरोध अपनी परिणति तक नहीं पहुँच जाता।

ज़मीनी परिवर्तन

अगर किसी को इस किसान आन्दोलन के सबसे प्रेरित सामाजिक पहलू को इंगित करना चाहिए, तो वह लिंग भूमिकाओं और रूढिय़ों में निश्चित और निर्णायक सुधारात्मक परिवर्तन को समझे। महिलाओं ने असंख्य नेतृत्व किये हैं, रणनीतिक भूमिकाएँ निभायी हैं। किसान भी उनकी इस भूमिका के उलट होने को सहर्ष स्वीकार कर रहे हैं। सहायक से लेकर प्रमुख भूमिकाओं तक, क्रान्तिकारी महिलाओं ने एक लम्बा सफर तय किया है।

एक दिन स्वयंसेवक के साथ

सिंघू बॉर्डर पर विरोध-प्रदर्शन स्थल 10 किलोमीटर लम्बा है। प्रभजोत के लिए अगले हफ्तों में हर रोज़ 20 किलोमीटर या उससे अधिक पैदल चलना, उनकी दिनचर्या बन गयी है। इसकी शुरुआत उनके दिल्ली स्थित अपने घर से सुबह 8:00 बजे होती है। रात में लोगों को शरण देने के लिए विरोध स्थल पर तम्बुओं (टेंटों) की एक बस्ती बन गयी है और प्रभजोत इसका विस्तार करने और प्रबन्धन करने वाली टीम का हिस्सा हैं। वह कहती हैं- ‘इन तम्बुओं को आवंटित करने का प्राथमिकता क्रम पहले महिलाओं, फिर वरिष्ठ नागरिकों और फिर अन्य सभी के लिए है। यह मुख्य रूप से परिवारों और महिला प्रदर्शनकारियों और छोटे बच्चों वाले परिवारों की गोपनीयता, सुरक्षा और गरिमा से जीने में मदद करने के लिए स्थापित किया गया है। हर दिन आने के बाद वह जाँचती हैं कि कितने तम्बू खाली हैं? कितनी आवश्यकता है? और कितने उनके पास बचे हैं? वहाँ रहने वालों की क्या ज़रूरत है? कितनी वस्तुएँ दान में आयी हैं? उनकी एक सूची बनाती हैं। लंगर और अन्य आवश्यक वस्तुओं को वितरित करना, तम्बू को दिन में दो बार साफ करना और टीकरी में अपने समकक्षों से सम्पर्क रखना और उन्हें सिंघू की जानकारी भेजना भी उनकी ज़िम्मेदारियों का हिस्सा है। इसके लिए वह सिंघू के अलग-अलग केंद्रों पर घूमती हैं और सामान को दूसरी जगह भेजने के लिए इकट्ठा करती हैं। वह कहती है कि कुछ भी बर्बाद नहीं होने दिया जाता। अपने स्टॉक पर नज़र रखने के अलावा उनका ज़िम्मा चोर-उचक्कों के प्रति भी सतर्कता बनाये रखना भी है। यही नहीं, इस तम्बू शहर में उनकी टीम शान्ति और सुकून भी बनाये रखती है। उनके कर्तव्यों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है कि वहाँ के शौचालयों में महिलाओं के लिए उचित स्वच्छता सुविधाओं को बनाये रखा जाए। सैनिटरी नैपकिन का वितरण और शौचालयों की नियमित रूप से सफाई करना उसका काम भी है। इसमें यह सुनिश्चित करना भी शामिल है कि कोई वाहन तम्बू वाले क्षेत्र के प्रवेश द्वार के सामने खड़ा न हो। अपने खुद के भोजन की परवाह किये बगैर हफ्तों तक इस तरह का अथक परिश्रम क्यों करती हैं? पूछने पर प्रभजोत कहती हैं- ‘सेवा! मानवता की सेवा। यह मेरे विश्वास का सिद्धांत है। हमें अपने गुरुओं और बड़ों के द्वारा निर्देश दिया गया है कि हम किसी ज़रूरतमंद की मदद करें, चाहे वह शत्रु ही क्यों न हो। और मैं एक उचित कारण का समर्थन कर रही हूँ।’ उन्होंने कहा कि ये कानून किसान विरोधी, मानवता विरोधी हैं; इसलिए मैं इस विरोध में अपना योगदान दूँगी। और फिर हम दिल्ली के पंजाबी ही यहाँ नहीं हैं, बल्कि हरियाणा, हिमाचल और उत्तर प्रदेश के युवा तक यहाँ हैं।’ एक मुस्कान के साथ प्रभजोत कहती हैं- ‘यह सभी राज्यों के भाइयों के लिए ऐसा कर रहे हैं। ऐथे (यहाँ) एक्ता वाला महौल है।’ यह पूछे जाने पर कि वह ऐसा कब तक करती रहेंगी? वह आत्मविश्वास के साथ जवाब देती हैं- ‘मोर्चा फतेह करके (लड़ाई जीतकर) ही हटेंगे।’

इक चिंगारी, जेड़ी बन गयी नेहरी

घटनाक्रम : इक चिंगारी, जेड़ी बन गयी नेहरी (एक चिंगारी, जो बवंडर बन गयी है)। यह कहावत दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आन्दोलन को स्पष्ट रूप से दर्शाती है। इस बवंडर ने एक जनान्दोलन का रूप ले लिया है, जिसका प्रभाव पंजाब और हरियाणा से लेकर पड़ोसी राज्यों और यहाँ तक कि पूरे देश में दिखने लगा है, जो अन्नदाता की आत्मा को छू रहा है। यहाँ तक कि जब आन्दोलन का यह स्वरूप दिल्ली की सीमाओं पर दिख रहा है, एक बड़ा अहसास उभर रहा है कि किसानों को कृषि के वर्तमान स्वरूप को बचाये रखने के लिए देश भर में एकजुट होना होगा। किसान समझते हैं कि एनडीए सरकार कृषि ढाँचे को पूरी तरह से बदलना चाहती है। तीन कृषि कानून, जो निजी मंडियों की स्थापना करने और राज्य द्वारा व्यापारियों पर कर (टैक्स) हटाने के अलावा अनुबन्ध कृषि की सुविधा और कृषि उपज की जमाखोरी की अनुमति देने की बात करते हैं; सभी उद्योगों को लाभ पहुँचाने के लिए हैं। यही कारण है कि कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर सहित भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने दोहराया है कि ‘एमएसपी है, और रहेगी’, पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।

किसानों द्वारा अपनी उपज को कहीं भी बेचने की अनुमति देने के लिए नये कानून लाने की भव्य व्याख्या एमएसपी की तुलना में कहीं अधिक कीमतों पर किसानों को उपहास के साथ मिल रही है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान यह समझते हैं कि सुनिश्चित सरकारी खरीद से जुड़ा एमएसपी एकमात्र तत्त्व है, जो कृषि को प्रभावित करता है। वे (किसान) पहले से ही जानते हैं कि बिहार में इस तत्त्व को हटाने और इसके बाद कृषि उत्पादन विपणन समितियों (एपीएमसी) के विनाश ने राज्य के किसानों को प्रवासी मज़दूरों में बदल दिया। इसलिए वे कृषि प्रणाली को बचाने के लिए लड़ रहे हैं।

एनडीए सरकार इस प्रणाली को जारी रखने की अनुमति देने के लिए कोई लिखित करार करने के लिए तैयार नहीं है। तीन कृषि विपणन कानूनों का सार कृषि क्षेत्र में निजी निवेश के प्रवेश की सुविधा है। किसानों का कहना है कि इससे कृषि बुनियादी ढाँचे की गिरावट होगी। वे इस बात का उदाहरण देते हैं कि कैसे सरकारी स्वास्थ्य और शिक्षा के बुनियादी ढाँचे को निजी खिलाडिय़ों को प्रोत्साहित करने के लिए खत्म होने दिया जा रहा है।

ऐसे में किसानों की लड़ाई एनडीए सरकार और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अंबानी और अडानी के खिलाफ लड़ाई बन गयी है। यहाँ तक कि केंद्र भी बैठकों की एक शृंखला के माध्यम से प्रदर्शनकारियों को आन्दोलन खत्म करने की कोशिश कर रहा है। किसान संगठन अपने आन्दोलन को देशव्यापी बनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। युद्ध की रेखाएँ खिंची हुई हैं। वार्ता के बहाने और किसानों को बार-बार आमंत्रित करके सरकार केवल समय व्यतीत कर रही है। अब तक किसानों को आतंकवादी और नक्सलियों के रूप में चित्रित करने का प्रयास विफल रहा है। अब सरकार उन्हें उन समूहों के रूप में चित्रित करने की कोशिश कर रही है, जो बात नहीं करना चाहते हैं और केवल अराजकता फैलाना चाहते हैं। भाजपा की दुष्प्रचार मशीनरी इस पर पूरी तरह से काम कर रही है। दूसरी ओर किसान संगठनों को पंजाब और हरियाणा के किसानों का लोकप्रिय समर्थन प्राप्त है। उन्होंने अपना खूँटा गाड़ दिया है और घोषणा की है कि वे तीन कृषि कानूनों को पूरी तरह से निरस्त करने से कम पर कोई समझौता नहीं करेंगे।

कांग्रेस का किसान मार्च

संसद में कृषि कानून जल्दबाज़ी में और विपक्ष को किनारे करके पास करवाने का लगातार आरोप लगा रही कांग्रेस ने किसानों के हक में 24 दिसंबर को दिल्ली में अपने नेताओं राहुल गाँधी, प्रियंका गाँधी और अन्य के नेतृत्व में सड़कों पर आवाज़ बुलंद की। कांग्रेस किसानों के पक्ष में दो करोड़ हस्ताक्षरों वाले बंडल को लेकर विजय चौक से राष्ट्रपति भवन तक मार्च निकालने जा रही थी, लेकिन केंद्र सरकार ने धारा-144 लगाकर कांग्रेस दफ्तर से बाहर निकलते ही उन्हें रोक लिया। बाद में प्रियंका गाँधी को अन्य कांग्रेस नेताओं के साथ हिरासत में ले लिया गया, जबकि राहुल गाँधी ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से भेंट करके किसानों के आन्दोलन और उनकी माँगों के हक में दो करोड़ हस्ताक्षरों वाला ज्ञापन उन्हें सौंपा। राहुल गाँधी ने इस मौके पर कहा- ‘करोड़ों लोग हैं, जो कृषि से जुड़े हुए हैं और यही लोग देश की रीढ़ हैं। हम मानते हैं कि कृषि क्षेत्र में सुधार होना चाहिए, लेकिन अगर कृषि को तबाह कर दिया जाएगा, तो करोड़ों लोगों को बहुत पीड़ा का सामना करना पड़ेगा। इन कृषि कानूनों से किसानों को जबरदस्त नुकसान होगा। इन्हें बस चार-पाँच उद्योगपतियों को फायदा पहुँचाने के लिए बनाया गया है। ये कानून किसान विरोधी हैं और इससे मज़दूरों और किसानों का बहुत नुकसान होने जा रहा है। देश का किसान इन कानूनों के खिलाफ खड़ा है। प्रधानमंत्री को यह नहीं सोचना चाहिए कि ये मज़दूर और किसान वापस चले जाएँगे। जब तक ये कानून वापस नहीं लिए जाते, तब तक ये किसान पीछे नहीं हटेंगे। आप संयुक्त सत्र बुलाइए और कानूनों को वापस लीजिए।’

किसान आन्दोलन न उगलते बने, न निगलते

तीन नये कृषि कानून किसान के लिए हितकारी हैं या अहितकारी? इस पर राष्ट्रव्यापी बहस का कोई निष्कर्ष नहीं निकल रहा। प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, भाजपा सांसद, भाजपा शासित राज्य सरकारें इन्हें लम्बी अवधि के लिए किसानों की तकदीर बदलने वाले कानून बता रहे हैं। वहीं विपक्षी दलों की सरकारें और खुद किसान इन्हें काला कानून बता रहे हैं। अर्थशास्त्री भी इन कानूनों पर अलग-अलग राय रखते हैं। कुछ इसे दीर्घकालीन के लिए बहुत अच्छा बताते हैं, तो कुछ इसे रद्द करने के पक्षधर हैं। किसान इन कानूनों पर बहस नहीं चाहते। वे सीधे अन्तिम नतीजे, यानी इन्हें वापस लेने की माँग पर अडिग हैं।

कृषि राज्यों का विषय है; लेकिन केंद्र को इस पर कानून बनाने का अधिकार है। कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य से लेकर भविष्य की नीतियाँ और कानून बनाने का हक उसे हासिल है। केंद्र ने करीब 23 कृषि उत्पादों पर समर्थन मूल्य तय कर रखे हैं; लेकिन विडंबना यह कि गेहूँ और धान (चावल) पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और अपवाद स्वरूप कुछ राज्यों को छोड़कर कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं बिकता।

राजस्थान में इस बार बाजरा की ज़ोरदार फसल हुई है। देश का 41 फीसदी बाजरा इसी राज्य में होता है। इसका समर्थन मूल्य 2150 रुपये है; लेकिन राज्य की किसी भी मंडी में यह इस भाव पर राज्य सरकार नहीं खरीद कर रही। कारोबारी इसे 1300 से 1400 रुपये प्रति कुंतल खरीद रहे हैं। ज़ाहिर है जब सरकार खाद्यान्न की खरीद नहीं करेगी, तो किसान को आधे-अधूरे दाम पर भी बेचना पड़ेगा। कानून तो समर्थन मूल्य से नीचे खरीद पर सज़ा का है; लेकिन सज़ा होती किसी को नहीं है।

राज्य सरकारें केंद्र पर और केंद्र राज्य सरकारों पर ज़िम्मेदारी डाल देती हैं और पिस रहा है अन्नदाता। नये कृषि कानूनों में स्पष्ट है कि किसान देश के किसी भी हिस्से में अनाज बेच सकता है। यह कानून उसे यह अधिकार देता है; लेकिन खरीदने कौन देता है? हरियाणा, मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकारें हैं और केंद्र में भी उसी की सरकार है। लेकिन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बाहरी राज्यों के उत्पाद को किसी भी हालत में न बिकने देने की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं। ऐसा वह समर्थन मूल्य से कम खरीद करके राज्य में समर्थन मूल्य पर बेचने वालों के लिए कहते हैं, तब तो ठीक; और अगर किसानों को रोकते हैं, तो फिर कानून में अधिकार कैसा?

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल तो अपने राज्य के अलावा किसी अन्य राज्य के बाजरे की खरीद न होने देने की बात कहते हैं। पड़ोसी राज्य राजस्थान में बाजरा 1300 से 1400 में बिक रहा है, वहाँ का किसान हरियाणा में बाजरा के समर्थन मूल्य पर उसे नहीं बेच सकता। लगभग सभी फसलों में यही हो रहा है। पंजाब और हरियाणा में धान और गेहूँ समर्थन मूल्य पर बिकता है। नये कृषि कानूनों के तहत क्या भविष्य में यही व्यवस्था रहेगी? दोनों राज्यों के किसान इसी से चिन्तित हैं। अब तक सबसे बड़ा मुद्दा यही रहा है; लेकिन अब तो किसान तीनों कानूनों को वापस लेने की माँग पर अड़ गये हैं। जब तक उनका वश चलेगा, वे इस माँग से पीछे नहीं हटने वाले।

कृषि कानूनों से अलग किसान को अपने उत्पाद का समर्थन मूल्य हर हालत में मिलना चाहिए, जो मिल नहीं रहा है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारें समर्थन मूल्य वाले सभी 23 उत्पादों की पूरी तरह से खरीद नहीं कर सकतीं। केंद्र सरकार 25 से 30 फीसदी से ज़्यादा खरीद की इच्छुक नहीं दिख रही। बल्कि वह इस खरीद से भी पल्ला झाडऩा चाहती है। यह काम बड़े कॉर्पोरेट घरानों को सौंपना चाहती है। असमंजस यह है कि सरकार एक तरफ मंडी सिस्टम को मज़बूत करने की बात कह रही है, वहीं दूसरी तरफ फसल को खेत से खरीद की बात भी कहती है। फिर मंडी सिस्टम कितने राज्यों में ठीक से चल रहा है? कुछ राज्यों को छोड़ दें, तो वर्षों से कारोबारी मनमाने भाव पर खरीद कर रहे हैं। किसान की अपनी मजबूरी है। पर केंद्र की क्या मजबूरी है? जो वह किसान की ऐसी हालत होने दे रहा है।

कृषि कानूनों पर किसान आन्दोलन को राज्यों के मुख्यमंत्री अलग-अलग तरीके से आँक रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह इन्हें काला कानून बता रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल भी यही उपमा दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कृषि कानूनों को किसानों के लिए बेहद हितकारी बता रहे हैं, वहीं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इसे किसानों का बेड़ा गर्क करने वाला बताते हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर इसे क्रान्तिकारी बता रहे हैं, तो राजस्थान के मुख्यमंत्री इसे किसानों के लिए अहितकारी बता रहे हैं। मनोहर लाल खट्टर और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला तो न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने पर कुर्सी छोडऩे की बात करते हैं। लेकिन बात गेहूँ और धान की नहीं, सभी 23 कृषि उत्पादों की है, जिनके समर्थन मूल्य समय-समय पर तय किये जाते हैं।

राजनीतिक दल किसानों को वोट बैक के तौर पर देखते हैं। उनकी माँगों का समर्थन करना उनकी मजबूरी भी है। मौज़ूदा आन्दोलन में भी खूब राजनीति हो रही है। केंद्र सरकार इसे विपक्ष का प्रायोजित खेल बता रही है, वहीं विपक्ष केंद्र सरकार और भाजपा को अपने गिरेबान में झाँकने कह रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर तीनों कानूनों की प्रतियाँ फाड़कर केंद्र सरकार को कृषि कानूनों पर एक तरह से लानत भेजने का संदेश दिया। वे अपने को किसानों का हितैषी कहते हैं, पर कौन नहीं जानता कि पंजाब में किसानों के वोट बैंक पर उनकी भी नज़र है। इस मुद््दे पर पंजाब कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल (शिअद) और आम आदमी पार्टी में किसानों का सबसे ज़्यादा हमदर्द बनने की जैसे होड़ लगी है।

केंद्र सरकार के तीन कृषि कानून उसके गले की फाँस बन गये हैं। हालत कुछ न निगलते बने न उगलते जैसी ही है। सरकार के हरसम्भव प्रयास के बावजूद किसान कानूनों के रद्द करने पर ही अडिग हैं; जबकि सरकार उचित संशोधनों से आगे नहीं बढऩा चाहती। सुप्रीम कोर्ट ने भी चिंगारी से शोले बने इस किसान आन्दोलन को राष्ट्रीय मुद्दा बताया है; जिसका तुरन्त कोई-न-कोई समाधान निकालने की बात कही है। कई दशकों बाद यह पहला बड़ा किसान आन्दोलन है, जिसमें वह केंद्र सरकार को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि कानून किसानों पर ऐसे नहीं थोपे जा सकते।

नागरिकता कानून, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने और तीन तलाक जैसे कानूनों पर विरोध ज़रूर हुआ; पर कोई राष्ट्रव्यापी मुद्दा नहीं बन सका। तो क्या माना जाए कि केंद्र ने इसे मुद्दा बनने दिया, जिसकी वजह से यह जन आन्दोलन खड़ा हुआ। केंद्र ने किसानों के विरोध को बेहद हल्के में लिया। शुरू में किसान यूनियनें तीनों बिलों के नहीं, बल्कि कुछ ही प्रावधानों के खिलाफ थी, जिसमें सबसे बड़ी बात न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी थी। सितंबर-अक्टूबर में जब पंजाब और हरियाणा में आन्दोलन की सुगबुगाहट शुरू हुई थी, तभी केंद्र सरकार पहल कर किसान संगठनों से संवाद करती, तो आज जैसी स्थिति की नौबत नहीं आती। ऐसी स्थिति के लिए केंद्र सरकार ज़िम्मेदार है। किसान संगठन के प्रतिनिधि कृषि मंत्री से बात करके कोई-न-कोई समाधान निकालने के इच्छुक थे; लेकिन उन्हें कोई आमंत्रित नहीं कर रहा था। फिर बुलाया, तो केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर बैठक में शामिल नहीं हुए। अधिकारियों से बातचीत विफल रही और उसके बाद किसान संगठनों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं, बल्कि तीनों कानूनों को ही वापस लेने की माँग खड़ी कर दी। इसके बाद हवा बन गयी कि बिना कानूनों को वापस लिये या रद्द किये बिना कोई राह निकलनी असम्भव है।

पाँच दौर की बातचीत में आखिर क्या नतीजा निकला? सरकार हर ऐतराज़ पर संशोधन करने पर सहमत है; लेकिन वह कानूनों को स्थगित या रद्द करने के बिल्कुल पक्ष में नहीं है। उधर, किसान इससे कम पर राज़ी नहीं हो रहे, तो क्या आन्दोलन इसी तरह महीनों चलता रहेगा? किसान तो सम्भव है लम्बी तैयारी करके आये हों, पर सरकार तो नहीं। आन्दोलन जितना लम्बा चलेगा, उतना मज़बूत होगा और केंद्र सरकार के लिए उतनी ही ज़्यादा मुसीबतें होंगी। किसानों के दिल्ली कूच से पहले कमज़ोर पड़ चुका आन्दोलन इतना बड़ा कैसा हो गया? क्योंकि यह जनान्दोलन में बदला और हर वर्ग का समर्थन इसे मिलने लगा।

सरकार बातचीत से समस्या का समाधान करना चाहती है, जबकि किसान संगठनों को इस रास्ते से मंज़िल मिलनी मुश्किल लग लग रही है। फिलहाल आन्दोलन में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरी प्रदेश के किसान ही ज़्यादा हैं। लेकिन देश भर के किसान इसमें आने शुरू हो गये हैं। किसान संगठन इसे राष्ट्रव्यापी बनाना चाहते हैं, जिसकी उम्मीद बढ़ रही है। भारतीय किसान यूनियन (हरियाणा) के प्रमुख नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी कहते हैं, तीनों काले कानूनों से पंजाब और हरियाणा का किसान ही नहीं, बल्कि देश के हर राज्य का किसान प्रभावित होगा। केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गांरटी लेने की बात कहती है, लेकिन वह मिल कहाँ रहा है?

बिहार में धान समर्थन मूल्य से 400-500 रुपये नीचे बिकता है, तो क्या वहाँ के किसानों को हमारा साथ नहीं देना चाहिए? किसी भी राज्य की बात कर लें, न्यूनतम समर्थन मूल्य की कहीं कोई गारंटी नहीं है; वह केवल कागज़ों में है। हम तीनों कानूनों को रद्द करने की माँग के साथ समर्थन मूल्य पर किसान का उत्पाद हर हालत में बिके इसके लिए कानून चाहते हैं। कृषि कानूनों पर केंद्र सरकार अब बचाव की मुद्रा में है; जबकि अन्नदाता अब भारी पडऩे लगा है। अहिंसा के रास्ते पर चला आन्दोलन सफल रहेगा, इसकी उम्मीद बहुत ज़्यादा है।

पगड़ी सँभाल जट्टा

तीनों नये कृषि कानूनों पर किसानों का यह आन्दोलन वर्ष 1907 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आन्दोलन सरीखे जैसा है। तब भी अंग्रेज सरकार दोआब बारी एक्ट, पंजाब लैंड कोलोनाइजेशन एक्ट और पंजाब लैंड एलाइनेशन एक्ट लेकर आयी थी। इसका घोर विरोध हुआ था। इसकी अगुवाई भी आज़ादी से पहले के पंजाब ने की थी। तब लायलपुर (अब फैसलाबाद, पाकिस्तान) में इसकी शुरुआत शहीद भगतसिंह के चाचा अजीतसिंह ने की थी। अंग्रेज सरकार इस आन्दोलन से इतनी डरी कि उसने अजीत सिंह को 40 साल के लिए देश निकाला दे दिया। बाहर रहकर भी उन्होंने आन्दोलन को समर्थन दिया। आखिरकार अंग्रेजों को उक्त तीनों कानून वापस लेने पड़े। अजीत सिंह 1957 में वतन लौटे, लेकिन तब तक देश आज़ाद हो चुका था। तब संयुक्त पाकिस्तान के झंग स्याल नामक अखबार के सम्पादक बाँके दयाल ने पगड़ी सँभाल जट्टा गीत लिखा था, जो आन्दोलन का मुखर गीत बना। आन्दोलन पगड़ी सँभाल जट्टा के नाम से मकबूल हुआ। बाद में गीत कई फिल्मों में शामिल हुआ; क्योंकि इसके बोल बड़े ही क्रान्तिकारी हैं-

‘पगड़ी सँभाल जट्टा

पगड़ी सँभाल ओए…

तेरा लुट न जाए माल ओए

ओ जट्टा पगड़ी सँभाल ओए

तोड़ गुलामी की ज़ंजीरे, बदल दे तू अपनी तकदीरें…।’

कोरोना के बलिदानी पत्रकार

प्रख्यात लेखक विलियम शेक्सपियर ने अपनी कृति हैमलेट में लिखा है- ‘जब दु:ख आते हैं, तो वे अकेले नहीं, बल्कि बहुतायात में आते हैं।’ यह बात पूरी तरह सही है। क्योंकि जब कुछ बुरा घटित होता है, तो उसके साथ काफ़ी कुछ और भी बुरा घटता है यानी एक बुरी घटना अपने साथ कई अन्य बुरी घटनाएँ लेकर आती है। महामारी कोरोना वायरस और उसके बाद के आर्थिक प्रभावों के परिणामस्वरूप हाल के दिनों में समाचार उद्योग ने नौकरियों में कटौती की है; कर्मचारियों को छुट्टी पर भेजा है या उनके वेतन कटौती की है। कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए सरकार द्वारा लगाये गये लॉकडाउन के कारण मीडिया क्षेत्र को मुख्य रूप से बड़ा झटका लगा है। संकट के कारण वित्तीय परेशानी और अन्य कारणों से बहुत छोटे-छोटे समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशकों को प्रकाशन बन्द करने के लिए मज़बूर होना पड़ा है।

रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने 78 कम्पनियों का एक विश्लेषण करके अपनी नवीनतम रिपोर्ट में कहा है कि कोरोना वायरस की महामारी से उपजी आर्थिक मंदी के चलते चालू वित्तीय वर्ष में भारतीय मीडिया उद्योग के राजस्व को 16 फीसदी या करीब 25 हज़ार करोड़ रुपये से 1.3 लाख करोड़ रुपये तक घटा सकता है। इस महामारी में भी यही हुआ है। प्रेस एम्ब्लेम कैम्पेन की एक रिपोर्ट के अनुसार, 23 दिसंबर, 2020 तक कोविड-19 के कारण दुनिया भर में 571 पत्रकारों की मौत हो चुकी थी। इस समय तक सबसे प्रभावित देशों, पेरू में 93, भारत में 53, ब्राज़ील में 50, इक्वाडोर में 41, बांग्लादेश में 41, मेक्सिको में 41, इटली में 34, अमेरिका में 29, तुर्की में 16, पाकिस्तान में 13 और यूके में 12 पत्रकारों की मौत हुई है। रिपोर्ट से पता चलता है कि इस महामारी से भारत दुनिया भर में दूसरा सबसे ज़्यादा प्रभावित देश है।

यह इतना गम्भीर परिदृश्य है कि भारतीय प्रेस परिषद् (पीसीआई) ने केंद्र और राज्य सरकारों को कहा है कि उन पत्रकारों की स्वास्थ्य योद्धाओं की तरह पहचान की जाए, जिनकी जान कोविड-19 के कारण गयी है; ताकि उनके परिजनों को समान रूप से सहायता प्रदान करायी जा सके। केंद्र सरकार डॉक्टरों और अन्य अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं के परिजनों के लिए 50 लाख रुपये के मुआवज़े की घोषणा कर चुकी है, जो कोरोना वायरस से लड़ते हुए जान गँवा बैठे। पीसीआई ने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों से हरियाणा सरकार द्वारा पहले से ही बनायी गयी एक योजना की तर्ज पर पत्रकारों के लिए समूह बीमा योजना तैयार करने को कहा है। विभिन्न पत्रकारों के निकायों ने भी प्रधानमंत्री से इन कोरोना-योद्धाओं के सम्मान के रूप में मीडिया हाउसों और पीडि़त परिवारों के लिए एक वित्तीय पैकेज की घोषणा करने के लिए कहा है।

इस खतरनाक वायरस के खिलाफ लड़ाई में मीडिया की भूमिका बहुत महत्तवपूर्ण रही है; क्योंकि इसके प्रसार और कीमती जीवन को बचाने के बारे में लोगों को जानकारी देने का दायित्व उसने बखूबी निभाया है। ऐसे में मीडिया हाउसों की कार्य क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ पत्रकारों की सुरक्षा महत्तवपूर्ण है। क्योंकि सभी जि़म्मेदार पत्रकारों ने अपनी जान की परवाह किये बिना जनता की सुरक्षा को आज भी प्राथमिकता पर रखा है। ऐसे कठिन समय में पत्रकारों ने किस तरह से अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया है यह पत्रकार गुरविंदर कौर की रिपोटिंग से स्पष्ट हो जाता है, जिन्होंने ‘तहलका’ के लिए किसान आंदोलन की ग्राउंड रिपोर्ट करते हुए जब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का दौरा किया, तो वह मुफ़्त में वितरित की जाने वाली दवाओं को अपनी कार में ले गयीं, ताकि उन्हें ज़रूरतमंदों को वितरित किया जा सके।

क्या राहुल गाँधी को मिलेगी चुनौती!

कांग्रेस लम्बी सुस्ती के बाद अचानक सक्रिय दिखने लगी है। पार्टी में अध्यक्ष पद स्थायी रूप से भरने की तैयारी नाराका नेताओं को मनाने की कोशिश से हुई है। इन नेताओं से सोनिया गाँधी की मुलाकात को काफी महत्त्व मिला है। बैठक से जो संकेत मिले हैं, उनका लब्बोलुआब यही है कि नाराका नेताओं में से काफी को राहुल गाँधी के नाम से कोई परहेका नहीं है। हालाँकि इनमें से किसी ने भी बैठक के बाहर इस बाबत कुछ कहा नहीं है, जिससे उन्हें लेकर संशय बना हुआ है। कांग्रेस जनवरी में अधिवेशन आयोजित करने की तैयारी कर रही है। हालाँकि उससे पहले बैठकों के कुछ और दौर हो सकते हैं, ताकि राहुल गाँधी के नाम पर सहमति बनायी जा सके। खुद राहुल गाँधी ने अब यह कह दिया है कि पार्टी उन्हें जो किाम्मेदारी देगी, वह उसे स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। कााहिर है उन्होंने इसके लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार कर लिया है। कांग्रेस के भीतर प्रियंका गाँधी वाड्रा को भी किसी अपरिहार्य स्थिति के लिए तैयार रखा गया है। हालाँकि पार्टी में नेताओं का ऐसा बड़ा वर्ग है, जो चाहता है कि राहुल गाँधी को ही अध्यक्ष बनना चाहिए। हाँ, यह कारूर सच है कि अहमद पटेल और मोती लाल वोरा जैसे बड़े नेताओं के देहांत के बाद प्रियंका गाँधी संगठन में अचानक बड़ी भूमिका में दिखने लगी हैं।

यही देखना सबसे दिलचस्प होगा कि क्या पार्टी के भीतर राहुल गाँधी को अध्यक्ष पद के लिए कोई चुनौती मिलेगी? इसकी सम्भावना बहुत कयादा नहीं है, लेकिन असन्तुष्ट अभी खुले रूप से राहुल के नाम पर सहमति जताते नहीं दिखे हैं। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, नया अध्यक्ष चुने जाने के बाद सोनिया गाँधी यूपीए के अध्यक्ष पद को लेकर भी कोई फैसला कर सकती हैं। हो सकता है कि कांग्रेस के ही किसी वरिष्ठ नेता को यूपीए का नेता बनाया जाए। हालाँकि कांग्रेस में कई नेता चाहते हैं कि सोनिया गाँधी कम-से-कम एक भूमिका में तो रहें। कांग्रेस में हाल के समय में जो सबसे बड़ी बात देखने को मिली है, वो यह है कि पार्टी में प्रियंका गाँधी बड़ी भूमिका निभाने की तरफ बढ़ती दिख रही हैं। नाराका नेताओं को मनाने की जो कोशिश पिछले कई महीनों से नहीं हुई थी, वह 19 दिसंबर को हुई; जिसमें प्रियंका गाँधी ने बड़ी भूमिका निभायी। उनके अलावा मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को भी पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर काफी सक्रिय किया है। ‘तहलका’ की पार्टी के विभिन्न नेताओं से जुटायी जानकारी कााहिर करती है कि प्रियंका पार्टी में एकता की जी-तोड़ कोशिश कर रही हैं।

कुछ बड़े नेताओं की नाराकागी के बावजूद यदि राहुल गाँधी को अध्यक्ष पद के चुनाव में चुनौती मिलती भी है, तो भी विरोध को कयादा समर्थन नहीं मिलेगा। कांग्रेस के निचले स्तर के कार्यकर्ता का यही मानना है कि गाँधी परिवार से बाहर जाना पार्टी के लिए नुकसानदेह होगा; क्योंकि परिवार से बाहर व्यापक जन-समर्थन वाला और कोई नेता नहीं। लेकिन इसके बावजूद इस बात से मना नहीं किया जा सकता कि कुछ विरोधी चुनाव पर काोर दें। ऐसा हुआ भी तो भी राहुल गाँधी चुनाव के लिए तैयार हो जाएँगे; क्योंकि उन्होंने सर्वसम्मति पर कभी काोर नहीं दिया है। हाँ, वे यह कारूर चाहेंगे कि उनके चुने जाने के बाद पूरी पार्टी, जिनमें वरिष्ठ नेता भी शामिल हैं; उनके पीछे पूरी ताकत से खड़े हों।

लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या कथित नाराका नेताओं का रूप (दल) सच में राहुल गाँधी के िखलाफ उम्मीदवार उतारने की कोशिश कर सकता है? हालाँकि इस रूप के पास ऐसा कोई नेता नहीं, जिसका देश तो दूर, अपने सूबे में भी कोई व्यापक जनाधार हो। गुलाम नबी आकााद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे हैं; लेकिन बड़ा नेता होने के बावजूद उनका देशव्यापी जनाधार नहीं है। आनंद शर्मा तो अपने सूबे हिमाचल प्रदेश में एक ही बार विधानसभा का चुनाव लड़े थे, जिसमें वह बुरी तरह हार गये थे। कपिल सिब्बल ने भी अपने राजनीतिक जीवन में चुनाव जनसभाएं भी गिनती भर की की होंगी।

ऐसे में राहुल गाँधी के िखलाफ यह रूप आिखर आगे करेगा किसे? वैसे भी सोनिया गाँधी के साथ 19 दिसंबर की बैठक में जिस तरह इन नेताओं ने राहुल के नाम पर सहमति दिखायी है, उससे नहीं लगता कि यह नेता विरोध जैसा कुछ करेंगे। क्योंकि इससे वे संगठन में अलग-थलग भी पड़ सकते हैं। आनंद शर्मा तो जिस तरह अर्थ-व्यवस्था के वापस पटरी पर लौटने और इंफ्रास्ट्रक्चर और कोरोना पर नियंत्रण के लिए ढके-छिपे मोदी सरकार की तारीफ कर रहे हैं, उससे तो ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि वह भाजपा का दामन थामने वाले हैं। आकााद कारूर ऐसे नेता हैं, जिनके भाजपा में जाने की कल्पना नहीं की जा सकती। भले कश्मीर में भाजपा शिद्दत से बड़ा मुस्लिम चेहरा तलाश रही है, लेकिन आकााद जैसा कट्टर भाजपा विरोधी नेता शायद ही भगवा पार्टी में जाना पसन्द करे।

कांग्रेस के एक बड़े नेता ने नाम न छापने की शर्त पर ‘तहलका’ को बताया कि पार्टी के बीच राहुल गाँधी का कोई विरोध है, ऐसा नहीं है। दरअसल नेता चाहते हैं कि राहुल पूरे मन से अध्यक्ष का किाम्मा निभाएँ। हमारे सामने बड़ी चुनौती है। भाजपा साम्प्रदायिक तरीके अपनाकर खुद का विस्तार करना चाह रही है। देश की बड़ी आबादी इसके पक्ष में नहीं है, लेकिन जब तक हम मकाबूत विकल्प के रूप में सामने नहीं आते, जिसकी हममें पूरी क्षमता है; तब तक भाजपा को चुनौती नहीं दी जा सकती।

संकटमोचक की भूमिका में हैं प्रियंका!

क्या महासचिव प्रियंका गाँधी कांग्रेस में संकट मोचक की भूमिका में आ रही हैं? हाल में उनके कुछ कदमों से ऐसा साफ आभास मिलता है। पहली बार ऐसा सचिन पायलट की बगावत के समय दिखा था, जब प्रियंका ने समझौते में केंद्रीय भूमिका निभायी थी। अब असन्तुष्टों के साथ सोनिया गाँधी की बैठक के आयोजन में भी प्रियंका गाँधी भी भूमिका रही। िफलहाल प्रियंका को अहमद पटेल जैसी पर्दे से पीछे की भूमिका के लिए तैयार किया गया है; क्योंकि एक तो संवाद के मामले में वह माहिर हैं, दूसरे पार्टी के भीतर की घटनाओं की जानकारी के लिए उन्होंने अपना एक मकाबूत सूचना तंत्र विकसित कर लिया है। प्रियंका गाँधी की पहली कोशिश कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव सर्वसम्मति से करवाने की है और यह उनके लिए बड़ी चुनौती है। असन्तुष्टों को सँभालने का किाम्मा प्रियंका ने अपने ऊपर लिया है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि पार्टी नेताओं के लिए उनकी बात टालना आसान नहीं होगा; क्योंकि उनका पार्टी के भीतर काबरदस्त क्रेज है। उन्हें जानने वाले प्रियंका को राजनीतिक रूप से चतुर मानते हैं। उनका स्वभाव राहुल गाँधी के विपरीत है। हालाँकि वह पार्टी मामले में भावनाओं को राहुल की तरह बहुत कयादा तरजीह नहीं देतीं। साथ ही उनकी कोशिश नाराका नेताओं को साथ जोड़े रखने की रहती है, और इसके लिए तमाम राजनीतिक पैंतरे अपनाने में उनका विश्वास रहता है। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी केंद्रीय भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं। कमलनाथ और गहलोत दोनों फंड जुटाने का किाम्मा तो सँभालेंगे ही, कमलनाथ पार्टी के प्रबन्धन में भी प्रियंका के साथ रहेंगे। अशोक गहलोत चूँकि राजस्थान छोडऩा नहीं चाहते, पार्टी के प्रबन्धन में शायद उनकी भूमिका बड़ी न रहे। सोनिया गाँधी की 19 दिसंबर की बैठक से पहले कमलनाथ और गहलोत दोनों की प्रियंका गाँधी से मंत्रणा हुई थी। इस दौरान ही कथित असन्तुष्टों पर दबाव की रणनीति बुनी गयी। कमलनाथ ने ही असन्तुष्टों को सोनिया की बैठक के लिए तैयार किया। बैठक में राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाने की माँग राहुल के समर्थकों अजय माकन और भक्तचरण दास से उठवायी गयी और असन्तुष्टों को इसकी हामी भरनी पड़ी। वरिष्ठों में ए.के. एंटनी, अंबिका सोनी, अशोक गहलोत, कमलनाथ, पृथ्वीराज चव्हाण जैसे नेता गाँधी परिवार के साथ हैं। पी. चिदंबरम भी विरोध नहीं कर रहे हैं। सभी प्रियंका की सक्रियता से अच्छा मान रहे हैं। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘प्रियंका शुद्ध राजनीतिक जैसा व्यवहार करती हैं। रणनीति बनाने की उन्हें अच्छी समझ है और वह आक्रमक भी हैं। पार्टी के बीच एक राय यह भी रही है कि राहुल गाँधी यदि अध्यक्ष पद लेने से इन्कार करते हैं, तो बिना हिचक प्रियंका गाँधी को बागडोर सौंप देनी चाहिए।

कांग्रेस में मुझे मिलाकर 99.9 फीसदी लोग चाहते हैं कि राहुल गाँधी को पार्टी का नया अध्यक्ष चुना जाए।

रणदीप सुरजेवाला मीडिया प्रमुख, कांग्रेस

राहुल गाँधी के नेतृत्व को लेकर नेताओं के बीच कोई असन्तोष नहीं है। सभी लम्बित मुद्दों पर चर्चा करने के लिए चिन्तन शिविर का आयोजन किया जाएगा।

पवन बंसल, वरिष्ठ नेता

कोई भी राष्ट्रीय पार्टी लम्बे समय तक अध्यक्ष के बगैर कैसे रह सकती है? राहुल गाँधी के प्रति विरोध नहीं, लेकिन इस्तीफे के बाद उन्होंने खुद यह कहा था कि अध्यक्ष गाँधी परिवार से बाहर का बनना चाहिए।

कपिल सिब्बल, वरिष्ठ नेता

मदरसों पर टेढ़ी नज़र?

असम सरकार ने मदरसों के बारे में जो नीति बनायी है, उसे लेकर अभी तक हमारे धर्म-निरपेक्षतावादी क्यों नहीं बौखलाये? इस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है। असम के शिक्षा मंत्री हिमंत विश्व शर्मा ने जो कदम उठाया है, वह तुर्की के विश्व विख्यात नेता कमाल पाशा अतातुर्क की तरह है। उन्होंने अपने मंत्रिमंडल से यह घोषणा करवायी है कि अब नये सत्र से असम के सारे सरकारी मदरसे सरकारी स्कूलों में बदल दिये जाएँगे। राज्य का मदरसा शिक्षा बोर्ड अगले साल से भंग कर दिया जाएगा। इन मदरसों में अब कुरआन शरीफ, हदीस, उसूल-अल-फिका, तफसीर फरियाद आदि विषय नहीं पढ़ाये जाएँगे; हालाँकि भाषा के तौर पर अरबी ज़रूर पढ़ायी जाएगी। जिन छोटे-बड़े मदरसों को स्कूल नाम दिया जाएगा, उनकी संख्या 189 और 542 है। इन पर हर साल खर्च होने वाले करोड़ों रुपयों का इस्तेमाल सरकार अब आधुनिक शिक्षा देने में करेगी।

इस कदम से ऐसा लगता है कि यह इस्लाम-विरोधी घनघोर साम्प्रदायिक षड्यंत्र है; लेकिन वास्तव में यह सोच ठीक नहीं है। इसके कई कारण हैं। पहला, मदरसों के साथ-साथ यह सरकार 97 पोंगापंथी संस्कृत केंद्रों को भी बन्द कर रही है। उनमें अब सांस्कृतिक और भाषिक शिक्षा ही दी जाएगी; धार्मिक शिक्षा नहीं। अब से लगभग 70 साल पहले जब मैं संस्कृत-कक्षा में जाता था, तो वहाँ मुझे वेद, उपनिषद् और गीता नहीं, बल्कि कालिदास, भास और बाणभट्ट को पढ़ाया जाता था। दूसरा, जो गैर-सरकारी मदरसे हैं, उनमें मौलवी जो चाहें, सो पढ़ाने की छूट रहेगी। तीसरा, इन मदरसों और संस्कृत केंद्रों में पढऩे वाले छात्रों की बेरोज़गारी अब समस्या नहीं बनी रहेगी। वे आधुनिक शिक्षा के ज़रिये रोज़गार और सम्मान दोनों अर्जित करेंगे। चौथा, असम सरकार के इस कदम से प्रेरणा लेकर जिन 18 राज्यों के मदरसों को केंद्र सरकार करोड़ों रुपये की मदद देती है, उनका स्वरूप भी बदलेगा। सिर्फ चार राज्यों में 10 हज़ार मदरसे और 20 लाख छात्र हैं। धर्म-निरपेक्ष सरकार इन धार्मिक मदरसों, पाठशालाओं या गुरुकुलों पर जनता का पैसा खर्च क्यों करे? हाँ, इन पर किसी तरह का प्रतिबन्ध लगाना भी सर्वथा अनुचित है। असम सरकार ने जिस बात का बहुत ध्यान रखा है, उसका ध्यान सभी प्रान्तीय सरकारें और केंद्रीय सरकार भी रखे; यह बहुत ज़रूरी है। असम के मदरसों और संस्कृत केंद्रों के एक भी अध्यापक को बर्खास्त नहीं किया जाएगा। उनकी नौकरी कायम रहेगी। वे अब नये और आधुनिक विषयों को पढ़ाएँगे। असम सरकार का यह प्रगतिशील और क्रान्तिकारी कदम देश के गरीब, अशिक्षित और अल्पसंख्यक वर्गों के नौजवानों के लिए नया विहान लेकर उपस्थित हो रहा है।

मंडियों में मंदी

कोरोना महामारी से एशिया की सबसे बड़ी आज़ादपुर मंडी से लेकर सभी छोटी-बड़ी मंडियाँ अब मंदी की चपेट में हैं। हालाँकि मंदी तो पहले भी कई बार देश में दस्तक दे चुकी है, लेकिन पिछले कुछ दशकों के बड़े रिकॉर्ड देखें, तो यह अभी तक की सबसे भयंकर मंदी है। इस मंदी ने देश की अर्थ-व्यवस्था को पूरी तरह से झकझोरकर रख दिया है। कोरोना-काल से पहले जहाँ इन मंडियों में पैर रखने तक की जगह नहीं हुआ करती थी, वहीं आज यहाँ रौनक नहीं है।

विदित हो कि कोरोना वायरस के कहर को कम करने के लिए पूरे देश में 22 मार्च, 2020 से लॉकडाउन लगाया गया था। इससे कोरोना वायरस की महामारी की रफ्तार रोकने में भले ही मदद मिली, मगर आम देशवासियों, खासकर नौकरीपेशा, दिहाड़ी मज़दूरों, किसानों और छोटे-मँझोले दुकानदारों पर इसका बुरा असर पड़ा। लाखों लोग थोड़े ही समय में बेरोज़गार हो गये। यही वजह रही कि देश की अर्थ-व्यवस्था रसातल में चली गयी और केंद्र सरकार से राज्य सरकारों तक को यह कहना पड़ा कि अब लॉकडाउन और नहीं।

इसके बाद बाज़ार, उद्योग काफी हद तक खुल गये, लेकिन बड़ी संख्या में लोग अभी भी बेरोज़गार हैं। इसके चलते लगातार माँग में कमी आयी है, और माँग की कमी के चलते छोटे-बड़े विक्रेताओं को भारी नुकसान हो रहा है। तहलका संवाददाता को ओखला मंडी के विक्रेता अशरफ अली ने बताया कि एग्रीकल्चर मार्केटिंग प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (एपीएमसी) से उन्हें किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं है, उनकी इस समय सबसे बड़ी परेशानी यह है कि कोविड-19 महामारी के खौफ ने लोगों के मन में इस प्रकार घर बना लिया है कि वे मंडी नहीं आ रहे, इससे मंडी में काम न के बराबर है। बिक्री न होने के कारण हमें रोज़ाना माल लाने और ठीया लगाने तक का खर्चा निकाल पाना बेहद मुश्किल हो गया है।

आज़ादपुर मंडी के एक व्यापारी ने बताया कि कोरोना से पहले ऐसा कभी भी नहीं हुआ था कि हमारा सामान बच गया हो, लेकिन मंदी के कारण कोरोना-काल से पहले की तुलना में आज के समय में हम अपना सामान आधा ला रहे हैं; यह भी बिक नहीं पा रहा है। दिक्कत यह है कि बची हुई सब्ज़ियाँ और फल सड़ जाते हैं, जिससे बड़ा नुकसान होता है।

यह हाल केवल दिल्ली की आज़ादपुर मंडी का ही नहीं है, बल्कि ओखला, महरौली तथा दिल्ली-एनसीआर की अन्य छोटी-बड़ी मंडियों में इसी तरह मंदी छायी हुई है। व्यापारियों का कहना है कि इस तरह से संक्रमण बढ़ता रहा और कोरोना-टीका नहीं आया, तो मंडियों का सँभल पाना बेहद मुश्किल है। जहाँ एक ओर मंडियों में काम की कमी एक समस्या बनी हुई है, वहीं दूसरी ओर इन मंडियों के विक्रेता, कर्मचारी और उपभोक्ता सरकार द्वारा कोरोना वायरस के प्रति सावधानी बरतने को लेकर जारी किये गये दिशा-निर्देशों, जैसे- मास्क लगाना, हाथ धोना, दो गज की दूरी का पालन नहीं कर रहे हैं।

एपीएमसी के एक अधिकारी ने बताया की हम मंडियों में साफ-सफाई और कोरोना को लेकर जारी दिशा-निर्देशों का पालन करने के लिए समय-समय पर माइक द्वारा उद्घोषणा कराते हैं। सभी शौचालयों में सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता है, जिससे कि कोरोना वायरस के संक्रमण से लोगों को बचाया जा सके। लेकिन स्थिति यह है कि इन मंडियों में कर्मचारियों और व्यापारियों द्वारा इन दिशा-निर्देशों का सही तरह से पालन नहीं किया जा रहा है। यही कारण है कि लोग मंडियों तक नहीं पहुँच रहे और कारोबार ठप पड़ा है। हालाँकि कोरोना संकट का कहर थमने का नाम नहीं ले रहा है, जिससे लोग परेशान हैं, डरे हुए हैं।

बता दें कि कोविड-19 महामारी से शिक्षा, उद्योग, कम्पनियाँ, खेती-बाड़ी, छोटे-बड़े बाज़ार-व्यापार सभी प्रभावित हुए हैं, जिससे दीर्घकालिक नुकसान की अभी सम्भावना बनी हुई है। इस बीमारी से भारत में मचे हाहाकार का एक बड़ा कारण यह भी है कि अभी तक इसकी कोई दवा नहीं आयी है। हाल ही में कोविड-19 को लेकर एक सर्वदलीय बैठक भी हुई, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता को आश्वासन दिया है कि कोरोना-टीका सिर्फ कुछ हफ्तों के भीतर आ जाएगा और यह टीका सर्वप्रथम बीमारी से जूझ रहे स्वास्थ्यकर्मियों, फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं और बुजुर्गों को दिया जाएगा। लेकिन कोरोना-टीके पर अभी से सवाल उठने लगे हैं।

कहीं दबाव का प्रयोग तो नहीं कोरोना-टीका!

केंद्र सरकार ने दावा किया है कि जनवरी, 2021 में किसी भी दिन कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए इसका टीका लगाने का अभियान शुरू हो जाएगा। इससे लोगों को ज़रूर राहत मिलेगी। लेकिन इसके पीछे बाज़ारवाद की तस्वीर भी साफ दिख रही है। क्योंकि इन दिनों वैक्सीन को लेकर बाज़ार गर्म है। दवा कम्पनियों के एजेंटों का जमावड़ा दवा बाज़ारों में साफ देखा जा सकता है। जानकारों का कहना है कि कोरोना वैक्सीन को लेकर सरकार न जाने क्यों इतनी जल्दीबाज़ी दिखा रही है। ऐसा लग रहा है कि ये कोरोना-टीके से ज़्यादा बाज़ारवाद के दबाव का प्रयोग है। क्योंकि एक ज़माना वो था जब कोई बीमारी आती थी, तो उससे निजात पाने के लिए बिना हो-हल्ला किये दवा कम्पनियाँ, चिकित्सक और वैज्ञानिक शोध में लग जाते थे और खामोशी से टीका तैयार कर लेते थे। तब न कोई होड़ होती थी, न कोई दिखावा। लेकिन अब कोरोना-टीके को लेकर जो हाहाकार मचा हुआ है और इस पर जिस तरह सियासत हो रही है, उससे साफ ज़ाहिर होता है कि लोगों को जागरूक कम किया जा रहा है, डराया ज़्यादा जा रहा है।

लोगों में इस महामारी से छुटकारा पाने के लिए टीके का बेसब्री से इंतज़ार है। उन्हें अभी यह भी ठीक से पता नहीं कि उन्हें टीका कब, कैसे मिलेगा? मिलेगा भी या नहीं मिलेगा? टीके के लिए क्या करना होगा?  रजिस्ट्रेशन करवाना होगा या नहीं?

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के प्रमुख संयुक्त सचिव डॉ. नरेश चावला का कहना है कि टीका आने से कोरोना पीडि़तों को राहत मिलने के साथ-साथ लोगों में महामारी का भय तो कम होगा, लेकिन अगर कोरोना-टीका बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए भी मिले, तो सही मायने में कोरोना वायरस पर जल्द काबू पाया जा सकता है। डॉ. चावला का कहना है कि नयी महामारी कोरोना वायरस से निपटने की हड़बड़ी में नये तरीके से शोध हो रहे हैं। क्योंकि अभी तक दुनिया में जितने भी शोध हुए, उनमें सबसे पहले बच्चों के टीकों के ईजाद किये गये, फिर अन्य लोगों के लिए टीके तैयार किये गये। कोरोना-काल ने सब कुछ उलट-पुलट कर दिया। अब बच्चों के लिए टीका बाद में आयेगा। इसी तरह पहले टीके के शोध में तीन-चार साल लग जाते थे। लेकिन कोरोना के टीके तो साल भर के भीतर बनकर तैयार हो रहे हैं। इससे यह डर सता रहा है कि यह टीका कहीं मुसीबत में न डाल दे। क्योंकि जिस तरीके से लोगों को टीका लगाने और उसे बाज़ार में लाने की रूपरेखा तैयार की जा रही है, उससे संदेह बढ़ रहा है। इसके अलावा नये टीके के क्या साइड इफेक्ट होंगे? इसका कोई पता नहीं है। इससे बचाव के लिए डॉक्टरों के पास अभी कोई गाइड लाइन तक नहीं है; जो सबसे अहम है।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन का कहना है कि भारत में जनवरी, 2021 में कोरोना का टीकाकरण सम्भव है। जब भारतीय नागरिकों को कोरोना-टीके की पहली खुराक देने की स्थिति होगी, तब टीके के आपातकाल उपयोग की मंज़ूरी के लिए कम्पनियों के आवेदन पर गम्भीरता से विचार किया जाएगा। दिल्ली के लाजपत नगर, भागीरथ पैलेस के अलावा अन्य स्थानों के दवा व्यापारियों का कहना है कि टीके  को लेकर अभी बहुत असमंजस की स्थिति है। क्योंकि जब तक देश में पूरी तरह से कोरोना-टीका अस्पतालों और बाज़ारों में नहीं आ जाता है, तब तक उसको लेकर सियासी अटकलें बनी रहेंगी।

राजीव गाँधी कैंसर संस्थान के कैंसर रोग विशेषज्ञ डॉ. अभिषेक बंसल का कहना है कि कोरोना की रोकथाम में इसका टीका एक आशा की किरण है। लेकिन जब तक शहरों से लेकर गाँवों तक यह लोगों को मुहैया नहीं होगा, तब तक कोरोना खत्म नहीं हो सकता। क्योंकि कोरोना ने गाँवों में भी पाँव पसार लिये हैं, फर्क इतना है कि गाँव वालों की इम्युनिटी पॉवर अच्छी है और कोरोना वहाँ बहुत कुछ नहीं बिगाड़ पाया है। लेकिन ज़रूरी है कि गाँवों में भी टीका पहुँचे।

दिल्ली के दवा व्यापारी सुरेश कुमार चहल और किशोर गुप्ता ने बताया कि दवा बाज़ार तो लोगों को कोरोना की दवा और टीका उपलब्ध कराने के लिए ही है। लेकिन अभी तक यही स्पष्ट नहीं है कि बाज़ार में भारत निर्मित टीका पहले उपलब्ध होगा या फिर फाइज़र या मॉडेर्ना कम्पनी के टीके? जो विदेशी हैं। उनका कहना है कि फिलहाल तो टीके को लेकर सिर्फ और सिर्फ अफवाहें ही हैं। क्योंकि अभी तो परीक्षण की ही खबरें ही आ रही हैं। ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि कब और कैसे बाज़ार में टीका आयेगा?

एम्स के डॉक्टरों ने टीके की सफलता और असफलता को सम्भावनाओं भरा बताया है। उनका कहना है कि जब तक टीका आ नहीं जाता है, तब तक कैसे कह सकते हैं कि वह सफल साबित होगा या असफल! एम्स के डॉ. अंजन त्रिखा तथा बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. आलोक कुमार का कहना है कि जबसे कोरोना वायरस फैला है, तबसे तमाम तरह की दवाएँ कोरोना-संक्रमितों को दी गयी हैं; जो फेल भी हुई हैं। डॉ. आलोक कुमार का कहना है कि यह गनीमत है कि कोरोना वायरस ने अभी तक बच्चों को अपनी चपेट में नहीं लिया है। लेकिन इसकी सम्भावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता। क्योंकि अगर इसके प्रकोप में अगर बच्चे आते हैं, तो उनके लिए टीके की ज़रूरत पड़ेगी। भारत में भारत बायोटेक, जायडस कैडिला, जेनोवा बायोफार्मास्युटिकल्स और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया जैसी नामी-गिरामी कम्पनियाँ शोध करके टीके को विकसित करने में लगी हैं। सभी के परीक्षण जारी हैं। उम्मीद है कि सफलता भी मिलेगी। लेकिन अगर वयस्कों के साथ-साथ बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए भी टीका तैयार हो जाता, तो हम कोरोना वायरस जैसी महामारी से हर स्थिति में निपट सकते थे।