शिक्षा का व्यावसायीकरण

नयी शिक्षा नीति के लिए हमारे उत्साह के बावजूद इससे किसी क्रान्तिकारी रुझान का संकेत नहीं मिलता। यथास्थिति ने परिवर्तन के खतरे से निपटने के लिए एक नयी तकनीक विकसित की है। हमें शैक्षिक क्रान्ति का वर्षों से इंतज़ार रहा है। परिवर्तन का प्रतिरोध इस परिस्थिति से आता है कि शैक्षिक प्रणाली एकाधिकार है, और एकाधिकार की तरह व्यवहार करती है। यदि यह किसी अन्य की तरह एक व्यापार होता, तो अब तक एकाधिकार और प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार आयोग (एमआरटीपीसी) ने इस पर संज्ञान लिया होता। डॉ. जे.एन. कपूर ने अपनी पुस्तक ‘करंट इश्यूज इन हायर एजुकेशन’ में लिखा है- ‘शिक्षा एक बड़ा उद्योग है; लेकिन यह उपभोक्ता या उत्पाद अनुसंधान नहीं करता है। यह एक संरक्षित उद्योग है, और इसीलिए यह अक्षम है।’ संरक्षण का स्तर इस तथ्य से आँका जा सकता है कि कोई भी व्यक्ति डिग्री और लेबल के बिना शिक्षित होने की पहचान की उम्मीद नहीं कर सकता है।

इसका कारण तलाश करना मुश्किल नहीं है। शैक्षिक उद्योग में लगभग पाँच मिलियन (50 लाख) शिक्षक कार्यरत हैं। इसके पास 150 मिलियन से अधिक युवा ग्राहक हैं। इसके अलावा सिस्टम के आस-पास निहित स्वार्थ में लाखों माता-पिता शामिल होते हैं, जो बच्चे को स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय भेजते हैं। कई सहायक ट्रेड और प्रोफेशन भी इस प्रणाली पर रहते हैं। केंद्रीय और राज्य निधियों से कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को वितरित धन का एक बड़ा हिस्सा ईंट-गारे और सीमेंट में जाता है। इसलिए यह दावा किया जा सकता है कि हमारी उच्च शिक्षा के सबसे बड़े लाभार्थी भवन उद्योग हैं।

देश भर में कुकुरमुत्ते की तरह शैक्षिक संस्थानों के उग आने के बावजूद हमारी शिक्षा के मानक और गुणवत्ता में बहुत सुधार नहीं हुआ है। देश भर में डीपीएस और डीएवी जैसे निजी स्कूल अंग्रेजी माध्यम पब्लिक स्कूलों के नाम पर भोली-भाली जनता को लूट रहे हैं। कॉलेज रोज़गारोन्मुखी पाठ्यक्रमों के नाम पर लूट रहे हैं और विश्वविद्यालय लाभप्रद रोज़गार के नाम पर असहाय छात्रों को ठग रहे हैं। इसके अलावा निजी कोचिंग प्रतिष्ठान को लेकर शिक्षकों की नाराज़गी दिलचस्प है; क्योंकि भरोसेमंद उम्मीदवारों को 100 फीसदी सफलता की झूठी गारंटी देकर ये जमकर पैसे कमा रहे हैं। ये सी-ग्रेड कोचिंग सेंटर सीखने के लिए त्वरित शॉर्ट-कट का वादा करते हैं; जिसे प्रदान करने में ये वास्तव में विफल होते हैं। लेकिन शैक्षिक प्रणाली के भीतर पारम्परिक संस्थान, जो युवा मासूम छात्रों को लम्बा रास्ता तय करने के लिए बाध्य करते हैं; वो भी अपने ग्राहकों से किये गये लुभावने वादों के असल गंतव्य तक ले जाने में विफल होते हैं।

हमारे शिक्षण संस्थानों की लागत निजी कोचिंग कक्षाओं से अधिक है। हालाँकि पैसा दोनों मामलों में सार्वजनिक धन से ही जुटता है। ऐसा नहीं है कि शैक्षणिक समुदाय उन सम्मोहक कारणों से अनभिज्ञ हैं, जो छात्रों को सीखने के गैर-पारम्परिक तरीकों की ओर आकर्षित करते हैं। एक कारण यह है कि पारम्परिक तरीकों के साथ पारम्परिक प्रणाली का विस्तार करने के लिए संसाधन समाप्त हो गये हैं। एक अच्छे कॉलेज में एक सप्ताह में 30 घंटे बाहरी दुनिया में बिताये अन्य 70 घंटों के मुकाबले नहीं हो सकते हैं।

सिर्फ दो करोड़ की आबादी वाले हरियाणा जैसे छोटे राज्य में सरकारी और निजी सहायता प्राप्त 250 कॉलेज और 23 विश्वविद्यालय हैं। इनमें ज़्यादातर में बुनियादी ढाँचा नहीं है और अप्रभावी शिक्षण के शोध भी नगण्य है। सिर्फ पाँच लाख की आबादी वाले हिसार जैसे छोटे शहर में तीन विश्वविद्यालय- एक कृषि वि.वि., एक पशु चिकित्सा और एक प्रबंधन और प्रौद्योगिकी संस्थान हैं। लगभग हर राज्य के मुख्यमंत्री ने अपने पिता के नाम पर एक विश्वविद्यालय खोला है और इस तरह विश्वविद्यालय को एक व्यक्तिगत जागीर के रूप में निरूपित कर दिया है। एकमात्र उद्देश्य गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान करना नहीं, बल्कि ठोस वोट बैंक है। विश्वविद्यालय एक राज्य का विषय हैं। लिहाज़ा यूजीसी को उन्हें सही मानदण्डों से चूक करने पर लगाम कसने से नहीं रुकना चाहिए। संविधान शिक्षा को सूचीबद्ध करते हुए विश्वविद्यालय सहित इसे राज्य विषयों के बीच स्पष्ट रूप से जोड़ता है और कहता है कि यह संघ सूची में कुछ प्रविष्टियों के प्रावधानों के अधीन है, जिसमें उच्च शिक्षा और अनुसंधान संस्थानों में मानकों का समन्वय और निर्धारण शामिल है।

यूजीसी की कार्य करने की शक्ति और ज़िम्मेदारी जवाबदेही से भरी है। उदाहरण के लिए जब विश्वविद्यालय परीक्षाओं में धोखा देते हैं और फर्ज़ी डिग्रियाँ प्रदान करते हैं; पाठयक्रम आवश्यकताओं को कमज़ोर करते हैं या शैक्षणिक-कानून के अलावा अन्य विचारों पर उप-मानक पत्राचार पाठ्यक्रम संचालित करते हैं। वास्तव में अधिकार इतने कम नहीं हैं, जितने बताये जाते हैं। इसके अलावा किसी विश्वविद्यालय की शक्ति और प्रभाव को उसके नियमों में विस्तृत रूप से और विशेष रूप से वर्णित करने की उम्मीद नहीं की जाती है। उसके निर्णयों और दृष्टिकोणों के अनुसार इस तरह के नैतिक अधिकारों का निर्माण करने की अपेक्षा की जाती है कि व्यक्ति और संस्थाएँ उनकी अवहेलना करने में संकोच करें। हमारे सम्बद्ध विश्वविद्यालयों के इतिहास के 100 से अधिक वर्षों में कितने ही कॉलेज हैं, जो न्यूनतम मानदण्डों से नीचे गिर गये और उन्होंने अपनी सम्बद्धता खो दी। इसके विपरीत उप-मानक उपकरण और कर्मियों की कमी वाले कॉलेज और भविष्य में सुधार की सम्भावना नहीं दिखाने वाले संस्थानों को तर्कहीन आधार पर सम्बद्धता दी जाती है। पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और हिमाचल प्रदेश में लगातार नियमों का उल्लंघन करने वाले डीएवी कॉलेज बिना वैध तरीके से गठित निकायों के काम कर रहे हैं। ये त्रुटिपूर्ण डीएवी कॉलेज गैर-वैधानिक डीएवी प्रबन्धन, नई दिल्ली के निरंकुश पदाधिकारियों द्वारा रिमोट कंट्रोल के माध्यम से चलाये जा रहे हैं। हालाँकि डीएवी शिक्षकों के तमाम विरोधों के वाबजूद सम्बन्धित सरकारें और विश्वविद्यालय के अधिकारी चालाक और भ्रष्ट डीएवी संगठन के दबदबे और साठगाँठ के कारण मूकदर्शक बने हुए हैं। सरकार और विश्वविद्यालय की निष्क्रियता और मिलीभगत के कारण कुछ गैर-सरकारी मान्यता प्राप्त कॉलेजों को शिक्षकों को कम पैसे देने और कुप्रबन्धन से उबरने से बचने में मदद मिलती है। नतीजतन ऐसे कॉलेजों, विशेष रूप से डीएवी कॉलेजों के खिलाफ मुकदमों की बहुतायात रहती है। सही मानकों पर ज़ोर देने की इच्छा के लिए कोई वैधानिक विकल्प नहीं हैं। कई मामलों में शीर्ष अदालत ने माना है कि उच्च न्यायालय के निर्देश भी विश्वविद्यालय के कानून के विपरीत नहीं जा सकते। यदि कोई अदालत ऐसा करती है, तो इसका मतलब है कि यह कानून की अवज्ञा करने का अधिकार जाता रहा है; जो कि असंगत है।

कई लाख छात्र प्रवेश के लिए हर साल कई प्रवेश परीक्षाओं में शामिल होते हैं। व्यवसाय कार्ड प्रत्येक परीक्षण के लिए कुछ ऐसा शुल्क दिखाता है- जेईई 1300 रुपये, कैट 2000 रुपये, सीएमएटी 400 रुपये, एसएनएपी 1750 रुपये, एनएमएटी 2000 रुपये और आईआईएफटी 2000 रुपये। इंजीनियरिंग स्ट्रीम के लिए एक इच्छुक कम-से-कम छ: परीक्षणों में शामिल होता है और परीक्षा में लगभग 10,000 रुपये खर्च करता है। मेडिकल, यूजीसी नेट, आईसीएआर, सीएसआईआर नेट आदि के लिए भी यही स्थिति है। इन परीक्षाओं के लिए कोचिंग शुल्क अतिरिक्त है। वास्तव में 2019 में मद्रास उच्च न्यायालय को बताया गया था कि केवल दो फीसदी छात्र, जिनके पास कोचिंग नहीं है; को ही अच्छे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश मिल पाता है। सितंबर, 2020 में अनुमानित 22 लाख छात्र जेईई की परीक्षा में शामिल हुए। जेईई के लिए औसत फीस संग्रह 85 करोड़ रुपये है। राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) अब चिकित्सा और विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा के लिए जेईई और एनईईटी आयोजित करती है। वर्तमान राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ऑनलाइन मूल्यांकन और परीक्षाओं में इस परीक्षण को दोहराया जाता है। इस शीर्षक के तहत इस्तेमाल की जाने वाली भाषा एक वाणिज्यिक भर्ती एजेंसी की है, न कि एक अनुभवी शैक्षणिक एजेंसी की।

स्कूली शिक्षा के लिए भारत में अनुमानित बाज़ार का आकार 52 बिलियन डॉलर, जिसमें स्नातक शिक्षा का 15 बिलियन डॉलर,  व्यावसायिक शिक्षा का पाँच बिलियन डॉलर और प्रवेश परीक्षण व्यवसाय 23 बिलियन डॉलर का है। इसका अर्थ है 2.05 लाख करोड़ रुपये का वृहद बाज़ार। वार्षिक परीक्षाएँ मूल रूप से स्कूल शिक्षा बोर्डों द्वारा संचालित की जाती हैं। विश्वविद्यालयों द्वारा स्नातक और स्नातकोत्तर परीक्षाएँ आयोजित की जाती हैं; क्योंकि इन्हें परिणामों के आधार पर प्रतियाँ जाँचने, मूल्यांकन करने और डिग्री / प्रमाण पत्र / डिप्लोमा देने का उनका अधिकार है। अधिकांश विश्वविद्यालयों में शानदार, विश्वसनीय और मज़बूत प्रणाली है। किसी भी प्रकार की परीक्षा या परीक्षा आयोजित करने के लिए 100 से अधिक वर्षों के अनुभव के साथ। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें कॉर्पोरेट लॉबिंग के माध्यम से ऐसी चालाक निजी एजेंसियों के साथ बदल दिया गया है, जिनके पास न तो शिक्षण में अनुभव है और न ही पढ़ाने की प्रक्रिया। वास्तव में ये परीक्षण एजेंसियाँ एक ही विश्वविद्यालय परीक्षा प्रणाली पर निर्भर करती हैं। जनता के पैसे से बनाये गये देश के लगभग 450 विश्वविद्यालयों का बहुत बड़ा बुनियादी ढाँचा बर्बाद हो गया है।

हम अब एक ऐसे दुष्चक्र में प्रवेश कर गये हैं, जो मार्गदर्शन और शिक्षा नहीं देता है, बल्कि केवल परीक्षण करता है। शिक्षण, अनुसंधान, विस्तार और परीक्षण सहित सैकड़ों वर्षों की विरासत वाले शिक्षा बोर्डों और विश्वविद्यालयों की विशाल प्रणाली को इस मेगा 2.5 लाख करोड़ के बाज़ार को सौंपने का मार्ग प्रशस्त किया गया है; पूरी तरह निजी ऑपरेटरों के लिए। अंतत: पीडि़त लाखों निर्दोष छात्र और उनके असहाय माता-पिता हैं, जिन्हें वास्तविक शिक्षा के लिए नहीं, बल्कि परीक्षण के लिए पैसे देने पड़ते हैं; उन एजेंसियों को, जो कभी पढ़ाती नहीं हैं और जिनके पास शिक्षा का कोई विचार नहीं है। पूरी प्रक्रिया अकादमिक शिक्षण मॉडल का हिस्सा नहीं है, और न ही ज्ञान प्राप्त करने और उपयोग करने की उच्च शिक्षा प्रक्रिया के बुनियादी पहलू से सम्बन्धित है।

वर्तमान परीक्षण एक शुद्ध व्यवसाय मॉडल है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय व्यावसायिक स्कूलों द्वारा विकसित किया गया है और विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से थोप दिया गया है। फिक्की और दूसरे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समूह भारत में शिक्षा सेवा बाज़ार की सीमा को समझने में कूद पड़े हैं। सरकार के धन से एक परीक्षण एजेंसी की स्थापना और फिर दक्षता, जवाबदेही, पारदर्शिता और सम्भावना के अतार्किक कारण बताकर उसका निजीकरण करके आज विभिन्न परीक्षाओं के लिए उम्मीदवारों का परीक्षण पैसा कमायी का सबसे आकर्षक ज़रिया बन गया है। शिक्षा प्रणाली में सीखने का मतलब रटने और याद करने से नहीं है। यह वह प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षार्थी सामग्री की अवधारणा करता है और यह समझता है कि वास्तविक जीवन की समस्याओं को हल करने के लिए कौशल और ज्ञान कैसे लागू किया जाए। प्राचीन भारत में शिक्षा का यही उद्देश्य था। इसे प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका है कि हर स्तर पर शिक्षण को आनंदमय बनाना।