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लगातार पांचवीं बार पीडीपी की अध्यक्ष बनीं महबूबा मुफ्ती

महबूबा मुफ्ती लगातार पांचवीं बार जम्मू-कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष चुन ली गई हैं। पार्टी की हुई बैठक में यह फैसला सर्वसम्मति से लिया गया। वर्ष 2009 से ही महबूबा मुफ्ती पीडीपी की कमान संभाले हुए हैं। अब अगले तीन वर्षों के लिए फिर से उनको पार्टी की कमान सौंप दी गई है।
अध्यक्ष पद के चुनाव की औपचारिकता को निभाने के लिए निर्वाचक मंडल की बैठक हुई, जिसमें श्रीनगर में महबूबा मुफ्ती और जम्मू में महासचिव सुरेंद्र चैधरी मौजूद रहे। निर्वाचक मंडल में शामिल सभी नेताओं को इस चुनाव में शिरकत करने के लिए कहा गया था।

महबूबा मुफ्ती का कार्यकाल 22 फरवरी 2024 तक रहेगा। अब महबूबा केंद्र शासित प्रदेश में पार्टी के विस्तार पर काम करेंगी। इस दौरान वे प्रदेश उपाध्यक्षों से लेकर महासचिवों, कोर ग्रुप और जिला अध्यक्षों में भी बड़ा परिवर्तन कर सकती हैं।
पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने आरोप लगाया कि जम्मू कश्मीर में विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन की कवायद भाजपा की क्षेत्रों, धर्मों और समुदायों को एक दूसरे के खिलाफ “खड़ा करने और बांटने की बड़ी साजिश” के तहत कर रही है। उन्होंने ट्वीट किया कि केंद्र जिस तेजी के साथ जम्मू कश्मीर में परिसीमन करने की हड़बड़ी में है उससे इस कवायद के पीछे के मकसद को लेकर गंभीर संदेह पैदा होता है। यह क्षेत्रों, धर्मों और समुदायों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने और विभाजित करने की बड़ी साजिश का हिस्सा है।

बता दें कि केंद्र सरकार ने पिछले साल छह मार्च को जम्मू कश्मीर के लिये परिसीमन आयोग का गठन किया था। परिसीमन की प्रक्रिया के संदर्भ में सुझावों और विचारों के लिये आयोग की पहली बैठक गत वीरवार को हुई थी। बैठक में पांच सहायक सदस्यों में से केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह और भाजपा नेता व जम्मू से सांसद जुगल किशोर शर्मा ने भी शिरकत की थी। आयोग के तीन अन्य सहायक सदस्य नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद फारूक अब्दुल्ला, मोहम्मद अकबर लोन और हसनैन मसूदी बैठक में शामिल नहीं हुए थे। नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसदों ने आयोग को सूचित किया था कि वे इस प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लेंगे क्योंकि जम्मू कश्मीर का विशेष दर्ज रद्द किये जाने का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। 

मोदी सरकार के नए क़ानून किसानों के नहीं पूंजीपतियों के लिए : प्रियंका गांधी

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पांव जमाने में जुटीं पार्टी प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी किसानों के आंदोलन के तेज होते ही किसान महापंचायतों का आयोजन कर रही हैं और इसमें खूब संख्या में लोग जुट भी रहे हैं। प्रियंका ने ऐसी ही एक महापंचायत को आज बिजनौर के चांदपुर के रामलीला मैदान में में संबोधित किया और कहा कि तीन कृषि क़ानून किसानों के लिए नहीं बनाए गए हैं बल्कि पूंजीपतियों के लिए बनाए गए हैं। पने भाषण के बाद उन्होंने आंदोलन में शहीद होने वाले किसानों के लिए दो मिनट का मौन भी रखा।

प्रियंका ने सीधे प्रधानमंत्री पर हमला करते हुए कहा कि देश का किसान टूट चूका है। विरोध के बाद भी सरकार ने क़ानून वापस नहीं लिए। किसानों से सिर्फ वादे हुए उनकी कोई मांग नहीं मानी गयी। प्रियंका ने कहा – ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दो बार जनता ने चुना, क्योंकि उनसे लोगों को कुछ उम्मीद रही होगी। उन्होंने बार-बार रोजगार, किसानों की बात की, लेकिन अब उनके राज में कुछ नहीं हो रहा है।’

कांग्रेस नेता ने सवाल किया कि 2017 से राज्य में गन्ने का मूल्य ही नहीं बढ़ा। ‘पीएम मोदी ने किसानों का बकाया पूरा नहीं किया, लेकिन अपने लिए 16 हजार करोड़ हवाई जहाज खरीद लिए हैं। मोदी सरकार जो नए कानून लाई है, उससे उद्योगपति जमाखोरी कर सकते हैं।’

गांधी ने आगे कहा – ‘मोदी सरकार जो क़ानून लाई है उससे अब सरकारी मंडी में टैक्स लिया जाएगा। प्राइवेट मंडियों में एमएसपी मिलना ही बंद हो जाएगा। साथ ही फसल लेनी है या नहीं, वो उद्योगपति की मर्जी होगी। नए कानून से सिर्फ उद्योगपतियों का भला होगा और किसानों की कहीं पर सुनी ही नहीं जाएगी।’

प्रियंका ने कहा – ‘पीएम मोदी अमेरिका, चीन और पाकिस्तान जा सकते हैं, लेकिन दिल्ली में बैठे किसानों से नहीं मिल सकते हैं। पीएम ने किसानों का मजाक उड़ाया और उन्हें आंदोलनजीवी-परजीवी बताया। मोदीजी आप देशभक्त और देशद्रोही में फर्क नहीं पहचान पाए। जिन्होंने आपको सत्ता पर बैठाया है, उनका आदर कीजिए और इन कानूनों को वापस लीजिए। इस सरकार के कार्यकाल में किसान, गरीब की कमर तोड़ी गई और अमीरों की मदद की गई है।’

प्रियंका गांधी ने आंदोलन में जिन किसानों की मृत्यु हुई उनके लिए दो मिनट का मौन भी रखवाया। इससे पहले बिजनौर जाते हुए प्रियंका गांधी के स्वागत में कार्यकर्ताओं की हर जगह भीड़ रही। हापुड़ में पार्टी कार्यकर्ताओं ने गांधी का जबरदस्त स्वागत किया।

बिजनौर जिला कांग्रेस कमेटी ने प्रियंका गांधी की रैली के लिए जोरदार तैयारी की थी। बता दें प्रियंका कांग्रेस पार्टी के साथ किसानों को कृषि कानूनों के खिलाफ जागरूक कर रही हैं। इस बहाने वे पार्टी संगठन को सक्रिय करने में सफल हो रही हैं।

याद रहे 10 फरवरी को गांधी ने सहारनपुर के चिलकाना में भी बड़ी किसान महापंचायत को संबोधित किया था। इसके अलावा उन्होंने मां शाकंभरी देवी मंदिर में दर्शन और रायपुर स्थित खानकाह में हजरत रायपुरी की दरगाह में जियारत की थी। इसके कुछ दिन बाद प्रियंका ने 11 फरवरी को मोनी अमावस्या के दिन संगम में डुबकी लगाई थी और खुद ही नाव चलकर किसणारे तक पहुँची थीं जिसका वीडियो भी खूब वायरल हुआ था।

पार्टी के मुताबिक आज प्रियंका की बिजनौर महापंचायत में 20 हजार के करीब किसान पहुंचे हैं। यूपी विधानसभा चुनाव से पहले प्रियंका की इस सक्रियता से भाजपा भी चौकन्नी दिख रही है क्योंकि लोगों का प्रियंका को ख़ासा समर्थन मिल रहा है। अभी तक यह चर्चा रही है कि प्रियंका गांधी को कांग्रेस उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए आगे कर सकती है लेकिन पार्टी सूत्रों के मुताबिक प्रियंका कांग्रेस की जीत होने की सूरत में उत्तर प्रदेश के नेताओं में से ही किसी को सीएम पद देने के हक़ में हैं।

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय और विधायक अजय लल्लू पूरी ताकत से पार्टी कार्यकर्ताओं को एकजुट करने में जुटे हुए हैं।

विश्व हिंदू परिषद ने दिल्ली पुलिस को रिंकू शर्मा हत्याकांड में तीन दिन का दिया अल्टीमेटम

दिल्ली के मंगोलपुरी में 10 फरवरी की देर रात 25 वर्षीय रिंकू शर्मा नाम के युवक की बेरहमी से चाकू गोदकर हत्या कर दी गर्इ थी। इस हत्याकांड की जांच क्राइम ब्रांच को सौंप दी गर्इ है। व फॉरेंसिक टीम भी इस मामले की जांच कर साक्ष्य जुटाएगी।

इस हत्याकांड में मंगोलपुरी पुलिस ने पांच आरोपियों को गिरफ्तार भी किया है। पुलिस के मुताबिक रिंकू बाबू नाम के शख्स की जन्मदिन की पार्टी में शामिल हुए थें। जिसमें सभी दोस्त इकट्ठे हुए थे। इसी पार्टी में किसी बात को लेकर छोटा-सा झगड़ा हुआ जिसके बाद रेस्टोरेंट से बाहर निकलने के बाद इस वारदात को अंजाम दिया गया।

इस मामले में आरोपियों की गिरफ्तारी के लिए विश्व हिंदू परिषद ने दिल्ली पुलिस को तीन दिन का टाइम दिया है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि रिंकू शर्मा बीजेपी व बजरंग दल के यूथ विंग का सदस्य भी था। हालांकि आशंका यह भी जतार्इ जा रही है कि रिंकू राम मंदिर के चंदा इकट्ठा करने के अभियान में शामिल था। इसलिए भी उसकी हत्या की गर्इ है।

एक तरफ जहां पुलिस पीआरओ का कहना है कि यह हत्याकांड मामला कारोबार के चलते प्रतिस्पर्धा से संबंधित है। वहीं दूसरी तरफ रिकूं के बड़े भार्इ मनू शर्मा का कहना है कि दशहरे वाले दिन राम मंदिर पार्क में प्रोग्राम को लेकर इन चार आरोपियो और रिंकू के बीच कहासुनि हुर्इ थी और उसी दिन से लगातार यह लोग रिंकू को धमकियां भी दे रहे थे।

रिंकू के लिए एक्टर कंगना रनौत और कर्इ नामी लोग लगातार न्याय की मांग कर रहे है। साथ ही ट्विटर पर लगातार लोग #JusticeForRinkuSharma  के लिए गुहार लगा रहे है। और लाखों लोग इस पर ट्वीट कर चुके है।

उत्तराखण्ड में कहर: ग्लेशियर टूटने से हुआ विध्वंस बताता है कि कुदरत हमसे कितनी खफा है

विज्ञान पत्रिका ‘साइंस एडवांसेज’ की हाल की एक रिपोर्ट बताती है कि हिमालय के लगभग 650 ग्लेशियर ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण तेज़ी से पिघल रहे हैं; जिससे हिन्दूकुश हिमालय क्षेत्र के भारत सहित आठ देशों को गम्भीर खतरा पैदा हुआ है। उधर भारतीय अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि पिछले कुछ साल में ही सतलुज, चिनाब, रावी और ब्यास बेसिन पर 100 से अधिक नयी झीलें बन गयी हैं। सन् 2014 में सतलुज घाटी में 391 ग्लेशियर झीलें थीं, जिनकी संख्या बढ़कर अब 500 हो गयी है। यह आँकड़े उत्तराखण्ड में फरवरी में ग्लेशियर टूटने से आयी विभीषिका और भविष्य के खतरों को इंगित करते हैं। कहा जा सकता है कि पर्यावरण असन्तुलन, घटते पेड़ों और इससे पैदा होती गर्मी ने हमें गम्भीर खतरे के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है। एक अध्ययन के मुताबिक, यदि ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे के मद्देनज़र चलाये जा रहे ग्लोबल क्लाइमेट (वैश्विक जलवायु) प्रयास नाकाम हुए, तो साल 2100 तक हिमालय क्षेत्र के दो-तिहाई ग्लेशियर पिघल चुके होंगे। भारत की बात करें, तो ‘तहलका’ की जानकारी बताती है कि ग्लेशियरों के खतरे और कारणों को लेकर देश भर में अब तक एक दर्ज़न से ज़्यादा विस्तृत अध्ययन डरपोट्र्स दी गयी हैं; लेकिन सरकार की तरफ से इस खतरे से निबटने के लिए कुछ खास नहीं किया गया है।

अध्ययन बताते हैं कि हिमालय से लेकर ग्रीनलैंड तक ग्लेशियरों के पिघलने का क्रम बढ़ता जा रहा है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रीनलैंड और अंटार्कटिक में बर्फ की परत लगभग हर साल 400 अरब टन कम हुई है। इससे न केवल समुद्र के स्तर के बढऩे की सम्भावना जतायी जा रही है, बल्कि कई देशों के प्रमुख शहरों के डूबने का खतरा भी बढ़ गया है। जो शहर समुद्र के बढ़ते स्तर से ज़्यादा प्रभावित होंगे, उसमें भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई और पूर्व राजधानी कोलकाता जैसे बड़े शहर भी शामिल हैं। साइंस एडवांसेज में प्रकाशित अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका के 70 और 80 के दशक में अंतरिक्ष में भेजे गये जासूसी उपग्रह से मिले चित्रों को थ्रीडी मॉड्यूल में बदलने से किये गये शोध में खुलासा हुआ है कि सन् 1975 से 25 साल तक हिमालय रेंज के ग्लेशियर जहाँ हर साल 10 इंच तक घट रहे थे, वहीं सन् 2000 से सन् 2016 के बीच हर साल औसतन 20 इंच तक घट गये। अध्ययन में पाया गया कि 2,000 किलोमीटर से ज़्यादा लम्बी पट्टी में फैले हिमालयन क्षेत्र का तापमान एक डिग्री से ज़्यादा तक बढ़ चुका है, जिसकी वजह से ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो गयी है।

बिजली परियोजनाओं और बाँध भी बाढ़ और तबाही का सबसे बड़ा कारण बन रहे हैं; खासकर पहाड़ी राज्यों में। सर्वोच्च न्यायालय की गठित एक समिति तक ने सिफारिश की थी कि उत्तराखण्ड जैसे राज्यों में और बाँध नहीं बनने चाहिए। लेकिन सरकारों ने इसे भी नज़रअंदाज़ कर दिया। केंद्रीय जल बोर्ड के मुताबिक, देश में 5,334 बड़े बाँध हैं; जबकि 411 निर्माणाधीन हैं। इनमें से केवल 34 में ही आपदा प्रबन्धन योजना लागू है। उत्तराखण्ड, हिमाचल और अरुणाचल प्रदेश में बिजली परियोजनाएँ और बाँध लोगों का चैन छीन रहे हैं।

याद करें 15-16 जून, 2013 की सुबह उत्तराखण्ड में चैराबाड़ी ग्लेशियर के टूटने की घटना, जिसने केदारनाथ में तबाही मचा दी थी। एक अनुमान के मुताबिक, इस घटना में 10,000 लोगों की जान चली गयी थी। हालाँकि सरकारी आँकड़े कहते हैं कि इस त्रासदी में 5748 लोगों की जान गयी थी। विशेषज्ञ उत्तराखण्ड में ग्लेशियर टूटने की एक बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन को मान रहे हैं। हिमालय का क्षेत्र अन्य पर्वत शृंखलाओं की तुलना में कहीं तेज़ी से गर्म हो रहा है। तापमान बढ़ाने में लकड़ी की जगह लेने वाले कंक्रीट-सीमेंट के ढाँचों का योगदान भी काफी है। यदि पूरे हिमालय क्षेत्र की बात करें, तो 8000 से अधिक ग्लेशियर झीलें हैं, जिनमें 200 को खतरनाक की श्रेणी में रखा गया है। उत्तराखण्ड सरकार ने 2007-08 में एक विशेषज्ञ कमेटी का गठन इसकी जाँच के लिए किया था। इसकी रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकला था कि सिर्फ उत्तराखण्ड क्षेत्र में 50 से अधिक ग्लेशियर गर्मी के कारण तेज़ी से आकार बदल रहे हैं। हाय मैप रिपोर्ट, जिसे आईसीआईएमओडी ने तैयार किया है, ग्लेशियर से जुड़े खतरों के वैश्विक तापमान से सम्बन्धों के खतरों से आगाह करती है। इसमें कहा गया है कि हिन्दूकुश हिमालय क्षेत्र में दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में तेज़ी से खतरा बढ़ रहा है।

उत्तराखण्ड स्थित जी.बी. पन्त राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान के एक अध्ययन में कहा गया है कि हिमालय के ग्लेशियर साल दर साल छोटे हो रहे हैं। ग्लेशियरों में आ रहा ये बदलाव बड़े संकट की ओर इशारा कर रहा है। ग्लेशियर टूटने से जैसा तांडव चमोली में मचा है, वैसा कम ही दिखायी देता है। जी.बी. पन्त राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान ने अपने अध्ययन में पाया है कि साल दर साल हिमालय रेंज के ग्लेशियर छोटे हो रहे हैं। संस्थान ने पिथौरागढ़ के बालिंग और अरुणाचल के खागरी ग्लेशियर का गहन अध्ययन किया था। स्पेस एप्लीकेशन सेंटर अहमदाबाद की मदद से किये गये इस अध्ययन में पाया गया कि दोनों ग्लेशियर हर साल 8 मीटर घट रहे हैं। जी.बी. पन्त राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी किरीट कुमार कहते हैं कि हिमालय रेंज में सभी ग्लेशियर घट रहे हैं। उन्होंने अपने अध्ययन-2 ग्लेशियरों को शामिल किया और पाया गया कि दोनों ग्लेशियरों की ऊँचाई हर साल 8 मीटर के करीब घट रही है। ग्लेशियरों की घट रही ऊँचाई का कारण मानव का जंगलों में बढ़ता हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के अलावा जंगलों की आग को बताया गया है।

उत्तराखण्ड में 7 फरवरी की भयंकर तबाही वाली घटना की जाँच और कारणों का पता लगाने के लिए केंद्र ने पाँच वैज्ञानिकों का एक दल वहाँ भेजा था। इसकी शुरुआती रिपोर्ट में कहा गया है कि एक ढीली हो गयी चोटी और एक चट्टान के ऊपर बहुत कमज़ोर हालत में टिके एक ग्लेशियर के कारण आपदा आयी। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (देहरादून) की टीम घटनास्थल पर गयी और पूरे इलाके को ट्रैक किया (समझा)। इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने पाया कि यह आपदा चट्टान के फिसलने और रौंठी ग्‍लेशियर इलाके में एक हैंगिंग ग्‍लेशि‍यर के कारण बनी। घटना का मूल दो चोटियों- रौंठी और मृगथूनी के पास था।

वैज्ञानिकों के मुताबिक, हो सकता है कि एक चोटी, भारी और ठोस स्‍ट्रक्‍चर, प्राकृतिक कारणों से टूटकर अलग हुई और अपने नीचे के ग्‍लेशियर पर गिर गयी, जो समुद्रतल से करीब 5,600 मीटर की ऊँचाई पर था। इससे ग्‍लेशियर टकड़ों में विभाजित हो गया और चट्टान के मलबे के साथ मिल गया। चट्टान और बर्फ का यह जोड़ बहुत तेज़ी से 37 डिग्री वाली सीधी ढलान से नीचे आते हुए करीब 3,600 मीटर की ऊँचाई पर रौंथी गधेरा धारा से टकरा गया। जब यह नदी से टकराया, तो बाँध जैसा एक स्‍ट्रक्‍चर बन गया और बर्फबारी की वजह से कुछ समय तक टिका रहा। अपनी रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने पिछले साल सितंबर से वहाँ जमा पानी और उन ऑब्‍जेक्‍ट्स (वास्तुस्थितियों) की तस्वीरें लगायी हैं जब वो स्‍ट्रक्‍चर वहाँ नहीं था।

वैज्ञानिक अब ये पता लगाने की जुगत में हैं कि चोटी आखिर टूटी कैसे? वैज्ञानिकों की सम्भावना के मुताबिक, चट्टान जहाँ से गिरी, वो एक कमज़ोर क्षेत्र था। ऐसा कई साल में एक बार होता है। यह अचानक होने वाली घटना नहीं है, जैसा बादल फटने या सन् 2013 केदारनाथ त्रासदी के समय हुई थी। इन वैज्ञानिकों ने रिपोर्ट में सिफारिश की है कि भारत के सभी 26 ग्‍लेशियरों की लगातार निगरानी ज़रूरी है और ऐसा करके ही भविष्य में आपदा से बचने या उसके प्रभाव को कम करने में मदद मिल सकती है।

रूह कँपा देने वाला मंज़र

7 फरवरी की वह रात बहुत भयानक थी। उत्तराखण्ड के चमोली ज़िले में ग्लेशियर फटने के बाद आयी बाढ़ बहुत कुछ अपने साथ बहाकर ले गयी-  ज़िन्दगियाँ, सम्पदा, बिजली परियोजना और बहुत कुछ। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक 36 लोगों के शव मिले थे और प्रशासन के मुताबिक, 170 लोग अभी भी लापता हैं। घटना के इतने बाद भी ज़िन्दगी सामान्य नहीं हो पायी है। घटना के बाद देवप्रयाग से हरिद्वार तक हाई अलर्ट जारी किया गया। राज्य में सभी ज़िलों के ज़िलाधिकारियों को हालात पर नज़र रखने के लिए कहा गया है।

चमोली की आपदा ने लोगों के मन में सन् 2013 में केदारनाथ धाम की त्रासदी की याद ताज़ा कर दी। करीब साढ़े 6 साल बाद चमोली की बाढ़ ने अब फिर वो सारे दृश्य नज़रों के सामने ला दिये हैं, जिनमें लोगों ने प्राकृतिक आपदा का वह भयानक रूप देखा था। उत्तराखण्ड में ग्लेशियर टूटने से हुई त्रासदी से सुरंग में फँसे लोगों को निकालने के लिए अब ड्रोन कैमरे का इस्तेमाल किया जा रहा है। आईटीबीपी, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और अन्य एजेंसियाँ पिछले एक हफ्ते से ज़्यादा समय से टनल में रेस्क्यू ऑपरेशन चला रही हैं। तपोवन की टनल से जेसीबी की मशीनें लगातार मिट्टी निकालने का काम कर रही हैं। रेस्क्यू टीम को दर्ज़नों मीटर जमी मिट्टी हटानी है। बाँध के पास छोटी बस्ती में कई परिवार को सुरंग के भीतर फँसे अपनों के बारे में जानकारी का इंतज़ार है। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक लोगों को बचाने या ढूँढने के लिए सेना और अर्धसैनिक बल के करीब 800 जवान दिन-रात जुटे हुए हैं। ग्लेशियर टूटने से आयी बाढ़ की वजह से करीब 175 लोग लापता हो गये। घटनास्थल पर कई मानव अंग मिले हैं। अधिकारियों के मुताबिक, बाढ़ से क्षतिग्रस्त तपोवन-विष्णुगाड हाइड्रो परियोजना की सुरंग में टनों गाद और मलबा जमा हो गया है। इससे बचाव अभियान में आ रही मुश्किलों को देखते हुए उसमें फँसे लोगों को ढूँढने के लिए ड्रोन और रिमोट सेंसिंग उपकरणों की मदद ली जा रही है। ऋषिगंगा घाटी में पहाड़ से गिरी लाखों मीट्रिक टन बर्फ के कारण ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में अचानक आयी बाढ़ से 13.2 मेगावाट ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना पूरी तरह तबाह हो गयी; जबकि बुरी तरह क्षतिग्रस्त 520 मेगावाट तपोवन-विष्णुगाड परियोजना की सुरंग में काम कर रहे लोग उसमें फँस गये। आपदा प्रभावित क्षेत्र के साथ ही अलकनंदा नदी तटों पर भी लापता लोगों की खोज की जा रही है।

उत्तराखण्ड से राज्यसभा सदस्य और भाजपा नेता अनिल बलूनी ने कहा कि हिमालय, ग्लेशियर और नदियों के बदलते स्वभाव के कारण आ रही आपदाओं को देखते हुए इसके लिए दीर्घकालिक अध्ययन कर उसके अनुरूप आपदा प्रबन्धन तंत्र विकसित किया जाना चाहिए। बलूनी ने राज्यसभा में चमोली में आयी आपदा का मसला उठाते हुए कहा कि हाल के वर्षों में उत्तराखण्ड में ग्लेशियर टूटने, बादल फटने, भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ी हैं। उन्होंने पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय से आग्रह किया कि आपदा की इन परिस्थितियों पर विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता है। हिमालय, ग्लेशियर और नदियों के स्वभाव पर विस्तृत अध्ययन होना ज़रूरी है और फिर इसी के अनुरूप राज्य का आपदा प्रबन्धन तंत्र विकसित किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह अध्ययन न सिर्फ उत्तराखण्ड, बल्कि देश-दुनिया के लिए भी लाभदायक होगा।

सरकारें रहीं निष्क्रिय

तमाम खतरों को देखते हुए विशेषज्ञ इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि पर्यावरण जैसे संवेदनशील मसले को अब अतिसंवेदनशीलता के साथ लिया जाए, ताकि हो रहे बदलावों के असर से इंसानी ज़िन्दगी बचायी जा सके। चमोली ज़िले में रैणी के ग्रामीणों ने इसी खतरे के चलते नैनीताल हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी। गौमुख ग्लेशियर में झील बनने का मामला केदारनाथ आपदा के बाद सन् 2014 में दिल्ली के अजय गौतम की जनहित याचिका के माध्यम से नैनीताल हाईकोर्ट के समक्ष आया था। याचिकाकर्ता ने बताया कि उत्तराखण्ड में ढाई हज़ार के आसपास ग्लेशियर हैं। याचिकाकर्ता ने बताया कि राज्य सरकार के अध्ययन में पाया गया कि 50 से अधिक ग्लेशियर तेज़ी से आकार बदल रहे हैं, लेकिन इसके बाद भी सरकार ने कदम नहीं उठाये। याचिका में कहा गया कि यदि सरकार और सरकारी तंत्र नहीं जागा तो यह स्थिति और खराब होगी। ग्लेशियर पर्यावरणीय लिहाज़ से बेहद संवेदनशील हैं और पर्यावरणविदों का मानना है कि उत्तराखण्ड की नदियों पर बड़े बाँध बनाना काफी खतरनाक है; लेकिन फिर भी बन रहे हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, चमोली ज़िले में ग्लेशियर के टूटने की चेतावनी देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने 8 महीने पहले ही दे दी थी। वैज्ञानिकों ने चेताया था कि उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल के कई इलाकों में ऐसे ग्लेशियर हैं, जो कभी भी टूट सकते हैं। उस समय जम्मू-कश्मीर के काराकोरम रेंज में स्थित श्योक नदीं का उदाहरण दिया गया था, जिसका प्रवाह एक ग्लेशियर ने रोक दिया। इससे वहाँ एक बड़ी झील अब बन गयी है। वैज्ञानिकों का कहना था कि झील में ज़्यादा पानी जमा होने से उसके फटने का खतरा है। वैज्ञानिकों ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर की काराकोरम रेंज सहित पूरे हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों ने नदी का प्रवाह रोक दिया है, जिससे कई झीलें बन गयी हैं, जो बहुत खतरनाक स्थिति है।

इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में उत्तरकाशी स्थित यमुनोत्री, गंगोत्री, डोकरियानी, बंदरपूँछ ग्लेशियर के अलावा चमोली ज़िले में द्रोणगिरी, हिपरावमक, बद्रीनाथ, सतोपंथ और भागीरथी ग्लेशियर स्थित है। सन् 2013 की भयंकर घटना के बाद से वैज्ञानिक लगातार हिमालय के खतरों पर शोध कर रहे हैं। अब तो देहरादून के भू-विज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं ने एक चेतावनी जारी करके कहा है कि ग्लेशियरों के कारण बनने वाली झीलें बड़े खतरे का कारण बन सकती हैं। वैज्ञानिकों ने उत्तराखण्ड के श्योक नदी समेत हिमालयी नदियों पर जो अध्ययन किया है, वह ‘इंटरनेशनल जर्नल ग्लोबल एंड प्लेनेटरी चेंज’ में भी प्रकाशित हुआ है। विशेषज्ञ हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर की स्थिति की लगातार निगरानी पर ज़ोर देते हैं। उनका कहना कि समय रहते चेतावनी का सिस्टम विकसित करना ज़रूरी है, ताकि निचले इलाकों को आबादी को किसी भी नुकसान से बचाया जा सके। इस दिशा में काम चल रहा है।

ठण्डे बस्ते में सुझाव व रिपोट्र्स

उत्तराखण्ड में प्रदेश सरकार ने ग्लेशियरों को लेकर एक विशेषज्ञ समिति गठित की थी, जिसने 7 दिसंबर, 2006 को अपनी रिपोर्ट में कई तात्कालिक और दीर्घकालिक सिफारिशें की थीं। उस समय के मुख्य सचिव एन.एस. नपलच्याल ने प्रदेश सरकार के आपदा प्रबन्धन और पुनर्वास विभाग से कहा था कि यह रिपोर्ट ग्लेशियरों से पैदा होने वाले खतरों को लेकर बहुत उपयोगी रिपोर्ट है और सरकार इन सिफारिशों के आधार पर ठोस कदम उठाएगी।

तात्कालिक सिफारिशों के तौर पर सबसे पहले प्रदेश के उन आबाद इलाकों का चिह्नीकरण किया जाना था, जो ग्लेशियरों से पैदा होने वाले खतरे से प्रभावित हो सकते हैं। इसके साथ ग्लेशियरों के पीछे खिसकने के हाइड्रोलॉजिकल और क्लाइमेटोलॉजिकल आँकड़े जमा किये जाने थे।

 ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, इन आँकड़ों के आधार पर आने वाली बाढ़ और ग्लेशियरों से पानी के बहाव की निगरानी की जानी थी। यही नहीं, सिफारिश यह भी थी कि प्रदेश में स्थापित होने वाले हर हाइड्रो प्रोजेक्ट के लिए नदियों के उद्गम क्षेत्र में मौसम केंद्र स्थापित करना और नदियों के प्रवाह की निगरानी (मॉनिटरिंग) के लिए केंद्र स्थापित करना ज़रूरी हो और ये आँकड़े प्रदेश सरकार को नियमित मिलते रहें। भागीरथी घाटी की केदार गंगा और केदार धाम के आसपास की ग्लेशियल झीलों की लगातार निगरानी हो और उससे आने वाले पानी की निगरानी भी हो।

रिपोर्ट में सिफारिश की गयी थी कि डीएमएमसी स्कूल और कॉलेज आदि में ग्लेशियरों से जुड़ी आपदाओं व दुर्घटनाओं के प्रति बच्चों और स्थानीय लोगों को सचेत किया जाए। कक्षा 9 से लेकर 12 तक की पाठ्य पुस्तकों में ग्लेशियरों या अन्य कारणों से आने वाली आपदाओं के बारे में जानकारी दी जाए। यह भी कहा गया था कि गौमुख के गंगोत्री ग्लेशियर व सतोपंथ ग्लेशियरों में पर्यटकों पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाया जाए। इसके लिए पर्यावरण संरक्षण कानून-1986 के प्रावधानों की मदद ली जा सकती है। इसके साथ नियमित ग्लेशियल वुलेटिन को ऑडियो या वीडियो मीडिया के ज़रिये जारी करने कोशिश की जाए।

विशेषज्ञ समिति ने दीर्घकालिक सिफारिशें भी की थीं, जिनमें इसमें कहा गया था कि ग्लेशियरों और ग्लेशियल झीलों के बड़े परिमाण यानी 1:25000 के मानचित्रों के साथ की इनवेंट्री बनायी जाए। इसमें उनकी पहचान भी स्पष्ट की जाए। उनकी स्नोकवर मैपिंग की जाए यानी बर्फ की चादर का नक्शा बनाया जाए और जाड़ों में स्नोकवर पैटर्न का आकलन किया जाए।

निगरानी सिस्टम को मज़बूत करने के लिए एडब्ल्यूएस नेटवर्क के ज़रिये पर्यावरण और बर्फ, ग्लेशियल झीलों, उनके बनने और सम्भावित विभीषका की निगरानी हो। बर्फ के गलने और उस पर जल दाब व मलबे के भार का आकलन हो।

रिपोर्ट में इस बात की ज़ोर देकर सिफारिश की गयी थी कि ग्लेशियरों के सिकुडऩे, उनकी द्रव्यमान मात्रा (मास वॉल्यूम) में हो रहे बदलाव और स्नोलाइन की निगरानी हो, ताकि पर्यावरण की बेहतर समझ पैदा हो सके। ग्लेशियरों की वजह से बाँधों उनके जलाशयों और जल विद्युत परियोजनाओं की सुरक्षा को पैदा होने वाले खतरों का पहले से आकलन कर लिया जाए। यही नहीं प्रभावी योजना और प्रबन्धन के लिए सभी हिमालयी ग्लेशियरों की जानकारी को जियोग्राफिकल इनफॉरमेशन सिस्टम (जीआईएस) के ज़रिये संकलित और एकीकृत किया जाए। आज तक इस रिपोर्ट और उसकी सिफारिशों पर कुछ नहीं हुआ और यह रिपोर्ट आज उत्तराखण्ड सरकार की आलमारियों में कहीं धूल फाँक रही है।

हिमाचल में भी अलर्ट

हिमाचल अक्सर बादल फटने की घटनाओं से पीडि़त रहा है। यह भी पर्यावरण के असन्तुलन का ही नतीजा है। अब उत्तराखण्ड के चमोली में ग्लेशियर टूटने से हुई बड़ी तबाही के बाद हिमाचल प्रदेश में भी ग्लेशियर टूटने के खतरे को लेकर अलर्ट जारी किया गया है। उत्तराखण्ड और हिमाचल में ग्लेशियर की संख्या लगभग समान है।

हालाँकि हिमाचल में ग्लेशियरों का खतरा कम माना जाता है, जहाँ बादल फटने की घटनाएँ ज़रूर बड़े पैमाने पर तबाही मचाती रही हैं। अब तक हज़ारों लोगों ने इन घटनाओं में अपनी जान गँवायी है। वैसे दोनों राज्यों में ग्लेशियर के खतरे वाले जोन और भौगोलिक परिस्थितियाँ भिन्नता है। हिमाचल के लाहुल स्पीति के छोटा शिगरी और जिंगजिंगबार (पटसेउ) ग्लेशियर पर शोध करने वाले केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला में बतौर पर्यावरण विज्ञान और ग्लेशियर के जानकार असिस्टेंट प्रोफेसर अनुराग कहते हैं कि उत्तराखण्ड और हिमाचल में ग्लेशियर टूटने से होने वाले खतरों में काफी अन्तर है। उत्तराखण्ड में ग्लेशियरों के आसपास लोग बसे हैं। उत्तराखण्ड की घाटियाँ सँकरी हैं और यहाँ लोग नदी-नालों के आसपास अधिक बसे हैं। लाहुल स्पीति और किन्नौर आदि क्षेत्रों में ऐसा नहीं है। लाहुल के अधिकतर ग्लेशियर टूटकर चंद्राभागा नदी में गिरते हैं। यहाँ लोग नदी किनारे नहीं बसे हैं और आबादी भी कम है। क्षेत्रफल अधिक होने से गाँव दूर-दूर बसे हैं।

शोधकर्ता और विशेषज्ञ कहते हैं कि ग्लेशियर तब अधिक टूटते हैं, जब पिघलकर पानी उसके अन्दर चला जाता है और उसकी स्टोरेज रडार सर्वे से पता नहीं चल पाती है। अनुराग कहते हैं कि ग्लेशियर के खतरे से बचने के लिए लोगों को जोखिम क्षेत्र (रिस्की जोन) में घर नहीं बनाने चाहिए। उनके मुताबिक, जोखिम क्षेत्रों के साथ बहने वाले नदी-नालों से भी लोगों को दूर बसना चाहिए।

बर्फबारी के बाद अब सेंटर फॉर स्नो एंड एवलॉन्च अध्ययन इस्टैब्लिशमेंट (सासे) ने हिमाचल के कुल्लू ज़िले के खनाग-जलोड़ी दर्रे से सोझा क्षेत्र के साथ सोलंगनाला, सोलंग-धुंधी-व्यासकुण्ड, अटल टनल के साउथ पोर्टल, कोकसर-छतडू-बातल, काजा-ताबो- समदो, कृपा- कड़छम-सांगला- छितकुल, नारकंडा से ठियोग, क्लाथ, नेहरूकुण्ड-कुलंग- पलचान- कोठी, कोठी-रोहतांग दर्रा-कोकसर-सिस्सू-तांदी, तांदी-केलांग-दारचा, दारचा-जिंगजिंगबार, अटल टनल के नॉर्थ पोर्टल- सिस्सू-तांदी, जिंगजिंगबार-बारालाचा-सरचू, सरचू- लाचूंगला दर्रा, तंगलंगला, तांदी-कीर्तिंग- थिरोट-कुकमसेरी- त्रिलोकीनाथ, उदयपुर, थमोह-किलाड़, किलाड़-बरवास, गाहर-कालावन-रानीकोट और ट्रैक रूट मणिमेहश में हिमखण्ड गिरने के खतरे की चेतावनी जारी की है।

मनाली से अटल टनल के मध्य और टनल से ज़िला लाहुल स्पीति में कई ऐसे स्थान हैं, जहाँ अक्सर हिमस्खलन आते रहते हैं और आजकल भी इन स्थानों पर हिमस्खलन आने की सम्भावानाएँ बनी हुई हैं। ऐसे में प्रशासन ने सभी लोगों की सुरक्षा को देखते हुए अटल टनल की और जाने वाले वाहनों पर रोक लगायी हुई है। उत्तराखण्ड में चमौली में ग्लेशियर टूटने के बाद आये सैलाब के बाद हिमाचल सरकार भी सतर्क हुई है।

हिमालय में ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन परिदृश्य के तहत पीछे हट रहे हैं। यह एक वैश्विक घटना है। समय बीतने के साथ कुछ हिम झीलें (ग्लेशियल लेक्स) अन्तिम पड़ाव (टर्मिनस) के पास अक्सर एक साथ जमा होती हैं और हिम (बर्फ) में आया हुआ मलबा (ग्लेशियल मोरेन) द्वारा क्षतिग्रस्त बड़ी हिम झीलों का निर्माण होता है। ढीले बोल्डर, बजरी, रेत के मिश्रण होते हैं; जिनमें अक्सर बर्फ होती है, जो इन बाँधों में अंतर्निहित कमज़ोरी होती है। ये झीलें हिमालय के ग्लेशियरों को कवर करती हैं, जिसमें ग्लेशियर का निचला हिस्सा बहुत धीरे-धीरे चलता है और कई बार स्थिर रहता है। इसे हिम झील बाढ़ का प्रकोप (ग्लेशियल लेक आउटबस्र्ट फ्लड) कहा जाता है। इससे भारी मात्रा में जल स्राव हो सकता है, जिससे बहाव क्षेत्र में पडऩे वाले क्षेत्रों में क्षति हो सकती है। झील अचानक भंग हो सकती है, जिसका कारण थूथन, हिमस्खलन / भूस्खलन की कटाई, मोराइन बाँध में पाइपिंग, जलग्रहण में बादल फट जाना या एक बड़ा भूकम्प आदि कारण हो सकते हैं।

रंजीत रथ, डीजी, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया

ग्लेशियरों की गहराई मापने की योजना

हिमालय पर्वतमाला पर भी वैश्विक तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) का असर पडऩे के मद्देनज़र पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय क्षेत्र में ग्लेशियरों की गहराई मापने की योजना बना रहा है, ताकि वहाँ उपलब्ध जल की मात्रा का आकलन किया जा सके। मंत्रालय में सचिव एम. राजीवन के मुताबिक, इस सिलसिले में परियोजना अगले साल गर्मियों के मौसम में शुरू होगी। मंत्रालय के तहत आने वाले राष्ट्रीय ध्रुवीय और समुद्री अनुसंधान केंद्र (एनसीपीओआर) के निदेशक एम. रविचंद्रन के मुताबिक, देश के सुदूर और अत्यधिक ऊँचाई पर स्थित अनुसंधान केंद्र ‘हिमांश’ भी हिमालय जलवायु का अध्ययन कर रहा है। एनसीपीओआर इस परियोजना का क्रियान्वयन करेगा। इसकी स्थापना सन् 2016 में हुई थी। उन्होंने कहा कि पहले चंद्रा नदी बेसिन में सात ग्लेशियरों का अध्ययन करने की योजना है। चंद्रा नदी, चिनाब नदी की एक बड़ी सहायक नदी है; जबकि चिनाब, सिंधु (नदी) की सहायक नदी है। हिमालय के ग्लेशियर वहाँ (हिमालय) से निकलने वाली नदियों के जल के विशाल स्रोत हैं। हिमालय से निकलने वाली नदियाँ सदानीरा हैं, जो भारत के उत्तरी हिस्से के मैदानी भाग में कई करोड़ लोगों के लिए एक जीवनदायिनी हैं। रविचंद्रन ने कहा कि ग्लेशियरों की गहराई मापने का उद्देश्य उसके घनत्व का पता लगाना है। इससे हमें जल की उपलब्धता समझने में मदद मिलेगी। साथ ही यह भी समझने में मदद मिलेगी कि ग्लेशियर बढ़ रहे हैं या सिकुड़ रहे हैं। उनके मुताबिक, रडार प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाएगा, जिसमें सूक्ष्म तरंग सिग्नल का इस्तेमाल होता है। यह बर्फ की मोटी परत को भेदते हुए उसके पार जा सकती है और चट्टानों तक पहुँच सकती है, जहाँ की तस्वीरें उपग्रह भी नहीं ले सकते हैं। बाद में सिग्नल के चट्टानों पर परावर्तित होने के बाद गहराई समझने में मदद मिलेगी। रविचंद्रन ने कहा कि अमेरिका और ब्रिटेन के पास यह प्रौद्योगिकी है। हम इस प्रौद्योगिकी की मदद ले रहे हैं।

खतरनाक हैं ग्लेशियरों से बनी झीलें

उत्तराखण्ड में ग्लेशियर की वजह से बाढ़ की घटना ने फिर कई सवाल खड़े कर दिये हैं। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक बताया गया है कि इस घटना के बाद वहाँ ऋषिगंगा नदी की झील बन गयी है। उत्तराखण्ड में ग्लेशियर टूटने से भीषण सैलाब की घटना के बीच एक खास तथ्य यह है कि कुछ ही महीनों पहले हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों में बन रही झीलों से खतरा शोधकर्ताओं ने भाँप लिया था और इसके बारे में चेताया भी था। शोधकर्ताओं ने कहा था कि हिमालय में कई ग्लेशियल झीलें बन रही थीं, जिनमें से 47 को बेहद खतरनाक मानकर चेतावनी दी गयी थी कि ये फट सकती हैं; जिससे नेपाल, चीन और भारत में बाढ़ और सैलाब जैसे हालात हो सकते हैं। तीनों देशों में कोशी, गंडकी और करनाली नदियों के बेसिन में कुल 3624 ग्लेशियल झीलें देखी गयी थीं। इन शोधकर्ताओं ने देखा कि इन झीलों में से 1410 ऐसी थीं, जो 0.02 वर्ग किलोमीटर या उससे ज़्यादा दायरे में फैली थीं, और कहा गया था कि इनमें से भी 47 झीलों के लिए फौरन शमन (निराकरण) कार्रवाई ज़रूरी थी। नेपाल में संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यक्रम और इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के अंतर्राष्ट्रीय केंद्र आईसीआईएमओडी के विशेषज्ञों ने मिलकर यह रिसर्च की थी, जिसमें देखा गया कि 47 में से एक खतरनाक झील भारतीय क्षेत्र में और 25 तिब्बत तथा 21 नेपाल में थीं।

ग्लेशियरों की झीलों का बढऩा पहाड़ी आबादी और क्षेत्रों के लिए कितना बड़ा खतरा है, यह 2011 की एक अध्ययन से समझा जा सकता है। इसमें पाया गया कि नेपाल में पिछले चार दशक में 24 बार इन झीलों की वजह से बाढ़ आयी। जनजीवन, सम्पत्ति, इंफ्रास्ट्रक्चर के तौर पर करोड़ों का नुकसान इससे होता रहा है। पहले भी कई अध्ययनों में यह कहा जा चुका है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते हिमालय क्षेत्र में जो ग्लेशियर जिस रफ्तार से पिघल रहे हैं, 2100 तक तापमान 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएगा और दो-तिहाई हिमालयी ग्लेशियर पिघल चुके होंगे। ग्लेशियरों के पिघलने से झीलें बढ़ती हैं या पहले से मौज़ूद झीलों का दायरा फैलता है। इन्हीं ग्लेशियर झीलों में हाइड्रोस्टैटिक दबाव के चलते भयानक बाढ़ तक की स्थितियाँ बहुत कम समय के भीतर बन जाती हैं। नासा ने पिछले साल (2020) के एक अध्ययन में पाया कि दुनिया भर में सन् 1990 से सन् 2018 के बीच ग्लेशियर झीलों की संख्या 50 फीसदी तक बढ़ गयी है। इसमें खतरनाक बात यह है कि गंगा नदी को बनाने वाले तीन नदियों के बेसिन में ग्लेशियर झीलों का दायरा सन् 2000 से सन् 2015 के बीच 179 वर्ग किलोमीटर से बढ़कर 195 वर्ग किलोमीटर हो गया है। जिन 47 झीलों को बेहद खतरनाक बताया गया, उनमें से 31 को शोधकर्ताओं ने पहली रैंक पर, 12 को दूसरी और 4 को तीसरी रैंक पर रखा, ताकि इनसे पैदा होने वाले खतरे को प्राथमिकता से समझा जा सके। शोधकर्ताओं की रिपोर्ट की मानें तो गंगा की सहायक नदी कोशी के बेसिन में ग्लेशियर झीलों के भयानक हॉटस्पॉट बन रहे हैं। इसी बेसिन में सबसे ज़्यादा करीब 42 खतरनाक झीलें मौज़ूद हैं। कोशी बेसिन में इन झीलों को दायरा 2000 से 2015 के बीच 12 फीसदी फैल गया है, तो गंडकी के बेसिन में 8 फीसदी और करनाली के बेसिन में 1.27 फीसदी का इज़ाफा हुआ है। आँकड़ों को ऐसे भी समझा जा सकता है कि सन् 2000 की तुलना में सन् 2015 में करीब 50 झीलें कम हुईं। लेकिन ये झीलें खत्म न होकर संयुक्त हो गयीं और झीलों का कुल दायरा बढ़ गया। शोधकर्ताओं ने जिन खतरनाक झीलों के बारे में जाना, उनमें से 50 फीसदी झीलें तिब्बत के क्षेत्र में हैं। इससे पहले चीन के शोधकर्ताओं ने जो अध्ययन जून 2020 में की थी, उसमें तिब्बत की 654 ग्लेशियर झीलों में से 246 को खतरनाक माना था।

इन झीलों की निगरानी करते हुए इनसे खतरे को भाँपने के लिए विशेषज्ञों ने देशों से मिलकर काम करने की ज़रूरत बतायी। भारत, चीन और नेपाल के बीच ग्लेशियर झीलों को लेकर रिसर्च और निगरानी सहयोग को बढ़ाने के आईसीआईएमओडी के प्रयासों को देशों के बीच चल रहे सियासी तनावों से झटका लगता रहा है। सन् 2007 में जलवायु परिवर्तन पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल (आईपीसीसी) ने कहा था कि हिमालय का क्षेत्र डाटा के लिए ब्लैक होल (काल कोठरी) बन गया है, जबकि यहाँ वैश्विक औसत से ज़्यादा तेज़ी से तापमान बढऩे का असर दिख रहा है।

ग्लेशियर और बादल फटना

भारत में पानी के बड़े स्रोतों के रूप में ग्लेशियर मौज़ूद हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है, जिस कारण ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं। भूगर्भीय हलचल जैसे भूकम्प आदि से भी हिमालय के अत्यधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों के हिमखण्ड टूटकर नीचे की ओर बहते हैं। उनके साथ चट्टानें भी बहकर आ जाती हैं। एक स्थान पर यह बहाव रुक जाता है और झील का रूप ले लेता है। इसे ग्लेशियर झील कहा जाता है। ग्लेशियर झीलों में जब पानी का दबाव बढ़ जाता है, तो एक समय ऐसा आता है, जब यह उस दबाव को सहन नहीं कर पाती और फट जाती है। ऐसे में जल प्रलय होती है, जिसकी ज़द में आने वाली हर चीज़ तबाह हो जाती है। अगर नदी पर कोई बाँध या बिजली परियोजना है, तो नुकसान और ज़्यादा बढ़ जाता है। भारत में बहुुत-सी ग्लेशियर झीलें नदियों के किनारे पर ही स्थित हैं। ऐसे में यहाँ जब भी ऐसी आपदा आती है, भारी नुकसान झेलना पड़ता है। बादल फटने से भी जल प्रलय की कई घटनाएँ भारत में हो चुकी हैं। बादल फटने की सबसे ज़्यादा घटनाएँ हिमाचल प्रदेश में हुई हैं। जब भी कोई बादल फटता है, तो लाखों लीटर पानी एक साथ गिरता है, जिससे उस क्षेत्र में बाढ़ आ जाती है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, बादल फटने से उस क्षेत्र में 75 एमएम से लेकर 100 एमएम प्रतिघंटे की दर से बारिश होती है। भारत में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से उठे मानसून के बादल जब उत्तर की ओर बढ़ते हैं, तो हिमालय उनके लिए अवरोधक का काम करता है। हिमालय से टकराने के बाद बादल फट जाते हैं। कई बार गर्म हवाओं से टकराव होने के कारण भी बादल फटने की घटनाएँ सामने आयी हैं। 26 जुलाई, 2005 में मुम्बई में गर्म हवा के कारण ही बादल फटने की त्रासदी हुई थी, जिसमें 50 से ज़्यादा लोकल ट्रेनों और 950 बेस्ट बसों के क्षतिग्रस्त होने समेत भारी नुकसान हुआ था। वैज्ञानिक अध्ययनों से ग्लेशियर झीलों की स्थिति का पता लगाकर यह अनुमान लगाना सम्भव है कि अगर कभी ग्लेशियर झील फटी, तो कहाँ तक? तथा कितना क्षेत्र और कितनी आबादी उससे प्रभावित होगी? नयी परियोजनाओं में वैज्ञानिक उन उपायों को लागू भी कर रहे हैं, जिससे अगर कोई परियोजना इन प्राकृतिक आपदाओं की ज़द में आ जाए, तो भी नुकसान कम-से-कम रखा जा सके। हालाँकि चुनौतीपूर्ण पहलू यह है कि बादल फटने का पता लगाना या इसे रोकने की कोई तकनीक नहीं है। इस कारण ऐसी आपदाओं से बचने के लिए बाढ़ प्रबन्धन ही एकमात्र उपाय है।

कोटा में बुना जा रहा विकास का सुनहरा अफसाना

पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूज़वेल्ट की यह उक्ति आज भी प्रासंगिक है कि ‘सही क्या है? यह जानने से कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क का इल्हाम तो तब होता है, जब सही कदम उठाया जाता है।’ राजस्थान के कोटा में विकास की दहलीज़ पर ‘चंबल रिवर फ्रंट’ ऐसी ही सही कदम की मानक इबारत है। तरक्की की इस दुर्लभ दास्तान को सियासी हठयोग के आईने में देखें, तो यह मायावी योजना नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल को एतिहासिक मोड़ पर ले आयी है, जहाँ वे एक बड़े परिवर्तन के सूत्रधार बनने की डगर पर चल पड़े हैं।

चंबल रिवर फ्रंट की कहानी को अलग-अलग अध्यायों में देखें, तो इसने इस अवधारणा को खत्म कर दिया है कि केंद्र और राज्यों की परियोजनाओं की सीरत में बड़ा फर्क होता है। अगर ऐसा होता, तो चंबल रिवर फ्रंट के समर्थन में इतना जबरदस्त भावनात्मक ज्वार क्यों उमड़ता? इस भव्य विचार की कशीदाकारी इतिहास को संरक्षित करने और भविष्य को इसकी झलक दिखाने की लयकारी में गुँथी हुई है। इस परियोजना के निर्माण को लेकर बेइंतहा दीवानगी भी है, तो इसकी बड़ी वजह है- आत्मप्रतिष्ठा का सन्देश; जैसे यह अहम घटक भी फ्रंट की संरचना में शामिल है। इस परियोजना में विकास की प्रचलित परम्परा में अपना मौलिक नज़रिया जोडऩे की बेताबी साफ नज़र आती है। धारीवाल कहते भी है कि इस पूरी परियोजना की प्राणवायु में पर्यटन की मुश्क रची-बसी है। पर्यटन को अपना सफर पूरा करने के लिए अतीत को सहेजना पड़ता है। इसलिए प्रदेश की अद्भुत विरासत और परम्पराओं को सहेजना और उन पर नज़रें टिकाये रखना हमारे लिए नितांत स्वाभाविक है।

धारीवाल कोटा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधाओं से युक्त पर्यटन नगरी बनाने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहे हैं। कोटा को दुनिया भर के सैलानियों की अव्वल मंज़िल के तौर पर प्रचारित करने के लिए शक्ति और भक्ति के नायकों के साथ साहित्यिक मनीषियों के स्मारकों को भी धरोहर के तौर पर सूचीबद्ध किया है।

चंबल रिवर फ्रंट के साहित्य घाट पर उत्कीर्ण की जाने वाली महाकवि तुलसी दास, कथा शिल्पी प्रेमचंद और गालिब की चर्चित रचनाएँ और अभिलेख सैलानियों को बरबस बाँध लेेंगे। कोटा मॉडल का अहम तत्त्व प्रदेश की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और पोराणिक प्रसंगों को विश्वसनीयता के साथ रेखांकित करना है। कृष्ण चरित्र के महत्त्वपूर्ण आख्यान गीता के श्लोकों की प्रतीकात्मक प्रस्तुति मुग्ध कर देगी। धारीवाल जिस तरह एक विराट अफसाने को हकीकत में बदलने के लिए एकाग्रता से आगे बढ़ रहे हैं। उसकी परिणिति ‘दिव्य’ और ‘भव्य’ शब्दों से जुड़ती जा रही है। पर्यटन की उड़ान भरती इस कहानी में दो लफ्ज़ों की हवा बह रही है- ‘न भूतो, न भविष्यति’। यानी राजस्थान में विकास की ऐसी पटकथा न पहले कभी लिखी गयी, न ही आगे लिखी जाएगी। विकास की कहानी में अद्भुत और अकल्पनीय अध्याय लिखने में धारीवाल ने जितनी मशक्कत की उसनेे पूरे प्रदेश का दिल जीत लिया है।

चंबल रिवर फ्रंट को लेकर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की दीवानगी भी चौंकाने वाली है। सूत्रों का कहना है कि अयोध्या को वेदिक नगर के तौर पर विकसित करने की तैयारियों के चलते गुप्तार घाट से रामजन्म भूमि तक रिवर फ्रंट बनाये जाने के लिए योगी सरकार द्वारा चंबल रिवर फ्रंट का अध्ययन किया जा रहा है। इसकी भौगोलिक वजह भी है कि कोटा में बहने वाली चंबल और अयोध्या की सरयू नदी में कोई समानता है, तो सरयू नदी भी चंबल की तरह उत्तरवाहिनी है। दोनों ही नदियाँ दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है। योगी सरकार के अधिकारी यह जानने को उत्सुक हैं कि ‘कोटा प्लान’ (कोटा योजना) में इस परिघटना को कैसे भुनाया जा रहा है? हालाँकि योगी सरकार गोमती रिवर फ्रंट में भी कोटा प्लान की तर्ज पर सुधार करना चाहती है; लेकिन गोमती में रीत (घट) रहे पानी सरकार के मंसूबों पर पानी फेर रहा है। चंबल के पोराणिक महत्त्व को देखते हुए चंबल रिवर फ्रंट से कोटा के पर्यटन में जबरदस्त उछाल आयेगा। अभी पर्यटकों की निगाहें सिर्फ बूंदी और गागरोन िकले के गिर्द घूम-फिरकर लौट आती हैं। अब इस दायरे में पर्यटकों की नज़रें पहले चंबल रिवर फ्रंट पर टिकेंगी और कोटा पूरी तरह पर्यटन परिपथ (सर्किट) बन जाएगा।

आधुनिक स्थापत्य और वास्तुकला के विभिन्न आयामों के  बीच से गुज़रते हुए नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल चंबल रिवर फ्रंट के ज़रिये उस यथार्थ के चितेरे बनकर उभरे हैं, जो राजनीति के फलक पर कम ही दिखायी देता है। विराट जटिलताओं के साथ एक ग्लोबल शहर गढऩा आसान नहीं हो सकता। इसे राजनीतिक संस्कृति गढऩे की संज्ञा भी दे सकते हैं। बड़ी बात यह है कि आने वाली पीढिय़ाँ इसमें विरासतों की तस्वीरें देख सकेंगी और गौरव से निहाल होती नज़र आएँगी कि हमारे पास चंबल रिवर फ्रंट जैसी अद्भुत धरोहर का खजाना है।

संस्कृतिविज्ञ मोहित महात्रे की मानें, तो राजस्थान विविधताओं का प्रदेश है; जहाँ तरह-तरह के आकर्षण मौज़ूद हैं। धारीवाल चंबल रिवर फ्रंट के उन्हीं आकर्षणों को सामने ला रहे हैं। धारीवाल कहते हैं- ‘मैंने एक ख्वाब देखा था और अब उसकी तामीर कर रहा हूँ।’ दार्शनिकों का कहना है कि विचार तो आते-जाते हैं, लेकिन विकास की कहानियाँ ही टिकाऊ होती हैं। राजनीति में एक कहावत है कि ‘आप तभी तक अच्छे हैं, जब तक आपका प्रदर्शन अच्छा है। इससे पहले आपने क्या किया? इसकी कोई चिन्ता नहीं करता।’ फ्रंट का निर्माण केवल इतिहास की रचना भर नहीं है। विभिन्न घाटों के निर्माण और उन पर शक्ति, भक्ति और साहित्य के पुरोधाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व के चित्रण से लोगों को बीती सदियों का इतिहास देखने-समझने का अनूठा अवसर मिलेगा।

चंबल रिवर फ्रंट को अतुल्य योजना का रुतवा देते हुए यह कहा जाए कि ‘यह फ्रंट पर्यटन निवेश को आकर्षित करने और रिवर फ्रंट की पाँत (पंक्ति) में अव्वल बने हुए साबरमती के रिवर फ्रंट को भी पीछे छोड़ देगा’, तो गलत नहीं होगा। सूत्रों का कहना है कि साबरमती बारहमासी नहीं है। साबरमती पानी के लिए नर्मदा की नहरों पर निर्भर है; जबकि चंबल तो अथाह जलराशि का भण्डार है। नर्मदा की धारा तो दिनोंदिन सिकुड़ती जा रही है। ऐसे में साबरमती का भविष्य क्या होगा? समझा जा सकता है। लेकिन चंबल कोटा की जीवन रेखा है; जो शहर के बीच में से निकलती है। जबकि साबरमती नदी शहर से दूर है, जिसे देखने के लिए सुदूरवर्ती सफर करना पड़ता है।

कोटा की ज़मीन रेतीली और उपजाऊ है; जबकि साबरमती की जमीन पथरीली है। इसलिए बगीचा (गार्डनिंग) की योजना कोटा में जितनी कामयाब होगी, साबरमती में उसका नितांत अभाव है। चंबल रिवर फ्रंट की मूल भावना समझें, तो ढेरों आकर्षण और खूबियों को आत्मसात् करते हुए राजस्थान को विकास की पंक्ति में अलग खड़ा कर देना है। और अब यह मंज़िल ज़्यादा दूर नहीं है।

मुम्बई की तरह महानगर में तब्दील होगा कोटा

‘सेवन वंडर्स’ की सौगात देकर गुम होती कोटा की शाम को नयी पहचान दे चुके नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल अब कोटा को महानगर बनाने जा रहे हैं। एरोड्राम सर्किल पर एलीवेटेड रोड और अंडर पास समेत 28 परियोजनाओं के समन्वय से कोटा महानगरीय संस्कृति का अटूट हिस्सा बनकर इंदोर-मुम्बई की पंक्ति में शामिल हो जाएगा। नगर के प्रवेशद्वार विवेकानंद सर्किल, सैलानियों को सौन्दर्य का बेहद करीबी नज़ारा (एक्सट्रीम क्लोजअप) लगेगा। चौराहे पर लगी बीती सदी के सर्वाधिक विख्यात संन्यासी स्वामी विवेकानंद की विशाल प्रतिमा शिल्प के हुनर की दाद देने को अवश्य प्रेरित करेगी। यातायात के भारी दबाव को देखते हुए एरोड्राम सर्किल पर एलीवेटेड रोड और अंडरपास का निर्माण शहर के इस मुख्य चौराहे की सूरत ही बदल देगा। घंटाघर चौराहे पर अंडरपास का निर्माण शहर के निर्बाध आवागमन का महत्ती विकल्प सिद्ध होगा। बहरहाल तीन चरणों में पूरी होने लक्ष्य लेकर चंबल रिवर फ्रंट परियोजना पूरी रफ्तार से दौड़ रही है।

‘ऐसे ही नहीं बन जाती स्मार्ट सिटी’

बात ज़्यादा पुरानी नहीं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सवाई मानसिंह अस्पताल में हार्ट ट्रांसप्लांट सहित कई अन्य सुविधाओं का लोकार्पण कर रहे थे। इस मौके पर चिकित्सा मंत्री रघु शर्मा, नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल और चिकित्सा राज्य मंत्री सुभाष गर्ग भी मौज़ूद थे। समारोह में नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल का कहना था कि ‘मुझे नहीं मालूम इस समारोह में मुझे क्यों बुलाया गया है? लेकिन जब बुलाया गया है, तो कुछ बातें मेरी भी सुननी पड़ेंगी। स्मार्ट सिटी ऐसे ही नहीं बन जाती।’ इसके साथ ही उन्होंने समस्याओं का पिटारा खोलना शुरू किया, तो लोगों में कुलबुलाहट मचे बिना नहीं रही। धारीवाल की हर बात सेहत महकमे को तर्कसंगत सुधारों की तात्कालिक ज़रूरत की तरफ धकेल रही थी। उन्होंने प्रशासनिक दक्षता को कटघरे में खड़ा करते हुए बड़ी बेबाकी से कहा- ‘न्यूरोसर्जरी का आधा इलाज सड़क के एक तरफ होता है, आधा दूसरी तरफ। सवाई मानसिंह उत्तर भारत का सबसे बड़ा अस्पताल है। लेकिन आपातकालीन मरीज़ों के लिए केवल 22 आईसीयू पलंग हैं।’ उनका प्रतिप्रश्न था कि क्या तीन हज़ार पलंग वाले अस्पताल में 200 आईसीयू पलंग नहीं होने चाहिए? ओपीडी के मरीज़ों को एक्स-रे के लिए 500 मीटर दूर जाना पड़ता है। ऐसा क्यों? विश्लेषकों का कहना है कि धारीवाल ने अप्रत्यक्ष रूप से कहने में कसर नहीं छोड़ी कि व्यवस्था के तलवे में अधूरेपन का कांटा चुभा है, जो अस्पताल को लंगड़ाकर चलने को मजबूर कर रहा है। धारीवाल ने असंगतियों पर तंज कसा, तो सुधारों का खाका खींचने में भी कंजूसी नहीं बरती। उन्होंने कहा कि हर विभाग का अलग ब्लॉक होना चाहिए, जहाँ एक ही छत के नीचे सभी सुविधाएँ मिल सकें। उन्होंने अनगढ़ स्थितियों से उबरने की राह भी सुझायी  कि बांगड़ का पूरा परिसर कार्डियोलॉजी का होना चाहिए। लेकिन इसमें न्यूरोलॉजी को भी डाल दिया गया है। उन्होंने इसे असंगतियों का शानदार नमूना बताते हुए कहा कि इमरजेंसी कहीं है, कार्डियक कहीं! इस बदइंतज़ामी के चलते एक दु:खद घटना का ज़िक्र करने से भी धारीवाल पीछे नहीं रहे। उन्होंने बताया कि पूर्व गृह सचिव थानवी की तो इसी बदइंतज़ामी के चलते मौत तक हो गयी थी। विश्लेषकों का कहना है कि निश्चित रूप से व्यवस्थागत असंगतियों के कारण ही शिक्षा और स्वास्थ्य सरीखे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र विवादों, घाटों और घोटालों के पुलिंदा बन गये हैं। इस मौके पर गहलोत ने धारीवाल की प्रशासनिक निगाहबीनी की तारीफ करते हुए कहा- ‘आप तभी तक अच्छे हैं, जब आपका प्रदर्शन अच्छा है। अच्छा मंत्री भी वही होता है, जो अपने महकमे के अलावा दूसरे महकमों पर भी नज़र रखे।’ हालाँकि गहलोत चुटकी लेने से भी नहीं चूके कि धारीवाल के सुझाव देखते हुए खयाल आये बिना नहीं रहता कि क्यों न अगले रिशफल (अगली बार) में उन्हें चिकित्सा मंत्री बना दिया जाए? लेकिन इसके पहले कि लोग हैरान होते, गहलोत ने ठहाकों के बीच कहते देर नहीं लगायी- ‘आप निश्चिंत रहिए, नगरीय विकास पर उनकी पकड़ ज़्यादा गहरी है।’ राजनीतिक विश्लेषकों की मानें, तो धारीवाल की कार्यशैली का यही अंदाज़ है। काम अपने महकमे का हो या दूसरे का, वह नज़र और निगरानी हर महकमे पर रखते हैं और यही एक अच्छे राजनेता की पहचान होती है।

आपदा से लें सबक

‘तहलका’ ने अपने अंकों में उन खतरों की ओर सरकारों और सम्बन्धित अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किया गया था, जो तेज़ी से पिघलते ग्लेशियरों के कारण पैदा हो सकते हैं। देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों का हवाला देते हुए ‘तहलका’ की रिपोर्ट में कहा गया था कि वैश्विक जलवायु (ग्लोबन वार्मिंग) का सबसे बड़ा सुबूत दुनिया भर के पर्वतीय ग्लेशियरों का घटना और गायब होना है। इसके बाद ‘तहलका’ (अंग्रेजी) ने एक और रिपोर्ट ‘ग्लेशियर : महाविनाश के छिपे हुए स्रोत!’ में भी यह सुझाव दिया गया कि प्रकृति और मानवता के सभी शुभचिन्तकों को बढ़ते ग्लेशियरों के पिघलने और उसके बाद आने वाली आपदाओं से सावधान रहना होगा।

‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार के साथ देहरादून में रहते हुए मैंने सन् 1991 में उत्तरकाशी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर तबाही करने वाले भूकम्प की आपदा को कवर किया था। इसके बाद सन् 1978 में भागीरथी में और सन् 1970 में अलकनंदा में भीषण बाढ़ आयी थी। सन् 2013 में उत्तराखण्ड के केदारनाथ में बाढ़ की विभीषिका भी सबने देखी, जिसमें करीब पौने छ: हज़ार लोगों की जान चली गयी थी। हर उस व्यक्ति की यादों में अभी भी वो भयंकर मंज़र ताज़ा है, जिसने उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देखा। सात साल भी नहीं बीते कि अब चमोली में इसी 7 फरवरी को जबरदस्त तबाही हुई है, जिससे न केवल पर्वतीय क्षेत्र के लोगों की रूह काँपउठी है, बल्कि दूसरे लोग भी सहम गये हैं। इस ग्लेशियर के फटने से ऋषि गंगा नदी पर 13.2 मेगावाट की छोटी पनबिजली परियोजना बह गयी और एनटीपीसी की 520 मेगावाट की तपोवन विष्णुगाड परियोजना क्षतिग्रस्त हो गयी। विशेषज्ञ ग्लेशियर के फटने के कारणों की जाँच कर रहे हैं, वहीं अधिकारी यह जाँच रहे हैं कि कहीं ग्लेशियर टूटने से जोशीमठ के पास 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग परियोजना और पीपल कोटि की 444 मेगावाट परियोजना को तो नुकसान नहीं पहुँचा है। बचाव कार्य जारी है।

विदित हो कि सन् 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से गठित एक समिति ने सिफारिश की थी कि राज्य में और अधिक बाँधों का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। हालाँकि बावजूद इसके अलकनंदा नदी पर कई और बाँध बनाये गये हैं, जो इस बार ग्लेशियर के फटने का कारण बने हैं। यह त्रासदी चेतावनियों को नज़रअंदाज़ करने की सज़ा है और यह भी याद दिलाने की कि विकास के हमारे मॉडल में कहीं तो खामी है। उत्तराखण्ड में 98 बड़े, मध्यम और छोटे बाँध हैं और इनमें से 50 पनबिजली परियोजनाएँ अकेले अलकनंदा और भागीरथी बेसिन पर हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस पर बहस की नहीं, सुधार की सख्त ज़रूरत है। आपदा के कारण क्या थे? और हमने पिछली भूलों से कोई सबक क्यों नहीं लिया? ये वो सवाल हैं, जो हर संवेदनशील व्यक्ति के अन्दर उठ रहे हैं। पर्यावरणविदों के अनुसार, प्रकृति की मार उतनी गम्भीर नहीं होती, यदि हिमालय क्षेत्र की नाज़ुक पारिस्थितिकी को ध्यान में रखा गया होता और इसके आधार पर ही बड़े बाँधों, होटलों और अन्य बुनियादी ढाँचों का निर्माण और उनके विकास मॉडल को तैयार किया गया होता। नाज़ुक पर्यावरण अधिक टिकाऊ मार्ग अपनाने की सलाह देता है। दुर्भाग्य से अधिकांश बड़े बाँधों में आपदा प्रबन्धन की योजना नहीं है। केंद्रीय जल आयोग के अनुसार, भारत में निर्माणाधीन 411 के अलावा 5,334 बड़े बाँध हैं। सन् 2017 की ऑडिटर जनरल की एक रिपोर्ट कहती है इन बाँधों में से केवल 349 में ही आपदा प्रबन्धन की योजना थी। निश्चित ही यह बड़ी चिन्ता का विषय है, जिस पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए।

सियासत पर हावी किसान आन्दोलन!

क्या 26 जनवरी को लाल िकले की घटना के बाद खत्म होने की कगार पर पहुँचकर किसान आन्दोलन ने अचानक भाजपा और वर्तमान में केंद्र की सत्ता के लिए ज़्यादा खतरे वाला रुख अिख्तयार कर है? राजनीतिक रूप से भाजपा के लिए बेहद संवेदनशील उत्तर प्रदेश में आन्दोलन की मज़बूत दस्तक से केंद्र में सत्तारूढ़ दल के खेमे में अन्दर-ही-अन्दर हलचल है और किसानों के समर्थन में हो रही पंचायतों में उमड़ रही हज़ारों-लाखों की भीड़ ने जहाँ किसान आन्दोलन में जबरदस्त जान फूँक दी है, वहीं आन्दोलन अब राजनीति, खासकर केंद्र की राजनीति के लिए भी बहुत अहम हो गया है। उत्तर प्रदेश के साथ-साथ भाजपा की सत्ता वाले हरियाणा में भी आन्दोलन पार्टी के लिए मुसीबत बनता दिख रहा है। कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आन्दोलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िलों में जिस तेज़ी से फैल रहा है, उसने सूबे में अजीत सिंह की रालोद (राष्ट्रीय लोकदल) के साथ कांग्रेस को भी सक्रिय कर दिया है। सहारनपुर में किसान पंचायत में 10 फरवरी को कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी की शिरकत और आरएलडी नेता जयंत चौधरी का इस दौरान किसान नेताओं से मिलना भाजपा की पेशानी पर बल डाल रहा है। किसान आन्दोलन ने हाल के पखवाड़े में विपक्ष में नयी जान फूँक दी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जो पंचायतें हो रही हैं, उनमें अब सीधे-सीधे भाजपा को निशाने पर रखा जा रहा है। हरियाणा में भी यही दिख रहा है, जहाँ कांग्रेस नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा किसान आन्दोलन के बहाने भाजपा के खिलाफ मैदान में उतर चुके हैं।

रक्षात्मक भाजपा इस नयी परिस्थिति में नयी रणनीति बनाने को मजबूर हुई है। भाजपा ने पार्टी के विधायकों-मंत्रियों से लेकर नेताओं तक को केंद्रीय बजट में किसानों के लिए की गयी घोषणाओं को जनता, खासकर किसानों तक पहुँचाने का ज़िम्मा सौंपा है और लोकल फॉर वोकल के तहत व्यवस्थाओं को हर गाँव में पहुँचाने का ज़िम्मा दिया गया है। भाजपा जनता को यह बताना चाहती है कि विपक्ष किसान आन्दोलन के बहाने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की योजनाओं के खिलाफ साज़िश कर रहा है। गाँवों में किसान पंचायतों में उमड़ रही भीड़ के बीच भाजपा के इस प्रचार का कितना असर होगा? इसका आने वाले दिनों में ही पता चल पाएगा। फिलहाल तो भारी विरोध के कारण भाजपा नेताओं का जनता के बीच जाना मुश्किल हो रहा है।

भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश और हरियाणा के अलावा पंजाब में भी गम्भीर राजनीतिक दिक्कतें पैदा हुई हैं। जिस तरह किसानों को आतंकवादी और खालिस्तानी बताकर आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश की गयी, उसका बहुत उलटा असर हुआ है। सोशल मीडिया पर किसान आन्दोलन को लेकर जिस तरह घृणा का माहौल बनाने की कोशिश हुई, उससे पंजाब में लोगों में गुस्सा पैदा हुआ है। पंजाब में कांग्रेस जनता को यह बताने में सफल रही है कि सोशल मीडिया में तमाम नफरती बयानों के पीछे दरअसल भाजपा ही है। यही कारण है कि पंजाब में पहले से किसान आन्दोलन का खुला समर्थन कर रही कांग्रेस के अलावा आम आदमी पार्टी (आप) भी भाजपा के खिलाफ सक्रिय हो चुकी है। आप नेता राघव चड्ढा पंजाब का दौरा कर चुके हैं, जबकि दिल्ली की सीमाओं पर भी आप नेता किसानों से मिलने के साथ-साथ उनकी मदद करते रहे हैं। दिल्ली सरकार खुले तौर पर आन्दोलन में पानी, वाईफाई और शौचालय जैसी सुविधाएँ दे रही है।

पंजाब में भाजपा के लिए सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसकी दशकों पुरानी सहयोगी अकाली दल कृषि कानूनों को लेकर भाजपा के खिलाफ आने को मजबूर हुई है। भाजपा अकेले अपने बूते पंजाब में कुछ नहीं कर सकती। न तो उसके पास मज़बूत नेतृत्व है, न पुराना सहयोगी अकाली दल। ऐसे में अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन कैसा रहेगा? कहना मुश्किल है। पंजाब में, खासकर सिख समुदाय में किसानों को आतंकवादी बताने के अभियान से गहरी नाराज़गी बनी है। भाजपा को इसका नुकसान पंजाब, दिल्ली सहित दूसरे राज्यों में भी भुगतना पड़ सकता है। भाजपा के लिए बड़ी समस्या यह है कि किसान आन्दोलन में पंजाब से सिख समुदाय, जाट समुदाय के अलावा बड़ी संख्या में दूसरे समुदायों के लोग भी उसी शिद्दत से जुट रहे हैं।

यह आश्चर्य की बात है कि उत्तर प्रदेश में बसपा और समाजवादी पार्टी इक्का-दुक्का बयानों से ज़्यादा किसान आन्दोलन के समर्थन में कुछ नहीं कर रहीं; जबकि राज्य में बहुत कमज़ोर जनाधार वाली कांग्रेस कहीं ज़्यादा सक्रिय है। चौधरी अजीत सिंह की रालोद, जो हाल के वर्षों में कमज़ोर हुई है; भी इस आन्दोलन के बहाने खुद को पुनर्जीवित करने के लिए पूरी ताकत झोंक रही है। पार्टी नेता जयंत चौधरी खुद किसान महापंचायतें कर रहे हैं, जिनमें खासी भीड़ दिख रही है। फरवरी के पहले सप्ताह तक जयंत चौधरी करीब 10 महापंचायत कर चुके थे।

इधर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी पिछले कई महीनों से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को खड़ा करने की कोशिशों में जुटी हुई हैं। अब किसान आन्दोलन ने उन्हें नया मंच दे दिया है। वाक्पटु प्रियंका गाँधी की छवि उत्तर प्रदेश के गाँवों में वैसे भी इंदिरा गाँधी से जोड़ी जाती है। ऐसे में प्रियंका ने मैदान में उतरकर मोर्चा सँभाल लिया है। उत्तर प्रदेश में बहुत कमज़ोर संगठन होने के बावजूद कांग्रेस को वहाँडार्क हार्स की संज्ञा दी जाती है। सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अचानक 23 सीटें जीतकर सभी को हैरान कर दिया था। कांग्रेस की रणनीति पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसानों का अगुआ बनने की है, जबकि उसे भरोसा है कि भविष्य में मुस्लिम फिर से पूरी ताकत के साथ उससे जुड़ेंगे। इसके अलावा ब्राह्मण और कुछ अन्य समुदाय साधने की भी उसकी कोशिश शुरू हो चुकी है। वैसे प्रियंका की रणनीति सभी वर्गों को साथ जोडऩे की है, ताकि पार्टी को पुरानी मज़बूत स्थिति में लाया जा सके।

सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ, मुरादाबाद, रामपुर, अलीगढ़, गाज़ियाबाद यहाँ तक कि मथुरा में भी कांग्रेस ने जीत हासिल की थी। सन् 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश का समीकरण बिगड़ गया और वहाँ भाजपा ने अपना आधार मज़बूत किया। लेकिन यह भी एक बड़ा सच है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का कोई बड़ा नेता पार्टी छोड़कर नहीं गया है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी करीब 35 फीसदी है। सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिमों ने कांग्रेस पर भरोसा जताया था। तीन दर्ज़न विधानसभा सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका में हैं। यही नहीं, जाट समुदाय भी दो दर्ज़न सीटों पर जीतने और दो दर्ज़न सीटों पर दूसरे को जिताने की ताकत रखते हैं। सीएए आन्दोलन के दौरान भी प्रियंका गाँधी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कमोवेश सभी ज़िलों में दौरा किया था। जिस तरह 10 फरवरी को सहारनपुर में इमरान मसूद के अलावा जाट समुदाय के नेता हरेंद्र मलिक और पंकज मलिक सक्रिय दिखे, उससे कांग्रेस की रणनीति को समझा जा सकता है। साफ दिख रहा है कि कांग्रेस किसान जातियों खासकर हिन्दू-मुस्लिम जाटों और और गुर्जरों में मज़बूत पकड़ की रणनीति पर काम कर रही है।

फरवरी में प्रियंका गाँधी ने दिल्ली की ट्रैक्टर परेड के दौरान जान गँवाने वाले किसान नवरीत सिंह के परिजनों से उनके घर रामपुर जाकर मुलाकात की थी। सहारनपुर में वह किसान महापंचायत शुरू कर चुकी हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि किसान आन्दोलन से खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँवों में भाजपा के प्रति नाराज़गी उभरी है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सहारनपुर के इलाके में ही सबसे मज़बूत है, जहाँ उसके पाँच में से दो विधायक हैं। सहारनपुर की किसान पंचायत में इमरान मसूद भी प्रियंका की सभा में उपस्थित थे।

सहारनपुर देहात से मसूद अख्तर और बेहट से नरेश सैनी कांग्रेस के विधायक हैं। कांग्रेस यहाँ ज़मीन रखती है, यह इस बात से ज़ाहिर होता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सहारनपुर लोकसभा सीट पर उसे दो लाख से ज़्यादा मत मिले थे। शायद यही कारण है कि प्रियंका ने किसान पंचायतों की शुरुआत सहारनपुर से की।

पंजाब और हरियाणा बॉर्डर की तर्ज पर राजस्थान के शाहजहाँपुर बॉर्डर पर भी फरवरी के दूसरे पखवाड़े किसान आन्दोलन रफ्तार पकड़ सकता है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी सीमा सभा कर रहे हैं। राजस्थान कांग्रेस प्रभारी अजय माकन का कहना है कि किसानों के हितों की लड़ाई लडऩे, किसानों की आवाज़ बुलंद कर केंद्र सरकार के तीनों काले कानूनों को वापस लेने के संघर्ष के लिए राहुल गाँधी राजस्थान आये हैं। नये कृषि कानूनों के खिलाफ राजस्थान में कई स्थानों पर किसानों के चक्काजाम को सत्तारूढ़ कांग्रेस का समर्थन मिल चुका है। पार्टी प्रदेश के अन्य हिस्सों में राहुल गाँधी की किसान सभाएँ करवाने की योजना बना रही है।

तेज़ हो रहा आन्दोलन

किसान आन्दोलन अब देश के अन्य राज्यों में सुलगने लगा है। महाराष्ट्र के किसान जनवरी में मुम्बई में जुटकर तीन कृषि कानूनों के खिलाफ बोल चुके हैं। राजस्थान में भी आन्दोलन सुलगता दिख रहा है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि किसी भी गैर-भाजपा राज्य में किसानों के खिलाफ सरकार कुछ नहीं करेगी। ऐसे में आने वाले दिनों में किसान आन्दोलन देश के दूसरे राज्यों में भी विकराल रूप ले सकता है। भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत घोषणा कर चुके हैं कि गाँधी जयती तक किसान कहीं नहीं जाने वाले। किसान आन्दोलन का वर्तमान स्वरूप कहीं ज़्यादा गहरा दिखने लगा है और भाजपा के लिए चिन्ता की बात यह है कि यह राजनीतिक मार भी करने लगा है। गाँवों में आन्दोलन के फैलने से सबसे बड़ा नुकसान भाजपा का ही होगा। इसलिए वह अपनी तरफ से उत्तर प्रदेश में अभी से सक्रिय हो गयी है और सम्मेलनों और गोष्ठियों के ज़रिये लोगों को केंद्रीय बजट की खूबियाँ समझाने का अभियान शुरू कर चुकी है।

छोटे और सीमात किसानों के आन्दोलन से जुडऩे से भाजपा में चिन्ता फैली है। भाजपा किसान आन्दोलन से कितनी चिन्तित है, यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि संसद में अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक रणनीति के तहत किसानों का वर्गीकरण करने की कोशिश की। उन्होंने जब यह कहा कि करीब 12 करोड़ छोटे किसान उनकी सरकार के कानूनों से सबसे ज़्यादा लाभान्वित होंगे।

इसमें कोई शक नहीं कि सरकार, खासकर प्रधानमंत्री मोदी आने वाले विरोध-प्रदर्शनों की धार को समझ रहे हैं। इसलिए वह किसानों पर फोकस कर रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि बहुत कुछ सरकार के हाथ से निकल चुका है। किसान जानते हैं कि मोदी किसान कानून वापस नहीं लेंगे, न न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी जामा पहनाएँगे; लिहाज़ा राहुल और प्रियंका गाँधी से लेकर जयंत चौधरी तक मोदी और उनकी सरकार को पूँजीपतियों की सरकार बता रहे हैं।

राहुल गाँधी के बाद अब प्रियंका गाँधी भी किसानों को ज़ोर देकर कह रही हैं कि मोदी सरकार की सहानुभूति उनसे नहीं, गिने-चुने मित्र पूँजीपतियों से हैं। किसान नेता उत्तर प्रदेश और हरियाणा में किसान पंचायतों में उमड़ती भीड़ से उत्साहित हैं और उन्होंने 10 फरवरी की बैठक में अगले कार्यक्रमों का ऐलान कर दिया। आन्दोलन की नयी रणनीति तैयार करने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक हुई, जिसमें अगले आठ दिन के लिए आन्दोलन की रूपरेखा तैयार की गयी। इस पर अमल करते हुए किसानों ने 12 फरवरी से राजस्थान के सभी टोल प्लाजा को टोल मुक्त करवाना शुरू कर दिया, जबकि 14 फरवरी को पुलवामा हमले में शहीद जवानों के बलिदान को याद करते हुए देश भर में कैंडल मार्च, मशाल जुलूस और अन्य कार्यक्रम आयोजित किये।

संयुक्त किसान मोर्चा के नेता डॉ. दर्शन पाल के मुताबिक, 18 फरवरी को दोपहर 12 से शाम 4 बजे तक देश भर में रेल रोको कार्यक्रम किया जाएगा। वहीं किसान 16 फरवरी को किसान मसीहा सर छोटूराम की जयंती के दिन देश भर में एकजुटता दिखा चुके हैं और याद रहे तीन कृषि कानूनों को रद्द किये जाने की माँग को लेकर 6 फरवरी को भी किसानों ने तीन घंटे के लिए सड़कों पर ट्रैफिक रोका था। किसान आन्दोलन पूरी तरह शान्तिपूर्ण रहा है, जिससे सरकार के पास उसके खिलाफ बोलने को कुछ नहीं है।

लाल िकले की 26 जनवरी की घटना में अपने शामिल होने से किसान नेता पहले ही इन्कार कर चुके हैं। पुलिस ने इस घटना के आरोपी दीप सिद्धू और इकबाल सिंह को गिरफ्तार किया है। अभी तक की जाँच में ऐसी कोई तथ्य नहीं मिला है, जिससे यह ज़ाहिर हो गया कि आम किसान नेता लाल िकले या हिंसा वाले मामले में किसी तरह शामिल नहीं थे। ‘तहलका’ से बातचीत में किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा कि यह सरकार के ही लोग थे, ताकि हमारे आन्दोलन को बदनाम किया जा सके। हम तो पहले ही माँग कर चुके हैं कि जो भी इस मामले में शामिल है, उसके खिलाफ सरकार सख्त कार्रवाई करे।

भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत अपने आन्दोलन में राजनीतिक दखल इन्कार करते हैं। उन्होंने कहा कि आन्दोलनकारी किसान केंद्र में सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि अपनी समस्याओं का समाधान चाहते हैं। किसान नेता आन्दोलन के प्रसार के लिए देश के विभिन्न हिस्सों का दौरा करेंगे। देश भर में बड़ी बैठकों का आयोजन कर और 40 लाख ट्रैक्टरों को शामिल करके आन्दोलन को और बड़ा किया जाएगा। तीन नये कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक कि केंद्र सरकार कृषकों के मुद्दों का समाधान नहीं कर देती।

सरकार की कोशिश

सरकार बार-बार दोहरा रही है कि वह किसानों की तरक्की के लिए लगातार काम कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी लोकसभा में कहा कि संसद और सरकार किसानों का बहुत सम्मान करती है और तीनों कृषि कानून किसी के लिए बाध्यकारी नहीं, बल्कि वैकल्पिक हैं; ऐसे में विरोध का कोई कारण नहीं है। उन्होंने किसानों से बातचीत के लिए आने का फिर आह्वान करते हुए साफ किया कि जो पुरानी कृषि विपणन प्रणाली को जारी रखना चाहते हैं, वे ऐसा कर सकते हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि सरकार ने तीन कृषि कानूनों को लेकर हर उपबन्ध पर चर्चा की पेशकश की और अगर इसमें कोई कमी है, तब बदलाव करने को भी तैयार है। उन्होंने कहा कि पुरानी मंडियों पर भी कोई पाबंदी नहीं है। इतना ही नहीं इस बजट में इन मंडियों को आधुनिक बनाने के लिए और बजट की व्यवस्था की गयी है।

हमारे कानून लागू होने के बाद न देश में कोई मंडी बन्द हुई, न एमएसपी बन्द हुआ; यह सचाई है। इतना ही नहीं ये कानून बनने के बाद एमएसपी पर खरीद भी बढ़ी है। किसानों से मेरी अपील है कि आइए, बातचीत की टेबल पर बैठकर चर्चा करें और समाधान निकालें।

नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

विदेशों में आन्दोलन की धमक

मोदी सरकार के लिए सबसे दिक्कत वाली स्थिति किसान आन्दोलन को विदेशों में बड़े पैमाने पर समर्थन मिलने से पैदा हुई है। किसानों के इस आन्दोलन की चर्चा विदेशों में बहुत हो रही है। वहाँ के मीडिया में आन्दोलन से जुडी खबरें सुर्खियाँ पा रही हैं। अमेरिका में तो फरवरी के पहले हफ्ते एक फुटबॉल प्रतियोगिता के दौरान किसान आन्दोलन से जुड़ा एक वीडियो चलाये जाने की जानकारी भी सामने आयी। अमेरिका के कैलिफोर्निया में एक फुटबॉल प्रतियोगिता सुपर बाउल के दौरान भारत में जारी किसान आन्दोलन पर आधारित 40 सेकेंड का वीडियो चलाया गया। इस प्रतियोगिता को अमेरिका में करोड़ों लोग देखते हैं। यह वीडियो मानवाधिकार के लिए पहचाने जाने वाले मार्टिन लूथर किंग के बयान के साथ शुरू हुआ। यही नहीं, इस वीडियो में फ्रेस्नो शहर के महापौर जेरी डेयर यह कहते दिखे कि भारत के हमारे भाई-बहनों! हम आपको बताना चाहते हैं कि हम आपके साथ खड़े हैं। कई लोगों ने सोशल मीडिया पर इस वीडियो को साझा किया। उधर कनाडा के बाद अब ब्रिटिश संसद में किसान आन्दोलन की चर्चा होने की सम्भावनाएँ जतायी जा रही हैं। पंजाब के एनआरआई को-ऑर्डिनेटर ने भी किसानों का समर्थन किया है। उन्होंने कहा कि यह मुद्दा मानवाधिकारों से जुड़ा है। ब्रिटिश संसद की वेबसाइट पर बने एक प्लेटफार्म पर एक लाख से अधिक स्थानीय लोगों ने किसान आन्दोलन को लेकर हस्ताक्षर किये हैं। इसके बाद किसान आन्दोलन का मुद्दा ब्रिटिश संसद में उठाये जाने की सम्भावनाएँ बढ़ गयी है। आन्दोलन में अब तक 210 से ज़्यादा किसानों की मौत को भी विदेशी मीडिया में बहुत जगह मिल रही है। निश्चित ही इससे मोदी सरकार की छवि को बट्टा लग रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा में राजनेता और सेलिब्रिटी इस आन्दोलन का समर्थन कर रहे हैं। जानी मानी स्वीडिश जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने ट्वीट करके किसानों के समर्थन में एकजुटता दिखायी। थनबर्ग ने लिखा- ‘हम भारत में चल रहे किसान आन्दोलन के साथ एकजुटता से खड़े हैं।’ हॉलीवुड की पॉप स्टार रिहाना ने 26 जनवरी को हिंसा के बाद इंटरनेट बन्द करने की खबरों पर ट्वीट किया और कहा कि आप इस पर कुछ बोलोगे नहीं क्या? इसके बाद सोशल मीडिया पर इस पर जबरदस्त चर्चा शुरू हो गयी। भारत की पर्यावरणवादी कार्यकर्ता लिसिप्रिया कंगजू ने भी किसान आन्दोलन को अपना समर्थन जताया। इतना सब कुछ होने के बाद केंद्र सरकार कह रही है कि देश में चल रहे किसान आन्दोलन को किसी भी विदेशी सरकार ने समर्थन नहीं दिया है। विदेश मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि कनाडा, यूके, यूएस और कुछ यूरोपीय देशों में किसानों के समर्थन और कृषि कानूनों के मुद्दे पर भारतीय मूल के लोगों ने विरोध प्रदर्शन किये हैं। कनाडा के प्रधानमंत्री ने भारत में किसानों से सम्बन्धित मुद्दों पर एक टिप्पणी भी की है; लेकिन किसी देश की सरकार ने किसानों के आन्दोलन को समर्थन नहीं दिया है। विदेश मंत्रालय की ओर से कहा गया कि कनाडा के प्रधानमंत्री की टिप्पणी के बाद हमने कनाडा के अधिकारियों के साथ इस मामले को उठाया है। हमारी ओर से साफ कहा गया कि भारत के आंतरिक मामलों पर ऐसी टिप्पणियाँ अस्वीकार्य हैं। ये भारत-कनाडा द्विपक्षीय सम्बन्धों को नुकसान पहुँचाएँगी। किसान आन्दोलन से जुड़े मुद्दे पर केंद्रीय मं‍त्री रतनताल कटारिया ने कहा है कि देश में कुछ ताकतें ऐसी हैं, जो नहीं चाहतीं कि मामले का हल निकले। उन्होंने कहा कि ये लोग अब इतनी नीचता पर उतर आये हैं कि सरकार को बदनाम करने के लिए विदेशों का सहारा ले रहे हैं। हालाँकि संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के नेता दर्शन पाल ने कहा कि एक तरफ यह गर्व का विषय है कि दुनिया की बड़ी हस्तियाँ किसान आन्दोलन का समर्थन कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत सरकार किसानों का दर्द नहीं समझ रही है और कुछ लोग तो शान्तिपूर्ण किसानों को आतंकवादी बता रहे हैं। जब किसान आन्दोलन तेज़ी पकडऩे लगा और विदेशी हस्तियों ने आन्दोलन का समर्थन करने वाले ट्वीट किये, तो जबाव में भारतीय सेलिब्रिटी, जिनमें खिलाड़ी और कलाकार शामिल हैं; आन्दोलन के खिलाफ बयान करने लगे। इस पर बहुत सवाल उठे और आरोप लगाया गया कि इसके पीछे सरकार का हाथ है। महाराष्ट्र सरकार तो बाकायदा इसकी जाँच की घोषणा कर चुकी है। सवाल तब उठा, जब सेलेब्रिटीज के ट्वीट्स की भाषा मेल खाती दिखी; मानों इन्हें एक ही जगह बनाया गया हो। विदेश मंत्रालय ने जब विदेशी हस्तियों के कमेंट्स पर बयान जारी किया, तो कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने इसे विदेश मंत्रालय की बचकाना हरकत बताया। भाजपा से जुड़े रहे नेता सुधींद्र कुलकर्णी ने ट्वीट में लिखा- ‘क्या कुछ नामी गैर-सरकारी हस्तियों की आलोचना मात्र से भारत की सम्प्रभुता खतरे में पड़ जाती है? क्या भारतीय दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों में कभी नहीं बोलते?

किसान आन्दोलन के दौरान हमारे किसान साथियों की शहादत हुई है; यह सरकार की ज़िम्मेदारी है। जब इतिहास लिखा जाएगा, तो यह भी लिखा जाएगा कि यह किस राजा के कार्यकाल के दौरान हुआ। आधे दाम पर फसल बिक रही है। ग‍न्ने का 12 हज़ार करोड़ रुपये अभी बकाया है। हम आन्दोलन को खत्म नहीं कर रहे, कृषि कानूनों को लेकर हम सड़क पर बैठे हुए हैं। आन्दोलन को खत्म करना सरकार की ज़िम्‍मेदारी है। केंद्र सरकार को किसानों के मुद्दे पर बात करनी चाहिए और मसला हल करना चाहिए। यदि ऐसा ही चलता रहा, तो हम महीनों आन्दोलन पर बैठे रहेंगे। आन्दोलन हर दिन तेज़ होता जा रहा है। उत्तर प्रदेश में किसान महापंचायतों में बड़ा समर्थन मिलने के बाद किसानों ने मध्य प्रदेश के डबरा और फूलबाग, राजस्थान के मेहंदीपुर और हरियाणा के जींद में महापंचायत आयोजित की हैं। आने वाले दिनों में बड़ी संख्या में किसान दिल्ली आएँगे। शाहजहाँपुर बॉर्डर पर प्रतिदिन राजस्थान और पंजाब से किसान आ रहे हैं। पलवल बॉर्डर पर किसानों ने पुन: धरना शुरू कर दिया है और मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से कई किसान आने वाले दिनों में आन्दोलन में शामिल होंगे।राकेश टिकैत, भारतीय किसान यूनियन

क्रॉनीजीवी (मुकुटजीवी) है, जो देश बेच रहा है वो। नरेंद्र मोदी एक-एक चरण के हिसाब से किसानों को खत्म करने में लगे हैं। ये (मोदी) सिर्फ तीन कानूनों पर नहीं रुकेंगे, बल्कि अन्त में किसानों को खत्म करना चाहते हैं।

राहुल गाँधी, कांग्रेस नेता

(प्रधानमंत्री की आन्दोलनजीवी टिप्पणी पर)

किसानों को राहत देकर ही अपनी गर्दन छुड़ा सकती है सरकार

देश में तीन नये कृषि कानूनों को लेकर किसान आन्दोलन को बड़े रूप में करीब तीन महीने होने को आये हैं। इस आन्दोलन को खत्म करने के सरकार के प्रयास भी अब तक विफल हुए हैं और कानूनों को खत्म करने की किसानों की माँग भी सरकार ने नहीं मानी है। सरकार के आगे सवाल यह है कि कानून वापसी की ज़िद छोड़कर उसके गले की फाँस बने किसान किस शर्त पर आन्दोलन वापस लेंगे?

मेरे खयाल से कोई ऐसा रास्ता निकाला जाना चाहिए, जिससे किसानों को भी तकलीफ न हो और सरकार भी अपने फर्ज़ को पूरा कर सके। हालाँकि यहाँ सरकार को अपने अडयि़ल रुख में ज़्यादा नरमी लानी होगी। क्योंकि कोई भी सरकार जनहित के लिए चुनी जाती है, और इसीलिए सरकार को किसानों का हित पहले देखना होगा। ऐसे में अगर किसान इन नये कृषि कानूनों से खुश नहीं हैं, तो सरकार को इन पर न केवल विचार करना चाहिए, बल्कि उनमें से ऐसे हर नियम को हटा देना चाहिए, जो किसानों के हित में न हो। इसमें सबसे बड़ा और खराब नियम है कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग यानी ठेके पर खेती। क्योंकि सदियों से अपने बल-बूते पर खेती करने वाले किसानों के लिए ठेके पर खेती का न तो कोई औचित्य बनता है और न ही यह किसी भी हाल में उनके हित में है। वह भी तब, जब उसकी समस्याओं की सुनवाई किसी कोर्ट में न होकर डीएम-एसडीएम के यहाँ होगी।

जैसा कि सरकार भी जानती है कि आज़ाद भारत मे किसानों के साथ अभी तक पूरी तरह से न्याय नहीं हो सका है, जिससे कम जोत वाले किसान आज भी दु:खी हैं। देश की तकरीबन 70 फीसदी आबादी की निर्भरता आज भी कृषि पर है। ऐसे में मेरी राय में सरकार को कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देना चाहिए और किसानों के हित में कुछ ठोस और महत्त्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए। इसके लिए वर्तमान मोदी सरकार को अपनी पूर्ववर्ती सरकारों से भी सीख लेनी चाहिए, जो पक्ष-विपक्ष के साथ-साथ विशेषज्ञों की राय लेकर काम किया करती थीं।

कानून वापसी से भी किसानों का नहीं होगा भला

अभी तक पूरे देश के किसान एक ही रट लगाये बैठे हैं कि तीनों कानून वापस होने चाहिए, तभी वे अपने-अपने घरों को वापस जाएँगे। लेकिन मेरा मानना यह है कि अगर सरकार तीनों नये कानूनों को वापस ले भी लेती है, तो भी किसानों का भला नहीं होने वाला। क्योंकि ऐसा करने से किसान फिर उसी दशा में रहेंगे, जिस दशा में वे पहले थे। कहने का मतलब यह है कि किसानों के साथ न्याय तो पहले भी कभी नहीं हुआ। मसलन अगर एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य की ही बात करें, तो किसी भी मंडी में उनके अनाज को एमएसपी के भाव पर शायद ही अब तक लिया जाता है। और अगर किसी मंडी में एमएसपी पर उनके अनाज को लिया भी गया है या लिया जाता है, तो उस पर कई तरह के चार्ज, जिसे हम कृषि की भाषा में करदा या बट्टा कहते हैं; लगाकर उन्हें नुकसान पहुँचाया गया है। मसलन अनाज की गुणवत्ता में कमी बताकर, अनाज को गीला या परतीदार (कूड़े वाला) बताकर या फिर जल्दी तौल के नाम पर स्थानीय बिक्री केंद्र के कर्मचारियों द्वारा डंडी मारकर या कुछ ले-देकर अनाज खरीदने की शर्त पर। यानी किसान को चूना तो हमेशा ही लगता रहा है।

स्थानीय मंडियों पर तो यहाँ तक देखा गया है कि किसानों का अनाज न खरीदकर या कम खरीदकर मंडियों के कर्मचारी आड़तियों का अनाज खरीद लेते हैं। मंडियों में एक और बड़ी कमी हमेशा से देखी गयी है, वह यह कि किसानों को मंडियों पर अनाज बेचने में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, जिनमें अधिकतर दिक्कतें मंडी कर्मचारियों द्वारा ही खड़ी की जाती हैं। इससे छोटा किसान मजबूर होकर आड़तियों को कम भाव में अनाज बेच देता है। कहने का मतलब यह है कि अगर मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीनों कृषि कानून वापस ले लिये जाते हैं और किसानों की दशा सुधारने की कोई कोशिश नहीं की जाती है, तो भी किसानों को फायदा नहीं होगा और पहले की तरह ही हर साल हज़ारों किसान आत्महत्या जैसा अफसोसजनक कदम उठाते रहेंगे।

पाँच कानून बनने पर किसान नहीं रहेंगे दु:खी

मेरी समझ से सरकार किसानों को अगर वास्तव में फायदा पहुँचाना चाहती है, तो उसे पाँच कानून बनाने होंगे, जिनकी आज के समय में बड़ी सख्त ज़रूरत है। पहला कानून यह बनना चाहिए कि किसानों की किसी भी फसल के बाज़ार भाव का कम-से-कम 60 फीसदी उसे सीधे तौर पर मिलेगा, चाहे वह फसल सरकार खरीदे, आड़तिया खरीदे या दलाल खरीदे। यानी अगर फूल गोभी का बाज़ार में भाव 20 रुपये किलो का है, तो किसान को 12 रुपये का भाव मिलना चाहिए। बाकी आठ रुपये में ढुलाई, मंडी किराया, टैक्स, आड़तियों की आमदनी और फुटकर विक्रेता का लाभ तय होना चाहिए। इससे किसान भी सुखी रहेगा और बाकी लोगों को भी घाटा नहीं होगा। दूसरा कानून जमाखोरी पर लगाम कसने को लेकर बनना चाहिए। इस कानून के तहत सरकारी भण्डारों और कोल्ड स्टोरेज को छोड़कर, जिसमें किसानों के ही खाद्यान्न हों बाकी व्यापारियों को एक सीमित जमाखोरी की छूट होनी चाहिए, ताकि वे इसका बेजा लाभ न उठा सकें। तीसरा कानून न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी को लेकर बनना चाहिए, जिसमें यह नियम होना चाहिए कि एमएसपी से कम में न तो किसी सरकारी खरीद केंद्र पर कुछ भी खरीदा जाएगा और न ही कोई व्यापारी उससे कम पर कुछ खरीद सकेगा। इसके अलावा इस कानून के तहत यह भी नियम बनना चाहिए कि किसानों के जितने भी खाद्यान्न, जैसे अभी तकरीबन 23 हैं, जिन्हें सरकार खरीदती है; के अलावा दूसरे खाद्यान्नों को भी हर खरीद केंद्र पर खरीदा जाएगा। इससे किसी भी किसान को दूसरे राज्य के खरीद केंद्रों का रुख नहीं करना पड़ेगा, जहाँ उसके अनाज खरीदने से भी इन्कार कर दिया जाता है।

चौथा कानून किसानों को बिना ब्याज के ऋण की उपलब्धता होनी चाहिए, जिससे छोटे किसान भी अच्छा उत्पादन कर सकें और उनकी खेती में रुचि जागे। पाँचवाँ, कृषि लागत और मूल्य आयोग का कानूनी तौर पर स्वायत्त यानी इनडिपेंडेंट बनाया जाए, जिसमें कृषि मंत्री, कृषि वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, विधिवेत्ताओं, कृषि विशेषज्ञों, योग्य किसान प्रतिनिधियों और व्यापारिक प्रतिनिधियों को सदस्यों के रूप में जोड़ा जाए, ताकि वे कृषि उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ किसान हित में सही निर्णय ले सकें।

मंडियों की बढ़ायी जाए संख्या

अभी तक हमारे भारत में तकरीबन साढ़े छ:-सात हज़ार मंडियाँ हैं। मेरा मानना यह है कि पूरे भारत में केंद्र सरकार को 20 से 25 गाँवों के बीच एक सरकारी खरीद मंडी यानी सरकारी क्रय केंद्र स्थापित करना चाहिए, जिससे पूरे देश में 42-43 हज़ार मंडियाँ हो जाएँगी। साथ ही इन मंडियों में अभी तक खरीद के लिए तय 23 खाद्यान्नों से अधिक खाद्यान्न खरीदें जाएँ, जिनमें फल, सब्ज़ी और दूध जैसे उत्पाद भी शामिल हों। ऐसा करने से किसानों को अपने उन उत्पादों के भी अच्छा भाव मिल जाएगा, जिन्हें व्यापारी कौड़ी भाव में खरीदकर शहरों में मोटे भाव में बेचते हैं।

मसलन अगर हम दूध का ही उदाहरण लें, तो अभी भी गाँवों में प्योर दूध 25 से 30 रुपये लीटर बिकता है, वही दूध शहरों में फेट (वसा) निकालने के बावजूद 60 से 80 रुपये लीटर बिकता है। अगर सरकार दूध की खरीद करने लगेगी, तो न केवल पशुपालक किसानों को दूध के बाजिव दाम मिलेंगे, बल्कि शहरों में अधिक-से-अधिक गाँवों से दूध आ सकेगा, जिससे मिलावटखोरी कम होगी और सरकार की आमदनी बढ़ेगी; जिससे राष्ट्र मज़बूत होगा। क्योंकि जीवन जीने के लिए जो भी सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, चाहे वह खाने की कोई चीज़ हो या अन्य इस्तेमाल की कोई चीज़, या तो वह सीधे ग्रामीण क्षेत्रों से ही आती है या फिर उसका कच्चा माल ग्रामीण क्षेत्रों से आता है। यानी अगर सीधे शब्दों में कहें तो ग्रामीणों के बगैर शहरी जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में सभी तरह के उत्पादनकर्ताओं यानी किसानों को और अधिक बढ़ावा देने की ज़रूरत है।

विकसित देशों से सीखे सरकार

हमें यह कहने का हक नहीं है कि सरकार को किससे सीखना चाहिए और किससे नहीं। लेकिन आज समय की माँग है; इसलिए मुझे कहना पड़ रहा है कि मोदी सरकार को दुनिया के विकसित देशों की सरकारों से सीखने की ज़रूरत है। मसलन हमारे यहाँ किसान को सब्सिडी न के बराबर, तकरीबन तीन से छ:-साड़े छ: फीसदी तक ही दी जाती है; जबकि सरकार को किसानों को कम-से-कम 10 फीसदी सब्सिडी देनी चाहिए। वर्तमान में यह बहुत कम, करीब तीन फीसदी ही है। अगर मैं अमेरिका की बात करूँ, तो वहाँ के किसानों को 62 हज़ार डॉलर यानी भारतीय मुद्रा में तकरीबन 45 लाख रुपये साल की सब्सिडी मिलती है। यह एक उदाहरण है, जो यह बताता है कि सब्सिडी उद्योगपतियों को ही नहीं, किसानों को भी मिलनी चाहिए। चाहे वह ज़मीन की नपत के हिसाब से ही मिले। जैसे स्विटजरलैंड में करीब 3,000 यूरो, भारतीय मुद्रा में तकरीबन ढाई लाख रुपये प्रति हेक्टेयर की सब्सिडी सरकार किसानों को देती है।

आन्दोलन से लगातार बढ़ रहा घाटा

यह बात सभी जानते हैं कि किसान आन्दोलन जितना लम्बा खिंचेगा, उतना ही नुकसान देश को होगा। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह जल्द-से-जल्द किसानों की समस्याओं का समाधान करे और इस किसान आन्दोलन को शान्तिपूर्वक समाप्त करने की पहल करे। एक अनुमान के मुताबिक, किसान आन्दोलन से अब तक 10 लाख करोड़ से अधिक का घाटा हो चुका है। भारतीय वाणिज्य एंव उद्योग मण्डल (एसोचैम) भारत के वाणिज्य संघों की प्रतिनिधि संस्था ने सरकार को पहले ही आगाह कर दिया था कि किसान आन्दोलन से हर रोज़ तकरीबन साढ़े तीन हज़ार (3,500) करोड़ का घाटा हो रहा है। एसोचैम ने दिसंबर के मध्य में ही सरकार को चेताया था कि वह जल्द-से-जल्द आन्दोलन खत्म करने का रास्ता निकाले अन्यथा देश की अर्थ-व्यवस्था को भारी नुकसान होगा। मेरा भी यही मानना है कि आन्दोलन से देश और देशवासियों का ही नुकसान होगा।

क्या दूसरे देशों को भी राह दिखा रहा है किसान आन्दोलन?

ऐसा नहीं है कि केवल हमारे देश का ही किसान सरकार की नीतियों से दु:खी है। अगर आँकड़ों पर बात की जाए, तो दुनिया के तकरीबन 100 से अधिक देशों के किसान कई तरह के दबाव में हैं और परेशान हैं। लेकिन अगर हम अपने देश की बात करें, तो आज यहाँ के लगातार बढ़ते किसान आन्दोलन की आवाज़ अब दुनिया भर में गँूजने लगी है। ऐसे में माना जा रहा है कि यह आन्दोलन दूसरे उन कई देशों के किसानों के लिए रौशनी की किरण बन रहा है, जहाँ के किसानों की दिक्कतें भी हमारे यहाँ के किसानों की तरह हैं। हालाँकि अभी तक किसी देश के किसानों ने अपनी सरकारों के खिलाफ आन्दोलन नहीं किया है, लेकिन इस बात का अहसास इससे किया जा सकता है कि दूसरे देश के सामाजिक कार्यकर्ता, उद्योगपति, किसान और यहाँ तक कि नेता भारतीय किसानों के समर्थन में उतरने लगे हैं। मेरा मानना है कि अगर भारतीय किसान सरकार से अपनी लड़ाई जीत जाते हैं, तो निश्चित ही दूसरे देशों, खासकर भारत के पड़ोसी देशों के किसानों के हौसले बुलंद होंगे और उन्हें अपनी समस्याओं के अपनी सरकारों के सामने रखने की हिम्मत मिलेगी।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

हरियाणा सरकार पर लटकी तलवार

किसान आन्दोलन कहीं हरियाणा की भाजपा-जजपा (भारतीय जनता पार्टी-जननायक जनता पार्टी) सरकार की बलि न ले ले। सत्ता पक्ष इसकी आशंका से डरा है, वहीं विरोधी इसमें सम्भावना टटोल रहे हैं। राज्य में खाप पंचायतों ने जिस तरह से आक्रामक रुख अपनाया है, उससे स्थितियाँ कुछ बदलने लगी हैं। कृषि उत्पाद के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर शुरू हुआ किसान आन्दोलन अब तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाने पर अटक गया है। इस स्थिति के लिए केंद्र सरकार ही ज़िम्मेदार है। उसने मर्ज़ को बढऩे दिया और सोचा कैसा भी नासूर हो, उसे ऑपरेशन से ठीक किया जा सकता है। यह उसका वहम रहा। उसके ऑपरेशन की कोई प्रक्रिया काम नहीं आयी। क्योंकि उसने पंजाब और हरियाणा में जारी किसान आन्दोलन को ज़्यादा गम्भीरता से नहीं लिया। अगर समय रहते न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बातचीत कर मामले को सुलझा लिया गया होता, तो आज यह नौबत नहीं आती।

12 दौर की बातचीत के बाद अब सिलसिला टूटा हुआ-सा है। सिलसिला शुरू होगा, लेकिन कब? कोई नहीं जानता। आखिर समझौता बातचीत से ही निकलेगा, जिसके लिए दोनों पक्ष तैयार है; लेकिन कदम वापसी को लेकर मामला फँस गया है। गेंद सेंटर लाइन पर है, किसी पाले में नहीं। लिहाज़ा पहल में कुछ समय लग सकता है। इसके बरअक्स हरियाणा में किसान आन्दोलन अब गति पकडऩे लगा है। हज़ारों की संख्या में राज्य के लोगों की मौज़ूदगी बताती है कि राज्य में कुछ होने वाला है।

आन्दोलन अब गैर-राजनीतिक नहीं रहा, इसमें किसी तरह के संशय की बात नहीं रही। मंच से चाहे कोई राजनीतिक दल का नेता सम्बोधित न करता हो, लेकिन अन्दरखाने आन्दोलन में राजनीतिक दलों की घुसपैठ हो चुकी है। स्पष्ट है आन्दोलन लम्बा खिंचेगा और समझौते में कोई न कोई अडंग़ा आता रहेगा। भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता और अब आन्दोलन के एकछत्र नेता के तौर पर उभरे राकेश टिकैत ने अक्टूबर तक का समय दे दिया है। इतना लम्बा समय देने के पीछे कोई तर्क नहीं, बल्कि सरकार को यह अहसास कराना है कि किसान आन्दोलन की लम्बे खिंचने से पस्त नहीं होने वाले। हरियाणा में अब आन्दोलन को मज़बूती देने के लिए खाप पंचायतों के दौर में इन दो माँगों के अलावा मौज़ूदा भाजपा-जजपा सरकार को गिराने की बातें होने लगी हैं। ऐसी खाप महापंचायतों में सरकार गिराने का आह्वान किया जाने लगा है। बाकायदा लोगों से हाथ खड़े करवा इसकी हामी भरायी जाने लगी है। राज्य के चरखी दादरी में हाल ही में हुई खाप पंचायत में संयुक्त किसान संघर्ष समिति के सदस्य दर्शन पाल ने माँगों से ज़्यादा राज्य की भाजपा-जजपा सरकार को गिराने का वादा लोगों से ले लिया। इससे पहले कई खाप पंचायतें जजपा कोटे से बने उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के सामाजिक बहिष्कार की घोषणा कर चुकी है। उनके गाँवों में घुसने पर पाबंदी लग चुकी है।

जजपा की यह हालत भारी दवाब और विरोध के बावजूद सरकार में बने रहने की वजह से बनी है। जैसे-जैसे आन्दोलन लम्बा खिंचता जाएगा, वैसे-वैसे हरियाणा में संयुक्त सरकार के लिए संकट बढ़ता जाएगा। खाप पंचायतों के इस दौर में राकेश टिकैत की भूमिका प्रमुख रही है। लगभग हर पंचायत में वे मुखर होकर केंद्र सरकार को चुनौती देते नज़र आये। आन्दोलनकारी जो सुनना चाहते हैं, टिकैत वही बोल रहे हैं। आन्दोलन में हरियाणा सरकार की भूमिका पर उनका रोष देखते ही बनता है। मुख्यमंत्री का नाम लेकर वह कई सभाओं में संकेत दे चुके हैं, जवाब में उन्हें भीड़ से जबरदस्त समर्थन मिलता है। क्या राज्य सरकार को अस्थिर करने से उनकी माँगें पूरी हो जाएँगी? क्या दुष्यंत चौटाला के सरकार से हटने और आन्दोलनकारियों के समर्थन में आने से तीनों कृषि कानून वापस या न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देने का एजेंडा इससे पूरा होगा? हरियाणा में खाप और महापंचायतों के इस दौर से भाजपा-जजपा सरकार पर तलवार तो लटकी है, लेकिन यह गिरेगी! इसकी सम्भावना काफी कम लगती है। कल को क्या राजनीतिक समीकरण बनते हैं, इस बारे में कहना मुश्किल है। लेकिन सरकार मुश्किल में है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता।

समर्थन वापसी का मतलब राज्य में मध्यावधि चुनाव के आसार ज़्यादा बनते हैं। कांग्रेस तो इसके लिए तैयार हो सकती है, पर भाजपा और जजपा बिल्कुल नहीं। कांग्रेस तो खुले तौर पर आन्दोलन को समर्थन और कृषि कानूनों को रद्द करने की माँग का समर्थन कर रही है। मौज़ूदा स्थिति में कांग्रेस बहुमत के लिए आँकड़ा जुटा लेगी, इसमें भी संशय है। पर सवाल हरियाणा का नहीं, बल्कि किसान आन्दोलन पर किसी समझौते का है; जिसके लिए फिलहाल कोई रास्ता खुलता नहीं दिख रहा है।

कोई दो माह से दुष्यंत का ऐसा कोई बयान नहीं आया, जिससे उनकी भावी रणनीति का पता चल सके। वह सरकार में बने रहकर किसानों का समर्थन करना चाहते हैं; लेकिन यह आन्दोलन समर्थकों को मंज़ूर नहीं है। देश में किसानों के कद्दावर नेता रहे पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल के पोते के सामने स्थिति बड़ी विकट हो चली है। किसानों पर आधारित पार्टी जजपा को भविष्य में इसका खामियाज़ा उठाना पड़ सकता है।

देवीलाल की किसान हितैषी विरासत का कुछ हिस्सा इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के पास जा सकता है। पार्टी के एकमात्र विधायक अभय चौटाला तीनों कृषि कानूनों को रद्द न करने के विरोध में सदस्यता से इस्तीफा दे चुके हैं। वह दिल्ली की ट्रेक्टर रैली में भी शामिल हो चुके हैं।

अब अभय चौटाला के पास खोने को कुछ नहीं और पाने को बहुत कुछ है। कांग्रेस विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रही है। हरियाणा में आन्दोलन से जुड़े नेता दुष्यंत पर सरकार से समर्थन वापस लेने का दबाव बना रहे हैं। किसानों के दिल्ली कूच से पहले ही दुष्यंत पर किसानों के समर्थन में आने का जबरदस्त दबाव है; लेकिन वह सरकार में रहकर आन्दोलन को मूक समर्थन देकर सुरक्षित रहना चाहते हैं। किसान विरोध के इस बवंडर में भाजपा नेता भी बच नहीं पा रहे हैं। कृषि कानूनों के समर्थन में करनाल ज़िले में मुख्यमंत्री मनोहर लाल की जनसभा का हश्र सामने है। हेलीपैड खोद दिया गया और मुख्यमंत्री को ऊपर से ही वापस जाना पड़ गया। भाजपा प्रदेशाध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ समेत सभी को वहाँ से जान बचाकर भागने की नौबत आ गयी।

पूरे राज्य में विरोध की हालत कमोबेश एक जैसी ही है। भाजपा सांसद नायब सिंह सैनी को भी आन्दोलनकारियों का विकट विरोध झेलना पड़ा। अब यह हालत हो चली है कि सरकारी कार्यक्रमों को भी सोच-समझकर बनाया जाने लगा है। क्योंकि पता नहीं कहाँ विरोध हो जाए। कृषि कानूनों पर आन्दोलन की शुरुआत हरियाणा से हुई थी।

पिपली (कुरुक्षेत्र) में पहली बार हरियाणा भाकियू के प्रमुख नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने इसकी शुरुआत की थी। तब किसानों पर बल प्रयोग भी हुआ था। उसके बाद पंजाब में आन्दोलन की अलख जगी और बड़ी तेज़ी से फैला। उसके बाद आन्दोलन पंजाब का ही हो गया और इसे 26 जनवरी से पहले उसी का माना जाता रहा है। दिल्ली में 26 जनवरी को लाल िकला प्रकरण के बाद लगने लगा आन्दोलन अब अन्तिम चरण में है; लेकिन गाज़ीपुर सीमा पर भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत हमले से बचकर जिस तरह भावुक हुए, उसके बाद आन्दोलन की दिशा और दशा दोनों बदल गयीं।  बदली परिस्थिति में अब पंजाब के साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा का पक्ष भी काफी मज़बूत होने लगा है। पंजाब के किसानों के दिल्ली कूच से पहले मुख्यमंत्री मनोहर लाल स्पष्ट कहते थे कि आन्दोलन पंजाब के किसानों का है, इसमें हरियाणा के किसानों की भागीदारी नाममात्र की है; लेकिन आज स्थिति कुछ और है।

कृषि कानूनों के पक्ष में रैलियाँ और जनसभाएँ कर किसानों को जागरूक करने की सरकार की मुहिम अब बन्द हो चुकी है। आन्दोलनकारी अब आर-पार की लड़ाई के लिए उतर चुके हैं। आन्दोलन को 50 से ज़्यादा किसान-मजदूर यूनियनों का समर्थन है। बातचीत में 40 यूनियनों के प्रतिनिधि हिस्सा लेते हैं। लेकिन इतने लोगों से बातचीत करके कोई निष्कर्ष निकल जाए, इसमें भी शंका ही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मिल-बैठकर बातचीत का सन्देश दिया है, लेकिन वह खुद आगे नहीं आ रहे हैं; जबकि किसान संगठन उनसे सीधे बातचीत करने के इच्छुक हैं। उन्हें पहल करके किसान नेताओं को बातचीत का न्यौता देना चाहिए। ऐसे में समाधान की कुछ उम्मीद और ज़्यादा बढ़ जाती है। देश में गृह युद्ध जैसे हालात न पैदा हों, इसके लिए सकारात्मक पहल करने की ज़रूरत है।

नरेश टिकैत की भूमिका

कृषि कानूनों पर बातचीत के लिए सबसे बड़े संगठन के तौर पर भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) है। इसमें पंजाब-हरियाणा के पदाधिकारी केंद्र सरकार से बातचीत करते हैं, पर ऐसा लगता है, जैसे भाकियू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नरेश टिकैत नहीं है। केंद्र सरकार को उन्हें विशेष तौर पर बातचीत में शामिल करने का आमंत्रण देना चाहिए। वह राकेश टिकैत के मुकाबले कुछ लचीले और किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की क्षमता रखते हैं। ऐसा संकेत वह कई बार दे चुके हैं। राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के बावजूद उनके रुख को समर्थन नहीं मिल रहा है। पिता महेंद्र सिंह टिकैत के बाद वही भाकियू के सर्वेसर्वा हैं, लेकिन आन्दोलन की कमान राष्ट्रीय प्रवक्ता के तौर पर उनके भाई राकेश टिकैत चला रहे हैं। गाज़ीपुर सीमा पर हुए प्रकरण के बाद वह जिस तरह से राष्ट्रीय किसान नेता के तौर पर उभरे हैं, उससे अन्य नेता गौण हो गये हैं। हालाँकि वह खुद को एक सदस्य के तौर पर बताते हैं, लेकिन कौन नहीं जानता कि अब आन्दोलन का प्रमुख चेहरा वही हैं।

प्रधानमंत्री दिखाएँ दरियादिली

दिल्ली की सीमाओं पर ढाई माह से ज़्यादा के आन्दोलन और दर्ज़न भर बार बातचीत के दौर के बाद प्रधानमंत्री एक फोन कॉल की दूरी की बात कहते हैं। अपने लिए नहीं, बल्कि कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के लिए। क्या नरेंद्र मोदी ऐसी पहल खुद के लिए नहीं करनी चाहिए? इसमें संकोच की किस बात का है, उन्हें दरियादिली दिखानी चाहिए। जब अमित शाह, नरेंद्र सिंह तोमर और पीयूष गोयल से किसान नेताओं की बातचीत किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँची, तो कुछ बदलाव की ज़रूरत है। प्रमुख किसान नेता सीधे प्रधानमंत्री से बात करने के इच्छुक हैं। पहल में देरी नहीं करनी चाहिए; क्योंकि जैसे-जैसे आन्दोलन लम्बा खिंचेगा वह और ज़्यादा मज़बूत होगा, जो देश के लिए अहितकारी साबित होगा।

पश्चिम बंगाल का महासंग्राम

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों के लिए अब दो माह से भी कम समय बचा है। यूँ तो सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने चुनाव प्रचार के लिए युद्धस्तर पर तैयारियाँ पहले से ही शुरू कर दी हैं और प्रचार-प्रसार की गतिविधियाँ बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद से ही चल रही हैं। ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) का सीधा मुकाबला भाजपा से है। हालाँकि वाम दलों और कांग्रेस का प्रभाव भी राज्य में है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। लेकिन ये दल वर्तमान माहौल और पिछले लोकसभा चुनाव को देखते हुए फिलहाल मुख्य दौड़ में नज़र नहीं आ रहे। अब तक की गतिविधियों के मुताबिक, पड़ोसी राज्य बिहार से ताल्लुक रखने वाली जदयू और राष्ट्रीय जनता दल व महाराष्ट्र की शिवसेना भी बंगाल की राजनीति में अपना हाथ आजमाने की तैयारी में हैं।

पश्चिम बंगाल में करीब 30 फीसदी मुस्लिम आबादी है और मुस्लिम 100 से 110 सीटों पर जीत दिलाने में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। टीएमसी नेताओं का कहना है कि भाजपा की मदद करने के लिए और मुस्लिम मतों (वोटों) को बाँटने की खातिर एआईएमआईएम को चुनाव लड़ाया जा रहा है। सन् 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान मुसलमानों ने अपने प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ टीएमसी का साथ दिया और अधिकांश ने ममता की पार्टी के पक्ष में मतदान किया। पार्टी के लिए मुस्लिम मतदाता एक अहम फैक्टर हैं, जो राज्य में भगवा पार्टी का खुलकर विरोध कर सकते हैं। हालाँकि इस बीच हुगली में फुरफुरा शरीफ के पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी ने भी सभी 294 सीटों पर चुनाव लडऩे का फैसला किया है। उन्होंने इंडियन सेकुलरफ्रंट नाम की सियासी पार्टी भी बना ली है। मुस्लिमों के बीच प्रभावती अब्बास सिद्दीकी की इस पहल से कई राजनीतिक दलों का समीकरण गड़बड़ा सकता है।

भाजपा की रणनीति

सन् 2019 के लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में अपनी बड़ी जीत से उत्साहित भाजपा नेता अमित शाह ने इस बार विधानसभा चुनावों में भी खुद मोर्चा सँभाला है और सीधे टीएमसी से मुकाबला करने के लिए अपने को भाजपा के अगुआ के तौर पर पेश किया है। इसके लिए शाह ने भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ मिलकर रैलियों व अन्य कार्यक्रमों की रणनीति तैयार की और अपना मकसद पूरा करने के लिए टीएमसी के असन्तुष्टों को पार्टी में शामिल करवाया।

टीएमसी नेताओं ने भाजपा में हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण और सोनार बांग्ला को बढ़ावा देने के लिए नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए का मुद्दा उठाया। सीएए और अल्पसंख्यकों खासकर घुसपैठियों को लेकर भाजपा ने आक्रामक रुख अिख्तयार किया। इससे अल्पसंख्यकों के बीच असुरक्षा की भावना पैदा की, ताकि दूसरी ओर हिन्दू मतदाताओं का धु्रवीकरण हो सके। निस्सन्देह श्यामा प्रसाद मुखर्जी की विरासत के लिए भाजपा का दावा पार्टी के लिए फायदेमंद हो सकता है। वर्तमान में टीएमसी के भाजपा को बाहरी लोगों की पार्टी बताने के आरोपों को राज्य में साबित करने लिए लम्बा रास्ता तय करना होगा। भाजपा में शामिल किये गये अधिकांश प्रभावशाली नेता मूल पार्टी के सदस्य नहीं हैं; लेकिन वे वाम मोर्चा अथवा टीएमसी को छोड़कर शामिल हुए हैं।

इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि भाजपा ने सन् 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद से पश्चिम बंगाल में एक लम्बी छलांग लगायी है। सन् 2014 के आम चुनाव में 42 में से दो सीटों की गिनती से वह सन् 2019 में 18 सीटों तक पहुँची। राजनीति के जानकारों के अनुसार, इस जीत में भाजपा के हिन्दू मतों की भूमिका रही। सन् 2014 और सन् 2019 के बीच किसी भी संसदीय क्षेत्र में मत फीसदी में कमी नहीं देखी गयी, जबकि हर सीट पर वाम मोर्चे की हिस्सेदारी में कमी दर्ज की गयी।

वाम दलों के नुकसान का सीधा फायदा भाजपा को हुआ; क्योंकि टीएमसी के मत हस्तांतरित नहीं हुए। मोटे तौर पर कहें, तो वामपंथी कैडर (संवर्ग) और समर्थकों ने टीएमसी को हराने के लिए भाजपा को रणनीतिक तरीके से समर्थन किया। सन् 2019 के बाद की अवधि में वाम दलों के साथ-साथ टीएमसी की भी हार हुई है। फिर भी भाजपा की रणनीति का एक प्रमुख घटक ममता की अगुवाई वाली टीएमसी के प्रमुख सहयोगियों, मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को पार्टी में शामिल कराकर उसका मनोबल गिराना है। मीडिया के एक वर्ग की रिपोट्र्स के अनुसार, पश्चिम बंगाल में भाजपा ने 23 जनवरी को कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल में एक सभा आयोजित करके नेताजी सुभाष चंद्र बोस की विरासत के ज़रिये चुनावी लाभ लेने का प्रयास किया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में नेताजी की 125वीं जयंती मनायी गयी, जिसे प्रधानमंत्री ने पराक्रम दिवस बताया। प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जब सम्बोधित करने वाली थीं, तो समर्थकों ने जय श्री राम के नारे लगाये। एक विशेषज्ञ ने बताया है कि टीएमसी प्रमुख के सामने सियासी रूप से अहम यह नारा लगवाया गया, ताकि दोनों के बीच तल्खी और बढ़े और वोट बैंक के लिए ध्रुवीकरण का रास्ता तैयार हो। कुछ पर्यवेक्षकों को लगता है कि नेताजी की विरासत को उपयुक्त बनाने के भाजपा के प्रयासों को वैचारिक विरोधाभासों से भरा हुआ है; क्योंकि नेताजी अपने राजनीतिक करियर के तौर पर पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष थे।

ममता का रक्षात्मक रुख

टीएमसी को छोड़कर कुछ नेताओं के भाजपा का दामन थाम लेने के बावजूद तृणमूल पूरी तरह आश्वस्त है कि आगामी राज्य के विधानसभा चुनाव में उसी के नेतृत्व वाली सरकार बनेगी। हालाँकि चुनाव से पहले नेताओं का पार्टी छोड़कर जाना टीएमसी जैसी क्षेत्रीय पार्टी के लिए बेहतर कदम नहीं हो सकता। फिर भी जब इसका सामना भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी के साथ होता है, तो आगामी चुनावी लड़ाई टीएमसी नेतृत्व के लिए न केवल अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए और अधिक प्रतिस्पर्धी हो जाती है, बल्कि रक्षात्मक तरीके से आक्रामक रुख अिख्तयार करने से पार्टी के होने वाले नुकसान को भी नियंत्रित कर सकती है।

सन् 2019 में 18 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने वाली भाजपा 121 विधानसभा क्षेत्रों में तब्दील हो जाती है। लेकिन अमित शाह के 200 सीटों के अनुमान का अहसास करने के लिए भाजपा को मतों का फीसद बढ़ाना होगा।

टीएमसी के साथ-साथ कुछ राजनीतिज्ञ भी यह मानते हैं कि लोकसभा चुनाव का माहौल आमतौर पर विधानसभा चुनावों से अलग होता है और पार्टी नेतृत्व यह विश्वास दिलाता है कि टीएमसी का िकला उखडऩे वाला नहीं है। टीएमसी के भीतर हाल ही में उथल-पुथल से पता चलता है कि आंतरिक असन्तोष पार्टी के भीतर केंद्रीकृत शक्ति को सँभालने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ रहे होंगे। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, टीएमसी में कुछ खामियाँ तो हैं; क्योंकि यह एक नेता के व्यक्तित्व पर केंद्रित पार्टी हो गयी है। माना जाता है कि शुरुआती चरण में टीएमसी की एक आन्दोलनकारी पार्टी के रूप में पहचान थी, जिसने राज्य में तीन दशकों से चली आ रही वाम दलों की सरकार का िकला ध्वस्त किया था। इसमें स्थानीय और दिग्गज नेताओं के साथ-साथ बहुत सारे ज़मीनी कार्यकर्ता शामिल हुए थे, जिससे सत्ता हासिल करने में आसानी हुई थी। नेता के प्रति निष्ठा रखने वालों ने पार्टी को एक साथ रखा और वफादारी को संरक्षण प्रदान करके उनको पार्टी में शामिल कराया।

कुछ नेता-राजनेता पार्टी में अहमियत और पद की चिन्ता के चलते भाजपा में चले गये। इन नेताओं का मानना है कि उनको वह पद और मुकाम नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। वरिष्ठ टीएमसी नेतृत्व की ओर से इस बाबत ध्यान देने में देरी को भी ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। साथ ही इस बात पर भी ज़ोर दिया जा रहा है कि टीएमसी को सभी को आत्मसात करने और आपसी मतभेद दूर करने की ज़रूरत है। ममता बनर्जी का हालिया दावा उनके आत्मविश्वास को दर्शाता है कि ‘माँ-माटी-मानुष’ की उनकी सरकार राज्य में सत्ता वापसी करेगी। उन्होंने भाजपा को एक ऐसा गुब्बारा बताया है, जो केवल मीडिया में छाया है; जबकि टीएमसी लोगों के दिलों में राज करती है।

आगे क्या

पश्चिम बंगाल में 2021 के ये विधानसभा चुनाव बेहद दिलचस्प होने वाले हैं। टीएमसी सरकार की नीतियों के साथ-साथ पार्टी प्रमुख के नेतृत्व के लिए एक लिटमस टेस्ट (तरल परीक्षण) होगा। इसके अलावा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में चल रहे किसान आन्दोलन के मद्देनज़र भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की परीक्षा भी होनी है।

टीएमसी के लिए चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर का मानना है कि भाजपा अमित शाह के 200 सीटों के दावे से इतर 100 सीटें भी हासिल नहीं कर सकेगी। खैर, यह तो आगे देखा जाएगा कि कौन सही साबित होता है? इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा का इतिहास रहा है। इसलिए इस नज़र से भी चीज़ों को परखना होगा।

यह भी देखना होगा कि सियासी दल राज्य के आर्थिक विकास के लिए खाका खींचने पर ज़ोर देंगे या फिर भड़काऊ बयानों से मतदाताओं को लुभाने पर ज़ोर देंगे।

(कोलकाता से लौटकर)