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उत्तर प्रदेश में चुनावी सरगर्मी तेज़

भले ही उत्तर प्रदेश विधानसभा 2022 के चुनाव में एक साल के करीब का समय बचा हो, लेकिन सियासी गुणा-भाग के साथ-साथ सभी पार्टियों की चुनावी सरगर्मी भी दिन-ब-दिन बढ़ती गर्मी की तरह बढ़ती जा रही है। लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर नित नये समीकरण उभरते जा रहे हैं। वजह साफ है कि इस बार आम आदमी पार्टी (आप) प्रदेश की सभी 403 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारेगी।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवील ने कुछ समय पहले जैसे ही यह ऐलान किया कि आगामी विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी दिल्ली की तर्ज पर उत्तर प्रदेश की सभी 403 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी, वैसे ही उत्तर प्रदेश में राजनीतिक ताना-बाना बुनना शुरू हो गया।  आम आदमी पार्टी के नेताओं का कहना कि जिस प्रकार दिल्ली में मोहल्ला क्लीनिक, बसों में महिलाओं को मुफ्त की यात्रा, पानी मुफ्त और 200 यूनिट बिजली मुफ्त दी जा रही है, उसी तरह पार्टी सरकार बनने पर उत्तर प्रदेश के लोगों को ये सारी सुविधाएँ मुहैया कराएगी। उत्तर प्रदेश की सियायत पर आम आदमी पार्टी पर तहलका ने अपनी पड़ताल में पाया कि आम आदमी पार्टी उत्तर प्रदेश में ग्राम पंचायत चुनावों के रास्ते विधानसभा का रास्ता तय करने की जुगत में है।

मौजूदा दौर में देश की सियासत में एक अजीब-सा वातावरण करवटें ले रहा है। लोगों के सियासत को लेकर तमाम सवाल हैं कि किस राजनीतिक दल पर विश्वास करें? कौन-सी पार्टी है, जो विकास के साथ-साथ लोगों को बेहतर सुविधाएँ दे सके।

बता दें कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के पहले अप्रैल-मई, 2021 में ग्राम पंचायत के चुनाव होने हैं। माना जा रहा है कि आम आदमी पार्टी ग्राम पंचायत चुनावों के रास्ते ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं और संगठन को मज़बूत कर प्रदेश में अपनी जड़े जमाएगी। आम आदमी पार्टी के नेता दिनेश सिंह का कहना है कि उत्तर प्रदेश की जनता प्रदेश में बदलाव चाहती है। क्योंकि अभी तक भाजपा, सपा, कांग्रेस और बसपा की सरकारों को यहाँ की जनता देख चुकी है। लोगों में इन पार्टियों ने सत्ता पाने के बाद निराश ही किया है। लेकिन अब उत्तर प्रदेश की जनता एक उम्मीद और भरोसे के साथ आम आदमी पार्टी को मौका देना चाहती है, ताकि प्रदेश में विकास के साथ-साथ एक ईमानदार राजनीतिक दल की सरकार बने।

आम आदमी पार्टी, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष सभाजीत सिंह ने तहलका को बताया कि यहाँ के लोगों में एक उत्साह है कि आम आदमी पार्टी ग्राम पंचायत से लेकर विधानसभा चुनावों में अपने प्रत्याशियों को चुनावी मैदान में उतारेगी। उनका कहना है कि दिल्ली में 8-9 साल की आम आदमी पार्टी ने तीन बार दिल्ली का मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को बनाकर यह बता दिया है कि अरविन्द केजरीवाल की कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं है। उत्तर प्रदेश के लोग बड़ी संख्या में दिल्ली में रहते हैं और दिल्ली में हो रहे विकास कार्यों के प्रत्यक्षदर्शी हैं। इसलिए प्रदेशवासी चाहते हैं कि जो सुविधाएँ दिल्ली वालों को मिल रही हैं, वो सुविधाएँ उन्हें भी मिलें। प्रदेश की जनता चाहती है कि राज्य बड़ा है तो, यहाँ विकास भी अधिक होना चाहिए, क्योंकि सरकारी खाते में राजस्व अधिक जमा होता है। उन्होंने कहा कि प्रदेश के लोग यह बात समझ और मान रहे हैं कि आम आदमी पार्टी के मार्फत ही विकास सम्भव है। सभाजीत ने बताया कि आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता प्रदेश के गाँव-गाँव में जाकर लोगों के बीच आम आदमी पार्टी के बारे बता रहे हैं और प्रतिदिन हज़ारों की संख्या में सदस्य बना रहे हैं। ज़िला इकाई के माध्यम से लोगों को ज़िम्मेदारी भी दी जा रही है। उनका कहना है कि उत्तर प्रदेश में आम आदमी पार्टी ग्राम प्रधान से लेकर ज़िला परिषद और विधानसभा तक के चुनाव लड़ेगी।

राजनीति विश्लेषक सचिन सिंह गौर का कहना है कि यह बात तो साफ देखी जा रही है कि लोग बदलाव के मूड में हैं; लेकिन मतदाता कितना बदलाव लाते हैं? ये तो तभी पता चलेगा, जब चुनाव हो जाएँगे और मतों की गिनती पूरी होगी। क्योंकि उत्तर प्रदेश की सियासत पूरी तरह से जातीय समीकरण पर टिकी हुई है। सवाल यह है कि क्या आम आदमी पार्टी भी जातीय जोड़-तोड़ पर सियासत करेगी? अगर वह ऐसा करती है, तो अन्य राजनीतिक दलों से कैसे अपने को हटकर बता पाएगी कि उसकी सियासत अलग है। सचिन कहते हैं कि यह बात तो है कि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में शिक्षा और स्वास्थ्य पर विशेष काम किया है, जिसको लोग मानते भी हैं। लेकिन लोगों का यह भी मामना है कि दिल्ली की सत्ता 70 विधानसभा सीटों वाली है, जबकि उत्तर प्रदेश की सत्ता 403 विधानसभा वाली। ऐसे में दोनों की तुलना कैसे की जा सकती है? दिल्ली के भौगौलिक ढाँचे और उत्तर प्रदेश के भौगोलिक ढाँचे में ज़मीन-आसमान का अन्तर है।  उत्तर प्रदेश की सियासत पर पैनी नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार हरिश्चन्द्र पाठक का कहना है कि जन आन्दोलन से निकली आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की सियासत में दूसरी बार सारे समीकरणों को धत्ता बताकर यह साबित कर दिया है कि लोगों के बीच आम आदमी पार्टी की पकड़ ही मज़बूत नहीं है, बल्कि उसका काम भी बोलता है। अगर उत्तर प्रदेश की जनता के बीच भी आम आदमी पार्टी दिल्ली के लोगों में अपनी पकड़ बनाने में सफल होती है, तो उत्तर प्रदेश में बहुत बड़ा सियासी उलटफेर सम्भव है।

आम आदमी पार्टी के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का कहना है कि उनके पास उत्तर प्रदेश से तमाम नेता और राजनीतिक संगठनों से जुड़े लोग आ रहे हैं और कह रहे हैं कि आम आदमी पार्टी उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़े। वहाँ की जनता को यह विश्वास भी है कि आम आदमी पार्टी बड़ा बदलाव कर सकती है। केजरीवाल का कहना है कि जो राजनीतिक दल उत्तर प्रदेश को अपनी जागीर समझते हैं; उनसे वहाँ की जनता त्रस्त है। आम आदमी पार्टी से जुड़कर लोग उसे मज़बूत बना रहे हैं।

वहीं आम आदमी पार्टी के विधायक दिलीप पांडे का कहना है कि उत्तर प्रदेश में भले ही अभी आम आदमी पार्टी का कोई विधायक नहीं है, लेकिन यहाँ आम आदमी पार्टी प्रमुख विपक्षी पार्टी के तौर पर अपनी भूमिका निभा रही है और समय-समय पर उत्तर प्रदेश सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरोध में आवाज़ उठाकर लोगों को जागरूक कर रही है। उनका कहना है कि पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद संजय सिंह देश के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में कोरोना-काल में हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ और किसानों के समर्थन में संसद से लेकर सड़कों तक न्यायसंगत बात रख रहे हैं। दिलीप पांडे का कहना है कि उत्तर प्रदेश में एक विशेष जाति के छ: फीसदी लोग अपनी सरकार समझकर 94 फीसदी लोगों की उपेक्षा कर रहे हैं, जिसको आम आदमी पार्टी बर्दाश्त नहीं करेगी। उनका कहना है कि प्रदेश में 30 से ज़्यादा ज़िलों में आम आदमी पार्टी के सक्रिय ज़िला कार्यालय खुल गये हैं, बाकी अन्य ज़िलों में भी कार्यालय जल्द ही खुलेंगे।

बताते चलें कि ग्राम पंचायत चुनावों के इने-गिने दिन ही बचे हैं। किसान आन्दोलन पूरे प्रदेश में धीरे-धीरे लोगों के आक्रोश फैलता जा रहा है, जिसमें भाजपा छोड़ सभी राजनीतिक दल किसानों के समर्थन में रात-दिन एक किये हुए हंै। आम आदमी पार्टी से जुड़े किसान नेता अमर सिंह का कहना है कि आम आदमी पार्टी ने जिस प्रकार बिना सियासी लाभ-हानि के किसान हित में संसद से लेकर सड़कों तक आवाज़ बुलन्द की है, उसको देखते हुए किसानों ने आम आदमी पार्टी पर विश्वास जताया है। आज अन्य राजनीतिक दलों के नेता किसान आन्दोलन में जाने से हिचकते रहे हंै, जबकि आम आदमी पार्टी के नेता लगातार किसानों के साथ हंै, उनकी हर सम्भव मदद कर रहे हंै।

बनारस और कानपुर से आम आदमी पार्टी के नेता सुरेंद्र सिंह और संजीव सिंह ने बताया कि बनारस से अरविन्द केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ा था, तभी यह साबित हो गया था कि आने वाले दिनों में आम आदमी पार्टी की सियासत का केंद्र उत्तर प्रदेश होगा। अब यह साफ दिखने लगा है। आम आदमी पार्टी ने कोरोना-काल में लोगों के बीच जाकर अपनी पकड़ मज़बूत बनायी है। आम आदमी पार्टी में इस बात पर ज़ोर दिया जा रहा है कि आने वाले चुनावों में सामाजिक कार्यकर्ताओं, पढ़े-लिखे युवाओं और बेदाग छवि वाले लोगों को ही मैदान में उतारा जाए। इसके लिए दावेदार प्रत्याशियों की लोकप्रियता और उनके व्यक्तित्व की कई स्तर पर पड़ताल भी की जा रही है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि उत्तर प्रदेश में ज़्यादातर दबंग छवि वाले और पैसे वाले लोग ही चुनाव लड़ पाते हैं। दबंगों के सामने ईमानदार और पढ़े-लिखे युवा चुनाव नहीं लड़ पाते हैं। इसलिए आम आदमी पार्टी का इस बात पर विशेष ज़ोर है कि राजनीति में ईमानदार और निर्भीक लोग ही आएँ। नोएडा के आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता राजकुमार वैश्य का कहना है कि दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के ज़िला नोएडा और गाज़ियाबाद में आम आदमी पार्टी का प्रभाव इस बात पर है कि दिल्ली और नोएडा में आने-जाने वाली महिलाओं को बसों में मुफ्त यात्रा का लाभ मिल रहा है, जो उत्तर प्रदेश की राजनीति में अहम भूमिका निभा सकता है। बताते तो यह भी हैं कि दिल्ली में सरकारी और निजी कम्पनियों में सरकार की ओर से उत्तर प्रदेश के लोगों को मौका दिया जा रहा है, जो सियासी समीकरण का भी हिस्सा है।

उत्तर प्रदेश की तहसीलों के काम में होगा सुधार!

तहसील ग्रामीण कार्यों के बनाया गया एक ऐसा सरकारी महकमा है, जिसका सरोकार सीधे ग्रामीणों से, खासकर किसानों से है। लेकिन अब तक तहसीलों में बहुत कुछ ऐसा है, जो इस आधुनिक कम्प्यूटर युग में बाबा आदम के ज़माने जैसा लगता है। उत्तर प्रदेश की कई तहसीलों में अभी भी टाइप राइटरों की खटपट इसका एक उदाहरण है। लोग आज भी अपने कागज़ बनवाते हैं या ज़मीनों का लेन-देन करते हैं, तो अधिकतर तहसीलों में उन्हें टाइपराइटरों की मदद लेनी पड़ती है। इन टाइपराइटरों की सबसे बड़ी कमी यह होती है कि अगर एक बार गलत अक्षर / शब्द टाइप हो गया, तो उसे काटा तो जा सकता है, लेकिन उसे मिटाया नहीं जा सकता। वहीं कम्प्यूटर पर हुई गलती पहले ही ठीक की जा सकती है।

विदित हो कि प्रशासनिक और विधायिक राजधानी लखनऊ और न्यायिक राजधानी इलाहाबाद वाले उत्तर प्रदेश में तकरीबन 20 करोड़ लोग निवास करते हैं, जिसकी अधिकतर संख्या गाँवों में निवास करती है। उत्तर प्रदेश में कुल 18 मंडल, 75 ज़िले और 57 हज़ार 607 गाँव हैं, जिनके कामकाज के लिए करीब 349 तहसीलें हैं। जनसंख्या और ज़िलों की संख्या के हिसाब से यह भारत का सबसे बड़ा राज्य है। कहा जाता है कि केंद्र सरकार का रास्ता इसी राज्य से होकर जाता है। ऐसे में उत्तर प्रदेश का विकास हर तरह से मायने रखता है। लेकिन आज भी कई तरह से पिछड़ा उत्तर प्रदेश उतना विकास नहीं कर पाया है, जितना कि इसे करना चाहिए था। वैसे उत्तराखण्ड के अलग होने के बाद उम्मीद की गयी थी कि उत्तर प्रदेश का तेज़ी से विकास होगा। लेकिन अब कुछ लोग और सरकार कहती है कि उत्तर प्रदेश बहुत बड़ा है, इसलिए इसका उतना विकास नहीं हो पाता, जितना कि होना चाहिए था। जो भी हो, सरकार को इसके विकास के लगातार प्रयास तो करने ही होते हैं, जैसा कि इन दिनों योगी सरकार कर रही है। कहा जाता है कि किसी देश-प्रदेश के विकास का पता उसके गाँवों के विकास से चलता है। उत्तर प्रदेश के विकास का अंदाज़ा उसके गाँवों के विकास से ही होगा, जिसके लिए सबसे पहले तहसीलों में काफी बदलाव की ज़रूरत होगी। योगी सरकार ने अपने कार्यकाल में तहसीलों में कई सुधार किये हैं; लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है।

तहसीलों में रखे जाएँगे एक हज़ार से अधिक कम्प्यूटर ऑपरेटर

उत्तर प्रदेश सरकार ने तहसीलों के कामकाज को तेज़ करने के लिए पूरे प्रदेश की सभी करीब 349 तहसीलों में जल्द ही 1000 से अधिक कम्प्यूटर ऑपरेटर्स रखने का फैसला किया है। कम्प्यूटर ऑपरेटर्स रखने के दिशा-निर्देश राजस्व परिषद की ओर से जारी किये गये हैं। राजस्व परिषद के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, सभी कम्प्यूटर ऑपरेटर्स को आउट सोर्सिंग के माध्यम से तहसीलों में ज़रूरत के हिसाब से रखा जाएगा, जिसकी व्यवस्था स्थानीय स्तर पर ही की जाएगी। दिशा-निर्देशों में यह भी कहा गया है कि श्रेणी-एक और श्रेणी-दो की तहसीलों में अधिकतम चार कम्प्यूटर ऑपरेटर, श्रेणी-तीन और श्रेणी-चार की तहसीलों में दो कम्प्यूटर ऑपरेटर रखे जाएँगे। वैसे फिलहाल इन कम्प्यूटर ऑपरेटरों को संविदा पर रखा जाने की योजना है। हो सकता है सरकार बाद में इन्हीं कम्प्यूटर ऑपरेटरों को स्थायी कर दे, लेकिन फिलहाल इस बारे में राजस्व परिषद ने कुछ नहीं कहा है।

परिषद ने प्रयोक्ता प्रभार के संग्रहण एवं व्यय के सम्बन्ध में जारी दिशा-निर्देशों में कहा है कि कम्प्यूटरीकरण के काम में ज़रूरत के आधार पर आउटसोर्सिंग पर तकनीकी जनशक्ति सेवा ली जाएगी। मंडलायुक्त न्यायालय में कम्प्यूटरीकरण की ज़रूरत के हिसाब से आउटसोर्सिंग पर आधारित तकनीकी जनशक्ति सेवा केंद्र होंगे। एक जनशक्ति सेवा केंद्र पर आने वाले खर्च को उस तहसील में स्थापित किया जाएगा, जिस मंडलीय ज़िले की जिस तहसील में सर्वाधिक प्रयोक्ता प्रभार प्राप्त हो रहा है। इसके लिए आउटसोर्सिंग पर प्रति तकनीकी जनशक्ति सेवा क्रय के लिए अधिकतम 25,000 रुपये खर्च किए जाएँगे। इसी तरह ज़िलाधिकारी न्यायालय के लिए भी व्यवस्था की जाएगी, ताकि काम तेज़ी से हो सके।

कैसे श्रेणीगत होंगी तहसीलें

कम्प्यूटरीकृत कामकाज के लिए श्रेणीगत तहसीलों को रोज़मर्रा के कामकाज के आधार पर तय किया जाएगा। जैसे हर दिन 300 से अधिक खतौनी की नकल जारी करने वाली तहसीलों को श्रेणी-एक में रखा जाएगा। इसी तरह 200 से 300 खतौनी की नकल जारी करने वाली तहसीलों को दूसरी श्रेणी में, 100 से 200 नकल जारी करने वाली तहसीलों को श्रेणी-तीन में और 100 से कम नकल जारी करने वाली तहसीलों को श्रेणी-चार में रखा जाएगा।

क्या होगा फायदा

कम्प्यूटरीकृत कामकाज को बढ़ावा देने के लिए तहसीलों में जनशक्ति सेवा क्रय केंद्र खुलने के बाद सभी तहसील सम्बन्धी कामों की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन हो जाएगी। इससे किसानों की ज़रूरत के कागज़ात, जैसे खसरा, खतौनी, नक्शा, बैनामा, आय, जाति, मूलनिवास और हैसियत प्रमाण पत्र, विरासत, दाखिल खारिज जैसे काम काफी आसान और जल्दी से होंगे। हाथ से लिखे दस्तावेज़ों से छुटकारा मिलेगा और पुराने हो चुके दस्तावेज़ों को कम्प्यूटर से निकलवाया जा सकेगा। इसके अलावा प्रदेश के युवाओं को रोज़गार मिलेगा, जिससे बेरोज़गारी का स्तर घटेगा।

अन्य सुधारों की भी ज़रूरत

उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के हर गाँव और हर शहर में बने सरकारी महकमों में आज सुधार की बहुत ज़रूरत है। उत्तर प्रदेश की तहसील व्यवस्था की बात करें, तो यह कृषि और गैर-कृषि भूमि के लेखा-जोखा रखने के साथ-साथ उनके मालिकाना हक रखने वालों का ब्यौरा रखने का केंद्र होता है। ऐसे में तहसीलों में हर दिन सैकड़ों किसान और स्थानीय लोग आते-जाते हैं। कुछ किसानों और तहसील में काम करने वालों से बात करने पर पता चला कि तहसीलों में अब भी बड़े पैमाने पर सुधार की ज़रूरत है। इसमें निम्न बिन्दुओं पर ध्यान दिया जा सकता है :-

काम में गति ज़रूरी : वैसे तो कामकाज के लिए सरकारी कर्मचारियों के पास अब अधिकतर तहसीलों में कम्प्यूटर ही हैं, लेकिन कहीं उनकी संख्या कम है, तो कहीं उन्हें चलाने वालों की संख्या कम है। यही वजह है कि तहसीलों के काम काफी पिछड़े हुए हैं। ऐसी बहुत-सी शिकायतें काम की लेटलतीफी को लेकर आज भी ग्रामीणों द्वारा की जाती हैं। सही मायने में इसकी वजह आधुनिक तकनीक के बावजूद पुरानी प्रणाली और तहसील कर्मचारियों की लेटलतीफी है। उत्तर प्रदेश सरकार की प्रदेश की तहसीलों में कम्प्यूटर ऑपरेटर्स की नियुक्ति की योजना से माना जा रहा है कि तहसीलों के काम में तेज़ी आएगी, जो कि बहुत ज़रूरी है। हालाँकि यह कब तक हो पाएगा? इस बारे में कहना काफी मुश्किल है। क्योंकि तहसीलों में होते ढीले कामकाज की वजह से लोगों में काफी आक्रोश भी रहता है। इस बारे में हमने मीरगंज तहसील के कुछ ग्रामीणों से बातचीत की, तो उन्होंने कई तरह की शिकायतें कीं। रामकिशन नाम के एक किसान ने बताया कि तहसील में तो किसानों का काम आये दिन पड़ता रहता है, लेकिन बाबू लोग किसानों से सीधे मुँह बात भी नहीं करते और काम को आराम से अपनी सहूलियत के हिसाब से करते हैं।

रिश्वतखोरी सबसे बड़ी बीमारी : मीरगंज तहसील के एक गाँव के एक किसान मोहनलाल ने बताया कि साहब! तहसील में कोई भी काम बिना रिश्वत के नहीं होता। अगर पैसा न दो तो अफसर और लेखपाल काम लटका देते हैं। किसानों की कोई नहीं सुनता, पैसे की सब सुनते हैं। वहीं धर्मपाल किसान का कहना है कि बाबू लोग काम का पैसा खुलकर माँगते हैं, ऊपर से उनकी खुशामद करो वो अलग। इस बात की पड़ताल के लिए हमने एक लेखपाल से भी बात की, उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि रिश्वत तो ऊपर तक जाती है; नीचे अगर कोई किसानों पर दया दिखाये भी तो कैसे दिखाये? हालाँकि फिर भी किसानों के साथ हर कोई ऐसा व्यवहार नहीं करता कि हर काम पर रिश्वत ही माँगता हो। लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि तहसीलों में रिश्वतखोरी नहीं होती। दरअसल इस पर आधिकारिक स्तर से रोक लगनी चाहिए और नीचे स्तर पर रिश्वतखोर कर्मचारियों पर शिकंजा कसा जाना चाहिए।

डरते हैं सीधे-सादे किसान : तहसील में बैठने वाले वरिष्ठ वकील हरपाल सिंह कहते हैं कि दरअसल किसान बहुत सीधे-सादे होते हैं और अधिकारियों-कर्मचारियों से बात करने की उनकी हिम्मत नहीं होती है। क्योंकि वे डरते हैं कि उनके काम को कहीं कोई रोक न दे। इसकी वजह उन्हें कानून और काम के बारे में ठीक से जानकारी न होना है। किसानों के अन्दर का डर ही उन्हें रिश्वत माँगने वालों के खिलाफ जाने से रोकता है, अन्यथा अगर किसी किसान से रिश्वत माँगी जाए और वह तहसीलदार अथवा उप तहसीलदार जैसे बड़े अधिकारियों से इसकी शिकायत करे, तो उसकी ज़रूर सुनी जाएगी।

जातिवाद हावी : तहसीलों में ज़मीनों से सम्बन्धित काम होता है और उसमें ज़मीन के मालिक का जाति आधारित ब्यौरा होता है। ऐसे में उच्च वर्ग के अधिकारी-कर्मचारी जाति के आधार पर भेदभाव करने में गुरेज़ नहीं करते। हालाँकि इस तरह का कोई ठोस सुबूत तो नहीं है, लेकिन कुछ लोग इस बात को दावे के साथ कहते हैं कि बहुत कर्मचारी और अधिकारी ऐसे हैं, जो जातिवाद के आधार पर काम करने में भेदभाव करते हैं। एक किसान ने तो यहाँ तक दावा किया, जिस जाति का अधिकारी तहसील में होता है, उस जाति के रसूखदार लोग खुद को अधिकारी समझते हैं और काम कराते हैं। ऐसे लोगों का तहसीलों में जमावड़ा कभी भी देखा जा सकता है। वहीं एक लेखपाल ने इस बात का खण्डन किया। उन्होंने कहा कि इस बात में रिश्वत वाली बात की तरह ही दम नहीं है। कुछ लोगों के बारे में नहीं कहा जा सकता, लेकिन अधिकतर लोग जातिवाद या धर्मवाद को दूर रखकर ही अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाते हैं।

क्या चाँदनी चौक की तर्ज पर होगा दिल्ली के बाज़ारों का कायाकल्प!

दिल्ली ऐतिहासिक काल से ही अपने बाज़ारों के लिए मशहूर रही है। यहाँ पारम्परिक बाज़ारों, आधुनिक मॉल, नये ज़माने के साप्ताहिक (पैठ) बाज़ारों की बहुतायत है। दिल्ली के साप्ताहिक बाज़ार यहाँ की बड़ी आबादी के लिए सुलभ तरीके से सस्ता सामान मुहैया कराते हैं। परन्तु जब कोरोना वायरस का संक्रमण तेज़ी से फैला, तो लॉकडाउन के चलते येे बाज़ार बन्द हो गये थे। हालाँकि अब इनकी रौनक फिर से लौटने लगी है, परन्तु दुकानदारों का कहना है कि भले ही बाज़ारों में भीड़ दिख रही है, मगर वे अभी मंदी की मार झेल रहे हैं।

बता दें कि दिल्ली के प्रत्येक इलाके में अलग-अलग स्थानों पर दिनों के हिसाब से सड़क किनारे लगने वाले ये साप्ताहिक बाज़ार लाखों लोगों के रोज़गार का ज़रिया हैं। साप्ताहिक बाज़ारों की देख-रेख नगर निगम करता है। लेकिन बाज़ारों में दुकानें लगाने वाले व्यापारियों को पीने के पानी, शौचालय और साफ-सफाई जैसी गम्भीर समस्याओं से जूझना पड़ता है। हालाँकि गन्दगी के ज़िम्मेदार दुकानदार भी हैं। साप्ताहिक बाज़ारों में दुकान लगाने वाले राहुल ने तहलका संवाददाता को बताया कि शौच, पीने के पानी, साफ-सफाई के अलावा वे एसोसिएशन द्वारा लिए जाने वाले किराये से भी परेशान हैं। राहुल का कहना है कि कोविड-19 के चलते बाज़ार का काम ठप हो गया है। लेकिन हमें नगर निगम के अलावा, साफ-सफाई, बाज़ार में लगने वाली लाइट्स तथा मेज़ों से अलग एसोसिएशन को भी पैसे देने पड़ते हैं। यह भारी खर्च हमारी मुश्किलों का कारण बना हुआ है। एसोसिएशन द्वारा बाज़ार में छोटी-बड़ी दुकानें लगाने वालों से ली जाने वाली राशि एक प्रकार का अतिरिक्त खर्च है।

बता दें कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल साप्ताहिक बाज़ारों के संघ प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के दौरान शहर के इन बाज़ारों को पर्यटन स्थल की तरह एक लोकप्रिय खरीद-फरोख्त के आकर्षक स्थलों के रूप में विकसित करने का प्रस्ताव दे चुके हैं। केजरीवाल ने इस प्रस्ताव में कहा था कि दिल्ली के साप्ताहिक बाज़ारों को बेहतर और व्यवस्थित करके उन्हें इतना आकर्षक बनाया जाएगा कि जब कोई विदेशी पर्यटक आये और इन बाज़ारों में जाए, तो इनकी तारीफ करे। दिल्ली सरकार भी हॉन्गकॉन्ग और दूसरे देशों की तरह ही इन बाज़ारों और रेहड़ी-पटरी वालों को प्रोत्साहित करेगी। उन्होंने कहा कि हमारे देश में साप्ताहिक बाज़ारों और रेहड़ी-पटरी वालों को एक समस्या माना जाने लगा है और एक ऐसा माहौल बना दिया गया है कि इनकी वजह से सड़कें खराब होती हैं और गन्दगी फैलती है। लेकिन हम इन्हें बदलेंगे। इसके लिए हमारे पास योजना है। बता दें कि चाँदनी चौक में री-डवलपमेंट प्रोजेक्ट पर दिल्ली सरकार काम कर रही है। इस काम को दिल्ली के उप मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया देख रहे हैं। इसकी शुरुआत 7 दिसंबर 2018 को की गयी थी। अभी तक यहाँ काफी काम हो चुका है, कुछ ही समय में यहाँ की तस्वीर किसी साफ-सुथरे विदेशी शहर की तरह दिखेगी। दो साल पहले तक सँकरी गलियों, वाहनों की भीड़ और तारों के फैले जाल वाले पुरानी दिल्ली के इस पूरे इलाके में अभी से बड़ा बदलाव दिखने लगा है। यहाँ दिल्ली की सबसे बड़ी ग्राउंड पार्किंग बन चुकी है, सड़कों से अतिक्रमण हटा दिया गया है, सड़कों पर वाहनों के चलने पर प्रतिबन्ध लग चुका है औरमकडज़ाल की तरह फैले बिजली के तारों को ज़मीनदोज़ किया जा रहा है। नये चाँदनी चौक की मुख्य सड़कों पर सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक सभी प्रकार के वाहनों पर प्रतिबन्ध रहेगा। अगर इस दौरान कोई सड़क पर वाहन लेकर आता है, तो उसे 20 हज़ार रुपये का ज़ुर्माना भरना होगा। यह कार्य परियोजना पूरी होने के बाद चाँदनी चौक की सड़कों पर रिक्शों की आवाजाही पर भी प्रतिबन्ध लगाया जाएगा।

चाँदनी चौक के सर्व व्यापार मण्डल अध्यक्ष संजय भार्गव ने बताया कि चाँदनी चौक को पूरी तरह से बदला जा रहा है। नवंबर तक शेष कार्य समाप्त होने के बाद लोग साफ-सुथरे बाज़ार की ओर अत्यधिक आकर्षित तो होंगे ही, साथ ही यहाँ के धीमे पड़ चुके व्यापार में भी बढ़ोतरी होगी। पहले यहाँ लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ता था, वहीं अब गाडिय़ों के न होने से वे बड़ी आसानी से खरीदारी कर सकेंगे।

वास्तव में चाँदनी चौक में हो रहे कायाकल्प को देखकर लगता है कि दिल्ली सरकार यहाँ के साप्ताहिक बाज़ारों को विदेशों में लगने वाले बाज़ारों की तरह बनाने में कामयाब होगी। लेकिन यह काम तब और आसान होगा, जब दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार, खासकर भाजपा शासित नगर निगम के बीच का तनाव खत्म होगा। क्योंकि इससे दिल्ली का विकास प्रभावित होता है। इन दिनों दिल्ली नगर निगम के कर्मचारी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर हैं। इससे कूड़ाघरों के आसपास विकट गन्दगी फैल चुकी है और बीमारियों को दावत मिल रही है।

नगर निगम के सफाईकर्मी 7 फरवरी से काम पर नहीं आ रहे हैं। उनका कहना है कि आये दिन उनका वेतन रोक लिया जाता है। भाजपा नेता आरोप लगाते हैं कि दिल्ली सरकार नगर निगम का बकाया नहीं देती है। वहीं दिल्ली सरकार का कहना है कि उसने नगर निगम को अतिरिक्त पैसा दिया हुआ है, जबकि केंद्र सरकार उसे बजट नहीं दे रही है। पिछली बार मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एक कार्यक्रम में जब इस बात का दावा किया और लेन-देन का हिसाब दिया, तो अगले ही दिन भाजपा शासित नगर निगम ने कर्मचारियों का वेतन दे दिया। अब फिर से वही समस्या है। कर्मचारी फिर से हड़ताल पर हैं। बताया जा रहा है कि सफाई कर्मचारियों को पिछले कुछ महीनों से न तो वेतन मिल रहा है और न ही पेंशन। कुछ कर्मचारियों का कहना है कि मुख्यमंत्री ने 938 करोड़ रुपये की घोषणा भी की थी, परन्तु यह रकम कब और किस मदद में खर्च होगी? इसका कुछ पता नहीं है।

विदित हो कि दिल्ली में नगर निगम के चुनाव आने वाले हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या चाँदनी चौक के कायाकल्प पर केजरीवाल दिल्ली की जनता का भरोसा हासिल कर नगर निगम चुनाव में जीत दर्ज करा पाएँगे?

दिल्ली में मुफ्त की बिजली से मोटा पैसा कमा रहे मकान मालिक

देश की राजधानी दिल्ली में राज्य सरकार ने गरीब-अमीर सबके लिए घरेलू उपयोग के लिए 200 यूनिट बिजली हर महीने मुफ्त कर रखी है, जिसका कुछ लोग, खासकर मकान मालिक बेजा फायदा उठा रहे हैं। मयूर विहार फेस-3 में ऐसे मकान मालिकों की कमी नहीं है, जिन्होंने एक ही मकान में फ्लोर के हिसाब से सरकारी मीटर लगवा रखे हैं, ताकि हर फ्लोर पर 200 यूनिट बिजली से ज़्यादा खर्च न हो और उन्हें बिजली का बिल न देना पड़े। लेकिन यही मकान मालिक अपने किरायेदारों से 8 रुपये प्रति यूनिट के हिसाब से वसूली करते हैं। मकान मालिक इसके लिए सब-मीटरों का इस्तेमाल करते हैं। यानी मकान मालिक मुफ्त की बिजली पर जमकर कमायी कर रहे हैं। मयूर विहार फेस-3 के पूरे इलाके कोंडली से लेकर, घरौली गाँव और जीडी कालोनी के सभी ब्लॉकों में ऐसे मकान मालिकों की भरमार है, जो अपने मकानों में बिजली बिल भरने से बचने के लिए फ्लोरवाइज सरकारी मीटर लगवा चुके हैं। सबने बिजली कनेक्शन अपने ही परिवार के अलग-अलग लोगों के नाम से ले रखे हैं।

हैरत की बात यह है कि किराये के नाम पर अनाप-शनाप वसूली करने वाले मकान मालिकों में से अधिकतर किरायेदारों का पुलिस बेरिफिकेशन तक नहीं कराते और न ही किरायानामा लिखवाते हैं, ताकि इनकी किराये से होने वाली मोटी आमदनी का खुलासा न हो सके, उस पर मुफ्त की बिजली का 8 रुपये यूनिट और वसूलते हैं। इतना ही नहीं, किरायेदारों को लेकर मकान मालिक तामाम स्तर पर पड़ताल करता है और अपनी शर्तों पर समझौता करता है। हालाँकि कुछ मकान मालिक किरायेदारों की जानकारी स्थानीय थाने में जमा कराते हैं, लेकिन अधिकतर इससे और किरायानामा बनवाने से बचते हैं। ये मकान मानिलक किरायेदार से उसके पहचान के कागज़ तो ले लेते हैं, लेकिन उन्हें किसी काम के लिए कुछ भी नहीं देते। अनेक किरायेदारों का यहाँ तक कहना है कि कुछ मकान मालिक तो अपने मकानों में फास्ट सब मीटर लगवाकर किरायेदारों से मोटा पैसा वसूल करते हैं। महानगरों में रहने वाले किरायेदारों से तहलका संवाददाता ने बात की तो उन्होंने बताया कि मकान मालिक किरायेदार से हर हाल में समय पर किराये की वसूली करते हैं, चाहे उसे कोई भी दिक्कत हो, उससे मकान मालिक को इससे कोई लेना-देना नहीं है। पिछले साल कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन में बहुत लोगों की नौकरी चली गयी थी, तब भी मुश्किल से 20 फीसदी मकान मालिकों ने ही अपने किरायेदारों को राहत दी। मयूर विहार फेस-3 की एक महिला किरायेदार ने अपने मकान मालिक को उसका नाम न बताने की शर्त पर बताया कि उसके मकान मालिक ने लॉकडाउन में न तो किराये का एक भी पैसा छोड़ा और न ही बिजली बिल माफ किया, जबकि लॉकडाउन में उनकी नौकरी चली गयी थी। दिल्ली के गणेश नगर निवासी राजकुमार का कहना है कि दिल्ली सरकार दिल्ली में रहने वालों और किरायेदारों को भी 200 यूनिट बिजली मुफ्त में दे रही है, लेकिन अधिकतर मकान मालिक किरायेदारों के लिए लगने वाले सरकारी मीटर नहीं लगने देते और अपनी ओर से लगवाये सब मीटर्स के ज़रिये किरायेदारों से 8 से 10 रुयये प्रति यूनिट की दर से पैसा वसूलते हैं।

बुराड़ी में गत तीन साल से किराये पर रहने वाले सुनील कुमार ने बताया कि शासन-प्रशासन मकान मालिकों द्वारा किरायेदारों से बिजली बिल वसूली से वािकफ है, लेकिन वह इसलिए कुच नहीं कर पाता, क्योंकि किरायेनामे में बिजली और पानी के बिल की अवैध वसूली का ज़िक्र ही नहीं होता। किरायेदार अगर मकान मालिकों की शर्त मंजूर न करे, तो उसे कोई मकान न दे। दिल्ली में कुछ फ्लैट ऐसे हैं, जहाँ बिजली और पानी का बिल किरायेदारों को ही सीधे देखना होता है, लेकिन वे बहुत महँगे होते हैं और हर कोई उनमें नहीं रह सकता।

दिल्ली में बिजली विभाग में कार्यरत कर्मचारी आलोक कुमार ने कहा कि दिल्ली सरकार मकान मालिकों और किरायेदारों के बीच किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं कर रही है। सरकार ने दोनों को ही 200 यूनिट तक बिजली मुफ्त दे रखी है। 200 यूनिट से अधिक बिजली खर्च होने पर ही बिल भरवाया जाता है। किरायेदारों को अपना सरकारी मीटर लगवाना चाहिए। अगर  कोई मकान मालिक इसमें आनाकानी करता है, तो किरायेदार इसकी शिकायत बिजली विभाग अथवा पुलिस से कर सकत हैं। लेकिन गुपचुप तरीके से मकान मालिकों की वसूली पर सरकार क्या कर सकती है? लिखित में बिजली का पैसा लेने पर ही कार्रवाई हो सकती है। आलोक कुमार का कहना है कि इस मामले में शिकायतें आती भी हैं, लेकिन कोई भी किरायेदार सामने नहीं आता है। अगर कोई किरायेदार सामने आता है, तो मकान मालिक मुकर जाता है। पांडव नगर और शाहदरा दिल्ली के आरडब्ल्यूए के पदाधिकारी राजेश मित्तल और सुरेश कपूर का कहना है कि मकान मालिक अगर मुफ्त की बिजली का पैसा किरायेदारों से वसूलता है, तो यह पूरी तरह से गलत है। लेकिन इस मामले में इसलिए भी कार्रवाई नहीं होती, क्योंकि सियासी लोगों को अच्छी तरह से पता है कि चुनावों में मतदान में किरायेदारों की भूमिका कम और मकान मालिकों की भूमिका अधिक होती है। इसलिए सियासतदाँ मकान मालिकों से इस मामले में कोई पंगा नहीं लेना चाहता है।

पेशे से वकील और सामाजिक कार्यकर्ता पीयूष जैन का कहना है कि दिल्ली सरकार और आरडब्ल्यूए के पदाधिकारियों को नैतिकता के आधार पर ही आगे आना होगा, तब जाकर इस मामले में समाधान निकलना सम्भव है। अन्यथा मकान मालिक तो बिजली का बिल आसानी से लेता रहेगा। सरकार भी दखल नहीं दे पाएगी। इस मामले में दिल्ली के एक मकान मालिक अशोक कुमार का कहना है कि वह अपने किरायेदारों से बिजली का बिल नहीं लेते हैं। उनका कहना है कि जब दिल्ली सरकार ने 200 यूनिट तक बिजली मुफ्त कर दी है, तो किसी की मेहनत की कमायी को दिल दुखाकर क्यों लेना? लेकिन ज़्यादातर मकान मालिक मोटे किराये के अलावा बिजली के भरपूर दाम लेते हैं, जो कि पूरी तरह से गैर-ज़िम्मेदाराना और अव्यवहारिक है।

बताते चलें कि देश के महानगरों में एक तबका तो किराये के पैसे पर ही निर्भर है। जो अपनी शर्तों पर किराये पर मकान, गोदाम और दुकानों को देता है। इस काम में दिखावे के तौर पर रेंट एग्रीमेंट में किराया भी कम दिखाया जाता है और वसूला ज़्यादा जाता है। सही मायने में यह एक प्रकार से काली कमायी का ज़रिया भी है, क्योंकि मकान मालिक किराये से हज़ारों-लाखों रुपये महीने की कमायी के बावजूद कर (टैक्स) नहीं भरते, ऊपर से सरकार की ओर से सभी मुफ्त सुविधाओं का जमकर फायदा उठाते हैं, जिससे राजस्व को भी चूना लगता है।

सामाजिक कार्यकर्ता नवीन गिरि का कहना है कि किरायेदारों और मकान मालिकों के बीच किराये और तामाम दिक्कतों को दूर करने के लिए आयोग को बनाये जाने की ज़रूरत है, ताकि इस मामले में पारदशर््िाता स्थापित की जा सके।

हिमाचल फर्ज़ी डिग्री घोटाले की जड़ें कहाँ तक

अगर 17 राज्यों में लोगों को जारी की गयी 36,000 फर्ज़ी डिग्रियों को जाँचकर्ता फर्ज़ीबाड़े का एक छोटा हिस्सा कहा जा रहा है, तो हिमाचल प्रदेश के इस घोटाले का पूरा पैमाना चौंकाने वाला होगा। सोलन के मानव भारती विश्वविद्यालय से ज़ब्त की गयीं 55 हार्ड डिस्क में से केवल 14 को एक विशेष जाँच टीम द्वारा अब तक स्कैन किये जाने पर 36,000 फर्ज़ी डिग्रियों का खुलासा हो चुका है। मालिक और परिवार / सहयोगी की सम्पत्ति का मूल्य 194 करोड़ रुपये है; जो घोटाले की कार्यवाही से जुड़ा है। धन शोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) मामले में इसे देश के किसी भी शैक्षणिक संस्थान की सम्पत्तियों की सबसे बड़ी कुर्की के रूप में देखा जा रहा है।

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने मानव भारती विश्वविद्यालय, इसकी सम्बद्ध संस्थाओं और प्रमोटरों से सम्बन्धित 194 करोड़ रुपये से अधिक की सम्पत्ति को कुर्क किया है और इसे उनके खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग जाँच के सम्बन्ध में एक कथित फर्ज़ी डिग्री घोटाले से जोड़ा है, जो हिमाचल प्रदेश में पिछले साल ही उजागर हुआ है। यह धन्धा कई साल से चल रहा था, जबसे इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई है। विश्वविद्यालय मानव भारती चैरिटेबल ट्रस्ट के स्वामित्व में है और राज्य पुलिस के अनुसार, मानव भारती विश्वविद्यालय (स्थापना और विनियमन) अधिनियम 2009 के तहत इसे स्थापित किया गया था।

ईडी के सूत्रों के अनुसार, संलग्न सम्पत्तियाँ हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में भूमि, आवासीय घर और व्यावसायिक भवनों के रूप में हैं; जिनकी कीमत 186.44 करोड़ रुपये है, जबकि 7.72 करोड़ रुपये की छ: सावधि जमाएँ भी हैं। यह सम्पत्ति सोलन स्थित मानव भारती विश्वविद्यालय (एमबीयू), माधव विश्वविद्यालय, मानव भारती चैरिटेबल ट्रस्ट और ट्रस्ट के अध्यक्ष राज कुमार राणा के नाम पर है। विश्वविद्यालय मानव भारती चैरिटेबल ट्रस्ट के स्वामित्व में है और राज्य पुलिस के अनुसार, मानव भारती विश्वविद्यालय (स्थापना और विनियमन) अधिनियम-2009 के तहत स्थापित किया गया था। प्रवर्तन निदेशालय द्वारा संलग्न सम्पत्ति का कुल मूल्य 194.17 करोड़ रुपये है।

ईडी ने पिछले साल राज्य पुलिस द्वारा दर्ज एक एफआईआर का संज्ञान लेने और अध्ययन के बाद आरोपियों के खिलाफ धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) की धाराओं के तहत मामला दर्ज किया था। ईडी ने एक बयान में दावा किया कि राणा ने हरियाणा के करनाल में अपने कार्यालय से 2009 में एमबीयू के नाम पर फर्ज़ी डिग्री जारी करने का यह घोटाला शुरू किया। ईडी ने कहा कि 387 करोड़ रुपये की आपराधिक आय अर्जित हुई। फर्ज़ी डिग्री जारी करना और राणा द्वारा उनके नाम के साथ-साथ उनके बेटे मनदीप राणा और परिवार के अन्य सदस्यों के नाम पर कई सम्पत्तियों में निवेश किया गया था। ईडी ने आरोप लगाया कि यह पता चला है कि इन सम्पत्तियों का मूल्यांकन किया गया था कि अवैध नकद आय को समायोजित किया जा सकता है। एजेंसी ने दावा किया कि राणा ने माउंट आबू में माधव विश्वविद्यालय नाम से राजस्थान में फर्ज़ी डिग्री जारी करने के अवैध कार्य के माध्यम से एक और संस्थान का निर्माण किया। एजेंसी ने कहा कि मानव भारती विश्वविद्यालय (राजस्थान) के निर्माण के लिए मानव भारती विश्वविद्यालय, सोलन और मानव भारती चैरिटेबल ट्रस्ट के बैंक खातों के माध्यम से धन का उपयोग अप्रत्यक्ष रूप से किया गया था।

एजेंसी के मुताबिक, मानव भारती विश्वविद्यालय, सोलन और मानव भारती चैरिटेबल ट्रस्ट के बैंक खातों में इतनी अवैध आय खातों की किताबों में अकादमिक प्राप्तियों के रूप में गलत तरीके से दिखायी गयी और इसलिए इसे वास्तविक कार्यवाही के रूप में दिखाने के लिए प्रेरित किया गया। वास्तव में सोलन में मानव भारती विश्वविद्यालय (एमबीयू) का फर्ज़ी डिग्री घोटाले में विशेष हार्डकोर टीम द्वारा अब तक स्कैन किये गये 55 हार्ड डिस्क में से 14 में 36,000 फर्ज़ी डिग्री का पता लगा है और इसके बाद इसके अपनी तरह के सबसे बड़े घोटालों में से एक होने के संकेत मिल रहे हैं।

जाँच एजेंसी के मुताबिक, यह तो बड़े घोटाले का सिर्फ एक हिस्सा भर है; क्योंकि बाकी 41 हार्ड डिस्क की स्कैनिंग के साथ फर्ज़ी डिग्रियों की संख्या कई गुना होने की आशंका है। जाँच दल ने कहा कि यह घोटाला करोड़ों-करोड़ रुपये का है।

पुलिस महानिदेशक संजय कुंडू ने बताया कि मुख्य आरोपी राज कुमार राणा (एमबीयू चला रहे मानवभारती चैरिटेबल ट्रस्ट के अध्यक्ष) का पासपोर्ट रद्द कर दिया गया है और उनकी पत्नी, बेटे और बेटी को वापस लाने की कार्यवाही चल रही है। राणा और उनके परिवार की 440 करोड़ रुपये की सम्पत्तियों में से 194.74 करोड़ रुपये का मूल्य अपराध की आय से जुड़ा हुआ है और उन्हें संलग्न किया गया है। डीजीपी ने कहा कि यह किसी भी शैक्षणिक सम्पत्ति की बड़ी रकम है और देश में मनी लॉन्ड्रिंग मामले में संस्था को सामने लाती है।

अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (एडीजी), सीआईडी, एन. वेणुगोपाल ने कहा- ‘फर्ज़ी डिग्रियों की संख्या अलग-अलग हो सकती है। हम इसे बहुत अधिक मानते हैं। यह एक बहुत संगठित गिरोह है, जो पिछले एक दशक से चलाया जा रहा था। जाँच में पता चला कि तकनीकी विषयों से सम्बन्धित प्रत्येक डिग्री हिमाचल प्रदेश (एचपी) के भीतर और बाहर के छात्रों को एक लाख से तीन लाख रुपये में बेची गयी थी। एसआईटी टीम ने विश्वविद्यालय के एक जम्मू स्थित एजेंट को भी पकड़ा, जिसने फर्ज़ी डिग्री बेचने के लिए स्थानीय स्तर पर सौदे किये।’

जाँचकर्ताओं ने पाया कि एमबीयू के प्रबन्धक ने राज्य के बाहर के लोगों के ज़रिये डिग्रियाँ बेचीं और बदले में मोटा कमीशन प्राप्त किया। अधिकांश मामलों में खरीदारों ने इन एजेंटों को डिग्री के लिए नकद भुगतान किया, जिन्होंने फर्ज़ी डिग्री बनाने के लिए उम्मीदवारों को विश्वविद्यालय का विवरण प्रदान किया।

एसआईटी ने सात अलग-अलग राज्यों- राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, और उत्तराखण्ड को अलग-अलग राज्यों में अपने एजेंटों को भेजा। उनके ठिकाने का पता लगाने के लिए जम्मू, दिल्ली, चंडीगढ़ और कश्मीर का दौरा भी किया गया था। जाँच में पाया गया कि एमबीयू में विभिन्न पाठ्यक्रमों में 95,000 से अधिक छात्रों ने दाखिला लिया। जून में एमबीयू के चेयरमैन राजकुमार राणा को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने अग्रिम जमानत देने से इन्कार कर दिया। जमानत याचिका खारिज होते ही राणा को अदालत परिसर में एसआईटी ने गिरफ्तार कर लिया। उसे पूछताछ के लिए सोलन ले जाया गया। इससे पहले एसआईटी ने विश्वविद्यालय के एक पूर्व रजिस्ट्रार के.के. सिंह को गिरफ्तार किया था। विश्वविद्यालय के दो अधिकारियों, रजिस्ट्रार अनुपमा ठाकुर और सहायक रजिस्ट्रार मुनीश गोयल को मार्च, 2020 में गिरफ्तार किया गया था।

जब यह सब हिमाचल प्रदेश में चल रहा था। पंजाब पुलिस ने हाल ही में फर्ज़ी शिक्षा सलाहकारों के एक अंतर्राज्यीय गिरोह का भंडाफोड़ किया, जिन्होंने छात्रों और अभिभावकों को शैक्षणिक डिग्री प्रदान करने के नाम पर ठगा। गिरोह विश्वविद्यालयों के झूठे डोमेन नाम बनाने और फर्ज़ी प्रमाण पत्र बनाने का काम करता था। संदिग्धों की पहचान करतारपुर गाँव, मुल्लापुर के गरीबदास के निर्मल सिंह उर्फ निम्मा, मोहाली निवासी अंकित अरोड़ा, मथुरा निवासी विष्णु शर्मा, मेरठ निवासी सुशांत त्यागी और गाज़ियाबाद निवासी आनंद विक्रम सिंह के रूप में हुई है। पुलिस ने अपराध में प्रयुक्त बड़ी संख्या में फर्ज़ी डिग्री, प्रिंटर, स्कैनर, लेमिनेशन मशीन, नकली होलोग्राम, मोबाइल फोन, लैपटॉप के अलावा कार भी बरामद की है।

26 जनवरी को ज़ीरकपुर पुलिस स्टेशन में आईपीसी की धाराओं- 259, 260, 420, 465, 467, 468, 469, 470, 471, 473 और 120 के तहत मामला दर्ज किया गया था। संदिग्धों ने अलग-अलग नामों से राज्य में कई स्थानों पर केंद्र खोले थे। वे 2017 से यह धन्धा चला रहे थे। पुलिस ने कहा कि करीब 1,000 लोग उनके सम्पर्क में थे। एसपी (ग्रामीण) रवजोत ग्रेवाल और ज़ीरकपुर के डीएसपी अमरो सिंह ने कहा कि गिरफ्तारियाँ मोहाली, मेरठ, मथुरा और दिल्ली से की गयी हैं। संदिग्धों को पुलिस हिरासत में भेज दिया गया है और उनसे पूछताछ की जा रही है।  मामले में अभी और भी खुलासे हो सकते हैं।

बजट 2021-22: निजीकरण और विनिवेश की खुलती खिड़की

देश में निजीकरण और विनिवेश की एक बड़ी खिड़की खुल रही है। वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट से कुछ यही सन्देश मिलता है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में कहा भी कि बेकार एसेट्स आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में योगदान नहीं कर सकते। मेरा अनुमान है कि विनिवेश से साल 2021-22 तक हमें 1.75 लाख करोड़ रुपये मिलेंगे। दशकों से तैयार किये गये संसाधन बेकार श्रेणी में आने का मतलब ही है, उनकी सार्वजनिक क्षेत्र से विदाई। सरकार आने वाले महीनों में सरकारी कम्पनियों और विभागों की सम्पत्तियों का मुद्रीकरण करने की तैयारी तो कर ही रही है, सार्वजनिक उपक्रमों (पीएसयू) में रणनीतिक बिक्री को बढ़ावा देने का भी उसका इरादा है। ज़ाहिर है इसके लिए उसे कानून में संशोधनों की ज़रूरत रहेगी और यह काम वह इसी सत्र में कर सकती है। विपक्ष, कई विशेषज्ञों और कर्मचारी संगठनों के विरोध के बावजूद निजीकरण और विनिवेश का यह सिलसिला कहाँ ठहरेगा? अभी कहना मुश्किल है। हालाँकि यह समझना मुश्किल नहीं कि इसका आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा। आत्मनिर्भर भारत के मोदी सरकार के नारे के साथ उसका बीमा कम्पनियों में एफडीआई यानी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को 49 फीसदी से बढ़ाकर सीधे 74 फीसदी करने का इरादा चौंकाने वाला ही कहा जाएगा।

 बजट में केंद्र सरकार ने कम-से-कम दो सरकारी बैंकों के और एक सामान्य बीमा कम्पनी के निजीकरण की घोषणा कर दी है। मोदी सरकार का इरादा आईडीबीआई बैंक, बीपीसीएल, शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, कंटेनर कॉर्पोरेशन, नीलांचल इस्पात निगम लिमिटेड समेत कई अन्य कम्पनियों में हिस्सेदारी बेचकर रकम जुटाने का है। बजट में वित्त मंत्री भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड, एयर इंडिया, शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, आईडीबीआई, बीईएमएल, पवन हंस, नीलाचल इस्‍पात निगम लिमिटेड और अन्य की रणनीतिक बिक्री 2021-22 में पूरा करने का वादा कर चुकी हैं। सरकार सरकारी क्षेत्र की सबसे बड़ी बीमा कम्पनी भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) का आईपीओ भी लॉ‍न्च करने जा रही है और उम्मीद कर रही है कि चालू माली साल में उसे सरकारी फर्मों के विनिवेश से 1.75 करोड़ रुपये जुटेंगे।

इस स्तर पर निजीकरण और विनिवेश का मतलब साफ है कि सरकार आर्थिक मोर्चे पर विभिन्न दबाव झेल रही है। इसका एक कारण उसका वित्तीय कुप्रबन्धन भी हो सकता है, जिसे वह ज़ाहिर नहीं करना चाहती। सरकार इस बड़े पैमाने पर निजीकरण और विनिवेश अपने वित्‍तीय दबाव को कम करने के लिए ही कर रही है। सरकार के निजीकरण के लिए बड़ी खिड़की खोलने का विरोध अभी से शुरू हो गया है। बजट पेश होने के एक हफ्ते के भीतर सरकारी बैंकों और अन्य सरकारी विभागों के निजीकरण की घोषणा के खिलाफ विभिन्न बैंकों के कर्मचारियों ने विरोध जताया और सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया। यूनाइटेड फोरम ऑफ बैकिंग एसोसिएशन और बैंक ऑफ इंडिया नीड ऑर्गेनाइजेशन ने कहा कि केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री सीतारमण ने देश की बड़ी सरकारी कम्पनियों और सरकारी बैंक का निजीकरण का फैसला किया है, जो कि निंदनीय है। एसोसिएशन ने इसका विरोध किया और कहा कि सरकार को सरकारी बैंकों को निजी हाथों में देने की बजाय अपनी तरफ से हिस्सेदारी बढ़ाकर इसे मज़बूत करने के लिए कदम उठाने चाहिए।

सरकार मौज़ूदा माली साल में सेंट्रल पब्लिक सेक्‍टर इंटरप्राइजेज (सीपीएसई अर्थात् केंद्र की स्‍वामित्‍व वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियाँ) में अपनी हिस्‍सेदारी बेचकर और शेयर बायबैक के ज़रिये 17,957 करोड़ रुपये जुटा चुकी है। देश में इस समय तकरीबन 249 सीपीएसई हैं, जिनमें से 54 से ज़्यादा कम्पनियाँ स्‍टॉक मार्केट में लिस्‍टेड हैं। सरकार ने वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए 2.10 लाख करोड़ रुपये विनिवेश से जुटाने का लक्ष्य रखा था; लेकिन अब उसका कहना है कि कोरोना महामारी और लॉकडाउन के चलते यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका। अब मोदी सरकार ने वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए 1.75 लाख रुपये विनिवेश से जुटाने का लक्ष्य तय किया है, जिसके लिए वह सरकारी कम्पनियों और बैंकों को बेचने और सरकारी कम्पनियों में अपनी हिस्सेदारी घटाने की योजना बना रही है। विपक्ष इसी का सख्त विरोध कर रहा है।

बजट भाषण में वित्र मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि पिछले साल बड़े विनिवेश की योजना तैयार की गयी थी, जिसमें एलआईसी के शेयर बेचे जाने की बात भी शामिल थी। इस योजना को इस साल पूरा किया जा सकता है। सरकार ने वित्तीय वर्ष 2019-20 के लिए 1.05 लाख करोड़ और वित्तीय वर्ष 2018-19 के लिए 80 हज़ार करोड़ रुपये के विनिवेश का लक्ष्य रखा था। अब सरकार इस विनिवेश के लक्ष्य को पूरा करने के लिए दो सरकारी बैंकों और एक इंश्योरेंस कम्पनी समेत कई पब्लिक सेक्टर की कम्पनियों की हिस्सेदारी बेचने जा रही है। सरकार एक लाख करोड़ सरकारी कम्पनियों को बेचकर जुटाएगी, जैसे बैंक और इंश्योरेंस कम्पनी आदि। वहीं 75 हज़ार करोड़ रुपये सरकारी कम्पनियों में हिस्सेदारी बेचकर जुटाये जाएँगे। निजीकरण के ज़रिये सरकार सार्वजनिक कम्पनी में अपनी अधिकतर हिस्सेदारी किसी निजी कम्पनी को बेचती है, जबकि विनिवेश में सरकारी कम्पनी में कुछ हिस्सेदारी बेचना है; लेकिन इसमें सरकार की हिस्सेदारी 50 फीसदी से ज़्यादा रहती है। सरकार साफ कह रही है कि उसका उद्देश्य सरकारी कम्पनियों की संख्या कम करना और निजी क्षेत्र के लिए नये अवसर तैयार करना है।

सरकार सफाई दे रही है कि सरकारी बैंक या कम्पनियाँ कई बार खज़ाने पर काफी बोझ डालते हैं। क्योंकि सरकार को उन्हें समय समय पर संकट से उबारने के लिए पूँजी (री-कैप्टलाइजेशन) देनी पड़ती है, जिससे सरकार को राजस्व की बचत होगी। विनिवेश से सरकार के पास काफी पैसा आ जाएगा, जिसे सरकार इंफ्रास्ट्रक्टर पर खर्च कर सकती है। साथ ही निजीकरण से कम्पनी की कार्यक्षमता में भी बढ़ेगी। नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कान्त ने बजट पर कहा कि यह बहुत शानदार है; क्योंकि यह अगले तीन-चार साल की दिशा दे रहा है। सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्टर पर फोकस किया है। शिक्षा और स्वास्थ्य पर बहुत फोकस है। यह बहुत व्यावहारिक बजट है। कोई नया कर नहीं लगाया गया है, जो बहुत बड़ी बात है। यह बजट आम आदमी के अनुकूल है।

हालाँकि कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने बजट पर कहा कि सरकार की तीन बड़ी गलतियों नोटबन्दी, त्रुटिपूर्ण जीएसटी और बैंकिंग क्षेत्र पर दबाव की वजह से आज अर्थ-व्यवस्था नियंत्रण से बाहर हो गयी है और नीचे आ रही है। चिदंबरम ने कहा कि सरकार ने तीन बड़ी गलतियाँ की हैं। नोटबन्दी की ऐतिहासिक गलती, जल्दबाज़ी में गड़बडिय़ों वाला माल और सेवा कर (जीएसटी) लागू करना और बैंकिंग क्षेत्र पर दबाव बनाने जैसी गलतियों की वजह से आज हमारी अर्थ-व्यवस्था टूट रही है। उन्होंने कहा कि देश एक बार फिर आर्थिक वृद्धि की दृष्टि से उदासीन वर्ष की ओर बढ़ रहा है। अर्थ-व्यवस्था में सुस्ती की वजह विपक्ष बता रहा है, जबकि इसका स्पष्टीरकरण सरकार की ओर से दिया जाना चाहिए। आर्थिक आँकड़े देते हुए चिदंबरम ने कहा कि ये लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था का संकेत देते हैं। खनन, विनिर्माण, बिजली, कोयला, कच्चा तेल और गैस सभी क्षेत्रों का प्रदर्शन काफी खराब है। सरकार ने माँग में सुधार के लिए कम्पनी कर में कटौती की है। कम्पनी कर घटाने के बजाय यदि सरकार ने जीएसटी के मोर्चे पर राहत दी होती, तो लाखों लोगों के हाथ में अधिक पैसा रहता, जिससे निवेश बढ़ता। चिदंबरम ने कहा कि अगर पैसा जुटाना विनिवेश का मकसद है, तो हम विरोध करेंगे; क्योंकि यह खराब कारण है। सरकार सम्भवत: 5-10 फीसदी शेयर बेच सकती है, इससे एलआईसी का स्वामित्व नहीं बदलेगा।

वैसे कुछ आर्थिक विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि सरकारें कमोवेश हर बजट में एक तय समय में पब्लिक सेक्टर यूनिट्स के विनिवेश का ऐलान ज़रूर करती हैं। हालाँकि ये भी ज़रूरी नहीं कि सरकार इन्हें बेचने में कामयाब हो ही जाए। एयर इंडिया इसका एक बड़ा उदाहरण है।

रोज़गार सबसे बड़ी चुनौती

पिछले साल कोरोना महामारी और मोदी सरकार के अनियोजित लॉकडाउन के कारण भारत में रोज़गार का बड़ा संकट खड़ा हो गया है। एक अनुमान के मुताबिक, इससे करीब 15 करोड़ लोग बेरोज़गार हुए हैं और लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी उनमें से 70 फीसदी अभी अपने हारों में बेरोज़गारी झेल रहे हैं। इससे निपटने के लिए केंद्रीय बजट 2021-22 के पूँजीगत खर्च में 34 फीसदी की बढ़ोतरी को विशेषज्ञ बहुत कम बता रहे हैं। वित्तीय साल 2020-21 की बात करें, तो पूँजीगत खर्च 4.12 लाख करोड़ रुपये था, जिसे अब बढ़ाकर नये बजट में 5.54 लाख करोड़ रुपये किया गया है।

बहुत-से अर्थशास्त्री मानते हैं कि दीर्घकालिक इंफ्रास्ट्रक्टर प्रोजेक्ट को प्रोत्साहित करना तो ठीक है, लेकिन यह बहुत ज़्यादा रोज़गार दे देगा; ऐसा सोचना ही गलत है। इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट कहती है कि बजट में 2019 और 2020 में सामाजिक सुरक्षा और सर्वमान्य न्यूनतम मज़दूरी से जुड़े प्रावधानों का भी दोहराव कर किया गया है। मनरेगा के बजट आवंटन में बड़ी कटौती कर दी गयी है। मनरेगा ने ही गाँवों में लॉकडाउन में रोज़गार को सहारा दिया था, अन्यथा हालत और भी खराब होती। इसे गाँवों में रोज़गार की सबसे बड़ी योजना माना जाता है। ऐसे में इसके बजट में कटौती समझ से परे है। बजट में शहरी क्षेत्रों में भी रोज़गार बढ़ाने के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया है। रिपोर्ट कहती है कि यह तब है, जब लॉकडाउन और महामारी से अर्थ-व्यवस्था की टूटी कमर को सीधा करने के लिए रोज़गार एजेंसियों ने इस पर खासा ज़ोर दिया था। श्रम और रोज़गार मंत्रालय को 13,306.5 करोड़ (1.82 बिलियन डॉलर) आवंटित किये गये हैं, जो 2020-21 की संशोधित आवंटन से 413 करोड़ रुपये कम हैं। इसमें भी श्रमिकों के लिए मौज़ूद सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं के बजट को 3.4 फीसदी कम करके 11,104 करोड़ (1.52 बिलियन डॉलर) कर दिया गया है।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने टेक्सटाइल, शिपिंग और इंफ्रास्ट्रक्टर क्षेत्र के लिए योजनाओं और आवंटन की घोषणाएँ की हैं, जिससे उम्मीद की जा रही है कि रोज़गार बढ़ेगा। उदाहरण के लिए 13 क्षेत्रों में प्रोडक्शन-लिंक्ड इनिशिएटिव (पीएलआई) के लिए पाँच साल में 1.97 लाख करोड़ (27 बिलियन डॉलर) का प्रावधान सरकार करेगी। अगले तीन साल में बजट में सात मेगा इवेस्टेमेंट टेक्सटाइल्स पार्क शुरू किये जा रहे हैं। टेक्सटाइल इंडस्ट्री के कच्चे माल के लिए मौलिक सीमा-शुल्क को कम करके 5 फीसदी किया गया है। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के साथ-साथ तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल और असम में आर्थिक मार्ग और राष्ट्रीय राजमार्ग के लिए 1,08,230 करोड़ रुपये (14.8 बिलियन डॉलर) की रकम निश्चित की गयी है। पीपीपी मॉडल के तहत शहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक बस परिवहन वृद्धि योजना के लिए 18,000 करोड़ रुपये की घोषणा की गयी है। लेकिन यह सारी योजनाएँ बहुत लम्बा समय लेने वाली योजनाएँ हैं। अर्थात् इसमें रोज़गार तत्काल नहीं मिलने वाला है।

आर्थिक जानकार कहते हैं कि बड़ी इंफ्रास्ट्रक्टर परियोजनाओं में वर्तमान में बड़ी पूँजी लगती है। निर्माण क्षेत्र की ज़्यादातर नौकरियाँ आवासीय और व्यावसायिक परियोजनाओं में सृजित होती हैं, बड़े इंफ्रास्ट्रक्टर प्रोजेक्ट में नहीं। इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट कहती है कि 2019 के आखरी महीने तक भारत के कुल मानव संसाधन का 48 फीसदी हिस्सा स्व-रोज़गार था। लेकिन लॉकडाउन के बाद अगस्त 2020 में ऐसे लोगों की संख्या बढ़कर 64 फीसदी हो गयी है। लॉकडाउन के बीच जब मोदी सरकार ने राहत उपायों की घोषणा की थी, तो सबसे ज़्यादा ज़िक्र सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) का हुआ था। अनियोजित लॉकडाउन में सबसे बड़ी मार इसी सेक्टर ने झेली थी। इस दौरान कई उद्योग धन्धे चौपट हो गये थे। अब एमएसएमई मंत्रालय के लिए वर्तमान वित्तीय अनुमान 7,572 करोड़ को दोगुना करके 2021-22 में 15,700 करोड़ किया गया है; लेकिन कुल आवंटन का 64 फीसदी गारंटी इमरजेंसी क्रेडिट लाइन (जीईसीएल) सुविधा के लिए रखा गया है। एमएसएमई देश के असंगठित क्षेत्र के 40 फीसदी कामगारों को रोज़गार उपलब्ध कराता है।

लॉकडाउन लगने के बाद काम छूट जाने से अपने घरों को लौटने वाले बेरोज़गार प्रवासी मज़दूरों ने लॉकडाउन के दौरान मनरेगा के तहत काम के लिए आवेदन किया था; लेकिन 97 लाख ज़रूरतमंद लोगों को काम ही नहीं मिला। इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक, जून 2020 में, मनरेगा के लिए रिकॉर्ड 61,500 करोड़ रुपये (8.4 बिलियन डॉलर) का आवंटन किया गया था। बाद में 40 हज़ार करोड़ रुपये अतिरिक्त दिये गये। साल 2021-22 में बजट में इज़ाफे के साथ 73 हज़ार करोड़ आवंटित किये गये; लेकिन यह 2020-21 के संशोधित अनुमान की तुलना में 35 फीसदी कम हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, माँग के मुकाबले बजट में मनरेगा के लिए हमेशा कम पैसे दिये जाते हैं। पिछले साल इस मद में आवंटन बढ़ाया गया था, लेकिन वह पैसा भी नौकरी कार्ड वाले सभी परिवारों को 100 दिन काम देने के लिए ज़रूरी पैसे का महज़ एक-तिहाई है।

बजट में रोज़गार को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि रोज़गार के प्रमुख क्षेत्र होते हैं, एग्रीकल्चर, इंफ्रास्ट्रक्टर, टेक्सटाइल और टेक्नोलॉजी। इम्प्लॉयमेंट जनरेशन को बढ़ाने के लिए इन चारों बिन्दुओं पर इस बजट में बहुत ज़ोर दिया गया है।

इस दशक के पहले बजट के लिए, जिसमें विजन भी है, एक्शन भी है, मैं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जी और उनकी टीम को बहुत-बहुत बधाई देता हूँ। किसान की आय दोगुनी हो, इसके प्रयासों के साथ ही 16 एक्शन प्वाइंट्स बनाये गये हैं जो ग्रामीण क्षेत्र में रोज़गार को बढ़ाने का काम करेंगे। बजट में जिन नए रिफॉर्म्स का ऐलान किया गया है, वो हमारी अर्थ-व्यवस्था को गति देने, देश के प्रत्येक नागरिक को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने और इस दशक में अर्थ-व्यवस्था की नींव को मज़बूत करने का काम करेंगे। टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में रोज़गार को बढ़ावा देने के लिए इस बजट में हमने कई प्रयास किये हैं। नए स्मार्ट सिटीज, इलेक्ट्रॉनिक मैयूफैक्चरिंग, डेटा सेंटर पार्क्स, बायो टेक्नोलॉजी और ांटम टेक्नोलॉजी, जैसे क्षेत्रों के लिए अनेक पॉलिसी इनिशिएटिव लिए गये हैं। स्टार्ट अप्स और रीयल एस्टेट के लिए भी टैक्स बेनिफिट्स दिये गये हैं। ये सभी फैसले अर्थ-व्यवस्था को तेज़ गति से बढ़ाने और इसके ज़रिये युवाओं को रोज़गार के नए अवसर उपलब्ध कराएँगे। अब हम इनकम टैक्स की व्यवस्था में, विवाद से विश्वास के सफर पर चल पड़े हैं।नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

बजट जवान और किसान की बजाय उद्योगपतियों के लिए फायदेमंद है। केंद्र के केवल तीन से चार उद्योगपति मित्र हैं, जो उनके लिए भगवान हैं। यह सिर्फ एक फीसदी आबादी का बजट है। बजट में सैनिकों की पेंशन में कमी आश्चर्यजनक है। न तो युवा और न ही किसान, मोदी सरकार के लिए उद्योगपति दोस्त

केवल भगवान!

राहुल गाँधी, कांग्रेस नेता

सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास माननीयों को चाहिए और जगह लेकिन जनता का क्या?

सन् 2008 में दुनिया में आयी आर्थिक मंदी के केंद्र में थीं चंद वित्तीय बैंक कम्पनियाँ। इनमें से ही एक बड़ी कम्पनी थी मेरिल लिंच। जब एक तरफ भीषण मंदी जारी ही थी, तो दूसरी तरफ मेरिल लिंच के सीईओ जॉन थेन अपने ऑफिस की सजावट पर लाखों डॉलर खर्च कर रहे थे। मंदी में भी विलास करने वालों में जॉन कोई अकेले नहीं थे। उसी साल सबसे बड़े डिफॉल्टर्स जैसे कि गोल्डमैन सैक्स आदि के सीईओ और शीर्ष प्रबन्धन ने खुद को न केवल शानदार वेतन दिया, बल्कि परफॉरमेंस बोनस यानी बढिय़ा काम करने के एवज़ में भारी-भरकम रकम भी अपनी जेब में डाली। दुनिया में आर्थिक मंदी लाने के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार ये लोग अपनी आय और खर्चों में तो ऐसे बर्ताव कर रहे थे, मानो कोई आर्थिक संकट आया ही न हो।

अब सीधे बीते साल 2020 के भारत में आ जाइए। यहाँ मोदी सरकार ने नोटबन्दी, जीएसटी, कॉर्पोरेट को ऋण माफी और बुलेट ट्रेन और ऊँची मूर्तियाँ आदि बनाने में फिज़ूल के निवेश करके गलत फैसलों की एक झड़ी लगा रखी थी, जिसके चलते अर्थ-व्यवस्था खस्ताहाल थी। बाकी कसर इस महामारी ने पूरी कर दी। और अब हालत ये है कि अर्थ-व्यवस्था आज़ादी के बाद से सबसे नाज़ुक स्थिति में पहुँच गयी है। ये संकट अभी जारी है और इसके लिए किसे ठहराया जाए? सन् 2008 के वित्तीय संकट की जो बात पहले कही गयी, उससे सिर्फ आज के हालात ही नहीं मिलते हैं, बल्कि इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों की प्रतिक्रिया भी काफी मिलती-जुलती है। अपना काम ठीक से करने में बुरी तरह विफल रहे वित्तीय बैंकों के उन शरारती अधिकारियों की तरह ही प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार ने अपने फैसलों और फैसले लेने के तरीकों से आर्थिक संकट को बढ़ाया ही है। और देखिये कि अब वे इसके एवज़ में खुद को क्या फिट कर रहे हैं- बिल्कुल नया, आलीशान कार्यालय…; ठीक उसी तरह, जैसे जॉन थेन ने किया था।

अब भारत के सम्माननीय लोग एकदम नयी और आधुनिक राजधानी का आनन्द लेने के लिए तैयार हैं; जिसका शाही स्वरूप ऐसा होगा कि इतिहास के सबसे अमीर महाराजा को भी ईष्र्या हो जाए। इस मायने में हमें इस बात से चौंकना नहीं चाहिए था कि जबकि सुप्रीम कोर्ट में इस प्रोजेक्ट की वैधता पर सुनवाई चल ही रही थी, तब प्रधानमंत्री, जो कि भारत के आधिकारिक मुखिया भी नहीं हैं; बल्कि नये संसद भवन के भूमि पूजन (एक पारम्परिक हिन्दू अनुष्ठान) में यजमान बनकर बैठे थे। इस अकेली घटना को ध्यान में रखकर, भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर सबसे खराब दु:स्वप्न सोचे जा सकते हैं।

करीब एक साल पहले इस योजना के सार्वजनिक होने के बाद से यह भारत की ऐतिहासिक धरोहर को मिटाने और सार्वजनिक संसाधनों की फिज़ूलखर्ची के आरोप से घिरी रही थी और शिक्षाविदों, वास्तुकारों, नागरिक संगठनों ने इस प्रोजेक्ट की मंशा पर पैने सवाल उठाये थे। कई याचिकाकर्ताओं द्वारा आलोचना और चुनौती पेश किये जाने के बाद परियोजना को सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगित कर दिया था; लेकिन अब 2:1 के फैसले द्वारा काम शुरू करने की मंज़ूरी दे दी गयी है। सरकार की योजना साल 2022 में 75वें स्वतंत्रता दिवस पर नये संसद भवन का उद्घाटन करने की है। तब मौज़ूदा संसद भवन एक संग्रहालय में बदल जाएगा और राजपथ के आसपास की कई अन्य इमारतें, जिनमें से अधिकांश अभी 100 साल से भी कम पुरानी हैं, पूरी तरह से ध्वस्त कर दी जाएँगी। अच्छी-खासी इमारतों को गिराने और उन पर नयी इमारतें खड़ी करने की इस परियोजना की कुल लागत 20 हज़ार करोड़ रुपये आँकी जा रही है।

सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के लिए दिल्ली के मास्टर प्लान-2021 में भू-उपयोग बदलने में कथित तौर पर किसी तय प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। इस परियोजना को जल्दबाज़ी में प्रधानमंत्री द्वारा अनुमोदित किया गया है, और इसका डिजाइन वास्तुकार बिमल पटेल ने तैयार किया है, जिन्होंने पहले भी नरेंद्र मोदी की पसन्दीदा परियोजनाओं पर काम किया है, जैसे कि जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब अहमदाबाद में साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के भी अगुआ बिमल पटेल ही थे। सर्वोच्च अदालत में याचिकाकर्ताओं ने भू-उपयोग को मनमाने तरीके से बदलने और प्रक्रिया का पालन न किये जाने की दलील दी थी, जिसमें खासतौर से डिजाइन को मंज़ूरी, बजट आवंटन को मंज़ूरी और पर्यावरणीय और स्थानीय निकायों फौरन अनुमति मिलना शामिल था। लेकिन इसे मानने से अदालत ने सीधे इन्कार कर दिया और डीडीए तथा केंद्र सरकार के कदम को कानून-संगत करार दिया।

तीन न्यायाधीशों की पीठ में से न्यायमूर्ति खन्ना ने असहमति में अपना अलग फैसला सुनाया, जिसे बारीकी से पढ़ा जाना चाहिए। न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने उचित परामर्श और पारदर्शिता की कमी पर प्रक्रियात्मक मुद्दों पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा- ‘योजना के बारे में पूरी जानकारी को ठीक से जनता के सामने पेश नहीं की गयी थी और अपनी आपत्ति दर्ज करने के लिए पर्याप्त मौका नहीं दिया गया था। चूँकि सेंट्रल विस्टा समिति (सीवीसी) का फैसला पहले ही तय था, तो इस तरह ये पूरी प्रक्रिया ही फिज़ूल रही।’ ‘बार एंड बेंच’ पर प्रकाशित सूचना के मुताबिक, जस्टिस खन्ना ने कहा- ‘मुझे… वैधानिक प्रावधानों की व्याख्या पर, सार्वजनिक भागीदारी के पहलुओं पर, विरासत संरक्षण समिति की पूर्व स्वीकृति लेने में विफलता और विशेषज्ञ द्वारा पारित आदेश मूल्यांकन समिति के फैसलों पर आपत्ति है।’

(स्रोत : विकिमीडिया कॉमस)

अँधेरे में झारखण्ड के युवाओं का भविष्य

देश में बेरोज़गारों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। झारखण्ड भी इससे अछूता नहीं है। यहाँ सरकार एक नीति बनाती है, तो दूसरी नीति को समाप्त करती है। इन सबके साथ अदालत में कानूनी दाँव-पेच भी चलता है, जिनके बीच राज्य के युवाओं का भविष्य पिस रहा है। सबसे अधिक परेशानी उन युवाओं को हो रही, जो सरकारी नौकरी की अहर्ता के लिए तय उम्र सीमा को पार कर चुके हैं।

7.5 लाख से अधिक बेरोज़गार पंजीकृत

राज्य के श्रम विभाग के रोज़गार कार्यालय में बेरोज़गारों का पंजीकरण होता है। राज्य में कुल 7,42,757 बेरोज़गार युवा हैं। इनमें 5,17,339 पुरुष और 2,25,418 महिलाएँ हैं। सरकारी नौकरी की ज़्यादातर रिक्तियों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक अहर्ता इंटर व ग्रेजुएट ही माँगी जाती है। इसके अलावा तकनीकी कोर्स करने वालों के लिए रिक्तियाँ निकलती हैं। राज्य में 2,55,490 इंटर पास युवा हैं। वहीं 2,37,466 ग्रेजुएट यानी स्नातक पास हैं। जबकि पोस्ट ग्रेजुएट 44,923, डॉक्टरेट 77, आईटीआई पास 50,399 और डिप्लोमा होल्डर 58,081 युवा हैं। जानकारों का कहना है कि राज्य में रोज़गार कार्यालय में पंजीकृत युवाओं से कहीं अधिक बेरोज़गार युवा हैं। क्योंकि ज़्यादतर युवा पंजीकरण नहीं कराते हैं।

समय पर परीक्षा नहीं

झारखण्ड के गठन को 20 वर्ष हो चुके हैं। तबसे झारखण्ड लोक सेवा आयोग ने अभी तक केवल छ: बार सिविल सेवा परीक्षा का आयोजन किया है। इनमें भी चार परीक्षाएँ विवाद में हैं। किसी पर जाँच चल रही है, तो कोई मामला अदालत में फँसा है। अब सरकार ने 2017 से 2020 तक के लिए एक साथ चार परीक्षाएँ आयोजित करने की योजना तैयार की है। इसी तरह झारखण्ड राज्य कर्मचारी चयन आयोग भी समय पर परीक्षा आयोजित नहीं कर पाता है। स्कूलों में कलर्कों की बहाली के लिए 20 वर्ष में एक भी परीक्षा आयोजित नहीं हुई है। सचिवालय, शिक्षा, स्वास्थ्य समेत विभिन्न विभागों के लिए भी समय पर परीक्षाएँ आयोजित नहीं हुई हैं।

फँसी हुई हैं 16 हज़ार नियुक्तियाँ

रघुवर सरकार ने 2016 में राज्य के युवाओं के लिए नियोजन नीति बनायी। सभी 24 ज़िलों में तृतीय व चतुर्थ वर्ग की नौकरी स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित किया गया। हेमंत सरकार ने पिछले दिनों इस नीति को रद्द करके इस नीति के तहत शुरू की गयी सारी नियुक्तियों पर रोक लगा दी। नतीजा यह हुआ कि राज्य में लगभग 16 हज़ार नियुक्तियाँ फँस गयीं। सरकार स्थानीय नीति को फिर से परिभाषित करने की तैयारी में है। जानकार कहते हैं कि जब स्थानीय नीति फिर से परिभाषित होगी, तो एक बार फिर रिक्तियों के लिए चल रही प्रक्रियाओं पर संकट आयेगा।

नियुक्ति प्रक्रिया में लगता है समय

राज्य में नियुक्ति के लिए विज्ञापन निकालने, आवेदन लेने, स्क्रूटनी करने, परीक्षा व साक्षात्कार आदि प्रक्रियाएँ पूरा करने में कम-से-कम एक साल लग जाता है। इन सबके बीच युवा कई मामलों में अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाते हैं, जिस वजह से पेच और फँस जाता है। राज्य में नीतिगत निर्णय में बदलाव और प्रक्रिया में देरी का खामियाज़ा युवाओं को कैसे भुगतना पड़ता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया का लटकना है। झारखण्ड राज्य कर्मचारी चयन आयोग द्वारा हाई स्कूल में 17,752 पदों पर शिक्षकों की नियुक्ति के लिए 2016 में रिक्तियाँ निकाली थीं। परीक्षा हुई, परिणाम आया, अभ्यार्थियों का चयन भी हुआ और मामला कोर्ट में पहुँच गया। चार साल बीत गये। आयोग ने इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, जीव विज्ञान, रसायन शास्त्र, हिन्दी और अंग्रेजी विषय का सर्टिफिकेट वेरिफिकेशन भी कर लिया है। लगभग नौ हज़ार से अधिक अभ्यर्थियों को नियुक्ति पत्र देने की तैयारी भी चल रही थी, तभी सरकार ने नियोजन नीति रद्द कर दी और सारे शिक्षकों की नियुक्ति भी अटक गयी।

डेढ़ लाख से अधिक पद हैं खाली

हेमंत सरकार ने 2021 को नियुक्ति वर्ष घोषित किया है। सरकार सभी विभागों में रिक्तियों का आकलन कर रही है। कार्मिक विभाग को रिक्तियों का आकलन करने की ज़िम्मेदारी मिली है। प्रारम्भिक जानकारी के अनुसार, अभी तक सबसे अधिक रिक्तियाँ शिक्षा विभाग में हैं। प्राथमिक शिक्षकों के 22 माध्यमिक शिक्षा केंद्रों में 16,000 और उच्च शिक्षा में 2000 पद खाली हैं। कल्याण विभाग में एक हज़ार, कृषि में छ: हज़ार, ग्रामीण विकास में दो हज़ार, वन विभाग में दो हज़ार पद खाली हैं। सूत्रों का कहना है कि कार्मिक विभाग द्वारा रिक्तियों का लेखा-जोखा लेने की प्रक्रिया जारी है। सरकार के अधीन 32 विभाग हैं, जिनमें विभिन्न श्रेणियों के लगभग 1.60 लाख पद रिक्त होने की उम्मीद है।

राज्य के युवा हैं सशंकित

सरकारी नौकरी मिलेगी या नहीं इसे लेकर राज्य के युवा सशंकित हैं। जानकारों का कहना है कि नियम के तहत एक विभाग में एक साथ सभी पदों को कभी नहीं भरा जाता है। अन्तराल पर नियुक्तियाँ होती हैं, जिससे सेवानिवृत्ति और नियुक्ति के बीच सामंजस्य बना रहे। ऐसी स्थिति में नौकरी की आस लगाकर बैठे युवाओं के लिए राह आसान नहीं है। उम्मीद के मुताबिक नौकरी सृजित हो पाना और युवाओं को मिल पाना कम सम्भव होता है। साथ ही समय पर परीक्षा आयोजन न होने के कारण उम्र की सीमा एक बड़ी बाधा बनकर सामने आती है। भारी संख्या में अभ्यार्थी अधिकतम उम्र सीमा पार कर जाते हैं, तब विज्ञापन निकलता। हालाँकि इस बार झारखण्ड लोक सेवा आयोग में उम्र सीमा की छूट देने का फैसला लिया गया है; लेकिन अन्य परीक्षाओं में छूट मिलेगी या नहीं, इस पर संशय है। इसके अलावा युवाओं को नीतिगत फैसले और कानूनी दाँव-पेच का डर भी सता रहा है।

जज को भारी पड़े विवादास्पद फैसले

बॉम्बे उच्च अदालत की नागपुर एकल पीठ की अतिरिक्त न्यायाधीश पुष्पा गनेडीवाला ने यौन उत्पीडऩ सम्बन्धी दो मामलों में जो फैसला सुनाया, उस पर बाल अधिकार व महिला अधिकार संगठनों ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। इससे कई गम्भीर सवाल खड़े हो गये हैं। अतिरिक्त न्यायाधीश पुष्पा गनेडीवाला ने 19 जनवरी को पारित एक आदेश में कहा कि किसी हरकत को यौन हमला माने जाने के लिए गन्दी मंशा से त्वचा से त्वचा का सम्पर्क होना ज़रूरी है। उन्होंने अपने फैसले में कहा कि महज़ छूना भर यौन हमले की परिभाषा में नहीं आता। यह बाल यौन अपराध संरक्षण एक्ट (पॉक्सो) के तहत अपराध नहीं माना जा सकता। फिर 28 जनवरी को एक अन्य मामले में फैसला सुनाते हुए उन्होंने कहा कि बच्ची का हाथ पकड़कर पैंट की जिप खोलना पॉक्सो एक्ट के तहत यौन शोषण के दायरे में नहीं आता, बल्कि यह आईपीसी की धारा-354ए (आई) के तहत यौन उत्पीडऩ के दायरे में आता है।

सत्र अदालत ने इस मामले में आरोपी को 12 साल से कम आयु की लड़की के साथ छेड़छाड का दोषी मानते हुए उसे पाँच साल की सज़ा सुनायी थी। नाबालिग लड़की की माँ ने शिकायत दर्ज कराते हुए कहा था कि व्यक्ति ने अपनी पैंट की जिप खोलकर उसकी बेटी का हाथ पकड़ रखा था। आरोपी ने इस फैसले के खिलाफ उच्च अदालत में अपील की थी। दरअसल सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने 27 जनवरी को 19 जनवरी वाले विवादास्पद फैसले पर रोक लगा दी और अब सबकी निगाहें सर्वोच्च अदालत पर टिक गयी हैं। शीर्ष अदालत ने उच्च अदालत के असवेंदनशील फैसले पर रोक लगाकर सही कदम उठाया; क्योंकि उच्च अदालत का यह प्रतिगामी फैसला बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) 2012 की मंशा बाल संरक्षण के उलट है। दरअसल नागपुर दिसंबर, 2016 वाले मामले में आरोपी सतीश पर आरोप है कि वह 12 साल की नाबालिग लड़की को कुछ खिलाने के बहाने अपने घर ले गया था, जहाँ उसके वक्षस्थल को छुआ। पीडि़त बच्ची ने बताया कि 39 साल के सतीश ने उसके शरीर को छूने और निर्वस्त्र करने की कोशिश की थी।

पीडि़त बच्ची के इस बयान को अहम मानते हुए नागपुर की एक सत्र अदालत ने आरोपी को पॉक्सो एक्ट के तहत तीन साल और आईपीसी के तहत एक साल की सज़ा सुनायी थी। आरोपी ने सत्र अदालत के इस फैसले के खिलाफ उच्च अदालत में अपील की और उच्च अदालत ने सत्र अदालत के आदेश में संशोधन करते हुए दोषी को पॉक्सो एक्ट के तहत तो बरी कर दिया और आईपीसी की धारा -54 में एक साल की कैद बरकरार रखी। उच्च अदालत ने कहा कि यह महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाने का अपराध बनता है। लेकिन इसके साथ यह भी साफ कर दिया कि चूँकि व्यक्ति ने बच्ची के बदन से कपड़े हटाये बिना उसका स्पर्श किया था, इसलिए उसे यौन उत्पीडऩ नहीं कहा जा सकता है। दरअसल बॉम्बे उच्च अदालत की नागपुर पीठ के इस फैसले से पॉक्सो एक्ट की मूल भावना, मंशा को ही एक तरह से ठेस पहुँची है और इससे यही ध्वनित होता है कि कपड़ों के ऊपर से गलत मंशा से छूना कोई बड़ा अपराध नहीं है। पॉक्सो एक्ट की यह सीमित व प्रतिगामी व्याख्या बहुत खतरनाक है। क्या यह सही है कि किसी नाबालिग को छूना केवल इसलिए वैध मान लिया जाएगा, क्योंकि त्वचा का त्वचा से सम्पर्क नहीं हुआ है। सवाल यह है कि पूरे कपड़ों में क्या शोषण नहीं किया जा सकता? क्या किसी को कपड़े के ऊपर से छूना पॉक्सो एक्ट के तहत यौन हमले की श्रेणी में नहीं आता? गौरतलब है कि बाल अधिकार संगठनों के कड़े संघर्ष के बाद बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) 2012 बनाया गया। यह अधिनियम यह स्वीकार करता है कि बच्चों को खासतौर पर निशाना बनाया जा सकता है। लिहाज़ा जब पीडि़त कोई बच्चा हो, तो उसके संरक्षण के लिए विशेष कदम, आईपीसी से परे कानून की ज़रूरत होती है।

बाल संरक्षण के लिए है पॉक्सो

गौरतलब है कि पॉक्सो अधिनियम-2012 बच्चों को यौन अपराधों, यौन शोषण और अश्लील सामग्री से संरक्षण प्रदान करने के लिए लाया गया था। इसका मकसद बच्चों के हितों की रक्षा करना व उनका कल्याण सुनिश्चित करना है। इस अधिनियम के तहत बच्चों को 18 साल से कम आयु के व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया और हर स्तर पर बच्चों के हितों और उनके कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए उनके शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास को सुनिश्चित किया गया है। इस कानून के ज़रिए नाबालिग बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराधों और छेड़छाड़ के मामलों में कार्रवाई की जाती है। इस कानून के तहत अलग-अलग अपराध के लिए अलग-अलग सज़ा का प्रावधान है। भारत के संविधान का अनुच्छेद-15 (3) राज्य को बच्चों के हित की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है। क्योंकि यह माना जाता है कि बच्चे छोटी उम्र और दूसरों पर निर्भरता की वजह से समाज में अन्य लोगों की तुलना में कमज़ोर होते हैं। संयुक्त राष्ट्र की महासभा के द्वारा पारित बाल अधिकार के मानकों को ध्यान में रखते हुए पॉक्सो अधिनियम बनाया गया था और इस बाल अधिकार कंवेशन पर भारत सरकार ने दिसंबर 1992 में अपनी सहमति दर्ज करायी थी। इस बाल अधिकार कंवेशन के अनुच्छेद-3 में परिवार, स्कूल, स्वास्थ्य संस्थाओं और सरकार पर बच्चों के हितों को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी डाली गयी है।

बॉम्बे उच्च अदालत की नागपुर एकल पीठ ने अपने फैसले में कहा कि आरोपी के खिलाफ कोई ठोस साक्ष्य नहीं मिले, जिसके आधार पर उसे पॉक्सो के तहत न्यूनतम तीन साल की सज़ा दी जा सके। लिहाज़ा अदालत उसे महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाने के जुर्म में आईपीसी की धारा-354ए के तहत एक साल की सज़ा बरकरार रखती है। अदालत का यह निष्कर्ष रूढि़वादी प्रतीत होता है, जिसमें यौन हमलों / उत्पीडऩ के शिकार बच्चों के मनोविज्ञान को नज़रअंदाज़ करना झलकता है। बचपन में यौन हिंसा व अन्य हिंसा के शिकार बच्चे अक्सर ताउम्र उस पीड़ा से गुज़रते रहते हैं। उन्हें अवसाद घेर लेता है और कई बार बच्चे आत्महत्या करने को विवश हो जाते हैं। कई मर्तबा अदालतें सुबूतों की कमी के मद्देनज़र आरोपी को कम सज़ा सुनाती हैं या आरोप से बरी भी कर देती हैं।

बच्चों पर बढ़ते यौन हमलेे

बच्चों के खिलाफ यौन उत्पीडऩ / यौन हमले के मामले बढ़ रहे हैं और ऐसे मामलों में दोषी पाये जाने की दर भी कम है। इसकी कई वजहों में एक तरफ अदालतों व उनसे सम्बन्धित ढाँचे, स्टाफ की कमी, तो दूसरी तरफ पुलिस व न्यायपालिका में कार्यरत अधिकारियों व कर्मचारियों को बाल पीडि़तों के साथ हमदर्दी से प्रशिक्षण देने की कमी आदि है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने अक्टूबर, 2019 में वर्ष 2017 के आँकड़े जारी किये और उन आँकड़ों के मुताबिक, देश में 28,152 बच्चियों के साथ हुए बलात्कार के मामलों को आईपीसी व पॉक्सो अधिनियम के तहत दर्ज किया गया था। इनमें से 151 लड़कियों की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गयी थी। सन् 2017 की यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि फास्ट ट्रैक अदालतों में जिन मामलों की सुनवाई हो रही थी, उनमें से 40 फीसदी से अधिक मामलों को निपटाने में तीन साल से अधिक का समय लगा। फास्ट ट्रैक अदालतों में कई मामले तो 10 साल तक लटके रहते हैं। मुल्क में बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों का रिकॉर्ड रखने के प्रति कितनी उदासीनता व तंत्र की कमज़ोरी को लेकर जुलाई, 2019 में सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की खिंचाई भी की थी।

दरअसल राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के लिए पॉक्सो अधिनियम के अमल की निगरानी करना अनिवार्य है। आँकड़ों को रखना उनकी वैधानिक ज़िम्मेदारी है। लेकिन जब शीर्ष अदालत ने इस आयोग से पॉक्सो अधिनियम के तहत देश भर में दर्ज मामलों के बारे में जानकारी माँगी, तो पता चला कि उनके पास वह जानकारी पूरी नहीं है। इस पर तत्कालीन प्रमुख न्यायाधीश रंजन गगोई ने टिप्पणी की थी कि सात साल से राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग का क्या कर रहा था? दुनिया में महाशक्ति बनने व पाँच खरब वाली अर्थ-व्यवस्था बनने की दिशा में अग्रसर होने का दावा करने और विश्व गुरु बनने का सपना देखने वाले इस देश में बच्चे सुरक्षित नहीं हैं।

यहाँ राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग व राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग का गठन तो कर दिया गया, लेकिन क्या वे अपना दायित्व उस मंशा से निभा पा रहे हैं, जिस मंशा से उन्हें बनाया गया? क्या फंड की कमी, संसाधनों की िकल्लत या अफसरशाही उनकी राह में रुकावट है? पॉक्सो अधिनियम को और प्रभावशाली बनाने के लिए बाद में इसमें संशोधन भी किये गये। न्यूनतम सज़ा बढ़ा दी गयी है। संशोधित कानून में 12 साल से कम आयु के बच्चों के साथ दष्कर्म के दोषी व्यक्ति के लिए फाँसी की सज़ा का उपबन्ध जोड़ा गया है। बहरहाल सर्वोच्च न्यायालय ने बॉम्बे उच्च अदालत की अतिरिक्त जज पुष्पा गनेडीवाला के उक्त विवादास्पद फैसलों के चलते उन्हें स्थायी न्यायाधीश के पद पर नियुक्ति प्रस्ताव की मंज़ूरी वापस ले ली है। सर्वोच्च अदालत ने ऐसा करके एक बहुत बड़ा सन्देश देश की आम जनता व कानून की पढ़ाई करने वालों, वकालत करने वालों व न्यायालयों में मामलों का फैसला सुनाने वालों तक पहुँचा दिया है।

20 हज़ार से अधिक स्कूल-कॉलेज बन्द करने की तैयारी में मध्य प्रदेश सरकार

मध्य प्रदेश के आदिवासी और पिछड़े इलाकों की पहले से ही लचर शिक्षा व्यवस्था को  कोरोना वायरस और इस महामारी से सुरक्षा के लिए किये गये लॉकडाउन ने और चौपट कर दिया है। अब मध्य प्रदेश सरकार इन इलाकों के  20 हज़ार से अधिक स्कूल और कॉलेज बन्द करने का मन बना रही है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि पहले से ही शिक्षा और समाज में बराबरी के स्तर पर पिछड़े लोगों से शिक्षा का अधिकार भी अगर छिन गया या सरकारी स्कूल-कॉलेज बन्द होने पर प्राइवेट स्कूल खुल गये, तो आदिवासी बच्चे किस तरह पढ़ सकेंगे?

इसी के मद्देनज़र मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता के मुद्दे पर 4 फरवरी, 2021 को भोपाल के श्यामला हिल्स स्थित गाँधी भवन सभागार में कुछ जनप्रतिनिधियों, विधायकों, शिक्षाविदों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) के संयुक्त तत्त्वावधान में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम का विषय था- ‘आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता पर जनसंवाद’। कार्यक्रम में प्रदेश भर से अनेक सामाजिक संगठनों के लोग, जनप्रतिनिधि एवं शिक्षाविद् शामिल हुए। कार्यक्रम में सम्मिलित हुए कई बुद्धिजीवियों ने कहा कि आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किये जाने की आवश्यकता है। सरकारों द्वारा किये जा रहे प्रयास नाकाफी हैं।

यह कार्यक्रम इसलिए भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि मध्य प्रदेश सरकार राज्य के आदिवासी बहुल एवं पिछड़े क्षेत्रों के 20 हज़ार से अधिक स्कूलों एवं कॉलेजों को बन्द करने की तैयारी कर रही है। चूँकि यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से, विशेष रूप से आदिवासी समुदायों को पिछले सात दशकों में कार्यान्वित विकास परियोजनाओं का पूरा लाभ नहीं मिला है। बल्कि सही मायने में इस अवधि के दौरान कार्यान्वित विकास परियोजनाओं का उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा इतनी बड़ी संख्या में स्कूलों, कॉलेजों को बन्द करने के फैसले को प्रदेश के अनेक जनप्रतिनिधि, शिक्षाविद् एवं सामाजिक कार्यकर्ता भी आदिवासी समाज पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला बता रहे हैं। बीते दिनों मध्य प्रदेश सरकार को अनेक जनप्रतिनिधियों एवं शिक्षाविदों ने पत्र लिखकर उक्त फैसले को वापस लेने का सुझाव दिया था। वहीं मध्य प्रदेश के अनेक आदिवासी संगठनों ने प्रदर्शन एवं आन्दोलन के माध्यम से ज्ञापन देकर इस फैसले को वापस लेने की माँग की थी। अगस्त, 2020 में राज्य शिक्षा केंद्र ने एक आदेश जारी कर ज़िलों के अधिकारियों से कहा था कि उन स्कूलों की समीक्षा की जाए जहाँ छात्रों की संख्या 0 से 20 है। ऐसे स्कूलों को समीप के स्कूलों में मिलाकर शिक्षकों की सेवाएँ कार्यालय या फिर अन्य स्कूलों में ली जाएँ।

कार्यक्रम में आये पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं झाबुआ विधायक कांतिलाल भूरिया ने कहा कि जब मैं केंद्रीय मंत्री था, तब देश भर के आदिवासी विकासखण्डों में एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय की स्थापना करायी थी, ताकि प्रतिभाशाली आदिवासी छात्र-छात्राओं को बेहतर शिक्षा प्राप्त हो सके। लेकिन प्रदेश सरकार द्वारा आदिवासी क्षेत्रों के स्कूलों को बन्द करना आदिवासी समाज को पीछे धकेलने जैसा है। आदिवासी समाज अब काफी जागरूक हो गया है और प्रदेश सरकार के आदिवासी विरोधी फैसले को स्वीकार नहीं करेगा।

जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) संगठन के राष्ट्रीय संरक्षक एवं मनावर विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने कहा कि मध्य प्रदेश सरकार द्वारा ज़िला स्तर पर प्रभारी मंत्री नियुक्त नहीं किये जाने के कारण प्रदेश के 89 आदिवासी विकासखण्डों में वित्त वर्ष 2020-21 का आदिवासी उप योजना 275 (1) के तहत बस्ती विकास के लिए राशि जारी नहीं की जा सकी है, जिससे आदिवासी क्षेत्रों का विकास अवरुद्ध हो गया है। यदि बजट सत्र 2021-22 से पूर्व बस्ती विकास योजना की राशि जारी नहीं की गयी, तो यह राशि लैप्स हो जाएगी, जिससे प्रदेश के 89 ट्राइबल ब्लॉकों के अंतर्गत निवास करने वाली आबादी शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई इत्यादि मूलभूत बुनियादी सुविधाओं से वंचित हो जाएँगे।

डॉ. अलावा ने आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने हेतु सुझाव भी दिये। उन्होंने कहा कि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में शिक्षकों की भारी कमी है। शिक्षकों के रिक्त पदों पर भर्ती हेतु विशेष अभियान चलाने की आवश्यकता है। साथ ही सभी छात्रावासों में गणित, विज्ञान, अंग्रेजी की कोचिंग की विशेष व्यवस्था की जाए; सभी हाई स्कूल एवं हायर सेकेंड्री स्कूलों में उच्च गुणवत्ता वाली लैब एवं लाइब्रेरी स्थापित की जाएँ; रोज़गार मूलक शिक्षा प्रणाली विकसित की जाए; जिन विद्यालयों का परीक्षा परिणाम 30 फीसदी या उससे कम रहा है, वहाँ के शिक्षकों के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए; कक्षा 12 के बाद प्रतिभावान बच्चों के लिए ट्रैकिंग सिस्टम डेवलप करने हेतु भी नीतियाँ बनायी जाएँ।

डिक्की मध्य प्रदेश के समन्वयक हृदयेश किरार ने कहा कि आदिवासी क्षेत्रों में बिजनेस, तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित शिक्षा व्यवस्था को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि डिक्की आदिवासियों एवं दलितों को व्यवसाय के लिए ऋण दिलाने एवं व्यवसाय से जोडऩे के लिए कार्य कर रहा है और आदिवासी समुदाय को वर्तमान समय के अनुसार व्यवसाय से जुडऩे की ज़रूरत है।

आदिवासी महापंचायत गढ़ा-मंडला संरक्षक एवं निवास विधायक डॉ. अशोक मर्सकोले ने कहा कि आदिवासी क्षेत्रों के बारे में प्रदेश सरकार द्वारा मनमाने तरीके से कोई फैसले लिया जाना गलत है। आदिवासियों से सम्बन्धित किसी भी प्रकार के फैसले लेने से पूर्व राज्य सरकार को अपने प्रस्ताव आदिमजाति मंत्रणा परिषद् में भेजना होता है। आदिमजाति मंत्रणा परिषद् जो सुझाव देती है; उसी के अनुसार राज्यपाल की अनुमति से राज्य सरकार को आदिवासियों के बारे में फैसले लेने चाहिए। यह प्रदेश के आदिवासियों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रदेश में आदिमजाति मंत्रणा परिषद् की बैठकें एक-दो वर्ष तक भी आयोजित नहीं की जातीं।

जल, जंगल, ज़मीन के मुद्दों के जानकार सामाजिक कार्यकर्ता अनिल गर्ग ने कहा कि चाहें शिक्षा, स्वास्थ्य हो या बस्ती विकास का मुद्दा, आदिवासियों के सभी मुद्दे संविधान की पाँचवीं अनुसूची कानून के तहत सुलझाये जा सकते हैं। पाँचवीं अनुसूची कानून मात्र दो पेज का है। लेकिन हमारे जनप्रतिनिधियों, राज्यों के राज्यपालों ने पाँचवीं अनुसूची को पढऩे की कभी भी ज़हमत नहीं उठायी और आदिवासियों के साथ आज़ादी के बाद से ही सरकारी अत्याचार करते आ रहे हैं। आज समाज को मुखर होकर पाँचवीं अनुसूची को लागू करने की माँग करनी चाहिए।

आदिवासी महिलाओं के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता सारिका सिन्हा ने कहा कि आदिवासी बच्चे शुरुआत से ही पढऩे में कमज़ोर हो जाते हैं या पढ़ नहीं पाते हैं। इसका कारण उनकी बोलचाल की भाषा में शिक्षा नहीं मिलना है। यदि शुरू से ही उनकी मातृ भाषा में उनको शिक्षा दी जाएगी, तो उनमें पढऩे की ललक जगेगी।

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक भास्कर राव रोकड़े ने कहा कि आदिवासी क्षेत्रों में शैक्षणिक गुणवत्ता का हर जगह अभाव है। उत्कृष्ट स्तर के शिक्षा संस्थानों की कमी है। क्रिश्चियन मिशनरी संस्थानों ने पिछड़े आदिवासी इलाकों में उत्कृष्ट स्तर के शिक्षण संस्थानों निर्माण कर लिया है; लेकिन सरकार इस कार्य में असफल रही है। इस दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण कोई प्रयास नहीं किया गया। इस दिशा में प्रयास किये जाने की ज़रूरत है।

कार्यक्रम में मध्य प्रदेश के धरमपुरी विधायक पांचीलाल मेड़ा, जोबट विधायक कलावती भूरिया, पानसेमल विधायक चंद्रभागा किराड़े, थांदला विधायक वीरसिंह भूरिया, पेटलावद विधायक वालसिंह मेड़ा, भगवानपुरा विधायक केदार डावर, म.प्र. कांग्रेस पार्टी के जनजाति प्रकोष्ठ के अध्यक्ष अजय शाह मकड़ई, अखिल भारतीय गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्षा मोनिका बट्टी, म.प्र. आदिवासी महिला कांग्रेस अध्यक्ष चंद्रा सर्वट्टे, शिक्षाविद् अनवर जाफरी, सामाजिक कार्यकर्ता इरफान जाफरी, विमलेश आरबी, आरटीआई कार्यकर्ता सिद्धार्थ गुप्ता, अनुसूचित जनजाति एंपलाइज वेलफेयर एसोसिएशन (भोपाल) के अध्यक्ष यू.एस. सैयाम, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी पी.एल. सोलंकी, कृष्णा कुमरे, श्यामसिंह कुमरे समेत अनेक वक्ताओं ने विचार व्यक्त किये।

आर.बी. बट्टी, आर.एस. ठाकुर, ओ.पी. अहिरवार, देवेंद्र सिंह मंडलोई, नंदुसिंह रावत, राकेश परते, अनिल सिर्विया, करुणा शंकर शुक्ला, डॉ. श्यामसिंह कुमरे, डॉ. मनीष सुल्या, डॉ. हितेश मुझाल्दा, रविराज बघेल, राकेश मंडलोई, संदीप आर्य, मुकेश मल्होत्रा, सुरेश मालवीय, विपिन टोप्पो, केशव प्रसाद कुशराम, मातासिंह पोर्ते, श्याम सुन्दर भिलाला, गेंदालाल रणदा, प्रेम पटेल, अनिल परमार, विक्की धारीवाल, मुकेश खराड़ी समेत उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात सहित मध्य प्रदेश के अनेक ज़िलों से पहुँचे सैकड़ों बुद्धिजीवी एवं सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने इस परिचर्चा के हिस्सा बने एवं लिखित में अपने सुझाव भी दिये। कार्यक्रम के बीच जयस के कैलेंडर का लोकार्पण भी किया गया। कार्यक्रम का संचालन जयस के राष्ट्रीय प्रवक्ता बाबूसिंह डामोर ने किया। मध्य प्रदेश जयस प्रदेश अध्यक्ष अंतिम मुझाल्दा ने आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम की समाप्ति के उपरांत विधायकों एवं बुद्धिजीवियों के एक प्रतिनिधि मण्डल ने मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव से इकबाल सिंह बैंस से मिलकर आदिवासी क्षेत्रों की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए माँग पत्र सौंपे।