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हरियाणा में दबाव की राजनीति का पैंतरा

हरियाणा में इन दिनों राजनीतिक सरगर्मियाँ कुछ ज़्यादा ही बढ़ी हुई हैं। किसान आन्दोलन से भाजपा-जजपा सरकार पस्त है। मंत्री और सत्ता पक्ष के विधायक सहमे हुए हैं। गाँवों में उनके बहिष्कार के बोर्ड लगे हुए हैं। सरकारी कार्यक्रम तक नहीं हो पा रहे हैं। मुख्यमंत्री मनोहर लाल और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला तक अपने विधानसभा हलक़ों में जाने से डर रहे हैं। विपक्ष को किसान आन्दोलन पूरी तरह से रास आ रहा है। वे चाहते हैं कि आन्दोलन लम्बा खिंचे। ज़ाहिर है आन्दोलन जितना चलेगा, वह उतना ही वह सत्तापक्ष के लिए नुक़सानदेह होगा। कांग्रेस को तो ऐसे में सत्ता की काफ़ी उम्मीद होने लगी है।
पूर्व मुख्यमंत्री और इंडियन नेशनल लोकदल सुप्रीमो (इनेलो) प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला सज़ा पूरी करने के बाद जेल से रिहा चुके हैं। उम्र के इस पड़ाव में वह प्रदेश की राजनीति में नये समीकरण बनाने की बातें कह रहे हैं। सत्ता की उम्मीद में अब कांग्रेस में पार्टी का प्रमुख चेहरा बनने की नयी क़वायद शुरू हो गयी है। पार्टी में दबाव की राजनीति का चलन काफ़ी पुराना है। राजनीतिक दलों में इसे तुरुप माना जाता है, जिसके चलते न चाहते हुए भी बहुत बार बड़े उलटफेर होते रहे हैं। इन दिनों हरियाणा कांग्रेस में इसकी शुरुआत हो गयी है।
पूर्व मुख्यमंत्री भूपेद्र सिंह हुड्डा अब पार्टी के अब ख़ूद को पार्टी के प्रमुख चेहरे के तौर पर आगे लाने के इच्छुक हैं। वह विपक्ष के नेता के अलावा जनाधार वाले माने जाते हैं। अगर कोई अदालती फ़ैसला उनके ख़िलाफ़ नहीं आता है, तो आगामी विधानसभा चुनाव वही पार्टी के प्रमुख चेहरे के तौर पर होंगे। 31 में से 24 विधायक उनके समर्थक हैं। विधायकों पर उनकी पकड़ है; लेकिन पार्टी संगठन में नहीं। लिहाज़ा वह इसमें बदलाव चाहते हैं; लेकिन यह इतना आसान नहीं। क्योंकि मौज़ूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुमारी शैलजा की पहुँच सीधे नेतृत्व तक है। वह सोनिया गाँधी की भरोसेमंद हैं और उन्हें अशोक तँवर की तरह आसानी से हटाना मुमकिन नहीं। तँवर के साथ तो उनका 36 का आँकड़ा हो गया था, कई बार दोनों के समर्थकों में मारपीट जैसी स्थिति बन चुकी है।
आख़िरकार हुड्डा ने दबाव की राजनीति अपनायी और तँवर को पद छोडऩा पड़ा। बाद में उन्होंने पार्टी ही छोड़ दी। तबसे वह राज्य की राजनीति से ओझल हो गये हैं। तँवर की जगह हुड्डा की पसन्द पर ही शैलजा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। अब वही हुड्डा और उनके समर्थकों को अखर रही हैं। हुड्डा उनकी जगह अपने कट्टर समर्थक को कुर्सी पर लाना चाहते हैं, ताकि संगठन पर उनकी पूरी तरह से पकड़ हो जाए; जैसा कि पहले भी वह कर चुके हैं। लेकिन शैलजा के रहते ऐसा सम्भव नहीं है। विधानसभा चुनाव से पहले हुड्डा अपने को और ज़्यादा मज़बूत करने में लगे हुए हैं; लेकिन उनके लिए स्थितियाँ ज़्यादा अनुकूल नहीं हैं। उनके ख़िलाफ़ कई मामले अदालतों में लम्बित हैं। बावजूद इसके वह और उनके समर्थक डटे हुए हैं।


कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव के.सी. वेणुगोपाल से उनके दो दर्ज़न विधायक मिलकर सारी स्थिति स्पष्ट कर चुके हैं। बता चुके हैं कि प्रदेश में पार्टी संगठन बहुत कमज़ोर है। ज़िला स्तर पर पार्टी की समितियाँ तक गठित नहीं हो रही हैं। कमज़ोर हुए संगठन को मज़बूत करने की ज़रूरत है और इसके लिए मौज़ूदा संगठन में आमूलचूल बदलाव करने की ज़रूरत है। वेणुगोपाल ने हुड्डा समर्थकों के पक्ष को सुना है। इसके बाद वह सारी रिपोर्ट केंद्रीय नेतृत्व के पास रखेंगे। संगठन में बदलाव ज़रूरी है या नहीं, प्रदेश अध्यक्ष को बदलने की ज़रूरत है या नहीं? इसका फ़ैसला सोनिया गाँधी को करना है।
कुमारी शैलजा ने भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से मिलकर अपना पक्ष रखा है। अपने कार्यकाल के दौरान शैलजा ने संगठन में कोई ऐसा बड़ा बदलाव नहीं किया, जो हुड्डा या अन्य किसी वरिष्ठ नेता की नाराज़गी का कारण बने। वह सभी गुटों को साथ लेकर चलने में भरोसा रखती हैं; लेकिन वह संगठन की मज़बूती के लिए ज़्यादा कुछ नहीं कर पायी हैं। हुड्डा ज़िला, ब्लॉक और राज्य स्तर पर संगठन में बड़ा बदलाव चाहते हैं। अहम पदों पर अपने समर्थकों को बैठाना चाहते हैं। जब उनके समर्थक उन पर दबाव बनाने का प्रयास करते हैं, तो उनके लिए बदलाव ही एक रास्ता नज़र आता है। प्रदेश कांग्रेस में कई गुट है; लेकिन कोई ऐसा मज़बूत नहीं, जो हुड्डा को चुनौती दे सके। विगत वर्षों में ऐसे कई प्रयास हुए; लेकिन हुड्डा से पार नहीं पा सके। क्योंकि वह दबाव की राजनीति करना बख़ूबी जानते हैं। पार्टी से असन्तुष्ट जी-23 के वरिष्ठ नेताओं में हुड्डा भी शामिल हैं। पार्टी नेतृत्व को बख़ूबी पता है कि हरियाणा में हुड्डा का फ़िलहाल कोई विकल्प नहीं है। ऐसे में उनकी नाराज़गी पार्टी हित में नहीं होगी। पंजाब में पार्टी नेता खुलेआम मुख्यमंत्री के नेतृत्व पर सवाल खड़े कर रहे हैं, सरकार की आलोचना कर रहे हैं। अनुशासनहीनता भी हो रही है। बावजूद इसके अभी तक किसी भी नेता पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। नेतृत्व फूँक-फूँककर क़दम रख रहा है कि कहीं कोई कार्रवाई पार्टी हित के ख़िलाफ़ न चली जाए।
कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व का मतलब गाँधी परिवार ही है; लेकिन वहाँ भी तीन पक्ष- सोनिया, राहुल और प्रियंका खड़े नज़र आते हैं। किसी गुट को राहुल का समर्थन है, तो किसी को प्रियंका का और किसी को सोनिया का आशीर्वाद है। हरियाणा भी गुटबाज़ी से अछूता नहीं है। लेकिन फ़िलहाल स्थितियाँ अनुकूल नहीं; लिहाज़ा कोई गुट सामने नहीं आ रहा। शैलजा के बदलाव के प्रयासों पर कुछ दलित नेताओं की नाराज़गी है, जिसे वह समय आने पर प्रकट कर सकते हैं। उनकी राय में हुड्डा और उनके समर्थक नहीं चाहते कि कोई दलित नेता या नेत्री प्रदेश अध्यक्ष पद पर रहे। इसके जवाब में हुड्डा समर्थक विधायकों का कहना है कि प्रदेश में पार्टी संगठन बहुत कमज़ोर है। जब तक संगठन मज़बूत नहीं होगा, पार्टी की सत्ता में वापसी मुश्किल है। लिहाज़ा पहले इसे ठीक करना होगा।
शैलजा ने अपने कार्यकाल के दौरान संगठन के लिए कुछ भी नहीं किया है; जबकि बहुत कुछ करने की ज़रूरत है। जो काम उन्हें कुर्सी सँभालने के बाद शुरू कर देने चाहिए थे, वो अब तक नहीं कर पायी हैं। प्रदेश में और कई दलित नेता या नेत्री हो सकते हैं, जो उनसे (शैलजा) से बेहतर नतीजे दे सकते हैं। उन्हें क्यों मौक़ा नहीं मिलना चाहिए? हुड्डा समर्थक पूर्व विधानसभा अध्यक्ष आर.एस. कादियान कहते हैं कि हम लोगों ने अपना पक्ष के.सी. वेणुगोपाल और हरियाणा के पार्टी प्रभारी विवेक बंसल के सामने रख चुके हैं। यह सब कुछ पार्टी हित में किया जा रहा है; किसी विशेष के ख़िलाफ़ कोई काम नहीं हो रहा है। किसी तरह की कोई अनुशासनहीनता नहीं हो रही है। संगठन की मज़बूती के लिए कुछ भी करना पड़े, इसमें क्या दिक़्क़त है?
हुड्डा समर्थकों की राय में- ‘प्रदेश कांग्रेस में कोई गुटबाज़ी नहीं है। पार्टी एक है और भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाएगा। पिछले विधानसभा चुनाव में जिस तरह से हुड्डा के नेतृत्व में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया है। अब तो स्थितियाँ हमारे अनुकूल होती जा रही हैं। पार्टी सत्ता में वापसी करेगी और इसके लिए सबसे पहले संगठन को मज़बूत बनाना होगा और कोशिश उसी के लिए हो रही है। कोई भी विधायक या पार्टी का नेता पार्टी मंच के बाहर बयानबाज़ी नहीं कर रहा है।’

हुड्डा की राह में रोड़े
समर्थक हुड्डा को विस चुनाव में पार्टी के भावी मुख्यमंत्री के तौर पर आगे देखना चाहते हैं; पर डगर इतनी आसान तो नहीं है। हुड्डा पर गाँधी परिवार को आर्थिक तौर पर बहुत फ़ायदा पहुँचाने के आरोप है। एक दौर में वह गाँधी परिवार के क़रीबी लोगों में थे; लेकिन अब वह बात नहीं है। उनके ख़िलाफ़ कई मामले हैं, जिनमें प्रमुख तौर पर दो में तो कार्रवाई काफ़ी आगे तक पहुँच चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने एसोसिएट जर्नल लिमिटेड (नेशनल हेराल्ड) से जुड़ मामले की जाँच सीबीआई से कराने का आदेश दिया है। मुख्यमंत्री रहते भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने उक्त कम्पनी को पंचकूला के सेक्टर-6 में सी-17 प्लॉट कोडिय़ों के भाव दे दिया था। उस समय प्लॉट का बाज़ार भाव 64 करोड़ 93 लाख रुपये आँका गया था; लेकिन कम्पनी को यह मात्र 59 लाख 39 हज़ार में दे दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद जल्द ही सीबीआई जाँच शुरू कर देगी; जो हुड्डा के गले की फाँस बन सकती है। इसके अलावा गुडग़ाँव ज़िले के मानेसर में 1500 करोड़ के भूमि घोटाले का मामला है। आरोप है कि बिल्डर्स और कॉलोनाइजर को फ़ायदा पहुँचाने के लिए किस तरह से नियमों में बदलाव किये गये। इसके अलावा रोहतक में हुए भूमि घोटाले का मामला भी है। मुख्यमंत्री रहते हुड्डा के कार्यकाल के दौरान सन् 2002 में रोहतक के विकास के लिए हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण ने 850 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया। अप्रैल, 2003 में सरकार ने 441 एकड़ भूमि ही ली; बाक़ी 409 एकड़ भूमि विकास कार्यों के लिए निजी बिल्डरों और कॉलोनाइजर को सौंप दी। सन् 2013 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय और सन् 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने भूमि अधिग्रहण के फ़ैसले को ग़लत ठहराते हुए कुछ अ$फसरों पर टिप्पणी की थी। मार्च, 2018 में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर मामले की जाँच सीबीआई से कराना चाहती थी; लेकिन ऐसा नहीं हो सका। सन् 2017 में इस मामले की जाँच सेवानिवृत्त आईएएस राजन गुप्ता ने की। पूरी जाँच के बाद रिपोर्ट में उन्होंने किसी पर इस मामले में ज़िम्मेदारी तय नहीं की। हुड्डा इन तीनों ही मामलों में हैं; लिहाज़ा उनके लिए राजनीति की डगर काफ़ी मुश्किल भरी है। बावजूद इसके वह हरियाणा में पार्टी के लिए जनाधार वाले नेता हैं। परदे के पीछे अपने को प्रमुख चेहरे के तौर पर उभारने के प्रयास में लगे हुड्डा पूरी स्थिति समझते हैं। क़ानूनी मुश्किलों का उन्हें भी पता है; लेकिन जब तक कोई फ़ैसला आता नहीं, वह अपने को निश्चिंत ही मानकर चल रहे हैं।

भेदभाव की गहरी जड़ें

कई मज़हब, कई रस्ते, कई मत हो गये हैं।
ख़ूदा है एक, लेकिन हम अदावत कर रहे हैं।
यह विडम्बना ही है कि इंसान जैसे-जैसे ख़ुद को विद्वान और मज़हब का पाबंद मानता जा रहा है, वैसे-वैसे वह इंसानियत के रिश्तों से कटता जा रहा है। नफ़रतों को हवा देता जा रहा है। इन नफ़रतों का हाल यह है कि दुनिया में धीरे-धीरे कई मज़हब हो गये और फिर उन मज़हबों में भी कई-कई पन्थ, कई-कई मत हावी हो गये। यह कुछ ऐसा ही है जैसे एक ही पिता के कई बच्चे बड़े और समझदार होकर एक साथ रहना पसन्द नहीं करते; और वे सब न केवल एक-दूसरे से अलग होते हैं, बल्कि गाहे-ब-गाहे एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप भी लगाते रहते हैं। यहाँ तक कि कई बार आपस में मर-कट भी जाते हैं।
आज जिस तरह से हम सब एक परमपिता के बच्चे होते हुए भी एक ही ज़मीन पर रहकर, आपस में नफ़रतें कर रहे हैं; बात-बात पर झगड़े कर रहे हैं; उससे हमारी समझदारी नहीं, बल्कि बेअक़्ली ही साबित होती है। आज चाहे सनातन धर्म हो, मज़हब-ए-इस्लाम हो, ईसाई धर्म हो, बौद्ध धर्म हो, जैन धर्म हो, यहूदी धर्म हो; सभी में दो-फाड़ सा$फ-साफ़ दिखती है।
सनातन धर्म की अगर बात करें, तो शायद यह दुनिया का इकलौता ऐसा धर्म होगा, जिसमें सबसे ज़्यादा मतभेद हैं। यहाँ तक कि इसे मानने वालों में आपसी मतभेद के साथ-साथ इतनी नफ़रतें हैं कि इस धर्म को मानने वाले एक-दूसरे से तमाम सरोकार होते हुए भी एक-दूसरे के हाथ का पानी पीना तो दूर एक साथ बैठना भी पसन्द नहीं करते। सनातन धर्म के लोग कभी देवी-देवताओं के नाम पर अलग-थलग रहे हैं, कभी मान्यताओं -परम्पराओं के नाम पर, तो कभी वर्ण और जाति-व्यवस्था के नाम पर। इस धर्म में अगर कोई सबसे ख़राब और कोढ़ की तरह फैली कोई बुराई है, तो वह है ज़ात-पात। वेदों और कुछ अन्य धर्म ग्रन्थों की मानें, तो इस धर्म के सभी लोग एक ही पुरुष मनु और एक ही स्त्री श्रद्धा से जन्मे हैं। लेकिन अफ़सोस है कि आज तक कोई भी एक होकर नहीं रह सका। यहाँ तक कि एक ही जाति के लोग भी आपस में कुल, गोत्र और ऊँच-नीच के नाम पर इस क़दर बँटे हुए हैं कि इनके पागलपन पर हँसी के साथ-साथ तरस आता है।
इसी तरह मज़हब-ए-इस्लाम में शिया और सुन्नी के बीच खड़ी नफ़रत की दीवार दोनों को एक-दूसरे का दुश्मन बनाये हुए है। इस मज़हब के मानने वालों में मुल्कों के हिसाब से, ज़ात-पात के हिसाब से, मान्यताओं के हिसाब से, इबादत के हिसाब से भी भरपूर बँटवारा है। आज इस्लाम में भी हालात यह हैं कि अल्लाह एक है; इस एक मत को छोड़कर सब अपनी-अपनी सोच और मज़हब को निभाने के तरीक़ों को मानते हैं। इसका नतीज़ा यह है कि इनकी आपसी नफ़रतों का कोई अन्त होता नहीं दिखता। इस मज़हब में भी ऊँच-नीच का भेदभाव विकट है।
ईसाई धर्म की बात करें, तो पता चलता है कि इस धर्म में भी तीन समुदाय हैं- कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और ऑर्थोडॉक्स। सभी ईसाई इन तीन पन्थों में इस तरह बँटे हुए हैं कि आपसी नफ़रतों से घिरे हैं। इसके अलावा इस धर्म के मानने वालों की एक और बड़ी ख़राबी यह है कि इस धर्म में दूसरे धर्म से आने वालों को वह इज़्ज़त और वह स्थान नहीं मिलता, जैसा इस धर्म में पैदा हुए लोगों को मिलता है। बौद्ध धर्म भी हीनयान और महायान में बँटा हुआ है। इसके अलावा इस धर्म में भी ऊँच-नीच, ज़ात-पात, देशों के हिसाब से नफ़रत और एक-दूसरे को असली बौद्ध न मानने की ऐसी नफ़रती परम्परा है कि सभी बुद्ध के बताये रास्ते से भटके हुए दिखायी देते हैं। इसी तरह जैन धर्म में भी दो-फाड़ है। इस धर्म के लोग दिगम्बर और श्वेताम्बर के नाम पर बँटे हुए हैं। इसके अलावा इस धर्म के लोगों में और भी कई तरह के भेदभाव फैले हुए हैं। विडम्बना यह है कि जिस धर्म के दरवाज़े महावीर स्वामी ने सभी जातियों तथा धर्मों के लिए खोले थे, उन्हें इस धर्म के लोग अब दूसरे धर्म, दूसरी जातियों के लिए बन्द कर चुके हैं और उनसे नफ़रत करते हैं। यही हाल यहूदी धर्म का है। इस धर्म के लोग 12 ज़ातियों के नाम पर तो बँटे हुए हैं ही, देशों की सीमाओं के नाम पर तगड़े भेदभाव के शिकार हैं। जैसे, इजरायल के यहूदी बाहरी यहूदियों से भेदभाव करते हैं।
आज दुनिया के तक़रीबन 98 सदी मज़हबों में बुरी तरह भेदभाव फैला हुआ है; जिसकी जड़ें गहरी हैं कि उन्हें उखाड़ फेंकना आसान नहीं रह गया है। यानी एक भी मज़हब को उसके मानने वालों ने विशुद्ध नहीं रहने दिया। उसमें अलग-अलग रास्ते, अलग-अलग मत निकाल लिये और तय कर लिया कि भले ही मज़हब एक हो और सभी मज़हब बिल्कुल स्पष्ट कहते हों कि ईश्वर एक है। लेकिन हमें किसी भी हाल में एक नहीं होना है। हमें सीधे-सरल तरीक़े से, मोहब्बत से, अख़लाक़ से ज़िन्दा नहीं रहना है। मार-काट, नफ़रत, जलन, बुराई के बग़ैर हम नहीं जी सकते। क्या हम जानवरों से भी गये-बीते नहीं हैं? क्या हम पागल हैं? क्या हम इंसान हैं? क्या हम इस पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान प्राणी हैं? क्या हम ईश्वर की सबसे प्यारी सन्तान हैं? मेरे ख़याल से तो बिल्कुल नहीं। किसी भी हाल में नहीं। बल्कि मैं तो यही कहूँगा कि हम इंसान सबसे वाहियात, सबसे बड़े पागल और सबसे ज़्यादा तुच्छ हैं। हमने दिमाग़ होते हुए भी उसका धर्म के मामले में कभी भी सही इस्तेमाल नहीं किया। क्या हमें अब भी इंसान कहलाने का हक़ रह गया है? क्या हम सभी प्राणियों में श्रेष्ठ हैं? शायद नहीं।

उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव में हिंसा का बोलबाला

किसी भी चुनाव में धाँधली का आरोप लगना अब आम बात हो चली है। लेकिन कहा जाता है कि जहाँ आग होगी, धुआँ वहीं उठेगा। उत्तर प्रदेश में पहले ज़िला पंचायत चुनावों में काफ़ी कोशिशों के बावजूद मिली हार के बाद अब सत्ताधारी पार्टी भाजपा ने निकाय चुनाव (ज़िला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख चुनावों) में बड़ी जीत हासिल की है। उसने ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में 75 ज़िलों में से 67 पर क़ब्ज़ा कर लिया है। भाजपा के 21 प्रत्याशी पहले ही निर्विरोध जीत गये थे और 03 जुलाई को 53 पदों पर मतदान के बाद आये परिणाम में भाजपा ने 46 सीटों पर जीत हासिल कर ली। वहीं ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में उसने 825 में से 648 सीटें जीती हैं।
कहा जा रहा है कि पंचायत चुनाव के इस सेमीफाइनल में भाजपा ने बाज़ी मारकर यह बता दिया है कि उसे उत्तर प्रदेश की सत्ता से हटाना विपक्षियों के लिए अब बहुत मुश्किल हो गया है। लेकिन वह प्रदेश में होने वाले 2022 के विधानसभा चुनाव में 300 प्लस के जिस आँकड़े को छूना चाहती है, वह इतना आसान भी नहीं है। इधर ज़िला पंचायत चुनावों में अव्वल रही समाजवादी पार्टी (सपा) को ज़िला पंचायत अध्यक्ष के केवल पाँच सीटें ही मिली हैं। जबकि रालोद को एक, जनसत्ता दल को एक और एक सीट निर्दलीय को मिली है। वहीं समाजवादी पार्टी को 98, कांग्रेस को पाँच और निर्दलीयों को 96 सीटों पर जीत हासिल हुई है।

मतदान के दौरान झड़प, मारपीट
उत्तर प्रदेश में अब चुनाव हों और झड़प या दंगे न हों, अब यह मुमकिन नहीं रह गया है। प्रदेश में जब पंचायत चुनाव सम्पन्न हो गये थे, तब विजेताओं के नाम घोषित होने के समय पूरे प्रदेश में कई जगह दंगे हुए थे, जिनमें कई लोगों की मौत भी हो गयी थी। अब ज़िला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव में सत्ताधारी पार्टी पर धाँधली का आरोप लगाने वाले समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं से मारपीट का आरोप है। इस मारपीट में पुलिस का शामिल होना प्रदेश की क़ानून व्यवस्था के लिए शर्मिंदगी की बात है। पुलिस पर समाजवादी पार्टी के लोगों पर सीधे लाठीचार्ज करने का आरोप लगा है। झगड़े की शुरुआत समाजवादी पार्टी के लोगों द्वारा प्रयागराज में हुए चुनाव में सत्ताधारी योगी सरकार पर धाँधली करने के आरोप से हुई। समाजवादी पार्टी के लोगों का आरोप है कि प्रयागराज में भाजपा डिवाइस के ज़रिये ग़लत मतदान (वोटिंग) करके जीती है। इसके बाद सपाइयों ने जमकर प्रदर्शन किया। प्रयागराज के आनंद हॉस्पिटल चौराहे पर धरना दिया और सरकार विरोधी नारे लगाये; जिसके चलते पुलिस और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच झड़प हुई और पुलिस ने सपाइयों पर लाठीचार्ज कर दिया, जिससे कई पार्टी के कई लोग घायल हो गये। हालाँकि पुलिस द्वारा लाठीचार्ज के बीच सपाइयों ने भी पुलिस पर पत्थरबाज़ी की। इसके अलावा लखनऊ, मथुरा, सोनभद्र, हापुड़ और कुछ अन्य ज़िलों में भी ग़लत मतदान को लेकर झपड़ें हुईं।
इधर ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में उत्तर प्रदेश में कई जगह हिंसा देखने को मिली। सूत्रों की मानें, तो इटावा में भाजपा कार्यकर्ताओं ने जिले के एसपी संग बदसुलूकी की। इस मामले में भाजपा नेता विमल भदौरिया सहित 100 से अधिक अज्ञात उपद्रवियों के खिलाफ आईपीसी की धारा-78/21, 147,148,149, 332, 353, 307, 269, 270, 188 के तहत, सात आपराधिक अधिनियम-51/57, आपदा प्रबन्धन अधिनियम व तीन महामारी अधिनियम के तहत, बलवा एक्ट, धारा-144 के उल्लंघन की धारा-188, आपदा प्रबंधन अधिनियम, सरकारी काम में बाधा डालने समेत कई धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है। वहीं उन्नाव के मियागंज ब्लॉक प्रमुख चुनाव की मतगणना के दौरान भाजपा समर्थित प्रत्याशी के कुछ लोगों ने एक पत्रकार को पीटना शुरू कर दिया। भीड़ को क़ाबू करने के बजाय सीडीओ दिव्यांशु पटेल ने कैमरामैन को ही पीट डाला। हालाँकि बाद में उसे अपने हाथ से मिठाई खिलायी, लेकिन यह तो कोई बात नहीं हुई। उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर लगातार हमले हो रहे हैं, जिस पर सरकार को संज्ञान लेना चाहिए। लखीमपुर खीरी में इससे भी अभद्र घटना हुई। यहाँ कुछ लोगों ने एक महिला प्रस्तावक के कपड़े फाड़ दिए और हाथापाई की। हालाँकि इस मामले में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने क्षेत्राधिकारी और थाना प्रभारी को बर्खास्त करने का निर्देश दिया है।

धाँधली का आरोप


इस घटना को लेकर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सत्ताधारी पार्टी भाजपा को जमकर घेरा। उन्होंने कहा कि ज़िला पंचायत चुनाव में सीधे-सीधे धाँधली हुई है, जो कि ग़लत है। उनका कहना है कि कई जगह उनके प्रत्याशियों को पर्चा तक नहीं भरने दिया गया। भाजपा ने अपनी हार को जीत में बदलने के लिए मतदाताओं का अपहरण कर मतदान से रोकने के लिए पुलिस और प्रशासन का सहारा लिया और जबरन अपने पक्ष में मतदान करा लिया। भाजपा की धाँधली का विरोध करने पर समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं से दुव्र्यवहार किया गया। उन्होंने कहा कि ज़िला पंचायत सदस्य के चुनाव में समाजवादी पार्टी के पक्ष में ज़्यादातर सीटें आयी थीं। लेकिन अब ज़िला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में भाजपा ने सत्ता के बल पर धाँधली करके बहुमत में हासिल किया है, जिसमें प्रशासनिक अधिकारियों ने उसका पूरी तरह साथ दिया है। प्रशासनिक अधिकारियों को याद रखना चाहिए कि सेवा नियमावली का उल्लंघन करते हुए सत्ता दल के पक्ष में संदिग्ध गतिविधियों में संलिप्त पाये जाने पर उनके विरुद्ध सख़्त कार्रवाई की जा सकती है। सपा अध्यक्ष ने कहा कि राज्य निर्वाचन आयुक्त पंचायती राज को ज्ञापन देने के बावजूद उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की। अखिलेश ने यह भी आरोप लगाया कि राजधानी लखनऊ में समाजवादी पार्टी समर्थक पंचायत सदस्य अरुण रावत का अपहरण किया गया था। हमीरपुर में प्रत्याशी दुष्यंत सिंह को धक्का मारकर बाहर कर दिया गया। समाजवादी पार्टी की अध्यक्ष पद की प्रत्याशी विजय लक्ष्मी को ज़िलाधिकारी कार्यालय में बैठा लिया गया और उनके पति विधायक अंबरीष पुष्कर को उनसे मिलने से रोका गया। अखिलेश के अलावा बसपा अध्यक्ष मायावती ने भी ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में सत्ताधारी पार्टी पर धाँधली का आरोप लगाया; लेकिन बाद में वह ख़ामोश हो गयीं। इस चुनाव से पहले सन् 2016 में ज़िला पंचायत अध्यक्ष के कुछ पदों पर निर्विरोध चुनाव हुए थे, तब अखिलेश यादव की सरकार थी। सन् 2016 से पहले सन् 2010 में भी इसी तरह निर्विरोध चुनाव हुए थे, तब मायावती की सरकार थी। दोनों ही सरकारों में दोनों ही पार्टियों- सपा व बसपा के प्रत्याशी बड़ी संख्या में निर्विरोध चुने गये थे। अब सवाल यह उठता है कि दोनों ही दलों को भाजपा पर सवाल खड़े करने का कितना नैतिक अधिकार है?

विरोध कितना जायज़?
भाजपा के 22 ज़िला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध चुने जाने पर अधिकतर विपक्षी दलों ने आपत्ति जतायी है। इसके बाद भाजपा की तरफ़ से कहा गया है कि पहले की सरकारों में भी ज़िला पंचायत अध्यक्ष पदों पर निर्विरोध चुनाव होते रहे हैं। सन् 2016 में समाजवादी पार्टी की सरकार में हुए ज़िला पंचायत अध्यक्ष पर के चुनाव में 74 में से 38 ज़िलों के ज़िला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध चुनाव जीते थे और 75वें ज़िले नोएडा में चुनाव ही नहीं हुआ था। वहीं सन् 2010 में जब प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार थी, तब 72 में से 20 ज़िला पंचायत अध्यक्ष सीटों पर उसके प्रत्याशी निर्विरोध चुनाव जीते थे। अब भाजपा की सरकार में भी यही सब दोहराया गया है। सवाल यह है कि निर्विरोध चुनाव जीतने वाले सभी प्रत्याशी सत्ताधारी दल के ही क्यों होते हैं? इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं होता। सवाल यह भी है कि क्या विपक्षी दलों को यह नैतिक अधिकार है कि वो मौज़ूदा सरकार पर चुनाव में जीत हासिल करने के लिए धाँधली करने का आरोप लगा सकें? इसका जवाब यही है कि बिल्कुल लगा सकते हैं और इसकी शिकायत राज्य चुनाव आयोग से भी कर सकते हैं।
इधर आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह का सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से मुलाक़ात को अहम माना जा रहा है। कयास लगाये जा रहे हैं कि कहीं दोनों पार्टियाँ प्रदेश में 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव भाजपा के ख़िलाफ़ मिलकर तो नहीं लड़ेंगी? हालाँकि इस बात की अभी कोई पुष्टि नहीं हुई है। लेकिन यह तय है कि दोनों पार्टियाँ भाजपा को हराने के लिए रणनीति तय कर रही हैं।

चुनाव आयोग ले संज्ञान
चुनावों में धाँधली के आरोप लगना कोई नयी बात नहीं है, पहले भी हर तरह के चुनावों में सत्ताधारी दलों पर धाँधली के आरोप लगते रहे हैं; फिर चाहे वो कांग्रेस पार्टी हो या दूसरी कोई पार्टी। लेकिन जितने आरोप भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता में आने के बाद उस पर लगे हैं, उतने आरोप किसी पर नहीं लगे। सन् 2014 में केंद्र की सत्ता में मोदी सरकार के आने के बाद शायद ही ऐसा कोई चुनाव होगा, जिसमें धाँधली का आरोप भाजपा पर न लगा हो। यहाँ तक कि कथित रूप से चुनाव आयोग पर भी चुनावों में धाँधली कराने के आरोप लगते रहे हैं। सन् 2014 के बाद से ही ईवीएम में गड़बड़ी करके भाजपा को चुनाव कराने के आरोप भी चुनाव आयोग पर लग चुके हैं, जिस पर काफ़ी हंगामा भी हो चुका है। पिछले महीनों में एक केंद्र शासित राज्य और चार अन्य राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भी ऐसे ही आरोप सामने आये, जिनमें गड़बड़ी को लेकर चुनाव आयोग को अदालतों तक ने घेरा। ऐसे में चुनाव आयोग को अपने माथे पर से धाँधली कराने के कलंक को धो देना चाहिए और आइंदा निष्पक्ष चुनाव कराने चाहिए।

अलविदा बॉलीवुड के कोहिनूर

ख़िराज-ए-अक़ीदत
11/12/1922 – 07/07/2021

साहिब-ए-आज़म मोहम्मद यूसुफ़ ख़ान उर्फ़ दिलीप कुमार महज़ बॉलीवुड के अदाकार (अभिनेता) के तौर पर ही नहीं जाने जाएँगे, बल्कि उनका मक़ाम इससे कहीं ज़्यादा था। उनको भारत और पाकिस्तान के बीच एक पुल के तौर पर भी मान्यता मिली थी। कट्टरपंथी पार्टी शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे उनके अज़ीज़ दोस्त थे, तो पाकिस्तान ने दिलीप कुमार को अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ से नवाज़ा था। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से भी उनकी अच्छी बनती थी। फ़िल्में उन्होंने चुनिंदा कीं; पर जो कीं, तो दिल से कीं। अभिनय में डूबकर कीं। ऐसा काम किया कि ख़ुद उसकी गिरफ़्त में आ गये। इस महान् अभिनेता ने 7 जुलाई को 98 साल की उम्र मुम्बई में आख़िरी साँस ली। भारत-पाकिस्तान के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर बड़े-बड़े दिग्गजों ने उन्हें ख़िराज-ए-अक़ीदत (श्रद्धांजलि) पेश की। मुम्बई स्थित जुहू क़ब्रिस्तान में राजकीय सम्मान के साथ उनको सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया।

मोहम्मद यूसुफ़ ख़ान के पिता फल कारोबारी थे और बँटवारे से पहले पेशावर से आकर मुम्बई (तब बम्बई) में बस गये थे। सन् 1940 के दशक में नैनीताल के रामगढ़ में उन्होंने फलों का बाग़ान लिया था, जहाँ पर यूसुफ़ भी कारोबार में पिता का हाथ बँटाते थे। यहीं पर पहली बार उनकी मुलाक़ात तब की मशहूर अदाकारा देविका रानी से हुई। उन्होंने पहली नज़र में ही ख़ूबसूरत यूसुफ़ को देखकर कहा कि फ़िल्मों में काम कीजिए और आकर मुझसे बम्बई में मिलिए। हालाँकि इससे पहले भी उनको दो फ़िल्मों का प्रस्ताव मिल चुका था; लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया था। पर देविका के बार-बार कहने के बाद वह फ़िल्मी दुनिया में उतरने को राज़ी हो गये।
देविका रानी उनको रोमांटिक हीरो की भूमिका अदा करना चाहती थीं। बात नाम को लेकर आयी, तो कहा गया कि मोहम्मद यूसफ़ ख़ान नाम जँचेगा नहीं। इसलिए नये नाम की तलाश शुरू हुई। तब लखनऊ में रहने वाले जाने-माने साहित्यकार और फ़िल्म के पठकथा लेखक (स्क्रिप्ट राइटर) भगवती चरण वर्मा ने उनको दिलीप कुमार नाम दिया। इसके बाद तो लोग यूसुफ़ साहब को भूल गये और उनका फ़िल्मी नाम दिलीप कुमार ही असली नाम होकर रह गया। दिलीप साहब कहते थे कि जब कोई फ़नकार अपनी कला की गहराई में सुलगता है, तभी वह अपने शिल्प को ख़ालिस सोने में बदल पाता है।
1950 के दशक में यानी काले और सफ़ेद (ब्लैक एंड व्हाइट) के ज़माने में देवदास फ़िल्म करने के बाद उनको ट्रेजडी किंग की उपाधि मिली। बताते हैं कि इस फ़िल्म की शूटिंग के बाद वह अवसाद में चले गये थे। उनके क़िरदारों के जितने भी रूप देखिए, दिलचस्पी कम नहीं होगी। कहते हैं कि उनके बाद अधिकतर कलाकार उनकी नक़ल करते नज़र आये। लेकिन वह कहते रहे कि उनकी अदाकारी की नक़ल कोई नहीं करता। दिलीप साहब के जाने के बाद उनके अज़ीज़ साथी और दिग्गज अभिनेता धर्मेंद्र बेहद भावुक हो गये। उनके जनाज़े के पास ऐसे बैठे, मानो महबूब हों। उन्होंने कहा- ‘वह अक्सर आईने से बात करते थे कि क्या मैं दिलीप कुमार जैसा अभिनय कर सकता हूँ?’
द ग्रेट दिलीप कुमार के जाने के साथ ही अभिनय की दुनिया के एक विश्वविद्यालय, एक बेहतरीन इंसान, एक अज़ीज़ दोस्त और फ़िल्मी दुनिया के एक युग का अन्त हो गया। सदी के अभिनेता अमिताभ बच्चन ने कहा है- ‘उनके फ़ानी दुनिया से चले जाने के साथ ही बॉलीवुड को दिलीप कुमार के पहले और उनके बाद के युग के तौर पर जाना जाएगा।’

वारिस न होने का मलाल नहीं


22 साल छोटी सायरा बानो से दिलीप कुमार ने शादी की। आठ माह की गर्भवती सायरा को रक्तचाप (बीपी) की दिक़्क़त की वजह से दिलीप और सायरा के बच्चे को बचाया नहीं जा सका था। इसके बाद वह माँ नहीं बन सकीं। लेकिन द ग्रेट दिलीप साहब से बेपनाह मुहब्बत करती रहीं और शायद ताउम्र करती रहेंगी। उनके जाने के बाद वह टूट गयीं। दिलीप कुमार शाहरुख़ ख़ान को अपना बेटा मानते थे, उनके जाने के बाद माँ सायरा बानो के साथ दर्द साझा करने शाहरुख़ ख़ान समेत तमाम दिग्गज हस्तियाँ पहुँचीं।

मोहब्बत की मिसाल सायरा बानो
सन् तो याद नहीं है, अलबत्ता तारीख़ 23 अगस्त थी। दिलीप साहब हमारे घर आये, तो मुझे बहुत ग़ौर से देखा और कहा- ‘अरे तुम तो बहुत बड़ी हो गयी हो; बहुत ख़ूबसूरत लग रही हो।’ यह कहकर उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और किसी ने वो लम्हा कैमरे में क़ैद कर लिया। वह तस्वीर आज तक मेरे पास है।
सायरा बानो (एक साक्षात्कार में)

क्या भाजपा की नैया पार लगा पाएँगे धामी?

उत्तराखण्ड में धामी के मुख्यमंत्री बनने से वरिष्ठ विधायकों में नाराज़गी

उत्तराखण्ड में तीरथ सिंह रावत से अचानक इस्तीफ़ा लेने को भाजपा आलाकमान ने भले उपचुनाव न हो सकने से उपजा संवैधानिक कारण बताया हो, लेकिन यह सच नहीं है। इस पहाड़ी राज्य में भाजपा की वर्तमान स्थिति की असली कहानी तीरथ को हटाने के पीछे ही छिपी है। यह संवैधानिक संकट से ज़्यादा तीरथ के उपचुनाव में हार जाने के ख़तरे का नतीजा था। भाजपा के अपने सर्वे से ज़ाहिर हो रहा था कि तीरथ चुनाव हार जाएँगे। भाजपा को लगा कि देश में इसका बहुत ख़राब सन्देश जाएगा कि उसका मुख्यमंत्री ही उपचुनाव में हार गया। लिहाज़ा उसने तीरथ का ही पत्ता साफ़ कर दिया। युवा पुष्कर सिंह धामी को अब बेशक भाजपा ने मुख्यमंत्री बना दिया है, लेकिन अगले विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी की मुश्किलें आसानी से ख़त्म होने वाली नहीं हैं। पार्टी के भीतर वरिष्ठ विधायक धामी की ताजपोशी से ख़फ़ा हैं और अगले चुनाव से पहले यदि धामी पार्टी को बेहतर स्थिति में नहीं ला पाये, तो इनमें से कई पाला बदलने में देर नहीं करेंगे।
धामी को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने यह सन्देश देने की कोशिश की है कि युवा नेता को अवसर दिया गया है। लेकिन पार्टी के भीतर इससे नाराज़गी है। भले परदे के सामने अब सब कुछ शान्त दिखता हो, भीतर सुगबुगाहट है। धामी और मंत्रियों की शपथ के बाद वरिष्ठ मंत्री सतपाल महाराज और हरक सिंह रावत जिस तेवर के साथ वहाँ से गये, उससे भविष्य का संकेत मिलता है। यह दोनों पहले कांग्रेस में रह चुके हैं। शपथ के बाद यह दोनों बिना किसी पार्टी नेता, समर्थक या अन्य से बात किये वहाँ से निकल गये थे। भीतर का यह आक्रोश थोड़ी-सी चिंगारी से ही लपटों में बदल सकता है। भाजपा आलाकमान के आंतरिक सर्वे में उत्तराखण्ड में उसकी जैसी स्थिति आयी है, उससे वह चिन्तित है। यही कारण है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के हाल के विस्तार में उत्तराखण्ड से अजय भट्ट को मंत्री बना दिया गया है। भाजपा भट्ट को भविष्य के नेता के रूप में उभारना चाहती है। भट्ट पहली बार सांसद बने हैं; लेकिन उन्होंने उत्तराखण्ड में मंत्री के रूप में कई मंत्रालयों में काम किया है। अभी 60 साल के हैं; लिहाज़ा उनके लिए पार्टी में सम्भावनाएँ हैं।
धामी की अगले कुछ महीनों की राह आसान नहीं है। वह भी जानते हैं कि उनके सर पर काँटों का ताज रखा गया है। वर्तमान कार्यकाल में ही भाजपा ने उनके रूप में तीसरा मुख्यमंत्री बनाया है। युवा नेता के प्रदेश की कमान सँभालने से प्रदेश के लोगों की उम्मीदें भी बहुत हैं। हाल के महीनों में कोरोना वायरस ने इस पहाड़ी सूबे में विकास, शिक्षा, उद्योग और पर्यटन के साथ-साथ रोज़गार को भी चौपट कर दिया है। सिर्फ़ सात महीने में प्रदेश को इस संकट से बाहर निकालने की मुश्किल चुनौती धामी के सामने है। उनकी सबसे बड़ी दिक़्कत प्रशासनिक अनुभव की कमी है। मुख्यमंत्री बनने से पहले वह कभी मंत्री तक नहीं रहे हैं। भले उनके मंत्रिमंडल सहयोगी तजुर्बेकार हैं, पर उनका कितना सहयोग मिलेगा? यह सबसे बड़ा सवाल है।
बहुत जल्दी-जल्दी मुख्यमंत्री बदलने से भाजपा को नुक़सान हुआ है। क्योंकि जिन इलाक़ों के मुख्यमंत्री पहले बनाये और फिर हटा दिये; वहाँ लोग पार्टी से नाराज़ हुए हैं। चार महीने पहले ही तीरथ सिंह रावत मुख्यमंत्री हुए थे। वह सांसद हैं और उनके मन में भी खटास रह गयी। ऊपर से केंद्रीय मंत्रिमंडल विस्तार में भी उन्हें जगह नहीं मिली। भाजपा का ‘संवैधानिक विवशता’ का बहाना किसी के गले नहीं उतरा है।
विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी को राज्य में पटरी पर लाने के लिए धामी को सिर्फ़ सात महीने ही मिले हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की भाजपा आलाकमान की घोषणा के बाद पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने अपनी नाराज़गी सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित की। यह माना जाता है कि सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत, बिशन सिंह चुफाल जैसे वरिष्ठ नेता नाराज़ हैं। उनकी नाराज़गी को देखते हुए अमित शाह को दो नेताओं से फोन पर बात करनी पड़ी। धामी इसके बाद सबको साथ लेकर चलने की बात कह चुके हैं। यह माना जाता है कि प्रदेश भाजपा की गुटीय राजनीति में धामी कभी तटस्थ नहीं रहे हैं। नहीं भूलना चाहिए कि प्रदेश में इस समय जो भाजपा के अन्य मंत्री हैं, उनमें से आधे तो सन् 2016 में कांग्रेस से भाजपा में आये थे। कुल 12 मंत्रियों में से 5 कांग्रेस पृष्ठभूमि के हैं। भाजपा भले कह रही हो कि पार्टी और सरकार में नाराज़गी की बात कांग्रेस नेता उछाल रहे हैं और हक़्क़ीत में ऐसा नहीं है; पर ऐसा ही है।
विपक्षी कांग्रेस पूर्व मुख्यमंत्री अनुभव हरीश रावत को वापस प्रदेश लाकर चुनाव में मुख्यमंत्री के रूप पेश करने की तैयारी कर चुकी है। फ़िलहाल रावत पंजाब में कांग्रेस के प्रभारी हैं और वहाँ का संकट निबटते ही उन्हें उत्तराखण्ड में सक्रिय होने के लिए आलाकमान कह चुकी है। रावत भले पिछला चुनाव हार गये थे; लेकिन उन्हें बहुत अनुभवी नेता माना जाता है और अगले चुनाव में उनके मैदान में रहने से धामी और भाजपा के लिए बड़ी चुनौती रहेगी; ख़ासकर ऐसे हालत में, जब उसकी सरकार पिछले चार साल में जनता पर कोई असर नहीं छोड़ नहीं पायी है।

धामी की क़िस्मत
तीरथ सिंह रावत के इस्तीफ़े के बाद पुष्कर सिंह धामी के मुख्यमंत्री बनने की ज़्यादा चर्चा कहीं भी नहीं थी। धामी उत्तराखण्ड के ऊधम सिंह नगर ज़िले की खटीमा सीट से लगातार दो बार चुनाव जीते हैं। और अब तक उत्तराखण्ड में सबसे कम उम्र (45 साल) के मुख्यमंत्री भी हैं। धामी उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री और महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के बहुत क़रीबी माने जाते हैं। एक समय जब कोश्यारी मुख्यमंत्री थे और धामी उनके ओएसडी हुआ करते थे। उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मण्डल के राजपूत धामी तीरथ सिंह रावत के विपरीत सत्ता सँभालने के बाद विवादित बयान देने से तो अभी तक बचे ही हैं, वह सभी वरिष्ठों को भी साथ लेने की कोशिश में जुटे हैं। विदित हो कि त्रिवेन्द्र रावत के इस्तीफ़े के बाद पौड़ी गढ़वाल के सांसद तीरथ सिंह रावत ने उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद बहुत बचकाने वाले बयान दिये थे और विवाद पैदा किया था। यह बहुत दिलचस्प बात है कि सन् 2000 में उत्तराखण्ड के अस्तित्व में आने के बाद कांग्रेस और भाजपा 10-10 साल सत्ता में रहे हैं। हालाँकि भाजपा इन 10 वर्षों में 7 मुख्यमंत्री बना चुकी है, जबकि कांग्रेस ने 3 ही मुख्यमंत्री बनाये हैं। भाजपा को इसका नुक़सान भी हो सकता है; क्योंकि बार-बार मुख्यमंत्री बदलने से विकास की गति धीमी होती है। वैसे भी कोरोना से इस पहाड़ी सूबे में विकास का बंटाधार हुआ है। ‘तहलका’ ने कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत से फोन पर बात की, तो उन्होंने कहा- ‘धामी को मुख्यमंत्री बनने पर बधाई और शुभकामनाएँ। लेकिन भाजपा जिस तरह राज्य में मुख्यमंत्री बदल रही है, उससे लोगों में निराशा है। क्योंकि उनके काम ठप पड़े हैं। भाजपा का कोरोना के कारण उपचुनाव न करवाने का बहाना भी किसी मज़ाक़ से कम नहीं। सच यह है कि राज्य में उसकी हालत बहुत ख़राब है और जनता का सरकार पर से भरोसा उठा है।’

मुख्यमंत्री बनकर क्या बोले धामी?


मेरे पास बतौर मुख्यमंत्री वक़्त बहुत कम है। सात महीने बाद चुनाव हैं और इन महीनों में हमारी सरकार बातें कम और काम ज़्यादा की नीति पर चलेगी। मेरा रोज़गार और स्वरोज़गार पर ज़ोर रहेगा और क़रीब 22,000 रिक्त पद भरने की हम योजना बना रहे हैं। इसमें से आधे बहुत जल्दी भरी जाने की कोशिश करेंगे। मेरा सौभाग्य है कि सरकार में काफ़ी अनुभवी मंत्री हैं, जिनके अनुभव का लाभ सरकार और जनता दोनों को मिलेगा। जिस काम को शुरू किया जाएगा, उसे पूरा किया जाएगा। हमारी नीति शिलान्यास तक सीमित रहने की नहीं, लोकार्पण तक पहुँचने की होगी। पिछले चुनाव के बाद भाजपा सरकार ने काफ़ी विकास कार्य किये हैं। काफ़ी वादे पूरे किये गये हैं। अब रोज़गार, स्वरोज़गार, कोरोना प्रभावित लोगों को राहत, कोविड से प्रभावित चारधाम यात्रा से जुड़े लोगों को राहत देना सरकार की प्राथमिकता पर है। युवाओं पर भी काम होगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि उनके राज्य का ध्यान युवा नीति पर रहेगा। मंत्रियों को ज़िलों का प्रभार दिया गया है, जिससे आम लोगों तक सरकार की पहुँच और बेहतर होगी।

21 साल में 11 मुख्यमंत्री
1. नित्यानंद स्वामी (भाजपा) : 9 नवंबर, 2000 से 29 अक्टूबर, 2001 तक (354 दिन)।
2. भगत सिंह कोश्यारी (भाजपा) : 30 अक्टूबर, 2001 से 01 मार्च, 2002 तक (122 दिन)।
3. नारायण दत्त तिवारी (कांग्रेस) : 2 मार्च, 2002 से 7 मार्च, 2007 तक (5 साल 5 दिन)।
4. भुवन चन्द्र खंडूड़ी (भाजपा) : 7 मार्च, 2007 से 26 जून, 2009 तक (2 साल 111 दिन)।
5. रमेश पोखरियाल निशंक (भाजपा) : 27 जून, 2009 से 10 सितंबर, 2011 तक (2 साल
75 दिन)।
6. भुवन चन्द्र खंडूड़ी (भाजपा) : 11 सितंबर, 2011 से 13 मार्च, 2012 तक (184 दिन)।
7. विजय बहुगुणा (कांग्रेस) : 13 मार्च, 2012 से 31 जनवरी, 2014 तक (1 साल 324 दिन)।
8. हरीश रावत (कांग्रेस) : 1 फरवरी, 2014 से 18 मार्च, 2017 तक (3 साल 2 दिन)। इस दौरान राष्ट्रपति शासन के चलते 27 मार्च, 2016 और 22 अप्रैल, 2016 को क्रमश: एक और 19 दिनों के लिए दो बार उनका कार्यकाल बाधित हुआ।
9. त्रिवेन्द्र सिंह रावत (भाजपा) : 18 मार्च, 2017 से 10 मार्च, 2021 तक (3 साल 357 दिन)।
10. तीरथ सिंह रावत (भाजपा) : 10 मार्च, 2021 से 02 जुलाई, 2021 तक (114 दिन)।
11. पुष्कर सिंह धामी (भाजपा) : 4 जुलाई, 2021 से अब तक।

मसरूफ़ियत में महानायक से मुलाक़ात

जब मैं इस कॉलम को पूरा ही करने जा रही थी कि तभी मुझे दिग्गज फ़िल्म स्टार दिलीप कुमार के निधन की ख़बर मिली। पुरानी यादें एकदम से ताज़ा हो गयीं। यादें मुझे सन् 1999 की गर्मियों में वापस ले गयीं, जब मैं उनसे और उनकी पत्नी सायरा बानो से मिली थी।
मुझे जानकारी मिली थी कि सायरा बानो और दिलीप कुमार नई दिल्ली पहुँचे हैं और मैं उनका साक्षात्कार करने के लिए बेहद उत्साहित थी। सभी सम्भावित स्रोतों से कोशिश की, तो पता लगा कि वे उस होम्योपैथ के विशेषज्ञ के क़रीबी हैं, जिनको मैं भी जानती थी। वही इसमें मेरी मदद कर सकते थे और बता सकते थे कि दिलीप कुमार दम्पति किस फाइव स्टार होटल में ठहरे होंगे। मैं होटल की लॉबी में पहुँची, लेकिन इससे पहले कि मैं उस विशेष मंज़िल की ओर पहुँच पाती, मैंने काँच की लिफ्ट में देखा कि सायरा बानो और दिलीप कुमार नीचे भूतल की ओर जा रहे हैं।
मैं उनकी ओर दौड़ी। लेकिन मुझे उनके सामने अपने सभी सवालों को अच्छी तरह रखने का उतना मौक़ा नहीं मिला, जिसकी मैंने कई बार रिहर्सल की थी। मैंने होम्योपैथ कनेक्शन के साथ जैसे बात शुरू की, तो दिलीप कुमार के चेहरे के भाव बहुत कुछ कह गये। यह सभी जानते हैं कि वह इस तरह के जबरन मिलने को नापसन्द करते थे और ख़ालिस उर्दू में अपनी बात रखते थे। बहुत बढिय़ा इतनी मधुर और स्पष्ट आवाज़ को वह नापतौल कर बोलते थे, मानो किसी नाटकीय तरीक़े से कहे हों। कहने का मतलब यह है कि मुझे आने से पहले उनसे अप्वाइंटमेंट (मिलने का समय) लेना चाहिए था; क्योंकि वह बहुत मसरूफ़ थे। वे ख़ुद कई राजनेताओं से मिलने वाले थे और पता नहीं कौन-कौन थे। आख़िरकार, दम्पति के लिए वह समय बेहद और तनाव वाला था। उस समय बड़ा सियासी तूफ़ान खड़ा हो गया; क्योंकि दिलीप कुमार ने पाकिस्तान सरकार की ओर से सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ को वापस करने से इन्कार कर दिया था।
दिलीप कुमार साहब ने तब कुछ देर बात की थी और यह भी कहा था कि शायद हम इसी हफ़्ते बाद में औपचारिक मुलाक़ात के लिए मिल सकते हैं। साथ ही उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि सायरा बानो उनकी ओर से एक साक्षात्कार देंगी…। यह सब कहकर, वह सायरा बानो और कई अन्य लोगों के साथ लॉबी से बाहर निकले, जो आसपास जमा हुए थे। शायद उस रोज़ शाम में उनकी कई नेताओं के साथ मुलाक़ात होनी थी। बाद में मैंने एक राष्ट्रीय अख़बार के लिए सायरा बानो का साक्षात्कार लिया था। मैंने उनसे पुरस्कार विवाद और उनकी प्रतिक्रियाओं के बारे में सवाल किये थे, जिनका मैं पूर्व के कॉलम में उल्लेख कर चुकी हूँ। मैंने उनसे इस अहम मुद्दे पर भी टिप्पणी जाननी चाही थी कि मुम्बई में कुछ दक्षिणपंथी सियासी दल 1992-1993 के मुंबई दंगों के बाद उनके द्वारा किये गये समाज-सेवा कार्यों से ख़ुश नहीं थे और शायद इसी वजह से वे निशाने पर आ गये?
इस पर सायरा बानो ने कहा था कि पूरा मुद्दा साम्प्रदायिकता से भरा है; लेकिन यहाँ मैं यह जोडऩा चाहती हूँ कि हम तमाम समुदायों के सभी लोगों के लिए समाज सेवा करते हैं और जो भी ज़रूरतमंद है, उस तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं और ऐसा बहुत पहले से करते आ रहे हैं। क़रीबी दोस्तों का समूह, जिसमें विभिन्न समुदायों के लोग हैं; उनमें से अधिकतर दोस्त हिन्दू हैं। हम बिल्कुल भी हाई प्रोफाइल नहीं हैं। लेकिन शान्त तरीक़े से सेवा करने की कोशिश करते हैं। जो हो रहा है, उससे मैं बहुत परेशान हूँ। उन दंगों को देखना एक बुरा सपना था और बढ़ते फासीवाद और साम्प्रदायिकता ने मुझे आहत किया है; मेरे दिल को चकनाचूर कर दिया। मुझे ऐसा दु:ख होता है, जैसे मेरा सपना टूट गया हो, मेरा शीशा टूट गया हो। हम आशा करते हैं कि आपसी सौहार्द बना रहे, यह बढ़ती साम्प्रदायिकता और फासीवाद नियंत्रित हो, ताकि हम सभी अमन से और मिलजुलकर रह सकें।
मैंने उनसे यह सवाल भी किया कि संकट के समय फ़िल्मी सितारे एक साथ खड़े होते हैं; लेकिन जिस संकट का आप और आपके पति सामना कर रहे थे, इस पर अधिकांश फ़िल्मी सितारों ने किसी-न-किसी तरह की चुप्पी साध रखी है। इस पर उन्होंने कहा कि मैं यही कहना चाह रही थी। मुझे बताओ कि क्या वे किसी के साथ खड़े हुए हैं? आजकल कोई खड़ा नहीं होता। यहाँ तक कि जब संजू (संजय दत्त) को परेशान किया जा रहा था, तो उनके लिए बोलने वाले केवल दो लोग- शत्रुघ्न सिन्हा और मेरे पति थे। यहाँ तक कि जब फ़िल्म आग चल रही थी, तब भी मेरे पति ने बात की थी। इससे हटकर मैंने उनसे सवाल किया कि दिलीप कुमार से आपकी शादी को वर्षों हो गये हैं। आप उसका वर्णन किस तरह करेंगी? उन्होंने बड़ी सहजता से कहा कि वह सम्मानित व्यक्ति हैं और सम्मानित व्यक्ति का सम्मान किया जाना ज़रूरी है।

 

हमारे क़ैदियों के साथ क्या हो रहा है?


फादर स्टैन स्वामी के निधन की ख़बर आने के साथ ही उदासी और बेचैनी महसूस होने लगी, साथ ही व्यवस्था पर भी सवाल उठना लाज़िमी है। 84 साल के बीमार पादरी को भी नहीं बख़्शा! व्यवस्था की निर्ममता कभी भी इतनी बेरहमी से मार सकती है? दरअसल, फादर स्टैन स्वामी को भीमा कोरेगाँव मामले में आरोपी बनाकर जेल में डाल दिया गया और उन पर आतंकी वाली धाराएँ लगा दीं। जेल जाने के बाद से उनकी तबीयत ख़राब हो गयी, फिर भी उन्हें जमानत नहीं मिली। क्यों?
आश्चर्य है कि मामले के सभी सह-अभियुक्तों के साथ कैसा सुलूक हो रहा है। ख़ास बात यह है कि इनमें से कोई भी युवा नहीं है, न ही अच्छी सेहत वाले हैं। स्वास्थ्य की हालत ख़राब होने के साथ ही पिछले कई महीनों से जेल में हैं। क्या वे इस हालात में जेल में ज़िन्दा बचेंग़े? जीवित और अक्षुण्ण रहें, और कब तक? अगर वह नहीं रहे, तो कौन जवाबदेह होगा? क्या उनकी मौत के लिए सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा? इन पुरुषों और महिलाओं को क़ैदी क्यों बनाया जाता है? जबकि उनसे बिना बेडिय़ों के भी पूछताछ
की जा सकती है। क्या शासन करने वाले जवाबदेह होंगे?
दरअसल मैं पिछले कुछ समय से क़ैदियों के हालात पर नयी किताब पढ़ रही हूँ। इस किताब का शीर्षक ही है- ‘बेगुनाह क़ैदी’ (इनोसेंट प्रिजनर्स)। 7/11 ट्रेन धमाकों और अन्य आतंकवादी मामलों (फेरोस मीडिया) में मुस्लिम युवाओं को झूठा फँसाने की कहानियाँ हैं। इसमें फँसाये और क़ैदी बनाये गये लोगों की सच से भरी कड़वी कथाएँ हैं। इस किताब को पूर्व क़ैदियों में से एक अब्दुल वाहिद शेख़ ने लिखा है, जिन्हें ख़ुद 11 जुलाई, 2006 मुम्बई ट्रेन बम विस्फोट मामले में फँसाया गया था। उन्हें नौ साल जेल में बिताने पड़े, तब जाकर अदालत से निर्दोष साबित हुए और बाइज़्जत बरी किये गये। और इस पुस्तक में उन्होंने जेल में और अपने साथी क़ैदियों के अनुभवों को पुलिस और जाँच एजेंसियों और जेल कर्मचारियों के सुलूक के बारे में हालात बयाँ किये हैं। 500 पेज की यह किताब तथ्यों से भरी है, साथ ही इसमें विशिष्ट तिथियों, नामों और विशेष उदाहरणों के साथ उल्लेख है।
यह स्कूल के एक पूर्व शिक्षक की कहानी है, जो मुम्बई के एक स्कूल में पढ़ा रहे थे। वह जेल के जीवन और उसके बाद की जेल की जानकारी को लिखते रहे और फिर उसे शब्दों में उकेर दिया है। वास्तव में एक फ़िल्म निर्माता के बारे में कहा जाता है कि वह इस आदमी के धैर्य से इतना प्रभावित हुआ कि अब्दुल वाहिद शेख़ के जीवन और समय पर एक फीचर फ़िल्म पूरी की जा रही है। आख़िरकार इस पूर्व क़ैदी के पास बताने और पेश करने के लिए बेहद स्पष्ट वर्णन है। इस पुस्तक की प्रस्तावना से उद्धृत करने के लिए निर्दोष होने के बावजूद जब हमें 7/11 विस्फोट मामले में गिरफ़्तार किया गया था, तो कई दिनों तक हमें समझ में नहीं आया कि वास्तव में हमारे साथ क्या हो रहा था। हमें लगा कि पुलिस ने हमें ग़लती से गिरफ़्तार कर लिया है और जल्द ही हमें रिहा कर देगी। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गये, हमारी उम्मीदें धूमिल होने लगीं।
इस पुस्तक के पहले अध्याय के पहले पैराग्राफ से शुरुआती पंक्तियों की बात करें, तो उसमें लिखा है कि हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि राजनीतिक आकाओं ने हमेशा निहित स्वार्थ के लिए पुलिस का इस्तेमाल किया है। दुर्भाग्य से पुलिस इतनी अनियंत्रित रूप से मज़बूत हो गयी है कि आज वह पूरी तरह से निर्विवाद हो गयी है। राष्ट्र व्यावहारिक रूप से एक पुलिस राज्य बन गया है…। राज्य का आतंकवाद कैसे समाप्त होगा? यह कब समाप्त होगा? इस पर गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है। जब तक हम राजकीय आतंकवाद को समाप्त करने के बारे में नहीं सोचते, वास्तविक शान्ति और प्रगति केवल एक सपना ही रहेगी। सरकार जितनी जल्दी इसे समझ ले, देश के लिए उतना ही अच्छा है।

 

तलाक़ के ऐलान में परिपक्वता

मैं बॉलीवुड के आमिर ख़ान के अभिनय कौशल की प्रशंसक नहीं हूँ। लेकिन मुझे कहना होगा कि जिस तरह से उसने अपने तलाक़ की घोषणा की थी, उसने मुझे क़ायल किया। इसमें परिपक्वता की भावना थी। मानो कुछ भी सनसनीखेज़ या दिल तोडऩे वाला नहीं हो रहा हो। लेकिन जीवन के लिए उन वास्तविकताओं में से एक है। शुक्र है कि वह तलाक़ के कारणों पर और न ही आगे क्या होगा? इस पर ध्यान देना ही नहीं चाहते।
देश में बड़ी संख्या में भारतीय जोड़ों में अलगाव की स्थितियाँ बन रही हैं। कम-से-कम आमिर ख़ान ने उस माहौल से अलग होने का सबके सामने आकर बताने का साहस किया। मेरा विश्वास करें कि कुछ भारतीय पुरुष और महिलाएँ ऐसा करने की हिम्मत नहीं करेंगे, चाहे शादी के बाद हालात कितने ही ख़राब क्यों न हो जाएँ। सच में मुझे बहुत-से विवाहित जोड़ों के साथ अपनी बातचीत याद आ रही है, जिन्होंने मुझे बताया कि अगर ऐसा किया, तो वह कितनी अकेली हो जाएँगी! मैं चकित रह गयी और तक़रीबन चिल्लायी…, लेकिन तुम सब शादीशुदा हो!
उनकी भी यही प्रतिक्रिया मिली कि यह सब एक बहाना है। जीवनसाथी कभी नहीं होता है और अगर वह है भी, तो हम एक-दूसरे से बात नहीं करते हैं, न साथ खाते हैं और न ही बैठते हैं। हम अपने-अपने शयनकक्षों में खर्राटे मारकर सोते हैं। भले ही मेरा सिर माइग्रेन के दर्द से फटा क्यों न जा रहा हो, मेरी तड़प और पुकार कोई सुनने वाला नहीं है। घर में तनाव की अंतर्धारा मुझे खाये जा रही है, जिससे मैं बीमार होती जा रही हूँ।
मैरिज काउंसलर ने इस तथ्य पर ध्यान केंद्रित किया कि जोड़े दु:खी विवाह में अकेले और उदास बैठे रहते हैं। एक मैरिज काउंसलर बताते हैं कि अक्सर 60 और 50 के दशक में महिलाएँ और पुरुष, दोनों मुझसे मिलने आते हैं। वे अवसाद की बात करके शुरू करते हैं; लेकिन जल्द ही वे दु:खी वैवाहिक जीवन की दास्ताँ बताना शुरू कर देते हैं। इसमें वे बताते हैं कि वे फँस गये हैं। इस मक़ाम पर आने के बाद कई सारी बीमारियों से जूझना पड़ता है। एक परामर्शदाता के रूप में मैं लोगों के लिए उपलब्ध विकल्पों को देखता हूँ। जो लोग एक दु:खी विवाह को समाप्त करने का निर्णय लेते हैं, वे तनाव के साथ तर्क सामने रखते हैं। अगर मैं इतने वर्षों में जब इस शादी से इतना दु:ख झेल चुका हूँ, तो अब मरते दम तक इसी तरह चलता रहेगा। लेकिन अगर मैं इसे ख़त्म कर दूँ, तो किसी-न-किसी स्तर पर कुछ ख़ुशी पाने का कुछ मौक़ा ज़रूर मिल सकता है; भले ही वह कम समय का क्यों न हो। व्यक्ति की उम्र जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, उसके लिए शादी से बाहर निकलना उतना ही मुश्किल होता जाता है। इसके अलग-अलग कारण होते हैं। यहाँ तक कि अगर वे जानते हैं कि दु:खी वैवाहिक जीवन से छुटकारा पाना बेहतर होगा, तो वे अपने भाग्य को क़ूसूरवार मानते हैं।
इस विषय पर एक अन्य तथाकथित विशेषज्ञ ने कहा कि ऐसी शादी जिसमें लोग फँस जाते हैं, आज की सच्चाई है। इसके लिए दो प्रमुख कारक काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं। एक, महिलाओं के व्यवहार में बदलाव आया और अधिक मुखर हो गयी हैं, जबकि पुरुष समय के साथ आगे नहीं बढ़ पाया है। दूसरा, धैर्य और संवाद करने की इच्छा तेज़ी से कम हो रही है और विवाहेतर सम्बन्ध जैसे आउटलेट उपलब्ध हैं। इसके अलावा लोग परामर्श का विकल्प नहीं चुनते हैं। तलाक़ की अर्ज़ी दाख़िल करने के महज़ एक दिन पहले वे हमारे पास राय लेने के लिए आते हैं।
एक अन्य मैरिज काउंसलर कहते हैं कि आप जो देख रहे हैं, वह केवल बर्फ़ के पहाड़ का एक सिरा है, जबकि शादीशुदा ज़िन्दगी में दु:खी लोगों की तादाद कहीं ज़्यादा है। कोई छोड़कर चला जा रहा है, तो कोई शादी से इतर के रिश्तों का सहारा ले रहा है…; कुछ-न-कुछ ग़लत ज़रूर हो रहा है। इससे पति-पत्नी के रिश्ते प्रभावित हो रहे हैं। क्या बात है कि पति-पत्नी साथ में नहीं बैठते? कभी-कभार ही बात करते हैं और साथ बाहर जाते हैं। ज़ाहिर है कि शादी में बहुत अकेलापन होता है। यहाँ तक कि 80 की उम्र में भी लोग बेहद अकेलेपन की बात करते हैं। पुरुष न केवल भावनात्मक सहयोग के लिए, बल्कि अपनी शारीरिक ज़रूरतों के लिए भी एक साथी की तलाश में रहते हैं। हमें 80 साल की उम्र वाले पुरुषों से बहुत सारे पत्र मिले, जिनमें हमें भावनात्मक सहयोग और एक साथी की ज़रूरत के बारे में लिखा मिला।

टोक्यो ओलंपिक भारत को कई पदकों की उम्मीद

टोक्यो ओलंपिक खेल बिना दर्शकों के आयोजित होने को तैयार हैं। 2020 में होने वाले इन खेलों को कोरोना वायरस के कारण एक साल के लिए स्थगित कर दिया गया था। अब भी इस महामारी के कारण ये खेल ख़ाली स्टेडियम में होंगे। यह फै़सला जापान के प्रधानमंत्री योशिदे सुगा ने आईओए के पदाधिकारियों के साथ बातचीत के बाद लिया। अब खिलाड़ी बिना तालियों की आवाज़ सुने खेलेंगे।

भारत की स्थिति
अब तक के सभी ओलंपिक खेलों को मिलाकर भारत ने 28 पदक जीते हैं। इनमें नौ स्वर्ण (गोल्ड), सात रजत (सिल्वर) और 12 कांस्य (ब्रेंज) हैं। इनमें से भी 11 पदक अकेले हॉकी में जीते हैं। इनमें आठ स्वर्ण, एक रजत और दो कांस्य के हैं। हॉकी के अलावा सोने का एक पदक अभिनव बिंद्रा ने 2008 के बीजिंग ओलंपिक में निशानेबाज़ी में हासिल किया। इस प्रकार देश को निशानेबाज़ी, कुश्ती, तीरंदाज़ी, मुक्केबाज़ी, बैडमिंटन, टेनिस, और भारोत्तोलन में भी पदक मिले। भारत का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2012 के ओलंपिक खेल रहे, जहाँ उसने छ: पदक हासिल किये थे। देश की उम्मीद इससे कहीं ज़्यादा है। इस बार दिल्ली सरकार की यह घोषणा कि टोक्यो ओलंपिक में स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक जीतने वाले दिल्ली के खिलाडिय़ों को वह क्रमश: तीन करोड़, दो करोड़ और एक करोड़ रुपये से सम्मानित करेगी, खेल और खिलाडिय़ों के प्रोत्साहन के लिए सराहनीय है।
देश को निशानेबाज़ी, तीरंदाज़ी, कुश्ती, मुक्केबाज़ी, भारोत्तोलन और बैडमिंटन से पदकों की उम्मीद है। यदि क़िस्मत ने साथ दिया, तो एक-दो पदक एथलेटिक्स (खेल-कूद) में भी आ सकते हैं। सबसे पहले बात निशानेबाज़ी की। भारत के 15 निशानेबाज़ मैदान में हैं। ये महिला और पुरुष खिलाड़ी आठ स्पर्धाओं में भाग लेंगे। इनमें 10 मीटर एयर राइफल महिला वर्ग में अंजुम मोदगिल और अपूर्वी चंदेला, 10 मीटर एयर पिस्टल महिला वर्ग में मनु भाकर और यशस्विनी सिंह देसवाल, 25 मीटर एयर पिस्टल महिला वर्ग में राही सरनोबत और इलावेनिल वालारिवान और 50 मीटर राइफल थ्री पोजिशन (महिला) में तेजस्विनी सावंत हिस्सा लेंगी।
इस तरह सात महिलाएँ पदकों पर निशाना साधने का प्रयास करेंगी। पुरुष वर्ग में दिव्यांश सिंह पंवार और दीपक कुमार 10 मीटर एयर रायफल स्पर्धा में, संजीव राजपूत और ऐश्वर्य प्रताप सिंह तोमर 50 मीटर राइफल थ्री पोजिशन में और अंगद वीर सिंह बाजवा और मेराज अहमद ख़ान स्कीट मुक़ाबलों में हिस्सा लेंगे। इस तरह आठ पुरुष खिलाड़ी अपना निशाना आजमाएँगे।

तीरंदाज़ी : देश के लिए तीरंदाज़ी में भी पदकों की उम्मीद है। यह उम्मीद पूरी तरह ग़लत भी नहीं है। जिस तरह पिछले दोनों दीपिका कुमारी ने विश्व चैम्पियनशिप तीन गोल्ड मेडल जीते हैं, उससे उम्मीद बँधती है। इसके अलावा अतानु दास, तरुणदीप राय और प्रवीण जाधव ने जो प्रदर्शन इन दिनों किया है, वह भी पदक की उम्मीद जगाता है। इस स्पर्धा में भारत के केवल चार खिलाड़ी हैं, जिनमें एक महिला है।

कुश्ती : कुश्ती भारत का सबसे पुराना खेल है। इसी खेल में देश ने सन् 1952 हेलसिंकी ओलंपिक में पहला व्यक्तिगत कांस्य पदक जीता था। यह कांस्य पदक के.डी. जाधव ने भारत को दिलाया था। इसके बाद सुशील कुमार ने भी एक रजत और एक कांस्य पदक कुश्ती में जीता और एक कांस्य पदक साक्षी मलिक भी जीतकर ला चुकी हैं।
इस तरह अब तक भारत कुश्ती में कुल चार ओलंपिक पदक जीत चुका है। लेकिन अभी भारत को इस खेल में स्वर्ण पदक की तलाश है।
इस बार सात पहलवान देश के लिए पदक जीतने का प्रयास करेंगे। इनमे चार महिलाएँ- सीमा बिस्ला (50 किलोग्राम भार वर्ग), विनेश फोगाट (53 किलोग्राम भार वर्ग), अंशु मलिक (57 किलोग्राम भार वर्ग) और सोनम मलिक (62 किलोग्राम भार वर्ग) होंगी। हालाँकि ये सभी पदक जीत सकती हैं; पर देश की निगाहें अनुभवी विनेश फोगाट पर होंगी। पुरुष वर्ग में पदक जीतने की ज़िम्मेदारी रवि कुमार दहिया (57 किलोग्राम भार वर्ग), बजरंग पूनिया (65 किलोग्राम भार वर्ग) और दीपक पूनिया (86 किलोग्राम भार वर्ग) पर रहेगी।

मुक्केबाज़ी : इस स्पर्धा में देश को पदकों की पूरी उम्मीद है। विजेंद्र ने मुक्केबाज़ी में देश को पहला पदक दिलाया था। 24 जुलाई से शुरू हो रही मुक्केबाज़ी प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक की सबसे बड़ी उम्मीद छ: बार की विश्व विजेता, एशियाई खेलों में दो गोल्ड मेडल जीतने वाली, राष्ट्रमंडल खेलों की चैंपियन और पाँच एशियाई चैम्पियनशिप जीतने वाली 38 साल की मैरीकॉम पर रहेंगी। यह शायद उनका अन्तिम ओलंपिक हो। इसे वह हर तरह से यादगार बनाना चाहेंगी। उनके अलावा लवलीना बोरगोहेन (69 किलोग्राम भार वर्ग) दो बार विश्व चैंपियन रह चुकी हैं। वह भी पदक की दावेदार हैं। 75 किलोग्राम भार वर्ग में पूजा रानी ने इस साल एशियाई चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीता है। वह भी पदक पर अपना दावा पुख़्ता कर रही हैं। इसके बाद 60 किलोग्राम भार वर्ग में सिमरनजीत कौर भी कमज़ोर नहीं हैं। इन सभी से पदक की उम्मीद है।
पुरुष वर्ग में अमित पंघाल का 52 किलोग्राम भार वर्ग में दावा बहुत पक्का है। वह एशियाई खेलों के चैंपियन हैं और विश्व चैंपियनशिप व राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक जीत चुके हैं। उनके साथ विकास कृष्ण (69 किलोग्राम भार वर्ग) भी विश्व चैंपियनशिप में पदक जीत चुके हैं। 75 किलोग्राम भार वर्ग में 24 साल के युवा मुक्केबाज़ आशीष कुमार एशियाई खेलों में दो पदक जीत चुके हैं। इनके साथ सतीश कुमार (91 किलोग्राम भार वर्ग), और मनीष कौशिक (63 किलोग्राम भार वर्ग) से भी पदकों की उम्मीद है।

भारोत्तोलन : इसी स्पर्धा में कर्णम मल्लेश्वरी ने देश को पदक दिलाया था। इस बार टोक्यो में एक मात्र खिलाड़ी मीराबाई चानू होंगी। 300 किलोग्राम से ऊपर का कुल भार (वज़न) उठाने वाली चानू से पदक की उम्मीद की जा सकती है।

बैडमिंटन : बैडमिंटन में इस बार भारत के चार खिलाड़ी भाग ले रहे हैं। इनमें विश्व चैंपियन और रियो ओलंपिक खेलों की रजत पदक विजेता पी.वी. सिंधु, बी. साई प्रणीत, सात्विकसैराज रंकीरेड्डी और चिराग शेट्टी शामिल हैं। इनमें से पदक की आस केवल सिंधु से की जा सकती है।

एथलेटिक्स (खेलकूद) : एथलेटिक्स को खेलों की रानी कहा जाता है। पर ओलंपिक खेलों के 125 साल के इतिहास में यदि सन् 1900 के पेरिस ओलंपिक को छोड़ दें, जहाँ एक अंग्रेज नॉर्मन प्रिचर्ड ने भारत की ओर से भाग लेकर 200 मीटर और 200 मीटर बाधा दौड़ में रजत पदक जीते; आज तक कोई भारतीय कभी भी पदक नहीं जीत पाया। भारत की ओर से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन बस चौथा स्थान रहा। रोम (1960) में मिल्खा सिंह 400 मीटर की दौड़ में और लॉस एंजिल्स (1984) में पी.टी. उषा 400 मीटर बाधा दौड़ में चौथे स्थान पर रहे। गुरबचन सिंह रंधावा टोक्यो (1964) की 110 मीटर बाधा दौड़ और अंजू बॉबी जॉर्ज एथेंस (2004) की लम्बी कूद में पाँचवें स्थान पर रहे। श्रीराम सिंह को मॉन्ट्रियल (1976) की 800 मीटर दौड़ में सातवाँ स्थान मिला। भारत को आज तक एथलेटिक्स में पहले पदक की तलाश है।
इस बार भाला (जैवलिन) में देश नीरज चोपड़ा और शिवपाल सिंह से पदक की आस है। यदि इन दोनों के प्रदर्शन पर नज़र डालें, तो नीरज का सर्वश्रेष्ठ प्रयास 88.07 मीटर का और शिवपाल 86.23 मीटर का है। इस स्पर्धा का विश्व रिकॉर्ड जान ज़ेलेंज़्नी के नाम है। उन्होंने 98.48 मीटर की दूरी नापी थी। रियो में इस स्पर्धा के विजेता ने जर्मनी के थॉमस रोहलर ने 90.30 मीटर जैवलिन फेंका था। वहाँ तीसरा स्थान पाने वाले त्रिनिदाद एवं टोबैगो के केशोर्न वाल्कॉट ने 85.38 मीटर तक जैवलिन फेंका था। इससे ऐसा लगता है कि यदि भारतीय खिलाड़ी अपना प्रदर्शन कुछ सुधार गये, तो पदक की उम्मीद की जा सकती है।
गोला फेंक (शॉटपुट) में तेजिंदर तूर को भी 22 मीटर तक का फ़ासला बनाना होगा। अब तक वह 21.49 मीटर तक ही फेंक सके हैं। रियो में अमेरिका के रयान क्राउसर ने 22.52 मीटर की दूरी मापकर स्वर्ण पदक जीता था।
कमोबेश यही स्थिति महिला मण्डल की भी है। यहाँ भी कमलप्रीत कौर यदि अपने सर्वश्रेष्ठ प्रयास 66.59 मीटर को कम-से-कम दो मीटर और बढ़ाती हैं, तो पदक की उम्मीद बनती है। सीमा पूनिया का बेहतरीन प्रदर्शन 63.72 मीटर है। उनके लिए शायद छ: मीटर बढ़ाना सम्भव नहीं होगा। इसके अलावा महिला जैवलिन थ्रो, स्टीपलचेज, 20 किलोमीटर रेस वॉक में पदक आना एक चमत्कार ही होगा। महिलाओं में यदि प्रियंका गोस्वामी ने अपने सर्वश्रेष्ठ समय 1:28.45 घंटे में एक मिनट का भी सुधार कर लिया, तो पदक मिल सकता है। भावना जाट का भी बेहतरीन समय 1:29.54 घंटे का है। इस समय को वह सुधार लें, तो ही उनसे पदक की उम्मीद की जा सकती है। रियो ओलंपिक में चीन की लियू हांग ने 1:28.35 घंटे का समय लेकर स्वर्ण पदक जीता था। मेक्सिको की मारिया ग्वादालूपे गोंज़ालेज़ 1:28.37 घंटे के समय के साथ दूसरे स्थान पर थीं और चीन की लू ज़िउझी (1:28.42) तीसरे स्थान पर रहीं। जहाँ सात सेकेंड के अन्तर से पदकों का फ़ैसला होता है, वहाँ एक मिनट बहुत बड़ा अन्तर है।
देखना रोचक होगा कि भारत के खिलाड़ी इस चुनौती का सामना कैसे करते हैं?

क़ानून पर भारी आस्था

आज के आधुनिक युग में भी बहुत-से लोग बेटियों को अभिशाप अथवा बोझ मानते हैं। यही वजह है कि कहीं संकीर्ण मानसिकता के चलते, तो कहीं अन्धविश्वास के चलते भ्रूण हत्या का चलन देश भर में अब भी व्याप्त है। झारखण्ड के लोहरदगा ज़िले के खुखरा गाँव में पत्थरों के एक पहाड़ में आस्था रखने वाले लोग बेटा या बेटी के जन्म की जानकारी लेते हैं। इसे क़ानूनी तौर पर किसी भी रूप में उचित नहीं माना जा सकता। तहलका का मानना है कि लोगों की मानसिकता तब तक नहीं बदल सकती, जब तक उन्हें आडम्बरों से बाहर निकालकर पूर्णतया शिक्षित नहीं किया जाएगा। इसमें सबसे पहले धार्मिकता के नाम पर गोरखधन्धा करने वाले लोगों पर शिकंजा कसने की ज़रूरत है; चाहे वे किसी भी धर्म के हों। एक पहाड़ी के ज़रिये भ्रूण की पहचान के अन्धविश्वास और देश में हो रही कन्या भ्रूण हत्या पर प्रशांत झा की रिपोर्ट :-

‘आज भी माँ की आवाज़ कानों में गूँजती है। मुझे पेट में बच्चे को नहीं मारना है।’ यह वाक्य एक 21 वर्षीय युवती का है। पहचान उजागर नहीं करने की शर्त पर उसने अपने जीवन के 15 साल पहले की सच्चाई को बताया। उसकी माँ की मौत इसलिए हुई; क्योंकि उसकी कोख में दूसरी भी बेटी ही थी। वह कहती है- ‘नीम-हकीम के ज़रिये भ्रूण हत्या के चक्कर में माँ की मौत हो गयी। अगर पेट में बच्चे को मारने का प्रयास नहीं होता, तो शायद माँ भी बच जाती।’
लड़की की बात भले ही 15 साल पुरानी हो, लेकिन 21वीं सदी में भी भ्रूण हत्या एक चुनौती बनी हुई है। यही वजह है कि देश में प्रसव पूर्व ‘लिंग जाँच’ पर रोक लगा दी गयी है। प्रसव पूर्व लिंग जाँच क़ानूनन जुर्म है; लेकिन झारखण्ड में इस क़ानून पर आस्था भारी है। यह राज्य के लोहरदगा ज़िले में देखने को मिलता है, जहाँ आज भी वैज्ञानिक विधि से न सही, मगर आस्था के ज़रिये हर दिन प्रसव पूर्व लिंग जाँच हो रही है और शायद भ्रूण हत्याएँ भी।
हालाँकि इस तरह की जाँच के बाद भ्रूण हत्या को साबित किया जाना कठिन है; लेकिन जानकारों का कहना है कि प्रसव पूर्व लिंग जाँच ही भ्रूण हत्या की अगली सीढ़ी है। भले ही यह क़ानूनन अपराध क्यों न हो।

पहाड़ी में भ्रूण पहचान का विश्वास
झारखण्ड के लोहरदगा ज़िला स्थित खुखरा गाँव में एक पहाड़ी है, जो गर्भ में पल रहा बच्चा लड़का है या लड़की यह बताती है। इस क्षेत्र में बड़े-बड़े पत्थरों वाली यह पहाड़ी ‘चाँद पहाड़’ के नाम से काफ़ी प्रचलित है। यहाँ आसपास के लोगों के साथ-साथ अन्य जगहों से भी लोग लिंग जाँच के लिए पहुँच जाते हैं। स्थानीय लोगों का दावा है कि चमत्कारी पहाड़ी सच्चाई बताती है; इसलिए लोगों का इसमें विश्वास है। हालाँकि लिंग जाँच के बाद भ्रूण हत्या के बारे में स्थानीय लोगों का कहना है कि यहाँ लोग आस्था रखते हुए अपनी केवल उत्सुकता के कारण जाँच करते हैं। गाँव में भ्रूण हत्या का मामला तो सामने नहीं आया है, बाहर से आने वालों का पता नहीं।

पत्थर फेंककर की जाती है जाँच


स्थानीय लोगों का कहना है कि यह परम्परा यहाँ नागवंशी राजाओं के शासन-काल से चली आ रही है। यहाँ पहाड़ी लगभग 400 साल से लोगों को उनके भविष्य के सम्बन्ध में जानकारी दे रही है। इस चमत्कारी पहाड़ी पर स्थानीय निवासियों की अटूट श्रद्धा और विश्वास है। गर्भ में लिंग का पता करने के तरीक़े के बारे में लोगों का कहना है कि इस चमत्कारी पहाड़ी पर एक चाँद की तरह आकृति बनी हुई है, जो गर्भ में ‘लिंग’ के बारे में जानकारी देती है। गर्भवती महिला लिंग की जाँच करने के लिए एक निश्चित दूरी से पत्थर को इस पहाड़ी पर बने चाँद की ओर फेंका जाता है। यदि पत्थर चंद्रमा (आकृति) पर जाकर लगता है, तो गर्भ में लड़का है। अगर फेंका हुआ पत्थर चंद्रमा के बाहर लगे, तो मानते हैं कि गर्भ में लड़की है।

भ्रूण हत्या से कोई राज्य अछूता नहीं
भ्रूण हत्या से देश का कोई भी राज्य अछूता नहीं है। आज से ठीक दो साल पहले जुलाई, 2019 में उत्तरकाशी की एक सूचना ने पूरे देश में हड़कम्प मच गया था। वहाँ के 133 गाँवों में तीन महीने के दौरान 216 बच्चों को जन्म हुआ, जिनमें एक भी बेटी नहीं थी। इसी तरह रायपुर (छत्तीसगढ़) में पिछले महीने सड़क किनारे कन्या भ्रूण मिला था। जोधपुर (राजस्थान) के प्रतापनगर थाना क्षेत्र में कचरे में एक बच्ची का भ्रूण मिला था। यह दिखाता है कि देश के हर हिस्से में चोरी-छिपे कन्या भ्रूण हत्या जारी है। कुछ महीने पहले जर्नल प्लोस का एक शोध सामने आया था, जिसमें कहा गया है कि ‘सन् 2017 से 2030 के बीच भारत में 68 लाख बच्चियाँ जन्म नहीं ले सकेंगी; क्योंकि बेटे की लालसा में उन्हें जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाएगा।’ इसी तरह जनवरी में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की स्टेट ऑफ वल्र्ड पॉपुलेशन-2020 की रिपोर्ट में भारत में घटते लिंगानुपात की चर्चा की गयी है। रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रति 1,000 लड़कों के पीछे 943 लड़कियाँ हैं; जबकि कई प्रान्तों में यह आँकड़ा औसत से काफ़ी कम है।

जाँच केंद्रों की जाँच
झारखण्ड में भ्रूण हत्या से इन्कार नहीं किया जा सकता। पिछले ही दिनों बोकारो ज़िला के चास में एक निजी अस्पताल में भ्रूण हत्या का मामला सामने आया। पुलिस ने मामला भी दर्ज किया है। इसके अलावा कई अन्य मामले सामने आने के बाद सरकार ने ठोस क़दम उठाते हुए राज्य के सभी अल्ट्रा साउंड क्लीनिकों की जाँच करने का निर्देश दिया है। इसके लिए हर ज़िले में नोडल पदाधिकारी बनाये गये हैं। टीम यह जाँच करेगी कि पीसी एंड पीएनडीटी एक्ट का अनुपालन हो रहा है या नहीं। अल्ट्रासाउंड क्लीनिक एक्ट के प्रावधानों के अनुसार काम कर रहा है या नहीं। टीम सभी बिन्दुओं पर जाँच कर सरकार को रिपोर्ट सौंपेगी। इसके अलावा सरकार ने कुछ दिन पहले ही ‘गरिमा झारखण्ड’ के नाम से एक पोर्टल भी लॉन्च किया है। जहाँ लिंग परीक्षण से सम्बन्धित जानकारी, अस्पतालों का पंजीकरण और शिकायत की सुविधा उपलब्ध करायी गयी है।

आस्था पर अंकुश लगाना चुनौती
झारखण्ड में जन्म के समय लड़के और लड़कियों का लिंगानुपात लगातार गड़बड़ा रहा। राज्य में 1991 में प्रति हज़ार 979 लड़कियाँ थीं; जो 2001 में घटकर 966 और 2011 में 948 रह गयीं। इसके बाद आधिकारिक गणना रिपोर्ट तो नहीं आयी है, लेकिन 2016 में प्रति हज़ार 919 के आँकड़े का आकलन किया गया है। राज्य में
856 अल्ट्रासाउंड और सोनोग्राफी क्लीनिक पंजीकृत हैं, जिनमें से 825 संचालित हैं। लिंग जाँच के वैज्ञानिक परीक्षण पर सरकार की नज़र में है; लेकिन आस्था के ज़रिये परीक्षण पर रोक लगाना एक चुनौती है। जिसका नमूना राज्य के लोहरदगा में प्रसव पूर्व जानकारी लेने के लिए पहाड़ी का सहारा है। यहाँ राज्य के विभिन्न हिस्सों से हर दिन अभी भी लोग गर्भ में पल रहे बच्चे की लिंग जाँच करने पहुँचते हैं।

मानसिकता बदलने की ज़रूरत
जानकारों का कहना है कि भ्रूण हत्या तो बाद की बात है, प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण क़ानूनन अपराध है। भ्रूण हत्या या लिंग जाँच कराने वाले और करने वालों के लिए सज़ा और ज़र्माने का प्रावधान है। समाजशास्त्रियों का कहना है कि क़ानून के ज़रिये प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण को पूरी तरह रोक पाना सम्भव नहीं है। आज भी लोग बेटियों की जगह बेटों को तरजीह देते हैं, जिसके पीछे की मानसिकता यह है कि बेटों से वंश चलता है; जबकि बेटियाँ पराया धन होती हैं। यही कारण है कि लिंग जाँच के लिए पहाड़ी पर पत्थर फेंकने जैसा अन्धविश्वास लोगों की आस्था का विषय बना हुआ है। इसे बदलने के लिए लोगों की मानसिकता बदलनी ज़रूरी है।

 


“राज्य में लिंग परीक्षण और भ्रूण हत्या को रोकने के लिए मैं कटिबद्ध हूँ। पिछले सप्ताह ही बैठककर अधिकारियों को आवश्यक निर्देश दिया। अधिकारियों को अल्ट्रासाउंड और सोनोग्राफी क्लीनिकों की जाँच करने और क़ानून के तहत सख़्त क़दम उठाने के निर्देश दिया गया है। राज्य में लिंगानुपात सुधर रहा है। अभी जो अनुमानित अनुपात सामने आ रहा है, उसके अनुसार 1000 लड़कों पर 991 लड़कियाँ हो गयी हैं। लोहरदगा मे लिंग जाँच सम्बन्धित मान्यता वाली पहाड़ी (चाँद पहाड़) के बारे में मुझे जानकारी नहीं है। इसकी मैं जानकारी ज़रूर लूँगा। हालाँकि इस तरह की बातों के लिए क़ानून से अधिक जागरूकता की ज़रूरत है। राज्य में लिंग जाँच और भ्रूण हत्या को लेकर जागरूकता अभियान भी तेज़ करने की योजना बनायी गयी है। हर तरह से इस पर रोक लगाने के लिए कटिबद्ध हूँ।”
बन्ना गुप्ता
स्वास्थ्य मंत्री, झारखण्ड

 

“लोहरदगा का यह क्षेत्र काफ़ी पुराना है। यहाँ स्थित मंदिर, पहाड़ी आदि पर लोगों का अटूट विश्वास है। इस जगह के राजा को अकबर के समकालीन माना जाता है। एएसआई ने खुदाई भी करायी थी। यहाँ मंदिर, हवन कुण्ड आदि कई चीज़ें हैं। मंदिर खण्डित है। मंदिर में पूजा-अर्चना करने दूर-दराज़ से भी लोग आते हैं। यहाँ कई पहाडिय़ाँ हैं। इनमें से एक में चाँद और एक डुगडुगी पहाड़ी भी है। डुगडुगी पहाड़ी में एक छोटी-सी गुफा है। यहाँ घुसने पर शादियों में बजने वाले ढोल नगाड़े की आवाज़ सुनायी पड़ती है। चाँद पहाड़ी पेट में पल रहे बच्चे के की जानकारी देने के लिए प्रचारित है। कुछ लोग उत्सुकतावश चाँद पहाड़ी पर पत्थर फेंककर पेट में पल रहे बेटे या बेटी की जानकारी लेते हैं। यह आस्था से जुड़ा है। गाँव में कभी भ्रूण हत्या का मामला तो सुना नहीं है।”
कृष्ण बल्लभ मिश्र
मंदिर पुरोहित (स्थानीय निवासी), लोहरदगा

 

“लोहरदगा क्षेत्र पहाडिय़ों और मंदिर पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। यहाँ सैलानियों का आना-जाना लगा रहता है। चाँद पहाड़ी के बारे में जो जानते हैं, वह यहाँ आने पर एक बार ज़रूर इसकी ओर आकर्षित होते हैं। बाहर से आने वाले लोग पहाड़ी पर पत्थर फेंककर लड़के या लड़की होने के बारे में जानते हुए देखे जाते हैं। जाँच करने के बाद क्या करते हैं? यह कहना मुश्किल है। यह सही है कि प्रसव पूर्व लिंग जाँच क़ानूनन अपराध है। इस बात को दावे के साथ इन्कार नहीं किया जा सकता है कि यहाँ आने वाले पत्थर फेंककर जाँच करने के बाद भ्रूण हत्या नहीं करवाते हों। यह उनके आस्था, विश्वास और मानसिकता पर निर्भर करता है। हालाँकि गाँव में ऐसी घटना सामने नहीं आयी है।”
संजय शाहदेव
स्थानीय निवासी, लोहरदगा

 

“यह सही है कि खुखरा गाँव में मंदिर और पहाड़ी है। पर्यटक यहाँ जाते हैं। किसी ऐसे पहाड़ (चाँद पहाड़) की जानकारी मुझे नहीं है। इसलिए लड़की या लड़का जाँच के लिए पहाड़ी पर पत्थर फेंके जाने सम्बन्धित जानकारी नहीं है। मैंने एसडीओ व अन्य अधिकारियों को इस बारे में जानकारी लेने का निर्देश दिया है। उनसे दो-तीन दिन में जानकारी मिलने के बाद ही कुछ बताने की स्थिति में रहूँगा। आप तीन-चार दिन बाद बात करें।”
दिलीप कुमार टोप्पो
उपायुक्त, लोहरदगा

महामारी में साइबर ठगों के निशाने पर बेरोज़गार

कोरोना संक्रमण नामक इस महामारी ने केवल मौत ही नहीं दी, बल्कि चौतरफ़ा ख़ौफ़ भी पैदा किया है, जिसका शिकार हर वर्ग हुआ है। हालात ये हैं कि महामारी में बेरोज़गार हुए करोड़ों युवा और पहले से नौकरी की तलाश में करोड़ों बेरोज़गार युवा अब नौकरी के लिए इतने परेशान हैं कि कैसे भी नौकरी पाना चाहते हैं, जिसके चलते वे साइबर ठगी का शिकार हो रहे हैं।
अब तक हम देखते थे कि एक चपरासी पद पर नौकरी पाने के लिए लाखों युवा टूट पड़ते थे, जिसमें बीएड, पीएचडी, आईआईटियन तक होते थे। लेकिन अब कोरोना महामारी के दौर में लगे लॉकडाउन में यह तक देखने को मिला कि इसी तरह उच्च शिक्षा प्राप्त युवा मनरेगा में मज़दूरी तक कर रहे हैं। यही वजह है कि कोरोना महामारी के दौर में नौकरी पाने की लालसा इतनी बढ़ी है कि उन्हें साइबर ठगों की साज़िश का पता ही नहीं चल पा रहा है और वे लगातार ऐसे बेरोज़गार युवाओं को ठगी का शिकार बनाते जा रहे हैं।
देश का गृह मंत्रालय भी बेरोज़गारों से साइबर ठगी का संकेत दे रहा है। हाल ही में जारी गृह मंत्रालय द्वारा एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बेरोज़गार युवा नौकरी देने के लिए मिल रहे मैसेज, ईमेल और फोन कॉल्स पर आँख बन्द करके भरोसा न करें, बल्कि उसकी ठीक से पड़ताल कर लें। इन दिनों भारत समेत पूरी दुनिया में कोरोना महामारी ने पैर पसार रखे हैं, जिसकी आड़ में इंटरनेट की दुनिया के साइबर ठगों ने अपना जाल बिछा रखा है। इस ठगी के जाल में एक जाल है- लोगों का डेटा चुराना और दूसरा है- बेरोज़गारों को ठगी का शिकार बनाना। यह हमारे देश की विडम्बना है कि यहाँ बेरोज़गार बहुत जल्दी ठगी का शिकार होते हैं। इन बेरोज़गारों को कोई सरकारी नौकरी के नाम पर, तो कोई विदेश में नौकरी के नाम पर ठग लेता है। कोई अच्छी नौकरी के नाम पर, तो कोई घर बैठे नौकरी के नाम पर ठग लेता है।
आपने बड़े शहरों में बसों और दूसरे सार्वजनिक वाहनों में लोगों को दो तरह के पर्चे फेंकते अक्सर देखा होगा, इनमें एक होता है- तांत्रिक बाबाओं का और एक होता है- रोज़गार दिलाने का। शहरों की दीवारों पर भी इस तरह के इश्तिहारों की भरमार देखने को मिलती है, जिनमें लिखा होता है- ‘एक दिन में 500 से 3,000 रुपये तक कमाएँ। तुरन्त मिलें।’ और इसके बाद कुछ फोन नंबर लिखे होते हैं। एक पता लिखा होता है। इस तरह के इश्तिहारों के चक्कर में गाँव-देहात से आने वाले बेरोज़गार युवा-युवतियाँ बड़ी आसानी से आ जाते हैं और नौकरी के लिए चले जाते हैं, जहाँ उनसे शुल्क (फीस) के नाम पर ठगी कर ली जाती है और नौकरी नहीं मिलती। लेकिन यह ठगी का तरीक़ा पुराना हो चला है। आज ज़माना इंटरनेट का है, जहाँ साइबर ठग ईमेल, सन्देश, फोन कॉल्स, सोशल मीडिया के सहारे बेरोज़गारों को फँसाते हैं। यानी नौकरी का झाँसा देने वाले ठगों ने अपनी ठगी का धन्धा भी ऑनलाइन कर लिया है। महामारी में यह धन्धा तेज़ी फला-फूला है, इस बात की पुष्टि गृह मंत्रालय के हैंडल ‘साइबर दोस्त’ ने की है।
पिछले दिनों गृह मंत्रालय के हैंडल साइबर दोस्त ने अलर्ट जारी किया कि कोरोना महामारी के समय में ऑनलाइन इंटरव्यू (साक्षात्कार) के नाम पर बेरोज़गार युवाओं को ठगा जा रहा है। नौकरी के नाम पर ठगी करने वाले साइबर अपराधी बेरोज़गारों को ईमेल, व्हाट्स ऐप, फेसबुक और मैसेज के ज़रिये रोज़गार देने की गारंटी देते हैं और बाक़ायदा साक्षात्कार भी लेते हैं। इसके बाद नौकरी के बदले कुछ पैसों की माँग पंजीकरण शुल्क (रजिस्ट्रेशन फीस) और संसाधन शुल्क (प्रोसेसिंग फीस) आदि के नाम पर की जाती है, जो बेरोज़गार युवा अच्छी तनख़्वाह वाली नौकरी के चक्कर में दे देते हैं और बाद में पता चलता है कि उनके साथ ठगी हुई है। गृह मंत्रालय ने नौकरी के नाम पर की जा रही ठगी की लगातार शिकायतें आने के बाद इस पर संज्ञान लिया है। नौकरी के नाम पर साइबर ठगी की शिकायतें पुलिस के पास बड़ी संख्या में पहुँच रही हैं।


बता दें कि गृह मंत्रालय का आधिकारिक ट्विटर अकाउंट समय-समय पर अलर्ट करता रहता है कि आपके ईमेल या मैसेजिंग ऐप पर भेजे गये फ़र्ज़ी जॉब अप्वाइंटमेंट फीचर (नौकरी नियुक्ति वैशिष्ट्य) से सावधान रहें। जालसाज पंजीकरण या साक्षात्कार मूल्य (चार्ज) के नाम पर आपको ठग सकते हैं। नौकरियों के लिए आवेदन करने से पहले सभी वेबसाइट्स की प्रामाणिकता सत्यापित करें। इसके अलावा गृह मंत्रालय का हैंडल साइबर दोस्त यह भी बताता है कि साइबर अपराधी से किस प्रकार बचा जा सकता है। इसमें कहा गया है कि अगर आपको लगता है कि आपके साथ कुछ ग़लत हो रहा है, तो आप इसकी शिकायत पुलिस या साइबर दोस्त की वेबसाइट पर भी कर सकते हैं। हाल ही में सरकार की ओर से कहा गया है कि अपने यूपीआई पिन को किसी के साथ साझा न करें। आकर्षक विज्ञापन ऑफर पर क्लिक न करें। किसी अज्ञात स्रोत से प्राप्त किसी भी क्यूआर कोड को स्कैन न करें। साइबर जालसाज़ों ने कई वेबसाइट्स और सोशल मीडिया साइट्स बनाकर बेरोज़गारों से ठगी का जाल फैलाया हुआ है। इन साइट्स पर बड़ी-बड़ी कम्पनियों के नाम और लोगो लगाकर घर बैठे नौकरी, ऑनलाइन काम, देश और विदेशों में नौकरी देने के नाम पर युवाओं को फँसाकर ठगा जाता है। आजकल सबसे बड़ी ठगी सम्पर्क बाज़ारबाद (नेटवर्किंग मार्केटिंग) के नाम पर की जा रही है। दरअसल साइबर अपराधी नये-नये ज़रूरतमंदों को ऑनलाइन ढूँढते हैं। आजकल जैसे-जैसे तकनीक विकसित होती जा रही है, साइबर अपराधी ठगी के नये-नये तरीक़े निकालते जा रहे हैं। इसके अलावा साइबर अपराधी ऑनलाइन स्तर पर सोशल मीडिया पर यह नज़र रखते हैं कि आजकल बाज़ार में किस चीज़ की ज़्यादा माँग है। जैसे महामारी के संकटकाल में देश में बेरोज़गारों की संख्या सबसे ज़्यादा है, जिसके चलते हर रोज़ लाखों युवा नौकरी की तलाश करने के लिए सोशल मीडिया से लेकर कम्पनियों की साइट्स पर जाकर ऑनलाइन आवेदन करते हैं। इसी का फ़ायदा उठाते हुए साइबर ठग ऐसे लोगों की उनकी ज़रूरत, माँग को ध्यान में रखते हुए उनकी ईमेल आईडी, फोन नंबर, सोशल साइट्स आदि सर्च करके उन्हें नौकरी के लिए ईमेल, कॉल आदि करते हैं, सन्देश भेजते हैं, जिनमें उन्हें मोटी तनख़्वाह वाली बड़ी-बड़ी नौकरियों का लालच देकर अपने जाल में फँसा लेते हैं।
आम लोग सोचते हैं कि जब पुलिस है, क़ानून है, तो अपराधी पकड़े ही जाएँगे। लेकिन लोगों को शायद यह नहीं मालूम कि ऑनलाइन अपराधी बेहद शातिर और चालाक होते हैं और वे जल्दी व आसानी से नहीं पकड़े जाते। हालाँकि इस ठगी को रोकने के लिए सरकार ने साइबर पोर्टल्स भी बनाये हैं; लेकिन इस ठगी से पूरी तरह तभी बचा जा सकता है, जब लोग सचेत होंगे। अन्यथा ऑनलाइन नौकरी का खेल लॉटरी लगने के झाँसे जैसा साबित हो सकता है, जिसमें किसी भी ठगे गये व्यक्ति की आँख तभी खुलती है, जब वह ठगी का शिकार हो चुका होता है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि साइबर ठगों को किसी के बैंक खाते में सेंध लगाने के लिए किसी की जन्मतिथि का ठीक से पता होना ही काफ़ी होता है, जो कोई भी इंसान अपने बायोडाटा में ज़रूर डालता है। इसके अलावा साइबर अपराधी ऑनलाइन साक्षात्कार के नाम पर नौकरी पाने के इच्छुक व्यक्ति का आधार नंबर, पैन कार्ड नंबर, पता, फोन नंबर तो पहले से ही हासिल कर लेते हैं, जिसके बाद ठगी का काम और आसान हो जाता है। आजकल तक़रीबन हर युवा के हाथ में एंड्रायड फोन है, जिसमें कई ऐप ऐसे होते हैं, जो बहुत आकर्षक होते हैं। लोग इन्हें आसानी से डाउनलोड कर लेते हैं और ठगी के शिकार हो जाते हैं। मेरा मानना है कि युवाओं को, ख़ासतौर पर ग्रामीण युवाओं को इस तरह के ऐप्स से बचना चाहिए। बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या है। लेकिन समझने की बात यह है कि जब नौकरियाँ हैं ही नहीं, तो ऑनलाइन नौकरियों की भरमार कहाँ से पैदा हो गयी? इस एक बात को अगर युवा समझ लेंगे, तो वे ठगी का शिकार होने से आसानी से बच सकते हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर के
राजनीतिक संपादक हैं।)

ख़ूनी हाथ किसके हैं?

आप क्या सोचते हो? एक 84 वर्षीय पुजारी स्टैनिस्लॉस लॉर्डुस्वामी की हिरासत में मौत के लिए कौन ज़िम्मेदार है? वह, जिसने वनवासियों के अधिकारों के लिए काम किया और जो एक विचाराधीन क़ैदी था? या वे, जिन्होंने उसे सलाख़ों के पीछे रखा था? ध्यान रहे, फादर स्टेन स्वामी पार्किंसन के मरीज़ थे; लेकिन राष्ट्रीय जाँच एजेंसी ने दावा किया कि वह माओवादी थे और भीमा-कोरेगाँव मामले में एक प्रमुख साज़िशकर्ता थे। हालाँकि विडम्बना यह भी है कि एनआईए ने उनसे एक दिन के लिए भी हिरासत में पूछताछ की माँग नहीं की, जबकि उन्हें उसने 8 अक्टूबर, 2020 को 2018 की प्राथमिकी के आधार पर गिरफ़्तार किया था। उन्हें ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के प्रावधानों के तहत अंतरिम जमानत से वंचित कर दिया गया था। क्योंकि एनआईए अदालत ने अधिनियम के अध्याय-ढ्ढङ्क और ङ्कढ्ढ को जोड़ा, जो आतंकवादी गतिविधियों से सम्बन्धित है। लेकिन यहाँ एक पुजारी था; जिसने कभी कोई हथियार नहीं उठाया। उन पर आरोप है कि वह झारखण्ड के जंगलों में सक्रिय प्रतिबन्धित माओवादी संगठन के साथ नृत्य कर रहे थे। हालाँकि सभी स्रोतों में यही पाया गया कि वह आदिवासियों को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित करते थे। यहाँ बताना उचित होगा कि आदिवासी लोग सदियों से अपने मुख्य जीविका संसाधन जल, जंगल और ज़मीन के लिए सदियों से केंद्र तथा राज्य सरकारों के साथ-साथ उद्योगपतियों और दबंगों के प्रति संघर्षरत हैं।

पुजारी के मामले में सवाल यह उठता है कि अगर उनके ख़िलाफ़ सुबूत इतने मज़बूत थे, तो उनकी गिरफ़्तारी के बाद एनआईए ने इतने महीनों तक पूछताछ के लिए उन्हें रिमांड पर लेने की माँग क्यों नहीं की? हालाँकि यूएपीए क़ानून बिना किसी मुक़दमे के किसी भी राज्य / केंद्र शासित प्रदेश के किसी व्यक्ति को वर्षों तक हिरासत में रखने की अनुमति देता है। आँकड़ों से पता चलता है कि यूएपीए के तहत मुक़दमा चलाने वाले मामलों में से सिर्फ़ दो फ़ीसदी मामलों में ही आज तक सज़ा हो पायी है। लेकिन बिडम्बना है कि इस क़ानून के तहत आरोपी को बिना मुक़दमे के वर्षों तक जेल में बन्द किया जा सकता है। यहाँ विदेश मंत्रालय का कहना है कि सारी कार्रवाई पूरी तरह क़ानून के मुताबिक की गयी थी और फादर स्टेन को उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद एनआईए द्वारा गिरफ़्तार किया गया था। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् और अन्य अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने फादर स्टेन स्वामी की मृत्यु के आसपास की परिस्थितियों को ‘परेशान करने वाला’, ‘अक्षम्य’ और ‘विनाशकारी’ के रूप में चिह्नित किया है। भारत में 10 विपक्षी दलों के नेताओं ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखकर जेल में कार्यकर्ता के साथ कथित ‘अमानवीय व्यवहार’ करने के लिए ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की माँग की है।

कम-से-कम यह सुनिश्चित करने के लिए कि 05 जुलाई को हुई फादर स्टेन की मृत्यु व्यर्थ न जाए, विचाराधीन कै़दियों को जमानत देने से इन्कार करने और क़ानून में कुछ प्रावधानों के दुरुपयोग पर एक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय बहस शुरू हो सकती है। आख़िरकार यह कोई साधारण मौत नहीं है। स्टेन एक पुजारी थे और राज्य की हिरासत में उनकी मृत्यु हुई है। वास्तव में राज्य देश के क़ानून और संविधान के अधीन है। फादर स्टेन के अन्तिम संस्कार में उन्हें लाल वस्त्र पहनाया गया था, जो कैथेलिक समुदाय में शहादत का प्रतीक है। समय आ गया है कि न्यायपालिका को सन्देह के घेरे में आने वाली इस मौत में अधिकारियों की भूमिका पर स्वत: संज्ञान लेना चाहिए। और राज्य सरकार भी कम-से-कम यह तो कर ही सकती है कि फादर स्टेन स्वामी की विरासत को दोष देने के बजाय उन्हें मरणोपरांत एक उच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित करे।

चरणजीत आहुजा