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अफगानिस्तान में भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की हत्या

अफगानिस्तान में तालिबान और अफगान फोर्सेस के बीच जंग जारी है। अमेरिकी सैनिकों की वापसी के ऐलान के साथ ही वर्चस्व को लेकर हालात दिन ब दिन खराब होते जा रहे हैं।
कंधार प्रांत में कवरेज के लिए गए युवा भारतीय फोटो जर्नलिस्ट दानिश सिद्दीकी की हत्या कर दी गई है। दरअसल, दानिश सिद्दीकी की हत्या कंधार के स्पिन बोल्डक इलाके में एक झड़प के दौरान हुई है। तीन दिन पहले तालिबान ने इस इलाके में कब्जा किया था। इसी दौरान हमले में दानिश सिद्दीकी गंभीर रूप से घायल हो गए थे।

पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित हो चुके दानिश सिद्दीकी की गिनती दुनिया के बेहतरीन फोटो पत्रकारों मे की जाती रही है। मौजूदा वक्त में अंतरराष्ट्रीय एजेंसी रॉयटर्स के लिए काम कर रहे थे।  अफगानिस्तान में जारी हिंसा के कवरेज करने गए थे। उन्होंने चुनौतियों का सामना करना पसंद था। दो दिन पहले उनकी पिता से बात हुई थी।
अफगानिस्तान में तालिबान फिर से हावी हो रहा है, और कई जिलों में उसका कब्जा हो चुका है। यही वजह है कि अफगानिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में इस वक्त हिंसा का दौर चल रहा है। दुनियाभर से पत्रकार अफगानिस्तान में जुटे हुए हैं और यहां पर जारी संघर्ष को कवर कर रहे हैं। जानकारी के मुताबिक, अफगानिस्तान की स्पेशल फोर्स के सादिक करजई की भी मौत हुई है जो दानिश के साथ मौजूद थे।
दानिश सिद्दीकी की मौत के बाद सोशल मीडिया में पत्रकार जगत उनको खिराज ए अकीदत पेश कर रहे हैं। परिजन और देशवाले भी बेहद गमगीन हैं। 2007 में ही जामिया मिल्लिया इस्लामिया नई दिल्ली से पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद इस क्षेत्र से जुड़। उन्हें रोहिंग्याओं की कवरेज के लिए पुलित्जर पुरस्कार से नवाजा गया था।

सुप्रीम सवाल: आजादी के 75 साल बाद भी राजद्रोह कानून की जरूरत क्यों

सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह या राजद्रोह कानून को अंग्रेजों के जमाने का कॉलोनियल कानून बताते हुए इस पर तल्ख टिप्पणियां की है। शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से सवाल किया कि आजादी के 75 साल बाद भी देश में इस कानून की क्या जरूरत है। अदालत ने यह भी कहा कि संस्थानों के संचालन के लिए ये कानून बहुत गंभीर खतरा है।

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये अधिकारियों या एजेंसियों को कानून के गलत इस्तेमाल की बड़ी ताकत देता है और इसमें उनकी कोई जवाबदेही भी नहीं होती। इससे लोगों की अभिव्यिक्ति की स्वतंत्रता का भी खतरा है।

बढ़ई के हाथ में कुल्हाड़ी
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एनवी रमना की अध्यक्षत वाली तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि राजद्रोह की धारा 124ए का बहुत ज्यादा दुरुपयोग हो रहा है। ये ऐसा है कि किसी बढ़ई को लकड़ी काटने के लिए कुल्हाड़ी दी गई हो और वो इसका इस्तेमाल पूरा जंगल काटने के लिए ही कर रहा हो। इस कानून का ऐसा असर पड़ रहा है।
अगर कोई पुलिसवाला किसी गांव में किसी को फंसाना चाहता है तो वो इस कानून का इस्तेमाल करता है। लोग डरे हुए हैं। इसके आरोपों का सामना करने वाले बेहद कम लोग ही सजा पाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम किसी राज्य सरकार या केंद्र सरकार पर आरोप नहीं लगा रहे हैं, लेकिन देखिए कि आईटी एक्ट की धारा 66ए का अब भी इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि इसे असंवैधानिक घोषित किया जा चुका है। कितने ही दुर्भाग्यशाली लोग परेशान हो रहे हैं और इसके लिए किसी की भी जवाबदेही तय नहीं की गई है।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने ही इस पर आश्चर्य जताया था कि जिस धारा 66A को 2015 में खत्म कर दिया गया था, उसके तहत अभी भी एक हजार से ज्यादा केस दर्ज किए गए हैं। हालांकि, अब केंद्र सरकार ने कहा है कि इसके तहत दर्ज मामले वापस लेगी और आगे भी कोई शिकायत दर्ज नहीं की जा जाएगी।

राजद्रोह कानून को वैधता को परखेगा सुप्रीम कोर्ट
शीर्ष अदालत ने कहा कि हम इस कानून की वैधता को हम परखेंगे। कोर्ट ने केंद्र से कहा है कि वह उस आर्मी अफसर की याचिका पर जवाब दे, जिसमें अफसर ने कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बोलने की आजादी पर इस कानून का बेहद बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इस मामले पर कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं और अब इन सभी की सुनवाई एक साथ की जाएगी। इस बीच, पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और एक एनजीओ ने याचिका दायर कर राजद्रोह की धारा को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की है।

क्या है राजद्रोह कानून
भारतीय दंह संहिता की धारा 124ए में राजद्रोह की परिभाषित किया गया है। अगर कोई भी व्यक्ति सरकार के खिलाफ कुछ लिखता है या बोलता है या फिर ऐसी बातों का समर्थन भी करता है, तो उसे उम्रकैद या तीन साल की सजा हो सकती है। पिछले छह साल के दौरान इस धारा के तहत 326 केस दर्ज किए जा चुके हैं। 559 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, जबकि महज 10 ही दोषी साबित हुए हैं।

कांग्रेस में 2024 के चुनाव से पहले संगठन में बड़े फेरबदल की तैयारी, सिद्धू होंगे पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष !

कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनाव और उससे पहले होने वाले विधानसभाओं के चुनावों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर खुद को फिर मजबूती से खड़ा करने की कवायद शुरू कर दी है। राज्यों में नए अध्यक्षों की तैनाती से लेकर कांग्रेस संगठन में बड़े फेरबदल की सुगबुगाहट दिख रही है। पार्टी अध्यक्ष से लेकर लोकसभा और राज्यसभा में ज्यादा असरदार और प्रभावी दिखने के लिए कुछ नई तैनातियों की तैयारी भी हो सकती हैं। शुरुआत पंजाब से हो रही है जहाँ नवजोत सिंह सिद्धू को अध्यक्ष पद देने के अलावा संगठन में उच्च स्तर पर कुछ और नियुक्तियां करने और सरकार में विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व संतुलित करने की तैयारी है।

रफाल लड़ाकू विमान खरीद में अनियमितताओं की फ्रांस में जांच शुरू होने, हाल की  दूसरे कोरोना लहर के कहर में मोदी सरकार के प्रति जनता का भरोसा डगमगाने, विकराल बेरोजगारी, महंगाई से आम जनता पर असर होने, देश की आर्थिक सेहत बिगड़ने जैसे बड़े मुद्दों के अब खुलकर सामने आने और जनता में इनसे उपजी नाराजगी को देखते हुए कांग्रेस ने कमर कसने की तैयारी की है। उसे लगता है कि अब उसके फिर से खड़े होने के लिए सही समय है। पार्टी ने जहाँ अपने मुख्यमंत्रियों को जनता से किये वादे पूरे करने और सरकार की छवि पर विशेष ध्यान देने के सख्त निर्देश देने का फैसला कर लिया है वहीं राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी  नेताओं के रोल तय करने की भी तैयारी कर ली गयी है।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक कांग्रेस नेतृत्व और हाल तक बागी रुख अपनाने वाले जी-23 के गुलाम नबी आज़ाद, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल जैसे नेताओं को मना लिया गया है। खबर है कि कांग्रेस अनुभवी गुलाम नबी आज़ाद को तमिलनाड से राज्य सभा में वापस ला सकती ला सकती है, जहाँ उसकी डीएमके के साथ सरकार है। मनीष तिवारी को लोकसभा में जिम्मेवारी दी जा सकती है जबकि आनंद शर्मा को उनके गृह राज्य हिमाचल प्रदेश भेजा जा सकता है, जहाँ पार्टी ने हाल में अपने सबसे बड़े नेता वीरभद्र सिंह को खो दिया है। हिमाचल में अगले साल चुनाव भी हैं।

कांग्रेस जल्दी ही पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा आदि को लेकर फैसला करने की तैयारी में है। शुरुआत पंजाब से हो सकती है जहाँ नाराज चल रहे नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद देने की बात इसलिए सिरे चढ़ गयी है क्योंकि मुख्यमंत्री और अनुभवी कांग्रेस नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह इसके लिए तैयार हो गए हैं। अमरिंदर अगले साल के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस का मुख्य चेहरा रहेंगे। वहां हिन्दू वर्ग को बेहतर प्रतिनिधित्व देने की तैयारी है साथ ही विपक्षी अकाली दल-बसपा गठबंधन बनने से उपजे माहौल की हवा निकालने के लिए दलित उपमुख्यमंत्री बनाने की बात भी पार्टी के भीतर है। पार्टी में एक वर्ग सिद्धू के साथ दो कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाना चाहता है जिसमें हिन्दू-दलित प्रतिनिधित्व हो।

राजस्थान में पार्टी के युवा चेहरे सचिन पॉयलट को भी संगठन में बड़ी जिम्मेदारी  देने की बात चल रही है। वे पहले प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं। उनके समर्थकों को सरकार में ज्यादा प्रतिनिधित्व भी दिया जाएगा। पार्टी के भीतर के मसलों पर गहरी नजर और जानकारी रखने वाले एक वरिष्ठ नेता ने इस संवाददाता को बताया कि सोनिया गांधी से लेकर प्रियंका गांधी और राहुल गांधी किसी भी नेता को अब पार्टी से बाहर जाने नहीं देना चाहते। गांधी संगठन को अब धार देने और भाजपा के खिलाफ मजबूती से खड़ा करने की तैयारी में जुट गए हैं। यह भी लगता है कि वरिष्ठ और युवा नेताओं में बेहतर समन्वय बनाने की गंभीर कोशिश भी शुरू की जा रही है।

जानकारी के मुताबिक जी-23 के नेताओं का सुझाव है कि सोनिया गांधी को ही स्थाई अध्यक्ष चुन लिया जाए। राहुल गांधी को लोकसभा में पार्टी का नेता बना दिया जाए ताकि सरकार के प्रति उनके विरोध की आवाज का दायरा ज्यादा विस्तृत हो जाए। हाल के महीनों में राहुल गांधी ने देश के गंभीर मुद्दों के प्रति जैसी आवाज उठाई है, उससे कई लोग प्रभावित हुए हैं। भाजपा भले न माने, राहुल गांधी ने जिन मुद्दों को उठाया है या जो सुझाव हाल में दिए हैं, यह देखा गया है कि मोदी सरकार ने उन्हें अमल में लाया है भले इसका श्रेय खुद लिया हो।

प्रियंका गांधी अब कांग्रेस में बहुत सक्रिय भागीदारी निभाने लगी हैं और उनके फैसलों से पार्टी के भीतर वरिष्ठ नेता बहुत प्रभावित हैं। अहमद पटेल की मृत्यु के बाद कांग्रेस के सामने ‘संकटमोचक’ का जो गंभीर संकट कांग्रेस के सामने उठ खड़ा हुआ था, प्रियंका धीरे-धीरे उस कमी को पूरा करने करने की तरफ बढ़ चुकी हैं। उनमें नेताओं को मनाने और सर्वमान्य फैसला स्वीकार कराने की गजब की क्षमता है और निर्णय लेने में वो देर करना पसंद नहीं करतीं।

चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के अलावा वरिष्ठ नेताओं से बैठक से देश में यह सन्देश गया है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए अब माहौल ढलने लगा है और कांग्रेस मुख्य भूमिका में आ सकती है। प्रशांत किशोर की छवि और स्वीकार्यता ही ऐसी बन गयी है कि उनके कांग्रेस नेतृत्व से मिलने से जनता में कांग्रेस के प्रति बहुत सकारात्मक सन्देश गया है।

पार्टी अध्यक्ष का स्थाई जिम्मा सोनिया गांधी या राहुल गांधी में से कोई संभालता है तो कमलनाथ मुख्य भूमिका में आ सकते हैं। कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर कमलनाथ के नाम की बहुत चर्चा है। यह माना जा रहा है कि सोनिया या राहुल के साथ अनुभवी और ज़मीन पर पैठ रखने वाले नेता कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किये जा सकते हैं। इनमें कमलनाथ के साथ अशोक गहलोत और सुशील कुमार शिंदे के अलावा उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता का भी नाम चर्चा में है। बहुत दिलचस्प बात है कि सोनिया गांधी अमरिंदर सिंह को भी केंद्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका में लाने की इच्छुक रही हैं।

प्रशांत किशोर की कांग्रेस के भीतर सक्रियता बहुत दिलचस्प है। प्रशांत ही वो व्यक्ति थे जिन्होंने उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में प्रियंका गांधी को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर घोषित करने और समाजवादी कोई चुनावी गठबंधन न करने की सलाह दी थी। हालांकि, कांग्रेस ने उनकी सलाह पर अमल नहीं किया था। अब जबकि प्रियंका गांधी पूरी तरह यूपी में सक्रिय हो गयी हैं और प्रशांत किशोर कांग्रेस के भीतर  दिखने लगे हैं, प्रियंका को कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अगले साल के विधानसभा चुनाव में बड़ी भूमिका के लिए चुन सकती है। यह भी संभव है कि प्रशांत किशोर यूपी में फिर कांग्रेस के रणनीतिकार के रूप में दिखें !

कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के तौर पर अब मुख्य केंद्रीय भूमिका में आना चाहती है। उसके पास अगले साल कुछ विधानसभा चुनाव जीतने का बहुत मजबूत अवसर है जहाँ उसका मुकाबला सीधे भाजपा से होना है। कांग्रेस हर हालत में अब जीतने की नीति पर चलकर खुद को राज्यों में मजबूत करना चाहती है ताकि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष की एकता की धुरी बन सके और उसका नेतृत्व कर सके। देखना है कि कांग्रेस खुद में कैसे बदलाव लाती है, क्योंकि राजनीतिक दलों ही नहीं देश की जनता की भी अब इसपर नजर लगी हुई है।

डेल्टा प्लस वायरस से बचाव की आयुर्वेदिक औषधि

ब्रेंमटन, टोरंटो (जीआईआई)। कोरोना वायरस के नए डेल्टा प्लस वेरिएंट से बचाव के लिए एक नई आयुर्वेद औषधि ‘वायरोफ्लेम’ की सफलता ने कनाडा और अमेरिका में चिकित्सा विशेषज्ञों का ध्यान तेजी से आकर्षित किया है। यह औषधि भारतीय मूल के कनाडावासी आयुर्वेदाचार्य और कैनेडियन कॉलेज ऑफ आयुर्वेद एंड योग के प्रमुख डॉ. हरीश वर्मा ने तैयार की है। डेल्टा प्लस से पैदा हुए भय के माहौल में इस औषधि का आना राहतदायी है। वायरोफ्लेम जल्दी ही भारत में भी उपलब्ध होगी।

यहां आयोजित एक चिकित्सा वेबिनार में डॉ. वर्मा ने कहा कि डेल्टा प्लस वेरिएंट से भयभीत होने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन चूंकि नए वेरिएंट के बारे में पता चला है कि वह मौजूदा वैक्सीनों की अनदेखी कर व्यक्ति के शरीर में जीवित रहने की क्षमता रखता है, इसलिए वायरोफ्लेम का उपयोग काफी फ़ायदेमंद साबित हो सकता है। उन्होंने बताया कि जिस तेजी से वायरस अपना स्वरूप बदल रहा है, वह चिकित्सा विशेषज्ञों के लिए चुनौती है और डेल्टा प्लस के बारे में अभी तक की शोध के अनुसार, यह वैक्सीन लगवाने के बाद शरीर में बनने वाली एंटीबॉडीज़ को ख़त्म करने लगता है। इससे वैक्सीन का असर कम हो जाता है और रोगियों की प्रतिरोधक क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

डॉ. वर्मा ने कहा कि आयुर्वेद वायरोफ्लेम थैरेपी के ज़रिए इस समस्या से निपटा जा सकता है। डेल्टा वायरस के साथ ही यह थैरेपी मौसमी फ्लू, डेंगू और चिकनगुनिया की बीमारियों से निपटने में भी बहुत कारगर साबित हुई है। उन्होंने कहा कि डेल्टा प्लस वायरस को काबू करने में थोड़ी-सी भी लापरवाही बहुत घातक साबित हो सकती है, इसलिए ऐहतियाती इलाज पहले ही शुरू कर दिया जाना लाभदायक होता है। वैक्सीन लगवा लेने के बावजूद वायरोफ्लेम कैप्सूल लेते रहने से इस वायरस से बचाव की संभावनाएं बहुत पुख़्ता हो जाती हैं।

डॉ. वर्मा ने कहा कि वायरोफ्लेम थैरेपी के दौरान दो प्रकार की जड़ी-बूटियों का समूह एक साथ दिया जाता है। इससे शरीर की क्षतिग्रस्त कोशिकाओं का पुनर्निर्माण होता है। जड़ी-बूटियों का मिश्रण एक ख़ास अनुपात में तैयार किया जाता है और यह फॉर्मूला ही वायरोफ्लेम के बेहद प्रभावशाली होने का रहस्य है। उन्होंने कहा कि यह औषधि लेने वाले मेरे एक भी रोगी को न तो ऑक्सीजन पर रखने की ज़रूरत पड़ी और न ही आईसीयू में भर्ती होना पड़ा। उन्होंने कहा कि वायरोफ्लेम दूसरी चिकित्सा पद्धतियों की दवाओं से बहुत सस्ती भी है और उसके कोई दुष्प्रभाव भी नहीं हैं।

डॉ. वर्मा ने कहा कि वायरोफ्लेम जुलाई के पहले सप्ताह से भारत में भी उपलब्ध होने लगेगी। वे भारत के लिए अलग से एक हेल्पलाइन नंबर की घोषणा भी करेंगे।

 

यूपी में कांवड़ यात्रा को अनुमति देने पर सुप्रीम कोर्ट का नोटिस

कोरोना महामारी की तीसरी आशंका के बीच देश की सर्वोच्च अदालत सक्रिय दिखी है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कोरोना संक्रमण के बीच उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की ओर से कांवड़ यात्रा की अनुमति देने के फैसले पर स्वतः संज्ञान लेकर सुनवाई की। सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में केंद्र और यूपी सरकार को नोटिस जारी कर जवाब तलब किया है।
जस्टिस रोहिंगटन फली नरीमन की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले पर विचार करने का निर्णय लेते हुए केंद्र सरकार वह यूपी सरकार से जवाब तलब किया है। पीठ ने कहा कि वह शुक्रवार को इस मामले पर सुनवाई करेगी। जस्टिस नरीमन ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा कि आज अखबार देखने पर हमें इस बात पर परेशानी हुई कि कोरोना महामारी के बीच उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा को जारी रखने का निर्णय लिया है, वहीं पड़ोसी राज्य उत्तराखंड ने इस वर्ष कांवड़ यात्रा की इजाजत देने से इनकार कर दिया है। हम उस सम्मानित राज्य की राय जानना चाहते हैं।
पीठ ने कहा कि लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि क्या हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कोरोना की तीसरी लहर के बारे में आगाह करने के बावजूद ऐसा हो रहा है। पीएम मोदी स्वयं लोगों की भीड़ जुटने और कोरोना प्रोटोकाल न मानने के लिए बयान दे रहे हैं और स्वास्थ्य मंत्रालय भी आगाह कर रहा है। इसके बावजूद यह सब हो रहा है।

धामी सरकार ने रद्द की कांवड़ याया
इससे पहले उत्तराखंड सरकार भी कांवड़ यात्रा को लेकर ऊहापोह की स्थिति में थी, लेकिन मंगलवार को नई धामी सरकार ने इस वर्ष कांवड़ यात्रा पर रोक लगाने का निर्णय लिया है।  सरकार का कहना है कि कोरोना थमने का नाम नहीं ले रहा है, ऐसे में कांवड़ यात्रा की अनुमति नहीं दी जा सकती है। बता दें कि कांवड़ यात्रा 25 जुलाई से छह अगस्त के बीच प्रस्तावित है। बारिश के मौसम में कांवड़ यात्री हर वर्ष लाखों की तादाद में हिस्सा लेते हैं और इसमें जगह-जगह भीड़ जुटती है। इसमें सबसे ज्यादा युवाओं की तादाद होती है। इससे कोरोना संक्रमण के फैलने की आशंका लगातार बनी हुई है

राफेल पर फिर सवाल

The Union Minister for Defence, Shri Rajnath Singh after flying a sortie in the newly inducted Rafale aircraft, in France on October 08, 2019.

लड़ाकू विमान सौदा मामले में अनियमितताओं की फ्रांस में जाँच शुरू होने से केंद्र सरकार दबाव में

एक फ्रांसीसी खोजी वेबसाइट में ख़ुलासों के बाद राफेल लड़ाकू विमान की फ्रांस में जाँच शुरू होना
एक असाधारण घटना है। इस जाँच के नतीजों से फ्रांस में ही नहीं, भारत में भी राजनीतिक उबाल आ
सकता है। क्योंकि सम्भावना है कि राफेल सौदे के समय फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद और वर्तमान राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों से भी पूछताछ हो सकती है, जो तब फ्रांस के वित्त मंत्री थे। भारत में विपक्ष, ख़ासकर कांग्रेस नेता राहुल गाँधी इस मुद्दे पर मोदी सरकार के ख़िलाफ़ बहुत आक्रामक रहे हैं और उन्होंने शुरू से ही इस पर सवाल उठाये हैं। तमाम घटनाक्रम और बिन्दुओं पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

 

राफेल लड़ाकू विमान युद्ध में विरोधियों के छक्के छुड़ा देने के लिए जाना जाता है; लेकिन इसके विपरीत इसकी ख़रीद में अनियमितताओं के ख़ुलासों के बीच फ्रांस में इसकी जाँच शुरू होने के बाद राफेल विरोधियों की राजनीति का सबसे बड़ा हथियार बन गया है। विरोधी, ख़ासकर राहुल गाँधी और दूसरे कांग्रेस नेता सरकार पर ताबड़तोड़ हमले कर रहे हैं। वहीं सरकार फ़िलहाल चुप बैठी है। बोफोर्स के बाद क़रीब 59,000 करोड़ रुपये वाला राफेल सौदा ऐसा मसला बनने की तरफ़ बढ़ता दिख रहा है, जो देश की राजनीति में तूफ़ान खड़ा कर सकता है। इसका बड़ा कारण यह भी है कि राफेल ख़रीद में घिरे भारतीय व्यापारी अनिल अंबानी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नज़दीकी माना जाता है और मोदी के फ्रांस दौरे के दौरान ही सन् 2016 में राफेल का सौदा अन्तिम रूप से सिरे चढ़ा था। यदि फ्रांस सरकार की जाँच में राफेल ख़रीद में कुछ बड़ा सामने आता है, तो यह अगले साल के पाँच या सम्भवत: राज्यों के विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ दल की लिए बड़ी मुश्किलें खड़ी कर सकता है। अब चूँकि फ्रांस में शुरू हुई जाँच के दायरे में वहाँ के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद और उनके समय वित्त मंत्री रहे अब के वहाँ के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों भी हैं। इसलिए यह एक अंतर्राष्ट्रीय मसला बन गया है।
फ्रांस में राफेल ख़रीद में जाँच शुरू होने के बाद राफेल सौदे में लम्बे समय से चल रहे विवाद में बड़ा मोड़ आ गया है। फ्रांस ने भारत के साथ क़रीब 59,000 करोड़ रुपये के राफेल सौदे में कथित भ्रष्टाचार की न्यायिक जाँच कराने का आदेश दिया है। इसके लिए एक फ्रांसीसी जज की भी नियुक्ति की गयी है। फ्रांसीसी ऑनलाइन जर्नल मीडियापार्ट, जिसने सबसे पहले इस सौदे में गड़बडिय़ों का दावा करते हुए रिपोर्ट छापी थी; ने दावा किया है कि सन् 2016 में हुई इस इंटर गवर्नमेंट डील (सरकार से सरकार के बीच सौदा) की अत्यधिक संवेदनशील जाँच औपचारिक रूप से 14 जून को शुरू की गयी थी। रिपोर्ट के मुताबिक, फ्रांसीसी लोक अभियोजन सेवाओं की वित्तीय अपराध शाखा ने इस बात की पुष्टि भी की है। ज़ाहिर है राफेल सौदा, जो पिछले कुछ महीनों से भारत की राजनीति आरोपों-प्रत्यारोपों तक सीमित था; अब फ्रांस में जाँच होने की रिपोर्ट के बाद केंद्र की मोदी सरकार के गले की फाँस बनता दिख रहा है। बता दें इस फ्रांसीसी वेबसाइड मीडियापार्ट ने इसी साल अप्रैल में राफेल सौदे में कथित अनियमितताओं पर एक के बाद एक रिपोट्र्स प्रकाशित की थीं। मीडियापार्ट ने दावा किया है कि फ्रांस की सार्वजनिक अभियोजन सेवाओं की वित्तीय अपराध शाखा के पूर्व प्रमुख इलियाने हाउलेट ने सहयोगियों की आपत्ति के बाद भी राफेल सौदे में भ्रष्टाचार के कथित सुबूतों की जाँच को रोक दिया। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि हाउलेट ने फ्रांस के हितों, संस्थाओं के कामकाज को संरक्षित करने के नाम पर जाँच को रोकने के अपने फ़ैसले को सही ठहराया।
अब मीडियापार्ट की नयी रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पीएनएफ के नये प्रमुख जीन-फ्रेंकोइस बोहर्ट ने जाँच का समर्थन करने का फ़ैसला किया है। मीडियापार्ट में कहा कि आपराधिक जाँच तीन लोगों के आसपास के सवालों की जाँच करेगा, जिसमें पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद, वर्तमान राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और विदेश मंत्री जीन-यवेस ले ड्रियन शामिल हैं। इसमें से पूर्व राष्ट्रपति इस सौदे के हस्ताक्षर के समय पदस्थ थे, वर्तमान राष्ट्रपति उस समय हॉलैंड की अर्थ-व्यवस्था में थे और विदेश मंत्री उस दौरान रक्षा विभाग सँभाल रहे थे। भारत सरकार ने सन् 2016 में फ्रांस से 36 राफेल लड़ाकू विमान ख़रीदने का समझौता किया था, जिसमें से क़रीब 21 विमान भारत को मिल गये हैं और बाक़ी 2022 तब मिलने का अनुमान है। इस सौदे के दौरान ही भारत में काफ़ी विवाद खड़ा हो गया था। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी राफेल सौदे में भ्रष्टाचार के मामले पर कांग्रेस, ख़ासकर राहुल गाँधी ने मोदी सरकार पर गम्भीर आरोप लगाये थे। कई अन्य विपक्षी दल भी इस मामले पर मोदी सरकार को घेर रहे हैं। इसके अलावा सोशल मीडिया पर भी सवालों की बाढ़-सी आयी हुई है। राफेल सौदे की जाँच के फ्रांस सरकार के इस बड़े क़दम के बाद मोदी सरकार ने भले चुप्पी साध रखी है; लेकिन भारत में इस मसले पर राजनीति गरमा रही है। राहुल गाँधी लगातार मोदी सरकार पर चुभती हुई टिप्पणियाँ कर रहे हैं और इस मामले की जाँच जेपीसी के करवाने पर ज़ोर र दे रहे हैं, जिसके लिए सरकार क़तई तैयार नहीं दिखती। क़रीब 59,000 करोड़ रुपये के इस सौदे में कथित भ्रष्टाचार की फ्रांस में न्यायिक जाँच होने और इसके एक फ्रांसीसी जज को नियुक्त करने की ख़बर भारत में भी सुर्ख़ियों में रही है। भ्रष्टाचार भारत में राजनीतिक दृष्टि से बहुत ही संवेदनशील मुद्दा रहा है। सन् 2014 में जब नरेंद्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किया था, तब देश की जनता की नब्ज़ पकड़ते हुए उन्होंने सबसे ज़्यादा प्रहार तब की यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में हुए घोटालों पर किये थे। उस समय यूपीए के कुछ मंत्रियों पर विभिन्न मामलों की जाँच चल रही थी या कुछ गिरफ़्तार हुए थे। यूपीए सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोप सामने आते ही कार्रवाई भी की और ऐसे मंत्रियों के इस्तीफ़े लेकर उनके ख़िलाफ़ जाँच को मंज़ूरी भी दी।

जाँच की आँच


राफेल को लेकर नित नये ख़ुलासों से भारत में सियासी पारा बढ़ रहा है। राहुल गाँधी लगातार मोदी सरकार की चुप्पी पर निशाना साध रहे हैं और जेपीसी से इसकी माँग कर रहे हैं। माकपा ने तो प्रधानमंत्री की भूमिका की जेपीसी जाँच की माँग उठा दी है। राफेल सौदे में कथित भ्रष्टाचार और लाभ पहुँचाने के मामले में फ्रांस में जाँच शुरू की गयी है। मामला इसलिए भी गम्भीर है कि वहाँ अब इस मामले में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद और वर्तमान राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों से भी पूछताछ हो सकती है। जब राफेल सौदे पर हस्ताक्षर हुए थे, उस समय फ्रांस्वा ओलांद ही फ्रांस के राष्ट्रपति थे; जबकि मैक्रों उनके वित्त मंत्री थे।
सौदे की जाँच का आदेश तब दिया गया, जब इस मामले में लगातार ख़ुलासे कर रहे फ्रांसीसी पत्रकार यान फिलीपीन की एक रिपोर्ट मीडियापार्ट वेब पोर्टल पर प्रकाशित हुई। फिलीपीन ने दस्तावेज़ों के साथ दावा किया है कि राफेल सौदे में अनियमितताएँ हुई हैं। इस रिपोर्ट के बाद शेरपा नाम के एनजीओ ने शिकायत दर्ज करवायी। बता दें कि यह एनजीओ वित्त फ्रॉड का शिकार हुए लोगों की मदद करता है। रिपोर्ट में दावा किया गया था कि दसॉ-रिलायंस की इस संयुक्त सौदेबाज़ी (ज्वॉइंट वेंचर) के लिए दसॉ एविएशन 49 फ़ीसदी हिस्सेदारी लगा रहा था, वहीं रिलायंस सिर्फ़ 51 फ़ीसदी। आगे दावा किया गया था कि भारत सरकार द्वारा लड़ाकू विमान ख़रीदने की बात सार्वजनिक करने से पहले ही दसॉ एविएशन को पता था कि भारत को किस तरह के लड़ाकू विमान चाहिए।
रिपोर्ट में सुशेन गुप्ता का भी नाम है, जो कि अगस्ता वेस्टलैंड वीवीआईपी चॉपर सौदा घोटाले में पकड़ा गया था। दावा किया गया है कि उसकी कम्पनी से भी कुछ संदिग्ध लेन-देन हुआ था और यह पैसा उसे राफेल सम्बन्धी दस्तावेज़ मंत्रालय से निकालने के लिए दसॉ ने दिया था।
इसके बाद फ्रांस के राष्ट्रीय अभियोजन कार्यालय (पीएनएफ) ने एक जज को इस सौदे की जाँच के लिए नियुक्त किया है। यहाँ दिलचस्प बात यह है कि फ्रांस में आमतौर पर ऐसी न्यायिक जाँच के आदेश नहीं दिये जाते हैं। ज़ाहिर है वर्तमान घटनाक्रम के लिहाज़ से यह गम्भीर मुद्दा बन गया है। फ्रांस के नियमों के मुताबिक, जाँच के आदेश मिलने पर जज के पास कुछ विशेष अधिकार होते हैं, जिसमें उसे कार्रवाई करने और निर्देश देने से पहले दूसरी अथॉरिटी से रज़ामंदी आदि नहीं लेनी होती। अब यदि न्यायिक जाँच में सुबूत सही पाये जाते हैं, तो फिर आगे जाँच होगी। ज़हिर है भारत की राजनीति के लिहाज़ से यह जाँच सत्तारूढ़ दल भाजपा और उससे भी ज़्यादा व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निजी प्रतिष्ठा को छति पहुँचा सकती है। मोदी ने इस सौदे को हमेशा सही क़रार दिया है।

क्यों गहराया विवाद?


फ्रांस से 36 राफेल लड़ाकू विमानों के दाम और दसॉ रिलायंस एविएशन को ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट मिलने के मुद्दे पर मोदी सरकार और कांग्रेस के बीच तकरार काफ़ी समय से चल रही है। कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्ष ने इस सौदे की वित्तीय शर्तों पर संसद में भी बहुत सवाल उठाये थे। कांग्रेस ने साँठगाँठ वाले पूँजीवादी खेल का भी आरोप लगाया। भले सरकार आरोपों को लगातार ख़ारिज करती रही है और वह ख़ुद को इस मसले पर सर्वोच्च न्यायालय की ‘क्लीन चिट’ मिलने की भी बात करती है, यह मामला लगातार सुर्ख़ियों में रहने से सरकार को इससे मुक्ति नहीं मिली है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों का सवाल है कि मोदी सरकार फ्रांस में बनाये गये विमानों के लिए ज़यादा क़ीमत चुकाने पर क्यों राज़ी हो गयी, जबकि इस सौदे पर पिछली सरकार ने मोलभाव कर क़ीमत कम करवायी थी। कांग्रेस का आरोप यह भी था कि सरकारी कम्पनी हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को दरकिनार कर अनिल अंबानी, जिन्हें कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी का मित्र कहती है; की रिलायंस डिफेंस को अहम वित्तीय लाभ दिया गया। एनडीए सरकार ने अप्रैल, 2015 में घोषणा की थी कि 36 राफेल लड़ाकू विमान ऑफ द शेल्फ (स्वयं) ख़रीदे जाएँगे। सन् 2012 में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने कई कम्पनियों के विमानों के बीच से राफेल ख़रीदने का फ़ैसला किया था। यूपीए सरकार ने तब 126 राफेल विमान ख़रीदने का फ़ैसला किया था, जिनमें से 108 विमान एचएएल को भारत में बनाने थे। मोदी सरकार की दलील रही है कि राफेल जेट बनाने वाली दसॉ एविएशन के साथ अन्तिम सौदे (फाइनल डील) की तुलना यूपीए के मूल सौदे (ओरिजिनल डील) से नहीं की जा सकती है। मोदी सरकार ने यह आरोप भी ख़ारिज किया है कि एचएएल पर एक प्राइवेट कम्पनी को तरजीह दी गयी है। मोदी सरकार का कहना है कि दसॉ एविएशन ने ऑफसेट या निर्यात से जुड़े अपने दायित्व पूरे करने के लिए रिलायंस डिफेंस को अपना साझेदार चुना और इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं थी।
कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा कहते हैं कि मोदी सरकार ने 7.87 अरब यूरो यानी क़रीब 59,000 करोड़ रुपये की बढ़ी हुई क़ीमत पर ये विमान ख़रीदने का सौदा किया है। खेड़ा के मुताबिक, एनडीए सरकार ने प्रति विमान 1670 करोड़ रुपये चुकाये, जबकि यूपीए सरकार ने 570 करोड़ रुपये का भाव तय किया था। हालाँकि रक्षा मंत्रालय की आंतरिक गणना में दिखाया गया है कि हर राफेल विमान यूपीए वाले सौदे के मुक़ाबले 59 करोड़ रुपये सस्ता पड़ रहा है। ईटी ने इस आंतरिक गणना का दस्तावेज़ देखा है। सरकार का दावा है कि भारत की ज़रूरतों के हिसाब से जो साज़-ओ-सामान विमान में जोड़ा गया है, उसके चलते यूपीए वाली शर्तों पर हर राफेल जेट की क़ीमत 1705 करोड़ रुपये पड़ती, जबकि एनडीए सरकार ने 36 विमानों पर जो सौदा किया, उसमें भाव 1646 करोड़ रुपये पड़ा। लागत का एक बड़ा हिस्सा भारत से जुड़ी ज़रूरतों वाले साज़-ओ-सामान का बताया जा रहा है। इसमें लेह जैसे बेहद ऊँचाई वाले इलाक़ों से उड़ान भरने से लेकर बेहतर इंफ्रारेड सर्च और ट्रैक सेंसर और इलेक्ट्रॉनिक जैमर पॉड जैसी क्षमताएँ शामिल हैं। इस साज़-ओ-सामान का दाम 36 विमानों का सौदा की तरह 126 विमानों वाले सौदे में भी ऐसा ही रहता; क्योंकि यह रिसर्च ऐंड डिवेलपमेंट (खोज और विकास) पर एक ही बार लगने वाली लागत है।

राफेल का सफ़र
सन् 2007 में भारतीय वायुसेना ने मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) ख़रीदने का प्रस्ताव सरकार को भेजा, जिसके बाद सरकार ने 126 लड़ाकू विमानों को ख़रीदने की निविदा जारी की। इसके बाद जिन लड़ाकू विमानों को ख़रीद की सूची में रखा गया, उनमें अमेरिका के बोइंग एफ/ए-18 सुपर हॉरनेट, फ्रांस की दसॉ का राफेल, ब्रिटेन का यूरोफाइटर, अमेरिका का लॉकहीड मार्टिन एफ-16 फाल्कन, रूस का मिखोयान एमआईजी-35 और स्वीडन के साब जेएएस-39 ग्रिपेन आदि एयरक्राफ्ट शामिल थे।
इसके बाद 4 सितंबर, 2008 को मुकेश अंबानी के नेतृत्व वाले रिलायंस ग्रुप ने रिलायंस एयरोस्पेस टेक्नोलॉजीज लिमिटेड (आरएटीएल) नाम से एक नयी कम्पनी बनायी। इसके बाद आरएटीएल और दसॉ के बीच बातचीत हुई और साझा उपक्रम बनाने पर दोनों में सहमति बनी। मक़सद भविष्य में भारत और फ्रांस के बीच होने वाले सभी क़रार हासिल करना था। मई, 2011 में एयरफोर्स ने राफेल और यूरो लड़ाकू विमानों को शॉर्ट लिस्ट किया। जनवरी, 2012 में राफेल को ख़रीदने के लिए निविदा (टेंडर) सार्वजनिक कर दी गयी। राफेल ने सबसे कम दर पर विमान उपलब्ध कराने को बोली लगायी। शर्तों के अनुसार भारत को 126 लड़ाकू विमान ख़रीदने थे, जिनमें से 18 लड़ाकू विमान तैयार हालत में देने की बात थी, जबकि बाक़ी 108 विमान दसॉ की मदद से एचएएल द्वारा तैयार किये जाने थे। हालाँकि इस दौरान भारत और फ्रांस के बीच इन विमानों की क़ीमत और उनके बनाने की प्रक्रिया शुरू करने के समय पर अन्तिम समझौता नहीं हुआ था। 13 मार्च, 2014 तक राफेल विमानों की क़ीमत, तकनीक, हथियार प्रणाली (वेपन सिस्टम), अनुकूलन (कस्टमाइजेशन) और इनके रख-रखाव को लेकर बातचीत जारी रही। साथ ही एचएएल और दसॉ एविएशन के बीच समझौते पर हस्ताक्षर हो गये। इस दौरान भारत में 2014 में लोकसभा के चुनाव आ गये और सरकार बदल गयी। यूपीए शासनकाल में राफेल ख़रीद का सौदा अन्तिम नहीं हो पाया था; बेशक उसने 526.1 करोड़ रुपये प्रति राफेल विमान की दर से सौदा किया था। मोदी के नेतृत्व में एनडीए के सत्ता में आने के क़रीब एक साल के बाद 28 मार्च, 2015 को अनिल अंबानी के नेतृत्व में रिलायंस डिफेंस कम्पनी बनायी गयी। 10 अप्रैल, 2015 को प्रधानमंत्री मोदी ने फ्रांस की राजधानी पेरिस का दौरा किया और 36 राफेल लड़ाकू विमान ख़रीदने के अपनी सरकार के फ़ैसले का ऐलान कर दिया।इसके बाद जून, 2015 में रक्षा मंत्रालय ने 126 एयरक्राफ्ट ख़रीदने का टेंडर निकाला। दिसंबर, 2015 में रिलायंस इंटरटेनमेंट ने फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति ओलांद की पार्टनर जूली गयेट की मूवी का-प्रोडक्शन में 16 लाख यूरो का निवेश किया। मीडियापार्ट के मुताबिक, यह निवेश फ्रांस के एक व्यक्ति के निवेश कोष (इनवेस्टमेंट फंड) के ज़रिये किया गया, जो अंबानी को पिछले 25 वर्षों से जानता था। हालाँकि जूली गयेट के प्रोडक्शन रॉग इंटरनेशनल ने अनिल अंबानी या रिलायंस के प्रतिनिधियों से मुलाक़ात करने की बात से इन्कार किया। फिर जनवरी, 2016 में गणतंत्र दिवस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए ओलांद भारत आये। इस दौरान उन्होंने राफेल विमान ख़रीदने के एक एमओयू पर हस्ताक्षर किये। 24 जनवरी को रिलायंस इंटरटेनमेंट ने प्रेस विज्ञप्ति जारी की, जिसमें इंडो-फ्रेंच ज्वाइंट प्रोडक्शन की घोषणा की गयी। सितंबर, 2016 को भारत और फ्रांस के बीच 36 राफेल विमान ख़रीदने की फाइनल डील पर दस्तख़त हुए। इन विमानों क़ीमत 7.87 बिलियन यूरो रखी गयी। इस सौदे के मुताबिक, इन विमानों की सुपुर्दगी (डिलीवरी) सितंबर, 2018 से शुरू होने की बात कही गयी। तीन अक्टूबर, 2016 को अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस लिमिटेड और दसॉ एविएशन ने एक साखा उपक्रम बनाने की घोषणा कर दी। फरवरी, 2017 में दसॉ-रिलायन्स एरोस्पेस लिमिटेड (डीआरएएल) बाक़ायदा गठित भी हो गया। हालाँकि कांग्रेस ने आरोप लगाया कि मोदी सरकार ने एचएएल को दरकिनार करके अनिल अंबानी की रिलायंस कम्पनी को सौदा-समझौता दिलाया।
इस पर रिलायंस डिफेंस लिमिटेड ने सफ़ाई देते हुए कहा कि कम्पनी को संयुक्त समझौता अनुबंध (ज्वाइंट वेंचर कॉन्ट्रैक्ट) सीधे दसॉ से मिला और इसमें सरकार का कोई रोल नहीं था। सितंबर, 2018 को राफेल सौदे पर मचे घमासान के बीच फ्रांस्वा ओलांद ने एक फ्रांस अख़बार को दिये साक्षात्कार में कहा कि अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस का नाम ख़ुद भारत सरकार ने सुझाया था। हालाँकि फ्रांस सरकार और दसॉ ने इससे किनारा कर लिया; लेकिन भारत में इससे जबरदस्त विवाद छिड़ गया। विपक्ष के ख़रीद में आरोपों को तो ताक़त मिली ही, उसने नये सिरे के मोदी सरकार पर हमला शुरू कर दिया।

बिचौलिये को बेहिसाब दलाली


फ्रांस की समाचार वेबसाइट मीडियापार्ट ने राफेल ख़रीद सौदे में भ्रष्टाचार की बात करते हुए अप्रैल में ढेरों सवाल उठाये थे। मीडिया पार्ट ने बाक़ायदा फ्रांस भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसी की जाँच रिपोर्ट का हवाला देते हुए दावा किया था कि दसॉ एविएशन ने फ़र्ज़ी नज़र आने वाले भुगतान किये हैं। यह ख़बर सामने आने के बाद भारत में राजनीतिक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था। राफेल ख़रीद में भ्रष्टाचार होने का मामला फिर मीडिया में आने के बाद कांग्रेस ने मोदी सरकार पर तीखा हमला किया। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी तो पहले से ही इस मामले में मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करते रहे हैं। मीडियापार्ट ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दसॉ एविएशन कम्पनी के 2017 के खातों के ऑडिट में 5,08,000,925 यूरो (4.39 करोड़ रुपये) ग्राहक तोहफ़ा (क्लाइंट गिफ्ट)के नाम पर ख़र्च दर्शाये गये हैं। हालाँकि तनी बड़ी राशि का कोई ठोस स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। मॉडल बनाने वाली कम्पनी का मार्च, 2017 का एक बिल ही उपलब्ध कराया गया।
एएफए की जाँच के दौरान दसॉ एविएशन ने बताया कि उसने राफेल विमान के 50 मॉडल एक भारतीय कम्पनी से बनवाये। इन मॉडल के लिए 20,000 यूरो (क़रीब 17 लाख रुपये) प्रति विमान के हिसाब से भुगतान किया गया। यह मॉडल कहाँ और कैसे इस्तेमाल किये गये? इसका कोई प्रमाण नहीं दिया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, मॉडल बनाने का काम कथित तौर पर भारत की कम्पनी डेफसिस सॉल्यूशंस को दिया गया। बता दें यह कम्पनी दसॉ की भारत में सब-कॉन्ट्रैक्ट कम्पनी है। इसका स्वामित्व रखने वाले परिवार से जुड़े सुषेण गुप्ता रक्षा सौदों में बिचौलिया रहे और दसॉ के एजेंट भी। सुषेण गुप्ता को 2019 में अगस्ता-वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर ख़रीद घोटाले की जाँच के सिलसिले में प्रवर्तन निदेशालय ने गिरफ़्तारर किया था। रिपोर्ट के मुताबिक, सुषेण ने ही दसॉ एविएशन को मार्च, 2017 में राफेल मॉडल बनाने के काम का बिल दिया था। रिपोर्ट सामने आते ही कांग्रेस ने सोमवार को मोदी सरकार पर हमला किया। पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा- ‘इस पूरे लेन-देन को गिफ्ट टू क्लाइंट की संज्ञा दी गयी। अगर यह मॉडल बनाने के पैसे थे, तो इसे गिफ्ट क्यों कहा गया? क्या यह छिपे हुए ट्रांजेक्शन (लेन-देन) का हिस्सा था। ये पैसे जिस कम्पनी को दिये गये, वो यह मॉडल बनाती ही नहीं है। 60 हज़ार करोड़ रुपये के राफेल रक्षा सौदे से जुड़े मामले में सच्चाई सामने आ गयी है। यह हम नहीं, फ्रांस की एक एजेंसी कह रही है।’

सुरजेवाला ने मोदी सरकार से पाँच सवाल भी किये थे, जिनमें पहला यह था कि 1.1 मिलियन यूरो के जो क्लाइंट गिफ्ट दसॉल्ट के ऑडिट में दिखा रहा है। क्या वो राफेल सौदा के लिए बिचौलिये को कमीशन (दलाली) के तौर पर दिये गये थे? दूसरा, जब दो देशों की सरकारों के बीच रक्षा समझौता हो रहा है, तो कैसे किसी बिचौलिये को इसमें शामिल किया जा सकता है? तीसरा, क्या इस सबसे राफेल सौदे पर सवाल नहीं खड़े हो गये हैं? कांग्रेस ने चौथा सवाल यह किया है कि क्या इस पूरे मामले की जाँच नहीं की जानी चाहिए, ताकि पता चल सके कि इस सौदे के लिए किसको और कितने रुपये दिये गये?
क्या प्रधानमंत्री इस पर जवाब देंगे? याद रहे कांग्रेस ने राफेल सौदे में गम्भीर अनियमितताओं का आरोप लगाया था। पार्टी का आरोप था कि जिस लड़ाकू विमान को यूपीए सरकार ने 526 करोड़ रुपये में लिया था उसे एनडीए सरकार ने 1670 करोड़ प्रति विमान की दर से लिया। कांग्रेस ने यह भी सवाल उठाया था कि सरकारी एयरोस्पेस कम्पनी हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को इस सौदे में शामिल क्यों नहीं किया गया। इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ लगायी गयी याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने 14 नवंबर, 2019 को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि इस मामले की जाँच की ज़रूरत नहीं है। हालाँकि, विमान ख़रीद में राशि को इसमें नहीं जोड़ा गया था। मीडियापार्ट की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि राफेल लड़ाकू विमान सौदे में गड़बड़ी का सबसे पहले पता फ्रांस की भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसी एएफए को 2016 में हुए इस सौदे पर दस्तख़त के बाद लगा। एएफए को मालूम हुआ कि राफेल बनाने वाली कम्पनी दसॉ एविएशन ने एक बिचौलिये को 10 लाख यूरो देने पर रज़ामंदी जतायी थी। यह हथियार दलाल इस समय एक अन्य हथियार सौदे में गड़बड़ी के लिए आरोपी है। हालाँकि एएफए ने इस मामले को प्रोसिक्यूटर के हवाले नहीं किया। रिपोर्ट में कहा गया कि अक्टूबर 2018 में फ्रांस की पब्लिक प्रॉसिक्यूशन एजेंसी को राफेल सौदे में गड़बड़ी की चेतावनी मिली और उसी समय फ्रेंच क़ानून के मुताबिक दसॉ एविएशन के ऑडिट का भी समय हो गया।

कम्पनी के 2017 के खातों की जाँच का दौरान ‘क्लाइंट को गिफ्ट’ के नाम पर हुए 5,08,925 यूरो के ख़र्च का पता लगा। यह समान मद में अन्य मामलों में दर्ज ख़र्च राशि के मुक़ाबले कहीं अधिक था। मीडियापार्ट के दावे के मुताबिक, इस ख़र्च पर माँगे गये स्पष्टीकरण पर दसॉ एविएशन ने एएफए को 30 मार्च, 2017 का बिल मुहैया कराया, जो भारत की डेफसिस सॉल्यूशंस की तरफ़ से दिया गया था। यह बिल राफेल लड़ाकू विमान के 50 मॉडल बनाने के लिए दिये ऑर्डर का आधा काम के लिए था। इसके लिए प्रति पीस 20,357 यूरो की राशि का बिल थमाया गया। अक्टूबर, 2018 के मध्य में इस ख़र्च के बारे में पता लगने के बाद एएफए ने दसॉ से पूछा कि आख़िर कम्पनी ने अपने ही लड़ाकू विमान के मॉडल क्यों बनवाये और इसके लिए 20,000 यूरो की मोटी रक़म क्यों ख़र्च की गयी? साथ ही सवाल पूछे गये कि क्या एक छोटी कार के आकार के यह मॉडल कभी बनाये या कहीं लगाये भी गये? तब दसॉ और डेफसिस सॉल्यूशंस ने एक बयान में कहा था कि 36 राफेल लड़ाकू विमानों की आपूर्ति के लिए भारत के साथ सन् 2016 में किये गये सौदे में अनुबन्ध संरचना का किसी भी तरह उल्लंघन नहीं किया गया है।
दसॉ एविएशन के प्रवक्ता ने बयान में कहा कि एएफए सहित अन्य आधिकारिक संगठन बहुत-सी जाँचें करते हैं और हम कहना चाहते हैं कि 36 विमानों की ख़रीद में भारत के साथ हुए अनुबन्ध का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है। प्रवक्ता ने कहा कि दसॉल्ट एविएशन आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के रिश्वत रोधी प्रस्ताव और राष्ट्रीय क़ानूनों का कड़ाई से पालन करता है। उसने सभी आरोपों से इन्कार किया और कहा कि उसने राफेल की निर्माता कम्पनी दसॉल्ट एविएशन को इस विमान के 50 नक़ली मॉडल (प्रतिकृति) सप्लाई की थी। डेफसिस सॉल्यूशंस ने कर (टैक्स) रसीद पेश करते हुए इन आरोपों को ग़लत ठहराने का प्रयास किया। कम्पनी ने कहा कि यह मीडिया में सामने आये उन निराधार, बेबुनियाद और भ्रामक दावों का जवाब है, जो कहते हैं कि डेफसिस ने राफेल विमानों के 50 प्रतिकृति मॉडल की आपूर्ति नहीं की है।

 

वायुसेना के पास अब 21 राफेल


विवाद का विषय बने राफेल लड़ाकू विमान को भारत लाने का सिलसिला मोदी सरकार ने बहुत तामझाम के साथ शुरू किया था। इसमें कोई दो-राय नहीं कि राफेल आने से वायुसेना की ताक़त बढ़ी है। मई के आख़िर में तीन राफेल विमान भारत की धरती पर लैंड हुए और उन्हें पश्चिम बंगाल के हाशिमारा वायुसेना हवाई अड्डे पर तैनात करने की तैयारी की गयी है। इन तीन विमान के भारत आते ही अब वायुसेना के पास कुल 21 राफेल आ चुके हैं। भारत सरकार की तरफ़ से फ्रांस के साथ 36 राफेल विमान का सौदा किया गया है। इससे पहले 18 राफेल विमान की स्क्वाड्रन को अंबाला वायुसेना हवाई अड्डे पर तैनात किया गया था। बाक़ी जो 18 आने वाले हैं, उन्हें पश्चिम बंगाल के हाशिमारा वायुसेना हवाई अड्डे पर तैनात करने की योजना है। राफेल फाइटर विमान एमआइसीए और मेट्योर एअर-टू-एअर मिसाइल से लैस हैं। इनमें स्कैल्प एअर टू ग्राउंड क्रूज मिसाइल से हमला करने की क्षमता है और एक ख़ूबी यह भी है कि राफेल एक ही बार में 14 जगह सटीक निशाना लगा सकते हैं। सम्भावना है कि साल के आख़िर तक भारत को बाक़ी राफेल भी मिल जाएँगे।

 

“राफेल सौदे में शुरू की गयी फ्रांसीसी न्यायिक जाँच माकपा द्वारा उठायी गयी आशंकाओं की पुष्टि करती है कि पहले के ख़रीद समझौते को लेकर प्रधानमंत्री मोदी का बदला रुख़ गहरे भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग में फँस गया है। माकपा इस पूरे मामले में प्रधानमंत्री और सरकार की भूमिका की जाँच करने और सौदे की सच्चाई का पता लगाने के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति के गठन के लिए सितंबर, 2018 में उठायी गयी अपनी माँग को दोहराती है।”

सीताराम येचुरी
माकपा नेता

 

राहुल गाँधी का हमला


“कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने राफेल सौदे में कथित गड़बडिय़ों की फ्रांस में जाँच शुरू होने के बाद एक ट्वीट में लिखा- ‘ख़ाली जगह को भरिए, …मित्रों वाला राफेल है, टैक्स वसूली – महँगा तेल है, पीएसयू-पीएसबी की अन्धी सेल है और सवाल करो तो जेल है…मोदी सरकार… है!’
इससे पहले राहुल गाँधी ने अपने इंस्टाग्राम पर एक फोटो शेयर किया और कैप्शन दिया- ‘चोर की दाढ़ी…’ इस इंस्टाग्राम पोस्ट में राहुल गाँधी ने प्रधानमंत्री मोदी की एक तस्वीर को राफेल विमान के साथ एडिट करके शेयर किया। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने एक अन्य ट्वीट में लोगों से पोल के माध्यम से पूछा कि जेपीसी जाँच के लिए प्रधानमंत्री मोदी तैयार क्यों नहीं हैं? राहुल ने इस पोल में चार विकल्प दिये; 1- अपराधबोध, 2- मित्रों को भी बचाना है, 3- जेपीसी को राज्यसभा सीट नहीं चाहिए और 4- उपरोक्त सभी। ज़्यादातर लोगों ने चौथे विकल्प को चुना।

घुटने की चोट की वजह से टोक्यो ओलंपिक से रोजन फेडरर बाहर

दिग्गज टेनिस खिलाड़ी रोजर फेडरर घुटने की चोट की वजह से टोक्यो ओलंपिक से बाहर हो गए हैं। 20 बार के ग्रैंड स्लैम चौंपियन फेडरर ने इस बात की जानकारी अपने आधिकारिक ट्विंटर हैंडल के जरिए दी। उन्होंने ट्वीट किया, विंबलडन के दौरान मुझे दुर्भाग्य से घुटने में चोट लगी, जिसके कारण मैंने फैसला किया है कि मुझे टोक्यो ओलंपिक से बाहर रहना चाहिए।

फेडरर पहले टेनिस खिलाड़ी नहीं है, जिन्होंने टोक्यो ओलंपिक में न खेलने का फैसला किया हो। इससे पहले लाल बजरी के बादशाह कहने जाने वाले स्पेन के राफेल नडाल भी टोक्यो से अपना नाम वापस ले चुके हैं। वहीं, ऑस्ट्रेलिया के डॉमिनिक थिएम भी ओलंपिक से हट चुके हैं।

दुनिया के नंबर वन टेनिस खिलाड़ी नोवाक जोकोविच के पास गोल्डन स्लैम पूरा करने का अच्छा अवसर है, लेकिन उन्होंने अभी तक टोक्यो ओलंपिक में खेलने का पक्का फैसला नहीं लिया है। बता दें कि टोक्यो आलंपिक का आयोजन पिछले साल होना था, लेकिन कोरोना संक्रमण के चलते इसे एक साल के लिए टाल दिया गया था। इस साल भी हालात पूरी तरह से ठीक न होने के चलते बिना दर्शकों के ओलंपिक का आयोजन किया जा रहा है।

कोरोना वायरस के कारण जापा में बेहद सख्त नियम बनाए गए हैं, ताकि किसी भी तरह की कोताही न हो। कोरोना प्रोटोकाल को देखते हुए जोकोविच जापान की यात्रा करने को लेकर उहापोह की स्थिति में हैं। जोकोविच ने रविवार को विंबलडन खिताब जीतने के बाद कहा था, मुझे इस बारे में सोचना होगा। मेरी योजना शुरू से ही ओलंपिक खेलों में भाग लेने की थी लेकिन वर्तमान स्थित को देखकर मैं कुछ तय नहीं कर पा रहा हूं। उसने कहा था कि हालात 50-50 जैसे हैं।

नवजोत सिंह सिद्धू ने दिए ‘आप’ में जाने के संकेत

अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए जद्दोजहद शुरू हो चुकी है। पंजाब कांग्रेस में कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच विवाद छिपा नहीं है। कांग्रेस आलाकमान भी अभी निर्णायक नतीजे पर नहीं पहुंच सका है। इस बीच, आम आदमी पार्टी की तरह सिद्धू ने भी बिजली को मुद्दा बनाया। इस बीच, अब सिद्धू के ताजा ट्वीट ने इशारा कर दिया है कि वो आम आदमी पार्टी में अहम भूमिका अदा कर सकते हैं।
पंजाब के सीएमर के खिलाफ खुलकर हमला करने वाले कांग्रेस के विधायक नवजोत सिंह सिद्धू ने आम आदमी पार्टी (आव) की तारीफ करते हुए अपने पत्ते खोलने शुरू कर दिए हैं। महज तीन दिन पहले आम आदमी पार्टी के खिलाफ सिद्धू हमला बोलकर कहा था कि दिल्ली सरकार पंजाब में थर्मल प्लांट बंद कराना चाहती है। अगर ऐसा हो जाता तो इससे पंजाबियों को बिजली संकट होने के साथ ही किसानों की फसल की बर्बादी होगी

अब कैप्टन को घेरने वाले सिद्धू ने आप की तारीफ की है। सिद्धू ने मंगलवार को ट्वीट कर कहा कि पंजाब में विपक्षी पार्टी आप हमेशा मेरे विजन और काम को पहचाना है। 2017 में बेअदबी, ड्रग्स, किसान और भ्रष्टाचयार के मुद्दे हों या अब राज्य का मौजूदा बिजली संकट हो, इन सबमें या फिर अब मैं पंजाब मॉडल पेश कर रहा हूं। वो जानते हैं कि वास्तव में पंजाब के लिए कौन लड़ रहा है।

सिद्धू ने ट्वीट के साथ एक पुराना न्यूज वीडियो भी लगाया है। जिसमें उनके राज्यसभा से इस्तीफा देने के बाद पंजाब में आप की ओर से उनके लिए माहौल बनाने की बात कही गई है। वीडियो में आप नेता संजय सिंह उनकी तारीफ कर रहे हैं। संजय सिंह कहते हैं कि वो सिद्धू के इस साहसिक कदम और बहादुरी भरे फैसले का स्वागत करते हैं। सिद्धू और उनकी पत्नी अकाली दल के भ्रष्टाचार, ड्रग माफिया, किसानों की बदहाली के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं। इसी वीडियों में पंजाब आप के अध्यक्ष भगवंत मान सिद्धू की तारीफ कर रहे हैं। वे कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति अपने रोल मॉडल से बड़ा नहीं हो सकता। अगर सिद्धू पार्टी में आते हैं तो मैं सबसे पहला व्यक्ति होऊंगा, जो उनका स्वागत करूंगा।

अफ़ग़ान पर फिर तालिबान हावी

अमेरिकी सैनिकों की वापसी से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी लड़ाके करते जा रहे क़ब्ज़ा

एक तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान में पिछले क़रीब 20 साल से उलझी अमेरिकी सेना तेज़ी से स्वदेश लौट हो रही है, तो दूसरी तरफ़ वहाँ तालिबान का क़ब्ज़ा बढ़ता जा रहा है। इसी 9 जून को तालिबान ने दावा किया कि 85 फ़ीसदी अफ़ग़निस्तान पर उसका क़ब्ज़ा हो गया है। हालाँकि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान का क़ब्ज़ा कोई ऐसी बात नहीं है, जिसे टाला नहीं जा सकता। उनके मुताबिक, तीन लाख अफ़ग़ान सुरक्षा बलों के सामने 75 हज़ार तालिबान लड़ाके कहीं नहीं टिक सकेंगे। वैसे सम्भावना है कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की पूरी वापसी के बावजूद अमेरिकी दूतावास, काबुल हवाई अड्डे और अन्य प्रमुख सरकारी प्रतिष्ठानों की सुरक्षा में उसके 800 के क़रीब सैनिक तैनात रहेंगे। अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के आने से निश्चित ही भारत पर भी असर पड़ेगा, भले भारत ने कहा है कि वह अफ़ग़ानिस्तान में शान्ति और सम्पन्नता के लिए लगातार कोशिश करता रहेगा। फ़िलहाल भारत इस बात से भी इन्कार कर रहा है कि वह काबुल, कंधार और मज़ार-ए-शरीफ़ स्थित मिशन को बन्द करने जा रहा है।
अमेरिका ने अपने सैनिकों के अफ़ग़ानिस्तान से लौटने की अवधि भी घटाकर अब 31 अगस्त कर दी है। राष्ट्रपति जो बाइडन पहले ही अफ़ग़ानिस्तान से सेना वापस बुलाने के निर्णय का बचाव कर चुके हैं। वैसे जिस तेज़ी से अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिक वापस बुलाये गये हैं उस पर सवाल भी उठे हैं। हालाँकि बाइडन का कहना है कि ऐसा करके बहुत-सी ज़िन्दगियाँ बचायी गयी हैं। हालाँकि बाइडन के इस बयान के बीच चरमपंथी तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के नये इलाक़ों को लगातार अपने नियंत्रण में ले रहा है।
बता दें कि अमेरिका की सेना 11 सितंबर, 2001 को वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद अफ़ग़ानिस्तान गयी थी। इन 20 साल में अमेरिकी सेना लड़ी है। बाइडन के सत्ता सँभालने से पहले ही डोनॉल्ड ट्रंप प्रशासन ने तालिबान के साथ बातचीत की थी। उस समय मई, 2021 तक अमेरिकी सैनिकों की वापसी को लेकर सहमति हुई थी। हालाँकि बाइडन ने सत्ता में आने पर यह तारीख़ बढ़ा दी थी। भले कुछ लोग अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने के अमेरिका के फ़ैसले से असहमति जता रहे हों, लेकिन हाल में अमेरिका में हुए कई सर्वे में अमेरिकियों ने अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी को लेकर समर्थन जताया है। रिपब्लिकन समर्थक ज़रूर इस पर सन्देह जता रहे हैं।
अमेरिकी सैनिकों की वापसी का एक पड़ाव तब पूरा हो गया, जब 3 जुलाई को युद्धग्रस्त अफ़ग़ानिस्तान के विशाल बगराम वायुसेना हवाई अड्डे को छोडऩे की जानकारी वरिष्ठ अधिकारियों ने दी। यह हवाई अड्डा क़रीब 20 साल से अमेरिकी सैनिकों द्वारा तालिबान के ख़िलाफ़ युद्ध के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला प्रमुख सैन्य अड्डा रहा है। यह ख़बर सामने आते ही तालिबान ने बगराम सौंपे जाने का स्वागत किया। तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने मीडिया से कहा- ‘हम उम्मीद करते हैं कि हमारी ज़मीन पर कोई और विदेशी सैनिक नहीं है।’
अमेरिका के सैनिकों के हटने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में 17-18 हज़ार अनुवादक और द्विभाषियों की जान के लिए ख़तरा है। हालाँकि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना के लिए काम करने वाले अनुवादकों, द्विभाषियों और दूसरे अफ़ग़ानों को देश से बाहर निकालने की कोशिश की जा रही है। इनमें से ज़्यादातर वही हैं, जिन्हें तालिबान से जान का ख़तरा है। बाइडन के मुताबिक, इन लोगों के अमेरिका आने के लिए 2500 स्पेशल माइग्रेट वीज़ा जारी किये गये हैं। रिपोर्ट लिखे जाने तक इनमें से क़रीब आधे अमेरिका जा चुके थे।
तालिबान का बढ़ता आतंक
अमेरिकी सैनिकों का अफ़ग़ानिस्तान से वापस लौटना तालिबान के आतंक को और धार दे गया है। तालिबान ने जहाँ अफ़ग़ानिस्तान के क़रीब 85 फ़ीसदी हिस्से पर क़ब्ज़ा करने का दावा किया है, वहीं उसने ईरान से लगते सीमांत इलाक़ों तक क़ब्ज़ा कर लिया है।
मॉस्को में 10 जुलाई को तालिबान के एक प्रतिनिधिमंडल ने दावा किया कि उसने अफ़ग़ानिस्तान के कुल 398 ज़िलों में से 250 पर क़ब्ज़ा जमा लिया है। वैसे रिपोट्र्स में उसके इस दावे की पुष्टि नहीं की गयी है। तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने कहा कि उनका इस्लाम काला क़स्बे पर क़ब्ज़ा हो गया है। हालाँकि अफ़ग़ानिस्तान सरकार ने भी इसे लेकर कुछ नहीं कहा है। सरकारी अधिकारियों का इतना ही कहना है कि तालिबान के साथ संघर्ष जारी है। अफ़ग़ानिस्तान के गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि सभी अफ़ग़ान सुरक्षा बल इलाक़े में मौज़ूद हैं। तालिबान के क़ब्ज़े से इलाक़ों को छुड़ाने के प्रयास किये जा रहे हैं।
पहले की तरह अब अफ़ग़ानिस्तान पर अपना आतंक बढ़ाते हुए तालिबान ने अपने नियम-क़ानून लागू करने शुरू कर दिये हैं। इनमें कहा गया है कि कोई महिला घर के बाहर अकेले नहीं निकल सकती। मर्दों के लिए दाढ़ी बढ़ाना ज़रूरी कर दिया गया है।
कुछ रिपोट्र्स में यह भी कहा गया है कि तालिबान के दबाव और डर से अफ़ग़ानिस्तान के सुरक्षा बल सीमा पार करके ताजिकिस्तान पहुँच रहे हैं। ताजिकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा की राज्य समिति क़रीब 300 अफ़ग़ानी सैनिकों के आने की पुष्टि कर चुकी है। कुछ रिपोट्र्स यह संख्या 1000 के क़रीब बता रही हैं। बता दें तालिबान के उत्तर-पूर्वी बद़ख़्शान प्रान्त के अधिकतर ज़िलों पर क़ब्ज़ें के बाद अफ़ग़ान सेना का यह पलायन सामने आया है। कई ज़िलों में बिना संघर्ष के उन्होंने हथियार डाल दिये।
अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हमदुल्ला मुहिब ने वर्तमान घटनाओं पर कहा है कि तालिबान के क्षेत्र विस्तार का मतलब यह नहीं है कि अफ़ग़ानी उनका स्वागत कर रहे हैं। लोग अपने इलाक़ों की रक्षा के लिए तैयार हैं। सात ब्लैक हॉक हेलिकॉप्टर अफ़ग़ान राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा बलों को सौंपे गये हैं, जो चल रहे संघर्ष को नियंत्रण में लाने में मदद करेंगे। वहाँ के रक्षा मंत्रालय ने यह दावा भी किया है कि अफ़ग़ानी सेना के हाथों अब तक सैकड़ों तालिबानी आतंकवादी मारे गये हैं। अफ़ग़ान कमांडो बलों के कम-से-कम 10,000 सदस्य देश भर में तालिबान को ख़त्म करने में जुटे हैं। अमेरिका के एक ख़ूफिया आकलन में भी कहा गया है कि देश से अमेरिकी सेना पूरी तरह से हटने के महीनों के भीतर नागरिक सरकार को आतंकवादी समूह गिरा सकते हैं।
तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान में बढ़ते दबाव की बीच कुछ दूसरे देश अपने-अपने वाणिज्यिक दूतावासों को अब बन्द करने लगे हैं। उत्तर अफ़ग़ानिस्तान इलाक़ों में तालिबान के क़ब्ज़ें के बाद कुछ देशों ने उस इलाक़ें में अपने वाणिज्य दूतावास बन्द कर दिये हैं; जबकि ताजिकिस्तान में आरक्षित सैनिकों को दक्षिणी सीमा पर सुरक्षा और चाकचौबंद करने के लिए बुलाया जा रहा है।
उत्तरी बल्ख प्रान्त की राजधानी और अफ़ग़ानिस्तान के चौथे सबसे बड़े शहर मज़ार-ए-शरीफ़ में तुर्की और रूस के वाणिज्य दूतावासों के बन्द कर दिया है। ईरान ने कहा कि उसने शहर में स्थित अपने वाणिज्य दूतावास में गतिविधियों को सीमित कर दिया है। बल्ख प्रान्त में भी लड़ाई की ख़बर है; लेकिन प्रान्तीय राजधानी अपेक्षाकृत शान्त है। बल्ख प्रान्त के प्रान्तीय गवर्नर के प्रवक्ता ने हाल में कहा था कि कि उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, भारत और पाकिस्तान के वाणिज्य दूतावासों ने अपनी सेवाएँ कम कर दी हैं।

चीन की चाल
अफ़ग़ानिस्तान के बदख़्शान प्रान्त पर तालिबान का नियंत्रण होने के साथ ही इसके क़ब्ज़े वाले इलाक़ों की सीमा चीन के शिनजियांग प्रान्त की सीमा तक पहुँच गयी है। हाल में अमेरिकी अख़बार ‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल’ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, अतीत में अल-क़ायदा से जुड़े चीन के वीगर विद्रोही गुटों के साथ तालिबान के ऐतिहासिक सम्बन्ध रहे हैं और यह बात चीन की परेशानी का सबब रही है। हालाँकि अब तस्वीर बदल गयी है और तालिबान चीन की चिन्ताओं को शान्त करने की कोशिश कर रहा है। तालिबान का मक़सद है कि उसकी सरकार को चीन की मान्यता मिल जाए।
चीन के सरकारी अख़बार ‘साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट’ की रिपोर्ट के मुताबिक, तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने कहा है कि उनका संगठन चीन को अफ़ग़ानिस्तान के दोस्त के रूप में देखता है और उसे उम्मीद है कि पुनर्निमाण के काम में चीन के निवेश के मुद्दे पर जल्द-से-जल्द उनकी बातचीत हो सकेगी। तालिबान के प्रवक्ता ने कहा कि हम उनका स्वागत करते हैं। अगर वह (चीन) निवेश लेकर आता है, तो हम बेशक उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे। उसकी सुरक्षा हमारे लिए बेहद अहम है।’

युद्ध के नुक़सान
अफ़ग़ानिस्तान में 20 साल के तालिबान से युद्ध में अमेरिका को सेना, सुरक्षा, पैसे और आम ज़िन्दगियों की बड़ी क़ीमत अदा करनी पड़ी है। उसके क़रीब 2,312 पुरुष और महिला सैनिक इस युद्ध में मारे गये और उसे क़रीब 816 बिलियन डॉलर का नुक़सान भी झेलना पड़ा। इसके अलावा इस युद्ध में क़रीब 20,500 लोग घायल हुए, जिनमें से कुछ के अंग स्थायी रूप से चले गये। अमेरिका के अलावा सहयोगी देश ब्रिटेन के 450 और अन्य देशों के सैकड़ों सैनिकों की जान भी इस युद्ध में चली गयी, जबकि कई घायल हुए। अफ़ग़ानिस्तान को तो इससे भी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी। एक अभिलेख (रिकॉर्ड) के मुताबिक, उनके 55 से 60 हज़ार सुरक्षाकर्मी इस दौरान शहीद हुए, जबकि मरने वाले आम नागरिकों की संख्या सवा लाख के क़रीब मानी जाती है।

तालिबान के हाथ लगे अमेरिकी सैन्य हथियार
अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के लौटने का सबसे बड़ा फ़ायदा तालिबान को यह हुआ कि उसने ज़मीन हथियाने के साथ-साथ अमेरिका के सैनिकों के हवाई अड्डे में रखे हथियारों और सैन्य वाहनों पर क़ब्ज़े कर लिया है। हाल में फोब्र्स पत्रिका ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि सैन्य अड्डों को ख़ाली करने के दौरान अमेरिकी सैनिक जो सैन्य वाहन आदि वहाँ छोड़ रहे हैं, उनके अफ़ग़ानिस्तान सेना के क़ब्ज़ें में जाने के बजाय यह तालिबान के साथ लग रहे हैं। फोब्र्स की रिपोर्ट बताती है कि अमेरिकी सेना के 700 ट्रक और बख़्तरबंद वाहन तालिबान के क़ब्ज़े में पहुँच चुके हैं। बगराम वायुसेना हवाई अड्डे से भी तालिबान को बहुत कुछ हाथ लगा है, जिसे अमेरिकी सेना ने छोड़ दिया है। रिपोट्र्स के मुताबिक, उसके हाथ 270 फोर्ड रेंजर लाइट ट्रक, 141 नेविस्टार इंटरनेशनल 7,000 मीडियम ट्रक, एम1151 और कार्गो-बेड कॉन्फिगर हम्वी 329, तोपें, जबकि 21 ओशकोश बारूदी सुरंग प्रतिरोधी एटीवी भी हैं।
ज़ाहिर है ये सैन्य वाहन और हथियार तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान की सेना के मुक़ाबले ताक़तवर बनाने में मदद कर रहे हैं और अफ़ग़ानी सेना को कमज़ोर। रक्षा विशेषज्ञ अब मज़बूती से यह आशंका जताने लगे हैं कि तालिबान का दबदबा बढ़ा है और अफ़ग़ान सेना ही नहीं, सरकार भी कमज़ोर हुई है। बहुत-से जानकार मानते हैं कि यही स्थिति बनी रही, तो आने वाले समय में तालिबान राजधानी काबुल पर भी क़ब्ज़ा कर सकता है। एक और रिपोर्ट के मुताबिक, तालिबान ने अमेरिकी सेना के छोड़े वाहनों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर भी शेयर की हैं।

भारत का नज़रिया


विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अफ़ग़ान में तालिबान की बढ़ती ताक़त की रिपोट्र्स के मद्देनज़र स्पष्ट तौर पर कहा कि वह अफ़ग़ानिस्तान में शान्ति के लिए लगातार कोशिश करता रहेगा। वैसे भारत हालात को देखते हुए काबुल स्थित दूतावास या दूसरे वाणिज्य दूतावासों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या ज़रूर कम कर सकता है। जयशंकर की हाल की रूस यात्रा के दौरान अफ़ग़ान पर अहम चर्चा हुई है। रूस और भारत के विदेश मंत्रियों के बीच वार्ता को लेकर कहा गया है कि सकारत्मक रही। भारत अफ़ग़ानिस्तान सरकार और वहाँ के राजनीतिक दलों से भी लगातार सम्पर्क बनाये हुए है। अमेरिकी सेना की वापसी के बाद जिस तरह से अफ़ग़ानिस्तान में अस्थिरता फैली है, उसे देखते हुए रूस की भावी भूमिका पर सभी की नज़र है। हाल में यह ख़बरें बड़ी तेज़ी से सामने आयी हैं कि भारत तालिबान के साथ सम्पर्क में है। भारत सरकार ने भले इससे साफ़तौर पर इन्कार किया है; लेकिन माना जा रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के बदलते हालात को देखकर भारत अपने हितों को लेकर हर सम्भव कोशिश में जुटा हुआ है। पाकिस्तान मीडिया तो कमोवेश लगातार इस तरह की ख़बरें भी चला रहा है। याद रहे सन् 1999 में जब भारत के एक यात्री विमान का अपहरण हुआ था, उसे अफ़ग़ानिस्तान के कंधार हवाई अड्डे पर ले जाया गया था। तब यह क्षेत्र तालिबान के नियंत्रण में था, लिहाज़ा अपहरण करने वालों और भारत के बीच मध्यस्थता वही कर रहा था। भारत के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब भारत सरकार को तालिबान के साथ किसी तरह का कोई सम्पर्क साधना पड़ा हो। हालाँकि उसके बाद भारत सरकार और तालिबान के कभी किसी सम्पर्क की सूचना नहीं रही। एक देश के रूप में भारत हमेशा अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के साथ खड़ा रहा। सन् 1996 में विमान अपहरण से तीन साल पहले जब तालिबान ने वहाँ की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया था, तब भारत के राजनयिकों ने देश छोड़ दिया था। सन् 2001 में जब भारत ने अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ राजनयिक रिश्तों का हाथ बढ़ाया, तब अमरीका के नेतृत्व वाली नाटो फ़ौज ने तालिबान के ठिकानों पर हमले किये और उसे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। लेकिन चूँकि अब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में फिर ताक़त हासिल कर चुका है, भारत के सामने एक चुनौती तो बनी ही है।
पिछले क़रीब दो दशक में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में सैकड़ों परियोजनाओं और आर्थिक मदद में हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च किये हैं। पिछले साल नबंबर में ही भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में 150 नयी परियोजनाओं का ऐलान किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो सन् 2015 में भारत के सहयोग से बने अफ़ग़ानिस्तान संसद के नये भवन का उद्घाटन करने के अलावा सन् 2016 में हेरात में 42 मेगावॉट वाली बिजली और सिंचाई परियोजना का उद्घाटन तक कर चुके हैं। बीआरओ भी अफ़ग़ानिस्तान में कई सड़कों निर्माण में सहभागी है। वहाँ की सेना, पुलिस और अधिकारियों को प्रशिक्षण भारत में मिलता है। अब जबकि तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान में दबाव बढ़ा है, भारत इस पर गहराई से सोच रहा है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर का कहना है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में किसी भी तरह के इस्लामिक अमीरात का समर्थन नहीं करेगा। तालिबान ख़ुद को इस्लामिक अमीरात ऑफ अफ़ग़ानिस्तान के रूप में पेश करता रहा है। ज़ाहिर है भारत तालिबान को यह सन्देश दे रहा है कि उसे भारत का समर्थन मिलने की कल्पना नहीं करनी चाहिए। हालाँकि इसके बावजूद तालिबान से भारत की बातचीत की ख़बरें सामने आने से यह आभास तो मिलता ही है कि भारत अमेरिका सेना के पूरी तरह लौट जाने के बाद की स्थिति को लेकर कोई बेहतर विकल्प सोच रहा है।

 

“तालिबान अगले 100 वर्षों में भी अफ़ग़ान सरकार को आत्मसमर्पण करने पर मजबूर नहीं कर सकता। तालिबान और उसके समर्थक देश में वर्तमान रक्तपात और विनाश के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार हैं।”

अशरफ़ गनी
राष्ट्रपति, अफ़ग़ानिस्तान

सतत विकास लक्ष्य में बहुत पीछे हैं बड़े हिन्दी भाषी राज्य

 केंद्र शासित राज्यों में चंडीगढ़ पहले और दिल्ली दूसरे स्थान पर है
 राज्यों की प्रगति में केरल सबसे आगे, जबकि बिहार सबसे पीछे है

पिछले महीने नीति आयोग द्वारा सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) इंडिया इंडेक्स और डैशबोर्ड 2020-21 के तीसरे संस्करण को जारी किया गया। यह सूचकांक सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय क्षेत्रों में देश के राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों की प्रगति का मूल्यांकन करता है। यह सूचकांक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को 0-100 के पैमाने पर मापता है, जहाँ 100 का अर्थ लक्ष्य की प्राप्ति है तथा 0 सबसे ख़राब प्रदर्शन को दर्शाता है। हालाँकि भारत के किसी भी राज्य ने 100 अंक प्राप्त नहीं किये हैं। यानी देश का कोई भी राज्य पूर्ण विकास नहीं कर पाया है।
इस सूचकांक रिपोर्ट के अनुसार, केरल ने 75 अंक हासिल करके पहला स्थान हासिल किया है, जबकि बिहार सबसे निचले पायदान पर है। वहीं तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश 74 अंक के साथ दूसरे स्थान पर हैं। इसी तरह एक समान अंक 72 पाकर चार राज्य- आंध्र प्रदेश, गोवा, कर्नाटक तथा उत्तराखण्ड तीसरे स्थान पर क़ाबिज़ हुए हैं। 71 अंक के साथ देश का उत्तर-पूर्वी राज्य सिक्किम चौथे पायदान पर है। वहीं जनसंख्या की दृष्टि से देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य महाराष्ट्र 70 अंक प्राप्त कर पाँचवें स्थान पर है। बिहार को महज़ 52 अंक मिले हैं, जबकि झारखण्ड और असम ने बिहार से अच्छे अंक प्राप्त किये हैं; लेकिन इन तीनों राज्यों का प्रदर्शन बाक़ी राज्यों की तुलना में बेहद ख़राब हैं। हिन्दी भाषी क्षेत्र के दो बड़े राज्य राजस्थान और उत्तर प्रदेश का प्रदर्शन भी ख़राब रहा है। वहीं केंद्र शासित प्रदेशों में चंडीगढ़ ने 79 अंक हासिल करते हुए शीर्ष स्थान और दिल्ली 68 अंक के साथ दूसरा स्थान प्राप्त किया है।


वैसे तो सभी राज्यों ने कुछ क्षेत्रों में अच्छा करके अपने पिछले प्रदर्शन में सुधार किया है; लेकिन मिजोरम, हरियाणा तथा उत्तराखण्ड उन राज्यों में शामिल हैं, जिन्होंने 2019 की तुलना में 2020-21 में अपने अंकों में सबसे ज़्यादा वृद्धि की है। इस बार अपने प्रदर्शन में तेज़ी से सुधार करने वाले ये तीनों राज्य ‘सबसे आगे चलने वाली’ श्रेणी में शामिल हो गये हैं।
राज्यों की सूची में अव्वल आने वाले केरल तथा केंद्र शासित प्रदेशों में अव्वल रहे चंडीगढ़ ने गुणात्मक शिक्षा और भुखमरी रोकने के क्षेत्र में बेहतर कार्य किया है। स्वच्छ पानी और स्वच्छता के क्षेत्र में गोवा और लक्षद्वीप का प्रदर्शन बेहद सराहनीय रहा है। वहीं शान्ति, न्याय तथा मज़बूत संस्थाओं के मामले में उत्तराखण्ड और पुडुचेरी ने बेहतर प्रदर्शन किया है। लैंगिक समानता की दिशा में छत्तीसगढ़ और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह ने अच्छा प्रदर्शन किया है।
इस रिपोर्ट के अनुसार, देश ने साफ़ पानी एवं स्वच्छता तथा सस्ती एवं स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सुधार किया है। वहीं उद्योग, नवाचार तथा आर्थिक विकास के क्षेत्रों में बड़ी गिरावट देखी गयी है। यह सूचकांक राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों को उनके द्वारा प्राप्त किये गये अंकों के आधार पर चार श्रेणियों में विभाजित करता है, जिसमें पहली श्रेणी में ‘प्रतियोगी’ राज्य, दूसरी में ‘प्रदर्शन करने वाले’ राज्य, तीसरी में ‘सबसे आगे चलने वाले’ राज्य तथा चौथी में ‘लक्ष्य पाने वाले’ राज्य हैं। इस सूचकांक के मुताबिक, देश का कोई भी राज्य अथवा केंद्र शासित प्रदेश ‘प्रतियोगी’ (0-49 अंक) तथा ‘लक्ष्य पाने वाले’ राज्य (100 अंक) की श्रेणी में शामिल नहीं है। देश के 15 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश ‘प्रदर्शन करने वाले’ राज्य (50-64 अंक) की श्रेणी में शामिल हैं; जबकि 22 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश ‘सबसे आगे चलने वाले’ राज्यों (65-99 अंक) की श्रेणी में शामिल हैं।
यह सूचकांक लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में देश के राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है। इस रिपोर्ट को राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों, सम्बन्धित मंत्रालयों तथा संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों के साथ विचार-विमर्श करके तैयार किया गया है। इस सूचकांक की शुरुआत सन् 2018 में की गयी थी। 2018-19 में जारी इसके पहले संस्करण में 13 उद्देश्यों, 39 लक्ष्यों और 62 संकेतकों का प्रयोग हुआ था। वहीं 2019-20 में जारी इसके दूसरे संस्करण में 17 उद्देश्यों, 54 लक्ष्यों और 100 संकेतकों को शामिल किया गया था। एसडीजी के लक्ष्यों में सुधार के लिए इस वर्ष जारी तीसरे संस्करण में 17 उद्देश्यों, 70 लक्ष्यों और 115 संकेतकों को शामिल कर प्रगति मापने का पैमाना बनाया गया।
ध्यान रहे यह सूचकांक राष्ट्रीय प्राथमिकताओं से जुड़ा ही है, साथ ही इसे बनाने के पीछे एजेंडा 2030 के तहत वैश्विक सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में बेहतर प्रदर्शन करना है। नीति आयोग के पास देश में सतत विकास लक्ष्यों को अपनाने तथा इसके पर्यवेक्षणों पर निगरानी करने का अधिकार प्राप्त है।

पिछड़े राज्यों को करना होगा सुधार
यह बहुत दु:खद है कि देश के कुछ राज्य तो बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, परन्तु हिन्दी भाषी क्षेत्र के बड़े राज्यों ने अपने प्रदर्शन से काफ़ी निराश किया है। ये वो राज्य हैं, जहाँ देश की एक बड़ी आबादी आज भी ग़रीबी तथा बेरोज़गारी की मार झेल रही है। यहाँ आज भी हर किसी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। इस रिपोर्ट में पता चलता है कि सबसे ख़राब प्रदर्शन करने वाले पाँच राज्यों में हिन्दी भाषी क्षेत्र के चार राज्य शामिल हैं; जिसमें बिहार, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान जैसे बड़े राज्य हैं। जबकि हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखण्ड जैसे छोटे हिन्दी भाषी राज्यों ने इस सूचकांक में काफ़ी बेहतर प्रदर्शन किया है। लेकिन मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ का प्रदर्शन बेहतर नहीं रहा। देश के दो बड़े पूर्वी राज्य ओडिशा तथा पश्चिम बंगाल की भी स्थिति अच्छी नहीं है; क्योंकि ये अग्रणी (टॉप) 15 राज्यों में भी शामिल नहीं हैं। पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों का प्रदर्शन इनसे अच्छा है और ये ‘सबसे आगे चलने वाले’ राज्यों की श्रेणी में शामिल हैं। ऐसा पहली बार नहीं है कि हिन्दी भाषी क्षेत्र के बड़े राज्यों का प्रदर्शन ख़राब है; राष्ट्रीय स्तर की पिछली ज़्यादातर रिपोट्र्स में इनका प्रदर्शन दक्षिण और पश्चिम भारत के राज्यों के मुक़ाबले बेहद ख़राब रहा है। इन राज्यों को महाराष्ट्र, तमिलनाडु, और कर्नाटक जैसे बड़े राज्यों के प्रदर्शनों से कुछ सीखना चाहिए। हालाँकि कुछ हिन्दी राज्यों ने कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया है; लेकिन बड़े राज्यों को स्वास्थ्य, शिक्षा, लैंगिक समानता तथा न्याय के क्षेत्र में बेहतर करने के अलावा इन्हंत ग़रीबी तथा भुखमरी को ख़त्म करने के लिए महत्त्वपूर्ण प्रयास करने चाहिए। कुल मिलाकर वैश्विक सतत विकास लक्ष्यों में से हिन्दी भाषी राज्यों को पहले पाँच लक्ष्यों पर बेहद गम्भीरता से कार्य करने की ज़रूरत है। अगर स्थिति को बेहतर करना है, तो हिन्दी प्रदेशों के बड़े राज्यों को सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में बहुत-से कार्य करने होंगे। इस रिपोर्ट में आश्चर्य की बात यह है कि छोटे राज्यों के प्रदर्शन में बहुत विविधता देखी गयी है। जहाँ हिमाचल प्रदेश, गोवा, सिक्किम तथा मिजोरम जैसे राज्यों का प्रदर्शन शानदार रहा है, वहीं अरुणाचल प्रदेश तथा मेघालय फिसड्डी साबित हुए हैं। कुछ उत्तर-पूर्वी राज्यों को भी बेहतर प्रदर्शन करने की ज़रूरत है। केंद्र शासित प्रदेशों, ख़ासकर चंडीगढ़ तथा दिल्ली के बेहतर प्रदर्शन को इसी से समझा जा सकता है कि आठ केंद्र शासित प्रदेशों में सात ‘सबसे आगे चलने वाले’ केंद्र शासित प्रदेशों की श्रेणी में शामिल हैं। केवल एक केंद्र शासित प्रदेश दादरा एवं नगर हवेली और दमन एवं दीव इस सूची से बाहर है। इस संघ प्रशासित क्षेत्र को अभी बेहतर प्रदर्शन करने की ज़रूरत है।
एसडीजी रिपोर्ट के अनुसार, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के बेहतर प्रदर्शन से देश के समग्र एसडीजी में छ: अंकों का सुधार हुआ है और यह 60 अंकों से बढ़कर 2020-21 में 66 हो गया है। इस सूचकांक के जारी होने के कुछ ही दिनों बाद वैश्विक स्तर पर वार्षिक सतत विकास रिपोर्ट (एसडीआर) 2021 जारी की गयी। सतत विकास लक्ष्यों वाले इस वैश्विक सूचकांक में भारत को 165 देशों की सूची में 120वाँ स्थान मिला है, जो कि पहले से ख़राब है। पिछले साल भारत इस सूचकांक में 117वें स्थान पर था। इस सूचकांक में एक बार फिर से उत्तरी यूरोप के देशों फिनलैंड, स्वीडेन, तथा डेनमार्क ने अपना दबदबा बनाये रखा है। ये तीनों देश क्रमश: पहले, दूसरे तथा तीसरे पायदान पर रहकर सर्वोच्च प्रदर्शन करने वाले देश बने हैं। इस रैंकिंग में चौथे और पाँचवें स्थान पर यूरोपीय देश जर्मनी और बेल्जियम हैं। इस सूचकांक में शामिल सभी देशों के प्रदर्शन को वैश्विक स्तर पर निर्धारित 17 सतत विकास लक्ष्यों के पैमाने पर मापा गया।
भारत वैश्विक सतत विकास लक्ष्यों में तभी बेहतर कर पाएगा, जब देश के सभी राज्य तथा केंद्र शासित प्रदेश हर महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में बहुत बेहतर प्रदर्शन करेंगे। हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग क्षेत्रों में लोगों के जागरूक होने से लैंगिक भेदभाव में कमी आयी है। लेकिन सतत विकास के लिए अभी हर राज्य को हर क्षेत्र में गम्भीरता से कार्य करना होगा।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)