हरियाणा में दबाव की राजनीति का पैंतरा

हरियाणा में इन दिनों राजनीतिक सरगर्मियाँ कुछ ज़्यादा ही बढ़ी हुई हैं। किसान आन्दोलन से भाजपा-जजपा सरकार पस्त है। मंत्री और सत्ता पक्ष के विधायक सहमे हुए हैं। गाँवों में उनके बहिष्कार के बोर्ड लगे हुए हैं। सरकारी कार्यक्रम तक नहीं हो पा रहे हैं। मुख्यमंत्री मनोहर लाल और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला तक अपने विधानसभा हलक़ों में जाने से डर रहे हैं। विपक्ष को किसान आन्दोलन पूरी तरह से रास आ रहा है। वे चाहते हैं कि आन्दोलन लम्बा खिंचे। ज़ाहिर है आन्दोलन जितना चलेगा, वह उतना ही वह सत्तापक्ष के लिए नुक़सानदेह होगा। कांग्रेस को तो ऐसे में सत्ता की काफ़ी उम्मीद होने लगी है।
पूर्व मुख्यमंत्री और इंडियन नेशनल लोकदल सुप्रीमो (इनेलो) प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला सज़ा पूरी करने के बाद जेल से रिहा चुके हैं। उम्र के इस पड़ाव में वह प्रदेश की राजनीति में नये समीकरण बनाने की बातें कह रहे हैं। सत्ता की उम्मीद में अब कांग्रेस में पार्टी का प्रमुख चेहरा बनने की नयी क़वायद शुरू हो गयी है। पार्टी में दबाव की राजनीति का चलन काफ़ी पुराना है। राजनीतिक दलों में इसे तुरुप माना जाता है, जिसके चलते न चाहते हुए भी बहुत बार बड़े उलटफेर होते रहे हैं। इन दिनों हरियाणा कांग्रेस में इसकी शुरुआत हो गयी है।
पूर्व मुख्यमंत्री भूपेद्र सिंह हुड्डा अब पार्टी के अब ख़ूद को पार्टी के प्रमुख चेहरे के तौर पर आगे लाने के इच्छुक हैं। वह विपक्ष के नेता के अलावा जनाधार वाले माने जाते हैं। अगर कोई अदालती फ़ैसला उनके ख़िलाफ़ नहीं आता है, तो आगामी विधानसभा चुनाव वही पार्टी के प्रमुख चेहरे के तौर पर होंगे। 31 में से 24 विधायक उनके समर्थक हैं। विधायकों पर उनकी पकड़ है; लेकिन पार्टी संगठन में नहीं। लिहाज़ा वह इसमें बदलाव चाहते हैं; लेकिन यह इतना आसान नहीं। क्योंकि मौज़ूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुमारी शैलजा की पहुँच सीधे नेतृत्व तक है। वह सोनिया गाँधी की भरोसेमंद हैं और उन्हें अशोक तँवर की तरह आसानी से हटाना मुमकिन नहीं। तँवर के साथ तो उनका 36 का आँकड़ा हो गया था, कई बार दोनों के समर्थकों में मारपीट जैसी स्थिति बन चुकी है।
आख़िरकार हुड्डा ने दबाव की राजनीति अपनायी और तँवर को पद छोडऩा पड़ा। बाद में उन्होंने पार्टी ही छोड़ दी। तबसे वह राज्य की राजनीति से ओझल हो गये हैं। तँवर की जगह हुड्डा की पसन्द पर ही शैलजा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। अब वही हुड्डा और उनके समर्थकों को अखर रही हैं। हुड्डा उनकी जगह अपने कट्टर समर्थक को कुर्सी पर लाना चाहते हैं, ताकि संगठन पर उनकी पूरी तरह से पकड़ हो जाए; जैसा कि पहले भी वह कर चुके हैं। लेकिन शैलजा के रहते ऐसा सम्भव नहीं है। विधानसभा चुनाव से पहले हुड्डा अपने को और ज़्यादा मज़बूत करने में लगे हुए हैं; लेकिन उनके लिए स्थितियाँ ज़्यादा अनुकूल नहीं हैं। उनके ख़िलाफ़ कई मामले अदालतों में लम्बित हैं। बावजूद इसके वह और उनके समर्थक डटे हुए हैं।


कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव के.सी. वेणुगोपाल से उनके दो दर्ज़न विधायक मिलकर सारी स्थिति स्पष्ट कर चुके हैं। बता चुके हैं कि प्रदेश में पार्टी संगठन बहुत कमज़ोर है। ज़िला स्तर पर पार्टी की समितियाँ तक गठित नहीं हो रही हैं। कमज़ोर हुए संगठन को मज़बूत करने की ज़रूरत है और इसके लिए मौज़ूदा संगठन में आमूलचूल बदलाव करने की ज़रूरत है। वेणुगोपाल ने हुड्डा समर्थकों के पक्ष को सुना है। इसके बाद वह सारी रिपोर्ट केंद्रीय नेतृत्व के पास रखेंगे। संगठन में बदलाव ज़रूरी है या नहीं, प्रदेश अध्यक्ष को बदलने की ज़रूरत है या नहीं? इसका फ़ैसला सोनिया गाँधी को करना है।
कुमारी शैलजा ने भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से मिलकर अपना पक्ष रखा है। अपने कार्यकाल के दौरान शैलजा ने संगठन में कोई ऐसा बड़ा बदलाव नहीं किया, जो हुड्डा या अन्य किसी वरिष्ठ नेता की नाराज़गी का कारण बने। वह सभी गुटों को साथ लेकर चलने में भरोसा रखती हैं; लेकिन वह संगठन की मज़बूती के लिए ज़्यादा कुछ नहीं कर पायी हैं। हुड्डा ज़िला, ब्लॉक और राज्य स्तर पर संगठन में बड़ा बदलाव चाहते हैं। अहम पदों पर अपने समर्थकों को बैठाना चाहते हैं। जब उनके समर्थक उन पर दबाव बनाने का प्रयास करते हैं, तो उनके लिए बदलाव ही एक रास्ता नज़र आता है। प्रदेश कांग्रेस में कई गुट है; लेकिन कोई ऐसा मज़बूत नहीं, जो हुड्डा को चुनौती दे सके। विगत वर्षों में ऐसे कई प्रयास हुए; लेकिन हुड्डा से पार नहीं पा सके। क्योंकि वह दबाव की राजनीति करना बख़ूबी जानते हैं। पार्टी से असन्तुष्ट जी-23 के वरिष्ठ नेताओं में हुड्डा भी शामिल हैं। पार्टी नेतृत्व को बख़ूबी पता है कि हरियाणा में हुड्डा का फ़िलहाल कोई विकल्प नहीं है। ऐसे में उनकी नाराज़गी पार्टी हित में नहीं होगी। पंजाब में पार्टी नेता खुलेआम मुख्यमंत्री के नेतृत्व पर सवाल खड़े कर रहे हैं, सरकार की आलोचना कर रहे हैं। अनुशासनहीनता भी हो रही है। बावजूद इसके अभी तक किसी भी नेता पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। नेतृत्व फूँक-फूँककर क़दम रख रहा है कि कहीं कोई कार्रवाई पार्टी हित के ख़िलाफ़ न चली जाए।
कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व का मतलब गाँधी परिवार ही है; लेकिन वहाँ भी तीन पक्ष- सोनिया, राहुल और प्रियंका खड़े नज़र आते हैं। किसी गुट को राहुल का समर्थन है, तो किसी को प्रियंका का और किसी को सोनिया का आशीर्वाद है। हरियाणा भी गुटबाज़ी से अछूता नहीं है। लेकिन फ़िलहाल स्थितियाँ अनुकूल नहीं; लिहाज़ा कोई गुट सामने नहीं आ रहा। शैलजा के बदलाव के प्रयासों पर कुछ दलित नेताओं की नाराज़गी है, जिसे वह समय आने पर प्रकट कर सकते हैं। उनकी राय में हुड्डा और उनके समर्थक नहीं चाहते कि कोई दलित नेता या नेत्री प्रदेश अध्यक्ष पद पर रहे। इसके जवाब में हुड्डा समर्थक विधायकों का कहना है कि प्रदेश में पार्टी संगठन बहुत कमज़ोर है। जब तक संगठन मज़बूत नहीं होगा, पार्टी की सत्ता में वापसी मुश्किल है। लिहाज़ा पहले इसे ठीक करना होगा।
शैलजा ने अपने कार्यकाल के दौरान संगठन के लिए कुछ भी नहीं किया है; जबकि बहुत कुछ करने की ज़रूरत है। जो काम उन्हें कुर्सी सँभालने के बाद शुरू कर देने चाहिए थे, वो अब तक नहीं कर पायी हैं। प्रदेश में और कई दलित नेता या नेत्री हो सकते हैं, जो उनसे (शैलजा) से बेहतर नतीजे दे सकते हैं। उन्हें क्यों मौक़ा नहीं मिलना चाहिए? हुड्डा समर्थक पूर्व विधानसभा अध्यक्ष आर.एस. कादियान कहते हैं कि हम लोगों ने अपना पक्ष के.सी. वेणुगोपाल और हरियाणा के पार्टी प्रभारी विवेक बंसल के सामने रख चुके हैं। यह सब कुछ पार्टी हित में किया जा रहा है; किसी विशेष के ख़िलाफ़ कोई काम नहीं हो रहा है। किसी तरह की कोई अनुशासनहीनता नहीं हो रही है। संगठन की मज़बूती के लिए कुछ भी करना पड़े, इसमें क्या दिक़्क़त है?
हुड्डा समर्थकों की राय में- ‘प्रदेश कांग्रेस में कोई गुटबाज़ी नहीं है। पार्टी एक है और भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाएगा। पिछले विधानसभा चुनाव में जिस तरह से हुड्डा के नेतृत्व में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया है। अब तो स्थितियाँ हमारे अनुकूल होती जा रही हैं। पार्टी सत्ता में वापसी करेगी और इसके लिए सबसे पहले संगठन को मज़बूत बनाना होगा और कोशिश उसी के लिए हो रही है। कोई भी विधायक या पार्टी का नेता पार्टी मंच के बाहर बयानबाज़ी नहीं कर रहा है।’

हुड्डा की राह में रोड़े
समर्थक हुड्डा को विस चुनाव में पार्टी के भावी मुख्यमंत्री के तौर पर आगे देखना चाहते हैं; पर डगर इतनी आसान तो नहीं है। हुड्डा पर गाँधी परिवार को आर्थिक तौर पर बहुत फ़ायदा पहुँचाने के आरोप है। एक दौर में वह गाँधी परिवार के क़रीबी लोगों में थे; लेकिन अब वह बात नहीं है। उनके ख़िलाफ़ कई मामले हैं, जिनमें प्रमुख तौर पर दो में तो कार्रवाई काफ़ी आगे तक पहुँच चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने एसोसिएट जर्नल लिमिटेड (नेशनल हेराल्ड) से जुड़ मामले की जाँच सीबीआई से कराने का आदेश दिया है। मुख्यमंत्री रहते भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने उक्त कम्पनी को पंचकूला के सेक्टर-6 में सी-17 प्लॉट कोडिय़ों के भाव दे दिया था। उस समय प्लॉट का बाज़ार भाव 64 करोड़ 93 लाख रुपये आँका गया था; लेकिन कम्पनी को यह मात्र 59 लाख 39 हज़ार में दे दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद जल्द ही सीबीआई जाँच शुरू कर देगी; जो हुड्डा के गले की फाँस बन सकती है। इसके अलावा गुडग़ाँव ज़िले के मानेसर में 1500 करोड़ के भूमि घोटाले का मामला है। आरोप है कि बिल्डर्स और कॉलोनाइजर को फ़ायदा पहुँचाने के लिए किस तरह से नियमों में बदलाव किये गये। इसके अलावा रोहतक में हुए भूमि घोटाले का मामला भी है। मुख्यमंत्री रहते हुड्डा के कार्यकाल के दौरान सन् 2002 में रोहतक के विकास के लिए हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण ने 850 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया। अप्रैल, 2003 में सरकार ने 441 एकड़ भूमि ही ली; बाक़ी 409 एकड़ भूमि विकास कार्यों के लिए निजी बिल्डरों और कॉलोनाइजर को सौंप दी। सन् 2013 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय और सन् 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने भूमि अधिग्रहण के फ़ैसले को ग़लत ठहराते हुए कुछ अ$फसरों पर टिप्पणी की थी। मार्च, 2018 में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर मामले की जाँच सीबीआई से कराना चाहती थी; लेकिन ऐसा नहीं हो सका। सन् 2017 में इस मामले की जाँच सेवानिवृत्त आईएएस राजन गुप्ता ने की। पूरी जाँच के बाद रिपोर्ट में उन्होंने किसी पर इस मामले में ज़िम्मेदारी तय नहीं की। हुड्डा इन तीनों ही मामलों में हैं; लिहाज़ा उनके लिए राजनीति की डगर काफ़ी मुश्किल भरी है। बावजूद इसके वह हरियाणा में पार्टी के लिए जनाधार वाले नेता हैं। परदे के पीछे अपने को प्रमुख चेहरे के तौर पर उभारने के प्रयास में लगे हुड्डा पूरी स्थिति समझते हैं। क़ानूनी मुश्किलों का उन्हें भी पता है; लेकिन जब तक कोई फ़ैसला आता नहीं, वह अपने को निश्चिंत ही मानकर चल रहे हैं।