भेदभाव की गहरी जड़ें

कई मज़हब, कई रस्ते, कई मत हो गये हैं।
ख़ूदा है एक, लेकिन हम अदावत कर रहे हैं।
यह विडम्बना ही है कि इंसान जैसे-जैसे ख़ुद को विद्वान और मज़हब का पाबंद मानता जा रहा है, वैसे-वैसे वह इंसानियत के रिश्तों से कटता जा रहा है। नफ़रतों को हवा देता जा रहा है। इन नफ़रतों का हाल यह है कि दुनिया में धीरे-धीरे कई मज़हब हो गये और फिर उन मज़हबों में भी कई-कई पन्थ, कई-कई मत हावी हो गये। यह कुछ ऐसा ही है जैसे एक ही पिता के कई बच्चे बड़े और समझदार होकर एक साथ रहना पसन्द नहीं करते; और वे सब न केवल एक-दूसरे से अलग होते हैं, बल्कि गाहे-ब-गाहे एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप भी लगाते रहते हैं। यहाँ तक कि कई बार आपस में मर-कट भी जाते हैं।
आज जिस तरह से हम सब एक परमपिता के बच्चे होते हुए भी एक ही ज़मीन पर रहकर, आपस में नफ़रतें कर रहे हैं; बात-बात पर झगड़े कर रहे हैं; उससे हमारी समझदारी नहीं, बल्कि बेअक़्ली ही साबित होती है। आज चाहे सनातन धर्म हो, मज़हब-ए-इस्लाम हो, ईसाई धर्म हो, बौद्ध धर्म हो, जैन धर्म हो, यहूदी धर्म हो; सभी में दो-फाड़ सा$फ-साफ़ दिखती है।
सनातन धर्म की अगर बात करें, तो शायद यह दुनिया का इकलौता ऐसा धर्म होगा, जिसमें सबसे ज़्यादा मतभेद हैं। यहाँ तक कि इसे मानने वालों में आपसी मतभेद के साथ-साथ इतनी नफ़रतें हैं कि इस धर्म को मानने वाले एक-दूसरे से तमाम सरोकार होते हुए भी एक-दूसरे के हाथ का पानी पीना तो दूर एक साथ बैठना भी पसन्द नहीं करते। सनातन धर्म के लोग कभी देवी-देवताओं के नाम पर अलग-थलग रहे हैं, कभी मान्यताओं -परम्पराओं के नाम पर, तो कभी वर्ण और जाति-व्यवस्था के नाम पर। इस धर्म में अगर कोई सबसे ख़राब और कोढ़ की तरह फैली कोई बुराई है, तो वह है ज़ात-पात। वेदों और कुछ अन्य धर्म ग्रन्थों की मानें, तो इस धर्म के सभी लोग एक ही पुरुष मनु और एक ही स्त्री श्रद्धा से जन्मे हैं। लेकिन अफ़सोस है कि आज तक कोई भी एक होकर नहीं रह सका। यहाँ तक कि एक ही जाति के लोग भी आपस में कुल, गोत्र और ऊँच-नीच के नाम पर इस क़दर बँटे हुए हैं कि इनके पागलपन पर हँसी के साथ-साथ तरस आता है।
इसी तरह मज़हब-ए-इस्लाम में शिया और सुन्नी के बीच खड़ी नफ़रत की दीवार दोनों को एक-दूसरे का दुश्मन बनाये हुए है। इस मज़हब के मानने वालों में मुल्कों के हिसाब से, ज़ात-पात के हिसाब से, मान्यताओं के हिसाब से, इबादत के हिसाब से भी भरपूर बँटवारा है। आज इस्लाम में भी हालात यह हैं कि अल्लाह एक है; इस एक मत को छोड़कर सब अपनी-अपनी सोच और मज़हब को निभाने के तरीक़ों को मानते हैं। इसका नतीज़ा यह है कि इनकी आपसी नफ़रतों का कोई अन्त होता नहीं दिखता। इस मज़हब में भी ऊँच-नीच का भेदभाव विकट है।
ईसाई धर्म की बात करें, तो पता चलता है कि इस धर्म में भी तीन समुदाय हैं- कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और ऑर्थोडॉक्स। सभी ईसाई इन तीन पन्थों में इस तरह बँटे हुए हैं कि आपसी नफ़रतों से घिरे हैं। इसके अलावा इस धर्म के मानने वालों की एक और बड़ी ख़राबी यह है कि इस धर्म में दूसरे धर्म से आने वालों को वह इज़्ज़त और वह स्थान नहीं मिलता, जैसा इस धर्म में पैदा हुए लोगों को मिलता है। बौद्ध धर्म भी हीनयान और महायान में बँटा हुआ है। इसके अलावा इस धर्म में भी ऊँच-नीच, ज़ात-पात, देशों के हिसाब से नफ़रत और एक-दूसरे को असली बौद्ध न मानने की ऐसी नफ़रती परम्परा है कि सभी बुद्ध के बताये रास्ते से भटके हुए दिखायी देते हैं। इसी तरह जैन धर्म में भी दो-फाड़ है। इस धर्म के लोग दिगम्बर और श्वेताम्बर के नाम पर बँटे हुए हैं। इसके अलावा इस धर्म के लोगों में और भी कई तरह के भेदभाव फैले हुए हैं। विडम्बना यह है कि जिस धर्म के दरवाज़े महावीर स्वामी ने सभी जातियों तथा धर्मों के लिए खोले थे, उन्हें इस धर्म के लोग अब दूसरे धर्म, दूसरी जातियों के लिए बन्द कर चुके हैं और उनसे नफ़रत करते हैं। यही हाल यहूदी धर्म का है। इस धर्म के लोग 12 ज़ातियों के नाम पर तो बँटे हुए हैं ही, देशों की सीमाओं के नाम पर तगड़े भेदभाव के शिकार हैं। जैसे, इजरायल के यहूदी बाहरी यहूदियों से भेदभाव करते हैं।
आज दुनिया के तक़रीबन 98 सदी मज़हबों में बुरी तरह भेदभाव फैला हुआ है; जिसकी जड़ें गहरी हैं कि उन्हें उखाड़ फेंकना आसान नहीं रह गया है। यानी एक भी मज़हब को उसके मानने वालों ने विशुद्ध नहीं रहने दिया। उसमें अलग-अलग रास्ते, अलग-अलग मत निकाल लिये और तय कर लिया कि भले ही मज़हब एक हो और सभी मज़हब बिल्कुल स्पष्ट कहते हों कि ईश्वर एक है। लेकिन हमें किसी भी हाल में एक नहीं होना है। हमें सीधे-सरल तरीक़े से, मोहब्बत से, अख़लाक़ से ज़िन्दा नहीं रहना है। मार-काट, नफ़रत, जलन, बुराई के बग़ैर हम नहीं जी सकते। क्या हम जानवरों से भी गये-बीते नहीं हैं? क्या हम पागल हैं? क्या हम इंसान हैं? क्या हम इस पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान प्राणी हैं? क्या हम ईश्वर की सबसे प्यारी सन्तान हैं? मेरे ख़याल से तो बिल्कुल नहीं। किसी भी हाल में नहीं। बल्कि मैं तो यही कहूँगा कि हम इंसान सबसे वाहियात, सबसे बड़े पागल और सबसे ज़्यादा तुच्छ हैं। हमने दिमाग़ होते हुए भी उसका धर्म के मामले में कभी भी सही इस्तेमाल नहीं किया। क्या हमें अब भी इंसान कहलाने का हक़ रह गया है? क्या हम सभी प्राणियों में श्रेष्ठ हैं? शायद नहीं।