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अभी मैदान में हैं इमरान!

शेक्सपियर ने लिखा था- ‘होना या न होना, यही बड़ा सवाल है।’ यह बात किसी हद तक पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पर लागू होती है। कहा जा सकता है कि इमरान ख़ान बोल्ड हो गये हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वह वास्तव में आउट हो गये हैं? पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ के सदस्य जिस तरह से इस्लामाबाद, कराची, पेशावर, मलकंद, मुल्तान खानेवाल, खैबर, झांग और क्वेटा जैसे शहरों में रैलियाँ निकाल रहे हैं, उससे लगता है कि क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान ख़ान आख़िरी गेंद तक खेलने के लिए तैयार हैं। उन्होंने पाकिस्तान में अपनी सरकार के जाने के पीछे विदेशी षड्यंत्र बताया है। इसके ख़िलाफ़ नये स्वतंत्रता संग्राम की घोषणा के साथ अपना इरादा साफ़ कर दिया है।

इस पखवाड़े ‘तहलका’ के लिए अपनी आवरण कथा में विशेष संवाददाता राकेश रॉकी लिखते हैं- ‘सत्ता में आकर नया पाकिस्तान बनाने का वादा करने वाले इमरान ख़ान सत्ता चले जाने के बाद अब देश की जनता के बीच जाकर आज़ादी की नयी जंग लडऩे का ऐलान कर चुके हैं। इमरान का एजेंडा साफ़ है-जनता के बीच रहकर वर्तमान सत्तारूढ़ गठबंधन को भ्रष्ट बताते जाना, ताकि अगले चुनाव तक ख़ुद को प्रासंगिक बनाकर रखा जाए।’

नये घटनाक्रम के बाद पाकिस्तान 75 साल के अपने इतिहास में जकड़ी हुई राजनीतिक और आर्थिक अनिश्चितता को देखते हुए ख़ुद को चौराहे पर खड़ा महसूस करता है। पाकिस्तान में अगला आम चुनाव 2023 के आख़िर में होना है और इससे पहले मौज़ूदा उथल-पुथल शायद ही कम हो। यह स्थिति हम पर कैसे प्रभाव डालती है? यह आने वाले दिनों में देखा जाएगा; क्योंकि पहले ही पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ संकेत दे चुके हैं कि वह भारत के साथ सम्बन्ध सुधारना चाहते हैं।

जैसा कि अपेक्षित था, पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय को अविश्वास प्रस्ताव ख़ारिज करने के फ़ैसले को रद्द करके इमरान ख़ान के सत्ता में बने रहने की हताश कोशिश में मध्यस्थता करनी पड़ी। पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में विपक्ष के अपना अविश्वास जीतने के कारण इमरान ख़ान का कार्यकाल तय समय से 16 महीने पहले समाप्त हो गया। ख़ान ने भ्रष्टाचार मुक्त और 10 मिलियन नौकरियाँ सृजित करने वाले जिस ‘नये पाकिस्तान’ का वादा किया था, वह कभी नहीं हो सका और वह अपने वादों पर खरे नहीं उतरे। अर्थ-व्यवस्था डूब गयी और मुद्रास्फीति 13 फ़ीसदी के उच्च स्तर तक बढ़ गयी, जिससे उन्हें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, चीन और मध्य पूर्व से भीख माँगने के लिए मजबूर होना पड़ा। इधर पाकिस्तान की शक्तिशाली सेना के साथ उनके सम्बन्धों में पूरी तरह से दरार आ गयी थी।

वास्तव में पाकिस्तान के लोकतंत्र के लिए उभरता ख़तरा नये प्रधानमंत्री, शहबाज़ शरीफ़ के सत्ता में आ जाने के बाद भी ख़त्म नहीं हुआ है। उन्होंने पिछली सरकार पर अर्थ-व्यवस्था के कुप्रबंधन का आरोप लगाते हुए कहा है कि इसे वापस पटरी पर लाना उनकी सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी। उनके सामने एक और चुनौती सेना के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध रखने की है, जो देश में ताक़तवर हैसियत रखती है। अगले सेना प्रमुख की नियुक्ति और एक स्वतंत्र विदेश नीति बनाने की चुनौती भी उनके समक्ष है। अपदस्थ प्रधानमंत्री ने उन्हें हटाने की साज़िश के पीछे विदेशी ताक़तों का हाथ बताया था। ज़ाहिर है इमरान ख़ान भी शहबाज़ के लिए चुनौती हैं, जो 2023 के संसदीय चुनाव के लिए अभी से तैयारी में दिखते हैं। इमरान ख़ान कह चुके हैं कि वह आख़िरी गेंद तक लड़ेंगे।

चरणजीत आहुजा

मनरेगा में पश्चिम बंगाल शीर्ष पर

केंद्र से 2,786 करोड़ रुपये लेने का राज्य अभी भी कर रहा इंतज़ार

महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत रोज़गार आवंटन और धन का उपयोग करने के मामले में पश्चिम बंगाल सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला राज्य बन गया है। हालाँकि जब बात धन प्राप्त करने की आती है, तो उसे अभी तक केंद्र से 2,786 करोड़ रुपये की राशि का इंतज़ार है।

बंगाल में सत्तारूढ़ टीएमसी ने एक ट्वीट में कहा- ‘ञ्चममता बनर्जी के अनुकरणीय नेतृत्व में मनरेगा (2021-22) में काम करने वाले कुल व्यक्तियों (नियोजित) में बंगाल सभी राज्यों में पहले स्थान पर है। बंगाल सरकार ने मनरेगा के ज़रिये क़रीब 1.1 करोड़ लोगों को काम दिया। यह प्तबंगालमॉडल है, जिसका ञ्चनरेन्द्रमोदी जी केवल सपना देख सकते थे।’

पार्टी ने एक अन्य ट्विटर पोस्ट में कहा- ‘कार्य दिवस सृजन (2021-22) में बंगाल सभी राज्यों में दूसरे स्थान पर है, जिसने 36.4 करोड़ कार्य दिवस सृजित किये हैं। राज्य के 2,876 करोड़ रुपये केंद्र सरकार से 31 मार्च, 2022 तक लम्बित हैं। हम अभी भी भुगतान की प्रतीक्षा कर रहे हैं और सोच रहे हैं कि क्या सरकार अधिक समय सोने और ज़हर उगलने में बिताती है।’ ग्रामीण विकास राज्य मंत्री राम कृपाल यादव के हाल में राज्यसभा में उपलब्ध कराये गये आँकड़ों के अनुसार, पश्चिम बंगाल ने अब तक इस योजना के तहत 28.21 करोड़ से अधिक कार्य दिवस सृजित किये हैं और इसके लिए 7,335.31 करोड़ रुपये से अधिक ख़र्च किये हैं।

मंत्री ने यह जानकारी तृणमूल कांग्रेस के सदस्य मानस रंजन भुनिया के एक सवाल के जवाब में दी। उन्होंने यह भी कहा कि तमिलनाडु ने 22.17 करोड़ कार्य दिवसों के साथ दूसरे स्थान पर क़ब्ज़ा कर लिया और 5,981.75 करोड़ रुपये ख़र्च किये। आंध्र प्रदेश 18.16 करोड़ कार्य दिवसों और 5,054.17 करोड़ रुपये के फंड के साथ तीसरे स्थान पर रहा।

भाजपा शासित राज्य पीछे

भूनिया ने कहा कि गोवा, गुजरात और उत्तर प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों का प्रदर्शन प्रभावशाली नहीं रहा। गोवा को 94,000 कार्य दिवसों के साथ सूची में सबसे नीचे स्थान दिया गया है, जिसने महज़ 2.47 करोड़ रुपये ख़र्च किये हैं। गुजरात ने 2.93 करोड़ कार्य दिवस सृजित किये और 793.50 करोड़ रुपये की धनराशि ख़र्च की, जबकि उत्तर प्रदेश ने 15.6 करोड़ कार्य दिवसों का सृजन किया और 3701.54 करोड़ रुपये की धनराशि का उपयोग किया।

पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस राज्य के सीमावर्ती इलाक़ों में मनरेगा और जीएसटी बक़ाया और बीएसएफ की ज्यादतियों के मुद्दों पर केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर आन्दोलन शुरू करने की तैयारी में है। लोकसभा और विधानसभा के एक-एक सीट के उपचुनाव हो जाने के बाद अब पार्टी ये विरोध-प्रदर्शन शुरू करने जा रही है। पश्चिम बंगाल में यह उपचुनाव 12 अप्रैल को हुए, जिसके नतीजे 16 अप्रैल को घोषित होने हैं। इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस नेतृत्व ग़ैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से भी सम्पर्क करेगा और उनसे मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्रव्यापी आन्दोलन का हिस्सा बनने का आग्रह करेगा।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों को लगता है कि यह पहल ममता बनर्जी की दीर्घकालिक योजना से प्रेरित है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनकी पार्टी देश में भाजपा विरोधी ताक़तों की एकता बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सके।

तृणमूल कांग्रेस ने दावा किया है कि पश्चिम बंगाल को अभी तक भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से 2,786 करोड़ रुपये का मनरेगा बक़ाया नहीं मिला है। पार्टी ने हाल ही में केंद्र की तरफ़ से जारी एक सूची का हवाला देते हुए कहा कि पूर्वी राज्य महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत 2021-22 में 1.1 करोड़ लोगों को काम देकर रोज़गार प्रदान करने में सबसे ऊपर है और श्रम दिवस सृजित करने में दूसरे स्थान पर है।

पाकिस्तान में सत्ता पलट

नयी शहबाज़ सरकार से भारत को बेहतर रिश्तों की उम्मीद

पाकिस्तान में थोड़े दिन चले राजनीतिक घटनाक्रम के बाद सत्ता पलट गयी और शहबाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में विपक्ष की साझी सरकार सत्ता में आ गयी। पड़ोस में हुए इस राजनीतिक बदलाव के बाद भारत में द्विपक्षीय बातचीत की उम्मीद की जाने लगी है। इसका कारण है- नये प्रधानमंत्री शहबाज़ के बड़े भाई पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के साथ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहतर सम्बन्ध होना। जम्मू-कश्मीर में धारा-370 ख़त्म होने जैसे घटनाक्रमों के बीच यह देखना दिलचस्प होगा कि पाकिस्तान का नया नेतृत्व भारत के साथ रिश्तों को लेकर क्या रूख़ अपनाता है? इसकी सम्भावनाओं पर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

इमरान ख़ान जब सत्ता के आख़िरी हफ़्ते में थे और वहाँ जबरदस्त राजनीतिक हलचल थी, तो इस बीच उन्होंने वहाँ के सेना प्रमुख और कुख्यात सरकारी एजेंसी आईएसआई के प्रमुख को हटाने का इरादा बनाया था। भारत पाकिस्तान के घटनाओं पर नज़र रखे हुए था और हमारे देश के थिंक टैंक में यह आशंका उभरी थी कि इमरान की इस कोशिश के नाकाम होने पर कहीं सेना सत्ता न हथिया ले। हालाँकि ऐसा नहीं हुआ और विपक्ष के गठबंधन ने इमरान ख़ान को सत्ता से बाहर करके अपनी सरकार बना ली। नये प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के अब तक के राजनीतिक सफ़र को देखें, तो उनके बयान भारत को लेकर मिलेजुले रहे हैं। हालाँकि यह तय है कि शहबाज़ के राजकाज में उनके भाई पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ का दख़ल रहेगा। लिहाज़ा सम्भावना है कि सरकार के बाक़ी बचे डेढ़ साल में भारत से रिश्ते सुधारने की पहल हो। शरीफ़ भारत के पड़ोसी देशों के उन नेताओं में शामिल हैं, जो सन् 2014 में नरेंद्र मोदी के चुनाव जीतने पर उनके शपथ ग्रहण में ख़ासतौर पर शामिल हुए थे। बहुत कम लोगों को पता होगा कि शरीफ़ बंधुओं के पूर्वज भारतीय कश्मीर के अनंतनाग से ताल्लुक़ रखते थे। वैसे सत्ता में आने के बाद अपने पहले बयान में शहबाज़ ने कश्मीर राग छेड़ा है। लेकिन यह उनकी राजनीतिक मजबूरी हो सकती है; क्योंकि सेना कश्मीर के मसले पर राजनीतिक दबाव बनाकर रखती है। फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर को लेकर शहबाज़ सकारात्मक पहल करेंगे।

पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन भारत के लिए इसलिए भी बहुत अहम है कि पड़ोस के अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत है और चीन के साथ भारत की तनातनी कम नहीं हुई है। यूक्रेन युद्ध के चलते वैश्विक राजनीतिक और कूटनीतिक स्थितियाँ बदली हैं और भारत भी इससे बड़े स्तर पर प्रभावित हुआ है। ऐसे में पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों को बेहतर करने की कोशिश होती है, तो यह बेहतर ही होगा।

शहबाज़ शरीफ़ के लिए आने वाला समय काफ़ी चुनौतीपूर्ण होगा, इसमें कोई दो-राय नहीं। उन पर आंतरिक और बाहरी दोनों ही दबाव रहेंगे। इमरान ख़ान ने जिस तरह जाते-जाते अमेरिका को कोसा है, उससे पाकिस्तान के राजनीतिक और ब्यूरोक्रेटिक हलक़ों में काफ़ी बेचैनी महसूस की गयी थी। भले पाकिस्तान की जनता अमेरिका को बहुत पसन्द न करती हो, वहाँ के हुक्मरान यह समझते हैं कि सीधे अमेरिका से पंगा लेना उनके देश को बहुत मुश्किल में डाल सकता है। यह माना जाता है कि इमरान ख़ान के अपने ख़िलाफ़ होने से अमेरिका सख़्त नाराज़ था और वह उन्हें सत्ता से बाहर करना चाहता था। ज़ाहिर है शहबाज़ शरीफ़ को उस मोर्चे पर भी काम करके अमेरिका से पाकिस्तान के रिश्तों को पटरी पर लाना होगा।

इमरान ख़ान ने भले ही जाते-जाते भारत का गुणगान किया हो; लेकिन यह कड़वा सच है कि उनके तीन साल के सत्ताकाल में भारत और पाकिस्तान के रिश्ते निम्न स्तर पर रहे। न कोई बातचीत हुई और न किसी तरह की पहल। उलटे कश्मीर को लेकर तल्ख़ियाँ और गहरी हुईं। दोनों देशों के बीच पहले से जो आदान-प्रदान था, वह भी पूरी तरह से बन्द हो गया। हालाँकि शहबाज़ शरीफ़ के आने से कुछ बेहतर होने की उम्मीद की जा सकती है; भले उनके पास अगले चुनाव से पहले बहुत कम वक़्त है। दूसरे जिस गठबंधन के वह नेता हैं, उसमें भारत के साथ रिश्तों को लेकर गम्भीर तरह की वैचारिक भिन्नता है। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि शहबाज़ और नवाज़ अब भारत से कैसे रिश्ते रखते हैं? क्योंकि अब नवाज़ शरीफ़ के पाकिस्तान लौटने की सम्भावना है।

हालाँकि ज़्यादातर जानकार मानते हैं कि अब भारत की पहल ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होगी, जो हमेशा से पाकिस्तान में वहाँ की सत्ता और सेना / आईएसआई के आतंकवाद को प्रश्रय देने का सख़्त विरोध करता रहा है और आज भी अपनी इस नीति पर कायम है। जम्मू-कश्मीर में स्थितियाँ पहले से काफ़ी बदल गयी हैं और वहाँ राज्य को विशेष दर्जा देने वाली धारा-370 को कब का ख़त्म किया जा चुका है। भारत की सरकार आने वाले महीनों में वहाँ विधानसभा के चुनाव कराने की सोच रखती है। लिहाज़ा पाकिस्तान से बातचीत की पहल सूबे में माहौल को बेहतर कराने में मददगार साबित हो सकती है। इससे चुनाव को शान्तिपूर्ण तरीके से निपटाने में भी मदद मिलेगी। भले ही वहाँ की अलहदगी पसन्द हुर्रियत कॉन्फ्रेंस और आतंकवादी तंज़ीमें चुनाव के बॉयकॉट की अपील हमेशा करती रही हैं और इस बार भी करेंगी।

 

इमरान और शहबाज़

इसमें कोई दो-राय नहीं कि इमरान ख़ान जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने, तो चीन की तरफ़ उनके देश का झुकाव ज़्यादा हुआ। इमरान ख़ान के अमेरिका विरोधी सुर काफ़ी पहले से महसूस किये जाने लगे थे। यहाँ तक कि पिछले एक साल में जब जो बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति बने, तो एक बार भी उन्होंने इस्लामाबाद फोन नहीं किया, जबकि इस दौरान उनकी प्रधानमंत्री मोदी से कई बार बात हुई है। शायद इसका ही असर था कि इमरान ख़ान यूक्रेन युद्ध शुरू होने से ऐन पहले क्रेमलिन पहुँच गये और उन्होंने राष्ट्रपति पुतिन से मुलाक़ात की। माना जाता है कि इसके बाद ही इमरान ख़ान की सत्ता की उल्टी गिनती शुरू हो गयी।

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में हाल के वर्षों में काफ़ी तल्ख़ी दिखी है। ख़ासकर पुलवामा और बालाकोट के समय ऐसा लगने लगा था कि कहीं युद्ध की नौबत ही न आ जाए। इमरान का स्टैंड भी भारत को लेकर इन ढाई-तीन साल में अलग ही दिखा है। पुलवामा के आतंकी हमले और बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में जो कड़वाहट आयी थी, वह लगातार बढ़ी है। इमरान कई मौक़े पर सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर हमला करते रहे और उन्होंने आरएसएस को भी निशाने पर लिया। भले राजनयिक स्तर पर भारत और पाकिस्तान आधिकारिक तौर पर एक-दूसरे से जुड़े रहे हों, दोनों में रिश्ते ख़राब होते गये हैं।

यह एक कड़वा सच है कि भारत और पाकिस्तान के बीच जब भी रिश्ते बेहतर करने की पहल होती है, वहाँ की एजेंसी आईएसआई उप पर मिट्टी डालने में कोई कसर नहीं छोड़ती। इसका कारण आईएसआई है। क्योंकि यदि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बेहतर होते हैं, तो उनकी कोई क़ीमत नहीं रह जाएगी। लिहाज़ा रिश्ते पटरी पर लाने की राजनीतिक कोशिश इतनी आसान नहीं होगी।

पाकिस्तान की राजनीति के जानकार मानते हैं कि शहबाज़ के सेना के अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। उनके मुताबिक, शहबाज़ के ताक़तवर फौज के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध हैं और जिस तरह सेना आज भी सुरक्षा और विदेश नीति के मामलों में अपना दख़ल रखती है, उसमें राजनीतिक सरकार के लिए स्वतंत्रता के साथ काम करने में दिक्क़त रहती ही है। लेकिन एक सच यह भी है कि हाल के कुछ वर्षों में पाकिस्तान की सेना की ताक़त कुछ कम हुई है।

कई जानकार मानते हैं कि पाकिस्तान में इमरान ख़ान बनाम विपक्ष की हाल में जो राजनीतिक जंग हुई, यदि सेना पुराने समय वाले तेवर दिखाती, तो सत्ता आज शहबाज़ के हाथ नहीं, सेना के हाथ होती। पाकिस्तानी जनरल बाजवा के समय भले सेना का विदेश और रक्षा मामलों में हस्तक्षेप रहा हो, यह उस स्तर का नहीं था जो जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के समय रहा था। उन्होंने सन् 1999 में सत्ता पर क़ब्ज़ा किया था। वैसे देखा जाए, तो पाकिस्तान में हुए अब तक के तख़्तापलट में यह आख़िरी था। उसके बाद पाकिस्तान में राजनीतिक सरकारें ही रहीं, भले वो पूरा समय न चल पायी हों। वैसे जनरल जिया-उल-हक़ तानाशाह के रूप में सबसे लम्बा शासन करने वाले फ़ौजी जनरल रहे, जिन्होंने क़रीब 11 साल सत्ता सँभाली। उनकी एक हेलीकॉप्टर हादसे में मौत हुई। इस हादसे को हमेशा संदिग्ध माना जाता रहा है।

इमरान ख़ान के जाने से दोनों देशों के सम्बन्धों में एक  ख़ालीपन तो आया है; लेकिन इमरान का जाना इस लिहाज़ से बेहतर हो सकता है कि उनके काल में बातचीत के स्तर पर कुछ नहीं हुआ। जाते-जाते भले इमरान ने भारत की विदेश नीति के क़सीदे पड़े; लेकिन यह उनकी आंतरिक राजनीति थी। उन्होंने बतौर प्रधानमंत्री भारत के ख़िलाफ़ काफ़ी ख़राब भाषा का इस्तेमाल किया था।

हालाँकि एक और सच यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी के शहबाज़ शरीफ़ के भाई पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ से अच्छे ताल्लुक़ात रहे हैं। जानकार मानते हैं कि शहबाज़ सरकार पर नवाज़ शरीफ़ की सोच की छाप रहेगा और हस्तक्षेप भी। लिहाज़ा उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले कुछ महीनों में भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत का रास्ता खुले। हालाँकि इसमें एक पेच यह ज़रूर है कि पाकिस्तान में अक्टूबर, 2023 में अगले चुनाव होने हैं। लिहाज़ा शरीफ़ बंधुओं का ध्यान आंतरिक राजनीति पर ज़्यादा रहेगा।

लेकिन जानकार मानते हैं कि इस बात की काफ़ी सम्भावना है कि यदि कोई बड़ी (आतंकी) घटना नहीं होती है, तो शहबाज़ कुछ महीने में भारत के साथ पटरी से उतरे रिश्तों को सही करने की पहल कर सकते हैं। इसमें निश्चित ही नवाज़ शरीफ़ की बड़ी भूमिका होगी। नवाज़ शरीफ़ की पार्टी पीएमएल (एन) का रूख़ हमेशा से भारत से बातचीत की समर्थक पार्टी वाला माना जाता रहा है।

पुराने समय की याद करें, तो ज़ाहिर होता कि अटल बिहारी वाजपेई से लेकर नरेंद्र मोदी तक नवाज़ शरीफ़ के व्यक्तिगत रिश्ते ख़राब नहीं रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने शरीफ़ की माँ के लिए साड़ी भिजवायी, तो उधर से मोदी की माँ के लिए शरीफ़ की तरफ़ से ख़ास साड़ी आयी। अच्छी बात यह है कि तमाम तल्ख़ियों के बावजूद दोनों देशों के बीच सीमा तनाव के लिए युद्ध विराम अभी भी काम कर रहा है।

पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल बाजवा ने हाल में कहा था कि यदि भारत चाहे, तो पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे पर आगे बढ़ सकता है। इसे सकरात्मक रूप से देखा जाना चाहिए, क्योंकि हमेशा पाकिस्तान की सेना पर शक के आधार पर हमेशा अविश्वास नहीं किया जा सकता; क्योंकि वैश्विक स्तर पर हालत में काफ़ी बदलाव आया है। दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि दक्षिण एशिया या बाहर अपने पड़ोसियों से भारत के सम्बन्धों में सुधार आया है। चाहे नेपाल हो, मालदीव हो या यूएई और सऊदी अरब हों। चीन को छोड़कर भारत ने इन देशों से रिश्तों को बेहतर किया है।

हंबनटोटा बंदरगाह पर चीन के श्रीलंका के साथ समझौते के बाद उसका जो झुकाव बीजिंग की तरफ़ था, उससे भारत में काफ़ी चिन्ता थी। लेकिन श्रीलंका के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाने की जो कोशिश भारत ने की थी, वह श्रीलंका के हाल के आर्थिक संकट में भारत की मदद से और मज़बूत हुई है। अरब देशों के साथ भारत के रिश्ते और भी महत्त्वपूर्ण हैं। इसका दबाव पाकिस्तान पर भी पड़ता है। पाकिस्तान का नेतृत्व इसे समझता है। इमरान ख़ान के शासनकाल में अमेरिका के साथ पाकिस्तान के गड़बड़ हुए रिश्तों से पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व ही नहीं, सेना पर भी दबाव बना है।

पाकिस्तान को जानने वाले कहते हैं कि वहाँ सेना की राजनीतिक भूमिका धीरे-धीरे सीमित हो रही है। इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव के मामले में एक हफ़्ते की सियासी खींचतान के बाद पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय की तरफ़ से बड़ा फ़ैसला आना अपने आपमें अहम है। हाल के दशकों में किसी सरकार को हटाने में सेना की ही भूमिका रहती आयी है। लेकिन इस बार पाकिस्तान के राजनीतिक घटनाक्रम के बीच सेना अध्यक्ष बाजवा की तरफ़ से मात्र एक ही टिप्पणी आयी, जिसमें उन्होंने कहा कि यह एक राजनीतिक घटनाक्रम है और सेना का इससे कुछ लेना-देना नहीं। इसका श्रेय इमरान ख़ान को भी कुछ हद तक दिया जा सकता है, जिन्होंने अमेरिका की दादागिरी के ख़िलाफ़ बोलने की हिम्मत भी दिखायी।

कुछ जानकार इसे पाकिस्तान में लोकतंत्र मज़बूत होने के संकेत के रूप में देखते हैं। यदि हक़ीक़त में पाकिस्तान में लोकतंत्र मज़बूत होता है, तो इसे भारत ही नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र के लिए शुभ माना जाएगा। यदि पाकिस्तान की विदेश नीति में सेना का हस्तक्षेप कम या ख़त्म होता है तो राजनीतिक संस्थान अपने हिसाब से भारत या दूसरे पड़ोसी देश से नीति तय कर पाएगा। नवाज़ शरीफ़ यूपीए सरकार के समय सन् 2013 में भारत आये थे। उस दौरान शहबाज़ पाकिस्तान हिस्से के पंजाब के मुख्यमंत्री थे। नवाज़ ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाक़ात के बाद पत्रकार वार्ता (प्रेस कॉन्फ्रेंस) में भारत के साथ मिलकर काम करने पर ज़ोर दिया था।

याद रहे 25 दिसंबर, 2015 में प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीने बाद नरेंद्र मोदी ने रूस से लौटते हुए अचानक लाहौर में उतरकर सबको चौंका दिया था। ख़ुद पाकिस्तानी नवाज़ शरीफ़ ने हवाई अड्डे आकर उनकी अगुआई की थी। उस समय ऐसा लगा था कि यह दोनों देशों के रिश्तों में नया अध्याय लिखने की तैयारी है। हालाँकि इस मुलाक़ात के हफ़्ते भर बाद ही पठानकोट एयरबेस पर पाकिस्तानी आतंकियों ने हमला कर दिया। बहुत-से जानकार मानते हैं कि इस घटना के पीछे सेना और आईएसआई थे, जो नहीं चाहते थे कि दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व में दोस्ती हो और उनकी (सेना और आईएसआई की) अहमियत कम हो जाए।

 

अब क्या करेंगे इमरान?

सत्ता में आकर ‘नया पाकिस्तान’ बनाने का वादा करने वाले इमरान ख़ान सत्ता चले जाने के बाद अब देश में जनता के बीच जाकर ‘आज़ादी की नयी जंग’ लडऩे का ऐलान कर चुके हैं। बिलावल भुट्टो ने उनकी सरकार जाने के बाद कहा था कि ‘पुराना पाकिस्तान’ लौट आया है; लेकिन पीटीआई नेता इसे ‘लुटेरों का फिर सत्ता में आना’ बता रहे हैं। इमरान का एजेंडा साफ़ है कि जनता के बीच रहकर वर्तमान सत्तारूढ़ गठबंधन को भ्रष्ट बताते जाना। पाकिस्तान में भ्रष्टाचार की जड़ें काफ़ी गहरी हैं। इमरान हाल के दशकों में पाकिस्तान के शायद इकलौते नेता हैं, जिन पर तीन साल सत्ता में रहने के बावजूद भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा है। यही कारण है कि ख़स्ता हो चुकी आर्थिक हालत और जबरदस्त महँगाई के बावजूद विपक्ष पर तीखे आक्रमण कर रहे हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार सीधे रूप से जनता को प्रभावित करने वाला मुद्दा है।

इमरान ख़ान ने आने वाले डेढ़ साल तक जनता के बेच रहकर रैलियाँ करने का ऐलान किया है। बहुत-से जानकार मानते हैं कि संसद में सरकार हारने के बावजूद इमरान ख़ान की जनता में लोकप्रियता है और वह अगले चुनाव में पीएमएल-एन और पीपीपी को कड़ी टक्कर देने की स्थिति में रहेंगे, बशर्ते इस दौरान कोई बड़ा राजनीतिक उलटफेर न हो। इमरान ख़ान की राजनीतिक स्थिति वैसी ही है, जैसी आज भारत में नरेंद्र मोदी की है। जैसे यहाँ एक तरफ़ मोदी और और दूसरी तरफ़ सारा विपक्ष है, वैसे पाकिस्तान में एक तरफ़ इमरान ख़ान और दूसरी तरफ़ सारा गठबंधन (अब सत्तारूढ़) है।

इमरान ख़ान को लगता है कि यह गठबंधन टिकाऊ नहीं है। क्योंकि उनके जो मतभेद हैं, वो बहुत गहरे हैं। लिहाज़ा उनका रैलियों के ज़रिये जनता में बने रहने का अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को निर्देश इसी रणनीति का हिस्सा है, ताकि अगले चुनाव में सत्ता में लौटने का रास्ता खुला रहे।

 

धारा-370 और पाकिस्तान

जम्मू-कश्मीर में धारा-370 ख़त्म किये जाने पर पाकिस्तान के सभी राजनीतिक दलों का स्टैंड कमोवेश एक-सा रहा है। इसके बाद दोनों पक्षों में और दूरी आयी है। पाकिस्तान के किसी भी राजनीतिक नेता के लिए धारा-370 ख़त्म होने के बावजूद बातचीत के मेज पर आना उतना आसान नहीं है, क्योंकि सेना और आईएसआई दोनों इसे भारत के ख़िलाफ़ प्रोपेगंडा के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। भले भारत ने इसे अपना अंदरूनी मामला बताया था; लेकिन पाकिस्तान और उसके समर्थक अंतरराष्ट्रीय संगठन इसे वैश्विक मंच पर कश्मीरियों पर ज़्यादती बताते हुए भारत के ख़िलाफ़ प्रचारित करते रहे हैं। ऐसे में पाकिस्तान के नए नेतृत्व के लिए भी यह पेच रहेगा ही।

शहबाज़ शरीफ़ के बारे में कहा जाता है कि उनकी छवि कठिन कार्यों में कोई कसर न छोडऩे वाली रही है। हाल में एक टीवी इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया था कि उनके नेतृत्व में अमेरिका से सम्बन्ध कैसे होंगे? तो उनका जवाब था- ‘भिखारी कभी चुनाव करने की स्थिति में नहीं होता।’ पीएमएल (एन) के सांसद और शहबाज़ के क़रीबी समीउल्लाह ख़ान ने हाल में कहा था कि उनके नेता (शहबाज़) भारत के साथ सम्बन्ध के लिए नयी नीति बनाएँगे। उनके मुताबिक, शहबाज़ के नेतृत्व में पाकिस्तान, भारत के लिए नयी नीति के साथ आएगा। मूल बात है कि इमरान ख़ान शासन के पास भारत को लेकर कोई नीति नहीं थी या कमज़ोर थी, जिसने भारत को कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने की अनुमति दी और ख़ान केवल असहाय होकर देखते रह गये।

हालाँकि प्रमुख पाकिस्तानी राजनीतिक विश्लेषक हसन अस्करी का कहना है कि भारत और पाकिस्तान को सबसे पहले संवाद शुरू करना चाहिए, जो भारत की तरफ़ से सन् 2014 में तब स्थगित कर दिया गया था, जब पठानकोट आतंकी घटना हुई थी। उनके मुताबिक, बातचीत शुरू किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता। उनका यह भी कहना कि चूँकि भारत ने वार्ता स्थगित की है, इसलिए इसे बहाल करने की ज़िम्मेदारी भारत पर है। पाकिस्तान की किसी सरकार ने सार्थक संवाद का विरोध नहीं किया है। हालाँकि इमरान ख़ान की तरफ़ से ऐसी कोई पहल तीन साल में नहीं हुई। वैसे अस्करी मानते हैं कि इमरान ख़ान के सन् 2018 में सत्ता में आने पर उन्होंने तो पहल की थी; लेकिन पुलवामा आतंकी हमले ने खटास भर दी।

जानकार कहते हैं कि पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन भारत-पाकिस्तान के बीच सम्बन्धों को नये सिरे से शुरू करने का मौक़ा बन सकता है। नये प्रधानमंत्री शहबाज़ कह चुके हैं कि इमरान ख़ान ने पाकिस्तान की विदेश नीति को नष्ट कर दिया। निश्चित ही यह बात भारत से रिश्तों के मामले में भी लागू होती है। यह जगज़ाहिर है कि आज भी पीएमएल (एन) के सभी राजनीतिक फ़ैसले नवाज़ शरीफ़ ही लेते हैं। लिहाज़ा उनके भाई के नेतृत्व में पाकिस्तान में आयी सरकार को नवाज़ की तत्कालीन सरकार के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है। नवाज़ और प्रधानमंत्री मोदी के सम्बन्ध इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।

लेकिन शहबाज़ की आंतरिक राजनीतिक मजबूरियाँ बातचीत के रास्ते में रोड़ा बन सकती हैं। नवाज़ शरीफ़ जब सत्ता में थे, तो विरोधी उन्हें ‘मोदी का यार’ कहकर बुलाते थे। ज़ाहिर है शहबाज़ इस ‘तमगे’ से बचना चाहेंगे; क्योंकि उन्हें डेढ़ साल बाद ही चुनाव में उतरना है। उन पर जम्मू-कश्मीर का पुराना दर्ज़ा बहाल करने के लिए भारत को कहने का दबाव भी निश्चित ही विपक्ष की तरफ़ से बनाया जाएगा। इसके बावजूद शरीफ़ बंधुओं को सुलझा हुआ नेता माना जाता है और यदि वह भारत से बातचीत की कोई पहल करते हैं, तो कोई रास्ता ज़रूर निकालेंगे।

 

शहबाज़ का सियासी सफ़रनामा

 सितंबर 1951 में लाहौर में पंजाबी भाषी कश्मीरी परिवार में शहबाज़ का जन्म हुआ।

 अस्सी के दशक के बीच बड़े भाई नवाज़ शरीफ़ के साथ राजनीति में प्रवेश किया।

 पहली बार सन् 1988 में पंजाब विधानसभा के सदस्य बने। उस चुनाव में भाई नवाज़ शरीफ़ पंजाब के मुख्यमंत्री बने।

 शहबाज़ पहली बार सन् 1997 में पंजाब के मुख्यमंत्री बने और संयोग से उस समय उनके भाई देश के प्रधानमंत्री थे।

 सन् 1999 में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने तख़्तापलट कर नवाज़ शरीफ़ को बर्ख़ास्त कर दिया।

 शहबाज़ को इसके बाद परिवार के साथ आठ साल तक सऊदी अरब में निर्वासन की ज़िन्दगी बितानी पड़ी। बाद में वह सन् 2007 में पाकिस्तान लौटे।

 शहबाज़ सन् 2008 में दूसरी और सन् 2013 में तीसरी बार पंजाब के मुख्यमंत्री बने।

 सन् 2017 में पनामा पेपर्स लीक में नाम आने के बाद नवाज़ शरीफ़ को प्रधानमंत्री पद से अयोग्य घोषित कर दिया गया। उनकी पार्टी पीएमएल (एन) ने शहबाज़ को पार्टी अध्यक्ष नियुक्त कर दिया।

 सन् 2018 के चुनाव के बाद शहबाज़ नेशनल असेंबली में विपक्ष के नेता बने।

 सितंबर, 2020 में शहबाज़ को पाकिस्तान की भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो ने धनशोधन और आय के स्रोत से अधिक आमदनी के आरोप में गिर$फ्तार कर लिया। तब इमरान ख़ान की सरकार सत्ता में थी। शहबाज़ ने आरोपों से इन्कार किया। हालाँकि उन्हें कई महीने जेल में रहना पड़ा। इसके बाद वह जमानत पर जेल से बाहर आये।

 शहबाज़ अभी भी ब्रिटेन में पाकिस्तान की संघीय जाँच एजेंसी (एफआईए) की तरफ़ से उनके ख़िलाफ़ 14 अरब पाकिस्तानी रुपये के धन शोधन के मामले का सामना कर रहे हैं और इसमें भी वह जमानत पर हैं।

 शहबाज़ को 11 अप्रैल को साझे विपक्ष ने अपने नेता चुना और 12 अप्रैल को उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। पाकिस्तान में भुट्टो परिवार (ज़ेड.ए. भुट्टो-बेनज़ीर भुट्टो) के बाद वे दूसरे नेता हैं, जो एक ही परिवार में प्रधानमंत्री बने।

 

“मियाँ मुहम्मद शहबाज़ शरीफ़ को उनके पद सँभालने पर बधाई। भारत क्षेत्र में शान्ति और स्थिरता के साथ-साथ आतंकवाद-मुक्त माहौल चाहता है, ताकि हम अपने सामने विकास से जुड़ी चुनौतियों का सामना कर सकें और अपने लोगों की समृद्धि और बेहतरी सुनिश्चित कर सकें।’’

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री, भारत

 

“आइए, हम लोग कश्मीर मुद्दे का हल खोजें और अवाम को ग़ुर्बत, बेरोज़गारी से बाहर निकालें। बदक़िस्मती है कि भारत के साथ हमारे रिश्ते अच्छे नहीं बन सके। नवाज़ शरीफ़ ने भारत के साथ रिश्ते सुधारे थे। नवाज़ शरीफ़ ने कश्मीर के लिए असेंबली में आवाज़ उठायी थी।’’

                          शहबाज़ शरीफ़

पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री

 

शहबाज़ का परिवार

शहबाज़ ने पाँच शादियाँ कीं। उनकी दो पत्नियाँ- नुसरत और तहमीना दुर्रानी उनके साथ रहती हैं, जबकि तीन- आलिया हनी, नीलोफ़र खोसा और कुलसुम से उनका तलाक़ हो चुका है। नुसरत से उनके दो बेटे और तीन बेटियाँ हैं और आलिया से एक बेटी है। शहबाज़ के बड़े बेटे हमज़ा शहबाज़ पंजाब विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं। हमज़ा पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) गठबंधन के उम्मीदवार परवेज़ इलाही के ख़िलाफ़ मुख्यमंत्री पद का चुनाव भी लड़ रहे हैं। उनका छोटा बेटा सुलेमान शहबाज़ परिवार का कारोबार देखता है। हालाँकि वह धनशोधन और आय के स्रोत से अधिक आमदनी मामले में देश से भागकर ब्रिटेन में रहता है। शहबाज़ के पिता मुहम्मद शरीफ़ उद्योगपति थे, जो कारोबार के लिए कश्मीर के अनंतनाग से आये और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में पंजाब के अमृतसर ज़िले के जट्टी उमरा गाँव में बस गये थे।

उनकी माँ का परिवार पुलवामा से आया था। विभाजन के बाद शहबाज़ का परिवार अमृतसर से लाहौर चला गया, जहाँ उन्होंने (लाहौर के बाहरी इलाक़े में रायविंड में स्थित) अपने घर का नाम ‘जट्टी उमरा’ रखा। उन्होंने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की। एक दिलचस्प बात यह है कि तीन बार के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को 2017 में जब शीर्ष अदालत ने ब$र्खास्त कर दिया था, तो उन्होंने प्रधानमंत्री पद के शेष 10 महीने की अवधि के लिए छोटे भाई शहबाज़ के बजाय पार्टी नेता शाहिद खाकान अब्बासी को तरजीह दी थी। एक और बात कही जाती है कि हाल में जब इमरान ख़ान की सत्ता जाने वाली थी, नवाज़ शरीफ़ उन्हें नहीं अपनी बेटी मरियम को प्रधानमंत्री बनाने के हक़ में थे। लेकिन चूँकि मरियम एवेनफील्ड भ्रष्टाचार मामले में दोषी ठहरायी गयी हैं, नवाज़ को मजबूरी में शहबाज़ को आगे करना पड़ा। कुछ समय पहले शहबाज़ ने दावा किया था कि तत्कालीन जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की पेशकश इस शर्त पर की थी कि वह अपने बड़े भाई नवाज़ शरीफ़ को छोड़ दें; लेकिन उन्होंने ऐसा करने से साफ़ मना कर दिया था।

 

चार ताक़तवर चेहरे 

वैसे तो इमरान की कुर्सी जाने में चार ताक़तवर लोगों की भूमिका रही, जिनमें से एक सेना प्रमुख क़मर जावेद बाजवा भी हैं। बाजवा सेवा विस्तार पर चल रहे हैं, जिन्हें इमरान ख़ान ने ही 2019 में सेवानिवृत्त होने के बाद तीन साल की एक्सटेंशन दी थी। बाजवा को और सेवा विस्तार नहीं मिला, इसलिए उन्हें 28 नवंबर, 2022 को रिटायर होना है। निश्चित ही नये प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के लिए भी वह एक मुश्किल घड़ी होगी।

उनके अलावा निश्चित ही शहबाज़ शरीफ़ ने बड़ी भूमिका निभायी। शहबाज़ लगातार लंदन में बैठे अपने भाई नवाज़ शरीफ़ से राय लेते रहे। चाचा शहबाज़ के साथ क़दम-से-क़दम मिलाकर चलीं नवाज़ की बेटी मरियम। नवाज़ की बेटी मरियम नवाज़ पिता का बदला चुकाने सड़क पर उतर आयीं और इमरान की विदाई के आन्दोलन का एक बड़ा चेहरा बन गयीं। चौथा सबसे महत्त्वपूर्ण चेहरा रहे पीपीपी के नेता और बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल भुट्टो ज़रदारी। उनके पिता आसिफ़ अली ज़रदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति रह चुके हैं; जबकि बिलावल पीपीपी के चेयरमैन हैं। बिलावल लगातार इमरान ख़ान को चुनिंदा प्रधानमंत्री बताते रहे। बाजवा को छोड़ दें, तो तीनों ने इमरान ख़ान को चक्रव्यूह में घेर लिया और उन्हें सत्ता से बाहर करके ही दम लिया।

संकट में सोने की लंका

श्रीलंका गम्भीर आर्थिक संकट में, राजपक्षे बंधुओं का विरोध कर रही जनता

आम भारतीय में रामायण की कथा के कारण श्रीलंका की छवि ‘सोने के लंका’ के रूप में अंकित रही है। ऐसा नहीं कि श्रीलंका ग़रीब या आर्थिक रूप से कमज़ोर राष्ट्र रहा है; लेकिन वर्तमान में वो गम्भीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। इसी 10 अप्रैल को श्रीलंका के सेंट्रल बैंक के गवर्नर ने बेहद कड़े शब्दों में राजपक्षे सरकार को कह दिया कि वह उसके काम में हस्तक्षेप न करे। यह रिपोर्ट लिखे जाने के समय श्रीलंका के ख़ज़ाने में महज़ 5,000 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा बची थी और ज़रूरत की चीज़ों के बहुत ज़्यादा महँगा होने के कारण जनता सरकार के ख़िलाफ़ सड़कों पर है। श्रीलंका में आर्थिक संकट के कई कारण हैं; लेकिन प्रमुख हैं- चीन के क़र्ज़ के जाल में फँसना, केमिकल फर्टिलाइजर्स को एक झटके में पूरी तरह बैन करना और अपनी चादर से ज़्यादा पाँव पसारना।

श्रीलंका का यह संकट कितना गहरा है? यह इस बात से साबित हो जाता है कि राजपक्षे सरकार को हफ़्ते भर के लिए आर्थिक आपातकाल घोषित करना पड़ा। मार्केट में खाने-पीने की चीज़ों की लूट होने के भय से सेना तैनात करनी पड़ी। विदेशी मुद्रा भण्डार ख़त्म होने के ख़तरे से श्रीलंका सरकार को वैश्विक स्तर पर हाथ पसारने पड़े हैं और उनकी मुद्रा (करेंसी) की क़ीमत रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुँच चुकी है। श्रीलंका की यह हालत अचानक नहीं हुई है; क्योंकि पिछले कुछ साल से इस संकट के संकेत मिलने लगे थे। लेकिन इसके बावजूद क़दम उठाने की जगह मनमर्ज़ी के ख़र्चे किये गये और क़र्ज़ उठाया गया।

दो साल पहले कोरोना महामारी ने जब दुनिया में तबाही मचानी शुरू की, तो श्रीलंका की अर्थ-व्यवस्था जबरदस्त धक्का लगा। इसका कारण यह है कि श्रीलंका की आर्थिकी कृषि के बाद सबसे ज़्यादा पर्यटन पर निर्भर है। श्रीलंका सरकार की वेबसाइट के मुताबिक, पर्यटन श्रीलंका की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 10 फ़ीसदी का योगदान देता है। कोरोना महामारी के इन दो वर्षों ने इस क्षेत्र को पूरी तरह तबाह कर दिया है। श्रीलंका में सबसे ज़्यादा पर्यटक ब्रिटेन, रूस से भारत से आते हैं।

महामारी की पाबंदियों से श्रीलंका में पर्यटकों का आना कमोवेश पूरी तरह बन्द हो गया था। अब जब कुछ समय से महामारी का असर कम हुआ है, श्रीलंका के आर्थिक संकट के कारण वहाँ की सरकार के ख़िलाफ़ जनता के प्रदर्शनों को देखते हुए बहुत से देशों ने अपने नागरिकों को श्रीलंका जाने से बचने की सलाह दे दी। इससे श्रीलंका आने वाले पर्यटकों की संख्या वहीं-की-वहीं है। कनाडा ने तो करेंसी एक्सचेंज की समस्या का हवाला देकर बाक़ायदा एक एडवाइजरी जारी कर दी, जिससे श्रीलंका की आय पर ख़राब असर पड़ा है।

 

चीन का क़र्ज़-जाल

चीन का विस्तारवाद आर्थिक दरवाज़े से होकर गुज़रता है। वह दूसरे देशों को पैसे (क़र्ज़) के ज़रिये अपने जाल में फँसाने के लिए बदनाम रहा है। दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के बाद श्रीलंका और नेपाल उसके शिकार हुए हैं। पाकिस्तान अमेरिकी ख़ैरात के सहारे अपना गुज़ारा चलाता रहा है; लेकिन श्रीलंका की हालत ख़राब हो गयी हैं। नेपाल भी आर्थिक संकट के मुहाने पर है। श्रीलंका आज क़र्ज़ के बोझ में दबा पड़ा है और अकेले चीन का ही उस पर पाँच बिलियन डॉलर से ज़्यादा का क़र्ज़ है। भारत और जापान जैसे देशों के अलावा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का भी उस पर क़र्ज़ है।

श्रीलंका से सरकारी आँकड़ों के मुताबिक मार्च, 2022 तक श्रीलंका पर क़रीब 46 बिलियन डॉलर का विदेशी क़र्ज़ था। आर्थिक संकटों से घिरे इस छोटे देश का भारी-भरकम विदेशी क़र्ज़ तो ज्यों-का त्यों ही रहता है; ऊपर से वह जो पैसे जुटाता है, वो क़र्ज़ के ब्याज चुकाने में ही ख़प जाते हैं। इससे उसके हालात और बिगड़े हैं। इसके अलावा हाल के समय में श्रीलंका सरकार ने अचानक केमिकल फर्टिलाइजर्स को एक झटके में पूरी तरह बैन कर 100 फ़ीसदी ऑर्गेनिक खेती की नीति लागू कर दी थी। इस अचानक बदलाव ने श्रीलंका के कृषि क्षेत्र को तबाह करके रख दिया। जानकारों के मुताबिक, सरकार के इस फ़ैसले से श्रीलंका का कृषि उत्पादन घटकर क़रीब आधा रह गया। इसी का नतीजा है कि श्रीलंका में चावल और चीनी की जबरदस्त क़िल्लत पैदा हो गयी है। अनाज की जमाख़ोरी के देश की समस्या को विकराल कर दिया है।

सन् 2021 में श्रीलंका सरकार ने जब सभी उर्वरक आयातों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया और श्रीलंका को रातों-रात 100 फ़ीसदी जैविक खेती वाला देश बनाने की घोषणा की तो रातों-रात जैविक खादों की ओर आगे बढ़ जाने के इस प्रयोग ने खाद्य उत्पादन को गम्भीर रूप से प्रभावित किया। यह इस फ़ैसले का ही असर था कि हाल में श्रीलंका के राष्ट्रपति को बढ़ती खाद्य क़ीमतों, मुद्रा का लगातार मूल्यह्रास और तेज़़ी से घटते विदेशी मुद्रा भण्डार पर नियंत्रण के लिए देश में आर्थिक आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी। इसके अलावा श्रीलंका में भारी बारिशों ने भी किसानों की फ़सलों को बर्बाद कर दिया था, जो अनाज की कमी का एक कारण बना है।

इन सब स्थितियों का असर श्रीलंका के विदेशी मुद्रा भण्डार पर पड़ा है। तीन साल पहले जिस श्रीलंका के पास 7.5 बिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भण्डार था, वहाँ राजपक्षे सरकार के आने के बाद इसमें इतनी तेज़ गिरावट कि अब यह महज़ 5,000 करोड़ रुपये रह गया है। पिछले साल नवंबर तक यह गिरकर 1.58 बिलियन डॉलर के स्तर पर आ चुका था। श्रीलंका के पास विदेशी क़र्ज़ की क़िस्तें चुकाने लायक भी फॉरेक्स रिजर्व नहीं बचा है। आईएमएफ ने कहा है कि श्रीलंका की अर्थ-व्यवस्था दिवालिया होने के कगार पर है।

श्रीलंका हाल के वर्षों में आयात पर बहुत निर्भर हुआ है, जिसका उसे बहुत नुक़सान उठाना पड़ा है। श्रीलंका चीनी, दाल, अनाज, दवा जैसी ज़रूरी चीज़ों के लिए भी आयात पर निर्भर है। फर्टिलाइजर पर रोक ने इसे ज़्यादा गम्भीर बनाने में मदद की है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद श्रीलंका की चुनौतियाँ दोगुनी हो गयी हैं। इसका कारण यह है कि पड़ोसी देश चीनी, दलहन और अनाज आदि के मामले में इन दो देशों पर काफ़ी निर्भर हैं। कृषि ज़रूरतों की क़ीमतें भी युद्ध के बाद आसमान छू रही हैं। आयात बिल भरने के लिए श्रीलंका के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भण्डार बचा ही नहीं है।

 

जब श्रीलंका बेहतर था

सन् 2009 में श्रीलंका जब एलटीटीई के 26 साल के गृहयुद्ध से बाहर निकला था, तब भी उसकी जीडीपी वृद्धि दर 7-8 फ़ीसदी की बेहतर स्थिति में थी। यह क्रम सन् 2012 तक चला, जब उसकी जीडीपी वृद्धि दर 9 फ़ीसदी की उच्चतम स्तर पर थी। हालाँकि इसके बाद वैश्विक उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में गिरावट, निर्यात की मंदी और आयात में वृद्धि के साथ सन् 2013 के बाद श्रीलंका की औसत जीडीपी वृद्धि दर आश्चर्यजनक तरीक़े से घटकर आधी रह गयी।

ऐसा नहीं कि श्रीलंका में विदेशी मुद्रा भण्डार की कमी आज पहली बार हुई है। सन् 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट का उस पर बहुत ख़राब असर पड़ा था और उसका विदेशी मुद्रा भण्डार लगभग ख़त्म हो गया था। इसका कारण यह भी था कि एलटीटीई के गृहयुद्ध के चलते श्रीलंका का बजट घाटा बहुत ऊँचे स्तर पर पहुँच गया था। इसका नतीजा यह हुआ कि श्रीलंका को सन् 2009 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से 2.6 बिलियन डॉलर का क़र्ज़ लेना पड़ा।

यह सिलसिला चलता रहा और सन् 2016 में श्रीलंका को फिर 1.5 बिलियन डॉलर का क़र्ज़ लेने के लिए आईएमएफ के पास जाना पड़ा; लेकिन उसकी कठोर शर्तों ने श्रीलंका की आर्थिक रूप से कमर तोड़ दी। इसके बाद श्रीलंका ने इससे उबरने की जब कोशिश की तो उसका कोई नतीजा निकलता उससे पहले ही राजधानी कोलंबो के गिरिजाघरों में अप्रैल, 2019 में बम विस्फोटों में 253 लोगों की मौत का देश के पर्यटन पर पड़ा। इसका सबसे बुरा असर उसके विदेशी मुद्रा भण्डार पर पड़ा और फिर इससे उबरना उसके लिए मुश्किल हो गया।

 

राजनीतिक वादों की चोट

सन् 2019 में जब राजपक्षे बंधुओं ने चुनावों में कम दरों पर किसानों के लिए रियायतों का पिटारा खोला उन्हें देश की आर्थिक स्थिति की भलीभाँति जानकारी थी; लेकिन इसके बावजूद सत्ता में आकर जब उन्होंने इसे लागू किया, तो देश पर आर्थिक बोझ पड़ा। इस स्थिति में श्रीलंका को तब और झटका लगा, जब कोरोना महामारी ने उसकी हालत पतली कर दी। पर्यटन के अलावा चाय, रबर, मसालों और कपड़ों के निर्यात को जबरदस्त नुक़सान पहुँचा, जो श्रीलंका की आर्थिकी का सबसे बड़ा सहारा थे। सैलानियों की जबरदस्त कमी और राजस्व की इस गिरावट और सरकार के ख़र्चों में बढ़ोतरी के चलते 2020-21 में श्रीलंका का राजकोषीय घाटा 10 फ़ीसदी से ज़्यादा हो गया और उसका कर-जीडीपी अनुपात सन् 2019 के 94 फ़ीसदी से बढ़कर सन् 2021 में 119 फ़ीसदी हो गया।

 

भारत और श्रीलंका के रिश्ते

वर्तमान में श्रीलंका में मुद्रास्फीति की दर 20 फ़ीसदी से अधिक हो चुकी है। इससे श्रीलंका में ग़रीबों और आम आदमी की हालत ख़राब है। लोग बड़े पैमाने पर सड़कों पर हैं। विशेषज्ञ आशंका जता रहे हैं कि आवश्यक वस्तुओं की कमी देश को और संकट में पहुँचाएगी। संकट की इस स्थिति में भारत ने अपने पड़ोसी की तरफ़ मदद का हाथ बढ़ाया है, जो हाल के तीन वर्षों में चीन के प्रभाव में रहा है।

भारत ने इस साल जनवरी से श्रीलंका को काफ़ी आर्थिक मदद जारी की है। यह मदद उदार शर्तों पर आधारित है। अभी तक भारत पड़ोसी देश को 1.4 बिलियन डॉलर से अधिक की मदद दे चुका है। इसमें 400 डॉलर का करेंसी स्वैप, 500 डॉलर का ऋण स्थगन और ईंधन आयात के लिए 500 डॉलर का लाइन ऑफ क्रेडिट शामिल है। इसके अलावा श्रीलंका की मदद के लिए भारत ने उसे एक बिलियन डॉलर की राशि शॉर्ट टर्म रियायती क़र्ज़ के रूप में दी है। भारत की मदद से श्रीलंका की जनता में अच्छा सन्देश गया है, जो राजपक्षे सरकार के चीन से मदद को लेकर अब नाराज़ है; क्योंकि उन्हें लगता है कि चीन ने उन्हें मदद के नाम पर जाल में फँसाया है। भारत की मदद से श्रीलंका में कैसा सकारात्मक सन्देश गया है, वह क्रिकेटर से राजनीतिक बने सनथ जयसूर्या के बयान से ज़ाहिर होता है, जिन्होंने अप्रैल के पहले हफ़्ते भारत की जमकर तारीफ़ करते हुए कहा कि गम्भीर आर्थिक संकट से गुज़र रहे उनके देश की मदद कर भारत ने ‘बड़े भाई’ की भूमिका अदा की है। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की भी सराहना की।

जयसूर्या का यह बयान काफ़ी अहम कहा जा सकता है; क्योंकि श्रीलंका में चीन और वर्तमान शासकों राजपक्षे बंधुओं के प्रति नाराज़गी चरम पर है। श्रीलंका में लोग महसूस कर रहे हैं कि उनके देश की यह हालत चीन के कारण हुई है। भारत ने अकेले एक दिन में श्रीलंका को 76,000 टन ईंधन भेजा, जबकि अंतरराष्ट्रीय कारणों से भारत में भी पेट्रोलियम रेट लगातार बढ़ रहे थे। श्रीलंका में ईंधन, रसोई गैस के लिए लम्बी क़तारें हैं, जबकि यही हाल पेट्रोल पम्पों पर है। ज़रूरी वस्तुओं का अकाल-सा पड़ गया है और हर रोज़ बिजली की घंटों कटौती से जनता गम्भीर परेशानी झेल रही है।

राजपक्षे बंधुओं के सत्ता में आने के बाद उनके देश का चीन के प्रति लगातार झुकाव बढ़ा और उसने कुछ परियोजनाओं में श्रीलंका को बड़े स्तर पर क़र्ज़ दिया। लेकिन श्रीलंका में महसूस किया जा रहा है कि देश के गम्भीर आर्थिक संकट में फँसने का असल कारण यही है। जयसूर्या का कहना है कि श्रीलंका में जीवन काफ़ी कठिन हो गया है और भारत और अन्य देशों की मदद से हम इस संकट से बाहर आने की उम्मीद कर रहे हैं।

हाल के दशकों की बात करें, तो भारत श्रीलंका का बड़ा सहयोगी रहा है। भंडारनायके और इंदिरा गाँधी के ज़माने से लेकर हाल के वर्षों तक भारत ने श्रीलंका की तरफ़ हमेशा सहयोगी रुख़ रखा है। लेकिन क़रीब एक दशक से और दो साल पहले जब राजपक्षे बंधु सत्ता में आये, तो उनका भारत की बजाय चीन की तरफ़ झुकाव बढ़ गया। भारत के साथ रहते हुए कभी भी श्रीलंका के सामने आज जैसा गम्भीर संकट नहीं आया। श्रीलंका के सामने विदेशी मुद्रा का भयंकर संकट आने से खाद्य और ईंधन आयात करने की उसकी क्षमता पर असर पड़ा है। बिजली कटौती भी लम्बी खिंच रही है। श्रीलंका के जानकार मानते हैं कि चीनी निवेश के आगे घुटने टेकना देश को बहुत भारी पड़ा है। आँकड़ों के मुताबिक, श्रीलंका पर मार्च, 2022 के आख़िर तक क़रीब सात बिलियन डॉलर का विदेशी क़र्ज़ है। बड़ा चीनी निवेश श्रीलंका को बेहतर करने की जगह इतिहास के सबसे गम्भीर आर्थिक संकट में खींच लाया है।

इस साल जनवरी में जब चीन के विदेश मंत्री वांग यी जब श्रीलंका आये थे, तब श्रीलंका के राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे ने उनसे क़र्ज़ चुकाने के लिए सॉफ्ट नीति का आग्रह किया था। मार्च में श्रीलंका में चीनी राजदूत क्यूई जेनहोंग ने कहा था कि चीन एक अरब डॉलर के क़र्ज़ और 1.5 अरब डॉलर की क्रेडिट लाइन के लिए श्रीलंका के आग्रह पर विचार कर रहा है। चीन पहले ही श्रीलंका को कोरोना महामारी के दौरान 2.8 अरब डॉलर की मदद दे चुका है।

हालाँकि वर्तमान माहौल में श्रीलंका की जनता में चीन के प्रति विश्वसनीयता में कमी आयी है। वहाँ महसूस किया जा रहा है कि चीन ने सहयोगी से ज़्यादा विस्तारवादी नीति वाले देश की भूमिका निभायी है और श्रीलंका को गहरे संकट में डाल दिया है।

 

भारत के लिए सबक़

श्रीलंका का संकट भारत के लिए भी सबक़ है। हाल के वर्षों में राजनीतिक दलों की तरफ़ से जनता को मु$फ्त बिजली, पानी, स्कूटी, लैपटॉप आदि देने का प्रचलन बहुत तेज़ी से बढ़ा है। यह तरीक़ा भले तात्कालिक राजनीतिक फ़ायदा दे देता हो; लेकिन अर्थ-व्यवस्था की सेहत के लिहाज़ से यह ख़तरनाक है। प्रदेशों का क़र्ज़ा ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुका है। हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठक में वरिष्ठ अधिकारियों ने भारत के श्रीलंका जैसे आर्थिक संकट में फँसे के ख़तरे से उन्हें आगाह किया था।

यदि हम देश के ऊपर चढ़े क़र्ज़ की बात करें, तो भारत के वित्त मंत्रालय की तरफ़ से 7 अप्रैल को दी गयी जानकारी के मुताबिक, देश का विदेशी स्रोतों से लिया गया क़र्ज़ दिसंबर, 2021 को ख़त्म हुई तिमाही में 11.5 अरब डॉलर बढ़कर 614.9 अरब डॉलर पर पहुँच गया था। जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) अनुपात के रूप में विदेशी क़र्ज़ पिछले साल दिसंबर के अन्त में 20 फ़ीसदी रहा, जो सितंबर, 2021 में 20.3 फ़ीसदी था। दिसंबर, 2021 को समाप्त तिमाही के लिए भारत के विदेशी क़र्ज़ पर रिपोर्ट के अनुसार, देश का बाह्य क़र्ज़ यानी विदेशी स्रोतों से लिया गया क़र्ज़ सितंबर, 2021 को समाप्त तिमाही के मुक़ाबले 11.5 अरब डॉलर बढ़कर 614.9 अरब डॉलर पर पहुँच गया।

इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत का विदेशी ऋण सतत और सूझबूझ के साथ प्रबन्धित है। मूल्यांकन लाभ का कारण यूरो, येन और विशेष आहरण अधिकार (एसडीआर) की तुलना में अमेरिकी डॉलर की विनिमय दर में वृद्धि है। यह लाभ क़रीब 1.7 अरब डॉलर रहा। रिपोर्ट बताती है कि मूल्यांकन प्रभाव को अगर छोड़ दिया जाए, तो विदेशी क़र्ज़ दिसंबर, 2021 को समाप्त तिमाही में इससे पिछली तिमाही के मुक़ाबले 11.5 अरब डॉलर के बजाय 13.2 अरब डॉलर बढ़ता।

विदेशी क़र्ज़ में वाणिज्यिक क़र्ज़ की हिस्सेदारी सबसे अधिक 36.8 फ़ीसदी रही। उसके बाद प्रवासी जमा (23.1 फ़ीसदी) और अल्पकालीन व्यापार क़र्ज़ का स्थान रहा। दिसंबर, 2021 के अन्त में एक साल से अधिक समय में परिपक्व होने वाला दीर्घकालीन क़र्ज़ 500.3 अरब डॉलर रहा। यह सितंबर, 2021 के मुक़ाबले 1.7 अरब डॉलर बढ़कर 500.3 अरब डॉलर रहा। एक साल तक की परिपक्वता अवधि वाले अल्पकालीन क़र्ज़ की बाह्य ऋण में हिस्सेदारी बढ़कर 18.6 फ़ीसदी हो गयी, जो सितंबर, 2021 के अन्त में 17.4 फ़ीसदी थी।

रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के विदेशी क़र्ज़ में अमेरिकी डॉलर में लिये गये क़र्ज़ का हिस्सा उपरोक्त तिमाही में सबसे ज़्यादा 52 फ़ीसदी रहा। इसके बाद भारतीय रुपये (32 फ़ीसदी), विशेष आहरण अधिकार (6.7 फ़ीसदी), येन (5.3 फ़ीसदी) और यूरो (3.1 फ़ीसदी) का स्थान रहा। सरकार का बक़ाया विदेशी क़र्ज़ दिसंबर, 2021 को ख़त्म हुई तिमाही के दौरान पिछली तिमाही के मुक़ाबले मामूली कम हुआ, जबकि ग़ैर-सरकारी क्षेत्र का ऋण बढ़ा है। साथ ही मूल राशि की अदायगी के साथ ब्याज भुगतान आलोच्य तिमाही में बढ़कर 4.9 फ़ीसदी हो गया, जो सितंबर, 2021 को समाप्त तिमाही में 4.7 फ़ीसदी था।

अब राज्यों के क़र्ज़ों की बात करें, तो पता चलता है कि विभिन्न राज्यों के बजट अनुमानों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2020-21 में सभी राज्यों का क़र्ज़ का कुल बोझ 15 वर्षों के उच्च स्तर पर पहुँच चुका है। राज्यों का औसत क़र्ज़ उनके जीडीपी के 31.3 फ़ीसदी पर पहुँच गया है। सभी राज्यों का कुल राजस्व घाटा 17 वर्षों के उच्चतम स्तर 4.2 फ़ीसदी पर पहुँच गया है। वित्त वर्ष 2021-22 में क़र्ज़ और जीएसडीपी (ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट) का अनुपात सबसे ज़्यादा पंजाब का 53.3 फ़ीसदी रहा।

पंजाब का जितना जीडीपी है, उसका क़रीब 53.3 फ़ीसदी हिस्सा क़र्ज़ है। इसी तरह राजस्थान का अनुपात 39.8 फ़ीसदी, पश्चिम बंगाल का 38.8 फ़ीसदी, केरल का 38.3 फ़ीसदी और आंध्र प्रदेश का क़र्ज़-जीएसडीपी अनुपात 37.6 फ़ीसदी है। इन सभी राज्यों को राजस्व घाटा का अनुदान केंद्र सरकार से मिलता है। महाराष्ट्र और गुज़रात जैसे आर्थिक रूप से मज़बूत राज्यों पर भी क़र्ज़ का बोझ कम नहीं है। गुज़रात का क़र्ज़-जीएसडीपी अनुपात 23 फ़ीसदी, तो महाराष्ट्र का 20 फ़ीसदी है।

महँगी हुई कपास, पर किसान छोड़ रहे खेती

केवल एक साल में दोगुने के आसपास पहुँचा कपास का भाव

फ़सलों पर बढ़ती लागत और अन्य समस्याओं से टूट रहे किसान

यह विडम्बना ही है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आज किसान तमाम समस्याओं से जूझ रहे हैं। अगर कपास की खेती करने वाले किसानों की बात करें, तो इस महत्त्वपूर्ण खेती से उनका मन ऊब रहा है। इसकी वजह साफ़ है- कपास की उपज में लागत ज़्यादा आ रही है और आमदनी कम हो रही है। कपास की पैदावार करने वाले किसानों को कहना है कि कपास में पाला पडऩे से लेकर कीड़ा लगने तक सरकार से कोई विशेष राहत पैकेज तक नहीं मिलता है। ऊपर से महँगाई इतनी कि खेती की लागत भी नहीं निकलती। ऐसे में बड़ी संख्या में कपास की खेती करने वाले किसान कपास की वैकल्पिक खेती करने लगे हैं।

कपास की खेती से जुड़े और उसके जानकार डॉ. अमित कुमार का कहना है कि गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों में कपास की खेती बड़े पैमाने पर होती रही है। लेकिन कोरोना-काल से लेकर कृषि क़ानूनों को लेकर चले किसान आन्दोलन और यूक्रेन-रूस के युद्ध के चलते खेती पर विपरीत असर पड़ा है। इससे कपास की उपज से लेकर कारोबार तक प्रभावित हुआ है। सरकार की ओर से अनदेखी और कोरोना महामारी से कपास की बिकवाली सही तरीक़े से नहीं हो पायी है। हाल यह है कि कपास में तो किसानों की लागत तक नहीं निकल पायी है। ऐसी स्थिति में किसान कपास की जगह वैकल्पिक खेती करने लगे हैं। डॉ. अमित कुमार का कहना है कि आने वाले दिनों में कपास (रुई) की कमी बाज़ार में देखने को मिलेगी। इससे कॉटन (सूत) की कमी होगी, जिसका असल कारोबार पर देखने को मिल सकता है।

यूक्रेन-रूस युद्ध के चलते भारत में उर्वरकों की क़ीमतों बढ़ोतरी हुई है, जिसका असर भारतीय किसानों पर पड़ा है। ऐसे में सरकार किसानों को महँगे उर्वरकों की ख़रीद से बचाने के लिए सब्सिडी सहित अन्य सुविधाएँ दे।

रायपुर कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक गजेन्द्र कुमार का कहना है कि कपास की खेती करने वालों को इस फ़सल को बचाने के लिए कीटनाशक दवा का उपयोग करना होता है, जो कि अब बेहद महँगी है। यह दवा इतनी महँगी है कि मध्यमवर्गीय किसान इसे ख़रीद नहीं पाता है। इसके अलावा खाद, पानी, बीज सब कुछ महँगा है। ऐसे में कपास की फ़सल को कीड़ों से नष्ट कराने से तो अच्छा है कि दूसरी कोई खेती की जाए।

इन्हीं तमाम दिक़्क़तों के चलते कपास के किसानों ने वैकल्पिक खेती करनी शुरू कर दी है। कपास का भाव बढऩे का कारण भी उसके उत्पादन में आयी कमी है। पिछले दो-तीन साल में भारत में कपास का उत्पादन काफ़ी कम हुआ है, जो अब और कम हो रहा है।

पंजाब के व्यापारी नीरज कुमार अरोड़ा ने बताया कि पंजाब के मालवा को कपास की खेती के नाम से ही जाना जाता रहा है। लेकिन यहाँ के किसानों को गत दो वर्षों से कई समस्याओं से जूझना पड़ा है। एक तो कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आन्दोलन में लगे समय और दूसरा उनकी कपास की फ़सल पर गुलाबी ख़तरा यानी गुलाबी सूड़ी (पिंक बॉलवर्म) ने इस फ़सल को चौपट किया है। इससे फ़सल कमज़ोर भी हुई है। हालाँकि इस बार गत वर्षों की अपेक्षा कपास के काफ़ी अच्छे दाम मिल रहे हैं। लेकिन लागत के अनुपात में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ा है।

बताते चलें कि कपास की खेती सबसे अधिक महाराष्ट्र और गुजरात में होती है। महाराष्ट्र और गुजरात में एक समय में कपास की खेती में आगे रहने की होड़-सी लगी रहती थी। लेकिन आज दोनों ही राज्यों में कपास का उत्पादन कम हो रहा है। यहाँ की कपास योग्य काली और देगुड़ मिट्टी वाली ज़मीन पर देश के बड़े पूँजीपतियों की नज़र है। इसकी वजह यह है कि कपास की माँग दुनिया भर में बढ़ रही है, जिसके चलते यह हर साल महँगी हो जाती है। यही वजह है कि कपास को सफ़ेद सोना कहा जाता है। पूँजीपति पूरी तरह इस फ़सल पर अपना क़ब्ज़ा चाहते हैं, ताकि वे इसकी पैदावार से लेकर कपड़ा बेचने तक के कारोबार पर क़ब्ज़ा करके मोटा पैसा कमा सकें।

इस बारे में किसान नेता चौधरी बीरेन्द्र कुमार का कहना है कि कई बार फ़सल प्राकृतिक कारणों से चौपट होती है, तो कई बार दलालों की वजह से। दरअसल खेती को लेकर ऐसा माहौल बनाया जाता है, ताकि किसानों को घाटा हो और दलालों की दलाली चलती रहे। मौज़ूदा समय में आये दिन कपास के दाम बढ़ रहे हैं। इसकी वजह यह है कि छोटे किसान कपास की फ़सल संसाधनों के अभाव नहीं कर पा रहे हैं। हाल यह है कि बड़े किसान तक कपास की फ़सल की लागत नहीं निकाल पा रहे हैं। यूक्रेन-रूस युद्ध और कोरोना महामारी के पीछे बड़ा अंतरराष्ट्रीय बाज़ार छिपा हुआ है। इसलिए कपास और सूत से लेकर कपड़ों तक का भाव बढ़ रहा है। आने वाले दिनों में रुई और कपड़े के दाम और भी बढ़ सकते हैं।

पाकिस्तान के पीएम का आरोप, इमरान ने 14 करोड़ रूपये का उपहार दुबई में ‘बेच’ दिया

सत्ता से जाने से ऐन पहले पूर्व पीएम के निजी आवास पर कथित रूप से एक बड़े सेना अधिकारी के इमरान खान को थप्पड़ मारे जाने के पाकिस्तानी मीडिया के दावे के बाद अब पाकिस्तान के नए पीएम शहबाज शरीफ ने आरोप लगाया है कि इमरान खान ने कथित तौर पर तोशाखाना (स्टेट डिपॉजिटरी) से 14 करोड़ रुपये का उपहार लिया और इन्हें दुबई में बेच दिया।

अभी तक इमरान खान का यह दावा रहा है कि उनपर भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं। इस तरह आरोप लगने के बाद अब पाकिस्तान के पूर्व पीएम इमरान खान की मुसीबतें बढ़ रही हैं। पीएम शरीफ ने इमरान खान पर विदेश यात्राओं के दौरान मिले उपहारों को बेचने का आरोप लगाया है।

शहबाज ने एक निजी टीवी चैनल पर कहा – ‘मैं आपको इस बात की पुष्टि कर सकता हूं कि इमरान खान ने तोशाखाना (स्टेट डिपॉजिटरी) से 14 करोड़ रुपये का उपहार लिया और इन्हें दुबई में बेच दिया।’ शरीफ की टिप्पणी इस्लामाबाद उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका के संबंध में एक सवाल के जवाब में आई है जिसमें तोशाखाना का विवरण मांगा गया है।

पाकिस्तान की एक टीवी चैनल रिपोर्ट के मुताबिक पूर्व पीएम इमरान खान ने आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम, 1923 के प्रावधानों का हवाला देते हुए राज्य के उपहारों के भंडार का विवरण प्रकट करने से साफ इनकार कर दिया था।

हालांकि, पूर्व मंत्री और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के नेता फवाद चौधरी ने इन इन आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि ‘वह इमरान खान पर कीचड़ उछाल रहे हैं।  नए प्रधान मंत्री को सतही गपशप से बचें और राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करें।’

महामारी की तरह बढ़ रहा प्लास्टिक

पानी से लेकर ज़मीन तक पर बढ़ते जा रहे प्लास्टिक से पनप रहीं कई बीमारियाँ

आज दुनिया में कोई घर ऐसा नहीं होगा, जिसमें प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं होता हो। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जो प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं करता हो। कह सकते हैं कि आज हर ख़ास और आम प्लास्टिक का उपयोग कर रहा है। इंसानी ज़िन्दगी में यह अब ज़रूरी वस्तु बन चुकी है। आज शहरों से लेकर गाँवों तक यह प्लास्टिक किसी महामारी की तरह बढ़ता जा रहा है। लेकिन प्लास्टिक हमारे वातावरण के लिए कितनी घातक है, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके नुक़सान इंसानों को ही नहीं, जानवरों, पेड़-पौधों और फ़सलों को भी हो रहे हैं।

खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने एक रिपोर्ट में कहा है कि कृषि उत्पादों से जुड़ी सप्लाई चेन में हर साल क़रीब 1.25 करोड़ टन प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है। जबकि फ़सल उत्पादन और पशुधन प्रति वर्ष 1.2 करोड़ टन प्लास्टिक उपयोग कर रहा है। इसके अलावा खाद्य उत्पादों के भण्डारण और पैकिंग में हर साल क़रीब 3.73 करोड़ टन प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके अलावा मछली पालन में हर साल क़रीब 21 लाख टन प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है। जबकि जंगलों और वन सम्बन्धित गतिविधियों में हर साल क़रीब दो लाख टन प्लास्टिक का उपयोग किया जाता रहा है। प्लास्टिक की पैकिंग के चलते खाद्य पदार्थ और उससे ज़्यादा पेय पदार्थ नुक़सानदायक हो जाते हैं। आज कई बीमारियाँ ऐसी हैं, जो प्लास्टिक जनित हैं। इन बीमारियों में अस्थमा, पल्मोनरी कैंसर और किडनी और लीवर सम्बन्धी बीमारियाँ शामिल हैं। कई बार देखा गया है कि शहरों में घूमने वाली गायों के पेट से कई-कई किलो प्लास्टिक निकाला गया है, जो कि सड़कों, नाले-नालियों से लेकर कूड़ा घरों तक फैली अनाप-शनाप फैली प्लास्टिक का ही नतीजा है।

दरअसल प्लास्टिक में सबसे घातक बिस्फेनॉल ए (बीपीए) टॉक्सिन (विषैला पदार्थ) पाया जाता है, जो कि पानी को सबसे ज़्यादा प्रदूषित करता है। जिस पानी में प्लास्टिक की मात्रा बहुत होगी, वहाँ पानी को साफ़ करने वाले जीव और वनस्पति तो मर जाते हैं और बीमारियाँ फैलाने वाले बैक्टीरिया पैदा हो जाते हैं, जिनमें मक्खी और मच्छर भी शामिल हैं। प्लास्टिक पेड़-पौधों के लिए बेहद घातक है। बावजूद इसके हमारे आसपास प्लास्टिक इतनी तेज़ी से जमा हो रहा है कि इसे हटाने और नष्ट करने के लिए अरबों रुपये का ख़र्चा होगा।

चिन्ता का विषय

प्लास्टिक आज कितनी बड़ी चिन्ता का विषय है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह एक कभी नष्ट नहीं होने वाला पदार्थ है। लेकिन इस पर फ़िलहाल दुनिया के कुछ ही जागरूक लोग और विशेषज्ञ ध्यान दे रहे हैं, जो कि नाकाफ़ी है।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की एक रिपोर्ट बताती है कि साल 2019 में एक टन प्लास्टिक की उत्पादन लागत क़रीब 1,000 डॉलर थी। एक रिपोर्ट बताती है कि भारत हर साल क़रीब 94.6 लाख टन प्लास्टिक कचरा जमा होता है।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की एक रिपोर्ट बताती है कि हर साल क़रीब कई लाख करोड़ रुपये की प्लास्टिक उत्पन्न की जाती है। और अगर इस पर समय रहते प्रतिबंध नहीं लगाया गया, तो 2040 तक प्लास्टिक कचरा दुनिया में दोगुना हो जाएगा। प्लास्टिक की इस समस्या से निपटने के लिए डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों से एक वैश्विक सन्धि पर बातचीत शुरू करने का आग्रह किया है, ताकि 2030 तक महासागरों में बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण को रोका जा सके। वर्तमान में प्लास्टिक को कई कम्पनियाँ रीसाइकिल कर रही हैं। लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे कोई फ़ायदा नहीं; क्योंकि इससे प्लास्टिक कम नहीं होगा। इसकी पहली वजह यही है कि प्लास्टिक से प्लास्टिक ही तैयार होगा।

समुद्रों में जा रहा लाखों टन प्लास्टिक

आज हमारे देश के अधिकतर नदी-नाले प्लास्टिक की बोतलों और थैलियों से अटे पड़े हैं। नदियों की सफ़ाई तो यहाँ कोई करना ही नहीं चाहता, लेकिन अगर नालों को कभी-कभी साफ़ कर भी दिया जाता है, तो उनमें अगले ही दिन लोगों द्वारा फेंका गया प्लास्टिक फिर से जमा हो जाता है। हाल यह है कि लोग प्लास्टिक की थैलियों में पैक नमकीन, चिप्स, चॉकलेट और गुटका-तम्बाकू आदि खाकर, पानी और कोल्ड ड्रिंक्स पीकर बोतल आदि को कहीं भी फेंक देते हैं। एक रिपोर्ट बताती है कि हिन्दुस्तान की सैकड़ों नदियों के ज़रिये समुद्र में प्लास्टिक हर साल क़रीब 1,26,513 मीट्रिक टन प्लास्टिक पहुँच रहा है, जिसके चलते हर साल लाखों समुद्री जीव अपना जीवन गँवा रहे हैं।

स्वयंसेवी संगठन ओसियन क्लीनअप और उसके सहयोगियों द्वारा किये गये एक शोध में कहा गया है कि दुनिया के सभी समुद्रों में पहुँचने वाला 80 फ़ीसदी प्लास्टिक कचरा दुनिया की क़रीब 1000 से ज़्यादा नदियों के ज़रिये पहुँचता है। वहीं बाक़ी 20 फ़ीसदी प्लास्टिक कचरा क़रीब 30,000 नदियों के ज़रिये समुद्रों में पहुँच रहा है। यह हाल तब है, जब शहरों से लेकर गाँवों तक प्लास्टिक ही प्लास्टिक फैला हुआ है।

शहरों में तो कचरे के पहाड़ बन चुके हैं, जिनमें प्लास्टिक की मात्रा क़रीब 35 फ़ीसदी है। अनुमान जताया जाता है कि दुनिया के कचरे का अनुपात अगर निकाला जाए, तो एक आदमी क़रीब हर रोज़ 50 ग्राम तक ठोस प्लास्टिक कचरा पैदा करता है। हालाँकि दुनिया में बहुत-से लोगों ने प्लास्टिक से बिल्कुल दूरी बना रखी है, जो कि एक अच्छी बात है।

प्लास्टिक बना रोज़ी-रोटी का ज़रिया

वैसे तो आज दुनिया में लाखों लोगों की रोज़ी-रोटी का ज़रिया प्लास्टिक ही है, जिसमें सबसे निचले पायदान पर वो लोग आते हैं, जो प्लास्टिक कचरा बीनकर अपना पेट भरते हैं। ऐसे लोगों की संख्या क़रीब डेढ़ फ़ीसदी है। इन डेढ़ फ़ीसदी लोगों में 70 फ़ीसदी लोग नशा करने वाले होते हैं, जबकि बाक़ी 30 फ़ीसदी घर चलाने के लिए मजबूरन यह काम करते हैं, जिनमें महिलाओं और बच्चों की संख्या काफ़ी बड़ी है। कचरा बीनने वालों की दुनिया स्लम बस्तियाँ हैं, जहाँ पर लगभग एक-चौथाई लोग इसी को अपना रोज़गार बनाये हुए हैं। पिछले साल यानी 2021 के आख़िर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के सभी शहरों को कूड़ामुक्त बनाने के लिए स्वच्छ भारत मिशन शहरी यानी एसबीएम-यू 2.0 के दूसरे चरण की शुरुआत करने की बात कही थी। लेकिन धरातल पर इसका कोई असर नज़र नहीं आ रहा है।

सबसे बड़ी चुनौती नदियों की सफ़ा

नदियों की सफ़ाई की बात अक्सर हिन्दुस्तान में सरकारी विज्ञापनों और ख़बरों के माध्यम से आती रहती हैं, लेकिन नदियों की सफ़ाई कभी नहीं हो पाती। इसकी कोई एक वजह नहीं है। इसमें सबसे बड़ी वजह है इच्छाशक्ति का अभाव। सरकारों द्वारा हर साल हज़ारों करोड़ रुपये का बजट नदियों की सफ़ाई के नाम पर पास किया जाता है और उस बजट का बंदरबाँट हो जाता है। हिन्दुस्तान में नदियों की सफ़ाई का कार्यक्रम साल 1985 में गंगा एक्शन प्लान के साथ शुरू हुआ था। तबसे लेकर आज तक हर साल करोड़ों रुपये नदियों की सफ़ाई के लिए बजट में पास किये जाते हैं; लेकिन नदियों में फैली गन्दगी जस-की-तस बनी रहती है।

नदियों की सफ़ाई के नाम पर कहीं-कहीं कभी-कभार कुछ लोगों को लगाकर कुछेक दिन सफ़ाई का काम चलता भी है, तो उसके नाम पर भी बंदरबाँट जमकर चलता है। नदियों की सफ़ाई के नाम पर सबसे ज़्यादा बजट गंगा को साफ़ करने के लिए पास किया जाता है।

रूस-यूक्रेन युद्ध भारत को ले आया रूस के नज़दीक

बाइडेन प्रशासन की भारत के प्रति धमकी भरी भाषा से भी है नाराज़गी

डेढ़ साल पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि भारत और अमेरिका के रिश्तों में तल्ख़ी जैसा कुछ देखने को मिलेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच रिश्ता ‘निजी मित्रता’ जैसा दिखता था; भले कुछ विशेषज्ञ इसे लेकर आशंकाएँ भी जताते थे। जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद दोनों देशों के बीच का रिश्ता इस एक साल में ट्रंप के समय की तरह जोश भरा नहीं दिखा है। लेकिन ऐसा लगता है कि रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच भारत के प्रति अमेरिकी रुख़ ने भारत के लिए अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मंच पर रूस के ख़ेमे में जाने का रास्ता खोल दिया है।

अमेरिका ने रूस और भारत के बीच इस पहल पर बहुत ख़राब प्रतिक्रिया दी है। उसने भारत के ख़िलाफ़ खुलकर धमकी भरी भाषा इस्तेमाल की है। रूस से भारत को कम मूल्य पर हथियार और तेल मिलने से अमेरिका विचलित दिखा है। उसे यह भी लग रहा है कि भारत रूस की निंदा करने से बच रहा है। ज़ाहिर है उसकी यह प्रतिक्रिया अपने व्यापारिक हितों को चोट पहुँचने की आशंका के कारण है।

इसे एक बैठक से समझा जा सकता है। अप्रैल के पहले हफ़्ते में जब अमेरिका की उप विदेश सचिव विक्टोरिया नूलैंड भारत यात्रा पर थीं। भारतीय अधिकारियों ने चीन और पाकिस्तान का सामना करने के लिए हथियारों का विकल्प देने में मदद के उनके (नूलैंड के) प्रस्ताव पर दो-टूक कह दिया कि रूसी हथियारों के विकल्प बहुत महँगे हैं। ज़ाहिर है विकल्प के अभाव में पहले जिस तरह अमेरिका मनमर्ज़ी के दामों में हथियार बेचता रहा है, उस पर यह कड़ी टिप्पणी थी। ज़ाहिर है रूस-यूक्रेन युद्ध के बहाने भारत को अमेरिका से सौदेबाज़ी का विकल्प मिला है।

लेकिन क्या भारत सचमुच रूस के ख़ेमे में जा रहा है? या पिछले एक साल में बाइडेन राज में अमेरिका ने भारत के साथ रिश्तों में जो ठंडक दिखायी है, भारत उसका बदला ले रहा है। विपक्ष में रहते हुए या राष्ट्रपति चुनाव में प्रचार के समय जो बाइडेन और कमला हैरिस दोनों के ही सुर भारत की सत्ता (मोदी शासन) के प्रति तल्ख़ दिखते थे; ख़ासकर मानवाधिकार के मामलों को लेकर। सत्ता में आने के बाद भले अमेरिका के दो बड़े नेताओं ने भारत के साथ रिश्तों के महत्त्व को दोहराया है; लेकिन ज़मीन पर रिश्तों में वैसी गर्माहट कभी नहीं दिखी।

अमेरिका अब जी-तोड़ कोशिश कर रहा है कि भारत को रूस के ख़ेमे में जाने से रोका जाए। यह अलग बात है कि भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध में अपना पक्ष एकतरफ़ा नहीं रखा है। उसने जहाँ बूचा नरसंहार का विरोध किया, वहीं द्विपक्षीय रिश्तों को लेकर भी सधा हुआ रुख़ अपनाया है। इस घटनाक्रम के बीच भारत और अमेरिका के विदेश मंत्री भी मिल चुके हैं। अमेरिका कह रहा है कि भारत के साथ इस 2+2 बातचीत से दोनों देशों के बीच समग्र वैश्विक रणनीतिक साझेदारी मज़बूत होगी और इससे अंतरराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा तो ताक़त मिलेगी। यहाँ सवाल यह भी है कि क्या भारत को रूस के ख़ेमे में जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है? भारत जिस तरह से रूस-यूक्रेन मामले में तटस्थ रहा है, उसे भी कुछ विशेषज्ञ रूस का साथ देने जैसा बता रहे हैं। अमेरिका इस तरह के प्रचार में सबसे आगे है। अमेरिका की यह नीति रही है कि जो उसके हर स्वार्थ में उनके साथ नहीं, वह उसका दोस्त नहीं। अमेरिका और उसके पश्चिमी दोस्त शुरू से ही भारत की गुट निरपेक्ष नीति को स्वीकार करने से हिचकते रहे हैं।

यहाँ यह बताना भी दिलचस्प है कि अमेरिका भारत पर रूस के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बढऩे पर तो हाय-तोबा मचा रहा है; लेकिन ख़ुद उसने रूस के साथ अपने व्यापार को ख़त्म नहीं किया है। अभी तक भारत ने अमेरिकी दबाव को मज़बूती से झेला है।

ऐसा नहीं कि हाल के वर्षों में भारत रूस के नज़दीक नहीं रहा है। लम्बे समय से भारत के रूस के साथ व्यापारिक और सैन्य सम्बन्ध रहे हैं। रणनीतिक भागीदारी के मामले में भी भारत की जनता रूस को अमेरिका की तुलना में ज़्यादा विश्वसनीय मानती रही है। युद्ध में आगे कर अमेरिका ने जिस तरह यूक्रेन को गम्भीर संकट में अकेला छोड़ दिया, यह बात यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के बार-बार नाटो और अमेरिका को कोसने से साफ़ हो जाती है।

पश्चिमी देशों की उदारवाद की नीति अपने हितों तक सीमित है। यूक्रेन को युद्ध की आग में झोंककर अमेरिका ने देशों को अपने ख़ेमे में लाने की कोशिश की है। लेकिन कड़वा सच यह है कि यूक्रेन-रूस युद्ध के दौरान दुनिया की दो बड़ी महाशक्तियाँ चीन और भारत रूस के ज़्यादा निकट गये हैं। रूस पहले से ही बड़ी शक्ति है। ऐसे में अमेरिका पर दबाव बढ़ा है।

चीन भी बड़ा कारण

दरअसल भारत के वर्तमान रुख़ के पीछे चीन भी एक बड़ा कारण है। चीन के साथ भारत के सम्बन्ध हाल के महीनों में काफ़ी तनाव भरे रहे हैं। लद्दाख़ से लेकर अ रुणाचल तक चीन सीमाओं पर निर्माण करके भारत पर दबाव बढ़ाने की कोशिश करता रहा है। हालाँकि भारत ने चीन के इन प्रयासों का दृढ़ता से विरोध किया है। हालाँकि रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद चीन और भारत के सम्बन्धों में तल्ख़ी थोड़ी कम दिखी है।

चीन रूस का सहयोग कर रहा है और भारत भी कमोवेश उसी ध्रुव पर खड़ा है। चीन और भारत के बीच तनाव कम करने में रूस हाल के महीनों में मध्यस्थता करने से कतराता दिखा है। कुछ महीने पहले रूस के पाकिस्तान की सेना के साथ साझे सैन्य अभ्यास से यह संकेत गया था कि भारत से नाराज़गी के कारण ऐसा किया गया। इसका एक कारण रूस के अलावा सैन्य उपकरण ख़रीदने के लिए हाल के वर्षों में भारत का अमेरिका और इजरायल के पास जाना भी रहा है। रूस तब भी भारत से नाराज़ दिखा था, जब कुछ महीने पहले वह अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड्रीलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग (क्वाड) गुट में शामिल हुआ था। रूस ने इस पर खुले रूप से नाराज़गी दिखायी थी।

चीन भारत के लिए आज की तारीख़ में एक महत्त्वपूर्ण मसला है। चीन के खुले रूप से रूस का साथ देने से भारत के पास एक विकल्प है कि यदि रूस के साथ हमारे सम्बन्ध और दृढ़ होते हैं, तो चीन से भी सम्बन्ध बेहतर करने का रास्ता खुल सकता है। हाल के महीनों में चीन की नीति से साफ़ दिखता है कि लद्दाख़ के हिस्से पर उसकी बुरी नज़र है। ऐसा नहीं है कि भारत अमेरिका से पूरी तरह कट जाना चाहता है। अमेरिका की मजबूरी है कि वह भारत का साथ नहीं छोड़ सकता। चीन उसके लिए एशिया क्षेत्र में सबसे बड़ी चुनौती है। लिहाज़ा भारत को उसे एक सहयोगी के रूप में साथ रखना होगा।

अमेरिका को चिन्ता है कि यदि भारत चीन और रूस साथ जुड़कर एक त्रिकोण बना लेते हैं, तो अमेरिका के लिए यह बहुत चिन्ताजनक स्थिति होगी। इससे पश्चिम अमेरिका के नेतृत्व में जिस तरह अपनी मनमर्ज़ी करता है, वह नहीं कर पाएगा। हालाँकि फ़िलहाल रूस और चीन तो पश्चिम दादागिरी के ख़िलाफ़ साथ दिख ही रहे हैं। लेकिन यहाँ एक सत्य यह भी है कि रूस आँख मूँदकर चीन पर भरोसा नहीं करता; क्योंकि एशिया क्षेत्र में जो रूस चाहता है, चीन भी वही चाहता है- ‘अपना दबदबा’। इधर भारत ‘देखो और इंतज़ार करो’  की नीति पर चल रहा है।

लेकिन रूस भारत पर भरोसा कर सकता है। हो सकता है कि भारत को रूस के साथ जाने लिए नेहरू के समय की गुटनिरपेक्ष नीति का त्याग करना पड़े। रूस भारत का पड़ोसी है और अमेरिका के मुक़ाबले वह भारत के लिए किसी भी रणनीतिक गठबंधन की नज़र से कहीं बेहतर विकल्प है। बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका चीन से सम्बन्ध सुधार सकता है। इसका कारण यह है कि ट्रंप प्रशासन के समय चीन से उसके रिश्ते बहुत ज़्यादा तल्ख़ रहे थे। जब ट्रंप हारे थे, तब चीन में राहत महसूस की गयी थी।

हिमाचल में जमने से पहले ही उखड़े आप के पाँव

प्रदेश में आम आदमी पार्टी को शुरुआत में ही लगा झटका, प्रदेश अध्यक्ष ने ही छोड़ा साथ

एक बड़े राजनीतिक घटनाक्रम को लेकर जब चार बार के सांसद और केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने एक ट्वीट किया- ‘केजरीवाल ने सोचा था, हिमाचल में सरकार बनाएँगे; लेकिन वहाँ तो आम आदमी पार्टी को अपना संगठन बचाना मुश्किल हो गया है।‘ तो साफ़ था कि यह आम आदमी पार्टी के लिए पहाड़ी राज्य में एक बड़ा झटका था। अनुराग का यह ट्वीट आम आदमी पार्टी के हिमाचल में अध्यक्ष अनूप केसरी और दो अन्य पदाधिकारियों के भाजपा में शामिल होने को लेकर था। ज़ाहिर है आम आदमी पार्टी को इससे बड़ा झटका लगा। हालाँकि पार्टी नेता और प्रदेश प्रभारी सत्येंद्र जैन, जो दिल्ली सरकार में मंत्री हैं; ने ट्वीट कर कहा कि हिमाचल प्रदेश की आम आदमी पार्टी की राज्य कार्यसमिति भंग कर दी गयी है, नयी राज्य कार्यसमिति का पुनर्गठन जल्द किया जाएगा। ज़ाहिर है प्रदेश अध्यक्ष के दलबदल करने से आम आदमी पार्टी को झटका लगा है।

पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता प्रेम कुमार धूमल ने इस घटनाक्रम पर कहा कि आम आदमी पार्टी का हिमाचल में कोई भविष्य नहीं है और भाजपा राज्य में सत्ता बरक़रार रखेगी। धूमल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की सराहना करते हुए कहा कि लोग केंद्र और राज्य में सरकार के प्रदर्शन से बहुत ख़ुश हैं। उन्होंने कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के निधन के बाद पहाड़ी प्रदेश में कांग्रेस नेताविहीन हो गयी है।

बता दें धूमल एक ज़मीनी नेता हैं और इन दिनों काफ़ी सक्रिय हैं। हालाँकि वह विनम्रतापूर्वक कहते हैं कि वह भाजपा के एक वफ़ादार सिपाही हैं और पार्टी के आदेश पर सब कुछ करेंगे।

उधर आम आदमी पार्टी ने सात प्रमुख पदाधिकारियों के पार्टी छोडऩे के बाद हिमाचल की इकाई की राज्य कार्यसमिति को भंग कर दिया। विधानसभा चुनाव से पहले राज्य इकाई को तगड़ा झटका देते हुए यह नेता भाजपा में शामिल हो गये। आम आदमी पार्टी राज्य इकाई के सात पदाधिकारियों का भाजपा में दलबदल अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के गृह ज़िले मंडी में बड़े रोड शो के बाद हुआ। भाजपा ने आम आदमी पार्टी से उस अपमान का बदला लिया है, जिसमें शिमला से उसके पूर्व पार्षद गौरव शर्मा, जो अब आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं और उनके सहयोगी पिछले महीने भाजपा छोड़ आम आदमी पार्टी में शामिल हो गये थे।

8 अप्रैल को आम आदमी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अनूप केसरी, राज्य के संगठन सचिव सतीश ठाकुर और ऊना के ज़िला अध्यक्ष इकबाल सिंह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की उपस्थिति में भाजपा में शामिल हुए थे। ठाकुर ने आरोप लगाया कि आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल की हिमाचल विरोधी कार्यशैली के विरोध में नेता आम आदमी पार्टी का साथ छोड़ रहे हैं।

हिमाचल के लिए आम आदमी पार्टी के चुनाव प्रभारी सत्येंद्र जैन ने राज्य इकाई को भंग करने की घोषणा की। वैसे विधानसभाओं की इकाइयाँ यथावत कार्य करती रहेंगी। उन्होंने कहा कि जल्द ही एक मज़बूत संगठन का गठन किया जाएगा। आम आदमी पार्टी की यह घोषणा उसके प्रदेश अध्यक्ष अनूप केसरी और पार्टी के संगठन सचिव के शिमला में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के रोड शो से कुछ घंटे पहले भाजपा में शामिल होने के बाद हुई।

इसके बाद आम आदमी पार्टी की महिला विंग की प्रमुख ममता ठाकुर, पाँच अन्य पदाधिकारियों के साथ नई दिल्ली में केंद्रीय कार्यालय में भाजपा में शामिल हो गयीं। अन्य नेताओं में आम आदमी पार्टी की महिला शाखा की उपाध्यक्ष सोनिया बिंदल और संगीता, आम आदमी पार्टी की औद्योगिक शाखा के उपाध्यक्ष डी.के. शर्मा और सोशल मीडिया के उपाध्यक्ष आशीष कुमार शामिल हैं।

केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, जिन्हें इन नेताओं को भाजपा में शामिल कराने का श्रेय दिया जाता है; ने कहा कि आने वाले दिनों में आम आदमी पार्टी के और नेता भाजपा में शामिल होंगे। पता चला है कि आम आदमी पार्टी की महिला विंग की प्रदेश अध्यक्ष ममता ठाकुर को भाजपा में शामिल करने में अनुराग ठाकुर की अहम भूमिका थी।

इस मौक़े पर केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी भी मौज़ूद रहीं। अनुराग ठाकुर ने कहा कि आम आदमी पार्टी के लिए हिमाचल में अपनी पार्टी को बचाना मुश्किल हो गया है।

निश्चित ही भाजपा जोखिम लेना चाहती है। कुछ महीने पहले सत्तारूढ़ भाजपा को तब बड़ा झटका लगा था, जब तीन विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर वह उपचुनाव हार गयी थी। इनमें मंडी की लोकसभा सीट मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के गृह ज़िले में पड़ती है। पिछले साल 30 अक्टूबर को यह उपचुनाव हुए थे। इस हार के झटके से उबरने के लिए निश्चित ही भाजपा अब आक्रामक हो रही है।

आम आदमी पार्टी ने 6 अप्रैल को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके पंजाब समकक्ष भगवंत मान के रोड शो के साथ मौज़ूदा मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर के गृह क्षेत्र मंडी से राज्य विधानसभा चुनावों के लिए अपना चुनाव अभियान शुरू किया था। इस साल के अन्त तक होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले यह पार्टी का पहला बड़ा आयोजन था और यह पहाड़ी राज्य में जनता के मूड को भी प्रदर्शित कर रहा था। आम आदमी पार्टी ने शिमला नगर निगम चुनाव लडऩे की योजना की भी घोषणा की थी, जिसके लिए कार्यक्रम की घोषणा जल्द होने की उम्मीद है। आम आदमी पार्टी प्रमुख और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बड़े-बड़े होर्डिंग प्रमुख स्थानों पर लगे हैं और आम आदमी पार्टी ने सभी 41 वार्डों में चुनाव लडऩे के लिए राजधानी में अपने क़दम बढ़ाते हुए सदस्यता अभियान शुरू कर दिया है।

एक चतुर रणनीति के रूप में भाजपा ने आम आदमी पार्टी नेताओं के भाजपा में शामिल होने के पूरे शो को लाइव और प्रमुखता से सोशल मीडिया पर प्रचारित किया। ज़ाहिर है उसका मक़सद इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले सामूहिक दलबदल करवाकर आम आदमी पार्टी पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना है।

हालाँकि यह सा$फ संकेत है कि भाजपा को डर है कि पड़ोसी राज्य पंजाब में आम आदमी पार्टी की लहर और आम आदमी पार्टी सरकार के गठन से हिमाचल में चुनाव प्रभावित हो सकते हैं, जहाँ आम आदमी पार्टी ने पहले ही घोषणा कर दी है कि वह आने वाले विधानसभा चुनावों में सभी 68 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। उसने अपना सदस्यता अभियान भी शुरू किया था।

सदस्यता समारोह के दौरान अनुराग ठाकुर के अलावा मीनाक्षी लेखी, पार्टी महासचिव अरुण सिंह और राष्ट्रीय सह मीडिया प्रभारी संजय मयूख भी मौज़ूद थे। दिलचस्प बात यह है कि आम आदमी पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हुए अध्यक्ष अनूप केसरी, संगठन महासचिव सतीश ठाकुर भी आम आदमी पार्टी को सन्देश देने के लिए इस कार्यक्रम में मौज़ूद थे।

आम आदमी पार्टी और भाजपा जहाँ राजनीतिक लड़ाई और दलबदल कराने में लगे हुए हैं, वहीं राज्य कांग्रेस भ्रम और राजनीतिक अलगाव की स्थिति में दिखायी दे रही है। हाल ही में पड़ोसी राज्य पंजाब में जो हुआ, उससे पार्टी नेताओं का विश्वास डगमगाया है। एक कारण और है- हिमाचल में कांग्रेस के नेता वैसे ही एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं; जैसा पंजाब में था।

चंडीगढ़ पर अधिकार को लेकर सियासत

केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ के मूल कर्मचारियों के सर्विस रूल्स में गृहमंत्री अमित शाह ने बदलाव कर दिया है। अब चंडीगढ़ के कर्मचारी केंद्रीय कर्मचारियों के समकक्ष सुविधाएँ पाएँगे। लेकिन इससे हरियाणा और पंजाब की यह राजधानी फिर विवाद में आ गयी है। हालाँकि यह मुद्दा पाँच दशक से भी ज़्यादा पुराना है और समय-समय पर उठता रहा है। दोनों राज्यों की संयुक्त राजधानी के तौर पंजाब-हरियाणा की संयुक्त राजधानी और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ पर हक़ के लिए फिर से दोनों राज्य सरकारों में राजनीतिक सरगर्मी शुरू हो गयी है।

पंजाब में प्रचंड बहुमत से सत्ता में आयी आम आदमी पार्टी की सरकार के लिए यह पहली बड़ी परीक्षा थी। मुख्यमंत्री भगवंत मान ने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया। इसमें कहा गया कि केंद्र सरकार तुरन्त प्रभाव से चंडीगढ़ पंजाब को हस्तांतरित किया जाए। पंजाब के रुख़ पर हरियाणा में भी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने भी विधानसभा में सर्वसम्मति से चिन्ता प्रस्ताव पारित कर पंजाब के रुख़ को बेमानी बताते हुए केंद्र के क़दम को सही बताया।

चूँकि चंडीगढ़ दोनों राज्यों की राजधानी के अलावा केंद्र शासित प्रदेश भी है। इस नाते अमित शाह ने चंडीगढ़ प्रशासन के तहत आने वाले कर्मचारियों को केंद्रीय कर्मचारियों के समकक्ष कर सभी सुविधाएँ देने की घोषणा की, तो पंजाब की प्रतिक्रिया होनी लाज़िमी ही थी। ऐसा होने पर चंडीगढ़ पर पंजाब की दावेदारी नहीं रहेगी और यह शहर दोनों राज्यों की राजधानी बना रहेगा, जबकि पंजाब में विभिन्न सरकारों ने समय-समय पर चंडीगढ़ को पंजाब को हस्तांतरित करने की माँग की है।

उधर हरियाणा में भी सरकारें चंडीगढ़ पर पंजाब के समकक्ष अपनी दावेदारी जताती रही हैं। चूँकि हरियाणा में भाजपा की सरकार है, इस नाते वह केंद्र के रुख़ के ख़िलाफ़ नहीं जा सकती। जबकि पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है और उसे राज्य के लोगों की भावनाओं को देखते हुए मज़बूती से दावेदारी रखनी पड़़ेगी। दोनों राज्यों में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, चंडीगढ़ पर दावेदारी समान रूप से होती रही है। सवाल यह है कि आख़िर चंडीगढ़ पर अधिकार किस राज्य का है? पंजाब तो शुरू से मानता रहा है कि चंडीगढ़ को राजधानी के तौर पर उसके लिए ही विकसित किया गया था।

सन् 1966 में पंजाब से भाषा के आधार पर हरियाणा अलग राज्य के तौर पर वजूद में आया। हिमाचल प्रदेश पहले केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर और सन् 1970 में उसे पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल हुआ, जिसकी राजधानी शिमला को बनाया गया। लेकिन हरियाणा और पंजाब ने संयुक्त तौर पर चंडीगढ़ पर अपना-अपना दावा जताया। यही वजह है कि यहाँ उच्च न्यायालय, विधानसभाएँ और सचिवालय के भवन एक ही परिसर में हैं। हरियाणा को अलग राजधानी बनाने के लिए तत्कालीन केंद्र सरकार ने 10 करोड़ रुपये की आर्थिक मदद और 10 करोड़ रुपये क़र्ज़ के तौर पर (कुल 20 करोड़ रुपये) का प्रस्ताव दिया। हरियाणा को राजधानी बनाने के लिए अधिकतम 10 वर्ष का समय दिया गया था। केंद्र और हरियाणा में राज्य कांग्रेस सरकार के दौरान कई बार हरियाणा की अलग राजधानी के बारे में प्रयास हुए; लेकिन कोई योजना सिरे नहीं चढ़ी। आख़िर उसने चंडीगढ़ पर ही अपनी दावेदारी जतायी, जो बदस्तूर अब तक जारी है। केंद्र के नयी राजधानी के प्रस्ताव पर हरियाणा मन से कभी राज़ी नहीं हुआ। जिस तरह से पंजाब के लोगों की भावनाएँ चंडीगढ़ से जुड़ी हैं, ठीक उसी तरह से हरियाणा के लोगों की भी भावनाएँ जुड़ी हैं। मामला केवल चंडीगढ़ का ही नहीं है, बल्कि उस पर अधिकारों के विवादों का भी है। भविष्य में अगर चंडीगढ़ के हस्तांतरण का फ़ैसला होता है, तो उसके साथ कई और विवाद भी सुलझाने होंगे। इनमें पंजाब में कई हिन्दी भाषी इलाक़े ऐसे हैं, जिन पर हरियाणा का दावा है। इसके साथ ही सतलुज-यमुना जोड़ नहर का मसला भी है। पंजाब इस नहर के पक्ष में नहीं, जबकि हरियाणा के लिए यह जीवनदायिनी जैसी है।

पहले तो हरियाणा चंडीगढ़ पर कभी अपना दावा छोड़ेगा नहीं। लेकिन अगर समझौते की कोई बात होती है, तो उसकी कई शर्तें होंगी, जिन पर पंजाब में कभी सहमति नहीं बन सकेगी। दशकों पुराने इस मुद्दे के निकट भविष्य में सुलझने की उम्मीद कम ही है। चंडीगढ़ में प्रशासन के कर्मचारियों के सर्विस रूल्स में बदलाव से ज़्यादातर कर्मचारी संगठन ख़ुश हैं; लेकिन पंजाब सरकार केंद्र के इस फ़ैसले से नाराज़ है।

पंजाब के मुख्यमत्री भगवंत मान के मुताबिक, केंद्र सरकार के चंडीगढ़ कर्मचारियों के सर्विस रूल्स में बदलाव देश के फेडरेल ढाँचे से छेड़छाड़ जैसा है। यह एक तरह से पंजाब के हितों से खिलवाड़ है, जिसे राज्य के लोग सहन नहीं करेंगे। उधर हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर का मानना है कि चंडीगढ़ प्रशासन के कर्मचारियों के सर्विस रूल्स में बदलाव केंद्र सरकार का सही क़दम है। जब चंडीगढ़ दोनों राज्यों की संयुक्त राजधानी है, तो फिर पंजाब को इस घोषणा के बाद विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर इसके हस्तांतरण का प्रस्ताव पास करने की क्या ज़रूरत है? फिर मामला केवल चंडीगढ़ का ही तो नहीं है। इसके साथ पंजाब में स्थित हिन्दी भाषी क्षेत्र और सतलुज-यमुना जोड़ नहर जैसे मुख्य मामले हैं। पंजाब उनके बारे में किसी तरह की बातचीत करने को तैयार नहीं है।

सन् 1947 में भारत-पाक विभाजन से पहले संयुक्त पंजाब की राजधानी लाहौर हुआ करती थी। विभाजन के बाद पश्चिम पंजाब पाकिस्तान में चला गया, जबकि पूर्वी पंजाब भारत के पास रहा। तब यहाँ के पंजाब में पंजाबी, हिन्दी और पहाड़ी भाषाओं के आधार पर अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव सामने आया। चूँकि संयुक्त पंजाब की राजधानी लाहौर पाकिस्तान में चला गया। ऐसे में हमारे यहाँ के पंजाब की राजधानी का मसला खड़ा हो गया। इसके लिए चंडीगढ़ को राजधानी के तौर पर विकसित किया जाने लगा। सन् 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गाँधी और सन्त हरचंद सिंह लौंगोवाल के बीच अन्य कुछ शर्तों के साथ समझौता हुआ। इसमें चंडीगढ़ पंजाब को देने की बात भी थी। लेकिन बाद में इस शर्त पर लिखित समझौता नहीं हो सका। यही वजह रही कि चंडीगढ़ किसी एक राज्य की नहीं, बल्कि संयुक्त तौर पर राजधानी बनी रही।

चंडीगढ़ पर हरियाणा के मुक़ाबले पंजाब की भागीदारी ज़्यादा है। इस पर हरियाणा को कभी ऐतराज़ नहीं रहा। पंजाब के राज्यपाल ही चंडीगढ़ के प्रशासक के तौर पर काम करते हैं। इसके अलावा उपायुक्त और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक जैसे अहम पद पर दोनों राज्यों की भागीदारी है। चंडीगढ़ पर पंजाब का हिस्सा 60 फ़ीसदी, जबकि हरियाणा का 40 फ़ीसदी है।

दोनों राज्यों के ज़्यादातर मुख्यालय भी यहीं पर हैं। किसी भी तरह की कोई दिक़्क़त नहीं है; लेकिन नये फ़ैसले से दोनों मुख्यमंत्रियों में अब जैसे तलवारें खिंच गयी हैं। चंडीगढ़ नगर निगम की विशेष बैठक में शहर को केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर ही रहने पर चर्चा हुई। मेयर सरबजीत कौर के मुताबिक, दिल्ली की तरह चंडीगढ़ की भी अलग विधानसभा हो और इसे केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर ही रखना चाहिए। यहाँ सब काम सुचारू रूप से चल रहे हैं। ज़्यादातर लोग भी किसी एक प्रदेश की राजधानी नहीं, बल्कि केंद्र शासित के तौर पर ही देखना चाहते हैं।

 

“केंद्र का चंडीगढ़ प्रशासन के सर्विस रूल्स में बदलाव का फ़ैसला पंजाब के हितों पर कुठाराघात है। चंडीगढ़ पर पंजाब का हक़ है और यह उसे तुरन्त प्रभाव से हस्तांतरित किया जाना चाहिए। हमारी सरकार ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कर बता भी दिया है। जल्द ही हम इस मुद्दे पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को राज्य के लोगों की भावनाओं से अवगत कराएँगे। पूर्व की केंद्र सरकारों ने चंडीगढ़ पर पंजाब के अधिकार को माना है।“

                                भगवंत मान

मुख्यमंत्री, पंजाब

 

“पंजाब और हरियाणा भाई-भाई हैं। पंजाब बड़े भाई जैसा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि छोटे भाई के अधिकार का हनन करे। अगर बड़ा भाई छोटे का हक़ मारने की कोशिश करेगा, तो यह (छोटा भाई) चुप कैसे बैठ सकता है? चंडीगढ़ दोनों राज्यों की राजधानी है और रहेगी। केंद्र ने प्रशासन कर्मियों के सर्विस रूल्स में बदलाव करके देश के संघीय ढाँचे से किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं की है। चंडीगढ़ पर हरियाणा का हक़ भी पंजाब जितना ही है।“

                             मनोहर लाल खट्टर

मुख्यमंत्री, हरियाणा

 

कर्मचारियों का फ़ायदा

चंडीगढ़ प्रशासन में कर्मियों के सर्विस रूल्स में बदलाव ही मुद्दे की असली जड़ है। इसके बाद से ही दोनों राज्यों में आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ है। फ़ैसले से चंडीगढ़ प्रशासन के कर्मचारियों को हर क्षेत्र में फ़ायदा होगा। फ़ैसले से पहले चंडीगढ़ प्रशासन में पंजाब जैसे वेतनमान और अन्य नियम हैं; लेकिन अब उन्हें केंद्रीय कर्मियों जैसी सुविधाएँ मिलेंगी। शिक्षकों और नर्सों को नये सर्विस रूल्स से काफ़ी फ़ायदा होगा। सेवानिवृत्ति की आयु में ही दो साल की वृद्धि हो जाएगी। इसके अलावा और बहुत से फ़ायदे मिलेंगे। विभिन्न कर्मचारी संगठन केंद्र के फ़ैसले से ख़ुश हैं। केंद्र के सर्विस रूल्स में बदलाव से दबा हुआ मुद्दा फिर गर्म हो गया है। सम्भव है कि केंद्र के इस फ़ैसले के कई निहितार्थ हों।