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संगीत की लता

(FILES) In this file photo taken on June 18, 2010 singer Lata Mangeshkar attends the launch of photographer Gautam Rajadhyaksh’s Marathi coffee table book “Chehere” in Mumbai. - Beloved Bollywood singer Lata Mangeshkar has died at the age of 92. (Photo by AFP)

लता मंगेशकर। यह एक नाम भर नहीं है। संगीत साधना है और लता इसकी अनन्य साधक थीं। उन्होंने ताउम्र इसे जीया। साठ साल की उम्र पार करने के बाद भी उनकी आवाज़ में किसी युवती-सी खनक थी। निश्चित ही उनमें यह नैसर्गिक प्रतिभा थी। किशोरावस्था में परिवार के लिए कमाने का बोझ ढोकर भी लता ने कमाल का जीवट दिखाया। गायन में जब वह स्थापित हुईं, तो उनकी आवाज़ संगीत की दुनिया में पहचान बन गयी। लता एक ही थीं। उनके जाने से संगीत का एक ऐसा सितारा टूट गया है, जिसके बिना एक ख़ालीपन हमेशा रहेगा; भले ही उनकी आवाज़ सदियों तक जहाँ में गूँजती रहेगी।

लता के कई गीतों में उनके जीवन की पीड़ा का दर्द महसूस किया जा सकता है। देश-भक्ति से भरपूर कवि प्रदीप के लिखे गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ को लता ने जिस शिद्दत से गाया था, उसकी तारीख़ के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं। यह कहा गया है कि लता ने यह गीत सन् 1962 के चीन-भारत युद्ध में सर्वोच्च बलिदान देने वाले वीरों की याद में 27 जनवरी, 1963 को जब नेशनल स्टेडियम में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन और तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में गाया था, तो नेहरू अपने आँसू नहीं रोक पाये थे।

लता शुरू में अभिनय करना चाहती थीं। उन्होंने किया भी था। सन् 1942 में पिता दीनानाथ शास्त्री की अचानक मृत्यु से उपजी पारिवारिक परिस्थितियों में जिम्मेदारी आ पडऩे के वक़्त लता मंगेशकर ने सन् 1948 तक अभिनय में कोशिश की। उन्होंने आठ फ़िल्मों में अभिनय किया। चूँकि लता पाँच भाई-बहनों- मीना, आशा, उषा और हृदयनाथ में सबसे बड़ी थीं। परिवार के पोषण का ज़िम्मा उनके नन्हें कन्धों पर था। भले ही उनका अभिनय करियर आगे नहीं बढ़ा; लेकिन उन्होंने पाश्र्व गायन से शुरुआत बेहतर की।

उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर एक शास्त्रीय गायक और थिएटर अभिनेता थे। उन्होंने थिएटर कम्पनी भी चलायी, जहाँ संगीत, नाटक तैयार होते थे। लता ने यहीं पाँच साल की छोटी आयु में अभिनय की शुरुआत की थी। अभिनय के बाद गायन को उन्होंने जीवन का रास्ता बना लिया।

एक बार लता ने बताया कि एक दिन उनके पिता के एक शिष्य राग का अभ्यास कर रहे थे। लता को लगा कि उसमें कुछ ख़ामी है, तो उन्होंने उसे दुरुस्त कर दिया। पिता को लौटने पर इसका पता चला, तो उनके मुँह से निकला- ‘मुझे अपनी ही बेटी में एक शागिर्द मिल गया।’ दीनानाथ ने लता की माँ से कहा कि हमारे घर में ही एक गायिका है, हमें इसका पता ही नहीं चला।

गायन के शुरुआती दिनों में उन्हें कहा गया कि उनकी आवाज़ में पतलापन है। एक तरह से एक पाश्र्व गायिका के रूप में फ़िल्म उद्योग ने उन्हें अस्वीकार ही कर दिया। यह वो ज़माना था, जब फ़िल्म उद्योग में गायिकी के मंच पर नूरजहाँ और शमशाद बेग़म जैसी गायिकाएँ विराजमान थीं।

हालाँकि समय के साथ लता की आवाज़ लोगों को भाने लगी; क्योंकि तब तक नूरजहाँ और शमशाद बेग़म की भारी आवाज़ के साथ-साथ पतली आवाज़ भी पसन्द की जाने लगी थी।

सन् 1949 में महल फ़िल्म के उनके गीत ‘आएगा आने वाला’ ने धूम मचा दी। इस गीत में लता की आवाज़ में हताशा, उम्मीद और इंतज़ार का अद्भुत मिश्रण था। संगीतकार खेमचंद प्रकाश की धुनों से पॉलिश हुआ यह गीत नक्शाब जारचवी ने लिखा था। शोहरत की बुलंदियों के सफ़र की यह मज़बूत शुरुआत थी। लता ने इसके बाद पीछे मुडक़र नहीं देखा। एक के बाद एक नायाब गीत उन्हें गायन का भगवान बनाते गये।

इसके बाद उसी साल आया बरसात फ़िल्म का गीत ‘हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का’ काफ़ी मशहूर हुआ। दिल अपना और प्रीत परायी का गीत ‘अजीब दास्ताँ है ये’ लता के गाये श्रेष्ठ गानों में एक माना जाता है। सन् 1960 में मुगल-ए-आज़म का ‘प्यार किया तो डरना क्या’ एक तरह से दमन के ख़िलाफ़ विद्रोह से भरा गीत था, जो हरेक की ज़ुबाँ पर चढ़ गया। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि सन् 1999 में लता के सम्मान में एक इत्र ‘Lata Eau de Parfum’ लॉन्च किया गया था। यही नहीं, उन्होंने एक भारतीय हीरा निर्यात कम्पनी, अडोरा के लिए स्वरंजलि नामक एक संग्रह भी डिजाइन किया। आपको हैरानी होगी कि इस संग्रह के पाँच पीस जब क्रिस्टीज में नीलाम किये गये, तो इनसे 105,000 पाउंड (1,06,31,271.00 भारतीय रुपये) हासिल हुए। लेकिन इन्हीं लता मंगेशकर ने पिता की मौत के बाद पैसे के लिए संघर्ष किया था और अपने छोटे भाई बहनों के लिए अपनी ज़रूरतों और ख़ुशियों की क़ुर्बानी दे दी। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि लता ने यह पैसे सन् 2005 में कश्मीर भूकम्प के लिए बने राहत कोष में दान कर दिये थे। दादा साहेब फालके, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और भारत रत्न जैसे बड़े पुरस्कारों से उन्हें नवाज़ा गया।

लता मंगेशकर क्रिकेट की दीवानी रहीं। उनका क्रिकेट के प्रति यह प्रेम सचिन तेंदुलकर के आने से बहुत पहले से है, जब वह युवा थीं। एक शख़्स, जो क्रिकेट से जुड़ा था, उनकी ज़िन्दगी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया था। यह थे राजस्थान की डूंगरपुर रियासत के महाराजा राज सिंह डूंगरपुर। डूंगरपुर रणजी भी खेले और बीसीसीआई के अध्यक्ष भी रहे। लता घर में क्रिकेट में हाथ आजमा लेती थीं। वाकेश्वर हाउस में क्रिकेट के इस प्रेम के दौरान ही लता की मुलाक़ात डूंगरपुर से हुई थी। ख़ुद राज सिंह ने सन् 2009 में एक साक्षात्कार में बताया था कि वाकेश्वर हाउस में वह लता मंगेशकर और उनके भाई के साथ क्रिकेट खेलते रहे थे। लता मंगेशकर और राज सिंह की काफ़ी मुलाक़ातों का भी ज़िक्र रहा है। कहते हैं कि दोनों एक-दूसरे को पसन्द करते थे और विवाह करने के लिए भी तैयार थे। हालाँकि दोनों का प्यार रिश्ते में नहीं बदल पाया। क्योंकि डूंगरपुर के पिता चाहते थे कि उनका बेटा राजपूत परिवार में ही विवाह करे। विवाह तो नहीं हो सका; लेकिन लता और डूंगरपुर दोनों ने ही जीवन भर विवाह नहीं किया। दोनों के प्यार की ऊँचाई का इससे पता चलता है। दोनों ताउम्र दोस्त ज़रूर रहे।

 

गीत, जो हर ज़ुबाँ पर चढ़ गये

महल (1949) का ‘आएगा आने वाला’, बरसात (1949) ‘हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का’, दिल अपना और प्रीत परायी (1960) का ‘अजीब दास्ताँ है ये’, ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’, मुगल-ए-आजम (1960) का ‘प्यार किया तो डरना क्या’, जब-जब फूल खिले (1965) का ‘ये समां’, गाइड (1972) का ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’, पाकीज़ा (1972) का ‘चलते चलते यूँ ही कोई’, शोर (1972) का ‘इक प्यार का नग़्मा है’, अनामिका (1973) का ‘बाहों में चले आओ’, मुकद्दर का सिकंदर (1978) का ‘सलाम-ए-इश्क़ मेरी जान’, बाज़ार (1982) का ‘फिर चढ़ी रात’, सिलसिला (1981) का ‘देखा एक ख़्वाब’, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे (1995) का ‘तुझे देखा तो’, रुदाली (1993) का ‘दिल हूम-हूम करे’, दिल से (1998) का ‘जिया जले’, कभी ख़ुशी कभी ग़म (2001) का ‘कभी ख़ुशी कभी ग़म’, वीर-ज़ारा (2004) का ‘तेरे लिए’ और रंग दे बसंती (2006) का ‘लुका छुपी’।

 

लता मंगेशकर की चार प्रतिज्ञाएँ

लता मंगेशकर के पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर का पहला श्राद्ध था। लता मंगेशकर की बहनों- मीना और आशा ने तरह-तरह के पकवान तैयार किये थे। 21 तरह की सब्ज़ियाँ तैयार की गयीं। लेकिन उनकी माई (माँ) को यह पसन्द नहीं आया। उस समय उन्होंने पंडित दीनानाथ की प्रिय चाँदी की एक थाली बेच दी। इससे लता को $गुस्सा आ गया। उन्होंने माई से पूछा- ‘आपने उनकी पसन्दीदा थाली क्यों बेची?’ तब माई ने कहा- ‘यह मेरे मालिक का श्राद्ध है। किसी ऐरे-ग़ैरे का नहीं है। उनका श्राद्ध उसी ठाटबाट से करना चाहिए, जिसमें वे रहे।’ उनकी माताजी ने उन्हें कहा- ‘एक चाँदी की थाली के लिए तुम क्यों आँसू बहा रही हो? अगर तुम अपने पिता की तरह गाती रहोगी, तो एक वक़्त ऐसा आएगा कि तुम पर सोने की वर्षा होगी।’

श्राद्ध के समय पिंडदान का समय था। किसी कौए का इंतज़ार था। लेकिन कौआ नहीं आया। क़रीब एक घंटे बाद माई ने कहा- ‘आप पाँच भाई-बहनों में से एक ने कुछ $गलत किया है, इसलिए कौआ नहीं आ रहा है। तुम पाँचों कुछ प्रतिज्ञा करो, ताकि कौआ पिंड को छुए।’ इस पर लता ने चार प्रतिज्ञाएँ कीं। पहली- प्रतिदिन संगीत का रियाज़ करना। दूसरी- नियमानुसार बाबा का श्राद्ध करना। तीसरी- हर वर्ष बाबा के श्राद्ध दिवस पर संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत करना। और चौथी- करने के बाद भी कौआ नहीं आया। तब लता दीदी के साथ सभी ने चौथी प्रतिज्ञा की कि हम संगीत के अलावा और कुछ नहीं करेंगे। इस प्रतिज्ञा के बाद कौए ने पिंड ग्रहण किया। (प्रस्तुति : मनमोगन सिंह नौला)

बजट रे बजट, तेरा रंग कैसा!

The Union Minister for Finance and Corporate Affairs, Smt. Nirmala Sitharaman delivering the keynote address at the Maximum India Conclave 2021, organised by the Indian Private Equity and Venture Capital Association (IVCA), through video conferencing, in New Delhi on October 06, 2021.

इस बार के बजट को आम आदमी को अँगूठा दिखाने वाला माना गया

भारत में कहा जाता है कि देश का बजट जनता के लिए कम, राजनीति के लिए ज़्यादा बनाया जाता है। या कभी-कभी चुनाव के लिए भी। लेकिन इस बार का बजट इनमें से किसी भी खाँचे में नहीं बैठता। साल भर के किसान आन्दोलन को रोकने के लिए तीन कृषि क़ानून वापस लेने की घोषणा के दो महीने बाद यह बजट आया। लेकिन किसान इससे क़तर्इ ख़ुश नहीं हैं।

मध्यम वर्ग, जिसने सन् 2014 और सन् 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा, खासकर नरेंद्र मोदी पर भरोसा करके उन्हें प्रधानमंत्री चुनने के उद्देश्य से भाजपा के पक्ष में बहुमत के साथ मतदान किया; उसे इस बजट से नाउम्मीदी मिली। युवाओं के लिए बजट में 60 लाख नौकरियाँ र्इज़ाद करने की ओर काम करने की बात कही गयी है। लेकिन मोदी सरकार का रोज़गार देने के मामले में रिकॉर्ड बहुत बेहतर नहीं है। ऊपर से हाल के दो वर्षों में कोरोना महामारी के बार-बार फैलते संक्रमण और पिछले समय में दो बार हुई तालाबंदी के कारण जिन करोड़ों लोगों का रोज़गार गया, उनमें से आधे से ज़्यादा आज तक घरों में बेकार बैठे हैं। क्योंकि सरकार ने पाबंदियाँ तो लगा दीं; लेकिन उनके रोज़गार की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की थी। इस बार के बजट को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अगले 25 साल का आईना बताया है। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे आत्मनिर्भरता की तरफ़ एक और बड़ा क़दम बताया है। लेकिन बेहद कमज़ोर अर्थ-व्यवस्था के इस दौर में जब आम आदमी को राहत की ज़रूरत है; क्या उस वर्ग को नज़रअंदाज़ करके इस बजट को आत्मनिर्भरता वाला और 25 साल के लिए आईना वाला बजट माना जा सकता है? भविष्य की ज़रूरतों के नाम पर क्या आम आदमी की वर्तमान ज़रूरतों की बलि दी जा सकती है? भारत के कल्याणकारी राज्य होने की अवधारणा के विपरीत जाकर इस तरह के बजट को कैसे आकांक्षाओं को पूरा करने वाला बजट कहा जा सकता है? यहाँ तक कि आयकर की सीमा (स्लैब) भी नहीं बढ़ायी गयी, जिससे आम आदमी निराश है।

कोरोना-काल के पिछले दो साल आज़ादी के बाद भारत की सबसे बुरी तस्वीर दिखाने वाले रहे हैं। दुनिया ने भारत के गाँवों से शहरों में नौकरियों के लिए आये करोड़ों ग़रीब और निम्न-माध्यम वर्ग के लोगों को छोटे-छोटे बच्चों के साथ कच्ची-पक्की सडक़ों पर 500 से 2,000 किलोमीटर तक या उससे भी अधिक पैदल जाते देखा है। ऐसे देश में बजट किस पर फोकस होना चाहिए? इस पर ही कई सवाल हैं। कई आर्थिक जानकार मानते हैं कि देश का बजट किसी भी रूप में बहुसंख्यक आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करता। इसका एक कारण यह भी है कि इन लोगों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती (भीड़ के शोर-शराबे में कही गयी बात) जैसी है।

तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डेरेक ओब्रायन बजट पर कहते हैं- ‘बजट से साबित होता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों, $गरीबों और मध्य वर्ग की परवाह नहीं करते। हीरे (कॉर्पोरेट लोग) सरकार के सबसे अच्छे मित्र हैं। किसानों, मध्य वर्ग, दिहाड़ी मज़दूरों, बेरोज़गारों की प्रधानमंत्री कोई परवाह नहीं करते।’

इसी तरह भाकपा नेता अतुल कुमार का कहना है- ‘एक तरफ़ ग्रामीण भारत और आम लोगों को बजट में कोई राहत नहीं। दूसरी ओर कारपोरेट कर कम करके देश के सम्पन्न लोगों को सहूलियत दी गयी है। किसानों, युवाओं के लिए कुछ नहीं किया। सरकार देश की आर्थिक प्रगति की गाड़ी को पटरी पर लाने में विफल साबित हुई है।’

राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े बजट पर कहते हैं- ‘सरकार के वादे एक के एक बाद झूठ साबित होते जा रहे हैं। राजकोषीय घाटा बहुत ही ज़्यादा है। कॉरपोरेट कर घटाया; लेकिन आम लोगों को राहत नहीं दी। मैं तो यही कहूँगा कि यह द्रोणाचार्य और अर्जुन का बजट है। एकलव्य का बजट नहीं है।’

किसान देश का बड़ा मुद्दा हैं। उनका आन्दोलन हुआ, तो दुनिया भर के मीडिया में इसकी चर्चा हुई और किसानों की दुर्दशा पर चिन्ता जताने वाले सम्पादकीय लिखे गये और ख़बरें छपती रहीं। लेकिन देश के मीडिया का प्रभावशाली वर्ग (गोदी मीडिया) किसानों को ख़ालिस्तानी, आतंकवादी और दलाल ठहराने की कोशिश करता रहा। बजट पर किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष राकेश टिकैत ने कहा- ‘आम बजट में मोदी सरकार ने एमएसपी का बजट पिछले साल के मुक़ाबले कम कर दिया है। पिछले बजट (2021-22) के बजट में एमएसपी की ख़रीदी पर बजट 2,48,000 करोड़ रुपये था, जिसे वित्त वर्ष 2022-23 के बजट में घटाकर 2,37,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है। यह भी सिर्फ़ धान और गेहूँ की ख़रीदी के लिए है। इसे लगता है कि सरकार दूसरी फ़सलों की ख़रीदी एमएसपी पर करना ही नहीं चाहती।’

टिकैत का यह भी आरोप है कि किसानों की आय दोगुनी करने, सम्मान निधि देने और दो करोड़ रोज़गार देने की बात नहीं हुई। एमएसपी, खाद-बीज, डीजल और कीटनाशक पर कोई राहत नहीं दी गयी है। इससे ज़ाहिर होता है कि सरकार किसानों के साथ धोखा कर रही है। युवाओं को 60 लाख रोज़गार देने का वादा बजट में है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि हाल के वर्षों में इस मोर्चे पर बहुत कमज़ोर हुआ है। दिल्ली के अतुल चौक में एक युवा अग्रिम कपूर ने कहा- ‘काहे का रोज़गार मिलेगा? पहली बार बजट थोड़ी आया है। पिछले बजटों में रोज़गार के जो वादे किये थे इन्होंने; क्या वो पूरे हुए? आप मीडिया वाले भी यह बातें नहीं उठाते।’ हालाँकि मोदी सरकार वरिष्ठ मंत्री नितिन गडकरी- ‘यह बजट एक विजन पेश करता है कि इस साल और आने वाले वर्षों में देश की अर्थ-व्यवस्था की रफ़्तार कैसी रहेगी।’

बेरोज़गारी बड़ा मुद्दा

यह बजट संसद में पेश में होने के ठीक एक हफ़्ते बाद 9 फरवरी को राज्यसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद रॉय ने एक सवाल का जवाब में बताया कि सन् 2018 से सन् 2020 के बीच 25,231 से ज़्यादा लोगों ने बेरोज़गारी और क़र्ज़ा में डूबने के कारण आत्महत्या की है। केंद्रीय मंत्री ने बताया कि इसमें से 9,140 लोगों ने बेरोज़गारी के कारण, तो वहीं 16,091 लोगों ने क़र्ज़ा से दु:खी होकर आत्महत्या की। ये आँकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने उपलब्ध कराये हैं। नित्यानंद रॉय के बयान से समझा जा सकता है कि देश में बेरोज़गारी की क्या हालत है?

इस बार के बजट सत्र में कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष ने बेरोज़गारी के मुद्दे पर सरकार को ख़ूब घेरा। विपक्ष का आरोप था कि कोरोना-काल में सरकार की नीतियों ने बेरोज़गारी को और बढ़ाया है। दिलचस्प यह रहा कि बेरोज़गारी को लेकर सरकार ने राज्यसभा में कुछ महत्त्वपूर्व जानकारियाँ एक सवाल के जवाब में प्रस्तुत कीं। सरकार ख़ुद कह रही है कि सन् 2018 से सन् 2020 के बीच 25,000 से अधिक भारतीयों ने बेरोज़गारी और क़र्ज़ा से दु:खी होकर आत्महत्या की है।

सरकार के आँकड़ों के मुताबिक, 2018 के मुक़ाबले 2020 में बेरोज़गारी से होने वाली मौतों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। सन् 2018 में बेरोज़गारी के कारण जान देने वाले लोगों की संख्या 2,741 थी; लेकिन सन् 2020 में यह संख्या 3,548 तक पहुँच गयी। सन् 2019 में 2,851 भारतीयों ने रोज़गार नहीं होने की वजह से आत्महत्या की। वहीं क़र्ज़ा से दु:खी होकर आत्महत्या करने वालों की संख्या में उतार-चढ़ाव देखने को मिला। सन् 2018 में दिवालियापन और क़र्ज़ा के कारण आत्महत्या करने वाले लोगों की संख्या 4,970 थी, जबकि सन् 2019 में यह आँकड़ा बढक़र 5,908 हो गया। सन् 2020 में यह घटकर 5,213 हो गया। लेकिन ग़रीब व्यक्ति की मौत भी सरकारी आँकड़ों और आलमारियों में सजने भर की चीज़ रह गयी है। ऐसे में बजट को अगले 25 साल का आईना बताकर परोसा जाता है और आम आदमी को इसमें अँगूठा दिखा दिया जाता है।

 

“बजट 2022 से देश को आधुनिकता की तरफ़ ले जाया जाएगा। भारत का आत्मनिर्भर बनने के साथ-साथ, इसकी नींव पर ही आधुनिक भारत का निर्माण करना ज़रूरी है।’’

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री

 

“मोदी सरकार के बजट में कुछ नहीं है। मध्यम वर्ग, वेतनभोगी वर्ग, ग़रीब और वंचित वर्ग, युवाओं, किसानों और एमएसएमई के लिए कुछ नहीं है।’’

राहुल गाँधी

कांग्रेस नेता

 

“बेरोज़गारी और महँगाई से पिस रहे आम लोगों के लिए बजट में कुछ नहीं है। बड़ी-बड़ी बातें हैं और हक़ीक़त में कुछ नहीं है। यह पेगासस स्पिन बजट है।’’

ममता बनर्जी

मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल

 

“बजट किसके लिए है? सबसे अमीर 10 फ़ीसदी भारतीय देश की कुल सम्पत्ति के 75 फ़ीसदी के स्वामी हैं। महामारी के दौरान सबसे अधिक मुनाफ़ा कमाने वालों पर अधिक कर क्यों नहीं लगाया गया?’’

सीताराम येचुरी

महासचिव, माकपा

 

“केंद्रीय बजट नये वादों के साथ जनता को लुभाने के लिए लाया गया है केंद्र बढ़ती ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई और किसानों की आत्महत्या जैसी गम्भीर चिन्ताओं से मुक्त क्यों है?’’

मायावती

बसपा प्रमुख

 

“करोना-काल में लोगों को बजट से बहुत उम्मीद थी। बजट ने लोगों को मायूस किया है। आम जनता के लिए बजट में कुछ नहीं है। महँगाई कम करने के लिए कुछ नहीं है।’’

अरविंद केजरीवाल

मुख्यमंत्री, दिल्ली

 

“बजट में ग्रामीण भारत और आम लोगों को कोई राहत नहीं है। किसानों, युवाओं के लिए कुछ नहीं किया गया।’’

अतुल कुमार अंजान

भाकपा नेता

आशा-निराशा वाला बजट

वित्त वर्ष 2022-23 के बजट को लेकर लोगों की मिलीजुली प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं। कुछ लोग सरकार के 25 साल बाद के प्रयास सराहनीय बता रहे हैं और इस बजट को अर्थ-व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करने वाला मान रहे हैं। लेकिन रोज़गारपरक न होने से आम जनता के लिए यह बजट काफ़ी निराशाजनक है। बजट पर व्यापारियों, किसानों, युवाओं और गृहणियों ने ‘तहलका’ संवाददाता को अपने मन की बात बतायी। इनका कहना है कि बजट में लाखों-करोड़ों के आँकड़े पेश किये जाते हैं। कहा जाता है कि फलाँ-फलाँ क्षेत्र के लिए इतना / उतना धन दिया जा रहा है; लेकिन धरातल पर कुछ दिखता नहीं है। सिर्फ़ और सिर्फ़ आँकड़ों में ही बजट दिखता है।

दिल्ली के चाँदनी चौक के व्यापारी अमन सेठ का कहना है कि कोरोना-काल चल रहा है। कोरोना के चलते अर्थ-व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गयी है। इस बजट में उसे पटरी पर लाने का प्रयास किया गया है। लेकिन जीएसटी जैसे क़ानून जो थोपे गये हैं, उससे व्यापारियों के धन्धे पर काफ़ी असर पड़ा है। मंदी की मार एक ऐसी हक़ीक़त है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सरकार बजट को लेकर जितनी चाहे तारीफ़ कर ले और विपक्ष चाहे कितना भी विरोध कर ले; लेकिन इससे कुछ भी असर व्यापारियों पर नहीं पड़ता। व्यापारियों पर असर पड़ता है, तो जीएसटी जैसे क़ानून से। अमन सेठ का कहना है कि कोरोना-काल में व्यापारियों की माली हालत काफ़ी ख़राब हुई है। इस दौरान सरकार का दायित्व बनता है कि वह व्यापारियों को कुछ राहत देती। अगर ऐसा होता, तो बाज़ार हरा-भरा होता। लेकिन व्यापारियों के लिए इस बजट में कोई राहत नहीं दी गयी।

किसान नेता चौधरी बीरेन्द्र सिंह का कहना है कि जब 2021-22 का बजट पेश किया गया था, तब किसान कृषि क़ानून के विरोध में आन्दोलन कर रहे थे। इस बार जब 2022-23 का बजट पेश किया, तो किसानों को जो उम्मीद थी, वो नहीं मिला। क्योंकि इस बार सरकार द्वारा किसानों की माँगें माने जाने के बाद आन्दोलन स्थगित करके घरों-खेतों में थे। हालाँकि किसानों की माँगें अभी पूरी नहीं की गयी हैं। बजट में किसानों को जो सुविधाएँ देने की बात की गयी है, उससे ग़रीब किसानों को कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। क्योंकि एक ओर तो महँगाई है और उस पर डीजल-पेट्रोल के दामों में इज़ाफ़ा। ऐसे में डीजल ख़रीदने के दौरान छोटे किसान को काफ़ी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। सरकार को छोटे और मँझोले किसानों के लिए अलग से कोई ऐसा बजट पेश करना चाहिए था, जिससे उन्हें विशेष लाभ मिलता। लेकिन बजट में ऐसा कुछ ख़ास नहीं हुआ है।

उनका कहना है कि भले यह बताया और पढ़ाया जाता है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है; लेकिन हक़ीक़त में यह देश पूँजीपतियों के हाथ की कठपुतली बनता जा रहा है। इस बार बजट पेश किया गया है, वो पूरी तरह पूँजीपतियों को ध्यान में रखकर पेश किया गया है।

इंजीनियरिंग का कोर्स करने वाले मुकेश पचौरी का कहना है कि इस बार का बजट पूरी तरह से पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखकर पेश किया गया है कि चुनाव में बजट से क्या-क्या सियासी लाभ मिल सकता है। मुकेश का कहना है कि कोई भी बजट हो, उसका तात्कालिक लाभ तो जनमानस को मिलता नहीं है। लेकिन लोग अनुमान ज़रूर लगने लगते हैं कि सरकार की मंशा क्या है? वह क्या चाहती है? इस बजट से यह बात तो साफ़ है कि सरकार बजट में दूरगामी लक्ष्यों पर निशाना साधा है, जिसका जनता को कोई सीधा लाभ फ़िलहाल मिलने वाला नहीं है। इस बजट में बेरोज़गारों के लिए नौकरियों में नयी भर्ती की जो रूप ख़ाका बनाया गया है, उससे कब लाभ मिलता है? यह भी आने वाला समय ही बताएगा।

दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के प्रोफेसर डॉक्टर हरीश कुमार का कहना है कि बजट में जिस प्रकार शिक्षा को डिजिटल बनाने के लिए प्रधानमंत्री ई-विद्या योजना से टीवी के माध्यम से बच्चों को पढ़ाई की सुविधा उपलब्ध होगी। इस लिहाज़ से तो बजट अच्छा है।

कम्प्यूटर की दुकान चलाने वाले राजदीप का कहना है कि जिस प्रकार से पढ़ाई से लेकर लेन-देन में डिजिटलाइजेशन किया जा रहा है, उससे तकनीकी क्षेत्र को काफ़ी लाभ मिलेगा। इस बजट का मूल आधार ही स्वदेशी अर्थ-व्यवस्था को गति देना है। व्यापार, निर्माण, रक्षा उपकरण एवं आयुध, सहकारिता, जल संरक्षण, कृषि, सडक़, रेल आदि के विस्तार के लिए काफ़ी धन दिया गया है। राजदीप ने बताया कि जब बजट पेश किया जा रहा था, उसी दौरान से कम्प्यूटर और तकनीकी क्षेत्र से जुड़े व्यापार में काफ़ी उछाल देखा गया था। यानी सरकार का आने वाले दिनों में हर क्षेत्र में डिजिटलाइजेशन पर ज़ोर होगा।

बुन्देलखण्ड के निवासी पदम सिंह का कहना है कि जिस प्रकार से बजट को आत्मनिर्भरता की ओर बताया गया है। लेकिन मनरेगा में कटौती करके मज़दूरों और ग़रीबों के बीच निराशा पनपी है। उनका कहना कि जो बजट में बताया जा रहा कि आने वाले दिनों में बजट का लाभ मिलेगा, उससे ज़रूर आशा है। लेकिन यह कम है। इतना ज़रूर है कि प्रधानमंत्री आवास योजना, केन-बेतवा नदी जोड़ो अभियान जैसे प्रवाधान बजट में किये गये हैं। इससे बुन्देलखण्डवासियों को ज़रूर लाभ मिलेगा। शिक्षा और स्वास्थ्य हर किसी के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है।

कोरोना विरोधी अभियान से जुड़े डॉक्टर एम.सी. शर्मा का कहना है कि बजट लोक-लुभावन नहीं है। लेकिन इतना ज़रूर है कि बजट में मानसिक सेहत को प्राथमिकता दी गयी है। उनका कहना है कि किसी भी देश का विकास उसके स्वास्थ्य और शिक्षा पर टिका होता है। ऐसे में सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए अतिरिक्त बजट का प्रावधान करना था। जैसे कोरोना जैसी महामारी से निपटा जाए। साथ ही कोरोना के चलते जो अन्य बीमारियों का उपचार नहीं हो सका है, उनके रोगियों को बेहतर इलाज मिल सके; इस ओर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है।

गृहणी सरिता सुमन का कहना है कि बजट संतुलित है या असंतुलित है; ये बातें तो बहस के लिए अच्छी लगती हैं। लेकिन गृहणियों को घर-परिवार चलाना पड़ता है। ऐसे में उन्हें सही मायने में आटे-दाल का भाव मालूम होता है। किस प्रकार एक महीने का ख़र्चा बमुश्किल चलाया जाता है, यह हमसे पूछो। सरिता सुमन का कहना है कि सर्दी का मौसम सब्ज़ियों के लिए जाना जाता है; लेकिन इस बार सब्ज़ियों के दाम आसमान पर हैं। सब्ज़ियों में इज़ाफ़े की मूल वजह डीजल-पेट्रोल के महँगे होने से किराया-भाड़ा बढऩा है। वहीं गैस के दाम भी आये दिन बढ़ रहे हैं। ऐसे में ग़रीब और मध्यम परिवारों को ख़र्चा चलाना मुश्किल हो गया है।

आर्थिक मामलों के जानकार दीपक सिंघल का कहना है कि बजट तो प्रक्रिया यानी एक परम्परा है। सरकार सालाना अपना लेखा-जोखा पेश करती है कि फलाँ-फलाँ क्षेत्र में इतना बजट दिया जा रहा है। इस बजट से पता चलता है कि किस क्षेत्र को कितनी राहत दी गयी है? इस बजट की सच्चाई जो भी हो। लेकिन बजट से हटकर सरकार ने जनता के लिए क्या किया है? असल में तो बजट में क्या होना चाहिए? इस बात पर ज़ोर देने की ज़रूरत है। अन्यथा बजट पर कुछ दिनों तक बहस करते रहो, कुछ हासिल नहीं होने वाला है। मौज़ूदा दौर में सरकार को चाहिए कि गाँवों से पलायन रुके। गाँव वालों को गाँव में ही रोज़गार मिले। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। कहने को तो गाँवों में मनरेगा जैसी योजनाएँ हैं; लेकिन उसमें युवाओं को रोज़गार कम मिल रहा है, दलाली ज़्यादा हो रही है। इस पर सरकार को ठोस क़दम उठाने होंगे।

दीपक सिंघल का कहना है कि कोरोना-काल में जब अफ़रा-तफ़री का माहौल था, उस दौरान शहरों से लोगों ने अपने घरों के लिए गाँवों की ओर जो पलायन किया था, वो लोग अभी तक शहरों में नहीं आये हैं। न ही उनको गाँव में रोज़गार मिला है। वे लोग गाँवों में बेरोज़गार बैठे हैं। ऐसे में सरकार को इस दिशा में काम करना चाहिए कि उन लोगों को कैसे रोज़गार मिले? गाँव में मनरेगा की तरह शहर के युवाओं को भी रोज़गार की गारंटी मिले, तब जाकर कोई बजट देश का असली और अच्छा बजट माना जाएगा। इस बजट में मध्यम वर्ग भी निराश हुआ है। क्योंकि आयकर दरों में कोई छूट नहीं दी गयी है। दीपक सिंघल का कहना है कि यह बजट आत्मनिर्भरता की ओर है। क्योंकि सरकार ने किसानों, सूचना तकनीक एवं रक्षा के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किये हैं। सरकार का लक्ष्य कृषि साख बढ़ाने वाला है, जिससे कृषि के क्षेत्र में बढ़ावा मिल सकता है।

बजट को लेकर अधिकतर लोगों का कहना है कि कोरोना के चलते बड़े लोगों की नौकरी जा चुकी है, तो ज़्यादातर लोगों की आमदनी कम हुई है। कोरोना की पहली लहर ने शहरों में, तो दूसरी लहर ने शहरों-गाँवों में बड़ी तबाही मचायी है। इससे छोटे-बड़े व्यापारियों के साथ-साथ किसानों-मज़दूरों और निजी क्षेत्रों में नौकरीपेशा लोगों ने बड़ी मार सहन की है। ऐसे में बजट में कोरोना की मार से पीडि़त को कोई ख़ास राहत नहीं दी गयी है। इससे बड़ी संख्या में निराशा पनपी है। ऐसे में इस समय इस निराशा को समाप्त करने की ज़रूरत थी। लोगों को अभी ज़रूरत है कि कम-से-कम उनका घर ठीक से चल सके। ज़रूरतमंद आदमी 25 साल बाद के सपने को पालकर कैसे बैठ सकता है? 25 साल में तो पीढिय़ाँ बदल जाती हैं।

झारखण्ड के चाईबासा में उठी अलग देश बनाने की माँग!

 शुरू हो चुका था कोल्हान देश बनाने का खेल 7  बेरोज़गारी ने किया आग में घी का काम

 शुरू हो चुका था कोल्हान देश बनाने का खेल 7  बेरोज़गारी ने किया आग में घी का काम

3 जनवरी, 2022 को झारखण्ड के चाईबासा में जो कुछ हुआ, वह राज्य और आज़ाद भारत के दामन पर एक बदनुमा दाग़ है। आज़ादी के 75 साल बाद भी इस तरह की घटना ने न केवल झारखण्ड को, बल्कि पूरे देश को शर्मसार किया है। दरअसल पिछले दिनों झारखण्ड के चाईबासा में कोल्हान को अलग देश बनाने का मुद्दा उठाया गया। मामला इतना बढ़ा कि इसने हिंसक रूप ले लिया। यह सामान्य घटना नहीं थी; क्योंकि एक देश के अन्दर अलग देश बनाने की माँग करना और उसके लिए प्रदर्शन के साथ प्रक्रिया शुरू करने से कई जटिल सवाल खड़े होते हैं। जिस मुद्दे को कई वर्षों से दबा हुआ समझा गया था, वह दोबारा कैसे उठ गया? पुलिस-प्रशासन को जानकारी नहीं थी या इसे गम्भीरता से नहीं लिया गया? देश या राज्य सरकार का गुप्त सूचना तंत्र (इंटेलिजेंसी) को इसकी भनक क्यों नहीं लगी? आन्दोलन की पृष्ठभूमि क्या है? क्यों इस क्षेत्र में कुछ वर्षों के अंतराल पर अलग कोल्हान देश का मुद्दा उठता है? इसका निदान क्या है?

चाईबासा की इस घटना को महज़ क़ानून-व्यवस्था का मामला मानकर उससे निपटने के लिए बल प्रयोग ही काफ़ी नहीं होगा, बल्कि इस पर गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है। देश में एकता और शान्ति बनाये रखने का रास्ता तलाशने के साथ-साथ अलग देश बनाने की माँग करने वालों को समझने, उन्हें शान्त करने के रास्ते तलाशने की ज़रूरत है। क्योंकि इस बार सैकड़ों युवा जुड़े हुए थे। ये वे युवा हैं, जो बेरोज़गारी का दंश झेल रहे हैं। अलग देश की माँग को रोज़गार से जोड़ा गया। नतीजतन सैकड़ों युवा इस देशविरोधी आन्दोलन में शामिल हो गये।

पहले भी उठी थी माँग

कोल्हान को अलग देश बनाने की माँग नयी नहीं है। इससे पहले भी कई बार विद्रोह हो चुका है। इस क्षेत्र में अलग देश की माँग इससे पहले 30 मार्च, 1980 में की गयी थी। उस दौरान चाईबासा के मंगला हाट में बैठक हुई थी, जिसमें हजारों की संख्या में आदिवासी पहुँचे थे। झारखण्ड के हो (लकड़ा-कोल) आदिवासियों के इस जमावड़े में अलग कोल्हान देश की माँग की गयी थी। इस भीड़ का नेतृत्व कोल्हान रक्षा संघ के नेताओं ने किया था। इन लोगों ने सन् 1837 के विल्किंसन नियम का हवाला देते हुए कहा कि कोल्हान इलाक़े में भारत का कोई अधिकार नहीं बनता है। तब उन्होंने ब्रिटेन की सत्ता के प्रति अपनी आस्था जतायी। चाईबासा तब अविभाजित बिहार राज्य के एक ज़िला ‘पश्चिमी द्वारका’ था। पूर्वी सिंहभूम और पश्चिमी सिंहभूम ज़िले इसके अधीन थे। अब यह इलाक़ा झारखण्ड में है। चाईबासा पश्चिमी सिंहभूम ज़िले का मुख्यालय है। पश्चिमी सिंहभूम के मंझारी निवासी स्व. रामो बिरुवाने ‘कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट’ का ‘खेवटदार (मालिक) नंबर-1’ घोषित कर दिया।

सन् 2018 को खूँटपानी प्रखण्ड के बिंदीबासा में अपना झण्डा फहराने की घोषणा कर दी। उन्होंने ब्रिटेन की महारानी से सन् 1995 में हुए अपने पत्राचार का हवाला देते हुए दावा किया कि वह इस इलाक़े के खेवटदार नंबर-1 अर्थात् प्रशासक (राष्ट्रपति) हैं। लिहाज़ा उन्हें झण्डा फहराने का अधिकार प्राप्त है। इसके बाद चाईबासा पुलिस ने रामो बिरुवा समेत 45 लोगों के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज कर लिया।

पुलिस के भारी बंदोबस्त के कारण रामो बिरुवा बिंदीबासा में झण्डा नहीं फहरा सके; लेकिन कुछ लोगों ने उसी दिन जमशेदपुर के पास अपना झण्डा फहरा दिया। इसे लेकर जमशेदपुर के बागबेड़ा थाना में भी राजद्रोह का एक मुक़दमा दर्ज कराया गया था। 83 साल के रामो बिरुवा तबसे फ़रार थे। आख़िरकार चाईबासा के मिशन कम्पाउंड से सन् 2018 को चाईबासा पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया था। गिरफ़्तारी के एक साल बाद उन्हें गम्भीर बीमारी से जूझना पड़ा। जेल प्रशासन की ओर से सदर अस्पताल चाईबासा में उनका इलाज कराया जा रहा था। इलाज के दौरान ही उनकी मौत हो गयी। तबसे आन्दोलन तथा कथित रूप से बन्द हो गया था। चार साल के बाद बीते महीने जनवरी में फिर एक बार कोल्हान अलग देश का आन्दोलन उभरकर सामने आया और चाईबासा के मुफ्फसिल थाना परिसर में देखने को मिला।

हिंसक हुई भीड़

नियंत्रण के लिए बल प्रयोग चाईबासा में और 23 जनवरी, 2022 को कोल्हान को अलग देश घोषित करने की माँग को लेकर जमकर विवाद हुआ। माँग का समर्थन करने वाले आठ युवाओं की गिरफ़्तारी के विरोध में जनाक्रोश भडक़ गया। स्थानीय ग्रामीणों ने पारम्परिक हथियार के साथ ज़िले के मुफ्फसिल थाने को घेर लिया। सुरक्षाबलों पर पत्थरबाज़ी की गयी। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज कराना पड़ा। आँसू गैस के गोले छोड़े गये। घटना में सात पुलिसकर्मी घायल हुए हैं। इस बार आन्दोलन का मुख्य किरदार आनंद चातार है। चातर कोल्हान का ख़ुद को राष्ट्रपति घोषित करने वाले स्व. रामो बिरुआ का सहयोगी है। चातार भी देशद्रोह के मामले में जेल में ही था। अब वह ज़मानत पर बाहर निकला था और एक बार फिर इस तरह की गतिविधियों में शामिल हो गया।

चार महीने से चल रही थीं गतिविधियाँ

इस बार अलग कोल्हान देश की माँग अचानक नहीं उठी है। इसकी पृष्ठभूमि चार महीने पहले से तैयार हो रही थी। लेकिन ख़ुलासा हिंसा भडक़ने के बाद हुआ। क्षेत्र में सितंबर से ही ‘कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट’ के नाम पर हो भाषा के 10,000 शिक्षक और 30,000 सिपाहियों की नियुक्ति की तैयारी चल रही थी। गाँव-गाँव के युवाओं की भर्ती हो रही थी। इलाक़े के लादुराबासा गाँव के स्कूल परिसर और पास के मैदान में रोज़ भीड़ बढ़ रही थी। कई गाँवों में नियुक्ति शिविर लगाये गये थे। गाँवों में स्वास्थ्य परीक्षण (फिटनेस टेस्ट) कर युवाओं को नियुक्ति पत्र बाँटे जा रहे थे।

लादुराबासा गाँव के स्कूल में आवेदन फॉर्म लेने और नियुक्ति पत्र देने के लिए पटल (काउंटर) बने थे। रोज़ सुबह 7:00 बजे से दोपहर 3:30 बजे तक युवाओं की कतारें लगती थीं। नियुक्ति फॉर्म की क़ीमत 50 रुपये रखी गयी थी। लेकिन गाँव-गाँव में बिचौलिये इसे 100 रुपये से 500 रुपये तक में बेच रहे थे। भर्ती के लिए आ रहे युवा भी भ्रम में थे। उन्हें लग रहा था कि झारखण्ड सरकार नियुक्ति कर रही है। इसलिए भीड़ उमड़ रही थी। नियुक्ति पत्र मिलने के छ: महीने बाद नौकरी पर आने (ड्यूटी ज्वाइन) करने को कहा जा रहा था। उन्हें 70,000 रुपये वेतन और ड्यूटी पर मौत होने पर आश्रितों को 50 लाख रुपये देने का झाँसा दिया जा रहा था। यानी सारा मामला रोज़गार से जुड़ा था।

पुलिस अनभिज्ञ, ख़ुफ़िया तंत्र फेल

कोल्हान को अलग देश बनाने की माँग और भर्ती प्रक्रिया की चर्चा पूरे पश्चिमी सिंहभूम ज़िले में थी। पुलिस ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। इतना ही नहीं कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट के उत्तराधिकारी खेवटदार आनंद चातार ने 17 फरवरी, 2021 को ही केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय को पत्र लिखा था। इस पत्र में कहा गया था कि कोल्हान एस्टेट क्षेत्र में विल्किनसन नियम के तहत मुंडा-मान की स्वशासन विधि-व्यवस्था के तहत 9 अगस्त, 2020 से कोल्हान के बेरोज़गारों को रोज़गार देने की शुरुआत की है। इसलिए केंद्रीय मंत्रालय झारखण्ड सरकार को सूचना दे कि वह इस क्षेत्र के बेरोज़गारों को रोज़गार देना बन्द करे। इसकी कॉपी झारखण्ड के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को भी भेजी गयी थी। इसके बावजूद पुलिस सोयी रही और केंद्र तथा राज्य का ख़ुफ़िया तंत्र फेल रहा।

विल्किंसन रूल को मानते हैं द्रोही

स्व. रामो बिरुवा या आनंद चातार कोल्हान को अलग देश के लिए विल्किंसन नियम (विल्किंसन रूल) का हवाला देते हैं। इसलिए इस नियम को जानना भी ज़रूरी है। ब्रिटिश शासन-काल में साउथ वेस्ट फ्रंटियर एजेंसी (एसडब्लूएफए) का प्रमुख सर थामस विल्किंसन था। उसने सैन्य हस्तक्षेप कर कोल विद्रोह को दबाया और कोल्हान इलाक़े के 620 गाँवों के मुंडाओं (प्रधानों) को ब्रिटिश सेना के समक्ष आत्म-समर्पण करने को मजबूर कर दिया। तब इन मुंडाओं के नेतृत्व में कोल विद्रोह अपने उफान पर था। सर विल्किंसन ने सन् 1837 में ‘कोल्हान सेपरेट एस्टेट’ की घोषणा कर चाईबासा को उसका मुख्यालय बना दिया। तब लोगों को अपने पक्ष में करने के उद्देश्य से उसने इस इलाक़े में पहले से चली आ रही मुंडा-मानकी स्वशासन की व्यवस्था लागू कर दी। इसे विल्किंसन रूल या विल्किंसन नियम कहा जाता है। इसके तहत सिविल मामलों के निष्पादन का अधिकार मुंडाओं को मिल गया, जबकि आपराधिक मामलों के निष्पादन के लिए मानकी को अधिकृत कर दिया गया।

क्यों प्रभावी है विल्किंसन रूल?

जानकार बताते हैं कि देश के रियासतों के भारत में विलय के वक़्त कोल्हान इलाक़े में कोई रियासत प्रभावी नहीं था। ये इलाक़ा मुगलों के वक़्त से ही पोड़ाहाट के राजा की रियासत थी। लेकिन कोल्हान एस्टेट बनने के बाद सारे अधिकार मुंडाओं के हाथों में आ गये थे। लिहाज़ा पोड़ाहाट के राजा अस्तित्व में ही नहीं थे। इस वजह से कोल्हान इलाक़े के भारतीय संघ में विलय का कोई मज़बूत दस्तावेज़ नहीं बन सका। भारत की आज़ादी के बाद भी यहाँ विल्किंसन नियम प्रभावी बना रहा। इसी को आधार बनाकर गाहे-ब-गाहे कोल्हान में दशकों से कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट की पुन: स्थापना की माँग कई लोग उठाते रहे हैं।

बेरोज़गारी के चलते हुआ विद्रोह!

झारखण्ड के चाईबासा में 23 जनवरी को जो कुछ हुआ, वह केवल एक क़ानून-व्यवस्था से जुड़ी घटना नहीं है। यह एक दीगर बात है कि फ़िलहाल मामला शान्त हो गया है। वह भी तब, जब इलाक़े को छावनी में तब्दील कर दिया गया है। पुलिस का दावा है कि इलाक़े में शान्ति है। पर इसे अलग नज़रिये से देखने की ज़रूरत है। जिससे कोल्हान को अलग देश बनाने की माँग जड़ से ही समाप्त हो जाए। भविष्य में इस तरह की मुद्दे उठे ही नहीं। दरअसल कोल्हान या सिंहभूम के कई इलाक़े आज भी विकास की हवा से कोसों दूर हैं। दरअसल शासन की उनसे दूरी ही इस तरह की ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों का आधार बनती है।

बढ़ती बेरोज़गारी और सरकार द्वारा रोज़गार देने में अक्षमता के कारण ही युवा ऐसे खेल का शिकार हो रहे हैं। अभी तक पुलिस-प्रशासन इस बात को जनता के बीच साफ़ नहीं कर सकी है कि नियुक्ति राज्य सरकार की ओर से नहीं की जा रही थी। चाईबासा में जिस तरह भोले-भाले ग्रामीणों को उकसाया और बरगलाया गया, फिर उनसे पुलिस थाने पर हमला कराया गया; यह साफ़ संकेत देता है कि यह चंद लोगों की एक सुनियोजित साज़िश थी। कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट के नाम से वर्तमान मुहिम के विरुद्ध सरकार को क़ानूनी कार्रवाई पर ज़ोर न देकर लोगों तक सही जानकारी पहुँचाने पर ध्यान देना चाहिए। अक्सर क़ानूनी कार्रवाई में निर्दोष लोग पिसते हैं, जिसके दूरगामी दुष्परिणाम होते हैं।

पुराना ज़िला है सिंहभूम

कोल्हान प्रमण्डल के अंतर्गत तीन ज़िले आते हैं- पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम और सरायकेला खरसावाँ। सिंहभूम झारखण्ड (पूर्व के समूचे बिहार) का सबसे पुराना ज़िला है। सन् 1837 में कोल्हन पर ब्रिटिश विजय के बाद एक नये ज़िले को सिंहभूम उभर कर आया, जिसका मुख्यालय चाईबासा था। पुराने सिंहभूम से सन् 1990 में विभाजन के बाद पश्चिमी सिंहभूम ज़िला उभरकर आया। इस प्रमण्डल के तीसरे ज़िले सरायकेला खरसावाँ की बात करें, तो यह पश्चिमी सिंहभूम को काटकर बनाया गया है। यह सन् 2001 में अस्तित्व में आया।

अब कोल्हान प्रमण्डल के तहत पूर्व सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम व सरायकेला-खरसावाँ आते हैं। सर थामस विल्किंसन के द्वारा सन् 1837 में बनाये गये कोल्हान सेप्रेट एस्टेट (कोल्हान अलग इलाक़ा) के समय में मुख्यालय बना चाईबासा आज अलग देश की माँग करने वाले द्रोहियों का भी मुख्यालय बनता रहा है। कोल्हान क्षेत्र में पश्चिमी सिंहभूम का भौगोलिक क्षेत्रफल 7224 वर्ग किलोमीटर है। इस क्षेत्र में 1,681 गाँव हैं। यहाँ की आबादी लगभग 1.82 लाख है और यहाँ की साक्षरता दर 58.63 फ़ीसदी है। पूर्वी सिंहभूम का क्षेत्रफल 3533 वर्ग किलोमीटर है। इस क्षेत्र में 1810 गाँव हैं। यहाँ की आबादी 22.91 लाख है और साक्षरता दर 76.13 फ़ीसदी है। वहीं सरायकेला-खरसावाँ का क्षेत्रफल 2724.55 वर्ग किलोमीटर है। इस क्षेत्र में 1148 गाँव हैं। यहाँ की जनसंख्या 10.56 लाख है और साक्षरता दर 67.70 फ़ीसदी है।

सिंहभूम झारखण्ड राज्य का सबसे बड़ा ज़िला है। विश्व की सबसे प्रसिद्ध जंगलों में एक सारंडा जंगल इसी ज़िले के अंतर्गत आता है। यह इलाक़ा खनिज सम्पदा से भरपूर होने के बाद भी काफ़ी पिछड़ा हुआ है। यह क्षेत्र इसलिए भी राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध है; क्योंकि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में झारखण्ड की जनजातियों का अप्रतिम योगदान रहा है। सन् 1857 के प्रथम संग्राम के क़रीब 26 साल पहले ही झारखण्ड की जनजातियों ने अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह किया था। झारखण्ड की सांस्कृतिक पहचान का राजनीतिक अर्थ भी पहली बार सन् 1831 के कोल विद्रोह से उजागर हुआ था। उसमें मुंडा, हो, उरांव, भुइयां आदि जनजातियाँ शामिल हुईं। झारखण्ड के इसी सिंहभूम ज़िले, जो मौज़ूदा में कोल्हान प्रमण्डल (पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम और सराइकेला-खरसावाँ) का क्षेत्र है; से अलग देश की माँग उठती है। यहाँ तक कि कर (टैक्स) वसूलने, रोज़गार देने और अन्य विकास काम भी अपने स्तर पर किये जाने की बात कही जाती है।

 

तहलका विचार

कब-कब, कहाँ-कहाँ उठी अलग देश की माँग?

भारत एक एकजुटता वाला अखण्ड राष्ट्र है। इसके इतिहास में विद्रोह, विभाजन का ज़हर घोलने वाले इसके इतिहास से परिचित नहीं हैं। हमारा यह महान् देश वही अखण्ड राष्ट्र है, जिसका विस्तार कभी पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, भूटान, नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश के अलावा एशिया के कई अन्य देशों तक हुआ करता था। आज़ादी के दौरान बँटने के बाद यह दुर्भाग्य ही रहा है कि आज़ाद भारत में भी कई राज्यों के लोगों ने अपने लिए अलग देश की माँग करने की गुस्ताख़ी की है। हालाँकि उनकी अपनी समस्याएँ और केंद्र सरकारों द्वारा उनका समाधान नहीं किया जाना एक अलग समस्या है; लेकिन इसका मतलब यह तो क़तर्इ नहीं है कि किसी भी राज्य अथवा क्षेत्र के लोग अलग देश की ही माँग कर डालें।

भारत से अलग होकर एक अलग देश बनाने की सोच यह दर्शाती है कि लोग बिखराव की राजनीति करने में देशद्रोही वाली भूमिका निभाते हैं। लेकिन ये लोग इस बात को नहीं समझते कि भारत की एकजुटता ही हमारी सबसे बड़ी ताक़त है। आज दुनिया में कोई भी देश इतनी अलग-अलग संस्कृतियों और अलग-अलग भाषाओं, रीति-रिवाज़ों वाला नहीं है। न ही यहाँ की तरह कहीं इतने मौसम और इतनी ऋतुएँ आती-जाती हैं। यहाँ की भूमि में दुनिया भर के हर देश की मिट्टी की ख़ासियत है। कभी सोने की चिडिय़ा और विश्वगुरु कहा जाने वाले हमारे इस महान् देश की बर्बादी का इतिहास अगर देखें, तो इसमें देशद्रोहियों की भी भूमिका रही है। आज भी देश में कई अलगाववादी संगठन मौज़ूद हैं, जिनके लाखों सदस्य हैं। लेकिन यह लोकतांत्र की ताक़त है कि देश अखण्ड है और अखण्ड रहेगा। अलग देश की माँग करने का इतिहास बताता है कि सन् 1980 और सन् 1990 में पंजाब में ख़ालिस्तान बनाने की माँग उठी थी।

उग्रवादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उलफा) असम के मूल निवासियों के लिए एक अलग देश की माँग करता है। भारत सरकार ने सन् 1990 में उलफा पर प्रतिबन्ध लगा दिया था और आधिकारिक तौर पर इसे आतंकवादी समूह घोषित कर लिया था। सन् 1996 में स्थापित मुस्लिम यूनाइटेड लिबरेशन टाइगर्स ऑफ असम (मुलटा) क्षेत्र के मुसलमानों के लिए एक अलग देश की वकालत करता है। पूर्वोत्तर भारत में त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, असम और नागालैंड में भी अलगाववाद और उग्रवाद रहा है, जिससे निपटने के लिए सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्सपा) लगाया हुआ है। इसके अलावा सन् 1989 में एक सशस्त्र विद्रोह के फैलने के बाद से सन् 1990 में इसे भारत के राज्य जम्मू और कश्मीर के अधिकांश हिस्सों में भी लगाया गया।

मार्च, 1999 में गठित यूनाइटेड पीपुल्स डेमोक्रेटिक सॉलिडेरिटी (यूपीडीएस) कार्बी लोगों के लिए एक संप्रभु राष्ट्र की माँग करता रहा है। सन् 1950 के दशक में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ने ऑफ नागालैंड भारत सरकार के ख़िलाफ़ एक हिंसक विद्रोह करके अलग देश की माँग की। नगालिम नागा लोगों के लिए एक प्रस्तावित स्वतंत्र देश है। आज भी नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड के विभिन्न गुटों के तहत काम करने वाले अधिकांश नागा एक अलग देश की माँग करते हैं।

सन् 1915-16 में ग़ाज़ीपुर के गाँव बाघपुर के रहने वाले रामवृक्ष यादव ने अपने एक बड़े गुट के साथ मिलकर अलग देश बनाने की न सिर्फ़ माँग कर दी, बल्कि अपनी पुलिस, अपनी मुद्रा और अपने बैंक भी बना डाले। उसने 11 जनवरी, 2014 को मध्य प्रदेश के सागर ज़िले से सत्याग्रह यात्रा शुरू की और फरवरी, 2014 में मथुरा पहुँचकर अलग देश बनाने पर काम शुरू करते हुए 280 एकड़ के जवाहरबाग़ पर क़ब्ज़ा भी कर लिया था। यह मामला तब खुला, जब 2 जून, 2016 को हिंसा भडक़ गयी। इस हिंसा में बहुत लोग मारे गये। बाद में सरकार ने बड़ी कार्रवाई करते हुए 101 लोगों को जेल भेजा। सवाल यह है कि इस तरह के लोगों को पनपने कौन देता है? किस तरह ऐसे लोगों की जमात देश में खड़ी हो जाती है? इसके पीछे किन ताक़तों का हाथ होता है?

क्या फिर सडक़ पर उतरेंगे किसान?

कृषि क़ानून वापस लेने के दौरान 50 दिन में किसानों की बाक़ी सभी माँगें पूरी करने के वादे को भूली केंद्र सरकार, नाराज़ किसान फिर कर सकते हैं आन्दोलन

देश के तमाम किसान संगठनों द्वारा तीन कृषि क़ानूनों को तत्काल रद्द करने को लेकर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में एक साल से ज़्यादा चले आन्दोलन को रोकने के लिए 19 नवंबर को प्रधानमंत्री मोदी ने ऐलान किया था कि केंद्र सरकार तीनों कृषि क़ानून वापस ले रही है। उस दौरान देश और किसानों से माफ़ी माँगते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों से आन्दोलन ख़त्म करने और अपने-अपने घर लौट जाने की अपील की थी। हालाँकि किसानों ने आन्दोलन को पूरी तरह से ख़त्म करने से इन्कार करते हुए संसद में क़ानून रद्द करने के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य पर क़ानून बनाने, आन्दोलन के दौरान शहीद किसानों के परिजनों को मुआवज़ा देने व उनके किसी परिजन को सरकारी नौकरी देने, किसानों पर से मुक़दमे वापस लेने जैसी माँगें रखी थीं, जिन्हें केंद्र सरकार ने मान लिया था।

फिर से क्यों नाराज़ हुए किसान?

केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर क़ानून लाने के लिए समिति गठित करने की बात कही थी। यह सब 50 दिन में पूरा करने का केंद्र सरकार का वादा था। लेकिन क़रीब दो महीने से ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी मोदी सरकार के किसानों की माँगे पूरी नहीं करने पर किसान एक बार फिर आन्दोलन का मन बना रहे हैं। उनका कहना है कि 50 दिन में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने के लिए बनायी जाने वाली समिति अभी तक सरकार ने नहीं बनायी है और सरकार किसानों के साथ एक तरह-से आँख-मिचौली का खेल खेलने में लगी है। किसानों ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा है कि अगर उनकी माँगें सरकार ने जल्द नहीं मानीं, तो वे 11 मार्च से देश भर में फिर आन्दोलन छेड़ देंगे।

बता दें कि 11 मार्च का दिन वह दिन होगा, जब पाँच राज्यों में नयी राज्य सरकारों का गठन हो रहा होगा और यह भी पता चल चुका होगा कि किस राज्य में किसकी जीत हुई? भाजपा, जिसकी नीतियों के ख़िलाफ़ किसान लगातार सडक़ों पर रहे हैं; उसकी किन-किन राज्यों में सरकार बनी या नहीं बनी।

कुछ जानकार कहते हैं कि अगर 11 मार्च से दोबारा किसानों का आन्दोलन शुरू हुआ, तो यह भाजपा के ख़िलाफ़ ताबूत में एक ऐसी कील साबित हो सकता है, जिसके चलते केंद्र की सत्ता का ताज ही उससे छिन सकता है। बता दें कि सरकार ने किसानों की ज़िद और चुनावों में हार के डर के चलते उनकी तीन कृषि क़ानूनों को रद्द करने की माँग पूरी करते हुए यह आश्वासन दिया था कि वह उनकी सभी माँगों को जल्द पूरा करेगी। इसी दौरान उसने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी के लिए समिति के गठन का भी आश्वासन दिया था और कहा था कि वह यह काम 50 दिन में पूरा कर देगी। लेकिन आन्दोलन को ख़त्म हुए 31 जनवरी को ही 50 दिन बीत गये थे। इसी के चलते किसानों ने इस साल 31 जनवरी को विश्वासघात दिवस के रूप में मनाया और देश की तहसीलों में राष्ट्रपति के नाम सरकार द्वारा वादाख़िलाफ़ी करने और उसे उसका कर्तव्य याद दिलाने के लिए ज़ोर देने को लेकर ज्ञापन दिये। किसान आन्दोलन स्थगित करते समय किसानों ने यह साफ़ कहा था कि अगर किसानों की सभी माँगें जल्द ही नहीं मानी गयीं, तो उन्हें आन्दोलन के लिए फिर उतरना पड़ेगा, जिसके लिए उन्हें देर नहीं लगेगी।

कृषि क़ानूनों को वापस लेने और किसानों की बाक़ी माँगों को पूरा करने के केंद्र की मोदी सरकार के वादे के बाद किसान एक बार को शान्त हो गये थे। लेकिन अब एक बार फिर मोदी सरकार की वादाख़िलाफ़ी से किसान नाराज़ हो उठे हैं। हरियाणा के किसान प्रवीण का कहना है कि यह पहली केंद्र की सरकार है, जो किसानों की इस क़दर अनदेखी कर रही है। अगर इसे स्वार्थी और ख़ुद का ही भला करने वाली सरकार कहें, तो यह ग़लत नहीं होगा। कृषि क़ानूनों को जबरन थोपने की कोशिश में नाकाम रही भाजपा की इस सरकार की मंशा किसानों की आय दोगुनी करने की कभी नहीं रही, बल्कि हमें तो लगता है कि यह किसानों की आय आधी और आधी से भी आधी करने पर तुली है, जिसमें देश का किसान इसे कभी कामयाब नहीं होने देगा। आज किसानों की औसत आय 27 रुपये प्रतिदिन है। क्या कोई मंत्री इतने कम पैसे में अपना गुज़ारा कर सकता है? ख़ुद प्रधानमंत्री लाखों के सूट पहनते हैं और करोड़ों रुपये अपने ऊपर ही ख़र्च करते रहते हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि हम किसान अगर भूखों का पेट भरना जानते हैं, तो अपने खेत और अपने देश की हिफ़ाज़त करना भी जानते हैं।

कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ एक साल से ज़्यादा समय तक आन्दोलन की अगुवाई करने वाले संयुक्त किसान मोर्चा ने 31 जनवरी को ही चेतावनी देते हुए कहा था कि सरकार ने किसानों के साथ विश्वासघात किया है। संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा कि यदि सरकार कृषि क़ानून रद्द करने के दौरान किसानों से किये गये अपने वादों को जल्द पूरा नहीं करती है, तो वो दोबारा आन्दोलन करने को मजबूर होंगे।

मोर्चा का कहना है कि सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर एक समिति गठित करने और प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ मामलों को वापस लेने सहित किसानों से किये गये किसी भी वादे को अभी तक पूरा नहीं किया है, जिससे साफ़ है कि मोदी सरकार की नीयत में खोट है। एक तरह से किसान एक मौक़ा और देते हुए मोदी सरकार को 10 मार्च तक का समय दे रहे हैं। अगर इस समय के अन्दर सरकार अपने वादों पूरे नहीं करेगी, तो किसान 11 मार्च से फिर से आन्दोलन शुरू करेंगे; क्योंकि उनके पास इसके अतिरिक्त दूसरा कोई रास्ता नहीं होगा। एक किसान धर्मेश सिंह ने कहा कि केंद्र की मोदी सरकार किसानों के साथ विश्वासघात कर रही है। इसलिए किसानों ने 31 जनवरी को विश्वासघात दिवस मनाया। उन्होंने कहा कि यह वही सरकार है, जिसने जनता से किया एक भी वादा पूरा नहीं किया है। ऐसी सरकार बातों से नहीं मानेगी, यह बात किसानों, ग़रीबों को तो समझ में आ गयी है और देश के बाक़ी लोगों को भी समझनी होगी।

ग़ौरतलब है कि दिसंबर ख़त्म होते-होते मीडिया के एक सवाल पर भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने कहा था कि न ही किसान कहीं गये हैं और न सरकार कहीं गयी है। 15 जनवरी को किसानों की बैठक है। आन्दोलन अभी सिर्फ़ स्थगित हुआ है, जो किसान गये हैं, वे चार महीने की छुट्टी पर गये हैं। लेकिन इस बार किसान आन्दोलन शुरू हुआ, तो लम्बा चलेगा। सरकार की वादाख़िलाफ़ी के बाद टिकैत ने किसानों से भाजपा के ख़िलाफ़ वोट की चोट की अपील की। बता दें कि राकेश टिकैट लगातार भाजपा सरकार पर हमलावर हैं और सरकार की वादाख़िलाफ़ी को लेकर काफ़ी नाराज़ हैं। इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी बिजनौर नहीं गये।

कृषि बजट का लब्बोलुआब

इधर केंद्र सरकार ने कृषि क्षेत्र के लिए बजट अच्छा पेश नहीं किया है, जिससे किसान और भी $ख$फा दिख रहे हैं। पूरे कृषि बजट पर अगर नज़र डालें, तो पता चलता है कि कुल मिलाकर बजट अच्छा नहीं है। वित्त वर्ष 2021-22 के मुक़ाबले समूचा तो कुछ ज़्यादा दिख रहा है; लेकिन जब अलग-अलग करके देखें, तो यह बहुत ख़राब है। मसलन, कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग के लिए पिछले वित्त वर्ष में भी 8,513.62 करोड़ रुपये का प्रावधान था और इस बार भी इसे उतना ही रखा गया है। फ़सल विज्ञान पर 2021-22 की अपेक्षा 2022-23 का बजट 120.72 करोड़ रुपये की कटौती कर दी गयी है। यानी फ़सल विज्ञान का बजट 14.35 फ़ीसदी कम कर दिया गया है। इसी तरह कृषि शिक्षा बजट में भी 97.52 करोड़ रुपये की कटौती इस बार की गयी है। पशु विज्ञान के बजट को भी घटाकर 56.7 करोड़ रुपये कम कर दिये गये हैं। प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन के लिए भी 29.23 करोड़ रुपये की कटौती इस बार की गयी है। एग्रीकल्चरल एक्सटेंशन के बजट में भी 14 फ़ीसदी यानी 40.28 करोड़ रुपये की कटौती की गयी है। राकेश टिकैत ने इस बजट को लेकर कहा कि अमृत महोत्सव, गतिशक्ति जैसे शब्दों का कोई मतलब नहीं है। सरकार का 2022-23 का बजट महज़ शब्दों का जाल है। हक़ीक़त में इसमें कृषि में पूँजीगत निवेश के लिए कुछ नहीं है। पहले ही बजट जितना दिखाया जाता है, उतना फ़ायदा उन्हें नहीं होता, जिनके लिए बजट बनता है। राकेश टिकैत ने उत्तर प्रदेश के मतदाताओं से भाजपा को वोट न देने की अपील भी की।

फ़िलहाल संयुक्त किसान मोर्चा अपने मिशन उत्तर प्रदेश को जारी रखते हुए भाजपा को सबक़ सिखाने और हराने की मुहिम पर पूरे राज्य में अभियान चला रहा है। किसान नेताओं के मुताबिक, क्योंकि उत्तर प्रदेश में किसानों के ऊपर से आन्दोलन के दौरान दर्ज किये गये मुक़दमे वापस नहीं लिये गये हैं। जबकि पंजाब, हिमाचल और उत्तराखण्ड में मुक़दमों को वापस ले लिया गया है। कुछ जानकार ऐसा अनुमान जता रहे हैं कि अब अगर केंद्र सरकार ने किसानों की माँगें जल्द पूरी नहीं कीं, तो 11 मार्च से एक बार फिर किसान खेतों-घरों से निकलकर सडक़ों पर होंगे और इस बर जब तक सरकार उनकी माँगों को पूरा नहीं कर देगी, वे घर नहीं लौटेंगे। मेरे ख़याल से सरकार को अपने वादे पर उन्हें विचार करते हुए उनको जल्द पूरा करने की प्रक्रिया में तेज़ी लानी चाहिए, ताकि किसानों को सडक़ों पर दोबारा न उतरना पड़े। क्योंकि इस प्रकार के आन्दोलनों से किसानों के अलावा पूरे देश को बड़ा आर्थिक और सामाजिक नुक़सान होता है।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

राजनीति के हिजाब

क्या उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों में सियासी हथियार बन रहा है हिजाब विवाद?

पाकिस्तान की मानवाधिकार कार्यकर्ता नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफजई ने 11 फरवरी को एक ट्वीट करके कहा कि लड़कियों को हिजाब में स्कूल जाने से मना करना भयावह है। यह महिलाओं का हक है कि वह कम या ज़्यादा कपड़े पहनें। कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का नेतृत्व कर रहीं प्रियंका गाँधी ने कही, जो अपने चुनाव अभियान में महिलाओं को केंद्र में रखे हुए हैं। प्रियंका गाँधी ने कहा कि लड़कियाँ क्या पहनें? इसका चयन करने का अधिकार उन्हें ही है। हालाँकि भाजपा और उससे जुड़े छात्र संगठन स्कूलों में हिजाब पहनने को ग़लत बताते हुए विरोध स्वरूप गले में भगवा पट्टी पहनकर आ रहे हैं।

कुल मिलाकर यह राजनीति का मुद्दा बन गया है। भाजपा उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में नैरेटिव के बिना ख़ुद को असहज महसूस कर रही है। लिहाज़ा उसने इस मुद्दे को हाथों-हाथ उठाकर चुनाव में इसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। कांग्रेस का आरोप है कि चूँकि भाजपा इन चुनावों में हार के डर से बेचैन है, इसलिए वह इस मुद्दे को साम्प्रदायिक रंग दे रही है; जो बहुत $खतरनाक है। दूसरे विपक्षी दलों को भी लगता है कि भाजपा असली मुद्दों के उठने से डरी हुई है; लिहाज़ा इस तरह के मुद्दे सामने लाकर वह जनता का ध्यान भटकाने की नाकाम कोशिश कर रही है।

यह मुद्दा कितना गम्भीर रुख़ अख़्तियार कर रहा है, इसका अंदाज़ इससे लगाया जा सकता है कि अब दूसरे प्रदेशों में भी मुस्लिम छात्राओं ने स्कूल-कॉलेजों में हिसाब पहनकर आना शुरू कर दिया है। जबकि भाजपा के छात्र संगठनों के कार्यकर्ता भगवा पट्टी बाँधकर आ रहे हैं, जिससे तनाव बन रहा है। कर्नाटक में तो सरकार को दो बार स्कूल-कॉलेज तक बन्द करने पड़े हैं।

न्यायालय में है मामला

यह मसला कर्नाटक के उडुप्पी कॉलेज से शुरू हुआ। कॉलेज प्रशासन ने जब छात्राओं के हिजाब पहनकर कॉलेज आने पर प्रतिबंध लगा दिया, तो इसका जबरदस्त विरोध हुआ। मुस्लिम छात्रों-छात्राओं ने इसे संविधान से मिले मौलिक अधिकार का उल्लंघन बताते हुए न्यायालय (कर्नाटक उच्च न्यायालय) की शरण ली। उच्च न्यायालय की इस मसले पर स$ख्त टिप्पणी तब आयी, जब मद्रास उच्च न्यायालय ने हिजाब से जुड़े विवाद को लेकर देश में धार्मिक सौहार्द को नु$कसान पहुँचाने की बढ़ती प्रवृत्ति को गम्भीर बताते हुए चिन्ता जतायी। न्यायालय ने हैरानी जताते हुए सवाल किया कि राष्ट्र सर्वोपरि है या धर्म?

मद्रास उच्च न्यायालय के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एम.एन. भंडारी और न्यायमूर्ति डी. भरत चक्रवर्ती की पीठ ने कहा- ‘कुछ ता$कतों ने ड्रेस कोड को लेकर विवाद उत्पन्न किया है और यह पूरे भारत में फैल रहा है। यह निश्चित ही स्तब्ध करने वाली बात है। कोई व्यक्ति हिजाब के पक्ष में है, कुछ अन्य टोपी के पक्ष में हैं और कुछ अन्य दूसरी चीज़ें के पक्ष में। यह एक देश है या यह धर्म अथवा इस तरह की कुछ चीज़ें के आधार पर बँटा हुआ है? यह आश्चर्य की बात है।’

न्यायमूर्ति भंडारी ने भारत के पंथनिरपेक्ष देश होने का ज़िक्र करते हुए कहा कि मौज़ूदा विवाद से कुछ नहीं मिलने जा रहा है। लेकिन धर्म के नाम पर देश को बाँटने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने कुछ जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणियाँ कीं। उच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में स्कूल कॉलेजों में छात्राओं के हिजाब पहनने पर अंतरिम रोक लगा दी। इसके बाद इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी।

बाद में यह मसला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँच गया। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने फ़िलहाल इसमें दख़ल देने से मना कर दिया। याचिकर्ताओं ने मद्रास उच्च न्यायालय के स्कूलों-कॉलेजों में छात्राओं के हिजाब पहनने पर अंतरिम रोक के फ़ैसले को चुनौती देते हुए इस पर रोक की माँग की थी। मुख्य न्यायाधीश ने एन.वी. रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह साफ़ कर दिया कि फ़िलहाल वह सुनवाई उच्च न्यायालय में ही चलाये जाने के पक्ष में हैं। न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं को यह सलाह भी दी कि वह एक स्थानीय मामले को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश न करें।

कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ऋतुराज अवस्थी की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा था कि वह स्कूल कॉलेजों को खोलने का आदेश देगी; लेकिन फ़िलहाल सभी विद्यार्थी स्कूल-कॉलेज में धार्मिक वस्त्र पहनने पर ज़ोर न दें। उच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय गये याचिकाकर्ताओं ने इसे धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार में दख़ल बताते हुए सुनवाई की माँग की थी। वरिष्ठ वकील देवदत्त कामत ने तीन न्यायाधीशों की पीठ के सामने कहा कि उच्च न्यायालय ने जो अंतरिम आदेश दिया है। वह संविधान के अनुच्छेद-25 यानी धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का सीधा हनन है। एक तरह से न्यायालय यह कह रहा है कि मुस्लिम छात्राएँ हिजाब न पहने, सिख छात्र पगड़ी न पहनें और दूसरे धर्मों के छात्र भी कोई धार्मिक वस्त्र न पहनें।

प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि हमारी पूरे घटनाक्रम पर नज़र है। फ़िलहाल उच्च न्यायालय सुनवाई कर रहा है। इसमें दख़ल देने की हम ज़रूरत नहीं समझते। उच्च न्यायालय का लिखित आदेश भी नहीं आया है। अगर ज़रूरी हुआ, तो सर्वोच्च न्यायालय लोगों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए सुनवाई करेगा।

राजनीतिक दल भी कूदे

कर्नाटक में अगले साल विधानसभा के चुनाव हैं। देश में पाँच राज्यों में इस समय विधानसभाओं के चुनाव हो रहे हैं। ऐसे में आरोप लग रहे हैं कि भाजपा इस मुद्दे को तूल देकर साम्प्रदायिक रंग दे रही है। क्योंकि वह लोगों से किये वादे पूरे करने में नाकाम साबित हुई है। कांग्रेस मुस्लिम लड़कियों का यह कहकर समर्थन कर रही है कि यह लड़कियों का अधिकार है कि वह क्या पहनें? भाजपा कहती है कि यह (हिजाब) धार्मिक प्रतीक है। भाजपा शिक्षण संस्‍थानों और कॉलेजों में ड्रेस कोड लागू करने पर भी ज़ोर दे रही है।

निश्चित ही इस मुद्दे ने राजनीतिक रंग ले लिया है। यह विवाद जनवरी में जब उडुप्पी के एक सरकारी कॉलेज से शुरू हुआ, तो प्रशासन ने हिजाब पहनने पर रोक लगा दी। उस समय कुंडापुर और बिंदूर के कुछ अन्य कॉलेजों में भी छात्राएँ हिसाब पहन रही थीं। लेकिन इसके बाद मुस्लिम छात्राओं को हिजाब में कॉलेजों या कक्षाओं में जाने की अनुमति से मना कर दिया। उधर भाजपा के छात्र संगठन से जुड़े छात्र भी मैदान कूद पड़े और भगवा गमछा पहनने लगे। बेलगावी, हासन, चिक्कमंगलूरु और शिवमोगा में शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब और भगवा गमछा के चलते छात्रों के बीच तनाव भी पनपा। एक मुस्लिम छात्रा का वह वीडियो $खूब वायरल हुआ, जिसमें उसके हिजाब में कॉलेज आने पर कुछ भगवाधारी छात्रों ने भगवे झण्डे लहराये, तो छात्रा ने इसका कुछ नारा लगाकर विरोध किया।

यह मसला जल्दी ही राजनीतिक दलों के पाले में चला गया। हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति शुरू हो गयी और उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में नेता खुलेआम अपने भाषणों में इस मसले का ज़िक्र करते दिखे। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता सिद्धारमैया ने भाजपा और आरएसएस पर हिजाब के मसले को नाम पर राज्य में साम्प्रदायिक विद्वेष पैदा करने की कोशिश का आरोप लगाया। सिद्धारमैया ने दावा किया है कि संघ परिवार का मुख्य एजेंडा हिजाब के नाम पर मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा से वंचित करना है। उन्होंने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी पर भी हमला किया और कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के बारे में बोलते हैं। क्या उन्हें इस घटना की जानकारी नहीं है? कांग्रेस कह रही है कि संविधान किसी भी धर्म को मानने का अधिकार देता है, जिसमें वह अपने धर्म के अनुसार कपड़े पहन सकता है। हिजाब पहनने वाली छात्राओं को स्कूल में एंट्री करने से रोकना उनके मौलिक अधिकारों का हनन है।

उधर भाजपा कह रही कि स्कूल-कॉलेजों में धर्म को शामिल करना सही नहीं है; क्योंकि बच्चों को सिर्फ़ शिक्षा की ज़रूरत है। भाजपा सिद्धारमैया पर भी हमला कर रही है और आरोप लगा रही है कि उन्होंने मुख्यमंत्री रहते कथित तौर पर समुदायों के बीच दरार पैदा की और ‘टीपू जयंती’ मनाने के अलावा ‘शादी भाग्य’ जैसी योजनाएँ लाये।

“भाजपा इसको राजनीति का मुद्दा बना बना रही है, यह उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चुनाव प्रचार के अपने एक भाषण में साबित कर दिया, जब उन्होंने कहा कि भाजपा राज्य में दोबारा सरकार बनते ही समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए ड्राफ्ट लेकर आएगी।

 

“स्टूडेंट के हिजाब को उनकी शिक्षा में आड़े आने देकर हम भारत की बेटियों का भविष्य लूट रहे हैं। माँ सरस्वती सभी को ज्ञान देती हैं। वह भेद नहीं करती हैं।“

राहुल गाँधी

कांग्रेस नेता

 

“इस तरह की चीज़ें (कॉलेज में हिजाब पहनना) की कोई गुंजाइश नहीं है। हमारी सरकार कठोर कार्रवाई करेगी। लोगों को कॉलेज के नियमों का पालन करना होगा। हम (शिक्षा व्यवस्था के) तालिबानीकरण की अनुमति नहीं देंगे।“

नलिन कुमार कटील

कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष

 

“सिख युवक पगड़ी पहन सकते हैं, तो मुस्लिम महिला हिजाब क्यों नहीं?”

सोनम कपूर

अभिनेत्री

हंसराज कॉलेज में गौशाला पर रार

इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) कैम्पस के हंसराज कॉलेज में दिनों गौशाला बनाने को लेकर बड़ा विवाद मचा हुआ है। कॉलेज प्रशासन का कहना है कि कॉलेज में एक गाय है और उसका बछड़ा है। इन्हें शोध करने के लिए गुजरात से लाया गया था। अब यहाँ गौशाला बनाने को लेकर छिड़ गयी है। इसके बाद डीयू कैम्पस में विरोध और समर्थन को लेकर छात्र-छात्राओं और अध्यापकों के बीच मतभेद हो गये हैं, जो राजनीतिक मोड़ लेते जा रहे हैं।

कॉलेज की प्राचार्य डॉक्टर रमा, कुछ अध्यापकों और कुछ छात्र-छात्राओं ने ‘तहलका’ संवाददाता को बताया कि इस मामले को बेवजह तूल दिया जा रहा है। कॉलेज में मौज़ूद गाय तो शोध के लिए लायी गयी है, ताकि गाय पर शोध हो सके और उसके महत्त्व के बारे में लोग जान सकें। वहीं कुछ छात्र-छात्राओं और कुछ अध्यापकों का कहना है कि देश के शहरों और गाँवों की गली-गली में गायें भूखी-प्यासी घूमती रहती हैं। उस ओर न तो सरकार का कोई ध्यान है और न ही गौशाला चलाने वालों का। इन छात्र-छात्राओं और अध्यापकों के भी अपने तर्क हैं। उनका कहना है कि गौपालन के लिए देश में बड़ी-बड़ी गौशालाएँ बड़ी संख्या में स्थापित की गयी हैं, जहाँ पर गायों का पालन-पोषण के साथ शोध भी हो सकता है। लेकिन कॉलेज के प्रांगण में गौशाला को स्थापित करना ज़रूर कोई सियासी चाल है।

दिल्ली विश्वविद्यालय कैम्पस के अध्यापकों का कहना है कि हंसराज कॉलेज में सभी धर्म के छात्र-छात्राएँ पढऩे को आते हैं। किसी के लिए गाय माता के सामान है और पूजनीय है; जबकि कोई गाय को माता नहीं मानता है। ऐसे में गाय के चक्कर में छात्रों-छात्रों, छात्रों-अध्यापकों और अध्यापकों-अध्यापकों के बीच में आस्था को लेकर टकराव होने की सम्भावना है। कुछ अध्यापकों का कहना है कि गाय को लेकर आज किसी की आस्था है, तो कल किसी की अन्य पर आस्था होगी। ऐसे तो आने वाले दिनों में कॉलेजों में धार्मिक लड़ाई होने की सम्भावना बढ़ सकती है।

हंसराज कॉलेज के एक अध्यापक ने बताया कि सियासत कहाँ नहीं होती है? कॉलेज में भी सियासत हो रही है। क्योंकि हंसराज कॉलेज एक ट्रस्ट का कॉलेज है और यूजीसी से ग्रांट पर चलता है। उनका का कहना है कि जबसे कॉलेज के बारे में उनको जानकारी है, तबसे कॉलेज पर बड़े धार्मिक अवसरों पर यज्ञ और धार्मिक अनुष्ठान बग़ैरह होते रहे हैं। इसको लेकर किसी भी अध्यापक और छात्र-छात्रा ने कभी कोई विरोध नहीं किया है। लेकिन कॉलेज परिसर में गौशाला बनाये जाने पर अध्यापकों और छात्र-छात्राओं का विरोध जायज़ है। कॉलेज के कुछ अध्यापकों का कहना है कि जिस जगह पर गौशाला बनायी जा रही है, वो जगह सही मायने में छात्रों के छात्रावास की जगह है। लेकिन छात्रावास न बन पाने और कोरोना-काल के चलते कॉलेजों के बन्द होने के कारण अब इस जगह पर गौशाला का बनाया जाना ठीक नहीं है।

इस बारे में दिल्ली विश्वविद्यालय की असिस्टेंट प्रो. शुचि वर्मा का कहना है कि एक दौर में गाय हमारी अर्थ-व्यवस्था की अहम् कड़ी रही है। क्योंकि तब हम गाय, बैल पर निर्भर थे। उस समय गाय से दूध, दही, छाछ, मक्खन, घी आदि मिलता था; जो हमारे पालन-पोषण के लिए पर्याप्त आहार था। बैल के ज़रिये हम खेती करते थे। पुराने जमाने में हमारी मुद्राओं में गाय, बैल और खेती के चिह्न अंकित होते थे। ऐसे में अगर किसी भी कॉलेज में गाय पर शोध हो रहा है, तो उसका विरोध करना ठीक नहीं है। आम आदमी पार्टी से जुड़े एक प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय के अशोक विहार स्थित लक्ष्मीबाई कॉलेज में भी कई गायें हैं। वहाँ पर भी उन्हें लेकर विरोध हो रहा है। प्रोफेसर का कहना है कि केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार इस बारे में चुप हैं। इसलिए यह सब कॉलेजों में चल रहा है। समझने की बात यह है कि किसी कॉलेज में आज गाय का पालन हो रहा है, तो कल किसी अन्य जानवर का पालन होने लगेगा। ऐसे में विवाद होना तो निश्चित है। कल अगर किसी ने कॉलेजों में किसी की मूर्ति लगवानी चाही, तो फिर बवाल मच सकता है।

हंसराज कॉलेज की प्राचार्य डॉक्टर रमा का कहना है कि कॉलेज में कोई गौशाला नहीं है। एक गाय और एक बछड़ा है। इन्हें गुजरात से मँगाया गया है। गाय गुजरात की गिर प्रजाति की है। इसका दूध काफ़ी पौष्टिक माना जाता है। उनका कहना है कि गौशाला बनने से हंसराज कॉलेज के अलावा देश के किसी भी कॉलेज के अध्यापक और छात्र-छात्राएँ यहाँ आकर गाय पर शोध कर सकते हैं। उनका कहना है कि गाय के गोबर के बारे जानकारी हासिल करने के साथ गोबर गैस प्लांट की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। डॉक्टर रमा का कहना है कि गाय को लेकर जो लोग हो-हल्ला कर रहे हैं, वे यह भी जान लें कि गौ-धन को लेकर पूरे विश्व में बड़ा काम चल रहा और उसको महत्त्व भी मिल रहा है। यहाँ पर आकर कोई भी अपना स्टार्टअप शुरू कर सकता है। उनका कहना है कि कोरोना-काल में गाय के मिल्क से लोगों को काफ़ी लाभ हुआ है।

सामाजिक कार्यकर्ता सचिन सिंह का कहना है कि गाय, बैल हमारी अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ रहे हैं। अब कॉलेजों में गाय के बारे में पढ़ाया जाएगा और उस पर शोध होगा, तो देश को काफ़ी लाभ होगा। उनका कहना है कि इससे अब पढऩे वाले छात्रों में अहम् जानकारी हासिल होगी।

इस बारे में दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर प्रो. योगेश सिंह ने अनभिज्ञता ज़ाहिर करते हुए कहा कि उनको इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) के पूर्व पदाधिकारी एस. कुमार ने इस बारे में कहा कि शैक्षणिक संस्थानों, ख़ासकर जब देश में माहौल ज़रा-ज़रा सी बात पर सियासी रंग लेने लगता है; तब किसी विशेष धर्म और आस्था से जुड़े मामले पर रोक लगनी चाहिए। क्योंकि यह देश धर्म-निरपेक्ष है। शैक्षणिक संस्थानों में यह सब कुछ हो रहा है फिर भी कोई सियासी दल कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है। अगर कोई कुछ कहने को तैयार है, तो सियासत करने के इंतज़ार में बैठा है। इसलिए समय रहते कॉलेज प्रशासन को इस मामले में कोई बीच का रास्ता निकालना चाहिए और शोध के लिए गौशाला को अन्य किसी जगह स्थापित करना चाहिए, ताकि गाय पर रार ने हो सके। बताते चलें, हंसराज कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय के टॉप कॉलेजों में शुमार है। यहाँ देश के कोने-कोने से छात्र-छात्राएँ पढऩे को आते हैं।

विश्व सामाजिक न्याय दिवस को मुँह चिढ़ाता अन्याय

हर साल 20 फरवरी को दुनिया भर में विश्व सामाजिक न्याय दिवस मनाया जाता है। लेकिन सामाजिक न्याय की ज़मीनी हक़ीक़त देखने पर पता चलता है कि इस मामले में दुनिया बहुत पीछे है। ख़ासकर अगर भारत की बात करें, तो यहाँ अन्याय जिस पैमाने पर होता है, उससे निकलना इस देश के लिए आसान नहीं है। क्योंकि यह अन्याय बड़े स्तर पर ही बड़े लोगों के द्वारा किया जाता है। शोषण इसकी पहली परत है। सामाजिक न्याय की इस परत के नीचे न जाने कितने ही तरह की परतें छिपी हैं, जिसमें शोषण, अत्याचार, लूट, बेईमानी, रिश्वत, छीना-झपटी की कई-कई परतें हैं। इसकी वजह यह है कि जिस राजनीति और न्यायिक संस्थाओं को न्यायप्रिय होना चाहिए, वहाँ अनेक लोग बेइमानी की बुनियाद पर ही कुंडली मारकर बैठे हुए हैं।

आज देश में यह हाल है कि जिन लोगों के साथ अन्याय होता है, वो न्याय पाने के लिए जिनके पास जाते हैं, वहाँ भी कई बार ज़ुल्म के शिकार होते हैं। न्याय के लिए बनायी गयी संस्थाएँ आज ख़ुद इतनी अन्यायप्रिय हो चुकी हैं कि उनसे न्याय की उम्मीद करना भी कभी-कभी बेमानी लगती है। आज की राजनीति की तो जैसे बुनियाद ही झूठ, अन्याय और भ्रष्टाचार की ईंटों पर रखी गयी है। आज के समय में दुनिया में 10 में आठ लोग कहीं-न-कहीं इस बात से पीडि़त हैं कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। दफ़्तरों से लेकर घर तक में अन्याय की ऐसी हवा चल रही है कि पीडि़तों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके चलते लोग न केवल एक-दूसरे पर से अपना विश्वास खो रहे हैं, बल्कि एक-दूसरे से डरे हुए भी हैं और दूरी बनाने में ही अपना भला समझने लगे हैं। आज अगर कोई किसी से मुँह जोडक़र बात भी करता है, तो उसके पीछे उसके अपने स्वार्थ ही छिपे होते हैं। हर कोई अपने आपको सामने वाले से असुरक्षित महसूस करता दिखायी देता है। भारत में करोड़ों लोगों में यह असुरक्षा की भावना पनप रही है, जिसकी वजह यही है कि उन्हें न्याय न मिलने का भय है। और यह भय उनके मन में यहाँ तक घर कर चुका है कि अगर कोई उनसे मज़बूत आदमी उन पर अन्याय करता है, तो वे उसके ख़िलाफ़ बोलने से भी डरते हैं। जबकि संविधान के मुताबिक, हर व्यक्ति को न्याय पाने का अधिकार है। यह न्याय ही की बदौलत ही तो है कि लोग अपने को सुरक्षित रख पाते हैं, अन्यथा अगर न्याय की व्यवस्था नहीं की जाती, तो समाज की व्यवस्था ही तहस-नहस हो जाती। लेकिन बहुत-से पूँजीपतियों, रसूख़दारों और राजनीतिक रूप से मज़बूत लोगों ने इन न्यायिक व्यवस्था को भी अपनी जेब में रखने की जो कोशिश की है, उससे यह व्यवस्था कमज़ोर तो हुई है। लेकिन आम लोगों को यह जानना चाहिए कि भारत के संविधान के अनुच्छेद-32 उच्चतम न्यायालय और अनुच्छेद-226 उच्च न्यायालयों को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति प्रदान करता है। ऐसे में न्याय पर लोगों का भले ही मौलिक अधिकार न हो; लेकिन उन्हें अन्याय के ख़िलाफ़ लडऩे का अधिकार है और वे अपने साथ अन्याय करने वाले की शिकायत पुलिस, न्यायालय व न्यायिक संस्थाओं तक ले जा सकते हैं, जो अन्यायी को दण्ड देने में समर्थ हैं।

हालाँकि इन संस्थाओं पर अति भार और इनमें अन्यायकारी, रिश्वती लोगों की नियुक्ति की वजह से लाखों पीडि़तों को परेशानियों का सामना भी करना पड़ रहा है। कहा जाता है कि न्याय का न हो, तो उसे पाने के लिए कई बार पीडि़त भी अपराधी या अन्यायकारी हो जाता है। दुनिया में इस तरह के कई उदाहरण हैं, जब पीडि़तों ने अपने को मज़बूत बनाने और अन्यायकारियों को सबक़ सिखाने के लिए अपराध और अन्याय की शरण ली है। अन्याय से लोगों की एकजुटता ख़त्म होती है और सामाजिक व्यवस्था को धक्का लगता है।

अन्याय की एक वजह बड़े-छोटे में भेद करना भी है, जो कि भारत में तो सदियों से चरम पर है ही, आधुनिक युग में इसकी खाई अब और बढ़ती जा रही है। विश्व सामाजिक न्याय दिवस के मौक़े पर यह सन्देश दुनिया भर में दिया जाता है कि नस्ल, लिंग, धर्म, जाति, छोटे-बड़े, ग़रीबी, बेरोज़गारी के आधार पर बँटे और भेदभाव के शिकार लोगों को एकजुट किया जाए। हमारे देश में तो वसुधैव कुटुंबकम का मंत्र दिया गया है। लेकिन अपने ही लोगों के साथ अन्याय में वही लोग आगे रहे हैं, जो वसुधैव कुटुंबकम की तख़्ती गले में लटकाये फिरते हैं। इसी को कहा जाता है कि मन में राम बग़ल में छुरी।

भारत में अन्याय की पराकाष्ठा

भारत में अन्याय की पराकाष्ठा देखनी हो, तो उन लोगों को पहली नज़र में उन लोगों पर डालनी होगी, जो न्याय न मिलने के भय से अपनी पीड़ा दबा लेते हैं और अन्यायकारियों के ख़िलाफ़ शिकायत तक नहीं करते। दूसरी नज़र उन लोगों पर डालनी होगी, जो न्याय के लिए लड़ तो रहे हैं; लेकिन इस न्याय की लड़ाई लड़ते-लड़ते या तो वे ख़त्म हो गये या फिर उनकी लम्बी उम्र इसी में चली गयी या जा रही है।

सन् 2007 में संयुक्त राष्ट्र ने 20 जनवरी को सार्वजनिक रूप से मनाने की घोषणा की थी। लेकिन सन् 2009 में इस महत्त्वपूर्ण दिन को पहली बार पूरी दुनिया में मनाया गया था। आज विश्व सामाजिक न्याय दिवस को मनाने के दौरान हर देश की सरकारें बड़ी-बड़ी घोषणाएँ करती हैं और इसके लिए दुनिया के कई देश संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर काम भी कर रहे हैं। लेकिन सामाजिक न्याय में पिछड़े हुए हैं, जिसके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई उदाहरण हैं। अगर भारत के इतिहास और वर्तमान को लें, तो पता चलता है कि भारत सदियों से अन्याय का शिकार रहा है। वर्तमान में भी हमारे पड़ोसी देश हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करने में लगे हैं और संयुक्त राष्ट्र की सामाजिक न्याय की इकाई इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं करती, न ही भारत के पड़ोसी देशों पर उनकी अन्यायकारी नीतियों को रोकने के लिए उन पर दबाव बनाता है।

भारत सरकार की कोशिश

भारतीय संविधान की तो नींव ही सामाजिक न्याय के आधार पर रखी गयी है। भारतीय संविधान बनाने के दौरान ही डॉ. भीमराव अंबेडकर ने सामाजिक न्याय और समानता को प्रमुखता दी थी। आज ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, ग़रीब-अमीर और स्त्री-पुरुष में किसी हद तक जो भेदभाव मिटा है, वह उनकी सोच और संविधान की ही देन है। ख़ुद डॉ. भीमराव अंबेडकर भेदभाव के शिकार थे। लेकिन उन्होंने अपने परिश्रम से उस ऊँचाई को हासिल किया कि उनके आगे बड़े-बड़े लोग नतमस्तक होते उस समय भी देखे गये और आज भी होते हैं। हमारे संविधान में सामाजिक भेदभाव और सामाजिक दूरी मिटाने के लिए भी कई प्रावधान किये गये हैं, जिसके लिए न्यायिक व्यवस्थाएँ बनायी गयी हैं। भारत सरकार सामाजिक न्याय के लिए अनेक प्रभावी क़दम समय-समय पर उठाती रहती है। लेकिन फिर भी यहाँ भेदभाव किसी-न-किसी रूप में देखने को मिल ही जाता है।

भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर भी सामाजिक अन्याय को ख़त्म करने के लिए प्रभावी क़दम उठा रही है। फिर भी यह कहना ही पड़ेगा कि यह प्रयास अभी नाकाफ़ी हैं और इसके लिए न्यायिक व्यवस्था को और मज़बूत करने की ज़रूरत है, ताकि किसी भी सामाजिक स्तर का कोई भी व्यक्ति न्याय न मिलने के भय से पीड़ा सहता रहे और न्याय की गुहार तक न लगा सके। इसके लिए सबसे पहले न्यायिक संस्थाओं से जुड़े लोगों को इसके लिए वाध्य करना पड़ेगा कि वे हर हाल में न्याय ही करेंगे। लेकिन देखा गया है कि वे ही कई बार अन्यायकारी और पीड़ादायक साबित होते हैं, जिसकी वजह से पीडि़त लोग चुपचाप पीड़ा सहते रहते हैं और न्याय माँगने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाते। इस मामले में भारत में ग़रीबों और महिलाओं की संख्या सबसे ज़्यादा है। इसके छ: प्रमुख कारण हैं- शिक्षा में असमानता, भोजन में असमानता, सम्मान में असमानता, वरीयता में असमानता, न्याय में असमानता, जातिगत और धर्मगत असमानता। आज दुनिया के हर क्षेत्र में, ख़ासकर घरों में महिलाएँ पुरुषों की तुलना में दासता की बेडिय़ों में ज़्यादा जकड़ी हैं। ग़रीब लोग भी इसके उसी तरह शिकार हैं। पूँजीपतियों द्वारा अपने से धन में कमज़ोर लोगों से गुलामों जैसा बर्ताव अन्याय का एक और दूसरा बड़ा कारण है, जिसे ख़त्म करने की आज सख़्त ज़रूरत है। आजकल दफ़्तरों से लेकर सामाजिक न्याय के लिए खड़ी संस्थाओं में भी शोषण की शिकायतें आम हो चुकी हैं। पुलिस जैसे विभाग में कितने ही पुलिस वाले, ख़ासकर महिलाएँ अपने अफ़सरों की प्रताडऩा और शोषण से पीडि़त हैं। हद तो यह है कि उन्हें गुहार लगाने पर भी न्याय नहीं मिलता। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि जिन अफ़सरों या न्यायिक संस्थाओं से वे शिकायत करते हैं, वे भी या तो पीड़ा पहुँचाने वालों की प्रवृत्ति के होते हैं या उनसे मिले होते हैं या रिश्वत, पद, सम्मान, पैसा आदि के चलते उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करते हैं। इसी तरह महिलाओं और बहुत-से लोगों, ख़ासकर दूसरों का काम करने वालों को मेहनताना नहीं मिलता। यह भी तो सामाजिक अन्याय ही है। इसके अलावा महिलाओं को सम्पत्ति में अधिकार पुरुषों की तरह नहीं है, ख़ासकर भारत में तो सदियों से नहीं रहा है। जबकि न्यायालय कई बार कह चुके हैं कि महिलाओं का सम्पत्ति में पुरुषों की बराबर ही अधिकार है। लेकिन यहाँ की सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप बनी लोगों की मानसिकता उन्हें इसका अधिकार नहीं देने देती। आज अगर कोई बेटी अपने पिता की सम्पत्ति में अपना अधिकार जताती है और बँटवारे के लिए खड़ी होती है, तो उसी के भाई, रिश्तेदार और कई बार तो ख़ुद माता-पिता उसके दुश्मन हो जाते हैं। इसी डर से लड़कियाँ अपने पिता की सम्पत्ति में अपना अधिकार नहीं जतातीं और ससुराल में भी अमूमन सम्पत्ति के अधिकार से वंचित ही रहती हैं।

भेदभावपूर्ण रवैया

लोगों को अगर आज न्याय नहीं मिल पाता है, तो इसके लिए कहीं-न-कहीं वैधानिक पदों पर बैठे लोग ही सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है। क्योंकि कई ऐसे मामले देखे गये हैं, जिनमें क़ानूनी लड़ाई लड़ते-लड़ते लोग गुज़र गये या फिर उनकी उम्र निकल गयी। एक रिपोर्ट बताती है कि पुरुषों उसकी तुलना में महिलाओं को केवल तीन-चौथाई ही सामाजिक संरक्षण हासिल होता है। यही दशा न्याय की है। जब भी महिला-पुरुष में किसी बात को लेकर टकराव होता है, तो महिला का मायका और ससुराल पक्ष उसी पर समझौते का दबाव बनाते हैं और उसे ही ख़ामोश रहने को कहते हैं।

भारत में यह बहुतायत में देखने को मिलता है। मध्य पूर्व और उत्तर अफ्रीका के देशों में यह स्थिति और भी ख़राब है। वहाँ पुरुषों की तुलना में महिलाओं को 47 फ़ीसदी के क़रीब ही क़ानूनी अधिकार प्राप्त हैं।

न्याय में देरी की वजह

भारत में तो न्याय न मिलने की एक बड़ी वजह यह भी है कि यहाँ न्याय के लिए जितने न्यायालय और न्यायिक लोग चाहिए, उतने हैं ही नहीं। भारतीय न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सर्वोच्च न्यायालय और सरकार के बीच पहले भी कई बार टकराव की स्थिति बन चुकी है। बड़ी संख्या में लम्बित मामलों के निपटान के लिए यहाँ न्यायाधीश हैं ही नहीं, जिन्हें लेकर सर्वोच्च न्यायालय लगातार न्यायाधीशों की संख्या को बढ़ाने की बात कहता रहा है। लेकिन सरकार ने इसके लिए आज तक कोई ठोस क़दम नहीं उठाया है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक,15 सितंबर 2021 तक देश के न्यायालयों में लम्बित मामलों की संख्या 4.5 करोड़ से ज़्यादा थी। इसमें अधीनस्थ न्यायालयों (सबऑर्डिनेट कोट्र्स) में 87.6 फ़ीसदी मामले लम्बित थे और उच्च न्यायालयों में 12.3 फ़ीसदी मामले लम्बित थे। वहीं सर्वोच्च न्यायालय में 70,000 से अधिक मामले उस समय लम्बित थे। रिपोर्ट के मुताबिक, सन् 2010 से 2020 के बीच लम्बित मामलों की संख्या में 2.8 फ़ीसदी सालाना की दर से बढ़ोतरी हुई। एक अनुमान के मुताबिक, कोरोना महामारी और उसमें लगे लॉकडाउन के दौरान लम्बित मुक़दमों की संख्या में और भी बढ़ोतरी हुई है, जिसके आँकड़े आने अभी बाकी हैं। एक रिपोर्ट बताती है कि सुनवाई के इंतज़ार में देश में 4.5 करोड़ से अधिक मामले लम्बित पड़े हैं और 50 फ़ीसदी न्यायाधीशों के पद रिक्त पड़े हैं। आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2019 से 2020 के बीच लम्बित मामलों में उच्च न्यायालयों में 20 फ़ीसदी की दर से और उनके अधीनस्थ न्यायालयों में 13 फ़ीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई है।

1 जनवरी, 2022 तक के आँकड़े बताते हैं कि इलाहबाद उच्च न्यायालय की दोनों पीठों में इस समय तक 10,31,590 मुक़दमे लम्बित थे। इन मुक़दमों में से इलाहाबाद न्यायालय के अधीन 8,3,516 मुक़दमे और उसकी लखनऊ पीठ में 2,28,074 मुक़दमें लम्बित थे। एक रिपोर्ट बताती है कि देश में 10 साल कुल पुराने मुक़दमों की संख्या कुल लम्बित मुक़दमों की संख्या की 22 फ़ीसदी है। वहीं 10 से 20 साल पुराने मुक़दमों की संख्या 26 फ़ीसदी है। 30 साल से भी पुराने लम्बित मुक़दमों की संख्या 27,000 से अधिक यानी क़रीब 6.64 फ़ीसदी है।

हड़प्पा का महानगर हो सकता है हरियाणा का राखीगढ़ी !

हरियाणा के हिसार ज़िले में नारनौंद के तहत पडऩे वाला गाँव राखीगढ़ी में ऐतिहासिक चीज़ें छिपी हैं। भारतीय पुरातत्त्व विभाग (एडीआई) की अब तक की खुदाई में मिले दस्तावेज़ और अन्य चीज़ें से संकेत मिलते हैं कि राखीगढ़ी हड़प्पा-काल का महानगर (मेट्रोपोलिटन शहर) हो सकता है।

पिछले वर्षों में हुई खुदाई में यहाँ काफ़ी महत्त्वपूर्व वस्तुएँ और कंकाल मिले हैं। इनके अध्ययन के आधार पर विशेषज्ञों और पुरातत्त्ववेत्ताओं का कहना है कि राखीगढ़ी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। कोरोना महामारी के बीच यहाँ खुदाई का काम बन्द किया गया था, जो इसी 30 जनवरी से टीला संख्या-1 में दोबारा शुरू हो गया है। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हड़प्पा-काल से राखीगढ़ी राष्ट्रीय विरासत के रूप में जोड़ा जा चुका है। वैज्ञानिकों का अनुसंधान इस ओर संकेत करता है कि राखीगढ़ी की खुदाई हमारी सभ्यता के 5000 साल पुराने इतिहास को एक नया मोड़ दे सकती है। चूँकि सिंधु घाटी की सभ्यता उस नदी के किनारे बसती थी, जो आज सूख चुकी है। यह सरस्वती नदी है।

सबसे पहले साल 1997-98 से सन् 2000 के बीच भारतीय पुरातत्त्व विभाग के उस समय महानिदेशक अमरनाथ की देखरेख में यहाँ खुदाई की गयी थी। अब पिछले दो साल में डेक्कन कॉलेज, पुणे की पुरातात्त्विक टीम इस पर रिसर्च कर रही है, जिसका नेतृत्व डॉ. वसंत शिंदे कर रहे हैं।

पुरातत्त्वविद् और इतिहासकार राखीगढ़ी से मिली चीज़ें को देखकर आश्चर्यचकित हैं कि मोहनजोदड़ो के बाद अब ये सिंधु घाटी की सभ्यता का स्थल है। बल्कि भारत के पुरातात्त्विक स्थलों में सबसे महत्त्वपूर्ण है, जिससे कई अनसुलझे रहस्यों पर से पर्दा उठ सकता है। सन् 2015 में चार पूरे मानवीय कंकाल यहाँ खुदाई में मिले थे। इनमें दो पुरुष, एक महिला और एक बच्चे का था। ख़ुदार्इ करने वाली टीम को भरोसा था कि नवीनतम तकनीक से इन कंकालों का डीएनए इस बात को साबित करने में मददगार हो सकता है कि 4500 साल पहले हड़प्पा के लोग कैसे दिखायी देते थे।

पिछले दिनों राखीगढ़ी की यात्रा के दौरान इस लेखिका ने वहाँ कुछ टीलों को देखा और समझा। इस दौरान क्षेत्र के कुछ और जानकार और राखीगढ़ी पर रिसर्च करने वाले बलराम कुमार भी साथ रहे, जिन्होंने काफ़ी जानकारी उपलब्ध करवायी। सबसे पहले खुदाई के मुख्य स्थल टीला संख्या-1 की बात करते हैं। इसी टीले में भारतीय पुरातत्त्व विभाग के तम्बू (टेंट) लगे हुए हैं। मुख्य गेट पर एक महिला कुर्सी पर बैठी थी, जो शायद निगरानी के लिए नियुक्त थी।

लेखिका को मिली जानकारी के मुताबिक, गाँव के लोग यहाँ बेरोकटोक आते जाते हैं, क्योंकि इसी टीले में श्मशान घाट भी है, जहाँ मृतकों के अन्तिम संस्कार होते हैं। यह श्मशान ख़ुदार्इ वाली जगह के बिल्कुल पास है। खुदाई वाली जगह प्लास्टिक की परतें दिखायी देती हैं। बलराम कुमार कहते हैं कि सुरक्षा की दृष्टि से यहाँ चहारदीवारी की गयी है। लेकिन जूतों के निशान हैं, जिनसे लगता है कि लोग यहाँ आते जाते रहते हैं। बलराम यह भी बताते हैं कि खुदाई के बाद उस स्थान को प्लास्टिक के साथ मिट्टी डालकर ढक देते हैं, ताकि प्राचीन ढाँचा ख़राब न हो। दूसरा तकनीकी कारण यह भी है कि प्लास्टिक होने से पता चल जाता है कि इस स्थान पर ख़ुदार्इ चल रही है।

विशेषज्ञों का कहना है कि राखीगढ़ी हड़प्पा-काल की सजीव सभ्यता (निरंतरता) कही जा सकती है। खुदाई के दौरान मिली कई ऐसी चीज़ें हैं, जिनमें आज की सभ्यता से काफ़ी कुछ मिलता-जुलता है। खुदाई के दौरान नरकंकाल, मिट्टी के वर्तन, ईंटें, क़ीमती पत्थर, आभूषण, मोहरें, सिक्के आदि मिले हैं। इसके अलावा छोड़ी सडक़ें और ढकी हुई नालियों के प्रमाण मिले हैं। मकानों के साथ संलग्न स्नानागार (अटैच्ड बाथरूम) तक मिले। वृत्ताकार (सर्कुलर) और आयताकार (रैक्टेंगुलर) मकानों के प्रमाण भी मिले हैं।

हड़प्पा-काल की सभ्यता को अगर लाइव माना जा रहा है, तो इसका कारण रिसर्चर यह मानते हैं कि मिट्टी के वर्तन रंगों से भी और आकार से भी काफ़ी साम्य रखते हैं। अगर बीच में कोई संस्कृति आयी होती, तो इनके रंगों में काफ़ी फ़र्क़ होता; लेकिन ऐसा है नहीं। खानपान, वास्तुकला (आर्किटेक्चर), रहन-सहन बदलना चाहिए था; लेकिन पूर्व हड़प्पा से लेकर बाद के हड़प्पा तक उसी की निरंतरता दृष्टिगोचर होती है।

राखी ख़ास और राखी शाहपुर को सामूहिक रूप से राखीगढ़ी के नाम से जाना जाता है। मान्यताओं के मुताबिक, यह स्थल दृषद्वती (घग्गर नदी) के दाहिने तट पर स्थित है। आरम्भ में सात टीले अर्थात् आरजीआर-1 से आरजीआर-7 तक पहचाने गये। हालाँकि हाल में विभिन्न संस्थाओं द्वारा किये गये सर्वेक्षण दो और टीलों आरजीआर-8 और आरजीआर-9 का सुझाव दिया गया है। यह पूरा स्थल लगभग 350 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। इसे हड़प्पा सभ्यता के सबसे बड़े स्थल के रूप में पहचाना गया है। इस स्थल का उत्खनन भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण द्वारा सन् 1997 से सन् 2000 तक लगातार तीन सत्रों में किया गया।

टीलों की कहानी

आरजीआर-1 वह टीला है जो पूर्व पश्चिम दिशा में फैला है और आसपास के मैदानों से छ: मीटर ऊँचा है। यह राखी शाहपुर और राखी ख़ास गाँवों के उत्तरी छोर पर स्थित है। इसका आकार अंडाकार है। इस टीले की खुदाई से परिपक्व हड़प्पा-कालीन अधबने मकानों (कार्नेलियन, अगेट, चैल्सीडोनी, जैस्पर) के साथ एक मनके बनाने की कार्यशाला के प्रमाण भी मिले हैं।

आरजीआर-2 यानी टीला संख्या-2 एक गढ़टीला (सिटेडल) प्रतीत होता है, जो कि ऊँचाई में लगभग 14 मीटर है। यह टीला संख्या-1 दक्षिण पश्चिम में स्थित है। यह आकार में समलम्ब (ट्रेपोजायड) है। उत्खनन में टीले की दक्षिण पश्चिमी ढलान की और एक प्रवेशद्वार के साथ परिपक्व हड़प्पा-काल की एक सुरक्षा प्राचीर के साक्ष्य मिले हैं। इसके अलावा खुदाई के दौरान टीले से सुरक्षा चौकी होने के प्रमाण भी मिले हैं। आरजीआर-3 टीला संख्या-2 के पूर्व में स्थित है। यह आकार में अंडाकार और आसपास के मैदानों से 12 मीटर ऊँचा है। आरजीआर-4 और टीला संख्या-5 की बात करें, तो आरजीआर-2 का दक्षिणी भाग टीला संख्या-4 टीला संख्या-5 के साथ सम्मिलित (इंटरलॉक) प्रतीत होता है। आधुनिक गाँव राखी शाहपुर और राखी ख़ास इन्हीं टीलों पर स्थित हैं।

इन टीलों को परिपक्व हड़प्पा-काल की उत्तर दक्षिण दिशा में उन्मुख मार्गों और चबूतरों के संरचनात्मक प्रमाण मिले हैं। हड्डियों से पूर्ण या अर्धनिर्मित हड्डी के जोड़ (बॉन जायंट्स), कंघी, सुई, नक़्क़ाश (इनग्रेवर) के रूप में हड्डी शिल्प और हाथीदाँत शिल्प गतिविधियों के साक्ष्य टीला संख्या-5 से मिले हैं।

आरजीआर-6 टीला संख्या-1 के पूर्व में स्थित है। टीले की ऊँचाई लगभग पाँच मीटर है। इस टीले की ख़ुदार्इ से धूप में सुखायी ईंटों से बने प्रारम्भिक हड़प्पाकालीन गृह परिसरों के साक्ष्य मिले हैं। आरजीआर-7 टीला संख्या-1 के 200 मीटर उत्तर में स्थित है। इसकी खुदाई से क़ब्रिस्तान के प्रमाण मिले हैं। इसके उत्तर-दक्षिण की और 11 शवाधानों के साथ कक्ष में रखे जानी वाली विभिन्न सामग्रियों के प्रमाण मिले हैं। आरजीआर-8 और 9 टीले लगभग 25 हेक्टेयर क्षेत्रफल में स्थित हैं। ये मुख्य स्थल से पूर्व और पश्चिम दिशा में स्थित हैं।

पैरट वॉल

हालाँकि टीला संख्या-1 के चारों तरफ़ चहारदीवारी की गयी है। लेकिन जिस प्रकार हड़प्पा सभ्यता का हिस्सा होने के दावे किये जा रहे हैं, उस लिहाज़ से वहाँ सुरक्षा व्यवस्था चाकचौबंद नहीं है। जानकार राखीगढ़ी को एशिया का महत्त्वपूर्ण स्थल मान रहे हैं। टीला संख्या-4 की पैरट वॉल (दीवार) तो बिल्कुल ही असुरक्षित है। लोग यहाँ से मिट्टी तक खोदकर ले जाते हैं।

यहाँ से निकलने वाले गाँव के कुछ बाशिंदों से इस दीवार के बारे में पूछा गया, तो किसी ने कहा कि पता नहीं, यह पहाड़-सा है। तो किसी ने मुस्कुराकर मुँह फेरा और चलता बना। जो कुछ पर्यटक राखीगढ़ी देखने आते हैं, वे इस दीवार के साथ सेल्फी लेना नहीं भूलते। कहा जा सकता है पैरट वॉल यहाँ का सेल्फी प्वाइंट बन गया है। पुरातत्त्व अध्ययन वाले जानकार 5000 साल पुरानी दीवार को इंग्लिश बॉन्ड भी कहते हैं। शोधकर्ता बलराम कुमार बताते हैं कि इस दीवार में 64 परतें हैं, जो दबी हुई सभ्यताओं की कहानी समेटे हैं।

हिसार क्यों है ख़ास?

राखीगढ़ी हिसार ज़िले में आता है। हिसार फ़ारसी शब्द है, जिसका अर्थ है- क़िला या घेरा होता है। हिसार भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-9 पर दिल्ली से 164 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। फ़िरोज़शाह तुगलक ने सन् 1354 में हिसार नगर की स्थापना की। उसने इस नये नगर हिसार-ए-फ़िरोज़ा को महलों, मस्जिदों, बग़ीचों, नहरों और अन्य इमारतों से सज़ाया था। भौगोलिक स्थिति के अनुसार, यहाँ मौसम ज़्यादातर गर्म और सूखा रहता है। राखीगढ़ी हिसार शहर के उत्तर पश्चिम में 57 किलोमीटर की दूरी पर है। यह गाँव घग्गर-हकरा नदी क्षेत्र में स्थित है, जो कि मौसमी घग्गर नदी से 27 किलोमीटर दूर है।

पंजाब की चुनावी दौड़ में मुख्यमंत्री बनने की होड़

कांग्रेस में अब मुख्यमंत्री के नाम पर दुविधा नहीं रही। पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी ने चरणजीत सिंह चन्नी के नाम की घोषणा से मौज़ूदा अटकलों पर कुछ विराम तो लगेगा; लेकिन भविष्य में असन्तोष का संताप भी समानांतर चलेगा। नवजोत सिद्धू के तेवर से इसे बेहतर समझा जा सकता है। चन्नी के नाम की घोषणा के बाद सिद्धू ने प्रतिक्रिया में कहा कि वह पार्टी में (शो पीस) दिखावे के तौर पर नहीं रहने वाले। माना जा सकता है कि पार्टी में संकट अस्थायी ही है। अगर कांग्रेस सत्ता में वापसी करती है, तो चन्नी के लिए पाँच साल सरकर चलाना तलवार की धार पर चलने जैसा होगा।

आम आदमी पार्टी (आप) भी इससे अछूती नहीं रहेगी। आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जनता का फ़ैसला बताकर भगवंत मान को भावी मुख्यमंत्री के तौर पर रखा है। लेकिन उनके लिए पार्टी में मुश्किलें कम नहीं हैं। कॉमेडियन से सांसद बने मान पंजाब के मुद्दों को शिद्दत से लोकसभा में उठाते रहे हैं। प्रदेश में आम आदमी पार्टी की जड़ें जमाने और इसे मज़बूती देने में उनकी भूमिका अहम रही है। गम्भीर मुद्दों को हँसी-मज़ाक़ में उड़ाने की वजह से आम लोगों में उनकी छवि मज़बूत नेतृत्व प्रदान करने वाली नहीं बन सकी है। एक आदत के आदी होने को लेकर को लेकर भगवंत काफ़ी चर्चा और विवादों में रहे हैं। फ़िलहाल पार्टी पर उनकी पकड़ दिखती है। वह लोगों की पसन्द के तौर पर आगे आये हैं। ऐसे में पार्टी की जीत की सारी ज़िम्मेदारी उनके कन्धों पर है।

रही बात शिरोमणि अकाली दल (शिअद) की, तो वहाँ फ़िलहाल कोई मुश्किल नहीं दिख रही। शिअद का बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबन्धन है; लेकिन उसका कोई विशेष आधार नहीं है। जिन्हें शिअद को परिवार की पार्टी बनाने की शिकायतें थीं, वह इससे किनारा कर चुके हैं। शिअद के अध्यक्ष सुखबीर बादल हैं। लेकिन कई बार राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके उनके पिता प्रकाश सिंह बादल भी मैदान में हैं। उम्र के इस दौर में वह राजनीति में ज़्यादा सक्रिय नहीं हैं। अगर शिअद सत्ता में आती है, तो मुख्यमंत्री पिता-पुत्र दोनों में कोई भी बन सकता है। चुनाव मैदान में पंजाब में सक्रिय किसान संगठन संयुक्त समाज पार्टी भी है। सीपीआई के साथ इसका सीटों का तालमेल है; लेकिन आधार बहुत ज़्यादा मज़बूत नहीं लग रही।

पंजाब में चुनाव लड़ रहे संगठनों से संयुक्त किसान मोर्चा ने किनारा कर लिया है, ऐसे में उनकी स्थिति और भी कमज़ोर हुई है। देखना यह है कि क्या कांग्रेस सत्ता में वापसी कर सकेगी? या आम आदमी पार्टी को पहली बार पंजाब में सत्ता में आने का अवसर मिलेगा है? या इसके इतर क्या मतदाता शिअद को एक बार फिर आजमाएँगे? राज्य में मुख्य तौर पर मुक़ाबला तीन दल (कांग्रेस, आप और शिअद) में माना जा रहा है। लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस, भाजपा और शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) गठबन्धन भी खम ठोक रहा है।

गठबन्धन राजनीतिक समीकरण गड्डमड्ड (घालमेल) कर सकता है। गठबन्धन में मुख्यमंत्री के नाम पर अभी तक चर्चा तक नहीं हुई है। बहुमत के जादुई आँकड़े (59) के लिए गठबन्धन की भूमिका को कम नहीं आँका जा सकता। किसान आन्दोलन ख़त्म होने के बाद शहरी क्षेत्रों में भाजपा का आधार बना हुआ है। शिअद (संयुक्त) का कुछेक क्षेत्रों में असर है। अगर अमरिंदर सिंह की पार्टी कहे मुताबिक, प्रदर्शन कर जाती है, तो समीकरण कुछ भी बन सकते हैं।

कांग्रेस में मुख्यमंत्री के नाम की जल्द-से-जल्द घोषणा के लिए सबसे ज़्यादा उतावले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ही थे। क्योंकि उन्हें पता था कि फ़ैसला उनके और चन्नी के बीच होना है। दावेदारी तो पूर्व प्रदेशाध्यक्ष रह चुके सुनील जाखड़ की भी रही है; लेकिन उन्हें शीर्ष नेतृत्व का आशीर्वाद नहीं था। सिद्धू के मुक़ाबले चन्नी की दावेदारी ज़्यादा मज़बूत नहीं थी; लेकिन पिछले तीन माह के दौरान ऐसा बहुत कुछ घटा, जिससे सिद्धू कमज़ोर हुए।

चन्नी राहुल गाँधी के क़रीबी माने जाते हैं। उनकी वजह से ही चन्नी शिअद सरकार में विपक्ष के नेता और फिर कैप्टन के हटने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर आगे किया गया। भावी मुख्यमंत्री के तौर पर चन्नी के नाम की घोषणा से सिद्धू को निश्चित ही झटका तो लगा; लेकिन मानसिक तौर पर वह इसके लिए पहले से तैयार हो चुके थे। इसका आभास सिद्धू को पार्टी शीर्ष नेतृत्व की राजनीतिक गतिविधियों से भी हो गया था। उन्हें बाहरी राज्यों में स्टार प्रचार के तौर पर जगह नहीं देना इसका सुबूत है। वह अच्छे वक्ता है; लेकिन पार्टी को अन्य राज्यों में उनकी ख़ास ज़रूरत महसूस नहीं हो रही।

पार्टी नेतृत्व उन्हें वाक़र्इ मुख्यमंत्री के तौर पर पहली पसन्द मानती, तो कैप्टन अमरिंदर सिंह के बाद चरणजीत सिंह चन्नी की जगह उन्हें आगे लाया जाता। क्रिकेट की तर्ज पर मानें, तो पहले नाइट वॉचमैन के तौर पर सिद्धू को ही चन्नी की जगह ज़िम्मेदारी दी जाती, उसके बाद का रास्ता तो वह (सिद्धू) ख़ुद ही तय कर लेते। लेकिन पार्टी ने ऐसी किसी स्थिति की नौबत न आने देने की पहले से तैयारी कर ली थी।

कांग्रेस में पार्टी शीर्ष नेतृत्व फ़िलहाल गाँधी परिवार (सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी) तक ही सिमटा है। राहुल गाँधी तो फ़िलहाल पार्टी में किसी भी पद पर नहीं हैं। बावजूद इसके वह पार्टी के लिए मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा कर रहे हैं। सिद्धू इसी गाँधी परिवार की बदौलत सरकार में मंत्री रहते हुए मुख्यमंत्री को जरा भी भाव नहीं देते थे। वह स्थानीय स्वशासन मंत्री के तौर पर नायाब काम कर उदाहरण पेश करना चाहते थे; लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को उनके काम करने का तरीक़ा ही पसन्द नहीं आया। उन्हें दूसरा मंत्रालय देने पर राजी नहीं किया जा सका और तभी से सिद्धू और कैप्टन में 36 का आँकड़ा बना। पार्टी में रहते हुए सिद्धू अमरिंदर सिंह को अपना कैप्टन नहीं, बल्कि गाँधी परिवार को संयुक्त तौर पर कैप्टन मानते रहे हैं। मज़ेदार बात यह कि कैप्टन चाहते हुए भी सिद्धू के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं कर सके।

पंजाब में 32 फ़ीसदी दलित मतदाता हैं; जिसकी हार-जीत में सबसे अहम भूमिका है। ऐसे में चन्नी की दावेदारी पार्टी के लिए सशक्त हो जाती है। पार्टी नेतृत्व पहले ही दलित को मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय लेकर अपनी पीठ थपथपा रहा है। अब उनकी जगह किसी जट्ट सिख की दावेदारी रखता, तो दलित मतदाताओं में इसका नकारात्मक असर होता और पार्टी की रणनीति ही गड़बड़ा जाती। चन्नी ने तीन माह के दौरान कई लोक-लुभावन घोषणाएँ ज़रूर कीं; लेकिन इससे पार्टी को कोई लाभ मिलने की सम्भावना कम ही है।

प्रमुख दलों में भावी मुख्यमंत्री के तौर पर नाम आ चुके हैं। तीनों प्रमुख दल स्पष्ट बहुमत मिलने के दावे ज़रूर करते हैं। लेकिन राज्य में फ़िलहाल किसी के पक्ष में हवा बह रही हो ऐसा कम-से-कम अभी तो आभास नहीं हो रहा। चुनावी सर्वे यहाँ बहुत बार ग़लत साबित होते रहे हैं। राज्य में एक पार्टी की सरकार और सशक्त मुख्यमंत्री की ज़रूरत है। राज्य में अस्थिर सरकार अन्य राज्यों के मुक़ाबले ठीक नहीं। पंजाब की सीमा पाकिस्तान के साथ लगती है। कमज़ोर सरकार और नेतृत्व से न केवल नशा और हथियारों की तस्करी बढ़ेगी, बल्कि आतंकवाद की काली छाया पडऩे की आशंका रहेगी।

“पंजाब के हितों की लड़ाई मैं अकेला नहीं लड़ सकता। इसके लिए पार्टी की एकजुटता ज़रूरी है। शीर्ष नेतृत्व ने मुझ पर भरोसा जताया, मैं उसे टूटने नहीं दूँगा। मैं आम आदमी हूँ और सभी को साथ लेकर चलूँगा। पार्टी में कोई गुटबाज़ी नहीं है। सिद्धू मेरे हमदर्द हैं और मुझे उनका पूरा सहयोग मिलता रहा है, और दोबारा सरकार बनने पर फिर निश्चित तौर पर मिलेगा।’’

चरणजीत सिंह चन्नी

मुख्यमंत्री, पंजाब

 

“केजरीवाल पंजाब में झूठे वादे कर आम आदमी पार्टी को सत्ता में लाने का सपना देख रहे हैं। उन्हें पंजाब की राजनीति की समझ नहीं है। यहाँ का मतदाता झूठे वादों में नहीं आएगा। शिअद-बसपा गठबन्धन मज़बूत स्थिति में है और सत्ता में आएगा। राज्य को कमज़ोर नहीं, बल्कि मज़बूत इरादों वाला मुख्यमंत्री चाहिए।’’

सुखबीर बादल

अध्यक्ष, शिअद

 

“चन्नी हो या सिद्धू दोनों ही काम के नहीं हैं। कांग्रेस का बँटाधार हो गया है। चुनाव नतीजों में यह स्पष्ट हो जाएगा। उनके गठबन्धन को कमज़ोर समझने वाले भ्रम में हैं। उन्हें पूरी उम्मीद है कि नतीजे अप्रत्याशित होंगे।’’

कैप्टन अमरिंदर सिंह

अध्यक्ष, पंजाब लोक कांग्रेस

 

“चन्नी को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करना खनन माफिया को बढ़ावा देने जैसा है। पिछले दिनों उनके क़रीबी रिश्तेदार भूपिंदर सिंह ‘हनी’ से करोड़ों की नक़दी बरामद हुई है। जाँच एजेंसी के हाथ खनन माफिया के साथ हिस्सेदारी के सुबूत हैं। चन्नी के विधानसभा क्षेत्र चमकौर साहिब में ग़ैर-क़ानूनी रेत खनन हो रहा है। जाँच जैसे आगे बढ़ेगी कुछ बड़े नाम सामने आएँगे।’’

भगवंत मान, सांसद

आम आदमी पार्टी