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उत्तर प्रदेश में खिंचा विकास का खाका

विकास न करने के तमाम आरोपों के बाद भी दोबारा सत्ता में आने वाली मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार मार्च में फिर बन चुकी है। अब उसके पास प्रदेश का विकास करने के लिए पूरे पाँच साल हैं। यही कारण है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस बार लोगों को ख़ुश करना चाहते हैं और विपक्ष को ताना कसने का कोई अवसर नहीं देना चाहते। सम्भवत: इसीलिए सरकार के गठन के बाद दूसरे ही महीने में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक एक करके कई योजनाओं की घोषणा कर दी है। इन योजनाओं की फ़ायदा शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक के लोगों को होने वाला है। विकास कार्य करने में लगी योगी सरकार ने अलग-अलग योजनाओं की घोषणा भी कर दी है।

नहरों तथा तालाबों का निर्माण

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत नयी नहरों का निर्माण करायेगी तथा तालाबों व पुरानी नहरों का गहरीकरण व सौंदर्यीकरण का काम कराने में जुट गयी है। इसके अतिरिक्त सरकार मनरेगा पशु बाड़ा निर्माण का कार्य भी तेज़ गति से पूरा कर रही है। महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) में रोज़गार सेवक राजीव ने बताया कि मौज़ूदा योगी सरकार ने ग्रामीण विकास के लिए अच्छे क़दम उठाये हैं। अब गाँवों में पुरानी परम्परा को जीवंत किया जा रहा है। ग्रामीण जीवन में तालाब और नहरों का बड़ा महत्त्व है, क्योंकि कृषि और पशुधन ग्रामीण क्षेणों का सबसे बड़ा व्यवसाय और जीवनयापन का ज़रिया है और इन्हें जीवित रखने के लिए पानी सबसे पहली ज़रूरत है। इसलिए सिंचाई और पशुओं के पीने के लिए, साथ ही बारिश के पानी का संचयन करने के लिए पानी एकत्र करने का सबसे अच्छा माध्यम तालाब ही होते हैं, जिनका पानी साल भर लोगों, पशुओं और कृषि के काम आता है। साथ ही नहरों के बनने से उनमें पानी रहेगा, जो किसानों के लिए बड़ी राहत प्रदान करेगा।

इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना यानी की मनरेगा के तहत 100 दिन में प्रदेश के 600 तालाबों को गहरा करके उनके सौंदर्यीकरण की कार्ययोजना तैयार की है, जिस पर अति शीघ्र  कार्य आरम्भ हो जाएगा। इस प्रकार पूरे एक साल में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत योगी सरकार ने ग्राम विकास विभाग के माध्यम से 15,4,63 तालाबों का गहरीकरण तथा सौंदर्यीकरण कराएगी। राजीव ने बताया कि ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों के गहरीकरण तथा सौंदर्यीकरण की योजना से ग्रामीण श्रमिकों को बड़ी संख्या में काम मिल सकेगा, जिससे उनकी आर्थिक दशा में सुधार होगा।

रोज़गार सेवक राजीव ने बताया कि इस एक उत्तम योजना के माध्यम से पानी के संरक्षण के अतिरिक्त सदुपयोग भी होगा, क्योंकि इस योजना को अमल में लाने का मक़सद नष्ट हो चुके तालाबों, पोखरों को नया जीवनदान देना है। गर्मियों में पशु-पक्षियों के पीने तथा नहाने के लिए अधिक पानी उपलब्ध होगा। भूजल में वृद्धि होगी, जिससे गिरते जलस्तर को रोका जा सकेगा और हरियाली भी बढ़ेगी। रोज़गार सेवक राजीव का कहना है कि योगी सरकार का प्रयास है कि ग्रामीण क्षेत्रों में ख़ुशहाली हो और योजनाओं के माध्यम से सरकार द्वारा संचालित कल्याणकारी योजनाओं को लागू कर सभी ग्रामीणों को रोज़गार उपलब्ध कराकर उनके जीवनस्तर को श्रेष्ठ बनाया जाए। उन्होंने कहा कि योगी सरकार प्रदेश में विकास के कार्यों में लगी है और लगी रहेगी।

विदित हो कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में लगभग सवा नौ हज़ार तालाबों का निर्माण, जीर्णोद्धार तथा सौंदर्यीकरण कराया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश में तालाबों के बनने से पानी की कमी से जूझते ग्रामीण क्षेत्रों को राहत मिली है।

रोगियों को मिलेंगी अच्छी चिकित्सा सुविधाएँ

योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रदेश के रोगियों को अच्छी चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए आयुष्मान योजना को उत्तम करने के लिए कई क़दम उठाये हैं। रोगियों को अच्छी चिकित्सा सुविधाएँ देने के लिए योगी सरकार ने आयुष्मान योजना में जाँच के बजट को भी बढ़ाने का निर्णय लिया है। इस सुविधा के तहत रोगियों की एमआरआई पैट स्कैन तथा रोडियोलॉजिकल जाँचों समेत कई महँगी जाँचें भी नि:शुल्क की जाएँगी। एक निजी अस्पताल के डॉक्टर हरीश का कहना है कि सरकार रोगियों को सुविधाएँ देगी ये तो अच्छी बात है, मगर इससे सरकारी अस्पतालों में रोगियों की भीड़ बढ़ेगी, जो कि पहले से ही बहुत अधिक रहती है। अगर सरकारी अस्पतालों से रोगियों की इस भीड़ को सरकार कम करना चाहती है, तो उसे चाहिए कि वो निजी अस्पतालों को भी काम सौंपे। इस प्रक्रिया में निजी अस्पताल जो भी स्वास्थ्य लाभ रोगियों को दें, उसका भुगतान सरकार सीधे अस्पतालों को कर दे। इससे सरकारी अस्पतालों में भी डॉक्टरों के आसानी होगी और निजी अस्पतालों में रोगियों को अच्छा स्वास्थ्य लाभ मिल जाएगा।

विदित हो कि अभी तक रेडियोलॉजी जैसी एक जाँच के लिए भी रोगी को पाँच हज़ार रुपये ख़र्च करने पड़ते हैं। इसी तरह अन्य जाँचें भी बहुत महँगी होती हैं, जो कि ग़रीब आदमी नहीं करा पाता है। थे। ऐसे में योगी सरकार की नि:शुल्क चिकित्सा सुविधाओं से रोगियों को बड़ी राहत मिलेगी।

वास्तव में आयुष्मान योजना केंद्र सरकार की योजना है, जो कि पिछले कई वर्षों से लागू है। मगर कई प्रदेशों में यह उतनी कारगर सिद्ध नहीं हो पायी, जितनी कि केंद्र सरकार को उम्मीद थी। इसलिए इस बार इस योजना को और ऊँचाई देने के लिए केंद्र सरकार की संस्था राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण ने सभी प्रदेशों को इसका प्रस्ताव भेजा है। इसमें केंद्र सरकार ने शर्त रखी है कि इस योजना का 40 फ़ीसदी ख़र्च प्रदेश की सरकार को ही उठाना होगा। मगर अच्छाई यह है कि इस चिकित्सा योजना के तहत अब लगभग 800 तरह की सुविधाओं की धनराशि में बढ़ोतरी होगी। केंद्र सरकार की आयुष्मान योजना के तहत पंजीकृत रोगी तय धनराशि का इलाज अपनी इच्छानुसार सरकारी तथा निजी अस्पतालों में जहाँ चाहें करा सकते हैं। इसमें रोग के हिसाब से जाँचों का शुल्क खुद ही जुड़ जाएगा, जिसके लिए रोगियों को सीधे अपनी जेब से पैसा ख़र्च करने की आवश्यकता नहीं होगी।

विदित हो कि आयुष्मान योजना से लगभाग छ: करोड़ सदस्य जुड़े हैं। इस योजना के तहत पाँच लाख रुपये के चिकित्सा लाभ तक का प्रावधान है।

स्कूलों की सुधरेगी दशा

शिक्षा व्यवस्था ठीक करने के लिए प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार सरकारी स्कूलों की दशा सुधारेगी। इस बारे में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अधिकारियों के साथ बैठक करके विचार मंथन कर लिया है। अव वे सरकारी स्कूलों के कायाकल्प के लिए भी जुट गये हैं तथा ऑपरेशन कायाकल्प के तहत स्कूलों को स्मार्ट बना रहे हैं। गौंटिया के प्राथमिक विद्यालय के अध्यापक हरीश गंगवार ने बताया कि प्रदेश में विद्यालयों की दशा सुधरने का समाचार पढक़र बहुत ख़ुशी हुई। बच्चे तो देश का भविष्य होते हैं। सरकार वही अच्छी, जो बच्चों का भविष्य सँवारे। इसके लिए मैं प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनकी सरकार को धन्यवाद देना चाहूँगा कि उन्होंने प्रदेश में दुर्दशा की हालत में पहुँचे विद्यालयों की दशा सुधारने का बीड़ा उठाया है।

विदित हो कि योगी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में ऑपरेशन कायाकल्प के माध्यम से प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों का कायाकल्प करने जा रही है। इसके लिए योगी सरकार ने हर तरह की पूरी तैयारियाँ कर ली हैं। अब उत्तर प्रदेश के सभी प्राथमिक विद्यालय देश के विद्यालयों की नाक होंगे, जिनमें बच्चों के लिए शिक्षा की उत्तम व्यवस्थाएँ और अच्छी हालत की मेजें तथा बेंचें होंगी। हाल-फ़िलहाल में योगी सरकार लगभग 30 हज़ार माध्यमिक विद्यालयों के बुनियादी ढाँचे का नवीनीकरण करने का विचार बना रही है। सरकारी सूत्रों की मानें तो सरकारी विद्यालयों में निजी विद्यालयों की तरह ही ऑडियो-वीडियो प्रोजेक्ट के साथ स्मार्ट क्लास रूम बनाये जाएँगे। कहा जा रहा है कि यह विद्यालय इतने अच्छे होंगे कि निजी और कान्वेंट विद्यालयों को टक्कर देंगे। क्योंकि अब सरकारी विद्यालयों में पुस्तकालय, कम्प्यूटर लैबोरेटरी, साइंस लैब, आर्ट रूम के अतिरिक्त वाईफाई की व्यवस्था भी होगी। इसके अतिरिक्त योगी सरकार बच्चों के लिए उत्तम शिक्षा देने की व्यवस्था भी करेगी। बताया जा रहा है कि कई विद्यालयों में तो खेल के मैदान भी बनाये जाएँगे। कई विद्यालयों का कायाकल्प हो भी चुका है। शिक्षा अधिकारियों और प्रकाशित समाचारों की मानें तो जिन सरकारी स्कूलों में अब तक माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते थे, अब उनमें बच्चों की संख्या में तेज़ गति से बढ़ी है।

विदित हो कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वर्ष 2019 में ऑपरेशन कायाकल्प का शुभारम्भ किया था, जिसके तहत प्रदेश के लगभग 1.33 लाख परिषदीय विद्यालयों में पढऩे वाले लगभग 1.64 लाख बच्चों को अत्यधिक आधुनिक परिवेश के साथ स्वच्छ, स्वास्थ्यवर्धक तथा सुरक्षित माहौल देने का प्रयास किया जा रहा है। इस योजना के तहत विद्यालयों का सौंदर्यीकरण तो होगा ही, उनमें बच्चों और अध्यापकों के लिए पीने योग्य पानी,  साफ़-सुथरे शौचालय, स्वच्छ और प्रसन्नचित वातावरण उपलब्ध कराया जाएगा।

विकास न करने के तमाम आरोपों के बाद भी दोबारा सत्ता में आने वाली मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार मार्च में फिर बन चुकी है। अब उसके पास प्रदेश का विकास करने के लिए पूरे पाँच साल हैं। यही कारण है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस बार लोगों को ख़ुश करना चाहते हैं और विपक्ष को ताना कसने का कोई अवसर नहीं देना चाहते। सम्भवत: इसीलिए सरकार के गठन के बाद दूसरे ही महीने में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक एक करके कई योजनाओं की घोषणा कर दी है। इन योजनाओं की फ़ायदा शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक के लोगों को होने वाला है। विकास कार्य करने में लगी योगी सरकार ने अलग-अलग योजनाओं की घोषणा भी कर दी है।

पीछा नहीं छोड़ रहा कोरोना

देश भर में कोरोना को फैलने से रोकने के लिए मास्क और दो गज़ की दूरी वाली पाबंदियाँ ये सोचकर हटा दी गयी थीं कि अब कोरोना संक्रमण नहीं बढ़ेगा। लेकिन सच्चाई यह है कि जब पाबंदियों को हटाया गया था, तब भी देश में कोरोना के मामले आ रहे थे। जैसे ही पाबंदियाँ हटीं, मामले फिर बढऩे लगे।

विशेषज्ञों का कहना है कि कोई भी संक्रमित बीमारी आसानी से नहीं जाती। ऐसे में पाबंदियों के हटाये जाने से संक्रमण का बढऩा स्वाभाविक था। दिल्ली से सटे राज्य हरियाणा और उत्तर प्रदेश में जिस तरह से कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, वो चिन्ता बढ़ाने वाले हैं। जाहिर है महामारी अभी ख़त्म नहीं हुई है, इसलिए सतर्क रहने की ज़रूरत है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना को लेकर लापरवाही घातक हो सकती है। कोरोना की चौथी लहर को लेकर आईआईटी शोध कानपुर का दावा कर चुकी है कि जून-जुलाई के महीने में कोरोना कहर बरपा सकता है। ऐसे में क्या बचाव किये जाएँ, जिससे कोरोना से बचा जा सके?

दिल्ली स्टेट प्रोग्राम ऑफिसर (एनसीसीएचएच) के डॉक्टर भरत सागर का कहना है कि जिस तरीक़े से शनै:-शनै: कोरोना के मामले दिल्ली-एनसीआर में बढ़ रहे हैं, वे चिन्ता ज़रूर बढ़ाने वाले हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि चौथी लहर आ चुकी है। इतना ज़रूर है कि कोरोना का प्रकोप बढ़ रहा है। ऐसे में हमें कोरोना से बचाव के दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए सामाजिक और शैक्षणिक के साथ आर्थिक गतिविधियों को सुचारू रखना चाहिए, अन्यथा लोगों में भय का माहौल बनेगा और कोरोना के डर से लोग फिर से बीमार पडऩे लगेंगे। डॉक्टर भरत सागर का कहना है कि स्वास्थ्य महकमे को कोरोना जैसी बीमारी से निपटने के लिए अभी से तैयार रहना चाहिए। 31 मार्च, 2022 को जब कोरोना के मामले कम होने पर मास्क लगाने से आजादी मिली थी। उसके 10 बाद ही कोरोना के मामले बढऩे लगे थे। 18 अप्रैल से दिल्ली-एनसीआर में हर दिन 1,000 से ज़्यादा मामले आने लगे। इससे यह साबित हो गया है कि कोरोना को लेकर बरती गयी ढील हमें मुसीबत में डाल सकती है।

साकेत मैक्स के कैथ लैब के डायरेक्टर व हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि देश में हृदय रोगी के साथ-साथ दमा रोगी बहुत हैं। अगर उसको कोरोना होता है, तो मुश्किल होगी। इसलिए उन्हें विशेषतौर पर सावधानी बरतनी होगी। कोरोना के नये-नये स्वरूपों से हमें यह पता चला है कि कोरोना का कहर जब भी आता है और इसकी रफ्तार बढ़ती है, तब दो से तीन सप्ताह तक मामले बढ़ते हैं। फिर एक-दो सप्ताह में कोरोना के मामले कम होने लगते हैं। इसलिए कोरोना के मामले मई के पहले सप्ताह तक कम हो सकते हैं।

अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (एम्स) के डॉक्टर आलोक कुमार का कहना है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक, 21 अप्रैल से कोरोना के प्रतिदिन 2,000 से ज़्यादा नये मामले आ रहे हैं। अब तक कोरोना से संक्रमित होने वालों की कुल संख्या बढक़र 4,30,54,952 हो गयी है। जबकि उपचाराधीन रोगियों की संख्या 15,079 और कोरोना से मरने वालों की संख्या 23 अप्रैल, 2022 तक बढक़र 5,22,149 तक पहुँच गयी है। डॉक्टर आलोक का कहना है कि अब कोरोना का ग्राफ फिर बढ़ रहा है। लेकिन इससे घबराने की नहीं, बल्कि सतर्क रहने की ज़रूरत है। अगर डॉक्टरों, स्वास्थ्यकर्मियों के साथ-साथ आम नागरिक सतर्क रहते हैं, तो निश्चित तौर पर कोरोना पर काबू पाया जा सकता है। उनका कहना है कि अब तक कोरोना के ओमिक्रॉन, बीए1, बीए2 और एक्स-ई जैसे कई स्वरूप सामने आये हैं। भारत में ओमिक्रॉन और इसकी उपवंश बीए.1 बीए.2 और एक्सई बीए.1 और बीए.2 का मिश्रण है। उनका कहना है कि कोरोना महामारी को लेकर देश में तमाम तरह से अफ़वाहों का दौर चलता है। कोई कहता है कि आने वाला कोरोना बच्चों के लिए घातक है, तो कोई कहता है कि इस बार का कोरोना सीधे हृदय पर अटैक करेगा। इन बातों पर ग़ौर न करें, बस सावधानी बरतें। बुख़ार, खाँसी और घबराहट होने पर योग्य डॉक्टर से इलाज करवाएँ।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि गत दो वर्षों से ख़ासतौर पर स्वास्थ्य विशेषज्ञों को यह पता चल चुका है कि कोरोना का वायरस हमारे साथ हमेशा रहेगा। इसका नतीजा यह होगा कि आने वाले समय में नियमित अतंराल में कोरोना के मामलों में उतार-चढ़ाव देखने को मिलेंगे। ऐसे में हमें चिन्ता इस बात पर करनी होगी कि कैसे कोरोना के रोगी को तत्काल उपचार मिल सके। समय पर लोगों को कोरोना के टीके लगने चाहिए। बूस्टर डोज भी नि:शुल्क होनी चाहिए। डॉक्टर अनिल बंसल का मानना है कि देश की स्वास्थ्य प्रणाली शहरों में तो मज़बूत है, लोगों की जाँच भी हो जाती है और जल्द ही पता चल जाता है कि उनमें से किसे कोरोना है और किसे नहीं है। लेकिन गाँवों में स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह लचर है, जिसके कारण कोरोना के सही आँकड़े सामने नहीं आ पाते हैं। इससे रोगी स्वस्थ लोगों में संक्रमण फैला देता है और इस तरह कोरोना बढ़ता रहता है।

दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन (डीएमए) के अध्यक्ष डॉक्टर अश्विनी डालमिया का कहना है कि कोरोना को लेकर तरह–तरह की भ्रान्तियाँ फैलायी जा रही हैं। जबकि दिल्ली में अभी मिश्रित वेरिएंट यानी डेल्टा, ओमिक्रॉन आदि है। इनके सब-वेरिएंट भी हैं। ऐसे में दिल्ली में पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि कौन-सा वेरिएंट है। डॉक्टर डालमिया का कहना है कि कुछ स्वार्थी तत्व यह माहौल बनाने में लगे हैं कि कोरोना बढ़ रहा है, जो पहले ज़्यादा कहर बरपायेगा। इस तरह वे ज़ोर-शोर से हल्ला कर रहे हैं। जबकि कोरोना के मामले बढऩा अलग बात है। बात अगर महत्त्वपूर्ण है, तो यह है कि अस्पतालों में कितने मरीज़ भर्ती हैं। दिल्ली में कोरोना के इने-गिने लोग ही भर्ती हैं। उनका पर्याप्त उरचार हो रहा है।

बताते चलें कोरोना को लेकर और नये वेरिएंट एक्स-ई को लेकर दिल्ली सहित पूरे देश में जो माहौल बना है या बनाया गया है, वह लालची लोगों की साज़िश का हिस्सा है। सच यह है कि एक्स-ई वेरिएंट का कोई मामला अभी तक सामने नहीं आया है। डॉक्टर राजीव गर्ग का कहना है कि एक्स-ई वेरिएंट जितना ख़तरनाक बताया जा रहा है, उतना है नहीं। क्योंकि अभी तक देश में एक्स-ई वेरिएंट की कोई पुष्टि नहीं हुई है।

डॉक्टर राजीव गर्ग का कहना है कि कोरोना के नये-नये स्वरूप तो आते-जाते रहेंगे। ऐसे में अगर कोरोना से बचाव मास्क से होगा। भीड़-भाड़ वाली जगह पर जाएँ, तो मास्क ज़रूर लगाएँ। साथ ही जिन्होंने कोरोना टीके नहीं लगवाये हैं, वे देर न करें। अगर बूस्टर डोज की ज़रूरत हो, तो ज़रूर लगवा लें। क्योंकि सावधानी में ही सुरक्षा है।

डॉक्टर राजीव गर्ग का कहना है कि कोरोना के मामले बढऩे के बीच राहत की बात यह है कि अस्पतालों में भर्ती होने वाले कोरोना से पीडि़त रोगियों की संख्या बहुत कम है। मतलब साफ़ है कि कोरोना क़ाबू में है। समस्या यह है कि कोरोना को लेकर लोगों में जागरूकता तो बढ़ी है; लेकिन कुछ लोग लापरवाही बरतने से बाज़ नहीं आ रहे हैं, जिससे कोरोना के मामले बार-बार बढऩे लगते हैं। ऐसे में बचाव के तौर पर ‘दो गज़ की दूरी और मास्क है ज़रूरी’ की राह पर ही चलना होगा।

अस्पतालों में लापरवाही

कोरोना को लेकर चौकाने वाली बात तो यह है कि सरकारी और निजी अस्पतालों में आधे से ज़्यादा डॉक्टर और पैरामेडिकल कर्मचारी ख़ुद बिना मास्क के देखे जा सकते हैं। अस्पतालों में इस प्रकार का दृश्य इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि कोरोना को लेकर न घबराएँ, न ही चिन्ता करें। लेकिन डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की इस लापरवाही का नतीजा यह है कि अस्पताल में इलाज कराने आने वाले और इलाज कराकर जाने वाले बहुत-से लोग मास्क लगाने कतराने लगते हैं। दिल्ली में मास्क कोरोना के डर से नहीं, बल्कि चालान न कट जाए, इसलिए लोग मास्क लगाते हैं। दिक़्क़त यह है कि दिल्ली से सटे कुछ राज्यों में मास्क कोई भी नहीं लगाता है। इन राज्यों से हर रोज़ हज़ारों लोग दिल्ली आते-जाते हैं। इसलिए कोरोना पीछा नहीं छोड़ रहा है।

पश्चिम के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे एशियाई देश

भारत के साथ रिश्तों को लेकर सबकी नज़र पाकिस्तान पर

यह अप्रैल के दूसरे हफ़्ते की बात है। पाकिस्तान में शहबाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में विपक्षी दलों की गठबंधन सरकार बने एक हफ़्ता हुआ था। अमेरिका ने शहबाज़ को प्रधानमंत्री बनने की बधाई दे दी थी। यह इसलिए भी अहम था, क्योंकि सत्ता से बाहर होने वाले इमरान ख़ान ने अपनी सरकार गिरने की पीछे अमेरिका का हाथ होने का आरोप लगाया था। शहबाज़ अपने बयानों से इमरान के अमेरिका विरोधी रुख़ के ख़िलाफ़ दिख रहे थे, क्योंकि सेना भी इमरान ख़ान के इस बयान को नकार चुकी थी। लेकिन सत्ता में आने के एक हफ़्ते में ही अमेरिका के बधाई स्वीकार करने के दौरान शहबाज़ और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच गुपचुप पत्राचार हुआ, जिसमें पुतिन ने शहबाज़ को प्रधानमंत्री बनने पर बधाई दी और दोनों देशों के बीच सहयोग मज़बूत करने की बातें हुईं। इस पत्राचार को मीडिया से छिपाया गया। तो क्या इमरान ख़ान के अमेरिका के प्रति रुख़ को शहबाज़ भी आगे बढ़ा रहे हैं, क्योंकि वह रूस को नाराज़ नहीं रखना चाहते।

आने वाले समय में इस्लामाबाद की इस नयी नीति के नतीजों का पता चलेगा; क्योंकि भारत के साथ उसके द्विपक्षीय रिश्तों का बहुत कुछ दारोमदार इस पर निर्भर करता है कि उसके रिश्ते एशिया में किन देशों से और कैसे हैं? माना जा रहा है कि भारत यूक्रेन युद्ध के दौरान रूस के और नज़दीक आया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या एशियाई देश अमेरिका और पश्चिम के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं? अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगा। चीन, जो कमोवेश खुले रूप से रूस के साथ खड़ा दिख रहा है; ने भी हाल में अमेरिका के ख़िलाफ़ खड़े होने का एशियाई देशों का कुछ ऐसा ही आह्वान किया था।

यहाँ एक बड़ा सवाल यह है कि क्या रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद दुनिया एक नयी विश्व-व्यवस्था में ढल रही है? यह भी कि क्या काफ़ी एशियाई देश अमेरिका और पश्चिम के ख़िलाफ़ एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं? बहुत-से देश यह मानते हैं कि हाल के दशकों में अमेरिका ने उन्हें अपने हिसाब से हाँकने की कोशिश की है। जब-तब वह इन देशों को हडक़ाता रहता है। इमरान ख़ान ने भी सत्ता के आख़िरी दिनों में कुछ ऐसे ही आरोप लगाये थे और कहा था कि कोई भी ख़ुद्दार देश ऐसी स्थिति ख़ुशी से स्वीकार नहीं कर सकता। इसके लिए इमरान ने ख़ासतौर पर भारत का उदाहरण देते हुए कहा था कि हमारे पड़ोसी देश से अमेरिका उस तरीक़े से पेश नहीं आ सकता, जैसे वह पाकिस्तान को हाँकता है। हालाँकि सच यह है कि रूस के साथ रिश्तों को लेकर अमेरिका ने भारत को भी ख़ूब आँखें दिखायी हैं।

रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक स्तर पर स्थितियों को काफ़ी बदला है। ऐसा नहीं है कि पूरा एशिया ही अमेरिका के ख़िलाफ़ खड़ा हो गया है; लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त देखें, तो देशों के नज़रिये में काफ़ी बदलाव आया है। प्राचीन समय को याद करें, तो ज़ाहिर होता है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद और शीत युद्ध के दौरान भी खुले रूप से दुनिया दो ख़ेमों में बँट गयी थी। उस समय भी दुनिया के एक हिस्से का नेतृत्व अमेरिका तो दूसरे का तत्कालीन सोवियत संघ कर रहा था। यहाँ यह भी ग़ौरतलब है कि दूसरे विश्व युद्ध के चार साल बाद सन् 1949 में नाटो अर्थात् नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन का गठन हुआ था। अमेरिका के नेतृत्व में कनाडा और अन्य पश्चिमी देश इसके गठन के पीछे थे। नाटो के उस समय कुल जमा एक दर्ज़न सदस्य थे, जो आज 30 हो चुके हैं।

यूक्रेन भले नाटो सदस्य न हो; लेकिन उसे रूस के ख़िलाफ़ युद्ध में अमेरिका और उसके सहयोगियों से भरपूर मदद मिली है। वैसे नाटो का जब गठन हुआ था, तो यह तय किया गया था कि उत्तरी अमेरिका या यूरोप के इन देशों में से किसी एक पर भी हमले को संगठन में शामिल सभी देश अपने ऊपर हमला मानेंगे और एक दूसरे की मदद करेंगे। हालाँकि 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हो गया, तो वैश्विक परिदृश्य भी बदल गया। दरअसल सोवियत संघ का विघटन ही नाटो के जन्म की असल वजह थी।

पुतिन ने यूक्रेन के बहाने अमेरिका के नेतृत्व को पहली बार चुनौती नहीं दी है। इससे पहले अमेरिका की एकध्रुवीय शक्ति को रूस ने सीरिया में भी चुनौती दी थी। तब अमेरिका लाख कोशिश करके भी रूस की कोशिश को नाकाम नहीं कर पाया था, न सीरिया में वह बशर अल-असद को सत्ता से बाहर कर पाया था और उसे सीरिया से निराश होकर लौटना पड़ा था। रूस ने यूक्रेन युद्ध से पहले ही दूसरे देशों को अपने साथ जोडऩा शुरू कर दिया था। यहाँ तक कि हाल के महीनों में रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भारत का भी दौरा किया था।

यह ठीक है कि अभी दुनिया शीत युद्ध के समय की तरह पूरी तरह दो ध्रुवीय नहीं हुई है; लेकिन बढ़ उसी तरफ़ रही है। हाल के दिनों में भारत जैसा देश, जो कुछ महीने पहले तक पूरी तरह अमेरिका के साथ दिखता था; अब रूस के नज़दीक दिख रहा है और अमेरिका इसके लिए उसे (भारत) को आँखें दिखा रहा है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की 23 अप्रैल की भारत यात्रा को इसी क्रम में देखा जा सकता है। विशेषज्ञ यह मानते हैं कि जॉनसन की भारत यात्रा एक तरह से उसे (भारत को) अमेरिकी ब्लॉक में बनाये रखने की भी क़वायद थी।

पाकिस्तान का इमरान ख़ान के सत्ता काल में खुले रूप से अमेरिका के ख़िलाफ़ होना इस बात का संकेत है कि अमेरिका एशिया में अपने सहयोगी खो रहा है। अब जिस तरह शहबाज़ शरीफ़ और पुतिन के बीच पत्र का आदान-प्रदान हुआ है और इसे जिस तरह मीडिया से छिपाकर रखा गया, उससे ज़ाहिर होता है कि पाकिस्तान अमेरिका के साथ बने रहने के लिए रूस को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहता। चीन ने जिस तरह खुलकर रूस का साथ दिया है, उससे पाकिस्तान जैसे देशों पर भी दबाव बनना स्वाभाविक है।

 

रूस के नज़दीक कौन?

एशिया में ही चीन, भारत जैसे देश रूस-यूक्रेन युद्ध के मामले में तटस्थ दिखे हैं। अर्थात् उन्होंने रूस का विरोध नहीं किया है। अमेरिका का भारत पर दबाव बनाना ज़ाहिर करता है कि उसे भारत का रूस के साथ इस तरह जाना जँच नहीं रहा। इसके अलावा शिया मुस्लिम बहुल ईरान, जो मध्य पूर्व में पश्चिम एशिया का देश है; के अमेरिका से सन् 1979 की इस्लामिक क्रान्ति के समय से ख़राब सम्बन्ध हैं। रूस से ईरान के फ़िलहाल अच्छे सम्बन्ध हैं।

हाल में ईरान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सईद ख़ातिबज़ादेह ने कहा था कि इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान सभी पक्षों से धैर्य की अपेक्षा करता है। किसी भी तरह के तनाव बढ़ाने वाले क़दम से परहेज़ करना चाहिए। सभी पक्ष संवाद के ज़रिये अपने मतभेदों को सुलझा सकते हैं। हालाँकि उन्होंने जो महत्त्वपूर्ण बात कही वह यह थी दुर्भाग्य से अमेरिका ने नाटो के हस्तक्षेप और उकसाऊ क़दम से इलाक़े की स्थिति को जटिल बना दिया है।

तुर्की, जिसकी बहुसंख्यक आबादी मुसलमान है; के सम्बन्ध भी हाल के महीनों में अमेरिका से तल्ख़ हुए हैं। तुर्की, जिसकी सीमा एशिया और पश्चिम दोनों से जुड़ती है; नाटो का सदस्य भी है। नाटो के सदस्य के नाते तुर्की यूक्रेन पर रूसी हमले का समर्थक भले नहीं रहा है। लेकिन उसके राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन उस समय से अमेरिका से ख़फ़ा रहे हैं, जब उसने तुर्की पर रूस से एस-400 मिसाइल सिस्टम लेने कारण प्रतिबंध लगा दिया था। विशेषज्ञ मानते हैं कि जो बाइडन के सत्ता में आने के बाद तो तुर्की के अमेरिका से सम्बन्ध ख़राब हुए हैं। अर्दोआन के बारे में मशहूर है कि जब भी वे अमेरिका से ख़फ़ा होते हैं, तो पुतिन के पास पहुँच जाते हैं।

इसी तरह पश्चिम एशिया का एक और देश संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने युद्ध को लेकर कभी यह नहीं कहा कि रूस ने यूक्रेन की सम्प्रभुता का उल्लंघन किया है। उसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में यूक्रेन के मुद्दे को कूटनीतिक वार्ता से सुलझाने की अपील की थी। युद्ध के दौरान यूएई के विदेश मंत्री रूस के अपने समकक्ष से फोन पर बात करते रहे हैं। दोनों अपने सम्बन्धों को और मज़बूत करने पर ज़ोर देते रहे हैं।

दरअसल अमेरिका और सऊदी अरब के रिश्ते पहले जैसे नहीं रहे हैं। हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सऊदी अरब से तेल का उत्पादन बढ़ाने का आग्रह किया था। सऊदी ऐसा करता, तो महँगाई और गैस की क़ीमत कम करने में मदद मिलती और इससे रूस के तेल से होने वाले फ़ायदे को रोका या कम किया जा सकता था; लेकिन सऊदी अरब ने अमेरिका की बात नहीं मानी थी। क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के मज़बूत होने से सऊदी-रूस सम्बन्ध और मज़बूत हुए हैं। हाल के वर्षों में पुतिन और क्राउन प्रिंस की कई बैठकें हुई हैं।

चीन रूस की ही तरह नाटो का विस्तार नहीं चाहता। बीजिंग विंटर ओलंपिक के उद्घाटन पर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन जब फरवरी में चीन गये थे, तब एक साझे बयान में चीन ने नाटो के विस्तार पर आपत्ति जतायी थी। यूक्रेन युद्ध के दौरान जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की बैठक हुई, तो चीन के राजदूत ने कहा था कि मौज़ूदा स्थिति कई जटिल कारणों की वजह से है। चीन ने कहा था कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर के तहत सभी देशों को शान्तिपूर्ण माध्यमों से अंतरराष्ट्रीय विवादों का हल निकालना चाहिए। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि जिस तरह पश्चिमी देशों के रूस पर प्रतिबंध बढ़े हैं, सम्भवत: चीन उसकी मदद करेगा। वैश्विक राजनीति को देखें तो साफ़ है कि चीन-रूस मिलकर अमेरिका को चुनौती दे रहे हैं।

यदि मध्य और पूर्वी यूरोप की बात करें, तो रोमानिया, बुल्गारिया, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया, लात्विया, एस्टोनिया और लिथुआनिया 2004 में जबकि क्रोएशिया और अल्बानिया 2009 में नाटो में शामिल हो गये थे। इससे पहले जॉर्जिया और यूक्रेन को साल 2008 में नाटो की सदस्यता मिलने वाली थी; लेकिन आज तक दोनों नाटो में नहीं हैं। यूक्रेन को लेकर रूस का सबसे ज़्यादा ग़ुस्सा यही रहा है कि वह नाटो में शामिल होना चाहता है। रूस इसका जबरदस्त विरोध करता रहा है।

इनमें से क्रोएशिया की बात करें, तो नाटो में होने के बावजूद यूक्रेन पर उसका रुख़ नाटो से मेल नहीं खाता। क्रोएशिया के राष्ट्रपति ज़ोरान मिलानोविक ने युद्ध से पहले ही कह दिया था कि यदि रूस के साथ संघर्ष छिड़ा, तो वह यूक्रेन से अपनी सेना वापस बुला लेगा और उसने ऐसा ही किया। क्रोएशिया ने कहा था कि रूस की सुरक्षा चिन्ताओं का ख़याल रखना चाहिए। अज़रबैजान भी रूस के साथ खड़ा दिखा है। युद्ध से ऐन पहले उसके राष्ट्रपति रूस के दौरे पर थे और उस दौरान उन्होंने अलाई डिक्लेरेशन पर दस्तख़त किये थे।

 

भारत और पाकिस्तान

जहाँ तक भारत की बात है, दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था होने के कारण उसके लिए भले रूस या अमेरिका में किसी एक का खुलकर पक्ष लेना मुश्किल है। हालाँकि हाल के हफ़्तों में रूस के प्रति भारत का रुख़ समर्थक जैसा दिखा है, भले उसने कहा है कि रूस-यूक्रेन युद्ध का हल बातचीत से होना चाहिए। अमेरिका के भारत पर दबाव बनाने के बावजूद भारत ने रूस के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा है और सस्ते तेल निर्यात के रूस के ऑफर को भी स्वीकार किया है।

अब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के रूस के राष्ट्रपति के साथ गुपचुप के पत्र व्यवहार के बाद यह सवाल उठ रहा है कि क्या इमरान ख़ान का अमेरिका को लेकर जो स्टैंड आख़िरी दिनों में बना था; शहबाज़ सरकार काफ़ी हद तक उसी पर चलना चाह रही है। यदि ऐसा है तो यह अमेरिका के लिए बड़ा झटका होगा, क्योंकि पाकिस्तान अमेरिका का दशकों से दक्षिण एशिया में सबसे विश्वस्त सहयोगी रहा है। यह मान्यता रही है कि अमेरिका का कोई भी बड़ा अधिकारी जब भारत के दौरे पर आता है, तो वह साथ ही पाकिस्तान भी ज़रूर जाता है।

भारत को हाल के वर्षों में गुटनिरपेक्ष नीति पर चलने वाला वैसा मज़बूत देश नहीं कहा जा सकता, जैसा वह पहले रहा है। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने जैसा व्यक्तिगत रिश्ता बनाया और उनके चुनाव के समय जिस तरह उनके साथ खड़े दिखे उसकी कांग्रेस पार्टी काफ़ी आलोचना करती रही है और उसका आरोप रहा है कि भारत अपनी गुटनिरपेक्ष नीति से बाहर जा रहा है। हालाँकि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने ऐसी कई नीतिगत चीजें की हैं, जो परम्परा से हटकर रही हैं। विपक्ष, ख़ासकर कांग्रेस इसकी कटु आलोचना करती रही है।

हाल में पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर दोनों देशों के बीच सार्थक सम्बन्धों की वकालत की। प्रधानमंत्री मोदी ने शहबाज़ शरीफ़ से कहा था कि भारत अपने पड़ोसी पाकिस्तान के साथ रचनात्मक सम्बन्ध का इच्छुक है। जवाब में शहबाज़ शरीफ़ ने कहा कि पाकिस्तान, भारत के साथ शान्तिपूर्ण और सहयोगात्मक सम्बन्ध चाहता है। पाकिस्तान, भारत के साथ शान्तिपूर्ण और सहयोगात्मक सम्बन्ध का इच्छुक है। जम्मू और कश्मीर सहित बक़ाया विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान अपरिहार्य है। आतंकवाद से संघर्ष में पाकिस्तान का बलिदान भी जगज़ाहिर है। आइये, शान्ति स्थापित करें और अपने लोगों के सामाजिक-आर्थिक विकास पर ध्यान दें!

 

पाकिस्तान की स्थिति

पकिस्तान में नयी सरकार बनने के बाद भारत से उसके रिश्तों पर सबकी नज़र है। यह तो नहीं होगा कि सीधे कूटनीतिक स्तर पर कोई बड़ा घटनाक्रम हो। लेकिन सांस्कृतिक, खेल और व्यापारिक (कॉमर्स) स्तर से रिश्तों की बहाली पर काम शुरू हो सकता है। अब देखना यह होगा कि विदेश मंत्री बनने के बाद बिलावल भुट्टो क्या करते हैं? क्योंकि उनकी पार्टी पीपीपी की विदेश नीति प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ की पार्टी पीएमएलएन से भिन्न रही है। हालाँकि पाकिस्तान में विदेशी रिश्तों को लेकर सेना का हस्तक्षेप रहता है, यह माना जाता है कि पाकिस्तान में सेना का रुख़ हाल के कुछ वर्षों में बदला है। हाल में पाकिस्तान की कोर्ट ने भारत की तरफ़ से मोस्ट वांटेड हाफ़िज़ सईद को 31 साल की जेल की सज़ा सुनायी गयी है और उसकी सम्पत्ति ज़ब्त करने के आदेश भी हुए हैं। जानकार इसे सेना के भारत के साथ रिश्तों को बेहतर करने की दिशा में एक कोशिश के रूप में देखते हैं। यह तय है कि भारत का रुख़ आतंकवाद को लेकर सख़्त रहेगा। ऐसे में सईद को जेल की सज़ा को सेना के भारत के साथ रिश्ते सुधारने की दिशा में भी देखा जा सकता है। यह तो तय है कि पाकिस्तान के साथ इतने साल के तनाव के बाद सीधे कश्मीर, सियाचिन, सर क्रीक जैसे वृहद आकार के मसलों पर बातचीत नहीं हो सकती। यह माना जाता है कि हाल के महीनों में भारत और पाकिस्तान के बीच बैकडोर चैनल्स के ज़रिये बातचीत हुई है। जानकार मानते हैं कि पाकिस्तान की भारत किसी भी तरह की कोई सक्रियता पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के पाकिस्तान लौटने के बाद ही दिखेगी, जिनके बारे में कहा जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनके अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। पाकिस्तान में भीतरी विसंगतियाँ भी हैं। गठबंधन सरकार के बीच इमरान ख़ान के विरोध को छोड़ दें, तो आपसे सम्बन्धों में सौ पेच हैं। ऐसे में देखना होगा कि आने वाले दिनों में शुरुआती स्तर पर क्या होता है?

कौन बनेगा सेनापति?

पाकिस्तान में सेना की भूमिका सबको पता है। भारत के साथ रिश्तों में सेना की प्रमुख भूमिका रहेगी। ऐसे में देखना होगा कि जनरल क़मर जावेद बाजवा, जो नवंबर में रिटायर होने वाले हैं; उन्हें दूसरी बार सेवा विस्तार मिलता है या उनकी जगह नया सेनाध्यक्ष आता है? बाजवा 29 नवंबर को अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगे। उन्हें नवाज़ शरीफ़ ने सेना प्रमुख नियुक्त किया था। बाद में उनके रिश्तों में दरार आ गयी। ऐसे में कम सम्भावना है कि बाजवा को सेवा विस्तार मिलेगा। नये आर्मी चीफ की दौड़ में लेफ्टिनेंट जनरल साहिर शमशाद मिर्जा, अजहर अब्बास, नौमान महमूद राजा और फ़ैज़ हमीद माने जाते हैं। ये सैन्य अधिकारी पाकिस्तानी सेना की अलग-अलग कोर की कमान के प्रमुख हैं। लेफ्टिनेंट जनरल साहिर शमशाद मिर्जा बाजवा के रिटायर होने के बाद पाकिस्तानी सेना में सबसे वरिष्ठतम सेवारत अधिकारी होंगे। उन्हें विनम्र और निर्विवाद अधिकारी माना जाता है। उनके अलावा लेफ्टिनेंट जनरल अजहर अब्बास इस समय जीएचक्यू में चीफ ऑफ जनरल स्टाफ (सीजीएस) हैं। वे संयुक्त स्टाफ मुख्यालय के डायरेक्टर जनरल रह चुके हैं। तीसरे लेफ्टिनेंट जनरल नौमान महमूद राजा हैं, जो नवंबर, 2021 से पाकिस्तान के नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी (एनडीयू) के अध्यक्ष हैं। चौथे लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद इस समय पेशावर में 11वीं कोर के कमांडर हैं। वह जून, 2019 से अक्टूबर, 2021 तक पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के डायरेक्टर जनरल और जनरल बाजवा के चीफ ऑफ स्टाफ रह चुके हैं।

भोजपुरी एवं राजस्थानी, संवैधानिक सम्मान का संघर्ष

भाषा संस्कृति की नींव है। भाषा सदैव दोतरफ़ा ज़िम्मेदारी का निर्वहन करती है। एक तरफ़ वह समाज में संचार एवं अभिव्यक्ति का माध्यम है, तो दूसरी तरफ़ संस्कृति की प्रवक्ता भी होती है। भारत में भाषाओं के संवैधानिक अधिकारों की माँग बौद्धिक से अधिक राजनीतिक विमर्श का हिस्सा रही है। चूँकि भाषा का प्रश्न किसी समाज के लिए अति संवेदनशील मुद्दा रहा है, अत: राजनीति को इसमें हमेशा अपने लिए सम्भावना नज़र आती है। भोजपुरी और राजस्थानी दो ऐसी भाषाएँ हैं, जिन्हें लम्बे समय से माँग के बावजूद अब तक संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिल पायी है।

काफ़ी समय से इसकी माँग विभिन्न संगठन और जनप्रतिनिधियों द्वारा की जाती रही है। किन्तु पिछले दिनों संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने फिर से इन दोनों भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की माँग उठायी। राजस्थान विधानसभा में शिक्षा मंत्री बी.डी. कल्ला ने राजस्थानी भाषा के लिए एवं दूसरी तरफ़ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (21 फरवरी) के मौक़े पर भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता देने का मुद्दा उठाया। ये माँगें लगभग एक ही समय पर आयी हैं। अब इसके दो पहलू हो सकते हैं। पहला यह कि क्या ये सरकारें वास्तव में इन भाषाओं की उन्नति के लिए प्रयासरत हैं? और दूसरा यह कि आसन्न राजस्थान विधानसभा चुनाव को लेकर गहलोत सरकार का महज़ भावनात्मक गोलबंदी का प्रयास है? अथवा इसी तरह निरंतर प्रशासन को लेकर आलोचनाओं का सामना कर रहे नीतीश कुमार भी एक भावुक घोषणा कर संवेदना बटोरने में लगे थे?

भारत में भाषायी अस्मिता का संघर्ष बहुत पुराना है। भोजपुरी तो क़रीब पाँच दशक से यह लड़ाई लड़ रही है। सडक़ से लेकर संसद तक अपनी इस माँग को लेकर भोजपुरी भाषियों ने अपनी आवाज़ रखी है। सर्वप्रथम कॉमरेड भोगेंद्र झा इस माँग को लेकर सन् 1969 में प्राइवेट मेंबर बिल लेकर आये थे। तबसे अब तक संसद में इसे लेकर 18 निजी बिल आ चुके हैं। इसके अलावा कई बार ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के माध्यम से भी और शून्यकाल के दौरान भी इस मुद्दे को सदन में उठाया जा चुका है, पिछली कई सरकारों की ओर से आश्वासन दिया गया; लेकिन कभी बोली और भाषा के भेद का तर्क देकर तो कभी नियमों की अस्पष्टता का हवाला देकर इस माँग को पूरा नहीं किया गया। यानी बात आश्वासन तक रही, नतीजा सिफ़त रहा।

देश में अगर किसी भाषा के संवैधानिक अधिकारों की माँग सबसे सार्थक है, तो वह भोजपुरी की ही है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, बंगाल आदि राज्यों में 14 करोड़ लोग, चार करोड़ लोग देश के अहिन्दी भाषी शहरों- चेन्नई, बेंगलूरु, हैदराबाद, गुवाहटी आदि में और चार करोड़ दुनिया के दूसरे 15 देशों में भोजपुरी बोलने वाले लोग हैं, जिनमें फिज़ी, नेपाल, मॉरीशस, गुयाना, सूरीनाम आदि ऊपर हैं। यह संख्या इससे ज़्यादा भी हो सकती है। आज अपने ही राष्ट्र में सम्मान का संघर्ष कर रही भोजपुरी विदेशों में एक सम्मानित भाषा का दर्जा रखती है। मॉरीशस में भोजपुरी को सन् 2011 से राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त है। वहाँ के शिक्षण संस्थानों एवं मीडिया जगत में भी इस भाषा का भरपूर इस्तेमाल होता है। इसी प्रकार भोजपुरी फिजी की आधिकारिक भाषाओं में शामिल है। ऐसे ही भोजपुरी सूरीनाम, गुयाना आदि देशों में सम्मानित है। मॉरीशस की पहल पर यूनेस्को द्वारा भोजपुरी संस्कृति के ‘गीत-गवनई’ को सांस्कृतिक विरासत का दर्जा दिया गया। जो काम भोजपुरी के मूल राष्ट्र भारत को करना चाहिए था, उसे किसी दूसरे देश ने किया। आज काशी हिन्दू विवि., शकुंतला मिश्रा पुनर्वास विवि., वीर कुँअर सिंह विवि., इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विवि., नालंदा मुक्त विवि., दिल्ली विवि. जैसे देश के लगभग दर्ज़न भर से अधिक विश्वविद्यालयों में भोजपुरी से जुड़े पाठ्यक्रम चल रहे हैं। भोजपुरी सिनेमा इंडस्ट्री का बाज़ार लगभग 30,000 करोड़ रुपये का है। भोजपुरी को समर्पित कई टीवी प्रचलन में हैं। संस्कृति मंत्रालय ने भोजपुरी फ़िल्म समारोह का आयोजन करवाता है। आश्चर्य है कि हज़ारों करोड़ के भोजपुरी सिनेमा व्यवसाय से रोज़गार, कर (टैक्स) प्राप्ति से सरकार को दिक़्क़त नहीं है; लेकिन भोजपुरी को सम्मान दिलाने के लिए कई दिक़्क़तों की सूची गिनायी जाती है। यह मानने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि हिन्दी को समर्थ बनाने के लिए सबसे ज़्यादा त्याग भोजपुरी ने किया है। क्या हिन्दी के लिए सर्वाधिक त्याग करने और उसकी अधीनता स्वीकार कर चुपचाप उसकी सेवा करने का दण्ड भोजपुरी को दिया जा रहा है? स्थिति तब और आश्चर्यनक एवं दु:खद लगती है, जबकि देश के प्रधानमंत्री दो-दो बार भोजपुरी के गढ़ वाराणसी से सांसद चुने गये हैं।

केंद्र सरकारें इस माँग को लेकर अब तक बेहद असंवेदनशील रुख़ रखती रही हैं। सन् 2017 में इस तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने संसद में कहा था- ‘चूँकि बोली और भाषा का विकास सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास से प्रभावित होता है, अत: उन्हें बोली से अलग बताने अथवा भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के सम्बन्ध में भाषा सम्बन्ध कोई मानदण्ड निश्चित करना कठिन है।’ हालाँकि ऐसा निश्चित मानदण्ड तैयार करने के सम्बन्ध में पूर्व में पाहवा समिति (1996) तथा सीताकांत महापात्र समिति (2003) के माध्यम से किये गये थे; लेकिन अब तक इस पर क्या कार्यवाही हुई इसका कोई स्पष्ट जवाब सरकार के पास नहीं है।

वरिष्ठ पत्रकार एवं इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष राम बहादुर राय इस सम्बन्ध में एक विशेष उपाय सुझाते हैं। वह कहते हैं कि देश में जितनी भाषाएँ हैं, उन सबको भारत सरकार को मान्यता देनी चाहिए। संविधान में संशोधन करके ‘एट्थ शेड्यूल’ को हटाकर एक पंक्ति का नियम रखिये कि भारत की सभी भाषाओं को संविधान मान्यता देता है। लेकिन एक वर्ग इसका विरोधी भी है। कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर और हिन्दी बचाओ मंच के संयोजक डॉ. अमरनाथ के नेतृत्व एक प्रतिनिधि मंडल ने जुलाई, 2017 को केंद्र सरकार के तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मिलकर भोजपुरी और राजस्थानी समेत अन्य बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध किया। भाषायी एकता स्थापित करने के जुनून में देशज संस्कृतियों का दमन नहीं होना चाहिए। अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के पूर्व महामंत्री प्रोफेसर गुरुचरण सिंह कहते हैं कि इस राष्ट्र की जो मूल संस्कृति है, वो लोक भाषाओं में है। हिन्दी स्थापित भाषा है। हिन्दी को गढ़ा गया है। लेकिन भोजपुरी या अन्य लोक भाषाएँ विकसित भाषाएँ हैं। जो पूर्व-वैदिक काल में भाषा का स्वरूप था, उसी का विकसित स्वरूप भोजपुरी जैसी लोक भाषाएँ हैं। और इन लोक भाषाओं से ही सांस्कृतिक धरोहरों को हिन्दी में समाहित किया गया है। अगर लोक भाषाओं को संवैधानिक संरक्षण नहीं दिया गया, तो भारतीय संस्कृति भी नष्ट होती जाएगी। कैसी विडंबना है कि एक तरफ़ तो हम हर नये जनगणना आँकड़ों के साथ प्राचीन भाषाओं की विलुप्ति का रोना रोते हैं और उनके संरक्षण के लिए उद्घोषणा और योजना निर्माण की संवेदना व्यक्त करते हैं। वहीं भोजपुरी जैसी समृद्ध भाषा को उसके अधिकार से वंचित करके उसके पतन का इंतज़ार कर रहे हैं।

जिस तरह भाषायी अस्मिता का संघर्ष राष्ट्रीय एकता के लिए बाधा पैदा करता है, वैसे ही यह प्रादेशिक समाज में भी अंतर्विरोध पैदा करता है। इस विरोध का निशाना अकसर हिन्दी बनती रही है। कुछ समय पूर्व कर्नाटक में हिन्दी विरोध में नेम प्लेट पर कालिख पोती जा रही थी। हिन्दी की अधिकारिता के नाम पर भोजपुरिया और राजस्थानी समाज की भावनाओं की अवहेलना उन्हें दक्षिण भारत की तरह ही उग्र आन्दोलन के लिया उकसा सकता है। जो तथाकथित बुद्धिजीवी भोजपुरी के संवैधानिक अधिकारों की माँग को षड्यंत्र बताते हैं, वे स्वयं भोजपुरी के विरुद्ध दुरभि-सन्धि में शामिल हैं। जिन्होंने यह प्रश्न किया कि भोजपुरी और राजस्थानी का क्या उपयोग है? उनसे पूछा जाना चाहिए कि संवैधानिक सूची में दर्ज संथाली, गुजराती, मलयाली, असमी आदि भाषाओं का क्या उपयोग है? विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल बाक़ी विषयों की किसी व्यक्ति के जीवन में क्या उपयोगिता है?

दरअसल उपयोगिता तय करना या बढ़ाना सरकार का काम हैं। इसलिए भोजपुरी को लेकर उन्हें ओछे तर्कों से बचना चाहिए। अगर किसी भाषा का पैमाना बोलने वालों की संख्या हैं, तो आठवीं अनुसूची में शामिल मैथिली, सिंधी, डोगरी और नेपाली, कोंकणी जैसी लगभग 10 भाषाओं के बोलने वालों से भोजपुरी भाषियों की संख्या कहीं अधिक है। ऐसे ही राजस्थानी भाषी लोगों की माँग की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। देश में 7वीं सबसे समृद्धशाली साहित्य की धरोहर सँभालती राजस्थानी भाषा की संवैधानिकता की माँग भी उचित है। पूर्वांचल और बिहार और राजस्थान के चुनावी जनसभाओं में भोजपुरी या राजस्थानी के एक-दो वाक्य बोलकर जनता को लुभाने का प्रयास करने वाले नेता सत्ता प्राप्ति के साथ सारा भाषायी सम्मान भूल जाते हैं। कांग्रेस सरकारों ने तो अब तक बेवक़ूफ़ बनाया ही; लेकिन दो-दो लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत की केंद्र एवं राज्यों में सरकार बनवाने में सहयोगी उत्तर प्रदेश, बिहार की जनता के साथ ही राजस्थानी जनता के साथ भाजपा भी इस मसले पर ईमानदार नहीं रही है। अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध लिखते हैं- ‘कैसे निज सोये भाग को कोई सकता है जगा, जो निज भाषा अनुराग का अंकुर नहिं उर में उगा।’ सरकारों एवं राजनीतिक दलों से अपेक्षा छोड़ भी दें, तो बिहार, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान से लगभग डेढ़ सौ सांसद चुनने वाली जनता की भावना की अनदेखी करने वाले इन जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही तो तय होनी ही चाहिए।

पंजाब में राजनीतिक रंजिश के नये दाँव-पेच

सरकारी जाँच एजेंसियों और पुलिस के बेजा इस्तेमाल के आरोप सत्ता पक्ष पर लगते हैं और उनके खण्डन भी आते रहते हैं। राजनीतिक दुश्मनी पर दर्ज होते मामलों पर सम्बन्धित सरकारें इसे सही ठहराने का प्रयास करती है, वहीं विपक्षी दलों के नेता इसे राजनीतिक रंजिश बताते हैं।

केंद्र और राज्यों में ऐेसा होता रहता है, इसमें कोई नयी बात नहीं है। केंद्र पर सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय जैसी जाँच एजेंसियों पर सरकार के इशारे पर कार्रवाई के आरोप लगते रहे हैं। कांग्रेस के दौर में विपक्षी दल यही रोना रोते थे। अब भाजपा सरकार पर विपक्षी दल कमोबेश वैसे ही आरोप लगा रहे हैं। चाहे सीबीआई या एनआईए स्वतंत्र एजेंसियाँ हैं, सत्तापक्ष का कहीं-न-कहीं असर ज़रूर होता है। यह अलग बात है कि कोई सरकार राजनीतिक रंजिश के लिए इसका बेजा इस्तेमाल कर लेती है, तो कोई सीमित; लेकिन इन पर सरकारी स्वार्थ हावी ज़रूर रहता है। हरियाणा और पंजाब तो राजनीतिक रंजिश के लिए वैसे ही जाने जाते रहे हैं। सत्ता में आने पर विरोधियों को जेल में डालने, सबक़ सिखाने और उन्हें छठी का दूध दिलाने जैसे आक्रामक तेवर देखने को मिलते हैं।

बाक़ायदा इसके लिए मामले गढ़े जाते हैं, सुबूत जुटाये जाते हैं और कुछ हद तक राजनीतिक दुश्मनी निकाली भी जाती है। लोकतंत्र में यह परम्परा घातक है। अगर सरकारें अपने तंत्र का बेजा इस्तेमाल करेंगी, तो सही मायने में वह लोकतंत्र न होकर निजतंत्र माना जाएगा। पंजाब पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह तो चुनावी सभाओं में सत्ता में आने पर अपने समकक्ष रहे प्रकाश सिंह बादल को सलाख़ों के पीछे डालने की बातें कहते रहे हैं। सत्ता में आने के बाद हालाँकि वह कुछ ऐसा नहीं कर सके; लेकिन राजनीतिक रंजिश की भावना बहुत कुछ साबित करती है। हरियाणा में राजनीतिक रंजिश का बड़ा उदाहरण पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला के जेबीटी घोटाले में 10 साल की सज़ा का है। आरोप तत्कालीन कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर लगे थे। हालाँकि हुड्डा ने कभी सार्वजनिक तौर पर चौटाला को जेल में डालने की बात कभी नहीं कही थी। वह एक बड़ा घोटाला था और सब क़ानून के हिसाब से हुआ। मानने वाले इसे राजनीतिक दुश्मनी निकालने वाली कार्रवाई बता रहे हैं। राज्य में सत्ता में आने पर विरोधी नेताओं को सबक़ सिखाने की धमकियाँ तो सार्वजनिक सभाओं में दी जाती रही हैं। इससे राष्ट्रीय पार्टियाँ अछूती नहीं हैं। कम-से-कम हरियाणा और पंजाब में तो यह क़वायद चलती रहती है।

पंजाब में प्रचंड बहुमत से सत्ता में आयी आम आदमी पार्टी के एजेंडे में राजनीतिक दुश्मनी को बिल्कुल जगह नहीं दी गयी है। 16 अप्रैल को मुख्यमंत्री भगवंत मान ने शपथ ग्रहण समारोह में इस बात की सार्वजनिक घोषणा की थी कि पंजाब में पूर्व की सरकारें राजनीतिक रंजिश के लिए झूठे मुक़दमे दर्ज करती रही हैं; लेकिन वह ऐसा कभी नहीं होने देंगे। वह पंजाब में एक नये अध्याय की शुरुआत करेंगे, जिसमें राजनीतिक रंजिश की कोई जगह नहीं होगी। क़रीब एक माह के बाद पंजाब में इसकी शुरुआत हो गयी है। इसे नये अध्याय के तौर पर तो नहीं, बल्कि पुरानी परम्परा को न टूटने देने की क़वायद ही माना जा सकता है।

कभी आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे कुमार विश्वास और इसी पार्टी की दिल्ली के चाँदनी चौक की विधायक रही अलका लांबा पर पंजाब के रूपनगर (रोपड़) में संगीन धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज की गयी है। वैचारिक मतभेद होने के बाद कुमार विश्वास ने आम आदमी पार्टी से किनारा कर लिया था। वह किसी पार्टी के सदस्य नहीं हैं और गाहे-ब-गाहे दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल पर आरोप लगाते रहते हैं; लेकिन अभी तक उन पर कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं हुई थी। लेकिन पंजाब में पार्टी के सत्ता में आने के बाद कार्रवाई को अंजाम दे दिया गया है।

अलका लांबा सन् 2014 में कांग्रेस छोडक़र आम आदमी पार्टी में शामिल हुईं और चाँदनी चौक से पार्टी की विधायक बनीं। सितंबर, 2019 में उन्होंने आम आदमी पार्टी छोड़ दी और फिर से कांग्रेस में शामिल हो गयीं। कुमार विश्वास ने पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर ख़ालिस्तानी सम्पर्क होने जैसा संगीन आरोप लगाया था। उस दौरान केजरीवाल ने ख़ुद इतने गम्भीर आरोप पर चुटकी लेते हुए कहा था कि क्या वह शक्ल से कोई आतंकवादी लगते हैं? अगर कोई कहता है, तो वह मासूम आतंकवादी हैं, जो लोगों के लिए काम करता हैं।

क़रीब दो माह अब उसी आरोप पर कुमार विश्वास फँस गये हैं। उन्हें साज़िश रचने, शान्ति भंग करने और केजरीवाल की छवि कलंकित करने जैसी संगीन धाराओं का आरोपी बनाया गया है। मामला पंजाब की बजाय दिल्ली में दर्ज होता और दिल्ली पुलिस कार्रवाई करती, तो सीधा आरोप केजरीवाल पर लगता; लेकिन घटना का सम्बन्ध सीधे पंजाब से है। इसके बावजूद केजरीवाल पर बदले की भावना से कार्रवाई करने का आरोप क्यों लग रहा है? पंजाब में मामले दर्ज होने पर प्रतिक्रिया मुख्यमंत्री भगवंत मान की आनी चाहिए, क्योंकि गृह विभाग भी उनके पास है। आरोप लग रहा है कि मान पंजाब के मुख्यमंत्री ज़रूर हैं; लेकिन नियंत्रण एक तरह से केजरीवाल का है। दिल्ली के मुख्यमंत्री रहते अरविंद केजरीवाल के मन में पुलिस विभाग का नियंत्रण केंद्र के पास होने की कसक हमेशा से रही है। दिल्ली में जब कोई क़ानून व्यवस्था का मसला उठता है, वह सीधे केंद्रीय गृह मंत्रालय पर ज़िम्मेदारी डाल देते हैं, क्योंकि पुलिस उसके अधीन है। दिल्ली में कई दंगों में भी उन्होंने यही बात कही। अब पंजाब में उनकी पार्टी की सरकार है और वह अपरोक्ष रूप से पुलिस का इस्तेमाल कर सकते हैं।

कुमार विश्वास, अलका लांबा और पीटीसी चैनल के प्रबंध निदेशक रविंद्र नारायण और अन्य स्टाफ पर दर्ज मामले राजनीति के परिप्रेक्ष्य से देखे जा रहे हैं। पीटीसी चैनल बादल परिवार का है इसलिए आरोपी के संगीन आरोपों पर पुलिस कार्रवाई कर रही है। नारायण समेत 25 से ज़्यादा लोगों पर कार्रवाई हो रही है। शिरोमणि अकाली दल (शिअद) इसे राजनीतिक रंजिश निकालने की कार्रवाई बता रहा है, वहीं पुलिस इसे क़ानून सम्मत रुटीन का मामला बता रही है। तो क्या माना जाए कि आम आदमी पार्टी की सरकार पंजाब में पुरानी रवायत पर चल पड़ी है, जिसमें विरोधियों को सबक़ सिखाने के लिए पुलिस या अन्य जाँच एजेंसियों क बेजा इस्तेमाल हो रहा है। ऐसा है, तो यह चलन आप सरकार और मुख्यमंत्री भगवंत मान के लिए बिल्कुल ठीक नहीं है।

पंजाब विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिद्धू अलका लांबा पर दर्ज मामले को राजनीति से प्रेरित बता रहे हैं। बाजवा और सिद्धू के मुताबिक, केजरीवाल के इशारे पर पंजाब में पुलिस विरोधियों पर कार्रवाई कर रही है। भगवंत मान को आम आदमी पार्टी में लाने वालों में कुमार विश्वास की अहम भूमिका रही है। यह उस दौर की बात है, जब मान की आम आदमी पार्टी में कोई ख़ास पहचान नहीं थी, जबकि कुमार विश्वास आम आदमी पार्टी के आधार स्तम्भ हुआ करते थे। विश्वास पार्टी में अपनी उपेक्षा से केजरीवाल से नाराज़ रहने लगे थे। बाद में स्थिति ऐसी आ गयी कि विश्वास पर केजरीवाल अविश्वास करने लगे थे। बाद में दोनों के रास्ते अलग-अलग होते गये। आम आदमी पार्टी को खड़ा करने में केजरीवाल के साथ मनीष सिसोदिया के अलावा प्रमुख रूप से कुमार विश्वास भी थे।

जब दोनों में 36 का आँकड़ा हो गया, तो अनौपचारिक बातचीत में कुमार विश्वास ने केजरीवाल पर ख़ालिस्तान समर्थकों के साथ सम्पर्क होने जैसे गम्भीर आरोप लगाये। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार न होती, तो विश्वास पर प्राथमिकी ही दर्ज नहीं होती। अब चूँकि पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है भगवंत मान को मुख्यमंत्री के तौर पर आगे लाने वालों में केजरीवाल ही है, तो उनका अच्छा-ख़ासा असर राज्य सरकार पर रहेगा ही।

दिल्ली का मुख्यमंत्री एक पूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री पर भारी पडऩे लगे, तो इसके नतीजों के बारे में अनुमान लगाना ज़्यादा मुश्किल नहीं है। भगवंत मान केजरीवाल से बाहर नहीं जा सकते। वह चाहे मुख्यमंत्री के नाते राज्य में राजनीतिक रंजिश निकालने की न सोचते हो पर पार्टी प्रमुख अगर इस दिशा में कुछ करना चाहे, तो वह बहुत कुछ नहीं कर सकते। पंजाब पुलिस के बेजा इस्तेमाल के आरोपों में कुछ दम तो ज़रूर है, वरना पार्टी कार्यकर्ताओं की शिकायत पर कुमार विश्वास और अलका लांबा पर प्राथमिकी दर्ज होकर त्वरित कार्रवाई नहीं होती।

उम्मीद की जानी चाहिए कि दोनों जाँच में सहयोग करेंगे, वरना पुलिस दोनों को गिर$फ्तार भी कर सकती है। आने वाले दिनों में लोकप्रिय हो रही आप-सरकार पर राजनीतिक रंजिश निकालने के लिए अपरोक्ष तौर पर पंजाब पुलिस के बेजा इस्तेमाल के आरोप लगेंगे। इससे मुख्यमंत्री भगवंत मान की प्रतिष्ठा भी दाव पर लगी रहेगी। राज्य में जल्द ही किसी राजनीतिक तू$फान की आहट होने लगी है।

गुड टच-बेड टच समझाने के लिए महिलाओं को ही प्रशिक्षण क्यों?

हाल में हिन्दी के एक अख़बार में छपी ख़बर के एक शीर्षक- ‘12,109 बच्चियों, 1,295 शिक्षिकाओं को गुड टच और बेड टच की ट्रेनिंग दी, एक भी लडक़े को नहीं’ ने अपनी ओर मेरा ध्यान खींचा।

यह ख़बर राजस्थान के सन्दर्भ में थी। राजस्थान में बच्चियों से छेड़छाड़-दुष्कर्म की घटनाएँ बढ़ रही हैं और इसके मद्देनज़र राज्य बाल आयोग गुड टच और बेड टच (अच्छा स्पर्श और बुरा स्पर्श) में अन्तर को समझाने के लिए जागरूकता अभियान में जुट गया है। गुड टच और बेड टच के बारे में जानकारी सभी को चाहे वह लडक़ी हो या लडक़ा दोनों को होनी चाहिए। सम्बन्धित क़ानून भी कहता है कि यह लिंग निरपेक्ष है। लेकिन राजस्थान का बाल आयोग अधिक फोकस महिलाओं पर ही कर रहा है। इसका प्रशिक्षण सिर्फ़ महिला शिक्षकों और बालिकाओं को ही दिया जा रहा है। पुरुष शिक्षकों और लडक़ों (बालकों) को नहीं। राज्य के विभिन्न ज़िलों में आयोग अब तक कुल 13,434 लोगों को प्रशिक्षण दे चुका है, इसमें 12,109 बालिकाएँ व 1,295 शिक्षिकाएँ शामिल हैं। पुरुष शिक्षकों की संख्या महज़ 60 हैं और बालक एक भी नहीं।

दरअसल राजस्थान में बच्चों व महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध ने सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार की मुश्किलें भी बढ़ायी हैं। सम्भवत: इसी के मद्देनज़र राज्य में तीन विभाग, जिसमें शिक्षा विभाग और महिला व बाल विकास विभाग भी शामिल है; अलग-अलग योजनाओं के तहत जागरूकता अभियान चला रहे हैं। इन सभी का ध्यान महिलाओं और बालिकाओं पर केंद्रित है। दरअसल बच्चों के प्रति यौन शोषण / उत्पीडऩ की घटनाएँ केवल राजस्थान की ही समस्या नहीं है, बल्कि यह पूरे देश की एक गम्भीर समस्या है। सरकार की ओर से दावा किया जा रहा है कि भारत बहुत-ही जल्द विश्व शक्ति बन जाएगा। लेकिन जहाँ तक समाज का सवाल है, अभी भी बच्चों, किशोरों के साथ उनके शारीरिक अंगों के बारे में खुलकर बात करने से हिचकते हैं। ऐसा करना वर्जित माना गया है। बात करने वालों को समाज अच्छी नज़र से नहीं देखता। बाल यौन शोषण जन-विमर्श का विषय ही नहीं बन सका है।

देश में  क़रीब 44 करोड़ बच्चे हैं और युवाओं की तादाद भी उल्लेखनीय है। सरकार द्वारा प्रायोजित एक सर्वे से सामने आया कि देश में 53फ़ीसदी बच्चों ने यौन शोषण / उत्पीडऩ का कभी-न-कभी सामना किया था। शोषण करने वाले बच्चों के जानकार, रिश्तेदार और वे लोग थे, जिन पर बच्चे, उनके माता-पिता भरोसा करते थे। अधिकतर बच्चों ने इस सन्दर्भ में शिकायत दर्ज नहीं करायी। ऐसे मामले केवल महानगरों, नगरों में ही सामने नहीं आते, बल्कि गाँव भी इनसे अछूते नहीं हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, बाल यौन शोषण से अभिप्राय किसी बच्चे का इस तरह की यौन गतिविधि में शामिल होना है, जिसकी उसे (बालक / बालिका) पूरी तरह से समझ नहीं है, उस यौन गतिविधि के लिए अपनी सूचित सहमति देने में अयोग्य है, या बच्चा उस गतिविधि के बारे में विकासात्मक रूप से तैयार नहीं है और अपनी सहमति नहीं देता अथवा जो क़ानून का उल्लंघन करने वाली गतिविधि हो। अब सवाल यह है कि कितने अभिभावकों, शिक्षकों और अन्य लोगों को इस परिभाषा या भारत में बने बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम यानी यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम-2012 (पॉस्को अधिनियम-2012) की जानकारी है। इस सन्दर्भ में दिल्ली के एक न्यायालय में एक मामले की सुनवाई के दौरान पता चला कि दिल्ली सरकार ने पॉक्सो क़ानून के सन्दर्भ में जागरूकता अभियान के तहत जो पोस्टर लगाये थे, वो पूरी जानकारी नहीं बता रहे थे।

दिल्ली सरकार की तरफ़ से बताया गया कि सरकार ने मेट्रो स्टेशनों, बस स्टॉप पर पोस्टर और होर्डिंग लगाये हैं। सरकार अपनी तरफ़ से पूरे प्रयास कर रही है कि आमजन इस क़ानून के बारे में जाने। लेकिन एक वरिष्ठ वकील ने न्यायालय को बताया कि वह जानकारी अधूरी है; क्योंकि उस सामग्री में अपराध करने पर क्या सज़ा हो सकती है? इसका ज़िक्र नहीं है। इसलिए यह समाज में कोई डर नहीं पैदा करती। न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में वृद्धि की एक वजह यह कि लोगों को इस क़ानून के बारे में कोई जानकारी नहीं होना तथा क़ानूनी कार्रवाई का कोई भय नहीं होना भी बताया। न्यायालय ने दिल्ली सरकार को इस सन्दर्भ में प्रयासों को ज़मीनी स्तर पर उतारने के निर्देश दिये।

ग़ौरतलब है कि बाल अधिकारों के कड़े संघर्ष के बाद बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम-2012 बनाया गया, ताकि बच्चों को यौन अपराधों, यौन शोषण और अश्लील सामग्री से संरक्षण प्रदान किया जा सके। हालाँकि इस अधिनियम में संशोधन करते हुए 2019 में यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (संशोधन) अधिनियम-2019 लाया गया, जो फ़िलहाल लागू है। यह अधिनियम यह स्वीकार करता है कि बच्चों को विषेश तौर पर निशाना बनाया जा सकता है। लिहाज़ा जब पीडि़त कोई बच्चा हो, तो उसके संरक्षण के लिए विशेष क़दम इंडियन पीनल कोड से परे क़ानून की ज़रूरत होती है। इसमें बच्चे को अनुचित तरीक़े से तथा ग़लत मंशा से छूने वाला बिन्दु भी कवर होता है। यह 18 साल तक के बच्चों पर लागू होता है, यह क़ानून लिंग निरपेक्ष है यानी पीडि़त लडक़ा व लडक़ी दोनों हो सकते हैं और आरोपी महिला या पुरुष कोई भी हो सकता है।

लिंग निरपेक्ष होने से समाज में यह भी सन्देश गया कि बालक (लडक़ों) का भी यौन शोषण होता है, यह अलग बात है कि समाज इस कड़वी हक़ीक़त को खुले में स्वीकार करने से भागता है। इसी साल जनवरी में केरल की एक फास्ट ट्रेक न्यायालय में गुड टच बनाम बेड टच मामले की सुनवाई के दौरान नौ साल के पीडि़त बालक ने न्यायालय को बताया कि उसे इसकी समझ है कि उसे गुड टच और बेड टच में क्या अन्तर है? उस बालक ने न्यायालय को बताया कि उसे आरोपी ने बुरी मंशा से छुआ। न्यायाधीश ने बालक के बयान को महत्त्व दिया और 50 वर्षीय आरोपी को पॉक्सो के तहत सज़ा सुनायी और 25,000 रुपये का आर्थिक दण्ड भी सुनाया। यही नहीं, न्यायालय ने यह भी कहा कि यह आर्थिक दण्ड वाली रक़म पीडि़त बालक को दी जाए। इस बालक ने न्यायालय में बताया कि उसे गुड टच और बेड टच के बारे में जानकारी विद्यालय से हासिल हुई थी। ऐसे कई उदाहरण हैं, जहाँ बच्चों से बात करने पर पता चलता है कि इस बाबत उन्हें जानकारी मुहैया कराने वाला प्रमुख स्रोत विद्यालय है।

विद्यालयों के ऊपर यह ज़िम्मेदारी है कि वहाँ इस संवेदनशील विषय पर पेशेवर सलाहकार (प्रोफेशनल काउंसलर) रखें, बच्चे विद्यालय में बतायी गयी जानकारी पर अधिक भरोसा करते हैं। विद्यालयों में बालिकाओं, बालकों, अध्यापिकाओं और अध्यापकों को इस बाबत प्रशिक्षित करना चाहिए। अन्य स्टाफ को भी। विद्यालय इस सन्दर्भ में अहम भूमिका निभा सकते हैं; क्योंकि देश में विद्यालय जाने वाले बच्चों काफ़ीसद बढ़ रहा है। प्राइमरी स्तर पर तो कोरोना महामारी से पहले यहफ़ीसद  क़रीब 95फ़ीसदी तक पहुँच गया था। दरअसल क़ानून बनाना व उस पर अमल की भावना को चरितार्थ करने के वास्ते सरकार को बजट भी आवंटित करना होता है, निगरानी के लिए प्रतिबद्धता की भी दरकार होती है। भारत के संविधान का अनुच्छेद-15(3) राज्य को बच्चों के हित की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा पारित बाल अधिकार कन्वेंशन के मानकों को ध्यान में रखते हुए पॉक्सो अधिनियम बनाया गया था और इस बाल अधिकार कन्वेंशन पर भारत सरकार ने अपनी सहमति भी दर्ज करायी हुई है। इस बाल अधिकार कन्वेंशन के अनुच्छेद-3 के अनुसार परिवार, विद्यालय, स्वास्थ्य संस्थाओं और सरकार पर बच्चों के हितों को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी डाली गयी है।

बाल यौन शोषण, छेड़छाड़ के मामलों के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए बच्चों का भरोसा जीतना बहुत ज़रूरी है। उन्हें निडर बनाना होगा कि ग़लत, अनुचित होने पर चुप नहीं रहना, बल्कि घर, विद्यालय या भरोसेमंद इंसान को बताना है।

न्यायालय इस सन्दर्भ में क्या कर सकता है? इसकी मिसाल पेश करनी चाहिए। बीते साल मुम्बई की एक विशेष पॉक्सो न्यायालय ने एक पाँच साल की बेड टच की पीडि़त बालिका के मामले में बालिका के हक़ में फ़ैसला सुनाते हुए आरोपी की जमानत याचिका ख़ारिज कर दी। न्यायाधीश ने साफ़ कहा कि पीडि़ता की उम्र चाहे पाँच साल है; लेकिन आरोपी ने उसे ग़लत नीयत से छुआ, तो वह वही बता रही है, जो उसने उस समय महसूस किया होगा। यह नहीं माना जा सकता कि पाँच साल की बच्ची गुड टच व बेड टच के अन्तर को महसूस नहीं कर सकती। बच्चे भविष्य हैं, उनकी बेहतरी के लिए परिवार, विद्यालय, समाज, सरकारी मशीनरी सभी को संजीदगी से काम करना होगा।

घट रहा पशुपालन का चलन

चारे की कमी और बढ़ती महँगाई से पशुओं को पालना होता जा रहा महँगा

एक दौर था, जब गाँवों में ज़्यादातर लोग, ख़ासकर किसान पशुपालन करते थे। तब हर गाँव में चारागाह भी होते थे और खेतों में भी हरा चारा व गेहूँ-धान कटने पर भूसा-पुआल जैसा सूखा चारा भी भरपूर होता था। क्योंकि पशुपालक और किसान इस चारे को साल भर के लिए संचित करके रखते हैं। समय बदला, सोच बदली और आधुनिक खेती होने से सूखे चारे की कमी होती गयी। चारागाह भी ख़त्म होते गये। हार्वेस्टर से फ़सलों की कटाई होने के चलते भूसा और पुआल खेतों में ही छोड़ा जाने लगा। इससे चारे के लिए सूखे चारे में कमी होने लगी और वह महँगा होने लगा। पहले दुधारू पशुओं के अलावा खेतीबाड़ी के लिए भी नर पशु पाले जाते थे। लेकिन मशीनों से खेती होने से धीरे-धीरे इन पशुओं को पालने वाले कम होते गये। चारे की महँगाई और पशुओं पर बढ़ी महँगाई ने भी पशुपालकों का इस काम से मोहभंग किया है। गाँवों में पशुपालन से वे लोग ख़ासकर दूर हुए हैं, जिनके पास खेत नहीं हैं।

किसान रामतीरथ मिश्रा का कहना है कि डीजल-पेट्रोल और बढ़ती महँगाई के साथ-साथ जबसे देश में गौशालाओं में चारे की  आपूर्ति (सप्लाई) ठेकेदारी प्रथा से होने लगी है, तबसे भूसा के दामों में धीरे-धीरे उछाल आया है। इसकी वजह है ठेकेदारी में दाम कुछ तय होते हैं और सप्लाई के दाम कुछ और होते हैं। इसके कारण गुणवत्ता विहीन भूसा गौशालाओं में पहुँचता है। इस तरह बड़ा घोटाला होता है। अब सूखे चारे की जमाख़ोरी सिर्फ़ उससे पैसे कमाने के लिए होने लगी है, जिसमें सूखे चारे की कमी ने और इज़ाफ़ा किया है। चार-पाँच साल पहले जमाख़ोरी नहीं होती थी। तब पशु पालने वाले कम दाम में सूखा चारा खेतों से ही ख़रीद लेते थे। लेकिन कुछ व्यापारिक मानसिकता वाले लोगों ने पैकिंग में भी भूसा और दूसरे चारे बेचने शुरू कर दिये हैं, जिससे चारे, ख़ासकर भूसे के भाव हर रोज़ बढ़ रहे हैं।

किसान विनीत कुमार का कहना है कि भूसा को लेकर सरकार की ओर से कोई रेट तय तो हैं नहीं। इसलिए इसके दाम कहीं कुछ, तो कहीं कुछ हैं। जो गाँव क़स्बे या शहर से जुड़ा है, वहाँ पर इन दिनों 600 से 800 रुपये प्रति कुंतल भूसा बिक रहा है। वहीं जो गाँव पिछड़े हैं, वहाँ 500 से 600 रुपये प्रति कुंतल भूसा बिक रहा है।

उत्तर प्रदेश के बांदा ज़िले के किसान गोविन्द दास का कहना है कि हज़ारों की संख्या में आवारा जानवर खेतों में इधर-से-उधर घूमते रहते हैं और फ़सलों का नुक़सान करते हैं या फ़सल के कटने बाद खेतों में पड़ा भूसा खाकर जीवन-यापन करते हैं। अब भूसा महँगा होने और कम होने से अवारा पशुओं को पेट भरने में दिक़्क़त हो सकती है।

झांसी ज़िले के पशु पालन करने वाले लक्ष्मण दास का कहना है कि वह 30 साल से भैसें पालकर उनका दूध बेचकर अपने परिवार का पालन-पोषण करते आ रहे हैं। लेकिन कुछ वर्षों से महँगा चारा, महँगा चोकर ख़रीदना पड़ रहा है, जबकि दूध के दाम उतनी तेज़ी से बढ़ नहीं रहे हैं; इससे हमें परेशानी हो रही है। इसलिए अब हम अपनी भैंसों को बेचना चाहते हैं। क्योंकि हमारे पास ख़ुद के खेत नहीं हैं, जिनमें चारा उगाया जा सके। अभी हमें काफ़ी महँगा भूसा ख़रीदना पड़ रहा है। ऐसे में पशु-पालन करना बेहद महँगा होता जा रहा है। अब या तो हम कम पशु रखें या दूध महँगा करें, जो कि कोई लेगा नहीं या फिर पशुओं का पालन बन्द करके कोई और काम करें। लेकिन यह हमारा बहुत पुराना काम है, जो कि छोडऩे पर बहुत दु:ख होगा।

भूसा महँगा होने की जड़ में दो बातें मुख्य रूप से सामने आ रही हैं। एक तो बड़े किसान हार्वेस्टर से अपनी फ़सल कटवाते हैं, जिससे उन्हें गेहूँ तो पूरा मिल जाता है, पर भूसा काफ़ी कम मिल पाता है। दूसरी यह कि कॉरपोरेट जगत तेज़ी से चारा संग्रहण में लग गया है। वहीं निजी और सरकारी गौशालाओं में ठेकेदारी प्रथा के चलन से भूसा समेत अन्य तरह के चारे की सप्लाई होती है। इससे भूसा सप्लाई को कारोबारियों और ठेकेदारों ने धंधा बना लिया है। जैसे-जैसे समय बीतेगा सूखे चारे की कमी होगी और स्वाभाविक रूप से भूसा और महँगा होगा, जिसके चलते ऐसे लोग अभी से जमाख़ोरी करने लगे हैं।

गौशाला जुड़े एक कर्मचारी ने बताया कि गौशालाओं में भूसा की सप्लाई ठेकेदारों के हाथ में होती है। वे जानते हैं कि सरकारी और निजी गौशालाओं में भूसे की हर हाल में सप्लाई होनी है। इसलिए वे पहले से ही गाँव-गाँव जाकर भूसा औने-पौने दामों में ख़रीदकर जमाख़ोरी कर लेते हैं। ऐसे में जो लोग छोटे स्तर पर पशुपालन करते हैं, क़स्बों और शहरों में दूध की डेयरी चलाते हैं और उनके पास खेत आदि नहीं हैं या सूखा चारा उनके पास नहीं होता है, तो मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए जमाख़ोर उन्हें महँगा करके सूखा चारा बेचते हैं। चारे की कमी के दौर में यह लोग भूसा तो 1,000 रुपये प्रति कुंतल से भी अधिक महँगा तक बेच देते हैं।

भूसे की बढ़ती क़िल्लत को लेकर मध्य प्रदेश के किसान प्रमोद कटारे का कहना है कि कारोबारी भूसे का कारोबार सुनियोजित तरीक़े से करने लगे हैं। वे अब भूसा मंडी स्थापित कर रहे हैं। भूसा से जुड़े जो कारोबारी हैं, उनका अपना एक नैक्सिस पनप रहा है, जो पशु पालन करने वालों के लिए काफ़ी महँगा साबित होगा।

प्रमोद कटारे का कहना है कि जिस प्रकार दाल-चना और लोहा सहित अन्य वस्तुओं के मंडी के भाव तय होते हैं, उसी तरह देश के सभी राज्यों में भूसे के कारोबारियों द्वारा इसके भाव भी तय होने लगे हैं। व्यापारी भूसे के बंडल बनाकर बेचने लगे हैं।

किसान चारा पैदा करता है। लेकिन इस कारोबार में कोई किसान शामिल नहीं है, बल्कि देश के नेता और बड़े व्यापारी लगे हैं। ये लोग किसानों से खेत में ही अपने मन माफ़िक़ थोक भाव में भूसा ख़रीदने लगे हैं। सरकार को भूसे की जमाख़ोरी और मनमाने भाव पर उसे बेचने की कालाबाज़ारी पर समय रहते समझना होगा, अन्यथा देश में दुधारू पशु पालने वालों के महँगाई से पाँव उखडऩे लगेंगे और वे उनका पालन कम कर देंगे। कृषि प्रधान इस देश में भले ही आज आधुनिक तरीक़े से खेती होने लगी है और बैलों व भैंसों की ज़रूरत उतनी नहीं रही है, लेकिन इन पशुओं के कम होने से इनकी प्रजातियों के लुप्त होने का ख़तरा पनप रहा है। साथ ही देश में दूध का उत्पादन भी घट रहा है, जो कि देशवासियों की सेहत के लिए ठीक नहीं है।

जल संस्थान से जुड़े अमर दीप साहू ने बताया कि देश में अचानक पड़ी गर्मी को देखते हुए जल संस्थान ने नहरों में पानी छोड़ा है, ताकि अवारा पशु प्यासे न भटकें। हमारे कृषि प्रधान देश में आने वाले समय में अगर सबसे ज़्यादा समस्या आने वाली है, तो वो जानवरों के ऊपर आएगी; क्योंकि पशुओं को लेकर फ़िलहाल कोई फ़िक्रमंद नज़र नहीं दिख रहा है, जबकि पशुओं का होना बहुत ज़रूरी है।

 

पशुपालन के आँकड़े

भारत में क़रीब दो करोड़ लोगों की रोज़ी-रोटी पशुपालन से चलती है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में क़रीब चार फ़ीसदी योगदान पशुपालन से होता है। पशुपालन करने वालों में छोटे व सीमांत किसान ज़्यादा हैं, जिनके पास कुल कृषि भूमि की 30 फ़ीसदी खेती है। एक अनुमान के मुताबिक, भारत में क़रीब 19.02 करोड़ गायें, 11.54 करोड़ भैंसें, 14.55 करोड़ बकरियाँ, 7.61 करोड़ भेड़ें, 1.11 करोड़ सूकर हैं। हालाँकि यह आँकड़े पुष्ट नहीं हैं। हो सकता है कि वर्तमान में पशुओं की संख्या इससे अलग हो।

देवघर रोपवे हादसा

सुरक्षा की ज़िम्मेदारी किसकी?

यह एक सच्चाई है कि हादसों की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि ज़्यादातर हादसे किसी की ग़लती या लापरवाही या कमी के चलते होते हैं। देवघर (त्रिकूट) रोपवे हादसे के बाद ये सभी बातें सामने आ रही हैं। अभी तक जो तथ्य सामने आये हैं उनमें अधिक कमायी का लालच, तकनीकी ख़राबी, लापरवाही, अनदेखी सभी बातें प्रथम दृष्टया नज़र आ रही हैं। अहम सवाल यह उठता है कि आख़िर हादसे के लिए ज़िम्मेदार कौन है? क्या ज़िम्मेदारों के ख़िलाफ़ कार्रवाई होगी? क्या तीन मृतकों को न्याय मिल सकेगा? क्या 48 घंटे ज़िन्दगी और मौत के बीच हवा में झूले 76 लोगों को राहत मिलेगी? ये बातें अभी भविष्य के गर्भ में है। फ़िलहाल सरकार ने जाँच समिति बना दी है, जिसे दो महीने में रिपोर्ट देनी है, तो उच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेते हुए सरकार से हादसे पर रिपोर्ट माँगी है। इन सबके बीच एक सुखद बात यह रही कि जिस तरह से आपदा के समय एनडीआरएफ, एयरफोर्स, सेना, इंडो-तिब्बतन बॉर्डर पुलिस, प्रशासन और स्थानीय लोगों ने क़ाबिल-ए-तारीफ़ काम किया, जिसकी सराहना राज्य से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक हुई।

अनूठा है देवघर रोपवे

देवघर से 20 किलोमीटर दूरी पर देवघर-दुमका रोड पर मोहनपुर ब्लॉक में स्थित त्रिकूट पर्वत का रोपवे रोमांचक पर्यटन स्थलों में माना जाता है। यहाँ ट्रैकिंग, रोपवे और वाइल्ड लाइफ टूरिज्म के लिए लोग आते हैं। इस रोपवे की सबसे ऊँची चोटी समुद्र तल से 2,470 फीट ऊँची है। ज़मीन से लगभग 1,500 फीट की ऊँचाई तक पर्यटक जा सकते हैं। त्रिकूट पहाड़ की तीन चोटियों में से केवल दो को ही ट्रेकिंग के लिए सुरक्षित माना जाता है। तीसरी चोटी अत्यधिक खड़ी ढलानों के कारण दुर्गम है। त्रिकूट पहाड़ में रोपवे (केबल कार) देवघर का प्रमुख पर्यटक केंद्र है। त्रिकूट पहाड़ की तलहटी मयूराक्षी नदी से घिरी हुई है। इस रोपवे में पर्यटकों के लिए कुल 25 केबिन उपलब्ध हैं, जिसमें प्रत्येक केबिन में चार लोग बैठ सकते हैं। रोपवे की क्षमता 500 लोग प्रति घंटे है। रोपवे की लम्बाई लगभग 766 मीटर (2,512 फीट) है। चोटी तक पहुँचने के लिए केवल आठ से 10 मिनट लगते हैं और इसका टिकट 130 रुपये है। रोपवे का समय नियमित रूप से सुबह 9:00 बजे से शाम 5:00 बजे तक है। तेज़ हवा या ख़राब मौसम में रोपवे को बन्द करने का प्रावधान है। देवघर रोपवे हादसा 10 अप्रैल को शाम लगभग 4:30 बजे हुआ। हादसे के समय रोपवे में 76 यात्री सवार थे। रोपवे की दो ट्रालियाँ तार पर झूलकर  पहाड़ से टकरा गयीं, जिससे एक महिला की तुरन्त मौत हो गयी। स्थानीय प्रशासन और वहाँ के लोगों ने किसी तरह कम ऊँचाई पर फँसे 30 लोगों को निकाला। बाक़ी 46 लोगों को एनडीआरएफ, एयरफोर्स, सेना, इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस ने हेलीकॉप्टर से 12 अप्रैल की दोपहर तक निकाला। इस दौरान एक महिला और एक पुरुष की बचाव (रेस्क्यू) करते समय हाथ फिसलने से मौत हो गयी। यानी 76 में से 73 लोग बचाये जा सके।

 रोंगटे खड़े करने वाली घटना

त्रिकूट रोपवे में सवार बूढ़े, जवान, महिला और बच्चे सभी थे। हज़ारों फीट ऊपर हवा में ज़िन्दगी और मौत के बीच भूखे-प्यासे लोगों की तीन दिन साँसें अटकी रहीं। उनके पास भगवान का नाम लेने और बचाव का इंतज़ार करने के अलावा कुछ भी नहीं था। सो नहीं सके। अगर ग़लती से झपकी भी आती, तो नीचे गिर सकते थे। उनके परिजन लगातार तनाव में रहे। स्थानीय लोगों ने बचाव के साथ-साथ फँसे हुए लोगों को रस्सी के ज़रिये खाना और पानी पहुँचाया। ड्रोन की मदद भी ली गयी। कई लोगों ने प्यास बुझाने के लिए बोतल में मूत्र तक जमा किया।

 बचाव कार्य की हुई तारीफ़

बचाव कार्य (रेस्क्यू ऑपरेशन) वाक़ई क़ाबिल-ए-तारीफ़ रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन समेत तमाम लोगों ने बचाव कार्य में शामिल एनडीआरएफ, एयरफोर्स, सेना, इंडो-तिब्बतन बॉर्डर पुलिस और प्रशासन की टीम की तारीफ़ की। स्थानीय लोगों की मदद के लिए साधुवाद किया। राज्य सरकार ने मृतकों के परिजनों को पाँच-पाँच लाख रुपये का मुआवज़ा दिया है। रोपवे संचालन करने वाली कम्पनी ने मृतकों के परिजनों को 25-25 लाख रुपये देने को कहा है। रोपवे के एक स्टाफ पन्नालाल पंजियारा ने ट्रॉलियों में फँसे 22 पर्यटकों को बचाया। उनकी सराहना हर ओर हुई। राज्य सरकार की ओर से पन्नालाल को एक लाख रुपये प्रोत्साहन राशि दी गयी। प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर बातचीत की।

 कमियों की अनदेखी

रोपवे हादसे के बाद कई तथ्य सामने आये हैं, जिनसे पता चलता है कि अगर अनदेखी नहीं की जाती, तो हादसे को टाला जा सकता था। सूत्रों के मुताबिक, त्रिकूट रोपवे के निर्माण के समय वर्ष 2009 में गठित तकनीकी दल (टैक्निक टीम) ने रोपवे प्रोजेक्ट की वाइबिलिटी (क्षमता) पर सवाल उठाये थे। सदस्यों ने माना था कि रोपवे की केबल ट्रॉली में कम्पन ज़्यादा है। टीम में बीआईटी मेसरा के मैकेनिकल विभाग के प्रोफेसर भी शामिल थे। जाँच में टीम ने पाया था कि ऊपरी हिस्से में जहाँ खड़ी चढ़ाई है, वहाँ केबल तार में कम्पन ज़्यादा हो जाती है। इस वजह से ट्रॉली असन्तुलित हो जाती है। ट्रॉली ऊपर जाने के बाद हिलने-डुलने लगती है। इन बातों पर ध्यान नहीं दिया गया।

राज्य सरकार की पूर्व वित्त सचिव राजबाला वर्मा ने तत्कालीन पर्यटन सचिव अरुण कुमार सिंह को पर्यटन स्थल के विकास सम्बन्धित पत्र लिखा था। इसमें राजबाला वर्मा ने कहा था कि पर्यटन स्थलों को विकसित करने के लिए आवंटित पैसों का सदुपयोग नहीं हुआ है। जिन पर्यटन स्थलों को विकसित किये जाने के लिए पैसे रिलीज हुए उनमें देवघर की रोपवे सर्विस सेवा भी शामिल थी। इसमें पैसों की भारी वित्तीय अनियमितता हुई। मामले की एसीबी से जाँच होनी चाहिए। अभी हाल में रोपवे की फिटनेस रिपोर्ट दी गयी थी। धनबाद स्थित सीएसआईआर की प्रयोगशाला सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ माइनिंग एंड फ्यूल रिसर्च (सिंफर) ने 22 मार्च को रोपवे को फिट करार दिया था। इसके 17 दिन बाद ही हादसा हो गया। लिहाज़ा फिटनेस रिपोर्ट पर सवालिया निशान लग रहे हैं। रोपवे संचालन की ज़िम्मेदारी दामोदर रोपवेज एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड की है। स्थानीय लोगों का आरोप है कि कम्पनी सुरक्षा मानकों को अनदेखी करती है। भीड़ बढऩे पर ट्रॉली में क्षमता से अधिक लोगों को बैठाया गया था।

 निष्पक्ष जाँच ज़रूरी

रोपवे हादसे पर झारखण्ड उच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेकर रिपोर्ट माँगी है। राज्य सरकार ने भी वित्त विभाग के प्रधान सचिव के नेतृत्व में चार सदस्यीय जाँच समिति बनायी है। इसलिए हादसे की जाँच तो होगी ही, पर जाँच में लीपापोती न हो और दोषियों को सज़ा मिले यह ज़रूरी है। यह भविष्य के लिए मददगार साबित होगी। क्योंकि हादसे के बाद अब तक जो तथ्य सामने आये हैं, वो तो कम-से-कम यही दिखा रहे हैं कि हादसा लापरवाही और अनदेखी का नतीजा है। अगर रिपोर्ट सही आएगा, तो भविष्य में सुधार किया जा सकेगा। दोषियों को सज़ा मिलेगी, तो भविष्य में सम्बन्धित विभाग और कम्पनी इस तरह की लापरवाही करने से डरेंगे। इसलिए हादसे के लिए ज़िम्मेदार कौन है, यह तय किया जाना ज़रूरी है। जिससे भविष्य में ऐसे हादसों को सम्भवत: रोका जा सके।

 

देश में प्रमुख रोपवे

 भेड़ाघाट रोपवे, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ग्लेनमोर्गन रोपवे, ऊटी, तमिलनाडु

 स्काईव्यू पटनीटॉप, जम्मू-कश्मीर

 गुलमर्ग गोंडोला केबल कार, जम्मू-कश्मीर

 मलमपुझा उडऩ खटोला, केरल

 संगीत घाटी केबल कार, दार्जिलिंग पश्चिम बंगाल

 राजगीर रोपवे, बिहार

 आउली केबल कार, उत्तराखण्ड

 गन हिल केबल कार, मसूरी, उत्तराखण्ड

 महाकाली रोपवे, गुजरात

 सोलांग रोपवे, मनाली, हिमाचल प्रदेश

 गंगटोक रोपवे, सिक्किम

 द्रवि केबल विद बैंक रोपवे, सिक्किम

 गुवाहाटी पैसेंजर रोपवे, असम

अब धर्म पर कौन है?

पिछले छ:-सात साल से जिस तरह जातिवाद और धर्मवाद को लेकर हमारे देश में माहौल बन रहा है, वह चंद स्वार्थी और मज़बूत लोगों को छोडक़र सबके लिए घातक सिद्ध होगा। समस्या यह है कि लोग धर्म से जितने अनभिज्ञ होते जा रहे हैं, उतने ही धर्म-परायण होने का दावा कर रहे हैं। यह भी कह सकते हैं कि धर्म को समझे बिना अपने-अपने धर्म का झण्डा लिये उन्मादी होकर घूम रहे हैं। यह आजकल हर धर्म में हो रहा है। लोग धर्म को बचाने का दम्भ भर रहे हैं और ख़ुद को धर्म के सहारे ऐसे ही छोड़ रहे हैं, जैसे तैरना और नाव चलाना नहीं जानने वाले लोग उस पर सवार होकर समुद्र पार कर रहे हों। ज़ाहिर है सब डूबेंगे। लेकिन धर्म क्या है? धर्म की परिभाषा को अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग तरीक़े से बतायी गयी है।

सनातन धर्म में कहा गया है- ‘धारयति इति धर्म:’ अर्थात् जो धारण योग्य हो, वही धर्म है। सवाल यह है कि क्या कुछ भी, जिसे किसी ने धारण कर लिया हो, वह धर्म है? क्योंकि धारण तो लोग बहुत कुछ करते हैं। कोई अच्छाई धारण करता है, तो कोई बुराई धारण करता है। इसे स्पष्ट करने के लिए गौतम ऋषि ने कहा है- ‘यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धि: स धर्म’ अर्थात् जिस काम के करने से अभ्युदय ( उत्तरोत्तर उन्नति अर्थात् कल्याणकारी उत्तरोत्तर उन्नति) और निश्लेयस (मोक्ष) की सिद्धि हो, वह धर्म है। अब सवाल यह है कि धर्म की पहचान क्या है? इसके लिए मनु कहा है-

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्।।’

अर्थात् धृति (धैर्य), क्षमा, दम (वासनाओं पर नियन्त्रण), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अंत:करण एवं शरीर की स्वच्छता), इन्द्रिय निग्रह: (इन्द्रियों पर विजय), धी (बुद्धिमत्ता का सदुपयोग), विद्या (अधिक-से-अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन, वचन और कर्म से सत्य पर चलना) और क्रोध न करना ही धर्म है। अर्थात् जो इन 10 लक्षणों का पालन करता है, वह धर्म पर है। महाभारत में कहा गया है-

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।’

अर्थात् जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसका नाश कर देता है। इसलिए धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मरा हुआ धर्म कभी आपको मार डालेगा। आज सनातन धर्म को इसी धर्म के लोगों ने मार दिया है। अब तो लोग यह भी भूलते जा रहे हैं कि वे सनातनधर्मी हैं। वेदों से दूर हुए लोग अब अलग-अलग किताबों को अपना धर्मग्रन्थ समझने की भूल कर रहे हैं। उन्हें यह तक ज्ञान नहीं रहा कि वेद ही उनके धर्मग्रन्थ हैं। इस धर्म के अधिकांश लोग अब स्वयं को हिन्दू कहने लगे हैं; जबकि वेदों से लेकर इस धर्म के किसी भी ग्रन्थ में हिन्दू शब्द तक नहीं है। बस कुछ लोग इन्हें धर्मांधता के कुएँ में गिरा रहे हैं और इस धर्म के लोग उसमें गिरते जा रहे हैं।

सनातन धर्म में कहा गया है कि ईश्वर एक है। वह न देवता है। न देवी है। न दृश्य है। न अदृश्य है। न किसी से अनभिज्ञ है। न पैदा हुआ है। न मरेगा। न उसका कोई पिता है, न माता। वह राजा की तरह किसी एक जगह विराजमान भी नहीं है; पर हर जगह विद्यमान है।

इस्लाम में धर्म की कोई परिभाषा तो मुझे कहीं नहीं मिली; लेकिन इस्लाम पर चलने वालों को मुसलमान कहा गया है और मुसलमान होने का सबसे पहला लक्षण बताया गया है कि जो मुसलसल (लगातार) अपने ईमान पर क़ायम हो, वह मुसलमान है। लेकिन केवल ईमान पर रहने से कोई मुसलमान नहीं हो जाता। उसके लिए इस धर्म में कुछ नियम भी हैं। उदाहरण के तौर पर- पाँच वक़्त की नमाज़ पढऩा। माह-ए-रमज़ान में रोज़ा रखना, अपनी मेहनत और ईमानदारी की कमायी में से ढाई फ़ीसदी ज़कात निकालना अर्थात् दान करना। किसी भी रोज़ बिना पड़ोसियों को पूछे खाना तक नहीं खाना। दहेज़ न लेना। ब्याज नहीं लेना। किसी को बुरा नहीं कहना। अल्लाह (ईश्वर) के सिवाय किसी और की इबादत (ध्यान) न करना। किसी का हक़ नहीं मारना। सच बोलना। पाक (पवित्र) रहना।

इसी तरह ईसाई धर्म में भी धर्म के लक्षण तो नहीं बताये गये हैं; लेकिन कुछ नियम इसमें भी हैं। उदाहरण के तौर पर- शत्रु को क्षमा करना। किसी का हक़ नहीं मारना। सच बोलना। दुखियों की सेवा करना। ईश्वर की प्रार्थना करना। पाप से बचना आदि।

हालाँकि यह सब जानकर एक बात तो साफ़ है कि अब कोई भी व्यक्ति अपने धर्म पर पूरी तरह नहीं है और किसी भी धर्म में नहीं है। क्योंकि कोई भी पूरी तरह अपने धर्म का पालन नहीं करता है। लेकिन इन तीन धर्मों के बारे में इतनी जानकारी के बाद एक बात यह सामने आती है कि सभी धर्मों में चार-पाँच बातें एक समान हैं। पहली यह कि ईश्वर एक है। दूसरी यह कि पाप मत करो। तीसरी यह कि किसी पर अत्याचार मत करो। चौथी यह कि बेईमानी मत करो। पाँचवीं यह कि ईश्वर की उपासना करो (अपने-अपने तरीक़े से ही सही)। सवाल फिर वही कि अब धर्म पर कौन है?

किसी को कोविड वैक्सीन के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को कहा कि किसी भी व्यक्ति को कोविड-19 की वैक्सीन लगाने के लिए वाध्य नहीं किया सकता। साथ ही सर्वोच्च अदालत ने केंद्र से इस तरह के टीकाकरण के प्रतिकूल प्रभाव के आंकड़े सार्वजनिक करने को भी कहा है। हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि कोविड-19 वैक्सीन नीति को स्पष्ट रूप से मनमाना और अनुचित नहीं कहा जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने एक जैकब पुलियेल की याचिका पर यह फैसला सुनाया। याचिका में  कोविड-19 टीकों और टीकाकरण के बाद के मामलों के नैदानिक परीक्षणों पर आंकड़ों के प्रकटीकरण के लिए निर्देश देने की मांग की गई थी।

न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति बीआर गवई की पीठ ने कहा कि ‘संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत शारीरिक स्वायत्तता और अखंडता की रक्षा की जाती है। संख्या कम होने तक, हम सुझाव देते हैं कि संबंधित आदेशों का पालन किया जाए और टीकाकरण नहीं करवाने वाले व्यक्तियों के सार्वजनिक स्थानों में जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जाए। यदि पहले से कोई प्रतिबंध लागू हो तो उसे हटाया जाए।’

सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि टीका परीक्षण आंकड़ों को अलग करने के संबंध में, व्यक्तियों की गोपनीयता के अधीन, किए गए सभी परीक्षण और बाद में आयोजित किए जाने वाले सभी परीक्षणों के आंकड़े अविलंब जनता को उपलब्ध कराए जाने चाहिए।

पीठ ने केंद्र सरकार को लोगों के निजी आंकड़ों से समझौता किए बिना सार्वजनिक रूप से सुलभ प्रणाली पर जनता और डॉक्टरों पर टीकों के प्रतिकूल प्रभावों के मामलों की रिपोर्ट प्रकाशित करने को भी कहा है।