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मोदी सरकार के आठ साल तेज अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने का उदाहरण: राहुल

महंगाई, कोयला संकट, बेरोजगारी के बढ़ते आंकड़ों के बीच कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सोमवार को कहा कि बेरोजगारी, ऊर्जा संकट, किसान संकट और महंगाई देश की बड़ी और खतरनाक समस्या बन गए हैं। उन्होंने कहा कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के तहत पिछले आठ साल में भारत दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने का एक केस स्टडी बन गया है।

एक ट्वीट में कांग्रेस नेता ने कहा – ‘बिजली संकट, नौकरियों का संकट, किसान संकट, मुद्रास्फीति संकट। पीएम मोदी का 8 साल का कुशासन इस बात का एक केस स्टडी है कि दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक को कैसे बर्बाद किया जाए।’

सीएमआईई की आज ही बेरोजगारी बढ़ने को लेकर आई रिपोर्ट के बीच राहुल गांधी का यह ट्वीट आया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अप्रैल महीने में देश में बेरोजगारी दर बढ़कर 7.63 फीसदी पहुँच गयी है।

हाल में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी के बाद कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहा है। संसद के सत्र में भी कांग्रेस ने इन मुद्दों को लेकर खूब हंगामा किया था।

अनैतिक ‘नाता’

वर्षों से ‘तहलका’ ने अपनी खोजी पत्रकारिता और विभिन्न स्टिंग ऑपरेशंस के लिए नाम कमाया है। स्टिंग के साथ पत्रिका का सिलसिला क्रिकेट मैच फिक्सिंग घोटाले का पर्दाफ़ाश करने के साथ शुरू हुआ और फिर बड़ा अंडरकवर ‘ऑपरेशन वेस्ट’ ऐंड ‘सामना’ आया, जिसने रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार की चूलें हिला दीं। इससे एक राष्ट्रीय बहस शुरू हुई और तत्कालीन रक्षा मंत्री तथा सत्तारूढ़ गठबंधन के वरिष्ठ सदस्यों को इस्तीफ़े देने के लिए मजबूर होना पड़ा। ‘तहलका’ के उठाये एक अन्य मामले में विशेष सीबीआई अदालत ने एक मेजर जनरल को दोषी ठहराया, जो तब तक सेवानिवृत्त हो गये थे। ‘तहलका’ के लिए यह जनहित की पत्रकारिता थी, जिसने इसे दो बार पत्रकारिता में उत्कृष्टता के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रेस संस्थान (आईपीआई) से अवॉर्ड दिलाया। ‘तहलका’ द्वारा बाद के वर्षों में कई अन्य अहम् स्टिंग ऑपरेशन किये गये, जिनसे यह सुनिश्चित हुआ कि पत्रकारिता के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।

‘तहलका’ द्वारा निर्धारित उच्च आदर्शों को ध्यान में रखते हुए हम पत्रिका के इस अंक में अपनी कवर स्टोरी ‘नाता प्रथा या लिव-इन रिलेशनशिप?’ के साथ एक और ख़ुलासा कर रहे हैं। कई लोगों के लिए अज्ञात यह पुरानी प्रथा अभी भी राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों में प्रचलित है। यह प्रथा शुरू में महिलाओं, ज़्यादातर विधवाओं और बाल विवाह की शिकार महिलाओं को पुनर्विवाह के लिए सशक्त रास्ता खोलती थी। लेकिन अब यह दोषपूर्ण हो गयी है। अब यह देखा गया है कि पुरुष विवाहेत्तर सम्बन्धों के लिए इस प्रथा का एक लाइसेंस के रूप में दुरुपयोग कर रहे हैं। प्रथा को लेकर ‘तहलका’ की खोज से ज़ाहिर होता है कि इसके बहाने असहाय महिलाओं को बेचा जाता है; नीलाम किया जाता है और उनके पतियों द्वारा नयी महिलाओं को ख़रीदने के लिए पैसे की लूट होती है।

विवाह को हमेशा से ही पवित्र बंधन माना जाता रहा है। जैसा कि शब्द ‘नाता’ सिर्फ़ एक रिश्ते का संकेत देता है। इस प्रथा के तहत भावी पति को किसी भी शादी की रस्मों को करने की आवश्यकता नहीं होती है। केवल पुरुष को उस महिला को कुछ राशि का भुगतान करने की आवश्यकता होती है, जिसके साथ वह नाता करना चाहता है। चूँकि यह एक क़ानूनी विवाह नहीं है, इसलिए नाता प्रथा के तहत महिलाएँ न तो भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं और न ही इस व्यवस्था से पैदा हुए उनके या उनके बच्चों के पास विरासत का कोई अधिकार रहता है। इस प्रथा को आधुनिक समय की ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ कहा जा सकता है। यानी बिना किसी अधिकार के रिश्ता। दरअसल नाता प्रथा के तहत इस व्यवस्था से पैदा हुए हालात में महिलाओं और बच्चों का जीवन ज़्यादातर बर्बाद होकर बिखर जाता है।

‘तहलका’ ने नाता प्रथा की $खामियाँ सामने लाकर अपना फ़र्ज़ अदा कर दिया है; और अब यह केंद्र और राज्यों पर निर्भर है कि वे इस प्रथा के तहत पीडि़त महिलाओं और इस व्यवस्था से प्रताडि़त हो रहे बच्चों की मदद करें। शायद इस प्रथा का मूल कारण ग़रीबी, अशिक्षा और अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी है। इन असहाय महिलाओं और बच्चों को उनके मौलिक अधिकारों की आवश्यकता है; जैसा कि संविधान के अनुच्छेद-14 के तहत निहित है, जिसमें समानता का अधिकार, शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का अधिकार, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार और घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियमित है। क्या कोई इसे सुनेगा?

 

रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच मैक्रों फिर बने राष्ट्रपति

अब जून के संसदीय चुनाव में बड़ी राजनीतिक लड़ाई का करेंगे सामना

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने राष्ट्रपति चुनाव में अंतत: अपनी धुर दक्षिणपंथी प्रतिद्वंद्वी, ले पेन को हरा दिया। अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो और यूरोपीय संघ को निश्चित ही इस नतीजे से राहत मिली है कि यूक्रेन को उनका सैन्य समर्थन एक क़रीबी सहयोगी (फ्रांस) से बिना बाधा जारी रहेगा। इसी तरह यह नतीजे मुसलमानों के लिए, जो फ्रांस में कुल मतदाताओं का लगभग आठ फ़ीसदी हैं; की विरोधी ताक़तों के ध्रुवीकरण को कम-से-कम कुछ समय के लिए या संसदीय चुनाव तक रोकने में सफल रहे हैं।

जैसा कि अक्सर कहा जाता है कि लड़ाई जीती जाती है। लेकिन युद्ध जीतना एक लम्बी क़वायद है। मैक्रों के लिए भी यही सच है। राष्ट्रपति के रूप में दूसरा कार्यकाल जीतने के लिए उनका स्वागत किया जा रहा है। लेकिन वह अपने सामने की चुनौतियों को जानते हैं। जीन मेरी ले पेन की अदम्य साहस वाली बेटी ले पेन, अपने पिता के राजनीतिक एजेंडे को उत्साहपूर्वक आगे बढ़ा रही हैं। उन्होंने क्रमश: सन् 2017 और इस साल 2022 में मैक्रों के ख़िलाफ़ दो बार लड़ाई लड़ी। हो सकता है कि वह भविष्य में चुनाव नहीं लड़ सकें। लेकिन इस साल जून में होने वाले आगामी संसदीय चुनावों में अपनी विचारधारा को और विस्तार दे सकती हैं। सन् 2017 के नेशनल असेंबली चुनावों में मैक्रों की पार्टी ला रिपब्लिक एन. मार्चे 577-सदस्यीय सदन में 308 सदस्यों के साथ सत्ता में आयी थी। मैक्रों ने सन् 2017 के चुनाव के दौरान आनुपातिक प्रतिनिधि प्रणाली शुरू करने का वादा किया था; लेकिन उन्होंने इसे लागू करने के लिए क़दम नहीं उठाये। हाल में हुए राष्ट्रपति चुनाव के दौरान वह मुस्लिम मतदाताओं को जीतने के लिए काफ़ी आगे तक गये और बार-बार चेतावनी दी थी कि यदि उनकी प्रतिद्वंद्वी जीत गयीं, तो वह सार्वजनिक रूप से बुर्क़ा (मुस्लिम हेड स्कार्फ) पहनने पर प्रतिबंध लगा देंगी।

जून के चुनाव के दौरान साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज़ हो सकता है। इस बीच धुर वामपंथी तीसरे स्थान पर रहे, उम्मीदवार जीन-ल्यूक मेलेनचॉन ने अपने मतदाताओं से आगामी संसदीय चुनावों में अपने वोटों को मज़बूत करने की अपील की है। मेलेनचॉन ने कहा कि मरीन ले पेन की हार हमारे लोगों की एकता के लिए बहुत अच्छी ख़बर है और आगामी संसदीय चुनावों में इमैनुएल मैक्रों की पार्टी के ख़िलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व करने की क़सम खायी। इस तरह देखा जाए, तो अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी शक्तियों द्वारा राजनीतिक युद्ध लड़ा जा रहा है, ताकि फ्रांस को अपने जाल में ही रखा जाए। मैक्रों की जीत ने शायद रूस-यूक्रेन युद्ध के समाधान के साथ-साथ यूरोप में मुसलमानों के ख़िलाफ़ भविष्य में हिंसा के किसी भी विस्फोट को शान्त करने के लिए थोड़ा स्थान दिया है। मैक्रों की राजनीतिक लड़ाई उनकी जीत के साथ समाप्त नहीं हुई है। लेकिन संसदीय चुनाव में एक अनुकूल प्रधानमंत्री की जीत सुनिश्चित करने के लिए उन्हें अपने राजनीतिक अभियान को तेज़ करना होगा। यह देखा जाना बा$की है कि संसदीय चुनावों के दौरान जर्मन चांसलर ओलाफ स्कोल्ज़, पुर्तगाली प्रधानमंत्री एंटोनियो कोस्टा और स्पेनिश प्रीमियर पेड्रो सांचेज़ की पहले की सलाह मतदाताओं को प्रभावित करेगी या नहीं? उन्होंने ले मोंडे दैनिक में संयुक्त रूप से लिखा था कि हमारे लिए दूसरों की तरह यह चुनाव भर नहीं हैं। उन्होंने आगाह किया था कि फ्रांस को एक लोकतांत्रिक उम्मीदवार के बीच एक विकल्प का सामना करना पड़ रहा है। याद रहे कि ले पेन ने सन् 2017 में क्रेमलिन में पुतिन से मुलाक़ात की थी और उन्होंने सन् 2014 में रूस के क्रीमिया पर क़ब्ज़े को स्वीकार कर लिया था; जबकि उनकी पार्टी ने रूसी-चेक बैंक से क़र्ज़ भी लिया था। दिलचस्प बात यह है कि रूसी विरोधी रुख़ अपनाने के बावजूद अधिकांश यूरोपीय देश संघर्ष के शीघ्र समाधान के लिए उत्सुक हैं। वे नहीं चाहते कि यूरोप के पूर्वी हिस्से पर चल रहा युद्ध अब और जारी रहे। वर्तमान संघर्ष उन्हें द्वितीय विश्व युद्ध की याद दिलाता है। बढ़ती मुद्रास्फीति के साथ वे पहले से ही अपनी अर्थ-व्यवस्था पर रूस-यूक्रेन संघर्ष के प्रभाव का सामना कर रहे हैं। हालाँकि फ्रांस में मतदाता विभाजित प्रतीत होता है, जिसमें पुराने फ्रांसीसी मतदाता, विशेष रूप से 70 साल से ऊपर के मतदाता अधिक उदार हैं, जबकि युवा मतदाता तेज़ी से बायें या दायें की ओर आकर्षित हो रहे हैं।

नतीजों के बाद 24 अप्रैल की रात मैक्रों की विजय रैली यूरोपीय संघ के गान ओड टू जॉय की आवाज़ से गूँज उठी थी, जहाँ उन्होंने लोगों को आश्वासन दिया था कि वे अब एक $खेमे के उम्मीदवार नहीं हैं, बल्कि हम सब के राष्ट्रपति हैं। यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने भी उनका स्वागत किया। डेर ने फ्रेंच में ट्वीट किया- ‘एक साथ हम फ्रांस और यूरोप को आगे बढ़ाएँगे।’

मैक्रों की जीत के बावजूद यह स्पष्ट नहीं है कि आम लोगों ने तीन यूरोपीय शक्तियों, जर्मनी, इटली और पुर्तगाल की सलाह कैसे ली है कि उन्हें अति-दक्षिणपंथी, मरीन ले पेन की हार सुनिश्चित करनी चाहिए। यह पहली बार है कि यूरोपीय संघ के भीतर ऐसी अपील जारी की गयी। हालाँकि यह अभी तक पता नहीं चल पाया है कि मतदाता अपने घरेलू मामलों में इस तरह के स्पष्ट हस्तक्षेप का जवाब भविष्य के चुनाव में कैसे देंगे? यह मुद्दा सामने आ सकता है और संसदीय चुनावों के दौरान मैक्रों के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इसे एक मुद्दे के रूप में उठा सकते हैं।

 

चुनाव और मुसलमान

एक माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक सैमुअल पेटी की हत्या ने अधिकारियों को फ्रांस में इस्लामी कट्टरपंथियों की बड़ी उपस्थिति के बारे में चिन्तित कर दिया था। ऐसा माना जाता है कि पैटी ने अपने शिष्यों को पैगंबर मुहम्मद के विवादास्पद कार्टून दिखाये थे। इसने मॉस्को में पैदा हुए एक मुस्लिम युवक 18 वर्षीय चेचन अब्दुलाख के मन में ज़हर भर दिया, जो हत्या स्थल से क़रीब 100 किलोमीटर दूर इव्रेक्स के नॉर्मंडी शहर में रह रहा था। उनका मिस्टर पेटी या उनके स्कूल से कोई सम्बन्ध नहीं था। ऐसा कहा जाता है कि दो मुस्लिम पादरियों ने शिक्षक के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी किया था। फ्रांस पश्चिमी यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी का देश है और कई मुसलमानों को लगता है कि राष्ट्रपति चुनाव अभियान ने उनके भरोसे को ग़लत तरीक़े से कलंकित किया है। धुर दक्षिणपंथी उम्मीदवार मरीन ले पेन, जब पहले दौर के मतदान में मैक्रों से पीछे चल रही थीं; ने कहा था कि वह सार्वजनिक रूप से हेडस्कार्फ और प्रतिबंध का उल्लंघन करने वाली महिलाओं पर प्रतिबंध लगा देंगी। मैक्रों की मुसलमानों के ख़िलाफ़ ऐसी कोई योजना नहीं थी। हालाँकि उनकी सरकार ने भी कई मस्जिदों और इस्लामी समूहों को बन्द करने का आदेश उनके पिछले सत्ता काल में दिया है, जिनके बारे में माना जाता है कि वे कट्टरपंथी इस्लामी विचारों को बढ़ावा देते हैं। इसी 10 अप्रैल को पहले दौर में मुस्लिम मतदाताओं के बीच

किसी भी उम्मीदवार ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। इसके बजाय लगभग 70 फ़ीसदी ने तीसरे स्थान पर रहने वाले जीन-ल्यूक मेलेनचॉन का समर्थन किया।

कैसे खड़ी हो कांग्रेस?

पार्टी में चिन्तन जारी, कांग्रेस में नहीं गयेप्रशांत

भीतरी दुविधाओं और भाजपा के गाँधी परिवार के ख़िलाफ़ लगातार हमलों के बीच फँसी कांग्रेस की चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पी.के.) से भी बात नहीं बन पायी। मसला 2024 के लोकसभा चुनाव और उससे पहले राज्यों में पार्टी को खड़ा करने का था। प्रशांत किशोर सीधे अध्यक्ष सोनिया गाँधी को रिपोर्ट करते हुए हर फ़ैसले में हस्तक्षेप चाहते थे; लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को यह मंज़ूर नहीं था। प्रशांत किशोर कांग्रेस में शामिल नहीं होंगे। लेकिन इसके बावजूद पी.के. कांग्रेस को एक तटस्थ रणनीतिकार के रूप में सुझाव दे सकते हैं या पार्टी उनकी सेवाएँ ले सकती है। हालाँकि इसका पता भविष्य में ही चलेगा। पार्टी में कई वरिष्ठ और युवा नेता इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि कांग्रेस को राज्यों में खड़ा करना पड़ेगा, जबकि प्रशांत लोकसभा चुनाव के लिए राज्यों के बड़े क्षत्रपों ममता बनर्जी, चंद्रशेखर राव, चंद्रबाबू नायडू जैसे नेताओं से मिलकर पार्टी की रणनीति बनाने के हक़ में थे। कांग्रेस को लगता था इससे राज्यों में उसका अपना बचा-खुचा संगठन और आधार भी ख़त्म हो जाएगा। पी.के. के अलग होने के बाद कांग्रेस ने अब अपने तौर पर अगले विधानसभा चुनावों और 2024 के चुनावों के लिए तैयार करने की कोशिश संगठन में फेरबदल करके शुरू कर दी है। राज्यों में नये अध्यक्ष बनाये जा रहे हैं। मई में कांग्रेस का चिन्तन शिविर हो रहा है, जिसमें पार्टी को मज़बूत करने पर गहन चर्चा होगी।

कांग्रेस में शामिल होने और पार्टी की 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति बुनने का ज़िम्मा प्रशांत किशोर की आईपैक कम्पनी को मिलने की ख़त्मों के बाद जब मीडिया में यह कयास लग रहे थे कि पी.के. को क्या पद मिलेगा? तभी यह बात सामने आयी कि प्रशांत तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के साथ भी चुनाव पर बात कर रहे हैं। राव वह नेता हैं, जो हाल में काफ़ी सक्रिय हुए हैं और राष्ट्रीय राजनीति में उन्होंने दिलचस्पी दिखायी है। हालाँकि वह कांग्रेस को किसी भी सम्भावित तीसरे मोर्चे का ज़रूरी हिस्सा बताते रहे हैं; लेकिन यह भी ख़त्में रही हैं कि उनकी अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएँ हैं। हाल में जब राहुल गाँधी तेलंगाना के दौरे पर गये थे, तो उन्होंने राव कुछ नीतियों की आलोचना की थी। लेकिन इसके बावजूद पी.के. कांग्रेस को एक तटस्थ रणनीतिकार के रूप में सुझाव दे सकते हैं या पार्टी उनकी सेवाएँ ले सकती है।

क्या अब यह माना जाए कि प्रशांत किशोर के बिना कांग्रेस का काम नहीं चलेगा? कांग्रेस से बाहर कुछ लोगों ने ऐसी राय ज़ाहिर की है। लेकिन शायद यह सच नहीं है। कांग्रेस सत्ता में लम्बे समय तक और सन् 2004 से सन् 2014 तक बिना प्रशांत किशोर के ही रही। हाँ, प्रशांत किशोर ने उनके और कांग्रेस के बीच किसी गठबंधन के न होने के बाद जाते-जाते एक बात सच कही कि ‘कांग्रेस को आज एक अदद अध्यक्ष की ज़रूरत है।’ उनका यह भी सुझाव था कि पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार अलग-अलग हों। अर्थात् पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार यदि गाँधी परिवार से हो, तो पार्टी अध्यक्ष ग़ैर-गाँधी हो।

शुरू में प्रशांत किशोर और कांग्रेस में काफ़ी चीज़ें मंज़ूरी की तरफ़ बढ़ती दिख रही थीं। लेकिन दो मसलों पर पेच ऐसा फँसा कि बातचीत ही टूट गयी। पहला बड़ा मसला था कि प्रशांत किशोर ने अपने सुझावों में (जिसकी स्लाइड्स उन्होंने पार्टी को दी थीं) प्रियंका गाँधी को पार्टी अध्यक्ष प्रियंका गाँधी को बनाने का सुझाव दिया था और प्रधानमंत्री का किसी और को बनाने का। इसके उलट कांग्रेस हर हालत में राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाना चाहती है। यह भी कहा जाता है कि प्रशांत कांग्रेस को बिहार (राजद आदि), महाराष्ट्र (एनसीपी, शिवसेना आदि) और जम्मू-कश्मीर (नेशनल कॉन्फ्रेंस आदि) जैसे राज्यों में वर्तमान सहयोगियों से अलहदा होने का सुझाव दे रहे थे।

तमाम बातों के बीच प्रशांत किशोर के कांग्रेस से अलग होने को लेकर कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा- ‘प्रशांत किशोर के साथ बैठक और चर्चा के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने लोकसभा चुनाव 2024 को फोकस करते हुए एक समिति (ईएजी) का गठन किया था, जिसमें चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को शामिल होने को कहा था। लेकिन किशोर ने ऑफर को ठुकराते हुए कांग्रेस में शामिल होने से इन्कार कर दिया। हम उनके सुझावों और प्रयास के लिए उनकी सराहना करते हैं।’

प्रशांत किशोर ने इसे लेकर कहा- ‘मैंने ईएजी के हिस्से के रूप में पार्टी में शामिल होने और चुनावों की ज़िम्मेदारी लेने के कांग्रेस के उदार प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। मेरी विनम्र राय में परिवर्तनकारी सुधारों के माध्यम से गहरी जड़ें जमाने वाली संरचनात्मक समस्याओं को ठीक करने के लिए पार्टी को मुझसे अधिक नेतृत्व और सामूहिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है।’

हाल में उनके कांग्रेस में शामिल होने को लेकर दो बार चर्चा हुई। हालाँकि दोनों बार प्रशांत कांग्रेस में नहीं जा पाये।

‘तहलका’ के जानकारी के मुताबिक, कांग्रेस के भीतर वरिष्ठ नेताओं का एक ऐसा मज़बूत वर्ग है, जो प्रशांत की सब कुछ उनके ज़रिये किये जाने वाली माँग के कतई समर्थन में नहीं था। यही नहीं, इनमें से कुछ वरिष्ठ नेताओं का नेतृत्व को सुझाव था कि पार्टी की सारी रणनीति एक ऐसे व्यक्ति के सामने उजागर नहीं की जा सकती, जो दूसरे विरोधी दलों के लिए भी काम करता हो। यही कारण रहा कि पी.के. की इस बात पर पार्टी में सहमति नहीं बन पायी कि चुनाव की सारी रणनीति उनके ज़रिये बुनी जाए।

 कांग्रेस के पास विकल्प

कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है। आज भी उसके पास रणनीतिकार वरिष्ठ नेताओं और ऊर्जावान युवा नेताओं की कमी नहीं। यह रिपोर्ट लिखे जाने के समय पार्टी नेतृत्व काफ़ी सक्रिय दिख रहा है और उसने राज्यों में नया नेतृत्व सामने लाने के लिए अध्यक्षों और टीमों की नियुक्ति की है। शायद उसने अपने स्तर पर ख़ुद को हार की धूल झाडक़र उठाने की तैयारी कर ली है।

चुनाव हारने के बाद पंजाब और इस साल चुनाव में जाने वाले राज्य हिमाचल प्रदेश और पड़ोसी हरियाणा में अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने नये अध्यक्षों और टीम की नियुक्तियाँ की हैं। पंजाब में विधानसभा चुनाव में झटका देने वाली हार के बाद अमरिंदर सिंह राजा वारिंग, हिमाचल में पूर्व मुख्यमंत्री और क़द्दावर नेता रहे दिवंगत राजा वीरभद्र सिंह की तीसरी बार सांसद बनी पत्नी प्रतिभा सिंह और हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के विश्वस्त उदय भान को अध्यक्ष बनाया गया है।

पार्टी के संगठन चुनाव से पहले, जिसमें पार्टी अध्यक्ष का चुनाव होना है; कांग्रेस की यह बड़ी क़वायद है। कांग्रेस में हाल के महीनों में एक नयी परम्परा शुरू हुई है। पंजाब में उसने अध्यक्ष के अलावा कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाये थे, जिसके बाद हिमाचल और हरियाणा में भी यही करते हुए चार-चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाये हैं। शायद ऐसा करने के पीछे उसका मक़सद राज्यों में सभी क्षेत्रों में नेताओं को प्रतिनिधित्व देकर शान्त करना हो; लेकिन इससे यह भी होगा कि एक से अधिक शक्ति केंद्र स्थापित हो जाएँगे। वैसे कई नेता इस विचार को सही ठहराते हैं। उनका कहना है कि इससे संगठन मज़बूत होगा; क्योंकि इन नेताओं को ज़िम्मेदारी के अहसास के कारण काम करने की प्रेरणा मिलेगी।

कांग्रेस में अब अन्य राज्यों में बड़े स्तर पर फेरबदल की तैयारी कर ली गयी है। यही नहीं, दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं की लम्बे समय के बाद 10 जनपथ में वापसी हुई है। दिग्विजय सिंह सन् 2017 के बाद राजनीतिक बियाबान में थे। उनके अलावा वरिष्ठ नेता और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, अम्बिका सोनी, जयराम रमेश, मुकुल वासनिक और पी. चिदंबरम ने सोनिया गाँधी के साथ लम्बी बैठकें करके संगठन पर चर्चा की। वरिष्ठ नेता $गुलाम नबी आज़ाद भी नयी भूमिका में दिख सकते हैं। यह तय है कि पार्टी के वरिष्ठ नेता, जो फ़िलहाल अलग-थलग पड़े हुए थे; कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय किये जा रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी अभी से 2024 के राष्ट्रीय चुनाव की तैयारियों में दिख रही हैं। प्रशांत किशोर के सुझाव के बाद सोनिया गाँधी ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ बैठक करके एक ‘एम्‍पावर्ड एक्‍शन ग्रुप 2024’ बनाया है। यही ग्रुप 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर रणनीति बनाने का काम करेगा। पार्टी की तरफ़ से प्रशांत को भी इसी ग्रुप का हिस्सा बनने का ऑफर था; लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इन्कार कर दिया।

कांग्रेस नेतृत्व ने हाल में यह भी संकेत दिये हैं कि वह पार्टी से बाहर गये नेताओं को वापस लेने की इच्छुक है। इसके अलावा पार्टी नेतृत्व नेताओं को बाहर जाने से रोकने की क़वायद करने की भी सोच रहा है। हाल में पार्टी की अनुशासन समिति ने दो बड़े नेताओं पंजाब के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ और पूर्व केंद्रीय मंत्री के.वी. थॉमस के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की सिफ़ारिश की थी। हालाँकि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने उन्हें पार्टी से बाहर करने की सिफ़ारिश स्वीकार न करते हुए उन्हें सिर्फ़ वर्तमान पदों से बाहर किया। ज़ाहिर है सोनिया नरम रवैया अपनाने की रणनीति पर काम कर रही हैं।

 

चिन्तन शिविर में होंगे कई फ़ैसले

कांग्रेस 13-15 मई तक राजस्थान के उदयपुर में नवसंकल्प चिन्तन शिविर आयोजित कर रही है। इस शिविर में 400 प्रतिनिधि भाग लेंगे, जिनमें वरिष्ठ नेता, कार्यकर्ता आदि होंगे। देश भर के पार्टी नेता इसमें आगे की रणनीति पर चर्चा करेंगे। इसका फ़ैसला करने के लिए जो नेता 10 जनपथ पर हुई लम्बी बैठक में जुटे थे, उनमें के.सी. वेणुगोपाल, दिग्विजय सिंह, अंबिका सोनी, सुरजेवाला, जयराम रमेश और प्रियंका गाँधी शामिल हैं। राहुल गाँधी इसमें शामिल नहीं हुए।

चिन्तन शिविर में पार्टी के भविष्य के एजेंडे का ख़ुलासा हो जाएगा। चिन्तन शिविर में पूरे देश के कांग्रेस नेता जुटेंगे। पार्टी के तमाम सांसद, विधायक, प्रदेश प्रभारी, प्रदेश महासचिव, प्रदेश अध्यक्ष और विधायक दल के नेता शामिल होने के चलते इसे कांग्रेस का महाकुंभ कहा जाता है। चिन्तन शिविर में छ: प्रस्ताव पारित होंगे। इस प्रस्तावों के लिए छ: अलग-अलग नेताओं की अगुवाई में राजनीतिक समितियाँ बनायी गयी हैं। ये समितियाँ पार्टी के नये एजेंडे यानी विजन डॉक्यूमेंट को तैयार करेंगी।

दिलचस्प बात यह है कि असन्तुष्ट चल रहे नेताओं, जिन्हें जी-23 कहा जाता है, के 5 नेताओं को इन समितियों में सोनिया गाँधी ने शामिल किया है। ऐसे में यह बड़े बदलाव की ओर संकेत है। राजस्थान से केवल सचिन पायलट को इन राजनीतिक कमेटी में शामिल किया गया है। ग़ुलाम नबी आज़ाद सहित कपिल सिब्बल, शशि थरूर, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा, पी.जी. कुरियन, रेणुका चौधरी, मिलिंद देवड़ा, मुकुल वासनिक, भूपिंदर सिंह हुड्डा, राजिंदर कौर भट्ठल, एम. वीरप्पा मोइली, पृथ्वीराज चव्हाण, अजय सिंह, राज बब्बर, अरविंद सिंह लवली, कौल सिंह ठाकुर, अखिलेश प्रसाद सिंह, कुलदीप शर्मा, योगानंद शास्त्री, संदीप दीक्षित, विवेक तन्खा जैसे नेता इसमें शामिल हैं।

हालाँकि उदयपुर में होने वाले कांग्रेस के राष्ट्रीय चिन्तन शिविर के लिए छ: राजनीतिक समितियाँ बनायी गयी है। ये समितियाँ पार्टी के नये एजेंडे तय करेगी। इसमें संगठनात्मक बदलाव, राजनीतिक नियुक्तियाँ, यूथ एंड एम्पॉवरमेंट, आर्थिक, सोशल एम्पॉवरमेंट और खेती किसानी से जुड़े बड़े मुद्दों को लेकर पार्टी का विजन डॉक्यूमेंट तैयार करेंगी। इन समितियों में उन पाँच नेताओं को शामिल किया गया है, जिन्होंने केंद्रीय नेतृत्व पर सवाल खड़े किये थे। इनमें ग़ुलाम नबी आज़ाद, शशि थरूर मुकुल वासनिक, भूपिंदर सिंह हुड्डा और आनंद शर्मा शामिल हैं। सचिन पायलट, जिन्होंने बग़ावत के संकेत दिये थे; को भी उदयपुर में होने वाले कांग्रेस के राष्ट्रीय चिन्तन शिविर में ख़ास तवज्जो दी गयी है।

जिन पर रहेगी नज़र

ग़ुलाम नबी आज़ाद : जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे, कई बार केंद्र में मंत्री बने, पार्टी का बड़ा मुस्लिम चेहरा, पार्टी की नब्ज़ पहचानने वाले नेता।

सचिन पायलट : राजस्थान के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष, पूर्व केंद्रीय मंत्री, ऊर्जावान नेताओं में शामिल।

दिग्विजय सिंह : मध्य प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहे, संगठन पर मज़बूत पकड़, उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना और असम जैसे राज्यों के प्रभारी रहे, जहाँ लोकसभा की क़रीब 250 सीटें हैं।

शशि थरूर : पूर्व केंद्रीय मंत्री, अपनी बात साफ़ रूप से कहते हैं।

मुकुल वासनिक, भूपिंदर सिंह हुड्डा और आनंद शर्मा : सभी पार्टी के दिग्गज नेता हैं और विभिन्न पदों पर रहे हैं। पार्टी के लिए भूमिका निभाने में सक्षम।

क्या चाहते थे प्रशांत किशोर?

प्रशांत किशोर चाहते थे कि सोनिया गाँधी पूर्णकालिक कांग्रेस अध्यक्ष बनें। एक कार्यकारी अध्यक्ष और उपाध्यक्ष गाँधी परिवार से बाहर का बने। राहुल गाँधी को संसदीय दल का नेता बनाया जाए। ग़ैर-गाँधी कार्यकारी या उपाध्यक्ष वरिष्ठ नेतृत्व के आदेशों के तहत हो। कांग्रेस आम लोगों के बीच पैठ मज़बूत करे। पार्टी गाँधीवाद के अपने सिद्धांतों पर ही चले। गठबंधन साथियों को बराबर भरोसे में रखे। पार्टी एक परिवार-एक टिकट के फॉर्मूले पर सख़्ती से चले। सिर्फ़ चुनाव के ज़रिये ही पार्टी के संगठन प्रतिनिधि चुने जाएँ। अध्यक्ष और कार्यकारी समिति सहित हर पोस्ट के लिए एक समय सीमा (कार्यकाल) तय किया जाए। क़रीब 15,000 ज़मीनी नेताओं के साथ एक करोड़ कार्यकर्ता मैदान में मज़बूती से काम करें। क़रीब 200 प्रभावी लोगों, कार्यकर्ताओं और सिविल सोसायटी के लोगों का ग्रुप बनाया जाए। प्रशांत का सुझाव गठबंधन से जुड़े मुद्दे को सुलझाने और पार्टी के संवाद सिस्टम में बदलाव पर ज़ोर के अलावा देश की जनसंख्या, मतदाता, विधानसभा सीटें, लोकसभा सीटों तक के आँकड़े तैयार रखने पर था। उन्होंने अपने सुझावों में महिलाओं, युवाओं, किसान और छोटे व्यापारियों की संख्या तक का ज़िक्र किया, जिसमें 2024 में 13 करोड़ फस्र्ट टाइम वोटर्स पर भी नज़र रखने की बात थी। उनकी प्रेजेंटेशन में बताया गया कि कांग्रेस के राज्यसभा और लोकसभा के मिलकर 90 सांसद, जबकि देश भर में 800 विधायक हैं। दो राज्यों में सरकार, जबकि दो में सहयोगी दलों के साथ सरकार है। वहीं 13 राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है। तीन राज्यों में कांग्रेस सहयोगियों के साथ मुख्य विपक्षी दल है। कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने के लिए प्रशांत किशोर ने तीन फॉर्मूले बताये। एक यह कि कांग्रेस देश भर में अपने बूते चुनाव लड़े। दूसरा यह कि कांग्रेस भाजपा और मोदी को हराने के लिए सभी पार्टियों के साथ आये और यूपीए को मज़बूत कर मुख्य विपक्षी गठबंधन बनाया जाए। तीसरे यह कि कुछ जगह कांग्रेस अकेले चुनाव में उतरे, जबकि कुछ जगह गठबंधन सहयोगियों के साथ। कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होने की अपनी छवि को बचाकर रखे।

किसके सहारे बहुजन?

बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बाद मान्यवर कांशीराम इकलौते ऐसे नेता हुए हैं, जिन्होंने दलितों के लिए जीवन लगा दिया। कांशीराम ने तो न सिर्फ़ दलितों के लिए, बल्कि पिछड़ों के लिए भी एक लम्बा संघर्ष किया और अपने लिए एक कमरे तक का घर नहीं बनाया, न ही परिवार वालों के लिए कभी कुछ किया। पूरे देश के दलितों और पिछड़ों के उत्थान के लिए बहुजन समाज की पताका लिए वह जब घर से निकले, तो उन्होंने कभी पीछे मुडक़र नहीं देखा। आख़िरकार उत्तर प्रदेश में वह सबसे ज़्यादा मज़बूती में दिखे और मायावती को आगे कर बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा की सरकार बनाने में कामयाब भी रहे। मायावती इस दौर में इस क़दर उभरीं कि वह चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। यह वो दौर था, जब बसपा न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में, बल्कि दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और बिहार की तरफ़ भी बढ़ी। लेकिन इन राज्यों में राजनीतिक दख़ल के बावजूद कोई ख़ास मुकाम हासिल नहीं कर सकी।

बता दें कि आज़ाद भारत में अंबेडकर ने साल 1956 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की थी। इस पार्टी ने साठ के दशक में महाराष्ट्र, दिल्ली और उत्तर भारत में अपना मज़बूत जनाधार बनाया था। इस पार्टी के ज़रिये दलित राजनीति का गढ़ महाराष्ट्र में विदर्भ बना और उत्तर प्रदेश में आगरा। हालाँकि अंबेडकर के निधन के बाद इस पार्टी में फूट पड़ गयी। लेकिन बाद में पंजाब में जन्मे कांशीराम ने अंबेडकर के दलित उत्थान मिशन को आगे बढ़ाया, जिसमें उन्होंने दलितों के साथ ही पिछड़ों के हक़ की भी बात की। हालाँकि कांशीराम का सपना था कि बहुजन समाज पार्टी एक मज़बूत और नेशनल पार्टी बनकर उभरे। लेकिन राजनीति में उनके द्वारा लायी गयीं मायावती उनके इस सपने को बहुत दिनों तक जीवित नहीं रख सकीं। हालाँकि जब मायावती राजनीति में चमक रही थीं, तो वह केंद्र में आने और प्रधानमंत्री बनने के सपने ज़रूर देखती रहीं। हालाँकि यह अलग बात है कि उन्होंने बाद में सवर्णों को साथ लेकर भी उत्तर प्रदेश में सरकार बनायी; लेकिन उसके बाद से उनके पैर उत्तर प्रदेश से उखड़ते चले गये और अब तो हाल यह है कि बसपा की नाव तक़रीबन डूबती नज़र आ रही है। इसकी कई वजह हैं। पहली यह कि मायावती की टक्कर का कोई नेता बसपा में दूसरा नहीं है, जो बहुजनों की इस पार्टी का केवल नेतृत्व ही नहीं कर सके, बल्कि बहुजनों को भरोसे में भी ले सके। दूसरी वजह यह है कि मायावती के अब वो तेवर नहीं रह गये हैं, जो 2012 तक रहे हैं। तीसरी यह कि अब वह उम्र के लिहाज़ से शारीरिक स्वास्थ्य से भी जूझ रही हैं। चौथी यह कि बसपा में मायावती के बाद सतीश मिश्र की तूती बोलती है, जिसे दलित और पिछड़ा, दोनों ही वर्ग स्वीकार नहीं करना चाहते। और पाँचवीं व आख़िरी वजह यह है कि अब दलित और पिछड़ों की राजनीति हर पार्टी करने लगी है, चाहे वो कांग्रेस हो, चाहे भाजपा हो, चाहे कोई अन्य क्षेत्रीय दल हो।

 

ग़ौरतलब है कि अभी कुछ दिन पहले 14 अप्रैल को डॉ. अंबेडकर की 131वीं जयंती मनायी गयी, जिसे हर राजनीतिक दल ने धूमधाम से मनाया। ज़ाहिर है इसमें वो पार्टियाँ भी शामिल रहीं, जो विशुद्ध रूप से सवर्णों की राजनीति करती हैं; क्योंकि अंबेडकर की जयंती और पुण्यतिथि मनाने का सबका एक ही प्रयोजन है कि किसी तरह दलित और पिछड़ा मतदाता (वोटर) उनका पक्का मतदाता हो जाए। कई दल काफ़ी हद तक इसमें सफल भी हुए हैं, जिनमें भाजपा शीर्ष पर है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी अंबेडकर कार्ड खेलना शुरू कर दिया है। उन्होंने तो दिल्‍ली के स्कूल ऑफ एक्सीलेंस का नाम बदलकर अंबेडकर स्कूल ऑफ एक्सीलेंस तक कर दिया है। वहीं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने तो अंबेडकर की जन्मस्थली महू को तीर्थ दर्शन योजना में शामिल करने की घोषणा तक कर डाली। उन्होंने यह भी कहा कि लोग वहाँ मुफ़्त में सफ़र कर सकेंगे। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने भी अंबेडकर जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा लिया। लेकिन इस मुहिम में प्रधानमंत्री मोदी सबसे आगे हैं, उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद से अंबेडकर जयंती हर साल मनायी। पिछले दिनों तो वह संत रविदास जयंती पर अचानक दिल्ली स्थित रविदास मन्दिर पहुँच गये और वहाँ महिलाओं के बीच बैठकर खड़ताल बजाते दिखे। जानकारों का मानना है कि इसका असर उन दिनों चल रहे पाँच राज्यों के चुनावों पर कुछ-न-कुछ तो ज़रूर पड़ा और बसपा का वोट भाजपा को ट्रांसफर हुआ।

वहीं दूसरी ओर बहुजन आन्दोलन से निकली बसपा ने इस बार अंबेडकर जयंती पर बड़े पैमाने पर हर सम्भाग में कार्यक्रम आयोजित किये। इस दौरान लखनऊ स्थित पार्टी कार्यालय में बसपा प्रमुख मायावती ने बड़े तल्ख़ लहज़े में कहा कि जातिवादी सरकारें उपेक्षित वर्ग के नेताओं को अपने समाज का भला करने की छूट नहीं देती हैं। दलितों के लिए यदि कोई कुछ करने का प्रयास करता है, तो उसे भी दूध की मक्खी की तरह निकालकर बाहर कर दिया जाता है।

प्रधानमंत्री मोदी से पहले कांग्रेस ने, ख़ासकर इंदिरा गाँधी ने दलितों को अपने साथ लेने की राजनीति की थी। यह वो दौर था, जब दलितों का अपना कोई नेता केंद्र सरकार में ही नहीं, राज्यों में भी उतने क़द का नहीं था, जो कि उनका प्रतिनिधित्व कर सके। पिछड़ों के तो कई नेता तब तक केंद्र की राजनीति में आ चुके थे; लेकिन अंबेडकर के बाद दलितों का ऐसा कोई नेता केंद्र में नहीं था, जो ईमानदारी से उनके हक़ की लड़ाई लड़ सके। इक्का-दुक्का नेता राज्यों में था भी, तो वो या तो बड़े क़द का नहीं था या अपने स्वार्थों की पूर्ति में लग गया था। ऐसे में दलितों के पास कांग्रेस के अलावा कोई विकल्प नहीं था और स्वाभाविक तौर पर वो कांग्रेस की तरफ़ लम्बे समय तक झुके रहे। लेकिन जैसे ही उन्हें कांशीराम जैसा सच्चा दलित हितैषी नेता मिला उनका कांग्रेस से मोहभंग होने लगा। इतना ही नहीं, कांशीराम ने पिछड़ों का भी ध्यान अपनी ओर खींचा और उनका कांग्रेस से काफ़ी हद तक मोहभंग कराया। अब दलितों की राजनीति में कई पार्टियाँ कूद पड़ी हैं और वो उन्हें अपने ख़ेमे में करने में लगी हैं।

लेकिन सवाल यह है कि क्या ये नेता और इनकी पार्टियाँ दलितों और पिछड़ों को वो सब दे सकेंगे, जो करने का सपना इन वर्गों के लिए बाबा साहब डॉ. अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम ने देखा था? यह सवाल इसलिए भी ज़रूरी है कि जब राजनीति की फिसलन भरी ज़मीन पर आने के बाद ख़ुद मायावती, जो कि ख़ुद दलित और पिछड़े वर्ग से हैं, उनका ख़याल नहीं रख सकीं, तो दूसरों से इन वर्गों के लिए क्या उम्मीद की जा सकती है? सवाल यह भी है कि मायावती के बाद क्या दलितों और पिछड़ों को कोई ऐसा नेता मिल सकेगा? जो उनकी समस्याओं के लिए जूझ सके, उनके हक़ उन्हें दिलवा सके? हालाँकि अब तक इस मामले में तक़रीबन सभी दलित नेता फेल ही रहे हैं; लेकिन मायावती से एक दौर में उम्मीद थी कि वह बहुजनों के हक़ दिलवाकर रहेंगी। हालाँकि अब इस तरह की उम्मीद करना व्यर्थ ही है; क्योंकि मायावती अब दलितों के मुद्दों और देश में हो रही राजनीति पर ख़ामोश ज़्यादा रहती हैं। एक और दलित नेता इन दिनों उत्तर प्रदेश में उभरकर सामने आया है और वह हैं चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’। चंद्रशेखर दलित युवाओं के काफ़ी प्रिय नेता हैं; लेकिन मायावती के क़द को वह न तो छू सके हैं और न भविष्य में इसकी सम्भावना दिखती है। इसकी एक वजह यह है कि चंद्रशेखर राजनीतिक पैंतरेबाज़ी में अभी उतने मंजे हुए खिलाड़ी नहीं हैं, जितनी की मायावती। दूसरी वजह यह है कि चंद्रशेखर की पहचान पूरे प्रदेश में भी अभी नहीं बन सकी है, जबकि मायावती की छवि राष्ट्रीय स्तर की है। लेकिन अब दलित और पिछड़े वोट बैंक पर सबसे ज़्यादा क़ब्ज़ा सत्ताधारी दल भाजपा का है, जो कि प्रधानमंत्री मोदी की वजह से है। यह अलग बात है कि आज की राजनीति में प्रधानमंत्री मोदी का विकल्प ठीक उसी तरह दिखायी नहीं दे रहा है, जिस तरह एक दौर में इंदिरा गाँधी का कोई विकल्प नज़र नहीं आता था।

ख़ैर यह तो राजनीतिक दाँव-पेच की बातें और समय का फेर है। कहा जाता है कि राजनीति में अगले पल क्या होगा? यह भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। हर कोई मौक़े की नज़ाकत देखकर चाल चलता है और उसका फ़ायदा उठाता है। रही बात जातिगत खेल की, तो यह तो राजनीतिक लोगों का बहुत पुराना पैंतरा रहा है। सच तो यह है कि आम लोगों को उन्हीं की जाति के नेता धोखा देते रहते हैं और लोग भी अपनी जाति के नेताओं के नाम की माला जपते रहते हैं। जिस दिन यह बात लोगों की समझ में आ गयी, उस दिन लोग जाति देखकर नहीं, बल्कि ईमानदारी और क़ाबिलियत देखकर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करेंगे। फिर चाहे वे दलित हों, या पिछड़े हों या सवर्ण हों।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

फल राज्य बन रहा हिमाचल

आर्थिकी का मुख्य आधार बनी बाग़वानी 7 तक़रीबन 12 लाख लोगों को मिल रहा रोज़गार

पर्यटन राज्य के रूप में मशहूर हिमाचल प्रदेश बाग़वानी राज्य के रूप में विकसित हो रहा है। भले सेब राज्य की आर्थिकी का बड़ा आधार रहा हो; लेकिन अन्य फलों के उत्पादन के साथ बाग़वानी प्रदेश के क़रीब 12 लाख लोगों के रोज़गार का ज़रिया बन गया है। प्रदेश में बाग़वानी का क्षेत्र बढक़र ढाई लाख हेक्टेयर होने वाला है और प्रदेश सरकार का लक्ष्य अब फल कारोबार को बढ़ाकर 6,000 करोड़ करने का है।

जहाँ तक सेब की बात है, हिमाचल को सेब उत्पादक राज्य बने 106 साल हो गये हैं। प्रदेश में सेब का पहला पौधा सत्यानंद स्टोक्स ने कोटगढ़ के थानाधार में सन् 1916 में अमेरिका के लुसियाना से लाकर रोपा था और बाद में इसका पूरा बग़ीचा तैयार किया था। सेब की व्यावसायिक खेती के 100 साल पूरे होने पर बाक़ायदा कार्यक्रम किया गया था।

जानकारों का कहना है कि बाग़वानी हिमाचल में आय के विभिन्न स्रोत उत्पन्न कर लोगों की आर्थिकी को सुदृढ़ करने में सहायक सिद्ध हो रही है। इस समय राज्य में 2.34 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाग़वानी के अधीन है। इस साल मार्च तक पिछले चार साल में प्रदेश में 31.40 लाख मीट्रिक टन फल उत्पादन हुआ है। इस अवधि में बाग़वानी क्षेत्र की वार्षिक आय औसतन 4575 करोड़ रुपये रही और औसतन 12 लाख लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से रोज़गार मिला है। गर्म जलवायु वाले निचले क्षेत्रों में बाग़वानी की अपार सम्भावनाओं के दृष्टिगत, बाग़वानी क्षेत्र के समग्र विकास और राज्य के लोगों को स्वावलंबी बनाने की दिशा में उपोष्णकटिबंधीय बाग़वानी, सिंचाई और मूल्य संवर्धन परियोजना (एचपी शिवा) प्रदेश सरकार की इस दिशा में बड़ी पहल है। परियोजना के तहत बीज से बाज़ार तक की संकल्पना के आधार पर बाग़वानी विकास किया जाएगा। इसमें नए बग़ीचे लगाने के लिए बाग़वानों को उपयुक्त पौध सामग्री से लेकर सामूहिक विपणन तक की सहायता और सुविधाएँ प्रदान की जाएँगी। हाल के वर्षों में बाग़वानी के वैश्विक बाज़ार में राज्य के योगदान में कई गुणा वृद्धि दर्ज की गयी है।

हिमाचल के बाग़वानी मंत्री महेंद्र सिंह ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘हिमाचल अब फल राज्य बनने की ओर अग्रसर है। परियोजना के अंतर्गत बीज से बाज़ार तक की संकल्पना के आधार पर बाग़वानी विकास किया जाएगा। परियोजना का लक्ष्य अधिक-से-अधिक बेरोज़गार युवाओं और महिलाओं को बाग़वानी कार्य से जोडऩा है।’

एशियन विकास बैंक के सहयोग से क्रियान्वित की जा रही कुल 975 करोड़ रुपये लागत की इस परियोजना में 195 करोड़ रुपये सरकार का अंशदान है। हिमाचल सरकार ने परियोजना के क्रियान्वयन के लिए अब तक 48.80 करोड़ रुपये प्रदान किये हैं, जिसमें से मार्च तक 37.31 करोड़ रुपये व्यय किये जा चुके हैं।

इस परियोजना के अन्र्तगत सिंचाई सुविधा के साथ-साथ फलों की बेहतर क़िस्मों से बाग़वानी क्षेत्र में क्रान्ति लाने के उद्देश्य से अमरूद, लीची, अनार और नींबू प्रजाति के फलों के पायलट परीक्षण के लिए एशियन विकास बैंक मिशन द्वारा क़रीब 75 करोड़ रुपये से वित्तपोषित योजना तैयार की गयी, जिसमें बिलासपुर, हमीरपुर, मंडी और कांगड़ा ज़िलों के 12 विकास खण्डों के 17 समूहों के तहत क़रीब 200 हेक्टेयर क्षेत्र के किसानों का चयन कर सभी समूहों में पौधरोपण का कार्य किया गया है।

सरकार के मुताबिक, एचपी शिवा परियोजना के तहत एएफसी इंडिया लिमिटेड के सहयोग से बाग़वानों को संगठित कर सहकारी समितियों का गठन करके इन्हें पंजीकृत किया जा रहा है। ये समितियाँ परियोजना के तहत स्थापित किये जा रहे बग़ीचों के सामूहिक प्रबन्धन, सामूहिक उत्पादन, उत्पादित फ़सलों के मूल्य संवर्धन, प्रसंस्करण और सामूहिक विपणन हेतु कार्य करने के साथ ही फलों से सम्बधित अन्य व्यवसायिक गतिविधियों का संचालन भी करेंगी, जिसके लिए उद्यान विभाग द्वारा इन समितियों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है और इनका क्षमता विकास किया जा रहा है। इन समितियों को बहु-हितधारक मंच के माध्यम से विभिन्न सेवा प्रदाता संस्थाओं और बाज़ार से जोड़ा जाएगा, जिससे बाग़वानों को तकनीकी मागदर्शन व सेवाओं के साथ ही विपणन में सहयोग प्रदान किया जा सके।

उत्पादित फ़सलों के मूल्य संवर्धन हेतु मुख्य परियोजना में विभिन्न संरचनाओं जैसे पैकिंग, सॉर्टिंग और ग्रेडिंग हाउस, वातानुकूलित भण्डार गृह (सीए स्टोर), प्रसंस्करण इकाइयाँ, पैकेजिंग सामग्री आदि के विकास का प्रावधान किया जा रहा है। प्रदेश सरकार द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं कि बाग़वानों को उनके बाग़ानों में ही फ़सल का उचित मूल्य मिल सके।

 बाग़वानी का बजट बढ़ा

हिमाचल सरकार ने 2022-23 बजट में बाग़वानी क्षेत्र के लिए 540 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। कृषि क्षेत्र के लिए 583 करोड़ रुपये रखे गये हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि बाग़वानी के लिए कृषि क्षेत्र के लगभग बराबर ही राशि रखी गयी है। मार्च में विधानसभा में बजट चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री जयराम ने कहा था कि बाग़वानी क्षेत्र में उत्पादन और  उत्पादकता बढ़ाने के लिए एक बाग़वानी नीति तैयार की जाएगी। मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि सत्यानंद स्टोक्स के व्यक्तित्व और योगदान को ध्यान में रखते हुए उनकी कर्मभूमि शिमला ज़िला के कोटगढ़ थानाधार और आसपास के क्षेत्र को ‘सत्यानन्द स्टोक्स ट्रेल’ बनाया जाएगा। इसका बहुआयामी स्वरूप बाग़वानी, पर्यटन, भाषा और संस्कृति विभागों के समन्वय से विकसित किया जाएगा। पराला मंडी को आदर्श मंडी के रूप में विकसित किया जा रहा है। फलों और सब्ज़ियों के भण्डारण की सुविधाओं में और अधिक बेहतरी के लिए इस मंडी में 60.93 करोड़ रुपये की लागत से 5,000 मीट्रिक टन क्षमता का एक नया कोल्ड स्टोर स्थापित किया जाएगा। इसके साथ ही 1,500 मीट्रिक टन क्षमता का फ्रीजिंग चैंबर, 10 मीट्रिक टन प्रति घंटा क्षमता की ग्रेडिंग पैकिंग लाइन और एक मीट्रिक टन प्रति घंटा क्षमता की आईक्यूएफ लाइन स्थापित की जाएगी। इसके अलावा बाग़वानी विकास परियोजना के अंतर्गत शिलारू और पालमपुर में दो उत्कृष्टता केंद्र स्थापित किये जाएँगे, जिसके लिए 18 करोड़ रुपये का प्रावधान प्रास्तावित है। बाग़वानी क्षेत्र में चलायी जा रही विभिन्न लघु सिंचाई योजनाओं का निर्माण कार्य विभिन्न चरणों में है। माली साल 2022-23 में लगभग 9,000 हेक्टेयर अतिरिक्त खेती युक्त भूमि में सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध करवा दी जाएँगी। इस पर 198 करोड़ रुपये ख़र्च किये जाएँगे।

उधर पराला की फल प्रसंस्करण इकाई में उत्पादन इस साल से शुरू हो रहा है। माली वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान 91 करोड़ रुपये की लागत से पराला में बन रहे फल प्रसंस्करण इकाई में उत्पादन शुरू कर दिया जाएगा और परवाणु और जड़ोल में स्थित फल प्रसंस्करण इकाई का 17 करोड़ रुपये की लागत से उन्नयन किया जाएगा। इसके साथ ही पांवटा साहिब, कांगनी और शाट में बन रहे मार्केट याड्र्स (बाज़ार अहाते) सितंबर, 2022 तक किसानों व बाग़वानों को समर्पित कर दिये जाएँगे। परवाणु में बन रहे मार्केट यार्ड को भी मार्च, 2023 से पहले पूरा कर लिया जाएगा। इन पर 35 करोड़ रुपये ख़र्च किये जाएँगे।

फल प्रसंस्करण इकाइयों के अलावा सीए स्टोर स्थापित किये जा रहे हैं। क़रीब 58 करोड़ रुपये की लागत से चच्योट, रिकांगपिओ, ज्ञाबोंग और चंबा में सीए स्टोर्स का निर्माण इसी वित्त वर्ष 2022-23 में शुरू कर दिया जाएगा। इसके साथ ही रोहड़ू, गुम्मा, जड़ोल टिक्कर, टूटूपानी और भुंतर में बन रहे सीए स्टोर और ग्रेडिंग और पैकेजिंग हाउस में का इसी वर्ष लोकार्पण कर दिया जाएगा। इन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए 75 करोड़ रुपये का व्यय किया जाएगा।

सरकार के मुताबिक, उच्च घनत्व क़िस्मों का पौधरोपण और इम्युनिटी बूस्टर वाली फ़सलों की शुरुआत की जाएगी। जामुन और मेवों की खेती के लिए क्लस्टर बनाए जाएँगे। शिटाके और ढींगरी आदि मशरूम की क़िस्मों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए और मशरूम प्रसंस्करण और डिब्बाबंदी के लिए तीन करोड़ रुपये व्यय किये जाएँगे।

हिमाचल में सेब अभी भी आर्थिकी का सबसे बड़ा ज़रिया है। सेब की तीन क़िस्मों रेड, रॉयल और गोल्डन डिलिशियस से हुई शुरुआत के 100 साल बाद हिमाचल में 90 क़िस्मों की सेब प्रजातियों की खेती प्रदेश में हो रही है। प्रदेश में 1,10,679 हेक्टेयर क्षेत्र में 7.77 लाख मीट्रिक टन सेब पैदा हो रहा है। शिमला, कुल्लू, मंडी, चम्बा, किन्नौर, लाहुल स्पीति और सिरमौर ज़िलों में सेब पैदा किया जाता रहा है। हालाँकि इसका विस्तार अब गर्म इलाक़ों की तरफ़ किया जा रहा है। वैसे हिमाचल के कुल सेब उत्पादन का 80 फ़ीसदी शिमला ज़िले में होता है। प्रदेश में सालाना तीन से चार करोड़ पेटी सेब का उत्पादन है।

क्या है एचपी शिवा परियोजना?

मुख्य परियोजना के लिए प्रदेश के सात ज़िलों- सिरमौर, सोलन, ऊना, बिलासपुर, हमीरपुर, कांगड़ा और मंडी के 28 विकास खण्डों में 10,000 हेक्टेयर भूमि की पहचान की गयी है, जिससे 25,000 से अधिक किसान परिवार लाभान्वित होंगे। यह आत्मनिर्भर हिमाचल की संकल्पना को साकार करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम है। परियोजना के तहत बाग़वानी क्रान्ति लाने के लिए उच्च घनत्व वाली खेती को बढ़ावा दिया जाएगा और वैज्ञानिक प्रणाली से बग़ीचे का संरक्षण और देख-रेख की जाएगी। इसके अतिरिक्त फल-फ़सलों को जंगली जानवरों से बचाने के लिए कम्पोजिट सौर बाड़बंदी का प्रावधान किया गया है। उपलब्ध जल संसाधनों का समुचित उपयोग सुनिश्चित करने के लिए टपक या ड्रिप सिंचाई प्रणाली स्थापित करने और क्लस्टरों के प्रबन्धन के लिए कृषि उपकरण और कृषि लागत पर भी सब्सिडी का प्रावधान है। परियोजना के तहत बाग़वानी में क्रान्ति लाने के लिए 100 सिंचाई योजनाओं का विकास किया जाएगा, जिनमें 60 फीसदी सिंचाई परियोजनाओं का मरम्मत कार्य और 40 $फीसदी नयी परियोजनाएँ शामिल हैं, ताकि वर्षा के पानी पर निर्भरता न रहे।

“प्रदेश में बाग़वानी कृषि क्षेत्र में विकास के प्रमुख कारकों में से एक बन रहा है। यह क्षेत्र प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर प्रदान कर रहा है। बाग़वानी की फ़सलों, विशेष रूप से फल वाली फ़सलों पर मौसम में बदलाव का अपेक्षाकृत कम प्रभाव होता है। इस कारण प्रदेश के अधिकाधिक लोग बाग़वानी अपना रहे हैं। प्रदेश सरकार बाग़वानी को बढ़ावा देने के प्रयास से राज्य की कृषि अर्थ-व्यवस्था को एक नयी गति प्रदान कर रही है। हमें उम्मीद है कि हिमाचल फल राज्य के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने की तरफ़ बढ़ रहा है।’’

महेंद्र सिंह

बाग़वानी मंत्री, हिमाचल प्रदेश

टिहरी के बाद लोहारी भी डूब गया

 लखवाड़ व्यासी जल विद्युत परियोजनाओं का काम हुआ तेज़ 7  120 घर जलसमाधि देकर देश को देंगे बिजली

इंसान की ज़िन्दगी में हवा, बिजली और पानी तीन ऐसी आवश्यकताएँ हैं, जिनके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन देवभूमि उत्तराखण्ड में देहरादून के एक गाँव लोहारी में वक़्त की कुछ ऐसी हवा चली कि आज गाँव वालों को पानी से ही डर लगने लगा है और बिजली से नफ़रत-सी हो गयी है। इसका मूल कारण है कि उनका पैतृक लोहारी गाँव को प्रशासन ने व्यासी जल विद्युत परियोजना के तहत ख़ाली करा लिया है। उत्तराखण्ड में बने सबसे बड़े टिहरी बाँध में समायी ऐतिहासिक टिहरी की विरासत की यादें अभी भूली भी नहीं थीं कि दोबारा 120 परिवारों की 100 साल पुरानी यादें अब इस परियोजना की भेंट चढ़ गयी हैं।

उत्तराखण्ड देवभूमि की भौगोलिक परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि हिमालयी शृंखला में बसे इस राज्य के आँचल में गंगा और यमुना समेत अनेक नदियाँ लाखों करोड़ों लोगों की प्यास बुझाने के साथ जीवनदायिनी के रूप में अविरल सदियों से बह रही हैं। भारत के धार्मिक और ऐतिहासिक मानचित्र पर उत्तराखण्ड यूँ तो अपना विशेष स्थान बदरीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री, गंगोत्री और हेमकुंड साहिब की वजह से रखता ही है; लेकिन राजधानी देहरादून के जनजातीय क्षेत्र चकराता के लाक्षयाग्रह की वजह से इस क्षेत्र की अपनी एक अनूठी पहचान है। सन् 1947 में आज़ादी मिलने के बाद कई नये गाँव और इलाके बसे और उन्हीं में से एक देहरादून ज़िले के जौनसार बावर क्षेत्र में लखवाड़ और लखस्यार गाँव भी बसे। वह ज़माना और था और बहुसंख्य लोग मेहनत व ईमानदारी की कमायी में विश्वास रखते थे। और यहाँ के लोगों ने अपनी कड़ी मेहनत की बदौलत इस बात को सिद्ध भी कर दिया।

यमुना नदी के सहारे जौनसार बाबर के उत्तरी छोर पर स्थानीय ग्रामीणों ने कड़ी मेहनत करके क्षेत्र को हरा-भरा कर दिया और इतना ही नहीं अच्छी खेती से प्रोत्साहित होकर ग्रामीणों ने कुछ दूरी पर पहाड़ी की तलहटी में 10 परिवारों को लेकर एक गाँव भी बसा दिया, जिसको नाम दिया लोहारी गाँव। चूँकि खेती की पैदावार अच्छी होती थी, तो लोहारी वासियों का मूल व्यवसाय ही कृषि हो गया। अक्सर देखा जाए, तो किसी पेड़, पुल या इमारत की एक मियाद होती है। लेकिन विधाता ने लोहारी गाँव की क्या तकदीर लिखी थी? यह किसी को नहीं पता था। अब इसको गाँव वालों का भाग्य कहा जाए या क़ुदरत का फ़ैसला कि अनिश्चितता के साये में पाँच दशक लोहारीवासियों ने व्यतीत कर दिये; लेकिन पारम्परिक तीज-त्यौहार,  शादी-ब्याह के मौक़ों पर कभी भी यहाँ के लोग अपने पैतृक गाँव पहुँचना नहीं भूले। लेकिन अब उनकी वो अमिट यादें भी जल समाधि ले चुकी हैं। लेकिन वक़्त का एक दौर ऐसा आया, जब ग्रामीणों की सारी आस टूट गयी। जून, 2021 में व्यासी जल विद्युत परियोजना के लिए जुडडो गाँव में बनाये गये बाँध की झील में पानी एकत्र किया जाने लगा है, तो ग्रामीणों के सब्र का बाँध टूट गया और उसी दौरान क्षेत्रीय विधायक मुन्ना सिंह चौहान को उस वक़्त ग्रामीणों के जबरदस्त ग़ुस्से का सामना करना पड़ा, जब एक कार्यक्रम में सम्मिलित होने वहाँ पहुँचे।

बात बनती न देख ग्रामीणों ने अपनी माँगों को लेकर अनिश्चितकालीन धरना शुरू कर दिया। पाँच दशकों से अधिक समय से लोहारी में बसे हुए ग्रामीणों की माँग है कि मुआवज़े के अलावा ज़मीन के बदले ज़मीन, मकान के बदले मकान, रोज़गार छिन जाने पर नौकरी दिये जाने की व्यवस्था की जाए। मामला गरमाता देख तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह ने विस्थापन और मुआवज़े के मामले को सदन में भी उठाया; लेकिन नतीजा शून्य ही रहा। उल्टा आन्दोलनरत ग्रामीणों को जबरन धरने से उठाकर जेल भेज दिया गया, जिसमें 17 लोगों पर मुक़दमे भी दर्ज किये गये। इससे हल निकलने के बजाय ग्रामीणों में और ज़्यादा आक्रोश बढ़ गया। गाँव की चंदा चौहान का मानना है कि हम अपने पुरखों की अमानत को दे रहे हैं, जहाँ हम पाँच दशकों से अनाज और सब्ज़ी उगाते आये हैं। गाँव की एक अन्य बुज़ुर्ग महिला 72 वर्षीय गुल्लो देवी इस बात को बताते बताते रो पड़ीं कि रात नींद खुलते ही हमारा रोना छूट जाता है।

विस्थापितों की पैरवी कर रहे राजस्व मामलों के वरिष्ठ अधिवक्ता नरेश चौहान ने ‘तहलका’ को बताया कि गाँव का इतिहास तो औरंगजेब शासनकाल समय का है; लेकिन मौज़ूदा हालातों पर नज़र डालें, तो विस्थापन की ज़द में आये लोहारी गाँव में 72 खातेदार हैं और 96 से 100 के क़रीब परिवार हैं, जो बाँध निर्माण से प्रभावित हुए हैं। नरेश चौहान, जो पुरज़ोर तरीक़े से इस परियोजना के प्रभावितों के हितों की पैरवी करने में जुटे हैं; ने बताया कि वर्ष 1961-62 में इस परियोजना का मसौदा तैयार हुआ था और 10 वर्षों के भीतर 1972 में भूमि अधिग्रहण कर ली गयी। सन् 1976 में इसे स्वीकृति मिली, सन् 1984 में काम शुरू हुआ, जो सन् 1989 तक चरम पर रहा। तब यह परियोजना उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग और जे.पी. कम्पनी के पास थी। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने इसे नेशनल हाइड्रो पॉवर कॉर्पोरेशन (एनएचपीसी) को दे दिया, जिसने सन् 2004 से सन् 2007 तक इसकी डीपीआर तैयार की। लेकिन 300 मेगावॉट की तीन टरबाइन जो प्रथम चरण लखवाड़ और 120 मेगावॉट की द्वितीय चरण ब्यासी जल विद्युत परियोजना की दो टरबाइन बनकर तैयार होनी थी, कुछ तकनीकी कारणों से जल की पर्याप्त उपलब्धता न होने की वजह से संचालन स्थिति तक नहीं पहुँच पायी। पिछले पाँच दशकों से अधिक समय से फाइलों में धक्के खाती आ रही इन परियोजनाओं में पहले चरण में लखवाड़ परियोजना तैयार होनी थी और द्वितीय चरण में ब्यासी जल विद्युत परियोजना तैयार होनी थी, जो आज भी संचालन के महूर्त का इंतज़ार कर रही हैं। इसे सरकार की नाक़ाबलियत कहा जाए या लालफ़ीताशाही, ऊर्जा प्रदेश कहे जाने वाले उत्तराखण्ड में क़ुदरत द्वारा मुहैया करवाये तमाम प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद उत्तराखण्ड बजाय दूसरे राज्यों को बिजली बेचने के उल्टा उनसे महँगी बिजली ख़रीद रहा है।

विरोध और आन्दोलनों के साये में शुरू हुई इन जलविद्युत परियोजनाओं के बन जाने के बावजूद संचालन में आ रही दिक़्क़तों को देखते हुए विभाग ने अंतत: प्रशासन की मदद से पुलिस बल के साथ गाँव ख़ाली कराने का कठोर निर्णय लिया, जिसके चलते 5 अप्रैल, 2022 को प्रभावित परिवारों के खाते में मुआवज़ा राशि हस्तांतरित करने के 48 घंटे में गाँव ख़ाली करने का अल्टीमेटम भी नोटिस के ज़रिये ग्रामीणों के घरों के बाहर चस्पा कर दिया और इसकी अवधि पूरे होते ही बुलडोजर भी चलवा दिया। अपने दादा दादी के पैतृक गाँव को अपनी आँखों के सामने जलमग्न होते देख ग्रामीण भी अपनी आँखों से आँसुओं के सैलाब को नहीं रोक पाये। टिहरी जल विद्युत परियोजना के बाद लोहारी ऐसा दूसरा गाँव हैं, जिसने जल समाधि देकर देश के बाक़ी शहरों को रोशन किया है।

सरकारी आँकड़ों के विपरीत चुभ रही महँगाई

आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने स्पष्ट रूप से कहा है कि धातु की क़ीमतों के साथ-साथ वैश्विक खाद्य क़ीमतें काफ़ी ज़्यादा हो गयी हैं। अर्थ-व्यवस्था मुद्रास्फीति की तेज़ वृद्धि के मार झेल रही है। हालाँकि सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के हाल में जारी अलग-अलग आँकड़ों ने इसे लेकर भ्रम की स्थिति पैदा की है। किसी भी तरह यह तस्वीर भारत के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) पर पर्याप्त रूप से परिलक्षित होती नहीं दिखती है।

इतना ही नहीं, इस साल फरवरी और मार्च के लिए सरकार के मुद्रास्फीति के आँकड़ों के सन्दर्भ में आरबीआई गवर्नर का मुद्रास्फीति पूर्वानुमान भी पूरी तरह से भ्रामक प्रतीत होता है। मार्च में खुदरा मुद्रास्फीति में 6.95 फ़ीसदी दर्ज की गयी, जो पिछले 17 महीनों में सबसे अधिक है और फरवरी में थोक मूल्य में 13.11 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है।

मार्च में थोक मूल्य मुद्रास्फीति बढक़र 14.6 फ़ीसदी हो गयी। भारतीय रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष के लिए खुदरा मुद्रास्फीति लक्ष्य को मौज़ूदा भू-राजनीतिक तनावों के बीच बढ़ती वैश्विक क़ीमतों के कारण 5.7 फ़ीसदी तक बढ़ा दिया है। यहाँ तक कि यदि सर्दियों की फ़सल बेहतर होती है, तो अनाज और दालों की क़ीमतों में नरमी की उम्मीद की जा सकती है।

आरबीआई ने कहा कि महँगाई अब 2022-23 में 5.7 फ़ीसदी अनुमानित है पर पहले क्वार्टर के साथ 6.3 फ़ीसदी, दूसरे क्वार्टर में 5.0 फ़ीसदी, तीसरे में 5.4 फ़ीसदी और चौथे में 5.1 फ़ीसदी पर अनुमानित है। फरवरी में अपनी पिछली नीति समीक्षा में आरबीआई ने 2022-23 में खुदरा मुद्रास्फीति 4.5 फ़ीसदी रहने का अनुमान जताया था। पिछले महीने थोक मूल्य मुद्रास्फीति बढक़र 14.6 फ़ीसदी हो गयी।

मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने भी सर्वसम्मति से समायोजनात्मक बने रहने का निर्णय किया। हालाँकि यह सुनिश्चित करने के लिए स्थिरता की वापसी पर ध्यान केंद्रित किया गया कि मुद्रास्फीति आगे बढऩे के साथ-साथ विकास का समर्थन करते हुए लक्ष्य के भीतर बनी रहे। यह लगातार 11वीं बार है, जब मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने यथास्थिति बनाये रखी है।

आरबीआई गवर्नर ने कहा- ‘हालाँकि कच्चे तेल की क़ीमतों के वैश्विक उछाल के चलते आर्थिक अस्थिरता को देखते हुए विकसित हो रहे भू-राजनीतिक तनाव में विकास और मुद्रास्फीति का कोई भी अनुमान जोखिम से भरा है। हालाँकि आरबीआई ने उम्मीद जतायी कि रबी (सर्दियों) की फ़सल से अच्छी फ़सल होने से अनाज और दालों की क़ीमतों पर नियंत्रण रहेगा।

इस पर ध्यान दिया जा सकता है कि रिजर्व बैंक को खुदरा मुद्रास्फीति को 4 फ़ीसदी पर रखने के लिए बाध्य किया गया है, जिसमें दोनों तरफ़ 2 फ़ीसदी का पूर्वाग्रह है। तथ्य यह है कि पिछले साल के मध्य से भोजन, कपड़े, आवास, परिवहन, दवा और स्वास्थ्य देखभाल की लागत में 50 से 60 या उससे भी अधिक की वृद्धि हुई है। ईंधन की ऊँची क़ीमतों का असर कमोबेश सभी वस्तुओं और सेवाओं की क़ीमतों पर पड़ रहा है। हालाँकि यह वैश्विक स्तर पर है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, पिछले 12 महीने से नवंबर तक वैश्विक खाद्य क़ीमतों में 27.3 फ़ीसदी की वृद्धि हुई। पिछले तीन महीनों में क़ीमतों में और उछाल आया है, ख़ासकर रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद। भोजन, परिवहन और उपयोगिता जैसी आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ गयी हैं। दुनिया भर में दो-तिहाई से अधिक लोग इसकी मार का असर महसूस कर रहे हैं।

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की तरफ़ से हाल में जारी किये गये दो अलग-अलग आँकड़ों से पता चलता है कि मार्च में देश की खुदरा मुद्रास्फीति बढक़र 6.95 फ़ीसदी हो गयी। फरवरी में खुदरा महँगाई 6.07 फ़ीसदी थी। वैसे मुद्रास्फीति के ये आँकड़े भी काफ़ी विश्वसनीय नहीं लगते हैं। वित्त मंत्रालय द्वारा कहा गया कि 2022-23 के राष्ट्रीय व्यय बजट की तैयारी में शामिल $गलत अंतरराष्ट्रीय ईंधन मूल्य अनुमान कि पिछले साल के मध्य तक यह 70 डॉलर प्रति बैरल पर रहेगा। इसे लेकर अर्थशास्त्रियों की तरफ़ से पहले ही आलोचना हो रही है। अंतरराष्ट्रीय ईंधन की क़ीमतें 110 डॉलर प्रति बैरल के आसपास घूम रही हैं। घर वापस, ईंधन की क़ीमतें पहले से ही आसमान छू रही हैं। अकेले इस अप्रैल के दौरान क़ीमतों में 10 फ़ीसदी से अधिक की वृद्धि हुई। क्या उपभोक्ताओं को वास्तव में आधिकारिक तौर पर घोषित मुद्रास्फीति दरों में अधिक विश्वास है?

वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक, थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति में गिरावट का रुख़ बना हुआ है। इसमें कहा गया है कि जनवरी, 2022 (जनवरी, 2021 से अधिक) के महीने के लिए मुद्रास्फीति की वार्षिक दर 12.96 फ़ीसदी (अस्थायी) है, जो नवंबर, 2021 में 14.87 फ़ीसदी और दिसंबर, 2021 में 13.56 फ़ीसदी से लगातार गिरावट पर है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा जारी आँकड़ों के मुताबिक, पिछले साल सितंबर से महँगाई दर इस साल फरवरी में 6.07 फ़ीसदी पर पहुँच गयी थी। इस साल जनवरी में खुदरा महँगाई 6.01 फ़ीसदी थी।

मार्च लगातार तीसरा महीना रहा, जब महँगाई 6 फ़ीसदी के ऊपर रही। हालाँकि अक्टूबर, 2020 में इसका उच्च स्तर (7.61 फ़ीसदी) दर्ज किया गया था। वाणिज्य मंत्रालय की रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि जनवरी, 2022 में मुद्रास्फीति की उच्च दर मुख्य रूप से इसी महीने की तुलना में खनिज तेलों, कच्चे पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, बुनियादी धातुओं, रसायनों और रासायनिक उत्पादों, खाद्य पदार्थों आदि की क़ीमतों में वृद्धि के कारण है। प्राथमिक वस्तु समूह से खाद्य पदार्थ और निर्मित उत्पाद समूह से खाद्य उत्पाद से युक्त खाद्य सूचकांक दिसंबर, 2021 में 169.0 से घटकर जनवरी, 2022 में 166.3 हो गया है। डब्ल्यूपीआई खाद्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर दिसंबर, 2021 के  9.24 फ़ीसदी से जनवरी, 2022 के 9.55 फ़ीसदी तक मामूली रूप से बढ़ी है।

वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय का कहना है कि मार्च, 2022 में मुद्रास्फीति की उच्च दर मुख्य रूप से कच्चे पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, खनिज तेल, मूल धातुओं आदि की क़ीमतों में वृद्धि के कारण है। रूस-यूक्रेन संघर्ष के कारण वैश्विक आपूर्ति शृंखला में व्यवधान के कारण रही। सीपीआई के आँकड़ों के अनुसार, मार्च में तेल और वसा में मुद्रास्फीति बढक़र 18.79 फ़ीसदी हो गयी, क्योंकि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण भू-राजनीतिक संकट ने खाद्य तेल की क़ीमतों को और बढ़ा दिया। यूक्रेन सूरजमुखी तेल का प्रमुख निर्यातक है। मार्च में सब्ज़ियों में मुद्रास्फीति बढक़र 11.64 फ़ीसदी हो गयी, जबकि मांस और मछली में फरवरी, 2022 की तुलना में मूल्य वृद्धि की दर 9.63 फ़ीसदी थी।

आर्थिक सलाहकार कार्यालय, उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग ने जनवरी, 2022 (अस्थायी) और नवंबर, 2021 (अन्तिम) महीने के लिए भारत में थोक मूल्य (आधार वर्ष : 2011-12) की सूचकांक संख्या जारी की है। अब उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में आते हैं और सीपीआई वस्तुओं को इसमें शामिल करता है। इसकी गणना वस्तुओं और सेवाओं के खुदरा मूल्य परिवर्तन पर विचार करके और उपलब्ध प्रत्येक वस्तु के औसत मूल्य को लेकर की जाती है।

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के फील्ड ऑपरेशंस डिवीजन के स्टाफ सदस्यों द्वारा व्यक्तिगत यात्राओं के माध्यम से सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कवर करने वाले कुछ चयनित 1,114 शहरी बाज़ारों और 1,181 गाँव बाज़ारों से मूल्य डेटा एकत्र किया जाता है। भारत में एक राष्ट्रव्यापी विश्वसनीय खुदरा मूल्य गणना करना कहाँ आसान हो सकता है। देश में 28 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं। उनमें से प्रत्येक की एक अद्वितीय जनसांख्यिकी, इतिहास और संस्कृति, त्योहार, भाषा, भोजन की आदतें और अधिक महत्त्वपूर्ण रूप से विशिष्ट उपभोक्ता प्राथमिकताएँ हैं। भारत में कुल 775 ज़िले हैं, जिनमें से गुजरात का कच्छ सबसे बड़ा, पश्चिम बंगाल का उत्तर 24 परगना सबसे अधिक आबादी वाला और मध्य दिल्ली सबसे अधिक भीड़ भाड़ वाला है। सन् 2019 तक भारत में 6,64,369 गाँव दर्ज किये गये। इनमें से बहुत-से गाँवों में उचित रेल-सडक़ कनेक्शन और संगठित बाज़ार नहीं हैं। ऐसी परिस्थितियों में खुदरा मूल्य और मुद्रास्फीति पर नज़र रखना न तो आसान है और न ही काफ़ी भरोसेमंद।

घटते जा रहे दुर्लभ वृक्ष

 धरती से लुप्त हो रहे हैं हज़ारों अनमोल वृक्ष 7  आँगनों से भी ग़ायब हो चुके 60 फ़ीसदी वृक्ष

वृक्षों (पेड़ों) के बिना धरती से जीवन नष्ट हो जाएगा। क्योंकि अगर धरती पर वृक्ष नहीं होंगे, तो छाया, ऑक्सीजन, फल और कई तरह की औषधियाँ भी नहीं होंगी। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय वृक्षों की प्रजातियाँ तेज़ी से लुप्त हो रही हैं। खगोलीय संरचना के अनुसार, भारत में दुनिया के अधिकतर देशों से ज़्यादा वनस्पतियाँ और पेड़-पौधों की प्रजातियाँ हैं।

पूरी धरती की अगर बात करें, तो यह माना जाता है कि क़रीब 60,000 प्रकार की वृक्षों की प्रजातियाँ पूरी धरती पर मौज़ूद हैं। हालाँकि कुछ खगोलविज्ञानियों का मानना है कि समस्त धरती पर कितनी प्रजाति के वृक्ष मौज़ूद हैं? यह कहना अभी मुश्किल है। क्योंकि अभी अनेक जंगल और स्थान हैं, जहाँ के वृक्षों को गिना नहीं जा सका है। क्योंकि वहाँ पहुँचना आज तक किसी के लिए सम्भव नहीं हो सका है। धरती पर मौज़ूद विभिन्न प्रजातियों को धरती का बायोमास का सबसे बड़ा हिस्सा कहा जाता है। यह बायोमास धरती के वन आवरणों के वितरण, संयोजन और संरचना के आधार बना हुआ है।

 सब समझें वृक्षों की उपयोगिता

जब किसी चीज़ की उपयोगिता का पता लोगों को न हो, तो वे उस चीज़ का सदुपयोग नहीं कर सकेंगे और उसे नष्ट होने से नहीं रोकेंगे। वृक्षों की जानकारी से लोग जिस तरह से अनभिज्ञ होते जा रहे हैं, यह चिन्ता का विषय है। जबकि बहुत-से लोग जानते हैं कि वृक्ष हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। वृक्षों की बदौलत ही इंसानों और दूसरे जीवों को ऑक्सीजन मिल पा रही है। इसके अलावा वृक्षों से भोजन, ईंधन, उपयोगी लकड़ी, हवा, औषधियाँ और अन्य कई उपयोगी पदार्थ मिलते हैं। इसके अलावा अलग-अलग वृक्षों की उपयोगिता भी अलग-अलग है। लेकिन आज की पीढ़ी वृक्षों की उपयोगिता के बारे में भूलती जा रही है। इसलिए वनस्पति विज्ञान में वृक्षों की उपयोगिता के बारे में पढ़ाये जाने और सभी लोगों को इनकी उपयोगिता बताये जाने की ज़रूरत है।

 वृक्षों के प्रति हो संवेदनशीलता

भारतीय संस्कृति में कई उपयोगी हरे वृक्षों को काटने पर अनुचित माना गया है। यहाँ तक कि कई तरह के वृक्षों की तो पूजा होती है। पहले लोग वृक्षों के बीच जीवन जीना पसन्द करते थे; लेकिन अब इंसानों और वृक्षों के बीच की दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। ईंट-पत्थरों के बढ़ते घरों और शहरों में बढ़ती आबादी ने वृक्षों से इतनी दूरी बना ली है कि अब शहरों में वृक्षों की संख्या इंसानों से कई गुना कम हो चुकी है। गाँवों के घरों के आँगनों से अब 60 फ़ीसदी वृक्ष कम हो गये हैं। एसी-पंखे के सहारे जीने वाले शहरी इसीलिए बीमारियों से घिरे हुए हैं।

इंसानों और वृक्षों के बीच बढ़ती जा रही इस दूरी को कम करने के लिए द स्टेट ऑफ द वल्ड्र्स ट्रीज में सितंबर, 2021 में पहली बार एक रिपोर्ट प्रकाशित की गयी। यह काम वैज्ञानिकों और संगठनों के अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क ग्लोबल ट्री स्पेशलिस्ट ग्रुप ने पाँच साल तक 58,497 पेड़ों की प्रजातियों पर अध्ययन करके किया। यह वैज्ञानिक और संगठन यूनाइटेड किंगडम में वनस्पति संरक्षण पर काम करने वाली ग़ैर-लाभकारी संस्था बोटैनिक गार्डेंस कंजर्वेशन इंटरनेशनल (बीजीसीआई) और इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर्स स्पीशीज सर्वाइवल कमीशन (आईयूसीएन/एसएससी) के तहत काम करते हैं।

इस रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में क़रीब 142 प्रजातियाँ यानी क़रीब 30 फ़ीसदी प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। रिपोर्ट में एक चिन्ता करने वाला ख़ुलासा यह किया गया है कि दुनिया भर में अभी क़रीब 17,510 वृक्षों की प्रजातियों पर विलुप्त होने का संकट मँडरा रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी दुनिया में पाये जाने वाले सभी वृक्षों का अध्ययन किया जाए, तो लुप्त होने वाले वृक्षों की संख्या क़रीब 38.1 फ़ीसदी हो सकती है। हालाँकि वृक्षों की प्रजातियाँ समशीतोष्ण क्षेत्रों की तुलना में उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में ज़्यादा हैं। इनमें क़रीब 40.4 फ़ीसदी प्रजातियाँ नियोट्रोपिक्स में, क़रीब 23.5 फ़ीसदी इंडो-मलाया में, क़रीब 15.8 फ़ीसदी एफ्रोट्रोपिक्स में, 12.7 फ़ीसदी आस्ट्रालेशिया में, 10.2 फ़ीसदी पेलीआर्कटिक में, और क़रीब 3 फ़ीसदी नीआर्कटिक और ओशिनिया में पायी जाती हैं।

भारत इंडो-मलाया और पेलीआर्कटिक क्षेत्र में आता है, जो वृक्ष विविधता में दुनिया के 17 अत्यधिक विविधता वाले देशों में शामिल है। स्टेट ऑफ द वल्ड्र्स ट्रीज रिपोर्ट के विश्लेषण और आईयूसीएन की सप्लिमेंट्री इंफॉर्मेशन के अनुसार, भारत में कुल 2,608 प्रजातियों के वृक्ष हैं।

 भारत में लुप्त होतीं प्रजातियाँ

वर्तमान भारत में वृक्षों की 413 प्रजातियाँ यानी क़रीब 18 फ़ीसदी प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें दुर्लभ औषधियों, फलों और महत्त्वपूर्ण लकड़ी के वृक्ष शामिल हैं। कोरों के वृक्ष, जिसकी लकड़ी, जो भारत में सबसे अधिक होती थी और घरों से लेकर ट्रेन, पानी के जहाज़ आदि तक में काम में ली जाती थी, अब देखने को नहीं मिलते। कहते हैं कि कोरों की लकड़ी को लोहे की तरह मज़बूत बनने में 200 साल लगते हैं। 120-130 साल में इसका पेड़ तैयार होता है और 70-80 साल उसे काटकर पानी में रखा जाता है, तब कोरों तैयार होता है। यह एक ऐसी लकड़ी होती है, जिसमें सैकड़ों साल तक न कीड़े लगते हैं और न यह गलती है, न कमज़ोर होती है।

इसी तरह चंदन के वृक्षों की घटती संख्या गम्भीर चिन्ता का विषय है। इसके अलावा शीशम, जो पूरे उत्तर भारत में पाया जाता है, इसके वृक्षों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। वेंडलैंडिया एंगस्टिफोलिया, जो तमिलनाडु में कभी बहुतायत में पाया जाता था। लेकिन अब इसके बहुत कम वृक्ष ही बचे हैं। साइनोमेट्रा बेड्डेमेई, जो पश्चिमी भारत में पाया जाता था, अब इसके भी बहुत कम वृक्ष बचे हैं। गम्भीर रूप से लुप्तप्राय सूची में कुछ महत्त्वपूर्ण स्थानिक प्रजातियों में से इलेक्स खासियाना, आदिनांद्रा ग्रिफिथआई, पायरेनेरिया चेरापुंजियाना और एक्विलरिया खासियाना शामिल हैं, जो पूर्वोत्तर राज्य मेघालय में पायी जाती हैं। इसके साथ ही केरल की अगलिया मालाबेरिका, डायलियम ट्रैवनकोरिकम, सिनामोमम ट्रैवनकोरिकम व बुकाननिया बरबेरी भी इस सूची में हैं। जबकि तमिलनाडु की बर्बेरिस नीलगिरिएँसिस व मेटियोरोमिट्र्स वायनाडेन्सिस के साथ ही अंडमान क्षेत्र की शायजिअम अंडमानिकम और वेंडलांडिया अंडमानिकम शामिल हैं। इनमें मसाले की इलिसियम ग्रिफिथआई प्रजातियाँ, इत्र की एक्वीलेरिया मैलाकेंसिस प्रजाति, दवा की कमिफोरा वाइटी प्रजाति, फल की एलियोकार्पस प्रूनिफोलियस प्रजाति शामिल है। इसके अलावा लुप्त हो चुके वृक्षों में पूर्व हिमालय में मिलने वाला होपिया शिंकेंग वृक्ष, सदाबहार प्रजाति का आइलेक्स गार्डनेरियाना वृक्ष, कर्नाटक में पाया जाने वाला मधुका इंसिनिस वृक्ष, मेघालय में पाया जाने वाला वृक्ष स्टरकुलिया खासियाना आदि शामिल हैं। शिंगकेंग और कोराइफा टैलिएरा प्रजातियाँ भी विलुप्त हो चुकी हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत में वृक्षों की 55 प्रजातियाँ गम्भीर रूप से लुप्तप्राय हैं, 136 प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं, 113 प्रजातियाँ संवेदनशील स्थिति में हैं, 49 प्रजातियाँ तेज़ी से घट रही हैं, 736 प्रजातियों की संख्या 20 फ़ीसदी कम हो चुकी है। इसके अलावा 57 प्रजातियों का विवरण अपर्याप्त है और (57) और क़रीब 1,459 प्रजातियों का मूल्याँकन नहीं हो सका है।

 कैसे बचाये जाएँ वृक्ष?

वृक्षों की प्रजातियों को बचाने के लिए भारत को अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाने के साथ-साथ वन संरक्षण की ओर ध्यान देना होगा। इसके साथ ही वृक्षों के अवैध कटानों को रोकना होगा, जंगलों को आग से बचाना होगा और अधिक-से-अधिक पौधरोपण कराना होगा। वनों को बचाने के लिए वन क़ानून प्रवर्तन और वृक्षों की निगरानी व संबद्धता में कमी पर ध्यान केंद्रित करना होगा। द यूएन स्ट्रैटिजिक प्लान फॉर फॉरेस्ट 2017-2030, ग्लोबल फॉरेस्ट गोल-5 पर भी विचार करना होगा। लोगों को पौधरोपण की ओर आकर्षित करने के लिए पुरस्कार वितरण समारोह आयोजित करने होंगे। भारत में वृक्षों के अवैध कटान अपराध की श्रेणी में आता है, लेकिन इसका सख़्ती और ईमानदारी से पालन नहीं होता। फॉरेस्ट अधिकारियों की भी निगरानी करनी होगी और उन्हें सुरक्षा प्रदान करनी होगी। पुलिस को ईमानदार बनाना होगा। फ़िलहाल किसी हरे वृक्ष के काटने पर भारतीय वन क़ानून-1927 की धारा-68 के अंतर्गत पर्यावरण न्यायालय में मामला दर्ज हो सकता है।

चुनाव नहीं, तो प्रलोभन नहीं

राजनीति हिंसा और प्रलोभन से शून्य नहीं होती है। यह एक ऐसा पेशा है, जिसमें स्वार्थ के अलावा न कोई किसी स्थायी दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन। बल्कि स्वार्थ नहीं सध रहा हो, तो नेता जनता से भी सरोकार नहीं रखते। जनता को प्रलोभन नहीं देते। यही हाल मौज़ूदा समय में दिल्ली की सियासत में देखने को मिल रहा है। बताते चलें कि पाँच साल के अंतराल में दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनाव सम्पन्न होते रहे हैं। इसी अन्तराल के क्रम में सन् 2017 के बाद सन् 2022 के अप्रैल महीने तक दिल्ली नगर निगम के चुनाव सम्पन्न हो जाने चाहिए थे। लेकिन किसी भी हाल में सत्ता की भूखी एक बड़ी पार्टी ने सियासी दाँव चलकर चुनाव टलवा दिये।

दरअसल जनवरी, 2022 से ही दिल्ली में पोस्टर वार चल रहा था। चुनाव की तैयारी इस क़दर चरम पर थी कि पूरी दिल्ली में पोस्टर ही पोस्टर लगी दीवारें दिख रही थीं। सियासी दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे थे। कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी के सम्भावित प्रत्याशियों ने चुनाव प्रचार तक शुरू कर दिया था। लेकिन जैसे ही चुनावों के टलने की बात सामने आयी, पोस्टर वार और प्रचार समाप्त हो गया।

दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर मनोज त्यागी का कहना है कि मौज़ूदा समय में राजनीति का स्तर दिन-ब-दिन गिरता जा रहा है। दरअसल नेताओं के मन में यह धारणा स्थायी तौर पर बैठती जा रही है कि चुनाव पैसे के दम पर झूठा प्रचार-प्रसार करके, लोगों को लुभावने आश्वासन देकर जीता जा सकता है। ऐसे में अब नेता चुनाव के समय ही अपना प्रचार-प्रसार करते हैं। चुनाव नहीं, तो जनता से उनका सरोकार न के बराबर होता है। नेताओं को लगता है कि जब चुनाव आएँगे और टिकट मिलेगा, तभी वे जनता से सम्पर्क कर लेंगे। अन्यथा क्या लेना-देना। जहाँ तक दिल्ली नगर निगम के चुनाव की बात है, तो वो टले हैं। अब आने वाले समय में 272 नहीं, बल्कि 250 सीटों पर चुनाव होना हैं। नये सिरे से परिसीमन होगा। परिसीमन में कौन-सी सीट महिला होगी? कौन-सी सीट आरक्षित होगी? किसी को पता नहीं है। सीट ही तय नहीं है, तो क्या करना है?

राजनीति विश्लेषक व चुनावी रणनीतिकार सुनील मिश्रा का कहना है कि प्रत्येक राजनीतिक दल की राजनीतिक कार्यशैली अलग-अलग होती है। मौज़ूदा समय में पूरा चुनाव प्रबंधन पर आधारित होता है। ऐसे में ज़्यादातर राजनीतिक दल चुनाव के समय माहौल देखकर राजनीति करते हैं। लेकिन वे इसे मुद्दाविहीन मानकर कामचलाऊ राजनीति करते हैं। यही वजह है कि दिल्ली में नगर निगम के चुनाव टाले जाने के बाद पार्टियों के नेता दिल्ली में विकास की बात नहीं कर रहे हैं। इतना ज़रूर है कि सुर्ख़ियों में बने रहने के लिए वे दिल्ली सहित देश के अन्य राज्यों में हो रही हिंसा पर राजनीति कर रहे हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता ध्रुव अग्रवाल का कहना है कि उन्होंने तमाम छोटे चुनाव से लेकर विधानसभा का चुनाव तक लड़ा है। चुनाव में पराजय मिली है। लेकिन वह अनुभव से कहते हैं कि राजनीति एक ऐसी कला है, जिसमें प्रत्यक्ष तौर पर विरोध करने वालों का कोई स्थान नहीं है। इसलिए अब झूठे आश्वासन और प्रलोभन की राजनीति हो रही है।

दिल्ली नगर निगम के चुनाव न होने के वजह से दिल्ली सहित पूरे देश में मौज़ूदा राजनीतिक माहौल पर नेता पोस्टर वार करने से बच रहे हैं। दरअसल नेता बिना चुनाव के चुनावी माहौल बनाने से बचते हैं। क्योंकि अब नेताओं में राजनीतिक विचारधारा का अभाव है। यही वजह है कि आज टिकट पाने के लिए नेता किसी भी दल से समझौता करने को तैयार हो जाते हैं। अगर उन्हें उनकी पसंदीदा पार्टी में टिकट नहीं मिलता, तो वे दूसरी पार्टी में जाने में देरी और परहेज़ नहीं करते।