सोनकब्र!

उत्तर प्रदेश में सोनभद्र जिले के कई गांव एक महीने के भीतर 100 से भी ज्यादा बच्चों की मौत देख चुके हैं, लेकिन शासन यह मानने के लिए तैयार नहीं. और जाहिर सी बात है कि जब मानेगा ही नहीं तो कुछ करेगा भी क्यों? हिमांशु बाजपेयी की रिपोर्ट

सोनभद्र में हालात उससे कहीं ज्यादा बुरे हैं जितना सोचकर आप लखनऊ या दिल्ली से यहां आते हैं. महज कुछ घंटे यहां गुजारने के बाद ही सोनभद्र आपको सोनकब्र लगने लगता है. देश की सबसे विद्रूप इंसानी कब्रगाह, जहां जिंदगी के प्यादे को हर रोज पीटने के बाद भी मौत की बाजी खत्म नहीं होती. यह ऐसी जगह है जहां आकर आपको ‘हो रहा भारत निर्माण और सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ के नारे गाली से भी ज्यादा बुरे लगते हैं.  तंत्र द्वारा किए जा रहे इंसानी अस्तित्व के अपमान के बेशुमार नमूने यहां बिखरे पड़े हैं.

जिले के म्योरपुर ब्लॉक में एक रहस्यमय किस्म की बीमारी से पिछले एक महीने में 25 से ज्यादा निरीह बच्चों की मौतें हुई हैं (तहलका सभी परिवारों से मिला है और मृतकों की लिस्ट उसके पास है). रहस्यमय इसलिए कि शासन के अनुसार यहां कोई बीमारी ही नहीं है. शासन तो यहां तक कहता है कि कोई मौत भी नहीं हुई. लेकिन सच्चाई का पता ब्लाॅक के किसी भी गांव में घुसकर आसानी से लगाया जा सकता है. रिहंद बांध के किनारे बसे दो गांवों दधियरा और स्योढ़ों में ही शासन के दावों की असलियत सामने आ जाती है. इन गांवों में अभी भी हर घर में कोई न कोई बीमार जरूर है जिसकी तस्दीक महामाया सचल अस्पताल सेवा के वाहन के पास लगी भीड़ भी करती है.

यहीं हमारी मुलाकात गोंड जनजाति के राम प्यारे से होती है जिनकी सात साल की बेटी मंजू की मौत हमारे सोनभद्र पहुंचने के दो दिन पहले ही बुखार और एनीमिया के चलते हुई है. आज रामप्यारे एक और बीमार बच्चे के लिए दवा लेने आए हैं. बेटी की मौत के दो दिन बाद ही तहलका की मुलाकात राम प्यारे से हो जाती है लेकिन नवंबर से इस गांव के तीन दौरों का दावा करने वाले जिले के सीएमओ के मुताबिक उन्हें एक भी परिवार ऐसा नहीं मिला जहां किसी की मौत हुई हो. जबकि मंजू की मौत के दिन भी वे गांव के दौरे पर थे. उनका दावा है कि इलाके में एक भी अस्वाभाविक मौत नहीं हुई है.

तहलका ने 80 साल के एक बुजुर्ग से फॉगिंग के बारे में पूछा तो वे बोले कि पिछली बार यह जवाहरलाल के जमाने में हुई थी जब डैम बना था

लेकिन जब हम म्योरपुर के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के अधीक्षक उदयनाथ गौतम से बात करते हैं तो सच्चाई सामने आ जाती है. गौतम कहते हैं, ‘इन मौतों की वजह अलग-अलग है. कुछ को बुखार हुआ था, कुछ को पीलिया और निमोनिया की शिकायत थी तो कुछ के पेट में कीड़े थे. लेकिन मौत की बड़ी वजह सीवियर एनीमिया थी. यहां ब्लड बैंक की गंभीर समस्या है जिसके चलते भी कई मरीजों की जान चली जाती है.’ फिलहाल इन गांवों में मरीजों को राहत देने के लिए यहां महामाया सचल अस्पताल सेवा वाहन तैनात कर दिया गया है, लेकिन इससे भी मरीजों का ज्यादा भला नहीं होने वाला क्योंकि इनका सिर्फ नाम ही अस्पताल है जिसमें इलाज की मूलभूत सुविधाओं का भी अभाव है. दधियरा गांव में तैनात सचल अस्पताल सेवा के डाॅक्टर अनुराग केसरवानी कहते हैं, ‘हम बुखार के रोगियों को पैरासीटामाल जैसी बुनियादी दवाइयां दे रहे हैं. गंभीर बीमारी की आशंका पर हम उन्हें दूसरे अस्पताल में रेफर  कर देते हैं क्योंकि हमारे पास सुविधाएं नहीं हैं.’ इस बारे में सवाल पूछे जाने पर सीएमओ डॉ कुरील पहले तो इन वाहनों के सभी उपचार सुविधाओं से लैस होने का दावा करते हैं लेकिन जल्द ही कहते हैं कि असल में ये सेवा प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप पर आधारित है जिसकी व्यवस्था एक एनजीओ के माध्यम से देखी जाती है इसलिए कई दिक्कतें आती हैं.

मौत के कुचक्र में फंसे दधियरा और स्योढ़ो अकेले गांव नहीं हैं. न ही म्योरपुर अकेला ब्लॉक है. जिले में बेशतर जगह ऐसे ही हालात हैं. नमेना ग्रामसभा में भी आठ से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. हरिहरपुर में भी कालचक्र जारी है. चोपन ब्लॉक में भी बुखार के चलते लगातार मौतंे हो रही हैं. बुखार कौन-सा है इस बारे में अभी तक कोई एक राय नहीं बन सकी है क्योंकि वह तो तब बनेगी जब सरकारी लोग यह मानंेगे कि यहां मौतें हुई भी हैं. वैसे सोनभद्र मलेरिया के प्रभाव वाला क्षेत्र  है, इसलिए यह आशंका जताई जा रही है कि यह बुखार मलेरिया का भी हो सकता है लेकिन सरकारी अमला इसे मानने को तैयार नहीं. म्योरपुर के पास स्थित बनवासी सेवाश्रम की रागिनी बहन कहती हैं, ‘जिस तरह से लगातार इतनी बड़ी संख्या में मौतें हो रही हैं उससे तो यही लगता है कि यह मलेरिया का प्रभाव है. आश्रम की तरफ से पहले भी क्षेत्र में कराई गई जांचों के बाद यह बात साबित हुई है. वह भी फेल्सीफेरम मलेरिया. जब हमने पहले इस बात को जांच में पाया था तब भी सरकारी लोगों ने इसे मानने से साफ इनकार कर दिया था. अगर यह बुखार मलेरिया न भी हो तब भी इन गांवों में जो हालात हैं उससे यहां मलेरिया होना तय है क्योंकि मलेरिया संभावित होने के बाद भी यहां दशकों से फॉगिंग नहीं हुई है.’ एक गांव थाड़ पाथर में जब तहलका ने 80 साल के महेंद्र से पूछा कि आपके गांव में फागिंग होती है तो वे बोले नहीं. फिर हमने पूछा आखिरी बार कब हुई थी तो उनका जवाब था, ‘जवाहरलाल के जमाने में जब डैम बना था.’ इस बारे में म्योरपुर के अधीक्षक का कहना है, ‘फाॅगिंग की मुहिम केंद्र और राज्य सरकार के पचड़े में फंस कर रुक जाती है, लेकिन फिर भी हम अपने स्तर पर कुछ गांवों में इसे करवा रहे हैं.’

म्योरपुर की तरह चौपन ब्लॉक में भी पिछले दो-तीन महीनों में मौत ने जी भर कर तांडव किया है. यहां की सिर्फ दो ग्रामसभाओं जुगैल और कुलडोमरी में पिछले दो महीनों में 100 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. यहां इतनी बड़ी तादाद में मौतों की वजह यह है कि रेणुका पार का यह इलाका इतना दुर्गम है कि इसे स्थानीय बोलचाल में काला पानी भी कहा जाता है. बीमार होने की दशा में यहां के लोगों को पहाड़ी रास्तों पर से पैदल ओबरा तक आना पड़ता है जो यहां से तकरीबन तीस किलोमीटर की दूरी पर है. ओबरा तक पहुंचने का और कोई साधन नहीं है. अक्सर मरीज की रास्ते में ही मौत हो जाती है. बनवासी सेवाश्रम से जुड़े जगत विश्वकर्मा कहते हैं, ‘रेणुका पार क्षेत्र में उतनी ही मौतें पता चल पाती हैं जितनी हम जैसे लोग जा कर पता कर पाते हैं. यहां पिछले दो महीनों से 60 से ज्यादा मौतों का आंकड़ा हमारे पास है. यह भी सिर्फ पांच गांवों का है. इस पूरे क्षेत्र में 300 के लगभग गांव हैं. तकरीबन 50 गांव तो सिर्फ एक ग्रामसभा जुगैल में हंै. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि स्थिति कितनी गंभीर है.’ विडंबना यह भी है कि मरने वालों में 95 फीसदी आदिवासी हैं.

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और स्वास्थ्य विभाग बांध का पानी जहरीला बता चुके हैं, पर प्रदूषण रोकने के लिए वे कुछ नहीं करते

अगर इतनी बड़ी संख्या में यहां मौतें हुई हैं तो इसकी एक वजह और भी है. चौदह लाख की आबादी वाले सोनभद्र जिले में अभी तक सिर्फ एक सरकारी ब्लड बैंक है. राबर्ट्सगंज स्थित जिला अस्पताल में. हाल-फिलहाल जो भी मौतें हो रही हैं उनकी बड़ी वजह सीवियर एनीमिया थी यह बात डाक्टर भी मानते हैं, ऐसे में अगर रेनूकूट के पास किसी मरीज को खून चढ़ना है तो वहां से रॉबर्ट्सगंज आने में तकरीबन चार घंटे लग जाते हैं. इतना समय किसी मरणासन्न की जिंदगी के लिए बेहद कीमती होता है. सीएमओ का रोना है कि ब्लड बैंक हमारे स्तर का मामला नहीं है.

अब जरा सोनभद्र में हो रही बीमारियों के एक दूसरे और बड़े पहलू पर गौर कीजिए. म्योरपुर ब्लॉक में ज्यादातर मौतें रिहंद बांध के किनारे स्थित गांवों में हुई हैं. यही हाल चोपन और जुगैल के तटवर्ती गांवों का भी है. इन सभी क्षेत्रों में औद्योगिक कारखानों से निकलने वाले कचरे का निपटान सीधा रिहंद बांध या रेणु नदी में किया जा रहा है. इसके चलते बांध और नदी का पानी बुरी तरह से प्रदूषित हो चुका है. रेनूकूट में कनोरिया कैमिकल्स फैक्टरी, जो अब आदित्य बिरला ग्रुप की हो गई है, से निकलने वाला बेहद जहरीला रसायन सीधे-सीधे बांध के पानी में बहाया जा रहा है. यह कचरा इतना खतरनाक है कि अगर इसे कुछ देर के लिए हाथ में लिया जाए तो हाथ में घाव हो जाता है. डैम के पानी को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और स्वास्थ्य विभाग दोनों जहरीला और पीने के लिए अयोग्य बता चुके हैं, पर इसका प्रदूषण रोकने की दिशा में वे कुछ नहीं करते. इधर ओबरा में बने थर्मल विद्युतगृह की सैकड़ों लीटर राख सीधे-सीधे रेणु नदी में बहाई जा रही है, जिसकी वजह से नदी में जमाव-सा हो गया है. रिहंद जलाशय ही आसपास के हजारों गांवों की जलापूर्ति का स्रोत रहा है. ग्रामीण और पशु दोनों इसी पर निर्भर हैं. लेकिन अब इसका पानी शरीर में धीमे जहर की तरह काम करता है. डाॅक्टरों के मुताबिक इससे प्रतिरोधक क्षमता कम होती है. पीलिया, टीबी, सिल्कोसिस, दस्त वगैरह आम बात हैं.

म्योरपुर ब्लॉक में गांववालों की तरफ से वाटर ट्रीटमेंट प्लांट के लिए आंदोलन भी चलाया जा रहा है. जनसंघर्ष मोर्चा की तरफ से आंदोलन का नेतृत्व कर रहे दिनकर कपूर कहते हैं, ‘जब तक कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है, गांववालों को मजबूरी में जहरीला पानी पीना ही होगा, इसलिए हमारी मांग है कि जल्द से जल्द गांवों में एक ट्रीटमेंट प्लांट लगवाया जाए.’

बांध में जा रहे इस प्रदूषण के बारे में जब हमने राज्य प्रदूषण बोर्ड के सोनभद्र में तैनात अफसर कालिका सिंह से बात की तो उनका जवाब था, ‘ओबरा और कनोरिया को कुछ वक्त की मोहलत दी गई है, जिसके अंदर इन्हें अपना कचरा रोकना होगा. इसके बाद हम कार्रवाई करेंगें.’ दिलचस्प बात है कि करीब दो साल पहले सोनभद्र पर तहलका द्वारा की गई एक स्टोरी के दौरान बात करते वक्त भी कालिका सिंह का यही जवाब था. आलम यह है कि रेणुकूट के आसपास का इलाका बड़ी रसायन कंपनियों की फैक्टरियों से अटा पड़ा है. रेणुकूट में अपना निजी अस्पताल चलाने वाले डॉ विनोद राय तहलका से बातचीत में एक गंभीर खतरे की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि भविष्य में कभी भी यहां यूनियन कार्बाइड जैसी स्थिति हो सकती है क्योंकि इन फैक्टरियों में खतरनाक उत्पाद बनते हैं और सुरक्षा उपाय के नाम पर इन कंपनियों की तैयारी खस्ताहाल है.