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आस्था के अनूठे आयाम

दुनिया के 63 देशों से आधिकारिक तौर पर आए हुए डेढ़ लाख से अधिक और अनाधिकारिक तौर पर दो लाख से अधिक बौद्ध धर्मावलंबी. बोधगया और उस छोटे शहर की पूरी परिधि में चहुंओर लामा ही लामा. एक छोटे दायरे में इतना विशाल जमावड़ा लेकिन कोई हो-हंगामा नहीं. भीड़ का चरित्र बहुत हद तक भारतीय भीड़ से अलग. दूसरे शब्दों में कहें तो स्व-अनुशासित मानवों का महाकुंभ. होटलों, गेस्टहाउसों में जगह नहीं मिलने के कारण संकरी गलियों व बजबजाती नालियों के बीच दलितों-महादलितों के लिए बने इंदिरा आवासों में भी प्रतिदिन एक कमरे के लिए तीन-तीन हजार रुपये तक किराया देकर रुके बौद्ध धर्मावलंबियों का जीवट और धर्म के प्रति समर्पण का रंग बिल्कुल अलहदा.

ये गया में बौद्धों के धार्मिक अनुष्ठान कालचक्र पूजा की झांकियां हैं. कंपकंपाती ठंड और बीच-बीच में हुई बारिश में भी खुले खेत में टंेट लगाकर रह रहे बौद्ध धर्मावलंबी धर्म और जीवन के रिश्ते के सामंजस्य को अलग तरीके से दिखा गए. अपने धर्मगुरु दलाई लामा का प्रवचन सुनने के लिए विशालकाय पंडाल में जगह न बचने के बाद शांति से सड़कों पर, गलियों में, कब्रिस्तान में कब्रों पर ध्यानस्थ-एकाग्र भाव से बैठे बच्चे-बूढ़े बौद्ध धर्मावलंबियों को देखना एक अलग ही अनुभूति थी. हॉलीवुड नाम की मायानगरी से आए चर्चित कलाकार रिचर्ड गेरे सभी मायाओं से मुक्त होकर कालचक्र में दस दिन तक जमे रहे. दलाई लामा और कालचक्र पूजा के साथ गेरे को कवर करने के लिए दुनिया भर के मीडियाकर्मी 16 भाषाओं के अलग-अलग दुभाषियों के जरिए यहां संवाद कायम करते रहे.

बुद्ध से ज्यादा दलाई लामा की बिकती तसवीरें संतों को ही देवता बना देने की परंपरा की बौद्ध धर्म में घुसपैठ दिखाती हैं

दलाई लामा के प्रवचन स्थल कालचक्र मैदान और महाबोधि मंदिर के बीचोबीच एक नुक्कड़ पर एक निजी संस्था हर दिन एक नामी कंपनी के औसतन हजार से ज्यादा कंडोम भी बांटती रही. धर्म के इस महाकुंभ में एड्स जागरूकता के नाम पर उन्मुक्तता के इस सेवायोग की भी खूब चर्चा रही. हर शाम महाबोधि मंदिर से थोड़ी दूर पर एक मैदान में चलने वाली एक सांस्कृतिक संध्या में रात चढ़ते ही दलाई लामा की बड़ी तसवीर वाले मंच पर शीला की जवानी जैसे गीतों पर लगने वाले ठुमके कइयों में अखरन पैदा करते रहे.

ऐसे ही कई रंगों के बीच 31 दिसंबर, 2011 से 10 जनवरी, 2012 तक बुद्ध की नगरी बोधगया में आयोजित 32वीं कालचक्र पूजा का समापन हुआ. दस दिन तक धर्म और धन, सरोकार और व्यापार गहरे द्वंद्व के साथ एक-दूसरे से टकराते रहे. बाहर से आए बौद्ध धर्मावलंबियों में अधिकतर के लिए धर्म प्रमुख था, स्थानीय बाशिंदों के लिए धन. होटलों ने, निजी मकानवालों ने और देखादेखी इंदिरा आवासवालों ने भी अपने हिसाब से ठहरने का रेट तय किया. बोतलबंद पानी का कारोबार करने वाले बबलू पांडेय का तर्क सुनिए,‘ हम जानते हैं कि इस आयोजन में धर्म के जरिए यहां पहुंची संस्थाएं डोनेशन आदि के नाम पर करोड़ों कमाने के कारोबार में लगी हुई हैं. यहां से करोड़ों बटोरकर ले जाएंगी. हम यह भी जानते हैं कि कालचक्र में करोड़ों की आमदनी होने के बावजूद उससे बोधगया के लोगों के लिए कुछ स्थायी बंदोबस्त नहीं किया जाना है. पूजा खतम, खेला खतम, इसलिए हम लोग भी इस अवसर को व्यापार के माध्यम के रूप में देखते हैं.’ अरुणाचल प्रदेश से आए एक नौजवान तेंजिंग ने इसे दूसरे नजरिये से समझाया. उनका कहना था, ‘सब ठीक है लेकिन हम लोग तो अपने ही देश से आए हैं. फिर हमारा भी दोहन इस कदर क्यों किया जाता है यहां. रिक्शेवाले भी दस की जगह सौ से कम में नहीं मानते.’

तेंजिंग का कहना सच भी है क्योंकि जिस चाय की दुकान पर हमने एक चाय के लिए पांच रुपये अदा किए, उसी दुकान पर बौद्ध धर्मावलंबी वेशधारी से दो-तीन लाइन तिब्बती बोलकर चायवाले ने 20 रुपये वसूले. गया निवासी और फिल्म लेखक शैवाल कहते हैं, ‘यह सब तो हर रेले-मेले की कथा-कहानी है. व्यापार से गहरा रिश्ता जुड़ने पर ही धर्म का फलक व्यापक रूप लेता है.’ कालचक्र के दौरान करीबन 300 करोड़ रुपये के कारोबार का अनुमान लगाया गया है, इसलिए व्यापार का रूप आश्चर्य में नहीं डालता लेकिन धर्म के स्थलों पर देह की माया इतनी तगड़ी क्यों रहती है, यह समझ में नहीं आता. पुष्कर जैसे हिंदू धर्मस्थलों पर तो देखा ही जाता रहा है, अब बुद्ध की नगरी में भी कंडोम का बंटना थोड़ा सोचने पर विवश करता है. शैवाल बातों को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘बुद्ध ने तो कहा था कि निवार्ण की प्राप्ति के लिए देह के मोह को छोड़ना होगा, यहां हजारों की संख्या में बंट रहे कंडोम बता रहे हैं कि देह हावी है.’

बोधगया में ही इस सवाल से भी सामना हुआ कि बुद्ध की नगरी में दुकानों पर बुद्ध से ज्यादा दलाई लामा की तसवीरें बिकती नजर आईं. व्यक्ति पूजा और संतों को ही देवता बना देने की परंपरा तो हिंदू धर्म में अब एक विकृत रूप में भी मौजूद है. सवाल यह भी उठा कि जिन कर्मकांडों और दिखावे के विरोध में बुद्ध ने अलग राह अपनाई, कुछ उसी तरह का तामझाम, कर्मकांड और दिखावा किसी बौद्ध धर्म के आयोजन में भी दिखे तो यह हजम नहीं होता. इतिहासकार डाॅ एचएस पांडेय कहते हैं कि इसमें किसी को आश्चर्यचकित या दुखी होने की जरूरत नहीं. महायानी बौद्ध कमोबेश हिंदू की राह पर ही चलते रहे हैं. कर्मकांड, तंत्र-मंत्र में उनकी आस्था रहती है और वे मूर्तिपूजा-व्यक्तिपूजा को महत्व देते हैं. हिंदुओं से समानता कुछ इस कदर रही थी कि गुप्तकाल में बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार भी घोषित किया गया था.

इस सबके बीच सबसे अलग किस्म का सवाल बोधगया की मस्तीपुर बस्ती में रहनेवाले और भाजपा से चुनाव लड़ चुके युवा नेता विजय मांझी उछालते हैं. वे कहते हैं, ‘आप खुद गौर कीजिए. आखिर कोई वजह तो होगी कि बुद्ध की नगरी होने के बावजूद, सालों भर बुद्ध के जरिए ही कारोबार-व्यापार करने के बावजूद, बौद्ध धर्मावलंबियों के जरिए ही बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल कर लेने के बावजूद यहां के स्थानीय बाशिंदे बौद्ध धर्म क्यों नहीं अपना सके हैं अब तक!’

विश्वशांति के इस आयोजन में स्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि चलाचली की बेला आते-आते अशांति की छाया मंडराने लगी

कारोबार-व्यापार की बातें छोटी-छोटी हैं. बोधगया के ही छोटे दायरे में सिमटकर रह गईं. बड़े दायरे में फैलने वाली बड़ी बात यह हुई कि विश्वशांति के लिए हुए कालचक्र के इस आयोजन में स्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि चलाचली की बेला आते-आते अशांति की छाया मंडराने लगी. कालचक्र के केंद्र में विश्वशांति की जगह तिब्बत और चीन का मसला आ गया. नुक्कड़ से लेकर कालचक्र मैदान तक चीन छा गया.

यह अंदेशा पहले ही दिन से था. एक तो इस खास आयोजन में दलाई लामा का यहां दस दिन तक रहना पहले से ही तय था. उसके बाद जब बोधगया में आए धर्मावलंबियों में आधे से अधिक संख्या तिब्बतियों की देखी गई, निर्वासित तिब्बती सरकार के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री लोबसांग सांग्ये पहुंच गए, तिब्बत की स्वायत्तता के बहाने चीन पर निशाना साधा गया और बोधगया की सड़कों किनारे तिब्बत में चीन द्वारा किए जा रहे दमन की दारूण कथा का पोस्टर आदि से संबंधित खुलेआम प्रदर्शन शुरू हुआ, तभी से यह आशंका भी जताई जाती रही कि चीन की हनक किसी न किसी रूप में यहां सुनाई पड़ेगी. पहले खुफिया के हवाले से यह खबर फैली कि चीन के जासूस बोधगया में पहुंचे हुए हैं. फिर संयोग ऐसा बना कि बिहार के नक्सलप्रभावित और गया से सटे जहानाबाद जिले में छह जनवरी को नक्सलियों के पास से विस्फोटक-डेटोनेटर आदि बरामद हुए. अगले दिन एक हलके बाद में हवा उड़ी कि नक्सली और आतंकी एक साथ मिल गए हैं और यह जखीरा बोधगया तक पहुंचाने के लिए था. फिर गया के एक मोहल्ले में सुरखी मिल से कुछ विस्फोटक आदि बरामद हुए. गया के एसएसपी विनय कुमार कहते हैं, ‘यह साफ हुआ है कि माओवादियों के प्रतिबंधित सिमी से जुड़े हुए हैं.’ कुछ ने इसका कनेक्शन भी बोधगया से जोड़ने की कोशिश की, लेकिन सिर्फ इतने से तुर्रा और तर्क चल न सका. उसी बीच बोधगया की फिजा में चीन की वह खबर भी तैरती रही कि वहां के सिचुआन प्रांत में दो बौद्ध भिक्षुओं ने तिब्बत की आजादी और दलाई लामा की वापसी के पक्ष में आत्मदाह कर लिया.

कंपकंपाती ठंड में भी सबसे ज्यादा तपिश सात जनवरी को महसूस की गई और देखते ही देखते विश्वशांति अभियान वाले पूजा में अशांति की गहरी छाया मंडरा गई. यह तब हुआ जब फर्जी पहचान पत्र बनवाकर वीआईपी इलाके में पहुंचे दो लामाओं को पकड़ा गया. पहले इन दोनों लामाओं में से एक की पहचान तिब्बती लामा और दूसरे की पहचान हिमाचल के लामा के रूप में हुई. बताया गया कि ये दोनों लामा फर्जी पास के जरिए दलाई लामा के मंच तक पहुंचना चाहते थे लेकिन उसके पहले ही उन्हें पकड़ लिया गया. कालचक्र मैदान के पंडाल में हुई इस घटना की खबर जंगल में आग की तरह फैली. बोधगया के दायरे से बात निकलकर बहुत दूर तक गई और फिर कई लामाओं में चीन की परछाई की संभावना तलाशी जाने लगी. नुक्कड़ की गपशप से लेकर स्थानीय मीडिया तक में. हालांकि दूसरे ही दिन यह साफ हो गया कि संदिग्ध रूप से पकड़े गये दोनों लामा तिब्बती इंस्टीट्यूट, सारनाथ के छात्र हैं और इन्होंने फर्जी पास इसलिए बना लिए क्योंकि पूजा समिति ने पूजा का पास बनाना बंद कर दिया था. गया के सिटी एसपी सत्यवीर सिंह ने भी इसकी पुष्टि की. पुलिस ने छानबीन के बाद भले उन दोनों लामाओं को तिब्बती संस्थान छात्र के रूप में बताया लेकिन उसका दूसरा असर तुरंत पड़ा. दलाई लामा की सुरक्षा व्यवस्था बढ़ाई गयी और देखते ही देखते कालचक्र मैदान अभेद दुर्ग में तब्दील हो गया.

खैर, आयोजन अब समाप्त हो चुका है. बौद्ध श्रद्धालु अपने-अपने गंतव्य की ओर रवाना हो चुके हैं. यहां की अमिट स्मृतियां अपने हृदय में बसाए हुए.

आस्था के अनूठे आयाम

दुनिया के 63 देशों से आधिकारिक तौर पर आए हुए डेढ़ लाख से अधिक और अनाधिकारिक तौर पर दो लाख से अधिक बौद्ध धर्मावलंबी. बोधगया और उस छोटे शहर की पूरी परिधि में चहुंओर लामा ही लामा. एक छोटे दायरे में इतना विशाल जमावड़ा लेकिन कोई हो-हंगामा नहीं. भीड़ का चरित्र बहुत हद तक भारतीय भीड़ से अलग. दूसरे शब्दों में कहें तो स्व-अनुशासित मानवों का महाकुंभ. होटलों, गेस्टहाउसों में जगह नहीं मिलने के कारण संकरी गलियों व बजबजाती नालियों के बीच दलितों-महादलितों के लिए बने इंदिरा आवासों में भी प्रतिदिन एक कमरे के लिए तीन-तीन हजार रुपये तक किराया देकर रुके बौद्ध धर्मावलंबियों का जीवट और धर्म के प्रति समर्पण का रंग बिल्कुल अलहदा.

बुद्ध से ज्यादा दलाई लामा की बिकती तसवीरें संतों को ही देवता बना देने की परंपरा की बौद्ध धर्म में घुसपैठ दिखाती हैं 

ये गया में बौद्धों के धार्मिक अनुष्ठान कालचक्र पूजा की झांकियां हैं. कंपकंपाती ठंड और बीच-बीच में हुई बारिश में भी खुले खेत में टेंट लगाकर रह रहे बौद्ध धर्मावलंबी धर्म और जीवन के रिश्ते के सामंजस्य को अलग तरीके से दिखा गए. अपने धर्मगुरु दलाई लामा का प्रवचन सुनने के लिए विशालकाय पंडाल में जगह न बचने के बाद शांति से सड़कों पर, गलियों में, कब्रिस्तान में कब्रों पर ध्यानस्थ-एकाग्र भाव से बैठे बच्चे-बूढ़े बौद्ध धर्मावलंबियों को देखना एक अलग ही अनुभूति थी. हॉलीवुड नाम की मायानगरी से आए चर्चित कलाकार रिचर्ड गेरे सभी मायाओं से मुक्त होकर कालचक्र में दस दिन तक जमे रहे. दलाई लामा और कालचक्र पूजा के साथ गेरे को कवर करने के लिए दुनिया भर के मीडियाकर्मी 16 भाषाओं के अलग-अलग दुभाषियों के जरिए यहां संवाद कायम करते रहे.

दलाई लामा के प्रवचन स्थल कालचक्र मैदान और महाबोधि मंदिर के बीचोबीच एक नुक्कड़ पर एक निजी संस्था हर दिन एक नामी कंपनी के औसतन हजार से ज्यादा कंडोम भी बांटती रही. धर्म के इस महाकुंभ में एड्स जागरूकता के नाम पर उन्मुक्तता के इस सेवायोग की भी खूब चर्चा रही. हर शाम महाबोधि मंदिर से थोड़ी दूर पर एक मैदान में चलने वाली एक सांस्कृतिक संध्या में रात चढ़ते ही दलाई लामा की बड़ी तसवीर वाले मंच पर शीला की जवानी जैसे गीतों पर लगने वाले ठुमके कइयों में अखरन पैदा करते रहे.

ऐसे ही कई रंगों के बीच 31 दिसंबर, 2011 से 10 जनवरी, 2012 तक बुद्ध की नगरी बोधगया में आयोजित 32वीं कालचक्र पूजा का समापन हुआ. दस दिन तक धर्म और धन, सरोकार और व्यापार गहरे द्वंद्व के साथ एक-दूसरे से टकराते रहे. बाहर से आए बौद्ध धर्मावलंबियों में अधिकतर के लिए धर्म प्रमुख था, स्थानीय बाशिंदों के लिए धन. होटलों ने, निजी मकानवालों ने और देखादेखी इंदिरा आवासवालों ने भी अपने हिसाब से ठहरने का रेट तय किया. बोतलबंद पानी का कारोबार करने वाले बबलू पांडेय का तर्क सुनिए, ‘ हम जानते हैं कि इस आयोजन में धर्म के जरिए यहां पहुंची संस्थाएं डोनेशन आदि के नाम पर करोड़ों कमाने के कारोबार में लगी हुई हैं. यहां से करोड़ों बटोरकर ले जाएंगी. हम यह भी जानते हैं कि कालचक्र में करोड़ों की आमदनी होने के बावजूद उससे बोधगया के लोगों के लिए कुछ स्थायी बंदोबस्त नहीं किया जाना है. पूजा खतम, खेला खतम, इसलिए हम लोग भी इस अवसर को व्यापार के माध्यम के रूप में देखते हैं.’ अरुणाचल प्रदेश से आए एक नौजवान तेंजिंग ने इसे दूसरे नजरिये से समझाया. उनका कहना था, ‘सब ठीक है लेकिन हम लोग तो अपने ही देश से आए हैं. फिर हमारा भी दोहन इस कदर क्यों किया जाता है यहां. रिक्शेवाले भी दस की जगह सौ से कम में नहीं मानते.’

विश्वशांति के इस आयोजन में स्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि चलाचली की बेला आते-आते अशांति की छाया मंडराने लगी

तेंजिंग का कहना सच भी है क्योंकि जिस चाय की दुकान पर हमने एक चाय के लिए पांच रुपये अदा किए, उसी दुकान पर बौद्ध धर्मावलंबी वेशधारी से दो-तीन लाइन तिब्बती बोलकर चायवाले ने 20 रुपये वसूले. गया निवासी और फिल्म लेखक शैवाल कहते हैं, ‘यह सब तो हर रेले-मेले की कथा-कहानी है. व्यापार से गहरा रिश्ता जुड़ने पर ही धर्म का फलक व्यापक रूप लेता है.’ कालचक्र के दौरान करीबन 300 करोड़ रुपये के कारोबार का अनुमान लगाया गया है, इसलिए व्यापार का रूप आश्चर्य में नहीं डालता लेकिन धर्म के स्थलों पर देह की माया इतनी तगड़ी क्यों रहती है, यह समझ में नहीं आता. पुष्कर जैसे हिंदू धर्मस्थलों पर तो देखा ही जाता रहा है, अब बुद्ध की नगरी में भी कंडोम का बंटना थोड़ा सोचने पर विवश करता है. शैवाल बातों को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘बुद्ध ने तो कहा था कि निवार्ण की प्राप्ति के लिए देह के मोह को छोड़ना होगा, यहां हजारों की संख्या में बंट रहे कंडोम बता रहे हैं कि देह हावी है.’

बोधगया में ही इस सवाल से भी सामना हुआ कि बुद्ध की नगरी में दुकानों पर बुद्ध से ज्यादा दलाई लामा की तसवीरें बिकती नजर आईं. व्यक्ति पूजा और संतों को ही देवता बना देने की परंपरा तो हिंदू धर्म में अब एक विकृत रूप में भी मौजूद है. सवाल यह भी उठा कि जिन कर्मकांडों और दिखावे के विरोध में बुद्ध ने अलग राह अपनाई, कुछ उसी तरह का तामझाम, कर्मकांड और दिखावा किसी बौद्ध धर्म के आयोजन में भी दिखे तो यह हजम नहीं होता. इतिहासकार डॉ एचएस पांडेय कहते हैं कि इसमें किसी को आश्चर्यचकित या दुखी होने की जरूरत नहीं. महायानी बौद्ध कमोबेश हिंदू की राह पर ही चलते रहे हैं. कर्मकांड, तंत्र-मंत्र में उनकी आस्था रहती है और वे मूर्तिपूजा-व्यक्तिपूजा को महत्व देते हैं. हिंदुओं से समानता कुछ इस कदर रही थी कि गुप्तकाल में बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार भी घोषित किया गया था.

इस सबके बीच सबसे अलग किस्म का सवाल बोधगया की मस्तीपुर बस्ती में रहनेवाले और भाजपा से चुनाव लड़ चुके युवा नेता विजय मांझी उछालते हैं. वे कहते हैं, ‘आप खुद गौर कीजिए. आखिर कोई वजह तो होगी कि बुद्ध की नगरी होने के बावजूद, सालों भर बुद्ध के जरिए ही कारोबार-व्यापार करने के बावजूद, बौद्ध धर्मावलंबियों के जरिए ही बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल कर लेने के बावजूद यहां के स्थानीय बाशिंदे बौद्ध धर्म क्यों नहीं अपना सके हैं अब तक!’ 

कारोबार-व्यापार की बातें छोटी-छोटी हैं. बोधगया के ही छोटे दायरे में सिमटकर रह गईं. बड़े दायरे में फैलने वाली बड़ी बात यह हुई कि विश्वशांति के लिए हुए कालचक्र के इस आयोजन में स्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि चलाचली की बेला आते-आते अशांति की छाया मंडराने लगी. कालचक्र के केंद्र में विश्वशांति की जगह तिब्बत और चीन का मसला आ गया. नुक्कड़ से लेकर कालचक्र मैदान तक चीन छा गया.

यह अंदेशा पहले ही दिन से था. एक तो इस खास आयोजन में दलाई लामा का यहां दस दिन तक रहना पहले से ही तय था. उसके बाद जब बोधगया में आए धर्मावलंबियों में आधे से अधिक संख्या तिब्बतियों की देखी गई, निर्वासित तिब्बती सरकार के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री लोबसांग सांग्ये पहुंच गए, तिब्बत की स्वायत्तता के बहाने चीन पर निशाना साधा गया और बोधगया की सड़कों किनारे तिब्बत में चीन द्वारा किए जा रहे दमन की दारूण कथा का पोस्टर आदि से संबंधित खुलेआम प्रदर्शन शुरू हुआ, तभी से यह आशंका भी जताई जाती रही कि चीन की हनक किसी न किसी रूप में यहां सुनाई पड़ेगी. पहले खुफिया के हवाले से यह खबर फैली कि चीन के जासूस बोधगया में पहुंचे हुए हैं. फिर संयोग ऐसा बना कि बिहार के नक्सलप्रभावित और गया से सटे जहानाबाद जिले में छह जनवरी को नक्सलियों के पास से विस्फोटक-डेटोनेटर आदि बरामद हुए. अगले दिन एक हलके बाद में हवा उड़ी कि नक्सली और आतंकी एक साथ मिल गए हैं और यह जखीरा बोधगया तक पहुंचाने के लिए था. फिर गया के एक मोहल्ले में सुरखी मिल से कुछ विस्फोटक आदि बरामद हुए. गया के एसएसपी विनय कुमार कहते हैं, ‘यह साफ हुआ है कि माओवादियों के प्रतिबंधित सिमी से जुड़े हुए हैं.’ कुछ ने इसका कनेक्शन भी बोधगया से जोड़ने की कोशिश की, लेकिन सिर्फ इतने से तुर्रा और तर्क चल न सका. उसी बीच बोधगया की फिजा में चीन की वह खबर भी तैरती रही कि वहां के सिचुआन प्रांत में दो बौद्ध भिक्षुओं ने तिब्बत की आजादी और दलाई लामा की वापसी के पक्ष में आत्मदाह कर लिया.

कंपकंपाती ठंड में भी सबसे ज्यादा तपिश सात जनवरी को महसूस की गई और देखते ही देखते विश्वशांति अभियान वाले पूजा में अशांति की गहरी छाया मंडरा गई. यह तब हुआ जब फर्जी पहचान पत्र बनवाकर वीआईपी इलाके में पहुंचे दो लामाओं को पकड़ा गया. पहले इन दोनों लामाओं में से एक की पहचान तिब्बती लामा और दूसरे की पहचान हिमाचल के लामा के रूप में हुई. बताया गया कि ये दोनों लामा फर्जी पास के जरिए दलाई लामा के मंच तक पहुंचना चाहते थे लेकिन उसके पहले ही उन्हें पकड़ लिया गया. कालचक्र मैदान के पंडाल में हुई इस घटना की खबर जंगल में आग की तरह फैली. बोधगया के दायरे से बात निकलकर बहुत दूर तक गई और फिर कई लामाओं में चीन की परछाई की संभावना तलाशी जाने लगी. नुक्कड़ की गपशप से लेकर स्थानीय मीडिया तक में. हालांकि दूसरे ही दिन यह साफ हो गया कि संदिग्ध रूप से पकड़े गये दोनों लामा तिब्बती इंस्टीट्यूट, सारनाथ के छात्र हैं और इन्होंने फर्जी पास इसलिए बना लिए क्योंकि पूजा समिति ने पूजा का पास बनाना बंद कर दिया था. गया के सिटी एसपी सत्यवीर सिंह ने भी इसकी पुष्टि की. पुलिस ने छानबीन के बाद भले उन दोनों लामाओं को तिब्बती संस्थान छात्र के रूप में बताया लेकिन उसका दूसरा असर तुरंत पड़ा. दलाई लामा की सुरक्षा व्यवस्था बढ़ाई गयी और देखते ही देखते कालचक्र मैदान अभेद दुर्ग में तब्दील हो गया.

खैर, आयोजन अब समाप्त हो चुका है. बौद्ध श्रद्धालु अपने-अपने गंतव्य की ओर रवाना हो चुके हैं. यहां की अमिट स्मृतियां अपने हृदय में बसाए हुए. 

बेहोशी का मायाजाल

किसी का आपके आसपास ‘अचानक बेहोश हो जाना’ एक बेहद ही नाटकीय पल होता है. अभी-अभी एकदम ठीक बैठे थे, बढ़िया बात कर रहे थे कि अचानक कुर्सी पर ही लुढ़क गए. रात में बढ़िया सोए थे कि सुबह जब उठाया तो देखा कि बेहोश पड़े हैं. चलते-चलते अचानक ही बेहोश होकर गिर पड़े. बुरी खबर सुनी तो बेहोश होकर गिर पड़े. ऐसी अनेक स्थितियां हैं जिनमें मूल मुद्दा यह रहता है कि ‘अचानक ही बेहोश’ हो गए.

‘किसी के बेहोश होने की कई वजहें हो सकती हैं, लेकिन आसपास के लोगों को पूरे होश में रहकर इसे समझना जरूरी है’

‘अचानक ही बेहोश हो जाना’ बेहद डरावना अनुभव है. मरीज बाद में ठीक भी हो जाए तो भी उसको आगे हमेशा यह डर लगा रहता है कि फिर तो कभी बेहोश नहीं हो जाऊंगा देखने वालों और परिवारजनों के लिए तो डरावना होता ही है. सब लोग अपनी-अपनी समझ से कुछ भी करने लगते हैं.  यह अराजक माहौल बेहोश मरीज का नुकसान ही करता है. यदि हम बेहोशी की बीमारी के कारणों के मायाजाल को ठीक से समझ लें फिर तदनुसार प्राथमिक उपचार आदि देकर सावधानीपूर्वक मरीज को डॉक्टर तक अविलंब ले जा सकें तो यह बड़ा काम कहलाएगा. मैं बेहोशी को कार्य कारण के जुड़ी मेकेनिज्म से कुछ बुनियादी बातें बताने की कोशिश करूंगा.
बेहोशी का मतलब है मस्तिष्क (दिमाग) का काम करना बंद हो गया – मोटे तौर पर ऐसा मान लें. क्यों बंद हो गया? दिमाग को काम करते रहने के लिए ताकि आप निरंतर होश में रहें, इसके लिये दिमाग को लगातार रक्त की पूर्ति होनी चाहिए. रक्त न मिला, रक्तप्रवाह में रुकावट बनी हो चंद सेकंड में ही दिमाग काम करना बंद कर देगा और आदमी बेहोश हो जाएगा. रक्त क्यों न मिलेगा? रक्त की नली में रुकावट (जिसे हम ‘स्ट्रोक’ कहते हैं) से ऐसा हो सकता है. नली में खून जम गया, क्लॉट अटक गया, बस. तो बेहोशी का एक महत्वपूर्ण कारण है ‘स्ट्रोक’ जिसमें दिमाग की रक्त नलियां ‘चोक’ हो जाती हैं. इसके अलावा यह भी हो सकता है कि दिल की बीमारी के कारण, डिहाइड्रेशन से, किसी दवाई के कारण अचानक ही आदमी का रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) इस कदर कम हो जाए कि रक्त दिमाग तक पूरे प्रेशर से पहुंचे ही न. दस्त, उल्टी, लंबे बुखार से उठने पर भी ब्लड प्रेशर के बहुत कम होने पर लोगों को बेहोश होते आपने देखा ही होगा. यहां यह बताना रोचक होगा कि कभी-कभी स्वयं ब्लड प्रेशर तथा दिल की कुछ दवाइयां खतरनाक साबित हो सकती हैं.  इनमें ‘सोरविट्रेट’ नामक गोली का जिक्र जरूर करना चाहूंगा. ‘हार्ट अटैक’ के बाद, बाईपास सर्जरी या एंजियोप्लास्टी के बाद भी यह गोली हर नुस्खे का अनिवार्य अंग  होती है. इस सलाह के साथ कि कभी छाती में दर्द हाे तो अपनी जुबान के नीचे धर ली जाए. प्रायः डॉक्टर यह नहीं बताते कि इस गोली से आपका ब्लड प्रेशर अचानक बेहद कम भी हो सकता है. सोरविट्रेट लेकर मरीज को एक सुरक्षा का अहसास होता है. किसी भी तरह की तकलीफ होने पर, घबराकर, कि कहीं यह फिर से हार्ट अटैक तो नहीं हो रहा – या प्रायः बिना जरूरत के भी यह गोली खा ली जाती है. कई बार मरीज दस मिनट में दो-तीन गोलियां तक ले लेता है. फिर बेहोश होकर गिर जाता है क्योंकि ब्लड प्रेशर इतना गिर जाता है. तो ये गोलियां संभल कर खाएं.

एक स्थिति यह भी हो सकती है कि दिमाग को रक्त तो पर्याप्त मात्रा में पहुंच रहा है परंतु वह रक्त ठीक ‘क्वालिटी’ का नहीं है. जैसे कि रक्त में ग्लूकोज की मात्रा ही कम हो तो दिमाग काम नहीं करेगा. डायबिटीज की गोली या इंसुलिन इंजेक्शन की मात्रा कभी आवश्यकता से अधिक हो गई अथवा ये दवाएं लेने के बाद डायबिटीज के मरीज ने खाना ही नहीं खाया या बहुत कम मात्रा में खाया तो इसके परिणामस्वरूप रक्त में ग्लूकोज की मात्रा इतनी कम हो सकती है कि आदमी बेहोश हो जाए. इसीलिए डायबिटीज का मरीज यदि कभी बेहोश हो रहा हो और कभी शुरुआती गफलत की स्टेज में ही हो जहां उसे ग्लूकोज, चीनी या कोई मीठी चीज दें तो गटक सकेगा तो यह सब खिलाने-पिलाने की कोशिश तुरंत करनी चाहिए. ग्लूकोज कम होने के अलावा भी रक्त की ‘क्वालिटी’ खराब होने से  अनेक चीजें जुड़ी हैं, परंतु वे डॉक्टरों के समझने की ही ज्यादा हैं. बस, इतना जाल लें कि किडनी खराब होने पर लिवर के ठीक से काम न करने पर भी रक्त में जहरीले पदार्थ इकट्ठे हो जाते हैं जिससे दिमाग काम करना बंद कर देता है. इसी कारण किडनी फेल्योर तथा लिवर खराब हाेने वाले मरीज भी बेहोश हो सकते हैं.

अंत में आइए तीसरी स्थिति पर, यहां रक्त प्रवाह ठीक है, रक्त की क्वालिटी भी बढ़िया है परंतु स्वयं दिमाग में ही कुछ ऐसा हो गया कि काम नहीं कर रहा है. दिमाग की बनावट में, उसके कनेक्शन में, उसके मटेरियल में गड़बड़ी हो सकती है. जैसे कि दिमाग में ‘असामान्य करंट’ पैदा हो सकते हैं जिनसे मिर्गी के दौरे आने से आदमी होश खो देता है. दिमाग में इन्फेक्शन हो सकता है जिससे मेनिन्जाइटिस या इंसेफेलाइटिस के कारण आदमी बेहोश हो सकता है. दिमागी चोट या ब्रेन ट्यूमर आदि से भी बेहोशी हो सकती है. किसी भी कारण से यदि दिमाग को ऑक्सीजन न मिले तो भी आदमी बेहोश हो सकता है. फांसी का फंदा लगाकर आत्महत्या की कोशिश, भारी भीड़ में दब जाने, भगदड़ में फंस जाने आदि में आदमी इसी से बेहोश हो जाता है.

तो यह तो हुआ बेहोशी का मेकेनिज्म. बेहद जटिल होने के बावजूद मैंने इसे अति सरलीकृत करके बताने की कोशिश की है.
अब अगली बार आपको मैं यह बताऊंगा कि यदि कभी कोई आपके आसपास बेहोश हो जाए तो आप क्या करें उससे भी ज्यादा यह कि आप क्या-क्या न करें. 

‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ उर्फ चैनलों का चुनावी जनतंत्र

उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है. ये चुनाव राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनसे न सिर्फ इन राज्यों की बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी तय होनी है. यही कारण है कि इन चुनावों को 2014 के आम चुनावों से पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है. ये चुनाव अन्ना हजारे के उस भ्रष्टाचार विरोधी और जन लोकपाल आंदोलन की छाया में हो रहे हैं जिसने देश को झकझोर कर रख दिया. स्वाभाविक तौर पर इन चुनावों की ओर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं. ऐसे में, न्यूज चैनल कहां पीछे रहने वाले हैं? जहां दर्शक, वहां चैनल. चैनलों पर लंबे अरसे बाद क्रिकेट, सिनेमा, क्राइम और सेलेब्रिटी से इतर राजनीतिक खबरों की वापसी हुई है. नियमित और स्पेशल बुलेटिनों के अलावा प्राइम टाइम बहसों में राजनीतिक मुद्दों खासकर चुनावी घमासान को अच्छी-खासी कवरेज मिलने लगी है.

चैनलों पर होने वाली प्राइम टाइम बहसों में पार्टियों और उनके नेताओं की तू-तू, मैं-मैं के बीच असली मुद्दे गुम-से हो जाते हैं

हालांकि चुनाव पांच राज्यों में हो रहे हैं, लेकिन न्यूज चैनलों का सबसे अधिक फोकस उत्तर प्रदेश पर है. उत्तर प्रदेश चुनाव को 24×7 कवरेज देने के लिए एक दर्जन से ज्यादा प्रमुख हिंदी न्यूज चैनलों के अलावा जी न्यूज-यूपी, ईटीवी-यूपी, सहारा-यूपी, महुआ-यूपी और जनसंदेश जैसे आधा दर्जन से अधिक क्षेत्रीय न्यूज चैनल भी कमर कसकर मैदान में उतर पड़े हैं. चैनलों पर ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ जैसे दर्जनों कार्यक्रम शुरू हो गए हैं जिनमें प्रमुख शहरों से विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवारों की तू-तू, मैं-मैं से लेकर चुनावी रिपोर्टें और समीकरण समझाए जा रहे हैं. यही नहीं, राहुल गांधी जैसे स्टार प्रचारकों की चुनावी सभाओं के लाइव कवरेज दिखाए जा रहे हैं. राजनीतिक पार्टियों और उनके बड़े नेताओं की प्रेस कॉन्फ्रेंस दिल्ली और लखनऊ से लाइव हो रही है. इस तरह पार्टियों के बीच श्लील-अश्लील आरोप-प्रत्यारोपों से लेकर नेताओं के दलबदल, टिकट और उम्मीदवारी के लिए मारामारी, बागियों की धमाचौकड़ी तक सब कुछ लाइव है या आगे-पीछे चैनलों पर है.

इस तरह न्यूज चैनल खासकर क्षेत्रीय चैनल इस हाई वोल्टेज चुनाव के नए अखाड़े बन गए हैं. एक मायने में यह राजनीति और चुनावों के टीवीकरण का दौर है. चैनलों से हवा बनाने में मदद मिलती है. पार्टियों और नेताओं में न्यूज चैनलों पर अधिक से अधिक एयर टाइम जुगाड़ने की होड़ लगी हुई है. यह भी किसी से छिपा नहीं है कि इन चुनावों में पैसा पानी की तरह बह रहा है.
आश्चर्य नहीं कि मंदी की मार से दबे न्यूज चैनलों के लिए चुनाव संजीवनी की तरह हो गए हैं. जब हजारों करोड़ रुपये दांव पर लगे हों तो न्यूज चैनल भी अपनी झोली भरने में पीछे नहीं रहना चाहते हैं. चुनावी विज्ञापनों से कमाई के अलावा चैनलों खासकर क्षेत्रीय चैनलों पर दबे-छिपे ‘पेड न्यूज’ भी चल रहा है. हालांकि इसे साबित करना मुश्किल है, लेकिन अगर इन चैनलों पर चलने वाली बहुतेरी चुनावी खबरों और चुनावी सभाओं-रैलियों की लाइव कवरेज को गौर से देखिए तो उसमें एक पैटर्न और झुकाव साफ दिखता है.

लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि इस कवरेज से दर्शकों को क्या मिल रहा है? लोकतंत्र कितना समृद्ध हो रहा है? इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर इस सवाल का जवाब निराश करने वाला है. चैनलों की चुनावी कवरेज में दर्शकों उर्फ वोटरों को सूचनाएं कम और प्रचार अधिक, चुनाव की बारीकियां कम और शोर-शराबा अधिक, मुद्दों की स्पष्टता कम और भ्रम अधिक, विचार कम और पूर्वाग्रह अधिक, जमीनी हकीकत कम और राजनीतिक चंडूखाने की गप्पें अधिक छाई हुई हैं. रिपोर्टर ठोस सूचनाएं और जानकारियां कम और विचार ज्यादा उगलते दिखते हैं.

यही नहीं, चैनलों पर होने वाली प्राइम टाइम बहसों में पार्टियों और उनके नेताओं की तू-तू, मैं-मैं और हंगामे के बीच असली मुद्दे गुम-से हो जाते हैं. इससे थोड़ी देर के लिए चैनलों के परदे पर खासी उत्तेजना और सनसनी भले पैदा हो जाए लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि पार्टियों, उनके नेताओं और उम्मीदवारों की जवाबदेही नहीं तय हो पाती है. पिछले पांच साल तक सरकार और विपक्ष में उनके प्रदर्शन का हिसाब-किताब नहीं हो पाता है. वे उन असुविधाजनक और तीखे सवालों का जवाब देने से बच निकलते हैं जो चुनावों के मौके पर उनसे जरूर पूछे जाने चाहिए.

ज्यादातर मामलों में दिखता है कि चैनलों के ऐंकर और उनके रिपोर्टर बिना किसी तैयारी, शोध और गहरी छानबीन के नेताओं और उम्मीदवारों से ऐसे सवाल पूछते हैं जो पीआर पत्रकारिता की हद में आते हैं. कहना मुश्किल है कि ऐसा नासमझी में होता है या किसी समझदारी के साथ. इसके अलावा चैनलों के चुनावी जनतंत्र में व्यक्तियों (नेताओं/उम्मीदवारों) पर इतना अधिक फोकस होता है कि असली मुद्दे और सवाल नेपथ्य में चले जाते हैं.

पार्टियां और उनके नेता यही चाहते हैं. चैनल भी जाने-अनजाने उनके इस खेल में हिस्सेदार बन जाते हैं और चुनावों को तमाशा बना डालते हैं. बताने की जरूरत नहीं है कि इस तमाशे में बेवकूफ कौन बनता है.   

भारत रत्न, सचिन और सांस्कृतिक शून्य

ऑस्ट्रेलिया में भारतीय क्रिकेट टीम के लचर प्रदर्शन और अभी तक शतक- बाजार की भाषा में महाशतक- बना पाने में सचिन तेंदुलकर की नाकामी की वजह से फिलहाल उन्हें भारत रत्न दिलाने का वह अभियान कुछ ठंडा पड़ गया है जो पिछले कुछ दिनों तक मीडिया में छाया रहा. इस अभियान की एक कामयाबी यह तो है ही कि इसकी वजह से भारत रत्न प्रदान करने से जुड़े नियम बदले गए. पहले साहित्य-कला, विज्ञान या समाज सेवा के नाम पर दिया जाने वाला भारत रत्न अब किसी भी क्षेत्र में प्रतिभा के विशिष्ट प्रदर्शन पर दिया जा सकेगा. खेल मंत्रालय आधिकारिक तौर पर मान चुका है कि यह परिवर्तन उसके प्रयासों की वजह से हुआ है. सचिन को भारत रत्न दिलाने की मुहिम में अब इकलौती बाधा वे खिलाड़ी हैं जो सचिन तेंदुलकर से पहले भारत रत्न के दावेदार हैं. इनमें बाकायदा सचिन और ध्यानचंद के बीच प्रतियोगिता-सी चलाई जा चुकी है और इस क्रम में कई दूसरे खिलाड़ियों, सुनील गावस्कर, कपिलदेव, विश्वनाथन आनंद और प्रकाश पादुकोण से लेकर मिल्खा सिंह के नाम याद किए जा चुके हैं. फिलहाल खेल मंत्री अजय माकन यह सुझाव भी दे चुके हैं कि एक ही साल सचिन तेंदुलकर और ध्यानचंद को भारत रत्न प्रदान किया जा सकता है.
इस पूरी बहस में एक तरह का छिछलापन है जिसे समझना जरूरी है. सचिन तेंदुलकर की पात्रता और भारत रत्न की प्रासंगिकता दोनों पर विचार करते हुए शायद हम अपने लिए कुछ जरूरी सूत्र तलाश सकें. निश्चय ही सचिन तेंदुलकर भारत के सबसे बड़े खिलाड़ी हैं. वाकई ध्यानचंद के जादू को छोड़ दें तो सचिन के करिश्मे का कोई सानी नहीं है. बल्लेबाजी के बहुत सारे रेकार्ड सचिन के नाम हैं. लेकिन क्या भारत रत्न की कसौटी इतने भर से पूरी हो जाती है? जो हमारा सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान है, क्या उसके लिए उपलब्धियों के अलावा कुछ और मानक नहीं होने चाहिए?

सच तो यह है कि राष्ट्र के इस सर्वोच्च सम्मान का जितना भयानक राजनीतिकरण हुआ है उतना किसी दूसरे सम्मान का नहींजैसे यह कल्पना करें कि सचिन कल को भारत रत्न हो जाएं और फिर परसों हमारा भारत रत्न पेप्सी-कोक के विज्ञापन करता दिखे तो हमें कैसा लगेगा? या हम पाएं कि आईपीएल की निहायत कारोबारी मजबूरियों में मुंबई इंडियंस के हाथ बिके सचिन किसी ऐसे विवाद में घिरे हुए हैं जिसमें उनकी बेचारगी या उपेक्षा दिख रही है तो हम कैसा महसूस करेंगे?

फिलहाल ऐसा होता नहीं लगता, क्योंकि सचिन मुंबई इंडियंस के आइकन खिलाड़ी हैं. लेकिन कोलकाता नाइटराइडर्स, रायल चैलेंजर्स बेंगलुरु या किंग्स इलेवन पंजाब ने अपने आइकन खिलाडियों सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़ और युवराज सिंह के साथ जो सलूक किया वह बहुत पुराना नहीं पड़ा है. अंततः इन खिलाड़ियों को फिर से बोली और नीलामी के लिए जाना पड़ा और नई टीमें चुननी पड़ीं. सचिन तेंदुलकर इसलिए नहीं बचे रहे कि मुंबई इंडियंस के कर्ता-धर्ता उनका कुछ ज्यादा सम्मान करते हैं, बल्कि इसलिए कि उन्होंने आईपीएल में अपना प्रदर्शन बेहतर रखा. कल को वे नहीं खेल पाएंगे तो उनके साथ भी वही सलूक होगा जो उनके दूसरे साथियों के साथ हुआ.

कायदे से भारत रत्न अगर इस देश का आखिरी- सबसे बड़ा- सम्मान है तो उसका कुछ ज्यादा मतलब होना चाहिए. भारत रत्न अर्जित करने वाले से हमें सब कुछ पाने नहीं, कुछ छोड़ने की भी अपेक्षा रखनी चाहिए. कम से कम उसे कारोबारी किस्म की प्रवृत्तियों से ऊपर उठना होगा, खुद को विज्ञापनबाज मानसिकता से दूर रखना होगा. कह सकते हैं कि यह बड़ी कड़ी और निर्मम अपेक्षा है. लेकिन फिर वह भारत रत्न कैसा जो त्याग को आदर्श मानने वाले देश में इतनी भर अपेक्षा पूरी न करे. निश्चय ही सचिन तेंदुलकर के व्यवहार में अपनी तरह की शालीनता है. वे कई मामलों में आदर्श हैं. अपनी तरफ से उन्होंने कभी भारत रत्न जैसे किसी सम्मान के लिए उतावलापन प्रदर्शित किया हो, यह किसी को याद नहीं आता. लेकिन फिर भी भारत रत्न जैसे सम्मान की श्रेणी उनसे कुछ और अपेक्षाएं रखती है.

हालांकि फिर कहा जा सकता है कि आखिर सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न क्यों चाहिए. उनकी धवल कीर्ति का आसमान वैसे भी काफी विस्तृत है. क्या उसमे भारत रत्न कोई नई आभा जोड़ेगा? कम से कम क्रिकेटर अपनी तात्कालिक लोकप्रियता से इतने प्रमुदित रहते हैं कि वे किसी और सम्मान की- जिसमें पैसा न हो- परवाह करते हैं, ऐसा नजर नहीं आता. हाल के दिनों में हरभजन सिंह और महेंद्र सिंह धोनी जैसे जिन क्रिकेटरों को पद्मश्री देने की घोषणा हुई, उन्होंने इसका कोई विशेष मान नहीं रखा. सचिन शायद ऐसा न करें, क्योंकि अपनी छवि और राष्ट्रीयता को लेकर अब तक वे दूसरों से ज्यादा संवेदनशील नजर आते हैं, लेकिन फिर भी अगर ऐसा हो तो इसमें अचरज क्या है?

अफसोस की बात है कि हमने धीरे-धीरे अपने सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बेजान और थोथी प्रदर्शनप्रियता का शिकार बना डाला है

दरअसल इसी बिंदु पर इस पूरी बहस को दूसरे सिरे से समझने की जरूरत है. महेंद्र सिंह धोनी या किसी दूसरे खिलाड़ी ने पद्मश्री का मान क्यों नहीं समझा? क्या सिर्फ इसलिए कि इसमें पैसा नहीं है? या इसलिए भी कि एक सम्मान के रूप में पद्म पुरस्कार अपनी वह सार्थकता बनाए रखने में नाकाम रहे हैं जो उसे एक तरह की राष्ट्रीय छवि प्रदान करे और उसे लेते हुए लोग अलग-सा गर्व महसूस करें. मूल तौर पर ये सरकारी सम्मान रह गए हैं जिनका मंत्री और अफसर अपने लोगों को उपकृत करने तक के लिए इस्तेमाल करते हैं. भारतीय जनता पार्टी के समय अटल बिहारी वाजपेयी की तुकबंदीनुमा कविताएं गाने वाले, उन पर नृत्य करने वाले और यहां तक वाजपेयी के घुटनों का ऑपरेशन करने वाले भी पद्म सम्मान पाते चले गए.

दुर्भाग्य से भारत रत्न भी ऐसा ही सम्मान रह गया है. सच तो यह है कि राष्ट्र के इस सर्वोच्च सम्मान का जितना भयानक राजनीतिकरण हुआ है उतना किसी दूसरे सम्मान का नहीं. यह अचरज की बात है कि भारत रत्न के लिए पहले जो कसौटियां निर्धारित थीं उनकी पूरी तरह उपेक्षा करके यह सम्मान सीधे-सीधे नेताओं के हवाले कर दिया गया. पुरानी कसौटी के मुताबिक साहित्य के लिए यह सम्मान दिया जा सकता था. लेकिन साहित्य के खाते में अब तक एक ही भारत रत्न दिया गया और वह भी संस्कृत के विद्वान भगवान दास को. रवींद्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, निराला, महादेवी, सुब्रह्मण्यम भारती या वल्लतोल जैसे कवि लेखकों को भारत रत्न प्रदान किए जाने लायक नहीं समझा गया. अब तक जो 42 भारत रत्न दिए गए हैं उनमें 23 या 24 भारत रत्न या तो स्वाधीनता सेनानियों को दिए गए या राजनेताओं को. जाहिर है, इन सबके लिए चूंकि अलग से कोई श्रेणी नहीं थी इसलिए इन्हें समाजसेवा के खाते में भारत रत्न मिला. इस सूची में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीवी गिरि, कामराज, एमजी रामचंद्रन जैसे कुछ ऐसे भी नाम हैं जिनकी पात्रता पर पहले भी सवाल उठे, आगे भी उठते रहेंगे.

निश्चय ही आखिरी कुछ वर्षों में संगीत से जुड़ी कई विभूतियों- एमएस सुबुलक्ष्मी, लता मंगेशकर, रविशंकर, बिस्मिल्ला खां, भीमसेन जोशी और फिल्मकार सत्यजित रे को भारत रत्न देकर हमारी सरकारों ने अपनी सांस्कृतिक संवेदनशीलता का कुछ परिचय देने की कोशिश की, लेकिन यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह समझ भी एक तरह के लोकप्रियतावाद से आक्रांत है. एपीजे अब्दुल कलाम को भारत रत्न देना इसी लोकप्रियतावाद का एक दूसरा आयाम था क्योंकि कलाम साहब ने देश को भले कुछ मिसाइलें दी हों, लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में उनका मौलिक योगदान ऐसा बड़ा नहीं है कि वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की कीर्ति में कुछ योगदान करें. मदर टेरेसा या अमर्त्य सेन को भारत रत्न के लायक सरकार ने तब माना जब उन्हें नोबेल पुरस्कार मिल गया. निश्चय ही कल को भारत के किसी साहित्यकार को नोबेल पुरस्कार मिल जाए तो अगले साल उसे भारत रत्न भी प्रदान कर दिया जाएगा. समकालीन भारतीय चित्रकला का भी कोई मूर्धन्य अब तक भारत रत्न प्राप्त नहीं कर सका है तो इसीलिए कि समकालीन कला चाहे जितनी भी महत्वपूर्ण हो, वह लोकप्रियता के लिहाज से पीछे है.

भारत रत्न की दुर्गति का आलम यह है कि हाल के दिनों में राजनीतिक दलों ने और नेताओं ने अपनी विचारधारा और विरासत के हिसाब से भारत रत्न की मांग की. भारतीय जनता पार्टी ने बाकायदा अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न देने की मुहिम चलाई तो बीएसपी ने कांशीराम को भारत रत्न देने की मांग की. खेल यहां तक पहुंचा कि लोगों ने बेशर्मी से अपने पिताओं के लिए भारत रत्न मांगा.

दरअसल इस तरह की मांग से भी पता चलता है कि हमने भारत रत्न का या अपने सम्मानों का क्या हाल बना रखा है. जो विकट संस्कृतिहीनता हमारे पूरे सार्वजनिक प्रतिष्ठान में छाई हुई है, उसने हमारे सर्वोच्च सम्मान को भी ग्रस रखा है. सचिन तेंदुलकर को भी भारत रत्न देने की मांग के पीछे क्रिकेट की समझ और संवेदनशीलता कम, बाजार का दबाव ज्यादा है. यह दबाव सचिन तेंदुलकर पर भी हावी है और हमारे सरकारी तंत्र पर भी, यह बात प्रत्यक्ष है. सचिन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का अपना सौवां शतक और बाजार की भाषा में कहें तो महाशतक नहीं बना पा रहे हैं, जबकि उन्हें भारत रत्न देने के नाम पर देश के सर्वोच्च सम्मान की कसौटी के साथ खिलवाड़ हो चुका है. ऐसे में अगर सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिल भी जाए तो वह बाजार को जश्न का एक मौका जरूर देगा, शायद कुछ क्षण के लिए एक भावुक राष्ट्रवाद का खुमार भी पैदा करेगा, लेकिन अंततः इससे न सचिन तेंदुलकर की प्रतिष्ठा बढ़ेगी न भारत रत्न की कीर्ति पर असर पड़ेगा.

सोच कर अफसोस होता है कि हमने धीरे-धीरे अपने सांस्कृतिक आदान-प्रदान को कितना बेजान और थोथी प्रदर्शनप्रियता का शिकार बना डाला है. यह अफसोस यह सोचकर कुछ और बढ़ जाता है कि इस प्रवृत्ति के लिए जो राजनीतिक अपसंस्कृति जिम्मेदार है वह लगातार निरंकुश, अभेद्य और बहुत हद तक स्वीकार्य होती जा रही है.  

सदिच्छा का सत्यानाश

सैकड़ों करोड़ रु की जिस रकम से बिहार के स्कूलों की तस्वीर बदल सकती थी उसका ज्यादातर हिस्सा भ्रष्टाचारियों की जेब में चला गया. इर्शादुल हक की पड़ताल

सत्ता के शीर्ष से चले अच्छे इरादों का जमीन तक पहुंचते-पहुंचते किस तरह बंटाधार हो जाता है, इसका उदाहरण है यह घोटाला. इससे यह भी साफ होता है कि योजनाएं कितनी भी अच्छी बन जाएं, जब तक उन्हें अमली जामा पहनाने वाले तंत्र की जवाबदेही सुनिश्चित नहीं होगी तब तक उन योजनाओं के लक्ष्य कागजों पर ही रहेंगे.

2005 में पहली बार सत्ता संभालने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिन क्षेत्रों में सबसे अधिक ध्यान देना शुरू किया था उनमें शिक्षा भी एक था. 2008-09 में सरकार ने राज्य भर के 1350 उच्च विद्यालयों (दसवीं तक) को उत्क्रमित करने का एलान किया. यानी इन्हें 10+2 विद्यालयों का दर्जा दिया जाना था. इसके लिए कुल पांच अरब 33 करोड़ 25 लाख रुपये का प्रावधान हुआ. हर स्कूल को 39 लाख 50 हजार रुपये मिले. इस पैसे से स्कूल की इमारत बननी थी. किताबें, फर्नीचर, खेल और प्रयोगशाला सामग्री जैसी बुनियादें चीजें खरीदी जानी थीं. यानी शिक्षा  के क्षेत्र में एक बड़े बदलाव का मार्ग प्रशस्त था.
लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तहलका की पड़ताल बताती है कि पिछले तीन वर्षों के दौरान इस रकम का एक बड़ा हिस्सा छात्रों के भविष्य पर खर्च होने की बजाय भ्रष्टाचारियों की जेब में चला गया. पड़ताल के दौरान जो तथ्य सामने आए हैं उससे साफ होता है कि नियम-कायदों का मजाक उड़ाते हुए कूलों की प्रबंध समितियों, प्रशासनिक अधिकारियों और विभागीय इंजीनियरों के गठजोड़ ने नियमों को धता बताते हुए सैकड़ों करोड़ रुपये की बंदरबांट कर ली.

इसके नतीजे राज्य के 38 जिलों में फैले 1350 स्कूलों में देखे जा सकते हैं. कहीं भवन अधूरे ही बने हैं तो कहीं पूरे बन चुके भवनों में इतनी घटिया निर्माण सामग्री लगाई गई है कि छतों में दरारें पड़ चुकी हैं और फर्श धंस रहे हैं. कई भवन बन जाने के बाद स्कूल प्रबंधनों को सुपुर्द तो कर दिए गए हैं पर उनकी खिड़कियों के किवाड़ या तो लगाए ही नहीं गए या कहीं लगाए गए हैं तो उनकी गुणवत्ता इतनी घटिया थी कि वे छिन्न-भिन्न हो चुके हैं. ध्यान देने की बात यह है कि प्रत्येक स्कूल को भवन निर्माण के मद में 26 लाख रुपये दिए गए थे. इसी तरह खेल व प्रयोगशाला सामग्री और फर्नीचर की खरीद में भी भारी अनियमितताओं का बोलबाला है. इसके लिए प्रत्येक स्कूल को अलग-अलग 13 लाख 50 हजार रुपये आवंटित किए गए थे.

नियमों के अनुसार किसी भी सरकारी निर्माण, खरीददारी या सेवा के लिए संबंधित संस्था द्वारा प्राक्कलन यानी एस्टीमेट, नक्शा और सामग्री की गुणवत्ता निर्धारित करते हुए अखबारों में निविदा विज्ञापन प्रकाशित किया जाना चाहिए. लेकिन हैरत की बात है कि ऐसा नहीं हुआ. बल्कि कई मामलों में तो स्कूल के शिक्षकों, प्रधानाचार्यों या प्रबंधन समिति के अधिकारियों ने खुद ही भवनों का निर्माण करा डाला. इसी तरह आवश्यक सामग्रियों की खरीददारी भी वैसे ही कर ली गई जैसे एक आम आदमी अपनी जरूरतों का सामान किसी दुकान से जा कर ले लेता है.

निविदाएं मंगाए बिना अपने चहेते ठेकेदारों से काम करवाया गया जिसकी गुणवत्ता बेहद घटिया है

हालांकि ऐसा नहीं है कि सभी 1350 स्कूलों ने नियमों का उल्लंघन किया है. ऐसे भी स्कूल हैं जिन्होंने भवन निर्माण से लेकर सामग्रियों की खरीददारी के लिए अखबारों के माध्यम से निविदा आमंत्रित की और काम कराए. लेकिन इनकी संख्या 15-20 प्रतिशत के आसपास ही होगी. दूरदराज के इलाकों को छोड़िए, राजधानी पटना की हालत ही चौंकाने वाली है. लाख कोशिशों से भी जानकारी न मिलने के बाद शिक्षा विभाग से सूचना के अधिकार के तहत आंकड़े मांगे गए तो विभाग पिछले तीन महीने में अब तक ऐसे महज 18 स्कूलों की लिस्ट उपलब्ध करा सका जिन्होंने अखबारों में निविदा प्रकाशित करवाई थी जबकि 2008-09 में जिले के 104 स्कूलों और 2006-07 में 10 स्कूलों को धन उपलब्ध कराया गया था.

बड़ा सवाल

आखिर निर्माण और खरीददारी में नियमों को धता बता कर पैसे की बंदरबांट कैसे हुई? सरकार ने जब स्कूलों के प्रधानाचार्यों के बैंक अकाउंट में पैसे भेजे तो उसी के साथ लिखित निर्देश भी जारी किया गया था कि स्कूल कार्यकारी एजेंसियों का चयन खुद कर सकता है. शहरी क्षेत्र में कार्यकारी एजेंसी आम तौर पर भवन निर्माण विभाग होती है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में जिला परिषद या ग्रामीण विकास अभिकरण (एनआरईपी) होते हैं. नियमानुसार ये एजेंसियां अपने तकनीकी विशेषज्ञों यानी अभियंताओं द्वारा प्राक्कलन और नक्शा आदि बनवाती हैं और फिर निविदा आमंत्रित करके निर्माण से जुड़े रजिस्टर्ड ठेकेदारों के माध्यम से अपनी देखरेख में काम करवाती हैं.

पर अधिकतर मामलों में ऐसा नहीं किया गया. ज्यादातर स्कूलों में ग्रामीण विकास अभिकरण के अभियंताओं ने भवनों का प्राक्कलन और नक्शा बनाने के बाद स्कूलों की प्रबंध समितियों के साथ मिलीभगत करके अपने प्रिय ठेकेदारों को अपनी मर्जी से काम में लगवा दिया. कहीं स्कूल प्रबंधन ने खुद ही काम का मोर्चा संभाल लिया. राजकीय विद्यालयों में प्रबंध समिति के अध्यक्ष संबंधित जिलों के जिलाधिकारी या जिला शिक्षा पदाधिकारी होते हैं. राजकीयकृत विद्यालयों की प्रबंध समिति के अध्यक्ष संबंधित विधानसभा क्षेत्र के विधायक या उसके द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि होते हैं. सभी प्रबंध समितियों के सचिव स्कूल के प्रधानाध्यापक होते हैं. यह सारी धांधली इन सब व्यक्तियों के बिना चाहे संभव नहीं है.

तहलका ने जब इन अनियमितताओं की एक-एक कर पड़ताल शुरू की और उसके साक्ष्य जिला शिक्षा पदाधिकारियों के सामने पेश किए तो कई जिलों के शिक्षा पदाधिकारियों ने चुप्पी साध ली. कई ने खुल कर स्वीकार किया कि अनियमितताएं की गई हैं. सारण जिले में हाल ही में पदस्थापित जिला शिक्षा पदाधिकारी अनूप कुमार सिन्हा उनमें से एक हैं जिन्होंने बड़ी साफगोई से स्वीकार किया कि उनके यहां राशियों का बड़े पैमाने पर गबन हुआ है. हालांकि इस मामले में राज्य के शिक्षामंत्री पीके शाही से जब बात की गई तो उन्होंने अधिकतर मामलों में अनभिज्ञता व्यक्त की. निर्माण कार्य पर  वे बोले कि उनके विभाग ने तय किया है कि भविष्य में स्कूल भवनों के निर्माण में उनके विभाग में हाल ही में गठित निगम को लगाया जाएगा (देखें साक्षात्कार).

ये 1350 स्कूल राज्य के38 जिलों में फैले हुए हैं.  तहलका ने  चार जिलों समस्तीपुर, सारण, वैशाली और पटना के स्कूलों का जायजा लिया.

नारायणी कन्या उच्च विद्यालय, पटना

पटना सिटी का नारायणी कन्या उच्च विद्यालय उन सैकड़ों स्कूलों में से एक है जहां बड़े पैमाने पर अनियमितता, नियमों का उल्लंघन और फर्जीवाड़ा देखने को मिलता है. इस विद्यालय की प्रबंधन समिति ने तो सरकारी धन के उपयोग के लिए न सिर्फ निविदा शर्तों को धता बताया बल्कि भवन निर्माण कार्य भी खुद ही करा डाला. स्कूल की प्रधानाध्यापिका लल्ली देवी ने ईंट, सीमेंट, सरिया से लेकर तमाम निर्माण सामग्री खुद खरीदी. और तो और, दिहाड़ी मजदूरों की मजदूरी भी उन्होंने खुद ही अदा की. इतना ही नहीं, भवन निर्माण उस स्थान पर कराया गया जहां पहले से भवन मौजूद था, उसे तोड़ा गया. पुराने भवन को तोड़ कर या ध्वस्त करके उस स्थान पर नया भवन बनवाना वैसे कोई अपराध तो नहीं है, पर स्थानीय लोगों का कहना है कि दो मंजिला पुराना भवन इतना पुराना और जर्जर नहीं था जिसे ध्वस्त किया जाता. इस भवन की मरम्मत की जा सकती थी.

इस बात का लिखित निर्देश भी था कि आवंटित राशि से अगर जरूरत हो तो पुराने भवन  की मरम्मत भी की जा सकती है. दूसरा सवाल यह कि अगर पुराना भवन तोड़ा गया तो उससे निकलने वाली पुरानी ईंट और दूसरी सामग्रियों का क्या उपयोग किया गया. क्या उसकी नीलामी की गई? तहलका को मिली जानकारी बताती है कि पुराने भवन की सामग्री का उपयोग इसी काम में किया गया. ऐसे में भवन निर्माण की लागत खुद-ब-खुद प्राक्कलन से कम हो गई. इस नवनिर्मित भवन की प्राक्कलित राशि 15 लाख से अधिक थी. एक दूसरा भवन भी बनवाया गया जिसकी प्राक्कलित राशि 4.95 लाख रुपये थी.  3.54 लाख रुपये की प्राक्कलित राशि से एक अन्य पुराने भवन की छत को ध्वस्त कराकर, मौजूदा दीवार पर ही नई छत बनवाई गई. स्कूल प्रबंधन समिति का तर्क था कि पुरानी छत जर्जर स्थिति में थी इसलिए उसे तोड़ना अनिवार्य था. पर इसी स्कूल के एक वरिष्ठ शिक्षक अपना नाम गुप्त रखते हुए कहते हैं कि पुराने भवन की मरम्मत करके उसे ठीक किया जा सकता था. वे बताते हैं कि इस मामले में अभियंताओं की भी मिलीभगत थी क्योंकि तीनों भवनों के निर्माण में विभागीय अभियंताओं को भरोसे में लेकर स्वीकृति ली गई. इन शिक्षक के मुताबिक उन भवनों का प्राक्कलन करने वाले इन अभियंताओं को पता था कि पुराने ध्वस्त भवन की सामग्री का इस्तेमाल नए भवन के निर्माण के लिए किया जाना है.

पुस्तकों, प्रयोगशाला सामग्री और फर्नीचर की खरीददारी में भी नियमों का मखौल उड़ाने का खेल हुआ

इसी प्रकार खेल सामग्री, प्रयोगशाला से जुड़े उपकरण, फर्नीचर और पुस्तकों के लिए 13.5 लाख रुपये की खरीददारी की गई. इस खरीददारी के लिए भी निविदा अखबारों में विज्ञापित नहीं की गई, बल्कि उसे स्कूल के सूचना पट्ट पर चिपका दिया गया. पुस्तकों की खरीददारी भारती भवन पब्लिकेशंस, एस चांद, पुस्तक केंद्र खजांची रोड, माडर्न पब्लिशर्स खजांची रोड आदि से की गई. स्कूल प्रबंधन समिति के दस्तावेज के अनुसार सभी पुस्तकों पर अंकित मूल्य पर 10 प्रतिशत की रियायत दी गई. भारती भवन पब्लिकेशंस से 20/02/2008 को जारी पत्रांक 31/08 में खरीददारी और दर का उल्लेख है. भारती भवन ने भी पुस्तकों की खरीद पर स्कूल को मूल्य पर दस प्रतिशत की रियायत की थी.
लेकिन तहलका की पड़ताल बताती है कि भारती भवन थोक मूल्य पर बिक्री की गई पुस्तकों पर कम से कम 30-40 प्रतिशत या कई मामलों में उससे भी अधिक की रियायत देता है. इस प्रकार स्कूल क्रय समिति ने या तो सरकारी धन के 20-30 प्रतिशत का नुकसान कराया या उन पैसों का गबन किया. इसी प्रकार खेल सामग्री, प्रयोगशाला के उपकरण और फर्नीचर आदि की खरीद के लिए कुछ दुकानों से कोटेशन लेकर सामान की खरीददारी की गई और बिल पर मनमानी दर अंकित कर ली गई.

सेंट जेवियर्स हाईस्कूल, पटना

अपनी पढ़ाई के लिए विख्यात यह एक अल्पसंख्यक विद्यालय है जिसकी प्रबंध समिति में स्थानीय जनप्रतिनिधियों की कोई भूमिका नहीं होती. यह उन विद्यालयों में से एक है जिसने उत्क्रमण के लिए मिली कुल 39 लाख 50 हजार की रकम का खर्च खुद अपने स्तर से किया. इसमें न तो किसी सरकारी एजेंसी की कोई भूमिका रही और न ही भवन निर्माण  या अन्य खरीददारी के मद में किसी निविदा का सार्वजनिक विज्ञापन किया गया. स्कूल के प्रिंसिपल  एसए जार्ज के पदनाम से विभिन्न मदों में 39 लाख 50 हजार रुपये 2008-09 में चेक द्वारा दिए गए थे. प्रिंसिपल ने स्कूल प्रबंधन समिति के अनुमोदन के बाद रमन ऐंड एसोसिएट्स नाम की एक निर्माण एजेंसी को चुना. जार्ज कहते हैं. ‘हम रमन ऐंड एसोसिएट्स से पहले भी काम करा चुके हैं इसलिए हमने उस एजेंसी से भवन निर्माण कराया.’ पर सवाल यह है कि रमन एंड एसोसियेट्स का चयन खुद स्कूल प्रबंधन ने किया और वह भी अपनी मर्जी से. स्कूल प्रबंधन ने भवन निर्माण से संबंधी कोई टेंडर अखबार में जारी नहीं किया. टेंडर निकालने की स्थिति में कई एजेंसियां सामने आतीं और उनमें आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते निर्माण में कम खर्च आता. इतना ही नहीं, सरकारी अभियंताओं ने भी स्कूल प्रबंधन के इस फैसले का समर्थन किया और निरीक्षण करके भवन को स्कूल के हवाले भी कर दिया. स्कूल प्रबंधन समित ने सिर्फ भवन निर्माण में ही मनमानी नहीं की. उसने पुस्तकों, प्रयोगशाला व खेल सामग्रियों के साथ-साथ फर्नीचर की खरीददारी में भी अपने मन से फैसला लिया. इसके लिए 13 लाख 50 हजार रुपये सरकार ने आवंटित किए थे. प्रिंसिपल जार्ज तर्क देते हैं कि उन्होंने सबसे कम कीमत और अच्छी गुणवत्ता उपलब्ध कराने वाली एजेंसियों से खरीददारी की. वे कहते हैं, ‘हमें खुदरा बाजार से 25 प्रतिशत कम पर पुस्तकें मिली हैं.’ लेकिन सच्चाई यह है कि पटना के कई प्रकाशक खुदरा खरीददारों को बिन मांगे ही 25-35 प्रतिशत तक रियायत कर देते हैं. इसी तरह खेल सामग्रियों की खरीददारी में भी मनमानी की गई. 

छपरा

छपरा शहर स्थित विश्वेश्वर सेमिनरी विद्यालय में फरवरी, 2011 में चोरों ने नवनिर्मित भवन की कमजोर व बेजान खिड़कियों को तोड़ कर कंप्यूटर चुराने का असफल प्रयास किया था. स्थानीय लोगों की सजगता और तत्परता से चोर भाग गए थे. स्कूल की प्रधानाध्यापिका सीता सिन्हा ने इसकी सूचना स्थानीय पुलिस को भी दी थी. उसके बाद भवन को सुरक्षित और मजबूत करने के लिए स्कूल निधि से 70 हजार रु खर्च करके इस भवन में लोहे की ग्रील और मज़बूत खिड़कियां लगाई गईं. यहां गौर करने वाली बात यह है कि जिस भवन को स्कूल निधि से पैसे खर्च करके मजबूती प्रदान की गई उसे एक साल पहले ही 39 लाख रुपये की लागत से बनवाया गया था. इस स्कूल की जर्जरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी छत और दीवार के बीच कई दरारें पड़ चुकी हैं. बरामदे और दोनों कमरों का फर्श धंस कर तहस-नहस हो चुका है.
खिड़कियों के दरवाजे नदारद हैं. गुणवत्ता के स्तर पर इतनी खामियों के बावजूद प्रबंध समिति और कार्यकारी एजेंसी एनआरईपी ने ठेकेदारों द्वारा बनाए इस भवन को स्वीकृति देकर स्कूल के हवाले भी कर दिया है. इस दोमंजिला भवन की प्राक्कलित लागत 26 लाख रुपये थी. पर थोड़ा भी अनुभव रखने वाला कोई आम आदमी यह कह सकता है कि इतना ‘मजबूत’ भवन बनाने में छह-सात लाख से ज्यादा का खर्च नहीं आया होगा. स्कूल की मौजूदा प्राचार्य सीता सिन्हा साफ आरोप लगाती हैं कि इस भवन के निर्माण में बड़े पैमाने पर घोटाला किया गया. भवन निर्माण के अलावा फर्नीचर की खरीददारी छपरा के दुकानदारों की बजाय हाजीपुर से की गई. छपरा शहर से खरीददारी करने की बजाय किसी दूसरे जिले जाने और वहां से ढुलाई का अतिरिक्त खर्च वहन करने की बात समझ से परे है.

राजकीय कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय, छपरा

राजकीय कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय, छपरा के प्रांगण में दाखिल होकर आप जैसे ही स्कूल के मुख्य भवन के पीछे पहुंचते हैं तो आपका सामना एक खंडहरनुमा नए भवन से होता है. यही वह भवन है जिसे राजकीय कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय को उत्क्रमित करके 10 जमा दो विद्यालय के रूप में स्वीकृत करने पर बनवाया गया है. निर्माण की गुणवत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि निर्माण कार्य के दौरान ही भवन का एक हिस्सा धंस गया. भवन की आधी छत पूरी हो चुकी है. आधी अब भी अपने भविष्य को तरस रही है. स्कूल की तत्कालीन प्रधानाध्यापिका शशि प्रभा ने 2008 में इसके निर्माण के लिए 13 लाख का चेक एनआरईपी को सौंप दिया था. 2011 के अप्रैल तक इस भवन में कभी थोड़ा-सा काम करा दिया जाता तो कभी रोक दिया जाता.

अप्रैल के बाद से अब यह काम पूरी तरह ठप पड़ा है. मौजूदा प्रधानाध्यापिका मंजुलता ने जब देखा कि भवन निर्माण का कार्य अधूरा पड़ा है और इसकी कार्यकारी एजेंसी यानी एनआरईपी से जुड़े इंजीनियर और ठेकेदार अप्रैल, 2011 से काम छोड़ चुके हैं तो उन्होंने एक सितंबर, 2011 को एनआरईपी को दिए जाने वाले बाकी 13 लाख रुपये सरकार को वापस कर दिए. मंजू लता कहती हैं, ‘हमें आज तक इस बात की विधिवत जानकारी नहीं दी गई कि एनआरईपी इस भवन को किस भवन निर्माता से बनवा रहा है.’ जिले के शिक्षा पदाधिकारी अनूप कुमार सिन्हा भी अनभिज्ञता जताते हैं. पर मंजूलता इतना जरूर बताती हैं कि एनआरईपी के अधिकारी इस भवन को किसी स्वतंत्र बिल्डर को देने की बजाय खुद ही बनवा रहे हैं. नियमानुसार कार्यकारी एजेंसी को नक्शा और प्राक्कलन बनाने के बाद किसी स्वतंत्र व रजिस्टर्ड ठेकेदार से भवन निर्माण का कार्य करवाना चाहिए. स्कूल की प्रधानाध्यापिका स्वीकार करती हैं कि इसके लिए अखबारों में टेंडर भी नहीं निकाला गया. अनूप कुमार सिन्हा मानते हैं कि गड़बड़ी हुई है और वह भी बड़े पैमाने पर. चूंकि तत्कालीन जिलाधिकारी प्रभात साह, तत्कालीन जिला शिक्षापदाधिकारी सैलेंस्टिन हंस्दा और विद्यालय की तत्कालीन प्रधानाध्यापिका शशि प्रभा प्रबंधन समिति के पदाधिकारी थे, इसलिए उनकी भूमिका इस निर्माण में महत्वपूर्ण है. यानी जवाबदेही भी उनपर जाती है. इसके अलावा पुस्तकों, प्रयोगशाला सामग्री और फर्नीचर की खरीददारी में भी नियमों की धज्जी उड़ाने का खुल्लमखुल्ला खेल किया गया. 
 
समस्तीपुर व वैशाली

समस्तीपुर और वैशाली दो ऐसे जिले रहे जहां घपले की प्रकृति कम गंभीर और  घपलों के संभावित खतरे का आतंक अधिक दिखा. वैशाली के दिग्घी स्थित एसएमएस श्री मुल्कजादा सिंह हाई स्कूल के प्राचार्य  शिवजी ने पैसों की बंदरबांट के डर से उनका इस्तेमाल ही नहीं किया और बाद में यह रकम लौटा दी. स्कूल के एक कर्मी बताते हैं कि स्कूल प्रबंधन समिति के कई सदस्य इस पैसे के खर्च होने से पहले ही अपने हिस्से की मांग करने लगे थे, जिसके कारण महीनों तक भवन निर्माण या खरीददारी का फैसला नहीं लिया जा सका.

जिले में पैसों का उपयोग न करके बाद में उसे वापस कर देने के और भी कई मामले हैं. समस्तीपुर के तिरहुत एकेडमी में भवन बनाने का काम तो शुरू हुआ पर तीन साल के बाद भी वह भवन अभी तक अधूरा पड़ा है. स्कूल के प्रधानाचार्य अमरनाथ ठाकुर बताते हैं कि उन्होंने भवन निर्माण के लिए 26 लाख रुपये का चेक एनआरईपी के हवाले 2008 में ही कर दिया था. लेकिन जो जानकारी सामने आई है उससे पता चलता है कि विभाग के एक सहायक अभियंता स्तर के अधिकारी वीके सिंह ने अपने स्तर पर ही किसी ठेकेदार के सहयोग से काम शुरू करवाया था. इस बात की पुष्टि अमरनाथ ठाकुर भी करते हैं. ठेकेदार के चयन की प्रक्रिया में किसी नियम का पालन करने के बजाए अपने करीबी ठेकेदार को तरजीह दी गई. फरवरी 2009  में शुरू हुआ यह काम अब भी अधूरा पड़ा है.

साफ है कि जिस पैसे का ठीक से इस्तेमाल करके शिक्षा की तस्वीर बदली जा सकती थी उससे निजी स्वार्थ पूरे कर लिए गए. इसका खामियाजा छात्रों और बड़े संदर्भ में कहें तो समाज को उठाना पड़ रहा है.

पुलिस और पूर्वाग्रहों के ‘आतंकवादी’

मई, 2008 में हुए जयपुर बम ब्लास्ट के बाद राजस्थान के एक विशेष जांच दल ने 14 लोगों को सिमी का सदस्य बताते हुए गिरफ्तार किया था. लेकिन बीते दिसंबर इनमें से 11 आरोपितों के अदालत में निर्दोष साबित होने के बाद जहां पुलिस तंत्र के पूर्वाग्रह फिर से उजागर हुए हैं वहीं यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर असली गुनहगार कौन थे. शिरीष खरे की रिपोर्ट

चेहरे पर पसरा सन्नाटा अच्छा नहीं लगता. मगर अमानुल्लाह के चेहरे से सन्नाटा है कि छंटने का नाम ही नहीं लेता. साढ़े तीन साल का वक्त कम तो नहीं होता; वह भी तब जब यह वक्त जेल की चारदीवारी के बीच काटा गया हो. और 28 साल के अमानुल्लाह ने तो अपनी जवानी का यह बेशकीमती वक्त बिना किसी गुनाह के काटा. हालांकि बीते साल के आखिरी दिनों में अदालत ने अमानुल्लाह के साथ इंसाफ किया, लेकिन जेल की बेरहम प्रताड़ना ने उसके दिलोदिमाग में कुछ ऐसा खौफ भर दिया है कि उसमें मनुष्योचित प्रतिक्रिया नहीं होती. इस तरह, लंबे इंतजार के बाद कोटा शहर के हिरण बाजार की तंग गलियों वाले अमानुल्लाह के जर्जर घर में अच्छे दिन लौटे भी हैं तो सन्नाटे के तौर पर. यह सन्नाटा राजस्थान पुलिस की देन है जिसने अमानुल्लाह पर अपराध का मामला बनाया. और मामला भी कोई मामूली नहीं. आतंकवाद का संगीन मामला.

अमानुल्लाह की जिंदगी का यह सन्नाटा 13 मई, 2008 को हुए जयपुर बम धमाके से जुड़ा है. धमाके की जांच के लिए तत्कालीन भाजपा सरकार ने एक विशेष जांच दल यानी एसओजी गठित किया था. एसओजी ने राज्य भर से सैकड़ों लोगों को पकड़ा और उनमें से अमानुल्लाह सहित 14 लोगों के खिलाफ सिमी के सदस्य होने के आरोप में चार्जशीट दाखिल की. इस दौरान साढ़े तीन साल का लंबा अंतराल गुजर गया, लेकिन जांच एजेंसी ने अदालत के सामने किसी भी आरोपित के खिलाफ सिमी की सदस्यता या उसकी गतिविधियों में शामिल होने से जुड़ा कोई भी पुख्ता साक्ष्य पेश नहीं किया. आखिर, बीते नौ दिसंबर को जयपुर की फास्ट ट्रैक अदालत के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश नेपाल सिंह ने जांच एजेंसी की चार्जशीट को बेहद लचर बताया और 11 आरोपितों को बाइज्जत बरी कर दिया. इसी के साथ अन्य तीन आरोपितों को भी जल्द ही बरी किया जा सकता है.

आतंकवाद के आरोप से रिहा लोगों ने तहलका के साथ बातचीत में देश की न्यायिक व्यवस्था पर भरोसा जताया है. मगर उनमें से कुछ को खास तौर पर मीडिया से शिकायत भी है. नजाकत हुसैन का कहना है कि उन्हें जयपुर ब्लास्ट के मामले में नहीं बल्कि सिमी के सदस्य होने के आरोप में पकड़ा गया था. जबकि मीडिया ने उन्हें जयपुर ब्लास्ट के गुनहगारों के तौर पर प्रचारित किया.

साक्ष्य के तौर पर पेश की गई उर्दू पत्रिकाओं में क्या लिखा है यह भी जांच अधिकारी को पता नहीं था

साल के सबसे ठंडे दिनों में आए इस अदालती फैसले ने राजस्थान की राजनीति में तपिश पैदा की है. सत्तारुढ़ कांग्रेस ने इसे वसुंधरा राजे के राज में मची अंधेरगर्दी बताया तो भाजपा ने भी पलटवार करते हुए गहलोत सरकार को बेवजह मामला बहुत लंबा खींचने के लिए कठघरे में खड़ा किया. इस खींचतान के बीच सभी दलों के दिग्गज नेता जो पहले इस ‘मुसीबत’ में पड़ना नहीं चाहते थे, अब बेगुनाहों की रिहाई के जश्न पर जयपुर सेंट्रल जेल सहित जगह-जगह आयोजित जुलूसों में शामिल हुए. 

दूसरी ओर किसी भी आरोपित के खिलाफ पुख्ता साक्ष्य न जुटा पाने के बाद जांच एजेंसी ‘मनगढ़ंत कहानी’ के आधार पर मामला तैयार करने का आरोप झेल रही है. 12 सितंबर, 2008 को एसओजी के जांच अधिकारी तथा अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक महेंद्र सिंह चौधरी द्वारा सीआईडी, जयपुर के समक्ष दाखिल चार्जशीट  (सं 15/8) में ‘कहानी’ का संक्षिप्त ब्योरा इस प्रकार है- सिमी प्रतिबंधित संगठन है जिसका सदस्य साजिद 2002 में सूरत से कोटा आया. यहां उसने अपना नाम सलीम रखा. कोटा में साजिद उर्फ सलीम ने सिमी की गतिविधियां चलाने के लिए एक कोर ग्रुप तैयार किया. इस दौरान कई लोग सिमी को प्रतिबंधित संगठन जानते हुए भी उसकी गतिविधियों में शामिल हुए. साजिद उर्फ सलीम ने कोटा और आसपास के कई शहरों (बूंदी, बारां, सवाई माधोपुर, जयपुर, अजमेर, जोधपुर आदि) में लोगों को सिमी से जोड़ने का अभियान चलाया. 2006 में साजिद उर्फ सलीम कोटा से गुजरात चला गया और उसकी गैरमौजूदगी में कोटा में सिमी की कमान मुनव्वर ने संभाली. उसके बाद कोर ग्रुप के सदस्यों ने दूसरे समुदाय के प्रति कई जगहों पर घृणा फैलाने और आपस में संघर्ष की स्थिति पैदा करने जैसी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में भाग लिया.

इस चार्जशीट में एसओजी ने आरोपितों पर दो तरह के आरोप लगाए. एक तो दो समुदायों के बीच घृणा फैलाने के आरोप में भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए, 295ए तथा 120बी. दूसरा, सिमी एक प्रतिबंधित संगठन है, यह जानते हुए भी उसके साथ संबंध रखने और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में भाग लेने के आरोप में विधि विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम की धारा 10, 13, 17, 18 और 19. पहले आरोप यानी भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए, 295ए, 120बी के तहत किसी भी आरोपित के खिलाफ मुकदमा चलाने से पहले हर जांच एजेंसी को राज्य सरकार की स्वीकृति लेना पड़ती है. मगर इस प्रकरण में एसओजी द्वारा अदालत के सामने राज्य सरकार की स्वीकृति को प्रमाणित नहीं किया गया. इसी प्रकार, दूसरे आरोप यानी विधि विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम की धारा 10, 13, 17 18 और 19 के तहत किसी भी आरोपित के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए केंद्र सरकार की स्वीकृति जरूरी होती है. मगर यहां भी एसओजी ने केंद्र सरकार की स्वीकृति नहीं ली.

जांच एजेंसी ने आरोपितों के खिलाफ 43 गवाह और कुछ दस्तावेज तैयार किए. उसे गवाहों के बयानों और साक्ष्यों के आधार पर कड़ी से कड़ी जोड़ते हुए चार्जशीट में लिखी घटनाओं को सिद्ध करना था. मगर अदालत के सामने 38 गवाहों ने पुलिस की ‘कहानी’ को झूठा बताया. इन गवाहों ने अपनी गवाही में साफ कहा कि उन्होंने आरोपितों को सिमी के साथ संबंध रखने या किसी भी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में भाग लेते हुए कभी नहीं देखा और सुना. इस प्रकरण के एक खास गवाह गिरिराज ने तहलका को बताया कि पुलिस ने उसे झूठी गवाही देने के लिए धमकाया था. गिरिराज के शब्दों में, ‘पुलिस चाहती थी कि मैं अदालत में यह झूठ बोलूं कि मैंने नान्ता रोड़ मस्जिद (कोटा) में पुताई करते समय वहां 20-25 लोगों की बैठक देखी और सिमी की बातें सुनीं.’

जांच एजेंसी ने आरोपितों के खिलाफ चार सीडी पेश की थीं. मगर उनमें सिमी के कार्यों को प्रचारित करने या संगठन की सदस्यता से संबंधित कोई भी तथ्य उजागर नहीं हुआ. जांच अधिकारी नवलकिशोर पुरोहित ने बहस के दौरान माना कि उन्होंने किसी भी सीडी को चलाकर नहीं देखा. इसलिए उनमें क्या चीजें रिकाॅर्ड हैं उसे नहीं पता. इसी तरह, पुरोहित ने कुछ पत्रिकाएं भी बरामद की थीं. ये सभी उर्दू में थीं. अदालत में पुरोहित ने माना कि उसे उर्दू नहीं आती और इन पत्रिकाओं में क्या छपा है यह जानने के लिए उसने हिंदी या अंग्रेजी में अनुवाद भी नहीं करवाया. बाद में अदालत ने पाया कि इन पत्रिकाओं में आपत्तिजनक कुछ भी नहीं है. इस प्रकरण में चार्जशीटकर्ता महेंद्र सिंह चौधरी ने अदालत को बताया कि उसने जांच के दौरान आरोपितों से की गई पूछताछ मिले तथ्यों के आधार पर चार्जशीट दाखिल की थी. बहस के दौरान चौधरी ने यह स्वीकार किया कि आरोपितों ने जांच के दौरान जो जानकारी दी थी असल में वह उसे नहीं बल्कि उसके अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों को दी थी. चौधरी की इस स्वीकारोक्ति के बाद अदालत ने माना कि यह चार्जशीट चार्जशीटकर्ता की निजी जानकारी के आधार पर नहीं बल्कि दूसरों की बताई गई जानकारी के आधार पर तैयार की गई है और जिसका साक्ष्य की दृष्टि से कोई महत्व नहीं. अपनी कार्यवाही में अदालत ने यह भी पाया कि सभी आरोपितों की पृष्ठभूमि साफ-सुथरी है और किसी का भी किसी तरह का कोई आपराधिक रिकाॅर्ड नहीं है. लिहाजा अदालत ने आरोपितों पर लगाए गए सभी आरोपों को खारिज करते हुए उनके पक्ष में फैसला सुनाया.

अदालत के इस फैसले से राजस्थान के मुसलिम समुदाय में खुशी तो है लेकिन खुशी के साथ पुलिस की कार्यप्रणाली को लेकर नाराजगी भी है. जमाते इस्लामी के केंद्रीय सचिव सलीम इंजीनियर कहते हैं, ‘आतंकवाद के नाम पर पकड़ने से पहले पुलिस के पास कोई तो पुख्ता सबूत होना चाहिए. पुलिस की एक गलत गिरफ्तारी न केवल एक व्यक्ति बल्कि पूरे समुदाय का मनोबल तोड़ देती है.’ समुदाय का एक तबका इस प्रकरण को पुलिस के पूर्वाग्रहों से जोड़कर देखता है. राजस्थान लोक सेवा प्रशासन के पूर्व प्रोफेसर एम हसन कहते हैं, ‘पुलिस और अल्पसंख्यकों के बीच गलतफहमियों का रिश्ता बन गया है और यही वजह है कि पुलिस अक्सर सही स्थिति का अंदाजा नहीं लगा पाती और गलत लोगों को पकड़ लेती है.’ वहीं समुदाय के कुछ प्रतिनिधियों का यह आरोप है कि इस तरह की घटनाओं में जब पुलिस को असली गुनहगार नहीं मिलते तो वह अपना गला बचाने के लिए समाज के सबसे कमजोर तबके को निशाना बनाती है. इस घटना में भी मुसलमानों के भीतर सबसे कमजोर लोगों को ही निशाना बनाया गया. इनके पास अपने बचाव के लिए न तो कानून की ठीक-ठाक समझ थी और न ही किसी तरह की कोई राजनीतिक या आर्थिक हैसियत.’ जांच एजेंसी पर उठ रहे कई अहम सवालों को लेकर जब तहलका ने राज्य के गृह सचिव पीके देव से बात की तो उन्होंने ‘नो कमेंट’ कहकर पल्ला झाड़ लिया. अब सवाल यह है कि अगर राज्य के गृह विभाग का सबसे आला अधिकारी इन बड़े मुद्दों पर ‘नो कमेंट’ करेगा तो पूरी व्यवस्था के भीतर ‘कमेंट’ कौन करेगा. इसके अलावा यह सवाल भी अपनी जगह कायम है कि जब ये लोग बेगुनाह हैं तो असली गुनहगार कहां हैं. और जांच एजेंसी क्यों अभी तक असली आतंकवादियों तक पहुंचने में नाकाम रही है.

इस मामले में आरोपित लोग आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि से आते हैं जो अदालती खर्चा वहन करने में समर्थ नहीं हैं

अदालत के इस फैसले ने भाजपा और कांग्रेस सरकारों की एक मिलीजुली चूक पर से भी पर्दा हटा दिया है. इन सभी आरोपितों की चार्जशीट भाजपा सरकार के जमाने में दाखिल हुई थी. मगर इस संबंध में तहलका ने जब तत्कालीन गृहमंत्री गुलाब सिंह कटारिया से बात की तो उन्होंने मामले से पल्ला झाड़ते हुए कहा, ‘तब तो विधानसभा चुनाव सिर पर था और प्रचार के सिलसिले में हम सभी अपने-अपने क्षेत्रों में व्यस्त थे. कुछ महीनों बाद हमारी सरकार भी चली गई और उसके बाद जो किया कांग्रेस ने किया.’ वहीं कांगेस सरकार द्वारा मामले को लंबा खींचने के सवाल पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बहुत नपा-तुला जवाब दिया, ‘प्रकरण का अध्ययन किया जाएगा. जरूरी लगा तो पुलिस की भूमिका की जांच भी की जाएगी.’
यह सच है कि बेगुनाहों की आजादी उनके परिवारवालों के लिए सबसे बड़ी राहत है. मगर थोड़ी देर के लिए जेल की शारारिक और मानसिक प्रताड़ना को भुला भी दिया जाए तो दोबारा नये सिरे से गृहस्थी और धंधा जमाना कोई आसान काम नहीं होता (देखें बॉक्स). राज्य में कुछ मुसलिम संगठनों ने सरकार से बेगुनाहों के कीमती सालों में हुए नुकसान का मुआवजा मांगा है. राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन माहिर आजाद कहते हैं, ‘राजस्थान सरकार से हर बेगुनाह को तीन से पांच लाख रुपये तक का मुआवजा दिलाने की बात चल रही है.’

उधर, समुदाय के कुछ प्रतिनिधियों का कहना है कि मुआवजे का मामला तो बहुत बाद का है. पहला सवाल झूठा मामला बनाने वाले अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का है. राजस्थान हाई कोर्ट के वकील पेकर फारूख के कहते हैं, ‘यह कोई पहला मामला नहीं है जब आतंकवाद के घिनौने आरोप में बेगुनाहों को जेल जाना पड़ा है. जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ दंड का प्रावधान भी रखा जाना चाहिए.’  कुछ जानकारों की दलील है कि अगर जांच एजेंसी किसी व्यक्ति को आतंकवाद के मामले में फंसाती है तो इस साजिश को अपराध की श्रेणी में इसलिए रखा जाना चाहिए कि आतंकवाद अपने आप में इतना खतरनाक शब्द है कि जो भी इसकी गिरफ्त में आता है उससे बड़े से बड़ा अधिकारी या नेता भी जांच का हवाला देकर बचना चाहता है. आरोपित को आसानी से जमानत नहीं मिलती और समाज के हर वर्ग और क्षेत्र से भी उसे दरकिनार कर दिया जाता है.

इस प्रकरण में भी जब जांच एजेंसी ने आरोपितों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की तो राजस्थान बार कांउसिल ने ही यह एलान कर दिया था कि कोई वकील आरोपितों के पक्ष में वकालत नहीं करेगा. आखिरकार, कोटा के वकील जमील अहमद ने सामूहिक तौर पर सभी आरोपितों के पक्ष में वकालत करने का फैसला लिया. अहमद कहते हैं, ‘किसी भी आरोपित को गुनहगार ठहराना अदालत का काम है.’ और इस प्रकरण में अदालत ने ही जता दिया कि इन आरोपितों को अगर आतंकवादी मानकर कभी अदालत में आने का मौका ही नहीं दिया जाता तो यह न केवल संवैधानिक बल्कि मानवाधिकारों की दृष्टि से भी एक बहुत बड़ा गुनाह होता.

'बिहार में भूमि का मसला सिर्फ कानून से हल नहीं होगा'

बाबूराव चंदावार मूल रूप से महाराष्ट्र के रहनेवाले हैं. वर्तमान में गांधीवादी-समाजवादी धारा के बुजुर्ग कार्यकर्ता हैं. लगभग पांच दशक पहले जेपी के बुलावे पर बिहार आए थे, तब से बिहार को ही कार्यक्षेत्र बनाकर कार्य कर रहे हैं. भूमि के सवाल पर पिछले कई वर्षों से सक्रिय हैं. जेपी के अलावा कर्पूरी ठाकुर के भी करीबी सलाहकार रह चुके चंदावार पिछले साल भूदान के पेंच को सुलझाने के लिए अनशन-उपवास पर रहे थे. पिछले दिनों निराला की उनसे हुई बातचीत के संपादित अंश

पिछले साल आपने भूमि सुधार के मसले पर अनशन-उपवास किया था.अब पूरे प्रदेश की यात्रा पर निकलनेवाले हैं. मसला और मकसद क्या है?

मसला भूमि सुधार का है और मकसद है इसके तमाम आयामों पर लोगों को जागरूक करने का. पर्चाधारियों को कब्जा मिले, पर्चावाले को सरकारी जमीन पर कब्जा मिले. भूदान का मसला हल हो. संयुक्त बिहार में भूदान के अंतर्गत लगभग 21 लाख एकड़ जमीन मिली थी. कागजी तौर पर 18-20 लाख एकड़ का बंटवारा भी हो चुका है. लेकिन सच यही है कि इसमें आधे पर यानि लगभग नौ लाख एकड़ पर कब्जा ही नहीं मिल सका है. हम तो लोगों के बीच बंटाईदारी पर भी बात करना चाहते हैं लेकिन सबलोग बंटाईदारी मसले को लेकर हिचक रहे हैं.

सबलोग का मतलब? कौन लोग हिचक रहे हैं और क्यों?

एकाध अपवाद को छोड़ दें तो अधिकांश राजनीतिक दलों को तो साहस ही नहीं है, और मैं उनकी बात भी नहीं कर रहा हूं. हमारे अपने कुछ समाजवादी, गांधीवादी साथी भी डर रहे हैं कि बंटाईदारी की बात करने पर बीच रास्ते में ही हंगामा न हो जाए.

सरकार की ओर से गठित बंदोपाध्याय कमिटी में भी तो बंटाईदारी को लेकर बात की गयी थी…आपके अनुसार पेंच कहां फंसा?

अन्य नेताओं की तरह नीतीश कुमार से भी उम्मीद नहीं है कि वे इस दिशा में कुछ कर पाएंगे. और फिर बात अकेले किसी नीतीश कुमार की है भी नहीं. शासन का जो मौजूदा ढांचा है, वह इसे होने भी नहीं देगा. सरकार-शासन की सीमा राजधानी से चलकर जिला स्तर तक जाते-जाते खत्म हो जाती है. भूमि का सवाल जिले के बाद से शुरू ही होता है. सामंती व्यवस्था का रूप जिले के बाद शुरू होता है. गांव की सामंती शक्तियों को काबू में रखने के लिए सरकार कुछ करती नहीं दिखती, वरना समस्या खत्म हो गई होती.

पिछले साल के आपके अनशन-उपवास का कोई नतीजा नहीं निकला?

हमने 15 हजार अर्जियां नीतीश कुमार के पास भिजवाई थी. नीतीश ने गंभीरता भी दिखाई थी लेकिन अब पूछने पर डीएम कहते हैं कि हो रहा है, सचिव कहते हैं हो जाएगा. मुझे पता है ये लोग नहीं करेंगे. अर्जियां लेने के बाद नीतीश कभी इसकी तस्दीक करते तो अधिकारी हरकत में भी आते!.

आपकी यात्रा से क्या होगा जब सरकार ही नहीं चाहती!

हमारा मकसद लोकशक्ति जगाने का है. लोकशक्ति जागेगी तो सरकार मजबूर हो जाएगी. इतने वर्षों का अनुभव भी यही कहता है कि भूमि का मसला सिर्फ कानून से हल होनेवाला नहीं है.

आपके अभियान को तो मध्यवर्ग का साथ नहीं मिलेगा, मध्यवर्ग के बगैर मीडिया भी शायद ही साथ दे!

हम लोगों को तैयार करेंगे और उन्हें बताएंगे कि पूछिए भूदान कमिटी से कि वहां जिन लोगों को बैठाया गया है, इसलिए बैठाया गया है कि आप समस्या का समाधान करें न कि नए समस्याएं गिनवाएं

फिर तो लोकशक्ति हिंसा का रास्ता भी अख्तियार कर सकती है!

सवाल ही नहीं. जिस दिन हिंसा की जरा भी गुंजाइश बनेगी, हम वहीं पर अभियान रोक देंगे. हमारा विश्वास सत्याग्रह व अहिंसक आंदोलन में है. यही एक बात तो वामपंथियों के साथ तालमेल करने में पेंच की तरह फंस रही है. इस अभियान में वामदलों के साथ तालमेल की गुंजाइश बनती दिखती है लेकिन हमारे सोचने और उनके सोचने में बस थोड़ा फर्क है. वे मानते हैं कि अगर जरूरत हो तो हिंसा भी जरूरी है, हम हर हाल में हिंसा के सख्त खिलाफ हैं.

जिन ग्रामीण इलाकों में लोकशक्ति जगाने जाएंगे, वहां माओवादियों का भी प्रभाव है. वे भी अवसर की तलाश करेंगे.

माओवादियो से तो मैं कहता हूं कि वे अपने को थोड़ा सुधारें वरना एक बड़े हिस्से में उनकी छवि भी अपराधियों जैसी बनती जा रही है, जो ठीक नहीं. उनके अवसर की गुंजाइश नहीं रहेगी.

तो क्या आपका भी लोकशक्ति जागरण कुछ-कुछ अन्ना मॉडल पर होगा?

अन्ना का आंदोलन तो आधारहीन है, उसे कोई क्यों मॉडल बनाएगा. अंग्रेजों की तर्ज पर वे सिविल सोसाइटी वगैरह की बात कर रहे हैं.अंग्रेज भी अपने जमाने में सिविल लाइंस वगैरह बनाते थे. ये सिविल सोसाइटी वाले कौन होते हैं, जो गांवों को चूसनेवाले होते हैं.

अन्ना को व्यक्तिगत तौर पर भी नापसंद करते हैं क्या?

नहीं नहीं, मैं तो यह कह रहा हूं कि सीधे-सादे अन्ना को राजनीतिक पेंच और बड़े-बड़े खेल की समझ ही नहीं है. उन्हें यह अहसास होना चाहिए कि उनका आंदोलन मीडिया का आंदोलन है, जिसमें एनजीओ वाले लोग उन्हें ढाल बनाकर अपना मतलब साध रहे हैं. अन्ना नहीं समझ रहे हैं कि वे अनजाने में अमेरिकापरस्तों के हाथों खेल रहे हैं. चीन और अमेरिका के बीच टकराहट की स्थिति है. अमेरिका हर हाल में भारत जैसे देशों में हर तरीके से अपनी स्थिति मजबूत करना चाह रहा है. एनजीओ वाले को अमेरिका, यूरोप से ही ज्यादा फंड मिलता है. अन्ना आंदोलन के बहाने उनका तंत्र मजबूत होगा.

1990 के बाद की पीढ़ी तो अलग ही माहौल में पैदा हुई है. बाजार की ताकत गांव और भूमि सुधार जैसे मसले में कभी युवा ऊर्जा को लगने देगी?

मुझ जैसे लोगों में उम्मीद जग रही है कि वह समय आ रहा है जब सब साफ हो जाएगा. पश्चिम वाले ढह रहे हैं. अपने मॉडल पर पछता रहे हैं. उनकी अर्थव्यवस्था चरमरा रही है. उस उधार के मॉडल पर भारत कितने दिनों तक चल सकता है. गांव और खेती में ही लौटना होगा. लघु उद्योग, कुटीर उद्योग ही रास्ता होगा. देखते रहिए, शीघ्र ही शहरों में कैसा कोहराम मचेगा. शहर में आबादी बढ़ रही है. गांव के सारे लोग, सारे संसाधन शहर में आ रहे हैं. गांव-जंगल में चलनेवाला माओवादियों का वर्ग संघर्ष शहरों में भी दिखेगा. फिर उकताये हुए लोग सुख-शांति, सुकून तथा रोजगार के लिए गांव ही भागेंगे. शहरों में तबाही तय है.

फिर पंचायत चुनाव की दस्तक

एक साल बाद फिर एक चुनाव की बारी. विधायकों या सांसदों का नहीं है इसलिए शोरगुल भी नहीं. लेकिन अहम है. अहम इस मायने में कि यह गांवों का चुनाव है. उन गांवों का, जहां विकास की किरणें पहुंचाने में झारखंड सबसे ज्यादा पिछडा रहा है. राज्य निर्माण के एक दशक से भी अधिक समय गुजर जाने के बाद भी. इस मायने में भी अहम है, क्योंकि राज्य के मुखिया अर्जुन मुंडा बात-बेबात अपनी उपलब्धियों की फेहरिश्त में राज्य में पहली बार और कुल मिलाकर 32 सालों बाद पंचायत चुनाव करा लेने की बात सभी जगह कहते रहते हैं.

झारखंड में पंचायत के रिक्त पड़े 2026 सीटों के लिए पंचायत उपचुनाव शीघ्र ही होंगे. बकौल राज्य निर्वाचन आयुक्त एसडी शर्मा, जनवरी के आखिरी सप्ताह से लेकर मार्च तक कभी भी यह चुनाव हो सकता है. इसके लिए सभी जिले में तैयारियां शुरू हो चुकी हैं.

जहां चुनाव होने हैं, वहां के इलाके में एक बार फिर आकांक्षाएं हिलोर मार रही हैं. लोगों का उत्साह परवान पर है. लेकिन इस चुनाव के बहाने एक बडा सवाल कि  झारखंड बनने के ग्यारह साल बाद पहली बार पिछले साल जो पंचायत चुनाव हुए, उनसे राज्य ने क्या खोया, क्या पाया!

2010 में हुए पंचायत चुनाव के माध्यम से राज्य के गांवों-कस्बों में पहली दफा अपनी सरकार बनी. कुल 51195 पद पर नए नेता चयनित हुए. 29414 पद पर महिलाओं ने अपनी जीत हासिल की थी. 50 प्रतिशत का आरक्षण था, महिलाओं ने 58 प्रतिशत सीटों पर कब्जा जमाया. इसे झारखंड निर्माण के बाद से सबसे बडी सामाजिक-राजनीतिक क्रांति के रूप में देखा और आंका गया.

लेकिन अब एक साल बाद पेंच-दर-पेंच सामने आते जा रहे हैं. पहला पेंच यह कि अब तक कायदे से पंचायतों को अधिकार ही नहीं दिये जा सके हैं. कई महिला प्रतिनिधियों से बात होने पर वे कहती हैं कि न ही सरकारी कर्मचारी उनकी बात सुनते हैं और न हीं उनकी बातों को तरजीह दी जाती है. झारखंड में पंचायती सरकार के बाद यह भी माना गया था कि पंचायत चुनाव नहीं होने की वजह से झारखंड को प्रत्येक वर्ष केंद्र से मिलनेवाली पंचायतों की राशि से वंचित रहना पड़ रहा है. वह तो सबसे पहले रूकेगा. यह राशि कोई छोटी-मोटी राशि भी नहीं. करीबन 500 करोड़ है. लेकिन अब सच का दूसरा पहलू यह है कि केंद्र से 345 करोड़ बैकवर्ड रीजन ग्रांट के और 200 करोड़ करीब 13वें वित्त आयोग की राशि मिलनी थी, लेकिन राज्य सरकार द्वारा यूटिलाइजेशन न भेजने के कारण इस वर्ष वह राशि आई ही नहीं है.

उधर, विभाग के पूर्व निदेशक शुभेंद्र झा बताते हैं कि यह राशि आई थी परंतु पेंच इस मामले में फंसा रहा कि योजनाएं जिला प्लानिंग कमिटी बनाएगी या जिला परिषद के लोग. झा कहते हैं, ‘इसी उधेड़बुन में राशियों का आवंटन पंचायतों को नहीं किया जा सका है. लेकिन अब ये चुनाव हो गए हैं तो राशि आवंटित होनी चाहिए. मैं जब कार्यकाल में था तो केंद्र को यह लिखा गया था कि इसमें विभाग की कोई गलती नहीं है. चुनाव न होने के कारण देर हुई थी. मुझे लगता है केंद्र इस बात को समझेगा.’

यहां तक तो ठीक है लेकिन वर्तमान में पंचायती राज के उपनिदेशक मोतीलाल राम, मुमताज अहमद और सहायक उप निदेशक आर पी गुप्ता किसी को इस बात की जानकारी ही नहीं है कि केंद्र से कितने पैसे राज्य सरकार को बीआरजीएफ यानि बैकवर्ड रिजन ग्रांट फंड या 13वें वित्त आयोग से मिले हैं. यह भी कि पंचायतों के लिए सरकार ने कितनी राशि की मांग की है और कितनी राशि केंद्र से आई है. पंचायतों को अब तक कितनी राशि दी गई है. इस बारे में भी वे अनभिज्ञ हैं. ग्रामीण विकास विभाग के विशेष सचिव भी यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि पंचायत की बात पंचायती राज विभाग ही बताएगा. उसका कोई सबंध ग्रामीण विकास विभाग से नहीं है. इससे साफ होता है कि पंचायत की सरकारें गेंद की तरह हो गई हैं, कभी इस पाले तो कभी उस पाले में.

अर्थशास्त्री रमेश शरण कहते हैं कि पंचायत चुनाव न होने के कारण हर साल पंचायत मद का 500 करोड़ का नुकसान हो रहा है. वे बताते हैं, ‘हालांकि पंचायत चुनाव से तुरंत बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती. खास बात यह भी कि भ्रष्ट्राचार का विकेंद्रीकरण न हो तो गांवों की स्थिति बेहतर हो सकती है. सरकारें केरल और राजस्थान के तर्ज पर सत्ता का विकेंद्रीकरण करना चाहती हैं लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि वहां और यहां भौगोलिक स्थिति, संस्कृति आदि में अंतर है और वह सब यहां असफल हो जाएगा.’ प्रो शरण आगे यह भी जोड़ते हैं कि यहां पंचायतें सिर्फ मुखिया केंद्रित हो गई हैं. ग्राम सभा व जिला परिषद की भूमिका नगण्य हो गई है. यदि ग्राम स्वराज की बात करनी है तो ग्राम सभाओं और जिला परिषद को भी मानदेय देना चाहिए.

पंचायती सरकार पिछले एक साल के सफर में पेंच-दर-पेंच में फंसती रही है. आंतरिक व वाह्‌य, दोनों ही स्तर पर. आदिवासी महिला प्रतिनिधियों के साथ तो उतनी समस्या नहीं, क्योंकि वे मातृसत्तात्मक समाज सेआती हैं इसलिए महिलाओं को अपने हिसाब से निर्णय लेने की बहुत हद तक आजादी होती है लेकिन जमशेदपुर व पलामू जैसे इलाके में अपनी पत्नियों के विजयी होने पर पति ही सिस्टम को ऑपरेट करते हैं. बहुत हद तक बिहार के मुखियापति आदि की तर्ज पर. दूसरे किस्म की समस्याओं की तो भरमार है.

महिला आयोग की सदस्य वासवी कहती हैं कि पंचायतों के साथ मजाक हो रहा है. हर प्रमंडल में तीनों स्तर के प्रतिनिधियों को एक साथ प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए था ताकि उनमें समन्वय हो, लेकिन सरकार अलग-अलग प्रशिक्षण देकर सिर्फ रस्मी कवायद कर कर रही है. महिलाएं भारी संख्या में हैं लेकिन उन्हें सूचनाओं से लैस करने की दिशा में कोई ठोस कोशिश नहीं की गई. उदाहरण के लिए वन अधिकार अधिनियम 2006 का क्रियान्वयन ग्राम सभा द्वारा होना है पर जब उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं है तो वे क्या करेंगी. पीढियों से जंगल में रह रहे आदिवासियों को अधिकार पाने के लिए दावा प्रपत्र भरना होता है. लेकिन ग्राम सभा के लोगों को भी नहीं पता कि यह कैसे भरा जाएगा. इसी वजह से राज्य में सिर्फ 34000 दावा प्रपत्र भरे गए और उनको लगा कर सिर्फ 15000 को ही जमीन आवंटित की गई.

हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बरला दूसरी राय रखती हैं. उनके अनुसार पंचायतों में मुखिया की भूमिका दबंग की होती जा रही है. खूंटी में जबरन लोगों की जमीन लेकर चेक डैम बनाया जा रहा है. जिला के आयुक्त को इसका पता तक नहीं है. ऐसे में बदलाव की उम्मीद बेमानी है.

हालांकि ऐसा भी नहीं सब कुछ नकारात्मक ही है. कई मोर्चे पर उम्मीद की किरणें भी दिख रही हैं. सामाजिक कार्यकर्ता व पंचायती राज विषय पर काम करने वाले सुधीर पाल कहते हैं कि यदि अन्य राज्यों की तुलना में प्रदर्शन देखा जाए तो झारखंड कई राज्यों से बेहतर स्थिति में है. यहां आपदा प्रबंधन, कंबल बांटने, पंचायत भवन बनाने, पेयजल स्वच्छता आदि के मद में पैसे आए हैं और धीरे-धीरे उसका असर दिखेगा.

सिर्फ एक साल के आकलन पर झारखंड में पंचायती सरकार से निराशा की उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि यहां एक दशक में राज्य की राजनीति ही अभी पटरी पर नहीं आ सकी है. लेकिन झारखंड जैसे राज्य में समग्रता में बदलाव के लिए पंचायतों को हाशिए पर डाल और सिर्फ फंड की फंडेबाजी से इसके परिणाम भी नहीं देखे जा सकते. एक और चुनाव होनेवाला है, लेकिन जो चुन लिए गए हैं, उनके सक्रिय अस्तित्व को पहले स्वीकार तो किया जाए.

बुद्धि दो भगवान! : प्लेयर्स

निर्देशक अब्बास मस्तान

कलाकार अभिषेक बच्चन, बिपाशा बसु, बॉबी देओल, सोनम कपूर, नील नितिन मुकेश

शीर्षक के गहरे अर्थ निकालने की कोशिश कृपया न करें क्योंकि यह फिल्म का एक गाना है और वहां इसका कोई खास इस्तेमाल नहीं हो सका इसलिए हमने इसे यहां फिट करने की कोशिश की.
खैर, ‘प्लेयर्स’ के बारे में ऐसा कुछ नया नहीं है, जो आपको मालूम न हो. यह सोना लूटने की कहानी है जिसमें कई ट्विस्ट हैं और ‘रेस’ की तरह कई धोखे हैं. इस तरह की फिल्मों की अब्बास-मस्तान की अपनी शैली है जिसमें वे हर बार इमोशनल मेलोड्रामा नहीं डालते, जो इस बार भर दिया है. उसका सारा जिम्मा विनोद खन्ना के कन्धों पर डाल दिया गया है जिन्होंने इतनी ओवरएक्टिंग की है कि जब वे फिल्म में मरते हैं तो हैप्पी-हैप्पी लगता है. ऐसे दृश्यों के लिए डायलॉग भी इतने नाटकीय लिखे गए हैं कि कुछ देर तो आप फिल्म की गंभीर बातों को भी मजाक में लेते रहते हैं. और मजाक तो ऐसा है कि उस पर माथा पीटना ही आपकी नियति है.

ऐसी फिल्मों में तर्क से ज्यादा जोर त्वचा दिखाने पर दिया जाता है और बिपाशा बसु ने इसमें काफी सराहनीय योगदान दिया है. इसके लिए उन्हें लंबे समय तक याद रखा जाएगा. सोनम कपूर को ज्यादा समय उसी जबरदस्ती के मेलोड्रामा का हिस्सा बनना पड़ा है और आखिर में उनका दिल रखने के लिए किसी पुरुष को रिझाने वाला कम कपड़ों का एक गाना उनके हिस्से भी आया है. ऐसी फिल्में इस तरह की समानता और न्याय का ध्यान कहानी से ज्यादा रखती हैं कि सब सितारों को अपने नाम के अनुसार फुटेज मिले. इस बात का भी खास ध्यान कि फिल्म में सितारे या उनके बेटे बेटियां ही हों, एक्टर नहीं. जॉनी लीवर भी जबरन आते हैं और सिर नोचने की हद तक पकाते हैं. जॉनी लीवर और अब्बास-मस्तान का हास्यबोध शायद एक जैसा ही है. ओमी वैद्य एक पंजाबी युवक बने हैं जो किसी अज्ञात कारण से अपने ‘चतुर’ वाले लहजे में हिन्दी बोलता है, बीच बीच में ‘ओ तेरी’ से अपने पंजाबी होने की रस्म निभाता हुआ. रेलगाड़ी की लूट का लंबा दृश्य है, लंबे हवाई शॉट और गाड़ियों की रेस के और टूटने के वीडियोगेम जैसे लंबे दृश्य भी और आपका पैसा इस तरह से वसूल होता हो तो कुछ हो ही जाएगा. फिल्म अधिकांश समय आपकी परवाह किए बिना चलती है, और अपनी भी. आखिर तक आते-आते लगता है कि अभिषेक बच्चन ही फिल्म को गंभीरता से ले रहे हैं और बाकी सब नौकरी जैसा कुछ कर रहे हैं.लेकिन कुछ होता है कि फिल्म के अंत तक आते आते आप उसी के स्तर पर आ जाते हैं और हीरो के पक्ष के सारे हीरो-हीरोइन-साइडहीरो आदि विलेन को पुराने फिल्मी अंदाज में मारते हैं तो अच्छा लगता है. आप चाहते हैं कि एक विकल्प हो, जिसमें आप भी स्क्रीन के अन्दर घुस जाएं और उसे मारें. मौका मिले तो उन्हीं में से किसी की रिवॉल्वर निकालकर एकाध किरदार को भी टपका दें, जिससे सीक्वल बनने की संभावना कुछ तो कम हो.

गौरव सोलंकी