'बिहार में भूमि का मसला सिर्फ कानून से हल नहीं होगा'

बाबूराव चंदावार मूल रूप से महाराष्ट्र के रहनेवाले हैं. वर्तमान में गांधीवादी-समाजवादी धारा के बुजुर्ग कार्यकर्ता हैं. लगभग पांच दशक पहले जेपी के बुलावे पर बिहार आए थे, तब से बिहार को ही कार्यक्षेत्र बनाकर कार्य कर रहे हैं. भूमि के सवाल पर पिछले कई वर्षों से सक्रिय हैं. जेपी के अलावा कर्पूरी ठाकुर के भी करीबी सलाहकार रह चुके चंदावार पिछले साल भूदान के पेंच को सुलझाने के लिए अनशन-उपवास पर रहे थे. पिछले दिनों निराला की उनसे हुई बातचीत के संपादित अंश

पिछले साल आपने भूमि सुधार के मसले पर अनशन-उपवास किया था.अब पूरे प्रदेश की यात्रा पर निकलनेवाले हैं. मसला और मकसद क्या है?

मसला भूमि सुधार का है और मकसद है इसके तमाम आयामों पर लोगों को जागरूक करने का. पर्चाधारियों को कब्जा मिले, पर्चावाले को सरकारी जमीन पर कब्जा मिले. भूदान का मसला हल हो. संयुक्त बिहार में भूदान के अंतर्गत लगभग 21 लाख एकड़ जमीन मिली थी. कागजी तौर पर 18-20 लाख एकड़ का बंटवारा भी हो चुका है. लेकिन सच यही है कि इसमें आधे पर यानि लगभग नौ लाख एकड़ पर कब्जा ही नहीं मिल सका है. हम तो लोगों के बीच बंटाईदारी पर भी बात करना चाहते हैं लेकिन सबलोग बंटाईदारी मसले को लेकर हिचक रहे हैं.

सबलोग का मतलब? कौन लोग हिचक रहे हैं और क्यों?

एकाध अपवाद को छोड़ दें तो अधिकांश राजनीतिक दलों को तो साहस ही नहीं है, और मैं उनकी बात भी नहीं कर रहा हूं. हमारे अपने कुछ समाजवादी, गांधीवादी साथी भी डर रहे हैं कि बंटाईदारी की बात करने पर बीच रास्ते में ही हंगामा न हो जाए.

सरकार की ओर से गठित बंदोपाध्याय कमिटी में भी तो बंटाईदारी को लेकर बात की गयी थी…आपके अनुसार पेंच कहां फंसा?

अन्य नेताओं की तरह नीतीश कुमार से भी उम्मीद नहीं है कि वे इस दिशा में कुछ कर पाएंगे. और फिर बात अकेले किसी नीतीश कुमार की है भी नहीं. शासन का जो मौजूदा ढांचा है, वह इसे होने भी नहीं देगा. सरकार-शासन की सीमा राजधानी से चलकर जिला स्तर तक जाते-जाते खत्म हो जाती है. भूमि का सवाल जिले के बाद से शुरू ही होता है. सामंती व्यवस्था का रूप जिले के बाद शुरू होता है. गांव की सामंती शक्तियों को काबू में रखने के लिए सरकार कुछ करती नहीं दिखती, वरना समस्या खत्म हो गई होती.

पिछले साल के आपके अनशन-उपवास का कोई नतीजा नहीं निकला?

हमने 15 हजार अर्जियां नीतीश कुमार के पास भिजवाई थी. नीतीश ने गंभीरता भी दिखाई थी लेकिन अब पूछने पर डीएम कहते हैं कि हो रहा है, सचिव कहते हैं हो जाएगा. मुझे पता है ये लोग नहीं करेंगे. अर्जियां लेने के बाद नीतीश कभी इसकी तस्दीक करते तो अधिकारी हरकत में भी आते!.

आपकी यात्रा से क्या होगा जब सरकार ही नहीं चाहती!

हमारा मकसद लोकशक्ति जगाने का है. लोकशक्ति जागेगी तो सरकार मजबूर हो जाएगी. इतने वर्षों का अनुभव भी यही कहता है कि भूमि का मसला सिर्फ कानून से हल होनेवाला नहीं है.

आपके अभियान को तो मध्यवर्ग का साथ नहीं मिलेगा, मध्यवर्ग के बगैर मीडिया भी शायद ही साथ दे!

हम लोगों को तैयार करेंगे और उन्हें बताएंगे कि पूछिए भूदान कमिटी से कि वहां जिन लोगों को बैठाया गया है, इसलिए बैठाया गया है कि आप समस्या का समाधान करें न कि नए समस्याएं गिनवाएं

फिर तो लोकशक्ति हिंसा का रास्ता भी अख्तियार कर सकती है!

सवाल ही नहीं. जिस दिन हिंसा की जरा भी गुंजाइश बनेगी, हम वहीं पर अभियान रोक देंगे. हमारा विश्वास सत्याग्रह व अहिंसक आंदोलन में है. यही एक बात तो वामपंथियों के साथ तालमेल करने में पेंच की तरह फंस रही है. इस अभियान में वामदलों के साथ तालमेल की गुंजाइश बनती दिखती है लेकिन हमारे सोचने और उनके सोचने में बस थोड़ा फर्क है. वे मानते हैं कि अगर जरूरत हो तो हिंसा भी जरूरी है, हम हर हाल में हिंसा के सख्त खिलाफ हैं.

जिन ग्रामीण इलाकों में लोकशक्ति जगाने जाएंगे, वहां माओवादियों का भी प्रभाव है. वे भी अवसर की तलाश करेंगे.

माओवादियो से तो मैं कहता हूं कि वे अपने को थोड़ा सुधारें वरना एक बड़े हिस्से में उनकी छवि भी अपराधियों जैसी बनती जा रही है, जो ठीक नहीं. उनके अवसर की गुंजाइश नहीं रहेगी.

तो क्या आपका भी लोकशक्ति जागरण कुछ-कुछ अन्ना मॉडल पर होगा?

अन्ना का आंदोलन तो आधारहीन है, उसे कोई क्यों मॉडल बनाएगा. अंग्रेजों की तर्ज पर वे सिविल सोसाइटी वगैरह की बात कर रहे हैं.अंग्रेज भी अपने जमाने में सिविल लाइंस वगैरह बनाते थे. ये सिविल सोसाइटी वाले कौन होते हैं, जो गांवों को चूसनेवाले होते हैं.

अन्ना को व्यक्तिगत तौर पर भी नापसंद करते हैं क्या?

नहीं नहीं, मैं तो यह कह रहा हूं कि सीधे-सादे अन्ना को राजनीतिक पेंच और बड़े-बड़े खेल की समझ ही नहीं है. उन्हें यह अहसास होना चाहिए कि उनका आंदोलन मीडिया का आंदोलन है, जिसमें एनजीओ वाले लोग उन्हें ढाल बनाकर अपना मतलब साध रहे हैं. अन्ना नहीं समझ रहे हैं कि वे अनजाने में अमेरिकापरस्तों के हाथों खेल रहे हैं. चीन और अमेरिका के बीच टकराहट की स्थिति है. अमेरिका हर हाल में भारत जैसे देशों में हर तरीके से अपनी स्थिति मजबूत करना चाह रहा है. एनजीओ वाले को अमेरिका, यूरोप से ही ज्यादा फंड मिलता है. अन्ना आंदोलन के बहाने उनका तंत्र मजबूत होगा.

1990 के बाद की पीढ़ी तो अलग ही माहौल में पैदा हुई है. बाजार की ताकत गांव और भूमि सुधार जैसे मसले में कभी युवा ऊर्जा को लगने देगी?

मुझ जैसे लोगों में उम्मीद जग रही है कि वह समय आ रहा है जब सब साफ हो जाएगा. पश्चिम वाले ढह रहे हैं. अपने मॉडल पर पछता रहे हैं. उनकी अर्थव्यवस्था चरमरा रही है. उस उधार के मॉडल पर भारत कितने दिनों तक चल सकता है. गांव और खेती में ही लौटना होगा. लघु उद्योग, कुटीर उद्योग ही रास्ता होगा. देखते रहिए, शीघ्र ही शहरों में कैसा कोहराम मचेगा. शहर में आबादी बढ़ रही है. गांव के सारे लोग, सारे संसाधन शहर में आ रहे हैं. गांव-जंगल में चलनेवाला माओवादियों का वर्ग संघर्ष शहरों में भी दिखेगा. फिर उकताये हुए लोग सुख-शांति, सुकून तथा रोजगार के लिए गांव ही भागेंगे. शहरों में तबाही तय है.