‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ उर्फ चैनलों का चुनावी जनतंत्र

उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है. ये चुनाव राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनसे न सिर्फ इन राज्यों की बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी तय होनी है. यही कारण है कि इन चुनावों को 2014 के आम चुनावों से पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है. ये चुनाव अन्ना हजारे के उस भ्रष्टाचार विरोधी और जन लोकपाल आंदोलन की छाया में हो रहे हैं जिसने देश को झकझोर कर रख दिया. स्वाभाविक तौर पर इन चुनावों की ओर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं. ऐसे में, न्यूज चैनल कहां पीछे रहने वाले हैं? जहां दर्शक, वहां चैनल. चैनलों पर लंबे अरसे बाद क्रिकेट, सिनेमा, क्राइम और सेलेब्रिटी से इतर राजनीतिक खबरों की वापसी हुई है. नियमित और स्पेशल बुलेटिनों के अलावा प्राइम टाइम बहसों में राजनीतिक मुद्दों खासकर चुनावी घमासान को अच्छी-खासी कवरेज मिलने लगी है.

चैनलों पर होने वाली प्राइम टाइम बहसों में पार्टियों और उनके नेताओं की तू-तू, मैं-मैं के बीच असली मुद्दे गुम-से हो जाते हैं

हालांकि चुनाव पांच राज्यों में हो रहे हैं, लेकिन न्यूज चैनलों का सबसे अधिक फोकस उत्तर प्रदेश पर है. उत्तर प्रदेश चुनाव को 24×7 कवरेज देने के लिए एक दर्जन से ज्यादा प्रमुख हिंदी न्यूज चैनलों के अलावा जी न्यूज-यूपी, ईटीवी-यूपी, सहारा-यूपी, महुआ-यूपी और जनसंदेश जैसे आधा दर्जन से अधिक क्षेत्रीय न्यूज चैनल भी कमर कसकर मैदान में उतर पड़े हैं. चैनलों पर ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ जैसे दर्जनों कार्यक्रम शुरू हो गए हैं जिनमें प्रमुख शहरों से विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवारों की तू-तू, मैं-मैं से लेकर चुनावी रिपोर्टें और समीकरण समझाए जा रहे हैं. यही नहीं, राहुल गांधी जैसे स्टार प्रचारकों की चुनावी सभाओं के लाइव कवरेज दिखाए जा रहे हैं. राजनीतिक पार्टियों और उनके बड़े नेताओं की प्रेस कॉन्फ्रेंस दिल्ली और लखनऊ से लाइव हो रही है. इस तरह पार्टियों के बीच श्लील-अश्लील आरोप-प्रत्यारोपों से लेकर नेताओं के दलबदल, टिकट और उम्मीदवारी के लिए मारामारी, बागियों की धमाचौकड़ी तक सब कुछ लाइव है या आगे-पीछे चैनलों पर है.

इस तरह न्यूज चैनल खासकर क्षेत्रीय चैनल इस हाई वोल्टेज चुनाव के नए अखाड़े बन गए हैं. एक मायने में यह राजनीति और चुनावों के टीवीकरण का दौर है. चैनलों से हवा बनाने में मदद मिलती है. पार्टियों और नेताओं में न्यूज चैनलों पर अधिक से अधिक एयर टाइम जुगाड़ने की होड़ लगी हुई है. यह भी किसी से छिपा नहीं है कि इन चुनावों में पैसा पानी की तरह बह रहा है.
आश्चर्य नहीं कि मंदी की मार से दबे न्यूज चैनलों के लिए चुनाव संजीवनी की तरह हो गए हैं. जब हजारों करोड़ रुपये दांव पर लगे हों तो न्यूज चैनल भी अपनी झोली भरने में पीछे नहीं रहना चाहते हैं. चुनावी विज्ञापनों से कमाई के अलावा चैनलों खासकर क्षेत्रीय चैनलों पर दबे-छिपे ‘पेड न्यूज’ भी चल रहा है. हालांकि इसे साबित करना मुश्किल है, लेकिन अगर इन चैनलों पर चलने वाली बहुतेरी चुनावी खबरों और चुनावी सभाओं-रैलियों की लाइव कवरेज को गौर से देखिए तो उसमें एक पैटर्न और झुकाव साफ दिखता है.

लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि इस कवरेज से दर्शकों को क्या मिल रहा है? लोकतंत्र कितना समृद्ध हो रहा है? इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर इस सवाल का जवाब निराश करने वाला है. चैनलों की चुनावी कवरेज में दर्शकों उर्फ वोटरों को सूचनाएं कम और प्रचार अधिक, चुनाव की बारीकियां कम और शोर-शराबा अधिक, मुद्दों की स्पष्टता कम और भ्रम अधिक, विचार कम और पूर्वाग्रह अधिक, जमीनी हकीकत कम और राजनीतिक चंडूखाने की गप्पें अधिक छाई हुई हैं. रिपोर्टर ठोस सूचनाएं और जानकारियां कम और विचार ज्यादा उगलते दिखते हैं.

यही नहीं, चैनलों पर होने वाली प्राइम टाइम बहसों में पार्टियों और उनके नेताओं की तू-तू, मैं-मैं और हंगामे के बीच असली मुद्दे गुम-से हो जाते हैं. इससे थोड़ी देर के लिए चैनलों के परदे पर खासी उत्तेजना और सनसनी भले पैदा हो जाए लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि पार्टियों, उनके नेताओं और उम्मीदवारों की जवाबदेही नहीं तय हो पाती है. पिछले पांच साल तक सरकार और विपक्ष में उनके प्रदर्शन का हिसाब-किताब नहीं हो पाता है. वे उन असुविधाजनक और तीखे सवालों का जवाब देने से बच निकलते हैं जो चुनावों के मौके पर उनसे जरूर पूछे जाने चाहिए.

ज्यादातर मामलों में दिखता है कि चैनलों के ऐंकर और उनके रिपोर्टर बिना किसी तैयारी, शोध और गहरी छानबीन के नेताओं और उम्मीदवारों से ऐसे सवाल पूछते हैं जो पीआर पत्रकारिता की हद में आते हैं. कहना मुश्किल है कि ऐसा नासमझी में होता है या किसी समझदारी के साथ. इसके अलावा चैनलों के चुनावी जनतंत्र में व्यक्तियों (नेताओं/उम्मीदवारों) पर इतना अधिक फोकस होता है कि असली मुद्दे और सवाल नेपथ्य में चले जाते हैं.

पार्टियां और उनके नेता यही चाहते हैं. चैनल भी जाने-अनजाने उनके इस खेल में हिस्सेदार बन जाते हैं और चुनावों को तमाशा बना डालते हैं. बताने की जरूरत नहीं है कि इस तमाशे में बेवकूफ कौन बनता है.